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विवित्तचरिया (विविक्तचर्या)
५३१ द्वितीय चूलिका : श्लोक १२-१६ टि० ३३-३४ गया है । जिनदास महत्त र और हरिभद्रसूरि का अभिमत भी यही है। बुणिकार 'अवि' को सम्भावनार्थक मानते हैं। इनके अनुसार कारण विशेष की स्थिति में उत्कृष्ट-वास मर्यादा से अधिक भी रहा जा सकता है ---'अपि' शब्द का यह अर्थ है । हरिभद्र सूरि 'अपि' शब्द के द्वारा एक मास का सूचन करते हैं। आचाराङ्ग में ऋतु-बद्ध और वर्षाकाल के कल्प का उल्लेख है। किन्तु वर्षाकाल
और शेषकाल में एक जगह रहने का उत्कृष्ट कल्प (मर्यादा) कितना है, इसका उल्लेख वहाँ नहीं है। वर्षावास का परम-प्रमाण चार मास का काल है और शेषकाल का परम-प्रमाण एक मास का है। यहाँ बतलाया गया है कि जहां उत्कृष्ट काल का वास किया हो वहाँ दूसरी बार वास नहीं करना चाहिए और तीसरी बार भी । तीसरी बार का यहाँ स्पष्ट उल्लेख नहीं हैं किन्तु यहाँ चकार के द्वारा वह प्रतिपादित हुआ है, ऐमा चूर्णिकार का अभिमत है । तात्पर्य यह है कि जहाँ मुनि एक मास रहे वहाँ दो मास अन्यत्र बिताए बिना न रहे । इसी प्रकार जहाँ चातुर्मास करे वहाँ दो चातुर्मास अन्यत्र किए बिना चातुर्मास न करे ।
श्लोक १२: ३३. ( कि मे क ) :
यहाँ 'मे' पद में तृतीया के स्थान में षष्ठी विभक्ति का प्रयोग है।
श्लोक १६:
३४. आत्मा की सातत रक्षा करनी चाहिए ( अप्पा खलु सययं रक्खियम्वो क):
इस चरण में कहा गया है कि आत्मा की सतत रक्षा करनी चाहिए। कुछ लोग देह-रक्षा को मुख्य मानते हैं। उनकी धारणा ह कि आत्मा को गँवाकर भी शरीर की रक्षा करनी चाहिए । शरीर आत्म-साधना करने का साधन है। किन्तु यहाँ इस मत का खण्डन किया गया है और आत्म-रक्षा को सर्वोपरि माना गया है। महाव्रत के ग्रहण काल से मृत्यु-पर्यन्त आत्म-रक्षा में लगे रहना चाहिए। आत्मा मरती नहीं, अमर है फिर उसकी रक्षा का विधान क्यों ? यह प्रश्न हो सकता है, किन्तु इसका उत्तर भी स्पष्ट है । यहाँ आत्मा से संयमात्मा [संयम-जीवन] का ग्रहण अभिप्रेत है । संयमात्मा की रक्षा करनी चाहिए । श्रमण के लिए कहा भी गया है कि वह संयम से जीता है। संयमात्मा की रक्षा कैसे हो? इस प्रश्न के सम्बन्ध में बताया गया है-इन्द्रियों को सुसमाहित करने से उनकी विषयोन्पुखी या बहिर्मुखी वृत्ति को रोकने से आत्म-रक्षा होती है।
१--अ० चू० : संवच्छर इति कालपरिमाणं । तं पुण णेह वारसमासिगंसंवज्झति किंतु वरिसारत चातुमासितं । स एव जेटोग्गहो। २-(क) अ० चू० : अपि सद्दो कारण विसेसं दरिसयति ।
(ख) जि० चू० पृ० ३७४ : अविसद्दो संभावणे, कारणे अच्छितव्वंति एवं संभावयति । ३-हा० टी०प० २८३ : अपिशब्दान्मासमपि । ४--बृहत् ० भा० १.३६ । ५-बृहत् भा०१.६.७८ । ६-अ० चू० : बितियं च वास–बितियं ततो अणंतरं च सद्देण ततियमवि जतो भणितं तदुगुण, दुगणेणं अपरिहरित्ता ण वट्टति ।
बितियं ततियं च परिहरिऊण चउत्थे होज्जा। ७ - हा० टी० प० २८३ : किं मे कृत' मिति छांदसत्वात् तृतीयार्थे षष्ठी। ८-दश० चू० २.१५ : सो जीवइ संजमजीविएण ।
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