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आयारपणिही (आचार-प्रणिधि)
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अध्ययन ८: श्लोक २८-३४
२८-अत्थंगयम्मि आइच्चे
पुरत्था य अणुग्गए। आहारमइयं ८ सव्वं मणसा वि न पत्थए।
अस्तङ्गते आदित्ये, पुरस्तात् चानुद्गते । आहारमयं सर्व, मनसापि न प्रार्थयेत ॥२८॥
२८-सूर्यास्त से लेकर ६ पुन: सूर्य पूर्व में न निकल आए तब तक सब प्रकार के आहार की मन से भी इच्छा न करें।
२६-अतितिणे अचवले
अप्पभासी मियासणे। हवेज्ज उयरे दंते थोवं लर्बु न खिसए॥
'अतितिणः' अचपलः, अल्पभाषी मिताशनः। भवेदुदरे दान्तः, स्तोक लब्ध्वा न खिसयेत् ॥२६॥
२६-आहार न मिलने या अरस आहार मिलने पर प्रलाप न करे, चपल न बने, अलभाषी, मितभोजी२ और उदर का दमन करने वाला हो । थोड़ा आहार पाकर दाता की निन्दा न करे८४ ।
३०---"न बाहिरं परिभवे
अत्ताणं न समुक्कसे । सुयलाभे न मज्जेज्जा जच्चा तवसिबुद्धिए॥
न बाह्य परिभवेत्, आत्मानं न समुत्कर्षयेत् । श्रुतलामे न माद्यत, जात्या तपस्वि-बुद्ध्या ॥३०॥
३०-दूसरे का तिरस्कार न करे । अपना उत्कर्ष न दिखाए । श्रुत, लाभ, जाति, तपस्विता और बुद्धि का मद न करे।
३१-८से जाणमजाणं वा
कटु आहम्मियं पययं। संवरे खिप्पमप्पाणं बीयं तं न समायरे॥
अथ जानन्न जानन्वा, कृत्वा अधार्मिकं पदम् । संवृणुयात् क्षिप्रमात्मानं, द्वितीयं तं न समाचरेत् ॥३१॥
३१-जान या अजान में कोई अधर्मकार्य कर बैठे तो अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा ले, फिर दूसरी बार वह कार्य न करे।
३२-अणायारं परक्कम्म
नेव गृहे न निण्हवे। सुई सया वियडभावे अस सत्त जिइंदिए॥
अनाचारं पराक्रम्य, नैव गुहेत न निन्हुवीत । शुचिः सदा विकटभावः, असंसक्तो जितेन्द्रियः ॥३२॥
३२--अनाचार का सेवन कर उसे न छिपाए और न अस्वीकार करे६३ किन्तु सदा पवित्र, स्पष्ट९५, अलिप्त और जितेन्द्रिय
रहे।
३३--अमोहं वयणं
आयरियस्स तं परिगिज्झ कम्मुणा
कुज्जा महप्पणो।
वायाए उववायए॥
अमोघं वचनं कुर्यात्, आचार्यस्य महात्मनः । तत्परिगृह्य वाचा, कर्मणोपपादयेत् ॥३३॥
३३ - मुनि महान् आत्मा आचार्य के वचन को सफल करे। (आचार्य जो कहे) उसे वाणी से ग्रहण कर कर्म से उसका आचरण करे।
३४-अधुवं जीवियं नच्चा
सिद्धिमग्गं वियाणिया। विणियट्ट ज्ज भोगेसुई । आउं परिमियमप्पणो॥
अध्र वं जीवितं ज्ञात्वा, सिद्धिमार्ग विज्ञाय । विनिवर्तेत भोगेभ्यः, आयुः परिमितमात्मनः ॥३४॥
३४-मुमुक्षु जीवन को अनित्य और अपनी आयुको परिमित जान तथा सिद्धि-मार्ग का ज्ञान प्राप्त कर भोगों से निवृत्त बने ।
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