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आमुख
इसलिए विनय का प्रयोग करना चाहिए'। अर्थ केवल नम्रता ही नहीं है । नम्र भाव
धर्म का मूल है 'विनय' और उसका परम है 'मोक्ष'" । विनय तप है और तप धर्म है, जैन आगमों में 'विनय' का प्रयोग आचार व उसकी विविध धाराओं के अर्थ में हुआ है। विनय का आचार की एक धारा है। पर विनय को नम्रता में ही बाँध दिया जाए तो उसकी सारी व्यापकता नष्ट हो जाती है। जैन धर्म वैनयिक (नमस्कार, नम्रता को सर्वोपरि मानकर चलने वाला) नहीं है। वह प्राचार प्रधान है। सुदर्शन ने थावच्चापुत्त अणगार से पूछा- "भगवन् !
के धर्म का मूल क्या है ?" थावच्चापुत्त ने कहा- "सुदर्शन ! हमारे घर्म का मूल विनय है। वह विनय दो प्रकार का है- ( १ ) ग्रागार - विनय (२) अणगार - विनय । पाँच अणुव्रत, सात शिक्षाव्रत और ग्यारह उपासक प्रतिमाएँ यह श्रागार - विनय है। पांच महाव्रत, अठारह पाप-विरति रात्रिभोज - विरति, दशविध प्रत्याख्यान और बारह भिक्षु प्रतिमाएँ यह अणगार विनय है।" प्रस्तुत अध्ययन का नाम विनय-समाधि है । उत्तराध्ययन के पहले अध्ययन का नाम भी यही है। इनमें विनय का व्यापक निरूपण है। फिर भी विनय की दो धाराएं अनुशासन और नम्रता अधिक प्रस्फुटित हैं।
विनय अंतरंग तप है। गुरु के आने पर खड़ा होना, हाथ जोड़ना, ग्रासन देना, भक्ति और सुश्रूषा करना विनय है ।
प्रोपपातिक सूत्र में विनय के सात प्रकार बतलाए हैं। उनमें सातवां प्रकार उपचार - विनय है । उक्त श्लोक में उसी की व्याख्या है। ज्ञान, दर्शन, चारित्र, मन, वाणी और काय का विनय ये छह प्रकार शेष रहते हैं । इन सबके साथ विनय की संगति उद्धत भाव के त्याग के अर्थ में होती है । उद्धत भाव और अनुशासन का स्वीकार – ये दोनों एक साथ नहीं हो सकते । श्राचार्य और साधना के प्रति जो नम्र होता है वही प्राचारवान् बन सकता है। इस अर्थ में नम्रता याचार का पूर्णरूप है । विनय के अर्थ की व्यापकता की पृष्ठभूमि में यह दृष्टिकोण अवश्य रहा है।
ata साहित्य में भी विनय व्यवस्था, विधि व अनुशासन के अर्थ में प्रयुक्त हुआ है। बौद्ध भिक्षुत्रों के विधि-ग्रन्थ का नाम इसी प्रर्थं में 'विनयपिटक' रखा गया है।
प्रस्तुत अध्ययन के चार उद्देशक हैं। आचार्य के साथ शिष्य का वर्तन कैसा होना चाहिए- - इसका निरूपण पहले में है । "अणंतनाणोवगयो वि संतो " - - शिष्य अनन्त ज्ञानी हो जाए तो भी वह प्राचार्य की आराधना वैसे ही करता रहे जैसे पहले करता था यह है विनय का उत्कर्ष । जिसके पास धर्म-पद सीखे उसके प्रति विनय का प्रयोग करे मन, वाणी और शरीर से नम्र रहे ( श्लोक १२ ) । जो गुरु मुझे अनुशासन 'देते हैं उनकी मैं पूजा करू (श्लोक १३ ) ऐसे मनोभाव विनय की परम्परा को सहज बना देते हैं शिष्य के मानस में ऐसे संस्कार बैठ जाएँ तभी आचार्य और शिष्य का एकात्मभाव हो सकता है और शिष्य श्राचार्य से इष्ट तत्व पा सकता है।
दूसरे में विनय और विनय का भेद दिखलाया गया है। अविनीत विपदा को पाता है और विनीत सम्पदा का भागी होता है । जो इन दोनों को जान लेता है वही व्यक्ति शिक्षा प्राप्त करता है (श्लोक २१) । यविनीत प्रसंविभागी होता है जो संविभागी नहीं होता वह मोक्ष नहीं पा सकता ( श्लोक २२ ) ।
जो श्राचार के लिए विनय का प्रयोग करे, वह पूज्य है (श्लोक २ ) । जो अप्रिय प्रसंग को धर्म - बुद्धि से सहन करता है, वह पूज्य है (श्लोक ८) पुज्य के लक्षणों का निरूपण यह तीसरे का विषय है।
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१ - दश० ६.२.२ : एवं धम्मस्स विणओ, मूलं परमो से मोक्खो ।
२ - प्रश्न० संवरद्वार ३ पाँचवीं भावना : विणओ वि तवो तवो विधम्मो तम्हा विणओ पउंजियव्वो ।
३- ज्ञाता० ५।
४ उत्त० ३०.३२ अयनुद्वाणं अंजलिकरणं तवासगदायणं ।
गुरुभत्तिभावसुस्सूसा, विणओ एस वियाहिओ ॥
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