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________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४१० अध्ययन ८: श्लोक ४७-४८ टि. १२-१३३ १२७. चुगली न खाए ( पिट्टिमसं न खाएज्जा' ): परोक्ष में किसी का दोष कहना-'पृष्ठिमांसभक्षण' अर्थात् चुगली खाना कहलाता है'। १२८. कपटपूर्ण असत्य का ( मायामोसं घ ): ___ 'मायामृषा' यह संयुक्त शब्द है । 'माया' का अर्थ है कपट और 'मृषा' का अर्थ है असत्य । असत्य बोलने से पहले माया का प्रयोग अवश्य होता है। जो व्यक्ति असत्य बोलता है वह अयथार्थता को छिपाने के लिए अपने भावों पर भाषा का इस प्रकार से आवरण डालने का यत्न करता है जिससे सुनने वाले लोग उसकी बात को यथार्थ मान लें, इसलिए चिन्तनपूर्वक जो असत्य बोला जाता है उसके लिए 'मायामृषा' शब्द का प्रयोग किया जाता है । इसका दूसरा अर्थ कपट-सहित असत्य वचन भी किया जाता है।' श्लोक ४७: १२८. सर्वथा ( सव्वसो २ ): सर्वश: अर्थात् सब प्रकार से-सब काल और सब अवस्थाओं में । श्लोक ४८ : १३०. आत्मवान् ( अत्तवं घ): 'आत्मा' शब्द स्व, शरीर और आत्मा-इन तीन अर्थों में प्रयुक्त होता है । सामान्यतः जिसमें आत्मा है उसे 'आत्मवान्' कहते हैं, किन्तु अध्यात्म-शास्त्र में यह कुछ विशिष्ट अर्थ में प्रयुक्त होता है। जिसकी आत्मा ज्ञान, दर्शन और चारित्रमय हो, उसे 'आत्मवान्' कहा जाता है। १३१. दृष्ट ( दि8 क ) : जिस भाषा का विषय अपनी आँखों से देखा हो, वह 'दृष्ट' कहलाती है। १३२. परिमित ( मियं क ) : उच्च स्वर से न बोलना और जितना आवश्यक हो उतना बोलना -यह मितभापा' का अर्थ है। १३३. प्रतिपूर्ण ( पडिपुन्नं ख ) : जो भाषा स्वर, व्यञ्जन, पद आदि सहित हो, वह 'प्रतिपूर्णभाषा' कहलाती है । १-(क) जि० चू० पृ० २८८ : जं परंमुहस्स अवबोलिज्जइ तं तस्स पिट्ठिमंसभक्खणं भवइ । (ख) हा०टी०प०२३५ : 'पृष्ठिमांसं' परोक्षदोषकीर्तनरूपम् । २-जि० चू० पृ० २८८ : मायाए सह मोसं मायामोसं, न मायामंतरेण मोसं भासई, कहं ?, पुटिंव भासं कुडिलीकरेइ पच्छा भासइ। ३--- (क) जि० चू० पृ०२८८ : अहवा जं मायासहियं मोसं । (ख) हा०टी०प० २३५ : मायाप्रधानां षावाचम् । ४...जि० चू० पू० २८६ : सव्वसो नाम सम्बकाल सव्वाबत्थासु । ५.-(क) हा०टी०प० २३६ : 'आत्मवान्' सचेतन इति । (ख) जि० चू० पृ० २८६ : अत्तवं नाम अतवंति वा विन्नवंति वा एगट्ठा। ६-अ० चू० १० १६७ : नाणदंसणचरित्तमयो जस्स आया अत्थि, सो अत्तवं । ७---(क) जि० चू० पृ० २८६ : ट्ठि नाम जं चक्षुणा सयं उवलद्ध। (ख) हा० टी० प० २३५ : 'दृष्टां' दृष्टार्थविषयाम् । ८.---(क) अ० चू० १० १६७ : अणुच्चं कज्जमेत्तं च मितं । (ख) जि० चू० ए० २८६ : मितं दुबिह-सद्दओ परिमाणओ य, सद्दओ अणउव्वं उच्चारिज्जमाणं मितं, परिमाणओ कज्ज मेत्तं उच्चारिज्जमाण मितं । (ग) हा० टी०प० २३५ : "मिता' स्वरूपप्रयोजनाभ्याम् । 8-(क) जि० चू०प० २८६ : पडुप्पन्न णाम सरवंजणपयादीहि उबवेअं। (ख) हा० टी०प० २३५ : 'प्रतिपूर्णा' स्वरादिभिः । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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