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दसवेआलियं ( दशवैकालिक )
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अध्ययन १ श्लोक ५ टि० २४
यह शब्द लक्ष्य के बिना जो नानापिण्ड रत जीव हैं उनसे साधु को पृथक् करता है। नानापिण्ड रत दो प्रकार के होते हैं- द्रव्य से और भाव से अश्य, गज आदि प्राणी लक्ष्यपूर्वक नानापिष्ट-रत नहीं होते, इसलिये वे भाव से दान्त नहीं बनते साधु नानाविण्ड-रत होने के कारण भावतः दान्त होते हैं' ।
पूर्वक
२४. वे अपने इन्हीं गुणों से साधु कहलाते हैं ( तेण युच्वंति साहूणो ) :
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इस अध्ययन में अप्रत्यक्ष रूप से साधु के कुछ ऐसे महत्त्वपूर्ण गुणों का उल्लेख है जिनसे साधु साधु संयम और तपमय धर्म में रमा हुआ होना चाहिए। वह वाह्य आभ्यन्तर परिग्रह से मुक्त, शान्ति की साधना चाहिए। वह अपनी आजीविका के लिए किसी प्रकार का आरम्भ समारम्भ न करे। वह अदत्त न ले । अपने लिए वह भिक्षावृत्ति पर निर्भर हो । वह माधुकरी वृत्ति से भिक्षाचर्या करे । यथाकृत में से प्रासुक ले । वह किसी एक पर आश्रित न हो । यहाँ कहा गया है कि ये ही ऐसे गुण हैं जिनसे साधु साधु कहलाता है ।
अगस्त्य सिंह पूणि के अनुसार वेग पुष्यति साहो' का भावार्य है वे नानापिटर हैं, इसलिए साधु हैं । जिनदास लिखते हैं-- श्रमण अपने हित के लिए त्रस स्थावर जीवों की यतना रखते हैं इसलिए वे साधु हैं ।
एक प्रश्न उठता है कि जो अन्यतीर्थी हैं वे भी त्रस स्थावर जीवों की यतना करते हैं - अतः वे भी साधु क्यों नहीं होंगे ? उसका उत्तर नियुक्तिकार इस प्रकार देते हैं— 'जो सद्भावपूर्वक त्रस स्थावर जीवों के हित के लिए यत्नवान् होता है, वही साधु होता है । अन्यतीर्थी सद्भावपूर्वक यतनायुक्त नहीं होते । वे छहकाय की यतना को नहीं जानते। वे उद्गम, उत्पात आदि दोषों से रहित शुद्ध आहार ग्रहण नहीं करते । वे मधुकर की तरह अवधजीवी नहीं होते और न तीन गुप्तियों से युक्त होते हैं। उदाहरणस्वरूप कई श्रमण औद्देशिक आहार में, जिसमें कि जीवों की प्रत्यक्ष घात होती है, कर्मबन्ध नहीं मानते। कई श्रमणों का जीवन सूत्र ही है- "भोगों की प्राप्ति होने पर उनका उपभोग करना चाहिए ।" ऐसे श्रमण अज्ञानरूपी महासमुद्र में डूबे हुए होते हैं । अत: उन्हें साधु कैसे कहा जाय ? साधु होते हैं- जो मन, वचन, काया और पाँचों इन्द्रियों का दमन करते हैं, ब्रह्मचर्य का पालन करते हैं, कषायों को संयमित करते हैं तथा तप से युक्त होते हैं। ये साधु के सम्पूर्ण लक्षण हैं । इन्हीं से कोई साधु कहलाता है। जिसमें ये गुण नहीं, वह साधु नहीं हो सकता । जो जिनवचन में अनुरक्त हैं, वे ही साधु हैं क्योंकि वे निकृति-रहित और चरण-गुण से युक्त हैं" ।
वे
उपसंहार में अगत्स्यसिंह कहते हैं "अहिंसा, संयम, तप आदि साधनों से युक्त, मधुकरवत् अवध-आहारी साधु के द्वारा साहित धर्म ही उत्कृष्ट मंगल होता है ।
१- जि० ० ५० ६२ णाणापिण्डरता दुविधा भवति, तंजहादग्यजी भावओ य दव आसहत्यिमादि ते गोता भावज ( साहवो पुणो ) इंदिएसु दन्ता ।
कहलाता है । साधु अहिंसा, करनेवाला और दान्त होना संयमी जीवन के निर्वाह के
२ - अ० चू० पृ० ३४ : जेण मधुकारसमा नाणापिंडरता य तेण कारणेण ।
३- जि० चू० पृ० ७० : जेण कारणेण तस्थावराण जीवाणं अप्पणो य हियत्थं च भवइ तहा जयंति अतो य ते साहुणो भण्णंति । ४नि० गा० १३० तलावर जयंति सम्भावि साहू ||
अ० ० पृ० ३४ जति कति तितरिया व अहिंसादिना इति सि पि धम्मो नविस्तति तत्थ समत्यमिगुत्तरं ते वाजत जागति ण या उग्यमउप्पाणामुद्ध मधुकर वदवरोह भुजति ण वा तिहि गुतीहि गुला ६- जि० चू० पृ० ७० : जहा जइ कोई भणेज्जा परिव्वायगरत्तपडादिणो तस्थावरभूत हितत्थमप्पहितत्थं च जयंता साहुणो भविसंति, तं च व भवइ, जेण ते सब्भावओ ण जयंति, कहं न जयंति ?, तत्थ सक्काणं जं उद्दिस्स सत्तोवघातो भवइ ण तत्थ तेसि कम्मबंधो भवइ, परिव्वायगा नाम जइ किर तेसि सद्दाइजो विसया इंदिघगोयरं हव्वमागच्छंति, भणियं तसि 'इंदियविसयपत्ताणं उपयोगी काव्यों एवं ते अण्णाणमहासममोपाहा पटुप्पण्णमारिया जीवा तापि आलंबणाणि काऊ तमेव परि किसा गिहवासं अवलंबयंति ।
७- नि० गा० १३५, १३६ : कार्य वायं च मणं च इंदियाई च पंच दमयंति ।
धारेति बंभचेर संजयंति कसाए य ॥
जं च तवे उज्जुत्ता तेणेंस साहुलक्खणं पुण्णं ।
तो साहुणो ति भण्णति साहवो निगमणं चेयं ॥
तु सक्कादीगं णिपहिला लम्हा गियपणरया साहो भवति ।
[वि० ० ० ७०
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६-३०० पृ० ३४ (क) तर अहिंसा-संयम-तसाहयतमकरवयण जाहारसासाहितो धम्मो मंगलम भवति । पृ० ३४ ( ख ) तेहि समत्तसाधुलक्खणल विखतेहि साधुहि साधितो संसारनित्थरणहेऊ सव्वदुक्खविमोक्ख मोक्खगमणसफल मो मंगल भवति ति मुनिट्टि ।
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