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दसवेआलियं ( दशवकालिक ) द्वितीय चूलिका : विविक्तचर्या (वविक्तचर्या का उपदेश)
५१७-५३१ श्लोक १ दृलिका के प्रवचन की प्रतिज्ञा और उसका उद्देश्य ।
२ अनुस्रोत-गमन को बहुजनाभिमत दिखाकर मुमुक्षु के लिये प्रतिस्रोत-गमन का उपदेश । ३ अनुस्रोत और प्रतिस्रोत के अधिकारी, संसार और मुक्ति की परिभाषा। ४ साधु के लिये चर्या, गुण और नियमों को जानकारी की आवश्यकता का निरूपण । ५ अनिकेतवास आदि चर्या के अंगों का निरूपण । ६ आकीणं और अवमान संखडि-वजन आदि मिक्षा-विशुद्धि के अंगों का निरूपण व उपदेश । ७ श्रमण के लिये आहार-विशुद्धि और कायोत्सर्ग आदि का उपदेश । ८ स्थान आदि के प्रतिवन्ध व गांव आदि में ममत्व न करने का उपदेश। ६ गृहस्थ की वयावृत्य आदि करने का निषेध और असंक्लिष्ट मुनिगण के साथ रहने का विधान । १० विशिष्ट संहनन-युक्त और श्रुत-सम्पन्न मुनि के लिए एकाकी विहार का विधान। ११ चातुर्मास और मासकल्प के बाद पुनः चातुर्मास और माराकल्प करने का व्यवधान-काल। सूत्र और उसके अर्थ के
चर्या करने का विधान । १२,१३ आत्म-निरीक्षण का समय, चिन्तन-सूत्र और परिणाम ।
१४ दुष्प्रवृत्ति होते ही सम्हल जाने का उपदेश । १५ प्रतिबुद्धजीवी, जागरूकभाव से जीने वाले की परिभाषा। १६ आत्म-रक्षा का उपदेश और अरक्षित तथा सुरक्षित आत्मा की गति का निरूपण।
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