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मूल
१ - चउन्हं खलु परिसंखाय
आसाणं
दोन्ह
तु विषयं सिक्
दो न भासेज्ज सव्वसो ॥
पानवं ।
य सच्चा अवत्तव्वा २- जा सच्चामोसा य जा मुसा । जा य बुद्धेाइना न तं भासेज्ज पन्तवं ॥ ३- असचमोसं
सच्चं च
अणवज्जमकक्कसं
समुप्पेगसंदिद्धं
गिरं भासेवज पनयं ॥
४- एयं च अट्टमन्नं वा जं तु नामेइ सासयं । स भासं सच्चमो पि तं पि धीरो
विवज्जए ||
५- हिं
तहामुति
जं गिरं भासए नरो तम्हा सो पुट्ठो पावेणं किं पुण जो मुर्ख बए ॥
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६ - तम्हा गच्छामो वक्लामो अमुगं वा णे भविस्सई । अहं वा णं करिस्कामि एसो वा णं करिस्सई ॥
सत्तमं अज्झयणं : सप्तम अध्ययन
वक्कसुद्धि वाक्यशुद्धि
संस्कृत छाया
चतसृणां खलु भाषाणां परिसंख्याय प्रज्ञावान् । द्वाभ्यां तु विनयं शिक्षेत, द्वे न भाषेत सर्वशः ॥ १ ॥
या च सत्या अवक्तव्या, सत्यामृषा च या मृषा । याच बुरनाचीर्णा न तां भाषेत प्रज्ञावान् ||२|| असत्यामृषा सत्यां च, अनयामकर्कशाम् । समुत्प्रेक्षां ( क्ष्य) असंदिग्ध, गिरं भाषेत प्रज्ञावान् ॥३॥
एवं
यस्तु
नामयति स्वाशयम् । भाषां सत्यामृषा अपि तामपि धीरो विवर्जयेत् ||४||
वितथापि तथा मूर्ति, यां गिरं भाषते नरः । तस्मात्स स्पृष्ट: पापेन, किं पुनर्यो मृषा वदेत् ॥५॥ तस्माद् गच्छामः वक्ष्यामः, अमुकं वा नो भविष्यति । अहं वा इद करिष्यामि, एष वा इदं करिष्यति || ६ ||
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हिन्दी अनुवाद
१- प्रज्ञावान मुनि पारों भाषाओं को जानकर दो के द्वारा लिय ( शुद्ध प्रयोग ) ' सीखे और दो सर्वथा न बोले ।
सत्यमृषा
२- जो अवक्तव्य-सत्य', (मिश्र) शृषा और असत्याऽमृषा (व्यवहार) भाषा बुद्धों के द्वारा अनाचीर्ण हो उसे प्रज्ञावान् मुनि न बोले ।
- प्रज्ञावान् मुनि ( व्यवहार-भाषा) और अनवद्य और सदेह विचार कर बोले 1
असत्यामृषा सत्य-भाषा जो हो, उसे सोच
४- वह धीर पुरुष उस अनुज्ञात असत्यामुषा को भी५ न बोले जो अपने आशय को यह अर्थ है या दूसरा प्रकार संदिग्ध बना देती हो ।
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इस
५- जो पुरुष सत्य दीखने वाली असत्य वस्तु का आश्रय लेकर बोलता है ( पुरुषवेषधारी स्त्री को पुरुष कहता है) उससे भी वह पाप से स्पष्ट होता है तो फिर उसका क्या कहना जो साक्षात् मृषा बोले ?
६-७ इसलिए हम जाएंगे "", 'कहेंगे', 'हमारा अमुक कार्य हो जाएगा', 'मैं यह करूंगा' अथवा 'यह (व्यक्ति) यह ( कार्य ) करेगा' - यह और इस प्रकार की
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