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________________ विणयसमाहो (विनय-समाधि) ४४५ अध्ययन ६ (द्वि. उ०) : श्लोक १७ टि० १७-२२ श्लोक १७ : १७. नीची शय्या करे ( नीयं सेज्ज क ): आचार्य की शय्या (बिछौने) से अपनी शय्या नीचे स्थान में करना। १८. नोची गति करे ( गई क ) : नीची गति अर्थात् शिष्य आचार्य से आगे न चले, पीछे चले । अति समीप और अति दूर न चले। अति समीप चलने से रजें उड़ती हैं और अति दूर चलना प्रत्यनीकता तथा आशातना है। १६. नीचे खडा रहे ( ठाणं क ) : मुनि आचार्य खड़े हों उनसे नीचे स्थान में खड़ा रहे । आचार्य के आगे और पार्श्व भाग में खड़ा न हो। २०. नीचा आसन करे ( नीयं च आसणाणि ख ) : आचार्य के आसन पीठ, फलक आदि से अपना आसन नीचा करना । हरिभद्र ने इसका अर्थ-लघुतर आसन किया है। २१. नीचा होकर आचार्य के चरणों में वन्दना करे ( नीयं च पाए वंदेज्जा ग ) : ___ आचार्य आसन पर आसीन हों और शिष्य निम्न भूभाग में खड़ा हो फिर भी सीधा खड़ा-खड़ा वन्दना न करे, कुछ झुककर करे । शिर से चरण स्पर्श कर सके उतना झुककर वन्दना करे । २२. नीचा होकर अञ्जलि करे-हाथ जोड़े ( नीयं कुज्जा य अंजलि घ): वन्दना के लिए सीधा खड़ा-खड़ा हाथ न जोड़े, किन्तु कुछ झुककर वैसा करे । १-(क) अ० चू० : सेज्जा संथारओ तं णीयतरमायरियसंथारगाओ कुज्जा। (ख) जि. चू० पु० ३१४ : सेज्जा संथारओ भण्णइ, सो आयरियस्संतियाओ णीयतरी कायब्वो। (ग) हा० टी० ५० २५० : नीचां शय्या' संस्तारकलक्षणामाचार्यशय्यायाः सकाशात्कुर्यादिति योगः । २-(क) अ० चू० : न आयरियाण पुरतो गच्छेज्जा । (ख) जि० चू० पृ. ३१४-३१५ : 'णीया' नाम आयरियाण पिढओ गंतव्वं, तमवि णो अच्चासणं, न वा अतिदूरत्येण गंतव्वं, अच्चासन्ने ताव पादरेणुणा आयरियसंघट्टणदोसो भवइ, अइदूरे पडिणीय आसायणादि बहवे दोसा भवतीति, अतो णच्चासण्णे णातिदूरे य चंकमितव्वं । (ग) हा० टी० प० २५० : नीचां गतिमाचार्यगतेः, तत्पृष्ठतो नातिदूरेण नातिद् तं यायादित्यर्थः। ३–(क) जि० चू० पृ० ३१५ : तहा जंमिवि ठाणे आयरिया उवचिट्ठा अच्छंति तत्थं जं नीययरं ठाणं तंमिठाइयव्वं । (ख) हा • टी०प० २५० : नीचं स्थानमाचार्यस्थानात्, यत्राचार्य आस्ते तस्मान्नोचतरे स्थाने स्थातव्यमितिभावः । ४- अ० चू० : ठाणमवि जंण पक्खतो ण पुरतो,एवमादि अविरुद्ध तं णोतं तहा कुज्जा। ५-(क) अ० चू० : एवं पीढ फलगादिमवि आसणं । (ख) जि० चू० पृ० ३१५ : तहा नीययरे पोढगाइमि आसणे आयरिअणुन्नाए उवविसेज्जा। (ग) हा० टी० ५० २५० : 'नीचानि' लघुतराणि कदाचित्कारणजाते 'आसयानि' पीठकानि तस्मिन्नुपविष्टे तदनुज्ञात: सेवेत । ६-(क) जि० चू० पृ० ३१५ : जइ आयरिओ आसणे इतरो भूमिए नीययरे भूमिप्पदेसे वंदमाणो उवढिओ न वंदेज्जा, किन्तु जाव सिरेण फुसे पादे ताव णीयं वदेज्जा । (ख) हा० टी० प० २५० : 'नीच' च सम्यगवनतोत्तमाङ्गः सन् पादावाचार्यसत्को वन्देत, नावज्ञया। ७-(क) जि० चू०प० ३१५ । तहा अंजलिमवि कुन्वमाणेण णो पहाणंमि उवविट्ठण अंजली कायव्वा, किंतु ईसिअवणएण कायव्या। (ख) हा० टी० ५० २५० : 'नीच' नम्रकायं 'कुर्यात्' संपादयेच्चाञ्जलि, न तु स्थाणुवस्तब्ध एवेति । Jain Education Intemational For Private & Personal use only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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