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अध्ययन ४: श्लोक ३-६
छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका ) ३--अजयं आसमाणो उ
पाणभूयाइं हिसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥
अयतमासीनस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति। बध्नाति पापक कर्म ततस्य भवति कटुक-फलम् ॥ ३॥
३.-अयतनापूर्वक बैठने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । उससे पाप-कर्म का बंध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है।
४-अजयं सयमाणो उ
पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥
अयतं शयानस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक-फलम् ॥ ४॥
४--अयतनापूर्वक सोने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है । उससे पाप-कर्म का बंध होता है । वह उसके लिए कटु फल वाला होता है ।
५-अजयं भुंजमाणो उ
पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडुयं फलं ॥
अयतं भुजानस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति । बध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक-फलम् ॥ ५॥
५-अयतनापूर्वक भोजन करने वाला त्रस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पाप-कर्म का बंध होता है । वह उसके लिए कटु फल वाला होता है।
६-अजय भासमाणो उ
पाणभूयाइं हिंसई। बंधई पावयं कम्म तं से होइ कडय फलं ॥
अयतं भाषमाणस्तु प्राणभूतानि हिनस्ति। वध्नाति पापकं कर्म तत्तस्य भवति कटुक-फलम् ॥६॥
६---अयतनापूर्वक बोलने वाला१२८ बस और स्थावर जीवों की हिंसा करता है। उससे पाप-कर्म का बंध होता है। वह उसके लिए कटु फल वाला होता है१२६ ।
७–कहं चरे कहं चिट्ठे
कहमासे कहं सए। कहं भुंजतो भासंतो पावं कम न बंधई॥
कथ चरेत् कथं तिष्ठत् कथमासीत कथं शयीत । कथं भुजानो भाषमाणः पापं कर्म न बध्नाति ॥ ७॥
७.--कैसे चले ? कैसे खड़ा हो ? कैसे बैठे ? कैसे सोए ? कैसे खाए ? कैसे बोले? जिससे पाप-कर्म का बन्धन न हो ।
८-13 जय चरे जयं चिट्ठे
जयमासे जयं सए। जयं भुंजतो भासंतो पावं कम्मं न बंधई ॥
यतं चरेद् यतं तिष्ठेत् यतमासीत यत शयीत। यतं भुजानो भाषमाणः पाप कर्म न बध्नाति ॥८॥
८-यतनापूर्वक चलने,१३२ यतनापूर्वक खड़ा होने,733 यतनापूर्वक बैठने,१४ यतनापूर्वक सोने,१३५ यातनापूर्वक खाने १३६ और यतनापूर्वक बोलने वाला पाप-कर्म का बन्धन नहीं करता।
8-सव्वभूयप्पभू यस्स
सम्मं भूयाइ पासओ। पिहियासवस्स दंतस्स पावं कम्मं न बंधई॥
सर्बभूतात्मभूतस्य सम्यग् भूतानि पश्यतः। पिहितात्रवस्य दान्तस्य पापं कर्म न बध्यते ॥६॥
--जो सब जीवों को आत्मवत् मानता है, जो सब जीवों को सम्यक्-दृष्टि से देखता है, जो आत्रब का निरोध कर चुका है और जो दान्त है उसके पाप-कर्म का बन्धन नहीं होता १३८ ।
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