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आवारपणही (प्रचार-प्रणिधि)
१३४. (वियं जिये ) :
ख
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अगस्त्य चूर्णि और टीका में 'वियं जियं' इन शब्दों को पृथक् मानकर व्याख्या की गई है । 'वियं' का अर्थ व्यक्त है' । अगस्त्य सिंह स्थविर ने 'जिय' का अर्थ व्यामोह उत्पन्न करने वाली अर्थात् स्मृत भाषा और टीकाकार ने परिचित भाषा किया है । 'व्यक्त' का प्राकृत रूप 'वत्त' या 'वियत्त' बनता है। उसका 'विय' रूप बहुत प्राचीन होना चाहिए। यजुर्वेद में व्यक्त करने के अर्थ में 'विव' शब्द का प्रयोग हुआ हैं। संभव है यह 'विव' ही आगे चल कर 'विय' बन गया हो ।
अध्ययन श्लोक ४६ टि० १३४-१३५
अनुयोगद्वार के आधार पर 'वियंजिय' प्रयुक्त हुए हैं। जो पढ़ लिया जाता
जिनदास महत्तर 'वियंजियं' को एक शब्द मानते हैं । उनके अनुसार इसका अर्थ तथ्य है । की एक कल्पना और हो सकती हैं। वहाँ 'सिक्खितं ठितं जितं मितं परिजितं' ये पाँच शब्द एक साथ है उस पद को शिक्षित', जिस शिक्षित पद की विस्मृति नहीं होती उसे 'स्थित', जो पद परिवर्तन करते समय या किसी के पूछने पर शीघ्र याद आ जाए वह 'जित', जिसके श्लोक, पद और वर्ण आदि की संख्या जानी हुई हो वह 'मित' तथा परिवर्तन करते समय जिसे क्रम या उत्क्रम से किसी भी प्रकार से याद किया जा सके वह 'परिचित' कहलाता है । दशवैकालिक का प्रस्तुत प्रकरण भी भाषा से सम्बन्धित है, इसलिए कल्पना की जा सकती है कि लिपि भेद के कारण 'ठियं जियं' के स्थान पर 'वियं जियं' ऐसा पाठ हो गया हो, जिसका होना बहुत संभव है। घूर्णिकार और टीकाकार के सामने वह परिवर्तित पाठ रहा है और वही उनके व्याख्या भेद का हेतु बना है ।
इलोक ४६ :
१३५. इलोक ४६:
प्रस्तुत श्लोक में आचार, प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद – ये तीनों शब्द व्यर्थक हैं । द्वादशाङ्गी में पहला अङ्ग आचार, पाँचवाँ प्रज्ञप्ति और बारहवाँ दृष्टिवाद है। अगस्त्यसिंह स्थविर ने आचारधर और प्रज्ञप्तिथर का अर्थ भाषा के विनयों-नियमों को धारण करने वाला किया है। जिनदास महत्तर के अनुसार 'आचारधर' शब्दों के लिङ्ग (स्त्री, पुरुष और नपुंसक) को जानता है। टीकाकार ने 'आचारधर' का अर्थ यही किया है का विशेष जानकार और दृष्टिवाद के अध्येता का प्रोपगम, वर्णविकार, काल, कारक आदि व्याकरण के अङ्गों को जानने वाला किया है। दीपिकाकार टीकाकार का अनुगमन करते हैं। अवधुरिकार ने आचारधर और प्रज्ञप्तिवर का अर्थ क्रमशः आचाराङ्गवर और भगवतीवर किया है। आचार, प्रज्ञप्ति और दृष्टिवाद - इनका सम्बन्ध भाषा कौशल से है, इसलिए कहा गया है कि आचार और प्रज्ञप्ति को धारण करने वाला तथा दृष्टिवाद को पढ़ने वाला बोलने में चूक जाए तो उसका उपहास न किया जाए।
१- (क) अ० चू० पृ० १६७ : वियं व्यक्तं । (स) हा० डी० प० २३५
ताम् अलाम् । २३००० १६७ जितं न वामोहकरणेकाकारं ।
३ - हा० टी० प० २३५ : 'जितां' परिचिताम् ।
४ - अध्याय १३.३ ।
५- जि० चू० पृ० २८६ : 'वियंजितं' णाम वियंजितंति वा तत्थंति वा एगट्ठा ।
६ - अनु० बृ० पृ० १४ ।
- अ० चू० पृ० १९७ : आयारधरो भासेज्जा तेसु विणीयभासाविणयो, विसेसेण पन्नति-धरो एवं वयणलिंगवण विवज्जासे ण
अवधसे ।
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To चू० पृ० २८६ : आयारधरो इत्थिपुरिसणपुंसर्गांलंगाणि जाणइ ।
६- हा० टी० प० २३६ स्त्रीङ्गादीनि जानाति प्रज्ञप्ति रस्ताम्बेव सविशेवाणीत्येवंभूतम् तथा दृष्टिवादमयीवानं प्रकृतिप्रत्ययलोपागमवविकार कालकारका विवेदिनम् ।
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