SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 488
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मूल १- मूलाओ बंधप्पभवो दुमरस संघाओ पच्छा समुति साहा । साहत्यसाहा विरति पत्ता तओ से पुष्कं च फलं रसो व ॥ २ - एवं विणओ धम्मस्स मूलं परमो से मोक्खो । जेण किति सुर्य सिग्धं निस्सेस चाभिगच्छई ॥ नवमं अज्झयणं : नवम अध्ययन विणयस माही (बीओ उद्देसो) विनय-समाधि (द्वितीय उद्देशक ) ३- य चंडे दुबाई नियडी बुजाइ से कट्ठ सोयगयं ५- तहेव जहा ॥ ४- विषयं पि जो उवाएणं चोडओ कुपई नरो । दिव्वं सो सिरिमेज्जति दंडेण पहिए | मिए थद्धे सहे । अविणीयप्पा ६- तहेव उववज्झा दीसंति अभिया Jain Education International अविणीयप्पा हया गया । दुहमेहंता सुविणीयप्पा उववज्झा हया गया । दीसंति सुहमेहता इढि महायसा || पत्ता 11 : संस्कृत छाया मूलात् स्कन्धप्रभवो द्र मस्य, स्कन्धात्याचात्समुपयन्ति शाखाः । शाखाभ्यः प्रशाखा विरोहन्ति पत्राणि, ततस्तस्य पुष्पं च फलं च रसश्च ॥१॥ एवं धर्मस्य विनयो, मूलं परमस्तस्य मोक्षः । येन कीर्ति श्रुतं श्लाध्यं, नियमिति ॥२॥ यश्च चण्डो मृगस्तब्ध:, दुर्वादी निकृतिः शठः । उते सोऽविनीतात्मा, काष्ठं स्रोतोगतं यथा ॥ ३ ॥ उपवेन चोदितः कुप्यति नरः । दिव्यां समायान्ती दण्डेन प्रतिषेधति ॥४॥ सचैवाऽविनीतात्मानः उपवाह्या या गजाः । दृश्यन्ते दुःखमेधमानाः, अभियोग्यमुपस्थिताः ॥५|| लव सुविनीतात्मानः उपवाह्या या गजा: । दृश्यन्ते सुखमेधमानाः, ऋद्धि प्राप्ता महायशसः || ६ || For Private & Personal Use Only हिन्दी अनुवाद १ वृक्ष के मूल से स्कन्ध उत्पन्न होता है, स्कन्ध के पश्चात् शाखाएं आती हैं, और शाखाओं में से प्रशाखाएं निकलती हैं। उसके पश्चात् पत्र, पुष्प, फल और रस होता है । २ - इसी प्रकार धर्म का मूल है 'विनय' ( आचार) और उसका परम (अंतिम) फ' है मोक्ष विनय के द्वारा मुनि कीर्ति, श्लाघनीय श्रत और समस्त इष्ट तत्त्वों को प्राप्त होता है । 1 ३. जो चण्ड, मृग * - अज्ञ, स्तब्ध, अप्रियवादी, मायावी और शठ है, वह अविनीतात्या संवारो में से ही प्रवाहित होता रहता है जैसे नदी के स्रोत में पड़ा हुआ काठ । ४ विनय में उपाय के द्वारा भी प्रेरित करने पर जो कुपित होता है, वह आती हुई दिव्य लक्ष्मी को डंडे से रोकता है। ५- जो औपवाह्य घोड़े और हाथी अविनीत होते हैं, वे सेवाकाल में दुःख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । ६--जो ओपवाड़े और हाथी सुविनीत होते हैं, वे ऋद्धि और महान् यश को पाकर सुख का अनुभव करते हुए देखे जाते हैं । www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy