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दसवेलियं ( दशवैकालिक )
१०६ मोर - पिच्छी ( पिहुणहत्थेण ) :
मोर - पिच्छों अथवा अन्य पिच्छों का समूह- -एक साथ बंधा हुआ गुच्छ' ।
१०७. वस्त्र के पल्ले ( चेलकण्णेण ) :
वस्त्र का एक देश भाग ।
१०८. अपने शरीर अथवा बाहरी पुगलों को ( अप्पणी वा कार्य बाहिर वा विग्गलं )
अपने गात्र को तथा उष्ण ओदन आदि पदार्थों को ।
१५५
१०६. स्फुटित बीजों पर ( रुदेतु)
बीज जब भूमि को फोड़ कर बाहर निकलता है तब उसे रूढ़ कहा जाता है। यह बीज और अंकुर के बीच की अवस्था है । अंकुर नहीं निकला हो ऐसे स्फुटित बीजों पर
११०. पत्ते आने की अवस्था वाली वनस्पति पर ( जाएसु ) :
अगस्त्य रिंग में बद्ध - मूल वनस्पति की जात कहा है। यह भ्रूणाग्र के प्रकट होने की अवस्था है। जिनदास चूर्णि और टीका में इस दशा को स्तम्ब कहा गया है।
जो वनस्पति अंकुरित हो गई हो, जिसकी पत्तियाँ भूमि पर फैल गई हों या जो घास कुछ बढ़ चली हो उसे स्तम्बीभूत कहा
जाता है ।
१११. छिन्न वनस्पति के प्रङ्गों पर (छिन्ने ) :
वायु द्वारा भग्न अथवा परशु आदि द्वारा वृक्ष से अलग किए हुए आर्द्र अपरिणत डालादि अङ्गों पर ।
२ (क) अ० चू० पृ० ८ः तदेकदेशी चेलको ।
सूत्र : २२
१ (क) अ० पू० पू०
सायणस्वती
(ख) जि० चू० पृ० १५६ : पिहृणात्थओ मोरिगकुच्चो गिद्धपिच्छाणि वा एगओ बद्धाणि । (ग) हा० टी० ० १५४
समूहः ।
४ (क) अ० चू० पृ० ६० : उभिज्जेत रूढं ।
अध्ययन ४ : सूत्र २२ टि० १०६-१११
(स) ० ० ० १५६
एगदेसो
(ग) हा० टी० प० १५४ : वेलकर्णः तदेकदेशः ।
३ -- (क) अ० ० पृ० ८६ : अप्पनो सरीरं सरीरवज्जो बाहिरो पोग्गलो ।
१५६ : पोग्गलं उसिणोदगं ।
(ख) जि० चू० पृ० (ग) हा० टी० प०
१५४ आत्मनो वा कार्य स्वदेहमित्यर्थः, बाह्य वा जुलम् उष्णौदनादि
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(ख) जि० चू० पृ० १५७ : रुढं णाम बीयाणि चैव कुडियाणि ण ताब अंकुरो निष्फज्जइ ।
(ग) हा० डी० प० १२५
स्फुटितीजानि ।
अ० चू० पृ० १० : आबद्धमूलं जातं ।
(क) जि० चू० पृ० १५७ जायं नाम एतानि चैव थंबी ।
(ख) हा० टी० प० १५५ : जातानि स्तम्बीभूतानि ।
७ (क) अ० चू० पृ० १० : छिष्णं पिहोकतं तं अपरिणतं ।
(ख) जि० सू० पृ० १५७ : हिण्णग्गहषेणं वारणा भग्गस्स अण्णेण वा परशुमाइणा छिष्णस्स अभावे वट्टमाणस्स अपरिणयस्स ग्रहणं कयमिति ।
(ग) हा० डी० पु० १५५
परवादिभिरं क्षात् पृथक्वापितान्यानि अपरिगतानि
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