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दसवेआलियं ( दशवकालिक )
४१२ अध्ययन ८ : श्लोक ४६ टि० १३६ प्रस्तुत श्लोक में सैद्धान्तिक भूल का प्रसंग नहीं है किन्तु बोलते समय लिङ्ग, विभक्ति, कारक, काल आदि का विपर्यास हो जाए अर्थात् वाक्य-रचना में कोई त्रुटि आए, उसे सुनकर उपहास न करने का उपदेश है । प्रसंग के अनुसार दिद्विवाय (दृष्टिपात या दृष्टिवाद) का अर्थ नयवाद या विभज्यवाद होना चाहिए। जो बात विभाग करके कही जानी चाहिए वह प्रमादवश अन्यथा कही जाए तो उपहास का विषय बन सकता है । प्रस्तुत श्लोक में उसका निषेध है । नंदी [सू० ४१] में दृष्टिवाद का प्रयोग सम्यक्त्ववाद के अर्थ में हुआ है जो नयवाद के अधिक निकट है । आचाराङ्ग और प्रज्ञप्ति का वर्तमान रूप भापा के व्याकरणबद्ध प्रयोग की कोई विशेष जानकारी नहीं देता। दृष्टिवाद में व्याकरण का समावेश होता है । सम्भव है आचार और प्रज्ञप्ति भी व्याकरण ग्रन्थ रहे हों । दशवकालिक नियुक्ति में भी ये शब्द मिलते हैं।
"आयारे ववहारे पन्नत्ती चेव दिद्विवाए य ।
एसा चउन्विहा खलु कहा उ अक्खेवणी होइ ॥" (१९४) टीकाकार ने आचार का अर्थ आचरण, प्रज्ञप्ति का अर्थ समझाना और दृष्टिवाद का अर्थ सूक्ष्म-तत्व का प्रतिपादन किया है। धूणिकारों ने यहाँ इन्हें द्वयर्थक नहीं माना है । टीकाकार ने मतान्तर का उल्लेख करते हुए आचार आदि को शास्त्र-वाचक भी माना है। स्थानाङ्ग में आक्षेपणी कथा के वे ही चार प्रकार बतलाये हैं जिनका उल्लेख नियुक्ति की उक्त गाथा में हुआ है। इसकी व्याख्या के शब्द भी हरिभद्र सूरि की उक्त व्याख्या से भिन्न नहीं हैं। अभयदेव सूरि ने मतान्तर का उल्लेख भी हरिभद्र सूरि के शब्दों में ही किया है। व्यवहार (३) के 'पन्नत्ति कुसले' की व्याख्या में वृत्तिकार ने प्रज्ञप्ति का अर्थ कथा किया है।
भाष्यकार यहाँ एक बहुत ही रोचक उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । क्षुल्लकाचार्य प्रज्ञप्ति-कुशल (कथा-कुशल) थे। एक दिन मुरुण्डराज ने पूछा----भगवन् ! देवता गतकाल को कैसे नहीं जानते, इसे स्पष्ट कीजिए ? राजा ने प्रश्न पूछा कि आचार्य यकायक खड़े हो गए। आचार्य को खड़ा होते देख राजा भी तत्काल खड़ा हो गया। आचार्य के पास क्षीराश्रवलब्धि थी। उन्होंने उपदेश प्रारम्भ किया। उनकी वाणी में दूध की मिठास टपक रही थी। एक प्रहर बीत गया। आचार्य ने पूछा--राजन् ! तुझे खड़े हुए कितना समय हआ है ? राजा ने उत्तर दिया--भगवन् ! अभी-अभी खड़ा हुआ हूँ। आचार्य ने कहा --एक प्रहर बीत चुका है। तू उपदेश-वाणी में आनन्द-मग्न हो गतकाल को नहीं जान सका, वैसे ही देवता भी गीत और वाद्य में आनन्द-विभोर होकर गतकाल को नहीं जानते । राजा अब निरुत्तर था।
१३६, पढ़ने वाला ( अहिज्जगं ख ) :
___ इसका संस्कृत रूप 'अधीयान' किया गया है। धुणि और टीका का आशय यह है कि जो सम्पूर्ण दृष्टिवाद को पढ़ लेता है, वह भाषा के सब प्रयोगों का अभिज्ञ हो जाता है, इसलिए उसके बोलने में लिङ्ग आदि की स्खलना नहीं होती और जो वाणी के सब प्रयोगों को जानता है उसके लिए कोई शब्द अशब्द नहीं होता । वह अशब्द को भी सिद्ध कर देता है। प्राय: स्खलना वही करता है, जो दृष्टिवाद का अध्ययन पूर्ण नहीं कर पाता । दृष्टिवाद को पढ़ने वाला बोलने में चूक सकता है और उसे पढ़ चुका वह नहीं चूकता ---इस आशय को ध्यान में रखकर घूर्णिकार और टीकाकार ने इसे 'अधीयान' के अर्थ में स्वीकृत किया है।
१-हा० टी० ५० ११० : आचारो-लोचास्नानादिः प्यवहारः-कथञ्चिदापन्नदोषव्यपोहाय प्रायश्चित्तलक्षणः प्रज्ञप्तिश्चैव---
संशयापन्नस्य मधुरवचनः प्रज्ञापना दृष्टिवादश्च–श्रोत्रपेक्षया सूक्ष्मजीवादि भावकथनम् । २-हा० टी० ५० ११० : अन्ये त्वभिदधति-आचारादयो ग्रन्था एव परिगान्ते, आचाराद्यभिधानादिति ।
- ठा० ४.२४७ : आयारअक्खेवणी ववहारअक्खेवणी पन्नत्तिअक्खेवणी दिट्ठिवातअक्खेवणी। ४-व्य० भा० ४.३ १४५-१४६ । ५-(क) अ० चू० पृ० १६७ : दिढिवादमधिज्जगं-दिठ्विादमझयणपरं।
(ख) हा० टी० प० २३६ : दृष्टिवादमधीयानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवर्णविकारकालकारकदिवेदिनम् । ६-(क) अ० चू० पृ० १६७ : अधीतेसव्ववातो गतविसारदस्स नत्थि खलितं । (ख) जि० चू० पू० २८६ : अधिज्जयगहणेण अधिज्जमाणस्स वयणखलणा पायसो भवइ, अधिज्जिए पुण निरवसेसे दिद्विवाए
सम्वपयोयजाणगत्तणेण अप्पमत्तणेण य वतिविक्खलियमेव नत्थि, सब्ववयोगतवियाणया असहमवि सह कुज्जा।
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