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भूमिका
दूसरी वाचना
आगम-संकलन का दूसरा प्रयत्न वीर निर्वाण ६२७ और ८४० के मध्यकाल में हुआ । उस काल में बारह वर्ष का भीषण हुम भिक्षा मिलना अत्यन्त दुष्कर हो गया। साधु छिन्न-भिन्न हो गए। वे आहार की उचित गवेषणा में दूर-दूर देशों की ओर चल पड़े। अनेक बहुश्रुत तथा आगमधर मुनि दिवंगत हो गए । भिक्षा की प्राप्ति न होने के कारण आगम का अध्ययन-अध्यापन, धारण और प्रत्यावर्तन सभी अवरुद्ध हो गए । धीरे-धीरे श्रुत का ह्रास होने लगा । अतिशायी श्रु का नाश हुआ । अंगों और उपांगों का भी अर्थ से ह्रास हुआ । उनका बहुत बड़ा भाग नष्ट हो गया । बारह वर्ष के इस दुष्काल के बाद सारा श्रमण संघ स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में मथुरा में एकत्रित हुआ। उस समय जिन-जिन श्रमणों को जितना जितना स्मृति में था, उसका अनुसन्धान किया। इस प्रकार कालिक सूत्र और पूर्वगत के कुछ अंश का संकलन हुआ । मथुरा में होने के कारण उसे "माथुरी वाचना" कहा गया | युगप्रधान आचार्य स्कन्दिल ने उस संकलित श्रुत के अर्थ की अनुशिष्टि दी, अतः वह अनुयोग उनका ही कहलाया । माथुरी वाचना को "स्कन्दिली वाचना" भी कहा गया ।
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मतान्तर के अनुसार यह भी जाना जाता है कि दुर्भिक्ष के कारण किञ्चित् भी श्रुत नष्ट नहीं हुआ। उस समय सारा श्रुत विद्यमान था, किन्तु आचार्य स्कन्दिल के अतिरिक्त शेष सभी अनुयोगधर मुनि काल-कवलित हो गए थे । दुर्भिक्ष को अन्त होने पर आचार्य स्कन्दिल ने मथुरा में पुनः अनुयोग का प्रवर्तन किया, इसीलिए उसे "माथुरी वाचना" भी कहा गया और वह सारा अनुयोग "स्कन्दिल सम्बन्धी गिना गया ।"
तीसरी वाचना
इसी समय (वीर-निर्वाण ८२७- ८४०) वल्लभी में आचार्य नागार्जुन को अध्यक्षता में संघ एकत्रित हुआ। उस समय जिन-जिन श्रमणों को जितना-जितना याद था उसका संकलन प्रारंम्भ किया किन्तु यह अनुभव हुआ कि वे बीच-बीच में बहुत कुछ भूल चुके हैं । श्रुत की सम्पूर्ण व्यवच्छित्ति न हो जाए, इसलिए जो स्मृति में था उसे संकलित किया। उसे "वल्लभी वाचना" या " नागार्जुनीय वाचना" कहा गया ।
चौथो वाचना
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वीर- निर्वाण की दसवीं शताब्दी (१८० या ६६३ वर्ष) में देवद्विगणी क्षमाश्रमण की अध्यक्षता में वल्लभी में पुनः श्रमण संघ एकत्रित हुआ। स्मृति- दौर्बल्य, परावर्तन की न्यूनता, ति का ह्रास और परम्परा की व्यवच्छित्ति आदि-आदि कारणों से श्रुत का अधिकांश भाग नष्ट हो चुका था किन्तु एकत्रित मुनियों को अवशिष्ट श्रुत की न्यून या अधिक, त्रुटितया अटित जो कुछ स्मृति थी उसकी व्यवस्थित संकलना की गई। देवद्धिगणी ने अपनी बुद्धि से उसकी संयोजना कर उसे पुस्तकास किया। माधुरी तथा वल्लभी वाचनाओं के कंठगत आगमों को एकत्रित कर उन्हें एकरूपता देने का प्रयास हुआ। जहाँ अत्यन्त मतभेद रहा वहाँ माथुरी वाचना को मूल मानकर वल्लभी वाचना के पाठों को पाठान्तर में स्थान दिया गया । यही कारण है कि आगम के व्याख्या-ग्रन्थों में यत्र-तत्र " नागार्जुनीयास्तु पठन्ति " ऐसा उल्लेख हुआ हैं ।
विद्वानों की मान्यता है कि इस संकलन से सारे आगमों को व्यवस्थित रूप मिला। भगवान् महावीर के पश्चात् एक हजार वर्षों में पटित मुख्य घटनाओं का समावेश यत्र-तत्र आगमों में किया गया। जहाँ-जहाँ समान आतापकों का वार-चार पुनरावर्तन होता था, उन्हें संक्षिप्त कर एक दूसरे का पूर्ति संकेत एक दूसरे आगम में किया गया।
वर्तमान में जो आगम उपलब्ध हैं वे देर्वाद्धगणी क्षमाश्रमण की वाचना के हैं। उसके पश्चात् उनमें संशोधन, परिवर्धन या परिवर्तन नहीं हुआ।
यहाँ यह प्रश्न होता हैं कि यदि उपलब्ध आगम एक ही आचार्य की संकलना हैं तो अनेक स्थानों में विसंवाद क्यों ?
१ – (क) नंदी गा० ३३, मलयगिरि वृत्ति पत्र २१ ।
(स) मंदी वृषि पत्र ८
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