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मानो शिवसुखरूपी स्वर्णरस बाँध दिया गया हो, मानो यश पुरुष के रूप में रख दिया गया हो, मानो सम्पूर्ण कलाधर (पूर्णचन्द्र) उग आया हो, मानो लक्षणों का समूह एक जगह रख दिया गया हो, दिये जाते हुए बालक को देवी ने देखा, देवेन्द्र ने उसे स्वीकार कर लिया। श्रेष्ठ चारणसमूह द्वारा बन्दनीय उन्हें प्रणामकर गोद के अग्रभाग में रख दिया गया। पुण्य से स्फुरायमान व्यक्ति को कौन नहीं मानता? ईशान इन्द्र ने उनके ऊपर धवलछत्र रख दिया। अमरेन्द्र सनतकुमार और माहेन्द्रपति उनके ऊपर चमर ढोरते हैं।
घत्ता-"जिन अणुओं से विश्व जीता गया है, उन्हीं से देव का शरीर निर्मित हुआ है"- इस बात का देर तक विचार करनेवाला इन्द्र विस्मित और पुलकित हो उठा ॥११॥
१२ वह पुनः कहता है कि "मेरा कर्ममल नष्ट हो गया है और मेरे अनेक नेत्रों का होना सफल हो गया। है कि जो मैंने त्रिभुवन के परमेश्वर जिनेश्वर का यह रूप देख लिया है।" यह घोषित कर उसने बार-बार भगवान् को देखा और फिर अपने ऐरावत को प्रेरित किया। परमेष्ठी जिनेन्द्र को लेकर, अप्सराओं और देवों के साथ वह भ्रमण करते हुए ग्रहोंवाले आकाश में चला। सात सौ नब्बे योजन धरती छोड़ने पर तारागणों का स्थान है।
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