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॥ अर्हम् ॥
श्रीमत्सुधर्मस्वामिगणभृत्प्ररूपितं श्रीमद्गौतमगणधारिवाचनानुगतं श्रीमच्चन्द्रकुलालङ्कारश्रीमदभयदेवसूरिसूत्रितविवरणयुतं श्रीमद्भगवती सूत्रं ( द्वितीयो विभागः )
प्रकाशयित्री - जव्हेरी - नगीनभाइ मंछुभाइप्रभृतिद्वारा मोहमयीस्थ श्रीगौडीपार्श्वनाथमहाराजमन्दिरोपाश्रयसत्कज्ञानद्रव्यात् प्राप्त पूर्णसाहाय्येन शाह वेणीचन्द्र सुरचन्द्रद्वारा श्रीआगमोदयसमितिः
प्रतयः १०००
मुद्रितं मोहमय्यां निर्णयसागरमुद्रणयन्त्रे रा० रा० रामचन्द्र येसू शेडगेद्वारा वीरसंवत्. २४४५ विक्रमसंवत्. १९७५ क्राइष्ट. १९१९ पण्यं ३-८-०
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सार्धं रूप्यकत्रयम्
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Printed by Ramohandra yesu Shedge, at the Nirnays-sagar Press 33, Kolbhat Lane, Bombay. Published by Shah Venioband Surchand for Agamodayanamiti, Mehesana,
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॥ अथ अष्टमशतकम् ॥
पूर्व पुद्गलादयो भावाः प्ररूपिता इहापि त एव प्रकारान्तरेण प्ररूप्यन्त इत्येवं संबद्धमथाष्टमशतं विवियते, तस्य चोद्देशसङ्ग्रहार्थं 'पुग्गले'त्यादिगाथामाह
पोग्गल १ आसीविस २ रुक्ख ३ किरिय ४ आजीव ५ फासुग ६ मदते ७।
पडिणीय ८ बंध ९ आराहणा य १० दस अट्ठमंमि सए ॥१॥ रायगिहे जाव एवं वयासी-कइविहा णं भंते ! पोग्गला पन्नत्ता ?, गोयमा तिविहा पोग्गला पन्नत्ता, |तंजहा-पओगपरिणया मीससापरिणया वीससापरिणया । (सूत्रं ३०९)॥ | 'पोग्गल'त्ति पुद्गलपरिणामार्थः प्रथम उद्देशकः पुद्गल एवोच्यते एवमन्यत्रापि १, 'आसीविसत्ति आशीविषादिविषयो द्वितीयः २ 'रुक्ख'त्ति सङ्ख्यातजीवादिवृक्षविषयस्तृतीयः ३ 'किरिय'त्ति कायिक्यादिक्रियाभिधानार्थश्चतुर्थः ४ 'आजीवत्ति आजीविकवक्तव्यतार्थः पञ्चमः ५ 'फासुग'त्ति प्रासुकदानादिविषयः षष्ठः ६ 'अदत्ते'त्ति अदत्तादानवि|चारणार्थः सप्तमः ७ 'पडिणीय'त्ति गुरुप्रत्यनीकाद्यर्थप्ररूपणार्थोऽष्टमः ८'बंध'त्ति प्रयोगबन्धाद्यभिधानार्थो नवमः ९ 'आराहण'त्ति देशाराधनाद्यर्थो दशमः १०॥'पओगपरिणय'त्ति जीवव्यापारेण शरीरादितया परिणताः 'मीससा-| |परिणय'त्ति मिश्रकपरिणताः-प्रयोगविनसाभ्यां परिणताः प्रयोगपरिणाममत्यजन्तो विस्रसया स्वभावान्तरमापादिता|
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः१
॥३२८॥
SIRASILIANS
मक्तकडेवरादिरूपाः अथवौदारिकादिवर्गणारूपा विस्रसया निष्पादिताः सन्तो ये जीवप्रयोगेणैकेन्द्रियाविशारीरभति- ८ शतके परिणामान्तरमापादितास्ते मिश्रपरिणताः, ननु प्रयोगपरिणामोऽप्येवंविध एव ततः क एषां विशेषः १. सत्यं, किन्त प्रयो-15
उद्देशः१ गपरिणतेषु विनसा सत्यपि न विवक्षिता इति । 'वीससापरिणय'त्ति स्वभावपरिणताः ॥ अथ 'पओगपरिणयाण'
प्रयोगादिः |मित्यादिना ग्रन्थेन नवभिर्दण्डकैः प्रयोगपरिणतपुद्गलान् निरूपयति, तत्र च
परिणामः
सू ३०९ | पओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पन्नत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-एगिदियपओ- प्रायोगिक गपरिणया बेइंदियपओगपरिणया जाव पंचिंदियपओगपरिणया। एगिदियपओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला
सू३१० कइविहा पन्नत्ता?, गोयमा ! पंचविहा, तंजहा-पुढविक्काइयएगिदियपयोगपरिणया जाव वणस्सइकाइयएगिदियपयोगपरिणया । पुढविक्काइयएगिदियपओगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पन्नत्ता ?, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुहमपुढविकाइयएगिदियपओगपरिणया बादरपुढविकाइयएगिदियपयोगपरिणया, आउक्काइयएगिदियपओगपरिणया एवं चेव, एवं दुपयओ भेदो जाव वणस्सइकाइया य । बेइंदियपयोगपरिणया णं पुच्छा, गोयमा ! अणेगविहा पन्नत्ता, तंजहा-,एवं तेइंदियचउरिंदियपओगपरिणयावि । पंचिंदियपयोगपरिणयाणं पुच्छा, गोयमा ! चउविहा पन्नत्ता, तंजहा-नेरइयपंचिंदियपयोगपरिणया तिरिक्ख०, एवंद
॥३२८॥ मणुस्स० देवपंचिंदिय०, नेरइयपंचिंदियपओग० पुच्छा, गोयमा ! सत्तविहा पन्नत्ता, तंजहा-रयणप्पभापुढविनेरइयपयोगपरिणयावि जाव अहेसत्तमपुढविनरइयपंचिंदियपयोगपरिणयावि, तिरिक्खजोणियपंचिं
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दियपओगपरिणया णं पुच्छा, गोयमा!तिविहा पन्नत्ता, तंजहा-जलचरपंचिंदियतिरिक्खजोणिय थलचरतिरिक्खजोणियपंचिंदिय० खहचरतिरिक्खपंचिंदिय०, जलयरतिरिक्खजोणियपओगपुच्छा, गोयमा ! दुविहा
पन्नत्ता, तंजहा-समुच्छिमजलयर० गम्भवतियजलयर०, थलयरतिरिक्ख० पुच्छा, गोयमा ! दुविहा पहै नत्ता, तंजहा-चउप्पयथलयर० परिसप्पथलयर, चउप्पयथलयर० पुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा
समुच्छिमचउप्पयथलयर० गन्भवतियचउप्पयथलयर०, एवं एएणं अभिलावेणं परिसप्पा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-उरपरिसप्पा य भुयपरिसप्पा य, उरपरिसप्पा दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-संमुच्छा य गन्भवतिया य, एवं भुयपरिसप्पावि, एवं खहयरावि । मणुस्सपंचिंदियपयोगपुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहासंमुच्छिममणुस्स० गन्भवतियमणुस्स० । देवपंचिंदियपयोगपुच्छा, गोयमा ! चउबिहा पन्नत्ता, तंजहा|भवणवासिदेवपंचिंदियपयोग एवं जाव वेमाणिया। भवणवासिदेवपंचिंदियपुच्छा, गोयमा ! दसविहा पन्नत्ता, तंजहा-असुरकुमारा जाव थणियकुमारा, एवं एएणं अभिलावणं अट्टविहा वाणमंतरा पिसाया जाव गंधवा, जोइसिया पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-चंदविमाणजोतिसिय जाव ताराविमाणजोतिसियदेव०, वेमाणिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-कप्पोववन्न कप्पातीतगवेमाणिय, कप्पोवगा दुवालसविहा पण्णत्ता, || तंजहा-सोहम्मकप्पोवग० जाव अचुयकप्पोवगवेमाणिया । कप्पातीत०, गो०! दुविहा पण्णत्ता, तंजहा|गेवेजकप्पातीतवे. अणुत्तरोववाइयकप्पातीतवे०, गेवेजकप्पातीतगा नवविहा पण्णत्ता, तंजहा-हेट्ठिम २
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
८ शतके उद्देशः १ प्रायोगिक
परिणामः
॥३२९॥
सू ३१०
||गेवेजगकप्पातीतग० जाव उवरिम २ गेविजगकप्पातीयः । अणुत्तरोववाइयकप्पातीतगवेमाणियदेवपंचिंदि
यपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ?, गोयमा! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-विजयअणु|त्तरोववाइय० जाव परिण० जाव सबसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदिय जाव परिणया ॥ सुहमपुढविकाइ
यएगिदियपयोगपरिणया णं भंते ! पोग्गला कइविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दुविहा पण्णत्ता, [केई अपज्जत्तगं |पढम भणंति पच्छा पजत्तगं, ] पज्जत्तगसुहुमपुढविकाइय जाव परिणया य अपजत्तसुहुमपुढविकाइय जाव |परिणया य, बादरपुढविकाइयएगिदिय० जाव वणस्सइकाइया, एक्केका दुविहा पोग्गला-सुहुमा य बादरा |य पज्जत्तगा अपजत्तगा य भाणियवा । बेंदियपयोगपरिणया णं पुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा| पजत्तबेंदियपयोगपरिणया य अपजत्तग जाव परिणया य, एवं तेइंदियावि एवं चरिंदियावि । रयणप्पभा| पुढविनेरइय० पुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पजत्तगरयणप्पभापुढवि जाव परिणया य अपज्जत्त |गजावपरिणया य, एवं जाव अहेसत्तमा । समुच्छिमजलयरतिरिक्खपुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पज्जत्तग० अपज्जत्तग०, एवं गब्भवतियावि, संमुच्छिमचउप्पयथलयरा एवं चेव गन्भवतिया य, एवं जाव संमुच्छिमखयरगन्भवतिया य एकेके पजत्तगा य अपजत्तगा य भाणियवा । समुच्छिममणुस्सपंचिंदियपुच्छा, गोयमा ! एगविहा पन्नत्ता, अपजत्तगा चेव । गन्भवतियमणुस्सपंचिंदियपुच्छा, गोयमा! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पजत्तगगन्भवतियावि अपज्जत्तगगन्भवतियावि । असुरकुमारभवणवासिदे
॥३२९॥
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वाणं 'पुच्छा, गोमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-पजत्तगअसुरकुमार०अपज्जत्तगअसुर०, एवं जाव धणियकुमारा पज्जन्तगा अपज्जन्तगा य, एवं एएणं अभिलावेणं दुयएणं भेदेणं पिसाया य जाव गंधवा, चंदा जाव ताराविमाणा०, सोहम्मकप्पोवगा जाव अच्चुओ, हिट्टिमहिट्ठिमगेविज्जकप्पातीय जाव उवरिमउवरिमगेविज्ज०, विजयअणुत्तरो० जाव अपराजिय० सङ्घट्टसिद्ध कप्पातीयपुच्छा, गोयमा ! दुविहा पन्नत्ता, तंजहा - पलत्तसवसिद्धअणुत्तरो० अपज्जन्तगसङ्घट्ट जाव परिणयावि, २ दंडगा ॥ जे अपजत्ता सुहमपुढवीकाइयएगिंदियपयोगपरिणया ते ओरालियतेया कम्मग सरीरप्पयोगपरिणया जे पज्जन्त्ता सुहम० जाव परिणया ते ओरालि| यतेयाकम्मगसरीरप्पयोगपरिणया एवं जाव चउरिंदिया पज्जत्ता, नवरं जे पज्जत्तबादरवाङकाइयए गिंदिय पयोगपरिणया ते ओरालियवेडवियतेयाकम्मसरीर जाव परिणता, सेसं तं चेव, जे अपजत्तरयणप्पभापुढविनेरइय पंचिंदियपयोगपरिणया ते वेउधियतेयाकम्मसरीरप्पयोगपरिणया, एवं पज्जत्तयावि, एवं जाव अहेसत्तमा । जे अपज्जत्तगसंमुच्छिमजलयर जावपरिणया ते ओरालियतेयाक म्मासरीर जाव परिणया एवं पज्जरागावि, गन्भवक्कंतिया अपज्जत्तया एवं चैव पज्जन्त्तयाणं एवं चेव नवरं सरीरगाणि चत्तारि जहा बादरवाउकाइयाणं पज्जत्तगाणं, एवं जहा जलचरेसु चत्तारि आलावगा भणिया एवं चउप्पयउरपरिसप्पभुयपरिसप्पखहयरेसुवि चत्तारि आलावगा भाणियवा । जे संमुच्छिममणुस्सपंचिंदियपयोगपरिणया ते ओरालियतेयाकम्मासरीर जाव परिणया, एवं गन्भवक्कतियावि अपज्जन्तगावि पज्जत्तगावि एवं चेव, नवरं सरीरगाणि
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८ शतके उद्देशः१ प्रायोगिक परिणामः सू ३१०
व्याख्या पंच भाणियवाणि, जे अपजत्ता असुरकुमारभवणवासि जहा नेरइया तहेव एवं पज्जत्तगावि, एवं दुयप्रज्ञप्तिः एणं भेदेणं जाव थणियकुमारा एवं पिसाया जाव गंधव्वा चंदा जाव ताराविमाणा, सोहम्मो कप्पो जाव अभयदेवी- अचुओ हेट्ठिम २ गेवेजजावउवरिम २ गेवेज विजयअणुत्तरोववाइए जाव सचट्ठसिद्धअणु० एकेकेणं दुयओ यावृत्तिः१
भेदो भाणियवो जाव जे पजत्तसबट्टसिद्धअणुत्तरोववाइया जाव परिणया ते वेउवियतेयाकम्मासरीरपयो॥३०॥
गपरिणया, दंडगा ३ ॥ जे अपज्जत्ता सुहुमपुढविकाइयएगिदियपयोगपरिणता ते फासिंदियपयोगपरिणया जे पज्जत्ता सुहुमपुढविकाइया एवं चेव, जे अपज्जत्ता बादरपुढविक्काइया एवं चेव, एवं पजत्तगावि, एवं चउक्कएणं भेदेणं जाव वणस्सइकाइया, जे अपज्जत्ता बेइंदियपयोगपरिणया ते जिभिदियफा. सिंदियपयोगपरिणया जे पजत्ता बेइंदिया एवं चेव, एवं जाव चरिंदिया नवरं एकेकं इंदियं बढयवं जाव अपज्जत्ता रयणप्पभापुढविनेरइया पंचिंदियपयोगपरिणया ते सोइंदियचक्खिदियघाणिंदियजिभिदियफासिदियपयोगपरिणया एवं पज्जत्तगावि, एवं सत्वे भाणियवा, तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवा जाव जे |पज्जत्ता सवट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव परिणया ते सोइंदियचक्खिदिय जाव परिणया ४॥ जे अपज्जत्ता
सुहमपुढविकाइयएगिंदियओरालियतेयकम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते फासिंदिपयोगपरिणया जे पज्जत्ता 8 सुहुम० एवं चेव बादर० अपज्जत्ता एवं चेव, एवं पज्जत्तगावि, एवं एएणं अभिलावेणं जस्स जइंदियाणि द सरीराणि य ताणि भाणियवाणि जाव जेय पज्जत्ता सबसिडअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदियवेउवियतेया-५
॥३३०॥
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कम्मासरीरपयोगपरिणया ते सोइंदियचक्खिदिय जाव फासिंदियपयोगपरिणया ५॥ जे अपजत्ता सुहमपुढविकाइयएगिदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणयावि नील. लोहिय. हालिद्द० सुकिल्ल. गंधओ सुन्भिगंधपरिणयावि दुन्भिगंधपरिणयावि रसओ तित्तरसपरिणयावि कडुयरसपरिणयावि कसायरसप० | अंबिलरसप० महुररसप० फासओ कक्खडफासपरि० जाव लुक्खफासपरि० संठाणओ परिमंडलसंठाणपरिणयावि वह तंस. चउरंस. आयतसंठाणपरिणयावि, जे पज्जत्ता सुहमपुढवि. एवं चेव एवं जहाणुपुबीए नेयवं जाव जे पज्जत्ता सबसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव परिणयावि ते वनओ कालवनपरिणयावि जाव आययसंठाणपरिणयावि ६॥ जे अपज्जत्ता सुहुमपुढवि० एगिदियओरालियतेयाकम्मासरीरप्पयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरि० जाव आययसंठाणपरि० जे पज्जत्ता सुहुमपुढवि० एवं चेव, एवं जहाणुपुवीए नेयवं |जस्स जइ सरीराणि जाव जे पज्जत्ता सव्वट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयदेवपंचिंदियविउव्यितेयाकम्मासरीरा जाव परिणया ते वन्नओ कालवन्नपरिणयावि जाव आयतसंठाणपरिणयावि ७॥ जे अपज्जत्ता सुहमपुढविकाइयएगिदियफासिंदियपयोगपरिणया ते वन्नओ कालवनपरिणया जाव आययसंठाणपरिणयावि जे पज्जत्ता सुहुमपुढवि एवं चेव एवं जहाणुपुवीए जस्स जइ इंदियाणि तस्स तत्तियाणि भाणियवाणि जाव जे पज्जत्ता सवदृसिद्धअणुत्तरजावदेवपंचिंदियसोइंदिय जाव फासिंदियपयोगपरिणयावि ते वन्नओ कालवनपरिणया जाव आययसंठाणपरिणयावि ८ ॥जे अपज्जत्ता सुहुमपुढविकाइयएगिंडिओरालियतेयाकम्माफासिंदिद्यपयो- 8
96464545455
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥३३१॥
| गपरिणया ते वन्नओ कालवन्नपरिणयावि जाव आयतसंठाणप० जे पज्जन्ता सुहमपुढवि० एवं चेव, एवं जहाणुपुवीए जस्स जइ सरीराणि इंदियाणि य तस्स तइ भाणियवा जाव जे पज्जत्ता सङ्घट्टसिद्ध अणुत्तरोववाइया जाव देवपंचिंदियवेउच्चियतेयाकम्मा सोइंदिय जाव फासिंदियपयोगपरि० ते वन्नओ कालवन्नपरि० जाव आययसंठाणपरिणयावि, एवं एए नव दंडगा ९ ॥ ( सूत्रं ३१० ) ॥
एकेन्द्रियादिसर्वार्थसिद्धदेवान्तजीवभेद विशेषितप्रयोगपरिणतानां पुद्गलानां प्रथमो दण्डकः, तत्र च 'आउक्काइयएगिंदिय एवं चेव'त्ति पृथिवीकायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणता इव अपकायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणता वाच्या इत्यर्थः ' एवं | दुयओ'त्ति पृथिव्यप्कायप्रयोगपरिणतेष्विव द्विको-द्विपरिणामो द्विपादो वा भेदः - सूक्ष्मबादरविशेषणः कृतस्ते (स्तथा ते) जः | कायिकै केन्द्रियप्रयोगपरिणतादिषु वाच्य इत्यर्थः, 'अणेगविह' त्ति पुलाककृमिकादिभेदत्वाद् द्वीन्द्रियाणां त्रीन्द्रियप्रयोगपरिणता अप्यनेकविधाः कुन्थुपिपीलिकादिभेदत्वात्तेषां चतुरिन्द्रियप्रयोगपरिणता अष्यनेकविधा एंव मक्षिकामशकादिभे| दत्वात्तेषाम् एतदेव सूचयन्नाह - ' एवं तेहंदी' त्यादि ॥ 'सुहमपुढविकाइए' इत्यादि सर्वार्थसिद्धदेवान्तः पर्याप्त कापर्यासकविशेषणो द्वितीयो दण्डकः, तत्र 'एक्केके त्यादि एकैकस्मिन् काये सूक्ष्मबादरभेदाद्विविधाः पुद्गला वाच्याः, ते च प्रत्येकं | पर्याप्तकापर्यातकभेदात्पुनर्द्विविधा वाच्या इत्यर्थः ॥ 'जे अपजत्ता मुहमपुढवी' त्यादिरौदारिकादिशरीर विशेषणस्तृतीयो दण्डकः, तत्र च 'ओरालियतेया कम्म सरीरपओगपरिणय'त्ति औदारिक तैजसकार्मणशरीराणां यः प्रयोगस्तेन परिणता ये ते तथा, पृथिव्यादीनां हि एतदेव शरीरत्रयं भवतीतिकृत्वा तत्प्रयोगपरिणता एव ते भवन्ति, बादरपर्याप्त कवा
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८ शतके
उद्देशः १
पुनले प्रायोगिकप
रिणामः
सू ३१०
॥३३१॥
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ॐॐॐॐॐॐॐॐॐ
यूनां त्वाहारकवर्जशरीरचतुष्टयं भवतीतिकृत्वाऽऽह-नवर 'जे पजत्तेत्यादि । 'एवं गन्मवकृतियावि अपजत्तगति वैक्रियाहारकशरीराभावादू गर्भव्युत्क्रान्तिका अप्यपर्याप्तका मनुष्यास्त्रिशरीरा एवेत्यर्थः ॥ 'जे अपज्जत्ता सुहमपुढवी-1 |त्यादिरिन्द्रियविशेषणश्चतुर्थों दण्डकः ४॥ 'जे अपज्जत्ता सुहमपुढवी'त्यादिरौदारिकादिशरीरस्पर्शादीन्द्रियविशेषणः। पश्चमः ५॥'जे अपज्जत्ता मुहुमपुढवी'त्यादि वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानविशेषणः षष्ठः ६॥ एवमौदारिकादिशरीरवर्णादि
मावविशेषणः सप्तमः ७ ॥ इन्द्रियवर्णादिविशेषणोऽष्टमः ८॥ शरीरेन्द्रियवर्णादिविशेषणो नवम इति, अत एवाहDil एते नंव दण्डकाः ॥ | मीसापरिणया णं भैते ! पोग्गला कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा! पंचविहा पण्णता, तंजहा-एगिदियमीसापरिणया जाव पंचिंदियमीसापरिणया एगिदियमीसांपरिणयाणं भंते ! पोग्गला कतिविहा पण्णता?, गोयमा ! एवं जहा पओगपरिणएहिं नव दंडगा भणिया एवं मीसापरिणएहिवि नव दंडगा भाणियचा, तहेव |सवं निरवसेसं, नवरं अभिलावो मीसापरिणया भाणियत्वं, सेसं तं चेव, जाव जे पज्जत्ता सबट्ठसिद्धअणुत्तर जाव आययसंठाणपरिणयावि ॥ (सूत्रं ३११)॥ वीससापरिणया णं भंते ! पोग्गला कतिविहा पन्नत्ता ?,
गोयमा! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-वनपरिणया गंधपरिणया रसपरिणया फासपरिणया संठाणपरिणया,जे ४. वनपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-कालवनपरिणया जाव सुकिल्लवन्नपरिणया, जे गंधपरिणया ते
दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-सुब्भिगंधपरिणयावि दुब्भिगंधपरिणयावि, एवं जहा पन्नवणापदे तेहेव निरवसेसं
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८.शतके
व्याख्या- |४||जाव जे संठाणओआयतसंठाणपरिणयाते वन्नओकालवनपरिणयाविजाव लुक्खफासपरिणयावि(सन३१२॥ प्रज्ञप्तिः । मिश्रपरिणतेष्वप्येत एव नव दण्डका इति ॥ अथ विश्रसापरिणतपुद्गलांश्चिन्तयति-'वीससापरिणया 'मित्यादि.
उद्देशः१ अभयदेवीएवं जहा पन्नवणापए'त्ति तत्रैवमिदं सूत्रं-'जे रसपरिणया ते पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-तित्तरसपरिणया एवं कडुय०
| मिश्रविश्रयावृत्तिः१
| सापरिणाकसाय अंबिल० महुररसपरिणया, जे फासपरिणया ते अट्टविहा प० तं०-कक्खडफासपरिणया एवं मउय. गरुय.
मौसू३११॥३२॥ लहुय० सीय. उसिण. निद्ध लुक्खफासपरिणया य' इत्यादि । अथैकं पुद्गलद्रव्यमाश्रित्य परिणामं चिन्तयन्नाह
३१२एकद्रएगे भंते ! दवे किं पयोगपरिणए मीसापरिणए वीससापरिणए? , गोयमा ! पयोगपरिणए वा मीसाप- व्यपरिणारिणए वा वीससापरिणए वा । जइ पयोगपरिणए किं मणप्पयोगपरिणए वइप्पयोगपरिणए कायप्पयोगप- मासू३१३ |रिणए ?, गोयमा! मणप्पयोगपरिणए वा वइप्पयोगपरिणए वा कायप्पओगपरिणए वा, जइ मणप्पओग
परिणए किं सच्चमणप्पओगपरिणए मोसमणप्पयोग. सचामोसमणप्पयो० असच्चामोसमणप्पयो०१, गोय-10 ४ मा ! सचमणप्पयोगपरिणए. मोसमणप्पयोग सच्चामोसमणप्प० असचामोसमणप्प०, जह सचमणप्पओ-18 गप० किं आरंभसचमणप्पयो० अणारंभसच्चमणप्पयोगपरि० सारंभसच्चमणप्पयोग. असारंभसचमण. समारंभसंचमणप्पयोगपरि० असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणए ?, गोयमा! आरंभसचमणप्पओगपरिणए वा||||
जाव असमारंभसचमणप्पयोगपरिणए वा, जइ मोसमणप्पयोगपरिणए कि आरंभमोसमणप्पयोगपरिहै णए वा ? एवं जहा सच्चेणं तहा मोसेणवि, एवं सच्चामोसमणप्पओगपरिणएवि, एवं असचामोसमणप्पयो
5A5%255575AR
सच्चामोसमणप्पयोः परिणए वा, जइ मणप्प
भारंभसवाणा मोसमणप्पयोग
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गेणवि । जइ वइप्पयोगपरिणए किं सच्चवइप्पयोगपरिणए मोसवयप्पयोगपरिणए ? एवं जहा मणप्पयोगपरिणए तहा वयप्पयोगपरिणएवि जाव असमारंभवयप्पयोगपरिणए वा। जइ कायप्पयोगपरिणए किं ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए ओरालियमीसासरीरकायप्पयो० वेउवियसरीरकायप्प० वेउध्वियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए आहारगसरीरकायप्पओगपरिणए आहारकमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए ?, गोयमा ! ओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा जाव कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए वा, जइ ओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए एवं जाव पंचिंदियओरालिय जाव परि०, गोयमा ! एगिदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा बेदियजाव परिणए वा पंचिंदिय जाव परिणए वा, जइ एगिंदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं पुढविक्काइयएगिंदिय जाव परिणए जाव वणस्सइकाइयएगिदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए वा, गोयमा ! पुढविक्काइयएगिदियपयोग जाव परिणए वा जाव वणस्सइकाइयएगिदिय जाव परिणए वा, जइ पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीर जाव परिणए किं सुहमपुढविकाइय जाव परिणए बायरपुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए ?, गोयमा ! सुहमपुढविक्काइयएगिदिय जाव परिणए बायरपुढविक्काइय जाव परिणए, जइ सुहमपुढविकाइय जाव परिणए किं पज्जत्तसुहुमपुढवि जाव परिणए अपजत्तसुहमपुढवी जाव परिणए ?, गोयमा ! पज्जत्तसुहुमपुदविकाइय जाव परिणए वा अपज्जत्तसुहुमपुढविकाइय जाव परिणए वा, एवं बाद
| पुढविकाय जाव परिणाम जाव परिणए गायमा ! एगितिक पूर्गिदियोगा वा जाव कसागपरिणए कम्मा
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८ शतके
व्याख्या
रावि, एवं जाव वणस्सइकाइयाणं चउक्कओ भेदो, बेईदियतेइंदियचउरिदियाणं दुयओ भेदो पज्जत्तगा य प्रज्ञप्ति
अपज्जत्तगाय । जइ पंचिंदियओरालियसरीरकायप्पओगपरिणए किं तिरिक्खजोणियपंचिंदियओरालियसरीअभयदेवी या वृत्तिः१
रकायप्पओगपरिणए मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए ?, गोयमा ! तिरिक्खजोणिय जाव परिणए वा मणु
स्सपंचिंदिय जाव परिणए वा, जइ तिरिक्खजोणिय जाव परिणए किं जलचरतिरिक्खजोणिय जाव परि॥३३३॥ णए वा थलचरखहचर०, एवं चउक्कओ भेदो जाव खहचराणं । जइ मणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए किं संमु
|च्छिममणुस्सपंचिंदिय जाव परिणए गन्भवतियमणुस्स जाव परिणए ?, गोयमा ! दोसुवि, जई गम्भवफ|तियमणुस्स जाव परिणए किं पज्जत्तगभवतिय जाव परिणए अपजत्तगन्भवतियमणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणए ?, गोयमा ! पजत्तगन्भवतिय जाव परिणए वा अपजत्तगन्भवतिय जाव परिणए १ । जइ ओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए किं एगिदियओरालियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए बेइंदियजावपरिणए जाव पंचेंदियओरालिय जाव परिणए ?, गोयमा ! एंगिदियओरालिय एवं जहा ओरालियसरीरकायप्पयोगपरिणएणं आलावगो भणिओ तहा ओरालियमीसा
सरीरकायप्पओगपरिणएवि आलावगो भाणियबो, नवरं बायरवाउक्काइयगन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खलाजोणियगन्भवतियमणुस्साणं, एएसि णं पज्जत्तापजत्तगाणं सेसाणं अपजत्तगाणं २ । जई उधि
यसरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिदियवेउवियसरीरकायप्पओगपरिणए जाव पंचिंदियवेउब्वियसरीर जाव
555ॐॐॐॐ
| उद्देशः १ मिश्रविश्र| सापरिणामौसू३११३१२एकद्रव्यपरिणामासू३१३
॥३३॥
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परिणए ?, गोयमा ! एगिदिय जाव परिणए वा पंचिंदिय जाव परिणए, जैइ ऐगिदिय जाव परिणए किंवाउकाइयएगिदिय जाव परिणए अवाउकाइयएगिदिय जाव परिणए?, गोयमा! वाउचाइयएगिदियजाव परिणए नो अवाउकाइय जाव परिणए, एवं एएणं अभिलावणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउवियसरीरं भणियं तहा इहवि भाणियचं जाव पंजत्तसबट्टसिद्धअणुत्तरोववातियकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेउवियसरीरकायप्प
ओगपरिणए वा अपज्जत्तसबसिद्धकायप्पयोगपरिणए वा ३। जइ वेउवियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए किं एगिदियमीसासरीरकायप्पओगपरिणए वा जाव पंचिंदियमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए ?, एवं जहा वेउवियं तहा मीसगंपि, नवरं देवनेरइयाणं अपज्जत्तगाणं सेसाणं पजसगाणं तहेव जाव नो पज्जत्तसबट्टसि
अणुत्तरोजाव पओग० अपजत्तसवट्ठसिद्धअणुत्तरोववातियदेवपंचिंदियवेउध्वियमीसासरीरकायप्पओगपरि||णए ४ । जइ आहारगसरीरकायप्पओगपरिणए किं मणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए अमणुस्साहार-101
गजाव प० १, एवं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इड्डिपत्तपमत्तसंजयसम्मबिडिपजत्तगसंखेजवासाउय जाव परिणए नो अणिडिपत्तपमत्तसंजयसम्मद्दिहिपज्जत्तसंखेजवासाउय जाव प०५। जइ आहारगमीसासरीरकायप्पयोगप० किं मणुस्साहारगमीसासरीर० १ एवं जहा आहारगं तहेव मीसगंपि निरवसेसं भाणियचं ६। जइ कम्मासरीरकायप्पओगप० किं एगिदियकम्मासरीरकायप्पओगप० जाव पंचिंदियकम्मासरीर जाव 8 प०१, गोयमा ! एगिदियकम्मासरीरकायप्पओ० एवं जहा ओगाहणसंठाणे कम्मगस्स भेदो तहेव इहावि
कर
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः१
सबसिद्धअणूतावा । जइ वीसमपरिणए वा रसपार, गोयमा! काल
८ शतके | उद्देशः१
मिश्रविश्र| सापरिणामौसू११ ३१२एकद| व्यपरिणामास३१३
॥३३४॥
ALSOSMUSAS
जाव पजत्तसबसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरकायप्पयोगपरिणए अपज्जत्तसबसिद्धअणु० जाव परिणए वा ७॥ जइ मीसापरिणए किं मणमीसापरिणए वयमीसापरिणए कायमीसापरिणए ?, गोयमा ! मणमीसापरिणए वयमीसा कायमीसापरिणए वा, जइ मणमीसापरिणए किं सचमणमीसापरिणए वा मोसमणमीसापरिणए वा जहा पओगपरिणए तहा मीसापरिणएवि भाणियत्वं निरवसेसं जाव | |पज्जत्तसबट्टसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव देवपंचिंदियकम्मासरीरगमीसापरिणए वा अपजत्तसवट्ठसिद्धअणुजाव | कम्मासरीरमीसापरिणए वा । जइ वीससापरिणए किं वनपरिणए गंधपरिणए रसपरिणए फासपरिणए संठाणपरिणए ?, गोयमा! वनपरिणए वा गंधपरिणए वा रसपरिणए वा फासपरिणए वा संठाणपरिणए वा, जइ वनपरिणए किं कालवनपरिणए नील जाव सुकिल्लवन्नपरिणए?, गोयमा! कालवन्नपरिणए जाव सुकिल्लव-| नपरिणए, जइ गंधपरिणए किं सुन्भिगंधपरिणए दुन्भिगंधपरिणए ?, गोयमा ! सुन्भिगंधपरिणए दुन्भिगंधपरिणए, जइ रसपरिणए किं तित्तरसपरिणए १५, पुच्छा, गोयमा! तित्तरसपरिणए जाव महुररसपरिणए, जइ फासपरिणए किं कक्खडफासपरिणए जाव लुक्खफासपरिणए ?, गोयमा ! कक्खडफासपरिणए जाव लुक्खफासपरिणए, जइ संठाणपरिणए पुच्छा, गोयमा! परिमंडलसंठाणपरिणए वा जाव आययसं- ठाणपरिणए वा ॥ (सूत्रं ३१३)॥ 'एगे'इत्यादि, 'मणपओगपरिणए'त्ति मनस्तया परिणतमित्यर्थः 'वइप्पयोगपरिणएत्ति भाषाद्रव्यं काययोगेन
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| गृहीत्वा वाग्योगेन निसृज्यमानं वाक्प्रयोगपरिणतमित्युच्यते 'कायप्पओगपरिणए'त्ति औदारिकादिकाययोगेन गृही| तमौदारिकादिवर्गणाद्रव्यमौदारिकादिकायतया परिणतं कायप्रयोगपरिणतमित्युच्यते, 'सचमणे'त्यादि सद्भूतार्थचिन्तन| निबन्धनस्य मनसः प्रयोगः सत्यमनःप्रयोग उच्यते, एवमन्येऽपि, नवरं मृषा - असद्भूतोऽर्थः सत्यमृषा - मिश्रो यथा पञ्चसु दारकेषु जातेषु दश दारका जाता इति, असत्यमृषा - सत्यमृषास्वरूपमतिक्रान्तो यथा देहीत्यादि, 'आरंभसच्चे 'त्यादि, आरम्भो - जीवोपघातस्तद्विषयं सत्यमारम्भसत्यं तद्विषयो यो मनःप्रयोगस्तेन परिणतं यत्तत्तथा, एवमुत्तरत्रापि नवरमना|रम्भो - जीवानुपघातः 'सारंभ'त्ति संरम्भो - वधसङ्कल्पः समारम्भस्तु परिताप इति । 'ओरालिए' त्यादि, औदारिकश| रीरमेव पुद्गलस्कन्धरूपत्वेनोपचीयमानत्वाद् काय औदारिकशरीरकायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स तथा, अयं च पर्याप्तकस्यैव वेदितव्यस्तेन यत् परिणतं तत्तथा, 'ओरालियमिस्सासरीरकायप्पयोगपरिणय'त्ति औदारिकमुत्पत्तिकालेऽसम्पूर्ण सत् मिश्रं कार्म्मणेनेति औदारिकमिश्रं तदेवदारिकमिश्रकं तलक्षणं शरीरमौ| दारिकमिश्रकशरीरं तदेव कायस्तस्य यः प्रयोगः औदारिकमिश्रकशरीरस्य वा यः कायप्रयोगः स औदारिक मिश्रकशरी|रकायप्रयोगस्तेन परिणतं यत्तत्तथा, अयं पुनरौदारिकमिश्रकशरीरकायप्रयोगोऽपर्याप्तकस्यैव वेदितव्यः, यत आह"जोएण कम्मएणं आहारेई अनंतरं जीवो। तेण परं मी सेणं जाव सरीरस्स निष्फत्ती ॥ १ ॥” [ उत्पत्त्यनन्तरं जीवः | कार्मणेन योगेनाहारयति ततो यावच्छरीरस्य निष्पत्तिः ( शरीरपर्याप्तिः ) तावदौदारिकमिश्रेणाहारयति ॥ १ ॥ ] एवं | तावत् कार्म्मणेनादारिकशरीरस्य मिश्रता उत्पत्तिमाश्रित्य तस्य प्रधानत्वात्, यदा पुनरौदारिकशरीरी वैक्रियलब्धिसं
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२१२एक
व्याख्यापन्नो मनुष्यः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिकः पर्याप्तबादरवायुकायिको वा वैक्रियं करोति तदा औदारिककार्ययोग एव वर्त
८ शतके प्रज्ञप्तिः ४ मानः प्रदेशान् विक्षिप्य वैक्रियशरीरयोग्यान पुद्गलानुपादाय यावद् वैक्रियशरीरपर्याप्त्या न पर्याप्तिं गच्छति तावद्वैकि- उद्देशा अभयदेवी- येणौदारिकशरीरस्य मिश्रता, प्रारम्भकत्वेम तस्य प्रधानत्वात्, एवमाहारकेणाप्यौदारिकशरीरस्य मिश्रता वेदितव्येति. मिश्रविश्रया वृत्तिः१] | 'वेउवियसरीरकायप्पओगपरिणए'त्ति इह वैक्रियशरीरकायप्रयोगो वैक्रियपर्याप्तकस्येति । 'वैश्वियमीसोसरीरकार्य- | सापरिणा
प्पओगपरिणए'त्ति, इह वैक्रियमिश्रकशरीरकायप्रयोगो देवनारकेषूत्पद्यमानस्यापर्याप्तकस्य, मिश्रता चेह वैक्रियशरी- मौसू ३११॥३३५॥
रस्य कार्मणेनैव, लब्धिवैक्रियपरित्यागे त्वौदारिकप्रवेशाद्धायामौदारिकोपादानाय प्रवृत्ते वैक्रियप्राधान्यादौदारिकेणापि वैक्रियस्य मिश्रतेति । 'आहारगसरीरकायप्पयोगपरिणए'त्ति इहाहारकशरीरकायप्रयोग आहारकशरीरनिवृत्ती सत्यां
व्यपरिणा४ तदानीं तस्यैव प्रधानत्वात् । 'आहारगमीसासरीरकायप्पयोगपरिणए'त्ति इहाहारकमिश्रशरीरकायप्रयोग आहा-18
मासू ३१३ | रकस्यौदारिकेण मिश्रतायां, स चाहारकत्यागेनौदारिकग्रहणाभिमुखस्य,एतदुक्तं भवति-यदाऽऽहारकशरीरी भूत्वा कृतकार्यः
पुनरप्यौदारिक गृह्णाति तदाऽऽहारकस्य प्रधानत्वादौदारिकप्रवेशं प्रति व्यापारभावान्न परित्यजति यावत्सर्वथैवाहारक ४ तावदौदारिकेण सह मिश्रतेति, ननु तत्तेन सर्वथाऽमुक्तं पूर्वनिर्वर्तितं तिष्ठत्येव तत्कथं गृह्णाति !, सत्यं तिष्ठति तत् तथाऽप्यौदारिकशरीरोपादानार्थ प्रवृत्त इति गृह्णात्येवेत्यच्यत इति । 'कम्मासरीरकायप्पओगपरिणए'त्ति इह कार्मणश
॥३३५॥ शारीरकायप्रयोगो विग्रहे समुद्घातगतस्य चकेवलिनस्तृतीयचतुर्थपञ्चमसमयेषुभवति, उक्तं च-"काम्मणशरीरयोगी चतुर्थके पञ्चमे तृतीये चे"ति, एवं प्रज्ञापनाटीकानुसारेणौदारिकशरीरकायप्रयोगादीनां व्याख्या, शतकटीकाऽनुसारतः
, ननु तत्व प्रधानत्वादोदामाभमुखस्य,एतदुकान इहाहारकमिशहारकशरीरनिलकेणापि
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454545454
पुनर्मिश्रकायप्रयोगाणामेवं-औदारिकमिश्र औदारिक एवापरिपूर्णो मिश्र उच्यते, यथा गुडमिश्र दधि, न गुडतया नापि
दधितया व्यपदिश्यते तत् ताभ्यामपरिपूर्णत्वात् , एवमौदारिक मिश्र कार्मणेनैव नौदारिकतया नापि कार्मणतया व्यपमादेष्टुं शक्यमपरिपूर्णत्वादिति तस्यौदारिकमिश्रव्यपदेशः, एवं वैक्रियाहारकमिश्रावपीति, नवरं 'बायरवाउक्काइए'इत्यादि, | यथौदारिकशरीरकायप्रयोगपरिणते सूक्ष्मपृथिवीकायिकादि प्रतीत्यालापकोऽधीतस्तथौदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगपरिणते
ऽपि वाच्यो, नवरमयं विशेषः-तत्र सर्वेऽपि सूक्ष्मपृथिवीकायिकादयः पर्याप्तापर्याप्तविशेषणा अधीता इह तु बादरवायु| कायिका गर्भजपञ्चेन्द्रियतिर्यगमनुष्याश्च पर्याप्तकापर्याप्तकविशेषणा अध्येतव्याः, शेषास्त्वपर्याप्तकविशेषणा एव, यतो बादर| वायुकायिकादीनां पर्याप्तकावस्थायामपि वैक्रियारम्भणत औदारिकमिश्रशरीरकायप्रयोगो लभ्यते, शेषाणां पुनरपर्याप्तकावस्थायामेवेति । 'जहा ओगाहणसंठाणे'त्ति प्रज्ञापनायामेकविंशतितमपदे, तत्र चैवमिदं सूत्र-जइ वाउक्काइयएगिंदि| यवेउबियसरीरकायप्पयोगपरिणए किं सुहमवाउक्काइयएगिदिय जाव परिणए बादरवाउक्काइयएगिदिय जाव परिणए?, गोय मा! नो सुहुम जाव परिणए बायर जाव परिणए'इत्यादीति। एवं जहा ओगाहणसंठाणे'त्ति तत्र चैवमिदं सूत्र-गोयमा! णो अमणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए मणुस्साहारगसरीरकायप्पओगपरिणए'इत्यादि । 'एवं जहा ओगाहणासंठाणे कम्मगस्स भेओ'त्ति स चायं भेदः-'बेइंदियकम्मासरीरकायप्पओगपरिणए वा एवं तेइंदियचउरिदिय'इत्यादिरिति ॥ अथ द्रव्यद्वयं चिन्तयन्नाह
दो भंते ! दबा किं पयोगपरिणया मीसापरिणया वीससापरिणया १. गोयमा ! पओगपरिणया वा १
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व्याख्या. प्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः१
८ शतके उद्देशः१ द्रव्यद्वयपारणाम: सू३१४
॥३६॥
मीसापरिणया वा २ वीससापरिणया वा ३ अहवा एगे पओगपरिणए एगे मीसापरिणए ४ अहवेगे पओगप० एगे वीससापरि०५ अहवा एगे मीसापरिणए एगे वीससापरिणए एवं ६। जइ पओगपरिणया किं मणप्पयोगपरिणया वइप्पयोग कायप्पयोगपरिणया ?, गोयमा ! मणप्पयो० वइप्पयोगप० कायप्पयोगपरिणया वा अहवेगे मणप्पयोगप० एगे वयप्पयोगप०, अहवेगे मणप्पयोगपरिणए कायप०, अहवेगे | वयप्पयोगप० एगे कायप्पओगपरि०, जइ मणप्पयोगप० किं सच्चमणप्पयोगप०४१, गोयमा ! सचमणप्पयो
गपरिणया वा जाव असचामोसमणप्पयोगप०१ अहवा एगे सच्चमणप्पयोगपरिणए एगे मोसमणप्पओगप|रिणए १ अहवा एगे सच्चमणप्पओगप० एगे सच्चामोसमणप्पओगपरिणए २ अहवा एगे सचमणप्पयोगप-| रिणया एगे असचामोसमणप्पओगपरिणए ३ अहवा एगे मोसमणप्पयोगप० एगे सचामोसमणप्पयोगप०४| अहवा एगे मोसमणप्पयोगप० एगे असच्चामोसमणप्पयोगप०५ अहवा एगे सच्चामोसमणप्पओगप० एगे असच्चामोसमणप्पओगप०६ । जइ सच्चमणप्पओगप० किं आरंभसच्चमणप्पयोगपरिणए जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगप०१, गोयमा! आरंभसचमणप्पयोगपरिणया वा जाव असमारंभसच्चमणप्पयोगपरिणया वा,
अहवा एगे आरंभसचमणप्पयोगप० एगे अणारंभसच्चमणप्पयोगप० एवं एएणं गमएणं दुयसंजोएणं नेयवं, का सवे संयोगा जत्थ जत्तिया उढेति ते भाणियवा जाव सबट्टसिद्धगत्ति । जइ मीसाप० किं मणमीसापरि० एवं मीसापरि०वि०जइ वीससापरिणया किं वनपरिणया गंधप० एवं वीससापरिणयावि जाव अहवा एगे
आरंभसचमणसमारंभसच दुयसंजोमसापरि०
॥३३६॥
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SAROBAHARASHARE
चउरंससंठाणपरि० एगे आययसंठाणपरिणए वा॥तिन्नि भंते ! दद्या किं पयोगपरिणया मीसाप० वीससाप०?, | गोयमा ! पयोगपरिणया वा मीसापरिणया वा वीससापरिणया वा १ अहवा एगे पयोगपरिणए दो मीसाप० |१ अहवेगे पयोगपरिणए दो वीससाप० २ अहवा दो पयोगपरिणया एगे मीससापरिणए ३ अहवा दो पयोगप० एगे वीससाप० ४ अहवा एगे मीसापरिणए दो वीससाप०५ अहवा दो मीससाप० एगे वीससाप०६ अहवा एगे पयोगप० एगे मीसापरि० एगे वीससाप०७। जइ पयोगप० किं मणप्पयोगपरिणया वइप्पयोगप० कायप्पयोगप० ?, गोयमा ! मणप्पयोगपरिणया वा एवं एक्कगसंयोगो दुयासंयोगो तियासंयोगो भाणियो, जइ मणप्पयोगपरि० किं सचमणप्पयोगपरिणए ४१, गोयमा ! सच्चमणप्पयोगपरिणया वा जाव असच्चामोसमणप्पयोगपरिणए वा ४, अहवा एगे सचमणप्पयोगपरिणए दो मोसमणप्पयोगपरिणया वा, एवं यासंयोगो तियासंयोगो भाणियचो, एत्थवि तहेव जाव अहवा एगे तंससंठाणपरिणए वा एगे चउरंससंठाणपरिणए वा एगे आययसंठाणपरिणए वा॥ चत्तारि भंते ! वा किंपओगपरिणया ३१, गोयमा ! पयोगपरिणया वा मीसापरिणया वा वीससापरिणया वा, अहवा एगे पओगपरिणए तिन्नि मीसापरिणया १ अहवा एगे पओगपरिणए तिन्नि वीससापरिणया २ अहवा दो पयोगपरिणया दो मीसापरिणया ३ अहवा दो पयोगपरिणया दो वीससापरिणया ४ अहवा तिन्नि पओगपरिणया एगे मीससापरिणया ५ अहवा तिन्नि |पओगपरिणया एगे वीससापरिणए ६ अहवा एगे मीससापरिणए तिन्नि वीससापरिणया ७ अहवा दो।
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व्याख्या
नीसापरिणयादोवीससापरिणया८अहवा तिन्नि मीसापरिणया एगे वीससापरिणए ९ अहवा एगेपओगपरि- ८ शतके प्रज्ञप्तिः
|णए दो चीससापरिणया (एगेमीसापरिणए)१अहवा एगेपयोगपरिणए दो मीसापरिणया एगे वीससापरिणए२॥ | उद्देशः१ अभयदेवी- अहवा दो पयोगपरिणया एगे मीसापरिणए एगे वीससापरिणए ३॥जइपयोगपरिणया किंमणप्पयोगपरिणया। एकादिद्रया वृत्तिः१
|३१॥ एवं एएणं कमेणं पंच छ सत्त जाव दस संखेजा असंखेजा अणंता य दवा भाणियचा (एक्कगसंजोगेण) व्यपरिणादुयासंजोएणं तियासंजोएणं जाव दससंजोएणं बारससंजोएणं उवजुंजिऊणं जत्थ जत्तिया संजोगा उठेति
मासू ३१४ ॥३३७॥
ते सवे भाणियबा, एए पुण जहा नवमसए पवेसणए भणिहामि तहा उवजुञ्जिऊण भाणियवा जाव असं. खेजा अर्णता एवं चेव, नवरं एक पदं अब्भहियं, जाव अहवा अणंता परिमंडलसंठाणपरिणया जाव अणंता आययसंठाणपरिणया ॥ (सूत्रं ३१४)॥ ___ 'दो भंते 'इत्यादि, इह प्रयोगपरिणतादिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः , द्विकयोगेऽपि त्रय एवेत्येवं षट् , एवं मन:प्रयोगादित्रयेऽपि, सत्यमनःप्रयोगपरिणतादीनि तु चत्वारि पदानि तेष्वेकत्वे चत्वारि द्विकयोगे तु षट् एवं सर्वेऽपि दश, आरम्भसत्यमनःप्रयोगपरिणतादीनि च षट् पदानि, तेष्वेकत्वे षड् द्विकयोगे तु पञ्चदश सर्वेऽप्येकविंशतिः ६, (एकत्वे १-|| ॥३३७॥ २-३-४-५-६॥ द्वित्वे १५ । १-२२-३३-४४५/५.६) सूत्रे च 'अहवा एगे आरंभसचमणप्पओगपरिणए'इत्यादिनेह |
द्विकयोगे प्रथम एव भङ्गको १-४२-५३-६ 'दर्शिता, शेषांस्तदन्यपदसम्भवांश्चातिदेशेन पुनदर्शयतोक्तम्-एवं ४ एएणं गमेणं'इत्यादि एवमेतेन राम गमेनारम्भसत्यमनःप्रयोगादिपदप्रदर्शितेन द्विकसंयोगेन नेतव्यं समस्तं द्र
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व्यवयसत्र, द्विकसंयोगस्य चैकत्वविकल्पाभिधानपूर्वकत्वादेकत्वविकल्पैश्चेति दृश्य, तत्र च यत्रारम्भसत्यमनःप्रयोगादिपदसमूहे यावन्तो द्विकसंयोगा उत्तिष्ठन्ते सर्वे ते तत्र भणितव्याः,तत्र चारम्भसत्यमनःप्रयोगादर्शिता एव,आरम्भादिपदषदविशे-110 षितेषु पुनरित्थमेव त्रिषु मृषामनःप्रयोगादिषु,चतुषु च सत्यवाक्प्रयोगादिषु तु प्रत्येकमेकत्वे षड् विकल्पाः द्विकसंयोगे तु पञ्चदशेत्येवं प्रत्येकमेवमेव सर्वेष्वप्येकविंशतिः, औदारिकशरीरकायप्रयोगादिषु तु सप्तसु पदेष्वेकत्वे सप्त द्विकयोगे त्वेकविंशतिरित्येवमष्टाविंशतिरिति (एकत्वे १-२-३-४-५-६-७द्वित्वे २१॥ ७.10. व्यादिपदप्रभृतिभिः पूर्वोक्तक्रमेणौदारिकादिकायप्रयोगपरिणतद्र-१-३२-४३-४-६५-
१-२२-३३-४४-५५-६६-७ एवंमेकेन्द्रियादिपृथि
व्यद्वयं प्रपञ्चनीयं, कियहूरं यावत् ? इत्याह-जाव सबट्टसिद्धग'त्ति, एतच्चैवं-१-४२-५/३.६४-७/ 'जाव सबसिद्धअणु|त्तरोववाइयकप्पातीतगवेमाणियदेवपंचेंदियकम्मासरीरकायप्पओग १-५२-६३-७
परिणया किं पज्जत्तसबढसिद्धजाव परिणया अपजत्त सबठ्ठसिद्ध जाव परिणया वा?, गो- १-६२-७/
यमा ! पजत्त सबढ़सिद्ध जाव परिणया वा अपज्जत्त सबठ्ठसिद्ध जावपरिणयावा?, अहवा १-५/
एगे पज्जत्त सबहसिद्ध जाव परिणए एगे अपज्जत्त सबठ्ठसिद्ध जाव परिणए'त्ति, एवं वीससापरिणयावित्ति एवमिति-प्रयोगपरिणतद्रव्यदयवत्प्रत्येकविकल्पैर्द्विकसंयोगैश्च विश्रसापरिणते अपि द्रव्ये वर्णगन्धरसस्पर्शसंस्थानेषु पञ्चादिभेदेषु वाच्ये, कियद्रं यावत्।। इत्याह-'जाव अहवेगे'इत्यादि, अयं च पञ्चभेदसंस्थानस्य दशानां द्विकसंयोगानां दशम इति ॥ अथ द्रव्यत्रयं चिन्तयन्नाह-'तिनी'त्यादि, इह प्रयोगपरिणतादिपदत्रये एकत्वे त्रयो विकल्पाः द्विकसंयोगे तु षट् , कथम्?, आद्यस्यैकत्वे शेषयोः
विपरिणयावा व वीससापरिणया पञ्चादिभेदेषु वा अर्थ द्रव्यत्रयं चिन्त
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व्याख्याक्रमेण द्वित्वे द्वौ तथाऽऽद्यस्य द्वित्वे शेषयोः क्रमेणैकत्वेऽन्यौ द्वौ ४ तथा द्वितीयस्यैकत्वे तृतीयस्य च द्वित्वेऽन्यः ५तथा द्विती-|
८ शतके प्रज्ञप्तिः यस्य द्वित्वे तृतीयस्य चैकत्वेऽन्यः६ इत्येवं षट्, त्रिकयोगे त्वेक एवेत्येवं सर्वे दश, एवं मनःप्रयोगादिपदत्रयेऽपि, अत एवाह- उद्देशः१ अभयदेवी- 'एवमेकगसंजोगों'इत्यादि, सत्यमनःप्रयोगादीनि तु चत्वारि पदानीत्यत एकत्वे चत्वारो द्विकसंयोगे तु द्वादश, कथम् ?, एकादिद्रया वृत्तिः१] आद्यस्यैकत्वेन शेषाणां त्रयाणांक्रमेणानेकत्वेन त्रयो लब्धाः, पुनरन्ये त्रय आद्यस्यानेकत्वेन शेषाणां त्रयाणां क्रमेणैकत्वेन ६,
व्यपरिणातथा द्वितीयस्यैकत्वेन शेषयोःक्रमेणानेकत्वेन द्वौ, पुनद्वितीयस्यानेकत्वेन शेषयोःक्रमेणैवैकत्वेनद्वावेव तृतीयचतुर्थयोरेकत्वा
मासू३१४ ॥३३८॥
नकेत्वाभ्यामेकः पुनर्विपर्ययेणैक इत्येवं द्वादश त्रिकयोगे तु चत्वार इत्येवं सर्वेऽपि विंशतिरिति । सूत्रे तु कांश्चिदुपदर्य I|| शषानतिदेशत आह-'एवं दुयासंजोगो'इत्यादि, 'एत्थवि तहेव'त्ति अत्रापि द्रव्यत्रयाधिकारे तथैव वाच्यं सूत्रं यथा
द्रव्यद्वयाधिकारे उक्तं, तत्र च मनोवाक्कायप्रभेदतो यः प्रयोगपरिणामो मिश्रतापरिणामो वर्णादिभेदतश्च विश्रसापरिणाम उक्तः स इहापि वाच्य इति भावः, किमन्तं तत्सूत्रं वाच्यम् ? इत्याह-'जावे'त्यादि, इह च परिमण्डलादीनि पञ्च पदानि तेषु चैकत्वे पञ्च विकल्पाः द्विकसंयोगे तु विंशतिः, कथम् ?, आद्यस्यैकत्वे शेषाणां च क्रमेणानेकत्वे तथाऽऽद्य| स्यानेकत्वे शेषाणां तु क्रमेणैवैकत्वे एवं द्वितीयस्यैकत्वेऽनेकत्वे च शेषत्रयस्य चानेकत्वे एकत्वे च षट् तथा तृतीयस्यैकत्वे च द्वयोश्चानेकत्वे एकत्वे च चत्वारः तथा चतुर्थस्यैकत्वेऽनेकत्वे च पञ्चमस्य चानेकत्वे एकत्वे च द्वावित्येवं सर्वेऽपि
विंशतिः, त्रिकयोगे तु दश, अत्र च 'अहवा एगे तंससंठाणे'इत्यादिना त्रिकयोगानां दशमो दर्शित इति । अथ|| मद्रव्यचतुष्कमाश्रित्याह-'चत्तारि भंते !'इत्यादि, इह प्रयोगपरिणतादित्रये एकत्वे त्रयो द्विकसंयोगे तु नव, कथम्?,12
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आद्यस्यैकत्वे द्वयोश्च क्रमेण त्रित्वे द्वौ तथाऽऽद्यस्य द्वित्वे द्वयोरपि क्रमेणैव द्वित्वेऽन्यौ द्वौ तथाऽऽद्यस्य त्रित्वे द्वयोश्च | क्रमेणैवैकत्वेऽन्यौ द्वौ, तथा द्वितीयस्यैकत्वेऽन्यस्य त्रित्वे तथा द्वयोरपि द्वित्वे तथा द्वितीयस्य त्रित्वेऽन्यस्य चैकत्वे | त्रयोऽन्ये इत्येवं सर्वेऽपि नव त्रययोगे तु त्रय एव भवन्तीत्येवं सर्वेऽपि पञ्चदश इति । 'जइ पओगपरिणया किं | मणप्पओगे' त्यादिना चोक्तशेषं द्रव्यचतुष्कप्रकरणमुपलक्षितं तच्च पूर्वोक्तानुसारेण संस्थानसूत्रान्तमुचितभङ्गकोपेतं | समस्तमध्येयमिति । अथ पञ्चादिद्रव्यप्रकरणान्यतिदेशतो दर्शयन्नाह - ' एवं एएण' मित्यादि, एवं चाभिलापः - 'पंच भंते ! दवा किं पओगपरिणया ३१, गोयमा ! पओगपरिणया ३ अहवा एगे पओगपरिणए चत्तारि मीसापरिणया' इत्यादि, इह च द्विकसंयोगे विकल्पा द्वादश, कथम् ?, एकं चत्वारि च १ द्वे त्रीणि च २ त्रीणि द्वे च ३ चत्वार्येकं च ४ इत्येवं चत्वारो विकल्पा द्रव्यपञ्चकमाश्रित्यैकत्र द्विकसंयोगे पदत्रयस्य त्रयो द्विकसंयोगास्ते च चतुर्भिर्गुणिता द्वादशेति, त्रिकयोगे तु षट् कथम् ?, त्रीण्येकमेकं च १ एकं त्रीण्येकं च २ एकमेकं त्रीणि च ३ द्वे द्वे एकं च ४ द्वे एकं द्वे च ५ एकं द्वे द्वे च ६ इत्येवं षटू, 'जाव दस संजोएणं' ति इह यावत्करणाच्चतुष्कादिसंयोगाः सूचिताः, तत्र च द्रव्यपञ्चकापेक्षया सत्यमनःप्रयोगादिषु चतुर्षु पदेषु द्विकन्त्रिकचतुष्कसंयोगा भवन्ति, तत्र च द्विकसंयोगाश्चतुर्विंशतिः २४, कथम् ?, चतुर्णी | पदानां षट् द्विकसंयोगाः, तत्र चैकैकस्मिन् पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो विकल्पाः पण्णां च चतुर्भिर्गुणने [च] चतुर्विंशतिरिति, त्रिक संयोगा अपि चतुर्विंशतिः, कथम् ?, चतुर्णी पदानां त्रिकसंयोगाश्चत्वारः, एकैकस्मिंश्च पूर्वोक्तक्रमेण षड् विकल्पाः, चतुर्णा च पह्निर्गुणने चतुर्विंशतिरिति, चतुष्कसंयोगे तु चत्वारः, कथम् ?, आदौ द्वे त्रिषु चैकैकं १ तथा द्वितीयस्थाने
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः१
८ शतके उद्देशः१ एकादिरव्यपरिणामासू३१४
॥३३९॥
वे शेषेषु चैकैकं २ तथा तृतीय स्थाने द्वे शेषेषु चैकैकं ३ तथा चतुर्थे द्वे शेषेषु चैकैकम् ४ इत्येवं चत्वार इति, एकेन्द्रि| यादिषु तु पञ्चसु पदेषु द्विकचतुष्कपश्चकसंयोगा भवन्ति, तत्र च द्विकसंयोगाश्चत्वारिंशत् , कथम् ?, पञ्चानां पदानां दश द्विकसंयोगा एकैकस्मिंश्च द्विकसंयोगे पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो विकल्पा दशानां च चतुर्भिर्गुणने चत्वारिंशदिति, त्रिकसंयोगे तु षष्टिः, कथम् ?, पञ्चानां पदानां दश त्रिकसंयोगाः एकैकस्मिंश्च त्रिकसंयोगे पूर्वोक्तक्रमेण षड् विकल्पाः | दशानां च षभिर्गुणने षष्टिरिति, चतुष्कसंयोगास्तु विंशतिः, कथम् ?, पञ्चानां पदानां तु चतुष्कसंयोगे पञ्च विकल्पा एकैकस्मिंश्च पूर्वोक्तक्रमेण चत्वारो भङ्गाः पञ्चानां चतुर्भिर्गुणने विंशतिरिति, पञ्चकसंयोगे त्वेक एवेति, एवं षट्वादिसंयोगा अपि वाच्याः, नवरं पसंयोग आरम्भसत्यमनःप्रयोगादिपदान्याश्रित्य सप्तकसंयोगस्त्वौदारिकादिकायप्रयोगमाश्रित्य अष्टकसंयोगस्तु व्यन्तरभेदान् नवकसंयोगस्तु अवेयकभेदान् दशकसंयोगस्तु भवनपतिभेदानाश्रित्य वैक्रियशरीरकायप्रयोगापेक्षया समवसेयः, एकादशसंयोगस्तु सूत्रे नोक्तः, पूर्वोक्तपदेषु तस्यासम्भवात्, द्वादशसंयोगस्तु कल्पोपपन्नदेवभेदानाश्रित्य वैक्रियशरीरकायप्रयोगापेक्षया वेति । 'पवेसण'त्ति नवमशतकसत्कर्तृतीयोदेशके गाङ्गेयाभिधानानगारकृतनरकादिगतप्रवेशनविचारे, कियन्ति तदनुसारेण द्रव्याणि वाच्यानि ? इत्याह-जाव असंखेज्जेति
॥३३॥
१ यद्यपि नवमे शतके द्वात्रिंशत्तमोद्देशके वक्तव्यतैषा तथाऽपि उत्पातोद्वर्तनाख्याधिकारद्वयानन्तरं प्रवेशनकस्य तृतीयस्य भावात् | द्वात्रिंशचमोद्देशकस्य तृतीये उद्देशे-विभागापरनामके इदं ज्ञेयम्.
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असङ्ख्यातान्तनारकादिवक्तव्यताश्रयं हि तत्सूत्रम् , इह तु यो विशेषस्तमाह-'अणंता'इत्यादि, एतदेवाभिलापतो दर्शयनाह–'जाव अणंते'इत्यादि । अथैतेषामेवाल्पबहुत्वं चिन्तयन्नाह| एएसि णं भंते ! पोग्गलाणं पयोगपरिणयाणं मीसापरिणयाणं वीससापरिणयाण य कयरे २ हितो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा पोग्गला पयोगपरिणया मीसापरिणया अणंतगुणा वीससा. परिणया अणन्तगुणा । सेवं भंते ! सेवं भंते! त्ति॥ (सूत्रं ३१५)॥ अट्ठमसयस्स पढमो उद्देसो समत्तो॥८-१॥ _ 'एएसि ण'मित्यादि, 'सवत्थोवा पुग्गला पओगपरिणय'त्ति कायादिरूपतया, जीवपुद्गलसम्बन्धकालस्य स्तोक* त्वात् , 'मीसापरिणया अणंतगुण'त्ति कायादिप्रयोगपरिणतेभ्यः सकाशान्मिश्रकपरिणता अनन्तगुणाः, यतः प्रयोग-15
कृतमाकारमपरित्यजन्तो विश्रसया ये परिणामान्तरमुपागता मुक्तकडेवराद्यवयवरूपास्तेऽनन्तानन्ताः, विश्रसापरिण-| तास्तु तेभ्योऽप्यनन्तगुणाः, परमाण्वादीनां जीवाग्रहणप्रायोग्याणामप्यनन्तत्वादिति ॥ अष्टमशते प्रथमः॥८-१॥
गता मुक्तकडेवराद्यवयवरूपान्तगुणाः, यतः प्रयोग
ऽप्यनन्तगुणाः, परमाण्वादीनां
ज
प्रथमे पुद्गलपरिणाम उक्तो, द्वितीये तु स एवाशीविषद्वारेणोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्यादिसूत्रम्| कतिविहा णं भंते ! आसीविसा पन्नत्ता ?, गोयमा ! दुविहा आसीविसा पन्नत्ता, तंजहा-जातिआसी-15 विसा य कम्मआसीविसा य, जाइआसीविसा णं भंते ! कतिविहा पन्नत्ता ?, गोयमा ! चउविहा पन्नत्ता, तंजहा-विच्छुयजातिआसीविसे मंडुक्कजाइआसीविसे उरगजातिआसीविसे मणुस्सजातिआसीविसे,
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व्याख्या
विच्छुयजातिआसीविसस्स भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते ?, गोयमा ! पभू णं विच्छुयजातिआसीविसे प्रज्ञप्तिः
| अद्धभरहप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेणं विसपरिगयं विसट्टमाणं पकरेत्तए, विसए से विसट्टयाए नो चेव णं संपअभयदेवी- Iत्तीए करेंसु वा करेंति वा करिस्संति वा १, मंडुक्कजातिआसीविसपुच्छा,गोयमा! पभूणं मंडुक्कजातिआसीविसे यावृत्तिः१ भरहप्पमाणमेत्तं बोदिं विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव करेस्संति वा २, एवं उरगजातिआसीविस
|स्सवि नवरं जंबुद्दीवप्पमाणमेत्तं बोंदिं विसेणं विसपरिगयं सेसं तं चेव जाव करेस्संति वा ३, मणुस्सजाति॥३४॥
आसीविसस्सवि एवं चेव नवरं समयखेत्तप्पमाणमेत्तं बोंदि विसेण विसपरिगयं सेसंतं चेव जाव करेस्संति वा ४ । जइ कम्मआसीविसे किं नेरइयकम्मआसीविसे तिरिक्खजोणियकम्मआसीविसे मणुस्सकम्मआसीविसे देवकम्मासीविसे ?, गोयमा! नो नेरइयकम्मासीविसे तिरिक्खजोणियकम्मासीविसेवि मणुस्सकम्मा० |देवकम्मासी०, जइ तिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं एगिदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे जाव पंचिं| दियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे ?, गोयमा ! नो एगिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे जाव नो चउरि|दियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे पंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे,जह पंचिंदियतिरिक्खजोणियजावकम्मासीविसे किं समुच्छिमपंचेंदियतिरिक्खजोणियजावकम्मासीविसे गन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजो|णियकम्मासीविसे ?, एवं जहा वेउब्वियसरीरस्स भेदो जाव पजत्तासंखेजवासाउयगन्भवतियपंचिदियति-|| |रिक्खजोणियकम्मासीविसे नो अपज्जत्तासंखेजवासाउयजावकम्मासीविसे । जइ मणुस्सकम्मासीविसे किं|
८ शतके उद्देशान आशीविषाधिकार सू ३१६
SGARLSOCIECESSA
॥३४॥
GARS
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संमुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे गन्भवतियमणुस्सकम्मासीविसे ?, गोयमा ! णो संमुच्छिममणुस्सकम्मासीविसे गन्भवतियमणुस्सकम्मासीविसे एवं जहा वेउब्वियसरीरं जाव पज्जत्तासंखेजवासाउयकम्मभूमगगन्भवतियमणूसकम्मासीविसे नो अपज्जत्ता जाव कम्मासीविसे । जइ देवकम्मासीविसे किं भवणवासीदेवकम्मासीविसे जाव वेमाणियदेवकम्मासीविसे, गोयमा! भवणवासीदेवकम्मासीविसे वाणमंतर जोति|सिय० वेमाणियदेवकम्मासीविसे, जइ भवणवासिदेवकम्मासीविसे से किं असुरकुमारभवणवासिदेवक|म्मासीविसे जाव थणियकुमार जाव कम्मासीविसे ?, गोयमा ! असुरकुमारभवणवासिदेवकम्मासीविसेवि जाव थणियकुमारआसीविसेवि, जइ असुरकुमार जाव कम्मासीविसे किं पज्जत्त असुरकुमार जाव कम्मासी-| विसे अपज्जत्त असुरकुमारभवणवासिकम्मासीविसे ? गोयमा ! नो पज्जत्त असुरकुमार जाव कम्मासीविसे टू अपजत्तअसुरकुमारभवणवासिकम्मासीविसे एवं थणियकुमाराणं, जइ वाणमंतरदेवकम्मासीविसे किं पि-६
सायवाणमंतर० एवं सवेसिपि अपजत्तगाणं, जोइसियाणं सधेसिं अपजत्तगाणं, जब वेमाणियदेवकम्मासीविसे किं कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे कप्पातीयवेमाणियदेवकम्मासीविसे ?, गोयमा ! कप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे नो कप्पातीयवेमाणियदवे जाव कम्मासीविसे, जइ कप्पोवगवेमाW|णियदेवकम्मासीविसे किं सोहम्मकप्पोव. जाव कम्मासीविसे अचुयकप्पो वा जाव कम्मासीविसे ?, गोयमा ! सोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसेवि जाव सहस्सारकप्पोवगवेमाणियदेवक
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवी- या वृत्तिः ॥४१॥
+355 44 45 45 45 45
म्मासीविसे, नो आणयकप्पोवग जाव नो अच्चुयकप्पोवगवेमाणियदेव०, जइ सोहम्मकप्पोवग जाव कम्मासी
८शतके विसे किं पजत्तसोहम्मकप्पोवगवेमाणिय. अपज्जत्तगसोहम्मग०, गोयमा! नो पजत्त सोहम्मकप्पोवगवे- उद्देशः२ माणिय. अपज्जत्त सोहम्मकप्पोवगवेमाणियदेवकम्मासीविसे, एवं जाव नो पजत्तासहस्सारकप्पोवगवेमा- माशीविषा|णिय जाव कम्मासीविसे, अपज्जत्त सहस्सारकप्पोवगजावकम्मासीविसे ॥ (सूत्रं ३१६)॥
धिकार: 'कइविहे'त्यादि, "आसीविसत्ति 'आशीविषाः' दंष्ट्राविषाः 'जाइआसीविसत्ति जात्या-जन्मनाऽऽशीविषा
सू३१६ जात्याशीविषाः 'कम्मआसीविस'त्ति कर्मणा-क्रियया शापादिनोपघातकरणेनाशीविषाः कर्माशीविषाः, तत्र पञ्चेन्द्रिl यतिर्यञ्चो मनुष्याश्च कर्माशीविषाः पर्याप्तका एव, एते हि तपश्चरणानुष्ठानतोऽन्यतो वा गुणतः खल्वाशीविषा भवन्ति, शापप्रदानेनैव व्यापादयन्तीत्यर्थः, एते चाशीविषलब्धिस्वभावात् सहस्रारान्तदेवेष्वेवोत्पद्यन्ते, देवास्त्वेत एव ये देवत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामनुभूतभावतया कर्माशीविषा इति, उक्तञ्च शब्दार्थभेदसम्भवादिभाष्यकारेण-"आसी दाढा तग्गयमहाविसाऽऽसीविसा दुविहभेया। ते कम्मजाइभेएण णेगहा चउविहविगप्पा ॥१॥” 'केवइए'त्ति कियान् 'विसए'त्ति गोचरो विषयस्येति गम्यम् 'अद्धभरहप्पमाणमेत्तं'ति अर्द्धभरतस्य यत् प्रमाणं-सातिरेकत्रिषष्ट्यधिकयोजनशतद्वयलक्षणं तदेव मात्रा-प्रमाणं यस्याः सा तथा तां 'बोंदिति तनुं 'विसेणं ति विषेण स्वकीयाशीप्रभवेण कर-||
कर ॥३४॥ णभूतेन 'विसपरिगयंति विषं भावप्रधानत्वानिर्देशस्य विषतां परिगता-प्राप्ता विषपरिगताऽतस्ताम् , अत एव 'विस-|
१-आश्यो-दंष्ट्रास्तद्गतविषा आशीविषास्ते कर्मजातिभेदेन द्विविधाः कर्माशीविषा अनेकविधा जात्याशीविषाश्चतुर्विधविकल्पाः ॥१॥
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54545455555550
द्रमाणिति विकसन्ती-विदलन्तीं 'करेत्तए'त्ति कर्तुं 'विसए से'त्ति गोचरोऽसौ, अथवा 'से'तस्य वृश्चिकस्य 'विसट्टयाए'त्ति विषमेवार्थो विषार्थस्तद्भावस्तत्ता तस्या विषार्थतायाः-विषत्वस्य तस्यां वा 'नो चेव' नैवेत्यर्थः 'संपत्तीए'त्ति संपत्त्या एवंविधबोन्दिसंप्राप्तिद्वारेण 'करिसुत्ति अकार्घवृश्चिका इति गम्यते, इह चैकवचनप्रक्रमेऽपि बहुवचननिर्देशो वृश्चिकाशीविषाणां बहुत्वज्ञापनार्थम्, एवं कुर्वन्ति करिष्यन्तीत्यपि, त्रिकालनिर्देशश्चामीषां त्रैकालिकत्वज्ञापनार्थः, 'समयक्खेत्त'त्ति 'समयक्षेत्रं' मनुष्यक्षेत्रम् ‘एवं जहावेउब्वियसरीरस्स भेउ'त्ति यथा वैक्रिय भणता जीवभेदो भणितस्तथेहापि वाच्योऽसावित्यर्थः, स चायं-गोयमा ! नो समुच्छिमपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे गम्भवकतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे, जइ गन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे किं संखेजवासाउयगन्भवतियपंचिंदियतिरिक्खजोणियकम्मासीविसे असंखेजवासाउय जाव कम्मासीविसे?, गोयमा ! संखेजवासाउय जाव कम्मासीविसे नो असंखेजवासाउय जाव कम्मासीविसे, जइ संखेज जाव कम्मासीविसे पिज्जत्तसंखेज जाव कम्मासीविसे अपजत्तसंखेज जाव कम्मासीविसे ?, गोयमा ! शेषं लिखितमेवास्ति ॥ एतच्चोक्तं वस्तु अज्ञानो न जानाति, ज्ञान्यपि कश्चिद्दश वस्तूनि कथञ्चिन्न जानातीति दर्शयन्नाह
दस ठाणाई छउमत्थे सवभावेणं न जाणइ न पासइ, तंजहा-धम्मत्थिकायं १ अधम्मत्थिकायं २ आगासत्थिकायं जीवं असरीरपडिवद्धं ४ परमाणुपोग्गलं ५ सई ६ गंधं ७ वातं ८ अयं जिणे भविस्सइ वा ण वा भविस्सइ ९ अयं सबदुक्खाणं अंतं करेस्सति वा न वा करेस्सइ १०॥ एयाणि चेव उप्पन्ननाणदंसणधरे
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व्याख्या
अरहा जिणे केवली सवभावेणं जाणइ पासइ, तंजहा-धम्मत्थिकायं जाव करेस्संति वानवा करेस्संति ८ शतके प्रज्ञप्तिः अभयदेवी(सूत्रं ३१७)॥
| उद्देशः२ | 'दसे'त्यादि, 'स्थानानि' वस्तूनि गुणपर्यायाश्रितत्वात् , छद्मस्थ इहावध्याद्यतिशयविकलो गृह्यते, अन्यथाऽमूर्त्तत्वेन में यावृत्तिः१
दशस्थान
| ज्ञानाज्ञोने ४|| धर्मास्तिकायादीनजानन्नपि परमाण्वादि जानात्येवासौ, मूर्तत्वात्तस्य, समस्तमूर्त्तविषयत्वाचावधिविशेषस्य । अथ सर्व॥४२॥
सू ३१७ भावेनेत्युक्तं ततश्च तत् कथञ्चिजानन्नप्यनन्तपर्यायतया न जानातीति, सत्यं, केवलमेवं दशेति सङ्ग्यानियमो व्यर्थः स्यात् , |घटादीनां सुबहूनामर्थानामकेवलिना सर्वपर्यायतया ज्ञातुमशक्यत्वात् , सर्वभावेन च साक्षात्कारेण-चक्षु प्रत्यक्षेणेति | हृदयं, श्रुतज्ञानादिना त्वसाक्षात्कारेण जानात्यपि, 'जीवं असरीरपडिबद्धं ति देहविमुक्तं सिद्धमित्यर्थः, 'परमाणुट|| पुग्गलं ति परमाणुश्चासौ पुद्गलश्चेति, उपलक्षणमेतत्तेन व्यणुकादिकमपि कश्चिन्न जानातीति, अयमिति-प्रत्यक्षः कोऽपि
प्राणी जिनो-वीतरागो भविष्यति न वा भविष्यतीति नवमम् ९ 'अय'मित्यादि च दशमम् ॥ उक्तव्यतिरेकमाहद्रा'एयाणी'त्यादि, 'सवभावेणं जाणइ'त्ति सर्वभावेन साक्षात्कारेण जानाति केवलज्ञानेनेति हृदयम् ॥ जानातीत्युक्त-|| है मतो ज्ञानसूत्रम्PL कतिविहे णं भंते ! नाणे पन्नते ?, गोयमा! पंचविहे नाणे पन्नत्ते. तंजहा-आभिणियोहियनाणे सुयनाणे ॥३४२॥ द्र ओहिनाणे मणपजवनाणे केवलनाणे, से किं तं आभिणियोहियनाणे ?, आभिणियोहियनाणे चउबिहे | | पन्नत्ते, तंजहा-उग्गहो ईहा अवाओ धारणा, एवं जहा रायप्पसेणइए जाणाणं भेदो तहेव इहवि
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भाणियवो जाव सेत्तं केवलनाणे ॥ अन्नाणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-181 मइअन्नाणे सुयअन्नाणे विभंगन्नाणे । से किं तं मइअन्नाणे ?, २६चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा-उग्गहो जाव धारणा । से किं तं उग्गहे १,२ दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य, एवं जहेव आभिणिबोहियनाणं तहेव, नवरं एगढियवजं जाव नोइंदियधारणा, सेत्तं धारणा, सेत्तं मइअन्नाणे । से किं तं सुय| अन्नाणे १, २ जं इमं अन्नाणिएहिं मिच्छद्दिट्ठिएहिं जहा नंदीए जाव चत्तारि वेदा संगोवंगा, सेत्तं सुयअनाणे । से किं तं विभंगनाणे १, २ अणेगविहे पण्णत्ते, तंजहा-गामसंठिए नगरसंठिए जाव संनिवेससंठिए दीवसंठिए समुहसंठिए वाससंठिए वासहरसंठिए पव्वयसंठिए रुक्खसंठिए थूभसंठिए हयसंठिए गयसंठिए नरसंठिए किंनरसंठिए किंपुरिससंठिए महोरगगंधवसंठिए उसभसंठिए पसुपसयविहगवानरणाणासंठाणसंठिए पण्णत्ते ॥ जीवा णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! जीवा नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्थेगतिया दुनाणी अत्थेगतिया तिन्नाणी अत्यंगतिया चउनाणी अत्थेगतिया एगनाणी जे दुनाणी ते आभिणियोहियनाणी य सुयनाणी य जे तिन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी | अहवा आभिणियोहियनाणी सुयनाणी मणपजवनाणी जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी
ओहिनाणी मणपज्जवनाणी जे एगनाणी ते नियमा केवलनाणी, जे अन्नाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी अत्थेगतिया तिअन्नाणी जे दुअन्नाणी ते मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य जे तियअन्नाणी ते मइअन्नाणी सुयअन्नाणी|
कककका
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व्याख्या- विभंगनाणी। नेरइया णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा ८शतके प्रज्ञप्तिः | तिन्नाणी, तंजहा-आभिणिबोहि० सुयना ओहिना जे अन्नाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी अत्थेगतियाल
उद्देशः२ अभयदेवीतिअन्नाणी, एवं तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए । असुरकुमारा णं भंते ! किं नाणी अन्नाणी?, जहेव नेरइया
ज्ञानाज्ञाया वृत्तिः तहेव तिन्नि नाणाणि नियमा, तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए, एवं जाव थणियकु०। पुढविक्काइया णं भंते !
नाधिकारः किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नो नाणी अन्नाणी, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी-मइअन्नाणी य सुय॥३४३॥
सू० ३१८ | अन्ना०, एवं जाव वणस्सइका। बेइंदियाणं पुच्छा, गोयमा ! णाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा |दुन्नाणी, तंजहा-आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी आभिणियोहिय| अन्नाणी सुयअन्नाणी, एवं तेइंदियचउरिंदियावि, पंचिंदियतिरिक्खजो० पुच्छा,गोयमा!नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्थे दुन्नाणी अत्थे० तिन्ना एवं तिन्नि नाणाणि तिन्नि अन्नाणाणि य भयणाए। मणुस्सा जहा जीवा तहेव पंच नाणाणि तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए । वाणमंत. जहा ने जोइसियवेमाणियाणं तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा नियमा। सिद्धा णं भंते! पुच्छा, गोयमा! णाणी नो अन्नाणी, नियमा एगनाणी ॥३४॥ केवलनाणी (सूत्रं ३१८)॥ | तत्र च 'आभिणिबोहियनाणे'त्ति अर्थाभिमुखोऽविपर्ययरूपत्वात् नियतोऽसंशयरूपत्वाद्बोधः-संवेदनमभिनिबोधः ४ स एव स्वार्थिकेकप्रत्ययोपादानादाभिनिबोधिक, ज्ञातिञ्जयते वाऽनेनेति ज्ञानम् , आभिनिबोधिकं च तज्ज्ञानं चेति
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आभिनिबोधिकज्ञानम्-इन्द्रियानिन्द्रियनिमित्तो बोध इति । 'सुयनाणे'त्ति श्रूयते तदिति श्रुतं-शब्दः स एव ज्ञानं भावश्रुतकारणत्वात् कारणे कार्योपचारात् श्रुतज्ञानं, श्रुताद्वा-शब्दात् ज्ञानं श्रुतज्ञानम्-इन्द्रियमनोनिमित्तः श्रुतग्रन्थानुसारी बोध इति । 'ओहिणाणे'त्ति अवधीयते-अधोऽधो विस्तृतं वस्तु परिच्छिद्यतेऽनेनेत्यवधिः स एव ज्ञानम् अवधिना वा-मर्यादया मूर्त्तद्रव्याण्येव जानाति नेतराणीति व्यवस्थया ज्ञानमवधिज्ञानं 'मणपज्जवणाणे'त्ति मनसोमन्यमानमनोद्रव्याणां पर्यवः-परिच्छेदो मनःपर्ययः स एव ज्ञानं मनःपर्यवज्ञानं मनःपर्यायाणां वा-तदवस्थाविशेषाणां| ज्ञानं मनःपर्यायज्ञानम् । केवलणाणे'त्ति केवलमेकं मत्यादिज्ञाननिरपेक्षत्वात् शुद्धं वा आवरणमलकलङ्करहितत्वात् 8 सकलं वा-तत्प्रथमतयैवाशेषतदावरणाभावतः सम्पूर्णोत्पत्तेः असाधारणं वाऽनन्यसदृशत्वात् अनन्तं वा ज्ञेयानन्तत्वात् | यथाऽवस्थिताशेषभूतभवद्भाविभावस्वभावावभासीति भावना तच्च तत् ज्ञानं चेति केवलज्ञानम् । 'उग्गहो'त्ति सामान्यार्थस्य-अशेषविशेषनिरपेक्षस्यानिर्देश्यस्य रूपादेः अव इति-प्रथमतो ग्रहण-परिच्छेदनमवग्रहः 'ईह'त्ति सदर्थविशेषालोचनमीहा 'अवाओ'त्ति प्रक्रान्तार्थविनिश्चयोऽवायः 'धारणे'ति अवगतार्थविशेषधरणं धारणा 'एवं जहे त्यादि, 'एवम्' उक्तक्रमेण यथा राजप्रश्नकृते द्वितीयोपाङ्गे ज्ञानानां भेदो भणितस्तथैवेहापि भणितव्यः, स चैवम्-'से किं तं | उग्गहे ?, उग्गहे दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-अत्थोग्गहे य वंजणोग्गहे य'इत्यादिरिति, यच्च वाचनान्तरे श्रुतज्ञानाधि-8 |कारे यथा नन्द्यामङ्गप्ररूपणेत्यभिधाय 'जाव भवियअभविया तत्तो सिद्धा असिद्धा ये'त्युक्तं तस्यायमर्थः-श्रुतज्ञानसूत्रावसाने किल नन्द्यां श्रुतविषयं दर्शयतेदमभिहितम्-'इच्चेयंमि दुवालसंगे गणिपिडए अणंता भावा अणंता
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८ शतके उद्देशः२ ज्ञानाज्ञानाधिकार सू३१०
व्याख्या- अभावा जाव अणंता भवसिद्धिया अणंता अभवसिद्धिया अणंता सिद्धा अणंता असिद्धा पन्नत्ते'ति, अस्य च सूत्रस्य या प्रज्ञप्ति
सङ्ग्रहगाथा-"भावमभावा हेऊमहेउ कारणमकारणा जीवा। अज्जीव भवियाऽभविया तत्तो सिद्धा असिद्धा य ॥१॥" अभयदेवी- | इत्येवंरूपा तस्याः खण्डमिदमेतदन्तं श्रुतज्ञानसूत्रमिहाध्येयमिति ॥ज्ञानविपर्ययस्त्वज्ञानमिति तत्सूत्रम्-तत्रच अन्नाणेत्ति यावृत्तिः
नञः कुत्सार्थत्वात् कुत्सितं ज्ञानमज्ञानं, कुत्सितत्वं च मिथ्यात्वसंवलितत्वात् , उक्तञ्च-"अविसेसिया मइच्चिय सम्मदिहिस्स ॥३४४॥
|सा मइन्नाणं । मइअन्नाणं मिच्छद्दिहिस्स सुयंपि एमेव ॥१॥"'विभंगणाणे'त्ति विरुद्धा भङ्गा-वस्तुविकल्पा यस्मिंस्तद्विभङ्गं तच्च तज्ज्ञानं च अथवा विरूपो भङ्गः-अवधिभेदो विभङ्गः स चासौ ज्ञानं चेति विभङ्गज्ञानम् , इह च कुत्सा विभङ्गशब्देनैव गमितेति न ज्ञानशब्दो नजा विशेषितः, 'अत्थोग्गहे यत्ति अर्थ्यत इत्यर्थस्तस्यावग्रहः अर्थावग्रहःसकलविशेषनिरपेक्षानिर्देश्यार्थग्रहणमेकसामयिकमिति भावार्थः, 'वंजणोग्गहे य'त्ति व्यज्यतेऽनेनार्थः प्रदीपेनेव घट इति व्यञ्जनं तच्चोपकरणेन्द्रियं शब्दादिपरिणतद्रव्यसङ्घातो वा, ततश्च व्यञ्जनेन-उपकरणेन्द्रियेण व्यञ्जनानांवा-शब्दादिपरिणतद्रव्याणामवग्रहो व्यञ्जनावग्रहः, अत्रार्थावग्रहस्य सुलक्ष्यत्वात् सकलेन्द्रियार्थव्यापकत्वाच्च प्रथममुपन्यासः, 'एवं |जहेवे'त्यादि, यथैवाभिनिबोधिकज्ञानमधीतं तथैव मत्यज्ञानमप्यध्येयं, तच्चैवम्-'से किं तं वंजणोग्गहे १, २ चउबिहे पन्नत्ते, तंजहा-सोइंदियवंजणोग्गहे घाणिंदियवंजणोग्गहे जिभिदियवंजणोग्गहे फासिंदियवंजणोग्गहे'
१-भावा अभावा हेतवोऽहेतवः कारणान्यकारणानि जीवा अजीवा भव्या अभव्यास्ततः सिद्धा असिद्धाः॥ (द्वादशागीरूपगणिपिटके)। 21-अविशेषिता मतिरेव सा सम्यग्दृष्टेमतिज्ञानं मिथ्यादृष्टेमत्यज्ञानं श्रुतमप्येवमेव ॥१॥
॥३४॥
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| इत्यादि, यश्चेह विशेषस्तमाह — 'नवरं एगट्ठियवज्जं ति इहाभिनिबोधिकज्ञाने 'उग्गिण्हणया अवधारणया सवणया अवलंबणया मेहे 'त्यादीनि [पञ्च] पञ्च पञ्चैकार्थिकान्यवग्रहादीनामधीतानि, मत्यज्ञाने तु न तान्यध्येयानीति भावः, 'जाव नोइंदियधारण' त्ति इदमन्त्यपदं यावदित्यर्थः, 'जं इमं अन्नाणिएहिं 'ति यदिदम् 'अज्ञानिकैः' निर्ज्ञानैः, तत्राल्पज्ञानभावादधनवदशीलवद्वा सम्यग्दृष्टयोऽप्यज्ञानिकाः प्रोच्यन्तेऽत एवाह - मिथ्यादृष्टिभिः, 'जहा नंदीए 'त्ति, तत्रैवमेतत्सूत्रम् - 'सच्छंदबुद्धिमविगप्पियं तंजहा- भारहं रामायण' मित्यादि, तत्रावग्रहेहे बुद्धिः अवायधारणे च मतिः, स्वच्छन्देन - स्वाभिप्रायेण तत्त्वतः सर्वज्ञप्रणीतार्थानुसारमन्तरेण बुद्धिमतिभ्यां विकल्पितं स्वच्छन्दबुद्धिमतिविकल्पितं - स्वबुद्धि कल्पनाशिल्पनिर्मितमित्यर्थः 'चत्तारि य वेय'त्ति साम ऋकू यजुः अथर्वा चेति 'संगोवंग'त्ति इहाङ्गानि - शिक्षादीनि षट् उपाङ्गानि च तद्व्याख्यानरूपाणि 'गामसंठिए त्ति ग्रामालम्बनत्वाद् ग्रामाकारम्, एवमन्यान्यपि, नवरं 'वाससंठिए'त्ति भरतादिवर्षाकारं 'वासहरसंठिए ति हिमवदादिवर्षधरपर्वताकारं 'हय संठिए' अश्वाकारं, 'पसय'त्ति | पसयसंठिए, तत्र पसय:-आटव्यो द्विखुरश्चतुष्पदविशेषः, एवं च नानाविधसंस्थानसंस्थितमिति ॥ अनन्तरं ज्ञानान्यज्ञानानि चोक्तानि, अथ ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च निरूपयन्नाह - 'जीवा णं भंते !' इत्यादि, इह च नारकाधिकारे 'जे नाणी ते नियमा तिन्नाणी'ति सम्यग्दृष्टिनारकाणां भवप्रत्ययमवधिज्ञानमस्तीतिकृत्वा ते नियमाविज्ञानिनः, 'जे | अन्नाणी ते अत्थेगतिया दुअन्नाणी अत्थेगतिया तिअन्नाणी'ति कथम् १, उच्यते, असज्ज्ञिनः सन्तो ये नारके - पूत्पद्यन्ते तेषामपर्याप्तकावस्थायां विभङ्गाभावादाद्यमेवाज्ञानद्वयमिति ते द्व्यज्ञानिनः ये तु मिथ्यादृष्टिसज्ञिभ्य उत्प
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी या वृत्तिः १
॥ ३४५॥
द्यन्ते तेषां भवप्रत्ययो विभङ्गो भवतीति ते व्यज्ञानिनः, एतदेव निगमयन्नाह — एवं तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए 'ति । 'बेइंदियाण' मित्यादि, द्वीन्द्रियाः केचित् ज्ञानिनोऽपि सास्वादन सम्यग्दर्शन भावेनापर्याप्तकावस्थायां भवन्तीत्यत | उच्यते 'नाणीव अन्नाणीवित्ति ॥ अनन्तरं जीवादिषु षडूविंशतिपदेषु ज्ञान्यज्ञानिनश्चिन्तिताः, अथ तान्येव गती| न्द्रियकायादिद्वारेषु चिन्तयन्नाह -
निरयगइयाणं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, तिन्नि नाणाईं नियमा तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । तिरियगइया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! दो नाणा दो अन्नाणा नियमा । मणुस्सगइया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! तिन्नि नाणाई भयणाएं दो अन्नाणाई नियमा, देवगतिया जहा निरयगतिया । सिद्धगतिया णं भंते! जहा सिद्धा ॥ सइंदिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! चत्तारि नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । एगिंदिया णं भंते! जीवा किं नाणी० ?, जहा पुढविकाइया बेइंदियतेइंदियचउरिंदियाणं दो नाणा दो अन्नाणा नियमा । पंचिंदिया जहा सइंदिया | अणिंदिया णं भंते ! जीवा किं नाणी० ?, जहा सिद्धा । सकाइया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! पंच नाणाणी तिन्नि अन्नाणारं भयणाए । पुढविकाइया जाव वणस्सइकाइया नो नाणी अन्नाणी नियमा दुअन्नाणी, तंजहा-मतिअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, तसकाइया जहा सकाइया । अकाइया णं भंते ! जीवा किं नाणी० ?, जहा सिद्धा ३|| सुहुमा णं भंते ! जीवा किं नाणी० ? जहा पुढविकाइया ।
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८ शतके
उद्देशः २ गत्यादिषु ज्ञाना ज्ञ
नान
सू ३१९
॥ ३४५॥
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SCSS34056454554560
बादरा गं भंते ! जीवा किं नाणी ? जहा सकाइया । नोसुहमानोबादरा णं भंते ! जीवा जहा सिद्धा ४॥ पज्जत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी, जहा सकाइया । पजत्ता णं भंते ! नेरइया किं नाणी०१, तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा नियमा जहा नेरइए एवं जाव थणियकुमारा । पुढविकाइया जहा एगिदिया, एवं| जाव चारिदिया। पज्जत्ता णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया किं नाणी अन्नाणी?, तिन्नि नाणा तिन्नि |
अन्नाणा भयणाए। मणुस्सा जहा सकाइया । वाणमंतरा जोइसिया वेमाणिया जहा नेरइया । अपज्जत्ता |णं भंते ! जीवा किं नाणी. २१, तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा · भयणाए । अपज्जत्ता णं भंते ! नेरतिया किं% नाणी अन्नाणी?, तिन्नि नाणा नियमा तिन्नि अन्नाणा भयणाए, एवं जाव थणियकुमारा । पुढविक्काइया जाव वणस्सइकाइया जहा एगिदिया । बेंदियाणं पुच्छा, दो नाणा दो अन्नाणा णियमा, एवं जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं । अपजत्तगाणं भंते ! मणुस्सा किं नाणी अन्नाणी ?, तिन्नि नाणाई भयणाए दो अन्नाणाई नियमा, वाणमंतरा जहा नेरइया, अपजत्तगा जोइसियवेमाणिया णं तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा नियमा। नो पज्जत्तगा नो अपज्जत्तगाणं भंते ! जीवा किं नाणी०१, जहा सिद्धा ५॥ निरयभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, जहा निरयगतिया । तिरियभवत्था णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, तिन्नि नाणा तिन्नि अन्नाणा भयणाए । मणुस्सभवत्था णं. जहा सकाइया । देवभवत्था णं भंते ! जहा निरयभवत्था । अभवत्था जहा सिद्धा ६ ॥ भवसिद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी,*
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः १
॥३४६ ॥
जहा सकाइया, अभवसिद्धियाणं पुच्छा, गोयमा ! नो नाणी अन्नाणी तिन्नि अन्नाणारं भयणाए । नोभवसिद्धियानोअभवसिद्धिया णं भंते ! जीवा० जहा सिद्धा ७ ॥ सन्नीणं पुच्छा जहा सइंदिया, असन्नी जहा बेइंदिया, नोसन्नीनोअसन्नी जहा सिद्धा ८ ॥ ( सूत्रं ३१९ ) ॥
'निरयगइया ण' मित्यादि, गत्यादिद्वाराणि चैतानि - " गइइंदिए य काए सुहुमे पज्जत्तए भवत्थे य । भवसिद्धिए य सन्नी लद्धी उवओग जोगे य ॥ १ ॥ लेसा कसाय वेए आहारे नाणगोयरे काले । अंतर अप्पाबहुयं च पज्जवा चेह दोराई ॥ २ ॥ तत्र च निरये गतिः- गमनं येषां ते निरयगतिकास्तेषाम्, इह च सम्यग्दृष्टयो मिथ्यादृष्टयो वा ज्ञानिनोऽज्ञानिनो वा ये पश्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्येभ्यो नरके उत्पत्तकामा अन्तरगतौ वर्त्तन्ते ते निरयगतिका विवक्षिताः, एतत्प्रयोजनत्वाद्गतिग्रहणस्येति, तिन्नि नाणाई नियम'त्ति अवधेर्भवप्रत्ययत्वेनान्तरगतावपि भावात् 'तिन्नि अन्नाणाइं भयणाए 'ति असज्ञिनां नरके गच्छतां द्वे अज्ञाने अपर्याप्तकत्वे विभङ्गस्याभावात् सञ्ज्ञिनां तु मिथ्यादृष्टीनां त्रीण्यज्ञानानि भवप्रत्ययविभङ्गस्य सद्भावाद् अतस्त्रीण्यज्ञानानि भजनयेत्युच्यत इति । 'तिरियगइया णं' ति तिर्यक्षु गतिःगमनं येषां ते तिर्यग्गतिकास्तेषां तदपान्तरालवर्त्तिनां 'दो नाण'त्ति सम्यग्दृष्टयो ह्यवधिज्ञाने प्रपतिते एव तिर्यक्षु गच्छन्ति तेन तेषां द्वे एव ज्ञाने 'दो अन्नाणे'त्ति मिथ्यादृष्टयोऽपि हि विभङ्गज्ञाने प्रतिपतिते एव तिर्यक्षु गच्छन्ति तेन तेषां १ गत एकेन्द्रियादिः पृथ्वीकायादिः सूक्ष्मः पर्याप्तः भवस्थश्च भवसिद्धिकश्च सज्ञी लब्धिरुपयोगो योगश्च ॥ १ ॥ लेश्या कषायः || वेदः आहारः ज्ञानविषयः कालः अन्तरम् अल्पबहुत्वं च पर्यायाश्वेह द्वाराणि ॥ २ ॥
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८ शतके उद्देशः २ गत्यादिषु ज्ञानाज्ञा
नानि
| सू ३१९
॥१४६॥
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उत्पमा डिगइया कानां चान
वे अज्ञाने इति । 'मणुस्सगइया 'मित्यादौ, 'तिन्नि माणाई भयणाएत्ति मनुष्यगतौ हि गच्छन्तः केचिज्ज्ञानिनोऽवधिना सहैव गच्छन्ति तीर्थकरवत् केचिच्च तद्विमुच्य तेषां त्रीणि वा द्वे वा ज्ञाने स्यातामिति, ये पुनरज्ञानिनो मनु| प्यगताकुत्पत्तुकामास्तेषां प्रतिपतित एव विभङ्गे तत्रोत्पत्तिः स्यादित्यत उक्तं 'दो अन्नाणाई नियम'त्ति । 'देवगइया जहा निरयगइय'त्ति देवगतो ये ज्ञानिनो यातुकामास्तेषामवधिर्भवप्रत्ययो देवायुःप्रथमसमय एवोत्पद्यतेऽतस्तेषां| नारकाणामिवोच्यते, 'तिन्नि नाणाई नियमत्ति, ये त्वज्ञानिनस्तेऽसज्ञिभ्य उत्पद्यमाना यज्ञानिनः, अपर्याप्तकत्वे विभङ्गस्याभावात् सज्ञिभ्य उत्पद्यमानास्त्वज्ञानिनो भवप्रत्ययविभङ्गस्य सद्भावाद् अतस्तेषां नारकाणामिवोच्यते'तिन्नि अन्नाणाई भयणाए'त्ति । 'सिडिगइया 'मित्यादि, यथा सिद्धाः केवलज्ञानिन एव एवं सिद्धिगतिका अपि वाच्या इति भावः, यद्यपि च सिद्धानां सिद्धिगतिकानां चान्तरगत्यभावान्न विशेषोऽस्ति तथाऽपीह गतिद्वारबलायातत्वात्ते दर्शिताः, एवं द्वारान्तरेष्वपि परस्परान्तर्भावेऽपि तत्तद्विशेषापेक्षयाऽपौनरुक्त्यं भावनीयमिति ॥ अथेन्द्रियद्वारे'सइंदियेत्यादि, 'सेन्द्रियाः' इन्द्रियोपयोगवन्तस्ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां चत्वारि ज्ञानानि भजनया है। स्थात् द्वे स्यात् त्रीणि स्याच्चत्वारि, केवलज्ञानं तु नास्ति तेषाम् , अतीन्द्रियज्ञानत्वात्तस्य, व्यादिभावश्च ज्ञानानां लब्ध्य| पेक्षया, उपयोगापेक्षया तु सर्वेषामेकदैकमेव ज्ञानम् , अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैव-स्यात् द्वे स्यात्रीणीति, 'जहा पुढविकाइय'त्ति एकेन्द्रिया मिथ्यादृष्टित्वादज्ञानिनस्ते च व्यज्ञाना एवेत्यर्थः । 'बेइंदिये'त्यादि, एषा द्वे ज्ञाने, सासादनस्तेषूत्पद्यत इतिकृत्वा, सासादनश्चोत्कृष्टतः पडावलिकामानोऽतो द्वे ज्ञाने तेषु लभ्येत इति ।
56CROSSOCCASSOCX
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प्रज्ञप्तिः
नानि
व्याख्या. 'अणिदिय'त्ति केवलिनः ॥ कायद्वारे-'सकाइया 'मित्यादि, सह कायेन-औदारिकादिना शरीरेण पृथिव्या
८ शतके दिषट्कायान्यतरेण वा कायेन ये ते सकायास्त एव सकायिकाः, ते च केवलिनोऽपि स्युरिति सकायिकानां सम्य- उद्देशः२ अभयदेवी
ग्दृशां पञ्च ज्ञानानि मिथ्यादृशां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनया स्युरिति । 'अकाइया णंति नास्ति काय:-उक्तलक्षणो या वृत्तिः१
गत्यादिषु येषां तेऽकायास्त एवाकायिकाः सिद्धाः॥ सूक्ष्मद्वारे-'जहा पुढविकाइय'त्ति व्यज्ञानिनः सूक्ष्मा मिथ्यादृष्टित्वादित्यर्थः ज्ञानाज्ञा॥३४७॥ | 'जहा सकाइय'त्ति बादराः केवलिनोऽपि भवन्तीतिकृत्वा ते सकायिकवद्भजनया पञ्चज्ञानिनस्यज्ञानिनश्च वाच्या & इति ॥ पर्याप्तकद्वारे-'जहा सकाइय'त्ति पर्याप्तकाः केवलिनोऽपि स्युरिति ते सकायिकवत्पूर्वोक्तप्रकारेण वाच्याः।
सू ३१६ पर्याप्तकद्वार एव चतुर्विंशतिदण्डके पर्याप्तकनारकाणां 'तिन्नि अन्नाणा नियम'त्ति अपर्याप्तकानामेवासज्ञिनारकाणां ४ विभङ्गाभाव इति पर्याप्तकावस्थायां तेषामज्ञानत्रयमेवेति । 'एवं जाव चउरिदिय'त्ति द्वीन्द्रियत्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियाः पर्याप्तका व्यज्ञानिन एवेत्यर्थः । 'पज्जत्ता णं भंते! पंचिंदियतिरिक्खे'त्यादि, पर्याप्तकपञ्चेन्द्रियतिरश्चामवधिर्विभङ्गोवा केषाञ्चित्स्यात्केषाश्चित्पुनर्नेति त्रीणि ज्ञानान्यज्ञानानि वा द्वे वा ज्ञाने अज्ञाने वा तेषां स्यातामिति । 'बेइंदियाणं दो नाणेत्यादि, अपर्याप्तकद्वीन्द्रियादीनां केषाञ्चित्सासादनसम्यग्दर्शनस्य सद्भावाद् द्वे ज्ञाने केषाश्चित्पुनस्तस्यासद्भावावे एवा&|| ज्ञाने । अपर्याप्तकमनुष्याणां पुनः सम्यग्दृशामवधिभाव त्रीणि ज्ञानानि यथा तीर्थकराणां, तदभावे तु द्वे ज्ञाने, मिथ्या-||*
दृशांतु द्वे एवाज्ञाने, विभङ्गस्यापर्याप्तकत्वे तेषामभावात् , अत एवोक्तं तिन्नि नाणाई भयणाए दो अन्नाणाई नियम'त्ति। ॥४७॥ 'वाणमंतरे'त्यादि, व्यन्तरा अपर्याप्तका नारका इव त्रिज्ञाना व्यज्ञानाख्यज्ञाना वा वाच्याः, तेष्वष्यसज्ञिभ्य उत्पद्य
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मानानामपर्याप्तकानां विभङ्गाभावात् शेषाणां चावधेर्विभङ्गस्य वा भावात् । 'जोइसिए' त्यादि एतेषु हि सञ्ज्ञिभ्य एवोत्पद्यन्ते तेषां चापर्याप्तकत्वेऽपि भवप्रत्ययस्यावधेर्विभङ्गस्य चावश्यम्भावात् त्रीणि ज्ञानान्यज्ञानानि वा स्युरिति । 'नोपज्जत्तगनो अपज्जन्त्तग'त्ति सिद्धाः ॥ भवस्थद्वारे - 'निरयभवत्था ण' मित्यादि, निरयभवे तिष्ठन्तीति निरयभवस्थाः - प्राप्तोत्पत्तिस्थानाः, ते च यथा निरयगतिकास्त्रिज्ञाना द्व्यज्ञानाख्यज्ञानाश्चोत्तास्तथा वाच्या इति ॥ भवसिद्धिकद्वारे - 'जहा सकाइय'त्ति भवसिद्धिकाः केवलिनोऽपीति ते सकायिकवद्भजनया पञ्चज्ञानाः तथा यावत्सम्यक्त्वं न | प्रतिपन्नास्तावद्भजनयैव त्र्यज्ञानाश्च वाच्या इति । अभवसिद्धिकानां त्वज्ञानत्रयं भजनया स्यात् सदा मिथ्यादृष्टित्वात्तेषामत उक्तं 'नो नाणी अन्नाणी 'त्यादीति ॥ सज्जिद्वारे - 'जहा सइंदिय'त्ति ज्ञानानि चत्वारि भजनया अज्ञानानि च त्रीणि तथैवेत्यर्थः । 'असन्नी जहा बेइंदिय'त्ति अपर्याप्तकावस्थायां ज्ञानद्वयमपि सासादनतया स्यात्, पर्याप्तकाव स्थायां त्वज्ञानद्वयमेवेत्यर्थः ॥ लब्धिद्वारे लब्धिभेदान् दर्शयन्नाह
विहा णं भंते ! लद्धी पण्णत्ता ?, गोयमा ! दसविहा लद्धी पण्णत्ता, तंजहा-नाणलद्वी १ दंसणलद्वी २ चरित्तलद्धी ३ चरित्ताचरित्तलद्धी ४ दाणलद्धी ५ लाभलडी ६ भोगलद्धी ७ उवभोगलडी ८ वीरियलद्धी ९ इंदियलद्धी १० । णाणलद्वी णं भंते ! कइविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजा-अभि णिबोहियणाणलंडी जाव केवलणाणलद्धी ॥ अन्नाणलडी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा - मइ अन्नाणलद्धी सुयअन्नाणलद्धी विभंगनाणलडी ॥ दंसणलद्धी णं भंते! कतिविहा पन्नत्ता ?,
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SCIENCRECA
सू ३२०
व्याख्या-६ गोयमा! तिषिहा पण्णसा, तंजहा-सम्मइंसणलही मिच्छादसणलद्धी सम्मामिच्छादसणलद्धी । चरि-8 शतक प्रज्ञप्तिः
सली भंते ! कतिविहा पण्णता ?, गोयमा ! पंचविहा पन्नत्ता, तंजहा-सामाइयचरित्तलडी छेदोवट्ठा- उद्देशः२ अभयदेवी-18
वणियलद्धी परिहारविमुद्धलद्धी सुहमसंपरागलद्धी अहक्खायचरित्तलद्धी ॥ चरित्साचरित्तलद्धी णे भले ! ज्ञानादिलयावृत्तिः१
कतिविहा पण्णत्ता !, गोयमा ! एगागारा पण्णत्ता, एवं जाव उवभोगलद्धी एगागारा पन्नत्ता ॥ वीरियल-18|| ॥३४८॥ द्धी णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता, गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-बालवीरियलद्धी पंडियवीरियलद्धी
बालपंजियवीरियलद्धी । इंदियलद्धी गं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा पण्णत्ता, तंजहासोइंदियलद्धी जाव फासिंदियलद्धी ॥ नाणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा!8 नाणी नो अन्नाणी, अत्थेगतिया दुन्नाणी, एवं पंच नाणाई भयणाए । तस्स अलद्धीया गं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नो नाणी अन्नाणी, अत्थेगतिया दुअन्नाणी तिन्नि अन्नाणाणि भयणाए। आभिमिबोहियणाणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी, अत्थेगतिया 8 दुन्नाणी चत्तारि नाणाई भयणाए। तस्स अलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते नियमा एगनाणी केवलनाणी, जे अन्नाणी ते अत्थेगइया दुअन्नाणी तिन्नि अन्नाणाई भयणाए। एवं सुयनाणलद्धीयावि, तस्स अलद्धीयावि जहा आभिणियोहियनाणस्स लद्धीया । ओहि-18 ॥३४॥ नाणलद्धीया णं पुच्छा, गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी, अत्थेगतिया तिन्नाणी अत्थेगतिया चउनाणी, जे
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तिन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी, जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुय०ओहि मणपज्जवनाणी। तस्स अलद्धीयाणं भंते! जीवा किंनाणी,गोयमा!नाणीवि अन्नाणीवि।एवं ओहिनाणवजाई |चत्तारि नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए । मणपज्जवनाणलडिया णं पुच्छा, गोयमा ! णाणी णो अन्नाणी, अत्थेगतिया तिन्नाणी अत्थेगतिया चउनाणी, जे तिन्नाणी ते आभिणियोहियनाणी सुयणाणी मणपज्जवणाणी, जे चउनाणी ते आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी ओहिनाणी मणपज्जवनाणी, तस्स अलद्धीया णं पुच्छा, गोयमा ! णाणीवि अन्नाणीवि, मणपज्जवणाणवजाइं चत्तारि णाणाई, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए। केवलनाणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नाणी नो अन्नाणी, नियमा एगणाणी केवलनाणी, तस्स अलद्धियाणं पुच्छा, गोयमा! नाणीवि अन्नाणिवि, केवलनाणवजाइं चत्तारि णाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए ॥ अन्नाणलद्धिया णं पुच्छा, गोयमा ! नो नाणी अन्नाणी, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पुच्छा, गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी, पंच नाणाई भयणाए जहा अन्नाणस्स लद्धिया अलद्धिया य भणिया एवं मइअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्स यलद्धिया अलद्धिया य भाणियवा । विभंगनाणलद्धियाणं तिन्नि अन्नाणाई नियमा, तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए दो अन्नाणाई नियमा॥ दसणलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि, पंच नाणाई तिन्नि | अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलडिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा ! तस्स अलडिया
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
॥३४९॥
नत्थि । सम्मइंसणलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं तिनि अन्नाणाई भयणाए, मिच्छा
८ शतके |दसणलद्धिया णं भंते ! पुच्छा, तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई तिन्नि य अन्ना.
उद्देशः२ णाई भयणाए, सम्मामिच्छादंसणलद्धिया य अलद्धिया जहा मिच्छादसणलद्धी अलद्धी तहेव भाणियचं ॥
ज्ञानाज्ञाना चरित्तलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा ! पंच नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं
नि गत्यादौ
सू० ३२० मणपजवनाणवजाइं चत्तारि नाणाई तिन्नि य अन्नाणाई भयणाए, सामाइयचरित्तलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, गोयमा ! नाणी केवलवजाइं चत्तारि नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पंच | नाणाई तिन्नि य अन्नाणाई भयणाए, एवं जहा सामाइयचरित्तलद्धिया अलद्धिया य भणिया एवं जहा जाव' अहक्खायचरित्तलद्धिया अलद्धिया य भाणियचा, नवरं अहक्खायचरित्तलद्धिया पंच नाणाई भ०, चरित्ताचरित्तलद्धिया णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा! नाणी नो अन्नाणी, अत्थेगइया दुण्णाणी अत्थेगतिया तिन्नाणी, जे दुन्नाणी ते आभिणिबोहियनाणी य सुयनाणी य, जे तिन्नाणी ते आभिः सुयना. ओहिना,तस्स अल० पंच नाणाइं तिन्नि अन्नाणाइं भयणाए ४॥दाणलद्धियणं पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, तस्स अ० पुच्छा, गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी, नियमा एगनाणी केवलनाणी । एवं| ॥३४९॥ जाव वीरियस्स लद्धी अलद्धी य भाणियवा ॥ बालवीरियलद्धियाणं तिन्नि नाणाइं तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, |तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए । पंडियवीरियलद्धियाणं पंच नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धिया-|
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मणपज्जवनाणवजाई जाणाई अन्नाणाणि तिन्नि य भयणाए । बालपंडियवीरियलद्धियाणं भंते ! जीवा तिन्नि नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए ॥ इंदियलद्धियाणं भंते! जीवा किं नाणी अन्नाणी, गोयमा ! चत्तारि णाणाइं तिन्नि य अन्नाणाई भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पुच्छा, गोयमा ! नाणी नो अन्नाणी नियमा एगनाणी केवलनाणी, सोइंदियलद्धियाणं जहा इंदियलद्धिया, तस्स अलद्धियाण पुच्छा, गोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्थेगतिया दुन्नाणी अत्थेगतिया एगन्नाणी जे दुन्नाणी ते आभिणियोहियनाणी सुयनाणी जे एगनाणी ते केवलनाणी, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी, तंजहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, चक्खिदियघाणिदियाणं लद्धियाणं अलद्धियाण य जहेव सोइंदि| यस्स, जिभिदियलद्धियाणं चत्तारि णाणाई तिन्नि य अन्नाणाणि भयणाए, तस्स अलद्धियाणं पुच्छा, गोयमा ! नाणीवि अन्नाणीवि जे नाणी ते नियमा एगनाणी केवलनाणी, जे अन्नाणी ते नियमा दुअन्नाणी,18 तंजहा-मइअन्नाणी य सुयअन्नाणी य, फासिंदियलद्धियाणं अलद्धियाणं जहा इंदियलद्धिया य अलद्धिया है य॥ (सूत्रं ३२०)॥
'कतिविहा ण'मित्यादि, तत्र लब्धिः-आत्मनो ज्ञानादिगुणानां तत्तत्कर्मक्षयादितो लाभः, सा च दशविधा, तत्र ज्ञानस्य-विशेषबोधस्य पञ्चप्रकारस्य तथाविधज्ञानावरणक्षयक्षयोपशमाभ्यां लब्धिानलब्धिः, एवमन्यत्रापि, नवरं |च दर्शनं-रुचिरूप आत्मनः परिणामः, चारित्रं-चारित्रमोहनीयक्षयक्षयोपशमोपशमजो जीवपरिणामः, तथा चरित्रं च
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व्याख्या- तदचरित्रं चेति चरित्राचरित्रं-संयमासंयमः, तच्चाप्रत्याख्यानकषायक्षयोपशमजो जीवपरिणामः, दानादिलब्धयस्तु पञ्च-eleशतके प्रज्ञप्तिः प्रकारान्तरायक्षयक्षयोपशमसम्भवाः, इह च सकृद्भोजनमशनादीनां भोगः, पौनःपुन्येन चोपभोजनमुपभोगः, सच
उद्देशः२ अभयदेवी
वस्त्रभवनादेः, दानादीनि तु प्रसिद्धानीति, तथा इन्द्रियाणां-स्पर्शनादीनां मतिज्ञानावरणक्षयोपशमसम्भूतानामेकेन्द्रियाया वृत्तिः
| दिजातिनामकर्मोदयनियमितकमाणां पर्याप्तकनामकर्मादिसामर्थ्यसिद्धानां द्रव्यभावरूपाणां लब्धिरात्मनीतीन्द्रियलब्धिः।। नि गत्यादी ॥३५०॥ | अथ ज्ञानलब्धेर्विपर्ययभूताऽज्ञानलब्धिरित्यज्ञानलब्धिनिरूपणायाह-'अन्नाणलद्धी'त्यादि ॥'सम्मइंसणे'त्यादि, इह स- सू३२०
म्यग्दर्शनं मिथ्यात्वमोहनीयकर्माणुवेदनोपशमश्क्षयरक्षयोपशम ३ समुत्थ आत्मपरिणामः, मिथ्यादर्शनमशुद्धमिथ्यात्व|दलिकोदयसमुत्थो जीवपरिणामः, सम्यग्मिथ्यादर्शनं त्वर्द्धविशुद्धमिथ्यात्वदलिकोदयसमुत्थ आत्मपरिणाम एव ॥ 'सामाइयचरित्तलद्धि'त्ति सामायिक-सावद्ययोगविरतिरूपं एतदेव चरित्रं सामायिकचरित्रं तस्य लब्धिः सामायिकचरित्रलब्धिः, सामायिकचरित्रं च द्विधा-इत्वरं यावत्कथितं च, तत्राल्पकालमित्वरं, तच्च भरतैरावतेषु प्रथमपश्चिमतीर्थकरतीर्थेष्वनारोपितव्रतस्य शिक्षकस्य भवति, यावत्कथिकं तु यावजीविकं, तच्च मध्यमवैदेहिकतीर्थङ्करतीर्थान्तर्गतसाधू| नामवसेयं, तेषामुपस्थापनाया अभावात् , नन्वितरस्यापि यावजीवितया प्रतिज्ञानात् तस्यैव चोपस्थापनायां परित्या
गात् कथं न प्रतिज्ञालोपः, अत्रोच्यते, अतिचाराभावात् , तस्यैव सामान्यतः सावद्ययोगनिवृत्तिरूपेणावस्थितस्य ट्रा शुख्यन्तरापादनेन सज्ञामात्रविशेषादिति । 'छेओवट्ठावणियचरित्तलद्धि'त्ति छेदे-प्राक्तनसंयमस्य व्यवच्छेदे सति | यदुपस्थापनीयं-साधावारोपणीयं सच्छेदोपस्थापनीयं, पूर्वपर्यायच्छेदेन महाव्रतानामारोपणमित्यर्थः, तच्च सातिचारमन
॥३५
॥
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तिचारं च सत्रानतिचारमित्वरसामायिकस्य शिक्षकस्यारोप्यते, तीर्थान्तरसङ्क्रान्तौ वा, यथा पार्श्वनाथतीर्थाद्वर्द्धमानस्वामितीर्थ सङ्क्रामतः पश्चयामधर्मप्राप्ती, सातिचारं तु मूलगुणघातिनो यद्वतारोपणं, तच्च तच्चरित्रं च छेदोपस्थापनीयचरित्रं तस्य लब्धिश् छेदोपस्थापनीयचरित्रलब्धिः, 'परिहारविसुद्धियचरितलद्धि'ति परिहारः- तपोविशेषस्तेन विशुद्धियस्मिंस्तत्परिहारविशुद्धिकं शेषं तथैव, एतच्च द्विविधं - निर्विशमानकं निर्विष्टकायिकं च तत्र निर्विशमान कास्तदासेव| कास्तदव्यतिरेकात्तदपि निर्विशमानकम्, आसेवितविवक्षितचारित्रकायास्तु निर्विष्टकायास्त एव निर्विष्टकायिकास्तदव्यतिरेकात्तदपि निर्विष्टकायिकमिति, इह च नवको गणो भवति, तत्र चत्वारः परिहारिका भवन्ति, अपरे तु तद्वैयावृत्यकराश्चत्वार एवानुपरिहारिकाः, एकस्तु कल्पस्थितो वाचनाचार्यो गुरुभूत इत्यर्थः, एतेषां च निर्विशमानकानामयं परिहारः - परिहारियाण उ तवो जहन्न मज्झो तहेव उक्कोसो । सीउण्हवासकाले भणिओ धीरेहिं पत्तेयं ॥ १ ॥ तत्थ जहन्नो गिम्हे चउत्थ छटं तु होइ मज्झिमओ । अट्ठममिह उक्कोसो एत्तो सिसिरे पवक्खामि ॥ २ ॥ सिसिरे उ जहन्नाई छट्ठाई दसमचरिमगा होंति । वासासु अट्ठमाई वारसपज्जन्तओ णेइ ॥ ३ ॥ पारणगे आयामं पंचसु गह दोसऽभिग्गहो भिक्खे। कप्पट्टिया य पइदिण करेंति एमेव आयामं ॥ ४ ॥ इह सप्तस्वेषणासु मध्ये आद्ययोरग्रह एव, पञ्चसु पुनर्ब्रह:,
१- परिहारिकाणां तपो जघन्यं मध्यमं तथैवोत्कृष्टं । शीतोष्णवर्षाकाले धीरैः प्रत्येकं भणितम् ॥ १ ॥ तत्र जघन्यं ग्रीष्मे चतुर्थः षष्ठं तु भवति मध्यमः । इहाष्टम उत्कृष्टं इतः शिशिरे प्रवक्ष्यामि ॥ २ ॥ शिशिरे तु जघन्यादिषु षष्ठाद्यं दशमचरमं भवति । वर्षावष्टमादि ॥ द्वाद| शमपर्यन्तं नयति ततः ॥ ३॥ पारणके आचाम्लं पञ्चस्वेकस्य ग्रहः द्वयोरभिग्रहो भिक्षायाम् । कल्पस्थिताश्च प्रतिदिनमाचामाम्लमेव कुर्वन्ति ॥४॥
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व्याख्या- तत्राप्येकतरया भक्कमेकतरया च पानकमित्येवं द्वयोरभिग्रहोऽवगन्तव्य इति । एवं छम्मासतवं चरिउ परिहारिणा अण
८ शतके प्रज्ञप्तिः चरंति। अनुचरगे परिहारियपयहिए जाव छम्मासा॥५॥कप्पढिओधि एवं छम्मासतवं करेइ सेसा उ।अणुपरिहारिंगभावं वयंतिदू | उद्देशः२ अभयदेवी
कप्पढियत्तं च ॥६॥ एवेसो अट्ठारसमासपमाणो उ वण्णिओ कप्पो । संखवओ विसेसो सुत्ता एयस्स णायबो ॥७॥ ज्ञानाज्ञाना या वृत्तिः१
कप्पसमत्तीइ तयं जिणकप्पं वा उति गच्छं वा । पडिवजमाणगा पुण जिणस्सगासे पवजंति ॥८॥ तित्थयरसमी- नि मत्यादी वासेवगस्स पासे व नो य अन्नस्स । एएसिं जं चरणं परिहारविसुद्धियं तं तु ॥९॥" अन्यैस्तु व्याख्यातं-परिहारतो
सू ३२० ॥३५॥
मासिकं चतुर्लध्वादि तपश्चरति यस्तस्य परिहारिकचरित्रलब्धिर्भवतीति, इदं च परिहारतपो यथा स्यात्तथोच्यते| "नैवमस्स तइयवत्थु जहन्न उक्कोस ऊणगा दस उ । सुत्तत्थभिग्गहा पुण दबाइ तवो रयणमाती॥१॥" अयमर्थः| यस्य जघन्यतो नवमपूर्व तृतीयं वस्तु यावद्भवति उत्कर्षतस्तु दश पूर्वाणि न्यूनानि सूत्रतोऽर्थतो भवन्ति, द्रव्यादयश्चा| भिग्रहा रत्नावल्यादिना च तपस्तस्य परिहारतपो दीयते, तदाने च निरुपसर्गार्थ कायोत्सर्गो विधीयते, शुभेच नक्षत्रादौ | १ एवं षण्मासी तपश्चरित्वा परिहारिका अनुचरन्ति । अनुचरकाः परिहारिकपदस्थिता भवन्ति यावषण्मासाः ॥ ५॥ कल्पस्थितोऽप्येवं | षण्मासी तपः करोति शेषास्त्वनुपरिहारिकभावं कल्पस्थितत्वं च व्रजन्ति ॥ ६ ॥ एवमेषोऽष्टादशमासप्रमाणस्तु कल्पो वर्णितः । सबेपतो विशे
पस्त्वेतस्य सूत्राज्ज्ञातव्यः ॥ ७ ॥ कल्पसमाप्तौ तं जिनकल्पं वा गच्छं वोपयन्ति। प्रतिपद्यमानकाः पुनर्जिनसकाशे प्रपद्यन्ते ॥ ८॥ तीर्थक्कर- ॥३५॥ ||| समीपासेवकस्य पार्श्वे वा अन्यस्य पार्श्वे न । एतेषां यच्चरणं तत्तु परिहारविशुद्धिकम् ॥ ९॥२-नवमस्य तृतीयवस्तु यावजधन्यत उत्कृष्टत
ऊनानि दश । सूत्राभ्यां द्रव्यादयोऽभिग्रहाः पुनस्तपो रत्नावल्यादि ॥ १॥
SABSE
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| पतिपत्तिः, तथा गुरुस्तं ब्रूते-यथाऽहं तव वाचनाचार्यः अयं च गीतार्थः साधुः सहायस्ते, शेषसाधवोऽपि वाच्याः, यथा || 8"एस तवं पडिवज्जइ न किंचि आलवइ मा य आलवह । अत्तचिंतगस्स उ वाघाओ भेन कायबो॥१॥" तथा कथम
मालापादिरहितः संस्तपः करिष्यामीत्येवं बिभ्यतस्तस्य भयापहारः कार्यः, कल्पस्थितश्च तस्यैतत्करोति-"किंइकम्म च पडिच्छइ परिन्न पडिपुच्छयपि से देइ । सोवि य गुरुमुवचिट्टइ उदंतमवि पुच्छिओ कहइ ॥१॥” इह परिज्ञा-प्रत्याख्यानं प्रतिपृच्छा त्वालापकः, ततोऽसौ यदा ग्लानीभूतः सन्नुत्थानादि स्वयं कर्तुं न शक्नोति तदा भणति-उत्थानादि कर्तुमिच्छामि, ततोऽनुपरिहारकस्तूष्णीक एव तदभिप्रेतं समस्तमपि करोति, आह च-"उठेज निसीएज्जा भिक्खं हिंडेज भंडगं पेहे । कुवियपियबंधवस्स व करेइ इयरोवि तुसिणीओ॥१॥" तपश्च तस्य ग्रीष्मशिशिरवर्षासु जघन्या४ दिभेदेन चतुर्थादिद्वादशान्तं पूर्वोक्तमेवेति । 'सुहुमसंपरायचरित्तलद्धि'त्ति संपरैति-पर्यटति संसारमेभिरिति सम्प
राया:-कषायाः सूक्ष्मा-लोभांशावशेषरूपाः सम्पराया यत्र तत् सूक्ष्मसम्परायं शेषं तथैव, एतदपि द्विधा-विशुद्ध्यमानकं सङ्क्तिश्यमानक च, तत्र विशुद्ध्यमानकं क्षपकोपशमकश्रेणिद्वयमारोहतो भवति १ सङ्क्तिश्यमानकं तूपशमश्रेणीतः प्रच्यवमानस्येति २। 'अहक्खायचरित्तलडीति यथा-येन प्रकारेण आख्यातं-अभिहितमकषायतयेत्यर्थः तथैव यत्तद्यः
१ एष तपः प्रतिपद्यते न किञ्चिदालपिष्यति मा च लीलपध्वं । आत्मार्थचिन्तकस्य भवद्भिर्व्याघातो न कर्त्तव्यः ॥ १॥२ कृतिकर्म || प्रतीच्छति प्रत्याख्यानं प्रतिपृच्छामपि तस्मै ददाति । सोऽपि च गुरुमुपतिष्ठते उदन्तमपि पृष्टः कथयति ॥ १॥ ३-उत्तिष्ठेत् निषीदेव भिक्षां हिण्डेत भाण्डं प्रेक्षेत । कुपितप्रियबान्धवस्येव करोति इतरोऽपि तूष्णीकः ॥ १॥
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शतके
प्रज्ञप्तिः
सू ३२०
व्याख्या
थाख्यातं, तदपि द्विविधम्-उपशमकक्षपकश्रेणिभेदात्, शेषं तथैवेति ॥ एवं 'चरित्ताचरित्ते'त्यादौ, 'एगागार'त्ति
मूलगुणोत्तरगुणादीनां तद्भेदानामविवक्षणात् द्वितीयकषायक्षयोपशमलभ्यपरिणाममात्रस्यैव च विवक्षणाच्चरित्राचरित्र- उद्देश:२ अभयदेवी-द लब्धेरेकाकारत्वमवसेयम् । एवं दानलब्ध्यादीनामप्येकाकारत्वं, भेदानामविवक्षणात् ॥ 'बालवीरियलद्धी'त्यादि, बाल- ज्ञानाज्ञाना यावृत्तिः१ स्य-असंयतस्य यद्वीर्य-असंयमयोगेषु प्रवृत्तिनिबन्धनभूतं तस्य या लब्धिश्चारित्रमोहोदयाद्वीर्यान्तरायक्षयोपशमाच्च सा
नि गत्यादौ ॥३५२॥
तथा, एवमितरे अपि यथायोगं वाच्ये, नवरं पण्डितः-संयतो, बालपण्डितस्तु संयतासंयत इति ॥'तस्स अलद्धिया णं'ति तस्य ज्ञानस्य अलब्धिका:-अलब्धिमन्तः ज्ञानलब्धिरहिता इत्यर्थः । 'आभिणियोहियमाणे त्यादि, आभि| निबोधिकज्ञानलब्धिकानां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलिनो नास्त्याभिनिबोधिकज्ञानमिति, मतिज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते केवलिनस्ते चैकज्ञानिन एव, ये त्वज्ञानिनस्तेऽज्ञानद्वयवन्तोऽज्ञानत्रयवन्तो वा, एवं श्रुतेऽपि । 'ओहिनाणलद्धी'त्यादि, अवधिज्ञानलब्धिकास्त्रिज्ञानाः केवलमनःपर्यायासद्भावे चतुर्माना वा केवलाभावात्,
अवधिज्ञानस्वालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते द्विज्ञाना मतिश्रुतभावात्, त्रिज्ञाना वा मतिश्रुतमनःपर्यायभावात्, एक|3|| ज्ञाना पा केवलभावात् , ये त्वज्ञानिनस्ते व्यज्ञाना मत्यज्ञानश्रुताज्ञानभावात् , व्यज्ञाना वाऽज्ञानत्रयस्थापि भावा
त ।'मणपज्जवे'त्यादि,मनःपर्यवज्ञानलब्धिकास्त्रिज्ञाना अवधिकेवलाभावात् , चतुाना वा केवलस्यैवाभावात् , मनः-IC पर्यवज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये झानिनस्ते द्विज्ञाना आद्यद्वयभावात् , त्रिज्ञाना वाऽऽद्यत्रयभावात् , एकज्ञाना वा केवलखेव भावात् , ये त्वज्ञानिनस्ते व्यज्ञामा आद्याज्ञानद्वयभावात, व्यज्ञाना वाऽज्ञानत्रयस्यापि भावात्, 'केवलमाणे त्यादि,॥
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केवलज्ञानलब्धिका एकज्ञानिनस्ते च केवलज्ञानिन एव, केवलज्ञानस्यालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषामाचं ज्ञानद्वयं तत्रयं मतिश्रुतावधिज्ञानानि मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानानि वा केवलज्ञानवर्जानि चत्वारि वा ज्ञानानि भवन्ति, ये त्वज्ञानिनस्तेषामाद्यमज्ञानद्वयं तत्रयं वा भवतीत्येवं भजनाऽवसेयेति ॥ 'अन्नाणलद्धियाण'मित्यादि, अज्ञानलब्धिका अज्ञानिनस्तेषां 8 |च त्रीण्यज्ञानानि भजनया, द्वे अज्ञाने त्रीणि वाऽज्ञानानीत्यर्थः, अज्ञानालब्धिकास्तु ज्ञानिनस्तेषां च पश्च ज्ञानानि भजनया| पूर्वोपदर्शितया वाच्यानि, 'जहा अन्नाणे'त्यादि, अज्ञानलब्धिकानां त्रीण्यज्ञानानि भजनयोक्तानि मत्यज्ञानश्रुताज्ञानलब्धिकानामपि तानि तथैव, तथाऽज्ञानालब्धिकानां पञ्च ज्ञानानि भजनयोकानि, मत्यज्ञानश्रुताज्ञानालब्धिकानामपि पश्च ज्ञानानि भजनयैव वाच्यानीति । 'विभंगे'त्यादि, विभङ्गज्ञानलब्धिकानां तु त्रीण्यज्ञानानि नियमात्, तदलब्धिकानां तु ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया, अज्ञानिनां च द्वे अज्ञाने नियमादिति ॥'दंसणलडी'त्यादि, 'दर्शनलब्धिकाः' श्रद्धानमात्रलब्धिका इत्यर्थः ते च सम्यश्रद्धानवन्तो ज्ञानिनस्तदितरे त्वज्ञानिना, तत्र ज्ञानिना पश्च ज्ञानानि भजनया, | अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैवेति । 'तस्स अलद्धिया नत्थि'त्ति तस्य दर्शनस्य येषामलब्धिस्ते न सन्त्येव, सर्वजीवानां रुचिमात्रस्यास्तित्वादिति । 'सम्मइंसणलद्धियाणं'ति सम्यग्दृष्टीनां, 'तस्स अलद्धियाण'मित्यादि, 'तस्यालब्धिकानां सम्यग्दर्शनस्यालब्धिमतां मिथ्यादृष्टीनां मिश्रदृष्टीनां च त्रीण्यज्ञानानि भजनया, यतो मिश्रदृष्टीनामप्यज्ञानमेव, तात्त्विकसद्बोधहेतुत्वाभावान्मिश्रस्येति । 'मिच्छादसणलद्धियाणं'ति मिथ्यादृष्टीनां, 'तस्स अलद्धियाण'मित्यादि, 'तस्यालब्धिकाना' मिथ्यादर्शनस्यालब्धिमतां सम्यग्दृष्टीनां मिश्रदृष्टीनां च क्रमेण पञ्च ज्ञानानि त्रीण्यज्ञानानि
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त्वं ज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञान भजनया, सामाविका प्राण्यज्ञानानि मज्ञानिन एव, तेषां त्वज्ञान
SAGAR
व्याख्याच भजनयेति ॥'चरित्तलडी'त्यादि चरित्रलब्धिका ज्ञानिन एव, तेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया, यतः केवल्यपि शतके
प्रज्ञप्तिःचारित्री। चारित्रालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां मनःपर्यववर्जानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया भवन्ति, कथम् ?, असंय- उद्देशः२ अभयदेवी-8 तत्वे आद्यं ज्ञानद्वयं तत्रयं वा, सिद्धत्वे च केवलज्ञानं, सिद्धानामपि चरित्रलब्धिशुन्यत्वाद् , यतस्ते नोचारित्रिणो ज्ञानाज्ञाना या वृत्तिः नोअचारित्रिण इति, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्य ज्ञानानि भजनया। 'सामाइए'त्यादि, सामायिकचरित्रलब्धिका ज्ञानिन
नि गत्यादौ | एव, तेषां च केवलज्ञानवर्जानि चत्वारि ज्ञानानि भजनया, सामायिकचरित्रालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्तेषां पञ्च ज्ञानानि
सू ३२० ॥३५॥
भजनया, छेदोपस्थापनीयादिभावेन सिद्धभावेन वा, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि भजनया । एवं छेदोपस्थापनी-|| यादिष्वपि वाच्यम् , एतदेवाह-'एव'मित्यादि, तत्र छेदोपस्थापनीयादिचरित्रत्रयलब्धयो ज्ञानिन एव, तेषां चाद्यानि, चत्वारि ज्ञानानि भजनया, तदलब्धयो यथाख्यातचारित्रलब्धयश्च ये ज्ञानिनस्तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया, ये त्वज्ञानि| नस्तेषामज्ञानत्रयं भजनयैव, यथाख्यातचारित्रलब्धिकानां तु विशेषोऽस्ति अतस्तद्दर्शनायाह-'नवरं अहक्खाये'त्यादि, सामायिकादिचारित्रचतुष्टयलब्धिमतां छद्मस्थत्वेन चत्वार्येव ज्ञानानि भजनया, यथाख्यातचारित्रलब्धिमतां छद्मस्थेतरभावेन पञ्चापि भजनया भवन्तीति तेषां तथैव तान्युक्तानीति ॥'चरित्ताचरित्ते'त्यादौ, तस्स अलद्धियत्ति चरि-13 त्राचरित्रस्यालब्धिकाः श्रावकादन्ये, ते च ये ज्ञानिनस्ते (षां) पञ्च ज्ञानानि भजनया, ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञानानि
॥३५३॥ भजनयैव ॥ 'दाणलद्धी'त्यादि, दानान्तरायक्षयक्षयोपशमादाने दातव्ये लब्धिर्येषां ते दानलब्धयः, ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ये ज्ञानिनस्तेषां पञ्च ज्ञानानि भजनया, केवलज्ञानिनामपि दानलब्धियुक्तत्वात् , ये त्वज्ञानिनस्तेषां त्रीण्यज्ञा
SHRSSHRSHASE
AGAR
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| नानि भजनयैव, दानस्यालब्धिकास्तु सिद्धास्ते च दानान्तरायक्षयेऽपि दातव्याभावात् सम्प्रदानासत्त्वाद्दानप्रयोजनाभावाच्च दानालब्धय उक्तास्ते च नियमात्केवलज्ञानिन इति ॥ लाभभोगोपभोगवीर्यलब्धीः सेतरा अतिदिशन्नाह - 'एव'मित्यादि, इह चालब्धयः सिद्धानामेवोक्तन्यायादवसेयाः, ननु दानाद्यन्तरायक्षयात्केवलिनां दानादयः सर्वप्रकारेण कस्मान्न भवन्ति ? इति उच्यते, प्रयोजनाभावात्, कृतकृत्या हि ते भगवन्त इति ॥ ' बालवी रियलद्धियाण'मित्यादि, बालवीर्यलब्धयः - असंयताः तेषां च ज्ञानिनां त्रीणि ज्ञानानि अज्ञानिनां च त्रीण्यज्ञानानि भजनया भवन्ति, तदलब्धिकास्तु संयताः संयतासंयताश्च ते च ज्ञानिन एव एतेषां च पञ्च ज्ञानानि भजनया | 'पंडियवीरिये 'त्यादौ, 'तस्स | अलद्वियाणं 'ति असंयतानां संयतासंयतानां सिद्धानां चेत्यर्थः, तत्रासंयतानामाद्यं ज्ञानत्रयमज्ञानत्रयं च भजनया, संयतासंयतानां तु ज्ञानत्रयं भजनयैव भवति, सिद्धानां तु केवलज्ञानमेव, मनःपर्यायज्ञानं पण्डितवीर्यलब्धिमतामेव भवति नान्येषामत उक्तं 'मणपज्जवे' त्यादि, सिद्धानां च पण्डितवीर्यालब्धिकत्वं पण्डितवीर्यवाच्ये प्रत्युपेक्षणाद्यनुष्ठाने प्रवृत्त्यभावात्, 'बालपंडिए' इत्यादौ, तस्स अलद्वियाणं'ति अश्रावकाणामित्यर्थः ॥ 'इंदियलद्धियाण' मित्यादि, इन्द्रि | यलब्धिका ये ज्ञानिनस्तेषां चत्वारि ज्ञानानि भजनया, केवलं तु नास्ति तेषां केवलिनामिन्द्रियोपयोगाभावात्, ये | त्वज्ञानिनस्तेषामज्ञानत्रयं भजनयैवेति, इन्द्रियालब्धिकाः पुनः केवलिन एवेत्येकमेव तेषां ज्ञानमिति । 'सोइंदिय' इत्यादि, श्रोत्रेन्द्रियलब्धय इन्द्रियलब्धिका इव वाच्याः, ते च ये ज्ञानिनस्तेऽकेवलित्वादाद्यज्ञानचतुष्टयवन्तो भजनया भवन्ति, अज्ञानिनस्तु भजनया त्र्यज्ञानाः, श्रोत्रेन्द्रियालब्धिकास्तु ये ज्ञानिनस्ते आद्यद्विज्ञानिनः, तेऽपर्याप्तकाः सासा
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CSC
व्याख्या- दनसम्यग्दर्शनिनो विकलेन्द्रियाः, एकज्ञानिनो वा केवलज्ञानिनः, ते हि श्रोत्रेन्द्रियालब्धिका इन्द्रियोपयोगाभावात् , ये ८ शतके प्रज्ञप्तिः
त्वज्ञानिनस्ते पुनराद्याज्ञानद्वयवन्त इति । 'चक्खिदिए'इत्यादि, अयमर्थः-यथा श्रोत्रेन्द्रियलब्धिमतां चत्वारि ज्ञानानि उद्देशः२ अभयदेवी
भजनया त्रीणि चाज्ञानानि भजनयैव तदलब्धिकानां च द्वे ज्ञाने द्वे चाज्ञाने एकं च ज्ञानमुक्तमेवं चक्षुरिन्द्रियलब्धि- ज्ञानाज्ञाना यावृत्तिः१ कानां घ्राणेन्द्रियलब्धिकानां च तदलब्धिकानां च वाच्यं, तत्र चक्षुरिन्द्रियलब्धिका घाणेन्द्रियलब्धिकाश्च ये पञ्चेन्द्रि
नि गत्यादौ यास्तेषां केवलवर्जानि चत्वारि ज्ञानानि त्रीणि चाज्ञानानि भजनयैव, ये तु विकलेन्द्रियाश्चक्षुरिन्द्रियघ्राणेन्द्रियलब्धि॥३५४॥
सू ३२० कास्तेषां सासादनसम्यग्दर्शनभावे आद्यं ज्ञानद्वयं तदभावे त्वाद्यमेवाज्ञानद्वयं, चक्षुरिन्द्रियघ्राणेन्द्रियालब्धिकास्तु यथायोगं त्रिद्व्ये केन्द्रियाः केवलिनश्च, तत्र द्वीन्द्रियादीनां सासादनभावे आद्यज्ञानद्वयसम्भवः, तदभावे त्वाद्याज्ञानद्वयसम्भवः, केवलिनां त्वेक केवलज्ञानमिति । 'जिभिदिय'इत्यादौ, 'तस्स अलद्धिय'त्ति जिह्वालब्धिवर्जिताः, ते च केव| लिन एकेन्द्रियाश्चेत्यत आह–'नाणीवी'त्यादि, ये ज्ञानिनस्ते नियमात्केवल ज्ञानिनः येऽज्ञानिनस्ते नियमाद् व्यज्ञानिनः एकेन्द्रियाणां सासादनभावतोऽपि सम्यग्दर्शनस्याभावाद् विभङ्गाभावाच्चेति । 'फासिंदिय'इत्यादि, स्पर्शनेन्द्रियलब्धिकाः केवलवर्जज्ञानचतुष्कवन्तो भजनया तथैवाज्ञानत्रयवन्तो वा, स्पर्शनेन्द्रियालब्धिकास्तु केवलिन एव, इन्द्रियलब्ध्यालब्धिमन्तोऽप्येवंविधा एवेत्यत उक्तं 'जहा इंदिए'इत्यादि ॥ उपयोगद्वारेसागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी?, पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाइंभयणाए ॥ आभिणि-||8|
॥३५४॥ है बोहियनाणसाकारोवउत्ता णं भंते ! चत्तारि णाणाई भयणाए । एवं सुयनाणसागारोवउत्तावि । ओहिना
KAREA ऊन
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णसागारोवउत्ता जहा ओहिनाणलद्धिया, मणपज्जवनाणसागारोवउत्ता जहा मणपज्जवनाणलद्धिया, केवलनाणसागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया, मइअन्नाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, एवं सुयअन्नाणसागारोवउत्तावि, विभंगनाणसागारोवउत्ताणं तिन्नि अन्नाणाई नियमा ॥ अणागारोवउत्ता णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, पंच नाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए। एवं चक्खुदंसणअचक्खुदंसणअणागारोवउत्तावि, नवरं चत्तारि णाणाई तिन्नि अन्नाणाई भयणाए, ओहिदंसणअणागारोवउत्ताणं पुच्छा, मोयमा! नाणीवि अन्नाणीवि, जे नाणी ते अत्थेगतिया तिन्नाणी अत्थेगतिया चउनाणी, जे तिन्नाणी ते आभिणिबोहिय० सुयनाणी ओहिनाणी, जे चउणाणी ते आभिणिबोहियनाणी जाव मणपज्जवनाणी, जे | अन्नाणी ते नियमा तिअनाणी,तंजहा-महअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी,केवलदंसणअणागारोवउत्ता जहा केवलनाणलद्धिया ॥ सजोगी णं भंते ! जीवा किं नाणी जहा सकाइया, एवं मणजोगी बइजोगी काय
जोगीवि, अजोगी जहा सिद्धा ॥ सलेस्सा गं भंते ! जहा सकाइया, कण्हलेस्सा मं भंते ! जहा सह* दिया, एवं जाव पम्हलेसा, सुकलेस्सा जहा सलेस्सा, अलेस्सा जहा सिद्धा ॥ सकसाई गं भंते ! जहां
सइंदिचा एवं जाच लोहकसाई, अकसाई मंते ! पंच माणाई भयणाए ॥ सवेदगा णं भंते ! जहा सईदिया; एवं इत्विवेदमावि, एवं पुरिसवेवगा एवं मघुसकवे, अवेद्गा जहा अकसाई । आहारगा णं भते ।
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व्याख्या- जीवा जहा सकसाई नवरं केवलनाणंपि, अणाहारगा गं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, मणप-|| || शतके प्रज्ञप्तिः जवनाणवजाई नाणाई अन्नाणाणि य तिन्नि भयणाए ॥ (सूत्रं ३२१)॥
उद्देशः२ अभयदेवी
| 'सागारोवउत्ते'त्यादि, आकारो-विशेषस्तेन सह यो बोधः स साकारः, विशेषग्राहको बोध इत्यर्थः, तस्मिन्नुपयुक्ताःया वृत्तिः१
उपयोगा
दिषु तत्संवेदका ये ते साकारोपयुक्ताः, ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां पञ्च ज्ञानानि भजनया-स्याद् द्वे स्यात्रीणि स्या
ज्ञानाज्ञाने ॥३५५॥ ४ चत्वारि स्यादेकं, यच्च स्यादेकं यच्च स्यावे इत्याधुच्यते तल्लब्धिमात्रमङ्गीकृत्य, उपयोगापेक्षया त्वेकदा एकमेव ज्ञानमज्ञानं
सू ३२१ | वेति,अज्ञानिनांतु त्रीण्य ज्ञानानि भजनयैवेति॥अथ साकारोपयोगभेदापेक्षमाह-'आभिणी'त्यादि, ओहिनाणसागारे| त्यादि, अवधिज्ञानसाकारोपयुक्ता यथाऽवधिज्ञानलब्धिकाः प्रागुक्ताः स्यात् त्रिज्ञानिनो मतिश्रुतावधियोगात् स्याच्चतुर्तानिनो मतिश्रुतावधिमनःपर्यवयोगात्तथा वाच्याः । 'मणपजवे'त्यादि, मनःपर्यवज्ञानसाकारोपयुक्ता यथा मनःपर्य|वज्ञानलब्धिकाः प्रागुक्ताः स्यात्रिज्ञानिनो मतिश्रुतमनःपर्यवयोगात स्याच्चतर्जानिनः केवलवर्जज्ञानयोगात्तथा वाच्या | इति ॥'अणागारोवउत्ता 'मित्यादि, अविद्यमान आकारो यत्र तदनाकार-दर्शनं तत्रोपयुक्ताः-तत्संवेदनका ये ते | तथा, ते च ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्च, तत्र ज्ञानिनां लब्ध्यपेक्षया पञ्च ज्ञानानि भजनया, अज्ञानिनां तु त्रीण्यज्ञानानि भजनयैव । एवं'मित्यादि, यथाऽनाकारोपयुक्ता ज्ञानिनोऽज्ञानिनश्चोक्ताः एवं चक्षुर्दर्शनाद्युपयुक्ता अपि, 'नवरंति विशेषः
॥३५५॥ |पुनरयं-चक्षुर्दर्शनेतरोपयुक्ताः केवलिनो न भवन्तीति तेषां चत्वारि ज्ञानानि भजनयेति ॥ योगद्वारे-'सजोगीण'मित्यादि,'जहा सकाइय'त्ति प्रागुक्त कायद्वारे यथा सकायिका भजनया पञ्चज्ञानाख्यज्ञानाश्चोक्तास्तथा सयोगा अपि वाच्याः
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॥ एवं मनोयोग्यादयोऽपि, केवलिनोऽपि मनोयोगादीनां भावात् , तथा मिथ्यादृशां मनोयोगादिमतामज्ञानत्रयभावाच्च, | 'अजोगी जहा सिद्ध'त्ति अयोगिनः केवललक्षणेकज्ञानिन इत्यर्थः ॥ लेश्याद्वारे-'जहा सकाइय'त्ति सलेश्याः सका-10 |यिकवद्भजनया पञ्चज्ञानारूयज्ञानाश्च वाच्याः, केवलिनोऽपि शुक्ललेश्यासम्भवेन सलेश्यत्वात् , 'कण्हलेसे'त्यादि, 'जहा
सइंदिय'त्ति कृष्णलेश्याश्चतुर्ज्ञानिनत्यज्ञानिनश्च भजनयेत्यर्थः, 'सुक्कलेसा जहा सलेस'त्ति पञ्चज्ञानिनो भजनया दिव्यज्ञानिनश्चेत्यर्थः । 'अलेस्सा जहा सिद्ध'त्ति एकज्ञानिन इत्यर्थः ॥ कषायद्वारे-'सकसाई जहा सइंदिय'त्ति भज-15
नया केवलवर्जचतुर्जानिनस्यज्ञानिनश्चेत्यर्थः, "अकसाईण'मित्यादि, अकषायिणां पञ्च ज्ञानानि भजनया, कथम् ?, | उच्यते, छद्मस्थो वीतरागः केवली चाकषायः, तत्र च छद्मस्थवीतरागस्यायं ज्ञानचतुष्कं भजनया भवति, केवलिनस्तु | | पञ्चममिति ॥ वेदद्वारे-'जहा सइंदिय'त्ति सवेदकाः सेन्द्रियवद्भजनया केवलवर्जचतुर्जानिनस्यज्ञानिनश्च वाच्याः, | 'अवेदगा जहा अकसाइ'त्ति अवेदका अकषायिवद्भजनया पञ्चज्ञाना वाच्याः, यतोऽनिवृत्तिबादरादयोऽवेदका भवन्ति, | तेषु च छद्मस्थानां चत्वारि ज्ञानानि भजनया केवलिनां तु पञ्चममिति ॥ आहारकद्वारे-'आहारगे'त्यादि, सकषाया | भजनया चतुर्ज्ञानात्यज्ञानाश्चोक्ताः आहारका अप्येवमेव, नवरमाहारकाणां केवलमप्यस्ति, केवलिन आहारकत्वादपीति, | 'अणाहारगा णमित्यादि, मनःपर्यवज्ञानमाहारकाणामेव, आद्यं पुनर्ज्ञानत्रयमज्ञानत्रयं च विग्रहे भवति, केवलं च | केवलिसमुद्घातशैलेशीसिद्धावस्थास्वनाहारकाणामपि स्यादत उक्त 'मणपजवे'त्यादि ॥ अथ ज्ञानगोचरद्वारे___ आभिणिबोहियनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पन्नत्ते ?, गोयमा ! से समासओ चउबिहे पन्नत्ते, तंज
हारका अध्ययना तु पञ्चममिति ॥ आ, यतोऽनिवृत्तियादराम
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी- ४ या वृत्तिः १ ४
॥ ३५६ ॥
हा-दओ खेत्तओ कालओ भावओ, दवओ णं आभिणिबोहियनाणी आएसेणं सङ्घदवाई जाणइ पासह, | खेत्तओ आभिणिबोहियणाणी आएसेणं सवखेत्तं जाणइ पासह, एवं कालओवि, एवं भावओवि । सुय नाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पण्णत्ते १, गोयमा ! से समासओ चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा - दवओ ४, दवओ णं सुयनाणी उवउते सङ्घदवाई जाणति पासति, एवं खेत्तओवि कालओवि, भावओ णं सुयनाणी उवन्ते सबभावे जाणति पासति । ओहिनाणस्स णं भंते! केवतिए विसए पन्नत्ते ?, गोयमा ! से समासओ चडविहे पण्णत्ते, तंजहा- दवओ ४, दवओ णं ओहिनाणी रूविदवाई जाणइ पासइ जहा नंदीए जाव भावओ मणपज्जव नाणस्स णं भंते ! केबतिए विसर पण्णत्ते ?, गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णन्ते, तंजहा - दवओ ४, दवओ णं उज्जुमती अनंते अनंतपदेसिए जहा नंदीए जाव भावओ । केवलनाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पण्णत्ते ?, गोयमा ! से समासओ चउविहे पन्नत्ते, तंजहा- दवओ खेत्तओ कालओ भावओ, दवओ पां | केवलनाणी सङ्घदवाई जाणइ पासह एवं जाव भावओ ॥ मइअन्नाणस्स णं भंते ! केवतिए विसए पनते १, गोयमा । से समासओ चढविहे पन्नसे, तंजहा - दवओ खेत्तओ कालओ भावओ, दवओ नं मइअन्नाणीं महअन्नाणपरिगयाई दवाई जाणइ, एवं जाव भावओ मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगए भावे जाणइ पासह । सुयअन्नाणस्स णं भंते । केवतिए विसए पण्णन्ते?, गोयमा ! से समासओ चउविहे पण्णत्ते, तंजहा - दबओ ४, | दखओ णं सुयअन्नाणी सुयअन्नाणपरिमघाई दवाई आघवेति पन्नवेति परूवेह, एवं खेत्तओ कालओ, भावओ
|
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८ शतके उद्देशः २ मत्यादीनां विषयः प
र्यायाच
सू ३२६
॥ ३५६ ॥
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ॐॐॐॐॐॐॐ
मुयअन्नाणी सुयअन्नाणपरिगए भाचे आघवेति तं चेव । विभंगणाणस्स भंते ! केवतिए विसए पणते, गोयमा ! से समासओचउविहे पण्णते, तंजहा-दवओ४, दवओणं विभंगनाणी विभंममाणपरिगयाई दवाई जाणइ पासइ, एवं जाव भावओ णं विभंगनाणी विभंगनाणपरिगए भावे जाणह पासह ॥ (सूत्र३२२) णाणी णं भंते ! णाणीति कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा! नाणी दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-साइए वाअपज्जवसिए साइए वा सपज्जवसिए, तत्थ णं जे से साइए सपज्जवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावहिं सागरोवमाई सातिरेगाई। आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! आभिणियोहिय एवंनाणी आभिणियोहियनाणी जाव केवलनाणी । अन्नाणी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगनाणी, एएसिं दसहवि संचिट्ठणा जहा कायठिईए॥ अंतरं सर्च जहा जीवाभिगमे ॥ अप्पाबहुगाणि तिनि जहा बहुवत्तवयाए ॥ केवतिया णं भंते ! आभिणियोहियणाणपज्जवा पण्णत्ता ?, गोयमा ! अणंता आभिणिबोहियणाणपजवा पण्णत्ता । केवतिया ण भंते ! सुयनाणपजवा पण्णत्ता ?, एवं चेव एवं जाव केवलनाणस्स । एवं मइअन्नाणस्स सुयअन्नाणस्स, केवतिया णं भंते ! विभंगनाणपज्जवा पण्णत्ता?, गोयमा ! अणंता विभंगनाणपन्जवा पण्णत्ता, एएसि णं भंते ! आभिणियोहियनाणपज्जवाणं सुयनाण. ओहिनाण. मणपजवनाण केवलनाणपज्जवाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सवत्थोवा मणपज्जवनाणपजवा ओहिनाणपजवा अणंतमुणा सुयनाणपजवा अणंतगुणा आभिणिबोहियनाणपजवा अणंतगुणा केवलनाणपज्जवा अणंतगुणा ॥ एएसिणं भंते ! मइअन्ना
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥३५७॥
णपजवाणं सुयअन्नाण० विभंगनाणपज्जवाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा विभंग| नाणपज्जवा सुयअन्नाणपज्जवा अनंतगुणा मइअन्नाणपज्जवा अनंतगुणा ॥ एएसि णं भंते ! आभिणिवोहियणाणपज्जवाणं जाव केवलनाणप० मइअन्नाणप० सुयअन्नाणप० विभंगनाणप० कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सङ्घत्थोवा मणपज्जवनाणपज्जवा विभंगनाणपज्जवा अनंतगुणा ओहिणाणपज्जवा अणंतगुणा सुयअन्नाणपज्जवा अणंतगुणा सुयनाणपज्जवा विसेसाहिया मइअन्नाणपज्जवा अनंतगुणा आभिणिबोहियनाणपजवा विसेसाहिया केवलणाणपज्जवा अनंतगुणा । सेवं भंते! सेवं भंते ! त्ति ॥ ( सूत्रं ३२३ ) ॥ अट्ठमस्स सयस्स बितिओ उद्देसो ॥ ८-२ ॥
'has'त्ति किं परिमाण: 'विसए'त्ति गोचरो ग्राह्योऽर्थ इतियावत् तं च भेदपरिमाणतस्तावदाह - 'से' इत्यादि, 'सः' आभिनि बोधिक ज्ञानविषयस्तद्वाऽऽभिनिबोधिक ज्ञानं 'समासतः सङ्क्षेपेण प्रभेदानां भेदेष्वन्तर्भावेनेत्यर्थः चतुर्विधश्चतुर्विधं वा द्रव्यतो-द्रव्याणि धर्मास्तिकायादीन्याश्रित्य क्षेत्रतो- द्रव्याधारमाकाशमात्रं वा क्षेत्रमाश्रित्य कालतः - अद्धां | द्रव्यपर्यायावस्थितिं वा समाश्रित्य भावतः - औदयिकादिभावान् द्रव्याणां वा पर्यायान् समाश्रित्य 'दवओ णं' ति द्रव्यमाश्रित्याभिनि बोधिकज्ञानविषयद्रव्यं वाऽऽश्रित्य यदाभिनिबोधिकज्ञानं तत्र 'आएसेणं'ति आदेशः - प्रकार : सामान्यविशेषरूपस्तत्र चादेशेन - ओघतो द्रव्यमात्रतया न तु तद्गतसर्वविशेषापेक्षयेति भावः, अथवा 'आदेशेन' श्रुतपरिकमिततया 'सर्वद्रव्याणि' धर्मास्तिकायादीनि 'जानाति' अवायधारणापेक्षयाऽवबुध्यते, ज्ञानस्यावायधारणारूपत्वात्,
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८ शतके
उद्देशः २ मत्यादीनां विषयः प
र्यायाश्च
सू ३२३
॥३५७॥
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SHARRASSALERS
| 'पासइ'त्ति पश्यति अवग्रहहापेक्षयाऽवबुध्यते, अवग्रहेहयोर्दर्शनत्वात्, आह च भाष्यकारः-"नाणमवायधिईओ दंसण.दा 5 मिडं जहो ग्गहेहाओ। तह तत्तई सम्म रोइजइ जेण तंणाणं ॥१॥” तथा-"ज सामन्नग्गहणं दसणमेयं विसेसियं नाणं"
[अपायधारणे ज्ञानमवग्रहेहे दर्शनं यथेष्टं तथा तत्त्वरुचिः सम्यक्त्वं येन रोच्यते तज्ज्ञानम् ॥१॥ यत्सामान्यग्रहणं दर्शन|मेतद् विशेषितं ज्ञानम् ।] अवग्रहेहे च सामान्यार्थग्रहणरूपे अवायधारणे च विशेषग्रहणस्वभावे इति, नन्वष्टाविंशतिभेदमानमाभिनिबोधिकज्ञानमुच्यते, यदाह-"आभिणिबोहियनाणे अठ्ठावीसं हवंति पयडीओ"त्ति [आभिनिबोधिक ज्ञाने प्रकृतयोऽष्टाविंशतिर्भवन्ति] इह च व्याख्याने श्रोत्रादिभेदेन षड्भेदतयाऽवायधारणयो‘दशविधं मतिज्ञान प्राप्तं, तथा श्रोत्रादिभेदेनैव षड्भेदतयाऽर्थावग्रहईहयोर्व्यञ्जनावग्रहस्य च चतुर्विधतया षोडशविधं चक्षुरादिदर्शन मिति प्राप्तमिति | कथं न विरोधः?, सत्यमेतत् , किन्त्वविवक्षयित्वा मतिज्ञानचक्षुरादिदर्शनयोर्भेदं मतिज्ञानमष्टाविंशतिधोच्यते इति पूज्या । व्याचक्षत इति, 'खेत्तओत्ति क्षेत्रमाश्रित्याभिनिबोधिक ज्ञानविषयक्षेत्रं वाऽऽश्रित्य यदाभिनिबोधिक ज्ञानं तत्र 'आदेसेणं ति ओघतः श्रुतपरिकर्मिततया वा'सवं खेतति लोकालोकरूपम् , एवं कालतो भावतश्चेति, आह च भाष्यकार:"आएसोत्ति पगारो ओघादेसेण सबदबाई । धम्मस्थिकाइयाई जाणइ न उ सबभावेणं ॥१॥ खेत्तं लोगालोगं कालं सबद्धमहव तिविहंपि । पंचोदइयाईए भावे जन्नेयमेवइयं ॥२॥ आएसोत्ति व सुत्तं सुओवलद्धेसु तस्स मइनाणं । पसरइ तब्भावणया विणावि सुत्ताणुसारेणं ॥३॥” इति [आदेश इति प्रकारः सामान्यादेशेन सर्वद्रव्याणि धर्मास्ति| कायादीनि जानाति न तु सर्वभावैः॥१॥ लोकालोकं क्षेत्रं सर्वाद्धां कालमथवा त्रिविधमपि । भावानौदयिकादीन् पञ्च
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥ ३५८ ॥
देतावज्ज्ञेयम् ॥ २ ॥ यद्वा आदेश इति श्रुतं श्रुतोपलब्धेषु तस्य मतिज्ञानं प्रसरति तद्भावनया सूत्रानुसारेण विनाऽपि ॥ ३ ॥ ] इदं च सूत्रं नन्द्यामिहैव वाचनान्तरे 'न पासइ 'त्ति पाठान्तरेणाधीतम्, एवं च नन्दिटीकाकृता व्याख्यातम् - " आदेशः - प्रकारः, स च सामान्यतो विशेषतश्च तत्र द्रव्यजातिसामान्यादेशेन सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि जानाति, विशेषतोऽपि यथा धर्मास्तिकायो धर्मास्तिकायस्य देश इत्यादि, न पश्यति सर्वान् धर्मास्तिकायादीन, शब्दादींस्तु योग्यदेशावस्थितान् पश्यत्यपीति,” “उवउप्ते' त्ति” भावश्रुतोपयुक्तो नानुपयुक्तः, स हि नाभिधानादभिधेयप्रतिपत्तिसमर्थो भवतीति विशेषणमुपात्तं, 'सर्वद्रव्याणि' धर्मास्तिकायादीनि 'जानाति' विशेषतोऽवगच्छति, श्रुतज्ञानस्य | तत्स्वरूपत्वात्, पश्यति च श्रुतानुवर्त्तिना मानसेन अचक्षुर्दर्शनेन सर्वद्रव्याणि चाभिलाप्यान्येव जानाति, पश्यति वाभिनदशपूर्वरादिः श्रुतकेवली, तदारतस्तु भजना, सा पुनर्मतिविशेषतो ज्ञातव्येति, वृद्धैः पुनः पश्यतीत्यत्रेदमुकं| ननु पश्यतीति कथं ?, कथं च न, सकलगोचर दर्शनायोगात् १, अत्रोच्यते, प्रज्ञापनायां श्रुतानपश्य सायाः प्रतिपादि| तत्वादनुत्तर विमानादीनां चालेख्यकरणात् सर्वथा चादृष्टस्यालेख्यकरणानुपपत्तेः, एवं क्षेत्रादिष्वपि भावनीयमिति, अन्बे तु 'न पासइ'त्ति पठन्तीति, ननु 'भावओ णं सुयनाणी उवउत्ते सबभावे जाणइ' इति यदुक्तमिह तत् "सुए चरिते न पज्जवा सवे" त्ति [ श्रुते चारित्रे न सर्वे पर्यायाः ( अभिलाप्यापेक्षया) ।] अनेन च सह कथं न विरुध्यसे ?, उच्यते, इह सूत्रे सर्वग्रहणेन पञ्चौदयिकादयो भावा गृह्यन्ते, तांश्च सर्वान् जातितो जानाति, अथवा यद्यप्यभिलाप्याना भावानामनन्तभाग एव श्रुतनिबद्धस्तथापि प्रसङ्गानुप्रसङ्गतः सर्वेऽप्यभिलाप्याः श्रुतविषया उच्यन्ते असतदपेक्षया सर्व भावान्
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८ शतके उद्देशः २ मत्यादीनां
विषयः प
यायाश्च
सू ३२३
॥ ३५८ ॥
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जानातीत्युक्तम् , अनभिलाप्यभावापेक्षया तु "सुए चरिते न पजबा सो" इत्युक्तमिति न विरोधः।'दबोणमित्यादि, अवधिज्ञानी रूपिद्रव्याणि पुद्गलद्रव्याणीत्यर्थः, तानि च जघन्येनानन्तानि तैजसभाषाद्रव्याणामपान्तरालवत्तीनि, यत उक्तं-"तेयाभासादवाण अंतरा एत्थ लभति पट्टवओ" त्ति, [अत्र प्रस्थापकस्तेजोभाषावर्गणयोरन्तरालद्रव्याणि जानाति] | उत्कृष्टतस्तु सर्वबादरसूक्ष्मभेदभिन्नानि जानाति विशेषाकारेण, ज्ञानत्वात्तस्य, पश्यति सामान्याकारणावधिज्ञानि-1 नोऽवधिदर्शनस्यावश्यम्भावात्, नन्वादौ दर्शनं ततो ज्ञानमिति क्रमस्तकिमर्थमेनं परित्यज्य प्रथमं जानातीत्युक्तम् , अत्रोच्यते, इहावधिज्ञानाधिकारात् प्राधान्यख्यापनार्थमादौ जानातीत्युक्तम् , अवधिदर्शनस्य त्ववधिविभङ्गसाधारणत्वे-18 नाप्रधानत्वात् पश्चात्पश्यतीति, अथवा सर्वा एव लब्धयः साकारोपयोगोपयुक्तस्योत्पद्यन्ते लब्धिश्चावधिज्ञानमिति साकारोपयोगोपयुक्तस्यावधिज्ञानलब्धिर्जायते इत्येतस्यार्थस्य ज्ञापनार्थ साकारोपयोगाभिधायकं जानातीति प्रथममुक्तं ततः क्रमेणोपयोगप्रवृत्तेः पश्यतीति, 'जहा नंदीए'त्ति, एवं च तत्रेदं सूत्रं-'खेत्तओ णं ओहिणाणी जहन्नेणं अंगुलस्स असं-18 खेजइभागं जाणइ पासई' इत्यादि, व्याख्या पुनरेवं-क्षेत्रतोऽवधिज्ञानी जघन्येनाङ्गलस्यासङ्ख्येयभागमुत्कृष्टतोऽसङ्ख्येयान्यलोके शक्तिमपेक्ष्य लोकप्रमाणानि खण्डानि जानाति पश्यति, कालतोऽवधिज्ञानी जघन्येनावलिकाया असङ्ख्येयं भागमुत्कृष्टतोऽसङ्ख्येया उत्सर्पिण्यवसर्पिणीरतीता अनागताश्च जानाति पश्यति, तद्भतरूपिव्यावगमात्, अथ कियडूरं यावदिह नन्दीसूत्रं वाच्यम् ? इत्याह-'जाव भावओ'त्ति भावाधिकार यावदित्यर्थः, स चैवं-भावतोऽवधिज्ञानी जघ-|| न्येनानन्तान् भावानाधारद्रव्यानन्तत्वाजानाति पश्यति, न तु प्रतिद्रव्यमिति, उत्कृष्टतोऽप्यनन्तान् भावान् जानाति |
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः समयदेवीपावृतिः ॥३५९॥
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८ शतके उद्देशः२ मत्यादीनां विषयःप
ोयाश्च सू ३२३
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पश्यति च, तेऽपि चोत्कृष्टपदिनः सर्वपर्यायाणामनन्तभाग इति, 'उज्जुमईत्ति मननं मतिः संवेदनमित्यर्थः ऋज्वी-सामान्यग्राहिणी मतिः ऋजुमतिः-घटोऽनेन चिन्तित इत्यध्यवसायनिबन्धना मनोद्रव्यपरिच्छित्तिरित्यर्थः, अथवा ऋज्वी मतिर्यस्यासावृजुमतिस्तद्वानेव गृह्यते, "अणंते'त्ति 'अनन्तान' अपरिमितान् 'अणंतपएसिए'त्ति अनन्तपरमाण्वात्मकान् | 'जहा नंदीए'त्ति, तत्र चेदं सूत्रमेवं-'खंधे जाणइ पासइत्ति तत्र 'स्कन्धान्' विशिष्टैकपरिणामपरिणतान् सज्ञिभिः पर्याप्तकः प्राणिभिरर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वतिभिर्मनरत्वेन परिणामितानित्यर्थः, 'जाणइत्ति मनःपर्यायज्ञानावरणक्षयो|पशमस्य पटुत्वात्साक्षात्कारेण विशेषभूयिष्ठपरिच्छेदात् जानातीत्युच्यते, तदालोचितं पुनरर्थ घटादिलक्षणं मनःपर्याय
ज्ञानं स्वरूपाध्यक्षतो न जानाति किन्तु तत्परिणामान्यथाऽनुपपत्त्याऽतः पश्यतीत्युच्यते, उक्तञ्च भाष्यकारेण-"जाणइ | बज्झेऽणुमाणाओ"त्ति, [बाह्याननुमानाजानाति] इत्थं चैतदङ्गीकर्तव्यं, यतो मूर्तद्रव्यालम्बनमेवेदं, मन्तारश्चामूर्त्तमपि धर्मास्तिकायादिकं मन्येरन् , न च तदनेन साक्षात् कर्तुं शक्यते, तथा चतुर्विधं च चक्षुर्दर्शनादि दर्शनमुक्तमतो भिन्नालम्बनमेवेदमवसेयं, तत्र च दर्शनसम्भवात्पश्यतीत्यपि न दुष्टम् , एकप्रमात्रपेक्षया तदनन्तरभावित्वाञ्चोपन्यस्तमित्यलम|तिविस्तरेण, 'ते चेव उ विउलमई अब्भहियतराए वितिमिरतराए विसुद्धतराए जाणइ पासई तानेव स्कन्धान विपुला|विशेषग्राहिणी मति विपुलमतिः-घटोऽनेन चिन्तितः स च सौवर्णः पाटलिपुत्रकोऽद्यतनो महानित्याद्यध्यवसायहेतुभूता |मनोद्रव्यविज्ञप्तिः, अथवा विपुला मतिर्यस्यासौ विपुलमतिस्तद्वानेव, 'अभ्यधिकतरकान्' ऋजुमतिदृष्टस्कन्धापेक्षया बहुतरान् द्रव्यार्थतया वर्णादिभिश्च वितिमिरतरा इव-अतिशयेन विगतान्धकारा इव ये ते वितिमिरतरास्त एव वितिमिर
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॥३५९॥
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तरका अतस्तान्, अत एव 'विशुद्धतरकान् ' विस्पष्टतरकान् जानाति पश्यति च, तथा 'खेत्तओ णं उज्जुमई अहे जाव इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेट्टिले खुड्डागपयरे उहुं जाव जोइसस्स उवरिमतले तिरियं जाव अंतोमणुस्सखेत्ते अड्डाइज्जेसु दीवस मुद्देसु पन्नरससु कम्मभूमीसु छप्पन्नाए अंतरदीवगेसु सन्नीणं पंचिंदियाणं पज्जत्तगाणं मणोगए भावे जाणइ पासई' तत्र क्षेत्रत ऋजुमतिरधः - अधस्ताद् यावदमुध्या रत्नप्रभाषाः पृथिव्या उपरिमाधस्त्यान् क्षुल्लकप्रतरान् | तावत् किं ? - मनोगतान् भावान् जानाति पश्यतीति योगः, तत्र रुचकाभिधानात्तियगृलोकमध्यादधो यावन्नव योजनशतानि तावदमुष्या रत्नप्रभाया उपरिमाः क्षुल्लकप्रतराः, क्षुल्लकत्वं च तेषामधोलोकप्रतरापेक्षया, तेभ्योऽपि येऽधस्तादधोलोकग्रामान् यावत्तेऽधस्तनाः क्षुल्लकप्रतरा ऊर्द्ध यावज्योतिषश्च - ज्योतिश्चक्रस्योपरितलं 'तिरियं जाव अंतोमणुस्स| खेते'त्ति तिर्यङ् यावदन्तर्मनुष्यक्षेत्रं मनुष्य क्षेत्रस्यान्तं यावदित्यर्थः, तदेव विभागत आह- ' अड्डाइजेसु' इत्यादि, तथा 'तं चैव विउलमई अड्डाइज्जेहिं अंगुलेहिं अमहियतरागं विउलतरागं विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइति तत्र | 'तं चेव' त्ति इह क्षेत्राधिकारस्य प्राधान्यात्तदेव मनोलब्धिसमन्वितजीवाधारं क्षेत्रमभिगृह्यते, तत्राभ्यधिकतर कमायामविष्कम्भावाश्रित्य विपुलतरकं बाहल्यमाश्रित्य 'विशुद्धतरकं' निर्मलतरकं वितिमिरतरकं तु तिमिरकल्पतदावरणस्य | विशिष्टतरक्षयोपशमसद्भावादिति, तथा - 'कालओ णं उज्जुमई जहन्नेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसणवि पलिओ - वमस्स असंखेज्जइभागं जाणइ पासइ अईयं अणागयं च तं चैव विपुलमई विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पास ' कियन्नन्दी सूत्रमिहाध्येयम् ? इत्याह- 'जाव भावओ' त्ति भावसूत्रं यावदित्यर्थः, तचैवं- 'भावओ णं उज्जुमई अणंते भावे
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व्याख्या" प्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः १
॥ ३६० ॥
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| जाणइ पासइ सबभावाणं अनंतं भागं जाणइ पासइ, तं चैव विपुलमई विसुद्धतरागं वितिमिरतरागं जाणइ पासइति । | 'केवलणाणस्से' त्यादि, 'एवं जाव भावओ'त्ति 'एवम्' उक्तन्यायेन यावद्भावत इत्यादि तावत्केवलविषयाभिधायि | नन्दीसूत्रमिहाध्येयमित्यर्थः, तच्चैवं - 'खेत्तओ णं केवलनाणी सबखेत्तं जाणइ पासइ' इह च धर्मास्तिकायादिसर्वद्रव्यप्र| हणेनाकाशद्रव्यस्य ग्रहणेऽपि यत्पुनरुपादानं तत्तस्य क्षेत्रत्वेन रूढत्वादिति, 'कालओ णं केवलणाणी सबं कालं जाणइ पासइ, भावओ णं केवली सबभावे जाणइ पासई' | 'मइअन्नाणस्से' त्यादि, 'महअन्नाणपरिगयाई'ति मत्यज्ञानेन - | मिथ्यादर्शनसंवलितेनावग्रहादिनौत्पत्तिक्यादिना च परिगतानि - विषयीकृतानि यानि तानि तथा, जानात्मपायादिना पश्यत्यवग्रहादिना, यावत्करणादिदं दृश्यं - 'खेत्तओ णं मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगयं खेत्तं जाणइ पासइ, कालओ णं मइअन्नाणी मइअन्नाणपरिगयं कालं जाणइ पास 'ति । 'सुयअन्नाणे' त्यादि, 'सुयअन्नाण परिगया हूं'ति श्रुताज्ञानेन - मिथ्यादृष्टिपरिगृहीतेन सम्यक् श्रुतेन लौकिकश्रुतेन कुप्रावचनिकश्रुतेन वा यानि परिगतानि - विषयीकृतानि तानि तथा. ' आघवे 'त्ति आग्राहयति अर्थापयति वा आख्यापयति वा प्रत्याययतीत्यर्थः 'प्रज्ञापयति' भेदतः कथयति 'प्ररूपयति'. उपपत्तितः कथयतीति, वाचनान्तरे पुनरिदमधिकमवलोक्यते - 'दंसेति निदंसेति उवदंसेति'त्ति तत्र च दर्शयति उपमामात्रतस्तच्च यथा गौस्तथा गवय इत्यादि, निदर्शयति हेतुदृष्टान्तोपन्यासेन उपदर्शयति उपनयनिगमनाभ्यां मतान्तरदर्श| नेन वेति । 'दखओ णं विभंगनाणी' त्यादौ 'जाण 'त्ति विभङ्गज्ञानेन 'पास' त्ति अवधिदर्शनेनेति ॥ अथ कालद्वारे'साइए' इत्यादि, इहाद्यः केवली द्वितीयस्तु मत्यादिमान्, तत्राद्यस्य साद्यपर्थ्यवसितेति शब्दत एव कालः प्रतीयत इति ॥
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८ शतके उद्देशः २ मत्यादीनां विषयः पर्यायाश्च
सू ३२३
॥३६०॥
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द्वितीयस्यैव तं जघन्येतरं भेदमुपदर्शयितुमिदमाह-'तत्थ णं जे से साइए' इत्यादि, तत्र च 'जहन्नेणं अंतोमुहत्तंति आद्यं ज्ञानद्वयमानित्योक्तं, तस्यैव जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रत्वात् , तथा 'उकोसेणं छावडिं सागरोवमाई साइरेगाईति यदुक्तं तदाद्यं ज्ञानत्रयमाश्रित्य, तस्य हि उत्कर्षेणैतावत्येव स्थितिः, सा चैवं भवति-"दो वारे विजयाइसु गयस्स तिन्नचए अहव ताई । अइरेगं नरभवियं णाणाजीवाण सबद्धं ॥१॥" [विजयादिषु द्विरच्युते त्रिर्गतस्य अथ तानि नरभविकातिरेकाणि नानाजीवानां सर्वाद्धां ॥१॥] 'आभिणिबोहिये'त्यादि सूचामात्रम्, एवं चैतद्रष्टव्यम्-'आभिणिबोहियणाणी णं भंते ! आभिणिबोहियनाणित्ति कालओ केवञ्चिरं होइ? त्ति 'एवं नाणी आभिणिबोहियनाणी'त्यादि, अयमर्थः-एव'मित्यनन्तरोक्तेन 'आभिणियोहिए'त्यादिना सूत्रक्रमेण ज्ञान्याभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञान्यवधिज्ञानिमनःपर्यवज्ञानिकेवलज्ञान्यज्ञानिमत्यज्ञानिश्रुताज्ञानिविभङ्गज्ञानिनां संचिट्ठणे'ति अवस्थितिकालो यथा कायस्थिती प्रज्ञापनाया अष्टादशे पदेऽभिहितस्तथा वाच्यः, तत्र ज्ञानिनां पूर्वमुक्त एवावस्थितिकालः, यच्च पूर्वमुक्तस्याप्यतिदेशतः पुनर्भणनं तदेकप्रकरणपतितत्वादित्यवसेयम् , आभिनिबोधिकज्ञानादिद्वयस्य तु जघन्यतोऽन्तर्मुहूर्त्तमुत्कृष्टतस्तु सातिरेकाणि षट्षष्टिः सागरोपमाणि, अवधिज्ञानिनामप्येवं, नवरं जघन्यतो विशेषः, स चायम्-'ओहिनाणी जहन्नेणं एक समयं' कथं ?, यदा विभङ्गज्ञानी सम्यक्त्वं प्रतिपद्यते तत्प्रथमसमय एव विभङ्गमवधिज्ञानं भवति तदनन्तरमेव च तत् प्रतिपतति तदा एक समयमवधिर्भवतीत्युच्यते । 'मणपज्जवनाणी णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं देसूणा पुषकोडी, कथं १, संयतस्याप्रमत्ताद्धायां वर्त्तमानस्य मनःपर्यवज्ञानमुत्पन्नं तत उत्पत्तिसमयसमनन्तरमेव विनष्टं
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८.शतके उद्देशः२ ज्ञानाज्ञानयोः स्थितिरन्तरं च सू ३२३
व्याख्या- चेत्येवमेकं समयं, तथा चरणकाल उत्कृष्टो देशोना पूर्वकोटी, तत्प्रतिपत्तिसमनन्तरमेव च यदा मनःपर्यवज्ञानमुत्पन्नमाप्रज्ञप्तिः
जन्म चानुवृत्तं तदा भवति मनःपर्यवस्योत्कर्षतो देशोना पूर्वकोटीति । केवलनाणी णं पुच्छा, गोयमा ! साइए अपज्जवअभयदेवीया वृत्तिः
सिए, अन्नाणी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी णं पुच्छा, गोयमा ! अन्नाणी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी य तिविहे पन्नत्ते, तंजहा
अणाइए वा अपज्जवसिए अभव्यानां १ अणाइए वा सपजवसिए भव्यानां २ साइए वा सपज्जवसिए प्रतिपतितसम्य॥३६॥ ग्दर्शनानां ३, 'तत्थ णं जे से साइए सपजवसिए से जहन्नेणं अंतोमुहुर्त सम्यक्त्वप्रतिपतितस्यान्तर्मुहत्तोपरि सम्यक्त्व
प्रतिपत्तौ, 'उक्कोसेणं अणंतं कालं अणंता उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अवढे पोग्गलपरिय१ देसूर्ण' सम्य|क्त्वाअष्टस्य वनस्पत्यादिष्वनन्ता उत्सपिण्यवसर्पिणीरतिवाह्य पुनः प्राप्तसम्यग्दर्शनस्येति । 'विभंगनाणी णं भंते! पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं एक समय' उत्पत्तिसमयानन्तरमेव प्रतिपाते 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई देसूणपुवकोडिअब्भहियाई देशोनां पूर्वकोटिं विभङ्गिन्तया मनुष्येषु जीवित्वाऽप्रतिष्ठानादावुत्पन्नस्येति ॥ अन्तरद्वारे-'अंतरं सवं जहा जीवाभिगमे त्ति पञ्चानां ज्ञानानां त्रयाणां चाज्ञानानामन्तरं सर्व यथा जीवाभिगमे तथा वाच्यं, तच्चैवम्-आभिणिबोहियणाणस्स णं भंते ! अंतरं कालओ केवच्चिर होइ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं जाव अवटुं पोग्गलपरियट्टू देसूणं, सुयनाणिओहिनाणीमणपज्जवनाणीणं एवं चेव, केवलनाणिस्स पुच्छा, गोयमा ! नत्थि
अंतरं, मइअन्नाणिस्स सुयअन्नाणिस्स य पुच्छा, गोयमा! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं छावहिं सागरोवमाइं साइरेगाई। ४ विभंगनाणिस्स पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो'त्ति ॥ अल्पबहुत्वद्वारे-'अप्पाबहुगाणि
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॥३६१॥
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तिन्नि जहा बहवत्तवयाए'त्ति अल्पबहुत्वानि त्रीणि ज्ञानिनां परस्परेणाज्ञानिनां च ज्ञान्यज्ञानिनां च यथाऽल्पबहत्ववक्तव्यतायां प्रज्ञापनासम्बन्धिन्यामभिहितानि तथा वाच्यानीति, तानि चैवम्-'एएसि णं भंते ! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीणं५ कयरे २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुला वा विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा मणपज४ वनाणी ओहिनाणी असंखेजगुणा आभिणिबोहियनाणी सुयणाणी दोवि तुल्ला विसेसाहिया केवलनाणी अणंतगुणा'
इत्येकम् १। 'एएसिणं भंते ! जीवाणं मइअन्नाणीणं ३ कयरे २ हिंतो अप्पा वा बहुया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा ?|2 गोयमा ! सवत्थोवा जीवा विभंगणाणी मइअन्नाणी सुयअन्नाणी दोवि तुल्ला अनंतगुणा' इति द्वितीयम् २ । 'एएसिणं भंते ! जीवाणं आभिणिबोहियनाणीणं ५ मइअन्नाणीणं ३ कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सब|स्थोवा जीवा मणपज्जवणाणी ओहिनाणी असंखेजगुणा आभिणिबोहियनाणी सुयनाणी य दोवि तुल्ला विसेसाहिया |
विभंगनाणी असंखेजगुणा केवलनाणी अणंतगुणा मइअन्नाणी सुयअन्नाणी दोवि तुल्ला अणंतगुण'त्ति, तत्र ज्ञानिसूत्रे सस्तोका मनःपर्यायज्ञानिनो,यस्मादृद्धिप्राप्तादिसंयतस्यैव तद्भवति, अवधिज्ञानिनस्तु चतसृष्वपि गतिषु सन्तीति तेभ्योऽ. | सङ्ख्येयगुणाः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनश्चान्योऽन्यं तुल्याः, अवधिज्ञानिभ्यस्तु विशेषाधिकाः, यतस्तेऽवधि
ज्ञानिनोऽपि मनःपर्यायज्ञानिनोऽपि अवधिमनःपर्याय ज्ञानिनोऽपि अवध्यादिरहिता अपि पञ्चेन्द्रिया भवन्ति सास्वा- 8 ४ दनसम्यग्दर्शनसद्भावे विकलेन्द्रिया अपि च मतिश्रुतज्ञानिनो लभ्यन्त इति, केवलज्ञानिनस्त्वनन्तगुणाः, सिद्धानां सर्वद ज्ञानिभ्योऽनन्तगुणत्वात् । अज्ञानिसूत्रे तु विभङ्गज्ञानिनः स्तोकाः, यस्मात् पञ्चेन्द्रिया एव ते भवन्ति, तेभ्योऽनन्तगुणा
ASTERISTICA
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१ ॥३६॥
मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनः, यतो मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चैकेन्द्रिया अपीति तेन तेभ्यस्तेऽनन्तगुणाः, परस्परतश्च ||alle शतके तुल्याः। तथा मिश्रसूत्रे स्तोका मनःपर्यायज्ञानिनः, अवधिज्ञानिनस्तु तेभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः, आभिनिबोधिकज्ञानिनः श्रुत- Pउद्देशः२ ज्ञानिनश्चान्योऽन्यं तुल्याः प्राक्तनेभ्यश्च विशेषाधिकाः, इह युक्तिः पूर्वोक्तव, आभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्यो विभङ्ग- | ज्ञान्यज्ञा. ज्ञानिनोऽसयेयगुणाः, कथम् ?, उच्यते, यतः सम्यग्दृष्टिभ्यः सुरनारकेभ्यो मिथ्यादृष्टयस्तेऽसङ्ख्येयगुणा उक्तास्तेन निनामल्पः विभङ्गज्ञानिन आभिनिबोधिकज्ञानिश्रुतज्ञानिभ्योऽसङ्ख्येयगुणाः, केवलज्ञानिनस्तु विभङ्गज्ञानिभ्योऽनन्तगुणाः, सिद्धा
बहुत्वं
सू३२३ नामेकेन्द्रियवर्जसर्वजीवेभ्योऽनन्तगुणत्वात्, मत्यज्ञानिनः श्रुताज्ञानिनश्चान्योऽन्यं तुल्याः, केवलज्ञानिभ्यस्त्वनन्तगुणाः, वनस्पतिष्वपि तेषां भावात् , तेषां च सिद्धेभ्योऽप्यनन्तगुणत्वादिति ॥अथ पर्यायद्वारे-केवइया'इत्यादि, आभि| निबोधिकज्ञानस्य पर्यवा:-विशेषधर्मा आभिनिबोधिक ज्ञानपर्यवाः, ते च द्विविधाः स्वपरपर्यायभेदात् , तत्र येऽवग्रहादयो
मतिविशेषाः क्षयोपशमवैचिच्यात्ते स्वपर्यायास्ते चानन्तगुणाः, कथम् ?, एकस्मादवग्रहादेरन्योऽवग्रहादिरनन्तभागवृद्ध्या | विशुद्धः १ अन्यस्त्वसङ्ख्येयभागवृद्ध्या २ अपरः सङ्ख्येयभागवृद्ध्या ३ अन्यतरः सङ्ख्येयगुणवृद्ध्या ४ तदन्योऽसङ्ख्येयगुणवृद्ध्या ५ अपरस्त्वनन्तगुणवृद्ध्या ६ इति, एवं च सङ्ख्यातस्य सङ्ख्यातभेदत्वादसंख्यातस्य चासङ्ख्यातभेदत्वादनन्तस्य चानन्तभेदत्वादनन्ता विशेषा भवन्ति, अथवा तज्ज्ञेयस्यानन्तत्वात् प्रतिज्ञेयं च तस्य भिद्यमानत्वात् अथवा मतिज्ञानमविभागपरिच्छेदैर्बुद्ध्या छिद्यमानमनन्तखण्डं भवतीत्येवमनन्तास्तत्पर्यवाः, तथा ये पदार्थान्तरपर्यायास्ते तस्य परपर्या- ॥३६२॥ यास्ते च स्वपर्यायेभ्योऽनन्तगुणाः, परेषामनन्तगुणत्वादिति, ननु यदि ते परपर्यायास्तदा तस्येति न व्यपदेष्टुं युक्तं,
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परसम्बन्धित्वात्, अथ तस्य ते तदा न परपर्यायास्ते व्यपदेष्टव्याः, स्वसम्बन्धित्वादिति, अत्रोच्यते, यस्मात्तत्रासम्बद्धास्ते तस्मात्तेषां परपर्यायव्यपदेशः, यस्माच्च ते परित्यज्यमानत्वेन तथा स्वपर्यायाणां स्वपर्याया एते इत्येवं विशेषणहेतुत्वेन च तस्मिन्नुपयुज्यन्ते तस्मात्तस्य पर्यवा इति व्यपदिश्यन्ते, यथाऽसम्बद्धमपि धनं स्वधनं उपयुज्यमानत्वादिति, आह च-"जइ ते परपज्जाया न तस्स अह तस्स न परपज्जाया। [आचार्य आह] -जं तंमि असंबद्धा तो परपज्जायववएसो ॥१॥चायसपज्जायविसेसणाइणा तस्स जमुवजुजंति । सधणमिवासंबद्धं हवंति तो पजवा तस्स ॥२॥"त्ति । यदि ते परपर्यायास्तस्य न अथ तस्य न परपर्यायाः। यत्तस्मिन्नसम्बद्धा ततः परपर्यायव्यपदेशः॥१॥ तस्य त्यागस्वपर्या-10 यविशेषणत्वादिना यदुपयुज्यन्ते ततः स्वधनमिवासम्बद्धमपि तस्य पर्याया भवन्ति ॥२॥] 'केवइया णं भंते ! सुयणाणे'त्यादौ, 'एवं चेव'त्ति अनन्ताः श्रुतज्ञानपर्यायाः प्रज्ञप्ता इत्यर्थः, ते च स्वपर्यायाः परपर्यायाश्च, तत्र स्वपर्याया ये श्रुतज्ञानस्य स्वतोऽक्षरश्रुतादयो भेदास्ते चानन्ताःक्षयोपशमवैचित्र्यविषयानन्त्याभ्यां श्रुतानुसारिणां बोधानामनन्तत्वात् अविभागपलिच्छेदानन्त्याच्च, परपर्यायास्त्वनन्ताः सर्वभावानां प्रतीता एव, अथवा श्रुतं-ग्रन्थानुसारि ज्ञानं श्रुतज्ञान, श्रुतग्रन्थश्चाक्षरात्मकः, अक्षराणि चाकारादीनि, तेषां चैकैकमक्षरं यथायोगमुदात्तानुदात्तस्वरितभेदात् सानुनासिकनिरनुनासिकभेदात् अल्पप्रयत्नमहाप्रयत्नभेदादिभिश्च संयुक्तसंयोगासंयुक्तसंयोगभेदाद् व्यादिसंयोगभेदादभिधेयानन्त्याच्च भिद्यमानमनन्तभेदं भवति,ते च तस्य स्वपर्यायाः, परपर्यायाश्चान्येऽनन्ता एव, एवं चानन्तपर्यायं तत्, आह च-“एक्के. कमक्खरं पुण सपरपज्जायभेयओ भिन्नं । तं सव्वदवपज्जायरासिमाणं मुणेयवं ॥१॥ जे लब्भइ केवलो से सवन्नसहिओ य ।
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः ॥३६॥
८ शतके उद्देशः३ ज्ञानाज्ञानपयोयाः सू३२३
पजवेऽगारो। ते तस्स सपज्जाया सेसा परपज्जवा तस्स ॥२॥"त्ति [तद् एकैकमक्षरं स्वपर्यायभेदतो भिन्नं तत् पुनः सर्वद्रव्यपर्यायराशिप्रमाणं ज्ञातव्यम् ॥१॥ यान् पर्यवान् लभते केवलोऽकारः सवर्णसहितश्चाथ ते तस्य स्वपर्यायाः शेषा स्तस्य परपर्यायाः ॥ २॥] एवं चाक्षरात्मकत्वेनाक्षरपर्यायोपेतत्वादनन्ताः श्रुतज्ञानस्य पर्याया इति, ‘एवं जाव'त्ति| करणादिदं दृश्य-'केवइया णं भंते ! ओहिनाणपजवा पन्नत्ता?, गोयमा ! अणंता ओहिनाणपज्जवा पन्नत्ता । केवइया णं भंते ! मणपज्जवनाणपजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अणंता मणपज्जवनाणपज्जवा पण्णत्ता । केवइयाणं भंते ! केवलनाणपजवा पन्नत्ता ?, गोयमा ! अणंता केवलनाणपज्जवा पन्नत्ता' इति, तत्रावधिज्ञानस्य स्वपर्याया येऽवधिज्ञानभेदाः भवप्रत्ययक्षायोपशमिकभेदात् नारकतिर्यग्मनुष्यदेवरूपतत्स्वामिभेदाद् असङ्ख्यातभेदतद्विषयभूतक्षेत्रकालभेदाद् अनन्तभेदतद्विषयद्रव्यपर्यायभेदादविभागपलिच्छेदाच्च ते चैवमनन्ता इति, मनःपर्यायज्ञानस्य केवलज्ञानस्य च स्वपर्याया ये स्वाम्या| दिभेदेन स्वगता विशेष्यास्ते चानन्ता अनन्तद्रव्यपर्यायपरिच्छेदापेक्षयाऽविभागपलिच्छेदापेक्षया वेति, एवं मत्यज्ञाना| दित्रयेऽप्यनन्तपर्यायत्वमूह्यमिति । [ग्रन्थाग्रम् ८०००] अथ पर्यवाणामेवाल्पबहुत्वनिरूपणायाह-एएसि ॥'मित्यादि, इह च स्वपर्यायापेक्षयैवैषामल्पबहुत्वमवसेयं, स्वपरपर्यायापेक्षया तु सर्वेषां तुल्यपर्यायत्वादिति, तत्र सर्वस्तोका मनःपर्या
यज्ञानपर्यायास्तस्य मनोमात्रविषयत्वात् , तेभ्योऽवधिज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, मनःपयायज्ञानापेक्षयाऽवधिज्ञानस्य द्रव्य४ा पर्यायतोऽनन्तगुणविषयत्वात् , तेभ्यः श्रुतज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, ततस्तस्य रूप्यरूपिद्रव्यविषयत्वेनानन्तगुणविषय| त्वात् , ततोऽप्याभिनिबोधिकज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, ततस्तस्याभिलाप्यानभिलाप्यद्रव्यादिविषयत्वेनानन्तगुणविषय
CROSECXCCC05
5॥३६॥
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त्वात् , ततः केवलज्ञानपर्याया अनन्तगुणाः, सर्वद्रव्यपर्यायविषयत्वात्तस्येति । एवमज्ञानसूत्रेऽप्यल्पबहुत्वकारणं सूत्रानु
सारेणोहनीयं, मिश्रसूत्रे तु स्तोका मनःपर्यायज्ञानपर्यवाः, इहोपपत्तिः प्राग्वत् , तेभ्यो विभङ्गज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, द मनःपर्यायज्ञानापेक्षया विभङ्गस्य बहुतमविषयत्वात् , तथाहि-विभङ्गज्ञानमूद्धांध उपरिमौवेयकादारभ्य सप्तमपृथिव्यन्ते ।
क्षेत्रे तिर्यक् चासङ्ख्यातद्वीपसमुद्ररूपे क्षेत्रे यानि रूपिद्रव्याणि तानि कानिचिजानाति कांश्चित्तत्पर्यायांश्च, तानि च मन:या पर्यायज्ञानविषयापेक्षयाऽनन्तगुणानीति, तेभ्योऽवधिज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, अवधेः सकलरूपिद्रव्यप्रतिद्रव्यासङ्ख्यात| पर्यायविषयत्वेन विभङ्गापेक्षया अनन्तगुणविषयत्वात् , तेभ्योऽपि श्रुताज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, श्रुताज्ञानस्य श्रुतज्ञानवदोघादेशेन समस्तमू मूर्तद्रव्यसर्वपर्यायविषयत्वेनावधिज्ञानापेक्षयाऽनन्तगुणविषयत्वात् , तेभ्यः श्रुतज्ञानपर्यवा विशेपाधिकाः, केषाश्चित् श्रुताज्ञानाविषयीकृतपर्यायाणां विषयीकरणाद्, यतो ज्ञानत्वेन स्पष्टावभासं तत् , तेभ्योऽपि मत्य-| ज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, यतः श्रुतज्ञानमभिलाप्यवस्तुविषयमेव, मत्यज्ञानं तु तदनन्तगुणानभिलाप्यवस्तुविषयमपीति, ततोऽपि मतिज्ञानपर्यवा विशेषाधिकाः, केषाञ्चिदपि मत्यज्ञानाविषयीकृतभावानां विषयीकरणात् , तद्धि मत्यज्ञानापेक्षया
स्फुटतरमिति, ततोऽपि केवलज्ञानपर्यवा अनन्तगुणाः, सर्वाद्धाभाविनां समस्तद्रव्यपर्यायाणामनन्यसाधारणावभासनालादिति ॥ अष्टमशते द्वितीयः॥८-२॥
अनन्तरमाभिनिबोधिकादिकं ज्ञानं पर्यवतःप्ररूपितं, तेन च वृक्षादयोऽर्था ज्ञायन्तेऽतस्तृतीयोद्देशके वृक्षविशेषानाहकइविहा णं भंते ! रुक्खा पन्नत्ता, गोयमा ! तिविहा रुक्खा पण्णत्ता, तंजहा-संखेजजीविया असंखे
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व्याख्या
जजीविया अणंतजीविया । से किं तं संखेजजीविया ?, संखे. अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-ताले तमाले ८ शतके प्रज्ञप्तिः |तकलि तेतलि जहा पन्नवणाए जाव नालिएरी, जे यावन्ने तहप्पगारा, सेत्तं संखेजजीविया । से कितं असं. उद्देशः अभयदेवी- खेजजीविया ?, असंखेजजीविया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-एगडिया य बहुबीयगा य । से किं तं एगढिया ?, संख्यातयावृत्तिः २ अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-निबंबजंबू० एवं जहा पन्नवणापए जाव फला बहुबीयमा, सेत्तं बहुबी
जीविताद्या यगा, सेत्तं असंखेजजीविया । से किं तं अणंतजीविया ?, अणंतजीविया अणेगविहा पण्णत्ता,
वृक्षाः ॥३६॥
सू३२४ तंजहा-आलुए मूलए सिंगबेरे, एवं जहा सत्तमसए जाव सीउण्हे सिउंढी मुसुंढी, जे यावन्ने त०, सेत्तं । अणंतजीविया ॥ (सूत्रं ३२४)॥
__ 'कई'त्यादि, 'संखेजजीविय'त्ति सङ्ख्याता जीवा येषु सन्ति ते सङ्ख्यातजीविकाः, एवमन्यदपि पदद्वयं, 'जहा पन्नदवणाए'त्ति यथा प्रज्ञापनायां तथाऽत्रेदं सूत्रमध्येयं, तत्र चैवमेतत्-'ताले तमाले तक्कलि तेतलि साले य सालकल्लाणे ।
सरले जायइ केयइ कंदलि तह चम्मरुक्खे य ॥१॥ भुयरुक्खे हिंगुरुक्खे लवंगरुक्खे य होइ बोद्धवे । पूयफली खजूरी 8| बोद्धबा नालिएरी य ॥२॥" 'जे यावन्ने तहप्पगारे'ति ये चाप्यन्ये तथाप्रकारा वृक्षविशेषास्ते सङ्ख्यातजीविका इति | प्रक्रमः । 'एगडिया यत्ति एकमस्थिक-फलमध्ये बीज येषां ते एकास्थिकाः'बहबीयगा यत्ति बहूनि बीजानि फलमध्ये
॥३६४॥ येषां ते बहुबीजका:-अनेकास्थिकाः 'जहा पन्नवणापए'त्ति यथा प्रज्ञापनाख्ये प्रज्ञापनाप्रथमपदे तथाऽत्रेदं सूत्रमध्येयं, ७ तच्चैवं-"निबंबजंबुकोसंबसालअंकोल्लपीलुसल्लूया । सल्लइमोयइमालुय बउलपलासे करंजे य ॥१॥” इत्यादि । तथा “से
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Hornnessons
किं तं बहुबीयगा?, बहुबीयगा अणेगविहा पण्णत्ता, तंजहा-अत्थियतेंदुकविढे अंबाडगमाउलुंगबिल्ले य । आमलगफण-| सदाडिम आसोडे उंबरवडे य॥१॥” इत्यादि । अन्तिमं पुनरिदं सूत्रमत्र-“एएसिं मूलावि असंखेजजीविया कंदावि खंधावि तयावि सालावि पवालावि, पत्ता पत्तेयजीविया पुप्फा अणेगजीविया फला बहुबीयग"त्ति, एतदन्तं चेदं वाच्यमिति दर्शयन्नाह-'जावेत्यादि । अथ जीवाधिकारादिदमाह___ अह भंते ! कुम्मे कुम्मावलिया गोहे गोहावलिया गोणे गोणावलिया मणुस्से मणुस्सावलिया महिसे महिसावलिया एएसिणं दुहा वा तिहा वा संखेजहावि छिन्नाणं जे अंतरा तेवि णं तेहिं जीवपएसेहिं फुडा?, हंता फुडा । पुरिसे णं भंते ! (जं अंतरं) ते अंतरे हत्थेण वा पादेण वा अंगुलियाए वा सलागाए वा कट्टेण वा कलिंचेण वा आमुसमाणे वा संमुसमाणे वा आलिहमाणे वा विलिहमाणे वा अन्नयरेण वा तिक्खेणं सत्थजाएणं आच्छिमाणे वा विच्छिमाणे वा अगणिकाएणं वा समोडहमाणे तेसिं जीवपएसाणं किंचि आवाहं वा विवाहं वा उप्पायइ छविच्छेदं वा करेइ ?, णो तिणढे समहे, नो खलु तत्थ सत्थं संकमइ ॥ (सूत्रे ३२५)॥
'अहे'त्यादि, 'कुम्मे त्ति 'कूर्मः' कच्छपः 'कुम्मावलिय'त्ति 'कूर्मावलिका' कच्छपपङ्गिः 'गोहे'त्ति गोधा सरीसृपविशेषः 'जं अंतर'न्ति यान्यन्तरालानि 'ते अंतरे'त्ति तान्यन्तराणि 'कलिंचेण वत्ति क्षुद्रकाष्ठ रूपेण 'आमुसमाणे
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
८ शतके उद्देशः ३ प्रदेशानाम न्तरावेदनाया अभावः ३२५ चरमादिः सू ३२६
॥३६५॥
वत्ति आमृशन् ईषत् स्पृशन्नित्यर्थः 'संमुसमाणे य'त्ति संमृशन् सामस्त्येन स्पृशन्नित्यर्थः 'आलिहमाणे वत्ति आलिखन् ईषत् सकृद्वाऽऽकर्षन् 'विलिहमाणे वत्ति विलिखन् नितरामनेकशो वा कर्षन् 'आच्छिदमाणे वत्ति ईषत् सकृद्वा छिन्दन् 'विच्छिदमाणे वत्ति नितरामसकृद्वा छिन्दन् 'समोडहमाणे'त्ति समुपदहन् 'आवाहं वत्ति ईषद्बाधां 'वाबाहं वत्ति व्याबाधां-प्रकृष्टपीडाम् ॥ कूर्मादिजीवाधिकारात्तदुत्पत्तिक्षेत्रस्य रत्नप्रभादेश्चरमाचरमविभागदर्शनायाह__ कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! अट्ठ पुढवीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहे सत्तमा पुढवि ईसिपन्भारा । इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा अचरिमा १, चरिमपदं निरवसेसं भाणियत्वं जाव वेमाणियाणं भंते ! फासचरिमेणं किं चरिमा अचरिमा?, गोयमा ! चरिमावि अचरिमावि । सेवं भंते !२ भग० गो ॥ (सूत्रं ३२६)॥८-३ ॥ ___ 'कइ ण'मित्यादि, तत्र 'इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी किं चरिमा अचरिमा ?' इति, अथ केयं चरमाचरम-|| |परिभाषा ? इति, अत्रोच्यते, चरमं नाम प्रान्तं पर्यन्तवर्ति, आपेक्षिकं च चरमत्वं, यदुक्तम्-"अन्यद्रव्यापेक्षयेदं चरमं| द्रव्यमिति, यथा पूर्वशरीरापेक्षया चरमं शरीर"मिति, तथा अचरम नाम अप्रान्तं मध्यवर्ति, आपेक्षिकं चाचरमत्वं, यदुक्तम्-"अन्यद्रव्यापेक्षयेदमचरमं द्रव्यं, यथाऽन्त्यशरीरापेक्षया मध्यशरीर"मिति इह स्थाने प्रज्ञापनादशमं पदं वाच्यं, एतदेवाह-'चरिमे'त्यादि, तत्र पदद्वयं दर्शितमेव, शेषं तु दयते-'चरिमाई अचरिमाई चरिमंतपएसा अचरिमंतपएसा!,
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-
॥३६५॥
-4-9
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गोयमा! इमाणं रयणप्पभापुढवी नो चरिमा नो अचरिमा नो चरिमाइं नो अचरिमाई नो चरिमंतपएसा नो अचरि| मंतपएसा नियमा अचरिमं चरमाणि य चरिमंतपएसा य अचरिमंतपएसा य' इत्यादि, तत्र किं चरिमा अचरिमा ?
इत्येकवचनान्तः प्रश्नः 'चरिमाइं अचरिमाई' इति बहुवचनान्तः प्रश्नः, 'चरिमंतपएसा अचरिमंतपएस'त्ति चरिमा| ण्येवान्तवर्तित्वादन्ताश्चरिमान्तास्तेषां प्रदेशा इति समासः, तथाऽचरममेवान्तो-विभागोऽचरमान्तस्तस्य प्रदेशा अचर-M || मान्तप्रदेशाः, 'गोयमा ! नो चरिमा नो अचरिमा' चरमत्वं ह्येतदापेक्षिकम् , अपेक्षणीयस्याभावाच्च कथं चरिमा भवि- | व्यति !, अचरमत्वमप्यपेक्षयैव भवति ततः कथमन्यस्यापेक्षणीयस्याभावेऽचरमत्वं भवति ?, यदि हि रत्नप्रभाया मध्येऽन्यात पृथिवी स्यात्तदा तस्याश्चरमत्वं युज्यते, न चास्ति सा, तस्मान्न चरमासौ, तथा यदि तस्या बाह्यतोऽन्या पृथिवी स्यात्तदा | तस्या अचरमत्वं युज्यते न चास्ति सा तस्मान्नाचरमाऽसाविति, अयं च वाक्यार्थोऽत्र-किमियं रत्नप्रभा पश्चिमा उतर मध्यमा ? इति, तदेतद्वितयमपि यथा न संभवति तथोक्तम् , अथ 'नो चरिमाइं नो अचरिमाईति कथं ?, यदा | तस्याश्चरमव्यपदेशोऽपि नास्ति तदा चरमाणीति कथं भविष्यति ?, एवमचरमाण्यपि, तथा 'नो चरिमंतपएसा नो| अचरिमंतपएस'त्ति, अत्रापि चरमत्वस्याचरमत्वस्य चाभावात्तत्प्रदेशकल्पनाया अप्यभाव एवेत्यत उक्त-नो चरिमान्त
प्रदेशा नोअचरिमान्तप्रदेशा रत्नप्रभा इति, किं तर्हि 'नियमात् नियमेनाचरमं च चरमाणि च, एतदुक्तं भवति-अव&ाश्यंतयेयं केवलभङ्गवाच्या न भवति, अवयवावयविरूपत्वादसङ्ख्येयप्रदेशावगाढत्वाद्यथोक्तनिर्वचनविषयैवेति, तथाहि
एवेत्यत उक्त भवाशाहि-31
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व्याख्यान
प्रज्ञप्तिः
अभयदेवीयावृत्तिः१
NICORRESEARCHECHAK
८ शतके उद्देशः३ चरमादिः सू ३२६ कायिक्या
॥३६६॥
रत्नप्रभा तावदनेन प्रकारेण व्यवस्थितेति विनेयजनानुग्रहाय लिख्यते, स्थापना चेयम्एवमवस्थितायां यानि प्रान्तेषु व्यवस्थितानि तदध्यासितक्षेत्रखण्डानि तानि तथाविधविशिष्टैकपरिणामयुक्तत्वाच्चरमाणि, यत्पुनर्मध्ये महद् रत्नप्रभाक्रान्तं क्षेत्रखण्डं तदपि तथा विधपरिणामयुक्तत्वादचरमं तदुभयसमुदायरूपा चेयमन्यथा तदभावप्रसङ्गात्, प्रदेशपरिकल्पनायां तु चरमान्तप्रदेशाश्चाचरमान्तप्रदेशाश्च, कथं ?, ये बाह्यखण्डप्रदेशास्ते
चरमान्तप्रदेशाः ये च मध्यखण्डप्रदेशास्तेऽचरमान्तप्रदेशा इति, अनेन चैकान्तदुर्णयनिरासप्र|| धानेन निर्वचनसूत्रेणावयवावयविरूपं वस्त्वित्याह, तयोश्च भेदाभेद इति। एवं शर्करादिष्वपि, | अथ कियहरं तद्वाच्यम् ? इत्याह-'जावे'त्यादि, ये वैमानिकभवसम्भवं स्पर्श न लप्स्यन्ते पुनस्तत्रानुत्पादेन मुक्किंगम-| नात्ते वैमानिकाः स्पर्शचरमेण चरमाः, ये तु तं पुनर्लप्स्यन्ते ते त्वचरमा इति ॥ अष्टमशते तृतीयः॥८-३॥
दयः
सू ३२७
A L
अनन्तरोदेशके वैमानिका उक्तास्ते च क्रियावन्त इति चतुर्थोहेशके ता उच्यन्ते. तत्र च 'रायगिह इत्यादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी-कति णं भंते ! किरियाओ पन्नत्ताओ? गोयमा ! पंच किरियाओ पन्नत्ताओ, तंजहा-काइया अहिगरणिया, एवं किरियापदं निरवसेसं भाणियवं जाव मायावत्तियाओ किरियाओं विससाहियाओ, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति भगवं गोयमे०॥ (सूत्रं ३२७)॥८-४॥
॥३६६॥
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एवं किरियापर्य'ति, 'एवम् एतेन क्रमेण क्रियापदं प्रज्ञापनाया द्वाविंशतितमं, तश्चैवं-'काइया अहिगरणिया। || पाओसिया पारियावणिया पाणाइवायकिरिया' इत्यादि, अन्तिमं पुनरिदं सूत्रमत्र 'एयासि णं भंते ! आरंभियाणं परि
ग्गहियाणं अप्पचक्खाणियाणं मायावत्तियाण मिच्छादसणवत्तियाण य कयरेश्हिंतो अप्पा वा बहया वा तुल्ला वा विसेसाहिया वा १. गोयमा ! सबथोवा मिच्छादसणवत्तियाओ किरियाओ' मिथ्यादृशामेव तद्भावात, 'अप्पच्चक्खाण| किरियाओ विसेसाहियाओ' मिथ्यादृशामविरतसम्यग्दृशां च तासां भावात् , 'परिग्गहियाओ विसेसाहियाओ' पर्वोक्तानां* देशविरतानां च तासां भावात, 'आरंभियाओ किरियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोकानां प्रमत्तसंयतानां च तासां भावात, 'मायावत्तियाओ विसेसाहियाओ' पूर्वोक्तानामप्रमत्तसंयतानां च तद्भावादिति, एतदन्तं चेदं वाच्यमिति| दर्शयन्नांह-'जावेत्यादि, इह गाथे-"मिच्छापच्चक्खाणे परिग्गहारंभमायकिरियाओ। कमसो मिच्छा अविरयटेसपमान|प्पमत्ताणं ॥१॥ मिच्छत्तवत्तियाओ मिच्छद्दिट्ठीण चेव तो थोवा । सेसाणं एकेको बहा रासी तओ अडिया " इति ॥ [गतार्थे पूर्वोक्तेन] ॥ अष्टमशते चतुर्थोद्देशकः॥८-४॥
क्रियाधिकारात्पश्चमोद्देशके परिग्रहादिक्रियाविषयं विचारं दर्शयन्नाहरायगिहे जाव एवं वयासी-आजीविया णं भंते ! धेरे भगवंते एवं वयासी-समणोवासगस्स णं भंते? सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केइ भंडे अपहरेजा से णं भंते ! तं भंडं अणुगवेसमाणे किं
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८ शतके
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
CA%7-%A5A5%
उद्देशः५. सामायिक वतो भाण्डादि सू ३२८
॥३६७॥
%
सयं भंडं अणुगवेसह परायगं भंडं अणुगवेसइ ?, गोयमा ! सयं भंडं अणुगवेसति नो परायगं भंडं अणुगवेसेइ, तस्स णं भंते ! तेहिं सीलच्चयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं से भंडे अभंडे भवति', हंता भवति ॥ से केणं खाइ णं अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सयं भंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवेसइ ? गोयमा! तस्स णं एवं भवति-णो मे हिरन्ने नो मे सुवन्ने नो मे कंसे नो मे दूसे नो मे विउलधणकणगरयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्तरयणमादीए संतसारसावदेजे, ममत्तभावे पुण से अपरिणाए भवति, से | तेणटेणं गोयमा ! एवं बुचइ-सयं भंडं अणुगवेसइ नो परायगं भंडं अणुगवसइ ॥ समणोवासगस्स णं भंते! सामाइयकडस्स समणोवस्सए अच्छमाणस्स केति जायं चरेजा से णं भंते ! किं जायं चरइ अजायं चरइ ?, गोयमा ! जायं चरइ नो अजायं चरइ, तस्स णं भंते! तेहिं सीलवयगुणवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं |सा जाया अजाया भवइ १, हंता भवइ, से केणं खाइ णं अटेणं भंते! एवं वुचइ-जायं चरइ नो अजायं चरइ?, गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ-णो मे माता णो मे पिता णो मे भाया णो मे भगिणी णो मे भज्जा णो मे पुत्ता णो मे धूया नो मे सुण्हा, पेजबंधणे पुण से अवोच्छिन्ने भवइ, से तेणठेणं गोयमा ! जाव नो अजायं चरइ ॥ (सूत्रं ३२८)॥
'रायगिहें'इत्यादि, गौतमो भगवन्तमेवमवादीत्-'आजीविका गोशालकशिष्या भदन्त ! 'स्थविरान्'निर्ग्रन्थान् भगवतः ‘एवं' वक्ष्यमाणप्रकारमवादिषुः, यच्च ते तान् प्रत्यवादिषुस्तद्गौतमः स्वयमेव पृच्छन्नाह-समणोवासगस्स
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॥३६७०
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ण' मित्यादि, 'सामाझ्यकडस्स' त्ति कृतसामायिकस्य - प्रतिपन्नाद्यशिक्षाव्रतस्य श्रमणोपाश्रये हि श्रावकः सामायिकं प्रायः | प्रतिपद्यते इत्यत उक्तं श्रमणोपाश्रये आसीनस्येति, 'केइ'त्ति कश्चित्पुरुषः 'भंडं' ति वस्त्रादिकं वस्तु गृहवर्त्ति साधूपाश्रय| वर्त्ति वा 'अवहरेज्ज' चि अपहरेत् 'से' ति स श्रमणोपासकः 'तं भंड'ति तद्-अपहृतं भाण्डम् 'अणुगवे समाणे' त्ति | सामायिकपरिसमाध्यनन्तरं गवेषयन् 'सभंडं'ति स्वकीयं भाण्डं 'परायगं ति परकीयं वा ?, पृच्छतोऽयमभिप्रायः - स्वसम्बन्धित्वात्तत्स्वकीयं सामायिक प्रतिपत्तौ च परिग्रहस्य प्रत्याख्यातत्वादस्वकीयमतः प्रश्नः, अत्रोत्तरं - 'सभंडं' ति स्वभाण्डं, 'तेहिं 'ति तैर्विवक्षितैर्यथाक्षयोपशमं गृहीतैरित्यर्थः, 'सीले' त्यादि, तत्र शीलव्रतानि - अणुव्रतानि गुणा - गुणत्रतानि विर|मणानि - रागादिविरतयः प्रत्याख्यानं - नमस्कारसहितादि पौषधोपवासः - पर्वदिनोपवसनं तत एषां द्वन्द्वोऽतस्तैः, इह च | शीलव्रतादीनां ग्रहणेऽपि सावद्ययोगविरत्या विरमणशब्दोपात्तया प्रयोजनं तस्या एव परिग्रहस्यापरिग्रहतानिमित्तत्वेन भाण्डस्या भाण्डताभवन हेतुत्यादिति 'से भंडे अभंडे भवइ'त्ति 'तत्' अपहृतं भाण्डमभाण्डं भवत्यसंव्यवहार्यत्वात् ॥ 'से केणं'ति अथ केन 'खाइ णं'ति पुनः 'अद्वेणं' ति अर्थेन हेतुना 'एवं भवइत्ति एवंभूतो मनःपरिणामो भवति - 'नो मे हिरन्ने' इत्यादि, हिरण्यादिपरिग्रहस्य द्विविधं त्रिविधेन प्रत्याख्यातत्वात्, उक्तानुक्तार्थानुसङ्ग्रहेणाह - 'नो मे' इत्यादि धनं-गणिमादि गवादि वा कनकं प्रतीतं रत्नानि - कर्केतनादीनि मणयः - चन्द्रकान्तादयः मौक्तिकानि शङ्खाश्च प्रतीताः शिलाप्रवालानि - विद्रुमाणि, अथवा शिला - मुक्ताशिलाद्याः प्रवालानि विद्रुमाणि रक्तरत्नानि - पद्मरागादीनि तत एषां द्वन्द्वस्ततो विपुलानि - धनादीन्यादिर्यस्य स तत्तथा 'संत'त्ति विद्यमानं 'सार'त्ति प्रधानं 'सावज''
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
॥३६८
|त्ति स्वापतेयं द्रव्यम्, एतस्य च पदत्रयस्य कर्मधारयः, अथ यदि तद्भाण्डमभाण्डं भवति तदा कथं स्वकीयं तद्गवेषयति? ८शतके इत्याशङ्याह-'ममत्ते'त्यादि, परिग्रहादिविषये मनोवाक्कायानां करणकारणे तेन प्रत्याख्याते ममत्वभावः पुनः-हिर- ४ उद्देशः५ ण्यादिविषये ममतापरिणामः पुनः 'अपरिज्ञातः' अप्रत्याख्यातो भवति, अनुमतेरप्रत्याख्यातत्वात् , ममत्वभावस्य श्रमणोपाचानुमतिरूपत्वादिति ॥'केइ जायं चरेज'त्ति कश्चिद् उपपतिरित्यर्थः 'जायां' भार्या 'चरेत् सेवेत, 'सुण्ह'त्ति स्नुषा
सकव्रतपुत्रभार्या 'पेजबंधणे'त्ति प्रेमैव-प्रीतिरेव बन्धनं प्रेमबन्धनं तत्पुनः 'से' तस्य श्राद्धस्याव्यवच्छिन्नं भवति, अनुमते
भङ्गाः
सू ३२९ |रप्रत्याख्यातत्वात् प्रेमानुबन्धस्य चानुमतिरूपत्वादिति ॥ | समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव थूलए पाणाइवाए अपच्चक्खाए भवइ से णं भंते! पच्छा पचाइक्खमाणे किं करेति ?, गोयमा ! तीयं पडिक्कमइ पडप्पन्नं संवरेइ अणागयं पच्चक्खाति॥तीयं पडिकममाणे किं तिविहं । तिविहेणं पडिक्कमति १ तिविहं दुविहेणं पडिक्कमति २ तिविहं एगविहेणं पडिक्कमति ३ दुविहं तिविहेणं पडिकमति ४ दुविहं दुविहेणं पडिक्कमति ५ दुविहं एगविहेणं पडिक्कमति ६ एक्कविहं तिविहेणं पडिक्कमति ७ एक्कविहं दुविहेणं पडिक्कमति ८ एक्कविहं एगविहेणं पडिक्कमति ९, गोयमा ! तिविहं तिविहेणं पडिक्कमति |तिविहं दुविहेण वा पडिक्कमति तं चेव जाव एक्कविहं वा एक्कविहेणं पडिक्कमति, तिविहं वातिविहेणं पडिक्कममाणे न करेति न कारवेति करेंतं णाणुजाणइ मणसा वयसा कायसा १, तिविहं दुविहेणं पडिन कामका करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा २, अहवा न करेइ न का० करेंतं नाणुजा० मणसा कायसा ३, अह न
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करेइ ३ वयसा कायसा ४,तिविहं एगविहेणं पडि० न करेति ३ मणसा ५, अहवा न करेइ ३ वयसा ६, अहवा न करेइ३ कायसा ७, दुविहं ति०प०न करेइ न का० मणसा वयसा कायसा ८, अहवा न करेइ करें नाणुजाणइ मण. वय काय०९, अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजा० मणसा वयसा कायसा १०, दु० दु०प० न क० न का० म०व०११, अहवा न क० न का० म० कायसा १२, अहवा न क० न का० वयसा कायसा १३,
अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा वयसा १४, अहवा न करे० करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा १५, | अहवा न करेति करेंतं. नाणुजाणति वयसा कायसा १६, अहवा न कारवेति करेंतं नाणुजाणति मणसा वयसा १७, अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा कायसा १८, अहवा न कारवेति करेंतं नाणुजाणइ | वयसा कायसा १९, दुविहं एक्कविहेणं पडिक्कममाणे न करेति न कारवेति मणसा २०, अहवा न करेति न कारवेति वयसा २१, अहवा न करेति न कारवेति कायसा २२, अहवा न करेति करेंतं नाणुजाणइ मणसा २३, अहवा न करेइ करेतं नाणुजाणइ वयसा २४, अहवा न करेइ करेंतं नाणुजाणइ कायसा २५, अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ मणसा २६, अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ वयसा २७ अहवा न कारवेइ करेंतं नाणुजाणइ कायसा २८, एगविहं तिविहेणं पडि न करेति मणसा वयसा कायसा २९, अहवा न कारवेइ मण० वय कायसा ३०, अहवा करेंतं नाणुजा. मणसा ३३१, एक्कविहं दुविहेणं पडिक्कममाणे न | करेति मणसा वयसा ३२, अहवा न करेति मणसा कायसा ३३, अहवा न करेइ वयसा कायसा ३४, अहवान
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी
या वृत्तिः १
॥३६९ ॥
| कारवेति मणसा वयसा ३५, अहवा न कारवेति मणसा कायसा ३६, अहवा न कारवेह वयसा कायसा ३७, अहवा करेंतं नाणुजा० मणसा वयसा ३८, अहवा करेंतं नाणुजा० मणसा कायसा ३९, अहवा करेंतं नाणु| जाणइ वयसा कायसा ४०, एक्कविहं एगविहेणं पडिक्कममाणें न करेति मणसा ४१, अहवा न करेति वयसा | ४२, अहवा न करेति कायसा ४३, अहवा न कारवेति मणसा ४४, अहवा न कारवेति वयसा ४५, अहवा न कारवेइ कायसा ४६, अहवा करेंतं नाणुजाणइ मणसा ४७ अहवा करेंतं नाणुजा० वयसा ४८ अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा ४९ । पप्पन्नं संवरेमाणे किं तिविहं तिविहेणं संवरेइ ?, एवं जहा पडिक्कममाणेणं एगूणपनं भंगा भणिया एवं संवरमाणेणवि एगूणपन्नं भंगा भाणियवा । अणागयं पञ्चक्खमाणे किं तिविहं तिविहेणं | पच्चक्खाइ ? एवं ते चैव भंगा एगूणपन्ना भाणियबा जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा ॥ समणोवासगस्स णं भंते ! पुवामेव थूलमुसावाए अपञ्चक्खाए भवइ से णं भंते! पच्छा पञ्चाइक्खमाणे एवं जहा पाणाइवायस्स | सीपालं भंगसयं भणियं तहा मुसावायस्सवि भाणियवं । एवं अदिन्नादाणस्सवि, एवं थूलगस्स मेहुणस्सवि थूलग|स्स परिग्गहस्सवि जाव अहवा करेंतं नाणुजाणइ कायसा ॥ एए खलु एरिसगा समणोवासगा भवति, नो खलु एरिसगा आजीवियोवासगा भवंति (सूत्रं ३२९) ॥ आजीवियसमयस्स णं अयमट्ठे पण्णत्ते अक्खीणपडि| भोइणो सबै सत्ता से हंता छेत्ता भेत्ता लुंपित्ता विलुंपित्ता उद्दवइत्ता आहारमाहारेंति, तत्थ खलु इमे दुवालस आजीवियोवासगा भवति, तंजहा-ताले १ तालपलंबे २ उधि ३ संविहे ४ अवविहे ५ उदए ६ नामुदए ७
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८ शतके उद्देशः ५ श्रमणोपा
सकव्रत
भङ्गाः
सू ३२९
॥३६९ ॥
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णमुदए ८ अणुवालए ९ संखवालए १० अयंबुले ११ कायरए १२, इच्चेते दुवालसमाजीवियोवासगा अरिहंतदेवतागा अम्मापिउसुस्सूसगा पंचफलपडिकंता, तंजहा-उंबरेहिं वडेहिं बोरोहिं सतरेहिं पिलंखूहिं, पलंडुल्ह| सणकंदमूलविवजगा अणिलंछिएहिं अणक्कभिन्नेहिं गोणेहिं तसपाणविवजिएहिं चित्तेहिं वित्तिं कप्पेमाणे विहरंति, एएवि ताव एवं इच्छंति, किमंग पुण जे इमे समणोवासगा भवंति जेसिं नो कप्पंति इमाइं पन्नरस | कम्मादाणाई सयं करेत्तए वा कारवेत्तए वा करेंतं वा अन्नं न समणुजाणेत्तए, तंजहा-इंगालकम्मे वणकम्मे साडीकम्मे भाडीकम्मे फोडीकम्मे दंतवाणिज्जे लक्खवाणिज्जे केसवाणिज्जे रसवाणिजे विसवाणिज्जे जंतपीलणकम्मे निल्लंछणकम्मे दवग्गिदावणया सरदहतलायपरिसोसणया असतीपोसणया, इच्चेते समणोवासगा | सुक्का सुक्काभिजातीया भविया भवित्ता कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएसु देवत्ताए उववत्तारो भवंति ॥ (सूत्रं३३०) कतिविहा णं भंते ! [देवा] देवलोगा पण्णता ?, गोयमा ! चउबिहा देवलोगा पण्णत्ता तंजहा-भवणवासिवाणमंतरजोइसवेमाणिया, सेवं भंते २॥ (सूत्रं ३३१)॥ अट्ठमसयरस पंचमो ॥८-५॥ | 'समणोवासयस 'ति तृतीयार्थत्वात् षष्ट्याः श्रमणोपासकेनेत्यर्थः सम्बन्धमात्रविवक्षया वा षष्ठीयं, 'पुवामेव'त्ति | प्राक्कालमेव सम्यक्त्वप्रतिपत्तिसमनन्तरमेवेत्यर्थः 'अपचक्खाए'त्ति न प्रत्याख्यातो भवति, तदा देशविरतिपरिणामस्याजा
तत्वात् , ततश्च ‘से 'ति श्रमणोपासकः 'पश्चात्' प्राणातिपातविरतिकाले 'पञ्चाइक्खमाणे'त्ति प्रत्याचक्षाणः प्राणा| तिपातमिति गम्यते किं करोति ? इति प्रश्ना, वाचनान्तरे तु 'अपच्चक्खाए' इत्यस्य स्थाने 'पञ्चक्खाए'त्ति दृश्यते 'पञ्चा
HARASHQARISICA!
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दा व्याख्या-12 इक्खमाणे इत्यस्य च स्थाने 'पच्चक्खावेमाणे'त्ति दृश्यते, तत्र च प्रत्याख्याता स्वयमेव प्रत्याख्यापर्यश्च गुरुणा हेतुकोंIDIशतके
प्रज्ञप्तिः | प्राणातिपातप्रत्याख्यानं गुरुणाऽऽत्मानं ग्राहयन्नित्यर्थ इति, 'तीत'मित्यादि, 'तीतम्' अतीतकालकृतं प्राणातिपातं उद्देशः ५ अभयदेवी- 'प्रतिक्रामति'ततो निन्दाद्वारेण निवर्तत इत्यर्थः 'पडप्पन्नं'ति प्रत्युत्पन्नं-वर्तमानकालीनं प्राणातिपातं 'संवृणोति न आजीविया वृत्तिः१॥ करोतीत्यर्थः 'अनागतं' भविष्यकालविषयं प्रत्याख्याति'न करिष्यामीत्यादि प्रतिजानीते॥'तिविहं तिविहेण मित्यादि, कोपासकाः इह च नव विकल्पास्तत्र गाथा-"तिन्नि तिया तिन्नि दुया तिन्नि य एक्का हवंति जोगेसु । तिदुएकं तिदुएक्कं तिदुएक्कं चेव ||
| देवेलोकाः ॥३७॥
का सू३३०करणाई ॥१॥" [त्रयस्त्रिकास्त्रयो द्विकास्त्रयश्चैकका भवन्ति योगेषु । त्रयो द्वावेकं त्रयो द्वावेक त्रयो द्वावेकं चैव कर
णानि ॥१॥ एतेषु च विकल्पेष्येकादयो विकल्पा लभ्यन्ते, आह च-"एगो तिन्नि य तियगा दो नवगा तह य तिन्नि ||श्रमणोपा8 नव नव य । भंगनवगस्स एवं भंगा एगूणपन्नासं ॥१॥ [एकश्च त्रयस्त्रिका द्वौ नवको तथा च त्रयो नव नव च । भङ्ग-18 सकव्रत
नवकस्यैवं भङ्गा एकोनपञ्चाशत्॥१॥] व्रतेषु ७३५ स्थापना चेयम्-३३३२२२/१११ योगाः तत्र 'तिविहं तिविहेणं'ति भङ्गाः 'त्रिविध त्रिप्रकारं करणकारणानुमतिभेदात् प्राणातिपातयोगमिति ३२१३२१३२१ कर० गम्यते, 'त्रिविधेन' मनोवचनकायलक्षणेन करणेन प्रतिक्रामति,ततो निन्दनेन विरमति, तिविहं दुवि. १२२,३९९३९१ ७० हेणं ति त्रिविधं वधकरणादिभेदात 'द्विविधेन' करणेन मनःप्रभृतीनामेकतरवर्जिततद्येन, तिविहं एगविहेणं ति त्रिविधं तथैव 'एकविधेन' मनःप्र
॥३७०॥ | भृतीनामेकतमेन करणेनेति 'दुविहं तिविहेणं"द्विविधं कृतादीनामन्यतमद्वयरूपं योगं 'त्रिविधेन' मनःप्रभृतिकरणेन, एवमन्येऽपि, तिविहं तिविहेणं पडिक्कममाणे इत्यादि, न करोति' न स्वयं विदधाति अतीतकाले प्राणातिपातं, मनसा
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है. हा हतोऽहं येन मया तदाऽसौ न हत इत्येवमनुध्यानात् , तथा'न' नैव कारयति मनसैव यथाहा न युक्तं कृतं यदसौ परेण
न घातित इति चिन्तनात् , तथा 'कुर्वन्तं विदधानमुपलक्षणत्वात् कारयन्तं वा समनुजानन्तं वा परमात्मानं प्राणाति| पातं 'नानुजानाति'नानुमोदयति, मनसैव वधानुस्मरणेन तदनुमोदनात् , एवं न करोति न कारयति कुर्वन्तं नानुजा* नाति वचसा, तथाविधवचनप्रवर्त्तनात् , एवं न करोति न कारयति कुर्वन्तं नानुजानाति कायेन तथाविधाङ्गविकारक
रणादिति, न चेह यथासङ्ख्यन्यायो न करोति मनसा न कारयति वचसा नानुजानाति कायेनेत्येवलक्षणोऽनुसरणीयो, वक्तृविवक्षाधीनत्वात् सर्वन्यायानां वक्ष्यमाणविकल्पायोगाच्चेति, एवं त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्र विकल्पे एक एव विकल्पः तदन्येषु पुनर्द्वितीयतृतीयचतुर्थेषु त्रयः २ पञ्चमषष्ठयोर्नव नव सप्तमे त्रयः अष्टमनवमयोर्नव नवेति, एवं सर्वेऽप्येकोनपञ्चाशत्, एवमियमतीतकालमाश्रित्य कृता करणकारणादियोजना, अथवैवमेषाऽतीतकाले मनःप्रभृतीनां कृतं कारित-5 | मनुज्ञातं वा वधं क्रमेण न करोति न कारयति न चानुजानाति तन्निन्दनेन तदनुमोदननिषेधतस्ततो निवर्तत इत्यर्थः, तन्निन्दनस्याभावे हि तदनुमोदनानिवृत्तेः कृतादिरसौ क्रियमाणादिरिव स्यादिति, वर्तमानकालं त्वाश्रित्य सुगमैव, भविष्यत्कालापेक्षया त्वेवमसौ-न करोति मनसा तं हनिष्यामीत्यस्य चिन्तनात् , न कारयति मनसैव तमहं घातयिष्या|मीत्यस्य चिन्तनात्, नानुजानाति मनसा भाविनं वधमनुश्रुत्य हर्षकरणात् , एवं वाचा कायेन च तयोस्तथाविधयोः करणादिति, अथचैवमेव भविष्यत्काले मनःप्रभृतिना करिष्यमाणं कारयिष्यमाणमनुमंस्यमानं वा वधं क्रमेण न करोति न कारयति न चानुजानाति ततो निवृत्तिमभ्युपगच्छतीत्यर्थः, सर्वेषां चैषां मीलने सप्तचत्वारिंशदधिकं भङ्गकशतं भवति, इह
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
८ शतके उद्देशः ५ श्रमणोपासकव्रतभङ्गाः ३३१
॥३७॥
SHRSHABAR
|च त्रिविधं त्रिविधेनेति विकल्पमाश्रित्याक्षेपपरिहारौ वृद्धोकावेवम्-"न करेइच्चाइतियं गिहिणो कह होइ देसविरयस्स। भन्नइ विसयस्स बहिं पडिसेहो अणुमईएवि ॥१॥ केई भणंति गिहिणो तिविहं तिविहेण नत्थि संवरणं । तं न जओ निदि इहेव सुत्ते विसेसेउं ॥२॥ तो कह निजुत्तीए ऽणुमइनिसेहोत्ति ? सो सविसयंमि । सामन्ने वऽन्नत्य उ तिविहं |तिविहेण को दोसो ॥३॥" [न करोतीत्यादि त्रिकं गृहिणो देशविरतस्य कथं भवति ?। भण्यते विषयावहिरनुमत्या अपि
प्रतिषेधः॥१॥ केचिद्भणन्ति गृहिणस्त्रिविधं त्रिविधेन नास्ति संवरणं । तन्न यत इहैव सूत्रे विशिष्य निर्दिष्टम् ॥२॥ | तदा कथं निर्युक्तावनुमतिनिषेध ? इति, स स्वविषये । सामान्ये वा, तथा चान्यत्र विशेषे वा त्रिविधं त्रिविधेन स्यात् को दोषः ॥३॥] इह च 'सविसयंमिति स्वविषये यथानुमतिरस्ति 'सामन्ने व' ति सामान्ये वाऽविशेषे प्रत्याख्याने सति 'अण्णत्थ उत्ति विशेषे स्वयंभूरमणजलधिमत्स्यादौ “पुत्ताइसंतइनिमित्तमेत्तमेगारसिं पवण्णस्स । जंपति केइ गिहिणो दिक्खाभिमुहस्स तिविहंपि ॥१॥"[पुत्रादिसन्ततिनिमित्तमात्रमेकादशी प्रतिमा प्रपन्नस्य गृहिणस्त्रिविध त्रिविधेन केचित् जल्पन्ति दीक्षाभिमुखस्य ॥१॥ यथा च त्रिविधं त्रिविधेनेत्यत्राक्षेपपरिहारौ कृतौ तथाऽन्यत्रापि कार्यों यत्रानुमतेरनुप्रवेशोऽस्तीति । अथ कथं मनसा करणादि !, उच्यते, यथा वाकाययोरिति, आह च-"आह कहं पुण मणसा करणं कारावणं अणुमई य?। जह वइतणुजोगेहिं करणाई तह भवे मणसा ॥१॥ तयहीणत्ता वइतणुकरणाईणं च अहव मणकरणं । सावजजोगमणणं पन्नत्तं वीयरागेहिं ॥२॥ कारावण पुण मणसा चिंतेइ करेउ एस सावज । चिंतेई य कए उण सुट्ट कयं अणुमई होइ ॥ ३॥" इति [आह कथं पुनर्मनसा करणं कारापणमनुमतिश्च । यथा वाक्तनुयोगाभ्यां
॥३७॥
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४ करणादि तथा मनसा भवेत् ॥१॥ तदधीनत्वाद्वाक्तनुकरणादीनां अथवा मनःकरणं सावद्ययोगमननं प्रज्ञप्तं वीतरागैः|४|| |॥२॥ मनसा पुनः काराणं एष सावधं करोत्विति चिन्तयति कृते पुनः सुष्टु कृतमित्यनुमतिर्भवति चिन्तयति ॥३॥] इह है
च पञ्चस्वणुव्रतेषु प्रत्येक सप्तचत्वारिंशदधिकस्य भङ्गशतस्य भावाद् भङ्गकानां सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्तीति ॥ ४ यत् स्थविरा आजीविकैः श्रमणोपासकगतं वस्तु पृष्टाः गौतमेन च भगवांस्तत्तावदुक्तम् , अथानन्तरोक्तशीलाः श्रमणो
पासका एव भवन्ति न पुनराजीविकोपासकाः आजीविकानां गुणित्वेनाभिमता अपीति दर्शयन्नाह-एए खलु। | इत्यादि, 'एते खलु' एत एव परिदृश्यमाना निर्ग्रन्थसत्का इत्यर्थः 'एरिसग'त्ति ईदृशकाः प्राणातिपातादिष्वतीतप्रतिक्रमणादिमन्तः, 'नो खलु'त्ति नैव 'एरिसग'त्ति उक्तरूपा उक्तार्थानामपरिज्ञानात् 'आजीविओवासय'त्ति गोशालक-||81 शिष्यश्रावकाः ॥ अथैतस्यैवार्थस्य विशेषतः समर्थनार्थमाजीविकसमयार्थस्य तदुपासकविशेषस्वरूपस्य चाभिधानपूर्वकमाजीविकोपासकापेक्षया श्रमणोपासकानुत्कर्षयितुमाह-आजीविए'त्यादि, आजीविकसमयः-गोशालकसिद्धान्तः तस्य | 'अयमट्टे'त्ति इदमभिधेयम्-'अक्खीणपरिभोइणो सवे सत्त'त्ति अक्षीणं-अक्षीणायुष्कमप्रासुकं परिभुञ्जत इत्येवंशीला | अक्षीणपरिभोगिनः, अथवा इन्प्रत्ययस्य स्वार्थिकत्वादक्षीणपरिभोगा-अनपगताहारभोगासक्तय इत्यर्थः 'सर्वे सत्त्वाः असंयताः सर्वे प्राणिनः, यद्येवं ततः किम् ? इत्याह-से इंते'त्यादि, 'से'त्ति ततः 'हंत'त्ति हत्वा लगुडादिना अभ्य- 2 वहार्य प्राणिजातं 'छित्त्वा'असिपुत्रिकादिना द्विधा कृत्वा भित्त्वा' शूलादिना भिन्नं कृत्वा 'लुप्त्वा' पक्षादिलोपनेन विलुप्य' त्वचो विलोपनेन 'अपद्राव्य विनाश्याहारमाहारयन्ति, 'तत्थ'त्ति 'तत्र' एवं स्थितेऽसंयतसत्त्ववर्गे हननादि
#SHACRORES 45623
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व्याख्यान दोषपरायणे इत्यर्थः आजीविकसमये वाऽधिकरणभूते द्वादशेति विशेषानुष्ठानत्वात् परिगणिता आनन्दादिश्रमणोपासप्रज्ञप्ति
८ शतके कवदन्यथा बहवस्ते, 'ताले'त्ति तालाभिधान एकः, एवं तालप्रलम्बादयोऽपि, अरिहंतदेवयाग'त्ति गोशालकस्य तत्कल्पअभयदेवी
| उद्देशः५ यावृत्तिः१
नयाऽर्हत्त्वात्, 'पंचफलपडिकंत'त्ति फलपश्चकान्निवृत्ताः, उदुम्बरादीनि च पञ्च पदानि पञ्चमीबहुवचनान्तानि प्रतिक्रा- | आजीविन्तशब्दानुस्मरणादिति, 'अनिलंछिएहिंति अवर्द्धितकैः 'अनक्कभिन्नहिति अनस्तितैः । एतेवि ताव एवं इच्छंति'
कोपास० ॥७२॥ एतेऽपि तावद्विशिष्टयोग्यताविकला इत्यर्थः एवमिच्छन्ति-अमुना प्रकारेण वाञ्छन्ति धर्ममिति गम्यम्, 'किमंग पुणे
सू ३३१ | त्यादि, किं पुनर्ये इमे श्रमणोपासका भवन्ति ते नेच्छन्तीति गम्यम् ?, इच्छन्त्येवेति, विशिष्टतरदेवगुरुप्रवचनसमाश्रि|तत्वात्तेषां, 'कम्मादाणाई'ति कर्माणि-ज्ञानावरणादीन्यादीयन्ते यैस्तानि कर्मादानानि, अथवा कर्माणि च तान्यादानानि च-कर्मादानानि कर्महेतव इति विग्रहः, 'इंगाले'त्यादि, अङ्गारविषयं कर्म अङ्गारकर्म-अङ्गाराणां करणविक्रयस्वरूपम्, एवमग्निव्यापाररूपं यदन्यदपीष्टकापाकादिकं कर्म तदङ्गारकर्मोच्यते, अङ्गारशब्दस्य तदन्योपलक्षणत्वात्, 'वणकम्मे त्ति वनविषयं कर्म वनकर्म-वनच्छेदनविक्रयरूपम् , एवं बीजपेषणाद्यपि, 'साडीकम्मे'त्ति शकटानां वाह
नघटनविक्रयादि 'भाडीकम्मे'त्ति भाट्या-भाटकेन कर्म अन्यदीयद्रव्याणां शकटादिभिर्देशान्तरनयनं गोगृहादिसमशार्पणं वा भाटीकर्म 'फोडीकम्मत्ति स्फोटि:-भूमेः स्फोटनं हलकुदालादिभिः सैव कर्म स्फोटीकर्म 'दंतवाणिज्जेत्ति ||
8 ॥३७२॥ दन्तानां-हस्तिविषाणानाम् उपलक्षणत्वादेषां चर्मचामरपूतिकेशादीनां वाणिज्य-क्रयविक्रयो दन्तवाणिज्यं 'लक्खवा|णिज्जति लाक्षाया आकरे ग्रहणतो विक्रयः, एतच्च त्रससंसक्तिनिमित्तस्यान्यस्यापि तिलादेव्यस्य यद्वाणिज्यं तस्योपलक्षणं,
नाटकेन कर्म अन्यदीय
सैव कर्म स्फोटीकमाणिज्यं 'लक्खवा:
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| 'केसवाणिज्जेत्ति केशवज्जीवानां गोमहिषीस्त्रीप्रभृतिकानां विक्रयः'रसवाणिजे'त्ति मद्यादिरसविक्रयः विसवाणिजे. त्ति विषस्योपलक्षणत्वाच्छस्त्रवाणिज्यस्याप्यनेनावरोधः, "जंतपीलणकम्मत्ति यन्त्रेण तिलेश्वादीनां यत्पीडनं तदेव कर्म यन्त्रपीडनकर्म 'निल्लंछणकम्मे'त्ति निर्लाञ्छनमेव-वर्द्धितककरणमेव कर्म निर्लाञ्छनकर्म 'दवग्गिदावणय'त्ति दवाग्ने:दवस्य दापन-दाने प्रयोजकत्वमुपलक्षणत्वादानं च दवाग्निदापनं तदेव प्राकृतत्वाद् 'दवग्गिदावणया' 'सरदहतलायपरिसोसणय'त्ति सरसः-स्वयंसंभूतजलाशयविशेषस्य इदस्य-नद्यादिषु निम्नतरप्रदेशलक्षणस्य तडागस्य-कृत्रिमजलाशयविशेषस्य परिशोषणं यत्तत्तथा, तदेव प्राकृतत्वात् स्वार्थिकताप्रत्यये 'सरदहतलायपरिसोसणया' 'असईपोसणय'त्ति दास्याः पोषणं तद्भाटीग्रहणाय, अनेन च कुर्कुटमार्जारादिक्षुद्रजीवपोषणमप्याक्षिप्तं दृश्यमिति, 'इच्चेते'त्ति 'इति' एवंप्रकाराः 'एते' निर्ग्रन्थसत्काः 'सुक्क'त्ति शुक्ला अभिन्नवृत्ता अमत्सरिणः कृतज्ञाः सदारम्भिणो हितानुबन्धाश्च 'सुक्काभिजाइ यत्ति 'शुक्लाभिजात्या' शुक्लप्रधानाः॥ अनन्तरं देवतयोपपत्तारो भवन्तीत्युक्तमथ देवानेव भेदत आह| 'कतिविहा ण'मित्यादि ॥ अष्टमशते पञ्चमः ॥ ८-५॥
LOCAॐ ॐ
पञ्चमे श्रमणोपासकाधिकार उक्तः, षष्ठेऽप्यसावेवोच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं समणं वा माहणं वा फासुएसणिज्जेणं असणपाणखाइमसाइमेणं पडिलाभेमाणस्स किं कज्जति ?, गोयमा ! एगंतसो निजरा कजइ नत्थि य से पावे कम्मे कजति । समणोवा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥३७३॥
सगस्स णं भंते । तहारूवं समणं वा माहणं वा अफासुएणं अणेसणिज्जेणं असणपाणजावपडिला भेमाणस्स किं कज्जइ ?, गोयमा ! बहुतरिया से निज्जरा कज्जइ अप्पतराए से पावे कम्मे कज्जइ । समणोवासगस्स णं भंते ! तहारूवं अस्संजयअविरयपडिहयपञ्चक्रखायपावकम्मं फासुएण वा अफासुरण वा एसणिज्जेण वा अणेसणिज्जेण वा असणपाण जाव किं कज्जइ ?, गोयमा ! एगंतसो से पावे कम्मे कज्जइ नत्थि से काइ नि जरा कज्जइ ॥ ( सूत्रं ३३२ ) ॥
'सम' त्यादि, 'किं कज्जइति किं फलं भवतीत्यर्थः, 'एगंतसो'त्ति एकान्तेन तस्य श्रमणोपासकस्य, 'नत्थिय से' त्ति नास्ति चैतद् यत् 'से' तस्य पापं कर्म 'क्रियते' भवति अप्रासुकदाने इवेति, 'बहुतरिय'त्ति पापकर्म्मापेक्षया 'अप्पतराए'त्ति अल्पतरं निर्जरापेक्षया, अयमर्थः - गुणवते पात्रायाप्रासुकादिद्रव्यदाने चारित्रकायोपष्टम्भो जीवघातो व्यवहा रतस्तच्चारित्रबाधा च भवति, ततश्च चारित्रकायोपष्टम्भान्निर्जरा जीवघातादेश्व पापं कर्म्म, तत्र च स्वहेतु सामर्थ्यात्पापा|पेक्षया बहुतरा निर्जरा निर्जरापेक्षया चाल्पतरं पापं भवति, इह च विवेचका मन्यन्ते - असंस्तरणादिकारणत एवाप्रासु - कादिदाने बहुतरा निर्जरा भवति नाकारणे, यत उक्तम् — “संधरणंमि असुद्धं दोण्हवि गेण्हंतदिंतयाणऽहियं । आउरदिइंतेणं तं चैव हियं असंथरणे ॥ १ ॥” इति [ निर्वाहेऽशुद्धं गृह्णददतोर्द्वयोरप्यहितं । आतुरदृष्टान्तेन तदेवासंस्तरणे हितं ॥ १ ॥ ] अन्ये त्वाहुः - अकारणेऽपि गुणवत्पात्रायाप्रासुकादिदाने परिणामवशाद्बहुतरा निर्जरा भवत्यल्पतरं च पापं कर्मेति, निर्विशेषणत्वात् सूत्रस्य परिणामस्य च प्रमाणत्वात्, आह च – “परमरहस्समिसीणं समत्तगणिपिडगझरिय
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८ शतके उद्देशः ६ दाने निर्जरादि
सू ३३२
॥ ३७३ ॥
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454555ॐॐॐ
साराणं । परिणामियं पमाणं निच्छयमवलंबमाणाणं ॥१॥"[समस्तगणिपिटकस्मारितसाराणामृषीणां। परमरहस्यं निश्चयमवलम्बयतां पारिणामिकं प्रमाणम् ( विवादास्पदे दाने)॥१॥] यच्चोच्यते 'संथरणमि असुद्ध'मित्यादिनाऽशुद्धं द्वयोरपि दातृगृहीत्रोरहितायेति तद्राहकस्य व्यवहारतः संयमविराधनात् दायकस्य च लुब्धकदृष्टान्तभावितत्वेनाव्युत्पन्नत्वेन वा ददतः शुभाल्पायुष्कतानिमित्तत्वात् , शुभमपि चायुरल्पमहितं विवक्षया, शुभाल्पायुष्कतानिमित्तत्वं चाप्रासुकादिदानस्याल्पायुष्कताफलप्रतिपादकसूत्रे प्राकू चर्चितं, यत्पुनरिह तत्त्वं तत्केवलिगम्यमिति । तृतीयसूत्रे 'अस्संजयअविरये'त्यादिनाऽगुणवान् पात्रविशेष उक्तः, 'फासुएण वा अफासुरण वा'इत्यादिना तु प्रासुकाप्रासुकादेर्दानस्य पापकर्मफलता निर्जराया अभावश्चोक्तः, असंयमोपष्टम्भस्योभयत्रापि तुल्यत्वात्, यश्च प्रासुकादौ जीवघाताभावेन अप्रासुकादौ च जीवघातसद्भावेन विशेषः सोऽत्र न विवक्षितः, पापकर्मणो निर्जराया अभावस्यैव च विवक्षितत्वादिति, सूत्र
येणापि चानेन मोक्षार्थमेव यद्दानं तच्चिन्तितं, यत्पुनरनुकम्पादानमौचित्यदानं वा तन्न चिन्तितं, निर्जरायास्तत्रानपेक्षणीयत्वाद् , अनुकम्पौचित्ययोरेव चापेक्षणीयत्वादिति, उक्तश्च-"मोक्खत्थं जं दाणं तं पइ एसो विही समक्खाओ। अणुकंपादाणं पुण जिणेहिं न कयाइ पडिसिद्धं ॥१॥” इति [मोक्षार्थं यदानं.तत्प्रति विधिरेष भणितः । अनुकम्पादानं पुनने कदाचित्प्रतिषिद्धम् ॥१॥] दानाधिकारादेवेदमाह
निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुप्पविलु केई दोहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजा-एगं आउसो! अप्पणा मुंजाहि एगं थेराणं दलयाहि, से य तं पिण्डं पडिग्गहेजा, थेरा य से अणुगवेसियवा सिया जत्थेव
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व्याख्या
अणुगेवसमाणे धेरे पासिज्जा तत्थेवाणुप्पदायवे सिया नो चेव णं अणुगवेसमाणे थेरे पासिज्जा तं नो अप्पणा प्रज्ञप्तिः भुंजेजा नो अनसिं दावए एगंते अणावाए अचित्ते बहुफासुए थंडिल्ले पडिलेहेत्ता पमजित्ता परिद्वावेयवे सिअभयदेवी- ४ या । निग्गंथं च णं गाहावइकुलं पिंडवायपडियाए अणुष्पविद्धं केति तिहिं पिंडेहिं उवनिमंतेज्जा - एगं आउ या वृत्तिः १ सो ! अप्पणा भुंजाहि दो थेराणं दलयाहि, से य ते पडिग्गहेज्जा, थेरा य से अणुगवेसेवा सेसं तं चेव | जाव परिट्ठावेयवे सिया, एवं जाव दसहिं पिंडेहिं उवनिमंतेजा नवरं एगं आउसो ! अप्पणा भुंजाहि नव ॥ ३७४॥ थेराणं दलयाहि सेसं तं चैव जाव परिद्वावेयवे सिया । निग्गंधं च णं गाहावइ जाव केइ दोहिं पडिग्गहेहिं उवनिमंतेज्जा एवं आउसो ! अप्पणा पडिभुंजाहि एवं थेराणं दलयाहि, से य तं पडिग्गहेज्जा, तहेव जाव तं नो अप्पणा पडिभुंजेजा नो अन्नेसिं दावए सेसं तं चैव जाव परिद्ववेयधे सिया, एवं जाब दसहिं पडिग्गहेहिं, एवं जहा पडिग्गहवत्तवया भणिया एवं गोच्छगरयहरणचोलपट्टगकंबल लट्ठीसंथारगवत्तवया य भाणियधा जाव दसहिं संथारएहिं उवनिमंतेजा जाव परिद्वावेयवे सिया || ( सूत्रं ३३३ ) ॥
'fari 'त्यादि, इह चशब्दः पुनरर्थस्तस्य चैवं घटना - निर्ग्रन्थाय संयतादिविशेषणाय प्रासुकादिदाने गृहपतेरेकान्तेन निर्जरा भवति, निर्ग्रन्थः पुनः 'गृहपतिकुलं' गृहिगृहं 'पिंडवायपडियाए 'त्ति पिण्डस्य पातो - भोजनस्य पात्रे | गृहस्थान्निपतनं तत्र प्रतिज्ञा-ज्ञानं बुद्धिः पिण्डपातप्रतिज्ञा तया, पिण्डस्य पातो मम पात्रे भवत्वितिबुद्धयेत्यर्थः, 'उव| निमंतेज्ज'त्ति भिक्षो ! गृहाणेदं पिण्डद्वयमित्यभिदध्यादित्यर्थः, तत्र च 'एग' मित्यादि, 'से य'ति स पुनर्निर्ग्रन्थः 'तं'ति
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८ शतके उद्देशः ६ पिण्डादिदशकनिमन्त्र
णा सू.३३३
३७४
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स्थविरपिण्ड 'थेरा य से'त्ति स्थविराः पुनः 'तस्य'निर्ग्रन्थस्य 'सिय'त्ति स्युर्भवन्तीत्यर्थः, 'दावए'त्ति दद्यात् दापयेद्वाद अदत्तादानप्रसङ्गात् , गृहपतिना हि पिण्डोऽसौ विवक्षितस्थविरेभ्य एव दत्तो नान्यस्मै इति, 'एगते'त्ति जनालोकवर्जिते 'अणावाए'त्ति जनसंपातवर्जिते 'अचित्तेत्ति अचेतने, नाचेतनमात्रेणैवेत्यत आह-'बहुफासुए'त्ति बहुधा प्रासुकं बहुप्रासुकं तत्र, अनेन चाचिरकालकृते विकृते विस्तीर्णे दूरावगाढे त्रसप्राणबीजरहिते चेति सङ्ग्रहीतं द्रष्टव्यमिति, |'से य ते'त्ति स च निर्ग्रन्थः तौ'स्थविरपिण्डौ पडिग्गाहेजत्ति प्रतिगृह्णीयादिति ॥ निर्ग्रन्थप्रस्तावादिदमाह
निग्गंथेण य गाहावाकुलं पिंडवायपडियाए पविटेणं अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए, तस्स णं एवं भवति-इहेव ताव अहं एयरस ठाणस्स आलोएमि पडिकमामि निंदामि गरिहामि विउद्यामि विसोहेमि अकरणयाए अब्भुट्टेमि अहारिहं पायच्छित्तं तवोकम्म पडिवजामि, तओ पच्छा थेराणं अंतियं आलोएस्सामि जाव तवोकम्म पडिवजिस्सामि, से य संपहिओ असंपत्ते थेरा य पुच्चामेव अमुहा सिया से णं भंते! किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए १। से य संपट्ठिए असंपत्ते अप्पणा य पुत्वामेव अमुहा सिया से णं भंते ! किं आराहए विराहए?, गोयमा !आराहए नो विराहए २, से य संपट्टिए असंपत्ते अप्पणा य पुवामेव थेरा य कालं करेजा से णं भंते ! किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए ३, से य संपढिए असंपत्ते अप्पणा य पुवामेव कालं करेजा से णं भंते ! किं आराहए विराहए ?, गोयमा ! आराहए नो विराहए ४, से य संपट्टिए संपत्ते थेरा य अमुहा सिया से णं भंते ! किं आराहए|
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व्याख्यानाला विराहए ?, गोयमा आराहए नो विराहए, से य संपढिए संपत्ते अप्पणा य, एवं संपत्तेणवि चत्तारि आला- शतके प्रज्ञप्तिः वगा भाणियचा जहेव असंपत्तेणं । निग्गंथेण य बहिया वियारभूमि विहारभूमि वा निक्खंतेणं अन्नयरे
द उद्देशः६ अभयदेवीअकिच्चट्ठाणे पडिसेविए तस्स णं एवं भवति-इहेव ताव अहं एवं एत्थवि एते चेव अट्ठ आलावगा भाणियवा
अकृत्यसेवा या वृत्तिः जाव नो विराहए। निग्गंथेण य गामाणुगामं दूइज्जमाणेणं अन्नयरे अकिञ्चट्ठाणे पडिसेविए तस्स णं एवं
यां तत्रान्य
पासाला तस्स एकत्रचप्रायश्चि ॥३७५॥ भवति इहेव ताव अहं एत्थवि ते चेव अट्ट आलावगा भाणियवा जाव नो विराहए। निग्गंथीए य गाहावइ-दू सू ३३४
कुलं पिंडवायपडियाए अणुपविहाए अन्नयरे अकिच्चट्ठाणे पडिसेविए तीसे णं एवं भवइ इहेव ताव अहं एयस्स ठाणस्स आलोएमि जाव तवोकम्मपडिवजामितओ पच्छा पवत्तिणीए.अंतियं आलोएस्सामि जाब |पडिवजिस्सामि, सा य संपट्ठिया असंपत्ता पवत्तिणी य अमुहा सिया सा णं भंते ! किं आराहिया विराहिया ?, गोयमा ! आराहिया नो विराहिया, सा य संपट्ठिया जहा निग्गंथस्स तिन्निगमा भणिया एवं निग्गथीएवि तिन्नि आलावगा भाणियचा जाव आराहिया नो विराहिया ॥ से केण?णं भंते ! एवं बुचइ-आराहए नो विराहए?, गोयमा ! से जहा नामए-केइ पुरिसे एगं महं उन्नालोमं वागयलोमं वासणलोमं वा कप्पासलोमं वा तणसूयं वा दुहा वा तिहा वा संखेजहा वा छिदित्ता अगणिकायंसि पक्खिवेजा से नूर्ण गोयमा ?
॥३७५॥ ४ छिज्जमाणे छिन्ने पक्खिप्पमाणे पक्खित्ते दज्झमाणे दहृत्ति वत्तवं सिया ?, हंता भगवं छिज्जमाणे छिन्ने जाव & दहृत्ति वत्त सिया, से जहा वा केइ पुरिसे वत्थं अहतं वा धोतं वा तंतुग्गयं वा मंजिहादोणीए पक्खिवेज्जा
SHAॐॐॐॐॐ
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IM|से नूर्ण गोयमा ! उक्खिप्पमाणे उक्वित्ते पक्खिप्पमाणे पक्खिसे रज्जमाणे रत्तेत्ति वत्तत्वं सियाता
भगवं ! उक्खिप्पमाणे उक्खित्ते जाव रत्तेत्ति वत्तवं सिया, से तेण?णं गोयमा ! एवं वुचह-आराहए नो विराहए ॥ (सूत्रं ३३४) ___ 'निग्गंथेण येत्यादि, इह चशब्दः पुनरर्थस्तस्य घटना चैवं-निर्ग्रन्थं कश्चित् पिण्डपातप्रतिज्ञया प्रविष्टं पिण्डादिनोपनिमन्त्रयेत् तेन च निर्ग्रन्थेन पुनः 'अकिच्चट्ठाणे'त्ति कृत्यस्य-करणस्य स्थानं-आश्रयः कृत्यस्थानं तनिषेधः अकृत्यस्थान-मूलगुणादिप्रतिसेवारूपोऽकार्यविशेषः 'तस्स णं'ति तस्य निर्घन्धस्य सञ्जातानुतापस्य एवं भवति' एवंप्रकारं मनो भवति 'एयरस ठाणस्स'त्ति विभक्तिपरिणामाद् 'एतत्स्थानम्' अनन्तरासेवितम् 'आलोचयामि' स्थापनाचार्यनिवे|दनेन 'प्रतिक्रमामि'मिथ्यादुष्कृतदानेन 'निन्दामि' स्वसमक्षं स्वस्याकृत्य स्थानस्य वा कुत्सनेन 'ग' गुरुसमर्थ कुत्सनेन 'विउद्यामित्ति वित्रोटयामि-तदनुबन्ध छिनद्मि 'विशोधयामि' प्रायश्चित्तपत प्रायश्चित्ताभ्युपगमेन 'अकरणतया अकरणेन 'अभ्युत्तिष्ठामि' अभ्युत्थितो भवामीति 'अहारिहं'ति 'यथार्ह' यथोचितम् , एतच्च गीतार्थतायामेव भवति नान्यथा, 'अंतियंति समीपं गत इति शेषः 'धेरा य अमुहा सिय'त्ति स्थविराः पुनः 'अमुखाः निर्वाचः स्युर्वातादिदोषात्, ततश्च तस्यालोचनादिपरिणामे सत्यपि नालोचनादि संपद्यत इत्यतः प्रश्नयति-से 'मित्यादि, 'आराहए' त्ति मोक्षमार्गस्याराधकः शुद्ध इत्यर्थः भावस्य शुद्धत्वात् , संभवति चालोचनापरिणतौ सत्यां कथञ्चित्तदप्राप्तावप्याराधकत्वं, यत उक्तं मरणमाश्रित्य-"आलोयणापरिणओ सम्मं संपडिओ गुरुसगासे । जइ मरइ अंतरे च्चिय तहावि सुद्धोत्ति
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१]
॥३७६॥
भावाओ ॥१॥” इति । [आलोचनापरिणतः सम्यक् संप्रस्थितो गुरुसकाशे । यदि म्रियतेऽन्तरेव तथाऽपि शुद्ध इति
८ शतके भावात् ॥१॥] स्थविरात्मभेदेन चेह द्वे अमुखसूत्रे, द्वे कालगतसूत्रे, इत्येवं चत्वारि असंप्राप्तसूत्राणि ४, संप्राप्तसूत्रा- उद्देशः६ ण्यप्येवं चत्वार्येव ४, एवमेतान्यष्टौ पिण्डपातार्थ गृहपतिकुले प्रविष्टस्य, एवं विचारभूम्यादावष्ट ८, एवं ग्रामगमनेऽष्टौ, प्रदोपादौ एवमेतानि चतुर्विंशतिः सूत्राणि । एवं निर्गन्धिकाया अपि चतुर्विंशतिः सूत्राणीति ॥ अथानालोचित एव कथमारा
ध्मातप्रश्नः धकः ? इत्याशङ्कामुत्तरं चाह-से केणटेण'मित्यादि, 'तणसूयं वत्ति तृणाग्रं वा 'छिज्जमाणे छिन्नेत्ति क्रियाकाल
सू ३३५ | निष्ठाकालयोरभेदेन प्रतिक्षणं कार्यस्य निष्पत्तेः छिद्यमानं छिन्नमित्युच्यते, एवमसावालोचनापरिणतौ सत्यामाराधनाप्रवृत्त आराधक एवेति । 'अयं वत्ति 'अहतं' नवं 'धोयंति प्रक्षालितं 'तंतुग्गयंति तन्त्रोद्गतं तूरिवेमादेरुत्तीर्णमात्र 'मंजिट्ठादोणीए'त्ति मञ्जिष्ठारागभाजने ॥ आराधकश्च दीपवदीप्यत इति दीपस्वरूपं निरूपयन्नाह| पईवस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं पदीवे झियाति लट्ठी झियाइ वत्ती झियाइ तेल्ले झियाइ दीवचंपए झियाइ जोति झियाइ ? गोयमा ! नो पदीवे झियाइ जाव नो पदीवचंपए झियाइ जोइ झियाइ ॥ अगारस्स णं भंते ! झियायमाणस्स किं आगारे झियाइ कुड्डा झियाइ कडणा झि०धारणा झि० बलहरणे झि० वंसा. मल्ला शि० वग्गा झियाइ छित्तरा झियाइ छाणे झियाति जोति झियाति ?, गोयमा,! नो अगारे झियाति नोट कुड्डा झियाति जाव नो छाणे झियाति जोति झियाति ॥ (सूत्रं ३३५) जीवे णं भंते ! ओरालियसरीराओ ॥१७६॥ कति किरिए ?, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए सिय अकिरिए॥ नेरइए णंभंते।
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% A
ओरालियसरीराओ कतिकिरिया (ए)?, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए। असु. रकुमारे णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिए ? एवं चेव, एवं जाव वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे । जीवे णं भंते ! ओरालियसरीरोहिंतो कतिकिरिए ?, गोयमा ! सिय तिकिरिए जाव सिय अकिरिए। नेरइए णं भंते ! ओरालियसरीरोहिंतो कतिकिरिए, एवं एसो जहा पढमो दंडओ तहा इमोवि अपरिसेसो |भाणियो जाव वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे । जीवा णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिया ?, गोयमा ! सिय तिकिरिया जाव सिय अकिरिया, नेरइया णं भंते ! ओरालियसरीराओ कतिकिरिया ?, एवं एसोवि जहा पढमो दंडओ तहा भाणियबो, जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा । जीवा णं भंते ! ओरालियसरीरोहितो कतिकिरिया ?, गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियावि पंचकिरियावि अकिरियावि, नेरइया णं भंते ! ओरालियसरीरोहिंतो कइकिरिया ?, गोयमा!तिकिरियाविचउकिरियावि पंचकिरियावि एवं जाव वेमाणिया, नवरं मणुस्सा जहा जीवा ॥ जीवे णं भंते ! वेउवियसरीराओ कतिकिरिए ?, गोयमा ? सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय अकिरिए, नेरइए णं भंते ! वेउवियसरीराओ कतिकिरिए ?,गोयमा!
सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए एवं जाच वेमाणिए, नवरं मणुस्से जहा जीवे, एवं जहा ओरालियसरी-18 हाराणं चत्तारि दंडका तहा वेउवियसरीरेणवि चत्तारि दंडगा भाणियवा, नवरं पंचमकिरिया न भन्नइ, सेसं
तं चेव, एवं जहा वेउध्वियं तहा आहारगंपि तेयगंपि कम्मगंपि भाणियवं, एकके चत्तारि दंडगा भाणिय
AMGARMA
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व्याख्या-
वा जाव वेमाणिया णं भंते ! कम्मगसरीरोहंतो कइकिरिया ?, गोयमा ! तिकिरियावि चउकिरियावि वा
८शतके प्रज्ञप्तिः सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ ( सूत्रं ३३६ ) ॥ अट्ठमसयस्स छट्ठो उद्देसओ समत्तो॥८-६॥
| उद्देशः ६ अभयदेवी-'पदीवस्से'त्यादि, 'झियायमाणस्स'त्ति ध्मायतो ध्मायमानस्य वा ज्वलत इत्यर्थः 'पदीवेत्ति प्रदीपो दीपयध्यादि
औदारिका या वृत्तिः१ समुदायः 'झियाइ'त्ति ध्मायति ध्मायते वा ज्वलति 'लहित्ति दीपयष्टिः 'वत्ति'त्ति दशा 'दीवचंपए'त्ति दीपस्थगनक
दितःक्रिया 'जोइ'त्ति अग्निः॥ ज्वलनप्रस्तावादिदमाह-'अगारस्सण'मित्यादि, इह चागार-कुटीग्रहं 'कुडु'त्ति भित्तयः 'कडण'त्ति ॥३७७॥
सू ३३६ |ब्रट्टिकाः धारण'त्ति बलहरणाधारभूते स्थूणे 'घल हरणे'त्ति धारणयोरुपरिवर्ति तिर्यगायतकाष्ठं 'मोभ' इति यत्म| सिद्धं "वंस'त्ति वंशाश्छित्त्वराधारभूताः 'मल्ल'त्ति मल्ला:-कुड्यावष्टम्भनस्थाणवः बलहरणा धारणाश्रितानि वा छित्त्वरा|धारभूतानि ऊोयतानि काष्ठानि 'याग'त्ति वल्का-वंशादिबन्धनभूता बटादित्वचः 'छित्तर'त्ति छित्वराणि-वंशादिमयानि छादनाधारभूतानि किलिङ्गानि 'छाणे ति छादनं दर्भादिमयं पटल मिति ॥ इत्थं च तेजसां ज्वलनक्रिया परशरीराश्रयेति परशरीरमौदारिकाद्याश्रित्य जीवस्य नारकादेश्च क्रिया अभिधातुमाह-'जीवे 'मित्यादि, 'ओरालियसरीराओ'त्ति औदारिकशरीरात्-परकीयमौदारिकशरीरमाश्रित्य कतिक्रियो जीवः इति प्रश्नः, उत्तरं तु 'सिय तिकिरिए। |त्ति यदेको जीवोऽन्यपृथिव्यादेः सम्बन्ध्यौदारिकशरीरमाश्रित्य कायं व्यापारयति तदा त्रिक्रियः, कायिक्यधिकरणि-1
॥३७७॥ नकीप्रादेषिकीनां भावात्, एतासां च परस्परेणाविनाभूतत्वात स्यात्त्रिक्रिय इत्युक्तं न पुनः स्यादेकक्रिय: स्यातिक्रिय इति,। Bअविनाभावश्च तासामेवम्-अधिकृतक्रिया ह्यवीतरागस्यैव नेतरस्य, तथाविधकर्मबन्धहेतुत्वात् , अवीतरागकायस्य चाधि-ISil
काः धारणविलनप्रस्तावादिदमा वा ज्वलति लिहितानस वा ज्वलत इत्यर्थः । 'वंस'त्ति वंशालिहरणाधारभूते स्थूणेगारस णमित्यादि, इहवात्तत्ति दशा दीवाना
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| करणत्वेन प्रद्वेषान्वितत्वेन च कायक्रियासद्भावे इतरयोरवश्यंभावः, इतरभावे च कायिकीसद्भावः, उक्तञ्च प्रज्ञापनाया& मिहार्थे-"जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स अहिंगरणिया किरिया नियमा कजइ, जस्स अहिंगरणिया किरिया कजइ तस्सवि काइया किरिया नियमा कजइ” इत्यादि, तथाऽऽद्यक्रियात्रयसद्भावे उत्तरक्रियाद्वयं भजनया
भवति, यदाह-"जस्स णं जीवस्स काइया किरिया कज्जइ तस्स पारियावणिया सिय कजइ सिय नो कजई" इत्यादि, || ततश्च यदा कायव्यापारद्वारेणाद्यक्रियात्रय एवं वर्तते न तु परितापयति न चातिपातयति तदा त्रिक्रिय एवेत्यतोऽपि || | स्यात्त्रिक्रिय इत्युक्तं, यदा तु परितापयति तदा चतुष्क्रियः, आद्यक्रियात्रयस्य तत्रावश्यंभावात्, यदा त्वतिपातयति तदा पञ्चक्रियः, आद्यक्रियाचतुष्कस्य तत्रावश्यंभावात् , उक्तञ्च-"जस्स पारियावणिया किरिया कन्जइ तस्स काइया नियमा कजईत्यादीति, अत एवाह-'सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए'त्ति, तथा 'सिय अकिरिय'त्ति वीतरागावस्थामा-४ श्रित्य, तस्या हि वीतरागत्वादेव न सन्त्यधिकृतक्रिया इति ॥ 'नेरइए ण'मित्यादि, नारको यस्मादौदारिकशरीरवन्तं
पृथिव्यादिकं स्पृशति परितापयति विनाशयति च तस्मादौदारिकात् स्यात्त्रिक्रिय इत्यादि, अक्रियस्त्वयं न भवति, | अवीतरागत्वेन क्रियाणामवश्यंभाक्त्विादिति, 'एवं चेव'त्ति स्यात्त्रिक्रिय इत्यादि सर्वेष्वसुरादिपदेषु वाच्यमित्यर्थः, 'मणुस्से जहा जीवे'त्ति जीवपदे इव मनुष्यपदेऽक्रियत्वमपि वाच्यमित्यर्थः, जीवपदे मनुष्यसिद्धापेक्षयैवाक्रियत्वस्याधी| तत्वादिति, 'ओरालियसरीरोहिंतो'त्ति औदारिकशरीरेभ्य इत्येवं बहुत्वापेक्षोऽयमपरो दण्डका, एवमेतौ जीवस्यैकत्वेन
43235RIAT ***
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व्याख्या द्वौ दण्डको, एवमेव च जीवस्य बहुत्वेनापरौ द्वौ, एवमौदारिकशरीरापेक्षया चत्वारो दण्डका इति ॥ 'जीवे 'मित्यादि, ८ शतके प्रज्ञप्तिः जीवः परकीयं वैक्रियशरीरमाश्रित्य कतिक्रियः ?, उच्यते, स्यात्त्रिक्रिय इत्यादि, पञ्चक्रियश्चेह नोच्यते, प्राणातिपातस्य उद्देशः६ अभयदेवी- वैक्रियशरीरिणः कर्तुमशक्यत्वाद्, अविरतिमात्रस्य चेहाविवक्षितत्वादू , अत एवोक्तं-'पंचमकिरिया न भन्नईत्ति, 'एवं औदारिका यावृत्तिः१ ४ जहा वेउवियं तहा आहारयपि तेयगंपि कम्मगंपि भाणियवंति, अनेनाहारकादिशरीरत्रयमप्याश्रित्य दण्डकचतुष्टयेन |
दितःक्रिया नैरयिकादिजीवानां त्रिक्रियत्वं चतुष्क्रियत्वं चोक्तं, पञ्चक्रियत्वं तु निवारितं, मारयितुमशक्यत्वात्तस्येति, अथ नारक॥३७८॥
सू ३३६ स्याधोलोकवर्तित्वादाहारकशरीरस्य च मनुष्यलोकवर्तित्वेन तक्रियाणामविषयत्वात् कथमाहारकशरीरमाश्रित्य नारकः | स्यास्त्रिक्रियः स्याच्चतुष्क्रिय इति ?, अत्रोच्यते, यावत्पूर्वशरीरमव्युत्सृष्टं जीवनिर्वर्तितपरिणामं न त्यजति तावत्पूर्वभावदप्रज्ञापनानयमतेन निर्वर्तकजीवस्यैवेति व्यपदिश्यते घृतघटन्यायेनेत्यतो नारकपूर्वभवदेहो नारकस्यैव तद्देशेन च मनुष्य
लोकवर्तिनाऽस्थ्यादिरूपेण यदाहारकशरीरं स्पृश्यते परिताप्यते वा तदाहारकदेहान्नारकस्त्रिक्रियश्चतुष्क्रियो वा भवति,
कायिकीभावे इतरयोरवश्यभावात् , पारितापनिकीभावे चाद्यत्रयस्यावश्यंभावादिति । एवमिहान्यदपि वि(तद्विषयमवहै गन्तव्यं, यच्च तैजसकार्मणशरीरापेक्षया जीवानां परितापकत्वं तदौदारिकाद्याश्रितत्वेन तयोरवसेयं, स्वरूपेण तयोः |परितापयितुमशक्यत्वादिति ॥ अष्टमशते षष्ठोद्देशः॥८-६॥
18 ॥३७८॥
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षष्ठोद्देशके क्रियाव्यतिकर उक्त इति क्रियाप्रस्तावात् सप्तमोद्देशके प्रद्वेषक्रियानिमित्त कोऽन्ययूथिकविवादव्यतिकर 8 उच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्| तेणं कालेणं २ रायगिहे नगरे वन्नओ, गुणसिलए चेइए वन्नओ, जाव पुढविसिलावट्टओ, तस्सणं गुणसिलस्स चेयस्स अदरसामंते बहवे अन्न उत्थिया परिवसंति, तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव समोसढे जाव परिसा पडिगया, तेणं कालेणं २ समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जातिसंपन्ना कुलसंपन्ना जहा बितियसए जाव जीवियासामरणभय विप्पमुक्का समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते उहुंजाणू अहोसिरा झाणकोहोवगया संजमेणं तवसा अप्पाणं भावमाणा जाव विहरंति, तएणं ते अन्नउत्थिया जेणेव थेरा भगवंतो तेणेव उवागच्छंति २त्ताते थेरे भगवंते एवं वयासीतुब्भे णं अज्जो ! तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरयअप्पडिहय जहा सत्तमसए बितिए उद्देसए जाव एग|तबाले यावि भवह, तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! अम्हे तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरय जाव एगंतबाला यावि भवामो ?, तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुन्भे णं अज्जो ! अदिन्नं गेण्हह अदिन्नं भुजह अदिन्नं सातिजह, तए णं ते तुन्भे अदिन्नं गेण्हमाणा अदिन्नं भुजमाणा अदिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं अस्संजयअविरय जाव एगंतबाला यावि भवह, तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अजो! अम्हे अदिन्नं गेण्हामो अदिन्नं
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प्रज्ञप्तिः
SILCAS
८ शतके उद्देशः७ दीयमानं दत्तंसू३३७
व्याख्या- भुंजामो अदिन्नं सातिजामो ?, जए णं अम्हे अदिन्नं गेण्हमाणा जाव अदिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिवि
४ हेणं अस्संजय जाव एगंतवाला यावि भवामो, तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुम्हाणं अभयदेवी
अजो! दिजमाणे अदिन्ने पडिग्गहेजमाणे अपडिग्गहिए निस्सरिजमाणे अणिसढे, तुन्भे गं अज्जो! दिजया वृत्तिः१
माणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थणं अंतरा केइ अवहरिजा, गाहावइस्स णं तं भंते ! नो खलु तं तुभं, तए णं || ॥३७९॥ || तुज्झे अदिन्नं गेण्हह जाव अदिन्नं सातिजह, तए णं तुज्झे अदिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतवाला यावि भवह,
तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अन्जो ! अम्हे अदिन्नं गिण्हामो अदिन्नं भुंजामो
अदिन्नं सातिजामो अम्हे णं अज्जो दिन्नं गेण्हामो दिनं भुजामो दिन्नं सातिजामो, तए णं अम्हे दिन्नं गेण्ह४||माणा दिन्नं भुंजमाणा दिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं संजयविरयपडिहय जहा सत्तमसए जाव |एगंतपंडिया यावि भवामो, तए णं ते अन्नउत्थिया ते घेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो! तुम्हे दिन्नं गेण्हह जाव दिन्नं सातिजह, जए णं तुझे दिन्नं गेण्हमाणा जाव एगंतपंडिया यावि भवह ?, तए णं
ते थेरा भंगवंतो ते अन्नउथिए एवं वयासी-अम्हे णं अजोदिज्जमाणे दिन्ने पडिग्गहेजमाणे पडिग्गहिए निसि&ारिजमाणे निसट्टे जेणं अम्हे णं अज्जो! दिज्जमाणं पडिग्गहगं असंपत्तं एत्थ णं अंतरा केइ अवहरेजा अम्हाणं
तं णो खलु तं गाहावइस्स, जए णं अम्हे दिन्नं गेण्हामो दिन्नं भुंजामो दिन्नं सातिजामो तए णं अम्हे दिन्नं गेण्हमाणा जाव दिन्नं सातिजमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तुज्झे णं
॥३७९॥
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अजो। अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतवाला यावि भवह, तए णं ते अन्नथिया तेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो ! अम्हे तिविहं जाव एगंतवाला यावि भवामो, तए गंते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-तुझे णं अज्जो ! अदिन्नं गेण्हह ३, तएणं तुअज्जो तुन्भे अदिन्नंगे जाव
एगंत०, तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-केण कारणेणं अज्जो !अम्हे अदिन्नं गेण्हामो जाव है एगंतवा० १, तए णं ते थेरे भगवंते ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-तुझे णं अजो! दिज्जमाणे अदिन्ने तं चेव |
जाव गाहावइस्स णं णो खलु तं तुझे, तए णं तुझे अदिन्नं गेण्हह, तं चेव जाव एगंतबाला यावि भवह, तएणं ते अन्नउते थेरे भ० एवं व०-तुज्झे णं अजो! तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव एगंतबा.भवह, तए णं ते थेरा भ० ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-केण कारणेणं अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एयंतबाला यावि
भवामो?, तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी-तुज्झे णं अजो!रीयं रीयमाणा पुढविं पेचह ४ अभिहणह वत्तेह लेसेह संघाएह संघट्टेह परितावेह किलामेह उद्दवेह तए णं तुझे पुढविं पेच्चमाणा जाव उव
हवेमाणा तिविहं तिविहेणं असंजयअविरय जाव एगंतवाला यावि भवह, तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अजो!अम्हे रीयं रीयमाणा पुढविं पञ्चेमो अभिहणामोजाव उवद्दवेमो अम्हे णं | अजोरीयं रीयमाणा कार्य वा जोयं वा रियं वा पडुच्च देस देसेणं बयामो पएसं पएसेणं वयामो ते णं | अम्हे देसं देसेणं वयमाणा पएसं पएसेणं वयमाणा नो पुढविं पञ्चेमो अभिहणामो जाव उवद्दवेमो, तए णं
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥ ३८० ॥
अम्हे पुढविं अपेच्चैमाणा अणभिहणेमाणा जाव अगुवदवेमाणा तिविहं तिविहेणं संजय जाव एगंतपंडिया यावि भवामो, तुझे णं अज्जो ! अप्पणा चेव तिविहं तिविहेणं अस्संजय जाव बाला यावि भवह, तए णं ते अन्नउत्थिया थेरे भगवंते एवं वयासी केण कारणेणं अजो ! अम्हे तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवामो १, तए णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी तुज्झे णं अजो ! रीयं रीयमाणा पुढविं पे० जाव उद्दवेह, तए णं तुज्झे पुढविं पेचेमाणा जाव उवद्दवेमाणा तिविहं तिविहेणं जाव एगंतबाला यावि भवह, तए णं ते अन्नउत्थिया ते थेरे भगवंते एवं वयासी- तुज्झे णं अज्जो ! गममाणे अगते वीतिकमिज्रमाणे अवीतिते रायगिहं नगरं संपाविउकामे असंपत्ते, तर णं ते थेरा भगवंतो ते अन्नउत्थिए एवं वयासी-नो खलु अज्जो ! अम्हं गममाणे अगए वीइकमिज्जमाणे अवीतिकंते रायगिहं नगरं जाव असंपत्ते, अम्हा णं अज्जो ! गममाणे गए वीतिकमिज्जमाणे वीतिकंते रायगिहं नगरं संपाविउकामे संपत्ते तुज्झे णं अप्पणा चेव | गममाणे अगए वीतिकमिज्जमांणे अवीतिते रायसिंह नगरं जाव असंपत्ते, तए णं ते थेरा भगवंतो अन्नउत्थिए | एवं परिहन्ति पडिणित्ता गहप्पवायं नाम अज्झयणं पन्नवंइसु ॥ ( सूत्रं ३३७ ) ॥ कइविहे णं भंते! गप्पवाए पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे गइप्पवाए पण्णत्ते, तंजहा-पयोगगती ततगती बंधणछेयणगती उबवाय| गती विहायगती, एत्तो आरम्भपयोग पर्यं निरवसेसं भाणियवं, जाव से त्तं विहायगई। सेवं भंते ! सेवं भंते! ( ति ( सूत्रं ३३८ ) । अट्ठमसयस्स सत्तमो ॥ ८-७ ॥
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८ शतके उद्देशः ७ गतिप्रपातः सू ३३८
॥१८०॥
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तेण'मित्यादि, तत्र 'अन्जो'त्ति हे आUः ! 'तिविहं तिविहेणं'ति त्रिविधं करणादिकं योगमाश्रित्य त्रिविधेन मन:|प्रभृतिकरणेन 'अदिन्नं साइजह'त्ति अदत्तं स्वदध्वे अनुमन्यध्व इत्यर्थः 'दिज्जमाणे अदिन्ने'इत्यादि दीयमानमदत्तं, दीयमानस्य वर्तमानकालत्वाद् दत्तस्य चातीतकालवर्तित्वाद् वर्तमानातीतयोश्चात्यन्तभिन्नत्वाद्दीयमानं दत्तं न भवति दत्तमेव दत्तमिति व्यपदिश्यते, एवं प्रतिगृह्यमाणादावपि, तत्र दीयमानं दायकापेक्षया प्रतिगृह्यमाणं ग्राहकापेक्षया | निसृज्यमानं क्षिप्यमाणं पात्रापेक्षयेति 'अंतरे'त्ति अवसरे, अयमभिप्रायः यदि दीयमानं पात्रेऽपतितं सहत्तं भवति तदा तस्य दत्तस्य सतः पात्रपतनलक्षणं ग्रहणं कृतं भवति, यदा तु तद्दीयमानमदत्तं तदा पात्रपतनलक्षणं ग्रहणमदत्तस्येति प्राप्तमिति, निर्ग्रन्थोत्तरवाक्ये तु 'अम्हे णं अज्जो दिजमाणे दिन्ने' इत्यादि यदुक्तं तत्र क्रियाकालनिष्ठाकाल योरभेदादीयमानत्वादेर्दत्तत्वादि समवसेयमिति । अथ दीयमानमदत्तमित्यादेर्भवन्मतत्वाद् यूयमेवासंयतत्वादिगुणा इत्यावेदनायान्ययूथिकान् प्रति स्थविराः प्राहुः-तुझे णं अजो! अप्पणा चेवे'त्यादि, रीयं रीयमाण'त्ति 'रीतं गमनं 'रीयमाणाः'गच्छन्तो गमनं कुर्वाणा इत्यर्थः 'पुढविं पेचेह' पृथिवीमाक्रामथेत्यर्थः 'अभिहण ह'त्ति पादाभ्यामाभिमुख्येन हथ 'वत्तेह'त्ति पादाभिघातेनैव 'वर्त्तयथ' श्लक्ष्णतां नयथ 'लेसेह'त्ति 'श्लेषयथ' भूम्यां श्लिष्टां कुरुथ 'संघाएहत्ति
'सङ्घातयथ' संहतां कुरुथ 'संघट्टेह'त्ति 'सङ्घयथ' स्पृशथ 'परितावेह'त्ति 'परितापयथ' समन्ताज्जातसन्तापां कुरुथ ४'किलामेह'त्ति कमयथ-मारणान्तिकसमुद्घातं गमयथेत्यर्थः 'उबद्दवेह'त्ति उपद्रवयथ मारयथेत्यर्थः 'कायं वत्ति 'कार्य'
शरीरं प्रतीत्योच्चारादिकायकार्यमित्यर्थः 'जोगं वत्ति 'योग' ग्लानवैयावृत्त्यादिव्यापारं प्रतीत्य 'रियं वा पडुच्च'त्ति
ACAGAR
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥३८१॥
'ऋतं सत्यं प्रतीत्य- अष्कायादिजीवसंरक्षणं संयममाश्नित्येत्यर्थः 'देसं देसेणं वयामो' त्ति प्रभूतायाः पृथिव्या ये विवक्षिता | देशास्तैर्व्रजामो नाविशेषेण, ईर्यासमितिपरायणत्वेन सचेतन देश परिहारतोऽचेतन देशैर्ब्रजाम इत्यर्थः, एवं 'पएसं परसेणं वयामो' इत्यपि नवरं देशो-भूमेर्महत्खण्डं प्रदेशस्तु - लघुतरमिति ॥ अथोक्तगुणयोगेन नास्माकमिवैषां गमनमस्तीत्यभिप्रायतः स्थविराः यूयमेव पृथिव्याक्रमणादितोऽसंयतत्वादिगुणा इति प्रतिपादनायान्ययूथिकान् प्रत्याहु: - 'तुझे णं अज्जो' इत्यादि 'गप्पवायं'ति गतिः प्रोद्यते - प्ररूप्यते यत्र तद्गतिप्रवादं गतेर्वा - प्रवृत्तेः क्रियायाः प्रपातः - प्रपतनस| म्भवः प्रयोगादिष्वर्थेषु वर्त्तनं गतिप्रपातस्तत्प्रतिपादकमध्ययनं गतिप्रपातं तत् प्रज्ञापितवन्तो, गतिविचारप्रस्तावादिति ॥ अथ गतिप्रपातमेव भेदतोऽभिधातुमाह- 'कइविहे ण' भित्यादि, 'पओगगति'ति इह गतिप्रपातभेदप्रक्रमे यङ्गतिभेदभणनं तद्गतिधर्मत्वात् प्रपातस्य गतिभेदभणने गतिप्रपातभेदा एव भणिता भवन्तीति न्यायादवसेयं तत्र प्रयोगस्य | सत्यमनःप्रभृतिकस्य पश्चदशविधस्य गतिः - प्रवृत्तिः प्रयोगगतिः, 'ततगइ 'ति ततस्य - ग्रामनगरादिकं गन्तुं प्रवृत्तत्वेन | तच्चाप्राप्तत्वेन तदन्तरालपथे वर्त्तमानतया प्रसारितक्रमतया च विस्तारं गतस्य गतिस्ततगतिः, ततो वाऽवधिभूतग्रामा| देर्नगरादौ गतिः प्राकृतत्वेन ततगई, अस्मिंश्च स्थाने इतः सूत्रादारभ्य प्रज्ञापनायां षोडशं प्रयोगपदं 'सेत्तं विहायगई ' एतत्सूत्रं यावद्वाच्यमेतदेवाह - 'एन्तो' इत्यादि, तच्चैवं- 'बंधणछेयणगई उववायगई विहायगई' इत्यादि, तत्र बन्धनच्छेदनगतिः - बन्धनस्य कर्मणः सम्बन्धस्य वा छेदने -अभावे गतिर्जीवस्य शरीरात् शरीरस्य वा जीवाद्बन्धनच्छेदन गतिः, उप| पातगतिस्तु त्रिविधा - क्षेत्रभवनो भवभेदात्, तत्र नारकतिर्यगूनर देवसिद्धानां यत् क्षेत्रे उपपाताय - उत्पादाय गमनं सा
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८ शतके उदेशः ८ गतिप्रपातः सू ३३८
॥ ३८१ ॥
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449
| क्षेत्रोपपातगतिः, या च नारकादीनामेव स्वभवे उपपातरूपा गतिः सा भवोपपातगतिः, यच्च सिद्धपुद्गलयोर्गमनमात्रं सा | नोभवोपपातगतिः, विहायोगतिस्तु स्पृशद्गत्यादिकाऽनेकविधेति ॥ अष्टमे शते सप्तमः ॥ ७ ॥
410104
अनन्तरोदेश के स्थविरान् प्रत्यन्ययूथिकाः प्रत्यनीका उक्ताः, अष्टमे तु गुर्वादिप्रत्यनीका उच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम् -
रायगिहे नयरे जाव एवं बयासी-गुरू णं भंते ! पडुच कति पडिणीयां पण्णत्ता १, गोयमा । तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा आयरिधपडिणीए उवज्झायपडिणीए थेरपडिणीए ॥ गई णं भंते ! पडुच्च कति पडिणीया पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा - इह्लोगपडिणीए परलोगपडिणीए दुहओलोगपडिणीए ॥ समूहण्णं भंते ! पडुच कति पडिणीया पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजाकुलपडिणीए गणपडिणीए संघपडिणीए ॥ अणुकंपं पहुच पुच्छा, गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा - तवस्सिपडिणीए गिलाणपडिणीए सेहपडिणीए ॥ सुयण्णं भंते ! पडुच पुच्छा, गोयमा ! तओ पडिणीया पण्णत्ता, तंजहा - सुत्तपडिणीए अत्थपडिणीए तदुभयपडिणीए । भावं णं भंते ! पहुच पुच्छा, गोयमा ! तओ पडिणीया पन्नत्ता, तंजहा - नाणपडिणीए दंसणपडिणीए चरित्तपडिणीए | ( सू ३३९ ) ॥ 'रायगिहे' इत्यादि, तत्र 'गुरूणं' ति 'गुरून्' तत्त्वोपदेशकान् प्रतीत्य-आश्रित्य प्रत्यनीकमिव - प्रतिसैन्यमिव प्रतिकू
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥१८२॥
लतया ये ते प्रत्यनीकाः, तत्राचार्यः - अर्थव्याख्याता उपाध्यायः - सूत्रदाता स्थविरस्तु जातिश्रुतपर्यायैः, तत्र जात्या षष्टि| वर्षजातः श्रुतस्थविरः - समवायधरः पर्यायस्थविरो- विंशतिवर्षपर्यायः, एतत्प्रत्यनीकता चैवम् - " जच्चाईहिँ अवनं भासइ | वट्टइ न यावि उववाए। अहिओ छिद्दप्पेही पगासवाई अणणुलोमो ॥ १ ॥ अहवावि वए एवं उवएस परस्स देति एवं | तु । दसविहवेयावच्चे कायद्य सयं न कुबंति ॥ २ ॥ [ जात्यादिभिरवर्ण भाषते न चाप्युपपाते वर्त्तते । अहितछिद्रंप्रेक्षी | प्रकाशवादी अननुलोमः ॥ १ ॥ अथवापि वदेदेवमुपदेशमेवं परस्य ददति दशविधवैयावृत्यं यत्कर्त्तव्यं स्वयं तु न कुर्वन्ति ॥ २ ॥] ' गहूं ण' मित्यादि, 'गर्ति' मानुष्यत्वादिकां प्रतीत्य तत्रेहलोकस्य - प्रत्यक्षस्य मानुपत्वलक्षणपर्यायस्य प्रत्यनीक इन्द्रियार्थप्रतिकूलकारित्वात् पञ्चाग्नितपस्विवद् इहलोकप्रत्यनीकः, परलोको -जन्मान्तरं तत्प्रत्यनीकः - इन्द्रियार्थतत्परः, द्विधालोकप्रत्यनीकश्च चौर्यादिभिरिन्द्रियार्थसाधनपरः ॥ 'समूहण्णं भंते !' इत्यादि, 'समूहं' साधुसमुदायं प्रतीत्य तत्र कुलं - चान्द्रादिकं तत्समूहो गणः - कोटिकादिस्तत्समूहः सङ्घः, प्रत्यनीकता चैतेषामवर्णवादादिभिरिति कुलादिलक्षणं चेदम् - " एत्थ कुलं विज्ञेयं एगायरियस्स संतई जा उ । तिन्ह कुलाण मिहो पुण सावेकखाणं गणो होइ ॥ १ ॥ सबोवि नाणदंसणचरणगुण विहूसियाण समणाणं । समुदाओ पुण संघो गणसमुदा ओत्तिकाऊणं ॥ २ ॥" [ अत्र फुलं विज्ञेयमेकाचार्यस्य या सन्ततिः । त्रयाणां कुलानामिह सापेक्षाणां पुनर्गणो भवति ॥ १ ॥ सर्वोऽपि ज्ञानदर्शन चरणगुणविभूषितानां श्रमणानां समुदयः पुनः सङ्घो गुणसमुदाय इतिकृत्वा ] ॥ २ ॥ 'अणुकंप'मित्यादि, अनुकम्पा - भक्तपानादिभिरुप|ष्टम्भस्तां प्रतीत्य, तत्र तपस्वी - क्षपकः ग्लानो -रोगादिभिरसमर्थ: शैक्षः - अभिनवप्रव्रजितः, एते ह्यनुकम्पनीया भवन्ति,
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८ शतके उद्देशः ८ गुर्वादिप्रत्य नीकाः
सू ३३९
॥१८२॥
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तदकरणाकारणाभ्यां च प्रत्यनीकतेति ॥ 'सुयण्णमित्यादि, 'श्रुतं'सूत्रादि तत्र सूत्र-व्याख्येयम् अर्थः-तळ्याख्यान | | नियुक्त्यादि तदुभयं-एतद्वितयं, तत्प्रत्यनीकता च-"काया वया य ते च्चिय ते चेवपमाय अप्पमाया य । मोक्खाहिगारियाणं जोइसजोणीहिं किं कजं ॥१॥" [काया व्रतानि च तान्येव त एव प्रमादा अप्रमादाश्च । मोक्षाधिकारिणां | (योनिप्राभृतादि) ज्योतिर्योनिभिः किं कार्यम् ? ॥१॥] इत्यादि दूषणोद्भावनं । 'भाव'मित्यादि, भावः-पर्यायः, स च जीवाजीवगतः, तत्र जीवस्य प्रशस्तोऽप्रशस्तश्च, तत्र प्रशस्त:-क्षायिकादिरप्रशस्तो विवक्षयौदयिका, क्षायिकादिः|| पुनर्जानादिरूपोऽतो भावान ज्ञानादीन् प्रति प्रत्यनीकः तेषां वितथप्ररूपणतो दूषणतो वा, यथा-"पाययसुत्तनिबद्धं को |वा जाणइ पणीय केणेयं । किं वा चरणेणं तु दाणेण विणा उ हवइत्ति ॥१॥" [प्राकृतनिबद्धं सूत्रं को वा जानाति केनेदं प्रणीतं ?, किंवा दानेन विना चरणेनैव भवति ? इति ॥१॥] एते च प्रत्यनीका अपुनःकरणेनाभ्युत्थिताः शुद्धिमर्हन्ति शुद्धिश्च व्यवहारादिति व्यवहारप्ररूपणायाह__कइविहे णं भंते ! ववहारे पन्नत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे ववहारे पन्नत्ते, तंजहा-आगमे सुत्तं आणा धारणा
जीए, जहा से तत्थ आगमे सिया आगमेणं ववहारं पट्टवेजा, णो य से तत्थ आगमे सिया जहा से तत्थ सुते | सिया सुएणं ववहारं पट्टवेजा, णो वा से तत्थ सुए सिया जहा से तत्थ आणा सिया आणाए ववहारं पट्टवेजा, णो य से तत्थ आणा सिया जहा से तत्थ धारणा सिया धारणाए णं ववहारं पट्टवेजा, णो य से
AASANGACAS
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१
॥३८३॥
तत्थ धारणा सिया जहा से तत्थ जीए सिया जीएणं ववहारं पट्टवेजा, इच्चेएहिं पंचहिं ववहारं पट्टवेजा, ८ शतके तंजहा-आगमेणं सुएणं आणाए धारणाए जीएणं, जहा २ से आगमे सुए आणा धारणा जीएतहा २ववहारं
उद्देशः ८ पट्टवेजा ॥ से किमाहु भंते !, आगमवलिया समणा निग्गंथा इचेतं पंचविहं ववहारं जया २ जहिं २ तहा २
व्यवहाराः तहिं २ अणिस्सिओवसितं सम्मं ववहरमाणे समणे निग्गंथे आणाएआराहए भवइ (सूत्रं ३४०)॥ कइविहे णं *
| सू ३४०
बन्धः भंते!बंधे पण्णत्ते ?,गोयमा! दुविहे बंधे पन्नत्ते, तंजहा-ईरियावहियाबंधेय संपराइयबंधे य। ईरियावहियण्णं
सू ३४१ | भंते ! कम्मं किं नेरइओ बंधइ तिरिक्खजोणिओ बंधइ तिरिक्खजोणिणी बंधइ मणुस्सो बंधइ मणुस्सी बं. देवो|
० देवी बं० १, गोयमा ! नो नेरइओ बंधइ नोतिरिक्खजोणीओ बंधइ नो तिरिक्खजोणिणी बंधइ नो देवो बंधइ नो देवी बंधइ पुवपडिवन्नए पडुच्च मणुस्सा य मणुस्सीओ य बं० पडिवजमाणए पडुच मणुस्सो वा बंधह १ मणुस्सी वा बंधइ २ मणुस्सा वा बंधंति ३ मणुस्सीओ वा बंधति ४ अहवा मणुस्सो य मणुस्सी य बंधइ ५ अहवा मणुस्सो य मणुस्सीओ य बंधन्ति ६ अहवा मणुस्सा य मणुस्सी य बंधंति७ अहवा मणुस्सा य मणुस्सीओ य बं० ॥ तं भंते ! किं इत्थी बंधइ पुरिसो बंधइ नपुंसगो बंधति इत्थीओ बंधन्ति पुरिसा बं० नपुंसगा बंधन्ति नोइत्थीनोपुरिसोनोनपुंसओ बंधइ ?, गोयमा! नो इत्थी बंधइ नो पुरिसो बं० जाव नो नपुंसगा|
॥३८॥ बंधन्ति पुवपडिवन्नए पडच्च अवगयवेदा बंधति, पडिवजमाणए य पडुच्च अवगयवेदो वा बंधति अवगयवेदा है वा बंधति ॥ जइ भंते ! अवगयवेदो वा बंधइ अवगयवेदा वा बंधंति ते भंते ! किं इत्थीपच्छाकडो बं० पुरि
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सपच्छाकडो बं० २ नपुंसकपच्छाकडो बं०३ इत्थीपच्छाकडा बंधंति ४ पुरिसपच्छाकडावि बंधति ५ नपुंसगपच्छाकडावि बं०६ उदाहु इत्थिपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य बंधति ४ उदाहु इत्थीपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ४ उदाहु पुरिसपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य बंधइ ४ उदाहु इत्थिपच्छाकडो य पुरिसपच्छाकडो य णपुंसगपच्छाकडो य भाणियत्वं ८, एवं एते छच्चीसं भंगा २६ जाव उदाहु इत्थीपच्छाकडा यं पुरिसप० नपुंसकप० बंधति ?, गोयमा ! इत्थिपच्छाकडोवि बंधइ १ पुरिसपच्छाकडोवि०२॥ नपुंसगपच्छाकडोवि बं०३ इत्थीपच्छाकडावि बं०४ पुरिसपच्छाकडावि बं०५ नपुंसकपच्छाकडावि बं. ६/ अहवा इत्थीपच्छाकडा पुरिसपच्छाकडो य बंधइ ७ एवं एए चेव छचीसं भंगा भाणियचा, जाव अहवा इत्थिपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ॥ तं भंते ! किंबंधी बंधइ बंधिस्सइ १ |बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २ बंधी न बंधइ बंधिस्सह ३ बंधी न बंधइ न बंधिस्सइन बंधी बंधइ बंधिस्सइ ५ न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ ६ न बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ७ न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ८१, गोयमा ! भवागरिसं पडुच्च अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, एवं तं चेव सवं जाव अत्थेगतिए न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ, गहणागरिसं पडुच्च अत्थेगतिए बंधी बंधइ बंधिस्सइ एवं जाव अत्थेगतिए न बंधी बंधड बंधिस्सइ, णो चेव णं न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ, अत्थेगतिए न बंधीन बंधइ बंधिस्सइ अत्थेगतिए न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ॥ तं भंते ! किं साइयं सपजवसियं बंधइ साइयं अपज्जवसि
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|| बंधइ अणाइयं सपज्जवसियं बंधइ अणाइयं अपज्जवसियं बंधइ ?, गोयमा ! साइयं सपज्जवसियं बंधइ ८ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः हैनो साइयं अपज्जवसियं बंधइ नो अणाइयं सपज्जवसियं बंधइ नो अणाइयं अपज्जवसियं बंधइ ॥ तं भंते ! उद्देशः अभयदेवी- कि देसेणं देसंबंधइ देसेणं सर्व बंधइ सवेणं देसं बंधइ सवेणं सवं बंधइ ?, गोयमा! नो देसेणं देसं बंधइ णो
व्यवहाराः यावृत्तिः१
सू३४० देसेणं सर्व बंधइ नो सवेणं देसं बंधइ सवेणं सवं बंधइ ॥ (सूत्रं ३४१)॥
बन्धः ॥३८४॥ | 'काविहे 'मित्यादि, व्यवहरणं व्यवहारो-भुमुक्षुप्रवृत्तिनिवृत्तिरूपः इह तु तन्निबन्धनत्वात् ज्ञानविशेषोऽपि व्यव-1
सू३४१ हारः, तत्रागम्यन्ते-परिच्छिद्यन्ते अर्था अनेनेत्यागमः केवलमनःपर्यायावधिपूर्वचतुर्दशकदशकनवकरूपः, तथा श्रुतंशेषमाचारप्रकल्पादि, नवादिपूर्वाणां च श्रुतत्वेऽप्यतीन्द्रियार्थेषु विशिष्टज्ञानहेतुत्वेन सातिशयत्वादागमव्यपदेशः केवलवदिति, तथाऽऽज्ञा-यदगीतार्थस्य पुरतो गूढार्थपदैर्देशान्तरस्थगीतार्थनिवेदनायातीचारालोचनं इतरस्यापि तथैव शुद्धिदानं, तथा धारणा-गीतार्थसंविग्नेन द्रव्याद्यपेक्षया यत्रापराधे यथा या विशुद्धिः कृता तामवधार्य यदगुप्तमेवालोचनदानतस्तत्रैव तथैव तामेव प्रयुड़े इति वैयावृत्त्यकरावा गच्छोपग्रहकारिणोऽशेषानुचितस्य प्रायश्चित्तपदानां प्रदर्शितानां ||धरणमिति, तथा जीतं द्रव्यक्षेत्रकालभावपुरुषप्रतिसेवानवृत्त्या संहननधत्यादिपरिहाणिमवेक्ष्य यत् प्रायश्चित्तदानं यो वा | यत्र गच्छे सूत्रातिरिक्तः कारणतः प्रायश्चित्तव्यवहारः प्रवर्तितो बहुभिरन्यैश्चानुवर्तित इति । आगमादीनां व्यापारणे || ॥३८४॥ 8|| उत्सगांपवादावाह-'जहे'त्यादि, यथेति यथाप्रकारः केवलादीनामन्यतमः 'से तस्य व्यवहतः स चोक्तलक्षणो व्यवहारः |'तत्र' तेषु पञ्चसु व्यवहारेषु मध्ये तस्मिन् वा प्रायश्चित्तदानादिव्यवहारकाले व्यवहर्तव्ये वा वस्तुनि विषये 'आगम:'
MBACHCHECEAECACAAAAAA
RECORASAGAR
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४ा केवलादिः 'स्यात् भवेत् तादृशेनेति शेषः आगमेन 'व्यवहारं' प्रायश्चित्तदानादिकं 'प्रस्थापये प्रवर्त्तयेत् न शेषैः, || आगमेऽपि षविधे केवलेनावन्ध्यबोधत्वात्तस्य, तदभावे मनःपर्यायेण, एवं प्रधानतराभावे इतरेणेति ।अथ 'नो' नैव || |चशब्दो यदिशब्दार्थः 'से' तस्य स वा तत्र व्यवहर्त्तव्यादावागमः स्यात् , 'यथा' यत्प्रकार से तस्य तत्र व्यवहत व्यादौ श्रुतं स्यात् तादृशेन श्रुतेन व्यवहारं प्रस्थापयेदिति, 'इचेएहिं'इत्यादि निगमनं सामान्येन, 'जहा जहा से | इत्यादि तु विशेषनिगमनमिति ॥ एतैर्व्यवहर्तुः फलं प्रश्नद्वारेणाह-'से कि'मित्यादि, अथ किं हे भदन्त !-भट्टारक 'आह' प्रतिपादयन्ति ? ये 'आगमबलिकाः' उक्तज्ञानविशेषबलवन्तः श्रमणा निर्ग्रन्थाः केवलिप्रभृतयः'इच्चेयंति इत्येतद्वक्ष्यमाणं, अथवा इत्येवमिति एवं प्रत्यक्षं पञ्चविधं व्यवहारं प्रायश्चित्तदानादिरूपं 'सम्म ववहरमाणे त्ति संबध्यते, व्यवहरन् प्रवर्त्तयन्नित्यर्थः, कथं ?-'सम्मति सम्यक्, तदेव कथम् ? इत्याह-'यदा २' यस्मिन् २ अवसरे 'यत्र २ |प्रयोजने वा क्षेत्रे वा यो य उचितस्तं तमिति शेषः तदा २ काले तस्मिन् २ प्रयोजनादौ, कथम्भूतम् ? इत्याह-अनिश्रितैः-सर्वाशंसारहितैरुपाश्रितः-अङ्गीकृतोऽनिश्रितोपाश्रितस्तम् , अथवा निश्रितश्च-शिष्यत्वादि प्रतिपन्नः उपाश्रितश्चस एव वैयावृत्त्यकरत्वादिना प्रत्यासन्नतरस्तौ, अथवा निश्रित-रागः उपाश्रितं च-द्वेषस्ते, अथवा निश्रितं च-आहारादिलिप्सा उपाश्रितं च-शिष्यप्रतीच्छककुलाद्यपेक्षा ते न स्तो यत्र तत्तथेति क्रियाविशेषणं, सर्वथा पक्षपातरहितत्वेन | यथावदित्यर्थः, इह पूज्यव्याख्या-"रागो य होइ निस्सा उवस्सिओदोससंजुत्तो ॥ अहवण आहाराई दाही मझं तु एस निस्सा उ.। सीसो पडिच्छओ वा होइ उबस्सा कुलादीया ॥१॥"इति [राग भवति निक्षा उपाभितो भवति दोष
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व्याख्या- संयुक्तः ॥ अथवाऽऽहारादि मह्यं दास्यत्येवेति तु निश्रा।शिष्यः प्रतीच्छको वा भवत्युपश्रा कुलादिका ॥१॥] आज्ञाया
८ शतके प्रज्ञप्तिः || जिनोपदेशस्याराधको भवतीति, हन्त ! आहुरेवेति गुरुवचनं गम्यमिति, अन्ये तु 'से किमाहुभंते !' इत्याद्येवं व्या-|
| उद्देशः८ अभयदेवी-|
व्यवहारा या वृत्तिः ख्यान्ति-अथ किमाहुर्भदन्त ! आगमबलिकाः श्रमणा निर्ग्रन्थाः ! पञ्चविधव्यवहारस्य फलमिति शेषः, अत्रोत्तरमाह
लसू ३४० 'इच्चेय'मित्यादि ॥ आज्ञाराधकश्च कर्म क्षपयति शुभं वा तद् बनातीति बन्धं निरूपयन्नाह-कई'त्यादि, 'बंधे'त्ति
ईपिथिक ॥३८५॥
द्रव्यतो निगडादिबन्धो भावतः कर्मबन्धः, इह च प्रक्रमात् कर्मबन्धोऽधिकृतः 'ईरियावहियाबंधे यत्ति ई-गमन || बन्धः तत्प्रधानः पन्था मार्ग ईर्यापथस्तत्र भवमैर्यापथिक-केवलयोगप्रत्ययं कर्म तस्य यो बन्धः स तथा, स चैकस्य वेदनी- सू ३४१. | यस्य, 'संपराइयबंधे यत्ति संपरैति-संसारं पर्यटति एभिरिति सम्परायाः-कषायास्तेषु भवं साम्परायिक कर्म तस्य यो |बन्धः स साम्परायिकबन्धः कषायप्रत्यय इत्यर्थः, स चावीतरागगुणस्थानकेषु सर्वेष्विति । 'नो नेरइओ'इत्यादि, मनु-3 | व्यस्यैव तद्वन्धो, यस्मादुपशान्तमोहक्षीणमोहसयोगकेवलिनामेव तद्वन्धनमिति, "पुवपडिवन्नए' इत्यादि, पूर्व-प्राक्काले
प्रतिपन्नमैर्यापथिकबन्धकत्वं यैस्ते पूर्वप्रतिपन्नकास्तान् , तद्वन्धकत्वद्वितीयादिसमयवर्तिन इत्यर्थः, ते च सदैव बहवः | पुरुषाः स्त्रियश्च सन्ति उभयेषां केवलिना सदैव भावादत उक्तं 'मणुस्सा य मणुस्सीओ य बंधंति'त्ति, 'पडिवजमा
॥३८५॥ |णए'त्ति प्रतिपद्यमानकान् ऐपिथिककर्मबन्धनप्रथमसमयवर्तिन इत्यर्थः, एषां च विरहसम्भवाद् एकदा मनुष्यस्य स्त्रियाश्चैकैकयोगे एकत्वबहुत्वाभ्यां चत्वारो विकल्पाः, द्विकसंयोगे तथैव चत्वारः, एवमेते सर्वेऽप्यष्टौ, स्थापना चेयमे-1||
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नकाश /// अश्नितः, उत्तरे तु षण्णा पधिकत्याह-तं भते का त
+LAHABHASAGAR
षाम्-पु १ स्त्री १ पुं ३ स्त्री ३ । | स्त्री । एतदेवाह-'मणुस्से वा'इत्यादि, एषां च पुंस्त्वादि तत्तल्लिङ्गापेक्षया न तु है | वेदापेक्षया, क्षीणोपशान्तवेदत्वात्।। अथ वेदापेक्षं स्त्रीत्वाद्यधिकृत्याह-तं भंते ! कि'मित्यादि, 'नो इत्थी' | इत्यादि च पदत्रयनिषेधेनावेदकः प्रश्नितः, उत्तरे तु षण्णां पदानां निषेधः सप्तमपदोक्तस्तु व्यपगतवेदः, तत्र च पूर्वप्रतिपन्नाः प्रतिपद्यमानकाच ||३ भवन्ति, तत्र पूर्वप्रतिपन्नकानां विगतवेदानां सदा बहुत्वभावात् आह'पुवपडिवन्ने'त्यादि, प्रतिपद्यमानकानां तु सामयिकत्वाद् विरहभावेनैकादिसम्भवाद्विकल्पद्वयमत एवाह-पडिवज
माणे'त्यादि ॥ अपगतवेदमैर्यापथिकबन्धमाश्रित्य स्त्रीत्वादि भूतभावापेक्षया विकल्पयन्नाह–'जई त्यादि, 'तं भंते ! लातदा भदन्त ! तद्वा कर्म 'इत्थीपच्छाकडेत्ति भावप्रधानत्वान्निर्देशस्य स्त्रीत्वं पश्चात्कृतं-भूतता नीतं येनावेदकेनासौ
स्त्रीपश्चात्कृतः, एवमन्यान्यपि, इहैककयोगे एकत्वबहुत्वाभ्यां षड् विकल्पाः द्विकयोगे तु तथैव द्वादश त्रिकयोगे पुनस्तथैवाष्टौ, एते च सर्वे षड्विंशतिः, इयं चैषां स्थापना-स्त्री १पु०१ न०१ स्त्री ३ पु० ३ न. ३ । सूत्रे च चतुर्भङ्गयष्टभङ्गीनां प्रथमविकल्पा दर्शिताः सर्वान्तिमश्चेति ॥ प्रस्तार| अथैर्यापथिककर्मबन्धनमेव कालत्रयेण विकल्पयन्नाह-तंभंते!' इत्यादि, 'तदू' ऐपिथिक कर्मबंधी सी पुं न स्थापना | ति बद्धवान् बनाति भन्स्यति चेत्येको विकल्पः, एवमन्येऽपि सप्त, एषां च स्थापना । स्त्री पुं| स्त्री न | पुं न
। उत्तरं तु भवेत्यादि, भवे अनेकत्रोपशमादिश्रेणिप्राप्त्या आकर्षः-ऐर्यापथिकक-१३१३१३
र्माणुग्रहणं भवाकर्षस्तं प्रतीत्य 'अस्त्यैकः' भवत्येकः कश्चिज्जीवः प्रथमवैकल्पिकः, तथा
हि-पूर्वभवे उपशान्तमोहत्वे सत्यैर्यापथिकं कर्म बद्धवान् वर्त& मानभवे चोपशान्तमोहत्वे बध्नाति,
अनागते चोपशान्तमोहावस्थायां भन्स्यतीति १, द्वितीयस्तु
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः१]
॥३८६॥
यः पूर्वस्मिन् भवे उपशान्तमोहत्वं लब्धवान् वर्तमाने च क्षीणमोहत्वं प्राप्तः स पूर्व बद्धवान् वर्तमाने च बध्नाति शैले
८ शतके श्यवस्थायां पुनर्न भन्त्स्यतीति २, तृतीयः पूर्वजन्मनि उपशान्तमोहत्वे बद्धवान् तत्प्रतिपतितो न बध्नाति अनागसे चोप- उद्देशः८ शान्तमोहत्वं प्रतिपत्स्यते तदा भन्स्यतीति ३, चतुर्थस्तु शैलेशीपूर्वकाले बद्धवान् शैलेण्यां च न बध्नाति न च पुनर्भ- | व्यवहाराः नत्स्यतीति ४, पञ्चमस्तु पूर्वजन्मनि नोपशान्तमोहत्वं लब्धवानिति न बद्धवान् अधुना लब्धमिति बनाति पुनरप्येष्य
सू ३४० काले उपशान्तमोहाद्यवस्थायां भन्त्स्यतीति पञ्चमः ५, षष्ठः पुनः क्षीणमोहत्वादि न लब्धवानिति न पूर्व बद्धवान्
ईपिथिक
बन्धः अधुना तु क्षीणमोहत्वं लब्धमिति बनाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्स्यतीति षष्ठः ६, सप्तमः पुनर्भव्यस्य, स ह्यनादौ
सू ३४१ |काले न बद्धवान् अधुनाऽपि कश्चिन्न बनाति कालान्तरे तु भन्त्स्यतीति ७, अष्टमस्त्वभव्यस्य ८,सच प्रतीत एव । “गह-II |णागरिस'मित्यादि, एकस्मिन्नेव भवे ऐयापथिककर्मपुद्गलानां ग्रहणरूपो य आकर्षोऽसौ ग्रहणाकर्षस्तं प्रतीत्यास्त्येकः | | कश्चिज्जीवः प्रथमवैकल्पिकः, तथाहि-उपशान्तमोहादिर्यदा ऐर्यापथिकं कर्म बद्धा बध्नाति तदाऽतीतसमयापेक्षया बद्धवान् वर्तमानसमयापेक्षया च बनाति अनागतसमयापेक्षया त भन्स्यतीति १, द्वितीयस्तु केवली, स झतीतकाले बद्ध|वान् वर्तमाने च बध्नाति शैलेश्यवस्थायां पुनर्न भन्स्यतीति २, तृतीयस्तूपशान्तमोहत्वे बद्धवान् तत्प्रतिपसितस्तु न ||P॥३८६॥ बनाति पुनस्तत्रैव भवे उपशमश्रेणी प्रतिपन्नो भन्स्यतीति, एकभवे चोपशमश्रेणी द्विारं प्राप्यत एवेति ३, चतुर्थः पुनः सयोगित्वे बद्धवान् शैलेश्यवस्थायां न वनाति न च भन्स्यतीति ४, पञ्चमः पुनरायुषः पूर्वभागे उपशान्तमोहत्वादि न लब्धमिति न बद्धवान् अधुना तु लब्धमिति बनाति तदद्धाया एव चैष्यत्समयेष्ठ पुनर्भन्सातीति , समस्तु नास्त्येव,
मिन्नेव भवे ऐपिथिककर्मपदलायापथिक कर्म बवा बन्नाति तास तीतकाले बद्ध
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| तत्र बद्धवान् बनातीत्यनयोरुपपद्यमानत्वेऽपि न अन्त्स्यतीति इत्यस्यानुपपद्यमानत्वात् तथाहि - आयुषः पूर्वभागे | उपशान्तमोहत्वादि न लब्धमिति न बद्धवान् तल्लाभसमये च बध्नाति ततोऽनन्तरसमयेषु च मन्त्स्यत्येव न तु न भन्त्स्यति, समयमात्रस्य बन्धस्येहाभावात्, यस्तु मोहोपशमनिर्ग्रन्थस्य समयानन्तरमरणेनैर्यापथिककर्मबन्धः समयमात्रो भवति नासौ षष्ठविकल्पहेतुः, तदनन्तरैर्यापथिककर्म्मबन्धाभावस्य भवान्तरवर्त्तित्वाग्रहणाकर्षस्य चेह प्रक्रान्तत्वात्, यदि पुनः सयोगिचरमसमये बध्नाति ततोऽनन्तरं न भन्त्स्यतीति विवक्ष्येत तदा यत्सयोगिचरमसमये बभ्रातीति तद्बन्धपूर्वकमेव स्यानाबन्धपूर्वकं, तत्पूर्वसमये तस्य बन्धकत्वात् एवं च द्वितीय एव भङ्गः स्यान पुनः षष्ठ इति ६, सप्तमः पुनर्भव्यविशेषस्य ७, अष्टमस्त्वभव्यस्येति ८, इह च भवाकर्षापेक्षेष्वष्टसु भङ्गकेषु 'बंधी बंधइ बंधिस्सइ' इत्यत्र प्रथमे भङ्गे उपशान्तमोहः, 'बंधी बंधइ न बंधिस्सह' इत्यत्र द्वितीये क्षीणमोहः, 'बंधी न बंधइ बंधिस्सर' इत्यत्र तृतीये उपशान्तमोहः, 'बंधी न बंधइ न बंधिस्सह' इत्यत्र चतुर्थे शैलेशीगतः, 'न बंधी बंध बंधिस्स' इत्यत्र पञ्चमे उपशान्तमोहा, 'न बंधी बंधइ न बंधिस्सइ' इत्यत्र षष्ठे क्षीणमोहः, 'न बंधी न बंधह बंधिस्सा' इत्यत्र सप्तमे भव्यः, 'न बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ' इत्यत्राष्टमेऽभन्यः, ग्रहणाकर्षापक्षेषु पुनरेतेष्वेव प्रथमे उपशान्तमोहः क्षीणमोहो या, द्वितीये तु केवली, तृतीये तूपशान्तमोहः, चतुर्थे शैलेशीगतः पञ्चमे उपशान्तमोहः क्षीणमोहो वा षष्ठः शून्यः, सप्तमे भव्यो भाविमोहोपशमो भाविमोहक्षयो वा, अष्टमे त्वभव्य इति ॥ अथैर्यापथिवबन्धमेव निरूपयन्नाह - 'त' मित्यादि, 'तत्' ऐर्यापथिकं कर्म्म 'साइयं सपज्जवलिय' मित्यादि चतुर्भङ्गी, तत्र चैर्यापथिककर्म्मणः प्रथम एव भने बन्धोऽन्येषु
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥२८७॥
तदसम्भवादिति 'त' मित्यादि, 'तत्' ऐर्यापथिकं कर्म 'देसेणं देतं'ति 'देशेन' जीवदेशेन 'देश' कर्म्मदेशं बनाती त्यादि चतुर्भङ्गी, तत्र च देशेन कर्म्मणो देशः सर्वे वा कर्म्म सर्वात्मना वा कर्म्मणो देशो न बध्यते, किं तर्हि ?, सर्वात्मना सर्वमेव बध्यते, तथास्वभावत्वाज्जीवस्येति ॥ अथ साम्परायिकबन्धनिरूपणायाह
संपरायणं भंते! कम्मं किं नेरइयो बंधइ तिरिक्खजोणीओ बंधह जाव देवी बंधइ ?, गोयमा ! नेरहओवि बंधइ तिरिक्खजोणीओवि बंधइ तिरिक्खजोणिणीवि बंधह मणुस्सोवि बंधह मणुस्सीवि बंधह देवोवि बंधइ देवीवि बंधइ ॥ तं भंते ! किं इत्थी बंधइ पुरिसो बं० तहेव जाव नोहत्थीनोपुरिसोनोनपुंसओ बंधइ ?, गोयमा ! इत्थीवि बं० पुरिसोवि बंधइ जाव नपुंसगोवि बंधइ अहवेए य अवगयवेदो य बंधइ अहवेए य | अवगयवेया य बंधइ । जह भंते! अवगयवदो य बंधइ अवगयवेदा य बंधन्ति तं भंते । किं इत्थीपच्छाकडो | बंधइ पुरिसपच्छाकडो बंधइ ? एवं जहेव ईरियावहियाबंधगस्स तहेव निरवसेसं जाव अहवा इत्थीपच्छाकडा य पुरिसपच्छाकडा य [ बंधइ ] नपुंसगपच्छाकडा य बंधंति ॥ तं भंते ! किं बंधी बंधइ बंधिस्सह १ बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २ बंधी न बंधइ बंधिस्सइ ३ बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ४१, गोयमा ! अस्थेगतिए बंधी बंधड़ बंधिस्सइ १ अत्थेगतिए बंधी बंधइ न बंधिस्सइ २ अत्थेगतिए बंधी न बंधइ बंधिस्सर ३ अत्थेगतिए बंधी न बंधइ न बंधिस्सइ ॥ तं भंते ! किं साइयं सपज्जवसियं बंधइ ? पुच्छा तहेव, गोयमा ! साइयं वा सपज्जवसियं बंधइ अणाइयं वा सपज्जवसियं बंधइ अणाइयं वा अपज्जवसियं बंधइ णो चेव णं साइयं अप
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८ शतके उद्देशः ८ सांप राय
क बन्धः सू ३४३
॥३८७॥
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|| जवसियं बंधइ । तं भंते ! किं देसेणं देसं बंधइ एवं जहेव ईरियावहियाबंधगस्स जाव सवेणं सर्व बंधइ है। (सूत्रं ३४२)॥
'संपराइयं 'मित्यादि, 'कि नेरइओ' इत्यादयः सप्त प्रश्नाः, उत्तराणि च सप्तैव, एतेषु च मनुष्यमनुषीवर्जाः है पञ्च साम्परायिकबन्धका एव सकषायत्वात् , मनुष्यमनुष्यौ तु सकषायित्वे सति साम्परायिक बन्नीतो न पुनरन्यदेति ॥ Pil साम्परायिकबन्धमेव त्याद्यपेक्षया निरूपयन्नाह-तं भंते ! किं इत्थी'त्यादि, इह रूयादयो विवक्षितैकत्वबहुत्वाः षट् ।
सर्वदा साम्परायिक बध्नन्ति, अपगतवेदश्च कदाचिदेव, तस्य कादाचित्कत्वात्, ततश्च ख्यादयः केवला बन्नन्ति अपगतवेदसहिताश्च, ततश्च यदाऽपगतवेदसहितास्तदोच्यते अथवैते ख्यादयो बन्नन्ति अपगतवेदश्च, तस्यैकस्यापि सम्भवात् , अथवैते ज्यादयो बध्नन्ति अपगतवेदाश्च, तेषां बहूनामपि सम्भवात् , अपगतवेदश्च साम्परायिकबन्धको वेद-12 त्रये उपशान्ते क्षीणे वा यावद्यथाख्यातं न प्राप्नोति तावल्लभ्यत इति, इह च पूर्वप्रतिपन्नप्रतिपद्यमानकविवक्षा न कृता, द्वयोरप्येकत्वबहुत्वयोर्भावेन निर्विशेषत्वात् , तथाहि-अपगतवेदत्वे साम्परायिकबन्धोऽल्पकालीन एव, तत्र च योऽप-|| || गतवेदत्वं प्रतिपन्नपूर्वः साम्परायिक बन्नात्यसावेकोऽनेको वा स्यात, एवं प्रतिपद्यमानकोऽपीति ॥ अथ साम्परायिकक-||
र्मबन्धमेव कालत्रयेण विकल्पयन्नाह-तं भंते ! कि'मित्यादि, इह च पूर्वोक्तेष्वष्टासु विकल्पेष्वाद्याश्चत्वार एव संभवन्ति नेतरे, जीवानां साम्परायिककर्मबन्धस्यानादित्वेन 'न बंधी त्यस्यानुपपद्यमानत्वात् , तत्र प्रथमः सर्व एव संसारी | यथाख्यातासंप्राप्तोपशमकक्षपकावसानः, स हि पूर्व बद्धवान् वर्तमानकाले तु बध्नाति अनागतकालापेक्षया तु भन्स्यति
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८ शतके उद्देश: परीषहाणां कर्मण्यवता रसू३४३
व्याख्या
|१, द्वितीयस्तु मोहक्षयात्पूर्वमतीतकालापेक्षया बद्धवान् वर्तमानकाले सु बधाति भाविमोहक्षयापेक्षया सु म भन्स्यति प्रज्ञप्तिः ६ २, तृतीयः पुनरुपशान्तमोहत्वात् पूर्व बद्धवान् उपशान्तमोहत्वे न बनाति तस्माच्युतः पुनर्भन्स्यतीति ३, चतुर्थस्तु अभयदेवी- मोहक्षयात्पूर्व साम्परायिकं कर्म बद्धवान् मोहक्षये न बध्नाति न च भन्स्यतीति ॥ साम्परायिककर्मवन्धमेवाश्रित्याहया वृत्तिः१ 'तं'मित्यादि, 'साइयं वा सपज्जवसियं बंधई'त्ति उपशान्तमोहतायाच्युतः पुनरुपशान्तमोहतां क्षीणमोहतां या प्रति॥३८८॥
पत्स्यमानः, 'अणाइयं वा सपज्जवसियं बंधइ'त्ति आदितः क्षपकापेक्षमिदम्, 'अणाइयं वा अपज्जवसियं बंधइत्ति एतच्चाभव्यापेक्षं, 'नो चेव णं साइयं अपजवसियं बंधई'त्ति, सादिसाम्परायिकबन्धो हि मोहोपशमाच्युतस्यैव भवति, तस्य चावश्यं मोक्षयायित्वात्साम्परायिकबन्धस्य व्यवच्छेदसम्भवः, ततश्च न सादिश्पर्यवसानः साम्परायिकबन्धोऽस्तीति ॥ अनन्तरं कर्मवक्तव्यतोक्ता, अथ कर्मस्वेव यथायोग परीपहावतारं निरूपयितुमिच्छुः कर्मप्रकृती: परीपहांश्च तावदाह___ कइ णं भंते ! कम्मपयडीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपयडीओ पन्नत्ताओ, संजहा-णाणावर|णिज्जं जाव अंतराइयं ॥ कइ णं भंते ! परीसहा पण्णत्ता ?, गोयमा बावीसं परीसहा पन्नत्ता, तंजहा-दिगिंछापरीसहे पिवासामीसहे जाव दसणपरीसहे । एए णं भंते 1 बावीसं परीसहा कतिसु कम्मपगडीसु समोयरंति, गोयमा ! चउसु कम्मपयडीसु समोयरंति, तंजहा-नाणावरणिज्जे वेयणिजे मोहणिज्जे अंतराइए । नाणावरणिज्जे प भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति, गोषमा दोपरीसहा समोमांति, जहा
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पन्नापरीसहे नाणपरीसहे य, वेयणिज्जे णं भंते ! कम्मे कति परीसहा सम्मोयरलि, गोयमा । एकारस परीसहा समोयरंति, तंजहा-पंचेव आणुपुची चरिया सेज्जा बहेय रोगेयातणकास जल्लमेल य एकारस वेदणिज्वमि ॥१॥दसणमोहणिज्जे णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोपनि १, गोयना एो दसणापरीसहे समोयरइ, चरित्तमोहणिजे णं भंते !कम्मे कति परीसहा समोयरंति ,गोयमा सत्त परीसहा समोयरंति, तंजहाअरती अचेल इत्थी निसीहिया जायणा य अकोसे । सकारपुरकारे चरित्तमोमि सतेते ॥१॥ अंतराइए णं भंते ! कम्मे कति परीसहा समोयरंति, गोयमा ! एगे अलाभपरीसहे समोयरह सत्तविहबंधगस्स गं भंले ! कति परीसहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! बावीसं परीसहा पण्णत्ता, वीसं पुण वेदे,जं समयं सीयपरी॥सहं वेदेति णो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ जं समयं उसिणपरीसहं वेदेह पो त समयं सीयपरीसहं वेदेइ, जं समयं चरियापरीसहं वेदेति णो तं समयं निसीहियापरीसहं बेदेति जं समयं निसीहियापरीसहं वेदेह जो तं समयं चरियापरीसहं घेदेह । अट्ठबिहबंधगस्सणं भले! कति परीसहा पण्णता ?, गोयमा ! बावीस | परीसहा पण्णत्ता, तंजहा-छुहापरीसहे पिवासापरीसहे सीयप दंसप० मसगप० जाव अलाभप०, एवं अट्ठविहबंधगस्सवि सत्तविहबंधगस्सवि । छबिहबंधगस्स णं भंते ! सरामसमत्थस्स कति परीसहा पण्णसा, गोयमा! चोइस परीसहा पण्णता वारस पुण बेदेइ, जं समयं सीयपरीसहं वेदेह को तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ जं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ मोतं समयं सीयपरीसहं वेदेह, जं समर्थ अरियापरीसहं
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८शतके
++
व्याख्या वेदेति णो तं समयं सेजापरीसहं वेदेइ जं समयं सेज्जापरीसहं वेदेति णो तं समयं चरियापरीसहं वेदेह । प्रज्ञप्तिः | एक्कविहवंधगस्स णं भंते ! वीयरागछउमत्थस्स कति परीसहा पण्णता ?, गोयमा ! एवं चेव जहेव छबिह
| उद्देशः८ अभयदेवी- |बंधगस्सणं । एगविहबंधगस्स गंभंते ! सजोगिभवत्थकेवलिस्स कति परीसहा पण्णता, गोयमा! एकार-3ापरीषहाणां
॥ स परीसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेइ, सेसं जहा छबिहबंधगस्स । अबंधगस्स णं भंते ! अजोगिभवत्थकेव- कर्मण्यवता ॥३८॥
|| लिस्स कति परीसहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! एकारस परीसहा पण्णत्ता, नव पुण वेदेइ, जं समयं सीयपरी-18||रासू ३४३
सहं वेदेति नो तं समयं उसिणपरीसहं वेदेइ जं समयं उसिणपरीसहं वेदेति नो तं समयं सीयपरीसहं वेदेह, जं समयं चरियापरीसहं वेदेइ नो तं समयं सेनापरीसहं वेदेति जं समयं सेन्जापरीसहं वेदई नो तं समय चरियापरीसहं वेदेइ (सूत्रं ३४३)॥ | 'कति ण'मित्यादि, 'परीसह'त्ति परीति-समन्तात् स्वहेतुभिरुदीरिता मार्गाच्यवननिर्जरार्थ साध्वादिभिः सह्यन्त | इति परीषहास्ते च द्वाविंशतिरिति 'दिगिंछ'त्ति बुभुक्षा सैव परीषहः-तपोऽर्थमनेषणीयभक्तपरिहारार्थ वा मुमुक्षुणा |परिषह्यमाणत्वात् दिगिंछापरीसहेत्ति, एवं पिपासापरीसहोऽपि, यावच्छब्दलब्धं सव्याख्यानमेवं दृश्य-'सीयपरीसहे उसिणपरीसहे' शीतोष्णे परीषही आतापनार्थ शीतोष्णबाधायामप्यग्निसेवास्नानाद्यकृत्यपरिवर्जनार्थं वा मुमुक्षुणा तयोः . परिषह्यमाणत्वात् , एवमुत्तरत्रापि, 'दंसमसगपरीसहे' दंशा मशकाश्च-चतुरिन्द्रियविशेषाः, उपल. क्षणत्वाच्चैषां यूकामत्कुणमक्षिकादिपरिग्रहः, परीषहता चैतेषां देहव्यथामुत्पादयत्स्वपि तेष्वनिवारणभयद्वेषाभावत:
+5+5+5+4
२८९॥
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| 'अचेलपरी सहे' चेलानां - वाससामभावोऽचेलं तंच्च परीषहोऽचेलतायां जीर्णापूर्णमलिनादिचेलत्वे च लज्जादैन्याकाङ्क्षायकरणेन परिषह्यमाणत्वादिति, 'अरइपरीसहे' अरतिः - मोहनीयजो मनोविकारः सा च परीषहस्तन्निषेधनेन सहनादिति 'इत्थियापरीस हे ' स्त्रियाः परीषहः २ तत् परीषहणं च तन्निरपेक्षत्वं ब्रह्मचर्यमित्यर्थः 'चरियापरीसहे' 'चर्या - ग्रामनगरादिषु संचरणं तत्परिषहणं चाप्रतिबद्धतया तत्करणं 'निसीहियापरीसहे' नैषेधिकी - स्वाध्यायभूमिः शून्यागारादिरूपा तत्परिषहणं च तत्रोपसर्गेष्वत्रासः 'सेज्जा परीस हे' शय्या - वसतिस्तत्परिषहणं च तज्जन्यदुःखादेरुपेक्षा 'अक्कोसपरीसहे' आक्रोशो- दुर्वचनं 'वह परीस हे' व्यधो वधो वा यष्ट्यादिताडनं तत्परीषहणं च क्षान्त्यवलम्बनं 'जायणापरीसहे' याज्या-भिक्षणं तत्परिषहणं च तत्र मानवर्जनम् 'अलाभपरीसहे' अलाभः - प्रतीतस्तत्परिषहणं च तत्र दैन्याभावः 'रोगपरीस हे ' रोगो - रुक् तत्परिषहणं च - तत्पीडासहनं चिकित्सावर्जनं च 'तणफासपरीसहे' तृणस्पर्श :- कुशादिस्पर्शस्तत्परिषहणं च कादाचित्कतृणग्रहणे तत्संस्पर्शजन्यदुःखाधिसहनं 'जल्लपरीस हे' जल्लो - मलस्तत्परिषहणं च देशतः सर्वतो वा स्नानोद्वर्त्तनादिवर्जनं 'सक्कारपुरक्कार परीसहे' सत्कारो - वस्त्रादिपूजा पुरस्कारो - राजादिकृताभ्युत्थानादिस्तत्परिषहणं च तत्सद्भावे आत्मोत्कर्षवर्जनं तदभावे दैन्यवर्जनं तदनाकाङ्क्षा चेति 'पण्णापरीस हे' प्रज्ञा - मतिज्ञानविशेषस्तत्परिषहणं च प्रज्ञाया अभावे उद्वेगाकरणं तद्भावे च मदाकरणं 'नाणपरीसहे' ज्ञानं-मत्यादि तत्परिषहणं च तस्य विशिष्टस्य सद्भावे मदवर्जनमभावे च दैन्यपरिवर्जनं, ग्रन्थान्तरे त्वज्ञानपरीषह इति पठ्यते, 'दंसणपरी सहे' दर्शनं तत्त्वश्रद्धानं तत्परिषहणं च जिनानां जिनोक्तसूक्ष्मभावानां चाश्रद्धानवर्जनमिति । 'कइस कम्मपयडीसु समो
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व्याख्या". प्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः १
॥ ३९०॥
यति' त्ति कतिषु कर्म्मप्रकृतिषु विषये परीषहाः समवतारं व्रजन्तीत्यर्थः 'पण्णापरीसहे' इत्यादि प्रज्ञापरीषहो ज्ञानावरणे| मतिज्ञानावरणरूपे समवतरति, प्रज्ञाया अभावमाश्रित्य तदभावस्य ज्ञानावरणोदयसम्भवत्वात्, यन्तु तदभावे दैन्यपरिवर्जनं | तत्सद्भावे च मानवर्जनं तच्चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादेरिति, एवं ज्ञानपरीषहोऽपि नवरं मत्यादिज्ञानावरणेऽक्तरति, 'पंचे'त्यादिगाथा, 'पंचेव आणुपुच्ची'ति क्षुत्पिपासाशीतोष्णदंशमशकपरीपहा इत्यर्थः, एतेषु च पीडैव वेदनीयोत्था तदधिसहनं तु चारित्रमोहनीयक्षयोपशमादिसम्भवं, अधिसहनस्य चारित्ररूपत्वादिति ॥ 'एगे दंसणपरीसहे समोयरति त्ति यतो दर्शनं तत्त्वश्रद्धानरूपं दर्शनमोहनीयस्य क्षयोपशमादौ भवति उदये तु न भवतीत्यतस्तत्र दर्शनपरीपहः समवतरतीति, 'अरई' त्यादि गाथा, तत्र चारतिपरीषहोऽरतिमोहनीये तज्जन्यत्वात्, अचेलपरीप्रहो जुगुप्सामोहनीये लज्जापेक्षया, स्त्रीपरीषहः पुरुषवेदमोहे रूयपेक्षया तु पुरुषपरीषहः स्त्रीवेदमोहे, तत्त्वतः ख्याद्यभिलापरूपत्वात्तस्य, नैषेधिकीपरीषहो | भयमोहे उपसर्गभयापेक्षया, याज्यापरीषहो मानमोहे तदुष्करस्वापेक्षया, आक्रोशपरीपहः क्रोधमोहे क्रोधोत्पत्यपेक्षया, | सत्कारपुरस्कारपरीषहो मानमोहे मदोत्पत्त्यपेक्षया समवतरति, सामान्यतस्तु सर्वेऽप्येते चारित्रमोहनीये समवतस्न्तीति ॥ | 'एगे अलाभपरीसहे समोयरति त्ति अलाभपरीषह एवान्तराये समवतरति, अन्तरायं चेह लाभान्तरार्थं, तदुदय एव लाभाभावात् तदधिसहनं च चारित्रमोहनीयक्षयोपशम इति ॥ अथ बन्धस्थानान्याश्चित्य परीषद्वान् विचारयशाह'सत्तविहे 'त्यादि, सप्तविधबन्धकः - आयुर्वर्जशेषकर्म्मबन्धकः 'जं समयं सीपपरीसह मित्यादि, यस समये शीतपरीपहं वेदयते न तत्रोष्णपरीसहं, शीतोष्णयोः परस्परमत्यन्तविरोधेनैकदैकन्शासम्भवात्, अथ यद्यपि शीतोष्णयोरेकदैक
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८ शतके
| उद्देशः ८ परीषहाणां कर्मण्यवता
रः सू ३४३
॥ ३९०॥
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त्रासम्भवस्तथाऽप्यात्यन्तिके शीते तथाविधाग्निसन्निधौ युगपदेवैकस्य पुंस एकस्यां दिशि शीतमन्यस्यां चोष्णमित्येवं द्वयोरपि शीतोष्णपरीषहयोरस्ति सम्भवः, नैतदेवं, कालकृतशीतोष्णाश्रयत्वादधिकृतसूत्रस्यैवंविधव्यतिकरस्य वा प्रायेण | तपस्विनामभावादिति । तथा 'जं समयं चरियापरीसह 'मित्यादि तत्र चर्या - प्रामादिषु संचरणं नैषेधिकी च - प्रामादिषु | प्रतिपन्नमासकल्पादेः स्वाध्यायादिनिमित्तं शय्यातो विविक्तत रोपाश्रये गत्वा निषदनम्, एवं चानयोर्विहारावस्थानरूप| त्वेन परस्परविरोधान्नैकदा सम्भवः, अथ नैषेधिकीवच्छय्याऽपि चर्यया सह विरुद्धेति न तयोरेकदा सम्भवस्ततैश्चकोनविंशतेरेव परीषहाणामुत्कर्षेर्णेकदा वेदनं प्राप्तमिति, नैवं यतो ग्रामादिगमनप्रवृत्तौ यदा कश्चिदौत्सुक्याद निवृत्ततत्परिणाम | एव विश्रामभोजनाद्यर्थमित्वरशय्यायां वर्त्तते तदोभयमप्यविरुद्धमेव, तत्त्वतश्चर्याया असमाप्तत्वाद् आश्रयस्य चाश्रयणादिति, यद्येवं तर्हि कथं पधिबन्धकमाश्रित्य वक्ष्यति - 'जं समयं चरियापरीसहं वेएति नो तं समयं सेज्जापरीसहं | वेएड' इत्यादीति ?, अत्रोच्यते, षडूविधबन्धको मोहनीयस्या विद्यमान कल्पत्वात् सर्वत्रौत्सुक्याभावेन शय्याकाले शय्या| यामेव वर्त्तते न तु बादररागवदौत्सुक्येन विहारपरिणामाविच्छेदाच्चर्यायामपि, अतस्तदपेक्षया तयोः परस्परविरोधाद्युगपेदसम्भवः, ततश्च साध्वेव 'जं समयं चरिए 'त्यादीति । 'छविबंधे' त्यादि, षड्विधबन्धकस्यायुर्मो हर्जानां बन्धकस्य
१ अत एव ऋजुसूत्रादीनां संयतानामेव परीषहा इति कथने अविरतदेश विरतानां परीषदा इति पक्षरूपाभ्यां नैगमव्यवहाराभ्यां | विशिष्टता, क्रमेणोपयोगे सहजसमाधानमिदं, तथापि विंशतिपरीषहयौगपद्यप्रतिपादकसूत्रविरोधात् न तत्कल्पना, भवतु वान्येषां परस्परावि रुद्धानां समुदित उपयोगो नानयोर्द्वयोः परस्परं विरुद्धयोः, वेदनाद्वयस्य यौगपद्याभावात् ।
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64-%25A5
८ शतके उद्देशः परीषहाः सू ३४३
व्याख्या- सूक्ष्मसम्परायस्येत्यर्थः, एतदेवाह-'सरागछउमत्थस्सेत्यादि, सूक्ष्मलोभाणूनां वेदनात्सरागोऽनुत्पन्नकेवलत्वाच्छद्मप्रज्ञप्तिः
स्थस्ततः कर्मधारयोऽतस्तस्य 'चोइस परीसह'त्ति अष्टानां मोहनीयसम्भवानां तस्य मोहाभावेनाभावाद्वाविंशतेः शेषाअभयदेवीया वृत्तिः
श्चतुर्दशपरीषहा इति, ननु सूक्ष्मसम्परायस्य चतुर्दशानामेवाभिधानान्मोहनीयसम्भवानामष्टानामसम्भव इत्युक्तं, ततश्च
| सामर्थ्यादनिवृत्तिवादरसंपरायस्य मोहनीयसम्भवानामष्टानामपि सम्भवः प्राप्तः, कथं चैतद् युज्यते ?, यतो दर्शनसप्त॥३९॥
| कोपशमे बादरकषायस्य दर्शनमोहनीयोदयाभावेन दर्शनपरीषहाभावात्सप्तानामेव सम्भवो नाष्टानां, अथ दर्शनमोहनीयसत्तापेक्षयाऽसावपीष्यत इत्यष्टावेव तर्हि उपशमकत्वे सूक्ष्मसम्परायस्यापि मोहनीयसत्तासद्भावात्कथं तदुत्थाः सर्वेऽपि परीपहा न भवन्ति ? इति, न्यायस्य समानत्वादिति, अत्रोच्यते, यस्माद्दर्शनसप्तकोपशमस्योपर्येव नपुंसकवेदाद्युपशमकालेऽनिवृत्तिबादरसम्परायो भवति, स चावश्यकादिव्यतिरिक्तग्रन्थान्तरमतेन दर्शनत्रयस्य बृहति भागे उपशान्ते शेषे चानुपशान्ते एव स्यात् , नपुंसकवेदं चासौ तेन सहोपशमयितुमुपक्रमते, ततश्च नपुंसकवेदोपशमावसरेऽनिवृत्तिबादरसम्परायस्य सतो दर्शनमोहस्य प्रदेशत उदयोऽस्ति न तु सत्त्व, ततस्तत्प्रत्ययो दर्शनपरीषहस्तस्यास्तीति, ततश्चाष्टावाप भवः न्तीति, सूक्ष्मसम्परायस्य तु मोहसत्तायामपि न परीषहहेतुभूतः सूक्ष्मोऽपि मोहनीयोदयोऽस्तीति न मोहजन्यपरीषहस
म्भवः, आह च-"मोहनिमित्ता अट्टवि बायररागे परीसहा किह ण । किह वा सहमसरागे न होंति उवसामए सब।। P१॥ आचार्य आह-सत्तगपरओश्चिय जेण बायरो जं च सावसेसंमि। मम्गिल्लंमि परिल्ले लग्गइ तो दसणस्सावि प॥
लगभइ पएसकम्मं पडुच्च सुहमोदओ तओ अह । तस्स भणिया न सहमे न तस्स सुहमोदओऽवि जी ॥३॥
॥३
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[ बादरसम्पराये मोहनिमित्ता अष्टौ परीषहाः कथं ? कथं वा सूक्ष्मसम्पराये औपशमिके च सर्वे न भवन्ति १ ॥ १ ॥ दर्शनसप्तकपरत एव बादरो येन यस्माच्च सावशेषे पाश्चात्येऽग्रे लगति ततो दर्शनस्यापि ॥ २ ॥ लभ्यते प्रदेशकर्म प्रतीत्य सूक्ष्मोदयस्ततोऽष्टौ तस्य भणिताः, न सूक्ष्मे, न तस्य सूक्ष्मोदयोऽपि यतः ॥ ३ ॥ ] यच्च सूक्ष्मसम्परायस्य सूक्ष्मलोभ| किट्टिकानामुदयो नासौ परीषहहेतु लभहेतुकस्य परीषहस्यानभिधानात् यदि च कोऽपि कथश्चिदसौ स्यात्तदा तस्येहात्यन्ताल्पत्वेनाविवक्षेति । 'एगविहबंधगस्स'त्ति वेदनीयबन्धकस्येत्यर्थः कस्य तस्य । इत्यत आह- 'वीयरागछउमत्थस्स' त्ति उपशान्तमोहस्य क्षीणमोहस्य चेत्यर्थः ' एवं चेवे'त्यादि चतुर्दश प्रज्ञप्ता द्वादश पुनर्वेदयतीत्यर्थः, शीतोष्णयोश्चर्याशय्ययोश्च पर्यायेण वेदनादिति ॥ अनन्तरं परीपहा उक्तास्तेषु चोष्णपरीषहस्तद्धेतवश्च सूर्या इत्यतः सूर्यव कव्यतायां निरूपयन्नाह -
जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति मज्झतियमुहुत्तंसि मूले य दूरे य | दीसंति अत्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ?, हंता गोयमा ! जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य तं वेव जाव अत्थमणमुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति । जंबूद्दीवे णं भंते! दीवे सूरिया उग्ग| मणमुहुत्तंसि मज्झसि य मुहुत्तंसि य अत्थमणमुहु संसि य सवत्थ समा उच्चत्तेनं १, हंता गोयमा ! जंबुद्दीवे | णं दीवे सूरिया उग्गमण जाव उच्चन्तेणं । जइ णं भंते ! जंबुद्दीवे २ सूरिया उग्गमणमुहत्तंसि य मज्झतिय० अत्थमणमुत्तंसि मूले जाव उच्चतेणं से केणं खाइ अद्वेणं भंते ! एवं बुवह जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उण्ग
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व्याख्यामणमुहत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति जाव अस्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति ?, गोयमा![ग्रन्थानं|
८ शतके प्रज्ञप्तिः ||५०००] लेसापडिघाएणं उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति लेसाभितावेणं मझंतियमुहुत्तंसिर अभयदेवी- मूले य दूरे य दीसंति लेस्सापडिघाएणं अस्थमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसंति, से तेण?णं गोयमा !
सूर्योदयादि या वृत्तिः१४ एवं वुच्चह-जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया उग्गमणमुहुत्तंसि दूरे य मूले य दीसन्ति जाव अत्थमण जाव दीसंति । दर्शनं
जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं गच्छति पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंति अणागयं खेत्तं गच्छति, सू ३४४ ॥३९२॥
गोयमा! णो तीयं खेत्तं गच्छंति पडुप्पन्नं खेत्तं गच्छंतिणो अणागयं खेत्तं गच्छंति, जंबुद्दीवे णं दीवे सूरिया 8 किं तीयं खेत्तं ओभासंति पडुप्पन्नं खेत्तं ओभासंति अणागयं खेत्तं ओभासंति !, गोयमा! नो तीयं खेतं ओभासंति पडुप्पन्नं खेत्तं ओभासंति नो अणागयं खेत्तं ओभासंति, तं भंते ! किं पुढे ओभासंति अपुढारी ओभासंति', गोयमा ! पुढे ओभासंति नो अपुढे ओभासंति जाव नियमा छद्दिसिं । जंबूद्दीवे णं भंते ! 8 दीवे सूरिया किं तीयं खेत्तं उज्जोवेंति एवं चेव जाव नियमा छद्दिसिं, एवं तवेंति एवं भासंति जाव| नियमा छद्दिसिं ॥ जंबुद्दीवे णं भंते ! दीवे सूरियाणं किं तीए खेत्ते किरिया कज्जइ पडुप्पन्ने खेत्ते किरिया का कज्जह अणागए खेत्ते किरिया कज्जइ ?, गोयमा ! नो तीए खेत्ते किरिया कजइ पडुप्पन्ने खेत्ते किरिया कजइ || ाणो अणागए खेत्ते किरिया कज्जइ, सा भंते ! किं पुट्ठा कजति अपुट्ठा कज्जइ ?, गोयमा ! पुट्ठा कज्जइ नो
| ॥३९२॥ अपुट्ठा कजति जाव नियमा छदिसिं। जंबुदीवेणं भंते ! दीवे सूरिया केवतियं खेत्तं उहुं तवंति केवतियं खेत्तं
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अहे तवंति केवतियं खेत्तं तिरियं तवंति ?, गोयमा ! एग जोयणसयं उहुं तवंति अट्टारस जोयणसयाई अहे तवंति सीयालीसं जोयणसहस्साई दोन्नि तेवढे जोयणसए एकवीसं च सद्वियाए जोयणस्स तिरिय तवंति ॥ अंतो णं भंते ! माणुसुत्तरस्स पचयस्स जे चंदिमसूरियगहगणणक्खत्ततारारूवा ते णं भंते । देवा किं उड्डोववन्नगा जहा जीवाभिगमे तहेव निरवसेसं जाव उक्कोसेणं छम्मासा । पहिया णं भंते ! माणुसुत्तरस्स जहा जीवाभिगमे जाव इंदहाणे णं भंते ! केवतियं कालं उववाएणं विरहिए पन्नते १. गोयमा! जहनेणं एक समयं उक्कोसेणं छम्मासा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ सूत्रं ३४४॥ अट्ठमसए अट्ठमो उद्देसो समत्तो॥ __'जंबुद्दीवे'इत्यादि, 'दूरे य मूले य दीसंति'त्ति 'दूरे च' द्रष्टुस्थानापेक्षया व्यवहिते देशे 'मूले च' आसन्ने द्रष्टुपतीXII त्यपेक्षया सूर्यो दृश्येते, द्रष्टा हि स्वरूपतो बहुभिर्योजनसहनैर्व्यवहितमुद्गमास्तमययोः सूर्य पश्यति, आसन्नं पुनर्मन्यते, ||
सद्भूतं तु विप्रकर्ष सन्तमपि न प्रतिपद्यत इति । मझंतियमुहुत्तंसि मूले य दूरे य दीसंति'त्ति मध्यो-मध्यमोऽन्तोविभागो गगनस्य दिवसस्य वा मध्यान्तः स यस्य मुहूर्तस्यास्ति स मध्यान्तिकः स चासौ मुहूर्त्तश्चेति मध्यान्तिकमुहूर्त्त-| स्तत्र 'मूले च' आसन्ने देशे द्रष्ट्रस्थानपेक्षया 'दूरे च' व्यवहिते देशे द्रष्टुप्रतीत्यपेक्षया सूर्यो दृश्येते, द्रष्टा हि मध्याहे
उदयास्तमनदर्शनापेक्षयाऽऽसन्नं रविं पश्यति योजनशताष्टकेनैव तदा तस्य व्यवहितत्वात् , मन्यते पुनरुदयास्तमयप्रतीसत्यपेक्षया व्यवहितमिति । 'सवत्थ समा उच्चत्तेणं ति समभूतलापेक्षया सर्वत्रोच्चत्वमष्टौ योजनशतानीतिकृत्वा, 'लेसा-5
पडिघाएणं तेजसः प्रतिघातेन दूरतरत्वात् तद्देशस्य तदप्रसरणेनेत्यर्थः, लेश्याप्रतिघाते हि सुखदृश्यत्वेन दूरस्थोऽपि स्वरू
या व्यवहिते देश पश्यति, आसन्नध्यमोऽन्तो
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१
दर्शनं
॥३९॥
ASSASSEHASHASHA
पेण सूर्य आसन्नप्रतीतिं जनयति, 'लेसाभितावेणं'ति तेजसोऽमितापेन, मध्याहे हि आसन्नतरत्वात्सूर्यस्तेजसा प्रतपति, ८ शतके | तेजःप्रतापेच दुर्दश्यत्वेन प्रत्यासन्नोऽप्यसौ दूरप्रतीति जनयतीति । 'नो तीसं खेत्तं गच्छति'त्ति अतीतक्षेत्रस्यातिका- उदशा
न्तत्वात् , 'पडप्पन्न ति वर्तमानं गम्यमानमित्यर्थः, 'नो अणागयंति ममिष्यमाणमित्यर्थः, इह च यदाकासखण्डमा-सूर्यादयादि |दित्यः स्वतेजसा व्याप्नोति तत् क्षेत्रमुच्यते, 'ओभासंति'त्ति 'अवमासयतः' ईषदुयोतयतः 'पुढे ति तेजसा स्पृष्ट
सू३४४ 'जाव नियमा छद्दिसिंति इह यावत्करणादिदं दृश्य-तं भंते ! किं ओगाढं ओभासइ अणोगाढं ओभासद, | गोयमा ! ओगाढं ओभासद नो अणोगाढ'मित्यादि 'तं भंते ! कतिदिसिं ओभासेइ ?, गोयमा ! इत्येतदन्तमिति । |'उज्जोयेंतिसि 'उद्योतयतः' अत्यर्थ द्योतयतः 'तवंतिति तापयतः उष्णरंश्मित्यासयोः "भासंतिसि भासयतः |
शोभयत इत्यर्थः ॥ उक्तमेवार्थ शिष्यहिताय प्रकारान्तरेणाह-जं'इत्यादि, 'किरिया कज्जईत्ति अवभासनाविका [क्रिया भवतीत्यर्थः 'पुट'त्ति तेजसा स्पृष्टात-स्पर्शनाद या सा स्पष्टा 'एग जोयणसवं उहुं तवति त्ति स्वस्वविमानस्योपरि योजनशतप्रमाणस्यैव तापक्षेत्रस्य भावात् 'अट्ठारस जोयणसयाई अहे तवंति'त्ति, कथं ?, सूर्यादष्टासु योजन18 शतेषु भूतलं भूतलाच्च योजनसहरोऽधोलोकग्रामा भवन्ति तांश्च यावदुयोतनादिति, 'सीयालीसमित्यादि, एतच्च | सर्वोत्कृष्टदिवसे चक्षुःस्पर्शापेक्षयाऽक्सेयमिति ॥ अनन्तरं सूर्यवक्तव्यतोक्का, अथ सामान्येन ज्योतिष्कवक्तव्यतामाह"अंतो णं भंते । इत्यादि. "जहा जीवाभिगमे तहेव निरक्सेसं'ति तत्र चेदं सूत्रमेवं-कप्पोववन्नमा विमाणोवव
[॥३९॥ नगा चारोववन्नगा चारहिइया गइरइया गइसमावन्नमा, गोयमा ! ते पं देवा नो उडोक्वन्नगा को कप्पोववाया
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विमाणोववन्नगा चारोववनगा'ज्योसिश्चक्रचरणोपलक्षितक्षेत्रोफ्पना इत्यर्थः 'नो चारविड्याइह चारो-ज्योतिषमवस्थान| क्षेत्रं 'नो' नैव चारे स्थितिर्येकां ते तथा, अत एव 'गइरइया' अत एव 'मइसमावनगा'इत्यादि, कियहरमिदं वाच्यम्। इत्याह-'जाय उकोसेणं छम्मासति इदं चैवं द्रष्टव्यम्-'इंदहाणे णं भंते ! केवइयं कालं विरहिए उववाएणं ?, गोयमा ! जहन्नेर्ण एकं समयं उक्कोसेणं छम्मासचि, 'जहा जीवाभिगमे'त्ति, इदमप्येवं तत्र-'जे चंदिमसूरियगहगण
नक्खत्ततारारूवा ते णं भंते ! देवा किं उड्डोववन्नगा ? इत्यादि प्रश्नसूत्रम् , उत्तरं तु 'गोयमा ! ते णं देवा नो उड्डोववहैनमा नो कप्पोववन्नगा विमाणोववनगा नो चारोववन्नगा चारहिइया नो गइरइया नो गइसमावन्नगे'त्यादीति ॥ अष्टम-2
शतेऽष्टमः॥८-८॥
MUSHTASAGAR
KARANAGAR
अष्टमोद्देशके ज्योतिषां वक्तव्यतोक्ता, सा च वैश्रसिकीति वैश्रसिकं प्रायोगिकं च बन्धं प्रतिपिपादयिपुर्नवमो शकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्
कइविहे णं भंते ! बंधे पाणसे?, मोयमा ! दुविहे बंधे पण्णते, संजहा-पयोगबंधे य वीससाबंधे य॥ (सूत्रं ३४५) वीससावंधे णं भंते ! कतिबिहे पणते ?, गोयमा ! दुविहे पष्णते, तंजहा-साइयवीससाबंधे ४ अणाइयवीससाबंधे य । अणाइयवीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पाणसे ?, गोयमा ! तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-धम्मत्थिकायअन्नमन्नअणादीयवीससाधंधे अधम्मस्थिकायअनमन्त्रअणादीयवीससावंधे आमासस्थिका
ते ! कतिविहे पणत
कतिविहे पण्णते, गासाधे आमालस्थिका
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व्याख्यायअन्नमन्नअणादीयवीससाबंधे।धम्मत्थिकायअन्नमन्नअणादीयवीससाबंधेणं भंते! किं देसबंधे सबबंधे?,गोयमा
८ शतके प्रज्ञप्तिः । देसबंधे नो सवबंधे, एवं चेव अधम्मत्थिकायअन्नमन्नअणादीयवीससाबंधेवि, एवमागासस्थिकायअन्नमन्नअ
उद्देशः ९ अभयदेवी- णादीयवीससाबंधे । धम्मत्थिकायअन्नमन्नअणाइयवीससाबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ||
बन्ध: या वृत्तिः१|| सबद्धं, एवं अधम्मत्थिकाए, एवं आगासत्थिकाये। सादीयवीससाबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोय- सू ३४५
मा । तिविहे पण्णत्ते, तंजहा-बंधणपच्चइए भायणपच्चइए परिणामपच्चइए । से किं तं बंधणपचइए १, २ जन्नं| विश्रसाब॥३९४॥
|परमाणुपुग्गला दुपएसिया तिपएसिया जाव दसपएसिया संखेजपएसिया असंखेजपएसिया, अणंतपएसि-न्धःसू२४५ याणं भंते ! खंधाणं वेमायनिद्धयाए वेमालुक्खयाए वेमायनिद्धलुक्खयाए बंधणपचए णं बंधे समुप्पजइ जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं असंखेनं कालं, सेत्तं बंधणपच्चइए । से किं तं भायणपच्चइए, भा०२ जन्नं जुन्नसुराजुनगुलजुन्नतंदुलाणं भायणपच्चइएणं बंधे समुप्पज्जइ जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं भायणपञ्चइए । से किं तं परिणामपञ्चइए?, परिणामपच्चइए जन्नं अन्भाणं अन्भरुक्खाणं जहा ततियसए जाव अमोहाणं परिणामपच्चइए णं बंधे समुप्पज्जइ जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं छम्मासा, सेत्तं परिणामपचइए, सेत्तं सादीयवीससाबंधे, सेत्तं वीससाबंधे (सूत्रं ३४६)॥ | 'कहविहे ण'मित्यादि 'बंधे'त्ति बन्धः-पुद्गलादिविषयः सम्बन्धः 'पओगबंधे य'त्ति जीवप्रयोगकृतः 'वीससाबंधे साय'त्ति स्वभावसंपन्नः। यथासत्तिन्यायमाश्रित्याह-वीससे त्यादि, 'धम्मत्थिकायअन्नमन्नअणाईयवीससाबंधे यत्ति 5 ॥३९४॥
STERROROSSAXC4545
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NASANASD845453
धर्मास्तिकायस्यान्योऽन्य-प्रदेशानां परसरेण योऽनादिको विश्रसाबन्धः स तथा, एवमुत्तरत्रापि । 'देसबंधे'त्ति देशतो||देशापेक्षया बन्धो देशबन्धो यथा सङ्कलिकाकटिकानां, 'सबबंधे'त्ति सर्वतः सर्वात्मना बन्धः सर्वबन्धो यथा क्षीरनी-|| रयोः 'देसवन्धे नो सव्वबंधेत्ति धर्मास्तिकायस्य प्रदेशानां परस्परसंस्पर्शेन व्यवस्थितत्वाद्देशबन्ध एव न पुनः सर्वबन्धः, 8 तव एकस्य प्रदेशस्य प्रदेशान्तरैः सर्वथा बन्धेऽन्योऽन्यान्तर्भावेनैकप्रदेशत्वमेव स्यात् नासङ्ग्येयप्रदेशत्वमिति ॥ 'सबद्धं'ति सर्वाद्धां-सर्वकालं 'साइयवीससाबंधे य'त्ति सादिको यो विश्रसाबन्धः स तथा, 'बंधणपञ्चहए'त्ति बध्यते|ऽनेनेति बन्धन-विवक्षितस्निग्धतादिको गुणः स एव प्रत्ययो-हेतुर्यत्र स तथा, एवं भाजनप्रत्ययः परिणामप्रत्ययश्च, नवरं भाजन-आधारः परिणामो-रूपान्तरगमनं 'जन्नं परमाणुपुग्गले'त्यादौ परमाणुपुद्गलः परमाणुरेव 'वेमायनिळ्याए|त्ति विषमा मात्रा यस्यां सा विमात्रा सा चासौ स्निग्धता चेति विमात्रस्निग्धता तया,एवमन्यदपि पदद्वयम् ,इदमुक्तं भवति| "समनिद्धयाए बन्धो न होइ समलुक्खयाएवि न होइ । वेमायनिद्धलुक्खत्तणेण बंधो उ खंधाणं ॥१॥" अयमर्थः-समगुणस्निग्धस्य समगुणस्निग्धेन परमाणुव्यणुकादिना बन्धो न भवति, समगुणरूक्षस्यापि समगुणरूक्षेण, यदा पुनर्विषमा मात्रा तदा भवति बन्धः, विषममात्रानिरूपणार्थ चोच्यते-"निद्धस्स निद्धेण दुयाहिएणं, लुक्खस्स लुक्खेण दुयाहिएणं । निद्धस्स लुक्खेण उवेइ बंधो, जहन्नवजो विसमो समो वा ॥१॥” इति [स्निग्धस्य स्निग्धेन द्विकाधिकेन रूक्षस्य र रूक्षेण द्विकाधिकेन । स्निग्धस्य रूक्षेणोपैति बन्धो जघन्यवों विषमः समो वा ॥१॥] 'बंधणपच्चइएणं'ति बन्धनस्य
बन्धस्य प्रत्ययो-हेतुरुक्तरूपविमात्रस्निग्धतादिलक्षणो बन्धनमेव वा विवक्षितस्नेहादि प्रत्ययो बन्धनप्रत्ययस्तेन, इह च
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥ ३९५॥
बन्धनप्रत्ययेनेति सामान्यं विभात्रधित्तयेत्यादयस्तु सदा इति । 'असंखेषं कालं ति असोयोत्सर्पिण्यक्सर्पिणीरूपं 'जन्नसुरे' त्यादि तत्र जीर्णसुरायाः स्त्यानी भवनलक्षणो वन्धः, जीर्णगुडस्य जीर्णसन्दुलानां च विण्डी भवनलक्षणः ॥ से किं तं पयोगबंधे ?, पयोगबंधे तिबिहे पण्णत्ते, तंजहा - अणाइए वा अपज्जबसिए साइए वा अपज्जव सिए साइए बा सफ्ज्जबसिए, तत्थ णं जे से अणाइए अपज्जवसिए से णं अद्वहं जीवमज्झपएसाणं ॥ तत्थवि णं सिहं २ अणाइए अपजवसिंए सेसाणं साइए, तस्थ णं जे से सादीए अपज्जबसिए से णं सिद्धाणं तत्थ णं जे से साइए सपज्जबसिए से णं उहिले पनले, तंजहा - आलावणबंधे अलियावणबंध सरीरबंधे सरीरप्पयोगबंधे ॥ से किं तं आलावणबंधे ?, आलावणबंधे जण्णं तथभाराण वा कट्टभाराण वा पतभाराण वा पलालभाराम वा वेल्लभारान वा बेतल्यावागवरत्तरज्जुबल्लिकुसभमादिएहिं आलावणबंधे समुदयजइ जज्ञेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं संखे कालं, सेसं आलावणबंधे । से किं तं अल्लियावणबंधे १, अलियावणबंधे चविपन्नते, तंजहा- लेसबाबंधे उच्चयबंधे समुच्चयबंधे साहणणाबंधे, से किं तं लेसणाबंधे ?, लेणसाबंधे जनं कुद्वाणं कोहिमाणं संभाणं परायाणं कट्ठाणं चम्माणं घडाणं पडाणं कढाणं छुहाचि चिखल्लुसिलेसलबखमसित्थमाइएहिं लेसणएहिं बंधे समुध्वज्जइ जहन्त्रेणं अंतोमुहुसं उक्कोसेणं संखेज्जं कालं, सेतं लेसणायंधे, से किं तं उच्चयबंधे ?, उच्चयबंधे जनं तणरासीण वा कट्ठराखीण वा पत्तरासीण वा तुलरासीण वा भुसरासीण वा गोणयरासीण वा अवगररासीण वा उम्रत्तेणं बंधे समुष्पजइ जहनेणं अंतोमुत्तं
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८ शतके उद्देशः ९ प्रयोगव
न्धः सू३४७
॥ ३९५॥
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या सराणे साणं पासायरबंधे समुप्पर तंजहा-देससा
उनोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं उचयबंधे, से किं तं समुपैयबंधे, समुच्चयबंधे जन्नं अगडतडागनदीदवावीपुक्खरिणीदीहियाणं मुंजालियाणं सराणं सरपंतिआणं सरसरपंतियाणं विलपंतियाणं देवकुलसभापचयमखाइयाणं फरिहाणं पागारालमचरियदारमोपुरतोरणाणं पासायघरसरणलेणआवणाणं सिंघाडगतिवचटक्कचच्चरचउम्मुः
हमहापहमादीणं छुहाचिक्खिल्लसिलेससमुच्चएणं बंधे समुच्चए णं बंधे समुप्पजइ जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेमं * संखेनं कालं, सेतं समुच्चयक्धे, से किं तंसाहणणाबंधे?, साहणणाचंधे दुविहे पत्ते, तंजहा-देससाहणणाबंधे
य सवसाहणणाचंधे य, से किं तं देससाहणणावधे, देससाहणणाकंधे जन्नं सगडरहजाणजुग्गगितिथिति सीयसंदमाणियालोहीलोहकडाहकडच्छुआसणसवणखंभभंडमत्सोवगरणमाईणं देससाहणणाबंधे समुण्फ| जाइ जहन्नेणं अंतोमुहुरतं उक्कोसेणं संखेनं कालं, सेत्तं देससाहणणाबंधे, से किं तं सबसाहणणाबंधे ?, सबसाहणणायंधे से णं खीरोदगमाईणं, सेत्तं सघसाहणणाबंधे, सेत्तं साहपणाचंधे, सेतं अल्लियावणबंधे ॥ से किं तं सरीरबंधे, सरीरबंधे दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पुक्पओगपच्चइए यः पडुप्पन्नपओगपचहए य, से किं तं पुढप्पयोगपञ्चइए, पुवपओमपचइए जन्नं नेस्याणं संसारवत्थरणं सवजीवाणं तत्थ र तेसु २ कारणेसु समोहणमाणाणं जीवपदेसाणं बंधे समुप्पनइ सेतं पुत्वपयोगपञ्चइए, से कितं पडुप्फ्सप्पयोगपश्चइए १, २ जनं
केवलनाणस्स अणमारस्स केवलिसमुग्घाएणं समोहयस्स ताओ समुग्यायाओ पडिनियन्तेवाणस्स अंतरा || हामंथे वहमाणस्स तेयाकम्माणं बंधे समुप्पजाइ, किं कारणं, ताहे से पएता एमत्तीगथाय भवंतिसि, सेतं
य, से किं तं देसमध , साहणणाचंधे दाहिनण अंतोमुहुत्तं को तुल कोसा कच्छुआसणसवणमसाहणणाधे जन्नं सजा -देससाहणणावध/
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॥
व्याख्या
पडुप्पन्नप्पयोगपञ्चइए, सेत्तं सरीरबंधे ॥से किं तं सरीरप्पयोगबंधे ?, सरीरप्पयोगबंधे पंचविहे पन्नत्ते, 13८ शतके प्रज्ञप्तिः तंजहा-ओरालियसरीरप्पओगबंधे वेउवियसरीरप्पओगबंधे आहारगसरीरप्पओगबंधे तेयासरीरप्पयोगबंधे उद्देशः९ अभयदेवी- कम्मासरीरप्पयोगबंधे। ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा! पंचविहे पन्नत्ते,
प्रयोगबया वृत्तिः१|| तंजहा-एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे बंदियओ० जाव पंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे । एगिदिय
न्ध सू३४७ ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते?, गोयमा! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-पुढविक्काइय॥३९६॥
एगिदिय० एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा ओगाहणसंठाणे ओरालियसरीरस्स तहा भाणियबो जाव पज्जत्तगब्भवतियमणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे य अपजत्तगभवतियमणूस. जाव बंधे य॥ ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं, गोयमा! वीरियसजोगसद्दवयाए पमादपच्चया कम्मं च जोगं च भवं च आउयं च पडुच्च ओरालियसरीरप्पयोगनामकम्मस्स उदएणं ओरालियसरीरप्पयोः गबंधे ॥ एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्त उदएणं, एवं चेव, पुढविकाइयएर्गिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे एवं चेव, एवं जाव वणस्सइकाइया. एवं बेइंदिया एवं तेइंदिया एवं चउरिदियतिरिक्खजोणिय०, पंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं, एवं चेव, मणुस्स- ॥३९६॥ |पंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ?, गोयमा ! वीरियसजोगसद्दबयाएका |पमादपच्चया जाव आउयं च पडुच्च मणुस्सपंचिंदियओरालियसरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं ओरालि
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यसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सबबंधे ?, गोयमा ! देसबंधेवि सबबंधेवि, एगिंदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सव्वबंधे ?, एवं चेव, एवं पुढविकाइया, एवं जाव मणुस्सपंचिंदियओरालि-| यसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सबबंधे ?, गोयमा ! देसबंधेवि सबबंधेवि ॥ ओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सबबंधे एक समयं, देसबंधे जहनेणं एकं समयं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं समयऊणाई, एगिदियओरालियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सबबंधे एवं समयं देसबंधे जहन्नणं एवं समयं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साइं समऊणाई, पुढविकाइयएगिदियपुच्छा, गोयमा! सबबंधे एकं समयं देसबंधे जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं | उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समऊणाई, एवं सवेसिं सबबंधो एक समयं देसबंधो जसि नस्थि वेवियसरीरं तेसिं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समऊणा कायवा, जेसिं पुण अस्थि वेउवियसरीरं तेसिं देसबंधो जइन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समऊणा कायवा जाव मणुस्साणं देसबंधे जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई समयूणाई ॥ ओरालियसरीरबंध. तरे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा! सबबंधंतरं जहन्नेणं खड्डागं भवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं पुबकोडिसमयाहियाई, देसबंधतरं जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरो|वमाई तिसमयाहियाई, एगिदियओरालियपुच्छा, गोयमा ! सबबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागं भवग्गहणं तिसमय
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८ शतके उद्देशः९ औदारिक
बन्ध:
सू ३४८
व्याख्या- ऊणं उक्कोसेणं बावीसं वाससहस्साई समयाहियाई, देसबंधंतरं जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं, प्रज्ञप्तिः
पुढविक्काइयएगिदियपुच्छा गो! सबबंधंतरं जहेव एगिदियस्स तहेव भाणियचं, देसबंधंतरं जहन्नेणं एवं समयं अभयदेवीया वृत्तिः
उक्कोसेणं तिन्नि समया जहा पुढविक्काइयाणं, एवं जाव चरिंदियाणं वाउक्काइयवज्जाणं, नवरं सवबंधंतरं
उक्कोसेणं जा जस्स ठिती सा समयाहिया कायवा, वाउक्काइयाणं सवबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं ॥३९७॥ तिसमयऊणं उक्कोसेणं तिनि वाससहस्साइंसमयाहियाई, देसबंधंतरं जहन्नेणं एकं समयं उक्कोसेणं अंतोमुहुतं,
|पंचिंदियतिरिक्खजोणियओरालियपुच्छा, सबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं तिसमयऊणं उक्कोसेणं पुच्च| कोडी समयाहिया, देसबंधंतरं जहा एगिदियाणं तहा पंचिंदियतिरिक्खजो०, एवं मणुस्साणवि निरवसेस भाणियचं जाव उक्कोसेणं अंतोमुहत्तं ॥ जीवस्सणं भंते ! एगिदियत्ते णोएगिदियत्ते पुणरवि एगिदियत्ते एगिदियओरालियसरीरप्पओगबंधतरं कालओ केवचिरं होइ, गोयमा! संबंधंतरं जहन्नेणं दो खुट्टागभ-|
वग्गहणाई तिसमयऊणाई उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमभहियाई, देसबंधंतरं जहन्नेणं ४ खुड्डागं भवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साइं संखेजवासमभहियाई, जीवस्स णं भंते || &| पुढविकाइयत्ते नोपुढविकाइयत्ते पुणरवि पुढविकाइयत्ते पुढविकाइयएगिदियओरालियसरीरप्पयोगधंतरं||* | कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सवबंधंतरं जहन्नेणं दो खुडाइं भवग्गहणाई तिसमयऊणाई उक्कोसेणं | अणतं कालं अणंता उस्सप्पिणीओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोगा असंखेजा पोग्गलपरिया
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॥३९७॥
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ते णं पोग्गल परियहा आवलियाए असंखेज्जइभागो, देसबंधंतरं जहन्नेणं खुड्डागभवग्गहणं समयाहियं उक्कोसेणं अनंतं कालं जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो, जहा पुढविक्काहयाणं एवं वणस्सइकाइयवज्जाणं जावमणुस्साणं, वणस्स इकाइयाणं दोन्नि खुड्डाई, एवं चेव उक्कोसेणं असंखिजं कालं असंखिज्जाओ उस्सप्पिणिओसप्पिणीओ कालओ खेत्तओ असंखेजा लोगा, एवं देसबंधंतरंपि उक्कोसेणं पुढवीकालो । एएसि णं | भंते ! जीवाणं ओरालियसरीरस्स देसबंधगाणं सङ्घबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा ओरालियसरीरस्स सङ्घबंधगा अबंधगा विसेसाहिया देसबंधगा असंखेज्जगुणा | ( सूत्रं ३४८ ) ।
'पओगबंधे'त्ति जीवव्यापारबन्धः स च जीवप्रदेशानामौदारिकादिपुद्गलानां वा 'अणाइए वा' इत्यादयो द्वितीयवर्जास्त्रयो भङ्गाः, तत्र प्रथमभङ्गोदाहरणायाह - 'तत्थ णं जे से' इत्यादि, अस्य किल जीवस्यासङ्ख्येयप्रदेशिकस्याष्टौ ये मध्यप्रदेशास्तेषामनादिरपर्यवसितो बन्धो, यदाऽपि लोकं व्याप्य तिष्ठति जीवस्तदाऽप्यसौ तथैवेति, अन्येषां पुनर्जीवप्र| देशानां विपरिवर्त्तमानत्वान्नास्त्यनादिरपर्यवसितो बन्धः, तत्स्थापना - एतेषामुपर्यन्ये चत्वारः, एवमेतेऽष्टौ ॥ एवं यावतां परस्परेण सम्बन्धो भवति तद्दर्श
तावत्समुदायतोऽष्टानां बन्ध उक्तः, अथ तेष्वेकैकेनात्मप्रदेशेन सह | नायाह - 'तत्थवि ण' मित्यादि, 'तत्रापि' तेष्वष्टासु जीवप्रदेशेषु मध्ये त्रयाणां त्रयाणामेकैकेन सहानादिरपर्यवसितो बन्धः, तथाहि - पूर्वोक्रप्रकारेणावस्थितानामष्टानामुपरितनप्रतरस्य यः कश्चिद्विवक्षितस्तस्य द्वौ पार्श्ववर्त्तिनावेकश्चाधोव
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व्याख्या- तीत्येते त्रयः संबध्यन्ते शेषस्त्वेक उपरितनस्त्रयश्चाधस्तना न संबध्यन्ते व्यवहितत्वात् , एवमधस्तनप्रतरापेक्षयाऽपीति |
८ शतके प्रज्ञप्तिः चूर्णिकारव्याख्या, टीकाकारव्याख्या तु दुरवगमत्वात्परिहतेति, 'सेसाणं साइए'त्ति शेषाणां मध्यमाष्टाभ्योऽन्येषां | उद्देशः ९ अभयदेवी- सादिर्विपरिवर्त्तमानत्वात्, एतेन प्रथमभङ्ग उदाहृतः, अनादिसपर्यवसित इत्ययं तु द्वितीयो भङ्ग इह न संभवति,
|| औदारिक या वृत्तिः१]
अनादिसंबद्धानामष्टानां जीवप्रदेशानामपरिवर्तमानत्वेन बन्धस्य सपर्यवसितत्वानुपपत्तेरिति । अथ तृतीयो भङ्ग उदा- बन्धः
हियते-'तत्थ णं जे से साइए'इत्यादि, सिद्धानां सादिरपर्यवसितो जीवप्रदेशबन्धः, शैलेश्यवस्थायां संस्थापितप्रदेशानां में ॥२९॥
जा सू ३४८ |सिद्धस्वेऽपि चलनाभावादिति । अथ चतुर्थभङ्ग भेदत आह-तत्थ णं जे से साइए'इत्यादि, 'आलावणबंधे'त्ति आलाप्यते-आलीनं क्रियत एभिरित्यालापनानि-रजवादीनि तैर्बन्धस्तृणादीनामालापनबन्धः, 'अल्लियावणबंधे'त्ति अल्लि| यावर्ण-द्रव्यस्य द्रव्यान्तरेण श्लेषादिनाऽऽलीनस्य यत्करणं तद्पो यो बन्धः स तथा, 'सरीरबंधे'त्ति समुपाते सति ।
यो विस्तारितसङ्कोचितजीवप्रदेशसम्बन्धविशेषवशात्तैजसादिशरीरप्रदेशानां सम्बन्धविशेषः स शरीरबन्धा, शरीरिबन्ध|| ट्रा इत्यन्ये, तत्र शरीरिणः समुद्घाते विक्षिप्तजीवप्रदेशानां सोचने. यो बन्धः स शरीरिबन्ध इति, ‘सरीरप्पभोगधंधे'ति
शरीरस्य-औदारिकादेर्यः प्रयोगेण-वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिजनितव्यापारेण बन्धः-तत्पुद्गलोपादानं शरीररूपस्य वा
प्रयोगस्य यो बन्धः स शरीरप्रयोगबन्धः॥'तणभाराण वत्ति तृणभारास्तृणभारकास्तेषां 'वेत्ते'त्यादि वेत्रलता-जंलवं-III १९८॥ ट्रा शकम्बावाग'त्ति वल्का वरना-चर्ममयी रज्जु:-सनादिमयी वल्ली-पुष्यादिका कुशा-निर्मूलदर्भाः दर्भास्तु समूलाः, आदिशब्दाचीवरादिग्रहः, 'लेसणाबंधे'त्ति श्लेषणा-श्लथद्रव्येण द्रव्ययोः संबन्धनं तद्रूपो यो बन्धः स तथा, उच्चयपंधे'त्ति
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AGALA
उच्चयः-उर्दू चयन-राशीकरणं तद्रूपो बन्ध उच्चयबन्धः, 'समुच्चयबंधे'त्ति सङ्गतः-उच्चयापेक्षया विशिष्टतर उच्चयः समुच्चयः स एव बन्धः समुच्चयबन्धः, 'साहणणाबंधे'त्ति संहननं-अवयवानां सङ्घातनं तद्रूपो यो बन्धः स संहननबन्धः, दीर्घत्वादि चेह प्राकृतशैलीप्रभवमिति, कुट्टिमाणं ति मणिभूमिकानां 'छुहाचिक्खिल्ले'त्यादौ सिलेस'त्ति श्लेषोवज्रलेपः 'लक्ख'त्ति जतु 'महुसित्थ'त्ति मदनम्, आदिशब्दाद् गुग्गुलरालाखल्यादिग्रहः 'अवगररासीण वत्ति कचवरराशीनाम् 'उच्चएणति ऊ चयनेन 'अगडतलागनई'इत्यादि प्रायः प्राग व्याख्यातमेव, 'देससाहणणाबंधे य'त्ति देशेन देशस्य संहननलक्षणो बन्धः-सम्बन्धः शकटाङ्गादीनामिवेति देशसंहननबन्धः, 'सवसाहणणाबंधे यत्ति या सर्वेण सर्वस्य संहननलक्षणो बन्धः-सम्बन्धः क्षीरनीरादीनामिवेति सर्वसंहननबन्धः 'जन्नं सगडरहे'त्यादि, शकटादीनि | च पदानि प्राग् व्याख्यातान्यपि शिष्यहिताय पुनर्व्याख्यायन्ते-तत्र च'सगड'त्ति गन्त्री 'रह'त्ति स्यन्दनः 'जाण'त्ति यानं-लघुगन्त्री 'जुग्ग'त्ति युग्यं गोल्लविषयप्रसिद्धं द्विहस्तप्रमाणं वेदिकोपशोभितं जम्पानं 'गिल्लित्ति हस्तिन उपरि
कोल्लरं यन्मानुषं गिलतीव थिल्लि'त्ति अडपल्लाणं 'सीय'त्ति शिबिका-कूटाकारणाच्छादितो जम्पानविशेष: 'संदमाणिलाय'त्ति पुरुषप्रमाणो जम्पान विशेषः 'लोहित्ति मण्डकादिपचनभाजन 'लोहकडाहेति भाजनविशेष एव 'कडच्छुय'त्ति
परिवेषणभाजनम् आसनशयनस्तम्भाः प्रतीताः 'भंड'त्ति मृन्मयभाजनं 'मत्त'त्ति अमत्रं भाजनविशेषः 'उवगरण'त्ति नानाप्रकारं तदन्योपकरणमिति ॥ 'पुचप्पओगपचइए यत्ति पूर्व-प्राकालासेवितः प्रयोगो-जीवव्यापारो वेदनाकषायादिसमुद्घातरूपः प्रत्ययः-कारणं यत्र शरीरबन्धे स तथा स एव पूर्वप्रयोगप्रत्ययिकः, 'पचुप्पन्नपओगपञ्चइए यत्ति
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
शतके उद्देशः ९ औदारिक बन्ध: सू३४८
॥१९॥
प्रत्युत्पन्न:-अप्राप्तपूर्वो वर्तमान इत्यर्थः प्रयोगः-केवलिसमुद्घातलक्षणव्यापारः प्रत्ययो यत्र स तथा स एव प्रत्युत्पन्नप्र| योगप्रत्ययिकः। 'नेरझ्याईण'मित्यादि, 'तत्थ तत्थ'त्ति अनेन समुद्घातकरणक्षेत्राणां बाहुल्यमाह, 'तेसु तेसुत्ति | भनेन समुद्घातकारणानां वेदनादीनां बाहुल्यमुक्तं 'समोहणमाणाणं ति समुद्धन्यमानानां समुद्घातं शरीराद्वहिर्जी| वप्रदेशप्रक्षेपलक्षणं गच्छतां 'जीवपएसाणं ति इह जीवप्रदेशानामित्युक्तावपि शरीरबन्धाधिकारात्तात्स्थ्यात्तव्यपदेश इति
न्यायेन जीवप्रदेशाश्रिततैजसकार्मणशरीरप्रदेशानामिति द्रष्टव्यं, शरीरिबन्ध इत्यत्र तु पक्षे समुद्घातेन विक्षिप्य सङ्को|चितानामुपसर्जनीकृततैजसादिशरीरप्रदेशानां जीवप्रदेशानामेवेति 'बंधे'त्ति रचनादिविशेषः, 'जन्नं केवले'त्यादि, | केवलिसमुद्घातेन दण्ड १ कपाट २ मथिकरणा ३ न्तरपूरण ४ लक्षणेन 'समुपहतस्य विस्तारितजीवप्रदेशस्य 'ततः' | समुद्घातात् 'प्रतिनिवर्तमानस्य' प्रदेशान् संहरतः, समुद्घातप्रतिनिवर्तमानत्वं च पञ्चमादिष्वनेकेषु समयेषु स्यादि| त्यतो विशेषमाह-'अंतरामंथे वट्टमाणस्स'त्ति निवर्त्तनक्रियाया अन्तरे-मध्येऽवस्थितस्य पञ्चमसमय इत्यर्थः, यद्यपि च | षष्ठादिसमयेषु तैजसादिशरीरसङ्घातः समुत्पद्यते तथाऽप्यभूतपूर्वतया पञ्चमसमय एवासौ भवति शेषेषु तु भूतपूर्वतयैवेतिकृत्वा | 'अंतरामथे वट्टमाणस्से'त्युक्तमिति, 'तेयाकम्माणं बंधे समुप्पजइ'त्ति तैजसकार्मणयोः शरीरयोः 'बन्धः' सहातः समुत्पद्यते 'किं कारणं' कुतो हेतोः१, उच्यते-'ताहे'त्ति तदा समुद्घातनिवृत्तिकाले 'सेत्ति तस्य केवलिनः 'प्रदेशाः' जीव|प्रदेशाः 'एगत्तीगय'त्ति एकत्वं गता:-संघातमापन्ना भवन्ति, तदनुवृत्त्या च तैजसादिशरीरप्रदेशानां बन्धः समुत्पद्यत इति प्रकृतम् , शरीरिबन्ध इत्यत्र तु पक्षे 'तेयाकम्माणं बंधे समुप्पज्जइ'त्ति तैजसकार्मणाश्रयभूतत्वात्तैजसकार्मणाः शरीरिप
॥३९९||
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| देशास्तेषां बन्धः समुत्पद्यत इति व्याख्येयम्, 'वीरियस जोगसद्दद्वयाए'ति वीर्य - वीर्यान्तरायक्षयादिकृता शक्ति: योगा :- मनःप्रभृतयः सह योगैर्वर्त्तत इति सयोगः सन्ति - विद्यमानानि द्रव्याणि - तथाविधपुद्गला यस्य जीवस्यासौ सद्द्रव्यः वीर्यप्रधानः सयोगो वीर्यसयोगः स चासौ सद्रव्यश्चेति विग्रहस्तद्भावस्तत्ता तया वीर्यसयोगसद्द्रव्यतया, सवीर्यतया सयोगतया सद्रव्यतया जीवस्य, तथा 'पमायपच्चय'त्ति 'प्रमादप्रत्ययात्' प्रमादलक्षणकारणात् तथा 'कम्मं च'त्ति कर्म्म च एकेन्द्रियजात्यादिकमुदयवर्त्ति 'जोगं च'त्ति 'योगं च' काययोगादिकं 'भवं च'त्ति 'भवं च' तिर्यग्भवादिकमनुभूयमानम् 'आउयं च 'त्ति 'आयुष्कं च' तिर्यगायुष्काद्युदयवर्त्ति 'पडुच्च' ति 'प्रतीत्य' आश्रित्य 'ओरालिए' त्यादि औदारिकशरीरप्रयोगसम्पादकं यन्नाम तददारिकशरीरप्रयोगनाम तस्य कर्म्मण उदयेनौदारिकशरीरप्रयोगबन्धो भवतीति शेषः, एतानि च वीर्यसयोगसद्रव्यतादीनि पदान्यौदारिकशरीरप्रयोगनामकर्मोदयस्य विशेषणतया व्याख्येयानि, वीर्यसयोग| सद्रव्यतया हेतुभूतया यो विवक्षितकर्मोदयस्तेनेत्यादिना प्रकारेण, स्वतन्त्राणि वैतान्यौदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्य कार - णानि, तत्र च पक्षे यदौदारिकशरीरप्रयोगबन्धः कस्य कर्म्मण उदयेन ? इति पृष्टे यदन्यान्यपि कारणान्यभिधीयन्ते तद्विवक्षित कर्मोदयोऽभिहितान्येव सहकारिकारणान्यपेक्ष्येह कारणतयाऽवसेय इत्यस्यार्थस्य ज्ञापनार्थमिति । 'एगिंदिए' त्यादौ ' एवं चेव'त्ति अनेनाधिकृतसूत्रस्य पूर्वसूत्रसमताभिधानेऽपि 'ओरालियसरीरप्पओगनामा ए' इत्यत्र पदे 'एगिंदियओरालि यसरीरप्पओगनामाए' इत्ययं विशेषो दृश्यः, एकेन्द्रियौदारिकशरीरप्रयोग बन्धस्ये हाधिकृतत्वात्, एवमुत्तरत्रापि वाच्यमिति ॥ 'देसबंधेऽवि सङ्घबंधेऽवि'त्ति तत्र यथाऽपूपः स्नेहभृततततापि कायां प्रक्षिप्तः प्रथमसमये
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व्याख्याप्रज्ञप्ति अभयदेवीया वृत्तिः१
८ शतके उद्देशः ९ औदारिक
बन्धः सू ३४०
॥४०॥
घृतादि गृह्णात्येव शेषेषु तु समयेषु गृह्णाति विसृजति च एवमयं जीवो यदा प्राक्तनं शरीरकं विहायान्यद्हाति तदा प्रथमसमये उत्पत्तिस्थानगतान् शरीरप्रायोग्यपुद्गलान् गृह्णात्येवेत्ययं सर्वबन्धः, ततो द्वितीयादिषु समयेषु तान् गृह्णाति विसृजति चेत्येवं देशबन्धः, ततश्चैवमौदारिकस्य देशबन्धोऽप्यस्तीति सर्वबन्धोऽप्यस्तीति॥'सबंध एवं समयंति अपूपदृष्टान्तेनैव तत्सर्वबन्धकस्यैकसमयत्वादिति, 'देसबंधे' इत्यादि, तत्र यदा वायुमनुष्यादिर्वा वैक्रियं कृत्वा विहाय च पुनरौदारिकस्य समयमेकं सर्वबन्धं कृत्वा पुनस्तस्य देशबन्धं कुर्वनेकसमयानन्तरं म्रियते तदा जघन्यत एकं समयं देशबन्धोऽस्य भवतीति, 'उकोसेणं तिन्नि पलिओवमाइं समयऊणाईति, कथं?, यस्मादौदारिकशरीरिणां त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षतः स्थितिः, तेषु |च प्रथमसमये सर्वबन्धक इति समयन्यूनानि त्रीणि पल्योपमान्युत्कर्षत औदारिकशरीरिणां देशबन्धकालो भवति। एगिदियओरालिए'त्यादि, 'देसबंधे जहन्नणं एक समयंति, कथं ?, वायुरौदारिकशरीरी वैक्रियं गतः पुनरौदारिकप्रतिपत्तौ। सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धकश्चैकं समयं भूत्वा मृतः इत्येवमिति, 'कोसेणं बाधीस'मित्यादि, एकेन्द्रियाणामुत्कर्षतो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थितिस्तत्रासौ प्रथमसमये सर्वबन्धकः शेषकालं देशबन्ध इत्येवं समयोनानि द्वाविंशतिवर्षसहनाण्येकेन्द्रियाणामुत्कर्षतो देशबन्धकाल इति ॥ 'पुढविक्काइए'त्यादि, 'देसबंधे जहन्नेणं खुदागं भवग्गहणं तिसमयऊणं'ति, कथम् !, औदारिकशरीरिणां क्षुल्लकभवग्रहणं जघन्यतो जीवितं, तच्च गाथाभिर्निरूप्यते-“दोलि सथाई नियमा छप्पन्नाई पमाणओ होति । आवलियपमाणेणं खुड्डागभवग्गहणमेयं ॥१॥ पणसठि सहस्साई पंचेव सयाई तह य छत्तीसा । खुड्डागभवग्गहणा हवंति अंतोमुहुत्तेणं ॥२॥ सत्तरस भवग्गहणा खुहागा हुंति आणुपाणमि । तेरस
॥४०॥
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चेव सयाई पंचाणउयाई अंसाणं ॥३॥" [ यद् आवलिकाप्रमाणेन षट्पश्चाशदधिके द्वे शते नियमात् भवतः प्रमाणतः क्षुल्लकभवग्रहणमेतत् ॥१॥ पञ्चषष्टिः सहस्राणि षट्त्रिंशदधिकानि पञ्चैव शतानि तथा च क्षुल्लकभवग्रहणानि भवन्त्यन्तर्मुहुर्तेन ॥२॥ आनप्राणे सप्तदश क्षुल्लकभवग्रहणानि भवन्ति पञ्चनवत्यधिकानि त्रयोदश शतान्यशानां ( मुहूर्ताच्छासानां)॥३॥] इहोक्तलक्षणस्य ६५५३६ मुहूर्त्तगतक्षुल्लकभवग्रहणराशे,सहस्रत्रयशतसप्तकत्रिसप्ततिलक्षणेन ३७७३ मुहर्तगतोच्छासराशिना भागे हृते याल्लभ्यते तदेकत्रोच्छासे क्षुल्लकभवग्रहणपरिमाणं भवति, तच्च सप्तदश, अवशिष्टस्तूक्तलक्षणोऽशराशिर्भवतीति, अयमभिप्रायः येषामंशानां त्रिभिः सहस्रैः सप्तभिश्च त्रिसप्तत्यधिकशतैः क्षुलकभषग्रहणं भवति | तेषामंशानां पश्चनवत्यधिकानि त्रयोदश शतानि अष्टादशस्यापि क्षुलकभवग्रहणस्य तत्र भवन्तीति, तत्र यः पृथिवीका|यिकस्त्रिसमयेन विग्रहेणागतः स तृतीयसमये सर्वबन्धक शेषेषु देशबन्धको भूत्वा आक्षुलकभवग्रहणं मृतः, मृतश्च सन्न४ विग्रहेणागतो यदा तदा सर्वबन्धक एव भवतीति, एवं च ये ते विग्रहसमयास्त्रयस्तैरूनं क्षुल्लकमित्युच्यते, 'खकोसेणं
बावीस'मित्यादि भावितमेवेति, 'देसबंधो जेसिं नत्थी'त्यादि, अयमर्थः-अप्तेजोवनस्पतिद्वित्रिचतुरिन्द्रियाणां क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं जघन्यतो देशबन्धो यतस्तेषां वैक्रियशरीरं नास्ति, वैक्रियशरीरे हि सत्येकसमयो जघन्यत औदा|रिकदेशबन्धः पूर्वोक्तयुक्त्या स्यादिति, 'उकोसेणं जा जस्से'त्यादि तत्रापां वर्षसहस्राणि सप्तोत्कर्षतः स्थितिः, तेजसामद होरात्राणि त्रीणि, वनस्पतीनां वर्षसहस्राणि दश, द्वीन्द्रियाणां द्वादश वर्षाणि श्रीन्द्रियाणामेकोनपश्चाशदहोरात्राणि चतु-15||
रिन्द्रियाणां षण्मासाः, तत एषां सर्वबन्धसमयोना उत्कृष्टतो देशवन्धस्थितिर्भवतीति, 'जेसिं पुणे'त्यादि, ते च वायवः
ते विग्रहसमया अजोवनस्पतिकसमयो
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८ शतके
उद्देशः९ औदारिक बन्ध:
सू३४८
व्याख्या- पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च, एषां जघन्येन देशबन्ध एक समयं, भावना च प्रागिव, 'उकोसेण'मित्यादि तत्र वायूनां
प्रज्ञप्तिः त्रीणि वर्षसहस्राणि उत्कर्षतः स्थितिः, पञ्चेन्द्रियतिरश्चां मनुष्याणां च पल्योपमत्रयम् , इयं च स्थितिः सर्वबन्धसमयोना अभयदा उत्कृष्टतो देशबन्धस्थितिरेषां भवतीत्यतिदेशतो मनुष्याणां देशबन्धस्थितौ लब्धायामप्यन्तिमसूत्रत्वेन साक्षादेव तेषां या वृत्तिः
तामाह-जाव मणुस्साण'मित्यादि ॥ उक्त औदारिकशरीरप्रयोगबन्धस्य कालोऽथ तस्यैवान्तरं निरूपयन्नाह॥४०॥ 'ओरालिए'त्यादि, सर्वबन्धान्तरं जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं, कथं ?, त्रिसमयविग्रहेणौदारिकशरीरिष्वागत
& स्तत्र द्वौ समयावनाहारकस्तृतीयसमये सर्वबन्धकः क्षुल्लकभवं च स्थित्वा मृत ओदारिकशरीरिष्वेवोत्पन्नस्तत्र च प्रथम
समये सर्वबन्धकः, एवं च सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चान्तरं क्षुल्लकभवो विग्रहगतसमयत्रयोनः, 'उक्कोसेण'मित्यादि, उत्कृष्टत|स्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि पूर्वकोटे (टीच)समयाभ्यधिकानि (का) सर्वबन्धान्तरं भवतीति,कथं , मनुष्यादिष्वविग्रहेणागत| स्तन च प्रथमसमय एव सर्वबन्धको भूत्वा पूर्वकोटिं च स्थित्वा त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमस्थिति रकः सर्वार्थसिद्धको वा भूत्वा त्रिसमयेन विग्रहेणौदारिकशरीरी संपन्नस्तत्र च विग्रहस्य द्वौसमयावनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकः, औदारिकशरीरस्यैव च यौ तौ द्वावनाहारसमयौ तयोरेकः पूर्वकोटीसर्वबन्धसमयस्थाने क्षिप्तस्ततश्च पूर्णा पूर्वकोटी जाता एकचं सम| योऽतिरिक्तः, एवं च सर्वबन्धस्य सर्वबन्धस्य चोत्कृष्टमन्तरं यथोकमानं भवतीति । 'देसबंधंतर'मित्यादि, देशबन्धा
न्तरं जघन्येनैकं समय, कथं !, देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेणैवोत्पन्नस्तत्र च प्रथम एव समये सर्वबन्धको द्वितीयादिषु। ॥४ीच समयेषु देशबन्धकः संपन्नः, तदेवं देशबन्धस्य देशबन्धस्य चान्तरं जघन्यत एकः समयः सर्वबन्धसम्बन्धीति ।
॥४०॥
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545455555
'उक्कोसण'मित्यादि, उत्कृष्टतस्त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाणि त्रिसमयाधिकानि देशबन्धस्य देशबन्धस्यान्तरं भवतीति, कथं 1,8 देशबन्धको मृत उत्पन्नश्च त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमायुः सर्वार्थसिद्धादौ, ततश्च च्युत्वा त्रिसमयेन विग्रहेणौदारिकशरीरी संपनस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयेऽनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धकोऽजनि, एवं चोत्कृष्टमन्तरालं देशबन्धस्य देशबन्धस्य च यथोक्तं भवतीति ॥ औदारिकबन्धस्य सामान्यतोऽन्तरमुक्तमथ विशेषतस्तस्य तदाह-एगिदिए'| त्यादि, एकेन्द्रियस्यौदारिकसर्वबन्धान्तरं जघन्यतः क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोनं, कथं ?, त्रिसमयेन विग्रहेण पृथिव्यादिष्वागतस्तत्र च विग्रहस्य समयद्वयमनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततः क्षुल्लक भवग्रहणं त्रिसमयोनं स्थित्वा मृतः अविग्रहेण च यदोत्पद्य सर्वबन्धक एव भवति तदा सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति । 'उक्कोसेण'मित्यादि, उत्कृष्टतः सर्वबन्धान्तरं द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयाधिकानि भवन्ति, कथम् , अविग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वागतः प्रथम एव च समये सर्वबन्धकस्ततो द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि स्थित्वा समयोनानि विग्रहगत्या त्रिसमययाऽन्येषु पृथिव्यादिपुत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारको भूत्वा तृतीयसमये सर्वबन्धकः संपन्नः, अनाहारकसमययोश्चैको, द्वाविंशतिवर्षसहस्रेषु समयोनेषु क्षिप्तस्तत्पूरणार्थ, ततश्च द्वाविंशतिवर्षसहस्राणि समयश्चैकेन्द्रियाणां सर्वबन्धयोरुत्कृष्टमन्तरं भवतीति । 'देसबंधंतर मित्यादि तत्रैकेन्द्रियौदारिकदेशबन्धान्तरं जघन्येनैकं समयं, कथं ?, देशबन्धको मृतः सन्नविग्रहेण सर्वबन्धको भूत्वा एकस्मिन् समये पुनर्देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयोर्जघन्यत एक समयोऽन्तरं भवतीति, 'उक्को| सेणं अंतोमुहत्तंति, कथं ?, वायुरौदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रियं गतस्तत्र चान्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरौदारि
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SCO
व्याख्या-18|| कशरीरस्य सर्वबन्धको भूत्वा देशबन्धक एव जातः, एवं च देशबन्धयोरुत्कर्षतोऽन्तर्मुहूर्तमन्तरमिति ॥ 'पुढविकाइए'-51 शतके प्रज्ञप्तिः त्यादि, 'देसबंधंतरं जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं तिन्नि समय'त्ति, कथं १, पृथिवीकायिको देशबन्धको मृतः सन्न- अभयदेवी
उद्देशः९ या वृत्तिः
विग्रहगत्या पृथिवीकायिकेष्वेवोत्पन्नः एक समयं च सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धको जातः एवमेकसमयो देशबन्धयो- औदारिक
|| जघन्येनान्तरं, तथा पृथिवीकायिको देशबन्धको मृतः सन् त्रिसमयविग्रहेण तेष्वेवोत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारकः || बन्धः ॥४०२॥ तृतीयसमये च सर्वबन्धको भूत्वा पुनर्देशबन्धको जातः, एवं च त्रयःसमया उत्कर्षतो देशबन्धयोरन्तरमिति । अथाका
सू ३४० यिकादीनां बन्धान्तरमतिदेशत आह-'जहा पुढविकाइयाण'मित्यादि, अत्रैव च सर्वथा समतापरिहारार्थमाह-मवर'मित्यादि, एवं चातिदेशतो यल्लब्धं तद्दयते-अप्कायिकानां जघन्यं सर्वबन्धान्तरं क्षुल्लकभवग्रहणं त्रिसमयोन उत्कृष्टं तु | सप्त वर्षसहस्राणि समयाधिकानि, देशबधान्तरं जघन्यमेकः समय उत्कृष्टं तु त्रयः समयाः, एवं वायुवर्जानां सेजाप्रभृतीनामपि, नवरमुत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं स्वकीया स्वकीया स्थितिः समयाधिका वाच्या ॥ अथातिदेशे वायुकायिकवजर्जानामित्यनेनातिदिष्टवन्धान्तरेभ्यो वायुबन्धान्तरस्य विलक्षणता सूचितेति वायुबन्धान्तरं भेदेनाह-वाउक्काइयाणमित्यादि, तत्र च वायुकायिकानामुत्कर्षेण देशवन्धान्तरमन्तर्मुहुर्त, कथं ,वायुसैदारिकशरीरस्य देशबन्धकः सन् वैक्रिय- ॥४०॥ बन्धमन्तर्मुहूर्त कृत्वा पुनरौदारिकसर्वबन्धसमयानन्तरमौदारिकदेशबन्धं यदा करोति तदा यथोक्तमन्तरं भवतीति ॥ 'पंचिंदिये'त्यादि, तत्र सर्वबन्धान्तरं जघन्य भावितमेव उत्कृष्टं तु भाव्यते-पञ्चेन्द्रियतिर्यक अविग्रहेणोत्पन्नःप्रथम एव च |समये सर्वबन्धकस्ततः समयोनां पूर्वकोटिं जीवित्वा विग्रहगत्या त्रिसमयया तेष्वेवोत्पन्नस्तत्र च द्वावनाहारकसमयो
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ततीये च समये सर्वबन्धकः संपन्नः, अनाहारकसमययोश्चैकः समयोनायां पूर्वकोव्यां क्षिप्तस्तत्पूरणार्थमेकस्त्वधिक इत्येवं 8 यथोक्तमन्तरं भवतीति, देशबन्धान्तरं तु यथैकेन्द्रियाणां, तच्चैवं-जघन्यमेकः समयः, कथं ?, देशबन्धको मृतः सर्व& बन्धसमयानन्तरं देशबन्धको जात इत्येवं, उत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्त?, कथं ?, औदारिकशरीरी देशबन्धकः सन् वैक्रियं प्रति
पन्नस्तत्रान्तर्मुहूर्त स्थित्वा पुनरौदारिकशरीरी जातस्तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीयादिषु तु देशबन्धक इत्येवं देशबन्धयोरन्तर्मुहूर्तमन्तरमिति, एवं मनुष्याणामपीति, एतदेवाह-'जहा पंचिंदिए'त्यादि ॥ औदारिकबन्धान्तरं प्रकारान्तरेणाह-'जीवेत्यादि, एकेन्द्रियत्वे 'नोएगिदियत्तेत्ति द्वीन्द्रियत्वादौ पुनरेकेन्द्रियत्वे सति यत्सर्व| बन्धान्तरं तज्जघन्येन द्वे क्षुल्लकभवग्रहणे त्रिसमयोने, कथम् , एकेन्द्रियस्त्रिसमयया विग्रहगत्योत्पन्नस्तत्र च समयद्वयमनाहारको भूत्वा तृतीयसमये सर्वबन्धं कृत्वा तदूनं क्षुल्लकभवग्रहणं जीवित्वा मृतः अनेकेन्द्रियेषु क्षुल्लकभवग्रहणमेव जीवित्वा मृतः सन्नविग्रहेण पुनरेकेन्द्रियेष्वेवोत्पद्य सर्वबन्धको जातः, एवं च सर्वबन्धयोरुक्तमन्तरं जातमिति, |'उक्कोसेणं दो सागरोवमसहस्साई संखेजवासमन्भहियाईति, कथम् ?, अविग्रहेणैकेन्द्रियः समुत्पन्नस्तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा द्वाविंशति वर्षसहस्राणि जीवित्वा मृतस्त्रसकायिकेषु चोत्पन्नः, तत्र च सङ्ख्यातवर्षाभ्यधिकसागरोपमसहस्रद्वयरूपामुत्कृष्टत्रसकायिककायस्थितिमतिवाह्य एकेन्द्रियेष्वेवोत्पच सर्वबन्धको जात इत्येवं सर्वबन्धयोयथोक्तमन्तरं भवति, सर्वबन्धसमयहीनएकेन्द्रियोत्कृष्टभवस्थितेस्त्रसकायस्थितौ प्रक्षेपणेऽपि सङ्ख्यातस्थानानां सङ्ख्यातभेदत्वेन सङ्ख्यातवर्षाभ्यधिकत्वस्याव्याहतत्वादिति । 'देसबंधतरं जहन्नेणं खुडागं भवग्गहणं समयाहियंति, कथम् !, र
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥४०३॥
১৮৫২৮%
एकेन्द्रियो देशबन्धकः सन् मृत्वा द्वीन्द्रियादिषु क्षुल्लकभव ग्रहणमनुभूयाविग्रहेण चागत्य प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा द्वितीये देशबन्धको भवति, एवं च देशबन्धान्तरं क्षुल्लकभवः सर्वबन्धसमयातिरिक्तः, 'उक्को सेण' मित्यादि सर्वबन्धान्तर| भावनोक्तप्रकारेण भावनीयमिति ॥ अथ पृथिवीकायिकबन्धान्तरं चिन्तयन्नाह - 'जीवस्से' त्यादि, 'एवं चेव' त्ति कर णात् 'तिसमयऊणाई' ति दृश्यम्, 'उक्कोसेणं अनंतं कालं'ति, इह कालानन्तत्वं वनस्पतिकाय स्थितिकालापेक्षयाऽ| नन्तकालमित्युक्तं तद्विभजनार्थमाह- 'अनंताओ' इत्यादि, अयमभिप्रायः - तस्यानन्तस्य कालस्य समयेषु अवसर्पिण्यु| त्सर्पिणीसमयैरपद्रियमाणेष्वनन्ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्यो भवन्तीति, 'कालओ'त्ति इदं कालापेक्षया मानं, 'खेत्तओ'त्ति | क्षेत्रापेक्षया पुनरिदम्- 'अनंता लोग'त्ति, अयमर्थः - तस्यानन्तकालस्य समयेषु लोकाकाशप्रदेशैरपह्रियमाणेष्वनन्ता लोका भवन्ति, अथ तत्र कियन्तः पुद्गलपरावर्त्ता भवन्ति ? इत्यत आह- 'असंखेज्जेत्यादि, पुद्गलपरावर्त्तलक्षणं सामान्येन पुनरिदं - दशभिः कोटी कोटीभिरद्धापल्योपमानामेकं सागरोपमं दशभिः सागरोपमकोटीकोटीभिरवसर्पिणी, उत्सपिण्यप्येवमेव, ता अवसर्पिण्युत्सर्पिण्योऽनन्ताः पुद्गलपरावर्तः, एतद्विशेषलक्षणं तु इहैव वक्ष्यतीति, पुद्गलपरावर्त्ता - | नामेवा सङ्ख्यातत्वनियमनायाह - 'आवलिए'त्यादि, असङ्ख्यातसमयसमुदायश्चावलिकेति । 'देसबंधंतरं जहन्त्रेण मित्यादि, भावना त्वेवं - पृथिवीकायिको देशबन्धकः सन्मृतः पृथिवीकायिकेषु क्षुल्लकभवग्रहणं जीवित्वा मृतः सन् पुनरविग्रहेण पृथिवीकायिकेष्वेवोत्पन्नः, तत्र च सर्वबन्धसमयानन्तरं देशबन्धको जातः, एवं च सर्वबन्धसमयेनाधिकमेकं क्षुल्लकभवग्रहणं देशबन्धयोरन्तरमिति । 'वणस्सइकाइयाणं दोन्नि खुड्डाई ति वनस्पतिकायिकानां जघन्यतः सर्वबन्धा
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८ शतके उद्देशः ९ औदारिक
बन्धः
सू ३४८
॥४०३ ॥
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न्तरं द्वे क्षुल्लके भवग्रहणे 'एवं चेवत्तिकरणाश्रिसमयोने इति दृश्यम् , एतद्भावना च वनस्पतिकायिकस्त्रिसमयेन विग्रहेणोत्पन्नः तत्र च विग्रहस्य समयद्वयमनाहारकस्तृतीये समये च सर्वबन्धको भूत्वा क्षुल्लकभवं च जीवित्वा पुनः पृथि-17 व्यादिषु क्षुल्लकभवमेव स्थित्वा पुनरविग्रहेण वनस्पतिकायिकेष्वेवोत्पन्नः प्रथमसमये च सर्वबन्धकोऽसाविति सर्वबन्धयो|स्त्रिसमयोने द्वे क्षल्लकभवग्रहणे अन्तरं भवत इति । 'उक्कोसेण'मित्यादि, अयं च पृथिव्यादिषु कायस्थितिकाल: "एवं| देसबंधंतरंपित्ति यथा पृथिव्यादीनां देशबन्धान्तरं जघन्यमेवं वनस्पतेरपि, तच्च क्षुल्लकभवग्रहणं समयाधिक, भावना चास्य पूर्ववत् , 'उक्कोसेणं पुढविकालोत्ति उत्कर्षेण वनस्पतेदेशबन्धान्तरं 'पृथिवीकाल' पृथिवीकायस्थितिकालोs| सङ्ख्यातावसर्पिण्युत्सर्पिण्यादिरूप इति ॥ अथौदारिकदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह-'एएसी'त्यादि, तत्र | सर्वस्तोकाः सर्वबन्धकास्तेषामुत्पत्तिसमय एव भावात् , अबन्धका विशेषाधिकाः, यतो विग्रहगतौ सिद्धत्वादौ च ते भवन्ति, ते च सर्वबन्धकापेक्षया विशेषाधिकाः, देशबन्धका असङ्ख्यातगुणाः, देशबन्धकालस्यासङ्ख्यातगुणत्वात्, एतस्य च सूत्रस्य भावनां विशेषतोऽग्रे वक्ष्याम इति ॥ अथ वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धनिरूपणायाह
वेउवियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गोयमा ! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-एगिंदियवेवियसरीरप्पयोगबंधे य पंचिंदियवेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे य । जइ एगिदियवेउवियसरीरप्पयोगबंधे किं वाउकाइयएगिदियसरीरप्पयोगबंधे य अवाउक्काइयएगिदिय० एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे वेउविय- सरीरभेदो तहा भाणियचो जाव पज्जत्तसन्चहसिद्धअणुत्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियवेविय
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१
उद्देशा क्रियादिबन्धः सू३४९
॥४०४॥
सरीरप्पयोगबंधे य अपज्जत्तसवट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइय जाव पयोगबंधे य । वेउब्वियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते। कस्स कम्मस्स उदएणं, गोयमा ! वीरियसजोगसद्दवयाए जाव आउयं वा लद्धिं वा पडच वेउवियसरीर- प्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं वेउवियसरीरप्पयोगबंधे । वाउक्काइयएगिदियवउवियसरीरप्पयोग० पुच्छा, गोयमा! वीरियसजोगसव्वयाए चेव जाव लडिंच पड्डुच्च वाउक्काइयएगिदियवेउविय जाव बंधो।रयणप्पभापुढविनेरइयपंचिंदियवेउवियसरीरप्पयोगबंघेणं भंते! कस्स कम्मस्स उदएणं?,गोयमा! वीरियसयोगसव्वयाएजाव
आउयं वा पडुन रयणप्पभापुढवि०जाव बंधे, एवं जाव अहेसत्तमाए। तिरिक्खजोणियपंचिंदियवेउवियसरी| रपुच्छा, गोयमा ! वीरिय० जहा वाउकाइयाणं, मणुस्सपंचिंदियवेउन्विय एवं,चेव, असुरकुमारभवणवा| सिदेवपंचिंदियवेउविय. जहा रयणप्पभापुढविनेरइया एवं जाव थणियकुमारा, एवं वाणमंतरा एवं जोइसिया एवं सोहम्मकप्पोवगया वेमाणिया एवं जाव अच्चुयगेवेजकप्पातीया वेमाणिया, एवं चेव अणुत्तरो|ववाइयकप्पातीया वेमाणिया एवं चेव । वेउवियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! किं देसबंधे सबबंधे ?, गोपमा ! | देसबंधेवि सबबंधेवि, वाउक्काइयएगिदिय एवं चेव रयणप्पभापुढविनेरइया एवं चेव, एवं जाव अणुत्तरोववाइया ॥ वेउवियसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवच्चिरं होइ?, गोयमा ! सबबंधे जहन्नेणं एक समयं | उक्कोसेणं दो समया, देसबंधे जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं समयूणाई ॥ वाउकाइएगिदियवेउवियपुच्छा, गोयमा ! सबबंधे एक समयं देसबंधे जहन्नेणं एक समयं उक्कोसेणं अंतोमुटुत्तं ॥ रय
SECREASE
॥४०४॥
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गप्पभापुढविनेरइय पुच्छा, गोयमा ! सङ्घबंधे एकं समयं देसबंधे जहन्नेणं दसवाससहस्साइं तिसमयऊणाई | उक्कोसेणं सागरोवमं समजणं, एवं जाव आहेसत्तमा, नवरं देसबंधे जस्स जा जहन्निया ठिती सा समऊणा कायवा जस्स जाव उक्कोसा सा समयूणा ॥ पंचिदियतिरिक्खजोणियाण मणुस्साण य जहा वाउक्काइयाणं । असुरकुमारनागकुमार० जाव अणुत्तरोववाइयाणं जहा नेरइयाणं नवरं जस्स जा ठिई सा भाणियवा जाव अणुत्तरोववाइयाणं सङ्घबंधे एकं समयं देशबंधे जहन्नेणं एकतीसं सागरोवमाई तिसमणाई उक्कोसेणं तेतीसं सागरोवमाइं समऊणाई || वेउच्चियसरीरप्पयोगबंधंतरे णं भंते ! कालओ केवञ्चिरं होइ ?, गोयमा ! सङ्घबंधंतरं जहन्नेणं एवं समयं उक्कोसेणं अणतं कालं अनंताओ जाव आवलियाए असंखेज्जइभागो, एवं देसबंधंतरंपि ॥ वाक्कायवेडवियसरीर पुच्छा, गोयमा ! सङ्घबंधंतरं जहनेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं, एवं सबंधंतरंपि ॥ तिरिक्खजोणिय पंचिंदियवेउचियसरीरप्पयोगबंधंतरं पुच्छा, गोयमा ! सङ्घबंधतरं जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं पुढकोडीपुहुत्तं, एवं देसबंधंतरंपि, मणूसस्सवि ॥ जीवस्स णं भंते ! वाकाइयन्ते नोवाकाइयत्ते पुणरवि वाउकाइयन्ते वाउकाइयएगिंदिय० वेउचियपुच्छा, गोयमा ! सङ्घधंतरं जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं वणस्सइकालो, एवं देसबंधंतरंपि ॥ जीवस्स णं भंते ! रयणप्पभापुढविनेरइयत्ते णोरयणप्पभापुढवि० पुच्छा, गोयमा ! सङ्घबंधंतरं जहन्नेणं दस वाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमन्भहियाई उक्कोसेणं वणस्सइकालो, देसबंधंतरं जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं वणस्सह
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शतके | उद्देशः ९ वैक्रियादि
बन्धः सू३४९
व्याख्या
कालो, एवं जाव अहेसत्तमाए, नवरं जा जस्स ठिती जहन्निया सा सवबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुत्तमम्भप्रज्ञप्तिः |हिया कायवा, सेसं तं चेव, पंचिंदियतिरिक्खजोणियमणुस्साण य जहा वाउक्काइयाणं । असुरकुमारनागकुमार अभयदेवी- जाव सहस्सारदेवाणं एएसिं जहा रयणप्पभापुढविनेरइयाणं नवरं सत्वबंधंतरे जस्स जा ठिती जहन्निया सा बा वृत्तिःला |अंतोमुहुत्तमभहिया कायवा, सेसं तं चेव ॥ जीवस्स णं भंते ! आणयदेवत्ते नोआणयपुच्छा, गोयमा !
सवबंधंतरं जहन्नेणं अट्ठारस सागरोवमाई वासपुहत्तमन्भहियाई उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो, देस॥४०५॥
बंधंतरं जहन्नेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालो, एवं जाव अच्चुए नवरं जस्स जा .ठिती सा सबबंधंतरं जह• वासपुहुत्तमन्भहिया कायवा सेसं तं चेव। गेवेजकप्पातीयपुच्छा, गोयमा! सबबंधंतरं जह-| नेणं बावीसं सागरोवमाई वासपुहुत्तमभहियाई उक्कोसेणं अर्थतं कालं वणस्सइकालो, देसबंधंतरं जहन्नेणं वासपुहुत्तं उक्कोसेणं वणस्सइकालो ॥जीवस्स णं भंते ! अणुत्तरोववातियपुच्छा, गोयमा ! सबबंधंतरं जहनेणं एकतीसं सागरोवमाई वासपुहत्तमभहियाई उक्कोसेणं संखेज्जाई सागरोवमाई, देसर्वधंतरं जहन्नेणं |वासपुदुत्तं उक्कोसेणं संखेजाई सागरोवमाइं॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं वेउवियसरीरस्स देसबंधगाणं सबबधगाणं अबंधगाण यकयरे२हिंतो जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा वेउवियसरीरस्स संवबंधगा देसबंधगा असंखेजगुणा अबंधगा अणंतगुणा ॥ आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे| पण्णत्ते, गोयमा! एगागारे पण्णत्ते।जइएगागारे पण्णत्ते किंमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे किं अमणुस्साहा
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रगसरीरप्पयोगबंधे ?, गोयमा ! मणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे नो अमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे, एवं एएणं अभिलावेणं जहा ओगाहणसंठाणे जाव इडिपत्तपमत्तसंजयसम्मदिहिपजत्तसंखेज्जवासाउयकम्मभूमिगगन्भवतियमणुस्साहारगसरीरप्पयोगबंधे णो अणिढिपत्तपमत्त जाव आहारगसरीरप्पयोगधंधे । आहारगसरीरप्पयोगबंधे गं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं?, गोयमा! वीरियसयोगसद्दचयाए जाव लद्धिं पडुच्च | आहारगसरीरप्पयोगणामाए कम्मरस उदएणं आहारगसरीरप्पयोगबंधे । आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे सबबंधे; गोयमा! देसबंधेवि सबबंधेवि । आहारगसरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सवबंधे एकं समयं देसबंधे जहन्नणं अंतोमुहत्तं उक्कोसणवि अंतोमुहत्तं ॥ आहारगसरीरप्पयोगबंधंतरे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! सवबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उकोसेणं अणंतं | कालं अणंताओ ओसप्पिणिउस्सप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोया अवडपोग्गलपरियई देसूणं, एवं
देसबंधंतरंपि ॥ एएसि णं भंते ! जीवाणं आहारगसरीरस्स देसबंधगाणं सबंधगाण अबंधगाण य कयरे ४२ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सवत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सबंधगा देसबंधगा संखेजगुणा
अबंधगा अणंतगुणा ३॥ (सूत्रं ३४९)॥ | तत्र 'एगिदियवेउविए'त्यादि वायुकायिकापेक्षमुक्तं, 'पंचिंदिए'त्यादि तु पञ्चेन्द्रियतिर्यडमनुष्यदेवनारकापेक्ष-| का मिति । 'वीरिये'त्यादौ यावत्करणात् 'पमायपचया कम्मं च जोगं च भवं चेति द्रष्टव्यं 'लद्धिं वत्ति वैक्रिय-||
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१
॥४०६॥
SSC SAMSUNAUSHALA
करणलब्धि वा प्रतीत्य, एतच्च वायुपश्चेन्द्रियतिर्यमनुष्यानपेक्ष्योक्तं, तेन वायुकायादिसूत्रेषु लब्धि वैक्रियशरीरब-
II न्धस्य प्रत्ययतया वक्ष्यति, नारकदेवसूत्रेषु पुनस्तां विहाय वीर्यसयोगसद्रव्यतादीन् प्रत्ययतया वक्ष्यतीति ॥ 'सवर्षधे
|८शतके.
उद्देश: जहन्नणं एवं समयंति, कथं ?, वैक्रियशरीरिषूत्पद्यमानो लब्धितो वा तत् कुर्वन् समयमेकं सर्वबन्धको भवतीत्येवमेक वैक्रियादिसमयं सर्वबन्ध इति, 'उक्कोसेणं दो समय'त्ति, कथं ?, औदारिकशरीरी वैक्रियतां प्रतिपद्यमानः सर्वबन्धको भूत्वा मृतः
बन्ध: पुनर्नारकत्वं देवत्वं वा यदा प्रामोति तदा प्रथमसमये वैक्रियस्य सर्वबन्धक एवेतिकृत्वा वैक्रियशरीरस्य सर्वबन्धक उत्कृष्टतः
सू३४९ समयद्वयमिति, 'देसबंधे जहन्नेणं एवं समयंति, कथं ?, औदारिकशरीरी वैक्रियतां प्रतिपद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धको भवति द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृत इत्येवं देशबन्धो जघन्यत एक समयमिति, 'उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई। समयऊणाई'ति, कथं ,देवेषु नारकेषु चोत्कृष्टस्थितिषूत्पद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्ध-18 कस्तेन सर्वबन्धकसमयेनोनानि त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्युत्कर्षतो देशबन्ध इति॥'वाउकाइए'त्यादि, 'देसबंधे जहन्नेणं एक समयंति, कथं ?, वायुरौदारिकशरीरी सन् वैक्रियं गतस्ततःप्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीयसमये देशबन्धको भूत्वा मृत इत्येवं| | जघन्येनैको देशबन्धसमयः 'उक्कोसेणं अंतोमुहत्तंति वैक्रियशरीरेण स एव यदाऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रमास्ते तदोत्कर्षतो देशबन्धोड-18
तमहत्तै, लब्धिवैक्रियशरीरिणो जीवतोऽन्तर्महात्परतो न वैक्रियशरीरावस्थानमस्ति, पुनरौदारिकशरीरस्यावश्यं प्रतिपत्तेरिति ॥रयणप्पभेत्यादि, 'देसबंधे जहन्नेणं दस वाससहस्साई ति समयऊणाईति, कथं , त्रिसमयविग्रहेण रक्षा-10॥४०६॥ भायां जघन्यस्थिति रकः समुत्पन्नः तत्र च समयद्वयमनाहारकस्तृतीये च समये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको वैक्रियस्य
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तदेवमाद्यसमयन्त्रयम्यूनं वर्षसहस्रदशकं जघन्यतो देशबन्धः, 'उक्कोसेणं सागरोवमं समयऊणं'ति, कथं १, अविग्रहेण रत्नप्रभायामुत्कृष्टस्थितिर्नारकः समुत्पन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको वैक्रियशरीरस्य ततः परं देशबन्धकस्तेन सर्वबन्धसमयेनोनं सागरोपममुत्कर्षतो देशबन्ध इति, एवं सर्वत्र सर्वबन्धः समयं देशबन्धश्च जघन्यो विग्रहसमयन्त्रयन्यूनो निजनिजजघन्यस्थितिप्रमाणो वाच्यः, सर्वबन्धसमयन्यूनोत्कृष्टस्थितिप्रमाणश्चोत्कृष्टदेशबन्ध इति, एतदेवाह - 'एवं जावे'| त्यादि, पञ्चेन्द्रिय तिर्यङ्मनुष्याणां वैक्रिय सर्वबन्ध एकं समयं देशबन्धस्तु जघन्यत एकं समयमुत्कर्षेण त्वन्तर्मुहूर्तम् ॥ एतदे | वातिदेशेनाह- 'पंचिंदिये 'त्यादि, यच्च "अंतमुहुत्तं निरएसु होइ चत्तारि तिरियमणुपसु । देवेसु अद्धमासो उक्कोस विउवणाकालो ॥ १ ॥” [ नरकेष्वन्तर्मुहूर्त्त भवति तिर्यङ्मनुष्येषु चत्वारि देवेष्वर्द्धमासः उत्कृष्टो विकुर्वणाकालः ॥ १ ॥ ] इति वचनसामर्थ्यादन्तर्मुहूर्त्तचतुष्टयं तेषां देशबन्ध इत्युच्यते तन्मतान्तरमित्यवसेयमिति ॥ उक्तो वैक्रियशरीरप्रयोगबन्धस्य कालः, अथ तस्यैवान्तरं निरूपयन्नाह - 'वेडघिये' त्यादि, 'सङ्घबंधंतरं जहनेणं एवं समयं 'ति, कथं १, औदारिकशरीरी वैक्रियं गतः प्रथमसमये सर्वबन्धको द्वितीये देशबन्धको भूत्वा मृतो देवेषु नारकेषु वा वैक्रियशरीरिष्वविग्रहेणो| त्पद्यमानः प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवमेकः समयः सर्वबन्धान्तरमिति, 'उक्कोसेणं अणतं कालं'ति, कथं १, औदारिकशरीरी वैक्रियं गतो वैक्रियशरीरिषु वा देवादिषु समुत्पन्नः स च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा देशवन्धं च कृत्वा मृतः ततः परमनन्तं कालमौदारिकशरीरिषु वनस्पत्यादिषु स्थित्वा वैक्रियशरीरवत्सूत्पन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको जातः, एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति, [ प्रन्थाग्रम् ९००० ] ' एवं देसबंधंतरंपि त्ति, जघन्येनैकं समयमु
"
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः १
॥४०७॥
त्कृष्टतोऽनन्तं कालमित्यर्थः, भावना चास्य पूर्वोक्तानुसारेणेति ॥ 'वाउक्काइए' त्यादि 'सवबंधंतरं जहनेणं अंतोमुहुतंति, कथं १, वायुरौदारिकशरीरी वैक्रियमापन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा मृतः पुनर्वायुरेव जातः, तस्य | चापर्यातकस्य वैक्रियशक्तिर्नाविर्भवतीत्यन्तर्मुहूर्त्तमात्रेणासौ पर्याप्तको भूत्वा वैक्रियशरीरमारभते, तत्र चासौ प्रथमसमये सर्वबन्धको जात इत्येवं सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त्तमिति, 'उक्कोसेणं पलिओवमस्स असंखेज्जइभागं ति, कथं १, वायुरौदारिकशरीरी वैक्रियं गतः, तत्प्रथमसमये च सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको भूत्वा मृतस्ततः परमोदारिकशरीरिषु वायुषु पल्योपमा सत्येय भागमतिवाह्यावश्यं वैक्रियं करोति, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकः, एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति, 'एवं देसबंधंतरंपि'त्ति, अस्य भावना प्रागिवेति । 'तिरिक्खे'त्यादि, 'सङ्घबंधंतरं जहनेणं अंतोमुहत्तं'ति, कथं ?, पञ्चेन्द्रिय तिर्यग्योनिको वैक्रियं गतः तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकस्ततः परं देशबन्धकोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रं तत औदारिकस्य सर्वबन्धको भूत्वा समयं देशबन्धको जातः पुनरपि श्रद्धेयमुत्पन्ना वैक्रियं करोमीति पुनर्वैक्रियं कुर्वतः प्रथमसमये सर्वबन्धः, एवं च सर्वबन्धयोर्यथोक्तमन्तरं भवतीति, 'उक्कोसेणं पुचकोडिपुहुत्तं'ति, कथं ?, पूर्वकोव्यायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धकस्ततो देशबन्धको भूत्वा कालान्तरे मृतस्तत्र पूर्वकोव्यायुः पचेन्द्रियतिर्यक्ष्वेवोत्पन्नः पूर्वजन्मना सह सप्ताष्टौ वा वारान्, ततः सप्तमेऽष्टमे वा भवे वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धं कृत्वा देशबन्धं करोतीति, एवं च सर्वबन्धयोरुत्कृष्टं यथोक्तमन्तरं भवतीति, 'एवं देसबंधंतरंपि त्ति, भावना | चास्य सर्वबन्धान्तरोक्तभावनानुसारेण कर्त्तव्येति ॥ वैक्रियशरीरबन्धान्तरमेव प्रकारान्तरेण चिन्तयन्नाह - 'जीवस्से'
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८ शतके उद्देशः ९ वैक्रियादि
बन्धः
सू ३४९
॥४०७ ॥
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CARE
त्यादि, 'सत्वबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं ति, कथं ?, वायु_क्रियशरीरं प्रतिपन्नः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको भूत्वा है मृतस्ततः पृथिवीकायिकेषूत्पन्नः तत्रापि क्षुल्लकभवग्रहणमात्रं स्थित्वा पुनर्वायुर्जातः, तत्रापि कतिपयान् क्षुल्लकभवान्द
स्थित्वा वैक्रियं गतः, तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धको जातस्ततश्च वैक्रियस्य सर्वबन्धयोरन्तरं बहवः क्षुल्लकभवास्ते च बहवोऽप्यन्तर्मुहूर्त, अन्तर्मुहुर्ते बहूनां क्षुल्लकभवानां प्रतिपादितत्वात् , ततश्च सर्वबन्धान्तरं यथोक्तं भवतीति, 'उक्कोसेणं अणंतं कालं वणस्सइकालोत्ति, कथं ?, वायुर्वैक्रियशरीरीभवन् मृतो वनस्पत्यादिष्वनन्तं कालं स्थित्वा वैक्रियशरीरं पुनर्यदा लप्स्यते तदा यथोक्तमन्तरं भविष्यतीति, 'एवं देसबंधंतरंपित्ति, भावना चास्य प्रागुक्तानुसारेणेति ॥
रत्नप्रभासूत्रे 'सवबंधंतर'मित्यादि, एतद्भाव्यते-रत्नप्रभानारको दशवर्षसहस्रस्थितिक उत्पत्ती सर्वबन्धका तत उद्धृतस्तु | है गर्भजपञ्चेन्द्रियेष्वन्तर्मुहूर्त स्थित्वा रत्नप्रभायां पुनरप्युत्पन्नः तत्र च प्रथमसमये सर्वबन्धक इत्येवं सूत्रोक्तं जघन्यमन्तरं
सर्वबन्धयोरिति, अयं च यदाऽपि प्रथमोत्पत्तौ त्रिसमयविग्रहेणोत्पद्यते तदापि न दश वर्षसहस्राणि त्रिसमयन्यूनानि भवन्ति, | अन्तर्मुहूर्तस्य मध्यात्समयत्रयस्य तत्र प्रक्षेपात्, न च तत्प्रक्षेपेऽप्यन्तर्मुहूर्तस्यान्तर्मुहूर्त्तत्वव्याघातस्तस्यानेकभेदत्वादिति, 'उक्कोसेणं वणस्सइकालोति, कथं?, रत्नप्रभानारक उत्पत्तौ सर्वबन्धकः तत उद्धृतश्चानन्तं कार्ल वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पद्यमानः सर्वबन्धक इत्येवमुत्कृष्टमन्तरमिति, 'देसबंधंतरं जहन्नेणं अंतोमुहत्तं ति, कथं ?, रत्नप्रभानारको देशबन्धकः सन् मृतोऽन्तर्मुहूर्त्तायुः पञ्चेन्द्रियतिर्यक्तयोत्पद्य मृत्वा रत्नप्रभानारकतयोत्पन्नः, तत्र च द्वितीयसमये देश-18 बन्धक इत्येवं जघन्य देशबन्धान्तरमिति, 'उक्कोसेण'मित्यादि, भावना प्रागुक्तानुसारेणेति । शर्कराप्रभादिनारकाणां
in
due an inter
nal
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१
॥४०॥
ल्या, उत्कृष्टं त्वनन्तं कालं, या
ROSCORROSURANCE
असुरकुमारे'त्यादि, तत्र
वैक्रियशरीरबन्धान्तरमतिदेशतः सङ्केपार्थमाह-एवं जावेत्यादि, द्वितीयादिपृथिवीषु च जघन्या स्थितिः क्रमेणैक शतके त्रीणि सप्त दश सप्तदश द्वाविंशतिश्च सागरोपमाणीति । 'पंचिदिए'त्यादौ 'जहा वाउकाइयाण'ति जघन्येनान्तर्मु- उद्देशः९ हूर्तमुत्कृष्टतः पुनरनन्तं कालमित्यर्थः । असुरकुमारदयस्तु सहस्रारान्ता देवा उत्पत्तिसमये सर्वबन्धं कृत्वा स्वकीयां वैक्रियादिजघन्यस्थितिमनुपास्य पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु जघन्येनान्तर्मुहूर्तायुष्कत्वेन समुत्पद्य मृत्वा च तेष्वेव सर्वबन्धका जाताः, एवं
बन्धः
सू३४९ च तेषां वैक्रियस्य जघन्यं सर्वबन्धान्तरं जघन्या तस्थितिरन्तर्मुहूर्त्ताधिका वक्तव्या, उत्कृष्टं त्वनन्तं कालं, यथा रक्षणभानारकाणामिति, एतद्दर्शनायाह-'असुरकुमारे'त्यादि, तत्र जघन्या स्थितिरसुरकुमारादीनां व्यन्तराणां च दश | वर्षसहस्राणि ज्योतिष्काणां पल्योपमाष्टभागः सौधर्मादिषु तु “पलियमहियं दो सार साहिया सत्तदस य चोइस या सतरस य' इत्यादि ॥ आनतसूत्रे 'सर्वधंतर'मित्यादि, एतस्य भावना आनतकल्पीयो देव उत्पत्ती सर्वबन्धका, स चाष्टादशसागरोपमाणि तत्र स्थित्वा ततश्च्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्येषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पन्नः प्रथमसमये चासौ सर्वबन्धक इत्येवं सर्वबन्धान्तरं जघन्यमष्टादश सागरोपमाणि वर्षपृथक्त्वाधिकानीति, उत्कृष्टं त्वनन्तं कालं, कथं , स एव तस्माच्युतोऽनन्तं कालं वनस्पत्यादिषु स्थित्वा पुनस्तत्रैवोत्पन्नः प्रथमसमये चासौ सर्वबन्धक इत्येवमिति, 'देसबंधतरं ॥४०८॥ जहन्नेणं वासपुछत्तं ति, कथं, स एव देशबन्धकः संश्युतो वर्षपृथक्त्वं मनुष्यत्वमनुभूय पुनस्तत्रैव गतस्तस्य च सर्वबन्धानन्तरं देशबन्ध इत्येवं सूत्रोक्तमन्तरं भवति, इहच यद्यपि सर्वबन्धसमयाधिक वर्षपृथक्त्वं भवति तथाऽपि तस्य वर्ष-15 थक्त्वादनन्तरत्वविवक्षया न भेदेन गणनमिति । एवं प्राणतारणाच्युतप्रैवेयकसूत्राण्यपि ज्ञेयानि । अथ सनत्कुमारा
ज्योतिष्काणां
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दिसहस्रारान्ता देवा जघन्यतो नवदिनायुष्केभ्यः आनताद्यच्युतान्तास्तु नवमासायुष्केभ्यः समुत्पद्यन्त इति जीवसमासेऽभिधीयते, ततश्च जघन्यं तत्सर्वबन्धान्तरं तत्तदधिकतज्जघन्यस्थितिरूपं प्राप्नोतीति, सत्यमेतत्, केवल मतान्तरमेवेदमिति ॥ अनुत्तरविमान सूत्रेतु 'उक्कोसेण' मित्यादि, उत्कृष्टं सर्वबन्धान्तरं देशबन्धान्तरं च सहयातानि सागरोपमाणि, | यतो नानन्तकालमनुत्तरविमानच्युतः संसरति, तानि च जीवसमासमतेन द्विसयानीति ॥ अथं वैक्रिय शरीरदेशबन्ध - कादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह - 'एएसी'त्यादि, तत्र सर्वस्तोका वैक्रिय सर्वबन्धकास्तत्कालस्याल्पत्वात्, देशबन्धका असङ्ख्यातगुणास्तत्कालस्य तदपेक्षयाऽसङ्ख्येयगुणत्वात्, अबन्धका स्वनन्तगुणाः सिद्धानां वनस्पत्यादीनां च तदपेक्षयांअनन्तगुणत्वादिति ॥ अथाहारकशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याह - ' आहा रे' त्यादि, 'एगागारे'ति एकः प्रकारो नौदारि .कादिवन्धवदे केन्द्रियाद्यनेकप्रकार इत्यर्थः, 'सङ्घबंधे एकं समयं ति आद्यसमय एव सर्वबन्धभावात्, 'देसबंधे जह नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणवि अंतोमुहुत्तं'ति, कथं १, जघन्यत उत्कर्षतश्चान्तर्मुहूर्त्तमात्रमेवाहारकशरीरी भवति, परत औदारिकशरीरस्यावश्यं ग्रहणात्, तत्र चान्तर्मुहूर्त्ते आद्यसमये सर्वबन्धः उत्तरकालं व देशबन्ध इति ॥ अथाहारकशरीरप्रयोगबन्धस्यैवान्तरनिरूपणा याह - ' आहारे'त्यादि, 'सङ्घबंधंतरं जनेणं अंतोमुहुत्तं ति कथं १, मनुष्य आहारकशरीरं प्रतिपन्नस्तत्प्रथमसमये च सर्वबन्धकस्ततोऽन्तर्मुहूर्त्तमात्रं स्थित्वादारिकशरीरं गतस्तत्राप्यन्तर्मुहूर्त्त स्थितः, पुनरपि च तस्य संशयादि आहारकशरीर करणकारणमुत्पन्नं ततः पुनरप्याहारकशरीरं गृह्णाति, तंत्र च प्रथमसमये सर्वथन्धक एवेति, एवं च सर्वबन्धान्तरमन्तर्मुहूर्त्त, द्वयोरप्यन्तर्मुहूर्त्तयोरेकत्वविधक्षणादिति, 'उक्कोसेणं अनंतं कालं ति;
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१
ISRAEHREENSHAHAR
ESSA%20-
॥४०॥
कथं ?, यतोऽनन्तकालादाहारकशरीर.पुनर्लभत इति, कालानन्त्यमेव विशेषेणाह-'अणंताओ उस्सप्पिणीओ ओ- ८ शतके |स्सप्पिणीओ कालओ खेत्तओ अणंता लोग'त्ति, एतद्व्याख्यानं च प्राग्वत् । अथ तत्र पुद्गलपरावर्त्तपरिमाणं किं
उद्देशः९ भवति ? इत्याह-'अवडं पोग्गलपरियदृ देसूर्ण ति, 'अपार्धम्' अपगतार्द्धमर्द्धमात्रमित्यर्थः "पुद्गलपरावर्त' प्रागु
औदारिकतस्वरूपम् , अपार्द्धमप्यर्द्धतः पूर्ण स्यादत आह-देशोनमिति । 'एवं देसबंधंतरंपित्ति जघन्येनान्तर्मुहूर्तमुत्कर्षतः पुन
बन्धकत्वा
दिसू ३५० रपार्द्ध पुद्गल परावर्त देशोनं, भावना तु पूर्वोक्तानुसारेणेति ॥ अथाहारकशरीरदेशबन्धकादीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह'एएसि णमित्यादि, तत्र सर्वस्तोका आहारकस्य सर्वबन्धकास्तत्सर्वबन्धकालस्याल्पत्वात्, देशबन्धकाः सङ्ख्यातगुणा| स्तदेशबन्धकालस्य बहुत्वात् , असङ्ख्यातगुणास्तु ते न भवन्ति, यतो मनुष्या अपि सङ्ख्याताः किं पुनराहारकशरीरदे| शबन्धकाः', अबन्धकास्त्वनन्तगुणाः, आहारकशरीरं हि मनुष्याणां तत्रापि संयतानां तेषामपि केषाश्चिदेव कदाचिदेव च भवतीति, शेषकाले ते शेषसत्त्वाश्चाबन्धकाः, ततश्च सिद्धवनस्पत्यादीनामनन्तगुणत्वादनन्तगुणास्त इति ॥ अथ तेजसशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याह
तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा पंचविहे पण्णत्ते, तंजंहा-एगिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे बेइंदिय० तेइंदिय० जाव पंचिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे । एगिदियतेयासरीरप्पयोगबंधे णं ॥४०९॥ भंते ! कइविहे पण्णत्ते?, एवं एएणं अभिलावेणं भेदो जहा ओगाहणसंठाणे जाव पजत्तसवट्ठसिद्धअणु-१६| त्तरोववाइयकप्पातीयवेमाणियदेवपंचिंदियतेयासरीरप्पयोगबंधे य अपज्जत्तसवट्ठसिद्धअणुत्तरोववाइयजा
%
454555
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वबंधे य । तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मरस उदएणं, गोयमा ! वीरियसजोगसव्वयाए जाव द आउयं च पडुच्च तेयासरीरप्पयोगनामाए कम्मरस उदएणं तेयासरीरप्पयोगबंधे । तेयासरीरप्पयोगबंधे गं
भंते ! किं देसबंधे सवबंधे ?, गोयमा ! देसबंधे नो सवबंधे ॥ तेयासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अणाइए वा अपज्जवसिए अणाइए वा सपज्जवसिए॥ तेयासरीरप्पयोगबंधंतरे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ?, गोयमा ! अणाइयस्स अपज्जवसियस्स नत्थि अंतरं, अणाइयस्स सपजवसियस्स नत्थि अंतरं ॥ एएसिणं भंते ! जीवाणं तेयासरीरस्स देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा! सवत्थोवा जीवा तेयासरीरस्स अबंधगा देसवंधगा अणंतगुणा ४ (सूत्रं ३५०)॥
'तेये'त्यादि, 'नो सवबंधे'त्ति तैजस शरीरस्यानादित्वान्न सर्वबन्धोऽस्ति, तस्य प्रथमतः पुद्गलोपादानरूपत्वादिति । 'अणाइए वा अपजवसिए'इत्यादि, तत्रायं तैजसशरीरबन्धोऽनादिरपर्यवसितोऽभव्यानां अनादिः सपर्यवसितस्तु भव्यानामिति ॥ अथ तैजसशरीरप्रयोगबन्धस्यैवान्तरनिरूपणायाह-'तेये'त्यादि, 'अणाइयस्से'त्यादि, यस्मात्संसारस्थो | जीवस्तैजसशरीरबन्धेन द्वयरूपेणापि सदाऽविनिर्मुक्त एव भवति तस्माद्द्वयरूपस्याप्यस्य नास्त्यन्तरमिति ॥ अथ तैजसशरीरदेशबन्धकाबन्धकानामल्पत्वादिनिरूपणायाह-'एएसी'त्यादि, तत्र सर्वस्तोकास्तैजसशरीरस्याबन्धकाः सिद्धाना-|
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१
॥४१०॥
ॐॐॐॐॐॐ
| मेव तदबन्धकत्वात् , देशबन्धकास्त्वनन्तगुणास्तद्देशबन्धकानां सकलसंसारिणां सिद्धेभ्योऽनन्तगुणत्वादिति ॥ अथ
८ शतके कार्मणशरीरप्रयोगबन्धमधिकृत्याह
उद्देशः ९ कम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! अट्ठविहे पण्णत्ते, तंजहा-नाणावरणिज्ज
कार्मणव
न्धासू३५१ कम्मासरीरप्पयोगबंधे जाव अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगबंधे । णाणावरणिनकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते । कस्स कम्मस्स उदएणं १, गोयमा! नाणपडिणीययाए णाणणिण्हवणयाए णाणंतराएणं णाणप्पदोसेणं| णाणचासादणाए णाणविसंवादणाजोगेणं णाणावरणिजकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं 31 णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे। दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उद| एणं?, गोयमा ! दसणपडिणीययाए एवं जहा णाणावरणिज्जं नवरं दसणनाम घेत्तवं जाव दसणविसंवादणाजोगेणं दरिसणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं जावप्पओगबंधे । सायावेयणिजकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कस्स कम्मस्स उदएणं ?, गोयमा ! पाणाणुकंपयाए भूयाणुकंपयाए एवं जहा सत्तमसए दसमोऽसए जाव अपरियावणयाए सायावेयणिज्जकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं ॥४१०॥ |सायावेयणिज्जकम्मा जाव बंधे । अस्सायावेयणिज्जपुच्छा,गोयमा ! परदुक्खणयाए परसोयणयाए जहा सत्त-|||| मसए समोद्देसए जाव परियावणयाए अस्सायावेयणिजकम्माजाव पयोगबंधे। मोहणिज्जकम्मासरीरप्पचोगपुच्छा, गोयमा ! तिवकोहयाए तिवमाणयाए तिवमायाए तिवलोभाए तिबदसणमोहणिज्जयाए तिवचरित्समो
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हणिज्जयाए मोहणिज्नकम्मासरीरजावपयोगबंधे । नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगबंधेणं भंते ! पुच्छा, गोयमा! है महारंभयाए महापरिग्गयाए कुणिमाहारेणं पंचिंदियवहेणं नेरइयाउयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स
उदएणं नेरइयाउयकम्मासरीरजाव पयोगधंधे । तिरिक्खजोणियाउयकम्मासरीरप्पओगपुच्छा, गोयमा ! माइल्लियाए नियडिल्लयाए अलियवयणेणं कूडतुलकूडमाणेणं तिरिक्खजोणियकम्मासरीरजावपयोगधंधे । मणुस्सआउयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा ! पगइभद्दयाए पगइविणीययाए साणुकोसयाए अमच्छरियाएं मणुस्साउयकम्मा जावपयोगबंधे । देवाउयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा ! सरागसंजमेणं संजमासंजमेणं चालतवोकम्मेणं अकामनिज्जराए देवाउयकम्मासरीर जावपयोगबंधे ॥ सुभनामकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा! कायउजुययाए भावुज्जययाए भासुजुययाए अविसंवादणजोगेणं सुभनामकम्मासरीरजावप्पयोगबंधे ॥ असुभनामकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा ! कायअणुज्जुययाए भावअणुज्जुययाए भासअणुज्जुययाए विसंवायणाजोगेणं असुभनामकम्माजाव पयोगबंधे । उच्चागोयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा! जातिअमदेणं कुलअमदेणं बलअमदेणं स्वअमदेणं तवअमदेणं सुयअमदेणं लाभअमदेणं इस्सरियअमदेणं उच्चागोयकम्मासरीरजाब पयोगबंधे, नीयागोयकम्मासरीरपुच्छा, गोयमा ! जातिमदेणं कुलमदेणं बलमदेणं जाव इस्सरियमदेणं णीया| गोयकम्मासरीरजावपयोगबंधे । अंतराइयकम्मासरीरपुच्छा,गोयमा! दाणंतराएणं लाभंतराएणं भोगंतराएणं |उवभोगंतराएणं वीरियंतराएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पयोगनामाए कम्मस्स उदएणं अंतराइयकम्मासरीरप्पयो
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USA
SICशतके
उद्देशः ९ | कार्मणवन्धःसू३५१
व्याख्या-ला गबंधे ॥णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते! किं देसबंधे सवबंधे?, गोयमा! देसबंधेणो सवबंधे, एवं
प्रज्ञप्तिः जाव अंतराइयकम्मा ।णाणावरणिनकम्मासरीरप्पयोगबंधे णं भंते ! कालओ केवचिरं होइ?,गोयमा!णाणा. अभयदेवी- दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-अणाइए सपज्जवसिए अणाइए अपज्जवसिए वा एवं जहा तेयगस्स संचिट्ठणा तहेव एवं जाव या वृत्तिः
अंतराइयकम्मस्स। णाणावरणिज्जकम्मासरीरप्पयोगधंतरेणं भंते !कालओ केवच्चिर होइ,गोयमा अणाइयस्स ॥४१॥
एवं जहा तेयगसरीरस्स अंतरं तहेव एवं जाव अंतराइयस्स। एएसि णं भंते ! जीवाणं नाणावरणिजस्स कम्मरस देसबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव अप्पाबहुगं जहा तेयगस्स, एवं आउयवजं जाव अंतराइय|स्साआउयस्स पुच्छा,गोयमा सवत्थोवा जीवा आउयस्स कम्मस्स देसबंधगा अबंधगा संखेजगुणा५(सूत्रं३५१)॥
'कम्मासरीरेत्यादि, 'णाणपडिणीययाए'त्ति ज्ञानस्य-श्रुतादेस्तदभेदात् ज्ञानवतां वा या प्रत्यनीकता-सामान्येन प्रतिकूलता सा तथा तया, 'णाणनिण्हवणयाए'त्ति ज्ञानस्य-श्रुतस्य श्रुतगुरूणां वा या निहवता-अपलपन सा | तथा तया, 'नाणंतराएणं ति ज्ञानस्य-श्रुतस्यान्तरायः-तद्रहणादौ विघ्नो यः स तथा तेन, 'नाणपओसे
'ति ज्ञाने-श्रुतादौ ज्ञानवत्सु वा यः प्रद्वेषः-अप्रीतिः स तथा तेन, 'नाणऽचासायणाए'त्ति ज्ञानस्य ज्ञानिनां मावा याऽत्याशातना-हीलना सा तथा तया, 'नाणविसंवायणाजोगेणं'ति ज्ञानस्य ज्ञानिनां वा विसंवादन|| योगो-व्यभिचारदर्शनाय व्यापारो यः स तथा तेन, एतानि च बाह्यानि कारणानि ज्ञानावरणीयकाम्मेणशरीरबन्धे,
अथाऽऽन्तरं कारणमाह-'नाणावरणिज्ज'मित्यादि, ज्ञानावरणीयहेतुत्वेन ज्ञानावरणीयलक्षणं यत्कार्मणशरीरप्रयोग
श्रुतस्यान्तरातः स तथा जोगणति जान ज्ञानावर
|॥४१॥
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नाम तत्तथा तस्य कर्मण उदयेनेति, 'दसणपडिणीययाए'त्ति इह दर्शनं-चक्षुर्दर्शनादि, तिबदसणमोहणिज्जयाए'त्ति | तीव्रमिथ्यात्वतयेत्यर्थः 'तिवचरितमोहणिज्जयाएंति कषायव्यतिरिक्तं नोकषायलक्षणमिह चारित्रमोहनीयं ग्राह्य, तीव्रक्रोधतयेत्यादिना कषायचारित्रमोहनीयस्य प्रागुक्तत्वादिति, 'महारंभयाए'त्ति अपरिमितकृष्याद्यारम्भतयेत्यर्थः, महारंभपरिग्गहयाए'त्ति अपरिमाणपरिग्रहतया कुणिमाहारेणं'ति मांसभोजनेनेति माइल्लयाए'त्ति परवञ्चनबुद्धिव(म)त्तया 'नियडिल्लयाए'निकृतिः-वञ्चनार्थ चेष्टा मायाप्रच्छादनार्थं मायान्तरमित्येके अत्यादरकरणेन परवश्चनमित्यन्ये तदत्तया, 'पगइभद्दयाए'त्ति स्वभावतः पराननुतापितया 'साणुकोसयाए'त्ति सानुकम्पतया 'अमच्छरिययाए'त्ति मत्सरिकः-परगुणानामसोढा तद्भावनिषेधोऽमत्सरिकता तया ॥ 'सुभनामकम्मे'त्यादि, इह शुभनाम देवगत्यादिकं कायउज्जययाए'त्ति कायर्जुकतया परावश्चनपरकायचेष्टया 'भावुज्जययाए'त्ति भावर्जुकतया परावश्चनपरमनःप्रवृत्त्येत्यर्थः, 'भामुज्जययाए'त्ति भाषर्जुकतया भाषाऽऽजवेनेत्यर्थः 'अविसंवायणाजोगेणं ति विसंवादनं-अन्यथाप्रतिपन्नस्यान्यथाकरणं तद्रूपो योगो-व्यापारस्तेन वा योगः-सम्बन्धो विसंवादनयोगस्तन्निषेधादविसंवादनयोगस्तेन, इह च कायर्जुकतादित्रयं वर्तमानकालाश्रयं, अविसंवादनयोगस्त्वतीतवर्तमानलक्षणकालद्वयाश्रय इति ॥ "असुभनामकम्मेत्यादि, इह
चाशुभनाम नरकगत्यादिकम् ॥ 'कम्मासरीरप्पओगबंधे णमित्यादि, कार्मणशरीरप्रयोगबन्धप्रकरणं तैजसशरीरप्रयो-5 है गबन्धप्रकरणवन्नेयं, यस्तु विशेषोऽसावुच्यते-'सवत्थोवा आउयस्स कम्मस्स देसबंधग'त्ति, सर्वस्तोकत्वमेषामायुर्ब
न्धाद्धायाः स्तोकत्वादबन्धाद्धायास्तु बहुगुणत्वात् तदबन्धकाः सङ्ख्यातगुणाः, नन्वसङ्ख्यातगुणास्तदबन्धकाः कस्मान्नोक्काः?
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व्याख्या- तदबन्धाद्धाया असङ्ख्यातजीवितानाश्रित्यासङ्ख्यातगुणत्वात् , उच्यते, इदमनन्तकायिकानाश्रित्य सूत्रं, तत्र चानन्तकायिका शतके
प्रज्ञप्तिः सङ्ख्यातजीविता एव, ते चायुष्कस्याबन्धकास्तदेशबन्धकेभ्यः सङ्ख्यातगुणा एव भवन्ति, यद्यबन्धकाः सिद्धादयस्तन्मध्ये Bा उद्देशा अभयदेवी-क्षिप्यन्ते तथाऽपि तेभ्यः सङ्ख्यातगुणा एव ते, सिद्धाद्यबन्धकानामनन्तानामप्यनन्तकायिकायुर्बन्धकापेक्षयाऽनन्तभागत्वा-शरीराणांव यावृत्तिः || दिति । ननु यदायुषोऽबन्धकाः सन्तो बन्धका भवन्ति तदा कथं न सर्वबन्धसम्भवस्तेषाम् 1, उच्यते, न हि आयुःप्रकृ- न्ध सू३५२
तिरसती सर्वातैर्निबध्यते औदारिकादिशरीरवदिति न सर्वबन्धसम्भव इति ॥ प्रकारान्तरेणौदारिकादि चिन्तयन्नाह॥४१२॥
| जस्स णं भंते ! ओरालियसरीरस्स सवबंधे से णं भंते ! वेवियसरीस्स किं बंधए अबंधए ?, गोयमा ! नो बंधए अबंधए, आहारगसरीरस्स किं बंधए अबंधए १. गोयमा ! नो बंधए अबंधए, तेयासरीरस्स किं बंधए अबंधए ?, गोयमा ! बंधए नो अबंधए, जइ बंधए किं देसबंधए सबंधए', गोयमा! देसबंधए नो सबबंधए, कम्मासरीरस्स किं बंधए अबंधए !, जहेव तेयगस्स जाव देसबंधए नो सबबंधए ॥ जस्स ण भत!
ओरालियसरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! वेवियसरीरस्स किंबंधए अबंधए १, गोयमा ! नो बंधए अपंधए, || एवं जहेव सवबंधेणं भणियं तहेव देसबंधेणवि भाणियत्वं जाव कम्मगस्स णं 1 जस्स णं मंते ! उधियसरी-|| रस्स सबंधए से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए १, गोयमा ! नो बंधए अबंधए, आहारग- ३१२३॥
सरीरस्स एवं चेव, तेयगस्स कम्मगस्स य जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियचं जाष देसपंधए नो का सबबंधए । जस्स णं भंते ! वेउवियसरीरस्स देसबंधे से कं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए',
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गोयमा! नो बंधए अबंधए, एवं जहा सबंधेणं भणियं तहेव देसबंधेणवि भाणियवं जाव कम्मगस्स। जस्स || भंते ! आहारगसरीरस्स सबबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए !, गोयमा ! नो बंधए| अबंधए, एवं वेउवियस्सवि, तेयाकम्माणं जहेव ओरालिएणं समं भणियं तहेव भाणियत्वं । जस्स णं भंते।। आहारगसरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीर० एवं जहा आहारगसरीरस्स सबंधेणं भणियंतहा देसबंधेणवि भाणियचं जाव कम्मगस्स । जस्स णं भंते ! तेयासरीरस्स देसबंधे से णं भंते ! ओरालियसरीरस्स किं बंधए अबंधए, गोयमा ! बंधए वा अबंधए वा, जइ बंधए किं देसबंधए सबंधए १, गोयमा ! देसबंधए वा सवबंधए वा, वेउवियसरीस्स किं बंधए अबंधए? एवं चेव, एवं आहारगसरीरस्सवि, कम्मगसरीरस्स किं बंधए अबंधए?, गोयमा ! बंधए नो अबंधए, जइबंधए किं देसबंधए सवधए?, गोयमा! देसंबंधए नोसबबंधए । जस्स णं भंते! कम्मगसरीरस्स देसबंधे से णं भंते! ओरालियसरीरस्स जहा तेयगस्स वत्तधया भणिया तहा कम्मगस्सवि भाणियचा जाव तेयासरीरस्स जाव देसबंधए नो सवबंधए (सूत्रं ३५२)॥
'जस्से त्यादि, 'नो बंधए'त्ति, न ह्येकसमये औदारिकवैक्रिययोर्बन्धो विद्यत इतिकृत्वा नो बन्धक इति । एवमाहारकस्यापि । तैजसस्य पुनः सदैवाविरहितत्वाद्वन्धको देशबन्धकेन, सर्वबन्धस्तु नास्त्येव तस्येति । एवं कार्मणशरीर| स्यापि वाच्यमिति । एवमौदारिकसर्वबन्धमाश्रित्य शेषाणां बन्धचिन्तार्थः अनन्तरं दण्डक उक्तोऽथौदारिकस्यैव देशबन्धकमाश्रित्यान्यमाह-'जस्स 'मित्यादि, अथ वैक्रियस्य सर्ववन्धमाश्रित्य शेषाणां बन्धचिन्तार्थोऽन्यो दण्डकः, तत्रच
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जहे'त्यादि, यथामति भावः । धिए वत्ति त
८ शतके
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः१
एवोत्पत्ति
॥४१३॥
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'तेयगस्स कम्मगस्स जहेवे'त्यादि, यथौदारिकशरीरसर्वबन्धकस्य तैजसकार्मणयोर्देशबन्धकत्वमुक्तमेवं वैक्रियशरीरसर्वबन्धकस्यापि तयोर्देशबन्धकत्वं वाच्यमिति भावः। वैक्रियदेशबन्धदण्डक आहारकस्य सर्वबन्धदण्डको देशबन्धदण्ड- उद्देशः९ | कश्च सुगम एव । तैजसदेशबन्धकदण्डके तु 'बंधए वा अबंधए वत्ति तैजसदेशबन्धक औदारिकशरीरस्य बन्धको वा स्यादबन्धको वा, तत्र विग्रहे वर्तमानोऽबन्धकोऽविग्रहस्थः पुनर्बन्धकः स एवोत्पत्तिक्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये सर्वबन्धक काल्पबहुत्वं द्वितीयादौ तु देशबन्धक इति, एवं कार्मणशरीरदेशबन्धकदण्डकेऽपि वाच्यमिति ॥ अथौदारिकादिशरीरदेशबन्धका- | सू ३५३ दीनामल्पत्वादिनिरूपणायाह| एएसि णं भंते ! सखजीवाणं ओरालियवेउवियआहारगतेयाकम्मासरीरगाणं देसबंधगाणं सवबंधगाणं अबंधगाण य कयरे २ जाव विसेसाहियावा?, गोयमा! सवत्थोवा जीवा आहारगसरीरस्स सबंधगा १ तस्स चेव देसबंधगा संखेनगुणा २ वेउब्वियसरीरस्स सबंधगा असंखेजगुणा ३ तस्स चेव देसबंधगा असंखेजगुणा ४ तेयाकम्मगाणं तुण्हवि तुल्ला अबंधगा अणंतगुणा ५ ओरालियसरीरस्स सबबंधगा अणंतगुणा | तस्स चेव अपंधगा विसेसाहिया ७ तस्स चेव देसबंधगा असंखेनगुणा ८ तेयाकम्मगाणं देसबंधगा विसे-18| साहिया ९ वेउबियसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया १० आहारगसरीरस्स अबंधगा विसेसाहिया ११ । सेवं||
॥४१॥ भंते !२॥ सूत्रं (३५३) अट्ठमसयस्स नवमो उद्देसओ समत्तो॥८-९॥ 'एएसी'त्यादि, तत्र सर्वस्तोका आहारकशरीरस्य सर्वबन्धकाः, यस्मात्ते चतुर्दशपूर्वधरास्तथाविधप्रयोजनवन्त एव
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भवन्ति, सर्वबन्धकालश्च समयमेवेति, तस्यैव च देशबन्धकाः सङ्ग्येयगुणाः, देशबन्धकालस्य बहुत्वात् , वैक्रियशरीरखाना सर्वबन्धका असङ्ख्येयगुणाः, तेषां तेभ्योऽसत्यातगुणत्वात् , तस्यैव च देशबन्धका असङ्ख्येयगुणाः, सर्वबन्धाद्धापेक्षया
देशबन्धाद्धाया असङ्ख्यातगुणत्वात् , अथवा सर्वबन्धका प्रतिपद्यमानकाः देशबन्धकास्तु पूर्वप्रतिपन्नाः, प्रतिपद्यमानकेभ्यश्च ४ पूर्वप्रतिपन्नानां बहुत्वात् , वैक्रियसर्वबन्धकेभ्यो देशबन्धका असङ्ख्येयगुणाः, तैजसकार्मणयोरबन्धका अनन्तगुणाः,
यस्मात्ते सिद्धास्ते च वैक्रियदेशबन्धकेभ्योऽनन्तगुणा एव, वनस्पतिवर्जसर्वजीवेभ्यः सिद्धानामनन्तगुणत्वादिति, औदारिकशरीरस्य सर्वबन्धका अनन्तगुणास्ते च वनस्पतिप्रभृतीन् प्रतीत्य प्रत्येतव्याः, तस्यैव चाबन्धका विशेषाधिकाः, एते हि विग्रहगतिकाः सिद्धादयश्च भवन्ति, तत्र च सिद्धादीनामत्यन्ताल्पत्वेनेहाविवक्षा, विग्रहगतिकाश्च वक्ष्यमाणन्यायेन सर्वबन्धकेभ्यो बहुतरा इति तेभ्यस्तदबन्धका विशेषाधिका इति, तस्यैव चौदारिकस्य देशबन्धका असङ्ख्यातगुणाः, विग्रहाद्धापेक्षया देशबन्धाद्धाया असङ्ख्यातगुणत्वात् , तेजसकार्मणयोर्देशबन्धका विशेषाधिकाः, यस्मात्सर्वेऽपि संसारिणस्तै-12 | जसकार्मणयोर्देशबन्धका भवन्ति, तत्र च ये विग्रहगतिका औदारिकसर्वबन्धका वैक्रियादिबन्धकाश्च.ते औदारिकदेशबन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्त इति ते विशेषाधिका इति, वैक्रियशरीरस्याबन्धका विशेषाधिकाः, यस्माद्वैक्रियस्य बन्धकाः प्रायो देवनारका एव शेषास्तु तदबन्धकाः सिद्धाश्च, तत्र च सिद्धास्तैजसादिदेशबन्धकेभ्योऽतिरिच्यन्ते इति ते विशेषाधिकार | उक्ताः, आहारकशरीरस्याबन्धका विशेषाधिका यस्मान्मनुष्याणामेवाहारकशरीरं वैक्रियं तु तदन्येषामपि,ततो वैक्रियबन्ध-| केभ्य आहारकबन्धकानां स्तोकत्वेन वैक्रियाबन्धकेभ्य आहारकाबन्धका विशेषाधिका इति । इह चेय स्थापना
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८ शतके उद्देशः९ | बन्धषष्ट्रि
शिका
व्याख्या प्रज्ञप्तिः
॥ ओराल०१॥ ॥ वेरुविय०२॥ ॥ आहारग० ३॥ ॥ तैजस०४॥ ॥कार्मण.५॥ अभयदेवी-1
सबबंधा अणंता ६ सवबंध० असं०३ सबबंध० थोवा १ देसबंध.विसेसाहिया ९ देसबंधा विसेसाया वृत्तिः१
देसबंधा असंखेज०८ देसबंध० असंखे० ४ देसबंध.संख्यातगुणा२ अबंधा अर्णता हिया ९ ॥४१४|| (विग्रहगति)अबंधा अबंधा विसेसा- अबंधा विसेसा
अबंधा अणंता विसेसाहिया ७ । हिया १० हिया ११
इहाल्पबहुत्वाधिकारे वृद्धा गाथा एवं प्रपश्चितबन्तःओरालसवबंधा थोवा अब्बंधया विसेसहिया । तत्तो य देसबंधा असंखगुणिया कहं नेया ! ॥१॥ पढममि सबबंधो समए सेसेसु || | देसबंधो उ । सिद्धाईण अबंधी विग्गहगइयाण य जियाणं ॥ २॥ इह पुण विग्गहिए च्चिय पहुच्च भणिया अबंधगा अहिया । सिद्धा
अर्णतभागंमि सबबन्धाणवि भवन्ति ॥ ३ ॥ उजुयाय एगवंका दुहओवंका गई भवे तिविहा । पढमाइ सव्वबंधा सव्वे बीयाइ अद्ध तु॥४॥ G|| तइयाइ तइयभंगो लब्भइ जीवाण सव्वबंधाणं । इति तिन्नि सव्वबंधा रासी तिन्नेव य अबंधा ॥ १५॥ रासिप्पमाणओ ते तुल्लाडMIबंधा य सव्वबंधा य । संखापमाणओ पुण अबंधगा पुण जहन्भहिया ॥६॥जे एगसमइया ते एगनिगोदंमि छदिसि एंति । दुसमइया |तिपयरिया तिसमईया सेसलोगाओ॥७॥ तिरियाययं चउद्दिसि पयरमसंखप्पएसबाहल्लं । उदुं पुन्वावरदाहिणुत्तरायया य दो पयरा ॥८॥ ने तिपयरिया ते छदिसिएहितो भवलऽसंखगुणा । सेसावि असंखगुणा खेत्तासंखेजगुणियत्ता ॥ ९॥ एवं विसेसअहिया अबंधया सव्वबंधएहि
KALANCE
॥४१॥
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कोई ॥ १० ॥ दीवि लवजह
ई निगोया बिगहिया
OCTO
तो। तिसमइयविग्गहं पुण पडुच्च सुत्तं इमं होइ ॥ १० ॥ चउसमयविग्गहं पुण संखेज्जगुणा अबंधगा होति । एएसिं निदरिसणं ठवणारासीहिं वोच्छामि ॥ ११ ॥ पढमो होइ सहस्सं दुसमझ्या दोवि लक्खमेक्केछ । तिसमइया पुण तिन्निवि रासी कोडी भवेकेका ॥ १२ ॥ एएसिं जहसंभवमत्थोवणयं करेज्ज रासीणं । एत्तो असंखगुणिया वोच्छं जहू देसबंधा से ॥ १३ ॥ एगो असंखभागो वट्टइ उवववृणो. ववायम्मि । एगनिगोए निच्चं एवं सेसेसुवि स एव ॥ १४ ॥ अंतोमुहुत्तमेत्ता ठिई निगोयाण जं विणिहिट्ठा । पल्लुटुंति निगोया तम्हा अंतोमुहुत्तेणं ॥ १५॥ तेसिं ठितिसमयाणं विग्गहसमया हवंति जइभागे । एवतिभागे सवे विग्गहिया सेसजीवाणं ॥ १६ ॥ सवेवि य विग्गहिया सेसाणं जं असंखभागंमि । तेणासंखगुणा देसबंधयाऽबंधएहितो ॥ १७ ॥ वेउवियआहारगतेयाकम्माई पढियसिद्धाई । तहवि विसेसो जो जत्थ तत्थ तं तं भणीहामि ॥ १८ ॥ वेउवियसबबंधा थोवा जे पढमसमयदेवाई । तस्सेव देसबंधा असं-| | खगणिया कह के वा?॥१९॥ [उच्यते- तेसिं चिय जे सेसा ते सधे सव्वबंधए मोत्तुं । होति अबंधाणंता तवज्जा सेसजीवा जे ॥२०॥ आहारसव्वबंधा थोवा दो तिन्नि पंच वा दस वा । संखेजगुणा देसे ते उ पुहुत्तं सहस्साणं ॥ २१ ॥ तव्वज्जा सव्व
जिया अबंधया ते हवंतऽणतगुणा । थोवा अबन्धया तेयगस्स संसारमुक्का जे ॥ २२ ॥ सेसा य देसबंधा तव्वज्जा ते हंवतऽणंतगुणा । एवं ४ कम्मगभेयावि नवरि णाणत्तमाउम्मि ॥ २३ ॥ [तच्चायुर्नानात्वमेवम्-] थोवा आउयबंधा संखेजगुणा अबंधया होति । तेयाकम्माणं|| | सव्वबंधगा नत्थऽणाइत्ता ॥ २४ ॥ अस्संखेजगुणा आउगस्स किमबंधगा न भन्नति ? । जम्हा असंखभागो उव्वट्टइ एगसमएणं | ॥ २५ ॥ भन्नइ एगसमइओ कालो उव्वट्टणाइ जीवाणं । बंधणकालो पुण आउगस्स अंतोमुहुत्तो उ ॥२६॥ जीवाण ठिईकाले आउयबंधद्धभाइए लद्धं । एवइभागे आउस्स बंधया सेसजीवाणं ॥ २७ ॥ जं संखेजतिभागो ठिइकालस्साउबंधकालो उ । तम्हाऽसंखगुणा
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
८ शतके उद्देशः९ बन्धपडिंशिका
॥४१५॥
RECASSSSS
| से अबंधया बंधएहितो ॥ २८॥ ['से'त्ति आयुषः ] संजोगप्पाबहुयं आहारगसव्वबंधगा थोवा । तस्सेव देसबंधा संखगुणा ते य पुव्वुत्ता ॥ २९ ॥ तत्तो वेउब्वियसव्वबंधगा दरिसिया असंखगुणा । जमसंखा देवाई उववज्जतेगसमएणं ॥ ३० ॥ तस्सेव देसबंधा | असंखगुणिया हवंति पुवुत्ता । तेयगकम्माबंधा अणंतगुणिया य ते सिद्धा ॥ ३१ ॥ तत्तो उ अणंतगुणा ओरालियसव्वबंधगा होति ।। तस्सेव ततोऽबंधा य देसबंधा य पुव्वुत्ता ॥ ३२ ॥ तत्तो तेयगकम्माणं देसबंधा भवे विससहिया । ते चेवोरालियदेसबंधगा होंतिमे वऽन्ने ॥ ३३ ॥ जे तस्स सव्वंबंधा अबंधगा जे य नेरइयदेवा । एएहिं साहिया ते पुणाइ के सव्वसंसारी ! ॥ ३४ ॥ वेउब्वियस्स तत्तो अबधगा साहिया विसेसेणं । ते चेव य नेरइयाइविरहिया सिद्धसंजुत्ता ॥ ३५ ॥ आहारगस्स तत्तो अबंधगा साहिया विससेणं । ते पुण के !! | सव्वजीवा आहारगलद्धिए मोत्तुं ॥ ३६॥ | इहौदारिकसर्वबन्धादीनामल्पत्वादिभावनार्थ सर्वबन्धादिस्वरूपं तावदुच्यते-इह ऋजुगत्या विग्रहगत्या चोत्पद्यमा| नानां जीवानामुत्पत्तिक्षेत्रप्राप्तिप्रथमसमये सर्वबन्धो भवति, द्वितीयादिषु तु देशबन्धः, सिद्धादीनामित्यत्रादिशब्दाद्वैक्रियादिबन्धकानां च जीवानामौदारिकस्याबन्ध इति, इह च सिद्धादीनामबन्धकत्वेऽप्यत्यन्ताल्पत्वेनाविवक्षणाद्वेग्रहिकानेव प्रतीत्य सर्वबन्धकेभ्योऽबन्धका विशेषाधिका उक्ता इति ॥१-२॥ एतदेवाह-साधारणेष्वपि सर्वबन्धभावात्सर्वबन्धकाः सिद्धेभ्योऽनन्तगुणाः, यत एवं ततः सिद्धास्तेषामनन्तभागे वर्तन्ते, यदि च सिद्धा अपि तेषामनन्तभागे वत्तेन्ते तदा सुतरां वैक्रिय बन्धकादय इति प्रतीयन्त एव, ततश्च तान् विहायैव सिद्धपदमेवाधीतमिति॥शाअथ सर्वबन्धकानामबन्धकानां च समताभिधानपूर्वकमबन्धकानां विशेषाधिकत्वमुपदर्शयितमाह-ऋज्वायतायां गती सर्वबन्धका एवाघसमये
57-ASSAGAR
॥४१५॥
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माणतोऽधिका अब
भवन्त्येवमेकस्तेषां राशिः, एकवक्रया ये उत्पद्यन्ते तेषां ये प्रथमे समये तेऽबन्धका द्वितीये तु सर्ववन्धका इत्येवं तेषां द्वितीयो राशिः, स चैकवक्राभिधानद्वितीयगत्योत्पद्यमानानामर्द्धभूतो भवतीति, द्विवक्रया गत्या ये पुनरुत्पद्यन्ते ते आये समयद्वयेऽबन्धकास्तृतीये तु सर्वबन्धकाः, अयं च सर्वबन्धकानां तृतीयो राशिः, स च द्विवक्राभिधानतृतीयगत्योत्पद्यमानानां त्रिभागभूतो भवति, तृतीयसमयभावित्वात्तस्य, एवं च त्रयः सर्वबन्धकानां राशयः त्रय एव चाबन्धकानां, समयभेदेन राशिभेदादिति, एवं च ते राशिप्रमाणतस्तुल्या यद्यपि भवन्ति तथाऽपि सङ्ख्याप्रमाणतोऽधिका अबन्धका भवन्ति ॥ ४-५-६॥ ते चैवम्-ये एकसमयिका ऋजुगत्योत्पद्यमानका इत्यर्थः ते एकस्मिन्निगोदे-साधारण| शरीरे लोकमध्यस्थिते षड्भ्यो दिग्भ्योऽनुश्रेण्याऽऽगच्छन्ति, ये पुनर्द्विसमयिका एकवक्रगत्योत्पद्यमाना इत्यर्थः ते त्रिप्रतरिकाः-प्रतरत्रयादागच्छन्ति, विदिशो वक्रेणाऽऽगमनात्, प्रतरश्च वक्ष्यमाणस्वरूपः, ये पुनस्त्रिसमयिकाः-समयत्रयेण वक्रदयेन चोत्पद्यमानकास्ते शेषलोकात् प्रतरत्रयातिरिक्तलोकादागच्छन्तीति ॥७॥प्रतरप्ररूपणायाह-लोकमध्यगतैकनिगोदमधिकृत्य तिर्यगायतश्चतसृषु दिक्षु प्रतरः कल्प्यते, असङ्ख्येयप्रदेशबाहल्यो-विवक्षितनिगोदोत्पादकालोचितावगाहनाबाहल्य इत्यर्थः तन्मात्रबाहल्यावेव 'उड्डे'ति ऊ धोलोकान्तगतौ पूर्वापरायतो दक्षिणोत्तरायतश्चेति द्वौ प्रतराविति ॥ ८॥ अथाधिकृतमल्पबहुत्वमुच्यते-ये जीवास्त्रिप्रतरिका एकवक्रया गत्योत्पत्तिमन्तस्ते षदिग्भ्यः-ऋजुगत्या षड्भ्यो दिग्भ्यः सकाशाद् भवन्त्यसङ्ग्यगुणाः, शेषा अपि ये त्रिसमयिकाः शेषलोकादागतास्तेऽप्यसङ्ख्येयगुणा भवन्ति, कुतः?, क्षेत्रासजयगुणितत्वाद्, यतः षदिक्क्षेत्रात्रिप्रतरमसङ्ख्येयगुणं, ततोऽपि शेषलोक इति ॥९॥ ततः किम् ?
छन्ति, ये पुनसिपमानका इत्यर्थः ते
, विदिशो
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व्याख्याइत्याह-वऋद्वयमाश्रित्येदं सूत्रमित्यर्थः॥ १०॥ प्रथम ऋजुगत्युत्पन्नसर्वबन्धकराशिः सहस्रं परिकल्पितं, क्षेत्रस्याल्प-lel
|८ शतके प्रज्ञप्तिः त्वात् , द्विसमयोत्पन्नानां द्वौ राशी, एकोऽबन्धकानामन्यः सर्ववन्धकानां, तौ च प्रत्येकं लक्षमानौ, तत्क्षेत्रस्य बहुतरत्वात् , ये | उद्देशः९ अभयदेवी-४ पुनस्त्रिभिः समयैरुत्पद्यन्ते तेषां त्रयो राशयः, तत्र चाद्ययोः समययोरबन्धको द्वौ राशी तृतीयस्तु सर्वबन्धको राशिः, 8 बन्धपटिया वृत्तिः१ ते च त्रयोऽपि प्रत्येक कोटीमानास्तत्क्षेत्रस्य बहुतमत्वादिति, तदेवं राशित्रयेऽपि सर्वबन्धकाः सहस्रं लक्षं कोटी चेत्येवं है शिका ॥४१६॥
सर्वस्तोकाः, अबन्धकास्तु लक्षं कोटीद्वयं चेत्येवं विशेषाधिकास्त इति ॥१२॥अनेन च गाथाद्वयेनोद्वर्तनाभणनाद्विग्रहसमयसम्भवः, अन्तर्मुहूर्त्तान्ते परिवर्तनाभणनाच्च निगोदस्थितिसमयमानमुक्तं,ततश्च अयमर्थः-॥१४॥ तेषामेव वैक्रियबन्धकानां | सर्वबन्धकान् मुक्त्वा ये शेषास्ते सर्वे वैक्रियस्य देशबन्धका भवन्ति,तत्रच सर्वबन्धकान् मुक्त्वेत्यनेन कथमित्यस्य निर्वचनमुक्त, ये शेषा इत्यनेन तु के वेत्यस्येति, अबन्धकास्तु तस्यानन्ता भवन्ति, ते च के ?, ये तर्जा-वैक्रियसर्वदेशबन्धकवर्जाः शेष-2
जीवास्ते चौदारिकादिबन्धकाः देवादयश्च वैग्रहिका इति ॥२१॥ तद्वर्जाः' आहारकबन्धवर्जाः सर्बजीवा अबन्धका इत्या-8 ल हारकाबन्धस्वरूपमुक्तं, ते च पूर्वेभ्योऽनन्तगुणा भवन्ति ॥२२-२४॥ सङ्ख्यातगुणा आयुष्काबन्धका इति यदुक्तं तत्र प्रश्न-||
यन्नाह-एकोऽसङ्ख्यभागो निगोदजीवानां सर्वदोद्वर्त्तते, स च बद्धायुषामेव, तदन्येषामुद्वर्तनाऽभावात् , तेभ्यश्च ये शेषाया स्तेऽबद्धायुषः, ते च तदपेक्षयाऽसङ्ख्यातगुणा एवेत्येवमसङ्ख्यगुणा आयुष्काबन्धकाः स्युरिति, ॥२५॥ अत्रोच्यते, निगोदजीवभ-||| ४१६॥
वकालापेक्षया तेषामायुबेन्धकाल: सङ्ख्यातभागवृत्तिरित्यबन्धकाः सङ्ख्यातगुणा एव ॥ एतदेव भाव्यते-निगोदजीवानां स्थितिकालोऽन्तर्मुहूर्त्तमानः, स च कल्पनया समयलक्षं, तत्र 'आयुर्वन्धाद्धया' आयुर्बन्धकालेनान्तर्मुहूर्त्तमानेनैव कल्प
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नया समयसहस्रलक्षणेन भाजिते सति यल्लब्धं कल्पनया शतरूपं एतावति भागे वर्तन्ते आयुर्बन्धकाः 'सेसजीवाणं ति| शेषजीवानां तदबन्धकानामित्यर्थः, तत्र किल लक्षापेक्षया शतं सङ्ख्येयतमो भागोऽतो बन्धकेभ्योऽबन्धकाः सत्येयगुणा भवन्तीति ॥२६-२७ ॥ एतदेव भाव्यते ॥ २८ ॥ समाप्तोऽयं बन्धः ॥ अष्टमशते नवमः ॥८-९॥
अनन्तरोद्देशके बन्धादयोऽर्था उक्ताः, तांश्च श्रुतशीलसंपन्नाः पुरुषा विचारयन्तीति श्रुतादिसंपन्नपुरुषप्रभृतिपदार्थ-|| | विचारणार्थों दशम उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्| रायगिहे नगरे जाव एवं वयासी-अन्नउत्थिया णं भंते! एवमाइक्खंति जाव एवं परूवेति-एवं खलु सील सेयं १ सुयं सेयं २ सुयं सेयं ३ सील सेयं ४, से कहमेयं भंते ! एवं ?, गोयमा ! जन्नं ते अन्नउत्थिया एवमा-| इक्खंति जाव जे ते एवमाहंसु मिच्छा ते एवमाहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि, एवं | खलु मए चत्तारि पुरिसजाया पण्णत्ता, तंजहा-सीलसंपन्ने णामं एगेणो सुयसंपन्ने १ सुयसंपन्ने नामं एगे नो सीलसंपन्ने २ एगे सीलसंपन्नेवि सुयसंपन्नेवि ३ एगे णो सीलसंपन्ने नो सुयसंपन्ने ४, तत्थ णंजे से पढमे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं असुयवं, उवरए अविनायधम्मे, एस णंगोयमा !मए पुरिसे देसाराहए पण्णते, तत्थ णं जे से दोचे पुरिसजाए से णं पुरिसे असीलवं सुयवं, अणुवरए विनायधम्मे, एस णं गोयमा ! मए| पुरिसे देसविराहए पण्णत्ते, तत्थ णं जे से तच्चे पुरिसजाए से णं पुरिसे सीलवं सुयवं, उवरए विनायधम्मे,
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सू ३५४
व्याख्या-4 एस णं गोयमा ! मए पुरिसे सबाराहए पन्नत्ते, तत्थ णं जे से चउत्थे पुरिसजाए सेणं पुरिसे असीलवं असु शतके प्रज्ञप्तिः तवं, अणुवरए अविण्णायधम्मे, एस गंगोयमा ? मए पुरिसे सबविराहए पन्नत्ते ॥ (सूत्रं ३५४)॥
उद्देशः१० अभयदेवी-3 | 'रायगिहे'इत्यादि, तत्र च 'एवं खलु सील सेयं १ सुर्य सेयं २ सुयं सेयं ३ सील सेयं ४' इत्येतस्य चूर्ण्यनुसारेण
शीलश्रुतया वृत्तिः ।
व्याख्या-'एवं' लोकसिद्धन्यायेन 'खलु'निश्चयेन इहान्ययूथिकाः केचित् क्रियामात्रादेवाभीष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति न च | ॥४१७॥ किञ्चिदपि ज्ञानेन प्रयोजनं, निश्चेष्टत्वात् , घटादिकरणप्रवृत्तावाकाशादिपदार्थवत् , पठ्यते च-"क्रियैव फलदा पुंसां, न
ज्ञानं फलदं मतम् । यतः स्त्रीभक्ष्यभोगज्ञो, न ज्ञानात्सुखितो भवेत् ॥१॥" तथा "जहा खरो चंदणभारवाही, | भारस्स भागी न हु चंदणस्स । एवं खु नाणी चरणेण हीणो, नाणस्स भागी नहु सोगईए॥१॥"[यथा चन्दनभारवाही खरो | भारभाग न चैव चन्दनस्य । एवं चरणहीनो ज्ञानी ज्ञानभाग न तु सुगतेः॥१॥] अतस्ते प्ररूपयन्ति-शीलं श्रेयः प्राणातिपातादिविरमणध्यानाध्ययनादिरूपा क्रियैव श्रेयः-अतिशयेन प्रशस्यं श्लाघ्यं पुरुषार्थसाधकत्वात् , श्रेयं वा-समाश्रयणीयं पुरुषार्थविशेषार्थिना, अन्ये तु ज्ञानादेवेष्टार्थसिद्धिमिच्छन्ति न क्रियातः, ज्ञानविकलस्य क्रियावतोऽपि फलसिद्ध्य|दर्शनात्, अधीयते च-"विज्ञप्तिः फलदा पुंसां, न क्रिया फलदा मता। मिथ्याज्ञानात्प्रवृत्तस्य, फलासंवाददर्शनात् ॥१॥" तथा-पढमं नाणं तओ दया, एवं चिइ सबसंजए । अन्नाणी किं काही किंवा नाही छेयपावयं ॥१॥"|
॥४१७॥ [[प्रथमं ज्ञानं ततो दयैवं सर्वसंयतेषु तिष्ठति अज्ञानी किं करिष्यति किं वा ज्ञास्यति छेकं पापकं वा ॥१॥] अतस्ते | प्ररूपयन्ति-श्रुतं श्रेयः, श्रुतं-श्रुतज्ञानं तदेव श्रेयः-अतिप्रशस्यमाश्रयणीयं वा पुरुषार्थसिद्धिहेतुत्वात् न तु शीलमिति,
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अन्ये तु ज्ञानक्रियाभ्यामन्योऽन्यनिरपेक्षाभ्यां फलमिच्छन्ति, ज्ञानं क्रियाविकलमेवोपसर्जनीभूतक्रियं वा फलदं क्रियाऽपि ज्ञानविकला उपसर्जनीभूतज्ञाना वा फलदेति भावः, भणन्ति च-"किश्चिद्वेदमयं पात्रं, किञ्चित्पात्रं तपोमयम् । आग-| मिष्यति तत्पात्रं, यत्पात्रं तारयिष्यति ॥१॥" अतस्ते प्ररूपयन्ति-श्रुतं श्रेयः तथा शीलं श्रेयः ३, द्वयोरपि प्रत्येकं | पुरुषस्य पवित्रतानिबन्धनत्वादिति, अन्ये तु व्याचक्षते-शीलं श्रेयस्तावन्मुख्यवृत्त्या तथा श्रुतं श्रेयः-श्रुतमपि श्रेयो | | गौणवृत्त्या तदुपकारित्वादित्यर्थः इत्येकीयं मतं, अन्यदीयमतं तु श्रुतं श्रेयस्तावत्तथा शीलमपि श्रेयो गौणवृत्त्या तदुप४ कारित्वादित्यर्थः, अयं चार्थ इह सूत्रे काकुपाठाल्लभ्यते, एतस्य च प्रथमव्याख्यानेऽन्ययूथिकमतस्य मिथ्यात्वं, पूर्वोक्तपक्ष-5 |त्रयस्यापि फलसिद्धावनङ्गत्वात् समुदायपक्षस्यैव च फलसिद्धिकरणत्वात् , आह च-"णाणं पयासयं सोहओ तवोटू |संजमो य गुत्तिकरो। तिण्हपि समाओगे मोक्खो जिणसासणे भणिओ ॥१॥" [ज्ञानं प्रकाशकं तपः शोधकं संयमश्च | | गुप्तिकरः। त्रयाणामपि समायोगे जिनशासने मोक्षो भणितः॥१॥] तपःसंयमौ च शीलमेव, तथा-"संजोगसिद्धीइ फलं वयंति, न हु एगचक्केण रहो पयाइ । अंधो य पंगू य वणे समिच्चा, ते संपउत्ता नगरं पविट्ठा ॥१॥ इति, [फलं | संयोगसिद्ध्या वदन्ति एकचक्रेण न रथः प्रयाति । वनेऽन्धः पङ्गश्च समेत्य तौ संप्रयुक्तौ नगरं प्रविष्टौ ॥१॥] द्वितीयव्याख्यानपक्षेऽपि मिथ्यात्वं, संयोगतः फलसिद्धेदृष्टत्वाद्, एकैकस्य प्रधानेतरविवक्षयाऽसङ्गतत्वादिति, अहं पुनगाँतम ! | एवमाख्यामि यावत्प्ररूपयामीत्यत्र श्रुतयुक्तं शीलं श्रेयः इत्येतावान् वाक्यशेषो दृश्यः, अथ कस्मादेवं ?, अत्रोच्यते'एवं'मित्यादि, एवं' वक्ष्यमाणन्यायेन-'पुरिसजाय'त्ति पुरुषप्रकाराः 'सीलवं असुय'ति कोऽर्थः ?, 'उवरए अवि
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सू ३५५
व्याख्यानायधम्मत्ति 'उपरतः' निवृत्तः स्वबुद्ध्या पापात् 'अविज्ञातधर्मा' भावतोऽनधिगतश्रुतज्ञानो बालतपस्वीत्यर्थः,गीतार्था
& ८ शतके प्रज्ञप्तिः || निश्रिततपश्चरणनिरतोऽगीतार्थ इत्यन्ये, 'देसाराहए'त्ति देशं-स्तोकमंशं मोक्षमार्गस्याराधयतीत्यर्थः सम्यग्बोधरहितत्वात् ॥ उद्देशः१० अभयदेवी- क्रियापरत्वाच्चेति, 'असीलवंसुयवं'ति, कोऽर्थः?-'अणुवरएविनायधम्मे'त्ति पापादनिवृत्तो विज्ञातधर्मा चाविरतिसम्य- ज्ञानदर्शनया वृत्तिः १ ग्दृष्टिरितिभावः, 'देसविराहए'त्ति देशं-स्तोकमंशं ज्ञानादित्रयरूपस्य मोक्षमार्गस्य तृतीयभागरूपं चारित्रं विराधयती
चारित्रारात्यर्थः,प्राप्तस्य तस्यापालनादप्राप्तेर्वा, सबाराहए'त्ति सर्व-त्रिप्रकारमपि मोक्षमार्गमाराधयतीत्यर्थः,श्रुतशब्देन ज्ञानदर्शनयोः
धनाः ॥४१८॥ दि सङ्गहीतत्वात् , न हि मिथ्यादृष्टिर्विज्ञातधर्मा तत्त्वतो भवतीति, एतेन समुदितयोः शीलश्रुतयोः श्रेयस्त्वमुक्तमिति 'सवा
राहए'त्युक्तम् ॥ अथाराधनामेव भेदत आह। कतिविहा णं भंते ! आराहणा पण्णत्ता?, गोयमा! तिविहा आराहणा पण्णत्ता, तंजहा-नाणाराहणा दादसणाराहणा चरित्ताराहणा । णाणाराहणा णं भंते ! कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तिविहा पण्णत्ता, तंजहा-उक्कोसिया मज्झिमा जहन्ना । दसणाराहणा णं भंते!०, एवं चेव तिविहावि । एवं चरित्ताराहणावि ॥ जस्स णं भंते ! उक्कोसियाणाणाराहणा तस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा जस्स उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स | उक्कोसिया जाणाराहणा?, गोयमा! जस्स उक्कोसियाणाणाराहणा तस्सदसणाराहणा उक्कोसिया वा अजह
नउक्कोसिया वा, जस्स पुण उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्स नाणाराहणा उक्कोसा वा जहन्ना वा अजहन्नमणु- ॥४१८॥ |कोसा वा । जस्स णं भंते ! उक्कोसिया जाणाराहणा तस्स उक्कोसिया चरिताराहणा जस्सुकोसिया चरि
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त्ताराहणा तस्सुक्कोसिया णाणाराहणा, जहा उक्कोसिया णाणाराहणा य दंसणाराहणा य भणिया तहा |उक्कोसिया नाणाराहणा य चरित्ताराहणा य भाणियवा । जस्स णं भंते ! उक्कोसिया दंसणाराहणा तस्सुक्कोसिया चरित्ताराहणा जस्सुक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्सुक्कोसिया दंसणाराहणा?, गोयमा ! जस्स उक्को|सिया दंसणाराहणा तस्स चरित्ताराहणा उक्कोसा वा जहन्ना वा अजहन्नमणुक्कोसा वा जस्स पुण उक्कोसिया चरित्ताराहणा तस्स दंसणाराहणा नियमा उक्कोसा ॥ उक्कोसियं णं भंते ! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझंति जाव अंतं करेंति ?, गोयमा ! अत्थेगइए तेणेव भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति अत्थेगतिए दोच्चेणं भवग्गहणेणं सिझंति जाव अंतं करेंति, अत्थेगतिए कप्पोवएसु वा कप्पाती|एसु वा उववजंति, उक्कोसियं णं भंते ! दसणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं, एवं चेव, उक्कोसियण्णं | | भंते! चरित्ताराहणं आराहेत्ता, एवं चेव, नवरं अत्थेगतिए कप्पातीयएसु उववजंति । मज्झिमियं णं भंते ! णाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझंति जाव अंतं करेंति ?, गोयमा ! अत्थेगतिए दोघेणं भवग्गहणेणं सिज्झइ जाव अंतं करेंति तचं पुण भवग्गहणं नाइक्कमइ, मज्झिमियं णं भंते ! दंसणाराहणं आराहेत्ता एवं चेव, एवं मज्झिमियं चरिताराहणंपि । जहन्नियन्नं भंते ! नाणाराहणं आराहेत्ता कतिहिं भवग्गहणेहिं सिझंति जाव अंतं करेंति ?, गोयमा ! अत्थेगतिए तचेणं भवग्गहणणं सिज्झइ जाव अंतं करेइ सत्तभवग्गहणाई पुण नाइक्कमइ, एवं दसणाराहणंपि, एवं चरित्ताराहणंपि ॥ (सूत्रं ३५५)॥
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८ शतके | उद्देशः १० ज्ञानदर्शनचारित्राराधनाः
५
व्याख्या 'कतिविहा ण'मित्यादि, 'आराहण'त्ति आराधना-निरतिचारतयाऽनुपालना, तत्र ज्ञानं पञ्चप्रकारं श्रुतं वा तस्याप्रज्ञप्तिः
राधना-कालाधुपचारकरणं दर्शन-सम्यक्त्वं तस्याराधना-निश्शङ्कितत्वादितदाचारानुपालनं चारित्रं-सामायिकादि अभयदेवी- तदाराधना-निरतिचारता, 'उक्कोसिय'त्ति उत्कर्षा ज्ञानाराधना ज्ञानकृत्यानुष्ठानेषु प्रकृष्टप्रयत्नता 'मज्झिम'त्ति तेष्वेव या वृत्तिः१]
मध्यमप्रयत्नता 'जहन्न'त्ति तेष्वेवाल्पतमप्रयत्नता । एवं दर्शनाराधना चारित्राराधना चेति ॥ अथोक्ताऽऽराधनाभेदा॥४१९॥ 15 नामेव परस्परोपनिबन्धमभिधातुमाह-'जस्स ण'मित्यादि, 'अजहन्नुक्कोसा वत्ति जघन्या चासौ उत्कर्षा च-उत्कृष्टा
जघन्योत्कर्षा तन्निषेधादजघन्योत्कर्षा मध्यमेत्यर्थः, उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि आये द्वे दर्शनाराधने भवतो न पुनस्तृतीया, तथास्वभावत्वात्तस्येति । 'जस्स पुणे'त्यादि उत्कृष्टदर्शनाराधनावतो हि ज्ञान प्रति त्रिप्रकारस्यापि प्रयत्नस्य सम्भवोऽस्तीति त्रिप्रकाराऽपि तदाराधना भजनया भवतीति । उत्कृष्टज्ञानचारित्राराधनासंयोगसूत्रे तूत्तरं-यस्योत्कृष्टा | ज्ञानाराधना तस्य चारित्राराधना उत्कृष्टा मध्यमा वा स्यात्, उत्कृष्टज्ञानाराधनावतो हि चारित्रं प्रति नाल्पतमप्रयत्तता स्यात्तत्स्वभावात्तस्येति, उत्कृष्टचारित्राराधनावतस्तु ज्ञानं प्रति प्रयत्नत्रयमपि भजनया स्यात् , एतदेवातिदेशत आह'जहा उक्कोसियेत्यादि, उत्कृष्टदर्शनचारित्राराधनासंयोगसूत्रे तूत्तरं-'जस्स उक्कोसिया दसणाराहणा'इत्यादि, यस्योत्कृष्टा दर्शनाराधना तस्य चारित्राराधना त्रिविधाऽपि भजनया स्यात् , उत्कृष्टदर्शनाराधनावतो हि चारित्रं प्रति प्रयत्नस्य |त्रिविधस्याप्यविरुद्धत्वादिति । उत्कृष्टायां तु चारित्राराधनायामुत्कृष्टव दर्शनाराधना, प्रकृष्टचारित्रस्य प्रकृष्टदर्शनानुगतत्वादिति ॥ अथाराधनाभेदानां फलप्रदर्शनायाह-'उक्कोसियं ण'मित्यादि, तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइत्ति उत्कृष्टां
'जस्स पुणे त्यादि उत्कृष्टानाराधनावतो हि आय वदन्या चासौ उत्कर्षा च उत्कृष्टा
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॥४१
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ज्ञानाराधनामाराध्य तेनैव भवग्रहणेन सिद्ध्यति, उत्कृष्टचारित्राराधनायाः सद्भावे, 'कप्पोवएस वत्ति 'कल्पोपगेष' सौधर्मादिदेवलोकोपगेषु देवेषु मध्ये उपपद्यते, मध्यमचारित्राराधनासद्भावे, कप्पातीएमु वत्ति अवेयकादिदेवेषुत्पद्यते, मध्यमोत्कृष्टचारित्राराधनासद्भावे इति, तथा-'उक्कोसियं णं भंते! दसणाराहण'मित्यादि, एवं चेव'त्ति करणात् 'तेणेव भवग्गहणेणं सिज्झइ'इत्यादि दृश्यं, तद्भवसिद्ध्यादि च तस्यां स्यात्, चारित्राराधनायास्तत्रोत्कृष्टाया मध्यमायाश्चोक्तत्वा| दिति, तथा-'उक्कोसियण्णं भंते ! चारित्ताराहण'मित्यादौ 'एवं चेव'त्ति करणात् 'तेणेव भवग्गहणण'मित्यादि दृश्य, | केवलं तत्र 'अत्थेगइए कप्पोवगेसु वे'त्यभिहितमिह तु तन्न वाच्यं, उत्कृष्टचारित्राराधनावतः सौधर्मादिकल्पेष्वगमनाद्, | वाच्यं पुनः 'अत्थेगइए कप्पातीएम उववजई'त्ति सिद्धिगमनाभावे तस्यानुत्तरसुरेषु गमनात्, एतदेव दर्शयतोक्तंजानवर'मित्यादि । मध्यमज्ञानाराधनासूत्रे मध्यमत्वं ज्ञानाराधनाया अधिकृतभव एव निर्वाणाभावात्, भावे पुनरुत्कृ-|| |ष्टत्वमवश्यम्भावीत्यवसेयं, निर्वाणान्यथाऽनुपपत्तेरिति, 'दोचेणं ति अधिकृतमनुष्यभवापेक्षया द्वितीयेन मनुष्यभवेन || |'तचं पुण भवग्गहणं'ति अधिकृतमनुष्यभवग्रहणापेक्षया तृतीयं मनुष्यभवग्रहणं, एताश्च चारित्राराधनासंवलिता ज्ञाना-|| द्याराधना इह विवक्षिताः, कथमन्यथा जघन्यज्ञानाराधनामाश्रित्य वक्ष्यति 'सत्तट्ठभवग्गहणाई पुण णाइक्कमइत्ति, यतश्चारित्राराधनाया एवेदं फलमुक्तं, यदाह-"अट्ठभवा उ चरित्ते"त्ति [अष्टौ भवास्तु चारित्रे],श्रुतसम्यक्त्वदेशविरतिभवास्त्वसङ्ख्यया उक्का, ततश्चरणाराधनारहिता ज्ञानदर्शनाराधना असङ्खचेयभविका अपि भवन्ति नत्वष्टभविका एवेति॥ | अनन्तरं जीवपरिणाम उक्तोऽथ पुद्गलपरिणामाभिधानायाह
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व्याख्या
कतिविहे णं भंते ! पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे पोग्गलपरिणामे पण्णत्ते, तंजहा-वन- Pille शतके प्रज्ञप्तिः
परिणामे १ गंधप० २ रसप० ३ फासप०४ संठाणप० ५। वनपरिणामे णं कइविहे पण्णते,गोयमा! पंचविहे. उद्देशः १० अभयदेवी- |पण्णत्ते, तंजहा-कालवनपरिणामे जाव मुकिल्लवनपरिणामे, एएणं अभिलावणं गंधपरिणामे दुविहे रसप- पुद्गलपरिया वृत्तिः१ णामे पंचविहे फासपरिणामे अट्ठविहे, संठाणप. भंते ! कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, णामः तंजहा-परिमंडलसंठाणपरिणामे जाव आययसंठाणपरिणामे ॥ (सूत्रं ३५६)॥
सू ३५६ ॥४२०॥ | 'कइविहे 'मित्यादि, 'वनपरिणामे'त्ति यत्पुद्गलो वर्णान्तरत्यागाद्वर्णान्तरं यात्यसौ वर्णपरिणाम इति, एवमन्यत्रापि,
द्रव्यद्रव्य
देशादिः 'परिमंडलसंठाणपरिणामे'त्ति इह परिमण्डलसंस्थानं वलयाकारं, यावत्करणाच्च 'वसंठाणपरिणामे तंससंठाणपरिणामे चउरससंठाणपरिणामे'त्ति दृश्यम् ॥ पुद्गलाधिकारादिदमाह____एगे भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसे किं दवं १ दवदेसे २ दवाई दबदेसा ४ उदाहुदवं च दरदेसे य ५ उदाहु | दवं च दबदेसा य ६ उदाहु दराईच दवदेसेय ७ उदाह दवाई च दबदेसाय ८१, गोयमा ! सिय दवं सिय
दबदेसे नोदवाई नो छदेसा नो दवं च दवदेसे यजांव नो दवाई च दखदेसा य ॥ दो भंते ! पोग्गलस्थिका|यपएसा किं दवं दवदेसे पुच्छा तहेव, गोयमा ! सिय दवं १ सिय दवदेसे २ सिय दवाई ३ सिय दवदेसा ४ ॥४२०॥
सिय दवं च दबदेसे य५नो दवं च दबदेसाय ६ सेसा पडिसेहेयचा ॥ तिन्नि भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा दकिं दवं दबदेसे ? पुच्छा, गोयमा ! सिय दत्वं १ सिय दबदेसे २ एवं सत्त भंगा भाणियबा, जाव सिय दवाई
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ॐACHAR
पहाटेसेय नो दवदेसा य । चत्तारि भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा किं दवं? पुच्छा, गोयमा ! सिय दई १ ट्रासिय दवदेसे २ अट्ठवि भंगा भाणियचा जाव सिय दवाई च दबदेसा य८। जहा चत्तारि भणिया एवं
पंच छ सत्त जाव असंखेजा। अणंता भंते ! पोग्गलस्थिकायपएसा किं दवं०१, एवं चेव जाव सिय दवाइंच दबदेसा य ॥ (सूत्रं ३५७) केवतिया णं भंते ! लोयागासपएसा पन्नत्ता?, गोयमा ! असंखेज्जा लोयागासपएसा पन्नत्ता ॥ एगमेगस्सणं भंते! जीवस्स केवइया जीवपएसा पण्णत्ता?,गोयमा ! जावतिया लोगागासपएसा एगमेगस्स णं जीवस्स एवतिया जीवपएसा पण्णत्ता ॥ (सूत्रं ३५८)॥
एगे भंते ! पोग्गलत्थिकाये'इत्यादि, पुद्गलास्तिकायस्य-एकाणुकादिपुद्गलराशेः प्रदेशो-निरंशोऽशः पुद्गलास्तिकायप्र४ देशा-परमाणुः द्रव्यं-गुणपर्याययोगि द्रव्यदेशो-द्रव्यावयवः, एवमेकत्वबहुत्वाभ्यां प्रत्येकविकल्पाश्चत्वारः, द्विकसं
योगा अपि चत्वार एवेति प्रश्नः, उत्तरं तु स्याद्रव्यं द्रव्यान्तरासम्बन्धे सति, स्याद्रव्यदेशो द्रव्यान्तरसम्बन्धे सति, | शेषविकल्पानां तु प्रतिषेधः, परमाणोरेकत्वेन बहुत्वस्य द्विकसंयोगस्य चाभावादिति । 'दो भंते ! इत्यादि, इहाष्टासु
भङ्गकेषु मध्ये आद्याः पञ्च भवन्ति, न शेषाः, तत्र द्वौ प्रदेशौ स्याद्रव्यं, कथं ?, यदा तौ द्विप्रदेशिकस्कन्धतया परिणतौ है तदा द्रव्यं १, यदा तु व्यणुकस्कन्धभावगतावेव तौ द्रव्यान्तरसम्बन्धमुपगतौ तदा द्रव्यदेशः २, यदा तु तौ द्वावपि |भेदेन व्यवस्थितौ तदा द्रव्ये ३, यदा तु तावेव व्यणुकस्कन्धतामनापद्य द्रव्यान्तरेण सम्बन्धमुपगतौ तदा द्रव्यदेशाः ४, यदा पुनस्तयोरेकः केवलतया स्थितो द्वितीयश्च द्रव्यान्तरेण सम्बद्धस्तदा द्रव्यं च द्रव्यदेशश्चेति पञ्चमः, शेषविकल्पानां|
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४२१॥
तु प्रतिषेधोऽसम्भवादिति ॥ 'तिनि भंते !' इत्यादि, त्रिषु प्रदेशेष्वष्टमविकल्पवर्जाः सप्त विकल्पाः संभवन्ति, तथाहियदा त्रयोsपि त्रिप्रदेशिक स्कन्धतया परिणतास्तदा द्रव्यं १, यदा तु त्रिप्रदेशिकस्कन्धतापरिणता एव द्रव्यान्तरसम्बन्धमुपगतास्तदा द्रव्यदेशः २, यदा पुनस्ते त्रयोऽपि भेदेन व्यवस्थिता द्वौ वा द्व्यणुकीभूतावेकस्तु केवल एव स्थितस्तदा 'दवाई' ति ३, यदा तु ते त्रयोऽपि स्कन्धतामनागता एव द्वौ वा द्व्यणुकीभूतावेकस्तु केवल एवेत्येवं द्रव्यान्तरेण संबद्धास्तदा 'दघदेसा' इति ४, यदा तु तेषां द्वौ द्व्यणुकतया परिणतावेकश्च द्रव्यान्तरेण संबद्धः अथवैकः केवल एव स्थितो. द्वौ तु द्व्यणुकतया परिणम्य द्रव्यान्तरेण संबद्धौ तदा 'दवं च दवदेसे य'त्ति ५, यदा तु तेषामेकः केवल एव स्थितो द्वौ च भेदेन द्रव्यान्तरेण संबद्धौ तदा 'दक्षं च दवदेसा यत्ति ६, यदा पुनस्तेषां द्वौ भेदेन स्थितावेकश्च द्रव्यान्तरेण संबद्धस्तदा 'दवाई च दवदेसे य'त्ति ७, अष्टमविकल्पस्तु न संभवति, उभयत्र त्रिषु प्रदेशेषु बहुवचनाभावात्, प्रदेश| चतुष्टयादौ त्वष्टमोऽपि संभवति, उभयत्रापि बहुवचनसद्भावादिति ॥ अनन्तरं परमाण्वादिवक्तव्यतोक्ता, परमाण्वादयश्च लोकाकाशप्रदेशावगाहिनो भवन्तीति तद्वक्तव्यतामाह - 'केवइया ण' मित्यादि, 'असंखेज्ज' त्ति यस्मादसत्येयप्रदेशिको लोकस्तस्मात्तस्य प्रदेशा असङ्ख्येया इति ॥ प्रदेशाधिकारादेवेदमाह - 'एग मेगस्से' त्यादि, एकैकस्य जीवस्य तावन्तः प्रदेशा यावन्तो लोकाकाशस्य, कथं ?, यस्माज्जीवः केवलिसमुद्घातकाले सर्व लोकाकाशं व्याप्यावतिष्ठति तस्माल्लोकाकाशप्र| देशप्रमाणास्त इति ॥ जीवप्रदेशाश्च प्रायः कर्म्मप्रकृतिभिरनुगता इति तद्वक्तव्यतामभिधातुमाह
कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ, तंजहा - नाणावर
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८ शतके
उद्देशः १० अण्वादेर्द्र
व्यत्वादि लोकैकजी
वप्रदेशाः
सू ३५७. ३५८
॥४२१ ॥
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णिज्जं जाव अंतराइयं, नेरइयाणं भंते ! कइ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा ! अट्ठ, एवं सङ्घजीवाणं अट्ठ कम्मपगडीओ ठावेयवाओ जाव वेमाणियाणं । नाणावरणिजस्स णं भंते ! कम्मस्स केवतिया अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता ?, गोयमा ! अनंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, नेरइयाणं भंते ! णाणावरणि| जस्स कम्मस्स केवतिया अविभागपलिच्छेया पण्णत्ता?, गोयमा ! अनंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, एवं | सङ्घजीवाणं जाव बेमाणियाणं पुच्छा, गोयमा ! अनंता अविभागपलिच्छेदा पण्णत्ता, एवं जहा णाणावर - णिजस्स अविभागपलिच्छेदा भणिया तहा अट्टहवि कम्मपगडीणं भाणियता जाव वेमाणियाणं । अंतराइ| यस्स । एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपए से णाणावरणिजस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलि|च्छदेहिं आवेढिए परिवेढिए सिया ?, गोयमा ! सिय आवेढियपरिवेढिए सिय नो आवेढियपरिवेढिए, जह | आवेढियपरिवेढिए नियमा अनंतेहिं, एगमेगस्स णं भंते । नेरइयस्स एगमेगे जीवपएसे णाणावरणिजस्स कम्मस्स केवइएहिं अविभागपलिच्छेदेहिं आवेढिए परिवेढिते ?, गोयमा ! नियमा अनंतेहिं, जहा नेरइय|स्स एवं जाव वैमाणियस्स, नवरं मणूसस्स जहा जीवस्स । एगमेगस्स णं भंते ! जीवस्स एगमेगे जीवपएसे | दरिसणावरणिजस्स कम्मस्स केवतिएहिं एवं जहेव नाणावरणिजस्स तहेव दंडगो भाणियवो जाव वैमाणियस्स, एवं जाव अंतराइयस्स भाणियां, नवरं वेयणिज्जस्स आउयस्स णामस्स गोयस्स एएसिं चउण्हवि कम्माणं मणूसस्स जहा नेरइयस्स तहा भाणियवं सेसं तं चेव । (सूत्रं ३५९ ) ॥
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८ शतके
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
च्छेद:
॥४२२॥
'कइ णमित्यादि, 'अविभागपलिच्छेद'त्ति परिच्छिद्यन्त इति परिच्छेदा-अंशास्ते च सविभागा अपि भवन्त्यतो विशेष्यन्ते-अविभागाश्च ते परिच्छेदाश्चेत्यविभागपरिच्छेदाः, निरंशा अंशा इत्यर्थः, ते च ज्ञानावरणीयस्य कर्मणोऽ- उद्देशः१० नन्ताः, कथं ?, ज्ञानावरणीयं यावतो ज्ञानस्याविभागान् भेदान् आवृणोति तावन्त एव तस्याविभागपरिच्छेदाः, दलि
कर्मपरिकापेक्ष्या वाऽनन्ततत्परमाणुरूपाः, 'अविभागपलिच्छेदेहिं'ति तत्परमाणुभिः 'आवेढिए परिवेढिए'त्ति आवेष्टितप-से रिवेष्टितोऽत्यन्तं परिवेष्टित इत्यर्थः आवेष्ट्य परिवेष्टित इति वा 'सिय नो आवेढियपरिवेढिए'त्ति केवलिनं प्रतीत्य
सू ३५९ तस्य क्षीणज्ञानावरणत्वेन तत्प्रदेशस्य ज्ञानावरणीयाविभागपलिच्छेदैरावेष्टनपरिवेष्टनाभावादिति । 'मणूसस्स जहा जीवस्स'त्ति 'सिय आवेढिये'त्यादि वाच्यमित्यर्थः, मनुष्यापेक्षयाऽऽवेष्टितपरिवेष्टितत्वस्य तदितरस्य च सम्भवात् । एवं दर्शनावरणीयमोहनीयान्तरायेष्वपि वाच्यं, वेदनीयायुष्कनामगोत्रेषु पुनर्जीवपद एव भजना वाच्या सिद्धापेक्षया, मनुष्यपदे तु नासौ, तत्र वेदनीयादीनां भावादित्येतदेवाह–'नवरं वेयणिज्जस्से'त्यादि ॥ अथ ज्ञानावरणं शेषैः सह चिन्त्यते
जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स दरिसणावरणिजं जस्स दसणावरणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं , गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिकं तस्स दसणावरणिजं नियमा अस्थि जस्स णं दरिसणावरणिज्जं तस्सवि8 नाणावरणिज्जं नियमा अस्थि । जस्स णं भंते ! णाणावरणिज्जं तस्स वेयणिज्जं जस्स वेयणिज्जं तस्स णाणाव-|
॥४२२॥ वरणिजं?, गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स वेयणिजं नियमा अस्थि जस्स पुण वेयणिकं तस्स णाणाव
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रणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि । जस्स णं भंते ! नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्जं जस्स मोहणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं?, गोयमा ! जस्स नाणावरणिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिज्ज तस्स नाणावरणिज्जं नियमा अस्थि । जस्स णं भंते ! णाणावरणिजं तस्स आउयं एवं जहा वेयणिज्जेण समं भणियं तहा आउएणवि समं भाणियचं, एवं नामेणवि एवं गोएणवि समं, अंतराइएण समं जहा दरिसणावरणिजेण समं तहेव नियमा परोप्परं भाणियवाणि १॥ जस्स णं भंते ! दरिसणावरणिजं तस्स वेय|णिज्जं जस्स वेयणिजं तस्स दरिसणावरणिज्जं. जहा नाणावरणिज्जं उवरिमेहिं सत्तहिं कम्मेहि सम भणियं । तहा दरिसणावरणिज्जंपि उवरिमेहिं छहिं कम्महिं समं भाणियवं जाव अंतराइएणं २। जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स मोहणिजं जस्स मोहणिज्जं तस्स वेयणिजं?, गोयमा ! जस्स वेयणिज्जं तस्स मोहणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण मोहणिजं तस्स वेयणिज्जं नियमा अस्थि ।जस्स णं भंते ! वेयणिज्जं तस्स आउयं ?, | एवं एयाणि परोप्परं नियमा, जहा आउएण समं एवं नामेणवि गोएणवि समं भाणियत्वं । जस्स णं भंते ! वेयणिजं तस्स अंतराइयं ? पुच्छा, गोयमा ! जस्स वेयणिज्जं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स | पुण अंतराइयं तस्स वेयणिज्जं नियमा अस्थि ३ । जस्स णं भंते ! मोहणिजं तस्स आउयं जस्स आउयं तस्स
मोहणिजं?, गोयमा ! जस्स मोहणिज्जं तस्स आउयं नियमा अस्थि जस्स पुण आउयं तस्स पुण मोहणिजं & सिय अस्थि सिय नत्थि, एवं नाम गोयं अंतराइयं च भाणियत्वं ४, जस्स णं भंते ! आउयं तस्स नामं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४२३॥
पुच्छा, गोयमा ! दोवि परोप्परं नियमं, एवं गोत्तेणवि समं भाणियवं, जस्स णं भंते ! आउयं तस्स अंतराइयं० ?, पुच्छा, गोयमा ! जस्स आउयं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं | तस्स आउयं नियमा ५ । जस्स णं भंते ! नामं तस्स गोयं जस्स णं गोयं तस्स णं नामं ? पुच्छा, गोयमा ! जस्स णं णामं तस्स णं नियमा गोयं जस्स णं गोयं तस्स नियमा नामं, गोयमा ! दोवि एए परोप्परं नियमा, जस्स णं भंते ! णामं तस्स अंतराइयं० १ पुच्छा, गोयमा ! जस्स नामं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि सियं नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स नामं नियमा अत्थि ६ । जस्स णं भंते ! गोयं तस्स अंतराइयं० ? पुच्छा, | गोयमा ! जस्स णं गोयं तस्स अंतराइयं सिय अस्थि सिय नत्थि, जस्स पुण अंतराइयं तस्स गोयं नियमा अस्थि७ ॥ ( सूत्रं ३६० ) जीवे णं भंते ! किं पोग्गली पोग्गले ?, गोयमा ! जीवे पोग्गलीवि पोग्गलेवि, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ जीवे पोग्गलीवि पोग्गलेवि ?, गोयमा ! से जहानामए छत्तेणं छत्ती दंडेणं दंडी घडेणं घडी पडेणं पडी करेणं करी एवामेव गोयमा ! जीवेवि सोइंदियचक्खिदियघाणिं दिय जिन्भिदियफासिंदियाइं पहुच पोग्गली, जीवं पहुच पोग्गले, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चह जीवे पोग्गलीवि पोरगलेवि । नेरइए णं भंते ! किं पोग्गली० १, एवं चैव, एवं जाव वैमाणिए नवरं जस्स जइ इंदियाई तस्स तइवि भाणियवाई । सिडे णं भंते ! किं पोग्गली पोग्गले ?, गोयमा ! नो पोग्गली पोग्गले, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचइ जाव पोग्गले १, गोयमा !
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८ शतके उद्देशः १० ज्ञानावरणादिकर्म
संवेधः
सू ३६० जीवानां पुगलत्वादि
सू ३६१
॥४२३॥
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वलिनो हि वेदनीयं ज्ञानावरणीति अक्षपकं क्षपकं च प्रतीत्य, अपनीयमिति । एवं च यथा ज्ञानावराण
ॐॐॐॐ%
* जीवं पञ्च, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं वुच्चह सिद्धे नो पोग्गली पोग्गले। सेवं भंते सेवं भंतेत्ति॥ (सनं ३६१)
॥८-१०॥ अट्ठमसए दशमः समत्तं अहम सयं ॥८॥ | 'जस्स ण'मित्यादि, जस्स पुण वेयणिज्जं तस्स नाणावरणिज्जं सिय अस्थि सिय नत्थि'त्ति अकेवलिनं केवलिनं च प्रतीत्य, | अकेवलिनो हि वेदनीयं ज्ञानावरणीयं चास्ति, केवलिनस्तु वेदनीयमस्ति न तु ज्ञानावरणीयमिति । 'जस्स णाणावरणिज | तस्स मोहणिज्जं सिय अस्थि सिय नस्थि'त्ति अक्षपक क्षपकं च प्रतीत्य, अक्षपकस्य हि ज्ञानावरणीय मोहनीयं चास्ति, क्षपकस्य । तु मोहक्षये यावत् केवल ज्ञानं नोत्पद्यते तावज्ज्ञानावरणीयमस्ति न तु मोहनीयमिति । एवं च यथा ज्ञानावरणीयं वेदनीयेन सममधीतं तथाऽऽयुषा नाम्ना गोत्रेण च सहाध्येयं, उक्तप्रकारेण भजनायाः सर्वेषु तेषु भावात् , 'अंतराएणं च सम' ज्ञानावरणीयं तथा वाच्यं यथा दर्शनावरणं, निर्भजनमित्यर्थः, एतदेवाह-'एवं जहा वेयणिजेण सम'मित्यादि, 'नियमा परोप्परं भाणियवाणि'त्ति कोऽर्थः -'जस्स नाणावरणिज्जं तस्स नियमा अंतराइयं जस्स अंतराइयं तस्स नियमा नाणावरणिज'मित्येवमनयोः परस्परं नियमो वाच्य इत्यर्थः॥ अथ दर्शनावरणं शेषैः पद्भिः सह चिन्तयन्नाह'जस्से'त्यादि, अयं च गमो ज्ञानावरणीयगमसम एवेति । 'जस्सणं भंते ! वेयणिज'मित्यादिना तु वेदनीयं शेषः पञ्चभिः |
सह चिन्त्यते, तत्र च 'जस्स वेयणिज्ज तस्स मोहणिज सिय अस्थि सिय नत्थि'त्ति अक्षीणमोहं क्षीणमोहं च प्रतीत्य, है अक्षीणमोहस्य हि वेदनीयं मोहनीयं चास्ति, क्षीणमोहस्य तु वेदनीयमस्ति नतु मोहनीयमिति । एवं एयाणि परोप्परं | | नियम'त्ति कोऽर्थः -यस्य वेदनीयं तस्य नियमादायुर्यस्यायुस्तस्य नियमाद्वेदनीयमित्येवमेते वाच्ये इत्यर्थः, एवं नामगो
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प्रज्ञप्तिः
संवेधः
व्याख्या- त्राभ्यामपि वाच्यं, एतदेवाह-'जहा आउएणे'त्यादि, अन्तरायेण तु भजनया यतो वेदनीयं अन्तरायं चाकेवलिनामस्ति ।
८शतके केवलिनां तु वेदनीयमस्ति न त्वन्तराय, एतदेव दर्शयतोक्तं 'जस्स वेयणिजं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि सिय नत्यि'त्ति।
उद्देश:१० अभयदेवी
ज्ञानावरयावृत्तिः२/ अथ मोहनीयमन्यैश्चतुर्भिः सह चिन्त्यते, तत्र यस्य मोहनीयं तस्यायुर्नियमादकेवलिन इवं, यस्य पुनरायुस्तस्य मोहनीयं में
णादिकर्मभजनया, यतोऽक्षीणमोहस्यायुर्मोहनीयं चास्ति क्षीणमोहस्य त्वायुरेवेति, 'एवं नाम गोयं अंतराइयं च भाणियब'ति, ॥४२४॥
अयमर्थः-यस्य मोहनीयं तस्य नाम गोत्रमन्तरायं च नियमादस्ति, यस्य पुनर्नामादित्रयं तस्य मोहनीयं स्यादस्त्यक्षीण- सू ३६० मोहस्येव, स्यान्नास्ति क्षीणमोहस्येवेति॥ अथायुरन्यैस्त्रिभिः सह चिन्त्यते-'जस्स णं भंते ! आउय'मित्यादि, 'दोवि3)
जीवानां परोप्पर नियम'त्ति कोऽर्थः ?-'जस्स आउयं तस्स नियमा नाम जस्स नामं तस्स नियमा आउय'इत्यर्थः, एवं गोत्रे
है पुद्गलत्वादि णापि, 'जस्स आउयं तस्स अंतराइयं सिय अत्थि सिय नत्थि'त्ति यस्यायुस्तस्यान्तरायं स्यादस्ति अकेवलिवत् स्यान्नास्ति
केवलिवदिति । 'जस्स णं भंते ! णाम'इत्यादिना नामान्येन द्वयेन सह चिन्त्यते, तत्र यस्य नाम तस्य नियमाद्गोत्रं | ४ यस्य गोत्रं तस्य नियमान्नाम, तथा यस्य नाम तस्यान्तरायं स्यादस्त्यकेवलिवत् स्यान्नास्ति केवलिवदिति । एवं गोत्रान्त
राययोरपि भजना भावनीयेति ॥ अनन्तरं कर्मोक्तं तच्च पुद्गलात्मकमतस्तदधिकारादिदमाह-'जीवे 'मित्यादि, ४२४॥ 'पोग्गलीवि'त्ति पुद्गला:-श्रोत्रादिरूपा विद्यन्ते यस्यासौ पुद्गली, 'पुग्गलेवित्ति 'पुद्गल इति सञ्ज्ञा जीवस्य ततस्तद्योगात् ४ पुद्गल इति । एतदेव दर्शयन्नाह-से केणटेण'मित्यादि ॥ अष्टमशते दशमः ॥८-१०॥
सू३६१
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5AAAAA
सद्भक्त्याहुतिना विवृद्धमहसा पार्श्वप्रसादाग्निना, तन्नामाक्षरमन्त्रजप्तिविधिना विघ्नेन्धनप्लोषितः । सम्पन्नेऽनघशान्तिकर्मकरणे क्षेमादहं नीतवान् , सिद्धिं शिल्पिवदेतदष्टमशतव्याख्यानसन्मन्दिरम् ॥१॥ . ॥ समाप्तं चाष्टमशतम् ॥ ८॥ ग्रन्थाग्रम् ९४३८॥
-00-00व्याख्यातमष्टमशतमथ नवममारभ्यते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अष्टमशते विविधाः पदार्था उक्ताः, नवमेऽपि त एव भजयन्तरेणोच्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्योद्देशकार्थसंसूचिकेयं गाथा| जंबुद्दीवे १ जोइस २ अंतरदीवा ३० असोच ३१ गंगेय ३२। कुंडग्गामे ३३ पुरिसे ३४ नवमंमि सए
चउत्तीसा ॥१॥ | 'जंबुद्दीवे'इत्यादि, तत्र 'जंबुद्दीवे'त्ति तत्र जम्बूद्वीपवक्तव्यताविषयः प्रथमोद्देशकः १, 'जोइस'त्ति ज्योतिष्कविषयो | द्वितीयः २, 'अंतरदीव'त्ति अन्तरद्वीपविषया अष्टाविंशतिरुद्देशकाः ३०, 'असोच'त्ति अश्रुत्वा धर्म लभेतेत्याधर्थप्रति|पादनार्थ एकत्रिंशत्तमः ३१, 'गंगेय'त्ति गाङ्गेयाभिधानगारवक्तव्यतार्थो द्वात्रिंशत्तमः ३२, 'कुंडग्गामेत्ति ब्राह्मणकु| ण्डग्रामविषयस्त्रयस्त्रिंशत्तमः ३३, 'पुरिसे'त्ति पुरुषः पुरुषं नन्नित्यादिवक्तव्यतार्थश्चतुस्त्रिंशत्तम ३४ इति ॥ है तेणं कालेणं तेणं समएणं मिहिलानामै नगरी होत्था वन्नओ, माणभद्दे चेहए वन्नओ, सामी समोसढे
परिसा निग्गया जाव भगवं गोयमे पजुवासमाणे एवं वयासी-कहिणं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? किंसंठिए णं
OSTOSASHISAISAIRAALAIS
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४२५॥
भंते ! जंबुद्दीवे दीवे ? एवं जंबुद्दीवपन्नत्ती भाणियवा जाव एवामेव सपुधावरेणं जंबुद्दीवे २ चोदस सलिला सयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा भवतीतिमक्खाया। सेवं भंते ! सेवं भंतेति ॥ ( सू ३६२ ) ॥ नवमस्स पढमो ॥ ९-१ ॥
'कहि णं भंते' इत्यादि, कस्मिन् देशे इत्यर्थः ' एवं जंबुद्दीवपन्नत्ती भाणिय'त्ति, सा चेयम् -' के महालए णं भंते ! | जंबुद्दीवे दीवे किमागारभाव पडोयारे णं भंते! जंबुद्दीवे दीवे पन्नत्ते !" कस्मिन्नाकारभावे प्रत्यवतारो यस्य स तथा 'गोयमा ! अयन्नं जंबुद्दीवे दीवे सबदीवसमुद्दाणं सब अंतरए सबखुड्डाए वट्टे तिलपूय संठाणसंठिए वट्टे रहचक्कवाल संठाणसंठिए वट्टे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिए वट्टे पडिपुन्न चंदसंठाणसंठिए पन्नत्ते एवं जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेण 'मित्यादि, किम| न्तेयं व्याख्या १ इत्याह- 'जावे'त्यादि, 'एवामेव 'त्ति उक्तेनैव न्यायेन पूर्वापरसमुद्रगमनादिना 'सपुचावरेणं' ति सह पूर्वेण नदीवृन्देनापरं सपूर्वापरं तेन 'चोद्दस सलिला सयसहस्सा छप्पन्नं च सहस्सा भवतीति मक्खाय'त्ति इह | 'सलिलाशतसहस्राणि ' नदीलक्षाणि, एतत्सङ्ख्या चैवं - भरतैरावतयोर्गङ्गासिन्धुरक्तारक्तवत्यः प्रत्येकं चतुर्दशभिर्नदीनां सहस्रैर्युक्ताः, तथा हैमवतैरण्यवतयोः रोहिद्रोहितांशा सुवर्णकूला रूप्यकूलाः प्रत्येकमष्टाविंशत्या सहस्रैर्युक्ताः, तथा | हरिवर्षरम्य कवर्षयोर्हरिहरिकान्तानरकान्तानारीकान्ताः प्रत्येकं षट्पञ्चाशता सहस्रैर्युक्ताः समुद्रमुपयान्ति, तथा महाविदेहे शीताशीतोदे प्रत्येकं पञ्चभिर्लक्षैर्द्वात्रिंशता च सहस्रैर्युक्ते समुद्रमुपयात इति, सर्वासां च मीलने सूत्रोक्तं प्रमाणं भवति, वाचनान्तरे पुनरिदं दृश्यते - 'जहा जंबूद्दीवपन्नत्तीए तहा णेयवं जोइसविहूणं जाव-खंडा जोयण वासा पचय
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९ शतके
उद्देशः १ जम्बूसंग्रहणी सू. ३६२
॥४२५ ॥
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कूडा य तित्थ सेढीओ। विजयद्दहसलिलाउ य पिंडए होति संगहणी ॥१॥ति, तत्र 'जोइसविट्ठणं'ति जंबूद्वीपप्रज्ञस्यां । ज्योतिष्कवक्तव्यताऽस्ति तद्विहीनं समस्तं जम्बूद्वीपप्रज्ञप्तिसूत्रमस्योद्देशकस्य सूत्रं ज्ञेयं, किंपर्यवसानं पुनस्तद् ? इत्याह| 'जाव खंडे'त्यादि, तत्र 'खंडे'त्ति जम्बूद्वीपो भरतक्षेत्रप्रमाणानि खण्डानि कियन्ति स्यात् , उच्यते, नवत्यधिक खण्ड|शतं. 'जोयण'त्ति जम्बद्वीप कियन्ति योजनप्रमाणानि खण्डानि स्यात् , उच्यते,-'सत्तेव य कोडिसया णउया छप्पनसयसहस्साई। चउणउई च सहस्सा सयं दिवटुं च साहीयं ॥१॥ गाउयमेगं पन्नरस धणुस्सया तह धणूणि पन्नरस । सहि च अंगुलाई जंबुद्दीवस्स गणियपयं ॥ २॥ इति, गणितपदमित्येवंप्रकारस्य गणितस्य सञ्ज्ञा 'वास'त्ति जग्बूद्वीपे भरतहेमवतादीनि सप्त वर्षाणि क्षेत्राणीत्यर्थः, 'पञ्चय'त्ति जम्बूद्वीपे कियन्तः पर्वताः, उच्यन्ते, षड् वर्षधरपर्वता हिमवदादयः एको मन्दरः एकश्चित्रकूटः एक एव विचित्रकूटः, एतौ च देवकुरुषु, द्वौ यमकपर्वती, एतौ चोत्तरकुरुषु, द्वे शते काश्चनकानाम् , एते च शीताशीतोदयोः पार्श्वतो, विंशतिः वक्षस्काराः, चतुस्त्रिंशदीर्घविजयापर्वताश्चत्वारो वर्तुलविजया ः, एवं द्वे शते एकोनसप्तत्यधिके पर्वतानां भवतः, कूड'त्ति कियन्ति पर्वतकूटानि, उच्यते, षट्पञ्चाशद्वर्षधरकूटानि षण्णवतिर्वक्षस्कारकूटानि त्रीणि षडुत्तराणि विजयार्द्धकूटानां शतानि नव च मन्दरकूटानि, एवं चत्वारि | सप्तषष्ट्यधिकानि कूटशतानि भवन्ति, "तित्यत्ति जम्बूद्वीपे कियन्ति तीर्थानि ?, उच्यते, भरतादिषु चतुस्त्रिंशति खण्डेषु |
१ सप्तैव कोटीशतानि नवतिः कोट्यः षट्पञ्चाशल्लक्षाश्चतुर्नवतिः सहस्राणि साधिकं साधं शतं च ॥१॥ गव्यूतमेकं पञ्चदशाधिकानि | पञ्चदश शतानि धषि षष्टिश्चाङ्गुलानां जम्बूद्वीपस्यैतदू गणितपदम् ॥ २॥
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व्याख्या प्रज्ञप्ति अभयदेवी
या वृत्तिः
3 मागधवरदामप्रभासाख्यानि त्रीणि त्रीणि तीर्थानि भवन्ति, एवं चैकं व्युत्तरं तीर्थशतं भवतीति, सेढीओ'त्ति विद्याधर
९ शतके श्रेणयः आभियोगिकश्रेणयश्च कियन्त्यः १, उच्यते, अष्टषष्टिः प्रत्येकमासां भवन्ति, विजयाईपर्वतेषु प्रत्येक द्वयोयो- उद्देशः१. र्भावात्, एवं च षट्त्रिंशदधिकं श्रेणिशतं भवतीति, 'विजय'त्ति कियन्ति चक्रवर्तिविजेतव्यानि भूखण्डानि ?, उच्यते, जम्बूसंग्रहचतुस्त्रिंशत् , एतावन्त एव राजधान्यादयोऽर्था इति, 'दह'त्ति कियन्तो महाइदाः?, उच्यते, पद्मादयः षड् दश चाणीसू ३६२ नीलवदादय उत्तरकुरुदेवकुरुमध्यवर्त्तिन इत्येवं षोडश, 'सलिल'त्ति नद्यस्तत्प्रमाणं च दर्शितमेव, 'पिंडए होति संगहणि'त्ति उद्देशकार्थानां पिण्डके-मीलके विषयभूते इयं सङ्ग्रहणीगाथा भवतीति ॥ नवमशते प्रथमः॥९-१॥
॥४२६॥
अनन्तरोद्देशके जम्बूद्वीपवक्तव्यतोक्ता द्वितीये तु जम्बूद्वीपादिषु ज्योतिष्कवक्तव्यताऽभिधीयते, तस्य चेदमादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी-जम्बुद्दीवे णं भंते ! दीवे केवइया चंदा पभासिंसु वा पभासेंति वा पभासि|स्संति वा ?, एवं जहा जीवाभिगमे जाव-'एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साइं। नव य सया पनासा तारागणकोडिकोडीणं॥१॥' सोमं सोभिंसु सोभिंति सोभिस्संति ॥ (सूत्रं ३६३) लवणे णं भंते ! समुद्दे केवतिया चंदा पभासिंसुवा पभासिंति वा पभासिरसंति वा ३ एवं जहा जीवाभिगमे जाव ताराओ|||॥४२६॥ |धायइसंडे कालोदे पुक्खरवरे अभितरपुक्खरद्धे मणुस्सखेत्ते, एएसु सवेसु जहा जीवाभिगमे जाव-'एगससीपरिवारो तारागणकोडाकोडीणं ।' पुक्खरहे णं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा पभार्सिसु वा ', एवं सधेसु
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मादीवसमुद्देसु जोतिसियाणं भाणियवं जाव सयंभूरमणे जाव सोभं सोभिंसु वा सोभंति वासोभिस्संतिवा। ट्र सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ३६३) नवमसए बीओ उद्देसो समत्तो॥९-२॥ | 'रायगिहे'इत्यादि, 'एवं जहा जीवाभिगमे'त्ति तत्र चैतत्सूत्रमेवम्-'केवतिया चंदा पभासिंसु वा पभासिंति वा| पभासिस्संति वा ३? केवतिया सूरिया तविंसु वा तवंति वा तविस्संति वा ? केवइया नक्खत्ता जोयं जोइंसु वा ३१ केवइया महग्गहा चारं चरिंसु वा ३१ केवइयाओतारागणकोडाकोडीओ सोहिं सोहिंसु वा ३१ शोभां कृतवत्य इत्यर्थः, | 'गोतमा! जंबूहीवे दीवे दो चंदा पभासिंसु वा ३ दो सूरिया तविंसु वा ३ छप्पन्नं नक्खत्ता जोगं जोइंसु वा ३ छावत्तरं | गहसयं चारं चरिंसु वा ३' बहुवचनमिह छान्दसत्वादिति, “एगं च सयसहस्सं तेत्तीसं खलु भवे सहस्साई शेष | तु सूत्रपुस्तके लिखितमेवास्ते ॥'लवणे णं भंते !इत्यादौ 'एवं जहा जीवाभिगमे'त्ति तत्र चेदं सूत्रमेवं-केवइया चंदा पभासिंसु वा ३ केवतिया सूरिया तविंसु वा ३'इत्यादि प्रश्नसूत्रं पूर्ववत् , उत्तरं तु 'गोयमा! लवणे णं समुद्दे चत्तार |चंदा पभासिंसु वा ३ चत्तारि सूरिया तविंसु वा ३ बारसोत्तरं नक्खत्तसयं जोगं जोइंसु वा ३ तिन्नि बावन्ना महग्गह|सया चारं चरिंसु वा ३ दोन्नि सयसहस्सा सत्तहिं च सहस्सा नवसया तारागणकोडिकोडीणं सोहं सोहिंसु वा ३' सूत्रपर्यन्तमाह-जाव ताराओ'त्ति तारकासूत्रं यावत्तच्च दर्शितमेवेति । 'धायइसंडे'इत्यादौ यदुक्तं 'जहा जीवाभि
गमें तदेवं भावनीयं-धायइसंडे णं भंते ! दीवे केवतिया चंदा पभासिसु वा ३ केवतिया सूरिया तविंसु वा ३१] 8 इत्यादिप्रश्नाः पूर्ववत्, उत्तरं तु 'गोयमा ! बारस चंदा पभासिंसु वा ३ बारस सूरिया तविंसु वा ३, एवं-'चउवीस ||
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९ शतके
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व्याख्या- ॐ ससिरविणो नक्खत्तसया य तिन्नि छत्तीसा । एगं च गहसहस्सं छप्पन्नं धायईसंडे ॥१॥ अठेव सयसहस्सा तिनि सहप्रज्ञप्तिः
| उद्देशः१ स्साई सत्त य सयाई । धायइसंडे दीवे तारागणकोडिकोडीणं ॥२॥ सोहं सोहिंसु वा ३ 'कालोए णं भंते ! समुद्देल
जम्बूसंग्रहअभयदेवीकेवतिया चंदा'इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु 'गोयमा !-'बायालीसं चंदा बायालीसं च दिणयरा दित्ता । कालोदहिंमि एए ।
णीसू३६३ या वृत्तिः२/
चरंति संबद्धलेसागा ॥१॥ नखत्तसहस्स एगं एगं छावत्तरं च सयमन्नं । छच्च सया छन्नउया महागहा तिनि य ॥४२७॥ | सहस्सा ॥२॥ अठ्ठावीसं कालोदहिमि बारस य तह सहस्साई । णव य सया पन्नासा तारागणकोडिकोडीणं ॥ ३॥ सोहंद्र
सोहिंसु वा ३।' तथा 'पुक्खरवरदीवे णं भंते ! दीवे केवइया चंदा इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं त्वेतद्गाथाऽनुसारेणावसेयं'चोयालं चंदसयं चोयालं चेव सूरियाण सयं । पुक्खरवरंमि दीवे भमंति एए पयासिंता ॥१॥ इह च यद्भमणमुक्त न तत्सर्वाश्चन्द्रादित्यानपेक्ष्य, किं तर्हि १, पुष्करद्वीपाभ्यन्तरार्द्धवर्तिनी द्विसप्ततिमेवेति, 'चत्तारि सहस्साई बत्तीसं चेव होति नक्खत्ता । छच्च सया बावत्तरि महागहा बारससहस्सा ॥१॥छन्नउइ सयसहस्सा चोयालीसं भवे सहस्साई। |चत्तारि सया पुक्खरि तारागणकोडिकोडीणं ॥१॥ सोहं सोहिंसु वा । तथा-'अभितरपुक्खरद्धे णं भंते ! केवतिया चंदा इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु-'बावत्तरि च चंदा बावत्तरिमेव दिणयरा दित्ता । पुक्खरवरदीवढे चरंति एए
४॥४२७॥ पभासिता ॥१॥ तिन्नि सया छत्तीसा छच्च सहस्सा महग्गहाणं तु । नक्खत्ताणं तु भवे सोलाई दुवे सहस्साई ॥२॥ अडयाल सयसहस्सा बावीसं खलु भवे सहस्साई। दो य सय पुक्खरद्धे तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥ सोभं सोभिंसु वा ३।' तथा-'मणुस्सखेत्ते णं भंते ! केवइया चंदा इत्यादि प्रश्नः, उत्तरं तु–'बत्तीसं चंदसर्य बत्तीस चेव सूरियाण
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सयं । सयलं मणुस्सलोयं चरंति एए पयासिंता ॥१॥ एक्कारस य सहस्सा छप्पिय सोला महागहाणं तु । छच्च सया छण्णउया णक्खत्ता तिन्नि य सहस्सा ॥२॥ अडसीइ सयसहस्सा चालीस सहस्स मणुयलोगंमि । सत्त य सया अणूणा तारागणकोडिकोडीणं ॥३॥'इत्यादि, किमन्तमिदं वाच्यम् ? इत्याह-'जावे'त्यादि, अस्य च सूत्रांशस्यायं पूर्वोऽश:'भट्ठासीइं च गहा अट्ठावीसं च होइ नक्खत्ता । एगससीपरिवारो एत्तो ताराण वोच्छामि ॥१॥ छावटि सहस्साई नव चेव |सयाई पंच सयराई'ति । 'पुक्खरोदे णं भंते ! समुद्दे केवइया चंदा' इत्यादी प्रश्ने इदमुत्तरं दृश्य-'संखेजा चंदा पभासिंसु ॥ वा ३' इत्यादि, 'एवं सबेसुदीवसमुद्देसु'त्ति पूर्वोक्तेन प्रश्नेन यथासम्भवं सङ्ख्याता असङ्ख्याताश्च चन्द्रादय इत्यादिना चोत्तरेणेत्यर्थः, द्वीपसमुद्रनामानि चैवं-पुष्करोदसमुद्रादनन्तरो वरुणवरो द्वीपस्ततो वरुणोदः समुद्रः, एवं क्षीरवरक्षीरोदौ घृतवरघृतोदो क्षोदवरक्षोदोदौ नन्दीश्वरवरनन्दीश्वरोदौ अरुणारुणोदौ अरुणवरारुणवरोदौ अरुणवरावभासारुणवरावभासोदौ कुण्डलकुण्डलोदी कुण्डलवरकुण्डलवरोदौ कुण्डलवरावभासकुण्डलवरावभासोदो रुचकरुचकोदो रुचकवररुचकवरोदी| रुचकवरावभासरुचकवरावभासोदी इत्यादीन्यसङ्ख्यातानि, यतोऽसङ्ख्याता द्वीपसमुद्रा इति ॥ नवमशते द्वितीयः॥९-२॥ द्वितीयोद्देशके द्वीपवरवक्तव्यतोक्ता, तृतीयेऽपि प्रकारान्तरेण सैवोच्यते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी-कहि णं भंते ! दाहिणिल्लाणं एगोख्यमणुस्साणं एगोस्यदीवेणामंदीवे पन्नत्ते ?, गोयमा! जंबुद्दीवे दीवे मंदरस्स पवयस्स दाहिणणं चुल्लहिमवंतस्स वासहरपवयस्स पुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुदं उत्तरपुरच्छिमेणं तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोश्य
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व्याख्या- दीवे नाम दीवे पण्णत्ते, तं गोयमा! तिनि जोयणसयाइं आयामविक्खंभेणं णवएकोणवन्ने जोयणसए किंचिप्रज्ञप्तिः
९ शतके विसेसूणे परिक्खेवेणं पन्नत्ते, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सवओ समंता संपरिक्खित्ते अभयदेवी
उद्देश: या वृत्तिः२
दोण्हवि पमाणं वन्नओ य, एवं एएणं कमेणं जहा जीवाभिगमे जाव सुद्धदंतदीवे जाव देवलोगपरिग्गहिया ३० अन्तरणं ते मणुया पण्णत्ता समणाउसो।। एवं अट्ठावीसं अंतरदीवा सएणं २ आयामविक्खंभेणं भाणियचा,
द्वीपा: ॥४२८॥ नवरं दीवे २ उद्देसओ, एवं सवेवि अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियवा । सेवं भंते ! सेवं भंते! ति॥ (सूत्रं ३६४)
सू ३६४ नवमस्स तईयाइआ तीसंता उद्देसा समत्ता ॥ ३०॥ __ 'रायगिहे'इत्यादि, दाहिणिल्लाणं'ति उत्तरान्तरद्वीपव्यवच्छेदार्थम् ‘एवं जहा जीवाभिगमे'त्ति, तत्र घेदभेवं सूत्र'चुल्लहिमवंतस्स वासहरपवयस्स उत्तरपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता पत्थ ण दाहिणिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयनाम दीवे पन्नत्ते, तिन्नि जोयणसयाई आयामविक्खंभेणं नवएगूणपन्ने जोयणसए [किंचिविसेसूणे परिक्खेवेणं, से णं एगाए पउमवरवेइयाए एगेण य वणसंडेणं सबओ समंता संपरिक्खित्ते'इत्यादि, इह Pाच वेदिकावनखण्डकल्पवृक्षमनुष्यमनुष्यीवर्णकोऽभिधीयते, तथा तन्मनुष्याणां चतुर्थभक्तादाहारार्थ उत्पद्यते, ते व Bा १ अतः अग्रे निर्देक्ष्यमाणात् 'जहा जीवाभिगमे उत्तरकुरुवत्तवयाए' इत्यतिदेशाचानुमीयते एतद्यदुत केषुचित्तदानीतनेषु जीवामिगलामादर्शेषु अभूत् एकोरुकवक्तव्यतासूत्रे कल्पवृक्षादिवर्णनं केषुचिच्चोत्तरकुरुवक्तव्यतायां, तथा च जीवामिगमसूत्रे एकोरुकवक्तव्यतायां कल्प-14
॥४२८॥ वृक्षादिवर्णनेऽपि वृत्तौ प्रतीकधृतिपूर्वमुत्तरकुरुवक्तव्यतायां व्याख्यानं कल्पवृक्षादेस्तादृशादर्शदर्शनमूलमेव.
A.COCAUSAMA
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पृथिवीरसपुष्पफलाहाराः, तत्पृथिवी च रसतः खण्डादितुल्या, ते व मनुष्या वृक्षगेहाः, तत्र च गेहाथभावः, तम्मनुव्याणां च स्थितिः पल्योपमासङ्ख्येयभागप्रमाणा, षण्मासावशेषायुषश्च ते मिथुनकानि प्रसुवते, एकाशीतिं च दिनानि | तेऽपत्यमिथुनकानि पालयन्ति, उच्छुसितादिना च ते मृत्वा देवेषूद्यन्ते, इत्यादयश्चार्था अभिधीयन्ते इति, वाचनान्तरे | त्विदं दृश्यते - ' एवं जहा जीवाभिगमे उत्तरकुरुवत्तचयाए णेयचो, नाणत्तं अट्ठधणुसया उस्सेहो चउसट्ठी पिठकरंडया अणु| सज्जणा नत्थि'त्ति, तत्रायमर्थ:- उत्तरकुरुषु मनुष्याणां त्रीणि गव्यूतान्युत्सेध उक्त इह त्वष्टौ धनुःशतानि, तथा तेषु | मनुष्याणां द्वे शते षट्पञ्चाशदधिके पृष्ठ करण्डकानामुक्ते इह तु चतुःषष्टिरिति, तथा - 'उत्तरकुराए णं भंते ! कुराए | कइविहा मणुस्सा अणुसज्जंति १, गोयमा ! छधिहा मणुस्सा अणुसज्जंति, तंजहा - पम्हगंधा मियगंधा अममा तेयली सहा सणिचारी' इत्येवं मनुष्याणामनुषञ्जना तत्रोक्ता इह तु सा नास्ति, तथाविधमनुष्याणां तत्राभावात् एवं चेह त्रीणि | नानात्वस्थानान्युक्तानि सन्ति पुनरन्यान्यपि स्थित्यादीनि किन्तु तान्यभियुक्तेन भावनीयानीति, अयं चेहैकोरुक| द्वीपोदेशकस्तृतीयः । अथ प्रकृतवाचनामनुसृत्योच्यते - किमन्तमिदं जीवाभिगमसूत्रमिह वाच्यम् ? इत्याह- 'जावे'|त्यादि 'घावत् शुद्धदन्तद्वीप : ' शुद्धदन्ताभिधानाष्टाविंशतितमान्तरद्वीपवक्तव्यतां यावत्, साऽपि कियद्दूरं यावद्वाच्या १ | इत्याह- 'देवलोक परिग्गहे 'त्यादि, देवलोकः परिग्रहो येषां ते देवलोकपरिग्रहाः देवगतिगामिनः इत्यर्थः, इह चैकैक| स्मिन्नन्तरद्वीपे एकैक उद्देशकः, तत्र चैकोरुकद्वीपोद्देशका नम्तरमा भासिकद्वीपोदेशकः, तत्र चैवं सूत्रं - 'कहि णं भंते! दाहिजिल्लाणं आभासियमणूसाणं आभासिए नामं दीवे पन्नत्ते १, गोयमा ! जंबुद्दीवे दीवे चुल्लहिमवंतस्स वासहरपवयस्त
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व्याख्या- दाहिणपुरच्छिमिल्लाओ चरिमंताओ लवणसमुई तिन्नि जोयणसयाई ओगाहित्ता एत्थ णं दाहिणिल्लाणं आभासियनाम || ९ शतके प्रज्ञप्तिः दीवे पन्नत्ते' शेषमेकोरुकद्वीपवदिति चतुर्थः । एवं वैषाणिकद्वीपोद्देशकोऽपि नवरं दक्षिणापराचरमान्तादिति पञ्चमः ५।
रदेश:३अभयदेवीएवं लालिकद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरमुत्तरापराचरमान्तादिति षष्ठः ६ । एवं हयकर्णद्वीपोद्देशको नवरमेकोरुकस्योत्तर
३० अन्तरया वृत्तिः२ पौरस्त्याच्चरमान्ताल्लवणसमुद्रं चत्वारि योजनशतान्यवगाह्य चतुर्योजनशतायामविष्कम्भो हयकर्णद्वीपो भवतीति सप्तमः
द्वीपाः
|सू ३६४ ॥४२९॥
७। एवं गजकर्णद्वीपोदेशकोऽपि, नवरं गजकर्णद्वीप आभासिकद्वीपस्य दक्षिणपौरस्त्याचरमान्तालवणसमुद्रमवगाद्य
चत्वारि योजनशतानि हयकर्णद्वीपसमो भवतीत्यष्टमः । एवं गोकर्णद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरमसौ वैषाणिकद्वीपस्य दक्षिटाणापराच्चरमान्तादिति नवमः ९ । एवं शष्कुलीकर्णद्वीपोद्देशकोऽपि, नवरमसौ लालिकद्वीपस्योत्तरापराच्चरमान्तादिति
दशमः १० । एवमादर्शमुखद्वीपमेण्द्रमुखद्वीपायोमुखद्वीपगोमुखद्वीपा हयकर्णादीनां चतुर्णा क्रमेण पूर्वोत्तरपूर्वदक्षिणदक्षिणापरापरोत्तरेभ्यश्चरमान्तेभ्यः पश्च योजनशतानि लवणोदधिमवगाह्य पञ्चयोजनशतायामविष्कम्भा भवन्ति, तत्प्रति|पादकाश्चान्ये चत्वार उद्देशका भवन्तीति १४ । एतेषामेवादर्शमुखादीनां पूर्वोत्तरादिभ्यश्चरमान्तेभ्यः षड् योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य षड़योजनशतायामविष्कम्भाः क्रमेणाश्वमुखद्वीपहस्तिमुखद्वीपसिंहमुखद्वीपव्याघ्रमुखद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार उद्देशका भवन्तीति १८ । एतेषामेवाश्वमुखादीनां तथैव सप्त योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य ॥४२९॥ | सप्तयोजनशतायामविष्कम्भा अश्वकर्णद्वीपहस्तिकर्णद्वीपकर्णप्रावरणद्वीपाः प्रावरणद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चापरे चत्वार एवोदेशका इति २२ । एतेषामेवाश्वकर्णादीनां तथैवाष्टयोजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्याष्टयोजनशतायामविष्कम्भा
4594+HASHASH4
945ॐ
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RECASS
उल्कामुखद्वीपमेघमुखद्वीपविद्युन्मुखद्वीपविद्युदन्तद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार एवोद्देशका इति २६ । एतेषा६ मेवोल्कामुखद्वीपादीनां तथैव नव योजनशतानि लवणसमुद्रमवगाह्य नवयोजनशतायामविष्कम्भाः घनदन्तद्वीपलष्टद
न्तद्वीपगूढदन्तद्वीपशुद्धदन्तद्वीपा भवन्ति, तत्प्रतिपादकाश्चान्ये चत्वार एवोद्देशका इति, एवमादितोऽत्र त्रिंशत्तमः | शुद्धदन्तोद्देशकः ३० इति ॥
उक्तरूपाश्चार्थाः केवलिधर्माद ज्ञायन्ते तं चाश्रुत्वाऽपि कोऽपि लभत इत्याद्यर्थप्रतिपादनपरमेकत्रिंशत्तममुद्देशकमप्याह, तस्य चेदमादिसूत्रम्| रायगिहे जाव एवं वयासी-असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा केवलिसावगस्स वा केवलिसावियाए वा केवलिउवासगस्स वा केवलिउवासियाए वा तप्पक्खियस्स वा तप्पक्खियसावगरस वा तप्पक्खियसावियाए | वा तप्पक्खियउवासगस्स वा तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सघणयाए ?, गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा अत्यगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजा सवणयाए ॥ से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ-असोचा णं जाव नो लभेजा सवणयाए, गोयमा ! जस्स णं नाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लभेज सवणयाए, जस्स णं नाणावरणिज्जाणंकBlम्माणं खओवसमे नोकडे भवइ से णं असोचा णं केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए केवलिपन्नत्तं धम्म
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MII
'व्याख्या- जानो लभेज सवणयाए, से तेणटेणं गोयमा! एवं वुचइ-तं चेव जाव नो लभेज सवणयाए ॥ असोचाणं भंते! प्रज्ञप्तिः केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं बोहिं बुज्झेजा, गोयमा ! असोचा णं केवलिस्स वा
८ शतके
रदेश:३१ अभयदेवी- जाव अस्थेगतिए केवलं बोहिं बुज्झेजा अत्थेगतिए केवलं बोहिं णो बुज्झज्जा ॥से केणटेणं भंते ! जाव नो या वृत्तिः२||
अश्रुत्वाके बुज्झज्जा ?, गोयमा ! जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा
हैवल्यादि ॥४३०॥ जाव केवलं बोहिं बुज्झज्जा, जस्स णं दरिसणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असो.
सू ३६५ चाकेवलिस्स वा जाव केवलं बोहिं णो बुज्झेजा, से तेण?णं जाव णो बुज्झज्जा ॥ असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवएज्जा, गोयमा! असोचा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पचइज्जा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं नो पवएज्जा, से केणटेणं जाव नो पवएज्जा, गोयमा ! जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवति से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवएज्जा, जस्स णं धम्मंतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवति से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव मुंडे भवित्ता जाव णो पवएजा, से तेणटेणं गोयमा ! जाव नो
॥४३०॥ पवएना । असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा ?, गोयमा! असोचा णं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा अत्थेगतिए केवलं
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भचेरवासं नो आवसेज्जा, से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव नो आवसेजा ?, गोयमा ! जस्स गं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवद से असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलं बंभचेरवासं आकसेज्जा, जस्स णं चरित्तावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव नो आवसेज्जा, से तेणटेणं जाव नो आवसेजा। असोचाणं भंते ! केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेजा ?, गोयमा ! असोचाणं केवलिस्स जाव उवासियाए वा जाव अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं संजमेजा अत्थेगतिए केवलेणं संजमेणं नो संजमेजा, से केणटेणं जाव नो संजमेज्जा, गोयमा ! जस्स णं जयणावरणि
जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचा णं केवलिस्स वा जाव केवलेणं संजमेणं संजमेजा जस्स Bाणं जयणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव नो संजमेजा, दिसे तेणटेणं गोयमा ! जाव अत्थेगतिए नो संजमेजा। असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव उवासियाए
वा केवलेणं संवरेणं संवरेज्जा ?, गोयमा! असोचाणं केवलिस्स जाव अत्थेगतिए केवलेणं संवरेणं संवरेजा अत्यंगतिए केवलेणं जाव नो संवरेजा, से केणटेणं जाव नो संवरेज्जा ?, गोयमा ! जस्स णं अज्झवसाणा
वरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलेणं संवरेणं संवरेजा, * जस्स णं अज्झवसाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे णो कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव
नो संवरेजा, से तेणटेणं जाव नो संवरेजा। असोचा गंभंते ! केवलिस्स जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं
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+STRICKS MAKAMSUCCON
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व्याख्या
उप्पाडेजा ?, गोयमा! असोचाणं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थेगतिए केवलं आभिणियोहि- ९ शतके प्रज्ञप्तिः | यनाणं उप्पाडेजा अत्थेगइए केवलं आभिणियोहियनाणं नो उप्पाडेज्जा, से केणटेणं जाव नो उप्पाडेजा, उद्देशः३१. अभयदेवी- गोयमा ! जस्स णं आभिणिबोहियनाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ से णं असोचावलिस्सलामश्चत्वाक या वृत्तिः२वा जाव केवलं आभिणिबोहियनाणं उप्पाडेजा, जस्स णं आभिणिषोहियनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे
वल्यादिः
सू ३६५ नो कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलं आभिणियोहियनाणंनो उप्पाडजा से तेण?णं जाव नो ॥४३॥
उप्पाडेजा, असोचाणं भंते ! केवलि. जाव केवलं सुयनाणं उप्पाडेजा एवं जहा आभिणियोहियनाणस्स वत्तवया भणिया तहा सुयनाणस्सवि भाणियबा, नवरं सुयनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियो । एवं चेव केवलं ओहिनाणं भाणियचं, नवरं ओहिणाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भाणियचे, एवं केवलं मणपजवनाणं उप्पाडेजा, नवरं मणपज्जवणाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे भाणियचे, असोचा णं भंते! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियोए वा केवलनाणं उप्पाडेजा, एवं चेव नवरं केवलनाणावरणिजाणं कम्माणं खए भाणियचे, सेसं तं चेव, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव केवलनाणं उप्पाडेजा।। असोचा णं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए केवलंत ॥४३॥ बोहिं बुझेजा केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवएज्जा केवलं बंभचेरवासं आवसेज्जा केवलेणं संजमेणं संजमेजा केवलेणं संवरेणं संवरेजा केवलं आभिणियोहियनाणं उप्पाडेजा जाव केवलं. मणपज्जव
सिक
SHARAऊर
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नाणं उप्पाडेजा केवलनाणं उप्पाडेजा ?, गोयमा ! असोचाणं केवलिस्स वा जाव उवासियाए वा अत्थे★ गतिए केवलिपन्नत्तं धम्म लभेजा सवणयाए अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजा सवणयाए अत्थे
गतिए केवलं बोहिं वुझेजा अत्थेगतिए केवलं बोहिं णो बुज्झेज्जा अत्थेगतिए केवलं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवएज्जा अत्थेगतिए जाव नो पवएज्जा अत्थेगतिए केवलं बंभचेरवासं आवसेजा अत्थे-४ ★ गतिए केवलं बंभचेरवासं नो आवसेना अत्थेगतिए केवलणं संजमेणं संजमेजा अत्थेगतिए केवलेणं संज
मेणं नो संजमेजा एवं संवरेणवि, अत्थेगतिए केवलं आभिणियोहियनाणं उप्पाडेजा अत्थेगतिए जाव नो ४|| उप्पाडेजा, एवं जाव मणपजवनाणं; अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेजा अत्यंगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा।
से केणढणं भंते ! एवं बुचा असोच्चाणं तं चेव जाव अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा ?, गोयमा ! जस्स कणं नाणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ १ जस्स णं दरिसणावरणिजाणं कम्माणं खओवसमे
नो कडे भवइ २ जस्स णं धम्मतराइयाणं कम्माणं खओवसमे नो कडे भवइ ३ एवं चरित्तावरणिज्जाणं ४ जयणावरणिज्जाणं ५ अज्झवसाणावरणिज्जाणं ६ आभिणिबोहियनाणावरणिज्जाणं ७ जाव मणपज्जवनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खोवसमे नो कडे भवइ १० जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं जाव खए नो कडे भवइ । |११ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं नो लभेजा सवणयाए केवलं बोहिं नो बुज्झेजा जाव केवलनाणं नो उप्पाडेजा, जस्स णं नाणावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे भवति जस्स णं दरिसणा
CAEC 436+URUSSES
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९ शतके उद्देशः ३१ अश्रुत्वाकेवल्यादिः सू ३६५
व्याख्या वरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवह जस्स णं धम्मंतराइयाणं एवं जाव जस्स णं केवलनाणावरणिप्रज्ञप्तिः
जाणं कम्माणं खए कडे भवइ से णं असोचाकेवलिस्स वा जाव केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए अभयदेवी
केवलं बोहिं बुज्झेजा जाव केवलणाणं उप्पाडेजा (सूत्रं ३६५)॥ या वृत्तिः | 'रायगिहें'इत्यादि, तत्र च 'असोच'त्ति अश्रुत्वा-धर्मफलादिप्रतिपादकवचनमनाकर्ण्य प्राकृतधर्मानुरागादेवेत्यर्थः
मानुरागावत्यथः ॥४३२॥ 'केवलिस्स वत्ति 'केवलिनः' जिनस्य 'केवलिसावगस्स वत्ति केवली येन स्वयमेव पृष्टः श्रुतं वा येन तद्वचनमसौ
| केवलिश्रावकस्तस्य 'केवलिउवासगस्स वत्ति केवलिन उपासनां विधानेन केवलिनैवान्यस्य कथ्यमानं श्रुतं येनासौ केवल्युपासकः 'तप्पक्खियस्स'त्ति केवलिनः पाक्षिकस्य स्वयंबुद्धस्य 'धम्मति श्रुतचारित्ररूपं 'लभेज'त्ति प्रामुयात् 'सवणयाए'त्ति श्रवणतया श्रवणरूपतया श्रोतुमित्यर्थः॥'नाणावरणिज्जाणं'ति बहुवचनं ज्ञानावरणीयस्य मतिज्ञानावरणादिभेदेनावग्रहमत्यावरणादिभेदेन च बहुत्वात् , इह च क्षयोपशमग्रहणात् मत्यावरणायेव तद् ग्राह्यं न तु केवला
|वरणं तत्र क्षयस्यैव भावात् , ज्ञानावरणीयस्य क्षयोपशमश्च गिरिसरिदुपलघोलनान्यायेनापि कस्यचित्स्यात्, तत्सद्भावे विचाश्रुत्वाऽपि धर्म लभते श्रोतुं, क्षयोपशमस्यैव तल्लाभेऽन्तरङ्गकारणत्वादिति ॥'केवलं घोहिंति शुद्धं सम्यग्दर्शनं
'बुझेज'त्ति बुद्ध्येतानुभवेदित्यर्थः यथा प्रत्येकबुद्धादिः, एवमुत्तरत्राप्युदाहर्त्तव्यं, 'दरिसणावरणिज्जाणं'ति इह दर्शनावरणीय दर्शमोहनीयमभिगृह्यते, बोधेः सम्यग्दर्शनपर्यायत्वात तल्लाभस्य च तत्क्षयोपशमजन्यत्वादिति ॥ 'केवलं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारिय'ति 'केवला' शुद्धां सम्पूर्णा वाऽनगारितामिति योगः 'धम्मंतराइयाणं'ति अन्त
PASTARUOSIUS
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॥४३२॥
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रायो - विघ्नः सोऽस्ति येषु तान्यन्तरायिकाणि धर्म्मस्य - चारित्रप्रतिपत्तिलक्षणस्यान्तरायिकाणि धर्मान्तरायिकाणि तेषां | वीर्यान्तराय चारित्रमोहनीय भेदानामित्यर्थः, 'चारित्तावरणिजाणं'ति, इह वेदलक्षणानि चारित्रावरणीयानि विशेक्सी | ग्राह्याणि, मैथुनविरतिलक्षणस्य ब्रह्मचर्यवासस्य विशेषतस्तेषामेवावारकत्वात्, 'केवलेणं संजमेणं संजमेज' ति इह | संयमः प्रतिपन्नचरित्रस्य तदतिचारपरिहाराय यतनाविशेषः, 'जयणावरणिजाणं' ति इह तु यतनावरणीयानि चारि-त्रविशेषविषयवीर्यान्तरायलक्षणानि मन्तव्यानि 'अज्झवसाणावरणिजाणं' ति संवरशब्देन शुभाध्यवसायवृत्तेर्विवक्षितत्वात् तस्याश्च भावचारित्ररूपत्वेन तदावरणक्षयोपशमलभ्यत्वात् अध्यवसानावरणीयशब्देनेह भावचारित्रावरणीया म्युक्ता -- नीति । पूर्वोक्ता नेवार्थान् पुनः समुदायेनाह - 'असोचा णं भंते !' इत्यादि ॥ अथाश्रुत्वैव केवल्यादिवचनं यथा कश्चित् | केवलज्ञानमुत्पादयेत्तथा दर्शयितुमाह
तरसणं भंते! छ÷छट्टेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उहुं बाहाओ पगिज्झिय पगिज्झिय सूराभिमुहस्स आयावणभूमीए आयावेमाणस्स पगतिभद्दयाए पगइडवसंतयाए पगतिपयणुको हमाणमायालो भयाए मि मद्दवसंपन्नयाए अल्लीवणयाए भक्ष्याए विणीययाए अन्नया कयाइ सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेस्साहिं विसुज्झमाणीहिं २ तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स बिब्भंगे नामं अन्नाणे समुप्पज्जह से णं तेणं विन्भंगनाणेणं समुत्पन्नेणं जहनेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभान उक्कोसेणं असंखेज्जाई जोयणसहस्साइं जाणइ पासह, से णं तेणं विन्भंगनाणेणं समुप्पणं जीवेवि जाणह
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4%AEAS
व्याख्या- अजीवेवि जाणइ पासंडत्थे सारंभे सपरिग्गहे संकिलिस्समाणेवि जाणइ विसुज्झमाणेवि जाणइ से णं पुषा
९ शतके प्रज्ञप्तिः मेव सम्मत्तं पडिवजइ संमत्तं पडिवजित्ता समणधम्म रोएति समणधम्म रोएत्ता चरित्तं पडिवजह चरितं
उद्देशः३१ अभयदेवीपडिवजित्ता लिंगं पडिवजह, तस्स णं तेहिं मिच्छत्तपज्जवहिं परिहायमाणेहिं २ सम्मइंसणपजवेहिं परिवहु
भभुत्वाके या वृत्तिः२
वलिपक्षमाणेहिं २ से विभंगे अन्नाणे सम्मत्तपरिग्गहिए खिप्पामेव ओही परावत्सइ (सूत्रं ३६६)॥
स्यावधिः ॥४३॥ 'तस्से त्यादि 'तस्स'त्ति योऽश्रुत्वैव केवल ज्ञानमुत्पादयेत्तस्य कस्यापि 'छटुंछ?ण'मित्यादि च यदुक्तं तत्प्रायः षष्ठ- सू ३६६
तपश्चरणवतो बालतपस्विनो विभङ्गः-ज्ञानविशेष उत्पद्यत इति ज्ञापनार्थमिति, 'पगिज्झिय'त्ति प्रगृह्य धृत्वेत्यर्थः 'पगतिभद्दयाए'इत्यादीनि तु प्राग्वत्, 'तयावरणिजाणं'ति विभङ्गज्ञानावरणीयानाम् 'ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स'त्ति इहेहा-सदाभिमुखा ज्ञानचेष्टा अपोहस्तु-विपक्षनिरासः मार्गणं च-अन्वयधर्मालोचनं गवेषणं तु-व्यतिरे-19 कधर्मालोचनमिति से 'ति असौ बालतपस्वी 'जीवेवि जाणइत्ति कथञ्चिदेव न तु साक्षात् मूर्तगोचरत्वात्तस्य . | 'पासंडत्थे'त्ति व्रतस्थान 'सारंभे सपरिग्गहे'त्ति सारम्भान् सपरिग्रहान् सतः, किंविधान जानाति ? इत्याह-संकि
लिस्समाणेवि जाणइत्ति महत्या संकिश्यमानतया सकिश्यमानानपि जानाति 'विसुज्झमाणेवि जाणइत्ति अल्पी&|| यस्याऽपि विशुद्ध्यमानतया विशुद्ध्यमानानपि जानाति, आरम्भादिमतामेवंस्वरूपत्वात् , ‘से 'ति असौ विभङ्गज्ञानी|||॥४३२॥ | जीवाजीवस्वरूपपाषण्डस्थसक्तिश्यमानतादिज्ञायकः सन् 'पुवामेव'त्ति चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्वमेव 'सम्मतंति सम्यग्भावं | 'समणधम्मति साधुधर्म 'रोएइ'त्ति श्रद्धत्ते चिकीर्षति वा 'ओही परावत्तइत्ति अवधिर्भवतीत्यर्थः, इह च यद्यपि
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ॐॐॐ
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स्साए मुफलेखा से णं भतेक मणजोगी होहोना। से
5545433
चारित्रप्रतिपत्तिमादावभिधाय सम्यक्त्वपरिगृहीतं विभङ्गज्ञानमवधिर्भवतीति पश्चादुक्तं तथाऽपि चारित्रप्रतिपत्तेः पूर्व। सम्यक्त्वप्रतिपत्तिकाल एव विभङ्गज्ञानस्यावधिभावो द्रष्टव्यः, सम्यक्त्वचारित्रभावे विभङ्गज्ञानस्याभावादिति ॥ अथैनमेव लेश्यादिभिर्निरूपयन्नाह
से णं भंते ! कतिलेस्सासु होज्जा ?, गोयमा ! तिमु विसुद्धलेस्सासु होजा, तंजहा-तेउलेस्साए पम्हले|स्साए सुकलेस्साए । से णं भंते ! कतिसु णाणेसु होजा, गोयमा! तिसु आभिणिबोहियनाणसुयनाणओहिनाणेसु होजा। से णं भंते । किं सजोगी होजा अजोगी होजा, गोयमा ! सजोगी होज्जा नो अजोगी होजा, जइ सजोगी होजा किं मणजोगी होजा वइजोगी होजा कायजोगी होजा?, गोयमा ! मणजोगी वा होजा वइजोगी वा होजा कायजोगी वा होजा। सेणं भंते ! किं सागारोवउत्ते होजा अणागारोवउत्ते होजा ?, गोयमा ! सागारोवउत्ते वा होजा अणागारोवउत्ते वा होज्जा । से णं भंते ! कयरंमि संघयणे होजा, गोयमा ! वइरोसभनारायसंघयणे होजा । सेणं भंते ! कयरंमि संठाणे होजा?, गोयमा ! छह संठाणाणं अन्नयरे संठाणे होजा। से णं भंते ! कयरंमि उच्चत्ते होजा?, गोयमा ! जहन्नेणं सत्त रयणी उक्कोसेणं पंचधणुसतिए होजा । से णं भंते ! कयरंमि आउए होज्जा?, गोयमा !जहन्नेणं सातिरेगट्ठवासाउए उक्कोसेणं पुवकोडिआउए होजा। सेणं भंते ! किं सवेदए होज्जा अवेदए होजा?, गोयमा ! सवेदए होजा नो अवेदए होजा, जइ सवेदए होजा किं इत्थीवेयए होजा पुरिसवेदए होजा नपुंसगवेदए होजा पुरिसनपुं
RAHSHSHAOSASARA
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥ ४३४ ॥
सगवेदए होजा?, गोयमा ! नो इत्थिवेदए होजा पुरिसवेदए वा होजा नो नपुंसगवेदए होजा पुरिसनपुंसग| वेदए वा होजा । णं भंते! किं सकसाई होजा अकसाई होज्जा ?, गोयमा ! सकसाई होजा नो अकसाई होजा, जइ सकसाई होज्जा से णं भंतें ! कतिसु कसाएस होज्जा ?, गोयमा ! चउसु संजलणकोहमा णमायालो भेसु होज्जा । तस्स णं भंते ! केवतिया अज्झवसाणा पन्नत्ता ?, गोयमा ! असंखेज्जा अज्झवसाणा पन्नत्ता, ते णं भंते ! पसत्था अप्पसत्था ?, गोयमा ! पसत्था नो अप्पसत्था, से णं भंते । तेहिं पसत्थेर्हि अज्झवसाणेहिं वहमाणेहिं अणतेहिं नेरइयभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ अणतेहिं तिरिक्खजोणियजाव विसंजोएइ अणतेहिं मणुस्सभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएह अनंतेहिं देवभवग्गहणेहिंतो अप्पाणं विसंजोएइ, जाओवि य से इमाओ नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवगतिनामाओ चत्तारि उत्तरपयडीओ तासिं च णं उवग्गहिए भणताणुबंधी कोहमाणमायालोभे खवेइ अणं० २ अपचक्खाणकसाए कोहमाणमा| यालोभे खवेइ अप्प० २ पञ्चक्खाणावरणको हमाणमायालोभे खवेइ पच्च० २ संजलणकोहमाणमायालो मे खवेह संज० २ पंचविहं नाणाव० नवविहं दरिसणाव० पंचविहमंतराइयं तालमत्थकडं च णं मोहणिज्जं कट्टु कम्म| रयविकरणकरं अपुञ्जकरणं अणुपविट्ठस्स अणते अणुत्तरे निवाघाए निरावरणे कसिणे पडिपुन्ने केवलवरनाणदंसणे समुप्पन्ने (सूत्रं ३६७ ) । से णं भंते ! केवलिपन्नत्तं धम्मं अभ्यवेज वा पनवेज वा परूवेज वा १, नो | तिणट्ठे समट्ठे, णण्णत्थ एगण्णापूण वा एगवागरणेण वा, से णं भंते ! पवावेज वा मुंडावेजवा १, जो तिजडे
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९ शतके उद्देशः ३१ अश्रुत्वाकेवलिपक्षस्य केवलं धर्मा
ख्यानाभा
वः ऊर्णादिः
सू ३६७३६८-३६९
॥४३४॥
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SABHABAHHHHH
समढे, उवदेसं पुण करेजा, से णं भंते ! सिझति जाव अंतं करेति ?, हंता सिज्झति जाव अंतं करेति (सूत्र ३६८) से णं भंते ! किं उर्दु होजा अहो होजा तिरियं होजा?, गोयमा ! उर्ल्ड वा होजा अहे वा होजा तिरियं वा होज्जा, उर्दु होजमाणे सद्दावइ वियडावइ गंधावइ मालवंतपरियाएसु ववेयडपवएसु होजा, साहरणं पडुच सोमणसवणे वा पंडगवणे वा होजा, अहे होजमाणे गड्डाए वा दरीए वा होजा, साहरणं पडुच्च पायाले वा भवणे वा होजा, तिरियं होजमाणे पन्नरससु कम्मभूमीसु होज्जा, साहरणं पडुच
अट्ठाइजे. दीवसमुद्दे तदेकदेसभाए होजा, ते णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होजा?, गोयमा ! जहन्नेणं एको ४ वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं दस, से तेण?णं गोयमा ! एवं बुच्चइ असोचा णं केवलिस्स वा जाव अत्थे
गतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए अत्थेगतिए असोचा णं केवलि जाव नो लभेजा सवणयाए जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेजा अत्थेगतिए केवलनाणं नो उप्पाडेजा (सूत्रं ३६९)॥ ___ 'से णं भंते !'इत्यादि, तत्र से 'ति स यो विभङ्गज्ञानी भूत्वाऽवधिज्ञानं चारित्रं च प्रतिपन्नः 'तिम विसुद्धलेस्सासु होज'त्ति यतो भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव सम्यक्त्वादि प्रतिपद्यते नाविसुद्धास्विति । 'तिसु आभिनिबोहिएत्यादि, सम्यक्त्वमतिश्रुतावधिज्ञानिनां विभङ्गविनिवर्तनकाले तस्य युगपदावादाचे ज्ञानत्रय एवासौ तदा वर्तत इति । 'णो अजोगी होज'त्ति अवधिज्ञानकालेऽयोगित्वस्याभावात् , 'मणजोगी'त्यादि चैकतरयोगप्राधान्यापेक्षयाऽवगन्तव्यं । 'सागारोवउत्ते वे'त्यादि, तस्य हि विभङ्गज्ञानान्निवर्तमानस्योपयोगदयेऽपि वर्तमानस्य सम्यक्त्वावधिज्ञानप्रतिपत्तिर
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४३५॥
स्तीति, ननु 'सबाओ लद्धीओ सागारोवओगोवउत्तस्स भवंती' त्यागमादनाकारोपयोगे सम्यक्त्वावधिलब्धिविरोधः १, नैवं, प्रवर्द्धमानपरिणामजीवविषयत्वात् तस्यागमस्य, अवस्थितपरिणामापेक्षया चानाकारोपयोगेऽपि लब्धिलाभस्य सम्भवादिति । 'वइरोसभनारायसंघयणे होज्ज' त्ति प्राप्तव्य केवलज्ञानत्वात्तस्य, केवलज्ञानप्राप्तिश्च प्रथमसंहनन एव भवतीति, एवमुत्तरत्रापीति ॥ 'सवेयए होज्ज' त्ति विभङ्गस्यावधिभावकाले न वेदक्षयोऽस्तीत्यसौ सवेद एव, 'नो इत्थि | वेयए होज 'त्ति स्त्रिया एवंविधस्य व्यतिकरस्य स्वभावत एवाभावात् 'पुरिसनपुंसगवेयए 'ति वर्द्धितकत्वादित्वे नपुं| सकः पुरुषनपुंसकः 'सकसाई होज 'त्ति विभङ्गावधिकाले कषायक्षयस्याभावात् 'चउसु संजलणकोहमाणमायालोभेसु होज 'त्ति स ह्यवधिज्ञानतापरिणत विभङ्गज्ञानश्चरणं प्रतिपन्नः उक्तः, तस्य च तत्काले चरणयुक्तत्वात्सज्वलना एव क्रोधादयो भवन्तीति । 'पसत्य'त्ति विभङ्गस्यावधिभावो हि नाप्रशस्ताध्यवसानस्य भवतीत्यत उक्तं - प्रशस्तान्यध्यवसा यस्थानानीति । 'अणतेहिं 'ति 'अनन्तैः' अनन्तानागतकालभाविभिः 'विसंजोए 'त्ति विसंयोजयति, तत्प्राप्तियोग्यताया | अपनोदादिति । 'जाओऽविय'त्ति यापि च 'नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्स देवगतिनामाओ'ति एतदभिधानाः 'उत्तरपयडीओ 'त्ति नामकर्माभिधानाया मूलप्रकृतेरुत्तर भेदभूताः 'तासिंच णं'ति तासां च नैरयिकगत्याद्युत्तरप्रकृतीनां | चशब्दादन्यासां च 'उवग्गहिए' त्ति औपग्रहिकान् - उपष्टम्भप्रयोजनान् अनन्तानुबन्धिनः क्रोधमानमायालोभान् क्षपयति, तथाऽप्रत्याख्यानादींश्च तथाविधानेव क्षपयतीति, 'पंचविहं नाणावरणिज्जं' ति मतिज्ञानावरणादिभेदात् 'नवविहं दंसणा| वरणिज्जं 'ति चक्षुर्दर्शनाद्यावरणचतुष्कस्य निद्रापञ्चकस्य च मीलनान्नवविधत्वमस्य 'पंचविहं अंतराइयं' ति दानलाभभो
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९ शतके उद्देशः ३१ अश्रुत्वाकेवलिपक्षस्य केवलं धर्माख्यानाभावः ऊर्द्धादिः सू ३६७३६८-३६९
॥ ४३५॥
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गोपभोगवीर्यविशेषितत्वादिति पञ्चविधत्वमन्तरायस्य, तत्र क्षपयतीति सम्बन्धः, किं कृत्वा इत्यत आह-तालमत्थकडं च णं मोहणिज्जं कट्ट'त्ति मस्तक-मस्तकशूची कृत्तं-छिन्नं यस्यासौ मस्तककृत्तः, तालश्चासौ मस्तककृत्तश्च तालमस्तककृत्तः, छान्दसत्वाच्चैवं निर्देशः, तालमस्तककृत्त इव यत्तत्तालमस्तककृत्तम् , अयमर्थः-छिन्नमस्तकतालकल्पं च मोहनीयं कृत्वा, यथा हि छिन्नमस्तकस्तालः क्षीणो भवति एवं मोहनीयं च क्षीणं कृत्वेति भावः, इदं चोक्तमोहनीयभेदशेषापेक्षया द्रष्टव्यमिति, अथवाऽथ कस्मादनन्तानुबन्ध्यादिस्वभावे तत्र क्षपिते सति ज्ञानावरणीयादि क्षपयत्येव ? इति, अत आह'तालमत्थे'त्यादि, तालमस्तकस्येव कृत्त्व-क्रिया यस्य तत्तालमस्तककृत्त्वं तदेवंविधं च मोहनीयं 'कट्ट'त्ति इतिशब्दस्येह || | गम्यमानत्वादितिकृत्वा-इतिहेतोस्तत्र क्षपिते ज्ञानावरणीयादि क्षपयत्येवेति, तालमस्तकमोहनीययोश्च क्रियासाधर्म्यमेव, यथा हि तालमस्तकविनाशक्रियाऽवश्यम्भावितालविनाशा एवं मोहनीयकर्मविनाशक्रियाऽप्यवश्यम्भाविशेषकर्मविनाशेति, आह च-"नस्तकसूचिविनाशे तालस्य यथा ध्रुवो भवति नाशः। तद्वत्कर्मविनाशोऽपि मोहनीयक्षये नित्यम् ॥१॥"| | ततश्च कर्मरजोविकरणकर-तद्विक्षेपकम् अपूर्वकरणम्-असदृशाध्यवसायविशेषमनुप्रविष्टस्य, अनन्तं विषयानन्त्यात् अनुत्तरं सर्वोत्तमत्वात् निर्व्याघातं कटकुट्यादिभिरप्रतिहननात् निरावरणं सर्वथा स्वावरणक्षयात् कृत्स्नं सकलार्थग्राहकत्वात् प्रतिपूर्ण सकलस्वांशयुक्ततयोत्पन्नत्वात् केवलवरज्ञानदर्शनं केवलमभिधानतो वरं ज्ञानान्तरापेक्षया ज्ञानं च दर्शनं च | ज्ञानदर्शनं समाहारद्वन्द्वस्ततः केवलादीनां कर्मधारयः, इह च क्षपणाक्रमः-अणमिच्छमीससम्म अह नपुंसित्थिवे
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४३६॥
यछक्कं च । पुमवेयं च खवेई को हाईए य संजलणे ॥ १ ॥” [ अनन्तानुबन्धिनो मिश्रं सम्यक्त्वं अष्टकं नपुंसकं स्त्रीवेदं षट्कं च । पुंवेदं च क्षपयति क्रोधादिकांश्च संज्वलनान् ॥१॥ ] इत्यादिग्रन्थान्तरप्रसिद्धो न चायमिहाश्रितो यथा कथ| चित्क्षपणामात्रस्यैव विवक्षितत्वादिति । ' आघवेज्ज' त्ति आग्राहयेच्छिष्यान् अर्घापयेद्वा-प्रतिपादनतः पूजां प्रापयेत् 'पन्नवेज्ज' त्ति प्रज्ञापयेद्भेदभणनतो बोधयेद्वा 'परूवेज्ज' त्ति उपपत्तिकथनतः 'नन्नत्थ एगनाएण वत्ति न इति योऽयं निषेधः सोऽन्यत्रैकज्ञाताद्, एकमुदाहरणं वर्जयित्वेत्यर्थः, तथाविधकल्पत्वादस्येति, 'एगवागरणेण व'त्ति एकव्याकरणादेको - तरादित्यर्थः 'पञ्चावेज वत्ति प्रत्राजयेद्रजोहरणादिद्रव्यलिङ्गदानतः 'मुंडावेज व'त्ति मुण्डयेच्छिरोलुञ्चनतः 'उबएसं | पुण करेज' ति अमुष्य पार्श्वे प्रव्रजेत्यादिकमुपदेशं कुर्यात् । 'सद्दावई' त्यादि, शब्दापातिप्रभृतयो यथाक्रमं जम्बूद्वीपप्रज्ञत्यभिप्रायेण हैमवत हरिवर्षरम्य कैरण्यवतेषु क्षेत्रसमासाभिप्रायेण तु हैमवतैरण्यवतहरिवर्षरम्यकेषु भवन्ति तेषु च | तस्य भाव आकाशगमनलब्धिसम्पन्नस्य तत्र गतस्य केवलज्ञानोत्पादसद्भावे सति, 'साहरणं पहुच 'त्ति देवेन नयनं प्रतीत्य 'सोमणसवणे' त्ति सौमनसवनं मेरौ तृतीयं 'पंडगवणे'त्ति मेरौ चतुर्थ 'गड्डाए वत्ति गर्त्ते - निम्ने भूभागेऽधोलोकग्रामादौ 'दरिए व'त्ति तत्रैव निम्नतरप्रदेशे 'पायाले वत्ति महापातालकलशे वलयामुखादौ 'भवणे वत्ति भवनवासिदेवनिवासे 'पन्नरससु कम्मभूमीसु'त्ति पश्च भरतानि पश्च ऐरवतानि पञ्च महाविदेहा इत्येवंलक्षणासु कर्माणि - | कृषिवाणिज्यादीनि तत्प्रधाना भूमयः कर्मभूमयस्तासु 'अड्डाइज्जे 'त्यादि अर्द्ध तृतीयं येषां तेऽर्द्धतृतीयास्ते च ते द्वीपा - श्चेति समासः, अर्द्धतृतीयद्वीपाश्च समुद्रौ च तत्परिमिता वर्द्धतृतीय द्वीपसमुद्रास्तेषां स चासौ विवक्षितो देशरूपो
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९ शतके उद्देशः ३१ अश्रुत्वाकेवलिपक्षस्य
केवलं धर्मा
ख्यानाभा
वः ऊर्द्धादिः सू ३६७३६८-३६९
॥४३६ ॥
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भागः-अंशोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रतदेकदेशभागस्तत्र ॥ अनन्तरं केवल्यादिवचनाभवणे यत्स्यात्तदुक्तमय तच्छ्रवणे यत्स्यात्तदाह__सोचाणं भंते ! केवलिस्स वा जाव तप्पक्खियउवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्मं लभेजा सवणयाए ?, गोयमा ! सोचाणं केवलिस्स वा जाव अत्थेगतिए केवलिपन्नत्तं धम्मं एवं जा चेव असोचाए वत्तवया सा
चेव सोचाएवि भाणियवा, नवरं अभिलावो सोचेति, सेसं तं चेव निरवसेसं जाव जस्स गं मणपज्जवना|णावरणिज्जाणं कम्माणं खओवसमे कडे भवइ जस्स णं केवलनाणावरणिज्जाणं कम्माणं खए कडे भवइ सेणं
सोचाकेवलिस्स वा जाव उवासियाए वा केवलिपन्नत्तं धम्म लब्भह सवणयाए केवलं बोहिं बुझेजा जाव | केवलनाणं उप्पाडेजा, तस्स णं अट्ठमंअट्टमेणं अनिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं अप्पाणं भावेमाणस्स पगइभद्दयाए तहेव जाव गवेसणं करेमाणस्स ओहिणाणे समुप्पज्जइ, से णं तेणं ओहिनाणेणं समुप्पन्नेणं जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज इभागं उक्कोसेणं असंखेजाई अलोए लोयप्पमाणमेत्ताई खण्डाई जाणइ पासइ ॥ से णं भंते! कतिसु लेस्सासु होजा?, गोयमा ! छसु लेस्सासु होजा, तंजहा-कण्हलेसाए जाव सुकलेसाए। से णं भंते ! कतिसु णाणेसु होजा ?, गोयमा ! तिसु वा चउसु वा होजा, तिमु होजमाणे तिसु आभिणिबोहियनाणसुयनाणओहिनाणेसु होजा, चउसु होजा माणे आभिमुय० ओहि० मणप० होजा । से णं भंते! किं सयोगी होजा अयोगी होज्जा ?, एवं जोगोवओगो संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च, एयाणि सवाणि जहा असो
4 +4+3, 43, 44 34 35 35 4445
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥४३७॥
45555
चाए तहेव भाणियवाणि । से णं भंते ! किं सवेदए०? पुच्छा, गोयमा सवेदए वा होज्जा अवेदए वा, जइ अवेदए
१ शतके होजा किं उवसंतवेयए होजा खीणवेयए होजा?,गोयमा!नो उवसंतवेदए होज्जा खीणवेदए होजा, जइ सवेदए
उद्देशः ३१ होजा किं इत्थीवेदए होजा पुरिसवेदए होजा नपुंसगवेदए वा होजा पुरिसनपुंसगवेदए होजा ?, पुच्छा, गो
अश्रुत्वाके
वलिपक्षस्य यमा ! इत्थीवेदए वा होजा पुरिसवेदए वा होजा पुरिसनपुंसगवेदए होजा । से णं भंते !किं सकसाई होज |श्रवणादिः अकसाई वा होजा ?, गोयमा ! सकसाई वा होज्जा अकसाई वा होजा, जइ अकसाई होजा किं वसंत
सू३७० कसाई होजा खीणकसाई होजा ?, गोयमा नो उवसंतकसाई होजा खीणकसाई होजा, जइ सकसाई होजा से णं भंते ! कतिसु कसाएसु होजा?, गोयमा ! चउसु वा दोसु वा एकंमि वा होज्जा, चउसु होजमाणे चउसु संजलणकोहमाणमायालोमेसु होजा, तिसु होजमाणे तिसु संजलणमाणमायालोमेसु होजा, दोसु होजमाणे दोसु संजलणमायालोमेसु होजा, एगंमि होजमाणे एगमि संजलणे लोभे होज्जा । तस्स णं भंते ! केव-| तिया अज्झवसाणा पण्णता ?, गोयमा! असंखेजा, एवं जहा असोचाए तहेव जाव केवलवरनाणदसणे समुप्पजइ, से णं भंते ! केवलिपन्नत्ते धम्मं आघवेज वा पनवेज वा परवेज वा?,हंता आघवेज वा पनवेज वा||
॥४३७॥ परवेज वा । सेणं भंते ! पवावेज वा मुंडावेज वा ?, हंता गोयमा! पवावेज वा मुंडावेज वा, तस्स र्णभंते ।। सिस्सावि पवावेज वामुंडावेज वा?, हंता पवावेज वा मुण्डावेज वा, तस्सणं भंते पसिस्सावि पवावेज वामुंडा
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वेज्ज वा १, हंता पञ्चावेज वा मुंडावेज वा । से णं भंते! सिज्झति वुज्झति जाव अंतं करेइ ?, हंता सिज्झह वा जाव अंतं करेइ तस्स णं भंते । सिस्सावि सिज्झति जाव अंतं करेन्ति ?, हंता सिज्झति जाव अंतं करेन्ति, तस्स णं भंते ! पसिस्सावि सिज्झति जाव अंतं करेन्ति, एवं चेव जाव अंतं करेन्ति । से णं भंते ! किं उहं होज्जा जहेव असोच्चाए जाव तदेकदेसभाए होज्जा । ते णं भंते ! एगसमएणं केवतिया होज्जा १, गोयमा ! | जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं अट्ठसयं १०८, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुम्बइ-सोचाणं केवलिस्स वा जाव केवलिडवासियाए वा जाव अत्थेगतिए केवलनाणं उप्पाडेज्जा अत्थेगतिए नो केवलनाणं उप्पा| डेज्जा | सेवंभंते ! २ त्ति ॥ ( सूत्रं ३७०) नवमसयस्स इगतीसहमो उद्देसो ॥ ९-३१ ॥
'सोचा 'मित्यादि, अथ यथैव केवल्यादिवचनाश्रवणावासबोध्यादेः केवलज्ञानमुत्पद्यते न तथैव तच्छ्रवणावाप्तबो| ध्यादेः किन्तु प्रकारान्तरेणेति दर्शयितुमाह - 'तस्स ण' मित्यादि, 'तस्स'त्ति यः श्रुत्वा केवलज्ञानमुत्पादयेत्तस्य कस्याप्यर्थात् प्रतिपन्नसम्यग्दर्शनचारित्रलिङ्गस्य 'अट्ठमंअट्टमेण' मित्यादि च यदुक्तं तत्प्रायो विकृष्टतपश्चरणवतः साधोरवधिज्ञानमुत्पद्यत इति ज्ञापनार्थमिति, 'लोयप्पमाणमेत्ताई'ति लोकस्य यत्प्रमाणं तदेव मात्रा - परिमाणं येषां तानि तथा ॥ अथैनमेव लेश्यादिभिर्निरूपयन्नाह - 'से णं भंते !' इत्यादि, तत्र 'से णं'ति सोऽनन्तरोक्तविशेषणोऽधिज्ञानी 'छसु | लेसासु होज 'त्ति यद्यपि भावलेश्यासु प्रशस्तास्वेव तिसृष्वपि ज्ञानं लभते तथाऽपि द्रव्यलेश्याः प्रतीत्य षट्स्वपि लेश्यासु
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|९ शतके उद्देशः ३१ अश्रुत्वाकेवलिपक्षस्य श्रवणादि सू३७०
व्याख्या
लभते सम्यक्त्वश्रुतंवत् , यदाह-सम्मत्तसुयं सवासु लब्भइ'त्ति तल्लामे चासौ षट्स्वपि भवतीत्युच्यत इति, प्रज्ञप्तिः | 'तिसु वत्ति अवधिज्ञानस्याद्यज्ञानद्वयाविनाभूतत्वादधिकृतावधिज्ञानी त्रिषु ज्ञानेषु भवेदिति, 'चउसु वा होजति अभयदेवी- मतिश्रुतमनःपर्यायज्ञानिनोऽवधिज्ञानोत्पत्ती ज्ञानचतुष्टयभावाच्चतुषु ज्ञानेष्वधिकृतावधिज्ञानी भवेदिति । 'सधेयए या वृत्तिः२६ वा' इत्यादि, अक्षीणवेदस्यावधिज्ञानोत्पत्तौ सवेदकः सन्नवधिज्ञानी भवेत् , क्षीणवेदस्य चावधिज्ञानोत्पत्ताववेदकः सन्नयं|
स्यात् , 'नो उवसंतवेयए होज'त्ति उपशान्तवेदोऽयमवधिज्ञानी न भवति, प्राप्तव्यकेवलज्ञानस्यास्य विवक्षितत्वादिति । ॥४३८॥
'सकसाई वा'इत्यादि, यः कषायाक्षये सत्यवधिं लभते स सकषायी सन्नवधिज्ञानी भवेत् , यस्तु कषायक्षयेऽसावकषा-1 यीति । 'चउसु वेत्यादि, यद्यक्षीण कषायः सन्नवधि लभते तदाऽयं चारित्रयुक्तत्वाच्चतुषु सञ्जवलनकषायेषु भवति, यदा तु क्षपकश्रेणिवर्तित्वेन सज्वलनक्रोधे क्षीणेऽवधिं लभते तदा त्रिषु सञ्चालनमानादिषु, यदा तु तथैव सवलनक्रोधमानयोः क्षीणयोस्तदा द्वयोः, एवमेकत्रेति ॥ नवमशते एकत्रिंशत्तम उद्देशकः समाप्तः॥९-३१॥
१ यद्यपि अत्र श्रुत्वाकेवल्यधिकारात् मनुष्येणैवाधिकारः, तस्य च द्रव्यलेश्याभावलेश्यापार्थक्यं द्रव्यलेश्याया अवस्थितिश्च चिरं यावन्न, तथापि || || भवन्नित्यस्य जायमान इत्यर्थकत्वाभावे विद्यमान इत्यर्थकस्य च ग्रहणे न काप्यनुपपत्तिः, प्राप्तेऽवधिज्ञाने लेश्यापरावृत्तिःप्रमादात् , अत्र द्रव्य| लेश्योक्तिस्तु तल्लेश्यकद्रव्याणां तथा तथा परिणतिमपेक्ष्य, न चैतदन्यलेश्याद्रव्याणामन्यलेश्यातया परिणमनमसंभवि, नृतिरश्चां द्रव्यलेश्याद्रव्यपरिणामान्तरस्वीकारात्, एवं स्यात्तदापि नासंगतिः । २ पूर्व यापशान्तः स्यात्तदापि पातस्तस्य भूतपूर्व एव, अधुनोपशमे तु द्विरुपशमे | |श्रेण्यारोहेण केवलस्योत्पाद एव न स्यात् तत युक्तं उक्तं ॥
-
-
॥४३८॥
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'अनन्तरोद्देशके केवल्यादिवचनं श्रुत्वा केवलज्ञानमुत्पादयेदित्युक्तम्, इह तु येन केवलिवचनं श्रुत्वा तदुत्पादित स दयते, इत्येवंसंबद्धस्य द्वात्रिंशत्तमोद्देशकस्येदमादिसूत्रम्| तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नगरे होत्था वन्नओ, दूतिपलासे चेहए, सामी समोसढे, परिसा निग्गया, धम्मो कहिओ, परिसा पडिगया, तेणं कालेणं तेणं समएणं पासावच्चिज्जे गंगेए नाम अणगारे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छइत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिचा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-संतरं भंते ! नेरइया उववजंति निरंतरं नेरइया उवव-
जंति ?, गंगेया! संतरंपि नेरइया उववजंति निरंतरंपि नेरड्या उववजंति, संतरं भंते ! असुरकुमारा उववसज्जंति निरंतरं असुरकुमारा उववजंति ?, गंगेया ! संतरंपि असुरकुमारा उववजंति निरंतरंपि असुरकुमारा
उववजंति एवं जाव थणियकुमारा, संतरं भंते ! पुढविकाइया उववजंति निरंतरं पुढविकाइया उववज्जंति ?, गंगेया ! नो संतरं पुढविकाइया उववजंति निरंतरं पुढविकाइया उववजंति, एवं जाव वणस्सइकाइया, बेईदिया जाव वेमाणिया एते जहाणेरड्या (सूत्रं ३७१)संतरं भंते! नेरइया उववइंति निरंतर नेरइया उववति?; गंगेया ! संतरंपि नेरइया उववति निरंतरंपि नेरइया उववदंति, एवं जाव थणियकुमारा, संतरं भंते ! पुढविकाइया उववति ? पुच्छा, गंगेया ! णो संतरं पुढविक्काइया उच्चति निरंतरं पुढविक्काइया उच्चदंति, एवं जाव वणस्सइकाइया नो संतरं निरंतरं उच्चदृति, संतरं भंते ! बेइंदिया उच्चति निरंतरं दिया उबद्दति ?, गंगेया!
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४३९॥
संतरंपि बेइंदिया उच्चति निरंतरंपि बेइंदिया उबइंति, एवं जाव वाणमंतरा, संतरं भंते! जोइसिया चयंति ? पुच्छा, गंगेया! संतरंपि जोइसिया चयंति निरंतरंपि जोइसिया चयंति, एवं जाव वेमाणियावि (सूत्रं ३७२ ) ॥ 'ते 'मित्यादि, 'संतरं 'ति समयादिकालापेक्षया सविच्छेदं तत्र चैकेन्द्रियाणामनुसमयमुत्पादात् निरन्तरत्वमन्येषां तूत्पादे विरहस्यापि भावात् सान्तरत्वं निरन्तरत्वं च वाच्यमिति ॥ उत्पन्नानां च सतामुद्वर्त्तना भवतीत्यतस्तां निरूपय | शाह - 'संतरं भंते! नेरइया उबवती'त्यादि ॥ उद्वृत्तानां च केषाश्चिद्गत्यन्तरे प्रवेशनं भवतीत्यतस्तन्निरूपणायाह - कइविहे णं भंते । पवेसणए पन्नन्ते १, गंगेया ! चउद्दिहे पवेसणए पन्नत्ते तंजहा- नेरइयपवेसणए तिरियजोणियपवेसणए मणुस्सपवेसणए देवपवेसणए । नेरइयपवेसणए णं भंते ! कह विहे पन्नते १, गंगेया ! सत्तविहे पन्नत्ते, तंजा - रयणप्पभापुढविनेरइयपवेसणए जाव अहेसत्तमापुढविनेरहयपवेसणए ॥ एगे णं भंते! नेरइए नेरइयपवेसणएणं पविसणमाणे किं रयणप्पभाए होज्जा सक्करप्पभाए होजा जाव अहेसन्तमाए होज्जा ?, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होज्जा जाव आहेसत्तमाए वा होज्जा । दो भंते ! नेरइया नेरइ| यपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा. जाव आहेसत्तमाए होज्जा ?, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव असत्तमाए वा होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए होज्जा अहवा एगे रयण
भाए एगे वालुयप्पभाए होजा जाव एगे रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे सक्कर प्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा एगे सकरप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे वालुयप्पभाए
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९ शतके उद्देशः ३२ सान्तराद्युत्पादोद्वर्त्तने सू ३७१३७२
॥४३९॥
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एगे पंकप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्समाए होजा, एवं एकेका पुढवी छ । यता जाव अहवा एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ॥ तिन्नि भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा जाव आहेसत्तमाए होज्जा ?, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव आहेसन्तमाए वा होजा, अहवा एगे रयणप्पभाए दो सक्करप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयणप्पभाए दो आहेसन्तमाए होज्जा ६ अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए होजा जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे अहेसासमाए होजा १२ अहवा एगे सकरप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा एगे सकरप्पभाए दो आहेस समाए होज्जा १७ अहवा दो सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा दो सरप्पभाए एगे असन्त माए होज्जा २२ एवं जहा सक्करप्पभाए वत्तवया भणिया तहा सङ्घपुढवीणं भाणियता जाव अहवा दो तमाए | एगे अहेसप्तमाए होज्जा, ४-४-३-३-२-२-१-१ (४२) अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे बालयप्पभाए होजा १ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा २ जाव अहवा एंगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे अहेससमाए होजा ५ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होजा ६ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे धूमप्पभाए होज्जा ७ एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुय० एगे अहेसत्तमाए होजा ९, अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए | होजा १० जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १२ अहवा एगे रयणप्प
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व्याख्या- भाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होज्जा १३ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ||९ शतके प्रज्ञप्तिः १४ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १५ अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालु- | उद्देशः३२ अभयदेवी- यप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा १६ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयपभाए एगे धूमप्पभाए होजा १७ एकादिजीया वृत्तिः२८ जाव अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १९ अहवा एगे सकरप्पभाए
वप्रवेशाधि. एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा २० जाव अहवा एगे सकर० एगे पंक० एगे अहेसत्तमाए होजा २२
सू ३७२ ॥४४०॥
अहवा एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे तमाए होजा २३ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे धूमप्प० एगे अहेसत्तमाए होजा २४ अहवा एगे सक्करप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा २५ अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए होजा २६ अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगे तमाए होजा २७ अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए एगेअहेसत्तमाए होजा २७ अहवा एगे वालुयप्पभाए एगे
धूमप्पभाए एगे तमाए होजा २९ अहवाएगेवालुयप्पभाए एगेधूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ३० अहवा Pएगे वालुयप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३१ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे हातमाए होजा ३२ अहवा एगे पंकप्पभाए एगे धूमप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३३ अहवा एगे पंकप्प-|8 भाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३४ अहवा एगे धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा
॥४४॥ R|३५॥ चत्तारि भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होजा ? पुच्छा, गंगेया ! स्य
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५, एवं एक्केकाए स
प्राणप्पभाए वा होज्जा जाव अहेसत्तमाए वा होजा ७, अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि सक्करप्पभाए होजा 8
अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए तिन्नि अहेसत्तमाए होजा ६ अहवा दो रयणप्पभाए दो सकरप्पभाए होजा एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा १२, अहवा तिन्नि रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा तिन्नि रयणप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा १८, अहवा एगे सकरप्पभाए तिन्नि वालुयप्पभाए होजा, एवं जहेव रयणप्पभाए उवरिमाहिं समं चारियं तहा सक्करप्पभाएवि उपरिमाहिं समं चारेयवं ५, एवं एकेकाए समं चारियवं. जाव अहवा तिन्नि तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १२-६-३-(६३) अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए दो वालुयप्पभाए होजा अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकर दो पंक० होजा एवं जाव एगे रयणप्पभाए एगे सकर दो अहेसत्तमाए होजा ५ अहवा एगे रयण दो सकर० एगे वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण दो सक्कर० एगे अहेसत्तमाए होज्जा १. अहवा दो रयण० एगे सक्कर० एगे वालुयप्पभाए होजा, एवं जाव अहवा दो रयण० एगे सकर० एगे अहेसत्तमाए होजा १५ अहवा एगे रयण. एगे वालुय० दो पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालुय दो अहेसत्तमाए होजा ४ एवं एएणं गमएणं जहा तिण्हं तियजोगो तहा भाणियबो जाव अहवा दो धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा १०५ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे पंकप्पभाए होज्जा १
गए होज्जा अहवामाए होज्जा १२-६-३-
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९शतके
एकादिजी
व्याख्या- अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकर० एगे वालुय० एगे धूमप्पभाए होज्जा २ अहवा एगे रयण एगे सकर प्रज्ञप्तिः एगे वालुय० एगे तमाए होजा ३ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए एगे रदेशः ३२ अभयदेवी
अहेसत्तमाए होजा ४ अहवा एगे रयण एगे सकर० एगे पंक० एगे धूमप्पभाए ५ अहवा एगे रयण एगे या वृत्तिार & सकर० एगे पंकप्पभा० एगे तमाए होज्जा ६ अहवा एगे रयण. एगे सकर० एगे पंक० एगे अहेसत्तमाए
वप्रवेशाधि.
सू ३७२ होज्जा ७ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे सकर० एगे धूम० एगे तमाए होजा ८ अहवा एगे रयण एगे सकर ॥४४॥
Bाएगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होजा ९ अहवा एगे रयण० एगे सकरप्पभाए एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए लाहोजा १० अहवा एगे रयण एगे वालुय० एगे पंक० एगे धूमप्पभाए होजा ११ अहवा एगे रयण एगे
वालुय० एगे पंक० एगे तमाए होजा १२ अहवा एगे रयण०एगेवालुय०एगे पंक० एगे अहेसत्तमाए होजा१३६ | अहवा एगे रयण एगे वालुय०एगे धूम. एगे तमाए होजा १४ अहवा एगे रयणप्पभाए एगे वालर्य० एगे
धूम० एगे अहेसत्तमाए होजा १५ अहवा एगे रयण. एगे वालय. एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा |१६ अहवा एगे रयण. एगे पंक० एगे धूम. एगे तमाए होज्जा १७ अहवा एगे रयण एगे पंक० एगे धूम एगेअहेसत्तमाए होजा १८ अहवा.एगे रयण एगे पंक० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा १९ अहवा एगे
॥४४॥ रयण० एगे धूम० एगे तमाए एगेअहेसत्तमाए होजा २० अहवा एगेसकर एगेवालुय० एगे पंक० एगे घूमप्पभाए होज्जा २१ एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमाओ पुढवीओ चारियाओ तहा सकरप्पभाएवि उवरिमाओ
SUSCUSS
१
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चारियवाओ जाव अहवा एगे सकर० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होज्जा ३० अहवा एगे वालु
य० एगे पंक० एगे धूम. एगे तमाए होज्जा ३१ अहवा एगे वालुय. एगे पंक. एगे धूमप्पभाए एगे अहेस दत्तमाए होज्जा ३२ अहवा एगे वालुय० एगे पंक० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३३ अहवा एगे वालु
य० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३४ अहवा एगे पंक० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तः
माए होज्जा ३५॥ द 'कइविहे ण'मित्यादि, 'पवेसणए'त्ति गत्यन्तरादुद्वत्तस्य विजातीयगतौ जीवस्य प्रवेशनं, उत्पाद इत्यर्थः, 'एगे
भंते ! नेरइए'इत्यादौ सप्त विकल्पाः । 'दो भंते ! नेरइए'त्यादावष्टाविंशतिर्विकल्पास्तत्र रत्नप्रभाद्याः सप्तापि पृथिवी-|| |क्रमेण पट्टादी व्यवस्थाप्याक्षसञ्चारणया पृथिवीनामेकत्वद्विकसंयोगाभ्यां तेऽवसेयाः, तत्रैकैकपृथिव्यां नारकद्वयोत्पत्ति, | लक्षणैकत्वे सप्त विकल्पाः, पृथिवीद्वये नारकद्वयोत्पत्तिलक्षणद्विकयोगे त्वेकविंशतिरित्येवमष्टाविंशतिः 'एवं एकेका पुढवी छड्डेय'ति अक्षसञ्चारणापेक्षयेदमुक्तमिति ॥ 'तिन्नि भंते ! नेरइए'त्यादौ चतुरशीतिर्विकल्पाः, तथाहि-पृथिवीनामेकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकसंयोगे तु तासामेको द्वावित्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रत्नप्रभया सह शेषाभिः क्रमेण चारिता| भिर्लब्धाः षड्, द्वावेक इत्यनेनापि नारकोत्पादविकल्पेन षडेव, तदेते द्वादश १२, एवं शर्कराप्रभया पञ्च पञ्चेति दश-5 एवं वालुकाप्रभयाऽष्टौ पङ्कप्रभया षट् धूमप्रभया चत्वारः तमम्प्रभया द्वाविति, द्विकयोगे द्विचत्वारिंशत्, त्रिकयोगे तु तासां पश्चत्रिंशद्विकल्पास्ते चाक्षसञ्चारणया गम्यास्तदेवमेते सर्वेऽपि चतुरशीतिरिति । ७॥ ४२ ॥ ३५ ॥ ८४ ॥'चत्तारि
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४४२॥
भंते ! नेरइया' इत्यादौ दशोत्तरे द्वे शते विकल्पानां, तथाहि - पृथिवीनामेकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विक्संयोगे तु तासा| मेकस्त्रय इत्यनेन नारकोत्पादविकल्पेन रत्नप्रभया सह शेषाभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धाः षट्, द्वौ द्वावित्यनेनापि षटू, त्रय एक इत्यनेनापि षडेव, तदेवमेतेऽष्टादश, शर्कराप्रभया तु तथैव त्रिषु पूर्वोक्तनारकोत्पादविकल्पेषु पश्च पश्चेति पञ्चदश, एवं वालुकाप्रभया चत्वारश्चत्वार इति द्वादश, पङ्कप्रभया त्रयस्त्रय इति नव, धूमप्रभया द्वौ द्वाविति पटू, तम:प्रभयैकैक इति त्रयः, तदेवमेते द्विकसंयोगे त्रिषष्टिः ६३, तथा पृथिवीनां त्रिकयोगे एक एको द्वौ चेत्येवं नारकोत्पादविकल्पे रत्नप्रभाशर्कराप्रभाभ्यां सहान्याभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धाः पञ्च, एको द्वावेकश्चेत्येवं नारकोत्पादविकल्पां| न्तरेऽपि पञ्च, द्वावेक एकश्चेत्येवमपि नारकोत्पादविकल्पान्तरे पञ्चैवेति पञ्चदश १५, एवं रत्नप्रभावालुकाप्रभाभ्यां सहोत्तराभिः क्रमेण चारिताभिर्लब्धा द्वादश १२, एवं रत्नप्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव रत्नप्रभाधूमप्रभाभ्यां षटू, रत्नप्रभातम:प्रभाभ्यां त्रयः, शर्कराप्रभावालुकाप्रभाभ्यां द्वादश १२, शर्कराप्रभाषङ्कप्रभाभ्यां नव, शर्कराप्रभाधूमप्र- चतुष्प्रवेशे त्रिकयोगे भाभ्यां षटू, शर्कराप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, वालुकाप्रभापङ्कप्रभाभ्यां नव, वालुकाप्रभाधूमप्रभाभ्यां ४५ र षटू, वालुकाप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः पङ्कप्रभाधूमप्रभाभ्यां षट् पङ्कप्रभातमःप्रभाभ्यां त्रयः, धूमप्रभा- १८ वालुका ० दिभिस्तु त्रय इति, तदेवं त्रिकयोगे पश्चोत्तरं शतं चतुष्कसंयोगे तु पञ्चत्रिंशदिति, एवं सप्तानां त्रिषष्टेः ९ पंकप्रभा पश्चोत्तरशतस्य पञ्चत्रिंशतश्च मीलने द्वे शते दशोत्तरे भवत इति ॥
३०
३ धूमप्रभा
पंच भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा ? पुच्छा, गंगेया ! रयणप्प
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९ शतके उद्देशः ३२ एकादिजीवप्रवेशाधि.
सू ३७२
॥४४२ ॥
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भाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए वा होजा अहवा एगे रयण चत्तारि सक्करप्पभाए होजा जाव अहवा Pएगे रयण चत्तारि अहेसत्तमाए होजा अहवा दो रयण तिन्नि सकरप्पभाए होजा एवं जाव अहवा
दो रयणप्पभाए तिन्नि अहेसत्तमाए होजा अहवा तिन्नि रयण दो सकरप्पभाए होजा एवं जाव अहेस-18 त्तमाए होजा अहवा चत्तारि रयण. एगे सक्करप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा चत्तारि रयण. एगे अहेसतमाए होज्जा अहवा एगे सक्कर० चत्तारि वालुयप्पभाए होजा एवं जहा रयणप्पभाए समं उवरिमपुढवीओ चारियाओ तहा सक्करप्पभाएवि समं चारेयवाओ जाव अहवा चत्तारि सक्करप्पभाए एगे अहेसत्तमाए होजा एवं एकेकाए समं चारेयवाओ जाव अहवा चत्तारि तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा एगेरयण एगे सक्करतिन्नि वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण. एगे सक्कर तिन्नि अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयण दो सक्कर दो वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण दो सकर दो अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो वालुयप्पभाए एवं पंचजीवानां द्विकसंयोगे | होजा एवं जाव अहवा दो रयणप्पभाए एगे सक्करप्पभाए दो अहेसत्तमाए होजा र स |
अहवा एगे रयण तिन्नि सक्कर० एगे वालुयप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा एगे|:
रयण तिन्नि सकर० एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा दो रयण. दो सकर. एगे
वालुयप्पभाए होजा एवं जाव अहेसत्तमाए अहवा तिन्नि रयण. एगे सकर० एगे
४ तम-प्रभावालयप्पभाए
200. 00004
भागाः८४ २४ रजप्रभा २०शर्कराप्रभा १६ बालुकाप्रभा १२ पंकप्रभा ८धूमप्रभा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४४३ ॥
|
| होजा एवं जाव अहवा तिन्नि रयण० एगे सक्कर० एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण० एगे वालुय० तिन्नि पंकप्पभाए होज्जा, एवं एएणं कमेणं जहा चउण्हं तियासंजोगो भणितो तहा पंचण्हवि तियासंजोगो भाणियो नवरं तत्थ एगो संचारिज्जइ इह दोन्नि सेसं तं चैव जाव अहवा तिन्नि धूमप्पभाए एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए होजा अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे वालुय० दो पंकप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा एगे रयण० एगे सकर० एगे वालुय० दो अहेसत्तमाए होज्जा ४ अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० दो वालुय० एगे पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहेसत्तमाए ८, अहवा एगे रयण० एगे सकरप्पभाए एगे वालुय० एगे पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण०दो सक्कर० पूर्व १२० - एगे वाल• एगे अहेसत्तमाए होज्जा १२ अहवा दो रयण० एगे सकर० एगे वालुय० एगे पंकप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा दो रयण० एगे सक्कर० एगे वालुय० एगे अहेसत्तमाए होज्जा १६ अहवा एगे रयण० एगे सकर० एगे पंक० दो धूमप्पभाए होजा एवं जहा चउण्हं चक्कसंजोगो | भणिओ तहा पंचण्हवि चउक्कसंजोगो भाणियवो, नवरं अन्भहियं एगो संघारेयधो, एवं जाव अहवा दो पंक० एगे धूम० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण० एगे सकर• एगे वालुय० एगे पंक० एगे घूम
६ धूमप्रभा
भाए होज्जा १ अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे वालुय० एगे पंक एगे तमाए होजा २ अहवा एगे रयण० जाव एगे पंक एगे अहेसत्तमाए होज्जा ३ अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे वालुयप्पभाए एगे
त्रिसंयोगे
९० रन०
६० शर्करा २६ वालुकप्रभा १८ पंकप्रभा
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९ शतके उद्देशः ३२ एकादिजीवप्रवेशाधि.
सू ३७२
॥ ४४३ ॥
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धूमप्पभाए एगे तमाए होजा ४ अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे वालुय० एगे धूमाए एगे अहसन्तमाए होज्जा ५ अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे वालुय० एगे तमाए एगे अहेसप्तमाए होज्जा ६ अहवा एंगे रयण० एगे सक्कर एगे पंक एगे धूम० एगे तमाए होज्जा ७ अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे पंक० एंगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा ८ अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० एगे पंक० एगे तम० एगे असन्तमाए होज्जा ९ अहवा एगे रयण० एगे सकर एगे धूम० एगे तम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा १० अहवा एगे रयण० एगे वास्लुय० एगे पंक एगे धूम० एगे तमाए होज्जा ११ अहवा एगे रयण० एगे बालुय० एगे पंक० एगे धूम० एगे असन्तमाए होज्जा १२ अहवा एगे रयण० एगे वालुय० एगे पंक० एंगे घूम० एगे अहेसत्तमाए होजा १३ अहवा एगे रयण० एगे वालुय० एगे धूम० एगे तम० एगे अहेसतमाए होजा १४ अहवा एगे रयण० एगे पंक० जाव एंगे अहेसत्तमाए होज्जा १५ अहवा एगे सक्कर एगे वालुय० जाब एगे तमाए होज्जा १६ अहवा एगे सक्कर० जाव एगे पंक० एगे धूम० एगे अहंसत्तमाए होज्जा १७ अहवा एगे सक्कर० जाव एगे पंक० एगे तमाए एगे अहे सप्तमाए होजा १८ अहवा एगे सक्कर० एगे वालुय० एगे घूम एगे तमाए एगे अहे सत्तमाए | होज्जा १९ अहवा एगे सक्कर० एगे पंक० जाव एगे असत्तमाए होज्जा २० अहवा एगे वालुय० जाव एगे अहे सप्तमाए होजा २१ ॥
'पंच भंते ! नेरइया' इत्यादि, पूर्वोक्तक्रमेण भावनीयं, नवरं सङ्क्षेपेण विकल्पसङ्ख्या दर्श्यते— एकत्वे सप्त विकल्पाः,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४४४॥
द्विकसंयोगे तु चतुरशीतिः, कथं १, द्विकसंयोगे सप्तानां पदानामेकविंशतिर्भङ्गाः, पञ्चानां च नारकाणां द्विधाकरणेऽक्षसञ्चारणावगम्याश्चत्वारो विकल्पा भवन्ति, तद्यथा - एकश्चत्वारश्च द्वौ त्रयश्च, त्रयो द्वौ च चत्वार एकश्चेति, तदेवमेक| विंशतिश्चतुर्भिर्गुणिता चतुरशीतिर्भवतीति, त्रिकयोगे तु सप्तानां पदानां पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, पञ्चानां च त्रित्वेन स्थापने षड् विकल्पास्तद्यथा - एक एकस्त्रयश्च, एको द्वौ द्वौ च द्वावेको द्वौ च, एकस्त्रय एकश्च द्वौ द्वावेकश्च, त्रय एक एकश्चेति, तदेवं पञ्चत्रिंशतः षड्भिर्गुणने दशोत्तरं भङ्गकशतद्वयं भवति, चतुष्कसंयोगे तु सप्तानां पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, पश्चानां | चतुराशितया स्थापने चत्वारो विकल्पास्तद्यथा - १११२ । ११२१ । १२११ । २१११ । तदेवं पञ्चत्रिंशतश्चतुर्भिर्गुणने चत्वारिंशदधिकं शतं भवतीति, पञ्चकयोगे त्वेकविंशतिरिति, सर्व मीलने च चत्वारि शतानि द्विषष्ट्यधिकानि भवन्तीति ॥
छन्भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा किं रयणप्पभाए होज्जा ? पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव असत्तमाए वा होजा ७ अहवा एगे रयण० पंच सक्करप्पभाए वा होजा अहवा एगे रयण० पंच वालुयप्पभाए वा होजा जाव अहवा एगे रयण० पंच अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दो रयण० चत्तारि सक्करप्पभाए होजा जाव अहवा दो रयण० चत्तारि अहेसत्तमाए होजा अहवा तिन्नि रयण० तिन्नि सक्कर० एवं एएणं कमेणं जहा पंचन्हं दुयासंजोगो तहा छण्हवि भाणियो नवरं एक्को अन्भहिओ संचारेयवो जाव | अहवा पंच तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा, अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० चत्तारि वालुयप्पभाए होज्जा | अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० चत्तारि पंकप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण० एगे सक्कर० चत्तारि
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९ शतके उद्देशः ३२ एकादिजीवप्रवेशाधि.
सू ३७२
॥४४४॥
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अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण दो सक्कर० तिनि वालुयप्पंभाए होज्जा,एवं एएणं कमेणं जहा पंचण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा छण्हवि भाणियवो नवरं एक्को अहिओ उच्चारेयचो, सेसं तं चेव ३४, चउक्कसंजोगोवि तहेव, पंचगसंजोगोवि तहेव, नवरं एक्को अन्भहिओ संचारेयचो जाव पच्छिमो भंगो अहंवा दो वालुय० एगे पंक० एगे धूम० एगे तम० एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण एगे सक्कर जाव एगे तमाए होजा १ अहवा एगे रयण जाव एगे धूम० एगे अहेसत्तमाए होज्जा २ अहवा एगे रयण जाव एगे पंक० एगे तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ३ अहवा एगे रयण. जाव एगे वालुयसर्षमीळने ९२५ भङ्गाः |
एक०७द्विकसंयोगाः १०५ | एगे धूमजाव एगे अहेसत्तमाए होजा ४ अहवा एगे रयण एगे सकर० एगे पंक०
त्रिकसंयोगाः ३५० | जाव एगे अहेसत्तमाए होजा ५ अहवा एगे रयण एगे वालुयजाव सगे अहेसत्तमाए|
पंचकसंयोगाः १०५ होजा ६ अहवा एगे सकरप्पभाए एगे वालुयप्पभाए जाव एगे आहेससमाए होज्जा ७॥|
पसंयोगाः . | 'छन्भंते नेरइये'त्यादि ॥ इहैकत्वे सप्त, द्विकयोगे तु षण्णां द्वित्वे पश्च विकल्पास्तद्यथा-१५॥ २४॥ ३३॥ ४२ । ५१ । तैश्च सप्तपदद्धिकसंयोगएकविंशतेर्गुणनात् पञ्चोत्तरं भङ्गकशतं २५ भवति, त्रिकयोगे तु षण्णां त्रित्वे दश विकल्पास्तद्यथा-११४ । १२३ । २१३ । १३२ । २२२ । ३१२ । १४१ । | २३१ । ३२१ । ४११ । एतैश्च पञ्च| त्रिंशतः सप्तपदत्रिकसंयोगानां गुणनात् त्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, चतुष्कसंयोगे तु षण्णां चतूराशितया स्थापने दर्श विकल्पास्तद्यथा-१११३ । ११२२। १२१२।। २११२। ११३१ । १२२१ । २१२१ ।
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॥
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व्याख्या
९ शतके |१३११ । २२११ । ३१११ । पञ्चत्रिंशतश्च सप्तपदचतुष्कर्सयोगानां दशभिर्गुणनात्रीणि शतानि पञ्चाशदधिकानि भवन्ति, प्रज्ञप्तिः
उद्देशः ३२ अभयदेवी
पञ्चकसंयोगे तु षण्णां पञ्चधाकरणे पञ्च विकल्पास्तद्यथा-११११२। १११२१ । ११२११ । १२१११ । २११११ । एकादिजीया सप्तानां च पदानां पञ्चकसंयोगे एकविंशतिर्विकल्पाः, तेषां च पञ्चभिर्गुणंने पञ्चोत्तरं शतमिति, षट्कसंयोगे तु सव, नवप्रवेशाधि. ते च सर्वमीलने नव शतानि चतुर्विशत्युत्तराणि भवन्तीति ॥
सू ३७३ ॥४४५॥
सत्त भंते ! नेरड्या नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जीव अहें | सप्तप्रवेशे संयोगाः१७१६ सत्तमाए वा होज्जा ७, अहवा एगे रयणप्पभाए छ सक्करप्पभाए होजा एवं एएणं कमेणं एक०७ भङ्गाः
| जहा छण्हं दुयासंजोगो तहा सत्तण्हवि भाणियचं नवरं एगो अन्भहिओ संचारिजइ, सेसं द्विकसंयोगाः १२६ निकसंयोगाः ५२५
|तं चेव, तियासंजोगो चउकसंजोगो पंचसंजोगो छक्कसंजोगो य छण्हं जहा तहा सत्तण्हवि चतुष्कसंयोगाः ७००
|भाणियवं, नवरं एक्केको अन्भहिओ संचारेयवो जाव छक्कगसंजोगो अहवा दो सकर० एगे | पंचकसंयोगाः ३.५ पदसंयोगा: वालुय० जाव एगे अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण एगे सक्कर० जाव एगे अहेसत्त
॥४४५॥ सप्तकसंयोगः। माए होजा।।
'सत्त भंते !इत्यादि, इहैकत्वे सप्त, द्विकयोगे तु सप्तानां द्वित्वे षड्र विकल्पास्तद्यथा-१६।२५।३४॥४३॥५२॥६॥ पनिश्च सप्तपदद्विकसंयोगएकविंशतेर्गुणनात् षडूविंशत्युत्तरं भङ्गकशतं भवति, त्रिकयोगे तु सप्तानां त्रित्वे पञ्चदश वि. Boll कल्पास्तद्यथा-११५ । १२४ । २१४ । १३३ । २२३ । ३१३ । १४२ । ३३२ । ३२२ । ४१२। १५१ १.२४१ । ३३१॥
40-%%
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15655555
४२१ । ५११ । एतैश्च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदत्रिकसंयोगानां गुणनात् पञ्च शतानि पञ्चविंशत्यधिकानि भवन्तीति, चतुष्कयोगे तु सप्तानां चतुराशितया स्थापने एक एक एकश्चत्वारश्चेत्यादयो विंशतिर्विकल्पाः ते च वक्ष्यमाणाश्च पूर्वोत्तमतकानुसारेणाक्षसञ्चारणाकुशलेन स्वयमेवावगन्तव्या, विंशत्या च पञ्चत्रिंशतः सप्तपदचतुष्कसंयोगानां गुणनात् सप्त शतानि विकल्पानां भवन्ति, पञ्चकसंयोगे तु सप्तानां पञ्चतया स्थापने एक एक एक एकत्रयश्चेत्यादयः पञ्चदश विकल्पाः, एतैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगएकविंशतेर्गुणनात्रीणि शतानि पञ्चदशोत्तराणि भवन्ति, षटूसंयोगे तु सप्तानां पोढाकरणे पञ्चैकका द्वौ चेत्यादयः १११११२ षड् विकल्पाः, सप्तानां च पदानां षटूसंयोगे सप्त विकल्पाः, तेषां च षनिर्गुणने द्विचत्वारिंशद्विकल्पा भवन्ति, सप्तकसंयोगे त्वेक एवेति, सर्वमीलने च सप्तदश शतानि षोडशोत्तराणि भवन्ति ।
'अह भंते ! नेरतिया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए वा होज्जा अहवा एगे रयण सत्त सकरप्फ्भाए होजा एवं यासंजोगो जाव छक्कसंजोगो य जहा सत्तण्हं भणिओ तहा | अष्टानां जीवानां अट्ठण्हवि भाणियबो नवरं एकेको अन्भहिओ संचारेयचो सेसं तं चेव जाव छक्कसंजोगस्स | एकयोगे अहवा तिन्नि सक्कर० एगे वालुय० जाव एगे अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयणब्जाव |एगे तमाए दो अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयण जाव दो तमाए एगे अहेसत्तमाए होजा ' | एवं संचारेयचं जाव अहवा दो रयण एगे सकर० जाव एगे अहेससमाए होजा॥
| भगाः ३००३
द्विक०१४७ त्रिक० ७३५ चतु०१२२५
षट्०१४७ सप्त०७
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SAGAR
'अट्ट भंते !'इत्यादि, इहैकत्वे सप्त विकल्पाः, द्विकसंयोगे त्वष्टानां द्वित्वे एकः सप्तेत्यादयः सप्त विकल्पाः प्रतीता व्याख्या
९ शतके प्रज्ञप्तिः एव, तैश्च सप्तपदद्धिकसंयोगैकविंशतेर्गुणनाच्छतं सप्तचत्वारिंशदधिकानां भवतीति, त्रिकसंयोगे त्वष्टानां त्रित्वे एक एकः
॥ उद्देशः३२ अभयदेवी- षडू इत्यादय एकविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयोगे पञ्चत्रिंशतो गुणने सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्ति, एकादिजीया वृत्तिः२] | चतुष्कसंयोगे त्वष्टानां चतुर्द्धात्वे एक एक एकः पञ्चेत्यादयः पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां पञ्चत्रिंशतोवप्रवेशाधि.
गुणने द्वादश शतानि पञ्चविंशत्युत्तराणि भङ्गकानां भवन्तीति, पञ्चकसंयोगे त्वष्टानां पश्चत्वे एक एक एक एकश्चत्वा॥४४६॥
|रश्चेत्यादयः पञ्चत्रिंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैकविंशतेर्गुणने सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्तीति, षटू-ल संयोगे त्वष्टानां पोढात्वे पञ्चैककास्त्रयश्चेत्यादयः १११११३ एकविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदपटूसंयोगानां सप्तकस्य गुणने
सप्तचत्वारिंशदधिक भङ्गकशतं भवतीति, सप्तसंयोगे पुनरष्टानां सप्तधात्वे सप्त विकल्पाः प्रतीता एव, तैश्चैकैकस्य सप्तक४|| संयोगस्य गुणने सप्तैव विकल्पाः, एषां च मीलने त्रीणि सहस्राणि व्युत्तराणि भवन्तीति ॥ नव भंते ! नेरतिया नेरतियपवेसणएणं पविसमाणा किं पुच्छा, गंगेया! रयणप्पभाए वा असंयोगाः ७
दिकसं०१६८ होजा जाव अहेसत्तमाए वा होजा अहवा एगे रयण अट्ट सक्करप्पभाए होजा एवं दुयास|| जोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा भट्ठण्हं भणियं तहा नवण्हपि भाणियत्वं नवरं एकको
चतुष्कसं० १९६०
[पंचकसं०१४७० अब्भहिओ संचारेयवो, सेंसं तं चेव पच्छिमो आलावगो अहवा तिन्नि रयण. एगे सकर०
॥४४६॥ . शाएगे वालुय० जाव एगे अहेसत्तमाए वा होजा ॥
64ॐॐॐॐॐ
षट्कसं० ३९२ सप्तकसं०२८
५००५
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55555554
'नव भंते !'इत्यादि, इहाप्येकत्वे सप्तैव, द्विकसंयोगे तु नवानां द्वित्वेऽष्टौ विकल्पाः प्रतीता एव, तैश्चैकविंशतेः सप्तपदविकसंयोगानां गुणनेऽष्टषष्ट्यधिकं भङ्गकशतं भवतीति, त्रिकसंयोगे तु नवानां द्वावेकको तृतीयश्च सप्तकः ११७ इत्येवमादयोऽष्टाविंशतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयोगपञ्चत्रिंशतो गुणने नव शतान्यशीत्युत्तराणि भङ्गकानां भवन्तीति, चतुष्कयोगे तु नवानां चतुर्द्धात्वे त्रय एककाः षट् चेत्यादयः १११६ षट्पञ्चाशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगपञ्चत्रिंशतो गुणने सहस्रं नव शतानि षष्टिश्च भङ्गकानां भवन्तीति, पञ्चकसंयोगे तु नवानां पञ्चधात्वे चत्वार एककाः पञ्चकश्चेत्यादयः ११११५ सप्ततिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगएकविंशतेर्गुणने सहस्रं चत्वारि शतानि सप्ततिश्च भङ्गकानां भवन्तीति, षटूसंयोगे तु नवानां षोढात्वे पश्चैककाश्चतुष्ककश्चेत्यादयः १११११४ षट्पञ्चाशद्विकल्पा भवन्ति, तैश्च | सप्तपदपटूसंयोगसप्तकस्य गुणने शतत्रयं द्विनवत्यधिकं भङ्गकानां भवन्तीति, सप्तपदसंयोगे पुनर्नवानां सप्तत्वे एककाः पट त्रिकश्चैत्यादयो ११११११३ ऽष्टाविंशतिर्विकल्पा भवन्तीति, तैश्चैकस्य सप्तकसंयोगस्य गुणनेऽष्टाविंशतिरेव भङ्गकाः, एषां च सर्वेषां मीलने पञ्च सहस्राणि पश्चोत्तराणि विकल्पानां भवन्तीति ॥
दस भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए होजा जाव अहेसत्तमाए वा होजा ७ अहवा एगे रयणप्पभाए नव सक्करप्पभाए होज्जा एवं दुयासंजोगो जाव सत्तसंजोगो य जहा नवण्हं नवरं एकेको अब्भहिओ संचारेयवो सेसं तं चेव अपच्छिमआलावगो अहवा चत्तारि रयण एगे सकरपभाए जाव एगे अहेसत्तमाए होजा ॥
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः . अभयदेवीया वृत्तिः ॥४४७॥
९शतके | उद्देशः ३२ एकादिजीवप्रवेशाधि. सू ३७३
असंयोगी 'दस भंते इत्यादि, इहाप्येकत्वे सप्तैव, द्विकसंयोगे तु दशानां द्विधात्वे एको नव चेत्येवमादयो १८९ द्विकसं०
नव विकल्पाः, तैश्चैकविंशतेः सप्तपदद्विकसंयोगानां गुणने एकोननवत्यधिकं भङ्गकशतं भवतीति, १२६०विकसं० २९४० चतुष्कसं त्रिकयोगे तु दशानां त्रिधात्वे एक एकोऽष्टौ चेत्येवमादयः षट्त्रिंशद्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदत्रिकसंयो२६४६ पज्ञकर्स | गपञ्चत्रिंशतो गुणने द्वादश शतानि षष्ट्यधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति, चतुष्कसंयोगे तु दशानां ८८२ पसं. ८५ सप्तसं० | चतुर्धात्वे एककत्रयं सप्तकश्चेत्येवमादयश्चतुरशीतिर्विकल्पाः, तैश्च सप्तपदचतुष्कसंयोगपञ्चत्रिंशतो सर्व ८००८
| गुणने एकोनत्रिंशच्छतानि चत्वारिंशदधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति, पञ्चकसंयोगे तु दशानां | पञ्चधात्वे चत्वार एककाः षटुश्चेत्यादयः षड्विंशत्युत्तरशतसङ्ख्या विकल्पा भवन्ति तैश्च सप्तपदपञ्चकसंयोगैकविंशतेर्गुणने षविंशतिः शतानि षट्चत्वारिंशदधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति, षटूसंयोगे तु दशानां पोढात्वे पश्चैककाः पञ्चकश्चेत्या|दयः षड्विंशत्युत्तरशतसङ्ख्या विकल्पा भवन्ति, तैश्च सप्तपदषटूसंयोगसप्तकस्य गुणनेऽष्टौ शतानि न्यशीत्यधिकानि भङ्गकानां भवन्तीति, सप्तकसंयोगे तु दशानां सप्तधात्वे षडेककाश्चतुष्कश्चेत्येवमादयश्चतुरशीतिर्विकल्पाः, तैश्चैकस्य सप्तकर्सयोगस्य गुणने चतुरशीतिरेव भङ्गकानां भवन्ति, सर्वेषां चैषां मीलनेऽष्ट सहस्राणि अष्टोत्तराणि विकल्पानां भवन्तीति ॥
संखेजा भंते ! नेरइया नेरइयप्पवेसणएणं पविसमाणा पुच्छा, गंगेया! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहे॥ सत्तमाए वा होजा ७ अहवा एगे रयण संखेजा सकरप्पभाए होजा एवं जाव अहवा एगे रयण संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा अहवा दो रयण संखेजा सकरप्पभाए वा होजा एवं जाव अहवा दो रयण संखेजा
॥४४७||
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अहेसत्तमाए होजा अहवा तिनि रयण संखेजा सकरप्पभाए होजा एवं एएणं कमेणं एकेको संचारेयचो जाव अहवा दस रयण संखेजा सकरप्पभाए होज्जा एवं जाव अहवा दस रयण संखेजा अहेससमाए होज्जा अहवा संखेजा रयण संखेजा सकरप्पभाए होजा जाव अहवा संखेज्जा रयणप्पभाए संखेजा अहेससमाए होजा अहवा एगे सकर० संखेजा वालुयप्पभाए होजा एवं जहा रयणप्पभाए उवरिमपुढवीएहिं समं चारिया एवं सकरप्पभाएवि उपरिमपुढवीएहिं समं चारेयवा, एवं एकेका पुढवी उवरिमपुढवीएहिं समं चारेयवा जाव अहवा संखेजा तमाए संखेजा अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयण. एगे सकर. संखेजा वालयप्पभाए होज्जा अहवा एगे रयण. एगे सक्कर० संखेज्जा पंकप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयण एगे सकर० संखेज्जा अहेसत्तमाए होज्जा अहवा एगे रयण दो सकर० संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा अहवा | एगे रयण दो सक्कर० संखेज्जा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण तिन्नि सक्कर० संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं एकेको संचारेयवो अहवा एगे रयण संखेजा सक्कर० संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयण संखेजा वालुय० संखेज्जा अहेसत्तमाए होजा अहवा दो रयण. संखेजा सकर संखेजा वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा दो रयण संखेजा सक्कर० संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा तिन्नि रयण संखेजा सकर० संखेज्जा वालुयप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं एकेको रयणप्पभाए संचारेमायबो जाव अहवा संखेजा रयण संखेजा सकर० संखेजा वालुयप्पभाए होजा जाव अहवा संखेज्जा रयण
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीयावृत्तिः२
९शतके | उद्देश:३२ एकादिजीवप्रवेशाधि. सू ३७३
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॥४४८॥
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संखेजा सक्कर० संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण. एगे वालुय० संखेजा पंकप्पभाए होजा जाव अहवा एगे रयणक एगे वालुय० संखेजा अहेसत्तमाए होजा अहवा एगे रयण दो वालुय. संखेजा |पंकप्पभाए होजा, एवं एएणं कमेणं तियासंजोगो चउक्कसंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा दसण्हं तहेव भाणियबो पच्छिमो आलावगो सत्तसंजोगस्स अहवा संखेजा रयण संखेजा सक्कर जाव संखेजा अहेसत्तमाए होजा ॥ | 'संखेजा भंते !' इत्यादि, तत्र सङ्ख्याता एकादशादयः शीर्षप्रहेलिकान्ताः, इहाप्येकत्वे सप्तव द्विकसंयोगे तु सङ्ख्यातानां द्विधात्वे एकः सङ्ख्याताश्चेत्यादयो दश सङ्ख्याताः सङ्ख्याताश्चेत्येतदन्ता एकादश विकल्पाः, एते चोपरितनपृथिव्यामेकादीनामेकादशानां पदानामुच्चारणे अधस्तनपृथिव्यां तु सङ्ख्यातपदस्यैवोच्चारणे सत्यवसेया, ये त्वन्ये उपरितनपृथिव्यां सङ्ग्यातपदस्याधस्तनपृथिव्यां त्वेकादीनामेकादशानां पदानामुच्चारणे लभ्यन्ते ते इह न विवक्षिताः, पूर्वसूत्रक्रमाश्रयणात्, पूर्वसूत्रेषु हि दशादिराशीनां द्वैविध्यकल्पनायामुपर्येकादयो लघवः सङ्ख्याभेदाः पूर्व न्यस्ता अधस्तु नवादयो महान्तः एवमिहाप्येकादय उपरि सङ्ख्यातराशिश्चाधः, तत्र च सङ्ख्यातराशेरधस्तनस्यैकाद्याकर्षणेऽपि सङ्ख्यातत्वमवस्थितमेव प्रचुरत्वात् , न पुनः पूर्वसूत्रेषु नवादीनामिवैकादितया तस्यावस्थानमित्यतो नेहाध एकादिभावः, अपि तु सङ्ख्यातसम्भव एवेति नाधिकविकल्पविवक्षेति, तत्र रत्नप्रभा एकादिभिः सङ्ख्यातान्तैरेकादशभिः पदैः क्रमेण विशेषिता
४४८॥
53
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सङ्ग्याताः सजयातपदविशेषिताभिःशेषाभिः सह क्रमेण चारिता षट्षष्टिर्भङ्गकाल्लभते एवमेव शर्कराप्रभा पञ्चपञ्चाशतं २ सङ्ख्याताः वालुकाप्रभा चतुश्चत्वारिंशतं पङ्कप्रभा त्रयस्त्रिंशतं धूमप्रभा द्वाविंशतिं तमःप्रभा त्वेकादशेति, एवं च ३ सङ्ख्याताः। द्विकसंयोगविकल्पानां शतद्वयमेकत्रिंशदधिकं भवति, त्रिकयोगे तु विकल्पपरिमाणमात्रमेव दयते-1 ४ सङ्ख्याताः | रत्नप्रभा शर्कराप्रभा वालुकाप्रभा चेति प्रथमस्त्रिकयोगः, तत्र चैक एकः सङ्ख्याताश्चेति प्रथमविकल्पस्ततः ५ सङ्ख्याताः
प्रथमायामकस्मिन्नेव तृतीयायां सङ्ख्यातपद एव स्थिते द्वितीयायां क्रमेणाक्षविन्यासे च न्यायक्षभावेन ६ सखुवाता:
दशमचारे सङ्ख्यातपदं भवति, एवमेते पूर्वेण सहकादश, ततो द्वितीयायां तृतीयायां च सङ्ख्यातपद एव ७ सङ्ख्याताः ८ सङ्ख्याता
स्थिते प्रथमायां तथैव व्याद्यक्षभावेन दशमचारे सङ्ख्यातपदं भवति, एवं चैते दश, समाप्यते चेतोऽक्ष|९ सङ्ख्याताः विन्यासोऽन्त्यपदस्य प्राप्तत्वात् , एवं चैते सर्वेऽप्येकत्र त्रिकसंयोगे एकविंशतिः, अनया च पश्चत्रिंशतः १० सङ्ख्याताः | सप्तपदत्रिकसंयोगानां गुणने सप्त शतानि पञ्चत्रिंशदधिकानि भवन्ति, चतुष्कसंयोगेषु पुनराद्याभिश्च११ सङ्ख्याताः | तसृभिः प्रथमश्चतुष्कसंयोगः, तत्र चाद्यासु तिसृष्वेकैकचतुझं तु सङ्ख्याता इत्येको विकल्पस्ततः पूर्वोक्तएवं ११ भागाः क्रमेण तृतीयायां दशमचारे सङ्ख्यातपदं, एवं द्वितीयायां प्रथमायां च, तत एते सर्वेऽप्येकत्र चतुष्कयोगे एकत्रिंशत्, अनया च सप्तपदचतुष्कसंयोगानां पञ्चत्रिंशतो गुणने सहस्रं पञ्चाशीत्यधिक भवति, पञ्चकसंयोगेषु त्वाद्याभिः पञ्चभिः प्रथमः पञ्चकयोगः, तत्र चाद्यासु चतसृष्वेकैकः पञ्चम्यां तु सङ्ख्याता इत्येको विकल्पः ततः पूर्वोक्तकमेण चतुझं दशमचारे सङ्ख्यातपदं, एवं शेषास्वपि, तत एते सर्वेऽप्येकत्र पञ्चकयोगे एकचत्वारिंशत्, अस्याश्च प्रत्येक
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४४९ ॥
सप्तपदपञ्चकसंयोगानामेकविंशतेर्लाभादष्ट शतानि एकषष्ट्यधिकानि भवन्ति, पट्संयोगेषु तु पूर्वोक्तक्रमेणैकत्र पट्संयोगे एकपञ्चाशद्विकल्पा भवन्ति, अस्याश्च प्रत्येकं सप्तपदषकयोगे सप्तकला भात्रीणि शतानि सप्तपञ्चाशदधिकानि भवन्ति, सप्तकसंयोगे तु पूर्वोक्तभावनयैकषष्टिर्विकल्पा भवन्ति, सर्वेषां चैषां मीलने त्रयस्त्रिंशच्छतानि सप्तत्रिंशदधिकानि भवन्ति ॥ असंखेज्जा भंते ! नेरइया नेरइयपवेसणएणं पुच्छा, गंगेया ! रयणप्पभाए वा होजा जाव अहेसत्तमाए होज्जा, अहवा एगे रयण० असंखेज्जा सक्करप्पभाए होजा, एवं दुयासंजोगो जाव सत्तगसंजोगो य जहा संखिजाणं भणिओ तहा असंखेज्जाणवि भाणियचो, नवरं असंखेज्जाओ अन्भहिओ भाणियवो, सेसं तं चैव जाव सत्तगसंजोगस्स पच्छिमो आलावगो अहवा असंखेज्जा रयण० असंखेज्जा सक्कर० जाव असंखेज्जा अहेसत्तमाए होजा ॥
'असंखेज्जा भंते ! ' इत्यादि, सङ्ख्यातप्रवेशनकवदेवैतदसङ्ख्यातप्रवेशनकं वाच्यं, नवरमिहासङ्ख्यातपदं द्वादशमधीयते, तत्र चैकत्वे सप्तैव, द्विकसंयोगादौ तु विकल्पप्रमाणवृद्धिर्भवति, सा चैवं द्विकसंयोगे द्वे शते द्विपञ्चाशदधिके | २५२, त्रिकसंयोगेऽष्टौ शतानि पञ्चोत्तराणि ८०५, चतुष्कसंयोगे त्वेकादश शतानि नवत्यधिकानि ११९०, पञ्चकसंयोगे | पुनर्नव शतानि पञ्चचत्वारिंशदधिकानि ९४५, षट्संयोगे तु त्रीणि शतानि द्विनवत्यधिकानि ३९२, सप्तकसंयोगे पुनः सप्तषष्टिः, एतेषां च सर्वेषां मीलने षटूत्रिंशच्छतानि अष्टपञ्चाशदधिकानि भवन्तीति ॥ अथ प्रकारान्तरेण नारकप्रवेशनकमेवाह
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९ शतके उद्देशः ३२ एकादिजीवप्रवेशाधि.
सू ३७३
॥४४९ ॥
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CAECAUSAMACHAR
'उक्कोसेणं भंते ! नेरइया नेरतियपवेसएणं पुच्छा, गंगेया ! सबेवि ताव रयणप्पभाए होज्जा अहवा रयणप्पभाए य सकरप्पभाए य होजा अहवा रयणप्पभाए य वालुयप्पभाए य होजा जाव अहवा रयणप्पभाए य अहेसत्तमाए होजा अहवा रयणप्पभाए य सक्करप्पभाए य वालुयप्पभाए य होजा एवं जाव अहवा रयण सक्करप्पभाए य अहेसत्तमाए य होजा ५ अहवा रयण वालुय० पंकप्पभाए य होजा जाव अहवा रयण वालुय. अहेसत्तमाए होजा ४ अहवा रयण पंकप्पभाए धूमाए होजा एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा तिण्हं तियासंजोगो भणिओ तहा भाणियवंजाव अहवा रयण. तमाए य अहेसत्तमाए य होज्जा १५ अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुय० पंकप्पभाए य होजा अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुय० धूमप्पभाए य होजा जाव अहवा रयणप्पभाए सक्करप्पभाए वालुय० अहेसत्तमाए य होजा ४ अहवा रयण. सकर पंक० धूमप्पभाए य होजा एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा चउण्हं चउक्कसंजोगो तहा भाणियचं जाव अहवा रयण धूम तमाए अहेसत्तमाए होजा अहवा रयण सक्कर. वालुय. पंक० धूमप्पभाए य होन्जा १ अहवा रयणप्पभाए जाव पंक० तमाए य होज्जा २ अहवा रयण जाव पंक० अहेसत्तमाए य होजा ३ अहवा रयण सक्कर. वालुय० धूम तमाए य होज्जा ४ एवं रयणप्पभं अमुयंतेसु जहा पंचण्हं पञ्चकसंजोगो तहा भाणियवं जाव अहवा रयण पंकप्पभाजाव अहेसत्तमाए होजा अहवा रयण सक्कर० जाव धूमप्पभाए तमाए य होज्जा १ अहवा रयण जाव धूम. अहेसत्तमाए य होजा २ अहवा रयण सकर० जाव
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व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
पंक० तमाए य अहेसत्तमाए य होज्जा ३ अहवा रयण सक्कर वालुय० धूमप्पभाए तमाए अहेसत्तमाए होज्जा ४ अहवा रयण सकर० पंक० जाव अहेसत्तमाए य होजा ५ अहवा रयण वालुय. जाव अहेस- त्तमाए होज्जा ६ अहवा रयणप्पभाए य सकर० जाव अहेसत्तमाए य होजा ७॥
९ शतके उद्देशः ३२ एकादिजीवप्रवेशाधि. सू ३७३
॥४५०॥
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१५६७ द्विकयोगे पडङ्गाः
एवं २० पञ्चकसंयोगे | पञ्चदश भङ्गाः
१२३५६/विकयोगे पत्रा१२३५७ दशभकाः
१२३५६७ चतुष्कसंयोगे
६०|विंशतिभङ्गाः ६.
06
एवं १५ षड्योगे भङ्गकाः १२३४५६
.
एयस्स णं भंते! रयणप्पभापुढविनेरइयप
वेसणगस्स सकरप्पभापुढवि. जाव अहेrrrrrror
सत्तमापुढविनेरइयपवेसणगस्स य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गंगेया! सत्वत्थोवे अहेसत्तमापुढविनेरइयपवेसणए तमापुढविनेरइयपवेसणए असंखेजगुणे एवं पडिलोमगं जाव रयणप्पभापुढविनेरहयपवेसणए असंखेजगुणे (सूत्रं ३७३)॥ 'उक्कोसेण'मित्यादि, उत्कर्षा-उत्कृष्टपदिनो येनोत्कर्षत उत्पद्यन्ते ते सधेवित्तिये उत्कृष्टपदिनस्ते सर्वेऽपि रत्नप्रभायां
॥४५०॥
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भवेयुः तद्गामिनां तत्स्थानानां च बहुत्वात् , इह प्रक्रमे द्विकयोमे षड् भङ्गकास्त्रिकयोगे पञ्चदश चतुष्कसंयोगे विंशति पञ्चकसंयोगे पञ्चदश षड्योगे षट् सप्तकयोगे त्वेक इति ॥ अथ रत्नप्रभादिष्वेव नारकप्रवेशनकस्याल्पत्वादिनिरूपणायाह-एयस्स ण'मित्यादि, तत्र सर्वस्तोकं सप्तमपृथिवीनारकप्रवेशनकं, तगामिनां शेषापेक्षया स्तोकत्वात् , ततः षष्ठ्यामसङ्ख्यातगुणं, तद्गामिनामसङ्ख्यातगुणत्वात् , एवमुत्तरत्रापि ॥ अथ तिर्यग्योनिकप्रवेशनकप्ररूपणायाह
तिरिक्खजोणियपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते , गंगेया ! पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणए जाव पंचेंदियतिरिक्खजोणियपवेसणए । एगे भंते ! तिरिक्खजोणिए तिरिक्खजोणियपवेसणएणं पविसमाणे किं एगिदिएम होजा जाव पंचिदिएसु होजा?, गंगेया! एगिदिएसु वा होजा जाव पंचिंदिएसु वा होजा। दो भंते ! तिरिक्खजोणि-| इयोस्तिरश्चोद्विक | या पुच्छा, गंगेया ! एगिदिएसु वा होजा जाव पंचिंदियएसु वा होजा, अहवा एगे एगिदि-| | योगे १० भङ्गाः | एस होजा एगे बेइंदिएसु होजा एवं जहा
१२२४१५ नेरइयपवेसणए तहा तिरिक्खजोणियपवेसणएवि|१३२५ एवं भाणियचे जाव असंखेज्जा । उक्कोसा भंते ! तिरिक्खजोणिया पुच्छा. गंगेया! सवेवि ताव:४३४ भङ्गाः | एगिदिएम होजा अहवा एगिंदिएसु वा
|१५३५ बेइंदिएसु वा होजा, एवं जहा नेरतिया चारिया | २३ ४५ तहा तिरिक्खजोणियावि चारेयचा, एगिदिया अमुञ्चतेसु दुयासंजोगो तियासंजोगो चउक्कसंजोगो पंचसंजोगो उवउजिऊण भाणियन्वो जाव अहवा | एगिदिएसु वा बेइंदिय जाव पंचिंदिएसु वा होजा॥ एयस्स णं भंते ! एगिदियतिरिक्खजोणियपवेसणगस्स
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९ शतके
व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः ॥४५॥
ॐॐ5345454
जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणियपवेसणयस्स कयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गंगेया ! सव्वत्थोवा पंचिंदि
उद्देशः ३२ यतिरिक्खजोणियपवेसणए चरिंदियतिरिक्खजोणिय विसेसाहिए तेइंदिय० विसेसाहिए बेइंदिय० विसे-|| साहिए एगिदियतिरिक्ख० विसेसाहिए (सूत्रं ३७४)॥
वेशनक
सू ३७४ | 'तिरिक्खे'त्यादि, इहैकस्तिर्यग्योनिक एकेन्द्रियेषु भवेदित्युक्तं, तत्र च यद्यप्येकेन्द्रियेष्वेकः कदाचिदप्युत्पद्यमानो न | | लभ्यतेऽनन्तानामेव तत्र प्रतिसमयमुत्पत्तेस्तथाऽपि देवादिभ्य उद्धृत्य यस्तत्रोत्पद्यते तदपेक्षयैकोऽपि लभ्यते, एतदेव च |प्रवेशनकमुच्यते यद्विजातीयेभ्य आगत्य विजातीयेषु प्रविशति सजातीयस्तु सजातीयेषु प्रविष्ट एवेति किं तत्र प्रवेशनकमिति, तत्र चैकस्य क्रमेणैकेन्द्रियादिषु पञ्चसु पदेषूत्पादे पश्च विकल्पाः, द्वयोरप्येकैकस्मिन्नुत्पादे पश्चैव, द्विकयोगे तु दश, एतदेव सूचयता 'अहवा एगे एगिदिएसु' इत्याधुक्तम् । अथ सङ्केपार्थ च्यादीनामसङ्ग्यातपर्यन्तानां तिर्यग्योनिकानां प्रवेशनकमतिदेशेन दर्शयन्नाह-एवं जहे'त्यादि, नारकप्रवेशनकसमानमिदं सर्व, परं तत्र सप्तसु पृथिवीष्वेकादयो || नारका उत्पादिताः तिर्यश्वस्तु तथैव पञ्चसु स्थानेषूत्पादनीयाः, ततो विकल्पनानात्वं भवति, तच्चाभियुक्तेन पूर्वोक्तन्या
॥४५॥ येन स्वयमवगन्तव्यमिति, इह चानन्तानामेकेन्द्रियाणामुत्पादेऽप्यनन्तपदं नास्ति प्रवेशनकस्योक्तलक्षणस्यासङ्ख्यातानामेव लाभादिति, 'सवेवि ताव एगिदिएसु होज'त्ति एकेन्द्रियाणामतिबहूनामनुसमयमुत्पादात् , 'दुयासंजोगों इत्यादि, इह प्रक्रमे द्विकसंयोगश्चतुर्द्धा त्रिकसंयोगः षोढा चतुष्कसंयोगश्चतुर्दा पञ्चकसंयोगस्त्वेक एवेति ॥ 'सब
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थोवा पंचिंदियतिरिक्खजोणिय पवेसणएत्ति पञ्चेन्द्रियजीवानां स्तोकत्वादिति, ततश्चतुरिन्द्रियादिप्रवेशनकानि परस्परेण विशेषाधिकानीति ॥
मस्सपवेसण णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गंगेया ! दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-संमुच्छिममणुस्सपवेसणए | गन्भवद्वंतियमणुस्सपवेसणए य । एगे भंते ! मणुस्से मणुस्सपवेसणएणं पविसमाणे किं समुच्छिममणुस्सेसु होजा गन्भवकंतियमणुस्सेसु होज्जा ?, गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होज्जा गन्भवकंतियमणुस्सेसु होज्जा । दो भंते! मणुस्सा० पुच्छा, गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा गन्भवतियमणुस्सेसु वा होजा | अहवा एगे संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा एगे गन्भवक्कंतियमणुस्सेसु वा होज्जा, एवं एएणं कमेणं जहा नेरइयपवेसणए तहा मणुस्सपवेसणएवि भाणियधे जाव दस ॥ संखेज्जा भंते ! मणुस्सा पुच्छा, गंगेया ! संमुच्छिममणुस्सेसु वा होजा गन्भवकंतियमणुस्सेसु वा होजा अहवा एगे संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेज्जा |गन्भवतियमणुस्सेसु वा होज्जा अहवा दो संमुच्छिममणुस्सेसु होज्जा संखेज्जा गन्भवक्कतियमणुस्सेसु होज्जा | एवं एक्केकं उस्सारितेसु जाव अहवा संखेज्जा संमुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेज्जा गन्भवक्कंतियमणुस्सेसु होज्जा ॥ असंखेज्जा भंते ! मणुस्सा पुच्छा, गंगेया ! सधेवि ताव संमुच्छिममणुस्सेसु होजा अहवा असंखेज्जा संमुच्छिममणुस्सेसु एगे गन्भववंतियमणुस्सेसु होजा अहवा असंखेजा संमुच्छिममणुस्सेसु दो गन्भवक्कंति - | यमणुस्सेसु होजा एवं जाव असंखेज्जा समुच्छिममणुस्सेसु होजा संखेज्जा गन्भवक्कंतियमणुस्सेसु होजा ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४५२ ॥
उक्कोसा भंते ! मणुस्सा पुच्छा, गंगेया ! सदेवि ताव संमुच्छिममणुस्सेसु होजा अहवा संमुच्छिमम गुस्सेसु य गन्भवकंतियमणुस्सेसु वा होजा । एयस्स णं भंते ! संमुच्छिममणुस्सपवेसणगस्स गन्भवतियमणुस्स पवेसणगस्स य कयरे २ जाव विसेसाहिया ?, गंगेया ! सवत्थोवा गन्भवकंतियमणुस्सपवेसणए समुच्छिममणुस्सपवेसणए असंखेज्जगुणे (सूत्रं ३७५) देवपवेसणए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गंगेया ! चउविहे पन्नन्ते, तंजहा - भवणवासिदेवपवेसणए जाव वैमाणियदेवपवेसणए । एगे भंते ! देवपवेसणएणं पविसमाणे किं भवणवासीसु होज्जा वाणमंतरजोइसियवेमाणिएसु होज्जा 2, गंगेया ! भवणवासीसु वा होजा वाणमंतर जोइसियवेमाणिएसु वा होज्जा । दो भंते ! देवा देवपवेसणए पुच्छा, गंगेया ! भवणवासीसु वा होज्जा वाणमंतरजोइसियवेमाणिएस वा होजा अहवा एगे भवणवासीसु एगे वाणमंतरेसु होज्जा एवं जहा तिरिक्खजोणिय पवेसणए तहा देवपबेसणएवि भाणियधे जाव असंखेज्जन्ति । उक्कोसा भंते ! पुच्छा, गंगेया ! सधेवि ताव जोइसिएस होजा अहवा जोइसियभवणवासीसु य होजा अहवा जोइसियवाणमंतरेसु य होज्जा | अहवा जोइसियवेमाणिएसु य होजा अहवा जोइसिएस य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य होज्जा अहवा | जोइसिएसु य भवणवासिसु य वेमाणिएसु य होजा अहवा जोइसिएस वाणमंतरेसु वेमाणिएसु य होजा अहवा जोइसिएस य भवणवासीसु य वाणमंतरेसु य वेमाणिएसु य होजा । एयस्स णं भंते ! भवणवासि देव पवेसणगस्स वाणमंतरदेवपवेसणगस्स जोइसियदेवपवेसणगस्स वेमाणियदेव पवेसणगस्स य कयरे २ जाव
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९ शतके उद्देशः ३२ मनुष्यप्रवे० सू ३७५ | देवप्रवेशनकं सू३७६
॥४५२॥
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विसेसाहिया वा ?, गंगेया ! सवत्थोवे वेमाणियदेवषवेसणए भवणवासिदेवपवेसणए असंखेनमुणे बात तरदेवपवेसणए असंखजाणे जोइसियदेवपवेसणए संखेनगुणे (सूत्रं ३७६)॥ एयस्स णं भंते ! नेरहमपवे
सणगस्स तिरिक्ख० मणुस्स० देवपवेसणगरस कयरे कयरे जाव विसेसाहिए वा ?, गंगेया ! सवत्थोवे मणु-15 ४ स्सपवेसणए नेरइयपवेसणए असंखेज्जगुणे देवपवेसणए असंखेजगुणे तिरिक्खजोणियपवेसणए असंखेज-दा है गुणे (सूत्रं ३७७)॥
मनुष्यप्रवेशनक देवप्रवेशनकं च सुगम, तथाऽपि किञ्चिल्लिख्यते-मनुष्याणां स्थानकद्वये संमूच्छिमगर्भजलक्षणे प्रविशतीति द्वयमाश्रित्यैकादिसङ्ख्यातान्तेषु पूर्ववद्विकल्पाः कार्याः, तत्र चातिदेशानामन्तिम सङ्ख्यातपदमिति तद्विकल्पान साक्षाद्दर्शयन्नाह-संखेजे'त्यादि, इह द्विकयोगे पूर्ववदेकादश विकल्पाः, असङ्ख्यातपदे तु पूर्व द्वादश विकल्पा उता इह पुनरेकादशैव, यतो यदि संमूछिमेषु गर्भजेषु चासङ्ख्यातत्वं स्यात्तदाद्वादशोऽपि विकल्पो भवेत् , न चैवं, इह गर्भजमनुष्याणां | स्वरूपतोऽप्यसङ्ख्यातानामभावेन तत्प्रवेशनकेऽसङ्ख्यातासम्भवाद् , अतोऽसङ्ख्यातपदेऽपि विकल्पैकादशकदर्शनायाह| 'असंखेज्जा' इत्यादि । 'उक्कोसा भंते' इत्यादि, 'सवेवि ताव संमुच्छिममणुस्सेसु होज'त्ति समूच्छिमानामसङ्ख्या
तानां भावेन प्रविशतामप्यसङ्ख्यातानां सम्भवस्ततश्च मनुष्यप्रवेशनकं प्रत्युत्कृष्टपदिनस्तेषु सर्वेऽपि भवन्तीति, अत एवं ४ संमूछिममनुष्यप्रवेशनकमितरापेक्षयाऽसङ्ख्यातगुणमवगन्तव्यमिति ॥ देवप्रवेशनके 'सबेवि ताव जोइसिएसु होज़'त्ति
ज्योतिष्कयामिनो बहव इति तेषूत्कृष्टपदिनो देवप्रवेशनकवन्तः सर्वेऽपि भवन्तीति 'सवत्थोवे वेमाणियदेवप्पवेस
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व्याख्या- णए'त्ति तद्गामिनां तत्स्थानानां चाल्पत्वादिति ॥ अथ नारकादिप्रवेशनकस्यैवाल्पत्वादि निरूपयन्नाह-एयस्स ण'मि- ९ शतके
प्रज्ञप्तिः | त्यादि, तत्र सर्वस्तोक मनुष्यप्रवेशनक, मनुष्यक्षेत्र एव तस्य भावात् , तस्य च स्तोकत्वात् , नैरयिकप्रवेशनकं त्वसङ्ख्या-8 उद्देशः ३२ अभयदेवीतगुणं, तद्गामिनामसङ्ख्यातगुणत्वात् , एवमुत्तरत्रापीति ॥ अनन्तरं प्रवेशनकमुक्तं तत्पुनरुत्पादोद्वर्तनारूपमिति नारका
प्रवेशनाल्पया वृत्तिः२
॥४॥ बहुत्वं दीनामुत्पादमुद्वर्तनां च सान्तरनिरन्तरतया निरूपयन्नाह
सू ३७८ ॥४५३॥ | संतरं भंते ! नेरइया उववजंति निरंतरं नेरड्या उववजंति संतरं असुरकुमारा उववजंति निरंतरं असुर-8 सान्तराद्यु
मा कुमारा जाव संतरं वेमाणिया उववजंति निरंतरं वेमाणिया उववजंति संतरं नेरइया उववहति निरंतरं नेर- त्पादादि
तिया उववटुंति जाव संतरं वाणमंतरा उववति निरंतरं वाणमंतरा उववदृति संतरं जोइसिया चयंति सू ३७८ निरंतरं जोइसिया चयंति संतरं वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चयंति, गंगेया ! संतरंपि नेर-8 तिया उववजंति निरंतरं नेरतिया उववजंति जाव संतरंपि थणियकुमारा उववजंति निरंतरं थणि-& यकुमारा उववजंति नो संतरंपि पुढविकाइया उववजंति निरंतरं पुढविक्काइया उववजंति एवं जाव वणस्स-|| इकाइया सेसा जहा नेरइया जाव संतरंपि वेमाणिया उववजंति निरंतरंपि वेमाणिया उववज्जेति, संतरंपि नेरइया उववर्द्दति निरंतरंपि नेरइया उववहृति एवं जाव थणियकुमारा नो संतरं पुढविक्काइया उववति
॥४५३॥ निरंतरं पुढविक्काइया उववदृति एवं जाव वणस्सइकाइया सेसा जहा नेरइया, नवरं जोइसियवेमाणिया चयंति अभिलावो, जाव संतरपि वेमाणिया चयंति निरंतरं वेमाणिया चयंति ॥ संतो भंते ! नेरतिया उव
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वजंति असंतो भंते ! नेरइया उववजंति ?, गंगेया ! संतो नेरइया उववजंति नो असंतो नेरइया उववजंति,
एवं जाव वेमाणिया, संतो भंते ! नेरतिया उववति असंतो नेरइया उववति ?, गंगेया ! संतो नेरइया त उववति नो असंतो नेरइया उववति, एवं जाव वेमाणिया, नवरं जोइसियवेमाणिएसु चयंति भाणियछ ।
सओ भंते ! नेरइया उववति असंतो भंते ! नेरइया उववदृति संतो असुरकुमारा उववति जाव सतो वेमाणिया उववजंति असतो वेमाणिया उववज्जति सतो नेरतिया उववति असतो नेरइया उववदृति संतो असुरकुमारा उववटृति जाव संतो वेमाणिया चयंति असतो वेमाणिया चयंति, गंगेया ! सतो नेरइया उववजंति नो असओ नेरइया उववति सओ असुरकुमारा उववज्जति नो असतो असुरकुमारा उववजंति जाव सओ वेमाणिया उववजंति नो असतो वेमाणिया उववजंति सतो नेरतिया उववति नो असतो नेरइया उववजंति जाव सतो वेमाणिया चयंति नो असतो वेमाणिया०, से केणढणं भंते! एवं वुच्चइ सतो नेरइया उव| वजंति नो असतो नेरइया उववज्जति जाव सओ वेमाणिया चयंति नो असओ वेमाणिया चयंति ?, से कानूणं भंते ! गंगेया ! पासेणं अरहया पुरिसादाणीएणं सासए लोए बुइए अणादीए अणवयग्गे जहा पंचमसए
जाव जे लोकह से लोए, से तेणटेणं गंगेया! एवं वुचइ जाव सतो वेमाणिया चयंति नो असतो वेमाणिया | चयंति ॥ सयं भंते ! एवं जाणह उदाहु असयं असोचा एते एवं जाणह उदाहु सोचा सतो नेरइया उववजंति नो असतो नेरइया उववजंति जाव सओ वेमाणिया चयंति नो असओ वेमाणिया चयंति ?, गंगेया ! सयं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४५४॥
एते एवं जाणामि नो असयं, असोचा एते एवं जाणामि नो सोचा सतो नेरइया उववांति नो असओ नेर|इया उववजंति जाव सतो वेमाणिया चयंति, वो असतो वेमाणिया चयंति, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुचइ तं चैव जाव नो असतो बेमाणिया चयंति १, गंगेया ! केवली णं पुरच्छिमेणं सियंपि जाणइ अनियंपि जाणह दाहिणेणं एवं जहा सगडद्देसए जाव निधुडे नाणे केवलिस्स, से तेणद्वेणं गंगेया ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव नो असतो वेमाणिया चयंति ॥ सयं भंते ! नेरहया नेरइएसु उववज्जन्ति असयं नेरइया नेरइएस उववनंति ?, गंगेया ! सयं नेरइया नेरइएस उववज्जंति नो असयं नेरइया नेरइएस उववज्वंति ?, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ जाव उववज्जंति ?, गंगेया ! कम्मोदरणं कम्मगुरुयत्ताए कम्मभारियत्ताए कम्मगुरु संभारि यत्ताए | असुभाणं कम्माणं उद्एणं असुभाणं कम्माणं विवागेणं असुभाणं कस्माणं फलविवागेणं सयं नेरइया नेरइएस उववज्जंति नो असयं नेरइया नेरइएस उववज्वंति, से तेणद्वेणं गंगेया ! जाव उववज्रंति ॥ सवं भंते ! असुरकुमारा पुच्छा, गंगेया ! सयं असुरकुभारा जाव उववज्जंति नो असयं असुरकुमारा जाव उववज्रंति, से केणट्टेणं तं चैव जाव उववज्जंति ?, गंगेया ! कस्मोदएणं कम्मोवसमेणं कम्मविगतीए कम्मविसोहीए कम्मविसुद्धीए सुभाणं कम्माणं उदरणं सुभ्राणं कम्माणं विवागेणं सुभाणं कम्माणं फलविवागेणं सयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए जाव उबवज्वंति नो असयं असुरकुमारा असुरकुमारत्ताए उववज्जंति से तेणद्वेणं जाच उक्वजंति एवं जाव थणियकुमारा ॥ सयं भंते ! पुढविकाइया० पुच्छा, गंगेया ! सयं पुढयिकाइया जाव उववजति को
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९ शतके
| उद्देशः ३२ [सान्तराधुत्पादादि सू ३७८
॥४५४॥
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सयं पुच्छा जाव उववजंति, सेकेणद्वेणं भंते एवं वुचा जाव उववजंति, गंगेया कम्मोदपणं कम्मगुरुयत्तार कम्मभारियत्ताए कम्मगुरुसंभारियत्ताए सुभासुभाणं कम्माणं उदएणंसुभासुभाणं कम्माणं विवागणं सुभासभाणं कम्माणं फलविवागणं सयं पुढविकाइया जाव उववजंति नो असयं पुढविकाइया जाव उववजंति, से तेणहेणंजाव उववजंति, एवं जाव मणुस्सा, वाणमंणरजोइसिया वेमाणिया जहा असुरकुमारा, सेतेणटुणं गंगेया! एवं वुच्चइ सयं वेमाणिया जाव उववज्जति नो असयं जाव उववज्जति (सूत्रं ३७८) तप्पभियं च णं से गंगेये || अणगारे समणं भगवं महावीरं पञ्चभिजाणइ सचन्न सचदरिसी, तए णं से गंगेये अणगारे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ करेत्ता वंदर नमंसह वंदित्ता नमंसित्ता एवं क्यासी-इच्छामिणं भंते ! तुझं अंतियं चाउज्जामाओ धम्माओ पंचमहत्वइयं एवं जहा कालासवेसियपुत्तो तहेव भाणियचं जाव सबदुक्खप्पहीणे ॥ सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं ३७९) गंगेयो समत्तो॥९॥३२॥
'संतरं भंते ! इत्यादि, अथ नारकादीनामुत्पादादेः सान्तरादित्वं प्रवेशनकात्पूर्व निरूपितमेवेति किं पुनस्तन्निरूप्यते ? इति, अत्रोच्यते, पूर्व नारकादीनां प्रत्येकमुत्पादस्य सान्तरत्वादि निरूपितं, ततश्च तथैवोद्वर्त्तनायाः, इह तु पुन
नारकादिसर्वजीवभेदानां समुदायतः समुदितयोरेव चोत्पादोद्वर्तनयोस्तन्निरूप्यत इति ॥ अथ नारकादीनामेव प्रकारा-8| टान्तरेणोत्पादोद्वर्त्तने निरूपयन्नाह 'सओभंते' ! इत्यादि, तत्र च 'सओ नेरइया उववजंति'त्ति 'सन्तः' विद्यमाना
द्रव्यार्थतया, नहि सर्वथैवासत् किश्चिदुत्पद्यते, असत्त्वादेव खरविषाणवत् , सत्त्वं च तेषां जीवद्रव्यापेक्षया नारकपा
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९ शतके उद्देशः ३२ सान्तराद्यत्पाद: सू ३७८ गाङ्गेयस्य संक्रमः सू ३७९
सायनी ज्ञानसम्पदं सम्भाव
व्याख्या यापेक्षया वा, तथाहि-भाविनारकपर्यायापेक्षया द्रव्यतो नारकाः सन्तोनारका उत्पद्यन्ते, नारकायुष्कोदयाद्वा भावनारका प्रज्ञप्तिः एव नारकत्वेनोत्पद्यन्त इति । अथवा 'सओ'त्ति विभक्तिपरिणामात् सत्सु प्रागुत्पन्नेष्वन्ये समुत्पद्यन्ते नासत्सु, लोकस्य | अभयदेवी
शाश्वतत्वेन नारकादीनां सर्वदैव सद्भावादिति । 'से गुणं भंते ! गंगेया'इत्यादि, अनेन च तत्सिद्धान्तेनैव स्वमतं या वृत्तिः२/
पोषितं, यतः पार्थेनार्हता शाश्वतो लोक उक्तोऽतो लोकस्य शाश्वतत्वात्सन्त एव सत्स्वेव वा नारकादय उत्पद्यन्ते च्यवन्ते | ॥४५५॥
चेति साध्वेवोच्यत इति ॥ अथ गाङ्गेयो भगवतोऽतिशायिनी ज्ञानसम्पदं सम्भावयन् विकल्पयन्नाह-सयं| भंते ! इत्यादि, स्वयमात्मना लिङ्गानपेक्षमित्यर्थः 'एवं ति वक्ष्यमाणप्रकारं वस्तु असयंति अस्वयं परतो लिङ्गत इत्यर्थः, तथा 'असोच'त्ति अश्रुत्वाऽऽगमानपेक्षम् 'एतेवं'ति एतदेवमित्यर्थः 'सोच'त्ति पुरुषान्तरवचनं श्रुत्वाऽऽगमत इत्यर्थः 'सयं एतेवं जाणामित्ति स्वयमेतदेवं जानामि, पारमार्थिकप्रत्यक्षसाक्षात्कृतसमस्तवस्तुस्तोमस्वभावत्वान्मम 'सयं नेर
इया नेरइएसु उववजंति'त्ति स्वयमेव नारका उत्पद्यन्ते नास्वयं-नेश्वरपारतच्यादेः, यथा कैश्चिदुच्यते-"अज्ञो जन्तुकरनीशोऽयमात्मनः सुखदुःखयोः। ईश्वरप्रेरितो गच्छेत्स्वर्ग वा श्वभ्रमेव वा ॥१॥” इति, ईश्वरस्य हि कालादिकारणक
लापव्यतिरिक्तस्य युक्तिभिर्विचार्यमाणस्याघटनादिति, 'कम्मोदएणं ति कर्मणामुदितत्वेन, न च कर्मोदयमात्रेण नारकेषूत्पद्यन्ते, केवलिनामपि तस्य भावाद् , अत आह-'कम्मगुरुयत्ताए'त्ति कर्मणां गुरुकता कर्मगुरुकता तया 'कम्मभारियत्ताए'त्ति भारोऽस्ति येषां तानि भारिकाणि तद्भावो भारिकता कर्मणां भारिकता कर्मभारिकता तया चेत्यर्थः, नथा महदपि किश्चिदल्पभारं दृष्टं तथाविधभारमपि च किञ्चिदमहदित्यत आह-कम्मगुरुसंभारियत्ताए'त्ति गुरोः
तथा अ
म ना लिङ्गानपेक्षमित्यर्थः '
देवं जानामि, पाएतदेवमित्यर्थः 'सोबत असयंति अस्वयं परत
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सम्भारिकस्य च भावो गुरुसम्भारिकता, गुरुता सम्भारिकता चेत्यर्थः, कर्म्मणां गुरुसम्भारिकता कर्म्मगुरुसम्भारिकता तया, अतिप्रकर्षावस्थयेत्यर्थः, एतच्च त्र्यं शुभकर्म्मापेक्षयाऽपि स्यादत आह-' असुभाण' मित्यादि, उदयः प्रदेशतोऽपि | स्यादत आह- 'विवागेणं' ति विपाको यथाबद्धरसानुभूतिः, स च मन्दोऽपि स्यादत आह- 'फलविवागेणं' ति फलस्येवालाबुकादेर्विपाको – विपच्यमानता रसप्रकर्षावस्था फलविपाकस्तेन ॥ असुरकुमारसूत्रे 'कम्मोद एणं'ति असुरकुमारोचि - तकर्मणामुदयेन, वाचनान्तरेषु 'कम्मोवसमेणं'ति दृश्यते, तत्र चाशुभकर्म्मणामुपशमेन सामान्यतः 'कम्मविगईए'त्ति कर्म्मणामशुभानां विगत्या - विगमेन स्थितिमाश्रित्य 'कम्मविसोहीए 'त्ति रसमाश्रित्य 'कम्मविसुद्धीए' त्ति प्रदेशापेक्षया, | एकार्था वैते शब्दा इति ॥ पृथ्वीकायिकसूत्रे 'सुभासुभाणं'ति शुभानां शुभवर्णगन्धादीनाम् अशुभानां तेषामेकेन्द्रियजात्यादीनां च । 'तप्पभिई च'त्ति यस्मिन् समयेऽनन्तरोक्तं वस्तु भगवता प्रतिपादितं ज्ञानस्य तत्तथा, चशब्दः पुनरर्थे समुच्चये वा 'से' त्ति असौ 'पञ्चभिजाणइ 'त्ति प्रत्यभिजानाति स्म, किं कृत्वा ? इत्याह- सर्वज्ञं सर्वदर्शिनं, जातप्रत्ययत्वादिति ॥ नवमशते द्वात्रिंशत्तमोद्देशकः ॥ ९ । ३२ ॥ [ ग्रन्थाग्रम् १०००० ]
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गाङ्गेयो भगवदुपासनातः सिद्धः अन्यस्तु कर्मवशाद्विपर्ययमप्यवाप्नोति यथा जमालिरित्येतद्दर्शनाय त्रयस्त्रिंशत्तमोद्देशकः, तस्य चेदं प्रस्तावनासूत्रम् -
तेणं कालेणं तेणं समएणं माहणकुंडग्गामे नयरे होत्था वन्नओ, बहुसालए चेतिए वन्नओ, तत्थ णं माह
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व्याख्या- णकुंडग्गामे नयरे उसभदत्ते नाम माहणे परिवसति अढे दित्ते वित्ते जाव अपरिभूए रिउवेदजजुवेदसाम- ९ शतके प्रज्ञप्तिः वेदअथवणवेद जहा खदओ जाव अन्नेसु य बहुसु बंभन्नएसु नएसु सुपरिनिट्टिए समणोवासए अभिगयजी- उद्देशः ३३ अभयदेवी- वाजीवे उवलद्धपुण्णपावे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरति, तस्स णं उसभदत्तमाहणस्स देवाणंदा नाम
ऋषभदया वृत्तिः२ 8 माहणी होत्था, सुकुमालपाणिपाया जाव पियदसणा सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवाजीवा उवल
त्ताधिकारः
सू ३८० ॥४५६॥ द्धपुन्नपावा जाव विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे, परिसा जाव पब्रुवासति, तए णं से उस-द
भदत्ते माहणे इमीसे कहाए लट्टे समाणे हट्ट जाब हियए जेणेव देवाणंदा माहणी तेणेव उवागच्छति २ देवाणंदं माहणि एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिए ! समणे भगवं महावीरे आदिगरे जाव सबलू सबदरिसी आगासगएणं चक्केणं जाव सुहंसुहेणं विहरमाणे बहुसालए चेइए अहापडिरूपंजावविहरति, तं महाफलं खलु देवाणुप्पिए ! जाव तहारूवाणं अरिहंताणं भगवंताणं नामगोयस्सविसवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणनमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए ?, एगस्सवि आयरियस्स धम्मियस्ससुवयणस्स सवणयाए किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए?,तं गच्छामोणं देवाणुप्पिए ! समणं भगवं महावीरं वंदामो नमसामोजाब पज्जुवासामो, एयण्णं इहभवे य परभवे य हियाए सुहाए खमाए निस्सेसाए आणुगामियत्ताए भविस्सइ ।तए
॥४५६॥ णं सा देवाणंदा माहणी उसमदत्तेणं माहणणं एवं वुत्ता समाणी हवजाव हियया करयलजावकड्डु उसभदत्तस्स माहणस्स एयमढ विणएणं पनिमुणेइ, नए पां से उसमदत्तेमाहणे कोडंबियपुरिसे सहावेइ कोटुंबिय-IN
+
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| पुरिसे सहावेत्ता एवं वयासि - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्तजोइयसमखुर वालिहाणसमलिहियसिंगेहिं जंबूणयामयकलावजुत [स्स ] परिविसिद्धेहिं रययामयघंटासुत्तरज्जुयपवर कंचणनत्थपग्गहोग्गाहियएहिं | नीलुप्पलक पामेलएहिं पवरगोणजुवाणएहिं नाणामणिरयणघंटियाजालपरिगयं सुजायजुगजोत्तरज्जुयजुगप| सत्यसुविरचित निम्मियं पवरलक्खणोववेयं [ ग्रन्थाग्रम् ६००० ] धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवद्ववेह २ | मम एयमाणन्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोडुंबियपुरिसा उसभदत्तेणं माहणेणं एवं वुत्ता समाणा हट्ठ जाव हियया करयल० एवं सामी ! तहन्ति आणाए विणएणं वयणं जान पडिसुणेत्ता खिप्पामेव लहुकरणजुतजाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवद्ववेत्ता जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं से उसभदत्ते माहणे पहाए जाव अप्पमहग्घाभरणालंकियसरीरे साओ गिहाओ पडिनिक्खमति साओ गिहाओ पडिनिक्ख| मित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे । तए णं सा देवाणंदा माहणी अंतो अंतेउरंसि व्हाया कयबलिकम्मा कयकोउयमंगलपायच्छित्ता किंच वरपादपत्तनेउरमणिमेहलाहारविरइयउचियकडगखुड्डायएकावलीकंठ सुत्तउरत्थगेवे| जसोणिसुत्तगनाणामणिरयणभूसणविराइयंगी चीर्णसुयवत्थपवरपरिहिया दुगुल्लसुकुमालउत्तरिजा सघोउ| यसुरभिकुसुमवरियसिरया वरचंदणवंदिया वराभरणभूसियंगी कालागुरुधूवधूविया सिरिसमाणवेसा जाव | अप्पमहग्घा भरणालंकियसरीरा बहूहिं खुज्जाहिं चिलाइयाहिं वामणियाहिं वडहियाहिं बब्बरियाहिं ईसिगणि
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गमनं
व्याख्या.
याहिं जोण्हियाहिं चारुगणियाहिं पल्लवियाहिं ल्हासियाहिं लउसियाहिं आरबीहिं दमिलीहिं सिंघलीहिं पुलिं-४|| ९ शतके प्रज्ञप्तिः
दीहिं पुक्खलीहिं मुरुंडीहिंसबरीहिं पारसीहि नाणादेसीहि विदेसपरिपंडियाहिं इंगितचिंतितपत्थियवियाणिअभयदेवी
उद्देशः ३३ याहिं सदेसनेवत्थगहियवसाहिं कुसलाहिं विणीयाहि य चेडियाचक्कवालवरिसधरथेरकंचुइजमहत्तरगवंद- ऋषभदत्तया वृत्तिः२]
देवानन्दापक्खित्ता अंतेउराओ निग्गच्छति अंतेउराओ निग्गच्छित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए ॥४५७॥
जाणप्पवरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता जाव धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा ॥ तए णं से उसभदत्ते माहणे देवाणंदाए माहणीए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढे समाणे णियगपरियालसंपरिबुडे माहणकुंडग्गामं नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ निग्गच्छइत्ता जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छइत्ता छत्तादीए तित्थकरातीसए पासइ छ. २ धम्मियं जाणप्पवरं ठवेइ २त्ता धम्मियाओजाणप्पवराओ पचोरुहइ ध०२ समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तंजहा-सचित्ताणं दवाणं विसरणयाए मा एवं जहा बितियसए जाव तिविहाए पज्जुवासणयाए पज़वासति.तएणं सा देवाणंदामाहणीधम्मियाओ जाणप्पवराओ पचोरुभति धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुभित्ता बहहिं खुजाहिं जाव महत्तरगवंदपरिक्खित्ता समणं भगवं महावीरं पंचविहेणं अभिगमणं अभिगच्छह, तंजहा-सचित्ताणं दवाणं विउसरण-1*
॥४५७॥ याए अचित्ताणं दवाणं अविमोयणयाए विणयोणयाए गायलट्टीए चक्खुफासे अंजलिपग्गहेणं मणस्स एगत्तीभावकरणेणं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं
सू ३८०
ॐॐॐ-
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|| तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेइ २त्ता वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता उसभदत्तं माहणं पुरओ कटु ठिया है।
चेव सपरिवारा सुस्सूसमाणी णमंसमाणी अभिमुहा विणएणं पंजलिउडा जाव पज्जवासइ (सूत्रं३८०)तए माणसा देवाणंदा माहणी आगयपण्हाया पप्फुयलोयणा संवरियवलयबाहा कंचुयपरिक्खित्तिया धाराहयकलंब
गंपिव समूसवियरोमकूवा समणं भगवं महावीरं भणिमिसाए दिट्ठीए देहमाणी चिट्ठति ॥ भंते त्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-किण्णं भंते ! एसा देवाणं|दा माहणी आगयपण्हवा तं चेव जाव रोमकूवा देवाणुप्पिए अणिमिसाए दिट्टीए देहमाणी चिट्ठइ ?, गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयम एवं वयासी-एवं खलु गोयमा ! देवाणंदा माहणी मम अम्मगा, अहन्नं देवाणंदाए माहणीए अत्तए, तए णं सा देवाणंदा माहणी तेणं पुवपुत्तसिणेहाणुराएणं आगयपण्हया जाव समूसवियरोमकूवा मम अणिमिसाए दिट्टीए देहमाणी २चिट्ठइ । (सूत्रं ३८१) तए णं समणे भगवं महावीरे उसभदत्तस्स माहणस्स देवाणंदाए माहणीए तीसे य महतिमहालियाए इसिपरिसाए जाव परिसा पडिगया। तए णं से उसभदत्ते माहणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्टे उट्ठाए उठेइ उट्ठाए उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वदासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! जहा खंदओ जाव सेयं तुझे वदहत्ति कटु उत्तरपुरच्छिमं दिसीभार्ग अवक्कमइ उत्तरपु०२त्ता सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ.सयमे०२त्ता सयमेव पंचमुट्टियं लोयं करेति सयमे०२त्ता जेणेव
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व्याख्या- समणेभगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइरसमणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं जाव नमंसित्ता ||९ शतके
प्रज्ञप्तिः एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए पलित्ते णं भंते ! लोए आलित्तपलित्ते णं भंते ! लोए जराए मरणेण | उद्देशः३३ अभयदेवी- ४य, एवं एएणं कमेणं इमं जहा खंदओ तहेव पवइओ जाव सामाइयमाझ्याई एक्कारस अंगाई अहिजइ जाव देवानन्दायावृत्तिः२/
बहहिं चउत्थछट्टट्ठमदसमजाव विचित्तेहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहूई वासाइं सामनपरियागं या:प्रनव:॥४५॥
पाउणइ २ मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेति मास०२सहि भत्ताई अणसणाए छेदेति सर्टि २त्ता जस्स- सू ३८१ हाए कीरति नग्गभावो जाव तम आराहइ जाव तमढें आराहेत्ता तए णं सो जाव सवदुक्खप्पहीणे।
ऋषभदत्त
| देवानन्दतए णं सा देवाणंदा माहणी समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हहतुट्ठा समणं|
योदीक्षाभगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं जाव नमंसित्ता एवं वयासि-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! एवं
मोक्षश्च जहा उसमदत्तो तहेव जाव धम्माइक्खियं । तए णं समणे भगवं महावीरे देवाणंदं माहणि सयमेव पचा
सू ३८२ वेति सय २ सयमेव अज्जचंदणाए अजाए सीसिणित्ताए दलयइ ॥ तए णं सा अन्जचंदणा अज्जा देवाणंदं माहणिं सयमेव पवावेति सयमेव मुंडावेति सयमेव सेहावेति एवं जहेव उसभदत्तो तहेव अजचंदणाए | अजाए इमं एयारूवं धम्मियं उवदेसं सम्मं संपडिवजइ तमाणाए तह गच्छद जाव संजमेणं संजमति, तए
॥४५॥ &||णं सा देवाणंदा अजा अजचंदणाए अजाए अंतियं सामाइयमाइयाई एक्कारस अंगाई अहिजइ सेसं तं चेव
जाव सबदुक्खप्पहीणा (सूत्रं ३८२)॥
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ॐॐॐॐॐॐ4%%
यनं मनसि यस्याः मादिभावैः समृद्धिमुपालय तुष्टं दृष्टं वा-विस्मिताय शुभानुबन्धात्य
निकालेण'मित्यादि, 'अडे'त्ति समृद्धः 'दित्ते'त्ति दीप्त:-तेजस्वी रप्तो वा-दर्पवान् 'वित्तेत्ति प्रसिद्धः, यावत्करणात् 'विच्छिन्नविउलभवणसयणासणजाणवाहणाइने'इत्यादि दृश्यं 'हियाए'त्ति हिताय पथ्यान्नवत् 'सुहाए'ति सुखाय शर्मणे 'खमाए'त्ति क्षमत्वाय सङ्गतत्वायेत्यर्थः 'आणुगामियत्ताए'त्ति अनुगामिकत्वाय शुभानुबन्धायेत्यर्थः 'हह' इह यावत्करणादेवं दृश्य-'हतुट्ठचित्तमाणंदिया' हृष्टतुष्टम्-अत्यर्थ तुष्टं हृष्टं वा-विस्मितं तुष्टं-तोषवञ्चित्तं यत्र तत्तथा, तद्यथा भवत्येवमानंदिता-ईषन्मुखसौम्यतादिभावैः समृद्धिमुपगता, ततश्च नन्दिता-स्मृद्धितरतामुपगता 'पीड़मणा'प्रीतिः-प्रीणनं-आप्यायनं मनसि यस्याः सा प्रीतिमनाः 'परमसोमणस्सिया' परमसौमनस्य-सुष्ठ सुमनस्कता सञ्जातं यस्याः सा परमसौमनस्यिता 'हरिसवसविसप्पमाणहियया हर्षवशेन विसर्पद्-विस्तारयायि हृदयं यस्याःसा तथा 'लहुकरणजुत्तजोइए'इत्यादि, लघुकरणं-शीघ्रक्रियादक्षत्वं तेन युक्तौ यौगिको च-प्रशस्तयोगवन्तौ प्रशस्तसदृशरूपत्वाद्यौ । तौ तथा, समाः खुराश्व-प्रतीताः 'वालिहाण'त्ति वालधाने-पुच्छौ ययोस्तौ तथा, समानि लिखितानि उल्लिखितानि शृङ्गाणि ययोस्तौ तथा, ततः कर्मधारयोऽतस्ताभ्यां लघुकरणयुक्तयौगिकसमखुरवालिधानसमलिखितशृङ्गकाभ्यां, गोयुवभ्यां युक्तमेव यानप्रवरमुपस्थापयतेति सम्बन्धः, पुनः किंभूताभ्याम् ? इत्याह-जाम्बूनदमयौ-सुवर्णनिवृत्तौ यौ कलापौकण्ठाभरणविशेषौ ताभ्यां युक्तो प्रतिविशिष्टको च-प्रधानौ जवादिभियौं तौ तथा ताभ्यां जाम्बूनदमयकलापयुक्तप्रति| विशिष्टकाभ्यां रजतमय्यौ-रूप्यविकारौ घण्टे ययोस्ती तथा, सूत्ररजुके-कार्पासिकसूत्रदवरकमय्यौ वरकाञ्चने-प्रवरसुवर्णमण्डितत्वेन प्रधानसुवर्णे ये नस्ते-नासिकारजू तयोः प्रग्रहेण-रश्मिनाऽवगृहीतकौ-बद्धौ यौ तौ तथा ततः कर्मधार
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९ शसके उद्देशः ३३ ऋषभदत्तदे वानन्दाधि
व्याख्या- योऽतस्ताभ्यां रजतमयघण्टसूत्ररज्जुकवरकाञ्चननस्ताप्रग्रहावगृहीतकाभ्यां, नीलोत्पलैः-जलजविशेषैः कृतो-विहितः प्रज्ञप्ति
'आमेल'त्ति आपीडः-शेखरो ययोस्तौ तथा ताभ्यां नीलोत्पल कृतापीडकाभ्यां 'पवरगोणजुवाणएहिंति प्रवरगोयुअभयदेवी
वाभ्यां नानामणिरत्नानां सत्कं यद् घण्टिकाप्रधानं जालं-जालकं तेन परिगतं-परिक्षिप्तं यत्तत्तथा, सुजातं-सुजातदाया वृत्तिः
रुमयं यदू युगं-यूपस्तत् सुजातयुगं तच्च यौनरज्जुकायुगं च-योकाभिधानरजुकायुग्मं सुजातयुगयोक्ररजुकायुगे ते ॥४५९॥ प्रशस्ते-अतिशुभे सुविरचिते-सुघटिते निर्मिते-निवेशिते यत्र यत् सुजातयुगयोकरज्जुकायुगप्रशस्तसुविरचितनिर्मितम् ।।
| 'एव'मित्यादि, एवं स्वामिन् ! तथेत्याज्ञया इत्येवं ब्रुवाणा इत्यर्थः 'विनयेन'अञ्जलिकरणादिना ॥'तए णं सा देवाणंदा माहणी'त्यादि, इह च स्थाने वाचनान्तरे देवानन्दावर्णक एवं दृश्यते-'अंतोअंतेउरंसि पहाया' 'अन्तः' मध्येऽन्तःपुरस्य स्नाता, अनेन च कुलीनाः स्त्रियः प्रच्छन्नाः स्नान्तीति दर्शितं, 'कयबलिकम्मा' गृहदेवताः प्रतीत्य 'कय-| कोउयमंगलपायच्छित्ता' कृतानि कौतुकमङ्गलान्येव प्रायश्चित्तान्यवश्यकार्यत्वात् यया सा तथा, तत्र कौतुकानिमषीतिलकादीनि मङ्गलानि-सिद्धार्थकदूर्वादीनि 'किञ्चत्ति किश्चान्यद् 'वरपादपत्तनेउरमणिमेहलाहारविरइयउचियकडगखुड्डयएगावलीकंठसुत्तउरत्थगेवेञ्जसोणिसुत्तगणाणामणिरयणभूसणविराइयंगी' वराभ्यां पादप्रा-|| जातनूपुराभ्यां मणिमेखलया हारेण विरचितै रतिदैर्वा उचितैः-युक्तैः कटकैश्च 'खुट्टाग'त्ति अङ्गुलीयकैश्च एकावल्या च|| विचित्रमणिकमय्या कण्ठसूत्रेण च-उर-स्थेन च रूढिगम्येन अवेयकेण च-प्रतीतेन उरःस्थप्रैवेयकेण वा श्रोणिसूत्रकेण ||
च-कटीसूत्रेण नानामणिरतानां भूषणैश्च विराजितम-शरीरं यस्याः सा तथा, 'चीणंसुयवस्थपवरपरिहिया' चीनां
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किचत्ति किश्चान्यद यणभूसणविराइयंगी एकावल्या च
॥४५९॥
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1055
शुक नाम यद्वस्त्राणां मध्ये प्रवरं तत्परिहित-निवसनीकृतं यया सा तथा 'दुगुल्लसुकुमालउत्तरिजा' दुकूलो-वृक्षविशे४ पस्तद्वल्काजातं दुकूलं-वस्त्रविशेषस्तत् सुकुमारमुत्तरीयम्-उपरिकायाच्छादनं यस्याः सा तथा 'सबोउयसुरभिकुसु
मवरियसिरया' सर्व कसुरभिकुसुमैर्वृता-वेष्टिताः शिरोजा यस्याः सा तथा 'वरचंदणवंदिया' वरचन्दनं वन्दितंललाटे निवेशितं यया सा तथा 'वराभरणभूसियंगी'ति व्यक्त 'कालागुरुधूवधूविया' इत्यपि व्यक्तं 'सिरीसमाणवेसा' श्रीः-देवता तया समाननेपथ्या, इतः प्रकृतवाचनाऽनुश्रियते-खुजाहिति कुनिकाभिर्वक्रजङ्घाभिरित्यर्थः 'चिलाइयाहिं'ति चिलातदेशोत्पन्नाभिः, यावत्करणादिदं दृश्य-'वामणियाहिं' इस्वशरीराभिः 'वडहियाहिं' मडहकोष्ठाभिः 'बब्बरियाहिं पओसियाहिं ईसिगणियाहिं वासगणियाहिं जोण्हियाहि पल्हवियाहिं ल्हासियाहिं लउसियाहिं आरबीहिं दमिलाहिं सिंहलीहिं पुलिंदीहिं पक्कणीहिं बहलीहिं मुरुडीहिं सबरीहिं पारसीहिं नाणादेसविदेसपरिपिडियाहिं' नानादे| शेभ्यो-बहुविधजनपदेभ्यो विदेशे-तद्देशापेक्षया देशान्तरे परिपिण्डिता यास्तास्तथा 'सदेसनेवत्थगहियवेसाहिं' स्वदेशनेपथ्यमिव गृहीतो वेषो यकाभिस्तास्तथा ताभिः 'इंगियचिंतियपत्थियवियाणियाहिं' इङ्गितेन-नयनादिचेष्टया चिन्तितं च परेण प्रार्थितं च-अभिलषितं विजानन्ति यास्तास्तथा ताभिः 'कुसलाहिं विणीयाहिं' युक्ता इति गम्यते 'चेडियाचक्कवालवरिसधरथेरकंचुइज्जमहत्तरयवंदपरिक्खित्ता' चेटीचक्रवालेनार्थात्स्वदेशसम्भवेन वर्षधराणां-वर्धितककरणेन नपुंसकीकृतानामन्तःपुरमहल्लकानां 'थेरकंचुइज्जत्ति स्थविरकञ्चुकिना-अन्तःपुरप्रयोजननिवेदकानां प्रतीहाराणां वा महत्तरकाणां च-अन्तःपुरकार्यचिन्तकानां वृन्देन परिक्षिप्ता या सा तथा, इदं च सर्व वाचनान्तरे साक्षा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२/
॥४६॥
AUGUSAROKAR
देवास्ति । 'सच्चित्ताणं दवाणं विसरणयाए'त्ति पुष्पताम्बूलादिद्रव्याणां व्युत्सर्जनया त्यागेनेत्यर्थः 'अचित्ताणं ||
| ९शतके दवाणं अविमोयणयाए'त्ति वस्त्रादीनामत्यागेनेत्यर्थः 'मणस्स एगत्तीभावकरणेणं' अनेकस्य सत एकतालक्षणभाव- उद्देशः ३३ करणेन 'ठिया चेव'त्ति ऊर्द्धस्थानस्थितैव अनुपविष्टेत्यर्थः 'आगयपण्हय'त्ति 'आयातप्रश्रवा' पुत्रस्नेहादागतस्तनमु- ऋषभदत्तदे खस्तन्येत्यर्थः 'पप्फुयलोयणा' प्रप्लुतलोचना पुत्रदर्शनात् प्रवर्तितानन्दजलेन 'संवरियवलयबाहा' संवृतौ-हर्षातिरे- वानन्दाधि कादतिस्थरीभवन्तौ निषिद्धौ वलयैः-कटकैर्बाहू-भुजौ यस्याःसा तथा 'कंचुयपरिखित्तिया' कञ्चको-वारवाणः परिक्षिप्तो- सू ३८२ विस्तारितो हर्षातिरेकस्थूरीभूतशरीरतया यया सा तथा धाराहयकयंबगंपिव समूसवियरोमकूवा' मेघधाराभ्याहतकदम्बपुष्पमिव समुच्छृसितानि रोमाणि कूपेषु-रोमरन्ध्रेषु यस्याःसा तथा 'देहमाणी'ति प्रेक्षमाणा, आभीक्ष्ण्ये चात्र द्विरुक्तिः॥ 'भंते' त्ति भदन्त ! इत्येवमामन्त्रणवचसाऽऽमन्येत्यर्थः 'गोयमाइ'त्ति गौतम इति एवमामन्त्र्येत्यर्थः अथवा गौतम इति नामोच्चारणम् 'अहे'ति आमन्त्रणार्थों निपातः हे भो इत्यादिवत् 'अत्तए'त्ति आत्मजः-पुत्रः 'पुवपुत्तसिणेहाणुराएणं'ति पूर्व:-प्रथमगर्भाधानकालसम्भवो यः पुत्रस्नेहलक्षणोऽनुरागः स पूर्वपुत्रस्नेहानुरागस्तेन 'महतिमहालियाए'त्ति महती चासावतिमहती चेति महातिमहतीतस्यै, आलप्रत्ययश्चेह प्राकृतप्रभवः, इसिपरिसाए'त्ति पश्यन्तीति ऋषयो-ज्ञानिनस्तद्रूपा| पर्षत्-परिवार ऋषिपर्षत्तस्यै, यावत्करणादिदं दृश्य-मुणिपरिसाए जइपरिसाए अणेगसयाए अणेगसयविंदपरिवाराए'
॥४६०॥ इत्यादि, तत्र मुनयो-वाचंयमा यतयस्तु-धर्मक्रियासु प्रयतमानाःअनेकानि शतानि यस्याः सा तथा तस्यै अनेकशतप्रमाणानि वृन्दानि-परिवारो यस्याः सा तथा तस्यै ॥ 'तए णं सा अजचंदणा अज्जेत्यादि, इह च देवानन्दाया भगवता प्रवा
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ANSWERS
जनकरणेऽपि यदार्यचन्दनया पुनस्तत्करणं तत्तत्रैवानवगतावगमकरणादिना विशेषाधानमित्यवगन्तव्यमिति।'तमाणा त्ति तदाज्ञया-आर्यचन्दनाज्ञया ॥
तस्स णं माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स पचत्थिमेणं एत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नाम नगरे होत्था वन्नओ. | तत्थ णं खत्तियकुंडग्गामे नयरे जमालीनाम खत्तियकुमारे परिवसति अढे दित्ते जाव अपरिभूए उपि पासायवरगए फुहमाणेहिं मुइंगमथएहिं बत्तीसतिबद्धेहिं नाडएहिणाणाविहवरतरुणीसंपउत्तेहिं उवनच्चिज्जमाणे
उवनच्चिजमाणे उवगिज्जमाणे २ उवलालिजमाणे उव. २ पाउसवासारत्तसरदहेमंतवसंतगिम्हपज्जंते छप्पि है। उक जहा विभवेणं माणमाणे २ कालं गालेमाणे इहे सद्दफरिसरसरूवगंधे पंचविहे माणुस्सए कामभोगे | पच्चणुन्भवमाणे विहरइ । तए णं खत्तियकुंडग्गामे नगरे सिंघाडगतियचउक्कचच्चरजाव बहुजणसद्देइ वा जहा | उववाइए जाव एवं पन्नवेइ एवं परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया ! समणे भगवं महावीरे आइगरे जाव सत्वन्नू
सबदरिसी माहणकुंडग्गामस्स नगरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं जाव विहरह, तं महप्फलं| | खलु देवाणुप्पिया! तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं जहा उववाइए जाव एगाभिमुहे खत्तियकुंडग्गामं| नगरं मज्झमज्झेणं निग्गच्छंति निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेइए एवं जहा उववाइए जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासंति । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तं महया जणसई वा जाव जणसन्निवायं वा सुणमाणस्स वा पासमाणस्स वा अयमेयारूवे अज्झथिए जाव समुप्प-|
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| १ शतके | उद्देश: ३३ जमालिप्रतिबोधः सू ३८३
व्याख्या- जित्था-किन्नं अज खत्तियकुंडग्गामे नगरे इंदमहेइ वा खंदमहेइ वा मुगुंदमहेइ वा णागमहेइ वा जक्खमप्रज्ञप्तिः
हेइ वा भूयमहेइ वा कूवमहेइ वा तडागमहेइ वा नईमहेइ वा दहमहेइ वा पचयमहेइ वा रुक्खमहेइ वा चेइअभयदेवी
यमहेइ वा थूभमहेइ वा जणं एए बहवे उग्गा भोगा राइन्ना इक्खागा णाया कोरवा खत्तिया खत्तियपुत्ता या वृत्तिः२॥
भडा भडपुत्ता जहा उववाइए जाव सत्थवाहप्पभिइए पहाया कयबलिकम्मा जहा उववाइए जाव निग्गच्छं॥४६॥ ति?, एवं संपेहेइ एवं संपेहित्ता कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति कंचु०२ एवं वयासी-किण्हं देवाणुप्पिया! अन्ज
खत्तियकुंडग्गामे नगरे इंदमहेइ वा जाव निग्गच्छति ?, तए णं से कंचुइज्जपुरिसे जमालिणा खत्तियकु|मारेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे समणस्स भगवओ महावीरस्स आगमणगहियविणिच्छए करयल. जमालिं | खत्तियकुमारं जएणं विजएणं वडावेइ वद्धावेत्ता एवं वयासी-णो खलु देवाणुप्पिया ! अज खत्तियकुंडग्गामे नयरे इंदमहेइ वा जाव निग्गच्छइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! अज समणे भगवं महावीरे जाव सम्वन्नू
सबदरिसी माहणकुंडगामस्स नयरस्स बहिया बहुसालए चेइए अहापडिरूवं उग्गहं जाव विहरति, तए णं| ४ीएए बहवे उग्गा भोगा जाव अप्पेगइया वंदणवत्तियं जाव निग्गच्छति । तए णं से जमालियखत्तियकुमारे कंचुइज्जपुरिसस्स अंतिए एयमटुं सोचा निसम्म हहतुट्ठ० कोडुबियपुरिसे सद्दावेइ कोडुंबियपुरिसे सद्दावइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! चाउरघंटं आसरहं जुत्तामेव उवट्ठवेह उववेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिणा खत्तियकुमारेणं एवं वुत्ता समाणा जाव पचप्पिणंति,
॥४६१॥
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तए णं से जमालियखत्तियकुमारे जेणेव मजणघरे तेणेव उवागच्छह तेणेव उवागच्छित्ता हाए कयबलिकम्मे जहा उववाइए परिसावन्नओ तहा भाणियवं जाव चंदणाकिन्नगायसरीरे सवालंकारविभूसिए मजणघराओ पडिनिक्खमइ मजणघराओ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव चाउग्घंटे
आसरहे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता चाउग्घंटं आसरहं दुरूहेइ चाउ० २त्ता सकोरंटमल्लदामेणं || छत्तेणं धरिजमाणेणं महया भडचडकरपहकरवंदपरिक्खित्ते खत्तियकुंडग्गामं नगरं मझमझेणं निग्गच्छह
निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नगरे जेणेव बहुसालए चेहए तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता तुरए । निगिण्हेइ तुरए २त्ता रहं ठवेइ रहं ठवेत्ता रहाओ पचोरुहति रहा०२त्ता पुप्फतंयोलाउहमादीयं वाहणाओ |य विसज्जेइ २ त्ता एगसाडियं उत्तरासंगं करेइ उत्तरासंगं करेत्ता आयंते चोक्खे परमसुइन्भूए अंजलिमउलियहत्थे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीर तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ २ तिक्खुत्तो २ जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पजुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स तीसे य महतिमहालियाए इसिजावधम्मकहा जाव परिसा पडिगया, तए णं ते जमाली खत्तियकुमारे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मं सोचा निसम्म हट्ट जाव उट्ठाए उट्ठेइ उठाए उद्वेत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासी-सहामिण भंते ! निग्गंधं पावयणं पत्तयामि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं रोएमि णं भंते ! निग्गंथं पावयणं अनुढेमि णं
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HAHA
९ शतके उद्देशः ३३ जमालिप्रतिबोधः सू ३८३
द्विद्धानि तैः ‘उवाइप्सितार्थसम्पादनात प्रामो ज्येष्ठादिः, १
व्याख्या
भंते ! निग्गंथं पावयणं एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! अवितहमेयं भंते ! असंदिद्धमेयं भंते ! जाव से जहेयं प्रज्ञप्ति तुज्झे वदह, जे नवरं देवाणुप्पिया! अम्मापियरो आपुच्छामि । तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे त अभयदेवी- भवित्ता अगाराओ अणगारियं पच्चयामि, अहासुहं देवाणुप्पिया ! मा पडिबंधं (सूत्रं ३८३)॥ या वृत्तिः२
_ 'फुट्टमाणेहिति अतिरभसाऽऽस्फालनात्स्फुटद्भिरिव विदलद्भिरिवेत्यर्थः 'मुइंगमत्थएहिंति मृदङ्गानां-मर्दलानां ॥४६॥ मस्तकानीव मस्तकानि-उपरिभागाः पुटानीत्यर्थः मृदङ्गमस्तकानि 'बत्तीसतिबद्धेहिंति द्वात्रिंशताऽभिनेतव्यप्रकारैः
पात्ररित्येके बद्धानि द्वात्रिंशद्वद्धानि तैः 'उवनचिजमाणे ति उपनृत्यमानः तमुपश्रित्य नर्तनात् 'उवगिजमाणे'त्ति || तद्गुणगानात् 'उवलालिज्जमाणे'त्ति उपलाल्यमान ईप्सितार्थसम्पादनात् 'पाउसे'त्यादि, तत्र प्रावृट् श्रावणादिः वर्षापद रात्रोऽश्वयुजादि शरत् मार्गशीर्षादिः हेमन्तो माघादिः वसन्तः चैत्रादिः ग्रीष्मो ज्येष्ठादिः, ततश्च प्रावृट् च वर्षारात्रश्च | * शरच्च हेमन्तश्च वसन्तश्चेति प्रावृड्वर्षारात्रशरद्धेमन्तवसन्तास्ते च ते ग्रीष्मपर्यन्ताश्चेति कर्मधारयोऽतस्तान् पडपि । ४ 'ऋतून' कालविशेषान् 'माणमाणे'त्ति मानयन् तदनुभावमनुभवन् 'गालेमाणे'त्ति 'गालयन्' अतिवाहयन् ॥ |'सिघाडगतिगचउक्कचच्चर' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'चउम्मुहमहापहपहेसु'त्ति, 'बहुजणसद्देइ वत्ति यत्र |शृङ्गाटकादौ बहूनां जनानां शब्दस्तत्र बहुजनोऽन्योऽन्यस्यैवमाख्यातीति वाक्यार्थः, तत्र च बहुजनशब्दः परस्परालापा|दिरूपः, इतिशब्दो वाक्यालङ्कारे वाशब्दो विकल्पे, 'जहा उववाइए'त्ति तत्र चेदं सूत्रमेवं लेशतः-'जणवूहेइ वा जणबोलेइ वा जणकलकलेति वा जणुम्मीइ वा जणुक्कलियाइ वा जणसन्निवाएइ वा बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ
R
॥४६२॥
A
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एवं भासइति, अस्यायमर्थः - ' जनव्यूहः ' जनसमुदायः बोल:- अव्यक्तवर्णो ध्वनिः कलकलः - स एवोपलभ्यमानवचनविभागः ऊर्मिमः सम्बाधः उत्कलिका - लघुतरः समुदायः संनिपातः - अपरापरस्थानेभ्यो जनानामेकत्र मीलनं आख्याति सामान्यतः भाषते व्यक्तपर्यायवचनतः, एतदेवार्थद्वयं पर्यायतः क्रमेणाह - एवं प्रज्ञापयति एवं प्ररूपयतीति, 'अहापडिवं' इह यावत्करणादिदं दृश्यम् - 'उग्गहं ओगिण्हति ओगिन्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे'त्ति, 'जहा उववाइए' त्ति, तदेव लेशतो दर्श्यते - 'नामगोयस्सवि सवणयाए किमंग पुण अभिगमणवंदणणमंसणपडिपुच्छणपज्जुवासणयाए एगस्सवि आयरियस्स सुवयणस्स सवणयाए ? किमंग पुण विउलस्स अट्ठस्स गहणयाए ?, तं गच्छामोणं | देवाणुप्पिया ! समणं ३ वंदामो ४ एयं णे पेच्च भवे हियाए ५ भविस्सइत्तिकट्टु बहवे उग्गा उग्गपुत्ता एवं भोगा राइन्ना खत्तिया भडा अप्पेगइया वंदणवत्तियं एवं पूयणवत्तियं सक्कारवत्तियं ( सम्माणवत्तियं ) को उहलवत्तियं अप्पेगतिया जीयमेयंतिकट्टु व्हाया कयबलिकम्मा' इत्यादि 'एवं जहा उववाइए' तत्र चैतदेवं सूत्रं - 'तेणामेव उवागच्छति तेणामेव | उवागच्छित्ता छत्ताइए तित्थयरातिसए पासंति जाणवाहणाई ठाईति' इत्यादि ॥ 'अयमेयारूवे 'ति अयमेतद्रूपो वक्ष्य|माणस्वरूपः 'अज्झत्थिए 'त्ति आध्यात्मिकः - आत्माश्रितः, यावत्करणादिदं दृश्यं - 'चिंतिए' त्ति स्मरणरूपः 'पत्थिए 'त्ति प्रार्थितः - लब्धुं प्रार्थितः 'मणोगए'त्ति अबहिः प्रकाशितः 'संकप्पे'त्ति विकल्पः 'इंदमहेइ व'त्ति इन्द्रमह - इन्द्रोत्सवः | 'खंदमहे वत्ति स्कन्दमहः - कार्त्तिकेयोत्सवः 'मुकुंदद्महे वत्ति इह मुकुन्दो वासुदेवो बलदेवो वा 'जहा उबवाइए' ति | तत्र चेदमेवं सूत्रं - 'माहणा भडा जोहा मल्लई लेच्छई अने य बहवे राईसर तलवरमाडं बियकोटुंबिय इब्भ से डिसेणावई 'त्ति
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1967-969
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥४६॥
तत्र 'भटाः शूराः'योधाः' सहस्रयोधादयः, मल्लई लेच्छई राजविशेषाः 'राजानः' सामन्ताः 'ईश्वराः' युवराजादयः'तलवराः' ९ शतके राजवल्लभाः 'माडम्बिकाः' संनिवेशविशेषनायकाः 'कोडुम्बिका कतिपयकुटुम्बनायकाः 'इभ्याः' महाधनाः 'जहा
उद्देशः३३ उववाइए'त्ति अनेन चेदं सूचितं-'कयकोउयमंगलपायच्छित्ता सिरसाकंठमालाकडा'इत्यादि, शिरसा कंठे च माला
जमालिप्र
तिबोधः कृता-धृता यैस्ते तथा, प्राकृतत्वाच्चैवं निर्देशः, 'आगमणगहियविणिच्छए'त्ति- आगमने गृहीतः-कृतो विनिश्चयो
मन हाता-कता वानश्चयासू ३८३ निर्णयो येन स तथा 'जएणं विजएणं वद्धावेइ'त्ति जय त्वं विजयस्व त्वमित्येवमाशीर्वचनेन भगवतः समागमनसूचनेन तमानन्देन वर्धयतीति भावः। 'अप्पेगतिया वंदणवत्तियं जाव निग्गच्छंति' इह यावत्करणादिदं दृश्यम्-'अप्पेगइया पूयणवत्तियं एवं सक्कारवत्तियं सम्माणवत्तियं कोउहल्लवत्तियं असुयाई सुणिस्सामो सुयाई निस्संकियाई करिस्सामो मुंडे भत्रित्ता आगाराओ अणगारियं पबइस्सामो अप्पेगइया हयगया एवंगयरहसिबियासंदमाणियागया अप्पेगइया पायविहारचारिणो पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ता महता उक्कटिसीहणायबोलकलकलरवेणं समुद्दरवभूयपि व करेमाणा खत्तियकुंडग्गामस्स नगरस्स मज्झमज्झेणं ति ॥ 'चाउरघंट'ति चतुर्घण्टोपेतम् 'आसरह'ति अश्ववाह्यरथं 'जुत्तामेव'त्ति युक्तमेव । 'जहा उववाइए परिसावन्नओ'त्ति यथा कौणिकस्यौपपातिके परिवारवर्णक उक्तः स तथाऽस्यापीत्यर्थः, स चायम्। 'अणेगगणनायगदंडनायगराईसरतलवरमाडंबियकोडुंबियमंतिमहामंतिगणगदोवारियअमच्चचेडपीढमदनगरनिगमसेडिस
Pl॥४६३॥ स्थवाहदयसंधिवालसद्धिं संपरिवुडे'त्ति, तत्रानेके ये गणनायका:-प्रकृतिमहत्तराः दण्डनायकाः-तन्त्रपालकाः राजानोमाण्डलिकाः ईश्वरा-युवराजानः तलवराः-परितुष्टनरपतिप्रदत्तपट्टबन्धविभूषिता राजस्थानीयाःमाडम्बिकाः-छिन्नमडम्बा
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| धिपाः कोडुम्बिकाः कतिपयकुटुम्बप्रभवः अवलगकाः सेवकः मन्त्रिणः - प्रतीताः महामन्त्रिणो - मन्त्रिमण्डलप्रधानाः हस्तिसा- | | धनोपरिका इति च वृद्धाः गणकाः- गणितज्ञाः भाण्डागारिका इति च वृद्धाः दौवारिकाः- प्रतीहाराः अमात्या - राज्याधि| छायकाः चेटा:- पादमूलिकाः पीठमर्दा:- आस्थाने आसनासीनसेवकाः वयस्या इत्यर्थः नगरं - नगरवासिप्रकृतयः निगमाः| कारणिकाः श्रेष्ठिनः -श्रीदेवताऽध्यासितसौवर्णपट्टविभूषितोत्तमाङ्गाः सेनापतयः - सैन्यनायकाः दूताः - अन्येषां राजादेशनिवेदकाः सन्धिपाला - राज्यसन्धिरक्षकाः, एषां द्वन्द्वस्ततस्तैः, इह तृतीया बहुवचन लोपो द्रष्टव्यः 'सार्द्ध' सह, न केवलं सहित| त्वमेवापि तु तैः समिति - समन्तात् परिवृतः - परिकरित इति 'चंदणुक्खित्तगायसरी रे'त्ति चन्दनोपलिप्ताङ्गदेहा इत्यर्थः 'महया भडचडगर पह करवंदपरिक्खित्ते'त्ति 'महय'त्ति महता बृहता प्रकारेणेति गम्यते, भटानां प्राकृतत्वान्महाभटानां | वा 'चडगर'त्ति चटकरवन्तो - विस्तरवन्तः 'पहकर 'त्ति समूहास्तेषां यद्वृन्दं तेन परिक्षिप्तो यः स तथा 'पुप्फतंबोला उहमाइयं' | ति इहादिशब्दाच्छेखरच्छत्रचामरादिपरिग्रहः 'आयंते 'त्ति शौचार्थ कृतजलस्पर्शः 'चोक्खे' त्ति आचमनादपनीताशुचिद्रव्यः 'परमसुइन्भूए'त्ति अत एवात्यर्थं शुचीभूतः 'अंजलिमउलियहत्थे त्ति अञ्जलिना मुकुलमिव कृतौ हस्तौ येन स तथा ॥
तणं से जमाली खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वृत्ते समाणे हट्टतुट्ठे समणं भगवं महावीरं | तिक्खुत्तो जाव नमसित्ता तमेव चाउग्घंटं आसरहं दुरूहेइ दुरूहित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंति याओ बहुसालाओ चेहयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता सकोरंटजाव धरिजमाणेणं महया भडचड - | गरजावपरिक्खित्ते जेणेव खत्तियकुंडग्गामे नयरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता खत्तियकुंडग्गामं
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व्याख्या.
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४६४॥
नगरं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गिहे जेणेव बाहिरिया उवहाणसाला तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता तुरए निगिण्हइ तुरए निगिन्हित्ता रहं ठवेइ रहं ठवेत्ता रहाओ पचोरुहइ रहाओ पञ्चोरुहिता जेणेव अभितरिया उवद्वाणसाला जेणेव अम्मापियरो तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता अम्मापियरो जएणं विजएणं वडावेइ वडावेत्ता एवं वयासी एवं खलु अम्मताओ ! मए समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते, सेवि य मे धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए, तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासि धन्नेसि णं तुमं जाया ! कयत्थेसि णं तुमं जाया ! कयपुन्नेसि णं तुमं जाया ! कयलक्खणेसि गं तुमं जाया ! जन्नं तुमे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मे निसंते सेवि य धम्मे इच्छिए परिच्छिए अभिरुइए, तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो दोचंपि एवं वयासी एवं खलु मए अम्मताओ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतिए धम्मे निसंते जाव अभिरुइए, तए णं अहं अम्मताओ ! संसारभउ| विग्गे भीए जम्मजरामरणेणं तं इच्छामिणं अम्म ! ताओ ! तुज्झेहिं अन्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पचइत्तए । तए णं सा जमालिस्स खत्तिय - | कुमारस्स माता तं अणि अकंतं अप्पियं अमणुन्नं अमणामं असुयपुवं गिरं सोचा निसम्म सेयागय रोमकू- वपगलंतविलीणगत्ता सोगभर पवेवियंगमंगी नित्तेया दीणविमणवयणा करयलमलियक्ष कमलमाला तक्ख| ओलुग्गदुब्बल सरीरलायन्नसुन्ननिच्छाया गयसिरीया पसिढिलभूसणपडंत खुण्णियसं चुन्नियधवलवलयपन्भट्ट
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९ शतके उद्देशः ३३ दीक्षायै अनुमतिः
सू ३८४
॥४६४॥
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ॐॐॐॐॐॐ
उत्तरिज्जा मुच्छावसणटुंचेतगुरुई सुकुमालविकिन्नकेसहत्था परसुणियत्तच चंपगलया निबत्तमहे व इंदलही | विमुक्कसंधिबंधणा कोट्टिमतलंसि धसत्ति सधंगेहिं संनिवडिया, तए णं सा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया ससंभमोयत्तियाए तुरियं कंचभिंगारमुहविणिग्गयसीयलविमलजलधारापरिसिंचमाणनिववियगायलट्ठी उक्खेवयतालियंटवीयणगजणियवाएणं सफुसिएणं अंतेउरपरिजणेणं आसासिया समाणी रोयमाणी कंदमाणी सोयमाणी विलवमाणी जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी-तुमंसि णं जाया ! अम्हं एगे पुत्ते इहे कंते पिए मणुन्ने मणामे थेज्जे वेसासिए संमए बहुमए अणुमए भंडकरंडगसमाणे रयणे रयणन्भूए जीविऊसविये हिययानंदिजणणे उंबरपुप्फमिव दुल्लभे सवणयाए किमंग पुण पासणयाए?, तं नो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुझं खणमवि विप्पओगं, तं अच्छाहि ताव जाया !जाव ताव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवये वड्डियकुलवंसतंतुकजंमि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं | मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइहिसि । तएणं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी|तहावि णं तं अम्म ! ताओ! जणं तुझे मम एवं वदह तुमंसिणं जाया! अम्हं एगे पुत्ते इहे कंते तं चेव | जाव पवइहिसि, एवं खलु अम्म! ताओ!माणुस्सए भवे अणेगजाइजरामरणरोगसारीरमाणुस्सए कामदुक्खवयणवसणसतोवद्दवाभिभूए अधुए अणितिए असासए संज्झन्भरागसरिसे जलबुब्बुदसमाणे कुसग्गजलबिंदुसन्निभे सुविणगदंसणोवमे विजुलयाचंचले अणिच्चे सडणपडणविद्धंसणधम्मे पुर्वि वा पच्छा वा अवस्स
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
अभयदेवीया वृत्तिः२/
नुमतिः
॥४६५||
विप्पजहियत्वे भविस्सइ, से केस णं जाणइ अम्म ! ताओ ! के पुत्विं गमणयाए के पच्छा गमणयाए ?, तं | ९ शतके इच्छामि णं अम्मताओ! तुज्झेहिं अन्भणुनाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पवइत्तए। | उद्देशः३३ तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी-इमं च ते जाया ! सरीरगं पविसिहरूव
दीक्षायै अलक्खणवंजणगुणोववेयं उत्तमबलवीरियसत्तजुत्तं विण्णाणवियक्खणं ससोहग्गगुणसमुस्सियं अभिजायमहक्खमं विविवाहिरोगरहियं निरुवहयउदत्तल8 पंचिंदियपडपढमजोवणत्थं अणेगउत्तमगुणेहिं संजुत्तं तं 8
सू ३८४ अणुहोहि ताव जाव जाया! नियगसरीररूवसोहग्गजोवणगुणे, तओ पच्छा अणुभूयनियगसरीररूवसोहग्गजोवणगुणे अम्हेहिं कालगएहिं समाणेहिं परिणयवये वड्डियकुलवंसतंतुकमि निरवयक्खे समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगारियं पवइहिसि, तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-तहावि णं तं अम्मताओ! जन्नं तुझे ममं एवं वदह-इमं च णं ते | जाया ! सरीरगं तं चेव जाव पपइहिसि, एवं खलु अम्मताओ! माणुस्सगं सरीरं दुक्खाययणं विविह-I वाहिसयसनिकेतं अढियकट्ठडियं छिराण्हारुजालओणद्धसंपिणद्धं मट्टियभंडं व दुब्बलं असुइसंकि लिटुं|| अणिद्ववियसव कालसंठप्पियं जराकुणिमजजरघरं व सडणपडणविद्धंसणधम्म पुर्षि वा पच्छा वा अवस्सवि
॥४६॥ प्पजहियवं भविस्सइ, से केस णं जाणति ? अम्मताओ!के पुश्विं तं चेव जाव पचहत्तए । तए णं तं जमालि खत्तियकुमारं अम्मापियरोएवं वयासी-इमाओयते जाया! विपुलकुलबालियाओ सरित्तयाओ सरिचयाओ
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TURUNDI
सरिसलावन्नरूवजोवणगुणोववेयाओसरिसएहिंतो अकुलेहितो आणिएल्लियाओ कलाकुसलसवकाललालियसुहोचियाओ मद्दवगुणजुत्तनिउणविणओवयारपंडियवियक्खणाओ मंजुलमियमहुरभणियविहसियविप्पेक्खियगतिविसालचिट्टियविसारदाओअविकलकुलसीलसालिणीओ विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धणप्पग(भु)|
भवप्पभाविणीओ मणाणुकूलहियइच्छियाओ अट्ठ तुज्झ गुणवल्लहाओ उत्तमाओ निचं भावाणुत्तरसवंगसुंदरीओ भारियाओ, तं भुंजाहि ताव जाया! एताहिंसादि विउले माणुस्सए कामभोगे, तओपच्छा भुत्तभोगी विसयविगयवोच्छिन्नकोउहल्ले अम्हेहिं कालगएहिं जाव पवइहिसि । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-तहावि णं तं अम्म ! ताओ ! जन्नं तुज्झे मम एवं वयह इमाओ ते जाया विपुलकुलजावपवइहिसि, एवं खलु अम्म ! ताओ! माणुस्सयकामभोगा असुई असासया वंतासवा पित्तासवा खेलासवा मुक्कासवा सोणियासवा उच्चारपासवणखेलसिंघाणगवंतपित्तपूयमुक्कसोणियसमुभवा अमगुन्नदुरूवमुत्तपूइयपुरीसपुन्ना मयगंधुस्सासअसुभनिस्सासा उच्वेयणगा बीभत्था अप्पकालिया लहूसगा कलमलाहिया सदुक्खबहुजणसाहारणा परिकिलेसकिच्छदुक्खसज्झा अबुहजणणिसेविया सदा साहुगरहणिज्जा अणंतसंसारवद्धणा कडगफलविवागा चुडलिच अमुच्चमाणदुक्खाणुबंधिणो सिद्धिगमणविग्घा, से केस णं जाणति अम्मताओ ! के पुचिं गमणयाए के पच्छा गमणयाए?,तं इच्छामि णं अम्मताओ! जाव पवइत्तए। तए | णतं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो एवं वयासी-इमे यते जाया! अजयपजयपिउपजयागए बहु हिरन्ने
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व्याख्या- य सुवन्ने य कंसे य दूसे य विउलधणकणगजाव संतसारसावएज्जे अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ || ९ शतके प्रज्ञप्तिः ||| पकामं दाउं पकामं भोजु पकामं परिभाएउ तं अणुहोहिताव जाया! विउले माणुस्सए इहिसकारसमुदए, तो उद्देश:३३ अभयदेवा- पच्छा द्यकल्लाणे वडियकुलतंतु जाव पवाहिसि । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वया
दीक्षायै अया वृत्तिः२ सी-तहावि णं तं अम्मताओ ! जन्नं तुज्झे ममं एवं वदह-इमं च ते जाया ! अजगपज्जगजावपवइहिसि,
| नुमतिः एवं खलु अम्मताओ! हिरन्ने य सुवन्ने य जाव सावएज्जे अग्गिसाहिए चोरसाहिए रायसाहिए मञ्जसा॥४६६॥
सू ३८४ |हिए दाइयसाहिए अग्गिसामन्ने जाव दाइयसामने अधुवे अणितिए असासए पुर्वि वा पच्छा वा अवस्सविप्पजहियवे भविस्सइ, से केस णं जाणइ तं चेव जाव पचहत्तए । तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मताओ जाहे नो संचाएन्ति विसयाणुलोमाहिं बहहिं आघवणाहि य पनवणाहि य सन्नवणाहि य विनव|णाहि य आघवेत्तए वा पनवेत्तए वा सन्नवेत्तए वा विनवेत्तए वा ताहे विसयपडिकूलाहिं संजमभयुधेयण| कराहि पन्नवणाहिं पन्नवेमाणा एवं वयासी-एवं खलु जाया! निग्गंथे पावयणे संचे अणुत्तरे केवले जहा आवस्सए जाव सबदुक्खाणमंतं करेंति अहीव एगंतदिट्टीए खरो इव एगंतधाराए लोहमया जवा चावेयचा वालुयाकवले इव निस्साए गंगा वा महानदी पडिसोयगमणयाए महासमुद्दे वा भुयाहिं दुत्तरो तिक्खंद ४६६॥ | कमियत्वं गरुयं लंबेयचं असिधारगं वतं चरियवं, नो खल कप्पड जाया! समणाणं निग्गथाणं अहाकम्मिएत्ति वा उद्देसएइ वा मिस्सजाएइवाअजमोयरएइ वा पूडएइ वा कीएइ वा पामिचेइ वा अच्छेज्लेइ वा अणि
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सढेह वा अभिहडेइ वा कतारभत्तेइ वा दुन्भिक्खभत्तेइ वा गिलाणभत्तेह वा वद्दलियाभत्तेइ वा पाहुणगभतेइ वा सेजायरपिंडेइ वा रायपिंडेइ वा मूलभोयणेइ वा कंदभोयणेइ वा फलभोयणेइ वा बीयभोयणेइ वा हरियभोयणेइ वा भुत्तए वा पायए वा, तुमं च णं जाया! सुहसमुचिए णो चेव णं दुहसमुचिते नालं सीयं नालं उण्हं नालं खुहा नालं पिपासा नालं चोरा नालं वाला नालं दंसा नालं मसया नालं वाइयपित्तियसें|भियसन्निवाइए विविहे रोगायंके परीसहोवसग्गे उदिन्ने अहियासेत्तए, तं नो खलु जाया ! अम्हे इच्छामो तुझं खणमवि विप्पओगं तं अच्छाहि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो, तओ पच्छा अम्हेहिं जाव पवइहिसि । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-तहावि णं तं अम्म ! ताओ! जन्नं तुझे ममं एवं वयह-एवं खलु जाया! निग्गंथे पावयणे सच्चे अणुत्तरे केवले तं चेव जाव पवाहिसि, एवं खलु अम्मताओ! निग्गंथे पावयणे कीवाणं कायराणं कापुरिसाणं इहलोगपडिबडाणं परलोगपरंमु. हाणं विसयतिसियाणं दुरणुचरे पागयजणस्स, धीरस्स निच्छियस्स ववसियस्स नो खलु एत्थं किंचिवि दुष्करं करणयाए, तं इच्छामि णं अम्म ! ताओ! तुज्झेहिं अब्भणुन्नाए समाणे समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पवइत्तए । तए णं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरोजाहे नो संचाएंति विसयाणुलोमाहि य विसयपडिकूलाहि य बहूहि य आघवणाहि य पन्नवणाहि य ४ आघवेत्तए वा जाव विन्नवेत्तए वा ताहे अकामए चेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स निक्खमणं अणुमन्नित्था (सूत्रं ३८४)॥
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९ शतके | उद्देशः ३३ दीक्षायै अनुमतिः सू ३८४
_ 'सद्दहामि'त्ति श्रद्दधे सामान्यतः 'पत्तियामि'त्ति उपपत्तिभिः प्रत्येमि प्रीतिविषयं वा करोमि 'रोएमित्ति चिकीप्रज्ञप्तिः मि 'अब्भुट्टैमित्ति अभ्युत्तिष्ठामि "एवमेयंति उपलभ्यमानप्रकारवत् 'तहमेयंति आप्तवचनावगतपूर्वाभिमतप्रकाअभयदेवी- रवत् 'अवितहमेयंति पूर्वमभिमतप्रकारयुक्तमपि सदन्यदा विगताभिमतप्रकारमपि किश्चित्स्यादत उच्यते-'अवितथ
स मेतत्' न कालान्तरेऽपि विगताभिमतप्रकारमिति ॥ 'अम्म! ताओ'त्ति हे अम्ब! हे-मातरित्यर्थः हे तात ! हे-पितरि॥४६७॥
त्यर्थः 'निसंतेत्ति निशमितः श्रुत इत्यर्थः 'इच्छिए'त्ति इष्टः 'पडिच्छिए'त्ति पुनः पुनरिष्टः भावतो वा प्रतिपन्नः 'अभिरुइए'त्ति स्वादुभावमिवोपगतः 'धन्नेऽसित्ति धनं लब्धा 'असि' भवसि 'जाय'त्ति हे पुत्र ! 'कयत्थेऽसित्ति 'कृतार्थः' कृतस्वप्रयोजनोऽसि 'कयलक्खणे'त्ति कृतानि-सार्थकानि लक्षणानि-देहचिह्नानि येन स कृतलक्षणः ॥
'अनिढ'ति अवाञ्छिताम् 'अकंतं'ति अकमनीयाम् 'अप्पियंति अप्रीतिकरीम् 'अणुमन्नति न मनसा ज्ञायते सुन्दहै रतयेत्यमनोज्ञा ताम् 'अमणामति न मनसा अम्यते-गम्यते पुनः पुनः संस्मरणेनेत्यमनोज्ञाता सेयागयरोमकूवपग
लंतविलीणगत्ता' स्वेदेनागतेन रोमकूपेभ्यः प्रगलन्ति-क्षरन्ति विलीनानि च-क्किन्नानि गात्राणि यस्याः सा तथा 'सोगभरपवेवियंगमंगी' शोकभरेण प्रवेपितं-प्रकम्पितमङ्गमङ्गं यस्याः सा तथा 'नित्तेया' निर्वीर्या 'दीणविमणवयणा' दीनस्येव विमनस इव(च) वदनं यस्याः सा तथा तक्खणओलुग्गदुब्बलसरीरलावन्नसुन्ननिच्छाय'त्ति तत्क्षणमेव-प्रव्रजामीतिवचनश्रवणक्षण एव अवरुग्णं-म्लानं दुर्बलं च शरीरं यस्याः सा तथा, लावण्येन शून्या लावण्यशून्या, निश्छाया| निष्प्रभा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'गयसिरीय'त्ति निःशोभा 'पसिढिलभूसणपडतखुन्नियसंचुन्नियधवलवलय
॥४६७॥
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|पभट्टउत्तरिजा' प्रशिथिलानि भूषणानि दुर्बलत्वाद्यस्याः सा तथा पतन्ति-कृशीभूतबाहत्वाद्विगलन्ति. 'खुन्निय'त्ति भूमिपतनात् प्रदेशान्तरेषु नमितानि संचूर्णितानि च-भग्नानि कानिचिद्धवलवलयानि-तथाविधकटकानि यस्याः सा तथा, प्रभृष्टं व्याकुलत्वादुत्तरीयं-वसनविशेषो यस्याः सा तथा, ततः पदत्रयस्य कर्मधारयः, 'मुच्छावसणट्टचयगरुइ'त्ति मूर्छावशान्नष्टे चेतसि गु/-अलघुशरीरा या सा तथा 'सुकुमालविकिन्नकेसहत्थ'त्ति सुकुमार:-स्वरूपेण विकीर्णोव्याकुलचित्ततया केशहस्तो-धग्मिल्लो यस्याः सा तथा सुकुमाला वा विकीर्णाः केशा हस्तौ च यस्याः सा तथा 'परसुनियत्तव चंपगलय'त्ति परशुच्छिन्नेव चम्पकलता 'निवत्तमहे व इंदलट्टित्ति निवृत्तोत्सवेवेन्द्रयष्टिः 'विमुक्कसंधि४ धण'त्ति श्लथीकृतसन्धिबन्धनाससंभमोयत्तियाए तुरियं कंचणभिंगारमुहविणिग्गयसीयलजलविमलधारपरिसिं-18 |चमाणनिववियगायलहित्ति ससम्भ्रमं व्याकुलचित्ततया अपवर्त्तयति-क्षिपति या सा तथा तया ससम्भ्रमापवर्ति| कया चेव्येति गम्यते त्वरितं-शीघ्र काञ्चनभृङ्गारमुखविनिर्गता या शीतजलविमलधारा तया परिषिच्यमाना निर्वापितास्वस्थीकृता गात्रयष्टिर्यस्याः सा तथा, अथवा ससम्भ्रमापवर्तितया-ससम्भ्रमक्षिप्तया काञ्चनभृङ्गारमुखविनिर्गतशीतलजलविमलधारयेत्येवं व्याख्येयं, लुप्ततृतीयैकवचनदर्शनात् , 'उक्खेवगतालियंटवीयणगजणियवाएणं'ति उत्क्षेपको-| वंशदलादिमयो मुष्टिग्राह्यदण्डमध्यभागः तालवृन्तं-तालाभिधानवृक्षपत्रवृन्तं तत्पत्रच्छोट इत्यर्थः तदाकारं वा चर्म| मयं वीजनक तु-वंशादिमयमेवान्ताह्यदण्डं एतैर्जनितो यो वातः स तथा तेन 'सफुसिएणं'सोदकबिन्दुना 'रोय. माणी'अश्रुविमोचनात् 'कंदमाणी' महाध्वनिकरणात् 'सोयमाणी मनसा शोचनात् 'विलबमाणी' आर्तवचनकर
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व्याख्या- णात् ॥ 'इडे'इत्यादि पूर्ववत् 'थेजेत्ति स्थैर्यगुणयोगात्स्थैर्यः 'वेसासिए'त्ति विश्वासस्थानं 'संमए'त्ति संमतस्तत्कृतका- ४|| ९ शतके प्रज्ञप्तिः दर्याणां संमतत्वात् 'बहुमए'त्ति बहुमतः-बहुष्वपि कार्येषु बहु वा-अनल्पतयाऽस्तोकतया मतो बहुमतः'अणुमएं'त्ति कार्य
उद्देशः ३३ अभयदेवीव्याघातस्य पश्चादपि मतोऽनुमतः 'भंडकरण्डगसमाणे भाण्डं-आभरणं करण्डकः-तद्भाजनं तत्समानस्तस्यादेयत्वात्
दीक्षायै अया वृत्तिः२८ || 'रयणे'त्ति रत्नं मनुष्यजातावुत्कृष्टत्वात् रजनो वा रञ्जक इत्यर्थः 'रयणभूए'त्ति चिन्तारत्नादिविकल्पः 'जीविऊस-18||
नुमतिः
सू ३८४ ॥४६८॥
विए'त्ति जीवितमुत्सूते-प्रसूत इति जीवितोत्सवः स एव जीवितोत्सविकः जीवितविषये वा उत्सवो-महः स इव यः स || |जीवितोत्सविकः जीवितोच्छासिक इति पाठान्तरं 'हिययाणंदिजणणे' मनःसमृद्धिकारकः 'उंबरे'त्यादि, उदुम्बरपुष्पं | | ह्यलभ्यं भवत्यतस्तेनोपमानं 'सवणयाए'त्ति श्रवणताय श्रोतुमित्यर्थः 'किमंग पुण'त्ति किं पुनः अंगेत्यामन्त्रणे 'अच्छा| हि ताव जाया ! जाव ताव अम्हे जीवामो'त्ति, इत्यत्राऽऽस्व तावद हे ता! यावद्वयं जीवाम इत्येतावतेव विवक्षितसिद्धो यत्पुनस्तावच्छब्दस्योच्चारणं तद्भाषामात्रमेवेति 'वड्डियकुलवंसतंतुकजम्मि निरयवक्खे'त्ति 'वडिय'त्ति सप्तम्यकवचनलोपदशेनाद्वर्द्धिते-पुत्रपौत्रादिभिवृद्धिमुपनीते कुलरूपो वंशो न वेणरूपः कलवंश:-सन्तानः स एव तन्तुदाघ-- त्वसाधम्योत् कुलवंशतन्तुः स एव कार्य-कृत्यं कुलवंशतन्तुकार्य तत्र, अथवा वर्द्धितशब्दः कर्मधारयेण सम्बन्धनीयस्तत्र सति 'निरवकाङ्कः' निरपेक्षः सन् सकलप्रयोजनानाम् ॥ 'तहावि णं तंति तथैव नान्यथेत्यर्थः यदुक्तं 'अम्हेहिं | | ॥४६॥ कालगएहिं पबइहिसि तदाश्रित्यासावाह-एवं खलु'इत्यादि, एवं वक्ष्यमाणेन न्यायेन 'अणेगजाइजरामरणरोगसारीरमाणसए कामदुक्खवेयणवसणसओवद्दवाभिभूए'त्ति अनेकानि यानि जातिजरामरणरोगरूपाणि शारी-||
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राणि मानसिकानि च प्रकाम-अत्यर्थं दुःखानि तानि तथा तेषां यद्वेदन, व्यसनानां च-चौर्यद्यूतादीनां यानि शतानि उपद्वाश्च-राजचौर्यादिकृतास्तैरभिभूतो यः स तथा, अत एव 'अधुवेत्ति न ध्रुवः-सूर्योदयवन्न प्रतिनियतकालेऽवश्यम्भावी 'अणितिए'त्ति इतिशब्दो नियतरूपोपदर्शनपरः ततश्च न विद्यत इति यत्रासावनितिक:-अविद्यमाननियतस्वरूप इत्यर्थः, ईश्वरादेरपि दारिद्यादिभावात् , 'असासए'त्ति क्षणनश्वरत्वात् , अशाश्वतत्वमेवोपमानैर्दर्शयन्नाह-संझे'त्यादि, किमुक्तं भवति ? इत्याह-'अणिचे'त्ति अथवा प्राग्जीवितापेक्षयाऽनित्यत्वमुक्तमथ शरीरस्वरूपापेक्षया तदाह'अणिचे 'सडणपडणविडंसणधम्म त्ति शटनं-कुष्ठादिनाऽङ्गल्यादेः पतनं बाहादेः खगच्छेदादिना विध्वंसन-क्षयः एत एव धर्मा यस्य स तथा 'पुत्विं वित्ति विवक्षितकालात्पूर्व वा 'पच्छावित्ति विवक्षितकालात्पश्चाद्वा 'अवस्सविप्पजहि| यत्ति अवश्य 'विप्रजहातव्यः'त्याज्यः 'से केस णं जाणइत्ति अथ कोऽसौ जानात्यस्माकं, न कोऽपीत्यर्थः, 'के है पुच्विं गमणयाए'त्ति कः पूर्व पित्रोः पुत्रस्य वाऽन्यतोगमनाय परलोके उत्सहते कः पश्चाद्गमनाय तत्रैवोत्सहते, कः पूर्व
को वा पश्चान्नियत इत्यर्थः ॥ 'पविसिहरूवं'ति प्रविशिष्टरूपं 'लक्खणवंजणगुणोववेयं लक्षणम् 'अस्थिष्वर्थः सुखं मांसे, त्वचि भोगाः स्त्रियोऽक्षिषु । गतौ यानं स्वरे चाज्ञा, सर्व सत्त्वे प्रतिष्ठितम् ॥१॥” इत्यादि, व्यञ्जनं-मपतिल-४ कादिकं तयोर्यो गुणः-प्रशस्तत्वं तेनोपपेतं-सङ्गतं यत्तत्तथा 'उत्तमबलवीरियसत्तजुत्तं' उत्तमैबलवीर्यसत्त्वैर्युक्तं यत्तत्तथा, तत्र बलं-शारीरः प्राणो वीर्य-मानसोऽवष्टम्भः सत्त्वं-चित्तविशेष एव, यदाह-"सत्त्वमवैक्लव्यकरमध्यवसानकरं च ४॥ अथवा उत्तमयोर्बलवीर्ययोर्यत्सत्त्वं-सत्ता तेन युक्तं यत्तत्तथा 'ससोहग्गगुणसमूसियंति ससौभाग्यं गुणसमुच्छ्रितं|
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व्याख्या.
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
सू ३८४
॥४६९॥
B5-E95445445
चेत्यर्थः 'अभिजायमहक्खमति अभिजातं-कुलीनं महती क्षमा यत्र तत्तथा, ततः कर्मधारयः, अथवाऽभिजातानां Bा ९ शतके मध्ये महत्-पूज्यं क्षम-समर्थ च यत्तत्तथा, 'निरुवहयउदत्तलठ्ठपंचिंदियपहुं'ति निरुपहतानि-अविद्यमानवाताधुपघा- उद्देशः ३३ तानि उदात्तानि-उत्तमवर्णादिगुणानि अत एव लष्टानि-मनोहराणि पश्चापीन्द्रियाणि पटूनि च-स्वविषयग्रहणदक्षाणि यत्र दीक्षायै अतत्तथा 'विविहवाहिसयसंनियंति इह संनिकेतं-स्थानम् 'अढियकहट्टियं ति अस्थिकान्येव काष्ठानि काठि-18 नुमतिः न्यसाधात्तेभ्यो यदुत्थितं तत्तथा 'छिराण्हारुजालओणद्धसंपिणद्धं ति शिरा-नाड्यः 'हारु'त्ति स्नायवस्तासां| | यज्जालं-समूहस्तेनोपनद्धं संपिनद्धं-अत्यर्थं वेष्टितं यत्तत्तथा असुइसंकिलिडे'ति अशुचिना-अमेध्येन सक्लिष्ट-दुष्टं यत्त
तथा 'अणिट्ठवियसवकालसंठप्पयंति अनिष्ठापिता-असमापिता सर्वकालं-सदा संस्थाप्यता-तत्कृत्यकरणं यस्य स तथा 3|| |'जराकुणिमजजरघरं व' जराकुणपश्च-जीर्णताप्रधानशबो जर्जरगृहं च-जीर्णगेहं समाहारद्वन्द्वाजराकुणपजर्जरगृहं, | तदेवं किम् ? इत्याह-सडणे'त्यादि ॥ 'विपुले'त्यादि, विपुल कुलाश्च ता बालिकाश्चेति विग्रहः कलाकुशलाश्च ताः| सर्वकाललालिताश्चेति कलाकुशलसर्वकाललालिताः ताश्च ताः सुखोचिताश्चेति विग्रहः, मार्दवगुणयुक्तो निपुणो यो विनयोपचारस्तत्र पण्डितविचक्षणा-अत्यन्तविशारदा यास्तास्तथा ततः कर्मधारयः, 'मंजुलमियमहुरभणियविहसियविप्पेक्खियगइविलासविट्ठियविसारयाओं' मञ्जलं-कोमलं शब्दतः मितं-परिमितं मधुरं-अकठोरमथेतो यग
॥४६॥ |णितं तत्तथा तच्च विहसितं च विप्रेक्षितं च गतिश्च विलासश्च-नेत्रविकारो गतिविलासो वा-विलसन्ती गतिः विस्थितं ||8| |च-विशिष्टा स्थितिरिति द्वन्द्वः एतेषु विशारदा यास्तास्तथा, 'अविकलकुलसीलसालिणीओ' अविकलकुला:-ऋद्धि-||
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। यास्तास्तथा, 'अविककारी गतिविलासो वा-विलमकारमर्थतो यम
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परिपूर्णकुलाः शीलशालिन्यश्च-शीलशोभिन्य इति विग्रहः, 'विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धणपगम्भवयभाविणीओ | विशुद्धकुलवंश एव सन्तानतन्तुः-विस्तारितन्तुस्तद्वर्द्धनेन-पुत्रोत्पादनद्वारेण तद्बद्धौ प्रगल्भं-समर्थं यद्वयो-यौवनं तस्य । |भावः-सत्ता विद्यते यासां तास्तथा 'विसुद्धकुलवंससंताणतंतुवद्धणपगम्भुन्भवपभाविणीओ'त्ति पाठान्तरं तत्र च विशुद्धकुलवंशसन्तानतन्तुवर्द्धना ये प्रगल्भाः-प्रकृष्टगर्भास्तेषां य उद्भवः-सम्भूतिस्तत्र यः प्रभावः-सामर्थ्य स यासा-| मस्ति तास्तथा 'मणाणुकूलहियइच्छियाओ' मनोऽनुकूलाश्च ता हृदयेनेप्सिताश्चेति कर्मधारयः 'अह तुज्झ गुणवल्लभाओ'त्ति गुणैर्वल्लभा यास्तास्तथा 'विसयविगयवोच्छिन्नकोउहल्ले'त्ति विषयेषु-शब्दादिषु विगतव्यवच्छिन्नम्-अत्यन्तक्षीणं कौतूहलं यस्य स तथा ॥'माणुस्सगा कामभोग'त्ति, इह कामभोगग्रहणेन तदाधारभूतानि स्त्रीपुरुषशरीराण्यभिप्रेतानि, 'उच्चारे'त्यादि, उच्चारादिभ्यः समुद्भवो येषां ते तथा 'अमणुन्नदुरूवमुत्तपूयपुरीसपुन्ना' अमनोज्ञाश्च ते| | दुरूपमूत्रेण पूतिकपुरीषेण च पूर्णाश्चेति विग्रहः, इह च दूरूपं-विरूपं पूतिकं च-कुथितं, 'मयगंधुस्सासअसुभनिस्सा-18 ४ सउच्वेयणगा' मृतस्येव गन्धो यस्य स मृतगन्धिः स चासावुच्छासश्च मृतगन्ध्युच्छासस्तेनाशुभनिःश्वासेन चोद्वेगजनकाहै उद्वेगकारिणो जनस्य येते तथा, उच्छासश्च-मुखादिना वायुग्रहणं निःश्वासस्तु-तन्निर्गमः 'बीभच्छ'त्ति जुगुप्सोत्पा-1 |दकाः 'लहुस्सग'त्ति लघुस्वका:-लघुस्वभावाः 'कलमलाहिवासदुक्खबहुजणसाहारणा' कलमलस्य-शरीरसत्काशुभद्रव्यविशेषस्याधिवासेन-अवस्थानेन दुःखा-दुःखरूपा येते तथा तथा बहुजनानां साधारणा भोग्यत्वेन ये ते तथा, ततः कर्मधारयः, 'परिकिलेसकिच्छदुक्खसज्झा' परिक्लेशेन-महामानसायासेन कृच्छ्रदुःखेन च-गाढशरीरायासेन ये
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& साध्यन्ते-वशीक्रियन्ते ये ते तथा 'कडुगफलविवागा' विपाकः पाकोऽपि स्यादतो विशेष्यते-फलरूपो विपाकः फलविव्याख्या
९ शतके प्रज्ञप्तिः
पाकः कटुकः फलविपाको येषां ते तथा 'चुडलिव'त्ति प्रदीप्ततृणपूलिकेव 'अमुच्चमाणे'त्ति इह प्रथमावहुवचनलोपो उद्देशः३३ अभयदेवी- दृश्यः॥'इमे य ते जाया ! अजयपज्जयपिउपज्जयागए' इदं च तव पुत्र! आर्यः-पितामहः प्रार्यकः-पितुः पिता- दीक्षायै अया वृत्तिःला | महः पितृप्रार्यकः-पितुः प्रपितामहस्तेभ्यः सकाशादागतं यत्तत्तथा, अथवाऽऽर्यकार्यकपितॄणां यः पर्ययः-पर्यायः परि
नुमतिः पाटिरित्यर्थः तेनागतं यत्तत्तथा 'विपुलधणकणग' इह यावत्करणादिदं दृश्यं-रयणमणिमोत्तियसंखसिलप्पवालरत्त
सू ३८४ ॥४७॥
रयणमाइए'त्ति तत्र 'विपुलधणे'ति प्रचुरं गवादि 'कणग'त्ति धान्यं 'रयण'त्ति कर्केतनादीनि 'मणि'ति चन्द्रकान्ताद्याः मौक्तिकानि शङ्खाश्च प्रतीताः 'सिलप्पवाल' ति विद्रुमाणि 'रत्तरयण'त्ति पद्मरागास्तान्यादिर्यस्य तत्तथा 'संतसारसावएज्जे'त्ति 'संत'त्ति विद्यमानं स्वायत्तमित्यर्थः 'सार'त्ति प्रधानं 'सावएज्जत्ति स्वापतेयं द्रव्य, ततः कर्मधारयः, किम्भूतं तत् ? इत्याह-'अलाहित्ति अलं-पर्याप्तं भवति 'या'त्ति यत्परिमाणम् 'आसत्तमाओ कुल-18 वंसाओ'त्ति आसप्तमात् कुलवंश्यात्-कुललक्षणवंशे भवः कुलवंश्यस्तस्मात् , सप्तमं पुरुषं यावदित्यर्थः 'पकामं दाउ'न्ति अत्यर्थ दीनादिभ्यो दातुम् , एवं भोक्तु-स्वयं भोगेन 'परिभाए'ति परिभाजयितुं दायादादीनां, प्रकामदानादिषु यावत् स्वापतेयमलं तावदस्तीति हृदयम् 'अग्गिसाहिए'इत्यादि, अध्यादेः साधारणमित्यर्थः 'दाइयसाहिए'ति दाया-18॥
॥४७०॥ दा:-पुत्रादयः, एतदेव द्रव्यस्यातिपारवश्यप्रतिपादनार्थ पर्यायान्तरेणाह-'अग्गिसामने'इत्यादि, 'विसयाणुलो-16 माहिति विषयाणां-शब्दादीनामनुलोमा:-तेषु प्रवृत्तिजनकत्वेनानुकूला विषयानुलोमास्ताभिः 'आघवणादि यति||
-ARRA
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आख्यापनाभिः - सामान्यतो भणनैः 'पन्नवणाहि यत्ति प्रज्ञापनाभिश्च - विशेषकथनैः 'सन्नवणाहि य'ति सज्ञापनाभिश्च सम्बोधनाभिः 'विन्नवणाहि य'त्ति विज्ञापनाभिश्च - विज्ञप्तिकाभिः सप्रणयप्रार्थनैः, चकाराः समुच्चयार्थाः, 'आघवित्तए व 'त्ति आख्यातुम्, एवमन्यान्यपि पूर्वपदेषु क्रमेणोत्तराणि योजनीयानि, 'विसयपडिकूलाहिं 'ति विषयाणां प्रतिकूला :- तत्परिभोगनिषेधकत्वेन प्रतिलोमा यास्तास्तथा ताभिः 'संजमभउधेयणकरीहिं'ति संयमाद्भयं -भीतिं उद्वेजनं च - चलनं कुर्वन्तीत्येवंशीला यास्तास्तथा ताभिः । 'सच्चे'ति सद्भ्यो हितत्वात् 'अणुत्तरे'त्ति अविद्यमानप्रधानतरम्, अन्यदपि तथाविधं भविष्यतीत्याह - 'केवल' त्ति केवलं - अद्वितीयं 'जहावस्सए' त्ति एवं चेदं तत्र सूत्रं - 'पडिपुन्ने' अपवर्गप्रापकगुणैर्भृतं 'नेयाउए' नायकं मोक्षगमकमित्यर्थः नैयायिकं वा न्यायानपेतत्वात् 'संसुद्धे' सामस्त्येन शुद्धं | 'सलगत्तणे' मायादिशल्यकर्त्तनं 'सिद्धिमग्गे' हितार्थप्रात्युपायः 'मुत्तिमग्गे' अहितविच्युतेरुपायः 'निज्जाणमग्गे' सिद्धिक्षेत्रगमनोपायः, 'निघाणमग्गे' सकलकर्मविरहजसुखोपायः 'अवितहे' कालान्तरेऽप्यनपगततथाविधाभिमतप्रकारम् 'अविसंधि' प्रवाहेणाव्यवच्छिन्नं 'सङ्घदुक्खप्प हीणमग्गे' सकलाशर्मक्षयोपायः 'एत्थं ठिया जीवा सिज्झंति बुज्यंति मुचंति परिनिधायंति'त्ति 'अहीवेगंत दिट्ठीए' अहेरिव एकोऽन्तो- निश्चयो यस्याः सा (एकान्ता सा) दृष्टि: - बुद्धिर्यस्मिन् निर्ग्रन्थप्रवचने चारित्रपालनं प्रति तदेकान्तदृष्टिकम्, अहिपक्षे आमिषग्रहणैकतानतालक्षणा एकान्ता - एकनिश्चया | दृष्टिः- दृग् यस्य स एकान्तदृष्टिकः 'खुरो इव एगंतधाराए' त्ति एकान्ता - उत्सर्गलक्षणैक विभागाश्रया धारेव धारा- क्रिया यत्र तत्तथा, 'लोहमये' त्यादि, लोहमया यवा इव चर्वयितव्याः, नैर्ग्रन्थं प्रवचनं दुष्करमिति हृदयं, 'वालुये 'त्यादि,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
KRASIA
९शतके उद्देशः३३. दीक्षायै अ
नुमतिः सू ३८४
॥४७१॥
वालुकाकवल इव निरास्वादं वैषयिकसुखास्वादनापेक्षया, प्रवचनमिति, 'गंगे'त्यादि, गङ्गा वा-गङ्गेव महानदी प्रतिश्रोतसा गमनं प्रतिश्रोतोगमनं तद्भावस्तत्ता तया, प्रतिश्रोतोगमनेन गङ्गेव दुस्तरं प्रवचनमिति भावः, एवं समुद्रोपम| प्रवचनमपि, 'तिक्खं कमियत्वं'ति यदेतत् प्रवचनं तत्तीक्ष्णं खड्गादि क्रमितव्यं, यथा हि खगादि ऋमितुमशक्यमेवमशक्यं प्रवचनमनुपालयितुमितिभावः 'गरुयं लंबेयवंति 'गुरुकं' महाशिलादिकं 'लम्बयितव्यम्' अवलम्बनीयं रज्वादिनिबद्धं हस्तादिना धरणीयं प्रवचनं, गुरुकलम्बनमिव दुष्करं तदिति भावः, 'असी'त्यादि, असेर्धारा यस्मिन् व्रते आक्रमणीयतया तदसिधाराक 'व्रतं' नियमः 'चरितव्यम्' आसेवितव्यं, यदेतत् प्रवचनानुपालनं तद्बहुदुष्करमित्यर्थः । अथ कस्मादेतस्य दुष्करत्वम् ?, अत्रोच्यते 'नो'इत्यादि, आधार्मिकमिति, एतद्वा 'अज्झोयरएइ वा' अध्यवपूरक इति वा, तल्लक्षणं चेदं-स्वार्थ मूलाद्रहणे कृते साध्वाद्यर्थमधिकतरकणक्षेपणमिति 'कतारभत्तेइ वत्ति कान्तारंअरण्यं तत्र यद्भिक्षुकाथै संस्क्रियते तत्कान्तारभक्तम् , एवमन्यान्यपि, 'भोत्तए वत्ति भोक्तुं 'पायए वत्ति पातुं वा 'नालं' न समर्थः शीताद्यधिसोढुमिति योगः, इह च क्वचित्प्राकृतत्वेन द्वितीयार्थे प्रथमा दृश्या, 'वाल'त्ति व्यालान्श्वापदभुजगलक्षणान् ‘रोगायंकेत्ति इह रोगाः-कुष्ठादयः आतङ्का-आशुघातिनः शूलादयः 'कीवाणं ति मन्दसंहननानां 'कायराणं'ति चित्तावष्टम्भवर्जितानाम् अत एव 'कापुरिसाणं'ति, पूर्वोक्तमेवार्थमन्वयव्यतिरेकाभ्यां पुनराह-दुरणु'इत्यादि, 'दुरनुचरं' दुःखासेव्यं प्रवचनमिति प्रकृतं धीरस्स'त्ति साहसिकस्य तस्यापि 'निश्चितस्य' कर्त
॥४७१
NARRATO
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व्यमेवेद मितिकृतनिश्चयस्य तस्यापि 'व्यवसितस्य' उपायप्रवृत्तस्य 'एत्थंति प्रवचने लोके वा, दुष्करत्वं च ज्ञानो8 पदेशापेक्षयाऽपि स्यादत आह–'करणतया' करणेन संयमस्य अनुष्ठानेनेत्यर्थः॥ । | तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! खत्तियकुंडग्गामं नगरं सम्भितरबाहिरियं आसियसंमजिओवलितं जहा उववाइए जाव पञ्चप्पिणंति, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया दोचंपि कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावइत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स महत्थं महग्धं महरिहं विपुलं निक्खमणाभिसेयं उवट्ठवेह, तए णं ते कोडंबियपुरिसा तहेव जाव पच्चप्पिणंति, तए णं तं जमालिं खत्ति| यकुमारं अम्मापियरो सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहं निसीयाति निसीयावेत्ता अट्ठसएणं सोवनियाणं कलसाणं एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव अट्ठसएणं भोमेजाणं कलसाणं सबिड्डीए जाव रवेणं महया महया निक्खमणाभिसेगेणं अभिसिंचइ निक्खमणाभिसेगेणं अभिसिंचित्ता करयल जाव जएणं विजएणं वद्धा| वेन्ति, जएणं विजएणं वहावेत्ता एवं वयासी-भण जाया ! किं देमो! किंपयच्छामो? किणा वा ते अट्ठो ?, ४ तए णं से जमाली खत्तियकुमारे अम्मापियरो एवं वयासी-इच्छामि णं अम्म ! ताओ ! कुत्तियावणाओ
रयहरणं च पडिग्गहं च आणि कासवगं च सद्दाविलं, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोटुंबियपुरिसे सद्दावेइ सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिए! सिरिघराओ तिनि सयसहस्साइंगहाय
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९ शतके उद्देश:३३ दीक्षायै अ
नुमतिः सू३८४
व्याख्या
दोहि सयसहस्सेहिं कुत्तियावणाओ रयहरणं च पडिग्गहं च आणेह सयसहस्सेणं कासवगं च सद्दावेह, तए प्रज्ञप्तिः णं ते कोडंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ता समाणा हद्वतुट्ठा करयल जाव पडिअभयदेवी- सुणेत्ता खिप्पामेव सिरिघराओ तिन्नि सयसहस्साइं तहेव जाव कासवगं सद्दावेंति । तए णं से कासवए या वृत्तिः२ जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडुबियपुरिसेहिं सद्दाविए समाणे हटे तुट्टे पहाए कयबलिकम्मे जाव
सरीरे जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता करयल. जमा॥४७२॥
लिस्स खत्तियकुमारस्स पियरं जएणं विजएणं वद्धावेइ जएणं विजएणं वद्धावित्ता एवं वयासी-संदिसंतुणं देवाणुप्पिया ! जं मए करणिजं, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कासवगं एवं वयासीतुम देवाणुप्पिया! जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवजे निक्खमणपयोगे अग्गकेसे पडिकप्पेहि, तए णं से कासवे जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा एवं वुत्ते समाणे हद्वतुट्टे करयल जाव एवं सामी! तहत्ताणाए विणएणं वयणं पडिसुणेइ २त्ता सुरभिणा गंधोदएणं हत्थपादे पक्वालेइ सुरभिणा २ सुद्धाए अपडलाए पोत्तीए मुहं बंधइ मुहं बंधित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स परेणं जत्तेणं चउरंगुलवजे निक्खमणपयोगे अग्गकेसे कप्पइ । तए णं सा जमालस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसा
डएणं अग्गकेसे पडिच्छइ अग्गकेसे पडिच्छित्ता सुरभिणा गंधोदएणं पक्खालेइ सुरभिणा गंधोदएणं ४ा पक्खालेत्ता अग्गेहिं वरेहिं गंधेहिं मल्लेहिं अच्चेति २ सुद्धवत्थेणं बंधेइ सुद्धवत्थेणं बंधित्ता रयणकरंडमंसि
॥४७२॥
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RECT
पक्खिवति २ हारवारिधारासिंदुवारछिन्नमुत्तावलिप्पगासाइं सुयवियोगदूसहाई अंसूई विणिम्मुयमाणी २ एवं वयासी-एस णं अम्हं जमालिस्स खत्तियकुमारस्स बहूसु तिहीसु य पवणीसु य उस्सवेसु य जन्नेसु य छणेसु य अपच्छिमे दरिसणे भविस्सतीतिकट्ट ओसीसगमूले ठवेति, तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मापियरो दोचंपि उत्तरावक्कमणं सीहासणं रयाति २ दोचंपि जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयापीयएहिं कलसेहिं नाण्हेंति सीयापीयएहिं कलसेहिं नाण्हेत्ता पम्हसुकुमालाए सुरभिए गंधकासाइए गायाइं लूहेंति सुरभिए गंधकासाइए गायाई लूहेत्ता सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपन्ति गायाई अणुलिंपित्ता नासानिस्सासवायवोझं चक्खुहरं वनफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलं कणगखचियंतकम्मं महरिहं हंसलक्खणपडसाडगं परिहिंति २हारं पिणद्धति २ अद्धहारं पिणद्धेति २ एवं जहा सूरियाभस्स अलंकारो तहेव जाव चित्तं रयणसंकडुक्कडं मउडं पिणद्धति, किंबहुणा ?, गंथिमवेढिमपूरिमसंघातिमेणं चउविहेणं मल्लेणं कप्परुक्खगं पिव अलंकियविभूसियं करेंति । तए णं से जमालिस्स | खत्तियकुमारस्स पिया कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! अणेगखंभसयसन्निविट्ठ लीलट्टियसालभंजियागं जहा रायप्पसेणइज्जे विमाणवन्नओ जाव मणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं पुरिससहस्सवाहणीयं सीयं उवट्ठवेह उवद्ववेत्ता मम एयमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोटुंबियपुरिसा जाव पचप्पिणंति । तए णं से जमाली खत्तियकुमारे केसालंकारेणं वत्थालं
4 5CALS
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४७३ ॥
कारेणं मल्लालंकारेणं आभरणालंकारेणं चउविहेणं अलंकारेणं अलंकारिए समाणे पडिपुन्नालंकारे सीहास| णाओ अग्भुट्ठेह सीहासणाओ अब्भुट्ठेत्ता सीयं अणुप्पदा हिणीकरेमाणे सीयं दुरूहइ २ सीहासणवरंसि पुर| त्थाभिमुहे सन्निसण्णे । तए णं तस्स जमा लिस्स खत्तियकुमारस्स माया व्हाया कयबलि जाव सरीरा | हंस लक्खणं पडसाडगं गहाय सीयं अणुप्पदाहिणीकरेमाणी सीयं दुरूहइ सीयं दुरूहित्ता जमालिस्स खत्ति| यकुमारस्स दाहिणे पासे भद्दासणवरंसि संनिसन्ना, तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मघाई व्हाया जाव सरीरा रयहरणं च पडिग्गहं च गहाय सीयं अणुप्पदा हिणी करेमाणी सीयं दुरूहइ सीयं दुरू| हित्ता जमालिस्स खत्तियकुमारस्स वामे पासे भद्दासणवरंसि संनिसन्ना । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिट्ठओ एगा वरतरुणी सिंगारागारचारुवेसा संगयगय जावं रूवजोवणविलासक लिया सुंदर| थण० हिमरययकुमुदकुंदेंदु पगासं सकोरेंट मल्लदा मं धवलं आयवत्तं गहाय सलीलं उवरि धारेमाणी २ चिट्ठति, तए णं तस्स जमालिस्स उभओपासिं दुवे वरतरुणीओ सिंगारागारचा रुजावकलियाओ नाणामणिकणगर| यणविमलमरिहतवणिज्जुज्जलविचित्तचित्तदंडाओ चिलि संकुंदेंदुदगर अमयमहिय फेणपुन्नपुंजसंनिकासाओ धवलाओ चामराओ गहाय सलीलं वीयमाणीओ वीयमाणीओ चिट्ठति तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स उत्तरपुरच्छिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागारजाव कलिया सेतरययामयविमलसलिलपुष्णं मत्तगय महामुहाकितिसमाणं भिंगारं गहाय चिट्ठइ । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तिय
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९ शतके उद्देशः ३३ दीक्षायै अनुमतिः
सू ३८४
॥४७३॥
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कुमारस्स दाहिणपुरच्छिमेणं एगा वरतरुणी सिंगारागारजाव कलिया चित्तकणगदंडं तालवेंट गहाय चिट्ठति, तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया कोडुंबियपुरिसे सहावेइ को० २त्ता एवं वयासी - खिप्पा - मेव भी देवाणुप्पिया ! सरिसंयं सरितयं सरिघयं सरिसलावन्नरूवजोवणगुणोववेयं एगाभरणं वसणगहियनिज्जोयं कोडुंबियवर तरुण सहस्सं सहावेह, तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सरिसयं सरितयं जाव सहावेंति, तए णं ते कोडुंबिय पुरिसा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिउणा कोडुंबियपुरिसेहिं सहाविया समाणा हट्टतुट्ठ० पहाया कयबलिकम्मा कयकोउय मंगलपायच्छित्ता एगाभरणवसणगहि| यनिज्जोया जेणेव जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तेणेव उवागच्छइ ते० २ त्ता करयलजाव वद्धावेत्ता एवं वयासी - संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! जं अम्हेहिं करणिजं, तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया तं कोडुंबियवर तरुण सहस्संपि एवं वदासी - तुझे णं देवाणुप्पिया ! व्हाया कयबलिकम्मा जाव गहियनि जोगा जमालिरस खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहह । तए णं ते कोडुंबियपुरिसा जमालिस्स खत्तिय कुमारस्स जाव पडिसुणेत्ता व्हाया जाव गहियनिज्जोगा जमालिस्स खत्तियकुमारस्स सीयं परिवहंति । तए णं तस्स | जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं दुरूढस्स समाणस्स तप्पढमयाए इमे अट्ठट्ठमंगलगा पुरओ अहाणुपुत्रीए संपट्टिया, तं०- सोत्थिय सिरिवच्छजाव दप्पणा, तदाणंतरं च णं पुन्नकलसभिंगारं जहा | उववाइए जाव गगणतलमणुलिहंती पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिया एवं जहा उववाइए तहेव भाणियां
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४७४ ॥
| जाव आलोयं वा करेमाणा जय २ सद्दं च पउंजमाणा पुरओ अहाणुपुत्रीए संपट्टिया । तदाणंतरं च णं वहवे उग्गा भोगा जहा उबवाइए जाव महापुरिसवग्गुरपरिक्खित्ता जमालिस्स खत्तियस्स पुरओ व मग्गओ य | पासओ य अहाणुपुवीए संपट्टिया । तए णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पिया पहाया कयबलिकम्मा जाव विभूसिए हत्थि खंधवरगए सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरियमाणेणं सेयवरचामराहिं उदुवमाणे २ हयगयरहपवरजोहकलियाए चाउरंगिणीए सेणाए सद्धिं संपरिवुडे महयाभडचडगर जावपरिक्खित्ते जमालिस्स | खत्तियकुमारस्स पिट्ठओ २ अणुगच्छइ । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स पुरओ महं आसा आसवरा उभओ पासिं णागा णागवरा पिट्ठओ रहा रहसंगेली । तए णं से जमाली खत्तियकुमारस्स अन्भुग्गयभिंगारे परिग्गहियतालियंटे ऊसवियसेतछत्ते पवीइयसेतचामरवालवीयणीए सविडीए जाव णादितरवेणं । तयाणंतरं च णं बहवे लट्ठिग्गाहा कुंतग्गाहा जाव पुत्थयगाहा जाव वीणगाहा, तयाणंतरं च णं अट्ठसयं गयाणं असयं तुरयाणं अट्ठसयं रहाणं तयाणंतरं च णं लउड असिकोंत हत्थाणं बहूणं पायत्ताणीणं पुरओ संपट्टियं, तयाणंतरं च णं बहवे राईसरतलवरजावसत्थवाहप्पभिइओ पुरओ संपट्टिया जाव णादितरवेणं खत्तियकुंडग्गामं नगरं मज्झंमज्झेणं जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए बेइए | जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं तस्स जमालिस्स खत्तियकुमारस्स खत्तियकुंडग्गामं नगरं मज्झंमज्झेणं निग्गच्छमाणस्स सिंघाडगतियचउक्कजाव पहेसु बहवे अत्थत्थिया जहा उब
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९ शतके उद्देशः ३३ दीक्षायै अनुमतिः
सू ३८४
॥४७४॥
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वाइए जाव अभिनंदता य अभित्थुणंता य एवं वयासी-जय जय गंदा धम्मेणं जय जय गंदा तवेणं जय जय गंदा ! भदं ते अभग्गेहिं णाणदसणचरित्तमुत्तमोहिं अजियाइं जिणाहि इंदियाई जियं च पालेहि सम|णधम्म जियविग्धोऽवि य वसाहि तं देव! सिद्धिमज्झे णिहणाहि य रागदोसमल्ले तवेण धितिधणियबद्धकच्छे |मद्दाहि अट्टकम्मसत्तू झाणेणं उत्तमेणं सुक्केणं अप्पमत्तोहराहि याराहणपडागं च धीर ! तेलोकरंगमज्झे पावय वितिमिरमणुत्तरं केवलं च णाणं गच्छय मोक्खं परं पदं जिणवरोवदितुणं सिद्धिमग्गेणं अकुडिलेणं हता परीसहच{ अभिभविय गामकंटकोवसग्गाणं धम्मे ते अविग्घमत्थुत्तिकट्ट अभिनंदंति य अभिथुणंति य । | तए णं से जमाली खत्तियकुमारे नयणमालासहस्सेहिं पिच्छिजमाणे २ एवं जहा उववाइए कूणिओ जाव | णिग्गच्छति निग्गच्छित्ता जेणेव माहणकुंडग्गामे नयरे जेणेव बहुसालए चेइए तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता छत्तादीए तित्थगरातिसए पासइ पासित्ता पुरिससहस्सवाहिणीं सीयं ठवेइ २ पुरिससहस्सवाहिणीओ सीयाओ पचोरुहइ, तए णं तं जमालिं खत्तियकुमारं अम्मापियरो पुरओ काउं जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वदासी-एवं खलु भंते ! जमाली खत्तियकुमारे अम्हं एगे पुत्ते इट्टे कंते जाव किमंग पुण पासणयाए ? से जहानामए-उप्पलेइ वा पउमेइ वा जाव पउमसहस्सपत्तेइ वा पंके जाए जले संवुड्ढे णोवलिप्पति पंकरएणं णोवलिप्पइ जलरएणं एवामेव जमालीवि खत्तियकुमारे कामेहिं जाए भोगेहिं संवुड्ढे
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-%ARMA
९ शतके उद्देशः ३३ दीक्षायै अ| नुमतिः | सू ३८५
व्याख्या- ठाणोवलिप्पइ कामरएणं णोवलिप्पइ भोगरएणं णोवलिप्पइ मित्तणाइनियगसयणसंबंधिपरिजणेणं, एस णं| प्रज्ञप्तिः
ट्रा देवाणुप्पिया! संसारभउविग्गे भीए जम्मणमरणेणं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता अगाराओ अणअभयदेवीया वृत्तिः२४
गारियं पवएह, तं एयन्नं देवाणुप्पियाणं अम्हे भिक्खं दलयामो, पडिच्छंतु णं देवाणुप्पिया ! सीसभिक्खं,
तए णं सम०३तं जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी-अहासुहं देवाणुप्पिया!मा पडिबंधं। तए णं से जमाली ॥४७५॥ खत्तियकुमारे समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हहतुढे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव
नमंसित्ता उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवकमइ २ सयमेव आभरणमल्लालंकारं ओमुयइ, तते णं से जमालिस्स खत्तियकुमारस्स माया हंसलक्खणेणं पडसाडएणं आभरणमल्लालंकारं पडिच्छति पडिच्छित्ता हारवारिजाव विणिम्मुयमाणा वि०२ जमालिं खत्तियकुमारं एवं वयासी-घडियत्वं जाया !जइयवं जाया! परि|कमियत्वं जाया ! अस्सि च णं अढे णोपमायेतचंतिकट्ट जमालिस्स खत्तियकुमारस्स अम्मापियरो समणं भगवं |महावीरं वंदइणमंसह वंदित्ता णमंसित्ता जामेव दिसं पाउब्भृया तामेव दिसिं पडिगया।तए णं से जमाली | खत्तिए सयमेय पंचमुट्टियं लोयं करेति २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता | एवं जहा उसभदत्तो तहेव पवइओ नवरं पंचहिं पुरिससएहिं सद्धिं तहेव जाव सवं सामाइयमाइयाई | एक्कारस अंगाई अहिज्जइ सामाइयमा० अहिजेत्ता बहहिं चउत्थछट्ठमजावमासद्धमासखमणेहिं विचित्तेहिं तवोकम्महिं अप्पाणं भावेमाणे विहरह ॥ (सूत्रं ३८५)
*45454%
॥४७५॥
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'सभितर बाहिरियं'ति सहाभ्यन्तरेण बाहिरिकया च-वहिर्भागेन यत्तत्तथा 'आसियसम्मज्जिओ वलित्तं 'ति आसि तमुदकेन संमार्जितं प्रमार्जनिकादिना उपलितं च गोमयादिना यत्तत्तथा 'जहा उववाइए' त्ति एवं चैतत्तत्र - 'सिंघाड| गतियच उक्कच चरच उम्मुहमहापहपहेसु आसित्तसित्तसुइयसंमट्ठरत्थंतरावणवीहियं' आसिक्तानि - ईषत्सितानि सिक्तानि च तदन्यान्यत एव शुचिकानि - पवित्राणि संमृष्टानि कचवरापनयनेन रथ्यान्तराणि - रथ्यामध्यानि आपणवीधयश्च - हट्टमार्गा यत्र तत्तथा 'मंचाइमंच कलियं णाणाविहरागभूसियझयपडागाइपडागमंडियं' नानाविधरागैरुच्छ्रितैर्ध्वजैः - चक्र सिंहादिलाञ्छनोपेतैः पताकाभिश्च तदितराभिरतिपताकाभिश्च - पताको परिवर्त्तिनीभिर्मण्डितं यत्तत्तथा इत्यादि 'महत्थं' ति महाप्रयोजनं 'महग्घं' ति महामूल्यं 'महरिहं' ति महार्ह - महापूज्यं महतां वा योग्यं 'निक्खमणाभिसेयं ति | निष्क्रमणाभिषेकसामग्रीम् ' एवं जहा रायप्प सेणहजे' त्ति एवं चैतत्तत्र - 'अट्ठसएणं सुवन्नमयाणं कलसाणं असणं रूप्प| मयाणं कलसाणं असणं मणिमयाणं कलसाणं अट्ठस एणं सुवन्नरूप्पमयाणं कलसाणं अहसएणं सुवन्नमणिमयाणं कलसाणं असणं रूपमणिमयाणं कलसाणं अट्ठसएणं सुवन्नरुप्पमणिमयाणं कलसाणं अट्ठसएणं 'भोमेजाणं' ति मृन्मयानां 'सधिडीए' त्ति सर्व - समस्तछत्रादिराजचिह्नरूपया, यावत्करणादिदं दृश्यं - 'सङ्घजुईए' सर्वद्युत्या - आभरणादिसम्बन्धिन्या | सर्वयुक्तया वा - उचितेष्टवस्तुघटनालक्षणया 'सङ्घबलेणं' सर्वसैन्येन 'सङ्घसमुदएणं' पौरादिमीलनेन 'सङ्घायरेणं' सर्वो| चितकृत्यकरणरूपेण 'सङ्घविभूईए' सर्वसम्पदा 'सङ्घविभूसाए' समस्तशोभया 'सङ्घसंभ्रमेणं' प्रमोदकृतौत्सुक्येन 'सङ्घपुष्पगंध मल्लालंकारेणं सङ्घतुडिय सहसंनिनाएण' सर्बतूर्यशब्दानां मीलने यः सङ्गतो निनादो - महाघोषः स तथा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी- या वृत्तिः२
तेन, अल्पेष्वपि ऋद्ध्यादिषु सर्वशब्दप्रवृत्तिदृष्टेत्यत आह-'महया इड्डीए महया जुईए महया बलेणं महया समुदएणं'
९ शतके 'महया वरतुडियजमगसमगप्पवाइएणं' यमकसमकं युगपदित्यर्थः 'संखपणवपडहभेरिझल्लरिखरमुहिहुडकमुरय- | उद्देशः३३ मुइंगदुंदुहिनिग्घोसनाइय'त्ति पणवो-भाण्डपटहः भेरी-महती ढक्का महाकाहला वा झल्लरी-अल्पोच्छ्रया महामुखा दीक्षायै अचविनद्धा खरमुखी-काहला मुरजो-महामईलः मृदङ्गो-मईलः दुन्दुभी-ढक्काविशेष एव ततः शङ्खादीनां निर्घोषो में नुमतिः महाप्रयत्नोत्पादितःशब्दो नादितं तु-ध्वनिमात्रं एतद्यलक्षणो यो रवःस तथा तेन॥'किंदेमोति किं दद्मोभवदभिमतेभ्यः
सू ३८५ |'किं पयच्छामोत्ति भवते एव, अथवा दद्मः सामान्यतः प्रयच्छामः प्रकर्षेणेति विशेषः 'किणा वत्ति केन वा 'कुत्तियावणाओ'त्ति कुत्रिक-स्वर्गमर्त्यपाताललक्षणं भूत्रयं तत्सम्भवि वस्त्वपि कुत्रिक तत्सम्पादको य आपणो-हट्टो देवाधिष्ठितत्वेनासौ कुत्रिकापणस्तस्मात् 'कासवगं'ति नापितं 'सिरिघराओ'त्ति भाण्डागारात् 'अग्गकेसे'त्ति अग्रभूताः केशा अग्रकेशास्तान 'हंसलक्खणेणं' शुक्लेन हंसचिहेन वा 'पडसाडएणं'ति पटरूपः शाटकः पटशाटकः, शाटको हि शटन| कारकोऽप्युच्यत इति तब्यवच्छेदार्थ पटग्रहणम् , अथवा शाटको वस्त्रमात्रं स च पृथुलः पटोऽभिधीयत इति पटशाटकः, | 'अग्गेहिंति 'अग्र्यैः' प्रधानः, एतदेव व्याचष्टे-'वरेहिंति 'हारवारिधारसिंदुवारच्छिन्नमुत्तावलिप्पगासाईति इह । 'सिंदुवार'त्ति वृक्षविशेषो निर्गुण्डीति केचित् तत्कुसुमानि सिन्दुवाराणि तानि च शुक्लानीति 'एस णं'ति एतत्, अग्रकेशवस्तु अथवैतद्दर्शनमिति योगो णमित्यलङ्कारे 'तिहीसु यत्ति मदनत्रयोदश्यादितिथिषु 'पवणीसु यति
॥४७६॥ पर्वणीषु च कार्तिक्यादिषु 'उस्सवेसु यत्ति प्रियसङ्गमादिमहेषु 'जन्नेसु यत्ति नागादिपूजासु 'छणेसु य'त्ति इन्द्रोत्स-||
SACRECORRECCC
॥४७६॥
ISCANN
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वादिलक्षणेषु 'अपच्छिमे'त्ति अकारस्यामङ्गलपरिहारार्थत्वात् पश्चिमं दर्शनं भविष्यति एतत् केशदर्शनमपनीतकेशावस्थस्य जमालिकुमारस्य यदर्शनं सर्वदर्शनपाश्चात्यं तद्भविष्यतीति भावः, अथवा न पश्चिमं पौनःपुन्येन जमालिकुमारस्य दर्शनमेतद्दर्शने भविष्यतीत्यर्थः 'दोचंपि'त्ति द्वितीयं वारं 'उत्तरावक्कमणं'ति उत्तरस्यां दिश्यपक्रमणं-अवतरणं यस्मात्तद् उत्तरापक्रमणम्-उत्तराभिमुखं पूर्व तु पूर्वाभिमुखमासीदिति 'सीयापीयएहिंति रूप्यमयैः सुवर्णमयैश्चेत्यर्थः 'पम्हलसुकुमालाए'ति पक्ष्मवत्या सुकुमालया चेत्यर्थः 'गंधकासाइए'त्ति गन्धप्रधानया कषायरक्तया शाटिकयेत्यर्थः 'नासानीसासे'त्यादि नासानिःश्वासवातवाह्यमतिलघुत्वात् चक्षुहर-लोचनानन्ददायकत्वात् चक्षुरोधकं वा घनत्वात् 'वन्नफरिसजुत्तं'ति प्रधानवर्णस्पर्शमित्यर्थः हयलालायाः सकाशात् पेलवं-मृदु अतिरेकेण-अतिशयेन यत्तत्तथा कनकेन खचितंमण्डितं अन्तयोः-अञ्चलयोः कर्म-वानलक्षणं यत्तत्तथा 'हा'ति अष्टादशसरिक 'पिण«ति'पिनह्यतः पितराविति शेषः | 'अद्धहारंति नवसरिकम् ‘एवं जहा सूरियाभस्स अलंकारो तहेव'त्ति, स चैवम्-'एगावलिं पिणद्धंति एवं मुत्तावलि कणगावलिं रयणावलि अंगयाई केऊराई कडगाई तुडियाई कडिसुत्तयं दसमुद्दयार्णतयं वच्छसुत्तं मुरविं कंठमुरविं पालंब कुंडलाई चूडामणि ति तत्रैकावली-विचित्रमणिकमयी मुक्तावली-केवलमुक्ताफलमयी कनकावली-सौवर्णमणिकमयी रत्नावली-रत्नमयी अङ्गदं केयूरं च बाह्वाभरणविशेषः, एतयोश्च यद्यपि नामकोशे एकार्थतोक्का तथाऽपीहाऽऽकारविशेषाद् भेदोऽवगन्तव्यः, कटकं-कलाचिकाभरणविशेषः त्रुटिक-बाहुरक्षिका दशमुद्रिकानन्तकं-हस्ताङ्गुलीमुद्रिकादशकं वक्षःसूत्रं-हृदयाभरणभूतसुवर्णसङ्कलक 'वेच्छासुत्तंति पाठान्तरं तत्र वैकक्षिकासूत्रम्-उत्तरासङ्गपरिधानीयं सङ्कलक
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४७७॥
6-64-6
मुरवीमुरजाकारमाभरणं कण्ठमुरवी - तदेव कण्ठासन्नतरावस्थानं प्रालम्बे-झुम्बनकं, वाचनान्तरे त्वयमलङ्कारवर्णकः | साक्षाल्लिखित एव दृश्यत इति, 'रयणसंकडुक्कडं 'ति रत्नसङ्कटं च तदुत्कटं च- उत्कृष्टं रत्नसङ्कटोत्कटं 'गंथिमवेढिमपू| रिमसंघाइमेणं' ति इह ग्रन्थिमं- ग्रन्थननिर्वृत्तं सूत्रग्रथितमालादि वेष्टिमं - वेष्टितनिष्पन्नं पुष्पलम्बूसकादि पूरिमं येन | वंशशलाकामयपञ्जरकादि कूर्चादि वा पूर्यते सङ्घातिमं तु यत्परस्परतो नालसङ्घातनेन सङ्घात्यते 'अलंकिय विभूसियं' ति अलङ्कृतश्चासौ कृतालङ्कारोऽत एव विभूषितश्च-सञ्जातविभूषश्चेत्यलङ्कृत विभूषितस्तं, वाचनान्तरे पुनरिदमधिकं 'दद्दरमलयसुगंधिगंधिएहिं गायाई भुकुंडेंति'त्ति दृश्यते, तत्र च दद्दरमलयाभिधानपर्वतयोः सम्बन्धिनस्तदुद्भूतचन्दनादिद्रव्यजत्वेन ये सुगन्धयो गन्धिका - गन्धावासास्ते तथा, अन्ये त्वाहु:-- दर्द्दरः - चीवरावनद्धं कुण्डिकादिभाजनमुखं तेन गालितास्तत्र पक्का वा ये 'मलय'त्ति मलयोद्भवत्वेन मलयजस्य - श्रीखण्डस्य सम्बन्धिनः सुगन्धयो गन्धिका - गन्धास्ते तथा तैर्गात्राणि 'भुकुंडेंति'त्ति उद्धूलयन्ति || ' अणेगखं भसयसन्निविद्वं' ति अनेकेषु स्तम्भशतेषु सन्निविष्टा या सा तथा अनेकानि वा स्तम्भशतानि संनिविष्टानि यस्यां सा तथा तां 'लील द्वियसालिभंजियागं'ति लीलास्थिताः शालिभञ्जिकाः - पुत्रिकाविशेषा यत्र सा तथा तां, वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यते- 'अब्भुम्गयसुकयव इरवेश्य तोरणवररइयलीलट्ठियसालिभंजियागं'ति तत्र चाभ्युद्गते - उच्छ्रिते सुकृतबज्रवेदिकायाः सम्बन्धिनि तोरणवरे रचिता लीलास्थिता शालभञ्जिका यस्यां सा तथा तां 'जहा रायप्पसेणहज्जे विमाणवन्नाओ त्ति एवमस्या अपि वाच्य इत्यर्थः, स चायम्- 'ईहामिय उस भतुरगनरमगर विहगवा लग किन्नररुरुस र भचम र कुंजरवणलय पर मलयभत्तिचित्तं' ईहामृगादिभिर्भक्तिभिः - विच्छित्तिभिश्चित्रा-चित्र
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९ शतके उद्देशः ३३ दीक्षायै अ
नुमतिः सू ३८५
॥४७७॥
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| वती या सा तथा तां, तत्र ईहामृगा - वृकाः ऋषभाः वृषभाः घ्यालकाः- श्वापदा भुजङ्गा वा किन्नरा-देवविशेषाः रुरवो - मृगवि| शेषाः सरभाः - परासराः वनलता - चम्पकलतादिकाः पद्मलता - मृणालिकाः शेषपदानि प्रतीतान्येव 'खंभुग्गयवइरत्रे|इयापरिगयाभिरामं स्तम्भेषु उद्गता - निविष्टा या वज्रवेदिका तया परिगता - परिकरिता अत एवाभिरामा च-रम्या या सा तथा तां 'विज्जाहरजमलजुयलजंतजुत्तं पिव' विद्याधरयोर्यद् यमलं- समश्रेणीकं युगलं- द्वयं तेनेव यन्त्रेण - सरिष्णुपुरुषप्रतिमाद्वयरूपेण युक्ता या सा तथा ताम्, आर्षत्वाच्चैवंविधः समासः, 'अच्चीसहस्समालिणीयं' अर्चिः सहस्रमालाः- दीप्तिसहस्राणामावल्यः सन्ति यस्यां सा तथा, स्वार्थिककप्रत्यये च अचिः सहस्रमालिनीका तां, 'रूवगस हस्तकलियं' 'भिसमाणं' दीप्यमानां 'भिभिसमाणां' अत्यर्थ दीप्यमानां 'चक्खुलोयणलेसं' चक्षुः कर्तृ लोकने-अवलोकने |सति लिशतीव-दर्शनीयत्वातिशयात् श्लिष्यतीव यस्यां सा तथा तां 'सुहफासं सस्सिरीयरूवं' सशोभरूपकां 'घंटावलिचलियमहुर मणहरसर' घण्टावल्याश्चलिते-चलने मधुरो मनोहरश्च स्वरो यस्यां सा तथा तां 'मुहं कंतं दरिसणिज्जं निउ| णोवियमिसिभिसंतमणिरयणघंटियाजालपरिक्खित्तं' निपुणेन-शिल्पिना ओपितं परिकम्मितं 'मिसिमिसंतं' चिकचिकायमानं मणिरत्नानां सम्बन्धि यद् घण्टिकाजालं किङ्किणीवृन्दं तेन परिक्षिप्ता - परिकरिता या सा तथा तां, वाचनान्तरे पुनरयं वर्णकः साक्षादृश्यत एवेति ॥ 'केसालंकारेणं' ति केशा एवालङ्कारः केशालङ्कारस्तेन, यद्यपि तस्य तदानीं केशाः कल्पिता इति केशालङ्कारो न सम्यक् तथाऽपि कियतामपि सद्भावात्तद्भाव इति, अथवा केशानामलङ्कारः पुष्पादि केशालङ्कारस्तेन, 'वत्थालंकारेणं'ति वस्त्ररक्षणालङ्कारेण 'सिंगारागार चारुवेस'त्ति शृङ्गारस्य- रसविशेषस्या
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥ ४७८ ॥
गारमिव यश्चारुश्च वेषो - नेपथ्यं यस्याः सा तथा, अथवा शृङ्गारप्रधान आकारश्चारुश्च वेषो यस्याः सा तथा 'संगते' त्यादौ यावत्करणादेवं दृश्यं - 'संगय गय हसिय भणियचिट्ठियविलाससंला वुल्लावनिउणजुत्तोवयारकुसल 'त्ति तत्र च सङ्गतेषु गतादिषु निपुणा युक्तेषूपचारेषु कुशला च या सा तथा, इह च विलासो नेत्रविकारो, यदाह - "हावो मुखविकारः स्याद्भाव|श्चित्तसमुद्भवः । विलासो नेत्रजो ज्ञेयो, विभ्रमो समुद्भवः ॥ १ ॥” इति, तथा संलापो - मिथो भाषा उल्लापस्तु काकुवर्णनं, यदाह - "अनुलापो मुहुर्भाषा, प्रलापोऽनर्थकं वचः । काक्वा वर्णनमुल्लापः, संलापो भाषणं मिथः ॥ १ ॥ इति, | 'रूवजोवणविलासकलिय'त्ति इह विलासशब्देन स्थानासनगमनादीनां सुश्लिष्टो यो विशेषोऽसावुच्यते, यदाह - " स्थाना| सनगमनानां हस्तःनेत्रकर्म्मणां चैव । उत्पद्यते विशेषो यः श्लिष्टोऽसौ विलासः स्यात् ॥ १ ॥” 'सुन्दरथण' इत्यनेन 'सुंदरथणजहणवयणकर चरणणयणलावण्णरूवजोवणगुणोववेय'त्ति सूचितं, तत्र च सुन्दरा ये स्तनादयोऽर्थास्तैरुपेता या सा तथा, लावण्यं चेह स्पृहणीयता रूपं आकृतियवनं - तारुण्यं गुणा - मृदुस्वरत्वादयः 'हिमरयय कुमुय कुंदेंदुष्पगासं' ति हिमं च रजतं च कुमुदं च कुन्दश्चेन्दुश्चेति द्वन्द्वस्तेषामिव प्रकाशो यस्य तत्तथा 'सकोरेंटमल्लदामं ति सको| रेण्टकानि - कोरण्टपुष्पगुच्छयुक्तानि माल्यदामानि - पुष्पमाला यत्र तत्तथा 'नाणामणिकणगरयणविमलमहरिहतवणि|ज्जउज्जल विचित्तदंडाओ'ति नानामणिकनकरत्नानां विमलस्य महार्हस्य महार्घस्य वा तपनीयस्य च सत्कावुज्ज्वलौ विचित्रौ दण्डकौ ययोस्ते तथा, अथात्र कनकतपनीययोः को विशेषः १, उच्यते, कनकं पीतं तपनीयं रक्तमिति, 'चिल्लियाओ' त्ति दीप्यमाने लीने इत्येके 'संखंककुंददगरयअमयमहियफेणपुंजसंनिगा साओ' त्ति शङ्खाङ्ककुन्ददकरजसाममृतस्य
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९ शतके उद्देशः ३३ दीक्षायै अनुमतिः
सू ३८५
॥४७८॥
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मथितस्य सतो यः फेनपुञ्जस्तस्य च संनिकाशे -सदृशे ये ते तथा, इह चाङ्को रत्नविशेष इति, 'चामराओ 'त्ति यद्यपि चामरशब्दो नपुंसकलिङ्गो रूढस्तथाऽपीह स्त्रीलिङ्गतया निर्दिष्टस्तथैव क्वचिद्रूढत्वादिति ॥ 'मत्तगयमहा मुहाकिइस माणं'ति मत्तगजस्य यन्महामुखं तस्य याऽऽकृतिः - आकारस्तया समानं यत्तत्तथा 'एगाभरणवस णग हियणिज्जोय'त्ति एक:- एकादृश आभरणवसनलक्षणो गृहीतो निर्योगः- परिकरो यैस्ते तथा ॥ 'तप्पढमयाए 'ति तेषां विवक्षितानां मध्ये प्रथमता तत्प्रथमता तया 'अट्ठट्ठमंगलग' त्ति अष्टावष्टाविति वीप्सायां द्विर्वचनं मङ्गलकानि - माङ्गल्यवस्तूनि, अन्ये त्वाहु:अष्टसङ्ख्यानि अष्टमङ्गलकसञ्ज्ञानि वस्तूनि 'जाव दप्पणं'ति इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'नंदियावत्तवद्धमाणगभद्दासणकलसमच्छति तत्र वर्द्धमानकं - शरावं ( व संपुटं ) पुरुषारूढपुरुष इत्यन्ये स्वस्तिकपञ्चकमित्यन्ये प्रासादविशेषमित्यन्ये 'जहा उववाइए'त्ति, अनेन च यदुपात्तं तद्वाचनान्तरे साक्षादेवास्ति, तच्चेदं - 'दिवा य छत्तपडागा' दिव्येव दिव्याप्रधाना छत्रसहिता पताका छत्रपताका तथा 'सचामरादर सरइयआलोयदरिसणिज्जा वाउयविजयवेजयंती य | ऊसिय'त्ति सह चामराभ्यां या सा सचामरा आदर्शो रचितो यस्यां साऽऽदर्शरचिता आलोकं दृष्टिगोचरं यावद्दृश्यतेऽत्यु|च्चत्वेन या साssलोकदर्शनीया, ततः कर्म्मधारयः, 'सचामरा दंसणरइयआलोयदरिसणिज्जत्ति पाठान्तरे तु सचामरेति भिन्नपदं, तथा दर्शने - जमालेर्दृष्टिपथे रचिता विहिता दर्शनरचिता दर्शने वा सति रतिदा-सुखप्रदा दर्शनरतिदा सा. | चासावालोकदर्शनीया चेति कर्म्मधारयः काऽसौ ? इत्याह-वातोद्धूता विजयसूचिका वैजयन्ती -पार्श्वतो लघुपताकि काद्वययुक्ता पताकाविशेषा वातोद्धूतविजयवैजयन्ती 'उच्छ्रिता' उच्चा, कथमिव ? - 'गगणतलमणुलिहंती 'ति गगनतलं -
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४७९ ॥
आकाशतलमनुलिखन्तीवानुलिखन्ती अत्युच्चतयेति 'जहा उववाइए'त्ति अनेन यत्सूचितं तदिदं - 'तयाणंतरं च णं वेरु| लियभिसंतविमलदंडं' 'भिसंत'ति दीप्यमानं 'पलंब कोरंटमलदामोव सोहियं चंदमंडलनिभं समूसियं विमलमायनसं | पवरं सीहासणं च मणिरयणपायपीढ' 'सपाउयाजुगसमा उत्तं' स्वकीयपादुका युगसमायुक्तं 'बहुकिंकर कम्मगरपुरिसपायत्तपरिक्खित्तं' बहवो ये किङ्कराः - प्रतिकर्म्म प्रभोः पृच्छाकारिणः कर्मकराश्च तदन्यथाविधास्ते च ते पुरुषाश्चेति समासः पादातं च- पत्तिसमूहः बहुकिङ्करादिभिः परिक्षितं यत्तत्तथा 'पुरओ अहाणुपुवीए संपडियं, तयाणंसरं च णं बहवे लट्टीगाहा कुंतग्गाहा चामरग्गाहा पासग्गाहा चावग्गाहा पोत्थयग्गाहा फलगग्गाहा पीढयग्गाहा वीणग्गाहा कूवयग्गाहा' कुतपःतैलादिभाजनविशेषः 'हडप्परगाहा' हडप्पो - द्रम्मादिभाजनं ताम्बूलार्थं पूगफलादिभाजनं वा 'पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टिया, तयाणंतरं च णं बहवे दंडिणो मुंडिणो सिहंडिणो - शिखाधारिणः जटिणो-जटाधराः पिच्छिणो-मयूरादिपिच्छवाहिनः हासकरा ये हसन्ति डमरकरा - विश्वरकारिणः दवकराः -परिहासकारिणः चाटुकराः प्रियवादिनः कंदप्पियाकामप्रधानकेलिकारिणः कुकुश्या - भाण्डाः भाण्डप्राया वा 'वायंता गायंता य नश्चंता य हासंला य भासंता य सासिंता म शिक्षयन्तः 'साविंता य' इदं चेदं भविष्यतीत्येवंभूतवचांसि श्रावयन्तः 'रक्खता य' अन्यायं रक्षन्तः 'आलोकं च करेमाणे 'त्यादि तु लिखितमेवास्ति इति एतच्च वाचनान्तरे प्रायः साक्षादृश्यत एव तथेदमपरं तत्रैवाधिकं - 'तयाणंतरं च प्रां जच्चाणं वरमलिहाणाणं चंचुश्च्चियललियपुलयविकमविला सियगईणं हरिमेलामउलमल्लियच्छाणं थासग अमिलाणचमरगंउपरिमंडियकडीणं असयं वरतुरगाणं पुरओ अहाणुपुवीए संपट्टियं तथाणंतरं च णं ईसिं दंताणं ईसिं मत्ताणं ईसिं
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९ शतके उद्देशः ३३ दीक्षायै अनुमतिः
सू ३८५
॥४७९ ॥
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सन्नयविसालधवलदंताणं कंचणकोसीपविढदंतोषसोहिवाणं अहसयं मयकलहाणं पुरषो अहाणुसुधीए संपढ़ियं, तयाणंतरं चणं सच्छताणं सज्झथाणं सघंटाणं सपडामाषं सतोरणवराणं सखिखिणीहेमजालपेरंतपरिक्खिसाणं सनन्दिघोसारण | हेमवयवित्ततिणिसकणगनिज्जुत्तदारुमाणं सुसंविद्धचकमंडलधुराणं काठायससुकयनेमिजंतकम्मालं आइनवरतुरमतुसंपउत्ताणं कुसलमरच्छेयसारहिसुसंपग्गहियाणं सरसवक्त्तीसतोणपरिमंडिवाणं सकंकडवडेंसगाणं सचावसरपहरणावरणभरि| यजुद्धसज्जाणं अट्ठसयं रहाणं पुरओ अहाणुपुबीए संपडियं, तयाणंतरं च णं असिससिकोततोमरसूललण्डभिंडिमालधष्णु|बाणसजं पायत्ताणीयं पुरओ अहाणुपुषीए संपडियं, तयाणतरं च मं बहवे राईसरतलबरकोटुंबियमाडंबियइन्भसेडिसे-|| णावइसत्थवाहपभिइओ अप्पेगइया हयगया अण्पेगइया मयगया अप्पेगइया रहगया पुरओ अहाणुषुधीए संपठिय'ति तत्र च'वरमल्लिहाणाणं ति वरं माल्याधानं-पुष्पबन्धनस्थानं शिरः केशकलापो येषां से वरमाल्याधानास्तेषाम् , इकारःप्राकृतप्रभवो वालिहाण' मित्यादाविवेति, अथवा वरमल्लिकावद् शुक्लत्वेन प्रवरबिचकिलकुसुमवद् घ्राणं-नासिका येषां ते तथा | तेषां, क्वचित् 'तरमल्लिहायणाणं ति दृश्यते तत्र च तरो-गो बलं, तथा 'मल मल्ल धारणे' ततश्च तरोमल्ली-तरोधारको वेगादिधारको हायनः-संवत्सरोवर्सते येषां ते तरोमल्लिहायनाः-यौवनवन्त इत्यर्थः अतस्तेषांवरतुरगाणामितियोगः'वरम-| ल्लिभासणाणं ति क्वचिदृश्यते, तत्र तु प्रधानमाल्यवतामत एच दीप्तिमतां चेत्यर्थः'चंचुच्चियललियपुलियविक्कमविला| सियगईणं ति 'चंचुच्चिय'ति प्राकृतत्वेन चञ्चुरितं-कुटिलगमनम्, अथवा चक्षुः-शुकचञ्चुस्तद्वद्वक्रतया उच्चितम्-उच्चताकरणं पदस्योत्पाटनं वा (शुक) पादस्येवेति चक्षुच्चितं तच्च ललितं क्रीडितं पुलितं च-गतिविशेषः प्रसिद्ध एव विक्र
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व्याख्या- मश्च-विशिष्टं क्रमणं क्षेत्रलानमिति द्वंद्वस्तदेतत्प्रधाना विलासिता-विशेषेणोल्लासिता गतियॆस्ते तथा तेषां, क्वचिदिदं| ९ शतके प्रज़प्तिः
विशेषणमेवं दृश्यते-'चंचुच्चियललियपुलियचलचवलचंचलगईणं ति तत्र च च रितललितपुलितरूपा चलानां-अस्थि- | उद्देशः ३३ अभयदेवी- राणां सतां चञ्चलेभ्यः सकाशाच्चञ्चला-अतीवचटुला गतिर्येषां ते तथा तेषां 'हरिमेलमउलमल्लियच्छाण'ति हरिमेल- दीक्षा अया वृत्तिः२४ को-वनस्पतिविशेषस्तस्य मुकुलं-कुङमलं मल्लिका च-विचकिलस्तद्वदक्षिणी येषां, शुक्लाक्षाणामित्यर्थः, 'थासगअमिलाण
नुमतिः ॥४८॥
चामरगंडपरिमंडियकरीणं'ति स्थासका-दर्पणाकारा अश्वालङ्कारविशेषास्तैरम्लानचामरैर्गण्डैश्च-अमलिनचामरदण्डैः परिमण्डिता कटिर्येषां ते तथा तेषां, कचित्पुनरेवमिदं विशेषणमेवं दृश्यते-'मुहभंडगओचूलगथासगमिलाणचामरग|ण्डपरिमंडियकडीणं'ति तत्र मुखभाण्डक-मुखाभरणम् अवचूलाश्च-प्रलम्बमानपुच्छाः स्थासका:-प्रतीताः 'मिलाण'त्ति |पर्याणानि च येषां सन्ति ते तथा मत्वर्थीयलोपदर्शनात् ,चमरी(चामर)गण्डपरिमण्डितकटय इति पूर्ववत्,ततश्च कम्मेधारयोऽ | तस्तेषां, क्वचित्पुनरेवमिदं दृश्यते-थासगअहिलाणचामरगंडपरिमंडियकडीणं'ति तत्र तु अहिलाणं-मुखसंयमनं ततश्च 'थासगअहिलाण' इत्यत्र मत्वर्थीयलोपेनोत्तरपदेन सह कर्मधारयः कार्यः, तथा 'ईसिं दंताणं'ति 'ईषद्दान्तानां' | Bi मनाग्ग्राहितशिक्षाणां गजकलभानामिति योगः 'ईसिंउच्छंगउन्नयविसालधवलदंताणं'ति उत्सङ्गः-पृष्ठदेशः इषदुत्सङ्गे उन्नता विशालाश्च ये यौवनारम्भवर्तित्वात्ते तथा ते च ते धवलदन्ताश्चेति समासोऽतस्तेषां 'कंचणकोसीपविट्ठदतो-* ॥४८०॥ | वसोहियाणं'ति इह काश्चनकोशी-सुवर्णमयी खोला, रथवर्णकेतु 'सज्झयाणं सपडागाणं' इत्यत्र गरुडादिरूपयुक्तो ध्वजः 8 || तदितरा तु पताका 'सखिखिणीहेमजालपेरंतपरिक्खित्ताणं ति सकिङ्किणीकं-क्षुद्रघण्टिकोपेतं यद् हेमजालं-सुवर्ण-|
SESSSACHUSS
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| मयस्तदाभरणविशेषस्तेन पर्यन्तेषु परिक्षिप्ता ये ते तथा तेषां, 'सनंदिघोसाणं'ति इह नन्दीद्वादशतूर्यसमुदायः, तानि | चेमानि-"भंभा १ मउंद २ मद्दल ३ कडंब ४ झल्लरि ५ हुडुक्क ६ कंसाला ७ । काहल ८ तलिमा ९ वंसो १० संखो ११|| पणवो १२ य बारसमो ॥१॥” इति 'हेमवयचित्ततिणिसकणगनिजुत्तदारुगाणं'ति हैमवतानि-हिमवगिरिसम्भवानि | चित्राणि-विविधानि तैनिशानि-तिनिशाभिधानतरुसम्बन्धीनि कनकनियुक्तानि-सुवर्णखचितानि दारुकाणि-काष्ठानि येषु ते तथा तेषां, 'सुसंविद्धचक्कमंडलधाराण'ति सुष्ठु संविद्धानि चक्राणि मण्डलाश्च वृत्ता धारा येषां ते तथा तेषां 'सुसिलिट्ठचित्तमंडलधुराणं'ति क्वचिदृश्यते तत्र सुष्ठ संश्लिष्टाःचित्रवत्कुर्वत्यो मण्डलाश्च-वृत्ता धुरोयेषां ते तथा तेषां 'कालायससुकयनेमिजंतकम्माणं'ति कालायसेन-लोहविशेषेण सुष्टु कृतं नेमे:-चक्रमण्डनधाराया यन्त्रकर्म-बन्धनक्रिया येषां ते तथा तेषाम् 'आइन्नवरतुरगसुसंपउत्ताणं ति आकीर्णैः-जात्यैर्वरतुरगैः सुष्टु संप्रयुक्ता ये ते तथा तेषां 'कुसलनरच्छेयसारहिसुसंपग्गहियाणं ति कुशलनरैः-विज्ञपुरुषैश्छेकसारथिभिश्च-दक्षप्राजितृभिः सुष्टु संप्रगृहीता येते तथा तेषां 'सरसयबत्तीसतोणपरिमंडियाणं'ति शरशतप्रधाना ये द्वात्रिंशत्तोणा-भस्त्रकास्तैः परिमण्डिता येते तथा तेषां 'सकंकडवडेंसगाणं'ति सह कङ्कटैः-कवचैरवतंसकैश्च-शेखरकैः शिरस्त्राणैर्वा येते तथा तेषां 'सचावसरपहरणावरण
भरियजुद्धसज्जाणंति सह चापैः शरैश्च यानि प्रहरणानि-कुन्तादीनि आवरणानि च-स्फुरकादीनि तेषां भरिता युद्ध| सज्जाश्च-युद्धप्रगुणा ये ते तथा तेषां, शेषं तु प्रतीतार्थमेवेति । अथाधिकृतवाचनाऽनुश्रियते-'तयाणंतरं च णं बहवे | उग्गा' इत्यादि, तत्र 'उमा'आदिदेवेनारक्षकत्वे नियुक्तास्तद्वंश्याश्च भोगास्तेनैव गुरुत्वेन व्यवहृतास्तद्वंश्याश्च 'जहा
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४८१॥
| उववाइए 'त्ति करणादिदं दृश्यं - 'राइन्ना खत्तिया इक्खागा नाया कोरबा ' इत्यादि, तत्र 'राजन्याः' आदिदेवेनैव वयस्यतया | व्यवहृतास्तद्वंश्याश्च क्षत्रियाश्च प्रतीताः 'इक्ष्वाकवः' नाभेयवंशजाः 'ज्ञाताः ' इक्ष्वाकुवंशविशेषभूताः 'कोरव'त्ति कुरवः| कुरुवंशजाः, अथ कियदन्तमिदं सूत्रमिहाध्येयम् ? इत्याह- 'जाव महापुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते' त्ति वागुरा - मृगबन्धनं | वागुरेव वागुरा सर्वतः परिवारण साधर्म्यात् पुरुषाश्च ते वागुरा च पुरुषवागुरा महती चासौ पुरुषवागुरा च महापुरुषवागुरा तया परिक्षिप्ता ये ते तथा 'महआस' त्ति महाश्वाः किम्भूताः ? इत्याह- 'आसवरा' अश्वानां मध्ये वराः | 'आसवार'ति पाठान्तरं तत्र 'अश्ववाराः ' अश्वारूढपुरुषाः 'उभओ पासिं'ति उभयोः पार्श्वयोः 'नाग'त्ति नागा| हस्तिनः नागवरा - हस्तिनां प्रधानाः 'रहसंगेल्लि'त्ति रथसमुदायः 'अब्भुग्गयभिंगारे 'त्ति अभ्युद्गतः - अभिमुखमुत्पाटितो | भृङ्गारो यस्य स तथा 'पग्गहियतालियंटे' प्रगृहीतं तालवृन्तं यं प्रति स तथा 'ऊसवियसेयच्छत्ते' उच्छ्रितश्वेतच्छत्रः 'पवीइयसेयचामरवालवीयणीए' प्रवीजिता श्वेतचामरवालानां सत्का व्यजनिका यं अथवा प्रवीजिते' श्वेतचामरे वालव्यजनिके च यं स तथा, 'जहा उववाइए'त्ति करणादिदं दृश्यं - 'कामत्थिया भोगत्थिया' कामौ - शुभशब्दरूपे | भोगाः - शुभगन्धादयः 'लाभस्थिया' धनादिलाभार्थिनः 'इडिसिय'त्ति रूढिगम्याः 'किट्टिसिय'त्ति किल्बिषका | भाण्डादय इत्यर्थः, क्वचित् किट्टिसिकस्थाने 'किविसिय'त्ति पठ्यते 'कारोडिया' कापालिका: 'कारवाहिया कारं| राजदेयं द्रव्यं वहन्तीत्येवंशीलाः कारवाहिनस्त एव कारवाहिकाः करबाधिता वा 'संखिया' चन्दनगर्भशङ्खहस्ता माङ्ग| ल्यकारिणः शङ्खवादका वा 'चक्किया' चाक्रिका:- चक्रप्रहरणाः कुम्भकारादयो वा 'नंगलिया' गलावलम्बितसुवर्णादि
|
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९ शतके उद्देशः ३३ दीक्षायै अनुमतिः
सू. ३८५
॥४८१॥
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मयलाङ्गलप्रतिकृतिधारिणो भट्टविशेषाः कर्षका वा 'मुहमंगलिया'मुखे मङ्गलं येषामस्ति ते मुखमङ्गलिकाः-चाटुकारिणः 'वद्धमाणा' स्कन्धारोपितपुरुषाः 'पूसमाणवा' मागधाः 'इजिसिया पिंडिसिया घंटिय'त्ति क्वचिदृश्यते, तत्र च इज्यां-पूजामिच्छन्त्येषयन्ति वा ये ते इज्यैषास्त एव स्वार्थिकेकप्रत्ययविधानाद् इज्यैषिकाः, एवं पिण्डैषिका अपि, नवरं पिण्डो-भोजनं, घाण्टिकास्तु ये घण्टया चरन्ति तां वा वादयन्तीति, 'ताहिं'ति ताभिर्विवक्षिताभिरित्यर्थः, विवक्षितत्व| मेवाह-'इहाहिं' इष्यन्ते स्मेतीष्टास्ताभिः, प्रयोजनवशादिष्टमपि किश्चित्स्वरूपतः कान्तं स्यादकान्तं चेत्यत आह'कंताहिं' कमनीयशब्दाभिरित्यर्थः 'पियाहिं' प्रियार्थाभिः 'मणुन्नाहिं' मनसा ज्ञायन्ते सुन्दरतया यास्ता मनोज्ञा | भावतः सुन्दरा इत्यर्थः ताभिः 'मणामाहिं' मनसाऽम्यन्ते-ाम्यन्ते पुनः पुनर्याः सुन्दरत्वातिशयात्ता मनोऽमास्ताभिः 'ओरालाहिं' उदाराभिः शब्दतोऽर्थतश्च 'कल्लाणाहिं' कल्याणप्राप्तिसूचिकाभिः 'सिवाहिं' उपद्रवरहिताभिः शब्दार्थदूषणरहिताभिरित्यर्थः 'धन्नाहिं' धनलम्भिकाभिः 'मंगल्लाहिं' मङ्गले-अनर्थप्रतिघाते साध्वीभिः 'सस्सिरीयाहिं' शोभायुक्ताभिः 'हिययगमणिजाहिं' गम्भीरार्थतः सुबोधाभिरित्यर्थः 'हिययपल्हायणिज्जाहिं' हृदयगतकोपशोकादिग्रन्थिविलयनकरीभिरित्यर्थः 'मियमहरगंभीरगाहियाहिं मिता:-परिमिताक्षरा मधुरा:-कोमल शब्दाः गम्भीरामहाध्वनयो दुरवधार्यमप्यर्थ श्रोतॄन् ग्राहयन्ति यास्ता ग्राहिकास्ततः पदचतुष्टयस्य कर्मधारयोऽतस्ताभिः 'मियमहुरगंभीरसस्सिरीयाहिंति क्वचिद् दृश्यते, तत्र च मिताः अक्षरतो मधुराः शब्दतो गम्भीरा-अर्थतो ध्वनितश्च स्वश्रीःआत्मसम्पद् यासां तास्तथा ताभिः 'अट्ठसइयाहिं' अर्थशतानि यासु सन्ति ता अर्थशतिकास्ताभिः, अथवा सइ-बहु
AGRANGALORE
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(
५
॥४८॥
व्याख्याफलत्वं अर्थतःसइयाओ अट्ठसइयाओ'ताहिं अपुणरुत्ताहिं वग्गूहिं' वाग्भिीभिरेकाथिकानि वा प्राय इष्टादीनि
९ शतके प्रज्ञप्तिः | | वाग्विशेषणानीति 'अणवरयं' सन्ततम् 'अभिनंदता ये'त्यादि तु लिखितमेवास्ते, तत्र चाभिनन्दयन्तो-जय जीवेत्यादि उद्देशः ३१ अभयदेवी- |भणन्तोऽभिवृद्धिमाचक्षाणाः 'जय जयेत्याशीर्वचनं भक्तिसम्भ्रमे च द्विर्वचनं 'नंदा धम्मेणं ति 'नन्द' वर्द्धस्व धर्मेण दीक्षायै अया वृत्तिः२ एवं तपसाऽपि, अथवा जय जय विपक्षं, केन ?-धर्मेण हे नन्द ! इत्येवमक्षरघटनेति 'जय २ नंदा ! भई ते' जय त्वं हे
नुमतिः | जगन्नन्दिकर! भद्रं ते भवतादिति गम्यं 'जियविग्योऽविय'त्ति जितविघ्नश्च ‘वसाहि तं देव ! सिद्धिमज्झे'त्ति वस त्वं
सू ३८५ हे देव ! सिद्धिमध्ये देवसिद्धिमध्ये वा 'निहणाहि ये' त्यादि निर्घातय चरागद्वेषमल्लौ तपसा, कथम्भूतः सन् ? इत्याहधृतिरेव धनिकं अत्यर्थ बद्धा कक्षा [ कच्छोटा] येन स तथा, मल्लो हि मल्लान्तरजयसमर्थो भवति गाढबद्धकक्षः सन्नितिकृत्वोक्तं 'धिइधणिये'त्यादि, तथा 'अप्पमत्तो' इत्यादि, 'हराहि'त्ति गृहाण आराधना-ज्ञानादिसम्यक्पालना सैव
पताका जयप्राप्तनटग्राह्या आराधनापताका तां त्रैलोक्यमेव रङ्गमध्य-मल्लयुद्धद्रष्टुमहाजनमध्यं तत्र,'हंता परीसहचमूं'ति ला हत्वा परीषहसैन्यं, अथवा 'हन्ता' घातकः परीषहचम्वा इति विभक्तिपरिणामात् शीलार्थकतृन्नन्तत्वाद्वा हन्ता परी
पहचमूमिति 'अभिभविय'त्ति अभिभूय-जित्वा 'गामकंटकोवसग्गाणति इन्द्रियग्रामप्रतिकूलोपसर्गानित्यर्थः णं वाक्यालङ्कारे अथवा 'अभिभविता' जेता ग्रामकण्टकोपसर्गाणामिति, किंबहुना ?-'धम्मे ते' इत्यादि ॥ 'नयणमा-||8|
॥४८२॥ || लासहस्सेहिंति नयनमालाः- श्रेणीभूतजननेत्रपतयः एवं जहा उववाइए'त्ति अनेन यत्सूचितं तदिदं-'वयणमालासह स्सेहिं अभिथुवमाणे २ हिययमालासहस्सेहिं अभिनंदिजमाणे २' जनमनःसमूहैः समृद्धिमुपनीयमानो जय जीव नन्दे
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SSSSSSSS
त्यादिपर्यालोचनादिति भावः 'मणोरहमालासहस्सेहिं विच्छिप्पमाणे २ एतस्य पादमूले वत्स्याम इत्यादिभिर्जनवि| कस्पैर्विशेषेण स्पृश्यमान इत्यर्थः 'कंतिरूवसोहग्गजोधणगुणेहिं पत्थिन्जमाणे २' कान्त्यादिभिर्गुणैर्हेतुभूतैः प्रार्थ्यमानो भर्तृतया स्वामितया वा जनैरिति 'अंगुलिमालासहस्सेहिं दाइजमाणे २' 'दाहिणहत्थेणं बहूणं नरनारिसहस्साणं अंजलिमालासहस्साई पडिच्छेमाणे २भवणभित्ती(पन्ती)सहस्साई"समइच्छिमाणे २' समतिकामन्नित्यर्थः 'तंतीतलतालगीयवाइयरवेणं तन्त्री-वीणा तला:-हस्ताः ताला:-कांसिकाः तलताला वा-हस्ततालाःगीतवादिते-प्रतीते एषां यो रवः
स तथा तेन 'महुरेणं मणहरेणं' 'जय २ सहुग्घोसमीसएणं' जयेतिशब्दस्य यद् उद्घोषणं तेन मिश्रो यः स तथा तेन , ४ तथा 'मंजुमंजुणा घोसेणं' अतिकोमलेन ध्वनिना स्तावकलोकसम्बन्धिना नूपुरादिभूषणसम्बन्धिना वा 'अप्पडि-13
बुज्झमाणे'त्ति अप्रतिबुद्ध्यमानः-शब्दान्तराण्यनवधारयन् अप्रत्युह्यमानो वा-अनपहियमाणमानसो वैराग्यगतमानस|त्वादिति 'कंदरगिरिविवरकुहरगिरिवरपासादुद्धघणभवणदेवकुलसिंघाडगतिगचउक्कचचरआरामुजाणकाणणसभप्पवप्पदेसदेसभागे'त्ति कन्दराणि-भूमिविवराणि गिरीणां विवरकुहराणि-गुहाः पर्वतान्तराणि वा गिरिवरा:प्रधानपर्वताः प्रासादा:-सप्तभूमिकादयः ऊघनभवनानि-उच्चाविरलगेहानि देवकुलानि-प्रतीतानि शृङ्गाटकत्रिकचतु-| | कचत्वराणि प्राग्वत् आरामाः-पुष्पजातिप्रधाना वनखण्डाः उद्यानानि-पुष्पादिमब्रुक्षयुक्तानि काननानि-नगराद् दूरव
तीनि सभा-आस्थायिकाः प्रपा-जलदानस्थानानि एतेषां ये प्रदेशदेशरूपा भागास्ते तथा तान् , तत्र प्रदेशा-लघुतरा | | भागाः देशास्तु महत्तराः, अयं पुनर्दण्डकः क्वचिदन्यथा दृश्यते-'कंदरदरिकुहरविवरगिरिपायारट्टालचरियंदारगोउरपा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥४८॥
RSSHRSSSSS
सायदुवारभवणदेवकुलआरामुजाणकाणणसभपएस'त्ति प्रतीतार्थश्चायं, 'पडिसुयासयसहस्ससंकुले करेमाणे'त्ति प्रति
९शतक श्रुच्छतसहस्रसङ्घलान् प्रतिशब्दलक्षसङ्कुलानित्यर्थः कुर्वन् २ निर्गच्छतीति सम्बन्धः 'हयहेसियहत्थिगुलुगुलाइयरहघ
उद्देशः३३ णघणाइयसद्दमीसएणं महया कलकलरवेण य जणस्स सुमहुरेणं पूरेतोऽबरं समंता सुयंधवरकुसुमचुन्नउविद्धवासरेणुमइलं दीक्षायै अ| णभं करेंते' सुगन्धीनां-वरकुसुमानो चूर्णानां च 'उबिद्धः' ऊदंगतो यो वासरेणुः-वासकं रजस्तेन मलिनं यत्तत्तथा 'काला- नुमतिः | गुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवनिवहेण जीवलोगमिव वासयंते कालागुरुः-न्धद्रव्यविशेषःप्रवरकुन्दुरुक्कं वरचीडा तुरुक-||3|| सू ३८५ सिल्हकं धूपः-तदन्यः एतल्लक्षणो वा एषामतस्य वा यो निवहः स तथा तेन जीवलोकं वासयन्निवेति 'समंतओ खुभियचक्कवालं' क्षुभितानि चक्रवालानि-जनमण्डलानि यत्र गमने तत्तथा तद्यथा भवत्येवं निर्गच्छतीति सम्बन्धः 'पउरजणबालवुड्डपमुइयतुरियपहावियविउलाउलबोलबहुलं नभं करेंते' पौरजनाश्च अथवा प्रचुरजनाश्च बाला वृद्धाश्च | | ये प्रमुदिताः त्वरितप्रधाविताश्च-शीघ्रं गच्छन्तस्तेषां व्याकुलाकुलानां-अतिव्याकुलानां यो बोलः स बहुलो यत्र तत्तथा तदेवम्भूतं नभः कुर्वन्निति 'खत्तियकुंडग्गामस्स नगरस्त मज्झमझेणं'ति, शेषं तु लिखितमेवास्त इति ॥ 'पउमेइ वत्ति इह यावत्करणादिदं दृश्यं-'कुमुदेइ वा नलिणेइ वा सुभगेइ वा सोगंधिएइ वा' इत्यादि,एषां च भेदोरूढिगम्यः, कामेहिं जाए'त्ति कामेषु-शब्दादिरूपेषु जातः 'भोगेहिं संवुडे'त्ति भोगा-गन्धरसस्पर्शास्तेषु मध्ये संवृद्धो-वृद्धिमुपगतः 'नोवलिप्पइ काम
| ॥४८३॥ रएण'त्ति कामलक्षणं रजः कामरजस्तेन कामरजसा कामरतेन वा-कामानुरागेण 'मित्तनाई' इत्यादि, मित्राणि-प्रतीतानि | ज्ञातयः-स्वजातीयाः निजका-मातुलादयः स्वजनाः-पितृपितृव्यादयः सम्बन्धिनः-श्वशुरादयः परिजनो-दासादिः, इह |
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| समाहारद्वन्द्वस्ततस्तेन नोपलिप्यते - स्नेहतः सम्बद्धो न भवतीत्यर्थः 'हारवारि' इह यावत्करणादिदं दृश्यं - 'धारासिंदुवारच्छिन्नमुत्तावलिपयासाई अंसूणि'त्ति ॥ 'जइयां' ति प्राप्तेषु संयमयोगेषु प्रयत्नः कार्यः 'जाया !' हे पुत्र ! 'घडियवं' ति अप्राप्तानां संयमयोगानां प्राप्तये घटना कार्या 'परिक्कमियां' ति पराक्रमः कार्यः पुरुषत्वाभिमानः सिद्धफलः कर्त्तव्य इति भावः, किमुक्तं भवति १ - ' अस्सि चे 'त्यादि, अस्मिंश्चार्थे - प्रव्रज्यानुपालनलक्षणे न प्रमादयितव्यमिति, 'एवं जहा उसभदत्तो' इत्यनेन यत्सूचितं तदिदं - ' तेणामेव उवागच्छइ उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणं पया| हिणं पकरेइ २ वंदइ नमंसइ वंदित्ता नर्मसित्ता एवं वयासी-आलित्ते णं भंते ! लोए' इत्यादि, व्याख्यातं चेदं प्रागिति ।
तणं से जमाली अणगारे अन्नया कयाई जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवाग|च्छत्ता समणं भगवं महावीरं वंदति नम॑सति वंदित्ता २ एवं वयासी- इच्छामि णं भंते ! तुज्झेहिं अब्भणुनाए समाणे पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरित्तए, तए णं से समणे भगवं महा| वीरे जमालिस्स अणगारस्स एयमहं णो आढाइ णो परिजाणाइ तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं दोचंपि तचंपि एवं वयासी- इच्छामि णं भंते ! तुज्झेहिं अन्भणुन्नाए समाणे पंचहि अणगारसएहिं सद्धिं जाव विहरित्तए, तए णं समणे भगवं महावीरे जमालिस्स अणगारस्स दोचंपि | तच्चपि एयमहं णो आढाइ जाव तुसिणीए संचिट्ठइ । तए णं से जमाली अणगारे समणं भगवं महावीरं बंद
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९शतके उद्देश:३३ जमालेनिहवता सू ३८६
व्याख्या- से णमंसद वंदित्ता णमंसित्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ बहुसालाओ चेइयाओपडिनिक्खमइ प्रज्ञप्तिः
पडिनिक्खमित्ता पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं बहिया जणवयविहारं विहरइ, तेणं कालेणं तेणं समएणं सावअभयदेवीयावृत्तिः२
त्थीनामं णयरी होत्था वन्नओ, कोहए चेइए वन्नओ, जाव वणसंडस्स, तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम
है नयरी होत्था वन्नओ पुन्नभद्दे चेइए वन्नओ, जाव पुढविसिलावट्टओ । तए णं से जमाली अणगारे अन्नया है ॥४८४॥ कयाइ पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुत्वाणुपुत्विं चरमाणे गामाणुगामं दूइज्जमाणे जेणेव सावत्थी
नयरी जेणेव कोट्ठए चेइए तेणेव उवागच्छद तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हति अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हित्ता संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरइ । तए णं समणे भगवं महावीरे है अन्नया कयावि पुवाणुपुच्विं चरमाणे जाव सुहं सुहेणं विहरमाणे जेणेव चंपानगरी जेणेव पुन्नभद्दे चेइए तेणेव | उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता अहापडिरूवं उग्गहं उग्गिण्हति अहा० २ संजमेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरह ॥ तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स तेहिं अरसेहि य विरसेहि य अंतेहि य पंतेहि य लूहेहि |य तुच्छेहि य कालाइक्कतेहि य पमाणाइतेहि य सीतएहि य पाणभोयणेहिं अन्नया कयावि सरीरगंसि |विउले रोगातके पाउन्भूए उज्जले विउले पगाढे कक्कसे कडए चंडे दुक्खे दुग्गे तिव्वे दुरहियासे पित्तज्जरपरिगतसरीरे दाहवक्कंतिए यावि विहरइ । तए णं से जमाली अणगारे वेयणाए अभिभूए समाणे समणे णिग्गंथे सद्दावेद सहावेत्ता एवं वयासी-तुज्झे णं देवाणुप्पिया ! मम सेज्जासंथारगं संथरेह, तए णं ते
STOCOCCASSCR34
अहापडिरूवं जग्गा तहिं अरसेहि य वियणहिं अन्नया या पित्तजरप-8
॥४८४॥
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AMASSAGA335555
समणा णिग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमढे विणएणं पडिसुणेति पडिसुणेत्ता जमालिस्स अणगारस्स सेज्जासंथारगं संथति, तए णं से जमाली अणगारे बलियतरं वेदणाए अभिभूए समाणे दोचंपि समणे निग्गंथे सद्दावेइ २त्ता दोचंपि एवं वयासी-ममन्नं देवाणुप्पिया! सेज्जासंथारए किं कडे कजइ ?, एवं वुत्ते
समाणे समणा निग्गंथा विति-भो सामी! कीरइ, तए णं ते समणा निग्गंथा जमालिं अणगारं एवं वयासीमणो खलु देवाणुप्पियाणं सेज्जासंथारए कडे कजति, तए णं तस्स जमालिस्स अणगारस्स अयमेयारूवे अज्झ-2 थिए जाव समुप्पजित्था-जन्नं समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव एवं परूवेइ-एवं खलु चलमाणे चलिए उदीरिजमाणे उदीरिए जाव निजरिजमाणे णिजिन्ने तं णं मिच्छा इमं च णं पञ्चक्खमेव दीसइ सेजासंथारए कज्जमाणे अकडे संथरिजमाणे असंथरिए जम्हा णं सेज्जासंथारए कज्जमाणे अकडे संथरिजमाणे | असंथरिए तम्हा चलमाणेवि अचलिए जाव निजरिजमाणेवि अणिजिन्ने, एवं संपेहेइ एवं संपेहेत्ता समणे निग्गंथे सद्दावेइ समणे निग्गंथे सद्दावेत्ता एवं वयासी-जन्नं देवाणुप्पिया! समणे भगवं महावीरे एवं आइक्खइ जाव परूवेइ-एवं खलु चलमाणे चलिए तं चेव सवं जाव णिजरिजमाणे अणिज्जिन्ने । तए णं जमालिस्स अणगारस्स एवं आइक्खमाणस जाव परूवेमाणस्स अत्थेगइया समणा निग्गंथा एयमद्वं सद्दहंति पत्तियंति रोयंति अत्थेगइया समणा निग्गंथा एयमझु णो सद्दहंति ३, तत्थ णं जे ते समणा निग्गंथा जमालिस्स अणगारस्स एयमद्वं सद्दहति ३ ते णं जमालिं चेव अणगारं उवसंपज्जित्ताणं विहरंति, तत्थ णं जे ते
समणा निग्गंथा एमा
सहहति ३ ते णं जमाई णो सदहति
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९ शतके उद्देशः३३ | जमालेनि रुत्तरता सु ३८७
व्याख्या
समणा णिग्गथा जमालिस्स अणगारस्स एयमटुंणो सद्दहति णो पत्तियंतिणो रोयंति ते णं जमालिस्स अणप्रज्ञप्तिः
गारस्स अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमंति २ पुवाणुपुष्विं चरमाणे गामाणुगामं दूह. जेणेव | अभयदेवी- है चंपानयरी जेणेव पुन्नभद्दे चेइए जेणेव समणं भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २त्ता समणं भगवं महावीर या वृत्तिः२ मा |तिक्खुत्तो आयाहिणं पयाहिणं करेंति २त्ता वंदइ णमंसइ २ समणं भगवं महावीरं उवसंपज्जित्ता णं विह॥४८५॥
| रंति। (सूत्रं ३८६)तए णं से जमाली अणगारे अन्नया कयावि ताओ रोगायंकाओ विप्पमुक्के हहे तुट्टे जाए | अरोए बलियसरीरे सावत्थीओ नयरीओकोट्ठयाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ २ पुवाणुपुधिं चरमाणे गामाणुगाम दूइजमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव पुन्नभद्दे चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ |समणस्स भगवओ महावीरस्स अदूरसामंते ठिच्चा समणं भगवं महावीरं एवं वयासी-जहा णं देवाणु| प्पियाणं बहवे अंतेवासी समणा निग्गंथा छउमत्था भवेत्ता छउमत्थावक्कमणेणं अवकंता णो खलु अहं
तहा छउमत्थे भवित्ता छउमस्थावकमणेणं अवक्कमिए, अहन्नं उप्पन्नणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली |भवित्ता केवलिअवकमणेणं अवक्कमिए, तए णं भगवं गोयमे जमालिं अणगारं एवं वयासी-णो खलु जमा
ली ! केवलिस्स णाणे वा दंसणे वा सेलंसि वा थंभंसि वा थूभंसि वा आवरिजइ वा णिवारिज्जइ वा, जइ राणं तुम जमाली! उप्पन्नणाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली भवित्ता केवलिअवक्कमणेणं अवकंते तो णं इमाई
दो वागरणाई वागरेहि-सासए लोए जमाली ! असासए लोए जमाली ?, सासए जीवे जमाली! असासए
॥४८५
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जीवे जमाली?, तए णं से जमाली अणगारे भगवया गोयमेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए जाव कलससमावन्ने जाए यावि होत्था, णो संचाएति भगवओ गोयमस्स किंचिवि पमोक्खमाइक्खित्तए तुसिणीए संचिट्ठइ,जमालीतिसमणे भगवं महावीरे जमालिं अणगारं एवं वयासी-अस्थि णं जमालीममं बहवे अंतेवासी
समणा निग्गंथा छउमत्था जे णं एवं वागरणं वागरित्तए जहाणं अहं नो चेवणं एयप्पगारं भासं भासित्तए| ट्र जहा णं तुम, सासए लोए जमाली ! जन्न कयावि णासि ण कयावि ण भवति ण कदावि ण भविस्सइ भुविं |च भवइ य भविस्सइ य धुवे णितिए सासए अक्खए अवए अवट्टिए णिचे, असासए लोए जमाली ! जओ
ओसप्पिणी भवित्ता उस्सप्पिणी भवइ उस्सप्पिणी भवित्ता ओसप्पिणी भवइ, सासए जीवे जमाली! जं न कयाइ णासि जाव णिच्चे असासए जीवे जमाली जन्नं नेरइए भवित्ता तिरिक्खजोणिए भवइ तिरिक्खजोणिए भवित्ता मणुस्से भवइ मणुस्से भवित्ता देवे भवइ । तए णं से जमाली अणगारे समणस्स भगवओ महावीरस्स एवमाइक्खमणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयमढे णो सद्दहइ णो पत्तिएइ णो रोएइ एयमद्वं असद्दहमाणे अपत्तियमाणे अरोएमाणे दोचंपि समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ आयाए अवक्कमइ दोचंपि आयाए अवक्कमित्ता बहूहिं असम्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिणिवेसेहि य अप्पाणं च परं च तदुभयं च वुग्गाहमाणे वुप्पाएमाणे बहूयाई वासाई सामन्नपरियागं पाउणइ २ अद्धमासियाए संलेहणाए
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व्याख्या- |अत्ताणं झूसेइ अ० २ तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति २ तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालमासे कालं ९ शतके प्रज्ञप्तिः | किच्चा लंतए कप्पे तेरससागरोवमठितिएसु देवकिपिसिएसु देवेसु देवकिविसियत्ताए उववन्ने (सूत्रं० ३८७) उद्देशः ३३
जमालेनिअभयदेवी- 'नो आढाइ'त्ति नाद्रियते तत्रार्थे नादरवान् भवति 'नो परिजाणइत्तिन परिजानातीत्यर्थः भाविदोषत्वेनोपेक्षणीयत्वाया वृत्तिः२/४
रुत्तरता त्तस्येति ॥ 'अरसेहि य'त्ति हिमवादिभिरसंस्कृतत्वादविद्यमानरसैः 'विरसेहि यत्ति पुराणत्वाद्विगतरसैः 'अंतेहि यत्ति
सू ३८७ ॥४८६॥ अरसतया सर्वधान्यान्तवर्तिभिर्वल्लचणकादिभिः 'पंतेहि यत्ति तैरेव भुक्तावशेषत्वेन पर्युषितत्वेन वा प्रकर्षणान्तवर्ति
| त्वात्प्रान्तैः 'लूहेहि य'त्ति रूक्षैः 'तुच्छेहि यत्ति अल्पैः 'कालाइतेहि यत्ति तृष्णाबुभुक्षाकालाप्राप्तैः ‘पमाणाइ
कंतेहि यत्ति बुभुक्षापिपासामात्रानुचितैः 'रोगायंके' त्ति रोगो-व्याधिः स चासावातङ्कश्च-कृच्छ्रजीवितकारीति रोगादि|| तङ्कः 'उजले'त्ति उज्ज्वलो-विपक्षलेशेनाप्यकलङ्कितत्वात् 'तिउले'त्ति त्रीनपि मनःप्रभृतिकानर्थान् तुलयति-जयतीति |||
|त्रितुलः, क्वचिद्विपुल इत्युच्यते, तत्र विपुलः सकलकायव्यापकत्वात , 'पगाढे'त्ति प्रकर्षवृत्तिः 'ककसे त्ति कर्कशद्रव्य|मिव कक्केशोऽनिष्ट इत्यर्थः 'कडए'त्ति कटुक नागरादि तदिव यः स कदकोऽनिष्ट एवेति 'चंडेत्ति रौद्रः 'दुक्ख त्ति दुःखहेतुः 'दुग्गे'त्ति कष्टसाध्य इत्यर्थः 'तिवे'त्ति तीव्र-तिक्तं निम्बादिद्रव्यं तदिव तीव्रः, किमुक्तं भवति -'दुरहियासे'त्ति दुरधिसह्यः 'दाहवकंतिए'त्ति दाहो व्युत्क्रान्तः-उत्पन्नो यस्यासौ दाहव्युत्क्रान्तः स एव दाहव्युत्क्रान्तिकः || ॥४८६॥ | 'सेज्जासंथारगं'ति शय्यायै-शयनाय संस्तारकः शय्यासंस्तारकः ॥'बलियतरं'ति गाढतरं किं कडे कजइत्ति कि | निष्पन्न उत निष्पाद्यते', अनेनातीतकालनिर्देशेन वर्तमानकालनिर्देशेन च कृतक्रियमाणयोर्भेद उक्तः, उत्तरेऽप्येवमेव,
RELIMS-
तङ्कः 'उज्जले तिमइत्युच्यते, तत्र विपुलः सकलकायव्यायः स कटुकोऽनिष्ट
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तदेवं संस्तारककर्तृसाधुभिरपि क्रियमाणस्याकृततोक्ता, ततश्चासौ स्वकीयवचनसंस्तारककर्तृसाधुवचनयोर्विमर्शात् प्ररूपितवान्-क्रियमाणं कृतं यदभ्युपगम्यते तन्न सङ्गच्छते, यतो येन क्रियमाणं कृतमित्यभ्युपगतं तेन विद्यमानस्य करणक्रिया प्रतिपन्ना, तथा च बहवो दोषाः, तथाहि-यत्कृतं तक्रियमाणं न भवति, विद्यमानत्वाच्चिरन्तनघटवत् , अथ कृतमपि क्रियते ततः क्रियतां नित्यं कृतत्वात् प्रथमसमय इवेति, न च क्रियासमाप्तिर्भवति सर्वदा क्रियमाणत्वादादिसमय| वदिति, तथा यदि क्रियमाणं कृतं स्यात्तदा क्रियावैफल्यं स्वाद् अकृतविषय एव तस्याः सफलत्वात् , तथा पूर्वमसदेव भवदृश्यने इत्यध्यक्षविरोधश्च, तथा घटादिकार्यनिष्पत्तौ दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते, यतो नारम्भकाल एव घटादिकार्य दृश्यते नापि स्थासकादिकाले, किं तर्हि, तक्रियाऽवसाने, यतश्चैवं ततोन क्रियाकालेषु युक्त कार्य किन्तु क्रियाऽवसान एवेति, आह च भाष्यकार:-"जस्सेह कजमाणं कयंति तेणेह विजमाणस्स । करणकिरिया पवना तहा य बहुदोसपडिवत्ती॥१॥ कयमिह न कजमाणं तब्भावाओ चिरंतणघडोब । अहवा कयंपि कीरइ कीरउ निच्चं न य समत्ती । |॥२॥ किरियावेफलंपि य पुबमभूयं च दीसप हुंतं । दीसइ दीहो य जओ किरियाकालो घडाईणं ॥३॥ नारंभे चिय।
एक कार्य एव पटवलदेव
। १ यस्येह क्रियमाणं कृतमिति मतं तेनेह विद्यमानस्य करणक्रियाऽङ्गीकृता तथा च बहुदोषापत्तिः ॥ १॥ इह कृतं न क्रियमाणं तद्भावाचिरन्तनघट इव । अथवा कृतमपि चेक्रियते करोतु नित्यं न च समाप्तिः ॥ २ ॥ क्रियावैफल्यमपि च पूर्वमभूतं च भवदृश्यते ( दृष्टापलापः ) यतो घटादीनां क्रियाकालश्च दीर्घो दृश्यते ॥ ३ ॥ न चारम्भे
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व्याख्या•
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४८७॥
| दीसइ न सिवादद्धाइ दीसइ तदंते । तो नहि किरियाकाले जुत्तं कज्जं तदंतंमि ॥ ४ ॥” इति । 'अत्थेगइया समणा णिग्गंथा एयमहं णो सद्दहंति'त्ति ये च न श्रद्दधति तेषां मतमिदं - नाकृतं अभूतमविद्यमानमित्यर्थः क्रियते अभावात् खपुष्पवत्, यदि पुनरकृतमपि असदपीत्यर्थः क्रियते तदा खरविषाणमपि क्रियतामसत्त्वाविशेषात् अपि च-ये कृतकरण| पक्षे नित्यक्रियादयो दोषा भणितास्ते च असत्करणपक्षेऽपि तुल्या वर्त्तन्ते, तथाहि - नात्यन्तमसत् क्रियतेऽसद्भावात् खरविपाणमिव, अथात्यन्तासदपि क्रियते तदा नित्यं तत्करणप्रसङ्गः, न चात्यन्तासतः करणे क्रियासमाप्तिर्भवति, तथाऽत्यन्तासतः करणे क्रियावैफल्यं च स्यादसत्त्वादेव खरविषाणवत्, अथ च अविद्यमानस्य करणाभ्युपगमे नित्यक्रियादयो दोषाः कष्टतरका भवन्ति, अत्यन्ताभावरूपत्वात् खरविषाण इवेति, विद्यमानपक्षे तु पर्यायविशेषेणापर्ययणात् स्यादपि क्रियाव्यपदेशो यथाssकाशं कुरु, तथा च नित्यक्रियादयो दोषा न भवन्ति, न पुनरयं न्यायोऽत्यन्तासति खरविषाणादावस्तीति यच्चोक्तं- 'पूर्वमसदेवोत्पद्यमानं दृश्यत इति प्रत्यक्षविरोधः', तत्रोच्यते, यदि पूर्वमभूतं सद्भवदृश्यते तदा पूर्वमभूतं सद्भवत् कस्मात्त्वया खरविषाणमपि न दृश्यते, यश्च्चोक्तं- 'दीर्घः क्रियाकालो दृश्यते, तत्रोच्यते', प्रतिसमयमुत्पनानां परस्परेणेषद्विलक्षणानां सुबह्वीनां स्थासकोसादीनामारम्भसमयेष्वेव निष्ठानुयायिनीनां कार्यकोटीनां दीर्घः क्रियाकालो यदि दृश्यते तदा किमत्र घटस्यायातं १ येनोच्यते-दृश्यते दीर्घश्च क्रियाकालो घटादीनामिति, यच्चोक्तं- 'नारम्भएव दृश्यते' इत्यादि, तत्रोच्यते, कार्यान्तरारम्भे कार्यान्तरं कथं दृश्यतां पटारम्भे घटवत् १, शिवकस्थासकादयश्च कार्य१ दृश्यते ( घटादि ) न स्थास्काद्यद्धायां किन्तु तदन्ते ततः क्रियाकाले कार्यं न युक्तं युक्तम् तदन्त एव ॥ ४ ॥
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९ शतके उद्देशः ३३ कृतक्रियमाणता सू ३८७
॥४८७॥
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ला विशेषा घटस्वरूपा न भवन्ति, ततः शिवकादिकाले कथं घटो दृश्यतामिति ?, किंच-अन्त्यसमय एव घटः समारब्धः १,८
तत्रैव च यद्यसौ दृश्यते तदा को दोषः १, एवं च क्रियमाण एव कृतो भवति, क्रियमाणसमयस्य निरंशत्वात् , यदि च संप्रतिसमये क्रियाकालेऽप्यकृतं वस्तु तदाऽतिक्रान्ते कथं क्रियतां कथं वा एष्यति ?, क्रियाया उभयोरपि विनष्टत्वानुत्पन्नत्वेनासत्त्वादसम्बध्यमानत्वात् , तस्मात् क्रियाकाल एव क्रियमाणं कृतमिति, आह च-"थैराण मयं नाकयमभावओ कीरए खपुप्फंव । अहव अकयंपि कीरइ कीरउ तो खरविसाणंपि ॥१॥ निच्चकिरियाइ दोसा नणु तुल्ला असइ कहतरया वा । पुवमभूयं च न ते दीसइ किं खरविसाणंपि ? ॥२॥ पइसमउप्पन्नाणं परोप्परविलक्खणाण सुबहूणं । दीहो किरियाकालो जइ दीसइ किं च कुंभस्स ॥ ३ ॥ अन्नारंभे अन्नं किह दीसउ ? जह घडो पडारंभे । सिवगादओ न कुंभो किह दीसउ सो तदद्धाए? ॥४॥ अंते च्चिय आरद्धो जइ दीसइ तमि चेव को दोसो ? । अकयं च संपइ गए किहु कीरउ किह व एसंमि? ॥५॥” इत्यादि बहु वक्तव्यं तच्च विशेषावश्यकादवगन्तव्यमिति । 'छउमत्थावक्कमणेणं'ति छद्म
१ खपुष्पमिवाकृतं न क्रियतेऽभावादिति स्थविरमतम् । अथ चाकृतमपि क्रियते तदा खरविषाणमपि क्रियताम् ॥ १ ॥ नित्यक्रियादयो | दोषा ननु तुल्या असति कष्टतरका वा । खरविषाणमपि पूर्वमभूतं त्वया किं न दृश्यते ॥२॥ प्रतिसमयोत्पन्नानां सुबहूनां परस्परविल
क्षणानां क्रियाणां कालो दी| यदि दृश्यते कुम्भस्य किम् ? ॥३॥ अन्यारम्भेऽन्यत् कथं दृश्यताम् ! यथा पटारम्भे घटः । शिवकादयो न | कुम्भो दृश्यतां कथं स तत्काले !॥ ४ ॥ अन्त एव यद्यारब्धोऽन्त एव यदि दृश्यते को दोषः । वर्तमानेऽकृतं च चेत्कथं अतीते क्रियता ? कथं चैष्यति काले ! भविष्यति ॥ ५॥
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IRI
व्याख्यास्थानां सतामपक्रमणं-गुरुकुलान्निर्गमनं छद्मस्थापक्रमणं तेन, 'आवरिजईत्ति ईपनियते 'निवारिजईत्ति नितरां |
| ९ शतके प्रज्ञप्तिः वार्यते प्रतिहन्यत इत्यर्थः 'न कयाइ नासीत्यादि तत्र न कदाचिन्नासीदनादित्वात् न कदाचिन्न भवति सदैव भावात् है
उद्देशः ३३ अभयदेवी- ४ान कदाचिन्न भविष्यति अपर्यवसितत्वात् , किं तर्हि ?, भुविंचे'त्यादि ततश्चायं त्रिकालभावित्वेनाचलत्वाद् ध्रुवो मेर्वादि
| जमालिमया वृत्तिः २ वत् ध्रुवत्वादेव 'नियतः' नियताकारो नियतत्वादेव शाश्वतः प्रतिक्षणमप्यसत्त्वस्याभावात् शाश्वतत्त्वादेव 'अक्षयः'
रणं सू३८८
किल्बिषिनिर्विनाशः, अक्षयत्वादेवाव्ययः प्रदेशापेक्षया, अवस्थितो द्रव्यापेक्षया, नित्यस्तदुभयापेक्षया, एकार्था वैते शब्दाः। ૪૮૮ાા
काःसू३८९ । तएणं से भगवंगोयमे जमालिं अणगारं कालगयं जाणित्ता जेणेव समणेभगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ ते० २ समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पियाणं अंतेवासी कुसिस्से ४ जमालिणाम अणगारे से गं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा कहिं गए कहिं उववन्ने ?, गोय-||| मादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-एवं खलु गोयमा! ममं अंतेवासी कुसिस्से जमाली नाम से णं तदा मम एवं आइक्खमाणस्स ४ एयमटुंणो सद्दहइ ३ एयमटुं असद्दहमाणे ३ दोच्चपि ममं अंति-|| याओ आयाए अवक्कमइ २ बहूहिं असम्भावुन्भावणाहिं तं चेव जाव देवकिविसियत्ताए उववन्ने (सूत्रं ३८८)
कतिविहाणं भंते ! देवकिपिसिया पन्नत्ता?, गोयमा ! तिविहा देवकिचिसिया पण्णत्ता, तंजहा-तिपलि-12 || ओवमहिइया तिसागरोवमहिइया तेरससागरोवमहिइया, कहिणं भंते ! तिपलिओवमद्वितीया देवकि- ॥४८॥ बिसिया परिवसंति ?, गोयमा ! उप्पि जोइसियाणं हिहिं सोहम्मीसाणेसु कप्पेसु एत्थ णं तिपलिओवम
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SHRA
हिहिं लंतए भादाणेसुदेवतिया गणपडिणी
हिइया देवकिबिसिया परिवति । कहि णं भंते ! तिसागरोवमहिइया देवकिबिसिया परिवसंति ?, गोयमा! उपि सोहम्मीसाणाणं कप्पाणं हिहिं सणंकुमारमाहिंदेसु कप्पेसु एस्थ णं तिसागरोवमहिइया | देवकिबिसिया परिवसंति, कहि णं भंते ! तेरससागरोवमहिइया देवकिपिसिया देवा परिवसंति ?, गोयमा! | उप्पि बंभलोगस्स कप्पस्स हिडिं लंतए कप्पे एत्थ णं तेरससागरोवमद्विइया देवकिबिसिया देवा |परिवति । देवकिविसिया णं भंते! केसु कम्मादाणेसुदेवकिचिसियत्ताए उववत्तारो भवंति ?, गोयमा! जे इमे जीवा आयरियपडिणीया उवज्झायपडिणीया कुलपडिणीया गणपडिणीया संघपडिणीया आयरियउवज्झायाणं अयसकरा अवन्नकरा अकित्तिकरा बहूहिं असब्भावुभावणाहिं मिच्छत्ताभिनिवेसेहि य | अप्पाणं च ३ वुग्गाहेमाणा वुप्पाएमाणा बहई वासाइं सामनपरियागं पाउणंति पा०२तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकते कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवकिपिसिएसु देवकिचिसियत्ताए उववत्तारो भवंति, |तंजहा-तिपलिओवमट्टितीएसु वा तिसागरोवमद्वितीएसु वा तेरससागरोवमहितीएसु वा । देवकिबिसियाणं
भंते ! ताओ देवलोगाओ आउक्खएणं भवक्खएणं ठिइक्खएणं अणंतरं चयं चइत्ता कहिं गच्छंति कहिं | उववज्जति !, गोयमा ! जाव चत्तारि पंच नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवभवग्गहणाई संसारं अणुपरिय
|हित्सा तओ पच्छा सिज्झंति बुज्झंति जाव अंतं करेंति, अत्थेगइया अणादीयं अणवदग्गं दीहमद्धं चाउरंपतसंसारकंतारं अणुपरियइंति ॥ जमाली णं भंते! अणगारे अरसाहारे विरसाहारे अंताहारे लूहाहारे तुच्छा
ॐॐॐ25
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लोणं अणगारे अरसाहारीवी कम्हा णं भत ! HISTाए उववन्ने १,
व्याख्या- हारे अरसजीवी विरसजीवी जाव तुच्छजीवी उवसंतजीवी पसंतजीवी विवित्तजीवी ?, हंता गोयमा ।
|९ शतके प्रज्ञप्तिः जमाली णं अणगारे अरसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी । जति णं भंते ! जमाली अणगारे अर-8
उद्देशः३३ अभयदेवी
किल्बिषिसाहारे विरसाहारे जाव विवित्तजीवी कम्हा णं भंते ! जमाली अणगारे कालमासे कालं किच्चा लंतए या वृत्तिः२ कप्पे तेरससागरोवमहितिएसु देवकिपिसिएम देवेसु देवकिविसियत्ताए उववन्ने ?, गोयमा ! जमाली णं
जमाले ॥४८९॥ अणगारे आयरियपडिणीए उवज्झायपडिणीए आयरियउवज्झायाणं अयसकारए जाव वुप्पाएमाणे जाव बहूई संसारः
वासाई सामनपरियागं पाउणित्ता अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताई अणसणाए छेदेति तीसं०२ तस्स सू ३९० ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालमासे कालं किच्चा लंतए कप्पे जाव उववन्ने । (सूत्रं० ३८९) जमाली णं भंते ! देवे ताओ देवलोयाओ आउक्खएणं जाव कहिं उववजह?, गोयमा! चत्तारि पंच तिरिक्खजोणियमणुस्सदेवभवग्गहणाई संसारं अणुपरियट्टित्ता तओ पच्छा सिज्झिहिति जाव अंतं काहेति । सेवं भंते २त्ति ॥ |(सूत्रं० ३९०)॥ जमाली समत्तो ॥९।३३ ॥
'आयाए'त्ति आत्मना असम्भावुन्भावणाहिं'ति असद्भावानां-वितथार्थानामुद्भावना-उत्प्रेक्षणानि असद्भावोद्भावना४ स्ताभिः मिच्छत्ताभिनिवेसेहि यति मिथ्यात्वात-मिथ्यादर्शनोदयाद येऽभिनिवेशा-आग्रहास्ते तथा तैः 'बुग्गाहेमाणे'त्ति | ब्युदाहयन् विरुद्धग्रहवन्तं कुर्वन्नित्यर्थः 'वुप्पाएमाणे'त्ति व्युत्पादयन् दुर्विदग्धीकुर्वन्नित्यर्थः । 'केसु कम्मादाणेसुत्ति | केषु कर्महेतुषु सत्स्वित्यर्थः 'अजसकारगे'त्यादौ सर्वदिग्गामिनी प्रसिद्धिर्यशस्तत्प्रतिषेधादयशः, अवर्णस्त्वप्रसिद्धिमात्रम् ,
|॥४८९॥
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अकीर्तिः पुनरेकदिग्गामिन्यप्रसिद्धिरिति 'अरसाहारे'त्यादि, इह च 'अरसाहारे' इत्याद्यपेक्षया 'अरसजीवी त्यादि न पुनरुक्तं शीलादिप्रत्ययार्थेन भिन्नार्थत्वादिति, 'उवसंतजीवि'त्ति उपशान्तोऽन्तर्वृत्त्या जीवतीत्येवंशील उपशान्तजीवी, एवं प्रशान्तजीवी नवरं प्रशान्तो बहिवृत्त्या, 'विवित्तजीवित्ति इह विविक्तः रूयादिसंसक्तासनादिवर्जनत इति । अथ भगवता श्रीमन्महावीरेण सर्वज्ञत्वादमुं तद्व्यतिकरं जानताऽपि किमिति प्रवाजितोऽसौ ? इति, उच्यते, अवश्यम्भाविभा-14 वानां महानुभावैरपि प्रायो लयितुमशक्यत्वाद् इत्थमेव वा गुणविशेषदर्शनाद्, अमूढलक्षा हि भगवन्तोऽर्हन्तो न निष्प्रयोजनं क्रियासु प्रवर्तन्त इति ॥ नवमशते त्रयस्त्रिंशत्तम उद्देशकः समाप्तः ॥९॥३३॥
| अनन्तरोद्देशके गुरुप्रत्यनीकतया स्वगुणव्याघात उक्तश्चतुस्त्रिंशत्तमे तु पुरुषव्याघातेन तदन्यजीवव्याघात उच्यत इत्यैवंसंबद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव एवं वयासी-पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसं हणइ8 नोपुरिसं हणइ ?, गोयमा ! पुरिसंपि हणइ नोपुरिसेवि हणति, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ पुरिसंपि हणइ नोपुरिसेवि हणइ ?, गोयमा ! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं पुरिसं हणामि से णं एगं पुरिसं हणमाणे अणेगजीवा हणइ, से तेणटेणं गोयमा! एवं बुच्चइ पुरिसंपिहणइ नोपुरिसेवि हणति । पुरिसेणं भंते !! आसं हणमाणे किं आसं हणइ नोआसेवि हणइ ?, गोयमा ! आसंपि हणइ नोआसेवि हणइ, से केणटेणं
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RECENERS
९ शतके उद्देश:३४ पुरुषऋषि
वैरादि सू ३९१
व्याख्या- अट्ठो तहेव, एवं हत्थिं सीहं वग्धं जाव चिल्ललगं । पुरिसे णं भंते ! अन्नयरं तसपाणं हणमाणे किं अन्नयरं प्रज्ञप्तिः तसपाणं हणइ नोअन्नयरे तसपाणे हणइ ?, गोयमा ! अन्नयरंपि तसपाणं हणइ नोअन्नयरेवि तसे पाणे अभयदेवी
हणइ, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ अन्नयरंपि तसं पाणं नोअन्नयरेवि तसे पाणे हणइ ?, गोयमा ! तस्स णं या वृत्तिः२
एवं भवइ एवं खलु अहं एगं अन्नयरं तसं पाणं हणामि से णं एगं अन्नयरं तसं पाणं हणमाणे अणेगे जीवे ॥४९०॥
हणइ, से तेण?णं गोयमा ! तं चेव एए सवेवि एक्कगमा । पुरिसेणं भंते ! इसिं हणमाणे किं इसिं हणइ नोइसिं हणइ १, गोयमा ! इसिंपि हणइ नोइसिपि हणइ, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव नोइसिंपि हणइ ?, गोयमा! तस्स णं एवं भवइ एवं खलु अहं एगं इसिंहणामि, से णं एग इसिं हणमाणे अणंते जीवे हणइ से तेण?णं निक्खेवओ। पुरिसे णं भंते ! पुरिसं हणमाणे किं पुरिसवेरेणं पुढे नोपुरिसवेरेणं पुढे ?, गोयमा । | नियमा ताव पुरिसवेरेणं पुढे अहवा पुरिसवेरेण यणोपुरिसवरेण य पुढे अहवा पुरिसवेरेण य नोपुरिसवेरेहि
य पुढे, एवं आसं एवं जाव चिल्ललगं जाव अहवा चिल्ललगवेरेण य णो चिल्ललगवेरेहि य पुढे, पुरिसे वाणं भंते । इसिं हणमाणे किं इसिवेरेणं पुढे नोइसिवेरेणं ?, गोयमा ! नियमा इसिवरेण य नोइसिवेरेहि य| पुढे॥ (सूत्रं० ३९१)
'तेणमित्यादि, 'नोपुरिसं हणइ'त्ति पुरुषव्यतिरिक्तं जीवान्तरं हन्ति 'अणेगे जीवे इणइति 'अनेकान् जीवान'। काशतपदिकाकृमिगण्डोलकादीन् तदाश्रितान् तच्छरीरावष्टब्धांस्तदुधिरप्लावितादींश्च हन्ति, अथवा स्वकायस्याकुश्च
॥४९॥
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नप्रसरणादिनेति, 'छणइत्ति क्वचित्पाठस्तत्रापि स एवार्थः, क्षणधातोहिसार्थत्वात् , बाहुल्याश्रयं चेदं सूत्रं, तेन पुरुष नन् | तथाविधसामग्रीवशात् कश्चित्तमेव हन्ति कश्चिदेकमपि जीवान्तरं हन्तीत्यपि द्रष्टव्यं, वक्ष्यमाणभङ्गकत्रयान्यथाऽनुपपतेरिति, 'एते सत्वे एकगमा' 'एते' हस्त्यादयः 'एकगमाः' सदृशाभिलापाः 'इसिंति ऋषिम् 'अणंते जीवे हणइ'त्ति ऋषि नन्ननन्तान् जीवान् हन्ति, यतस्तघातेऽनन्तानां घातो भवति, मृतस्य तस्य विरतेरभावेनानन्तजीवघातकत्वभावात् , अथवा ऋषिजीवन बहून् प्राणिनः प्रतिबोधयति, ते च प्रतिबुद्धाः क्रमेण मोक्षमासादयन्ति, मुक्ताश्चानन्तानामपि | संसारिणामघातका भवन्ति, तद्वधे चैतत्सर्वं न भवत्यतस्तद्वधेऽनन्तजीववधो भवतीति, 'निक्खेवओ'त्ति निगमनं । 'नियमा पुरिसवेरेणे त्यादि, पुरुषस्य हतत्वान्नियमात्पुरुषवधपापेन स्पृष्ट इत्येको भङ्गः, तत्र च यदि प्राण्यन्तरमपि हतं तदा पुरुषवरेण नोपुरुषवैरेण चेति द्वितीयः, यदि तु बहवः प्राणिनो हतास्तत्र तदा पुरुषवैरेण नोपुरुषवैरैश्चेति तृती| यः, एवं सर्वत्र त्रयम् , ऋषिपक्षे तु ऋषिवैरेण नोऋषिवैरैश्चेत्येवमेक एव, ननु यो मृतो मोक्षं यास्यत्यविरतो न भविष्यति | तस्यर्षेर्वधे ऋषिवैरमेव भवत्यतः प्रथमविकल्पसम्भवः, अथ चरमशरीरस्य निरुपक्रमायुष्कत्वान्न हननसम्भवस्ततोऽचरमशरीरापेक्षया यथोक्तभङ्गकसम्भवो, नैवं, यतो यद्यपि चरमशरीरो निरुपक्रमायुष्कस्तथाऽपि तद्वधाय प्रवृत्तस्य यमुनराजस्येव वैरमस्त्येवेति प्रथमभङ्गकसम्भव इति, सत्यं, किन्तु यस्य ऋषः सोपक्रमायुष्कत्वात् पुरुषकृतो वधो भवति तमा-| श्रित्येदं सूत्रं प्रवृत्तं, तस्यैव हननस्य मुख्यवृत्त्या पुरुषकृतत्वादिति ॥प्राग् हननमुक्तं, हननं चोच्छासादिवियोगोऽत उच्छासादिवक्तव्यतामाह
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PMकाइयं वाउक्काइयं एव आउक्काइयं चेव जावणस्सइकाइए काममाणे वा पर्व इचेषण भते पुढविकाइयं आणित : युद्धविकाइयं चेव आणकिरिए सिय पंचकि
पुढविकाइया णं भंते ! पुढविकायं चेव आणमंति वा पाणमंति वा ऊससंति वा नीससंति वा ?, हता व्याख्या
९ शतके प्रज्ञप्तिः गोयमा ! पुढविक्काइए पुढविकाइयं चेव आणमंति वा जावनीससंति वा । पुढवीकाइएणं भंते ! आउक्काइयं
| उद्देशः३४ अभयदेवी- आणमंति वा जाव नीससंति ?, हंता गोयमा ! पुढविक्काइए आउक्काइयं आणमंति वा जाव नीससंति वा, पृथ्व्यादीपा वृत्तिः२ मा एवं तेउकाइयं वाउक्काइयं एवं वणस्सइयं । आउक्काइए णं भंते ! पुढवीकाइयं आणमंति वा पाणमंति वा ?, नामुच्छ्वासः || एवं चेव, आउक्काइए णं भंते ! आउक्काइयं चेव आणमंति वा?, एवं चेव, एवं तेउवाऊवणस्सइकाइयं । तेऊ
सू ३९२ ॥४९॥ काइए णं भंते ! पुढविक्काइयं आणमंति वा ?, एवं जाव वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आण
वातावृक्षच मंति वा तहेव । पुढविक्काइए णं भंते ! पुढविकाइयं चेव आणममाणे वा पाणममाणे वा ऊससमाणे वा नीस
लनादौ कि|४|| समाणे वा कइकिरिए ?, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए, पुढविक्काइए णंभंते !||pi
याःसू३९३ आउक्काइयं आणममाणे वा०? एवं चेव एवं जाव वणस्सइकाइयं, एवं आउकाइएणवि सवेवि भाणियबा, एवं तेउक्काइएणवि, एवं वाउकाइएणवि, जाव वणस्सइकाइए णं भंते ! वणस्सइकाइयं चेव आणममाणे वा ? पुच्छा, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए ॥ (सूत्रं० ३९२) वाउक्काइए णं भंते ! रुक्खस्स मूलं पचालेमाणे वा पवाडेमाणे वा कतिकिरिए ?, गोयमा ! सिय तिकिरिए सिय चउकिरिए सिय पंचकिरिए । एवं कंदं एवं जाव मूलं बीयं पचालेमाणे वा पुच्छा, गोयमा! सियतिकिरिए सिय चउकि
॥४९॥ ||रिए सिय पंचकिरिए । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति (सूत्रं० ३९३)॥ नवमं सयं समत्तं ॥९॥ ३४ ॥
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'पुढविक्काइए णं भंते' इत्यादि, इह पूज्यव्याख्या यथा वनस्पतिरन्यस्योपर्यन्यः स्थितस्तत्तेजोग्रहणं करोति एवं पृथिवीकायिकादयोऽप्यन्योऽन्यसंबद्धत्वात्तत्तद्रूपं प्राणापानादि कुर्वन्तीति, तत्रैकः पृथिवीकायिकोऽन्यं स्वसंबद्धं पृथिवीकायिकम् अनिति-तद्रूपमुच्छासं करोति, यथोदरस्थितकर्पूरः पुरुषः कर्पूरस्वभावमुच्छासं करोति, एवमप्कायादिकानिति, ४ एवं पृथिवीकायिकसूत्राणि पञ्च, एवमेवाप्कायादयः प्रत्येकं पञ्च सूत्राणि लभन्त इति पञ्चविंशतिः सूत्राण्येतानीति । क्रिया
सूत्राण्यपि पञ्चविंशतिस्तत्र 'सिय तिकिरिए'त्ति यदा पृथिवीकायिकादिः पृथिवीकायिकादिरूपमुच्छ्रासं कुर्वन्नपि न तस्य | पीडामुत्पादयति स्वभावविशेषात्तदाऽसौ कायिक्यादित्रिक्रियः स्यात् , यदा तु तस्य पीडामुत्पादयति तदा पारितापनिकीक्रियाभावाच्चतुष्क्रियः, प्राणातिपातसद्भावे तु पञ्चक्रिय इति ॥ क्रियाधिकारादेवेदमाह-'वाउक्काइए 'मित्यादि, इह च वायुना वृक्षमूलस्य प्रचलनं प्रपातनं वा तदा संभवति यथा नदीभित्त्यादिषु पृथिव्या अनावृत्तं तत्स्यादिति । अथ कथं प्रपातेन त्रिक्रियत्वं परितापादेः सम्भवात् , उच्यते, अचेतनमूलापेक्षयेति ॥ नवमशते चतुस्त्रिंशत्तमः॥९॥३४॥ अस्मन्मनोव्योमतलप्रचारिणा, श्रीपार्श्वसूर्यस्य विसप्पितेजसा। दुधृष्यसंमोहतमोऽपसारणाद् ,विभक्तमेवं नवमं शतं मया १
॥ समाप्तं नवमं शतम् ॥९॥ ॥ इति श्रीमभयदेवसूरिविरचितवृत्तियुतं नवमं शतकं समाप्तं ॥
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥ ४९२ ॥
व्याख्यातं नवमं शतम्, अथ दशमं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसम्बन्धः - अनन्तरशते जीवादयोऽर्थाः प्रतिपादिताः इहापि त एव प्रकारान्तरेण प्रतिपाद्यन्ते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्यो देशकार्थसङ्ग्रहगाधेयम् -
दिसि १ संवुड अणगारे २ आयडी ३ सामहत्थि ४ देवि ५ सभा ६ । उत्तर अंतरदीवा २८ दसमंमि सयंमि चोत्तीसा ॥ ३४ ॥
'दिसे' त्यादि, 'दिस 'ति दिशमाश्रित्य प्रथम उद्देशकः १ 'संवुडअणगारे 'त्ति संवृतानगारविषयो द्वितीयः २ 'आईडिति आत्म देवो देवी वा वासान्तराणि व्यतिक्रामेदित्याद्यर्थाभिधायकस्तृतीयः ३ 'सामह स्थि त्ति श्यामहस्त्य| भिधानश्रीमन्महावीरशिष्यप्रश्नप्रतिबद्धश्चतुर्थः ४ 'देवि 'त्ति चमराद्यग्रमहिषीप्ररूपणार्थः पञ्चमः ५ 'सभ'त्ति सुधर्मसभाप्रतिपादनार्थः षष्ठः ६ 'उत्तरअंतरदीवि' ति उत्तरस्यां दिशि येऽन्तरद्वीपास्तत्प्रतिपादनार्था अष्टाविंशतिरुद्देशकाः, एवं चादितो दशमे शते चतुखिंशदुद्देशका भवन्तीति ॥
1
राग जाव एवं वयासी - किमियं भंते ! पाईणन्ति पचई १, गोयमा ! जीवा चेव अजीवा चेव, किमियं भंते ! पडीणाति पहुचई १, गोयमा ! एवं वेब एवं दाहिणा एवं उदीणा एवं उडा एवं अहोवि । कति णं भंते! दिसाओ पण्णत्ताओ ?, गोयमा । दस दिसाओ पण्णत्ताओ, तंजहा - पुरच्छिमा १ पुरच्छिमदाहिणा २ दाहिणा ३ दाहिणपञ्चस्थिमा ४ पञ्चस्थिमा ५ पञ्चस्थिमुत्तरा ६ उत्तरा ७ उत्तरपुरच्छिमा ८ उहा ९ अहो १० । एवासि णं भंते । दसन्हं दिसाणं कति णामभेजा पण्णत्ता १, गोयमा ! दस नामधेजा पण्णत्ता, संजहा
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१० शतके उद्देशः १ दिगधिका
रः सू ३९४
॥४९२॥
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ईदा १ अग्गेयी २ जमा य३ नेरती ४ वारुणी ५ वायवा ६ सोमा ७ ईसाणीय ८ विमला य ९तमा य १० बोद्धचा । इंदा णं भंते ! दिसा किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा ?, गो. यमा ! जीवावि ३ तं चेव जाव अजीवपएसावि, जे जीवा ते नियमा एगिदिया बेइंदिया जाव पंचिंदिया | अणिंदिया, जे जीवदेसा ते नियमा एगिदियदेसा जाव अणिदियदेसा, जे जीवपएसा ते एगिदियपएसा बेईदियपएसा जाव अणिंदियपएसा, जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूवी अजीवा य अरूवी अजीवाय,
जे रूवी अजीवा ते चउविहा पन्नत्ता, तंजहा-खंधा १ खंधदेसा २ खंधपएसा ३ परमाणुपोग्गला ४, जे अरूहैवी अजीवा ते सत्तविहा पन्नत्ता, तंजहा-नोधम्मस्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा नो
अधम्मत्थिकाए अधम्मत्थिकायस्स देसे अधम्मत्थिकायस्स पएसा नोआगासत्थिकाए आगासत्थिकायस्स देसे आगासस्थिकायस्स पएसा अडासमए ॥ अग्गेई णं भंते! दिसा किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा? पुच्छा, | गोयमा ! णो जीवा जीवदेसावि १ जीवपएसावि २ अजीवावि १ अजीवदेसावि २ अजीवपएसावि ३, जे जीवदेसा ले नियमा एगिंदियदेसा अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियस्स देसे १ अहवा एगिदियदेसा य बेईदियस्स देसा २ अहवा एगिदियदेसा य इंदियाण य देसा ३ अहवा एगिदियदेसा तेइंदियस्स देसे एवं चेव तियभंगो भाणियचो एवं जाव अणिंदियाणं तियभंगो, जे जीवपएसा ते नियमा एगिदियपएसा अहवा एगिदियपएसा य बेइंदियस्स पएसा अहवा एगिदियपदेसा य इंदियाण य पएसा एवं आइल्लविरहिओ
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व्याख्या- जाव अणिदियाणं, जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूविअजीवा य अरूवीअजीवा य जे रूवी अजीवा १० शतके प्रज्ञप्तिः
ते चउबिहा पन्नत्ता, तंजहा-खंधा जाव परमाणुपोग्गला ४, जे अरूवी अजीवा ते सत्तविहा पन्नत्ता, तंजहाअभयदेवी
उद्देशः१ नो धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स देसे धम्मत्थिकायस्स पएसा एवं अधम्मत्थिकायस्सवि जाव आगास
दिगादौ या वृत्तिः२
जीवादिः थिकायस्स पएसा अद्धासमए । विदिसासु नत्थि जीवा देसे भंगो य होइ सवत्थ । जमा णं भंते ! दिसा
सू ३९४ ॥४९॥
दकिं जीवा जहा इंदा तहेव निरवसेसा नेरई य जहा अग्गेयी वारुणी जहा इंदा वायवा जहा अग्गेयी सोमा
जहा इंदा ईसाणी जहा अग्गेयी, विमलाए जीवा जहा अग्गेयी, अजीवा जहा इंदा, एवं तमाएवि, नवरं | अरूवी छविहा अद्धासमयो न भन्नति ॥ (सूत्रं ३९४) | 'किमियं भंते ! पाईणत्ति पवुच्चइ'त्ति किमेतद्वस्तु यत् प्रागेव प्राचीनं दिगविवक्षायां 'प्राची वा'प्राची पूर्वेति प्रोच्यते, उत्तरं तु जीवाश्चैव अजीवाश्चैव, जीवा-जीवरूपा प्राची, तत्र जीवा-एकेन्द्रियादयः अजीवास्तु-धर्मास्तिकाया-||६| दिदेशादयः, इदमुक्तं भवति-प्राच्यां दिशि जीवा अजीवाश्च सन्तीति । 'इंदे'त्यादि, इन्द्रो देवता यस्याः सैन्द्री 'अग्निदेवता यस्याः साऽऽग्नेयी, एवं यमो देवता, याम्या नितिर्देवता नैर्ऋती वरुणो देवता वारुणी वायुर्देवता वायव्या सोम-I||॥४९॥ | देवता सौम्या ईशानदेवता ऐशानी विमलतया विमला तमा-रात्रिस्तदाकारत्वात्तमाऽन्धकारेत्यर्थः, अत्र ऐन्द्री पूर्वी शेषाः || क्रमेण, विमला तुर्की तमा पुनरधोदिगिति, इह च दिशःशकटोद्धिसंस्थिताः विदिशस्तु मुक्तावल्याकाराः ऊध्वाधोदिशौ च
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E
रुचकाकारे, आह च-"सगडुद्धिसंठियाओ महादिसाओ हवंति चत्तारि । मुत्तावलीव चउरो दो चेव य होति रुयगनिभेट
॥१॥” इति । 'जीवावी'त्यादि, ऐन्द्री दिग् जीवा तस्यां जीवानामस्तित्वात् , एवं जीवदेशा जीवप्रदेशाश्चेति, तथाऽ४जीवांनां पुद्गलादीनामस्तित्वादजीवाः धर्मास्तिकायादिदेशानां पुनरस्तित्वादजीवदेशाः एवमजीवप्रदेशा अपीति, तत्र ये||3||
जीवास्त एकेन्द्रियादयोऽनिन्द्रियाश्च केवलिनः, ये तु जीवदेशास्त एकेन्द्रियादीनाम् ६, एवं जीवप्रदेशा अपि, 'जे अरूवी अजीवा ते सत्तविह'त्ति, कथं ?, नोधम्मत्थिकाए, अयमर्थः-धर्मास्तिकायः समस्त एवोच्यते, स च प्राचीदिग् न भवति, | तदेकदेशभूतत्वात्तस्याः, किन्तु धर्मास्तिकायस्य देशः, सा तदेकदेशभागरूपेति १, तथा तस्यैव प्रदेशाः सा भवति, अस
येयप्रदेशात्मकत्वात्तस्याः २, एवमधर्मास्तिकायस्य देशः प्रदेशाश्च ३-४, एवमाकाशास्तिकायस्यापि देशः प्रदेशाश्च ५-६, | अद्धासमयश्चेति ७, तदेवं सप्तप्रकारारूप्यजीवरूपा ऐन्द्री दिगिति ॥ 'अग्गेयी ण'मित्यादिप्रश्नः, उत्तरे तु जीवा निषेधनीयाः, विदिशामेकप्रदेशिकत्वादेकप्रदेशे च जीवानामवगाहाभावात् , असङ्ख्यातप्रदेशावगाहित्वात्तेषां, तत्र 'जे जीव-1 देसा ते नियमा एगिंदियदेस'त्ति एकेन्द्रियाणां सकललोकव्यापकत्वादाग्नेय्यां नियमादेकेन्द्रियदेशाः सन्तीति, | "अहवे'त्यादि, एकेन्द्रियाणां सकललोकव्यापकत्वादेव द्वीन्द्रियाणां चाल्पत्वेन क्वचिदेकस्यापि तस्य सम्भवादुच्यते एके४न्द्रियाणां देशाश्च द्वीन्द्रियस्य देशश्चेति द्विकयोगे प्रथमः, अथवैकेन्द्रियपदं तथैव द्वीन्द्रियपदे त्वेकवचनं देशपदे पुनर्बहुवचनमिति द्वितीयः, अयं च यदा द्वीन्द्रियो व्यादिभिर्देशैस्तां स्पृशति तदा स्यादिति, अथवैकेन्द्रियपदं तथैव द्वीन्द्रियपदं
१ शकटोद्धिसंस्थिताश्चतस्रो महादिशो भवन्ति चतस्रो मुक्तावलीव द्वे च रुचकनिभे भवतः ॥१॥ (ऊर्धाधोदिशौ)
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥४९४॥
| देशपदं च बहुवचनान्तमिति तृतीयः, स्थापना - 'एगिं०देसा ३ बेई १ देसे एगिं०देसा ३ बेई १ देसा ३ एगिं०देसा ३ बेई० ३ देसा ३ |' एवं त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियपञ्चेन्द्रियानिन्द्रियैः सह प्रत्येकं भङ्गकत्रयं दृश्यम् एवं प्रदेशपक्षोऽपि वाच्यो, नवरमिह द्वीन्द्रियादिषु प्रदेशपदं बहुवचनान्तमेव, यतो लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियवर्जजीवानां यत्रैकः प्रदेशस्तत्रासङ्ख्यातास्ते भवन्ति, लोकव्यापकावस्थानिन्द्रियस्य पुनर्यद्यप्येकत्र क्षेत्रप्रदेशे एक एव प्रदेशस्तथाऽपि तत्प्रदेशपदे बहुवचनमेवाग्नेय्यां तत्प्र| देशानामसङ्ख्यातानामवगाढत्वाद्, अतः सर्वेषु द्विकयोगेष्वाद्य विरहितं भङ्गकद्वयमेव भवतीत्येतदेवाह - 'आइल्लविरहिओ' - त्ति द्विकभङ्ग इति शेषः । 'विमलाए जीवा जहा अग्गेईए'त्ति विमलायामपि जीवानामनवगाहात् 'अजीवा जहा | इंदाए' त्ति समानवक्तव्यत्वात्, 'एवं तमावि'त्ति विमलावत्तमाऽपि वाच्येत्यर्थः, अथ विमलायामनिन्द्रियसम्भवात्तद्देशादयो युक्तास्तमायां तु तस्यासम्भवात्कथं ते ? इति उच्यते, दण्डाद्यवस्थं तमाश्रित्य तस्य देशो देशाः प्रदेशाश्च विव क्षायां तत्रापि युक्ता एवेति । अथ तमायां विशेषमाह-'नवर' मित्यादि, 'अडासमयो न भन्नइति समयव्यवहारो | हि सचरिष्णु सूर्यादिप्रकाशकृतः, स च तमायां नास्तीति तत्राद्धासमयो न भण्यत इत्यर्थः । अथ विमलायामपि नास्त्य - | साविति कथं तत्र समयव्यवहारः ? इति उच्यते, मन्दरावयवभूतस्फटिककाण्डे सूर्यादिप्रभासङ्क्रान्तिद्वारेण तत्र सञ्चारि| ष्णु सूर्यादिप्रकाशभावादिति । अनन्तरं जीवादिरूपा दिशः प्ररूपिताः, जीवाश्च शरीरिणोऽपि भवन्तीति शरीरप्ररूपणायाह-कति ! सरीरा पता ?, गोयमा ! पंच सरीरा पनन्ता, संजहा- ओरालिए जाव कम्मए । ओरालि
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१० शतके उद्देशः १ दिगादौ जीवादिः
सू ३९४
॥४९४॥
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1%ARSA
१० शतक उद्देशः शरीराषि. सू ३९५
यसरीरे णं भंते ! कतिविहे पन्नते ?, एवं ओगाहणसंठाणं निरवसेसं भाणियत्वं जाव अप्पाबहगंति । सेवं भंते ! सेवं भंतेसि (सूत्रं० ३९५) दसमे सए पढमो उद्देसो समत्तो ॥१०॥१॥ | 'कइ णं भंते! इत्यादि, 'ओगाहणसंठाणं'ति प्रज्ञापनायामेकविंशतितमं पदं, तच्चैव-पंचविहे पन्नत्ते, तंजहा-एगि
दियओरालियसरीरे जाव पंचिंदियओरालियसरीरे' इत्यादि, पुस्तकान्तरे त्वस्य सङ्ग्रहगाथोपलभ्यते, सा चेयम्-"का४संठाणपमाणं पोग्गलचिणणा सरीरसंजोगो । दवपएसप्पबहुं सरीरओगाहणाए या ॥१॥" तत्र च कतीति कति शरीरा
णीति वाच्यं, तानि पुनरौदारिकादीनि पञ्च, तथा संठाणं'ति औदारिकादीनां संस्थानं वाच्यं, यथा नानासंस्थानमौदारिकं, तथा 'पमाण'ति एषामेव प्रमाण वाच्यं, यथा-औदारिक जघन्यतोऽङ्गलासङ्ख्येयभागमात्रमुत्कृष्टतस्तु सातिरेकयोजनसहनमानं, तथैषामेव पुद्गलचयो वाच्यो, यथौदारिकस्य निर्व्याघातेन षट्सु दिक्षु व्याघातं प्रतीत्य स्यात्रिदिशीत्यादि, तथैषामेव संयोगो वाच्यो, यथा यस्यौदारिकशरीरं तस्य वैक्रियं स्यादस्तीत्यादि, तथैषामेव द्रव्यार्थप्रदेशार्थतयाऽल्पबहुत्वं वाच्यं, यथा 'सबत्थोवा आहारगसरीरा दचठ्ठयाए' इत्यादि, तथैषामेवावगाहनाया अल्पबहुत्वं वाच्यं, यथा 'सबत्थोवा ओरालियसरीरस्स जहन्निया ओगाहणा'इत्यादि ॥ दशमशते प्रथमोद्देशकः ॥ १० ॥१॥
A RCRACROR
अनन्तरोद्देशकान्ते शरीराण्युक्तानि शरीरी च क्रियाकारी भवतीति क्रियाप्ररूपणाय द्वितीय उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूबम्
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प्रज्ञप्तिः
१० शतके | उद्देश २ वीचिमतः क्रिया सू ३९६
व्याख्या
रायगिहे जाव एवं वयासी-संवुडस्सणं भंते! अणगारस्स वीयीपंथे ठिचा पुरओ रूवाई निज्झायमाणस्स अभयदेवी
मग्गओ रूवाई अवयक्खमाणस्स पासओ रूवाई अवलोएमाणस्स उई रूवाइं ओलोएमाणस्स अहे रूवाई या वृत्तिः२/
आलोएमाणस्स तस्स णं भंते ! किं ईरियावहिया किरिया कजइ संपराइया किरिया कज्जइ ?, गोयमा !
संवुडस्स णं अणगारस्स वीयीपंथे ठिच्चा जाव तस्स णं णो ईरियांवहिया किरिया कजइ संपराइया किरिया ॥४९५॥ कजइ, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ संवड० जाव संपराइया किरिया कजइ ?, गोयमा ! जस्स णं कोहमाण
मायालोभा एवं जहा सत्तमसए पढमोद्देसए जाव से णं उस्सुत्तमेव रीयति, से तेणटेणं जाव संपराइया किरिया कन्जइ । संवुडस्स णं भंते ! अणगारस्स अवीयीपंथे ठिच्चा पुरओ रुवाइं निज्झायमाणस्स जाव तस्स णं भंते ! किं ईरियावहिया किरिया कजइ, पुच्छा, गोयमा! संवुड० जाव तस्स णं ईरियावहिया किरिया कजइ नो संपराइया किरिया कज्जइ, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ जहा सत्तमे सए पढमोद्देसए जाव से णं अहामुत्तमेव रीयति से तेणढेणं जाव नो संपराइया किरिया कजइ ॥ (सूत्रं० ३९६) __ 'रायगिहे'इत्यादि, तत्र 'संवुडस्स'त्ति संवृतस्य सामान्येन प्राणातिपाताद्याश्रवद्वारसंवरोपेतस्य 'वीईपंथे ठिच्चे'ति ४|| वीचिशब्दः सम्प्रयोगे, स च सम्प्रयोगोईयोर्भवति, ततश्चेह कषायाणां जीवस्य च सम्बन्धो वीचिशब्दवाच्यः ततश्च ||
वीचिमतः कषायवतो मतुप्प्रत्ययस्य षष्ठ्याश्च लोपदर्शनात् , अथवा 'विचिर पृथग्भावे'इति वचनाद् विविच्य-पृथग्भूय यथाऽऽख्यातसंयमात् कषायोदयमनपवार्येत्यर्थः, अथवा विचिन्त्य रागादिविकल्पादित्यर्थः, अथवा विरूपा कृतिः
॥४९५||
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| क्रिया सरागत्वात् यस्मिन्नवस्थाने तद्विकृति यथा भवतीत्येवं स्थित्वा 'पंथेत्ति मार्गे 'अवयक्खमाणस्स'त्ति अवका-४ इक्षतोऽपेक्षमाणस्य वा, पथिग्रहणस्य चोपलक्षणत्वादन्यत्राप्याधारे स्थित्वेति द्रष्टव्यं, 'नोईरियावहिया किरिया कजई'त्ति न केवलयोगप्रत्यया कर्मबन्धक्रिया भवति सकषायत्वात्तस्येति । 'जस्स णं कोहमाणमायालोभा' इह 'एवं जह'त्याद्यतिदेशादिदं दृश्य-'वोच्छिन्ना भवंति तस्स णं ईरियावहिया किरिया कज्जइ, जस्स णं कोहमाणमायालोभा अवो|च्छिन्ना भवंति तस्स णं संपराइया किरिया कज्जइ, अहासुत्तं रीयं रीयमाणस्स ईरियावहिया किरिया कज्जइ, उस्सुत्तं
रीय रीयमाणस्स संपराइया किरिया कजईत्ति व्याख्या चास्य प्राग्वदिति । 'से णं उस्सुत्तमेव'त्ति स पुनरुत्सूत्रमेवा-15 || गमातिक्रमणत एव 'रीयइत्ति गच्छति । 'संवुडस्से'त्याधुक्तविपर्ययसूत्रं, तत्र च 'अवीइ'त्ति 'अवीचिमतः' अकषाय| सम्बन्धवतः 'अविविच्य' वा अपृथग्भूय यथाऽऽख्यातसंयमात् , अविचिन्त्य वा रागविकल्पाभावेनेत्यर्थः अविकृति वा | यथा भवतीति ॥ अनन्तरं क्रियोक्ता, क्रियावतां च प्रायो योनिप्राप्तिर्भवतीति योनिप्ररूपणायाह
काविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ?, गोयमा ! तिविहा जोणी पण्णत्ता, तंजहा-सीया उसिणा सीतो|सिणा, एवं जोणीपयं निरवसेसं भाणियचं ॥ (सूत्रं३९७ ) कतिविहा णं भंते ! वेयणा पन्नत्ता ?, गोयमा!|| तिषिहा वेयणा पन्नत्ता, तंजहा-सीया उसिणा सीओसिणा, एवं वेयणापयं निरवसेसं भाणियत्वं जाव: नेरइयाणं भंते ! किं दुक्खं वेदणं वेदेति सुहं वेयणं वेयंति अदुक्खमसुहं वेयणं वेयंति ?, गोयमा ! दुक्खंपि4 वेयणं वेयंति सुहंपि वेयणं वेयंति अदुक्खमसुहंपि वेयणं वेयंति ॥ (सूत्रं ३९८)
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१० शतके उद्देश:२
योनि वेदनाश सू ३९७३९८
व्याख्या- 'कतिविहाण'मित्यादि,तत्र च 'जोणि'त्ति 'यु मिश्रणे' इतिवचनाद् युवन्ति-तैजसकार्मणशरीरवन्त औदारिकादिशरी-| प्रज्ञप्तिः |रयोग्यस्कन्धसमुदायेन मिश्रीभवन्ति जीवा यस्यां सा योनिः, सा च त्रिविधा शीतादिभेदात् , तत्र 'सीय'त्ति शीतस्पर्शा अभयदेवी- 'उसिण'त्ति उष्णस्पर्शा'सीओसिण'त्ति द्विस्वभावा 'एवं जोणीपयं निरवसेसं भाणिय'ति योनिपदं च प्रज्ञापनायां या वृत्तिः२
नवमं पदं, तच्चेदं-नेरइयाणं भंते ! किं सीया जोणी उसिणा जोणी सीओसिणा जोणी?, गोयमा!सीयावि जोणी उसिणावि ॥४९६॥
|जोणी नो सीओसिणा जोणी'त्यादि, अयमर्थः-'सीयावि जोणि'त्ति आद्यासु तिसृषु नरकपृथिवीषु चतुर्थ्यां च केषुचिन्नरकावासेषु नारकाणां यदुपपातक्षेत्रं तच्छीतस्पर्शपरिणतमिति तेषां शीताऽपि योनिः, 'उसिणावि जोणि'त्ति शेषासु पृथिवीषु चतुर्थपृथिवीनरकावासेषु च केषुचिन्नारकाणां यदुपपातक्षेत्रं तदुष्णस्पर्शपरिणतमिति तेषामुष्णाऽपि योनिः, |'नो सीओसिणा जोणि'त्ति न मध्यमस्वभावा योनिस्तथास्वभावत्वात् , शीतादियोनिप्रकरणार्थसङ्ग्रहस्तु प्रायेणैवं-"सीओसिणजोणीया सबे देवा य गन्भवती । उसिणा य तेउकाए दुह निरए तिविह सेसेसु ॥२॥” 'गन्भवति'त्ति गोत्पत्तिकाः,। [शीतोष्णयोनिकाः सर्वे देवाश्च गर्भव्युत्पत्तिकाः उष्णा च तेजःकाये द्विधा नरके त्रिविधा शेषेषु ॥१॥]| | तथा-'कतिविहाणं भंसे ! जोणी पन्नत्ता ?, गोयमा तिविहा जोणी पन्नचा, तंजहा-सच्चित्ता अचित्ता मीसिया इत्यादि, ४ सच्चित्तादियोनिप्रकरणार्थसनहस्तु प्रायेणैवम्-"अच्चित्ता खलु जोणी नेरइयाणं तहेव देवाणं । मीसा य गम्भवासे तिविहा
पुण होइ सेखसु ॥२॥" [अचित्ता खलु योनि रकाणां तथैव देवानां । मिश्रा च गर्भवासे त्रिविधा पुनर्भवति शेषेषु Pu॥] सत्यप्यकेन्द्रियसूक्ष्मजीवनिकायसम्भवे नारकदेवानां यदुपपातक्षेत्रं तन्न केनचिजीवेन परिगृहीतमित्यचित्ता
भी सीओसिणा देवा य गम्भवमा देवाश्च गर्भव्युत्तावहा जोणी पाया तहेव
॥४९६॥
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तेषां योनिः, गर्भवासयोनिस्तु मिश्रा शुक्रशोणितपुद्गलानामचित्तानां गर्भाशयस्य सचेतनस्य भावादिति, शेषाणां पृथिव्यादीनां संमूर्छनजानां च मनुष्यादीनामुपपातक्षेत्रे जीवेन परिगृहीतेऽपरिगृहीते उभयरूपे चोत्पत्तिरिति त्रिविधाऽपि योनिरिति । तथा-'कतिविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ?, गोयमा ! तिविहा जोणी पन्नत्ता, तंजहा-संवुडाजोणी वियडाजोणी संवुडविथडाजोणी'त्यादि, संवृत्तादियोनिप्रकरणार्थसङ्ग्रहस्तु प्राय एवम्-“एगिंदियनेरइया संवुडजोणी तहेव देवा य। विगलिंदिएसु वियडा संवुडवियडा य गन्भमि ॥१॥"[एकेन्द्रिया नैरयिकाः संवृतयोनयस्तथैव देवाश्च । विकलेन्द्रियाणां विवृता संवृतविवृता च गर्भे ॥१॥] एकेन्द्रियाणां संवृता योनिस्तथास्वभावत्वात् , नारकाणामपि संवृतैव, यतो | नरकनिष्कुटाः संवृतगवाक्षकल्पास्तेषु च जातास्ते वर्द्धमानमूर्तयस्तेभ्यः पतन्ति शीतेभ्यो निष्कुटेभ्य उष्णेषु नरकेषु उष्णे| भ्यस्तु शीतेष्विति, देवानामपि संवृतैव यतो देवशयनीये दृष्यान्तरितोऽङ्गलासङ्ख्यातभागमात्रावगाहनो देव उत्पद्यत
इति । तथा-'कतिविहा णं भंते ! जोणी पन्नत्ता ?, गोयमा तिविहा जोणी पन्नत्ता, तंजहा-कुम्मुन्नया संखावत्ता वंसी| पत्ते त्यादि, एतद्वक्तव्यतासङ्ग्रहश्चैवं-संखावत्ता जोणी इत्थीरयणस्स होति विन्नेया । तीए पुण उप्पन्नो नियमा उ विण★ स्सई गम्भो ॥१॥ कुम्मुन्नयजोणीए तित्थयरा चक्किवासुदेवा य । रामावि य जायते सेसाए सेसगजणो उ ॥२॥" [स्त्रीरलस्य शहावर्त्ता योनिर्भवति विज्ञेया तस्यामुत्पन्नो गर्भः पुनर्नियमात विनश्यति ॥१॥ कूर्मोन्नतायां योनौ तीर्थकरचक्रिवासुदेवा रामाश्च जायन्ते शेषायां तु शेषकजनः॥२॥] अनन्तरं योनिरुक्ता, योनिमतां च वेदना भवन्तीति | | तत्परूपणायाह-'कइविहा 'मित्यादि, एवं वेयणापयं भाणिय'ति वेदनापदं च प्रज्ञापनायां पञ्चत्रिंशत्तम,
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
१० शतके | उद्देशः२ | योनिः । वेदनाश्च
अभयदेवीया वृत्तिः२
सू ३९७
॥४९७॥
| तच्च लेशतो दयते-'नेरइयाणं भंते ! किं सीयं वेयणं वेयंति ३ १, गोयमा ! सीयंपि वेयणं वेयंति एवं उसिणंपि
णो सीओसिणं' एवमसुरादयो वैमानिकान्ताः 'एवं चउविहा वेयणा दवओ खेत्तओ कालओ भावओ' तत्र पुद्गल| द्रव्यसम्बन्धाद्र्व्यवेदना नारकादिक्षेत्रसम्बन्धात्क्षेत्रवेदना नारकादिकालसम्बन्धात्कालवेदना शोकक्रोधादिभावसम्ब
न्धाद्भाववेदना, सर्वे संसारिणश्चतुर्विधामपि, तथा 'तिविहा वेयणा-सारीरा माणसा सारीरमाणसा' समनस्कास्त्रि| विधामपि असज्ञिनस्तु शारीरीमेव, तथा 'तिविहा वेयणा साया असाया सायासाया' सर्वे संसारिणस्त्रिविधामपि, तथा 'तिविहा वेयणा-दुक्खा सुहा अदुक्खमसुहा' सर्वे त्रिविधामपि, सातासातसुखदुःखयोश्चायं विशेषः-सातासाते | अनुक्रमेणोदयप्राप्तानां वेदनीयकर्मपुद्गलानामनुभवरूपे, सुखदुःखे तु परोदीर्यमाणवेदनीयानुभवरूपे, तथा 'दुविहा वेयणा-अब्भुवगमिया उवक्कमिया' आभ्युपगमिकी या स्वयमभ्युपगम्य वेद्यते यथा साधवः केशोल्लुश्चनातापनादिभिर्वेदयन्ति औपक्रमिकी तु स्वयमुदीर्णस्योदीरणाकरणेन चोदयमुपनीतस्य वेद्यस्यानुभवात् , द्विविधामपि पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो मनुष्याश्च शेषास्त्वीपक्रमिकीमेवेति, तथा 'दुविहा वेयणा-निदा य अनिदा य' निदा-चित्तवती विपरीता त्वनिदेति, सज्ञिनो द्विविधामसज्ञिनस्त्वनिदामेवेति। इह च प्रज्ञापनायां द्वारगाथाऽस्ति, सा चेयं-"सीया य दब सारीर साय तह वेयणा हवइ दुक्खा। अब्भुवगमुवक्किमिया निदाय अनिदाय नायवा ॥१॥" अस्याश्च पूर्वार्दोक्तान्येव द्वाराण्यधिकृतवाचनायां सूचितानि यतस्तत्राप्युक्तं 'निदा य अनिदा य वज'ति ॥ वेदनाप्रस्तावाद्वेदनाहेतुभूतां प्रतिमा निरूपयन्नाह
मासियण्णं भंते ! भिक्खुपडिम पडिवनस्स अणगारस्स निच्चं वोसढे काये चियत्ते देहे, एवं मासिया भिक्खु
४९७॥
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| पडिमा निरवसेसा भाणियवा [जाव दसाहिं] जाव आराहिया भवइ । (सूत्रं ३९९ ) भिक्खू य अन्नयरं अकिञ्चट्ठाणं | पडिसेवित्ता से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स | आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा, भिक्खू य अन्नयरं अकिञ्चट्ठाणं पडिसेवित्ता तस्स णं | एवं भवइ पच्छावि णं अहं चरमकालसमयंसि एयस्स ठाणस्स आलोएस्सामि जाव पडिवज्जिस्सामि, से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिकंते जाव नत्थि तस्स आराहणा, से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्स अराहणा, भिक्खू य अन्नयरं अकिचट्ठाणं पडिसेवित्ता तस्स णं एवं भवइ - जइ ताव | समणोवासगावि कालमासे कालं किच्चा अन्नयरेसु देवलोएस देवत्ताए उववत्तारो भवंति किमंग पुण अहं | अन्नपन्नियदेवत्तणंपि नो लभिस्सामित्तिकट्टु से णं तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिते कालं करेइ नत्थि तस्स आराहणा से णं तस्स ठाणस्स आलोइयपडिक्कते कालं करेइ अत्थि तस्स आराहणा । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ ( सूत्रं ४०० ) ।। १० । २ ॥
'मासि यण्ण' मित्यादि, मासः परिमाणं यस्याः सा मासिकी तां 'भिक्षुप्रतिमां' साधुप्रतिज्ञाविशेषं 'वोसट्टे का 'ति व्युत्सृष्टे स्नानादिपरिकर्म्मवर्जनात् 'चियत्ते देहे'त्ति त्यक्ते वधबन्धाद्यवारणात्, अथवा 'चियत्ते' समते प्रीतिविषये धर्मसाधनेषु प्रधानत्वाद्देहस्येति 'एवं मासिया भिक्खुपडिमा 'इत्यादि, अनेन च यदतिदिष्टं तदिदं - 'जे केइ परीसहोव - सग्गा उप्पज्जंति, तंजहा - दिवा वा माणुसा वा तिरिक्खजोणिया वा ते उप्पन्ने सम्मं सहइ खमइ तितिक्खइ अहियासेई'
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व्याख्या- |४|| त्यादि, तत्र सहते स्थानाविचलनतः क्षमते क्रोधाभावात् तितिक्षते दैन्याभावात् क्रमेण वा मनःप्रभृतिभिः, किमुक्तं || || १० शतके प्रज्ञप्तिः दि.| भवति-अधिसहत इति ॥ आराहिया भवतीत्युक्तमथाराधनाः यथा न स्याद्यथा च स्यात्तदर्शयन्नाह-'भिक्खू य
| उद्देशः २ अभयदेवी- अन्नयरं अकिचट्ठाणमित्यादि, इह चशब्दश्चेदित्येतस्यार्थे वर्तते, स च भिक्षोरकृत्यस्थानासेवनस्य प्रायेणासम्भवप्रदर्श
प्रतिमा आया वृतिः२
राधनाच | नपरः, 'पडिसेवित्त'त्ति अकृत्यस्थानं प्रतिषेविता भवतीति गम्यं, वाचनान्तरे त्वस्य स्थाने 'पडिसेविज्ज'त्ति दृश्यते, 'से
| सू ३९९॥४९८॥ णं'ति स भिक्षुः 'तस्स ठाणस्स'त्ति तत्स्थानम् 'अणपन्नियदेवत्तणंपिनोलभिस्सामि'त्ति अणपन्निका-व्यन्तरनिकाय
४०० विशेषास्तत्सम्बन्धिदेवत्वमणपन्निकदेवत्वं तदपि नोपलप्स्य इति ॥ दशमशतस्य द्वितीयोद्देशकः ॥ १० ॥२॥
| १० शतके
उद्देशः ३ द्वितीयोद्देशकान्ते देवत्वमुक्तम् , अथ तृतीये देवस्वरूपमभिधीयते, इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
देवदेवीनां
मध्यगमना रायगिहे जाव एवं वयासी-आइडीएणं भंते ! देवे जाव चत्तारि पंच देवावासंतराई वीतिकंते तेण परं
दिसू४०१ परिडीए, हंता गोयमा ! आइडीए णं तं चेव, एवं असुरक्रमारेवि, नवरं असुरकुमारावासंतराई सेसं तं चव, एवं एएणं कमेणं जाव थणियकुमारे, एवं वाणमंतरे जोडसवेमाणिय जाव तेण परं परिड्डीए । अप्पहिए णं भंते ! देवे से महड्डियस्स देवस्स मज्झमझेणं वीडवहजा?. णो तिण समटे । समिडीए ण भत ।
॥४९८॥ देवे समडियस्स देवस्स मझमझेणं वीहवएज्जा ?, णो तिणवे समझे, पमत्तं पुण वीइवएजा, से ण भत । सूकिं विमोहित्ता पभू अविमोहित्ता पभू?, गोयमा ! विमोहेता पभू नो अविमोहेत्ता पभू । से भंते ! किं
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पुर्वि विमीहेत्ता पच्छा वीइवएजा पुच्विं वीइवएत्ता पच्छा विमोहेजा !, गोयमा ! पुषिं विमोहेत्ता पच्छा वीइवएज्जा णो पुष्विं वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा । महिड्डीए णं भंते ! देवे अप्पड्डियस्स देवस्स मज्झंमज्झेणं| बीइवएज्जा ?, हंता वीइबएज्जा, से णं भंते ! किं विमोहित्ता पभू अविमोहेत्ता पभू ,गोयमा! विमोहेत्तावि* पभू अविमोहेत्तावि पभू, से भंते ! किं पुविं विमोहेत्ता पच्छा वीइव इज्जा पुच्विं वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा ?, गोयमा! पुचिं वा विमोहेत्ता पच्छा वीइवएजा पुश्विं वा वीइवएत्ता पच्छा विमोहेजा। अप्पिड्डि-4 एणं भंते ! असुरकुमारे महड्डीयस्स असुरकुमारस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ?, णो इणढे समढे, एवं असुरकुमारेवि तिन्नि आलावगा भाणियबा जहा ओहिएणं देवेणं भणिया, एवं जाव थणियकुमाराणं, वाणमतरजोइसियवेमाणिएणं एवं चेव । अप्पड्डिए णं भंते ! देवे महिड्डियाए देवीए मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा, णो | इणढे समढे, समड्डिए णं भंते ! देवे समिडीयाए देवीए मज्झमझेणं; एवं तहेव देवेण य देवीण य दंडओ भाणियहो जाव वेमाणियाए। अप्पडिया णं भंते ! देवी महड्डीयस्स देवस्स मज्झमझेणं एवं एसोधि तइओ दंडओ भाणियहो जाव महड्डिया वेमाणिणी अप्पड्डियस्स वेमाणियस्स मज्झमझेणं वीइवएज्जा ?, हंता वीइवएज्जा । अप्पडिया णं भंते ! देवी महिड्डियाए देवीए मज्झमझेणं वीइवएज्जा, णो इणढे समहे, एवं समडिया देवी समडियाए देवीए, तहेव, महड्डियावि देवी अप्पड्डियाए देवीए तहेव, एवं एक्कक्के तिन्नि २ आलावगा भाणियचा जाव महडिया णं भंते । वैमाणिणी अप्पड्डियाए वेमाणिणीए मज्झमज्झेणं वीइव
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दवावासतर परिही इति भावः
व्याख्या- | एज्जा ?, हंता वीइवएज्जा, सा भंते ! किं विमोहित्ता पभू तहेव जाव पुदि वा वीइवइत्ता पच्छा विमोहेजा १० शतके प्रज्ञप्तिःला | एए चत्तारि दंडगा ।। (सू०४०१)
उद्देशः३ अभयदेवी
देवदेवीना या वृत्तिः२| _ 'रायगिहे'इत्यादि, 'आइडीए णं'ति आत्मा स्वकीयशक्त्या, अथवाऽऽत्मन एव ऋद्धिर्यस्यासावात्मर्द्धिकः 'देवे'
मध्यगमत्ति सामान्यः 'देवावासंतराइंति देवावासविशेषान् 'वीइक्कते'त्ति 'व्यतिक्रान्तः' लचितवान् , क्वचिद् व्यतिव्रजतीति नादि ॥४९९॥
| पाठः, 'तेण पति ततः परं परिड्डीए'त्ति परा परर्द्धिको वा विमोहित्ता पभुत्ति विमोह्य' महिकाद्यन्धकारकरणेन सू ४०१ ६ मोहमुत्पाद्य अपश्यन्तमेव तं व्यतिक्रामेदिति भावः। एवं असुरकुमारेणवि तिन्नि आलावग'त्ति अल्पर्धिकमहड़िकयोरेकः समर्द्धिकयोरन्यः महर्द्धिकाल्पर्द्धिकयोरपर इत्येवं त्रयः, ओहिएणं देवेणं ति सामान्येन देवेन १,एवमालाप
कत्रयोपेतो देवदेवीदण्डको वैमानिकान्तोऽन्यः२,एवमेव च देवीदेवदण्डको वैमानिकान्त एवापरः ३, एवमेव च देव्योर्दण्ड|| कोऽन्यः ४ इत्येवं चत्वार एते दण्डकाः॥अनन्तरं देवक्रियोक्ता,सा चातिविस्मयकारिणीति विस्मयकरं वस्त्वन्तरं प्रश्नयन्नाह-| R आसस्स णं भंते ! धावमाणस्स किं खुखुत्ति करेति ?, गोयमा ! आसस्स णं धावमाणस्स हिद्यस्स। | य जगयस्स य अंतरा एत्थ णं कब्बडए नामं वाए संमुच्छइ जेणं आसस्स धावमाणस्स खुखुत्ति करेइ ॥ (सू० ४०२) अह भंते ! आसइस्सामो सइस्सामो चिहिस्सामो निसिइस्सामो तुयट्टिस्सामो आमंतणि आणवणी जायणि तह पुच्छणीय पण्णवणी । पञ्चक्खाणी भासा भासा इच्छाणुलोमा य ॥१॥ अणभिग्ग
॥४९९॥ हिया भासा भासा य अभिग्गहमि बोद्धव्वा । संसयकरणी भासा वोयडमबोयडा चेव ॥२॥ पन्नवणी णं
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||| एसा न एसा भासा मोसा?, हंता गोयमा! आसइस्सामो तं चेव जाव न एसा भासा मोसा । सेवं भंते !
सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ४०३) दसमे सए तईओ उद्देसो॥१०-३॥ ___ "आसस्से'त्यादि, 'हिययस्स य जगयस्स यत्ति हृदयस्य यकृतश्च-दक्षिणकुक्षिगतोदरावयवविशेषस्य 'अन्तरा' |४|| अन्तराले ॥ अनन्तरं 'खुखु'त्ति प्ररूपितं तच्च शब्दः, स च भाषारूपोऽपि स्यादिति भाषाविशेषान् भाषणीयत्वेन प्रद
शयितुमाह-'अह भंते ! इत्यादि, अथेति परिप्रश्नार्थः "भंते ति भदन्त ! इत्येवं भगवन्तं महावीरमामय गौतमः पृच्छति-'आसइस्सामो'त्ति आश्रयिष्यामो वयमाश्रयणीयं वस्तु 'सइस्सामो'त्ति शयिष्यामः 'चिहिस्सामो'त्ति ऊस्थानेन स्थास्यामः 'निसिइस्सामोत्ति निषेत्स्याम उपवेश्याम इत्यर्थः 'तुयहिस्सामो'त्ति संस्तारके भविष्याम इत्यादिका भाषा किं प्रज्ञापनी ? इति योगः ॥ अनेन चोपलक्षणपरवचनेन भाषाविशेषाणामेवंजातीयानां प्रज्ञापनीयत्वं पृष्टमथ भाषाजातीनां तत्पृच्छति-'आमंतणि'गाहा, तत्र आमन्त्रणी' हे देवदत्त ! इत्यादिका, एषा च किल वस्तुनोऽविधायकत्वादनिषेधकत्वाच्च सत्यादिभाषात्रयलक्षणवियोगतश्चासत्यामृषेति प्रज्ञापनादावुक्ता, एवमाज्ञापन्यादिकामपि, 'आणवणि'त्ति आज्ञापनी कार्ये परस्य प्रवर्तनी यथा घटं कुरु 'जायणि'त्ति याचनी-वस्तुविशेषस्य | देहीत्येवंमार्गणरूपा तथेति समुच्चये 'पुच्छणी य'त्ति प्रच्छनी-अविज्ञातस्य संदिग्धस्य वाऽर्थस्य ज्ञानार्थं तदभियुक्तप्रेरणरूपा 'पण्णवणि'त्ति प्रज्ञापनी-विनेयस्योपदेशदानरूपा यथा-"पाणवहाओं नियत्ता भवंति दीहाउया अरोगा |य । एमाई पन्नवणी पन्नत्ता वीयरागेहिं ॥१॥" [प्राणवधान्निवृत्ता दीर्घायुषोऽरोगाश्च भवन्तीत्यादिः प्रज्ञापनी भाषा
ॐॐॐॐॐSHASTRA
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५००॥
वीतरागैः प्रज्ञप्ता ॥ १ ॥ ] ' पच्चक्खाणीभास 'त्ति प्रत्याख्यानी याचमानस्यादित्सा मे अतो मां मा याचस्वेत्यादि प्रत्या| ख्यानरूपा भाषा 'इच्छानुलोम' त्ति प्रतिपादयितुर्या इच्छा तदनुलोमा - तदनुकूला इच्छानुलोमा यथा कार्ये प्रेरितस्य एवमस्तु ममाप्यभिप्रेतमेतदिति वचः । 'अणभिग्गहिया भासा'गाहा, अनभिगृहीता - अर्थानभिग्रहेण योच्यते डित्थादिवत् 'भासा य अभिग्गमि बोद्धवा' भाषा चाभिग्रहे बोद्धव्या-अर्थमभिगृह्य योच्यते घटादिवत्, 'संसयकरणी भास'त्ति याऽनेकार्थप्रतिपत्तिकरी सा संशयकरणी यथा सैन्धवशब्दः पुरुषलवणवाजिषु वर्त्तमान इति 'वोयड'ति व्याकृता लोकप्रतीतशब्दार्था 'अघोयड'त्ति अव्याकृता - गम्भीरशब्दार्था मन्मनाक्षरप्रयुक्ता वाडनाविर्भावितार्था, 'पनवणी णं'ति प्रज्ञाप्यतेऽर्थोऽनयेति प्रज्ञापनी - अर्थकथनी वक्तव्येत्यर्थः, 'न एसा मोस' त्ति नैषा मृषा-नार्थानभिधायिनी नावक्तव्येत्यर्थः, पृच्छतोऽयमभिप्रायः- आश्रयिष्याम इत्यादिका भाषा भविष्यत्कालविषया सा चान्तरायस| म्भवेन व्यभिचारिण्यपि स्यात् तथैकार्थविषयाऽपि बहुवचनान्ततयोक्तेत्येवमयथार्था तथा आमन्त्रणीप्रभृतिका विधिप्रतिषेधाभ्यां न सत्यभाषावद्वस्तुनि नियतेत्यतः किमियं वक्तव्या स्यात् । इति, उत्तरं तु 'हंता' इत्यादि, इदमत्र हक्यम्| आश्रयिष्याम इत्यादिकाऽनवधारणत्वाद्वर्त्तमानयोगेनेत्येतद्विकल्पगर्भत्वादात्मनि गुरौ चैकार्थत्वेऽपि बहुवचनस्यानुमत| त्वात्प्रज्ञापन्यैव तथाऽऽमन्त्रण्यादिकाऽपि वस्तुनो विधिप्रतिषेधाविधायकत्वेऽपि या निरवद्यपुरुषार्थसाधनी सा प्रज्ञापन्येवेति ॥ दशमशते तृतीयोदेशकः ॥ १० ॥ ३ ॥
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१० शतके उद्देशः ३ अश्वशब्दः
भाषास्व.
सू ४०२ ४०३
॥५००॥
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.
...तण समएणं समणस्स भगवओ महावीरम्म लेने
तृतीयोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, चतुर्थेऽप्यसावेवोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्| तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नयरे होत्था वन्नओ, दूतिपलासए चेइए, सामी समोसढे, जाव परिसा पडिगया। तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेट्टे अंतेवासी इंदभूई नाम अणगारे जाव उड्डेजाणूजाव विहरइ। तेणं कालेणं तेर्ण समएणंसमणस्स भगवओमहावीरस्स अंतेवासी सामहत्थी नामं अणगारे पयइभद्दए जहा रोहे जाव उहुंजाणू जाव विहरह, तए णं ते सामहस्थी अणगारे जायसढे जाव उठाए उढेत्ता जेणेव भगवं गोयमे तेणेव उवागच्छ। तेणेव उवागच्छित्ता भगवं गोयम |तिक्खुत्तो जाव पजुवासमाणे एवं वयासी-अस्थि णं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमारस्स तायत्तीसगा देवा , हंता अस्थि, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमारस्स ताय. त्तीसगा देवा ता०२१, एवं खलु सामहत्थी! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे कार्यदी नाम नयरी होत्था वन्नओ, तत्थ णं कायंदीए नयरीए तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोबासगा परि| वसइ अड्डा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा उवलद्धपुण्णपावा विहरति जाव तए णं ते तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया पुचि उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी भवित्ता तओ पच्छा पासत्था
पासस्थविहारी ओसन्ना ओसन्नविहारी कुसीला कुसीलविहारी अहाछंदा अहाछंदविहारी बहूई वासाइं सम-४ रणोवासगपरियागं पाउणंति २ अद्धमासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेंति अत्ताणं झूसत्ता तीसं भत्ताई अण
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५०१ ॥
|सणाए छेदेति २ तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कता कालमासे कालं किचा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकु | माररन्नो तायत्तीसगदेवत्ताए उववन्ना, जप्पभिहं च णं भंते ! कार्यदगा तायत्तीसं सहाया गाहावई सम| णोवासगा चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसदेवत्ताए उववन्ना तप्पभिदं च णं भंते ! एवं बुच्चइ चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसगा देवा ?, तए णं भगवं गोयमे सामहत्थिणा अणगारेणं एवं वुत्ते समाणे संकिए कंखिए वितिगिच्छिए उट्ठाए उट्ठे उट्ठाए उट्ठेत्ता सामहत्थिणा अणगारेणं सद्धिं | जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमसित्ता एवं वयासी- अस्थि णं भंते! चमरस्स असुरिंदस्स असुररण्णो तायत्तीसगा देवा ता० २१, हंता अस्थि, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ ?, एवं तं चैव सवं भाणियवं जाव तप्यभिदं च णं एवं बुच्चइ चम| रस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसगा देवा २१, णो इणट्ठे समट्ठे, गोयमा ! चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए नामघेज्जे पण्णत्ते, जं न कयाइ नासी न कदावि न | भवति ण कयाई ण भविस्सई जाव निच्चे अवोच्छित्तिनयट्टयाए अन्ने चयंति अन्ने उववज्जंति । अस्थि णं भंते! | बलिस्स वइरोयणिंदस्स वइरोयणरन्नो तायत्तीसगा देवा ? ता० २१, हंता अत्थि, से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ बलिस्स वइरोयणिंदस्स जाव तायत्तीसगा देवा ता० २१, एवं खलु गोयमा । तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबुद्दीवे २ भारहे वासे बिभेले णामं संनिवेसे होत्था वन्नओ, तत्थ णं बिभेले संनिवेसे जहा चमरस्स जाव
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१० शतक
उद्दशः ४ त्रायस्त्रिंशाः सू ४०४
॥५०१ ॥
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उववन्ना, जप्पभिहं च णं भंते ! ते विभेलगा तायत्तीसंसहाया गाहावइसमणोवासगा बलिस्स वइ० सेसं तं चेव जाव निच्चे अबोच्छित्तिणयट्टयाए अन्ने चयंति अन्ने उववजंति । अत्थि णं भंते ! धरणस्स णागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो तायत्तीसगा देवा ता० २१, हंता अस्थि, से केणठेणं जाव तायत्तीसगा देवा २१, गोयमा ! धरणस्स नागकुमारिंदस्स नागकुमाररन्नो तायत्तीसगाणं देवाणं सासए नामधेजे पन्नत्ते जं न कयाइ नासी जाव अन्ने चयंति अन्ने उववजंति, एवं भूयाणंदस्सवि एवं जाव महाघोसस्स । अत्थि णं भंते ! सक्कस्स देविंदस्स देवरन्नो पुच्छा, हंता अत्थि, से केणटेणं जाव तायत्तीसगा देवा २१, एवं खलु गोयमा ! तेणं कालेणं तेणं समएणं इहेव जंबूद्दीवे दीवे भारहे वासे पालासए नामं संनिवेसे होत्था वन्नओ, तत्थ णं पालासए सन्निवेसे तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासया जहा चमरस्स जाव विहरंति, तए णं तायत्तीसं सहाया गाहावई समणोवासगा पुविपि पच्छावि उग्गा उग्गविहारी संविग्गा संविग्गविहारी बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणित्तामासियाए संलेहणाए अत्ताणं झुसेइ झूसित्ता सहि भत्ताई अणसणाए छेदेंति २ आलोइयपडिकता समाहिपत्ता कालमासे कालं किच्चा जाव उववन्ना, जप्पभिहं च णं भंते ! पालासिगा तायत्तीससहाया गाहावई समणोवासगा सेसं जहा चमरस्स जाव उववजंति । अस्थि णं भंते ! ईसाणस्स एवं जहा सक्कस्स नवरं चंपाए नयरीए जाव उववन्ना, जप्पभिई च णं भंते ! चंपिज्जा तायत्तीसं सहाया, सेसं तं चेव जाव अन्ने उववति । अस्थि णं भंते ! सणंकुमारस्स देविंदस्स देवरन्नो पुच्छा, हंता अस्थि, से
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सू४०४
व्याख्या-1 केणटेणं जहा धरणस्स तहेव एवं जाव पाणयस्स एवं अञ्चुयस्स जाव अन्ने उववजंति । सेवं भंते ! सेवं भंते!|||||१० शतके 18 ( सूत्रं ४०४)॥ दसमस्स चउत्थो ॥१०॥४॥
| उद्देशः३ अभयदेवी_ 'तेण'मित्यादि, 'तायत्तीसग'त्ति त्रायस्त्रिंशा-मन्त्रिविकल्पाः 'तायत्तीसं सहाया गाहावई'त्ति त्रयस्त्रिंशत्परि
त्रायस्त्रिंशा यावृत्तिः२
में माणाः 'सहायाः' परस्परेण साहायककारिणः 'गृहपतयः'कुटुम्बनायकाः 'उग्ग'त्ति उग्रा उदात्ता भावतः 'उग्गविहारि॥५०२॥ त्ति उदात्ताचाराः सदनुष्ठानत्वात् 'संविग्ग'त्ति संविनाः-मोक्षं प्रति प्रचलिताः संसारभीरवो वा 'संविग्गविहारित्ति
|संविनविहारः-संविग्नानुष्ठानमस्ति येषां ते तथा 'पासस्थित्ति ज्ञानादिबहिर्वर्तिनः 'पासत्थविहारी'त्ति आकालं पार्श्वस्थसमाचाराः 'ओसण्णि'त्ति अवसना इव-श्रान्ता इवावसन्ना आलस्यादनुष्ठानासम्यकरणात् 'ओसन्नविहार'त्ति | आजन्म शिथिलाचारा इत्यर्थः 'कुसील'त्ति ज्ञानाद्याचारविराधनात् 'कुसीलविहारि'त्ति आजन्मापि ज्ञानाद्याचारवि
राधनात् 'अहाछंद'त्ति यथाकथञ्चिन्नागमपरतन्त्रतया छन्दः-अभिप्रायो बोधः प्रवचनार्थेषु येषां ते यथाच्छन्दः, ते |चैकदाऽपि भवन्तीत्यत आह-'अहाच्छंदविहारित्ति आजन्मापि यथाच्छन्दा एवेति । 'तप्पभिई पति यत्प्र18|| भृति त्रयस्त्रिंशत्सवयोपेतास्ते श्रावकास्तत्रोत्पन्नास्तत्प्रभृति न पूर्वमिति ॥ दशमशते चतुर्थोद्देशकः समाप्तः ॥१०॥४॥
॥५०२॥ चतुदशके देववक्तव्यतोक्ता, पञ्चमे तु देवीवक्तव्यतोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम्| तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे नार्म नगरे गुणसिलए चेइए जाव परिसा पडिगया, तेणे कालेणं तेणं
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समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स बहवे अंतेवासी थेरा भगवंतो जाइसंपन्ना जहा अहमे सए सत्तमुद्देसए जाव विहरंति । तए णं ते थेरा भगवंतो जायसड्डा जाव संसया जहा गोयमसामी जाव पजुवासमाणा एवं वयासी-चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ?, अन्जो ! |पंच अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-काली रायी रयणी विजु मेहा, तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठ देवीसहस्सा परिवारो पन्नत्तो, पभू णं भंते ! ताओ एगमेगा देवी अन्नाई अहदेवीसहस्साई परिवारं विधित्तए १, एवामेव सपुष्पावरेणं चत्तालीसं देवीसहस्सा, से तं तुडिए, पभू णं भंते ! चमरे असुरिंदे असुरकु|मारराया चमरचंचाए रायहाणीए सभाए चमरंसि सीहासणंसि तुडिएणं सद्धिं दिवाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरित्तए १, णो तिणहे समहे, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ नो पभू चमरे असुरिंदे चमरचंचाए रायहाणीए जाव विहरित्तए १, अजो चमरस्स णं असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए माणवए चेझ्यखंभे वइरामएसु गोलवट्टसमुग्गएसुबहूओ जिणसकहाओ संनिक्खित्ताओ चिट्ठति, जाओणं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो अन्नेसिं च बहूणं असुरकुमाराणं देवाण य देवीण य अचणि| जाओ वंदणिज्जाओ नमंसणिज्जाओ पूयणिजाओ सकारणिज्जाओ सम्माणणिज्जाओ कल्लाणं मंगलं देवयं
चेइयं पजुवासणिजाओ भवंति तेसिं पणिहाए नो पभू , से तेणटेणं अजो! एवं वुच्चइ-नो पभू चमरे असु. |रिदे जाव राया चमरचंचाए जाव विहरित्तए । पभू णं अजो! चमरे अमुरिंदे असुरकुमारराया चमरचंचाए
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व्याख्यारायहाणीए सभासुहम्माए चमरंसि सीहासणंसि चउसट्टीए सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए जाव
१०शतके प्रज्ञप्तिः | अन्नेहिं च बहहिं असुरकुमारेहिं देवेहि य देवीहि य सहिं संपरिवुडे महयाहय जाव भुंजमाणे विहरित्तए. उद्देशः५ अभयदेवी-2 केवलं परियारिड्डीए नो चेवणं मेहुणवत्तियं ॥(सूत्रं ४०५) चमरस्स णं भंते ! असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो अग्रमहिया वृत्तिः सोमस्स महारन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ?, अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-Hष्यः सू४०५ ॥५०३॥
४ कणगा कणगलया चित्तगुत्ता वसुंधरा, तत्थ णं एगमेगाए देवीए एगमेगंसि देविसहस्सं परिवारो पन्नत्तो, पभू णं ताओ एगमेगाए देवीए अन्नं एगमगं देवीसहस्सं परियारं विउवित्तए, एवामेव सपुत्वावरणं चत्तारि देविसहस्सा, सेत्तं तुडिए, पभूणं भंते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो सोमे महाराया सोमाए रायहाणीए सभाए सुहम्माए सोमंसि सीहासणंसि तुडिएणं अवसेसं जहा चमरस्स, नवरं परियारो जहा सूरि| याभस्स, सेसं तं चेव, जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं । चमरस्स णं भंते ! जाव रन्नो जमस्स महारनो कति | अग्गमहिसीओ, एवं चेव नवरं जमाए रायहाणीए सेसं जहा सोमस्स एवं वरुणस्सवि, नवरं वरुणाए
रायहाणीए, एवं वेसमणस्सवि नवरं वेसमणाए रायहाणीए सेसं तं चेव जाव मेहुणवत्तियं । बलिस्स गंभंते ! | वइरोयणिंदस्स पुच्छा, अज्जो! पंच २अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-सुभा निसुंभारंभा निरंभा मदणा,तत्थ णं एगमेगाए देवीए अट्ठ सेसं जहा चमरस्स, नवरं बलिचंचाए रायहाणीए परियारो जहा मोउद्देसए, सेसं ॥५०३॥ तं चेव, जाव मेहुणवत्तियं । बलिस्स णं भंते ! वइरोयणिंदस्स वइरोयणरन्नो सोमस्स महारत्नो कति अग्गमहि
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सीओ पन्नत्ताओ ?, अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा- मीणगा सुभद्दा विजया असणी, तत्थ णं एगमेगाए देवीए सेसं जहा चमरसोमस्स, एवं जाव वेसमणस्स ॥ धरणस्स णं भंते ! नागकुमारिंदस्स नाग| कुमाररन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ ?, अजो छ अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - इला सुक्का सदारा | सोदामणी इंदा घणविज्जया, तत्थ णं एगमेगाए देवीए छछ देविसहस्सा परिवारो पन्नत्तो, पभू णं भंते ! ताओ | एगमेगाए देवीए अन्नाई छ छ देविसहरसाईं परियारं विउवित्तए एवामेव सपुधावरेणं छत्तीसं देविसहरसाई, सेत्तं तुडिए । पभू णं भंते ! धरणे सेसं तं चेव, नवरं धरणाए रायहाणीए धरणंसि सीहासणंसि सओ परियाओ संसे तं चैव । धरणस्स णं भंते ! नागकुमारिंदस्स कालवालस्स लोगपालस्स महारन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नताओ ?, अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - असोगा विमला सुप्पभा सुदंसणा, तत्थ णं एगमेगाए अवसेसं जहा चमरस्स लोगपालाणं, एवं सेसाणं तिन्हवि । भूयाणंदस्स णं भंते ! पुच्छा, अज्जो ! छ अग्गमहिस्सीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-ख्या रूयंसा सुरूया रुयगावती रुपकंता रुयप्पभा, तत्थ णं एगमेगाए | देवीए अवसेसं जहा धरणस्स, भूयाणंदस्स णं भंते ! नागवित्तस्स पुच्छा अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-सुनंदा सुभद्दा सुजाया सुमणा, तत्थ णं एगमेगाए देवीए अवसेसं जहा चमरलोग| पालाणं एवं सेसाणं तिन्हवि लोगपालाणं, जे दाहिणिल्लाणिंदा तेसिं जहा धरणिंदस्स, लोगपालाणंपि तेसिं जहा धरणस्स लोगपालाणं, उत्तरिल्लाणं इंदाणं जहा भूयाणंदस्स, लोगपालाणवि तेसिं जहा भूयाणंदस्स
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लोगपालाणं, नवरं इंदाणं सवेसिं रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसणामगाणि परियारो जहा तइयसए || १० शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः पढमे उद्देसए, लोगपालाणं सवेसिं रायहाणीओ सीहासणाणि य सरिसनामगाणि परियारो जहा चमरस्स उद्देशः ५ अभयदेवी- लोगपालाणं कालस्स । कालस्सणं भंते ! पिसायिंदस्स पिसायरन्नो कति अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ?, अज्जो!
अग्रमहिया वृत्तिः२४
प्यासू४०६ चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-कमला कमलप्पभा उप्पला सुदंसणा, तत्थ णं एगमेगाए देवीए ॥५०४॥
द एगमेगं देविसहस्सं सेसं जहा चमरलोगपालाणं, परियारो तहेव, नवरं कालाए रायहाणीए कालंसि सीहा
सणंसि, सेस तं चेव, एवं महाकालस्सवि । सुरुवस्स णं भंते ! भूइंदस्स रनो पुच्छा, अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रूववती बहुरूवा सुरूवा सुभगा, तत्थ णं एगमगाए सेसं जहा कालस्स, एवं पडिरूवस्सवि । पुन्नभहस्स णं भंते ! जक्खिदस्स पुच्छा अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहापुन्ना बहुपुत्तिया उत्तमा तारया, तत्थ णं एगमेगाए सेसं जहा कालस्स, एवं माणिभहस्सवि। भीमस्स णं भंते ! रक्खसिंदस्स पुच्छा, अजो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-पउमा पउमावती कणमा रयणप्पभा, तस्थ णं एगमेगा सेसं जहा कालस्स । एवं महाभीमस्सवि । किन्नरस्स णं भंते ! पुच्छा अज्जो 18 चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-वडेंसा केतुमती रतिसेणा रइप्पिया, तत्थ णं सेसं तं चेव, एवं
॥५०४॥ किंपुरिसस्सवि । सप्पुरिसस्स णं पुच्छा अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-रोहिणी नवमिया हिरी पुप्फवती, तत्थ णं एगमेगा०, सेसंतं चेव, एवं महापुरिसस्सवि। अतिकायस्स णं पुच्छा, अज्जो चत्तारि
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अग्गमहिसी पन्नसा तंजहा- भुयंगा भुयंगवती महाकच्छा फुडा, तत्थ णं०, सेसं तं चैव, एवं महाकायस्सवि । गीयर इस्स णं भंते ! पुच्छा, अजो ! चत्तारि अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा - सुधोसा विमला सुस्सरा सररसई, तत्थ णं०, सेसं तं चेव, एवं गीयजसस्सवि, सधेसिं एएसिं जहा कालस्स, नवरं सरिसनामियाओ रायहाणीओ सीहासणाणि य, सेसं तं चैव । चंदस्स णं भंते! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो पुच्छा, अज्जो चत्तारि अग्गम| हिसी पन्नत्ता, तंजहा - चंदप्पभा दोसिणाभा अचिमाली पभंकरा, एवं जहा जीवाभिगमे जोइसियउद्देसए तहेव, सूरस्सवि सूरप्पभा आयवाभा अचिमाली पभंकरा, सेसं तं चेव, जहा (जाव) नो चेव णं मेहुणवत्तियं । इंगालस्स णं भंते ! महग्गहस्स कति अग्ग० पुच्छा, अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा - विजया वैजयंती जयंती अपराजिया, तत्थ णं एगमेगाए देवीए सेसं तं चैव जहा चंदस्स, नवरं इंगालवडेंसए विमाणे इंगालगंसि सीहासणंसि सेसं तं चेव, एवं जाव वियालगस्सवि, एवं अट्ठासीतीएवि महागहाणं भाणियवं जाव भावके उस्स, नवरं वडेंसगा सीहासणाणि य सरिसनामगाणि, सेसं तं चेव । सक्कस्स णं भंते! देविंदस्स देवरन्नो पुच्छा, अज्जो ! अट्ठ अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा पउमा सिवा सेया अंजू अमला अच्छरा नवमिया रोहिणी, तत्थ णं एगमेगाए | देवीए सोलस सोलस देविसहस्सा परिवारो पन्नत्तो, पभू णंताओ एगमेगा देवी अन्नाई सोलस देविसहरसपरि यारं विउधित्तए, एवामेव सपुवावरेणं अट्ठावीसुत्तरं देविसयसहस्सं परियारं विउवित्तए, सेत्तं तुडिए । पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया सोहम्मे कप्पे सोहम्मवडेंसर विमाणे सभाए सुहम्माए सकंसि सीहासणंसि
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥ ५०५॥
तुडिएणं सद्धिं सेसं जहा चमरस्स, नवरं परियारो जहा मोउद्देसए । सक्कस्स णं देविंदस्स देवरन्नो सोमस्स | महारन्नो कति अग्गमहिसीओ ?, पुच्छा, अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा - रोहिणी मदणा चित्ता सोमा, तत्थ णं एगमेगा सेसं जहा चमरलोगपालाणं, नवरं सयंपर्भ विमाणे सभाए सुहम्माए | सोमंसि सीहासणंसि, सेसं तं चैव, एवं जाव वेसमणस्स, नवरं विमाणाई जहा तइयसए । ईसाणस्स णं भंते ! पुच्छा, अज्जो ! अट्ट अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा कण्हा कण्हराई रामा रामरक्खिया वसू वसुगुप्ता वसुमित्ता वसुंधरा, तत्थ णं एगमेगाए०, सेसं जहा सक्कस्स । ईसाणस्स णं भंते ! देविंदस्स सोमस्स महा| रण्णो कति अग्गमहिसीओ ?, पुच्छा, अज्जो ! चत्तारि अग्गमहिसी पन्नत्ता, तंजहा- पुढवी रायी रयणी विज्जू, तत्थ णं०, सेसं जहा सक्क्स्स लोगपालाणं, एवं जाव वरुणस्स, नवरं विमाणा जहा चउत्थसए, सेसं तं चेव, जाव नो चेव णं मेहुणवत्तियं । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ ( सूत्रं ४०६ ) ॥ १०–५ ॥
'ते' मित्यादि, ' से तंतुडिए' त्ति तुडिकं नाम वर्गः, 'वइरामएसु'त्ति वज्रमयेषु 'गोलवदृसमुग्गएसु' त्ति गोलकाकारा वृत्तसमुद्रकाः गोलवृत्तसमुद्रकास्तेषु 'जिणसकहाओ'त्ति 'जिनसक्थीनि' जिनास्थीनि 'अच्चणिजाओ'त्ति चन्दनादिना 'वंदणिज्जाओ'त्ति स्तुतिभिः 'नमंसणिज्जाओ' प्रणामतः 'पूर्याणिजाओ' पुष्पैः 'सक्कारणिजाओ' वस्त्रादिभिः 'सम्माणणिज्जाओ' प्रतिपत्तिविशेषैः कल्याणमित्यादिबुद्ध्या 'पज्जुवासणिज्जाओ'त्ति, 'महयाहय' इह यावत्करणादिदं | दृश्यं - 'नट्टगीयवाइय तंतीतलताल तुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं दिवाई भोगभोगाई'ति तत्र च महता - बृहता अह -
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१० शतके ५ उद्देशः अग्रमहिव्यः सू४०६
॥५०५॥
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४ तानि-अच्छिन्नानि आख्यानकप्रतिबद्धानि वा यानि नाट्यगीतवादितानि तेषां तन्त्रीतलतालानां च 'तुडिय'त्ति शेष
तूर्याणां च घनमृदङ्गस्य च-मेघसमानध्वनिमईलस्य पटुना पुरुषेण प्रवादितस्य यो रवः स तथा तेन प्रभु गान् भुञ्जानो विहर्तुमित्युक्तं, तत्रैव विशेषमाह-केवलं परियारिड्डीए'त्ति 'केवलं' नवरं परिवार:-परिचारणा स चेह स्त्रीशब्दश्रवणरूपसंदर्शनादिरूपः स एव ऋद्धिः-सम्पत् परिवारर्द्धिस्तया परिवारा वा कलत्रादिपरिजनपरिचारणा|मात्रेणेत्यर्थः 'नो चेव णं मेहुणवत्तियति नैव च मैथुनप्रत्ययं यथा भवति एवं भोगभोगान् भुञ्जानो विहर्नु प्रभुरिति | प्रकृतमिति ॥ 'परियारो जहा मोउद्देसए'त्ति तृतीयशतस्य प्रथमोद्देशके इत्यर्थः 'सओ परिवारो'त्ति धरणस्य स्वकः परिवारो वाच्यः, स चैवं-'हिं सामाणियसाहस्सीहिं तायत्तीसाए तायत्तीसएहिं चउहिं लोगपालेहिं छहिं अग्गमहिसीहिं सत्तहिं अणिएहिं सत्तहिं अणियाहिवईहिं चउवीसाए आयरक्खदेवसाहस्सीहिं अन्नेहि य बहूहिं नागकुमारेहि |देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिबुडे'त्ति 'एवं जहा जीवाभिगमें' इत्यादि, अनेन च यत्सूचितं तदिदं-'तत्थ णं एगमे| गाए देवीए चत्तारि २ देविसाहस्सीओ परिवारो पन्नत्तो, पहू णं ताओ एगमेगा देवी अन्नाई चत्तारि २ देवीसहस्साई परिवार विउवित्तए, एवामेव सपुषावरेणं सोलस देविसाहस्सीओ पन्नत्ताओ'इति 'सेत्तं तुडिय'मित्यादीति, एवं अट्ठासीतिएवि महागहाणं भाणिय'ति, तत्र द्वयोर्वक्तव्यतोक्तैव शेषाणां तु लोहिताक्षशनैश्चराघुणिकप्राघुणिककणककणकणादीनां सा वाच्येति । 'विमाणाई जहा तइयसए'त्ति तत्र सोमस्योक्तमेव यमवरुणवैश्रमणानां तु क्रमेण वरसिह
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५०६ ॥
सयंजले वग्गुन्ति विमाणा 'जहा चउत्थसए'त्ति क्रमेण च तानीशानलोकपालानामिमानि - 'सुमणे सबओभ वग्गू सुवग्गू' इति ॥ दशमशते पञ्चमोद्देशकः ॥ १०५ ॥
पञ्चमोद्देशके देववक्तव्यतोक्ता, षष्ठे तु देवाश्रयविशेषं प्रतिपादयन्नाह
कहि णं भंते ! सक्क्स्स देविंदस्स देवरन्नो सभा सुहम्मा पन्नत्ता ?, गोयमा ! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पञ्चयस्स दाहिणेणं इमीसे रयणप्पभाए एवं जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पंच वडेंसगा पन्नत्ता, तंजहा - असोगवडेंसए | जाव मज्झे सोहम्मवडेंसए, से णं सोहम्मवडेंसए महाविमाणे अद्धतेरस य जोयणसयसहस्साई आयाम| विक्खंभेणं, एवं जह सूरियाभे तहेव माणं तहेव उववाओ । सक्करस य अभिसेओ तहेव जह सूरिया| भस्स ॥ १ ॥ अलंकारअचणिया तहेव जाव आयरक्खत्ति, दो सागरोवमाइंठिती। सक्के णं भंते ! देविंदे देव| राया केमहिडीए जाव केमहसोक्खे ?, गोयमा ! महिडीए जाव महसोक्खे, से णं तत्थ बत्तीसार विमाणावाससयसहस्साणं जाव विहरति एवं महहिए जाव महासोक्खे सके देविंदे देवराया । सेवं भंते ! सेवं भंतेति ॥ ( सूत्रं ४०७ ) ।। १०-६ ॥
'कहि ण 'मित्यादि, 'एवं जहा रायप्पसेणइज्जे' इत्यादिकरणादेवं दृश्यं - 'पुढवीए बहुसमरमणिजाओ भूमि| भागाओ उहं चंदमसूरियगहगणन क्खत्ततारारूवाणं बहूई जोयणाई बहूई जोयणसयाई एवं सहस्साई एवं सय सहस्साइं बहूओ जोयणकोडीओ बहूओ जोयणकोडाकोडीओ उडुं दूरं वीइवइत्ता एत्थ णं सोहम्मे नामं कप्पे
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१० शतके ६ उद्देशः सुधर्मासभा सू ४०७
॥५०६॥
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ॐ
दशगाथा-'एवं जह यथा सूरिकाभे विमानस्सयोपपातः शक्रस्येह सहस्साई अडय
पक्ष'इत्यादि, 'असोगब.सए' इह यावत्करणादिदं दृश्य-सत्तवनषसए चंपगवडेंसए चूयवडेंसए'त्ति, विवक्षिताभिधेवसूचिका चेयमतिदेशगाथा-'एवं जह सूरिया तहेव माणं तहेव उववाओ । सकस्स य अभिसेओ तहेव जह सूरियाभस्स ॥१॥' इति, 'एवम्' अनेन क्रमेण यथा सूरिकाभे विमाने राजप्रश्नकृताख्यग्रन्थोक्ते प्रमाणमुक्तं तथैवा-||3|| स्मिन् वाच्य, तथा यथा सूरिकाभाभिधानदेवस्य देवत्वेन तत्रोपपात उक्तस्तथैवोपपातः शक्रस्येह वाच्योऽभिषेकश्चेति, तत्र प्रमाण-आयामविष्कम्भसम्बन्धि दर्शितं, शेषं पुनरिदम्-'ऊयालीसं च सयसहस्साई बावन्नं सहस्साई अह य अडयाले जोयणसए परिक्खेवेणं'ति । उपपातश्चैवं-'तेणं कालेणं तेणं समएणं सक्के देविंदे देवराया अहुणोववन्नमेत्ते | चेव समाणे पंचविहाए पज्जत्तीए पज्जत्तिभावं गच्छइ, तंजहा-आहारपज्जत्तीए ५' इत्यादि । अभिषेकः पुनरेवं-तए णं सक्के देविंदे देवराया जेणेव अभिसेयसभा तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता अभिसेयसभं अणुप्पयाहिणीकरमाणे २ पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुपविसइ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता सीहासणवरगते पुरच्छाभिमुहे निसन्ने, तए णं तस्स सक्कस्स ३ सामाणियपरिसोववन्नगा देवा आभिओगिए देवे सहावेंति सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सक्कस्स ३ महत्थं महरिहं विउलं इंदाभिसेयं उवठ्ठवेह'इत्यादि, अलंकार अच्चणिया व तहेच'त्ति यथा सूरिकाभस्य तथैवालङ्कारः अनिका चेन्द्रस्य वाच्या, तत्रालङ्कारः-'तए णं से सके देवे तप्पढमयाए |पम्हलसूमालाए सुरभीए गंधकासाईयाए गायाई लूहेइ २ सरसेणं गोसीसचंदणेणं गायाई अणुलिंपइ २ नासानीसासबायबोझ चक्खुहरं वन्नफरिसजुत्तं हयलालापेलवातिरेगं धवलकनगखचियंतकम्म आगासफालियसमप्पभं दिवं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥५०७॥
देवदूसजुयलं नियंसेति २: हारं पिणद्धेती'त्यादीति, अर्चनिकालेशस्त्वेवं-तए णं से सके ३ सिद्धाययणं १० शतके पुरच्छिमिल्लेणं दारेणं अणुप्पविसइ २ जेणेव देवच्छंदए जेणेव जिणपडिमा तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता जिण
६ उद्देशः पडिमाणं आलोए पणामं करेइ २ लोमहत्थगं गेण्हइ २ जिणपडिमाओलोमहत्थएणं पमज्जइ २ जिणपडिमाओ सुरभिणा
सुधासभा
सू ४०७ गंधोदएणं ण्हाणेइत्ति, जाव आयरक्ख'त्ति अर्चनिकायाः परो ग्रन्थस्तावद्वाच्यो यावदात्मरक्षाः,स चैवं लेशतः–'तए णं से सक्के ३ सभं सुहम्मं अणुप्पविसइ २ सीहासणे पुरच्छाभिमुहे निसीयइ, तए णं तस्स सक्कस्स ३ अवरुत्तरेणं उत्तर-1 | पुरच्छिमेणं चउरासीई सामाणियसाहस्सीओ निसीयंति पुरच्छिमेणं अह अग्गमहिसीओ दाहिणपुरच्छिमेणं अभितरिया 6
परिसा बारस देवसाहस्सीओ निसीयंति दाहिणेणं मज्झिमियाए परिसाए चोइस देवसाहस्सीओ दाहिणपञ्चत्थिमेणं| |बाहिरियाए परिसाए सोलस देवसाहस्सीओ पञ्चस्थिमेणं सत्त अणियाहिवईणो, तए णं तस्स सकस्स ३ चउदिसि || |चत्तारि आयरक्खदेवचउरासीसाहस्सीओ निसीयंती'त्यादीति, केमहड्डीए' इह यावत्करणादिदं दृश्य-'केमहजुइए केमहाणुभागे केमहायसे केमहाबले ?त्ति, 'बत्तीसाए विमाणावाससयसहस्साणं' इह यावत्करणादिदं दृश्य-चउरासीए सामाणियसाहस्सीणं तायत्तीसाए तायत्तीसगाणं [ग्रन्थाग्रम् ११०००] अण्हं अग्गमहिसीणं जाव अन्नेसिं च बहूर्ण जाव देवाणं देवीण य आहेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे'त्ति ॥ दशमशते षष्ठोद्देशकः ॥१०-६॥
॥५०७॥ | षष्ठोद्देशके सुधर्मसभोक्ता, सा चाश्रय इत्याश्रयाधिकारादाश्रयविशेषानन्तरद्वीपाभिधानान् मेरोरुत्तरदिग्वर्तिशिखरिपर्वतदंष्ट्रागतान लवणसमुद्रान्तर्ववर्तिनोऽष्टाविंशतिमभिघित्सुरष्टाविंशतिमुद्देशकानाह
पच्चं जाव कारेमाण [अन्यायमाससयसहस्सावत्करणादिद
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D
onal
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२०॥ तमतमतमता
०
॥
कहिन्नं भंते ! उत्तरिल्लाणं एगोरुयमणुस्साणं एगोरुयदीवे नामंदीवे पन्नत्ते?, एवं जहा जीवाभिगमे तहेव |
४१० शतके निरवसेसं जाव सुद्धदंतदीवोत्ति, एए अट्ठावीसं उद्देसगा भाणियवा। सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरति॥
७.३४ (सूत्रं०४०८)॥१०-३४ ॥ दसमं सयं समत्तं ॥१०॥
उत्तरान्त___ 'कहि णं भंते ! उत्तरिल्लाण'मित्यादि। 'जहा जीवाभिगमे' इत्ययमतिदेश:-पूर्वोक्तदाक्षिणात्यान्तरद्वीपवक्तव्यता:
द्वीपा:
सू ४०८ 5 नुसारेणावगन्तव्यः ॥ दशमशते चतुस्त्रिंशत्तम उद्देशकः समाप्तः ॥१०-३४ ॥ समाप्तं दशमं शतम् ॥ १०॥
-comइति गुरुजनशिक्षापार्श्वनाथप्रसादप्रसृततरपतत्रद्वन्द्वसामर्थ्यमाप्य । दशमशतविचारक्ष्माधराय्येऽधिरूढः, शकुनिशिशुरिवाहं तुच्छबोधाङ्गकोऽपि ॥१॥
AREERSTAR
॥इति श्रीमदभयदेवसूरिवरविहितभगवतीवृत्तौ दशमं शतकं समाप्तम् ॥ REPONSIPASANDIPASSAPNACS ID DHP5+03+29+PAPG+5+7+rasik
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HRKS
व्याख्याअथैकादशं शतकम् ॥
११ शतके प्रज्ञप्तिः
उत्पलोपअभयदेवी
पातादि या वृत्तिः२॥ व्याख्यातं दशमं शतं, अथैकादशं व्याख्यायते, अस्य चायमभिसम्बन्धः-अनन्तरशतस्यान्तेऽन्तरद्वीपा उक्तास्ते च
सू४०९ वनस्पतिबहुला इति वनस्पतिविशेषप्रभृतिपदार्थस्वरूपप्रतिपादनायैकादशं शतं भवतीत्येवंसम्बद्धस्यास्योद्देशकार्थसङ्ग्रहगाथा॥५०८॥
| उप्पल १ सालु २ पलासे ३ कुंभी ४ नाली य ५ पउम ६ कन्नी ७ य । नलिणसिव ९ लोग १० काला ११लंभिय १२ दस दो य एक्कारे ॥१॥ उववाओ १ परिमाणं २ अवहारु ३ चत्त ४ बंध ५ वेदे ६ य । उदए ७.5 उदीरणाए ८ लेसा ९दिट्ठी १० य नाणे ११ य ॥१॥जोगु १२ वओगे १३ वन्न १४ रसमाई १५ ऊसासगे |१६ य आहारे १७ । विरई १८ किरिया १९ बंधे २० सन्न २१ कसायि २२ त्थि २३ बंधे २४ य ॥२॥
सन्नि २५ दिय २६ अणुबंधे २७ संवेहा २८ हार २९ ठिइ ३० समुग्घाए ३१ । चयणं ३२ मूलादीसु य उववाओ ३३ सबजीवाणं ॥३॥ तेणं कालेणं तेणं समएणं रायगिहे जाव पजवासमाणे एवं वयासी-उप्पल | भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ?, गोयमा! एगजीवे नो अणेगजीवे, तेण परं जे अन्ने जीवा उवव- ॥५०८। जति ते.णं णो एगजीवा अणगेजीवा। तेणं भंते ! जीवा कओहिंतो उववजंति ? किं नेरइएहिंतो उववज्जति || तिरि० मणु देवेहिंतो उववजंति , गोयमा! नो नेरतिएहितोउववज्जति तिरिक्खजोणिएहितोवि उववजन्ति
24-6
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मणुस्सहिंतो० देवोहितोवि उववजंति, एवं उववाओ भाणियबो, जहा वकंतीए वणस्सइकाइयाणं जाव ईसानाणेति १ते णं भंते ! जीवा एगसमएणं केवइया उववजंति ?, गोयमा ! जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि ४ावा उक्कोसेणं संखेजा था असंखेज्जा वा उववजंति २ ते णं भंते ! जीवा समए २ अवहीरमाणा २ केवतिका
लेणं अवहीरंति ?, गोयमा! ते णं असंखेज्जा समए २ अवहीरमाणा २ असंखेजाहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहि अवहीरंति नो चेव णं अवहिया सिया ३। तेसि णं भंते ! जीवाणं केमहालिया सरीरोगाहणा पण्णत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेजइभागं उक्कोसेणं सातिरेगं जोयणसहस्सं ४। ते णं भंते ! जीवा |णाणावरणिजस्स कम्मरस किंबंधगा अबंधगा?, गोयमा!नोअबंधगा बंधए वा बंधगावा एवंजाव अंतराइयस्स, | नवरं आउयस्स पुच्छा, गोयमा! बंधए वा अबंधए वा बंधगावा अबंधगावा अहवा बंधए य अबंधए य अहवा बंधए य अबंधगा य अहवा बंधगा य अबंधए य अहवा बंधगा य अबंधगा य ८ एते अट्ट भंगा ५ ते है। भंते ! जीवा णाणावरणिज्जस्स कम्मस्स किं वेदगा अवेदगा?, गोयमा! नो अवेदगा वेदए वा वेदगा वा एवं जाव अंतराइयस्स, ते णं भंते ! जीवा किं सायावेयगा असायावेयगा?, गोयमा ! सायावेदए वा 8 असायावेयए वा अह भंगा ६ ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स किं उदई अणुदई , गोयमा ! मो अघुदई उदई वा उदइणो वा, एवं जाव अंतराइयस्स ७॥ ते णं भंते ! जीवा णाणावरणिजस्स कम्मस्स
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व्याख्या
किं उदीरगा०?, गोयमा ! नो अणुदीरगा उदीरए वा उदीरगा वा, एवं जाव अंतराइयस्स, नवरं वेयणिज्जा- ११शतके प्रज्ञप्तिः । उएसु अट्ठ भंगा ८ ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेसा नीललेसा काउलेसा तेउलेसा ?, गोयमा ! कण्हलेसे उत्पलोपअभयदेवी
वा जाव तेउलेसे वा कण्हलेस्सा वा नीललेस्सा वा काउलेस्सा वा तेउलेसा वा अहवा कण्हलेसे य नील-सा पाताद या वृत्तिः२
सू ४०९ लेस्से य एवं एए दुयासंजोगतियासंजोगचउक्कसंजोगेणं असीती भंगा भवंति ९॥ ते णं भंते ! जीवा किं ॥५०९॥ सम्मट्टिी मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी?, गोयमा ! नो सम्मदिट्ठी नो सम्मामिच्छादिट्ठी मिच्छादिट्टी
वा मिच्छादिट्ठिणो वा १० । ते णं भंते ! जीवा किं नाणी अन्नाणी ?, गोयमा ! नो नाणी अण्णाणी वा | अन्नाणिणो वा ११ । ते णं भंते ! जीवा किं मणजोगी वयजोगी कायजोगी?, गोयमा! नो मणजोगी को वयजोगी कायजोगी वा कायजोगिणो वा १२ । ते णं भंते ! जीवा किं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ?, गोयमा ! सागारोवउत्ते वा अणागारोवउत्ते वा अह भंगा १३ । तेसिणं भंते ! जीवाणं सरीरगा कतिवन्ना| कतिगंधा कतिरसा कतिफासा पन्नत्ता, गोयमा ! पंचवन्ना पंचरसा दुगंधा अट्ठफासा पन्नत्ता, ते पुण अप्पणा अवन्ना अगंधा अरसा अफासा पन्नत्ता १४-१५॥ ते णं भंते ! जीवा किं उस्सासा निस्सासा नो8
उस्सासनिसासा ?, गोयमा ! उस्सासए वा १ निस्सासए वा २ नो उस्सासनिस्सासए वा ३ उस्सासगा वा ४४ निस्सासगा वा ५नो उस्सासनीसासगा वा ६, अहवा उस्सासए य निस्सासए य ४ अहवा उस्सासए|
॥५०९॥
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य नो उस्सासनिस्सासए य अहवा निस्सासए य नो उस्सासनीसासए य ४, अहवा ऊसासए य नीसासए
य नो उस्सासनिस्सासए य अट्ठ भंगा एए छवीसं भंगा भवंति २६ ॥
∞
or or money
•o of or o
marga :
om
चतुष्कसंयोगे १६ भागा
३
१ १
१ ३ १
१
११
३ चतुष्कसंयोग
३
१
१
१ ३ ३ ३११
३
१
३ १
३ ३
१
३
१
१
३
११.३
११ ३
१ ३
१
१
३
३
३
३
३ ३ १
वं १२ १ त्रिकयोगे
८ भङ्गाः
१
१
३
१
३
१
३१
१
३
१३१
१३३
३
२
३ ११
३ १ ३
३१
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एवं दस
ते णं भंते ! जीवा किं आहारगा अणाहारगा ?, गोयमा ! नो अणाहारगा आहारए वा अणाहारए वा एवं अट्ठ भंगा १७ । ते णं भंते ! जीवा किं विरता अ | विरता विरताविरता ?, गोयमा ! नो विरता नो विरयाविरया अविरए वा अविरया वा १८ । ते णं भंते! जीवा किं सकिरिया
अकिरिया ?, गोयमा ! नो अकिरिया सकिरिए वा सकिरिया वा १९ ।
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११ शतके उत्पलोपपातादि सू ४०९
व्याख्या-8|ते णं भंते जीवा किं सत्तविहबंधगा अट्टविहबंधगा?,गोयमा! सत्सविहबंधए वा अहविहबंधए वा अभंगा प्रज्ञप्तिः २०। तेणं भंते ! जीवा किं आहारसन्नोवउत्ता भयसन्नोवउत्ता मेहुणसन्नोवउत्ता परिग्गहसन्नोवउत्ता ?, अभयदेवी- गोयमा ! आहारसन्नोवउत्ता वा असीती भंगा २१ । ते णं भंते ! जीवा किं कोहकसाई माणकसाई मायाया वृत्तिः२८ कसाई लोभकसाई ?, असीती भंगा २२ ते णं भंते ! जीवा किं इत्थीवेदगा पुरिसवेदगा नपुंसगवेदगा ?, ॥५१०॥
गोयमा ! नो इत्थिवेदगा नो पुरिसवेदगा नपुंसगवेदए वा नपुंसगवेदगा वा २३ । ते णं भंते ! जीवा कि इत्थीवेदबंधगा पुरिसवेदबंधगा नपुंसगवेदबंधगा ?, गोयमा ! इत्थिवेदबंधए वा पुरिसवेदबंधए वा नपुंसगवेयबंधए वा, छबीसं भंगा २४ । ते णं भंते ! जीवा किं सन्नी असन्नी ?, गोयमा ! नो सन्नी असन्त्री वा | असनिणो वा २५ ते णं भंते ! जीवा किं सइंदिया अणिदिया , गोयमा! नो अणिदिया सइंदिए वा सइंदिया वा २६ । से णं भंते ! उप्पलजीवेति कालतो केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं असंखेनं कालं २७ । से णं भंते ! उप्पलजीवे पुढविजीवे पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवतियं कालं सेवेजा ?, केवतियं कालं गतिरागतिं करेजा ?, गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई उकोसेणं असंखजाई भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ता उक्कोसेणं असंखेजं कालं, एवतियं कालं सेवेज्जा एवतियं कालं गतिरागतिं करेजा, सेणं भंते ! उप्पलजीवे आउजीवे एवं चेव एवं जहा पुढविजीवे भणिए तहा जाव वाउजीवे भाणियत्वे, सेणं भंते ! उप्पलजीवे से वणस्सइजीचे से पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केव
॥५१०॥
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इयं काल सेवेजा केवतियं कालं गतिरागतिं कजइ ?, गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं अणंताई भवग्गहणाई, कालाएसेणं जहन्नेणं दोअंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं अणंतं कालं तरुकालं एवइर्यकाल सेवेज्जा एवइयं कालं गतिरागतिं कज्जइ, सेणं भंते ! उप्पलजीवे बेइंदियजीवे पुणरवि उप्पलजीवेत्ति केवइयं| कालं सेवेजा केवइयं कालंगतिरागतिं कजइ ?,गोयमा!भवादेसेणं जहन्नेणं दो भवग्गहणाई उक्कोसेणं संखेजाई भवग्गहणाई, कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्ता उक्कोसेणं संखेनं कालं एवतियं काल सेवेज्जा एवतियं कालं| गतिरागतिं कजइ, एवं तेइंदियजीवे, एवं चरिंदियजीवेवि, से णं भंते! उप्पलजीवे पंचेंदियतिरिक्खजोणियजीवे पुणरवि उप्पलजीवेत्ति पुच्छा, गोयमा ! भवादेसेणं जहन्नणं दोभवग्गहणाई उक्कोसेणं अट्ठ भवग्गहणाई कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहत्ताई उक्कोसेणं पुवकोडिपुहुत्ताई एवतियं कालं सेवेजा एवतियं कालं गतिरागतिं करेजा, एवं मणुस्सेणवि समं जाव एवतियं कालं गतिरागति करेजा २८ । ते णं भंते ! जीवा किमाहारमाहारेति ,गोयमा ! दखओ अणंतपएसियाइं दवाई एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सइकाइयाणं आहारो तहेव जाव सवपणयाए आहारमाहारेंति नवरं नियमा छद्दिसिं सेसं तं चेव २९ । तेसि णं भंते ! जीवाणं केवइयं कालं ठिई पण्णत्ता?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं दस वाससहस्साई ३० । तेसि णं भंते !
जीवाणं कति समुग्धाया पण्णत्ता ?, गोयमा ! तओ समुग्धाया पण्णत्ता, तंजहा-वेदणासमुग्धाए कसाजायस मारणंतियस. ३१ ते णं भंते। जीवा मारणंतियसमुग्घाएणं किं समोहया मरंति असमोहया मरंति,
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११ शतक १ उद्देश उत्पलाधि. कारः सू ४०९
व्याख्या- | गोयमा ! समोहयावि मरंति असमोहयावि मरंति ३२ । ते णं भंते ! जीवा अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छंति प्रज्ञप्तिः
कहिं उववजंति किं नेरइएसु उववजंति तिरिक्खजोणिएसु उवव० एवं जहा वकंतीए उबट्टणाए वणस्सइ-1 अभयदेवीया वृत्तिः२||
काइयाणं तहा भाणियत्वं । अह भंते ! सबपाणा सबभूया सवजीवा सबसत्ता उप्पलमूलत्ताए उप्पलकंद
त्ताए उप्पलनालत्ताए उप्पलपत्तत्ताए उप्पलकेसरत्ताए उप्पलकन्नियत्ताए उप्पलथिभुगत्ताए उववन्नपुषा ?, ॥५१॥ हंता गोयमा ! असतिं अदुवा अणंतक्खुत्तो। सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति ३३॥(सू०४०९)। उप्पलुद्देसए॥११-१॥
। 'उप्पले'त्यादि, उत्पलार्थः प्रथमोद्देशकः १ 'सालु'त्ति शालूकं-उत्पलकन्दस्तदर्थो द्वितीयः २ पलासे'त्ति पलाशःकिंशुकस्तदर्थस्तृतीयः ३ 'कुंभीति वनस्पतिविशेषस्तदर्थश्चतुर्थः ४ नाडीवद्यस्य फलानि स नाडीको-वनस्पतिविशेष एव || तदर्थः पञ्चमः ५ 'पउमति पद्मार्थः षष्ठः ६ 'कन्नीय'त्ति कर्णिकार्थः सप्तमः ७ 'नलिण'त्ति नलिनार्थोऽष्टमः ८ यद्यपि चोत्पलपद्मनलिनानां नामकोशे एकार्थतोच्यते तथाऽपीह रूढेविशेषोऽवसेयः, 'सिव'त्ति शिवराजर्षिवक्तव्यतार्थों नवमः ९ 'लोग'त्ति लोकार्थो दशमः १० 'कालालभिए'त्ति कालार्थ एकादशः ११ आलभिकायां नगर्यो यत्प्ररूपितं तत्प्रतिपादक उद्देशकोऽप्यालभिक इत्युच्यते ततोऽसौ द्वादश १२, 'दस दो य एक्कारि'त्ति द्वादशोदेशका एकादशे शते भवन्तीति । तत्र प्रथमोद्देशकद्वारसङ्ग्रहगाथा वाचनान्तरे दृष्टास्ताश्चेमाः–'उववाओ'इत्यादि, एतासां चार्थ उद्देशकार्थाधिगमगम्य इति ॥ 'उप्पले णं भंते ! एगपत्तए'इत्यादि, 'उत्पलं' नीलोत्पलादि एक पत्रं यत्र तदेकपत्रकं अथवा | एकं च तत्पत्रं चैकपत्रं तदेवैकपत्रकं तत्र सति, एकपत्रक चेह किशलयावस्थाया उपरि द्रष्टव्यम् , 'एगजीवे'त्ति यदा
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॥५
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हि एकपत्रावस्थं तदैकजीवं तत्, यदा तु द्वितीयादिपत्रं तेन समारब्धं भवति तदा नैकपत्रावस्था तस्येति बहवो जीवातत्रोत्पद्यन्त इति एतदेवाह - 'तेण पर' मित्यादि, 'तेण परं'ति ततः - प्रथमपत्रात् परतः 'जे अन्ने जीवा उववज्जंति'त्ति येऽन्ये - प्रथमपत्रव्यतिरिक्ता जीवा जीवाश्रयत्वात्पत्रादयोऽवयवा उत्पद्यन्ते ते 'नैकजीवा' नैकजीवाश्रयाः | किन्त्वनेकजीवाश्रया इति, अथवा 'तेणे'त्यादि, ततः- एकपत्रात्परतः शेषपत्रादिष्वित्यर्थः येऽन्ये जीवा उत्पद्यन्ते ते 'नैकजीवा' नैककाः किन्त्वनेकजीवा अनेके इत्यर्थः ॥ 'ते णं भंते ! जीव'त्ति ये उत्पले प्रथमपत्राद्यवस्थायामुत्पद्यन्ते 'जहा वक्कंतीए 'त्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे, स चैवमुपपातः - 'जइ तिरिक्खजोणिएहिंतो उववजंति किं एगिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति जाव पंचिंदियतिरिक्खजोणिएहिंतो उववज्जंति ?, गोयमा ! एगिं दियतिरिक्खजोणिएहिं| तोवि उववज्जंति' इत्यादि, एवं मनुष्यभेदा वाच्या: - 'जइ देवेहिंतो उववज्र्ज्जति किं भवणवासी' त्यादि प्रश्नो निर्वचनं च ईशानान्तदेवेभ्य उत्पद्यन्त इत्युपयुज्य वाच्यमिति, तदेतेनोपपात उक्तः ॥ 'जहन्त्रेण एक्को वे'त्यादिना तु परिमाणम् २ । 'ते णं असंखेज्जा समए' इत्यादिना त्वपहार उक्तः, एवं द्वारयोजना कार्या ३ । उच्चत्वद्वारे 'साइरेगं जोयणसहस्सं'ति तथाविधसमुद्रगोतीर्थका दाविदमुच्चत्वमुत्पलस्यावसेयम् ४ । बन्धद्वारे 'बंधए बंधया व'त्ति एकपत्रावस्थायां | बन्धक एकत्वात् द्व्यादिपत्रावस्थायां च बन्धका बहुत्वादिति, एवं सर्वकर्मसु, आयुष्त्रे तु तदबन्धावस्थाऽपि स्यात् तद्|| पेक्षया चाबन्धकोऽपि अबन्धका अपि च भवन्तीति एतदेवाह - 'नवर 'मित्यादि, इह बन्धकाबन्धकपदयोरेकत्वयोगे एकवचनेन द्वौ विकल्पौ बहुवचनेन च द्वौ द्विकयोगे तु यथायोगमेकत्व बहुत्वाभ्यां चत्वारः इत्येवमष्टौ विकल्पाः,
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५१२ ॥
स्थापना - वं १, अ. १, बं ३, अ ३, बं १ अ १, बं १ अ ३, बं ३ अ १, बं ३ अनं ३ । ५ । वेदनद्वारे ते भदन्त । जीवा | ज्ञानावरणीयस्य कर्मणः किं वेदका अवेदकाः ?, अत्रापि एकपत्रतायामेकवचनान्तता अन्यत्र तु बहुवचनान्तता एवं यावदन्तरायस्य, वेदनीये सातासाताभ्यां पूर्ववदष्टौ भङ्गाः, इह च सर्वत्र प्रथमपत्रापेक्षयैकवचनान्तता, ततः परं तु बहुवचनान्तता, वेदनं अनुक्रमोदितस्योदीरणोदीरितस्य वा कर्म्मणोऽनुभवः, उदयश्चानुक्रमोदितस्यैवेति वेदकत्वप्ररूपणेsपि भेदेनोदयित्वप्ररूपण ७ मिति । उदीरणाद्वारे 'नो अणुदीरग'त्ति तस्यामवस्थायां तेषामनुदीरकत्वस्यासम्भवात् । 'वेयणिजाउएस अट्ठ भंग' त्ति वेदनीये - सातासातापेक्षया आयुषि पुनरुदीरकत्वानुदीरकत्वापेक्षयाऽष्टौ भङ्गाः, अनुदीरकत्वं चायुष उदीरणायाः कादाचित्कत्वादिति ॥ लेश्याद्वारेऽशीतिर्भङ्गाः, कथम् ?, एककयोगे एकवचनेन चत्वारो बहुवचनेनापि चत्वार एव, द्विकयोगे तु यथायोगमेकवचनबहुवचनाभ्यां चतुर्भङ्गी, चतुर्णां च पदानां षड् द्विकयोगास्ते च चतुर्गुणाश्चतुर्विंशतिः, त्रिकयोगे तु त्रयाणां पदानामष्टौ भङ्गाः, चतुर्णा च पदानां चत्वारस्त्रिकसंयोगास्ते चाष्टाभिर्गुणिता द्वात्रिंशत्, चतुष्कसंयोगे तु षोडश भङ्गाः, सर्वमीलने चाशीतिरिति, अत एवोक्तं 'गोयमा ! कण्हलेसे वे'त्यादि ॥ वर्णादिद्वारे 'ते पुण अप्पणा अवन्न'त्ति शरीराण्येव तेषां पञ्चवर्णादीनि ते पुनरुत्पलजीवाः 'अप्पण'त्ति स्वरूपेण 'अवर्णा' वर्णादिवर्जिताः अमूर्त्तत्वात्तेषामिति ॥ उच्छ्रासकद्वारे 'नो उस्सासनिस्सास ए ति अपर्याप्तावस्थायाम्, इह च षड्विंशतिर्भङ्गाः, कथम् ?, एककयोगे एकवचनान्तास्त्रयः बहुवचनान्ता अपि त्रयः, द्विकयोगे तु यथायोगमेकत्व बहुत्वाभ्यां तिस्रश्चतुर्भङ्गिका इति द्वादश, त्रिकयोगे त्वष्टाविति, अत एवाह - 'एए छबीसं भंगा भवंति 'त्ति ॥
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१९ शतके १ उद्देशः उत्पलाधिकारः
सू ४०९
॥५१२॥
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आहारकद्वारे 'आहारए वा अणाहारए वति विग्रहगतावनाहारकोऽन्यदा त्वाहारकस्तत्र चाष्टौ भङ्गाः पूर्ववत् । सम्झाद्वारे कषायद्वारे चाशीतिर्भङ्गाः लेश्याद्वारवद्व्याख्येयाः । 'से णं भंते ! उप्पलजीवेत्ति इत्यादिनोत्पलत्वस्थितिरनुबन्धपर्यायतयोक्ता । 'से णं भंते ! उप्पलजीवे पुढविजीवेत्ति इत्यादिना तु संवेधस्थितिरुक्ता, तत्र च 'भवादेसेणं'ति भवप्रकारेण भवमाश्रित्येत्यर्थः 'जहन्नेणं दो भवग्गहणाई' ति एकं पृथिवीकायिकत्वे ततो द्वितीयमुत्पलत्वे ततः परं मनुष्यादिगतिं गच्छेदिति । 'कालादेसेणं जहन्नेणं दो अंतोमुहुत्त 'ति पृथिवीत्वेनान्तर्मुहूर्त्त पुनरुत्पलत्वे | नान्तर्मुहूर्त्तमित्येवं कालादेशेन जघन्यतो द्वे अन्तर्मुहूर्त्ते इति, एवं द्वीन्द्रियादिषु नेयम्, 'उकोसेणं अट्ठ भवग्गह| णाई'ति चत्वारि पञ्चेन्द्रियतिरश्चश्चत्वारि चोत्पलस्येत्येवमष्टौ भवग्रहणान्युत्कर्षत इति, 'उकोसेणं पुचकोडी पुष्टुत्तं' ति चतुर्षु पश्चेन्द्रियतिर्यग्भवग्रहणेषु चतस्रः पूर्वकोव्यः उत्कृष्टकालस्य विवक्षितत्वेनोत्पलकायोद्वृत्त जीवयोग्योत्कृष्ट पश्चेन्द्रिय| तिर्यक् स्थितेर्भहणात् उत्पलजीवितं त्वेतास्वधिकमित्येवमुत्कृष्टतः पूर्वकोटीपृथक्त्वं भवतीति । 'एवं जहा आहारुद्देसए वणस्सइकाइयाण' मित्यादि, अनेन च यदतिदिष्टं तदिदं - 'खेत्तओ असंखेज्जपएसोगाढाई कालओ अन्नयरकालट्ठियाई भावओ वन्नमताई' इत्यादि, 'सङ्घप्पणयाए 'त्ति सर्वात्मना 'नवरं नियमा छद्दिसिं'ति पृथिवीकायिकादयः सूक्ष्मतया निष्कुटगतत्वेन स्यादिति स्यात् तिसृषु दिक्षु स्याच्चतसृषु दिक्षु इत्यादिनापि प्रकारेणाहारमाहारयन्ति, उत्पलजीवास्तु बादरत्वेन तथाविधनिष्कुटेष्वभावान्नियमात्षट्सु दिक्ष्वाहारयन्तीति । 'वक्कंतीए 'त्ति प्रज्ञापनायाः षष्ठपदे 'उब| हणाए 'ति उद्वर्त्तनाधिकारे, तत्र चेदमेवं सूत्रं - 'मणुपसु उववज्जंति देवेसु उववज्जंति ?, गोयमा ! नो नेरइएसु उव
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५१३॥
वज्रंति तिरिएसु उववज्जंति मणुएसु उववज्र्ज्जति नो देवेसु उववज्जंति' उप्पल के सरत्ताए' त्ति इह केसराणि कर्णिकायाः परितोऽवयवाः 'उप्पलकन्नियत्ताए'त्ति इह तु कर्णिका - बीजकोशः 'उप्पलधिभुगत्ताए'त्ति थिभुगा च यतः पत्राणि प्रभवन्ति ॥ एकादशशते प्रथमोद्देशकः ॥ १११ ॥
सालु णं भंते! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ?, गोयमा ! एगजीवे एवं उप्पलुद्देसगवन्तइया अपरिसेसा भाणियता जाव अनंतखुत्तो, नवरं सरीरोगाहणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं धणुपुहुत्तं, सेसं तं चैव । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ ( सूत्रं ४१० ) ११ -२ ॥
पलासे णं भंते ! एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ?, एवं उप्पलुद्देसगवत्तवया अपरिसेसा भाणियधा, नवरं सरीरोगाणा जहन्नेणं अंगुलस्स असंखेज्जइभागं उक्कोसेणं गाउयपुत्ता, देवा एएस चेव न उबवजंति । लेसासु ते णं भंते ! जीवा किं कण्हलेसे नीललेसे काउलेसे० १, गोयमा ! कण्हलेस्से वा नीललेस्से वा काउलेस्से वा छवीसं भंगा, सेसं तं चैव । सेवं भंते ! २ ति ॥ (सूत्रं ४११ ) ॥ ११-३ ॥
कुंभिए णं भंते जीवे एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे ?, एवं जहा पलासुद्देसए तहा भाणियचे, नवरं ठिती जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं वासपुहुत्तं, सेसं तं चैव । सेवं भंते ! सेवं भंतेति ॥ ( सू० ४१२ ) ११ - ४॥ लिए णं भंते । एगपत्तए किं एगजीवे अणेगजीवे १, एवं कुंभिउद्देसगवत्तवया निरवसेसं भाणियचा । सेवं भंते ! सेवं भंते त्ति ॥ ( सूत्रं ४१३ ) ॥ ११-५ ॥
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११ शतक २- ५ उद्देशाः शालूकाद्यधकारः सू
| ४१०-४१३
॥५१३॥
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पउमे णं भंते ! एगपत्तए कि एगजीवे अणेगजीवे ?, एवं उपलुद्देसगवत्तवया निरवसेसा भाणियवा।। 8 सेवं भंते ! सेवं भंते !त्ति ॥ (सूत्रं ४१४)॥११-६॥ दि कन्निएणंभंते!एगपत्तए किं एगजीवे०?, एवं चेव निरवसेसंभाणियवासेवं भंते सेवं भंते त्ति(सूत्र४१५)११-७॥
नलिणेणंभंते!एगपत्तए किंएगजीवे अणेगजीवे?, एवं चेव निरवसेसंजाव अणंतक्खुत्तो॥सेवं भंते सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ४१६)११-८॥ है. शालूकोद्देशकादयः सप्तोद्देशकाः प्राय उत्पलोद्देशकसमानगमाः, विशेषः पुनर्यो यत्र स तत्र सूत्रसिद्ध एव, नवरं पला-3
शोद्देशके यदुक्तं 'देवेसु न उववजंति'त्ति तस्यायमर्थः-उत्पलोद्देशके हि देवेभ्य उद्वत्ता उत्पले उत्पद्यन्त इत्युक्तमिह त पलाशे नोत्पद्यन्त इति वाच्यम् , अप्रशस्तत्वात्तस्य, यतस्ते प्रशस्तेष्वेवोत्पलादिवनस्पतित्पद्यन्त इति । तथा 'लेसासुत्ति लेश्याद्वारे इदमध्येयमिति वाक्यशेषः, तदेव दर्यते-ते ण'मित्यादि, इयमत्र भावना-यदा किल तेजोलेश्या
युतो देवो देवभवादुद्वृत्त्य वनस्पतिघूत्पद्यते तदा तेषु तेजोलेश्या लभ्यते, न च पलाशे देवत्वोद्वृत्त उत्पद्यते पूर्वोक्तयुक्ते, 8| एवं चेह तेजोलेश्या न संभवति, तदभावादाद्या एव तिम्रो लेश्या इह भवन्ति, एतासु च षविंशतिर्भङ्गकार, प्रयाणां ||
१ शाले धनुःपृथक्त्वं भवति पलाशे च गव्यूतपृथक्त्वं । योजनसहस्रमधिकमवशेषाणां तु षण्णामपि ॥ १॥ कुंभ्यां नालिकायां वर्ष| पृथक्त्वं तु स्थितिबर्बोद्धव्या । दश वर्षसहस्राणि अवशेषाणां तु षण्णामपि ॥२॥ कुंभ्यां नालिकायां भवन्ति पलाशे च तिस्रो लेश्याः ।। |चतस्रो लेश्यास्तु अवशेषाणां पञ्चानां तु ॥ ३॥
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व्याख्या- पदानामेतावतामेव भावादिति । एतेषु चोद्देशकेषु नानात्वसङ्ग्रहार्थास्तिस्रो गाथा:-“सालंमि धणुपुहत्तं होइ पलासे य ११ शतके
प्रज्ञप्तिः गाउयपुहत्तं । जोयणसहस्समहियं अवसेसाणं तु छण्डंपि ॥१॥ कुंभीए नालियाए वासपुहत्तं ठिई उ बोद्धबा । दस वा- ४६-७-८ 3अभयदेवी-द ससहस्साई अवसेसाणं तु छण्डंपि॥२॥कुंभीए नालियाए होंति पलासे य तिन्नि लेसाओ। चत्तारि उ लेसाओ अवसेसाणं | देशाः या वृत्तिः२ तु पंचण्डं ॥३॥" एकादशशते द्वितीयादयोऽष्टमान्ताः ॥११-८॥
का पद्मादिसू
४१४-४१६ ४५१४॥
अनन्तरमुत्पलादयोऽर्था निरूपिताः, एवंभूतांश्चार्थान् सर्वज्ञ एव यथावज्ज्ञातुं समर्थो न पुनरन्यो, द्वीपसमुद्रानिव |११ शतके |शिवराजर्षिः, इति सम्बन्धेन शिवराजर्षिसंविधानकं नवमोद्देशकं प्राह, तस्य चेदमादिसूत्रम्
|९ रद्देश: तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणापुरे नाम नगरे होत्था वन्नओ, तस्स णं हथिणागपुरस्स नगरस्स
शिवराजःबहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभागे एत्थ णं सहसंबवणे णाम उजाणे होत्था सबोउयपुष्फफलसमिद्धे रम्मे |स्तापसता गंदणवणसंनिप्पगासे सुहसीयलच्छाए मणोरमे सादुफले अकंटए पासादीए जाव पडिरूवे, तत्थ णं इत्थिणा
सू४१७ पुरे भगरे सिवे नाम राया होत्था महयाहिमवंत बन्नओ, तस्स णं सिवस्स रन्नो धारिणी नामं देवी होत्था सुकमाल पाणिपाया वन्नओ, तस्स णं सिवस्स रन्नो पुत्ते धारणीए अत्तए सिवभद्दए नाम कुमारे होत्था सुकुमाल जहा सूरियकंते जाव पञ्चुवेक्खमाणे पनवेक्खमाणे विहरह,तए तस्स सिवस्स रनो अन्नया कयावि
॥५१४॥ | पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि रजधुरंर्चितेमाणस्स अयमेयारूवे अब्भस्थिए जाव समुप्पज्जित्था-अस्थि ता में पुरा पोराणाणं जहा तामलिस्स जाव पुत्तेहिं पहामि पसूहि वडामि रज्जेणं वहामि एवं रटेणं बलेणं वाहणेणं ||8
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कोसेणं कोट्ठागारेणं पुरेणं अंतेउरेणं वहामि विपुलधणकणगरयणजा वसंतसारसावएज्जेणं अतीव २ अभिबहामि तं किन्नं अहं पुरा पोराणाणं जाव एगंतसोक्खयं उद्देहमाणे विहरामि १, तं जाव ताव अहं हिर| नेणं बहामि तं चैव जाव अभिवामि जाव मे सामंतरायाणोवि वसे वति ताव ता मे सेयं कल्लं पाउप्पभयाए जाव जलते सुबहु लोहीलोहकडाहकडुच्छ्रयं तंबियं तावसभंडगं घडावेत्ता सिवभद्दं कुमारं रज्जे | ठावेत्ता तं सुषहुं लोहीलोहक डाह कडुच्छुयं तंबियं ताव सभंडगं गहाय जे इमे गंगाकूले वाणपत्था तावसा भवंति, तं० - होत्तिया पोत्तिया कोत्तिया जन्नई सहई थालई जंच उट्ठदंतुक्खलिया उम्मज्जया संमज्जगा निमज्जगा संपक्वाला उद्धकंडूया अहोकंडूयगा दाहिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमया कूलधमगा मितलुद्धा हत्थितावसा जलाभिसेयकिढिणगाया अंबुवासिणो वाउवासिणो जलवासिणो चेलवासिणो अंबुभक्खिणो वायभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा पत्ताहारा पुष्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलपंडुपत्तपुप्फफलाहारा उद्दंडा रुक्खमूलिया वालवासिणो वक्कपासिणो दिसापोक्खिया आयावणाहिं पंचग्गितावेहिं इंगालसोल्लियंपिव कंडुसोल्लियंपिव कट्ठसोल्लियंपिव अप्पाणं जाव करेमाणा विहरंति जहा उववाइए जाव कट्ठसोल्लियंपिव अप्पाणं करेमाणा विहरंति ॥ तत्थ णं जे ते दिसापोक्खियतावसा तेसिं अंतियं मुंडे |भविता दिसापोक्खियतावसत्ताए पञ्चइन्तए, पचइएवि य णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिहिस्सामि - कप्पर मे जावज्जीवाए छटुंछट्टेणं अनिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं तवोकम्मेणं उहुं बाहाओ पगि
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
अभयदेवीबावृत्तिः२|
॥५१५॥
झिय २ जाव विहरित्तएत्तिकह, एवं संपेहेति संपेहेत्ता कल्लं जाव जलते सुबहुं लोहीलोह जाव घडावेत्ता कोडं ११शतके बियपुरिसे सहावेइ सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हत्थिणागपुरं नगरं सम्भितर-| | ९ उद्देश: बाहिरियं आसिय जाव तमाणत्तियं पञ्चप्पिणंति, तए णं से सिवे राया दोचंपि कोडुंबियपुरिसे सहावेंति २||शिवराजर्षेएवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! सिवभहस्स कुमारस्स महत्थं ३ विउलं रायाभिसेयं उवट्ठवेह, स्तापसता तएणं ते कोटुंबियपुरिसा तहेव उवट्ठवेंति, तए णं से सिवे राया अणेगगणनायगदंडनायग जाव संधिपाल सद्धिं संपरिखुडे सिवभई कुमारं सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहं निसीयावेन्ति २ अट्ठसएणं सीवनियाणं कलसाणं जाव अट्ठसएणं भोमेजाणं कलसाणं सबिड्डीए जाव रवेणं महया २रायाभिसेएणं अभिसिंचइ २ पम्हलसुकुमालाए सुरभिए गंधकासाईए गायाई लूहेइ पम्ह०२ सरसेणं गोसीसेणं एवं जहेव जमालिस्स अलंकारो तहेव जाव कप्परुक्खगंपिव अलंकियविभूसियं करेंति २ करयल जाव कडु सिवभई कुमारं जएणं विजएणं वद्धावेंति जएणं विजएणं वद्धावेत्ता ताहिं इटाहिं कंताहिं पियाहिं जहा उववाइए कोणियस्स | जाव परमाउं पालयाहि इहजणसंपरिवुडे हथिणपुरस्स नगरस्स अन्नेसिं च बढणं गामागरनगर जाव विहराहित्तिकद्दु जयजयसई परंजंति, तए णं से सिवभद्दे कुमारे राया जाए महया हिमवंत० वन्नओ जाव विहरह, तए णं से सिवे राया अन्नया कयाई सोभणसि तिहिकरणदिवसमुहत्तनक्खत्तसि विपुलं असणपाण- ॥१५॥ खाइमसाइमं उवक्खडावेंति उवक्खडावेत्ता मित्तणाइनियगजावपरिजणं रायाणो प खत्तिया आमंतेति || Di
एवं जहेव जमालिसल
करेंति २ कर
" विजएणं वद्धावेतय
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3
4
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आमंतेत्ता तओ पच्छा पहाए जाव सरीरे भोयणवेलाए भोयणमंडवंसि सुहासणवरगए तेणं मित्तणातिनियगसयण जाव परिजणेणं राएहि य खत्तिएहि य सद्धिं विपुलं असणपाणखाइमसाइमं एवं जहा तामलीजाव सकारेति संमाणेति सकारत्ता संमाणेत्ता तं मित्तणाति जाव परिजणं रायाणो य खत्तिए य सिवभई च रायाणं आपुच्छह आपुच्छित्ता सुबहुं लोहीलोहकडाहकडुच्छं जाव भंगं गहाय जे इमे गंगाकूलगा वाणपत्था तावसा भवंति तं चेव जाव तेसिं अंतियं मुंडे भवित्ता दिसापोक्खियतावसत्ताए पदइए, पवइएsविय णं समाणे अयमेयारूवं अभिग्गहं अभिगिण्हइ-कप्पइ मे जावजीवाए छटुं तं चेव · जाव अभिग्गहं अभिगिण्हह २ पढमं छट्टक्खमणं उवसंपजित्ताणं विहरइ । तए णं से सिवे रायरिसी पढमछट्टक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीए पचोरुहइ आयावणभूमिए पच्चोरुहित्ता वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेवउवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता किडिणसंकाइयगं गिण्हइ गिण्हित्ता पुरच्छिमं दिसं पोक्खेइ पुरच्छिमाए दिसाए सोमे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवे रायरिसी अभि०२, जाणि य तत्थ कंदाणि य मूलाणि य तयाणि य पत्ताणि य पुप्फाणि य फलाणि य बीयाणि य हरियाणि य ताणि अणुजाणउत्ति कट्ट पुरच्छिमं दिसं पसरति पुर०२ जाणि य तत्थ कंदाणि य जाव हरियाणि य ताई गेण्हइ २ किढिण
संकाइयं भरेह कढि० २ दन्भे य कुसे य समिहाओ य पत्तामोडं च गेण्हेइ २ जेणेव सए उडए तेणेव उवा है गच्छइ २ किढिणसंकाइयगं ठवेइ किढि० २ वेदि वढेइ २ उवलेवणसंमज्जणं करेइ उ०२ दन्भसगन्भकलसा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २ १
॥५१६॥
हत्थगए जेणेव गंगा महानदी तेणेव उवागच्छइ गंगा महानदीं ओगाहेति २ जलमजणं करेह २ जलकीडंकरेह २ जलाभिसेयं करेति २ आयंते चोक्खे परमसुइभूए देवयपितिकयकज्जे दग्भसगन्भकल साहत्थगए गंगाओ महानईओ पच्चुत्तरइ २ जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता दन्भेहि य कुसेहि व वालुयाएहि य वेतिं रएति वेतिं रएता सरएणं अरणिं महेति सर० २ अगिंग पाडेति २ अरिंग संधुकेह २ समिहाकट्ठाई पक्खिवह समिहाकट्ठाई पक्खिवित्ता अरिंग उज्जालेइ अरिंग उज्जालेत्ता - 'अग्गिस्स दाहिणे पासे, सत्तंगाई समादहे । तं०-सकहं वक्कलं ठाणं, सिज्जा भंडं कमंडलुं ॥ १ ॥ दंडदारुं तहा पाणं अहे ताई समादद्दे ॥ महुणा य घएण य तंदुलेहि य अरिंग हुई, अरिंग हुणित्ता चरुं साहेइ, चरुं साहेत्ता बलि वहस्सदेवं करेह बलिं वहस्सदेवं करेत्ता अतिहिपूयं करेइ अतिहिपूयं करेत्ता तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेति, तए णं से सिवे रायरिसी दोघं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरह, तए णं से सिवे रापरिसी दोचे छट्ठक्खमणपारणगंसि आयावणभूमीओ पचोरुहद्द आयावण० २ एवं जहा पढमपारणगं नवरं दाहिणगं दिसं पोक्खेति २ दाहिणाए दिसाए जमे महाराया पत्थाणे पत्थियं सेसं तं चेव आहारमाहारेह, तए णं से सिवरायरिसी तथं छट्ठक्खमणं उवसंपजित्ताणं विहरति, तए णं से सिवे रायरिसी सेसं तं चेव नवरं पञ्चच्छिमाए दिसाए वरुणे महाराया पत्थाणे पत्थियं सेसं तं चैव जाव आहारमाहारेह, तए णं से सिवे रायरिसी चउत्थं छट्ठक्खमणं उवसंपज्जित्ताणं विहरह, तए णं से सिवे रायरिसी चत्थं छट्ठक्खमणं एवं
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११. शतके ९ उद्देशः शिवराजर्षेस्तापसता
॥५१६॥
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तं चेव नवरं उत्तरदिसं पोक्खेइ उत्तराए दिसाए वेसमणे महाराया पत्थाणे पत्थियं अभिरक्खउ सिवं, 3|| सेसं तं चेव जाव तओ पच्छा अप्पणा आहारमाहारेइ (सूत्रं ४१७) तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स छटुंछ?णं अनिक्खित्तेणं दिसाचक्कवालेणं जाव आयावेमाणस्स पगइभद्दयाए जाव विणीययाए अन्नया कयावि तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पन्ने, से णं तेणं विभंगनाणेणं समुप्पन्नेणं पासइ अस्सि लोए सत्त दीवे सत्त समुद्दे तेण परं न जाणति न पासति, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पन्जित्था-अस्थि णं मम अइसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने एवं खलु अस्सि लोए सत्त दीवा सत्त समुद्दा तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, एवं संपेहेइ एवं० २ आयावणभूमीओ पच्चोरुहइ आ० २ वागलवत्थनियत्थे जेणेव सए उडए तेणेव उवागच्छइ २ सुबहुं लोहीलोहकडाहकडुच्छुयं जाव भंडगं किढिणसंकाइयं च गेण्हइ २ जेणेव हत्थिणापुरे नगरे जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ उवा०२ भंडनिक्खेवं करेइ २ हथिणांपुरे नगरे सिंघाडगतिगजावपहेसु बहुजणस्स एवमाइक्खइ जाव एवं परूवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, एवं खलु अस्सि लोए जाव दीवा य समुद्दा य, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म हथिणापुरे नगरे सिंघाडगतिगजाव पहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-एवं खलु देवाणुप्पिया! सिवे रायरिसी एवं आइक्खइ जाव परूवेइ-अस्थि णं देवाणु
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व्याख्या. प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५१७॥
पिया ! ममं अतिसेसे नाणदंसणे जाच तेण परं बोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, से कहमेयं मन्ने एवं ? | | तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसढे परिसा जाव पडिगया । तेणं कालेणं तेणं समएणं समणस्स भगवओ महावीरस्स जेद्वे अंतेवासी जहा वितियसए नियंटुद्देसए जाव अडमाणे बहुजणसहं निसामेइ बहु| जणो अन्नमन्नस्स एवं आइक्खइ एवं जाव परुवेइ एवं खलु देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवं आइक्खह जाव परूवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया ! तं चैव जाव वोच्छिन्ना दीवा समुद्दा य, से कहमेयं मन्ने एवं १, तए णं भगवं गोयमे बहुजणस्स अंतियं एपमहं सोच्चा निसम्म जाव सढे जहा नियंडुद्देसए जाव तेण परं वो च्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, से कहमेयं भंते । एवं ? गोयमादि समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं एवं वयासी-जन्नं गोयमा ! से बहुजणे अन्नमन्नस्स एवमातिक्खइ तं चैव सवं भाणियवं जाव भंडनिक्खेवं करेति | हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग० तं चैव जाव वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतिए एयमहं सोचा निसम्म तं चैव सवं भाणियवं जाव तेण परं वोच्छिन्ना दीवा य समुद्दा य तण्णं मिच्छा, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा संठाणओ एगविहिविहाणा वित्थारओ अणेगविहिविहाणा एवं जहा जीवाभिगमे जाव सयंभूरमणपज्जवसाणा अस्सि तिरियलोए असंखेजे दीवसमुद्दे पन ते समणाउसो ! ॥ अस्थि णं भंते ! जंबुद्दीवे दीवे दवाई सवन्नापि अवन्नाइंपि सगंधाइंपि अगंधाइंपि सरसाइंपि अरसाइंपि सफासाइंपि अफासाइंपि अन्नमन्नद
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११ शतके ९ उद्देशः शिवराजबोधः
सू ४१८
॥ ५१७॥
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द्धाइं अन्नमन्नपुट्ठाई जाव घडताए चिट्ठति?, हंता अस्थि। अत्थि णं भंते ! लघणसमुद्दे दबाई सपनाइंपि अवन्नाइंपि सगंधाई अगंधाइंपि सरसाइंपि अरसाइंपि सफासाइंपि अफासाइंपि अन्नमन्नबद्धाइं अन्नमन्नपुट्ठाई जाव घडताए चिट्ठति ?, हंता अस्थि । अस्थि णं भंते ! धायइसंडे दीवे दवाइं सवन्नाइंपि, एवंचेव एवं जाव सयंभूरमणसमुद्दे ? जाव हंता अस्थि । तए णं सा महतिमहालिया महच्चपरिसा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म हडतुट्ठा समणं भगवं महावीरं वंदह नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया, तए णं हथिणापुरे नगरे सिंघाडगजावपहेसु बहुजणो अन्नमन्नस्स एवमाइक्खह जाव परूवेइ-जन्नं देवाणुप्पिया ! सिवे रायरिसी एवमाइक्खइ जाव परूवेह-अस्थि णं देवाणु|| प्पिया! ममं अतिसेसे नाणे जाव समुद्दा य तं नो इणढे समढे, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ जाव Pापरूवेइ-एवं खलु एयस्स सिवस्स रायरिसिस्स छटुंछट्टेणं तं चेव जाव भंडनिक्खेवं करेइ भंडनिक्खेवं
करेत्ता हत्थिणापुरे नगरे सिंघाडग जाव समुद्दा य, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अंतियं एयमढे सोचा | |निसम्म जाव समुद्दा य तण्णं मिच्छा, समणे भगवं महावीरे एवमाइक्खइ०-एवं खलु जंबुद्दीवादीया दीवा लवणादीया समुद्दा तं चेव जाव असंखेजा दीवसमुद्दा पन्नत्ता समणासो! । तए णं से सिवे रायरिसी| बहुजणस्स अंतियं एयम8 सोचा निसम्म संकिए कंखिए वितिगिच्छिए भेदसमावन्ने कलुससमावन्ने जाए यावि होत्था, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स संखियस्स कंखियस्स जाव कलुससमाव
प्पिया ! ममं अतिसेवा -जन्नं देवाणुप्पिया ! सिवेषणपूरे नगरे सिंघाडग
AAKAMARNAMA
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥५१८॥
अस्स से विभंगे भन्नाणे खिप्पामेव परिवडिए, तए णं तस्स सिवस्स रायरिसिस्स अयमेयारूवे अन्भस्थिए
११ शतके जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु समणे भगवं महावीरे आदिगरे तित्थगरे जाव सम्वन्नू सबरिसी आगासगएणं ९ उद्देश: चक्केणं जाव सहसंबवणे उज्जाणे अहापडिरूवंजाव विहरइ, तं महाफलं खलु तहारूवाणं अरहंताणं भगवंताणं शिवराजनामगोयस्स जहा उववाइए जाव गहणयाए, तं गच्छामि णं समणं भगवं महावीरं वदामि जाव पज्जुवा
बर्बोधः
18 सू ४१८ सामि, एयं णे इहभवे य परभवे य जाव भविस्सइत्तिकट्ट एवं संपेहेति एवं २त्ता जेणेव तावसावसहे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता तावसावसहं अणुप्पविसति २त्ता सुबहुं लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंका| तिगं च गेण्हइ गेण्हित्ता तापसावसहाओ पडिनिक्खमति ताव. २ परिवडियविभंगे हथिणागपुरं नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव सहसंबवणे उजाणे जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आयाहिणपयाहिणं करेइ वंदति नमंसति वंदित्ता नमंसित्ता नचासन्ने नाइदूरे [ग्रन्थाग्रम् ७०००] जाव पंजलि उडे पजुवासइ, तए णं समणे भगवं महावीरे || सिवस्स रायरिसिस्स तीसे य महतिमहालियाए जाव आणाए आराहए भवइ, तए णं से सिवे रायरिसी
॥५१८॥ समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा निसम्म जहा खंदओ जाव उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं ||* अवकमा २ सुबहुं लोहीलोहकडाह जाव किढिणसंकातिगं एगते एडेइ ए.२ सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं करेति|
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545525ASASAR
सूरपकते जाव पञ्चवेश्च सूर्यकान्तो राजकुमामह सम्बन्धनीय
सयमे० २ समणं भगवं महावीरं एवं जहेव उसभदत्ते तहेव पवइओ तहेव इक्कारस अंगाई अहिज्जति तहेव सवं जाव सबदुक्खप्पहीणे ॥ (सूत्रं ४१८)॥
'तेणं कालेण'मित्यादि, महया हिमवंत वन्नओ'त्ति अनेन 'महयाहिमवंतमहंतमलयमंदरमहिंदसारे'इत्यादि राजवर्णको वाच्य इति सूचितं, तत्र महाहिमवानिव महान् शेषराजापेक्षया तथा मलयः-पर्वतविशेषो मन्दरो-मेरुः महेन्द्रःशक्रादिदेवराजस्तद्वत्सार:-प्रधानो यः स तथा, 'सुकुमाल. वन्नओ'त्ति अनेन च 'सुकुमालपाणिपाये'त्यादी राज्ञीव
को वाच्य इति सूचितं,'सुकुमालजहा सूरियकंतेजाव पचवेक्खमाणे २ विहरई'त्ति अस्यायमर्थः-'सुकुमालपाणिपाए | लक्खणवंजणगुणोववेए'इत्यादिना यथा राजप्रश्नकृताभिधाने ग्रन्थे सूर्यकान्तो राजकुमारः पन्चुवेक्खमाणे २ विहरई'इत्येतदन्तेन वर्णकेन वर्णितस्तथाऽयं वर्णयितव्यः, 'पञ्चवेक्खमाणे २ विहरई' इत्येतच्चैवमिह सम्बन्धनीयं-से णं सिवभद्दे कुमारे जुवराया यावि होत्था सिवस्स रन्नो रजं च रहूंच बलंच वाहणं च कोसं च कोडागारं च पुरं च अंतेउरंच जणवयं च सयमेव पच्चुवेक्खमाणे विहरई'त्ति। वाणपत्थ'त्ति वने भवा वानी प्रस्थानं प्रस्था-अवस्थितिर्वानी प्रस्था येषां ते वानप्रस्थाः, अथवा-"ब्रह्मचारी गृहस्थश्च, वानप्रस्थो यतिस्तथा" इति चत्वारो लोकप्रतीता आश्रमाः, एतेषां च तृतीयाश्रमवर्तिनो वानप्रस्थाः, 'होत्तिय'त्ति अग्निहोत्रिकाः 'पोत्तिय'त्ति वस्त्रधारिणः 'सोत्तिय'त्ति क्वचित्पाठस्तत्राप्ययमेवार्थः 'जहा उववा-|| इए' इत्येतस्मादतिदेशादिदं दृश्य-'कोत्तिया जन्नई सड्ढई थालई हुंवउद्या दंतुक्खलिया उम्मज्जगा सम्मजगा निमज्जगा संप-8 क्खला दक्षिणकूलगा उत्तरकूलगा संखधमगा कूलधमगा मिगलुद्धया हत्थितावसा उदंडगा दिसापोक्खिणो वकवासिणो
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ताः 'संखधमगतिशता एव 'हत्थितावसतिति उदकेन दिशः
व्याख्या- चेलवासिणोजलवासिणो रुक्खमूलिया अंबुभक्खिणो वाउभक्खिणो सेवालभक्खिणो मूलाहारा कंदाहारा तयाहारा पत्ताहारा | ११ शतके प्रज्ञतिः पुप्फाहारा फलाहारा बीयाहारा परिसडियकंदमूलतयपत्तपुप्फफलाहारा जलाभिसेयकढिणगाया आयावणाहिं पंचम्गिता- ९ उद्देशः अभयदेवी- वेहिं इंगालसोल्लियं कंदुसोल्लिय'ति तत्र 'कोत्तियत्ति भूमिशायिनः 'जन्नइत्ति यज्ञयाजिनः 'सडई'त्ति श्राद्धाः 'थालइ'त्ति शिवराजया वृत्तिः२
गृहीतभाण्डाः 'हुंवउडे'त्ति कुण्डिकाश्रमणाः 'दंतुक्खलिय'त्ति फलभोजिनः 'उम्मजगत्ति उन्मजनमात्रेण ये स्त्रान्ति र्षिवृत्तं ॥५१९॥
'संमजगत्ति उन्मजनस्यैवासकृत्करणेन ये स्नान्ति 'निमजगत्ति स्थानार्थं निमग्ना एव ये क्षणं तिष्ठन्ति 'संपक्खाल'-४ त्ति मृत्तिकादिघर्षणपूर्वकं येऽङ्गंक्षालयन्ति 'दक्षिणकूलग'त्ति यैर्गङ्गाया दक्षिणकूल एव वास्तव्यम् 'उत्तरकूलग'त्ति उक्तविपरीताः 'संखधमग'त्ति शङ्खध्मात्वा ये जेमन्ति यद्यन्यः कोऽपि नागच्छतीति 'कूलधमग'त्ति ये कूले स्थित्वा |शब्दं कृत्वा भुञ्जते 'मियलुडय'त्ति प्रतीता एव 'हत्थितावसत्ति ये हस्तिनं मारयित्वा तेनैव बहुकालं भोजनतो| यापयन्ति 'उदंडग'न्ति ऊर्द्धकृतदण्डा ये संचरन्ति 'दिसापोक्खिणोत्ति उदकेन दिशः प्रोक्ष्य ये फलपुष्पादि समुचिन्वन्ति 'वक्कलवासिणो'त्ति वल्कलवाससः 'चेलवासिणो'त्ति व्यक्तं पाठान्तरे वेलवासिणो'त्ति समुद्रवेलासंनिधिवासिनः 'जलवासिणो'त्ति ये जलनिमग्ना एवासते, शेषाःप्रतीता, नवरं 'जलाभिसेयकिढिणगाय'त्ति येऽस्नात्वा न भुंजते स्नानाद्वा पा.
ण्डुरीभूतगात्रा इति वृद्धाः, क्वचित् 'जलाभिसेयकढिणगायभूय'त्ति दृश्यते तत्र जलाभिषेककठिनं गात्रं भूताः-प्राप्ता ॥५१९॥ || येते तथा, 'इंगालसोल्लियंति अङ्गारैरिव पक्वं 'कंदुसोल्लियंति कन्दुपक्वमिवेति । 'दिसाचक्कवालएणं तवोकम्मेणं'ति
एकत्र पारणके पूर्वस्यां दिशि यानि फलादीनि तान्याहृत्य भुते द्वितीये तु दक्षिणस्यामित्येवं दिक्चक्रवालेन यत्र तपः
पाठान्तरे 'वेल
कचित् 'जीता, नवरं
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CSMSSSOCIA5
कर्मणि पारणककरणं तत्तपःकर्म दिक्चक्रवालमुच्यते तेन तपःकर्मणेति 'ताहिं इटाहिं कताहिं पियाहिं' इत्यत्र "एवं जहा उववाइए' इत्येतत्करणादिदं दृश्य-'मणुन्नाहि मणामाहिं जाव वग्गूहि अणवरयं अभिनंदंता य अभिथुणंता य एवं वयासी-जय २ नंदा जय जय भहा! जय २ नंदा! भई ते अजियं जिणाहि जियं पालियाहि जियमझे वसाहि अजियं च जिणाहि सत्तुपक्खं जियं च पालेहि मित्तपक्खं जियविग्धोऽविय वसाहि तं देव ! सयणमज्झे इंदो इव देवाणं चंदो इव ताराणं धरणो इव नागाणं भरहो इव मणुयाणं बहूई वासाई बहूई वाससयाई बहूई वाससहस्साई अणहसमग्गे य हहतुट्ठो'त्ति, एतच्च व्यक्तमेवेति ॥'वागलवत्थनियत्थे'त्ति वल्कलं-वल्कस्तस्येदं वाल्कलं सद्वस्त्रं निवसितं येन स वाल्कलवस्त्रनिवसितः 'उडए'त्ति उटजः-तापसगृहं 'किढिणसंकाइयगंति 'किढिण'त्ति वंशमयस्तापसभाजनविशेषस्ततश्च तयोः साङ्कायिकं-भारोद्वहनयन्त्रं किढिणसाङ्कायिक 'महाराय'त्ति लोकपाल: 'पत्थाणे पत्थियति 'प्रस्थाने' परलोकसाधनमार्गे 'प्रस्थितं' प्रवृत्तं फलाद्याहरणार्थ गमने वा प्रवृत्तं शिवराजर्षि 'दब्भे य'त्ति समूलान् | | 'कुसे यत्ति दर्भानेव निर्मूलान् 'समिहाओ यत्ति समिधः-काष्ठिकाः 'पत्तामोडं च' तरुशाखामोटितपत्राणि 'वेदि बड्ढेइ'त्ति वेदिकां-देवार्चनस्थानं वर्द्धनी-बहुकरिका तां प्रयुत इति वर्द्धयति-प्रमार्जयतीत्यर्थः 'उवलेवणसमजणं करेइ'त्ति इहोपलेपनं गोमयादिना संमर्जनं तु जलेन संमार्जनं वा शोधन दमकलसाहत्थगए'त्ति दर्भाश्च कलशश्च हस्ते गता यस्य स तथा 'दभसगम्भकलसगहत्थगए'त्ति क्वचित् तत्र दर्भेण सगर्भो यः कलशकः स हस्ते गतो यस्य स तथा 'जलमजणं'ति जलेन देहशुद्धिमानं 'जलकीडंति देहशुद्धावपि जलेनाभिरतं 'जलाभिसेयंति जलक्षरणम् 'आयंते'त्ति
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व्याख्या जलस्पर्शात् 'चोक्खे'त्ति अशुचिद्रव्यापगमात्, किमुक्तं भवति ?–'परमसुइभूए'त्ति, देवयपिइकयकज्जेत्ति देवतानां ११ शतके प्रज्ञप्तिः | पितॄणां च कृतं कार्य-जलाञ्जलिदानादिकं येन स तथा, 'सरएणं अरणिं महेइ'त्ति 'शरकेन' निर्मन्थनकाष्ठेन ९ उद्देशः अभय देवी-दअरणिं' निर्मन्थनीयकाष्ठं 'मश्नाति' घर्षयति, 'अग्गिस्स दाहिणे'इत्यादि सार्द्धः श्लोकस्तद्यथाशब्दवर्जः, तत्र च 'सत्तं- शिवराजया वृत्तिः२ गाई' सप्ताङ्गानि 'समादधाति' संनिधापयति सकथां १ वल्कलं २ स्थानं ३ शय्याभाण्डं ४ कमण्डलुं ५ दंडदारु ६
र्षिवृत्तं ॥५२०॥ तथाऽऽत्मान ७ मिति, तत्र सकथा-तत्समयप्रसिद्ध उपकरणविशेषः स्थानं-ज्योतिःस्थानं पात्रस्थानं वा शय्याभाण्डंदशय्योपकरणं दण्डदारु-दण्डकः आत्मा-प्रतीत इति, 'चकै साहेति'त्ति चरु:-भाजनविशेषस्तत्र पच्यमानद्रव्यमपि चरु
रेव तं चरुं बलिमित्यर्थः 'साधयति' रन्धयति 'बलिवइस्सदेवं करेइ'त्ति बलिना वैश्वानरं पूजयतीत्यर्थः, 'अतिहि|पूयं करेइ'त्ति अतिथेः-आगन्तुकस्य पूजां करोतीति । 'से कहमेयं मन्ने एवं'ति अत्र मन्येशब्दो वितर्कार्थः 'वितिय|सए नियंठुद्देसए'त्ति द्वितीयशते पञ्चमोद्देशक इत्यर्थः 'एगविहिविहाण' त्ति एकेन विधिना-प्रकारेण विधान-व्यव-||२|| || स्थानं येषां ते तथा, सर्वेषां वृत्तत्वात् , वित्थारओ अणेगविहि विहाण'त्ति द्विगुण २ विस्तारत्वात्तेषामिति एवं जहा||जीवाभिगमे इत्यनेन यदिह सूचितं तदिदं-'दुगुणादुगुणं पडुप्पाएमाणा पवित्थरमाणा ओभासमाणवीइया' अवभास-|| | मानवीचय:-शोभमानतरङ्गाः, समुद्रापेक्षमिदं विशेषणं, 'बहुप्पलकुमुदनलिणसुभगसोगंधियपुंडरीयमहापुंडरीयसयप
॥५२०॥ त्तसहस्सपत्तसयसहस्सपत्तपफुल्लकेसरोववेया' बहूनामुत्पलादीनां प्रफुल्लानां-विकसितानां यानि केशराणि तैल्पचिता:संयुक्ता ये ते तथा, तत्रोत्पलानि-नीलोत्पलादीनि कुमुदानि-चन्द्रबोध्यानि पुण्डरीकाणि-सितानि शेषपदानि तु रूढिग
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SORNSAR
म्यानि पत्तेयं पत्तेयं पउमवरवेइयापरिक्खित्ता पत्तेयं २ वणसंडपरिक्खित्त'त्ति ॥'सवन्नाइपि'त्ति पुद्गलद्रव्याणि 'अवन्ना| इंपित्ति धर्मास्तिकायादीनि 'अन्नमन्नबद्धाइंति परस्परेण गाढाश्लेषाणि 'अन्नमन्नपुट्ठाईति परस्परेण गाढाश्लेषाणि, इह यावत्करणादिदमेवं दृश्यम्-'अन्नमन्नबद्धपुट्ठाई अन्नमन्नघडताए चिठ्ठति' तत्र चान्योऽन्यबद्धस्पृष्टान्यनन्तरोक्तगुणद्वययोगात्, किमुक्तं भवति ?-अन्योऽन्यघटतया-परस्परसम्बद्धतया तिष्ठन्ति 'तावसावसहे'त्ति तापसावसथःतापसमठ इति ॥ अनन्तरं शिवराजर्षेः सिद्धिरुक्ता, तां च संहननादिभिनिरूपयन्निदमाह| भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भग, महावीरं वंदइ नमसइ वंदित्ता नमंसित्ता एवं वयासी-जीवाणं
भंते ! सिज्झमाणा कयरंमि संघयणे सिज्झंति ?, गोयमा ! वयरोसभणारायसंघयणे सिज्झंति एवं जहेव |उववाइए तहेव संघयणं संठाणं उच्चत्तं आउयं च परिवसणा, एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा भाणियवा जाव
अवाबाहं सोक्खं अणुहवं (हुंती)ति सासया सिद्धा । सेवं भंते! २त्ति ॥ (सूत्रं०४१९)सिवो समत्तो॥११-९॥ । 'भंते त्ति'इत्यादि, अथ लाघवार्थमतिदेशमाह-एवं जहेवे'त्यादि, 'एवम्' अनन्तरदर्शितेनाभिलापेन यथोपपातिके | सिद्धानधिकृत्य संहननाद्युक्तं तथैवेहापि वाच्यं, तत्र च संहननादिद्वाराणां सङ्ग्रहाय गाथापूर्वार्द्ध-'संघयणं संठाणं उच्चत्तं हा आउयं च परिवसण'त्ति तत्र संहननमुक्तमेव, संस्थानादि त्वेवं-तत्र संस्थाने षण्णां संस्थानानामन्यतरस्मिन् सिद्ध्यन्ति, | उच्चत्वे तु जघन्यतः सप्तरत्निप्रमाणे उत्कृष्टतस्तु पञ्चधनुःशतके, आयुषि पुनर्जघन्यतः सातिरेकाष्टवर्षप्रमाणे उत्कृष्टतस्तु | पूर्वकोटीमाने, परिवसना पुनरेवं-रत्नप्रभादिपृथिवीनां सौधर्मादीनां चेषत्प्राम्भारान्सानां क्षेत्र विशेषाणामधो न परिव
+ CCCCCCUSamast
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|११शतके | ९ उद्देशः सिद्धगण्डिकासू४१९
सन्ति सिद्धाः किन्तु सर्वार्थसिद्धमहाविमानस्योपरितनात्स्तूपिकायादूई द्वादश योजनानि व्यतिक्रम्येषत्प्राग्भारा नाम व्याख्याप्रज्ञप्तिः
पृथिवी पञ्चचत्वारिंशद्योजनलक्षप्रमाणाऽऽयामविष्कम्भाभ्यां वर्णतः श्वेताऽत्यन्तरम्याऽस्ति तस्याश्चोपरि योजने लोकान्तो अभयदेवी- भवति, तस्य च योजनस्योपरितनगव्यूतोपरितनषड्भागे सिद्धाः परिवसन्तीति, 'एवं सिद्धिगंडिया निरवसेसा पावृत्तिः भाणिय'त्ति एवमिति-पूर्वोक्तसंहननादिद्वारनिरूपणक्रमेण 'सिद्धिगण्डिका' सिद्धिस्वरूपप्रतिपादनपरा वाक्यपद्ध.
| तिरोपपातिकप्रसिद्धाऽध्येया, इयं च परिवसनद्वारं यावदर्थलेशतो दर्शिता, तत्परतस्त्वेवं-'कहिं पडिहया सिद्धा कहि ॥५२॥
| सिद्धा पइट्ठिया ? इत्यादिका, अथ किमन्तेयम् ? इत्याह-जावेत्यादि । 'अवाबाहं सोक्ख'मित्यादि चेह गाथोत्तरार्द्धमधीतं, समग्रगाथा पुनरियं-"निच्छिन्नसबदुक्खा जाइजरामरणबंधणविमुक्का । अबाबाहं सोक्खं अणुहुंती सासयं | सिद्धा ॥१॥” इति ॥ एकादशशते नवमोदेशकः ॥ ११-९॥ &ा. नवमोद्देशकस्यान्ते लोकान्ते सिद्धपरिवसनोक्तेत्यतो लोकस्वरूपमेव दशमे प्राह, तस्य चेदमादिसूत्रम्PI रायगिहे जाव एवं वयासी-कतिविहे गं भंते ! लोए पन्नत्ते?, गोयमा! चउविहे लोए पन्नत्ते, तंजहा|| दवलोए खेत्तलोए काललोए भावलोए । खेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! तिविहे पन्नत्ते, || तंजहा-अहोलोयखेत्तलोए १ तिरियलोयखेत्तलोए २ उडलोयखेत्तलोए ३ | अहोलोयखेत्तलोए ण भत!
कतिविहे पन्नत्ते ?, गोयमा ! सत्तविहे पन्नत्ते, तंजहा-रयणप्पभापुढचिअहेलोयखेत्तलोए जाव अहेसत्तमाki पुढविअहोलोयखेत्तलोए । तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते?, गोयमा ! असंखेचविहे पन्नत्ते,
345454555
॥५२
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तंजहा-जंबुद्दीवे तिरियखेत्तलोए जाव सयंभूरमणसमुद्दे तिरियलोयखेत्तलोए । उड्डलोगखेत्तलोए णं भंते ! कतिविहे पन्नत्ते ?, गोयमा ! पन्नरसविहे पन्नत्ते, तंजहा-सोहम्मकप्पउड्डलोगखेत्तलोए जाव अचुयउड्ढलोए। गेवेजविमाणउड्डलोए अणुत्तरविमाण. इसिंपन्भारपुढविउडलोगखेत्तलोए । अहोलोगखेत्तलोए णं भंते ! |किंसंठिए पन्नत्ते, गोयमा! तप्पागारसंठिए पन्नत्ते । तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! किंसंठिए पन्नत्ते ?, गोयमा ! झल्लरिसंठिए पन्नत्ते । उड्डलोयखेत्तलोयपुच्छा उड्डमुइंगाकारसंठिए पन्नत्ते । लोए णं भंते ! किंसंठिए पन्नत्ते?, गोयमा सुपइट्ठगसंठिए लोए पन्नत्ते, तंजहा-हेट्ठा विच्छिन्ने मझे संखित्ते जहा सत्तमसए पढमु.
इसए जाव अंतं करेंति । अलोए णं भंते ! किंसंठिए पन्नत्ते?, गोयमा! झुसिरगोलसंठिए पन्नत्ते ॥ अहेलोगखपत्तलोए णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा ? एवं जहा इंदा दिसा तहेव निरवसेसं भाणियवं जाव
अद्धासमए । तिरियलोयखेत्तलोए णं भंते ! किं जीवा० १, एवं चेव, एवं उडलोयखेत्तलोएवि, नवरं अरूवी छविहा अद्धासमओनस्थि ॥ लोएणं भंते ! किं जीवा जहा बितियसए अत्थिउद्देसए लोयागासे, नवरं अरू|वी सत्तवि जाव अहम्मत्थिकायस्स पएसा नो आगासथिकाये आगासस्थिकार्यस्स देसे आगासत्थिकायपएसा अद्धासमए सेसं तं चेव ॥ अलोए णं भंते ! किं जीवा? एवं जहा अस्थिकायउद्देसए अलोयागासे तहेव निरवसेसं जाव अणंतभागूणे ॥ अहेलोगखेत्तलोगस्स णं भंते ! एगंमि आगासपएसे किं जीवा जीवदेसा जीवप्पएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा?, गोयमा ! नो जीवा जीवदेसावि जीवपएसावि |
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अजीवावि अजीवदेसावि अजीवपएसावि, जे जीवदेसा ते नियमा एगिंदियदेसा १ अहवा एगिदियदेसा व्याख्या
४११ शतके प्रज्ञप्तिः |य बेइंदियस्स देसे २ अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियाण य देसा ३ एवं मज्झिल्लविरहिओ जाव अणिदिएम
१० उद्देश: अभयदेवी- जाव अहवा एगिदियदेसा य अणिंदियदेसा य, जे जीवपएसा ते नियमा एगिदियपएसा १ अहवा एगिं
व्यक्षेत्रा
दिलोकः दियपएसा य बेंदियस्स पएसा २ अहवा एगिदियपएसा य बेइंदियाण य पएसा ३ एवं आइल्लविरहिओ
सू ४२० ॥५२२॥ जाव पंचिंदिएसु अणिदिएसु तियभंगो, जे अजीवा ते दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-रूवी अजीवा य अरूवी अ
जीवा य, रूवी तहेव, जे अरूवी अजीवा ते पंचविहा पण्णत्ता, तंजहा-नो धम्मत्थिकाए धम्मत्थिकायस्स || देसे १ धम्मत्थिकायस्स पएसे २ एवं अहम्मत्थिकायस्सवि४ अद्धासमए ५ । तिरियलोगखेत्तलोगस्सणं हा भंते ! एगंमि आगासपएसे किं जीवा० १, एवं जहा अहोलोगखेत्तलोगस्स तहेव, एवं उड्डलोगखेत्तलोगस्सवि, IMIनवरं अद्धासमओ नत्थि, अरूवी चउबिहा । लोगस्स जहा अहेलोगखेत्तलोगस्स एगंमि आगासपएसे ||
अलोगस्स णं भंते ! एगंमि आगासपएसे पुच्छा, गोयमा! नो जीवा नो जीवदेसा तं चेव जाव अणताह G|अगुरुयलहयगुणेहिं संजुत्ते सव्वागासस्स अणंतभागूणे ॥ दवओ णं अहेलोगखेत्तलोए अर्णताई जीवदवाई अणंताई अजीवदवाई अणंता जीवाजीवदवा एवं तिरियलोयखेत्तलोएवि, एवं ऊडलोयखेत्तलोएवि, दव
॥५२२॥ ४||ओ णं अलोए णेवत्थि जीवदया नेवत्थि अजीवरा नेवत्थि जीवाजीवदवा एगे अजीवदवदेसे जाव सबादगासअणंतभागूणे । कालओ णं अहेलोयखेत्तलोए न कयाइ नासि जाव निच्चे एवं जाव अहोलोगे। भाव-14
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ओ णं अहेंलोगखेसलोए अनंता बन्नपज्जवा जहा खंदए जाव अनंता अगुरुयलहुयपज्जवा एवं जाब लोए, भावओ णं अलोए नेवत्थि वन्नपज्जवा जाव मेवत्थि अगुरुयल हुयपज्जवा एगे अजीवदवदेसे जाव अनंतभागूणे । ( सूत्रं ४२० ) ॥
'रायगिहे ' इत्यादि, 'दवलोए' त्ति द्रव्यलोक आगमतो नोआगमतश्च, तन्नागमतो द्रव्यलोको लोकशब्दार्थज्ञस्तत्रानुपयुक्तः 'अनुपयोगो द्रव्य मिति वचनात्, आह च मङ्गलं प्रतीत्य द्रव्यलक्षणम् - " आगम ओऽणुवउत्तो मंगलसद्दाणुवासिओ बत्ता । तन्नाणलद्धिजुत्तो उ नोवउत्तोत्ति दवं ॥ १ ॥”ति [ आगमतो मङ्गलशब्दानुवासितोऽनुपयुक्तो बता तज्ज्ञानलब्धियुक्तोऽप्यनुपयुक्त इति द्रव्यमिति ॥ १ ॥ ] नोआगमतस्तु ज्ञशरीर भव्यशरीरतद्व्यतिरिक्तभेदात्रिविधः, तत्र लोकशब्दार्थज्ञस्य शरीरं मृतावस्थं ज्ञानापेक्षया भूतलोकपर्यायतया घृतकुम्भवल्लोकः स च ज्ञशरीररूपो द्रव्यभूतो | लोको ज्ञशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्दश्चेह सर्वनिषेधे, तथा लोकशब्दार्थं ज्ञास्यति यस्तस्य शरीरं सचेतनं भाविलोकभावत्वेन मधुघटवद् भव्यशरीरद्रव्यलोकः, नोशब्द इहापि सर्वनिषेध एव, ज्ञशरीरभव्यशरीरव्यतिरिक्तश्च द्रव्यलोको द्रव्याण्येव धर्मास्तिकायादीनि, आह - " जीवमंजीवे रूविमरूवि सपएस अप्पएसे य । जाणाहि दबलोयं निश्चमणिच्चं च जं दबं ॥ १ ॥ " [ जीवा अजीवा रूपिणोऽरूपिणः सप्रदेशा अप्रदेशाश्च जानीहि द्रव्यलोकं नित्यमनित्यं च यद्रव्यम् | ॥ १ ॥ ] इहापि नोशब्दः सर्वनिषेधे आगमशब्दवाच्यस्य ज्ञानस्य सर्वथा निषेधात्, 'खेत्तलोए'ति क्षेत्ररूपो लोकः स
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व्याख्या•
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५२३॥
| क्षेत्रलोकः, आह च - " आगासरस पएसा उड्डुं च अहे य तिरियलोए य । जाणाहि खेत्तलोयं अनंत जिणदेसियं | सम्मं ॥ १ ॥” [ आकाशस्य प्रदेशा ऊर्द्ध चाधश्च तिर्यग्लोके च । जानीहि क्षेत्रलोकमनन्तजिनदेशितं सम्यक् ॥ १ ॥ ] | 'काललोए 'त्ति काल :- समयादिः तद्रूपो लोकः काललोकः, आह च – “समयावली मुहुत्ता दिवस अहोरत्तपक्खमासा य । संवच्छरजुगपलिया सागरउस्सप्पिपरियट्टा ॥ १ ॥ • समय आवलिका मुहूर्त्तः दिवसः अहोरात्रं पक्षो मासश्च संवत्सरो युगं पल्यः सागरः उत्सर्पिणी परावर्त्तः ॥ १ ॥ ] 'भावलोए'त्ति भावलोको द्वेधा-आगमतो नोआगमतश्च, | तत्रागमतो लोकशब्दार्थज्ञस्तत्र चोपयुक्तः भावरूपो लोको भावलोक इति नो आगमतस्तु भावा - औदयिकादयस्तद्रूपो लोको भावलोकः, आह च - "ओदइए उवसमिए खइए य तहा खओवसमिए य । परिणामसन्निवाए य छबिहो | भावलोगो उ ॥ १ ॥ " [ औदयिक औपशमिकः क्षायिकश्च तथा क्षायोपशमिकश्च । पारिणामिकश्च सन्निपातश्च विध | भावलोकस्तु ॥ १ ॥ ] इति, इह नोशब्दः सर्वनिषेधे मिश्रवचनो वा, आगमस्य ज्ञानत्वात् क्षायिकक्षायोपशमिकज्ञान| स्वरूपभावविशेषेण च मिश्रत्वादौदयिकादिभावलोकस्येति । 'अहेलोयखेत्तलोएं 'ति अधोलोकरूपः क्षेत्रलोकोऽधो| लोकक्षेत्रलोकः, इह किलाष्टप्रदेशो रुचकस्तस्य चाधस्तनप्रतरस्याधो नव योजनशतानि यावत्तिर्यग्लोकस्ततः परेणाधःस्थितत्वादधोलोकः साधिकसप्तरज्जुप्रमाणः, तिरियलोयखेत्तलोए' त्ति रुचकापेक्षयाऽध उपरि च नव २ योजनशतमानस्तिर्यगूरूपत्वात्तिर्यग्लोकस्तद्रूपः क्षेत्रलोकस्तिर्यग्लोक क्षेत्रलोकः, 'उडलोयखेत्तलोए 'त्ति तिर्यग् लोकस्योपरि देशोनसप्त
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११ शतके
१० उद्देशः द्रव्यक्षेत्रा• दिलोकः सु ४२०
॥५२३॥
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रजुप्रमाण ऊर्द्धभागवत्तित्त्वादूर्द्धलोकस्तद्रूपः क्षेत्रलोक ऊर्द्वलोकक्षेत्रलोकः, अथवाऽधः-अशुभः परिणामो बाहुल्येन क्षेत्रानुभावाद् यत्र लोके द्रव्याणामसावधोलोकः, तथा तिर्य-मध्यमानुभावं क्षेत्रं नातिशुभं नाप्यत्यशुभं तद्रूपो लोकस्तिर्यग्लोकः, तथा ऊर्द्ध-शुभः परिणामो बाहुल्येन द्रव्याणां यत्रासावू लोकः, आह च-"अहव अहोपरिणामो खेत्तणु|भावेण जेण ओसन्नं । असुहो अहोत्ति भणिओ दबाणं तेणऽहोलोगो ॥१॥"इत्यादि, 'तप्पागारसंठिए'त्ति तप्रःउडुपकः, अधोलोकक्षेत्रलोकोऽधोमुखशरावाकारसंस्थान इत्यर्थः, स्थापना चेयं 4,'झल्लरिसंठिए'त्ति अल्पोच्छ्रायत्वा न्महाविस्तारत्वाच्च तिर्यग्लोकक्षेत्रलोको झल्लरीसंस्थितः, स्थापना चात्र-5/ 'उडमुइंगागारसंठिए'त्ति ऊर्द्ध:ऊ मुखो यो मृदङ्गस्तदाकारेण संस्थितो यः स तथा शरावसंपुटाकार इत्यर्थः, स्थापना चेयम्-0, 'सुपइट्ठगसं, ठिएत्ति सुप्रतिष्ठक-स्थापनकं तच्चेहारोपितवारकादि गृह्यते, तथाविधेनैव लोकसादृश्योपपत्तेरिति, स्थापना चेयं
'जहा सत्तमसए'इत्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यम्-'उप्पिं विसाले अहे पलियंकसंठाणसंठिए मज्झे वरवइरविग्गहिए। ४ उप्पिं उद्धमुइंगागारसंठिए तेसिं च णं सासयंसि लोगंसि हेट्ठा विच्छिन्नंसि जाव उप्पिं उड्डमुइंगागारसंठियंसि उप्पन्नना&ाणदंसणधरे अरहा जिणे केवली जीवेवि जाणइ अजीचेवि जाणइ तओ पच्छा सिज्झइ बुज्झई'इत्यादीति, 'झुसिरगो
लसंठिए'त्ति अन्तःशुषिरगोलकाकारो यतोऽलोकस्य लोकः शुषिरमिवाभाति, स्थापना चेयम्-0॥ 'अहेलोयखेत्त
लोए णं भंते !'इत्यादि, 'एवं जहा इंदा दिसा तहेव निरवसेसं भाणिय'ति दशमशते प्रथमोद्देशके यथा ऐन्द्री दिगुक्ता * तथैव निरवशेषमधोलोकस्वरूपं भणितव्यं, तच्चैवम्-'अहोलोयखेत्तलोए णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा
FACAAAAAAAAAA
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व्याख्या-5 अजीवा अजीबदेसा अजीवपएसा, गोयमा जीवावि जीवदेंसावि जीवपएसावि अजीवावि अजीवदेसावि अजीवपएसावि' ११ शतके प्रज्ञप्तिः इत्यादि, नवरमित्यादि, अधोलोकतिर्यग्लोकयोररूपिणः सप्तविधाः प्रागुक्ताः धर्माधर्माकाशास्तिकायानां देशाः ३ |
| १० उद्देश अभयदेवी
प्रदेनाः ३ कालश्चेत्येवम् , ऊर्द्वलोके तु रविप्रकाशाभिव्यङ्ग्यः कालो नास्ति, तिर्यगधोलोकयोरेव रविप्रकाशस्य भावाद, द्रव्यक्षेत्राया वृत्तिः२
|अतः षडेव त इति ॥ 'लोए 'मित्यादि, 'जहा बीयसए अत्थिउद्देसए'त्ति यथा द्वितीयशते दशमोद्देशक इत्यर्थः दिलोकः ॥५२४॥ 'लोयागासे'त्ति लोकाकाशे विषयभूते जीवादय उक्का एवमिहापीत्यर्थः, 'नवर'मिति केवलमयं विशेषः-तत्रारूपिणः
सू ४२० पञ्चविधा उक्ता इह तु सप्तविधा वाच्याः, तत्र हि लोकाकाशमाधारतया विवक्षितमत आकाशभेदास्तत्र नोच्यन्ते, इह तु लोकोऽस्तिकायसमुदायरूप आधारतया विवक्षितोऽत आकाशभेदा अप्याधेया भवन्तीति सप्त, ते चैवं-धर्मास्तिकायः, लोके परिपूर्णस्य तस्य विद्यमानत्वात् , धर्मास्तिकायदेशस्तु न भवति, धर्मास्तिकायस्यैव तत्र भावात्, धर्मास्तिकायप्रदेशाश्च सन्ति, तद्रूपत्वाद्धर्मास्तिकायस्येति सूर्य, एवमधर्मास्तिकायेऽपि द्वयं ४, तथा नो आकाशास्तिकायो,
लोकस्य तस्यैतद्देशत्वात् , आकाशदेशस्तु भवति, तदंशत्वात् लोकस्य, तत्पदेशाश्च सन्ति ६, कालश्चे ७ ति सप्त ॥ WI'अलोएणं भंते !'इत्यादि, इदं च एवं अहे'त्याद्यतिदेशादेवं दृश्यम्-'अलोए णं भंते ! किं जीवा जीवदेसा जीवपएसा अजीवा अजीवदेसा अजीवपएसा ?, गोयमा ! नो जीवदेसा नो जीवपएसा नो अजीवदेसा नो अजीवपएसा
मा॥५२४॥ एगे अजीबदबदेसे अणंतेहिं अगुरुलहुयगुणेहिं संजुत्ते सबागासे अणतभागूणे'त्ति तत्र सर्वाकाशमनन्तभागोMनमित्यस्यायमर्थ:-लोकलक्षणेन समस्ताकाशस्यानन्तंभागेन न्यूनं सर्वाकाशमलोक इति ॥ 'अहोलोगखेसलोगस्सणं 2
ॐॐॐॐॐ
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ते। एगमि आगासपएसे इत्यादि, नो जीवा एकप्रदेशे तेपामनवगाहनात्, बहूनां पुनर्जीवानां देशस्य प्रदेशस्य || चावगाहनात् उच्यते 'जीवदेसावि जीवपएसावित्ति, यद्यपि धर्मास्तिकायाधजीवद्रव्यं नैकत्राकाशप्रदेशेऽवगाहते तथाऽपि परमाणुकादिद्रव्याणां कालद्रव्यस्य चावगाहनादुच्यते-'अजीवावित्ति,न्यणुकादिस्कन्धदेशानां त्ववगाहनादुकम्-अजीवदेसावित्ति, धर्माधर्मास्तिकायप्रदेशयोः पुद्गलद्रव्यप्रदेशानां चावगाहनादुच्यते-'अजीवपएसावित्ति, 'एवं मज्झिल्लविरहिओ'त्ति दशमशतप्रदर्शितत्रिकभङ्गे 'अहवा एगिदियदेसा य बेइंदियदेसाय' इत्येवंरूपो यो मध्यमभङ्गस्तद्विरहितोऽसौ त्रिकभङ्गः, 'एव'मिति सूत्रप्रदर्शितभङ्गद्वयरूपोऽध्येतव्यो,मध्यमभङ्गहासम्भवात् , तथाहिद्वीन्द्रियस्यैकस्यैकत्राकाशप्रदेशे बहवो देशा न सन्ति, देशस्यैव भावात् , 'एवं आइल्लविरहिओत्ति 'अहवा एगिदियस्स पएसा य ३दियस्स पएसा य' इत्येवंरूपाद्यभङ्गकविरहितस्त्रिभङ्गः, "एवं'मिति सूत्रप्रदर्शितभङ्गद्वयरूपोऽध्येतव्यः, आधभङ्गकस्येहासम्भवात् , तथाहि-नास्त्येवैकत्राकाशप्रदेशे केवलिसमुद्घातं विनैकस्य जीवस्यैकप्रदेशसम्भवोऽसवातानामेव भावादिति, 'अणिदिएसु तियभंगोत्ति अनिन्द्रियेषूक्तभङ्गकत्रयमपि सम्भवतीतिकृत्वा तेषु तद्वाच्यमिति । 'रूवी तहेव'त्ति स्कन्धाः देशाः प्रदेशा अणवश्चेत्यर्थः 'नो धम्मत्थिकाये'त्ति नो धर्मास्तिकाय एकत्राकाशप्रदेशे संभवत्यसङ्ख्यातप्रदेशावगाहित्वात्तस्येति, 'धम्मत्थिकायस्स देसे'त्ति यद्यपि धर्मास्तिकायस्यैकत्राकाशप्रदेशे प्रदेश एवास्ति तथाऽपि देशोऽवयव इत्यनर्थान्तरत्वेनावयवमात्रस्यैव विवक्षितत्वात् निरंशतायाश्च तत्र सत्या अपि अविवक्षितत्वाद्धर्मास्तिकायस्य देश इत्युक्तं, प्रदेशस्तु निरुपचरित एवास्तीत्यत उच्यते-'धम्मत्थिकायस्स पएसे'त्ति, 'एवमहम्म
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
११ शतके १० उद्देशः लोकालोकमहत्ता सू४२१
॥५२५॥
थिकायस्सवित्ति 'नो अधम्मत्थिकाए अहम्मत्थिकायस्स देसे अहम्मत्थिकायस्स पएसे' इत्येवमधर्मास्तिकायसूत्रं वाच्यमित्यर्थः, 'अद्धासमओ नत्थि, अरूवी चउविह'त्ति ऊर्श्वलोकेऽद्धासमयो नास्तीति अरूपिणश्चतुर्विधाः-धर्मास्तिकायदेशादयः ऊर्द्ध लोक एकत्राकाशप्रदेशे सम्भवन्तीति । 'लोगस्स जहा अहोलोगखेत्सलोगस्स एगंमि आगासपएसे'त्ति अधोलोकक्षेत्रलोकस्यैकत्राकाशप्रदेशे यद्वक्तव्यमुक्तं तल्लोकस्याप्येकत्राकाशप्रदेशे वाच्यमित्यर्थः, तच्चेदं-लोगस्स णं भंते ! एगंमि आगासपएसे किं जीवा०? पुच्छा गोयमा ! 'नो जीवे'त्यादि प्राग्वत् । 'अहेलोयखेत्तलोए अणंता ॥ वन्नपजव'त्ति अधोलोकक्षेत्रलोकेऽनन्ता वर्णपर्यवाः एकगुणकालकादीनामनन्तगुणकालाद्यवसानानां पुद्गलानां तत्र भावात् ॥ अलोकसूत्रे 'नेवत्थि अगुरुलहुयपज्जवत्ति अगुरुलघुपर्यवोपेतद्रव्याणां पुद्गलादीनां तत्राभावात् ॥ | लोए णं भंते ! केमहालए पन्नत्ते ?, गोयमा ! अयन्नं जंबुद्दीवे २ सव्वदीवा. जाव परिक्खेवेणं, तेणं कालेणं तेणं समएणं छ देवा महिड्डीया जाव महेसक्खा जंबुद्दीवे २ मंदरे पवए मंदरचूलियं सबओ समंता संपरिक्खित्ताणं चिट्ठज्जा, अहे णं चत्तारि दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ चत्तारि बलिपिंडे गहाय जंबुद्दीवस्स २ चउसुवि दिसासु बहियाभिमुहीओ ठिच्चा ते चत्तारि बलिपिंडे जमगसमगं बहिगाभिमुहे पक्खिवेजा, पभू णं गोयमा ! ताओ एगमेगे देवे ते चत्तारि बलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, तेणं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए जाव देवगइए एगे देवे पुरच्छाभिमुहे पयाते एवं दाहिणाभिमुहे एवं पञ्चत्थाभिमुहे एवं उत्तराभिमुहे एवं उड्डाभि० एगे देवे अहोभिमुहे पयाए, तेणं कालेणं तेणं समएणं वाससहस्साउए
॥५२५॥
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दारए पयाए, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति णो चेव णं ते देवा लोगतं संपाउणंति. तए णं तस्स दारगस्स आउए पहीणे भवति, णो चेव णं जाव संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स अट्टिसिंजा पहीणा भवंति णो चेवणं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स आसंत्तमेवि कुलवंसे पहीणे भवति णो चेव णं ते देवा लोगंतं संपाउणंति, तए णं तस्स दारगस्स नामगोएवि पहीणे भवति णो चेव णं ते देवा लोगतं संपाउणंति, तेसि णं भंते ! देवाणं किं गए बहुए अगए बहुए ?, गोयमा ! गए बहुए नो अगए बहुए, गयाउ से अगए असंखेजइभागे अगयाउ से गए असंखेज्जगुणे, लोए णं गोयमा ! एमहालए पन्नत्ते । अलोए णं भंते ! केमहालए पन्नत्ते ?, गोयमा ! अयन्नं समयखेत्ते पणयालीसं जोयणसय-18 सहस्साई आयामविक्खंभेणं जहा खंदए जाव परिक्खेवेणं, तेणं कालेणं तेणं समएणं दस देवा महिड्डिया तहेव जाव संपरिक्खित्ताणं संचिट्ठज्जा, अहे णं अह दिसाकुमारीओ महत्तरियाओ अह बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पवयस्स चउमुवि दिसासु चउसुवि विदिसासु बहियाभिमुहीओ ठिचा अट्ठ बलिपिंडे गहाय माणुसुत्तरस्स पवयस्स जमगसमगं बहियाभिमुहीओ पक्खिवेजा, पभू णं गोयमा ! तओ एगमेगे देवे ते अट्ट बलिपिंडे धरणितलमसंपत्ते खिप्पामेव पडिसाहरित्तए, ते णं गोयमा ! देवा ताए उक्किट्ठाए जाव देवगईए लोगंसि ठिच्चा असन्भावपट्ठवणाए एगे देवे पुरच्छाभिमुहे पयाए एगे देवे दाहिणपुरच्छाभिमुहे. मापयाए एवं जाव उत्तरपुरच्छाभिमुहे एगे देवे उड्डाभिमुहे एगे देवे अहोभिमुहे पयाए, तेणं कालेणं तेणं समएणं
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व्याख्या- वाससयसहस्साउए दारए पयाए, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पहीणा भवंति नो चेव णं ते देवा
है ११ शतके प्रज्ञप्तिः अलोयंत संपाउणंति, तं चेव०, तेसि णं देवाणं किं गए बहुए अगए बहुए ?, गोयमा! नो गए बहुए अगए| १० उद्देश: अभयदेवी
बहुए गयाउ से अगए अणंतगुणे अगयाउ से गए अणंतभागे, अलोएणं गोयमा! एमहालए पन्नत्ते॥(सूत्रं४२१) या वृत्तिः२
जीवप्रदेलोगस्स णं भंते ! एगमि आगासपएसे जे एगिदियपएसा जाव पंचिंदियपएसा अणिदियपदेसा अन्नमन्न- शानामेका. ॥५२६॥ बद्धा अन्नमन्नपुट्ठा जाव अन्नमन्नसमभरघडताए चिट्ठति, अस्थि णं भंते ! अन्नमन्नस्स किंचि आवाहं वा||8| वगाहे बावाबाहं वा उप्पायति छविच्छेदं वा करेंति?, णो तिणढे समढे, से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ लोगस्स णं एगंमि
धाऽभाव: आगासपएसे जे एगिंदियपएसा जाव चिट्ठति णत्थि णं भंते ! अन्नमन्नस्स किंचि आवाहं वा जाव करेंति ?,|
सू४२२ गोयमा! से जहानामए नट्टिया सिया सिंगारागारचारुवेसा जाव कलिया रंगट्ठाणंसि जणसयाउलंसि | जणसयसहस्साउलंसि बत्तीसइविहस्स नहस्स अन्नयरं नट्टविहिं उवदंसेज्जा, से नूणं गोयमा ! ते पेच्छगा तं नहियं अणिमिसाए दिट्टीए सबओ समंता समभिलोएंति ?, हंता समभिलोएंति, ताओ णं गोयमा! |दिट्टीओ तंसि नहियंसि सवओ समंता संनिपडियाओ?, हंता सन्निपडियाओ, अस्थि णं गोयमा ! ताओ| दिट्ठीओ तीसे नट्टियाए किंचिवि आवाहं वा वाबाई वा उप्पाएंति छविच्छेदं वा करेंति, णो तिणढे।
समडे, अहवा सा नदिया तासिं दिट्ठीणं किंचि आवाहं वा वायाहं वा उप्पाएति छविरुछिदं वा करेइ ॥५२॥ प्राणो तिणढे समढे, ताओ वा विदीओ अन्नमनाए दिट्टीए किंचि आवाहं वा वायाहं वा उप्पाएंति छवि-18
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च्छेदं का करेन्तिः१, णो तिणद्वे समझे, से लेण?णं गोयमा ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव छविच्छेदं वा करेंति ॥ ( सूत्रं ४२२) लोगस्स णं भंते ! एगंमि आमासपए जहन्नपए जीवपएसाणं उक्कोसपए जीवपएसाणं सबजीवाण यकयरे २ जाव विसेसाहिया वा?, गोयमा ! सव्वत्थोवा लोगस्स एगमि आगासपएसे जहन्नपए जीवपएसा, सवजीवा असंखेजगुणा, उक्कोसपए जीवपएसा विसेसाहिया । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ४२३)। एक्कारससयस्स दसमोइसो समत्तो॥११-१०॥ | 'सबदीव'त्ति इह यावत्करणादिदं दृश्य–'समुदाणं अन् तरए सबखुड्डाए वट्टे तेल्लापूपसंठाणसंठिए वट्टे रहचक्क
वालसंठाणसंठिए वट्टे पुक्खरकन्नियासंठाणसंठिए वट्टे पडिपुन्नचंदसंठाणसंठिए एक जोयणसयसहस्सं आयामविक्खंभेणं | तिन्नि जोयणसयसहस्साई सोलस य सहस्साई दोन्नि य सत्तावीसे जोयणसए तिन्नि य कोसे अठ्ठावीसं च धणुसयं । तेरस अंगुलाई अद्धंगुलं च किंचि विसेसाहियंति, 'ताए उकिट्ठाए'त्ति इह यावत्करणादिदं दृश्यं–'तुरियाए चवलाए| चंडाए सिहाए उद्ययाए जयणाए छेयाए दिवाए'त्ति तत्र त्वरितया' आकुलया 'चपलया' कायचापल्येन 'चण्डया'रौद्रया ||| | गत्युत्कर्षयोगात् 'सिंहया' दाळस्थिरतया 'उद्धतया' दातिशयेन 'जयिन्या' विपक्षजेतृत्वेन 'छेकया' निपुणया| |'दिव्यया' दिवि भवयेति, 'पुरच्छाभिमुहे'त्ति मेपेक्षया, 'आसत्तमे कुलवंसे पहीणे'त्ति कुलरूपो वंशः प्रहीणो भवति आसप्तमादपि वंश्यात्, सप्तममपि वंश्यं यावदित्यर्थः, 'गयाउ से अगए असंखेजइभागे अगयाउ से गए असंखेजगुणेत्ति, ननु पूर्वादिषु प्रत्येकमर्द्धरजुप्रमाणत्वाल्लोकस्योोधश्च किञ्चिन्यूनाधिकसप्तरज्जुप्रमाणत्वात्तुल्यया गत्या |
ताए उकिटापासणसए तिन्नि यायसहस्सं आयामा रहचक्क
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निगोदषट्
व्याख्या- गच्छतां देवानां कथं षट्स्वपि दिक्षु गतादगतं क्षेत्रमसङ्ख्यातभागमात्र अगताच्च गतमसङ्ख्यातगुणमिति ?, क्षेत्रवैषम्या- ११ शतके प्रज्ञप्तिः
दिति भावः, अत्रोच्यते, घनचतुरस्रीकृतस्य लोकस्यैव कल्पितत्वान्न दोषः, ननु यद्युक्तस्वरूपयाऽपि गत्या गच्छन्तो १० उद्देशः अभयदेवीया वृत्तिः२/
देवा लोकान्तं बहुनापि कालेन न लभन्ते तदा कथमच्युताजिनजन्मादिषु द्रागवतरन्ति? बहुत्वात्क्षेत्रस्याल्पत्वादवतरणकालस्येति, सत्यं, किन्तु मन्देयं गतिः जिनजन्माद्यवतरणगतिस्तु शीघ्रतमेति । 'असम्भावपट्ठवणाए'त्ति असद्भूता
त्रिंशिका ॥५२७॥ दार्थकल्पनयेत्यर्थः॥ पूर्व लोकालोकवक्तव्यतोक्ता, अथ लोकैकप्रदेशगतं वक्तव्यविशेष दर्शयन्नाह–'लोगस्स 'मित्यादि,
सू४२३ 'अस्थि णं भंते'त्ति अस्त्ययं भदन्त ! पक्षः, इह च त इति शेषो दृश्यः, 'जाव कलिय'त्ति इह यावत्करणादेवं दृश्यPil 'संगयगयहसियभणियचिठियविलाससललियसंलावनिउणजुत्तोवयारकलिय'त्ति, 'बत्तीसइविहस्स नहस्स'त्ति द्वात्रिं-|
शद् विधा-भेदा यस्य तत्तथा तस्य नाट्यस्य, तत्र ईहामृगऋषभतुरगनरमकरविहगव्यालककिन्नरादिभक्तिचित्रो नामैको नाट्यविधिः, एतच्चरिताभिनयनमिति संभाव्यते, एवमन्येऽप्येकत्रिंशद्विधयो राजप्रश्नकृतानुसारतो वाच्याः । लोकैकप्रदेशाधिकारादेवेदमाह-लोगस्स ण'मित्यादि, अस्य व्याख्या-यथा किलतेषु त्रयोदशसु प्रदेशेषु त्रयोदशप्रदेशकानि | दिग्दशकस्पर्शानि त्रयोदश द्रव्याणि स्थितानि तेषां च प्रत्याकाशप्रदेशं त्रयोदश त्रयोदश प्रदेशा भवन्ति, एवं लोकाकाशप्रदेशेऽनन्तजीवावगाहेनैकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशेऽनन्ता जीवप्रदेशा भवन्ति, लोके च सूक्ष्मा अनन्तजीवात्मका ||
॥५२७॥ निगोदाः पृथिव्यादिसर्वजीवासङ्ख्येयकतुल्याः सन्ति, तेषां चैकैकस्मिन्नाकाशप्रदेशे जीवप्रदेशा अनन्ता भवन्ति, तेषां च जघन्यपदे एकत्राकाशप्रदेशे सर्वस्तोका जीवप्रदेशाः, तेभ्यश्च सर्वजीवा असङ्ख्येयगुणाः, उत्कृष्टपदे पुनस्तेभ्यो विशेषाधिका
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जीवप्रदेशा इति ॥ अयं च सूत्रार्थोऽमूभिवृद्धोक्तगाथाभिर्भावनीयः-लोगस्सेगपएसे जहन्नयपयंमि जियपएसाणं । उक्को-13 सपए य तहा सबजियाणं च के बहुया ? ॥१॥ इति प्रश्नः, उत्तरं पुनरत्र-थोवा जहण्णयपए जियप्पएसा जिया असंख-8 गुणा । उक्कोसपयपएसा तओ विसेसाहिया भणिया ॥ २ ॥ अथ जघन्यपदमुत्कृष्टपदं चोच्यते-तत्थ पुण|| जहन्नपयं लोगंतो जत्थ फासणा तिदिसिं । छद्दिसिमुक्कोसपयं समत्तगोलंमि णण्णत्थ ॥ ३ ॥ तत्र-तयो
जघन्येतरपदयोर्जघन्यपदं लोकान्ते भवति 'जत्थ'त्ति यत्र गोलके स्पर्शना निगोददेशैस्तिसृष्वेव दिक्ष भवति, * शेषदिशामलोकेनावृतत्वात् , सा च खण्डगोल एव भवतीति भावः, 'छदिसिं'ति यत्र पुनर्गोलके षट्स्वपि दिक्षु निगोPा ददेशैः स्पर्शना भवति तत्रोत्कृष्टपदं भवति, तच्च समस्तगौलैः परपूर्णगोलके भवति, नान्यत्र, खण्डगोलके न भवती-||
त्यर्थः, सम्पूर्णगोलकश्च लोकमध्य एव स्यादिति ॥ अथ परिवचनमाशङ्कमान आह-उक्कोसमसंखगुणं जहन्नयाओ पयं || हवइ किं तु ? । नणु तिदिसिंफुसणाओ छद्दिसिफुसणा भवे दुगुणा ॥ ४ ॥ उत्कर्ष-उत्कृष्टपदमसङ्ख्यातगुणं जीवप्रदे-||६||
शापेक्षया जघन्यकात्पदादिति गम्यं, भवति 'किन्तु' कथं तु, न भवतीत्यर्थः, कस्मादेवम् ? इत्याह-ननु'निश्चितम् , अक्षमायां वा ननुशब्दः, त्रिदिक्स्पर्शनायाः सकाशात् पदिक्पर्शना भवेद्विगुणेति, इह च काकुपाठाद्धेतुत्वं प्रतीयत | इति, अतो द्विगुणमेवोत्कृष्टं पदं स्यादसङ्ख्यातगुणं च तदिष्यते, जघन्यपदाश्रितजीवप्रदेशापेक्षयाऽसङ्ख्यातगुणसर्वजीवेभ्यो &ा विशेषाधिकजीवप्रदेशोपेतत्वात्तस्येति । इहोत्तरम्-थोवा जहन्नयपए निगोयमित्तावगाहणाफुसणा । फुसणासंखगुणत्ता ||
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५२८ ॥
उक्कोसपए असंखगुणा ॥ ५ ॥ स्तोका जीवप्रदेशा जघन्यपदे, कस्मात् ? इत्याह - निगोदमात्रे क्षेत्रेऽवगाहना येषां ते तथा एकावमाहना इत्यर्थः, तैरेव यलपर्शनं - अवगाहनं जघन्यपदस्य तन्निगोदमात्रावगाहनस्पर्शनं तस्मात् खण्डगोलकनि| ष्पादकनिगोदैस्तस्यासंस्पर्शन् । दित्यर्थः, भूम्यासन्नापवरककोणान्तिमप्रदेश सदृशो हि जघन्यपदाख्यः प्रदेशः, तं चालो|कसम्बन्धादेकावगाहना एव निगोदाः स्पृशन्ति, न तु खण्डगोलनिष्पादकाः, तत्र किल जघन्यपदं कल्पनया जीवशतं स्पृशति, तस्य च प्रत्येकं कल्पनयैव प्रदेशलक्षं तत्रावगाढमित्येवं जघन्यपदे कोटी जीवप्रदेशानामवगाढेत्येवं स्तोकास्तत्र | जीवप्रदेशा इति । अथोत्कृष्टपदजीवप्रदेशपरिमाणमुच्यते - 'फुसणासंखगुणत्त'त्ति स्पर्शनायाः - उत्कृष्टपदस्य पूर्णगोलकनि| ष्पादकनिगोदैः संस्पर्शनाया यदसङ्ख्यातगुणत्वं जघन्यपदापेक्षया तत्तथा तस्माद्धेतोरुत्कृष्टपदेऽसङ्ख्यातगुणा जीवप्रदेशा | जघन्यपदापेक्षया भवन्ति, उत्कृष्टपदं हि सम्पूर्ण गोलक निष्पादक निगोदैरेकावगाहनैरसङ्ख्येयैः तथोत्कृष्टपदाविमोचने नै केकप्र| देशपरिहानिभिः प्रत्येकमसङ्ख्येयैरेव स्पृष्टं तच्च किल कल्पनया कोटी सहस्रेण जीवानां स्पृश्यते, तत्र च प्रत्येकं जीवप्रदेश| लक्षस्यावगाहनाज्जीषप्रदेशानां दशकोटीकोव्योऽवगाढाः स्युरित्येवमुत्कृष्टपदे तेऽसङ्ख्येयगुणा भावनीया इति । अथ गोलकप्ररूपणायाह — उक्कोसपयममोतुं निगोयओगाहणाऍ सबत्तो । निप्फाइज्जइ गोलो पएसपरिवुद्धिहाणीहिं ॥ ६ ॥ 'उत्कृष्टपदं' विवक्षित प्रदेशम् अमुञ्चद्भिः निगोदावगाहनाया एकस्याः 'सर्वतः ' सर्वासु दिक्षु निगोदान्तराणि स्थापयद्भिर्निष्पाद्यते गोलः कथं ?, प्रदेशपरिवृद्धिहानिभ्यां कांश्चित् प्रदेशान् विवक्षितावगाहनाया आक्रामद्भिः कांश्चिद्विमुञ्चद्भिरित्यर्थः एवमेकगोलकनिष्पत्तिः, स्थापना चेयम्-० । गोलकान्तरकल्पनायाह — तत्तोच्चि गोलाओ उक्कोसपर्यं
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११ शतके १० उद्देशः निगोदषटूत्रिंशिका
सू ४२३
॥ ५२८ ॥
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| मुइन्तु जो अन्नो । होइ निगोओ तंमिवि अन्नो निष्फज्जती गोलो ॥ ७ ॥ तमेवोत्तलक्षणं गोलकमाश्रित्यान्यो गोलको निष्पद्यते, कथम् ?, उत्कृष्टपदं प्राक्तनगोलकसम्बन्धि विमुच्य योऽन्यो भवति निगोदस्तस्मिन्नुत्कृष्टपदकल्पनेनेति । तथा च यत्स्यात्तदाह-एवं निगोयमेत्ते खेत्ते गोलस्स होइ निष्पत्ती । एवं निप्पज्जंते लोगे गोला असंखिज्जा ॥ ८ ॥ 'एवम्' उक्तक्रमेण निगोदमात्रे क्षेत्रे गोलकस्य भवति निष्पत्तिः, विवक्षितनिगोदावगाहातिरिक्तनिगोददेशानां गोलकान्तरानुप्रवेशात्, एवं च निष्पद्यन्ते लोके गोलका असङ्ख्येयाः, असङ्ख्येयत्वात् निगोदावगाहनानां, प्रतिनिगोदावगा| हनं च गोलकनिष्पत्तेरिति ॥ अथ किमिदमेव प्रतिगोलकं यदुक्तमुत्कृष्टपदं तदेवेह ग्राह्यमुतान्यत् ? इत्यस्यामाशङ्काया. | माह-ववहारनएण इमं उक्कोसपयावि एत्तिया चेव । जं पुण उक्कोसपयं नेच्छइयं होइ तं वोच्छं ॥ ९ ॥ 'व्यवहारनयेन' सामान्येन 'इदम्' अनन्तरोक्तमुत्कृष्टपदमुक्तं, काक्वा वेदमध्येयं तेन नेहेदं ग्राह्यमित्यर्थः स्यात् अथ कस्मादे|वम् ? इत्याह- 'उको सपयावि एत्तिया चेव'त्ति न केवलं गोलका असङ्ख्येयाः उत्कर्षपदान्यपि परिपूर्णगोलकप्र| रूपितानि एतावन्त्येव - असङ्ख्येयान्येव भवन्ति यस्मात्ततो न नियतमुत्कृष्टपदं किञ्चन स्यादिति भावः, यत्पुनरुत्कृष्टपदं नैश्चयिकं भवति सर्वोत्कर्षयोगाद् यदिह ग्राह्यमित्यर्थः तद्वक्ष्ये । तदेवाह - त्रायरनि गोयविग्गहगइयाई जत्थ समहिया अन्ने । गोला हुज सुबहुला नेच्छइयपयं तदुक्कोसं ॥ १० ॥ बादरनिगोदानां - कन्दादीनां विग्रहगतिकादयो बादरनिगोदविग्रहगतिकादयः, आदिशब्दश्चेहाविग्रहगतिकावरोधार्थः, यत्रोत्कृष्टपदे समधिका अन्ये- सूक्ष्मनिगोद्गोलकेभ्योऽपरे गोलका भवेयुः सुबहवो नैश्चयिकपदं तदुत्कर्ष, बादरनिगोदा हि पृथिव्यादिषु पृथ्व्यादयश्च स्वस्थानेषु स्वरूपतो भवन्ति न
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व्याख्या-
|| सूक्ष्मनिगोदवत्सर्वश्रेत्यतो यत्र कचित्ते भवन्ति तत्कृष्टपदं तात्त्विकमिति भावः । एतदेव दर्शयन्नाह-इहरा पडुच्च|||११ शतके
सूक्ष्मानगादव प्रज्ञप्तिः सुहुमा बहुतुल्ला पायसो सगलगोला । तो बायराइगहणं कीरइ उक्कोसयपयंमि ॥ ११॥ 'इहर'त्ति बादरनिगोदाश्रयणं १० उद्देशः अभयदेवी- | विना सूक्ष्मनिगोदान् प्रतीत्य बहुतुल्या:-निगोदसङ्ख्यया समानाः प्रायशः, प्रायोग्रहणमेकादिना न्यूनाधिकत्वे व्यभिचार
निगोदषट्या वृत्तिः२४ |परिहारार्थ, क एते ? इत्याह-सकलगोलाः, न तु खण्डगोलाः, अतो न नियतं किश्चिदुत्कृष्टपदं लभ्यते, यत एवं ततो
त्रिंशिका बादरनिगोदादिग्रहणं क्रियते उत्कृष्टपदे ॥ अथ गोलकादीनां प्रमाणमाह-गोला य असंखेज्जा होति निओया असंखया
सू ४२३ ॥५२९॥
गोले । एक्केको उ निगोओ अणंतजीवो मुणेयवो ॥१२॥ अथ जीवप्रदेशपरिमाणप्ररूपणापूर्वक निगोदादीनामवगाहनामानमभिधित्सुराह-लोगस्स य जीवस्स य होन्ति पएसा असंखया तुल्ला । अंगुलअसंखभागो निगोयजियगोलगो| गाहो ॥ १३ ॥ लोकजीवयोः प्रत्येकमसजयेयाः प्रदेशा भवन्ति ते च परस्परेण तुल्या एव, एषां च सङ्कोचविशेषाद् अङ्ग|लासङ्ख्येयभागो निगोदस्य तज्जीवस्य गोलकस्य चावगाह इति निगोदादिसमावगाहना । तामेव समर्थयन्नाह-जमि | जिओ तमेव उ निगोअ तो तम्मि चेव गोलोवि । निष्फज्जइज खेत्ते तो ते तल्लावगाहणया ॥ १४ ॥ यस्मिन् क्षेत्रे जीवो-| |ऽवगाहते तस्मिन्नेव निगोदो, निगोदव्याच्या जीवस्यावस्थानात,'तो'त्ति ततः तदनन्तरं तस्मिन्नेव गोलोऽपि निष्प
॥५२९॥ | द्यते, विवक्षितनिगोदावगाहनातिरिक्तायाः शेषनिगोदावगाहनाया गोलकान्तरप्रवेशेन निगोदमात्रत्वाद् गोलकावगाह|नाया इति, यद्-यस्मात्क्षेत्रे-आकाशे ततस्ते-जीवनिगोदगोलाः 'तुल्यावगाहनाकाः' समानावगाहनाका इति । अथ जीवाद्यवगाहनासमतासामर्थेन यदेकत्र प्रदेशे जीवप्रदेशमान भवति तद्विभणिषुस्तत्प्रस्तावनार्थ प्रश्नं कारयन्नाह-उक्कोसपय
मसोयाः प्रदेशा भवाना असंखया तुल्ला । अंगुलअप्रवक निगोदादीनामवगाह
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पएसे किमेगजीवप्पएसरासिस्स । होज्जेगनिगोयस्स व गोलस्स व किं समोगाढं ? ॥ १५ ॥ तत्र जीवमाश्रित्योत्तरम् - जीवस्स लोगमेत्तस्स सुहुमओगाहणावगाढस्स । एक्केक्कंमि पएसे होंति पएसा असंखेज्जा ॥ १६ ॥ ते च किल कल्पनया कोटीशतसङ्ख्यस्य जीवप्रदेशराशेः प्रदेशदशसहस्रीस्वरूपजीवावगाहनया भागे हृते लक्षमाना भवन्तीति ॥ अथ निगोदमाश्रित्याह — लोगस्स हिए भागे निगोयओगाहणाऍ जं लद्धं । उक्कोसपएऽतिगयं एत्तियमेक्वेक्कजीवाओ ॥ १७ ॥ 'लोकस्य' कल्पनया प्रदेशकोटीशतमानस्य हृते भागे निगोदावगाहनया कल्पनातः प्रदेशदशसहस्रीमानया यल्लब्धं तच्च किल लक्षपरिमाणमुत्कृष्टपदेऽतिगतं - अवगाढमेतावदेकै कजीवात्, अनन्तजीवात्मकनिगोदसम्बन्धिन एकैकजीवसत्कमित्यर्थः । | अनेन निगोदसत्कमुत्कृष्टपदे यदवगाढं तद्दर्शितमथ गोलकसत्कं यत्तत्रावगाढं तद्दर्शयति - एवं दबट्ठाओ सबेसिं एकगोलजीवाणं । उक्कोसपयमइगया होंति पएसा असंखगुणा ॥ १८ ॥ यथा निगोदजीवेभ्योऽसङ्ख्येयगुणास्तत्प्रदेशा उत्कृ|ष्टपदेऽतिगता एवं 'द्रव्यार्थात्' द्रव्यार्थतया न तु प्रदेशार्थतया 'सवेसिं'ति सर्वेभ्य एकगोलगतजीवद्रव्येभ्यः सका| शादुत्कृष्टपदमतिगता भवन्ति प्रदेशा असङ्ख्यातगुणाः । इह किलानन्तजीवोऽपि निगोदः कल्पनया लक्षजीवः, गोलकश्वासङ्ख्यातनिगोदोऽपि कल्पनया लक्षनिगोदः, ततश्च लक्षस्य लक्षगुणने कोटी सहस्रसङ्ख्याः कल्पनया गोलके जीवा भवन्ति, तत्प्रदेशानां च लक्षं लक्षमुत्कृष्टपदेऽतिगतं, अतश्चैकगोलकजीवसङ्ख्यया लक्षगुणने कोटीकोटीदशकसङ्ख्या एकत्र | प्रदेशे कल्पनया जीवप्रदेशा भवन्तीति । गोलकजीवेभ्य सकाशादेकत्र प्रदेशेऽसङ्ख्यगुणा जीवप्रदेशा भवन्तीत्युक्तमथ तत्र | गुणकारराशेः परिमाणनिर्णयार्थमुच्यते - तं पुण केवइएणं गुणियमसंखेज्जयं भवेज्जाहि । भन्नइ दबट्ठाइ जावइया सब
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व्याख्यामज्ञप्तिः बमयदेवीया वृत्तिः२
| ११ शतके १० उद्देश: निगोदषट्त्रिंशिका | सू ४२६
॥५३०॥
गोलत्ति ॥ १९॥ तत्पुनरनन्तरोक्तमुत्कृष्टपदातिगतजीवप्रदेशराशिसम्बन्धि 'कियता' किंपरिमाणेनासङ्ख्येयराशिना गुणितं | सत् 'असंखेजयंति असङ्ख्येयकम्-असङ्ख्यातगुणनाद्वारायातं भवेत्' स्यादिति ?,भण्यते अत्रोत्तरं, द्रव्यार्थतया न तु प्रदेशार्थ तया यावन्तः 'सर्वगोलकाः' सकलगोलकास्तावन्त इति गम्यं, स चोत्कृष्टपदगतेकजीवप्रदेशराशिमन्तव्यः, सकलगोलकानां तत्तुल्यत्वादिति ॥ किं कारणमोगाहणतुल्लत्ता जियमिगोयगोलाणं । गोला उक्कोसपएक्कजियपएसेहिं तो तुल्ला॥२०॥ |'किं कारणं ति कस्मात्कारणाद् यावन्तः सर्वगोलास्तावन्त एवोत्कृष्टपदगतैकजीवप्रदेशाः? इति प्रश्नः, अत्रोत्तरम्-अवगाहनातुल्यत्वात् , केषामियमित्याह-जीवनिगोदगोलानाम् , अवगाहनातुल्यत्वं चैषामङ्गुलासङ्ख्येयभागमात्रावगाहित्वादिति प्रश्नः, यस्मादेवं 'तो'त्ति तस्माद्गोलाः सकललोकसम्बन्धिनः उत्कृष्टपदे ये एकस्य जीवस्य प्रदेशास्ते तथा तैरुत्कृष्टपदैकजीवप्रदेशैस्तुल्या भवन्ति । एतस्यैव भावनार्थमुच्यते-गोलेहि हिए लोगे आगच्छइ जं तमेगजीवस्स । उक्कोसपयगय|पएसरासितुलं हवइ जम्हा ॥ २१ ॥ 'गोलैः' गोलावगाहनाप्रदेशैः कल्पनया दशसहस्रसङ्ख्यैः 'हृते' विभक्त हृतभाग इत्यर्थः। 'लोके' लोकप्रदेशराशौ कल्पनया एककोटीशतप्रमाणे 'आगच्छति' लभ्यते 'यत्' सर्वगोलसङ्ख्यास्थानं कल्पनया लक्षमित्यर्थः तदेकजीवस्य सम्बन्धिना पूर्वोक्तप्रकारतः कल्पनया लक्षप्रमाणेनैवोत्कृष्टपदगतप्रदेशराशिना तुल्यं भवति यस्मात्तस्माद्गोला उत्कृष्टपदैकजीवप्रदेशैस्तुल्या भवन्तीति प्रकृतमेवेति । एवं गोलकानामुत्कृष्टपदगतैकजीवप्रदेशानां च तुल्यत्वं समर्थितं, पुनस्तदेव प्रकारान्तरेण समर्थयति-अहवा लोगपएसे एक्केके ठविय गोलमेक्ककं । एवं उक्कोसपएक्कजियपएसेसु मायति ॥ २२ ॥ अथवा लोकस्यैव प्रदेशे एकैकस्मिन् 'स्थापयनिधेहि विवक्षितसमत्वबुभुत्सो ! गोलकमेकैकं, ततश्च |
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॥५३०॥
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'एवम्' उक्तक्रमस्थापने उत्कृष्टपदे ये एकजीवप्रदेशास्ते तथा तेषु तत्परिमाणेष्वाकाशप्रदेशेष्वित्यर्थः मान्ति गोला इति गम्यं, यावन्त उत्कृष्टपदे एकजीवप्रदेशास्तावन्तो गोलका अपि भवन्तीत्यर्थः, ते च कल्पनया किल लक्षप्रमाणा उभयेऽपीति । अथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदजीवप्रदेशा विशेषाधिका इति बिभणिषुस्तेषां सर्वजीवानां च तावत्समतामाह-गोलो जीवो य समा पएसओ जं च सबजीवावि । होति समोगाहणया मज्झिमओगाहणं पप्प ॥ २३ ॥ गोलको जीवश्च समौ प्रदेशतःअवगाहनाप्रदेशानाश्रित्य, कल्पनया द्वयोरपि प्रदेशदशसहळ्यामवगाढत्वात् , 'जं च'त्ति यस्माच्च सर्वजीवा अपि सूक्ष्मा भवन्ति समावगाहनका मध्यमावगाहनामाश्रित्य, कल्पनया हि जघन्यावगाहना पञ्चप्रदेशसहस्राणि उत्कृष्टा तु पञ्चदोति द्वयोश्च मीलनेनार्डीकरणेन च दशसहस्राणि मध्यमा भवतीति ॥ तेण फुडं चिय सिद्धं एगपएसंमि जे जियपएसा। ते सबजीवतुल्ला सुणसु पुणो जह विसेसहिया ॥ २४ ॥ इह किलासद्भावस्थापनया कोटीशतसङ्ख्यप्रदेशस्य जीवस्याकाशप्रदेशदशसहरुयामवगाढस्य जीवस्य प्रतिप्रदेशं प्रदेशलक्षं भवति, तच्च पूर्वोक्तप्रकारतो निगोदवर्तिना जीवलक्षण गुणितं कोटीसहस्रं भवति, पुनरपि च तदेकगोलवर्त्तिना निगोदलक्षेण गुणितं कोटीकोटीदशकप्रमाणं भवति, जीवप्रमाणमप्येतदेव, तथाहि-कोटीशतसंख्यप्रदेशे लोके दशसहस्रावगाहिनां गोलानां लक्षं भवति, प्रतिगोलकं च निगोदलक्षकल्पनात् निगोदानां कोटीसहस्रं भवति, प्रतिनिगोदं च जीवलक्षकल्पनात् सर्वजीवानां कोटीकोटीदशकं भवतीति॥अथ सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदगतजीवप्रदेशा विशेषाधिका इति दयते-जं संति केइ खंडा गोला लोगंतवत्तिणो अन्ने । बायरविग्गहिएहि य उक्कोसपयं जमब्भहियं ॥ २५ ॥ यस्माद्विद्यन्ते केचित्खण्डा गोला लोकान्तवर्तिनः 'अन्ने'त्ति पूर्णगोलकेभ्योऽपरेऽतो
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी- या वृत्तिः२
निगोदषट्त्रिंशिका
॥५३१॥
|जीवराशिः कल्पनया कोटीकोटीदशकरूप ऊनो भवति पूर्णगोलकतायामेव तस्य यथोक्तस्य भावात् , ततश्च येन जीव- ११ शतके राशिना खण्डगोलका पूर्णीभूताः स सर्वजीवराशेरपनीयते असद्भूतत्वात्तस्य, स च किल कल्पनया कोटीमानः, तत्र है।
१० उद्देशः चापनीते सर्वजीवराशिः स्तोकतरो भवति, उत्कृष्टपदं तु यथोक्तप्रमाणमेवेति तत्त्वतो विशेषाधिकं भवति, समता पुनः | खण्डगोलानां पूर्णताविवक्षणादुक्तेति, तथा बादरविग्रहिकैश्च-बादरनिगोदादिजीवप्रदेशैश्चोत्कृष्टपदं यद्-यस्मात्सर्वजीव
सू४२३ राशेरभ्यधिकं ततः सर्वजीवेभ्य उत्कृष्टपदे जीवप्रदेशा विशेषाधिका भवन्तीति, इयमत्र भावना-वादरविग्रहगतिकादीनामनन्तानां जीवानां सूक्ष्मजीवासङ्ख्येयभागवर्तिनां कल्पनया कोटीप्रायसङ्ख्यानां पूर्वोक्तजीवराशिप्रमाणे प्रक्षेपणेन | समताप्राप्तावपि तस्य बादरादिजीवराशेः कोटीप्रायसङ्ख्यस्य मध्यादुत्कर्षतोऽसडवेयभागस्य कल्पनया शतसङ्ख्यस्य विवक्षितसूक्ष्मगोलकावगाहनायामवगाहनात् एकैकस्मिंश्च प्रदेशे प्रत्येक जीवप्रदेशलक्षस्यायगाढत्वात् लक्षस्य च शतगुणत्वेन कोटीप्रमाणत्वात् तस्याश्चोत्कृष्टपदे प्रक्षेपात्पूर्वोक्तमुत्कृष्टपदजीवप्रदेशमानं कोव्याऽधिकं भवतीति । यस्मादेवं-तम्हा | सबेहिंतो जीवेहिंतो फुडं गहेयवं । उक्कोसपयपएसा होति विसेसाहिया नियमा ॥ २६ ॥ इदमेव प्रकारान्तरेण भाव्यते| अहवा जेण बहुसमा सुहुमा लोएऽवगाहणाए य । तेणेक्केकं जीवं बुद्धीऍ विरलए लोए ॥ २७ ॥ यतो बहुसमाःप्रायेण समाना जीवसङ्ख्यया कल्पनया एकैकावगाहनायां जीवकोटीसहस्रस्यावस्थानात, खण्डगोलकैयभिचार-I|॥५३१॥ |परिहारार्थ चेह बहुग्रहणं, 'सूक्ष्माः' सूक्ष्मनिगोदगोलकाः कल्पनया लक्षकल्पाः 'लोके' चतुर्दशरज्वात्मके, तथा-| ऽवगाहनया च समाः, कल्पनया दशसु दशसु प्रदेशसहस्रेष्ववगाढत्वात् , तस्मादेकप्रदेशावगाढजीवप्रदेशानां सर्वजी-1
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वानां च समतापरिज्ञानार्थमेकैकं जीवं बुद्ध्या 'विरल्लए'त्ति केवलिसमुद्घातगत्या विस्तारयेल्लोके, अयमत्र भावार्थः
यावन्तो गोलकस्यैकत्र प्रदेशे जीवप्रदेशा भवन्ति कल्पनया कोटीरदशकप्रमाणास्तावन्त एव विस्तारितेषु जीवेषु * लोकस्यैकत्र प्रदेशे ते भवन्ति, सर्वजीवा अप्येतत्समाना एवेति, अत एवाह-एवंपि समा जीवा एगपएसगय-151 | जियपएसेहिं । बायरबाहुल्ला पुण होंति पएसा विसेसहिया ॥ २८ ॥ एवमपि न केवलं 'गोलो जीवो य समा' इत्या
दिना पूर्वोक्तन्यायेन समा जीवा एकप्रदेशगतैर्जीवप्रदेशैरिति, उत्तरार्द्धस्य तु भावना प्राग्वदवसेयेति । अथ पूर्वोक्त* राशीनां निदर्शनान्यभिधित्सुः प्रस्तावयन्नाह तेसिं पुण रासीणं निदरिसणमिणं भणामि पञ्चक्खं । सुहगहण-15
गाहणत्थं ठवणारासिप्पमाणेहिं ॥ २९ ॥ गोलाण लक्खमेकं गोले २ निगोयलक्खं तु । एक्कक्के य निगोए जीवाणं |
लक्खमेक्ककं ॥ ३० ॥ कोडिसयमेगजीवप्पएसमाणं तमेव लोगस्स । गोलनिगोयजियाणं दस उ सहस्सा समोगाहो ॥३१॥ & जीवस्सेक्केकस्स य दससाहस्सावगाहिणो लोगे । एक्के+मि पएसे पएसलक्खं समोगाढं ॥ ३२ ॥ जीवसयस्स जहन्ने पयंमि |
कोडी जियप्पएसाणं । ओगाढा उक्कोसे पयंमि वोच्छं पएसग्गं ॥ ३३ ॥ कोडिसहस्सजियाणं कोडाकोडीदसप्पएसाणं । ४ उक्कोसे ओगाढा सबजियाऽवेत्तिया चेव ॥ ३४ ॥ कोडी उक्कोसपयंमि बायरजियप्पएसपक्खेवो । सोहणयमेत्तियं चिय
कायवं खंडगोलाणं ॥ ३५ ॥ उत्कृष्टपदे सूक्ष्मजीवप्रदेशराशेरुपरि कोटीप्रमाणो बादरजीवप्रदेशानां प्रक्षेपः कार्यः, शतकहैल्पत्वाद्विवक्षितसूक्ष्मगोलकावगाढवादरजीवानां, तेषां च प्रत्येक प्रदेशलक्षस्योत्कृष्टपदेऽवस्थितत्वात् , तन्मीलने च कोटी-||
सद्भावादिति, तथा सर्वजीवराशेर्मध्याच्छोधनक-अपनयनम् 'एत्तियं चिय'त्ति एतावतामेव-कोटीसङ्ख्यानामेव कर्त्तव्यं,
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व्याख्या
'खण्डगोलानां' खण्डगोलकपूर्णताकरणे नियुक्तजीवानां तेषामसद्भाविकत्वादिति ॥ एएसि जहासंभवमत्थोवणयं करेज ११ शतके मज्ञप्तिः
रासीणं । सब्भावओ य जाणिज ते अणंता असंखा वा ॥३६ ॥ इहार्थोपनयो यथास्थानं प्रायः प्राग् दर्शित एव, ११ उद्देश जमयदेवी
| 'अणंत'त्ति निगोदे जीवा यद्यपि लक्षमाना उक्तास्तथाऽप्यनन्ताः, एवं सर्वजीवा अपि, तथा निगोदादयो ये लक्षमाना यावृत्तिः२/8
कालस्वरूउक्तास्तेऽप्यसयया अवसेया इति ॥ एकादशशते दशमोद्देशकः समाप्तः ॥ ११-१०॥
पंसू४२४ ॥५३२॥
अनन्तरोद्देशके लोकवक्तव्यतोक्ता, इह तु लोकवर्तिकालद्रव्यवक्तव्यतोच्यते, इत्येवंसम्बद्धस्यास्यैकादशोद्देशकस्वेदमादिसूत्रम्
तेणं कालेणं तेणं समएणं वाणियगामे नाम नगरे होत्था वन्नओ, दूतिपलासे चेइए वन्नओ जाव पुढद विसिलापट्टओ, तत्थ णं वाणियगामे नगरे सुदंसणे नामं सेट्ठी परिवसइ अढे जाव अपरिभूए समणोवा
सए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरइ, सामी समोसढे जाव परिसा पजुवासइ, तए णं से सुदंसणे सेट्ठी || इमीसे कहाए लट्टे समाणे हद्वतुढे पहाए कय जाव पायच्छित्ते सबालंकारविभूसिए साओ गिहाओ पडि|निक्खमा साओ गिहाओ पडिनिक्खमित्ता सकोरेंटमल्लदामेणं छत्तेणं धरिजमाणेणं पायविहारचारेणं ||॥५३२॥ महया पुरिसवग्गुरापरिक्खित्ते वाणियगाम नगरं मझमझेणं निग्गच्छइ निग्गच्छित्ता जेणेव दूतिपलासे 5 |चेइए जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता समणं भगवं महावीरं पंचवि-||
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हेणं अभिगमेणं अभिगच्छति, तं०-सचित्ताणं दवाणं जहा उसभदत्तो जाव तिविहाए पज्जुवासणाए पज्जुवासइ । तए णं समणे भगवं महावीरे सुदंसणस्स सेविस्स तीसे य महतिमहालयाए जाव आराहए भवइ। तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हतुट्ठ० उठाए उट्टेइरत्ता समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासी-कइविहे णं भंते ! काले पन्नत्ते ?, सुदंसणा! चउविहे काले पन्नत्ते, तंजहा-पमाणकाले १ अहाउनिवत्तिकाले २ मरणकाले ३ अद्धाकाले ४, से किं तं पमाणकाले १, २ दुविहे पन्नत्ते, तंजहा-दिवसप्पमाणकाले १ राइप्पमाणकाले य २, चउपोरिसिए दिवसे चउ|पोरिसिया राई भवइ (सू० ४२४)॥
'तेण'मित्यादि, 'पमाणकाले'त्ति प्रमीयते-परिच्छिद्यते येन वर्षशतादि तत् प्रमाणं स चासौ कालश्चेति प्रमाणकाल: || प्रमाणं वा-परिच्छेदनं वर्षादेस्तत्प्रधानस्तदर्थो वा कालः प्रमाणकाल:-अद्धाकालस्य विशेषो दिवसादिलक्षणः, आह चM“दुविहो पमाणकालो दिवसपमाणं च होइ राई य । चउपोरिसिओ दिवसो राई चउपोरिसी चेव ॥१॥"[द्विविधः |
प्रमाणकालो दिवसप्रमाणश्च भवति रात्रिश्च । चतुष्पौरुषीको दिवसो रात्रिश्चतुष्पौरुषीका चैव ॥१॥] 'अहाउनिवत्तिकाले'त्ति यथा-येन प्रकारेणायुषो निवृत्तिः-बन्धनं तथा यः कालः-अवस्थितिरसौ यथायुर्निवृत्तिकालो-नारकाद्यायुष्कलक्षणः, अयं चाद्धाकाल एवायुःकर्मानुभवविशिष्टः सर्वेषामेव संसारिजीवानां स्यात्, आह च-"नेरइयतिरि| यमणुया देवाण अहाउयं तु जं जेणं । निवत्तियमन्नभवे पालेंति अहाउकालो सो॥१॥"[ नैरयिकतिर्यग्मनुजानां
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११ शतके ११ उद्देश: पौरुषीमानं
सू४२५
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व्याख्या-15|| देवानामथायुर्योनान्यस्मिन् भवे निर्वर्तितं तथा पालयन्ति स यथाऽऽयुष्कालः ॥२॥] 'मरणकाले'त्ति मरणेन कि- प्रज्ञप्तिः अद्धा-शिष्टः कालःमरणकाल:-अद्धाकालः एव, मरणमेव वा कालो मरणस्य कालपर्यायत्वान्मरणकालः, अद्धाकाले'त्ति अभयदेवी- समयादयो विशेषास्तद्रूपः कालोऽद्धाकाल:-चन्द्रसूर्यादिक्रियाविशिष्टोऽर्द्धतृतीयद्वीपसमुद्रान्तर्वती समयादिः, आह च- या वृत्तिः२||
| "समयावलियमुहुत्ता दिवसअहोरत्तपक्खमासा य । संवच्छरजुगपलिया सागरओस्सप्पिपरियट्टा ॥१॥" [ समय आव॥५३॥
|लिका मुहूर्तो दिवसोऽहोरात्रं पक्षो मासश्च । संवत्सरो युगं पल्यः सागर उत्सर्पिणी परावर्त्तः ॥१॥] इति । अनन्तरं
चतुष्पौरुषीको दिवसश्चतुष्पौरुषीका च रात्रिर्भवतीत्युक्तमथ पौरुषीमेव प्ररूपयन्नाह| उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा ला राईए वा पोरिसी भवइ, जदा णं भंते ! उक्कोसिया अद्धपंचमुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति
तदा णं कतिभागमुहुसभागेणं परिहायमाणी परि०२ जहन्निया तिमुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी |भवति ?, जदा णं जहनिया तिमुहत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति तदा णं कतिभागमुहुत्तभागेणं परिवहमाणी २ उक्कोसिया अद्धपंचममुलुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, सुदंसणा! जदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ तदा णं बावीससयभागमुहुत्तभागेणं परिहायमाणी परि०२ जहनिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, जदा णं जहनिया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ तया णं बावीससयभागमुहुत्तभागेणं परिवड्डमाणी ||
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॥५३
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परि०२ उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवति । कदा णं भंते ! उक्कोसिमा | अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स राईए वा पोरिसी भवइ ? कदा वा जहन्निया तिमुहुत्ता दिवसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ १, सुदंसणा ! जदा णं उक्कोसए अट्ठारसमुहत्ते दिवसे भवइ जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ तदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ जहन्निया तिमुहत्ता राईए पोरिसी भवइ, जया णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्तिआराई भवति जहन्निए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ तदा णं उक्कोसिया अद्धपंचममुहुत्ता राईए पोरिसी भवइ जहन्निया तिहुत्ता दिवसस्स पोरिसी भवइ । कदा णं भंते ! उकोसए अट्ठारसमुहुत्ते दिवसे भवइ जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ ? कदा वा उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई भवति जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ?, सुदंसणा ! आसाढपुन्निमाए उक्कोसए अट्ठारसमुहुत्ते | दिवसे भवइ जहन्निया दुवालसमुहुत्ता राई भवइ, पोसस्स पुन्निमाए णं उक्कोसिया अट्ठारसमुहुत्ता राई
भवइ जहन्नए दुवालसमुहुत्ते दिवसे भवइ ॥ अत्थि णं भंने ! दिवसा य राईओ य समा चेव भवन्ति ?, हंता! अत्थि, कदा णं भंते ! दिवसा य राईओय समा चेव भवन्ति ?, सुदंसणा! चित्तासोयपुन्निमासु णं, | एत्थ णं दिवसा य राईओय समा चेव भवन्नि, पन्नरसमुहुत्ते दिवसे पन्नरसमुहुत्ता राई भवइ चउभागमुहुत्तभागूणा चउमुहुत्ता दिबसस्स वा राईए वा पोरिसी भवइ, सेत्तं पमाणकाले ॥ (सूत्रं ४२५)॥ 'उक्कोसियेत्यादि, 'अद्धपंचमुहुत्त'त्ति अष्टादश मुहूर्त्तख दिवसस्य रात्रे चतुर्थो भागो यस्मादपञ्चममुहूर्ता नव
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५-१८२-
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व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
सू४२५
॥५३॥
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घटिका इत्यर्थः ततोऽर्द्धपञ्चमा मुहूर्ता यस्यां सा तथा, तिमुहुत्तत्ति द्वादशमुहूर्तस्य दिवसादेश्चतुर्थो भागस्त्रिमुहूर्तों भवति ११ शतके | अतस्त्रयो मुहूर्ताः-षट् घटिका यस्यां सा तथा, 'कइभागमुहुत्तभागेणं'ति कतिभाग:-कतिथभागस्तद्रूपो मुहूर्त्तभागः ११ उद्देश: कतिभागमुहूर्तभागस्तेन, कतिथेन मुहूर्तीशेनेत्यर्थः 'बावीससयभागमुहुत्तभागेणं'ति इहार्द्धपञ्चमानां त्रयाणां च पौरुषीमानं मुहूर्तानां विशेषः साङ्के मुहूर्त्तः, स च त्र्यशीत्यधिकेन दिवसशतेन वर्द्धते हीयते च, स च साझै मुहूर्त्तख्यशीत्यधिक|शतभागतया व्यवस्थाप्यते, तत्र च मुहर्ते द्वाविंशत्यधिक भागशतं भवत्यतोऽभिधीयते-'बावीसे'त्यादि, द्वाविंशत्यधि कशततमभागरूपेण मुहूर्त्तभागेनेत्यर्थः । 'आसाढपुन्निमाए'इत्यादि, इह 'आषाढपौर्णमास्या मिति यदुक्तं तत् पञ्चसंवत्सरिकयुगस्यान्तिमवर्षापेक्षयाऽवसेयं, यतस्तत्रैवाषाढपौर्णमास्यामष्टादशमुहूर्तो दिवसो भवति, अर्द्धपञ्चममुहूर्त्ता च | तत्पौरुषी भवति, वर्षान्तरे तु यत्र दिवसे कर्कसङ्क्रान्तिर्जायते तत्रैवासौ भवतीति समवसेयमिति, एवं पौषपौर्णमास्यामप्यौचित्येन वाच्यमिति ॥ अनन्तरं रात्रिदिवसयोवैषम्यमभिहितं, अथ तयोरेव समतां दर्शयन्नाह-अस्थि 'मित्यादि, इह च 'चत्तासोयपुन्निमाएसु णमित्यादि यदुच्यते तद्व्यवहारनयापेक्षं, निश्चयतस्तु कर्कमकरसङ्क्रान्तिदिनादारभ्य || | यद् द्विनवतितममहोरात्रं तस्याट्टै समा दिवरात्रिप्रमाणतेति, तत्र च पञ्चदशमहले दिने रात्री वा पौरुषीप्रमाणं त्रयो। मुहूर्तास्त्रयश्च मुहूर्तचतुर्भागा भवन्ति, दिनचतुर्भागरूपत्वात्तस्याः, एतदेवाह-'चउभागे'त्यादि, चतुभोगरूपो यो||||५३॥ | मुहूर्तभागस्तेनोना चतुर्भागमुहूर्तभागोना चत्वारो मुहूर्त्ता यस्यां पौरुष्यां सा तथेति ॥
से किं तं अहाउनिवत्तिकाले ?, अहा० २ जन्नं जेणं नेरहएण वा तिरिक्खजोणिएण वा मणुस्सेण वा|
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देवेण वा अहाउयं निवत्तियं सेत्तं पालेमाणे अहाउनिवत्तिकाले । से किं तं मरणकाले १, २ जीवो वा सरीराओ सरीरं वा जीवाओ, सेत्तं मरणकाले ॥ से किं तं अद्धाकाले ?, अद्धा०२ अणेगविहे प्रनत्ते, सेणं समयट्टयाए आवलियट्ठयाए जाव उस्सप्पिणीयाए । एस णं सुदंसणा ! अद्धा दोहारच्छेदेणं छिन्नमाणी जाहे विभागं नो हवमागच्छइ सेत्तं समए, समयट्टयाए असंखेजाणं समयाणं समुदयसमिइसमागमेणं सा एगा आवलियत्ति पवुच्चइ, संखेजाओ आवलियाओ जहा सालिउद्देसए जाव सागरोवमस्स उ एगस्स भवे परिमाणं । एएहि णं भंते ! पलिओवमसागरोवमेहिं किं पयोयणं?, सुदंसणा ! एएहिं पलिओवमसागरोवमेहिं नेरइयतिरिक्खजोणियमणुस्सदेवाणं आउयाइं मविजंति (सू०४२६)॥ नेरइयाणं भंते! | केवइयं कालं ठिई पन्नत्ता ?, एवं ठिइपदं निरवसेसं भाणियवं जाव अजहन्नमणुकोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ठिती पन्नसा ( सूत्रं ४२७) | 'से किं तं अहाउनिवत्तियकाले'इत्यादि, इह च 'जेणं ति सामान्यनिर्देशे ततश्च येन केनचिन्नारकाद्यन्यतमेन
'अहाउयं निवत्तियंति यत्प्रकारमायुष्क-जीवितमन्तर्मुहूर्तादि यथाऽऽयुष्कं 'निर्वतितं' निबद्धं । 'जीवो वा स६ रीरे'त्यादि, जीवो वा शरीरात् शरीरं वा जीवात् वियुज्यत इति शेषः, वाशब्दो शरीर जीवयोरवधिभावस्येच्छानुसारिताप्रः || तिपादनार्थाविति ॥'से किं तं अद्धाकाले'इत्यादि, अद्धाकालोऽनेकविधः प्रज्ञप्तस्तद्यथा-'समययाए'त्ति समयपोऽर्थः समयार्थस्तनाबस्तत्ता तया समयभावेनेत्यर्थः एवमन्यत्रापि, यावत्करणात् 'मुहुत्तट्टयाए'इत्यादि दृश्य
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असंखेज्जासंयोगः स सम्मान
मिति । अथानन्तरोक्तस्य समयादिकालस्य स्वरूपमभिधातुमाह-एस ण'मित्यादि, एषा अनन्तरोक्तोत्सर्पिण्या-||१|| ११ शतके व्याख्याप्रज्ञप्तिः दिका 'अद्धा दोहारच्छेयणेणं'ति द्वौ हारौ-भागौ यत्र छेदने द्विधा वा कारः-करणं यत्र तद् द्विहारं द्विधाकारं वा
११ उद्देशः अभयदेवी-|| तेन 'जाहे'त्ति यदा तदा समय इति शेषः 'सेत्त'मित्यादि निगमनम् । 'असंखेजाण'मित्यादि, असङ्ख्यातानां सम
कायथायुष्का
दिकालः या वृत्तिः२ यानां सम्बन्धिनो ये समुदया-वृन्दानि तेषां याः समितयो-मीलनानि तासां यः समागमः-संयोगः स समुदयसमि-४ स्थितिः सू
तिसमागमस्तेन यत्कालमानं भवतीति गम्यते सैकावलिकेति प्रोच्यते, 'सालिउद्देसए'त्ति षष्ठशतस्य सप्तमोद्देशके ॥ २६-४२७ पल्योपमसागरोपमाभ्यां नैरयिकादीनामायुष्काणि मीयन्त इत्युक्तमथ तदायुष्कमानमेव प्रज्ञापयन्नाह-'नेरइयाण'मि-|| त्यादि, 'ठितिपयंति प्रज्ञापनायां चतुर्थ पदं ॥ ___ अस्थि णं भंते ! एएसिं पलिओवमसागरोवमाणं खएति वा अवचयेति वा?, हंता अस्थि, से केणटेणं भंते ! एवं वुचइ अस्थि णं एएसि णं पलिओवमसागरोवमाणं जाव अवचयेति वा ? |
एवं खलु सुदंसणा! तेणं कालेणं तेणं समएणं हथिणागपुरे नाम नगरे होत्था वन्नओ, सह-18 ॥ संबवणे उजाणे वन्नओ, तत्थ णं हत्थिणागपुरे नगरे बले नाम राया होत्था वन्नओ, तस्स गं
॥५३५॥ बलस्स रन्नो पभावई नाम देवी होत्था सुकुमाल. वन्नओ जाव विहरइ । तए णं सा पभावई देवी अन्नया कयाई तंसि तारिसगंसि वासघरंसि अभितरओ सचित्तकम्मे बाहिरओ दूमियघट्टमढे विचित्तउल्लोगचिल्लिगतले मणिरयणपणासियंधयारे बहुसमसुविभत्तदेसभाए पंचवन्नसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए
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कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघमघंतगंधुद्धयाभिरामे सुगंधिवरगंधिए गंधवट्टिभूए तंसि तारिसगंसि सयणिज्जंसि सालिंगणवहिए उभओ विबोयणे दुहओ उन्नए मज्झेणयगंभीरे गंगापुलिणवालुयउद्दालसालिसए उवचियखोमियदुगुल्लपट्टपडिच्छन्ने सुविरइयरयत्ताणे रत्तंसुयसंवुए सुरम्मे आइणगरूयबूरणवणीयतूलफासे सुगंधवरकुसुमचुन्नसयणोवयारकलिए अद्धरत्तकालसमयंसि सुत्तजागरा ओहीरमाणी २ अयमेयारूवं ओरालं कल्लाणं सिवं धन्नं मंगल्लं सस्सिरीयं महासुविणं पासित्ताणं पडिबुद्धा हाररययखीरसाग| रससंककिरणदगरयरययमहासेलपंडुरतरोरुरमणिजपेच्छणिजं थिरलट्ठपउवद्दपीवरसुसिलिट्ठविसिहतिक्खदाढाविडंबियमुहं परिकम्मियजच्चकमलकोमलमाइयसोभंतलहउटुं रत्तुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहं मूसागयपवरकणगतावियआवत्तायंतवतडिविमलसरिसनयणं विसालपीवरोरु पडिपुन्नविमलखंधं मिउविसयसुहमलक्खणपसत्थविच्छिन्नकेसरसडोवसोभियं ऊसियसुनिम्मियसुजायअप्फोडियलंगूलं सोमं सोमाकारं लीलायंतं जंभायंतं नहयलाओ ओवयमाणं निययवयणमतिवयंतं सीहं सुविणे पासित्ताणं पडिबुद्धा । तए णं सा पभावती देवी अयमेयारूवं ओरालं जाव सस्सिरीयं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुद्धा समाणी हट्टतुट्ठ जाव हियया धाराहयकलंबपुप्फगं पिव समूससियरोमकूवा तं सुविणं ओगिण्हति ओगिण्हित्ता सयणिज्जाओ अब्भुटेइ सयणिजाओ अब्भुटेता अतुरियमचवलमसंभंताए अविलंबियाए रायहंससरिसीए गईए जेणेव बलस्स रन्नो सयणिजे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता बलं रायं ताहिं इहाहिं कंताहिं
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व्याख्या
| पियाहिं मणुन्नाहिं मणामाहिं ओरालाहिं कल्लाणाहिं सिवाहिं धन्नाहिं मंगल्लाहिं सस्सिरीयाहिं मियमहुरमप्रज्ञप्तिः जुलाहिं गिराहिं संलवमाणी संलवमाणी पडिबोहेति पडिबोहेत्ता बलेणं रन्ना अब्भणुनाया समाणी नाणा
११ शतके अभयदेवी
११ उद्देश: मणिरयणभत्तिचित्तंसि भद्दासणंसि णिसीयति णिसीयित्ता आसत्था वीसत्था सुहासणवरगया बलं रायं या वृत्तिः२/
महाबलग. ताहिं इटाहिं कताहिं जाव संलवमाणी २ एवं वयासी-एवं खलु अहं देवाणुप्पिया ! अज तंसि तारिसगंसि भजन्मादि ॥५३६ सयणिज्जंसि सालिंगण तं चेव जाव नियगवयणमइवयंतं सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा, तण्णं देवाणु
सू४२८ प्पिया ! एयस्स ओरालस्स जाव महासुविणस्स के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भविस्सइ ?, तए णं से बले राया पभावईए देवीए अंतियं एयमढे सोचा निसम्म हहतुट्ठ जाव हयहियये धाराहयनीवसुरभिकुसुमचंचुमालइयतणुयऊसवियरोमकूवे तं सुविणं ओगिण्हइ ओगिण्हित्ता ईहं पविस्सइ ईहं पविसित्ता | अप्पणो साभाविएणं मइपुत्वएणं बुद्धिविन्नाणेणं तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ तस्स.२त्ता पभावइं देविं| ताहिं इहाहिं कंताहिं जाव मंगल्लाहिं मियमहरसस्सि० संलवमाणे २ एवं वयासी-ओराले णं तुमे देवी!|
सुविणे दिडे कल्लाणे गं तमे जाव सस्सिरीए गं तुमे देवी! सुविणे दिडे आरोगतुहिदीहाउकल्लाणमंगल्ल कारए| Iाणं तुमे देवी! सुविणे दिढे अस्थलाभो देवाणुप्पिए! भोगलाभो देवाणुप्पिए ! पुत्तलाभो देवाणुप्पिए || 15 रजलाभो देवाणुप्पिए ! एवं खलु तुमं देवाणुप्पिए ! णवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण राईदियाणं|
C
ID॥५३६ ॥ विकताणं अम्हं कुलकेउं कुलदीव कुलपवयं कुलवडेंसयं कुलतिलगं कुलकित्तिकरं कुलनंदिकरं कुलजस
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करं कुलाधारं कुलपायवं कुलविवरणकरं सुकुमालपाणिपायं अहीण[पडि]पुन्नंपचिंदियसरीरं जाव ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूवं देवकुमारसमप्पभं दारगं पयाहिसि । सेवि य णं दारए उम्मुक्कबालभावे विनायपरिणयमिते जोवणगमणुप्पत्ते सूरे वीरे विकते वित्थिन्नविउलबलबाहणे रजवई राया भविस्सइ, |तं उराले णं तुमे जाव सुमिणे दिढे आरोग्गतुहि जाव मंगल्लकारए णं तुमे देवी! सुविणे दिखेत्तिकह | पभावर्ति देविं ताहि इहाहिं जाव वग्गूहिं दोचंपि तचंपि अणुवूहति । तए णं सा पभावती देवी बलस्स रन्नो | अंतियं एयमढे सोचा निसम्म हहतुट्ठ. करयल जाव एवं वयासी-एवमेयं देवाणुप्पिया ! तहमेयं देवाणु| प्पिया! अवितहमेयं देवाणुप्पिया ! असंदिद्धमेयं दे० इच्छियमेयं देवाणुप्पिया! पडिच्छियमेयं देवाणु | प्पिया! इच्छियपडिच्छियमेयं देवाणुप्पिया! से जहेयं तुझे बदहत्तिकट्टतं सुविणं सम्म पडिच्छइ पडि|च्छित्ता बलेणं रन्ना अन्भणुनाया समाणी णाणामणिरयणभत्तिचित्ताओ भद्दासणाओ अन्भुढेइ अब्भुहेत्सा अतुरियमचवल जाव गतीए जेणेव सए सयणिज्जे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता सयणिज्जंसि निसीयति निसीइत्ता एवं बयासी-मा मे से उत्समे पहाणे मंगल्ले सुविणे अन्नेहिं पावसुमिणेहिं पडिहम्मिस्स| इत्तिकटु देवगुरुजणसंबद्धाहिं पसत्थाहिं मंगल्लाहिं धम्मियाहिं कहाहिं सुविणजागरियं पडिजागरमाणी २ विहरति । तए णं से बले राया कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ सहावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अज्ज सविसेसं बाहिरियं उवट्ठाणसालं गंधोदयसित्तसुइयसंमजिओचलितं सुगंधवरपंचवन्नपुप्फो
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गुरुपात जाव पञ्चप्पिणहा से बले राया पञ्चसकता जेणेव अण
व्याख्या* वयारकलियं कालागुरुपवरकुंदुरुक्कजाव गंधवहिभूयं करेह य करावेह य करेत्ता करावेत्ता सीहासणं रएह
|११ शतके प्रज्ञप्तिः मसीहासणं रयावेत्ता ममेतं जाव पचप्पिणह, तए णं ते कोडुबियजाव पडिसुणेत्ता खिप्पामेव सविसेसं |११ उद्देशः अभयदेवी- बाहिरियं उवट्ठाणसालं जाव पञ्चप्पिणंति, तए णं से बले राया पञ्चूसकालसमयंसि सयणिज्जाओ अनुढेइ महाबलगया वृत्तिः२/ सयणिज्जाओ अब्भुढेत्ता पायपीढाओ पञ्चोरुहइ पायपीढाओ पचोरुहित्ता जेणेव अदृणसाला तेणेव उवाग- भजन्मादि च्छति अट्टणसालं अणुपविसइ जहा उववाइए तहेव अदृणसाला तहेव मजणघरे जाव ससिव पियदंसणे नर
सू४२८ ॥५३७॥
वई मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवागच्छद तेणेव | उवागच्छित्ता सीहासणवरंसि पुरच्छाभिमुहे निसीयइ निसीइत्ता अप्पणो उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए अट्ट, भद्दासणाई सेयवत्थपञ्चुत्थुयाई सिद्धत्थगकयमंगलोवयाराई रयावेइ रयावेत्ता अप्पणो अदूरसामंते णाणामणिरयणमंडियं अहियपेच्छणिज्जं महग्यवरपट्टणुग्गयं सहपट्टबहभत्तिसयचित्तताणं इहामियउसमजाव|भत्तिचित्तं अभितरियं जवणियं अंछावेइ अंछावेत्ता नाणामणिरयणभत्तिचित्तं अच्छरयमउयमसूरगोकच्छग सेयवत्थपञ्चुत्थुयं अंगसुहफासुयं सुमउयं पभावतीए देवीए भद्दासणं रयावेइ रयावेत्ता कोडुंबियपु
रिसे सद्दावेइ सद्दावेत्ता एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! अटुंगमहानिमित्तसुत्तत्थधारए विवि- ॥५३७॥ हसत्थकुसले सुविणलक्खणपाढए सद्दावेह, तए णं ते कोडुबियपुरिसा जाव पडिसुणेत्ता बलस्स रन्नो अंतियाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता सिग्धं तुरियं चवलं चंडं वेइयं हथिणपुरं नगरं मज्झमज्झेणं
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जेणेव तेसिं सुविणलक्खणपाढगाणं गिहाई तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उवागच्छिता ते सुविणलक्खणपाढए सहावेंति । तए णं ते सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रन्नो कोडुंबियपुरिसेहिं सदाविया समाणा हट्ठतुट्ठ० व्हाया कयजाव सरीरासिद्धत्थगह रियालियाकयमंगलमुद्धाणा सएहिं २ गिहे हिंतो निग्गच्छंति स० २ हत्थिणापुरं नगरं मज्झंमज्झेणं जेणेव बलस्स रन्नो भवणवरवडेंसए तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उवागच्छित्ता भवणवरवडेंसगपडिदुवारंसि एगओ मिलति एगओ मिलित्ता जेणेव बाहिरिया उवद्वाणसाला तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उवागच्छित्ता करयल० बलरायं जएणं विजएणं वद्धावैति । तए णं सुविणलक्णपाढगा बलेणं रन्ना वंदियपूइयसक्कारिय सम्माणिया समाणा पत्तेयं २ पुवन्नत्थेसु भद्दासणेसु निसीयंति, तए णं से बले राया | पभावति देवि जवणियंतरियं ठावेइ ठावेत्ता पुष्फफलपडिपुन्नहत्थे परेणं विणएणं ते सुविणलक्खणपाढए | एवं वयासी एवं खलु देषाणुप्पिया ! पभावती देवी अज्ज तंसि तारिसगंसि वासघरंसि जाव सीहं सुविणे पासित्ता णं पडिबुद्धा तण्णं देवाणुपिया ! एयस्स ओरालस्स जाव के मन्ने कल्लाणे फलवित्तिविसेसे भवि स्सइ ?, तए णं सुविणलक्खणपाढगा बलस्स रन्नो अंतियं एयमहं सोचा निसम्म हट्टतुट्ट० तं सुविणं ओगिहइ २ ईहं अणुष्पविसइ अणुप्पविसित्ता तस्स सुविणस्स अत्थोग्गहणं करेइ तस्स० २त्ता अन्नमन्त्रेणं सद्धिं | संचालेति २ तस्स सुविणस्स लट्ठा गहिया पुच्छियट्ठा विणिच्छियट्ठा अभिगयट्ठा बलस्स रन्नो पुरओ सुविणसत्थाई उच्चारेमाणा उ० २ एवं वयासी एवं खलु देवाणुप्पिया ! अम्हं सुविणसत्यंसि बायालीसं
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
११ शतके ११ उद्देशः महाबलगभेजन्मादि सू ४२८
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सुविणा तीसं महासुविणा बावत्तरि सवसुविणा दिहा, तत्थ णं देवाणुप्पिया! तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तित्थगरंसि वा चक्कवहिसि वा गम्भं वक्कममाणंसि एएसिं तीसाए महासुविणाणं इमे चोदस| महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झति, तंजहा-गयवसहसीहअभिसेयदामससिदिणयरं झयं कुंभं । पउमस-| रसागरविमाणभवणरयणुच्चयसिहिं च १४ ॥१॥ वासुदेवमायरो वा वासुदेवंसि गन्भं वक्कममाणंसि | एएसिं चोद्दसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे सत्त महासुविणे पासित्ताणं पडिबुज्झंति, बलदेवमायरो वा बल| देवंसि गन्भं वक्कममाणंसि एएसिं चोदसण्हं महासुविणाणं अन्नयरे चत्तारि महासुविणे पासित्ता ण पडिबुझंति, मंडलियमायरो वा मंडलियंसि गम्भं वक्कममाणंसि एतेसि णं चउदसण्हं महासुविणाणं अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिबुज्झन्ति, इमे य गं देवाणुप्पिया! पभावतीए देवीए एगे महासुविणे दिढे, तं ओराले णं देवाणुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिढे जाव आरोग्गतुट्ठ जाव मंगल्लकारए णं दे|वाणुप्पिया! पभावतीए देवीए सुविणे दिट्टे, अत्थलाभो देवाणुप्पिए! भोगपुत्त रजलाभो देवाणुप्पिए ।, एवं खलु देवाणुप्पिए ! पभावती देवी नवण्हं मासाणं बहुपडिपुन्नाणं जाव वीतिकंताणं तुम्हें कुलकेट |जाव पयाहिति, सेविय णं वारए उम्मकबालभावेजाव रज्जवई राया भविस्सइ अणगारे वा भावियप्पा, तं | ओराले णं देवाणुप्पिया ! पभावतीए देवीए सुविणे दिढे जाव आरोग्गतुदीहाउयकल्लाणजाव दिहे । तए ण से बले राया सुविणलवसषापाल्याणं अंलिए एयमढे सोचा निसम्म हहतुट्ट करयल जाव कद्दु ते सुविण
॥५३८॥
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लक्खणपाढगे एवं वयासी - एबमेयं देवाणुप्पिया ! जाव से जहेयं तुम्भे वदहत्तिकट्टु तं सुविणं सम्मं पडिच्छइ तं० त्ता सुविणलक्खणपाढए विउलेणं असणपाणखाइम साइम पुष्पवत्थगंध मल्लालंकारेणं सकारेति संमाणेति सक्कारेता संमाणेत्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयति २ विपुलं २ पडिवसज्जेति पडिविसज्जेत्ता सीहासणाओ अन्भुट्ठे सी० अन्भुट्ठेत्ता जेणेव पभावती देवी तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता पभावलीं देवीं ताहिं इठ्ठाहिं कंताहिं जाव संलवमाणे संलवमाणे एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! सुविणसत्थं| सिवायालीसं सुविणा तीसं महासुविणा बावत्तरि सङ्घसुविणा दिट्ठा, तत्थ णं देवाणुप्पिए ! तित्थगरमायरो वा चक्कवट्टिमायरो वा तं चैव जाच अन्नयरं एगं महासुविणं पासित्ता णं पडिवुज्झंति, इमे य णं तुमे देवाणुप्पिए ! एगे | महासुविणे दिट्ठे तं ओराले तुमे देवी! सुविणे दिट्ठे जाव रज्जवई राया भविस्सह अणगारे वा भावियप्पा, तं ओराले गं तुमे देवी ! सुविणे दिट्ठे जाव दिट्ठेत्तिकट्टु पभावतिं देविं ताहिं इट्ठाहिं कंताहिं जाव दोचंपि तचपि अणुबूहइ, तए णं सापभावती देवी बलस्स रन्नो अंतियं एयमहं सोचा निसम्म हट्ठतुट्ठकरयलजाव एवं वयासीएयमेयं देवाणुप्रिया । जाव तं सुविणं सम्मं पडिच्छति तं सुविणं सम्मं पडिच्छित्ता बलेणं रन्ना अब्भणुन्नाया समाणी नाणामणिरयणभत्तिचित्त जाव अग्भुट्ठेति अतुरियमचलजावगतीए जेणेव सए भवणे तेणेव | उदागच्छद्द तेणेव उवगच्छित्ता सयं भवणमणुपविट्ठा । तए णं सा पभावती देवी व्हाया कयबलिकम्मा जाव | सवालंकारविभूसिया तं गन्धं गाइसीएहिं नाइउण्हेहिं नाइतित्तेहिं नाइक एहिं नाइकसाएहिं नाइअंबि
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२/
११ शतके |११ उद्देश: महाबलगभजन्मादि सू४२८
॥५३॥
लेहिं नाइमहुरेहिं उउभयमाणसुहेहिं भोयणच्छायणगंधमल्लेहिं जं तस्स गन्भस्स हियं मितं पत्थं गन्भपोसणं तं देसे य काले य आहारमाहारेमाणी विवित्तमउएहिं सयणासणेहिं पइरिकसुहाए मणाणुकूलाए विहारभूमीए पसत्थदोहला संपुन्नदोहला सम्माणियदोहला अवमाणियदोहला वोच्छिन्नदोहला ववणीय दोहला ववगयरोगमोहभयपरित्तासा तं गम्भं सुहंसुहेणं परिवहति । तए णं सा पभावती देवी नवण्हं| मासाणं बहुपडिपुन्नाणं अट्ठमाण राइंदियाणं वीतिकंताणं सुकुमालपाणिपायं अहीणपडिपुन्नपंचिंदियसरीरं लक्खणवंजणगुणोववेयं जाव ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूवं दारयं पयाया । तए णं तीसे पभावतीए देवीए अंगपडियारियाओ पभावतिं देविं पसूयं जाणेत्ता जेणेव बले राया तेणेव उवागच्छन्ति तेणेव उवागच्छित्ता करयल जाव बलं रायं जयेणं विजएणं वद्धावेंति जएणं विजएणं वद्धावेत्ता एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया ! पभावती पियट्टयाए पियं निवेदेमो पियं भे भवउ । तए णं से बले राया अंगपडियारियाणं अंतियं एयमढे सोचा निसम्म हहतुट्ठ जाव धाराहयणीव जावरोमकूवे तासिं अंगपडियारियाणं |मउडवलं जहामालियं ओमोयं दलयति २ सेतं रययामयं विमलसलिलपुन्नं भिंगारं च गिण्हइ गिण्हित्ता मत्थए धोवइ मत्थए धोवित्ता विउलं जीवियारिहं पीइदाणं दलयति पीइदाणं दलयित्ता सक्कारेति सम्माणेति (सूत्रं ४२८)॥ अथ पल्योपमसागरोपमयोरतिप्रचुरकालत्वेन क्षयमसम्भावयन् प्रश्नयन्नाह–'अस्थि ण'मित्यादि, 'खये'त्ति
॥५३९॥
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सर्वविनाशः 'अवचए'त्ति देशतोऽपगम इति ॥ अथ पल्योपमादिक्षयं तस्यैव सुदर्शनस्य चरितेन दर्शयन्निद
माह-'एवं खलु सुदंसणे'त्यादि, 'तंसि तारिसगंसित्ति तस्मिंस्तादृशके-वक्तुमशक्यस्वरूपे पुण्यवतां योग्य ४ इत्यर्थः 'दूमियघट्टम'त्ति दूमितं-धवलितं घृष्टं कोमलपाषाणादिना अत एव मृष्टं-मसणं यत्तत्तथा
तस्मिन् 'विचित्तउल्लोयचिल्लियतले'त्ति विचित्रो-विविधचित्रयुक्तः उल्लोकः-उपरिभागो यत्र 'चिल्लिय'ति दीप्य
मानं तलं च-अधोभागो यत्र तत्तथा तत्र 'पंचवन्नसरससुरभिमुक्कपुप्फपुंजोवयारकलिए'त्ति पञ्चवर्णेन सरसेन सुर४ भिणा च मुक्तेन-क्षिप्तेन पुष्पपुञ्जलक्षणेनोपचारेण-पूजया कलितं यत्तत्तथा तत्र 'कालागुरुपवरकुंदुरुक्कतुरुक्कधूवमघ& मघंतगंधुद्धयाभिरामे'त्ति कालागुरुप्रभृतीनां धूपानां यो मघमघायमानो गन्ध उद्धृतः-उद्भूतस्तेनाभिराम-रम्यं यत्तत्तथा | तत्र, कुन्दुरुक्का-चीडा तुरुकं-सिल्हकं, सुगंधिवरगंधिए'त्ति सुगन्धयः-सद्गन्धाः वरगन्धाः-वरवासाः सन्ति यत्र तत्तथा
| तत्र, 'गंधवट्टिभूए'त्ति सौरभ्यातिशयाद्गन्धद्रव्यगुटिकाकल्पे 'सालिंगणवट्टिए'त्ति सहालिङ्गनवा-शरीरप्रमाणोI पधानेन यत्तत्तथा तत्र 'उभओ विधोयणे' उभयतः-शिरोऽन्तपादान्तावाश्रित्य विखोयणे-उपधानके यत्र तत्तथा तत्र
'दुहओ उन्नए' उभयत उन्नते 'मज्झेणयगंभीरे' मध्ये नतं च-निम्नं गम्भीरं च महत्त्वाद् यत्तत्तथा तत्र, अथवा मध्येन |च-मध्यभागेन च गम्भीरे यत्तत्तथा, (पण्णत्त) गंडविबोयणेत्ति क्वचिद् दृश्यते तत्र च सुपरिकर्मितगण्डोपधाने इत्यर्थः | | 'गंगापुलिणवालुउद्दालसालिसए' गङ्गापुलिनवालुकाया योऽवदाल:-अवदलनपादादिन्यासेऽधोगमनमित्यर्थः तेन सह| शकमतिमृदुत्वाद्यत्तत्तथा तत्र, दृश्यते च हंसतूल्यादीनामयं न्याय इति, 'उवचियखोमियदुगुल्लपट्टपडिच्छायणे"उव
ते 'मण भयतः-शिरोऽन्तपालगणवहिए'त्ति समी
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११ शतके ११ उद्देश: महाबलगभजन्मादि सू ४२८
व्याख्या
चिय'त्ति परिकर्मितं यत् क्षौमिक दुकूलं-कार्यासिकमतसीमयं वा वस्त्रं युगलापेक्षया यः पट्टः-शाटकः स प्रतिच्छादनंप्रज्ञप्तिः अभयदेवी
४ आच्छादनं यस्य तत्तथा तत्र 'सुविरइयरयत्ताणे' सुष्ठु विरचितं-रचितं रजस्त्राणं-आच्छादनविशेषोऽपरिभोगावस्थायां या वृत्तिः२६
यस्मिंस्तत्तथा तत्र 'रत्तंसुयसंवुए' रक्तांशुकसंवृते-मशकगृहाभिधानवस्त्रविशेषावृते 'आइणगरूयबूरनवणीयतूल
फासे' आजिनक-चर्ममयो वस्त्रविशेषः स च स्वभावादतिकोमलो भवति रूतं च-कर्पासपक्ष्म बूरं च-वनस्पतिविशेषः ॥५४॥ नवचीतं च-रक्षणं तूलश्च-अर्कतूल इति द्वन्द्वस्तत एषामिव स्पर्शो यस्य तत्तथा तत्र 'सुगंधवरकुसुमचुन्नसयणो
वयारकलिए'त्ति सुगन्धीनि यानि वरकुसुमानि चूर्णा एतन्यतिरिक्ततथाविधशयनोपचाराश्च तैः कलितं यत्तत्तथा तत्र 'अद्धरत्तकालसमयंसित्ति समयः समाचारोऽपि भवतीति कालेन विशेषितः कालरूपः समयः कालसमयः स चान४ र्द्धरात्रिरूपोऽपि भवतीत्यतोऽर्द्धरात्रिशब्देन विशेषितस्ततश्चार्द्धरात्ररूपः कालसमयोऽर्द्धरात्रकालसमयस्तत्र 'सुत्तजागर'त्ति |
नातिसुप्ता नातिजागरेति भावः किमुक्तं भवति ?-'ओहीरमाणी'त्ति प्रचलायमाना, ओरालादिविशेषणानि पूर्ववत् 'सुविणे'त्ति स्वप्रक्रियायां 'हाररययखीरसागरससंककिरणदगरयरययमहासेलपंडुरतरोरुरमणिजपेच्छणिज्ज' हारादय इव पाण्डुरतरः-अतिशक्तः उरुः-विस्तीर्णो रमणीयो-रम्योऽत एव प्रेक्षणीयश्च-दर्शनीयो यः स तथा तम्, इह च रजतमहाशेलो वैतात्य इति, 'थिरलट्टपउट्टवद्दपीवरससिलिट्रविसिट्टतिक्खदाढाविडंबियमुह स्थिरी-अप्रकम्पी
लष्टी-मनोज्ञो प्रकोष्ठौ-कापूरातनभागी यस्य स तथा तं वृत्ता-वर्तुलाः पीवरा:-स्थूलाः सुश्लिष्टा-अविशवराः विशिरा-घराः तीक्ष्णादिका या दंष्ट्रास्ताभिः कृत्वा विडम्बितं मुखं यस्य स तथा ततः कर्मधारयोऽतस्तं 'परिकम्सियज
॥५४०॥
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चकमलको मलमाइयसोहंतल उट्ठे' परिकर्मितं कृतपरिकर्म्म यज्जात्यकमलं तद्वत्कोमलौ मात्रिकौ - प्रमाणोपपन्नौ शोभमा नानां मध्ये लष्टौ -मनोज्ञौ ओष्ठौ - दशनच्छदौ यस्य स तथा तं 'रतुप्पलपत्तमउयसुकुमालतालुजीहं' रक्तोत्पलपत्रवत् | मृदूनां मध्ये सुकुमाले तालुजिह्वे यस्य स तथा तं, वाचनान्तरे तु 'रतुप्पलपत्तमज्य सुकुमालतालु निल्ला लियग्गजीहं महुगुलियाभिसंतपिंगलच्छं 'ति तत्र च रक्तोत्पलपत्रवत् सुकुमालं तालु निर्लालिताग्रा च जिह्वा यस्य स तथा तं मधुगुटिकादिवत् 'भिसंतति दीप्यमाने पिङ्गले अक्षिणी यस्य स तथा तं 'मूसागयपवरकणगतावियआवत्तायं तवट्टतडिविमलसरिसनयणं मूषा-स्वर्णादितापनभाजनं तद्गतं यत्प्रवरकनकं वापितं कृताग्नितापम् ' आवत्तायंत 'ति आवर्त्त कुर्वाणं तद्वद् ये वर्णतः वृत्ते च तडिदिव विमले च सदृशे च परस्परेण नयने- लोचने यस्य स तथा तं 'विसालपीवरोरुपडिपुन्नविपुलखंधं' विशाले - विस्तीर्णे पीवरे - उपचिते ऊरू- जङ्घे यस्य परिपूर्णो विपुलश्च स्कन्धो यस्य स तथा तं 'मिडविसयहुमलक्खणपसत्थविच्छिन्न केसरसडोवसोहियं' मृदवः 'विसद'त्ति स्पष्टाः सूक्ष्माः 'लक्खणपसत्थ' त्ति प्रशस्तलक्षणाः विस्तीर्णाः पाठान्तरेण विकीर्णा याः केशरसटाः - स्कन्ध केशच्छटास्ताभिरुपशोभितो यः स तथा तम् 'ऊसियमुनिम्मिय सुजायअप्फोडियलंगूलं' उच्छ्रितं-ऊर्जीकृतं सुनिर्मितं- सुष्ठु अधोमुखीकृतं सुजातं - शोभ नतया जातं आस्फोटितं च-भूमावास्फालितं लाङ्गूलं येन स तथा तम् ॥ 'अतुरियमचवलं'ति देहमनश्चापल्यरहितं यथा भवत्येवम् ' असंभंताएं'त्ति अनुत्सुकया 'रायहंससरिसीए' त्ति राजहंसगतिसदृश्येत्यर्थः ' आसत्य'त्ति आश्वस्ता गतिजनितश्रमाभावात् 'वीसत्य'त्ति विश्वस्ता सङ्घोभाभावात् अनुत्सुका वा 'सुहासणवरगद्य'त्ति सुखेन सुखं वा शुभं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२] ॥५४१॥
| ११ शतके | ११ उद्देशः महाबलगभजन्मादिसू ४२८
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वा आसनवरं गता या सा तथा 'धाराहयनीवसुरहिकुसुमचंचुमालइयतणु'त्ति धाराहतनीपसुरभिकुसुममिव 'चंचुमालइय'त्ति पुलकिता तनुः-शरीरं यस्य स तथा, किमुक्तं भवति ?-'ऊसवियरोमकूवेत्ति उच्छ्रितानि रोमाणि | कूपेषु-तद्रन्ध्रेषु.यस्य स तथा, 'मइपुवेणं'ति आभिनिबोधिकप्रभवेन 'बुद्धिविन्नाणेणं ति मतिविशेषभूतोत्पत्तिक्या| दिबुद्धिरूपपरिच्छेदेन 'अत्थोग्गहणं'ति फलनिश्चयम् 'आरोग्गतुहिदीहाउकल्लाणमंगल्लकारए गं'ति इह कल्याणानि-अर्थप्राप्तयो मङ्गलानि-अनर्थप्रतिघाताः 'अत्थलाभो देवाणुप्पिए !' भविष्यतीति शेषः 'कुलके'ति केतुश्चिह्न ध्वज इत्यनर्थान्तरं केतुरिव केतुरद्भुतत्वात् कुलस्य केतुः कुलकेतुस्तं, एवमन्यत्रापि, 'कुलदीवंति दीप इव दीपः प्रकाशकत्वात् 'कुलपवयंति पर्वतोऽनभिभवनीयस्थिराश्रयतासाधात् 'कुलवडेंसयंति कुलावतंसकं कुलस्यावतंसकः-शेखर उत्तमत्वात् 'कुलतिलयंति तिलको-विशेषको भूषकत्वात् 'कुलकित्तिकरंति इह कीर्तिरेकदिग्गामिनी प्रसिद्धिः 'कुलनंदिकरति तत्समृद्धिहेतुत्वात् 'कुलजसकरति इह यशः-सर्वदिग्गामी प्रसिद्धिविशेष. 'कुलपाय'ति पादपश्चाश्रयणीयच्छायत्वात् 'कुलविवडणकर ति विविधैः प्रकारैर्वर्द्धनं विवर्धनं तत्करणशीलं 'अहीणपुन्नपंचिंदियसरीरं"ति अहीनानि-स्वरूपतः पूर्णानि-सङ्ख्यया पुण्यानि वा-पूतानि पञ्चेन्द्रियाणि यत्र तत्तथा तदेवंविधं शरीरं यस्य स तथा तं, यावत्करणात् 'लक्खणवंजणगुणोववेय'मित्यादि दृश्य, तत्र लक्षणानि-स्वस्तिकादीनि व्यञ्जनानि-मषतिलकादीनि तेषां यो गुणः-प्रशस्तता तेनोपपेतो-युक्तो यः स तथा तं 'ससिसोमाकारं कंतं पियदंसणं सुरूवं शशिवत् सौम्याकारं कान्तं च-कमनीयं अत एव प्रियं द्रष्टणां दर्शनं-रूपं यस्य स तथा तं 'विनायपरिणयमित्ते'त्ति विज्ञ एव विज्ञकः।
RASAIRAGAN
॥५४॥
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स चासौ परिणतमात्रश्च कलादिष्विति गम्यते विज्ञकपरिणतमात्रः 'सूरे'त्ति दानतोऽभ्युपेतनिर्वाहणतो वा 'वीरे'त्ति सङ्ग्रामतः 'विकंते'त्ति विक्रान्तः - परकीय भूमण्डलाक्रमणतः 'विच्छिन्नविपुलबलवाहणे'त्ति विस्तीर्णविपुले - अतिविस्तीर्णे बलवाहने - सैन्यगजादिके यस्य स तथा 'रज्जवइ'त्ति स्वतन्त्र इत्यर्थः 'मा मे से'त्ति मा ममासौ स्वप्न इत्यर्थः 'उत्तमे 'त्ति | स्वरूपतः 'पहाणे'त्ति अर्थप्राप्तिरूपप्रधानफलतः 'मंगल्ले'त्ति अनर्थप्रतिघातरूपफलापेक्षयेति 'सुमिणजागरियं' ति स्वप्नसंर| क्षणाय जागरिका-निद्रानिषेधः स्वप्नजागरिका तां 'पडिजागरमाणी २'ति प्रतिजाग्रती - कुर्वन्ती, आभीक्ष्ण्ये च द्विर्वचनम् । | 'गंधोदयसि त्तसुइयसम्मज्जिओ वलित्तं'ति गन्धोदकेन सिक्ता शुचिका - पवित्रा संमार्जिता कचवरापनयनेन उप| लिप्ता छगणादिना या सा तथा तां, इदं च विशेषणं गन्धोदकसिक्तसंमार्जितोपलिप्तशुचिकामित्येवं दृश्यं, सिक्ताद्यन|न्तरभावित्वाच्छुचिकत्वस्येति, 'अट्टणसाल’'त्ति व्यायामशाला 'जहा उववाइए तहेव अट्टणसाला तहेव मज्जण| घरेत्ति यथौतिपपातिकेऽट्टणशालाव्यतिकरो मज्जनगृहव्यतिकरश्चाधीतस्तथेहाप्यध्येतव्य इत्यर्थः स चायम् — 'अणे - वायामजोग्गवग्गणवामद्दण मल्लयुद्धकरणेहिं संते' इत्यादि, तत्र चानेकानि व्यायामार्थं यानि योग्यादीनि तानि तथा तैः, तत्र योग्या - गुणनिका वलूगनं-उल्ललनं व्यामर्द्दनं - परस्परेणाङ्गमोटन मिति, मज्जनगृहव्यतिकरस्तु 'जेणेव मज्ज|णघरे तेणेव उवागच्छइ तेणेव उवागच्छित्ता मज्जणघरं अणुपविसइ समंतजालाभिरामे' समन्ततो जालकाभिरमणीये 'विचित्तमणिरयणकुट्टिमतले रमणिज्जे ण्हाणमंडवंसि णाणामणिरयणभत्तिचित्तंसि ण्हाणपीढंसि सुहनिसणे' इत्यादिरिति । 'महग्घवरपट्टणुग्गयं' ति महार्घा च सा वरपत्तनोद्गता च-वरवस्त्रोत्पत्तिस्थानसम्भवेति समासोऽतस्तां वरपट्टनाद्वा-प्रधान
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॥५४२॥
व्याख्याप्रज्ञप्तिः वेष्टनकाद् उद्गता-निर्गता या सा तथा तां 'सण्हपट्टभत्तिसयचित्तताण'ति 'सण्हपट्टत्ति सूक्ष्मपट्टः सूत्रमयो भक्तिशत
११ शतके अभयदेवी-ला चित्रस्तानः-तानको यस्यां सा तथा ताम् 'ईहामिए'त्यादि यावत्करणादेवं दृश्यम्-'ईहामियउसभणरतुरगमकरविहगवाल
११ उद्देश: या वृत्तिः२ गकिन्नररुरुसरभचमरकुंजरवणलयपउमलयभत्तिचित्तंति तत्रेहामृगा-वृका ऋषभाः-वृषभाः नरतुरगमकरविहगाः प्रतीताः महाबलग
व्यालाः-स्वापदभुजगाः किन्नराः-व्यन्तरविशेषाः रुरवो-मृगविशेषाः शरभा-आटव्या महाकायाः पशवः परासरेति पर्या- भजन्मादि याः चमरा-आटव्या गावः कुञ्जरा-गजाः वनलता-अशोकादिलताः पद्मलताः-पद्मिन्यः एतासां यका भक्तयो-विच्छि- सू ४२८ त्तयस्ताभिश्चित्रा या सा तथा तां 'अभितरिय'ति अभ्यन्तरां 'जवणियं ति यवनिकाम् 'अंछावेईत्ति आकर्षयति 'अत्थरयमउयमसूरगोत्थयंति आस्तरकेण-प्रतीतेन मृदुमसूरकेण वा अथवाऽस्तरजसा-निर्मलेन मृदुमसूरकेणावस्तृत-आच्छादितं यत्तत्तथा 'अंगसुहफासयं' अङ्गसुखो-देहस्य शर्महेतुः स्पर्शो यस्य तदङ्गसुखस्पर्शकम् ॥ 'अटुंगम-10 हानिमित्तमुत्तत्थधारए'त्ति अष्टाङ्ग-अष्टावयवं यन्महानिमित्तं-परोक्षार्थप्रतिपत्तिकारणव्युत्पादकं महाशास्त्रं तस्य यौ | सूत्रार्थों तौ धारयन्ति येते तथा तान् , निमित्ताङ्गानि चाष्टाविमानि-"अट्ठ निमित्तंगाई दिषु १प्यातं २ तरिक्ख ३ भोमं । लाच ४ । अंगं ५सर ६ लक्खण ७वंजणं च ८तिविहं पुणेकेकं ॥१॥"[ अष्ट निमित्ताङ्गानि दिव्यमुत्पातमन्तरिक्षं भौम चाङ्गं स्वरं लक्षणं व्यञ्जनं च पुनरेकै त्रिविधम् ॥१॥] 'सिग्घ'मित्यादीन्येकार्थानि पदानि औत्सुक्योत्कर्षपति
॥५४२॥ 5)पादनपराणि । 'सिद्धत्थगहरियालियाकयमंगलमुद्धाण'त्ति सिद्धार्थकाः-सर्षपाः हरितालिका-दूर्वा तल्लक्षणानि कृतानि डा मङ्गलानि मूर्ध्नि यैस्ते तथा 'संचालंति'त्ति सञ्चारयन्ति 'लद्धट्टत्ति स्वतः 'गहियट्ठ'त्ति परस्मात् 'पुच्छियहति संशये
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| सति परस्परतः 'विणिच्छियह'त्ति प्रश्नानन्तरं अत एवाभिगतार्था इति॥'सुविण'त्ति सामान्यफलत्वात् 'महासुविण'ति महाफलत्वात् 'बावत्तरिति त्रिंशतो द्विचत्वारिंशतश्च मीलनादिति गम्भं वक्कममाणंसित्ति गर्ने व्युत्क्रामति-प्रविशति सतीत्यर्थः, 'गयवसहे'त्यादि, इह च 'अभिसेय'त्ति लक्ष्म्या अभिषेकः 'दाम'त्ति पुष्पमाला, विमाणभवणत्ति एकमेव, तत्र का विमानाकारं भवनं विमानभवनं, अथवा देवलोकाद्योऽवतरति तन्माता विमानं पश्यति वस्तु नरकात् तन्माता भवनमिति, ||
इह च गाथायां केषुचित्पदेष्वनुस्वारस्याश्रवणं गाथाऽनुलोम्याद् दृश्यमिति ॥ 'जीवियारिहंति जीविकोचितम् । 'उउभुयमाणसुहेहिति ऋतौ २ भज्यमानानि यानि सुखानि-सुखहेतवः शुभानि वा तानि तथा तैः 'हियंति तमेव गर्भमपेक्ष्य 'मियंति परिमित-नाधिकमूनं वा 'पत्थंति सामान्येन पथ्यं, किमुक्तं भवति ?-'गन्भपोसणं'ति गर्भपोषक- मिति 'देसे यत्ति उचितभूप्रदेशे 'काले यत्ति तथाविधावसरे 'विवित्तमउएहिति विविक्तानि-दोषवियुक्तानि लोकान्तरासङ्कीर्णानि वा मृदुकानि च-कोमलानि यानि तानि तथा तैः 'पइरिकसुहाए'त्ति प्रतिरिक्तत्वेन तथाविध|जनापेक्षया विजनत्वेन सुखा शुभा वा या सा तथा तया 'पसत्थदोहल'त्ति अनिन्द्यमनोरथा 'संपुन्नदोहला' अभिलषितार्थपूरणात् 'संमाणियदोहला' प्राप्तस्याभिलषितार्थस्य भोगात् 'अविमाणियदोहल'त्ति क्षणमपि लेशेनापि च नापूर्णमनोरथेत्यर्थः अत एव 'वोच्छिन्नदोहल'त्ति त्रुटितवाञ्छेत्यर्थः, दोहदव्यवच्छेदस्यैव प्रकर्षाभिधानायाह-'विणी| यदोहल'त्ति विवगए' इत्यादि, इह च मोहो-मूढता भयं-भीतिमात्रं परित्रासः-अकस्माद्भयम् , इह स्थाने वाचनान्तरे 'सुहंसुहेणं आसयइ सुयइ चिट्ठइ निसीयइ तुयदृ'त्ति दृश्यते तत्र च 'मुहंसुहेणं'ति गर्भानाबाधया 'आसय'त्ति
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५४३ ॥
आश्रयत्याश्रयणीयं वस्तु 'सुयइ'त्ति शेते 'चिट्ठ'त्ति ऊर्द्धस्थानेन तिष्ठति 'निसीय'त्ति उपविशति 'तुयट्ट 'त्ति शय्यायां वर्त्तत इति ॥ 'पियट्टयाए 'ति प्रियार्थतायै - प्रीत्यर्थमित्यर्थः 'पियं निवेएमो'त्ति 'प्रियम्' इष्टवस्तु पुत्रजन्म| लक्षणं निवेदयामः 'पियं भे भवउ'त्ति एतच्च प्रियनिवेदनं प्रियं भवतां भवतु तदन्यद्वा प्रियं भवत्विति । 'मउडवज्जं'ति मुकुटस्य राजचिह्नत्वात् स्त्रीणां चानुचितत्वात्तस्येति तद्वर्जनं 'जहामा लियं'ति यथामालितं यथा धारितं यथा परिहितमित्यर्थः ' ओमोयं'ति अवमुच्यते - परिधीयते यः सोऽवमोकः- आभरणं तं 'मत्थए घोवइ'त्ति अङ्गप्रतिचारिकाणां मस्तकानि क्षालयति दासत्वापनयनार्थ, स्वामिना धौतमस्तकस्य हि दासत्वमपगच्छतीति लोकव्यवहारः ॥
सेब या कोडुंबियपुरिसे सहावेह सहावेत्ता एवं वयासी - खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! हत्थिणापुरे नयरे चारगसोहणं करेह चारग० २ माणुम्माणवडणं करेह मा० २ हत्थिणापुरं नगरं सन्भितरबाहि रियं आसियसंमजिओवलित्तं जाव करेह कारवेह करेत्ता य कारवेत्ता य जूयसहस्सं वा चक्कसहस्सं वा | पूयामहामहिमसक्कारं वा उस्सवेह २ ममेतमाणत्तियं पञ्चप्पिणह, तए णं ते कोडुंबियपुरिसा बलेणं रन्ना एवं वृत्ता० जाव पञ्चप्पिणंति । तए णं से बले राया जेणेव अट्टणसाला तेणेव उवागच्छति तेणेव उवागच्छित्ता तं चैव जाव मज्जणघराओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता उस्मुक्कं उक्करं उकिर्ड अदिज्जं अमिजं अभडप्पवेसं अंडकोडंडिमं अधरिमं गणियावरनाडइज्जकलियं अणेगतालाचराणुचरियं अणुद्धुयमुइंगं | अमिलायमल्लदामं पमुइयपक्कीलियं सपुरजणजाणवयं दसदिवसे ठिइवडियं करेति । तए णं से बले राया
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११ शतके | ११ उद्देशः
महाबलनामकरणं
सू ४२९
॥५४३ ॥
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दसाहियाए ठिइवडिवाए वट्टमाणीए सइए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य जाए य दाए य भाए य दलमाणे य दवावेमाणे य सए य साहस्सिए य सयसाहस्सिए य लंभे पडिच्छेमाणे पडिच्छावेमाणे एवं विहरइ । तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो पढमे दिवसे ठिइवडियं करेइ तइए दिवसे चंदसूरदंसणियं करेइ छढे दिवसे जागरियं करेइ एक्कारसमे दिवसे वीतिकंते निव्वत्ते असुइजायकम्मकरणे संपत्ते बारसाहदिवसे विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडाविति उ०२ जहा सिवो जाव खत्तिए य आमंतेति आ० ||२तओ पच्छा पहाया कयतं चेव जाव सकारेंति सम्माणेति २ तस्सेव मित्तणातिजाव राईण य खत्ति-| याण य पुरओ अजयपजयपिउपजयागयं बहुपुरिसपरंपरप्परूढं कुलाणुरूवं कुलसरिसं कुलसंताणतंतुवद्धणकरं अयमेयारूवं गोन्नं गुणनिप्फन्नं नामधेजं करेंति-जम्हा णं अम्हं इमे दारए बलस्स रन्नो पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए तं होउ णं अम्हं एयस्स दारगस्स नामधेजं महाबले, तए णं तस्स दारगस्स अम्मापियरो नाम|घेजं करेंति महत्वलेत्ति । तए णं से महबले दारए पंचधाईपरिग्गहिए, तंजहा-खीरधाईए एवं जहा दढपइन्ने
जाव निवायनिवाघायंसि सुहंसुहेणं परिवडति । तए णं तस्स महबलस्स दारगस्स अम्मापियरो अणुपुत्वेणं |ठितिवडियं वा चंदसूरदंसावणियं वा जागरियं वा नामकरणं वा परंगामणं वा पयचंकमणं वा जेमामणं वा पिंडवद्धणं वा पजपावणं वा कण्णवेहणं वा संवच्छरपडिलेहणं वा चोलोयणगं च उवणयणं च अन्नाणि य बहूणि गन्भाधाणजम्मणमादियाई कोउयाइं करेंति । तए णं तं महाबलं कुमारं अम्मापियरो
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५४४॥
| सा तिरेगट्ठवासगं जाणित्ता सोभणंसि तिहिकरणमुहुत्तंसि एवं जहा दृढप्पन्नो जाव अलं भोगसमत्थे जाए यावि होत्था । तए णं तं महबलं कुमारं उम्मुकबालभावं जाव अलं भोगसमत्थं विजाणित्ता अम्मापियरो अट्ठ पासायवडेंसए करेंति २ अब्भुग्गयमूसिय पहसिए इव वन्नओ जहा रायप्पसेणइज्जे जाव पडिरूवे तेसि णं | पासायवडेंसगाणं बहुमज्झदेसभागे एत्थ णं महेगं भवणं करेंति अणेगखंभसयसंनिविद्वं वन्नओ जहा रायप्प सेणइज्जे पेच्छाघरमंडवंसि जाव पडिरूवे ( सूत्रं ४२९ ) ॥
'चारगसोहणं' ति बन्दिविमोचनमित्यर्थः 'माणुम्माणवणं करेह' त्ति इह मानं - रसधान्यविषयम् उन्मानं - तुलारूपम् 'उस्सुकं' ति 'उच्छुकां' मुक्तशुल्कां स्थितिपतितां कारयतीति सम्बन्धः, शुल्ककं तु विक्रेयभाण्डं प्रति राजदेयं द्रव्यम् 'उक्करं'ति उन्मुक्त करां, करस्तु गवादीन् प्रति प्रतिवर्ष राजदेयं द्रव्यं, 'उक्कि' ति उत्कृष्टां -प्रधानां कर्षणनिषेधाद्वा 'अदिज्जं ति | विक्रयनिषेधेनाविद्यमानदातव्यां 'अभिज्जं'ति विक्रयप्रतिषेधादेवाविद्यमानमातव्यां अविद्यमानमायां वा 'अभडप्प| वेसं 'ति अविद्यमानो भटानां - राजाज्ञादायिनां पुरुषाणां प्रवेशः कुटुम्बिगेहेषु यस्यां सा तथा तां 'अदंडकोदंडिमं ति दण्डलभ्यं द्रव्यं दण्ड एव कुदण्डेन निर्वृत्तं द्रव्यं कुदण्डिमं तन्नास्ति यस्यां साऽदण्डकुदण्डिमा तां, तत्र दण्डः - अपराधानुसारेण राजग्राह्यं द्रव्यं कुदण्डस्तु-कारणिकानां प्रज्ञापराधान्महत्यप्यपराधिनोऽपराधे अल्पं राजग्राह्यं द्रव्यमिति, 'अधरिमं'ति अविद्यमानधारणीयद्रव्याम् ऋणमुत्कलनात् 'गणियावर नाडइज्जकलियं' गणिकावरैः - वेश्याप्रधानैर्ना| टकीयै:- नाटक सम्बम्धिभिः पात्रैः कलिता या सा तथा ताम् 'अणेगतालाचराणुचरियं' नानाविधप्रेक्षाचारिसेविता
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११ शतके ११ उद्देशः महाबलनामकरणं सू ४२९
॥५४४॥
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मित्यर्थः 'अणुडुइयमुइंग' त्ति अनुद्धृता-वादनार्थं वादकैरविमुक्ता मृदङ्गा यस्यां सा तथा ताम् 'अमिलायमल्लदा मं अम्लानपुष्पमालां 'पमुइय पक्की लिये 'ति प्रमुदितजनयोगात्प्रमुदिता प्रक्रीडितजनयोगात्प्रक्रीडिता ततः कर्मधारयोऽतस्तां 'सपुरजणजाणवयं' सह पुरजनेन जानपदेन च - जनपदसम्वन्धिजनेन या वर्त्तते सा तथा तां, वाचनान्तरे 'विजयवेजइये 'ति दृश्यते तत्र चातिशयेन विजयो विजयविजयः स प्रयोजनं यस्याः सा विजयवैजयिकी तां 'ठिइवडियं' ति स्थिती - कुलस्य लोकस्य वा मर्यादायां पतिता-गता या पुत्रजन्ममहप्रक्रिया सा स्थितिपतिताऽतस्तां' दसाहियाए 'त्ति दशाहि| कायां - दशदिवसप्रमाणायां 'जाए य'त्ति यागान्- पूजाविशेषान् 'दाए य'त्ति दायांश्च दानानि 'भाए यत्ति भागांश्च-विवक्षितद्रव्यांशान् 'चंदसूरदंसणियं' ति चन्द्रसूर्यदर्शनाभिधानमुत्सवं 'जागरियं' ति रात्रिजागरणरूपमुत्सवविशेषं 'निवत्ते असुइजायकम्मकरणे' त्ति 'निवृत्ते' अतिक्रान्ते अशुचीनां जातकर्म्मणां करणमशुचिजातकर्म्मकरणं तत्र 'संपत्ते बारसाहदिवसे 'त्ति संप्राप्ते द्वादशाख्यदिवसे, अथवा द्वादशानामह्नां समाहारो द्वादशाहं तस्य दिवसो द्वादशाहदिवसो येन स पूर्यते तत्र, 'कुलाणुरूवं'ति कुलोचितं, कस्मादेवम् ? इत्याह- 'कुलसरिसं ति कुलसदृशं तत्कुलस्य बलवत्पुरुष| कुलत्वान्महाबल इति नाम्नश्च बलवदर्थाभिधायकत्वात् तत्कुलस्य महाबल इति नाम्नश्च सादृश्यमिति 'कुलसंताणतंतुवद्वणकरं 'ति कुलरूपो यः सन्तानः स एव तन्तुर्दीर्घत्वात्तद्वर्द्धनकरं माङ्गल्यत्वाद् यत्र तत्तथा 'अयमेयारूवंति इदमेतद्रूपं 'गोणं'ति गौणं तच्चामुख्यमप्युच्यत इत्यत आह- 'गुणनिफन्नं'ति, 'जम्हा णं अम्हं' इत्यादि अस्माकमयं दारकः प्र|भावतीदेव्यात्मजो यस्माद्बलस्य राज्ञः पुत्रस्तस्मात्पितुर्नामानुसारिनामास्य दारकस्यास्तु महाबल इति । 'जहा दढपइन्ने'
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व्याख्या-8 त्ति यथौपपातिके दृढप्रतिज्ञोऽधीतस्तथाऽयं वक्तव्यः, तच्चैवं-'मजणधाईए मंडणधाईए कीलावणधाईए अंकधा- ११ शतके प्रज्ञप्तिः ईए'इत्यादि, 'निवायनिवाघायंसी'त्यादि च वाक्यमिहेवं सम्बन्धनीयं 'गिरिकंदरमल्लीणेच चंपगपायवे निवायनिवा- ११ उद्देशः अभयदेवी
घायंसि सुहंसुहेणं परिवड्डईत्ति । 'परंगामणंति भूमौ सर्पणं 'पयचंकामणं ति पादाभ्यां सञ्चारणं 'जेमामणं'ति महाबलया वृत्तिः२ भोजनकारणं 'पिंडवद्धणं ति कवलवृद्धिकारणं 'पजपावणं'ति प्रजल्पनकारणं 'कण्णवेहणं'ति प्रतीतं 'संवच्छरप
नामकरणं
सू४२९ ॥५४॥ डिलेहणं'ति वर्षग्रन्थिकरणं 'चोलोयणं' चूडाधरणम् 'उवणयणं'ति कलाग्राहणं 'गम्भाहाणजम्मणमाइयाई कोउ
याइं करेंति'त्ति गर्भाधानादिषु यानि कौतुकानि-रक्षाविधानादीनि तानि गर्भाधानादीन्येवोच्यन्त इति गर्भाधानज-|| न्मादिकानि कौतुकानीत्येवं समानाधिकरणतया निर्देशः कृतः, "एवं जहा दढपइन्नो'इत्यनेन यत्सूचितं तदेवं दृश्य|'सोहणंसि तिहिकरणनक्खत्तमुहुत्तसि व्हायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपायच्छित्तं सबालंकारविभूसियं महया इड्डि-||
सकारसमुदएणं कलायरियस्स उवणयंती'त्यादीति । 'अझुग्गयमूसियपहसिते इव' अभ्युद्गतोच्छूितान्-अत्युच्चान् ||2| Bाइह चैवं व्याख्यानं द्वितीयाबहुवचनलोपदर्शनात् , 'पहसिते इव'त्ति प्रहसितानिव-श्वेतप्रभापटलप्रबलतया हसत द इवेत्यर्थः 'वन्नओ जहा रायप्पसेणइज्जे'इत्यनेन यत्सूचितं तदिदं-'मणिकणगरयणभत्तिचित्तवाउछुयविजय-||
वेजयंतीपडागाछत्ताइच्छत्तकलिए तुंगे गगणतलमभिलंघमाणसिहरे'इत्यादि, एतच्च प्रतीतार्थमेव, नवरं 'मणिकनकरत्नानां भक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रा ये ते तथा, वातोद्धृता या विजयसूचिका वैजयन्त्यभिधानाः पताकाछत्रातिच्छत्राणि च है तैः कलिता येते तथा ततः कर्मधारयस्ततस्तान 'अणेगखंभसयसंनिविट्ठति अनेकेषु स्तम्भशतेषु संनिविष्टं यदने
॥५४५॥
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45%
-945454545
कानि वा स्तम्भशतानि संनिविष्टानि यत्र तत्तथा 'वन्नओ जहा रायप्पसेणइज्जे पेच्छाघरमंडवंसित्ति यथा राजप्रश्नकृते प्रेक्षागृहमण्डपविषयो वर्णक उक्तस्तथाऽस्य वाच्य इत्यर्थः, स च 'लीलठियसालिभंजियाग'मित्यादिरिति ।
तए णं तं महाबलं कुमारं अम्मापियरो अन्नया कयावि सोभणंसि तिहिकरणदिवसनक्खत्तमुहतंसि पहायं कयबलिकम्मं कयकोउयमंगलपाय० सवालंकारविभूसियं पमक्खणगण्हाणगीयवाइयपसाहणटुंगतिलगकंकणअविहववहुउवणीयं मंगलसुजंपिएहि य वरकोउयमंगलोवयारकयसंतिकम्मं सरिसयाणं सरित्तयाणं सरिचयाणं सरिसलावन्नरूवजोवणगुणोववेयाणं विणीयाणं कयकोउयमंगलपायच्छित्ताणं सरिसएहिं रायकुलहितो आणिल्लियाणं अट्ठण्हं रायवरकन्नाणं एगदिवसेणं पाणिं गिण्हाविंसु । तए णं तस्स महाबलस्स कुमारस्स अम्मापियरो अयमेयारूवं पीइदाणं दलयंति तं०-अट्ठ हिरनकोडीओ अह सुवन्नकोडीओ अट्ठ मउडे मउडप्पवरे अह कुंडलजुए कुंडलजुयप्पवरे अट्टहारेहारप्पवरे अह अद्धहारे अद्धहारप्पवरे अट्ठ एगावलीओ एगावलिप्पवराओ एवं मुत्तावलीओ एवं कणगावलीओ एवं रयणावलीओ अट्ट कडगजोए कडगजोयप्पवरे एवं तुडियजोए अट्ट खोमजुयलाई खोमजुयलप्पवराई एवं वडगजुयलाई एवं पट्टजुयलाई एवं दुगुल्लजुयलाई अट्ट सिरीओ अट्ठ हिरीओ एवं धिईओ कित्तीओ बुद्धीओ लच्छीओ अट्ट नंदाइं अट्ठ भद्दाई अट्ट तले तलप्पवरे सवरयणामए णियगवरभवणकेऊ अट्ट झए झयप्पवरे अट्ठ वये वयप्पवरे दसगोसाह|स्सिएणं वएणं अट्ठ नाडगाइं नाडगप्पवराई बत्तीसबद्धणं नाडएणं अह आसे आसप्पवरे सवरयणामए
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व्याख्या
सिरिघरपडिरूवए अह हत्थी हत्थिप्पवरे सवरयणामए सिरिघरपडिस्वए अढ़ जाणाई जाणप्पवराई अह || ११ शतके प्रज्ञप्तिः अभयदेवी
६ जुगाई जुगप्पवराई एवं सिवियाओ एवं संदमाणीओ एवं गिल्लीओ थिल्लीओ अट्ट वियडजाणाई वियड-द. ११ उद्देशः
जाणप्पवराई अढरहे पारिजाणिए अह रहे संगामिए अट्ठ आसे आसप्पवरे अट्ट हत्थी हथिप्पवरे अट्ट गामे महाबलया वृत्तिः२ गामप्पवरे दसकुलसाहस्सिएणं गामेणं अट्ट दासे दासप्पवरे एवं चेव दासीओ एवं किंकरे एवं कंचुइले एवं
वीवाहा ॥५४६॥
सू४३० वरिसघरे एवं महत्तरए अट्ट सोवन्निए ओलंबणदीवे अट्ट रुप्पामए ओलंबणदीवे अट्ट सुवन्नरुप्पामए ओलंबणदीवे अट्ट सोवन्निए उकंचणदीवे एवं चेव तिन्निवि अट्ट सोवन्निए थाले अट्ट रुप्पमए थाले अट्ट सुवन्नरुप्प मए थाले अट्ट सोवन्नियाओ पत्तीओ ३ अट्ट सोवन्नियाई थासयाई ३ अट्ठ सोवन्नियाई मंगल्लाई ३ अट्ट सोवन्नियाओ तलियाओ अट्ट सोवनियाओ कावइआओ अट्ट सोवन्निए अवएडए अट्ट सोवनियाओ अवयकाओ अट्ट सोवण्णिए पायपीढए ३ अट्ट सोवन्नियाओ भिसियाओ अट्ट सोवन्नियाओ करोडियाओ अट्ट सोवन्निए पल्लंके अह सोवन्नियाओ पडिसेन्जाओ अट्ट हंसासणाई अट्ठ कोंचासणाई एवं गरुलासणाई उन्न-5 यासणाई पणयासणाई दीहासणाई भद्दासणाई पक्खासणाई मगरासणाई अट्ट पउमासणाई अट्ट दिसासोवत्थियासणाई अट्ट तेल्लसमुग्गे जहा रायप्पसेणइजे जाव अट्ट सरिसवसमुग्गे अट्ठ खुजाओ जहा उववाइए।
॥५४६॥ जाव अट्ट पारिसीओ अट्ठ छत्ते अह छत्तधारिओ चेडीओ अट्ठ चामराओ अट्ट चामरधारीओ चेडीओ टू अट्ट तालियंटे अट्ट तालियंटधारीओ चेडीओ अट्ट करोडियाधारीओ चेडीओ अह खीरधातीओ जाव अट्ठ
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अंकातीओ अट्ट अंगमदियाओ अट्ठ उम्महियाओ अह पहावियाओ अट्ठ पसाहियाओ अट्ट वन्नगपेसीओ द अह चुन्नगपेसीओ अट्ट कोठागारीओ अट्ठ वकारीओ अट्ठ उवत्थाणियाओ अट्ठ नाडइजाओ अट्ट कोडंबिणीओ अट्ठ महाणसिणीओ अट्ठ भंडागारिणीओ अट्ठ अज्झाधारिणीओ अट्ठ पुप्फधरणीओ अट्ठ पाणिघरणीओ अट्ठ बलिकारीओ अट्ट सेजाकारीओ अट्ठ अभितरियाओ पडिहारीओ अट्ट बाहिरियाओ पडि-18 हारीओ अट्ट मालाकारीओ अट्ट पेसणकारीओ अन्नं वा सुबहुं हिरन्नं वा सुवन्नं वा कंसं वा दूसं वा विउलधणकणगजावसंतसारसावएज्जं अलाहि जाव आसत्तमाओ कुलवंसाओ पकामं दाउ पकामं भोत्तुं पकाम परिभाए। तए णं से महबले कुमारे एगमेगाए भजाए एगमेगं हिरनकोडिं दलयति एगमेगं सुवन्नकोडिं दलयति एगमेगं मउडं मउडप्पवरं दलयति एवं तं चेव सवं जाव एगमेगं पेसणकारिं दलयति अन्नं वा सुबहुं हिरन्नं वा जाव परिभाएउं, तए णं से महश्चले कुमारे उपि पासायवरगए जहा जमाली जाव विहरति (सूत्रं ४३०)॥ . | ‘पमक्खणगण्हाणगीयवाइयपसाहणटुंगतिलगकंकणअविहववहुउवणीयंति प्रम्रक्षणक-अभ्यञ्जनं स्नानगी-I |तवादितानि प्रतीतानि प्रसाधनं-मण्डनं अष्टस्वङ्गेषु तिलकाः-पुण्ड्राणि अष्टाङ्गतिलकाः कणं च-रक्तदवरकरूपं| एतानि अविधववधूभिः-जीवत्पतिकनारीभिरुपनीतानि यस्य स तथा तं 'मंगलमुजंपिएहि यत्ति मङ्गलानि-दध्यक्षतादीनि गीतगानविशेषा वा तासु जल्पितानि च-आशीर्वचनानीति द्वन्द्वस्तैः करणभूतैः पाणिं गिण्हाविंसुत्ति सम्बन्धः,
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५४७॥
किं भूतं तम् ? इत्याह- 'वरकोउयमङ्गलोवयारकयसंतिकम्मं' वराणि यानि कौतुकानि - भूतिरक्षादीनि मङ्गलानि च - सिद्धार्थकादीनि तद्रूपो य उपचारः - पूजा तेन कृतं शान्तिकर्म - दुरितोपशमक्रिया यस्य स तथा तं 'सरिसि | याणं'ति सदृशीनां परस्परतो महाबलापेक्षया वा 'सरित्तयाणं' ति सहकृत्वचां-सदृशच्छवीनां 'सरिबयाणं' ति सहगू वयसां, 'सरिसलावन्नेत्यादि, इह च लावण्यं - मनोज्ञता रूपं आकृतियौवनं - युवता गुणाः- प्रियभाषित्वादयः, 'कुण्डलजोए 'त्ति कुण्डलयुगानि 'कडगजोए 'त्ति कलाचिकाभरणयुगानि 'तुडिय'त्ति बाह्वाभरणं 'खोमेति कार्पासिकं - अतसीमयं वा वस्त्रं 'वडग 'त्ति त्रसरीमयं 'पट्ट'त्ति पट्टसूत्रमयं 'दुगुल्ल'त्ति दुकूलाभिधानवृक्षत्वग् निष्पन्नं श्रीप्रभृतयः | षड्देवताप्रतिमाः नन्दादीनि मङ्गलवस्तूनि अन्ये त्वाहुः - नन्दं वृत्तं लोहासनं भद्रं - शरासनं मूढक इति यत्प्रसिद्धं 'तले' त्ति तालवृक्षान् 'वय'त्ति व्रजान् - गोकुलानि 'सिरिघर पडिरूवए 'त्ति भाण्डागारतुल्यान् रत्नमयत्वात् 'जाणा| ई' ति शकटादीनि 'जुग्गाई'ति गोल्लविषयप्रसिद्धानि जम्पानानि 'सिबियाओ' त्ति शिबिकाः - कूटाकाराच्छादितजम्पानरूपाः 'संमाणियाओ'त्ति स्यन्दमानिकाः पुरुषप्रमाणाजम्पानविशेषानेव 'गिल्लीओ'त्ति हस्तिन उपरि कोल्लराकाराः | 'थिल्लीओ' त्ति लाटानां यानि अड्डपल्यानानि तान्यन्यविषयेषु थिल्लीओ अभिधीयन्तेऽतस्ताः 'वियडजाणाई 'ति विवृ| तयानानि तल्लटकवर्जितशकटानि, 'पारिजाणिए'त्ति परियानप्रयोजनाः पारियानिकास्तान् 'संगामिए'त्ति सङ्ग्रामप्रयोजनाः साङ्ग्रामिकास्तान् तेषां च कटीप्रमाणा फलकवेदिका भवति, 'किंकरे' त्ति प्रतिकर्म्म पृच्छाकारिणः 'कंचुइज्जे'त्ति प्रतीहारान् 'वरसघरे 'ति वर्षधरान् वर्द्धितक महल्लकान् 'महत्तरान्' अन्तःपुरकार्यचिन्तकान् 'ओलंबणदीवेत्ति शृङ्ख
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११ शतके
११ उद्देशः महाबल
वीवाहः सू ४३०
| ॥५४७॥
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लाबद्धदीपान् 'उक्कंचणदीवे'त्ति उत्कञ्चनदीपान् अर्द्धदण्डवतः 'एवं चेव तिन्निवित्ति रूप्यसुवर्णसुवर्णरूप्यभेदात! | 'पंजरदीवेत्ति अभ्रपटलादिपञ्जरयुक्तान् 'थासगाईति आदर्शकाकारान् 'तलियाओत्ति पात्रीविशेषान् 'कविचि| याओ'त्ति कलाचिकाः 'अवएडए'त्ति तापिकाहस्तकान् 'अवयकाओ'त्ति अवपाक्यास्तापिका इति संभाव्यते 'भिसियाओ'त्ति आसनविशेषान् 'पडिसेज्जाओ'त्ति उत्तरशय्याः हंसासनादीनि हंसाद्याकारोपलक्षितानि उन्नताद्याकारोपल-15 क्षितानि च शब्दतोऽवगन्तव्यानि, 'जहा रायप्पसेणइज्जे'इत्यनेन यत्सूचितं तदिदम्-'अट्ट कुट्ठसमुग्गे एवं पत्त|चोयतगरएलहरियालहिंगुलयमणोसिलअंजणसमुग्गे'त्ति, 'जहा उववाइए' इत्यनेन यत्सूचितं तदिहैव देवान४न्दाव्यतिकरेऽस्तीति तत एव दृश्य, 'करोडियाधारीओ'त्ति स्थगिकाधारिणीः 'अट्ठ अंगमदियाओ अट्ठ ओमद्दियाओ'त्ति इहाङ्गमर्दिकानामुन्मर्दिकानां चाल्पबहुमर्दनकृतो विशेषः 'पसाहियाओ'त्ति मण्डनकारिणीः 'वन्नगपेसी
ओ'त्ति चन्दनपेषणकारिका हरितालादिपेषिका वा 'चुन्नगपेसीओ'त्ति इह चूर्णः-ताम्बूलचूर्णो गन्धद्रव्यचूर्णो वा 'दवकारीओत्ति परिहासकारिणीः 'उवत्थाणियाओ'त्ति या आस्थानगतानां समीपे वर्तन्ते 'नाडइज्जाओ'त्ति नाटलकसम्बन्धिनीः 'कुटुंबिणीओ'त्ति पदातिरूपाः 'महाणसिणीओ'त्ति रसवतीकारिकाः शेषपदानि रूढिगम्यानि । है तेणं कालेणं २ विमलस्स अरहओ पओप्पए धम्मघोसे नामं अणगारे जाइसंपन्ने वन्नओ जहा केसिसाका मिस्स जाव पंचहिं अणगारसएहिं सद्धिं संपरिवुडे पुवाणुपुति चरमाणे गामाणुगामं दूतिजमाणे जेणेव
हस्थिणागपुरे नगरे जेणेव सहसंबवणे उजाणे तेणेव उवागच्छइ २ अहापडिरूवं उग्गहं ओगिण्हति २ संज
2-64CRECIRCRAGRAM
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११ शतके ११ उद्देशः महाबलस्य संतानीय पार्श्वे दीक्षा |दिसू४३१
व्याख्या
मेणं तवसा अप्पाणं भावेमाणे विहरति । तए णं हस्थिणापुरे नगरे सिंघाडगतिय जाव परिसा पजुवासइ। प्रज्ञप्तिः तए णं तस्स महबलस्स कुमारस्स तं महया जणसई वा जणवूह वा एवं जहा जमाली तहेव चिंता तहेव अभयदेवी- ४ कंचुइज्जपुरिसं सद्दावेति, कंचुइजपुरिसोवि तहेव अक्खाति, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स आगमणगहिया वृत्तिः यविणिच्छए करयलजाव निग्गच्छइ, एवं खलु देवाणुप्पिया ! विमलस्स अरहओ पउप्पए धम्मघोसे नाम
अणगारे सेसं तं चेव जाव सोवि तहेव रहवरेणं निग्गच्छति, धम्मकहा जहा केसिसामिस्स, सोवि तहेव ॥५४८॥
अम्मापियरो आपुच्छइ, नवरं धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं मुंडे भवित्ता अगाराओ अणगारियं पवइत्तए तहेव वुत्तपडिवुत्तया नवरं इमाओ य ते जाया विउलरायकुलबालियाओ कला सेसं तं चेव जाव | ताहे अकामाई चेव महवलकुमारं एवं वयासी-तं इच्छामो ते जाया ! एगदिवसमवि रजसिरिं पासित्तए, तए णं से महबले कुमारे अम्मापियराण वयणमणुयत्तमाणे तुसिणीए संचिट्ठति । तए णं से बले राया कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ एवं जहा सिवभहस्स तहेव रायाभिसेओ भाणियवो जाव अभिसिंचति करयलपरिग्गहियं महबलं कुमारं जएणं विजएणं वडावेंति जएणं विजएणं बद्धावित्ता जाव एवं वयासी-भण जाया ! किं देमोकिं पयच्छामो सेसं जहाजमालिस्स तहेव जाव तए णं से महबले अणगारे धम्मघोसस्स अणगारस्स अंतियं सामाइयमाइयाई चोद्दस पुवाई अहिज्जति अ० २ बहूहिं चउत्थजाव विचित्तेहिं तवोकम्महिं अप्पाणं भावेमाणे बहुपडिपुन्नाई दुवालस वासाई सामनपरियागं पाउणति बहू मासियाए संलेहणाए।
सतहेव जावडहिं चउत्थजासियाए सला
॥५४८॥
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सट्टिभत्ताई अणसणाए० आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा उहुं चंदमसूरिय जहा अ|म्मडो जाव बंभलोए कप्पे देवत्ताए उववन्ने, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं दस सागरोवमाई ठिती पण्णत्ता, तत्थ णं महबलस्सवि दस सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता, से णं तुमं सुदंसणा ! बंभलोगे कप्पे दस सागरोवमाई दिवाई भोग भोगाई भुंजमाणे विहरित्ता ताओ चैव देवलोगाओ आंउक्खएणं ३ अनंतरं चयं चइता इहेव वाणियगामे नगरे सेहिकुलंसि पुत्तत्ताए पदायाए (सूत्रं ४३१ ) । तए णं तुमे सुदंसणा ! उम्मुक्कबालभावेणं विन्नायपरिणयमेत्तेणं जोवणगमणुप्पत्तेणं तहारूवाणं थेराणं अंतियं केवलिपन्नत्ते धम्मे निसंते, सेsविय धम्मे इच्छिए पडिच्छिए अभिरुइए तं सुहु णं तुमं सुदंसणा । इदाणिं पकरेसि। से तेणद्वेणं सुदंसणा ! एवं बुच्चइ-अस्थि णं एतेसिं पलिओवमसागरोवमाणं खयेति वा अवचयेति वा, तए णं तस्स सुदंसणस्स सेट्ठिस्स समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमहं सोचा निसम्म सुभेणं अज्झवसाणेणं सुभेणं परिणामेणं लेसाहिं विसृज्झमाणीहिं तयावरणिजाणं कम्माणं खओवसमेणं ईहापोहमग्गणगवेसणं करेमाणस्स सन्नीपुढे जातीसरणे समुप्पन्ने एयमहं सम्मं अभिसमेति, तए णं से सुदंसणे सेट्ठी समणेणं भगवया महावीरेणं संभारियपुवभवे दुगुणाणीपसहसंवेगे आणंदसुपुन्ननयणे समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो आ० २ वं० नमं० २ ता एवं वयासी- एवमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुझे वदहत्तिकहु उत्तरपुरच्छिमं दिसीभागं अवकमइ सेसं जहा उसभदत्तस्स जाव सङ्घदुक्खप्पहीणे, नवरं चोदस पुवाई
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५४९॥
अहिज्जइ, बहुपडिपुन्नाई दुवालस वासाई सामन्नपरियागं पाउणइ, सेसं तं चैव । सेवं भंते ! सेवं भंते ! ॥ ( सूत्र ४३२ ) ॥ महबलो समत्तो ॥ ११-११ ॥
'विमलस्स'त्ति अस्यामवसर्पिण्यां त्रयोदशजिनेन्द्रस्य 'पउप्पए'त्ति प्रपौत्रकः - प्रशिष्यः अथवा प्रपौत्रिके - शिष्य| सन्ताने 'जहा केसिसामिस्स' त्ति यथा केशिनाम्न आचार्यस्य राजप्रश्नकृताधीतस्य वर्णक उक्तस्तथाऽस्य वाच्यः, स च 'कुलसंपन्ने बलसंपन्ने रूवसंपन्ने विणयसंपन्ने' इत्यादिरिति, 'वृत्तपडिवुत्तय'त्ति उक्तप्रत्युक्तिका भणितानि मातुः प्रतिभणितानि च महाबलस्येत्यर्थः, नवरमित्यादि, जमालिचरिते हि विपुलकुलबालिका इत्यधीतमिह तु विपुलराजकुलबा - लिका इत्येतदध्येतव्यं, कला इत्यनेन चेदं सूचितं - 'कलाकुसल सब काललालियसुहोइयाओ'त्ति, 'सिवभद्दस्स' त्ति | एकादशशत नवमोदेशकाभिहितस्य शिवराजर्षिपुत्रस्य, 'जहा अम्मडो'त्ति यथोपपातिके अम्मडोऽधीतस्तथाऽयमिह वाच्यः, तत्र व यावत्करणादेतत्सूत्रमेवं दृश्यं - 'गहगणन क्खत्ततारारूवाणं बहूइं जोयणाई बहूई जोयणसयाई बहूई जोयणसहस्साइं बहूई जोयणसय सहस्साइं बहूई जोयणकोडाकोडीओ उद्धुं दूरं उप्पइत्ता सोहम्मीसाणसणं कुमारमाहिंदे कप्पे वीईवइत्त'त्ति, इह च किल चतुर्दशपूर्वधरस्य जघन्यतोऽपि लान्तके उपपात इष्यते, “जावंति लंतगाओ चउद| सपुखी जहन्नउववाओ" ति वचनादेतस्य चतुर्दशपूर्वधरस्यापि यद् ब्रह्मलोके उपपात उक्तस्तत् केनापि मनाग् विस्मरणा| दिना प्रकारेण चतुर्दशपूर्वाणामपरिपूर्णत्वादिति संभावयन्तीति । 'सन्नी पुवजाईसरणे' त्ति सज्ञिरूपा या पूर्वा जातिस्तस्याः स्मरणं यत्तत्तथा ' अहिसमेह' त्ति अधिगच्छतीत्यर्थः 'दुगुणाणीयससंवेगे'त्ति पूर्वकालापेक्षया द्विगुणावा
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११ शतके ११ उद्देशः महाबल
दीक्षादि
सू ४३१ सुदर्शन
दीक्षादि
सू ४३२
॥५४९॥
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R
नीतौ श्रद्धासंवेगौ यस्य स तथा, तत्र श्रद्धा-तत्त्वश्रद्धानं सदनुष्ठानचिकीर्षा वा संवेगो-भवभयं मोक्षाभिलापो वेति, |'उसभदत्तस्स'त्ति नवमशते त्रयस्त्रिंशत्तमोद्देशकेऽभिहितस्येति ॥ एकादशशतस्यैकादशः ॥११-११॥
एकादशोदेशके काल उक्तो द्वादशेऽपि स एव भङ्गयन्तरेणोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्तेणं कालेणं २ आलभिया नाम नगरी होत्था वन्नओ, संखवणे चेइए वन्नओ, तत्थ णं आलभियाए नगरीए बहवे इसिभद्दपुत्तपामोक्खा समणो वासया परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा जाव | विहरंति । तए णं तेसिं समणोवासयाणं अन्नया कयावि एगयओ सहियाणं समुवागयाणं संनिविट्ठाणं| सन्निसन्नाणं अयमेयारूवे मिहो कहासमुल्लावे समुप्पज्जित्था-देवलोगेसु णं अजो! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता ?, तए णं से इसिभद्दपुत्ते समणोवासए देवहितीगहियढे ते समणोवासए एवं वयासी-देव-| लोएसु णं अजो! देवाणं जहण्णेणं दसवाससहस्साई ठिती पण्णत्ता, तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया | जाव दससमयाहिया संखेजसमयाहिया असंखेजसमयाहिया उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाइं ठिती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य । तए णं ते समणोवासया इसिभद्दपुत्तस्स समणोवासगस्स एव-|| माइक्खमाणस्स जाव एवं परूवेमाणस्स एयम8 नो सद्दहति नो पत्तियंति नो रोयंति एयमहं असद्दहमाणा अपत्तियमाणा अरोएमाणा जामेव दिसं पाउन्भूया तामेव दिसं पडिगया (सूत्रं ४३३)। तेणं कालेणं २ समणे भगवं महावीरे जाव समोसड्ढे जाव परिसा पजुवासइ । तए णं ते समणोवासया इमीसे कहाए
SS RESERECTOR
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नमंसन्ति २ एवं वदासीय धम्म सोचा निसम्म हहता भवइ । तए णं ते समणोवास
IGI. व्याख्या लट्ठा समाणा हहतुट्ठा एवं जहा तुंगिउद्देसए जाव पजुवासंति । तए णं समणे भगवं महावीरे तेसिं||| प्रज्ञप्तिः
१२ उद्देशः समणोवासगाणं तीसे य महतिधम्मकहा जाव आणाए आराहए भवइ । तए णं ते समणोवासया समअभयदेवी
ऋषिभद्रोणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हट्टतुट्टा उट्ठाए उट्टेइ उ०२ समणं भगवं महावीरं या वृत्तिः२
कादेवस्थिवंदन्ति नमंसन्ति २ एवं वदासी-एवं खलु भंते! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए अम्हं एवं आइक्खइ जाव परू
* तिःसू४३३ ॥५५॥ 18 वेइ-देवलोएसु णं अन्जो ! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिती पन्नत्ता तेण परं समयाहिया जाव तेण श्रीवीरीक्ति
है परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य, से कहमेयं भंते ! एवं ?, अज्जोत्ति समणे भगवं महावीरे ते समणो- संवादः
वासए एवं वयासी-जन्नं अज्जो ! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए तुज्झं एवं आइक्खइ जाव परूवेइ-देवलोगेसु सू ४३४ |णं अजो! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिई पन्नत्ता तेण परं समयाहिया जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य, सच्चे णं एसमहे, अहं पुण अजो ! एवमाइक्खामि जाव परूवेमि-देवलोगेसु णं || अज्जो ! देवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई तं चेव जाव तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य, सच्चे गं एसमटे । तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमढे सोचा निसम्म समणं |भगवं महावीरं वंदन्ति नमंसन्ति २ जेणेव इसिमपुत्ते समणोवासए तेणेव उवागच्छन्ति २ इसिभद्दपुत्तं सम- ॥५५॥ शाणोवासगं वंदति नमसंति २ एयमढ संमं विणएणं भुजो २ खामेति। तए णंसमणोवासया पसिणाई पुच्छति
पु०२ अढाई परियादेयंति अ०२ समणं भगवं महावीरं वंदति नमसंति वं. २ जामेव दिसं पाउन्भूया|
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तामेव दिसं पडिगया (सूत्रं ४३४ ) भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदहणमंसहवं. २एवं वयासी-पभू णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते समाणोवासए देवाणुप्पियाणं अंतियं मुंडे भवित्ता आगाराओ अणगा|रियं पञ्चइत्तए ?, गोयमा ! णो तिणढे समढे, गोयमा! इसिभद्दपुत्ते समणोवासए बहूहिं सीलवयगुणवयवेरमणपञ्चक्खाणपोसहोववासेहिं अहापरिग्गहिएहिं तवोकम्मेहिं अप्पाणं भावेमाणे बहई बासाई समणोवासगपरियागं पाउहिति ब. २ मासियाए संलेहणाए अत्ताणं झूसेहिति मा०२ सर्हि भत्ताई अणसणाई छेदेहिति २ आलोइयपडिकंते समाहिपत्ते कालमासे कालं किचा सोहम्मे कप्पे अरुणाभे विमाणे देवत्ताए उववजिहिति, तत्थ णं अत्थेगतियाणं देवाणं चत्तारि पलिओवमाई ठिती पण्णत्ता, तत्थ णं इसिभद्दपुत्तस्सवि देवस्स चत्तारि पलिओवमाइं ठिती भविस्सति । से णं भंते ! इसिभद्दपुत्ते देवे तातो देवलोगाओ आउक्खएणं भव० ठिइक्खएणं जाव कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहेति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति भगवं गोयमे जाव अप्पाणं भावेमाणे विहरइ (सूत्रं ४३५)। तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयावि आलभियाओ नगरीओ संखवणाओ चेइयाओ पडिनिक्खमइ पडिनिक्खमित्ता बहिया जणवयविहारं विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं आलभिया नाम नगरी होत्था वन्नओ, तत्थ णं संखवणे णाम चेइए होत्था वन्नओ, तस्स णं संखवणस्स अदूरसामंते पोग्गले नाम परिवायए परिवसति रिउवेदजजुरवेदजावनएसु सुपरिनिहिए छटुंछट्टेणं अणिक्खित्तेणं तवोकम्मेणं उड्ड
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व्याख्या- वाहाओ जाव आयावेमाणे विहरति । तए णं तस्स पोग्गलस्स छटुंछट्टेणं जाव आयावेमाणस्स पगतिभप्रज्ञप्तिः इयाए जहा सिवस्स जाव विभंगे नामं अन्नाणे समुप्पन्ने, से णं तेणं विभंगेणं नाणेणं समुप्पन्नेणं बंभलोए अभयदेवी- कप्पे देवाणं ठितिं जाणति पासति । तए णं तस्स पोग्गलस्स परिवायगस्स अयमेयारूवे अन्भत्थिए जाव पावृत्तिः२
समुप्पज्जित्था-अस्थि णं ममं अइसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, देवलोएसु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई ॥५५॥
| ठिती पण्णत्ता तेण परं समयाहिया दुसमयाहिया जाव उक्कोसेणं असंखेजसमयाहिया उक्कोसेणं दससागरो|वमाई ठिती पन्नत्ता तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य, एवं संपेहेति एवं २ आयावणभूमीओ पच्चोकहइ आ. २तिदंडकुंडिया जाव धाउरत्ताओ य गेण्हह गे० २जेणेव आलंभिया णगरी जेणेव परिवायगावसहे तेणेव उवागच्छइ उवा०२ भंडनिक्खेवं करेति भं०२ आलंभियाए नगरीए सिंघाडग जाव पहेसु अन्नमन्नस्स एवमाइक्खइ जाव परूवेइ-अस्थि णं देवाणुप्पिया! ममं अतिसेसे नाणदंसणे समुप्पन्ने, देवलोएमु णं देवाणं जहन्नेणं दसवाससहस्साई तहेव जाव वोच्छिन्ना देवा य दवेलोगा य । तए णं आलंभियाए नगरीए एएणं अभिलावेणं जहा सिवस्स तं चेव जाव से कहमेयं मन्ने एवं ?. सामी समोसढे जाव परिसा पडिगया, भगवं गोयमे तहेव भिक्खायरियाए तहेव बहुजणसई निसामेइ तहेव बहुजणसई निसामेत्ता
तहेव सर्व भाणियत्वं जाव अहं पुण गोयमा ! एवं आइक्खामि एवं भासामि जाव परूवेमि-देवलोएसु णं हादेवाणं जहन्नेणं दस वाससहस्साई ठिती पण्णत्ता तेण परं समयाहिया समयाहिया जाव उक्कोसेणं तेत्तीसं|
| ११ शतके |१२ उद्देशः
ऋषिभद्रस्यागामिभ वः सू४३५ | पुद्गलपरिब्राजकः सू ४३६
॥५५॥
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355555445453
सागरोवमाई ठिती पन्नत्ता, तेण परं वोच्छिन्ना देवा य देवलोगा य । अस्थि णं भंते ! सोहम्मे कप्पे दवाई सवन्नाईपि अवन्नाईपि तहेव जाव हंता अत्थि, एवं ईसाणेवि, एवं जाव अनुए, एवं गेवेजविमाणेसु अणुत्तरविमाणेसुवि, ईसिपम्भाराएवि जाव हंता अस्थि, तए णं सा महतिमहालिया जाव पडिगया, तए णं आलंभियाए नगरीए सिंघाडगतिय० अवसेसं जहा सिवस्स जाव सबदुक्खप्पहीणे नवरं तिदंडकुंडियं जाव धाउरत्तवत्थपरिहिए परिवडियविभंगे आलंभियं नगरं मज्झं० निग्गच्छति जाव उत्तरपुरच्छिम दिसीभागं अवक्कमति अ०२तिदंडकुंडियं च जहा खंदओजाव पवइओसेसंजहा सिवस्स जाव अबाबाहंसोक्खं अणुभंवति सासयं सिद्धा। सेवं भंते ! २त्ति ॥ (सूत्रं ४३६)॥११-१२॥ एक्कारसमं सयं समत्तं ॥११॥ .
'तेण'मित्यादि, 'एगओ'त्ति एकत्र 'समुवागयाणं'ति समायातानां 'सहियाणं ति मिलितानां 'समुविट्ठाणं'ति आसनग्रहणेन 'सन्निसन्नाणं'ति संनिहिततया निषण्णानां 'मिहो'त्ति परस्परं 'देवहितिगहिय?'त्ति देवस्थितिविषये | गृहीतार्थो-गृहीतपरमार्थो यः स तथा । 'तुंगिउद्दसए'त्ति द्वितीयशतस्य पञ्चमे ॥ एकादशशते द्वादशः ॥११-१२॥ ॥ एकादशं शतं समाप्तम् ॥ ११॥
• एकादशशतमेवं व्याख्यातमबुद्धिनाऽपि यन्मयका । हेतुस्तत्राग्रहिता श्रीवाग्देवीप्रसादो वा ॥१॥ Faccided courcedetailedictio tecturdedicineteredictions celery
॥ इति श्रीमदभयदेवमूरिवरविवृतायां भगवत्यां शतकमेकादशम् ॥ s+99999999999
9 APPS
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1E
१२ शतके १ उद्देश: शङ्खपुकल्याचा
सू४३७
व्याख्या- 5
॥ अथ द्वादशं शतकम् ॥ • प्रज्ञप्तिः । अभयदेवी-18 या वृत्तिः ।
व्याख्यातं विविधार्थमेकादशं शतम् , अथ तथाविधमेव द्वादशमारभ्यते, तस्य चोद्देशकार्थाभिधानार्था गाथेयम्
संखे १ जयंति २ पुढवि ३ पोग्गल ४ अइवाय ५ राहु ६ लोगे य । नागे य८ देव ९ आया १० बारसम॥५५२॥
सए दसुद्देसा ॥१॥ तेणं कालेणं २ सावत्थीनाम नगरी होत्था वन्नओ, कोहए चेइए वन्नओ, तत्थ णं सावत्थीए नगरीए बहवे संखप्पामोक्खा समणोवासगा परिवसंति अड्डा जाव अपरिभूया अभिगयजीवाजीवा जाव विहरंति, तस्स णं संखस्स समणोवासगस्स उप्पला नाम भारिया होत्था सुकुमाल जाव सुरूवा समणोवासिया अभिगयजीवा २ जाव विहरह, तत्थ णं सावत्थीए नगरीए पोक्खलीनामं समणोवासए परिवसइ अड्डे अभिगयजाव विहरइ, तेणं कालेणं २ सामी समोसढे परिसा निग्गया जाव पजुवा०, तए णं |ते समणोवासगा इमीसे जहा आलभियाए जाव पज्जुवासइ, तए णं समणे भगवं महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसेय महति०धम्मकहा जाव परिसा पडिगया,तए गंतेसमणोवासगा समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतियं धम्म सोचा निसम्म हतुट्ठ० समणं भ० म०० न० वं. न. पसिणाई पुच्छंति प० अट्ठाई परि| यादियंति अ० २ उठाए उद्वेति उ० २ समणस्स भ० महा. अंतियाओ कोट्टयाओ चेइयाओ पडिनि० प० २ जेणेव सावस्थी नगरी तेणेव पहारेत्थ गमणाए (सूत्र ४३७)।तए णं से संखे समणोवासए ते
नाम भारीए पोक्सा जाब पचासमणोवा
%ESCAMECC
C
॥५५२॥
dan Education International
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मणोवासए एवं वयासी-तुज्झे णं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं उवक्खडावेह, तर अम्हे तं विपुलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा विसाएमाणा परिभुजेमाणा परिभाएमाणापक्खियं पोसह पडिजागरमाणा विहरिस्सामो, तए णं ते समणोवासगा संखस्स समणोवासगस्स एयमढ विणएणं पडिमुणंति, तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स अयमेयारूवे अन्भथिए जाव समुप्पजित्था-नो खल मे सेयं तं विउलं असणं जाव साइमं अस्साएमाणस्स ४ पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तए, सेयं खलु मे पोसहसालाए पोसहियस्स बंभचारिस्स उम्मुक्कमणिसुवन्नस्स ववगयमालावन्नगविलेवणस्स निक्खित्तसत्थमुसलस्स एगस्स अविइयस्स दन्भसंथारोवगयस्स पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणस्स विहरित्तएत्तिकट्ट एवं संपेहेति २जेणेव सावत्थीनगरी जेणेव सए गिहे जेणेव उप्पला समणोवासिया तेणेवर उवा २ उप्पलं समणोवासियं आपुच्छह २ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ २ पोसहसालं अणुपविसइ२ पोसहसालं पमजइ पो०२ उच्चारपासवणभूमी पडिलेहेइ उ०२ दब्भसंथारगं संथरति दभ०२दन्भसंथारगं दुरूहइ दु०२ पोसहसालाए पोसहिए बंभयारी जाव पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणे विहरति, तए णं ते समणोवासगा जेणेव सावत्थी नगरी जेणेव साइं गिहाई तेणेव उवाग० २ विपुलं असणं पाणं
खाइमं साइमं उवक्खडावेंति उ०२ अन्नमन्ने सद्दावेंति अ०२ एवं वयासी-एवं खलु देवाणुप्पिया! अम्हेहि मासे विउले असणपाणखाइमसाइमे उवक्खडाविए, संखे य णं समणोवासए नो हवमागच्छइ, तं सेयं खलु
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५५३॥
| देवाणुप्पिया ! अम्हं संखं समणोवासगं सद्दावेत्तए । तए णं से पोक्खली समणोवासए ते समणोवासए एवं वयासी -अच्छह णं तुझे देवाणुप्पिया ! सुनिघुया वीसत्था अहन्नं संखं समणोवासगं सद्दावेमित्तिकट्टु तेसिं | समणोवासगाणं अंतियाओ पडिनिक्खमति प० २ सावत्थीए नगरीए मज्झंमज्झेणं जेणेव संखस्स समणोवास| गस्स गिहे तेणेव उवाग०२ संखस्स समणोवा सगस्स गिहं अणुपविट्ठे । तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलिं | समणोवासयं एज्जमाणं पासइ पा० २ हट्टतुट्ठ० आसणाओ अन्भुट्ठेइ अ०२त्ता सत्तट्ठ पयाई अणुगच्छद्द २पोक्खलिं समणोवासगं वंदति नम॑सति वं० न० आसणेणं उवनिमंतेइ आ० २ एवं वयासी-संदिसंतु णं देवाणुप्पिया ! किमागमणप्पयोयणं ?, तए णं से पोक्खली समणोवासए उप्पलं समणोवासियं एवं वयासी - कहिनं देवाणुप्पिए । संखे समणोवासए ?, तए णं सा उप्पला समणोवासिया पोक्खलं समणोवासयं एवं वयासी| एवं खलु देवाणुपिया ! संखे समणोवासए पोसहसा लाए पोसहिए बंभयारी जाव विहरई । तए णं से पोक्खली समणोवासए जेणेव पोसहसाला जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवागच्छइ २ गमणागमणाए पडिक्कमइ ग० २ संखं समणोवासगं वंदति नम॑सति वं० न० एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! | अम्हेहिं से विउले असणजाव साइमे उवक्खडाविए तं गच्छामो णं देवाणुप्पिया । तं विडलं असणं जाव | साइमं आसाएमाणा जाव पडिजागरमाणा विहरामो, तए णं से संखे समणोवासए पोक्खलिं समणोवासगं एवं वयासी - णो खलु कप्पर देवाणुपिया ! तं विउलं असणं पाणं खाहमं साइमं आसाएमाणस्स
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१२ शतके
१ उद्देशः शङ्खपुष्क ल्यादिवृत्तं सू ४३८
| ॥५५३॥
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जाव पडिजागरमाणस्स विहरिस्तए, कप्पर मे पोसहसालाए पोसहियस्स जाव विहरित्तए, तं छंदेणं देवाशुप्पिया ! तुब्भे तं विउलं असणं पाणं खाइमं साइमं आसाएमाणा जाव विहरह, तए णं से पोक्खली | समणोवासगे संखस्स समणोवासगस्स अंतियाओ पोसहसालाओ पडिनिक्खमइ २ ता सावत्थि नगरिं मज्झमज्झेणं जेणेव ते समणोवासगा तेणेव उवागच्छइ २ ते समणोवासए एवं वयासी एवं खलु देवाणुपिया ! संखे समणोवासए पोसहसालाए पोसहिए जाव विहरह, तं छंदेणं देवाणुपिया ! तुझे विलं असणपाणखाइमसाइमे जाव विहरह, संखे णं समणोवासए नो हवमागच्छछ । तए णं ते समणोवासगा तं विउलं असणपाणखाइमसाइमे आसाएमाणा जाव विहरति । तए णं तस्स संखस्स समणोवासगस्स |पुरत्तावरप्तकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे जाव समुप्पज्जित्था - सेयं खलु मे कल्लं जाव जलते समणं भगवं महावीरं वंदित्ता नमसित्ता जाव पज्जुवासित्ता तओ पडिनियत्तस्स पक्खियं पोसहं पारित्तएत्तिकट्टु एवं संपेहेति एवं २ कल्लं जाव जलते पोसहसालाओ पडिनिक्खमति प० २ सुद्धप्यावेसाई मंगलाई वत्थाई पवर परिहिए सयाओ गिहाओ पडिनिक्खमति सयाओ गिहाओ पडिनिक्ख| मित्ता पादविहारचारेणं सावस्थि नगरिं मज्झंमज्झेणं जाव पज्जुवासति, अभिगमो नत्थि । तए णं ते समणोवासगा कल्लं पादु० जाय जलते व्हाया कयबलिकम्मा जाव सरीरा सएहिं सएहिं गेहेहिंतो पडिनिक्खमंति सएहिं २ एगयओ मिलायंति एगयओ २ सेसं जहा पढमं जाव पज्जुवा
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व्याख्या- संति । तए णं समणे भगवं महावीरे तेसि समणोवासगाणं तीसे य धम्मकहा जाव आणाए आराहए १२ शतके प्रज्ञप्तिः
भवति । तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्मं सोचा निसम्म हहतहार १ उद्देशः अमयदेवी
उठाए उठेति उ०२ समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति वं० २त्ता न. २त्ता जेणेव संखे समणोवासए या वृत्तिः२
बुद्धाबुद्धसुतेणेव उवागच्छन्ति २ संखं समणोवासयं एवं वयासी-तुमं देवाणुप्पिया ! हिज्जा अम्हेहिं अप्पणा चेव एवं
दक्षजागरि॥५५४॥
का सू४३९ वयासी-तुम्हे णं देवाणुप्पिया ! विउलं असणं जाव विहरिस्सामो, तए णं तुमं पोसहसालाए जाव विहरिए
तं सुट्टणं तुम देवाणुप्पिया! अम्हं हीलसि, अजोत्ति समणे भगवं महावीरे ते समणोवासए एवं वयासीकामा णं अजो! तुझे संखं समणोवासगं हीलह निंदह खिंसह गरहह अवमन्नह, संखे णं समणोवासए पिय-टू
धम्मे चेव दढधम्मे चेव सुदक्खुजागरियं जागरिए (सू०४३८)॥ भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भ० & महा०० न०२ एवं वयासी-कइविहा णं भंते ! जागरिया पण्णत्ता ?, गोयमा ! तिविहा जागरिया पण्ण
त्ता, तंजहा-बुद्धजागरिया अबुद्धजागरिया सुदक्खुजागरिया, से केण एवं वु० तिविहा जागरिया पण्णसत्ता तंजहा-बुद्धजा०१अबुद्धजा०२ सुदक्खु०३१, गोयमा!जे इमे अरिहंता भगवंता उप्पन्ननाणदसणधरा जहा ran
खंदए जाव सवन्नू सवदरिसी एए णं बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति, जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासमिया भासासमिया जाव गुत्तबंभचारी एए णं अबुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति, जे इमे समणोवासगा अभिग
ACCORRॐॐ
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| यजीवाजीवा जाव विहरन्ति एते णं सुदक्खुजागरियं जागरिंति, से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ तिविहा जागरिया जाव सुदक्खुजागरिया (सूत्रं ४३९ ) ॥
'संखे' त्यादि ॥ शङ्खश्रमणोपासक विषयः प्रथम उद्देशकः । 'जयंति 'त्ति जयन्त्यभिधानश्राविकाविषयो द्वितीयः । 'पुढवित्ति रत्नप्रभा पृथिवी विषयस्तृतीयः । ' पुग्गल त्ति पुद्गलविषयश्चतुर्थः । ' अइवाए 'ति प्राणातिपातादिविषयः पञ्चमः । 'राहु'त्ति राहुवतव्यतार्थः षष्ठः । 'लोगे य'त्ति लोकविषयः सप्तमः । 'नागे य'त्ति सर्पवक्तव्यतार्थोऽष्टमः । 'देव' त्ति देवभेदविषयो नवमः । 'आय'त्ति आत्मभेदनिरूपणार्थो दशम इति ॥ तत्र प्रथमोदेशके किञ्चिल्लिख्यते— 'आसाएमाण' त्ति ईषत्स्वादयन्तो बहु च त्यजन्तः इक्षुखण्डादेखि 'विस्साएमाण' त्ति विशेषेण स्वादयन्तोऽल्पमेव त्यजन्तः खर्जूरादेरिव 'परिभाएमाण'त्ति ददतः 'परिभुंजे माण' त्ति सर्वमुपभुञ्जाना अल्पमप्यपरित्यजन्तः, एतेषां च पदानां वार्त्तमानिकप्रत्ययान्तत्वेऽप्यतीतप्रत्ययान्तता द्रष्टव्या, ततश्च तद्विपुलमशनाद्यास्वादितवन्तः सन्तः 'पक्खियं पोसहं पडिजागरमाणा विहरिस्सामो'त्ति पक्षे - अर्द्धमासि भवं पाक्षिकं 'पौषधम्' अव्यापारपौषधं 'प्रतिजाग्रतः' | अनुपालयन्तः 'विहरिष्यामः' स्थास्यामः, यच्चेहातीतकालीन प्रत्ययान्तत्वेऽपि वार्त्तमानिकप्रत्ययोपादानं तद्भोजनानन्त| रमेवाक्षेपेण पौषधाभ्युपगमप्रदर्शनार्थ, एवमुत्तरत्रापि गमनिका कार्येत्येके, अन्ये तु व्याचक्षते - इह किल पौषधं पर्वदि - नानुष्ठानं तच्च द्वेधा - इष्टजनभोजनदानादिरूपमाहारादिपौषधरूपं च तत्र शङ्ख इष्टजनभोजनदानरूपं पौषधं कर्त्तुकामः | सन् यदुक्तवांस्तद्दर्शयतेदमुक्त - 'तए णं अम्हे तं विउलं असणपाणखाइमसाइमं अस्साएमाणा' इत्यादि, पुनश्च
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१ उदेशः शङ्खादिवृत्तं जागरिकाच
व्याख्या-16
शङ्खः एव संवेगविशेषवशादाद्यपौषधविनिवृत्तमनाः द्वितीयपौषधं चिकीर्षुर्यचिन्तितवांस्तदर्शयतेदमुक्तम्-'नो खलु मे प्रज्ञप्तिः सेयं तमित्यादि, 'एगस्स अबिइयस्स'त्ति 'एकस्य' बाह्यसहायापेक्षया केवलस्य 'अद्वितीयस्य' तथाविधक्रोधा- अभयदेवी-4 दिसहायापेक्षया केवलस्यैव, न चैकस्येति भणनादेकाकिन एव पौषधशालायां पौषधं कर्तुं कल्पत इत्यवधारणीयं, या वृत्तिः
एतस्य चरितानुवादरूपत्वात् तथा ग्रन्थान्तरे बहूनां श्रावकाणां पौषधशालायां मिलनश्रषणादोषाभावात्परस्परेण स्मारणादिविशिष्टगुणसम्भवाच्चेति । 'गमणागमणाए पडिक्कमईत्ति र्यापथिकी प्रतिक्रामतीत्यर्थः, 'छंदेणं'ति स्वाभिप्रायेण न तु मदीयाज्ञयेति । 'पुत्वरत्तावरत्तकालसमयंसि'त्ति पूर्वरात्रश्च-रात्रेः पूर्वो भागः अपगता रात्रिरपररात्रः स च पूर्वरात्रापररात्रस्तल्लक्षणः कालसमयो यः स तथा तत्र 'धम्मजागरिय'ति धर्माय धर्मचिन्तया वा जागरिका-जागरणं धर्मजागरिका तां 'पारित्तएत्तिकट्ट एवं संपेहेइ'त्ति 'पारयितुं' पारं नेतुम् ‘एवं सम्प्रेक्षते' इत्यालोचयति, किमित्याह-'इतिकर्तुम् एतस्यैवार्थस्य करणायेति । 'अभिगमो स्थिति पञ्चप्रकारः पूर्वोक्तोऽभिगमो नास्त्यस्य, सचितादिद्रव्याणां विमोचनीयानामभावादिति । 'जहा पढमति यथा तेषामेव प्रथमनिर्गमस्तथा द्वितीयनिर्गमोऽपि वाच्य इत्यर्थः, 'हिज्जो'त्ति ह्यो-ह्यस्तनदिने 'सुदक्खुजागरियं जागरिए'त्ति सुख दरिसणं जस्स सो सुदक्खू तस्स जागरिया|प्रमादनिद्राव्यपोहेन जागरणं सुदक्खुजागरिया तां जागरितः कृतवानित्यर्थः, 'बुद्धा बुद्धजागरियं जागरंति'त्ति बुद्धा केवलावबोधेन, ते च बुद्धानां व्यपोढाज्ञाननिद्राणां जागरिका-प्रबोधो बुद्धजागरिका तां कुर्वन्ति 'अवुद्धा अबुद्धजागरियं जागरंति'त्ति अबुद्धाः केवलज्ञानाभावेन यथासम्भवं शेषज्ञानसद्भावाच्च बुद्धसदृशास्ते चाबुद्धानां
5 ABAR
॥५५५॥
|| केवलावबोधेन, जागरणं सुदक्खुजागरिया तां जागालागारपत्ति सुड दरिसणं जस्स सो सुदनमा
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FORGOTHER
छनास्थज्ञानवतां या जागरिका सा तथा तां जाग्रति ॥ अथ भगवन्तं शङ्खस्तेषां मनाक्परिकुपितश्रमणोपासकानां कोपोपशमनाय क्रोधादिविपाकं पृच्छन्नाह| तए णं से संखे समणोवासए समणं भ० महावीरं वंदइ नमं०२ एवं वयासी-कोहवसद्दे णं भंते ! जीवे || किं बंधए किं पकरेति किं चिणाति किं उवचिणाति !, संखा ! कोहवसट्टे णं जीवे आउयवज्जाओ सत्त कम्मपगडीओ सिढिलबंधणबद्धाओ एवं जहा पढमसए असंवुडस्स अणगारस्स जाव अणुपरियइ । माणघसणं भंते ! जीवे एवं चेव । एवं मायावसद्देवि एवं लोभवसद्देवि जाव अणुपरियइ । तए णं ते समणोवासगा समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयमई सोचा निसम्म भीया तत्था तसिया संसारभउविग्गा समणं भगवं महावीरं वं० नमं० २ जेणेव संखे समणोवासए तेणेव उवा०२ संखं समणोवासगं पं० न०२त्ता एयमढे संमं विणएणं शुजो २ खामेति । तए णं ते समणोवासगा सेसं जहा आलंभियाए जाव पडिगया, भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं वंदइ नमसइ २ एवं वयासी-पभू णं भंते ! संखे समणोवासए देणाणुप्पियाणं अंतियं सेसं जहा इसिभरपुत्तस्स जाव अंतं काहेति । सेवं भंते ! सेवं| भंते त्ति जाव विहरइ (सूत्रं ४४०)॥१२-१॥ 'कोहवसट्टे ण'मित्यादि, 'इसिभद्दपुत्तस्स'त्ति अनन्तरशतोक्तस्येति ॥ द्वादशशते प्रथमः ॥ १२-१॥
AND THE
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
१५५६॥
अनन्तरोदेशके श्रमणोपासकविशेषप्रनितार्थनिर्णयो महावीरकृतो दर्शितः इह तु श्रमणोपासिकाविशेषप्रनितार्थनिर्णयस्तत्कृत एव दर्श्यते, इत्येवंसंबद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्
तेणं कालेणं २ कोसंबी नाम नगरी होत्था वन्नओ, चंदोवतरणे चेहए वन्नओ, तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रन्नो पोत्ते सयाणीयस्स रन्नो पुत्ते चेडगस्स रन्नो नत्तुए मिगावतीए देवीए अत्तए जयंतीए समणोवासियाए भत्तिज्जए उदायणे नामं राया होत्था वन्नओ, तत्थ णं कोसंबीए नयरीए सहस्साणीयस्स रन्नो सुण्हा सयाणीयस्स रन्नो भज्जा चेडगस्स रन्नो धूया उदायणस्स रन्नो माया जयंतीए समणोवासियाए भाउज्जा मिगावती नामं देवी होत्था वन्नओ सुकुमालजावसुरूवा समणोवासिया जाव विहरइ, तत्थ णं कोसंबीए नगरीए सहस्साणीयस्स रन्नो धूया सयाणीयस्स रन्नो भगिणी उदायणस्स रन्नो पिउच्छा मिगावतीए देवीए नणंदा वेसालीसावयाणं अरहंताणं पुत्वसिज्जायरी जयंती नामं समणोवासिया होत्था सुकुमाल जाव सुरूवा अभिगय जाब वि० (सूत्रं ४४१)। तेणं कालेणं तेणं समएणं सामी समोसहे जाव परिसा पज्जुवासइ । तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाए लट्ठ समाणे हद्वतुट्टे कोडंबियपुरिसे सद्दावेइ को०२ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! कोसंवि नगरिमभितरबाहिरियं एवं जहा कूणिओ तहेव सर्व जाव पजुवासए । तएणं सा जयंती समणोवासिया इमीसे कहाए लट्ठा समाणी हट्टतुट्ठा जेणेव मियावती देवी तेणेव उवा०२ मियावती देवी एवं वयासी-एवं जहा नवमसए उसभदत्तो जाव भवि
१२ शतके | १ उद्देशः क्रोधादिव| शातताफ|लं सू४४०
१२ शतके | उद्देश २. जयन्ती पूर्व शय्यातरा सू४४१
॥५५
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|स्सइ । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए जहा देवाणंदा जाव पडिसुणेति । तए णं सा मियावती देवी कोडुंबियपुरिसे सद्दावेइ को० २ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया ! लहुकरणजुत्तजोइयजाव धम्मियं जाणप्पवरं जुत्तामेव उवट्ठवेह जाव उवट्ठवेंति जाव पचप्पिणंति । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं ण्हाया कयबलिकम्मा जाव सरीरा बहूहिं खुजाहिं जाव अंते| उराओ निग्गच्छति अं०२ जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला जेणेव धम्मिए जाणप्पवेर तेणेव उ०२ जाव
रूढा । तए णं सा मियावती देवी जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं धम्मियं जाणप्पवरं दुरूढा समाणी निय&ोगपरियालगा जहा उसमदत्तो जाव धम्मियाओ जाणप्पवराओ पच्चोरुहइ । तए णं सा मियावती देवी
जयंतीए समणोवासियाए सद्धिं बहूहिं खुजाहिं जहा देवाणंदा जाव वं० नमं० उदायणं रायं पुरओ कटु ठितिया चेव जाव पजुवासइ । तए णं समणे भगवं महाउदायणस्स रनो मियावईए देवीए जयंतीए सम|णोवासियाए तीसे य महतिमहा. जाव धम्म० परिसा पडिगया उदायणे पडिगए मियावती देवीवि |पडिगया (सूत्रं ४४२) । तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं
धम्मं सोचा निसम्म हहतुट्ठा समणं भ० महावीरं वं० न० २ एवं वयासी-कहिन्नं भंते ! जीवा गरु-|| द यत्तं हवमागच्छन्ति ?, जयंती! पाणाइवाएणं जाव मिच्छादसणसल्लेणं, एवं खलु जीवा गरुयत्तं हवं.
एवं जहा पढमसए जाव वीयीवयंति । भवसिद्धियत्तणं भंते ! जीवाणं किं सभावओ परिणामओ?, जय
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२/
गुरुतासि
54545454545
ती! सभावओ नो परिणामओ । सवेवि णं भंते ! भवसिडिया जीवा सिज्झिस्संति ?, हंता ! जयंती : १२ शतके सधेवि णं भवसिद्धिया जीवा सिन्झिस्संति । जइ भंते ! सो भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति तम्हा गं |२ उद्देश: भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ ?, णो तिणढे समढे, से केणं खाइएणं अटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सवेवि ण
धर्मकथा पभवसिद्धिया जीवा सिजिझस्संति नो चेव णं भवसिद्धियविरहिए लोए भविस्सइ ?, जयंती! से जहाना
पत्प्रतिगमः मए सपागाससेढी सिया अणादीया अणवदग्गा परित्ता परिवुडा सा णं परमाणुपोग्गलमत्तेहिं खंडेहिं
सू ४४२ समये २ अवहीरमाणी २ अणंताहिं ओसप्पिणीअवसप्पिणीहिं अवहीरति नो चेव णं अवहिया सिया,
द्धिसुप्तदुर्बसे तेण?णं जयंती ! एवं वुच्चइ सवेवि णं भवसिद्धिया जीवा सिज्झिरसंति नो चेव णं भवसिद्धिअविर
ल अलसेत|हिए लोए भविस्सइ ॥ सुत्तत्तं भंते ! साह जागरियत्तं साह, जयंती! अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं रप्रश्नाः |साहू अत्थेगतियाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू, से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइयाणं जाव साहू, ||
सू४४३ जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया अहम्माणुया अहम्मिट्ठा अहम्मक्खाई अहम्मपलोई अहम्मपलजमाणा अहम्मसमुदायारा अहम्मेणं चेव वित्तिं कप्पेमाणा विहरंति एएसि णं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, एए णं जीवा | सुत्ता समाणा नो बहूणं पाणभूयजीवसत्ताणं दुक्खणयाए सोयणयाए जाव परियावणयाए वटुंति, एए णं जीवा सुत्ता समाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा नो बहहिं अहम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भ-|| ॥५५७॥ वंति, एएसिं जीवाणं सुत्तत्तं साहू, जयंती ! जे इमे जीवा धम्मिया धम्माणुया जाव धम्मेणं चेव वित्ति
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कप्पेमाणा विहरंति एएसि णं जीवाणं जागरियत्तं साहू, एए णं जीवा जागरा समाणा बहणं पाणाणं जाव सत्ताणं अदुक्खणयाए जाव अपरियावणियाए वहति, ते णं जीवा जागरमाणा अप्पाणं वा परं वा तदुभयं वा बहूहि धम्मियाहिं संजोयणाहिं संजोएत्तारो भवंति, एए णं जीवा जागरमाणा धम्मजागरियाए अप्पाणं जागरइत्तारो भवंति, एएसिणं जीवाणं जागरियत्तं साहू, से तेणट्टेणं जयंती! एवं वुच्चइ अत्थेगइयाणं जीवाणं सुत्तत्तं साहू अत्थेगइयाणं जीवाणं जागरियत्तं साहू ॥ बलियत्तं भंते ! साहू दुबलि. यत्तं साह, जयंती ! अत्थेगइयाणं जीवाणं बलियत्तं साहू अत्थेगइयाणं जीवाणं दुबलियत्तं साह, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ जाव साहू ?, जयंती! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरंति एएसि णं जीवाणं दुष्पलियत्तं साहू, एए णं जीवा एवं जहा सुत्तस्स तहा दुचलियस्स वत्तवया भाणियवा, बलियस्स जहा जागरस्स तहा भाणियवं जाव संजोएत्तारो भवंति, एएसि णं जीवाणं बलियत्तं साहू, से तेणटेणं जयंती! एवं वुच्चइ तं चेव जाव साहू ॥ दक्खत्तं भंते ! साहू आलसियत्तं साहू ?, जयंती ! अत्थेगतियाणं जीवाणं | दक्खत्तं साहू अत्थेगतियाणं जीवाणं आलसियत्तं साहू, से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ तं चेव जाव साहू ?,
जयंती ! जे इमे जीवा अहम्मिया जाव विहरंति एएसि णं जीवाणं आलसियत्तं साहू, एए णं जीवा आ|लसा समाणा नो बहणं जहा सुत्ता आलसा भाणियवा, जहा जागरा तहा दक्खा भाणियवा जाव संजोहै एत्तारो भवंति, एए णं जीवा दक्खा समाणा बहूहिं आयरियवेयावच्चेहिं जाव उवज्झाय० थेर० तवस्सिा
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व्याख्या- गिलाणवेया० सेहवे. कुलवेया. गणवेया. संघवेयाव. साहम्मियवेयावच्चेहिं अत्ताणं संजोएत्तारो भवंति,
१२ शतके प्रज्ञप्तिः द एएसि णं जीवाणं दक्खत्तं साह, से तेणटेणं तं चेव जाव साहू ॥ सोइंदियवसट्टे णं भंते ! जीवे किं बंधइ ?, २ उद्देशः अभयदेवी
एवं जहा कोहवसहे तहेव जाव अणुपरियदृइ । एवं चक्खिदियवसझेवि, एवं जाव फासिंदियवस। जाव गुरुताद्याः या वृत्तिः२
४ अणुपरियइ । तए णं सा जयंती समणोवासिया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं एयम8 सोचा प्रश्नाः ॥५५८॥ ||निसम्म हट्टतुट्ठा सेसं जहा देवाणंदाए तहेव पवइया जाव सबदुक्खप्पहीणा । सेवं भंते !२त्ति ॥
सू४४३ (सूत्रं ४४३)॥१२-२॥ __ 'तेणं कालेण'मित्यादि, 'पोत्ते'त्ति पौत्र:-पुत्रस्यापत्यं 'चेडगस्स'त्ति वैशालीराजस्य 'नत्तुए'त्ति नप्ता-दौहित्रः || || भाउज'त्ति भ्रातृजाया 'वेसालीसावगाणं अरहताणं पुवसेन्जायरी त्ति वैशालिको-भगवान्महावीरस्तस्य वचनं शृण्वन्ति श्रावयन्ति वा तद्रसिकत्वादिति वैशालिकश्रावकास्तेषाम् 'आहतानाम्' अर्हदेवतानां साधूनामिति गम्यं 'पूर्वशय्यातरा' प्रथमस्थानदात्री, साधवो ह्यपूर्वे समायातास्तद्गृह एव प्रथम वसतिं याचन्ते तस्याः स्थानदात्रीत्वेन प्रसिद्धत्वादिति सा पूर्वशय्यातरा । 'सभावओ'त्ति स्वभावतः पुद्गलानां मूतत्त्ववत् 'परिणामओ'त्ति 'परिणामेन' अभूतस्य भवनेन || पुरुषस्य तारुण्यवत् । 'सवेवि णं भंते ! भवसिद्धिया जीवा सिज्झिस्संति'त्ति भवा-भाविनी सिद्धिर्येषां ते भव-14
त भव- ॥५५८॥ 8|| सिद्धिकास्ते सर्वेऽपि भदन्त ! जीवाः सेत्स्यन्ति ? इति प्रश्नः, 'हते' त्यादि तृत्तरम् , अयं चास्यार्थः-समस्ता अपि भव
सिद्धिका जीवाः सेत्स्यन्त्यन्यथा भवसिद्धिकत्वमेव न स्यादिति । अथ सर्वभवसिद्धिकानां सेत्स्यमानताऽभ्युपगमे भव
CACANCEGESAX
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यविरहितो लोको भविष्यतीति व्याख्यान्ति, अन्ये तू व्याएकोऽपि, अन्यथा भवसि
सिद्धिकशुन्यता लोकस्य स्यात्, नैवं, समयज्ञातात्, तथाहि सर्व एवानागतकालसमया वर्तमानतां लप्स्यन्ते| "भवति स नामातीतः प्राप्तो यो नाम वर्तमानत्वम् । एष्यश्च नाम स भवति यः प्राप्स्यति वर्तमानत्वम् ॥१॥" इत्य-|| भ्युपगमात्, न चानागतकालसमयविरहितो लोको भविष्यतीति । अथैतामेवाशङ्कां जयन्ती प्रश्नद्वारेणास्मदुक्तसमयज्ञातापेक्षया ज्ञातान्तरेण परिहर्जुमाह-'जइ ण'मित्यादि इत्येके व्याख्यान्ति, अन्ये तु व्याचक्षते-सर्वेऽपि भदन्त || भवसिद्धिका जीवाः सेत्स्यन्ति-ये केचन सेत्स्यन्ति ते सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव नाभवसिद्धिक एकोऽपि, अन्यथा भवसि|द्धिकत्वमेव न स्यादित्यभिप्रायः, 'हते'त्याद्युत्तरम् । अथ यदि ये केचन सेत्स्यन्ति सर्वेऽपि भवसिद्धिका एव नाभव-* सिद्धिक एकोऽपीत्यभ्युपगम्यते तदा कालेन सर्वभवसिद्धिकानां सिद्धिगमनाद् भव्यशून्यता जगतः स्यादिति जयन्त्याशां तत्परिहारं च दर्शयितुमाह-'जइ 'मित्यादि, 'सवागाससेढि'त्ति सर्वाकाशस्य-बुद्ध्या चतुरस्रप्रतरीकृतस्य श्रेणिः-प्रदेशपतिः सर्वाकाशश्रेणिः 'परित्त'त्ति एकप्रदेशिकत्वेन विष्कम्भाभावेन परिमिता 'परिवुड'त्ति श्रेण्यन्तरैः परिकरिता, स्वरूपमेतत्तस्याः, अत्रार्थे वृद्धोक्ता भावनागाथा भवन्ति-"तो भन्नइ किं न सिज्झति अहव किमभवसावसेसत्ता । निल्लेवणं न जुज्जइ तेसिं तो कारणं अन्नं ॥१॥" अयमर्थः-यदि भवसिद्धिकाः सेत्स्यन्तीत्यभ्युपगम्यते ततो भणति शिष्यः-कस्मान्न ते सर्वेऽपि सिक्ष्यन्ति ?, अन्यथा भवसिद्धिकत्वस्यैवाभावात् , अथवाऽपरं दूषणं-कस्मादभव्यसावशेषत्वाद्-अभव्यावशेषत्वेनाभव्यान् विमुच्येत्यर्थः तेषां भव्यानां निर्लेपनं न युज्यते ?, युज्यत एवेति भावः, १-तदा भणति किं न सिध्यन्ति अथवाऽभव्यावशिष्टत्वं ( भवति ) निर्लेपनं न युज्यते तेषां तद्भव्यत्वादन्यत्कारणं वाच्यं सिद्धेः॥१॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥५५९॥
यस्मादेवं ततः कारणं-सिद्धेहेतुरन्यद्भव्यत्वातिरिक्तं वाच्यं, तत्र सति सर्वभव्यनिर्लेपनप्रसङ्गादिति ॥ "भन्नइ तेसिमभ- १२ शतके वेवि पइ अनिल्लेवणं न उ विरोहो । न उ सबभवसिद्धी सिद्धा सिद्धंतसिद्धीओ ॥२॥" अयमर्थो-भण्यते अत्रो- २ उद्देशः त्तरं भव्यत्वमेव सिद्धिगमनकारणं न त्वन्यत्किञ्चित् , तत्र च सत्यपि भव्यत्वे सिद्धिगमनकारणे 'तेषां' भव्यानाम् गुरुताद्याः 'अभव्यानपि प्रति' अभव्यानप्याश्रित्य 'अनिर्लेपनम्' अव्यवच्छेदः, अभव्यानवशिष्य यद्भव्यानां निर्लेपनमुक्तं तदपि
प्रश्ना: नेत्यर्थः 'न तु' न पुनरिहार्थे 'विरोधः' बाधाऽस्ति सिद्धान्तसिद्धत्वात् , एतदेवाह-न तु इत्यादि, न हि सर्वभव्य
सू४४३ सिद्धिः सिद्धा सिद्धान्तसिद्धेरिति ॥ “किह पुण भवबहुत्ता सवागासप्पएसदिलुता । नवि सिज्झिहिंति तो भणइ किंनु भवत्तणं तेसिं ? ॥३॥ जइ होऊ णं भवावि केइ सिद्धिं न चैव गच्छति । एवं तेवि अभवा को व विसेसो भवे तेसिं| ॥४॥ भन्नइ भवो जोगो दारुय दलियंति वावि पजाया । जोगोवि पुण न सिज्झइ कोई रुक्खाइदिलुता ॥५॥ पडिमाईणं जोगा बहवो गोसीसचंदणदुमाई । संति अजोगावि इहं अन्ने एरंडभेंडाई ॥६॥न य पुण पडिमुप्पायणसंपत्ती
१-भण्यते भव्यानामभव्यानपि प्रति तेषामनिलेपो न तु विरोधो यतः सिद्धान्तसिद्धेनं तु सर्वभव्यसिद्धिः सिद्धा ॥२॥२-कथं ||* पुनर्भव्यबहुत्वात्सर्वाकाशप्रदेशदृष्टान्तात् नैव सेत्स्यन्ति तदा भण्यते तेषां किं भव्यत्वं पुनर्भवति ॥३॥ केचिद्भव्या भूत्वाऽपि यदि सिद्धिं नैव || | गच्छेयुरेवं तेऽप्यभव्याः को वा विशेषस्तयोर्भव्याभव्ययोर्भवेत् ॥ १॥ भण्यते भव्यो योग्यो दारु च दलिकमिति चापि पर्यायाः । योग्योऽपि || 8 | पुनः कश्चिन्न सिद्ध्यति वृक्षादिदृष्टान्तात् ॥ ५॥ बहवो गोशीर्षचन्दनाद्याः प्रतिमानां योग्या द्रुमाः सन्ति अन्ये एरण्डभिण्डाद्या अयोग्या
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॥
॥५५
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होइ सबजोगाणं । जेसिपि असंपत्ती न य तेसि अजोग्गया होइ ॥७॥ किं पुण जा संपत्ती सा नियमा होइ जोग्गरुक्खाणं । न य होइ अजोग्गाणं एमेव य भवसिज्झणया ॥८॥ सिन्झिस्संति य भवा सवेवित्ति भणियं च जं पहुणा ।। तंपिय एयाएच्चिय दिहीए जयंतिपुच्छाए ॥९॥ भव्यानामेव सिद्धिरित्येतया दृष्ट्या-मतेनेति ॥"अहवा पडुच्च कालं |न सबभवाण होइ वोच्छित्ती। जं तीतणागयाओ अद्धाओ दोवि तुल्लाओ ॥१०॥ तत्थातीतद्धाए सिद्धो एक्को अणंत-|| | भागो सिं । कामं तावइओ च्चिय सिज्झिहिइ अणागयद्धाए ॥ ११॥ ते दो अणंतभागा होउं सोच्चिय अणंतभागो सिं। एवंपि सबभवाण सिद्धिगमणं अणिदिलु ॥ १२॥" तौ द्वावप्यनन्तभागौ मीलितौ सर्वजीवानामनन्त एव भाग इति, यत्पुनरिदमुच्यते-अतीताद्धातोऽनागताद्धाऽनन्तगुणेति तन्मतान्तरं, तस्य चेदं बीज-यदि द्वे अपि ते समाने स्यातां तदा मुहूर्तादावतिक्रान्तेऽतीताद्धा समधिका अनागताद्धा च हीनेति हतं समत्वम् , एवं च मुहूर्त्तादिभिः प्रतिक्षणं क्षीयमाणाऽप्यनागताद्धा यतो नक्षीयते ततोऽवसितं ततः साऽनन्तगुणेति, यच्चोभयोः समत्वं तदेवं-यथाऽनागताद्धाया अपि सन्ति ॥ ६ ॥ नैव च सर्वेषां योग्यानां प्रतिमोत्पादनसम्पत्तिर्भवति । येषामप्यसम्प्राप्तिन च तेषामयोग्यता भवति ॥ ७ ॥ किं पुनर्या सम्प्राप्तिः सा नियमाद् योग्यवृक्षाणां भवति नैवायोग्यानां एवमेव च सर्वभव्यसिद्धिरपि ॥ ८ ॥ सर्वेऽपि भव्याः सेत्स्यन्तीति प्रभुणा यद्भणितं तदप्यनयैव दृष्ट्या जयन्तीपृच्छायाम् ॥ ९॥ १-अथवा कालं प्रतीत्य सर्वभन्यानां व्युच्छितिनं भवति यतोऽतीतानागताद्धे द्वे | अपि तुल्ये स्तः ॥ १० ॥ तत्रातीताद्धायां भव्यजीवानामनन्तभाग एकः सिद्धस्तावानेव चानागताद्धायां सेत्स्यति प्रकामम् ॥ ११ ॥ तौ द्वावपि अनन्तभागौ संमील्यैषामनन्तभागः स एवैव, एवमपि सर्वभव्यानां सिद्धिगमनं न निर्दिष्टम् ॥ १२ ॥
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व्याख्या- अन्तो नास्ति एवमतीताद्धाया आदिरिति समतेति ॥ जीवाश्च न सुप्ताः सिद्ध्यन्ति किं तर्हि जागरा एवेति सुप्तजा- १२ शतके प्रज्ञप्तिः
|गरसूत्रम्-तत्र च 'सुत्तत्तंति निद्रावशत्वं 'जागरियतंति जागरणं जागरः सोऽस्यास्तीति जागरिकस्तद्भावो जाग- २ उद्देश: अभयदेवी- |रिकत्वम् अहम्मिय'त्ति धर्मेण-श्रुतचारित्ररूपेण चरन्तीति धार्मिकास्तन्निषेधादधामिकाः, कुत एतदेवमित्यत आह- गुरुताद्या या वृत्तिः२ | अहम्माणुया' धर्म-श्रुतरूपमनुगच्छन्तीति धर्मानुगास्तन्निषेधादधर्मानुगाः, कुत एतदेवमित्यत आह–'अहम्मिट्ठा'। प्रश्नाः
धर्म:-श्रुतरूप एवेष्टो-वल्लभः पूजितो वा येषां ते धर्मेष्टाः धर्मिणां वेष्टा धर्मीष्टाः अतिशयेन वा धम्मिणो धर्मिष्ठास्त॥५६०॥
सू४४३ निषेधादधर्मेष्टा अधर्मीष्टा अधम्मिष्ठा वा, अत एव अहम्मक्खाई' न धर्ममाख्यान्तीत्येवंशीला अधर्माख्यायिनः अथवा न धर्मात् ख्यातिर्येषां तेऽधर्मख्यातयः 'अहम्मपलोइति न धर्ममुपादेयतया प्रलोकयन्ति ये तेऽधर्मप्रलोकिनः 'अह
म्मपलजण'त्ति न धर्मे प्ररज्यन्ते-आसजन्ति ये तेऽधर्मप्ररञ्जनाः, एवं च 'अहम्मसमुदाचार'त्ति न धर्मरूपः-चारित्रालात्मकः समुदाचारः-समाचारः सप्रमोदो वाऽऽचारो येषां ते तथा, अत एव 'अहम्मेण चेवे'त्यादि, 'अधर्मेण' चारित्र
श्रुतविरुद्धरूपेण 'वृत्तिं' जीविका 'कल्पयन्तः' कुर्वाणा इति ॥ अनन्तरं सुप्तजाग्रता साधुत्वं प्ररूपितम्, अथ दुर्बलादीनां तथैव तदेव प्ररूपयन सूत्रद्वयमाह-'बलियत्तं भंते ! इत्यादि, 'बलियत्तंति बलमस्यास्तीति बलिकस्तद्भावो बलिकत्वं 'दुबलियत्तं ति दुष्टं बलमस्यास्तीति दुर्बलिकस्तद्भावो दुर्बलिकत्वं । दक्षत्वं च तेषां साधु ये नेन्द्रियवशा भवन्तीतीन्द्रियवशानां यद्भवति तदाह-'सोइंदिए'त्यादि, 'सोइंदियवसहे'त्ति श्रोत्रेन्द्रियवशेन-तत्पारतन्त्र्येण ऋतः-पी
॥४॥५६॥ डितः श्रोत्रेन्द्रियवशातः श्रोत्रेन्द्रियवशं वा ऋतो-तः श्रोत्रेन्द्रियवशातः॥ द्वादशशते द्वितीयः॥१२-२॥
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अनन्तरं श्रोत्रादीन्द्रियवशार्ता अष्टकर्मप्रकृतीचन्तीत्युक्तं, तद्वन्धनान नरकपृथिवीष्वप्युत्पद्यन्त इति नरकपृथिवीस्वरूपप्रतिपादनाय तृतीयोद्देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्| रायगिहे जाव एवं वयासी-कइ भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-पढमा दोचा जाव सत्तमा । पढमा णं भंते ! पुढवी किनामा किंगोत्ता पण्णत्ता ?, गोयमा ! घम्मा नामेणं रयणप्पभा गोत्तेणं एवं जहा जीवाभिगमे पढमो नेरइयउद्देसओ सोचेव निरवसेसोभाणियचो जाव अप्पाबहुगंति । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ४४४)॥ | 'रायगिहे'इत्यादि, 'किनामा किंगोय'त्ति तत्र नाम-यादृच्छिकमभिधानं गोत्रं च-अन्वर्थिकमिति एवं जहा जीवाभिगमे'इत्यादिना यत्सूचितं तदिदं-'दोच्चा णं भंते ! पुढवी किंनामा किंगोया पन्नत्ता ?, गोयमा ! वंसा ना| मेणं सक्करप्पभा गोत्तेण मित्यादीति ॥ द्वादशशते तृतीयः॥ १२-३॥
अनन्तरं पृथिव्य उक्तास्ताश्च पुद्गलात्मिका इति पुद्गलांश्चिन्तयश्चतुर्थोद्देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्रायगिहे जाव एवं वयासी-दो भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहन्नंति एगयओ साहण्णित्ता किं भवति ?, गोयमा ! दुप्पएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहा कजइ एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ परमाणुपोग्गले भवइ । तिन्नि भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहन्नंति २ किं भवति ?, गोयमा ! तिपए
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२/
॥५६॥
SANSAR
सिए खंधे भवति, से भिजमाणे दुहावि तिहावि कज्जइ, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ १२ शतके दुपएसिए खंधे भवइ, तिहा कजमाणे तिण्णि परमाणुपोग्गला भवंति । चत्तारि भंते ! परमाणुपोग्गला एग- | ३ उद्देशः यओ साहन्नंति जाव पुच्छा, गोयमा ! चउपएसिए खंधे भवइ, से भिन्जमाणे दुहावि तिहावि चउहावि पृथ्व्यः कजइ, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ, अहवा दो दुपएसिया खंधा
सू४४४ भवति, तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुप्पएसिए खंधे भवइ, चउहा कजमाणे
१२ शतके
४ उद्देशः चत्तारि परमाणुपोग्गला भवंति । पंच भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोयमा! पंचपएसिए खंधे भवइ, से
अनन्ताणु भिजमाणे दुहावि तिहावि चउहावि पंचहावि कज्जइ, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एग- कान्तसंयोयओ चउपएसिए खंधे भवइ अहंवा एगयओ दुपएसिए खंधे भवति एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ, तिहा गविभागों कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ तिप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एग- गाःसू४२५ यओ दो दुपएसिया खंधा भवंति, चउहा कन्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ दुप्पएसिए खंधे भवति, पंचहा कज़माणे पंच परमाणुपोग्गला भवंति । छन्भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोयमा !||४ छप्पएसिए खंधे भवइ, से भिजमाणे दुहावि तिहावि जाव छबिहावि कजइ, दुहा कन्जमाणे एगयओ पर-॥५६॥ माणुपोग्गले एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दुप्पएसिए खंधे एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ अहवा दो तिपएसिया खंधा भवइ, तिहा कन्जमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ चउपए
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सिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणुषोग्गले एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ तिपए लिए खंधे भवइ अहवा तिन्नि दुपएसिया खंधा भवन्ति चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला भवंति एगयओ दो दुप्पएसिया खंधा भवंति, पंचहा | कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे भवति, छहा कज्जमाणे छ परमाणुपो| उगला भवंति । सत्त भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोयमा ! सत्तपएसिए खंधे भवइ, से भिज्जमाणे दुहावि जाव सत्तहावि कज्जइ, दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दुप्पएसिए खंधे भवइ एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ तिप्पएसिए एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ, तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति एगयओ तिपएसिए खंधे भवति, चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु एगयंओ तिन्नि दुपएसिया खंधा भवंति, पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति, छहा
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व्याख्या- प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥५६॥
कजमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ, सत्तहा कज्जमाणे सत्त परमाणुपो- १२ शतके ग्गला भवंति । अह भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोयमा ! अट्ठपएसिए खंधे भवइ जाव दुहा कन्जमाणे ४४ उद्देशः एगयओ परमाणु० एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ छप्पएसिए
है| अनन्ताणु | खंधे भवइ अहवा एगयओ तिपएसिए० एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा दो चउप्पएसिया खंधा
कान्तसंयोभवंति, तिहा कजमाणे एगयओ परमाणु० एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एग
गविभागों
गाःसू४४५ यओ दुप्पएसिए खंधे एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ तिपएसिए खंधे एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति, चउहा कजमाणे एगयओ तिन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दोन्नि परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दो तिपएसिया खंधा |भवंति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दो दुपएसिया खंधा एगयओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा चत्तारि दुपएसिया खंधा भवंति, पंचहा कजमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ चउप्पएसिएः ||
॥५६२॥ खंधे भवति अहवा एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ दुपएसिए एगयओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा भवंति, छहा कन्जमाणे एगयओ पंच परमाणु० एग-||४||
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%94%
यओ तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ चत्तारि परमाणु एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवह, सत्तहा कजमाणे एगयओ छ परमाणुपोग्गला एगयओ दुपएसिए खंधे भवइ अट्टहा कज्जमाणे अट्ठ परमाणुपोग्गला भवंति ॥ नव भंते ! परमाणुपोग्गला पुच्छा, गोयमा ! जाव नवविहा कजंति, दुहा कज़माणे एगयओ परमाणु० एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवति, एवं एक्केकं संचारेंतेहिं जाव अहवा एगयओ चउप्पएसिए खंधे एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति, तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणुपोग्गला एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दुपएसिए एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ तिपएसिए खंधे एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ तिपएसिए खंधे एगयओ चउपएसिए खंधे भवइ अहवा तिन्नि तिपएसिया खंधा भवंति, चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ पंचपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ तिपएसिए खंधे एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा
एगयओ परमाणु० एगयओ दो दुपएसिया खंधा एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परहै माणु० एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ तिन्नि दुप्पएसिया
खंधा एगयओ तिपएसिए खंधे भवति, पंचहा कज्जमाणे एगयओ चत्तारि परमाणु० एगयओ पंचपएसिए
ACHCSC-CMCX
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ओ तिन्नि दुप्पणयओ पंच परमा भवति, नवहा
व्याख्या- खंधे भवइ अहवा एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ दुपएसिए० एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ अहवा | १२ शतके प्रज्ञप्तिः एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ दो परमाणुपोग्गला एग- ४ उद्देशः अभयदेवी- यओ दो दुपएसिया खंधा एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ चत्तारि दुप- | अनन्ताणु या वृत्तिः२४ एसिया खंधा भवंति, छहा कजमाणे एगयओ पंच परमाणुपोग्गला एगयओचउप्पएसिए खंधे भवइ अहवा
कान्तसंयो
गविभागों 1.५६३॥ ४ एगयओ चत्तारि परमाणु० एगयओ दुप्पएसिए० एगयओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ तिनि
गा:सू४४५ है परमाणु० एगयओ तिन्नि दुप्पएसिया खंधा भवंति, सत्तहा कजमाणे एगयओ छ परमाणु० एगयओ तिप्प
एसिए खंधे भवति अहवा एगयओ पंच परमाणु० एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति, अट्टहा कजमाणे * ४ एगयओ सत्त परमाणु० एगयओ दुपएसिए खंधे भवति, नवहा कज्जमाणे नव परमाणुपोग्गला भवंति ॥ दस | भंते ! परमाणुपोग्गला जाव दुहा कज्जमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ नवपएसिए खंधे भवइ अहवा
॥५६३॥ एगयओ दपएसिए खंधे एगयओ अट्ट पएसिए खंधे भवड एवं एकेक संचारेयचंति जाव अहवा दो पंच पए. | सिया खंधा भवंति, तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणु० एगयओ अट्ठपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दुपएसिए० एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ अहया एगयओ परमाणु० एगयओ तिपएसिए खंधे भवइ एगयओ छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ चउप्पएसिए एग-| यओ पंचपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे० एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति
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अहवा एगयओ दो तिपएसिया खंधा० एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवइ, चउहा कज्जमाणे एगयओ तिन्नि | परमाणु० एगयओ सत्तपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दुपएसि० एगयओ | छप्पएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ तिप्पएसिए खंधे एगयओ पंचपए लिए खंधे भवति अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दो चउप्पएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणु एगयओ दुपएसिए एगयओ तिपएसिए एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ तिन्नि तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा एगयओ चउपएसिए खंधे | भवति अहवा एगयओ दो दुपएसिया खंधा एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति, पंचहा कजमाणे एगयओ चत्तारि परमाणुपोग्गला एगयओ छपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ तिनि परमाणु० एगयओ | दुपएसिए खंधे० एगयओ पंचपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ तिपएसिए खंधे | एगयओ चउपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दुपएसिए खंधे० एगयओ दो तिप| एसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणु एगयओ तिन्नि दुपएसिया एगयओ तिपए सिए खंधे | भवति अहवा पंच दुपएसिया खंधा भवंति, छहा कज्जमाणे एगयओ पंच परमाणु० एगयओ पंचपएसिए खंधे | भवति अहवा एगयओ चत्तारि परमाणु एगयओ दुपएसिए० एगयओ चउपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ चत्तारि परमाणु० एगयओ दो तिपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ
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व्याख्या- दो दुपएसिया खंधा० एगयओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ चत्तारि प्रज्ञप्तिः
दुपएसिया खंधा भवंति, सत्तहा कन्जमाणे एगयओ छ परमाणु० एगयओ चउप्पएसिए खंधे भवति अहवा अभयदेवी-5
एगयओ पंच परमाणु० एगयओ दुपएसिए एगयओ तिपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ चत्तारि परया वृत्तिः२८
माणु० एगयओ तिन्नि दुपएसिया खंधा भवंति, अट्टहा कज्जमाणे एगयओ सत्त परमाणु० एगयओ तिपए॥५६४॥ सिए खंधे भवति अहवा एगयओ छ परमाणु० एगयओ दो दुपएसिया खंधा भवंति, नवहा कजमाणे एग
यओ अट्ठ परमाणु० एगयओ दुपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ छ परमाणु० एगयओ दो दुपएसिया | खंधा भवंति, दसहा कजमाणे दस परमाणुपोग्गला भवंति । संखेजा भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहन्नंति एगयओ साहणित्ता किं भवति ?, गोयमा ! संखेजपएसिए खंधे भवति, से भिन्जमाणे दुहावि जाव दसहावि संखेजहावि कजंति, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ संखेजपएसिए | खंधे भवति अहवा एगयओ दुपएसिए खंधे एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति एवं अहवा एगयओ | तिपएसिए एगयओ सं० खंधे भवति एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए खंधे एगयओ संखे
जपएसिए खंधे भवति अहवा दो संखेजपएसिया खंधा भवंति, तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणु० एग5 यओ संखेजपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दुपएसिए खंधे० एगयओ संखेजपए
सिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ तिपएसिए खंधे० एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवइ
| १२ शतके ४ उद्देश: अनन्ताणु कान्तसंयोगविभागभं गा:सू४४५
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COCIENCINESCORCHESTROLOG
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एवं जाव अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दसपएसिए खंधे० एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ दुपएसिए. एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति, एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए० एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा |भवंति अहवा तिन्नि संखेजपएसिया खंधा भवंति, चउहा कज़माणे एगयओ तिन्नि परमाणु० एगयओ संखे४जपएसिए भवति अहवा एगयओ दो परमाणु एगयओ दुपएसिए० एगयओ संखेजपएसिए भवति अहवा
एगयओ दो परमाणु० एगयओ तिप्पएसिए० एगयओ संखेजपएसिए भवति एवं जाव अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दसपएसिए एगयओ संखेजपएसिए भवति अहवा एगयओ दो परमाणु० एगयओ दो संखेन्जपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओ परमाणु एगयओ दुपएसिए एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भवंति जाव अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दसपएसिए एगयओ दो संखेजपएसिया खंधा भक्ति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओतिन्नि संखेजपएसिया खंधा भवंति अहवा एगयओदुपएसिए एगयओ तिन्नि संखेजपएसिया भवंति जाव अहवा एगयओ दसपएसिए एगयओ तिन्नि संखेजपएसिया भवंति अहवा चत्तारि संखेजपएसिया भवंति एवं एएणं कमेणं पंचगसंजोगोवि भाणियवो जाव नवगसंजोगो, दसहा कजमाणे एगयओ नव परमाणु० एगयओ संखेजपएसिए भवति अहवा एगयओ अट्ठ परमाणु० एगयओ दुपएसिए एगयओ संखेजपएसिए खंधे भवति, एएणं कमेणं एकेको पू० जाव अहवा एगयओ दसपएसिए एगयओ
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व्याख्या- नव संखेजपएसिया भवंति अहवा दस संखेजपएसिया खंधा भवंति संखेजहा कजमाणे संखेजा परमाणु
४ १२ शतके प्रज्ञप्तिः पोग्गला भवंति । असंखेज्जा भंते ! परमाणुपोग्गला एगयओ साहणंति एगयओ साहणित्ता किं भवति ?,
४ उद्देशः अभयदेवी& गोयमा ! असंखेजपएसिए खंधे भवति, से भिजमाणे दुहाचि जाव दसहावि संखेजहावि असंखेजहावि
| अनन्ताणु या वृत्तिः२
कान्तसंयोकजइ, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणु० एगयओ असंखेजपएसिए भवति जाव अहवा एगयओ दसपए
गविभागभं ५६५॥ सिए एगयओ असंखिजपएसिए भवति अहवा एगयओ संखेजपएसिए खंधे एगयओ असंखेजपएसिए गाःसू४४५
लखंधे भवति अहवा दो असंखेजपएसिया खंधा भवंति, तिहा कजमाणे एगयओदो परमाणु० एगयओ असं| खेजपएसिए भवति अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दुपएसिए एगयओ असंखिजपएसिए भवति जाव
अहवा एगयओ परमाणु० एगयओ दसपएसिए एगयओ असंखेजपएसिए भवति अहवा एगे परमाणु० एगे |संखेजपएसिए एगे असंखेजपएसिए भवति अहवा एगे परमाणु० एगयओ दो असंखेजपएसिया खंधा भवंति अहवा एगे दुपएसिए एगयओ दो असंखेजपएसिया भवंति एवं जाव अहवा एगे संखेजपएसिए भवति एगयओ दो असंखिज्जपएसिया खंधा भवंति अहवा तिन्नि असंखेजपएसिया भवंति, चउहा कजमाणे एग
॥५६५॥ |यओ तिन्नि परमाणु० एग. असंखेजपएसिए भवति एवं चउक्कगसंजोगो जाव दसगसंजोगो एए जहेव संखेजपएसियस्स नवरं असंखेजगं एग अहिगं भाणियत्वं जाव अहवा दस असंखेजपएसिया खंधा भवंति, संखेजहा कन्जमाणे एगयओ संखेजा परमाणुपोग्गला एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ
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संखेजा दुपएसिया खंधा एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवति एवं जाव अहवा एगयओ संखेजा दसपएसिया खंधा एगयओ असंखेजपएसिए खंधे भवति अहवा एगयओ संखिजा संखिज्जपएसिया खंधा एगयओ असंखिजपएसिए खंधे भवति अहवा संखेजा असंखेजपएसिया खंधा भवंति, असंखिजहा कन्जमाणे असंखेज्जा परमाणुपोग्गला भवंति । अणंता:णं भंते ! परमाणुपोग्गला जाव किं भवंति ?, गोयमा ! अणंतपएसिए खंधे भवति, से भिजमाणे दुहावि तिहावि जाव दसहावि संखिज्जा असंखिज्जा अणंतहावि कजइ, दुहा कजमाणे एगयओ परमाणुपोग्गले एगयओ अणंतपएसिए खंधे जाव अहवा दो अणंतपएसिया खंधा
भवंति, तिहा कजमाणे एगयओ दो परमाणु० एगयओ अणंतपएसिए भवति अहवा एग. परमाणु० एग है दुपएसिए एग० अणंतपएसिए भवति जाव अहवा एग० परमाणु० एग० असंखेजपएसिए एग० अणंतपए|सिए भवति अहवा एग० परमाणु एग दो अणंतपएसिया भवंति अहवा एगः दुपएसिए एग० दो अणंतपएसिया भवंति एवं जाव अहवा एगयओ दसपएसिए एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति अहवा एग संखेजपदे० एगयओ दो अणंतपएसिया खंधा भवंति अहवा एग० असंखजपएसिए खंधे एगयओ दो | अणंतपएसिया खंधा भवंति अहवा तिन्नि अणंतपएसिया खंधा भवंति, चउहा कन्जमाणे एग० तिन्नि परमाणु० एगयओ अणंतपएसिए भवति एवं चउक्कसंजोगो जाव असंखेजगसंजोगो, एते सवे जहेव असंखेजाणं भणिया तहेव अणंताणवि भाणियवा नवरं एकं अणंतगंअभहियं भाणियवंजाव अहवा एगयओ संखे
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व्याख्याज्जासंखिज्जपएसिया खंधा एग०अणंतपएसिया भवंति अहवाएग० संखेजा असंखेजपएसिया खंधा एग अणंत
१२ शतके प्रज्ञप्तिः पएसिए खंधे भवति अहवा संखिज्जा अणंतपएसिया खंधा भवंति, असंखेजहा कजमाणे एगयओ असंखेजा |४उद्देशः अभयदेवी- परमाणु० एग० अणंतपएसिए खंधे भवइ अहवा एगयओ असंखिज्जा दुपएसिया खंधा एग० अणंतपएसिएर अनन्ताणु या वृत्तिः२ भवति जाव अहवा एग० असंखेज्जा संखिजपएसिया एग० अणंतपएसिए भवति अहवा एग. असंखिज्जा| कान्तसंयो॥५६६॥
असंखिजपएसिया खंधा एग० अणंतपएसिए भवति अहवा असंखेजा अणंतपएसिया खंधा भवंति, अणं- गविभागभ तहा कजमाणे अर्णता परमाणुपोग्गला भवंति (सूत्रं ४४५)॥
गा:सू४४५ | 'रायगिहे'इत्यादि 'एगयओ'त्ति एकत्वतः एकतयेत्यर्थः 'साहन्नंति'त्ति संहन्येते संहती भवत इत्यर्थः,. द्विप्रदेशि| कस्कन्धस्य भेदे एको विकल्पः, त्रिप्रदेशिकस्य द्वौ, चतुष्प्रदेशिकस्य चत्वारः, पञ्चप्रदेशिकस्य षट्, षट्पदेशिकस्य दश, | सप्तप्रदेशिकस्य चतुर्दश, अष्टप्रदेशिकस्यैकविंशतिः, नवप्रदेशिकस्याष्टाविंशतिः, दशप्रदेशिकस्य चत्वारिंशत्, सङ्ख्यातप्रदेशिकस्य द्विधाभेदे ११ त्रिधा भेदे २१ चतुर्द्धा भेदे ३१ पञ्चधाभेदे ४१ पोढात्वे ५१ सप्तधात्वे ६१ अष्टधात्वे ७१ नवधात्वे ८१ दशधात्वे ९१ सङ्ख्यातभेदत्वे त्वेक एव विकल्पः, तमेवाह-संखेजहा कजमाणे संखेजा परमाणुपोग्गला भवंति'त्ति, असङ्ख्यातप्रदेशिकस्य तु द्विधाभावे १२ त्रिधात्वे २३ चतुर्दावे ३४ पञ्चधात्वे ४५ पोढात्वे ५६ सप्त
| ॥५६६॥ धात्वे ६७ अष्टधात्वे ७८ नवधात्वे ८९ दशभेदत्वे १०० सङ्ख्यातभेदत्वे द्वादश असझ्यातभेदकरणे त्वेक एव, तमेवाहP'असंखेजा परमाणुपोग्गला भवंति'त्ति, अनन्तप्रदेशिकस्य तु द्विधात्वे १३ त्रिधात्वे २५ चतुर्द्धात्वे ३७ पञ्चधात्वे ४९४
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षड्रविधत्वे ६१ सप्तधात्वे ७३ अष्टधात्वे ८५ नवधात्वे ९७ दशधात्वे १०९ सङ्ख्यातत्वे १२ असङ्ख्यातत्वे १३ अनन्तभेहै दकरणे त्वेक एव विकल्पः, तमेवाह–'अणंतहा कजमाणे इत्यादि ॥'दो भंते ! परमाणुपोग्गला साहण्णंती'त्या|दिना पुद्गलानां प्राक् संहननमुक्तं 'से भिजमाणे दुहा कजई'इत्यादिना च तेषां भेद उक्तः, अथ तावेवाश्रित्याह
एएसि णं भंते ! परमाणुपोग्गलाणं साहणणाभेदाणुवाएणं अर्णताणंता पोग्गलपरियट्टा समणुगंतवा भवंतीति मक्खाया ?, हंता गोयमा ! एएसि णं परमाणुपोग्गलाणं साहणणा जाव मक्खाया ॥ कइविहे गं भंते ! पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते?, गोयमा! सत्तविहा पो० परि० पण्णत्ता, तंजहा-ओरालियपो० परि० वेउविय० तेयापो० कम्मापो० मणपो० परियहे वइपोग्गलपरियढे आणापाणुपोग्गलपरियट्टे । नेरइयाणं भंते ! कतिविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते ?, गोयमा ! सत्तविहे पोग्गलपरियट्टे पण्णत्ते, तंजहा-ओरालियपो० वेउवियपोग्गलपरियट्टे जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टे एवं जाव वेमाणियाणं ॥ एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स केवइया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीया ?, अणंता, केवइया पुरेक्खडा ?, कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्सत्थि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा वा असंखेजा वा अणंता वा । एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स केवतिया ओरालियपोग्गला. १, एवं चेव, एवं जाव वेमाणियस्स। एगमेगस्स णं भंते ! नेरइगस्स केवतिया वेउवियपोग्गलपरियट्टा अतीया ?, अणंता, एवं जहेव ओरालियपोग्गलपरियट्टा तहेव वेउवियपोग्गलपरियट्टावि भाणियचा, एवं जाव वेमाणियस्स आणापाणुपोग्गलपरियट्टा, एते|
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सू४४६
व्याख्या
एगत्तिया सत्त दंडगा भवंति । नेरइयाणं भंते ! केवतिया ओ० पोग्गलपरियटा अतीता ?, गोयमा १२ शतके प्रज्ञप्तिः अनंता, केवइया पुरेक्खडा ?, अणंता, एवं जाव वेमाणियाणं, एवं वेउवियपोग्गलपरियट्टावि एवं जाव ४ उद्देशः अभयदेवी- आणापाणुपोग्गलपरियट्टा वेमाणियाणं, एवं एए पोहत्तिया सत्त चउच्चीसतिदंडगा ॥ एगमेगस्स णं या वृत्तिः | भंते ! नेरइयस्स नेर० केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ?, नत्थि एकोवि, केवतिया पुरेक्खडा,
ताधिकारः नत्थि एक्कोवि, एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा० एवं चेव एवं जाव थणियकुमारत्ते जहा असुरकुमारत्ते । एगमेगस्स णं भंते ! नेरइयस्स पुढविक्काइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीता ?, अणंता, केवतिया पुरेक्खडा ?, कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि जस्सत्थि तस्स जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा वा असंखेज्जा वा अणंता वा एवं जाव | मणुस्सत्ते, वाणमंतरजोइसियवेमाणियत्ते जहा असुरकुमारत्ते । एगमेगस्स णं भंते ! असुरकुमारस्स नेरइ-| | यत्ते केवतिया अतीया ओरालियपोग्गलपरियट्टा एवं जहा नेरइयस्स वत्तवया भणिया तहा असुरकुमार|स्सवि भाणियवा जाव वेमाणि, एवं जाव थणियकुमारस्स, एवं पुढविकाइयस्सवि, एवं जाव वेमाणियस्स, कासवेर्सि एक्को गमो। एगमेगस्सणं भंते ! नेरइयस्स नेर० केव० वेउ० पोग्गलपरियट्ठा अतीया ?,अर्णता, केवतिया || ॥५६७॥ |पुरेक्खडा, एकोत्तरिया जाव अणंता, एवं जाव थणियकुमारत्ते, पुढवीकाइयत्ते पुच्छा, नत्थि एक्कोवि, केवतिया पुरेक्खडा ?, नत्थि एकोदि, एवं जत्थ वेउवियसरीरं अत्थि तत्थ एगुत्तरिओ जत्थ नत्थि तत्थ जहा
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6-2-56
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पुढविकाइयते तहा भाणियां, जाव वैमाणियस्स वैमाणियन्ते । तेयापोग्गलपरियहा कम्मापोग्गल परियहा य सवत्थ एकोत्तरिया भाणियचा, मणपोग्गलपरियट्टा ससु पंचिंदिएस एगोत्तरिया, विगलिंदिएसु नत्थि, | वइपोगल परियट्टा एवं चेव, नवरं एगिदिएस नत्थि भणियवा । आणापाणुपोग्गलपरियट्टा सवत्थ एकोत्त| रिया जाव वैमाणियस्स वेमाणियत्ते । नेरइयाणं भंते ! नेरइयत्ते केवतिया ओरालियपोग्गलपरियट्टा अतीया ?, | नत्थि एक्कोवि, केवइया पुरेक्खडा ?, नत्थि एक्कोवि, एवं जाव धणियकुमारत्ते, पुढविकाइयत्ते पुच्छा, गोयमा ! अणता, केवइया पुरेक्खडा ?, अणंता, एवं जाव मणुस्सत्ते, वाणमंतरजोइसियवेमाणियत्ते जहा नेरइयत्ते एवं जाव वैमाणियस्स वैमाणियत्ते, एवं सत्तवि पोग्गलपरियहा भाणियवा, जत्थ अत्थि तत्थ अतीयावि पुरे| क्खडावि अनंता भाणियवा, जत्थ नत्थि तत्थ दोवि नत्थि भाणियवा जाव वेमाणियाणं वेमाणियत्ते केवतिया आणापाणुपोग्गलपरियट्टा अतीया ?, अनंता, केवतिया पुरेक्खडा ?, अनंता (सूत्रं ४४६ ) ॥
'एएसि ण' मित्यादि, 'एतेषाम् अनन्तरोक्तस्वरूपाणां परमाणुपुद्गलानां परमाणूनामित्यर्थः 'साहणणाभेयाणुवाएणं'ति 'साहणण'त्ति प्राकृतत्वात् संहननं - सङ्घातो भेदश्च वियोजनं तयोरनुपातो - योगः संहननभेदानुपातस्तेन सर्व| पुद्गलद्रव्यैः सह परमाणूनां संयोगेन वियोगेन चेत्यर्थः, 'अणंताणंत'त्ति अनन्तेन गुणिता अनन्ता अनन्तानन्ताः, एकोऽपि हि परमाणुणुकादिभिरनन्ताणुकान्तैर्द्रव्यैः सह संयुज्यमानोऽनन्तान् परिवर्त्तान् लभते प्रतिद्रव्यं परिवर्तभावात्, अनन्तत्वाच्च परमाणूनां प्रतिपरमाणु चानन्तत्वात्परिवर्त्तानां परमाणुपुद्गल परिवर्त्तानामनन्तानन्तत्वं द्रष्टव्य
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१२ शतके | ४ उद्देशः पुद्गलपराव तोधिकारः सू४४६
व्याख्या- मिति । 'पुग्गलपरिय'त्ति पुद्गलैः-पुद्गल द्रव्यैः सह परिवर्ताः-परमाणूनां मीलनानि पुद्गलपरिवर्ताः 'समनुगन्तव्याः ' प्रज्ञप्तिः
अनुगन्तव्या भवन्तीति हेतोः 'आख्याता' प्ररूपिताः भगवद्भिरिति गम्यते, मकारश्च प्राकृतशैलीप्रभवः ॥ अथ पुद्गअभयदेवी
लपरावर्त्तस्यैव भेदाभिधानायाह-'कइविहे ण'मित्यादि, 'ओरालियपोग्गलपरिय:'त्ति औदारिकशरीरे वर्तमानेन या वृत्तिः२
जीवेन यदौदारिकशरीरप्रायोग्यद्रव्याणामौदारिकशरीरतया सामस्त्येन ग्रहणमसावौदारिकपुद्गलपरिवर्तः, एवमन्येऽपि । ॥५६॥ 'नेरइयाणं ति नारकजीवानामनादौ संसारे संसरतां सप्तविधः पुद्गलपरावतः प्रज्ञप्तः ॥ 'एगमेगस्से'त्यादि, अतीता
नन्ता अनादित्वात् अतीतकालस्य जीवस्य चानादित्वात् अपरापरपुद्गल ग्रहणस्वरूपत्वाच्चेति । 'पुरक्खडे'ति पुरस्कृता
भविष्यन्तः 'कस्सइ अस्थि कस्सइ नत्थि'त्ति कस्यापि जीवस्य दूरभव्यस्याभव्यस्य वा ते सन्ति, कस्यापि न सन्ति, ४|| उद्धृत्य यो मानुषत्वमासाद्य सिद्धिं यास्यति सहयेयैरसङ्ख्येयैर्वा भवैर्यास्यति यः सिद्धिं तस्यापि परिवर्तो नास्ति, अनन्त
कालपूर्यत्वात्तस्येति । 'एगत्तिय'त्ति एकत्विका:-एकनारकाद्याश्रयाः 'सत्त'त्ति औदारिकादिसप्तविधपुद्गलविषयत्वात्स|प्तदण्डकाश्चतुर्विशतिदण्डका भवन्ति, एकत्वपृथक्त्वदण्डकानां चायं विशेष:-एकत्वदण्डकेषु पुरस्कृतपुद्गलपरावत्ताः || कस्यापि न सन्त्यपि, बहुत्वदण्डकेषु तु ते सन्ति, जीवसामान्याश्रयणादिति ॥ 'एगमेगस्से'त्यादि, 'नस्थि एकोवित्ति नारकत्वे वर्तमानस्यौदारिकपुद्गलग्रहणाभावादिति ॥'एगमेगस्स भंते ! नेरइयस्स असुरकुमारत्ते'इत्यादि, इह | च नेरयिकस्य वत्तेमानकालीनस्य असुरकुमारत्वे चातीतानागतकालसम्बन्धिनि 'एगुत्तरिया जाव अर्णता वत्ति अने| नेदं सूचितं-'कस्सइ अत्थि कस्सइ नत्थि, जस्सत्थि तस्स जहन्नेणं एको वा दोन्नि वा तिन्नि वा उकोसेणं सं
॥५६॥
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| खेज्जा वा असंखेज्जा वा अनंता वा' इति 'एवं जत्थ वेडब्बियसरीरं तत्थ एकोत्तरिओ त्ति यत्र वायुकाये मनुष्य| पञ्चेन्द्रियतिर्यक्षु व्यन्तरादिषु च वैक्रियशरीरं तत्रैको वेत्यादि वाच्यमित्यर्थः, 'जत्थ नत्थी' त्यादि यत्राप्कायादौ नास्ति | वैक्रियं तत्र यथा पृथिवीकायिकत्वे तथा वाच्यं, न सन्ति वैक्रियपुद्गलपरावर्त्ता इति वाच्यमित्यर्थः, 'तेयापोग्गले' त्यादि | तैजसका र्म्मणपुद्गलपरावर्त्ता भविष्यन्त एकादयः सर्वेषु नारकादिजीवपदेषु पूर्ववद्वाच्यास्तैजसकार्म्मणयोः सर्वेषु भावा| दिति । 'मणपोग्गले 'त्यादि, मनःपुद्गलपरावर्त्ताः पश्चेन्द्रियेष्वेव सन्ति, भविष्यन्तश्च ते एकोत्तरिकाः पूर्ववद्वाच्याः, | 'विगलिदिएसु नत्थि'त्ति विकलेन्द्रियग्रहणेन चैकेन्द्रिया अपि ग्राह्याः तेषामपीन्द्रियाणामसम्पूर्णत्वात् मनोवृत्तेश्चा| भावाद् अतस्तेष्वपि मनःपुद्गलपरावर्त्ता न सन्ति । 'वइपोग्गलपरियहा एवं चेव'त्ति तैजसादिपरिवर्त्तवत्सर्वनारकादिजीवपदेषु वाच्याः, नवरमेकेन्द्रियेषु वचनाभावान्न सन्तीति वाच्या: । 'नेरइयाण' मित्यादिना पृथक्त्वदण्डकानाह, | 'जाव वैमाणियाण' मित्यादिना पर्यन्तिमदण्डको दर्शितः ॥ अथौदारिकादिपुद्गलपरावर्त्तानां स्वरूपमुपदर्शयितुमाह
सेकेणट्टेणं भंते ! एवं वुबइ - ओरालियपोग्गल परियट्टा ओ० १, गोयमा ! जण्णं जीवेणं ओरालियसरी रे वहमाणेणं ओरालियसरीरपयोगाई दवाईं ओरालियसरीरत्ताए गहियाई बढाई पुट्ठाई कडाई पट्ठवियाई | निविट्ठाई अभिनिविट्ठाई अभिसमन्नागयाई परियाइयाइं परिणामियाई निज्जिन्नाई निसिरियाई निमिट्ठाई | भवंति से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ ओरालियपोग्गल परियट्टे ओरा० २, एवं वेवियपोग्गल परियहेवि, नवरं | वेउचियसरीरे वट्टमाणेणं वेउधियसरीरप्पयोगाई सेसं तं चैव सर्व्वं एवं जाव आणापाणुपोग्गल परियट्टे, नवरं
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५६९॥
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आणापाणुपयोगाई सङ्घदवाई आणापाणत्ताए सेसं तं चैव ॥ ओरालियपोग्गलपरियट्टे णं भंते ! केवइकालस्स | निवत्तिज्जइ ?, गोयमा ! अनंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिं एवतिकालस्स निवत्तिज्जइ, एवं वेडवियपोग्गलपरियट्टेवि, एवं जाव आणापाणुपोग्गलपरियट्टेवि । एयस्स णं भंते ! ओरालियपोग्गल परियट्टनिवत्तणा| कालस्स वेडवियपोग्गला जाव आणुपाणुपोग्गल परियहनि धराणाकालस्स कयरे कयरेहिंतो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवे कम्मगपोग्गल परियहनिवत्तणाकाले तयापोग्गल परियट्टनिवत्तणाकाले अनंतगुणे ओरालियपोग्गलपरियट्टे अनंतगुणे आणापाणुपोग्गल० अनंतगुणे मणपोग्गल० अनंतगुणे वइपो० अनंतगुणे वेडवियपो० परियनिवत्तणाकाले अनंतगुणे (सूत्रं ४४७ ) ॥
'सेकेणट्ठे 'मित्यादि, 'गहियाई' ति स्वीकृतानि 'बडाई'ति जीवप्रदेशैरात्मीकरणात् कुतः ? इत्याह- 'पुट्ठाई' ति यतः पूर्व स्पृष्टानि तनौ रेणुवत् अथवा 'पुष्टानि' पोषितान्यपरापरग्रहणतः 'कडाई'ति पूर्वपरिणामापेक्षया परिणामान्तरेण कृतानि 'पट्टवियाई' ति प्रस्थापितानि स्थिरीकृतानि जीवेन 'निविट्ठाई 'ति यतः स्थापितानि ततो निविष्टानि | जीवेन स्वयम् 'अभिनिविद्वाई' ति अभि- अभिविधिना निविष्टानि सर्वाण्यपि जीवे लग्नानीत्यर्थः 'अभिसमन्नागयाई' ति | अभिविधिना सर्वाणीत्यर्थः समन्वागतानि - सम्प्राप्तानि जीवेन रसानुभूतिं समाश्रित्य 'परियाझ्याई' ति पर्याप्तानि - जी| वेन सर्वावयवैरात्तानि तद्रसादानद्वारेण 'परिणामियाई' ति रसानुभूतित एव परिणामान्तरमापादितानि 'निजिण्णा हूं' ति क्षीणरसीकृतानि 'निसिरियाई 'ति जीवप्रदेशेभ्यो निःसृतानि, कथं ? - 'निसिट्ठाई' ति जीवेन निःसृष्टानि स्वप्रदेशे
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१२ शतके
४ उद्देशः पुङ्गलपराव तन्वर्थः कालश्चतस्य
सू ४४७
॥५६९॥
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भ्यस्त्याजितानि, इहाद्यानि चत्वारि पदान्यौदारिकपुद्गलानां ग्रहणविषयाणि तदुत्तराणि तु पञ्च स्थितिविषयाणि तदुत्तराणि तु चत्वारि विगमविषयाणीति ॥ अथ पुद्गलपरावर्तानां निर्वर्तनकालं तदल्पबहुत्वं च दर्शयन्नाह-'ओरालियेत्यादि, 'केवइकालस्स'त्ति कियता कालेन निर्वय॑ते ?, 'अणंताहिं उस्सप्पिणिओसप्पिणीहिंति एकस्य जीवस्य ग्राहकत्वात् पुद्गलानां चानन्तत्वात् पूर्वगृहीतानां च ग्रहणस्यागण्यमानत्वादनन्ता अवसर्पिण्य इत्यादि सुष्टुक्तमिति । 'सत्वत्थोवे कम्मगपोग्गले'त्यादि, सर्वस्तोकः कार्मणपुद्गलपरिवर्त्तनिवर्त्तनाकालः, ते हि सूक्ष्मा बहुतमपरमाणुनिष्पनाश्च भवन्ति, ततस्ते सकृदपि बहवो गृह्यन्ते, सर्वेषु च नारकादिपदेषु वर्तमानस्य जीवस्य तेऽनुसमयं ग्रहणमायान्तीति स्वल्पकालेनापि तत्सकलपुद्गलग्रहणं भवतीति, ततस्तैजसपुद्गलपरिवर्तनिवर्तनाकालोऽनन्तगुणो, यतः स्थूलत्वेन तैजसपुद्गलानामल्पानामेकदा ग्रहणम् , एकग्रहणे चाल्पप्रदेशनिष्पन्नत्वेन तेषामल्पानामेव तदणूनां ग्रहणं भवत्यतोऽनन्तगुणोडसाविति, तत औदारिकपुद्गलपरिवर्त्तनिवर्त्तनाकालोऽनन्तगुणो, यत औदारिकपुद्गला अतिस्थूराः, स्थूराणां चाल्पानामेवैकदा ग्रहणं भवति अल्पतरप्रदेशाश्च ते ततस्तद्रहणेऽप्येकदाऽल्पा एवाणवो गृह्यन्ते, न च कार्मणतैजसपुद्गलवत्तेषां सर्वपदेषु ग्रहणमस्ति, औदारिकशरीरिणामेव तद्हणाद् , अतो बृहतैव कालेन तेषां ग्रहणमिति, तत आनप्राणपुद्गलपरिवर्तनाकालोऽनन्तगुणः, यद्यपि हि औदारिकपुद्गलेभ्य आनप्राणपुद्गलाः सूक्ष्मा बहुप्रदेशिकाश्चेति तेषामल्पकालेन ४ ग्रहणं संभवति तथाऽप्यपर्याप्तकावस्थायां तेषामग्रहणात्पर्याप्तकावस्थायामप्यौदारिकशरीरपुद्गलापेक्षया तेषामल्पीयसा
मेव ग्रहणान्न शीघ्रं तद्रहणमित्यौदारिकपुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तनाकालादनन्तगुणताऽऽनप्राणपुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तनाकालस्येति,
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१२ शतवें ४ उद्देशः परावर्तील्पबहुत्वं सू ४४८
व्याख्या- ततो मनःपुद्गलपरिवर्तनिवर्त्तनाकालोऽनन्तगुणः, कथम् ?, यद्यप्यानप्राणपुद्गलेभ्यो मनःपुद्गलाः सूक्ष्मा बहुप्रदेशाश्चेप्रज्ञप्तिः त्यल्पकालेन तेषां ग्रहणं भवति तथाऽप्येकेन्द्रियादिकायस्थितिवशान्मनसश्चिरेण लाभान्मानसपुद्गलपरिवत्र्तो बहुकालअभयदेवी
साध्य इत्यनन्तगुण उक्तः, ततोऽपि वाक्पुद्गलपरिवर्त्तनिवर्त्तनाकालोऽनन्तगुणः, कथम् ?, यद्यपि मनसः सकाशाद्भाषा या वृत्तिः२
शीघ्रतरं लभ्यते द्वीन्द्रियाद्यवस्थायां च भवति तथाऽपि मनोद्रव्येभ्यो भाषाद्रव्याणामतिस्थूलतया स्तोकानामेवैकदा ग्र॥५७०॥
हणात्ततोऽनन्तगुणो वाकूपुद्गलपरिवर्तनिवर्तनाकाल इति, ततो वैक्रियपुद्गलपरिवर्त्तनिर्वर्तनाकालोऽनन्तगुणो, वैक्रियPil शरीरस्यातिबहुकाललभ्यत्वादिति ॥ पुद्गलपरिवर्तानामेवाल्पबहुत्वं दर्शयन्नाह| एएसिणं भंते ! ओरालियपोग्गलपरियाणं जाव आणापाणुपोग्गलपरियहाण य कयरे २ हिंतो जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा वेउवियपो० वइपो० परि० अणंतगुणा मणपोग्गलप० अर्णत.
आणापाणुपोग्गल. अनंतगुणा ओरालियपो० अणंतगुणा तेयापो० अणंत० कम्मगपोग्गल. अणंतगुणा । सेवं 1६ भंते ! सेवं भंतेत्ति भगवं जाव विहरइ (सूत्रं ४४८) ॥१२-४ ॥
| 'एएसि ण'मित्यादि, सर्वस्तोका वैक्रियपुद्गलपरिवर्त्ता बहुतमकालनिर्वर्तनीयत्वात्तेषां, ततोऽनन्तगुणा वागविषया अल्पतरकालनिर्वय॑त्वात् , एवं पूर्वोक्तयुक्त्या बहुबहुतराः क्रमेणान्येऽपि वाच्या इति ॥ द्वादशशते चतुर्थः ॥ १२-४॥ ॥ ग्रन्थानम् ॥ १२०००॥
5001 SC-SCLICAGO
२%ECROSCARRASSASC)
॥५७०॥
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अनन्तरोद्देशके पुद्गला उक्तास्तत्प्रस्तावात्कर्मपुद्गलस्वरूपाभिधानाय पश्चमोद्देशकमाहरायगिहे जाव एवं वयासी-अह भंते ! पाणाइवा मुसा० अदि० मेह० परि० एस णं कतिवन्ने कतिगंधेल कतिरसे कतिफासे पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे चउफासे पण्णत्ते ॥ अह भंते ! कोहे १ कोवे २रोसे ३ दोसे ४ अखमे ५ संजलणे ६ कलहे ७ चंडिक्क ८ भंडणे ९ विवादे १० एस णं कतिवन्ने जाव | कतिफासे पण्णत्ते ?, गोयमा! पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे चउफासे पण्णत्ते ॥ अह भंते ! माणे मदे दप्पे थंभे गवे अत्तुक्कोसे परपरिवाए उक्कासे अवकासे उन्नामे दुन्नामे १२ एस णं कतिवन्ने ४ ?, गोयमा ! पंचवन्ने | जहा कोहे तहेव । अह भंते ! माया उवही नियडी वलये गहणे गुमे कक्के कुरूए जिम्हे किविसे १० आ| यरणया गृहणया वंचणया पलिउंचणया सातिजोगेय १५ एस णं कतिवन्ने ४ ?, गोयमा ! पंचवन्ने जहेव कोहे ॥ अह भंते ! लोभे इच्छा मुच्छा कंखा गेही तण्हा भिज्झा अभिज्झा आसासणया पत्थणया १० लालप्पणया| कामासा भोगासा जीवियासा मरणासा नंदीरागे १६ एस णं कतिवन्ने ?, जहेव कोहे । अह भंते ! पेजे दोसे कलहे जाव मिच्छादसणसल्ले एस णं कतिवन्ने ! जहेव कोहे तहेव चउफासे ॥ (सूत्रं ४४९) अह भंते ! पाणाइवायवेरमणे जाव परिग्गहवेरमणे कोहविवेगे जाव मिच्छादसणसल्लविवेगे एस णं कतिवन्ने जाव कतिफासे पण्णत्ते?, गोयमा ! अवन्ने अगंधे अरसे अफासे पण्णत्ते ॥ अह भंते ! उप्पत्तिया वेणइया कम्मिया परिणामिया एस णं कतिवन्ना तं चेव जाव अफासा पन्नत्ता ॥ अह भंते ! उग्गहे ईहा अवाये
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व्याख्या- धारणा एस णं कतिवन्ना , एवं चेव जाव अफासा पन्नत्ता ॥ अह भंते ! उट्ठाणे कम्मे बले वीरिए पुरि-18 १२ शतके प्रज्ञप्तिःला
सक्कारपरक्कमे एस णं कतिवन्ने ? तं चेव जाव अफासे पन्नत्ते । सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे कतिवन्ने उद्देशः अभयदेवी
पापस्थान या वृत्तिः एवं चेव जाव अफासे पन्नत्ते । सत्तमे णं भंते ! तणुवाए कतिवन्ने ?, जहा पाणाइवाए, नवरं अट्ठफासे पण्णत्ते,
वर्णादिः वि एवं जहा सत्तमे तणुवाए तहा सत्तमे घणवाए घणोदधि पुढवी, छट्टे उवासंतरे अवन्ने, तणुवाए जाव छट्ठी
रमण प्रभृ॥५७१॥ 18| पुढवी एयाइं अट्ट फासाई,एवं जहा सत्तमाए पुढवीए वत्तवया भणिया तहा जाव पढमाए पुढवीए भाणियचं, तिवर्णादिः जंबुद्दीवे २ सयंभुरमणे समुद्दे सोहम्मे कप्पे जाव ईसिपन्भारा पुढवी नेरतियावासा जाव वेमाणियावासासू ४४९
४५० एयाणि सवाणि अट्ठफासाणि । नेरइया णं भंते ! कतिवन्नाजाव कतिफासा पन्नत्ता?, गोयमा! वेउवियतेयाई | पडुच्च पंचवन्ना पंचरसा दुग्गंधा अट्टफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच्च पंचवन्ना पंचरसा दुगंधा चउफासा पण्णत्ता, जीवं पडुच्च अवन्ना जाव अफासा पण्णत्ता, एवं जाव थणिय०, पुढविकाइयपुच्छा, गोयमा ! ओरालियतेयगाई पडुच्च पंचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, कम्मगं पडुच जहा नेर०, जीवं पडुच तहेव, एवं जाव चरिदि०, नवरं वाउक्काइया ओरा वेउ० तेयगाई पडुच्च पंचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, सेसं जहा|| ॥५७१॥ नेरइयाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया जहा वाउक्काइया, मणुस्साणं पुच्छा ओरालियवेउवियआहारगतेयगाई पडुच्च पंचवन्ना जाव अट्टफासा पण्णत्ता, कम्मगं जीवं च पडुच्च जहा नेर०, वाणमंतरजोइसियवेमा
ECORRECEॐ ॐ
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णिया जहा नेर०, धम्मस्थिकाए जाव पोग्गल. एए सच्चे अवन्ना, नवरं पोग्गल पंचवन्ने पंचरसे दुगंधे अट्ठफासे पण्णत्ते, णाणावरणिज्जे जाव अंतराइए एयाणि चउफासाणि, कण्हलेसा णं भंते ! कइवन्ना ? पुच्छा
दवलेसं पडुच्च पंचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णत्ता, भावलेसं पडुच्च अवन्ना ४, एवं जाव मुक्कलेस्सा, सम्म४ दिहि ३ चक्खुइसणे ४ आभिणियोहियणाणे जाव विभंगणाणे आहारसन्ना जाव परिग्गहसना एयाणि
अवन्नाणि ४, ओरालियसरीरे जाव तेयगसरीरे एयाणि अट्ठफासाणि कम्मगसरीरे चउफासे, मणजोगे। कावयजोगेय चउफासे, कायजोगे अट्ठफासे, सागारोवओगेय अणागारोवओगे य अवन्ना । सबदवा णं भंते!
कतिवन्ना ? पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिया सबदहा पंचवन्ना जाव अट्ठफासा पण्णत्ता अत्थेगतिया सबवा पंचवन्ना चउफासा पण्णत्ता अत्थेगतिया सबवा एगगंधा एगवण्णा एगरसा दुफासा पन्नत्ता अत्थेगइया सन्चदवा अवन्ना जाव अफासा पन्नत्ता, एवं सवपएसावि सबपजवावि, तीयद्धा अवन्ना जाव अफासा पण्णत्ता, एवं अणागयद्धावि, एवं सबद्धावि ॥ (सूत्रं ४५०)
'रायगिहे'इत्यादि 'पाणाइवाए'त्ति प्राणातिपातजनितं तज्जनकं वा चारित्रमोहनीयं कर्मोपचारात् प्राणातिपात एव, एवमुत्तरत्रापि, तस्य च पुद्गलरूपत्वाद्वर्णादयो भवन्तीत्यत उक्तं 'पंचवन्ने' इत्यादि, आह च-"पंचरसपंचवन्नेहिं परिणयं ४ दुविहगंधचउफासं । दवियमणतपएस सिद्धेहिं अणंतगुण हीणं ॥१॥” इति [पञ्चभी रसैः पञ्चभिर्वर्णैः परिणतं द्विविधगन्धं चतुःस्पर्शम् । अनन्तप्रदेशं द्रव्यं सिद्धेभ्योऽनन्तगुणं हीनम् ॥१॥] 'चउफासे'त्ति स्निग्धरूक्षशीतोष्णा
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः
अभयदेवीया वृत्तिः२
॥५७२॥
ख्याश्चत्वारः स्पर्शाः सूक्ष्मपरिणामपरिणतपुद्गलानां भवंति, सूक्ष्मपरिणामं च कर्मेति । 'कोहे'त्ति क्रोधपरिणामजनक
१२ शतक कर्म, तत्र क्रोध इति सामान्य नाम कोपादयस्तु तद्विशेषाः, तत्र कोपः क्रोधोदयात्स्वभावाच्चलनमात्रं, रोषः-क्रोधस्यै-||3|| ५ उद्देशः वानुबन्धो, दोषः आत्मनः परस्य वा दूषणं, एतच्च क्रोधकार्य, द्वेषो वाऽप्रीतिमात्रम् , अक्षमा-परकृतापराधस्यासहनं, पापस्थान सज्वलनो-मुहुर्मुहुः क्रोधाग्निना ज्वलनं, कलहो-महता शब्देनान्योऽन्यमसमञ्जसभाषणं, एतच्च क्रोधकार्य, चाण्डिक्यं ।
वर्णादिवि रौद्राकारकरणं, एतदपि क्रोधकार्यमेव, भण्डनं-दण्डादिभिर्युद्धं, एतदपि क्रोधकार्यमेव, विवादो-विप्रतिपत्तिसमुत्थ
रमणप्रभूवचनानि, इदमपि तत्कार्यमेवेति, क्रोधैकार्था वैते शब्दाः। 'माणेत्ति मानपरिणामजनकं कर्म, तत्र मान इति सा
तिवादि
सू४४९मान्यं नाम, मदादयस्तु तद्विशेषाः, तत्र मदो-हर्षमानं दो-दृप्तता स्तम्भ:-अनम्रता गर्व-शौण्डीय 'अत्तुक्कोसे'त्ति
४५० आत्मनः परेभ्यः सकाशाद्गुणैरुत्कर्षणम्-उत्कृष्टताऽभिधानं परपरिवादः-परेषामपवदनं परिपातो वा गुणेभ्यः परि-||3|| |पातनमिति, 'उक्कासे'त्ति उत्कर्षणं आत्मनः परस्य वा मनाक क्रिययोत्कृष्टताकरणं उत्काशनं वा-प्रकाशनमभिमा-| | नात्स्वकीयसमृद्ध्यादेः 'अवकासे'त्ति अपकर्षणमवकर्षणं वा अभिमानादात्मनः परस्य वा क्रियारम्भात् कुतोऽपि व्या-| | वर्तनमिति अप्रकाशो वाऽभिमानादेवेति, "उणए'त्ति उच्छिन्नं नतं-पूर्वप्रवृत्तं नमनमभिमानादुन्नतम्, उच्छिन्नो | 5 वा नयो-नीतिरभिमानादेवोन्नयो नयाभाव इत्यर्थः, 'उण्णामे'त्ति प्रणतस्य मदानुप्रवेशादुन्नमनं 'दुन्नामे'त्ति मदाढुष्टं | नमनं दुर्नाम इति, इह च स्तम्भादीनि मानकार्याणि मानवाचका वैते ध्वनय इति । 'माय'त्ति सामान्य उपध्यादयस्त-|| ॥५७२॥ भेदाः, तत्र 'उवहि'त्ति उपधीयते येनासावुपधिः-वञ्चनीयसमीपगमनहेतुर्भावः 'नियडि'त्ति नितरां करणं निकृतिः-
CONGRECA-
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आदरकरणेन परवश्चनं पूर्वकृतमायाप्रच्छादनार्थं वा मायान्तरकरणं 'वलए 'ति येन भावेन वलयमिव वक्रं वचनं चेष्टा वा प्रवर्त्तते स भावो वलयं 'गहणे'त्ति परव्यामोहनाय यद्वचनजालं तद्गहनमिव गहनं 'णूमेति परवश्चनाय निम्नताया निम्नस्थानस्य वाऽश्रयणं तन्नमंति 'कक्के'त्ति कल्कं हिंसादिरूपं पापं तन्निमित्तो यो वञ्चनाभिप्रायः स कल्कमेवोच्यते 'कुरुए'त्ति कुत्सितं यथा भवत्येवं रूपयति- विमोहयति यत्तत्कुरूपं भाण्डादिकर्म मायाविशेष एव 'जिम्हे' त्ति | येन परवञ्चनाभिप्रायेण जैहयं - क्रियासु मान्द्यमालम्बते स भावो जैह्रयमेवेति 'किविसेत्ति यतो मायाविशेषाज्जन्मा| न्तरेऽत्रैव वा भवे किल्विषः - किल्बिषिको भवति स किल्विष एवेति, 'आयरणय'त्ति यतो मायाविशेषादादरणं - अभ्युपगमं कस्यापि वस्तुनः करोत्यसावादरणं, ताप्रत्ययस्य च स्वार्थिकत्वाद् आयरणया, आचरणं वा - परप्रतारणाय विवि धक्रियाणामाचरणं, 'गूढनया' गूहनं गोपायनं स्वरूपस्य 'वंचणया' वञ्चनं- परस्य प्रतारणं 'पलिउंचणया' प्रतिकुश्चनं सरलतया प्रवृत्तस्य वचनस्य खण्डनं 'साइजोगे' त्ति अविश्रम्भसम्बन्धः सातिशयेन वा द्रव्येण निरतिशयस्य योगस्तत्मतिरूपकरणमित्यर्थः, मायैकार्था वैते ध्वनय इति । 'लोभे 'ति सामान्यं इच्छादयस्तद्विशेषाः, तत्रेच्छा - अभिलाषमात्रं 'मुच्छा कंखा गेही 'त्ति मूर्च्छा-संरक्षणानुबन्धः काङ्क्षा - अप्राप्तार्थाशंसा 'गेहि'त्ति गृद्धि: - प्राप्तार्थेष्वासक्तिः 'तण्ह'त्ति तृष्णा- प्राप्तार्थानामव्ययेच्छा 'भिज्ज'त्ति अभि-व्याप्त्या विषयाणां ध्यानं तदेकाग्रत्वमभिध्या पिधानादिवदकारलोपाद्विध्या 'अभिज्झत्ति न भिध्या अभिध्या भिध्यासदृशं भावान्तरं तत्र दृढाभिनिवेशो भिध्या ध्यानलक्षणत्वात्तस्याः, | अदृढाभिनिवेशस्त्वभिध्या चित्तलक्षणत्वात्तस्याः, ध्यानचित्तयोस्त्वयं विशेष:- "जं थिरमज्झवसाणं तं झाणं जं चलं तयं
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व्याख्या- चित्त"ति [ यत्स्थिरमध्यवसानं तझ्यानं यच्चलं तच्चित्तम् ॥] 'आसासणय'त्ति आशंसनं-मम पुत्रस्य शिष्यस्य वा इद- १२ शतके प्रज्ञप्तिः शामिदं च भूयादित्यादिरूपा आशीः 'पत्थणय'त्ति प्रार्थन-परं प्रतीष्टार्थयाचा 'लालप्पणय'त्ति प्रार्थनमेव भृशं लपनतः 8 ५ उद्देशः अभयदेवी
|'कामास'त्ति शब्दरूपप्राप्तिसम्भावना 'भोगास'त्ति गन्धादिप्राप्तिसम्भावना 'जीवितासत्ति जीवितव्यप्राप्तिसम्भा- पापस्थान या वृत्तिः२
|वना, 'मरणास'त्ति कस्याञ्चिदवस्थायां मरणप्राप्तिसम्भावना, इदं च क्वचिन्न दृश्यते, 'नंदिरागे'त्ति समृद्धौ सत्यां | वर्णादिः वि
रागो-हर्षो नन्दिरागः, 'पेजेत्ति प्रेम-पुत्रादिविषयः स्नेहः 'दोसे'त्ति अप्रीतिः कलहः-इह प्रेमहासादिप्रभवं युद्धं, याव-18 ॥५७३॥
है रमणप्रभृ
तिवर्णादिः करणात् 'अन्भक्खाणे पेसुन्ने अरइरई परपरिवाए मायामो से'त्ति दृश्यम् ॥ अथोक्तानामेवाष्टादशानां प्राणातिपा
सू ४४९तादिकानां पापस्थानानां ये विपर्ययास्तेषां स्वरूपाभिधानायाह-'अहे'त्यादि, 'अवन्नेत्ति वधादिविरमणानि जीवो
४५० |पयोगस्वरूपाणि जीवोपयोगश्चामूर्तोऽमूर्तत्वाच्च तस्य वधादिविरमणानाममूर्तत्वं तस्माच्चावर्णादित्वमिति ॥ जीवस्व ४ रूपविशेषमेवाधिकृत्याह-उप्पत्तिय'त्ति उत्पत्तिरेव प्रयोजनं यस्याः सा औत्पत्तिकी, ननु क्षयोपशमः प्रयोजनमस्याः? |सत्यं, स खल्वन्तरङ्गत्वात्सर्वबुद्धिसाधारण इति न विवक्ष्यते, न चान्यच्छास्त्रकर्माभ्यासादिकमपेक्षत इति, 'वेणइय'त्ति | विनयो-गुरुशुश्रुषा स कारणमस्यास्तत्प्रधाना वा वैनयिकी, कम्मय'त्ति अनाचार्य कर्म साचार्यकं शिल्पं कादाचित्कं
वा कर्म शिल्पं तु नित्यव्यापारः, ततश्च कर्मणो जाता कर्मजा, 'पारिणामिय'त्ति परिः-समन्तानमनं परिणामः- ॥५७३॥ |सुदीर्घकालपूर्वापरावलोकनादिजन्य आत्मधर्मः स कारणं यस्याः सा पारिणामिकी बुद्धिरिति वाक्यशेषः, इयमपि वर्णादिरहिता जीवधर्मत्वेनामूर्तत्वात् ॥ जीवधर्माधिकारादधग्रहादिसूत्र कादिसूत्रं च, अमूताधिकारादवकाशान्तर
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SANSARASHRAKSHARASH
सूत्र अमूर्तत्वविपर्ययात्तनुवातादिसूत्राणि चाह-तत्र च 'सत्तमे णं भंते ! उवासंतरे'त्ति प्रथमद्वितीयपृथिव्योर्यदन्तराले आकाशखण्ड तत्प्रथमं तदपेक्षया सप्तमं सप्तम्या अधस्तात्तस्योपरिष्टात्सप्तमस्तनुवातस्तस्योपरि सप्तमो धनवातस्तस्याप्युपरि सप्तमो घनोदधिस्तस्याप्युपरि सप्तमी पृथिवी, तनुवातादीनां च पञ्चवर्णादित्वं पौद्गलिकत्वेन मूर्तस्वात् ,
अष्टस्पर्शत्वं च बादरपरिणामत्वात् , अष्टौ च स्पर्शाः शीतोष्णस्निग्धरूक्षमृदुकठिनलघुगुरुभेदादिति । जम्बूद्वीपे इत्यत्र | यावत्करणाल्लवणसमुद्रादीनि पदानि वाच्यानि 'जाव वेमाणियावासा' इह यावत्करणादसुरकुमारावासादिपरिग्रहः, ते च भवनानि नगराणि विमानानि तिर्यग्लोके तन्नगर्यश्चेति । 'वेउवियतयाई पडुच्च'त्ति वैक्रियतैजसशरीरे हि बादरपरिणामपुद्गलरूपे ततो बादरत्वात्तयो रकाणामष्टस्पर्शत्वं, 'कम्मगं पडुच्च'त्ति कार्मणं हि सूक्ष्मपरिणामपुद्गलरूपमत|श्चतुःस्पर्श, ते च शीतोष्णस्निग्धरूक्षाः 'धम्मत्थिकाए' इह यावत्करणादेवं दृश्यम्-'अधम्मत्थिकाए आगासस्थि|काए पोग्गलत्थिकाए अद्धासमए आवलिया मुहुत्ते'इत्यादि, 'दवलेसं पडुच्च'त्ति इह द्रव्यलेश्यावर्णः "भावलेसं | पडुच्च'त्ति भावलेश्या-आन्तरः परिणामः, इह च कृष्णलेश्यादीनि परिग्रहसञ्ज्ञाऽवसानानि अवर्णादीनि जीवपरिणामत्वात् , औदारिकादीनि चत्वारि शरीराणि पञ्चवर्णादिविशेषणानि अष्टस्पर्शानि च बादरपरिणामपुद्गलरूपत्वात् , सर्वत्र |च चतुःस्पर्शत्वे सूक्ष्मपरिणामः कारणं अष्टस्पर्शत्वे च बादरपरिणामः कारणं वाच्यमिति, 'सबदव'त्ति सर्वद्रव्याणि धर्मास्तिकायादीनि 'अत्थेगइया सबदवा पंचवन्ने'त्यादि बादरपुद्गलद्रव्याणि प्रतीत्योक्तं सर्वद्रव्याणां मध्ये कानिचित्पञ्चवर्णादीनीति भावार्थः 'चउफासा' इत्येतच पुद्गलद्रव्याण्येव सूक्ष्माणि प्रतीत्योक्तं 'एगगंधे'त्यादि च परमाण्वा
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५. उद्देशः
8%
१२ शतके गर्भपरिणा| मेवर्णादिः कर्मतो विभक्तिः सू ४५१-४५२
व्याख्या- |दिद्रव्याणि प्रतीत्योक्तं, यदाह परमाणुद्रव्यमाश्रित्य-"कारणमेव तदन्त्यं सूक्ष्मो नित्यश्च भवति परमाणुः । एकरस प्रज्ञप्तिः
वर्णगन्धो द्विस्पर्शः कार्यलिङ्गश्च ॥१॥” इति, स्पर्शद्वयं च सूक्ष्मसम्बन्धिनां चतुर्णा स्पर्शानामन्यतरदविरुद्धं भवति, अभयदेवीया वृत्तिः२४
तथाहि-स्निग्धोष्णलक्षणं स्निग्धशीतलक्षणं वा रूक्षशीतलक्षणं रूक्षोष्णलक्षणं वेति, 'अवण्णे'त्यादि च धर्मास्तिकाया
दिद्रव्याण्याश्रित्योक्तं, द्रव्याश्रितत्वात्प्रदेशपर्यवाणां द्रव्यसूत्रानन्तरं तत्सूत्रं, तत्र च प्रदेशा-द्रव्यस्य निर्विभागा अंशाः ॥५७४॥
पर्यवास्तु धर्माः, ते चैवंकरणादेवं वाच्याः-'सबपएसा णं भंते ! कइवण्णा ? पुच्छा, गोयमा ! अस्थेगइया सवपएसा पंचवन्ना जाव अहफासा'इत्यादि । एवं च पर्यवसूत्रमपि, इह च मूर्त्तद्रव्याणां प्रदेशाः पर्यवाश्च मूर्त्तद्रव्य|वत्पञ्चवर्णादयः, अमूर्त्तद्रव्याणां चामूर्त्तद्रव्यवदवर्णादय इति । अतीताद्धादित्रयं चामूर्त्तत्वादवर्णादिकम् ॥ वर्णाद्य|धिकारादेवेदवाह| जीवे णं भंते ! गन्भं वक्कममाणे कतिवन्नं कतिगंधं कतिरसं कतिफासं परिणामं परिणमइ ?, गोयमा ! |पंचवन्नं पंचरसं दुगंधं अट्टफासं परिणाम परिणमह ॥ (सूत्र ४५१) कम्मओ णं भंते ! जीवे नो अकम्मओ |विभत्तिभावं परिणमइ कम्मओ णं जए नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ ?, हंता गोयमा !
कम्मओ णं तं चेव जाव परिणमइ नो अकम्मओ विभत्तिभावं परिणमइ, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ॥ (सूत्रं ४५२)॥१२-५।
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AA-%
॥५७४॥
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'जीवे ण'मित्यादि, 'परिणामं परिणमइ'त्ति स्वरूपं गच्छति कतिवर्णादिना रूपेण परिणमतीत्यर्थः 'पंचवन्नति गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवशरीरस्य पञ्चवर्णादित्वात् गर्भव्युत्क्रमणकाले जीवपरिणामस्य पञ्चवर्णादित्वमवसेयमिति ॥ अनन्तरं गर्भ व्युत्क्रामन् जीवो वर्णादिभिर्विचित्रं परिणामं परिणमतीत्युक्तम् , अथ विचित्रपरिणाम एव जीवस्य यतो भवति तद्दर्शयितुमाह-कम्मओ ण'मित्यादि, कर्मतः सकाशान्नो अकर्मतः-न कर्माणि विना जीवो 'विभक्ति
भावं' विभागरूपं भावं नारकतिर्यगमनुष्यामरभवेषु नानारूपं परिणाममित्यर्थः 'परिणमति' गच्छति तथा 'कम्मओ दणं जए'त्ति गच्छति तांस्तान्नारकादिभावानिति 'जगत्' जीवसमूहो जीवद्रव्यस्यैव वा विशेषो जङ्गमाभिधानो 'जगन्ति टू
जङ्गमान्याहु'रिति वचनादिति ॥ द्वादशशते पञ्चमः ॥१२-५॥
___ जगतो विभक्तिभावः कर्मत इति पञ्चमोद्देशकान्ते उक्तं, स च राहुग्रसने चन्द्रस्यापि स्यादिति शङ्कानिरासाय षष्ठो-14 है देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्। रायगिहे जाव एवं वयासी-बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खति जाव एवं परूवेइ-एवं खलु राहू चंदं गेण्हति एवं०२, से कहमेयं भंते ! एवं ?,गोयमा!जन्नं से बहुजणे णं अन्नमन्नस्स जाव मिच्छं ते एव ६ माहंसु, अहं पुण गोयमा ! एवमाइक्खामि जाव एवं परूवेमि-एवं खलु राहू देवे महिड्डीए जाव महेसक्खे | वरवत्थधरे वरमल्लधरे वरगंधधरे वराभरणधारी, राहुस्स णं देवस्स नव नामधेजा पण्णत्ता, तंजहा-सिंघा
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५७५॥
डए १ जडिलए २ खंभए [ खत्तए ] ३ खरए ४ दहुरे ५ मगरे ६ मच्छे ७ कच्छभे ८ कण्हसप्पे ९, राहुस्स णं देवरस विमाणा पंचचन्ना पण्णत्ता, तंजहा - किण्हा नीला लोहिया हालिद्दा सुकिल्ला, अस्थि कालए | राहुविमाणे खंजणवन्नाभे पण्णत्ते अस्थि नीलए राहुविमाणे लाउयवन्नामे प० अस्थि लोहिए राहुविमाणेमंजिह्वन्नाभे पं० अत्थि पीतए राहुविमाणे हालिद्दवन्नाभे पन्नत्ते अस्थि सुकिल्लए राहुविमाणे भासरासि बन्नाभे पन्नत्ते ॥ जया णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउद्यमाणे वा परियारेमाणे वा चंदलेस्सं पुरच्छिमेणं आवरेत्ता णं पञ्चच्छिमेणं वीतीवयइ तदा णं पुरच्छिमेणं चंदे उवदंसेति पञ्चच्छिमेणं राहू, | जदा णं राहू आगच्छमाणे वा गच्छमाणे वा विउद्यमाणे वा परियारेमाणे चंदलेस्सं पच्चच्छिमेणं आवरेत्ताणं पुरच्छिमेणं वीतीवयति तदा णं पञ्चच्छिमेणं चंदे उवदंसेति पुरच्छिमेणं राहू, एवं जहा पुरच्छिमेणं पञ्च|च्छिमेणं दो आलावगा भणिया एवं दाहिणेणं उत्तरेण य दो आलावगा भा०, एवं उत्तरपुरच्छिमेण दाहिणपञ्चच्छिमेण य आलावगा भा० दाहिणपुरच्छिमेणं उत्तरपुरच्छिमेणं दो आलावगा भा० एवं चेव | जाव तदा णं उत्तरपञ्चच्छिमे णं चंदे उवदंसेति दाहिणपुरच्छिमेणं राहू, जदा णं राहू आगच्छमाणे वा | गच्छमाणे विउव० परियारेमाणे चंदलेस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठति तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति एवं खलु राहू चंदं गे० एवं०, जदा णं राहू आगच्छमाणे ४ चंदस्स लेस्सं आवरेत्ताणं पासेणं वीइवयह तदा णं | मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति एवं खलु चंदेणं राहुस्स कुच्छी भिन्ना एवं०, जदा णं राहू आगच्छमाणे वा ४
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१२ शतके ६ उद्देशः
राहुविमानं सू ४५३
॥५७५॥
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चंदस्स लेस्सं आवरेत्ताणं पञ्चोसकइ तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदंति-एवं खलु राहुणा चंदे वंते, एवं०, | जदा णं राहू आगच्छमाणे वा ४ जाव परियारेमाणे वा चंदलेस्सं अहे सपक्खि सपडिदिसिं आवरेत्ताणं चिट्ठति तदा णं मणुस्सलोए मणुस्सा वदति-एवं खलु राहुणा चंदे घत्थे एवं०॥कतिविहे णं भंते !राह पन्नत्ते? गोयमा ! दुविहे राहू पन्नत्ते?, तंजहा-धुवराहू पचराहू य, तत्थ णं जे से धुवराहू से णं बहुलपक्खस्स पाडिवए [ग्रन्थाग्रम् ८०००] पन्नरसतिभागेणं पन्नरसहभागं चंदस्स लेस्सं आवरेमाणे २ चिट्ठति, तंजहापढमाए पढमं भागं बितियाए बितियं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं, चरिमसमये चंदे रत्ते भवति | अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत्ते य भवति, तमेव सुक्कपक्खस्स उवदंसेमाणे उव. २ चिट्ठति पढमाए | पढमं भागं जाव पन्नरसेसु पन्नरसमं भागं, चरिमसमये चंदे विरत्ते भवइ अवसेसे समये चंदे रत्ते य विरत्ते य भवइ, तत्थ णं जे से पचराहू से जहन्नेणं छण्हं मासाणं उक्कोसेणं बायालीसाए मासाणं चंदस्स अडयालीसाए संवच्छराणं सूरस्स (सूत्रं ४५३)
रायगिहे' इत्यादि, 'मिच्छते एवमाहसु'त्ति, इह तद्वचनमिथ्यात्वमप्रमाणकत्वात् कुप्रवचनसंस्कारोपनीतत्वाच्च, ग्रहणं हि राहुचन्द्रयोर्विमानापेक्षं, न च विमानयोसकग्रसनीयसम्भवोऽस्ति आश्रयमात्रत्वान्नरभवनानामिव, अथेदं | | गृहमनेन ग्रस्तमिति दृष्टस्तव्यवहारः?, सत्यं, स खल्वाच्छाद्याच्छादकभावे सति नान्यथा, आच्छादनभावेन च ग्रासविव|क्षायामिहापि न विरोध इति । अथ यदत्र सम्यक् तदर्शयितुमाह-'अहं पुणे'त्यादि ॥'खंजणवन्नाभे'त्ति खञ्जनं
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५७६ ॥
दीपमल्लिकामलस्तस्य यो वर्णस्तद्वदाभा यस्य तत्तथा 'लाउयवन्नाभे'त्ति 'लाउयं'ति तुम्बिका तच्चेहापवावस्थं ग्राह्यमिति 'भासरासिवण्णाभे'त्ति भस्मराशिवर्णाभं, ततश्च किमित्याह - 'जया ण'मित्यादि, 'आगच्छमाणे वत्ति गत्वाऽति| चारेण ततः प्रतिनिवर्त्तमानः कृष्णवर्णादिना विमानेनेति शेषः 'गच्छमाणे व'त्ति स्वभावचारेण चरन्, एतेन च पद| द्वयेन स्वाभाविकी गतिरुक्ता, 'विउद्यमाणे व'त्ति विकुर्वणां कुवर्न 'परियारेमाणे वत्ति परिचारयन् कामक्रीडां कुर्वन्, | एतस्मिन् द्वयेऽतित्वरया प्रवर्त्तमानो विसंस्थलचेष्टया स्वविमानमसमञ्जसं वलयति, एतच्च द्वयमस्वाभाविकविमानग|तिग्रहणायोक्तमिति, "चंदलेसं पुरच्छिमेणं आवरेत्ताणं' ति स्वविमानेन चन्द्रविमानावरणे चन्द्रदीतेरा वृत्तत्वाच्चन्द्रलेश्यां पुरस्तादावृत्त्य 'पञ्चच्छिमेणं वीइवयह' त्ति चन्द्रापेक्षया परेण यातीत्यर्थः 'पुरच्छिमेणं चंदे उवदंसेइ पच्चच्छिमेणं राहुति राह्नपेक्षया पूर्वस्यां दिशि चन्द्र आत्मानमुपदर्शयति चन्द्रापेक्षया च पश्चिमायां राहुरात्मानमुप| दर्शयतीत्यर्थः । एवंविधस्वभावतायां च राहोश्चन्द्रस्य यद्भवति तदाह - 'जया ण'मित्यादि, 'आवरेमाणे' इत्यत्र द्विर्व| चनं तिष्ठतीति क्रियाविशेषणत्वात् 'चंद्रेण राहुस्स कुच्छी भिन्न'त्ति राहोरंशस्य मध्येन चन्द्रो गत इति वाच्यं, चन्द्रेण राहोः कुक्षिभिन्न इति व्यपदिशन्तीति, 'पञ्चसक्क ' त्ति 'प्रत्यवसर्पति' व्यावर्त्तते 'वंते'त्ति 'वान्तः' परित्यक्तः, 'सपक्खि सपडिदिसं' ति सपक्षं - समानादिग् यथा भवति सप्रतिदिक्- समानविदिक् च यथा भवतीत्येवं चन्द्र| लेश्यां 'आवृत्य' अवष्टभ्य तिष्ठतीत्येवं योगः, अत आवरणमात्रमेवेदं वैस्रसिकं चन्द्रस्य राहुणा ग्रसनं न तु कार्मण| मिति ॥ अथ राहोर्भेदमाह - 'कइविहे णमित्यादि, यश्चन्द्रस्य सदैव संनिहितः संचरति स ध्रुवराहुः, आह च -
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१२ शतके ६ उद्देशः राहुविमानं
सू ४५३
॥५७६ ॥
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किण्हं राहविमाणं निच्चं चंदेण होइ अविरहियं । चउरंगुलमप्पत्तं हेहा चंदस्स तं चरइ ॥१॥” इति [कृष्णं राहविमान |चन्द्रेणाविरहितं (भवति ) चतुरङ्गलाप्राप्तं नित्यं चन्द्रस्याधस्तात्तच्चरति ॥१॥] यस्तु पर्वणि-पौर्णमास्यामावास्ययोश्च|न्द्रादित्ययोरुपरागं करोति स पर्वराहुरिति । तत्थ णं जे से धुवराहू'इत्यादि 'पाडिवए'त्ति प्रतिपद आरभ्येति शेषः। पञ्चदशभागेन स्वकीयेन करणभूतेन पञ्चदशभागं 'चंदस्स लेस्सं'ति विभक्तिव्यत्ययाच्चन्द्रस्य लेश्यायाः चन्द्रबिम्बसम्बन्धिनमित्यर्थः आवृण्वन् २ प्रत्यहं तिष्ठति, 'पढमाए'त्ति प्रथमतिथौ, 'पन्नरसेसुत्ति पञ्चदशसु दिनेषु अमावास्यायामित्यर्थः ‘पन्नरसमं भागं' 'आवरित्ताणं चिट्ठइ'त्ति वाक्यशेषः, एवं च यद्भवति तदाह-'चरिमे'त्यादि, चरमसमये का पञ्चदशभागोपेतस्य कृष्णपक्षस्यान्तिमे काले कालविशेषे वा चन्द्रो रक्तो भवति-राहुणोपरक्को भवति सर्वथाऽप्याच्छादित इत्यर्थः, अवशेषे समये प्रतिपदादिकाले चन्द्रो रक्तो वा विरक्तो वा भवति, अंशेन राहुणोपरकोऽशान्तरेण चानुपरक्तः आच्छादितानाच्छादित इत्यर्थः । 'तमेव'त्ति तमेव चन्द्रलेइयापञ्चदशभागं शुक्लपक्षस्य प्रतिपदादिष्विति गम्यते 'उपदर्शयन् २' पञ्चदशभागेन स्वयमपसरणतः प्रकटयन् प्रकटयंस्तिष्ठति, 'चरिमसमये'त्ति पौर्णमास्यां चन्द्रो विरको
भवति सर्वथैव शुक्लीभवतीत्यर्थः सर्वथाऽनाच्छादितत्वादिति, इह चायं भावार्थः-पोडशभागीकृतस्य चन्द्रस्य पोडशो है भागोऽवस्थित एवास्ते, ये चान्ये भागास्तान राहुः प्रतितिथ्येकैकं भागं कृष्णपक्षे आवृणोति शुक्ले तु विमुञ्चतीति,
उक्तश्च ज्योतिष्करण्डके-“सोलसभागे काऊण उडुवई हायएत्थ पन्नरसं । तत्तियमेत्ते भागे पुणोवि परिवहुई जोण्हा ॥१॥"[ षोडश भागान् कृत्वोडुपतिर्हापयत्यऽत्र पश्चदश । तावन्मात्रान् भागान् पुनरपि वर्द्धयति ज्योत्स्नायाः ॥१॥
45%-845455445
ध्या०९७ Jain Education
sana
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५७७॥
इति, इह तु षोडशभागकल्पना न कृता व्यवहारिणां षोडशभागस्यावस्थितस्यानुपलक्षणादिति सम्भावयाच इति, मनु | चन्द्रविमानस्य पञ्चैकषष्टिभागन्यूनयोजनप्रमाणत्वाद् राहुविमानस्य च ग्रहविमानत्वेनार्द्धयो जनप्रमाणत्वात्कथं पञ्चदशे | दिने चन्द्रविमानस्य महत्त्वेनेतरस्य च लघुत्वेन सर्वावरणं स्यात् १ इति, अत्रोच्यते, यदिदं ग्रहविमानानामर्द्धयोजन| मिति प्रमाणं तत्प्रायिकं, ततश्च राहोर्ग्रहस्योक्ताधिकप्रमाणमपि विमानं संभाव्यते, अन्ये पुनराहुः -लघीयसोऽपि राहु| विमानस्य महता तमिस्ररश्मिजालेन तदात्रियत इति, ननु कतिपयान् दिवसान् यावद् ध्रुवराहुविमानं वृत्तमुपलभ्यते | ग्रहण इव कतिपयांश्च न तथेति किमत्र कारणम् १, अत्रोच्यते, येषु दिवसेष्वत्यर्थं तमसाऽभिभूयते शशी तेषु तद्विमानं वृत्तमाभाति येषु पुनर्नाभिभूयतेऽसौ विशुद्धयमानत्वात् तेषु न वृतमाभाति, तथा चोक्तम्- "वच्छेओ कइव| इदिवसे धुवशहुणो विमाणस्स । दीसइ परं न दीसह जह गहणे पबराहुस्स ॥१॥" आचार्य आह - "अच्वत्थं नहि तमसाऽभिभूयते जं ससी विसुज्झतो । तेण न वट्टच्छेओ गहणे उ तमो तमोबहुलो ॥ १ ॥” इति । [ कतिपयदिवसेषु ध्रुव| राहोर्विमानस्य वृत्तभागो दृश्यते यथा ग्रहणे पर्वराहोः कतिपयेषु च न तथा दृश्यते ॥ १॥ यद्विशुद्ध्यमानः शशी तमसाऽत्यर्थ नैवाभिभूयतेऽतो न वृत्तभागः ( उपलभ्यते ) ग्रहणे तमस्तमो बहुल: पर्वराहुः ॥ २ ॥ ] 'तत्थ णं जे से पचेत्यादि, | 'बायालीसाए मासाणं' सार्द्धस्य वर्षत्रयस्योपरि चन्द्रस्य लेश्यामावृत्य तिष्ठतीति गम्यं, सूरस्याप्येवं नवरमुत्कृष्टतया - |ष्टचत्वारिंशता संवत्सराणामिति ॥ अथ चन्द्रस्य 'ससि'त्ति यदभिधानं तस्यान्यर्थाभिधानायाह
से केणद्वेणं भंते ! एवं बुचह- चंदे ससी २१, गोयमा ! चंदस्स णं जोइसिंदस्स जोइसरनो मियंके विमाणे
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१२ शतके ६ उद्देशः राहुविमानं सू ४५३
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ना देवी कंताओ देवीओ कंताई आसणसयणखंभभंडमत्तोबगरणाई अप्पणोवि य णं चंदे जोइसिंदे! जोइसराया सोमे कंते सुभए पियदसणे सुरूवे से तेणद्वेणं जाव ससी ॥ (सून ४५४) से केण?णं भंते! एवं वुच्चइ-सूरे आइच्चे सूरे०२१, गोयमा! सूरादिया णं समयाइ वा आवलियाइ वा जाव उस्सप्पिणीइ वा अवसप्पिणीइ वा से तेणटेणं जाव आइच्चे०२॥ (सूत्रं ४५५) |'सेकेण'मित्यादि, 'मियंकेत्ति मृगचिह्नत्वात् मृगाङ्के विमानेऽधिकरणभूते 'सोमेत्तिसौम्यः' अरौद्राकारो नीरोगो वा 'कते'त्ति कान्तियोगात् 'सुभएत्ति सुभगः-सौभाग्ययुक्तत्वाबल्लभो जनस्य 'पियदसणे'त्ति प्रेमकारिदर्शनः, कस्मादेवम् ? अत आह-सुरूपः 'से तेण'मित्यादि अथ तेन कारणेनोच्यते 'ससी'ति सह श्रिया वर्तत इति सश्रीः तदीयदेवादीनां स्वस्य च कान्त्यादियुक्तत्वादिति, प्राकृतभाषापेक्षया च ससीति सिद्धम् ॥ अथादित्यशब्दस्यान्वर्थाभिधानायाह
'सेकेण'मित्यादि, 'सूराईय'त्ति सूरः आदिः-प्रथमो येषां ते सूरादिकाः, के ? इत्याह-समयाइ वत्ति समया:-अहोरात्रादिकालभेदानां निर्विभागा अंशाः, तथाहि-सूर्योदयमवधिं कृत्वाऽहोरात्रारम्भकः समयो गण्यते आवलिका मुहूदियश्चेति 'से तेण'मित्यादि अथ तेनार्थेन सूर आदित्य इत्युच्यते, आदौ अहोरात्रसमयादीनां भव आदित्य इति व्युत्पत्तेः, त्यप्रत्ययश्चेहार्षत्वादिति ॥ अथ तयोरेवाग्रमहिष्यादिदर्शनायाह___ चंदस्स णं भंते ! जोइसिंदस्स जोइसरन्नो कति अग्गमहिसीओ पण्णत्ताओ जहा दसमसए जाव णो चेव णं मेहुणवत्तियं । सूरस्सवि तहेव । चंदमसूरिया णं भंते ! जोइसिंदा जोइसरायाणो केरिसए काम
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भोगे पचणुभवमाणा विहरंति ?, गोयमा! से जहानामए केइ पुरिसे पढमजोवणुट्ठाणबलत्थे पढमजोवणुव्याख्या
नावठाणवलत्थ पढमजावणु- १२ शतके कहाणबलहाए भारियाए सद्धिं अचिरवत्तविवाहकजे अत्थगवेसणयाए सोलसवासविप्पवासिए से णं तओ
उद्देश अभयदेवी-लट्ठ कयकज्जे अणहसमग्गे पुणरवि नियगगिहं हवमागए कयबलिकम्मे कयकोउयमंगलपायच्छित्ते सवालं. शश्यादित्य या वृत्तिः२ कारविभूसिए मणुन्न थालिपागसुद्धं अट्ठारसवंजणाकुलं भोयणं भुत्ते समाणे तंसि तारिसगंसि वासघरंसियोरन्वर्थः ॥५७८॥
वन्नओ महबले कुमारे जाव सयणोवयारकलिए ताए तारिसियाए भारियाए सिंगारागारचारुवेसाए जाव ज्योतिष्ककलियाए अणुरत्ताए अविरत्ताए मणाणुकूलाए सद्धिं इहे सद्दे फरिसे जाव पंचविहे माणुस्सए कामभोगे
कामभोगा: | पचणुब्भवमाणे विहरति, से णं गोयमा ! पुरिसे विउसमणकालसमयंसि केरिसयं सायासोक्खं पञ्चणुब्भव
सू४५४
४५६ माणो विहरति ?, ओरालं समणाउसो!, तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स कामभोगेहिंतो वाणमंतराणं देवाणं अणंतगुणविसिहतराए चेव कामभोगा, वाणमंतराणं देवाणं कामभोगेहिंतो असुरिंदवजियाणं भवणवासीणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिढतराए चेव कामभोगा, असुरिंदवजियाणं भवणवासियाणं देवाणं कामभोगेहिंतो असुरकुमाराणं देवाणं एत्तो अणंतगुणविसिट्टतराए चेव कामभोगा, असुरकुमाराणं देवाणं
कामभोगेहिंतो गहगणनक्खत्ततारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं एत्तोअनंतगुणविसिहतराए चेव कामभोगा, * गहगणनक्खत्तजाव कामभोगेहिंतो चंदिमसूरियाणं जोतिसियाणं जोतिसराईणं एत्तो अणंतगुणवि-४॥५७८॥ सियरा चेव कामभोगा, चंदिमसूरियाणं गोयमा ! जोतिसिंदा जोतिसरायाणो एरिसे कामभोगेल
OTE
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पचणम्भवमाणा विहरति । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति भगवं गोयमे समणं भगवं महावीरं जाव विहरहा (सूत्रं ४५६)॥१२-६॥ | 'चंदस्से त्यादि, 'पढमजोवणुट्टाणबलत्थेत्ति 'प्रथमयौवनोत्थाने प्रथमयौवनोद्गमे यदलं-प्राणस्तत्र यस्तिष्ठति स |
तथा 'अचिरवत्तविवाहकजे अचिरवृत्तविवाहकार्यः 'वन्नओ महाबले'त्ति महाबलोद्देशके वासगृहवर्णको दृश्य | इत्यर्थः 'अणुरत्ताए'त्ति अनुरागवत्या 'अविरत्ताए'त्ति विप्रियकरणेऽप्यविरक्तया 'मणाणुकूलाए'त्ति पतिमनसोऽनुकूलवृत्तिकया 'विउसमणकालसमयंसित्ति व्यवशमनं-पुवेदविकारोपशमस्तस्य यः कालसमयः स तथा तत्र रतावसान इत्यर्थः, इति भगवता पृष्टो गौतम आह-'ओरालं समणाउसो'त्ति, 'तस्स णं गोयमा ! पुरिसस्स कामभोगेहिंतो' हातनः "एत्तो'त्ति शब्दो योज्यते ततश्चैतेभ्य उक्तस्वरूपेभ्यो व्यन्तराणां देवानामनन्तगुणविशिष्टतया चैव कामभोगा भवन्तीति, क्वचित्तु एत्तोशब्दो नाभिधीयते एवेति द्वादशशते षष्ठः॥ १२-६॥
___ अनन्तरोदेशके चन्द्रादीनामतिशयसौख्यमुक्तं, ते च लोकस्यांशे भवन्तीति लोकांशे जीवस्य जन्ममरणवक्तव्यताप्ररूपणार्थः सप्तमोद्देशक उच्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम्
तेणं कालेणं २ जाव एवं वयासी-केमहालए णं भंते ! लोए पन्नत्ते ?, गोयमा ! महतिमहालए लोए पन्नत्ते, पुरच्छिमेणं असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ दाहिणणं असंखिजाओ एवं चेव एवं पञ्चच्छिमेणवि एवं
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सू ४५७
व्याख्या- उत्तरेणवि एवं उड्डूंपि अहे असंखेजाओ जोयणकोडाकोडीओ आयामविक्खंभेणं । एयंसि णं भंते ! एमहा
| १२ शतके प्रज्ञप्तिः लगंसि लोगंसि अस्थि केइ परमाणुपोग्गलमेत्तेवि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा म मए वावि ?, |७ उद्देशः अभयदेवी- गोयमा ! नो इणढे समढे, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ एयंसि णं एमहालगंसि लोगंसि नत्थि केइ परमाणु- महति लोके या वृत्तिः२
पोग्गलमेत्तेवि पएसे जत्थ णं अयं जीवे ण जाए वा न मए वावि ?, गोयमा ! से जहानामए के पुरिसे जन्ममरअयासयस्स एगं महं अयावयं करेजा, से णं तत्थ जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं अयासहस्सं
णाभ्यां ॥५७९॥
व्यापकता पक्खिवेजा ताओ णं तत्थ पउरगोयराओ पउरपाणियाओ जहन्नेणं एगाहं वा बियाहं वा तियाहं वा | उक्कोसेणं छम्मासे परिवसेज्जा, अत्थि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमेत्तेबि पएसे जे णं तासिं अयाणं उच्चारेण वा पासवणेण वा खेलेण वा सिंघाणएण वा वंतेण वा पित्तेण वा पूएण वा सु-13
केण वा सोणिएण वा चम्महिं वा रोमेहिं वा सिंगेहिं वा खुरेहिं वा नहेहिं वा अणाकंतपुवे भवइ ?, भगवं। राणो तिणढे समढे, होजावि णं गोयमा ! तस्स अयावयस्स केई परमाणुपोग्गलमत्तेवि पएसे जे गं तासिं | अयाणं उच्चारेण वा जाव णहेहिं वा अणकंतपुवे णो चेव णं एयंसि एमहालगंसि लोगसि लोगस्स य सासर्य भावं संसारस्स य अणादिभावं जीवस्स य णिच्चभावं कम्मबहुत्तं सम्मणमरणबाहुल्लं च पडुच्च नत्थि ॥५७९॥ केइ परमाणुपोग्गलमत्तेवि पएसे जत्थ णं अयं जीवे न जाए वा न मए वावि, से तेण?णं तं चेव जाव न मए वावि ॥ (सूत्र ४५७)
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तेण'मित्यादि, 'परमाणुपोग्गलमेत्तेवित्ति इहापिः सम्भावनायां 'अयासयस्स'त्ति षष्ट्याश्चतुर्थ्यर्थत्वाद् अजाश४ ताय 'अयावयंति अजाब्रजम् अजावाटकमित्यर्थः 'उक्कोसेणं अयासहस्सं पक्खिवेज'त्ति यदिहाजाशतप्रायोग्ये वाटके उत्कर्षेणाजासहस्रप्रक्षेपणमभिहित तत्तासामतिसङ्कीर्णतयाऽवस्थानख्यापनार्थमिति, 'पउरगोयराओ पउरपाणीयाओ'त्ति प्रचुरचरणभूमयः प्रचुरपानीयाश्च, अनेन च तासां प्रचुरमूत्रपुरीषसम्भवो बुभुक्षापिपासाविरहेण सुस्थतया चिरंजीवित्वं चोक्तं 'नहेहि वत्ति नखाः-खुराग्रभागास्तैः 'नो चेव णं एयंसि एमहालयंसि लोगंसि' इत्यस्य 'अस्थि केइ पमाणुपोग्गलमेत्तेवि पएसे' इत्यादिना पूर्वोक्ताभिलापेन सम्बन्धः, महत्त्वाल्लोकस्य, कथमिदमिति चेदत आह'लोगस्से'त्यादि क्षयिणो ह्येवं न संभवतीत्यत उक्तं लोकस्य शाश्वतभावं प्रतीत्येति योगः, शाश्वतत्वेऽपि लोकस्य | | संसारस्य सादित्वे नैवं स्यादित्यनादित्वं तस्योक्तं, नानाजीवापेक्षया संसारस्यानादित्वेऽपि विवक्षितजीवस्यानित्यत्वे नोक्तोऽर्थः स्यादतो जीवस्य नित्यत्वमुक्तं, नित्यत्वेऽपि जीवस्य कर्माल्पत्वे तथाविधसंसरणाभावान्नोक्तं वस्तु स्यादतः कर्म| बाहुल्यमुक्तं, कर्मबाहुल्येऽपि जन्मादेरल्पत्वे नोक्तोऽर्थः स्यादिति जन्मादिबाहुल्यमुक्तमिति ॥एतदेव प्रपञ्चयन्नाह| कति णं भंते ! पुढवीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ जहा पढमसए पंचमउद्देसए तहेव आवासा ठावेयवा जाव अणुत्तरविमाणेत्ति जाव अपराजिए सबट्टसिद्धे । अयन्नं भंते! जीवे इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि निरयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव
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व्याख्या
वणस्सइकाइयत्ताए नरगत्ताए नेरइयत्ताए उववन्नपुवे ?, हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो, अयन्नं १२ शतके प्रज्ञप्तिःला
भंते ! जीवे सकरप्पभाए पुढवीए पणवीसा एवं जहा रयणप्पभाए तहेव दो आलावगा भाणियवा, एवं ७ उद्देशः अभयदेवी
जाव धूमप्पभाए । अयन्नं भंते ! जीवे तमाए पुढवीए पंचूणे निरयावाससयसहस्से एगमेगंसि सेसं तं चेव, नरकादितया वृत्तिः२ अयन्नं भंते ! जीवे अहेसत्तमाए पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु महतिमहालएम महानिरएसु एगमेगंसि निर
| या सर्वेषा॥५८०॥ यावासंसि सेसं जहा रयणप्पभाए, अयन्नं भंते ! जीवे चोसट्ठीए असुरकुमारावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि
| मनन्तकृ
त्व उत्पादः असुरकुमारावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए देवत्ताए देवीत्ताए आसणसयणभंडमत्तोव
सू४५८ गरणत्ताए उववन्नपुवे ?, हंता गोयमा! जाव अणंत खुत्तो, सबजीवावि णं भंते ! एवं चेव, एवं थणियकुमारेसु, नाणत्तं आवासेसु, आवासा पुवभणिया, अयन्नं भंते ! जीवे असंखेजेसु पुढविक्काइयावाससयसहस्सेसु एग-18 मेगंसि पुढविकाइयावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वण० उववन्नपुचे ?, हंता गोयमा ! जाव अणंत खुत्तो एवं सवजीवावि एवं जाव वणस्सइकाइएम, अयण्णं भंते ! जीवे असंखेजेसु बेंदियावाससयसहस्सेसु एग| मेगंसि बेंदियावासंसि पुढविकाइयत्ताए जाव वणस्सइकाइयत्ताए बेइंदियत्ताए उववन्नपुवे', हंता गोयमा!|| जाव खुत्तो, सबजीवावि णं एवं चेव एवं जाव मणुस्सेसु, नवरं तेंदियएसु जाव वणस्सइकाइयत्ताए तंदि-F ean यत्ताए चउरिदिएसु चरिंदियत्ताए पंचिदियतिरिक्खजोणिएसु पंचिंदियतिरिक्खजोणियत्ताए मणुस्सेसु । मणुस्सत्ताए सेसं जहा बेदियाणं, वाणमंतरजोइसियसोहम्मीसाणेसु य जहा असुरकुमाराणं, अयण्णं
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ASAMASCUSS
भंते ! जीवे सणंकुमारे कप्पे वारससु विमाणावाससयसहस्सेसु एगमेगंसि विमाणियावासंसि पुढविकाइयत्ताए सेसं जहा असुरकुमाराणं जाव अणंतखुत्तो, नो चेव णं देवीत्ताए, एवं सवजीवावि, एवं जाव आणयपाणएम, एवं आरणचुएसुवि, अयन्नं भंते ! जीवे तिसुवि अट्ठारसुत्तरेसु गेविजविमाणावाससयेसु एवं चेव, अयन्नं भंते ! जीवे पंचसु अणुत्तरविमाणेसु एगमेगंसि अणुत्तरविमाणंसि पुढवि तहेव जाव अणंतखुत्तो नो चेव णं देवत्ताए वादेवीत्ताए वा एवं सवजीवावि।अयन्नं भंते ! जीवे सबजीवाणं माइत्ताए पियत्ताए भाइत्ताए भगिणित्ताए भजत्ताए पुत्तत्ताए धूयत्साए सुण्हत्ताए उववन्नपुवे?, हंता गोयमा ! असई अदुवा अणंतखुत्तो, सबजीवावि णं भंते । इमस्स जीवस्स माइत्ताए जाव उववन्नपुवे ?, हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो, अयण्णं भंते ! जीवे सबजीवाणं अरित्ताए वेरियत्ताए घायकत्ताए वहगत्ताए पडिणीयत्ताए पचामित्तत्ताए उववन्नपुवे ?, हंता गोयमा! जाव अणंतखुत्तो, सव्वजीवावि णं भंते ! एवं चेव, अयन्नं भंते ! जीवे || सबजीवाणं रायत्ताए जुवरायत्ताए जाव सत्थवाहत्ताए उववन्नपुत्वे ?, हंता गोयमा ! असतिं जाव अणंतखुत्तो, सबजीवाणं एवं चेव । अयन्नं भंते ! जीवे सबजीवाणं दासत्ताए पेसत्ताए भयगत्ताए भाइल्लगत्ताए भोगपुरिसत्ताए सीसत्ताए वेसत्ताए उववन्नपुवे ?, हंता गोयमा ! जाव अणंतखुत्तो, एवं सवजीवावि अणंतखुत्तो । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरइ ॥ (सूत्रं ४५८) १२-७॥
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व्याख्या
'कइ ण'मित्यादि, 'नरगत्ताए'त्ति नरकावासपृथिवीकायिकतयेत्यर्थः 'असईति असकृद्-अनेकशः 'अदुव'त्ति प्रज्ञप्तिः अथवा 'अणंतखुत्तो'त्ति अनन्तकृत्वः-अनन्तवारान् 'असंखेजेसु पुढविकाइयावाससयसहस्सेसु'त्ति इहासङ्ख्याअभयदेवी-& तेषु पृथिवीकायिकावासेषु एतावतैव सिद्धेर्यच्छतसहस्रग्रहणं तत्तेषामतिबहुत्वख्यापनार्थ, नवरं तेइंदिएसु'इत्यादि त्रीया वृत्तिः२न्द्रियादिसूत्रेषु द्वीन्द्रियसूत्रात् त्रीन्द्रियचतुरिन्द्रियेत्यादिनैव विशेष इत्यर्थः 'नो चेव णं देवीत्ताए'त्ति ईशानान्तेष्वेव
देवस्थानेषु देव्य उत्पद्यन्ते सनत्कुमारादिषु पुनर्नेतिकृत्वा 'नो चेव णं देवीत्ताए' इत्युक्तं 'नो चेव णं देवत्ताए दे॥५८१॥
वीत्ताए वत्ति अनुत्तरविमानेष्वनन्तकृत्वो देवा नोत्पद्यन्ते देव्यश्च सर्वथैवेति 'नो चेव 'मित्याद्युक्तमिति, 'अरित्ताए'त्ति सामान्यतः शत्रुभावेन 'वेरियत्ताए'ति वैरिकः-शत्रुभावानुबन्धयुक्तस्तत्तया 'घायगत्ताए'त्ति मारकतया 'वहगत्ताए'त्ति व्यधकतया ताडकतयेत्यर्थः 'पडिणीयत्ताए'त्ति प्रत्यनीकतया-कार्योपघातकतया 'पञ्चामित्तत्ताए'त्ति अमित्रसहायतया 'दासत्ताए'त्ति गृहदासीपुत्रतया 'पेसत्ताए'त्ति प्रेष्यतया आदेश्यतया 'भयगत्ताए'त्ति भृतकतया दुष्कालादौ पोषिततया 'भाइल्लगत्ताए'त्ति कृष्यादिलाभस्य भागग्राहकत्वेन 'भोगपुरिसत्ताए'त्ति अन्यैरुपार्जितार्थानां भोगकारिनरतया 'सीसत्ताए'त्ति शिक्षणीयतया 'वेसत्ताए'त्ति द्वेष्यतयेति ॥ द्वादशशते सप्तमः ॥ १२-७॥
१२ शतके | ७ उद्देशः नरकादितया सर्वेषामनन्तकृत्व उत्पादः | सू ४५८
अनुत्तरविमानकमारादिषु पुनर्नेतिकृादन व विशेष इत्यर्थः ना नाथे, नवरं 'तेइंदिएमइ हहासङ्ख्या
ve
॥५८॥
सप्तमे जीवानामुत्पत्तिश्चिन्तिता, अष्टमेऽपि सैव भङ्गयन्तरेण चिन्त्यते, इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्तेणं कालेणं तेणं समएणं जाव एवं वयासी-देवेणं भंते ! महड्डीए जाव महेसक्खे अणंतरं चयं चइत्ता
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बिसरीरेसु नागेसु उबवज्जेज्जा १, हंता गोयमा ! उववज्जेज्जा, से णं तत्थ अच्चियवंदिय पूइयसकारियसम्माणिए दिवे सच्चे सच्चोवाए संनिहियपाडिहेरे यावि भवेज्जा ?, हंता भवेज्जा से णं भंते! तओहिंतो अनंतरं उघट्टित्ता सिज्झेज्जा बुज्झेजा जाव अंतं करेज्जा ?, हंता सिज्झिज्जा जाव अंतं करेजा, देवे णं भंते ! महड्डीए एवं चैव जाव बिसरीरेसु मणीसु उववज्जेज्जा, एवं चेव जहा नागाणं, देवे णं भंते ! महड्डीए जाव बिसरीरेस रुक्खेसु उववज्जेज्जा ?, हंता उववज्जेज्जा एवं चेव, नवरं इमं नाणत्तं जाव सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लो| इयमहिते यावि भवेज्जा ?, हंता भवेज्जा सेसं तं चैव जाव अंतं करेजा ॥ (सूत्रं ४५९ )
'ते' मित्यादि, 'बिसरीरेसु'त्ति द्वे शरीरे येषां ते द्विशरीरास्तेषु ये हि नागशरीरं त्यक्त्वा मनुष्यशरीरमवाप्य | सेत्स्यन्ति ते द्विशरीरा इति, 'नागेसु'त्ति सर्व्वेषु हस्तिषु वा 'तत्थ'त्ति नागजन्मनि यत्र वा क्षेत्रे जातः 'अच्चिए 'त्यादि, इहार्चितादिपदानां पञ्चानां कर्म्मधारयः तत्र चार्चितश्चन्दनादिना वन्दितः स्तुत्या पूजितः पुष्पादिना सत्कारितो -व| स्त्रादिना सन्मानितः प्रतिपत्तिविशेषेण 'दिवे'त्ति प्रधानः 'सच्चे 'त्ति स्वप्नादिप्रकारेण तदुपदिष्टस्यावितथत्वात् 'सच्चोवाए' त्ति सत्यावपातः सफलसेव इत्यर्थः, कुत एतत् ? इत्याह- 'सन्निहियपाडिहेरे 'ति सन्निहितं - अदूरवत्तिं प्रातिहार्य| पूर्वसङ्गतिकादिदेवताकृतं प्रतिहारकर्म यस्य स तथा 'मणीसु'त्ति पृथिवीकायविकारेषु ' लाउल्लोइयमहिए'त्ति 'लाइयं'ति छगणादिना भूमिकायाः संमृष्टीकरणं 'उल्लोइयंति सेटिकादिना कुड्यानां धवलनं एतेनैव द्वयेन महितो यः स तथा, एतच्च विशेषणं वृक्षस्य पीठापेक्षया, विशिष्टवृक्षा हि बद्धपीठा भवन्तीति ॥
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
11५८२॥
DORECRUCRACANCIESGARHEOSA
अह भंते! गोलंगूलवसभे कुक्कुडवसभेमंडुक्कवसभेएएणं निस्सीला निव्वया निग्गुणा निम्मेरा निप्पच्चक्खा- १२ शतके णपोसहोववासा कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उक्कोसेणं सागरोवमद्वितीयंसि नरगंसि ८ उद्देश: नेरइयत्ताए उववजेजा ।समणे भगवं महावीरे वागरेइ-उववजमाणे उववन्नेत्ति वत्तवं सिया। अह भंते! सीहे| नागमण्या| वग्धे जहा उस्सप्पिणीउद्देसए जाव परस्सरे एए णं निस्सीला एवं चेव जाव वत्तवं सिया, अह भंते ! ढंके
दौदेवागमः कंके विलए मग्गुए सिखीए, एए णं निस्सीला०, सेसं तं चेव जाव वत्तवं सिया । सेवं भंते ! सेवं भंते!
द्विशरीरता
च गोलाङ्जाव विहरइ ॥ (सूत्रं ४६०) १२-८॥
गूलादेनर___ 'गोलंगूलवसभे'त्ति गोलाङ्गलानां-वानराणां मध्ये महान् स एव वा विदग्धो विदग्धपर्यायत्वाद्वृषभशब्दस्य, एवं
कःसू४५९ कुर्कुटवृषभोऽपि, एवं मण्डूकवृषभोऽपि, 'निस्सील'त्ति समाधानरहिताः 'निव्वय'त्ति अणुव्रतरहिताः 'निग्गुण'त्ति गुण-|
४६० व्रतैः क्षमादिभिर्वा रहिताः 'नेरइयत्ताए उववजेजा' इति प्रश्नः, इह च 'उववजेजा' इत्येतदुत्तरं, तस्य चासम्भवमाशकमानस्तत्परिहारमाह-'समणे'इत्यादि, असम्भवश्चैवं-यत्र समये गोलाङ्गलादयो न तत्र समये नारकास्ते अतः कथं ते ४ नारकतयोत्पद्यन्ते इति वक्तव्यं स्याद् ?, अत्रोच्यते-श्रमणो भगवान् महावीरो न तु जमाल्यादिः एवं व्याकरोति| यदुत उत्पद्यमानमुत्पन्नमिति वक्तव्यं स्यात् , क्रियाकालनिष्ठाकालयोरभेदाद, अतस्ते गोलाङ्गुलप्रभृतयो नारकतयोत्पत्तु
॥५८२॥ कामा नारका एवेतिकृत्वा सुष्ठुच्यते 'नेरइयत्ताए उववजेजत्ति, 'उस्सप्पिणिउद्दसए'त्ति सप्तमशतस्य षष्ठ इति ॥5 द्वादशशतेऽष्टमः॥१२-८॥
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व्या० ९८
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अष्टमोद्देशके देवस्य नागादिषूत्पत्तिरुक्ता नवमे तु देवा एव प्ररूप्यन्त इत्येवं सम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् - कहविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता ?, गोयमा ! पंचविहा देवा पण्णत्ता, तंजहा- भवियदवदेवा १ नरदेवा २ धम्मदेवा ३ देवाहिदेवा ४ भावदेवा ५, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच भवियदवदेवा भवियदच्चदेवा ?, गोयमा ! जे भविए पंचिंदियतिरिक्खजोणिए वा मणुस्से वा देवेसु उववज्जित्तए से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्च भवियदवदेवा २, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ नरदेवा नरदेवा ?, गोयमा ! जे इमे रायाणो चाउरंत चक्कवही उप्पन्नसमत्तचक्करयणप्पहाणा नवनिहीपणो समिद्धकोसा बत्तीसं रायवरसहस्साणुजायमग्गा सागरवरमेहलाहिवइणो मणुस्सिदा से तेणट्टेणं जाव नरदेवा २, से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ धम्मदेवा धम्मदेवा ?, गोयमा ! जे इमे अणगारा भगवंतो ईरियासमिया जाव गुत्तबंभयारी से तेणद्वेणं जाव धम्मदेवा २, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुच्चइ देवाधिदेवा देवाधिदेवा ?, गोयमा ! जे इमे अरिहंता भगवंतो उप्पन्ननाणदंसणधरा जाव सङ्घदरिसी से तेणद्वेणं जाव देवाधिदेवा २, से केणट्टेणं भंते । एवं बुच्चइ-भावदेवा भावदेवा ?, गोयमा ! जे इमे भवणवइवाणमंतरजोइ सवेमाणिया देवा देवगतिनामगोयाई कम्माई वेदेंति से तेणद्वेणं जाव भावदेवा (सूत्रं ४६९ ) ॥ भवियदवदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्जंति ? किं नेरइएहिंतो उववज्जति तिरिक्ख० मणुस्स० देवेहिंतो उववजंति ?, गोयमा ! नेरइएहिंतो उववज्जंति तिरि०मणु० देवे हितोवि उववज्जति भेदो जहा वकंतीए सधेसु उववाएयवा जाव अणुत्तरोववाइपत्ति, नवरं असंखेज्जवासाज्य अकम्मभूमग अंतर
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५८३॥
दीवगसङ्घट्टसिद्धवज्जं जाव अपराजियदेवेहितोवि उववज्जंति, णो सङ्घट्टसिद्धदेवेहिंतो उववज्र्ज्जति । मरदेवा णं भंते ! कओहिंतो उववज्रंति ? किं नेरतिए० ? पुच्छा, गोयमा ! नेरतिएहितोवि उववअंति नो तिरि० नो मणु० देवेहिंतोवि उववज्जंति, जइ नेरइएहिंतो उववजंति किं रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उववज्रंति जाव अहे सन्तमापुढविनेरइएहिंतो उववजंति ?, गोयमा ! रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो उववज्जंति नों सकरजाव नो अहेसत्तमापुढविनेरइएहिंतो उबवजंति, जइ देवेहिंतो उववज्रंति किं भवणवासिदेवेहिंतो उववज्जंति वाणमंतर० जोइसिय० वेमाणियदेवेहिंतो उववजंति ?, गोयमा ! भवणवासिदेवेहितोवि उववअंति वाणमंतर एवं सङ्घदेवेसु उववाएयवा वकंतीभेदेणं जाव सङ्घट्टसिद्धत्ति, धम्मदेवा णं भंते । कओहिंतो उववजंति किं नेरइए० १ एवं वक्कंतीभेदेणं सबेसु उववाएयवा जाव सङ्घट्टसिद्धत्ति, नवरं तमा आहेसत्तमाए नो उववाओ असंखिजवासाज्यअ कम्म भूमग अंतरदीवगवज्जेसु, देवाधिदेवाणं भंते । कतोहिंतो उवज्जति किं नेरइएहिंतो उववजंति ? पुच्छा, गोयमा ! नेरइएहिंतो उववजंति नो तिरि० नो मणु देवेहिंतोवि उववज्जंति, जइ नेरइएहिंतो एवं तिसु पुढवीसु उववज्जति सेसाओ खोडेयवाओ, जइ देवेहिंतों, वैमाणिएसु ससु उववज्जंति जाव सबट्ठसिद्धत्ति, सेसा खोडेया, भावदेवा पणं भंते ! कओहिंतो उववति ?, एवं जहा वर्षातीए भवणवासीणं उबवाओ तहा भाणियवो ॥ ( सूत्रं ४६२ ) भवियदवदेवाणं भंते ! केवतियं कालं ठिंती पण्णत्ता ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाई, नरदेवाणं पुच्छा
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१२ शतके
९ उद्देशः भव्यद्रव्य
देवादीनां
स्वरूपमा
गतिश्च सू ४६१-४६२
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गोयमा ! जहन्नेणं सत्त वाससयाई उक्कोसेणं चउरासीई पुश्वसयसहस्साई, धम्मदेवाणं मंते ! पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं उक्कोसेणं देसूणा पुषकोडी, देवाधिदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं बावत्तरिं वासाई उकोसेणं चउरासीई पुषसयसहस्साई, मावदेवाणं पुच्छा गोयमा ! जहन्नेणं दस वाससहस्साई उक्कोसेणं तेत्तीसं सागरोवमाई ॥ (सूत्रं ४६३)॥ भक्यिदवदेवा णं भंते ! किं एगत्तं पम् विउवित्तए पुहुर्त पभू विउवित्तए !, गोयमा ! एगपि पभू विउवित्तए पुहत्तंपि पभू विउवित्तए, एमत्तं विउच्चमाणे एगिदियरूवं वा जाव पंचिंदियरूवं वा पुहुत्तं विउवमाणे एगिदियरूवाणि वा जाव पंचिंदियरूवाणि वा ताई संखेजाणि वा असंखेज्जाणि वा संबद्धवाणि वा असंबद्धाणि वा सरिसाणि वा असरिसाणि का विउर्वति विउवित्ता तओ पच्छा अप्पणो जहिच्छियाई कजाई करेंति, एवं नरदेवावि, एवं धम्मदेवावि, देवाधिदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! एगसंपि पभू विउवित्तए पुहुरापि पभू विषवित्तए नो चेकणं संपत्तीए विजविसु वा विउर्षिति वा वा विउविस्संति वा । भावदेवाणं पुच्छा जहा भवियदवदेवा ॥ (सूत्रं ४६४) भवियवदेवाणं भंते ! अर्णतरं उच्चट्टित्ता कहिं गच्छति ? कहिं उववजंति ? किनेरइएK उववजति ? जाव देवेसु उववज्जति १, गोयमा ! नो नेरइएसु उववजति नो तिरि० नो मणु० देवेसु उववजति, जइ देवेसु उववजंति सचदेवेसु उववजंति जाव सबट्टसिद्धत्ति । नरदेवा णं भंते ! अणंतरं उच्चहित्ता पुच्छा, गोयमा! नेरइएसु उववजंति नो तिरि० नो मणुकणो देवेसु उववजंति, जानेरइएसु उववजंति०,सत्तमुवि पुढवीसउववज्जति । धम्मदेवाणं भंते । अणंतरं
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५८४ ॥
पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइएसु उववज्जेज्जा नो तिरि० नो मणु० देवेसु उववज्जंति, जइ देवेसु उववज्जंति किं भवणवासि पुच्छा, गोयमा ! नो भवणवासिदेवेसु उववजंति नो वाणमंतर० नो जोइसिय० वेमाणियदेवेसु | उववज्जंति, सधेसु बेमाणिएसु उववज्जंति जाव सङ्घट्टसिद्ध अणुत्तरोववाइएस जाव उववज्जंति, अत्थेगइया सिज्झति जाव अंत करेंति । देवाधिदेवा अणंतरं उङ्घट्टित्ता कहिं गच्छति कहिं उववजंति ?, गोयमा ! सिज्यंति जाव अंतं करेंति । भावदेवा णं भंते ! अनंतरं उहित्ता पुच्छा जहा वर्षांतीए असुरकुमाराणं उच्चट्टणा तहा भाणियन्वा ॥ भवियदच्वदेवे णं भंते ! भवियदवदेवेत्ति कालओ केवचिरं होइ ?, गोयमा ! जहनेणं अंतोमुद्दत्तं उक्कोसेणं तिन्नि पलिओ माई, एवं जहेव ठिई सच्चैव संचिट्टणावि जाव भावदेवस्स, नवरं धम्मदेवस्सं जह० एकं समयं उक्कोसेणं देसूणा पुचकोडी | भवियदवदेवस्स णं भंते ! केवतियं कालं अंतरं होइ ?, गोयमा । जह० दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमन्भहियाएं उक्कोसेणं अनंतं कालं वणस्सइकालो । नरदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं सातिरेगं सागरोवमं उक्कोसेणं अनंतं कालं अवडं पोग्गलपरियहं देसूणं । धम्मदेवस्स णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं पलिओवमपुत्तं उक्कोसेणं अनंतं कालं जाव अवहूं पोग्गलपरिय देसूणं । देवाधिदेवाणं पुच्छा, गोयमा ! नत्थि अंतरं । भावदेवस्स णं पुच्छा, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहुत्तं | उक्कोसेणं अणतं कालं वणस्सकालो | एएसि णं भंते । भवियदवदेवाणं नरदेवाणं जाव भावदेवाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सङ्घत्थोवा नरदेवा देवाधिदेवा संखेज्जगुणा धम्मदेवा संखेज्जगुणा
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१२ शतके ९ उद्देशः भव्यद्रव्यदेवादिस्थितिवैक्रियो द्वर्त्तनान्तराल्पबहुत्वानि सू
४६३-४६५
॥५८४ ॥
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भवियदवदेवा असंखेज्वगुणा भावदेवा असंखेजगुणा ॥ (सूत्रं ४६५)॥ एएसिणं भंते ! भावदेवाणं भवणवासीणं वाणमंतराणं जोइसियाणं वेमाणियाणं सोहम्मगाणं जाव अच्चुयगाणं गेवेजगाणं अणुत्तरोववाइयाण य कयरे २ जाव विसेसाहिया वा ?, गोयमा ! सवत्थोवा अणुत्तरोववाइया भावदेवा उवरिमगेवेजा | भावदेवा संखेजगुणा मज्झिमगेवेजा संखेजगुणा हेडिमगेवेजा संखेजगुणा अच्चुए कप्पे देवा संखेजगुणा जाव आणयकप्पे देवा संखेजगुणा एवं जहा जीवाभिगमे तिविहे देवपुरिसे अप्पाबहुयं जाव जोतिसिया भावदेवा असंखेजगुणा । सेवं भंते ! २॥ (सूत्रं ४६६)॥ बारसमसयरस नवमो ॥१२-९॥ | 'कइविहा ण'मित्यादि, दीव्यन्ति-क्रीडां कुर्वन्ति दीव्यन्ते वा-स्तूयन्ते वाऽऽराध्यतयेति देवाः 'भवियदवदेव'त्ति द्रव्यभूता देवा द्रव्यदेवाः, द्रव्यता चाप्राधान्याद्भूतभावित्वाद्भाविभावत्वाद्वा, तत्राप्राधान्याद्देवगुणशून्या देवा द्रव्यदेवा यथा साध्वाभासा द्रव्यसाधवः, भूतभावपक्षे तु भूतस्य देवत्वपर्यायस्य प्रतिपन्नकारणा भावदेवत्वाच्युता द्रव्यदेवाः, भाविभावपक्षे तु भाविनो देवत्वपर्यायस्य योग्या देवतयोत्पत्स्यमाना द्रव्यदेवाः, तत्र भाविभावपक्षपरिग्रहार्थमाह-भव्याश्च ते द्रव्यदेवाश्चेति भव्यद्रव्यदेवाः, 'नरदेव'त्ति नराणां मध्ये देवा-आराध्याः क्रीडाकान्त्यादियुक्ता वा | नराश्च ते देवाश्चेति वा नरदेवाः, 'धम्मदेव'त्ति धर्मेण-श्रुतादिना देवा धर्मप्रधाना वा देवा धर्मदेवाः, 'देवाइदेव'त्ति | देवान् शेषानतिक्रान्ताः पारमार्थिकदेवत्वयोगाद्देवा देवातिदेवाः, 'देवाहिदेव'त्ति कचिदृश्यते तत्र च देवानामधिकाः | पारमार्थिकदेवत्वयोगाद् देवा देवाधिदेवाः, 'भावदेव'त्ति भावेन-देवगत्यादिकर्मोदयजातपर्यायेण देवा भावदेवाः । 'जे
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥५८५॥
भविए' इत्यादि, इह जातौ एकवचनमतो बहुवचनार्थे व्याख्येयं, ततश्च ये भव्याः-योग्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्वोमिका वा १२ शतके मनुष्या वा देवेधूत्पत्तुं ते यस्माद्भाविदेवभावा इति गम्यं अर्थ 'तेनार्थेन तेन कारणेन हे गौतम ! तान् प्रत्येवमुच्यते-18|| ९ उद्देशः | भव्यद्रव्यदेवा इति । 'जे इमें' इत्यादि, 'चाउरंतचक्कवादित्ति चतुरन्ताया भरतादिपृथिव्या एते स्वामिन इति चातु- मन्य रन्ताः चक्रेण वर्तनशीलत्वाञ्चक्रवर्तिनस्ततः कर्मधारयः, चतुरन्तग्रहणेन च वासुदेवादीनां व्युदासः, ते यस्मादिति
देवाद्याः वाक्यशेषः 'उप्पन्नसमत्तचक्करयणप्पहाण'त्ति आर्षत्वान्निर्देशस्योत्पन्नं समस्तरत्नप्रधानं चक्रं येषां ते तथा 'सागरवरमेहलाहिवाणोत्ति सागर एव वरा मेखला-काश्ची यस्याः सा सागरवरमेखला-पृथ्वी तस्या अधिपतयों ये ते तथा, सागरमेखलान्तपृथिव्यधिपतय इति भावः, 'से तेणटेणं ति अथ 'तेनार्थेन तेन कारणेन गौतम ! तान् प्रत्येवमुच्यतेनरदेवा इति । 'जे इमे' इत्यादि, ये इमेऽनगारा भगवन्तस्ते यस्मादिति वाक्यशेषः ईर्यासमिता इत्यादि से तेण?णं|ति अथ तेनार्थेन गौतम ! तान् प्रत्येवमुच्यते धर्मदेवा इति । 'जे इमे' इत्यादि, ये इमेऽर्हन्तो भगवन्तस्ते यस्मादुत्पन्न
ज्ञानदर्शनधरा इत्यादि से तेणटेणं'ति अथ तेनार्थेन तान् प्रति गौतम एवमुच्यते-देवातिदेवा इति। 'जे इमे इत्यादि, | ये इमें भवनपतयस्ते यस्माहेवगतिनामगोत्रे कर्मणी वेदयन्ति अनेनार्थेन तान् प्रत्येवमुच्यते-भावदेवा इति । एवं देवान् | प्ररूप्य तेषामेवोत्पादं प्ररूपयन्नाह-"भवियदवदेवा णं भंते ! इत्यादि, भेदो'त्ति 'जइ नेरइएहिंतो उववज्जति किं|| ॥५८५॥ रयणप्पभापुढविनेरइएहिंतो' इत्यादि भेदो वाच्यः, 'जहा वकंतीए'त्ति यथा प्रज्ञापनाषष्ठपदे, नवरमिस्यादि, || 'असंखेजवासाउय'त्ति असङ्खवातवर्षायुष्काः कर्मभूमिजाः पञ्चेन्द्रियतिर्यग्मनुष्या असङ्ख्यातवर्षायुषामकर्मभूमिजादीनां
ॐARC
भगवन्तस्ते यस्मादितिनाथन' तेन कारणलखा अधिपतयो
घरा इत्यादि से तान् मत्येवमुच्यते
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साक्षादेव गृहीतत्वात् एतेभ्यश्चोद्वत्ता भव्यद्रव्यदेवा न भवम्ति, भावदेवेष्वेव तेषामुत्पादात्, सर्वार्थसिद्धिकास्तु भव्यद्रव्यसिद्धा एव भवन्तीत्यत एतेभ्योऽन्ये सर्वे भव्यद्रव्यदेवतयोत्पादनीया इति, धर्मदेवसूत्रे 'नवर'मित्यादि, 'तम'त्ति षष्ठपृथिवी तत उद्वृत्तानां चारित्रं नास्ति, तथाऽधःसप्तम्यास्तेजसो वायोरसङ्ख्येयवर्षायुष्ककर्मभूमिजेभ्योऽकर्मभूमिजेभ्योऽन्तरद्वीपजेभ्यश्चोद्वृत्तानां मानुषत्वाभावान्न चारित्रं, ततश्च न धर्मदेवत्वमिति । देवाधिदेवसूत्रे 'तिसु पुढवीसु उववजंति'त्ति तिसृभ्यः पृथिवीभ्य उद्वत्ता देवातिदेवा उत्पद्यन्ते 'सेसाओ खोडेयवाओ'त्ति शेषाः पृथिव्यो निषेधयितव्या इत्यर्थः ताभ्य उद्वत्तानां देवातिदेवत्वस्याभावादिति । 'भावदेवा 'मित्यादि, इह च बहुतरस्थानेभ्यं उत्ता भवनवासितयोत्पद्यन्ते असजिनामपि तेषूत्पादाद् अत उक्त 'जहा वकंतीए भवणवासीणं उववाओ'इत्यादि ।। अथ | तेषामेव स्थिति प्ररूपयन्नाह-'भवियदवदेवाण'मित्यादि, 'जहन्नेणं अंतोमुहुत्तति अन्तर्मुहर्तायुषः पञ्चेन्द्रियतिरश्चो देवेषुत्पादाद्भव्यद्रव्यदेवस्य जघन्याऽन्तर्मुहूर्त्तस्थितिः, 'उक्कोसेणं तिन्नि पलिओवमाईति उत्तरकुर्वादिमनुजादीनां देवेष्वेवोत्पादात् ते च भव्यद्रव्यदेवाः तेषां चोत्कर्षतो यथोक्ता स्थितिरिति । 'सत्त वाससयाईति यथा ब्रह्मदत्तस्य 'चउ-टू रासीपुत्वसयसहस्साईति यथा भरतस्य । धर्मदेवानां 'जहन्नेणं अंतोमुहतंति योऽन्तर्मुहुर्तावशेषायुश्चारित्रं प्रतिप| द्यते तदपेक्षमिदं, 'उक्कोसेणं देसूणा पुवकोडी'ति तु यो देशोनपूर्वकोव्यायुश्चारित्रं प्रतिपद्यते तदपेक्षमिति, ऊनता च | पूर्वकोव्या अष्टाभिर्वर्षेः अष्टवर्षस्यैव प्रव्रज्याहत्वात् , यच्च षडूवर्षस्त्रिवर्षों वा प्रव्रजितोऽतिमुक्तको वैरस्वामी वा तत्कादा|चित्कमिति न सूत्रावतारीति । देवातिदेवानां 'जहन्नेणं बावत्तरि वासाईति श्रीमन्महावीरस्येव 'उक्कोसेणं चउरा
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५८६ ॥
सीइ पुवसयसहस्सा इं'ति ऋषभस्वामिनो यथा । भावदेवानां 'जहनेणं दस वाससहस्साइं 'ति यथा व्यन्तराणां 'उक्कोसेणं तेत्तीस सागरोवमाई'ति यथा सर्वार्थसिद्धदेवानां ॥ अथ तेषामेव विकुर्वणां प्ररूपयन्नाह - 'भवियवदवदे वाण' मित्यादि 'एगन्तं पभू विउवित्तए'त्ति भव्यद्रव्यदेवो मनुष्यः पश्चेन्द्रियतिर्यग्वा वैक्रियलब्धिसम्पन्नः 'एकत्वम्' एकरूपं 'प्रभु' समर्थो विकुर्वयितुं 'पुहुत्तं'ति नानारूपाणि देवातिदेवास्तु सर्वथा औत्सुक्यवर्जितत्वान्न विकुर्वते | शक्तिसद्भावेऽपीत्यत उच्यते- 'नो चेव ण'मित्यादि, 'संपत्तीए 'त्ति वैक्रियरूपसम्पादनेन, विकुर्वणशक्तिस्तु विद्यते, तलब्धिमात्रस्य विद्यमानत्वात् ॥ अथ तेषामेवोद्वर्त्तनां प्ररूपयन्नाह - 'भवियदवे' त्यादि, इह च भविकद्रव्यदेवानां | भाविदेव भवस्वभावत्वान्नारकादिभवत्रयनिषेधः । नरदेवसूत्रे तु 'नेरइएस उववज्जंति'त्ति अत्यक्तकामभोगा नरदेवा नैरयिकेषूत्पद्यन्ते शेषत्रये तु तन्निषेधः, तत्र च यद्यपि केचिचक्रवर्त्तिनो देवेषूत्पद्यन्ते तथाऽपि ते नरदेवत्वत्यागेन धर्मदेवत्वप्राप्ताविति न दोषः, 'जहा वकंतीए असुरकुमाराणं उचट्टणा तहा भाणियवत्ति असुरकुमारा बहुषु | जीवस्थानेषु गच्छन्तीति कृत्वा तैरतिदेशः कृतः, असुरादयो हीशानान्ताः पृथिव्यादिष्वपि गच्छन्तीति ॥ अथ तेषामे| वानुबन्धं प्ररूपयन्नाह - 'भवियद्वदेवे ण' मित्यादि, 'भवियदवदेवे 'त्ति भव्यद्रव्यदेव इत्यमुं पर्यायमत्यजन्नित्यर्थः | 'जहन्त्रेणमंतो मुहुत्त 'मित्यादि पूर्ववदिति । ' एवं जहेव ठिई सच्चैव संचिट्टणावित्ति 'एवम्' अनेन न्यायेन यैव 'स्थिति:' भवस्थितिः प्रागू वर्णिता सेवैषां संस्थितिरपि तत्पर्यायानुबन्धोऽपीत्यर्थः, विशेषं स्वाह-'नवर' मित्यादि, धर्म| देवस्य जघन्येनैकं समयं स्थितिः अशुभभावं गत्वा ततो निवृत्तस्य शुभभावप्रतिपत्तिसमयानन्तरमेव मरणादिति ॥ अथै
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१२ शतके
९ उद्देशः भव्यद्रव्यदेवाद्याः
॥५८६ ॥
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| तेषामेवान्तरं प्ररूपयन्नाह - 'भवियदवदेवस्स णं भंते !' इत्यादि, 'जहन्नेणं दसवाससहस्साइं अंतोमुहुत्तमन्भ| हियाई' ति भव्यद्रव्यदेवस्यान्तरं जघन्येन दशवर्षसहस्राण्यन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि, कथं ?, भव्यद्रव्यदेवो भूत्वा दशवर्षसहस्रस्थितिषु व्यन्तरादिषूत्पद्य च्युत्वा शुभपृथिव्यादौ गत्वाऽन्तर्मुहूर्त्तं स्थित्वा पुनर्भव्यद्रव्यदेव एवोपजायत इत्येवं, एतच्च टीकामुपजीव्य व्याख्यातं, इह कश्चिदाह - ननु देवत्वाच्युतस्यानन्तरमेव भव्यद्रव्यदेवतयोत्पत्तिसम्भवाद्दशवर्षसहस्राण्येव जघन्यतस्तस्यान्तरं भवत्यतः कथमन्तर्मुहूर्त्ताभ्यधिकानि तान्युक्तानि इति, अत्रोच्यते - सर्वजघन्यायुर्देवश्चयुतः सन् शुभपृथिव्यादिषूत्पद्य भव्यद्रव्यदेवेषूत्पद्यत इति टीकाकारमतमवसीयते, तथा च यथोक्तमन्तरं भवतीति, अन्ये | पुनराहु: - इह बद्धायुरेव भव्यद्रव्यदेवोऽभिप्रेतस्तेन जघन्यस्थितिकाद्देवत्वाच्युत्वाऽन्तर्मुहूर्त्तस्थितिकभव्यद्रव्य देवत्वेनोत्पन्नस्यान्तर्मुहूतोपरि देवायुषो बन्धनाद् यथोक्तमन्तरं भवतीति, अथवा भव्यद्रव्यदेवस्य जन्मनोर्मरणयोर्वाऽन्तरस्य ग्रहणाद् यथोक्तमन्तरमिति । 'नरदेवाण' मित्यादि, 'जहन्नेणं साइरेगं सागरोवमं'ति, कथम् ?, अपरित्यक्तसङ्गाश्चक्रवर्त्तिनो नरकपृथिवीषूत्पद्यन्ते, तासु च यथास्वमुत्कृष्टस्थितयो भवन्ति, ततश्च नरदेवो मृतः प्रथमपृथिव्यामुत्पन्नस्तत्र चोत्कृष्टां स्थितिं सागरोपमप्रमाणामनुभूय नरदेवो जातः, इत्येवं सागरोपमं, सातिरेकत्वं च नरदेवभवे चक्ररत्नोत्पत्तेरर्वा| चीनकालेन द्रष्टव्यं, उत्कृष्टतस्तु देशोनं पुद्गलपरावर्त्तार्द्ध, कथं ?, चक्रवर्त्तित्वं हि सम्यग्दृष्टय एव निर्वर्त्तयन्ति तेषां च देशोनापार्द्धपुद्गल परावर्त्त एव संसारो भवति, तदन्त्यभवे च कश्चिन्नरदेवत्वं लभत इत्येवमिति । 'धम्मदेवस्स ण'
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५८७ ॥
१२ शतके ९ उद्देशः भव्यद्रव्यदेवाद्याः
मित्यादि, 'जहनेणं पलिओवमपुहतं'ति, कथं ?, चारित्रवान् कश्चित् सौधर्मे पल्योपमपृथक्त्वायुष्केषूत्पद्य ततयुतो | धर्मदेवत्वं लभत इत्यैवमिति यच्च मनुजत्वे उत्पन्नश्चारित्रं विनाऽऽस्ते तदधिकमपि सत् पल्योपमपृथक्त्वेऽन्तर्भावितमिति । 'भावदेवस्स ण' मित्यादि, 'जहन्नेणं अंतोमुहुसं'ति, कथं ?, भावदेवयुतोऽन्तर्मुहूर्त्तमम्यत्र स्थित्वा पुनरपि भावदेवो जात इत्येयं जघन्येनान्तर्मुहूर्त्तमन्तरमिति ॥ अथैतेषामेवाल्पबहुत्वं प्ररूपयन्नाह - 'एएसि ण' मित्यादि, 'सच्च| त्थोवा नरदेव'त्ति भरतैरवतेषु प्रत्येकं द्वादशानामेव तेषामुत्पत्तेर्विजयेषु च वासुदेवसम्भवात् सर्वेष्येकदाऽनुत्पत्तेरिति । १ भावदेवा| 'देवाइदेवा संखेज्जगुण 'त्ति भरतादिषु प्रत्येकं तेषां चक्रवर्त्तिभ्यो द्विगुणतयोत्पत्तेर्विजयेषु च वासुदेवोपेतेष्वप्युत्पत्तेरिति । 'धम्मदेवा संखेज्जगुण' त्ति साधूनामेकदाऽपि कोटीसहस्रपृथक्त्वसद्भावादिति, 'भवियदवदेवा असंखेज्जगुण 'त्ति देश| विरतादीनां देवगतिगामिनामसङ्ख्यातत्वात्, 'भावदेवा असंखेजगुण'त्ति स्वरूपेणैव तेषामतिबहुत्वादिति ॥ अथ | भावदेवविशेषाणां भवनपत्यादीना मल्पबहुत्वप्ररूपणायाह - 'एएसि ण' मित्यादि, 'जहा जीवाभिगमे तिविहे' इत्यादि, | इह च 'तिविहे' त्ति त्रिविधजीवाधिकार इत्यर्थः देवपुरुषाणामल्पबहुत्वमुक्तं तथेहापि वाच्यं तच्चैवं - 'सहस्सारे कप्पे | देवा असंखेज्जगुणा महासुके असंखेजगुणा लंतए असंखेज्जगुणा बंभलोए देवा असंखेजगुणा माहिंदे देवा असंखेज्जगुणा सर्णकुमारे कप्पे देवा असंखेज्जगुणा ईसाणे देवा असंखेज्जगुणा सोहम्मे देवा संखेज्जगुणा भवणवा सिदेवा असंखेज्जगुणा वाणमंतरा देवा असंखेजगुण'त्ति ॥ द्वादशशते नवमः ॥ १२-९ ॥
ल्पबहुत्वं सू ४६६
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॥५८७॥
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BACCANARAN
नवमोद्देशक देवा उक्तास्ते चात्मन इत्यात्मस्वरूपस्य भेदतो निरूपणाय दशमोद्देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्काविहा णं भंते ! आया पण्णत्ता ?, गोयमा ! अट्ठविहा आया पण्णत्ता, संजहा-दवियाया कसायायां योगाया उवओगाया णाणाया दंसणाया चरित्ताया वीरियाया ॥ जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स कसायाया जस्स कसायाया तस्स दवियाया ?, गोयमा ! जस्स दवियाया तस्स कसायाया सिय अस्थि सिय नस्थि जस्स पुण कसायाया तस्स दवियाया नियम अस्थि ।जस्स णं भंते ! दवियाया तस्स जोगाया! एवं जहा दियाया कसायाया भणिया तहा दवियाया जोगाया भाणियवा। जस्स ण भंते ! दवियाया तस्स उवओ|गाया एवं सत्वत्थ पुच्छा भाणियन्वा, गोयमा ! जस्स दवियाया तत्स उवओगाया नियम अस्थि, जस्संवि |उवओगाया तस्सवि दवियाया नियमं अस्थि, जस्स दवियाया तस्स णाणाया भयणाए जस्स पुण ाणाया तस्स दवियाया नियमं अस्थि, जस्स दवियाया तस्स दसणाया नियम अस्थि जस्सवि दंसणाया तस्स दवियाया नियम अस्थि, जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया नियम अत्थि, एवं वीरियायाएवि समं । जस्स णं भंते ! कसायाया तस्स जोगाया पुच्छा, गोयमा ! जस्स कसायाया तस्स जोगाया नियमं अस्थि, जस्स पुण जोगाया तस्स कसायाया सिय अस्थि |सिय नत्थि, एवं उवओगायाएवि समं कसायाया नेयवा, कसायाया य णाणाया य परोप्परं दोवि 3 भइयवाओ, जहा कसायाया य उवओगाया य तहा कसायाया य ईसणाया य कसायाया य चरित्ताया
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५८८ ॥
य दोवि परोप्परं भइयवाओ, जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया य वीरियाया य भाणि यवाओ, एवं जहा कसायायाए वत्तवया भणिया तहा जोगाथाएवि उवरिमाहिं समं भाणियचाओ । जहा द्वियायाए वत्तवया भणिया तहा उवयोगायाएव उवरिल्लाहिं समं भाणियवा । जस्स नाणाया तस्स दंसणाया नियमं अत्थि जस्स पुण दंसणाया तस्स णाणाया भयणाए, जस्स नाणाया तस्स चरित्ताया सिय अत्थि सिय नत्थि जस्स पुण चरिताया तस्स नाणाया नियमं अत्थि, णाणाया बीरियाया दोवि परोप्परं भयणाए । जस्स दंसणाया तस्स उवरिमाओ दोवि भयणाए, जस्स पुण ताओ तस्स दंसणाया नियमं अस्थि । जस्स चरिताया तस्स वीरियाया नियमं अस्थि जस्स पुण वीरियाया तस्स चरित्ताया सिय अत्थि सिय नत्थि ॥ एयासि णं भंते ! दवियायाणं कसायायाणं जाव वीरियायाण य कयरे २ जाव विसेसा० ? गोयमा ! सवत्थोवाओ चरितायाओ नाणायाओ अनंतगुणाओ कसायाओ अनंत जोगायाओ वि० वीरियायाओवि उवयोगदवियदसणायाओ तिन्निवि तुल्लाओ वि० ॥ ( सूत्रं ४६७ ) आया भंते! नाणे अन्नाणे ?, गोयमा ! आया सिय नाणे सिय अन्नाणे णाणे पुण नियमं आया ॥ आया भंते ! नेरइयाणं नाणे अन्ने नेरइयाणं नाणे ? गोयमा ! आया नेरइयाणं सिय नाणे सिय अन्नाणे नाणे पुण से नियमं आया एवं जाव थणियकुमाराणं, आया भंते ! पुढवि० अन्नाणे अन्ने पुढविकाइयाणं अन्नाणे ? गोयमा ! आया पुढविकाइयाणं नियमं अन्नाणे अन्नाणेवि नियमं आया, एवं जाव वणस्सइका०, बेइंद्रिय
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१२ शतके १० उद्देशः द्रव्यात्मा
द्याःसू ४६७ ज्ञानादिभे
दाभेदः
सू ४६८
॥५८८ ॥
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व्या० ९९
| तेइंदिय जाव वैमाणियाणं जहा नेरइयाणं । आया भंते ! दंसणे अने दंसणे ? गोयमा !, आया नियमं दंसणे दंसणेवि नियमं आया । आया भंते ! नेर० दंसणे अन्ने नेरइयाणं दंसणे १, गोयमा ! आया नेरहयाणं नियमा दंसणे दंसणेवि से नियमं आया एवं जाव वेमा० निरंतरं दंडओ ॥ ( सूत्रं ४६८ ) ।
'कविहा ण' मिति, 'आय'त्ति अतति-सन्ततं गच्छति अपरापरान् स्वपरपर्यायानित्यात्मा, अथवा अतधातोर्गमनार्थत्वेन ज्ञानार्थत्वादतति - सन्ततमवगच्छति उपयोगलक्षणत्वादित्यात्मा, प्राकृतत्वाच्च सूत्रे स्त्रीलिङ्ग निर्देशः, तस्य | चोपयोगलक्षणत्वात्सामान्येनैकविधत्वेऽप्युपाधिभेदादष्टधात्वं तत्र 'दवियाय'त्ति द्रव्यं - त्रिकालानुगाम्युपसर्जनीकृतकपायादिपर्यायं तद्रूप आत्मा द्रव्यात्मा सर्वेषां जीवानां, 'कसायाय'त्ति क्रोधादिकपायविशिष्ट आत्मा कपायात्मा अक्षीणानुपशान्तकषायाणां; 'जोगाय'त्ति योगा - मनःप्रभृतिव्यापारास्तत्प्रधान आत्मा योगात्मा योगवतामेव, 'उवओगाय'त्ति | उपयोगः - साकारानाकारभेदस्तत्प्रधान आत्मा उपयोगात्मा सिद्धसंसारिस्वरूपः सर्वजीवानां, अथवा विवक्षितवस्तूपयोगापेक्षयोपयोगात्मा, 'नाणाय'त्ति ज्ञानविशेषित उपसर्जनीकृतदर्शनादिरात्मा ज्ञानात्मा सम्यग्दृष्टेः, एवं दर्शनात्मादयोऽपि नवरं दर्शनात्मा सर्वजीवानां, चारित्रात्मा विरतानां वीर्य - उत्थानादि तदात्मा सर्वसंसारिणामिति, उक्तञ्च - “जीवानां
१ यद्यपि प्रशमरतौ 'जीवाजीवानां द्रव्यात्मा सकषायिणां कषायात्मेति पाठः व्याख्याद्वये च तथैव विवरणं तथैवोल्लेखोऽन्यत्रापि, तथापि अभियुक्तैरेष पाठोऽभिमतोऽत्र, न चाशङ्कयं लेखकदूषणं, यतः प्रागत्रैव प्रतिपादने सर्वजीवानां द्रव्यात्मेति व्याख्यातमन्यथा व्याख्यास्यन् द्रव्यात्मा जीवाजीवानामिति, न चोच्यते सूत्रकृद्भिः कषायादिभिः सहवृत्तिता नियमः । जीवप्रकरणमनुसरद्भिस्त्यक्ता वाऽजीवा अभियुक्तैः स्युः ।
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SHOCALS
व्याख्या-18 द्रव्यात्मा ज्ञेयः सकषायिणां कषायात्मा । योगः सयोगिनां पुनरुपयोगः सर्वजीवानाम् ॥१॥ ज्ञानं सम्यग्र-18 १२ शतके
प्रज्ञप्तिः टेर्दर्शनमथ भवति सर्वजीवानाम् । चारित्रं विरतानां तु सर्वसंसारिणां वीर्यम् ॥२॥" इति ॥ एवमष्टधाऽऽत्मानं १० उदेशः अभयदेवी- प्ररूप्याथ यस्यात्मभेदस्य यदन्यदात्मभेदान्तरं युज्यते च न युज्यते च तस्य तदर्शयितुमाह-'जस्स 'मित्यादि,
द्रव्यात्माया वृत्तिः इहाष्टौ पदानि स्थाप्यन्ते, तत्र प्रथमपदं शेषैः सप्तभिः सह चिन्त्यते, तत्र यस्य जीवस्य 'द्रव्यात्मा' द्रव्यात्मत्वं जीव-18
विद्या सू४६७
ज्ञानादिभे॥५८॥ त्वमित्यर्थः तस्य कषायात्मा 'स्यादस्ति' कदाचिदस्ति सकषायावस्थायां 'स्यान्नास्ति' कदाचिन्नास्ति क्षीणोपशान्तकषा- दाभेदः
यावस्थायां, यस्य पुनः कषायात्माऽस्ति तस्य द्रव्यात्मा द्रव्यात्मत्वं-जीवत्वं नियमादस्ति, जीवत्वं विना कषायाणामभा- सू ४६८ वादिति । तथा यस्य द्रव्यात्मा तस्य योगात्माऽस्ति, योगवतामिव, नास्ति चायोगिसिद्धानामिव, तथा यस्य योगात्मा 8 | तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति, जीवत्वं विना योगानामभावात् , एतदेव पूर्वसूत्रोपमानेन दर्शयन्नाह–'एवं जहा द्वि| याये'त्यादि । तथा यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य नियमादुपयोगात्मा, यस्याप्युपयोगात्मा तस्य नियमाद्रव्यात्मा, एतयोः ४ परस्परेणाविनाभूतत्वाद् यथा सिद्धस्य, तदन्यस्य च द्रव्यात्माऽस्त्युपयोगात्मा चोपयोगलक्षणत्वाज्जीवानां, एतदेवाह|'जस्स दवियायेत्यादि । तथा 'जस्स दवियाया तस्स नाणाया भयणाए जस्स पुण नाणाया तस्स वियाया| | नियमं अत्थि'त्ति यस्य जीवस्य द्रव्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृष्टीनां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृष्टी
नामित्येवं भजना, यस्य तु ज्ञानात्मा तस्य द्रव्यात्मा नियमादस्ति, यथा सिद्धस्येति । 'जस्स दयियाया तस्स दंसदाणाया नियमं अत्थि'त्ति यथा सिद्धस्य केवलदर्शनं 'जस्सवि दंसणाया तस्स द्वियाया नियमं अत्थि'त्ति यथा
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ESSESSM
|चक्षुर्दर्शनादिदर्शनवतां जीवत्वमिति, तथा 'जस्स दवियाया तस्स चरित्ताया भयणाए'त्ति यतः सिद्धस्याविरतस्य | वा द्रव्यात्मत्वे सत्यपि चारित्रात्मा नास्ति विरतानां चास्तीति भजनेति, 'जस्स पुण चरित्ताया तस्स दवियाया| नियम अत्थि'त्ति चारित्रिणां जीवत्वाव्यभिचारित्वादिति, 'एवं वीरियातेवि समति यथा द्रव्यात्मनश्चारित्रात्मना सह भजनोक्ता नियमश्चैवं वीर्यात्मनाऽपि सहेति, तथाहि-यस्य द्रव्यात्मा तस्य वीर्यात्मा नास्ति, यथा सकरणवीर्या|पेक्षया सिद्धस्य तदन्यस्य त्वस्तीति भजना, वीर्यात्मनस्तु द्रव्यात्माऽस्त्येव यथा संसारिणामिति ७॥अथ कषायात्मना |सहान्यानि षटू पदानि चिन्त्यन्ते-'जस्स 'मित्यादि, यस्य कषायात्मा तस्य योगात्माऽस्त्येव, नहि सकषायोऽयोगी |भवति, यस्य तु योगात्मा तस्य कषायात्मा स्याद्वा न वा, सयोगानां सकषायाणामकषायाणां च भावादिति, "एवं |उवओगाया, एवी'त्यादि, अयमर्थः-यस्य कषायात्मा तस्योपयोगात्माऽवश्यं भवति, उपयोगरहितस्य कषायाणामभावात् , ६ यस्य पुनरुपयोगात्मा तस्य कषायात्मा भजनया, उपयोगात्मतायां सत्यामपि कषायिणामेव कषायात्मा भवति निष्कषा| याणां तु नासाविति भजनेति, तथा 'कसायाया य नाणाया य परोप्परं दोवि भइयवाओ'त्ति, कथम् ?, यस्य कषायात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, यतः कषायिणः सम्यग्दृष्टानात्माऽस्ति मिथ्यादृष्टेस्तु तस्य नास्त्यसाविति भजना, तथा यस्य ज्ञानात्मास्ति तस्य कषायात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, ज्ञानिनांकषायभावात् तदभावाच्चेति भजनेति, 'जहा कसायाया उवओगाया य तहा कसायाया य दंसणाया यत्ति अतिदेशः, तस्माच्चेदं लब्धं-'जस्स कसायाया तस्स दसणाया नियम अस्थि' दर्शनरहितस्य घटादेः कषायात्मनोऽभावात् 'जस्स पुण दसणाया तस्स कसायाया सिय
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवी
या वृत्तिः २
॥५९०॥
अत्थि सिय नत्थि' दर्शनवतां कपायसद्भावात्तदभावाच्चेति दृष्टान्तार्थस्तु प्राक् प्रसिद्ध एवेति, 'कसायाया य चरिप्ताया य दोवि परोप्परं भइयवाओ'त्ति, भजना चैवं यस्य कषायात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, कथं ?, | कषायिणां चारित्रस्य सद्भावात् प्रमत्तयतीनामिव तदभावाच्चासंयतानामिवेति, तथा यस्य चारित्रात्मा तस्य कषायात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति, कथं १, सामायिकादिचारित्रिणां कषायाणां भावाद् यथाख्यातचारित्रिणां च तदभावादिति, 'जहा कसायाया य जोगाया य तहा कसायाया वीरियाया य भाणियचाओ'त्ति दृष्टान्तः प्राक् प्रसिद्धः, दाष्टन्तिकस्त्वेवं| यस्य कषायात्मा तस्य वीर्यात्मा नियमादस्ति, न हि कषायवान् वीर्यविकलोऽस्ति यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य कषा - यात्मा भजनया, यतो वीर्यवान् सकषायोऽपि स्याद् यथा संयतः अकषायोऽपि स्याद् यथा केवलीति ६ । अथ योगात्मा | ऽग्रेतनपदैः पञ्चभिः सह चिन्तनीयस्तत्र च लाघवार्थमतिदिशन्नाह-'एवं जहा कसायायाए वत्तवया भणिया तहा जोगा| याएवि उवरिमाहिं समं भाणियव'त्ति, सा चैवम् - यस्य योगात्मा तस्योपयोगात्मा नियमाद् यथा सयोगानां यस्य पुनरु|पयोगात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति यथा सयोगानां स्यान्नास्ति यथाऽयोगिनां सिद्धानां चेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य | ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यग्दृष्टीनामिव स्यान्नास्ति मिथ्यादृष्टीनामिव, यस्य ज्ञानात्मा तस्यापि योगात्मा स्यादस्ति सयोगि| नामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिवेति, तथा यस्य योगात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव योगिनामित्र यस्य च दर्शनात्मा तस्य योगात्मा | स्यादस्ति योगवतामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिव, तथा यस्य योगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति विरतानामिव स्यान्ना| स्त्यविरतानामिव यस्यापि चारित्रात्मा तस्य योगात्मा स्यादस्ति सयोगचारित्रवतामिव स्यान्नास्त्ययोगिनामिवेति,
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१२ शतके १० उद्देशः द्रव्यात्माद्याः सू ४६७ ज्ञानादिभेदाभेदः
सू ४६८
॥५९०॥
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वाचनान्तरे पुनरिदमेवं दृश्यते-'जस्स चरित्ताया तस्स जोगाया नियमत्ति तत्र च चारित्रस्य प्रत्युपेक्षणादिव्यापार-|3|| रूपस्य विवक्षितत्वात्तस्य च योगाविनाभावित्वात् यस्य चारित्रात्मा तस्य योगात्मा नियमादित्युच्यत इति, तथा यस्य योगात्मा तस्य वीर्यात्माऽस्त्येव योगसद्भावे वीर्यस्यावश्यम्भावात् , यस्य तु वीर्यात्मा तस्य योगात्मा भजनया यतो वीर्यविशेषवान् सयोग्यपि स्याद् यथा सयोगकेवल्यादिः अयोग्यपि स्याद् यथाऽयोगिकेवलीति ५॥ अथोपयोगात्मना | सहान्यानि चत्वारि चिन्त्यन्ते तत्रातिदेशमाह-'जह दवियाये'त्यादि, एवं च भावना कार्या-यस्योपयोगात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृशां, यस्य च ज्ञानात्मा तस्यावश्यमुपयोगात्मा सिद्धा-| नामिवेति १, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव यस्यापि दर्शनात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्वेव यथा सिद्धादीनामिवेति २, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति स्यान्नास्ति यथा संयतानामसंयतानां च, यस्य तु चारित्रात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्येवेति यथा संयतानां ३, तथा यस्योपयोगात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्योपयोगात्माऽस्त्येव संसारिणामिवेति ४ । अथ ज्ञानात्मना सहान्यानि त्रीणि चिन्त्यन्ते-'जस्स नाणे'त्यादि, तत्र यस्य ज्ञानात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव सम्यग्दृशामिव, यस्य च दर्शनात्मा | तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति यथा सम्यग्दृशां स्यान्नास्ति यथा मिथ्यादृशामत एवोक्तं 'भयणाए'त्ति १, तथा 'जस्स 8 नाणाया तस्स चरित्ताया सिय अत्थि'त्ति संयतानामिव 'सिय नत्यि'त्ति असंयतानामिव 'जस्स पुण चरित्ताया
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५९१॥
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| तस्स नाणाया नियमं अस्थि'त्ति ज्ञानं विना चारित्रस्याभावादिति २, तथा 'णाणायेत्यादि अस्यार्थः -यस्य ज्ञानात्मा | तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति केवल्यादीनामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव, यस्यापि वीर्यात्मा तस्य ज्ञानात्मा स्यादस्ति सम्यग्दृष्टेरिव स्यान्नास्ति मिथ्यादृश इवेति ३॥ अथ दर्शनात्मना सह द्वे चिन्त्येते - 'जस्स दंसणाये' त्यादि, भावना चास्य-यस्य दर्शनात्मा | तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति संयतानामिव स्यान्नास्त्यसंयतानामिव, यस्य च चारित्रात्मा तस्य दर्शनात्माऽस्त्येव साधूनामिवेति ?, तथा यस्य दर्शनात्मा तस्य वीर्यात्मा स्यादस्ति संसारिणामिव स्यान्नास्ति सिद्धानामिव यस्य च वीर्यात्मा तस्य दर्शना| त्माऽस्त्वेव संसारिणामिवेति २ ॥ अथान्तिमपदयोर्योजना - 'जस्स चरित्ते 'त्यादि, यस्य चारित्रात्मा तस्य वीर्यात्माऽ - | स्त्येव, वीर्य विना चारित्रस्याभावात् यस्य पुनर्वीर्यात्मा तस्य चारित्रात्मा स्यादस्ति साधूनामिव स्यान्नास्त्यसंयतानामि| वेति ॥ अधुनैषामेवात्मनामल्पबहुत्वमुच्यते - 'सवत्थोवाओ चरितायाओ'त्ति चारित्रिणां सङ्ख्यातत्वात् 'णाणा| याओ अनंतगुणाओ त्ति सिद्धादीनां सम्यग्दृशां चारित्रेभ्योऽनन्तगुणत्वात् 'कसायाओ अनंतगुणाओ'त्ति सिद्धेभ्यः | कषायोदयवतामनन्तगुणत्वात् 'जोगायाओ विसेसाहियाओ'त्ति अपगतकषायोदयैर्योगवद्भिरधिका इत्यर्थः ' वीरियायाओ विसेसाहियाओ'त्ति अयोगिभिरधिका इत्यर्थः, अयोगिनां वीर्यवत्त्वादिति, 'उवओगदद्वियदसणायाओ तिण्णिवि तुल्लाओ विसेसाहियाओ' त्ति परस्परापेक्षया तुल्याः, सर्वेषां सामान्यजीवरूपत्वात् वीर्यात्मभ्यः सकाशा| दुपयोगढव्यदर्शनात्मानो विशेषाधिका यतो वीर्यात्मानः सिद्धाश्च मीलिता उपयोगाद्यात्मानो भवन्ति, ते च वीर्यात्मभ्यः
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१२ शतके
१० उद्देशः
द्रव्यात्मा
द्याः सू ४६७ ज्ञानादिभे
दाभेदः
सू ४६८
॥५९१॥
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सिद्धराशिनाधिका भवन्तीति, भवन्ति चात्र गाथा:-"कोडीसहस्सपुहुत्तं जईण तो थोवियाओं चरणाया । णाणायाऽणतगुणा पडुच्च सिद्धे य सिद्धाओ ॥१॥ होंति कसायायाओऽणतगुणा जेण ते सरागाणं । जोगाया भणियाओ अयो
गिवजाण तो अहिया ॥२॥ जं सेलेसिगयाणवि लद्धी विरियं तओ समहियाओ। उवओगदवियदसण सबजिया णं ततो ६ अहिया ॥३॥” इति ॥ अथात्मन एव स्वरूपनिरूपणायाह-'आया भंते ! नाणे'इत्यादि, आत्मा ज्ञानं योऽयमा-8 त्माऽसौ ज्ञानं न तयोर्भेदः अथात्मनोऽन्यज्ज्ञानमिति प्रश्नः, उत्तरं तु-आत्मा स्याज्ज्ञानं सम्यक्त्वे सति मत्यादिज्ञानस्वभावत्वात्तस्य, स्यादज्ञानं मिथ्यात्वे सति तस्य मत्यज्ञानादिस्वभावत्वात् , ज्ञानं पुनर्नियमादात्मा आत्मधर्मत्वाज्ज्ञानस्य, न च सर्वथा धर्मो धर्मिणो भिद्यते, सर्वथा भेदे हि विप्रकृष्टगुणिनो गुणमात्रोपलब्धौ प्रतिनियतगुणिविषय एव संशयो न स्यात् , तदन्येभ्योऽपि तस्य भेदाविशेषात् , दृश्यते च यदा कश्चिद्धरिततरुतरुणशाखाविसररन्ध्रोदरान्तरतः किमपि | शुक्ल पश्यति तदा किमियं पताका किमियं बलाका ? इत्येवं प्रतिनियतगुणिविषयोऽसौ, नापि धर्मिणो धर्मः सर्वथैवाभिन्नः, सर्वथैवाभेदे हि संशयानुत्पत्तिरेव, गुणग्रहणत एव गुणिनोऽपि गृहीतत्वादतः कथश्चिदभेदपक्षमाश्रित्य ज्ञानं पुनर्नियमादात्मेत्युच्यत इति, इह चात्मा ज्ञानं व्यभिचरति ज्ञानं त्वात्मानं न व्यभिचरति खदिरवनस्पतिवदिति सूत्र
१ यतीनां कोटीसहस्रपृथक्त्वं ततः स्तोकाश्चरणात्मानः ज्ञानात्मानोऽनन्तगुणाः सिद्धाः सिद्धान् प्रतीय ॥१॥ कषायात्मानोऽन-| न्तगुणा भवन्ति यतस्ते सरागाणां ततो योगात्मानोऽधिका अयोगिवा यतो भणिताः॥२॥ यच्छैलेशीगतानामपि लब्धिवीर्य ततस्ते सम-| |धिकाः । उपयोगद्रव्यदर्शनात्मानः सर्वे जीवास्ततोऽधिकाः ॥ ३॥
SARKALIGARHIRGAMACHAR
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सू४६९
व्याख्या
गर्भार्थ इति ॥ अमुमेवार्थ दण्डके निरूपयन्नाह-आये'त्यादि, नारकाणां 'आत्मा' आत्मस्वरूपं ज्ञानं उतान्यन्नारकाणां १२ शतके प्रज्ञप्तिः ज्ञानं ? तेभ्यो व्यतिरिक्तमित्यर्थः इति प्रश्नः, उत्तरं तु आत्मा नारकाणां स्याज्ज्ञानं सम्यग्दर्शनभावात् स्यादज्ञानं ४१० उद्देशः अभयदेवी- है मिथ्यादर्शनभावात् , ज्ञानं पुनः 'सेत्ति तन्नारकसम्बन्धि आत्मा न तद्व्यतिरिक्तमित्यर्थः॥'आया भंते! पुढविक्काइयाण'
रत्नप्रभाधः या वृत्तिः२|| | मित्यादि, 'आत्मा' आत्मस्वरूपमज्ञानमुतान्यत्तत्तेषां ?, उत्तरं तु-आत्मा तेषामज्ञानरूपो नान्यत्तत्तेभ्य इति भावार्थः।
ण्वाद्याश्रिएवं दर्शनसूत्राण्यपि, नवरं सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्ट्योदर्शनस्याविशिष्टत्वादात्मा दर्शनं दर्शनमध्यात्मैवेति वाच्यं, यत्र हि धर्मे
ता भङ्गाः ॥५९२॥
विपर्ययो नास्ति तत्र नियम एवोपनीयते न व्यभिचारो, यथेहैव दर्शने, यत्र तु विपर्ययोऽस्ति तत्र व्यभिचारो नियमश्च| यथा ज्ञाने, आत्मा ज्ञानरूपोऽज्ञानरूपश्चेति व्यभिचारः, ज्ञानं त्वात्मैवेति नियम इति ॥ | आया भंते ! रयणप्पभापु० अन्ना रयणप्पभा पुढवी!, गोयमा! रयणप्पभा सिय आया सिय नो आया| सिय अवत्तवं आयाति य नो आयाइ य, से केणढणं भंते ! एवं वुच्चइ रयणप्पभा पुढवी सिय आया सिय नो आया सिय अवत्तवं आतातिय नो आतातिय ?, गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया परस्स आदिढे नो आया तदुभयस्स आदिट्टे अवत्तवं रयणप्पभा पुढवी आयातिय नो आयाति य से तेणटेणं तं चेव जाव नो आयातिय । आया भंते ! सक्करप्पभा पुढवी जहा रयणप्पभा पुढवी तहा सक्करप्पभाएवि एवं जाव|G अहे सत्तमा । आया भंते ! सोहम्मकप्पे पुच्छा, गोयमा ! सोहम्मे कप्पे सिय आया सिय नो आया जाव ॥५९२॥ नो आयाति य, से केणटेणं भंते ! जाव नो आयातिय ?, गोयमा ! अप्पणो आइडे आया परस्स आइहे ||
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नो आया तदुभयस्स आइडे अवत्तवं आताति य नो आताति य, से तेण?णं तं चेव जाव नो आयाति य, एवं जाव अचुए कप्पे । आया भंते ! गेविजविमाणे अन्ने गेविजविमाणे एवं जहा रयणप्पभा तहेव, एवं अणुत्तरविमाणावि, एवं ईसिपम्भारावि । आया भंते ! परमाणुपोग्गले अन्ने परमाणुपोग्गले ? एवं जहा 8 सोहम्मे कप्पे तहा परमाणुपोग्गलेवि भाणियवे॥आया भंते! दुपएसिए खंधे अन्ने दुपएसिए खंधे ?, गोयमा! दुपएसिए खंधे सिय आया १सिय नोआयासिय अवत्तवं आयाइ यनो आयातिय ३ सिय आया य नो आया य ४ सिय आया य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य ५ सिय नो आया य अवत्तवं आयाति य| नो आयाति य ६, से केणटेणं भंते ! एवं तं चेव जाव नो आयाति य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य |गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया १ परस्स आदिट्टे नो आया २ तदुभयस्स आदिढे अवत्तवं दुपएसिए खंधे || आयाति य नो आयाति य ३ देसे आदि सम्भावपज्जवे देसे आदिट्टे असन्भावपज्जवे दुप्पएसिए खंधे आया | य नो आया य ४ देसे आदितु सम्भावपज्जवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंधे आया य अवत्तवं |आयाइ य नो आयाइ य ५ देसे आदिढे असम्भावपज्जवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे दुपएसिए खंधे नो |आया य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य ६ से तेणटेणं तं चेव जाव नो आयाति य ॥ आया भंते ! |तिपएसिए खंधे अन्ने तिपएसिए खंधे?.गोयमा ! तिपएसिए खंधे सिय आया १सिय नो आया २ सिय अवत्तवं आयाति य नो आयाति य३ सिय आया यनो आया य४ सिय आया य नो आयाओ य ५ सिय
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१२ शतके | १० उद्देशः रत्नप्रभाद्यण्याद्याश्रिता भङ्गाः सू४६९
व्याख्या
द आयाउ य नो आया य ६ सिय आया य अवतवं आयाति य नो आयाति य ७ सिय आयाइय अवत्तवाई प्रज्ञप्तिः
आयाओ य नो आयाओ य ८ सिय आयाओ य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य९सिय नो आया अभयदेवी- 8य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य १० सिय आया य अवत्तवाइं आयाओ य नो आयाओ य ११ या वृत्तिः२ सिय नो आयाओ य अवत्तवं आयाइ य नो आयाइ य १२ सिय आया य नो आया य अवत्तवं आयाइ ॥५९३॥
य नो आयाइ य १३, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ तिपएसिए खंधे सिय आया एवं चेव उच्चारेयवं जाव | सिय आया य नो आया य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य?, गोयमा ! अप्पणो आइहे आया १ परस्स आइडे नो आया २ तदुभयस्स आइडे अवत्तवं आयाति य नो आयाति य ३ देसे आइहे सब्भावपजवे देसे आदिढे असम्भावपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाय नो आया य ४ देसे आदितु सम्भावपज्जवे देसा आइट्ठा असम्भावपजवे तिपएसिए खंधे आया य नो आयाओ य ५ देसा आदिट्ठा सम्भावपज्जवे देसे आदिहे असन्भावपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाओ य नोआया य ६ देसे आदितु सम्भावपजवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य अवत्तवं आयाइ य नो आयाइ य ७ देसे आदितु सम्भावपज्जवे देसा
आदिहा तदुभयपजवा तिपएसिए खंधे आया य अवत्तबाई आयाउ य नो आयाउ य ८ देसा आदिट्ठा |सन्भावपज्जवा देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आयाउ य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य ९ एए तिन्नि भंगा, देसे आदितु असम्भावपजवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे नो आया य
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8|| अवत्तवं आयाइ य नो आयाति य १० देसे आदिढे असम्भावपज्जवे देसा आदिट्ठा तदुभयपजवा तिपएसिए खंधे नो आया य अवत्तबाइं आयाउ य नो आयाउ य ११ देसा आदिवा असम्भावपजवा देसे आदिढ़े तदुभयपनवे तिपएसिए खंधे नो आयाउ य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य १२ देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे आदिढे असम्भावपज्जवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे तिपएसिए खंधे आया य नो आया य अवत्तवं आयाति य नो आया इय १३ सेतेणढणं गोयमा! एवं वुच्चइ तिपएसिए खंधे सिय आया तं चेव जाव नो आयाति य ॥ आया भंते ! चउप्पएसिए खंधे अन्ने० पुच्छा, गोयमा!चउप्पएसिए खंधे सिय आया१सिय नोआया २ सिय अवत्त आयाति य नोआयाति य ३ सिय आया य नो आयाय ४ सिय आया य अवतवं ४ सिय नो आया य अवत्तवं ४ सिय आया यनो आया य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य १६ सिय आया य नो आया य अवत्तबाइं आयाओ य नो आयाओ य १७ सिय आया य नो आयाओ य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य १८ सिय आयाओ य नो आया य अवत्त आयाति य नो आयाति य १९ । से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ चउप्पएसिए खंधे सिय आया य नो आया य अवत्तवं तं चेव अढे पडिउच्चारेयचं ? गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया १ परस्स आदिढे नो आया २ तदुभयस्स आदितु अवत्तवं आयाति य नो आयाति य ३ देसे आदितु सम्भावपजवे देसे आदिढे असम्भावपज्जवे चउभंगो, सम्भावपज्जवेणं तदुभयेण य चउभंगो असम्भावेणं तदुभयेण य चउभंगो, देसे आदिढे सम्भावपज्जवे देसे आदिढे
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सू ४६९
व्याख्या-8 असम्भावपजवे देसे आदितु तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य नो आया य अवत्तवं आयाति य नो १२ शतके प्रज्ञप्तिः आयाति य, देसे आदिट्टे सब्भावपजवे देसे आदितु असम्भावपजवे देसा आदिट्ठा तदुभयपजवा चउप्पएसिए १० उद्देश: अभयदेवी
खंधे भवइ आया य नो आया य अवत्तवाइं आयाओ य नो आयाओ य १७ देसे आदिट्टे सम्भावपजवे देसारलप्रभाद्यया वृत्तिः२॥ आदिवा असम्भावपज्जवा देसे आदितु तदुभयपज्जवे चउप्पएसिए खंधे आया य नो आयाओ य अवत्तवं |
वाद्याश्रि| आयाति य नोआयाति य १७ देसा आइहा सम्भावपज्जवा देसे आइट्टे असम्भावप० देसे आइहे तदुभयपज्जवे
ता भङ्गाः ॥५९४॥
चउप्पएसिए खंधे आयाओ य नोआया य अवत्तवं आयाति य नो आयाति य १९ से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ चउप्पएसिए खंधे सिय आया सिय नो आया सिय अवत्तवं निक्खेवे ते चेव भंगा उच्चारेयवा जाव नो आयाति य॥ आया भंते ! पंचपएसिए खंधे अन्ने पंचपएसिए खंधे ?, गोयमा ! पंचपएसिए खंधे सिय आया १ सिय नो आया २ सिय अवत्तवं आयाति य नो आयाति य ३ सिय आया य नो आया य सिय अवत्तवं ४ नो आया य अवत्तवेण य ४तियगसंजोगे एक्को ण पडइ, से केण?णं भंते ! तं चेव पडिउच्चारेयचं?, गोयमा ! अप्पणो आदिढे आया १ परस्स आदिटेनो आया २ तदभयस्स आदिहे अवत्तवं ३ देसे आदितु सब्भावपज्जवे देसे आदिटे असम्भावपज्जवे एवं दयगसंजोगे सो पडति तियगसंजोगे एको ण
॥५९४॥ व पडइ । छप्पएसियरस सवे पडंति जहा छप्पएसिए एवं जाव अणंतपएसिए । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव | 5 |विहरति ॥ (सूत्रं ४६९)॥दसमो उद्देसो समत्तो ॥ बारसमं सयं समत्तं ॥१२-१०॥
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दिष्ट आदेशे सति तैयपदिष्टा मतदेव बोभयं तदुभयं तव वक्तुं शक्या, परपर्या
आत्माधिकारादत्तप्रभादिभावानात्मत्वादिभावेन चिन्तयन्नाह-'आया भंते!'इत्यादि, अतति-सततं गच्छति तांस्तान पर्यायानित्यात्मा ततश्चात्मा-सद्रूपा रत्नप्रभा पृथिवी 'अन्नत्ति अनात्मा असद्रूपेत्यर्थः 'सिय आया सिय नोआय'त्ति स्यात्सती स्यादसती 'सिय अवत्तवंति आत्मत्वेनानात्मत्वेन च व्यपदेष्टुमशक्यं वस्त्विति भावः, कथमवक्तव्यम् । इत्याह-आत्मेति च नोआत्मेति च वक्तुमशक्यमित्यर्थः, अप्पणो आइडे'त्ति आत्मनः-स्वस्य रत्नप्रभाया एव वर्णादिपर्यायः |'आदिष्टे आदेशे सति तैय॑पदिष्टा सतीत्यर्थः आत्मा भवति,स्वपर्यायापेक्षया सतीत्यर्थः, परस्स आइडे नोआय'त्ति परस्य शर्करादिपृथिव्यन्तरस्य पर्यायैरादिष्टे-आदेशे सति तैर्व्यपदिष्टा सतीत्यर्थः नोआत्मा-अनात्मा भवति, पररूपापेक्षयाड सतीत्यर्थः, 'तदुभयस्स आइहे अवत्तति तयोः-स्वपरयोरुभयं तदेव वोभयं तदुभयं तस्य पर्यायैरादिष्टे-आदेशे सति तदुभयपर्यायैर्व्यपदिष्टेत्यर्थः 'अवक्तव्यम्' अवाच्यं वस्तु स्यात् , तथाहि-न ह्यसौ आत्मेति वक्तुं शक्या, परपर्यायापेक्षयाऽनात्मत्वात्तस्याः, नाप्यनात्मेति वक्तुं शक्या, स्वपर्यायापेक्षया तस्या आत्मत्वादिति, अवक्तव्यत्वं चात्मानात्मशब्दापेक्षयैव न तु सर्वथा, अवक्तव्यशब्देनैव तस्या उच्यमानत्वाद्, अनभिलाप्यभावानामपि भावपदार्थवस्तुप्रभृतिशब्दैरनभिलाप्यशब्देन वाऽभिलाप्यत्वादिति । एवं परमाणुसूत्रमपि ॥ द्विपदेशिकसूत्रे षडू भङ्गाः, तत्राद्यास्त्रयः सकलस्कन्धापेक्षाः पूर्वोक्ता एव तदन्ये तु त्रयो देशापेक्षाः, तत्र च 'गोयमे'त्यत आरभ्य व्याख्यायते-'अप्पणो'त्ति स्वस्य पर्यायैः | |'आदिट्टे'त्ति आदिष्टे-आदेशे सति आदिष्ट इत्यर्थः द्विप्रदेशिकस्कन्ध आत्मा भवति १ एवं परस्य पर्यायैरादिष्टोड़नात्मा २ तदुभयस्य-द्विप्रदेशिकस्कन्धतदन्यस्कन्धलक्षणस्य पर्यायैरादिष्टोऽसाववक्तव्यं वस्तु स्यात्, कथम् !, आत्मेति
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SHOCACASS
१२ शतके १० उदेशः रत्नप्रभाद्यवाद्यानि ता भङ्नाः सू४७०
व्याख्या- चानात्मेति चेति २ तथा द्विप्रदेशत्वात्तस्य देश एक आदिष्टः, सद्भावप्रधानाः-सत्तानुगताः पर्यवा यस्मिन् स सद्भावप्रज्ञप्तिः
पर्यवः, अथवा तृतीयाबहुवचनमिदं स्वपर्यवैरित्यर्थः, द्वितीयस्तु देश आदिष्टः असद्भावपर्यवः परपर्यायरित्यर्थः, परपर्यअभयदेवीHaleवाश्च तदीयद्वितीयदेशसम्बन्धिनो वस्त्वन्तरसम्बन्धिनो वेति, ततश्चासौ द्विप्रदेशिकः स्कन्धः क्रमेणात्मा चेति
नोआत्मा चेति ४, तथा तस्य देश आदिष्टः सद्भावपर्यवो देशश्चोभयपर्यवस्ततोऽसावात्मा चावक्तव्यं चेति ५, तथा ५९५॥
तस्यैव देश आदिष्टोऽसद्भावपर्यवो देशस्तूभयपर्यवस्ततोऽसौ नोआत्मा चावक्तव्यं च स्यादिति ६, सप्तमः पुनरात्मा च नोआत्मा चावक्तव्यं चेत्येवंरूपो न भवति द्विप्रदेशिक व्यंशवादस्य त्रिप्रदेशिकादौ तु स्यादिति सप्तभङ्गी ॥ त्रिप्रदेशिकस्कन्धे तु त्रयोदश भङ्गास्तत्र पूर्वोक्तेषु सप्तस्वाद्याः सकलादेशास्त्रयस्तथैव, तदन्येषु तु त्रिषु त्रयस्त्रय एकवचनबहुवचनभेदात्, सप्तमस्त्वेकविध एव, स्थापना चेयम्| यच्चेह प्रदेशद्वयेऽप्येकवचनं क्वचित्तत्तस्य प्रदेशद्वयस्यैकप्रदेशावगाढत्वादिहेतुनैक- - | त्वविवक्षणात्, भेदविवक्षायां च बहुवचनमिति ॥ चतुष्पदेशिकेऽप्येवं नवरमे-- | कोनविंशतिर्भङ्गाः, तत्र त्रयः सकलादेशाः तथैव शेषेषु चतुर्पु प्रत्येकं चत्वारो |विकल्पाः,ते चैवं चतुर्थादिषु त्रिषु-: सप्तमस्त्वेवम्- पश्चप्रदेशिके तु द्वाविंशतिस्तत्राद्यास्त्रयस्तथैव, तदुत्तरेषु च त्रिषु प्रत्येकं चत्वारो
अब
नो
॥५९५॥
ADOSAMA
भा.
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विकल्पास्तथैव, सप्तमे तु सप्त, तत्र त्रिकसंयोगे किलाष्टौ भङ्गका भवन्ति, तेषु च सप्तैवेह ग्राह्या एकस्तु तेषु न पतत्य स - म्भवात् इदमेवाह - 'तिगसंजोगे' त्यादि, तत्रैतेषां स्थापना - 2 | यश्च न पतति स पुनरयम् २२२ षट्प्रदेशिके त्रयोविंशतिरिति ॥ द्वादशशते दशमः ॥ १२-१० ॥ समाप्तं च द्वादशशतविवरणम् ॥ १२ ॥ गम्भीररूपस्य महोदधेर्यत्पोतः परं पारमुपैति मञ्जु । गतावशक्तोऽपि निजप्रकृत्या, कस्याप्यदृष्टस्य विजृम्भितं तत् ॥ १ ॥
व्याख्यातं द्वादशं शतं, तत्रचानेकधा जीवादयः पदार्था उक्ताः, त्रयोदशशतेऽपि त एव भयन्तरेणोच्यन्त इत्येवंसम्बन्धमिदं व्याख्यायते, तत्र पुनरियमुद्देशकसङ्ग्रहगाथा -
पुढवी १ देव २ मणंतर ३ पुढवी ४ आहारमेव ५ उववाए ६ । भासा ७ कम ८ अणगारे केयाघडिया ९ समुग्धाए १० ॥ रायगिहे जाव एवं व्यासी -कति णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ ?, गोयमा ! सत्त पुढवीओ पन्नत्ताओ, तंजहा - रयणप्पभा जाव अहेसत्तमा । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए केवतिया निरयावाससय सहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा ! तीसं निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता, ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा असंखेज्जवित्थडा ?, गोयमा ! संखेज्जवित्थडावि असंखेज्जवित्थडावि, इमी से णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए | तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस एगसमएणं केवतिया नेरइया उववजंति ११ केवतिया
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- C
व्याख्या- काउलेस्सा उववजति २१ केवइया कण्हपक्खिया उववजति ३? केवतिया सुक्कपक्खिया उववजंति ४? केव- १३ शतके प्रज्ञप्तिःतिया सन्नी उववजंति ५? केवतिया असन्नी उववजंति ६ ? केवतिया भवसिद्धीया उव०७? केवतिया १ उद्देशः अभयदेवी- अभवसिद्धीया उवव०८? केवतिया आभिणिबोहियनाणी अव०९? केवइया सुयनाणी उव०१०? केव-हारत्नप्रभादिया वृत्तिः२ इया ओहिनाणी उववजंति ११ ? केवइया मइअन्नाणी उवव०१२ ? केवइया सुयअन्नाणी उव. १३ ? केव
पूत्पादः
१ कर सू ४७० ॥५९६॥
इया विभंगनाणी उवव०१४ ? केवइया चक्खुदंसणी उव०१५ ? केवइया अचक्खुदंसणी उवव० १६१] केवड्या ओहिदंसणी उवव०१७ ? केवइया आहारसन्नोवउत्ता उवव० १८ ? केवइया भयसन्नोवउत्ता उव० १९ ? केवड्या मेहुणसन्नोवउत्ता उवव २०? केवइया परिग्गहसन्नोवउत्ता उवव० २१ ? केवइया इत्थि-| वेयगा उवव. २२ ? केवइया पुरिसवेदगा उवव० २३ ? केवइया नपुंसगवेदगा उवव० २४ ? केवइया कोहकसाई उवव० २५ ? जाव केवइया लोभकसायी उवव० २८ ? केवइया सोइंदियउवउत्ता उव. २९ ? जाव केवइया फासिंदियोवउत्ता उव० ३३ ? केवइया नोइंदियोवउत्ता उव० ३४ ? केवतिया मणजोगी उवव० ३५? केवतिया वइजोगी उवव०३६ ? केवतिया कायजोगी उवव. ३७ ? केवतिया सागारोवउत्ता उवव० ३८१ केवतिया अणागारोवउत्ता उवव० ३९१, गोधमा! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयस- ॥५९६॥ हस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएसु जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा नेरइया उवव०, जह-|| नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्को संखेजा काउलेस्सा उव०, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं
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संखेजा कण्हपक्खिया उव०, एवं सुक्कपक्खियावि, एवं सन्नी एवं असन्नीवि एवं भवसिद्धीया एवं अभवसिद्धिया आभिणियोहियना० सुयना. ओहिना० मइअन्नाणी सुयअन्नाणी विभंगना० चक्खुदंसणी ण | उवव० जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसे० संखे० अचक्खुदंसणी उवव० एवं ओहिदंसणीवि आहारसन्नोवउत्तावि जाव परिग्गहसन्नोवउ. इत्थीवेयगा न उव. पुरिसवेयगावि न उव० जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा नपुंसगवेदगा उवव० एवं कोहकसाईजाव लोभ० सोइंदियउवउत्ता न उवव० एवं जाव फासिंदिओवउत्ता न उवव० जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा नोइंदि
ओवउत्ता उववजंति मणजोगीण उववजंति एवं वइजोगीवि जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं * संखेज्जा कायजोगी उववजंति एवं सागारोवउत्तावि एवं अणागारोवउत्तावि ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्प-| |भाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएम एगसमएणं केवइया नेरइया उववइंति ? केवतिया काउलेस्सा उववटुंति ? जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उबटुंति ?, गोयमा! इमीसेणं रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेन्जवित्थडेसु नरएसु एगसमएणं जहन्नेणं एक्को वादोवा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा नेरइया उववति, एवं जाव सन्नी, असन्नी ण उबटुंति, जहन्नेणं एको वा दो वा |तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा भवसिद्धीया उबटुंति एवं जाव सुयअन्नाणी विभंगनाणी ण उववहृति, चक्खु|दसणी ण उच्चसृति, जहन्नेणं एको वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा अचक्खुदंसणी उवदंति, एवं जाव
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१२ शतके १ उद्देशः रत्नप्रभादिपूत्पादः
सू४७०
व्याख्या
18 लोभकसायी, सोइंदियउवउत्ता ण उबटुंति एवं जाव फासिदियोवउत्ता न उच्वटुंति, जहन्नेणं एको वा दो वा प्रज्ञप्तिः
तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा नोइंदियोवउत्ता उन्मुति मणजोगी न उव्वदंति एवं वइजोगीवि जहन्नेणं एको| अभयदेवी-
II वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा कायजोगी उबटुंति एवं सागारोवउत्ता अणागारोवउत्ता ॥ इमीसे णं| या वृत्तिः२४ भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएसु केवइया नेरइया
द पन्नत्ता ? केवइया काउलेस्सा जाव केवतिया अणागारोवउत्ता पन्नत्ता? केवतिया अणंतरोववन्नगा पन्नत्ता ११ ॥५९७॥
केवइया परंपरोववन्नगा पन्नत्ता २? केवइया अणंतरोगाढा पन्नत्ता ३? केवइया परंपरोगाढा प०४ ? केवइया अणंतराहारा पं०५ ? केवतिया परंपराहारा ६? केवतिया अणंतरपज्जत्ता प०७? केवतिया परंपरपजत्ता पन्नत्ता ८१ केवतिया चरिमा प०९ ? केवतिया अचरिमा पं० १०१, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु संखेजवित्थडेसु नरएम संखेजा नेरतिया प० संखेजा काउलेसा प० एवं जाव संखेजा सन्नी प०, असन्नी सिय अस्थि सिय नत्थि जइ अत्धि जहन्नेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा प०, संखेजा भवसिद्धी प० एवं जाव संखेजा परिग्गहसन्नोवउत्ता प० इथिवेदगा नत्थि पुरिसवेदगा नत्थि संखेजा नपुंसगवेदगा प०, एवं कोहकसायीवि मानकसाई जहा असन्नी एवं जाव लोभक० |संखेजा सोइंदियोवउत्ता प० एवं जाव फासिंदियोवउत्ता नोइंदियोवउत्ता जहा असन्नी संखेज्जा मणजोगी |प० एवं जाव अणागारोवउत्ता, अणंतरोववन्नगा सिय अस्थि सिय नत्थि जइ अत्थि जहा असन्नी, संखेजा
॥५९७॥
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परंपरोववन्न प०, एवं जहा अणंतरोववन्नगा तहा अणंतरोगाढगा अणंतराहारगा अणंतरपजत्तगा परंपरोगाढगा जाव अचरिमा जहा परंपरोववन्नगा ॥ इमीसे गं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेजवित्थडेसु एगसमएणं केवतिया नेरइया उववजंति जाव केवतिया अणागारोवउत्ता उववजंति ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयसहस्सेसु असंखेजवित्थडेसु नरएम एगसमएणं जह० एको वा दो वा तिन्नि वा उक्को० असंखेजा नेरइया उवव०, एवं जहेव संखेजवित्थडेसु तिन्नि गमगा तहा असंखेजवित्थडेसुवि तिन्नि गमगा, नवरं असंखेजा भा० सेसं तं चेव जाव असंखेजा अचरिमा प०, नाणत्तं लेस्सासु, लेसाओ जहा पढमसए नवरं संखेजवित्थडेसुवि असंखेजवित्थडेसुवि ओहिनाणी ओहिदसणी य संखेजा उच्चट्टावेयवा, सेसं तं चेव ॥ सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास. पुच्छा, गोयमा ! पणवीसं निरयावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा एवं जहा रयणप्पभाए तहा सक्करप्पभाएवि, नवरं असन्नी तिसुवि गमएसु न भन्नति, सेसं तं चेव । वालुयप्पभाए णं पुच्छा, गोयमा ! पन्नरस निरयावाससयसहस्सा प० सेसं जहा सकरप्पभाए णाणत्तं | लेसासु लेसाओ जहा पढमसए ॥ पंकप्पभाए पुच्छा,गोयमा!दस निरयावास०, एवं जहा सक्करप्पभाए नवरं
ओहिनाणी ओहिदंसणी य न उच्चदृति, सेसं तं चेव॥ धूमप्पभाए णं पुच्छा, गोयमा ! तिन्नि निरयावाससयसहस्सा एवं जहा पंकप्पभाए ॥ तमाए णं भंते ! पुढवीए केवतिया निरयावास० पुच्छा, गोयमा ! एगे पंचूणे
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥५९८॥
| निरयावाससयस हस्से पण्णत्ते, सेसं जहा पंकप्पभाए ॥ अहेसत्तमाएं णं भंते ! पुढवीए कति अणुत्तरा मह - तिमहालया महानिरया पन्नत्ता १, गोयमा ! पंच अणुत्तरा जाव अपइट्ठाणे, ते णं भंते । किं संखेज्जवित्थडा 4 असंखेज्जवित्थडा ?, गोयमा ! संखेजवित्थडे य असंखेज्जवित्थडा य, अहेसत्तमाएं णं भंते ! पुढवीए पंचसु अणुसरेमु महतिमहालया जाब महानिरएस संखेजवित्थडे नरए एगसमएणं केवतिया उव० १, एवं जहा | पंकप्पभाए नवरं तिसु नाणेसु न उवव० न उछट्ट०, पन्नत्त एस तहेव अस्थि, एवं असंखेज्ज वित्थडे सुवि नवरं असं| खेजा भाणिया ॥ (सूत्रं ४७० ) ॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससय सहस्सेसु संखेजवि' नरएस किं सम्मद्दिट्ठी नेरतिया उवव० मिच्छदिट्ठी ने० उव० सम्मामिच्छदिट्ठी नेर० उव० १, | गोयमा ! सम्मदिट्ठीवि नेरइया उव० मिच्छादिट्ठीवि नेरइया उव० नो सम्मामिच्छदिट्ठी उव० । इमीसे णं भंते! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावाससयस हस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु नरएस किं सम्मदिट्ठी नेर० | उति एवं चेव । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरयावास सय सहस्सेसु संखेज्जवित्थडा | नरगा किं सम्मदिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया मिच्छादिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया सम्मामिच्छदिट्ठीहिं नेरइएहिं अविरहिया वा ?, गोयमा ! सम्मद्दिट्ठीहिंवि नेरइएहिं अविरहिया मिच्छादिट्ठीहिवि अविरहिया सम्मामिच्छादिट्ठीहिं अविरहिया विरहिया वा, एवं असंखेज्ज वित्थडे सुवि तिन्नि गमगा भाणियन्वा, एवं सक्करप्पभाएवि एवं जाव तमाएवि । अहेसत्तमाए णं भंते! पुढवीए पंचसु अणुत्तरेसु जाव संखेज्जवित्थडे
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१२ शतके
|१ उद्देशः रत्नप्रभादिधूत्पादः
सू ४७१
॥५९८॥
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नरए किं सम्मद्दिट्ठीनेरइया पुच्छा, गोयमा ! सम्मट्टिीनेरइया न उवव० मिच्छादिट्ठीनेरइया उवव० सम्मा|| मिच्छदिट्ठी नेरइया न उवव० एवं उच्चट्टतिवि अविरहिए जहेव रयणप्पभाए, एवं असंखेजवित्थडेसुवि तिन्नि ||
गमगा (सूत्रं ४७१) सेनूणं भंते ! कण्हलेस्से नीललेस्सेजाव सुक्कलेस्से भवित्ता कण्हलेस्सेसुनेरइएसु उवव०,15 हंता गोयमा! कण्हलेस्से जाव उववजंति, सेकेण?णं भंते ! एवं वुच्चइ कण्हलेस्से जाव उववजंति?, गोयमा! | लेस्सट्टाणेसु संकिलिस्समाणेसु संकि०२ कण्हलेसं परिणमइ कण्ह०२ कण्हलेसेसु नेरइएसु उववजंति से| तेणटेणं जाव उववर्जति । से नूर्ण भंते ! कण्हलेस्से जाव सुकले से भवित्ता नीललेस्सेसु नेरइएसु उववजंति ?, हंता गोयमा ! जाव उववजंति, से के ण?णं जाव उववजंति ?, गोयमा! लेस्सहाणेसु संकिलि-18 |स्समाणेसु वा विसुज्झमाणेसु नीललेस्सं परिणमंति नील. २ नीललेस्सेसु नेरइएसु उवव० से तेण?णं है गोयमा ! जाव उवव०, से नूणं भंते ! कण्हलेस्से नील जाव भवित्ता काउलेस्सेसु नेरइएसु उवव० एवं | | जहा नीललेस्साए तहा काउलेस्सावि भाणियबा जाव से तेणटेणं जाव उववजंति । सेवं भंते ! सेवं| भंते ! (सूत्रं ४७२)॥१३-१॥
'पुढवी'त्यादि, 'पुढवी'ति नरकपृथिवीविषयः प्रथमः १, 'देव'त्ति देवप्ररूपणार्थो द्वितीयः २'अणंतर'त्ति अनन्तराहारा नारका इत्याद्यर्थः प्रतिपादनपरस्तृतीयः ३, 'पुढवित्ति पृथिवीगतवक्तव्यताप्रतिबद्धश्चतुर्थः ४, 'आहार'त्ति नारकाद्याहारप्ररूपणार्थः पञ्चमः ५, 'उववाए'त्ति नारकाद्युपपातार्थः षष्ठः ६, "भास'त्ति भाषार्थः सप्तमः ७ 'कम्म'त्ति ||
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४१३ शतक
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
देश रत्नप्रभादिघूत्पादः लेश्याश्च सू ४७२
॥५९९॥
हो पोरगलपलक्यानवाश्रित्य लेसा उपवन समुग्यापति
कर्मप्रकृतिप्ररूपणार्थोऽष्टमः ८, 'अणगारे केयाघडिय'त्ति अनगारो-भावितात्मा लब्धिसामर्थ्यात् 'केयाघडिय'त्ति रज्जुबद्धघटिकाहस्तः सन् विहायसि ब्रजेदित्याद्यर्थप्रतिपादनार्थो नवमः ९,'समुग्धाए'त्ति समुद्घातप्रतिपादनार्थो दशम इति । तत्र प्रथमोदेशके किंञ्चिल्लिख्यते-केवइया काउलेसा उववर्जति'त्ति रत्नप्रभापृथिव्यां कापोतलेश्या एवोत्प- द्यन्ते न कृष्णलेश्यादय इति कापोतलेश्यानेवाश्रित्य प्रश्नः कृत इति । 'केवइया कण्हपक्खिए'इत्यादि, एषां च | लक्षणमिदं-"जेसिमवड्डो पोग्गलपरियट्टो सेसओ उ संसारो । ते सुक्कपक्खिया खलु अहिगे पुण कण्हपक्खीया ॥१॥" [येषामपार्धः पुद्गलपरावतः शेषः संसारः ते शुक्लपाक्षिकाः खलु अधिके पुनः कृष्णपाक्षिकाः ॥१॥] इति । 'चक्खुदंसणी न उववजंति'त्ति इन्द्रियत्यागेन तत्रोत्पत्तेरिति, तर्हि अचक्षुदर्शनिनः कथमुत्पद्यन्ते ?, उच्यते, इन्द्रियानाश्रि तस्य सामान्योपयोगमात्रस्याचक्षुर्दर्शनशब्दाभिधेयस्योत्पादसमयेऽपि भावादचक्षुर्दर्शनिन उत्पद्यन्त इत्युच्यत इति, 'इत्थीवेयगे'त्यादि, स्त्रीपुरुषवेदा नोत्पद्यन्ते भवप्रत्ययान्नपुंसकवेदत्वात्तेषां, 'सोइंदिओवउत्ता'इत्यादि श्रोत्राद्युपयुक्ता नोत्पद्यन्ते इन्द्रियाणां तदानीमभावात् 'नोइंदिओवउत्ता उववजंति'त्ति नोइन्द्रियं-मनस्तत्र च यद्यपि मनःपर्यायभावे द्रव्यमनो नास्ति तथाऽपि भावमनसश्चैतन्यरूपस्य सदा भावात्तेनोपयुक्तानामुत्पत्ते!इन्द्रियोपयुक्ता उत्पद्यन्त | इत्युच्यत इति, 'मणजोगी'त्यादि मनोयोगिनो वाग्योगिनश्च नोत्पद्यन्ते, उत्पत्तिसमयेऽपर्याप्तकत्वेन मनोवाचोरभावादिति, 'कायजोगी उववज्जति'त्ति सर्वसंसारिणां काययोगस्य सदैव भावादिति ॥ अथ रत्नप्रभानारकाणामेवोद्वर्त्तनामभिधातुमाह-'इमीसे ण'मित्यादि, 'असन्नीन उववदृति'त्ति उद्धर्तना हि परभवप्रथसमये स्यात् न च नारका अस-|
॥५९९॥
RECENTER
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ज्ञिषूत्पद्यन्तेऽतस्तेऽसज्ञिनः सन्तो नोद्वर्त्तन्त इत्युच्यते, एवं 'विभंगनाणी न उववहंती' त्यपि भावनीयं, शेषाणि तु | पदान्युत्पादवद्व्याख्येयानि, उक्तञ्च चूर्ण्यम् - "असन्निणो य बिब्भंगिणो य उबट्टणाइ वज्जेज्जा । दोसुवि य चक्खुदंसणी मणवइ तह इंदियाई वा ॥ १ ॥” इति ॥ अनन्तरं रत्नप्रभानारकाणामुत्पादे उद्वर्त्तनायां च परिमाणमुक्तमथ तेषामेव | सत्तायां तदाह - 'इमीसे ण'मित्यादि, 'केवइया अणंतरोववन्नग'त्ति कियन्तः प्रथमसमयोत्पन्नाः १ इत्यर्थः ' परंपरोववन्नग'त्ति उत्पत्तिसमयापेक्षया व्यादिसमयेषु वर्त्तमानाः 'अनंतरावगाढ'त्ति विवक्षितक्षेत्रे प्रथमसमयावगाढाः 'परं | परोगाढ'त्ति विवक्षितक्षेत्रे द्वितीयादिकः समयोऽवगाढे येषां ते परम्परावगाढा: 'केवइया चरिम'त्ति चरमो नारकभवेषु स एव भवो येषां ते चरमाः, नारकभवस्य वा चरमसमये वर्त्तमानाश्चरमाः, अचरमास्त्वितरे, 'असन्नी सिय अस्थि |सिय नत्थिति असञ्ज्ञिभ्य उद्धृत्य ये नारकत्वेनोत्पन्नास्तेऽपर्याप्तकावस्थायामसञ्ज्ञिनो भूतभावत्वात्ते चाल्पा इति कृत्वा 'सिय अत्थी' त्याद्युक्तं, मानमायालोभकषायोपयुक्तानां नोइन्द्रियोपयुक्तानामनन्तरोपपन्नानामनन्तरावगाढानामनन्तराहारकाणामनन्तरपर्याप्तकानां च कादाचित्कत्वात् 'सिय अस्थि' इत्यादि वाच्यं, शेषाणां तु बहुत्वात्सङ्ख्याता इति वाच्यमिति ॥ अनन्तरं सङ्ख्यातविस्तृतनरकावासनारक वक्तव्यतोक्ता, अथ तद्विपर्ययवक्तव्यतामभिधातुमाह'इमी से ण' मित्यादि, 'तिन्नि गमग'त्ति 'उववज्वंति उद्यहंति पन्नत्त'त्ति एते त्रयो गमाः, 'ओहिनाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा उच्चट्टावेयवत्ति, कथं ?, ते हि तीर्थङ्करादय एव भवन्ति, ते च स्तोकाः स्तोकत्वाच्च सङ्ख्याता एवेति, 'नवरं असन्नी तिसुवि गमएसु न भन्नति' कस्मात् ?, उच्यते-असज्ञिनः प्रथमायामेवोत्पद्यन्ते 'असन्नी खलु पढमं' इति वचना
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
||६००॥
दिति, 'णाणत्तं लेसासु लेसाओ जहा पढमसए' त्ति, इहाद्यपृथिवीद्वयापेक्षया तृतीयादिपृथिवीषु नानात्वं लेश्यासु | भवति, ताश्च यथा प्रथमशते तथाऽध्येयाः, तत्र च सङ्ग्रहगाथेयं - "काऊ दोसु तइयाइ मीसिया नीलिया चउत्थीए । | पंचमियाए मीसा कण्हा तत्तो परमकण्हा ॥ १ ॥” [द्वयोः कापोता तृतीयायां मिश्रा चतुर्थ्यां नीला पञ्चम्यां मिश्रा | कृष्णा ततः परमकृष्णा ॥ १ ॥ ] इति 'नवरं ओहिनाणी ओहिदंसणी यन उववज्रंति'त्ति, कस्मात् ?, उच्यते, ते हि प्रायस्तीर्थकरा एंव, ते च चतुर्थ्या उद्वृत्ता नोत्पद्यन्त इति, 'जाव अपट्टाणे'त्ति इह यावत्करणात् 'काले | महाकाले रोरुए महारोरुए' त्ति दृश्यम्, इह च मध्यम एव सङ्ख्येयविस्तृत इति, 'नवरं तिसु णाणेसु न उववज्जंति न उच्छति'त्ति सम्यक्त्वस्वष्टानामेव तत्रोत्पादात् तत उद्वर्त्तनाच्चाद्येषु त्रिषु ज्ञानेषु नोत्पद्यन्ते नापि चोद्वर्त्तन्त इति 'पन्नत्तासु तहेव अस्थि'त्ति एतेषु पञ्चसु नरकावासेषु कियन्त आभिनिवोधिकज्ञानिनः श्रुतज्ञानिनोऽवधिज्ञानिनश्च प्रज्ञप्ताः ? इत्यत्र तृतीयगमे तथैव - प्रथमादिपृथिवीष्विव सन्ति, तत्रोत्पन्नानां सम्यग्दर्शनलाभे अभिनिबोधिकादिज्ञानत्रयभावादिति ॥ अथ रत्नप्रभादिनारक वक्तव्यतामेव सम्यग्दृष्ट्यादीनाश्रित्याह - 'इमीसे ण' मित्यादि, 'नो सम्मामिच्छादिट्ठी उववजंति'त्ति "न सम्ममिच्छो कुणइ काल" [ सम्यग्मिथ्यादृग् न करोति कालम् ] मिति वचनात् मिश्रहष्टयो न म्रियन्ते नापि तद्भवप्रत्ययं तेषामवधिज्ञानं स्यात् येन मिश्रदृष्टयः सन्तस्ते उत्पद्येरन्, 'सम्मामिच्छदिट्ठीहिं नेर| इएहिं अविरहिया विरहिया व'त्ति कादाचित्कत्वेन तेषां विरह संम्भवादिति ॥ अथ नारक वक्तव्यतामेव भज्ञयन्तरेणाह - | 'से नूण' मित्यादि, 'लेसट्ठाणेसु'त्ति लेश्याभेदेषु 'संकिलिस्समाणेसु'त्ति अविशुद्धिं गच्छत्सु 'कण्हलेसं परिणमद्दत्ति
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१२ शतके १० उद्देशः रत्नप्रभादि
षूत्पादः लेश्याश्च
सू ४७२
॥६८०॥
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कृष्णलेश्यां याति ततश्च 'कण्हलेसे'त्यादि । 'संकिलिस्समाणेसु वा विसुद्धमाणेसु वत्ति प्रशस्तलेश्यास्थानेषु अवि-II 8 शुद्धिं गच्छत्सु अप्रशस्तलेश्यास्थानेषु च विशुद्धिं गच्छत्सु, नीललेश्यां परिणमतीति भावः॥ त्रयोदशशते प्रथमः ॥१३-१॥
प्रथमोद्देशके नारका उक्ताः द्वितीये त्वौपपातिकत्वसाधाद्देवा उच्यन्ते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदं सूत्रम्कइविहा णं भंते ! देवा पण्णत्ता ?, गोयमा!चउबिहा देवा पन्नत्ता, तंजहा-भवणवासी वाणमंतरा जो वेमा। भवणवासी णं भंते ! देवा कतिविहा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दसविहा पण्णत्ता, तंजहा-असुरकुमारा एवं भेओ जहा बितियसए देवुद्देसए जाव अपराजिया सबट्ठसिद्धगा । केवइया णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा! चोसर्हि असुरकुमारावाससयसहस्सा पण्णत्ता, तेणं भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेजवि.?, गोयमा ! संखेजवित्थडावि असंखेजवि०, चोसट्ठी णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु एगसमएणं केवतिया असुरकुमारा उवव० जाव केवतिया तेउलेसा उवव. केवतिया कण्हपक्खिया उववजंति एवं जहा रयणप्पभाए तहेव पुच्छा तहेव वागरणं नवरं दोहिं वेदेहिं उववनंति, नपुंसगवेयगा न उवव०, सेसं तं०, उच्चदंतगावि तहेव नवरं असन्नी उच्चदंति, ओहिनाणी ओहिदसणी य ण उच्चति, सेसं तं चेव, पन्नत्तएसु तहेव नवरं संखेजगा इथिवेदगा पण्णत्ता एवं पुरिसवेदगावि, नपुंसगवेदगा नत्थि, कोहकसाई सिय अस्थि सिय नत्थि जइ अस्थि जहर
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व्या.१.१ Jain Education Internetonal
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवी
या वृत्तिः २
॥ ६०१ ॥
एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा पण्णत्ता एवं माण माया संखेज्जा लोभकसाई पण्णत्ता सेसं तं चैव तिसुवि गमएसु संखेज्जेसु चत्तारि लेस्साओ भाणियवाओ, एवं असंखेज्जवित्थडेसुवि नवरं तिसुवि गम| एसु असंखेजा भाणियवा जाव असंखेज्जा अचरिमा पण्णत्ता । केवतिया णं भंते ! नागकुमारावास० ? एवं | जाव थणियकुमारा नवरं जत्थ जत्तिया भवणा ॥ केवतिया णं भंते ! वाणमंतरावाससय सहस्सा पन्नत्ता ?, | गोयमा ! असंखेज्जा वाणमंतरावाससयसहस्सा पन्नत्ता, ते णं भंते । किं संखेज्जवित्थडा असंखेजवित्थडा ?, गोयमा ! संखेज्जवित्थडा नो असंखेज्जवित्थडा, संखेज्जेसु णं भंते ! वाणमंतरावाससयसहस्सेसु एगसमएणं | केवतिया वाणमंतरा उवव० १, एवं जहा असुरकुमाराणं संखेज्जवित्थडेसु तिम्न्नि गमगा तहेव भाणियवा वाणमंतराणवि तिन्नि गमगा । केवतिया णं भंते! जोतिसियविमाणावाससय सहस्सा पण्णत्ता ?, गोयमा ! | असंखेज्जा जोइसियविमाणावासस्यसहस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा० १, एवं जहा | वाणमंतराणं तहा जोइ सियाणवि तिन्नि गमगा भाणियवा नवरं एगा तेउलेस्सा, उववजंतेसु पन्नत्तेसु य असन्नी नत्थि, सेसं तं चैव ॥ सोहम्मे णं भंते ! कप्पे केवतिया विमाणावाससय सहस्सा पन्नत्ता ?, गो | यमा ! बत्तीसं विमाणावाससयसहस्सा पण्णत्ता, ते णं भंते! किं संखेज्जवित्थडा असंखेज्जवित्थडा ?, गो | यमा ! संखेज्जवित्थडावि असंखेजवित्थडावि, सोहम्मे णं भंते ! कप्पे बत्तीसार विमाणावाससय सहस्से सु संखेजवित्थडेसु विमाणेसु एगसमएणं केवतिया सोहम्मा देवा उववजंति ? केवतिया तेउलेसा उववजंति ?
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१३ शतके २ उद्देशः देवेष्वावासोत्पादादि सू ४७३
॥६०१॥
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एवं जहा जोइसियाणं तिन्नि गमगा तहेव तिन्नि गमगा भाणियवा नवरं तिसुवि संखेज्जा भाणियवा, ओहिनाणी ओहिदसणी य चयावेयवा, सेसं तं चेव । असंखेजवित्थडेसु एवं चेव तिन्नि गमगा णवरं तिसु-12 वि गमएसु असंखेजा भाणियचा, ओहिनाणी य ओहिदसणी य संखेजा चयंति, सेसं तं चेव, एवं जहा सोहम्मे वत्तवया भणिया तहा ईसाणेवि छ गमगा भाणियवा, सणंकुमारे एवं चेव नवरं इत्थीवेयगा न उववजंति पन्नत्तेसु य न भण्णंति, असन्नी तिसुवि गमएसु न भण्णंति, सेसं तं चेव, एवं जाव सहस्सारे, नाणत्तं विमाणेसु लेस्सासु य, सेसं तं चेव ॥ आणयपाणयेसु णं भंते ! कप्पेसु केवतिया विमाणावाससया पण्णत्ता ?, गोयमा ! चत्तारि विमाणावाससया पण्णत्ता, ते णं भंते !किं संखेज असंखे० गोयमा! संखेजवित्थ० असंखेजवि० एवं संखेजवित्थडेसु तिन्नि गमगा जहा सहस्सारे असंखेजवित्थडे० उववजंतेसु य चयंतेसु य एवं चेव संखेजा भाणियवा पन्नत्तेसु असंखेजा नवरं नोइंदियोवउत्ता अणंतरोववन्नगा अणंतरोगाढगा अणंतराहारगा अणंतरपज्जत्तगाय एएसिं जहन्नेणं एक्को वा दोवा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेजा पं० सेसा असंखेजा भाणियवा । आरणचुएमु एवं चेव जहा आणयपाणएसु नाणत्तं विमाणेसु, एवं गेवेजगावि । कति णं भंते ! अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता ?, गोयमा ! पंच अणुत्तरविमाणा पन्नत्ता, ते णं भंते ! किं संखेजवित्थडा असंखेजवित्थडा ?, गोयमा ! संखेजवित्थडे य असंखेजवित्थडा य, पंचसु णं भंते ! अणुत्तरवि5 माणेसु संखेजवित्थडे विमाणे एगसमएणं केवतिया अणुत्तरोववाइया देवा उवव० ?, केवतिया सुक्कलेस्सा
Free असंखेजवि० एवं संखेनावित्या पन्नत्तम असंखेजा नवरं नोइंदियोवनवाउकोसेणं संखेना पं०
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥ ६०२॥
उवव० ? पुच्छा, तहेव गोयमा ! पंचसु णं अणुत्तरविमाणेसु संखेज्जवित्थडे अणुत्तरविमाणे एगसमएणं जह एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं संखेज्जा अणुत्तरोववाइया देवा उववजंति एवं जहा गेवेज़विमाणेसु संखेजवित्थडेसु नवरं किण्हपक्खिया अभवसिद्धिया तिसु अन्नाणेसु एए न उववजंति न चयंति न पन्नत्त| एसु भाणियद्वा अचरिमावि खोडिज्जति जाव संखेज्जा चरिमा पं० सेसं तं, असंखेजवित्थडेसुवि एए न भन्नंति नवरं अचरिमा अस्थि, सेसं जहा गेवेज्जएस असंखेज्जवित्थडेसु जाव असंखेजा अचरिमा प० । चोसट्ठीए णं भंते ! असुरकुमारावाससयसहस्सेसु संखेज्जवित्थडेसु असुरकुमारावासेसु किं सम्मद्दिट्ठी असुरकु मारा उवव०मिच्छादिट्ठी एवं जहा रयणप्पभाए तिन्नि आलावगा भणिया तहा भाणियवा, एवं असंखेज्ज| वित्थडेसुवि तिन्नि गमगा, एवं जाव गेवेज्जवि० अणुत्तरवि० एवं चेव, नवरं तिसुवि आलावएसु मिच्छादिट्ठी सम्मामिच्छादिट्ठी य न भन्नंति, सेसं तं चेव । से नूणं भंते ! कण्हलेस्सा नीलजाव सुक्कलेस्से भवित्ता | कण्हलेस्सेसु देवेसु उवव० ?, हंता गोयमा ! एवं जहेव नेरइएस पढमे उद्देसए तहेव भाणियां, नीललेसाएवि जहेब नेरइयाणं जहा नीललेस्साए, एवं जाव पम्हलेस्सेसु सुक्कलेस्सेसु एवं चेव, नवरं लेस्सट्ठाणेसु विमुज्झ| माणेसु वि० २ सुक्कलेस्सं परिणमति सु० २ सुक्कलेस्सेसु देवेसु उववज्जंति से तेणट्टेणं जाव उववज्जंति । सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं ४७३ ) ॥ १३- २॥
'कविहे 'त्यादि, 'संखेज्जवित्थडावि असंखेज्जवित्थडावि'त्ति इह गाथा - " जंबुद्दीवसमा खलु भवणा जे हुंति
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| १३ शतके
२ उद्देशः देवेष्वावासोत्पादादि सू ४७३
॥६०२ ॥
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सबखुड्डागा। संखेजविस्थडा मज्झिमा उ सेसा असंखेजा ॥१॥ [यानि सर्वक्षुल्लानि भवनानि तानि जम्बूद्वीपसमानि भवन्ति मध्यमानि सङ्ख्येयविस्तृतानि शेषाणि त्वसङ्ख्येयविस्तृतानि ॥ १॥]" इति, 'दोहिवि वेदेहिं उववजंति'त्ति द्वयोरपि स्त्रीपुवेदयोरुत्पद्यन्ते, तयोरेव तेषु भावात् , 'असण्णी उबद्दति'त्ति असुरादीशानान्तदेवानामसज्ञिध्वपि पृथिव्यादिषूत्पादात् , 'ओहिनाणी ओहिदंसणी यन उबटुंति'त्ति असुराशुद्धत्तानां तीर्थकरादित्वालाभात् तीर्थकरादीनामेवावधिमतामुद्वत्तेः, 'पण्णत्तएम तहेव'त्ति 'प्रज्ञप्तकेषु' प्रज्ञप्तपदोपलक्षितगमाधीतेष्वसुरकुमारेषु तथैव यथा प्रथमोद्देशके । 'कोहकसाई'इत्यादि, क्रोधमानमायाकषायोदयवन्तो देवेषु कादाचित्का अत उक्तं 'सिय अत्थी'|त्यादि, लोभकषायोदयवन्तस्तु सार्वदिका अत उक्तं 'संखेजा लोभकसाई पन्नत्त'त्ति, 'तिसुवि गमएसु चत्तारि लेसाओ भाणियवाओ'त्ति 'उववजंति उच्चदंति पन्नत्ता'इत्येवलक्षणेषु त्रिष्वपि गमेषु चतम्रो लेश्यास्तेजोलेश्यान्ता भणितव्याः, एता एव हि असुरकुमारादीनां भवन्तीति, 'जत्थ जत्तिया भवण'त्ति यत्र निकाये यावन्ति भवनलक्षाणि तत्र तावन्त्युच्चारणीयानि, यथा-"चउसही असुराणं नागकुमाराण होइ चुलसीई । बावत्तरि कणगाणं वाउकुमाराण छन्नउई ॥१॥ दीवदिसाउदहीणं विजुकुमारिंदथणियमग्गीणं । जुयलाणं पत्तेयं छावत्तरिमो सयसहस्सा ॥२॥" [[असुराणां चतुःषष्टिर्नागकुमाराणां चतुरशीतिर्भवन्ति द्वासप्ततिः कनकानां षण्णवतिर्वायुकुमाराणाम् ॥१॥ द्वीपदिग्उदधिविद्युत्कुमारेन्द्रस्तनिताग्नीनां युगलानां प्रत्येकं षट्सप्ततिर्लक्षाः ॥२॥] इति॥ व्यन्तरसूत्रे 'संखेजवित्थड'त्ति, इह गाथा-"जंबुद्दीवसमा खलु उक्कोसेणं हवंति ते नगरा । खुड्डा खेत्तसमा खलु विदेहसमगा उ मझिमगा ॥१॥"
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व्याख्या- [ उत्कृष्टेन जम्बूद्वीपसमानि तानि नगराणि भरतसमानि क्षुल्लानि विदेहसमानि मध्यमानि ॥१॥] इति ॥ ज्योतिष्कसूत्रे
१३ शतके प्रज्ञप्तिः सङ्ख्यातविस्तृता विमानावासाः 'एगसहिभागं काऊण जोयण'मित्यादिना ग्रन्थेन प्रमातव्याः 'नवरं एगा तेउलेस्स'त्ति ४२ उद्देशः अभयदेवीव्यन्तरेषु लेश्याचतुष्टयमुक्तमेतेषु तु तेजोलेश्यैवैका वाच्या, तथा 'उववजंतेसु पन्नत्तेसु य असन्नी नत्थि'त्ति व्यन्त
| देवेष्वावाया वृत्तिः२/ रेष्वसज्ञिन उत्पद्यन्त इत्युक्तमिह तु तन्निषेधः, प्रज्ञप्तेष्वपीह तन्निषेध उत्पादाभावादिति ॥ सौधर्मसूत्रे 'ओहिना
सोत्पादादि तणी' ततश्च्युता यतस्तीर्थकरादयो भवन्त्यतोऽवधिज्ञानादयश्च्यावयितव्याः 'ओहिनाणी ओहिदंसणी य संखेज्जा च॥६०३॥
सू ४७३ |यंति'त्ति सङ्ख्यातानामेव तीर्थकरादित्वेनोत्पादादिति । 'छ गमग'त्ति उत्पादादयस्त्रयः सङ्ख्यातविस्तृतानाश्रित्य अत एव |च त्रयोऽसङ्ख्यातविस्तृतानाश्रित्य एवं षड् गमाः, 'नवरं इत्थिवेयगे'त्यादि, स्त्रियः सनत्कुमारादिषु नोत्पद्यन्ते न च सन्ति उद्धृत्तौ तु स्युः 'असन्नी तिसुवि गमएसु न भन्नइ'त्ति सनत्कुमारादिदेवानां सज्ञिभ्य एवोत्पादेन च्युतानां च सज्ञिष्वेव गमनेन गमत्रयेष्वसज्ञित्वस्याभावादिति । एवं जाव सहस्सारे'त्ति सहस्रारान्तेषु तिरश्चामुत्पादेनासङ्ख्यातानां त्रिष्वपि गमेषु भावादिति । 'णाणत्तं विमाणेसु लेसासु यत्ति तत्र विमानेषु नानात्वं 'बत्तीसअट्ठवीसे त्यादिना ग्रन्थेन समवसेयं, लेश्यासु पुनरिदं तेऊ १ तेऊ २ तहा तेउ पम्ह ३ पम्हा ४ य पम्हसुक्का य ५। सुक्का य ६ |परमसुक्का ७ सुक्काइविमाणवासीणं ॥१॥"[ तेजः १ तेजः २ तथा तेजः ३ पद्मा च ४ पद्मशुक्ला च ५ शुक्ला च ६ परम
शुक्ला ७ शुक्रादिविमानवासिनां ( लेश्या)॥१॥] इति, इह च सर्वेष्वपि शुक्रादिदेवस्थानेषु परमशुक्लेति ॥ आनता|दिसूत्रे 'संखेजवित्थडेसु'इत्यादि, उत्पादेऽवस्थाने च्यवने च सङ्ख्यातविस्तृतत्वाद्विमानानां सङ्ख्याता एव भवन्तीति
३॥
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SAMROSAROSAROSAROKARSANSAR
भावः, असङ्ख्यासविस्तृतेषु पुनरुत्पादच्यवनयोः सङ्ख्याता एव, यतो गर्भजमनुष्येभ्य एवानतादिपूत्पद्यन्ते ते च सङ्ख्याता एव, तथाऽऽनतादिभ्यश्चयुता गर्भजमनुष्येष्वेवोत्पद्यन्तेऽतः समयेन सङ्ख्यातानामेवोत्पादच्यवनसम्भवः, अवस्थितिस्त्व| सङ्ख्यातानामपि स्यादसङ्ख्यातजीवितत्वेनैकदैव जीवितकालेऽसङ्ख्यातानामुत्पादादिति । 'पन्नत्तेसु असंखेजा नवरं नोइंदिओवउत्ते'त्यादि प्रज्ञप्तकगमेऽसङ्ख्येया वाच्याः केवलं नोईद्रियोपयुक्तादिषु पञ्चसु पदेषु सङ्ख्याता एव, तेषामुत्पादावसर एव भावाद्, उत्पत्तिश्च सङ्ख्यातानामेवेति दर्शितं प्रागिति, 'पंच अणुत्तरोवबाइय'त्ति तत्र मध्यम सङ्ख्यातविस्तृत योजनलक्षप्रमाणत्वादिति । 'नवरं कण्हपक्खिए'त्यादि, इह सम्यग्दृष्टीनामेवोत्पादात् कृष्णपाक्षिकादिपदानां गमत्रयेऽपि निषेधः, 'अचरिमावि खोडिज्जंति'त्ति येषां चरमोऽनुत्तरदेवभवः स एव ते चरमास्तदितरे त्वचरमास्ते च निषेधनीयाः, यतश्चरमा एव मध्यमे विमाने उत्पद्यन्त इति । 'असंखेजवित्थडेसुवि एए न भन्नति'ति | इहैते कृष्णपाक्षिकादयः 'नवरं अचरिमा अत्थि'त्ति यतो बाह्यविमानेषु पुनरुत्पद्यन्त इति । 'तिन्नि आलावग'त्ति सम्यग्दृष्टिमिथ्यादृष्टिसम्यग्मिथ्यादृष्टिविषया इति । 'नवरं तिसुवि आलावगेसु'इत्यादि, उप्पत्तीए चवणे पन्नत्तालावए य मिथ्यादृष्टिः सम्यग्मिथ्यादृष्टिश्च न वाच्यः, अनुत्तरसुरेषु तस्यासम्भवादिति॥त्रयोदशशते द्वितीयः॥१३-२॥
अनन्तरोद्देशके देववक्तव्यतोता, देवाश्च प्रायः परिचारणावन्त इति परिचारणानिरूपणार्थ तृतीयोद्देशकमाह, तस्य चेदमादि सूत्रम्
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व्याख्या- नेरहया णं भंते ! अणंतराहारा ततो निवत्तणया एवं परियारणापदं निरवसेसं भाणियत्वं । सेवं भंते ! प्रज्ञप्तिः
|१३ शतके ४ सेवं भंते !( सूत्रं ४७४)॥१३-३॥ अभयदेवी
३ उद्देशः वा 'नेरइया ण'मित्यादि, 'अणंतराहार'त्ति उपपातक्षेत्रप्राप्तिसमय एवाहारयन्तीत्यर्थः, 'तओ निवत्तणय'त्ति ततः या वृत्तिः२
नारकाणा| शरीरनिवृत्तिः, 'एवं परियारणे'त्यादि, परिचारणापदं-प्रज्ञापनायां चतुस्त्रिंशत्तमं, तच्चैवं-तओ परियाइयणया तओमनन्तरा॥६०४॥ परिणामणया तओ परियारणया तओ पच्छा विउवणया ?, हंता गोयमा इत्यादि, 'तओ परियाइयणय'त्ति ततः || पर्यापानम्-अङ्गप्रत्यङ्गैः समन्तादापानमित्यर्थः 'तओ परिणामणय'त्ति तत आपीतस्य-उपात्तस्य परिणतिरिन्द्रिया
सू ४७४ दिविभागेन 'तओ परियारणय'त्ति ततः शब्दादिविषयोपभोग इत्यर्थः 'तओ पच्छा विउवणय'त्ति ततो विक्रिया नानारूपा इत्यर्थ इति ॥ त्रयोदशशते तृतीयः॥१३-३॥
अनन्तरोद्देशके परिचारणोक्ता, सा च नारकादीनां भवतीति नारकाद्यर्थप्रतिपादनार्थ चतुर्थोद्देशकमाह, तस्य | चेदमादिसूत्रम्
कति णं भंते ! पुढवीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा सत्त पुढवीओ पण्णत्ताओ, तंजहा-रयणप्पभा जाव अहे-1|| ॥६०४॥ सत्तमा, अहेसत्तयाए णं भंते ! पुढवीए पंच अणुत्तरा महतिमहालया जाव अपइहाणे, ते णं णरगा छट्ठीए ४|तमाए पुढचीए नरएहितो महंततरा चेव १ महाविच्छिन्नतरा चेव २ महावासतरा चेव ३ महापइरिकतरा
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चैव ४, णो तहा महापवेसणतरा चेव १ नो आइन्नतरा चेव २ नो आउलतरा चेव ३ अणोयणतरा चेच ४. | तेसु णं नरएसु नेरतिया छट्ठीए तमाए पुढवीए नेरइएहिंतो महाकम्मतरा चेव १ महाकिरियतरा चेव २ | महासवतरा चैव ३ महावेयणतरा चेव ४ नो तहा अप्पकम्मतरा चेव १ नो अप्पकिरियतरा चेव २ नो अप्पासवतरा चेव ३ नो अप्पवेदणतरा चेव ४ अप्पयितरा चेव १ अप्पजुत्तियतरा चेव २ नो तहा महहियतरा चेव १ नो महजुइयतरा चेव २ । छट्ठीए णं तमाए पुढवीए एगे पंचूणे निरयावाससयसहस्से पण्णत्ते, ते णं नरगा असत्तमाए पुढवीए नेरइएहिंतो नो तहा महत्तरा चैव महाविच्छिन्न० ४ महम्पवेसणतरा चेव आइन्न० ४ तेसु णं नरएस णं नेरतिया अहेसत्तमाए पुढवीए नेरइएहिंतो अप्पकम्मतरा चेव अप्पकिरि० ४ नो तहा महाकम्मतरा चैव महाकिरिय ४ महड्डियतरा चैव महाजुइयतरा चेव नो तहा अप्पट्ठियतरा चेव अप्पजुइयतरा चेव । छट्टीए णं तमाए पुढवीए नरगा पंचमाए धूमप्पभाए पु० नरएहिंतो महत्तरा चेव ४ नो तहा महष्पवेसणतरा चेव ४, तेसु णं नरएसु नेरतिया पंचमाए धूमप्पभाए पुढवीए हिंतो महाकम्मतरा चेव ४ नो तहा अप्पकम्मतरा चेव ४ अप्पड्डियतरा चैव २ नो तहा महड्डियतरा चेव २, पंचमाए णं धूमप्पभाए पुढवीए तिन्नि निरयावाससयसहस्सा पन्नत्ता एवं जहा छट्ठीए भणिया एवं सत्तवि पुढवीओ परोप्परं भण्णंति जाव रयणप्पभंति जाव नो तहा महड्डियतरा चेव अप्पजुत्तियतरा चेव (सूत्रं ४७५ ) ॥
'कइ ण'मित्यादि, इह च द्वारगाथे कचिद् दृश्येते, तद्यथा - " नेरइय १ फास २ पणिही ३ निरयंते ४ चेव लोय
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥ ६०५ ॥
मज्झे य ५ । दिसिविदिसाण य पवहा ६ पवत्तणं अस्थिकाएहिं ७ ॥ १ ॥ अत्थी पएसफुसणा ८ ओगाहणया य जीव| मोगाढा । अत्थि पएसनिसीयण बहुस्समे लोगसंठाणे ॥ ३ ॥” इति, अनयोश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति, | 'महंततरा चेव'त्ति आयामतः 'विच्छिन्नतरा चेव' त्ति विष्कम्भतः 'महावासतरा चेव'त्ति अवकाशो-बहूनां विव| क्षितद्रव्याणामवस्थानयोग्यं क्षेत्रं महानवकाशो येषु ते महावकाशाः अतिशयेन महावकाशा महावकाशतराः, ते च | महाजनसङ्कीर्णा अपि भवन्तीत्यत उच्यते 'महापइरिक्कतरा चेव'त्ति महत्प्रतिरिक्तं - विजनमतिशयेन येषु ते तथा 'नो तहा महापवेसणतरा चेव'त्ति 'नो' नैव 'तथा' तेन प्रकारेण यथा षष्ठपृथिवीनरका अतिशयेन महत्प्रवेशनं-गत्यन्तरान्नरक गतौ जीवानां प्रवेशो येषु ते तथा, षष्ठपृथिव्यपेक्षयाऽसङ्ख्यगुणहीनत्वात्तन्नारकाणामिति, नोशब्द उत्तरपदद्रयेsपि सम्बन्धनीयः, यत एव नो महाप्रवेशनतरा अत एव 'नो आइन्नतरा चेव'त्ति नात्यन्तमाकीर्णाः सङ्कीर्णा नारकैः 'नो आउलतरा चेव'त्ति इतिकर्त्तव्यतया ये आकुला नारकलोकास्तेषामतिशयेन योगादाकुलतरास्ततो नोशब्दयोगः, किमुक्तं भवति ? - 'अणोमाणतरा चेव'त्ति अतिशयेनासङ्कीर्णा इत्यर्थः क्वचित्पुनरिदमेवं दृश्यते- 'अणोयणतरा चेव'त्ति तत्र चानोदनतराः व्याकुलजनाभावादतिशयेन परस्परं नोदनवर्जिता इत्यर्थः 'महाकम्मतर 'त्ति आयुष्कवेदनीयादिकर्म्मणां महत्त्वात् 'महाकिरियतर' त्ति कायिक्यादिक्रियाणां महत्त्वात् तत्काले काय महत्वात्पूर्वकाले च महारम्भा - दित्वाद् अत एव महाश्रवतरा इति 'महावेयणतर'त्ति महाकर्मत्वात्, 'नो तहे' त्यादिना निषेधतस्तदेवोक्तं, विधिप्रतिषेधतो वाक्यप्रवृत्तेः, नोशब्दश्चेह प्रत्येकं सम्बन्धनीयः पदचतुष्टय इति, तथा 'अप्पडियतर'त्ति अवध्यादिऋद्धेरल्प
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१३ शतके
४ उद्देशः
पृथ्वीनां महत्त्वादि
सू ४७५
॥ ६०५॥
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त्वात् 'अप्पजुइयतर'त्ति दीप्तेरभावात् , एतदेव व्यतिरेकेणोच्यते-'नो तहामहहिए'इत्यादि, नोशब्दः पदद्वयेऽपि | सम्बन्धनीयः॥
रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं पुढविफासं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति?, गोयमा ! अणिटुं जाव | अमणामं एवं जाव अहेसत्तमपुढविनेरइया एवं आउफासं एवं जाव वणस्सइफासं (सूत्रं ४७६)॥ इमा णं भंते ! रयणप्पभापुढवी दोचं सक्करप्पभं पुढविं पणिहाय सत्वमहंतिया बाहल्लेणं सवखुड्डिया सवंतेसु एवं जहा जीवाभिगमे बितिए नेरइयउद्देसए ॥ (सूत्रं ४७७)॥ इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए णिरयप-| रिसामंतसु जे पुढविक्काइया एवं जहा नेरइयउद्देसए जाव अहेसत्तमाए (सूत्रं ४७८)॥ कहिणं भंते ! लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ?, गोयमा! इमीसे णं रयणप्पभाए उवासंतरस्स असंखेजतिभागं ओगाहेत्ता एत्थ णं लोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते । कहि णं भंते ! अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउस्थीए पंकप्पभाए पुढवीए उवासंतरस्स सातिरेगं अद्धं ओगाहित्ता एत्थ णं अहेलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते, कहि णं भंते ! उड्लोगस्स आयाममझे पण्णत्ते ?, गोयमा ! उपि सणंकुमारमाहिंदाणं कप्पाणं होहिं बंभलोए कप्पे रिढविमाणे पत्थडे एत्थ णं उड्डलोगस्स आयाममज्झे पण्णत्ते । कहिन्नं भंते ! तिरियलो गस्स आयाममज्झे पण्णत्ते ?, गोयमा ! जंबूद्दीवे २ मंदरस्स पचयस्स बहुमज्झदेसभाए इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए उवरिमहेडिल्लेसु खुड्डागपयरेसु एत्थ णं तिरियलोगस्समझे अट्ठपएसिए रुयए पण्णत्ते,जओ णं इमाओ
मातिरेगं अद्धं आगामा ! उप्पि सर्णन भंते ! तिरियला
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१३ शतके ४ उद्देशः नरकेवेदना महत्तापृथ्वी कायादि सू ४७६-४७८
व्याख्या- ७ दस दिसाओ पवहंति, तंजहा-पुरच्छिमा पुरच्छिमदाहिणा एवं जहा दसमसए नामधेनंति (सूत्रं ४७९)॥ प्रज्ञप्तिः
इंदा णं भंते ! दिसा किमादीया किंपवहा कतिपदेसादीया कतिपदेसुत्तरा कतिपदेसीया किंपज्जवसिया अभयदेवी
|किंसंठिया पन्नत्ता ?, गोयमा ! इंदा णं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा दुपएसादीया दुपएसुत्तरा लोगं या वृत्तिः२
४ पडुच्च असंखेजपएसिया अलोगं पडुच्च अणंतपएसिया लोगं पडुच्च साईया सपज्जवसिया अलोगं पड्डुच्च ॥६०६॥
द साईया अपजवसिया लोगं पडुच्च मुरजसंठिया अलोगं पडुच सगडुद्धिसंठिया पन्नत्ता । अग्गेयी णं भंते !
दिसा किमादीया किंपवहा कतिपएसादीया कतिपएसविच्छिन्ना कतिपएसीया किंपज्जवसिया किंसं४ठिया पन्नत्ता, गोयमा ! अग्गेयी णं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा एगपएसादीया एगपएसविच्छिन्ना
अणुत्तरा लोगं पडुच असंखेजपएसीया अलोगं पडच अणंतपएसीया लोगं पडुच्च साइया सपज्जव. अलोगं पडुच साइया अपज्जवसिया छिन्नमुत्तावलिसंठिया पण्णत्ता । जमा जहा इंदा, नेरइया जहा अग्गेयी, एवं |जहा इंदा तहा दिसाओ चत्तारि जहा अग्गेई तहा चत्तारिवि विदिसाओ। विमला णं भंते ! दिसा दकिमादीया०१, पुच्छा जहा अग्गेयीए, गोयमा! विमला णं दिसा रुयगादीया रुयगप्पवहा चउप्पएसादीया
दुपएसविच्छिन्ना अणुत्तरा लोगं पडुच सेसं जहा अग्गेयीए नवरं रुयगसंठिया पण्णत्ता एवं तमावि (४८०)॥ | स्पर्शद्वारे 'एवं जाव वणस्सइफासंति इह यावत्करणात्तेजस्कायिकस्पर्शसूत्रं वायुकायिकस्पर्शसूत्रं च सूचितं, तत्र |च कश्चिदाह-ननु सप्तस्वपि पृथिवीषु तेजस्कायिकवर्जपृथिवीकायिकादिस्पर्शो नारकाणां युक्तः येषां तासु विद्यमानत्वात्
ध्यं सू ४७९ | दिशा सू ४८०
॥६०६॥
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बादरतेजसां तु समयक्षेत्र एव सद्भावात् सूक्ष्मतेजसां पुनस्तत्र सद्भावेऽपि स्पर्शनेन्द्रियाविषयत्वादिति, अनोच्यते. इह तेजस्कायिकस्येव परमाधार्मिकविनिर्मितज्वलनसदृशवस्तुनः स्पर्शः तेजस्कायिकस्पर्श इति व्याख्येयं न तु साक्षात्तेज| स्कायिकस्यैव असंभवात् अथवा भवान्तरानुभूततेजस्कायिकपर्यायपृथिवीकायिकादिजीवस्पर्शापेक्षयेदं व्याख्येयमिति ॥ प्रणिधिद्वारे 'पणिहाय'त्ति प्रणिधाय-प्रतीत्य 'सबमहंतिय'त्ति सर्वथा महती अशीतिसहस्राधिकयोजनलक्षप्रमाणत्वाद्रलप्रभावाहल्यस्य शर्कराप्रभावाहल्यस्य च द्वात्रिंशत्सहस्राधिकयोजनलक्षमानत्वात् 'सबखुड्डिया सबंतेसु'त्ति सर्वथा लध्वी 'सर्वान्तेषु' पूर्वापरदक्षिणोत्तरविभागेषु, आयामविष्कम्भाभ्यां रज्जुप्रमाणत्वाद्रत्नप्रभायास्ततो महत्तरत्वात् शर्कराप्रभायाः, 'एवं जहा जीवाभिगमे इत्यादि, अनेन च यत्सूचितं तदिदं-'हंता गोयमा ! इमा णं रयणप्पभा पुढवी दोच्चं पुढविं पणिहाय जाव सबखुड्डिया सबंतेसु । दोच्चा णं भंते ! पुढवी तच्चं पुढविं पणिहाय सबखुड्डिया जाव सर्वतेसु, एवं एएणं अभिलावेणं जाव छठिया पुढवी अहे सत्तमं पुढविं पणिहाय जाव सबखुड्डिया सर्वतेसु'त्ति ॥ निरयान्तद्वारे 'निरयपरिसामंतेसुत्ति निरयावासानां पार्श्वत इत्यर्थः 'जहा नेरइयउद्देसए'त्ति जीवाभिगमसम्बन्धिनि, तत्र |चैवमिदं सूत्रम्-'आउक्काइया तेउक्काइया वाउक्काइया वणस्सइकाइया, ते णं जीवा महाकम्मतरा चेव जाव महावेयणतरा चेव ?, हंता गोयमा !' इत्यादि ॥ लोकमध्यद्वारे 'चउत्थीए पंकप्पभाए'इत्यादि, रुचकस्याधो नवयोजनशतान्यतिक्रम्याधोलोको भवति लोकान्तं यावत् , स च सातिरेकाः सप्त रज्जवस्तन्मध्यभागः चतुर्थ्याः पञ्चम्याश्च पृथिव्या यदवकाशान्तरं तस्य सातिरेकमर्द्धमतिवाह्य भवतीति, तथा रुचकस्योपरि नवयोजनशतान्यतिक्रम्योर्द्ध लोको व्यपदि
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ARA
त्ति क्षुलकप्रतरयो मालाकमध्ये प्रज्ञप्तः , तस्य चे
व्याख्या-श्यते लोकान्तमेव यावत्, स च सप्त रजवः किञ्चिन्यूनास्तस्य च मध्यभागप्रतिपादनायाह-'उप्पि सणंकुमारमाहि
|१३ शतके प्रज्ञप्तिः दाणं कप्पाण'मित्यादि । तथा 'उवरिमहिडिल्लेसुखुड्डागपयरेसुत्ति लोकस्य वज्रमध्यत्वाद्रत्नप्रभाया रत्नकाण्डे सर्वेक्षु
४ उद्देशः अभयदेवीलकं प्रतरद्वयमस्ति, तयोश्चोपरिमो यत आरभ्य लोकस्योपरिमुखा वृद्धिः 'हेडिल्ले'त्ति अधस्तनो यत आरभ्य लोकस्याधो
लघुमहत्ता या वृत्तिः२
लोकमध्यं मुखा वृद्धिः तयोरुपरिमाधस्तनयोः 'खुड्डागपयरेसुत्ति क्षुल्लकातरयोः सर्वलघुप्रदेशप्रतरयोः 'एत्थ 'ति प्रज्ञापकेनो
सू ४८० ॥६०७॥
पायतः प्रदयमाने तिर्यग्लोकमध्येऽष्टप्रदेशको रुचकः प्रज्ञप्तः, यश्च तिर्यग्लोकमध्ये प्रज्ञप्तः स सामथ्योत्तियेगूलोकायाममध्यं भवत्येवेति, किम्भूतोऽसावष्टप्रदेशिको रुचकः ? इत्याह-'जओ णं इमाओ'इत्यादि, तस्य चेयं स्थापना
॥ दिविदिक्प्रवहद्वारे 'किमाइय'त्ति क आदिः-प्रथमो यस्याः सा किमादिका 8 आदिश्च विवक्षया विपर्ययेणापि स्यादित्यत आह-'किंपवह'त्ति प्रवहति-प्रवर्त्तते | अस्मादिति प्रवहः कः प्रवहो यस्याःसा तथा 'कतिपएसाइय'त्ति कति प्रदेशा आदियस्याः सा कतिप्रदेशादिका 'कतिपएसत्तर'त्ति कतिप्रदेशा उत्तरे-वृद्धौ यस्याः सा| तथा 'लोगं पडुच मुरजसंठिय'त्ति लोकान्तस्य परिमण्डलाकारत्वेन मुरजसंस्थानता दिशः स्यात्ततश्च लोकान्तं प्रतीत्य मुरजसंस्थितेत्युक्तं, एतस्य च पूर्वी दिशमाश्रित्य ||
॥६०७॥ चूर्णिकारकृतेयं भावना-'पुवुत्तराए पएसहाणीए तहा दाहिणपुवाए रुयगदेसे मुरज-18 हेर्ट दिसि अंते चउप्पएसा दवा मज्झे य तुंडं हवइ'त्ति, एतस्य चेयं स्थापना
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1ZI'अलोगं पडुच्च सगडुद्धिसंठिय'त्ति रुचके तु तुण्डं कल्पनीयं आदौ संकीर्णत्वात् तत उत्तरो-|
त्तरं विस्तीर्णत्वादिति, 'एगपएसविच्छिन्नत्ति, कथम् ? अत आह-'अणुत्तरत्ति वृद्धिव ।
NIZ_र्जिता यत इति ॥
न
किमियं भंते ! लोएत्ति पवुच्चइ ?, गोयमा ! पंचत्थिकाया, एस णं एवतिए लोएत्ति
पवुच्चइ, तंजहा-धम्मस्थिकाए अहम्मत्थिकाए जाव पोग्गलत्थिकाए। धम्मत्थिकाए | 17।।।
णं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ?, गोयमा ! धम्मत्थिकाएणं जीवाणं आगमणगमण 5 भासुम्मसमणजोगा वइजोगा कायजोगा जे यावन्ने तहप्पगारा चला भावा सवे ते धम्मत्थिकाए पवतंति, गइलक्खणे णं धम्मत्थिकाए ।अहम्मस्थिकाएणं जीवाणं किं पवत्तति ?, गोयमा ! अहम्मस्थिकाएणं जीवाणं 8 ठाणनिसीयणतुयट्टण मणस्स य एगत्तीभावकरणता जे यावन्ने थिरा भावा सबे ते अहम्मत्थिकाये पवत्तंति, ठाणलक्खणे णं अहम्मत्थिकाए ॥ आगासत्थिकाए णं भंते ! जीवाणं अजीवाण य किं पवत्तति ?, गोयमा ! आगासत्थिकाएणं जीवदवाण य अजीवदवाण य भायणभूए-एगेणवि से पुन्ने दोहिवि पुन्ने सयंपि, माएज्जा। कोडिसएणवि पुन्ने कोडिसहस्संपिमाएजा ॥१॥अवगाहणालक्खणे णं आगासत्थिकाए॥ जीवत्थिकाएणं भंते ! जीवाणं किं पवत्तति ?, गोयमा ! जीवत्थिकाएणं जीवे अणंताणं आभिणिबोहियनाणपजवाणं अणंताणं सुयनाणपज्जवाणं एवं जहा बितियसए अत्थिकायउद्देसए जाव उवओगं गच्छति, उवओ
SARICA SACRARIAS
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18
गलक्खणे णं जीवे ॥ पोग्गलत्थिकाए णं पुच्छा, गोयमा ! पोग्गलत्थिकाएणं जीवाणं ओरालियवेउवियआ.
१३ शतके व्याख्या
|४ उद्देशः प्रज्ञप्तिः हारए तेयाकम्मए सोइंदियचक्खिदियघाणिंदियजिभिदियफासिंदियमणजोगवयजोगकायजोगआणापाणूणं पञ्चातिकाअभयदेवी- |च गहणं पवत्तति, गहणलक्खणे णं पोग्गलत्थिकाए (सूत्रं ४८१)॥
यप्रयोजना या वृत्तिः२ प्रवर्तनद्वारे 'आगमणगमणे इत्यादि, आगमनगमने प्रतीते भाषा-व्यक्तवचनं 'भाष व्यक्तायां वाचि' इति वचनात् पनि सू ४८१ ॥६०८॥
उन्मेषः-अक्षिव्यापारविशेषः मनोयोगवाग्योगकाययोगाः प्रतीता एव तेषां च द्वन्द्वस्ततस्ते, इह च मनोयोगादयः सामान्यरूपाः आगमनादयस्तु तद्विशेषा इति भेदेनोपात्ताः, भवति च सामान्यग्रहणेऽपि विशेषग्रहणं तत्स्वरूपोपदर्शनार्थमिति, 'जे यावन्ने तहप्पगार'त्ति 'ये चाप्यन्ये आगमनादिभ्योऽपरे 'तथाप्रकाराः' आगमनादिसदृशाः भ्रमणचलनादयः 'चला भाव'त्ति चलस्वभावाः पर्यायाः सर्वे ते धर्मास्तिकाये सति प्रवर्तन्ते, कुत ? इत्याह-गइलक्खणे णं| धम्मस्थिकाए'त्ति । 'ठाणनिसीयणतुयण'त्ति कायोत्सर्गासनशयनानि प्रथमाबहुवचनलोपदर्शनात्, तथा मनस|श्चानेकत्वस्यैकत्वस्य भवनमेकत्वीभावस्तस्य यत्करणं तत्तथा । 'आगासत्थिकाएण'मित्यादि, जीवद्रव्याणां | चाजीवद्रव्याणां च भेदेन भाजनभूतः, अनेन चेदमुक्तं भवति–एतस्मिन् सति जीवादीनामवगाहः प्रवर्त्तते एतस्यैव
॥६०८॥ ४ प्रश्नितत्वादिति, भाजनभावमेवास्य दर्शयन्नाह-एगेणवी'त्यादि, एकेन-परमाण्वादिना 'से'त्ति असौ आकाशास्ति| कायप्रदेश इति गम्यते 'पूर्णः' भृतस्तथा द्वाभ्यामपि ताभ्यामसौ पूर्णः, कथमेतत् ?, उच्यते, परिणामभेदात् यथाऽपव-18 रकाकाशमेकप्रदीपप्रभापटलेनापि पूर्यते द्वितीयमपि तत्तत्र माति यावच्छतमपि तेषां तत्र माति, तथौषधिविशेषापादि
CONGRECCARA
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तपरिणामादेकत्र पारदर्षे सुवर्णकर्षशतं प्रविशति, पारदकर्षीभूतं च सदौषधिसामर्थ्यात् पुनः पारदस्य कर्षः सुवर्णस्य च कर्षशतं भवति विचित्रत्वात्पुद्गलपरिणामस्येति, 'अवगाहणालक्खणे णं'ति इहावगाहना-आश्रयभावः ॥'जीवत्थि|| काएण'मित्यादि, जीवास्तिकायेनेति अन्तर्भूतभावप्रत्ययत्वाजीवास्तिकायत्वेन जीवतयेत्यर्थः भदन्त ! जीवानां कि प्रवर्तते ? इति प्रश्नः, उत्तरं तु प्रतीतार्थमेवेति ॥ 'पोग्गलत्थिकाएण'मित्यादि, इहौदारिकादिशरीराणां श्रोत्रेन्द्रिया
दीनां मनोयोगान्तानामानप्राणानां च ग्रहणं प्रवर्तते इति वाक्यार्थः, पुद्गलमयत्वादौदारिकादीनामिति ॥ अस्तिका15 यप्रदेशस्पर्शद्वारे| एगे भंते ! धम्मत्थिकायपदेसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! जहन्नपदे तिहिं उकोसपदे छहिं । केवतिएहिं अहम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! जहन्नपए चउहिं उक्कोसपए सत्तहिं । केवतिएहिं आगासत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! सत्तहिं । केवतिएहिं जीवत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! अणंतेहिं । केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! अणंतेहिं । केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुढे ?, सिय पुढे सिय नो पुढे जइ पुढे नियमं अणंतेहिं ॥ एगे भते ! अहम्मत्थिकायपएसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! जहन्नपए चरहिं उक्कोसपए सत्तहिं । केवतिएहिं अहम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे? जहन्नपए तिहिं उक्कोसपए छहिं सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ एगे भंते ! आगासस्थिकायपएसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, गोयमा ! सिय पुढे सिय नो पुढे, जइ पुढे जहन्नपदे एकेण वा दोहिं वा तीहिं
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥ ६०९॥
2,
वा चउहिं वा उक्कोसपए सप्तहिं, एवं अहम्मत्थिकायप्पए सेहिवि । केवतिएहिं आगासत्धिकाय ? छहिं, | केवतिएहिं जीवस्थिकायपएसेहिं पुढे ?, सिय पुढे सिय नो पुट्ठे, जइ पुढे नियमं अणंतेहिं । एवं पोग्गलत्थ| कायपरसेहिवि अद्धासमए हिवि (सूत्रं ४८२ ) ॥ एगे भंते ! जीवत्धिकायपए से केवतिएहिं धम्मस्थि० पुच्छा जहन्नपदे चउहिं उक्कोसपए सत्तहिं, एवं अहम्मत्थिकाय एसेहिवि । केवतिएहिं आगासत्थि० १, सत्तहिं । | केवतिएहिं जीवत्थि० १, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ एगे भंते ! पोरगलत्थिकायपएसे केवतिएहिं धम्मत्थिकायपए० १ एवं जहेब जीवत्थिकायस्स ॥ दो भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा केवतिएहिं धम्मस्थिकायपरसेहिं पुट्ठा ?, जहन्नपए छहिं उक्कोसपए बारसहिं, एवं अहम्मत्थिकायप्पएसेहिवि । केवतिएहिं आगासत्थिकाय ?, बारसहिं, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स ॥ तिन्नि भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवतिएहिं धम्मतिथ० ?, जहन्नपए अट्ठहिं उक्कोसपए सत्तरसहिं । एवं अहम्मत्थिकायपएसेहिवि । केवतिएहिं आगासत्थि० ?, सत्तरसहिं, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । एवं एएणं गमेणं भाणियवं जाव दस, नवरं जहन्नपदे दोन्नि पक्खि| वियवा उक्कोसपर पंच । चत्तारि पोग्गलत्थिकायस्स०, जहन्नपए दसहिं उक्को० बावीसाए, पंच पुग्गल०, जह० बारसहिं उक्कोस० सत्तावीसाए, छ पोग्गल० जह० चोदसहिं उक्को० बत्तीसाए, सत्त पो० जहन्नेणं सोलसहिं उक्को० सत्ततीसाए, अट्ठ पो० जहन्न० अट्ठारसहिं उक्कोसेणं बायालीसाए, नव पो० जहन्न० वीसाए उक्को० सीयालीसाए, दस जह० बावीसाए उक्को० बावन्नाए । आगासत्धिकायस्त सत् उक्कोसगं भाणियां ॥
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१३ शतके उद्देशः अस्तिकायतत्प्रदेश
स्पर्शना
सू ४८२
||६०९ ॥
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संखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवतिएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुट्ठा ?, जहन्नपदे तेणेव संखेज्जएणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं उक्कोसपए तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं, केवतिएहिं अधम्मत्थिकायएहिं एवं चेव, केवतिएहिं आगासत्थिकाय० तेणेव संखेज्जएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं, केवइएहिं जीवत्थिकाय०१, अनंतेहिं, केवइएहिं पोग्गलत्थिकाय ० ?, अणतेहिं, केवइएहिं अद्धासमएहिं ?, सिय पुढे सिय नो पुढे जाव अनंतेहिं । असंखेज्जा भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा केवतिएहिं धम्मत्थि० १, जहन्नपए तेणेव असंखेज्जएणं दुगुणेणं दुरूवाहिएणं उक्को० तेणेव असंखेजएणं पंचगुणेणं दुरूवाहिएणं, सेसं जहा संखेज्जाणं जाव नियमं अनंतेहिं ॥ अनंता भंते ! पोग्गलत्थिकायपएसा केवतिएहिं धम्मत्थिकाय०, एवं जहा असंखेजा तहा अणतावि निरवसेसं ॥ एगे भंते ! अद्धासमए केवतिएहिं धम्मत्थिकायपएसेहिं पुढे ?, सत्तहिं, केवतिएहिं अहम्मत्थि० ?, एवं चेव एवं आगासत्थिकाएहिवि, केवतिएहिं जीव० ?, अनंतेहिं, एवं जाव अद्धासमएहिं ॥ धम्मत्थिकाए णं भंते ! केवतिएहिं धम्मत्थिकायप्पएसेहिं पुढे ?, नत्थि एक्केणवि, केवतिएहिं अधम्मत्थिकायप्पएसेहिं ?, असंखेजेहिं, केवतिएहिं आगासत्थि० प० १, असंखेज्जेहिं, केवतिएहिं जीवत्थिकायपए० १, अणंतेहिं, केवतिएहिं पोग्गलत्थिकायपएसेहिं ?, अणतेहिं, केवतिएहिं अद्धासमएहिं ?, सिय पुढे सिय नो पुढे, जइ पुट्ठे नियमा अणतेहिं । अहम्मत्थिकाए णं भंते ! केव० धम्मत्थिकाय० ?, असंखेजेहिं, केवतिएहिं अहम्मत्थि० ?, णत्थि एक्केणवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स, एवं एएणं गमएणं सद्देवि सट्ठाणए नत्थि एक्केणवि पुट्ठा,
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६१०॥
परट्ठाणए आदिल्लएहिं तिहिं असंखेजेहिं भाणियां, पच्छिल्लएस अनंता भाणियवा, जाव अद्धासमयोत्ति, | जाव केवतिएहिं अद्धासमएहिं पुढे ?, नत्थि एक्केणवि ॥
०
'एगे भंते ! धम्मत्थिकायप्पएसे' इत्यादि, 'जहन्नपए तिहिं'ति जघन्यपदं लोकान्तनिष्कुटरूपं यत्रैकस्य धर्मास्ति| कायादिप्रदेशस्यातिस्तो कैरन्यैः स्पर्शना भवति तच्च भूम्यासन्नापवरककोणदेशप्रायं, इहोपरितनेनैकेन द्वाभ्यां च पार्श्वत | एको विवक्षितः प्रदेशः स्पृष्टः, एवं जघन्येन त्रिभिरिति । 'उसपर छहिं'ति विवक्षितस्यैक उपर्युकोऽधस्तनश्चत्वारो दिक्षु इत्येवं षड्तिरिदं च प्रतरमध्ये, स्थापना च- ००० । 'जहन्नपदे चउहिं'ति धर्मास्तिकायप्रदेशो जघन्य| पदेऽधर्मास्तिकायप्रदे शैश्चतुर्भिः स्पृष्ट इति, कथं ?, तथैव त्रयः, चतुर्थस्तु धर्मास्तिकायप्रेदशस्थानस्थित एवेति, उत्कृ|ष्टपदे सप्तभिरिति, कथं ?, षड् दिषट्के, सप्तमस्तु धर्मास्तिकाय प्रदेशस्थ एवेति २, आकाशप्रदेशैः सप्तभिरेव, [लोकान्तेऽप्यलोकाकाशप्रदेशानां विद्यमानत्वात् ३, 'केवतिएहिं जीवत्थिकाए' इत्यादि 'अणतेहिं'ति अनन्तैरनन्त| जीवसम्बन्धिनामनन्तानां प्रदेशानां तत्रैकधर्मास्तिकाय प्रदेशे पार्श्वतश्च दिक्त्रयादौ विद्यमानत्वादिति ४, एवं पुद्गलास्तिकाय प्रदेशैरपि ५, 'केवतिएहिं अडासमए हिं' इत्यादि, अद्धासमयः समयक्षेत्र एव न परतोऽतः स्यात्स्पृष्टः स्यान्नेति, 'जइ पुढे नियमं अनंतेहिं ति अनादित्वादद्धासमयानां अथवा वर्त्तमानसमयालिङ्गितान्यनन्तानि द्रव्याण्य - | नन्ता एवं समया इत्यनन्तैस्तैः स्पृष्ट इत्युच्यत इति ६ ॥ अधर्मास्तिकाय प्रदेशस्य शेषाणां प्रदेशैः स्पर्शना धर्मास्तिकाय| प्रदेश स्पर्शनानुसारेणावसेया ६ । 'एंगे भंते ! आगासत्धिकाय एसे' इत्यादि, 'सिय पुट्ठे'त्ति लोकमाश्रित्य 'सिय
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१३ शतके ४ उद्देशः अस्तिकायतत्प्रदेश
स्पर्शना
सू ४८२
॥६१०॥
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दोपदे'त्ति अलोकमाश्रित्य 'जइ पुढे'इत्यादि यदि स्पृष्टस्तदा जघन्यपदे एकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः, कथम ?. एवंविधलोकान्तवर्तिना धर्मास्तिकायैकप्रदेशेन शेषधर्मास्तिकायप्रदेशेभ्यो निर्गतेनैकोऽग्रभागवर्त्यलोकाकाशप्रदेशः स्पृष्टो | वक्रगतस्त्वसौ द्वाभ्यां यस्य चालोकाकाशप्रदेशस्याग्र। तोऽधस्तादुपरि च धर्मास्तिकायप्रदेशाः सन्ति स | त्रिभिर्धर्मास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टः, स चैवम्-_ यस्त्वेवं- लोकान्ते कोणगतो व्योमप्रदेशोऽसावेकेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन तदवगाढेनान्येन चोपरिवर्ति नाऽधोवर्तिना वा द्वाभ्यां च दिगदयावस्थिताभ्यां स्पृष्ट इत्येवं चतुर्भिः यश्चाध उपरि च तथा दिग्द्वये तत्रैव वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स पञ्चभिः यः पुनरध उपरि |च तथा दिक्त्रये तत्रैव च प्रवर्त्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स षभिः, यश्चाध उपरि च तथा दिक्चतुष्टये तत्रैव |च वर्तमानेन धर्मास्तिकायप्रदेशेन स्पृष्टः स सप्तभिर्धास्तिकायप्रदेशैः स्पृष्टो भवतीति १, एवमधर्मास्तिकायप्रदेशैरपि ।।
केवइएहिं आगासत्थिकायपएसेहिं ?, 'छहिंति एकस्य लोकाकाशप्रदेशस्यालोकाकाशप्रदेशस्य वा षडूदिग्व्यवस्थितैरेव स्पर्शनात् पद्भिरित्युक्तम् ३ जीवास्तिकायसूत्रे 'सिय पुढे'त्ति यद्यसौ लोकाकाशप्रदेशो विवक्षितस्ततः स्पृष्टः 'सिय |नो पुढे'त्ति यद्यसावलोकाकाशप्रदेशविशेषस्तदा न स्पृष्टो जीवानां तत्राभावादिति ४-५ एवं पुद्गलाद्वाप्रदेशैः ६॥'एगे भंते ! जीवत्थिकायप्पएसे'इत्यादि, जघन्यपदे लोकान्तकोणलक्षणे सर्वाल्पत्वात्तत्र स्पर्शकप्रदेशानां चतुभिरिति, कथम् ?, अध उपरि वा एको द्वौ च दिशोरेकस्तु यत्र जीवप्रदेश एवावगाढ इत्येवं, एकश्च जीवास्तिकायप्रदेश एकत्राकाशप्रदेशादौ केवलिसमुद्घात एव लभ्यत इति, 'उक्कोसपए सत्तहिति पूर्ववत्, 'एवं अहम्मत्यादि पूर्वोक्तानुसा
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व्याख्या प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
१३ शतके ४ उद्देशः अस्तिकायतत्प्रदेश स्पर्शना सू ४८२
॥१२॥
रेण भावनीयम् ६॥ धर्मास्तिकायादीनां ४ पुद्गलास्तिकायख चैकैकप्रदेशस्य स्पर्शनोक्ता, अथ तस्यैव द्विप्रदेशादिस्कन्धानां तां दर्शयन्नाह-दो भंते ! इत्यादि, इह चूर्णिकारव्याख्यानमिदं लोकान्ते द्विप्रदेशिका स्कन्ध एकप्रदेशस-1 मवगाढः स च प्रतिद्रव्यावगाहं प्रदेश इति नयमताश्रयणेनावगाहप्रदेशस्यैकस्यापि भिन्नत्वाद् द्वाभ्यां स्पृष्टः, तथा यस्स-1 स्योपर्यधस्ताद्वा प्रदेशस्तस्यापि पुद्गलद्वयस्पर्शनेन नयमतादेव भेदाद् द्वाभ्यां, तथा पार्श्वप्रदेशावेकैकमणुं स्पृशतः परस्परव्यवहितत्वाद् इत्येवं जघन्यपदे षड्भिर्धर्मास्तिकायप्रदेशैयणुकस्कन्धः स्पृश्यते, नयमतानङ्गीकरणे तु चतुभिरेव व्यणुकस्य जघन्यतः स्पर्शना स्यादिति" वृत्तिकृता स्वेवमुक्तम्- "इह यद्विन्दुद्वयं तत्परमाणुद्वयमिति मन्तव्यं तत्र चार्वाचीनः परमाणुधर्मास्तिकायप्रदेशेनास्थितेन स्पृष्टः, परभागवती च परतः स्थितेन एवं द्वौ, तथा | ययोः प्रदेशयोर्मध्ये, परमाणू स्थाप्येते तयोरग्रेतनाभ्यां प्रदेशाभ्यां तौ - स्पृष्टौ एकेनैको द्वितीयेन च द्वितीय इति चत्वारो
द्वौ चावगाढत्वादेव स्पृष्टावित्येवं षट् । उक्कोसपए बारसहिं'ति,कथं?,परमाणुद्वयेन द्वौ द्विप्रदेशावगाढत्वात्स्पृ ।। ष्टौ द्वौ |चाधस्तनौ उपरितनौ च द्वौ पूर्वापरपार्श्वयोश्च द्वौर दक्षिणोत्तरपार्श्वयोश्चैकैक इत्येवमेते द्वादशेति १। । । ।।।। एवमधर्मास्तिकायप्रदेशैरपि २,'केवतिएहिं आगासस्थिकायप्पएसेहिं ?,'बारसहिंति इह जघन्यपदं । नास्ति लोकान्तेऽप्याकाशप्रदेशानां विद्यमानत्वादिति द्वादशभिरित्युक्तं ३, 'सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स'त्ति, अयमर्थः-'दो भंते ! पोग्गलत्थिकायप्पएसा केवतिएहिं जीवत्थिकायप्पएसेहिं पुट्ठा ?, गोयमा ! अणंतेहिं ४ । एवं पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरपि ५, अद्धासमयैः स्यात् स्पृष्टौ स्यान्न, यदि स्पृष्टौ तदा नियमादनन्तैरिति ६॥"तिन्नि भंते!' इत्यादि, 'जहन्नपए
॥६१२॥
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अहिं'ति, कथं ?, पूर्वोक्तनयमतेनावगाढप्रदेशस्त्रिधा अधस्तनोऽप्युपरितनोऽपि वा त्रिधा द्वौ पार्श्वत इत्येवमष्टी, 'उकोसपए सत्तरसहिंति प्राग्वद्भावनीयं, इह च सर्वत्र जघन्यपदे विवक्षितपरमाणुभ्यो द्विगुणा द्विरूपाधिकाश्च | स्पर्शका प्रदेशा भवन्ति, उत्कृष्टपदे तु विवक्षितपरमाणुभ्यः पञ्चगुणा द्विरूपाधिकाश्च ते भवन्ति, तत्र चैकाणोर्द्विगुणत्वे
द्वौ द्वयसहितत्वे च चत्वारोजघन्यपदे स्पर्शकाः प्रदेशाः, उत्कृष्टपदे त्वेकाणोः पञ्चगुणत्वे द्विकसहितत्वे च सप्त स्पर्शकाः | प्रदेशा भवन्ति, एवं व्यणुकत्र्यणुकादिष्वपि, स्थापना चेयम्- पाचक परमाणुसंशया । एतदे। वाह-एवं एएणं गमएण'मित्यादि, आगासत्थिकायस्स ६ ८२० १२ १४ १६/१८ २०२२ जघन्यस्पर्श | सवत्थ उक्कोसपयं भाणियत्वं ति 'सर्वत्र' एकप्रदेशिकाद्यनन्तप्रदेशि १२१७ २२ २७३२ ३७४२ ४७५२ उत्कृष्टस्पर्श . | गणे उत्कृष्टपदमेवन जघन्यकमित्यर्थः आकाशस्य सर्वत्र विद्यमानत्वादिति ॥'संखेजा भंते !'इत्यादि, 'तेणेव'त्ति यत् ४ सङ्ख्येयकमयः स्कन्धस्तेनैव प्रदेशसङ्ख्येयकेन द्विगुणेन द्विरूपाधिकेन स्पृष्टः, इह भावना-विंशतिप्रदेशिकः स्कन्धो लो
कान्त एकप्रदेशे स्थितः स च नयमतेन विंशत्याऽवगाढप्रदेशैः विंशत्यैव च नयमतेनैवाधस्तनैरुपरितनैर्वा प्रदेशैः द्वाभ्यां दूच पार्श्वप्रदेशाभ्यां स्पृश्यत इति, उत्कृष्टपदे तु विंशत्या निरुपचरितैरवगाढप्रदेशैः, एवमधस्तनै २० रुपरितनैः २०
पूर्वापरपार्श्वयोश्च विंशत्या २० द्वाभ्यां च दक्षिणोत्तरपार्श्वस्थिताभ्यां स्पृष्टस्ततश्च विंशतिरूपः सङ्ख्याताणुकः स्कन्धः | पञ्चगुणया विंशत्या प्रदेशानां प्रदेशद्वयेन च स्पृष्ट इति, अत एव चोक्तम् 'उक्कोसपए तेणेव संखेजएणं पंचगुणेणं | दुरूवाहिएणं'ति ॥'असंखेज्जा' इत्यादौ षट्सूत्री तथैव ॥ 'अणंता भंते ! इत्यादिरपि षट्सूत्री तथैव, नवरमिह यथा
ANDROICROCARRORECAOOR-APER
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व्याख्या- जघन्यपदे औपचारिका अवगाहप्रदेशा अधस्तना उपरितना वा तथोत्कृष्टपदेऽपि, न हि निरुपचरिता अनन्ताआकाशप्र
|१३ शतके अभयदेवी- देशा अवगाहतः सन्ति, लोकस्याप्यसङ्ख्यातप्रदेशात्मकत्वादिति । इह च प्रकरणे इमे वृद्धोक्तगाथे भवतः-"धम्माइप
॥४ उद्देशः या वृत्तिः२/8
अस्तिकाएसेहिं दुपएसाई जहन्नयपयम्मि । दुगुणदुरूवहिएणं तेणेव कहं नु हु फुसेजा ? ॥१॥ एत्थ पुण जहन्नपयं लोगते तत्थ
|| यतत्प्रदेशलोगमालिहिउं । फुसणा दावेयवा अहवा खंभाइकोडीए ॥२॥” इति [ जघन्यपदे द्विप्रदेशादिर्द्विगुणद्विरूपाधिकैर्धर्मादिप्र॥६१२॥
स्पर्शना देशैस्तेनैव कथं नु स्पृशेत् ॥१॥ अत्र जघन्यपदं लोकान्ते ततो लोकमालिख्य स्पर्शनां दर्शयेद् अथवा स्तम्भादिको- सू ४८२ ट्याम् ॥२॥] 'एगे भंते ! अद्धासमए'इत्यादि, इह वर्तमानसमयविशिष्टः समयक्षेत्रमध्यवर्ती परमाणुरद्धासमयो ग्राह्यः, अन्यथा तस्य धर्मास्तिकायादिप्रदेशैः सप्तभिः स्पर्शना न स्यात् , इह च जघन्यपदं नास्ति, मनुष्यक्षेत्रमध्यवर्तित्वादद्धासमयस्य, जघन्यपदस्य च लोकान्त एव सम्भवादिति, तत्र सप्तभिरिति, कथम्?, अद्धासमयविशिष्टं परमाणुद्रव्यमेकत्र 8 धर्मास्तिकायप्रदेशेऽवगाढमन्ये च तस्य षट्सु दिश्विति सप्तेति, जीवास्तिकायप्रदेशैश्चानन्तैरेकप्रदेशेऽपि तेषामनन्तत्वात् , |'एवं जाव अद्धासमएहिं ति, इह यावत्करणादिदं सूचितम्-एकोऽद्धासमयोऽनन्तैः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरद्धासमयैश्च स्पृष्ट || इति, भावना चास्यैवम्-अद्धासमयविशिष्टमणुद्रव्यमद्धासमयः, स चैकः पुद्गलास्तिकायप्रदेशैरनन्तैः स्पृश्यते, एकद्र-15 व्यस्य स्थाने पार्वतश्चानन्तानां पुद्गलानां सद्भावात् , तथाऽद्धासमयैरनन्तरसौ स्पृश्यते अद्धासमयविशिष्टानामनन्ता- ॥१२॥ नामप्यणुद्रव्याणामद्धासमयत्वेन विवक्षितत्वात् तेषां च तस्य स्थाने तत्पार्श्वतश्च सद्भावादिति ॥ धर्मास्तिकायादीनां प्रदेशतः स्पर्शनोक्ताऽथ द्रव्यतस्तामाह-'धम्मत्थिकाएण'मित्यादि, 'नत्थि एगेणवि'त्ति सकलस्य धर्मास्तिकायद्-18
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व्यस्य प्रश्नितत्वात् तद्व्यतिरिक्तस्य च धर्मास्तिकायप्रदेशस्याभावादुक्तं नास्ति-न विद्यतेऽयं पक्षो यदुत एकेनापि धर्मास्तिकायप्रदेशेनासौ धर्मास्तिकायः स्पृष्ट इति, तथा धर्मास्तिकायोऽधर्मास्तिकायप्रदेशैरसङ्ख्येयैः स्पृष्टो, धर्मास्तिकायप्रदेशानन्तर एव व्यवस्थितत्वादधर्मास्तिकायसम्बन्धिनामसङ्ग्यातानामपि प्रदेशानामिति, आकाशास्तिकायप्रदेशैरप्यसङ्ख्येयैः, असङ्ख्ययप्रदेशस्वरूपलोकाकाशप्रमाणत्वाद्धर्मास्तिकायस्य, जीवपुद्गलप्रदेशैस्तु धर्मास्तिकायोऽनन्तैः स्पृष्टः, तळ्याप्त्या धर्मा| स्तिकायस्यावस्थितत्वात्तेषां चानन्तत्वात् , अद्धासमयैः पुनरसौ स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च, तत्र यः स्पृष्टः सोऽनन्तैरिति । एवमधदास्तिकायस्य ६ आकाशास्तिकायस्य ६ जीवास्तिकायस्य ६ पुद्गलास्तिकायस्य ६ अद्धासमयस्य च ६ सूत्राणि वाच्यानि,
केवलं यत्र धर्मास्तिकायादिस्तत्प्रदेशैरेव चिन्त्यते तत्स्वस्थानमितरच्च परस्थानं, तत्र स्वस्थाने 'नत्थि एगेणवि पुढे' इति निर्वचनं वाच्यं, परस्थाने च धर्मास्तिकायादित्रयसूत्रेषु ३ असङ्ख्येयैः स्पृष्ट इति वाच्यं, असङ्ख्यातप्रदेशत्वाद्धर्माधर्मास्ति| काययोस्तत्संस्पृष्टाकाशस्य च, जीवादित्रयसूत्रेषु चानन्तैः प्रदेशैः स्पृष्ट इति वाच्यं, अनन्तप्रदेशत्वात्तेषामिति, एतदेव दर्शयन्नाह–'एवं एएणं गमएण'मित्यादि, इह चाकाशसूत्रेऽयं विशेषो द्रष्टव्यः-आकाशास्तिकायो धर्मास्तिकायादिप्र| देशैः स्पृष्टश्चास्पृष्टश्च, तत्र यः स्पृष्टः सोऽसङ्ख्येयैर्धर्माधर्मास्तिकाययोः प्रदेशैर्जीवास्तिकायादीनां त्वनन्तैरिति, 'जाव अद्धासमओ'त्ति अद्धासमयसूत्रं यावत् सूत्राणि वाच्यानीत्यर्थः, 'जाव केवइएहिं' इत्यादौ यावत्करणादद्धासमयसूत्रे आद्य है। पदपञ्चकं सूचितं षष्ठं तु लिखितमेवास्ते, तत्र तु 'नत्थि एक्केणवित्ति निरुपचरितस्याद्धासमयस्यैकस्यैव भावात् , अतीतानागतसमययोश्च विनष्टानुत्पन्नत्वेनासत्त्वान्न समयान्तरेण स्पृष्टताऽस्तीति ॥ अथावगाहद्वारं, तत्र
व्या
.
१.३
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- AAKIL५या.
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
CHROUGUSARAS
॥६१३॥
जत्थ णं भंते ! एगे धम्मत्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा ?, नत्थि |१३ शतके एकोवि, केवतिया अहम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा ?, एक्को, केवतिया आगासत्थिकाय?, एको, केवतिया है
अस्तिकायजीवत्थि०१, अणंता, केवतिया पोग्गलत्थि०१, अणंता, केवतिया अद्धासमया ?, सिय ओगाढा सिय नो
* तत्प्रदेशावओगाढा जइ ओगाढा अणंता । जत्थ णं भंते ! एगे अहम्मत्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्म
|| गाहः सू थि, एको, केवतिया अहम्मत्थि०१, नस्थि एकोवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स। जत्थ णं भंते ! एगे आ-|
४८३ गासत्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय?, सिय ओगाढा सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा कायानांपएको, एवं अहम्मत्थिकायपएसावि, केवइया आगासत्थिकाय?, नथि एकोवि, केवतिया जीवत्थि०१, रस्परावगा. सिय ओगाढा सिय नो ओगाढा, जइ ओगाढा अणंता, एवं जाव अडासमया । जत्थ णं भंते ! एगे जीवथिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थि.?, एको, एवं अहम्मत्थिकाय०, एवं आगासत्थिकायपएसावि, केवतिया जीवत्थि०१, अणंता, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । जत्थ णं भंते !एगे पोग्गलत्थिकायपएसे ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय?, एवं जहा जीवत्थिकायपएसे तहेव निरवसेसं । जत्थ णं भंते ! दो पोग्गलत्थिकायपदेसा ओगाढा तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय?, सिय एको सिय दोन्नि, एवं अहम्मत्थि
ता॥६१३॥ कायस्सवि, एवं आगासत्थिकायस्सवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स । जत्थ णं भंते ! तिन्नि पोग्गलत्थि० तत्थ केवइया धम्मत्थिकाय?, सिय एक्को सिय दोन्नि सिय तिन्नि, एवं अहम्मत्थिकायस्सवि, एवं आगा
K
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सथिकायस्सवि, सेसं जहेव दोण्हं, एवं एकेको वड्डियत्वो पएसो आइल्लएहिं तिहिं अस्थिकाएहिं, सेसं जहेव दोण्हं जाव दसण्हं सिय एक्को सिय दोन्नि सिय तिन्नि जाव सिय दस, संखेजाणं सिय एक्को सिय दोन्नि जाव सिय दस सिय संखेजा, असंखेजाणं सिय एको जाव सिय संखेजा सिय असंखेजा, जहा असंखेज्जा एवं अणंतावि । जत्थ णं भंते ! एगे अद्धासमए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थि०१, एको, केवतिया अहम्मत्थि० १, एक्को, केवतिया आगासत्थि० ?, एको, केवइया जीवत्थि०१, अणंता, एवं जाव अद्धासमया। जत्थ णं भंते ! धम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकायप० ओगाढा १, नत्थि एकोवि, केवतिया अहम्मत्थिकाय?, असंखेजा, केवतिया आगास ?, असंखेजा, केवतिया जीवस्थिकाय?, अणंता, एवं | जाव अद्धासमया । जत्थ णं भंते ! अहम्मत्थिकाए ओगाढे तत्थ केवतिया धम्मत्थिकाय, असंखेजा, केवतिया अहम्मस्थि०१, नत्थि एकोवि, सेसं जहा धम्मत्थिकायस्स, एवं सबे, सहाणे नत्थि एक्कोवि भाणियवं, परहाणे आदिल्लगा तिन्नि असंखेज्जा भाणियबा, पच्छिल्लगा तिन्नि अणंता भाणियवा जाव अद्धासमओत्ति जाव केवतिया अद्धासमया ओगाढा नत्थि एक्कोवि (सूत्रं४८३)॥ जत्थणं भंते! एगे पुढविकाइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढविक्काइया ओगाढा ?, असंखेज्जा, केवतिया आउक्काइया ओगाढा?, असंखेजा, केवइया | तेउकाइया ओगाढा ?, असंखेजा, केवइया वाउ० ओगाढा ?, असंखेजा, केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ?, अणंता । जत्थ णं भंते!एगे आउकाइए ओगाढे तत्थ णं केवतिया पुढवि० असंखेजा, केवतिया आउ.
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व्याख्या-15 असंखेज्जा, एवं जहेव पुढविकाइयाणं वत्तवता तहेव सवेसिं निरवसेसं भाणियवं जाव वणस्सइकाइयाणं|४|१३ शतके प्रज्ञप्तिः
|जाव केवतिया वणस्सइकाइया ओगाढा ?, अणंता (सूत्रं ४८४)॥ अभयदेवी
४ उद्देशः | 'जत्थ णं भंते 'इत्यादि, यत्र प्रदेशे एको धर्मास्तिकायस्य प्रदेशोऽवगाढस्तत्रान्यस्तत्प्रदेशो नास्तीतिकृत्वाऽऽह- या वृत्तिः२/
अस्ति काय'नथि एकोवित्ति, धर्मास्तिकायप्रदेशस्थानेऽधर्मास्तिकायप्रदेशस्य विद्यमानत्वादाह-'एक्को'त्ति, एवमाकाशास्तिकायस्या
तत्प्रदेशाव॥६१४॥ प्येक एव, जीवास्तिकायपुद्गलास्तिकाययोः पुनरनन्ताः प्रदेशा एकैकस्य धर्मास्तिकायप्रदेशस्य स्थाने सन्ति तैः प्रत्येकमन-|
| गाहा सू
४८४ ताप्तोऽसावत उक्तम्-'अणंत'त्ति, अद्धासमयास्तु मनुष्यलोक एव सन्ति न परतोऽतो धर्मास्तिकायप्रदेशे तेषाम| वगाहोऽस्ति नास्ति च, यत्रास्ति तत्रानन्तानां भावना तु प्राग्वत्, एतदेवाह-'अद्धासमयेत्यादि । 'जस्थण'मित्यादी
कायानांप
रस्परावगान्यधर्मास्तिकायसूत्राणि षड् धर्मास्तिकायसूत्राणीव वाच्यानि, आकाशास्तिकायसूत्रेषु 'सिय ओगाढा सिय नो ओ-हासू ४८४ गाढ'त्ति लोकालोकरूपत्वादाकाशस्य लोकाकाशेऽवगाढा अलोकाकाशे तु न तदभावात् ॥'जत्थ णं भंते ! पोग्गल|त्थिकायपएसें'त्यादि, 'सिय एको सिय दोन्नि'त्ति यदैकत्राकाशप्रदेशे व्यणुकः स्कन्धोऽवगाढः स्यात्तदा तत्र धर्मा| स्तिकायप्रदेश एक एव, यदा तुद्वयोराकाशप्रदेशयोरसाववगाढः स्यात्तदा तत्र द्वा धर्मप्रदेशाववगाडी स्यातामिति, |एवमवगाहनानुसारेणाधर्मास्तिकायाकाशास्तिकाययोरपि स्यादेकः स्यावाविति भावनीयं, 'सेसं जहा धम्मस्थिकाय-||2| टू स्स'त्ति शेषमित्युक्तापेक्षया जीवास्तिकायपुद्गलास्तिकायाद्धासमयलक्षणं त्रयं यथा धर्मास्तिकायप्रदेशवक्तव्यतायामुक्त ४ तथा पुद्गलप्रदेशद्वयवक्तव्यतायामपि, पुद्गलप्रदेशद्वयस्थाने तदीया अनन्ताः प्रदेशा अवगाढा इत्यर्थः । पुद्गलप्रदेशत्रयसू-I||१४॥
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त्रेषु 'सिय इको' इत्यादि, यदा त्रयोऽप्यणव एकत्रावगाढास्तदा तत्रैको धर्मास्तिकायप्रदेशोऽवगाढः, यदा तु द्वयो ११२ स्तदा द्वाववगाढौ, यदा तु त्रिषु । १ । १ । १ । तदा त्रय इति, एवमधर्मास्तिकायस्याकाशास्तिकायस्य च वाच्यं, 'सेसं जहेव दोहं'ति 'शेष' जीवपुद्गलाद्धासमयाश्रितं सूत्रत्रयं यथैव द्वयोः पुद्गलप्रदेशयोरवगाहचिन्तायामधीतं तथैव | पुद्गलप्रदेशत्रयचिन्तायामप्यध्येयं, पुद्गलप्रदेश त्रयस्थानेऽनन्ता जीवप्रदेशा अवगाढा इत्येवमध्येयमित्यर्थः, 'एवं एक्केको वयवो पएसो आइल्लेहिं तिहिं २ अस्थिकाए हिं'ति यथा पुद्गलप्रदेशत्रयावगाहचिन्तायां धर्मास्तिकायादिसूत्रत्रये | एकैकः प्रदेशो वृद्धिं नीतः एवं पुद्गलप्रदेशचतुष्टयाद्यवगाह चिन्तायामप्येकैकस्तत्र वर्द्धनीयः, तथाहि - ' जत्थ णं भंते! चत्तारि पुग्गलत्थिकायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवइया धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा १, सिय एक्को सिम दोनि सिय तिन्नि सिय चत्तारि' इत्यादि, भावना चास्य प्रागिव, 'सेसेहिं जहेव दोहं'ति शेषेषु जीवास्तिकायादिषु त्रिषु सूत्रेषु पुङ्गलप्रदेशचतुष्टय चिन्तायां तथा वाच्यं यथा तेष्वेव पुद्गलप्रदेशद्वयावगाहचिन्तायामुक्तं तच्चैवं - ' जत्थ णं भंते ! चित्तारि पोग्गलत्थि कायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवतिया जीवत्थिकायप्पएसा ओगाढा ?, अनंता' इत्यादि, 'जहा असंखेज्जा एवं अणंतावित्ति, अस्यायं भावार्थ:- ' जत्थ णं भंते ! अनंता पोग्गलत्थिकायप्पएसा ओगाढा तत्थ केवतिया | धम्मत्थिकायप्पएसा ओगाढा ?, सिय एक्को सिय दोन्नि जाव सिय असंखेज्जा' एतदेवाध्येयं न तु 'सिय अनंत'ति, धर्मास्तिकायाधर्मास्तिकाय लोकाकाशप्रदेशानामनन्तानामभावादिति ॥ अथ प्रकारान्तरेणावगाहद्वारमेवाह - ' जत्थ ण'मित्यादि, धर्मास्तिकायशब्देन समस्ततत्प्रदेश सङ्ग्रहात प्रदेशान्तराणां चाभावादुच्यते यत्र धर्मास्तिकायोऽवगाढस्तत्र
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६१५॥
| नास्त्ये कोऽपि तत्प्रदेशोऽवगाढ इति, अधर्मास्तिकायाकाशास्तिकाययोरसङ्ख्येयाः प्रदेशा अवगाढा असतोयप्रदेशत्वा| दधर्मास्तिकाय लोकाकाशयोः, जीवास्तिकायसूत्रे चानन्तास्तत्प्रदेशाः, अनन्तप्रदेशत्वाज्जीवास्तिकायस्य, पुद्गलास्तिकायसूत्राद्वासूत्रयोरप्येवं, एतदेवाह - ' एवं जाव अद्धासमय'त्ति ॥ अथैकस्य पृथिव्यादिजीवस्य स्थाने कियन्तः पृथिव्यादिजीवा अवगाढाः ? इत्येवमर्थं 'जीवमोगाढ'त्ति द्वारं प्रतिपादयितुमाह - ' जत्थ णं भंते! एगे पुढविकाइए' इत्यादि, | एकपृथिवीकायिकावगाहेऽसङ्ख्येयाः प्रत्येकं पृथिवीकायिकादयश्चत्वारः सूक्ष्मा अवगाढाः, यदाह - ' जत्थ एगो तत्थ नियमा असंखेज्ज'त्ति, वनस्पतयस्त्वनन्ता इति ॥ अथास्तिकायप्रदेशनिषदनद्वारं, तत्र च
एयंसि णं भंते ! धम्मत्थिकाय० अधम्मत्थिकाय० आगासत्धिकायंसि चक्किया केई आसइत्तए वा चिट्ठि त्तए वा निसीइत्तए वा तुइट्टित्तए वा ?, नो इणट्ठे समट्ठे, अनंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ एतंसि णं धम्मत्थि० जाव आगासत्थिकार्यंसि णो चक्किया केई आसइत्तए वा जाव ओगाढा ?, गोयमा ! से जहा नामए - कूडागारसाला सिया दुहओ लित्ता गुप्ता गुत्तदुवारा जहा रायप्पसेणइज्जे जाव दुवारवयणाई पिहेइ दु० २ तीसे कूडागारसालाए बहुमज्झदेसभाए जहनेणं एक्को वा दो वा तिन्नि वा उक्कोसेणं पदीवसहस्सं पलीवेज्जा, से नूणं गोयमा ! ताओ पदीवलेस्साओ अन्नमन्नसंबद्धाओ अन्नमन्नपुट्ठाओ जाव अन्नमन्नघडत्ताए चिट्ठति ?, हंता चिति, चक्किया णं गोयमा ! केई तासु पदीवलेस्सासु आसइत्तए
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१३ शतके ४ उद्देशः धर्मास्तिका
यादावास
नाद्यभावः
सू ४८५
॥६१५॥
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वा जाव तुयहित्तए वा ?, भगवं ! णो तिणढे समढे, अणंता पुण तत्थ जीवा ओगाढा. से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव ओगाढा (सूत्रं ४८५)॥ __ 'एयंसि ण'मित्यादि, एतस्मिन् णमित्यलङ्कारे 'चक्किय'त्ति शक्नुयात्कश्चित् पुरुषः ॥ अथ बहुसमेति द्वारं, तत्र
कहि णं भंते ! लोए बहुसमे ? कहिणं भंते ! लोए सबविग्गहिए पण्णत्ते ?, गोयमा ! इमीसे रयणप्पभाए | पुढवीए उवरिमहेहिल्लेसु खुड्डागपयरेसु एत्थ णं लोए बहुसमे एत्थ णं लोए सबविग्गहिए पण्णत्ते । कहि णं भंते!विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते?,गोयमा ! विग्गहकंडए एत्थ णं विग्गहविग्गहिए लोए पण्णत्ते(सूत्रं४८६)।
'कहि 'मित्यादि, 'बहुसमे'त्ति अत्यन्तं समः, लोको हि क्वचिद्वर्द्धमानः क्वचिद्धीयमानोऽतस्तन्निषेधाद्वहुसमो वृद्धिहानिवर्जित इत्यर्थः 'सबविग्गहिए'त्ति विग्रहो वक्र लघुमि(रि)त्यर्थः तदस्यास्तीति विग्रहिकः सर्वथा विग्रहिकः सर्व|| विग्रहिकः सर्वसङ्क्षिप्त इत्यर्थः, "उवरिमहेडिल्लेसु खुड्डागपयरेसु'त्ति उपरिमो यमवधीकृत्योद्धे प्रतरवृद्धिः प्रवृत्ता, अधस्तनश्च यमवधीकृत्याधः प्रतरप्रवृद्धिः प्रवृत्ता, ततस्तयोरुपरितनाधस्तनयोः क्षुल्लकप्रतरयोः शेषापेक्षया लघुतरयो रज्जुप्रमाणायामविष्कम्भयोस्तिर्यग्लोकमध्यभागवर्तिनोः 'एत्थ णति एतयोः-प्रज्ञापकेनोपदर्यमानतया प्रत्यक्षयोः 'विग्गह
विग्गहिए'त्ति विग्रहो-वक्रं तयुक्तो विग्रहः-शरीरं यस्यास्ति स विग्रहविग्रहिकः, 'विग्गहकंडए'त्ति विग्रहो-वर्क ४ कण्डक-अवयवो विग्रहरूपं कण्डक-विग्रहकण्डकं तत्र ब्रह्मलोककूपर इत्यर्थः यत्र वा प्रदेशवृद्ध्या हान्या वा वकं भवति * तद्विग्रहकण्डकं, तच्च प्रायो लोकान्तेष्वस्तीति ॥ अथ लोकसंस्थानद्वारं, तत्र च
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६१६॥
किंसंठिए णं भंते ! लोए पण्णत्ते ?, गोयमा ! सुपइट्ठियसंठिए लोए पण्णत्ते, हेट्ठा विच्छिन्ने मज्झे जहा सप्तमसए पढमुद्देसे जाव अंतं करेति ॥ एयस्स णं भंते ! अहेलोगस्स तिरियलोगस्स उडलोगस्स य कयरे २हिंतो जाव विसेसाहिया वा १, गोयमा । सवत्थोवे तिरियलोए उहलोए असंखेज्जगुणे अहेलोए बिसेसाहिए। सेवं भंते सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ४८७ ) ॥ १३४ ॥
'सवत्थोवे तिरियलोए'त्ति अष्टादशयोजनशतायामत्वात्, 'उडलोए असंखेज्जगुणे'त्ति किश्चिन्यून सप्तरज्जूच्छ्रितत्वात् 'अहे लोए विसेसाहिए' त्ति किञ्चित्समधिकसप्तरज्जूच्छ्रितत्वादिति ॥ त्रयोदशशते चतुर्थः ॥ १३४ ॥
अनन्तरोद्देशके लोकस्वरूपमुक्तं, तत्र च नारकादयो भवन्तीति नारकादिवतव्यतां पञ्चमोद्देशकेनाह, तस्य |चेदमादिसूत्रम् -
नेरयाणं भंते! किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहारा ?, गोयमा ! नो सचित्ताहारा अचित्ताहारा नो मीसाहारा, एवं असुरकुमारा पढमो नेरइयउद्देसओ निरवसेसो भाणियो । सेवं भंते । सेवं भंतेत्ति ( सूत्रं ४८८ ) ।। १३-५ ॥
'नेरइया णं भंते !' इत्यादि, 'पढमो नेरइयउद्देसओ' इत्यादि, अयं च प्रज्ञापनायामष्टाविंशतितमस्याहारपदस्य प्रथमः, स चैवं दृश्यः - 'नेरइया णं भंते! किं सचित्ताहारा अचित्ताहारा मीसाहारा १, गोयमा ! नो सचित्ताहारा अचिताहारा नो मीसाहारा ।' 'एवं असुरकुमारे'त्यादीति ॥ त्रयोदशशते पञ्चमः ॥ १३५ ॥
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१३ शतके ४ उद्देशः लोकसंस्थानाल्पबहुत्वे
सू ४८६
१३ शतक
५ उद्देशः नारकादी
नामाहारः
सू ४८८
॥६१६॥
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अनन्तरोदेशके नारकादिवक्तव्यतोता षष्ठेऽपि सैवोच्यते इत्येवंसम्बन्धस्यास्येदमादिसूत्रम् -
रायगिहे जाव एवं वयासी-संतरं भंते! नेरतिया उबवज्जंति निरंतरं नेरइया उबवजंति 2, गोयमा ! संतरंपि नेरइया उबव० निरंतरंपि नेरइया उबवज्रंति, एवं असुरकुमारावि, एवं जहा गंगेये लहेब दो दंडगा जाव संतरंपि वैमाणिया चयंति निरंतरंपि बेमाणिया चयंति ( सूत्रं ४८९ ) ॥
'रायगिहे ' इत्यादि, 'गंगेए 'त्ति नवमशतद्वात्रिंशत्तमोद्देशकाभिहिते 'दो दंडग' त्ति उत्पत्तिदण्डक उद्वर्त्तनादण्डकश्चेति ॥ अनन्तरं वैमानिकानां च्यवनमुक्तं, ते च देवा इति देवाधिकाराच्चमराभिधानस्य देवविशेषस्याबास विशेषरूपणायाह
कहिनं ते ! चमरस्स असुरिंदस्स असुररनो चमरचंचा नामं आवासे पण्णत्ते ? गोयमा ! जंबुद्दीवे २ मंदरस्स पञ्चयस्स दाहिणेणं तिरियमसंखेज्जे दीवसमुद्दे एवं जहा बितियए सभाए उद्देसए बत्तश्या सचेव अपरिसेसा नेयवा नवरं इमें नाणत्तं जाब तिमिच्छकूडस्स उप्पायपनयस्स चमरचंचाए रायहाणीए चमरचं चरस आवासपवयस्स अन्नेसिं च बहूणं सेसं तं चैव जाव तेरस य अंगुलाई अर्द्धगुलं च किंचिविसेसा० परिक्खेवेणं, तीसे णं चमर चंचाए रायहाणीए दाहिणपञ्चच्छिमेणं छक्कोडिसए पणपन्नं च कोडीओ पणतीसं च सयसहस्साई पन्नासं च सहस्साइं अरुणोद्गसमुदं तिरियं वीइवइत्ता एत्थ णं चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचे नामं आवासे पण्णत्ते, चउरासीइं जोयणसहस्साइं आयामविक्खंभेणं दो जोयणसयसहस्सा पन्नट्ठि च सहस्साइं छच्चबत्ती से जोयणसए किंचिविसेसाहिए परिक्रखेवेणं, से णं एमेणं पागारेणं
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व्याख्या सवओ संमता संपरिक्खित्ते, से णं पागारे दिवडे जोयणसयं उहूं उच्चत्तेणं एवं चमरचंचाए रायहा-||१३ शतके प्रज्ञप्तिः णीए वत्तवया भाणियवा सभाविहणा जाव चत्तारि पासायपंतीओ। चमरे णं भंते ! असुरिंदे असुरकु-8 ६ उद्देशः अभयदेवी-द मारराया चमरचंचे आवासे वसहिं उवेति ?, नो तिणढे समढे, से केणं खाइ अटेणं भंते ! एवं वुचइ चम- नारकोत्पाया वृत्तिः२
रचंचे आवासे च०२१, गोयमा ! से जहानामए-इहं मणुस्सलोगंसि उवगारियलेणाइ वा उजाणियलेणाइ वा | दोद्वर्त्तनादि ॥१७॥ |णिज्जाणियलेणाइ वा धारिवारियलेणाइ वा तत्थ णं बहवे मणुस्सा य मणुस्सीओ य आसयंति सयंति जहा|| सू ४८९ रायप्पसेणइज्जे जाव कल्लाणफलवित्तिविसेसं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति अन्नत्थ पुण वसहिं उति, एवामेव
चमरचञ्च
आवासः |गोयमा ! चमरस्स असुरिंदस्स असुरकुमाररन्नो चमरचंचे आवासे केवलं किड्डारतिपत्तियं अन्नत्थ पुण
सू४९० वसहि उति से तेण जाव आवासे, सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरइ (सूत्रं ४९०)॥
'कहिण्णं भंते ! इत्यादि, 'समाविहणं ति सुधर्माद्याः पञ्चेह सभा न वाच्याः, कियद्रं यावदियमिह चमरचंचा-| राजधानीवक्तव्यता भणितव्या ? इत्याह-जाव चत्तारि पासायपंतीओ'त्ति ताश्च प्राक् प्रदर्शिता एवेति, 'उवगा| रियलेणाइ वत्ति 'औपकारिकलयनानि' प्रासादादिपीठकल्पानि 'उज्जाणियलेणाइ वत्ति उद्यानगतजनानामुपकारिकगृहाणि नगरप्रदेशगृहाणि वा 'णिज्जाणियलेणाइ वत्ति नगरनिर्गमगृहाणि 'धारिवारियलेणाइव'त्ति धाराप्रधानं वारि
X ॥६१७॥ जलं येषु तानि धारावारिकाणि तानि च तानि लयनानि चेति वाक्यम् 'आसयंति'त्ति 'आश्रयन्ते' ईषद्भजन्ते 'सयं-14 तित्ति 'श्रयन्ते' अनीषद्भजन्ते, अथवा 'आसयंति' ईषत्स्वपन्ति 'सयंति' अनीषत्स्वपन्ति 'जहा रायप्पसेणइज्जेत्ति
HASSASIGURARARASI
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18 अनेन यत्सूचितं तदिदं-चिट्ठति' ऊर्द्धस्थानेन तेषु तिष्ठन्ति 'निसीयंति' उपविशन्ति 'तुयति' निषण्णा आसते ||४|| दाहसंति' परिहासं कुर्वन्ति 'रमन्ते' अक्षादिना रतिं कुर्वन्ति 'ललन्ति' ईप्सितक्रियाविशेषान् कुर्वन्ति 'कीलंति' काम
क्रीडां कुर्वन्ति 'किडेति' अन्तर्भूतकारितार्थत्वादन्यान् क्रीडयन्ति 'मोहयन्ति' मोहन-निधुवनं विदधति । 'पुरापो|| राणाणं सुचिन्नाणं सुपरिकंताणं सुभाणं कडाणं कम्माणं'ति व्याख्या चास्य प्राग्वदिति, 'वसहिं उति'त्ति ||8| |वासमुपयान्ति, 'एवामेवे'त्यादि, 'एवमेव' मनुष्याणामोपकारिकादिलयनवच्चमरस्य ३ चमरचञ्च आवासो न निवास-1 स्थानं केवलं किन्तु 'किड्डारइपत्तियंति क्रीडायां रतिः-आनन्दः क्रीडारतिः अथवा क्रीडा च रतिश्च क्रीडारती सा ते वा प्रत्ययो-निमित्तं यत्र तत् क्रीडारतिप्रत्ययं तत्रागच्छतीति शेषः ॥ अनन्तरमसुरकुमारविशेषावासवक्तव्यतोक्ता, | || | असुरकुमारेषु च विराधितदेशसर्वसंयमा उत्पद्यन्ते ततश्च तेषु योऽत्र तीर्थे उत्पन्नस्तद्दर्शनायोपक्रमते
तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कयाइ रायगिहाओ नगराओ गुणसिलाओ जाव विहरइ । तेणं कालेणं तेणं समएणं चंपा नाम नयरी होत्था वन्नओ पुन्नभद्दे चेइए वन्नओ, तए णं समणे भगवं महावीरे अन्नया कदाइ पुवाणुपुत्विं चरमाणे जाव विहरमाणे जेणेव चंपा नगरी जेणेव पुन्नभद्दे चेतिए तेणेव उवाग० २ जाव विहरइ, तेणं कालेणं २ सिंधुसोवीरेसु जणवएसु वीतीभए नामं नगरे होत्था वन्नओ, तस्स णं वीतीभयस्स नगरस्स बहिया उत्तरपुरच्छिमे दिसीभाए एत्थ णं मियवणे नामं उज्जाणे होत्था सबोउय० वन्नओ, तत्थ णं वीतीभए नगरे उदायणे नामं राया होत्था महया वन्नओ, तस्स णं उदायणस्स रन्नो प
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व्याख्याअभयदेवी
या वृत्तिः
॥ ६१८ ।।
भावती नामं देवी होत्था सुकुमाल० वन्नओ, तस्स णं उदायणस्स रन्नो पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए अभी|तिनामं कुमारे होत्था सुकुमाल जहा सिवभद्दे जाव पचुवेक्खमाणे विहरति, तस्स णं उदायणस्स रन्नो नियए भायणेज्जे केसीनामं कुमारे होत्था सुकुमाल जाव सुरूवे, से णं उदायणे राया सिंधुसोवीरप्पामो क्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं वीती भयप्पामोक्खाणं तिन्हं तेसहीणं नगरागरसयाणं महसेणण्या मोक्खाणं दसहं राईणं बद्धमउडाणं विदिन्नछत्तचामरवालवीयणाणं अन्नेसिं च बहूणं राईसरतलबरजाव सत्थवाहप्प| भिईणं आहेवच्चं जाव कारेमाणे पालेमाणे समणोवासए अभिगयजीवाजीवे जाव विहरह। तए से उदायणे राया अन्नया कयाइ जेणेव पोसहसाला तेणेव उवागच्छइ जहा संखे जाव विहस्य । तए णं तस्स उदायणस्स रन्नो पुवरत्ताश्च रसकालसमयंसि धम्मजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूये अभत्पिए आम समुप्यज्जित्था धन्ना णं ते गामागरनगरखेड कडमडंब दोण मुह पट्टणासम संवाह सन्निकेला जत्थ णं समणे भगवं महावीरे विहरह, धन्ना णं ते राईसरतलवरजावसत्थवाहप्पभिईओ जे णं समणं भगवं महाबीरं बंदंति नमंसंति जात्र पज्जुवासंति, जइ पां समणे भगवं महाघीरे पुषाणुपुषिं चरमाणे गामाणुगामं जाव विहरमाणे इह| मागच्छेजा इह समोसरेजा इहेब बीतीभयस्स नगरस्स बहिया मियवणे उज्जाणे अहापडिरू उग्गहं गिव्हित्ता संजसेणं तबसा जाव विहरेजा तो णं अहं समणं भगवं महावीरं वंदेवा नम॑सेजा जाब पडवा सेजा, तए णं समणे भगवं महावीरे उदायणस्स रन्नो अयमेयारूवं अन्भत्थियं जाव समुत्पन्नं विपाणिता चंपाओ
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१३ शतके ६ उद्देशः उदायनामी चिवक्तव्य
ता सू ४९१
॥६१८॥
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नगरीओ पुन्नभद्दाओ चेइयाओ पडिनिक्खमति पडिनि०२ पुवाणुपुत्विं चरमाणे गामाणु० जाव विहरमाणे जेणेव सिंधुसोवीरे जणवए जेणेव वीतीभये णगरे जेणेव मियवणे उजाणे तेणेव उवा०२ जाव विहरति । तए णं वीतीभये नगरे सिंघाडगजाव परिसा पजुवासइ । तए णं से उदायणे राया इमीसे कहाए लट्टे समाणे हद्वतुट्ट० कोडंबियपुरिसे सद्दावेति को०२ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! वीयीभयं नगर सभितरवाहिरियं जहा कूणिओ उववाइए जाव पजुवासति, पभावतीपामोक्खाओ देवीओ तहेव जाव पजवासंति, धम्मकहा । तए णं से उदायणे राया समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियं धम्म सोचा निसम्म हहतुढे उठाए उढेइ २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो जाव नमंसित्ता एवं वयासी-एवमेयं भंते ! तहमेयं भंते ! जाव से जहेयं तुज्झे वदहत्तिकट्ट जं नवरं देवाणुप्पिया ! अभीयिकुमारं रज्जे ठावेमि, तए णं अहं देवाणुप्पियाणं अंतिए मुंडे भवित्ता जाव पचयामि, अहासुहं देवाणुप्पिया! मा पडिबंधं । तए णं से उदायणे राया समणेणं भगवया महावीरेणं एवं वुत्ते समाणे हद्वतुढे समणं भगवं महावीरं वंदति नमंसति २ तमेव आभिसेकं हत्थि दुरूहइ २त्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स अंतियाओ मियवणाओ उजाणाओ पडिनिक्खमति प० २ जेणेव वीतीभये नगरे तेणेव पहारेत्थ गमणाए । तए णं तस्स उदायणस्स | रन्नो अयमेयारूवे अन्भत्थिए जाव समुप्पज्जित्था-एवं खलु अभीयीकुमारे ममं एगे पुत्ते इट्टे कंते जाव किमंग पुण पासणयाए, तं जति णं अहं अभीयीकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओमहावीरस्स अंतियं
व्या.१०४ Jain Education Internatonal
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व्याख्या- मुंडे भवित्ताजाव पव्वयामि तो णं अभीयीकुमारेरजे यरटे य जाव जणवए माणुस्सएसु य कामभोमेसु मुच्छिए १३ शतके प्रज्ञप्तिः गिद्धे गढिए अज्झोववन्ने अणादीयं अणवदग्गं दीहमळू चाउरंतसंसारकतारं अणुपरियहिस्सइ, तं नो खलु उद्देशः ६ अभयदेवीमे सेयं अभीयीकुमारं रज्जे ठावेत्ता समणस्स भगवओ महावीरस्स जाव पवइत्तए, सेयं खलु मेणियगं भा
उदायनामी या वृत्तिः२ ६ इणेज केसिं कुमारं रजे ठावेत्ता समणस्स भगवओ जाव पवइत्तए, एवं संपेहेइ एवं संपे० २
चिवक्तव्य
बता सू४९१ ॥६१९॥
जेणेव वीतीभये नगरे तेणेव उवागच्छह २ वीतीभयं नगरं मज्झमज्झेणं जेणेव सए गेहे जेणेव बाहिरिया उवट्ठाणसाला तेणेव उवाग० २ आभिसेकं हत्थिं ठवेति आभि० २ आभिसेक्काओ हत्थीओ पच्चोरुभइ आ०२ जेणेव सीहासणे तेणेव उवागच्छति २ सीहासणवरंसि पुरस्थाभिमुहे निसीयति नि० २ कोडंबियपुरिसे सहावेति को०२ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पिया! बीतीभयं मगरं सभितरबाहिरियं जाव पञ्चप्पिणंति, तए णं से उदायणे राया दोचंपि कोडंबियपुरिसे सहावेति स०२ एवं वयासी-खिप्पामेव भो देवाणुप्पियाकेसिस्स कुमारस्स महत्थंएवं रायाभिसेओ जहा सिवभहस्स कुमारस्स तहेव भाणियचो जाव परमाउं पालयाहि इट्ठजणसंपरिवुडे सिंधुसोवीरपामोक्खाणं सोलसण्हं जणवयाणं वीतीभयपामोक्खाणं० महसेणराया अन्नेसिंच बहणं राईसरजाव कारेमाणे पालेमाणे विहराहित्तिकटु जय
18| ॥६१९॥ जयसई पउंजंति । तए णं से केसीकुमारे राया जाए महया जाव विहरति । तए णं से उदायणे राया केसिं रायाणं आपुच्छइ, तए णं से केसीराया कोडंबियपुरिसे सद्दावेति एवं जहा जमालिस्स तहेव सम्भितरवा
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हिरियं तहेव जाव निक्खमणाभिसेयं उचट्ठवेति, तए णं से केसीराया अणेणगणणायग जाव संपरिवडे उदायणं रायं सीहासणवरंसि पुरत्थाभिमुहे निसीयावेति २ अट्ठसएणं सोवन्नियाणं एवं जहा जमालिस्स जाव एवं वयासी-भण सामी! किं देमो? किं पयच्छामो? किंणा वाते अहो ?,सए णं से उदायराया केसिं रायं एवं वयासी-इच्छामि णं देवाणुप्पिया ! कुत्तियावणाओ एवं जहा जमा लिस्स नवरं पउमावती अग्गकेसे पडिच्छा पियविप्पयोगदूसणा, तए णं से केसी राया दोचंपि उत्तरावकमणं सीहासणं रयावेति दो०२ उदायणं रायं सेयापीतएहिं कलसेहिं सेसंजहा जमालिस्स जाव सन्निसन्ने तहेव अम्मधाती नवरं पउमावती हंसलक्खणं पडसाडगं गहाय सेसं तं चेव जाव सीयाओ पचोरुभति सी० २ जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ २ समणं भगवं महावीरं तिक्खुत्तो वंदति नमंसति वं० नमं० उत्तरपुरमिछम दिसीभागं अवक्कमति उ०२ सयमेव आभरणमल्लालंकारं तं चेव पउमावती पडिच्छति जाव घडियवं सामी ! जाव नो पमादेयत्वंतिकट्ट, केसी राया पउमावती य समणं भगवं महावीरं वंदंति नमसंति २ जाव पडिगया। तए णं से उदायणे राया सयमेव पंचमुट्ठियं लोयं सेसं जहा उसभदत्तस्स जाव सबदुक्खप्पहीणे 2 (सूत्रं ४९१)॥तए णं तस्स अभीयिस्स कुमारस्स अन्नदा कयाइ पुवरत्तावरत्तकालसमयंसि कुडुबजागरियं जागरमाणस्स अयमेयारूवे अभत्थिए जाव समुप्पजित्था-एवं खलु अहं उदायणस्स पुत्ते पभावतीए देवीए अत्तए, तए णं से उदायणे राया ममं अवहाय नियगं भायणिजं केसिकुमार रज्जे ठावेत्ता समणस्स भग
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६२०॥
बओ जाव पचइए, इमेणं एयारूवेणं महया अप्पत्तिएणं मणोमाणसिएणं दुक्खेणं अभिभूए समाणे अंतेपुरप| रियाल संपरिवुडे सभंडमत्तोवगरणमायाए वीतीभयाओ नयराओ पडिनिग्गच्छंति पडिनि० २ पुत्राणुपुत्रिं | चरमाणे गामाणुगामं दृइज्जमाणे जेणेव चंपा नयरी जेणेव कूणिए राया तेणेव उवा० २ कूणियं रायं उवसंपज्जि - त्ताणं विह० तत्थवि णं से विउलभोग समितिसमन्नागए यावि होत्था, तए णं से अभीयीकुमारे समणोवासए याविहोत्था, अभिगय जाव विहरइ, उदायणमि रायरिसिंमि समणुबद्धवेरे यावि होत्था, तेणं कालेणं २ इमी से | रयणप्पभाए पुढवीए निरयपरिसामंतेसु चोसट्ठि असुरकुमारावाससयसहस्सा पन्नत्ता, तए णं से अभीयी | कुमारे बहूई वासाई समणोवासगपरियागं पाउणति पा० २अद्धमासियाए संलेहणाए तीसं भत्ताइं अणसणाए छेएइ २ तस्स ठाणस्स अणालोइयपडिक्कंते कालमासे कालं किच्चा इमीसे रयणप्पभाए पुढवीए तीसाए निरय| परिसामंतेसु चोयट्ठीए आयावा जाव सहस्सेसु अन्नयरंसि आयावा असुरकुमारावासंसि असुरकुमारदेवताए उव०, तत्थ णं अत्थेग० आयावगाणं असुरकुमाराणं देवाणं एवं पलि० ठिई प० तत्थ णं अभी| विस्सवि देवरस एगं पलि० ठिई पण्णत्ता । से णं भंते ! अभीयीदेवे ताओ देवलोगाओ आउक्ख० ३ अणंतरं उघट्टित्ता कहिं ग० ? कहिं उव० १, गोयमा ! महाविदेहे वासे सिज्झिहिति जाव अंतं काहिति, सेवं भंते! सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ४९२ ) ॥ १३-६ ॥
'तए 'मित्यादि, 'सिंधुसोवीरेसु ति सिन्धुनद्या आसन्नाः सौवीरा - जनपदविशेषाः सिन्धुसौवीरास्तेषु 'वीई भए 'त्ति
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| १३ शतके ६ उद्देशः अभीचे श्रा वकत्वादि सू ४९२
॥६२०॥
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विगता ईतयो भयानि च यतस्तद्वीतिभयं विदर्भेति केचित् 'सोउयवन्नओ'त्ति अनेनेदं सूचितं - 'सोउयपुप्फफलस| मिद्धे रम्मे नंदणवणष्पगासे' इत्यादीति । 'नगरागरस्याणं'ति करादायकानि नगराणि सुवर्णाद्युत्पत्तिस्थानान्याकरा | नगराणि चाकराश्चेति नगराकरास्तेषां शतानि नगराकरशतानि तेषां 'नगरसयाणं' ति क्वचित्पाठः, 'विदिन्नछत्तचामरवालवीयणाणं'ति वितीर्णानि छत्राणि चामररूपवालव्यजनिकाश्च येषां ते तथा तेषाम् । 'अप्पत्तिएणं मणोमाणसि| एणं दुक्खेणं'ति 'अप्रीतिकेन' अप्रीतिस्वभावेन मनसो विकारो मानसिकं मनसि मानसिकं न बहिरुपलक्ष्यमाणविकारं यत्तन्मनोमानसिकं तेन, केनैवंविधेन ? इत्याह- दुःखेन, 'सभंडमत्तोवगरणमायाय'त्ति स्वां स्वकीयां भाण्डमात्रां - भाजनरूपं परिच्छदं उपकरणं च शय्यादि गृहीत्वेत्यर्थः, अथवा सह भाण्डमात्रया यदुपकरणं तत्तथा तदादाय, 'समणु| बद्धवेरि'त्ति अव्यवच्छिन्नवैरिभावः 'निरयपरिसामंतेसु'त्ति नरकपरिपार्श्वतः 'चोयट्ठीए आयावा असुरकुमारावासेसु'त्ति इह 'आयाव'त्ति असुरकुमारविशेषाः, विशेषतस्तु नावगम्यत इति ॥ त्रयोदशशते षष्ठः ॥ १३६ ॥
य एतेऽनन्तरोदेशकेऽर्था उक्तास्ते भाषयाऽतो भाषाया एव निरूपणाय सप्तम उच्यते, तस्य चेदमादिसूत्रम् - रायगिहे जाव एवं वयासी-आया भंते ! भासा अन्ना भासा ?, गोयमा ! नो आया भासा अन्ना भासा, रूविं भंते ! भासा अरूविं भासा ?, गोयमा ! रूविं भासा नो अरूविं भासा, सचित्ता भंते ! भासा अचित्ता भासा ?, गोयमा ! नो सचित्ता भासा अचित्ता भासा, जीवा भंते ! भासा अजीवा भासा ?, गोयमा !
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१३ शतके उद्देशः ६
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व्याख्या
नो जीवा भासा अजीचा भासा । जीवाणं भंते ! भासा अजीवाणं भासा ?, गोयमा! जीवाणं भासा १३ शतके प्रज्ञप्तिः |नो अजीवाणं भासा, पुर्वि भंते ! भासा भासिज्जमाणी भासा भासासमयवीतिकता भासा ?, गोयमा! ७ उद्देशः अभयदेवी-Mनो पुच्विं भासा भासिज्जमाणी भासा णो भासासमयवीतिकता भासा, पुर्वि भंते ! भासा भिज्जति भा- भाषाया या वृत्तिः२ सिजमाणी भासा भिजति भासासमयवीतिकता भासा भिजति ?, गोयमा ! नो पुत्विं भासा भिजति
आत्मत्वादि भासिन्जमाणी भासा भिजइ नो भासासमयवीतिकंता भासा भिजति ।कतिविहा णं भंते!भासा पण्णत्ता?,8
सू ४९३ है गोयमा ! चउविहा भासा पण्णत्ता, तंजहा-संचा मोसा सचामोसा असच्चामोसा (सूत्रं ४९३)॥
'रायगिहे'इत्यादि, 'आया भंते ! भास'त्ति कावाऽध्येयं आत्मा-जीवो भाषा जीवस्वभावा भाषेस्यर्थः यतो || जीवेन व्यापार्यते जीवस्य च बन्धमोक्षार्था भवति ततो जीवधर्मत्वाजीव इति व्यपदेशाही ज्ञानवदिति, अथान्या | भाषा-न जीवस्वरूपा श्रोत्रेन्द्रियग्राह्यत्वेन मूर्त्ततयाऽऽत्मनो विलक्षणत्वादिति शङ्का अतः प्रश्नः, अत्रोत्तरं-'नो आया भास'त्ति आत्मरूपा नासी भवति, पुद्गलमयत्वादात्मना च निसृज्यमानत्वात्तथाविधलोष्ठादिवत् अचेतनत्वाच्चाकाश|वत्, यच्चोक्तं-जीवेन व्यापार्यमाणत्वाजीवः स्याज्ज्ञानवत्तदनैकान्तिक, जीवव्यापारस्य जीवादत्यन्तं भिन्नस्वरूपेऽपि दात्रादौ दर्शनादिति । 'रूविं भंते ! भास'त्ति रूपिणी भदन्त ! भाषा श्रोत्रस्यानुग्रहोपघातकारित्वात्तथाविधकर्णाभरणादिवत् , अथारूपिणी भाषा चक्षुषाऽनुपलभ्यत्वाद्धर्मास्तिकायादिवदिति शङ्का अतः प्रश्नः, उत्तरं तु रूपिणी भाषा, | यच्च चक्षुरग्राह्यत्वमरूपित्वसाधनायोक्तं तदनैकान्तिकं, परमाणुवायुपिशाचादीनां रूपवतामपि चक्षुरग्राह्यत्वेनाभिमत
॥६२१॥
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स्वादिति । अनात्मरूपाऽपि सचित्तासौ भविष्यति जीवच्छरीरवदिति पृच्छन्नाह–सचिसे'त्यादि, उत्तरं तु मो सचित्ता जीवनिसृष्टपुद्गलसंहतिरूपत्वात्तथाविधलेष्ठुवत्, तथा 'जीवा भंते !'इत्यादि, जीवतीति जीवा-प्राणधारणस्वरूपा भाषा उतैतद्विलक्षणेति प्रश्नः, अत्रोत्तरं नो जीवा, उच्छासादिप्राणानां तस्या अभावादिति।इह कैश्चिदभ्युपगम्यते अपौरुषेयी वेदभाषा, तन्मतं मनस्याधायाह-'जीवाण'मित्यादि, उत्तरं तु जीवानां भाषा, वर्णानांताल्वादिव्यापारजन्यत्वात् ताल्वादिव्यापारस्य च जीवानितत्वात्, यद्यपि चाजीवेभ्यः शब्द उत्पद्यते तथाऽपि नासौ भाषा, भाषापर्याप्तिजन्यस्यैव शब्दस्य भाषात्वेनाभिमतत्वादिति । तथा 'पुधि'मित्यादि, अनोत्तर-नो पूर्व भाषणाद् भाषा भवति मृत्पिण्डावस्थायां घट इव, भाष्यमाणा-निसर्गावस्थायां वर्तमाना भाषा घटावस्थायां घटस्वरूपमिव, 'नो' नैव भाषासमयव्यतिकान्ता-भाषासमयो-निसृज्यमानावस्थातो यावद्भाषापरिणामसमयस्तं व्यतिक्रान्ता या सा तथा भाषा भवति, घटसमयातिक्रान्तघटवत् कपालावस्थ इत्यर्थः । 'पुत्विं भंते !'इत्यादि, अनोत्तरं-'नो' नैव पूर्व निसर्गसमयाभापाद्रव्यभेदेन | भाषा भिद्यते, भाष्यमाणा भाषा भिद्यते, अयमत्राभिप्रायः-इह कश्चिन्मन्दप्रयत्नो वक्ता भवति स चाभिन्नान्येव शब्दद्रव्याणि निसृजति, तानि च निसृष्टान्यसङ्ख्येयात्मकत्वात् परिस्थूरत्वाच्च विभिद्यन्ते, विभिद्यमानानि च सङ्ख्येयानि योजनानि गत्वा शब्दपरिणामत्यागमेव कुर्वन्ति, कश्चित्तु महाप्रयत्नो भवति स खल्वादानविसर्गप्रयत्नाभ्यां भित्त्वैव |विसृजति, तानि च सूक्ष्मत्वाद्बहुत्वाच्चानन्तगुणवृद्ध्या वर्द्धमानानि षट्सु दिक्षु लोकान्तमामुवन्ति, अत्र च यस्यामवस्थायां शब्दपरिणामस्तस्यां भाष्यमाणताऽवसेयेति, 'मो भासासमयवीइकते'ति परित्यक्तभाषापरिणामेत्यर्थः
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६२२॥
| उत्कृष्टप्रयत्नस्य तदानीं निवृत्तत्वादितिभावः ॥ अनन्तरं भाषा निरूपिता, सा च प्रायो मनःपूर्विका भवतीति मनोनिरूपणायाह
आया भंते ! मणे अन्ने मणे ?, गोयमा ! नो आया मणे अन्ने मणे जहा भासा तहा मणेवि जाव नो अजीवाणं मणे, पुत्रिं भंते ! मणे मणिजमाणे मणे १ एवं जहेव भासा, पुत्रिं भंते ! मणे भिजति मणिज माणे मणे भिजति मणसमयवीतिकंते मणे भिजति ?, एवं जहेव भासा । कतिविहे णं भंते ! मणे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउविहे मणे पन्नत्ते, तंजहा-सच्चे जाव असच्चामोसे ( सूत्र ४९४ ) ॥ आया भंते ! काये अन्ने काये ?, गोयमा ! आयावि काये अन्नेवि काये, रूविं भंते ! काये अरूविकाये ?, पुच्छा, गोयमा ! रूविंपि काये अरूविपि काए, एवं एक्केके पुच्छा, गोयमा ! सच्चित्तेवि काये अचित्तेवि काए, जीवेवि काए अजीवेवि काए, जीवाणवि काए अजीवाणवि काए, पुत्रिं भंते ! काये पुच्छा, गोयमा ! पुछिंपि काए कायिज़माणेवि | का कायसमयवीतितेवि काये, पुत्रिं भंते ! काये भिजति पुच्छा, गोयमा । पुत्रिंप का भिज्जति जाव काए भिजति ॥ कइविहे णं भंते ! काये पन्नत्ते ?, गोयमा ! सत्तविहे काये पन्नत्ते, तंजहा - ओराले ओरालियमीसए वेविए वेडवियमीसए आहारए आहारगमीसए कम्मए ( सूत्रं ४९५ ) ॥
'आया भंते! मणे' इत्यादि, एतत्सूत्राणि च भाषासूत्रवन्नेयानि, केवलमिह मनोद्रव्यसमुदयो मननोपकारी मनः| पर्याप्तिनामकर्मोदयसम्पाद्यो, भेदश्च तेषां विदलनमात्रमिति ॥ अनन्तरं मनो निरूपितं तच्च काये सत्येव भवतीति काय
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१३ शतके
७ उद्देशः
मनस
आत्मवादि
सू ४९४ कायस्थात्मवादि
सू ४९५
॥६२२॥
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| निरूपणायाह - ' आया भंते ! काये' इत्यादि, आत्मा कायः कायेन कृतस्यानुभवनात् न ह्यन्येन कृतमन्योऽनुभवति | अकृतागमप्रसङ्गात्, अथान्य आत्मनः कायः कायैकदेशच्छेदेऽपि संवेदनस्य सम्पूर्णत्वेनाभ्युपगमादिति प्रश्न:, [ग्रन्थाग्रम् १३००० ] उत्तरं त्वात्माऽपि कायः कथञ्चित्तदव्यतिरेकात् क्षीरनीरवत् अययस्पिण्डवत् काञ्चनोपलवद्वा, अत एव | कायस्पर्शे सत्यात्मनः संवेदनं भवति, अत एव च कायेन कृतमात्मना भवान्तरे वेद्यते, अत्यन्तभेदे चाकृतागमप्रसङ्ग | इति, 'अन्नेवि काये'त्ति अत्यन्ताभेदे हि शरीरांशच्छेदे जीवांशच्छेदप्रसङ्गः तथा च संवेदनासम्पूर्णता स्यात्, तथा शरीरस्य दाहे आत्मनोऽपि दाहप्रसङ्गेन परलोकाभावप्रसङ्ग इत्यतः कथञ्चिदात्मनोऽन्योऽपि काय इति, अन्यैस्तु कार्म्मणकायमाश्रित्यात्मा काय इति व्याख्यातं, कार्मणकायस्य संसार्यात्मनश्च परस्पराव्यभिचरितत्वेनैकस्वरूपत्वात्, | 'अन्नेवि काए'त्ति औदारिकादिकायापेक्षया जीवादन्यः कायस्तद्विमोचनेन तद्भेदसिद्धिरिति, 'रूविपि कात्ति | रूप्यपि कायः औदारिकादिकायस्थूलरूपापेक्षया, अरूप्यपि कायः कार्म्मणका यस्यातिसूक्ष्मरूपित्वेनारूपित्वविवक्षणात्, "एवं एकेके पुच्छत्ति पूर्वोक्तप्रकारेणैके कसूत्रे पृच्छा विधेया, तद्यथा - 'सचित्ते भंते ! काये अचित्ते काये ?' इत्यादि, अत्रोत्तरं - ' सचित्तवि काए' जीवदवस्थायां चैतन्यसमन्वितत्वात्, 'अचित्तेवि काए' मृतावस्थायां चैतन्यस्याभावात्, 'जीवेवि काये 'ति जीवोऽपि विवक्षितोच्छ्रासादिप्राणयुक्तोऽपि भवति कायः औदारिकादिशरीरमपेक्ष्य, 'अजीवेवि कार्य'त्तिअजीवोऽपि उच्च्छासादिरहितोऽपि भवति कायः कार्म्मणशरीरमपेक्ष्य, 'जीवाणवि काये'त्ति | जीवानां सम्बन्धी 'कायः शरीरं भवति, 'अजीवाणवि कायेत्ति अजीवानामपि स्थापनार्हदादीनां 'कायः शरीरं
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१३ शतके ७ उद्देशः मनःकाययोरात्मत्वा दिसू ४९५
व्याख्या भवति शरीराकार इत्यर्थः 'पुष्विपि काए'त्ति जीवसम्बन्धकालारपूर्वमपि कायो भवति यथा भविष्यजीवसम्बन्धं मृतप्रज्ञप्तिः
दर्दुरशरीरं 'काइजमाणेवि काए'त्ति जीवेन चीयमानोऽपि कायो भवति यथा जीवच्छरीरं, 'कायसमयवीतिकअभयदेवी-18 तेवि काए'त्ति कायसमयो-जीवेन कायस्य कायताकरणलक्षणस्तं व्यतिक्रान्तो यः स तथा सोऽपि काय एव मृतकडेवया वृत्तिः२
| रवत्, 'पुदिपिकाए भिजइ'त्ति जीवेन कायतया ग्रहणसमयात्पूर्वमपि कायो मधुघटादिन्यायेन द्रव्यकायो भिद्यते प्रति॥६२३॥
क्षणं पुद्गलचयापचयभावात् , 'काइज्जमाणेवि काए भिजईत्ति जीवेन कायीक्रियमाणोऽपि कायो भिद्यते, सिकताकणकलापमुष्टिग्रहणवत् पुद्गलानामनुक्षणं परिशाटनभावात् , 'कायसमयवीतिकतेऽवि काये भिजई'त्ति कायसमयव्यतिक्रान्तस्य च कायता भूसभावतया घृतकुम्भादिन्यायेन, भेदश्च पुद्गलानां तत्स्वभावतयेति, चूर्णिकारेण पुनः कायसू. त्राणि कायशब्दस्य केवलशरीरार्थत्यागेन चयमात्रवाचकत्वमङ्गीकृत्य व्याख्यातानि, यदाह-'कायसद्दो सवभावसामनसरीरवाई' कायशब्दः सर्वभावानां सामान्यं यच्छरीरं चयमानं तद्वाचक इत्यर्थः, एवं च 'आयाविकाए सेसदवाणिवि कार्य'त्ति, इदमुक्तं भवति-आत्माऽपि कायः प्रदेशसञ्चय इत्यर्थः तदन्योऽप्यर्थः कायप्रदेशसञ्चयरूपत्वादिति, रूपी कायः पुद्गलस्कन्धापेक्षया, अरूपी कायो जीवधर्मास्तिकायाद्यपेक्षया, सचित्तः कायो जीवच्छरीरापेक्षया, अचित्तः कायोऽचेतनसञ्चयापेक्षया, जीवः कायः-उच्छ्रासादियुक्तावयवसञ्चयरूपः, अजीवः कायःतद्विलक्षणः, जीवानां कायो-जीवराशिः, अजीवानां कायः-परमाण्वादिराशिरिति, एवं शेषाण्यपि॥अथ कायस्यैव भेदानाह-'कइविहे ण'मित्यादि, अयं च सप्तविधोऽपि प्राग् विस्तरेण व्याख्यातः इह तु स्थानाशून्यार्थ लेशतो व्याख्यायते, तत्र च 'ओरालिए'त्ति औदारिकशरीरमेव पुद्ग
॥६२३॥
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लस्कन्धरूपत्वादुपचीयमानत्वात्काय औदारिककायः, अयं च पर्याप्तकस्यैवेति, "ओरालियमीसए'त्ति औदारिकश्चासौ मिश्रश्च कार्मणेनेत्यौदारिकमिश्रः, अयं चापर्याप्तकस्य, 'वेविय'त्ति वैक्रियः पर्याप्तकस्य देवादेः, 'वेउवियमीसए'त्ति वैक्रियश्चासौ मिश्रश्च कार्मणेनेति वैक्रियमिश्रः, अयं चाप्रतिपूर्णवैक्रियशरीरस्य देवादेः, आहारए'त्ति आहारकः आहारकशरीरनिवृत्ती, 'आहारगमीसए'त्ति आहारकपरित्यागेनौदारिकग्रहणायोद्यतस्याहारकमिश्रो भवति मिश्रता पुनरौदारिकेणेति, 'कम्मए'त्ति विग्रहगतो केवलिसमुद्घाते वा कार्मणः स्यादिति ॥ अनन्तरं काय उक्तस्तत्त्यागेच मरणं भवतीति तदाह
कतिविहे णं भंते ! मरणे पन्नत्ते ?, गोयमा! पंचविहे मरणे पण्णत्ते, तंजहा-आवीचियमरणे ओहिमरणे आदिंतियमरणे बालमरणे पंडियमरणे। आवीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णसे ?, गोयमा! |पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-दवावीचियमरणे खेत्तावीचियमरणे कालावीचियमरणे भवावीचियसरणे भावावी-|| चियमरणे । दवावीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चविहे पण्णत्ते, तंजहा-नेरइयदवावीचियमरणे तिरिक्खजोणियदवावीचियमरणे मणुस्सदवावीचियमरणे देवदराचीचियमरणे, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइयवावीचियमरणे नेरइयदबाबीचियमरणे?, गोयमा! जण्णं नेरइया नेरइए दवे वट्टमाणा जाइंदबाई नेरइयाउयत्ताए गहियाई बद्धाई पुट्ठाई कडाई पट्टवियाई निविट्ठाई अभिनिविद्याइं अभिसमन्नागयाई भवंति ताई दवाइं आवीची अणुसमयं निरंतरंमरंतित्तिकट्ट से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ नेरइयवावीचियमरणे, एवं जाव देवदवावीचियमरणे । खेत्तावीचियमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउबिहे
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः
॥६२४॥
पण्णत्ते, तंजहा- नेरइयखेत्तावीचियमरणे जाव देव०, से केणद्वेणं भंते! एवं० नेरइयखेत्तावीचियमरणे नेर० २१, जपणं नेरइया नेरइयखेत्ते वट्टमाणा जाई दवाई नेरइयाउयत्ताए एवं जहेव दवावीचियमरणे तहेव खेत्तावीचियमरणेवि, एवं जाव भावावीचियमरणे । ओहिमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-दधोहिमरणे खेत्तोहिमरणे जाव भावोहिमरणे । दवोहिमरणे णं भंते ! कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउविहे पण्णत्ते, तंजहा-नेरइयदघोहिमरणे जाव देवदघोहिमरणे, से केणट्टेणं भंते ! एवं बु० नेरइयदधोहिमरणें २१, गोयमा ! जण्णं नेरइया नेरइयदवे वट्टमाणा जाईं दवाई संपयं मरंति जपणं नेरइयाताई दवाई अणागए काले पुणोवि मरिस्संति से तेण० गोयमा ! जाव दवोहिमरणे, एवं तिरिक्खजो - |णिय० मणुस्स० देवोहिमरणेवि, एवं एएणं गमेणं खेत्तोहिमरणेवि कालोहिमरणेवि भवोहिमरणेवि भावोहिमरणेवि । आइंतियमरणे णं भंते ! पुच्छा, गोयमा ! पंचविहे पन्नत्ते, तं०-दवादितियमरणे खेत्तादिंतिय| मरणे जाव भावादितियमरणे, दवादितियमरणे णं भंते ! कतिविहे प० १, गो० ! चउविहे प० तं० - नेरइयदवाइंतियमरणे जाव देवदत्वा दितियमरणे, से केणद्वेणं० एवं बु० नेरइयदवादितियमरणे नेर० २१, गो० ! जपणं | नेरइया नेरइयदवे वट्टमाणा जाई दवाई संपयं मरंति जेणं नेरइया ताइं दवाई अणागए काले नो पुणोवि मरिस्संति से तेणद्वेणं जावमरणे, एवं तिरिक्ख० मणुस्स० देवाइंतियमरणे, एवं खेत्ताइंतियमरणेवि एवं जाव भावा| इंतियमरणेवि । बालमरणे णं भंते ! कतिविहे प० १, गो० ! दुवालसविहे पं० तं० - वलयमरणं जहा खंदए
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१३ शतके ७ उद्देशः आवीचिमरणादि सू ४९५
॥६२४॥
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जाव गद्धपढे॥ पंडियमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णते?, गोयमा! दुविहे पण्णत्ते, तंजहा-पाओवगमणे य भत्तपच्चक्खाणे य । पाओवगमणे णं भंते !कतिविहे प० १,गोयमा! दुविहे प०, तं०-णीहारिमेय अनीहारिमेय जाव नियमं अपडिकम्मे । भत्तपच्चक्खाणे णं भंते! कतिविहे प०?, एवं तं चेव नवरं नियमं सपडिकम्मे। सेवं है भंते २त्ति (सूत्रं ४९६)॥१३-७॥ | 'कतिविहे णं भंते ! मरणे इत्यादि, 'आवीइयमरणे'त्ति आ-समन्ताद्वीचयः-प्रतिसमयमनुभूयमानायुषोऽपराप. रायुर्दलिकोदयात्पूर्वपूर्वायुर्दलिकविच्युतिलक्षणाऽवस्था यस्मिन् तदावीचिकं अथवाऽविद्यमाना वीचिः-विच्छेदो यत्र तदवीचिकं अवीचिकमेवावीचिकं तच्च तन्मरणं चेत्यावीचिकमरणं, 'ओहिमरणे'त्ति अवधिः-मर्यादा ततश्चावधिना मरणमवधिमरणं, यानि हि नारकादिभवनिबन्धनतयाऽऽयुःकर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते, यदि पुनस्तान्येवानुभूय मरि-3 प्यते तदा तदवधिमरणमुच्यते, तद्रव्यापेक्षया पुनस्तद्हणावधिं यावजीवस्य मृतत्वात् , संभवति च गृहीतोज्झितानां कर्मदलिकानां पुनर्ग्रहणं परिणामवैचित्र्यादिति, 'आइंतियमरणे'त्ति अत्यन्तं भवमात्यन्तिकं तच्च तन्म|रणं चेति वाक्यं, यानि हि नरकाद्यायुष्कतया कर्मदलिकान्यनुभूय म्रियते मृतश्च न पुनस्तान्यनुभूय पुनर्मरिष्यत 8 इत्येवं यन्मरणं, तच्च तद्व्यापेक्षयाऽत्यन्तभावित्वादात्यन्तिकमिति, 'बालमरणे'त्ति अविरतमरणं "पंडियमरणे'त्ति | | सर्वविरतमरणं, तत्रावीचिकमरणं पञ्चधा द्रव्यादिभेदेन, द्रव्यावीचिकमरणं च चतुर्द्धा नारकादिभेदात्, तत्र नारकद्रव्यावीचिकमरणप्रतिपादनायाह-'जण्ण'मित्यादि, 'यत्' यस्माद्धेतो रयिका नारकत्वे द्रव्ये नारकजीवत्वेन वर्त्त
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व्याख्या
माना मरन्तीति योगः, 'नेरइयाउयत्ताए'त्ति नैरयिकायुष्कतया 'गहियाईति स्पर्शनतः 'बद्धाईति बन्धनतः प्रज्ञप्तिः
१३ शतके | 'पुट्ठाईति पोषितानि प्रदेशप्रक्षेपतः 'कडाईति विशिष्टानुभागतः 'पट्टवियाईति स्थितिसम्पादनेन 'निविट्ठाईति | अभयदेवी-8
७ उद्दशः या वृत्तिः२
जीवप्रदेशेषु 'अभिनिविट्ठाईति जीवप्रदेशेष्वभिव्याप्त्या निविष्टानि अतिगाढतां गतानीत्यर्थः, ततश्च 'अभि- आवीचि. समन्नागयाईति अभिसमन्वागतानि-उदयावलिकायामागतानि तानि द्रव्याणि 'आवित्ति, किमुक्तं भवति
मरणादि ॥६२५॥ 12-'अणुसमयंति अनुसमयं-प्रतिक्षणम्, एतच्च कतिपयसमयसमाश्रयणतोऽपि स्यादत आह-'निरंतर मरं
ता सू ४९६ ति'त्ति 'निरन्तरम्'. अव्यवच्छेदेन सकलसमयेष्वित्यर्थः म्रियन्ते विमुञ्चन्तीत्यर्थः 'इतिकट्ट'त्ति इतिहेतो रयिकद्रव्यावीचिकमरणमुच्यत इति शेषः, एतस्यैव निगमनार्थमाह-'से तेणढेण'मित्यादि । 'एवं जाव भावावीचियमरणे'त्ति इह यावत्करणात् कालावीचिकमरणं भवावीचिकमरणं च द्रष्टव्यं, तत्र चैवं पाठः–'कालावीइयमरणे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! चउबिहे पण्णत्ते, तंजहा नेरइयकालावीइयमरणे ४, से केणद्वेणं भंते !
एवं वुच्चइ नेरइयकालावीचियमरणे २१, गोयमा ! जन्नं नेरइया नेरइयकाले वट्टमाणा'इत्यादि, एवं भवावीचिकमर-3 दणमप्यध्येयम् । नैरयिकद्रव्यावधिमरणसूत्रे 'जण्ण'मित्यादि, एवं चेहाक्षरघटना-नैरयिकद्रव्ये वर्तमाना ये नैरयिका यानि ||
द्रव्याणि साम्प्रतं नियन्ते-त्यजन्ति तानि द्रव्याण्यनागतकाले पुनस्त इति गम्यं मरिष्यन्ते-त्यक्ष्यन्तीति यत्तन्नेरयिकद्रव्यावधिमरणमुच्यत इति शेषः ‘से तेणद्वेण'मित्यादि निगमनम् ॥ पण्डितमरणसूत्रे 'णीहारिमे अणीहारिमे'त्ति | 2 यत्पादपोपगमनमाश्रयस्यैकदेशे विधीयते तन्निर्हारिम, कडेवरस्य निर्हरणीयत्वात् , यच्च गिरिकन्दरादौ विधीयते तद-14
॥६२५॥
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निहारिम, कडेवरस्यानिहरणीयत्वात् , 'नियम अप्पडिकम्मत्ति शरीरप्रतिकर्मवर्जितमेव, चतुर्विधाहारप्रत्याख्याननि | पन्नं चेदं भवतीति, 'तं चेव'त्ति करणान्निर्हारिममनिर्दारिमं चेति दृश्य, सप्रतिकम्मैव चेदं भवतीति ॥ त्रयोदशशते | सप्तमः ॥१३-७॥
___अनन्तरोद्देशके मरणमुक्तं, तच्चायुष्कर्मस्थितिक्षयरूपमिति कर्मणां स्थितिप्रतिपादनार्थोऽष्टम उद्देशकस्तस्य चे मादिसूत्रम्। कति णं भंते ! कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ?, गोयमा ! अट्ठ कम्मपगडीओ पण्णत्ताओ एवं बंधट्टिइ
उद्देसो भाणियको निरवसेसो जहा पन्नवणाए । सेवं भंते ! सेवं भंते ! (सूत्रं ४९७)॥१३-८॥ | 'कति ण'मित्यादि, 'एवं बंधठिइउद्देसओ'त्ति 'एवम्' अनेन प्रश्नोत्तरक्रमेण बन्धस्य-कर्मबन्धस्य स्थितिबन्ध| स्थितिः कर्मस्थितिरित्यर्थः तदर्थ उद्देशको बन्धस्थित्युद्देशको भणितव्यः, स च प्रज्ञापनायास्त्रयोविंशतितमपदस्य द्वि|तीयः, इह च वाचनान्तरे सङ्घहणीगाथाऽस्ति, सा चेयं-पयडीणं भेयठिई बंधोवि य इंदियाणुवाएणं । केरिसय जह|न्नठिई बंधइ उक्कोसियं वावि ॥१॥ अस्याश्चायमर्थः-कर्मप्रकृतीनां भेदो वाच्यः, स चैवं-'कइ णं भंते ! कम्मपयडीओ पन्नत्ताओ?, गोयमा ! अह कम्मपगडीओ पन्नत्ताओ, तंजहा-नाणावरणिजं दसणावरणिज'मित्यादि, तथा 'नाणावरणिज्जे णं भंते ! कम्मे कतिविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! पंचविहे पण्णत्ते, तंजहा-आभिणिवोहियणा
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व्याख्याणावरणिजे सुयणाणावरणिज्जे इत्यादि । तथा प्रकृतीनां स्थितिर्वाच्या, सा चैवं-नाणावरणिजस्स णं भंते !
१३ शतके प्रज्ञप्तिः कम्मस्स केवइयं कालं ठिती पण्णत्ता ?, गोयमा ! जहन्नेणं अंतोमुहत्तं उक्कोसेणं तीसं सागरोवमकोडाको
८ उद्दशः अभयदेवी-8 डीओ'इत्यादि, तथा बन्धो ज्ञानावरणीयादिकर्मणामिन्द्रियानुपातेन वाच्यः, एकेन्द्रियादिर्जीवः कः कियती कर्म- कर्मबन्धया वृत्तिः२ स्थिति बध्नाति ? इति वाच्यमित्यर्थः, स चैवम्-'एगिदिया णं भंते ! जीवा नाणावरणिजस्स कम्मस्स किं स्थितिः
बंधंति ?, गोयमा! जहन्नेणं सागरोवमस्स तिनि सत्तभागे पलिओवमस्स असंखेजेणं भागेणं ऊणए उक्को- सू ४९७ ॥६२६॥
सेणं ते चेव पडिपुन्ने बंधति'इत्यादि, तथा कीदृशो जीवो जघन्यां स्थितिं कर्मणामुत्कृष्टां वा बनातीति वाच्यं. ४ १३ शतके तच्चेदं-नाणावरणिजस्स णं भंते! कम्मस्स जहन्नट्ठिइबंधए के०?, गोयमा ! अन्नयरे सुहुमसंपराए उवसामए ८ उद्देशः | वा खवए वा एस णं गोयमा ! णाणावरणिजस्स कम्मरस जहन्नहिइबंधए तत्वइरित्ते अजहन्ने' इत्यादि ॥ त्रयो-
साधोः केत
साधा
ते घटिकादिव | दशशतेऽष्टमः ॥ १३-८॥
क्रियकृतिः अनन्तरोद्देशके कर्मस्थितिरुक्ता, कर्मवशाच्च वैक्रियकरणशक्तिर्भवतीति तद्वर्णनार्थो नवम उद्देशकस्तस्य चेद-5 मादिसूत्रम्| रायगिहे जाव एवं वयासी-से जहानामए के पुरिसे केयाघडियं गहाय गच्छेजा, एवामेव अणगारेविट ॥६२६॥ Pभावियप्पा केयाघडियाकिच्चहत्थगएणं अप्पाणेणं उड्डे वेहासं उप्पाएजा ?, गोयमा ! हंता उप्पाएजा,
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अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू केयाघडियाहत्थकिच्चगयाइं रूवाई.विउवित्तए ?, गोयमा से जहानामए-जुवति जुवाणे हत्थेणं हत्थे एवं जहा तइयसए पंचमुद्देसए जाव नो चेव णं संपत्तीए विउविंसु वा विउविंति वा विउविस्संति वा, से जहानामए-केइ पुरिसे हिरन्नपेलं गहाय गच्छेजा एवामेव अणदगारेवि भावियप्पा हिरणपेलहत्थकिच्चगएणं अप्पाणेणं सेसं तं चेव, एवं सुवन्नपेलं एवं रयणपेलं वइरपेलं | वत्थपेलं आभरणपेलं, एवं वियलकिडे मुंबकिडं चम्मकिड्डु कंबलकिडु एवं अयभारं तंबभारं तउयभारं| सीसगभारं हिरन्नभारं सुवन्नभारं वइरभारं, से जहानामए-वग्गुली सिया दोवि पाए उल्लंबिया २ उहृपादाअहोसिरा चिट्ठज्जा एवामेव अणगारेवि भावियप्पा वग्गुलीकिच्चगएणं अप्पाणेणं उड्डे वेहासं, एवं जन्नोव-8 इयवत्तवया भा० जाव विउविस्संति वा, से जहानामए-जलोया सिया उदगंसि कायं उबिहिया २ गच्छेजा एवामेव सेसं जहा वग्गुलीए, से जहाणामए-बीयंबीयगसउणे सिया दोवि पाए समतुरंगेमाणे स०२ गच्छेज्जा एवामेव अणगारे सेसं तं चेव, से जहाणामए-पक्खिविरालिए सिया रुक्खाओ रुक्खं डेवेमाणे गच्छेजा एवामेव अणगारे सेसं तं चेव, से जहानामए-जीवंजीवगसउणे सिया दोवि पाए समतुरंगेमाणे स० २ गच्छेज्जा एवामेव अणगारे सेसं तं चेव, से जहाणामए-हंसे सिया तीराओ तीरं अभिरममाणे २ गच्छेजा एवामेव अणगारे हंसकिचगएणं अप्पाणेणं तं चेव, से जहानामए समुद्दवायसए सिया वीईओ वीइं डेवेमाणे | गच्छेजा एवामेव तहेव, से जहानामए-केइ पुरिसे चक्कं गहाय गच्छेजा एवामेव अणगारेवि भावियप्पा चक्क
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६२७॥
हत्थकिञ्चगएणं अप्पाणेणं सेसं जहा केयाघडियाए, एवं छतं एवं चामरं, से जहानामए- केइ पुरिसे रयणं गहाय गच्छेजा एवं चेव, एवं वरं वेरुलियं जाव रिट्ठ, एवं उप्पलहत्थगं एवं पउमहत्थगं एवं कुमुदहत्थगं एवं जाव से जहानामए - केइ पुरिसे सहस्सपत्तगं गहाय गच्छेजा एवं चेव, से जहानामए - केइ पुरिसे भिसं अवद्दालिय २ गच्छेजा एवामेव अणगारेवि भिसकिञ्चगएणं अप्पाणेणं तं चेव, से जहानामए - मुणालिया सिया उद्गंसि कार्य उम्मजिय २ चिट्ठिज्जा एवामेव से जहा वग्गुलीए, से जहानामए - वणसंडे सिया किण्हे | किण्होभासे जाव निकुरंबभूए पासादीए ४ एवामेव अणगारेवि भावियप्पा वणसंडकिञ्चगएणं अप्पाणेणं उहुं वेहासं उप्पाएजा सेसं तं चेव, से जहानामए - पुक्खरणी सिया चउक्कोणा समतीरा अणुपुव सुजायजाव|सहुन्नइयमहुरसरणादिया पासादीया ४ एवामेव अणगारेवि भावियप्पा पोक्खरणीकिञ्चगएणं अप्पाणेणं उहूं वेहासं उप्पएज्जा ?, हंता उप्पएज्जा, अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवतियाई पभू पोक्खरणी किच्च गयाई रुवाई विउवित्तए १, सेसं तं चैव जाव विउविस्संति वा । से भंते ! किं मायी विजवति अमायी विउवति ?, गोयमा ! मायी विउधर नो अमायी विउवइ, मायी णं तस्स ठाणस्स अणालोइय० एवं जहा तइयसए चउत्थुद्देसए जाव अत्थि तस्स आराहणा । सेवं भंते ! सेवं भंते ! जाव विहरइत्ति ( सूत्रं ४९८ ) ॥ १३-९ ॥
'रायगि' इत्यादि, 'केयाघडियं'ति रज्जुप्रान्तबद्धघटिकां 'केयाघडिया किच्चहत्थगएणं'ति केयाघटिकालक्षणं यत्कृत्यं कार्यं तत् हस्ते गतं यस्य स तथा तेनात्मना 'वेहासं'ति विभक्तिपरिणामात् 'विहायसि' आकाशे 'केयाघ
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१३ शतके ९ उद्देशः साधोः केतघटिकादिवै
क्रियकृतिः
सू ४९८
॥६२७॥
"
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जीनादि, बग्गुली ति एवं जन्नोवइयवत्तच्याए ?, गोयमा ! से जहाहायति ।
| डियाकिच्चहत्थगयाइंति केयाघटिकालक्षणं कृत्यं हस्ते गतं येषां तानि तथा, 'हिरन्नपेडंति हिरण्यस्य मञ्जषां 'विय| लकिलं'ति विदलानां वंशार्द्धानां यः कटः स तथा तं 'मुंबकिडेति वीरणकटं 'चम्मकिति चर्मव्यूत खट्वादिकं | 'कंबलकिडुति ऊर्णामयं कम्बलं-जीनादि, 'वग्गुलीति चर्मपक्षः पक्षिविशेषः 'वरगुलिकिच्चगएणं'ति वग्गुलीलक्षणं | कृत्यं-कार्यं गतं-प्राप्तं येन स तथा तद्रूपतां गत इत्यर्थः, 'एवं जन्नोवइयवत्तवया भाणियवा'इत्यनेनेदं सूचितं| 'हंता उप्पएजा, अणगारे णं भंते ! भावियप्पा केवइयाई पभू वग्गुलिरूवाई विउचित्तए ?, गोयमा ! से जहानामएजुवतिं जुवाणे हत्थेणं हत्थे गिण्हेज्जा'इत्यादि, 'जलोय'त्ति जलौका जलजो द्वीन्द्रियजीवविशेषः 'उबिहिय'त्ति उद्बह्य २ उत्प्रेर्य २ इत्यर्थः 'बीयंबीयगसउणे'त्ति बीजंबीजकाभिधानः शकुनिः स्यात् 'दोवि पाए'त्ति द्वावपि पादौ 'समतुरंगेमाणे त्ति समौ तुल्यौ तुरङ्गस्य-अश्वस्य समोत्क्षेपणं कुर्वन् समतुरंगयमाणः समकमुत्पाटयन्नित्यर्थः 'पक्खिविरालए'त्ति जीवविशेषः 'डेवेमाणे'त्ति अतिक्रामन्नित्यर्थः, 'वीइओ वीइंति कल्लोलात् कल्लोलं, 'वेरुलियं' इह | यावत्करणादिदं दृश्य-लोहियक्खं मसारगल्लं हंसगम्भं पुलगं सोगंधियं जोईरसं अंक अंजणं रयणं जायरूवं अंजणपुलगं फलिहं'ति, 'कुमुदहत्थगं'इत्यत्र त्वेवं यावत्करणादिदं दृश्य-'नलिणहत्थगं सुभगहत्थगं सोगंधि
यहत्थगं पुंडरीयहत्थगं महापुंडरीयहत्थगं सयवत्तहत्थगं'ति, 'बिसं'ति बिसं-मृणालम् 'अवदालिय'त्ति अव४. दार्य-दारयित्वा 'मुणालिय'त्ति नलिनी कायम् 'उम्मज्जियत्ति कायमुन्मज्य-उन्मग्नं कृत्वा, 'किण्हे किण्होभासे'त्ति ४ |'कृष्ण' कृष्णवर्णोऽञ्जनवत्स्वरूपेण कृष्ण एवावभासते-द्रष्टृणां प्रतिभातीति कृष्णावभासः, इह यावत्कारणादिदं
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दृश्य-नीले नीलोभासे हरिए हरिओभासे सीए सीओभासे निद्धे निद्धोभासे तिचे तिवोभासे किण्हे |१३ शतके प्रज्ञप्तिः किण्हच्छाए नीले नीलच्छाए हरिए हरियच्छाए सीए सीयच्छाए तिव्वे तिवच्छाए घणकडियकडिच्छाए || ९ उद्देशः अभयदेवी- से रम्मे महामेहनिउरंबभूए'त्ति तत्र च 'नीले नीलोभासे'त्ति प्रदेशान्तरे 'हरिए हरिओभासे'त्ति प्रदेशान्तर एव साधो केतया वृत्तिः२ नीलश्च मयूरगलवत् हरितस्तु शुकपिच्छवत् हरितालाभ इति च वृद्धाः, 'सीए सीओभासे'त्ति शीतः स्पर्शापेक्षया
घटिकादिवे वल्याद्याक्रान्तत्वादिति च वृद्धाः 'निद्धे निद्धोभासे'त्ति सिग्धो रूक्षत्ववर्जितः 'तिचे तिबोभासे'त्ति 'तीव्रः' वर्णादि
क्रियकृतिः ॥६२८॥
सू ४९८ गुणप्रकर्षवान् 'किण्हे किण्हच्छाए'त्ति इह कृष्णशब्दः कृष्णच्छाय इत्यस्य विशेषणमिति न पुनरुक्तता, तथाहि-कृष्णः सन् कृष्णच्छायः, छाया चादित्यावरणजन्यो वस्तुविशेषः, एवमुत्तरपदेष्वपि, 'घणकडियकडिच्छाए'त्ति अन्योऽन्यं शाखानुप्रवेशाद्बहलं निरन्तरच्छाय इत्यर्थः, 'अणुपुवसुजाय'इत्यत्र यावत्करणादेवं दृश्यम्-'अणुपुबसुजायवप्पगंभीरसीयलजला' अनुपूर्वेण सुजाता वा यत्र गम्भीरं शीतलं च जलं यत्र सा तथेत्यादि, 'सहुन्नइयमहुरसरनाइय'त्ति इदमेवं दृश्यं–सुयबरहिणमयणसालकोंचकोइलकोजकर्भिकारककोंडलकजीवंजीवकनदीमुहकविलपिंगलखगकारंडगचक्कवायकलहंससारसअणेगसउणगणमिहुणविरइयसढुन्नइयमहुरसरनाइय'त्ति तत्र शुकादीनां सारसान्तानामनेकेषां शकुनिगणानां मिथुनैर्विरचितं शब्दोन्नतिकं च-उन्नतशब्दकं मधुरस्वरं च नादितंलपितं यस्यां सा तथेति ॥ त्रयोदशशते नवमः ॥१३-९॥
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अनन्तरोद्देशके वैक्रियकरणमुक्तं, तच्च समुद्घाते सति छद्मस्थस्य भवतीति छाद्मस्थिकसमुद्घाताभिधानार्थो दशम उद्देशकस्तस्य चेदमादिसूत्रम्| कति णं भंते ! छाउमत्थियसमुग्घाया पन्नत्ता ?, गोयमा ! छ छाउमत्थिया समुग्घाया पन्नत्ता, तंजहा-18|| * वेयणासमुग्घाए एवं छाउमत्थियसमुग्घाया नेयवा जहा पन्नवणाए जाव आहारगसमुग्धायेत्ति । सेवं भंते !
सेवं भंतेत्ति (सूत्रं ४९९)॥१३-१०॥ तेरसमं सयं समत्तं ॥ ___ 'कह णमित्यादि, 'छाउमत्थिय'त्ति छद्मस्थः-अकेवली तत्र भवाञ्छास्थिकाः 'समुग्घाये'ति 'हन हिंसागत्योः' हननं घातः सम्-एकीभावे उत्-प्राबल्ये ततश्चैकीभावेन प्राबल्येन च घातः समुद्घातः, अथ केन सहकीभावगमनम् ?, उच्यते, यदाऽऽत्मा वेदनादिसमुद्घातं गतस्तदा वेदनाद्यनुभवज्ञानपरिणत एव भवतीति वेदनाद्यनुभवज्ञानेन सहैकीभावः, प्राबल्येन घातः कथम् ?, उच्यते, यस्माद्वेदनादिसमुद्घातपरिणतो बहून् वेदनीयादिकर्मप्रदेशान् कालान्तरानुभवनयोग्यानुदीरणाकरणेनाकृष्योदये प्रक्षिप्यानुभूय निर्जरयति-आत्मप्रदेशैः सह संश्लिष्टान् सातयतीत्यर्थः अतः प्राबल्येन घात इति, अयं चेह षड्विध इति बहुवचनं, तत्र 'वेयणासमुग्घाए'त्ति एकः, "एवं छाउमथिए'। || इत्यादिअतिदेशः, 'जहा पन्नवणाए'त्ति इह षट्त्रिंशत्तमपद इति शेषः, ते च शेषाः पञ्चैवं–'कसायसमुग्घाए २ | मारणंतियसमुग्घाए ३ वेउवियसमुग्घाए ४ तेयगसमुग्घाए ५ आहारगसमुग्घाए ६' त्ति, तत्र वेदनासमुद्घातः | असद्वेद्यकश्रियः कषायसमुद्घातः कषायाख्यचारित्रमोहनीयकश्रियः मारणान्तिकसमुद्घातः अन्तर्मुहूर्तशे
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२/
षायुष्ककर्माश्रयः वैकुर्विकतैजसाहारकसमुद्घाताः शरीरनामकर्माश्रयाः, तत्र वेदनासमुद्घात्तसमुद्धत आत्मा वेदनीयकर्मपुद्गलशातं करोति, कषायसमुद्घातसमुद्धतः कषायपुद्गलशातं, मारणान्तिकसमुद्घातसमुद्धत आयुष्ककर्मपुद्गलशातं वैकुर्विकसमुद्घातसमुद्धतस्तु जीवप्रदेशान् शरीरादहिनिष्काश्य शरीरविष्कम्भबाहल्यमात्रमायामतश्च | सङ्ख्येयानि योजनानि दण्डं निसृजति निसृज्य च यथास्थूलान् वैक्रियशरीरनामकर्मपुद्गलान् प्राग्बद्धान् सातयति
सूक्ष्मांश्चादत्ते, यथोक्तं-'वेउबियसमुग्घाएणं समोहणइ समोहणित्ता संखेज्जाइं जोयणाई दंडं निसिरइ २ अहाबायरे |पोग्गले परिसाडेइ २ अहासुहुमे पोग्गले आइयइत्ति । एवं तैजसाहारकसमुद्घातावपि व्याख्येयाविति ॥ त्रयोदशशते दशमः॥१३-१०॥ समाप्तं च त्रयोदशं शतम् ॥ १३ ॥
१३ शतक १० उद्देशः छाद्मस्थिक समुद्धाता सू ४९९
॥६२९॥
त्रयोदशस्यास्य शतस्य वृत्तिः, कृता मया पूज्यपदप्रसादात् ।
न ह्यन्धकारे विहितोद्यमोऽपि, दीपं बिना पश्यति वस्तुजातम् ॥ १॥ ఆrandid
a tes areencreencredicted ॥इति समाप्तं श्रीमदभयदेवमूरिवरविवृतायां भगवत्यां शलकं त्रयोदशम् ॥ 4PIPAHIMPIPHPAPPAPHPECIPIPANDHINDIPADATTA+PANDIPPIPASPAPTAPADE
॥६२९॥
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॥ अथ चतुर्दशशतकम् ॥ व्याख्यातं विचित्रार्थ त्रयोदशं शतम्, अथ विचित्रार्थमेव क्रमायातं चतुर्दशमारभ्यते, तत्र च दशोद्देशकास्तत्सब्रहगाथा चेयम्
चर १ उम्माद २ सरीरे ३ पोग्गल ४ अगणी ५ तहा किमाहारे ६। संसिह ७ मंतरे खलु ८ अणगारे ९ | केवली चेव १०॥१॥रायगिहे जाव एवं वयासी-अणगारे णं भंते ! भावियप्पा चरमं देवावासं वीति|कते परमं देवावासमसंपत्ते एत्थ णं अंतरा कालं करेज्जा तस्स णं भंते ! कहिं गती कहिं उववाए पन्नत्ते?,। | गोयमा ! जे से तत्थ परियस्सओ तल्लेसा देवावासा तहिं सस्स उववाए पन्नत्ते, से य तत्थ गए विराहेज्जा | कम्मलेस्सामेव पडिमडइ, से य तत्थ गए नो बिराहेजा एयामेव लेस्सं उपसंपज्जित्ताणं विहरति । अण
गारेणं भंते ! भावियप्पा चरमं असुरकुमारावासं वीतिकंते परमअसुरकुमारा० एवं चेव एवं जाव थणियकु|मारावासं जोइसियावासं एवं वेमाणियावासंजाव विहरइ ॥ (सूत्र५००) नेरइयाणं भंते! कहं सीहागती कहं सीहे. |गतिविसए पण्णत्ते?, गोयमा से जहानामए-केइ पुरिसेतरुणे बलवं जुगवं जाव निउणसिप्पोवगए आउद्वियं
बाहं पसारेजा पसारियं वा बाहं आउंटेजा विक्खिण्णं वा मुर्हि साहरेजा साहरियं वा मुर्हि विक्विरेजा | उन्निमिसियं वा अच्छि निम्मिसेजा निम्मिसियं वा अच्छि उम्मिसेजा, भवे एयारूवे ?, णो निणढे समढे,
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| १४ शतके १ उद्देशः परावासा| प्राप्तगतिः शीघ्रागतिः सूप सू ५०१
व्याख्या-15 नेरइया णं एगसमएण वा दुसमएण वा तिसमएण वा विग्गहेणं उववजंति, नेरइयाणं गोयमा ! तहा सीहा प्रज्ञप्तिः । गती तहा सीहे गतिविसए पण्णत्ते एवं जाव वेमाणियाणं, नवरं एगिदियाणं चउसमइए विग्गहे भाणियो।। अभयदेवी- सेसं तं चेव सूत्रं ५०१)॥ या वृत्तिः |
| 'चरउम्माद सरीरे'इत्यादि, तत्र 'चर'त्ति सूचामात्रत्वादस्य चरमशब्दोपलक्षितोऽपि चरमः प्रथम उद्देशकः, 'उम्मा॥६३०॥ यत्ति उन्मादार्थाभिधायकत्वादुन्मादो द्वितीयः, 'सरीरे'त्ति शरीरशब्दोपलक्षितत्वाच्छरीरस्तृतीयः, 'पुग्गल'त्ति पुद्गलार्था-
| भिधायकत्वात्पुद्गलश्चतुर्थः, 'अगणीति अग्निशब्दोपलक्षितत्वादग्निः पञ्चमः,किमाहारेत्ति किमाहारा इत्येवंविधप्रश्नोपल
क्षितत्वात्किमाहारः षष्ठः, 'संसिह'त्ति'चिरसंसिट्ठोऽसि गोयम'त्ति इत्यत्र पदे यः संश्लिष्टशब्दस्तदुपलक्षितत्वात् संश्लिष्टो| देशकः सप्तमः, 'अंतरे'त्ति पृथिवीनामन्तराभिधायकत्वादन्तरोद्देशकोऽष्टमः, 'अणगारे'त्ति अणगारेति पूर्वपदत्वादनगारोद्देशको नवमः, 'केवलि'त्ति केवलीति प्रथमपदत्वात्केवली दशमोद्देशक इति ॥ तत्र प्रथमोद्देशके किञ्चिल्लिख्यते-'चरमं
देवावासं वीतिकते परमं देवावासं असंपत्ते'त्ति, 'चरमम्' अर्वाग्भागवतिनं स्थित्यादिभिः 'देवावासं' सौधर्मादिदेहै वलोकं 'व्यतिक्रान्तः' लवितस्तदुपपातहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षया 'परमं' परभागवत्तिनं स्थित्यादिभिरेव 'देवावासं| | सनत्कुमारादिदेवलोकं 'असम्प्राप्तः' तदुपपातहेतुभूतलेश्यापरिणामापेक्षयैव, इदमुक्तं भवति-प्रशस्तेष्वध्यवसायस्थानेघूत्तरोत्तरेषु वर्तमान आराद्भागस्थितसौधर्मादिगतदेवस्थित्यादिबन्धयोग्यतामतिक्रान्तः परभागवर्तिसनत्कुमारादिगतदेवस्थित्यादिबन्धयोग्यतां चाप्राप्तः 'एत्थ णं अंतर'त्ति इहावसरे 'कालं करेज'त्ति म्रियते यस्तस्य क्वोत्पादः ? इति
॥६३०॥
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व्या० १०६
प्रश्नः, उत्तरं तु 'जे से तत्थ'त्ति अथ ये तत्रेति तयोः चरमदेवावासपरमदेवावासयोः ' परिपार्श्वतः' समीपे सौधर्मादे| रासन्नाः सनत्कुमारादेर्वाऽऽसन्नास्तयोर्मध्यभागे ईशानादावित्यर्थः 'तल्लेसा देवावास'त्ति यस्यां लेश्यायां वर्त्तमानः साधुर्मृतः सा लेश्या येषु ते तल्लेश्या देवावासाः 'तहिं'ति तेषु देवावासेषु तस्यानगारस्य गतिर्भवतीति, यत उच्यते - "जल्लेसे मरइ जीवे तल्लेसे वेव उववज्जह" त्ति 'से य'त्ति स पुनरनगारस्तत्र मध्यमभागवर्त्तिनि देवावासे गतः 'विरा| हिज्ज' ति येन लेश्यापरिणामेन तत्रोत्पन्नस्तं परिणामं यदि विराधयेत्तदा 'कम्मलेस्सामेव त्ति कर्म्मणः सकाशाद्या | लेश्या - जीवपरिणतिः सा कर्म्मलेश्या भावलेश्येत्यर्थः 'तामेव प्रतिपतति' तस्या एव प्रतिपतति अशुभतरतां याति न तु | द्रव्यलेश्यायाः प्रतिपतति सा हि प्राक्तन्येवास्ते, द्रव्यतोऽवस्थितलेश्यत्वाद्देवानामिति । पक्षान्तरमाह - 'से य तत्थे'त्यादि, 'सः' अनगारः 'तत्र' मध्यमदेवावासे गतः सन् यदि न विराधयेत्तं परिणामं तदा तामेव च लेश्यां ययोत्पन्नः 'उपसम्पद्य' आश्रित्य 'विहरति ' आस्त इति ॥ इदं सामान्यं देवावासमाश्रित्योक्तं, अथ विशेषितं तमेवाश्रित्याह'अणगारे ण'मित्यादि, ननु यो भावितात्माऽनगारः स कथमसुरकुमारेषूत्पत्स्यते विराधितसंयमानां तत्रोत्पादादिति, उच्यते, पूर्वकालापेक्षया भावितात्मत्वम्, अन्तकाले च संयमविराधनासद्भावादसुरकुमारादितयोपपात इति न दोषः, बालतपस्वी वाऽयं भावितात्मा द्रष्टव्य इति ॥ अनन्तरं देवगतिरुक्तेति गत्यधिकारान्नारकगतिमाश्रित्याह- 'नेरइयाण' मित्यादि, 'कहं सीहा गइ'त्ति 'कथं' केन प्रकारेण कीदृशीत्यर्थः शीघ्रा गतिः, नारकाणामुत्पद्यमानानां शीघ्रा गतिर्भवतीति प्रतीतं, यादृशेन च शीघ्रत्वेन शीघ्राऽसाविति च न प्रतीतमित्यतः प्रश्नः कृतः 'कहं सीहे गइविसए' त्ति कथ
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥३१॥
ABSCARSARASHTRA
मिति कीदृशः 'सीहेत्ति शीघ्रगतिहेतुत्वाच्छीघ्रो गतिविषयो-तिगोचरस्तद्धेतुत्वात्काल इत्यर्थः, कीदृशी शीघा गतिः१]
131१४ शतके कीदृशश्च तत्कालः ? इति तात्पर्य, 'तरुणे'त्ति प्रवर्द्धमानबयाः, स च दुर्बलोऽपि स्यादत आह-'बलब'ति शारीरमाण
१ उद्देश: वान् , बलं च कालविशेषाद्विशिष्टं भवतीत्यत आह–'जुगवं'ति युगं-सुषमदुष्षमादिः कालविशेषस्तत् प्रशस्तं विशिष्ट
परावासा| बलहेतुभूतं यस्यास्त्यसौ युगवान् , यावत्करणादिदं दृश्य-'जुवाणे वयःप्राप्तः 'अप्पायंके' अल्पशब्दस्याभावार्थत्वादना
प्राप्तगतिः
सू ५०० तङ्को-नीरोगः 'थिरग्गहत्थे स्थिराग्रहस्तः सुलेखकवत् 'दढपाणिपायपासपिटुंतरोरुपरिणए' दृढं पाणिपाद यस्य शीघ्रागतिः | पाश्चौं पृष्ठ्यन्तरे च ऊरू च परिणते-परिनिष्ठिततां गते यस्य स तथा उत्तमसंहनन इत्यर्थः, 'तलजमलजुयलपरिघनि
सू ५०१ भबाह' तलौ-तालवृक्षौ तयोर्यमलं-समश्रेणीकं यद् युगलं-द्वयं परिघश्च-अर्गला तन्निभौ-तत्सदृशौ दीर्घसरलपीनत्वादिना बाहू यस्य स तथा, 'चम्मेद्वदुहणमुट्टियसमाहयनिचियगायकाए' चर्मेष्टया दुषणेन मुष्टिकेन च समाहतानि अभ्यासप्रवृत्तस्य निचितानि गात्राणि यत्र स तथाविधः कायो यस्य स तथा, चर्मेष्टादयश्च लोकप्रतीताः, 'ओरसबलसमन्नागए' आन्तरबलयुक्तः "लंघणपवणजाणवायामसमत्थे' जविनशब्दः-शीघ्रवचनः 'छेए' प्रयोगज्ञः 'दक्खे' शीघकारी 'पत्तट्टे' अधिकृतकर्मणि निष्ठां गतः 'कुसले आलोचितकारी 'मेहावी' सकृतश्रुतदृष्टकर्मज्ञः 'निउणे' उपायारम्भकः, एवंविधस्य हि पुरुषस्य शीघ्र मत्यादिकं भवतीत्यतो बहुविशेषणोपादानमिति, 'आउंटियंति सङ्कोचितं 'विक्खिन्नं ति 'विकीर्णो' प्रसारितां 'साहरेजत्ति 'साहरेत्' सङ्कोचयेत् 'विक्खिरेज'त्ति विकिरेत्-प्रसारयेत् 'अभिमसिय'ति 'उन्मिषितम्' उन्मीलितं 'निमिसेज'त्ति निमीलयेत् , 'भवेयारूवेत्ति काकाऽध्येयं, काकुपाठे चायमर्थः स्यात् |
१॥
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106+6+0
बहुतैवं मन्यसे त्वं गौतम ! भवेत्तद्रूपं भवेत्स स्वभावः शीघ्रतायां नरक गतेस्तद्विषयस्य च यदुक्तं विशेषणपुरुषबाहुप्रसारणा| देरिति, एवं गौतममतमाशङ्का भगवानाह - नाथमर्थः समर्थः, अथ कस्मादेव मित्याह-- 'मेरइयाण' मित्यादि, अयमभिप्रायः - नारकाणां गतिरेकद्वित्रिसमया बाहुप्रसारणादिका चासवेयसमबेति कथं तादृशी गतिर्भवति नारकाणामिति, तत्र च ' एगसमएण वत्ति एकेन समयेनोपपद्यन्त इति योगा, ते च ऋजुगतावेव, वाशब्दो विकल्पे, इह च विग्रहशब्दो न सम्बन्धितः, तस्यैकसामायिकस्याभावात्, 'दुसमएण वत्ति द्वौ समयौ यत्र स द्विसमयस्तेन विग्रहेणेति योगः, एवं त्रिसमयेन वा विग्रहेण वक्रेण, तत्र द्विसमयो विग्रह एवं मदा भरतस्य पूर्वस्या दिशौ नरके पश्चिमायामुत्पद्यते तदैकेन समयेनाधो याति द्वितीयेन तु तिर्यगुत्पत्तिस्थानमिति, त्रिसमयविग्रहस्वेवं यदा भरतस्य पूर्वदक्षिणाया दिशो नारकेऽपरोत्तरायां दिशि गत्वोत्पद्यते तदैकेन समयेनाधः समश्रेण्या याति द्वितीयेन च तिर्यक् पश्चिमायां तृतीयेन तु तिर्यगेव वायव्यां दिशि उत्पत्तिस्थानमिति, तदनेन गतिकाल उक्तः, एतदभिधानाच्च शीघ्रा गति| र्यादृशी तदुक्तमिति, अथ निगमयन्नाह - 'नेरइयाण' मित्यादि, 'तहा सीहा गइत्ति यथोत्कृष्टतः समयत्रये भवति 'तहा सीहे गइविसए'त्ति तथैव, 'एगिंदियाणं घडसामइए विग्गहे'त्ति उत्कर्षतश्चतुःसमय एकेन्द्रियाणां 'विग्रहो' वक्रगतिर्भवति, कथम् ?, उच्यते, त्रसुनाच्या बहिस्तादधोलोके विदिशो दिशं बात्येकेन, जीवानामनुश्रेणिगमनात्, द्वितीयेन तु लोकमध्ये प्रविशति तृतीयेनोई याति चतुर्थेन तु त्रसनाडीतो निर्गत्य दिग्व्यवस्थितमुत्पादस्थानं प्राप्नोतीति, एतच बाहुल्य मङ्गीकृत्योच्यते, अन्यथा पञ्चसमयोऽपि विग्रहो भवेदेकेन्द्रियाणां तथाहि त्रसनाच्या बहिस्तादधोलोके
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी-1 या वृत्तिः२
| १४ शतके |१ उद्दशः
अनन्तराधुपपन्नायु: करणादि सू ५०२
काणां तथा वाच्या कि अणंतरोववनगारपरअणुववन्नगान नेरइया अणता
॥६३२॥
विदिशो दिशं यात्येकेन द्वितीयेन लोकमध्ये तृतीयेनोर्द्वलोके चतुर्थेन ततस्तिर्यक् पूर्वादिदिशो निर्गच्छति ततः पञ्चमेन | विदिग्व्यवस्थितमुत्पत्तिस्थानं यातीति, उक्तश्च-"विदिसाउ दिसिं पढमे बीए पइ सरइ नाडिमझमि । उहूं तइए तुरिए उनी विदिसं तु पंचमए ॥१."[विदिशो दिशं प्रति सरति प्रथमे द्वितीये नाडीमध्यं । तृतीये ऊर्ध्वं तुर्ये निर्गच्छति पंचमे तु विदिशं ॥१॥] इति, 'सेसं तं चेव'त्ति 'पुढविक्काइयाणं भंते ! कहं सीहा गई ?'इत्यादि सर्व यथा नारकाणां तथा वाच्यमित्यर्थः ॥ अनन्तरं गतिमाश्रित्य नारकादिदण्डक उक्तः, अथानन्तरोत्पन्नत्वादि प्रतीत्यापरं तमेवाह| नेरहया णं भंते ! किं अणंतरोववन्नगा परंपरोववन्नगा अणंतरपरंपरअणुववन्नगा?, गोयमा ! नेर० अणंतरोववन्नगावि परंपरोववन्नगावि अणंतरपरंपरअणुववन्नगावि, से केण एवं वु० जाव अणंतरपरंपरअणुववन्नगावि?, गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया अणंतरोववन्नगा, जेणं नेरइया अपढमसमयोववन्नगा ते णं नेरइया परंपरोववन्नगा, जेणं नेर० विग्गहगइसमावन्नगा ते णं नेरइया अणंतर| परंपरअणुववन्नगा, से तेणटेणं जाव अणुववन्नगावि, एवं निरंतरं जाव वेमा० । अणंतरोववन्नगा णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति तिरिक्ख०मणुस्सन्देवाज्यं पकरेंति ?,गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवाउयं पकरेंति । परंपरोववन्नगाणं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति ?, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति तिरिक्खजोणियाउयंपि पकरेंति मणुस्साउयंपि पकरेंति नो देवाउयं पकरेति । अणंतरपरंपरअणुववन्नगाणं भंते ! नेर०किं नेरइयाउयं प० पुच्छा नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव
ARRORSCROCALCCASEASESAMACRE
ते ण नेरइया मते
॥१२॥
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- SARLAHABHARAO
नो देवाज्यं पकरेन्ति, एवं जाव वेमाणिया, नवरं पंचिंदियतिरिक्खजोणिया मणुस्सा य परंपरोववन्नगा चत्तारिवि आउयाइं प०, सेसं तं चेव २॥ नेरइया णं भंते ! किं अणंतरनिग्गया परंपरनिग्गया अनंतरपरंपरअनिग्गया ?, गोयमा! नेरइया णं अणंतरनिग्गयाविजाव अणंतरपरंपरनिग्गयावि, सेकेण?णं जाव अणि-15 ग्गयावि?, गोयमा ! जे णं नेरइया पढमसमयनिग्गया ते णं नेरइया अणंतरनिग्गया जे णं नेरइया अपढमसमयनिग्गया ते ण नेरइया परंपरनिग्गया जेणं नेरड्या विग्गहगतिसमावन्नगातेणं नेरइया अणंतरपरंपरअ|णिग्गया, से तेणटेणं गोयमा ! जाव अणिग्गयावि, एवं जाव वेमाणिया ३॥ अणंतरनिग्गया णं भंते !
नेरइया कि नेरइयाउयं पकरेंति जाव देवाउयं पकरेंति?, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति जाव नो देवा| उयं पकरेंति। परंपरनिग्गया णं भंते ! नेरइया किं नेरइयाउयं० पुच्छा, गोयमा ! नेरइयाउयंपि पकरेंति
जाव देवाउयंपि पकरेंति । अणंतरपरंपरअणिग्गया णं भंते ! नेरइया पुच्छा, गोयमा ! नो नेरइयाउयं पकरेंति |जाव नो देवाउयं पकरेंति, एवं निरवसेसं जाव वेमाणिया ४ ॥ नेरइया णं भंते ! किं अणंतरं खेदोववन्नगा
परंपरखेदोववन्नग अणंतरपरंपरखेदाणुववन्नगा?, गोयमा ! नेरइया० एवं एएणं अभिलावेणं तं चेव चत्तारि दंडगा भाणियचा । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरइ (सूत्रं ५०२)॥ चोदसमसयस्स पढमो॥१४-१॥ __ 'नेरइया ण'मित्यादि, 'अणंतरोववन्नग'त्ति न विद्यते अन्तरं-समयादिव्यवधानं उपपन्ने-उपपाते येषां ते अनन्तरोपपन्नकाः 'परंपरोववन्नग'त्ति परम्परा-द्वित्रादिसमयता उपपन्ने-उपपाते येषां ते परम्परोपपन्नकाः, 'अणंतरपरंपरअ
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६३३॥
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णुववन्नग'त्ति अनन्तरं - अव्यधानं परम्परं च द्वित्रादिसमय रूपमविद्यमानं उत्पन्नं-उत्पादो येषां ते तथा एते च विग्र| हगतिकाः, विग्रहगतौ हि द्विविधस्याप्युत्पादस्याविद्यमानत्वादिति ॥ अथानन्तरोपपन्नादीनाश्रित्यायुर्बन्धमभिधातुमाह'अणंतरे'त्यादि, इह चानन्तरोपपन्नानामनन्तरपरम्परानुपपद्मानां च चतुर्विधस्याप्यायुषः प्रतिषेधोऽध्येतव्यः, तस्यामवस्थायां तथाविधाध्यवसायस्थानाभावेन सर्वजीवानामायुषो बन्धाभावात्, स्वायुषस्त्रिभागादौ च शेषे बन्धसद्भावात्, परम्परोपपन्नकास्तु स्वायुषः षण्मासे शेषे मतान्तरेणोत्कर्षतः षण्मासे जघन्यतश्चान्तर्मुहूर्त्ते शेषे भवप्रत्ययात्तिर्यग्मनुष्यायुषी एव कुर्वन्ति नेतरे इति, 'एवं जाय वेमाणिय' ति अनेनो कालापकत्रययुक्तश्चतुर्विंशतिदण्डकोऽभ्येतन्य इति सूचितं यश्चात्र विशेषस्तं दर्शयितुमाह- 'नवरं पंचिदिए' त्यादि ॥ अथानन्तरनिर्गतत्वादिनाऽपरं दण्डकमाह'नेरइया ण'मित्यादि, तत्र निश्चितं स्थानान्तरप्राप्त्या गतं गमनं निर्गतं अनन्तरं समयादिना निर्व्यवधानं निर्गतं येषां | तेऽनन्तरनिर्गतास्ते च येषां नरकादुद्वृत्तानां स्थानान्तरं प्राप्तानां प्रथमः समयो वर्त्तते, तथा परम्परेण - समयपरम्परया निर्गतं येषां ते तथा, ते च येषां नरकादुद्वृत्तानामुत्पत्तिस्थानप्राप्तानां त्यादयः समयाः, अनन्तरपरम्परानिर्गतास्तु ये | नरकादुद्वृत्ताः सन्तो विग्रहगतौ वर्त्तन्ते न तावदुत्पाद क्षेत्रमासादयन्ति तेषामनन्तरभावेन परम्परभावेन चोत्पादक्षेत्राप्राप्तत्वेन निश्चयेनानिर्गतत्वादिति ॥ अथानन्तरनिर्गतादीनाश्रित्यायुर्बन्धमभिधातुमाह- 'अणंतरे' त्यादि, इह च पर|म्परानिर्गता नारकाः सर्वाण्यायूंषि बध्नन्ति यतस्ते मनुष्याः पञ्चेन्द्रियतिर्यञ्च एव च भवन्ति, ते च सर्वायुर्बन्धका | एवेति, एवं सर्वेऽपि परम्परनिर्गता वैक्रियजन्मान', औदारिकजन्मानोऽप्युद्वृत्ताः केचिन्मनुष्यपञ्चेन्द्रियतिर्यञ्चो भवन्त्य
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१४ शतके १ उद्देशः अनन्तराद्युपपन्नायुः
करणादि
सू ५०२
॥६३३॥
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CASSAMASSAGARMERMA
तस्तेऽपि सर्वायुर्वन्धका एवेति ॥ अनन्तरं निर्गता उक्तास्ते च क्वचिदुत्पद्यमानाः सुखेनोत्पद्यन्ते दुःखेन वेति दुःखोत्पनकानाश्रित्याह-नेरइये'त्यादि, 'अनंतरखेदोववन्नग'त्ति अनन्तरं-समयाद्यव्यवहितं खेदेन-दुखेनोपपन्न-उत्पादक्षे
त्रप्राप्तिलक्षणं येषां तेऽनन्तरखेदोपपन्नकाः खेदप्रधानोत्पत्तिप्रथमसमयवर्त्तिन इत्यर्थः 'परंपरक्खेओववन्नग'त्ति परम्परा६ द्विवादिसमयता खेदेनोपपन्ने उत्पादे-येषां ते परम्पराखेदोपपन्नकाः, 'अणंतरपरंपरखेदाणुववन्नग'त्ति अनन्तरं परम्परं
च खेदेन नास्त्युपपन्न येषां ते तथा विग्रहगतिवर्तिन इत्यर्थः, 'ते चेव चत्तारि दंडगा भाणिय'त्ति त एव पूर्वोक्ता 5 उत्पन्नदण्डकादयः खेदशब्दविशेषिताश्चत्वारो दण्डका भणितव्याः, तत्र च प्रथमः खेदोफ्पन्नदण्डको द्वितीयस्तदायुष्क-15 दण्डकस्तृतीयः खेदनिर्गतदण्डकश्चतुर्थस्तु तदायुष्कदण्डक इति ॥ चतुर्दशशते प्रथमः ॥ १४-१॥
अनन्तरोद्देशकेऽनन्तरोपपन्ननैरयिकादिवक्तव्यतोका, नैरयिकादयश्च मोहवन्तो भवन्ति, मोहश्चोन्माद इत्युन्मादप्ररूपणार्थो द्वितीय उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्__ कतिविहे गं भंते ! उम्मादे पण्णत्ते ?, गोयमा दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, जहा-जक्खावेसे य मोहणिजस्स |य कम्मस्स उदएणं, तत्थ णं जे से जक्खाएसे से णं सुहवेयणतराए चेव सुहविमोयणतराए चेव, तत्थ णं जे से मोहणिजस्स कम्मस्स उदएणं से णं दुहवेयणतराए चेव दुहविमोयणतराए चेव । मेरइयाणं भंते ! कतिविहे उम्मादे पण्णत्ते ?, गोयमा ! दुविहे उम्मादे पण्णत्ते,तंजहा-जक्खावेसे य मोहणिजस्स ये कम्मस्सं उदएणं, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरइयाणं दुविहे उम्मादे पण्णत्ते, तंजहा-जेक्खावेसे यमोहणिजस्स जाव उदएणं?,
andean
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥६३४॥
CRICRORECICROACHESARI
गोयमा ! देवे वा से असुभे पोग्गले पक्खिवेजा, सेणं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खा- |१४ शतके एसं उम्मादं पाउणेजा, मोहणिज्जस्स वा कम्मस्स उदएणं मोहणिज्जं उम्मायं पाउणेज्जा, से तेण?णं जाव||२ उद्देशः उम्माए । असुरकुमाराणं भंते! कतिविहे उम्मादे पण्णत्ते?, एवं जहेव नेरइयाणं नवरं देवेवासे महिड्डीयतराएद यक्षावेशमो असुभे पोग्गले पक्खिवेजा से णं तेसिं असुभाणं पोग्गलाणं पक्खिवणयाए जक्खाएसं उम्मादं पाउणेज्जा|
होन्मादौ मोहणिजस्स वा सेसं तं चेव, से तेणटेणं जाव उदएणं एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं जाव मणु-|
सू ५०३
जिनजन्मास्साणं एएसिं जहा नेरइयाणं, वाणमंतरजोइसवेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं ॥(सूत्रं५०३) अत्थि णं भंते!
| दो वृष्टिः |पज्जन्ने कालवासी बुट्टिकायं पकरेंति ?, हंता अस्थि ॥ जाहे णं भंते ! सके देविंदे देवराया वुहिकार्य काउकामे
सू ५०४ भवति से कहमियाणिं पकरेति ?, गोयमा ! ताहे चेव णं से सके देविंदे देवराया अभितरपरिसए देवे सद्दावेति, तए णं ते अम्भितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा मज्झिमपरिसए देवे सद्दावेंति, तए णं ते मज्झिमपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरपरिसए देवे सद्दावेंति, तए णं ते बाहिरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा बाहिरं बाहिरगा देवा सद्दावेंति, तए णं ते बाहिरगा देवा सद्दाविया समाणा आभिओगिए देवे सद्दावेंति, तए णं ते जाव सदाविया समाणा वुढिकाए देवे सहावेंति, तए णं ते बुटिकाइया ॥६३४॥ देवा सद्दाविया समाणा वुट्टिकायं पकरेंति, एवं खलु गोयमा ! सके देविंदे देवराया बुट्टिकायं पकरेति ॥ अस्थि णं भंते ! असुरकुमारावि देवा वुट्टिकायं पकरेंति , हंता अस्थि, किं पत्तियन्नं भंते !
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असुरकुमारा देवा वुट्टिकायं पकरेंति ?, गोयमा ! जे इमे अरहंता भगवंता एएसि णं जम्मणमहिमासु वा निक्खमणमहिमासु वा णाणुप्पायमहिमासु वा परिनिवाणमहिमासु वा एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारावि देवा बुट्ठिकार्य पकरेंति, एवं नागकुमारावि एवं जाव थणियकुमारा वाणमंतरजोइसियवेमाणिय एवं चेव (सूत्रं ५०४ ) ॥
'कतिवि ण' मित्यादि, 'उन्मादः' उन्मत्तता विविक्त चेतनाभ्रंश इत्यर्थः 'जक्खाएसे य'त्ति यक्षो - देवस्तेनावेश:प्राणिनोऽधिष्ठानं यक्षावेशः, 'मोहणिज्जस्से' त्यादि तत्र मोहनीयं - मिथ्यात्वमोहनीयं तस्योदयादुन्मादो भवति यतस्त| दुदयवत्र्त्ती जन्तुरतत्त्वं तत्त्वं मन्यते तत्त्वमपि चातत्त्वं चारित्रमोहनीयं वा यतस्तदुदये जानन्नपि विषयादीनां स्वरूप - मजानन्निव वर्त्तते, अथवा चारित्रमोहनीयस्यैव विशेषो वेदाख्यो मोहनीयं यतस्तदुदयविशेषेऽप्युन्मत्त एव भवति, | यदाह - " चिंतेइ १ दडुमिच्छइ २ दीहं नीससइ ३ तह जरे ४ दाहे ५ । भत्तअरोअग ६ मुच्छा ७ उम्माय ८ न याई ९ मरणं १० ॥ १ ॥” इति । [ चिन्तयति द्रष्टुमिच्छति दीर्घ निःश्वसिति तथा ज्वरो दाहः । भक्तारोचकत्वं मूर्च्छा उन्मादो न जानाति मरणं च ॥ ] एतयोश्चोन्मादत्वे समानेऽपि विशेषं दर्शयन्नाह - 'तत्थ ण' मित्यादि तत्र तयोर्मध्ये 'सुहवेयणतराए चेव' त्ति अतिशयेन सुखेन - मोहजन्योन्मादापेक्षयाऽक्लेशेन वेदनं - अनुभवनं यस्यासौ सुख| वेदनतरः स एव सुखवेदनतरकः, चैवशब्दः स्वरूपावधारणे, 'सुहविमोयणतराए चेव'त्ति अतिशयेन सुखेन विमोचनं| वियोजनं यस्मादसौ सुखविमोचनतरः, कप्रत्ययस्तथैव । 'तत्थ ण' मित्यादि, मोहजन्योन्माद इतरापेक्षया दुःखवेदनतरो
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व्याख्या- भवत्यनन्तसंसारकारणत्वात् , संसारस्य च दुःखवेदनस्वभावत्वात् , इतरस्तु सुखक्दनतर एक, एकभर्विकत्वादिति, १४ शतके प्रज्ञप्तिः तथा मोहजोन्माद इतरापेक्षया दुःखविमोचनतरो भवति, विद्यामन्त्रतन्त्रदेवानुग्रहवतामपि वर्तिकानों तस्यसिध्यि- २ उद्देशः अभयदेवी
तयक्षावेशमो या वृत्तिः२ धात्वात, इतरस्तु सुखविमोचनतर एव भवति यन्त्रमात्रेणापि तस्य निग्रहीतुं शक्यत्वादिति, आह च-"सर्वज्ञमन्त्रवा
होन्मादौ द्यपि यस्य न सर्वस्य निग्रहे शक्तः । मिथ्यामोहोन्मादः स केन किल कथ्यतां तुल्यः॥१॥” इदं च द्वयमपि चतुर्विंश
| सू ५०३ ॥६३५॥ तिदण्डके योजयन्नाह-'नेरइयाण'मित्यादि, 'पुढविक्काइयाण'मित्यादौ यदुक्तं 'जहा नेरइयाण'ति तेन 'देवै वा से जिनजन्मा.
असुभे पोग्गले पक्खिवेज्जा'इत्येतद् यक्षावेशे पृथिव्यादिसूत्रेषु अध्यापितं, 'वाणमंतरे'त्यादौ तु यदुक्तं 'जहा असुर- दौ वृष्टिः कुमाराणं'ति तेन यक्षावेश एव व्यन्तरादिसूत्रेषु "देवे वा से महड्डियतराए'इत्येतदध्यापितं, मोहोन्मादालापकस्तु
सू ५०४ सर्वसूत्रेषु समान इति ॥ अनन्तरं वैमानिकदेवानां मोहनीयोन्मादलक्षणः क्रियाविशेष उक्तः, अथ वृष्टिकायकरणरूपं तमेव देवेन्द्रादिदेवानां दर्शयन् प्रस्तावनापूर्वकमाह-'अत्थि ण'मित्यादि, 'अस्थिति अस्त्येतत् 'पज्जन्नेत्ति पर्जन्यः 'कालवासित्तिकाले-प्रावृषि वर्षतीत्येवंशीलः कालवर्षी, अथवा कालश्चासौ वर्षी चेति कालवर्षी, 'वृष्टिकार्य' प्रवर्षणतो जल| समूहं प्रकरोति प्रवर्षतीत्यर्थः, इह स्थाने शक्रोऽपि तं प्रकरोतीति दृश्य, तत्र च पर्जन्यस्य प्रवर्षणक्रियायां तत्स्वाभाव्यतालक्षणो विधिः प्रतीत एव, शक्रप्रवर्षणक्रियाविधिस्त्वप्रतीत इति तं दर्शयन्नाह-जाहे'इत्यादि, अथवा पर्जन्य इन्द्र एवो
!॥६३५॥ च्यते, स च कालवर्षी काले-जिनजन्मादिमहादौ वर्षतीतिकृत्वा, 'जाहे गति यदा 'से कहमियाणि पकरेईत्ति स
VASTUSASISWISSHAUS
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शकः कथं तदानीं प्रकरोति ?, वृष्टिकायमिति प्रकृतम् । असुरकुमारसूत्रे 'किं पत्तियणति किं प्रत्यय-कारणेमाश्रित्येत्यर्थः 'जम्मणमहिमासुवत्ति जन्ममहिमासु जन्मोत्सवान् निमित्तीकृत्येत्यर्थः॥ देवक्रियाऽधिकारादिदमपरमाह
जाहे णं भंते ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुक्कायं काउकामे भवति से कहमियाणि पकरेति ?, गोयमा ! ताहे चेवणं से ईसाणे देविंदे देवराया अम्भितरपरिसए देवे सद्दावेति, तए णं ते अम्भितरपरिसगा देवा सद्दाविया समाणा एवं जहेव सक्कस्स जाव तए णं ते आभिओगिया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्काइए देवे सद्दावेंति, तए णं ते तमुक्काइया देवा सद्दाविया समाणा तमुक्कायं पकरेंति, एवं खलु गोयमा ! ईसाणे देविंदे देवराया तमुक्कायं पकरेति ॥ अस्थि णं भंते ! असुरकुमारावि देवा तमुक्कायं पकरेंति ?, हंता अस्थि । किं पत्तियन्नं भंते ! असुरकुमारा देवा तमुक्कायं पकरेंति ?, गोयमा! किड्डारतिपत्तियं वा पडिणीयविमोहणट्ठयाए वा गुत्तीसंरक्खणहेउं वा अप्पणो वा सरीरपच्छायणट्ठयाए, एवं खलु गोयमा ! असुरकुमारावि देवा तमुक्कायं पकरेंति एवं जाव वेमाणिया। सेवं भंते २ त्ति जाव विहरइ (सूत्रं ५०५)॥१४-२॥
'जाहे णमित्यादि, 'तमुक्काए'त्ति तमस्कायकारिणः 'किड्डारइपत्तिय'ति क्रीडारूपा रतिः क्रीडारतिः अथवा क्रीडा | च-खेलनं रतिश्च-निधुवनं क्रीडारती सैव ते एव वा प्रत्ययः-कारणं यत्र तत् क्रीडारतिप्रत्ययं 'गुत्तीसंरक्खणहे व'त्ति गोपनीयद्रव्यसंरक्षणहेतोर्वेति ॥ चतुर्दशशते द्वितीयः॥१४-२॥
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६३६॥
द्वितीयोदेशके देवव्यतिकर उक्तः, तृतीयेऽपि स एवोच्यते इत्येवं सम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम् -
देवे णं भंते! महाकाए महासरीरे अणगारस्स भावियप्पणो मज्झमज्झेणं वीवएजा ?, गोयमा ! अत्थे| गइए वीइवएजा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चइ अत्थेगतिए वीइवएज्जा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा ?, गोयमा ! दुविहा देवा पण्णत्ता, तंजहा - मायीमिच्छादिट्ठीउववन्नगा य अमायीसम्मदिट्ठीउ - | ववन्नगा य, तत्थ णं जे से मायी मिच्छद्दिट्ठी उववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ २ नो वंदति नो नम॑सति नो सकारेति नो कल्लाणं मंगलं देवयं चेइयं जाव पज्जुवासति, से णं अणगारस्स भावियप्पणो | मज्झंमज्झेणं वीइवएज्जा, तत्थ णं जे से अमायी सम्मद्दिट्टिउववन्नए देवे से णं अणगारं भावियप्पाणं पासइ | पासित्ता वंदति नम॑सति जाव पज्जुवासति, से णं अणगारस्स भावियप्पणो मज्झंमज्झेणं नो वीयीवएज्जा, से तेण० गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव नो वीइवएज्जा । असुरकुमारे णं भंते! महाकाये महासरीरे एवं चेव | एवं देवदंडओ भाणियवो जाव वेमाणिए (सूत्रं ५०६ ) ॥
'देवे ण'मित्यादि, इह च क्वचिदियं द्वारगाथा दृश्यते - " महकाए सक्कारे सत्थेणं वीईवयंति देवा उ । वासं चैव य | ठाणा नेरइयाणं तु परिणामे ॥ १ ॥ " इति अस्याश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य एवेति । 'महाकाय'त्ति महान् - बृहन् | प्रशस्तो वा कायो- निकायो यस्य स महाकायः, 'महासरीरे' ति बृहत्तनुः । 'एवं देवदंडओ भाणियवो' त्ति नारक पृथि
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१४ शतके २ उद्देशः ईशानस्य त मस्करण
सू ५०५ अनगारम ध्येन गतिः
सू ५०६
॥६३६॥
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वीकायिकादीनामधिकृतव्यतिकरस्यासम्भवाद् देवानामेव च संभवाद्देवदण्डकोऽत्र व्यतिकरे भणितव्य इति ॥ प्राग देवानाश्रित्य मध्यगमनलक्षणो दुर्विनय उक्तः, अथ नैरयिकादीनाश्रित्य विनयविशेषानाह__ अत्थि णं भंते ! नेरइयाणं सकारेति वा सम्माणेति वा किइकम्मेइ वा अन्भुट्ठाणेइ वा अंजलिपग्गहेति |वा आसणाभिग्गहेति वा आसणाणुप्पदाणेति वा इंतस्स पचुग्गच्छणया ठियस्स पञ्जुवासणया गच्छंतस्स |पडिसंसाहणया ?, नो तिणढे समढे । अस्थि णं भंते ! असुरकुमाराणं सकारेति वा सम्माणेति वा जाव पडिसंसाहणया वा ?, हंता अत्थि, एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं जाव चउरिदियाणं एएसिं
जहा नेरइयाणं, अत्थि णं भंते ! पंचिंदियतिरिक्खजोणियाणं सक्कारेइ वा जाव पडिसंसाहणया?, हंता 5 अत्थि, नो चेव णं आसणाभिग्गहेइ वा आसणाणुप्पयाणेइ वा, मणुस्साणं जाव वेमाणियाणं जहा असु-18 रकुमाराणं॥ (सूत्रं५०७) अप्पड्डीए णं भंते! देवे महड्डियरस देवस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा?,नोतिणढे समढे, समिडीए णं भंते ! देवे समड्डियस्स देवस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा,णो इणमढे समढे, पमत्तं पुण वीइवएज्जा, सेणंभंते ! किं सत्थेणं अवक्कमित्ता पभू अणकमित्ता पभू ?, गोयमा ! अवक्कमित्तापभू नो अणक्कमित्ता पभू, | ||से गंभंते ! किं पुविं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीयीवएजा पुचि वीईव०पच्छा सत्थेणं अकमज्जा ?, एवं एएणं * अभिलावेणं जहा दसमसए आइड्डीउद्देसए तहेव निरवसेसं चत्तारि दंडगा भाणियवा जाव महड्डिया || वेमाणिणी अप्पड्डियाए वेमाणिणीए (सूत्रं ५०८)॥
AASAASASAASAASAASAASAASARAG
व्या . १. ७ Jain Education
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६३७॥
'अस्थि 'मित्यादि, 'सक्कारेइ व'त्ति सत्कारो - विनयार्हेषु वन्दनादिनाऽsदरकरणं प्रवरवस्त्रादिदानं वा 'सत्कारो | पवरवत्थमाईहिं' इति वचनात् 'सम्माणेइ व'त्ति सन्मानः - तथाविधप्रतिपत्तिकरणं 'किइकम्मेइ व'त्ति कृतिकर्म्म - वन्दनं कार्यकरणं वा 'अन्भुट्ठाणे वत्ति अभ्युत्थानं - गौरवार्हदर्शने विष्टरत्यागः 'अंजलिपग्गहेइ व'त्ति अञ्जलिप्रग्रहः - अञ्जलिकरणम् ' आसणाभिग्गहेइ वत्ति आसनाभिग्रहः तिष्ठत एव गौरव्यस्यासनानयनपूर्वकमुपविशतेति भणनं 'आसणाणुप्पयाणेइ वत्ति आसनानुप्रदानं - गौरव्यमाश्रित्यासनस्य स्थानान्तरसञ्चारणं 'इंतस्स पच्चुग्गच्छणयत्ति आगच्छतो गौरव्यस्याभिमुखगमनं 'ठियस्स पज्जुवासणयत्ति तिष्ठतो गौरव्यस्य सेवेति 'गच्छंतस्स पडिसं| साहणय'त्ति गच्छतोऽनुत्रजनमिति, अयं च विनयो नारकाणां नास्ति, सततं दुःस्थत्वादिति ॥ पूर्व विनय उक्तः, अथ तद्विपर्ययभूताविनयविशेषं देवानां परस्परेण प्रतिपादयन्नाह - 'अप्पडिए ण' मित्यादि, 'एवं एएणं अभिलावेण मित्यादौ 'आइहिउद्देसए' त्ति दशमशतस्य तृतीयोद्देशके 'निरवसेसं' ति समस्तं प्रथमं दण्डकसूत्रं वाच्यं, तत्र चाल्पर्द्धिक - | महर्द्धिकालापकः समर्द्धिकालापकश्चेत्यालापकद्वयं साक्षादेव दर्शितं केवलं समर्द्धिकालापकस्यान्तेऽयं सूत्रशेषो दृश्यः| 'गोयमा ! पुत्रिं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीईवएजा नो पुत्रिं वीईवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमिज्जत्ति, तृतीयस्तु महर्द्धिकाल्पर्द्धिकालापक एवं - 'महड्डिए णं भंते ! देवे अप्पट्टियस्स देवस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ?, हंता वीइवएज्जा, से णं भंते ! किं सत्थेणं अक्कमित्ता पभू अणक्कमित्ता पभू?' शस्त्रेण हत्वाऽहत्वा वेत्यर्थः, 'गोयमा ! अक्कमित्तावि पभू अणकमित्तावि पभू, से णं भंते । किं पुष्टिं सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएजा पुत्रिं वीहव
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१४ शतके ३ उद्देशः नारकादीनां सत्कारा दि देवानां मध्येन ग
तिः सू
५०७-५०८
॥६३७॥
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SUSUNGUSA*
एजा पच्छा सत्थेणं अक्कमेजा ?, गोयमा ! पुत्विं वा सत्थेणं अक्कमित्ता पच्छा वीइवएज्जा पुचि वा वीइवइत्ता पच्छा सत्थेणं अक्कमिजत्ति, 'चत्तारि दंडगा भाणियत्व'त्ति तत्र प्रथमदण्डक उक्तालापकत्रयात्मको देवस्य देवस्य च, द्वितीयस्त्वेवविध एव नवरं देवस्य च देव्याश्च, एवं तृतीयोऽपि नवरं देव्याश्च देवस्य च,चतुर्थोऽप्येवं नवरं देव्याश्च देव्याश्चेति,8 अत एवाह-जाव महड्डिया वेमाणिणी अप्पड्डियाए वेमाणिणीए'त्ति, मज्झमज्झेण'मित्यादि तु पूर्वोक्तानुसारेणाध्ये| यमिति ॥ अनन्तरं देववक्तव्यतोक्ता, अथैकान्तदुःखितत्वेन तद्विपर्ययभूता नारका इति तद्गतवक्तव्यतामाह
रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसियं पोग्गलपरिणामं पच्चणुन्भवमाणा विहरंति ?, गोयमा ! अणिटुंजाव अमणामं एवं जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया, एवं वेदणापरिणामं एवं जहा जीवाभिगमे वितिए नेरइयउद्देसए जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं परिग्गहसन्नापरिणामं पञ्चणुब्भवमाणा |विहरंति ?, गोयमा ! अणिढे जाव अमणामं । सेवं भंते ! २त्ति (सूत्रं ५०९)॥१४-३॥
'रयणे'त्यादि, 'एवं वेयणापरिणाम'ति पुद्गलपरिणामवद् वेदनापरिणाम प्रत्यनुभवन्ति नारकाः, तत्र चैवमभि-है। लापः–रयणप्पभापुढविनेरइया णं भंते ! केरिसयं वेयणापरिणामं पच्चणुब्भवमाणा विहरंति ?, गोयमा ! अणिढं जाव अमणामं एवं जाव अहेसत्तमापुढविनेरइया' शेषसूत्रातिदेशायाह-एवं जहा जीवाभिगमे'|8 | इत्यादि, जीवाभिगमोक्तानि चैतानि विंशतिः पदानि, तद्यथा-"पोग्गलपरिणामं १ वेयणाइ २ लेसाइ ३ नामगोए य ४४। अरई ५ भए य ६ सोगे ७ खुहा ८ पिवासा य ९ वाही य १० ॥१॥ उस्सासे ११ अणुतावे १२ कोहे १३ माणे
USROSAROSAROGROLORCAM
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व्याख्या- य १४ माय १५ लोभे य १६ । चत्तारि य सन्नाओ २० नेरइयाणं परीणामे ॥२॥” इति, तत्र चाद्यपदद्वयस्याभिलापो १४ शतके प्रज्ञप्तिः दर्शित एव, शेषाणि त्वष्टादशाद्यपदद्वयाभिलापेनाध्येयानीति ॥ चतुर्दशशते तृतीयः ॥ १४-३ ॥
४ उद्देशः अभयदेवी-8
नारकपरि. या वृत्तिः द तृतीयोद्देशके नारकाणां पुद्गलपरिणाम उक्त इति, चतुर्थोद्देशकेऽपि पुद्गलपरिणामविशेष एवोच्यते इत्येवंसम्बन्ध- णामापुद्गल
रूक्षतादिसू ॥६३८॥ स्यास्येदमादिसूत्रम्
५०९-५१० __ एस णं भंते ! पोग्गले तीतमणतं सासयं समयं लुक्खी समयं अलुक्खी समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा? पुष्विं च णं करणेणं अणेगवन्नं अणेगरूवं परिणामं परिणमति?, अह से परिणामे निजिन्ने भवति तओ पच्छा एगवन्ने एगरूवे सिया ?, हंता गोयमा ! एस णं पोग्गले तीते तं चेव जाव एगरूवे सिया ॥ एस णं
भंते ! पोग्गले पड्डप्पन्नं सासयं समयं ? एवं चेव,एवं अणागयमणतंपि ॥ एस णं भंते ! खंधे तीतमणतं ? है एवं चेव खंधेवि जहा पोग्गले (सूत्रं ५१०)॥ M 'एस णं भंते !'इत्यादि, इह पुनरुद्देशकार्थसङ्घहगाथा क्वचिद् दृश्यते, सा चेयं-"पोग्गल १ खंधे २ जीवे ३ परमाणू ४
सासए य ५ चरमे य । दुविहे खलु परिणामे अज्जीवाणं च जीवाणं ६ ॥१॥” अस्याश्चार्थ उद्देशकार्थाधिगमावगम्य ॥६३८॥ एवेति, 'पुग्गले'त्ति पुद्गलः परमाणुः स्कन्धरूपश्च 'तीतमणतं सासयं समयंति विभक्तिपरिणामादतीते अनन्ते अप-14 रिमाणत्वात् शाश्वते अक्षयत्वात् 'समये काले 'समयं लुक्खी'ति समयमेकं यावद्रूक्षस्पर्शसद्भावाद्रूक्षी, तथा
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|| 'समयं अलुक्खी 'त्ति समयमेकं यावदरूक्षस्पर्शसद्भावाद् 'अरूक्षी' स्निग्धस्पर्शवान् बभूव, इदं च पदद्वयं परमाणौ निस्कन्धे च संभवति, तथा 'समयं लुक्खी वा अलुक्खी वत्ति समयमेव रूक्षश्चारूक्षश्च रूक्षस्निग्धलक्षणस्पर्शद्वयो
पेतो बभूव, इदं च स्कन्धापेक्षं यतो व्यणुकादिस्कन्धे देशो रूक्षो देशश्चारूक्षो भवतीत्येवं युगपद्रूक्षस्निग्धस्पर्श
सम्भवः, वाशब्दौ चेह समुच्चयार्थों, एवंरूपश्च सन्नसौ किमनेकवर्णादिपरिणामं परिणमति पुनश्चैकवर्णादिपरितणामः स्यात् ? इति पृच्छन्नाह–'पुष्विं च णं करणेणं अणेगवन्नं अणेगरूवं परिणाम परिणमह'इत्यादि, 'पूर्व च
एकवर्णादिपरिणामात्प्रागेव 'करणेन' प्रयोगकरणेन विश्रसाकरणेन वा 'अनेकवणे कालनीलादिवर्णभेदेनानेकरूपं गन्धरसस्पर्शसंस्थानभेदेन 'परिणाम' पर्यायं परिणमति अतीकालविषयत्वादस्य परिणतवानिति द्रष्टव्यं पुद्गल इति प्रकृतं, स च यदि परमाणुस्तदा समयभेदेनानेकवर्णादित्वं परिणतवान् , यदि च स्कन्धस्तदा यौगपद्येनापीति । 'अह से'त्ति 'अर्थ' अनन्तरं सः-एष परमाणोः स्कन्धस्य चानेकवर्णादिपरिणामो 'निर्जीर्णः' क्षीणो भवति परिणामान्तराधायककारणोपनिपातवशात् 'ततः पश्चात् निर्जरणानन्तरम् 'एकवर्णः' अपेतवर्णान्तरत्वादेकरूपो विवक्षितगन्धादिपर्यायापेक्षयाऽपरपर्यायाणामपेतत्वात् 'सिय'त्ति बभूव अतीतकालविषयत्वादस्येति प्रश्नः, इहोत्तरमेतदेवेति, अनेन च परिणामिता पुद्गल| द्रव्यस्य प्रतिपादितेति ॥ 'एस ण'मित्यादि वर्तमानकालसूत्रं, तत्र च 'पडप्पन्नं ति विभक्तिपरिणामात् 'प्रत्युत्पन्ने' वर्त्तमाने 'शाश्वते' सदैव तस्य भावात् 'समये' कालमात्रे 'एवं चेव'त्ति करणात्पूर्वसूत्रोक्तमिदं दृश्य-समयं लुक्खी समयं | अलुक्खी समयं लुक्खी वा अलुक्खी वा इत्यादि, यच्चेहानन्तमिति नाधीतं तद्वर्त्तमानसमयस्यानन्तत्वासम्भवात् ,
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हंता गोयमा एसमं परिणमइ अह से वेयणिजे अनकली समयं दुक्खी वा अदुका
व्याख्या-8 अतीतानागतसूत्रयोस्त्वनन्तमित्यधीतं तयोरनन्तत्वसम्भवादिति ॥ अनन्तरं पुद्गलस्वरूपं निरूपितं, पुद्गलश्च स्कन्धोऽपि | १४ शतके प्रज्ञप्तिः भवतीति पुद्गलभेदभूतस्य स्कन्धस्य स्वरूपं निरूपयन्नाह–'एस णं भंते ! खंधे इत्यादि ॥ स्कन्धश्च स्वप्रदेशापेक्षया ६४ उद्देशः अभयदेवी-|||जीवोऽपि स्यादितीत्थमेव जीवस्वरूपं निरूपयन्नाह
जीवस्य सुया वृत्तिः२/ एस णं भंते ! जीवे तीतमणतं सासयं समयं दुक्खी समयं अदुक्खी समयं दुक्खी वा अदुक्खी वा?
| खित्वादि ॥६३९॥ पुद्धिं च करणेणं अणेगभूयं परिणामं परिणमइ अह से वेयणिजे निजिन्ने भवति तओ पच्छा एगभावे एग
सू ५११ भूए सिया ?, हंता गोयमा ! एस णं जीवे जाव एगभूए सिया, एवं पडुप्पन्नं सासयं समयं, एवं अणागयमणतं सासयं समयं (सूत्रं ५११)॥ __'एस णं भंते ! जीवे इत्यादि, 'एषः' प्रत्यक्षो जीवोऽतीतेऽनन्ते शाश्वते समये समयमेकं दुःखी दुःखहेतुयोगात्
समयं चादुःखी सुखहेतुयोगाद्बभूव समयमेव च दुःखी वाऽदुःखी वा, वाशब्दयोः समुच्चर्यार्थत्वाद् दुःखी च oil सुखी च तद्धेतुयोगात्, न पुनरेकदा सुखदुःखवेदनमस्ति एकोपयोगत्वाज्जीवस्येति, एवंरूपश्च सन्नसौ स्वहेतुतः किम
नेकभावं परिणामं परिणमति पुनश्चैकभावपरिणामः स्यात् ? इति पृच्छन्नाह-'पुधिं च करणेणं अणेगभावं | अणेगभूयं परिणामं परिणमई' 'पूर्व च' एकभावपरिणामात्प्रागेव करणेन कालस्वभावादिकारणसंवलिततया ॥६३९॥ शुभाशुभकर्मबन्धहेतुभूतया क्रिययाऽनेको भावः-पर्यायो दुःखित्वादिरूपो यस्मिन् स तथा तमनेकभावं परिणाममिति | योगः 'अणेगभूयंति अनेकभावत्वादेवानेकरूपं परिणाम स्वभावं 'परिणमइत्ति अतीतकालविषयत्वादस्य 'परि
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णतवान्' प्राप्तवानिति । 'अह से'त्ति अथ 'तत्' दुःखितत्वाधनेकभावहेतुभूतं 'वेयणिज्जेत्ति वेदनीयं कर्म उपलक्षणत्वाचास्य ज्ञानावरणीयादि च '
निर्जीण क्षीणं भवति ततः पश्चात् 'एगभावे'त्ति एको भावः सांसारिकसुखविपर्ययात् स्वाभाविकसुखरूपो यस्यासावेकभावोऽत एव 'एकभूतः' एकत्वं प्राप्तः 'सिय'त्ति बभूव कर्मकृतधर्मान्तरविरहादिति प्रश्नः, इहोत्तरमेतदेव । एवं प्रत्युत्पन्नानागतसूत्रे अपीति ॥ पूर्व स्कन्ध उक्तः, स च स्कन्धरूपत्यागाद्विनाशी भवति, एवं परमाणुरपि स्यान्न वा ? इत्याशङ्कायामाह
परमाणुपोग्गले णं भंते! किं सासए असासए ?, गोयमा! सिय सासए सिय असासए, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ सिय सासए सिय असासए ?, गोयमा ! दवट्ठयाए सासए वन्नपज्जवेहिं जाव फासपजवेहिं असासए से तेणटेणं जाव सिय सासए सिय असासए (सूत्रं ५१२)॥ परमाणुपोग्गले णं
भंते ! किं चरमे अचरमे ?, गोयमा ! दवादेसेणं नो चरिमे अचरिमे, खेत्तादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, 5 है कालादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे, भावादेसेणं सिय चरिमे सिय अचरिमे (सूत्रं ५१३)॥
'परमाणुपोग्गले णंति पुद्गलः स्कन्धोऽपि स्यादतः परमाणुग्रहणं 'सासए'त्ति शश्वद्भवनात् 'शाश्वतः' नित्यः अशाश्वतस्त्वनित्यः 'सिय सासए'त्ति कथञ्चिच्छाश्वतः 'दवट्टयाए'त्ति द्रव्यं-उपेक्षितपर्यायं वस्तु तदेवार्थो द्रव्यार्थस्तद्भावस्तत्ता तया द्रव्यार्थतया शाश्वतः स्कन्धान्तर्भावेऽपि परमाणुत्वस्याविनष्टत्वात् प्रदेशलक्षणव्यपदेशान्तरव्यपदेश्यत्वात् , 'वन्नपज्जवेहिंति परि-सामस्त्येनावन्ति-गच्छन्ति ये ते पर्यवा विशेषा धर्मा इत्यनान्तरं ते च वर्णादिभेदादनेकधेत्यतो
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१४ शतके ४ उद्देशः | परमाणो शाश्वतेतरतेचरमाचरमते सू ५१२-५१३
व्याख्या- विशेष्यते-वर्णस्य पर्यवा वर्णपर्यवा अतस्तैः, 'असासए'त्ति विनाशी, पर्यवाणां पर्यवत्वेनैव विनश्वरत्वादिति ॥ परमाण्व
प्रज्ञप्तिः ||धिकारादेवेदमाह-'परमाणु'इत्यादि, 'चरमे'त्ति यः परमाणुर्यस्माद्विवक्षितभावाच्युतः सन् पुनस्तं भावं न प्राप्स्यति अभयदेवी
स तद्भावापेक्षया चरमः, एतद्विपरीतस्त्वचरम इति, तत्र 'दवादेसेणं ति आदेशः-प्रकारो द्रव्यरूप आदेशो द्रव्यादेशस्तेन या वृत्तिः२
नो चरमः, स हि द्रव्यतः परमाणुत्वाच्युतः सङ्घातमवाप्यापि ततश्च्युतः परमाणुत्वलक्षणं द्रव्यत्वमवाप्स्यतीति । 'खेत्ता॥६४०॥ देसेणं ति क्षेत्रविशेषितत्वलक्षणप्रकारेण 'स्यात्' कदाचिच्चरमः, कथम् ?,यत्र क्षेत्रे केवली समुद्घातं गतस्तत्र क्षेत्रे यः परमा
दाणुरवगाढोऽसौ तत्र क्षेत्रेतेन केवलिना समुद्घातगतेन विशेषितोन कदाचनाप्यवगाहं लप्स्यते, केवलिनो निर्वाणगमनादित्येवं
क्षेत्रतश्चरमोऽसाविति, निर्विशेषणक्षेत्रापेक्षया त्वचरमः, तत्क्षेत्रावगाहस्य तेन लप्स्यमानत्वादिति । 'कालादेसेणं'ति काल|विशेषितत्वलक्षणप्रकारेण 'सिय चरमे'त्ति कथञ्चिच्चरमः, कथम्?, यत्र काले पूर्वाह्नादौ केवलिना समुद्घातः कृतस्तत्रैव | यः परमाणुतया संवृत्तः स च तं कालविशेष केवलिसमुद्घातविशेषितं न कदाचनापि प्राप्स्यति तस्य केवलिनः सिद्धिगमनेन
पुनः समुद्घाताभावादिति तदपेक्षया कालतश्चरमोऽसाविति, निर्विशेषणकालापेक्षया त्वचरम इति । 'भावाएसेणं'ति साभावो-वर्णादिविशेषस्तद्विशेषलक्षणप्रकारेण 'स्याचरमः' कथञ्चिच्चरमः, कथं ?, विवक्षितकेवलिसमुद्घातावसरे यः पुद्गलो दिवोदिभावविशेष परिणतः स विवक्षितकेवलिसमुद्घातविशेषितवर्णपरिणामापेक्षया चरमो यस्मात्तत् केवलिनिवोणे पुनस्तं
परिणाममसी न प्राप्स्यतीति, इदं च व्याख्यानं चूर्णिकारमतमुपजीव्य कृतमिति ॥ अनन्तरं परमाणोश्चरमत्वाचरमत्वल18|| क्षणः परिणामः प्रतिपादितः, अथ परिणामस्यैव भेदाभिधानायाह
॥६४०॥
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कइविहे गं भंते ! परिणामे पण्णत्ते ?, गोयमा ! दुविहे परिणामे पण्णत्ते, तंजहा-जीवपरिणामे य अजीवपरिणामे य, एवं परिणामपयं निरवसेसं भाणियचं । सेवं भंते ! २ जाव विहरति (सूत्रं ५१४)॥१४-४॥ | 'कइविहे णमित्यादि, तत्र परिणमनं-द्रव्यस्यावस्थान्तरगमनं परिणामः, आह च-"परिणामो ह्यर्थान्तरगमनं न |च सर्वथा व्यवस्थानम् । न तु सर्वथा विनाशः परिणामस्तद्विदामिष्टः॥१॥" इति, 'परिणामपयंति प्रज्ञापनायां त्रयोदशं परिणामपदं, तच्चैवं-'जीवपरिणामे णं भंते! कइविहे पन्नत्ते?, गोयमा ! दसविहे. पण्णत्ते, तंजहागइपरिणामे इंदियपरिणाम एवं कसायलेसा जोगउवओगे नाणदंसगचरित्तवेदपरिणामे 'इत्यादि, तथा| 'अजीवपरिणामे णं भंते ! कइविहे पण्णत्ते ?, गोयमा ! दसविहे पण्णत्ते तंजहा-बंधणपरिणामे १ गइपरिणामे २ एवं | संठाण ३ भेय ४ वन्न ५ गंध ६ रस ७ फास ८ अगुरुलहुय ९ सद्दपरिणामे १०" इत्यादि ॥ चतुर्दशशते चतुर्थः ॥१४-४॥
चतुर्थोद्देशके परिणाम उक्त इति परिणामाधिकाराव्यतिब्रजनादिक विचित्रं परिणाममधिकृत्य पञ्चमोद्देशकमाह, तस्य चेदमादिसूत्रम्
नेरइए णं भंते ! अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा ?, गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवएज्जा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ अत्थेगइए वीइवएज्जा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा ?, गोयमा ! नेरइया दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावन्नगा य अविग्गहगतिसमावन्नगा य, तत्थ गंजे से
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२॥
॥६४१॥
विग्गहगतिसमावन्नए नेरतिए से णं अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीइवएज्जा, से णं तत्थ झियाएजा, णो
दि १४ शतके तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, तत्थ णं जे से अविग्गहगइसमावन्नए नेरइए से णं अगणिकायस्स
४ उद्देशः मज्झमज्झेणं णो वीइवएज्जा, से तेण?णं जाव नो वीइवएज्जा ॥ अकुरकुमारे णं भंते ! अगणिकायस्स परिणाम: पुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवएजा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा, से केणटेणं जाव नो बीइवएज्जा, सू ५१४. गोयमा ! असुरकुमारा दुविहा पण्णत्ता, तंजहा-विग्गहगइसमावन्नगा य अविग्गहगइसमावन्नगा य, तत्थ Bा उद्देशः ५ णं जे से विग्गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से णं एवं जहेव नेरतिए जाव वक्कमति, तत्थ णं जे से अवि- | अग्निमध्ये ग्गहगइसमावन्नए असुरकुमारे से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झमज्झेणं वीतीवएना अत्थेगतिए नो
गमनादि
दसू ५१५ वीइव०, जे णं वीतीवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा ?, नो तिणढे समढे, नो खलु तत्थ सत्थं कमति, से तेणटेणं एवं जाव थणियकुमारे, एगिदिया जहा नेरइया । बेइंदिया णं भंते ! अगणिकायस्स मझमझेणं जहा असुरकुमारे तहा बेइंदिएवि, नवरं जेणवीयीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा ?, हंता झियाएज्जा, सेणं तं चेव एवं जाव चउरिदिए ॥ पंचिंदियतिरिक्खजोणिए णं भंते ! अगणिकायपुच्छा, गोयमा ! अत्थेगतिए वीइवएज्जा अत्थेगतिए नो वीइवएज्जा, से तेण?णं०१, गोयमा ! पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पण्ण | त्ता, तंजहा-विग्गहगतिसमावन्नगा य अविग्गहगइमासवनगा य, विग्गहगइमासवन्नए जहेव नेरइए जाव नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, अविग्गहगइसमावन्नगा पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दुविहा पन्नत्ता, तंजहा-इड्डि
॥४॥
१९ जाव
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पत्ता य अणिद्दिष्पत्ता य, तत्थ णं जे से इडिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगइए अगणिकायस्स मज्झंमज्झेणं वीयीवएज्जा अत्थेगइए नो वीयीवएज्जा, जे णं वीयीवएज्जा से णं तत्थ झियाएज्जा ?, नो तिणट्ठे समट्ठे, नो खलु तत्थ सत्थं कमइ, तत्थ णं जे से अणिडिप्पत्ते पंचिंदियतिरिक्खजोणिए से णं अत्थेगतिए अगणिकायस्स मज्झंमज्झेणं वीयीवएज्जा अस्थेगतिए नो वीइवएज्जा, जे णं वीयीवएज्जा से णं तत्थ झियाएजा ?, हंता झियाएजा से तेणट्टेणं जाव नो वीयीवएज्जा, एवं मणुस्सेवि, वाणमंतरजोइसियवेमाणिए जहा असुरकुमारे (सूत्रं ५१५ ) ॥
'नेरइए ण' मित्यादि, इह च क्वचिदुद्देश कार्थसङ्ग्रहगाथा दृश्यते, सा चेयं - "नेरइय अगणिमज्झे दस ठाणा तिरिय पोग्गले देवे । पवयभित्ती उल्लंघणा य पल्लंघणा चेव ॥ १ ॥” इति, अर्थश्चास्या उद्देशकार्थावगमगम्य इति, 'नो खलु तत्थ सत्थं कमइ'त्ति विग्रहगतिसमापन्नो हि कार्म्मणशरीरत्वेन सूक्ष्मः, सूक्ष्मत्वाच्च तत्र 'शस्त्रम्' अध्यादिकं न कामति । 'तत्थ णं जे से' इत्यादि, अविग्रहगतिसमापन्न उत्पत्तिक्षेत्रोपपन्नोऽभिधीयते न तु ऋजुगतिसमापन्नः तस्येह प्रक| रणेऽनधिकृतत्वात् स चाग्निकायस्य मध्येनं न व्यतिव्रजति, नारकक्षेत्रे बादराग्निकायस्याभावात्, मनुष्यक्षेत्र एव तद्भावात् यच्चोत्तराध्ययनादिषु श्रूयते - "हुयासणे जलंतंमि दडपुबो अणेगसो ।" इत्यादि तदग्निसदृशद्रव्यान्तरापेक्षयाsवसेयं, संभवन्ति च तथाविधशक्तिमन्ति द्रव्याणि तेजोलेश्याद्रव्यवदिति ॥ असुरकुमारसूत्रे विग्रहगतिको नारकवत्, अविग्रहगतिकस्तु कोऽप्यग्नेर्मध्येन व्यतित्रजेत् यो मनुष्यलोकमागच्छति, यस्तु न तत्रागच्छति असौ न व्यतित्रजेत्,
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१४ शतके ५ उद्देश: इष्टानिष्टस्प शोद्यनुभवः सू ५१६
व्याख्या-18 व्यतिव्रजन्नपि च न ध्यायते ध्मायते वा, यतो न खलु तत्र शस्त्र क्रमते सूक्ष्मत्वाद्वैक्रियशरीरस्य शीघ्रत्वाच्च तद्गतेरिति । प्रज्ञप्तिः
|'एगिदिया जहा नेरइय'त्ति, कथम् ?, यतो विग्रहे तेऽप्यग्निमध्येन व्यतिब्रजन्ति सूक्ष्मत्वान्न दह्यन्ते च, अविग्रहगतिअभयदेवीया वृत्तिः२
समापन्नकाश्च तेऽपि नाग्नेमध्येन व्यतिव्रजन्ति स्थावरत्वात् , तेजोवायूनां गतित्रसतयाऽग्नेमध्येन व्यतिव्रजनं यद् दृश्यते
तदिह न विवक्षितमिति सम्भाव्यते, स्थावरत्वमात्रस्यैव विवक्षितत्वात् , स्थावरत्वे हि अस्ति कथञ्चित्तेषां गत्यभावो यद॥६४२॥ पेक्षया स्थावरास्ते व्यपदिश्यन्ते, अन्यथाऽधिकृतव्यपदेशस्य निर्निबन्धनता स्यात् , तथा यद्वाय्वादिपारतत्र्येण पृथिव्या
दीनामग्निमध्येन व्यतिव्रजनं दृश्यते तदिह न विवक्षितं, स्वातन्त्र्यकृतस्यैव तस्य विवक्षणात्, चूर्णिकारः पुनरेवमाह'एगिदियाण गई नस्थित्ति ते न गच्छन्ति, एगे वाउक्काइया परपेरणेसु गच्छंति विराहिजति यत्ति, पञ्चेन्द्रियतिर्यसूत्रे 'इडिप्पत्ता यत्ति वैक्रियलब्धिसम्पन्नाः 'अत्थेगइए अगणिकायस्से'त्यादि, अस्त्येककः कश्चित् पञ्चेन्द्रियतिर्यग्योनिको यो मनुष्यलोकवी स तत्राग्निकायसम्भवात्तन्मध्येन व्यतिव्रजेत्, यस्तु मनुष्यक्षेत्राद्वहिर्नासावग्नेमध्येन | व्यतिव्रजेत्, अग्नेरेव तत्राभावात् , तदन्यो वा तथाविधसामग्र्यभावात् , 'नो खलु तत्थ सत्थं कमइ'त्ति वैक्रियादिलब्धिमति पश्चेन्द्रियतिरश्चि नाण्यादिकं शस्त्र क्रमत इति ॥ अथ दश स्थानानीति द्वारमभिधातुमाह
नेरतिया दस ठाणाई पञ्चणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा-अणिहा सहा अणिहा रूवा अणिहा गंधा | अणिट्ठा रसा अणिहा फासा अणिट्ठा गती अणिट्ठा ठिती अणिढे लावन्ने अणिढे जसे कित्ती अणिढे उट्ठाणकम्मबलवीरियपुरिसक्कारपरक्कमे । असुरकुमारा दस ठाणाई पचणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा-इहा सद्दा
NASACARRASSA
15025625645%
॥६४२॥
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इद्वा रूवा जाव इट्टे उट्ठाणकम्मबलवीरियपुरिसकारपरक्कमे एवं जाव थणियकुमारा॥ पुढविकाइया छहा
णाई पच्चणुभवमाणा वि०, तं०-इहाणिट्ठा फासा इट्ठाणिहा गती एवं जाव परक्कमे, एवं जाव वणस्सइकाहै इया । बेइंदिया सत्तहाणाई पञ्चणुन्भवमाणा विहरंति, तंजहा-इटाणिहा रसा सेसं जहा एगिदियाणं,
तेंदिया णं अट्ठाणाई पचणुब्भवमाणा वि०, तं०-इटाणिहा गंधा सेसं जहा दियाणं, चाउरिदिया नववाणाई पच्चणुब्भवमाणा विहरंति, तं०-इहाणिट्ठा रूवा सेसं जहा तेंदियाणं, पंचिंदियतिरिक्खजोणिया दस ठाणाई पचणुब्भवमाणा विहरंति, तंजहा-इहाणिहा सद्दा जाव परक्कमे, एवं मणुस्सावि, वाणमंतरजोइसियवेमाणिया जहा असुरकुमारा (सूत्रं ५१६)॥
'नेरइया दस ठाणाई'इत्यादि, तत्र 'अणिट्ठा गई'त्ति अप्रशस्तविहायोगतिनामोदयसम्पाद्या नरकगतिरूपा वा, | 'अणिहा ठितित्ति नरकावस्थानरूपा नरकायुष्करूपा वा 'अणि? लावन्ने त्ति लावण्यं-शरीराकृतिविशेषः 'अणि? जसोकित्ति'त्ति प्राकृतत्वादनिष्टेति द्रष्टव्यं यशसा-सर्वदिग्गामिप्रख्यातिरूपेण पराक्रमकृतेन वा सह कीर्तिः-एकदि. ग्गामिनी प्रख्यातिर्दानफलभूता वा यशःकीर्तिः, अनिष्टत्वं च तस्या दुष्प्रख्यातिरूपत्वात् , अणिढे उट्ठाणे' इत्यादि, उत्थानादयो वीर्यान्तरायक्षयोपशमादिजन्यवीर्यविशेषाः, अनिष्टत्वं च तेषां कुत्सितत्वादिति ॥ 'पुढविक्काइए'त्यादि, 'छट्ठा
णाईति पृथिवीकायिकानामेकेन्द्रियत्वेन पूर्वोक्तदशस्थानकमध्ये शब्दरूपगन्धरसा न विषय इति स्पर्शादीन्येव षट् से ६प्रत्यनुभवन्ति, 'इटाणिट्ठा फासत्ति सातासातोदयसम्भवात् शुभाशुभक्षेत्रोत्पत्तिभावाच्च, 'इहाणिट्ठा गइति यद्यपि
-व्या . १.८ Jain Education Int
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६४३॥
| तेषां स्थावरत्वेन गमनरूपा गतिर्नास्ति स्वभावतस्तथाऽपि परप्रत्यया सा भवतीति शुभाशुभत्वेनेष्टानिष्टव्यपदेशार्हा स्यात्, | अथवा यद्यपि पापरूपत्वात्तिर्यग्गतिरनिष्टैव स्यात्तथाऽपीषत्प्राग्भाराऽप्रतिष्ठानादिक्षेत्रोत्पत्तिद्वारेणेष्टानिष्टगतिस्तेषां भावनीयेति, 'एवं जाव परक्कमेति वचनादिदं दृश्यम् — 'इट्ठाणिट्ठा ठिई' सा च गतिवद्भावनीया 'इट्ठाणिट्ठे लावन्ने' | | इदं च मण्यन्धपाषाणादिषु भावनीयम् 'इट्ठाणिट्टे जसोकित्ती' इयं सत्प्रख्यात्यसत्प्रख्यातिरूपा मण्यादिष्वेवावसेयेति, | 'इट्ठाणिट्ठे उट्ठाणजाव परक्कमे' उत्थानादि च यद्यपि तेषां स्थावरत्वान्नास्ति तथाऽपि प्राग्भवानुभूतोत्थानादिसंस्कारव| शातदिष्टमनिष्टं वाऽवसेयमिति । 'बंदिया सत्तट्टाणाई' ति शब्दरूपगन्धानां तदविषयत्वात्, रसस्पर्शादिस्थानानि च | शेषाण्येकेन्द्रियाणामिवेष्टानिष्टान्यवसेयानि, गतिस्तु तेषां त्रसत्वाद्गमनरूपा द्विधाऽप्यस्ति भवगतिस्तूत्पत्तिस्थानविशेषेणे|ष्टानिष्टाऽवसेयेति ॥ अथ 'तिरियपोग्गले देवे' इत्यादिद्वारगाथोक्तार्थाभिधानायाह
देवे णं भंते ! महिडीए जाव महेसक्खे बाहिरए पोग्गले अपरियाइत्ता पभू तिरियपचयं वा तिरिय भित्तिं वा उल्लंघेत्तए वा पल्लंघेत्तए वा ?, गोयमा ! णो तिणट्टे समट्ठे । देवे णं भंते ! महिहिए जाव महे| सक्खे बाहिरए पोग्गले परियाइत्ता पभू तिरिय जाव पल्लवेत्तए वा ?, हंता पभू । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति ( सूत्रं ५१७ ) । १४-५ ॥
'देवे 'मित्यादि, 'बाहिरए' त्ति भवधारणीयशरीरव्यतिरिक्तान् 'अपरियाइत्त'त्ति 'अपर्यादाय' अगृहीत्वा 'तिरि यपचयं ति तिरश्चीनं पर्वतं गच्छतो मार्गावरोधकं 'तिरियं भित्तिं वत्ति तिर्यग्भित्तिं- तिरश्चीनां प्राकारवरण्डिका
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१४ शतके ५ उद्देशः | नारकादीनां दशादिस्थानानुभ
वः सू ५१६ पुद्गलानादा ने पर्वताद्यलङ्घनं सू
५१७
॥६४३॥
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दिभित्तिं पर्वतखण्ड वेति "उल्लंघेत्तए'त्ति सकृदुल्लङ्घने 'पल्लंघेत्तए वत्ति पुनः पुनर्लङ्घनेनेति ॥ चतुर्दशशते-14 पञ्चमः ॥१४-५॥
पञ्चमोदेशके नारकादिजीववक्तव्यतोक्ता षष्ठेऽपि सैवोच्यते इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्रायगिहे जाव एवं वयासी-नेरइयाणं भंते ! किमाहारा फिंपरिणामा किंजोणीया किंठितीया पण्णत्ता?, गोयमा ! नेरइया णं पोग्गलाहारा पोग्गलपरिणामा पोग्गलजोणिया पोग्गलद्वितीया कम्मोवगा कम्मनियाणा कम्महितीया कम्मुणामेव विप्परियासमेंति एवं जाव वेमाणिया (सूत्रं ५१८)॥ नेरइया णं भंते ! किं वीयीदवाई आहारेंति अवीचिवाई आहारेंति ?, गोयमा ! नेरतिया वीचिदवाइंपि आहारेंति अवीचिदवाइंपि आहारेंति, से केणटेणं भंते ! एवं वुच्चइ नेरतिया वीचि० तं चेव जाव आहारेंति ?, गोयमा ! जे गं नेरइया एगपएसूणाइंपि दवाई आहारेति ते णं नेरतिया वीचिदवाइं आहारेंति, जे णं नेरतिया पडि-| पुन्नाई दवाई आहारेति ते गं नेरइया अवीचिदवाई आहारेति, से तेणटेणं गोयमा ! एवं वुच्चइ जाव आहारेति, एवं जाव वेमाणिया आहारेंति (सूत्रं ५१९)॥ | 'रायगिहे'इत्यादि, "किमाहार'त्ति किमाहारयन्तीति किमाहाराः 'किंपरिणाम'त्ति किमाहारितं सत्परिणामयन्तीति किंपरिणामाः 'किंजोणीय'त्ति का योनिः-उत्पत्तिस्थानं येषां ते किंयोनिकाः, एवं किंस्थितिकाः, स्थितिश्च अवस्थानहेतुः,
SAMSARONLINECOLORCAMSANG
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CA
व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी-
॥६४४॥
R
अत्रोत्तरं क्रमेणैव दृश्य व्यक्तं च, नवरं 'पुग्गलजोणीय'त्ति पुद्गलाः-शीतादिस्पर्शा योनी येषां ते तथा, नारका हि शीत-द १४ शतके योनय उष्णयोनयश्चेति, 'पोग्गलहिइय'त्ति पुद्गला-आयुष्ककर्मपुद्गलाः स्थितिर्येषां नरके स्थितिहेतुत्वात्ते तथा, अथ६ उद्देशः कस्मात्ते पुद्गलस्थितयो भवन्तीत्यत आह-कम्मोवगे'त्यादि कर्म-ज्ञानावरणादि पुद्गलरूपमुपगच्छन्ति-बन्धनद्वारेणो- नारकाणां |पयान्तीति कर्मोपगाः, कर्मनिदान-नारकत्वनिमित्तं कर्म बन्धनिमित्तं वा येषां ते कर्मनिदानाः, तथा कर्मणः-कर्म- किमाहारपुद्गलेभ्यः सकाशास्थितिर्येषां ते कर्मस्थितयः, तथा 'कम्मुणामेव विप्परियासमेंति'त्ति कर्मणैव हेतुभूतेन मकार
त्वादि वी. आगमिकः विपर्यासं-पर्यायान्तरं पर्याप्तापर्याप्तादिकमायान्ति-प्राप्नुवन्ति अतस्ते पुद्गलस्थितयो भवन्तीति ॥ आहारमेवाधि
च्यवीचिद्रत्याह-'नेरइया 'मित्यादि, 'वीइवाइंति वीचिः-विवक्षितद्रव्याणां तदवयवानां च परस्परेण पृथग्भावः 'वीचिर
व्याहारता
सू ५१८पृथग्भावे इति वचनात् , तत्र वीचिप्रधानानि द्रव्याणि वीचिद्रव्याणि एकादिप्रदेशन्यूनानीत्यर्थः, एतन्निषेधादवीचिद्रव्याणि, अयमत्र भावः-यावता द्रव्यसमुदायेनाहारः पूर्यते स एकादिप्रदेशोनो वीचिद्रव्याण्युच्यते, परिपूर्णस्त्ववीचिद्रव्याणीति टीकाकारः, चूर्णिकारस्त्वाहारद्रव्यवर्गणामधिकृत्येदं व्याख्यातवान् , तत्र चयाः सर्वोत्कृष्टाहारध्यवर्गणास्ता अवी|चिद्रव्याणि, यास्तु ताभ्य एकादिना प्रदेशेन हीनास्ता वीचिद्रव्याणीति, 'एगपएसऊणाईपि दवाईति एकप्रदेशोनान्यपि अपिशब्दादनेकप्रदेशोनान्यपीति ॥ अनन्तरं दण्डकस्यान्ते वैमानिकानामाहारभोग उक्तः, अथ वैमानिकविशेषस्य||8||
॥४४॥ कामभोगोपदर्शनाथाहजाहे णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया दिवाई भौगभोगाइं भुंजिउकामे भवति से कहमियाणि पकरेंति ?.
५१९
SAGAKAREERSALS
RORIGICAL
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गोयमा! ताहे चेव णं [ग्रंथाग्रम् ९००० से सक्के देविंदे देवराया एगं महं नेमिपडिरूवगं विउच्चति एवं जोयणसयसहस्सं आयामिक्खंभेणं तिन्नि जोयणसयसहस्साई जाव अद्धंगुलं च किंचिविसेसाहियं परिक्खे. वेणं, तस्स णं नेमिपडिरूवस्स उवरिं बहुसमरमणिजे भूमिभागे पन्नत्ते जाव मणीणं फासे, तस्स णं नेमिपडिरूवगस्स बहुमज्झदेसभागे तत्थ णं महं एगं पासायवडेंसगं विउच्चति पंच जोयणसयाई उडे उच्चत्तेणं अट्ठाइजाई जोयणसयाई विक्खंभेणं अन्भुग्गयमूसियवन्नओजाव पडिरूवं, तस्स पासायवडिंसगस्य उल्लोए पउमलयभत्तिचित्ते जाव पडिरूवे, तस्स णं पासायवडेंसगस्स अंतो बहुसमरमणिज्जे भूमिभागे जाव मणीणं फासो मणिपेढिया अट्ठजोयणिया जहा वेमाणियाणं, तीसेणं मणिपेढियाए उवरिं महं एगे देवसयणिजे विउच्चइ सयणिज|वन्नओ जाव पडिरूवे, तत्थ णं से सक्के देविंदे देवराया अट्टहिं अग्गमहिसीहिं सपरिवाराहिं दोहि य अणि
एहिं नट्टाणिएण य गंधवाणिएण य सद्धिं महयाहयनजाव दिवाई भोगभोगाई मुंजमाणे विहरह ॥ जाहे ४ ईसाणे देविंदे देवराया दिवाई जहा सक्के तहा ईसाणेवि निरवसेसं, एवं सणंकुमारेवि, नवरं पासायवडेहै सओ छ जोयणसयाई उडे उच्चत्तेणं तिन्नि जोयणसयाई विक्खंभेणं मणिपेढिया तहेव अट्ठजोयणिया, तीसे
णं मणिपेढियाए उवरिं एत्थ णं महेगं सीहासणं विउच्वइ सपरिवारं भाणियचं, तत्थ णं सणंकुमारे देविंदे
देवराया बावत्तरीए सामाणियसाहस्सीहिं जाव चउहिं बावत्तरीहिं आयरक्खदेवसाहस्सीहि य बाहिं है सणंकुमारकप्पवासीहिं वेमाणिएहिं देवेहि य देवीहि य सद्धिं संपरिवुडे महया जाव विहरइ । एवं जहा
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| १४ शतके ६ उद्देशः शक्रादीनां भोगाय नेमिविकुर्वणादि सू ५२०
व्याख्या- सणंकुमारे तहा जाव पाणओ अच्चुओ नवरं जो जस्स परिवारो सो तस्स भाणियो, पासायउच्चत्तं जं प्रज्ञप्तिः सएसु २ कप्पेसु विमाणाणं उच्चत्तं अद्धद्धं वित्थारो जाव अच्चुयस्स नवजोयणसयाई उहूं उच्चत्तेणं अद्धपंच-
माइं जोयणसयाई विक्खंभेणं, तत्थ णं गोयमा ! अचुए देविंदे देवराया दसहिं सामाणियसाहस्सीहिं जाव या वृत्तिः२४
विहरइ सेसं तं चेव सेवं भंते ! २त्ति (सूत्रं ५२०)॥१४-६॥ ॥६४५॥ 'जाहे णमित्यादि, 'जाहेत्ति यदा "भोगभोगाईति भुज्यन्त इति भोगाः-स्पर्शादयः भोगार्हा भोगा भोगभोगाः
मनोज्ञस्पर्शादय इत्यर्थः तान् से कहमियाणिं पकरेइत्ति अथ 'कथं' केन प्रकारेण तदानीं प्रकरोति ?-प्रवर्त्तत इत्यर्थः, | 'नेमिपडिरूवगं'ति नेमिः-चक्रधारा तद्योगाच्चक्रमपि नेमिः-तत्प्रतिरूपक-वृत्ततया तत्सदृशं स्थानमिति शेषः, 'तिन्नि
जोयणे'त्यादौ यावत्करणादिदं दृश्यं-'सोलस य जोयणसहस्साई दो य सयाई सत्तावीसाहियाई कोसतियं | अट्ठावीसाहियं धणुसयं तेरस य अंगुलाई'ति, 'उवरि ति उपरिष्टात् 'बहुसमरमणिज्जेत्ति अत्यन्तसमो रम्यश्चेत्यर्थः 'जाव मणीणं फासोत्ति भूमिभागवर्णकस्तावद्वाच्यो यावन्मणीनां स्पर्शवर्णक इत्यर्थः, स चायं-से जहानामए-आलिंगपोक्खरेइ वा मुइंगपोक्खरेइ वा इत्यादि, आलिङ्गपुष्करं मुरजमुखपुट-मईलमुखपुटं तद्वत्सम इत्यर्थः, तथा 'सच्छाएहिं सप्पभेहिं समरीईहिं सउज्जोएहिं नाणाविहपंचवन्नेहिं मणीहिं उवसोहिए तंजहा-किण्हेहिं ५इत्यादि वर्णगन्धरसस्पर्शवर्णको मणीनां वाच्य इति । 'अनुग्गयमूसियवन्नओत्ति अभ्युद्गतोच्छ्रितादिः प्रासादवर्णको वाच्य इत्यर्थः, स च पूर्ववत्, 'उल्लोए'त्ति उल्लोकः उल्लोचो वा-उपरितलं 'पउमलयाभत्तिचित्तेत्ति पद्मानि लताश्च
५॥
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पद्मलतास्तद्रूपाभिभक्तिभिः-विच्छित्तिभिश्चित्रो यः स तथा, यावत्करणादिदं दृश्यं-'पासाइए दरिसणिज्जे अभि-18 रूवेत्ति, 'मणिपेढिया अट्ठजोयणिया जहा वेमाणियाणं ति मणिपीठिका वाच्या, सा चायामविष्कम्भाभ्यामष्टयोजनिका यथा वैमानिकानां सम्बधिनी न तु व्यन्तरादिसत्केव, तस्या अन्यथास्वरूपत्वात् , सा पुनरेवं-'तस्स णं बहुसमरमणिजस्सभूमिभागस्स बहुमज्झदेसभाए एत्थ णं महं एगं मणिपेढियं विउच्वइ, सा णं मणिपेढिया अह जोयणाई आयामविक्खंभेणं पन्नत्ता चत्तारि जोयणाई बाहल्लेणं सवरयणामई अच्छा जाव पडिरूव'त्ति, |'सयणिज्जवन्नओ'त्ति शयनीयवर्णको वाच्यः, स चैवं-तस्स णं देवसयणिजस्स इमेयारूवे वन्नावासे पण्णत्ते' वर्णकव्यासः-वर्णकविस्तरः, 'तंजहा-नाणामणिमया पडिपाया सोवन्निया पाया णाणामणिमयाई पायसीसगाई'इत्यादिरिति, 'दोहि य अणीएहिं ति अनीकं-सैन्यं 'नाणीएण यत्ति नाव्यं-नृत्यं तत्कारकमनीकं-जनसमूहो नाट्यानीकं, एवं गन्धर्वानीकं नवरं गन्धर्व-गीतं, 'महये'त्यादि यावत्करणादेवं दृश्यं-'महयाहयनहगीयवाइ-1 यतंतीतलतालतुडियघणमुइंगपडुप्पवाइयरवेणं ति व्याख्या चास्य प्राग्वत् , इह च यत् शक्रस्य सुधर्मसभालक्षणभोगस्थानसद्भावेऽपि भोगार्थ नेमिप्रतिरूपकादिविकुर्वणं तन्जिनास्लामाशातनापरिहारार्थ, सुधर्मसभायां हि माणवके स्तम्भे जिनास्थीनि समुद्गकेषु सन्ति, तत्प्रत्यासत्तौ च भोगानुभवने तदबहुमानः कृतः स्यात् स चाशातनेति । 'सिंहासणं विउच्चइ'त्ति सनत्कुमारदेवेन्द्रः सिंहासनं विकुरुते न तु शक्रेशानाविव देवशयनीयं, स्पर्शमात्रेण तस्य परिचारकत्वान्न शयनीयेन प्रयोजनमिति भावः, 'सपरिवारं'ति स्वकीयपरिवारयोग्यासनपरिकरितमित्यर्थः, 'नवरं जो जस्स
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2564
परिवारो सो तस्स भाणियबो'त्ति तत्र सनत्कुमारस्य परिवार उक्तः, एवं माहेन्द्रस्य तु सप्ततिः सामानिकसहस्राणि १४ शतके प्रज्ञप्तिः चतस्रश्चाङ्गरक्षसहस्राणां सप्ततयः, ब्रह्मणः षष्टिः सामानिकसहस्राणां लान्तकस्य पञ्चाशत् शुक्रस्य चत्वारिंशत् सहस्रारस्य | ४७ उद्देश: अभयदेवी- |त्रिंशत् प्राणतस्य विंशतिः अच्युतस्य तु दश सामानिकसहस्राणि, सर्वत्रापि च सामानिकचतुर्गुणा आत्मरक्षा इति ।
चिरंसथुया वृत्तिः२४ |'पासायउच्चत्तं जमित्यादि तत्र सनत्कुमारमाहेन्द्रयोः षड् योजनशतानि प्रासादस्योच्चत्वं ब्रह्मलान्तकयोः सप्त शुक्रसह
ओऽसिइति ६ नारयोरष्टौ प्राणतेन्द्रस्याच्युतेन्द्रस्य च नवेति, इह च सनत्कुमारादयः सामानिकादिपरिवारसहितास्तत्र नेमिप्रतिरूपके ॥६४६॥
श्रीवीरकृत
आश्वास: |गच्छन्ति, तत्समक्षमपि स्पर्शादिप्रतिचारणाया अविरुद्धत्वात् , शक्रेशानौ तु न तथा, सामानिकादिपरिवारसमक्षं कायप्र
सू ५२१ तिचारणाया लज्जनीयत्वेन विरुद्धत्वादिति ॥ चतुर्दशशते षष्ठः॥१४-६॥ | षष्ठोद्देशकान्ते प्राणताच्युतेन्द्रयो गानुभूतिरुक्ता, सा च तयोः कथञ्चित्तुल्येति तुल्यताऽभिधानार्थः सप्तमोद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्
रायगिहे जाव एवं वयासी परिसा पडिगया, गोयमादी समणे भगवं महावीरे भगवं गोयमं आमंतेत्ता एवं वयासी-चिरसंसिट्ठोऽसि मे गोयमा ! चिरसंथुओऽसि मे गोयमा ! चिरपरिचिओऽसि मे गोयमा !
॥४६॥ || चिरजुसिओऽसि मे गोयमा ! चिराणुगओऽसि मे गोयमा ! चिराणुवत्तीसि मे गोयमा ! अणंतरं देवलोए|
अणंतरं माणुस्सए भवे, किं परं? मरणा कायस्स भेदा इओ चुत्ता दोवि तुल्ला एगट्ठा अविसेसमणाणत्ता भवि४|| स्सामो (सूत्रं ५२१)।
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'रायगिहे' इत्यादि, तत्र किल भगवान् श्रीमन्महावीरः केवलज्ञानाप्राध्या सखेदस्य गौतमस्वामिनः समाश्वासनायात्मनस्तस्य च भाविनीं तुल्यतां प्रतिपादयितुमिदमाह - 'गोयमे' त्यादि, 'चिरसंसिद्धोऽसि सि चिरं बहुकालं यावत् चिरे वा अतीते प्रभूते काले संश्लिष्टः- स्नेहात्संबद्धश्चिरसंश्लिष्टः 'असि' भवसि 'मे' मया मम वा त्वं हे गौतम !, 'चिरसंधुओ'त्ति चिरं - बहुकालम् अतीतं यावत् संस्तुतः - स्नेहात्प्रशंसितश्चिरसंस्तुतः, एवं 'चिरपरिचिए 'ति पुनः पुनर्दर्शनतः परिचितश्चिरपरिचितः, 'चिरजुसिए'त्ति चिरसेवितश्चिरप्रीतो वा 'जुषी प्रीतिसेवनयोः' इति वचनात्, 'चिराणुगए'त्ति चिर - मनुगतो ममानुगतिकारित्वात्, 'चिराणुवत्तीसि'त्ति चिरमनुवृत्तिः - अनुकूलवर्त्तिता यस्यासौ चिरानुवृत्तिः, इदं च चिर| संश्लिष्टत्वादिकं क्वासीत् ? इत्याह- 'अनंतरं देवलोए 'त्ति अनन्तरं - निर्व्यवधानं यथा भवत्येवं देवलोके अनन्तरे देव| भवे इत्यर्थः ततोऽपि - अनन्तरं मनुष्यभवे, जात्यर्थत्वादेकवचनस्य देवभवेषु मनुष्यभवेषु चेति द्रष्टव्यं तत्र किल त्रिपृष्ठ - भवे भगवतो गौतमः सारथित्वेन चिरसंश्लिष्टत्वादिधर्म्मयुक्त आसीत्, एवमन्येष्वपि भवेषु संभवतीति, एवं च मयि तव गाढत्वेन स्नेहस्य न केवलज्ञानमुत्पद्यते भविष्यति च तवापि स्नेहक्षये तदित्यधृतिं मा कृथा इति गम्यते, 'किं परं ?, मरण ति किं बहुना 'परं'ति परतो 'मरणात् ' मृत्योः, किमुक्तं भवति ? - कायस्य भेदाद्धेतोः 'इओ चुय'त्ति 'इतः' प्रत्यक्षान्मनुष्यभवाच्युतौ 'दोवि'त्ति द्वावप्यावां तुल्यौ भविष्याव इति योगः, तत्र 'तुल्यौ' समानजीवद्रव्यौ 'एकट्ठ'त्ति 'एकार्थी' एकप्रयोजनावनन्तसुखप्रयोजनत्वात् एकस्थौ वा एकक्षेत्राश्रितौ सिद्धिक्षेत्रापेक्षयेति 'अविसेसमणाणत्त' त्ति 'अविशेषं' निर्विशेषं | यथा भवत्येवम् ' अनानात्वौ' तुल्यज्ञानदर्शनादिपर्यायाविति, इदं च किल यदा भगवता गौतमेन चैत्यवन्दनायाष्टापदं गत्वा
onal
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६४७॥
| प्रत्यागच्छता पञ्चदशतापसशतानि प्रब्राजितानि समुत्पन्नकेवलानि च श्रीमन्महावीरसमवसरणमानीतानि तीर्थप्रणामकर| णसमनन्तरं च केवलिपर्षदि समुपविष्टानि, गौतमेन चाविदिततत्केवलोत्पादव्यतिकरेणाभिहितानि यथा - आगच्छत भोः साधवः ! भगवन्तं वन्दध्वमिति, जिननायकेन च गौतमोऽभिहितो यथा - गौतम ! मा केवलिनामाशातनां कार्षीः, ततो गौतमो मिथ्यादुष्कृतमदात्, तथा यानहं प्रत्राजयामि तेषां केवलमुत्पद्यते न पुनर्मम ततः किं तन्मे नोत्पत्स्यत एवेति विकल्पांदधृतिं चकार, ततो जगद्गुरुणा गदितोऽसौ मनःसमाधानाय, यथा गौतम ! चत्वारः कटा भवन्ति - सुम्बकटो | विदलकटश्चर्मकटः कम्बलकटश्चेति, एवं शिष्या अपि गुरोः प्रतिबन्धसाधर्म्येण सुम्बकटसमादयश्चत्वार एव भवन्ति, तत्र त्वं मयि कम्बलकटसमान इत्येतस्यार्थस्य समर्थनाय भगवता तदाऽभिहितमिति ॥ एवं भाविन्यामात्मतुल्यतायां भगव - ताऽभिहितायां 'अतिप्रियमश्रद्धेय 'मितिकृत्वा यद्यन्योऽप्येनमर्थं जानाति तदा साधुर्भवतीत्यनेनाभिप्रायेण गौतम एवाह
जहा णं भंते ! वयं एयमहं जाणामो पासामो तहा णं अणुत्तरोववाइयावि देवा एयमहं जा० पा० १, हंता गोयमा ! जहा णं वयं एयमहं जाणामो पासामो तहा अणुत्तरोववाइयावि देवा एयमहं जा० पा०, से केणद्वेणं जाव पासंति ?, गोयमा ! अणुत्तरोववाइया णं अणंताओ मणोदववग्गणाओ लद्वाओ पत्ताओ अभि समन्नागयाओ भवंति से तेणट्टेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ जाव पासंति (सूत्रं ५२२ ) ॥
'जहा ण मित्यादि, 'एयमहं 'ति 'एतमर्थम्' आवयोर्भावितुल्यतालक्षणं 'वयं जाणामो त्ति यूयं च वयं चेत्येकशेषाद्वयं तत्र यूयं केवलज्ञानेन जानीथ वयं तु भवदुपदेशात् । तथाऽनुत्तरोपपातिका अपि देवा एनमर्थं जानन्तीति ? प्रश्नः,
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१४ शतके ७ उद्देशः अनुत्तराणां तुल्यताज्ञानं सू ५२२
॥६४७॥
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अत्रोत्तरं - 'हंता गोयमा !' इत्यादि, 'मणोदववग्गणाओ लद्धाओत्ति मनोद्रव्यवर्गणा लब्धास्तद्विषयावधिज्ञानलब्धिमात्रापेक्षया 'पत्ताओ' त्ति प्राप्तास्तद्रव्यपरिच्छेदतः 'अभिसमन्नागयाओ'त्ति अभिसमन्वागताः तद्गुणपर्यायपरिच्छेदतः, अयमत्र गर्भार्थ :- अनुत्तरोपपातिका देवा विशिष्टावधिना मनोद्रव्यवर्गणा जानन्ति पश्यन्ति च तासां चावयोरयोग्यवस्थायामदर्शनेन निर्वाणगमनं निश्चिन्वन्ति, ततश्चावयोर्भावितुल्यतालक्षणमर्थं जानन्ति पश्यन्ति चेति व्यपदिश्यत इति ॥ तुल्यताप्रक्रमादेवेदमाह -
कइविहे णं भंते ! तुल्लए पण्णत्ते ?, गोयमा । छविहे तुल्लए पण्णत्ते, तंजहा- बतुल्लए खेत्ततुल्लए कालतुल्लए भवतुल्लए भावतुलए संठाणतुल्लए, से केणद्वेणं भंते ! एवं बुच्चह दवतुल्लए ?, गोयमा ! परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलस्स दवओ तुल्ले परमाणुपोग्गले परमाणुपोग्गलवइरित्तस्स दवओ णो तुल्ले, दुपएसिए खंधे दुपएसियस्स | खंधस्स दवओ तुल्ले दुपएसिए खंधे दुपएसियवइरित्तस्स खंधस्स दवओ णो तुल्ले एवं जाव दसपएसिए, तुल्लसंखे| जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जप एसियस्स खंधस्स दवओ तुल्ले तुल्लसंखेज्जपएसिए खंधे तुल्लसंखेज्जपए सियवइरित्तस्स खंधस्स दवओ णो तुल्ले, एवं तुल्लअसंखेज्जपए सिएवि एवं तुल्लअणतपएसिएवि से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ
ओ तुल्लए । से केणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ खेत्ततुल्लए २१, गोयमा ! एंगपएसो गाढे पोग्गले एगपए सोगाढस्स पोग्गलस्स खेत्तओ तुले एगपएसोगाढे पोग्गले एगपएसोगाढवइरित्तस्स पोग्गलस्स खेत्तओ णो तुल्ले, एवं जाव दसपएसोगाढे, तुल्लसंखेज्जपए सोगाढे • तुल्लसंखेज • एवं तुल्लअसंखेजपएसोगाढेवि, से तेणद्वेणं जाव खेत्ततुल्लए ।
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व्याख्या
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६४८ ॥
सेकेणट्टेणं भंते ! एवं बुच्चइ कालतुल्लए २१, गोयमा ! एगसमपठितीए पोग्गले एग० २ कालओ तुल्ले एगस| मयठितीए पोग्गले एगसमयठितीव इरित्तस्स पोग्गलस्स कालओ णो तुल्ले एवं जाव दससमयद्वितीए तुल्लसंखेज्जसमपठितीए एवं चेव एवं तुल्लअसंखेजसमयद्वितीएवि से तेणद्वेणं जाव कालतुल्लए । से केणणं भंते ! | एवं बुच्चइ भवतुल्लए ?, गोयमा ! नेरइए नेरइयस्स भवट्टयाए तुल्ले नेरइयवइरित्तस्स भवट्टयाए नो तुल्ले | तिरिक्खजोणिए एवं चेव एवं मणुस्से एवं देवेवि, से तेणद्वेणं जाव भवतुल्लए । से केणट्टेणं भंते ! एवं वुच्चइ भावतुल्लए भावतुल्लए ?, गोयमा ! एगगुणकालए पोग्गले एगगुणकालस्स पोग्गलस्स भावओ तुल्ले एगगुण| कालए पोग्गले एगगुणकालगवइरित्तस्स पोग्गलस्स भावओ णो तुल्ले एवं जाव दसगुणकालए एवं तुल्लसंखे| ज्जगुणकालए पोग्गले एवं तुल्लअसंखेज्जगुणकालएवि एवं तुल्लअनंतगुणकालएवि, जहा कालए एवं नीलए | लोहियए हालिदे सुकिल्लए, एवं सुभिगंधे एवं दुब्भिगंधे, एवं तित्ते जाव महुरे, एवं कक्खडे जाव लुक्खे, | उदइए भावे उदइयस्स भावस्स भावओ तुल्ले उदइए भावे उदयभाववइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्ले, | एवं उवसमिए० खइए० खओवसमिए० पारिणामिए० संनिवाइए भावे संनिवाइयस्स भावस्स, से तेणद्वेणं गोयमा ! एवं बुच्चइ भावतुलए २ । से केणद्वेणं भंते! एवं वुचइ संठाणतुल्लए २१, गोयमा ! परिमंडले | संठाणे परिमंडलस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले परिमंडलसंठाणवइरित्तस्स संठाणओ तो तुल्ले एवं वट्टे तसे
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१४ शतके ७ उद्देशः द्रव्यादि तुल्यता
सू ५२३
||૬૪૮)
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व्या० १०९ Jain Education I
चउरंसे आयए, समचउरंसठाणे समचउरंसस्स संठाणस्स संठाणओ तुल्ले समचउरंसे संठाणे समचउरं| ससंठाणवइरित्तस्स संठाणस्स संठाणओ नो तुल्ले एवं परिमंडले एवं जाव हुंडे, से तेण० जाव संठाणतुल्लए सं० २ ( सूत्रं ५२३ ) ॥
'कइविहे' इत्यादि, तुल्यं समं तदेव तुल्यकं 'दधतुल्लए 'त्ति द्रव्यतः एकाणुकाद्यपेक्षया तुल्यकं द्रव्यतुल्यकम्, अथवा द्रव्यं च तत्तुल्यकं च द्रव्यान्तरेणेति द्रव्यतुल्यकं विशेषणव्यत्ययात्, 'खेत्ततुल्लए त्ति क्षेत्रतः - एकप्रदेशावगाढत्वादिना तुल्यकं क्षेत्रतुल्यकम्, एवं शेषाण्यपि, नवरं भवो - नारकादिः भावो वर्णादिरौदयिकादिर्वा संस्थानं परिमण्डलादिः, इह च तुल्यव्यतिरि| तमतुल्यं भवतीति तदपीह व्याख्यास्यते, 'तुल्लसंखेज्जपए सिए' त्ति तुल्या-समानाः सङ्ख्येयाः प्रेदशा यत्र स तथा, तुल्यग्रहणमिह | सङ्ख्यातत्वस्य सङ्ख्यात भेदत्वान्न सङ्ख्यातमात्रेण तुल्यताऽस्य स्याद् अपि तु समानसङ्ख्यत्वेनेत्यस्यार्थस्य प्रतिपादनार्थम्, एवमन्यत्रा| पीति, यच्चेहानन्तक्षेत्र प्रदेशावगाढत्वमनन्तसमयस्थायित्वं च नोक्तं तदवगाहप्रदेशानां स्थितिसमयानां च पुद्गलानाश्रित्यान| न्तानामभावादिति । 'भवट्टयाए'त्ति भव एवार्थो भवार्थस्तद्भावस्तत्ता तया भवार्थतया, 'उदइए भावे त्ति उदयः- कर्म्मणां | विपाकः स एवौदयिकः - क्रियामात्रं अथवा उदयेन निष्पन्नः औदयिको भावो - नारकत्वादिपर्यायविशेषः औदयिकस्य भावस्य नारकत्वादेर्भावतो - भावसामान्यमाश्रित्य तुल्यः- समः, 'एवं उवसमिए' त्ति औपशमिकोऽप्येवं वाच्यः, तथाहि - 'उवसमिए | भावे उवसमियस्स भावस्स भावओ तुल्ले उवसमिए भावे उवसमियवइरित्तस्स भावस्स भावओ नो तुल्लेत्ति, एवं | शेषेष्वपि वाच्यं तत्रोपशमः - उदीर्णस्य कर्म्मणः क्षयोऽनुदीर्णस्य विष्कम्भितोदयत्वं स एवोपशमिकः - क्रियामात्रं उपशमेन वा
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः २
॥६४९॥
निर्वृत्तः औपशमिक:- सम्यग्दर्शनादि, 'खइए' त्ति क्षय:- कर्माभावः स एव क्षायिकः क्षयेण वा निर्वृत्तः क्षायिक:- केवलज्ञानादिः, 'खओवसमिए'त्ति क्षयेण - उदयप्राप्तकर्मणो विनाशेन सहोपशमो - विष्कम्भितोदयत्वं क्षयोपशमः स एव ४ क्षायोपशमिक:- क्रियामात्रमेव क्षयोपशमेन वा निर्वृत्तः क्षायोपशमिकः - मतिज्ञानादिपर्यायविशेषः, नन्वौपशमिकस्य क्षायोपशमिकस्य च कः प्रतिविशेषः, उभयत्राप्युदीर्णस्य क्षयस्यानुदीर्णस्य चोपशमस्य भावात् ?, उच्यते, क्षायोपशमिके विपा| कवेदनमेव नास्ति प्रदेशवेदनं पुनरस्त्येव, औपशमिके तु प्रदेशवेदनमपि नास्तीति, 'पारिणामिए'त्ति परिणमनं परिणामः स एव पारिणामिकः, 'सन्निवाइए 'ति सन्निपातः - औदयिकादिभावानां द्व्यादिसंयोगस्तेन निर्वृत्तः सान्निपातिकः । 'संठातुल्लए 'त्ति संस्थानं-आकृतिविशेषः, तच्च द्वेधा-जीवाजीवभेदात्, तत्राजीवसंस्थानं पञ्चधा, तत्र 'परिमंडले संठाणे' त्ति परिमण्डलसंस्थानं बहिस्ताद्वृत्ताकारं मध्ये शुषिरं यथा वलयस्य, तच्च द्वेधा- घनप्रतरभेदात्, 'वट्टे'त्ति वृत्तं - परिमण्डलमेवान्तःशुषिररहितं यथा कुलालचक्रस्य, इदमपि द्वेधा - घनप्रतरभेदात्, पुनरेकैकं द्विधा - समसङ्ख्यविषमसङ्ख्य प्रदेश भेदात्, एवं त्र्यनं चतुरस्रं च, नवरं 'त्र्यसं' त्रिकोणं शृङ्गाटकस्येव चतुरस्रं तु चतुष्कोणं यथा कुम्भिकायाः, आयतदीर्घं यथा दण्डस्य, तच्च त्रेधा - श्रेण्यायतप्रतराय तघनायतभेदात्, पुनरेकैकं द्विधा - समसङ्ख्यविषमसङ्खयप्रदेशभेदात् इदं च पञ्चवि धमपि विश्रसाप्रयोगाभ्यां भवति, जीवसंस्थानं तु संस्थानाभिधाननामकर्म्मोत्तरप्रकृत्युदयसम्पाद्यो जीवानामाकारः, तच्च | षोढा, तत्राद्यं 'समचउरंसे 'ति तुल्यारोहपरिणाहं सम्पूर्णाङ्गावयवं स्वाङ्गलाष्टशतोच्छ्रयं समचतुरस्रं, तुल्यारोहपरिणाहत्वेन | समत्वात् पूर्णावयवत्वेन च चतुरस्रत्वात्तस्य, चतुरस्रं सङ्गतमिति पर्यायौ, 'एवं परिमंडलेवि त्ति यथा समचतुरस्रमुक्तं
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१४ शतके ७ उद्देशः द्रव्यादि
तुल्यता
सू ५२३
॥ ६४९ ॥
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तथा न्यग्रोधपरिमण्डलमपीत्यर्थः, न्यग्रोधो-वटवृक्षस्तद्वत्परिमण्डलं नाभीत उपरि चतुरस्रलक्षणयुक्तमधश्च तदनुरूपं न भवति-तस्मात्प्रमाणाधीनतरमिति, 'एवं जाव हुंडे'त्ति इह यावत्करणात् 'साई खुजे वामणे'त्ति दृश्य-तत्र 'साईत्ति सादि नाभीतोऽधश्चतुरस्रलक्षणयुक्तमुपरि च तदनुरूपं न भवति, 'खुज्जो त्ति कुजं ग्रीवादौ हस्तपादयोश्चतुरश्रलक्षणयुक्तं सङ्क्षिप्तविकृतमध्यं, 'वामणे'त्ति वामनं लक्षणयुक्तमध्यं ग्रीवादौ हस्तपादयोरप्यादिलक्षणन्यूनं, 'हुंडे'त्ति हुण्डं प्रायः सर्वावयवेष्वादिलक्षणविसंवादोपेतमिति ॥ अनन्तरं संस्थानवक्तव्यतोक्ता, अथ संस्थानवतोऽनगारस्य वक्तव्यताविशेषमभिधातुकाम आह
भत्तपच्चक्खायए णं भंते ! अणगारे मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने आहारमाहारेति अहे णं वीससाए कालं करेति तओ पच्छा अमुच्छिए अगिद्धे जाव अणज्झोववन्ने आहारमाहारेति ?, हंता गोयमा ! भत्तपच्चक्खायए णं अणगारे तं चेव, से केण?णं भन्ते! एवं वु० भत्तपञ्चक्खायएणं तं चेव ?, गोयमा! भत्तपच्चक्खायए णं | अणगारे [मुच्छिए] मुच्छिए जाव अज्झोववन्ने भवइ अहे गंवीससाए कालं करेइ तओ पच्छा अमुच्छिए जाव
आहारे भवइ से तेणटेणं गोयमा ! जाव आहारमाहारेति (सूत्रं ५२४)॥ | भत्तेत्यादि, तत्र 'भत्तपचक्खायए णं'ति अनशनी'मूञ्छितः' सञ्जातमूर्छ:-जाताहारसंरक्षणानुबन्धः तद्दोषविषये
वा मूढः 'मूर्छा मोहसमुच्छाययोः' इति वचनात् , यावत्करणादिदं दृश्य-गढिए' ग्रथित आहारविषयस्नेहतन्तुभिः ४ संदर्भितः 'ग्रन्थ श्रन्थ संदर्भ इति वचनात् 'गिद्धे' गृद्धः प्राप्ताहारे आसक्तोऽनृप्तत्वेन वा तदाकासावान् 'गृधु अभिकाङ्क्षायाम्'
*CRICARRORIES
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इति वचनात् 'अज्झोववन्ने'त्ति अध्युपपन्नः-अप्राप्ताहारचिन्तामाधिक्येनोपपन्नः 'आहार' वायुतैलाभ्यङ्गादिकमोदना- व्याख्या
१४ शतके प्रज्ञप्तिः
दिकं वाऽभ्यवहार्य तीव्रक्षुद्वेदनीयकर्मोदयादसमाधौ सति तदुपशमनाय प्रयुक्तम् 'आहारयति' उपभुते, 'अहे णं'ति ७ उद्देशः अभयदेवी- 'अर्थ' आहारानन्तरं 'विश्रसया' स्वभावत एव 'कालं'ति कालो-मरणं काल इव कालो मारणान्तिकसमुद्घातस्तं 'करोया वृत्तिः ति' याति 'तओ पच्छ'त्ति ततो-मारणान्तिकसमुद्घातात् पश्चात् तस्मान्निवृत्त इत्यर्थः अमूछितादिविशेषणविशेषित आहारः आहारमाहारयति प्रशान्तपरिणामसद्भावादिति प्रश्नः, अत्रोत्तरं-हंता गोयमा !'इत्यादि, अनेन तु प्रश्नार्थ एवाभ्युपगतः,
सू५२४ ॥६५०॥ कस्यापि भक्तप्रत्याख्यातुरेवंभूतभावस्य सद्भावादिति ॥ अनन्तरं भक्तप्रत्याख्यातुरनगारस्य वक्तव्यतोक्ता, स च कश्चिदनु
लवसप्तमा त्तरसुरेषूत्पद्यत इति तद्वक्तव्यतामाह
सू ५२५
अनुत्तराः | अत्थि णं भंते ! लवसत्तमा देवा ल०२१, हंता अस्थि, सेकेणटेणं भन्ते! एवं वुच्चइ लवसत्तमा देवा ल०२१,
सू ५२६ ४ गोयमा ! से जहानामए-केइ पुरिसे तरुणे जाव निउणसिप्पोवगए सालीण वा वीहीण वा गोधूमाण वा ज-6
वाण वा जवजवाण वा पक्काणं परियाताणं हरियाणं हरियकंडाणं तिक्खेणं णवपन्जणएणं असिअएणं पडिसाह|रिया प०२ पडिसंखिविया २जाव इणामेव२त्तिकट्ट सत्तलवए लुएन्जा, जतिणंगोयमा ! तेसिं देवाणं एव-* |तियं कालं आउए पहुप्पते तो णं ते देवा तेणं चेव भघग्गहणणं सिझंता जाव अंतं करेंता, से तेणटेणं जाव
॥५०॥ लवसत्तमा देवा लवसत्तमा देवा (सूत्रं ५२५)॥ अस्थि णं भंते ! अणुत्तरोववाइया देवाअ०२१, हंता अत्थि, से केणटेणं भंते! एवं वुच्चइ अ०२१,गोयमा!अनुत्तरोववाइयाणं देवाणं अणुत्तरा सद्दा जाव अणुत्तरा फासा,
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से तेण?णं गोयमा! एवं बुचइ जाव अणुत्तरोववाइया देवा अ०२।अणुत्तरोववाइयाणं भंते! देवाणं केवतिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववाइयदेवत्ताए उववन्ना?, गोयमा!जावतियं छट्ठभत्तिए समणे निग्गंथे कम्मं निजरेति | एवतिएणं कम्मावसेसेणं अणुत्तरोववाइया देवा देवत्ताए उववन्ना ।सेवं भंते! २त्ति (सूत्रं ५२६)॥१४-७॥ | 'अस्थि ण'मित्यादि, लवाः-शाल्यादिकवलिकालवनक्रियाप्रमिताः कालविभागाः सप्त-सप्तसङ्ग्या मान-प्रमाणं यस्य कालस्यासौ लवसप्तमस्तं लवसप्तमं कालं यावदायुष्यप्रभवति सति ये शुभाध्यवसायवृत्तयः सन्तः सिद्धिं न गता अपि तु
देवेषूत्पन्नास्ते लवसप्तमाः, ते च सर्वार्थसिद्धाभिधानानुत्तरसुरविमाननिवासिनः, 'से जहा नामए'त्ति 'सः' कश्चित् 'यथा8 नामकः' अनिर्दिष्टनामा पुरुषः 'तरुणे'इत्यादेर्व्याख्यानं प्रागिव 'पक्काणं ति पक्वानां 'परियायाणं ति 'पर्यवगताना' लव-12
नीयावस्था प्राप्तानां 'हरियाणं'ति पिङ्गीभूतानां, ते च पत्रापेक्षयाऽपि भवन्तीत्याह-'हरियकंडाणं'ति पिङ्गीभूतजा. लानां 'नवपजणएणं'ति नव-प्रत्ययं 'पजणयंति प्रतापितस्यायोधनकुट्टनेन तीक्ष्णीकृतस्य पायन-जलनिबोलनं यस्य तन्न| वपायनं तेन 'असियएणं ति दात्रेण 'पडिसाहरिय'त्ति प्रतिसंहृत्य विकीर्णनालान् बाहुना संगृह्य 'पडिसंखिविय'त्ति | मुष्टिग्रहणेन सङ्क्षिप्य 'जाव इणामेवे'त्यादि प्रज्ञापकस्य लवनक्रियाशीघ्रत्वोपदर्शनपरचप्पुटिकादिहस्तव्यापारसूचकं वचनं | 'सत्तलवे'त्ति लूयन्त इति लवाः शाल्यादिनालमुष्टयस्तान् लवान् 'लूएज'त्ति लुनीयात् , तत्र च सप्तलवलवने यावान्कालो भवतीति वाक्यशेषो दृश्यः, ततः किमित्याह-जइ णमित्यादि, 'तेसिं देवाण'ति द्रव्यदेवत्वे साध्ववस्थायामि त्यर्थः 'तेणं चेव'त्ति यस्य भवग्रहणस्य सम्बन्धि आयुर्न पूर्ण तेनैव, मनुष्यभवग्रहणेनेत्यर्थः ॥ लवसप्तमा अनुत्तरोपपा
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व्याख्या-18तिका इत्यनुत्तरोपपातिकदेवप्ररूपणाय सूत्रद्वयमभिधातुमाह-'अस्थि ण'मित्यादि, 'अणुत्तरोववाइय'त्ति अनुत्तर:- १४ शतके प्रज्ञप्तिः
सर्वप्रधानोऽनुत्तरशब्दादिविषययोगात् उपपातो-जन्म अनुत्तरोपपातः सोऽस्ति येषां तेऽनुत्तरोपपातिका, 'जावइयं छ8-18||८ उद्देशः अभयदवा-सा भत्तिए'इत्यादि किल षष्ठभक्तिकः सुसाधुर्यावत् कर्म क्षपयति एतावता कविशेषेण-अनिजीणेनानुत्तरोपपातिका देवा पृथ्व्याद्यन्त ४ उत्पन्ना इति ॥ चतुर्दशशते सप्तमः॥१४-७॥
रंसू ५२७ ॥६५॥
सप्तमे तुल्यतारूपो वस्तुनो धर्मोऽभिहितः, अष्टमे त्वन्तररूपः स एवाभिधीयते इत्येवंसम्बधस्यास्येदमादिसूत्रम्इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए सकरप्पभाए य पुढवीए केवतियं अबाहाए अंतरे पण्णते ?, गो|यमा ! असंखेजाई जोयणसहस्साई अबाहाए अंतरे पण्णत्ते, सकरप्पभाए णं भंते ! पुढवीए वालुयप्प|भाए य पुढवीए केवतियं एवं चेव एवं जाव तमाए अहेसत्तमाए य, अहेसत्तमाए णं भंते ! पुढवीए अलो.
गस्स य केवतियं आबाहाए अंतरे पण्णत्ते ?, मोयमा ! असंखेजाई जोयणसहस्साई आबाहाए अंतरे |पण्णत्ते । इमीसे णं भंते ! रयणप्पभाए पुढवीए जोतिसस्स य केवतियं पुच्छा, गोयमा!सत्तनउए जोयणसए आबाहाए अंतरे पण्णत्ते, जोतिसस्स णं भंते ! सोहम्मीसाणाण य कप्पाणं केवतियं पुच्छा, गोयमा !
॥६५॥ असंखेजाइं जोयण जाव अंतरे पण्णत्ते, सोहम्मीसाणाणं भंते ! सणंकुमारमाहिंदाण य केवतियं एवं चेव, सणंकुमारमाहिंदाणं भंते ! बंभलोगस्स कप्पस्स य केवतियं एवं चेव, बंभलोगस्स णं भंते ! लंतगस्स य
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due
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कप्पस्स केवतियं एवं चेक, लंतयस्स णं भंते ! महासुक्कस्स य कप्पस्स केवतियं एवं चेव, एवं महामुक्कस्स कप्पस्स सहस्सारस्स य, एवं सहस्सारस्स आणयपाणयकप्पाणं, एवं आणयपाणयाण य कप्पाणं आरणचुयाण य कप्पार्ण, एवं आरणञ्चुयाणं गेविजविमाणाण य, एवं गेविजविमाणाणं अणुत्तरविमाणाण य। अणुत्तरक्मिाणाणं भंते ! ईसिंपठभाराए य पुढवीए केवतिए पुच्छा, गोयमा ! दुवालसजोयणे अवाहाए अंतरे |पण्णत्ते, ईसिंफ्ठभाराए णं भंते ! पुढवीए अलोगस्स य केवतिए अवाहाए पुच्छा, गोयमा ! देसूर्ण जोयणं अबाहाए अंतरे पण्णत्ते (सूत्रं ५२७)॥
'इमीसे ण'मित्यादि, 'अबाहाए अंतरे'त्ति बाधा-परस्परसंश्लेषतः पीडनं न बाधा अबाधा तया अबाधया यदन्तरं व्यवधानमित्यर्थः, इहान्तरशब्दो मध्यविशेषादिष्वर्थेषु वर्तमानो दृष्टस्ततस्तव्यवच्छेदेन व्यवधानार्थपरिग्रहार्थमवाधाग्रहणं, 'असंखेजाई जोयणसहस्साइंति इह योजनं प्रायः प्रमाणाङ्गुलनिष्पन्नं ग्राह्य, “नगपुढविविमाणाई मिणसु पमाणंगुलेणं तु।"[नगपृथिवीविमानानि प्रमाणाङ्गलेन मिनु । ] इत्यत्र नगादिग्रहणस्योपलक्षणत्वादन्यथाऽऽदित्यप्रकाशादेरपि प्रमाणयोजनाप्रमेयता स्यात्, तथा चाधोलोकग्रामेषु तत्प्रकाशाप्राप्तिः प्राप्नोत्यात्माङ्गलस्थानियतत्वेनाव्यवहारा. गतया रविप्रकाशस्योच्छ्रययोजनप्रमेयत्वात् , तस्य चातिलघुत्वेन प्रमाणयोजनप्रमितक्षेत्राणामव्याप्तिरिति, यंञ्चेहेषत्पाग्भारायाः पृथिव्या लोकान्तस्य चान्तरं तदुच्छ्रयाङ्गुलनिष्पन्नयोजनप्रमेयमित्यनुमीयते, यतस्तस्य योजनस्योपरितनक्रोशस्य षड्भागे सिद्धावगाहना धनुस्त्रिभागयुक्तत्रयस्त्रिंशदधिकधनुःशतत्रयमानाभिहिता, साचोच्छ्ययोजनाश्रयणत एव युज्यत
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व्याख्या-
प्रज्ञप्तिः अभयदेवीया वृत्तिः२
॥६५२॥
इति, उक्तञ्च-"ईसीपब्भाराए उवरिं खलु जोयणस्स जो कोसो । कोसस्स य छन्भाए सिद्धाणोगाहणा भणिया ॥१॥" १४ शतके इति । [ ईषत्प्राग्भाराया उपरि योजनस्य यः क्रोशः खलु क्रोशस्य च षष्ठो भागः एषा सिद्धानामवगाहना भणिता॥१॥] उद्देशः 'देसूर्ण जोयणं'ति इह सिद्ध्यलोकयोर्देशोनं योजनमन्तरमुक्त आवश्यके तु योजनमेव, तत्र च किञ्चिन्न्यूनताया अविव- शालतोष्ट क्षणान्न विरोधो मन्तव्य इति ॥ अनन्तरं पृथिव्याद्यन्तरमुक्तं तच्च जीवानां गम्यमिति जीवविशेषगतिमाश्रित्येदं है
उम्बरयष्टी
नामेकावता सूत्रत्रयमाह
रतासू५२८ ___ एस णं भंते ! सालरुक्खे उपहाभिहए तण्हाभिहए वग्गिजालाभिहए कालमासे कालं किच्चा कहिं गच्छिहिति कहिं उववजिहिति?, गोयमा ! इहेव रायगिहे नगरे सालरुक्खत्ताए पचायाहिति, से णं तत्थ | अचियवंदियपूइयसकारियसम्माणिए दिवे संचे सच्चोवाए सन्निहियपाडिहेरे लाउल्लोइयमहिए यावि भवि|स्सइ, से णं भंते ! तओहितो अणंतरं उच्चट्टित्ता कहिं गमिहिति कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! महाविदेहे
वासे सिज्झिहितिजाव अंतं काहिति॥एस भंते!साललट्ठिया उण्हाभिया तण्णाभिहया दवग्गिजालाभिहया| || कालमासे कालं किचा जाव कहिं उववजिहिति ?, गोयमा! इहेव जंबूद्दीवे २ भारहे वासे विञ्झगिरिपायमूले | महेसरिए नगरीए सामलिरुक्खत्ताए पच्चायाहिति,सा णं तत्थ अच्चियवंदियपूइय जाव लाउल्लोइयमहिए यावि 8॥६५२॥ भविस्सइ, से णं भंते ! तओहिंतो अणंतरं उच्चट्टित्ता सेसं जहा सालरुवखस्स जाव अंतं काहिति । एस णं भंते ! उंबरलट्टिया उण्हाभिहया ३ कालमासे कालं किच्चा जाव कहिं उववजिहिति ?, गोयमा ! इहेव जंबु.
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दीवे २ भारहे वासे पाडलिपुते नामं नगरे पाडलिरुक्खत्ताए पचायाहिति से णं तत्थ अच्चियवंदिय जाव भविस्सति, से णं भंते ! अनंतरं उद्यत्तित्ता सेसं तं चैव जाव अंतं काहिति (सूत्रं ५२८ ) ॥
'एस ण' मित्यादि, 'दिवे'त्ति प्रधानः 'सच्चोवाए' त्ति 'सत्यावपातः' सफलसेवः, कस्मादेवमित्यत आह- 'सन्निहियपाडिहेरे 'त्ति संनिहितं विहितं प्रातिहार्य - प्रतीहारकर्म्म सांनिध्यं देवेन यस्य स तथा । 'साललट्ठिय'त्ति शायष्टिका, इह च यद्यपि शालवृक्षादावनेके जीवा भवन्ति तथाऽपि प्रथमजीवापेक्षं सूत्रत्रयमभिनेतव्यं १ । एवंविधप्रश्नाश्च वनस्पतीनां | जीवत्वमश्रद्दधानं श्रोतारमपेक्ष्य भगवता गौतमेन कृता इत्यवसेयमिति ॥ गतिप्रक्रमादिदमाह
तेणं कालेणं तेणं समएणं अम्मडस्स परिवायगस्स सत्त अंतेवासीसया गिम्हकालसमयंसि एवं जहा उवावाइए जाव आराहगा ( सूत्रं ५२९ ) । बहुजणे णं भंते ! अन्नमन्नस्स एवमाइक्खड़ एवं खलु अम्मडे परिधायए कंपिल्लपुरे नगरे घरसए एवं जहा उववाइए अम्मडस्स वत्तवया जाव दहृप्पइण्णो अंतं काहिति (सूत्रं ५३०) ।
'ते' मित्यादि, 'एवं जहा उबवाइए जाव आराहग'त्ति इह यावत्करणादिदमर्थतो लेशेन दृश्यं -- ग्रीष्मकालस| मये गङ्गाया उभयकूलतः काम्पिल्यपुरात् पुरिमतालपुरं संप्रस्थितानि ततस्तेषामटवीमनुप्रविष्टानां पूर्वगृहीतमुदकं परिभु| ज्यमानं क्षीणं ततस्ते तृष्णाभिभूता उदकदातारमलभमाना अदत्तं च तदगृह्णन्तोऽर्हन्नमस्कारपूर्वकमनशनप्रतिपत्या काल १ प्रत्यासत्तेः सप्तमोद्देशक वक्तव्यतास्थानं यद् राजगृहं चैत्यं गुणशीलकं पृथ्वीशिलापट्टकश्च तत्रत्या वृक्षा एते समवसेयाः । अन्येप्यनेकेषु जीवेषु सत्स्वपि समस्तावयवव्याप्येकोऽस्ति वृक्षजीवः इति सूत्र० आहारपरिज्ञाध्ययने ]
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व्याख्याप्रज्ञप्तिः अभयदेवी
या वृत्तिः २
॥६५३॥
कृत्वा ब्रह्मलोकं गताः परलोकस्य वाराधका इति । 'घरसए' इत्यत्र 'एवं जहे' त्यादिना यत्सूचितं तदर्थतो लेशेनैवं दृश्यं भुङ्क्ते वसति चेति एतच्च श्रुत्वा गौतम आह- कथमेतद् भदन्त !, ततो भगवानुवाच - गौतम ! सत्यमेतेद्, यत| स्तस्य वैक्रियलव्धिरस्ति ततो जनविस्मापनहेतोरेवं कुरुते, ततो गौतम उवाच - प्रत्रजिष्यत्येव (ष) भगवतां समीपे १, भगवानुवाच- नैवं, केवलमयमधिगतजीवाजीवत्वादिगुणः कृतानशनो ब्रह्मलोके गमिष्यति, ततश्युतश्च महाविदेहे दृढप्रतिज्ञाभिधानो | महर्द्धिको भूत्वा सेत्स्यतीति ॥ अयमेतच्छिष्याश्च देवतयोत्सन्ना इति देवाधिकाराद्देववक्तव्यतासूत्राण्यु देशकसमाप्तिं यावत्
अस्थि भंते! अद्याबाहा देवा अधाबाहा देवा ?, हंता अस्थि, से केणद्वेणं भंते ! एवं वुञ्चइ अधावाहा देवा २१, गोयमा ! पभू णं एगभेगे अद्याबाहे देवे एगमेगस्स पुरिसस्स एगमेगंसि अच्छिपत्तंसि दिवं देविहिं दिवं देवजुतिं दिवं देवजुत्तिं दिवं देवाणुभागं दिवं बत्तीसतिविहं नट्टविहिं उवसेत्तए, णो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आबाहं वा वाबाहं वा उप्पाएइ छविच्छेयं वा करेंति, एसुहुमं च णं उवदंसेज्जा, से तेणट्टेणं जाव अधाबाहा २ देवा २ (सूत्रं ५३१ ) । पभू णं भंते ! सक्के देविंदे देवराया पुरिसस्स सीसं पाणिणा असणा छिंदित्ता कमंडलुंमि पक्खिवित्तए ?, हंता पभू से कहमिदाणिं पकरेति ?, गोयमा ! छिंदिया २ च णं पक्खिवेज्जा भिंदिया भिंदिया च णं पक्खिवेज्जा कोट्टिया कोट्टिया च णं पक्खिवेज्जा सुन्निया चुन्निया च णं | पक्खिवेजा तओ पच्छा खिप्पामेव पडिसंघाएजा नो चेव णं तस्स पुरिसस्स किंचि आवाहं वा बाबाहं वा | उप्पाएजा छविच्छेदं पुण करेति, एसुहुमं च णं पक्खिवेज्जा ( सूत्रं ५३२ ) । अस्थि णं भंते । जंभया देवा
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१४ शतके ८ उद्देशः अम्मडशिव्याः अम्म ड: सू५२९५३३
॥६५३॥
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जंभया देवा ?, हंता अस्थि से केण?णं भंते ! एवं वुच्चइ जंभया देवा जंभया देवा?, गोयमा ! जंभगा णं देवा निचं पमुइयपक्कीलिया कंदप्परतिमोहणसीला जन्नं ते देवे कुद्धे पासेजा से णं पुरिसे महंतं अयसं पाउणिज्जा जे णं ते देवे तुढे पासेज्जा से णं महंतं जसं पाउणेज्जा, से तेणटेणं गोयमा! जंभगा देवा २॥ कतिविहा णं भंते ! जंभगा देवा पण्णत्ता ?, गोयमा ! दसविहा पण्णता, तंजहा-अन्नजंभगा पाणजंभगा वत्थजंभगा लेणजंभगा सयणजंभगा पुप्फजंभगा फलजंभगा पुप्फफलजंभगा विजाजंभगा अवियत्तजंभगा, जंभगा णं भंते ! देवा कहिं वसहि उति ?, गोयमा ! सवेसु चेव दीहवेयडेसु चित्तविचित्तजमगपवएसु कंचणपक्वएमु य एत्थ णं जंभगा देवा वसहि उति । जंभगाणं भंते ! देवाणं केवतियं कालं ठिती पण्णता, गोयमा ! एग पलिओवमं ठिती पण्णत्ता । सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरति (सूत्रं ५३३)॥१४-८॥
तत्र च 'अबाबाह'त्ति व्याबाधन्ते-परं पीडयन्तीति व्याबाधास्तन्निषेधादव्याबाधाः, ते च लोकान्तिकदेवमध्यगता द्रष्टव्याः, यदाह-"सारस्सयमाइच्चा वण्ही वरुणा य गद्दतोया य । तुसिया अबाबाहा अग्गिच्चा चेव रिट्ठा य ॥१॥" इति [ सारस्वता आदित्या वह्नयो वरुणाश्च गर्दतोयाश्च तुषिता अव्याबाधा अग्यर्चाश्चैव रिष्ठाश्च ॥] 'अच्छिपत्संसि | अक्षिपत्रे-अक्षिपक्ष्मणि 'आवाहं वत्ति ईषद्बाधां 'पवाहं वत्ति प्रकृष्टबाधां 'वाबाहंति कचित् तत्र तु 'व्याबार्धा' विशिटामाबाधां 'छविच्छेयं ति शरीरच्छेदम् 'एसुहुमं च णति 'इति सूक्ष्मम्' एवं सूक्ष्मं यथा भवत्येवमुपदर्शयेन्नाव्यविधिमिति प्रकृतं । 'सपाणिण'त्ति स्वकपाणिना 'से कह मियाणिं पकरेइ'त्ति यदि शक्रः शिरसः कमण्डल्वां प्रक्षेपणे प्रभुस्त
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१४ शतके ८ उद्देशः अव्यानाध सामर्थ्य शक्रशक्तिःज म्भकाः सू ५३३
व्याख्या-13 प्रक्षेपणं कथं तदानीं करोति ?, उच्यते, 'छिंदिया छिंदिया व णं'ति छित्त्वा २ क्षुरप्रादिना कूष्माण्डादिकमिव श्लक्ष्ण
प्रज्ञप्तिः खण्डीकृत्येत्यर्थः, वाशब्दो विकल्पार्थः प्रक्षिपेत् कमण्डल्या, 'भिंदिय'त्ति विदार्योर्द्धपाटनेन शाटकादिकमिव, 'कुट्टिय'त्ति अभयदेवी
कुट्टयित्वा उदूखलादौ तिलादिकमिव, 'चुत्रियत्ति चूर्णयित्वा शिलायां शिलापत्रकादिना गन्धद्रव्यादिकमिव 'ततो या वृत्तिः२
पच्छत्ति कमण्डलुप्रक्षेपणानन्तरमित्यर्थः 'परिसंघाएजत्ति मीलयेदित्यर्थः 'एसुमं च णं पक्खियेजत्ति कमण्डल्या. ॥६५४॥ | मिति प्रकृतं । 'जंभग'त्ति जृम्भन्ते-विजृम्भन्ते स्वच्छन्दचारितया चेष्टन्ते ये ते जृम्भकाः-तिर्यग्लोकवासिनो व्यन्तर
देवाः, 'पमुइयपक्कीलिय'त्ति प्रमुदिताश्च ते-तोषवन्तः प्रक्रीडिताश्च-प्रकृष्टक्रीडाः प्रमुदितप्रक्रीडिताः, 'कंदप्परईत्ति अत्यर्थ केलिरतिकाः 'मोहणसील'त्ति निधुवनशीलाः 'अजसं ति उपलक्षणत्वादस्यानर्थ प्रामुयात् 'जसं ति उपलक्षणत्वादस्यार्थ-वैक्रियलब्ध्यादिकं प्रामुयात् वैरखामिवत् शापानुग्रहकरणसमर्थत्वात् तच्छीलत्वाच्च तेषामिति । 'अन्नजं|भये'त्यादि अन्ने-भोजनविषये तदभावसद्भावाल्पत्वबहुत्वसरसत्वनीरसत्वादिकरणतो जृम्भन्ते-विजृम्भन्ते ये ते तथा, एवं |पानादिष्वपि वाच्यं, नवरं 'लेणं ति लयन-गृहं 'पुष्फफलजंभग'त्ति उभयजृम्भकाः, एतस्य च स्थाने 'मंतजंभग'त्ति वाचनान्तरे दृश्यते, 'अवियत्तजंभगत्ति अव्यक्ता अन्नाद्यविभागेन जृम्भका ये ते तथा, क्वचित्तु 'अहिवइजंभग'त्ति दृश्यते तत्र चाधिपतौ-राजादिनायकविषये जृम्भका ये ते तथा, 'सवेसु चेव दीहवेय सुत्ति 'सर्वेषु' प्रतिक्षेत्रं तेषां भावात् सप्तत्यधिकशतसयथेषु 'दीर्घविजयार्द्धषु' पर्वतविशेषेषु, दीर्घग्रहणं च वर्तुलविजया व्यवच्छेदार्थ, 'चित्तविचित्तजमगपवएसुत्ति देवकुरुषु शीतोदानद्या उभयपार्श्वतश्चित्रकूटो विचित्रकूटश्च पर्वतः, तथोत्तरकुरुषु शीताभिधान
॥६५४॥
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नद्या उभयतो यमकसमकाभिधानौ पर्वतौ स्तस्तेषु, 'कंचणपवएसु'त्ति उत्तरकुरुषु शीतानदीसम्बन्धिनां पञ्चानां नीलवदादिह्नदानां क्रमव्यवस्थितानां प्रत्येकं पूर्वापरतटयोर्दश दश काञ्चनाभिधाना गिरयः सन्ति ते च शतं भवन्ति, एवं देवकुरुष्वपि शीतोदानद्याः सम्बन्धिनां निषददादीनां पञ्चानां महादानामिति, तदेवं द्वे शते, एवं धातकीखण्डपूर्वार्धादिष्वप्यतस्तेष्विति ॥ चतुर्दशशतेऽष्टमः॥१४-८॥
| अनन्तरोद्देशकान्त्यसूत्रेषु देवानां चित्रार्थविषयं सामर्थ्यमुक्त, तस्मिंश्च सत्यपि यथा तेषां स्वकर्मलेश्यापरिज्ञानसामर्थ्य कथञ्चिन्नास्ति तथा साधोरपीत्याद्यर्थनिर्णयार्थो नवमोद्देशकोऽभिधीयते, इत्येवंसम्बद्धस्यास्येदमादिसूत्रम्-. | अणगारे णं भंते ! भावियप्पा अप्पणो कम्मलेस्सं न जाणइ न पासह तं पुण जीवं सरूविं सकम्मलेस्सं जाणइ पासइ ?, हंता गोयमा ! अणगारे णं भावियप्पा अप्पणो जाव पासति ॥ अस्थि णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति ४१, हंता अत्थि ॥ कयरे णं भंते ! सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासंति जाव पभासेंति ?, गोयमा ! जाओ इमाओ चंदिमसूरियाणं देवाणं विमाणेहिंतो लेस्साओ बहिया अभिनिस्सडाओ ताओ ओभासंति पभासेंति एवं एएणं गोयमा! ते सरूवी सकम्मलेस्सा पोग्गला ओभासेंति ४ (सूत्रं ५३४)॥ 'अणगारे ण'मित्यादि, अनगारः 'भावितात्मा' संयमभावनया वासितान्तःकरणः आत्मनः सम्बन्धिनी कर्मणो
व्या.११.
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१४ शतके
व्याख्या- योग्या लेश्या-कृष्णादिका कर्मणो वा लेश्या-'लिश श्लेषणे' इति वचनात् सम्बन्धः कर्मलेश्या तां न जानाति विशेप्रज्ञप्तिः पतो न पश्यति च सामान्यतः, कृष्णादिलेश्यायाः कर्मद्रव्यश्लेषणस्य चातिसूक्ष्मत्वेन छद्मस्थज्ञानागोचरत्वात् , 'तं पुण|| ९ उद्देशः अभयदेवी-||
|जीवंति यो जीवः कर्मलेश्यावांस्तं पुनः 'जीवम्' आत्मानं 'सरूविंति सह रूपेण-रूपरूपवतोरभेदाच्छरीरेण वर्त्तते | कमलेश्यायावृत्तिः२
योऽसौ समासान्तविधेः सरूपी तं सरूपिणं सशरीरमित्यर्थः अत एव 'सकर्मलेश्यं कर्मलेश्यया सह वर्तमानं जानाति दर्शनावमा ॥६५५॥ | शरीरस्य चक्षुर्ग्राह्यत्वाज्जीवस्य च कथञ्चिच्छरीराव्यतिरेकादिति ॥'सरूविं सकम्मलेस्संति प्रागुक्तम् , अथ तदेवाधि
कृत्य प्रश्नयन्नाह–'अस्थि ण'मित्यादि, 'सरूविं'ति सह रूपेण-मूततया ये ते 'सरूपिणः' वर्णादिमन्तः 'सकम्मले|स्स'त्ति पूर्ववत् 'पुद्गलाः' स्कन्धरूपाः 'ओभासंति'त्ति प्रकाशन्ते 'लेसाओ'त्ति तेजांसि 'बहिया अभिनिस्सडा-18
ओ'त्ति बहिस्तादभिनिःसृता-निर्गताः, इह च यद्यपि चन्द्रादिविमानपुद्गला एव पृथिवीकायिकत्वेन सचेतनत्वात्सकमलेश्यास्तथाऽपि तन्निर्गतप्रकाशपुद्गलानां तद्धेतुकत्वेनोपचारात्सकर्मलेश्यत्वमवगन्तव्यमिति ॥ पुद्गलाधिकारादिदमाह- नेरइयाणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला अणत्ता पोग्गला ?, गोयमा ! नो अत्ता पोग्गला अणत्ता पोग्गला, असुरकुमाराणं भंते ! किं अत्ता पोग्गला अणत्ता पोग्गला ?, गोयमा ! अत्ता पोग्गला णो अणत्ता पोग्गला, एवं जाव थणियकुमाराणं, पुढविकाइयाणं पुच्छा, गोयमा ! अत्तावि पोग्गला अणत्तावि पोग्गला,
॥६५५| | एवं जाव मणुस्साणं, वाणमंतरजोइसियवेमाणियाणं जहा असुरकुमाराणं, नेरइयाणं भंते ! किं इहा पोग्गला अणिट्ठा पोग्गला ?, गोयमा! नो इट्ठा पोग्गला अणिहा पोग्गला जहा अत्ता भणिया एवं इहाविद
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कंतावि पियावि मणुन्नाविभाणियवा एए पंच दंडगा॥(सूत्र) देवे णं भंते! महड्डिए जाव महेसक्खे रूवसहस्सं विउवित्ता पभू भासासहस्संभासित्तए ?, हंता पभू, साणं भंते ! किं एगा भासा भासासहस्सं ?,गोयमा! एगाणं सा भासा णो खलु तं भासासहस्सं (सूत्रं ५३५)॥
'नेरइयाण'मित्यादि, 'अत्तत्ति आ-अभिविधिना त्रायन्ते-दुःखात् संरक्षन्ति सुखं चोत्पादयन्तीति आत्राः आप्ता वा-एकान्तहिताः, अत एव रमणीया इति वृद्धैर्व्याख्यातं, एते च ये मनोज्ञाः प्राग् व्याख्यातास्ते दृश्याः, तथा 'इडे'दत्यादि प्राग्वत् । पुद्गलाधिकारादेवेदमाह-देवे 'मित्यादि, 'एगा णं सा भासा भास'त्ति एकाऽसौ भाषा, जीवै
कत्वेनोपयोगैकत्वात् , एकस्य जीवस्यैकदा एक एवोपयोग इष्यते, ततश्च यदा सत्याद्यन्यतरस्यां भाषायां वर्तते तदा नान्यस्यामित्येकैव भाषेति ॥ पुद्गलाधिकारादेवेदमाह
तेणं कालेणं २ भगवं गोयमे अचिरुग्गयं बालसूरियं जासुमणाकुसुमपुंजप्पकासं लोहितगं पासइ पासित्ता जायसढे जाव समुप्पन्नकोउहल्ले जेणेव समणे भगवं महावीरे तेणेव उवागच्छइ जाव नमंसित्ता जाव
एवं वयासी-किमिदं भंते ! सूरिए किमिदं भंते ! सूरियस्स अहे ?, गोयमा ! सुभे सूरिए सुभे सूरियस्स ति अढे । किमिदं भंते ! सूरिए किमिदं भंते ! सूरियस्स पभाए एवं चेव, एवं छाया एवं लेस्सा (सूत्रं ५३६)॥
तेण'मित्यादि, 'अचिरोद्तम्' उद्गतमात्रमत एव बालसूर्य 'जासुमणाकुसुमप्पगासंति जासुमणा नाम वृक्षस्त| कुसुमप्रकाशमत एव लोहितकमिति 'किमिदं ति किंस्वरूपमिदं सूर्यवस्तु, तथा किमिदं भदन्त ! सूर्यस्य-सूर्यशब्दस्यार्थः
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व्याख्या-द अन्वर्थवस्तु ?, 'सुभे मूरिए'त्ति शुभस्वरूपं सूर्यवस्तु सूर्यविमानपृथिवीकायिकानामातपाभिधानपुण्यप्रकृत्युदयवर्त्तित्वात् || १४ शतके प्रज्ञप्तिः
लोकेऽपि प्रशस्ततया प्रतीतत्वात् ज्योतिष्केन्द्रत्वाच्च, तथा शुभः सूर्यशब्दार्थस्तथाहि-सूरेभ्यः-क्षमातपोदानसङ्ग्रामादिवी- ९ उद्देशः अभयदेवी रेभ्यो हितः सूरेषु वा साधुः सूर्यः 'पभ'त्ति दीप्तिः छाया-शोभा प्रतिबिम्ब वा लेश्या-वर्णः ॥ लेश्याप्रक्रमादिदमाह- आत्तेतरपुया वृत्तिः२ । जे इमे भंते ! अन्जत्ताए समणा निग्गंथा विहरंति एते णं कस्स तेयलेस्सं वीतीवयंति ?, गोयमा! मास
द्गलभाषास परियाए समणे निग्गंथे वाणमंतराणं देवाणं तेयलेस्सं वीइवयंति दुमासपरियाए समणे निग्गंथे असुरिं॥६५६॥
हस्रसूर्यार्थः दवज्जियाणं भवणवासीणं देवाणं तेयलेस्सं वीयीवयंति एवं एएणं अभिलावेणं तिमासपरियाए समणे नि.
निर्ग्रन्थप
*र्यायेणलेअसुरकुमाराणं देवाणं तेय. चउम्मासपरियाए सगहनक्खत्ततारारूवाणं जोतिसियाणं देवाणं तेय. पंच
श्या सू मासपरियाए य सचंदिमसूरियाणं जोतिसिंदाणं जोतिसरायाणं तेय. छम्मासपरियाए समणे सोहम्मी
५३५-५३७ साणाणं देवाणं० सत्तमासपरियाए सणंकुमारमाहिंदाणं देवाणं० अट्टमासपरियाए बंभलोगलंतगाणं देवाणं तेय. नवमासपरियाए समणे महामुक्कसहस्साराणं देवाणं तेय. दसमासपरियाए आणयपाणयआरणच्च-14 याणं देवाणं० एक्कारसमासपरियाए गेवेजगाणं देवाणं बारसमासपरियाए समणे निग्गंथे अणुत्तरोववाइयाणं | देवाणं तेयलेस्सं वीयीवयंति, तेण परं सुक्के सुक्काभिजाए भवित्ता तओ पच्छा सिज्झति जाव अंतं करेति ।।
| ॥६५६॥ सेवं भंते ! सेवं भंतेत्ति जाव विहरति (सूत्र ५३७)॥१४-९॥ PI 'जे इमे इत्यादि, ये इमे प्रत्यक्षाः 'अज्जत्ताए'त्ति आर्यतया पापकर्मबहिर्भूततया अद्यतया वा-अधुनातनतया वर्तमा
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नकालतयेत्यर्थः 'तेयलेस्सं'ति तेजोलेश्या-सुखासिका तेजोलेश्या हि प्रशस्तलेश्योपलक्षणं सा च सुखासिकाहेतुरिति कारणे कार्योपचारात्तेजोलेश्याशब्देन सुखासिका विवक्षितेति, 'वीइवयंति' व्यतिव्रजन्ति व्यतिक्रामन्ति 'असुरिंदवज्जियाणं'ति चमरबलवर्जितानां 'तेण परं ति ततः संवत्सरात्परतः 'सुक्के त्ति शुक्लो नामाभिन्नवृत्तोऽमत्सरी कृतज्ञः सदारम्भी हितानुबन्ध इति, निरतिचारचरण इत्यन्ये, 'सुक्काभिजाइ'त्ति शुक्लाभिजात्यः परमशुक्ल इत्यर्थः, अत एवोक्तम्-"आकिश्चन्यं मुख्यं ब्रह्मापि परं सदागमविशुद्धम् । सर्व शुक्लमिदं खलु नियमात्संवत्सरादूर्द्धम् ॥१॥” एतच्च श्रमणविशेषमेवाश्रि| त्योच्यते न पुनः सर्व एवैवंविधो भवतीति ॥ चतुर्दशशते नवमः ॥ १४-९॥
SEARSANGRAHONKARRIES
___अनन्तरं शुक्ल उक्तः, स च तत्त्वतः केवलीति केवलिप्रभृत्यर्थप्रतिबद्धो दशम उद्देशकः, तस्य चेदमादिसूत्रम्__ केवली णं भंते ! छउमत्थं जाणइ पासइ ?, हंता जाणइ पासइ, जहा णं भंते ! केवली छउमत्थं जाणइ पासइ तहा णं सिद्धेवि छउमत्थं जाणइ पासइ ?, हंता जाणइ पासइ, केवली णं भंते ! आहोहियं जाणइ पासइ ?, एवं चेव, एवं परमाहोहियं, एवं केवलिं एवं सिद्धं जाव जहा णं भंते ! केवली सिद्धं जाणइ पासइ तहा णं सिद्धवि सिद्ध जाणइ पासइ ?, हंता जाणइ पासइ । केवली गं भंते ! भासेज वा वागरेज वा ?, हंता भासेज वा वागरेज वा, जहा णं भंते ! केवली भासेज वा वागरेज वा तहा णं सिद्धेवि भासेज वा वागरेज वा ?, णो तिणढे समढे, से केणतुणं भंते ! एवं वुच्चइ जहा
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१४ शतके |१० उद्देशः
केवलिसिद्धानां ज्ञान
सू ५३८
व्याख्या- जणं केवली णं भासेज वा वागरेज वा णो तहाणं सिद्धे भासेज वा वागरेज वा ?, गोयमा ! केवली प्रज्ञप्तिः दणं सउठाणे सकम्मे सबले सवीरिए सपुरिसकारपरक्कमे, सिद्धे णं अणुट्टाणे जाव अपुरिसक्कारपरक्कमे, से अभयदेवी- तेण?णं जाव वागरेज वा, केवली णं भंते ! उम्मिसेज वा निमिसेज वा ?, हंता उम्मिसेज वा निम्मिसेज या वृत्तिः२४
तः२/वा एवं चेव, एवं आउद्देज वा पसारेज वा, एवं ठाणं वा सेजं वा निसीहियं वा चेएज्जा, केवली णं भंते ! इमं ॥६५७॥
रयणप्पभं पुढवि रयणप्पभापुढवीति जाणति पासति ?, हंता जाणइ पासइ, जहा णं भंते ! केवली इमरयणप्पभं पुढविं रयणप्पभापुढवीति जाणइ पासइ तहा णं सिद्धेवि इमं रयणप्पभं पुढविं रयणप्पभपुढवीति जाणइ पासइ ?, हंता जाणइ पासइ, केवली णं भंते! सकरप्पभं पुढवि सकरपभापुढवीति जाणइ पासइ, एवं चेव एवं जाव अहेसत्तमा, केवली णं भंते ! सोहम्मं कप्पं जाणइ पासइ ?, हंता जाणइ पासइ, एवं चेव, एवं ईसाणं एवं जाव अच्चुयं, केवली णं भंते ! गेवेजविमाणे गेवेजविमाणेत्ति जाणइ पासइ, एवं चेव, एवं अणुत्तरविमाणेवि, केवली णं भंते ! ईसिपम्भारं पुढवि ईसीपब्भारपुढवीति जाणइ पासइ ?, एवं चेव, केवली णं भंते ! परमाणुपोग्गलं परमाणुपोग्गलेत्ति जाणइ पासइ ?, एवं चेव, एवं दुपएसियं खंधं एवं जाव जहा णं भंते ! केवली अणंतपएसियं खंधं अणंतपएसिए खंधेत्ति जाणइ पासइ तहा णं सिद्धेवि अणंतपएसियं जाव पासइ ?, हंता जाणइ पासइ । सेवं भंते ! सेवं भंते ! त्ति (सूत्रं ५३८)॥१४-१०॥ चोदसमं सयं समत्तं ॥१४॥
EISEASESSORARIS RESEOSAS
॥६५७॥
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'केवली'त्यादि, इह केवलिशब्देन भवस्थकेवली गृह्यते उत्तरत्र सिद्धग्रहणादिति, 'आहोहिय'ति प्रतिनियतक्षेत्राव. |धिज्ञानं परमाहोहियंति परमावधिक 'भासेज वत्ति भाषेतापृष्ट एव 'वागरेजत्ति प्रष्टः सन् व्याकुर्यादिति 'ठाणं'ति ऊर्द्धस्थानं निषदनस्थानं त्वग्वर्त्तनस्थानं चेति 'सेज ति शय्यां-वसतिं 'निसीहियं ति अल्पतरकालिकां वसतिं 'चेएज्जत्ति कुर्यादिति ॥ चतुर्दशशते दशमः ॥१४-१०॥ समाप्तं च वृत्तितश्चतुर्दशं शतम् ॥ १४ ॥
चतुर्दशस्येह शतस्य वृत्तिर्येषां प्रभावेण कृता मयैषा । जयन्तु ते पूज्यजना जनानां, कल्याणसंसिद्धिपरस्वभावाः ॥१॥
१॥ इति चन्द्रकुलनभोमृगाङ्कश्रीमदभयदेवसूरिवरविरचितविवरणयुतं चतुर्दशं शतं समाप्तम् ॥ MINSPIRATINDIANSECAPPPRPRISESHIPPIPS
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________________ // इति श्रीमदभयदेवसूरिवरविरचितविवरणयुतं चर्तुदशं शतं द्वितीयो विभागः समाप्तः॥ dan Education International For Personal & Private Use Only