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________________ ११५ अध्ययन ४: श्लोक ३-६ छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) ३--अजयं आसमाणो उ पाणभूयाइं हिसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥ अयतमासीनस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति। बध्नाति पापक कर्म ततस्य भवति कटुक-फलम् ॥ ३॥ ३.-अयतनापूर्वक बैठने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । उससे पाप-कर्म का बंध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। ४-अजयं सयमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥ अयतं शयानस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक-फलम् ॥ ४॥ ४--अयतनापूर्वक सोने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । उससे पाप-कर्म का बंध होता है । वह उसके लिए कटु फल वाला होता है । ५-अजयं भुंजमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥ अयतं भुजानस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक-फलम् ॥ ५॥ ५-अयतनापूर्वक भोजन करने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पाप-कर्म का बंध होता है । वह उसके लिए कटु फल वाला होता है। ६-अजय भासमाणो उ पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडय फलं ॥ अयतं भाषमाणस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति। वध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक-फलम् ॥६॥ ६---अयतनापूर्वक बोलने वाला१२८ बस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पाप-कर्म का बंध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है१२६ । ७–कहं चरे कहं चिट्ठे कहमासे कहं सए। कहं भुंजतो भासंतो पावं कम न बंधई॥ कथ चरेत् कथं तिष्ठत् कथमासीत कथं शयीत । कथं भुजानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति ॥ ७॥ ७.--कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए ? कैसे बोले? जिससे पाप-कर्म का बन्धन न हो । ८-13 जय चरे जयं चिट्ठे जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ॥ यतं चरेद् यतं तिष्ठेत् यतमासीत यत शयीत। यतं भुजानो भाषमाणः पाप कर्म न बध्नाति ॥८॥ ८-यतनापूर्वक चलने,१३२ यतनापूर्वक खड़ा होने,733 यतनापूर्वक बैठने,१४ यतनापूर्वक सोने,१३५ यातनापूर्वक खाने १३६ और यतनापूर्वक बोलने वाला पाप-कर्म का बन्धन नहीं करता। 8-सव्वभूयप्पभू यस्स सम्मं भूयाइ पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई॥ सर्बभूतात्मभूतस्य सम्यग् भूतानि पश्यतः। पिहितात्रवस्य दान्तस्य पापं कर्म न बध्यते ॥६॥ --जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक्-दृष्टि से देखता है, जो आत्रब का निरोध कर चुका है और जो दान्त है उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता १३८ । Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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