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दसवेलियं ( दशवेकालिक )
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७४. तीर्थङ्करों ने वहाँ असंयम देखा है ( दिट्ठो तत्थ असंजमो
गृहस्थ के भाजन में भोजन करने से छहों प्रकार के जीवों की विराधना संभव है । क्योंकि जब गृहस्थ उस भाजन को सचित्त जल से धोता है तब अकाय की और धोए हुए जल को फेंकने से पृथ्वी, पानी, अग्नि, वनस्पति तथा त्रसकाय की विराधना होती है । उस पानी को अविधि से फेंकने से वायुकाय की विराधना होती है । यह असंयम है' ।
श्लोक ५२
७६. (एम):
यहाँ मकार अलाक्षणिक हैं ।
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ख
७५. संभावना ( सिया ) :
जिनदास ने 'सिया' शब्द को आशंका के अर्थ में और हरिभद्र ने 'कदाचित्' के अर्थ में माना है ।
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अध्ययन ६ : श्लोक ५२-५४ टि० ७४-७८
इलोक ५३ :
७७. आसालक ( अवष्टम्भ सहित आसन ) ( आसालएसुख ) :
अवष्टम्भ वाला ( जिसके पीछे सहारा हो वैसा ) आसन 'आसालक' कहलाता है । चूर्णि और टीका के अनुसार 'मंचमासालएसु वा ' इस चरण में दूसरा शब्द 'आसालय' है और अंगविज्जा के अनुसार यह 'मासालग' है' | 'मंचमासालय' में मकार अलाक्षणिक है - इसकी चर्चा और टीका में नहीं है।
श्लोक ५४ :
७८. श्लोक ५४ :
पिछले श्लोक में आसन्दी आदि पर बैठने और सोने का सामान्यतः निषेध है । यह अपवाद सूत्र है । इसमें आसन्दी आदि का प्रतिलेखन किए बिना प्रयोग करने का निषेध है। जिनदास महत्तर और टीकाकार के अनुसार राजकुल आदि विशिष्ट स्थानों में धर्म-कथा के समय आसन्दी आदि का प्रतिलेखन-पूर्वक प्रयोग करना विहित है । अगस्त्य चूर्णि के अनुसार यह श्लोक कुछ परम्पराओं में नहीं है ।
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१- जि० चू० पृ० २२८ : अणिद्दिट्ठस्स असंजमस्स गहणं कथं, सो य इमो जेण आउक्काएण धोव्वंति सो आउक्काओ विराहिओ भवति, कदापि पूयरगादिवि तसा होज्जा, धोवित्ता य जत्थ छड्डिज्जति तत्थ पुढविआउतेउहरियतसविराहणा वा होज्जा, बावका अति व अनयणाए वा इडिजमाणे वाउक्काओ बिराहिन्जइ एवं छम्ह पुढविमाईणं विराहणा भवति, एसो असंमोतिगरेहि बिडो
२ (क) जि० चू० पृ० २२८ : सियासहो आसंकाए वट्टइ |
(ख) हा० टी० प० २०४ : स्यात् -- तत्र कदाचित् ।
(क) अ० चू० पृ० १५४ 'आसालओ' - सावट्ठ' भमासणं ।
(ख) जि० चू० पृ० २२८ : आसालओ नाम ससावंगम (सावट्ठ भं) आसणं । (ग) हा० टी० प० ४०४ : आशालकस्तु अवष्टम्भसमन्वित आसनविशेषः । ४ (क) पृ० ५२ व फल वा मंच मंचमा सालने वा (ख) वही पृ० ६५ मसालो मंचको वत्ति पहलको पहिलेको
...।।१७२ ।।
५ (क)००० २२६ जया पुण कारणं भव तदा निगगंधा पहिलेहान्त (एति) धम्मसहाराकुलादिमु पहिलेहेऊन
निसीयणादीणि कुति पडिलेहाए नाम चक्षा पडिले सयणादीनि कुवंति।
(ख) हा० टी० प० २०४ : इह चाप्रत्युपेक्षितासन्यादौ निषीदनादिनिषेधात् धर्मकथादौ राजकुलादिषु प्रत्युपेक्षितेषु निषीदनादिविधिमाह, विशेषणान्यथानुपपत्तेरिति ।
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६- २० ० पृ० १५४ सन्दीप एक सिलोगो चित्र अस्थि जेसिबि सि तिष्यतयस पत्तिए, अहवा तस्स जयणा एसा । जेण पढति ते सामण्णमेव जयगोवदेस मंगीकरेंति, जला कारणं तदा पडिलेहणाए, ण अपडिलेहिय ।
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" ॥२४॥
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