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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
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अध्ययन १० श्लोक २ टि० ५-६ के भेद को नहीं जानते और पृथ्वी आदि जीवों की हिंसा करते हैं, वे इय्यद (और) नाममात्र के युद्ध और नाम मात्र द्रव्य-बुद्ध हैं भिक्षु ) हैं । जो पृथ्वी आदि जीवों को जानकर उनकी हिंसा का परिहार करते हैं, वे भाव बुद्ध ( और भाव - भिक्षु) कहलाते हैं अर्थात् ही वास्तव में बुद्ध हैं? ( और वे ही वास्तव में भिक्षु हैं ) । इसलिए यहाँ बुद्ध का अर्थ तीर्थङ्कर या गणधर है। बुर्णिकार ने इस आशंका में उत्तरकालीन प्रसिद्धि को प्रधानता दी है । महात्मा गौतम बुद्ध उत्तरकाल में बुद्ध के नाम से प्रसिद्ध हो गए। जैन साहित्य में प्राचीन काल से ही तीर्थंकर या आगम-निर्माता के अर्थ में बुद्ध शब्द का प्रचुर मात्रा में प्रयोग होता रहा है ।
युद्धप्रवचन का अर्थ द्वादशाङ्गी (गणिपिटक
दशा और उसके आधारभूत पशासन के लिए 'स्थिशब्द मागम विद्युत है। इसलिए हमने 'बुद्धवय' का अनुवाद नहीं किया।
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५. समाहित-चित्त ( चित्तसमाहिओ ):
जिसका चित्त सम्-अच्छी तरह से आहित लीन होता है, उसे समाहित चित्त कहते हैं जो चित्त से अतिप्रसन्न होता है, उसे समाहित-चित्त कहते हैं । समाहित-चित्त अर्थात् चित्त की समाधि वाला - प्रसन्नता वाला ।
चित्त-समाधि का सबसे बड़ा विघ्न विषय की अभिलाषा है । स्पर्श, रस आदि विषयों में स्त्री-सम्बन्धी विषयेच्छा सर्वाधिक दुर्जेय है, इसलिए श्लोक के अगले दोनों चरणों में चित्त-समाधि की सबसे बड़ी व्याधि से बचने का मार्ग बताया गया है ।
६. जो वमे हुए को वापस नहीं पीता ( वंतं नो पडियायई घ ) :
इसके स्पष्टीकरण के लिए देखिए २.६७ का अर्थ और टिप्पण यह वहाँ प्रयुक्त इति वतयं भोलू कुले जाया । 'वंत इच्छसि आवेउं सेयं ते मरणं भवे' - वाक्यों की याद दिलाता है ।
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७. भिक्षु ( भिक्खु ) :
सूत्रकृताङ्ग के अनुसार भिक्षु की व्याख्या इस प्रकार है— जो निरभिमान, विनीत, पाप- मल को धोने वाला, दान्त, बन्धन मुक्त होने योग्य निर्मम नाना प्रकार के परीषद और उपसगों से अपराजित, अध्यात्मयोगी विशुद्ध चारित्र सम्पन्न, सावधान स्थितात्मा यशस्वी या विवेकशील और परदत्त भोजी हो, वह भिक्षु कहलाता है ।
इलोक २ :
८. श्लोक २-३ :
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पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और वनस्पति की हिंसा के परिहार का उपदेश चौबे पांचवें छट्टे और आठवें अध्ययन में दिया गया है । उसी को यहाँ दोहराया है। प्रश्न होता है एक ही आगम में इस प्रकार की पुनरुक्तियाँ क्यों ? आचार्य ने उत्तर दिया- शिष्य को स्थिर मार्ग पर आरूढ़ करने के लिए ऐसा किया गया है, इसलिए यह पुनरुक्त दोष नहीं है ।
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१ - जि० चू० पृ० ३३९ : आह - णणु बुद्धगगहणेण य सक्काइणो गहणं पावइ, आयरिओ आह-न एत्थ दव्वबुद्धाणं दव्वभिक्खूण य गणं कर्म कहं ते दाभ? म्हाते सम्मणाभावेण जीवाजीव विसेस अजानमाणा पुढविमाई जीवेहिसमाचा दबुद्धा दव्वभिक्खु भवंति कहं तेहि चित्तसमाधियत्तं भविस्सइ जे जीवाजीव विसेसं ण उवलभंति ?, जे पुढविमादि जीवे माऊणं परिहरति ते भावयुद्धा भावभिन्य अन्नंति, छज्जीवनिकायानगो व रक्खणपरो व भावभिक्खु भवति ।
२- हा० टी० प० २६६ : 'बुद्धवचने' अवगततत्त्वतीर्थ करगणधरवचने ।
३- अ० चू० : बुद्धा जाणणा तेसि वयणं - बुद्धवयणं दुवालसंगं गणिपिडगं ।
४- जि० ० पृ० ३३८ : चित्तं पसिद्ध तं सम्म आहित जस्स सो चित्तसमाहिओ ।
५० टी० ० २६५ 'चित्तसमाहित' खिलेनातिप्रसन्नो भवेत् प्रवचन एवाभियुक्त इति गर्भः ।
६- अ० चू : चित्तसमाधाणविग्धभूता विसया तत्थवि पाहण्णेण इत्थिगतत्ति भणति इत्यीणवसं ।
७०] १.१६.३ एत्यवि भिक्खु अन्नए विणीए नामए दंते दबिए बोसकाए संविभुगीय विवस्वे परीसहवागसुद्धादाने एसिया संखाए परदत्त भोई भिति बच्चे
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