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________________ स-भिक्खु ( सभिक्षु ) ४८५ अध्ययन १० : श्लोक ३ टि०६-१४ (१) पुत्र विदेश जाता है तब पिता उसे शिक्षा देता है । कर्तव्य की विस्मृति न हो जाए, इसलिए वह अपनी शिक्षा की कई पुनरावृत्तियाँ कर देता है। (२) संभ्रम या स्नेहवश पुनरक्ति की जाती है, जैसे---साँप है—आ, आ, आ। (३) रोगी को बार-बार औषधि दिया जाता है। (४) मंत्र का जप तब तक किया जाता है जब तक वेदना का उपशम नहीं होता। इन सबमें पुनरावर्तन है पर उनकी उपयोगिता है, इसलिए वे पुनरुक्त नहीं माने जाते। वही पुनरावर्तन या पुनरुक्ति दोष माना जाता है जिसकी कोई उपयोगिता न हो। ___ लौकिक और वैदिक-साहित्य में भी अनेक पुनरुक्तियाँ मिलती हैं। तात्पर्य यही है कि प्रकृत विषय की स्पष्टता, उसके समर्थन या उसे अधिक महत्त्व देने के लिए उसका उल्लेख किया जाता है, वह दोष नहीं है। ६. पृथ्वी का खनन न करता है (पुढवि न खणे क ): पृथ्वी जीव है । उसका खनन करना हिंसा है। जो पृथ्वी का खनन करता है, वह अन्य वस-स्थावर जीवों का भी वध करता है । खनन यहाँ सांकेतिक है। इसका भाव है-मन, वचन, काया से ऐसो कोई भी क्रिया न करना, न कराना और न अनुमोदन करना जिससे पृथ्वी-जीव की हिंसा हो। देखिए--४ सू० १८; ५.१.३; ६.२७, २८, २६; ८.४.५। १०. शीतोदक ( सीओदगं ख ) : जो जल शस्त्र-हत नहीं होता ( सजीव होता है ) उसे शीतोदक कहते हैं । इसी सूव के चौथे अध्ययन (सू०५ ) में कहा है'आऊ चित्तमंतमक्खाया. . . . . 'अन्नत्थ सत्थ परिणएणं ।' पाना ११. न पीता है और न पिलाता है ( न पिए न पियावए): पीना-पिलाना केवल सांकेतिक शब्द हैं। इनका भावार्थ है-ऐसी कोई क्रिया या कार्य नहीं करना चाहिए जिससे जल की हिंसा हो। देखिए-४ सू० १६; ६.२६, ३०, ३१; ७.३६; ८.६, ७,५१,६२ । १२. शस्त्र के समान सुतीक्ष्ण ( सुनिसियं ग ) : जैसे शस्त्र की तेज धार घातक होती है, वैसे ही अग्नि छह जीवकाय की घातक है । इसलिए इसे 'सुनिशित' कहा जाता है। १३. न जलाता है और न जलवाता है ( न जले न जलावए घ): 'जलाना' केवल सांकेतिक शब्द है । भाव यह है कि ऐसी कोई भी क्रिया नहीं करनी चाहिए जिससे अग्नि का नाश हो। देखिए-४ सू० २०, ६.३२, ३३, ३४, ३५; ८.८ । श्लोक ३: १४. पंखे आदि से ( अनिलेण ): घृणिद्वय में 'अनिल' का अर्थ वायु और टीका में उसका अर्थ 'अनिल' के हेतुभूत बस्त्र-कोण आदि किया है। १–वश० ४ सू० ४ : पुढबी चित्तमंतमक्खाया........ अन्नत्थ सत्थपरिणएण । २-(क) अ० चू० : सीतोदगं अविगतजीवं । (ख) जि. चू० पृ० ३३६ : 'सिओदगं' नाम उदगं असत्थहयं सजीवं सीतोदगं भण्णइ । (ग) हा० टी०प० २६५ : 'शीतोदक' सचित्तं पानीयम् । ३-अ० चू० : जधा खग्गपरसुछुरिगादि सत्थमणुधारं छेदगं तधा समंततो दहणरूवं । ४-(क) अ० चू० : अणिलो वायू । (ख) जि० चू० पृ० ३४० : अनिलो वाऊ भण्णइ । ५-हा० टी० ५०२६५ : 'अनिलेन' अनिलहेतुना चेलकर्णादिना । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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