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छज्जीवणिया ( षड्जीवनिका )
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अध्ययन ४ : सूत्र २१ टि० १०२-१०५ आयार घुला (१।६६ ) में वही प्रकरण है जो कि इस सूत्र में है। वहाँ पर 'सिएण वा' के स्थान पर 'सुवेग वा' का प्रयोग हुआ है सूवेण वा विषेण वा
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निशीथ भाष्य ( गा० २३६ ) में भी 'सुप्पं का प्रयोग मिलता है :
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यह परिवर्तन विचारणीय है ।
१०२. पंखे ( विणेण ) :
व्यजन, पंखा' ।
१०३. बीजन ( तालियंटे ) :
जिसके बीच में पकड़ने के लिए छेद हो और जो दो पुट वाला हो उसे तालवृन्त कहा जाता है। कई-कई इसका अर्थ ताड़पत्र का पंखा भी करते हैं।
सुप्पे य तालवेंटे हत्थे मत्ते य चेलकण्णे य ।
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अच्छिफुमे पव्वए, जालिया चेव पत्ते य ॥
१०४. पत्र, शाखा, शाखा के टुकड़े ( पत्ते वा साहाए वा साहाभंगेण वा ) :
'पत्ते वा' 'साहाए वा' के मध्य में सत्तभंगेण वा' पाठ भी मिलता है । टीका-काल तक 'पत्तभंगेण वा' यह पाठ नहीं रहा । इसकी व्याख्या टीका की उत्तरवर्ती व्याख्याओं में मिलती है। आचाराङ्ग (२.१.७.२६२) में पते वा' के बाद 'साहाए वा' रहा है किन्तु उनके मध्य में पत्तभंगेण वा' नहीं है और यह आवश्यक भी नहीं लगता ।
पत्र पद्मिनी पत्र आदि।
-वृक्ष की डाल ।
शाखा
शाखा के टुकड़े डाल का एक अंश ।
१०५. मोर पंख (पिण)
इसका अर्थ मोर पिच्छ अथवा वैसा ही अन्य पिच्छ होता है ।
अ० चू० पृ० ८६ वीयणं विहुवणं ।
(ख) जि०००१४६ वि दीपनं नाम । (ग) हा० टी० प० १५४ विधुवनं व्यजनम् । २– (क) अ० चू० पृ० ८६ : तालवेंटमुरखेवजाती । (ख) जि० ० सू० पृ० १५६ : तालियंटो नाम लोगपसिद्धो । (ग) हा० टी० प० १५४ तालवृन्तं तदेव मध्यग्रहणान् द्विपुटम् ।
३ (क) अ० चू० पृ० ८६ : पउमिणिपण्णमादी पत्तं । (ख) जि० चू० पृ०१५६ : पत्तं नाम पोमिणिपत्तादी । (ग) हा० टी० प० १५४ पत्र - पद्मिनीपत्रादि ।
४ -- ( क ) अ० चू० पृ० ८ : रुखखडालं साहा, तदेगदेसो साहा भंगतो ।
(ख) जि० चू० पृ० १५६ : साहा स्वखस्स डालं, साहाभंगओ तस्सेव एगदेसो । (ग) हा० टी० प० १५४ : शाखा - वृक्षडालं शाखाभङ्गः ---- तदेकदेशः ।
५– (क) अ० चू० पृ० ८ : पेहुणं मोरंगं ।
(ख) जि० ० ० १५६ पेणं मोरविन्द वा अगं किंचि या तारि दिन्छ । (च) हा० टी० प० १५४ पेरादिपदम् ।
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