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________________ दसवेआलियं (दशवकालिक) ४६६ अध्ययनह: श्लोक २-३ (४) आत्मोत्कर्ष (गर्व) नहीं करता - यह चतुर्थ पद है और यहाँ (विनय-समाधि के प्रकरण में) एक श्लोक है२-पेहेइ हियाणुसासणं स्पृहयति हितानुशासनं, (१) मोक्षार्थी मुनि" हितानुशासन की अभिलाषा करता है"२- सुनना चाहता है । सुस्सूसइ त च पुणो अहिदए । शुश्रूषते तच्च पुनरधितिष्ठति । (२) शुश्रूषा करता है-अनुशासन को न य माणमएण मज्जइ न च मान-मदेन माद्यति, सम्यग् रूप से ग्रहण करता है। विणयसमाही आययदिए१५ ॥ विनयसमाधावायतार्थिकः ॥२॥ (३) अनुशासन के अनुकूल आचरण करता है। सू० ४ (४) मैं विनय-समाधि में कुशल हूँइस प्रकार गर्व के उन्माद से उन्मत्त नहीं होता। श्रुत-समाधि के चार प्रकार हैं, जैसे --- चउव्विहा खलु सुयसमाही भवइ चतुर्विधः खलु श्रुतसमाधिर्भवति । (१) 'मुझे श्रुत प्राप्त होगा', इसलिए तं जहा-(१) सुयं मे भविस्सइ त्ति तद्यथा--(१) श्रुत मे भविष्यतीत्यध्येतव्यं को अध्ययन करना चाहिए । ७ अज्झाइयव्वं भवइ (२) एगग्गचित्तो भवति, (२) एकाग्रचित्तो भविष्यामी (२) 'मैं एकाग्र-चित्त होऊँगा', इस भविस्सामि त्ति अज्झाइयव्वं भवइ लिए अध्ययन करना चाहिए। त्यध्येतव्यं भवति,(३)आत्मानं स्थापयिष्यामी (३) 'मैं आत्मा को धर्म में स्थापित (३) अप्पाणं ठावइस्सामि त्ति त्यध्येतव्यं भवति, (४) स्थितः परं स्थाप- करूंगा', इसलिए अध्ययन करना चाहिए। अज्झाइयव्व भवइ (४) ठिओ पर यिष्यामीत्यध्येतव्यं भवति,-चतुर्थ पदं। ठावइस्सामित्ति अज्झाइयव भवइ। (४) 'मैं धर्म में स्थित होकर दूसरों को भवति । उसमें स्थापित करूँगा', इसलिए अध्ययन चउत्थं पयं भवइ। करना चाहिए। यह चतुर्थ पद है और यहाँ भवइ य इत्थ सिलोगो भवति चाऽत्र श्लोक: - (श्रुत-समाधि के प्रकरण में) एक श्लोक है३-नाणमेगग्गचित्तो ज्ञानमेकाग्रचित्तश्च, अध्ययन के द्वारा ज्ञान होता है, चित्त ठिओ ठावयई पर । स्थितः स्थापयति परम् । की एकाग्रता होती है, धर्म में स्थित होता है और दूसरों को स्थिर करता है तथा अनेक सुयाणि य अहिज्जित्ता श्रुतानि चाधीत्य, प्रकार के श्रुत का अध्ययन कर श्रुत-समाधि सुयसमाहिए । रत: श्रुतसमाधौ ॥३॥ में रत हो जाता है। रओ चउव्विहा खलु तवसमाही भवइ चतुर्विधः खलु तपः समाधिर्भवति । तप-समाधि के चार प्रकार हैं, जैसेतजहा-(१) नो (१) इहलोक [वर्तमान जीवन की इहलोगट्टयाए तद्यथा (१) नो इहलोकार्थ तपोधितिष्ठेत्, भोगभिलाषा] के निमित्त तप नहीं करना तवमहिट्ठज्जा (२) नो परलोगट्टयाए (२) नो परलोकार्थ तपोधितिष्ठेत्, चाहिए। (२) परलोक पारलौकिक भोगाभिलाषा) तवमहिज्जा (३) नो कित्तिवण्णसद्द- (३) नो कीति वर्णज्ञब्दश्लोकायं तपोधि- के निमित्त १० तप नहीं करना चाहिए। सिलोगट्टयाए तवमहिट्ठज्जा, (४) (३) कीर्ति, वर्ण, शब्द और श्लोक १८ तिष्ठेत्, (४) नान्यत्र निर्जरार्थात् तपोधि- केला के लिए तप नहीं करना चाहिए। नन्नत्थ निज्जरट्टयाए तवमहिट्ठज्जा । तिष्ठेत् चतुर्थ पदं भवति । (४) निर्जरा के१९ अतिरिक्त अन्य चउत्थं पयं भवइ। किसी भी उद्देश्य से तप नहीं करना चाहिए यह चतुर्थ पद है और यहाँ (तप-समाधि के भवइ य इत्थ प्तिलोगो भवति चाऽत्र श्लोकः - प्रकरण में) एर-लेक है Jain Education Intemational For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org
SR No.003625
Book TitleAgam 29 Mool 02 Dasvaikalik Sutra Dasaveyaliyam Terapanth
Original Sutra AuthorN/A
AuthorTulsi Acharya, Nathmalmuni
PublisherJain Vishva Bharati
Publication Year1974
Total Pages632
LanguagePrakrit
ClassificationBook_Devnagari, Agam, Canon, & agam_dashvaikalik
File Size17 MB
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