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________________ दसवेलियं (दशर्वकालिक) ४. जिले का प्रमुख नगर' । वर्णियों के कबंट का मूल अर्थ माया, कूटसाक्षी आदि अप्रामाणिक या अनैतिक व्यवसाय का आरम्भ किया है । १२. श्रेष्ठी (सेटिड ) : ग ५१४ जिसमें लक्ष्मी देवी का चित्र अंकित हो वैसा वेष्टन बाँधने की जिसे राजा के द्वारा अनुज्ञा मिली हो, वह श्रेष्ठी कहलाता है । 'हिन्दू राज्यतन्त्र' में लिखा हैं कि इस सभा ( पौर सभा ) का प्रधान या सभापति एक प्रमुख नगर निवासी हुआ करता था जो साधारणतः कोई व्यापारी या महाजन होता था । आजकल जिसे मेयर कहते हैं, हिन्दुओं के काल में वह 'श्रेष्ठिन् ' या प्रधान कहलाता था । ख २०. परम्परा से परिव्याप्त ( संताणांतओ ) : प्रथम चूलिका : श्लोक ८-६ दि० १६-२१ अगस्त्य सिंह स्थविर ने वहाँ 'श्रेष्ठी' को वणिक्-ग्राम का महत्तर कहा है । इसलिए यह पौराध्यक्ष नहीं, नैगमाध्यक्ष होना चाहिए। वह पौराध्यक्ष से भिन्न होता है। संभवतः नैगम के समान ही पीर संस्था का भी अध्यक्ष होता होगा जिसे नैगमाध्यक्ष के समान ही श्रेष्ठी कहा जाता होगा, किन्तु श्रेणी तथा पूग के साधारण श्रेष्ठी से इसके अन्तर को स्पष्ट करने के लिए पौराध्यक्ष के रूप में श्रेष्ठी के साथ राजनगरी का नाम भी जोड़ दिया जाता होगा, जैसे- राजगृह श्रेष्ठी तथा श्रावस्ती श्रेष्ठी ( निग्रोध जातक ४४५ ) में राजगृह सेट्ठी तथा एक अन्य साधारण सेट्ठी में स्पष्ट अन्तर किया गया है। श्लोक : 'संताण' का अर्थ अव्यवच्छित्ति या प्रवाह है और संतत का अर्थ है व्याप्त। श्लोक : २१. भावितात्मा (भावियप्पा ) ज्ञान, दर्शन, चारित्र और विविध प्रकार की अनित्य आदि भावनाओं से जिसकी आत्मा भावित होती है, उसे भावितात्मा कहा जाता है । t - A Sanskrit-English Dictionary, P. 259. By Sir Monier Williams Market-Town, the Capital of a district (of two or four hundred Villages.) २ (क) अ० ० : चाडचोवगकूडस क्खिसमुब्भावित दुव्यवहारारंभो कथ्वडं । (ख) जि० ० ० ३६० वाडयोषम पाडचोग) कृडसक्तिसमुभाविय : व्यवहारतं । ३- नि० भा० ९.२५०३ भूमि जन्मिय पट्टे सिरियादेवी कम्जति तट्टणमंत जस्स रणा अगुम्नात सो सेट्ठी भण्णति । ४- दूसरा खण्ड पृ० १३२ । ५ (क) अ० ० राजकुलसदृद्धसम्माणो समाविद्धवेगो वणिग्गाममहसरो य सेठी। (ख) जि० ० ० ३६० ॥ Jain Education International ६ - धर्म-निरपेक्ष प्राचीन भारत की प्रजातन्त्रात्मक परंपराएं पृ० १०६ । ७- अ० चू० : संतानो अवोच्छिती । ८ ६ हा० टी० प० २७५ 'संततः दर्शनादिमोहनीय कर्मप्रवाहेण व्याप्तः । ९ - अ० ० : सम्मद्दंसणेण बहुविहेहिय तवोजोगेहि अणिच्चयादिभावणाहि य भावितप्पा | For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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