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वक्कसुद्धि ( वाक्यशुद्धि )
३५६ अध्ययन ७ : श्लोक २६-३२ टि० ४८-५३ श्लोक २६ :
४८. उपाश्रय के ( उवस्सए ख ) :
उपाश्रय-घर अथवा साधुओं के रहने का स्थान' ।
श्लोक ३१
४६. दीर्घ हैं, वृत्त "हैं, महालय हैं ( दीहवट्टा महालया ):
नालिकेर, ताड़ आदि वृक्ष दीर्घ होते हैं । अशोक, नन्दि आदि वृक्ष वृत्त होते हैं। बरगद आदि वृक्ष महालय होते हैं अथवा जो वृक्ष बहु विस्तृत होने के कारण नानाविध पक्षियों के आधारभूत हों, उन्हें महालय कहा जाता है । ५०. प्रशाखा वाले हैं ( विडिमा ग ) :
विटपी--जिनमें प्रशाखाएं फूट गई हों।
श्लोक ३२ ५१. पकाकर खाने योग्य हैं ( पायखज्जाइं ख ) :
पाक-खाद्य-इन फलों में गुठलियाँ पड़ गई हैं, इसलिए ये भूसे आदि में पकाकर खाने योग्य हैं । ५२. वेलोचित हैं ( वेलोइयाइंग):
जो फल अति पक्व होने के कारण डाल पर लगा न रह सके -तत्काल तोड़ने योग्य हो उसे 'बेलोचित' कहा जाता है। ५३. इनमें गुठली नहीं पड़ी है ( टालाइंग ) :
जिस फल में गुठली न पड़ी हो उसे 'टाल' कहा जाता है ।
१-अ० चू० पृ० १७२ : उवस्सयं साधुणिलयणं । २-जि० चू० पू० २५५ : दोहा जहा नालिएरतालमादी। ३--(क) जि० चू० पृ० २५५ : वट्टा जहा असोगमाई।
(ख) हा० टी० प० २१८ : वृत्ता नन्दिवृक्षादयः । ४-जि० चू० पृ० २५५ : महालया नाम वडमादि । ५ जि० चू० पृ० २५५ : अहवा महसदो बाहुल्ले वट्टइ, बहूणं पक्खिसिंघाण आलया महालया । ६-(क) जि० चू० पृ० २५५ : 'बिडिमा' तत्थ जे खंधओ ते साला भण्णंति, सालाहितो जे णिग्गया ते बिडिमा भण्णंति ।
(ख) हा० टी०प० २१८ : 'विटपिनः' प्रशाखावन्तः । ७-(क) जि. चू०पू० २५६ : पाइखज्जाणि णाम जहा एताणि फलाणि बद्धट्ठियाणि संपयं कारसपलादिस पाइऊण
खाइयव्वाणित्ति । (ख) हा० टी० प० २१८-१६ : 'पाकखाद्यानि' बद्धास्थीनीति गर्तप्रक्षेपकोद्रवपलालादिना विपाच्य भक्षणयोग्यानीति । ८-(क) हा० टी०प० २१६ : 'वेलोचितानि' पाकातिशयतो ग्रहणकालोचितानि, अतः परं कालं न विषहन्ति इत्यर्थः । (ख) जि० चू० पृ० २५६ : 'वेलोइयाणि' नाम वेला-कालो, तं जा णिति वेला तेसि उच्चिणि ऊगं ते अतिपरकाणि एयाणि
पडंति जइ न उच्चिणिज्जति । ...-- (क) जि० चू० पू० २५६ : टालाणि नाम अबद्धट्ठिगाणि भन्नंति ।
(ख) हा० टी० प० २१६ : 'टालानि' अबद्धास्थीनि कोमलानीति ।
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