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दसवेआलियं (दशर्वकालिक )
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१५. हवा न करता है और न कराता है ( न वीए न बीयावए ) :
हवा लेना केवल सांकेतिक है। ऐसी कोई क्रिया नहीं करनी चाहिए जिससे वायु का हनन हो । देखिए – ४ सू० २१; ६.३६, ३७, ३८, ३६; ८.१
१६. छेदन न करता है और कराता है ( न छिदे न छिदावए ख ) :
छेदन शब्द केवल सांकेतिक है । ऐसी कोई क्रिया नहीं करनी चाहिए जिससे वनस्पतिकाय का हनन हो ।
देखिए - ४.२२; ६.४१, ४२, ४३
८.१०. ११ ।
१७. सचित्त का आहार नहीं करता (
जैन दर्शन के अनुसार वनस्पतिकाय सजीव है । भगवान् ने कहा है- सुसमाहित संयमी मन, वचन, काय द्वारा तीन प्रकार से ( करने, कराने और अनुमोदन रूप से) वनस्पतिकाय की हिंसा नहीं करते । जो साधु वनस्पतिकाय की हिंसा करता है, वह तदाश्रित देखे जाते हुए और नहीं देखे जाते हुए विविध त्रस प्राणियों की भी हिंसा करता है। साधु दुर्गति को बढ़ाने वाले इस वनस्पतिकाय के समारम्भ का यावज्जीवन के लिए त्याग करे ( दश० ६.४१, ४२ ) । दश० ४ सूत्र २२ में वनस्पति की तीन करण तीन योग से विराधना न करने की व्रत-प्रज्ञप्ति दी है । दश० ८.१०,११ में कहा है “साधु तृण घास- वृक्षादि तथा किसी वृक्षादि के फल और मूल को न काटे तथा नाना प्रकार के सचित्त बीजों के सेवन की मन से भी इच्छा न करे। वृक्षों के कुंज में एवं गहन वन में, बीजों पर अथवा दूब आदि हरितकाय पर, उदक पर, सर्पच्छत्रा पर, पनक पर एवं लीलन-फूलन पर साधु कभी भी खड़ा न हो । "
सूत्रकृताङ्ग १.७, ८, ९ में कहा है- "हरित वनस्पति सजीव है। मूल शाखा और पत्रादि में पृथक्-पृथक् जीव हैं। जो अपने सुख के के लिए आहार और देह के लिए उसका छेदन करता है, वह प्रगल्भ बहुत प्राणियों का अतिपात करता है। जो बीज का नाश करता है, वह जाति-अंकुर और उसकी वृद्धि का विनाश करता है, वह अनार्यधर्मी है।" इसी तरह आचाराङ्ग १.१.५ में वनस्पतिकाय के आरम्भ-त्याग का उपदेश दिया है। इस श्लोक में मुनि के लिए सचित्त वनस्पति खाने का निषेध है'।
जो वनस्पति सचित्त है - शस्त्रादि के प्रयोग से पूर्ण परिणत नहीं (अचित्त नहीं हुई ) है उसका भक्षण साधु न करे । उसका भक्षण करना अनाचीर्ण है। प्रश्न हो सकता है शस्त्र - परिणत अचित्त वनस्पति कहाँ मिलेगी ? इसका समाधान यह है – गृहस्थों के यहाँ नाना प्रयोजनों से कन्द, मूल, फल और बीज का स्वाभाविक रूप से छेदन - भेदन होता ही रहता है। खाने के लिए नाना प्रकार की वनस्पतियाँ छेड़ी-भेदी और पकाई जाती हैं। साधु ऐसी अवित्त ( प्रासुक निर्जीव) वनस्पतियां प्राप्त हों तो ले, अन्यथा नहीं । कहा है'भूख से पीड़ित होने पर भी संयम-बल वाले तपस्वी साधु को चाहिए कि वह फल आदि को स्वयं न तोड़े, न दूसरों से तुड़वाए, न स्वयं पकाए, न दूसरों से पकवाए ।'
इस विषय में बौद्धों का नियम जान लेना भी आवश्यक है। विनयपिटक में कहा है – “जो भिक्षुणी कच्चे अनाज को माँगकर या मंगवाकर भूनकर या भुनवाकर कूटकर या कुटवाकर पकाकर या पकवाकर, खाए उसे 'पाचित्तिय' कहा हैं ।" इसी तरह वहाँ कहा है“जो भिक्षुणी पेशाब या पाखाने को, कूड़े या जूठे को हरियाली पर फेंके उसे 'पाचित्तिय' कहा हैं ।" इसी तरह वृक्ष काटने को 'पाचित्तिय' कहा है।
अध्ययन १० टि० १५-१७
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सचितं नाहारए ) :
५.
एक बार बुद्ध राजगृह के वेणुवन कलन्दक निपाप में विहार करते थे । उनके पेट में वायु की पीड़ा उत्पन्न हुई । आनन्द ने स्वयं तिल, तन्दुल और मूंग को माँग, आराम के भीतर ला स्वयं पका यवागू ( खिचड़ी) बुद्ध के सामने उपस्थित की । बुद्ध ने यवागू कहाँ से आई, यह जाना। उसकी उत्पत्ति की बात जान फटकारते हुए बोले - " आनन्द ! अनुचित है, अकरणीय है । आनन्द ! जो कुछ भीतर रखा गया है वह भी निषिद्ध है, जो कुछ भीतर पकाया गया है वह भी निषिद्ध है, जो स्वयं पकाया गया है वह भी निषिद्ध है । जो भीतर
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१ जि० ० चू० पृ० ३४१ : सचित्तग्गणेण सव्वस्स परोयसाहारणस्स सभेदस्स वणप्फइकायस्स गहणं कयं तं सचित्तं नो आहारेज्जा । २ – उत्त० २.२ ।
३- भिक्खूनो पातिमोक्ल अ० ४.७ ।
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४
४.८ । ५.११ ।
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