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दसवेआलियं ( दशवैकालिक)
३२२ अध्ययन ६ : श्लोक ४७ टि० ६५-६८
६५. अकल्पनीय ( अभोज्जाइंक ) :
यहाँ अभोज्य (अभोग्य) का अर्थ अकलनीय है। जो भक्त-पान, शय्या, वस्त्र और पात्र साधु के लिए अग्राह्य हो---विधि-सम्मत न हो, संयम का अपकारी हो उसे अकल्पनीय कहा जाता है।
६६. ( इसिणाख):
चूर्णिद्वय के अनुसार यह तृतीया का एक वचन है और टीकाकार ने इसे पाठी का बहुवचन माना है।
६७. ( आहारमाईणि ख ) :
यहाँ मकार अलाक्षणिक है। आदि शब्द के द्वारा शय्या, वस्त्र और पात्र का ग्रहण किया गया है ।
श्लोक ४७:
६८. अकल्पनीय ..की इच्छा न करे ( अकप्पियं न इच्छेज्जा" ) :
_ अकल्प दो प्रकार के होते हैं...शैक्ष-स्थापना अकल्प और अकल्प-स्थापना अकल्प । शैक्ष (जो कल्प, अकल्प न जानता हो) द्वारा आनीत या याचित आहार, वसति और वस्त्र ग्रहण करना, वर्षाकाल में किसी को पत्र जत करना या ऋतुबद्ध काल (वर्षाकाल के अतिरिक्त काल) में अयोग्य को प्रबजित करना शैक्ष-स्थापना अकल्प' कहलाता है । जिनदास महत्तर के अनुसार जिसने हिण्डनियुक्ति का अध्ययन न किया हो उसका लाया हुआ भक्त-पान, जिसने शय्या (आयारचूला २) का अध्ययन न किया हो उसके द्वारा याचित दसति और जिसने वस्त्रषणा (आयारचूला ५) का अध्ययन न किया हो उसके द्वारा आनीत वस्त्र, वर्षाकाल में किसी को प्रवजित करना और ऋतुबद्ध-काल में अयोग्य को प्रबजित करना शैक्ष स्थापना आल्प' कहलाता है । जिसने पावणा (आयार चूला ६) का अध्यपन न किया हो उसके द्वारा आनीत पात्र भी 'शक्ष-स्थापना अकल्प' है । अकल्पनीय पिण्ड आदि को 'अकला-स्थानना-प्रकल्प' कहा जाता है। यहां यही प्रस्तत
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१---(क) अ० चू० १० १५२ : 'अभोज्जाणि' अकप्पिताणि।
(ख) जि० चू० पृ० २२७ : 'अभोज्जाणि' अकप्पियाणि ।
(ग) हा० टी०५० २०३ : 'अभोज्यानि' संयमापकारित्वेनाकल्पनीयानि । २-(क) अ० चू० पृ० १५२ : 'इसिणा' साधुणा।
(ख) जि० चू० पृ० २२७ : 'इसिणा' णाम साधुणा । ३-हा० टी० प० २०३ : 'ऋषीणां' साधूनाम् । ४-- (क) अ० चू० पृ० १५२ : आहारो आदी जेसि ताणि आहारादीणि ।
(ख) जि० चू०प० २२७ : आहारो आई जेसि ताणि आहारमादीणि ताणि अभोज्जाणि ।
(ग) हा० टी०प० २०३ : आहारशय्यावस्त्रपात्राणि। ५- अ० चू० पृ० १५२ : पढमोत्तरगुणो अकप्पो । सो दुबिहो, तं-सेहठवगाकप्पो अकप्पट्ठवणाकप्पोय। पिंडसेज्जवत्थपत्ताणि ___अप्पप्पणो अकप्पितेण उप्पाइयाणि ण कप्पति, वासासु सध्ने ण पब्वाविजंति, उडुबद्ध अणला । अकप्पठवणाकप्पो इमो।। ६---जि० चू० पृ० २२६ : तत्थ सेहट्ठवणाकप्पो नाम जेण पिण्डणिज्जुत्ती ण सुता तेसु आणियं न कप्पड़ भोत्तुं, जेण सेज्जाओ ण
सुयाओ तेण वसही उग्गमिता ण कप्पइ, जेण वत्वेसणा ण सुया तेण वत्थं, उहुनद्ध अणला ण पवाविज्जति, वासासु सम्वेऽवि। ७-हा० टी०प० २०३ : अणहीआ खलु जेणं पिडेसणसेज्जवस्थपाएसा ।
तेणाणियाणि जतिणो कप्पंति ण पिंडमाईणि ॥१॥ उउबद्ध मि न अणला वासावासे उ दोऽवि णो सेहा ।
दिक्खिज्जती पार्य ठवणाकप्पो इमो होइ ॥२॥ ८-हा०टी०प०२०३ : अकल्पस्थापनाकल्पमाह--'जाई' ति सूत्रम् ।
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