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आमुख
भारतीय चिन्तन का निचोड़ है – 'ग्रस्तिवाद' । 'आत्मा है' - यह उसका अमर घोष है । उसकी अन्तिम परिणति है - 'मोक्षवाद' | 'आत्मा की मुक्ति संभव हैं यह उसकी चरम ग्रनुभूति है। मोक्ष साव्य है । उसकी साधना है 'धर्म' ।
धर्म क्या है? क्या सभी धर्म मंगत है ? पनेक धर्मो में से मोल-धर्म सत्य-धर्म की पहचान कैसे हो ? ये चिर-नित्य प्रश्न रहे हैं। व्यामोह उत्पन्न करनेवाले इन प्रश्नों का समुचित समाधान प्रथम श्लोक के दो चरणों में किया गया है। जो आत्मा का उत्कृष्ट हित साधता हो वह धर्म है । जिनसे यह हित नहीं सधता वे धर्म नहीं, धर्माभास हैं ।
'धर्म' का अर्थ है - धारण करनेवाला । मोक्ष का साधन वह धर्म है जो आत्मा के स्वभाव को धारण करे। जो विजातीय तत्त्व को धारण करे वह धर्म मोक्ष का साधन नहीं है । ग्रात्मा का स्वभाव अहिंसा, संयम और तप है । साधना काल में ये यात्मा की उपलब्धि के साधन रहते हैं और सिद्धि-काल में ये आत्मा के गुरण - स्वभाव । साधना काल में ये धर्म कहलाते हैं और सिद्धि-काल में श्रात्मा के गुरग । पहले ये साधे जाते हैं फिर ये स्वयं सध जाते हैं।
मोक्ष परम मंगल है, इसलिए इसकी उपलब्धि के साधन को भी परम मंगल कहा गया है। वही धर्म परम मंगल है जो मोक्ष की उपलब्धि करा सके ।
'धर्म' शब्द का अनेक अर्थों में प्रयोग होता है और मोक्ष-धर्म की भी अनेक व्याख्याएँ हैं । इसलिए उसे कसौटी पर कसते हुए बताया गया है कि मोक्ष-धर्म वही है जिसके लक्षण अहिंसा, संयम और तप हों ।
प्रश्न है - क्या ऐसे धर्म का पालन सम्भव है ? समाधान के शब्दों में कहा गया है जिसका मन सदा धर्म में होता है उसके लिए उसका पालन भी सदा सम्भव है। जो इस लोक में निस्पृह होता है उसके लिए कुछ भी दुष्कर नहीं ।
सिद्धि-काल में शरीर नहीं होता, वारणी और मन नहीं होते, इसलिए आत्मा स्वयं अहिंसा बन जाती है । साधना काल में शरीर, वाणी और मन ये तीनों होते हैं। शरीर बाहार बिना नहीं टिकता । ग्रहार हिंसा के बिना निष्पन्न नहीं होता। यह जटिल स्थिति है । अब भला कोई कैसे पूरा हिंसक बने ? जो अहिंसक नहीं, वह धार्मिक नहीं । धार्मिक के बिना धर्म कोरी कल्पना की वस्तु रह जाती है । साधना का पहला चरण इस उलझन से भरा है। शेष चार श्लोकों में इसी समस्या का समाधान दिया गया है । समाधान का स्वरूप माधुकरी वृत्ति है । तात्पर्य की भाषा में इसका अर्थ है :
(१) मधुकर धोवी होता है। वह अपने जीवन निर्वाह के लिए किसी प्रकार का समारम्भ, उपमर्दन या हत नहीं करता। वैसे ही श्रम-साधक भी अवधजीवी हो किसी तरह का पचन - पाचन और उपमर्दन न करे ।
(२) मधुकर पुष्पों से स्वभाव-सिद्ध रस ग्रहण करता है। वैसे ही श्रमण-साधक गृहस्थों के घरों से, जहाँ आहार-जल यादि स्वाभाविक रूप से बनते हैं, प्रासुक ग्राहार ले ।
(३) मधुकर फूलों को म्लान किये बिना थोड़ा-थोड़ा रस पीता है। वैसे ही श्रमरण अनेक घरों से थोड़ा-थोड़ा ग्रहण करे ।
(४) मधुकर उतना ही रस ग्रहण करता है जितना कि उदरपूर्ति के लिए आवश्यक होता है। यह दूसरे दिन के लिए कुछ संग्रह कर नहीं रखता। वैसे ही श्रमण संयम- निर्वाह के लिए श्रावश्यक हो उतना ग्रहण करे - संचय न करे ।
(५) मधुकर किसी एक वृक्ष या फूल से ही रस ग्रहण नहीं करता परन्तु विविध वृक्षों और फूलों से रस ग्रहरण करता है । वैसे ही श्रमण भी किसी एक गाँव, घर या व्यक्ति पर आश्रित न होकर सामुदानिक रूप से भिक्षा करे ।
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