Book Title: Anekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12 Author(s): Jugalkishor Mukhtar Publisher: Veer Seva Mandir Trust Catalog link: https://jainqq.org/explore/538004/1 JAIN EDUCATION INTERNATIONAL FOR PRIVATE AND PERSONAL USE ONLYPage #1 -------------------------------------------------------------------------- Page #2 -------------------------------------------------------------------------- ________________ AGO AUDA भों महम् * अनेकान्त सत्य, शान्ति और लोकहितके संदेशका पत्र नीति-विज्ञान-दर्शन-इतिहास-साहित्य-कला और समाजशास्रके प्रौढ विचाराने परिपूर्ण सचित्र-मासिकवार -- - -- मम्पादक - - - जुगलकिशोर मुख्तार 'युपवीर याग केली मधिष्ठाता 'धीरसेवामन्दिर' (समन्तभद्राश्रम) मम्मावा जि० महारनपुर चतुर्थ वर्ष [ फाल्गुन मे माघ, वीर नि० सं० १४६७-६८ ] परमानन्द जैन शास्त्री वीरसंवामन्दिर, मग्माया जि० महारनपुर - वार्षिक मूल्य तीन रुपय जनवरी मन १९४२ एक किरणका मूल्य पचिपाने 17 G Page #3 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके चतुर्थवर्षकी विषय-सूची Cont विषय और लग्यक पृष्ठ विषय और लग्बक पृष्ठ भच्छेदिन (कविना) [श्री भगवन' जैन ५२८ ऐ जैनमम्राट चन्द्रगुप्त [ पं० ईश्वरलाल जैन १०० मज्ञानवाम (कविता) [श्री यात्री' ३७२ कब वे सुग्वकं दिन श्राएँगे [40 काशीराम शर्मा २४४ भ०क्षे० इलांगकीगुफाएँ बा० कामनापमाद जैन ९३ कमल भोर भ्रमर [पं0 जयन्तीप्रमाद जैन ३९२ अनकान्त और अहिमा [पं० सुखलाल जैन ५४१- कर्मबंध और मोक्ष (पं० परमानन्द जैन शास्त्री १४१ अनकान्न के प्रेमियोंस निवेदन [सम्पादक ३९ कलाकार ब्रह्मगुलाल (कहानी) [श्री भगवन्'जैन ३७८ अनेकान्नके महायक [४ टा० ३ ग क वगजमल्लका पिंगल और भारमल्ल अनेकान्नपर लोकमत १३८,०३७,२८९,३५६ सम्पादक १३३, २४५, ३०३ अपना घर (कविना) [श्री भगवन' जैन ३३८ किमका कैमा गव? (कविता)[गजेन्द्रकुमार जैन १०० अपना वैभव (कविमा) , ६०९ किमका कह हमारा है (कविता)[श्री भगवत'जैन ५०९ अपभ्रंशभाषाकं दा ग्रन्थ [पं. दीपचंद्र पांड्या ५५९ क्या नत्वार्थमूत्र-जैनागम-ममन्वयमें न०म०के अमाघ आशा, (कविता) [पं० काशीराम शर्मा ४३६ बीजा है ? [चंद्रशेम्बर शास्त्री २४९ अयोध्याकागजा (कहानी) [श्री भगवत' जैन ०६५ क्या पदाप्रथा मनातन है ? [ललिनाकुमारी ३८७ महन्महानद तीर्थ पं० परमानंद जैन शास्त्री ४२५ गरीबका दिल (कहानी)[श्री भगवत' जैन ३६४ अहार लमही [श्री गशपाल जैन यी १० २२६ गाँधी-अभिनन्दन (कविता) [पं० विचद्र जैन ५ हिमानबर शीतलप्रमाद 2002 ६३ गाम्मट [प्रा०० एन० उपाध्याय २२९, २९५ (श्री चन्द्रशेव शास्त्रका मन्दश, 7 ३६१ गाम्मटमारकी जी० ५० टीका उमका कतृत्व बा जिविजया भाषण [हजारीमल २२ और ममय [प्रा० ए०एन उपाध्याय ११३ प्रा० जिनमन और उनका हरिवंश चंचलमन (कविता) [पं० काशीराम शर्मा ३०६ पं नाशाम प्रेमी ५८९ ग्वालियर के किले की जैनमनियाँ [श्रीकृष्णानंद ४३४ प्रात्मगीन (कविता) [श्री भगवत्' जैन ३४१ चित्रमय जैनानानि [सम्पादक प्रात्मदर्शन (कविना) [पं० काशीगम शर्मा २१९ । २१९ जगचिड़िया रैन बमंग है (कविन)[हन्द्रिभूषण ६५ अात्मबांध (कहानी) [श्री भगवत' जैन ५७ जग किमकी मुद्राम अंकित है [ मम्पादक ०४२ • इमर्गके मन्त [जुगलकिशोर, चित्रार जल्लाद (कहानी) [ श्री भगवन' जैन ५४७ ईमाई मन के प्रचार में शिक्षा [पं० नागचंद जैन ६०१ जिनकल्पी अथवा दिगम्बर माधुका प्रामघटती है पर एक लहर पिं० काशीराम शर्मा ५८ परिषद जय। २४१ उपा०पासुन्दर और उनके प्रन्थ[अगरचंदनाहटा ४७. जिनदर्शन म्तोत्र (कविना) [पं० हीरालाल पांडे ४४८ एक अनूठी जिनम्तुनि [मम्पादक १८५ जिन प्रनिमावन्दनं [ मम्पादकीय एक श्रादशमहिलाका वियोग [मम्पादक ११ जिनन्द्र मुग्व और हृदय शुद्धि [ मम्पादक ३०१ एक पत्नीव्रत (कहानी) [भी भगवत्' जैन ६०५ जिनेन्द्र मुद्राका श्रादर्श (कविता) [पं० दीपचंद ४५. एक प्रश्न [श्री भगवत' जैन ३९० जीवन की पहेली [बा० जयभगवान वकील १८७,३७३ एकान्त और अनकान्त(कविता)[५०पन्नालालजैन ७५ जीवन-धाग [ श्री यात्री Page #4 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१७ विषय और लेखक पृष्ठ विषय और लेखक पृष्ठ जीवन-नैय्या (कविता) [श्री 'कुसुम' जैन ३१२ परिग्रहका प्रायश्चित्त [सम्पादक ४७९ जीवन नैय्या (कहानी। [श्री आर के आनन्दप्र०४०१ पयूषणपर्वके प्रति (कविता) [पं०राजकुमारजैन ३७१ जीवनमें अनेकान्त [बा० अजिनप्रमाद एडवा० २४३ पंचायती मंदिर देहलीकी प्रन्थसूची ४९४, ५६१ जीवनमें ज्यानि जगाना है [पं० पन्नालाल जैन २७२ पिजरेकी चिड़िया [ जॉन मॉर्ल्सवर्दी इंगलैंड ७३ जबकट (कहानी) [श्री भगवत' जैन ३४२ पुण्य-पाप (कविता) [ भी भगवत' जैन १४ जैनदर्शनका नयवाद [पं० दरबागलाल काठिया ३१३ पुण्य-पाप व्यवस्था [ सम्पादक जैनधर्म और अहिंमा [बा० भजित प्रमाद एड० ६५ प्रतिमा-लेखसंग्रह और उसका महत्व जैनधर्मकी दन [प्रा० क्षितिमाहन मन ५५१ कान्तिसागर ४२७, ५०१ जैनन्दिरसंठके कुँचा देहलीकी प्रथसूर्चा ४७२ प्रभाचंद्रका ममय [पं० महेन्द्रकुमार न्या०चा० १२४ जैनमुनियोंके नामान्न पद [अगरचंद नाहटा १४५ प्रश्नोत्तर [श्री दौलनगम 'मित्र' ५१३ जैन माहित्यके प्रचारकी श्रावश्यकना [सुरंन्द ५३ प्राग्वाट जातिका निकास [अगरचन्द नाहटा ३८५ जैनमाहिन्यम ग्वालियर [ मुनि कांनिमागर ५३६ प्रा० जगदीशचन्द्र के उत्तर लग्यपर सयुक्तिक जैनमिद्धान्तभवन मूडबिद्रीकी ग्रन्थमूची ५९८ मम्मान [पं० गमप्रमाद शाम्बी ८६ जैमियांका अपभ्रंश माहित्य [मुनि कांतिमागर ५८१ बच्चों की हाईकोर्ट | ५० दौलतगम 'मित्र' ८५ जैनानीनि (कविता) [पं० पन्नालालमाहत्याचार्य १२२ - बनारमी-नाममाला [पं० परमानंद जैन शास्त्री ४८३ तत्त्वार्थसुत्र । प्रान्तःपरीक्षण [पं०फूलचंद्रशास्त्री ५८३ बनारसी नाममालाका संशाधन ५४२ नत्त्वाथसूचकं बी नोंकी ग्वाज[पं० परमानंदशात्री १७ बनामी-नाममालापर विद्वानोंकी मम्मनियाँ ५९६ नपाभूमि (कहानी) श्रा'भगवन्' जैन ४४९ बाबा मनकी आंग्वं बाल [श्री भगवन जैन १५१ नामिन भापाका जनमाहिन्य [प्रा० ए० चक्रवनी बुन्देलखंड का प्राचीन वैभव देवगढ़ म० ५० १०५,२००,३९,३६५.५५७.६०३ [श्री कृष्गानन्द गुप्त ५१४ त्रिलोक प्रजाप्रम उपलब्ध ऋषभ देवचरित्र- बुझता दीपक (कविना) [कल्याणकुमार 'शशि' ५४ [पं. प.मानन्द जैन शास्त्री ३०७ बजाड विवाह [श्री लालनाकुमा। पाटनी ०१ दम्मा बीमा भेद का प्राचानत्व [अगर चंद्र नाहटा ५४५ भक्तियांग रहस्य [मम्पादक दिगम्बर ज.ग्रन्थमा [अगरचंद नाहटा ३३६ महावीर के निर्वाण सम्बनकी ममाला चना दुनिया का मेला (कविता) [पं० काशीराम शमा १४४ [पं० "० शान्तिराज शास्त्री ५५५ धर्कट वंश [ अगरचंद न हटा ६१० भाग्यगीत (कविता [श्रा 'भगवन्' जैन ११० धार्मिक माहित्यम अश्लीलना [किशारीलाल - भामाशाह (कविता) [श्री भगवन्' जैन घनश्यामदाम मशरूवाला ४८० भाग्नीय मंतिम जैन मनिका स्थान नयामन्दिर दहलाको ग्रन्थसूची [सम्पादक ४५ जयभगवान वकील ७५ नर नरकं प्राणांका प्यामा [पं० काशीगम शमा ५०८ भ्रातृ (कहानी) श्री भगवन जैन 'निन्यकी प्रात्म-प्रार्थना [ मम्पादक मम्वन वाले का विज्ञापन निश्चय और व्यवहार [व० छोटेलाल जैन ३६२ मनकी भृग्य (कविता) [श्री भगवन जैन १८६ नामनिर्वाणकान्यपरिचय [पं० पन्नालाल जैन महाकवि पुष्पदन्न [पं० नाथूगम प्रमी ४०५,४५५ माहित्याचार्य [३५८, ४६६, ५०७ मगांधी के धर्मसम्बन्धा विचार[ डा० भैयालाल ११२ पराधीनका जीवन कैमा पं० काशागम शमा ६०४ मांटे बाल (कविता) [श्री 'कुसुम' जैन ३७० Page #5 -------------------------------------------------------------------------- ________________ । श्वेता में भगवानमावीरेअविनातित ( ४ ) होनेनी मान्यतापमानामा विषय और लेखक पृष्ठ विषय और लेखक मुनिसुव्रत काव्यकं कुछ मनोहर पा वीर मेवा मन्दिग्में वीर शासन जयन्नी उत्सव [पं० सुमरचन्द 'दिवाकर' १७० [पं० परमानन्द जैन शास्त्री ३९१ मृग-पक्षी-शाख (उद्धृत) ५४३ वैवाहिक कठिनाइयाँ [श्री ललिता कुमारी २७३ मेरी भावनाका संस्कृत पद्यानुवाद शैतानकी गुफामें साधु [अनु० डा. भैयालाल जैन १७८ [पं० धरणीधर शास्त्री २३४ 'श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र [पं० नाथूराम प्रेमी पर मेंरक विषयमें शंका ममाधान [सिंघई नेमिचंद्र २९२ श्रीजिनाष्टपदी कविता) [पं० धरणीधर शास्त्री ३०२ यह सब ही खोना है (कविता)[श्री भगवत्' जैन २४७ सत्साधु वन्दन [सम्पादक युवराज (कहानी) [श्री 'भगवत' जैन ३२१ ममन्तभद्रका मुनि जीवन और आपत्काल रत्नत्रय धर्म [पं० पन्नालाल साहित्याचार्य २७८,३२६ [सम्पादक ४१, १५३ गनी (कहानी) श्री भगवत' जैन ४६२ ममन्तभद्र की अहद्भक्तिका रूप [सम्पादक ३५७ लहरोंमें लहराता जीवन [ श्री 'कुसुम' जैन २७७ समन्तभद्र भारतीकं नमून (सानुवाद) ५७३ लोकमंगल-कामना [सम्पादक ४७७ / समन्तमद्र विचारमाला १-२-३ [मम्पादक ५ पगंग चरित्र दिगम्बर है या श्वेताम्बर ? समाजसुधारका मूलस्रोत [पं० श्रेयांसकुमार ९९ [पं० परमानन्द शास्त्री ६२३ सयुक्तिक सम्मतिपर लिखे गये उत्तरलेखकी विचार पुष्पांद्यान [५२,९७,१०५,१६३,१७७.२८८,५३५ निःसारता (पं० गमप्रसादशास्त्री ३९४,४३७,५६७,६१७ विवाह और हमाग ममाज [श्री ललिता कुमारी ६८ संगीत विचार-संग्रह [पं० दौलतगम 'मित्र' ३३२ विवाह कब किया जाय [श्री ललिता कुमारी १६५ संयमीका दिन और गत [श्री विद्यार्थी' १८२ विवाहका उद्देश्य [श्री एस०के० प्रामवाल ७६ मंशाधन (महाकवि पुष्पदन्त) विश्वसंस्कृनिम जैनधर्मका स्थान संमार चत्र (कविता) श्री ऋषिकुमार २९९ [डा० कालीदास नाग ४३१ मार्वजनिक भावना और मार्वजनिक संवा वीतरागकी पूजा क्यों ? [सम्पादक १३९ । [बा० माईदयाल जैन बी० ए० २६३ वीरकी शासनजयन्ती(कविता)[पं०काशीरामशर्मा३६४ साहित्य परिचय और समालोचना वीर निर्वाण संवत्की समालोचनापर विचार [पं० परमानन्द जैन शास्त्री ३७,३००,३३४,५२६,६२८ [सम्पादक ५२९ मिकन्दर आजमका अंन समय (कविता) ३१६ वीरशासन जयन्ती उत्मव [अधिष्ठाता ३४४ सुम्ब शांति चाहता है मानव[श्री 'भगवत्' जैन ५१८ वीरशासन जयन्ती और हमारा कर्तव्य सूचना वीर सेवा मन्दिरको सहायता २३८ [सम्पादक २४८ स्व-पर-बैरी कौन ? [मम्पादक ६ वीरसेवा मन्दिरके विशेष सहायक हरिभद्रसूरि [पं० रतनलाल संघवी २०५,२५७ [जुगलकिशोर चित्रपर हल्दी घाटी (कविता) श्री भगवत' जैन १६४ बार निर्वाण संवत्को समालोचनादक ५२९ मिकन्दर मानव[श्री भगवत्' जैन Page #6 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered. No. A-731. अनिकान्ता emamalnaut - - गुणमुरव्य-कल्पा अनकान्ता-मका pdateREE S 'सापेक्षवादिनी R SA HISE MAYA गान PRANAM BA -art Biket EARNAVARANAS JHAR पिविधनयांपक्षा ययातन्यापिका HOMसप्तभंगरूपा PAGE COPER PARH पल-ग्राहका सम्यग्यम्न-ग्राह Shukla वर्ष किमानगंटारमायया गाना बनानाननववपाक .सम्पादक-जुगल किशोर मुख्तार Page #7 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची OF un - MG १. मत्माधुवन्दन- मम्पादक २. चित्रमय जैनी नीति-[ ., ३. अनेकान्तके महायक-[ ., ४. ममन्तभद्र-विचारमाला -[,, ५. एक आदर्श जैन महिलाका वियोग--[ , ६. तत्वार्थमृत्रके बीजोकी खोज--पं० परमानन्द जैन शास्त्री ७. अनकान्तक प्रमियाम अावश्यक निवेदन-[सम्पादक समन्तभद्रका मुनिजीवन और श्रापत्काल-[ ,, विचारपप्पोद्यान- .... ५२, ६७, १ १०. जनमाहित्यक प्रचारकी आवश्यकता--[ श्रीसुरेन्द्र ११. बुझता दीपक ( कविता )--[ श्रीकल्याणकुमार जेन 'शशि' १२. भक्तियोगरहस्य--[सम्पादक ५३. आत्मबोध (कहानी)- श्री भगवत्' जैन १४. हिमा-तत्त्व-[ श्री. ७० शीतलप्रमाद जी १५. जैनधर्म और अहिमा- [श्री अजिनप्रमाद जैन, एम० ए० ५६. जगाडिया रैन बमेग है (कविता)-हरीन्द्रभूषण जैन १७. विवाह और हमाग ममाज--[श्री ललिताकुमारी पाटणी १८. पिंजरकी चिदिया ( कहानी )--[जान गाल्मवर्दी (हङ्गलेंगढ) १६. भामाशाह ( कविता )- श्री भगवत जेन २०. एकान्त और अनकान्त (कविता)--[ पं० पन्नालाल जैन 'बमन्न' माहित्याचार्य २१. विवाहका उद्देश्य ( कहानी )-[ श्री एम० के० अोमवाल २२. बच्चांकी हाईकोर्ट -[श्री पं० दौलतगम 'मित्र' २३. श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र --श्री पं० नाथगम प्रेमी .... २४. गोधी-अभिनन्दन (कविता)-[ श्री पं. रविचन्द्र जैन 'शशि' २५. प्रो. जगदीशचन्द्र के उत्तरलेखापर मयुक्तिक मम्मान-[श्री पं० गमप्रमादजी जेन शास्त्री २६. अतिशय क्षेत्र इलागकी गुफाएँ--[ श्री बा० कामताप्रमाद जी जैन २७. उटती है उग्में एक लहर ( कविता )-[श्री पं० काशीगम शर्मा 'प्रफुल्लिन' २८. ममाज-सुधारका मूल स्रोत-- श्री पं० अंयोमकुमार जैन शास्त्री ..." २६. किमका, कैमा गर्व ? (कविता)--श्री पं० गजेन्द्रकमार जैन 'कमग्श' ३०. ऐतिहासिक जैन सम्राट चन्द्रगुत--[ श्री पं० ईश्वरलाल जैन स्नातक ३१. नामिल भाषाका जैनमादित्य--[प्रो० ए० चक्रवर्ती एम० ए० .... ३२. महात्मा गांधीक धर्म मम्बन्धी विचार--[ डा० भैयालाल जैन ३३. गो० मारकी जी० प्र० टीका, उमका कर्तृत्व और ममय--[प्रो० ए० एन० उपाध्याय एम० ए० -मूल्यवार्षिक ३) एक किरणका।) इम विशेषाङ्कका ) m .८ mom ४ Page #8 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ महम् * त्व विश्वतत्त्व-प्रकाशक SANTHI नीतिविरोधदसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः । वर्ष ४ । वीरसंवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सम्मावा जिला महारनपुर किरण १ । फाल्गुन, वीर निर्वाण सं० २४६७, विक्रम मं० १९६७ फरवरी १९४१ सत्साधु-वन्दन जियभय-जियउपसग्गे जियइंदिय-परिसहे जियकसाए । जियराय-दोस-मोहे जियसुह-दुग्वे णमंमामि ॥ -योगिभक्ति जिन्होंने भयाको जीन लिया-जो हम लोक, परलोक तथा अाकस्मिकादि किसी भी प्रकार के भयके वशवर्ती होकर अपने पढमे, कर्तव्यमे, व्रताम, न्याय्य नियमोमे च्युत नहीं होते, न अन्याय-अत्याचार तथा परपीडनमें प्रवृत्त होते हैं और न किमी तरहकी दीनता ही प्रदर्शित करते हैं जिन्होंने उपमर्गोको जीत लिया-जो चेतन-अचेतनकृत उपमगों-उपद्रवाक उपस्थित हानेपर ममताभाव धारण करते हैं, अपने चिनको कलुषित अथवा शत्रुतादिके भावरूप परिणत नही होने देते-: जिन्दाने इन्द्रियांको जीत लिया-जो स्पर्शनादि पंचेन्द्रिय-विषयांके वशीभूत (गुलाम) न होकर उन्हें म्वाधीन किए हुए हैं- जिन्होने परीपडाको जीत लिया--भृग्व. प्याम, मर्दी. गर्मी, विष-कण्टक, वधवन्धन, अलाभ और रोगादिकी परीषा-बाधाश्रांको समभावसे मह लिया है--: जिन्होंने कषायांको जीत लियाजो क्रोध, मान माया, लोभ तथा हास्य, शोक और कामादिकमे अभिभूत होकर कोई काम नहीं करते---, जिन्होंने राग, द्वेष और मोहपर विजय प्राम किया है-उनकी अधीनता छोड़कर जो म्वाधीन बने हैं- और जिन्होंने सुख-दुःख को भी जीत लिया है-मुग्वक उपस्थित होनेपर जा हर्ष नहीं मनाने और न दुःम्बके उपाम्थत होनेपर चिनमें किमी प्रकारका उह ग, मंक्लेश अथवा विकार ही लाते हैं, उन मी मन्माधुग्रीवा में नमस्कार करता है--उनकी वन्दनाउपामना-आराधना करता हूं: फिर वे चाहे कोई भी, कहीं भी और किमी नाममे भी क्यों न हो। Page #9 -------------------------------------------------------------------------- ________________ चित्रमय जैनी नीति अनेकान्त के मुग्वपृष्ठपर पाठक जिस चित्रका अवलोकन उसे भी प्रकागन्तरसे ग्रहण किये रहती है। और इस तरह कर रहे हैं वह 'जनी नीति' का भव्य चित्र है । जिनेन्द्रदेवकी मुख्य-गौणकी व्यवस्थारूप निर्णय-क्रियाको सम्यक् मंचालित अथवा जैनधर्मकी जो मुग्व्य नीति है और जिम पर जिनेन्द्र करके वस्तु-तत्वको निकाल लेती है-उसे प्राप्त कर लेती 1, जैनधर्मके अनुयायियों तथा अपना हित है। किमी एक ही अन्न पर उमका एकान्त अाग्रह अथवा चाहनेवाले मभी मज्जनाको चलना चाहिये, उस 'जैनी नीति' कदाग्रह नही रहता-वैमा होने पर वस्तुकी म्वरूपमिद्धि ही कहते हैं । वह जनी नीति क्या है अथवा उमका क्या म्वरूप नहीं बनती। वह वस्तुके प्रधान-अप्रधान मब अन्तो पर और व्यवहार है, हम बानको कुशल चित्रकारने दो प्राचीन ममान दृष्टि रग्बती है उनकी पारम्परिक अपेक्षाको जानती पद्योंके आधार पर चित्रित किया है और उन्हे चित्रम ऊपर है-और इमलिये उस पूर्णरूपमें पहचानती है तथा उसके नीचे अंकित भी कर दिया है। उनमें में पहला पद्य श्रीमत- माथ पृग न्याय करती है। उसकी दृष्टिम एक वस्तु द्रव्यकी चन्द्राचार्यकी और दृमग म्वामी समन्तभद्रकी पण्यकति है। अपेक्षामं यद निन्य है नी पर्यायकी अपेक्षामे वही अनित्य भी पहले पद्य एकनाकर्पन्ती' में, जैनी नीतिको दूध-दही है, एक गुणके कारण जो वस्तु बुरी है दूमर रणके कारण बिलाने वाली गोपी (ग्वालिनी) की उपमा देत हा बतलाया वह वस्तु अच्छी भी है, एक बक्तम जो वस्तु लाभदायक है है कि-जिम प्रकार ग्वालिनी बिलोत ममय मथानीकी रम्मी दुसरं वक्तम वही हानिकारक भी है, क स्थान पर जो वस्तु को दोनों हाथोंम पकड़कर एक मिर (अन्न) को एक हाथसे शुभरूप है दूसरे स्थान पर वही अशुभरूप भी है और एक के अपनी ओर खींचती और दुमर हाथ पकड़े हुए मिरको लये जो हेय हे दूसरे के लिये वही उपादेय भी है । वह ढीला करती जाती है। एकको खीचने पर दमका बिलकल विषको मारने वाला ही नहीं किन्तु जीवनप्रद भी जानती है, और इम लिये उसे मर्वथा हय नहीं ममझती। छोड़ नहीं देनी किन्तु पकड़े रहती है; और हम तरह बिलोने की क्रियाका ठीक सम्पादन करके मक्वन निकालनेरूप दमर पद्य 'विधेयं वार्य' में उम अनेवान्ताय व बग्तुअपना कार्य सिद्ध कर लेती है। ठीक उसी प्रकार जैनी नीति तत्त्वका निर्देश है जो जैनी नीनिरूप गोषीक मन्थनका विषय का व्यवहार है। वह जिम ममय अनेकान्तात्मक वस्तु के है । वह तत्त्व अनेक नयोंकी विवक्षा-अविक्षाके वशमे द्रव्य-पर्याय या मामान्य-विशेषादिरूप एक अन्तको—-धर्म विधेय, निषेध्य, उभय, अनुभय, विधेयाऽनुभय. निपंध्याऽया अंशको-अपनी और खींचती है-अपनाती है-उमी नभय और उभयाऽनुभयक भेदम मात भंगरूप है और ये समय उसके दूसरे अन्त (धर्म या अंश) को ढीला कर देती माता भंग सदा ही एक दुमकी अपेक्षाको लिये रहते हैं। है-अर्थात् , उमके विषयमे उपेक्षाभाव धारण कर लेती प्रत्येक वस्तुतत्त्व इन्हीं मान भेदोम विभक्त है, अथवा यो है । फिर दूसरे समय उस उपक्षित अन्नको अपनाती और कडिये कि वस्तु अनेकान्तात्मक होनेसे उममें अपरिमित धर्म पहलेसे अपनाए हुए अन्तके माथ उपेक्षाका व्यवहार करती अथवा विशेष संभव हैं और वे सब धर्म अथवा विशेष उम है-एकको अपनाते हुए दूसरेका सर्वथा त्याग नही करनी, वस्तुके वस्तुतत्त्व हैं । ऐसे प्रत्येक वस्तुतन्वके 'विधेय' आदि Page #10 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] चित्रमय जैनी नीति के भेदमे मात भेद हैं । इन मातमे अधिक उसके और भेद आशय संनिहित है। विधेयतत्त्व स्वरूपादि चतुष्टयकीनहीं बन सकते और हम लिये ये विशेष (त्रिकालधर्म) सात स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी और निपध्यतत्त्व पररूपादि चतुकी मंग्व्याक नियमको लिये हुए हैं। इन तत्त्वविशेषोका ठयकी-परद्रव्य-क्षेत्र - काल - भावकी-अपेक्षाको लिये मन्थन करते ममय जैनी नीतिरूप गोपीकी दृष्टि जिम समय हए है। जिम तत्त्व को निकालनेकी होती है उस ममय वह उसी रूपसचित्र में गोपीका दाहिना हाथ 'विधि' का और बायाँ परिणत और उमी नाममे उल्लिग्वित होती है, इमीसे चित्रमें हाथ ‘निषेध' का निदर्शक है । साथ ही, मथानीकी रस्मीको विधिदृष्टि, निषेधदृष्टि आदि मान नाम के साथ उसके मात खीचनेवाला हाथ 'मुरव्य' और ढीला करनेवाला हाथ 'गोण' रूप दिये हैं और उसे 'मतभंगरूपा' लिग्वा है। साथ ही है। और इमसे यह भी स्पष्ट है कि विधिका निपंधके साथ उमकं दधिपात्र पर विधेय' श्रादि रूपमे वह तत्त्वविशेष और निषेधका विधिक माथ तथा मुख्यका गौणके माथ अंकित कर दिया है कि वह निकालना चाहती हे और और गौणका मण्यके माथ अविनाभाव मम्बन्ध है-एकके जिम म यस्थित बड़े पात्रमग वर तत्व बारहा है उमपर। बिना दमका अस्तित्व बन नहीं सकता। जिस प्रकार सम 'अनकान्तात्मक वस्तुतच' दर्ज किया है तथा जिम नलके तुलाका एक पल्ला ऊँचा होनेपर दमग पल्ला स्वयमेव नीचा दाग वह अारटा है उमपर 'स्यात्' शब्द लिग्वा है; क्योंकि होजाता है-ऊँचा पल्ला नीचेके बिना और नीचा पल्ला ऊँचे स्वामी समन्तभद्रके "त्रयो विकल्याम्तव ममधाऽमी स्यान्छद- के बिना बन नही मकता और न कहला मकता है, उसी नेया:मक्लेऽर्थमंद" दम वाक्यक अनमार संपूर्ण वस्तुभदाम प्रकार विधि-निषेधकी और मरव्य-गौणकी यह मारी व्यवस्था 'स्यान' शब्द ही इन मान। मंगा अथवा नविशंपाका मापेक्ष है--मापेक्षनयवादका विषय है। और इमलियं जो नेता, ग्रामीम वर माती नली पर अंकित किया गया निरपेक्षनयवाद का अाश्रय लेती है और वस्तुत्वका सर्वथा है। 'म्यान' श-द कथाचत अर्थका वाचक, मर्वथा-नियका एकरूपमे प्रतिपादन करती है वह जनी नीति अथवा मम्यक त्यागी यार यथाइएकी अपेक्षा रखने वाला है। नीति न होकर मिथ्या नीति है। उनके द्वारा वस्तुतत्वका मभ्यग्ग्रहण और प्रतिपादन नहीं हो मकता । अस्तु । टमकं मिवाय, गापीक 'उभयदृष्टि' तथा 'अनुभयदृष्टि' । नामांक. माथम क्रमश: 'क्रमापिता' और 'महापिता' विशेषण जनी नीतिका ऐमा स्वरूप होनस चित्रम उसके लिये लगाकर यह सूचित किया गया है कि उभयदृष्टि विधि-निपंध जो अनेकान्तात्मिका, गुण-मुग्ख्यकल्या, स्याद्वादरूपिणी, म्प दांना तत्त्वाको मुग्व्य-गाग करके क्रमश: अपनाती है: मापेक्षवादिनी, विविधनयापेक्षा, मप्तभंगरूपा, सम्यग्वस्तुग्रा और अनुभयहाट 'मदार्पिता होने किमीको भी मुख्य गौण हिका और यथातत्त्वप्ररूपिका ऐम अाठ विशेषण दिये गये नहीं करती और वचनम विधि-निषेधको युगपत प्रतिपादन हैं व मब बिल्कुल मार्थक और उनके म्बम्पके मंद्योतक हैं। कग्नेकी शक्ति नी, इमम वह किमीको भी नहीं अपनाती--- इनममे पिछले दो विशेषण इस बातको प्रकट करते हैं कि मयानीकी रस्मीक दोनो मिराको ममानरूपमे दोनो हाथोमे वस्तु अथवा वस्तुतत्त्वका मम्यग्रहण और प्रतिपादन हमी थामे हा मंचालन-क्रिया में हिन होकर स्थित है-और नीतिक द्वारा होती है। हम नीतिका विशेष विकमित स्वरूप इमलिये उमका विषय 'अवक्तव्य' रूप है। आगे के तीनों पाठकोको 'ममन्तभद्र-विचारमाला' के लेग्वाम देग्वनको मंयोगी (मिश्र) भंगाम भी 'उभय' और 'अनुभय' का यही मिलेगा, जो हमी विशेषाङ्कम प्रारम्भ की गई है। Page #11 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ इम प्रकार जैनी नीतिके इम चित्रमें जैनधर्मकी सारी फेरकर उन्हें नगण्य बना दिया है !! जैनियोको फिरसे अपने फिलोसोफीका मूलाधार चित्रित है । जैनी नीतिका ही दुम्रा इम आराध्य देवनाका स्मरण कराते हुए उनके जीवन में इस नाम 'अनेकान्तनोनि' है और उसे 'स्याद्वादनीति' भी कहते हैं। सन्नीतिकी प्राणप्रतिष्ठा कराने और संसारको भी इस नीति यह नीति अपने स्वरूपसे ही मौम्य, उदार. शान्तिप्रिय. विरोध का परिचय देने तथा इसकी उपयोगिता बतलानेके लिये ही का मथन करने वाली वस्तुतत्त्व की प्रकाशक और सिद्धि इस बार अनेकान्त पत्रने अपने मुखप्रष्ठ पर 'जैनी नीति' का की दाता है । ग्वेद है, जैनियोने अपने इस आराध्य देवताको यह सुन्दर भावपूर्ण चित्र धारण किया है। लोकको इससे बिल्कुल भुला दिया है और वे आज एकान्त नीतिक अनन्य मत्प्रेरणा मिले और यह उसके हितसाधन में सहायक होवे, उपासक बने हुए हैं ! उसीका परिणाम उनका मौजदा ऐसी शुभ भावना है। मर्वतोमरवी पतन है, जिमने उनकी मारी विशेषताअोपर पानी मम्पादक अनेकान्तके सहायक जिन सज्जनाने अनेकान्तकी ठाम मेवाओं के प्रति अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, उसे घाटेकी चिन्सासे मुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्य प्रगति करने और अधिकाधिकरूपस समाजसेवामें अग्रसर हानक लिय सहायताका वचन दिया है और इस प्रकार अनेकान्तकी सहायकश्रेणीम अपना नाम लिग्वाकर अनेरान्तके संचालकों को प्रोत्साहित किया है उनके शुभ नाम महायताकी रकम - महित इस प्रकार हैं: ५२५) बा० छोटेलालजी जैन गईम, कलकत्ता । १०१) बा० अजितप्रस दर्जा जैन, एडवोकेट, लग्वनऊ । १००) साहू श्रेयांमप्रमादजी जैन, लाहौर । १००) माह शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर । १००) ला० तनसुम्बगयजी जैन, न्यू देहली। १००) बा० लालचन्दजी जैन, एडवोकेट, रोहतक । १००) बा० जयभगवानजी वकील और उनकी मार्फत, पानीपत । ५०) ला० दलीपसिंहजी काग़जी और उनकी मार्फत, देहली। २५) पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई ।। २५) ला० रूड़ामल जी जैन, शामियाने वाले सहा नपुर । आशा है अनेकान्तके प्रेमी दूसरे सज्जन भी आपका अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायकस्कीमको सफल बनानमें अपना पूरा सहयोग प्रदान करके यशक भागी बनेंगे। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीरसंवामन्दिर, सरसावा Page #12 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र - विचारमाला [सम्पादकीय ] -- श्रीवर्द्धमानमभिनम्य समन्तभद्रं सद्बोध-चाम्चरिताऽनघवाक्स्वरूपम् । तच्छास्त्रवाक्यगतभद्रविचारमालां व्याख्यामि लोक-हित शान्ति विवेकवृद्धये ॥ १॥ मंगलपद्य के साथ मैंने जिस लेखमालाका प्रारम्भ किया है वह उन स्वामी समन्तभद्र के विचारोंकी उन्हींके शास्त्रोंपर से लिये हुए उनके सिद्धान्तसूत्रों, सूक्तों अथवा अभिमतोंकीव्याख्या होगी जो सद्बोधकी मूर्ति थे जिनके अन्तःकरण में देदीप्यमान किरणोंके साथ निर्मल ज्ञान-सूर्य स्फुरायमान था —, सुन्दर सदाचार अथवा चारित्र ही जिनका एक भूषण था, और जिनका वचनकलाप सदा ही निष्पाप तथा बाधारहित था; और इसीलिये जो लोक में श्रीवर्द्धमान थे - बाह्याभ्यन्तर लक्ष्मी वृद्धिको प्राप्त थे और आज भी जिनके वचनोका सिक्का बड़े बड़े विद्वानों के हृदयोंपर अंकित है * । इ सुग्व वास्तव में स्वामी समन्तभद्रकी कुछ भी वचन प्रवृत्ति होती थी वह सब लोककी हिनकामना - लोक में विवेककी जाति, शान्तिकी स्थापना और वृद्धि की शुभभावनाका लिये हुए होती थी । यह व्याख्या भी उसी उद्देश्यका लेकर - लोकमे हितकी. विवेककी और सुग्वशान्तिकी एकमात्र वृद्धिके लिये - लिखी जाती है । अथवा यो कहिये कि जगनका * स्वामी ममन्तभद्रका विशेष परिचय पानेके लिये देखो, लेखकका लिखा हुआ 'स्वामी समन्तभद्र' इतिहास | स्वामीजी के विचारोंका परिचय कराने और उनसे यथेष्ट लाभ उठानेका अवसर देनेके लिये ही यह सब कुछ प्रयत्न किया जाता | मैं इस प्रयत्न में कहाँतक सफल हो सकूँगा, यह कुछ भी नहीं कहा जा सकता । स्वामीजी का पवित्र ध्यान, चिन्तन और आगधन ही मेरे लिये एक आधार होगा- - प्रायः व ही इस विषय में मेरे मुख्य सहायक - मददगार अथवा पथप्रदर्शक होंगे। यह मैं जानता हूँ कि भगवान समन्तभद्रस्वामी के वचनोंका पूरा रहस्य समझने और उनके विचारोंका पूरा माहात्म्य प्रकट करनेके लिये व्यक्तित्व रूपसे मैं असमर्थ हूं, फिर भी अशेष माहात्म्यमनीग्यन्नपि शिवाय संस्पर्शमिवामृताम्बुधेः "'श्रमृत समुद्र के अशेषमाहात्म्यको न जानते और न कथन करते हुए भी उसका संस्पर्श कल्याणकारक होता है' स्वामीजीकी इस सूक्तिके अनुसार ही मैंन यह सब प्रयत्न किया है । आशा है मेरी यह व्याख्या आचार्य महादयके विचारों और उनके वचनोंके पूरे माहात्म्य को प्रकट न करती हुई भी लोकके लिये कल्याणरूप होगी और इसे स्वामीजीके विचाररूप श्रमृतसमुद्रका केवल संम्पर्श ही समझा जायगा । मेरे लिये यह बड़ी ही प्रसन्नताका विषय होगा, Page #13 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ यदि ब्याख्यामें होने वाली किसी भी त्रुटि अथवा धंधा छोड़ बैठता है-कुटुम्बकं प्रति अपनी जिम्मभूलका स्पष्टीकरण करते हुए विद्वान भाई मुझे सद्भाव- दारीको भुलाकर आजीविकाके लिये कोई पुरुषार्थ पूर्वक उससे सूचित करनेकी कृपा करेंगे। इससे भूल नहीं करता; और इस तरह अपनेको चिन्ताओंमें का संशोधन हो मकेगा और क्रमदेकर पुस्तकाकार डालकर दुःखित रखता है और अपने आश्रितजनोंछपाने के समय यह लेखमाला और भी अधिक उप- बालबच्चों आदिको भी, उनकी आवश्यकताएँ पूरी न योगी बनाई जा सकेगी। साथ ही, जो विद्वान् न करके, कष्ट पहुंचाता है। महानुभाव स्वामीजीक किसी भी विचारपर कोई ४ स्वपग्वैरी वह है जो हिंसा, झूठ, चोरी, अच्छी व्याख्या लिखकर भेजनेकी कृपा करेंगे उस कुशीलादि दुष्कर्म करता है; क्योंकि ऐसे आचरणांक भी, उन्हीके नामस, इस लेखमालामें सहर्ष स्थान द्वारा वह दूसरोंको ही कष्ट तथा हानि नहीं पहुँचाता दिया जा सकेगा। बल्कि अपने प्रात्माका भी पतित करता है और पापोंस बाँधता है, जिनका दुखदाई अशुभ फल उसे इमी जन्म अथवा अगले जन्ममें भागना पड़ता है। स्व-पर-वैरी कौन? इसी तरहके और भी बहुतसे उदाहरण दिये जा म्व-पर-वैरी-अपना और दूसरोंका शत्र सकते हैं। परन्तु स्वामी समन्तभद्र इस प्रश्नपर एक कौन ? इस प्रश्नका उत्तर संसारमें अनेक प्रकारस दुसरे ही ढंगम विचार करते हैं और वह ऐमा दिया जाता है और दिया जा सकता है । उदाहरणकं व्यापक विचार है जिसमें दूसरे सब विचार समा लिय जाते हैं। आपकी दृष्टिम व मी जन स्व-पर-वैरी हैं १ म्वपरवैरी वह है जो अपने बालकोंका शिक्षा जा एक जा 'एकान्तप्रहरक्त' हैं (एकान्तग्रहरक्ताः स्वपग्वैरिणः)। नहीं देता, जिससे उनका जीवन खराब होता है. और अर्थात् जो लोग एकान्तके ग्रहणमें आमक्त हैंउनके जीवनकी खराबीसे उसको भी टाकी सर्वथा एकान्तपक्षक पक्षपाती अथवा उपासक हैउठाना पड़ता है, अपमान-तिरस्कार भोगना पड़ता है। और अनकान्तका नहीं मानते-वस्तुमे अनेक गुणऔर सत्संतनिक लाभोंसे भी वंचित रहना होता है। 4 ॐ धर्मों के होते हुए भी उस एक ही गुणधर्मरूप अंगीकार २ स्वपरवैरी वह है जो अपने बच्चोंकी छोटी उम्र करते हैं वे अपने और परकं वैग हैं। आपका यह में शादी करता है, जिसमे उनकी शिक्षामें बाधा पड़ती विचार देवागमकी निम्नकारिकाके 'एकान्तग्रहरक्तेषु' है और वे मदा ही दुर्बल, गंगी तथा पुरुषार्थहीन- 'म्वपरवैरिपु' इन दा पदोंपरसे उपलब्ध होता हैउत्माहविहीन बने रहते हैं अथवा अकालमें ही कालके ____ कुशलाऽकुशल कर्म पग्लोकश्च न क्वचित । गालमें चले जाते हैं। और उनकी इन अवस्थाओंसे एकान्तग्रहरक्तेषु नाथ स्वपग्वैरिषु ॥८॥ उसको भी बराबर दुःख-कष्ट भोगना पड़ता है। इस कारिकामें इतना और भी बतलाया गया है ३ स्वपरवैरी वह है जो धनका ठीक साधन पासमें कि ऐसी एकान्त मान्यतावाले व्यक्तियोंमेंस किसीके न होनेपर भी प्रमादादिकं वशीभूत हुआ गंजगार- यहां भी किसीकेभी मतमें शुभअशुभकर्मकी, Page #14 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समन्तभद्र-विचारमाला अन्य जन्मकी और 'चकार' से इस जन्मकी, कर्मफल 'सम्पूर्ण पदार्थतत्वोको अपना विषय करने वाला की तथा बन्ध-मोक्षादिककी कोई व्यवस्था नहीं बन स्याद्वादरूपी पुण्यादधितीर्थ' लिखा है। इस लिये सकती। और यह सब इसकारिकाका सामान्य अर्थ मेरे जैसे अल्पज्ञोद्वारा समन्तभद्रके विचारोंकी है। विशेष अर्थकी दृष्टि से इसमें सांकेतिकरूपसे यह व्य ख्या उनका स्पर्श करनेके सिवाय और क्या हो भी मंनिहित है कि एस एकान्त-पक्षपातीजन स्वपर- सकती है ? इसीसे मेरा यह प्रयत्न भी साधारण वैग कैस हैं और क्योंकर उनके शुभाशुभकमों, लोक- पाठकोके लिये है-विशेषज्ञोक लिये नहीं । अन्तु; इस परलोक तथा बन्ध-मोक्षादिकी व्यवस्था नहीं बन प्रासंगिक निवेदनके बाद अब मै पुनः प्रकृत विषयपर सकती। इस अर्थको अष्टसहस्री-जैसे टीका प्रन्थोमे आता हूँ और उसका संक्षेपमे ही साधारण जनताके कुछ विस्तारकं साथ खोला गया है। बाकी एकान्त- लिये कुछ स्पष्ट करदेना चाहता हूं। वादियोंकी मुख्य मुख्य कोटयोंका वर्णन करते हुए वान्तवमे प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसमें उनके सिद्धान्तोका दृपित ठहराकर उन्हें स्वपरवैरी अनेक अन्न-धर्म-गुण-स्वभाव-अंग अथवा अंश हैं। सिद्ध करने और अनकान्तको स्वपर हितकारी सम्यक जो मनुष्य किसी भी वस्तुको एक तरफम देखता हैसिद्ध न्तक रूपमै प्रतिष्ठित करनेका कार्य वयं स्वामी उसके एक ही अन्त-धर्म अथवा गुण-स्वभाव पर मम तभद्रने ग्रन्थी अगली कारिकाओंमे सूत्ररूपम दृष्टि डालता है-वह उमका सम्यग्दृष्टा (उसे ठीक किया है । ग्रन्थकी कुल कारिकाएँ ( श्लोक ) ११४ है, तोर में देखन-पहिचानन वाला) नहीं कहला सकता। जिनपर श्री अक्लंकदेवने "प्रशती' नामकी श्राठमो सम्यग्दृष्टा होनके लिये उस उम वस्तका सब पोरम श्लोक-जितनी वृत्ति लिखी है, जो वहन ही गूढ सत्रों में दग्वना चाहिये और उसके सब अन्ती, अंगो-धर्मों है; और फिर इस वृत्तिको माथमे लेकर श्री विद्या- अथवा स्वभावोपर नजर डालनी चहिये । सिक्के नन्दाचार्यन 'अष्टमहमी' टीका लिखी है, जो पाठ एक ही मुखको देखकर सिक्कका निर्णय करने वाला हजार श्लोक-परिमाण है और जिमम मलग्रन्थक उम सिकेमा दृमरे मुग्वम पड़ा देखकर वह सिक्का आशयका ग्वालनका भारी प्रयत्न किया गया है। यह नहीं समझता और इम लिये धाग्वा ग्वाता है। इसीम अष्टसहस्री भी बहुत कठिन है, इसके कठिन पदोका अनकान्तदृष्टिका मम्यग्दष्टि और एकान्नदृष्टिका समझनके लिये इसपर आठ हजार श्लोक जितना मिथ्यारष्टि कहा है । एक संस्कृत टिप्पण भी बना हुआ है। फिर भी अपने जो मनुष्य किसी वस्तुकं एक ही अन्त-अंग धर्म विषयको पूरी तौरस समझनके लिये यह अभीतक अथवा गुग्णस्वभावका देवकर उम उस ही स्वरूप 'कष्टसहस्री' ही बनी हुई है। और शायद यही वजह मानता है-दृमर रूप म्वीकार नहीं करता-और है कि इसका अबतक हिन्दी अनुवाद नहीं हां मका। इस तरह अपनी एकान्त धारणा बना लेता है और ऐमी हालतमें पाठक समझ सकते हैं कि म्यामी अनेकान्तामहिम्न मती शन्यो विपर्ययः । ममन्तभद्रका मूल 'देवागम' प्रन्थ कितना अधिक नत: मर्वमपोक्तं म्यानदयुक्तं म्वधानतः ।। अर्थगौरवको लिये हुए है। अकलंकदवन तो उम -स्वयम्भूस्तोत्र, समन्तभद्रः । Page #15 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष २ अक्रमकी व्यवस्था कैम बन सकती है अर्थात मुक्त होना चाहते हैं तो वे अपने इस इष्टको अनकान्त द्रव्यके अभावमें जिमप्रकार गुणपर्यायकी और का विरोध कर के बाधा पहुंचाते हैं, और इस तरह भी वृत्तकं अभाव में शीशीम, जामन, नीम अाम्रा दकी अपनको म्व-पर-वैरी सिद्ध करते हैं । काइ व्यवस्था नहीं बन मकती उसी प्रकार अनेकान्त वस्तुनः अनकान्न, भाव-अभाव, नित्य-अनित्य, के अभावमें क्रम-अक्रमकी भी व्यवस्था नहीं बन भेद-अभेद आदि एकान्तनयोंके विरोधको मिटाकर, मकती । क्रम-अक्रमकी व्यवस्था न बननस अर्थक्रिया- वस्तुतत्त्वकी मम्यग्वम्था करने वाला है; इमीमें लोकका निषेध हो जाता है; क्यों,क अर्थक्रियाकी क्रम- व्यवहारका मम्यक प्रवर्तक है-बिना अनेकान्तका अक्रमके माथ व्याप्ति है। और अर्थक्रियाक अभाव आश्रय लिय लोकका व्यवहार ठीक बनता ही नहीं, में कर्मादिक नहीं बन सकत-कर्मादिकको अर्थक्रिया और न परम्परका वैर-विरोध ही मिट सकता है। के माथ व्याप्ति है। जब शुभ-अशुभकर्म ही नहीं बन इसीलिय अनेकान्तको परमागमका बीज और लोक मकते तब उनका फल सुख-दुग्य, फलभोगका क्षेत्र का अद्वितीय गुरु कहा गया है-वह मबांके लिये जन्म-जन्मान्तर (लाक-परलोक) और कर्मों में बँधनं सन्मार्ग प्रदर्शक है * । जैनी नीनिका भी वही मूलातथा छूटनकी बान ता कैसे बन मकती है ? मागंश धार है। जो लोग अनकान्तका आश्रय लेते हैं वे यह कि अनकान्तकं आश्रय बिना ये मब शुभाशुभ कभी म्व-पर-वैरी नही हात, उनमें पाप नहीं बनने, कर्मादिक निगश्रित होजाते हैं, और इमलिय मर्वथा उन्हें आपदाएँ नहीं मनाती. और व लोकमे मदा ही नित्यादि एकान्त वादियोंके मनमें इनकी काई ठीक उन्नत, उदार तथा जयशील बने रहते हैं। व्यवस्था नहीं बन मकी। वे यदि इन्हें मानते हैं वीरसवामन्दिर, मग्मावा, वीरसवामन्दिर, मम्मावा, ता०५५१९४१ और तपश्चरणादि अनुष्ठान-द्वाग मत्कर्मोंका अर्जन * नौनि-विरोध-ध्वमी लोकव्यवहारवर्तकः मम्यक् । करके उनका मत्फल लेना चाहते हैं अथवा कमोम परमागमम्य बीजं भवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्त ॥ अावश्यकता वीरमेवामन्दिरको 'जैनलक्षणावली' के हिन्दीमार तथा अनुवाद और प्रेमकापी अादि कार्यों के लिये दोएक रोग विद्वानोंकी शीघ्र आवश्यकता है जो संवाभावी हों और अपने कार्यको मुस्तैदी तथा प्रामाणिकताके साथ करने वाले हों। वेतन योग्यतानुसार दीजाण्गी । जो सज्जन श्राना चाहं वे अपनी योग्यता और कृतकार्यके परिचयादिसहित नीचे लिखे पते पर शीघ्र पत्रव्यवहार करें, और साथ ही यह स्पष्ट लिखनकी कृपा करें कि वे कमसे कम किम वेतन पर प्रामकेंगे, जिससे चुनाव में सुविधा रहे और अधिक पत्रव्यवहारकी नौबत न आए। जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाना 'वीम्मेवामन्दिर' मग्मावा जि महारनपुर Page #16 -------------------------------------------------------------------------- Page #17 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्न 1 the स्व० श्रीमती मगाबाई जैन (मप बलज जन लात्ता ) ====== Page #18 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक आदर्श जैन महिलाका वियोग ! [सम्पादकीय ] पाठक जिम महिला-रनका मोम्य चित्र अपने सामने को अमर कर गई है। इसीम अनेकान्तक कालमा में प्राज अवलोकन कर रहे हैं वह आज अपने इस भौतिक शरीरमें इसकी चर्चा है। __चित्र परसे पाठकोको इतना जानने में तो देर नहीं लगेगी विद्यमान नहीं है--कई महीन हुए वह हम नश्वर शरीरको जीर्ण-शीर्ण होता देग्वकर बड़े ही निर्ममलभावम छोडगई है---- कि इस देवीका नाम श्रीमती 'म गाबाई' था और यह कल कत्ताके सुप्रसिद्ध धनिक व्यापारी बाबू छोटलालजी जैनकी छोडनके बाद इसका कही पता भी नहीं रहा ! कोई भी नही धर्मपत्नी थी-य दोनही बात चित्रक नीचे अंकित हैं। हम् रग्व नहीं मका !! और यह अन्तको मांक देखतं देखतं माथ ही, देवीजीक चहरंकी मारल्य-सूचक ग्वानों और शरीर शून्यमे विलीन होगया ! हां. विलीन होतं समय मोही के वेष-भूषा परमं कुछ अंशोंमें यह भी समझ सकंग कि यह जीवीको इन पाट जरूर पढा गया कि जिप शरीरको अागमा देवी सरल म्वभावकी, निष्कपट व्यवहारकी एवं भोली-भाली समझा जाता है. अपना जानकर नथा स्थिर मानकर जिस पर प्रकृतिकी महिला थी और हम बहुत कुछ मादा जीवन पसंद था। अनुगग किया जाता है वह अपन, नहीं पर है, स्थिर नहीं नश्वर इसम अधिक लिय चित्र एकदम मौन है-जीवनकी विशेष है, अामा नहीं मिट्टीका पुतला है ---पानीका बुलबुला है, घटना तथा व्यक्तिकं गुणविशेषांका उममं कोई परिचय नहीं बिजलाकी चमक है, तीव्र पवनम प्रताडित हुश्रा मेघपटल है मिलता और इसलिय स्वभावसे ही यह जिज्ञासा उत्पन्न होती है अथवा पर्वतक शिविरपर झंझावातके समक्ष स्थित दीपकके कि देवीजीका विशेष परिचय क्या है ? उनका जीवन के मेन्यसमान है. अपन। उभपर को विशेष अधिकार नहीं; और इस नीत हा ? उसमें उन्होंने क्या क्या प्रादर्श उपस्थिन किया? लिये वह अनुरागका पात्र नहीं, प्रेमकी वस्तु नहीं: उम्म और अन्तको वे ऐसा कोनमा म्मरणीय कार्य कर गई हैं जिस ग्रा-मा समझना, अपना जानना नथा स्थिर मान्ना भ्रम था म मरकर भी अमर होगई हैं? इन सब बातोंका उत्तर पाठको मोहका विलाम था और काग बहिगमन्व था। उसका निधन को देवाजीकी निम्न जीवनीम मिलेगा जो विश्वस्तसूत्रम प्राप्त प्रकृतिक नियमानुसार अथवा 'मरणं प्रकृति: शरिणाम्' इस हई घटनाओं तथा मुहांक आधार पर मंक्षेपमें मंकलित की धर्मधीपणाकं अनुम्मार हुया है। अतः शोक व्यर्थ है । प्रस्तु: गई:-- यह देवी हम वियुक्त होकर इस समय अपने यशः शरीरमें पितृगृह और श्वशरगृह स्थित है और हमारे पास इसकी कंवल स्मृति स्मृति ही इनका कल स्टार स्मृति हा श्रीमती में गाबाइका जन्म अग्रवाल शिम, विहार प्रान्त श्रीमती मगाबाई अवशिष्ट है । यों तो सम्माग्में अनेक प्राणी जन्म लेते हैं और के बढेया नामके नगरमें हुआ था । अापकं पिता मंठ ग्वतमी मर जाने हैं-कोई जानना भी नहीं परन्तु जन्म लेना उन्हीं दामजी अग्रवाल ( कलकत्ताकी मप्रसिद्ध फर्म 'मेट नोपचन्द का सफल है, वे ही जीवित रहने हैं और वे ही म्मरण कियं मंगनीराम' के मालिक । वहांक अग्रगण्य ग्यवमायी और जाते हैं, जो कोई चिरम्मरणीय कार्य कर जाते हैं। यह देवी ज़मींदार थे, जिनका परिवार बहुन बढ़ा था--इस समय भी भी ऐसी ही कुछ स्मृति छोड़ गई है और मर कर भी अपने उसकी जननांग्या मवामी या इंदसौमे कम नहीं है। भाई Page #19 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ बहनोंमें आप सबसे छोटी और माताकी लाइली पुत्री थीं। यह सब आपका दैनिक कार्य था। अष्टमी, चतुर्दशीको बाल्यावस्थामे ही सीधे, सरल और कोमल स्वभावकी होनेके उपवास रखना, पर्युषणादि दूसरे पर्वदिनों में प्रकाशन करना, कारण सभी परिजन आपमे बड़ा स्नेह रखते थे और आपको रात्रिमें भोजन नहीं करना और नीर्थवन्दना आदि धार्मिक बड़ी श्रादरकी दृष्टिमे देवितं थे। पितृगृहमें आपको सब सुग्व- क्रियाका अनुष्टान आप बड़े प्रेम माथ करती थीं । कई मामग्री सुलभ थी--कोई बानकी कमी नहीं थी--और आप बड़े बड़े वनोंका अनुष्ठान भी प्रापन किया, जो अनेक वर्षांम अच्छे लाइप्याग्में पली थीं। पूरे हुए, व्रतोंकी पूर्तपर उनका उद्यापन भी किया। उद्यापन अापका विवाह संस्कार कलकत्ता दिगम्बर जैन के समय गिनतीक कुछ उपकरणोंको ज़रूरत न होनेपर भी समाजके सुप्रसिद्ध मठ रामजीवनदाम सरावगीके पांच पुत्र रूढिक तौरपर मन्दिरजीमें चढ़ाना आपको इष्ट नहीं था, इस बाबू छोटलालजी के माथ हुआ था। ममुरालका परिवार भी लिय श्राप अपनं संकल्पितको आवश्यक कार्यों में लगा श्रापको बहुत बड़ा प्राप्त हुआ। यहां भी आपको अपने गुणों देती थीं और जहां उपकरणों का अभाव देखती थीं वहां ही के कारण यथेष्ट अादर-सत्कार मिला और किमी बानकी कोई उन्हें देती थीं। अापकी यह मनःपरिणति उपयोगितावादको कमी नहीं रही । यद्यपि अापके कोई संतान नहीं हुई, फिर दृष्टिमें रग्वन वाले विवेकको सूचित करती थी। भी श्राप मासकी सब बहुप्रोम लाडली बह बनी हुई थीं अापका प्राचार-विचार, श्राहार-विहार और रहन-सहन मासको आपस इतना अधिक प्रेम था कि उसे अपने मन्की अन्य महिलाअाम बहुत कुछ भिन्न था। ग्वानपान, वस्त्राभूषण दो बात इस बह कहे विना कभी चैन ही नहीं पड़ती थी। राग-रंग प्रादि किसी भी इन्द्रियविषयमें श्रापकी लालमा श्रापने मतानके प्रभाव पर कभी भी दव अथवा ग्वेद प्रकट नहीं थी। समयपर जैसा भोजन मिल जाता उमाम मन्तोष नहीं किया और पापका हृदय इतना उदार एवं विशाल था माननी, बस्त्राभूषण के लिये कोई खास श्राग्रह करनं हा कभी कि उसमें प्रदेवमकाभावका नाम नहीं था। श्राप जेठ किसी ने नहीं देग्वा. विलासितामं श्राप कोसों दूर रहती थीं। देवरोंकी मंतान को अपनी ही मतान समझती थीं और उसी बाग़-बगीचों, ग्वेल-तमाशी, सिनेमा-थियटरों में जाना भी आप दृष्टिपे उनके बालक का लालन-पोषण तथा प्रेमालिंगन किया को पसन्द नहीं था-पसन्द था आपको मादक साथ करती थीं। इसीसे वे बालक भी श्रापमं बहुत अधिक संतुष्ट जीवन व्यतीत करना और अपने धार्मिकादि कर्तव्योंक पालन रहतं और प्रेम रखते थे। परिवारके सभी जन प्रापस खुश थे। की ओर मदा मावधान रहना। इसीस श्राप प्रायः घरपर धर्मसंस्कार और आचार-विचार रहकर ही सन्तुष्ट रहती और प्रानन्द मानती थी। आपका बाल्यावस्थामै अापक धर्मसंस्कार कुछ ही क्यों न रहे हो, परन्तु श्वशुरगृह मुसराल) में अातं ही जैनधर्मक प्रति हृदय बड़ा ही सरल, दयालु, नम्र और उदार था। छल कपट, मिथ्याभाषण और विश्वासघात में पाप आपक श्रापका गाढ अनुराग होगया, यहांक धार्मिक वातावरण श्राप बहुत प्रभावित हुई और पूर्णरूपम जैनधर्मका पालन पाम तक नहीं फटकते थ। क्रोध करना, कठोर वचन बोलना करने लगी। नित्य श्रीनमन्दिरको जाना, वहां जिनप्रतिमा और दूसरोंको दोष देना, यह सब आपकी प्रकृतिमें ही नहीं सम्मुख स्थित होकर भक्तिभावमै स्तुतिपाठ पढ़ना--दर्शन था। जिसका पालन-पोषण विशष लाड-प्यारमें हरा हो पूजन करना, शास्त्र सुनना, दोनों वक्त सामायिक करना, उसके लिये थाम भी अप्रिय शब्द क्रोध उत्पन्न कर सकने तत्वार्थमूत्र तथा भक्तामरादि अनेक स्तोत्रोंका पाठ करते रहना हैं, परन्तु हृदयमें घाव कर देने वाले कठोरम कठोर शब्दोंको Page #20 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] आदर्श जैनमहिलाका वियोग सनकर भी आप कभी किमी पर क्रोध नहीं करती थीं । सदा को कष्ट पहुंचे। आप स्वयं कष्टमें रहना पसन्द करतीं परन्तु ही हसमुख तथा प्रसन्नवदन रहती थीं, और इससे आपकी पतिको कष्ट देना नहीं चाहती थीं। चित्तशुद्धि एवं हृदयकी विशालता स्पष्ट जान पड़ती थी। गृहकार्यों में योगदान और अतिथिसेवा यद्यपि आप पढ़ी लिग्वी बहुत कम थीं, परन्तु विवेककी पतिकी सेवा-शुश्रूषाके अतिरिक्त गृहशोधन, रन्धन आपमें कोई कमी नहीं थी। और यह इस विवेकका हो और अतिथिसेवादि-जैसे गृहकार्यों में भी पाप सदा ही पूरा परिणाम है जो इतने बड़े कदम्बके छोटे बड़े सभी जन श्राप पर प्रसन्न थे--२५ वर्षके गृहस्थ जीवन में आपका अपनी योगदान करती थीं । श्रीमानकी पुत्री और श्रीमान्मे विवादम देवगनियों-जिठानियों और दो ननदोंके साथ कभी कोई हित हूं, इस अभिमानमे आपने कभी भी इन गृहस्थोचित मन-मुटाव या लड़ाई-झगड़ा नहीं हुआ। कुटुम्बी जनोंमें मांसारिक कार्योको तुच्छ नहीं समझा। अतिथि-मेवामें प्राप परस्पर किसी भी प्रकारका कोई कलह, विसंवाद या मन बहुत दक्ष थीं और उसे करके बड़ा प्रानन्द मानती थीं। मुटाव न होजाय, इसके लिये आप अपने पतिको भी सदा आपके पति बाबू छोटेलालजीका प्रेम भारतके प्रायः सभी मावधान रखती थीं। और आपके इस विवेकका सबसे बड़ा प्रान्तोक अनेक जेन अजेन बन्धुनोंसे होनेके कारण आपके घर परिचायक तो आपका धर्माचरण एवं सदाचार है जो उत्तरो- पर अतिथियोंकी-मेहमानोंकी--कोई कमी नहीं रहती थी तर बढना ही गया और अन्तमें अपनी चरम सीमाको बारहों महीने कुछ न कुछ अतिथि बने ही रहते थे, और उनके अातिथ्य-सम्बन्धी कुल इन्जामका भार आप पर ही रहता पहुँच गया। था। जिन लोगोंने आपका आतिथ्य स्वीकार किया है वे पनिभक्ति और आज्ञापालन आपके सत्कार और प्रात्मीयताकं भावोंमे भले प्रकार पनि भक्ति प्रापमें कूट कूटकर भरी हुई थी। हिन्दुधर्म परिचित हैं। की पाख्यानांक अनुसार श्राप पतिव्रतधर्मका पूरी तरहम जीवनकी इन सब बातों, प्राचार-विचारों एवं प्रवृत्तियों पालन करनी थीं—पनिको हर्षित देग्वकर हर्षित रहतीं, से स्पष्ट है कि आप एक महिलारत्न ही नहीं, किन्तु आदर्श दग्विनमन देखकर दुःग्व माननीं और यदि वे कुपित होने जैनमहिला थीं । अब आपके अन्तिम जीवनकी भी दो तो आप मृदुमाषिणी बनजाती तथा बैंकसूर होते हुए भी बात लीजिये। समा-याचना कर लेतीं। पतिकी प्राजा अापके लिये सर्वोपरि थी, पाप बड़े ही प्रेम तथा प्रादरकं साथ उपका पालन करती थीं और पतिकी आज्ञाका उल्लंघन करकं कोई भी जीवन-लीलाकी ममाप्ति काम करना नहीं चाहती थीं। आज्ञापालन आपके जीवन- यों तो कुछ असे श्रापका स्वास्थ्य कुल्लू-न-कुछ खराब का प्रधान लक्ष्य था और पतिपर आपका अगाध प्रेम तथा रहने लगा था पर दिसम्बर सन १९३६ वह कुछ विशेष विश्वास था। इसीसे प्राप दिन-रात पनिकी सेवा-शुश्रूषामें ग्वराब हो गया था। चूंकि पतिका म्वास्थ्य कई वर्षसे लगी रहनी थीं और इस बातका बड़ा ध्यान रग्वनी थीं कि संतोषप्रद नहीं था, इससे अपनी तकलीफ़को पाप मामूली कोई ऐसी बात न की जाय और न कही जाय जिसमे पति बताती रहती और मामुली ही उपचार करती रहती थीं। करणाव Page #21 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष ४ अप्रेल मन १९४० में एक दिन पतिने कहा-'तुम्हारा स्वा- दुसरेमे अधिक अधिकार नहीं रखता । स्वयं ज्वरपीड़ित स्थ्य ठीक मालूम नहीं होना, जान पड़ता है तुम भले प्रकार अवस्था तकमें तुम मेरी मेवा करती रही हो--मैं तुम्हारे ऋण इलाज नहीं करवाती, क्या बात है ? तब आपने उत्तर दिया से किस प्रकार उऋण होऊंगा।' इस पर वह अपनी तुच्छता कि-वैधकी दवाई ना लेती ही हूं पर लाभ नहीं होरहा है।' प्रकट करती हुई अपने जीवनकी कई बातोंको दुहराते हुए इम पर पनिने कहा--'तो मुझमे कहा क्यों नहीं ?' तब श्राप कहने लगी कि-"मैंने तो आपका कुछ किया नहीं और न कहने लगी कि--'आपकी तबीयत ठीक नहीं रहती है, आप अपने कर्तव्य तक को ही पूरा किया है, उमपर भी अब श्राप का चित्त यों ही किमी परिजनकी बीमारीमे उद्विग्न हो उठता संमेवा करवाकर क्या 'पापन' बनू?" है और विशेष चिन्तित हो जाता है, एसी हालत में प्राप बीमारीमें जितना कष्ट आपको था उतना कष्ट यदि और को विशेष कष्ट कैसे देती ? मुझे तो ज्वर बना ही रहता है। किमीको होता तो न जाने परिजनोंकी कितनी आफत होती, इनना कहना था कि बाबू छोटेलालजी का मन घबरा उठा। पर आप बड़े ही धैर्य, संतोष एवं सहिष्णुताके साथ उग्म दूसरे ही दिन डाकठरी परीक्षा हुई और एक्सरमें यक्ष्मा महन करती रहती थीं और कभी भी किसी पर क्रोध प्रकट (थाइसिम) की आशंका होनेपर कलंजमें गैस भरनका इलाज नहीं करती थीं। पलंगपर पड़ी पड़ी भी निन्य भगवत भक्ति चालू किया गया । क्योंकि डाक्टरी दवाईका अापन म्याग कर में लीन रहती थीं । मृत्युम प्रायः १४१५ दिन पहले आपने रक्ग्वा था, उस ग्वाती नहीं थीं। डाक्टरीके बाद हकीमी, फिर समाधिमरण सुननेकी इच्छा प्रकट की। उसो दिनम अन्त तक कविराजी और पुनः डाक्टरी (इनजेकशन) का इलाज होता निन्य दोनों समय समाधिमरण का पाट मनती रही और उसके रहा, पर रोग कामं नहीं आया। प्रत्येक वाक्यका अर्थ समझती रहीं। एक दिन श्राप पतिसे कहने लगी कि-'मैं अच्छी तो पतिको यह विश्वास होचुका था कि गेग अमाध्य है. होनेकी नही व्यर्थ ही आपको कष्ट उठाना पड़ रहा है, इससे इससे अापके धार्मिक भावोंको बनाये रखनका पूर्ण प्रयत्न तो शीघ्र अन्त होजाय तो अछा हो।' यह कहतं हुए उसके होता रहा और धी धीर अापकी इच्छानुसार मब परिग्रहका अभ्यन्तरका दर्द दोनों नेत्रों में दीप्त हो उठा। पनिने कहा ध्याग और चार प्रकारके दानीका करवाना बद्दी मावधानीम 'देग्यो, तुमने कभी भी मेग्म कोई मेवा नहीं ली और जिस तथा मृत्यु के अनेक दिन पूर्व ही प्रारम्भ होचुका था। दिनम तुम मेरे पास प्राई हो मेरे लिय कष्ट ही कष्ट महती रही हो और अब भी जहां तक बनता है मुझम किसी प्रकार आप पनिसेक दिन कहने लगी कि--'मझ और की मेवा नहीं लती हो, तुम्हारी यह धारणा कि "भारतीय किसी बातकी चिन्ता नहीं है किन्तु आपकी तबियत अच्छी प्रियांका जन्म ही इमलिय होता है कि वे जीवनपर्यंत पतिकी नहीं रहती है और मैं सेवासे वंचित हूं, आपकी सेवा कौन मंबा करती रहे और काट होनेपर भी उनमे किसी प्रकारकी करेगा ?' पतिने कहा--'भगवान तुम्हारी रक्षा करें. मुझे संवा न करावे. पनि मेवा लनका अधिकार स्त्रियों को नहीं अब तुमसे कोई संवा नहीं चाहिये। मेरी मनोकामना यही है" अाज इनन कष्ट और अम्ममर्थनाकं समयमें भी जागृत है, है कि तुम भले ही पूर्ण अच्छी न होवो पर तुम किसी भी यह देखकर आश्चर्य होता है ! मैंने कितनी बार तुम्हें मम- प्रकार जीती रहो-मुझे इमीमें संतोष है। आजसे हम दोनों माया है कि पति-पत्नी दोनोंका परस्पर ममअधिकार है--एक मित्रताका-भाई बहनका--सम्बन्ध रक्वेग, भगवान तुम्हें Page #22 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आदर्श जैनमहिलाका वियोग किरण १ ] शीघ्र आरोग्य करें। पर- दुःखकातर, स्नेह-कोमल-नारीचित पनिके मनोभावका समझ गया-मुंहपर चंचल दबाकर उच्छति रुलाईको रोकने लगी, पर रोक न सकी और शेवडी ! तथा अन्यन्त अधीर भावसे अपने अभुक्तान्न मुखमण्डलको घूँघटसे छिपाकर चुप हो गई !! मृत्युके पहले दिन अपने पति कह दिया था कि-'मैं कल संध्या तक ख़तम होजाऊंगी । ' मृत्युके दिन बाबू छोटेलालजी से आपने बड़ी नम्रता और अनुनय-विनयके साथ कहा – “देखिये जी, श्रब मुझे आप और औषध और पथ्य न दे, मुझे तो केवल व पानी ही देते रहे और केवल यह दो माडियां और एक लुकाको छाका अवशिष्ट परिग्रह का त्याग करवा देवें ।" बा० छाटलालजी ने कहा- 'तुम्हारी जैसी इच्छा हो वही करो पर इतना कहना मेरा मानलो कि तीन माडियां दो सलूके और दो गमवली, बाकी सब परिग्रहका त्याग करदो कारण वर्षका समय है यदि कपड़ा न सूग्वा तो तुम नंगी पड़ी रहेगी। धरने स्वीकृति दे दी और औषधादि बन्द कर दिये गये । मृत्युकं एक घण्टा पहले ६० प्याग्लालजी ( भगतजी ) वहां श्रागये थे ( श्राप बीमारीमें कई बार श्रा श्राकर धर्मचर्चा श्रादि श्रवण कराते रहते थे और आपसे ही बीमारीमें समाधिमरण सुननेका प्रथम प्रस्ताव श्रीमतीजी ने किया था ) । उन्हें पहले भजन सुनाया फिर बडा समाधिमरण | आपने भगतजी से कई धार्मिक प्रश्न किये। उस दिन आपने जितनी बातें कीं और कहीं वे बडी ही मार्मिक थीं-- श्रापके उस दिनके शब्द पवित्र और उज्ज्वलहृदयकं श्रन्तस्तलके वाक्य ये आपको यह पूर्ण विश्वास होगया था कि अब मेरा होनेवाला है भगतजीमं पूछा कि "मुनि लोग किस प्रकार रहते हैं ? " भगतजीने कहा 'वे नग्न रहते हैं और ज़मीन 1 १५ पर सोते हैं।' फिर पूढ़ा 'तो स्त्रियां ?' उत्तर—खियां तो नग्न नहीं रह सकती' इन प्रभी आपका तात्पर्य यह था कि समाधिमरण की और सब बातें तो होचुकीं ये दो बातें और बाकी हैं सो भी किसी प्रकार पूरी हो जायँ। यह पहले ही बताया जाचुका है कि आप बिना आज्ञाके कुछ न करती धी अस्तु आप चाहती थी कि यदि भगतजी कह दे तो बा० छोटेलाल स्वीकार कर लेवेंगे। ता० १६ अगस्त सोमवार सन् १६४० को यद्यपि चाप की सर्वप्रकारकी वेदना बड़ी हुई थीं और श्वांस भी बढ रहा था तो भी आप विचलित न हुई और न मनको दुःखित किया । इसी घरवालोंको यह विश्वास न हुआ कि आप आज ही मिधार जायँगी । भगनजी बैठे हुए थे तब बा० छोटेलाल चन्द मिनटोंके लिये दूसरे कमरे में चले गये थे, लौटने पर उनसे कहा कि " अब आप मेरे पास बैठे रहें ।" इन शब्दों में बा० छोटेलालका हृदय कुछ विचलित हुआ पर उन्होंने अपनेको सम्हाल लिया । भगतजी चले गये थे; क्योंकि यह किमीको विश्वास नहीं था कि अब आप अपनी जीवनलीला समाप्त करना चाहती हैं। बस आपका श्वांस ast और दो तीन मिनटके अन्दर ही 'अरहंत-मिद्ध' का उच्चारण करतं तथा 'मोकार मंत्र सुनते हुए संध्या ६।४० पर-ठीक उसी समय जिसकी पिछले दिन भविष्यवाणी की थी— आप स्वर्ग सिधार गई !! और परिजनों को शोकसागर में निमग्न कराई !!! सर्वसम्पत्तिका दान स्वर्ग सिधारने पहिले श्राप अपनी सर्वसम्पतिको औषध, शास्त्र, अभय और श्राहार, इन चार प्रकारके दानों में अर्पण कर गई हैं। इस दानका संकल्प तो मृत्युके कोई एक मा पूर्व ही होगया था, पर मृत्युकं चार दिन पूर्व हद होना और बढ़ना हुआ मृत्युके दिन पूरी सावधानीकं साथ पूर्ण Page #23 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत [वर्ष४ हुआ। दानका परिमाण करीब २५ हजार रुपये का है, जिस कि वह सदविवेक जो दुःख-संतापकी अचूक औषध है आपके में दस हज़ार रुपये नकद और पंद्रह हजारकी मालियनका प्रामामें शीघ्र जागृत हो और आप उसके बलपर अपने आपका ज़बर शामिल है। पतिके तथा विशाल कुटुम्बके आमाको उत्तरोत्तर अधिक उन्नत बनाने और उसका पूर्ण मौजूद होते हुए अपने सारे स्त्रीधनको इस तरहसे दान कर उत्थान करनेमें समर्थ हो । जाना स्वर्गीया श्रीमतीकी भारी वीरता और गहरी धार्मिक जिम विवेकका परिचय आपने श्रीमतीजीकी धार्मिक भावनाका घोतक है. और इसके द्वारा आपने एक अच्छा भावनात्रोंको बनाये रखने और उनके समाधिमरण एदानकार्य आदर्श स्थापित किया है। में सब तरहसे सहायक होने में दिया उससे भी अधिक विवेक की आवश्यकता आपको इस समय अपनको संभालने और बाबू छाटलालजीने इस रकमके लिय जिस प्रकार म्वीया श्रीमतीजीसे परामर्श कर लिया था उसके अनुसार ही वे अपने अामाका उत्थान करनेके लिय है, और वह विवेक वस्तुउसका व्यय कर रहे हैं. जिन संस्थानोंको जो देना था वह स्वरूपके गंभीरचिन्तन तथा सत्संगतिके प्रतापसे सहज ही दे दिया गया है-कुछको भेजा जाचुका है और कुछको सिद्ध हो सकता है । प्राशा है वह अापका ज़रूर प्राप्त होगा। भेजा जारहा है। श्रीमतीजीके दान-द्रव्यम अापने वीरमवामन्दिरको. उस उपसंहार की ग्रन्थमालाके जिय, जो पाँच हजारकी रकम प्रदान की है, इसके लिये मैं और यह संस्था दोनों ही आपके बहुत प्राभारी मी सुशीला, धर्मप्राण, सेवापरायण और प्राज्ञावशवर्तिनी धर्मपन्नीक इम दुःसह वियोगस सुहृद्वर बाबू छोटे हैं। आपकी इस महायतामे 'जैनलक्षणावली' का काम जो लालजीकं हृदयको जो गहरी चोट लगी है और जो अपार कुछ समय सहयोगकै अभावमें बन्द पडा था वह अब तेजी दुःख तथा कष्ट पहँचा है उसका वर्णन कौन कर सकता है? से चलाया जायगा, और आपकी इच्छानुसार लक्षणावली में निःसन्देह अापके जीवनका एक जबर्दस्त सहारा ही टूट गया लक्षणोंका हिन्दी सार अथवा अनुवाद भी लगाया जाकर उस शीघ्र प्रकाशित किया जायगा। है और इमीस पापको संसार-यात्राके अन्तमें मदगत आत्माके लिये श्रद्धांजलि अर्पण करता समय अपना कोई सहायक तथा सहयोगी नज़र नहीं आता। हा मै यह दृढ भावना करता है कि श्रीमतीजीका सद्धर्म खूब इस अवसर पर मद्विवेक ही आपको धैर्य बंधा मकता है। फले और उन्हें परलोकमें यथेष्ट सुग्व-शान्तिकी प्राप्ति होवे । और वही आपको मार्ग दिखा सकता है। हार्दिक भावना है जुगलकिशार मुख्तार Page #24 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तत्त्वार्थसूत्रके बीजोंकी खोज (लेखक-५० परमानन्द जैन शास्त्री) 6666 तत्त्वार्थसूत्र जैनसमाजका एक प्रसिद्ध ग्रन्थ है, शिलालेखोंमें उमास्वाति नामकं साथ गृपिच्छाचार्य जो दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही सम्प्र- नामका भी स्पष्ट उल्लेख पाया जाता है और एक शिला दायोंमें थोड़े थोड़स पाठ-भेदकं साथ समान लेग्वमें उनके इस नामका उक्त कारण भी बतलाया रूपस माना जाना है । इसके कर्ता आचार्य उमा- है। इन शिलालेखोंमें उमाम्वातिको 'तदन्वये और म्वाति अपने ममयकं एक बहुत ही बड़े विद्वान हा 'तदीय वंश' जैसे पदोंके द्वारा श्री कुन्दकुन्दाचार्यका गये हैं, जिन्हें कुछ शिलालेखोंमें 'तात्कालिकाशेप- वंशज सूचित किया है और नन्दी संघकी पट्टापलिमें पदार्थवदी' और 'श्रतकवलिदेशीय' तक लिखा है। उन्हें कुन्दकुन्दका पट्टशिष्य लिखा है । इससे दिग मम्प्रदायमें आप 'उमाम्वामी' प्रकट रूपमें उमाम्वाति दिगम्बर और 'गृद्धपिच्छाचार्य' नामांस भी प्राचार्य जान पड़ते हैं। दिगम्बर प्रसिद्ध हैं। तत्त्वार्थसूत्रकी अधिकांश समाजमें श्रापक तत्त्वार्थसूत्र का प्रनियामं कर्ताविषयक जो एक प्रचार भी सबसे अधिक है और प्रशस्ति-पद्य लिग्वा मिलता है उसमें सबसे अधिक टीकाएँ भी इसपर उमास्वातिको ‘गृद्भपिच्छोपलक्षित' दिगम्बर विद्वानों द्वारा ही लिखी लिग्या है + । 'गृद्भपिच्छ' आपका उपनाम था, जो किसी ममय गृद्ध श्वेताम्बर सम्प्रदायमें उमास्वाति के पँग्वांकी पीली धारण करने के * श्रीपद्मनन्दीत्यनवद्यनामा कारगण प्रसिद्ध हुआ था। गृद्भपि वाचार्यशब्दोत्तरकोण्डकुन्दः। च्छाचार्य नामका उल्लंग्व श्रीविद्या द्वितीयमासीदभिधानमुद्यनंद आचार्यन अपन 'श्लोकवार्तिक' लेखक च्चरित्रसंजातसुचारद्धिः ।। में और श्री वीरमनाचार्यन अपनी 'धवला' टीकामें श्रभूदुमास्वातिमुनीश्वरोमावाचार्यशब्दोत्तरगृध्रपिच्छः । किया है। इनके अतिरिक्त श्रवणबेलगोलके अनेक तदन्वयेतत्सदृशोस्ति नान्यस्तात्कालिकाशेषपदार्थवेदी॥ -शिलालेख नं. ४०,४२,४३,४७,५० +तत्त्वार्थसूत्रकर्तारं गृध्रपिच्छोपलक्षितम् । बभूव यरन्तर्मणिवन्मुनीन्द्रस्मकोण्डकुन्दोदित-चण्डदण्डः।१० वन्दे गणीन्द्रसंजातममास्वामि(ति)मुनीश्वरम् ॥ अभूदुमास्वातिमुनिः पवित्रे वंशे तदीये सकलार्थवेदी। * एतेन गृध्रपिच्छाचार्यपर्यन्तमुनिसूत्रेण व्यभिचारिता निर सूत्रीकृतं येन जिनप्रणीतं शास्त्रार्थजातं मुनिपुङ्गवेन ॥११॥ स्ताप्रकृतसूत्रे । -श्लोकवार्तिक मप्राशिसंरक्षणमावधानो बभार यो म प्राणिमंरक्षणमावधानो बभार योगी किल गृध्रपक्षान । तह गिद्धपिच्छाइरियप्पयासिदतच्चत्यमुत्ते वि-“वर्तना- तदाप्रभृत्येव बुधा यमाहुराचार्यशब्दोनरगृध्रपिच्छं ॥१२॥ परिणामक्रियापरत्वापरत्वे च कालस्य" इदि दव्वकालो -शिलालेख नं० १०८ परूविदो। -धवला, जीवट्ठाण, अनु० ४ * देखो, जैनसिद्धान्तभास्कर, प्रथमभाग, किरण ३-४, पृ०७८ Page #25 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ का श्वेताम्वगचार्य माना जाता है और तत्त्वार्थसूत्र होना लिखा है। अस्तु; तुलना कैसी की गई, यह पर पाये जाने वाले एक भाष्यका उन्हींका स्वोपज्ञ विचार यहां अप्रस्तुत है और वह एक स्वतन्त्र लेख भाष्य बतलाया जाता है। परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदाय का ही विषय है । यहाँ पर मैं सिर्फ इतना ही बतला के प्रसिद्ध माननीय विद्वान् पं० सुखलालजी, भाष्यको देना चाहता हूं कि जिन श्वेताम्बर आगमोंपरस उक्त स्वोपज्ञ मानते हुए भी, तत्त्वार्थसूत्रके अपने गुजराती 'समन्वय' में तुलना की गई है वे अपने वर्तमानरूप अनुवादका प्रकाशित करनेके समय तक और उसके बाद के लिये श्रीदेवर्द्धिगणी क्षमाश्रमणके आभारी हैंभी कुछ अर्से तक उमास्वातिको दिगम्बर या श्वेताम्बर देवर्द्धिगणीन ही उनका इधर उधर में संकलन और सम्प्रदायी न मानकर जैनसमाजका एक तटस्थ विद्वान् संशोधनादिक करके उन्हें वर्तमानरूप दिया है । और मानते थे और उनकी इस तटस्थताके कारण ही दोनों देवद्धिंगणीका यह कार्य वीर - निर्वाण मं० ९८० सम्प्रदायों द्वारा उनकी कृतिका अपनाया जाना (वि० सं० ५१०) का माना जाता है। तत्त्वार्थसूत्रके बतलाते थे। लेकिन हाल में उन्होंने उक्त सूत्रका जा कर्ता उनसे पहले हो गये हैं, जिनका ममय पं० सुख. अपना हिन्दी-विवेचन प्रकाशित कराया है उसके लालजीन भी "प्राचीनम प्राचीन विक्रमकी पहली साथके वक्तव्य में, यह सूचना करते हुए कि-"पहले शताब्दी और अर्वाचीनस अर्वाचीन समय तीसरीके कुछ विचार जो बादमें विशेष प्राधार वाले नहीं चौथी शताब्दी" माना है। ऐमी हालतमें श्वेताम्बर जान पड़े उन्हें निकालकर उनके स्थानमें नये प्रमाणों आगम-ग्रंथों पर तत्त्वार्थसूत्रकी छायाका पड़ना बहुत और नये अध्ययनक आधार पर ग्यास महत्वकी बातें कुछ स्वाभाविक तथा संभाव्य है, और यह हो सकता लिग्वदी हैं।" स्पष्ट घोषणा की है कि-"उमाम्वाति है कि तत्त्वार्थसूत्रकी कुछ बातों का बादमें बनाये जाने श्वेताम्बर परम्पराके थे (दिगम्बरके नहीं) और उनका वाले इन आगम-ग्रंथों में शामिल कर लिया गया हो; सभाष्यतत्त्वार्थ (सूत्र) सचेल पक्षक श्रुतके आधार परन्तु यह नहीं कहा जा सकता कि तत्त्वार्थसूत्रके पर ही बना है।" पं० जीके इस विचार-परिर्वतनका मूलाधार वर्तमानकं श्वेताम्बर्गय आगम-ग्रंथ हैं अथवा प्रधान कारण स्थानकवासी मुनि उपाध्याय आत्माराम तत्त्वार्थसूत्र उन्हींके आधार पर बना है। हाँ, उक्त जीकी लिखी हुई 'तत्त्वार्थसूत्र-जैनागमसमन्वय' नाम तुलनात्मक समन्वय परम इतना नतीजा ज़रूर की पुस्तक जान पड़ती है, जिसमें श्वेताम्बर और निकाला जा सकता है कि तत्त्वार्थसूत्रके अधिकांश स्थानकवामी दानों मम्प्रदायोंके द्वारा मान्य ३२ विषयोंकी संगति वर्तमानमें उपलब्ध होने वाले आगम-ग्रन्थों परस तत्त्वार्थसूत्रकी तुलना करके यह श्वेताम्बरीय आगमोंके साथ भी ठीक बैठती है, और सूचित किया गया है कि 'इन ग्रन्थों परसे आवश्यक इमलिये जो आगमोंसे प्रेम रखते हैं उन्हें तत्त्वार्थसूत्र विषयोंका संग्रह करकं तत्त्वार्थसूत्र बनाया गया है', को भी उसी प्रेमकी दृष्टिस देग्वना चाहिये । और जिसे देखकर पं० सुखलालजी 'हर्षोत्फुल्ल' हो जहाँ तक मैं समझता हूँ पं० सुम्बलालजीका उक्त उठे हैं और उन्होंने उसमें तत्त्वार्थसूत्रकी प्राचीन मन्तव्य अभी एकांगी है-अन्तिम निर्णय नहीं हैआधार-विषयक अपनी विचारणाका मूर्तरूपमें दर्शन निर्णयके समय उनके सामने दृसग प्राचीन साहित्य Page #26 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] नस्वार्थमूत्रके पोजोंकी म्बोज १६ तत्त्वाथ उपस्थित नहीं था, जो साहित्य उपस्थित था उसीपर वह अनेकान्तकं इसी विशेषाङ्कमें जानी चाहिये । से वे अपना उक्त मन्तव्य स्थिर करनेके लिये बाध्य यद्यपि समय बहुत कम रह गया था, फिर भी हुए जान पड़ते हैं। और इसीसे आप अपने हिन्दी- मैंने दिनरात परिश्रम करके श्री कुन्दकुन्दाचार्यके विवेचन - सहित तत्त्वार्थसूत्रकी 'परिचय' नामक उपलब्ध ग्रंथों और 'धवला' टीकामें पाए जाने वाले प्रस्तावनामे लिखते हैं-"वाचक उमास्वाति श्वेताम्बर षट्खण्डागमपर एक सरसरी नजर डाल कर तत्त्वार्थपरम्परामें हुए दिगम्बरमें नहीं ऐसा खुद मेरा भी सूत्रके बीजोंकी जो खोजकी है उस मैं आज इस लेखके मन्तव्य अधिक वाचन-चिन्तनकं बाद आज पर्यंत साथ अनेकान्तके पाठकोंके सामने रख रहा हूँ । स्थिर हुआ है। साथ ही, अपनी यह अधिलाषा भी खोजके ममय मेरी दृष्टि शुरू शुरूमें शब्दशः बीजोंके व्यक्त करते हैं कि “दिगम्बर परम्परामें विद्यमान और संग्रहकी ओर रही और बादमें वह अर्थशः बीजोंके सर्वत्र आदरप्राप्त जो प्राचीन प्राकृत-संस्कृत शास्त्र हैं संग्रहकी ओर भी प्रवृत्त हुई; इम दृष्टिभेद, सरसरी उनके माथ भी तत्त्वाथ (सूत्र) का समन्वय दिखाया नजर और शीघ्रताकै कारण कुछ बीजोंका छूट जाना जाय।" ऐसी हालतमें यदि आपके सामने दूसग संभव है, जिन्हें पुन: अवलोकनक अवसरपर संग्रह प्राचीन साहित्य आए तो आपका उक्त मन्तव्य करके प्रकट किया जायगा । इसके सिवाय, 'महा बदल भी सकता है। बन्ध' नामका जो विस्तृत छठा खण्ड है और जो षटखण्डागमक पहले पाँच वण्डोंस पंचगुना बड़ा है मूल आधारको मालूम करनक लिये उन बीजोंको ग्वाजनकी खाम जरूरत है जिनसे । वह अद्यावधिपर्यंत मुझे देखनेको नहीं मिला-उस इम तत्त्वार्थशास्त्र के सूत्रों का शब्द अथवा अर्थरूपमें की प्रति अभीतक मूडबिद्रीक भण्डारसं बाहर ही नहीं आई है। उसमें तत्त्वाथसूत्रक बहुतस बीजोंवी भाग उद्भव संभव हो और जिनका अस्तित्व इस सूत्रग्रंथ संभावना है। यह ग्रंथ जब प्राप्त होगा तभी उसपरसे की उत्पत्तिस पहल पाया जाता हो । ऐम बीजोंकी ग्वाज के लिय दिगम्बर सम्प्रदायकं कुन्दकुन्दाचार्य । शेष बीजोंकी ग्वोज की जायगी । क्या ही अच्छा हो, यदि काई उदार महानुभाव मुडबिद्रीसे उसकी शीघ्र प्रणीत आगमग्रंथों और श्री भूतबल्यादि-श्राचार्य कापी कगकर उसे वीरसवामन्दिरको भिजवा देवें । विचित 'पट् ग्वण्डागम' जैसे प्राचीन ग्रंथ बहुत ही 'ऐमा हानपर खंजका यह काम जल्दी ही सम्पन्न तथा उपयुक्त हैं; क्योंकि ये मत्र ग्रंथ तत्त्वार्थसूत्रस पहले के बन हुए हैं । मग इच्छा बहुत दिनोंसे इन ग्रंथोंका। __ पूर्ण हा सकंगा । अस्तु । तुलनात्मक अध्ययन करनेकी था; परन्तु अवसर नहीं वर्तमानमें जो ग्याज पाठकोंके सामने रखी मिल रहा था और इधर षटखण्डागमादिको लिय जाती है उससे यह बिल्कुल स्पष्ट है और विद्वानों को हुए धवलादि ग्रंथोंको प्राप्तिका अपने पास कोई साधन विशेष बनलाने की जरूरत नहीं रहती कि तत्त्वार्थभी नहीं था। इमस इच्छा पूर्ण नहीं होरही थी। सूत्रके बीज प्राचीन दिगम्बर-साहित्यमें प्रचुरताक हालमें पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार ( सम्पादक साथ पाए जाते हैं, और वे सब इम बातका मूचित 'श्रनकान्त' ) 'जैनलक्षणावली' आदि कार्यों के लिये करते है कि तत्त्वार्थसूत्रका मूल आधार दिगम्बरीय देहली आदिसे धवलादिकी प्रतियाँ प्राप्त करनमें सफल आगम-माहित्य है, और इसलिये वह एक दिगम्बर हासक हैं, और जब यह निश्चय होगया कि ग्रंथ है, जैसी कि दिगम्बर मम्प्रदायकी मान्यता है। 'अनकान्त' को अब वीर-संवा-मन्दिर से ही निकाला यह खाज ऐतिहासिकों नथा संशोधकोंके लिये बहुत जायगा तब आपका यह अनुरोध हा कि तत्त्वार्थ- ही उपयोगी तथा कामकी चीज़ होगी और वे इसे सूत्रके बीजोंकी खाज अब जरूर होनी चाहिये और माथमें लेकर तत्त्वार्थसूत्रके मूलमांतका अथवा Page #27 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २० अनेकान्त आधारका ठीक पता लगाने में सफलमनोरथ हो सकेंगे, ऐसी आशा है। साथ ही यह भी आशा है कि जो विद्वान् उपाध्याय आत्मारामजी के 'तत्त्वार्थसूत्र - जैनागमसमन्वय' को लेकर यह एकांगी ( एक तरफा ) विचार स्थिर कर चुके हैं कि 'तत्त्वार्थसूत्र श्वेताम्बर आगमोंके आधारपर ही बना है' अथवा 'उसके सूत्रों की आधारशिला श्वेताम्बर परम्परा में उपलब्ध जैनागम ही हैं' उन्हें अपने उस विचारको कायम रखने के लिये अब बहुत ही ज्यादा सोचना तथा विचारना पड़ेगा | खोजको सामने रखने से पहले एक बात और भी प्रकट कर देने की है और वह यह कि, दिगम्बरीय श्रुत 'मृलाचार' में तत्रार्थसूत्रों के बहुत से बीज पाये जाते हैं, परन्तु मूलाचारका विषय चूँकि अभी विवादापन्न है - उसके समय तथा कर्तृत्व-विषयका ठीक निर्णय नहीं हुआ - इस लिये खोजमे उसपर से बीजों का संग्रह नहीं किया गया। मूल चारकी कुछ पुरानी प्रतियों में उसे कुन्दकुन्दाचार्यका बनाया हुआ लिखा है । कुन्दकुन्दाचार्यके ग्रंथोंके साथ उसके साहित्यादिका मेल भी बहुत कुछ है, और धवला टीका में 'तहा आयारंगे वि वृत्तं' जैम वाक्यके साथ जिम गाथाको उदधृत किया गया है वह उसमें पाई जाती है - श्वेताम्बरीय आचाराङ्गमें नहीं । नाम भी उसका वास्तव में 'आचार' शास्त्र ही जान पड़ता I इससे टीकाको 'आचार-वृत्ति' लिखा है । आचारकं पूर्व 'मूल' शब्द बादका जोड़ा हुआ मालूम होता है— मूलग्रंथ परसे उसकी कोई उपलब्धि नहीं होती । जिस प्रकार भगवती आराधनाकी टीका लिखते समय पं० श्रशाधरजीनं अपनी टीकाको 'मूलागधनादर्पण' नाम देकर ग्रंथके नामके साथ 'मूल' विशेष जोड़ा है उसी प्रकार किसीटीकाकार के द्वारा 'आचार' नामके साथ यह 'मूल' विशेषण जोड़ा गया जान पड़ता । बाकी 'आचार' यह नाम [ वर्ष ४ द्वादशांगवाणीके प्रथम अंग (आचाराङ्ग) का है ही। अतः धवला द्वारा 'आचाराङ्ग' नामसे इसका उल्लेख इस ग्रंथके अतिप्राचीन हानको सूचित करता है । कुछ भी हो, इस विषय में प्रोफेसर ए० एन० उपाध्याय आजकल विशेष खोज कर रहे हैं और अपनी भी खोज जारी है। यदि खोजसे 'मूलाचार' ग्रन्थ कुन्दकुन्दकृत सिद्ध हो गया अथवा यह स्पष्ट हो गया कि इस ग्रन्थका निर्माण तत्त्वार्थ सूत्र से पहले हुआ है तो इस ग्रन्थ परसं भी तत्त्वार्थसूत्र के बीजों का वह संग्रह किया जायगा जो इस समय छोड़ दिया गया है । * ऐसी एक प्रति 'ऐलक पन्नालाल सरस्वतीभवन' बम्बई में भी मौजूद है। अब तत्त्वार्थ सूत्र के बीजों की खोज अध्यायक्रम और सूत्रक्रमसे नीचे दी जाती है। जिन सूत्रों के बीज अभी तक उपलब्ध नहीं हुए उन्हें छोड़ दिया गया है । तत्त्वार्थक सूत्रोंको मोटे टाइपमें ऊपर रक्खा गया है और नीचे उनके बीजसूत्रोंका दूसरे टाइपमे दे दिया गया है । षट्खण्डागमके सिवाय और जितने ग्रन्थोके नाम बीज सूत्रोंके साथ में, उनका स्थान निर्देश करनेके लिये, उल्लिखित श्री कुन्दकुन्दाचार्य के ग्रंथ हैं। पट्खण्डागममें एक एक विषयके अनेक बीजसूत्र भी पाये जाते हैं, जिनमें से कुछको लेख बढ़ जानके भय से छोड़ दिया है और कुछका ले लिया गया है । उदाहरण के तौरपर कर्मप्रकृतियों का विषय जीवस्थान (प्रथमग्वण्ड) की 'प्रकृतिसमुत्कीर्तन' नाम की प्रथमचूलिका में आया है और चौथे खण्डम प्रारम्भ होनेवाले 'कदि' आदि २४ अनुयोगद्वारों में से पर्याड (प्रकृति) नामके अनुयोगद्वार में भी पाया जाता है; यहां 'पडि' अनुयोगद्वार से ही उस विषय के बीजसूत्रों का संग्रह किया गया है। अनेक बीजसूत्र ऐसे भी हैं जिनमें विवक्षित तत्त्वार्थसूत्रका एक एक अंश ही पाया जाता है और वे इस बातको सूचित करते हैं कि वह तत्त्वार्थसूत्र अनेक बीजसूत्रों का ५ शय लेकर बनाया गया है, उनमें से जिनजिन अंशों के बीजसूत्र मिले हैं उन्हें साथमें प्रकट कर दिया गया है और शेष के लिये खोज जारी है : Page #28 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तत्वार्थसत्रके बोजोंकी ग्वोज पहला अध्याय पपडी, दव्वपयडी भावपयडी चेदि * । ३ । -षट् खंडागम मम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणि मोक्षमार्गः॥१॥ सत्संख्याक्षेत्रस्पर्शनकालान्तरभावाल्पदमणणाणचरित्ताणि माक्ग्वमग्गा त्ति मविदव्वाणि । बहस्वैश्च ॥८॥ -पंचास्तिकाय १६४ संतपम्वणा, दव्वपमाणाणुगमो, खेत्ताणुगमा, सम्मत्तणाणजुत्तं चारित्तं गगदासपरिहीणं । फोसणाणुगमा, कालाणुगमा अंतगणुगमा, भावाणुमाक्ग्वम्म हदि मग्गा भव्वाणं लबुद्वीणं ।। गमा, अप्पाबहुगाणुगमो चदि। --पंचास्तिकाय १०६ --षट् खंडागम, जीवठाण ७ जीवादी महहणं मम्मन्नं नसिमधिगमा णाणं ।। __ मतिश्रुतावधिमनः पर्ययकेवलानि ज्ञानम्। गयादी परिहरणं चरणं एमा दु माक्वपहा ॥ मयमा आभिणिसुदोहिमणकेवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । --पंचास्तिकाय ४१ तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनं ॥२॥ जीवादी महहां सम्मनं जिणवाहि पगणतं। आभिणि सुदाहि मणकेवलं ............. -समयसार २०४ --दर्शनपाहुड २० मम्मत्तं महहगां भावागणं' . . . . . . . . . . . . . . . आद्ये परोक्षम् ॥११॥ -पंचाम्तिकाय १०७ . प्रत्यक्षमन्यत ॥१२॥ तन्निसर्गादधिगमाडा ॥३॥ परदव्वं ते अक्ग्वा णव महावा नि अप्पणी भरिणदा । मम्मत्तम्म रिमिनं जिगसुत्तं नम्म जागिया पुग्मिा। उवलद्धं नहि कधं पच्चकग्वं अप्परगा हादि ।। अंतर हेयागिदा दमणमाहम्म ग्वयपहुदी ॥ जं परदा विगणागं तं तु परोक्ख नि भणिदमटेसु । यममार १५३ दि कंवलग णादं हवाद हि जीवण पकचक्ग्वं ॥ जीवाजीवास्रवबंधसंवरनिर्जरा --प्रवचनमार १-२७, २८ मोक्षास्तत्त्वम् ॥४॥ आभिणिबाहिय सुदाहिगाणिमणणाणि सव्वणाणी य । मवविरा वि भावहि गणवयपयत्थाई मत्ततच्चाई। वंद जगप्पीव पच्चक्रवपरोक्म्बणागी य ॥ १९ ।। -भावप्राभृन १५ -योगिभक्ति १६ जीवाजीवा भावा पुगणं पावं च आसवं तमि। ----------- मंवर णिज्जर बंधा माग्वा य हवंनि न अट्ठा ॥ * पटवण्डागमके इम मूत्रम जिमप्रकार निक्षेपके -पंचास्तिकाय १०८ चारभेदोका पयडी (प्रकृति) के माय उल्लेख किया गया है उसी प्रकार अन्य अनेक स्थानोपर 'वयणा' (वेदना) आदि के नामस्थापनाद्रव्यभावतस्तन्न्यासः ॥५॥ माथ भी उल्लेख किया है। इममे मृत्रकथित निक्षेपक यं चउम्बिहो पडिणिकग्ववा णामपयडी, ठवण- चारो भेद पटवण्डागमसम्मत हैं । Page #29 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ मनिःस्मृतिः संज्ञाचिन्नाभिनिषोध- एयारसमं .... विवायसुत्तं णमसामि ॥ इत्यनातरम् ॥१३॥ पग्यिम्मसुत्तपढमाणुओयपुवाणचूलिया चेव । मण्णा मदि मदि चिंता चेदि ॥ पवरवर दिट्टिवादं तं पंचविहं पणिवदामि ॥ आभिणिवाहियणाणी ....॥ ___ --श्रुतभक्ति २, ३, ४ -घटखंडागम भवप्रत्ययोऽवधि देवनारकाणां ॥२१॥ अवग्रहहावायधारणाः ॥१५॥ जंतं भवपच्चइयं तं देवणरइयाणं ।।५।। चउव्विहं नाव आग्गहावरणीयं, ईहावरणीयं, -षट् खण्डागम अवायावरणीय, धारणावरणीयं चेदि । । क्षयोपशमनिमित्तःषविकल्पाशेषाणाम् ।२२ _ --षट्खण्डागम, जंतं गुणपच्चइयं तं तिरिकावमणुम्माणं ॥५१॥ उग्गहईहावायाधारणगुणमंपदेहि संजुना ॥ तं च प्रणेविहं-दमाहि परमाहि मव्वाहि. --प्राचार्य भक्ति १ हायमाणं, वढढमाणाणं, अवट्टिदं, अणवट्टिदं, अणुअर्थस्य ॥१७॥ गामि, अणणुगामि मप्पडिवादि अप्पडिवादि एयचक्विंदिय अत्याग्गहावरणीयं, मादिदिय कवेतमणयबत्तं ॥५॥ अस्थोग्गहावरणीयं, घागिदिय अत्याग्गहावरणीयं -षट खण्डागम जिभिदिय अत्याग्गहावरणीयं, फामिंदिय अत्यागगहा हावरणीयं, फामिदिय अत्याग्गहा- ऋजुविपुलमनी मनःपर्ययः ॥२३॥ वरणीयं, गाइंदिय अयोग्गहावरणीयं. न म अत्था विशुद्धयप्रतिपाताभ्यां तद्विशेषः ॥२४॥ ग्गहावरणीयं णामकम्मं ॥ २७ ॥ -षटखंडागम मणपज्जवणाणावरणीयम्म कम्मम्स दुवे पयडीओ उजुमदिमणपज्जवणाणावरणीयं चंव, विउलमदिव्यञ्जनस्यावग्रहः ॥१८॥ मणपज्जवणाणावरणीयं चेव ।।५७।। जं तं उजुमदि न चतुरनिन्द्रियाभ्याम् ॥१६॥ मणपज्जवणाणावरणीयं गामकम्मं तं निविहं जं तं वंजणांग्गहावरणीयं णामकम्मं तं चउन्विहं उजुगमणांगदं जाणदि, उजुगं नचिगदं जाणदि मोदिदिय-वंजणांग्गहावरणीयं, घाणिदिय-बंजणा उजुगं कायगदं जाणदि ।।५८।। मणंण माणसं पडि. ग्गहावरणीय, जिभिदिय वंजणाग्गहावरणीय, फार्मि- विदंइत्ता परेमि सरणा सदि मदिचिंता जीविदमरणं दियवंजणांग्गहावरणीयं चेव ।। २५ ॥ लाहालाई सुहदुक्खं णगविणासं देसविणासं -षटखण्डागम कव्वडविणासं मडंबविणासं पट्टविणासं दोणाअतं मतिपूर्ववचनेकबादशभदं ॥२०॥ मुहविणासं अइबुट्टि अणावुट्टि सुवुट्टि दुवुट्टि सुभि आयारं सुद्दयडं ठाणं समवाय विहायपण्णत्ती। क्खं दुभिक्खं खेमाखेमभयगेगकालसंजुत्ते अत्थेणायाधम्मकहाओ उववामयाणं च अज्झयणं । विजाणदि ॥५॥ किंचि भूओ अप्परणो परेमिं च वंदे अंतयडदसं अरगुत्तरदमं च पगहवायरणं । वत्तमाणाणं जीवाणं जाणदि ण अवत्नमाणाणं Page #30 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] नावार्थमत्रके बीजोंकी म्वोज शब्दसमभि जीवाणं जाणदि ॥६०।। कालदो जहरणेण दो तिण्णि भुत्तं कदं पडिसंविदं श्रादिकम्म अग्हकम्मं सव्वलोए भवग्गहणाणि ॥६१।। उक्कम्संगा मत्तट्ठभवग्गहणाणि सव्वजीवे सवभागे सव्वं समं जाणदि पस्सनि विहर॥६॥ जीवाणं गदिमागदि एदुप्पादेदि ॥६३।। ग्वेत्ता- दिति । षट् खण्डागम ॥७॥ दो नाव ज्जहण्णण गाउवपुधत्तं उक्कम्सेण जायण- मतिश्रुतावधयोतिपयेयश्च ॥३१॥ पुधत्तम्म अभंतग्दा णो वहिद्धा ॥६४।। तं सव्वं 'मदि अण्णाणी सुदअण्णाणी विभंगणाणो । उज्जदि मणपज्जवणाणावरणीयं णामकम्मं ॥६५॥ -पटखएडागम, सत्यरूपणा ११५ जं तं विउलमदि मणपज्जवणाणावरणीयं ___ कुमदिसुदविभंगाणि य तिषिण विणाणेहि मंजुत्ते । णामकम्मं तं छव्विहं - उजुगमणुज्जुर्गमणोगदं --पंचास्तिकाय, . जागदि उजुगमगाज्जगंवचिगदं जागदि उजुगमगगुज्जगं कायगदं जाणदि ||६६|मणणमाणमं पडिविदंइत्ता रूढवम्भूताः नयाः ॥३३॥ ॥६॥ परमि मगणा मदिदिचिंता जीविदमरणं गमववहारसंगहा मव्वाओ ॥४॥ उजुसुदोलाहालाहं सुह दुक्ग्यं णगरविणामं दविण'मं जणवयविगामं खेतविणासं कव्वडविग्णामं मडंब ट्ठवणं गच्छदि ॥५।। महणा णामवेयणं भावयणं च इच्छदि किमिदि दव्वं गच्छदि ।।६।। विगणाम पट्टणविणासं दोणामुहविणाम अदिवुट्टि श्रणावुट्टि मट्टि दुवुट्टि सुभिक्ग्वं दुनिभक्वं ग्वेमाग्वेम -पट खण्डागम भयगंगकालमंजुने अत्थे जाणदि ॥६८।। किंचिभूा अप्पगोपरमिं च वनमाणाणे जीवाणं जागदि दूसरा अध्याय अवनमाणाणं जीवाणं जागदि ॥६९|| कालदा औपशमिकक्षायिको भावी मिश्रश्च जीवतावजहराणगग मनभवग्गहरणागि उक्कस्संग अमंग्वजाणि भवग्गहणाणि ॥७॥ जीवाणं स्य स्वतत्त्वमौदयिकपारिणामिको च॥१॥ गदिमागदिंपडुप्पाददि ॥शा ग्वत्तादी नावज्जहरा- चदुगहमुवममाति को भावा उवर्मामी भावा ।। ।। पण जायणपुधत्तं ॥७२॥ उक्कम्मण माणुसुत्तर- चदुण्हं ग्ववा मजागिकंवली अजोगिकेवलित्ति कामेलम्म अभंतगदा णा वहिद्धा ॥७३॥ तं मव्वं भावा खडाभावा || मम्मामिच्छादिट्टित्ति का. वि उलमणपज्जव णाणावरणीयं णामकम्मं ॥७॥ भावा म्वोवसमाभावा ॥४॥ आदइएण भावा --पटवण्डागम, पयडिअणुयोगहार पुणा अमंजदा ॥६॥ मामणसम्मादिट्टित्ति का भावा सर्वद्रव्यपर्यायेषु केवलस्य ॥२६॥ पारिणामियाभावा ॥३॥ नं च केवलणाणं मगनं मंपुगणं अमवत्तं ।।७७॥ -षट खण्डागम, जीवहाण, भावाणुयोगहार मइभयवं उप्पगणणाणदग्मिी म देवासुग्माणु- उढारण उवममण य ग्वयण दुहिं मिम्सदहिं परिणाम । मम्म लागस्स प्रागदिं गदि चयणांववादं बंधं मोक्ग्वं जुत्ता ते जीवगुणा बहुसुयअत्थेसु विच्छिण्णा ।। इदिठिदि जुदि अणुभागं तक्कंकलं माणमाणमियं -पंचास्तिकाय, २७ Page #31 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४ अनेकान्त [ वर्ष ४ बिनवाष्टादशैकविंशतित्रिभेदा यथाक्रमम्।२ जमलद्वित्ति वा, म्वावसमियं मंजमलद्धित्ति वा, [इस सूत्रमें पंचभावोंके उत्तरभदोंकी जिम खावसमियं दाणलद्धित्ति वा, ग्वावममियं लाहसंख्याका क्रमशः निर्देश किया है वह पटवण्डागम लद्धिचि वा, ग्वश्रावसमियं भागलद्धित्ति वा, खोवमें भावोंके उत्तरभेदोंके कथनसे प्रायः उपलब्ध हो ममियं परिभागलद्धित्ति वा, ग्वोवसमियं वीरियलजाती है अथवा ग्रहण की जासकती है।] द्विनि वा....... ||१८॥ --षटखण्डागम सम्यक्स्वचारित्रे ॥३॥ गतिकषायलिङ्गमिथ्यादर्शनाज्ञानासंय....... "उवममियं मम्मत्तं उवसमियं चाग्निं जे ___ तासिद्धलेश्याश्चतुश्चतुस्न्येकैकैकैकषड् चामगणे एवमादिया उवमियभावा' ... ॥१६॥ भेदाः॥६॥ -षटग्वण्डागम ...... 'देवनि वा, मणुम्मत्ति वा, तिरिक्खेति वा, ज्ञानाज्ञानदर्शनदानलाभभोगोपभोग- गडपत्ति वा, इस्थिवदस्ति वा, पुरिसर्वदेत्ति वा, गवुवीर्याणि च ॥४॥ सयवंदति वा, काहवेदेति वा, माणवदनि वा, माया. . . . . ग्वइयमम्मत्त, ग्वायचारित्तं, ग्वडयादाण- वेदेति वा, हवेदत्ति वा, गगवंदस्ति वा, दासवेदेत्ति लद्धी, खडयालाहलद्धी, बायाभोगलद्धी, खडया का, माहवदति वा. किण्हलम्मति वा, गीललम्सत्ति वा परिभांगलद्धी, खडयावीरियलद्धी, कंवलगाणं, कंवल वा उलेम्सस्ति वा, नेउलेम्मति वा, पम्मलेम्मत्ति वा, दंमग,सिद्ध बढ़े, परिणिव्वदे मळवदकवागमंतयटेनि सुक्कलम्सत्ति वा, अमंजदति वा, अविग्दन्ति वा, जे घामगणे एवमादिया ग्वइया भावा'... || अण्णागति वा. मिच्छादिट्ठिन्ति वा, जे चामगरण -षट खण्डागम एवमादिया कम्मोदय पञ्चडया विवागणिफ्फरपा भावा मा मव्वा विवागपञ्चायो जीवभावबंधा णाम | ज्ञानाज्ञानदर्शनलब्धयश्चतुस्त्रित्रिपञ्च ॥ १४ ॥ भेदाः सम्यक्स्वचारित्रसंयमाऽसंय -बट खण्डागम माश्च ॥१॥ जीवभव्याभव्यस्वानि च ॥७॥ ..'ग्वओवममियं मदिरपाणित्ति वा, ग्वा । भवसिद्धिआगाम कथं भवदि वममियं सुअण्णाणित्ति वा, खोवममियं विभंग ॥ ६३ ।। पारिणामिएण भावण ॥ ६४ ॥ णाणित्ति वा, ग्वोवममियं आभिणिबोहियणागित्ति --पखण्डागम वा, खोवसमियं सुदणाणित्ति वा, ग्वावममियं आहिणाणित्ति वा, ग्वश्रावसमियं मणपज्जवणाणित्ति उपयोगो लक्षणम् ॥८॥ वा, ग्वोवसमियं चक्खुदंसणित्ति वा, ग्वश्रावसमिय जीवा उवागलक्वणा णिच्चा मचक्खुदंसणिन्नि वा, खोवममियं श्रोहिदमणित्ति वा, ग्वओवममियं सम्मामिच्छत्ति लगिन्ति वा, ग्वा- स विविधोऽष्टचतुर्भेदः ॥६॥ बममियं मम्मत्तलद्धिति वा, ग्वश्रोधममियं मंजमामं अस्थि मदिअागणाणि, सुद भवि समयसार गा० २४ Page #32 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तस्वार्थसूत्रके बीजोंकी खोज अण्णाणी, विभंगणाणी, आभिणिबोहियणाणी, सुद- स्पर्शनरसनघाणचतुःश्रोत्राणि ॥१६॥ णाणी, आहिणाणी, मणपज्जवणाणो, केवलणाणी स्पर्शरसगन्धवर्णशब्दास्तदर्थाः ॥२०॥ चेदि। -घटखण्डागम ,, ,, १५ इंदियाणुवादण अस्थि एइंदिया, बोइंदिया, दसणाणुवादेण अस्थि चक्खुदंसणी, अचक्खु- तीइंदिया, चदुरिंदिया, पंचिंदिया, अणिंदिया चेदि । दसणी, आहिदसणी, केवलदसणी चेदि । -षट्खण्डागम, १, १,३३ ___-पटवण्डागम , , ३, [इंद्रियविषयों के नामोंके लिये देखो आगे उद्धत उवोगा खलु दुविहां णाणणय दंसणेण संजुत्तो। पंचास्तिकायकी गाथा नं० ११६, ११७ ] जीवम्म-सव्वकालं अणण्णभूदं वियाणीहि ।। वनस्पत्यन्तानामेकं ॥ २२ ॥ आभिणिसुदाहिमणकंवलाणि णाणाणि पंचभेयाणि । एद जीवणिकाया पंचविहा पुढविकाइयादीया । कुमदिसुदविभंगाणिय निगिण वि णाणेहिं मंजुत्ते ॥ मणपरिणामविरहिया जीवा एगेंदिया भणिया ।। दमणमविचक्ग्वुजुदं अचम्खुजुदमवियाहिणा महियं । -पंचास्तिकाय ॥११॥ मणिधणमणंतविषयं कलियं चावि परणतं ॥ मरम -पंचाम्तिकाय ४०, ४१, ४२। कैकवद्धानि ॥ २३ ॥ उवागो गाणदसणं भणिदा, -प्रवचनमार २, ६३ संवुक्कमावुवाहा संग्वा सिप्पी अपादगा य किमी । संसारिणो मुक्ताश्च ॥१०॥ जीवा मंसारस्था णिव्वादा चेटणप्पगा दुविहा ।। जाणति रमं फार्म जे ते बेइंदिया जीवा ।। -पंचाम्तिकाय १०९ जूगा गुंभी मक्कणपिपीलियाविच्छियादिया कीटा। जाणंति रस फासं गंधं तेइंदिया जीवा ॥ समनस्काऽमनस्काः ॥११॥ मागणयाणुवादेण अस्थि मण्णी अमगणी। उहंमममयमग्वियमधुकरभमगपतंगमादीया। -पटवण्डागम १, ५, १७२ रूपं ग्मं च गंधं फासं पुण नेवि जाणंति ॥ संसारिणत्रसस्थावराः ॥१२॥ सुग्णरणारयनिग्यिा वगणग्सप्फामगंधमहण्ह । पृथिव्यप्तेजोवायुवनस्पतयः स्थावराः॥१३॥ जलचर थलचर ग्वचग वलिया पंचेंदिया जीषा ।। द्वीन्द्रियादयन्त्रसाः ॥१४॥ -पंचाम्तिकाय, ११४, ११५, ११६, ११५ कायागुवादेण अस्थि पुढविकाइया, भाउकाइया, ने. अनुश्रीणिः गतिः ॥ २६ ॥ काइया, वाउकाइया, तनकाइया. वणफडकाया. विदिमावज्जं गर्दि जंनि -पंचास्तिकाय ७३ अकाइयाचेदि ।३९/ , विग्रहगती कर्मयोगः॥ २५ ॥ .... तसकाइया, बीइंदियप्पहुडि जाव अजागिकवलि ति।४४। - -पटखण्डागम १, १, ३५, ४४ अविग्रहाजीवस्य ॥२७॥ विग्रहवतीच पुढवी यउदगमगणीवाउवणफदिजीवमंसिदा काया संसारिणः प्राक्चतुर्थ्यः ॥ २८ ॥ ___-पंचास्तिकाय, १४० एकसमयाऽविग्रहा ॥ २६ ॥ पश्चेन्द्रियाणि ॥ १५ ॥ एकंको श्रीवानाहारकः ॥ ३० ॥ Page #33 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ नी कम्मइकाय जोगी केविचिरं कालादो हादि, ११० ।। शेषास्त्रिवेदाः ॥५२॥ जहरणेण एकसमयो ।। १११ ।। णेरइया चदुसु ठाणेसु सुद्धणqसयवेदा ॥१०५।। उक्कस्सेण तिरिणममया ।। ११२ ॥ तिरिक्खा सुद्धणवंसयवदा एइंदियप्पहुडि जाव चरिदियात्ति ॥१०६॥ प्रणाहाग केविचिरं कालादो होति ।। २१२ ॥ तिरिक्खा निवदा....... ॥१०॥ उक्कस्सेण तिषिणसमया ॥ २१३॥ देवा चदुसुठाणेसु दुवंदा इत्थिवंदा पुरिसर्वदा।।११०|| -षट्खण्डागम -षटखण्ड गम औदारिकवैक्रियिकाहारकतैजसका - तीसरा अध्याय मणानि शरीराणि ॥ ३६॥ जं तं सरीग्णामं तं पंचविहं-आंगलियसरीर- रत्नशकरावालुकापङ्कधूमतमोमहातमःप्रणाम, वेउब्वियसरीरणाम, आहारसगैग्णाम, तेजइय- भाभूमयो घनाम्बुवाताकाशप्रतिष्ठाः सरीरणाम कम्मइयसरीरणामं चेदि ॥१९॥ सप्ताधोऽधः ॥१॥ -षटग्वण्डागम, पयडि अणुयोगद्दार एवं पढमाए पुढवीए णेरडया ।।८।। ओरालिश्रा य देहो दहा वन्विो य जहा। विदियादि जाव सत्तमाय पुढीप रणग्इया ॥८२।। पाहाग्य फम्मइओ पुग्गलदव्वप्पगा सव्व ।। -पटवण्डागम १, १, १.८२ -प्रवचनसार, २,७९ सत्तविहा गरइया णादव्वा पुढविभएण । प्रदेशतोऽसंख्येयगुणं प्राक्तैजसात् ॥३८॥ -नियमसार १६ अनन्तगुणे परे ॥ ३६॥ तेष्वेकत्रिसप्तदशसप्तदशद्वाविंशतित्रयस्त्रिं शत्सागरोपमा सत्त्वानांपरा स्थिनिः।। अनादिसम्बन्धे च ॥४१॥ उक्कस्सण मागविमं तिणि मत्तदस सत्तारम ___ जहएणुक्कस्मपदेण भांगलियवे उब्विय आहार- बावीस तंत्चीम सागरावमाणि ॥४॥-षट्खण्डागम सरीरस्म जहण्णो गुणगाग संढीप असंखेजदि नस्थितीपरावरे त्रिपल्योपमान्तर्मुहर्ने।३। भागो उक्क सो गुणगागं पलिदोवमस्स असंग्वेउजदिभागो॥ तिर्यग्योनिजानां च ॥३६॥ तेजाकम्मइयमरीरम्म जहरणो गुणगाग मणुसा मणुसपज्जत्ता मणुसिणी केविचिरं काला अभवसिद्धिपहिं अणंतगुणो सिद्धाणमणंतभागो॥ दो हो त ।।१८।। जहणणेण खुद्दाभवग्गहणमंतामुहत्तं __ तम्सेव उक्कस्सओ गुणगारो पलिदोवमम्म असंखे- ॥१९॥ उक्कम्सण तिगिणपलिदोवमाणि पुव्वकाडिजदिभागो॥ पुधत्तेणव्वहियाणि |२०|| पंचिंदियतिरिक्ख पंचिंदिजो मो अणादिसरीग्बंधो णाम ॥ ६ ॥ यतिरिक्वपज्जन पंचिंदियतिरिक्खजाणिणी के वचिरं -षटग्वण्डागम कालादो होंति ॥१३।। जहणणेण खुहाभवग्गहणं अंतीनारकसम्मूछिनो नपुंसकानि ॥५०॥ मुहत्तं ॥१४॥ उक्कस्मंगा तिगिणपलिदावमाणि पुन्वन देवाः ॥ ५१ ॥ कोडिपुधत्तेणव्वाहियाणि ।।१५।। -षटग्वण्डागम Page #34 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तत्वार्थमूत्रके बीजोंकी खोज २७ तिरिक्खाउ-मणुसाउअस्स उक्कस्सओ ठिदिबंधो- लादा हादि ॥१७॥ सुकमहासुक्कसदारसहस्सार कप्पवापलिदावमाणि ॥१४८॥ सियदेवाणमंतरं कंषिचिरं कालादो होदि ॥ १२० ।। तिरिक्खउअ स मणुसाउअस्स जहण्णश्रो ठिदि- आणदपाणदारणमच्युदकप्पधासियदेवाणमंतर केवबंधा खुद्दाभवग्गहणं ॥१०॥ चिरं कालादा होदि ॥२६ ।। अणुदिसजावउक्कस्सण तिरिणपलिदोवमाणि ॥६३।। एगजी- गइदविमाणवासियदेवाणमंतर केविचिरं कालादो वं पडुच्च जहरणेण अंतीमुहुत्तं ॥ होदि ॥ २७ ॥ सव्वट्ठसिद्धिविमाणवासियदेवाणमंतर -घटम्बण्डागम, जीवट्ठाण, केविचिरं कालादो होदि ।। ३२॥ -षटखण्डागम कालाणुगमाणुप्रोगहार। सौधर्मशानयोः सागरोपमेऽधिके॥२६॥ चौथा अध्याय सानत्कुमारमाहेन्द्रयोः सप्त ॥ ३०॥ त्रिसप्तनवैकादशत्रयोदशपंचदशभिरधि - देवाश्चतुर्णिकायाः ॥१॥ कानि तु ॥३१॥ प्रारणाच्युतादूर्ध्वमेकैदेवा चउगिणकाया... -पंचाम्निकाय ११८ केन नवसु ग्रैवेयकेषु विजयादिषु सर्वार्थ वैमानिकाः ॥१६॥ कल्पोपपन्ना कल्पा- सिद्धौ च ॥३२॥ तीताश्च ॥ १७॥ उपर्युपरि॥१८॥ मोहम्मीमाणपहुड जाव सदारसहस्सारकप्पवासौधर्मेशानसानस्कुमारमाहेन्द्रब्रह्म - . सियदेवा कविचिरं कालादा होंति ॥३०॥ उक्कम्मरण ब्रह्मोत्तरलांतव कापिष्ठशुक्रमहाशुक्रशता बे-सत्त-दस · चोदम - मोलस - अट्ठाग्म-सागगेवमाणि रसहस्त्रारष्वानतप्राणतयोरारणाच्युतयो सादिरेयाणि ।। ३२ ।। पारगदप्पहुडि जाव अवगइदनवसु अवयकंषु विजयवैजयंतजयंतापरा विमाणवासियदेवा केविचिरं कालादो हाति ॥ ३३ ।। जितेषु सर्वार्थसिद्धौ च ॥ १६ ॥ उक्कस्सण वीस-बावीसंन्तेवीसं-चउवीसं-पणुवीसं छव्वीसं-सत्तावीम-अट्ठावीस एगुणत्तीस-तीसं-एकत्तीसं प्राग्वेयकेभ्यः कल्पाः ॥ २३ ॥ बनीम-तनीसं सागर्गवमाणि ॥३५॥ -षट्खण्डागम माधमीमागगप्प डि जाव उवग्मिगविजविमाण- अपरा पल्योपममधिकम् ॥३३॥ वामियदेवा .......... || १७० ॥ अणुदिम - अणुत्तर - विजय - वइजयंत - जयं- परतः परतः पूषों पूर्वोऽनंतरा ॥३४॥ नापगजिदसवटमिद्धिविमागणवामियदेवा ॥१७॥ जहगणंग पलिदावमं बे-मन-दस-चाइम-मालम -षटम्बण्डागम १, १, १७०, १७१ मागगेवमाणिमादिरेयाणि ।।३१।। जहगणण अट्ठारसभवणवासियवाणवेंतरजादिमिय साधम्मीमाण- वीम - बावीस - तेवीस - चवीम - परणवीसं-छव्वीसकप्पवासियदेवा देवदिभंगा ।। १३ ।। मणक्कुमारमा- मत्तावासं-अट्ठावीस-पगुगणतीमतीसं-एक्कत्तीम-बत्तामं हिंदाण मंतरं के चिरं कालादा हादि।१४।। बम्हबम्ह- मागगेवमाणि मादिग्याणि ।। ३४ ।। -पटग्वण्डागम सरलांतवकाविट्ठकप्पवामियदवाणमंतरं के वचिरं का ॥३५॥ Page #35 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८ अनेकान्त [ वर्ष ४ दशवर्षसहस्राणि प्रथमायाम् ॥ ३६॥ चेदणभावा जीओ चेदणगुणवजिया सेसा ॥ -नियमसार, ३७ पढमाए पुढवीए णेरइया के वचिरं कालादो होति ॥४॥ द्रव्याणि ॥२॥ जहरणेण दसवाससहस्साणि ॥ ५॥ बिदियाए जीवाश्च॥ ३ ॥ जाव सत्तमाए पुढवीए णेरइया कविचिरं कालादो होति ॥ ७ ॥ जहणणेण एक्कतिण्णिसत्त-दस-सत्ता (कालश्च)॥ ३६॥ रस बावीस सागरावमाणि ॥ ६॥ -षट्खण्डागम दवियदि गच्छदि ताई ताई सब्भावपज्जयाई जं। भवनेषु च ॥ ३७॥ दवियं तं भएणते अणण्णभूदं तु सत्तादो ॥ -पंचास्तिकाय व्यंतराणां च ॥ ३८॥ नित्यावस्थितान्यरूपाणि ॥४॥ परापल्योपममधिकम् ॥ ३९ ॥ ज्योतिष्काणां च ॥ ४० ॥ रूपिणः पुद्गला ॥ ५ ॥ तदष्टभागोऽपरा॥४१॥ ते चेव अस्थिकाया ते कालियभावपरिणदा णिचा । भवणवासियवाणवेंतरजादिसियदेवा केविचिरं गच्छति दवियभावं परियट्टणलिंगसंजुत्ता ॥६॥ कालादो होनि ॥२७॥ भागासकालजीवा धम्माधम्मा य मुत्तिपरिहीणा । जहरणेण दसवासमहम्साणि पलिदोवमम्स मुत्नं पुग्गलदव्वं जीवो ग्बलु चेदणो तेषु ।।९७|| अहमभागो।। २८ ॥ -पंचास्तिकाय ६, ९७ नक्कम्सेग्ण मागरोवमं सादिरयं पलिदोवमं पुग्गलदव्वं मात्तं मुत्ति विर्गहया हवंति सेसाणि । सादिरेयं ॥ २९ ॥ -षट्खण्डागम -नियममार ३७ पांचवां अध्याय श्रा आकाशादेकद्रव्याणि ॥ ६ ॥ मजीवकाया धर्माधर्माकाशपुद्गलाः ॥१॥ धम्माधम्मागासा अपुधब्भूदा समाणपरिणामः । पुधगुवलद्धिविसंसा करंति एगनमगणतं ।। जीवा पोग्गलकाया धम्म'धम्मा तहेव पायाम । -पचाम्तिकाय ९६ अस्थित्तम्हि य रिणयदा अणण्णमइया अणुमहंता ॥४॥ निष्क्रियाणि च ॥७॥ आगासकालपुग्गलधम्माधम्मेसु णस्थि जीवगुणा। जीवा पुग्गलकाया सह मक्किरिया हवंनि ण य सेसा । तेसिं अचेदणत्तं भणिदं जीवस्स चेदणदा ॥ १२४ ।।। पुग्गलकरणा जीवा खंधा खल कारण करणादु ॥ -पंचास्तिकाय ४, १२४ -पंचास्तिकाय १८ जीवा पाग्गलकाया धम्माधम्माय काल आया। असंख्येयाः प्रदेशाधर्माधर्मेकजीवानाम्।। तच्चत्त्था इदि भणिदाणाणागुणपज्जएहिं संजुत्ता। धम्माधम्मम्स पुणो जीवम्म अमंग्वदेसा हु। , -नियमसार ९ -नियमसार ३५ उत्तरार्ध एदे छहव्वाणि य कालं मोत्तूण अस्थिकायत्ति। अाकाशस्याऽनन्ताः ॥६॥ णिहिट्ठा जिणसमय काया हु बहुप्पदमत्तं ।। लोयायासे ताव इदग्स्स अणंतयं हवं देहो (सा)! -नियमसार ३४ -नियमसार ३६ पूर्वाध Page #36 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण !] तस्वार्थमूत्रके बीजोंकी खोज संख्ययाऽसंख्येयाश्च पुद्गलानाम् ॥१०॥ आकाशस्यावगाहः ॥ १८॥ संग्वेज्जामखेज्जाणंतपदेसा हवंति मुत्तस्स । आगासम्सवगाहो... | -प्रवचनसार २, ४१ -नियमसार ३५ पूर्वार्ध अवगहरणं आयाम ज.वादी सव्वदव्वाणं । नाणोः॥ ११ ॥ -नियमसार ३० णिच्चो णाणवकासो ण सावकासो पदेसदो भेत्ता। सव्वेसिं जीवाणं संसाणं तहय पुग्गलाणं च । खंधाणं पि य कत्ता पविहत्ता कालसंखाणं ॥ ज देदि विवरमखिलं तं लोए हवदि आया। -पंचास्तिकाय ८० -पंचान्तिकाय. अपदेमो परमाणूः। -प्रवचनसार २, ७५ शरीरवाड्मनःप्राणापानाः पुद्गलानाम्१६ लोकाकाशेऽवगाहः ॥ १२ ॥ दहा य मणो वाणी पोग्गलदव्वप्पत्ति णिहिट्ठा । धर्माधर्मयोः कृतस्ने ॥ १३ ॥ -प्रवचनसार २, ६६ मवसि जीवाणं ममाणं तह य पुग्गलाणं च । सुखदुःग्वजीवितमरणोपग्रहाश्च ॥ २० ॥ जं देदि विवरमखिलं तं लोए हदि प्रायासं ॥५०॥ परस्परोपग्रहो जीवानाम् ॥ २१ ॥ जादा अलोगलागा जेसिमभावदो य गमणठिदी। जवा पुग्गलक'या अण्णोण्णागाढगहणपटिबद्धा। दा वि य मया विभत्ता अविभत्ता लोयमेत्ता य ।।८६ काले विजुज्जिमाणा सुखदुख दिनि भुजंति ॥ -पंचाम्तिकाय ९०,८७ -पंचास्तिकाय ६७ एकप्रदेशादिषु भाज्यः पुद्गलानाम् ॥१४॥ वर्तनापरिणामक्रियापरस्वापरत्वे व आगाढगाढणिचिश्री पुग्गलकाएहिं मव्वदो लागो। कालस्य ॥२२॥ सहमहिं बादहिं य णंतागंतहिं विविहेहिं ।। ववगदपणवण्णरसो ववगददागंधअट्ठफामा य । पंचास्तिकाय ६४ गुरुलहुगो अमुनो वट्टणलक्वा य कालो त्ति ।। गतिस्थित्युपग्रही धर्माधर्मयोपकारः॥१७॥ -पंचाम्तिकाय २४ धम्मदव्वम्स गमणहेदुत्तः............। स्पर्शरसगंधवर्णवन्तः पुद्गलाः ॥ २३ ॥ धम्मदग्दव्वस्म दु गुणो पुणा ठाणकर णा दा ।।। -प्रवचनसार २, ४१ कामा रसा य गधा वण्णा सहा य पुग्गला होति । गमणिमित्तं धम्म अधम्म ठिदि जीवपुग्गलाणं च । -प्रवचनमार १, ५६ -नियमसार ३० शब्दबन्धसोक्ष्म्यस्थौल्यसंस्थानभेदतम . उदयं जह मच्छ.णं गम्माणुग्गहपरं हवदि लोए। श्छायाऽऽतपोद्योतवन्तश्च ॥ २४ ॥ तह जीवपुग्गालाणं धर्म दव्वं वियाहि ॥८५॥ मंठाणा मंघादा वरणग्सफासगंधसहा य । जह हदि धम्मदव्वं तह तंजणेह दव्वमधम्मक्खं। पोग्गलदव्वप्पभवा होति गुणा पज्जया य बहु॥ ठिदिकिरिया जुत्ताणं कारणभूदं तु पुढवीय ॥ -पंचास्तिकाय १२६ -पंचास्तिकाय ८५, ८६ भवः स्कन्धाश्च ॥ २५ ॥ Page #37 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ अणुग्वंधवियप्पेण दु पोग्गलदव्वं हवंड दुबियप्पं। नद्भाचाऽव्ययं नित्यम् ॥ ३१ ॥ -नियममार २० तेकालियभावपार रणदा णिचा ॥ -पंचास्तिकाय ६। भेदमलातेभ्य उत्पद्यन्तं ॥ २६ ॥ अर्पिताऽनर्पितसिद्धः ॥ ३२॥ भेदादणुः॥२७॥भेदसंघाताभ्यांचाक्षुषः२८ गुणपज्जयासयं वा जं तं भएणंति सव्वण्हू ॥ __वग्गणणिरूवग्णद ए इमां एयपदेमियपरमाणु -पंचास्तिकाय १० पांग्गलदव्ववग्गणा णाम किं भेदेण किं संघादण किं स्निग्धरूक्षत्वाबन्धः॥३॥न जघन्यगुणाभेदसंघादेण ॥ १ ॥ नाम् ॥३४॥ गुणसाम्ये सदृशानाम् ॥५॥ उवरिल्लीणं दव्वाणं भेदेण ॥ २ ॥ वन्यधिकादिगुणानां तु ॥३६॥ बंधेऽधिकोइमा दुपदेसियपरमाणुपोग्गलदव्यवग्गणा णाम पारिणामिको च ॥३७॥ किं भेदेण किं मंघादेण किं भेदसंघादेण ॥ ३॥ जो सो थप्पा सादियविस्मसा बंधोणाम तम्स उवरिल्लीणं दवाणं भेदेण हेट्ठिमल्लीणं दव्वाणं इमा णिहसा वैमादा णिद्धदा वैमादा लुक्खदा बंधा ।३२। संघारेण सत्थाणेण भेदसंघादण ॥ ४ ॥ समणिद्धा समलुक्ग्वदाभेदो ।। ३३ ।। तिपदसियपरमाणुपांग्गलदव्ववग्गणा चदु पंच णिद्धा णिद्धा श वझति लुक्ग्वा लुक्ग्वा य पाग्गला। छ सत्त अट्ठ ण व दस संग्वेज्ज असंखज्ज परित्त गिद्धलुक्खा य वझति रूवारूवा य पोग्गला ॥३४॥ अपरित्त अणंत अणंताणत पदेसियपरमाणुपांग्गल- वमादा गिद्धदा मादा लुक्ग्वदा बंधा ।। ३५ ।। दव्ववग्गणा णाम किं भेदण किं संघादेण किं भेद- णिद्ध स णिद्धेण दुराहिएण लुक्ण्वस्स लुक्खेग्ण दुहिएण। संघादण ।।५।। -पटखण्डागम णिद्धस्म लुक्खेण हवेदि बंधी जहण्णवज्जा (इस विषयका कितना ही विस्तृत विवचन षट्- विममो समा वा ॥ ३६॥ -पटखण्डागम खण्डागममें किया गया है)। णिद्धा वालुक्खा वा अणुपरिणामा समा व विममा वा। सव्वसिं खंधाणं जो अंतो तं वियाण परमाणू । समधा दुगधिगाजदि वझति हि आदि परिहीणा ।। सोसस्मदा असहा एक्का अविभागी मुत्तिभवो ॥ णिद्धतणेण दुगुणा चदुगुणणि द्वेण बंधमणु भवदि । -पंचास्तिकाय ७७ लक्खण वा तिगुणदा अणुवझदि पंचगुणजुत्तो ।। सद्व्यलक्षणम् ॥२६॥ उत्पादव्ययध्रौ -प्रवचनमार २, ७३, ७४ व्ययुक्तं सत् ॥३०॥ गुणपर्ययवहव्यम् :८ कालश्च ॥३६॥ सोऽनन्तसमयः ॥ ४० ॥ दव्वं सल्लक्खणियं उप्पादन्ययधुवत्तसंजुत्तं। जीवा पोग्गलकाया धम्माधम्मा य काल आयासं । -नियमसार ९ गुणपज्जया मयं वाजं तं भएणंति सव्वण्हू ।। -पंचास्तिकाय १० समश्रो णिमिमो कट्ठा कला यणाली नदी दिवारसी। अपरिच्चत्तसहावेणुप्पादव्वयधुक्त्तसंजुत्तं। मामो दु अयण संवच्छरोत्ति कालो परायत्तो।। गुणवं च सपज्जायं जं तं भएणंति बुच्चंति ॥ -पंचाम्तिकाय.४ -प्रवचनसार २, ३ द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः ॥४१॥ Page #38 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तत्त्वार्थसूत्रके बीजोंकी खोज दव्वण विणाणगुणा गुणेहिं दव्वं विणा ण संभवदि। दाए इच्चेदहिं सालसहि कारणेहिं जीवा तिस्थयरणामअवनिरिसा भावा दव्वगुणाणं हवदि तम्हा। गोदकम्मं बंधति ।।४।। -षट्खंडागम -पंचास्तिकाय, १३ सातवाँ अध्याय तद्भावः परिणामः ॥ ४२॥ परणमदि सयं दव्वं गुणदा य गुणंतरं सदविमिट्र ।। हिंसाऽनृतम्तया ब्रह्मपरिग्रहेभ्यो बिरतिब -प्रवचनसार २, १२ तम् ॥१॥ देशसर्वतोऽणुमहती ॥२॥ छठा अध्याय थूलेतसकायवहे थूले मोम तितिक्वथूले य । परिहारो परपिम्म परिग्गहारंभपरिमाणं ।।२३।। कायवाङमनः कर्मयोगः॥१॥स पासवः।। हिसाविरह अहिमा श्रमाचविरई अदत्तविरई य । जागणिमित्तं गहणं, जोगी मणवयणकायमभूदो। तरियं प्रबंभवई पंचम मंगम्मि विरई य ॥२९ -पंचाम्ति काय १४८ -चारित्रपाहुइ २३, २९ शुभः पुण्यस्याऽशुभः पापस्य ॥३॥ मत्स्ययोर्थ भावनाः पंच पंच।। गगा जम्मपमत्था अणुकंपामंसिदा य परिणामो। [इम सूत्रके विषयकी उपलब्धि अगले सूत्रोंकी चित्ते णत्थि क्लस्मं पुण्णं जीवम्स प्रामवदि ।।१३५॥ तुलनामें बीजरूपसे उद्धन चारित्रपाहुड़की गाथाओंसे घरिया पमादबहुला कालस्सं लालदा य विसयसु। होजाती है, जो भावनाओंकी पांच पांच संख्याको परपरितावपवादा पावम्म य श्रामवं कुणदि ॥१३९॥ बिना -पंचाम्तिकाय १३५, १३९ वाङ्मनोगुप्तीर्यादाननिक्षेपणसमित्यालोमकषायाकषाययोःसाभ्परायिकेयोपथयोः४ कितपानभाजनानि पंच ।४। तं छदुमत्स्थवीयगयारणं मजोगिकेवलीणं तं मव्वमी- वयगुरी मणगुती इग्यिामिदी सुदाणिक्खयो । रियाक्थकम्म णाम । -षटग्वण्डागम अवलायभायणाऽहिमाए भावणा होति ।।३।। दर्शनविशुद्धिविनयमम्पन्नता शीलवनेष्वननिचा - -चारित्रप्राभृत ३१ राऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगमंवेगो शक्तितम्त्यागनपसी क्रोधलोभभीमस्वहास्यप्रत्याख्यानान्यसाधुममाधिर्वैयावृत्यकरणमई दाचार्यबहुश्रुतप्रवचन नुर्वाचिभाषणंच पश्च ॥ ५॥ भक्तिगवश्यकापरिहाणिर्मार्गप्रभावना प्रवचनवत्मल काहभयहासलाहा माहा विवर्गयभावणा चव । त्वमिति तीर्थकरत्वम्य ॥२४॥ विदियम्स भावणाए प. पंचवय नहा हांति ॥ ३२ ।। दमणविसुज्झदाए विग्णयमंपराणदाए मीलब्वदेसु -चारित्रप्राभृत ३२ णिरदिचारदाए आवामासु अपरिहीणदाए खणलव पडिवुझणदाए लद्धिमंवेगमंपरागणदाए साहणं वेज्जा- शून्यागारविमोचितावासपरोपरोधाकर - कच्चजागजेनदाए अरहंतभत्तीए पवयणभत्तीए वच्छ- णभक्ष्यशुद्धिसद्धर्माऽविसंवादाः पञ्च ॥६॥ लदाए पबयणप्पभावणदाप अभिगणणाणोवजांगजुत्न- सुण्णायागणिवासो विमोचिताबास जं पगंधं च । Page #39 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२ एस सुद्धिमतं साम्मीसं विसंवादं ॥ ३३ ॥ -नात्रिप्राभृत, ३३ स्त्री गगकथा श्रवण तन्मनोहराङ्गनिरीक्षण दिग्देशानर्थदण्डविरतिसामायिकप्रोषधीपूर्वरतानुस्मरणवृष्येष्ट रसस्वशरीरसंस्का - पवासोपभोगपरिभोगपरिमाणानिधिसं - विभागव्रतसम्पन्नश्च ॥ २१ ॥ दि सर्वािदिसिमा पढमं श्ररणत्थदंडस्स वज्जरणं विदियं । भोगोपभागपरमा इयमेव गुणव्वया तिरिण ॥ २४ ॥ सामाइयं च पढमं विदयं च तहेव पोसहं भणियं । इयं अतिहिपुज्जं चत्थ सल्लेहरा अंते ।। २५ ॥ - चारित्रप्राभृत २४, २५ मिथ्यादर्शनाविर निप्रमादकषाययोगा बन्धहेतवः ॥ १॥ रह्यागाः पश्च ॥७॥ महिलालांयणपुव्वरइस र रणसंसत्तवर्माहविकहाहि । पुट्ठियरसंहिं विरच भावरण पंचावि तुरियम्मि ||३४ || - चारित्रप्राभृत ३४ मनोज्ञामनोज्ञेन्द्रिय विषयराग-द्वेषवर्ज - नानि पञ्च ॥ ८ ॥ अपरिग्गहसमगुण्णेसु महपरिसरसरूवगंधेसु । रायो माईणं परिहारो भावरणा होंति ।। ३५ ।। -चाप्राभृत ३५ अनेकान्त मैत्री प्रमोदकारुण्यमाध्यस्थानि च सत्वगुणाधिकक्लिश्यमानाऽविनयेषु ॥ ११ ॥ सम्मं मं मव्वभूदेवेरं मज्यं ण के वि । नियमसार १०४ जीवसु सारणुकंपा, प्रवचनसार २, ६५ असुहोवोगरहिदो सुहोवजुत्तो रण अरणदवियम्हि | होज्जं मज्झत्थोऽहं.. '11 —प्रवचनसार २, ६७ तिल्ल परिसुद्धे । गार्य नगारच ॥१६॥ दुविहं संजमचरणं सायानं तह हवं निरायारं । [ वर्ष ४ मिक्म्वावयचत्तारि संजमचरणं च सायारं ।। २२ ।। - चारित्रप्राभृत २२ -- चारित्रप्राभृत, २० अणुव्रतोऽगारी ||२०|| पंचेवरगुव्वयाई गुणव्वयाई हवंति तह तिरिण । मामरणपश्च्चयाखलु चउगे भरणंति बंधकत्तागं । मिच्छत्तं श्रविरमणं वसाय जोगा य बोद्धव्वा ॥ निःशल्यो व्रती ॥ १८ ॥ - प्रवचनासार २, ६६ मोत्तण मल्लभावं रिणम्सल्लेा जो दु साहु परिणमदि ॥ प्रकृतिस्थित्यनुभागप्रदेशास्तद्विधयः ||३|| - नियममार ८७ जं तं बंधविहारणं तं चव्विहं, वयडिबंधा, ठि. दबंधो, —योगिभक्ति ३ अणुभागबंधा, पदसबंधो चेदि । पर्याडट्ठिदिअणुभागप्पदेसबंधहि -षट्खण्डागम · - समयसार १०९ आठवां अध्याय सकषायत्वाज्जीवः कर्मणां योग्यान पुद्गलानादत्तं स बंधः ॥२॥ सपदसा सोप्पा कसायिदो मोहरागदांमहि । कम्मरजेहि सिलिट्ठो बंधा ति परूविदो समय || ...... - पंचास्तिकाय ७३ यो ज्ञानदर्शनावरणवेदनीयमोहनी यापुर्नामगोत्रान्तरायाः ॥४॥ जा सा थप्पा कम्पयर्ड गाम सा श्रट्ठविहा- गाणा · Page #40 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तत्त्वार्थमत्रके बीजांकी खोज वरणीयकम्मपयडी एवं दंसणावरणीय-वेयणीय-मोह- कम्म नं बंधादो एयविहं ।। ८७॥ तम्स संतकम्मं पुणणीय-आउअ-णाम-गांद-अंतराइय-कम्मपयडी चदि ।१८। तिविहं-सम्मतं मिच्छत्तं सम्मामिच्छत्तं ॥ ८८ ॥ -षट्खण्डागम। जंतं चारित्तमोहणीयं कम्म तं दुविहं-कसायवेदपंचनवद्वयष्टाविंशतिचतुढिचत्वारिंशद् णीयं णोकसायवेदणीयं चेव ॥ ८९ ॥ जं तं कमायवेदणीयं कम्मं तं सालसविह-अांनाणुद्विपञ्चभेदा यथाक्रमम् ॥५॥ बंधीकाहमाणमायालाहं, अपचक्खाणावरणीयकाह[ इस सूत्रक विषयकी उपलब्धि अगले मुत्रोकी माणमायालाह, पञ्चक्वाणावरणीयकाहमणमायालाई तुलनाम बीजरूपम उद्धृत पटग्बण्डागमके सूत्रोस मंजलणकोहमागमायालाहं चदि ॥६॥ जं तं हाजानी है। णोकमायवंदणीयं कम्मं तं गवविहं-इत्थीवेदमतिश्रतावधिमनःपर्ययकवलानाम ॥॥ पुग्सिवेद-णवंमयवेद-हस्म-दि-अद-साग-भय गाणावरणीयम्म कम्मम्म पंचपयडीओ-श्राभिगिवा- -दुगुंछा चेदि ।।१।। -पटवण्डागम हियणारगावग्गीय मुदणाणावरणीयं आहिरगारणानर- नारकर्यगयोनमानुषदेवानि ॥ १० ॥ गीयं मगापज्जवणागावरणीयं कवलगगागावरणीयं श्राउअम्मकम्मस्स चत्तारि पयडीओ-णिग्याउअं. चदि ॥ ॥ -पदग्वगागम तिरिक्वाउअं, मरणमाउअं, देवा उभं चेदि ।।१४।। चक्षरचतुरवधिकेवलानां निद्रानिद्रानिद्रा -षटग्वण्डागम प्रचलाप्रचलाप्रचलाम्त्यानगृद्धयश्च ॥७॥ गति जाति शरीराङ्गपाङ्गनिर्माणपन्धनदमणावरणीयम्स कम्मम्म गणवपयडीओ-णिहा संघातसंस्थानसंहननस्पर्शरसगन्धवर्णा - गिहा पयलापयला थीगणगिद्धि गिद्धा य पयला य चकखुदंमगणावरणीयं अचवखुटमगावरणीयं हिद नुपृयागुरुलघूपघातपरघातातपांद्यांतीच्छमगावग्गीयं कंवलदंमग्णावग्गीयं चेदि ॥४०॥ वामविहायोगतयः प्रत्येकशरीरत्रमसुभ -पटरवगडागम गमम्वरशुभमूक्ष्मपातिस्थिगदेययशः - मदमय॥८॥ वंदायकम्मम्म दुवं पयडीओ-मादावेदणीयं कीर्तिमनराणि तीर्थकरस्वं च ॥११॥ चव अमादावंदणीयं चव दियाओं पयडीश्रा ।।८।। गामम्मकम्मम्स बादालीस पिड पर्याडणामाणि-पटवण्डागम गदीणाम, जादिणाम, मगरणाम, सर्गग्बंधणगाम, दर्शनचाग्निमांदनीयाकषायकवाय मरीरसंघादणाम, मरीरमंठाणणाम, सरीरअंगावंगणाम: दनीयाग्यास्त्रिाहि नवांडशभंदाः मम्य मर्गग्मंघडणणाम, वण्गाणाम, गंधणाम, ग्मग्णाम, फामग्णाम, श्रागुपुवीणाम, अगुगलहुगणाम, उवस्वमिथ्यास्वनमयान्यकषायकषायो घाद- परघादणाम, उम्मामणाम, आदाव, उज्जाव, हाम्यरत्यरतिशोकमयजुगुप्मा स्त्रीपुन्न- विहायगदि, नम-थावर-सुहुम-पज्जत्त-अपजत्तपंसकवेदा अनन्तानुबन्ध्यप्रत्याख्यान- पत्तय साहारामरीर - थिगथिर-मुहासुह-सुभगप्रत्याख्यानमंज्वलनविकल्पाश्चैकशः क्रो दुभग-सुम्मर-दुसर-आदज्जप्रणादज-जकित्ति अजमकित्ति-णिमिणतिस्थयम्गामं चेदि ।।६।। धमानमायालाभाः ॥६॥ -पदबण्डागम जं नं माहीयं कम्मं तं दुविहं-दंपणमाहरणीयं चव उच्चैर्नीचेश्च ॥ १२॥ चाग्निमाहगीयं चव ।। ८६ ।। जं तं दमणमाहणीयं गादम्म कम्मम्म दुवे पयहीश्रा-उनागोंदं चेव, गीचा Page #41 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्षे ४ गादंचेव ।।१२।। -षटखण्डागम विहायगदि थिर सुभ सुभग सुस्सर आदेज जसकित्ति उच्चागांदाणं उक्कम्सगो ठिदिबंधो दस सागरांवम दानलाभांगोपभोगवीर्याणाम् ॥१३॥ कोडाकोडीओ ।। १३४ ॥ -षट्खण्डागम अंतराइयस्स कम्मस्स पंचपयडीओ-दाणंतराइयं, लाहंतराइयं,भागंतराइय,परिभोगंतराइय,वीरियंतराइयं त्रयस्त्रिंशत्सागरोपमाण्यायुषः ॥ १७ ॥ यात्रा चेदि एवदियानो पयडीओ ॥१३०॥ -पटवण्डागम ___णिराउ देवाउअस्स उक्कस्सो ट्ठिदिबंधो तेतीमं सागरांपमाणि ॥ १४०॥ मादितम्तिमृणामन्तरायस्य च त्रिंशत्सा तिरिक्खाउमणुमाउअस्स उक्कस्सो द्विदिबंधा गरोपमकोटीकोटयः परास्थितिः ॥१४॥ निरिण पलिदावमाणि ॥ १४८ ॥ -षट्नण्डागम पंचगह णाणावरणीयं णवण्हं दसणावरणीयाणं असादावेदणीयं पंचगहमंतगइयाणमुक्कम्सा ठिदिबंधा अपरा द्वादशमृहर्ता वेदनीयस्स ॥१८॥ तीसं मागगेवमकोडाकोडीओ ॥१२२॥ सादावेदणीयम्स जहगणओ ट्ठिदिबंधा बारम -पखण्डागम, जीवस्थानान्तर्गतचलिका मुहत्ताणि ।। १६९ ॥ पंच दसरणावरणीय असादावंदीयाणं जहगणसप्ततिर्मोहनीयस्य ॥१५॥ गा टिदिबंधा मागविमम्स तिगिणसत्तभागा, पलिदामिच्छत्तम्म उक्कम्सश्रा ठिदिबंधा सत्तरिमागोव वमस्म अमंग्वेज्जाद भागे ऊरणया ॥ १६६ ।। मकोडाकांडीश्री ।।१२२।। -पटखण्डागम सालसण्हं कमायाणं उक्कम्मा ठिदिबंधो चत्तालीम नामगोत्रयोरष्टौ ॥ १६ ॥ सागरांवमकांडाकोडीश्री ॥५३१।। -षटम्वण्डागम __जकित्ति उच्चागादाणं जहण्णगोट्टदिबंधा अट्ठविंशतिनामगानयोः ॥ १६॥ मुहुत्ताणि ।। २०१॥ गणमयवेद अरदि मोग भयदुगुंछा णिग्यगदी - शेषाणामन्तर्मुहर्ताः ॥ २० ॥ तिरिक्वगदी एइंदिय पंचिंदिय जादि श्रारालिय वउव्वि पंचण्हं णाणावरणीयाणं चदुण्हं दमणावरणीय तेजाकम्मइयमरीर हुंडसंठाण श्रोगलिय वउब्विय- याणं लोभसंजुलणस्स पंचण्हमंतगइयाणं जहण्णा सगर अंगावंग असंपत्तसंवसंघडण वण्ण गंध रस- हिदिवंधी अंता मुहुत्तं ॥१६३ ।। -षटम्बण्डागम फामणिग्यगदि निरिक्ग्वगदि पााग्गाणुपुव्वी गुरु नववां अध्याय लहुश्र उवघाद परघाद उस्सास आदावुज्जीव अप्प - सत्थविहायगदि तस थावर वादर पजन पत्तंयसरीर- प्राश्रवनिरोधः संवरः ॥१॥ अथिर असुभ दुभग दुम्मर अणादेज्ज अजसकित्ति- पासवणिगेहा (संवर्ग) -समयसार १६६ णिमिण णीचागादाणं उक्कस्सगा दिदिबंधा वीसं तपसा निर्जरा चः ॥३॥ मागगवमकोडाकोडीओ ॥१३॥ -पटम्बगडागम मंवग्जोगेहिं जुदा तवेहिं जो चिट्ठदे बहुविहेहिं । पुरिस बंद हस्स दि दवगदि समचउरमसंठाण- कम्माणं णिज्जरणं बहुगाणं कुणदि सो णियद ।। वज्जग्सिहमंघडण देवगदिपाांग्गाणुपुव्वी पसस्थ -पंचाग्तिकाय ५४४ Page #42 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तत्त्वार्थसूत्रके बीजोंकी खोज सम्यग्योगनिग्रहो गुप्तिः ॥४॥ अद्धषमसरणमंगत्तमण्णसंसारलागमसुचितं । कालम्ममोहमगणागगहोसाइअसुहभावाणं । आमव संवर णिज्जर धम्म बाहिं च चिंतेज्जो ।।२।। परिहाग मणगुती ववहारणयेण परिकहियं ॥६६।। -वारसअणुवेक्वा ॥ २ ॥ थीगजचाग्भत्सकहादिवयणस्म पावहे उस्म । ___ मार्गाच्यवननिर्जरार्थ परिषोढव्या परिषहाः परिहाग वचगुती आलियादिणियत्तिवयणं वा ।।६७॥ जे वावीस परीसह सहति सत्तीसरहिं संजुत्ता। वंधण-छेदण-मारण-श्रांकुचरण नह पमारणादीया। न होति वंदीया कम्मम्ववणिजरा साहू ॥१२॥ काकिरियाणियती णिहिट्ठा कायगुत्ति ति ॥६॥ -सूत्रप्राभृत १२ -नियममार ६६, ६७, ६८ सामायिकच्छेदोपस्थापनापरिहारविशुद्धिईयोभाषेषणाऽऽदाननिनोपोन्सर्गाः स- मूक्ष्ममाम्पराययथाख्यातमिति चारित्रम् १८ मितयः ॥शा ___संजमाणुवादेण अस्थि संजदा मामाइयच्छेदोवट्ठापामगमगंगा दिवा अवलांगता जुगापमाणं हि। वसुद्धिसंजदा परिहारसुद्धिसंजदा जहावादविहारगच्छड पुग्दा ममणां इग्यिामिदी हवे नम्म ॥६१॥ सुद्धिसंजदा, अमंजदा चेदि ।। १२३॥ पंसुगरणहामकक्कमपर्गणदापमंमियं वयणं । -पटवण्डागम १, १, १२३ परिचना मपदं भामाममिदी वदंतम्म ॥६॥ मामाइयं तु चारित्तं छेदावट्ठावणं नहा । कदकारिदागुमादणहदं नह पासुगं पमन्थं च । तं परिहारविसुद्धि व संजमं सुहुमं पुणां ।। दिगणं परंण भत्तं समभुती एमणाममिदी ।।६।। जहाग्वादं तु चारित्तं, . . . . . | -चारित्रभक्ति ३,४ पाथइकमंडलाई गहणविमग्गेसु पयनपरणामी । अनशनावमौदर्यवृत्तिपरिमंख्यानरसपरिआदावणगिकग्वेवणमिदी होदित्ति णिहिट्ठा ॥६॥ स्यागविविक्तशय्यामनकायक्लेशा बाद्य पासुगभूमिपदम गूढ गहए पगंपगहेण । तपः ॥ १६ ॥ प्रायश्चित्तविनयवेयावृत्य - उचा दिच्चागा पट्ठाममिदी हवे तम्म ॥६५॥ स्वाध्यायव्युत्सर्गध्यानान्युत्तरम ॥२०॥ -नियममार ६१. ६२, ५३, ६४, ६५ जंतं तवाकम्मं णाम ॥२४॥ उत्तमक्षमामा वार्जवशौचमत्यसंयमतप- नं मम्भत्तग्बाहिरं बाग्मविहं तं सव्वं नवाकम्मरणाम।।२५।। स्त्यागाकाचिं-यब्रह्मचर्याणि धमः ॥३॥ -पदग्वण्डागम उन्नम ग्वम महवज्जव मच्चमउञ्चं च मंजमं चंव। ज्ञानदर्शनचारित्रोपचागः ॥२३॥ नव चागम किचराई बम्हा इदि दमविहं हादि ॥७०॥ विणयं पंचपयारं, -भावप्राभृत १०२ वाग्मअणुवेक्वा ७० दमणणाणचग्नेि तविणय णिचकाल पमत्था । अनित्याशरणसंसारकत्वान्यस्वाशुच्या -दर्शनप्राभृन २३ सवमंवरनिर्जगलोकोधिदुर्लभधर्मस्वा- प्राचार्योपाध्यायनपग्विशेभ्यग्लानगणकु. व्यास्तत्त्वानुचिन्तनमनुप्रेक्षाः ॥७॥ लमंघमाधुमनोजानां ॥ २४ ॥ Page #43 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष। विज्जावच्च दसवियप्पं । -भावप्राभृत १०३ बन्धहेस्वभावनिजैराभ्यां कृत्स्नकर्मविप्रवेज्जावञ्चणिमित्तं गिलाणगुरुबालवुड्डसमणाणं । मोक्षो मोक्षः ॥२॥ लागिगजणसभामा ण शिंददा वा सुहोवजदा ॥ -प्रवचनसार ३, ५३ । .५३ जो संवरेण जुत्तो णिज्जरमाणोध सव्वकम्माणि । वाचनाच्छनाननाम्नायपोशाy ववगदवेदा उस्सा मुयदि भवंतण सा मोक्खो॥ जा तत्थवाथणा वा पुच्छाणा वा पडित्थणा वा पग्यि -पंचास्तिकाय १५३ हणा वा अणुपेहणा वा थयथुइधम्मकहा वाजेचामण्णेण आउस्स खयण पुणो णिण्णासो होइ संसपयडीणं । एवमादिया ।।१२।। -षटग्वण्डागम पच्छा पावइ मिग्धं लोयग्गं समयमेत्तेण ॥१७५।। आर्तरौद्रधर्मशक्लानि ॥ २८ ॥ -नियममार १८१ झायहि धम्म सुकं अटुं मदं च झाणमुत्तणं। अन्यत्र केवलसम्यक्त्वज्ञानदर्शनसिद्ध -भावप्राभृत ११९ स्वेभ्यः । ४॥ सम्यग्दृष्टिश्रावकविरनानन्तवियोजकदर्शन- मम्मत्तणागदमणबलवीग्यिवङमाण जे मव्वे । मोहक्षपकोपशमकोपशान्तमोहक्षपकक्षाण- कलिकलमपावर्गहया वरणाणी हांति अचिरेण ।। माहजिनाः क्रमशोऽमव्ययगुणनिर्जगः४५ . -दर्शनप्राभृत ६ संजदासंजदम्म गुणमडिगुणा अमंग्वजगणी ॥१॥ विज्जदि केवलग्गाणं केवलमाक्ग्वं च केवलं विग्यिं । अधापवत्तमंजदम्म गुणसडिगुणां अमंग्वज्जगणा केवलदिट्ठि अमुत्तं अथित्तं मप्पदमत्तं ।।१८१।। ॥२१९॥ अणंनाणुबंधिविमंजाइयं नम्म गुणमेडिगुणां _ -नियमसार १८१ असंखजगुणा ।।२२०॥ दमणमाहक्खवगम्स गणसं- तदनंतरमृध्व गच्छान्यालोकान्तात ॥५॥ डिगुणा असंखेज्जगुणा ।।२२।। कमाय उवमामगस्स कम्मविमुक्को अप्पा गच्छड लोयग्गपज्जतं । गुणसंढिगुणा असंग्वेज्जगुणा ।।२२२।। उवमंतकसाय -नियमसार १८० वीदगगछदुमत्थस्स गुणमडिगुणा असंग्वेज्जगणां धमोस्तिकायाभावात ॥८॥ ॥२२३।। कसायखवगम्म गुणसढिगुणा असंखेज्ज- धम्मस्थिकायभावा तत्तो परदा ण गच्छति ।। गुणां ।।२२४।। खीरणकमाय वीदरायछ दुमत्थम्म गुण -नियममार १८३ संढिगुणा असंग्वेजगुणा ।।२२५॥ -पदग्बण्डागम क्षेत्रकालगतिलिंगतीर्थचरित्रप्रत्येकबुद्ध बोधितज्ञानावगाहनान्तरमख्याल्पबह . दशवा अध्याय त्वतः माध्याः॥६॥ मोहक्षयाज्ज्ञानदर्शनावर्णान्तगयक्षयाच्च- नित्थयग्दरसिद्ध जलथलायासणिव्वुदं मिद्धे । केवलम् । १॥ अंनयडेदरमिद्धे उक्कस्म जहराणमज्झिमागाहे ॥२॥ मंपुगणं पुण चारित्तं पविजंता तदा चत्तारि कम्मा- उइमह निरियलोए छव्विहकाले य णिव्वुदे सिद्धे । णि अंतामुहुत्तट्टिदं वदि गणाणावरणीयं दसणावग्णीयं उवमग्ण रुवसग्गे दीवोदहिरिणव्वुदे य वंदामि ॥३॥ माहणीयमंतगइयं चदि ।।३२५।। -षटवण्डागम पच्छायडे य मिद्धे दुगतिगचदुणाग पंचचदुग्जमे । Page #44 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तत्वार्थसूत्रके बीजोंकी खोज परिवडिदा पग्विडिदे संजममम्मत्तणाणमादीहिं ।।४॥ अपना मत स्थिर तथा व्यक्त करें। और जिन विद्वानों साहरग्गा साहरणे मम्मुग्घादेदरे य णिव्वादे। की दृष्टि में प्रार्च न दिगम्बर सा हत्यको देखते हुए विदेपलियंकाणसगणे विगय मले परमणाणगे वंदे ।।५।। दृसरं बीजसूत्र भी आप हों वे उन्हें शीघ्र ही यहाँ बदं वेदंता जे पुरिसा ग्ववगसंढिमारूढा । भंजने अथवा प्रकट करने की कृपा करें । 'महाबन्ध' सेसादयण वितहा ज्झाणुवजुत्ता य ते दु मिति॥६॥ परसे बीजसूत्रों का संग्रह बहुत ही आवश्यक है, अतः पत्यसयं बुद्धा बाहियबुद्धा य होति ते मिद्धा । उसकी प्रति कगकर वीरसंवामंदिरको भिजवानका पत्तयं पत्तयं ममय समयं परिणवदामि ।।७।। श्रेय या तो किसी महानुभावको लेना चाहिये और -मिद्धभक्ति २,३,४,५,६,७ या मुडविद्रीमें ही किसी योग्य विद्वानके द्वाग उमपर में बीजसूत्रोका संग्रह कराकर तुलनाके साथ प्रकट अाभार और निवेदन करना चाहिये । साथ ही, लोकविभागादि-विषयक इम लग्बकं नय्यार करनम मुझे मुख्तार माहब दम एम प्राचीन ग्रंथोंकी भी वांज होनी चाहिये (अधिष्टाना वीर सेवामंदिर) में जा महाय एवं महयोग जिनका निर्माण तत्त्वार्थसूत्रमे पहले हुआ हो। त्रिलोकप्राप्त हुआ है और ग्वाजकं समय उनकी 'धलादिश्रत- प्रज्ञप्तिमें 'लोकविनिश्चय' जैग कई प्राचीन ग्रंथोंका परिचय' नामक हजार पंजवाली नाट्मबुकमे जा उल्लंग्व मिलना है, उन्हें खोजकर जरूर देखना चाहिये। सहायता मिली है उम मबके लिये मैं आपका अनीव ऐमा हानपर तत्त्वार्थमूत्रके बीजोंकी ग्याज मुकम्मल आभारी एवं कृतज्ञ हूँ। हो मकेगी। ___ अन्तम विद्वानाम मेग यह मानुगंध निवेदन है । कि वे इम लखपर गम्भीरताक माथ विचारकर वीरमवामंदिर, मग्मावा, ता०२०-१-१९४१ साहित्यपरिचय और समालोचन १ कविकुल किरीट मरिशेग्वर-लेम्वक, अवस्थाओंके दिये हैं। पुस्तकमे मब मिलाकर चित्र क्रमाठी। प्रकाशक, चन्दलाल जमनादास शाह, छागी दो दर्जनके करीब है, जिनमें गुरु श्रीकमलविजय, और (बडादा)। पृष्ठ संख्या, ४५०। मूल्य, मजिल्दका श्रीमद्विजयानन्दसूर श्रादके चित्र भी शामिल हैं। आटाना। पुम्नककी भाषा अच्छी प्रौढ और लंग्वनशैली सुन्दर ____ यह लब्धिसूरीश्वर ग्रन्थमालाका ५ वा प्रन्थ है। छपाई-मफाई और गेट-अप मब आकर्षक हैं। है, जा गुजराती भाषाम विजयलब्धिमूरिक जीवन- इतनी बड़ी तथा चित्रों वाली पुस्तकका मूल्य पाठ चरित्रको लिये हुए है । जीवनचरित्र बहुत कुछ खोजक आना बहुत कम है और वह गुरुभक्तिका लिये हुए माथ लिग्या गया जान पड़ना है और उसमें सूरि- प्रचारकी टिम जान पड़ता है । परन्तु पुस्तकमें जीका जीवनवृन उनके कार्यों नथा विहागेंके परिचय- विपयसूचीका न होना बहुत ग्बटकना है । पुस्तक महिन वर्गिन है । चित्र भी दीक्षाकालम लेकर अनक पढन नथा संग्रह करने के योग्य है। Page #45 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८ अनेकान्त [वर्ष ४ २सागारधर्मामृत सटीक-मूललेखक,पंप्रवर श्राशाधरजीका बहुत कुछ परिचय मिल जाता है। आशाधर । अनुवादक, व्याख्यानव चस्पति पं० देवकी- आपकी उक्त स्वोपज्ञ टीकाके अनुसार पं० देवकीनन्दन जैनशास्त्री कारंजा । प्रकाशक, मलचन्द नन्दन जी शास्त्रीने इसका हिन्दी अनुवाद किया है। किसनदास कापड़िया, सूरत । पृष्ठसंख्या ३६४, बड़ा यद्यपि अनुवादमें कहीं कहीं टीकाके कितन ही स्थल साइज । मूल्य, सजिल्द प्रतिका ३) छोड़ दिये गये हैं और कितने ही स्थलोंपर अनुवाद ___ इस ग्रंथका विषय अपने नामम ही स्पष्ट है। करने में संकोच भी किया गया है। उदाहरणके लिये पं० श्राशाधर जी विक्रमकी १३ वी शताब्दीक बहुश्रत पृष्ठ २४७ पर दिये हुए ३४३ श्लोककी स्वीपज्ञटीकाका प्रतिभाशाली विद्वान होगये हैं। अपने पूर्वाचार्योंके 'गृहत्यागविधि' वाला कितना ही उपयोगी अंश श्रावकाचार-विषयक ग्रंथोंका अच्छा मनन और परि- छोड़ दिया गया है। भाषा-साहित्यको कुछ और भी शीलन करके इस ग्रंथकी रचना की है । ग्रंथमें गृह- परिमार्जित करनेकी आवश्यकता थी । अस्तु; स्थोंकी क्रियाओंबा और उनके कर्तव्य दिका विस्तृत आपका यह उद्योग सगहनीय है । अच्छा होता यदि विवेचन है । ग्रंथकर्तान इम पर स्वयं एक टीका ऐसे ग्रंथकं अनुवादकं साथम अन्य आचार-विषयक भी लिग्बी है जो इस ग्रंथकं साथ माणिकचन्द्र ग्रंथ- ग्रन्थोंके कथनका तुलन त्मक टिप्पण भी लगा दिया मालामें प्रकाशिन हाचुकी है । इम टीकामे मलग्रन्थक जाता और प्रतिमा श्रादिविषयक कुछ कथनांक विवपद्यों का विस्तृत एवं उपयोगी विवंचन किया है। चनात्मक परिशिष्ट भी लगा दिये जाते । इमकं सिवाय. श्रावकाचारविषयक ग्रन्थों में यह अपनी जाडका एक संस्कृत टीकाम प्रयुक्त हुए अथवा 'उक्तं च' आदि ही ग्रन्थ है। रूपसं उद्धत प्राचीन पद्योंकी अकादि क्रममे एक ग्रंथकं प्रारंभमें अनुवादक जी ने ग्रंथक प्रत्यक सूची भी माथमे लगाई जानी चाहिये थी। इन सबके अध्यायका मंक्षिप्त परिचय विषय प्रवेश' शीर्षकके हानेपर प्रस्तुत संस्करणकी उपयोगिता और भी नीचे हिन्दी भापामें लगा दिया है, जिससे ग्रंथक अधिक बढ़ जानी। फिर भी पह संस्करण अपने प्रतिपाद्य विषयका संक्षिप्त परिचय पाठकोंको मालता- पिछले संस्करणकी अपेक्षा बहुत कुछ उपयोगी है। से हो जाता है। इसके पश्चात् ढाई फार्मकी उपयोगी छपाई माधारण और कहीं कहींपर अनेक अशुद्धियोंको एवं महत्वपूर्ण प्रम्तावना है, जो जैन ममाजकं प्रसिद्ध लिये हुए है । आशा है कापड़िया जी अगले संस्करण माहित्यसंवी विद्वान पं० नाथगम जी प्रेमी चम्बईकी में इन मब त्रुटियोंकी पूर्ति करके उसे और भी उपलिखी हुई है। इसमें ऐतिहासिक दृप्रिम पं० श्राशा- यागीबनानेका प्रयत्न करेंगे। धरजीक विषयमे बड़े परिश्रमसं महत्वपूर्ण मामग्रीका -परमानन्द शास्त्री मंकलन किया गया है। इमस जिज्ञासुओं का पं० Page #46 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके प्रेमियोंसे आवश्यक निवेदन --****************** ** जा सज्जन 'अनेकान्त' में प्रेम रखते हैं, उसकी ठोस योग प्रधान है, उसके बलपर दूपरी आवश्यकताओंकी भी सेवाओंय कुछ परिचित हैं--यह समझते हैं कि उसके द्वारा बहुत कुछ पूर्ति की जासकती है। धनका प्रभाव निःसन्देह क्या कुछ संवाकार्य होरहा है-हो सकता है, और साथ एक बहुत ही खटकने वाली चीज़ है। धनाभावके कारण ही यह चाहनं हैं कि यह पत्र अधिक ऊँचा उटे, घाटकी संसारका कोई भी कार्य ठीक नहीं बनता, इसीसे दरिद्रियों के चिंताम मुक्त रहकर स्वावलम्बी बने, इसके द्वारा इतिहास मनोरथ उत्पन्न हो होकर हृदयमें ही विलीन होते रहते हैं तथा साहित्यक कार्योको प्रोजन मिले--अनेक विद्वान उन और वे कोई बड़ा काम नहीं कर पातं । 'चार जनोंकी लाकडी और एक जनका बोम' अथवा 'बूंद-बूंदमं घट भरे' की कार्यों के करने में प्रवृत्त हो-नई नई खोजें और नया नया माहिल्य मामने आए, प्राचीन साहित्यका उद्धार हो, मच्च कहावतक अनुसार छोटी छोटी सहायता मिलकर एक बहत इतिहासका निर्माण हो. धार्मिक सिद्धान्त की गुत्थियां सुलमें, बड़ी सहायता हो जाती है और उससे बड़े बड़े काम निकल समाजकी उन्नतिका मार्ग प्रशस्तरूप धारण करे. और इस जाते हैं, तथा किसी एक व्यक्ति पर अधिक भार भी नहीं प्रकार या पत्र नममाजका एक आदर्शपत्र बने समाज इस पड़ता। समाजकं अधिकांश कार्य इसी संयुक्त शक्तिके पर उचित गर्व कर मकौर समाजके लिये यह गौरवको आधारपर चला करते हैं। अनेकान्तको ऊँचा उठाने और उसे तथा दुसरं के लिये म्गृहाकी वस्तु बने तो इसके लिये उन्हें अपने मिशन में सफल बनानके लिये मैंने इस समय अनेकांत इस पत्रके सहयोगमें अपनी शक्तिको केन्द्रित करना चाहिय। की सहायताके मिम्न चार मार्ग स्थिर किये हैं। इनमेंस जो और कर मंयुक्त शक्तिके बलपर मब कछ हो सकता है. अकेले मज्जन जिम मार्गसे जितनी महायता करना चाहें मम्पादक अथवा प्रकाशकमे कोई काम नहीं बन सकता और सर्क उन्हें उस मार्ग उतनी सहायता ज़रूर करनी चाहिये न खाली मनोरथ मनोरथमे ही कोई काम यन पाता है, तथा दूसरोंमे भी करानी चाहिये, ऐसा मेरा मानुरोध निवेदन मनोरथकं पाथमें जब यथेष्ट पुरुषार्थ मिलता है तभी कार्यकी है। प्राशा है अनेकान्तकं प्रेमी सज्जन हमपर ज़रूर ध्यान ठीक मिद्धि होती है । पुरुषार्थ बही चीज़ है । अतः इस दिशा देंगे और इस तरह मेरे हाथोंको मजबूत बनाकर मुझे विशेष में अनेकानके प्रेमियंका पुरुषार्थ खास नोरमे अपेक्षित है-- रूपसे सेवा करनेके लिये समर्थ बनाएंगे। महायताके वे चार उनका यह मुख्य कर्तव्य है कि वे पुरुषार्थ करके इस पत्रको मार्ग इस प्रकार हैं:-- समाजका अधिकर्म अधिक सहयोग प्राप्त कराण और इसके । (1) ५), ५०), १००) या इससे अधिक रकम देकर सहासंचालकों के हाथों को मजबूत बनाएँ जिम्मम्मे व अभिमतरूप यकोंकी चार श्रेणियों में किसी में अपना नाम लिवाना। में इस पत्रको ऊँचा उठाने तथा लोकप्रिय बनानेमें समर्थ २) अपनी योरसे अम्ममोंको तथा अजैन संस्थाओं को हो मर्क। अनेकान्त पन झी (बिना मूल्य) या अर्ध मूल्यमें भिज___इसके लिये अनेकान्तके प्रचार, विद्वन्सहयोग और वाना और इस तरह दूसराको अनेकान्नके पढ़नेकी प्रा.र्थिक सहयोगकी बड़ी जरूरत है। इनमें भी आर्थिक सह- सातिशय प्रेरणा करना । (हम मदमें सहायता देनेवालों Page #47 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकांत [वर्ष ४ की ओरसे दस रुपयेकी सहायता पीछे अनेकान्त चारको पोरसे उपहार ग्रन्थोंकी योजना भी इस मदमें शामिल मी और पाठको अर्ध मूल्यमें भेजा जामकेगा।) होगी। (३) उत्सव-विवाहादि दानके अवसरों पर अनेकान्नका (१) अनेकान्तके प्राहक बनना, दूसरोंको बनाना और अनेकांत बराबर खयाल रग्वना और उसे अच्छी लहायता भेजना के लिये अच्छे अच्छे लेख लिखकर भेजना, लेखोंकी तथा भिजवाना, जिसमें अनेकान्त अपने अच्छे विशेषाङ्क सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रकाशित होनेके लिये निकाल सके. उपहार ग्रन्योंकी योजना कर सके और उपयोगी चित्रोंकी योजना करना और कराना । उत्तम लेखों पर परम्कार भी दे सके। म्वत: अपनी सम्पादक 'अनेकान्त' भनेकान्तके नये ग्राहकोंको भेंट पिछले वर्ष अनकान्तक ग्राहकोंको पोष्टेज-पैकिग खर्चके लिये चार प्राने अधिक भेजनेपर महत्व के अध्यात्मग्रन्थ 'ममाधितंत्र की कापियां भेटमें दीगई थी। इस वर्ष जो न्य ग्राहक बनेंगे उन्हें भी मूल्य के साथ अथवा बादको चार प्रान अधिक भेजनेपर उक्त ग्रन्थ भेंट स्वरूप दिया जायगा। साथ ही,पं. जुगलकिशोर मुख़्तार सम्पादक 'अनेकान्त' की लिग्वी हई ४८ पृष्ठकी उपयोगी पुस्तक 'मिद्धिमोपान' की एक एक प्रति भी दीजायगा । सूचनार्थ निवेदन है । व्यवस्थापक 'अनका त' भगवान महावीर और उनका समय पं० जुगलकिशोर मुख्तार सम्पादक 'अनेकान्त' की लिखी हुई यह महन्वकी पुस्तक सबके पढ़ने तथा प्रचार करनेके योग्य है। मूल्य एक प्रतिका चार पाने । प्रचारकी दृप्टिसे सौ-दोमो कापियां एक साथ ग्वरीद करने वितरण करके वालों के लिये १५) रु. मेंकड़ा । पोप्टेज अलग । मिलने का पता-- __ पन्नालाल जैन अग्रवाल गली हकीम बका, चावड़ी बाज़ार, देहली Page #48 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल [सम्पादकीय ] श्री अलंकदेव, विद्यानंद और जिनसन-जैसे हुए, कपायभावको लेकर किमी भी जीवका अपने "महान आचार्यों तथा दृमर भी अनक मन, वचन या कायम पीड़ा पहुँचाना नहीं चाहते थे। प्रमिद्ध मुनिया और विद्वानों द्वारा किये गये जिनके इस बातका मदा यन्न रग्बने थे कि किमी प्राणीको उदार म्मरणों एवं प्रभावशाली म्नवनों-संकीतनोंका उनके प्रमादवश बाधा न पहुँच जाय, इमीलिय व अनकान्न के पाठक दृमर वर्षकी मभी किरणों के शुरु दिन में मार्ग शोधकर चलते थे, चलन ममय दृष्टिको म आनंदकं माथ पढ़ चुके हैं और उनपा में जिन इधर उधर नही भ्रमाते थे, गत्रिको गमनागमन नहीं आचार्य महादयकी असाधारण विद्वना. योग्यता, करते थे, और इतनं माधनसंपन्न थे कि मात ममय लकमवा और प्रनिष्ठादिका कितना ही परिचय प्राप्र एकासनस रहते थे-यह नहीं होना था कि निद्राकर चुके हैं, उन म्वामा ममंनभद्रक बाधाहन और वस्था में एक कीटम इमरी कर्वट बदल जाय और शांत मुनि जीवनमें एक बार कटिन विपनिकी भी एक उमकं द्वाग किमी जीवजंतुको बाधा पहुँच जायः व बड़ी भाग लहर आई है. जिम आपका 'अापकाल' पीछी पुम्नकादिक किसी भी वस्तुका दग्व भाल कर कहते हैं । वह विपत्ति क्या थी और ममंतभद्रन उम उठात-धरते थे और मलमत्रादिक भी प्रासुक भूमि कैम पार किया. यह मत्र एक बड़ा ही हृदय-द्रावक तथा बाधार्गहन एकांत स्थानमें क्षेपण कग्न थे । इम विषय है। नाच उमाका, उनके मुनि-जीवन की झाँकी कमिवाय, उनपर यदि काई प्रहार करना ना व उम महिन. कुछ परिचय और विचार पाठकोंक मामने नही सकति व भी नहीं . उपस्थित किया जाना है। जंगलमे यदि हिंस्र जंतु भी उन्हें मनाने अथवा डंममुनि-जीवन मशकादिक उनके शरीरका रक्त पीने थे ना व ममंनभद्र, अपनी मुनिचयांक अनुमार, अहिमा. बलपूर्वक उनका निवारण नहीं कंग्न थे, और न मत्य, अम्नेय, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह नामकं पंचम- ध्यानावस्थामें अपने शरीरपर हान वाल चींटी आदि हावतों का यथेष्ट गनिम पालन करते थे: इया-भाषा- जंतुओंके म्वच्छंद विहार को ही गकते थे । इन मव एपणादि पंचममिनियांक परिपालनद्वारा उन्हें निरंतर अथवा इमी प्रकारके और भी किनने हा उपमा पुष्ट बनाने थे, पांचा इंद्रियाक निग्रहमें सदा तत्पर, नथा पर्गपहोंका माभ्यभावम महन करते थे और मनागुनि श्रादि नीनों गुप्तियाक पालनमें धीर और अपने ही कर्मविपाकका चिंतन कर मदा धैर्य धारण सामयिकादि पडावश्यक क्रियाओंक अनुष्ठानम मदा करने थ–दमगंका उममें जग भी दाप नहीं देते थे। मावधान रहन थे । वे पूर्ण अहिंमावतका पालन करने ममनभद्र मायके बड़े प्रं मी . व मदा यथार्थ Page #49 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२ अनेकान्त [वर्ष ४ भाषण करते थे, इतना ही नहीं बल्कि, प्रमत्तयोगस पकरण (पीथी) और ज्ञानोपकरण (पुस्तप्रेरित होकर कभी दृमगेका पीड़ा पहुँचानवाला कादिक ) के रूपमें जो कुछ थाडीसी उपधि सावध वचन भी मॅहमे नहीं निकालने थे; और थी उससे भी आपका ममत्व नहीं था-भले ही उसे कितनी ही बार मौन धारण करना भी श्रेष्ठ ममझते काई उठा ले जाय, आपको इसकी ज़रा भी चिन्ता थे। स्त्रियों के प्रति आपका अनादग्भाव न होते हुए नहीं थी। आप सदा भूमिपर शयन करते थे और भी आप कभी उन्हें गगभावसे नहीं देखते थे; बल्कि अपने शरीरको कभी संस्कारित अथवा मंडित नहीं माना. बहिन और सुनाकी नग्हमें ही पहिचानन थे; करत थे; यदि पसीना आकर उसपर मैल जम माथ ही, मैथुनकर्मम, घृणात्मक + दृष्टिक माथ, जाता था तो उसे स्वयं अपने हाथ धोकर दूसरोंका आपकी पूर्ण विरक्ति रहती थी, और आप उममें अपना उजलारूप दिखानकी भी कभी कोई चेष्टा द्रव्य नथा भाव दानों प्रकारकी हिमाका मद्भाव नहीं करते थे; बल्कि उस मलजनित परीपहका मानते थे । इसके मिवाय, प्राणियोंकी अहिंमा साम्यभाव जीतकर कर्ममलको धानेका यत्न करत को श्राप 'परमब्रह्म' ममझते थे * और थे, और इसी प्रकार नग्न रहते तथा दूसरी सरदी जिम आश्रगविधिम अरणमात्र भी प्रारंभ न होता गग्मी आदिकी परीपहोंको भी खुशीखुशीसे महन हो उमीके द्वारा उम अहिमाकी पूर्णमिद्धि मानते थे। करते थे। इसीसं आपने अपने एक परिचय + म. उमी पूर्ण अहिमा और रमी परमब्रह्मकी मिद्धिक गौरवके साथ अपने आपको 'नग्नाटक' और 'मललिए आपने अंतरंग और बहिरंग दोनों प्रकारके मलिनतनु' भी प्रकट किया है। परिग्रहोंका त्याग किया था और नेग्रंथ्य-श्राश्रममें ममंनभद्र दिनमे सिर्फ एक बार भोजन करते थे. प्रविष्ट होकर अपना प्राकृतिक दिगम्बर वेष गत्रिको कभी भोजन नहीं करते थे, और भोजन भी धारण किया था । इमीलिये आप अपन पाम कोई आगमोदित विधिक अनुमार शुद्ध, प्रासुक तथा कौडी पैमा नहीं रखते थे, बल्कि कौड़ी पैममें निर्दोप ही लेने थे। वे अपने उम भाजनके लिय मम्बंध रग्बना भी अपने मुनिपदके विरुद्ध ममझत किमीका निमंत्रण स्वीकार नहीं करते थे, किसीका थे। आपके पास शौचोपकरण (कमंडल), संयमो- किमी रूपमें भी अपना भोजन कग्न कगर्नकं लिय र प्रेरित नहीं करते थे, और यदि उन्हें यह मालूम हो ___ आपकी इस घृणात्मक दृष्टिका भाव 'ब्रह्मचारी' । के निम्न लक्षणमं भी पाया जाता है, जिसे आपने जाता था कि किसीन उनके उद्देश्यस काई भोजन रत्नकरंडक' में दिया है तय्यार किया है अथवा किमी दूसरे अतिथि (मेहमलवीजं मलयानि गलन्मलं पूनिर्गधि बीभत्म। मान) के लिये तय्यार किया हश्रा भोजन नन्हें दिया पश्यन्नंगमनंगाद्विग्मति यां ब्रह्मचारी मः ॥१४३।। जाता है तो वे उम भोजनको नहीं लेते थे। उन्हें * अहिंमा भूनानां जगनि विदितं ब्रह्म परमं, उसके लेने में सावद्यकर्मके भागी होने का दोष मालूम न मा तत्रारंभोस्त्यगुरपि च यत्राश्रमविधौ।। __पड़ता था और मावद्यकर्म से वे सदा अपने आपको भवानेवात्याक्षीन्न च विकृतवेषोपधिरतः ॥११६ ॥ मन-वचन-काय तथा कृत-कारित-अनुमोदनद्वाग दृर -स्वयंभूम्तोत्र । + 'कांच्यां नग्नाटकाहं मलमलिनतनुः' इत्यादि पद्यम। में परमकरुणा ग्रंथमुभयं, Page #50 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण समन्तभद्रका मुनि-जोवन और आपत्काल रखना चाहते थे। वे उसी शुद्ध भोजनको अपने लिये मिद्धि, वृद्धि तथा स्थितिका सहायक मात्र मानते थेकल्पित और शास्त्रानुमादिन समझते थे जिस दातारनं और इसी दृष्टि से उसका ग्रहण करते थे । किमी स्वयं अपन अथवा अपन कुटुबम्के लिये तय्यार शारीरिक बलको बढ़ाना, शरीरको पुष्ट बनाना अथवा किया हो, जो देनके स्थान पर उनकं आने पहले तेजोवृद्धि करना उन्हें उसके द्वाग इष्ट नहीं था; वे ही मौजूद हो और जिसमेंसे दातार कुछ अंश उन्हें स्वादकं लिय भी भोजन नहीं करते थे, यही वजह है कि आप भाजनके ग्रासको प्राय: बिना चबाये हीभक्तिपूर्वक भेंट करकं शेषमें स्वयं संतुष्ट रहना चाहता हा-उसे अपने भाजनक लिये फिर दोबारा प्रारंभ बिना उसका रसास्वादन किये ही-निगल जाते थे। करनेकी कोई जरूरत न हो। आप भ्रामरी वृत्तिम, आप समझते थे कि जो भोजन कंवल दहस्थितिको दातार का कुछ भी बाधा न पहुँचाते हुए, भाजन कायम रखने के उद्देशसे किया जाय उसके लिये रमालिया करते थे। भाजनके समय यदि आगमकथित म्वादनकी ज़रूरत ही नहीं है, उमे ता उदरस्थ कर दोषोमस उन्हें काई भी दोष मालूम पड़ जाता था लेने मात्रकी जरूरत है। साथ ही, उनका यह विश्वाम अथवा कोई अन्तगय मामने उपस्थित हो जाता था था कि रसास्वादन कग्नंस इंद्रियविषय पुष्ट होता है, इंद्रियविषयोंके संवनसे कभी मच्ची शांति नहीं तो व खुशीस उमी दम भोजनको छोड़ देते थे और इम अलाभकं कारण चित्तपर जग भी मैल मिलती, उल्टी तृष्णा बढ़ जाती है, तृष्णाकी वृद्धि नहीं लाते थे। इसके सिवाय, आपका भोजन परिमित निरंतर ताप उत्पन्न करती है और उस ताप अथवा और मकारण होता था। श्रागममें मुनियोंके लिये दाहकं कारण यह जीव मंमाग्में अनेक प्रकारकी दुःख परम्परास पीड़ित होता है । इमलिये वे क्षणिक सुग्बके ३२ ग्राम तक भोजनकी आज्ञा है परंतु आप उमम लिये कभी इन्द्रियविषयोंका पुष्ट नहीं करते थे-क्षणिक अक्मर दा चार दस ग्रास कम ही भांजन लेते थे, सुखोंकी अभिलाषा करना ही वे परीक्षावानोंके लिये और जब यह दंग्यते थे कि बिना भोजन किये भी एक कलंक और अधर्मकी बात ममझन थे। आपकी यह चल सकता है-नित्यनियमोंके पालन तथा धार्मिक खाम धारणा थी कि, प्रात्यन्तिक म्वास्थ्य-अविनाशी अनुष्ठानांक मम्पादनमें कोई विशेष बाधा नहीं आना म्वात्मस्थिति अथवा कर्मविमुक्त अनंतज्ञानादि अवस्था तो कई कई दिनके लिए आहारका त्याग करके उपवास की प्राप्ति-ही पुरुषोंका-इम जीवात्माका-स्वार्थ है-स्व. भी धारण कर लेने थे; अपनी शक्तिको जाँचने और प्रयोजन है, क्षणभंगुर भांग-क्षणम्थायी विषयसुग्याउसे बढ़ानेके लिये भी आप अक्सर उपवास किया नुभवन-उनकाम्वार्थ नहीं है क्योंकि तृपानुषंगसे-भागों करने थे, ऊनादर रखते थे, अनेक रसोंका त्याग कर की उत्तरोत्तर श्राकांक्षा बढ़नसे-शारीरिक और मानदन थे और कभी कभी ऐसे कठिन तथा गुण नियम भी ले लेते थे जिनकी स्वाभाविक पृर्निपर ही आपका * शतहदान्मषचलं हि मौख्यं, भाजन अवलम्बित रहता था । वास्तवमें, ममंतभद्र तृष्णामयाप्यायनमात्रहेतुः । तृष्णाभिवृद्धिश्च तपत्यजनं, भोजनको इस जीवनयात्राका एक साधन मात्र तापम्तदायामयनीत्यवादीः।।१३।। ममझते थे । उसे अपने ज्ञान, ध्यान और मंयमादिकी -वर्यभूम्तोत्र । Page #51 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४ अनेकान्त [ वर्ष ४ सं यथाशक्ति बूब काम लेते थे घंटों तक कार्योत्सर्ग में स्थित होजाते थे, आनापनादि योग धारण करने थे, और आध्यात्मिक तप की वृद्धिके लिये अपनी शक्तिको न छिपाकर दूसरे भी कितने ही अनशनादि उम्र उग्र बाह्य तपश्चरणका अनुष्ठान किया करते थे । इसके सिवाय, नित्य ही आपका बहुतमा समय सामायिक, स्तुतिपाठ, प्रतिक्रमण, स्वाध्याय, समाधि भावना, धर्मोपदेश, प्रन्थरचना और परहितप्रतिपादनादि कितने ही धर्मकार्यों में खर्च होता था । आप अपने समयको जग भी धर्मसाधनारहित व्यर्थ नही जान देने 1 for दुःखों की कभी शांति नहीं होती। वे समझते थे कि, यह शरीर 'अजंगम' है - बुद्धिपूर्वक परिम्पंदव्यापारहित है - और एक यंत्रकी तरह चैतन्य पुरुषके द्वारा व्यापार प्रवृत्त किया जाता है; साथ ही, 'मलबीज' है - मलम उत्पन्न हुआ है; मलयानि हैमलकी उत्पत्तिका स्थान है; 'गलन्मल' है-मल ही इससे भरता है; 'पति' है - दुर्गंधियुक्त है; 'बीभत्स' है- घृणात्मक 'क्षय' है— नाशवान है-और 'तापक' है - श्रात्मा के दुःखों का कारण है । इस लिये वे इस शरीर स्नेह रखने तथा अनुराग बढ़ाने को अच्छा नहीं समझते थे, उसे व्यर्थ मानते थे, और इस प्रकारकी मान्यता तथा परिगातिका ही आत्महत स्वीकार करते थे । अपनी ऐसी ही विचारपरितके कारण समंतभद्र शरीर से बड़े ही निस्पृह और निर्ममत्व रहते थे- उन्हें भांगों से जग भी रुचि अथवा प्रीति नहीं थी -: वे इस शरीर से अपना कुछ पारमार्थिक काम निकालने के लिये ही उसे थोड़ामा शुद्ध भंजन देते थे और इस बातकी कोई पर्वाह नही करते थे कि वह भोजन मग्वा-चिकना, ठंडा-गरम, हल्का-भारी, वडुआ-कपायला आदि कैसा है । इस लघु भोजन के बदले में समन्तभद्र अपने शरीर * स्वास्थ्यं यदात्यन्तिकमेप पुं. स्वार्थो न भांगः परिभंगुरात्मा । तृपानुषंगान च नापशान्तिरितीदमाख्यद्भगवान्सुपार्श्वः ॥ ३१ ॥ जंगमं जंगमनेययंत्रं यथा तथा जीवधृतं शरीरं । arry पूर्ति क्षयि तापकं च स्नेहा वृथात्रेति हितं त्वमाख्यः ||३२| — स्वयंभूम्तोत्र | "मलबीजं मलयानिं गलन्मलं पृतिगन्धि बीभत्सं । पश्यन्नंगम रत्नकरंडक | आपत्काल इस तरह पर, बड़े ही प्रेमकं साथ मुनिधर्मका पालन करते हुए स्वामी समन्तभद्र जब 'मरणुवक हल्ली । ग्राम में धर्मध्यानमहित आनंदपूर्वक अपना मुनिजीवन व्यतीत कर रहे थे और अनेक दुर्द्धर तपश्चरणो द्वारा अत्मोन्नति पथमे अग्रेसर हो रहे थे तब एकाएक पर्वसंचित असातावेदनीय के तीव्र उदयसे आपके शरीर में 'भस्मक' नामका एक महागंग उत्पन्न हो गया । इस गंगकी उत्पनिसे यह स्पष्ट है बाह्यं तपः परमदुश्चरमा स्व माध्यत्मिककस्य तपसः परिबृंहणार्थम् ॥८२॥ - स्वयंभू स्तोत्र | + ग्रामका यह नाम 'राजावलीकथे' में दिया है। यह 'कांची' के आसपासका कोई गांव जान पड़ता है । * ब्रह्मनेमिदत्त भी अपने 'आराधनाकथाकोष' में ऐसा ही सूचित करते हैं। यथादुर्द्धगनेक चारित्ररत्नरत्नाकरी महान । यावदाते सुखं धीरस्तावत्तत्कायके ऽभवन ॥ महाकर्मोदयाद्दर्दुःखदायकः । तीव्रप्रदः कष्टं भस्मकव्याधिसंज्ञकः ॥ - समन्तभद्रकथा. पद्मनं० ४, ५ Page #52 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समन्तभद्रका मुनि-जीवन और आपत्काल ४५ कि समंनभद्रक शरीरमें उम समय कफ क्षीण होगया शुरुशुरूमें उसकी कुछ पर्वाह नहीं की। व स्वच्छाथा और वायु तथा पित्त दानी बढ़ गये थे; क्योंकि पूर्वक धारण किये हुए उपवासों तथा अनशनादि कफक क्षीण हान पर जब पित्त, वायुक साथ बढ़कर तपोंके अवसरपर जिस प्रकार क्षुधापरीषहका सहा कुपित हो जाता है तब वह अपनी गग्मी और तेजी से जठराग्निको अत्यंत प्रदीप्त, बलाढ्य और तीक्ष्ण करते थे उसी प्रकार उन्होंने इस अवसर पर भी, पूर्व कर देता है और वह अग्नि अपनी तीक्ष्णतास अभ्यासकेबलपर, उसे सह लिया। परन्तु इस क्षुधा और . विरूक्ष शरीरमें पड़े हुए भाजनका तिरस्कार करती . __ उस क्षुधामें बड़ा अन्नर था; वे इस बढ़ती हुई क्षुधा हुइ, उस क्षणमात्रमें भस्म कर देती है। जठराग्निकी के कारण, कुछ ही दिन बाद, असह्य वेदनाका अनुइस अत्यंत तीक्ष्णावस्था को ही भस्मक' गंग कहते भव करन लगे; पहले भाजनसं घंटोंके बाद नियत है । यह गंग उपेक्षा किये जाने पर-अर्थात, गरु, समय पर भूग्वका कुछ उदय होता था और उस स्निग्ध शीतल, मधुर और श्लेष्मल अन्नपानका __ समय उपयांग के दूसरी ओर लगे रहने आदिके यथेष्ट परिमागामे अथवा तृप्तिपर्यंत संवन न करने कारण यदि भोजन नहीं किया जाता था ता वह भृग्व पर-शगंरक रक्तमांमादि धातुओं को भी भस्म कर मर जाती थी और फिर घंटों तक उसका पता नहीं दता है, महादोबल्य उत्पन्न कर देता है, तृपा, स्वेद, रहता था; परन्तु अब भाजनको किये हुए देर नहीं दाह तथा मूच्छादिक अनक उपद्रव खड़े कर देता है होती थी कि क्षुधा फिरसे आ धनकती थी और और अंत में गंगीको मृत्युमुखमें ही स्थापित करके भोजन न मिलनपर जठगग्नि अपने आसपासक छोड़ता है + । इस गंगकं अाक्रमण पर ममंतभदने रक्त मांमको ही खींच स्वींचकर भस्म करना प्रारम्भ + कट्वादिक्षान्नभुजां नगणां कर देती थी। ममंतभद्रको इमम बड़ी वेदना होती क्षीण कफ मारुतपित्तबृद्धौ। अतिप्रवृद्धः पवनान्विनाऽग्नि थी, क्षुधाकी ममान दृमरी शरीग्वंदना है भी नहीं; भुक्तं क्षणाद्भस्मकगति यम्मान । कहा भी गया हैतस्मादमौ भम्मकमज्ञकोऽभू "क्षुधासमा नास्ति शरीरवेदना।" दुपक्षिताऽयं पचते च धातून । -इति भावप्रकाशः। इम नीव क्षुधावदनाकं अवमरपर किमीस "नरं क्षीणकफ पित्तं कुपितं मामतानुगम। भोजनकी याचना करना, दाबाग भोजन करना स्वाष्मणा पावकस्थान बलमग्नेः प्रयच्छति ।। अथवा गंगापशांतिके लिये किमीको अपने वाम्त नथा लब्धबलो देहे विरुले मानिलाऽनलः । पग्भूिय पचत्यन्नं तैक्षायादाशु मुहुर्मुहुः ॥ अच्छे स्निग्ध, मधुर, शीतल गरिष्ठ और कफकारी पक्वान्नं मनतं धातून शोणितादीन्पचत्यपि । भाजनांक तय्यार कग्नकी प्रेरणा करना, यह मब तता दौर्बल्यमातकान मृत्यु चोपनयेन्नरं ।। उनके मुनिधर्मके विरुद्ध था। इस लिये ममंनभद्र, भुक्तऽन्ने लभने शांनि जीर्णमात्रे प्रताम्यति।। वस्तुस्थितिका विचार करते हुए उम ममय अनेक तृम्बददाहमूच्छोः म्युाधयाऽन्यनिसंभवाः ॥" "तमत्यनिं गुरुस्निग्धशीतमधुरविज्वलैः ।। ___उत्तमोत्तम भावनाओंका चिन्तवन करते थे और अन्नपाननेयेच्छान्ति दीप्तमग्निमिवाम्मभिः ॥" अपने प्रात्माको मम्बोधन करके कहनं थे-"हे -इति चरकः। अात्मन , नृने अनादिकालम इम मंमाग्में परिभ्रमण ननादत धानून शोधाशु मुहुर्मुहः । Page #53 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६ करते हुए अनेक बारक- पशु आदि गतियों में दुः क्षुधावेदनको महा है, उसके आगे तो यह तेरी क्षुधा कुछ भी नहीं है । तुझे इतनी तीव्र क्षुधा रह चुकी है जो तीन लोकका अन्न खाजाने पर भी उपशम न हो, परन्तु एक कण खानेको नहीं मिला । ये सब कष्ट तूने पराधीन होकर सहे हैं और इसलिये उनसे कोई लाभ नहीं होमका, अब तू स्वाधीन होकर इस वेदनाको सहन कर । यह सब तेरे ही पूर्व कर्म का दुर्विपाक है । माम्यभावमं वेदनाको सह लेनेपर कर्म की निर्जग हो जायगी, नवीन कर्म नहीं बँधेगा और न आगेका फिर कभी ऐसे दुःखों को उठानेका अवसर ही प्राप्त होगा ।" इस तरह पर समंतभद्र अपने साम्यभावका दृढ़ रखते थे और कषायादि दुर्भावोंका उत्पन्न होनेका अवसर नहीं देते थे । इसके सिवाय, वे इस शरीर को कुछ अधिक भोजन प्राप्त कराने तथा शारीरिक शक्तिको विशेष नीरण न होने देनेके लिये जो कुछ कर सकते थे वह इतना ही था कि जिन अनशनादि बाह्य तथा घोर तपश्चरणको वे कर रहे थे और जिनका अनुष्ठान उनकी नित्य की इच्छा तथा शक्तिपर निर्भर था— मूलगुणों की तरह लाजमी नहीं था - उन्हें वे ढीला अथवा स्थगित करदें । उन्होंने वैसा ही किया भी अब उपवास नहीं रखते थे, अनशन, ऊनोदर वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग और कायक्लेश नामके बाह्य तपोंके अनुष्ठानको उन्होंने कुछ काल के लिये, एकदम स्थगित कर दिया था, भोजन के भी वे अब पूरे ३२ ग्राम लेते थे; इसके मित्राय गेगी मुनिके लिये जो कुछ भी रियायतें मिल सकती थीं वे भी प्रायः सभी उन्होंने प्राप्त कर ली थीं । परंतु यह सब कुछ होते हुए भी, आपकी क्षुधाको जराभी शांति नहीं मिली, वह दिनपर दिन बढ़ती अनेकान्त [ वर्ष ४ और तीव्र तीव्रतर होती जाती थी; जठगनलकी ज्वालाओं तथा पित्तकी तीक्ष्ण ऊष्मा शरीरका रसरक्तादि दग्ध हुआ जाता था, ज्वालाएँ शरीर के अंगोंपर दूर दूर तक धावा कर रही थीं, और नित्यका स्वल्प भोजन उनके लिये जग भी पर्याप्त नहीं होता था वह एक जाज्वल्यमान अग्निपर थोड़े से जलके छींटेका ही काम देता था । इसके सिवाय, यदि किसी दिन भोजनका अन्तराय हो जाता था तां और भी ज्यादा ग़ज़ब हो जाता था - क्षुधा राक्षसी उम दिन और भी ज्यादा उम्र तथा निर्दय रूप धारण कर लेनी थी । इस तरहपर समंतभद्र जिस महावेदनाका अनुभव कर रहे थे उसका पाठक अनुमान भी नहीं कर सकते। ऐसी हालत में अच्छे अच्छे धीर वीरोंका धैर्य छूट जाना है, श्रद्धान भ्रष्ट हो जाता है और ज्ञानगुण डगमगा जाता है । परंतु समंतभद्र महामना थे, महात्मा थे, श्रात्म- देहान्तरज्ञानी थे, संपत्तिविपत्ति में समचित्त थे, निर्मल सम्यग्दर्शनके धारक थे और उनका ज्ञान दुःखभावित नहीं था जां दुःखोंके आनेपर क्षीण होजाय *, उन्होंने यथाशक्ति उम्र उम्र तपश्चरणों के द्वारा कष्ट सहनका अच्छा अभ्यास किया था, वे आनंदपूर्वक कष्टोंको महन किया करते थे उन्हें महते हुए खेद नहीं मानते थे + * श्रदुःखभावितं ज्ञानं क्षीयते दुःखसन्निधौ । तम्माद्यथाबलं दुग्वैरात्मानं भावयन्मुनिः ॥ -समाधितंत्र | + जो आत्मा और देहके भेद विज्ञानी होते हैं वे ऐसे कष्टों को सहते हुए खेद नहीं माना करते, कहा भी है आत्मदेहान्तरज्ञानजनिताह्लादनिर्वृतः । तपमा दुष्कृतं घोरं भुंजानापि न विद्यते ॥ -समाधितंत्र । Page #54 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] ममन्तभद्रका मुनि-जीवन और आपत्काल और इसलिये, इस संकटके अवमरपर वे जग भी अब तक पालता पा रहा हूँ और जो मुनिधर्म मेरे विचलित तथा धैर्यच्युन नहीं हो सके । ध्येयका एक मात्र प्राधार बना हुआ है उस क्या मैं ममंतभद्रन जब यह देग्वा कि रोग शांत नहीं छोड़ दें ? क्या क्षुधाकी वेदनासे घबगकर अथवा होता, शरीरकी दुर्बलता बढ़ती जारही है, और उस उमसे बचनके लिय छोड़ दूं ? क्या इंद्रियविपय जनित दुर्बलनाकं कारण नित्यकी आवश्यक क्रियाओमें भी म्वल्प सुखके लिये उस बलि दे दूं ? यह नहीं हा कुछ बाधा पड़ने लगी है; माथ ही, प्यास आदिकके मकता । क्या क्षुधादि दुःखोंके इस प्रतिकारसं अथवा भी कुछ उपद्रव शुरू हो गये हैं, तब आपका बड़ी ही इंद्रियविषयनित स्वल्प सुग्वक अनुभवनसे इस चिन्ता पैदा हुई । आप मोचन लगे-"इस मुनिश्रव- देहकी स्थिति मदा एकमी और सुग्वरूप बनी रहेगी ? स्थामें, जहाँ आगमोदित विधिक अनुमार उद्गम- क्या फिर इस दहमे क्षुधादि दुःग्वोंका उदय नहीं उत्पादनादि छयालीस दोषों, चौदह मलदापों और होगा ? क्या मृत्यु नहीं आएगी ? यदि ऐसा कुछ नहीं बनीम अन्तगयांका टालकर, प्रासक तथा परिमिन है तो फिर इन क्षुधादि दुःखों के प्रतिकार आदिमें भाजन लिया जाता है वहाँ, इम भयंकर रोगकी गुण ही क्या है ? उनसे इस देह अथवा देहीका शांनिक लिये उपयुक्त और पर्याप्त भोजनकी कोई उपकार ही क्या बन सकता है ? + मैं दुःखोंसे बचनव्यवस्था नहीं बन सकती । मुनिपदका कायम के लिये कदापि मुनिधर्मको नहीं छोडूंगा; भले ही यह गम्बन हुए, यह गंग प्रायः असाध्य अथवा निःप्रतीकार दह नष्ट हो जाय, मुझे उसकी चिन्ता नहीं है; मंग जान पड़ना है; इमलिय या तो मुझे अपने मुनिपदका आत्मा अमर है, उसे कोई नाश नहीं कर सकता; छोड़ देना चाहिये और या 'सहे.ग्वना' व्रत धारण मैंन दुःखोंका स्वागत करने के लिये मुनिधर्म धारण करके इम शरीरका धर्मार्थ त्यागनके लिये तय्यार हां किया था, न कि उनसे घबराने और बचनके लिए; जाना चाहिय; परंतु मुनिपद कैसे छोड़ा जा सकता मंग परीक्षाका यही समय है, मैं मुनिधर्मको नहीं है ? जिम मुनिधर्मके लिये मैं अपना मर्वम्व अर्पण छोड़ेगा।" इतने में ही अंतःकरणके भीतरसे एक कर चुका हूँ, जिम मुनिधर्मका मैं बड़े प्रमक माथ दुमरी आवाज आई-"ममंतभद्र ! तृ अनेक प्रकारम जैन शामनका उद्धार करने और उसे प्रचार इनमें जो लोग आगमम इन उद्गमादि दोपों तथा ममथ है, तरी बदौलत बहुनस जीवोंका अज्ञानभाव अन्तगयोंका म्वरूप जानते हैं और जिन्हें पिण्ड- तथा मिथ्यात्व नष्ट होगा और व मन्मार्गमें लगेंगः शुद्धिका अच्छा ज्ञान है उन्हें यह बतलानकी जरूरत - -- - नहीं है कि मच्चे जैन माधुओंको भाजनके लिये वैम + क्षुधादि दुःग्वोंके प्रतिकागदिविषयक अापका ही कितनी कठिनाइयों का सामना करना पड़ता है। यह भाव 'स्वयंभूम्तात्र'के निम्न पद्यसं भी प्रकट इन कठिनाइयांका कारण दानागेंकी कोई कमी नहीं होता हैहै: बल्कि भोजनविधि और निर्दोष भोजनकी जटिलता 'क्षुदादिदुःखप्रतिकारतः स्थिनिही उमका प्रायः एक कारण है-फिर 'भम्मक' जैम न चेन्द्रियार्थप्रभवाल्पमोग्यतः । गेगकी शांतिकं लिये उपयुक्त और पर्याप्त भोजनकी ततो गुणां नाम्ति च दहदहिनाना बात ही दृर है। रितीदमित्थं भगवान व्यजिज्ञपन' ॥ १ ॥ Page #55 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनेकान्त [वर्ष ४ यह शासनाद्धार और लोकहितका काम क्या कुछ लोकक आश्रित है और मेग हित मेरे आश्रित है; कम धर्म है ? यदि इस शासनाद्धार और लोकहितकी यह ठीक है कि लोककी जितनी सेवा मैं करना चाहता दृष्टि से हो तू कुछ समयके लिये मुनिपदको छाड़द और था उस मैं नहीं कर सका; परन्तु उस सेवाका भाव अपने भोजनकी योग्य व्यवस्था द्वाग गेगका शान्त मेरे आत्मामें मौजूद है और मैं उसे अगले जन्ममें करके फिग्स मुनिपद धारण कर लेवे तो इममें पूग कम्गा; इम समय लोकहितकी आशापर प्रात्मकौनमी हानि है ? तेरे ज्ञान, श्रद्धान, और चारित्रके हितको बिगाड़ना मुनासिब नहीं है; इसलिये मुझे अब भावको तो इमसे जग भी क्षति नहीं पहुँच सकती, 'सल्लेग्वना' का व्रत ज़रूर ले लेना चाहिये और मृत्यु वह तो हरदम तेरे माथ ही रहेगा; तू द्रव्यलिंगकी की प्रतीक्षामें बैठकर शांतिक साथ इम देहका धर्मार्थ अपेक्षा अथवा बाह्यमें भले ही मुनि न रहे, परंतु त्याग कर देना चाहिये ।" इम निश्चयको लेकर भावोंकी अपेक्षा तो तेरी अवस्था मुनि-जैमी ही होगी, समंतभद्र मल्लेग्वनावनकी आज्ञा प्राप्त करनेके लिये फिर इसमें अधिक मोचने विचाग्नेकी बात ही क्या अपन वयोवृद्ध, तपोवृद्ध और अनेक सदगुणालंकृत है ? इसे आपद्धर्मके तौरपर ही स्वीकार कर; तेरी पूज्य गुरुदेव । के पास पहुंचे और उनमें अपने गंग परिणति तो हमेशा लोकहितकी तरफ रही है, अब का मारा हाल निवेदन किया। साथ ही, उनपर यह उसे गौण क्यों किये देता है ? दृसगेंके हितके लिये प्रकट करते हुए कि मंग गेग निःप्रतीकार जान पड़ता ही यदि तृ अपने स्वार्थकी थाडीसी बलि देकर- है और गंगकी निःप्रतीकागवस्थामें 'सल्लेग्वना' का अल्प कालके लिये मुनिपदको छोड़कर-बहनोंका शरण लेना ही श्रेष्ठ कहा गया है *, यह विनम्र भला कर मके तो इसम तेरे चरित्र पर जग भी कलंक प्रार्थना की कि-"अब आप कृपाकर मुझे सल्लेग्वना नहीं आ सकता, वह तो उलटा और भी ज्यादा धारण करनेकी श्राज्ञा प्रदान करें और यह आशीर्वाद देदीप्यमान होगा; अतः तु कुछ दिनोंके लिये इम देवें कि मैं माहमपूर्वक और महर्प उमका निर्वाह मुनिपदका मोह छोड़कर और मानापमानकी जग भी करनेमें ममर्थ हा मकँ।" पर्वाह न करते हुए अपने गंगको शांत करनेका यत्न समंतभद्रकी इम विज्ञापना और प्रार्थनाको सुन कर, वह निःप्रतीकार नहीं है; इम गंगमे मुक्त होने कर गुरुजी कुछ देर के लिये मौन रहे, उन्होंने मर्गनपर, स्वस्थावस्थामें. तू और भी अधिक उत्तम गतिमे भद्रके मुग्वमंडल ( चेहरे ) पर एक गंभीर दृष्टि डाली मुनिधर्मका पालन कर मकेगा; अब विलम्ब करने की + 'गजावलीकथे' से यह तो पता चलता है किममन्तजरूरत नहीं है, विलम्बसे हानि होगी।" भद्रके गुरुदेव उम समय मौजूद थे और समन्तभद्र इम तरहपर ममंतभद्र के हृदयमें कितनी ही मल्लेग्वनाकी आज्ञा प्राप्त करनके लिये उनके पास देग्नक विचारोंका उत्थान और पतन होता रहा। गये थे, परंतु यह मालूम नही होमका कि उनका क्या नाम था। अन्तको आपने यही स्थिर किया कि "क्षुदादिदुःग्वोंसे ग्यास * उपमर्गे दुर्भिक्षे जरमि सजायां च निःप्रतीकारे । घबराकर उनके प्रतिकारके लिये अपने न्याय्य निय- धर्माय तनुविमोचनमाहुः मलेखनामार्याः।।१२२।। मोंको तोड़ना उचित नहीं है: लोकका हित वाम्तवमें -त्नांडक। Page #56 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] ममन्नभद्रका मुनि-जीवन और आपरकाल - और फिर अपन यांगबलस मालूम किया कि समंत- श्राज्ञाका शिगेधारण कर आप उनके पामसं चल भद्र अल्पायु नहीं है, उसके द्वारा धर्म नथा शासनकं दिय।। अब समंतभद्रका यह चिंता हुई कि दिगम्बर उद्धारका महान कार्य हानका है, इम डिष्टिम सह मुनिवषको यदि छोड़ा जाय तो फिर कौनसा वेष सल्लेग्वनाका पात्र नहीं; यदि उसे सल्लेखनाकी इजाजत धारण किया जाय, और वह वष जैन हो या अजैन । दीगई तो वह अकाल हीमें कालकं गालमें चला अपने मुनिवेषका छोड़न का खयाल आन ही उन्हें जायगा और उममे श्री वीरभगवानके शामन-कार्यको फिर दुःग्य होने लगा और वे साचन लगे-जिम बहुत बड़ी हानि पहुँचेगी; माथ ही, लाकका भी बड़ा दमर वेषको मैं आज तक विकृत + और अप्राकृतिक अहित होगा। यह मब मोचकर गुरुजीन, ममंतभद्र वेष ममझता आरहा हूँ उमे मैं कैम धारण करूँ ! की प्रार्थनाका अम्वीकार करते हुए. उन्हें बड़े ही प्रेम क्या उमीको अब मुझे धारण करना होगा ? क्या के माथ समझाकर कहा-"वन्म, अभी तुम्हाग गुरुजीकी एमी ही श्राज्ञा है ? -हाँ, ऐसी ही आज्ञा मलेम्वनाका समय नहीं आया, तुम्हारं द्वारा शामन- है। उन्होंने स्पष्ट कहा है-'यही मंरी प्राज्ञा है, कार्यके उद्धार की मुझे बड़ी आशा है, निश्चय ही तुम -चाहे जिम वेपको धारणा करला, गंगकं उपशांत धर्मका उद्धार और प्रचार कगंगे, ऐमा मेग अन्तः- हानपर फिरस जैनमुनिदीक्षा धारण कर लेना । करगा कहता है; लाकका भी इम ममय तुम्हारी बड़ा नब ता इस अलंघ्य-शक्ति भवितव्यता कहना चाहियेजरूरत है; इमलिय मंगै यह स्त्राम इच्छा है और यह ठीक है कि मैं वेष (लिंग) का ही मब कुछ नहीं यही मग अाज्ञा है कि तुम जहाँपर और जिम वंश ममझता-उसीको मुक्तिका एक मात्र कारण नहीं में रहकर गंगापशमन योग्य तृप्तिपर्यंत भाजन प्राप्त जानता,- वह दहाश्रित है और दह ही इस आत्मा करमको वहींपर खुशीमे चले जाओ और उमी वेपका का मंमार है; इमलिये मुझ मुमुक्षुका-संसार बंधनाम धागा करला. गेगक नपशान्त होनपर फिल्म छटनके इच्छकका-किसी वेपमें एकान्त श्राग्रह नहीं जैनमुनिदीक्षा धारण कर लेना और अपने मब कामों हा सकना *; फिर भी मैं वेषकं विकृत और अविकृत को मँभाल लेना । मुझ तुम्हारी श्रद्धा और गुणज्ञनापर + : 'ततम्तत्मिद्धयर्थ परमकरुणा ग्रन्थमुभयं । पृग विश्वाम है. इमी लिये मुझ, यह कहनेमें जग भवानवात्याक्षीन्न च विकृतवपापधिग्नः ।। भी संकोच नहीं होता कि तुम चाहे जहाँ जा मकतं । -स्वयंभूम्तात्र हो और चाहे जिस वषका धारण कर मकन हो; मैं . * श्रीपूज्यपादक समाधितंत्रमें भी वेषविषयमें खुशीम तुम्हें ऐमा करनकी इजाजत देता हूँ ।" ऐमा ही भाव प्रतिपादित किया गया है । यथा लिंगं दहाश्रितं दृष्टं देह एवात्मनो भवः । गुरुजीक इन मधुर नथा मारगर्भिन वचनोंका नमुच्यन्तं भवात्तम्माने ये लिंगकृनाग्रहाः ।। ८७ ।। सुनकर और अपन अन्तःकरणकी उम आवाजको अर्थान-लिंग (जटाधारण नमत्वादि) देहाश्रित म्मरण करकं ममंतभद्रका यह निश्चय होगया कि है और दह ही आत्माका मंमार है, इम लिये जो ' लोग लिंग (वेष) का ही एकान्न आग्रह रग्बने हैंइमीमें ज़रूर कुछ हिन है, इमलिये आपने अपने उमीको मक्तिका कारण ममझते हैं वे मंमाग्बंधनसे मल्लेबनाके विचारको छोड़ दिया और गुरुजी की नहीं छटने । Page #57 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५० अनेकान्त [ वर्ष ४ मैं अपने भोजन के लिये किसी व्यक्ति विशेषको क दूँ मैं अपने भोजन के लिए ऐसे हो किसी निर्दोष मार्गका अवलम्बन लेना चाहता हूं जिसमें ग्वास मेरे लिए किसीको भी भोजनका कोई प्रबन्धन करना पड़े और भोजन भी पर्याप्त रूपमें उपलब्ध होता रहे ।” ऐसे दो भेद जरूर मानता हूँ. और अपने लिये कृत वेष में रहना ही अधिक अच्छा समझता हूँ। इमीसे, यद्यपि, उस दूसरे वेपमें मेरी कोई रुचि नहीं हो सकती, मेरे लिये वह एक प्रकारका उपसर्ग ही होगा और मेरी अवस्था उस समय अधिकतर चलोपसृष्टमुनि जैसी ही होगी; परन्तु फिर भी उस उपमर्गका कर्ता तो मैं खुद ही हंगा न ? मुझे ही स्वयं उम वेषको धारण करना पड़ेगा । यही मेरे लिये कुछ कटकर प्रतीत होता है। अच्छा, अन्य वेष न धारण करूँ तो फिर उपाय भी अब क्या है? मुनिवेषको क़ायम रखता हुआ यदि भांजनादिके विषय में स्वेच्छाचारसे प्रवृत्ति करूँ तो उससे अपना मुनिवेष लज्जिन और कलंकित होता है, और यह मुझमे नही ह। सकता; मैं खुशीमे प्राण दे सकता हूँ परन्तु ऐसा कोई काम नहीं कर सकता जिससे मेरे कारण मुनिवेप अथवा मुनिपदको लज्जित और कलंकित होना पड़े। मुझ से यह नहीं बन सकता कि जैनमुनिकेरूपमें उस पद के विरुद्ध कोई ही नाचरण करू; और इसलिये मुझे अब लाचारी अपने मुनिपदको छोड़ना ही होगा । मुनिपदको छोड़कर मैं 'लक' हो सकता था, परन्तु वह लिंग भी उपयुक्त भोजनकी प्राप्तिके योग्य नहीं है— उम पदधारीके लिए भी उद्दिष्ट भोजनके त्याग का कितना ही ऐसा विधान है, जिससे उस पद की मर्यादाको पालन करते हुए गेगोपशांतिके लिये यथेष्ट भोजन नहीं मिल सकता, और मर्यादाका उल्लंघन मुझसे नहीं बन सकता- इसलिये मैं उस वेष को भी नहीं धारण करूँगा । बिल्कुल गृहस्थ बन जाना अथवा यों ही किसीके आश्रय में जाकर रहना भी नहीं है। इसके सिवाय, मेरी चिरकाल की प्रवृत्ति मुझे इस बात की इजाजत नहीं देती कि यही सब सोचकर अथवा इसी प्रकार के बहुत से ऊहापोह के बाद, आपने अपने दिगम्बर मुनित्रेषका आदर के साथ त्याग किया और साथ ही, उदासीन भावसे, अपने शरीरको पवित्र भस्मसे आच्छादित करना आरंभ कर दिया। उस समयका दृश्य बड़ा ही करुणाजनक था । देहमे भम्मको मलते हुए आप की आँखें कुछ आई हो आई थी। जो आँखें भस्मक व्याधिकी तीव्र वेदनास भी कभी आई नहीं हुई थी उनका इस समय कुछ आर्द्र हो जाना साधारण बान न थी । संघके मुनिजनों का हृदय भी आपको देखकर भर आया था और वे सभी भावीकी अलंघ्य शक्ति तथा कर्मके दुर्विपाकका ही चितन कर रहे थे । समंतभद्र जब अपने देहपर भस्मका लेप कर चुके तो उनके बहिरंगमं भस्म और अंतरङ्गमे सम्यग्दर्शनादि निर्मल गुणों के दिव्य प्रकाशको देखकर ऐसा मालूम होता था कि एक महाकांतिमान रत्न कदमसे लिप्न होरहा है और वह कर्दम उस रत्नमें प्रविष्ट न हो सकनेसे उसका कुछ भी बिगाड़ नहीं सकता * . अथवा ऐसा जान पड़ता था कि समंतभद्रने अपनी भम्काग्निको भम्म करने — उसे शांत बनाने के लिये यह 'भम्म' का दिव्य प्रयोग किया है। अस्तु । * अन्तःस्फुरितसम्यक्त्वे बहिर्व्याप्त कुलिंगकः । शाभितोऽसौ महाकान्तिः कर्दमाता मरियथा ॥ -आराधना कथाकाश । Page #58 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] समन्तभद्रका मुनि-जीवन और आपत्काल संघको अभिवादन करके अब समंतभद्र एक वीर दिया। संपूर्ण भोजनकी समाप्ति को देखकर राजाका योद्धाकी तरह, कार्यसिद्धि के लिये, 'मणुवकहल्ली से बड़ा ही आश्चर्य हुा । अगले दिन उसनं और भी चल दिये। अधिक भक्तिकं साथ उत्तम भोजन भेंट किया; परंतु ___ राजावलिकथे' के अनुमार, समंतभद्र मणुवक पहले दिन प्रचुरपरिमाणमें तृप्तिपर्यंत भोजन कर हल्लीम चलकर 'कांची' पहुँचे और वहाँ 'शिवकोटि' र लेनक कारण जठराग्निक कुछ उपशांत हानेसे, उस गजाकं पाम, संभवतः उमकं 'भीमलिंग' नामक दिन एक चौथाई भोजन बच गया, और तीसरे दिन शिवालय में ही, जाकर उन्होंने उस आशीर्वाद दिया। आधा भाजन शेष रह गया। समंतभद्रने साधारणगजा उनकी भद्राकृति आदिको देखकर विम्मित - नया इस शंषान्नका देवप्रसाद बतलाया; परंतु राजाको हुआ और उसने उन्हें 'शिव' समझकर प्रणाम किया। उमस संतोष नहीं हुआ। चौथे दिन जब और भी धर्मकृत्योंका हाल पछे जानेपर गजान अपनी शिव अधिक परिमाणमे भोजन बच गया तब गजाका भक्ति, शिवाचार, मंदिनिर्माण और भीमलिंगक संदेह बढ़ गया और उसने पाँचवें दिन मन्दिरका, मंदिर में प्रतिदिन बारह खंडुग + परिमाण तंडुलान उस अवसर पर, अपनी सेनासं घिरवाकर दरवाजे विनियोग कग्नका हाल उनम निवेदन किया । इसपर . को ग्वाल डालनेकी आज्ञा दी। ममंतभद्रने, यह कहकर कि ' मैं तुम्हारं इम नैवद्यका दरवाजको खोलनके लिए बहुतमा कलकल शब्द शिवार्पण : काँगा.' उस भाजनके साथ मंदिर में होनेपर ममंतभद्रने उपमर्गका अनुभव किया और अपना आसन ग्रहण किया, और किवाड़ बंद करके। उपमर्गकी निवृत्तिपर्यंत समस्त आहार पानका त्याग मवका चले जानकी आज्ञा की। मब लोगोंक चले कर तथा शरीरसे बिल्कुल ही ममत्व छोड़कर, जानपर ममंतभद्रने शिवार्थ जठगग्निमें उम भोजन आपने बड़ी ही भक्तिक साथ एकाग्र चिनस श्रीवृपकी आहुतियाँ देनी आरम्भ की और पाहुनियाँ देत - भादि चतुर्विशनि नीर्थकरोंकी स्तुति * करना प्रारंभ देने म भोजनमेंम जब एक कण भी अवशिष्ट नहीं किया । स्तुति करते हुये, समन्तभद्रनं जब आटवें रहा तब आपन पूर्ण तृप्ति लाभ करकं. दरवाजा खोल तीर्थकर श्रीचन्द्रप्रभ स्वामीकी भलं प्रकार स्तुनि करके भीमलिंगकी ओर दृष्टि की, तो उन्हें उस स्थानपर + 'वंडग' कितने सन्का होता है, इस विषयमें वर्णी किमी दिव्य शक्तिक प्रतापस, चंद्रलांछनयुक्त अर्हत नामसागरजीने, पं० शांतिगजजी शास्त्री मैमूरक भगवानका एक जाज्वल्यमान सुवर्णमय विशाल बिम्ब पवाधारपर, यह सूचित किया है कि बेंगलोर प्रांतमें २०० मरका, मैसूर प्रांनमें १८० सेग्का, हेगडदेवन विभूनिहित, प्रकट होता हुआ दिखलाई दिया । काटमें ८० संरका और शिभागा डिस्ट्रिक्ट में ६० यह देखकर समंनभद्रन दरवाजा खोल दिया और सरका खंडुग प्रचलित है, और संरका परिमाण श्राप शंप तीर्थकगेकी स्तुति करनम तल्लीन होगय । मर्वत्र ८० नालेका है। मालूम नहीं उम ममय वाम दरवाजा खुलते ही इस महात्म्यको दंग्यकर शिव कांची में कितने मरका खंड्ग प्रचलिन था। संभवतः जाबरत ही आश्रयचकित हश्रा और अपने वह ४० मंग्स ना कम न रहा होगा। * शिवार्पण' में कितना ही गृढ अर्थ मंनिहित है। * इमी स्तुतिको 'स्वयंभृम्नात्र' कहते हैं। Page #59 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ छोटे भाई 'शिवायन' महिन, योगिराज श्रीममंनभद्र श्रवणबल्गालके एक शिलालेख में भी, जो को उहंड नमस्कार करता हा उनके चरणों में गिर ाजस आठमौ वर्षसे भी अधिक पहलका लिग्या पड़ा । ममंतभद्रने, श्रीवर्धमान महावीरपर्यंत स्तुति कर हुआ है, समन्तभद्रकं 'भम्मक' रोगकी शान्ति, एक चुकनेपर, हाथ उठाकर दोनोंका आशीर्वाद दिया। दिव्यशक्तिके द्वाग उन्हें उदात्त पदकी प्राप्ति और इसके बाद धर्मका विस्तृत स्वरूप सनकर गजा यांगमामर्थ्य अथवा वचन-बलम उनके द्वारा 'चंद्रप्रभ' मंमार-देह-भागोंमें विरक्त होगया और उसने अपने (बिम्ब) की श्राकृष्टि आदि कितनी ही बातोंका उल्लेख पुत्र 'श्रीकंठ' को राज्य देकर 'शिवायन' महिन उन पाया जाता है । यथामुनिमहागजके ममीप जिनदीक्षा धारण की । और बंद्या भस्मकभस्ममात्कृतिपटुः पद्मावती देवता दत्तादात्तपद-स्वमंत्रवचनव्याहूनचंद्रप्रभः । भी कितने ही लोगोंकी श्रद्रा इस माहात्म्यम पलट आचार्यस्म ममन्तभद्रगणभृद्येनंह काले कलौ गई और वे अरणबनादिकके धारक होगय *। जैनं वम समन्तभद्रमभवद्भः समन्तान्मुहुः॥ इम पद्यमें यह बतलाया गया है कि जो अपने ____इम नरह ममनभद्र थोड़े ही दिनों में अपने 'भम्मक' गंगका भम्मसान करने में चतुर हैं. 'पद्मावती' 'भम्मक' गंगका भम्म करनेमें ममर्थ हुए, उनका नामकी दिव्य शक्तिकं द्वाग जिन्हें उदात्त पदकी प्राप्ति आपत्काल समान हुआ, और देहक प्रकृनिम्थ होजाने हुई, जिन्होंने अपने मंत्रवचनांस (बिम्बरूपमें ) पर उन्होंने फिग्मे जैनमुनिदीक्षा धारण कर ली। 'चंद्रप्रभ' को बुला लिया और जिनके द्वाग यह ---- - - - - - - - - - - - - * देग्यो 'गजावलिकथे' का वह मल पाठ, जिसे मिस्टर कल्याणकार्ग जैनमार्ग (धर्म) इम कलिकालमें मब लविस गइस माहवन अपनी Inscriptions nt प्रोग्मे भद्र रूप हुआ, वे गणनायक आचार्य ममंतभद्र Sravana belgola नामक पुस्तककी प्रस्तावना पुनः पुनः वन्दना किय जानक याग्य हैं। के प्रष्ठ ६२ पर उद्धत किया है । इम पाठका अनुवाद मके वर्णी नेमिमागरकी कृपाम प्राप्त हश्रा, जिसके इम शिलालेखका पुगना नंबर ५४ तथा नया नं० लिये मैं उनका श्राभारी हूँ। ६७ है; इस 'मलिपंणप्रशम्ति' भी कहते हैं, और यह शक मम्वन १०५० का लिग्वा हुआ है। "सुग्वकर वही है, जिसमे इच्छा घटे और तृप्ति “जो हमारं म्वाधीन है और विपत्निमें हममे बढ़े । जिममे इच्छा और अतृप्तता बढ़ती जाय वह जुदा न हो, वही आनन्द है-सच्चा सुग्व है।" सुखकर कभी नहीं हा मकना है।" ____ "अपनी इच्छाओंका मीमाबद्ध करनेमें सुग्वका "सुग्वाभिलाषा हानेपर उसी सुम्बकी कामना खाजो, नकि उन्हें पूर्ण करनेमें।" चाहिये, जिसका कभी हाम न हो और जिममें दुःख ____ "उच्च आकांक्षाका नो कहीं अन्न ही नहीं है। की कालिमा न लगी हा,।" आवश्यकताएँ जहाँ तक हो, मंक्षिप्त करलो । देखें फिर सुख कैसे नहीं पाता है।" -विचारपुष्पं द्यान Page #60 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्यके प्रचारकी श्रावश्यकता [ लेखक - श्री सुरेन्द्र ] भारतकी अन्य जातियाँ अपने उत्थान के लिए सतत प्रयत्न कर रही हैं । धर्मप्रचारके हेतु न जाने कितने प्रयत्न किए जा रहे हैं। उनके अपने दल स्थापित हो रहे हैं । नवयुवकोंमें जीवन-प्रदान करनेके लिए धर्मप्रेम और देश-प्रेम भावांकी कूट-कूट कर भरा जा रहा है। उनकी संख्या में भी यथेष्ट अभिवृद्धि हो रही है। पर जैन जानिक युवक और वृद्धगण अपने उसी साचमें ढले हुए हैं। उनमें वह जोश नई है जो अन्य जातियांक जनममूह की नमन विद्यमान है। दुनिया उन्नति के मार्ग पर चल पड़ी है, पर हमारी जैन जाति अभी अपने घर भी नहीं निकली है। कुछ युवकगण उस पथ पर आना चाहते हैं, अपनी जाति को धवलित करना चाहते हैं, पर उनके पास ऐसे साधन नहीं है। वे समाजके अनुचित बन्धन में जकड़े हुए हैं। समाज के गतिशील मनुष्य इन युवकों के लघु अंश जोश को एक खेल समझते हैं और उनको निठल्ला सम्बोधित करते है । किसी भी प्रकार की प्रगति चाहे वह सामाजिक हो या सामयिक समाजके इन कर्णधारी द्वारा ठुकरा दी जाती है। युवकगण नात्मा हो जाते हैं और उनका मन गिर जाता है। किसी भी जातिका अभ्युत्थान नवयुवकोपर निर्भर है। वे सब कुछ कर सकते हैं। सब कुछ करनेके लिए उनमें काम करनेकी लगन और आशाका संचार होना चाहिए, जिसके लिए एक योग्य नेताकी आवश्यकता है. जो समय समय पर उनकी उठती हुई निराशाको आशामें परिवर्तित कर सके. जो उन नवयुवक का अपना कर्णधार बन सके, एक मित्र बन सके और मित्रके रूपमें एक महायक भी हो मके । साथ ही शरीरबल, बुद्धिबल और श्रात्मबल की भी परम आवश्यकता है। जब तक उपयुक्त बातोंका समा वेश हरएक नवयुवक में यथेष्ट मात्रा में न होगा, तब तक वह जात्युत्थान के कार्य में सफलीभूत नहीं हो सकता । अपने बुद्धिबलमे ही वह अपनी जातिके मुखको उज्ज्वल कर सकेगा। इस बुद्धिबलको प्राप्त करनेके लिए प्रथम ही शरीरबल और ग्रात्मबल की परम श्रावश्यकता है। हरएक मानवको धर्मका वास्तविक अधिकारी होनेके लिए बुद्धिकी शरण लेनी पड़ती है । धर्मकी शिक्षा ही, जो उसे अन्तर्जगत में प्रविष्ट करा सके और उच्च अध्यात्मवाद के पथपर आरू करा सके, उसकी आदर्श कर्णधार बनेगी। उसका धर्मका अध्ययन तत्त्वांपर श्राश्रित हो, न कि ऊल-जलूल बाह्य विषयों पर । श्राजका ज़माना शान्तिकी कामना करना है । उसे आज ऐसे वास्तविक धर्मकी आवश्यकता है जो अखिल विश्वको एक प्रेमसूत्रमें बाँध सके । प्रत्येक मनुष्यके हृदयमें नृत्य करती हुई शान्तिको शान्त कर सके । जब तक नवयुवक इन सब बातो में सुसम्पन्न नहीं हो जाता, तब तक वह एक 'जैन नवयुवक' कहलानेका वास्तविक अधि कारी नही है । धर्मकी और जितनी ही उसकी प्रवृत्ति होगी, उतना ही वह जातिका मुख उज्ज्वल कर मकता है । धर्म तथा साहित्यका पारदर्शी एक नवयुवक ही लुम प्राय जैन माहित्यकी खोज कर सकता है। जैनधर्मका वास्तविक अध्ययन करने वाला मनुष्य ही जैनधर्मके उच्चतम तत्त्व का प्रकाश अन्य जाति के लोगोके सामने रख सकता है, इतना ही नहीं उनके हृदयको जैनदर्शनके सिद्धान्तों और उसके साहित्यकी ओर आकृष्ट भी कर सकता है। हमारी Page #61 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ भारतमानाको ऐसे ही नवयुवकोंकी आवश्यकता है जो है कि हम लोगोने अपने घरसे बाहर जाकर अन्य जानियां उसकी इम निराश्रित श्रात्माको शान्ति दे सकें। स्वामी के सामने अपने साहित्यरत्नोंको तुलनादिके लिए नहीं रक्खा । विवेकानन्दका कथन है कि विदेशमें धर्मप्रचारके द्वारा अत: जैन-साहित्यको और खासकर लुमप्राय जैनमाहित्य ही हमारी संकीर्णता दूर हो सकती है। जैनसमाज और को खोजकर प्रकाशित करने तथा प्रचार करनेकी अत्यंत जैनधर्मकी संकीर्णताका एकमात्र कारण अपने धर्मका अावश्यकता है । श्राज हमारा अगणित जैनसाहित्य प्रचार न करना है । स्वामीजी भारतकी संकीर्णताको विदेश मन्दिरोंकी कालकोठरियामें पड़ा पड़ा गल सड़ रहा है और में धर्म-प्रचार द्वारा ही दूर करनेका उपदेश दे गये हैं । दीमको अादिके द्वारा नष्ट-भ्रष्ट किया जारहा है ! जानिके बिलकुल उमी ढंगसे हम कह सकते हैं कि जनजाति और कर्णधार कहलाने वाले और शास्त्रोंके अधिकारी उसे अाजन्म जैनधर्मकी मंकीर्णताको देशमें धर्म-प्रचार-द्वारा ही निवारण बन्दीके समान बन्द किए हुए हैं ! उनकी कृपासे आज कर मकत हैं। हमारे जैनधर्मका दरवाजा दूमरीके लिए प्रायः बन्द है ! ___धर्म-प्रचारकी व्याख्या करते हुए स्वामी विवेकानन्दजी जब तक नगर नगरमें प्रचारक संस्थायें और लुतप्राय जैन ने अपने एक भाषणमें कहा था कि-"भारतके पतन साहित्यकी उद्धारक संस्थायें न होगी और जातिके प्रचारक और दुःग्व-दरिद्रताका मुख्य कारण यह है कि उसने अपने तथा रिसर्च स्कालर्स (Research scholars) तनकार्यक्षेत्रको मंकुचित कर लिया था। वह शामककी तरह मन-धन से माहित्यके अनुसंधान तथा प्रचारके कार्यको न दरवाजा बन्द करके बैठ गया था। उसने मत्यकी इच्छा करेंगे, तब तक यह जनजाति कभी भी अपनी संकीर्णता रखनेवाली प्रार्येतर दृमरी जातियोंके लिए अपने रत्नाके को दूर कर अपनेको भारतकी उन्ननिशील जानियोके समकक्ष भण्डारको-जीवन-प्रद मत्य रत्नांके भण्डारको—ग्योला खड़ा करनेमें समर्थ नहीं हो सकती और न अपनी तथा नहीं ।" हम लोगोंके पतनका भी सबसे मुख्य कारण यही अपने धर्मकी कोई प्रगति ही कर सकती है। बुझता दीपक धोय धाय कर अन्तस्तल में जग बदला,कलिका मुरझाई, धधक रही है ज्वाला , उजड़ गया नव - उपवन, ग्वण्ड खण्ड हो टूट गई है उममें पनप रहा मुस्काकर चिर-संचित - मणिमाला ! मुझ दुखिनी का यौवन ! (२) (४) उमड़ पड़ा पाखंड शाकिनी पर सँभलो यह मुस्काना है रूप हुई सुरबाला , उस दीपक की ज्वाला , बिग्बर पड़ा है प्यार, उलटकर जो बुझने पर ज्योतिर्मय हो प्रेम - सुधा का प्याला ! करदे श्याम - उजाला । ( श्री कल्याणकुमार जैन 'शशि' ) Page #62 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भक्तियोग-रहस्य [सम्पादकीय] •re or n. जैनधर्मके अनुसार, सब जीव द्रव्यदृष्टिसे अथवा अथवा परमात्मा कहलाता है, जिसकी दो अवस्थाएँ "शुद्ध निश्चयनयकी अपेक्षा परस्पर समान हैं-कोई हैं-एक जीवन्मुक्त और दूसरी विदेहमुक्त । इस भेद नहीं-, सबका वास्तविक गुण-स्वभाव एक ही प्रकार पर्यायदृष्टिसे जीवोंके 'संसारी' और 'मिद्ध' है। प्रत्येक जीव स्वभावसे ही अनन्त दर्शन, अनंत ऐसे मुख्य दो भेद कहे जाते हैं; अथवा अविकसित, ज्ञान, अनंन सुग्व और अनन्त वीर्यादि अनन्त अल्पविकसित, बहुविकसित और पूर्ण-विकसित ऐसे शक्तियोंका आधार है-पिण्ड है। परन्तु अनादि- चार भागोंमें भी उन्हें बाँटा जा सकता है। और कालमे जीवोके साथ कर्ममल लगा हुआ है, जिसकी इस लिये जा अधिकाधिक विकसित हैं वे स्वरूपसे मूल प्रकृतियाँ आठ, उत्तर प्रकृतियाँ एकमौ अड़ता- ही उनके पृज्य एवं आराध्य हैं, जो अविकसित या लीस और उत्तरोत्तर प्रकृतियाँ असंख्य हैं। इस अल्पविकसित हैं; क्योंकि आत्मगुणोंका विकास कर्म-मलकं कारण जीवोंका अमली म्वभाव आच्छा- सबकं लिये इष्ट है। दिन है, उनकी वे शक्तियाँ अविकमित हैं और वे ऐमी स्थिनि होते हुए यह स्पष्ट है कि समारी परतंत्र हुए नाना प्रकारकी पर्यायें धारण करते हुए जीवोंका हित इमीमें है कि वे अपनी विभाव-परिणति नज़र आते हैं। अनेक अवस्थाओंको लिये हुए को छोड़कर स्वभावमें स्थिर होने अर्थात् मिद्धिको मंसारका जितना भी प्राणिवर्ग है वह मब उमी कर्म- प्राप्त करनेका यत्न करें। इसके लिये आत्म-गुणोंका मलका परिणाम है-उमीकं भेदसं यह सब जीव- परिचय चाहिये, गुणोंमें वर्द्धमान अनुगग चाहिये जगत भेदरूप है; और जीवकी इस अवस्थाको और विकास-मागकी ढ श्रद्धा चाहिये । बिना अनु'विभाव-परिणति' कहते हैं । जबतक किमी जीवकी गगक किमी भी गुणकी प्राप्ति नहीं होती-अनयह विभाव-परिणति बनी रहती है, तब तक वह नुगगी अथवा अभक्त-हृदय गुणग्रहणका पात्र ही 'संमारी' कहलाता है और तभी तक उस संसाग्में नहीं, बिना परिचयके अनुगग बढ़ाया नहीं जा सकता कर्मानुमार नाना प्रकार के रूप धारण करके परिभ्रमण और बिना विकास-मार्गकी दृढ श्रद्धाके गुणोंके करना तथा दुःख उठाना होता है; जब योग्य साधनोंके विकासको और यथेष्ट प्रवृत्ति ही नहीं बन सकती । बलपर यह विभाव-परिणति मिट जाती है-श्रात्मामें और इस लिये अपना हिन एवं विकाम चाहनेवालोंको कर्म-मलका सम्बन्ध नहीं रहना-और उसका निज उन पृज्य महापुरुषों अथवा सिद्धान्माओंकी शरणमें स्वभाव सर्वाङ्गरूपसं अथवा पूर्णतया विकसित हो जाना चाहिये-उनकी उपासना करनी चाहिये, जाना है, तब वह जीवात्मा संमार-परिभ्रमणसे उनके गुणोंमें अनुगग बढ़ाना चाहिये और उन्हें छूटकर मुक्तिको प्राप्त हो जाता है और मुक्त, सिद्ध अपना मार्ग-प्रदर्शक मानकर उनके नक्शे कदमपर Page #63 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ चलना चाहिये अथवा उनकी शिक्षाओंपर अमल परिणामकी-उपलब्धि होती है और प्रशस्त अध्यवकरना चाहिये, जिनमें आत्माके गुणों का अधिकाधिक साय अथवा परिणामोंको विशुद्धिसे संचित कर्म रूपमें अथवा पूर्णरूपसे विकास हुआ हो; यही उनके उसी तरह नाशको प्राप्त होता है, जिस तरह काष्ठक लिये कल्याणका सुगम मार्ग है । वास्तवमें ऐसे महान् एक सिरेमें अग्निक लगनसे वह साग ही काष्ठ भस्म आत्माओंके विकसित आत्मस्वरूपका भजन और हो जाता है। इधर संचित कोंके नाशसे अथवा कीर्तन ही हम संसारी जीवोंके लिये अपने आत्माका उनकी शक्तिक शमनसे गुणावरोधक कर्मोकी निर्जग अनुभवन और मनन है। हम 'सोऽह' की भावनाद्वारा होती या उनका बल-क्षय होता है तो उधर उन उसे अपने जीवनमें उतार सकते हैं और उन्हींक- अभिलषित गुणोंका उदय होता है, जिससे आत्माका अथवा परमात्मस्वरूपके-आदर्शको सामने रखकर विकास सधता है । इससे स्वामी समन्तभद्र जैसे अपने चरित्रका गठन करते हुए अपने आत्मीय महान् प्राचार्यों ने परमात्माकी स्तुतिरूपमें इस भक्तिगुणोंका विकास सिद्ध करके तद्रप हो सकते हैं। को कुशल परिणामकी हेतु बतलाकर इसके द्वारा इस सब अनुष्ठानमें उनकी कुछ भी राज नहीं हाती श्रेयोमार्गको सुलभ और स्वाधीन बतलाया है और और न इसपर उनकी कोई प्रसन्नता ही निर्भर है- अपनं तेजस्वी तथा सुकृनी आदि होनेका कारण भी यह सब साधना अपने ही उत्थानके लिये की जाती इसीको निर्दिष्ट किया है, और इसी लिये स्तुतिहै । इसीसे सिद्धिक साधनोंमें 'भक्ति-योग' को एक वंदनादिके रूपमें यह भक्ति अनेक नैमित्तिक क्रियाओंमुख्य स्थान प्राप्त है, जिस 'भक्ति-मार्ग' भी कहते हैं। में ही नहीं, किन्तु नित्यकी षट् श्रावश्यक क्रियाओंमें सिद्धिको प्राप्त हुए शुद्धात्माओंकी भक्तिद्वारा भी शामिल की गई है, जो कि सब आध्यात्मिक मात्मोत्कर्ष साधनेका नाम ही 'भक्ति-योग' अथवा क्रियाएँ हैं और अन्तर्दृष्टिपुरुषों (मुनियों तथा श्रावकों) 'भक्ति-मार्ग' है और 'भक्ति' उनके गुणोंमें अनुरागको, के द्वारा आत्मगुणोंके विकासको लक्ष्यमें रखकर ही तदनुकूल वर्तनको अथवा उनके प्रति गुणानुराग- नित्य की जाती हैं और तभी वे आत्मोत्कर्षकी साधक पूर्वक आदर-सत्काररूप प्रवृत्तिको कहते हैं, जो कि होती हैं । अन्यथा, लौकिक लाभ, पूजा-प्रतिष्ठा, यश, शुद्धात्मवृत्तिकी उत्पत्ति एवं रक्षाका साधन है । स्तुति, भय, रूढि श्रादिकं वश होकर करनेसे उनके द्वारा प्रार्थना, वन्दना, उपासना, पूजा, सेवा, श्रद्धा और प्रशस्त अध्यवसाय नहीं बन सकता और न प्रशस्त भाराधना ये सब भक्तिक ही रूप अथवा नामान्तर अध्यवसायके बिना संचित पापों अथव, कर्मोका हैं। स्तुति-पूजा-वन्दनादि रूपसे इस भक्तिक्रियाको नाश होकर आत्मीय गुणोंका विकास ही सिद्ध किया 'सम्यक्त्ववर्दिनी क्रिया' बतलाया है, शुभोपयोगि जा सकता है। अतः इस विषयमें लक्ष्यशुद्धि एवं चारित्र' लिखा है और साथ ही 'कृतिकर्म' भी लिखा भावशुद्धिपर दृष्टि रखनेकी खास जरूरत है, जिसका है जिसका अभिप्राय है 'पापकर्म-छेदनका अनुष्ठान'। सम्बन्ध विवेकसे है। विना विवेककं कोई भी क्रिया सद्भक्तिके द्वारा प्रौद्धत्य तथा अहंकारके त्यागपूर्वक यथेष्ट फलदायक नहीं होती, और न बिना विवेककी गुणानुराग बढ़नेसे प्रशस्त अध्यवसायकी-कुशल भक्ति सद्भक्ति ही कहलाती है। Page #64 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रिनेकान्त - । याकरमवामान्दर के विशिष्ट प्रेमी ह । अापने उसे अपनी ।। अन्य माता नाका यारमा ५० माामक काटमायम ५७००० की मायना : माम नक प्रदान की है। और अपने धर्म पन्नीको । नरम :...) का काम गयना · अनमन्धान व अन्यानमाण' कार लादा है. मित्र लिम्वरूप - नेनलक्षणावली' और गतन जगवाक्य-मचा क, मंग्रट्या ग्राधकाश काय या है।। उस बर पासवामान्दग्गे अनेकानेक प्रकाशनका ममाचार पाकर श्रार नमका मदायक कामका देखकर श्राप मा उभव सगर वन है ।। -0 -0 -0 -00 -0 -0 -0 ........ ... माह शान्निप्रसादजी जैन. टामियानगर । ला० ननसुग्वरायजी जैन, न्यू देहली ड्यालले दो वर्ष 'अनेकान क मचालक रहे हैं. अर उसे फिम्म चानू कगर्नका श्रेय अापका प्राम है। इम वर्ष ) का महायताका वचन देकर श्राप उमक । महायव बन है । वारसवामन्दिर के ग्राम प्रेमी है।। माह श्रेयांसप्रमादजी जैन, लाहार [यार नजीबाबादक मुमिद रईम व जमादार हैं, बीमिवामन्दिर' और 'अनेकान्न' में ग्वाम प्रेम सम्बत हैं। टम वर्ष ००)म० की महायताका वचन देकर यार भी अनकान्तके महायक बने हैं। Page #65 -------------------------------------------------------------------------- Page #66 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रात्म-बोध [ लेखक-श्री भगवत्' जैन] 'वे सब बातें कीजिए । जिन्हें आत्मोन्नतिक इच्छुक काममें लाया करते हैं । दिन-रात ईश्वराराधन, आत्म-चिन्तवन और कठिन व्रतोपवास करते रहिए । लेकिन तब तक वह 'सब-कुछ नहीं माना जा सकता, जब तक कि 'आत्म-बोध' प्राप्त न हो जाए ! हाँ, आत्म-बोध' ऐसी ही चीज़ है, उसे पाकर 'इकछा' मिट जाती है। क्योंकि वह सर्वोपरि है !! रहा कि अँगूठी कब तक उँगलीमें रहो, और कब, मनमें सन्तोष रहता है कि अमुक चीज हमने किस जगह उँगलीसे निकल कर खो गई ? अमुकको दे दी। लेकिन वैसी हालनमें दिलपर काबू चीजका खोजाना ही जहाँ दुःखका कारण है, कग्ना सख्त मुश्किल मालूम होता है, जब कोई चीज़ , वहाँ सूर्यमित्रको उससे भी कुछ ज्यादह वजूहात है ! अमावधानीस खा जाए ! इससे बहस नहीं चीज़ पहली बात तो यह, कि अँगूठी बेश-क्रोमती है ! घठिया रहे या क्रीमती ! 'ग्यो जाने की जहाँसे हद अलावः इसके बड़े रंज और घबराहटकी गुजायश शुरू होती है, वहींस मनकी शान्ति, प्रायः दूर भागने यों है कि अँगूठी अपनी नहीं, वरन् एककी-थोड़े ही लगती है ! समय के लिए रखने-भरको अमानत थी ! अमानत सूर्यमित्रको अगर घरमदुःख है, तो कुछ बे-जा ऐसेकी है जिसे डाट-डपट कर संतुष्ट नहीं किया जा नहीं ! हो सकता है-गतं न शोच्यं' के मानने वाले सकता, बहाना बनाकर पिण्ड नहीं छुड़ाया जा कोई धीमान उन्हें बज-मूर्ख कहनेपर उतारू हों। पर सकता।'' वह हैं राजगृहीके प्रतापशाली महाराज ! यह उतना ही अन्याय-पूर्ण रहेगा, जितना वासना- बात यों हुई ।-महाराज सूर्यमित्रको मानते. त्यागी, परम शान्त, दिगम्बर-माधुको दरिद्री कहना ! चीनते हैं, राजका उठना-बैठना, कराव-करीब बे 'घरका कोना-कोना खोज डाला गया ! नगर- तकुल्लुफ्री का-सा व्यवहार ! मगर सिर्फ महाराजकी बोथियां, राजपथ-जहाँ जहाँ उन्होंने गमन किया है- प्रोग्से ही! क्योंकि सूर्यमित्रको तो राज्य मम्मान मब, सतर्क-दृष्टि द्वारा देखे जाचुके हैं। लेकिन अँगूठी करना जैसे आवश्यक ही है! का कहीं पता नहीं ! कोई जगह ऐसी नहीं बाकी कुछ कारण विशेष होनेपर महाराजने अँगूगीको रही जहां उसे न हूँढा-कोरा गया हो ! बहुत याद उँगलीसे उनाग। सूर्यमित्र पास ही थे, दे दी जरा करने पर भी सूर्यमित्रको इसका जवाब नहीं मिल रखने के लिये । मिनिट, दो मिनिट तो सूर्यमित्र Page #67 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ अँगूठीका मुट्ठीमें दवाये रहे । फिर देखा तो महाराज सोच रहे है-'महाराजका क्या जवाब दिया जायेगा? को भी अँगूठी वापस लेनेमें देर थी। अहतियातन दर्बारमें जाने तककी हिम्मत नहीं पड़ रही, फिर मुँह सूर्यमित्रन अँगूठीको उँगली में डाल लिया।...... किस तरह दिखायें ? अगर इसी दरम्यान उनकी और बातोंहीबातोंमें घर लौट आए ! न इन्हें बुलावट आजाय ? ठीक उसी तरहकी अँगूठी बन अँगूठी वापस करने की याद रही, न महागजको माँग सकेगी ? नमूना बताया कैसे जायेगा ? और फिर लेनेकी । घर आकर निगाह गई तो अँगूठी उँगलीमें! कितनी रकम चाहिए-उसके लिए ? कुछ शुमार है ! सोचा-'भूल होगई । कल दर्बाग्में हाजिर कर देंगे। यह मैं कर कैसे सकता हूं ? काश ! अँगूठी कहीं और क्षमा याचना भी, अपनी असावधानी की!' मिल जाए ? क्या होगा अब ? यह कौन बनाए ? अँगूठी उँगली में ही पड़ी रही ! ज्योतिष-विद्या-कोविद भी तो ठीक-ठीक नहीं सुबह जब दर्बाग्में चलनेका वक्त हुआ तो उँगली बतला पा रहे । घोर संकट है। कैसी कडुवी समस्या पर निगाह गई-सूनी उँगली !!! सूर्यमित्रके दम खुश्क ! शरीरकी रक्तप्रवाहिनी दुपहरी ढलने लगी। . नालियाँ जैसे रुकने लगीं। आंखों के आगे काले- सूर्यमित्रकी दशामें कोई अन्तर नहीं । मुँह सूग्व बादलों जैसे उड़ने लगे। वह सिर थाम कर वहीं रहा है । मन कॉप रहा है। शरीर तापमानकी गर्मीस बैठ गए । सिर जो चकरा रहा था। माथेपर पसीने मुलमा जारहा है । घरमें चूल्हा नहीं सुलगा । मरघट की बूदें झलक आई ! उदासी का शासन व्यवस्थितरूपसे चल रहा है।'अँगूठी कहाँ गई ?-' किसीकी आँखें बरस रही हैं, काई हिचकियाँ ले रहा हत्यके भीतरी कोनेस आवाज उठी और शरीर है। घातककल्पना, या अज्ञात-भय आँखोंमे, हृदयम के गेम-गेममें समा गई !... लेकिन उत्तर था ठस रहा है-'महाराजका क्रांध जीवित छोड़ेगा या कहाँ ?-देता कौन ? स्वयं सूर्यमित्रका हृदय ही नहीं ?' मौन था। सूर्यमित्र छतपर चहलकदमी कर रहे थे, इस ___ सारा परिवार दुःखित, भत्यदल चिंतित और श्राशास कि मनकी व्यथा शायद कुछ घटे, कि सारे परिचित व्यथित । घरमें अनायास जैसे भूकम्प अनायाम सड़कपर जाते हुए एक उल्लसित-जत्थेपर का हमला हुआ हो!.. उनकी नजर पड़ी ! जत्थेमे बूढ़े थे, अधेड़ थे, सूर्यमित्रका मन दुश्चिन्ताओं में जकड़ रहा है। जवान थे और खुशीमें ललकते हुए बालक ! कुछ जैसे मरी-मक्वीको चीटियाँ पकड़ रखती हैं। तन- स्त्रियाँ भी थीं, जिनके ओठोंपर पवित्र-मुम्कान-सी बदनकी सुध उन्हें नहीं है। आज दर्बारमें जाना हिलोरें लहरा रही थीं । विश्व-वैचित्र्यके इस स्थगित कर दिया है । खाने-पीनेको ही नहीं, बल्कि ज्वलन्तउदाहरणने सूर्यमित्रके दुखते हुए मनमें एक भूख तकको भूले बैठे हैं ! चमकसी पैदा की ! मन मचल पड़ा-'ये लोग कहाँ सोचना ही जैसे जरूरी काम है उनका प्राज! जा रहे हैं ?' Page #68 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] मात्म-पोष ५६ . दर्याफ्त कगया गया।- 'वासनाहीन, परम- ये हों ! तो'.....१ शामका जरा प्रबेरी चलना ठीक शान्त, तपोधन, दिगम्बर-साधु महाराज 'सुधर्माचार्य' रहेगा । ज्यादह लोग देख भी न सकेंगे, और मतलब नगर-निवासियोंके भाग्योदयस प्रेरित होकर, समीपके भी पूग हो जायेगा।' उद्यानमें पधारे हैं। सुखाभिलाषी, धर्म-प्रेमीजन उनके अब सूर्यमित्रके महपर बदहवासीकी कुछ कम दर्शन-बन्दन द्वारा महत्पुण्योपार्जनके लिए जारहे हैं। रेखाएँ थीं । भीतर आशा जो उठ-बैठ रही थी। सूर्यमित्रका स्वार्थ करवट बदलने लगा। अका- x x x x ग्ण ही, ऋषिप्रागमनमें उन्हें अपनी चिन्तानिवृत्तिका आभास दिखलाई देने लगा | विचार मन ललकारता, पैर पीछे हटते । प्राशा उत्तेजित आया-'सम्भव है ये साधु अपने तपोबल, या करती, पदमर्यादा मुर्दा बनाती। स्वार्थ भागे धकेलता, विद्याबल द्वाग अंगूठी के बारेमे कुछ बतला सकें! संकोच पीके खदेड़नेको तुल जाता ! बड़ी देर तक लेकिन......। यही होता रहा। सूर्यमित्र प्राचार्यप्रवरके समीप तक उसी वक्त तिचारोंके मार्ग में रुकावट आ न पहुंचकर, दूर ही दूर चक्कर काटते रहे । कभी खड़ी हुई। 'लेकिन मेग एक जैन-ऋषिके पास सोचते-'लौट चलें ।' कभी-'आए हैं तों पूछना जाना, कहाँ तक ठीक रहेगा ? प्रजाकी दृष्टिमें · ?- चाहिए।' अगर महाराजने सुन पाया...: 'मैं ? मैं एक शान सिन्धु आचार्य-महाराजने देखा-'निकटगज्य-कर्मचारी होकर एक साधुके पास. दीनताके भव्य है-आत्मबोध प्राप्त कर सकता है।' भाव लेकर जाऊँ ?-नहीं, यह हर्गिज उचित नहीं। उधर सूर्यमित्र सोच रहे हैं-'इतने नागरिकोंके अँगूठीके लोभमें पद-मर्यादाको भूलजाना मूर्खता बीच, मैं कैसे पूछ सकूँगा कि मेरी अंगूठी कहाँ गई ? होगी।' मिलेगी या नहीं ? मिलेगी तो कब, कहाँ ?.... अन्तद्वेन्द !!! किसाधुशिरोमणि स्वयं कह उठते हैं-'सूर्य'पर, अँगूठीकी समस्याका हल होना तो जरूरी मित्र । अपने महाराजकी अंगूठी खोकर अब चिन्ताहै। बगैर वैसा हुए मंग पद खतरेस वाली है, यह वान बन रहे हो ? वह सान्ध्यतर्पण करते समय, कौन कह सकता है ? अँगूठी साधारण नहीं, मल्य- उँगलीसे निकल कर-तालाबकं कमलमें जा गिरी वान है। मेरा भविष्य उसके साथ खोया जा रहा है। है। सुबह कमल खुलनेपर मिल जायेगी, चिन्ता उसके अन्वेषणका मार्ग निश्चित होना ही चाहिए।' क्या है !' दुविधा ! असमंजस !! ___ सूर्यमित्रके जलते हुए हृदयपर जैसे मेष-वृष्टि क्या करना चाहिए ? आशापर सब-कुछ किया हुई । कम अचम्भित हुए हों, यह भी नहीं। काश ! जाता है। फिर अपना स्वार्थ भी तो है। अगर साधु-शब्द सच निकलें" के साथ २ यह भी सोचने अँगूठी मिलनेका उपाय मिल गया तब ? साधुओंके लगे कि है जरूर कोई-न-कोई विद्या, इनके पास ! पास बड़ी-बड़ी विद्याएँ होती है, कौन जानें उन्होंमेंसे नहीं, मेग नाम लेकर सम्बोधन कैसे किया ? अँगूठी Page #69 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ राजाकी थी यह इन्हें कैसे मालूम ? इसका तो किसी अधूरापनसा नींद नहीं लेने देता था। आज भी को भी पता नहीं है-अब तक।' वही सब कुछ है । फर्क है तो इतना कि आज उस और वह लौट पड़े उमी दम ! बरोर कुछ कहे- तकलीफ़की किस्ममें तब्दीली होगई है। सुने, चुप ! हल्की प्रसन्नता और मीना-सन्देह दोनों रात बीतती जारही है। पर सूर्यमित्रका ध्यान उनके साथ थे। उसकी ओर कतई नहीं है । वह सोच रहे हैंरात, कैसी विह्वलता कैसी असमंजसता और 'कितनी उपयोगी, कितनी अमूल्य, कितनी कल्याण कारी विद्या है ? ऐसी विद्या पाने पर संसारमें क्या कैसी धूप-छायासी आशा-निराशाके साथ बीती। नहीं किया जासकता ? जरूर लेनी चाहिए-यह यह कहनेसे अधिक अनुमान लगानेकी बात है। विद्या ! फिर ब्रह्म बालकका तो विद्यापर पूर्णाधिकार __सुबह हुआ ! सूर्य चढ़ा ! सूर्यमित्र-कमल-विक है। जो विद्या ले वह थोड़ी।' सित हुए । तभी दो अत्यंत लालायित आँखोंने देखा -रत्नालंकृत, नेत्र-वल्लभ, सुन्दर अँगूठी, विशाल विद्या प्राप्त होनेपर वह क्या २ कर सकते हैं ? पंखुरियों वाले मनोहर कमलकी गोदमें पड़ी मुस्करा कानसा विद्वान् तब उनक मुकाबिलका गिना जा रही है। सकेगा ? भविष्यक गर्भमें क्या है, क्या अतीतकी गांद हर्षमें डबेहए शरीरके दोनों हाथोंने शीघ्रता में समा चुका है ? जब यह वह बताएँगे, तब कितना पूर्वक उसे प्राप्त कर लिया, और इसके दसरे ही क्षण यश, कितना नाम उन्हें संसारमें मिलेगा ? महागजके अँगूठी सूर्यमित्र की उंगली में पड़ी, अपने सौभाग्य हृदयमें तब उनके लिए कितनी जगह बन जायेगी ? पर जैसे हँस रही थी। आदि मधुर-कल्पनाएँ, चलचित्रकी तरह आँखोंक सूर्यमित्र दर्बार गए—मनमें न संकोच था, न आगे सजीव बन कर आने लगीं। भय । हमेशाकी तरह प्रसन्न, गंभीर, गुरुत्वपूर्ण। और ?–इसी अतृप्त-लालसाके सुनहरे-स्वप्नों बैठे ! अपनी भूलकी समालोचना करते हुए में रातकी गत बीत गई। लेकिन सुबह, प्रभातके अँगूठी महाराजको सौंपी। उन्होंने मामूली तवजहके नए सूरजके साथ-साथ सूर्यमित्रके हृदयमें भी एक साथ अँगूठी हाथमें ली और उँगलीमें पहिन ली। नवीनताने जन्म लिया। वह थी-विद्याप्राप्तिकी ___एक छोटी, संक्षेप सी मुस्कराहट उनके अोठों अटूटचेष्टा । विद्या मनमें चुभ जो गई थी। पर दिखलाई दी। मनमें चुभीका उपाय है-दृढ़संकल्प । रातभर फिर दैनिक राजकार्य। जो कोरीआँखों उधेड़बुन होती रही है, उसने x xxx सूर्यमित्रको इसी नतीजेपर पहुँचाया है। अब उन्हें रुकावटें, पथभृष्ट नहीं कर सकतीं । बाधाएँ इन दिनों सूर्यमित्रका जीवन जाने कैसा बन रहा चित्तवृत्तिको डुला नहीं सकतीं। जो लहर उठी है, है ? पिछली रात भी विह्वलता, भूखसी, चावसा, वह विद्या प्राप्त होने तक अब उनका साथ देगी। Page #70 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] आत्म-योध ६१ यह है अन्तरात्माकी पुकार ! आत्म-विश्वासका भूल रहा है कि - 'वह विद्या कोई अलग वस्तु नहीं ।' खुला रूप !!! X बल्कि इसकी अपनी बीज है। केवल 'अनसमझ के अन्तरने उसे 'पर' बना दिया है। चाहे तो तत्काल उसे पा सकता है, है ही उसकी इस लिए ।' फिर बोले- 'तो उस विद्याकी ही केवल इच्छा रखते हो— सूर्यमित्र ? जिसे वह 'महान' समझकर माँग रहे हैं, गुरुदेव के लिए वह साधारण से अधिक नहीं । उसके लिये 'केवल' शब्द इस्तेमाल कर रहे हैं। इस उदार रहस्य ने उन्हें चौंका दिया | जागरित लालसामें बल संचार हुआ । विचार आया- 'होनहो ऋषिके पास इससे भी मूल्यवान् और भी विद्याएँ हैं। तभी यह बात है । लेकिन एक साथ ज्यादहके लिए मुँह फैलाना शायद महाराजने 'धर्मवृद्धि' दी । कहा- 'आत्मबन्धु ! ठीक न रहेगा। मुमकिन है - तपस्वी जी नाराज अँगूठी मिल गई, अब क्या चिन्ता है ? ' 1 'महाराज ! ..." सूर्यमित्रने कहना चाहा, लेकिन कह न सके । सोचने लगे किन शब्दों में कहा जाए ? बात की शुरूआत कहाँ से हो ? सवाल 'माँगने' का है । 'माँगना' वह काम है जो दुनियाके सारे कामोंसे मुश्किल - कठिन होता है । होजाएँ । 'राजा, योगी, अग्नि, जल इनकी उल्टी गीति । ' - मशहूर ही तो है । फिर अपनका इतनेसे फिलहाल काम चल सकता है। बाक़ी फिर । अधिक से अधिक स्वर में मिठास लानेका प्रयत्न करते हुए सूर्यमित्रने उत्तर दिया- 'हाँ ! महाराज ! वह विद्या मुझे मिलनी चाहिए। बड़ी कृपा होगी, जन्म एहसान मानूँ गा ।' क्षणोंके अन्तराल के बाद - महाराज बोले'कहो सूर्यमित्र ! क्या कहना चाहते हो ?' 'विद्या देने में तो मुझे उका नहीं । लेकिन मुश्किल तो तुम्हारे लिए यह है कि विद्या, बिना मेरा जैसा वेष धारण किये आती ही नहीं । सोचो, इसकेलिए मैं क्या कर सकता हूँ ?' सूर्यमित्रका मन खुलसा गया । महाराजके वचन - माधुर्यमें उन्हें वह आत्मीयता मिली, जो अब तक उनसे दूर थी। आडम्बर-रहित शब्दों में, चरणोंमें सिर नवाते हुए बोले- 'योगीश्वर ! हमें वह विद्या दो, जिसके द्वारा तुम अन्तरकी बात जान लेते हो, खोई वस्तुका भेद समझ पाते हो ।' - महाराजने गंभीर स्वरमें, वस्तुस्थितिके साथ साथ अपनी विवशता सामने रक्खी। सूर्यमित्र उत्सुक नेत्रोंसे ताकते रहे, बोले कुछ नहीं । सम्भव है, बोलने के लिए उन्हें शब्द ही न मिले हों - मनमाफिक । X X X [ ४ ] बग़ैर इस बातका विचार किए कि हम राज्यमान्य पुरोहित हैं । पद-मर्यादा भी कोई चीज है । जिन्हें सिर नवा रहे हैं, वह अपने मान्य-संन्यासी नहीं, वरन् दिगम्बरत्वकं हामी, एक महर्षि हैं।सूर्यमित्रने विनयपूर्वक तपोधन सुधर्माचार्यको प्रणाम किया । आज उनके हृदय में संकोच नहीं है । घबराहट भी नहीं, कि कोई देग्बलेगा। मुँहपर सन्तोष है, आँखों में विनय | महाराज मुस्कराये । शायद सोचने लगे - 'कितना भोला है - यह मानव ! विद्या-लोभने इसे पराजित कर रखा है, चुप उठकर चले आए। X X X X Page #71 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनेकान्त [वर्ष ४ पर सूर्यमित्रने समझा उस बाधा । बोले-घबपर आकर मूर्यमित्रने मशवरा किया। विद्याकी राओ नहीं । मैं संन्यासी जरूर बन रहा हूँ, लेकिन महत्ता मनमें घुल जो चुकी थी। सहज ही वह विद्या यह मत समझो, कि तुम्हें या बच्चोंको भूल जाऊँगा। लोभको छोड़ कैमे मकने थे ? मुझे किसीकी चिन्ता न रहेगी। नहीं, सब तरह ऐमा ___ कहने लगे-'दिगम्बर साधु बनकर भी अगर ही रहूँगा। सिर्फ़ दिगम्बर-साधुका रूप रखना होगा। वह विद्या मुझे मिलती है, तो मेरा ग्वयाल है-इतने विद्या जो बिना वैसा किए नहीं आती। मजबूरी है में भी मॅहगी नहीं। दिगम्बर साधु बनना अपनी न? -इसी लिए !' मान्यताके खिलाफ जरूर है. लेकिन मैं जो बन रहा तो कब तक लौट सकोगे ?'-स्त्रीने हारकर, हूँ वह भक्तके रूपमें नहीं. वग्न विद्याप्राप्तिकं, साधन श्राधीनस्थ-स्वग्में पूछा। के तरीकेपर । वह भी हमेशा-हमेशाके लिए नहीं, सिर्फ 'वापस ? विद्या मिली नहीं कि लौटे नहीं । साधु विद्याको 'अपनी' बना लेने तक ही। अब विचार बननेका शौक थोड़ा है ?-बहुत लगा-महीना करो क्या हर्ज है ? 'मेग तो यही मत है कि दिगम्बर भर ।'-और वह जैसे पिण्ड छुड़ाकर भागे ! माधु बनना उनना बुग नहीं, जितनी गहरी भूल इम xxxx सुयोगको छोड़ देनस होगी। दूसरा दिन है।___ ब्राह्मणपरिवारकं आगे विषम समस्या है। घुटी सूर्यमित्र दिगम्बर-साधुके भव्य बन्दनीय वेषमें, के लाभ जहाँ पीनेके लिये प्रेरित करते हैं, बदजायका तपोनिधि सधर्माचार्यक समीप विराजे हैं । भक्तउतना ही रोक देनेकी हिम्मत दिखाता है। बात गण आत हैं, श्रद्धा-पूर्वक अभिवादनकर, पुण्यकुछ देर 'नाही नुकर' की घाटीमें पड़ी रही। लेकिन लाभ लेते हैं, और चले जाते हैं। मूर्यमित्र की 'लगन' में काफी मजबूती थी, बल था। अवसर पाकर सूर्यमित्र बोले-'प्रभो । माज्ञा आखिर मब लोगोंको म्वीकारोक्ति द्वारा उनका मार्ग नकल मैंने साधुता स्वीकार करली । अब मुझे विद्या अबाधित करना ही पड़ा। मिल जानी चाहिए।' आगे बढ़े ! 'जरूर !'-वात्सल्यमयी स्वरमें महागज ने खीने श्राकर राम्ना गेक लिया। अँधे हुए गलेसे उत्तर दिया-'लेकिन जरा धैर्यसे काम ला । मेरी जैसे बड़ी देर रो लेनेके बाद अब बोलनेका मौका तरह क्रियाएँ कगे, आत्मविश्वास रखो; और मिला हो, बोली-'कहाँ चले ? बचोंकी, मेरी, किमी शाख-अध्ययनमें दिन बिताओ । अवश्य तुम्हें की कुछ चिंता नहीं, विद्या ही सब कुछ तुम्हारी बन विद्याएँ प्राप्त होंगी। एक वही नहीं, और भी रही है ? 'संन्यासी बनोगे ? मैं कैसे घरमें रह साथ-साथ ।' सकूँगी ?' __ सूर्यमित्रने बातें सुनी ही नहीं, हृदयमें धरलीं। वह रोदी ! तदनुकूल आचरण भी किया-अटूट लगन, और उसे जैमे रोना जरूरी था। श्रद्धाके साथ! Page #72 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] अहिंसा-सत्व कई दिन पाए और चले गए। आज कितना दीन बन रहा है। क्या नहीं है-इसके हृदयमें कुछ ज्ञान-संचार होने लगा। लगने पास ? लेकिन सांसारिकता इसका पीछा छोड़े तब ?' लगा जैसे आँस्योंके भागेसे परदासा उठता जा । इसी समय गुरुदेव बोले-'कहो सूर्यमित्र ! अब विद्याकी लालसा बाकी है क्या? 'चाहिये ?' __ पूछने लगे-'स्वामी । शास्त्रस्वाध्यायमें सूर्यमित्रने तत्काल उत्तर दिया-'नहीं, प्रभो ! आनन्द तो खूब आता है, पर अभी वह विद्या मुझे अब मुझे विद्याकी जरूरत नहीं। अब मुझे उससे नहीं मिल सकी।' कहीं मूल्यवान वस्तु-प्रात्मबाध मिल चुका है। ___ 'मिलेगी ! जिस दिन विद्याकी लालमा मनसे उस पा लेनेपर किसीकी इच्छा नहीं रहनी !' । दूर हो जायेगी, उसी दिन विद्या तुम्हारे चरणोंमें xxx लाटेगी।'-महागजने गंभीर वाणीमे व्यक्त किया। सूर्यमित्र !!!सूर्यमित्रका मन धुलता जारहा है। वासनाएँ आज महान तपम्वी ही नहीं, महान् प्राचार्य क्षीण होरही हैं। ज्ञान जागरित होरहा है। हैं। अनेकों विद्याएँ उन्हें सिद्ध हैं। लेकिन वे उन्हें बहुन दिन बीत गए। जानते तक नहीं। उन्हें उनसे क्या प्रयोजन ? क्या शास्त्र अध्ययन करते २ वह सोचने लगे-एक वास्ता ? अब उन्हें वह वस्तु मिल चुकी है जो अत्यंत दिन !.."श्रो । विद्याके लोभमें मैंने इतने दिन दुर्लभ, अमूल्य और महामौख्यप्रदाता है, विद्याओं निकाल दिये । कपूर देकर कंकड़ लेना चाहता था ? की उसके आगे क्या वकअत ? वह वस्तु हैबन-मूर्खता ! महान ऐश्वर्यका म्वामी यह प्रात्मा; आत्म-बांध ॥ अहिंसा-तत्त्व ( लेखक-श्री ब्र० शीतलप्रसाद ) [ इस लेखके लेखक ब्र० शीतलप्रसाद जी अर्सेसे बीमार हैं-कम्पवातसे पीड़ित हैं, फिर भी आपने अनेकान्तके विशेषाङ्कके लिए यह छोटासा सुन्दर तथा उपयोगी लेग्य लिखकर भेजनेकी कृपा की है, इसके लिए मैं आपका बहत आभारी हैं। कामकी-कर्तव्य पालनकी लगन इसको कहते हैं। और यह है अनुकरणीय सेवाभाव !! -सम्पादक] श्री समन्तभद्राचार्यने म्वरचित स्वयंभूस्तोत्रमें । र वैसे ही अहिंसातत्त्वमें कोई राग-द्वेष-मोह-भाव नहीं कहा है कि अहिंमा परमब्रह्मस्वरूप है। जैसे परम- हैन प्रारम्भी हिंसा है। जहाँ मन-वचन-कायकी है, न द्रव्यहिंसा है, न भावहिंसा है, न संकल्पी हिंसा ब्रह्म परमात्मामें कोई विकार नहीं है, गगद्वेष नहीं है, गगादि क्रिया न होकर आत्मा अपने आत्मस्वरूपमें इच्छा-मोह नहीं है, न कोई हिंसात्मक भाव है; स्थित रहता है वहीं अहिंसातत्त्व है। Page #73 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ जैन तीर्थकरोंने ऐसी अहिंसाको ही आदर्श हिंसाका त्याग ता कर देता है, अर्थात् हिंसाके अभिअहिंसा कहा है। इसमें जो कुछ भी कमो है वह हिंसा प्रायसे हिंसात्मक कार्य नहीं करता। परन्तु प्रारम्भी में गर्भित है । रागद्वेष-मोहादि विभावोंसे आत्माके हिंसाको भी हिंसा ही समझना चाहिये, क्योंकि उस वीतरागतादि भाव प्राणोंकी हिंसा होती है । द्रव्य- में कारण भावहिंसामयी कषायभाव है, इसलिए प्राणोंके पातको द्रव्यहिंसा कहते हैं। परन्तु वह भाव- जितना भी शक्य हो प्रारम्भी हिंसासे बचना हिंसाके बिना हिंसा नाम नहीं पाती है। जैसे कोई चाहिये । प्रारम्भी हिंसाके तीन भेद हैं-उद्योगी, साधु भूमि देख कर चलता है, उसके परिणामोंमें गृहारम्भी और विरोधी । इनमेंसे यदि कोई प्रकारकी जीवरक्षाका भाव है-जीवहिंसाका भाव नहीं है हिंसा गृहस्थीस बन जाय तो वह उसे हिंसा ही ऐसी दशामें यदि अचानक किसी क्षुद्रजन्तुका घात समझे । हिसाको अहिंसा धर्म मानना मिथ्या होगा । हाथ या पग द्वारा हो जावे, तो वह मुनि उस द्रव्य- जितनी कम हिंसास काम होसके उतना उद्यम करना हिंसाका भागी न होगा। क्योंकि उसके भावमें हिंसा गृहस्थका कर्तव्य है। हिंसात्मक युद्धोंकी अपेक्षा यदि नहीं है, इसलिए वास्तवमें भावहिंसा ही हिंसा है। शान्तिमयी प्रयोगोंसे परस्परके मनमुटाव मिट सकें द्रव्यहिंसा भावहिंसाका प्रकट कार्य है, इसलिये द्रव्य- तो अहिंसा धर्मके माननेवाले गृहस्थका ऐसा ही कर्तहिंसाको भी हिंसा कहते हैं। तात्पर्य यह है कि जैन व्य ठीक होगा। परस्पर विरोध होनेपर अन्ध होकर तीर्थकरोंने अहिंसाको ही धर्म माना है । जगतमें एक दूसरेको निर्दयतास हानि पहुँचाना घोर हिंसा व्यवहार करते हुए व्यवहारी जीवोंसे सर्वथा अहिंसा है। मानवीय कर्तव्यसे बाहर है। का पालन हो नहीं सकता । तब जितने अंशमें यदि कोई धार्मिक कार्यके लिये प्रारम्भ करता है अहिंसातत्वमें कमी रहेगी, उतने अंशमें वे हिंमाके से और उसमें हिसा होती है, तो भी उस हिंसाको भागी होंगे। अगर एक साधु भी हो, और वह शुभ धर्म नहीं कहा जा सकता | चंकि प्रारम्भी हिंसाके गग-वश शुभ क्रिया करता हो, तो उस समय अहिंसा मुकाबले में धार्मिक लाभ अधिक होगा, इस लिये के तत्वसे बाहर है क्योंकि शुभगगमें मंद कषायका उपचारसे उस प्रारम्भी हिंसाको भी धर्ममें गर्भित मल है। जितना कषायका मल है उतना ही हिंसाका कर देते हैं । प्रयोजन यह है कि अहिंमा सदा दोष है । शुद्ध भावमें कषायरहित रमण करना अहिंसा ही रहेगी, और वह वीतरागभावमय है या अहिंसा होगा। गृहस्थोंका भी यही आदर्श होना चाहिये परब्रह्मस्वरूप है। इसमें जितने अंशों में जो कुछ कमी है वह सब उतने अंशोंमें हिंसा है । जैन सिद्धान्तका वीतरागभावको ही अहिंमा मानना चाहिये । यही प्राशय है । इस ही पर निश्चय लाकर हरएक जब शुभ राग भी हिंसा है तब अशुभ राग व्यक्तिको अहिंसाके शिवरपर पहुँचनेका उद्यम से किया हुआ गृहस्थीका प्रारम्भ हिंसात्मक क्यों न शीघ्रतासे या शनैः शनैः करना चाहिये । हो ? यह बात दूसरी है कि साधारण गृहस्थ संकल्पी Page #74 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्म और अहिंसा (लेम्पक-श्री अजितप्रसाद जैन, एम० ए०, एडवोकेट) -RRRRRANGER जैनधर्म अहिंसा-प्रधान धर्म है। "अहिंसा परमो बहवो जीवा योनौ हिंस्यन्ते मैथुने तद्वत् ।।१०।। धर्मः" महाभारतका भी वाक्य है; परन्तु यह जैनधर्म यदपि क्रियते किश्चिन्मदनोद्रेकादनगरमणादि । का खास झण्डा है। जैनधर्मका नाम ही अहिंसाधर्म तत्रापि भवति हिंसा रागाद्युत्पत्तितन्त्रत्वात् ।।१०९।। हिंसा पर्यायत्वात्सिद्धा हिंसान्तरणसनेषु । जैनाचार्यों ने चारित्रकी व्यवस्था और मीमांसा बहिरङ्गेषु तु नियतं प्रयातु मूढुंव हिंसात्वम् ।।११।। अहिंसाके आधारपर की है। इन्द्रिय-दमन, त्यागाव- एवंविधमपरमपि ज्ञात्वा मुश्चत्यनर्थदण्डं यः । लम्बन, व्रतोंका अनुष्ठान, सामायिकका सेवन, चित्त तस्यानिशमनवयं विजयमहिंसावतं लभते ॥१४॥ की एकाग्रताका सम्पादन, चिन्ता-निरोध, धर्मध्यान, इति यः षोडशयामान गमयति परिमुक्तसकलसावणः । शुक्लध्यान, सबकुछ अहिंसाधर्मका हीपालन है। प्रात- तस्य तदानीं नियतं पूर्णमहिंसावतं भवति ॥१५७।। ध्यान-रौद्रध्यानादिरूप मावध चित्तवृत्तिसे तथा योगों इत्थमशेषितहिंसः प्रयाति स महाबतित्वमुपचारात् । की-मन-वचन-कायकी असावधान प्रवृत्तिसे द्रव्य उदयति चरित्रमाहे लभते तु न संयमस्थानम् ॥१६०।। प्राणोंका व्यपरोपण न होते हुए भी आत्माके स्वच्छ इति यः परिमितभोगैः सन्तुष्टस्त्यजतिबहुनान भोगान् । निजभावका नाश होता है, और ऐसा होना हिंसा है- बहुतरहिंमाविरहात्तम्याऽहिंसा विशिष्टा स्यात् ॥१६६।। आत्मस्वभावका घात है। हिंसायाः पर्याया लामोऽत्र निरस्यतं यतो दाने । श्री अमृतचन्द्रसूग्नेि पुरुषार्थसिद्धयुपायमें बड़े तस्मादनिथिवितरणं हिंसाव्युपरमणमेवेष्टम् ॥१७२।। जोरके साथ यह उपदेश दिया है कि सब पाप हिंसामें नीयन्तेऽत्र कषाया हिंसाया हेतवा यतस्तनुताम् । और सब पुण्य अहिंसामें गर्भित हैं। हिमा-अहिंसा सल्लेखनामपि ततः प्राहुरहिंसाप्रसिद्धयर्थम् ।।१७।। की व्यापकताको बतलाने वाले आपके कुछ वाक्य अहिंसाका अटल प्रधान सम्यकदर्शनकी पहिली इस प्रकार हैं: निशानी है और उमका व्यवहार (अमल) सम्यक् चारित्रका मार्ग है । व्रती श्रावक अहिंसाव्रतको एकसर्वस्मिन्नप्यस्मिन् प्रमत्तयोगैकहेतुकथनं यत् । देश धारण करता है। वह हिंसाका सावद्ययोग तथा अनृतवचनेऽपि तस्मानियतं हिंसा समवसरति ॥९९॥ अशुभकर्मास्रव-कारण पाप मानता है। यदि वह अर्था नाम य एते, प्राणा एते बहिश्चराः पुंसाम् । एकदेश हिंसा करता है तो उसको क्षम्य, वाजिबी, हरति स तस्य प्राणान् , यो यस्य जनो हरत्यर्थान् ।।१०।। ठीक, अनिवार्य, धर्मानुकूल, धर्मादेशानुसार नहीं हिंस्यन्ते तिलनाल्यां तप्तायसि विनिहिते तिला यद्वन् । मानता। वह उसका प्रत्याख्यान, प्रतिक्रमण तथा Page #75 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ६६ आत्म प्रायश्चित्त करता है और हिंसा बन जाने निन्दा व अफसोस किया करता है । व्रती श्रावकके लिये आरम्भी, उद्योगी, विरोधी हिंसाकी इजाजत, अनुज्ञा, अनुमति, आदेश जैनाचार्योंने कहीं कभी नहीं दिया है। हिंसा हर हालत में हिंसा है— अहिंसा नहीं हो सकती । हिंसा में कषायभावों के कारण जिस प्रकार की तीव्रता या मंदता होगी उसके कारण से होने वाले कर्मबन्ध में भी उसी प्रकारकी तीव्रता या मंदता tri और फल भी उसका तद्रूप ही होगा। इसमें किसी की भी कोई रू- रियायत नहीं चल सकती । व्रती श्रावकके लिये हिंमा अनिवार्य भी नहीं है । महात्मा गांधीने तो मनुष्यमात्रके लिये यह स्पष्ट शब्दों और विशद युक्तियोंसे घोषित कर दिया है कि हिंसाप्रत बड़ी हद तक प्रत्येक नागरिक धारण कर सकता है - दैनिक सामाजिक व्यवहार में लासकता है। राष्ट्रीय स्वराज्य-प्राप्ति में और तत्पश्चात् राज्यप्रबन्धमें, नागरिक जीवन में, हिंसा से बचे रहना मुश्किल नहीं है । महात्माजी प्रश्न किया गया कि कांग्रेस- बाल - एटीयर-दलको भाले, तलवार, लाठी आदि शस्त्र चलाने की शिक्षा दी जाती और अभ्यास कराया जाता है, यह कहां तक ठीक है और इसका श्राशय क्या है ? उन्होंने जवाब में लिखा है कि - फ़ौज में भरती होने वाले सिपाही के लिये तो केवल शारीरिक मजबूतीकी परीक्षा की जाती है; औरतें, बुड़े, कच्चे, जवान और रोगी भरती नहीं किये जाते; लेकिन कांग्रेसकी अहिंसात्मक पलटन में तो मानसिक योग्यता की परीक्षा ही प्रधान है और औरतें, बुड्ढे, कच्चे जवान, लंगड़े, अन्धे और कोढ़ी भी भर्तीके लायक़ हो सकते हैं। कांग्रेसके अहिंसात्मक शान्त सैनिकको [ वर्ष ४ दूसरेके वध करनेकी लियाक़त नहीं चाहिये; उसमें अपने प्राण समर्पण की हिम्मत होने की जरूरत है । हमने देखा है कि दस-बारह वर्ष के बच्चे पूर्ण सत्याग्रह करने में सफल हुए हैं। कांग्रेस- चालण्टीयरको तलवार, भाले, लाठीकी जरूरत नहीं पड़ेगी। जनता की सेवापरिचर्या, चौकीदारी, दुर्जनको दुर्व्यवहार से रोकना और दुर्जनकं आक्रमणसे अपनी जान देकर भी सज्जनको बचाना उसका कर्तव्य होगा । कांग्रेस वालण्टीयरकी वर्दी भड़कीली न होगी बल्कि सादी और ग़रीबों कीसी रहेगी। कांग्रेस- वालण्टीयर प्राणीमात्र का मित्र होगा; वह किसीको शत्रु नहीं मानेगा; और जिसको लोग शत्रु समझें उसके वास्ते भी कांग्रेस वालरटीयरके हृदय में दयाभाव होगा । कांग्रेस- वालटीयरका यह अटल श्रद्धान है कि कोई मनुष्य स्वभावसे दुर्जन नहीं है और प्रत्येक मनुष्यको भले, बुरेमें विवेक करनेकी शक्ति है। शरीरका शक्तिमान रखनेके लिये वह हठयोग-व्यायामका प्रयोग करेगा । ऐसे वालटीयर में यह शक्ति होगी कि वह रात-दिन एक जगह जम कर पहरा देगा; गर्मी, सर्दी, वर्षा सह लेगा और बीमार नहीं पड़ेगा; खतरे की जगह निडर पहुँचेगा; आग बुझाने के लिये भाग पड़ेगा; सुनसान जंगलों और भयानक स्थानों में अकेला पहुँचेगा, मार-पीट, भूग्य प्यास, अन्य यातना सह सकेगा, लाठी चलाते हुये बलवाइयोंकी भीड़ में घुस पड़ेगा, चढ़ी हुई नदी और गहरे कुएँ में जनताको बचाने के लिये फाँद पड़ेगा, उसका शस्त्र और अस्त्र आत्मबल और परमात्म-विश्वास है । ती जैन श्रावक भी प्रायः ये ही लक्षण हैं जो ऊपर कहे गए हैं। हर ऐसा श्रावक अहिंसक, सत्यवक्ता, निर्लोभी, सरल स्वभावी, ब्रह्मचारी, निडर, Page #76 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] जग चिड़िया रैन बसेरा है शरीरको नश्वर और आत्माको अमर समझने वाला रहा है। जैनाचार्योंने किसी हालतमें भी हिंसाकी होता है। अपने ब्रतकी मर्यादाका उल्लंघन कर वह इजाजत, परवानगी, छूट, आदेश या आज्ञा नहीं दी अपनी शक्तिभर हिंसाका भाव-हिंसाका विचार अपने है। जो व्यक्ति जिस हालतमें जैसे परिणामोंसे हिंसा मनमें प्राने ही नहीं देता। . करेगा, वह हिंसाकं फलका भागी अवश्य होगा । 'शठेन शाठ्यम्' की नीति, गालीका जवाब गाली, हिंसा-कर्म किसी दशामें भी क्षम्य, ठीक, वाजिबो, थप्पड़का जवाब थप्पड़, लाठीका जवाबलाठी-यहजैन उचित या धर्मानकल नहीं समझा जा सकता। धर्मकी शिक्षा या जैनाचार्योंका सिद्धान्त कभी नहीं अजिताश्रम, लखनऊ। ता० १९-१०-४० जग चिड़िया रैन बसेरा है श्रो गाफिल ! सोच जरा मनमें, जग चिड़िया रैन बसेरा है। मानव ! तूने देखा, तन यह, मिट्टीका एक खिलौना है। तू विहँस रहा है देख जिस, कल देख उसे ही रोना है। उठ जाग, बाँध अपनी गठरी, होता जा रहा सवेरा है। श्रो गाफिल ! सोच जरा मनमें, जग चिड़िया-रैन-बसेरा है । जब आयेगा तूफान प्रबल, झड़ जायेंगे वैभव सारे । कुछ फिक्र करो निज जीवनकी, क्यों बनते जातं मतवाले ॥ सुनले, कुछ सोच समझ भी ले, इस जगमें कोइ न तेरा है। ओ गाफिल ! सोच जरा मनमें, जग चिड़िया-रैन-बसेरा है। मानव मानवको चूस रहा, जग चिल्लाता दाना दाना । यह भरा उदर वह कृशितकाय, अन्तर इसका क्या पहिचाना? सारी दुनिया मतलबकी अब, जो कुछ करले वह तेग है। ' आगाफिल ! सोच खरा मनमें, जग चिड़िया-रैन-बसंरा है ।। तेरे सब साथी चले गये, क्या सोच रहा अपने मनमें ? आना जाना है लगा सदा, कोई रह नहीं मका जगमें । तू भी अब जल्द सम्हल जा रे ! यह अल्प समयका डेग है। श्रो गाफिल ! सोच जरा मनमें, जग चिड़िया-रैन बसेरा है।। जो चला गया वह आवेगा, जो आया है वह जाना है। ओ भोले मानव ! सोच समझ, जग एक मुसाफिरखाना है। सुन ! देख देख मगमें पग रख, सारा जग यही लुटेरा है। ओ गाफिल ! सोच जरा मनमें, जग चिड़िया-रेन-बसेग है। यात्रा तेरी है महाकठिन, कण्टकाकीर्ण पथरीला मग । बाधायें, सिरपर नाच रहीं, मत खरो-बढ़ाते जाना पग ।। ऑधी आई तूफान प्रबल, होता जा रहा अँधेरा है। ओ गाफिल ! सोच जरा मनमें, जग चिड़िया-रैन-बसेरा है। (लेखक-हरीन्द्रभूषण जैन) Page #77 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह और हमारा समाज (लेखिका-श्री ललिताकुमारी पाटणी 'विदुषी', प्रभाकर) ['अनेकान्त' के पाठक श्रीमती ललिताकुमारीजीसे कुछ परिचित जरूर हैं-आपके लेखोंको अनेकान्तमें पढ़ चुके हैं। आप श्रीमान् दारोगा मोतीलालजी पाटणी, जयपुरकी सुपौत्री हैं और शिक्षा तथा समाजसधारके कामोंसे विशेष प्रेम रखती हैं। हालमें ओपने अपने विवाहसे कुछ दिन पूर्व, अपनी भावज सुशीला देवीके अनुरोधपर "विवाह और हमारा समाज" नामकी एक छोटीसी पुस्तक लिखी है, जिसमें पाँच प्रकरण हैं-१ विवाह क्या है ?, २ विवाहका उद्देश्य, ३ विवाह कब किया जाय ?, ४ बेजोड़ विवाह और ५ वैवाहिक कठिनाइयाँ । यह पुस्तक उक्त सुशीला देवीने अपने 'प्रकाशकीय' वक्तव्यके साथ छपाकर मँगसिर मासमें विवाहके शुभ अवसरपर भेंटरूपमें वितरण की है और अपनेको समालोचनार्थ प्राप्त हुई है। पुस्तक सुन्दर ढंगसे लिखी गई है। विचारोंकी प्रौढता, हृदय की उदारता और कथनकी निर्भीकताको लिये हुए है, खूब उपयोगी है और प्रचार किये जाने के योग्य है। विवाह-विषयमें स्त्रीसमाजकी ओरसे यह प्रयत्न निःसन्देह प्रशंसनीय है । ऐसी पुस्तकोंका विवाह जैसे अवसरोंपर उपहारम्वरूप वितरण किया जाना समाजमें अच्छा वातावरण पैदा करेगा। अस्तु; यहाँ पाठकोंकी जानकारीके लिये पुस्तकके शुरूके दो अंश नमूनेक तौरपर नीचे दिये जाते हैं। -सम्पादक] विवाह क्या है ? राजनैतिक और धार्मिक जीवन भी सम्मिलित है। जिस तरह विवाह स्त्री पुरुषोंक मामाजिक-कौटुम्बिक विवाहके सम्बन्धमें कलम उठानेके पहले स्वभावतः भादि जीवनको परस्पर मिला देना है, उसी तरह यह सवाल उठता है कि विवाह है क्या वस्तु ? विवाह विवाह उनके धार्मिक और राजनैतिक जीवनका भी का जो शाब्दिक अर्थ निकलता है वह है-विशेष एकीकरण करता है। अर्थ यह हुआ कि विवाहके रूपसे वहन करना यानी ढोना । कौन किसका वहन पहले जो स्त्री-पुरुष अपने हरएक आचरणमें स्वतन्त्र करे ? उत्तर होगा-स्त्रीका पुरुषको वहन करना और थे, वृत्तियोंमें स्वच्छन्द थे और जीवनचर्या में स्वाधीन पुरुषका स्त्रीको वहन करना। अर्थात्-स्त्री और पुरुष थे, वे ही स्त्री-पुरुष विवाह के बाद अपने हरएक कार्यदोनोंके अभिन्न होकर एक दूसरेको वहन करनेकी कलापमें एक दूसरेका सहयोग प्राप्तकर उसे पूर्ण करते प्रक्रियाका प्रारम्भ होना विवाह है । इस प्रक्रियामें स्त्री हैं। इसीलिये विद्वान् समाज-वेत्तात्रों की सम्मतिमें और पुरुष दोनों ही अपने सांसारिक जीवनको विवाह एक धार्मिक और सामाजिक पवित्र बन्धन है, अभिन्न होकर वहन करते हैं। यहां सांसारिक जीवन जिसमें परिबद्ध होकर स्त्री और पुरुष दोनों गृहस्थाश्नम से सामाजिक, कौटुम्बिक, लौकिक और गृहस्थ जीवन के उत्तरदायित्वको आपसमें बांट लेते हैं। यह बन्धन से ही तात्पर्य नहीं है, किन्तु सांसारिक जीवनमें जीवन-पर्यन्त अटूट और अमिट बना रहता है। वह Page #78 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] विवाह और हमारा समाज दो स्त्री-पुरुषोंके भावो जीवनके कार्यक्रम, कर्तव्य, सम्बंधी इच्छा जमीनपर चलने वाले चौपाये जानवरों अनुष्ठान व आचरण को इस तरह एक दूसरेके और पासमानमें उड़ने वाले पक्षियोंमें भी पाई जाती जीवनसे बाँध देता है कि एकके अलग रहनेपर उनमें है, किंत उनके समाजमें एक संस्कार विशेष न हो से एकका भी कार्यक्रम, कर्त्तव्य, अनुष्ठान व पाच- मकनेके कारण विवाहकी स्थिति बिल्कुल अव्यवहार्य रण भली प्रकार सम्पन्न नहीं हो सकता। इसलिए है। यह माना जासकता है कि अगर प्राणियोंमें प्रणयविवाहकी व्याख्या करनेमें उसका साधारण और सम्बंधी भावना और इच्छाका कदाचित् उदय ही सरल स्वरूप यही स्थित होता है कि विवाह दो स्त्री- नहीं होता तो शायद विवाहकी पद्धति भी प्रचलित पुरुषोंके जीवनको बाँधने वाला एक पवित्र, धार्मिक नहीं होती, किंतु कोरी प्रणयसम्बंधी इच्छाको ही और सामाजिक बन्धन है, जो समाजमें अनिश्चित विवाहका रूप मान लेना सामाजिक-संगठनकी दृष्टि कालसे एक विशेष संस्कार के रूपमें चला आरहा है। में बिल्कुल असंगत है। पशु-पक्षियोंकी बात जाने ___ समाज-विज्ञानके कुछ आधुनिक विद्यार्थियोंका दीजिये । मनुष्यों में भी हम देग्यते हैं-प्रणयसम्बंधी कहना है कि विवाहके मूल में स्त्री और पुरुषोंकी इच्छा होजानेपर भी दो स्त्री पुरुषोंका जब तक एक केवल एक ही भावना काम करती है, जिसे वे अपने सामाजिक और धार्मिक सम्बंध स्थापित नहीं शब्दोंमें लैङ्गिक (Sexual ) भावना कहते हैं। होजाता तब तक वे विवाहका ध्येय प्राप्त करने में कभी इसलिए उसीके आधारपर विवाहकी स्थिति होनी सफल नहीं होसकते । जिस देश और समाजमें ऐसी चाहिये । उसे सामाजिक और धार्मिक बन्धनके साथ प्रथा का प्रचार है कि जहां प्रणयसम्बंधी इच्छाका • जकड़नेकी जरूरत नहीं । एक अंग्रेज प्रोफेसरके उदय हा वहां तत्क्षण ही दाम्पत्य-सम्बंधकी स्थिति मतमें भी विवाह हरएक प्राणीमें पाई जाने वाली भी कायम होगई, तो वह विवाह, विवाहके उद्देश्य एक इच्छापर ही स्थित है जिसे वे अंग्रेजीमें Erotic की सिद्धिमें कदाचित् ही सफल होसकेगा। इसलिए tendency कहते हैं । विद्वान् लोग हिन्दीमें इसका यह मानना ही पड़ेगा कि जिसे हम विवाह कहते हैं अनुवाद करेंगे-प्रणय-सम्बन्धी इच्छा । यह हरएक वह हमारे समाजमें प्रचलित सामाजिक और धार्मिक प्राणीको एक दूसरेके प्रति आकर्षित करती है और संस्कारसे ही परिपूर्ण होता है । केवल प्रणयउनमें सम्बंध स्थापित कराती है । यही सम्बंध सम्बंधी भावनाएँ दो आत्माओंका एकीकरण अवश्य विवाहका रूप होना चाहिये । उसमें धार्मिक और करा देती है कितु उसके स्थाई और आजीवन बने सामाजिक बंधनके पुटकी आवश्यकता नहीं है । इस रहने की गारण्टी नहीं कर सकती। जब तक उसके मतपर भारतीय समाजवेत्ता अपनी यह सम्मति साथ सामाजिक बन्धनका समन्वय न होगा, वह प्रकट करते हैं कि विवाहकी सत्तामें सेक्स सम्बंधी एकीकरण अस्थायी और ढीला ही रहेगा । विवाहके भावना और प्रणय सम्बंधी इच्छाका अस्तित्व उद्देश्यकी सिद्धि में तो वह शायद ही सफल हो । एक आवश्यक ही नहीं अनिवार्य भी है, किंतु विवाहकी बात और है, जहाँ प्रणय अथवा स्त्री पुरुषसम्बंधी प्रेम सम्पूर्ण स्थिति तन्मूलक ही नहीं होनी चाहिए । सेक्स के आकर्षणसे ही विवाहकी स्थिति मानली जाती है, Page #79 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ वहाँ विवाहसे स्त्री-पुरुषोंके गृहस्थ जीवनकी घनिष्ठता मीठी-मीठी प्रेमवार्ता करने लगेगा। और स्त्रियोंका के उद्देश्यको कतई भुला दिया जाता है। विवाहका क्या होगा ? वे भी जहाँ और अच्छे या सुन्दर पुरुष उद्देश्य स्वच्छन्द प्रेम नहीं है किंतु कुछ और भी के सहवासमें आई कि झटसे उनके प्रेमपाशमें पड़ महान है, जिसपर आगेके परिच्छेदमें विचार किया जायेंगी। और ऐसा करें भी क्यों नहीं ? जब विवाहजायगा । जब तक इस उद्देश्यकी प्राप्ति नहीं होजाती सम्बंध ही न हो ता फिर स्त्री-पुरुष दोनोंके लिए प्रेम है, ऐसी किसी भी उच्छङ्कल पद्धतिको विवाहका रूप का बाजार सदाके लिये खुला हुआ ही है। नहीं दिया जासकता। ऐसा स्वेच्छाचार यदि समाजमें चलने दिया जाय पाठक-पाठिकाओंके सामने मगठीके सुप्रसिद्ध तो सर्वत्र अनर्थ ही मच जाय । मतलब यह है कि लेखक श्री बामन मल्हार जोसीके विवाह-सम्बंधी जब तक विवाह संस्था है तभी तक समाजमें स्थिरता लेखका अंश नीचे दिया जाता है, जिसमें आधुनिक है-हरएक व्यवहार सरलतासे होता है। जो लेखक युवक-युवतियों के उच्छृङ्खल विचारोंकी अच्छी यह कहते हैं कि विवाह संस्थाकी जरूरत नहीं, उनका विवेचना कीगई है खुद का व्यवहार कैसा होता है ? उनकी स्त्री यदि "विवाह संस्थापर प्रहार करने वाले लेखक दूसरे पुरुषसे प्रेम करे तो यह उन्हें पसंद होगा ? कहते हैं कि विवाह-सम्बंधके कारण आज समाजमें यदि नहीं, तो फिर यह कहनेसे क्या लाभ कि विवाह विषमता और कष्टमय स्थिति दिखाई पड़ती है। संस्थाकी काई जरूरत नहीं ?" फलतः विवाह क्या परन्तु प्रश्न यह है-क्या विवाहसम्बंध बंद कर है ? इसका एक मात्र उत्तर यही हो सकता है कि दिया जाय तो यह स्थिति नहीं रहेगी उससे तो उल्टे विवाह एक ऐसा धार्मिक और सामाजिक संस्कार है अनाचारकी और वृद्धि ही नहीं होगी लेकिन इस जो दो स्त्री-पुरुषोंको उनके सांसारिक जीवनके प्रत्येक बारेमें तो कोई विचार ही नहीं करता। हम पुस्तकालय पहलू और भागमें अभिन्न होकर चलानेकी शुरुआत में पढ़ने जाँय, या नाट्य सिनेमा देखने जॉय, तो प्रदान करता है। वहाँ स्त्री-पुरुष सभी मिलते हैं । अगर सम्बंधका विवाह का उद्देश्य अस्तित्व न हो तो पुस्तकालय और नाट्यगृहमें पाये जो लोग यह समझते हैं कि विवाहका उद्देश्य हुये अनेक पुरुष किसी न किसी स्त्रीकी ओर और वाहियात विलास राग-रंग और मौज है, वे बहुत अनेक स्त्रियाँ किसी न किसी पुरुषकी ओर प्रेमाकर्षण बड़ी गलती पर हैं और जो इसी प्रलोभनसे विवाह से प्रेरित होंगे, यह तय है, और इससे बहुत से जैसे महान् उत्तरदायित्व पूर्ण कार्यमें हाथ डाल बैठते व्यक्तियोंकी स्थिति कष्टमय होजानेकी सम्भावना है। है वे बहधा धोखा खाते हैं। विवाहके चन्दरोज बाद भला ऐसा कोई प्रमसम्बंध स्थायी या दृढ़ होसकता ही वे देखते हैं कि विवाहके पहले वे जिन सुख और है, जिसमें किसी प्रकारका प्रतिबन्ध न झे? ऐसे आनन्दोंकी कल्पना करते थे वे अकस्मात् हवा होकर प्रणयी युगल में से तो पुरुषका कोई अधिक सुन्दर उड़ गये । उस स्थितिमें उनको अपना अमूल्य जीवन स्त्री दिखाई पड़ी कि वह पहली स्त्रीको छोड़ नईसे बड़ा कष्टकर और दुखप्रद मालूम होने लगता है। वे Page #80 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] विवाह और हमारा समाज समझते हैं जैसे उनके जीवनकी सारभूत चीज़ कोई उद्देश्य समझने और निर्धारित करने चले उन्होंने यह चुराकर लेगया और उसके प्रभावमें वे निर्धन होगये। निश्चित किया कि विवाहका उद्देश्य सन्ततिक्रमको यह सारभूत चीज जो वास्तवमें सारभूत नहीं है और बराबर चलाते रहना है। श्राम लोग ऐसा ही समझते कुछ नहीं, बेसमझ दम्पतियोंमें पाये जानेवाला महज हैं और ऐसा समझना कुछ अंशोंमें ठीक भी है। वासनाका आकर्षण है। यह प्राकर्षण तांबेपर चढ़े मोटे तौर पर विचार करनेपर सर्वसाधारणके सामने हुए सोनेके मुलम्मेकी तरह कुछ दिन तो चमकता है यही उद्देश्य निश्रितसा होरहा है। सच तो यह है कि किन्तु ज्यों-ज्यों समय गुजरता है त्यों-त्यों वह खुली साधारण लोग इसके अतिरिक्त विवाहके उद्देश्यको डिबियामें पड़े हुए कपूरकी तरह उड़ने लगता है। सोचने और समझनेकी कोशिश भी नहीं करते । ऐसे स्त्री-पुरुष समझते हैं कि कुछ साधनोंकी कमी हम लोगोंमें अगर कभी विवाहका सवाल उठता है होजानेसे उनका यह आकर्षण ढीला पड़ गया, इस तो उसकी आवश्यकता यही कहकर बतलाई जाती लिए वे इसमें खिंचाव लानेकेलिए तरह-तरहके है कि पीछेसे कोई घर सँभालने वाला भी चाहिये । साधन जुटाते हैं और व्वर्थ समय, शक्ति और धनका अगर विवाह न किया जाय तो हमारे कुलका नाम व्यय करते हैं किंतु वे जितना ही सुखोपभोग और ही न रहे । 'अपुत्रस्य गतिर्नास्ति' आदि स्मृतिके आनन्द-विलासकी ओर जानेका प्रयत्न करते हैं उनके सूत्रोंसे भी लोगोंके दिलोंपर यह विश्वास जमा हुआ जीवनमें मृगतृष्णासे व्यथित और निराश प्राणियोंकी है कि जिसके सन्तान न हो उसका परलोक बिगड़ तरह उतनी ही एक मानसिक अन्तर्वेदना और जाता है। इस तरह एक अनिश्चित कालसे सर्वनिगशा बढ़ती हुई चली जाती है। इसलिए जो लोग साधारण सन्मुख यह कथन एक सत्यके रूपमें विवाह जैसी जिम्मेवारीमें हाथ डालें पहले यह समझलें चला पारहा है कि विवाहका उद्देश्य सन्ततिक्रमको कि विवाह क्यों किया जारहा है और वे किस नरेश्य बराबर चलाते रहना है और इसी उद्देश्यसं इस से प्रेरित होकर विवाह कर रहे हैं। अगर उनका कर्मकी आयोजना की गई है। उद्देश्य गग-रंग और मौज ही हो तो वे तुरन्त ही जिन विद्वान् लोगोंने विवाह और उसके उद्देश्य विवाहकी जिम्मेवारीसे दूर भाग खड़े हों और उसका पर गंभीर विचार किया वे इस परिणामपर पहुँचे कि नाम भी न लें । विश्वास रक्खें कि उनका गग-रंग सन्ततिक्रमको बनाये रखना विवाहका मुख्य उद्देश्य और भोग-विलास विवाह जैसे पवित्र कार्यमें कतई नहीं उसका एक फल है । जिस तरह पढ़ लिम्वकर निहित नहीं है। विवाह उनके गग-रंग और भांग- विद्वान होनेका उद्देश्य धन कमाना नही हो सकता, विलासको बहुत ही तिरस्कार और घृणाकी दृष्टिसे अलबत्ता यदि कोई विद्वान् अपनी विद्यासे भाजीदेख रहा है । अगर वे इसके सामने अपने इस विका चलानेका भी काम करता हो तो उसका फल निकृष्ट ध्येयको लेकर खड़े हुए तो कोई आश्चर्य नहीं जरूर हो सकता है, उसी तरह विवाहके बहुतसे फलों वह उनको अपनी प्रबल तेजस्वितासे भस्म कर बैठे। में सन्ततिका उत्पादन भी एक फल है। यह जरूर है जो लोग सामान्य बुद्धिको साथ लेकर विवाहका कि यह फल और सब फलोंसे जो विवाह करनेसे Page #81 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७२ अनेकान्त [वर्ष ४ मिलते हों अधिक महत्वपूर्ण और समाजोपयोगी है। बेरोकटोक और निर्बन्ध है । उसमें स्वार्थ और एक प्रश्न उठता है-पढ़ लिखकर मनुष्य क्या करे ? वासनाके अतिरिक्त और किसीकी प्रेरणा नहीं है । छोटी समझ वाले लोग भी यदि इस प्रश्नका विद्वत्ता- ठीक है । तो फिर यही क्यों न समझिये कि विवाहका पूर्ण समाधान नहीं करेंगे तो कदाचित यह उत्तर नहीं उद्देश्य सामाजिक दृष्टिसे समाजमें सदाचारकी वृद्धि दगे कि पढ़ लिखकर मनुष्य रुपया कमाने पर पिल करना, दुराचारका नाश करना, शिथिलाचारका पड़े। बुद्धिमान् मनुष्योंके पास इस प्रश्नका यही मिटाना और सुन्दर आचरणका स्थापित करना है। उत्तर होगा कि पढ़ लिखकर मनुष्य सर्व प्रथम अपने व्यवस्था और नियमका बनाए रखना है। पाश आत्मामें ज्ञानका प्रकाश करे फिर दूसरोंका अज्ञान विकताका मूलोच्छेद और मनुष्यताका निर्माण करना नष्ट करे। बुराईसे बचे और भलाईको अपनाये। है। गैयक्तिक दृष्टि से विवाहका उद्देश्य है त्याग और अपने स्वार्थको छोड़े और दूसरोंका उपकार करे। तपस्या । सेवा और उपकार । अपने स्वार्थोंको भुला इसी तरह विवाहके सम्बन्धमें भी सवाल खड़ा हो कर दूसरोंके लिए बलिदान करना । विवाह करने के सकता है। वह यह कि विवाह करके मनुष्य क्या पहिले जहाँ मनुष्य अपने ही निजके हितोंकी रक्षामें करे ? विचार पूर्ण विद्वानोंसे तुरन्तही इसका जवाब चिन्ता में रहता है, विवाह करनेके बाद वह दूसरों के हम आसानीस यह शायद हो सुनें कि शादी करके हितोंकी रक्षामें निमग्न रहता है। विवाह करनेसे मनुष्य सन्तान उत्पादनकं कार्यमें लग जाय । यह पहिले वह दूसरोंसे कुछ लेनेकी अभिलाषा रखता है उत्तर साधारण समझ वालोंके गले भी सरलताके किन्तु विवाह करनेके बाद वह दूसरोंको कुछ देनेकी साथ नहीं उतर सकता। एक बात है । सन्ततिक्रम सीख ग्रहण करता है । विवाहके पहले उसके जीवन पशु-पक्षियों में भी अनादि कालसे अविच्छिन्न रूपमें का क्षेत्र उमका अपना ही जीवन है किन्तु विवाहके चला रहा है । किंतु उनमें विवाहकी प्रथा नहीं बाद वह विस्तृत होजाता है। विवाहके पहले वह है। मनुष्य समाजमें भी कुछ ऐसे वर्ग हैं जिनमें अपने ही अपने क्षुद्र स्वार्थों में लगा रहता है, किन्तु आचरण-सम्बन्धी पूर्ण स्वच्छन्दता है और विवाहका विवाह के बाद वह दूसरेके अर्थ अपने आपको प्रतिबन्ध नहीं है, उनमें भी सन्ततिक्रम विद्यमान बिछा दता हा है। फिर ऐसी कौनसी वजह है जो सन्ततिक्रमके लिये कुछ लोगों का कहना है कि विवाहका उद्देश्य विवाह-बन्धनकी ही आवश्यकता हुई, जब कि प्रेम है । प्रेम जैसी सुन्दर वस्तुको प्राप्त करने के लिए विवाहके बिना भी वह जारी रह सकता है। लेग ही मनुष्य विवाह करता है। प्रेम ही एक ऐसा आकर्षण कहेंगे, पशु-पक्षियों और जंगली जातियोंमें जो संतति- है जो दो भिन्न भिन्न आत्माओंको मिला देता है। क्रम जारी है उसकी तहमें, दुराचार, अनीति, जो लोग ऐसा कहते हैं उनसे यह पूछा जासकता है स्वछन्द-आचरण, अनियम और अव्यवस्था विद्यमान कि यह प्रेम है क्या वस्तु ? अगर उनका प्रेम त्याग है। वह संततिक्रम पाशविक और असभ्यतापूर्ण और बलिदानके रूपमें है तो विवाहका उद्देश्य प्रेम है। वह मानुषिक और लोकहित-पूर्ण नहीं है । वह उचित ही है किन्तु यदि केवल वासनाका आकर्षण है Page #82 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिल्म १] पिंजरेकी चिड़िया ७३ तो वह जघन्य है और विवाह जैसे पवित्र कार्य का तथा त्याग और बलिदानका क्रियात्मक पाठ पढ़ाना है और गौणरूपसं उद्देश्य कहिये अथवा उसका फल कहिये सन्तानोत्पत्ति अथवा सन्ततिक्रमको बराबर चलाये रखना है । उद्देश्य अथवा ध्येय कभी नहीं होसकता । इसलिए frosर्ष यही निकलता है कि विवाहका मुख्य उद्देश्य समाजमे आचरण सम्बन्धी मर्यादा स्थापित करना पिंजरे की चिड़िया | मूल लेखक - नोबेल पुरस्कार - विजेता, जॉन गॉल्सवर्दी ( इंगलैण्ड) ( अनुवादक - महावीरप्रसाद जैन, बी० ए०, सरधना ) “पहाड़ी मैना—यहाँ कहाँ ?” मेरे मित्रने आश्चर्य रहा था। युवक होनेपर भी वह वृद्ध जान पड़ता था । से पूछा । एक झुका हुआ.. काँपतासा... निरकंकाल, मैलीसी मैंने उंगलीस संकेत कर पिंजरा दिखा दिया। चादर में लिपटा हुआ । अपनी पहली स्वतन्त्र अवस्था लोहे की तीलियोंस चोंच लड़ा कर मैना एक बार का कितना दारुण भग्नाववेष था... वह बंदी !! फिर बोल उठी । यकायक मेरे मित्रके मुखपर वेदनाके चिन्ह स्पष्टतया दृष्टिगोचर होने लगे। ऐसा जान पड़ने लगा मानो उनका हृदय किसी दुःखपूर्ण स्मृतिसंशांकाकुल हो उठा है। थोड़ी देर बाद धीरे २ हाथ मलते हुए उन्होंने कहना प्रारम्भ किया “कई वर्ष बीत जानेपर भी वह दृश्य मेरी स्मृति में ज्योंका त्यों ताजा बना हुआ है। मैं अपने एक मित्र के साथ बन्दीगृह देखने गया था । हमें उस भयानक स्थानके सब भाग दिखा चुकनेपर जेलरने अन्तमें कहा - श्राश्री, अब तुम्हे एक आजन्म कारावास पाय हुए बन्दीको दिखाऊँ । हमारे पैरोंकी आहट सुनकर उसने अपनी आँखें ऊपर को उठाई । आह ! मैं उस समय उसके भावको भली भाँति न समझ सका । परन्तु बादमें समझा । उसकी आँखें अपने आखिरी सॉस तक मै उनको न भूल सकूंगा । वह दारुण दुखकी प्रतिमूर्तियाँ ! और एकान्त वास के लम्बे युग जिन्हें वह काट चुका था, और जो उसे अभा बंदीगृह के बाहर वाले कब्रस्तान में दबाये जानेसे पहले, काटने शेष थे, अपनी समस्त वंदना लिए उन आँखोंस झाँक रहे थे । विश्व भर के सारे स्वतन्त्र मनुष्योकी सम्पूर्ण वेदना मिलकर भी उस निरीह पीड़ाके बराबर न होती उसकी पीड़ा मुझे असा हो उठी । मैं कांठीमें एक और लकड़ी के टुकड़ेको उठाकर देखने लगा | उसपर बन्दी ने एक चित्र बना रक्खा था । जब हम उसकी कोठरी में घुसे तो वह स्थिर दृष्टि चुपचाप अपने हाथमें कागज की ओर देख Page #83 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७४ अनेकान्त [वर्ष ४ चित्रमें एक सुन्दर युवती हाथमें फूलों का गुच्छा हानेपर भी मुर्दा । किसी प्राकृतिक वस्तु के स्पर्श, गंध, लिए पुष्पांद्यानके बीचोंबीच बैठी पार्श्व में एक घूम वर्णसे दूर । उनकी स्मृति भी मिटसी चली थी। अपनी कर बहता हुआ स्रोत, किनारे पर हरो २ दूब, और तृषित आत्मासे सींचकर उसने यह युवती वृक्ष और एक अजीब-सी चिड़िया, और युवतीके ऊपर एक पक्षी निकाले थे। मानुषिक कलाकी यह उच्चतम बहुत बड़ा सघन वृक्ष, पत्तोंमें बड़े बड़े फल लिए महाकाष्ठा है और ह्रदयकी कभी न मिटने वाली हुए। सारा चित्र, मुझे ऐसा ज्ञात हुआ, क्या बताऊं? भावनाओंका सहा दिग्दर्शन । जैसे एक प्रकारके कुतूहलसे परिपूर्ण हो। मेरे साथीन पूछा-जेल प्रानेसे पहले चित्र । उस समय मैंने मूक परीषह की पवित्रताका बनाना जानता था ? अनुभव । किया क्रॉमपर चढ़ाए इस जीवित क्राइस्टके __'ना-ना', उसने हाथ हिलाकर कहा, 'जेलर साहब सम्मुख मेग माथा आपसे आप झुक गया। उसने जानते हैं। यह किसीका चित्र नहीं। 'केवल कल्पना है।' चाहे जो अपराध किया हो उसकी मुझे पर्वा नहीं। परन्तु मैं कह सकता हूं कि हमारे समाजने उस निरीह यह कहकर वह किस प्रकार मुम्कगया उससे हृदयहीन पिशाच भी रो पड़ता । उस चित्रमें उसन, संदर भटके हुए प्राणीके साथ अक्षमनीय अपराध किया है। जब कभी मैं किसी पक्षीको पिंजरेम बन्द देखता युवती, हरा-भरा फूलोंसे लदा पेड़, पौदे, स्वतंत्र पक्षी हूं तो मेरी आंखों के सामने उस अकथनीय व्यथाका गरज अपने हृदयकी समस्त सुन्दर भावनाएँ निकाल दृश्य खिंच जाता है ना मैंने उस बन्दीकी आँखोंमें कर रखदी थीं। अट्ठारह सालसं वह उसे बना रहा था। देखी थी।" बनाकर बिगाड़ देता और फिर बनाता । कईसौ बार । बिगाड़ कर उसने यह चित्र बनाया था। मेरे मित्रने बोलना बन्द कर दिया और थोड़ी हां, सत्ताईस वर्षसे वह वहाँ बंदी था। जीवित देर बाद हमसे बिदा माँगकर चला गया । भामाशाह देशभक्त ! तेरा अनुपम था, वह स्वदेश अनुराग! प्रमुदित होकर किया देश-हित धन-वैभवका त्याग !! जिस समृद्धिकेलिये विश्व यह रहता है उद्भ्रान्त ! निदेय हा भाई कर देता भाईका प्राणान्त !! उसी प्राण-से प्रिय स्वकोषको दे स्वदेश रक्षार्थ ! एक नागरिकका चरित्रमय-चित्र किया चरितार्थ !! दानवीर ! तेरे प्रतापसे ले प्रतापने जोश ! फतह किए बहु दुर्ग, भुलाया शत्रु-वर्गका होश !! जैन-वीर ! तू था विभूति पह, उपमा दुर्लभ अन्य ! भारत-माँ जन तुझे मानती है अपनेको धन्य !! भामाशाह ! गा रहा तेरी कीर्ति-कथा इतिहास ! जीवित तुझे रखेगी, जब तक है धरती-आकाश !! श्री भगवत्' जैन Page #84 -------------------------------------------------------------------------- ________________ RRIEDIEIREIEEEEX एकान्त और अनेकान्त ले० पं० पन्नालाल जैन 'वसन्त' साहित्याचार्य बड़वानलसे मैं हूं अदाह्य कर, नर रहनेको है आता ? मैं अख-शबस हूं अभेद्य, जो जीव जन्म लेता जगमें मैं प्रबल पवनसे हूँ अशोष्य वह मृत्यु अवश.ही पाता है, मैं जलप्रवाहसं हूं अक्लेद्य । यह सकल विश्व हे क्षणभकर ज्यों जीर्ण वस्त्रको छोड़ मनुज थिर कोइ न रहने पाता है। नूतन अम्बर गह लेता है, इस भाँति आपको अथिर मान त्यों जीर्ण देहको छोड़ जीव बेचैन हुए कितने फिरते ! कितने सुख समता पानेको नूतन शरीर पा लेता है। दिन रात तड़पते हैं फिरते । यह जीव न मरता है कदापि एकान्तवादका कुटिल चक्र पैदा भी होता है न कभी, वस्तु-स्वरूपको चूरचूर, यह है शाश्वत,-तन नशने पर कर मार्गभ्रष्ट मानव समाजइसका विनाश होता न कभी। का, करता निज सुखसे विदूर।। इस भाँति आपको नित्य मान xxx कितने ही जगके जीव आज, सज्ज्ञान-प्रभाकर ही मैं हूँ करते घातक पातक महान् सच्चिदानन्द, सुखसागर हूँ, मनमें किंचित् लाते न लाज । मैं हूँ विशुद्ध, बल-वीर्य-विपुल, जब जीव न मरते मारेसे बहु दिव्य गुणोंका भागर हूँ। तब हिंसामें भी पाप कहाँ ? कितने ही ऐसा सोच साच, एकान्त-गसमें पड़कर यों कर्तव्य-विमुख होजाते हैं, दुख पाते हैं बहु जीव यहाँ। एकान्तवादकी मदिरासे xxx उन्मत्त चित्त बन जाते हैं। जो उषा-कालमें प्राचीसे लेकर वैभव था उदित हुमा, मैं अज्ञ, दुःखका पाकर हूँ 'वह दिव्य दिवाकर भी आखिर बलहीन, अशुचिताका घर हूँ, दिखता है सब को अस्त हुआ। मैं हूँ दोषोंका वर निकेत हरि-हर - ब्रह्मादिक देवोंपर मैं एक तुच्छ पापी नर हूँ। जब चक्र कालका चल जाता, यह सोच मनुज कितने जगमें तब कौन विश्वमें शाश्वत हो कायर हो दुःख उठाते हैं, Page #85 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ कितने ही निजको भूल यहाँ अति परासक्त हो जाते हैं। एकान्तवादकी. रजनीमेनर निजपरको है भूल रहा । निज लक्ष्य-बिन्दुसे हो सुदूर, परको ही अपना मान रहा। xxx उल्लिखित विरोधी भावोंमेंएकान्त-निशाके अञ्चलमें दिनकर हा आता अनेकान्त, आलोक लिय अन्तस्तलमें है अनेकान्त मजुल प्रभात सुख-शान्तिगेह, समता-निकंत सब वैर-तापको कर विदूर ' बन जाता सबका सौख्य-हेत । , सन् नित्य, अनित्य, अनेक, एक अज्ञान-ज्ञान-सुख-दुःखरूप शुचि,अशुचि,अशुभ,शुभ,शत्रु,मित्र नय-वश हाजाता सकलरूप । यह अनेकान्तका मूल मन्त्र बनकर उदार जपना सीखो, हैं सकल वस्तु निज-निज स्वरूप समभावोस रहना सीखो । विवाहका उद्देश्य (लेखक-श्री एम० के० ओसवाल ) संध्याका समय है। सूर्य भगवान अपनी अन्तिम सुंदर बालकको सुरक्षित रखेगी, जिसका कि विवाह किरणोंके सुनहरे प्रकाशसे नगका देदीप्यमान कर एक अठारह बरसकी कुमारीकं साथ हारहा है। रहे हैं। लेकिन यह प्रकाश अब थोड़ी ही देर के लिये ___क्या हम इस बालकको जाकर समझा कि वह है। सामने एक आलीशान मकामके चबूतरेपर एक यह सब क्या कर रहा है ? लेकिन नहीं, वह अपने बारह बरसका बालक बड़ी ही सज-धजके साथ पिताकी कठपुनली है। वह खुद भी तो इतना अज्ञान दूल्हेके रूपमें बैठा हुआ है । मकान गाँवके एक है कि इन बातोंको ममझना उसके बूतेकी बात नहीं। सुप्रसिद्ध नामदार सेठजीका है, जिनकी लड़कीका साधारण पांचवीं क्लासका लड़का क्या समझे कि शुभ लग्न आज इस छोटी उम्रके दूल्हेके साथ होने विवाह किस उद्देश्य को सामने रखकर किया जाता वाला है। है ? उसके पिताको घरमें बहू लेजानेसे मतलब है, सूर्यकी वही अंतिम किरणें इस कोमल बालकके ताकि वह जल्दी ही पितामहक पदको प्राप्त होवे, चहरेकी प्राकृतिक शांभाको और भी उचकाटिकी बना और परदादा बननेपर ता उस स्वर्गम ऊँचा स्थान रही हैं । उसका मुंह हृष्ट-पुष्ट है। शरीर भी खूब प्राप्त होगा और मरते समय उसके नामपर सोनकी सुडौल है। इतनेपर भी उसके शरीरपर लगे हुए जवाहिरात और जरीके कपड़े तो उसमें इन्टकी-सी सीढ़ी दान देने का हक मिलेगा। शोभा लारहे हैं। पर हमें डर है कि प्रकृति ऐसे Page #86 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] विवाहका उद्देश्य पांच दिन बाद बारात घर पहुँची। बड़ी ही नहीं जाना चाहती थी, लेकिन साथ ही उस उसका खुशी और धूम-धामसे बधाई हुई। लड़केके पिता यौवन सता रहा था। अकलचंद सेठ तो फूले नहीं समाते थे। पांचसौ रमेश की परीक्षा नजदीक आई हुई थी। वह रुपये टीकेके मिले, दस हजारका माल दहेजमें आया भरसक प्रयत्न कर परीक्षामें शानके साथ उसीर्ण और लड़केकी बहू भी सुन्दर, सयानी, घरका काम- होना चाहता था। वह अपने कमरे में बैठा रातको काज देखने में होशियार थी। बारह बजे तक अभ्यास किया करता, बादमें शयनलेकिन उस कोमल बालकके हृदयपर, जिसे गृहमें जा सोता और सुबह पांच बजे ही उठ खड़ा युवावस्था तो दूर रही, अभी किशोरावस्थाको भी हाता। उसे यह खयाल ही नहीं आता कि वह पार करनेमें बहुतसे वर्षोंका समय बाकी था, इसका विवाहित है। उसने अभी तक 'अर्धाङ्गिनी' शब्दकी काई विशेष प्रभाव नहीं हुआ। वह पूर्वकी तरह परिभाषाको भी पूरी तौरपर नहीं समझ पाया था। म्कूल जाने लगा। लेकिन आज जब वह स्कूलसे उसे प्रेमका व्यावहारिक अर्थ भी मालूम नहीं था। लौटा नो उमका मुंह कुछ उदासीन था । कारण क्या वह समझता था कि स्त्रियोंको घरका काम काज करने हो सकता था ? यही कि आज लड़कोंने मिलकर के लिये ही पर घरसं शादी कर वधूक रूपमें लाया बचपनमें शादी करने के लिए उसकी खुब हँसी उड़ाई जाता है। लीला विचारी अपना दुख अपने आप थी। खैर, बात पुरानी होगई और वह भी इन बातों ही को सुनाने के सिवाय और कर ही क्या सकती थी !! का अब बुग नहीं मानता था। __रमेश तो अपने दिन स्कूल में काटता था, लेकिन एक दिन लीलाने नींद न ली । रमेश जब सोने उसको नववधू लीलाकी क्या हालत थी? क्या उसके केलिए कमरे में आया तो वह उसका हाथ पकड़कर पिताने उसे रमेशका ब्याहा था या उस घरको जोकि उस नम्र शब्दोंमें बोली, “आप तो सारे दिन अपनी पढ़ाई का ससुगल था। दिन भर वह घरके काम-काज देखा में ही लीन रहते हो, कभी मुझ प्रभागिनीकी भी करती, न कभी बाहर जाना और न किसीसे मिलना। खबर लेनेका विचार दिलमें लाते हो या नहीं।" खाने-पीने, पहनने-प्रोदनेको घरमें काफी था। शारीरिक रमेशके लिए यह सब नई बातें थीं, वह नहीं थकावट लाने वाला काम भी उसके लिए कोई नहीं समझ पाया कि लीलाके कहनेका क्या अभिप्राय है। था । घरमें नौकर चाकर काफी थे। फिर भी वह वह बोल उठा, "तुम्हें क्या चाहिए सो अम्माजीसे दुखी थी। वह जवान थी। उसका यौवन वहाँ धूलमें माँगलो। मुझे बातें करनेको समय नहीं है। मुझे मिल रहा था । वह भी समझती थी कि उसके जीवन नींद लेने दो, सुबह जल्दी उठना है ।" लीलाके का वहाँ नाश होरहा है। लेकिन वह कर ही क्या हृदयको धकासा लगा, वह चुपचाप सोगई। लेकिन सकती थी ? अपने दिलमें उमड़ी हुई बात लोहूक उसके हृदयमें जो आशाकी बेल उगी हुई थी, वह चूंटकी तरह वह नीचे उतार लेती थी। इसे समाजमें इन शब्दोंसे कैसे मुरझा सकती थी। अपने कुलकी शान रखना था, यह मर्यादाके बाहर लीला पढ़ी लिखी भी तो कहाँ थी। इसे न Page #87 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ७८ अनेकान्त साहित्यका ज्ञान और न किताबोंकी पहिचान । उसे क्या मालूम कि एक जवान पुरुष और एक बच्चे में क्या फ़रक्त है, उसे तो अपनी आशा और इच्छा पूर्ण करनेसे मतलब | वह महाजन वंश और जैन धर्म में पली हुई नारी थी, लेकिन साथ ही अंधविश्वास ने उस अज्ञान बालाके मस्तिष्क में पूरी तौरसे स्थान जमा लिया था । हम कहते हैं आशा अमर होती है। लीलाकी भी यही गति थी । उसे भी आशा थी कि उसके पतिदेव एक दिन उसके दुःखका समझेंगे और उसके अंतर की भूम्बको दूर करेंगे । * * 8 * परीक्षा समाप्त होगई, रमेशके इम्तिहान का नतीजा आया । वह अपनी क्लास में सर्वप्रथम और फर्स्ट डिवीजनमें पास हुआ था, जिसके लिए हेडमास्टर ने बहुत खुशी प्रकट की और उसे स्कूल बोर्ड से मिलने वाला इनाम भी जाहिर कर दिया। उन्होंने यह भी आशा प्रकट की कि अगले साल होने वाले बोर्डक मिडिल इम्तिहान में वह गाँव और स्कूलको काफी यश प्राप्त कराएगा । अब रमेशकी गर्मी की छुट्टियाँ हैं, कोई विशेष काम नहीं । दिनको यह मित्रोंके साथ खेलने, नहाने तैरने, वगैरह के लिये जाता है। अभी उसे अभ्यास करने की कोई जरूरत नहीं। शामको जल्दीसं सो जाता है । न इधर उधर के विचार, न किसी बात की कोई चिंता । [ वर्ष ४ आप मुझ गरीबकी इच्छाओं को पूर्ण क्यों नहीं करते ? क्या आपको मालूम नही मैं कितनी दुःखी हूँ ? मैं आपसे कितना कहूँ ।” वह बोल उठा "तुम्हारे घर में खाने खरचन रमेश कुछ नहीं समझा। माफिक भी कोई मनुष्य होगा; को बहुत, काम करनेको नौकर-चाकर, फिर भी तुम्हें क्या दुःख है । फिजूल मेरे पीछे क्यों पड़ती हो । वह रमेशके गले लिपट गई, और गद्गद् कण्ठसे कहने लगी, "तुम्हारा और मेरा सम्मिलन और पाणिग्रहण होने का उद्देश्य क्या आप यही समझत हैं ! लेकिन, मेरी आंतरिक भूख, मेगें सन्तानकी अभिलाषाको कौन पूरी करेगा, पतिदेव ?” परन्तु इधर लीलाको उसका दुःख उसे सता रहा था । आज उसने रमेशसे कुछ बोलने की ठानी। रात को ज्योंही वह कमरे श्राया उसने रमेशको पलङ्गपर बिठाकर कहा "गरीबपरवर, अब तो आपकी परीक्षा समाप्त होचुकी है, सुबह जल्दी उटना नहीं, अब रमेश के सिरमें बिजली-मी दौड़ गई ! वह सन्न होगया ! वह अब कुछ कुछ समझने लगा कि उसकी पत्नी उससे क्या चाहती है । उसका मन अब गृहम्थावस्थाको समझने लग गया था। अब वह स्त्री-पुरुषसम्बन्धी स्वाभाविक प्रेरणा (Sexual instinct) से बिल्कुल अनभिज्ञ न था । लेकिन साथ ही वह इस विषयपर गहरा विचार करने लायक भी न था । उसने अपनी दुःखिता पत्नी पर दया करना चाहा, और उस दयाका रूप क्या था उसे पाठक स्वयं विचारलें । रमेश खुद भी अब इसमें अपना दिलबहलाव समझने लगा । 83 * पंद्रह दिन बाद रमेश, दिनके दो बजे अपने कमरे में बैठा हुआ था । उसका एक मित्र उससे मिलने आया था, जो उसके सामने कुर्सीपर बैठा हुआ कुछ बोल रहा था । रमेशकं चेहरेपर अब वह सौंदर्य नहीं था, वह तेज Page #88 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] विवाह का उद्देश्य पहले थी । "यार ! तुम तो अब बहुत सूग्वते चले जारहे हो, खेलने भी कभी नहीं आते, ऐसी तुम्हें कौनसी चिन्ताने या घेग ? कुछ मैं भी तो समझ पाऊँ ।” मित्रने उत्सुकता से पूछा । नहीं था, वह प्रसन्नता भी नहीं थी जो कि महीनाभर गये । उसका मुँह पीला था, उसके गालोंमें खड्डे पड़ गये थे, शरीर हाड-पंजर ही रह गया था। खटियाके नजदीक जाकर बोले - " रमेश !” उसने चांखें खोलीं। मास्टर को देखते ही उसका गला भर आया, आंखें आंसुओं से भर गई । वह बोलने का प्रयत्न करने लगा । "कुछ नहीं मोहन, जरा दिल ही कम होगया है ।” “हाँ मैं समझ गया, शायद अपनी नव वधू से छुटकारा नहीं मिलता होगा, और तो हो ही क्या सकता है ?" मोहन बीच में ही बोल उठा । रमेश सटपटा गया, शरमके मारे कुछ बोल नहीं सका । * * * महीनाभर बाद रमेशका स्कूल खुला । उसकी क्लासके सभी लड़के वहाँ हाजिर थे, लेकिन रमेश ही नहीं दीख रहा था । मास्टर साहब ने पूछा - "मोहन, तुम्हारा मित्र रमेश आज स्कूल क्यों नहीं आया ? क्या उसे आज मिलने वाले पुरस्कारपर कोई खुशी नहीं है ?" "नहीं जनाब, वह बीमार है। उसके पिता उसे डिस्ट्रिक्ट बोर्ड अस्पतालमें इलाज कराने लेगये हैं । लेकिन उसकी स्थिति चिंताजनक है ।" मोहनने दुःख प्रकट करते हुए कहा । मास्टर साहब अवाक रह गये । उनके दर्जेका प्रथम आने वाला लड़का चिंताजनक स्थितिमें है, यह जानकर उनके होश उड़ गये। उसी रोज शाम को वे अस्पताल पहुँचे । डाक्टरने बतलाया कि उसे सूजाक होगया है, और टी० बी० ( Tuberculosis) ने काफी जोर पकड़ लिया है। "अब केवल ईश्वरपर ही भरोसा रक्खे बैठे हैं, उसकी नसें बहुत कमजोर होगई हैं। " आखिर में डाक्टरने कहा। मास्टर का मुंह सूख गया। वे रमेशके कमरे में मास्टरने उसे शान्त करते हुए कहा - " रमेश, तुमने भूल की !” 1 “हां गुरुजी !” रमेशको बोलने में बड़ी मुश्किल पड़ रही थी। फिर भी वह बोलने का साहस कर रहा था । "मैं अपने किये पापका फल भोग रहा हूं, यह इस जन्म में ही किया हुआ अपराध है। अब मैं नहीं बच सकता, मेरी आशाका ताँता टूट गया है ।" बोलते-बोलते उसका गला भर आया । मास्टरने उसको शान्त होने को कहा, लेकिन वह कह रहा था"गुरुजी मेरा यह संदेश, कृपया मेरे सहपाठियोंको कह दीजियेगा । मैं तो मर जाऊंगा । लेकिन वे इस की हुई भूल से पाठ लें, उन्हें ऐसा मौका न आवे। यह सब मेरी बचपनमें शादी हो जानेका परिणाम है। अब मेरी पत्नी सदाकेलिये विधवा हो जायेगी। उसकी इच्छा को कौन पूरी करेगा ? उसकी "सं'''ता'''न' की भूग्व'अब कैसे रमेशकी आंखों से आंसू टपकने लगे। उसे की याद आ गई जब कि उसकी पत्नी लीलाने उसके गले लिपट कर कहा था कि उसे संतानकी भूख सता रही है । वह और कुछ कहने का प्रयास कर रहा था, लेकिन मुंह खोलते ही पिचक जाता था । मास्टरने उसे धीरज देना चाहा। उन्होंने रमेशका हाथ अपने हाथमें लिया, वह एक दम ठंडा था । .....99 देखते ही देखते रमेशका सांस बढ़ने लगा । .. Page #89 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ मास्टर माहब उसका हाथ मसलन लगे, ताकि उसमें के वक्त आज उन्हें उदयाचल से निकलते ही श्मकुछ गरमी आजाय, परन्तु यह सब व्यर्थ था । उसकी शान भूमिको भयानकताका दृश्य देखना पड़ेगा। घड़ी आगई थी। अकलचन्द सेठ अन्दर आय, शायद वे ही सुनहरी किरणें उस भयानक भूमिको उनका मुंह सूखा हुआ था। रमेशकी सांस चढ़ी और भी ज्यादा भयानक कर देव। हुई देखकर तो उनकी हड़ी हड्डी पानी होगई, वे बहुत चिता जल रही थी। अकलचंद सेठ रुदन कर ही अधीर थे । मास्टर साहबने कहा, "संठजी ! अब रहे थे । लोग बैठे बातें कर रहे थे। कोई कहता था आपको बहुत दुःख होरहा है, लेकिन अब काम "लड़का होशियार, तन्दुरुस्त था, पर न जाने उस बिगड़ गया है। अपने हाथोंसे अपनेही पैगेंमें एकाकी क्या होगया ।" दूसरा कहना था-"अजी कुल्हाड़ी मारी है, आपने ! लेकिन उस समय आप लड़की ही बड़ी चुडैल है. उसीने इस भोले-भाले अपनी धुनमें थे। तुम्हें दादा और परदादा बननेकी लड़केका सर्वनाश किया।"एक महाशय कह रहे थेइमछाने अपने इकलौते पुत्रसे हाथ धुलवा दिये ! वह लड़कीने शादी करके घर आय उसी दिनसे अपना अब संसारमें नहीं रह सकता, उसका अन्तिम समय पैर बाहर छोड़ रखा था, और इसी कारण लड़का श्रा पहुंचा है !!" सेठकी छानी बैठ गई !' चिन्तित था, दिन ब दिन कमजोर हो रहा था।" "हाय । यह क्या कह रहे हो? क्या मेग बेटा इतनमें एक आदमी गाँवकी आरसे भागता हुश्रा अब...न...ही...बच...स...क...ता!" यह कहने आया । मब उसकी ओर देखने लगे। वह नजदीक कहते उनकी आँखें भर आई। वे चारपाईक नजदीक आकर कहने लगा, "लीलाका कुछ पता नहीं है। आये । रमेशका मुह खुला था, उसका अन्तिम साँस अभी तक उसका चूड़ा भी नहीं फोड़ा गया । न निकल गया था। देखते ही उनकी आशाएँ हवा मालूम वह कहाँ भाग गई !” बस फिर क्या था। होगई, उनका सिर चकगने लगा। "हाय !" कहते पहले ही उसको बात चली हुई थी, अब तो और भी हुए वे धड़ामसे पृथ्वीपर गिर पड़े ! मास्टर साहब भी बढ़ गई । हजारों गालियाँ उसके नामपर बरसने लगी. बहुत दुःखित हुए, पर सब व्यथे था। न जाने कितने विशेषण-चुडैल, हरामजादी, कुलटा, ___ * * * कुलक्षिणी, वगैरह उसके नामपर लगाये जाने लगे! सुबहके छः बजे हैं, सूर्य भगवान अपनी सुन- अन्तिम क्रिया करके गांवमें लोटे, इधर उधर हरी किरणोंको पहाड़ के पीछे छिपाए हुए हैं, वे कुछ खूब आदमी दौड़ाये गए, पुलिसको भी खबर दीगई किरणें आकाशमें बादलोंकी तरफ छोड़ रहे थे, पर पर लीलाका कहीं पता न था। शामको उठामणे पे भूतलपर दृष्टि डालनेके पहले वे कुछ मोच रहे थे। लोग उसके नामपर चर्चा चला रहे थे। सब उसके मानों, उन्हें यह दुःस्व था कि किसी दिन उन्होंने बारेमें बुरी आशंकाएँ करते थे। - अस्ताचलको जाते वक्त अपनी सुनहरी किरणोंसे पर भाखिर वह गई भी तो कहां गई ? जिस रमेशकी इन्द्र की-सी शोभाको बढ़ानेमें आनन्द * * * * प्रकट किया था, उमी रमेशके शवकी अन्तिम क्रिया दूसरे दिन चरवाहा गांवमें खबर लाया कि उसने Page #90 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पचोंकी हाईकोर्ट नजदीकके जंगल में नालाबके पास एक लाश पड़ी एक उमड़ता हुआ फूल बीच ही में तोड़ डाला पाई है। उसके गले में एक रस्सी है और महाजन घर गया। की खीसी मालूम पड़ती है। जान पड़ता है उसने एक जवान बालाको जीवन असहा हो जानेके आत्महत्या ही करली है। भयसे और अपनी इच्छाओंकी पूर्ति न होने रूप __जाँच करने पर मालूम हया कि वह लीला ही घोर निराशासे संसार छोड़ देना पड़ा !! सेठजी अकलचन्दकी अक्ल अब ठिकाने आई, जबकि वे अपने इकलौते पुत्रसे हाथ धो बैठे थे। आत्महत्या ! और किसलिये यह महापाप ? मास्टर साहबको अब समझ पड़ा कि रमेशके पाठक खुद ही इसका निर्णय करलें। विवाहका उद्देश्य क्या था। थी। ===[ बच्चोंकी हाईकोर्ट ] = (१) बड़े भैया एक स्लेट-पेसिल लाये, चार टुकड़े बराबरके किए, चारों बच्चोंको देने लगे, चारों मचल पड़े, यह तो छोटी है, हम नहीं लेते! प्रयोग किया था वही यहाँ किया गया। सबके सब -हाँ, अब बनगई ! एक एक टुकड़ा सबने ले लिया। (४) हाईकोर्ट ? - "माँ" (२) पिताजी आये-अच्छा हम इन्हें बड़ी करदें। _ + + + + मुट्ठीमे दबाई, पीछे मुट्ठी खोली-लो, बड़ी बन गई ! जिस प्रकार ज्ञानीजनोंको 'स्याद्वाद' मान्य है सबके सब-नहीं बनी। उसी प्रकार बच्चों को 'मातृवाद' मान्य है। (३) हाई कोर्ट में मामला पेश हुआ। पिताजीने जो -दौलतराम मित्र Page #91 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र (लेखक-श्री पं० नाथूराम प्रेमी) ये दो ग्रंथकर्ता लगभग एक ही समयमें, एक अन्तही स्थानपर हुए हैं और दोनोंने ही महाकवि पुष्प- लाद (ड) बागड़ि (5) श्रोप्रवचनसेन (?) दन्तके महापुगणपर टिप्पण लिखे हैं, इस लिए कुछ पंडितात्पनचरितस्सको (तमाकर्ण्य ?) बलात्कार गणश्रीश्रीनन्द्याचार्यसत्कविशिष्यण श्रीचन्द्रमुनिना विद्वानोंका यह खयाल हो गया है कि प्रभाचन्द्र द्र श्रीमद्विक्रमादित्यसंवत्सरे सप्तामीत्यधिकवर्षसहश्र(ने) और श्रीचन्द्र एक ही हैं, लिपिकर्ताओंकी गल्तीसे श्रीमद्धागयां श्रीमतो राजे (ज्ये) भोजदेवस्य.." कहीं कहीं जो श्रीचंद्रकृत लिखा मिलता है, सो एवमिद (दं) पद्मचरितटिप्पितं श्रीचंद्रमुनिकृतवास्तवमें प्रभाचन्द्रकृत ही होना चाहिए। परन्तु समाप्तमिति । यह खयाल ही खयाल है, वास्तवमें श्रीचन्द्र और म्व० सेठ माणिकचन्द्रजीके चौपाटीके मन्दिरमें प्रभाचन्द्र दो स्वतंत्र प्रन्थकर्ता हैं। नीचे लिखे (न० १९७) इन्हीं श्रीचन्द्रमुनिका एक और ग्रन्थ प्रमाणों से यह बात सुम्पष्ट हो जायगी 'पुराणमार' है। उसका प्रारंभ और अंत इम प्रकार हैबम्बईके सरस्वती भवनमें (नं० ४६३ ) में प्रारंभ . रविषेणाचार्यकृत पद्मचरितका श्रीचन्द्रकृत टिप्पण। ___ नत्वादितः सकल (तीर्थ) कृत (तां) कृतार्थान है+ । उसका प्रारंभ और अन्तका अंश देखिए सर्वोपकारनिरतांत्रिविधेन नित्यम् । वक्ष्यं तदीय . गुणगर्भमहापुराणं प्रारंभ मंक्षेपतोऽथनिकरं शृणुत प्रयत्नात् ।। शंकरं वरदातारं जिनं नत्वा स्तुतं सुरैः। अन्तकुर्वे पद्मचरितम्य टिप्पणं गुरुदेशनात् ॥ धागयां पुरि भोजदेवनृपते राज्यं जयात्युश्चकैः मिद्धं जगत्प्रसिद्धं कृतकृत्यं वा समाप्तं निष्ठितमिति श्रीमत्सागरसनतो यतिपतेात्वा पुगणं महत् । यावत् । सम्पूर्णभव्यार्थसिद्धि (ः) कारणं समग्रो मुक्त्यर्थ भवभीतिभीतजगता श्रीनन्दिशिष्यो बुधः धर्मार्थकाममोक्षः स चासो भव्यार्थश्च भव्यप्रयोजनं कुर्वे चारु पुराणसाग्ममलं श्रीचंद्रनामा मुनिः ।। तस्य सिद्धिनिष्पत्तिः स्वरूपलब्धिर्वा. तस्याः कारणं हेतुः । किं विशिष्ट हेतुमुत्तमं दोषरहित...... + लाइबागड़ नामचा संघ काफी पुराना है । ----.. - दुबकंडके जैनमन्दिरमें एक शिलालेख वि० सं० * देखो डा०पी०एल० वैद्य सम्पादित महापुराण ११४५ का है, जिसमें इस संघके तीन सेनान्त की अंगरेजी भूमिका। श्राचार्यों का उल्लेख है। ___+ भवनके रजिस्टरमें इसका नाम, 'पद्मनन्दि- लाड या लाट गुजरातका प्राचीन नाम है और चरित्र' लिखा हुआ है। यह प्रति हालकी लिखाई बांमबाड़ाके आसपासके प्रदेशको अब भी बागड़ हुई और बहुत ही अशुद्ध है। कहते हैं। Page #92 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] श्रीचंद्र और प्रभाचंद्र ३ श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे यसपूत्य (अशीत्य ?) जांगलदेशे सुलतानसिकंदरपुत्र सुलतान इब्राहिमधिकवर्षसहस्र पुगणसाराभिधानं समाप्तं । शुभं भवतु। राज्यप्रवर्तमाने श्रीकाष्ठासंघे माथुरान्वये पुष्करगणे लेखकपाठकयोः कल्याणम् । भट्टारक श्रीगुणभद्रसूरिदेवाः तदाम्नाये जैसवाल चौ० __ पप्रचरितके टिप्पणकार और पुराणसारके टोडरमल्लु । चौ० जगसीपुत्र इदं उत्तरपुराण टीका कर्ता इन्हीं श्रीचन्द्रमुनिका बनाया हुआ महापुराण लिग्यापितं । शुभं भवतु । मांगल्यं दधति लेखक पाठकयोः। (पुष्पदन्तकृत) का एक टिप्पण है, जिसका दूसरा उक्त तीनों ग्रन्थोंकी प्रशस्तियोंसे यह बात : त स्पष्ट भाग अर्थात उत्तरपुराण-टिप्पण उपलब्ध है । उसके होती है कि इन तीनों को श्रीचन्दमनि हैं. जो अन्तमें लिखा है बलात्कारगणक श्रीनन्दि सत्कविके शिष्य थे और श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिकसहस्र उन्होंने धारा नगरीमें परमारवंशीय सुप्रसिद्ध गजा महापुगण-विषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तात् भोजदेवके समयमें वि० सं० १०८७ और १०८० में परिज्ञाय मूलटिप्पणिकां चालोक्य कृतमिदं ममुच्चय- उक्त ग्रंथोंकी रचना की है। टिप्पणं अक्षपातभीतेन श्रीमदला (त्का) रगणश्री-मंघा अब श्रीप्रभाचंद्राचार्यके ग्रंथोंको देखिए और (नंद्या)चार्यसत्कविशिष्यण श्रीचंद्रमुनिना निज- पहले आदिपुराण टिप्पणको लीजियदौर्दडाभिभूतग्पुिराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवम्य । १०२। प्रारंभइति उत्तरपुगणटिप्पणकं प्रभाचंद्राचार्य + प्रणम्य वीरं विबुधेन्द्रसंस्तुत विरचितं समाप्तम। निरस्तदोषं वृषभं महोदयम् । अथ संवत्सरेऽस्मिन श्रीनृपविक्रमादित्यगताब्दः पदार्थसंदिग्धजनप्रबांधक संवत १५७५ वर्ष भादवा सुदी ५ बुद्धदिने कुरु महापुगणम्य करोमि टिप्पणम् ।। * यह ग्रन्थ जयपुरके पाटोदीके मन्दिरकं भंडाग्में समम्तसन्देहहरं मनोहर (गठरी नं० १३ ग्रन्थ तीसरा पत्र ५७ श्लो० १७००) प्रकृष्टपुण्यप्रभवं जिनेश्वरम् । है। इसकी प्रशस्ति स्व०५०पन्नालालजी बाकलीवालने कृतं पुराणे प्रथमे सुटिप्पणं आश्विन-सुदी ५ वीर सं० २४४७ के जैनमित्रमें सुखावबोधं निखिलार्थदपेणम् ।। प्रकाशित कराई थी और मेरे पाम भी उन्होंने इसकी इति श्रीप्रभाचंद्रविरचितमादिपुराणटिप्पणक नकल भेजी थी । इसी सम्बन्धमे उन्होंने अपने पंचासश्लोकहीनं सहस्रद्वयपरिमाणं परिसमाप्ता (सं)। ता०१६-६-२३ के पत्रमें लिखा था कि "उत्तर शुभं भवतु Ix पुगणकी टिप्पणी मँगाई सो वह गठरी नहीं मिली पुष्पदन्तके महापुराणके दो भाग हैं एक आदिथी-आज ढूँढकर निकाली है। उसके आदि अंतके पुराण और दूसरा उत्तरपुराण । इन भागों की प्रतियाँ पाठकी भी नकल है। 'श्रीचंद्रमुनिना' में 'प्रभा' शब्द अलग अलग भी मिलती है और समग्र ग्रंथकी छट गया मालम होता है। परंत श्लोक संख्यामें फर्क एक प्रति भी मिलती है। श्रीचन्द्रने और प्रभाचन्द्र होनेसे शायद श्रीचंद्रमुनि दूसग भी हो सकता ने दोनों भागों पर टिप्पण लिखे हैं। श्रीचन्द्रका आदिपुराण का टिप्पण तो अभी तक हमें नहीं मिला + यहाँ निश्चयसे श्रीचन्द्राचार्यकी जगह प्रभा- परंतु प्रभाचन्द्र के दोनों भागों के टिप्पण उपलब्ध चन्द्राचार्य लिखा गया है। यह लिपिकर्ताकी भूल xभाण्डारकर रिमर्च इन्स्टिट्यूट की प्रति न० मालूम होनी है। ५६३ (श्राफ १८७६-७७) अन्त Page #93 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ भनेकान्त [वर्ष ४ हैं। उनमें से प्रादिपुराण-टिप्पणका मंगलाचरण और निषः ॥९ साइपए स्थाति स्थाने ॥१० प्रणिन्द्वक प्रशस्ति ऊपर दी जाचुकी है। अब उत्तरपुराण के अनुक्तस्वरूपः । वसुसमगुणसरीरु सम्यक्त्वाद्यष्ट टिप्पण को लीजिये गुणस्वरूपः। हयतिउ हतार्तिः ॥११ पढेविपाठं गृहं अन्तिम अंश समडए । करिवइस । नामेवा वासा प्रवाहेण ॥ ___ इत्याचार्यप्रभाचंद्रदेवविरचितं उत्तरपुगणटिप्पणक इसके आगे वह श्लोक और प्रशस्ति है जो ऊपर द्वयधिकशततमः सन्धिः । दी जाचुकी है । यह उत्तरपुराण-टिप्पण श्रीचन्द्रके नित्यं तत्र तवप्रसन्नमनसा यत्पुण्यमत्यद्भुतं उत्तरपुराणसे भिन्न है । क्योंकि उसके अंतके टिप्पण यातस्तेन समस्तवस्तुविषयं चेतश्चमत्कारकः। . प्रभाचंद्र के टिप्पणोंसे नहीं मिलते। प्रभाचंद्र के व्याख्यातं हि तदा पुराणममलं स्व (सु)स्पष्टमिष्टाक्षरैः भूयाचेतसि धीमतामतितरां चन्द्रावतारावधिः ॥२॥ टिप्पणका अंश ऊपर दिया गया है। श्रीचंद्रके टिप्पण तत्त्वाधारमहापुराणगम(ग)नद्यो(ज्ज्यो)तीजनानन्दनः। का अंतिम अंश यह हैसर्वप्राणिमनःप्रभेदपटुता प्रस्पष्टवाक्यैः करः। देसे सारए इतिसम्बन्धः । पढम ज्येष्ठा निरंगु भव्याजप्रतिबोधकः समुदितो भूभृत्प्रभाचंद्रतो कामः मुई मूकी । जलमंथणु अतिमकल्किनामेदं । जीयाट्टिपणकः प्रचंडतरणिः सर्वार्थमप्रतिः ॥२॥ विरसेसइगजिष्यति । पढेवि पाठग्रहणनामेदं । श्रीजयसिंहदेवगज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपर इसके आगे ही 'श्रीविक्रमादित्य संवत्सरें आदि मेष्टि प्रणामोपार्जितामलपुण्यनिगकृताखिलमलकलंकेन श्रीप्रभाचंद्रपंडितेन महापुराणटिप्पणकं शतत्र्यधिक प्रशम्ति है। सहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति । * श्रीचंद्रके उत्तरपुराण टिप्पणकी श्लोकसंख्या ___ इससे मालूम होता है कि यह टिप्पण धारा- १७०० है जब कि प्रभाचंद्रके टिप्पणकी १३५० । निवासी पं० प्रभाचन्द्रने जयसिंहदेव (परमारनरेश क्योंकि सम्पूर्ण महापुगण-टिप्पणकी श्लोकसंख्या भोजदेवके उत्तराधिकारी)के राज्यमें रचा है। आदि. ३३०० बतलाई गई है और आदिपुगण की १६५० । पुगणके टिप्पणमें यद्यपि धागनिवासी और ३३०० मेंस प्रा० पु० टि० १६५० संख्या बाद देनेसे जयसिंहदेव राज्यका उल्लेख नहीं है और इसका १३५० संख्या रह जाती है। कारण यह है कि आदिपुगण स्वतंत्र ग्रंथ नहीं है, जिस तरह श्रीचंद्रके बनाये हुए कई ग्रन्थ हैं महापुगणका ही अंश है परन्तु वह है इन्हीं जिनमेंसे तीनका परिचय ऊपर दिया जा चुका है प्रभाचंद्रका। ___इसी उत्तरपुराण टिप्पणकी एक प्रति आगरके उसी तरह प्रभाचंद्रके भी अनेक स्वतंत्र ग्रंथ और मोतीकटरेके मंदिरमें है जो साहित्यसन्देशक सम्पा- टीकाटिप्पण ग्रंथ हैं और उनमेंसे कईमें उन्होंने धारादक श्रीमहेन्द्रजीके द्वारा हमें देखनेको मिली थी। निवासी और जयसिंहदेवके राज्यका उल्लेख किया है उसकी पत्रसंख्या ३३ है और उसका दसग और जैसे कि आराधना कथाकोश (गद्य)में लिखा है३२ वा पत्र नष्ट होगया है । उसमें ३३ वें पत्रका श्रीजयसिंहदेवराज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरप्रारंभ इस तरह होता है पंचपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमल* यह ग्रंथ जयपुरके पाटोदीके मंदिरके भंडारमें कलंकेन श्रीमत्प्रभाचंद्रपंडितेन भाराधनासत्कथाप्रबंध: (मथ नं० २३३) है। कृतः। Page #94 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] गांधी-अभिनन्दन उन्होंने कई ग्रंथ जयसिंहदेवसे पहले भोजदेवके ग्रंथकर्ता भिन्न भिन्न हैं, दोनोंको एक समझना भ्रम समयमें भी बनाये हैं और उनमें अपने लिये है। ऐसा मालूम होता है कि जयपुरके लिपिकर्त्ताने लगभग यही विशेषण दिये हैं। पहले प्रभाचन्द्र के टिप्पणकी नकल की होगी और ___ इन सब बातोंसे स्पष्ट हो गया है कि ये दोनों तब उसकी यह धारणा बन गई होगी कि टिप्पणके xजैसे प्रमेयकमलमार्तण्डके अन्तमें-"श्रीभोजदेव कर्ता प्रभाचंद्र हैं और उसके बाद जब उससे श्रीचंद्र राज्ये श्रीमद्धारानिवासिना परापरपरमेष्ठिपदप्रणा- के टिप्पणकी भी नकल कराई होगी तब उसने उसी मार्जितामलपुण्यनिराकृतनिखिलमलकलंकेन श्री- धारणाके अनुसार श्रीचन्द्रको ग़लत समझकर मत्प्रभाचंद्रपंडितेन निखिलप्रमाणप्रमेयस्वरूपोद्योत- 'प्रभाचंद्राचार्यविरचितं' लिख दिया होगा। परीक्षामुखपदमिदं विवृतमिति । बम्बई, १४-११-४० गाँधी-अभिनन्दन भारतकी बलिवेदी पर, निज स्वार्थोंकी बलि देकर । स्वातंत्र्य-प्रेम-मतवाला, वाणीमें समता भरकर । ले साम्यवादका झण्डा, जगमें परिवर्तन लाकर । भारतका लाल निराला, बलिदानोंका बल पाकर । सोतेसे विश्व-हृदयमें, जागृतिका गीत सुना कर । दीनों-हीनों-निबलोंको, पथभृष्टोंको अपना कर। ले विश्व-प्रेमकी वीणा, __गा सत्य-अहिंसा-गायन । जगको आदर्श दिखाने, पाया गाँधी मनभावन । वैभव-विलाससे निस्पृह, सादा जीवन अपना कर । सच्चा सेवक दुनियाका, है आया जगतीतल पर । चिर-पराधीनता-पीड़ित, भारत माँका सुन क्रन्दन । स्वाधीन उसे करनेको, आया गांधी, अभिनन्दन । पं० रविचन्द्र जैन 'शशि' Page #95 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रो० जगदीशचन्द्रके उत्तर- लेखपर सयुक्तिक सम्मति (ले० - श्री पं० रामप्रसाद जैन शास्त्री) श्रीमान् प्रोफेसर जगदीशचंद्रजी जैन एम० ए० 'वार्थमा और अकलंक' नामका अपना लेख नं० ३ भेजकर मुझे उसपर सम्मति देनेकी प्रेरणा की है। तदनुसार मैं उसपर अपनी सम्मति नीचे प्रकट करता हूं । साथ ही, यह भी प्रकट किये देता हूँ कि उक्त लेख नं० ३ से पूर्व के दो लेख मेरे देखने में नहीं आये. अतः इस तृतीय लेखांकपर जो सम्मति है वह उस मूलक ही है और उसीकी विचारणा पर मेरी निम्न लिखित धारणा है । (१) अर्हत्प्रवचन और अर्हत्प्रवचनहृदय इस प्रकरणको लेकर पं० जुगलकिशोरजीका जो गजवार्तिक- मूलक कथन है वह निर्भ्रान्तमूलक इस लिये प्रतीत होता है कि - जिम ग्रंथपर राजवार्तिक टीका लिखी जारही है उसी ग्रंथके ऊपर किये गये आपका उत्तर उसी ग्रंथद्वारा नहीं किया जाता, उसके लिये उम ग्रंथके पूर्ववर्ती ग्रंथके प्रमाणकी आवश्यकता होती है । अतः पं० जुगलकिशोरजीने नं० १ के सन्बन्ध में जो समाधान किया है वह जैनेतर (अन्यधर्मी) के आक्षेप - विषयक राजवार्तिकमूलक शंका-समाधान के विषयको लिये हुए उत्तर है। उसमें 'गुणाभावादयुक्ति:' इम वाक्यद्वारा जिस शंकाका * यह लेग्व 'प्रो० जगदीशचन्द्र और उनकी समीक्षा' नामक सम्पादकीय लेखके उत्तर में लिखा गया है, और इसे 'अनेकान्त' में प्रकाशनार्थ न भेजकर श्वेताम्बर पत्र 'जैनसत्यप्रकाश' में प्रकाशित है। कराया गया -सम्पादक निर्देश किया गया है उसीका समाधान 'इतिचेन्न' इत्यादि वाक्यसे किया गया है। दूसरी शंका यह उठाई गई थी कि यदि गुग्गा है तो उसके लिये तीसरी गुणार्थिक नय होनी चाहिये - उसका भी शास्त्रीय प्रमाण 'गुण इतिदव्वविधानं' इत्यादि गाथा द्वारा दिया गया है - अर्थात् कहा गया है कि गुण और द्रव्य अभेदविवक्षासे एक ही पदार्थ हैं, इस लिये तीसरे नयकं माननेकी जरूरत नहीं है। इस प्रकरण में 'अर्हतप्रवचन' या 'अर्हतप्रवच हृदय' कौनसा शास्त्र है ? बाबू जगदीशचंद्रजीका मत तो इस विषय में ऐसा है कि - सूत्रपाठ और उसपर जो श्वेताम्बरमान्य भाष्य है, ये दोनों ही उन शब्दोंस लिये जाते हैं। परन्तु पं० जुगल किशोर जीकी मान्यता यह है कि दोनों में से एकको भी 'अर्हतप्रवचन' या 'अर्हत्प्रवचनहृदय' नामसे उल्लेखित नहीं किया गया है । विचारपूर्वक देखा जाय तो इन दोनों पक्षों में बाबू जुगलकिशोरजीका मानना ही ठीक प्रतीत होता है। कारण कि राजवार्तिकमें जो गुणको लेकर शंका उठाई गई है वह 'आर्हतमत में गुण नहीं है' ऐसे शब्दोंस उठाई गई है, उसका समाधान जिस सूत्रके द्वारा दिया गया है वह कोई प्राचीन ग्रंथका ही संभा वित होता है। क्योंकि परपक्षवादी के लिये जिस ग्रंथके सूत्रपर आक्षेप है उसी ग्रंथके सूत्र से उसका समाधान युक्तिसंगत मालूम नहीं होता । तत्वार्थसूत्र के नामसे तो दोनों सम्प्रदायके ग्रंथ एक ही हैं—पाठभेद भले ही हो, पर नामसे तथा पाठबाहुल्यसे तो समानता ही Page #96 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] प्रो० जगदीशचन्द्र के उत्तरलेखपर सयुक्तिक सम्मति है। दूसरे कदाचित श्वेताम्बरीय तत्वार्थ भाज्यका भी ही प्रमाणत्वसे उपन्यस्त किया है, न कि कोई भाष्यका तुष्यतु दुर्जन न्यायसे प्रमाण देते भी तो फिर-प्रश्न- अंश या उसका कोई पाठ। अतः स्पष्ट मालूम होता कर्ताका यह प्रश्नतो बाकी ही रहता कि श्वेताम्बर है कि अकलंकके सामने श्वेताम्बरीय भाष्य प्रादि ग्रंथकी तो यह बात हुई परन्तु दिगम्बर प्रथोंमें गुण कोई भी ग्रंथ नहीं था किंतु-सर्वार्थसिद्धि भादि सद्भावका क्या उत्तर है ? तो उस विषयमें अकलंक- दिगम्बरीय ग्रंथ ही थे, जिनके आधारसे उनका देव क्या समाधान करते ? यह बात अवश्य ही भाष्य दिगम्बर संमत है। विचारणीय है। इस सब बातके विचारसे ही मालूम (२) महत्प्रवचन और तस्वार्थाधिगम होता है कि श्रीअकलकदेवने उस तरहका समाधान इस वक्तव्यमें पं० जुगलकिशोरजीका जो प्राशय दिया है कि जिसमें शंका करनेका मौका ही न लगे। है उससे मेरा निम्नलिखित प्राशय दूसरी तरहका है। इम लिये ऐसा समाधान-'अहत्प्रवचन' के नामसे पं० जुगलकिशोरजीने 'इति अर्हनप्रवचने तत्वार्थादिया है। और अहत् प्रवचनके प्रमाणका सूचक धिगमे उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये भाष्यानुसारि'द्रव्याश्रया निर्गुणाः गुणाः' यह सूत्र है, इसमे यह ण्यां टीकायां सिद्धसनगणिविरचितायां अनागारागानिष्कर्ष साफ निकल आता है कि यह सूत्र म्वास ग्धिर्मप्ररूपकः सप्तमोध्यायः' इस टीकावाक्यमें जो उमास्वाति (मि) की संपत्ति नहीं है किंतु किसी 'उमाम्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये', यह पद सप्तम्यप्राचीन ग्रन्थका यह सूत्र है। इस सर्व पूर्वप्रति- न्त माना है सो ठीक नहीं है, यह पद वास्तवमें प्रथमा पादित कथनसे पं० जुगलकिशोरजीके मतकी स्पष्ट का द्विवचन है। क्योंकि 'भाष्य, शब्द नित्य नपुंसक पुष्टि होती है। इसी सर्व विषयको लक्ष्य में रग्वकर- है। इसलिये इम वाक्यका यह अर्थ होता है किपं० जुगलकिश रजीन जो अपने (नं० १ के) वक्तव्यमें अर्हतप्रवचन तत्वार्थधिगममें उमास्वातिप्रतिपादित लिखा है कि-'अर्हत्प्रवचन' और 'अहत्प्रवचन- सूत्र और भाष्य हैं, उसमें सिद्धसेनगणिविरचित हृदय' तत्वार्थभाष्यकं तो क्या मूलसूत्रकं भी उल्लेख भाष्यानुमारी टीका है, उसमें मुनिगृहस्थधर्मप्ररूपक नहीं हैं, यह लिखना उनका बिलकुल सुमंगन है। यह सानवाँ अध्याय है। यहाँ पर 'उमास्वातिवाचकोइसमें क्यों क्या आदि शंकाको जग भी अवकाश पज्ञमूत्रभाष्ये' यह पद जो सप्तम्यन्त माना है, वह नहीं है। दूसरे कदाचित् थोड़ी देरके लिये यह भी भ्रमस माना है । कारण कि यदि ग्रन्थकर्ताको मान लिया जाय कि-'अर्हत्प्रवचन' वह प्रन्थ भी सप्तम्यन्त पद ही देना था तो सप्तमीका द्विवचनान्त हो सकता है जिसपर कि राजवार्तिक आदि टीकायें देना ही ठीक प्रतीत होता । परंतु सो तो दिया नहींहैं, क्योंकि इस ग्रंथमें 'अर्हतप्रवचन' ही तो हैं तो इससे स्पष्ट है कि यह पद प्रथमाका द्विवचनान्त है। फिर कहना होगा कि अकलंककी दृष्टि में तत्वार्थ कदाचित् हमारे मित्र प्रोफेसर माहबके हिसाबकी सूत्र ही अर्हतप्रवचन था न कि श्वेताम्बरमान्य यह दलील हो कि लापवके लिये एक वचनान्त ही भाष्य आदि। कारण कि अकलंकदेवने अर्हन् प्रवचन दिया है तो यह दलील यहाँ पर ठीक नहीं है; कारण शास्त्रके प्रमाणमें 'द्रव्याश्रयाः निर्गुणा गुणाः' यह सूत्र कि लाघवका विचार सूत्रोंमें होता है, यह पंक्ति सूत्र Page #97 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ नहीं है, अतः यह दलील यहाँ ठहर नहीं सकती। निषेध नही किया है तो कहीं उसकी स्वोपज्ञताका दूसरी दलील यह है कि सूत्र और भाष्यको एकत्व विधान भी तो नहीं किया है। वास्तवमें दिगम्बर दिग्वानेके लिये सप्तमीका एक वचन है सो यह भी अकलंक आदिके सामने वह ग्रंथ तथा उसकी ऐसी ठीक नहीं; क्योंकि एकना जो दिखलाई जा सकती है मान्यता होती तो वे उस विषयक निषेध तथा विधान वह एक कतृत्वकी दिग्वलाई जा सकती है । सो ऐसी के विषयमें कुछ लिखते; परंतु वह प्रन्थ जब उनके संदिग्ध अवस्थामें वह बात बन नहीं सकती; क्योंकि सामने ही नहीं था तो फिर प्रोफेसर साहबका यह द्वंद्व-समासमें सर्वपद स्वतंत्र रहते हैं, पूर्वपदके साथ लिखना कहां तक संगत है कि इस ग्रंथकी स्वोपज्ञता जो विशेषण है वह उत्तरपदके साथ हो ही हो, का निषेध पं० जुगलकिशोर जीको छोड़कर किसी यह नियम नहीं है। दूसरे टीकाकर्त्ताको यदि भाष्य दिगम्बरी विद्वानने नहीं किया ? पहले आप यह 'म्वोपज्ञ' ही बतलाना था तो स्पष्ट भाष्यकं साथ भी मिद्ध कीजिये कि-अमुक पूज्यपाद, अकलंक आदिक 'म्वोपज्ञ' या 'उमास्वातिवाचकोपज्ञ' ऐसा काई सामने यह ग्रंथ था । जब यह बात सिद्ध होजायगी विशेषण लगा देना था, सो कुछ किया नहीं। अतः तब पीछे आपकी यह बात भी मान्य की जा सकेगी। इस सप्तमाध्यायकं अंतसूचक वाक्यसे तो यह सूचित आपने इस 'लेखांक ३' में जो प्रमाण दिये हैं वे कोई होता नहीं कि श्वेताम्बरीयभाष्य 'स्वोपज्ञ' है। तथा भी ऐसे प्रमाण नहीं हैं जिनसे यह बात मिद्ध होजाय इस लेखांक ३ में आपने ऐसा कोई प्रमाण भी नहीं कि श्वेताम्बरभाष्य अकलकदेवके मामने था । दिया है कि अमुक अमुक प्रमाणसं, इन-इन प्राचार्योकं आपने अपने मतकी पुष्टिमें जिन नवीन विद्वानोंका मतस, इस (श्वेताम्बरीय) भाष्यकी स्वोपज्ञता सिद्ध है। दाखिला दिया है उन मर्वमें श्राप सरीग्वा ही बहुत दूसरे एक बड़े ही आश्चर्यकी बात है कि, मिद्ध- कुछ सादृश्य है, अतः उनकी मान्यता इस विषयक सेनगणि जिन उमास्वातिको 'सूत्रानभिज्ञ' कहते हैं प्रमाणकोटिकी मानी जाय, ऐसी बात नहीं है। यहाँ और उनके कथनको 'प्रमत्तगीत' बतलाते हैं फिर पर युक्तिवादका विषय है, युक्तिसे आपके कथनकी उस भाष्यको स्वोपज्ञ तथा प्रमाण मानकर उसपर प्रमाणीकता सिद्ध हो जायगी तो फिर उनकी भी वैमी टीका लिखते हैं ! मुझे ता ऐसा प्रतीत होता है कि- मान्यता स्वयं सिद्ध ही है। फिर सहयोगके लिये एक इम प्रन्थकी स्वोपज्ञताक विषयमें सिद्धसेन, हरिभद्र की जगह दो तीनकी मान्यता अवश्य ही पौष्टिकता आदि विद्वानोंने धोखा खाया है। कारण कि, भाष्यके की सूचक हो सकती है। कोने उस प्रन्थकी महत्ता दिखलानेके लिये कहीं (३) वृत्ति स्वोपज्ञतासूचक संकेत किया दीखता है, इसीसे तथा 'वृत्तौ पंचत्ववचनात्' इत्यादि राजवार्तिकके विषय कुछ श्वेताम्बरीय कथन की सम्मततासे ज्यादा को लेकर पं० जुगलकिशोरजीने जो विषय प्रतिपादन विचार न करके पीछेके विद्वानोंने उस प्रन्थको किया है वह भी बिलकुल संगत है। संगतिका कारण स्वोपक्ष मान लिया दीखता है। प्रो० साहबके कथन यह है कि पं० जुगलकिशोर जीने, राजवार्तिक और से दिगम्बरी विद्वानोंने उस ग्रंथकी स्वोपज्ञता का श्वेताम्बरीय भाष्यके पाठमें पाये जाने वाले भेदके Page #98 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] प्रो० जगदीशचन्द्र के उत्तर लेखपर सयक्तिक मम्मति 28 - विधानस और 'कालश्च' इम दिगम्बरीय सूत्रके उल्लेख किया है वे शिलालेखक और हस्तिमल सरीखे विद्वान् से, प्रोफेसर साहबका जो मत है कि भाष्य राजवार्ति- हैं। उल्लेखका १५वीं शताब्दीसे पूर्व न मिलकर १५वीं कारके समक्ष था उसका निरसन (खंडन) भले प्रकार शताब्दीमें मिलना किसीकी विशेषविज्ञतामें आश्चर्यकिया है। सूचक तो नहीं है। आप सरीखे यदि विद्वान आश्चर्य प्रोफेमरजीने जो यह लिखा है कि भाष्यका मानें तो दूसरी बात है। नाम 'वृत्ति' भी था सो उसका निषेध तो पं० जुगल- प्रो० साहबने जो यह लिखा है कि-'कालच' किशोर जीने भी नहीं किया है, अतः उस विषयके इम सूत्रके होनेपर तो पांच द्रव्यकी शंको हो ही उल्लोवकी विशेष आवश्यकता नहीं थी। परंतु आपने नहीं सकती किंतु 'कालश्चेत्येके' ऐसा सूत्र होनेपर पं० जुगलकिशोरजी द्वारा उपस्थित किये हुए शिला- शंका हो सकती है सो यह लिखना भी आपका लेख प्रमाणकी 'वृत्ति' को जो अनुपलब्ध बतलाकर असंगत प्रतीत होता है, क्योंकि जिस जगहकी अपनं मतकी पुष्टि करनी चाही है वह कुछ समीचीन व्याख्या करते समय पंचत्वकी शंका की गई है वहाँ प्रतीत नहीं होती; क्योंकि उसमें १३२० शकके तक सौत्रीय पद्धतिमें कालका कोई भी उल्लेख नहीं शिलालेखको नवीन बतलाकर जो अपना मन समर्थन आया है । इसलिये पंचत्वविषयक शंका करना तथा किया है वह निर्मलक है। शिलालेम्यक लेखक तो 'कालश्च' इस सूत्र द्वारा शंकाका समाधान बिलकुल जिम शताब्दीमें उत्पन्न होंगे उसी शताब्दीका उल्लेख जायज है । जैसे 'इमो नित्यावस्थितान्यरूपाणि' करेंगे; जिनने पुगनी बातका उल्लेख किया है उनका सूत्रकी दूसरी वार्तिकके प्रमाणमें 'तदभावाव्ययं कथन अयुक्त क्यों ? क्या परम्पगसे पूर्वकी बातको नित्यं' सूत्रको उपन्यम्त किया है । इसी तरह और भी जानने वाले और अपने समयमें उस पूर्वकी बातका बहुतसे म्थल हैं जो कि पूर्वकथित सिद्धिमें आगेके उल्लेख करने वाले झूठे ही होते हैं ? यदि प्रो० साहब सूत्र उपन्यस्त हैं, जिमको कि आपने भी 'तदभावेति' का ऐसा सिद्धान्त है तो फिर कहना होगा कि आप और 'भेदादणुः' सूत्रोंके उल्लेग्वसे स्वीकार किया है। इतिहासज्ञता से कोसों दूर हैं। क्या १३२० शताब्दी यदि गजवार्तिककारको भाष्यपर की गई शंकाका के लेखकको उस लेग्वनसे कोई स्वार्थिक वामना थी ? ही निरसन करना अभीष्ट था तो भाष्यगत सूत्रके इसी नाचीज युक्तिको लेकर आपने गंधहम्ति भाष्यके उल्लेखसे ही उसका निरसन करते । और जब उम अग्तित्वको मिटानेकी जो कोशिश की है वह भी विषयमें मूत्रगत-एक' शब्दको लेकर शंका उठनी निर्मल और नितान्त भ्रामक है, जबकि अष्टसहस्रीके तो फिर उसका समाधान करते कि नहीं ? -भाष्यटिप्पण और हस्तिमल्ल आदि कवियोंके उल्लेखसे उस कारके मतसे काल द्रव्य भी है, जो कि 'वर्तना परिका भी अस्तित्य होना स्पष्ट ही है। बहुतसे प्राचार्य णाम' इत्यादि सूत्रसे स्पष्ट है । सो यह कुछ राजऐसे होते हैं कि अपने पूर्वकी कृतिका उल्लेख करते हैं वार्तिकारने किया नहीं, इससे स्पष्ट है कि राजवार्ति और बहुनमे ऐसे हैं जो नहीं भी करते हैं-उन्हींमेंसे कारका अभिप्रेत भाष्यविषयक समाधानका नहीं है। निरपेक्ष पूज्यपाद आदि प्राचार्य हैं। जिनने उल्लेख यह एक बड़ी विचित्र बात है कि भाष्यगत शंकाका Page #99 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त .. [वर्ष ४ समाधान, अकलंक सरीखे विद्वान् भाष्यगत सूत्रस षटत्वका कथन है। इसी दशामें पंचद्रव्यकी शंच न करकं दिगम्बरगत सूत्रसं करें ! क्या शंका करने होना और उसका समाधान हाना बिलकुल ही उपवाला यह नहीं कह सकता था कि-'कालश्च' यह युक्त है । यहाँपर 'वृत्तौ पंचत्ववचनात' इत्यादि सूत्र भाष्यमें कहाँ है ?-यह सूत्र तो दिगम्बराम्नाय वार्तिकका अभिप्राय यह होता है कि-'वृत्तौ'का है। ऐसी बात उपस्थित होनेपर अकलंकजी क्या रचनायां (सूत्र रचनायां) सूत्र रचनामें 'पंच'-पांच समाधान करते, सो प्रा० साहब ही जानें! · द्रव्य हैं, 'तु'-पुनः या अर्थात, 'प्रवचनात्'___ वास्तवमें इस विषयको हल करनेके लिये पं० छहका कथन न हानेसे, 'षद्रव्यापदेशव्याघातः'जुगलकिशोरजीने जिस वृत्तिका शिलालेखगत उल्लेख षद्रव्यका उपदेश नहीं बन सकता । ऐसा शंकाका किया है वह ही वृत्ति इस प्रकरणकी होनी चाहिये समाधान 'इतिचेम्न' शब्दसे किया है, सो स्पष्ट ही है। या कोई दूसरी + ही हो; परंतु वह होगी अवश्य इस वार्तिकका जो भाष्य है उसका अभिप्राय भी यही दिगम्बर वृत्ति ही, क्योंकि 'कालश्च' सूत्रका दाखिला होता है-वृत्ति-सूत्ररचनाम धर्मादिक द्रव्य अवस्थित ही स्वयमेव इस बातका सूचक है। वे कभी पंचत्वसं व्यभिचरित नहीं हो सकते, इस___ मेरी समझसे इस प्रकरणमें एक दूमरी बात लिये पटव्यका उपदेश नहीं बनता । उसका उत्तरप्रतीत होती है, जो कि विद्वत दृष्टि में बड़े ही महत्वकी अकलंक देवने–'कालश्च' सूत्रस देकर अपने कथनकी वस्तु हो सकती है। वह बात यह कि-'वृत्ति' शब्दकं पति की है। बहुतसे अर्थ हैं, उनमेंसे एक अर्थ वृत्तिका 'रचनाभेद' खंडन मंडन शास्त्रों में 'नहि कदाचित' आदिशब्द यानी रचनाविशेष होता है। यहां रचनाविशेषका प्रायःाही जाते हैं, इसलिये ये शब्द भाष्यमे हैं और आशय सूत्ररचनाविशेष होता है, क्योंकि प्रकरण ये ही शब्द राजवातिकमे भी हैं। इसलिये राज यहां उसी विषयका है। जैसे कि 'श्रा आकाशादेक- वार्तिकके सामने भाष्य था, ऐसा मान लेना विद्वत् द्रव्याणि' इस सूत्रमें मौत्रीरचनाका कथन है। दृष्ट्रिय हृदयप्राहकताका सूचक नहीं है। ___ यहांपर भी सौत्री रचनामें 'जीवाश्च' सूत्र तक (४) भाष्य या आगे भी बहुत दूर तक 'काल' द्रव्यका सूत्रालेग्वसे पं० जुगलकिशोरजीने 'कालस्योपसंख्यान' इत्यादि वर्णन नहीं आया है, और 'जीवाश्च' इस सूत्रके बाद बाकि राजवार्तिक भाष्य में आये हुए 'बहुकृत्वः' ही 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस सूत्रगत 'अवस्थित' शब्दको लेकर जो यह सूचित किया है कि-अकलंकशब्दकी व्याख्या की गई है, और व्याख्यामें धमोदि- देवके समक्ष कोई प्राचीन दि० जैन भाष्य था या +'वृत्ति विवरणको भी कहते हैं, इसलिये राजधार्तिक उन्हींका भाष्य जो राजवार्तिकमें है, वह भी हो में 'आकाशप्रहणमादौ' इत्यादि वार्तिकके विवरण- सकता है। पंडितजीकी ये दोनों कोटियां उपयुक्त है। प्रकरणमें 'धर्मादीनां पंचानामपि द्रव्याणां' ऐसा । उल्लेख है और इसलिये कहा जा सकता है कि क्योकि ! क्योंकि राजवार्तिककारके सामने उनसे प्राचीन 'वृत्ति' शब्दसे ननने अपने राजवार्तिकका ग्रहण भाष्य 'सर्वाथसिद्धि' था, जिसके कि आधारपर किया हो।-पंचमाध्याय प्रथमसूत्र वार्तिक नं० ३४। राजवार्तिक और उसका भाष्य है। सर्वार्थसिद्धि Page #100 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] प्रो० जगदीशचंद्र के उतरलेखपर सयुक्तिक सम्मति भाष्य क्यों है ? इसका उत्तर—स्वमत स्थापन और परमतनिराकरणरूप भाष्यका अर्थ होता है तथा वृत्ति और भाष्य एक अर्थवाचक भी होते हैं, दुसरं सर्वार्थसिद्धिकी लेखनशैली पातंजल भाष्यसरीखी भी है । इन सभी कारणांस सर्वार्थसिद्धि भाष्य ही है। इसलिये पं० जुगलकिशोरकी मान्यता, अन्य भाष्योंको इस वक्त अनुपलब्धिमे, शायद थोड़ो देरके लिये नहीं भी मानी जाय, परंतु सर्वार्थसिद्धिकी तो वर्तमान में उपलब्धि है और उसमें 'षड्द्रव्याणि' के उल्लेग्ब २–३ जगह दीख ही रहे हैं। इसी तरह राजवार्तिक में भी कई जगह उल्लेख हैं। अतः इस विषय में पंडितजीकी प्राचीन भाष्यसंबंधी तथा गजवार्तिक-संबंधी जो मान्यता है वह बिलकुल सत्य और अनुभवगम्य है। इस प्रकरण में पं० जुगलकिशोरजीने प्रोफेसर साहब जीके लिये जो यह लिखा है कि भाष्य में 'बहुकृत्वः' शब्द है उसका अर्थ 'बहुत बार' होता है उस शब्दार्थ को लेकर 'षड़द्रव्याणि, ऐसा पाठ भाष्य में बहुत बार को छोड़कर एक बार तो बतलाना चाहिये, इस उपर्युक्त पंडितजी के कथन के प्रतिवादके लिये प्रोफेसर साहब ने कोशिश तां बहुत की है परंतु 'षड्द्रव्याणि' इस प्रकार के शब्दोंके पाठको वे नहीं बता सके हैं। यह उनके इस विषयके अधीर प्रवृत्तिकं लम्बे-चौड़े लेखसे स्पष्ट है। यद्यपि इस विषय में उनने 'सर्वे षट्त्वं षड् द्रव्यावरोधात्' इस पं० जुगलकिशोरजी प्रदर्शित भाष्य वाक्यसे तथा प्रशमरनिकी गाथाकी 'जीवाजीवौ द्रव्यमिति षविधं भवतीति' छाया से बहुत कोशिश की है परंतु केवल उससे 'षट्त्वं' 'षड्विधं', ये वाक्य ही सिद्ध हो सके हैं किन्तु 'षड्द्रव्याणि' यह वाक्य उमास्वातिने तथा भाष्यकारने कहीं भी स्पष्ट ६१ रूपसे उल्लिखित नहीं किया है। उत्तर वह देना चाहिये जो प्रश्नकर्ता पूछता हो, परन्तु आपके इतने लम्बेचौड़े व्याख्यानमें वैसा उत्तर नहीं है । अतः स्पष्ट है कि गजवार्तिक में 'यद्भाष्ये बहुकृत्वः षड्द्रव्याणि इत्युक्त' इन शब्दों से जिस भाष्यका उल्लेख है वह सर्वार्थसिद्धि या उससे भी पुराने किसी भाष्यका और राजवार्तिकभाष्यका उल्लेख है - श्वेताम्बर भाष्यका उल्लेख किसी भी दशा में न है और न हो सकता है। क्योंकि उपलब्ध दिगम्बर भाष्यों में वैसे उल्लेख स्पष्ट हैं, तो फिर दूसरे भाष्यकी कल्पना केवल कल्पना ही है अर्थात बिलकुल ही निर्मूलक है । इसी प्रकरण में प्रोफेसर साहबने जो लिखा है कि 'पंचत्व' शब्दका अकलंकने जो ऊपर पंचास्तिकाय अर्थ किया है वही ठीक बैठता है। मेरी समझ में यह श्रापका लिखना बिल्कुल ही असंगत है। क्योंकि अकलंकदेवने अपनी गजवार्तिकमें कहीं भी 'पंचत्व' का अर्थ पंचास्तिकाय नहीं किया है। दूसरे तो क्या 'अवस्थितानि' पदका अर्थ भी उनने 'पंचत्व' नहीं किया है किंतु 'षड्यन्ता' किया है। आप शायद पंचमाध्यायके पहले सूत्रकी १३वीं और १५वीं वार्तिक के भाष्यका उद्देखकर यह कहें कि वहाँपर 'पंचत्व' अर्थ 'पंचास्तिकाय' ही किया है सां यह आपकी संस्कृत भाषाकी जानकारीका ही परिणाम है; क्योंकि वहाँ प्रथम तो 'पंचत्व' शब्द ही नहीं है, दूसरे है भी तो 'पंच' शब्द है और वह पंच शब्द अस्तिकायके पूर्व जुड़ा होने से अस्तिकाय के विशेषणरूप से निवसित है । जो विशेषण होता है वह विशेष्य अर्थ नहीं होता किंतु विशेष्य की विशेषता बतलाता है । राजवार्तिककारने कहीं भी 'पंच' का अर्थ 'पंचास्तिकाय' नहीं किया है। अतः उपयुक्त रूपसे Page #101 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ अनेकान्त [वर्षे ४ जो आपने यह लिखा है कि राजवार्तिककारने 'पंचत्व' स्पष्टरूप होनेसे पं० जुगलकिशोरजीन यह लिख का अर्थ पंचास्तिकाय किया है यह बिलकुल ही दिया है कि "और वह उन्हींका अपना राजवार्तिक अनुचित है। राजवार्तिककार 'पंचत्व' का वह अर्थ भाष्य भी हो सकता है" यह लिखना अनुचित नहीं है। कर भी कैसे सकते थे; क्योंकि 'पंचत्व' का न तो प्रो० साहबके इस लेखमें नम्बर ४ तकके लेखका शब्दमर्यादासे वह अर्थ होता है और न प्रकरणवश विषय पं० जुगलकिशोरजीका तो यह रहा है कि ही-ऐंचातानीसे ही होता, क्योंकि सूत्रमें 'काय' शब्द श्वे० भाष्य राजवार्तिककारके सन्मुख (समक्ष) नहीं का विधान है, जो कि अस्तिकायको सूचक है। सूत्रस्थ था, और प्रोफेसर साहब जगदीशचंद्रजीका विषय 'काय' शब्दकं होते हुए भी 'पंचत्व' का अर्थ 'अस्ति- यह रहा है कि श्वे० भाष्य राजवार्तिककारके समक्ष काय' होता है यह एक विचित्र नयी सूझ है ! आपके था। इन दोनोंके उपर्युक्त कथनकी विवेचनासे यह द्वारा ऐसी विचित्र नयी सूझके होनेपर भी भाष्यगत स्पष्ट होगया है कि श्वे० भाष्य राजवार्तिककारके समक्ष यह अभिप्रेत तो नहीं सिद्ध हुआ जो कि प्रश्नकर्ताको नहीं था। अभीष्ट है । यह बात यहाँ ऐसी होगई कि पछा खेत जबकि राजवार्तिककारके समक्ष श्वेताम्बर भाष्य को उत्तर मिला खलियान का। था ही नहीं तो फिर शब्दादि-माम्यविषयक नं०५ ____ इसी प्रकरणमें प्रोफेसर साहबने जो यह लिग्या का प्रोफेसर माहबका कथन कुछ भी कीमत नहीं है कि-"यदि यहाँ भाज्यपद का वाय राजवाक रखता । शब्दसाम्य, सूत्रसाम्य, विषयसाम्य तो बहुत भाष्य होता तो 'भाष्ये' न लिखकर अकलंकदेवको शाखाक बहुतस शास्त्रांस मिल सकते है तथा मिलते 'पूर्वत्र' आदि कोई शब्द लिखना चाहिये था" मेरी हैं, अतः नं०५ का जो प्रोफेसर साहबका वक्तव्य है समझसे यह लिग्वना भी आपका अनुचित प्रतीत होता वह बिलकुल ही नाजायज है। हाँ, उन चारों नंबरों है, कारण कि सर्वत्र लेखक की एकसी ही शैली होती के अलावा यदि कोई खास ऐमा प्रमाण हो कि जिससे चाहिये ऐसी प्रतिज्ञा करके लेखक नहीं लिम्बते किंतु अकलंकदेव भाष्यकारक पीछे सिद्ध होजाँय तो यह उनको जिस लेखनशैलीमें स्वपरको सुभीता होता है जो नं० पांचका उल्लेग्व जायज हो सकता है । अकलंक वही शैली अंगीकार कर अपनी कृतिमें लाते हैं, A देवने अपने ग्रन्थमें कहीं भी श्वे० भाष्यको उमास्वाति वन अ 'पूर्वत्र' शब्द देनेसे संदेह हो सकता था कि-वार्तिक का बनाया हुआ नहीं लिखा है तथा न आज तक मे या भाष्यमें ? वैसी शंका किसीका भी न हो इस ऐमी काई युक्ति ही देखनेमें आई कि जिसके बलसे यह सिद्ध होजाय कि गजवार्तिककारके समक्ष यह लिये स्पष्ट उनने 'भाष्ये' यह पद लिखा है। क्योंकि . राजवार्तिकके पंचम अध्यायकं पहले सूत्रकी 'आर्ष भाष्य था । जब ऐसी दशा स्पष्ट है तो फिर कहना ही विरोध' इत्यादि ३५वीं वार्तिकके भाष्यमें 'षण्णामपि होगा कि हमारे इन नवयुवक पंडितोंका इस विषयका द्रव्याणां', 'आकाशदीनां षण्णां' ये शब्द आये हैं, __कथन कथनाभाम होनेमे केवल भ्रान्तिजनक है तथा भ्रमात्मक ही है। अलमिति । तथा अन्यत्र भी इसी प्रकार राजवार्तिक भाष्यमें __ श्री ऐलक पन्नालाल दि० जैन । शब्द हैं । गजवार्तिक भाष्यमें यह षट् द्रव्यका विषय सरस्वती-भवन, बम्बई । Page #102 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अतिशय क्षेत्र इलोराकी गुफाएँ [ले-श्री० बाबू कामताप्रसाद जैन ] -More mireo000mm-. 90000009 900000000 जाम हैदगबादकी रियासतमें भारतके चार्यजीके समय इलोरा अपनी जवानीपर था, नि प्राचीन गौरवको प्रकट करनेवाली अनेक क्योंकि उनका समय राष्ट्रकूट साम्राज्यकालके अंतacanvars कीर्तियाँ बिखरी पड़ी हैं । वे कीर्तियां र्गत पड़ता है । अतएव यह अनुमान किया जा जैनों, बौद्धों और वैष्णवोंकी सम्पत्ति ही नहीं, बल्कि सकता है कि उन्होंने जिस इलावर्द्धन नगर का उल्लेख माम्प्रदायिकताको भुलानेवाला त्रिवेणी-संगमरूप ही किया है वह इलोरा होगा । उन्होंने लिखा है कि हैं । गतवर्ष श्री गोम्मटेश्वरके महामस्तकाभिषेको- 'कौशलदेशकी रानी 'इला' अपने पुत्र 'ऐलेय' को त्सवसे लौटते हुये हमको यहाँ के पुण्यमई स्थान साथ लेकर दुर्गदेशमें पहुंची और वहाँपर इलावर्द्धन इलोगके दर्शन करनका सौभाग्य प्राप्त हुआ था। नगर बसाकर अपने पुत्रको उमका राजा बनाया। ईम्वी ९ वीं-१० वीं शताब्दिमें इलोग संभवतः (सर्ग १७ श्लो० १७-१९) हो सकता है कि इस ऐलापुर अथवा इलापुर कहलाता था और तब वह प्राचीन नगरको ही राष्ट्रकूट राजाओंने समृद्धिशाली गष्ट्रकूटसाम्राज्यका प्रमुग्व नगर था । एक समय वह बनाया हो ! और इसके पार्श्ववर्ती पर्वतमें दर्शनीय राष्ट्रकूट राजधानी मी रहा अनुमान किया जाता है। मन्दिर निर्माण कराये हों ! तब उमका वैभव अपार था अब तो उसकी प्रति- गत फाल्गुणी अमावस्याको हम लोग मनमाड छाया ही शेप है। परन्तु यह छाया भी इतनी विशाल, जंकशन (G. I. P. R.) से लारियोंमें बैठकर इतनी मनोहर और इतनी सुन्दर है कि उसको देखते इलोराके दर्शन करनेके लिये गये । जमीन पथरीली ही दर्शकके मुखस बेमाख्ता निकल जाता है : 'ओह । है-चागें र पहाड़ ही पहाड़ नजर आते हैं। जब कैसा सुन्दर है यह !' सच देखिये तो 'सत्यं शिवं हम इलोगके पास पहुंचे तो बड़ा-सा पहाड़ हमारे सुन्दरम्' का सिद्धान्त इलोराकी निःशेष विभूति-उन सम्मुख प्रा खड़ा हुश्रा । पहले ही एलोर गाँव पड़ा। कलापूर्णगुफाओंमें जीवित चमत्कार दर्शा रहा है। यह एक छोटासा आधुनिक गाँव है। उस रोज यहां अब माचिये यौवन-रससे चुहचुहात इलापुरका पर वार्षिक मेला था। चारों ओरसे प्रामीण जनता सौभाग्य-सौंदर्य ! आज कालकरालने उसे निष्प्रभ वहाँ इकट्ठी हुई थी। गाँवके पास बहती हुई पहाड़ी बनानेमें कुछ उठा नहीं रकवा, परन्तु फिर भी उसे नदीमें उसने म्नान किया था और पवित्रगात होकरके वह निष्प्रभ नहीं बना सका ! उसका नाम और काम कैलाशमंदिग्में शिवजीपर जल चढ़ाया था। हजारों भुवनविख्यात् है ! स्त्री-पुरुष और बालक-बालिकायें इस लोकमूढ़तामें 'हरिवंशपुराण' में श्री जिनसेनाचार्यजीने एक आनन्दविभोर हो रहे थे। उन्हें पता नहीं था कि इलावर्द्धन नगरका उल्लेख किया है । श्री जिनसेना- शिवजीकी यह मूर्ति सचिदानन्द ब्रह्मरूप (परमात्म Page #103 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६४ भनेकान्त [वर्ष ४ स्वरूप) का समलंकृत प्रतीक है । शिव अमरत्वका दिया गया है । अंधेरी गुफायें वहाँ नहीं हैं । ही संकेत है । जो अमर होना चाहे वह संसार-विष पर्वतके छोटेसे दरवाजे के भीतर आलीशान महल (रागद्वेषादि) को पीकर हम कर डाले-उसको नाम और मंदिर बने हुये हैं। उनमें शिल्प और चित्रणनिःशेष करदे-वही शिव है ! परन्तु उन भोले कलाके असाधारण नमूने देखते ही बनते हैं । आश्चर्य प्रामीणोंको इस रहस्यका क्या पता ? वह तो कुल- है कि एक खंभेपर हजारों-लाखों मनोवाला वह परंपरासे उस मूढ़तामें बहे प्रारहे थे। 'धर्मप्रभावना पाषाणमयी पर्वत खड़ा हुआ है ! उसकी प्रशंसा ऐसे मेलोंमें सद्ज्ञानका प्रचार करनेमें ही हो सकती शब्दोंमें करना अन्याय है-इतना ही बस है कि है। यह सत्य वह मर्मज्ञजनोंको बता रही थी। मनुष्यके लिए संभव हो तो उसको अवश्य देखना हमारी लॉग उस भीड़ को चीरती हुई चली । ग्रामीणों चाहिए । कलाका वह भागार है। इस कैलाशभवन की आकांक्षाओं और अभिलाषाओंको पूर्ण करनेके 'शिवमंदिर' को राष्ट्रकूट राजा कृष्णराज प्रथमने लियं तरह-तरहकी साधारण दुकानें भी लगी हुई बनवाया था। थीं। ज्यों-त्यों करके हमारी लॉरी मेलेको पार कर इस मंदिरको देग्वनेके साथ ही हमको इलोराकी गई। दोनों ओर हरियाली और एथरीले भरकं नज़र जैन गुफाओं को देखनेकी उत्कण्ठा हुई। सब लोग पड़ रहे थे । वह पहाड़ी नदी भी इन्हींमें घूम-फिर लॉरीमें बैठकर वहाँ से दो मीलके लगभग शायद कर आँखमिचौनी खेल रही थी। हमने उस पार किया उत्तर की ओर चले और वहाँ से हनुमानगुफा आदिको और पहाड़ीपर चढ़न लगे । थोड़ा चलकर लॉग देखते हुये जैनगुफाओंके पास पहुँचे। नं० ३० से रुकी-हम लोग नीचे उतरे । देखा सामनं उत्तुंग नं० ३४ तककी गुफायें जैनियों की हैं। हमने नं० २६ B पर्वत फैला हुआ है । उसको देखकर हृदयको ठेस-सी के गुफामंदिरको भी देखा । उसमें भीतर ऐसा कोई लगती है । सुदृढ़-अटल और गंभीर योद्धासा वह चिन्ह नहीं मिला जिससे उसे किसी सम्प्रदाय विशेषदीखता है । कलामय सरसता उसमें कहाँ ? यह भ्रम का अनुमान करते; परंतु उसके बाहरी वरांडामें जैनहोता है। दिन काफी चढ़ गया था-बच्चे भी साथ मूर्तियाँ ही अवशेषरूपमें रक्खी दीग्वतीं हैं । इससे में थे । गरमी अपना मजा दिखला रही थी । चाहा हमारा तो यह अनुमान है कि यह गुफा भी जैनियोंकी कि भोजन नहीं तो जलपान ही कर लिया जाय। है। ये गुफायें भी बहुत बड़ी हैं और इनमें मनोज्ञ परंतु 'सत्य-शिव-सुन्दरम्' की चाह-दाहने शारी- दिग० जैन प्रतिमायें बनी हुई हैं । इनके तोरणद्वाररिकदाहको भुला दिया। सब लोग इलारा देखनेके स्थंभ-महराब-छतें बड़ी ही सुंदर कारीगरी की लिये बढ़े। कैलाशमंदिरके द्वारपर ही पर्वतस्रोतसे बनी हुई हैं । हजारों आदमियों के बैठनेका स्थान है। भरा हुआ जल छोटेसे कुण्डमें जमा था-उसने राष्ट्रकूट-राज्यकालमें जैनधर्मका प्राबल्य था । अमोघशीतलता दी। क्षेत्रका प्रभाव ही मानों मूर्तिमान वर्ष श्रादि कई राष्ट्रकूटनरेश जैनधर्मानुयायी थे। होकर आगे आ खड़ा हुआ। भीतर घुसे और देखा उनके सामन्त आदि भी जैन थे। वे जैन गुरुओंकी दिव्यलोकमें आगये । पर्वत काटकर पोला कर वंदना-भक्ति करते थे। इन गुफा-मंदिरोंको देखकर Page #104 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] इलोराकी गुफायें ६५ वह भव्य-समय याद आ गया-दृष्टिके सामने जैना- चार बड़े २ स्तंभोंपर टिका हुआ है। इस सभाकी चार्योंकी धर्मदेशनाका सुअवसर और सुदृश्य नृत्य उत्तरीय दीवारमें छोरपर भ० पार्श्वनाथकी विशालकरने लगा-इन्हीं गुफाओंमें प्राचार्य महाराज बैठते मूर्ति विराजमान है-वह दिगम्बर मुद्रामें है और थे और राजा तथा रंक सभीको धर्मरसपान कराते सात फणोंका मुकट उनके शोशपर शोभता है । नागथे ! धन्य था वह समय ! फण मंडल-मंडित संभवतः पद्मावती देवी भगवानके जैनगुफाओंमें इन्द्रसभा नामकी गुफा विशेष ऊपर छत्र लगाये हुए दीखती है। अन्य पूजकादि भी उल्लेखनीय है। इसका निर्माण कैलाशभवनके रूपमें बने हुए हैं। इसी गुफामें दक्षिणपार्श्वपर श्री गोम्मटेश्वर किया गया है। इसके इर्द-गिर्द छोटी २ गुफायें हैं। बाहवलिकी प्रतिमा ध्यानमग्न बनी हुई है। लतार्य बीचमें दो खनकी बड़ी गुफा बनी हुई है। यह बड़ी उनके शरीर पर चढ़ रही हैं, मानो उनके ध्यानके गुफा बड़ा भारी मंदिर है, जो पर्वतको काटकर गांभीर्यको ही प्रकट कर रही हैं। यह भी दिगम्बर बनाया गया है। इसकी कारीगरी देखते ही बनती मुद्रा में खगासन है। भक्तजन इनकी पूजा कर रहे हैं। है। इसमें घुमते ही एक छोटीसी गुफाकी छतमें यहीं अन्यत्र कमरेके भीतर वेदीपर चारों रंगविरंगी चित्रकलाकी छायामात्र अवशेष थी-वह दिशाओंमें भ० महावीर की प्रतिमा उकेरी हुई है। बड़ी मनोहर और सूक्ष्म रेखाओंको लिये हुये थी। दूसरे कमरेमें भ० महावीर स्वामी सिंहासन पर विराकिंतु दुर्भाग्यवश वहाँपर बरोंने छत्ता बना लिया जमान मिलते हैं। उनके मामने धर्मचक्र बना हुआ और शायद उमीको उड़ानेके लिये आग जलाकर है। मानों इस मन्दिरका निर्माता दर्शकोंको यह यह रंगीन चित्रकारी काली कर दीगई थी। यह दृश्य उपदेश दे रहा है कि जिनेन्द्र महावीरका शासन ही पीड़त्पादक था-जैनत्वक पतनका प्रत्यक्ष उदाहरण त्राणदाना है, अतएव उनका प्रवाया हुआ धर्मचक्र था । कहाँ आजके जैनी जो अपने पूर्वजोंके कीर्ति- चलाते ही रहो। परंतु कितने हैं, जो इस भावनाको चिन्होंको भी नहीं जानते। और कितना बढ़ा चढ़ा मूर्तिमान बनाते हैं ! इसीमें पिछली दीवारके सहारे उनके पूर्वजोंका गौरव ! भावुकहृदय मन मसोसकर एक मूर्ति बनी हुई है जो 'इन्द्र' की कहलाती है । ही रह जायगा। कहते हैं कि निजामसरकारका मूर्तिमें एक वृक्षपर तोते बैठे हुए हैं और उसके नीचे पुगतत्वविभाग इसपर सफेद रंग करा रहा है। इसका हाथीपर बैठे हुए इंद्र बने हैं। उनके पासपाम दो अंगअर्थ है, इलोगमें जैनचित्रकारीका सर्वथा लोप! रक्षक हैं । इस मूर्तिसे पश्चिमकी ओर इंद्राणीकी क्या यह रोका नहीं जा सकता ? और क्या पुरातन मूर्ति बनी हुई है । इन्द्राणी सिंहासनपर बैठी हैं और चित्रकारीका हो उद्धार नहीं हो सकता? हो सकता सब सुन्दर प्राभूषणादि पहने अङ्कित है । इसी स्थानसे कुछ है, परंतु उद्योग किया जाय तब ही कुछ हो। आसपासके छोटे २ कमरोंमें जाना होता है, जिनमें इन्द्रमभा वाली इस गुफाका नं० ३३ है। यह दो भी तीर्थकरोंकी मूर्तियाँ बनी हुई हैं। भागोंमें विभक्त है। एक इन्द्रगुफा कहलाती है और इस गुफामें अहातेके भीतर एक बड़ासा हाथी दूसरी जगन्नाथ गुफा। इन्द्रगुफाका विशाल मण्डप बना हुआ है और वहीं पर एक मानस्तंभ खड़ा है Page #105 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ जों २७ फीट ऊँचा होगा। कहते हैं, पहले इसके इन लेखोंको पढ़कर यहाँका विशेष इतिहास प्रकट शिखरपर एक चर्तुमुख प्रतिमा विगजमान थी; किंतु किया जाना चाहिये । वह उस दिनसे एक रोज पहले धराशायी होगई जिस अवशेष गुफायें ज्यादा बड़ी नहीं हैं, परन्तु उन दिन लॉर्ड नॉर्थब्रक सा० इन गुफाओंका देखने में भी तीर्थकर प्रतिमायें दर्शनीय हैं । इनका विशेष आय थे। __ इस गुफामें मूर्तियों के दिव्य दर्शन करके कुछ ___ वर्णन 'ए गाइड टु इलोग' नामक पुस्तकमें देखना जैन लोगोंने अक्षतादि चढ़ाये थे; यह देख कर पुरा चाहिये । इस लेखमें तो उनकी एक झाँकी मात्र तत्व विभागके कर्मचारीने उनको रोक दिया। इस लिखी है । इलोगकी मब गुफायें लगभग १०-१२ घटनासे हमारे हृदयको आघात पहुँचा-परितापका मीलमें फैली हुई हैं और इनकी कारीगरी देखनेकी स्थल है कि हमारे ही पूर्वजोंकी और हमारे ही धर्म चीज़ है । उनको देखनेमें हमारे संघके लोग की कीनियों की विनय और भक्ति भी हम नहीं कर भूख-प्यास भी भूल गये । दोपहरका सूर्य गरमी लिये मकते ! जो स्वयं अपना व्यक्तित्व सुरक्षित नहीं चमक रहा था, लेकिन फिर भी लोग गुफाओंके रग्वता, उसके लिये परिताप करना भी व्यर्थ है ! जैनी ऊपर पर्वतपर चढ़कर जिनमंदिरके दर्शन करनके पुगतन वस्तुओंकी सार-सँभाल करना नहीं जानते ! लिये उतावले हो गए। बसोतके पानीका बना हुआ इसलिये यही दमरे लोग उनकी वस्तुओंकी मार-संभाल ऊबड़-खूबड़ रास्ता था-वह वैसे ही दुर्गम थाकरते हैं और छने नहीं देते तो बेजा भी क्या है? उसपर कड़ी धूप ! परंतु जिनवन्दनाकी धुनमे पगे इन गुफाओं में दृमरी बड़ी गुफा जगन्नाथगफा हुय बच्चे भी उस चावसे पार कर रहे थे। करीब है । यह इन्द्रमभा गुफाके पास ही है; परंत उतनी शा-२ फलोग ऊपर चढ़नेपर वह चैत्यालय मिला। अच्छी दशामें नहीं है। इसकी रचना प्रायः न हो उसमे जिनेन्द्र पार्श्वनाथके दर्शन करके चित्त प्रसन्न गई है। इसमें भी भ० पार्श्वनाथ, भ० महाबीर और हो गया-अपने श्रमको सब भूल गये और भाग्यको गोम्मट स्वामीकी प्रतिमायें हैं। सोलहवें तीर्थकर भ० सराहने लगे । इस चैत्यालयको बने, कहते हैं, ज्यादा शान्तिनाथकी एक मर्तिपर इन गुफाओंमे ८ वीं-९ समय नहीं हुआ है। औरंगावादके किन्ही सेठजीने वीं शताब्दिके अक्षरोंमें एक लेख लिखा हुआ है, इसे गत शताब्दिमें बनवाया है । मालूम होता है, वह जिसे बर्जेस सा० ने निम्न प्रकार पढा था:- यहाँ दर्शन करते हुये आये होंगे और जिनेन्द्रपावके "श्री सोहिल ब्रह्मचारिणा शांति- गुफामंदिरको अथवा कहिये शैल-मंदिरको भग्नावशेष भट्टारक प्रतिमेयार" देखकर यह चैत्यालय बनवाया होगा। परंतु आज __ अर्थात्-"श्री मोहिल ब्रह्मचारी द्वारा यह फिर उसकी सा सँभाल करनेवाला कोई नहीं है। शांतिनाथकी प्रतिमा निर्मापी गई।' निजामका पुरातत्वविभाग भी उसकी ओरसे विमुख एक अन्य मूर्ति 'श्रीनागवर्मकृत प्रतिमा' लिखी है। शायद इसी लिये कि वह जैनियोंकी अपनी चीज़ गई है। जगनाथ गुफामें पुरानी कनड़ी भाषाके भी है। उसमें भ० पार्श्वकी पद्मासन विशालकाय प्रतिमा कई लेख हैं, जो ईसाकी ८ वीं-९ वीं शताब्दिके हैं। अखंडित और पूज्य है। यहाँ ही सब यात्रियोंने Page #106 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] इलोराकी गुफायें जिनेन्द्रका साभिषेक पूजन किया । क्या ही अच्छा गई हैं, जिनसे यह चरणाद्रि पर्वत वैसे ही पवित्र हो, यदि यहाँपर नियमित रूपमें पूजा-प्रक्षाल हुआ तीथे होगया है, जैसे कि भरत म० ने कैलाश पर्वतको करे । औरंगाबादके जैनियोंको यदि उत्साहित किया तीर्थ बना दिया था । अनुपम-सम्यक्त्व-मूर्तिवत्, दयालु, स्वदारसंतोषी, कल्पवृक्षतुल्य चक्रेश्वर पवित्र जाय तो यह आवश्यक कार्य सुगम है। ऐसा प्रबंध धर्मके संरक्षक मानो पंचम वासुदेव ही हुये !' होनेपर यह अतिशयक्षेत्र प्रसिद्ध हो जावेगा और तब बहुतसे जैनीयात्री यहाँ निरन्तर आते रहेंगे। क्या इस लेखसे स्पष्ट है कि यह स्थान पूर्वकालसे ही तीर्थक्षेत्र कमेटी इसपर ध्यान देगी? अतिशय तीर्थ माना गया है। अतः इसका उद्धार हाँ, तो यह पूज्य प्रतिमा भ० पार्श्वनाथकी होना अत्यन्तावश्यक है। वहाँ से लौटते हुए हृदयमें पद्मासन और पाषाणकी है। यह ९ फीट चौडी और इसके उद्धारकी भावनाएँ ही हिलोरें ले रही थीं। १६ फीट ऊँची है। इसके सिंहासनमें धर्मचक्र बना है शायद निकटभविष्यमें कोई दानवीर चक्रेश्वर उनको और एक लेख भी है, जिसको डा. बुल्हरने पढ़ा फलवती बनादें । इस लेखसे तत्कालीन श्रावकाचार था । उसका भावार्थ निम्नप्रकार है: का भी आभास मिलता है। दान देना और पूजा ____ 'म्वम्ति शक सं० ११५६ फाल्गुण सु० ३ बुध ___ करना ही श्रावकों का मुख्य कर्तव्य दीखता है-शीलवासरे श्री बर्द्धमानपुरमें रेणुगीका जन्म हुआ था.. धर्मपरायण रहना पुरुषों के लिए भी आवश्यक था। उनका पुत्र गेलुगी हुआ, जिनकी पत्नी लोकप्रिय इलापुर अथवा इलाराका यह संक्षिप्त वृतान्त हैस्वर्णा थी। इन दम्पत्तिक चक्रेश्वर आदि चार पुत्र हुये । चक्रेश्वर मद्गुणोंका श्रागार और दातार था। 'अनेकान्त' के पाठकोंको इसके पाठसे वहाँ के परोक्ष उसने चारणोंस निवमित इस पर्वतपर पार्श्वनाथ दर्शन होंगे। शायद उन्हें वह प्रत्यक्ष दर्शन करनेके भगवानकी प्रतिमा स्थापित कराई और अपने इस लिए भी लालायित करदें। दानधर्म के प्रभावसं अपने कर्मोको धाया। परमपूज्य अलीगंज ॥इति शम् ॥ जिन भगवानकी अनेक विशाल प्रतिमायें निर्मापी ता० ७१।४१ "क्यों अखिल ब्रह्माण्ड छानते फिरते हो, अपने बीच बीचमे नष्ट होजाने वाला, कर्मबन्धनका कारण आपमें क्यों नहीं देखते, तुम जो चाहते हो सो और तथा विषम होता है, इसलिये वह दुःख ही है।" कहीं नहीं, अपने आपमें है।" ___ "जब हम मरें तो दुनियाँको अपने जम्मके समय "दृसगेंके लिये दुःख स्वीकार करना क्या सुख से अधिक शुद्ध करके छोड़ जायँ, यह हमारे जीवनका नहीं है ?" उद्देश्य होना चाहिये ।" "जिसकी महानताकी जड़ भलाई में नहीं है, "कमसे कम ऐसा काम तो करो कि जिससे उसका अवश्य ही पतन होगा।" . तुम्हारा भी नुकसान न हो और दूसरोंका भी भला ___ "जो सुख इन्द्रियोंसे मिलता है वह अपने और हो जाय।" परको बाधा पहुँचाने वाला, हमेशा न ठहरने वाला, -विचारपुष्पोद्यान Page #107 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उठती है उरमें एक लहर! इस नियति-नियमकीबेलामें मेरे बीहड़ वन-उपवनमेंयुग-परिवर्तन हो जायेगा, बल्ल रियाँ क्या खिल पाएँगी? प्राणी! भवके निगमागममें हुलसितमनकीचंचलहिलोरयों कब तक श्राए-जाएगा? थिर होगी क्या, मिट जाएँगी! जगके भीषण कोलाहलमें श्रात्माका सच्चित्-शिवस्वरूपश्वासोंके स्वर जाएँ न बिखर ! अन्तस्तलमें देखू झुककर । उठती है उरमें एक लहर !! ___ उठती है उरमें एक लहर ! [ २ ] जीवनके मौन रहस्योंकी वाणी वीणामें वीतरागकागाथा उलझी रह जाएगी। मञ्ज ल स्वर भर जाएगा; यह त्याग-तपस्याकी मेरी हृत्तंत्रीकी झंकारोंसेदुनिया सूनी हो जाएगी! झंकृत जीवन हो जाएगा। मानवताकी अभिलाषाएँ आँखोसे भरकर चिरविषादपाएँगी पीड़ा आठ पहर ! आँसू बन जाएँगे निर्भर ! उठती है उरमें एक लहर !! उठती हैं उरमें एक लहर !! [ ७ ] ममताकी यह काली-बदली नैराश्य-निशा अँधियारीमेंश्राहोसे भरकर दीवानी; क्या कुमुद हास छिटकाएगा? अम्बरको ढक उच्छवासोंसे श्राध्यात्मिक तत्वोंका प्रदीपबरसाएगी खारा पानी। अन्तर आलोक दिखाएगा? भारी मनको हलका करने नन्दन-वनका मादक परागकरुणा रोएगी सिहर-सिहर ! बिखरेगा क्या इस भूतलपर? उठती है उरमें एक लहर !! उठती है उरमें एक लहर !! [ ८ ] यौवनकी पीड़ा तपसीकी मायाके मोहक-पिंजरेसेक्रीड़ाओंमें घुल जानेको मन-पंछी जब उड़ जाएगा; उमड़ी लेकर तपका निखार जिनवरके वह वैरागभरेनिश्चल-निधिमें धुल जानेको। पद अम्बरमें चढ़ गाएगा। उत्तुंग तरंगोंसे बहती जिस परिधि-परामें सिहरणकरमनमें गंगा करलूँ हर-हर ! प्राणी हो जाता मुक्त-अमर! उठती है उरमें एक लहर !! उठती है उरमें एक लहर !! पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुलित' Page #108 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सुधारका मूल सोत (ले०-६० श्रेयांसकुमार जैन शास्त्री) अाज समाज-सुधारकी दुन्दुभि चारों ओर बज उन्हें मनोवैज्ञानिक विशेषज्ञोंकी देखरेखमें रखकर रही है। हर एक कोनेसे उसकी आवाज आ रही है। उनके सर्वमुखी विकासकी व्यवस्था की जाती है । हर एकके दिमाग़में रह रहकर यह समस्या उलझन सचमुचमें मानव-जीवन और सामाजिक-जीवनमें पैदा कर रही है । पर असली समस्याका हल नहीं। शिशुका अत्यन्त महत्वपूर्ण स्थान है। शिशु ही राष्ट्र हो भी क्योंकर ? जब निदान ही ठीक नहीं तो फिर की सम्पत्ति हैं, यह एक प्रसिद्ध बात है। पर उनकी चिकित्सा बिचारीका अपराध ही क्या ? समाज किसी भारतवर्ष में कैसी शोचनीय स्थिति है, शिशु-जीवनकी व्यक्तिविशेषका नाम नहीं, वह तो व्यक्तियोंका समुदाय किस तरह भयङ्कर उपेक्षा की जाती है, उनका जीवन है । समुदायका नाम ही समाज है। व्यक्तियोंसे रहित किस तरह पैरों तले रौंदा जाता है, उनके अमूल्य समाजका कहीं अस्तित्व ही नहीं । इसलिये व्यक्तिका जीवनको किस तरह मिट्टी में मिलाया जाता है यह सुधार समाजका सुधार है । जबतक व्यक्तिगत जीवन किसीसे भी छिपा नहीं है । इसका एक प्रधान कारण प्रगतिकी ओर प्रवाहित न हो तब तक समाजसुधार यद्यपि देशकी दरिद्रता अवश्य है, पर साथ ही माताकी आशा रखना कोरी विडम्बना है। अतः व्यक्ति- पिताकी अज्ञानताका भी इसमें मुख्य हाथ है; क्योंकि गत जीवन किस प्रकार सुधार की ओर अग्रसर हो हम कितने ही वैभव-सम्पन्न परिवारोंमें भी बालकोंके यह सोचने के लिये बाध्य होना ही पड़ेगा और इसके स्वास्थ्यका पतन तथा उनकी अकाल मृत्युकी घटनाएँ लिय व्यक्तिका मलजीवन अर्थात् उसका शिशुजीवन अधिक देखते रहते हैं। ऐसी हालतमें यह कहना होगा देखना होगा। कि शिशु-पोषणका वैज्ञानिक ज्ञान माता-पिताओंके आइय ! जरा शिशु-जीवनकी भी झांकी देखें। लिये परमावश्यक है । वस्तुतः शिशु ही मानव समाज हमारे देशमें शिशु प्रायः माता-पिताके मनोरञ्जनका का निर्माता है । उसकं सुधार पर सबका अथवा सारे एक साधनमात्र है और उसका पालन-पोषण भी उमी समाजका सुधार निर्भर है।। दृष्टिकोणसे किया जाता है। जबकि आज पाश्चात्य पर खेद है कि हमारे देशमें बाल-जीवनकी देशोंमें-संयुक्त राज्य अमरीका, इंगलैण्ड, रूस, समस्या पर कुछ भी ध्यान नहीं दिया जाता ! बालकों जापान, फ्रांस और जर्मनी आदिमें यह बात नहीं है। का पालन-पोपण भी समुचित और वैज्ञानिक ढंगसे वहां शिशुओंके पालन-पोषण और शिक्षण पर नहीं किया जाता। ६-७ वर्षकी आयु तक तो बालविशेष ध्यान दिया जाता है। उन देशों में शिशुओंके शिक्षणकी कोई खास व्यवस्था भी नहीं की जाती। सामाजिक जीवनमें एक महत्वपूर्ण स्थान है, वे समाज, उन्हें ६ या ७ वर्षकी अवस्थामें बाल-पाठशालाओं में के एक आवश्यक अङ्ग मान जाते हैं और उसी प्राथमिक शिक्षा-प्राप्तिके लिये भेज दिया जाता है, मान्यता के आधार पर उनके जीवन-विकासके लिये जबकि इससे पूर्वके ५-६ वर्षों में बालक माता-पिता वि . Page #109 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समाज-सुधारका मूल स्रोत [वर्ष ४ के पास रहकर कोई जीवनोपयोगी शिक्षा प्राप्त नहीं भयङ्कर उपेक्षा तथा लाड़-प्यार दोनों ही बच्चोंकी करते । उनका समय प्रायः बुरी आदतें सीखने, मृत्यु या उनकं नितान्त गन्दे जीवनके प्रमुख कारण अनुचित खेलों और माताके लाड़-प्यारमें ही बीतता होते हैं। ऐसे बालक समाजपर बोझ होनेके सिवा है। शैशव जीवनके इस अमूल्य समयमें वे समुचित- अपनी काई उपयोगिता नहीं रखतं । समाजका सुधार शिक्षणसे वञ्चित रह जाते हैं। तथा राष्ट्रका उद्धार ऐसे बालकोंसे नितान्त असम्भव है। वह तो तभी सम्भव है जब उसके नागरिक शिशु अपना चरित्र-निर्माण गर्भावस्थामें ही विद्वान्, वीर, साहसी, निःस्वार्थसेवी, सदाचारी, प्रारम्भ कर देता है, यह कोरी कल्पना नहीं किंतु ब्रह्मचारी, स्वस्थ, दयालु और मानव-मात्रस बन्धुनम सत्य है । वीर अभिमन्यु तथा शिवाजीके जीवन- भाव तथा स्नेहका व्यवहार करने वाले हों। और यह चरित्र हमें इसी ओर संकेत कर रहे हैं। इस समय स्पष्ट ही है कि उत्तम नागरिक उत्तम माता-पिता ही बालकका मन एक प्रकारसे दर्पणके समान होता है, पैदा कर सकते हैं, और ऐसे ही नागरिकोंका समुदाय उस पर जैसी लाया या संस्कार पड़ता है, वैसा ही एक समुन्नत और समुज्ज्वल समाज हो सकता है, वह देख पड़ता है । गर्भ-कालमें ही बालकके जीवनपर औरोंका नहीं। बाल-जीवनके सुधारमें ही समाजमाता पिताक विचारों, व्यवहारों व भावोंकी छाप सुधार और राष्ट्रउद्धारके बीज संनिहित है । आशा पड़ती है। पर इस देशमें तो शिशु माता-पिताके समाजके शुभचिन्तक इस दिशाम कदम बढ़ाकर मनोरञ्जनका एक साधनमात्र हैं। अतएव उनकी गष्ट्रहितका मार्ग साफ करेंगे। किसका, कैसा गर्व ? (लेखक-पं० राजेन्द्रकुमार जैन 'कुमरंश') नव-सौन्दर्य सुमन सौरभ-सा किसका, कैसा गर्व ? अरे ! पा जीवन मतवाला। जब जीवन ही सपना है ! इठलाता-सा झूम रहा है, सर्वनाश के इस निवास मेंपी यौवन की हाला!! कौन, कहाँ, अपना है !! वैभवका यह नशा, रूप जुड़ा रहेगा मदा नहींकी, यह कैसी नादानी ! यह दीवानों का मेला! हाय ! भूल क्यों रहा, मौत एक एक का नाश करेगा की करूणाजनक कहानी !! सहसा काल अवला!! तनिक देख! उस नील गगनमें देखेगा वह नहीं कौन हैतारों का मुम्काना! गोरा अथवा काला! दिनमें या घनघोर घटामें धू धू करके धधक उठेगीचपके से छिप जाना !! अरे ! चिता की ज्वाला ।। लता-गोदमें झूल, तनिक यह तेरा अभिमान करेगापाकर पराग इतगया ! उस की ही अगवानी ! कल जो खिला आज वह ही समय रेन पर उतर गया हैहै रो रो कर मुरझाया !! बड़ों बड़ों का पानी !! Page #110 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ऐतिहासिक जैनसम्राट् चन्द्रगुप्त (लेखक-न्यायतीर्थ पं० ईश्वरलाल जैन स्नातक) भगवान् महावीरके निर्वाण-पश्चात् भारतको अपनी वीर मैदानमें आया और उसे एक शक्तिशाली राष्ट्र उन्नत अवस्थासे पतित करने वाला एक क्षयरोग निर्माण करनेमें सफलता प्राप्त हुई। वह ऐतिहासिक अपना विस्तार करने लगा-भारत देश अनेक छोटे वीर था सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य । बड़े राज्योंमें विभक्त होगया। छोटेसे छोटा राज्य भी अपनेको सर्वोच्च समझकर अभिमानमें लिप्त एवं इतिहासलेखकोंने चन्द्रगुप्तके विषयमें एक मत सन्तुष्ट था। वे छोटे बड़े राज्य एक दसरेको हडपजाने होकर यह लिखा है कि भारतीय इतिहासमें यही सर्वकी इच्छा से परस्पर ईर्ष्या और द्वेषकी अग्नि जलाते, प्रथम सम्राट है, जिसने व्यवस्थित और शक्तिशाली फूटके बीज बोते, लड़ते झगड़ते और रह जाते। ही राष्ट्र कायम ही नहीं किया, बल्कि उसका धीरता, सैन्यबल और शक्ति तो परिमित थी ही, परन्तु उन्हें वीरता, न्याय और नीतिसे प्रजाको रंजित करते हुए संगठित होनेकी आवश्यकता प्रतीत न हुई । यदि एक व्यवस्थापूर्वक संचालन किया है । यह सर्वप्रथम ऐतिहासिक एवं अमर सम्राट चन्द्रगुप्त मौर्य जैनधर्माभी शक्ति शाली राष्ट्र उस समय उनपर आक्रमण करता तो सबको ही आसानीसे हड़प कर सकता था। वलम्बी ही था, इस पर प्रकाश डालनेसे पूर्व उसकी संक्षिप्त जीवनीका दिग्दर्शन करा देना अनुचित न कोशल आदि राज्योंने यद्यपि अपनी कुछ उन्नतिकी होगा। थी, परन्तु वे भी कोई विशाल गष्ट्र न बना सके। इस अवसरसे लाभ उठानेके लिये सिकन्दरने अनेक ऐतिहासिकोंका मन्तव्य है कि चन्द्रगुप्त, राजा ईस्वी सन् ३२७ पूर्व, भारत पर आक्रमण किया और नन्दके मयूर पालकोंके सरदारकी 'मुरा' नामक लड़की वह छोटे बड़े अनेक राजाओंसे लड़ता झगड़ता का पुत्र था, इस 'मुरा' शब्दसे 'मौर्य' प्रसिद्ध हुआ। पंजाब तक ही पहुंच पाया था कि छोटे-छोटे राजाओं उसी समयकी बात है-अर्थात् ३४७ ई. सन् ने भी उससे डटकर मुकाबला किया, इसी कारण पूर्व गजा नन्दसे अपमानित होने के कारण नीति मार्गके कई अनुभवोंने उसे हताश कर दिया। आगे निपुण 'चाणक्य' उसके समूल नाश करनेकी प्रतिज्ञा न मालूम कितनोंसे युद्ध करना पड़ेगा, इस घबराहट करके जब पाटलीपुत्रको छोड़कर जा रहा था तो मार्ग के कारण वह पंजाबसे ही वापस चला गया। में मयूरपालकोंके सरदारकी गर्मवती लड़की 'मुरा' भारतीय राजाओंकी आंखें खोलने और उन्हें शिक्षा के चन्द्रपानके दोहलेको चाणक्यने इस शर्त पर पूर्ण देनेके लिये इतनी ही ठोकर पर्याप्त थी, उन्हें अपनी किया, कि उससे होने वाला बालक मुझे दे छिन्न भिन्न अवस्था खटकने लगी और अन्तमें एक दिया जाय। ३४७ ई० सन् पूर्व बालकका जन्म Page #111 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनेकान्त [ वर्ष ४ हुआ है । गर्भके समय चन्द्रपानकी इच्छा हुई थी, चन्द्रगुप्तने अपनी प्रबल और संगठित शक्तिसे इस लिये उसका नाम 'चन्द्रगुप्त' रखा गया। वह आक्रमण किया और सब प्रान्त अपने आधीन कर होनहार बालक दूजके चौदकी तरह दिन-प्रति-दिन लिये, एवं अन्तमें चाणक्यकी नीतिसे राजा 'नन्द' पर बढ़ता हुआ कुमार अवस्थाको प्राप्त हुआ। विजय प्राप्त करनेमें चन्द्रगुप्त का सफलता प्राप्त हुई। इस प्रकार नन्दके मगधदेश पर अधिकार करके 'होनहार बिरवानके होत चीकने पात' की चन्द्रगुप्त मगधपति होगया। 'परिशिष्टपर्व' में लिखा कहावतके अनुसार कहा जाता है कि चन्द्रगुप्त बचपन है कि चंद्रगुप्तकी विजयके अनन्तर नन्दकी युवती में ही राजाओं जैसे कार्य करता था। कभी साथियों कन्याकी दृष्टि चन्द्रगुप्त पर पड़ी और वह उस पर से कोई खेल खेलता तो ऐसा ही, जिसमें स्वयं गजा आसक्त होगई और नन्दने भी प्रसन्नतापूर्वक चन्द्रगुप्त बनकर साथियोंको अपनी प्रजा बनाकर आज्ञा करता, के पास चले जानकी अनुमति दे दी । प्राचीन न्याय करता और दण्ड देता । चन्द्रगुप्त लगभग आठ भारतवर्ष (गुजराती) में डा० त्रिभुवनदास लहेरचंद वर्षका हुआ तब चाणक्यकी दृष्टि उस बालक पर शाहने भी इस घटना पर अपने विचार प्रदर्शित करते पड़ी और अपने पूर्व वघनके अनुसार चन्द्रगुप्तको हुए लिखा है कि जो इतिहास चन्द्रगुप्तको नन्दका असली राज्यका लोभ देकर साथ लिया और उसे पत्र लिखते हैं, उनकी यह बड़ी भूल है, चन्द्रगुप्त राजाओंके योग्य उचित विद्याभ्यास कराया और नन्दका पुत्र नहीं प्रत्युत दामाद था। नन्दके समूल नाशकी तैयारी प्रारम्भ कर दी। प्रारम्भमें तो चन्द्रगुप्तने चाणक्यकी नीति और इस प्रकार सम्राट चन्द्रगुप्तकी वीरतास मौर्य सत्ताकी स्थापना हुई । लाला लाजपतरायजीक अपने बलम कुछ भूमि अधिकार में कर छोटासा शब्दोंमें-"भारतके गजनैतिक रंगमञ्चपर एक ऐसा गज्य बना लिया और फिर अपनी शक्तिका संगठित प्रतिष्ठित नाम आता है जो संसारक सम्राटोंकी प्रथम करना प्रारम्भ किया। श्रेणोमें लिखने योग्य है, जिसने अपनी वीरता, भारतसे वापस चले जाने पर विश्वविजयी सिक- योग्यता और व्यवस्थासे समस्त उत्तरीय भारतको न्दरका बेबिलोनमें ई० सन् ३२३ पूर्व देहान्त होगया। विजय करके एक विशाल केन्द्रीय राज्यके श्राधीन पश्चिमोत्तर प्रान्त तथा पंजाबमें यूनानी राज्य कायम किया।" * रखने के लिये जिनको सिकन्दर छोड़ गया था, उनपर संल्यकस द्वारा भेजे गये गजदृत मेमाम्थनीज़ने * चन्द्रगुम के जन्म समयके सम्बन्धमें कुछ मतभेद प्रतीत चन्द्रगुप्तके राज्य पर महत्वपूर्ण प्रकाश डाला है, होता है—प्राचीन भारतवर्ष (गुज.) के लेखक डा. उसके वर्णनसे यह बात स्पष्ट झलकती है कि वीर त्रिभुवनदास लहेरचन्द शाह, चन्द्रगुप्तका जन्म वीर चड़ामणि चन्द्रगुप्तने न्याय, शान्ति और व्यवस्थानिर्वाण सं० १५५ तथा ईस्वी सन् ३७२ वर्ष पूर्व पर्वक शासन करते हुए प्रजाको सर्व प्रकारेण मुखी लिखते हैं। प्रसिद्ध ऐतिहासिक ग्रन्थ 'परिशिष्टपर्व' से .. भी इसीकी पुष्टि होती है। * भारतवर्षका इतिहास-लाला लाजपतराय पदक Page #112 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] ऐतिहासिक जैनसम्राट चन्द्रगुप्त १०३ एवं सन्तुष्ट किया। अपने साम्राज्यको अलग अलग हैं कि वह शूनाका पुत्र नहीं था। प्राम्तोंमें विभाजित किया । वहाँपर नगरशासक हाँ, धर्मकी आइमें चन्द्रगुप्तको शूद्राका पुत्र मण्डल-म्युनिस्पलिटियाँ और जनपद-डिस्ट्रिक्टबोर्ड कहनेका साहस किया गया हो, ऐसा प्रतीत होता है भी कायम किये। सेनाकी सर्वोत्तम व्यवस्था की, क्योंकि चन्द्रगुप्त जैन था, ब्राह्मणोंको जैन धर्मसे दूसरे देशोंसे सम्बन्धके लिये सड़कोंका निर्माण द्वेष था, वह इसकी समुन्नति सहन नहीं कर सकते कराया, शिक्षाके लिये विश्वविद्यालय, उपचारके लिये थे। चन्द्रगुप्तमे कन्धार, अबिस्तान, ग्रीस, मिश्र चिकित्सालय श्रादिका प्रबन्ध किया। डाककी भी आदिमें जैनधर्मका प्रचार किया, इस लिये ब्राह्मणोंको उचित व्यवस्था की । चन्द्रगुप्तके राज्यमें बाल, वृद्ध, जैन प्रचारकको शूद्र कहना कोई अनहोनी बात न व्याधिपीड़ित, आपत्तिग्रस्त व्यक्तियोंका पालन-पोषण थी। तत्कालीन ब्राह्मणोंने कलिङ्ग देशके निवासियोंको राज्यकी आरसे होता था। इस प्रकार प्रजाको संतुष्ट 'वेदधर्म-विनाशक' तो कहा ही है, साथ ही उस रखने के लिये चन्द्रगुप्तने कोई कमी नहीं रक्खी थी। प्रदेशको अनार्यभूमि भी कहकर हृदयको सन्तुष्ट और इस प्रषार उसका राष्ट्र सबसे अधिक शक्तिशाली किया है । उनकी कृपासे चन्द्रगुप्तको शूद्रका पुत्र कहा राष्ट्र था। जाना आश्चर्योत्पादक नहीं। सम्राट चन्दगुप्तके विषयमें इतिहासलेग्वक 'गजा नन्द' के विषयमें भी ऐसा ही विवाद कुछ भ्रमपूर्ण विचार रखते हैं। कोई लिखते हैं कि उपस्थित होता है। कई इतिहासज्ञोंने उसे नीच चन्द्रगुप्त शूद्राका लड़का था। गयसाहब पं० रघवर जातिका लिख डाला है, परन्तु कुछ इतिहासज्ञ अब प्रसादजीने अपने 'भात इतिहास' में चन्द्रगुप्तको इस निर्णयपर पहुँच गये हैं कि वह जैन था । मुनि 'मुग' नामक नाइनका लड़का लिख डाला है और ज्ञानसुन्दरजी महाराजने 'जैनजातिमहोदय' में सिद्ध डाक्टर हपग्ने तो चन्द्रगुप्त और चाणक्यको ईरानी किया है कि नन्दवंशी सभी गजा जैन थे। लिखनेकी भी भारी भल की है.जिसे इतिहास Smith's Early History of India विद्वान् प्रामाणिक नहीं मानते । प्रो. वेदव्यासजी Page 114 में और डाक्टर शेषागिरिराव ए० ए० अपने प्राचीन भारत' में लिखते हैं कि विश्वसनीय आदिने मगधके नन्द राजाओंको जैन लिखा है, क्यों साक्षियोंके आधार पर यह सिद्ध होगया है कि चन्द- कि जैनधर्मी होने के कारण वे आदीश्वर भगवानकी गुप्त एक क्षत्रिय कुलका कुमार था । बौद्धमाहित्यके मूर्तिको कलिङ्गसे अपनी राजधानी मगधमें ले गये । सुप्रसिद्ध ग्रंथ 'महावंश' के अनुसार चन्द्रगुप्तका जन्म देखिये South India Jainism Vol II मोग्यिजातिमें हुआ था । श्रीसत्यकंतु विद्यालङ्कारने Page 82 । इससे प्रतीत होता है कि पूजन और भी अपने 'मौर्य साम्राज्यका इतिहास' में इस सम्मति दर्शनके लिये ही जैन मूर्ति ले जाकर मंदिर बनवाते को महत्व दिया है। 'गजपुनाना गजेटियर, में मोरी होंगे। महाराजा खारवेलके शिलालेखसे स्पष्ट प्रकट वंश' को एक राजपूत वंश गिना है। अस्तु; जो हो, होता है, कि नन्दवंशीय नृप जैन थे। अधिकांश इतिहासलेखक इस निर्णय पर पहुँच गये सम्राट चन्द्रगुप्तके विषयमें भी इतिहासज्ञोंने कुछ Page #113 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०४ भनेकान्त [वर्ष ४ समय तक उसे जैन स्वीकृत नहीं किया। परन्तु खोज स्मिथ अपनी OXFORD History of India करनेपर ऐसे प्रबल ऐतिहासिक प्रमाण मिले जिससे मे लिखते हैं कि चन्द्रगुप्त जैन था, इस मान्यताके उन्हें अब निर्विवाद चन्द्रगुप्तको जैन स्वीकृत करना असत्य समझने के लिये उपयुक्त कारण नहीं हैं। पड़ा। परन्तु श्री सत्यकेतुजी विद्यालङ्कारने 'मौर्य- मैगस्थनीज़ (जो चन्द्रगुप्तकी सभामें विदेशी साम्राज्यका इकिहास'में चन्द्रगुप्तको यह सिद्ध करनेका दूत था) के कथनोंसे भी यह बात झलकती है कि असफल प्रयत्न किया है कि वह जैन नहीं था। चन्द्रगुप्त ब्राह्मणोंके सिद्धान्तोंके विपक्षमें श्रमणों परन्तु चन्द्रगुप्तकी जैन मुनियों के प्रति श्रद्धा, जैन- (जैन मुनियों) के धर्मोपदेशको स्वीकार करता था। मन्दिरोंकी सेवा एवं वैराग्यमें गजित हो गज्यका मि० ई० थामसका कहना है कि चन्द्रगुप्त के जैन त्यागदेना और अन्तमें अनशनव्रत ग्रहण कर होनेमें शंकोपशंका करना व्यर्थ है; क्योंकि इस बातका समाधिमरण प्राप्त करना उसके जैन होनेके प्रबल साक्ष्य कई प्राचीन प्रमाणपत्रोंमें मिलता है, प्रमाण हैं। और वे शिलालेख निम्संशय अत्यन्त प्राचीन है। विक्रमीय दूमरी तीसरी शताब्दीके जैन प्रन्थ मि० जार्ज० सी० एम० वर्डवुड लिखते हैं कि और सातवीं आठवीं शताब्दीके शिलालेग्व चन्द्रगुप्तको चन्द्रगुप्त और बिन्दुसार ये दोनों जैनधर्मावलम्बी जैन प्रमाणित करते हैं। थे। चंद्रगुप्तकं पौत्र अशोकने जैनधर्मको छोड़कर रायबहादर डॉ. नरसिंहाचार्यने अपनी 'श्रवण- बौद्धधर्म स्वीकार किया था। एनसाइक्लोपीडिया बेलगोल' नामक इंग्लिश पुस्तकमें चन्द्रगुप्तके जैनी आफ रिलीजन' में लिखा है कि ई० स० २९७ पूर्वमें होनेके विशद प्रमाण दिये हैं। डाक्टर हतिलने संसारसे विरक्त होकर चंद्रगुप्तने मैसूर प्रांतस्थ Indian Antiquary XXI 59-60 में तथा श्रवणबेलगोलमें बारह वर्ष तक जैनदीक्षासे दीक्षित डाक्टर टामस साहबने अपनी पुस्तक Jainism होकर तपस्या की, और अन्तमें वे तप करते हुए the Early Faith of Asoka Page 23. स्वर्गधामका सिधारे। में लिखा है कि चन्द्रगुप्त जैन समाजका एक योग्य मि० बी० लुइसराइस साहब कहते हैं कि चंद्रव्यक्ति था। डाक्टर टामसगवने एक और जगह गुप्तके जैन होनेमें संदेह नहीं। श्रीयुत काशीप्रसादजी यहांतक सिद्ध किया है कि-चन्द्रगुप्तके पुत्र और जायसवाल महोदय समस्त उपलब्ध साधनोंपरसे पौत्र बिन्दुमार और अशोक भी जैन धर्मावलम्बी हीथे। अपना मत स्थिर करके लिग्वते हैं-"ईसाकी पांचवीं इस बातको पुष्ट करनेके लिये जगह जगह मुद्राराक्षस, शताब्दी तक प्राचीन जैन प्रन्थ व पीछेके शिलालेख राजतरंगिणी और आइना-ए-अकबरीके प्रमाण चंद्रगुप्तको जैन राजमुनि प्रमाणित करते हैं, मेरे दिये हैं। अध्ययनोंने मुझे जैन ग्रंथोंके ऐतिहासिक वृतान्तोंका हिन्दू इतिहास, के सम्बन्धमें श्री बी० ए० स्मिथका आदर करने के लिये बाध्य किया है। कोई कारण निर्णय प्रामाणिक माना जाता है। उन्होंने भी सम्राट नहीं है कि हम जैनियोंके इस कथनको- कि चंद्रगुप्त चन्द्रगुप्तको जैन ही स्वीकृत किया है । डाक्टर अपने राज्यके अन्तिम भागमें जिनदीक्षा लेकर Page #114 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] ऐतिहासिक जनसम्राट चन्द्रगुप्त १०५ मरणको प्राप्त हुना-न मानें । मैं पहिला ही व्यक्ति अनेक स्तूपोंमेंसे,जो आज भी विद्यमान हैं, सबसे बड़े यह माननेवाला नहीं हूं, मि० राइसने मी जिन्होंने स्तूपके घुमटके चारों ओर गोलाकार दीपक रखनेके 'श्रवणबेलगोलके शिलालेखोंका अध्ययन किया है, लिये जो रचना हुई है उसके निर्वाहके लिये पूर्णरूपसे अपनी राय इसी पक्षमें दी है और मि० लगभग २५ हजार दीनारका (२॥ लाख रु०का) वार्षिक वी० स्मिथ भी अंतमें इस ओर मुके हैं।" दान दिया था, यह बात सर कनिंगहाम जैसे तटस्थ और सांचीस्तूपके सम्बन्धमें इतिहासकारोंका मत है प्रामाणिक विद्वान्ने 'भिल्सास्तूप' नामक पुस्तकमें कि यह अशोक द्वारा निर्माण हुआ है और इसका प्रकट की है। यह घटना सिद्ध करती है कि उस सम्बन्ध बौद्धोस है, परन्तु प्राचीन भारतवर्ष (गजल) स्तूपका तथा अन्य स्तूपोंका चन्द्रगुप्त और उसके में डा० त्रिभुवनदास लहेरचन्द शाहने उसपर नवीन । - जैनधर्मसे ही गाढ सम्बन्ध था अथवा होना चाहिये, प्रकाश डाला है। उनका कहना है कि सांचीस्तपका यह निर्विवाद कह सकते हैं। सम्बन्ध जैनधर्म और चन्द्रगुप्त से है है । वे कहते हैं सम्राट् चन्द्रगुप्तने २४ वर्ष तक राज्यशासन कि मौर्य-सत्ताकी स्थापनाके बाद सम्राट चन्द्रगुप्तने चलाया और ई० स० २९७ पूर्व ५० वर्षकी आयुमें मांचीपुरमें राजमहल बनवाकर वर्षमे कुछ समयके नश्वर शरीरका त्याग किया। जैन मान्यतानुसार लिये रहना निश्चय किया था। बारह वर्ष का भयङ्कर दुर्भिक्ष पड़नेपर चन्द्रगुप्त राज्य चन्द्रगुप्तने राजत्यागकर दीक्षा लेनेसे पूर्व वहाँके त्यागकर आचार्य श्री भद्रबाहुजीका शिष्य बन मैसूर * अधिकाँश इतिहासज्ञ विद्वान अभी इस बातको की ओर गया और श्रवणबेलगोलमें उसने तपस्या एवं स्वीकार नहीं करते क्योकि इस निर्णयको स्वीकार करनेके अनशन व्रत दारा समाधिमरण प्राप्त किया। लिये अधिक प्रबल प्रमाणांकी आवश्यकता है। "यह संसार काम करनेके लिये है, काम करी। हैं, मक्तिका आनन्द उन्हींको मिलता है।" कायर लोग दूसरोंके कष्ट भूलकर केवल अपने ही "उच्च आदर्शका सुग्व वही कहा जा सकता है कष्टसे व्याकुल रहते हैं।" जो क्षणिक या अन्यका अनिष्ट करनेवाला न हो, "मुसीबतोंका अनुभव करना ही मनुष्यका प्रकृत आर उच्च आदशका भाग्य वस्तु वहा कहा जा सकता स्वभाव नहीं है, किन्त कर्तव्य यह है कि योद्धाओंकी है, जो उस उच्च श्रादर्शके सुखका कारण हो और तरह दुःखका सामना करी, दुःखको चेलेंज दो।" जिसे प्राप्त करनेमें पगई प्रत्याशा या अन्यका अनिष्ट "अपनी इच्छास दःख-दरिद्रता स्वीकार करने में. न करना पड़े।" अभिमान और आनन्द होता है।" ___ "यह एक बिलकुल सीधी और सच बात है कि सुख मनसे सम्बन्ध रखता है, आयोजन या "जो मृत्युकी उपेक्षा करते हैं, पृथ्वीका सारा आडम्बरसे नहीं।" सुख उन्हींका है। जो जीवनकंसुखको तुच्छ समझते -विचारपुष्पोद्यान Page #115 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य ___ [मूल लेखक-प्रो० ए० चक्रवर्ती एम० ए० आई० ई० एस०] (अनुवादक-सुमेरचन्द जैन दिवाकर, न्यायतीर्थ, शास्त्री, वी० ए० एल एल० बी० ) [१२ वी किरणसे आगे] चेरके राजकुमारकी प्रशंसा उसके मादलन् नामक जीवकचिन्तामणि-यह ग्रंथ, जो कि पंचमहाकाव्यों ब्राह्मण मित्रने मंदिरोंको पूजामें 'पोप्पली' नामक में सबसे बड़ा है, निःसन्देह विद्यमान तामिल साहिविशेष पवित्र विधिको दाखिल करने वालेके रूपमें त्यमें सर्वोत्कृष्ट है । यह कल्पनाकी महत्ता, साहित्यिक की है। प्रसंगवश हम एक और मनोरंजक बानका शैलीकी सुन्दरता एवं प्रकृति के सौंदर्य वर्णनमें तामिल उल्लेख करते हैं। आदि तामिलसाहित्यमें 'अंडणन्' साहित्यमें बेजोड़ है। पिछले तामिल ग्रंथकारोंके लिये और 'पाप्र्पान्' ये दो शब्द पाए जाते हैं, इनमेंसे यह केवल एक अनुकरणीय उदाहरण ही नहीं रहा प्रत्येकके पीछे एक कथा है। साधारणतया इन दोनों है, किन्तु एक स्पृहणीय आदर्श भी रहा है । महान् शब्दोंको पर्यायवाची समझा जाता है । कुछ स्थलोंपर तामिल 'गमायण' के रचयिता 'करबन्' के विषयमें इनका प्रयोग पर्यायवाचीकी भाँति हुआ है। जब यह कहा जाता है कि जब उसने अपनी 'रामायण' एक ही ग्रंथमें ये दोनों शब्द कुछ भिन्न भावोंमें ग्रहण को विद्वानोंकी परिषद में पेश किया, और जब कुछ किए गए हैं, तब उनको भिन्न ही समझना चाहिये । विद्वानोंने कहा कि उसमें 'चिन्तामणि' के चिन्ह पाय 'चरणभूषण' नामक प्रस्तुत महाकाव्यमें 'अंडणन्' जाते हैं तब बौद्धिक साहस एवं सत्य के धारक कम्वन् शब्दका अर्थ टीकाकारने श्रावक अर्थका वाचक जैन ने इन शब्दों में अपना आभार व्यक्त किया :गृहस्थ किया है । यह सूचना बड़ी मनोरंजक है । ये "हां, मैंने चिन्तामणि' से एक घुट अमृतका दोनों शब्द प्रख्यात कुरल काव्यमें भी आए हैं जहां पान किया है। इससे यह बात सूचित होती है कि 'पार्पान' का अर्थ वेदाध्ययन करने वाला व्यक्ति तामिल विद्वानोंमें उस महान् ग्रंथका कितना सम्मान किया गया है, और 'अंडणन्' का दूसरे अर्थमें था । यह अतीव अद्भुत महाकाव्य, जो कि तामिल प्रयोग हुआ है। उसका भाव है ऐसा व्यक्ति जो भाषाका 'इलियड' तथा 'ओडेस्सी' है, तिरुतक्य देव प्रेमपूर्ण हो और जीवमात्रके प्रति करुणावान् हो। नामक कविकं यौवनकालकं प्रारंभमें रचा गया कहा यह स्पष्ट है कि आदि तामिल ग्रंथकारोंने 'अंडणन्' जाता है । ग्रंथकार के सम्बंधमें उसके नाम और इस शब्दका व्यवहार जन्मकी अपेक्षा न करते हुए बात के सिवाय कि उसका जन्म मद्रासप्रांत के उपअहिंसाके आराधकोंके लिये किया है। 'पापा' नगर 'म्यलपुर' नामक स्थानमें हुआ था, जहाँ कि शब्द ब्राह्मण जातिको द्योतित करने के लिये निश्चित कुरलके रचयिता भी रहते थे, और कुछ भी ज्ञात किया गया था। आदि तामिलोंके सामाजिक पुन- नहीं है । तरुण कविने अपने गुरुके साथ मदुराको गठनके विषयमें रुचि रखने वाले विद्वानोंकी खोजके प्रस्थान किया था, जो पांडय राज्यकी बड़ी राजधानी लिये यह सूचना उपयोगी है। एवं धार्मिक कार्योंका केन्द्रस्थल था। अपने गुरु Page #116 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तामिल भाषाका जैनसाहित्य की आज्ञानुसार तरुण साधु कविने मदुराकी तामिल इसके अनंतर उनके शिष्य तिरुतक्कदेवने सिद्धों की विद्वत्परिषद् अथवा संगमके सदस्योंसे परिचय प्राप्त स्तुतिमें दूसरा पद्य बनाया, जिसे गुरुजीने अपने किया । उस परिषद्के कतिपय सदस्योंने सामाजिक लोकसे भी सुंदर स्वीकार किया और उसे प्रथम चर्चाके समय उसे तामिल भाषामें शृङ्गाररसके ग्रंथ पद्यके रूपमें रखनेको कहा, और गुरुद्वारा रचित की रचना करनेकी अयोग्यताके लिये दोष दिया । पद्यने दूसरा स्थान प्राप्त किया। इस प्रकार सिद्ध इसके उत्तरमें कविने कहा कि शृङ्गारसकी कविता नमस्कारको लिये हुए 'भूवामुदला' शब्दस प्रारंभ करनेका प्रयत्न कुछ थोड़ेस ही जैनी करते हैं। अन्य होनेवाला पद्य जीवकचिन्तामणिमे प्रथम पद्य है लागोंके समान वे भी शृंगाररसकी बहुत अच्छी और बहन नमस्कारवाला गरुजी रचित पद्य, जो कविता कर सकते हैं, किंतु ऐसा न करनेका कारण 'शेपोणवरेमेल' शब्दसे प्रारंभ होता है, प्रथमें दूसरे यह है, कि ऐसे इंद्रियपाषक विषयोंके प्रति उनके नंबर पर है। इस तरह मदुरा-मंगमके एक मित्र अन्तःकरणमें अरुचि है, न कि साहित्यिक अया- कविकी चुनौतीके फलस्वरूप तिरुतक्कदेवने 'जीवकग्यता । किंतु जब उसके मित्रोंने ताना देते हुए पूछा चिंतामणि' की रचना यह सिद्ध करनेको की, कि कि क्या वह एकाध ऐसा ग्रंथ बना सकता है, तब एक जैनग्रंथकार श्रृंगाररसमें भी काव्य रचना कर उसने उस चुनौतीको म्वीकार कर लिया। आश्रममें सकता है। इसे सभीने स्वीकर किया कि कविने लौट कर उसने सब बातें गुरुके समक्ष निवेदन की। आश्चर्यप्रद सफलता प्राप्त की। वह रचना जब जब वह और उसके गुरु बैठे थे, तब उनके सामनेसे विद्वत्परिषद्कं समक्ष उपस्थित की गई, तब कहते हैं एक शृगाल दौड़ा हुआ गया । गुरुन उस ओर कि कविसे उसके मित्रोंने पूछा कि, तुमतो अपने शिष्यका ध्यान आकर्षित करते हुए उसे शृगालके बाल्यकालसं पवित्रता एवं ब्रह्मचर्यके धारक थे, तब विपयमे कुछ पद्य बनानेको कहा। तत्काल ही शिष्य ऐसी रचना कैस की, जिसमें वैषयिक सुखोंके साथ निम्नका देवनं शृगालके सम्बन्धमें पद्य बना डाले, असाधारण परिचय प्रदर्शित होता है। कहते हैं इस इससे उस रचनाको 'नरिविरुत्तम्' कहते हैं; उसमें संदेहके निवारणार्थ उसने एक लोहेका गर्म लाल शरीरकी अस्थिरता, संपत्तिकी नश्वरता और ऐसे ही गोला लिया और यह शब्द कहे “यदि मैं अशुद्ध हूं अन्य विषयोंका वर्णन किया गया था। अपने शिष्य तो यह मुझे भम्म करदे" किन्तु कहते हैं कि उस की असाधारण कवित्वशक्तिको देखकर गुरुजी प्रसन्न परीक्षामें वह निर्दोष उत्तीर्ण हुआ और उसके मित्रोंने हुए और उन्होंने उसे जीवकके चरित्रका वर्णन करने उसके आचरणकी पवित्रताके विषयमें संदेह करने के वाले एक श्रेष्ठ ग्रंथके रचनेकी आज्ञा प्रदान की। लिये उससे क्षमा मांगी। इस चरित्रमें प्रेम तथा सौंदर्यके विविध रूपोंका समा- जिस प्रकार पूर्वके ग्रंथ 'शिलप्पदिकारम्' में वेश है। अपनी सम्मति सूचित करनेके लिये गुरुजी ग्रंथकारके जीवनकालमें होने वाली ऐतिहासिक ने अपने शिष्यके भावी ग्रंथमें प्रथम पथके तौरपर घटनाओंका वर्णन किया गया है उस प्रकार इस रक्खे जानेके लिये एक मंगलपद्यका निर्माण किया। प्रथमें नहीं किया गया है, बल्कि इसमें जीवककी Page #117 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०८ अनेकान्त [वर्ष ४ पौराणिक कथाका वर्णन है। जीवककी कथा संस्कृत महाराज सच्चंदन थे। उन्होंने अपने मामा 'श्री साहित्यम बहुलतास पाई जाती है । जिनसनके दत्तन्' की कन्यास, जिसे 'विजया' कहते थे, विवाह महापुराणका जो उत्तर भाग है और जिसे उनके शिष्य किया था। यह 'श्रीदत्तन' विदेह देशपर शासन करता गुणभद्रने बनाया था, उसके एक अध्यायमें जीवक था । राजा सच्चंदनका अपनी अतीव रूपवती की कथा वर्णित है । यह कथा बादको श्रीपुराणमें भी महारानी पर महान अनुराग था, इससे वह राज्य पाई जाती है, जो कि मणिप्रवाल रीतिमें लिखा कार्यों की उपेक्षा करके अपना साग समय प्रायः हुश्रा एक गद्य ग्रंथ है और पायः इस महापुराणका अंतःपुरमें ही व्यतीत करता था। उसने अपने एक अनुवाद है । क्षत्रचूड़ामणि, गद्यचिंतामणि और मंत्री 'कत्तियंगारन्' के ऊपर गज्यशासनका भार जीवंधरचम्पूमें भी यही कथा वर्णित है। इस विषयमें छोड़ रखा था। जब एकबार इस 'कत्तियंगाग्न्' हम निश्चयके साथ कुछ भी नहीं कह सकते हैं कि ने राजत्वकी प्रभुता और अधिकारका रसास्वाद किया, तब उसकी इच्छा उसका इस तामिल ग्रंथकर्ताको अपने ग्रंथकी रचनाके लिये हड़पनेकी होगई । गजाने अपने उस मंत्रीकी कुटिल इन संस्कृतग्रंथों में से कोई ग्रंथ श्राधारस्वरूप रहा नीतिको कुछ अधिक देग्में समझा, जिसको उसने है या कि नहीं। मूर्खतावश गज्यका अधिकार दे रखा था। इसी बीच इन सब संस्कृत ग्रंथोंमें महापुगण निःसंदेह सबसे प्राचीन है और यह निश्चित है कि यह महा में महारानीने तीन अधिक असुहावन दुःस्वप्न देखे । जब उसने राजास उनका फल पूछा, तब उसने उसे पुराण ईसाकी ८ वी सदीकी रचना है, क्योंकि यह राष्ट्रकूट वंशीय अमोघवर्षके धर्मगुरु जिनसेनाचार्यके यह कह कर सांत्वना दी, कि तुम स्वप्नोंक विषयमें चिंता मत करो। कहते हैं कि उसने अपने कृतघ्न द्वारा रचा गया था। किंतु जिनसेन स्वयं पहलेके अनेक प्रथोंका उल्लेख करते हैं, जिनके आधारपर मंत्रीके द्वारा उत्पातकी आशंकास मयूरकी प्राकृतिका उन्होंने अपना ग्रंथ बनाया है। कुछ भी हो, इस एक विमान, जो आजकलकं वायुयानकं समान था, बनवाया । यह मयूरयंत्र राजप्रासादमें गुप्तरूपस बातपर विद्वान् लोग आमतौरपर सहमत हैं कि यह तामिल नथ 'जीवकचिंतामणि' ईसाकी प्रायः ८ वीं बनवाया गया था, उममें दो व्यक्ति श्राकाशमें जा सकते थे। उसने अपनी महारानीको भी यह यंत्र शताब्दीके बादकी कृति है। फिलहाल हम इस चलाना सिखा दिया था। जब महागनीका गर्भ प्रसव निर्णयको स्वीकार करते हैं। इस थमें ३० इलम्बक के निकट हुआ, तब कृतघ्न कत्तियंगाग्नने राज्यको या अध्याय है। पहलेमें कथानायकका जन्म एवं हड़प लेनेकी अपनी कामनाको पूर्ण करनेका प्रयत्न शिक्षण वर्णित है और अंतिम अध्याय उनके किया और इस तरह गजप्रासादका घेर लिया । चूंकि निर्वाणके वर्णनके साथ समाप्त होता है। उस मयूग्यंत्र में केवल दो व्यक्तियोंका ही वजन खींचा जा सकता था और चूंकि रानीका गर्भ प्रसवके निकट नामगलइलम्बगम्-इस कथा का प्रारम्भ भरत था, इसलिये राजाने यंत्रको महागनीके अधिकारमें खण्ड के हेमांगद देशके वर्णनसे होता है । गजमापुग्म सौंप देना उचित समझा और स्वयं वहाँ रह गया। हेमांगद देशकी राजधानी थी। इसके राजा कुरुवंशीय जब यंत्र रानीको लेकर उड़ा, तब राजा नंगी तलवार Page #118 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तामिल भाषाका जैनसाहित्य हाथमें लेकर आक्रमणकारीका मुकाबला करनेके लिये पहुँची और वहाँ रानीने एक साध्वीका वेष धारण कर निकल पड़ा । इस युद्धमें लड़ते हुए राजाका प्राणान्त तापस-आश्रममें निवास किया। अपने अनेक बन्धुओं होगया और दुष्ट कत्तियंगारन् ने अपनेको गजमापुरम् के साथ जीवकका सेठके गृहमें संवर्धन हुआ। उस का शासक घोषित कर दिया । अभी महागनी नगर बालकको आचार्य श्रवणंदि'ने युवककी तरह शिक्षित के बाहर पहुँची ही थी, कि उसने यह राज्यघोषणा किया। सउने धनुर्विथा एवं राजकुमारके योग्य अन्य सुनी कि उसके पनिदेव (गजा) की मृत्यु होगई, इस कलाओंका भी परिझान किया । अपने शिष्यकी से वह त्रयंका नियंत्रण करने में असमर्थ होगई, योग्यतासे आकर्षित होकर गुरुमहाराजने एक दिन जिससे वह यंत्र नीचे उतरा और इस नगर के बाहर उसके समक्ष उसके राज्य परिवारकी करुण-कथा श्मशान भूमिमें आ ठहरा । उस करुण वातावरण सुनाई और युवक राजकुमारसे यह वचन ले लिया एवं अंधेरी रात्रिमें महागनी ने एक पुत्रको जन्म कि वह एक वर्ष पर्यन्त अपनी राज्यप्राप्ति एवं प्रतिदिया । महारानीकी सहायता करने वाला उस समय शोधके लिये दौड़ धूप नहीं करेगा। इस प्रकारका कोई नहीं था, और वह असहाय शिशु उस श्मशान वचन प्राप्त करके प्राचार्यने राजकुमारको आशीर्वाद की निविड़ निशामें आक्रन्दन कर रहा था। कहते हैं देते हुए कहा कि एक वर्षके अनन्तर तुम अपने कि एक देवताने गनीकी दशापर दयार्द्र होकर महल राज्यको प्राप्त करोगे और उसको अपना असली की एक सेविकाका रूप धारण किया और उसकी परिचय दिया । इसके अनन्तर उसको छोड़कर परिचर्या की । उसी समय उस नगरका एक व्यापारी आचार्यश्री चौवीसवें तीर्थकर भगवान महावीर के संठ अपने मृत शिशुको लेकर उसका अन्तिम संस्कार चरणोंकी आराधना करके निर्वाण प्राप्तिके लिये तप करने के लिये वहां पहुंचा। वहाँ उसने सुन्दर शिशु करने चले गये । इस प्रकार राजकुमार जीवक के जीवकको देखा, जिसे देवताके परामर्शानुसार उसकी अध्ययनका वर्णन करनेवाला प्रथम अध्याय, जिसे माताने अकेला छोड़ दिया था। 'कन्दुक्कडन्' 'नामगलइलंबगम्' भी कहते हैं पूर्ण होता है । नामनामक वह सेठ राजपुत्रको देखकर अत्यन्त आनंदित गल्का अर्थ वाणीकी अधिष्ठात्री सरस्वती है। हा शिशुकी अंगुलीमें स्थित मुद्रिकास उसने उसे २ गोविन्दैय्यार इलम्बगम्-जिस समय राजकुमार पहचान लिया। उसने जीवित राजपुत्रको ले लिया जीवक अपने चचेरे बन्धुओंके साथ कंदुक्कदनके और घर लौटकर अपनी पत्नीको यह कहते हुए सौंप , परिवार में अपना काल व्यतीत कर रहा था उसवक्त दिया कि तेरा बालक मग नहीं था। उसकी पत्नीने सीमावर्ती पहाड़ी लोगोंने गजाके पशुओंका अपहरण इम उपहार को अपने पतिसे सानन्द ले लिया और कर लिया । गोरक्षक ग्वालोंने गायोंकी रक्षामें समर्थ सन अपना ही पुत्र समझकर उसका पालन-पोषण न होने पर राजासे सहायताकी मांग की । गजाने किया । यह बालक इस कथाका चरित्र नायक अपने शतपुत्रोंको तुरन्त जाकर व्याधोंसे युद्ध करके 'जीवक' था। गायोंको पुनः प्राप्त करनेके लिये आज्ञा दी । परन्तु वे देवताक साथमें विजया महारानी दंडकारण्य सब उन पहाड़ी जातिवालोंके द्वारा परास्त हुए । राजा Page #119 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष४ को यह न जान पड़ा कि अब क्या किया जाय। गन्धर्वदत्ता राजकुमारीके साथ अपनी राजधानीमें किन्तु ग्वालोंके अधिनायकने शहरमें यह घोषणा पहुँचकर घोषणाके द्वारा वीणा-स्वयम्वरकी शतोंको करादी कि जो कोई भी राजाकी गायोंको वापिस नागरिकोंपर प्रकट कर दिया और साथ ही यह भी लावेगा, उससे मैं अपनी कन्या 'गोविन्दा' का विवाह प्रकट कर दिया कि जो कोई वीणा बजानेकी प्रतियोकर दूंगा। जीवकने यह घोषणा सुनी, वह इन गितामें राजकन्याको इरादेगा उसे वह विद्याधर'बेदरों' की तलाशमें निकल गया और सब गायोंको कन्या प्रदान की जायगी । यह प्रतियोगिता तत्कालीन वापिस ले आया। एक क्षत्रियका एक ग्वाल-कन्या शासक कत्तिवंगारन्की अनुमति पूर्वक कराई गई के साथ विवाह करना अयोग्य होगा, इस लिये उसने थी। आदिके तीन वर्णो के व्यक्ति उस प्रतिद्वन्दिताके नन्दकोन नामक ग्वाल सरदारकी सम्मतिसे अपने लिए आमन्त्रित किए गए थे। इस राजकुमारी एक मित्र वं साथी 'यदुमुहन' के साथ उस गोविन्दा गन्धर्वदत्ताने प्रत्येकको पराजित कर दिया । इस का विवाह करा दिया। इस प्रकार गोविन्दाके विवाह प्रकार छह दिन बीत गए। सातवें दिन जीवकने, का वर्णन करता हुआ दूसरा अध्याय समाप्त होता है। जिसे पुरवासी वणिकपुत्र ही समझे हुए थे, उस ३ गन्धर्वदत्तप्यार इलम्बगम्-गन्धर्वदत्ता विद्या- संगीतकी प्रतियोगितामें अपने भाग्यकी परीक्षा करनी धगधीश कलुषवेगकी कन्या थी। एक ज्योतिषीस चाही । जब उस प्रतिद्वन्दितामें जीवकने अपना यह जानकर कि उसकी कन्या राजमहापुरमें किसीके संगीत-कौशल दिखाया तब विद्याधर कन्याने उसे साथ विवाह करेगी, वह अपनी कन्याको उस नगरमें विजेता स्वोकारकर अपना पति अंगीकार किया। भेजना चाहता था। जब वह इस अवसरकी प्रतीक्षा कुछ राजकुमार जो वहाँ एकत्रित थे उन्होंने ईर्षावश कर रहा था, तब राजमहापुरका एक सेठ, जिसका राजकुमार 'जीवक' से झगड़ा करना चाहा, किन्तु वे नाम श्रीदत्त था अपने जहाजमें समुद्री व्यापारके सब पराजित हुए और अन्तमें जीवकने गन्धर्वदत्ताको फलस्वरूप प्राप्त हुए सुवर्णको रखकर अपने घर लौट अपने प्रासादमें लाकर विधिवत् विवाह क्रिया की । रहा था। जिस प्रकार शेक्सपियरके 'टेम्पैस्ट' नाटकमें इस प्रकार यह तीसरा अध्याय समाप्त होता है, जो जादूसे प्रोसपेरोके द्वारा जहाज नष्ट किया गया है, गन्धर्वदत्ता विवाहविषयको लिये हुए है। उसी प्रकार इस विद्याधरने चमत्कारिक रूपसे ४ गुणमालैयार इलम्बगम्-एकबार वसन्तोत्सवमें जहाजका विनाश प्रदर्शित किया और श्रीदत्त सेठको नगरके युवक नरनारी विनोद और आनन्दोत्सत अपने दरबारमें आनेको बाध्य किया। वहाँ उसे यह मनानेके लिये समीपवर्ती उपवनमें गये थे। इनमें बात बताई गई कि उसे विद्याधर राजधानीमें किस सुरमंजरी और गुणमाला नामकी दो युवतियाँ भी निमित्त लाया गया है। विद्याधगेंके नरेशने उससे थीं। उनमें स्नानके लिये उपयोगमें लाए जाने वाले कहा कि तुम राजकुमारी 'गन्धर्वदत्ता' को अपने साथ चूर्णकी सुगन्धकी विशेषताके सम्बन्धमें विवाद लेजाओ और जो उसे वीणा-वादनमें पराजित करदे उत्पन्न होगया। वे अपने अपने चूर्णको अच्छा बताती एसीके साथ इसका विवाह कर देना । श्रीदत्तने थीं। यह विषय बुद्धिमान युवक जीवक (जीवन्धर) Page #120 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] तामिल भाषाका जैनसाहित्य के समक्ष उपस्थित किया गया, जिसने गुणमालाके उनकी सहायताको दौड़ पड़ा और उसने राजाके पक्षमें निर्णय देदिया। इस निर्णयसे सुरमंजरी अत्यन्त हाथीको वशमें कर लिया और उसे उसके स्थानपर खिन्न हुई और उसने अपने आपको कन्यामाद शान्तिके साथ पहुँचवा दिया। इस प्रकार उसने (कन्यागृह) में बन्द करनेका निश्चय किया और यह गुणमाला और उसकी सखियोंके लिए मागे साफ नियम लिया कि वह तबतक किसी भी पुरुषका मुख कर दिया। जब गुणमालाने सुन्दर कुमारको देखा, नहीं देखेगी, जब तक कि यह जीवक उसके पास तब वह उसपर आसक्त हो गई। यह बात उसके जाकर विवाहके लिए प्रार्थना नहीं करेगा । जब कि माता पिताको विदित हुई, उन्होंने जीवकके साथ सुरमंजरीने इस वसन्तोत्सवमें भाग नहीं लिया, तब गुणमालाके विवाहका निश्चय किया और वह सविधि अपने पक्षमे प्राप्त निर्णयसे उत्साहित होकर गुण- सम्पन्न हुआ। किन्तु कत्तियंगारन् नरेशको जब माला उत्सव मनानेका गई। मार्गम जाते हुए जीवकने राजकीय हाथीको दण्डित करनेकी बात विदित हुई, देखा कि कुछ ब्राहाणोंने एक कुत्तको इसलिए मार तब उसने अपने साले मदनन्के साथ अपने पुत्रोंको डाला है कि उनका भोजन इस कुत्तेने छूलिया था। इस श्रेष्ठिपुत्र जीवकको लानेके लिये भेजा। कुछ जब उसने कुत्तको मरते हुए देखा, तब उसने सैनिकोंके साथ वे कंदुक्कदनके भवनके समीप पहुँचे उस दीन पशुको सहायता पहुँचानेका प्रयत्न किया और उन्होंने उसे घेर लिया। यद्यपि जीवक उनसे और उसके कानमें पंचनमस्कार मंत्र सुनाया, ताकि युद्ध करना चाहता था, किंतु उसे गुरुको दिया गया उस पशुका आगामी जीवन विशेष उज्ज्वल हो। तद- अपना पचन स्मरण हो आया कि वह एक वर्ष नुसार वह श्वान मरकर देवलोकमे सुदजण नामका पर्यन्त चुप रहेगा और इससे वह आत्मरक्षा करने में देव हुआ। वह सुदजणदेव तत्काल ही जीवकके असमर्थ रहा। इस प्रकारके संकटमें उसने अपने पास अपनी कृतज्ञता व्यक्त करने के लिये आया और मित्र सुदणदेवको स्मरण किया, जिसने तत्काल ही उसकी सेवा करने के लिये अपनी इच्छा व्यक्त की। आँधी और वर्षा द्वारा उसके शत्रुओंमें गड़बड़ी किन्तु जीवकने यह कहकर उसे लौटा दिया कि जब पैदा करदी। इस गड़बड़ीकी अवस्थामें सुजणदेव मुझे आवश्यकता होगी, तब मैं तुम्हें बुलालूंगा। उसे उठाकर अपने स्थानपर लेगया। अपनी घबराहट ज्योंही उसने देवको विदा किया, उसे एक भयंकर में जीवकको न पाकर राजकर्मचारियोंने किसी दूसरेके दृश्य दिखाई पड़ा। राजाका हाथी अपने स्थानसे प्राण ले लिए और यह बात राजाको बताई कि वे भाग निकला और वसन्तोत्सव मनाकर उद्यानसं जीवकको जीवित नहीं ला सके, कारण तूफानके अपने अपने घरोंको वापिस जाते हुए लोगोंकी ओर द्वारा बहुत गड़बड़ी मच गई थी, अतएव उन्हें उसको दौड़ा। इतनमें ही उसने अपनी संविकाओं सहित मार डालना पड़ा। इस परिणामको ज्ञातकर राजा गुणमालाको घरकी तरफ जाते हुए देखा । उस उन्मत्त बहुत प्रसन्न हुआ और उसने उन्हें खूब पुरस्कार गजको देखकर वे सबकी सब घबरा गई थीं । जीवक प्रदान किया। Page #121 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महात्मा गाँधीके धर्मसम्बन्धी विचार (सं० ०-डा० भैयालाल जैन ) मेरा विश्वास है कि बिना धर्मका जीवन, बिना सिद्धान्त करनेकी आवश्यकता है। का जीवन है; और बिना सिद्धान्तका जीवन वैसा ही है जैसा यदि देश-हितका भाव दृढ धार्मिकतासे जागृत हो तो कि बिना पतवारका जहान । जिस तरह बिना पतवारका वह देश-हितका भाव भली भाँति चमक उठेगा। जहाज़ इधरसे उधर मारा-मारा फिरेगा और कभी उद्दिष्ट हमने धर्मकी पकड छोड़ दी । वर्तमान युगके ववण्डरमें स्थान तक नहीं पहुँचेगा, उमी प्रकार धर्महीन मनुष्य भी हमारी समाज-नाव पड़ी हुई है। कोई लंगर नहीं रहा, इसी संसार-सागरमें इधरसे उधर मारा-मारा फिरेगा और कभी लिए इस समय इधर-उधरके प्रवाहमें बह रही है। अपने उद्दिष्ट स्थान तक नहीं पहुँचेगा। सत्यसे बढ़कर कोई धर्म नहीं है और 'अहिंसा परमो मैंने जीवनका एक सिद्धान्त निश्चित किया है। वह धर्म:' से बढ़कर कोई श्राचार नहीं है। सिद्धान्त यह है कि किसी मनुष्यका, चाहे वह कितना ही जो अहिंसाधर्मका पूरा पूरा पालन करता है उसके महान् क्यों न हो, कोई काम तब तक कभी सफल और चरणोपर सारा संसार श्रा गिरता है । आस-पासके जीवोंपर लाफदायक नहीं होगा जब तक उस कामको किसी प्रकारका भी उसका ऐसा प्रभाव पड़ता है कि साँप और दूसरे जहरीले धार्मिक श्राश्रय न होगा। जानवर भी उसे कोई हानि नहीं पहुंचाते । जहाँ धर्म नहीं वहाँ विद्या नहीं, लक्ष्मी नहीं और श्रारोग्य भी नहीं । धर्मरहित स्थितिमें पूरी शुष्कता है, ___जहाँ सत्य है और जहाँ धर्म है, केवल वहीं विजय भी है । सत्यकी कभी हत्या नही हो सकती। सर्वथैव शून्यता है । इस धर्म-शिक्षाको हम खो बैठे हैं। हमारी शिक्षा-पद्धतिमें उसका स्थान ही नहीं है । यह बात सत्य और अहिंसा ही हमारे ध्येय हैं । 'अहिंसा परमोवैसी ही है जैसी बिना वरकी बरात । धर्मको जाने बिना धर्म:' से भारी शोध दुनिया में दूसरी नहीं है । जिस धर्ममें विद्यार्थी किस प्रकार निर्दोष आनन्द प्राप्त कर सकते हैं ? जितनी ही कम हिंसा है, समझना चाहिए कि उस धर्ममें यह अानन्द पानेके लिए, शास्त्रका अध्ययन उसका मनन उतना ही अधिक सत्य है। हम यदि भारतका उद्धार कर अथवा विचार और अनन्तर उस विचारके अनुसार श्राचरण सकते हैं तो सत्य और अहिंसा ही से कर सकते हैं। MORE Page #122 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मटसारकी जीवतत्त्वप्रदीपिका टीका, उसका कर्तृत्व और समय ( मूल लेखक-प्रोफेसर ए० एन० उपाध्याय, एम० ए०, डी० लिट० ) [अनुवादक-पं० शंकरलाल जैन न्यायतीर्थ ] Xम्मटसार पर अब तक दो टीकाएँ प्रकाशमें वस्तुतः गोम्मटसारके अध्ययनके यथेष्ट प्रचारका श्रेय जीवतत्व. आई हैं, जिनमें पहली 'मन्दप्रबोधिका और प्रदीपिकाको प्राप्त है। गोम्मटसार के हिन्दी, अंग्रेजी और , दूसरी 'जी तस्व प्रदीपिका' है, और वे दोनों मराठीके सभी प्राधुनिक अनुवाद पं० टोडरमरक्षकी हिन्दीk टीकाएँ गोम्मटसारके कलका सांस्करण२ टीका 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिकाके आधार पर हैं, और इस टीकामें * में पं. टोडरमल्लकी हिन्दी टीका 'सम्प- मात्र उस सब विषयको परिश्रमके साथ स्पष्ट किया गया है ग्ज्ञानचन्द्रिका' के साथ प्रकाशित हो चुकी हैं। कलकता जो कि जी प्रदीपिकामें दिया हुआ है । जी०प्रदीपिका के संस्करणमें मन्दप्रबोधिका जीवाकाण्डकी गाथा नं० ३८३ तक बहुतसे विवरण मंदप्रबोधिकाके अनुसार हैं। मं० प्रबोधिका दी गई है, यद्यपि सम्पादकों ने अपने कतिपय फुटनोटोंमें के अधिकांश पारिभाषिक विवरणोंको जी०प्रदीपिकामें पूरी इस बातको प्रकट किया है कि उनके पास (टीकाका) कुछ तरह से अपनालिया गया है, कभी कभी अभय चन्द्र" का और वंश भी है । मन्दप्रबोधिकाके कर्ता अभयचन्द्र हैं और नाम भी साथमें उल्लेखित किया गया है, जी०प्रदीपिकामे यह बात अभी तक अनिर्णीत है कि अभयचन्द्र ने अपनी प्रत्येक अध्यायके प्रारम्भिक संस्कृत पोंको उन्हीं पोंके सांचे टीकाको पूरा किया या उसे अधरा छोड़ा। इस लेख में मैं में डाला गया है जो म०प्रबोधिकामें पाये जाते हैं. और जीवतस्वप्रदीपिकाके कुछ विवरण देनेके साथ साथ उसके जीवाकाण्डकी गाथा नं. ३८३ की टीकामें तो यह स्पष्ट कर्तृत्व और समयसम्बन्धी प्रश्नपर विचार करना चाहता हुँ। ही कह दिया गया है कि इसके बादसे जी० प्रदीपिकामे वर्तमानमें केवल जी. प्रदीपिका ही गोम्मटसार पर केकल कर्णाटवृत्ति का अनुसरण किया जायगा, क्योंकि उपलब्ध होने वाली पूरी और विस्तृत संस्कृत टीका है। अभयचन्द्र द्वारा लिखित टीका यहां पर समाप्त हो गई है। जैसा कि मैंने सरसरी तौरसे पढ़ने पर नोट किया है, जी. १ यह निबन्ध बम्बई यूनिवर्सिटीकी Springer Rese arch Scholarship की मेरी अवधिके मध्यमें ४ गोम्मटसारके विभिन्न संस्करणोके लिये, देखो मेरा लेख तय्यार किया गया है। 'गोम्मट शब्दके अर्थविचार पर सामग्री' I H Q., २ गाँधी हरिभाई देवकरण जैन ग्रन्थमाला, ४ कलकत्ता; Vol. XVI. Poussin Number इसको हम लेखमें कलकत्तासंस्करणके तौर पर उल्ले- देखो. जीवाकाण्डकी १३वीं गाथाकी टीका, जो श्रागे खित किया गया है। उद्धत की गई है। ३ देखो, कर्मकाण्ड कलकत्तासंस्करणके पृष्ठ ६१५,८६८, गाथाओंके नम्बर कलकत्तासंस्करणके अनुसार दिये १०३८ आदि। गये हैं। Page #123 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [ वर्ष ४ प्रदीपिकामें प्राकृतके दो निष्कर्षों और कुछ गद्यसूत्रादिके वृत्तिपरसे (साधन सामग्री लेकर ) लिखी गई है, जिसका अतिरिक्त, संस्कृत और प्राइतके लगभग एकसौ पर उछ त परिचय हम आगे चलकर मालूम करेंगे, इसमें म० प्रबोधिकिये गये हैं। उनमेंसे अधिकांशके मूल स्रोतोंका पता लग काका पूरा पूरा उपयोग किया गया है और जैसे ही मं० सकता है, परन्तु टीकामें उन्हें बिना किसी नाम निर्देशके ही प्रबोधिका समाप्त हुई है जी०प्रदीपिका साफ तौर पर उन्द त किया गया है। जी० प्रदीपिकामें यतिवृषभ, भूतबलि, घोषणा करती है कि इसके प्रागे वह कर्णाटवृत्तिका अनुसमन्तभद्र, भट्टाकलंक, नेमिचन्द्र, माधवचन्द्र. अभयचन्द्र सरण करेगी और केशववर्णी जैसे कुछ ग्रन्थकारों का नामोल्लेखादि श्रीमदभयचन्द्रसद्वान्तचक्रवर्तिविकिया गया है और प्राचारांग, तत्वार्थविवरण, (प्रमेयकमल) । हितव्याख्यानं विश्रान्तमिति कर्णाटवृत्यमार्तण्ड जैसे कुछ ग्रन्थों १ का उल्लेख भी किया गया है। ज्योरेवार वर्णनों और श्रमपूर्वक तय्यार किये गये नकशों तथा नुरूपमयमनुवदति१२ । सूचिपत्रों के कारण जी०प्रदीपिका उन अनेक विषयोंकी जान- संस्कृत जी०प्रदीपिकाका कर्तृत्वविषय प्रायः एक कारी प्राप्त करनेका एक बहुमूल्य साधन है, जो गोम्मटसार पहेली बना हुआ है। पं. टोडरमल्ल' 3जीकी मिम्न चौपाई में सुमाये गये और विचार किये गये हैं। यह बतानेके लिये पर्याप्त है कि वे जी०प्रदीपिकाको केशवजी. प्रदीपिका कोई स्वतन्त्र रचना नहीं है, वास्तव में वर्णीकी कृति समझते थे। केशववर्णी भव्यविचार कर्णाटक टीका अनुसार । इसका प्रारम्भिक पथ हमें स्पष्ट बतलाता है कि यह कर्णाट संस्कृत टीका कीनी हु जो अशुन्द्र सो शुद्ध करहु ॥ उनकी 'सम्यग्ज्ञानचन्द्रिका' में अन्यत्र भी ऐसे उल्लेख ७ जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण, पृष्ठ ६१, ११८० । मुझे हैं जो इसी बातका निर्देश करते हैं। अनेक विद्वान, जिन्हें प्रो० हीरालालाजीसे मालूम हुआ है कि १०८० पृष्ठ पर का प्राकृत उद्धरण 'धवला' में मिलता है। गोम्मटसारके सम्बन्ध लिखनेका अवसर प्राप्त हुआ है, इस कलकत्तासंस्करण, जीवकाण्ड पृष्ठ २, ३, ४२,५१, विचारको स्वीकृत एवं व्यक्त करचुके हैं। पं० यचन्द्रजी१८ १८२, १८५, २८४, २८६, २६०, ३४१, ३८२, ३६१, केवल इतना ही नहीं कहते कि संस्कृत जी०प्रदीपिका ५२३, ६८७, ६८८, ७३१, ७६०, ७६५,८८१,८८४, केशवव की कृति है. बल्कि एक कदम और आगे बढ़ते हैं ६५१, ६६५, ६६०, ६६१, ६६२, ६६३, ६६४, लिखते है कि जी. प्रदीपिकामें जिस कर्णाटकवृत्ति१००६, १००६, १०१७, १०२२, १०२४, १०३३, १०६७, ११४७, ११५५, ११६१, ११६७: कर्मकाण्ड का उल्लेख है वह चामुण्डरायकी वह वृत्ति है, जिसका पृ० ३०, ५०, ७०८, ७१७, ७१८, ७२६, ७४२, उल्लेख गो०सार - कर्मकाण्डकी गाथा नं. १७२ में 'वीर ७४४, ७५३, ७८८, श्रादि । १२ जीवकाण्ड, कलकलासंस्करण पृ० ८१२ । १ माधवचन्द्रने गोम्मटमारमें कुछ पृरक गाथायें शामिल 13 जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण, पृष्ठ १३२६, अन्यप्रकरणों की हैं, इमलिये उमका इतना अधिक उल्लेख हुआ है। में भी उन्होने यह उल्लेख किया है, देखो जीवकाण्ड पृष्ठ १० जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण पृ० ६१६, ७६५, ६६३, ७५६ और कर्मकाण्ड पृष्ठ २०६६ ६४८, १७८, ३६, ७५२, आदि । १४ 'गोम्मटसार', कर्मकाण्ड, रायचन्द्र -जैन-शास्त्रमाला "जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण पृ० ७६०, ६६०, ६४६ । (बम्बई १६२८) भूमिका पृष्ठ ५ ---- ----- - - ----- Page #124 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] गो० सारकी जी०प्रदीपिका मार्तण्डी' नामसे किया गया है। पं. मनोहरलाल 'प्रो० श्रीमस्केशवचन्द्रस्य कृतकर्णाटवृत्तितः। घोषालमिस्टर जे. एल. जैनी." श्रीमान् गांधी'८ कृतेयमन्यया किंचिच्चेत्तच्छोध्यं बहुश्रुतः ॥ और अन्य लोगोंने भी इसी प्रकारकी सम्मतियां प्रकट की हैं। मालूम नहीं लगभग एक ही प्राशयके ये दो पचल्यों गो० सारके कलकत्तास्करणके सम्पादक ग्रन्थके मुखपृष्ठ पर दिये गये हैं और इन्हें देते हुए रिपोर्ट के सम्पादकने जो परिजी. प्रदीपिकाको केशववर्णीकी प्रकट करते हैं। चयके रूपमें 'पाठान्तरम्' पदका प्रयोग किया है उसका ____ इस प्रकार पं० टोडरमल्लजी और उनके उत्तराधिका- क्या अभिप्राय है। पं. टोडरमल द्वारा दिये गये पथके रियोंने, बिना किसी सन्देहके, यह सम्मति स्थिरकी है कि साथ पहले रथकी तुलना करने पर, हमें ध्यान खींचने योग्य संस्कृत जी०प्रदीपिका का कर्ता केशववी है। सम्भवतः मेद उपलब्ध होता है, और इन दोनों पोंमे यह बिल्कुल निम्न पद्य, जैसाकि कलकत्तास्करण' में मुद्रित हुआ है. स्पष्ट हो जाता है कि जी० प्रदीपिकाके लेखकने इनमें अपना उनकी सम्मतिका अंतिम आधार है: नाम नहीं दिया, उसने अपनी टीका केशववर्णीकी कर्णाटवृत्ति श्रिया कार्णाटिकी वृत्तिं वर्णिश्रीकेशवैः कृतिः । पर मे लिखी है और माथ ही यह भाशा व्यक्त की है कि कृतयमन्यथा किंचिा विशोध्यंतद्बहुश्रुतैः ॥ उम्मकी टीकामें यदि कुछ अशुद्धियां हों तो बहुश्रुत विद्वान यह पच जिसरूपमें स्थित है उमका केवल एक ही उन्हें शुद्ध करदेनेकी कृपा करें। आशय सम्भव है; और हम सहज ही में पं० टोडरमल्ल उस प्रमाण (सादी) को जिसके माधारपर केशववर्णीको और उनके अनुयायियोंकी मम्मतिको ममम ममते हैं। संस्कृत जी० प्रदीपिकाका कर्ता मान लिया गया है, पथके परन्तु इम पद्यका पाठ सर्वथा प्रामाणिक नहीं है, क्योंकि पाठान्तरोंने वास्तवमें विगार दिया है। यह दिखाने के लिये जी० प्रदीपिकाकी कुछ प्रतियां ऐसी हैं जिनमें बिलकुल भिन्न कि केशववर्णी संस्कृत जी० प्रदीपिकाका कर्ता है, दूसरा कोई पाठान्तर मिलता है। श्री ऐलक पन्नालाल दि. जैन सरस्वती भी प्रमाण भीतरी या बाहिरी उपस्थित नहीं किया गया, भवन बम्बई की, जी०प्रदीपिका महित गोम्मटसारकी और यह तो बिल्कुल ही माबित नहीं किया गया कि यह एक लिखित प्रतिपर में हमें निम्न पद्य उपलब्ध होते हैं। टीका चामुण्डरायकी कर्णाटकवृत्तिके प्राधार पर बनी है। श्रित्वा कर्णाटिकी वृत्तिं वर्णिश्रीकेशः कृताम् । यह सच है कि गोम्मटमारमे हमें इस बानका पता चलता है कृतेयमन्यथा किंचिद्विशोध्यं बहुश्रतः ॥ कि चामुण्डरायने गो० मार पर एक देशी (जोकि कर्णाटक१५ गोम्मटमार जीवकाण्ड (बम्बई १६१६) भूमिका। वृत्ति समझी जाती है ) लिखी है । जी०प्रदीपिकामें केवल १६ द्रव्यमग्राः ( S. B J. I, भाग १६७), भूमिका एक कर्णाटवृत्तिका उल्लेख मिलता है और उसमें चामुण्डराय पृष्ठ ४१ । के मानन्धका कोई भी उल्लेख नहीं है, न चामुण्डरायवृत्ति १७ गोम्मटमार, जीवकाण्ड (s B J. V लग्वनऊ १६२७) की कोई हस्तलिखित प्रति ही प्रकाश२' में पाई है और न भृमिका पृष्ठ 3 यह सिद्ध होनेकी कोई मम्भावना है कि संस्कृत जी० प्रदी१८ गोम्मटमार मराठी अनुवाद महित, शोलापर १६३६, पिका चामुण्डरायकी टीकाका अनुसरण करती है । इन भूमिका पृष्ठ 2 १९ जीवकाण्ड, पृष्ठ १३२६ । २१ श्रार० नरसिंहाचार्यकृन 'कर्णाटकक विचरित', जिल्द १ .. रिपोर्ट १, वीरमम्वत् २४४६, पृष्ठ १०४-६। पृष्ठ ४६-४६ Page #125 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ परिस्थितियों में, यह दिखानेके लिये कि केशववर्णी संस्कृत तत्र श्रीशारदागच्छे बलात्कारगणो न्वयः। जी० प्रदीपिकाका कर्ता है, कधित प्रमाण बाधित ठहरता है कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य नन्यादाचन्द्रतारकम् ॥११॥ और अभी तक यह कहनेके लिये कोई भी प्रमाण नहीं है तत्र श्रीमजिनधर्माम्बुधिवर्धन - पूर्णचन्द्रायमानश्रीज्ञानकि यह जी० प्रदीपिका चामुण्डरायकी वृत्ति का अनुसरण भूषणभट्टारशिष्येण सौगतसांख्यकणादभिवक्षपादप्रभाकराकरती है। अब हमें यह देखना है कि संस्कृत जी. प्रदीपिकाका दिपरवादिगजगण्डभेरुण्ड प्रभाचन्द्रभट्टारकदत्ताचार्यपदेन कर्ता कौन है और वह कौनसी कर्णाटकवृत्तिका अनुसरण विद्यविद्यापरमेश्वरमुनिचन्द्राचार मुखातकर्णाटदेशाधिनायप्राकरता है। मैं दो प्रशस्तियोंके प्रसंगोचित अंशोंको नीचे ज्यसाम्राज्यलपमानवासजनात्तममाल्लभूपालप्रयत्नाद अ ज्यसाम्राज्यलक्ष्मीनिवासजनोत्तममल्लिभूपालप्रयत्नाद अधीतउद्धत करता है. जिनमेंसे एक पद्यमें और दूसरी कुछ गद्यमें सिद्धान्तन वागलालाविाहताहाहाहगाजरदशाचित्रकूटाजनदासऔर कुछ पद्यमें हैं। ये दोनों प्रशस्तियां गो०सारके कलकत्ता साहनिर्मापितपार्श्वप्रभुप्रासादाधिष्ठितनामुना मेमिचन्द्रणाल्पसंस्करण के अन्तमें ( पृष्ठ २०१७-८ ) मुद्रित हुई हैं। मेधसाऽपि भव्यपुण्डरीकोपकृतीहानुरोधेन सकल ज्ञातिशिरः (१) यत्र रस्नैखिभिब्ध्वान्न्यं पूज्यं नरामरैः । शेखरायमाणखण्डेलवालकुलतिलकसाधुवंशावतंसजिनधीनिर्वान्ति मूलसंघोऽयं नन्यदाचन्द्र तारकम् ॥४॥ रणधुरीणसाहसांगसाहसहसाविहितार्थनाधीनेन विशदत्रेतत्र श्रीशारदागच्छे बलात्करगणोऽन्वयः । विधविधास्पदविशालकीर्तिसहायादिय यथाकण टवृत्ति व्यरचि । कुन्दकुन्दमुनीन्द्रस्य नन्याम्नायोऽपि नन्दतु ॥२॥ यावच्छ जिनधर्मश्चन्द्रादित्यौ च विष्टपं सिद्धाः । यो गुणैर्गणभदगीतो भट्टारकशिरोमणिः । तावमन्दतु भव्यः प्रपञ्चमानास्वियं वृत्तिः ॥ भक्त्या नमामि तं भूयो गुरुं श्रीज्ञानभूषणम् ॥६॥ निन्थाचार्य वयण विद्यचक्रवर्तिना। कर्णाटप्रायदेशेशमल्लिभूपालभक्तितः । संशोध्याभयचन्द्रणालेखि प्रथमपुस्तकः ॥ सिद्धान्तः पाठितो येन मुनिचन्द्रं नमामि तं ॥७॥ इत्यभयनन्दिनामाकिंतायाम् । योऽभ्यर्थ्य धर्मवृद्धयर्थ मा सूरिपदं ददौ। भट्टारकशिरोरत्नं प्रभेन्दुः स नमस्यते ॥८॥ इन दोनों प्रशस्तियोंपर से वृत्तमात्रका संक्षेपमें संग्रह त्रिविद्यविद्याविख्यातविशालकीर्तसूरिणा । करते हुए, हमें जी० प्रदीपिकाके कृतृत्वविषयमें निम्न बातें सहायोऽस्यां कृतो चक्रऽधीता च प्रथम मुदा ॥६॥ मालूम होती हैं, और उनका ऐलक पक्षालाल सरस्वती भवन सूरेः श्रीधर्मचन्द्रस्याभयचन्द्रगणेशिनः । की हस्तलिखित प्रतिसे समर्थन भी होता है :वर्णिलालादिभव्यानां कृते कर्णाटवृत्तितः ॥१०॥ रचिता चित्रकूटे श्रीपार्यालये मुना। ___संस्कृत जी० प्रदीपिकाके कर्ता मूलसंध, शारदागच्छ, साधुसांगासहेसाभ्यां प्राथितेन मुमुक्षुणा ॥१॥ बलाकारगण, कुन्दकुन्द अन्वय और नन्दि भाम्नाय के गोम्मटसारवृत्तिहि नन्याद् भव्यः प्रवातता। नेमिचन्द्र २३ हैं। वे ज्ञानभूषण भट्टारकके शिष्य थे। उन्हें शोधयनवागमास्किमिन विरुद्ध चेद बहुश्रुताः ॥१२॥ प्रभाचन्द्र भट्टारकके द्वारा, जोकि सफल वादी तार्किक थे. निर्ग्रन्थाचार्य वर्येण त्रैविद्यचक्रवर्तिना। संशोध्याभयचन्द्रणालेखि प्रथमपुस्तकः ॥१३॥२२ सूरि बनाया गया अथवा पाचर्यपद प्रदान किया गया था। यमाराध्यैव भव्योषाः प्राप्ताः कैवल्यसंपदः । कर्णाटकके जैनराजा मल्लिभूपालके प्रयत्नोंके फलस्वरूप शश्वतं पदमापुस्तं मूलसंघमुपाश्रये ॥१०॥ उन्होंने मुनिचन्द्रसे, जोकि 'विद्यविद्यापरमेश्वर' के पदसे २२ ऐलक पन्नालाल सरस्वती भवन, बम्बईकी लिखित प्रति २३ पद्यात्मक प्रशस्ति उत्तमपुरुषमें लिखी गई है, इससे यह परसे उद्धतभाग, कुछ छोटे छोटे भेद दिखलाता है। नामोल्लेख नहीं हुआ है। Page #126 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] गो० सारकी जी०प्रदीपिका विभूषित थे सिद्धान्तका अध्ययन किया था। लाखावीक २५ के साथ किया गया है। प्राग्रहसे वे गोर्जर देशसे प्राकर चित्रकूटमें मिनदासशाह द्वारा चौथे, ऐलक पनाखाल सरस्वती भवन की रिपोर्टके निर्मापित पार्श्वनाथके मन्दिरमें ठहरे थे। धर्मचन्द्र,अभयचन्द्र सम्पादकने, साफतौरपर जी० प्रदीपिकाका सम्बन्ध, सम्भ और अन्य सज्जनोंके हितके लिये, खण्डेलवालवंशके साह- बतः उसकी सन्धियोंके प्राधारपर, नेमिचन्द्रसे डराया है। सांग और साह सहेस२४ की प्रार्थनापर उन्होंने अपनी पांचवें, पं. नाथूरामजी प्रेमी ने, गो. सार टीकाके संस्कृत जी प्रदीपिका नामक टीका कर्णाटक वृत्तिका अनुसरण कर्ता ज्ञानभूषण हैं इस सम्मतिका विरोध करते हुए, पह करते हुए, विद्यविद्याविशालकीर्तिकी सहायतासे लिखी। प्रकट किया है कि उसके लेखक नेमिचंद्र है, और उन विवहमें बताया गया है कि प्रथम प्रति अभयचन्द्रने, जोकि रणोंसे, जोकि उन्होंने प्रस्तुत किये हैं, यह स्पष्ट है कि उनकी निम्रन्थाचार्य और त्रैविधचक्रवर्ती कहलाते थे, तय्यार की थी। दृष्टिमें जी० प्रदीपिका और उसका कर्ता रहा है। पद्यामक प्रशस्ति गद्यप्रशस्तिम्से सभी मौलिकवार्तोमें अन्तको, पद्यात्मक प्रशस्तिमें नेमिचंद्र-विषयक उस्लेख सहमत है, किन्तु यह कनका नाम, अर्थात नेमिचन्द्र, निर्देश का प्रभाव किसी बातको निश्चितरूपमे सिद्ध नहीं करता, नहीं करती, जोकि गद्यप्रशस्तिमें स्पष्टरूपमें दिया गया है। और न यह कल्पनाकी किसी खींचातानीसे केशववर्णी द्वारा तफसीलकी बानोंमें पूर्ण सादृश्य होने और कोई स्पष्ट विरोध जी० प्रदीपिकाके कथित कर्तृत्वका समर्थन ही कर सकता है। न होनेसे हर एकको यह स्वीकार करना पड़ता है कि प्रशस्ति- हम केशववर्णिविषयक कुछ बातोको जानते हैं और वे योंके अनुसार नेमीचन्द्र ही जी० प्रदीपिकाका कर्ता है। प्रशस्तियों में दीगई बातोंके माथ मेल नहीं खातीं । इस प्रकार दूसरे, गोम्मटसारके अनेक अधिकारोंकी समाप्तिपर जी० केशववर्णीको जी० प्रदीपिकाका रचियता बतलाने वाला प्रदीपिकाकी सन्धियां इस प्रकार पाई जाती हैं कोई भी प्रमाण उपलब्ध नहीं है, प्रत्युत इसके, उपयुक्त इत्याचार्यश्रीनेमिचन्द्रविरचितायां गोम्मटसारापरनाम पंच- मुहे निश्चितरूपमें बतलाते हैं कि जी० प्रदीपिकाके कर्ता संग्रहवृत्ती जीवनवप्रदीपिकायां आदि। नेमिचंद्र है, और उनको गोम्मटमार के कर्ताके माथ नहीं स्वभावतः 'विरचितायो पद 'जीवतत्त्व प्रदीपिकार्या' पद मिलाना चाहिये। का विशेषण है, और इस तरहसे भी हम जी. प्रदीपिकाके रही यह बात कि जी० प्रदीपिकाने कर्णाटकवृत्तिका कर्तृत्वका सम्बन्ध प्राचार्य नेमिचन्द्र मे लगाएंगे। अनुसरण किया है, इसके सम्बन्धमें उपर उद्धृत किये गये ___तीसरे, 'प्राचार्यश्रीनेमिचन्द्र विरचितायो' इस वाक्यांश दो पद्य निश्चितरूपसे बतलाते हैं कि के शववर्णीकी वृत्तिका का सम्बन्ध गोम्मटसारके साथ नहीं हो सकता। ये प्राचार्य अनुसरण किया गया है। इस वृत्तिकी लिखित प्रतियाँ पाज नेमिचन्द्र गोसारके रचयिता नेमिचन्द्र सिद्धान्तचक्रवती ५५ उटाहरणके लिए देवो. जीवकाण्ड प्र. ६४८ कर्मकाण्ड से भिन्न होने चाहिये। जी. प्रदीपिकामें अनेक स्थलोंपर पृष्ठ ६०० कलकत्ता संस्करण गोसारके रचयिता का उल्लेख और उनका वह उल्लेख २६ मिद्धान्तादि मंग्रहः (माणिकचन्द दि. जैनग्रन्थमाला२१ प्रायः आवश्यकरूपमें उनकी प्रसिद्ध उपाधि सिद्धान्तचक्रवर्ती । बम्बई १६१२) प्रस्तावना पृष्ठ १२ का फुटनोट । २७ इस नामकी अर्थ व्याख्याके लिए देखो, मेग 'गोम्मट' २४ दोनों प्रशस्तियोंमें इन नामोंके कुछ भिन्न पाठभेद दिखाई शषिक लेख जो भारतीय विद्या' बम्बई, जिल्द २ में प्रकाशित हुआ है। Page #127 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११८ अनेकांत [वर्ष ४ भी उपलभ्य हैं। मैंने कोल्हापुरके लक्ष्मीपेनमडकी जीवकांड हैं:-'यथा कर्णाटवृत्ति व्यरचि' अथवा 'कर्णाटवृत्तितः'। की इस वृत्ति की एक लिखित प्रतिकी परीक्षा की है । इस यहाँपर मैं एक ध्यान खींचने वाला सार (जीवकाण्ड कडवृत्तिका नाम भी 'जीवतत्व प्रदीपिका' है, और । यह गाथा नं. १३) तीनों टीकामोंपरसे उद्धत करता है, जिससे संस्कृत जी. प्रदीपिकाले कुछ बड़ी है।यह बहतसे काड पों- उन टीकाओंका पारस्परिक सम्बन्ध स्पष्ट होजायगा। से प्रारम्भ होती है, जिन्हें स्वयं लेखकने रचा है। जिस तरह मन्दप्रबोधिका" 'धवला' की रचना कुछ प्राकृतमें और कुछ संस्कृतमें हुई है देशविरते प्रमत्तविरते इतरस्मिक्षप्रमत्तविरते च सायोपउसी तरह यह वृत्ति कुछ काडमें और कुछ संस्कृतमें है (जो शमिकचारित्रलक्षण एव भावोवर्तते । देशविरते प्रयाख्यानावकि मणिप्रवाल शैलीके तौरपर समझी जाती है), मासकर रणकषायाणां सर्वघातिस्पद्धकोदयाभावलक्षणे आये, तेषामेव अपने प्रारम्भ में। इसमें स्थल-स्थलपर बहुतसे प्राकृत उद्धरण हीनानुभागरूपतया परिणतानां सदवस्थालक्षणे उपशमे च पाये जाते हैं। गा०सारकी गाथाएँ संस्कृतछाया सहित दीगई। देशवातिस्पद्धकोदयसहिते उत्पन्न देशसंयमरूपचारित्रं चायोहैं और शब्दशास्त्र सम्बन्धी अनेक चर्चाएँ संस्कृतमें हैं। पशमिकम् । प्रमशविरते तीव्रानुभागसंज्वलनकषायाणां प्रागु केशववर्णी अभयसूरि सिद्धान्तचक्रवर्तीके शिष्य थे, और क्तलक्षणक्षयोपशमसमुत्पन्नसंयमरूपं प्रमादमलिनं सकलचाउन्होंने अपनी वृत्ति धर्मभूषण भट्टारकके आदेशानुसार शक रित्रं शायोपशमिकम् । अत्र संज्वलनानुभागानां प्रमादजनकसम्बत् १९८१ या ईस्वी सन् १३५१२९ में लिखी है। त्वमेव तीव्र स्वम् । अप्रमत्तविरते मन्दानुभागसंज्वलनकषागणां मैंने केशववर्णीकी वृत्तिकी तुलना अभयचंद्र की मं०प्रयो- प्रागक्तक्षयोपशमोत्पन्नसंयमरूपं निर्मलं सकलचारित्रं वायोपशधिकासेकी है और उसपरसे मुझे यह अनुभव हुया है कि मिकम् । तु शब्दः असंयतादिन्यवच्छेदार्थः । स खलु देशविरस्वयं केशववर्णीने अभयचंद्र की रचनाका पूरा २ लाभ लिया तादिषु प्रतिक्षायोपशमिकोभावः चारित्रमोहं प्रतीत्य भणित: है। मैं केशववर्णीकी कन्नडवृत्तिमें अभयचंद्रविषयक कमसे तथा उपरि उपशमकादिषु चारित्रमोहं प्रतीत्य भणि प्यते । कम एक खाम उल्लेख बतला देनेके लिये समर्थ है । केशववर्णितकमड जी. प्रदीपिका३२ नेमिचंद्रकृत संस्कृत जी. प्रदीपिकाकी केशववर्णिकृत देशाविरतनोशं33 प्रमत्तसंयतनोलं इतरनप्प अप्रमत्तसंयकाड जी. प्रदीपिकाके साथ तुलना करनेपर मुझे मालूम तनो बायोपशमिकसंयममक्कुं । देशसंयतापेक्षयिंदं प्रत्याहुआ है कि पहली बिल्कुल दूसरीके प्राधारपर बनी है । नेमि- ख्यानकषायंगलुदयिसल्पदेशघातिस्पद्धकानन्तै कभागानुभा-- चंद्रने कुछ अंशोंको जहां तहां छोड़ दिया है, संस्कृत वंश गोदयदोडने उदयमनेयददे दीयमाणंगलप्पविवक्षितनिषेकंगल अपने उसीरूपमें कायम रखे गये हैं और जो कुछ काडमें है सर्वघातिस्पद्धगलनंत बहुभागंगलुदयाभावल (क्षण) क्षयउसको अक्षरशः संस्कृतमें बदल दिया है। उन गाथाओंके दोलमवरुपरितननिषेक गलप्पनुदय प्राप्तंगलगे सदवस्थालक्षसम्बन्धमें जिनपर किम० प्रबोधिका उपलब्ध नहीं है, नेमि- णमप्पपशममुटागुत्तिरलु समुन्नतमप्पुदरिंदं चारित्रमोहमं चंद्रकी जी० प्रदीपिकामें ऐसी कोई भी बात नहीं है, जोकि 31 कलकत्तासंस्करण. ० ३६। केशवव की कमर जी. प्रदीपिकामें उपलब्ध न होती हो; ३२ कोल्हापरकी प्रति, पृ० १६ । और सम्भवतः यही कारण हैं जिससकि नेमिचंद्र स्पष्ट कहते 33 यह टीका उस भाषामें लिखी गई है जो कि पुरानी कन्नड यह कागज़ पर लिखी हुई एक प्रति है। इसका परिमाण कहलाती है; जो कि कन्नड नहीं जानते, वे भी संस्कृत १२५४८५ इंच है और इसमें ३८७ पत्र हैं। प्रति जी० प्रदीपिकाके साथ श्रासानीसे इमकी तुलना कर लिपिका ममय शक १२०६ दिया हुआ है जोकि स्पष्ट हो सकते हैं, और इसी उद्देश्यके लिये मैंने इसको देवनागरी लिपिकारका प्रमाद है, जबकि हमें सारण है कि केशव- अक्षरोंमें लिख दिया है । इसका बहुभाग कन्नड प्रत्ययाके वर्णाने अपनी बृत्ति शक १२८१ में लिखी थी। माथ संस्कृत में लिखा गया है । यह होना ही चाहिये, २९ 'कर्णाटककविरचिते' (बेंगलौर १६२४) पृ० ४१५-१६ । क्योंकि लेखक विविध पारिभाषिक शब्दोंको, जो कि ३० देखो अागे दिया हुआ निष्कर्ष । पूर्णतया संस्कृतके हैं, प्रयोग करनेके लिये बाध्य हुश्रा है। Page #128 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १] गो. सारकी जी. प्रदीपिका ११६ कुरितु देशसंयममदुबायोपशमिकभावमेंदु पेजलपट्ट दु।बते बालचन्द्र पंडितदेव ५ का उल्लेख किया है जिन्हें मैंबेही प्रमत्ताप्रमत्तर्ग संज्वलनकषायंगज उदितदेशवातिस्र्धकानंतक- बालेन्दु पंडित समझता हूं जिनका उल्लेख श्रवणबेलगोलके भागानुभागदाडने उदयमनेयददेशीयमाणंगलप्पविवक्षितोर- ईस्वी सन् १३१३ के एक शिलालेख में हमारे और यनिषेक गल सर्बघातिस्पर्धकानन्तबहुभागंगलुदयाभावलक्षण- यदि यह बात मानली जाय तो हम उस समयको लगभग यदोडमवरुपरितननिषेक गलप्पनुदयप्राप्तंगलगे सदवस्थाल- पचास वर्ष पीछे लेजाने में समर्थ हैं। इसके अतिरिक्त उनकी क्षणमप्प उपशममुटागुत्तिरलु समुपसमप्पुदरिंदं चारित्रमोहमं पदवियों-उपाधियों और छोटे २ वर्णमासे. जोकि उनमें दिये कुरितिल्लियु सकलसंयममुकायोपशमिकभावमेंदु पेललपहु- हुए हैं, मुझे मालूम हुआ है कि हमारे अभयचन्द्र और बालबुबुदु श्रीयभयसूरिसिद्धान्तचक्रवर्तिगलभिप्रायं । अहंगेमेयु चंद्र, सभी सम्भावनाओंको लेकर वेही हैं जिनकी कि प्रशंसा अपूर्वकरणादिगुणस्थानंगलोल चारित्रमोहनीयमने कुरितु बेलूर शिलालेखों में कीगई है और जो हमें बतलाते हैं कि तत्तद्गुणस्थानंगलोलु भावंगलरेयस्पडुवुवु ॥ अभयचंद्रका स्वर्गवास ईस्वी सन् १२७६ में और बालचंद्रका नेमिचन्द्रकी संस्कृत जी. प्रदीपिका 36 ईस्वी सन् १२७४ में हुआ था। इस प्रकार हम परीक्षापूर्वक देशविरते प्रमत्तसंयते तु पुन: इतरस्मिन् अप्रमत्तसंयते अभयचंद्रकी मं. प्रबोधिकाका समय ईस्वी सन् की १३वीं: चक्षायोपशमिकसंयमलक्षणोभावो भवति । देशसंयतापेक्षया शताब्दीका तीसरा चरण स्थिर कर सकते है। प्रत्याख्यानावरणकषायाणां उदयागतदेशवातिस्पर्धकानन्तबहु- नेमिचंद्र ने उस वर्षका, जिसमें उन्होंने अपनी जी०प्रदीभागानुभागोदयन सहानुदयागतक्षीयमाणविवक्षितादयनिषे- पिकाको समाप्त किया, कोई उल्लेख नहीं किया। चूंकि कसर्वघातिस्पर्धकानन्तबहभागानामुदयाभावलक्षणक्षये तेषामु- उन्होंने केशववर्णीकी वृत्तिका गाद अनुकरण किया है. इस परितननिषकाणां अनुदयप्राप्ताना सदवस्थालक्षणोपशमे च लिये उनकी जी० प्रदीपिका ईस्वी सन् १३५६ के बादकी है सति समुद्भुतस्वात् चारित्रमोहं प्रतीत्य देशसयमः क्षायोपशिम- और साथ ही यह सम्बत् १८१८ या ईस्वी सन् १७६१ सेकभाव इत्युक्तम् । तथा प्रमत्ताप्रमत्तयोरपि राज्वलनकषायाणा- पहलेकी है, क्योंकि इस सालमें पं० टोडरमल्लजीने संस्कृत मुदयागतदेशवातिस्पर्धकानन्तकभागानुभागेन सह अनुदयोग- जी० प्रदीपिका3८ का अपना हिन्दीअनुवाद पूर्ण किया है। तक्षीयमाणविवक्षितोदयनिषेकसर्वधातिस्पर्धकानन्तबहुभागानां यह काल अभीतक एक लम्बा चौदा फैला हुमा काल है, उदयाभावलक्षणक्षये तेषा उपरितननिषेकाणां अनुदयप्राप्तानां और हमें देखना चाहिये कि ये दोनों सीमाएँ कहापर अधिक सदवस्थालक्षोपशमे च सति समुत्पन्नत्वात्चारित्रमोहं प्रतीत्या- निकट लाई जासकती हैं। नेमिचंद्रने ज्ञानभूषण, मुनिचंद्र. त्रापि सकल पंयमोऽपि सायोपशमिकोभाव इति भणितं इति प्रभाचंद्र, विशालकीर्ति आदि अपने समकालीन बहुतसे श्रीमदभयचन्द्रसूरिसिद्धान्तचक्रवभिप्रायः । तथा उपर्यपि व्यक्तियों के नामोंका उल्लेख किया है. लेकिन जैनाचार्यों और अपूर्वकरणादिगुणस्थानेषु चारित्रमोहनीयं प्रतीत्य तत्तदगुण- साधुओंके सम्बन्धमें ये नाम इतनी अधिकतासे दुहराये गये स्थानेषु भावा ज्ञातम्याः॥ हैं कि कोई भी ऐसी समानता जोकि केवल नामकी समानता इन सारसंग्रहोंसे यह स्पष्ट है कि नेमिचन्द्रने केशववर्णी पर ही आश्रित हो, कुछ भी मूल्य नहीं रखती; और यदि का कितना गाढ़ अनुसरण किया है, केशववर्णीकी कमडशैली अन्य कोई प्रमाण न हो तो ऐसी समानताओंको लेकर प्रवृत्ति संस्कृत शब्दोंमे कैसी भरपर है और वह कितनी सरलतासे भी नहीं करनी चाहिये। हो, मल्लिभूपालविषयक उसका सातमें अनुवादित कीजासकती है. और किस प्रकार केशव- उल्लेख विशेष महत्वपूर्ण है। मल्लिभूपालको कर्णाटकका वर्णी तथा नेमिचन्द्र दोनों ही ने अभयवन्द्रका उल्लेख किया है ३५ जीवकाण्ड, कलकत्तासंस्करण, पृ० १५० । रही इन टीकाओंके समयकी बात, म. प्रबोधिका ईस्वी 3६ एपिनोफिया कर्णाटिका II. No 65. सन् १३५६ से, जबकि केशववर्णाने अपनीवृत्ति समाप्त की थी. पहलेकी रचना है। अभयचन्द्र ने अपनी मं. प्रबोधिकामें एक 39 एपियोफिया कर्णाटिका, जिल्द ५ मंख्या १३१-३३ । 3४ कलकत्तासंस्करण, पृ० ३६। 30 जैनहितैषी. भा० १३ पृ० २२ । Page #129 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० अनेकान्त [वर्ष ४ राजा और जैनोत्तम३९ कहा गयाईस्वी सन १३४और मल्लिभूपाल. मल्लिरायका सस्कृत किया हुया रूप है, और १७६१ के मध्यवर्ती समय में हमें कर्णाटकके किसी ऐसे प्रधान मुझे इसमें कोई सन्देह नही है कि नेमिचन्द्र सालुव मल्लिजैन राजाका परिचय नहीं मिलता. और इसलिये हमें समझ रायका उल्लेख कर रहे हैं। यद्यपि उन्होंने उसके वंशका लेना चहिये कि मलिभूपाल शायद कर्णाटकके किसी छोटेसे उल्लेख नहीं किया है । १५३० ईस्वीके लेख्य में उल्लिराज्यका शासक था। जैन माहित्यके उद्धरणोंपर रष्टि डालने खित होनेसे, हम सालुव मल्लिरायको १६वीं शताब्दीके मे मुझे मालूम होता है कि 'मस्लि' नामका एक शासक कुछ प्रथम चरणमें रख सकते हैं, और उसके विजयकीर्ति तथा जैन लेखकोंके साथ प्रायः सम्पर्क को प्राप्त है। शुभचंद्र गुर्वा-विद्यानन्द विषयक सम्पर्क के साथ भी अच्छी तरह सगत जान बलीके अनुसार, विजयकीर्ति (ई. सन्की सोलहवीं शताब्दीके पड़ता है। इस तरह नेमिचंद्रके सालुव मल्लिरायके समकाप्रारम्भमें) मल्लिभूपाल के द्वारा सम्मानित हुया था। लीन होनेसे. हम सस्कृत जी. प्रदीपिकाकी रचनाको इसाकी विजयकीर्तिका ममकालीन होनेसे उस मल्लिभूपालको १६वीं १६वीं शताब्दीके प्रारम्भकी ठहरा सकते हैं।। शताग्दीके प्रारम्भमें रखा जासकता है। उसके स्थान और धर्म पं. नाथरामजी प्रेमी४५ने नेमिचंद्र की जी० प्रदीपिकाकी विषयका हमें कोई परिचय नहीं दिया गया है। दूसरे विशाल- क और प्रशस्तिका उल्लेख किया है. जोकि २६ अगस्त सन् कीीतके शिष्य विद्यानन्द स्वामी के सम्बन्धमें कहा जाता १११५ के जैनमित्रमें प्रकाशित हुई थी। उनके द्वारा दिये है कि ये मल्लिरायके द्वारा पूजे गये थे, और ये विद्यानन्द १२ । गये विवरण, ऊपर दी हुई दो प्रशस्तियोंके मेरे साक्षिप्तसारमें ईस्वी सन् १५४१ में दिवंगत हुए हैं। इससे भी मालूम प्राजाते हैं। वे महिलभूपालका उल्लेख नहीं करते । चूं कि होता है कि १६वीं शताब्दीके प्रारम्भमें एक मल्लिभूपाल था। उन्होंने कोई निष्कर्ष नहीं दिया है. इसलिये हम नहीं जानते हुमचका शिलालेख इस विषय को और भी अधिक स्पष्ट कर कि यह चीज़ उनसे छटगई है या इस प्रशस्तिमें ही शामिल देता है-यह बतलाता है कि यह राजा जो विद्यानन्दके नही है। प्रेमीजीने उस प्रशस्तिपरसे यह एक खास बात नोट सम्पर्क में था मालुव मल्लिराय ४३ कहलाता है। यह उल्लेख की है कि सस्कृत जी. प्रदीपिका वीरनिर्वाण सम्वत् २१७७ हमें मात्र परम्परागत किम्बदन्तियोंसे हटाकर ऐतिहासिक में, जोकि वर्तमान गणनाके अनुसार ईसी सन् १६५० के प्राधारपर लेभाता है। सालुव नरेशोंने कनारा जिलेके एक बराबर है, समाप्त हुई है। यह समय मल्लिभूपाज़ और भागपर राज्य किया है और वे जैन धर्मको मानते थे। नेमिचंद्रको समकालीन नहीं ठहरा सकता । चुकि असली ३९ देखो, ऊपरकी प्रशम्तियो । प्रशस्ति उद्धत नहीं की गई है, अतः इस उल्लेखकी विशेष४० जैनमिद्धान्तभास्कर, भाग १ किरण ४ पृ० ५४; और ताओंका निर्णय करना कठिन है । हर हालतमें, ईस्वी सन् भण्डारकर ओरियंटलरिसर्चइस्टिट्चटके एनाल्म XIII, लारसच इस्टिट्यूटके एनाल्म XIII, १६५० जी० प्रदीपिकाकी बादकी प्रतिलिपिकी समाप्तिका i, पृ० ४।। ' गैनमिद्धान्तभास्कर, भाग ५ किरण ४ प्रशस्तिममह के समय है,नकि स्वयं जी०प्रदीपिकारचनाकी समाप्तिका समय। पृ० १२५, १२८ श्रादि । साराश यह कि, सस्कृत जी०प्रदीपिकाका कर्ता केशववर्णी ८२ डा० बी० ए० मालेटोरने विद्यानन्दके व्यश्चित्व एवं कार्यों नहीं है, यह बताने वाला कोई प्र नहीं है, यह बताने वाला कोई प्रमाण नही है कि सस्कृत पर अक्छा प्रकाश डाला है। देखो मिडियावल जैनिज्म जी. प्रदीपिका गोम्मटसार की चामुण्डरायकृत कर्णाटकवृत्ति (बम्बई १९३८) पृ० ३७१ श्रादि, 'कर्णाटकके जैन के आधारपर है, नेमिचंद्र, जोकि गो०सारके कर्तासे भिन्न हैं. गुरुश्रोके संरक्षकके रूपमें देहलीके सुलतान' कर्णाटक सस्कृत जी०प्रदीपिकाके को हैं, और उनकी जी०प्रदीपिका रफल क्वार्टरली, भाग ४, १-२. ०७७६. कमर जी०प्रदीपिकाकी, जोकि केशववर्णी द्वारा ईस्वी सन् 'वादीविद्यानन्द' जैन एण्टिक्वेरी,४ किरण १ प्र. १-२० १३५६ में लिखी गई हैं, बहुत ज्यादा प्राणी है और सालु ४३ एपिग्राफिया कर्णाटिका भाग, VIII. नगर नं.४६ मारलरायक समकाला मल्लिरायके समकालीन होनेसे नेमिचंद्र (और उनकी जी. एपिग्राफिया कर्णाटिका, VIII प्रस्तावना पृ० १०, १३ प्रदीपिका) को ईसाकी १५. शताब्दीके प्रारम्भका ठहराया ४; शिलालेखोके आधारपर मैसूर और कर्ग (लन्दन जाना चाहिए। १९०६)पृष्ठ १५२-३: मिडियावल जैनिज्म पृष्ठ ३१८श्रादि ४५ मिद्धान्तमारादिसंग्रह: (बम्बई १९२२), प्रस्ताबना पृष्ठ १२ Page #130 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त आयुर्वेद प्रेमियों के लिये खुशखबरी उत्तरीय भारत में महान संस्था की स्थापना म्वदेशी पंजी में स्वदेश की मेवा __भाग्नवर्ष की धार्मिक जनता आयुर्वेद की पूर्ण प्रेमी एवं पक्षपाती होते हुए भी उसे प्रयोग में लाने में केवा हम लिय घबड़ाती रही है कि शुद्ध और शाम्रान विधिवत नैयार की हुई औपधियों का अभावमा रहा है। उपयुक्त और अनुपयुक्त श्राज क्रान्ति के इम वैज्ञानिक युग में जब की यह निर्विव द मिद्ध हो चुका है कि प्रत्येक प्राणी के लिये जा जिम देश में पैदा हुवा है उस उसी भूमि की पैदा शुदा न कंवल औषधियाँ बल्कि प्रहार की प्रत्येक वस्तु उपयुक्त हानी है । फिर युगप आदि ठंडे दशां का बनी हुई दृपिन औषधियां हमारं गंगों पर किम प्रकार मफल हो मकन है। निर्माण की सुव्यवस्था उनर्गय भारतकी इम कमी का पृग कग्न के लिय ही हमने इम मन्था की स्थापना की है । भाग्न के प्रायः मभी शिक्षित महानुभाव जानते है कि हिमालय पर्वन जहां हम लोग बमन है उत्तम और अमूल्य औषधियों का गढ़ है औषध मंचय करने की हमने जो व्यवस्था की है वह आदर्श है अयुर्वेद के महान प्राचार्यों द्वाग औपध निर्माणकी व्यवस्था निसंदेह मानम पूर्ण सुगन्धका स्वरूप है। मप्रम-निमन्त्रण महारनपुर पधारने वाले मजनों में अत्यन्त नम्र शब्दों में हमार्ग विनय है कि वह एक बार हमारे कार्यालय का. हमार्ग निर्माण शाला का एवं हमारे औषध भंडार का अवश्य निरीक्षण करें। उत्तम वस्तु का मजीव-प्रमाण आयुर्वद-संवा के इम शुभ कार्य का हमने एक लाख रुपये के मूल धन म इन्डियन कम्पनीज एक्ट के अनुमार स्थापित किया है। यह लिग्वत हुए हमारा हृदय हर्ष मे गद्गद् हो जाना है कि जनना ने हमागे संवाओं की पूरी कदर करनी शुरु करदी है। यपि हमारे कार्य को व्यवस्थित रूपसे स्थापित हुए अभी केवल १ माह हो पूग हुवा है किन्तु इम थाई से कालमें ही प्रति-दिन सैंकड़ों रुपये के श्राडगे का श्राना हमारे परिश्रम की सार्थकता, जनता की क़दर एवं हमारी औपधियों की उत्तमता का ज्वलंत उदाहरण है परीक्षा प्रार्थनीय है। कौशलप्रमाद जैन मैंनजिङ्ग डाइरेक्टर भारत आयुर्वेदिक केमिकल्स लिमिटेड, सहारनपुर । Page #131 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त मुपारी-पाक ___माना और बहनों के लियं अत्यन्न हिनकर #वातु है । नय और पुगन मी प्रकार के श्वेत ४ और रक्त प्रदर का ममूल दूर करन में ग़जब * का फायदा पहुंचाना है । मासिकधर्म की पीड़ा अनियमितता श्रादि का निश्चय के माथ श्रागम करेगा। मृ? पावका )मा अशोका-रिष्ट त्रियों के धुन-ग्न. प्रदर एवं प्रमृन की अनुपम महौषध है। वंध्या स्त्रियों का व यन्त्र भी इम महोपध के मंचन में नष्ट होकर सुन्दर मन्तान की माना बनने का मौभाग्य प्रान हाना है । मासिकधर्मकी सभी शिकायतें दृर हाजानी हैं। मृ. प्रनि बानल २) २० H अष्टवर्गयुक्तच्यवनप्राश-महाग्मायन समर-मुगन्धित और मवामिन' आयुर्वेद की इम अनुपम प्रापध का निर्माण प्रायः मभी वैद्य एवं कोई-कोई डाक्टर * तक कर रहे है । किन्तु हा एक स्थल पाइप सुन्दर माधनों की सुविध एवं * मर्वथा अभाव है। हमने इम महाग्मायन का निर्माण ताज़ा और परिपक्व बनम्पनियों के * पूर्ण योगम अत्यन्त शुद्धता पूर्वक किया है. जो किमी भी मम्प्रदाय विशप के धर्म-भाव पर आघान नहीं पहुंचाना । औपध निहायन जायकेदार है. नयगंगकी म्यांमी एवं हृदयके मभी * गंगों पर गमबागा है। दिल और दिमाग़ एवं शक्ति मंचयकं लिये व जाड़ नवा है। मूल्य-१ पाव के डब्बं का ५)म. डाक खच पृथक परिवार-महायक-बक्स X गृहस्थ में अचानक उत्पन्न हा जान वाल दिन रात के माधारण मी गगों के लिये हम *बक्ममें ११ दवाइयां हैं, मम्पन्न और महदय * महानुभावों का परोपकागर्थ अवश्य परिवार में ग्यना चाहिये। म प्रनि बम II) म. अंगृगसव नाजा अंगृग के गम में इस अमृन्य और और स्वादिष्ट योग का निर्माण वैज्ञानिक विधि: में हुआ है । मस्तिष्क और शरीर की निवलनाX पर गमबाण है। दिमागी काम करने वाला वकील, विद्यार्थी और मास्टर आदिको निन्य. मेवन करना चाहिय। मृ२) की बानल : भारत आयुर्वेदिक केमिकल्स लिमिटेड, सहारनपुर । Page #132 -------------------------------------------------------------------------- ________________ **** पूर्व ग्रंथ महात्मा गांधीजी लिखित महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना और संस्मरण सहित महान् ग्रन्थ छपकर तैयार है ! श्रीमद् राजचन्द्र गुजरात के सुप्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता शतावधानी कविवर रायचन्द्रजीके गुजराती ग्रंथका हिन्दी अनुवाद अनुवादकर्त्ता - प्रोफेसर पं० जगदीशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० महात्माजीने इसकी प्रस्तावनामे लिखा है— " मेरे जीवन पर मुख्यता से कवि गयचन्द्र भाई की छाप पड़ी है। टॉल्स्टाय और रस्किन की अपेक्षा भी गयचन्द्र भाईने मुझपर गहरा प्रभाव डाला है ।" गयचन्द्रजी एक अद्भुत महापुरुष हुए हैं, वे अपने समय के महान् तत्त्वज्ञानी और विचारक थे । महात्माओका जन्म देने वाली पुण्यभूमि काठियावाड़ में जन्म लेकर उन्होंने तमाम धर्मोका गहराई से अध्ययन किया था और उनके सारभूत तत्त्वोंपर अपने विचार बनाये थे । उनकी स्मरणशक्ति राजबकी थी, किसी भी ग्रन्थको एक बार पढ़के वे हृदयस्थ (याद) कर लेते थे, शतावधानी तो थे ही अर्थात् सौ बातोंमे एक साथ उपयोग लगा सकते थे । इसमें उनके लिखे हुए जगत कल्याणकारी, जीवनमे सुख और शान्ति देनेवाले, जीवनोपयोगी, सर्वधर्मसमभाव, अहिंसा, सत्य आदि तत्त्वों का विशद विवेचन है। श्रीमद्की बनाई हुई मोक्षमाला, भावन बोध, आत्मसिद्धि आदि छाटे मोटे ग्रन्थोका संग्रह तो है हा, सबसे महत्वकी चीज़ है उनके ८७४ पत्र, जो उन्होंने समय समय पर अपने परिचित मुमुक्षु जनोंका लिखे थे, उनका इसमे संग्रह है । दक्षिण अफ्रिकास किया हुआ महात्मा गॉधीजीका पत्रव्यवहार भी इसमें है । अध्यात्म और तत्त्वज्ञानका तो खजाना ही है। गयचन्द्रजीकी मूल गुजराती कविताएँ हिन्दी अर्थ सहित दी है। प्रत्येक विचारशील विद्वान और देशभक्तको इस ग्रन्थका स्वाध्याय करके लाभ उठाना चाहिए । पत्र-सम्पादको और नामी नामी विद्वानोंने मुक्तकण्ठसे इसकी प्रशंसा की है। ऐसे प्रन्थ शताब्दियों में विरले ही निकलते हैं । गुजराती इस ग्रन्थके सात एडीशन होचुके है। हिन्दी में यह पहलीबार महात्मा गांधीजी के आग्रहसे प्रकाशित हुआ है बड़े आकार के एक हजार पृष्ठ है, छ: सुन्दर चित्र हैं, ऊपर कपड़े की सुन्दर मजबूत जिल्द बॅधी हुई है। स्वदेशी कागजपर कलापूर्ण सुन्दर छपाई हुई है । मूल्य ६) छः रुपया है, जो कि लागत मात्र है। मूल गुजराती ग्रन्थका मूल्य ५) पांच रुपया है। जा महोदय गुजराती भाषा सीखना चाहें उनके लिये यह अच्छा साधन है । एक खास रियायत - जो भाई रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला के एक साथ १०) के प्रथ मँगाएँगे, उन्हे उमास्वातिकृत 'सभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' भाषाटीका सहित ३) का प्रन्थ भेंट देंगे। मिलने का पता: परमश्रुत्र-प्रभावकमंडल, (रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला) खाग कुवा, जौहरी बाजार, बम्बई नं० २ Rees 66९०२ २०२० Fe÷R? *************** *************************** मुद्रक और प्रकाशक प० परमानन्द शास्त्री वीर सेवामन्दिर, मरसावा के लिये श्रीवास्तव प्रिंटिंग प्रेम महारनपुर में मुद्रित Page #133 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक हजार वर्ष में अपूर्व सुअवसर षटखंडागम (धवल सिद्धान्त) तथिंकर भगवान की श्रुनांग वाणी से सीधा सम्बंध रखने वाले जैन सिद्धान्त के सब से प्राचीन और महत्वपूर्ण ग्रंथ के दो भाग छप चुके हैं, नीमग छप रहा है और चौथा तैयार हो रहा है । शास्त्राकार प्र० भाग १५॥ पुस्तकाकार प्र० भाग , द्वि. भाग १२) .. द्वि, भाग १० नाट-शास्त्राकार प्रथम भाग की प्रनिया बहन थोदी शग रही है । अनाव दोनो भाग साथ लन वाली को ही मिल मकंगी। मंत्री श्रीमन्त मठ शिनावगय लक्ष्मीचन्द्र. जैन माहित्य उद्धारक फंड अमरावती Page #134 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निकान्त - एकनाकर्षन्ती लययन्ती परमतत्वमितरंगा । अन्तन जर्यात जना नीतिर्मन्धाननेमिव गोपी। गुणमुख्य-कल्पा अनकान्तात्मिका स्याद्वादमपिणी सापेक्षवादिनी भयानमा विधेय BHI अनकान्तानाम्यात निषel म्यान वस्तुतत्त्व न्यात स्यात विविधनयापना यथातत्त्वप्ररुपिका पनयापेक्षा म सप्तभंगरूपा अनुभव सम्यग्वस्त-ग्राहिका वर्ष सम्य Shukla | विधयं वार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि नहिशप प्रत्येक नियमविपर्यश्चापििमत । महान्योन्यापन मकनभुवनज्येष्टगमगा त्वया गीतं तन्वं वनय-विवतंतग्वशान॥१४१ GD) किरण २ Page #135 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ १२१ १२२ ५२४ १३३ विपय लेखक १ जिन-प्रतिमा-वन्दन-[सम्पादकीय २ जैनी नीति ( कविता )-[पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य ३ प्रभाचंद्रका ममय-[ न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जैन, ४ कवि राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल-[सम्पादक य ५ अनकान्त पर लोकमत६ समन्तभद्र-विचारमाला (२) वीतरागकी पूजा क्यों ?-[ सम्पादकीय ७ कर्मबंध और माक्ष-[पं० परमानन्द जैन, शास्त्री ८ दुनिया का मेला ( कविता )-[पं० काशीगम शर्मा 'प्रफुलित' । ९ जैन मुनियों के नामान्त पद-[ अगरचंद नाहटा, १० बाबा मनकी आंखें खाल (कहानी)-[ श्री 'भगवत्' जैन ११ समन्तभद्र का मुनिजीवन और आपत्काल-[ सम्पादकीय १२ विचारपुष्पांद्यान १३ पुण्य-पाप ( कविता ) १४ हल्दी घाटी ( कविता )-[ श्री भगवत' जैन १५ विवाह कब किया जाय? -[ श्री लालनाकुमारी पाटणी १६ 'मुनिसुव्रतकाव्यकं कुछ मनोहर पद्य-[पं० सुमंग्चंद्र जैन, दिवाकर १७ शैतानकी गुफामें माधु (कहानी)-[अनु० डा० भैय्यालाल जैन ... १८ संयमीका दिन और गत-[ श्री विद्यार्थी' १३८ १३९ १४१ १४४ १४५ १५३ १६३, १४७ १६४ की सामग्री जुटाना तथा उसमें प्रकाशित होने के लिये उप योगी चित्रांकी योजना करना और कगना । (१)२५), ५०), १००) या इमम अधिक रम देकर सहायकोंकी चार श्रेणियों में से कि.मीमें अपना नाम लिखाना । ___ सम्पादक 'अनकान्त' (२) अपनी पोरमे अममर्थोको तथा अजैन संस्थानों अनेकान्तके नियम को अनेकान्त झी (बिना मृल्य ) या अर्धमृल्यमें भित्रवाना १--इम पत्रका मृल्य वार्षिक ३), छड माझ्या २) और इस तरह दूसरोको अनेकान्तके पढ़ने की सविशेष प्रेरणा पेशगी है-बी. पी. से मंगाने पर वी. पी. खर्च के चार याने करना । ( इस मद में सहायता देने वालांकी अोरमे प्रत्येक अधिक होगे । मालारण एक किरणका मूल्य |-) और दम रूपथेकी महायताके पीछे अनेकान्त चारको फ्री अथवा विशेषाङ्कका ) है। अाठको अर्धमृल्यमें भेजा जा सकेगा। २--ग्राहक प्रथम किरण और सातवीं किरणमे बनाये (३) उत्मव-विवाहादि दानके अवसरों पर अनेरान्तका जाने हैं-मध्यकी किरगामे नहीं । जो बीच में पाक नंगे बराबर खयाल रखना और उसे अच्छी सहायता भेजना उन्हे पिछली किरग भी लेनी होगी। तथा भिजवाना, निममे बनेकान्त अपने अच्छे विशेषाङ्क 'अनेकान्त' के विज्ञापन-रेट निकाल सके, उपहार ग्रन्यांकी योजना कर सके और उत्तम वर्ष भरका छह मामका एक बारका लेखो पर परस्कार भी दे सके । स्वत: अपनी अोर में उपहार पर पेजका ग्रन्थोकी योजना भी इम मद में शामिल होगी। अाधे पेजका (४) अनेकान्त के ग्राहक बनना, दमरोको बनाना और चौथाई पेजका अनेकान्तके लिये अच्छे अच्छे लेग्य लिखकर भेजना, लेखो व्यवस्थापक 'अनकान्त' ७२। Page #136 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ अहम् * चिन्ता श्वतत्त्व-प्रकाशक नीतिविरोषध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् ।। परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः । मार्च वर्ष४ किरण २ ( वीरसंवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) मरसावा जिला सहारनपुर चैत्र, वीर निर्वाण सं० २४६७, विक्रम सं० १९६७ १९४१ जिन-प्रतिमा-वन्दन विगतायुध-विक्रिया-विभूषाः प्रकृतिस्थाः कृतिनां जिनेश्वरोणाम् । प्रतिमाः प्रतिमागृहेषु कान्स्याऽप्रतिमाः कल्मषशान्तयेऽभिवन्दे ॥ कथयन्ति कषायमुक्ति लक्ष्मीं परया शान्ततया भवान्तकानाम् । प्रणमामि विशुद्धये जिनानां प्रतिरूपाण्यभिरूपमूर्तिमन्ति ॥ -चैत्यभक्ति पूतात्मा श्री जिनेन्द्र देवकी जो प्रतिमा श्रायुधसे रहित हैं, विकारसे वर्जित हैं और विभूषासे-वस्त्रालंकारोंसे-- विडीन हैं तथा अपने प्राकृतिक स्वरूपको लिये हुए प्रतिमागृहोमें-चैत्यालयोमें स्थित हैं और असाधारण कान्तिकी धारक हैं, उन सबको मैं पापोंकी शान्ति के लिये अभिवन्दन करता हूँ ॥ संमार-पर्यायका अन्त करने वाले श्री जिनेन्द्रदेवो की प्रेमी प्रतिमाएँ, जो अग्ने मूर्तिमानको अपनेमें ठीक मूर्तित किये हुए हैं, अपनी परम शान्तताके द्वारा कषायोंकी मुक्तिसे जो लक्ष्मी--अन्तरंग-बहिरंग विभूति अथवा श्रात्मविकामरूप शोभा उत्पन्न होती है उसे स्पष्ट घोषित करती हैं, अतः अात्मविशुद्धिके लिये मैं उनकी वन्दना करता हूँ—भी निर्विकार. शान्त एवं वीतराग प्रतिमाएँ श्रात्माके लक्ष्यभूत वीतरागभावको उसम जाग्रत करने, उसकी भूली हुई निधिकी स्मृति कराने और पापामे मुक्ति दिलाकर अात्मविशुद्धि कगने में कारिणीभूत होती है, इसीसे ममक्षुश्रांके द्वाग वन्दन, पूजन तथा पागधन किये जानेके योग्य है । उनका यह वन्दन-पृजन वस्तुतः मूर्तिमान्का ही वन्दन-पूजन है। Page #137 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनी नीति [ लेखक–५० पन्नालाल जैन 'वसन्त' साहित्याचार्य ] एकनाकर्षन्ती श्लथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरेण । भन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्थाननेत्रमिव गोपी ॥ एक दिवम अङ्गणमें मेरेगोपी मन्थन करती थी, 'कल-छल कल-छल' मंजुलध्वनिसे अविरल गृहको भरती थी। उज्ज्वल दधिसे भरे भाण्डमेंपड़ा हुआ था मन्थन-दण्ड, श्रायत-मृदुल-मनोहर कढ़नी मे करता था नृत्य अखण्ड । गोपीके दोनों कर-पल्लवक्रमसे कदनी स्त्रींच रहे, चन्द्र-बिम्ब-सम उज्ज्वल गोले मक्खनके थे निकल रहे। मैंने जाकर कहा गोपिके ! दोनों करका है क्या काम ? दक्षिण-करसे कढ़नी म्बींचों, अचल रखो अपना कर बाम । ज्यों ही ऐसा किया गोपिने त्यों ही मन्थन नष्ट हुआ, कढ़नी दक्षिण-करमें श्राई, मथन-दण्ड था दूर हुश्रा । तब मैंने फिर कहा गोपिके ! अब खींचो बाएँ करसे, दक्षिण करको सुस्थिर करके सटा रखो अपने उरसे । बाएँ करसे गोपीने जबथा खींचा कढ़नीका छोर, मथन-दण्ड तब छूट हाथमे दूर पड़ा जाकर उम ओर ! मम चतुराई पर गोपीने मन्द मन्द मुस्कान किया, फिर भी मैंने तत्क्षण उसको एक अन्य अादेश दिया । अब खींचो तुम दोनों करसेएक साथ कढ़नीके छोर, दृष्टि सामने सुस्थिर रक्खो __नहीं घुमायो चारों ओर । गोपीने दोनों हाथासे कढ़नीको खींचा ज्यों ही, मथन-दण्ड भी निश्चल होकर खड़ा रहा तत्क्षण त्यो ही। सारी मन्थन-क्रिया रुकी अरु कल-छलका रख बन्द हुया! अपनी चतुराई पर मुझको तब भारी अफ़सोस हुआ ! गोपीने मन्यन-रहस्य तबहँसकर मुझको बतलाया; __ मेरे मनके गूढ तिमिरको हटा, तत्त्व यह जतलाया । दक्षिण करसे कढ़नीका जबअञ्चल खींचा करती हूँ, बाम हस्तको तब ढीला कर कढ़नी पकड़े रहती हूँ। बाम हरूलसे जब कढ़नीकाछोर खींचने लगती हूँ, दक्षिण करको तब ढीलाकर कढ़नी पकड़े रहती हूँ। Page #138 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] एक साथ दोनों हाथोंसे कर्षण - क्रिया न करती हूँ, नहीं कभी मैं एक हाथसे दधिका मन्थन करती है। मन्थन रहस्यसे गोपीके 'जननीति' को समझ गया, अनेकान्तका गूढ तत्त्व योक्षण भर में ही सुलझ गया ! 'एकेनाकर्षन्ती' नामक अमृतचन्द्र-कृत शुभ गाथाकी सुस्मृतिसे हुआ उसी क्षण उन्नत था मेरा माथा । · अनेकान्तमय वस्तु नत्वसे - ज्ञाताकी भरा हुआ जग भाण्ड अनूप, स्वाद्रादात्मक मथन- दण्डसे आलोडन होता शिवरूप । सद्बुद्धि-गोपिका क्रमसे मन्थन करती है, नय - माला मन्थाननेत्रको क्रमसे खींचा करती है। विधि-रीका दक्षिण कर जय कढ़नीको गह लेता है, 'तिरूप तब सफल वस्तु है' यह सिद्धान्त निकलता है। जब निषेध दृष्टीका बायाँहाथ उसे गह लेता है, 'नास्तिरूप तब सकल वस्तु हैं' यह सिद्धान्त निकलता है। उभय-दृष्टि का हस्तयुगल जबक्रमसे कट्टनी गहना है, 'अस्ति नास्ति मय सकल वस्तु हैं' यह सिद्धान्त निकलता है। जेनी नीति हार्पिता अनुभवदृष्टीके करमें जब कदनी जाती, 6 अवक्तव्य हैं सकल वस्तु ' तबयह रहस्य वह बतलाती । विध्यनुभयदृष्टीके द्वारा कढ़नी जब खींची जाती, अस्ति श्रवाच्यस्वरूप विश्वमैअर्थ- मालिका हो जाती । निषेधानुभयदृष्टि स्वकरमें कढ़नी जब गह लेती है, 'नास्ति श्रवाच्यस्वरूप वस्तु है' यह निश्चित कह देनी है। उभवानुभपदृष्टिके हाथी जब कटुनी लीची जाती, 'अस्ति नास्ति अरु अवक्तव्य-मय' सत्स्वरूप नब बनलाती 'अनेकान्त' के मुख्य पृष्ठ पर जिसका चित्रण किया गया, जैनी नीति वही है जिसका उस दिन अनुभव मुझे हुआ । सम्यग्वस्तु प्राहिका है पह ठीक तत्व बतलाती है, बैर-विरोध मिटाकर जगमेंशान्ति-सुधा बरसाती है । इससे इसका श्राराधनकर, जीवन सफल बना लीजे; । पद-पद पर इसकी श्राज्ञाकाही निशिदिन पालन कीजे । १२३ * इस 'जैनी नीति' के विशेष परिचयके लिये देखो 'अनेकान्त' के गत विशेषाङ्क में प्रकाशित 'चित्रमय जैनी नीति' नामका सम्पादकीय लेख । Page #139 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचन्द्रका समय [ लेखक-न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जैन, काशी ] - प्राचार्य प्रभाचंद्र के समयके विषयमें डा० ८३७) की फार गुन शुक्ला दशमी तिथिको पूर्ण पाठक, प्रेमीजी + तथा मुख्तार साहब किया था। इस समय अमोघवर्षका राज्य था । जयआदिका प्रायः सर्वसम्मत मन यह रहा है कि प्राचार्य धवलाको समाप्ति के अनन्तर ही आचार्य जिनमनने प्रभाचंद्र ईसाकी ८ वीं शताब्दीके उत्तरार्ध एवं नवीं आदिपुगणकी रचना की थी। आदिपुगण जिनसन शताब्दीके पूर्वार्धवर्ती विद्वान थे। और इसका मुख्य की अन्तिम कृति है। वे इसे अपने जीवनमें पूर्ण आधार है जिनसनकृत आदिपुगणका यह श्लोक- नहीं कर सके थे। उसे इनके शिष्य गुणभद्र ने पूर्ण "चन्द्रांशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकविं स्तुवे । किया था। तात्पर्य यह कि जिनसन प्राचार्यन ई० कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाह्लादितं जगत् ॥" ८४० के लगभग आदिपुगणकी रचना प्रारम्भ की अर्थात्-जिनका यश चन्द्रमाकी किरणोंके होगी। इसमें प्रभाचंद्र तथा उनके न्यायकुमुदचंद्रका समान धवल है, उन प्रभाचन्द्रकविकी स्तुति करता उल्लेख मानकर डॉ० पाठक आदिन निर्विवादरूपम हैं। जिन्होंने चन्द्रोदयकी रचना करके जगत्को प्रभाचंद्रका ममय ईसाकी ८ वीं शताब्दीका उत्तरार्ध प्राहादित किया।" इस श्लाकमें चन्द्रोदयसे न्याय तथा नींका पर्वाध निश्चित किया है। कुमुदचन्द्रोदय (न्यायकुमुदचन्द्र ) प्रन्थका सूचन सुहृदर पं० कैलाशचंद्रजी श स्त्रीने न्य यकुमुदचंद्र समझा गया है। श्रा० जिनमननं अपनं गुरु वीरसेन प्रथमभागकी प्रस्तावना (पृ० १२३ ) में डॉ० पाठक की अधूरी जयधवला टीकाको शक सं० ७५९ (ई० आदिका निगस + करते हुए प्रभाचंद्र का समय ई० ___ + यह लेख न्यायकुमुदचन्द्र द्वि० भागके लिये लिखी पं० कैलाशचन्द्रजीने श्रादिपुराणके 'चंद्राशुशुभ्रयगई प्रस्तावनाका एक अंश है। शसं' श्लोकमें चंद्रोदयकार किसी अन्य प्रभाचंद्रकविका श्रीमान् प्रेमीजीका विचार अब बदल गया है। वे उल्लेख बताया है, जो ठीक है। पर उन्होंने श्रादिपुराणकार अपने "श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र" लेख (अनेकान्तवर्ष ४ अंक जिनसेनके द्वारा न्यायकुमदचंद्रकार प्रभाचंद्रके स्मृत होनेमें १) में महापुराणटिप्पणकार प्रभाचन्द्र तथा प्रमेयकमलमा- बाधक जो अन्य तीन हेतु दिए हैं वे बलवत् नहीं मालूम तण्ड और गद्यकथाकोश श्रादिके कर्ता प्रभाचन्द्रका एक होते । अत: (१) श्रादिपुराणकार इसके लिये बाध्य नहीं ही व्यक्ति होना सूचित करते हैं। वे अपने एक पत्रमें मुझे माने जा सकते कि यदि वे प्रभाचंद्रका स्मरण करते हैं तो लिखते हैं कि-"हम ममझते हैं कि प्रमेयकमलमार्तण्ड और उन्हें प्रभाचंद्रके द्वारा स्मृत अनंतवीर्य और विद्यानंदका न्यायकुमुदचन्द्र के कर्ता प्रभाचन्द्र ही महापराणटिप्पणके कर्ता स्मरण करना ही चाहिये । विद्यानंद और अनंतवीर्यका है। और तत्त्वार्थवृत्तिपद (सर्वार्थसिद्धिके पदोंका प्रकटीकरण), समय ईमाकी नवीं शताब्दीका पूर्वाध है. और इमलिये वे समाधितन्त्रटीका, श्रात्मानुशासनतिलक, क्रियाकलापटीका, श्रादिपराणकारके ममकालीन होते हैं। यदि प्रभाचंद्र भी प्रवचनमारसरोजभास्कर (प्रवचनसारकी टीका) श्रादिके कर्ता, ईमाकी नवीं शताब्दीके विद्वान् होते, तो भी वे अपने ममऔर शायद रत्नकरण्डटीकाके कर्ता भी वही हैं।" कालीन विद्यानंद आदि प्राचार्योका स्मरण करके भी Page #140 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] प्रभाचन्द्रका समय १२५ ९५० से १०२० तक निर्धारित किया है। इस निर्धा- और प्रभाचंद्र' की तुलना करते समय व्योमशिवका रित समयकी शताब्दियों तो ठीक हैं पर दशकोंमें समय ईसाकी सातवीं शताब्दीका उत्तरार्ध निर्धारित अंतर है । तथा जिन प्राधारोंसे यह समय निश्चित कर पाया हूँ। इसलिए मात्र व्योमशिवके प्रभावके किया गया है वे भी अभ्रांत नहीं हैं । पं० जीने कारण ही प्रभाचन्द्रका समय ई० ९५० के बाद नहीं प्रभाचंद्रके ग्रंथोंमें व्योमशिवाचार्यकी व्योमवती टीका जा सकता। महापुराणके टिप्पणकी वस्तुस्थिति तो का प्रभाव देखकर प्रभाचंद्रकी पूर्वावधि ९५० ई० यह है कि-पुष्पदन्तके महापुराण पर श्रीचंद और पुष्पदन्तकृत महापुराणके प्रभाचंद्रकृत टिप्पणको आचार्यका भी टिप्पण है और प्रभाचंद्र आचार्यका वि० सं० १०८० (ई० १०२३ ) में समाप्त मानकर भी। बलात्कारगणके श्रीचंद्रका टिप्पण भाजदेवके उत्तरावधि १०२० ई० निश्चित की है। मैं व्योमशिव राज्यमें बनाया गया है । इसकी प्रशस्ति निम्न श्रादिपुराणकार-द्वारा स्मृत हो सकते थे। (२) 'जयन्त और लिखित हैप्रभाचंद्र' की तुलना करते समय मैं जयंतका समय ई. ॥ श्रीविक्रमादित्यसंवत्सरे वर्षाणामशीत्यधिक ७५० से ४० तक सिद्ध कर आया हूँ। अत: समकालीन- सहस्र महापगणविषमपदविवरणं सागरसेनसैद्धान्तात् वद्ध जयंतसे प्रभावित होकर भी प्रभाचंद्र श्रादिपुराणम परिमाय मलटिप्पणाचालोक्य कृ-मिदं समुचय उल्लेख्य हो सकते हैं। (३) गुणभद्रके श्रात्मानुशासनसे 'अन्धादयं महानन्धः' श्लोक उद्धत किया जाना अवश्य सेनमुनि विषयव्यामुग्धबुद्धि न होकर विदितसकलशास्त्र एवं ऐसी बात है जो प्रभाचंद्रका श्रादिपराणमें उल्लेख होनेमें अविकलवृत्त हो गए थे। अत: लोकसेनकी प्रारम्भिक बाधक हो सकती है। क्योकि आत्मानुशामनके "जिनसेना- अवस्था में, उत्तरपुराणकी रचनाके पहिलेही श्रात्मानुशासनका चार्यपादस्मरणाधीनचेतसाम् । गुणभद्रभदन्तानां कतिरात्मा- रचा जाना अधिक संभव है। पं० नाथूरामजी प्रेमीने विद्रल. नुशासनम् ॥” इस अन्तिमश्लोकसे ध्वनित होता है कि यह माला (पृ.७५) में यही संभावना की है। श्रात्मानुशासन ग्रन्थ जिनसेनस्वामीकी मृत्युके बाद बनाया गया है। क्योंकि गुणभद्रकी प्रारम्भिक कृति ही मालूम होती है। और गुणवही ममय जिनसेनके पादोंके स्मरणके लिए ठीक ऊँचता है। भद्रने इसे उत्तरपुराणके पहिले जिनसेनकी मृत्युके बाद अतः श्रात्मानुशासनका रचनाकाल मन् ८५० के करीब बनाया होगा। परन्तु श्रात्मानुशासनकी आंतरिक जाँच मालूम होता है। श्रात्मानुशासन पर प्रभाचंद्रकी एक टीका करनेसे हम इस परिणाम पर पहुंचे हैं कि इसमें अन्य उपलब्ध है। उसमें प्रथम श्लोकका उत्थान वाक्य इस प्रकार कवियोंके सुभाषितोंका भी यथावसर समावेश किया गया है। है- "बृहद्धर्मभ्रातुर्लोकसेनस्य विषयव्यामुग्धबुद्धः सम्बोधन- उदाहरणर्थ-श्रात्मानुशासनका ३२ वां पद्य 'नेता यस्य व्याजेन सर्वसत्वोपकारकं सन्मार्गमुपदर्शयितकामो गणभद्र- वृहस्पतिः' भर्तृहरिके नीतिशतकका ८८ श्लोक है. देव:..." अर्थात्-गुणभद्र स्वामीने विषयोंकी अोर चंचल श्रात्मानुशासनका ६७ वा पद्य 'यदेतत्स्वच्छन्दं' बैराग्यशतक चित्तवृत्तिवाले बड़े धर्मभाई (१) लोकसेनको समझानेके का ५० वां श्लोक है। ऐसी स्थितिमें 'श्रन्धादयं महानन्धः बहाने श्रात्मानुशासन ग्रंथ बनाया है। ये लोकसेन गुणभद्रके सुभाषित पद्य भी गुणभद्रका स्वरचित ही है यह निश्चयप्रियशिष्य थे। उत्तरपुराणकी प्रशस्तिमें इन्हीं लोकसेनको पूर्वक नहीं कह सकते। तथापि किमी अन्य प्रबल प्रमाणके स्वयं गुणभद्रने 'विदितसकलशास्त्र, मुनीश, कवि, अवि- अभावमें अभी इस विषयमें अधिक कुछ नहीं कहा जा सकता। कलवृत्त' आदि विशेषण दिए हैं। इससे इतना अनुमान देखो, न्यायमुकुदचंद्र द्वि० भागकी प्रस्तावना पृ० तथा तो सहज ही किया जा सकता है कि श्रात्मानुशासन उत्तर- अनेकान्त वर्ष २ किरण ३ में 'प्रभाचंद्रके समयकी सामग्री पुराणके बाद तो नहीं बनाया गया; क्योंकि उस समय लोक- लेख । Page #141 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२६ टिप्पणम् अज्ञपातमीतेन श्रीमदुबला [स्का] रगणश्रीसंघाचार्यसत्कविशिष्येण श्रीचन्द्रमुनिना निजदोर्दण्डाभिभूत रेपुराज्यविजयिनः श्रीभोजदेवस्य || १०२ || इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचन्द्राचार्य (?) विरचितं समाप्तम् י अनेकान्त [ . र्ष ४ ही न्यायकुमुदचंदकी रचना की है। मुद्रित प्रमेयकमलमार्त्तण्डके अंत में "श्री भोजदेवराज्यं श्रीमद्धारानिवासिना परापर परमेष्ठिपदप्रणामोपार्जितामलपुण्यराकृतनिखिलमलकलङ्केन श्रीमत्प्रभाचंद्र पण्डितेन निखिलप्रमाणप्रमेयम्वरूपोद्योतिपरीक्षा मुख पदमिदं विवृतमिति ।" यह पुष्पिकालंग्य पाया जाता है। न्यायकुमुदचंद्रकी कुछ प्रतियों में उक्त पुष्पिकालंग्य 'श्री भोजदेवराज्ये' की जगह 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' पदके साथ जैसाका तैसा उपलब्ध है। अतः इस स्पष्ट लेख से प्रभाचंद्रका समय जयसिंहदेवके राज्यके कुछ वर्षों तक, अन्ततः सन् १०६५ तक माना जा सकता है। और यदि प्रभाचंद्रने ८५ वर्षकी आयु पाई हो तो उनकी पूर्वावधि मन् ९०० मानी जानी चाहिए । श्रीमान मुख्तारसा० तथा पं० कैलाशचंद्रजी प्रमेयकमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्र के अंत में पाए जान वाले उक्त 'श्रीभोजदेवराज्य और 'श्रीजयसिंहदेव राज्ये ' आदि प्रशस्तिलेग्योकी स्वयं प्रभाचंद्रकृत नहीं मानते । मुख्तारसा० इस प्रशस्तिवाक्यका टीकाटिप्पणकार द्वितीय प्रभाचंद्रका मानते हैं तथा पं० कैलाशचंद्र जी इसे पीछे किसी व्यक्तिर्क करतूत बताते है । पर प्रशस्तिवाक्यको प्रभाचंद्रकृत नहीं माननेमे दानोंके श्राधार जुदे जुदे हैं। मुख्तारसाहब प्रभाचंद्रको जिनसंनके पहिलेका विद्वान् मानते हैं, इसलिए 'भोजदेव - राज्य' आदिवाक्य वे स्वयं उन्हीं प्रभाचंद्रका नहीं मानते । पं० कैलाशचंद्रजी प्रभाचंद्रका ईसाकी १० वीं और ११वीं शताब्दीका विद्वान् मानकर भी महापुराण के टिप्पणकार श्री चंद्रके टिप्पणके अंतिमवाक्यको भ्रमवश प्रभाचंद्रकृत टिप्पणका श्रं तमवाक्य समझ प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण जयसिंहदेव के राज्यमें लिखा गया है । इसकी प्रशस्तिकं श्लोक रत्नकरण्ड श्रावका चरक प्रस्तावना से न्यायकुमुदचंद्र प्रथम भागकी प्रस्तावना ( पृ० १२०) में उद्धत किये गये हैं। श्लोकों के अनन्तर - " श्री जयसिंह देवराज्ये श्रीमद्भागनिवासिना परापरपरमेष्ठिप्रणामोपार्जितामलपुग्यनिगकृताग्विल - मलकलङ्केन श्रीप्रभाचंद्रपण्डितेन महापुराणटिप्पण के शतत्र्यधिकसहस्रत्रयपरिमाणं कृतमिति ।" यह पुष्पि का लेख है । इस तरह महापुराण पर दोनों आचार्यो के पृथक् पृथक् टिप्पण हैं। इसका खुलासा प्रेमीजीके लेख' से स्पष्ट हो ही जाता है । पर टिप्पणलेखकने श्री चंद्रकृत टिप्पण के 'श्रीविक्रमादित्य' वाले प्रशस्ति लेखकं अंत में भ्रमवश इति उत्तरपुराणटिप्पणकं प्रभाचंद्राचार्यविरचितं समाप्तम्' लिख दिया है । इमी लिए डी० पी० एल० वैद्य, प्रो० हीरालालजी तथा पं० कैलाशचंदजीनं भ्रमवश प्रभाचंद्रकृत टिप्पणका रचना काल संवत् १०८० समझ लिया है। अतः इस भ्रांत आधारसे प्रभाचंद्रकं समयकी उत्तरावधि सन् १०२० नहीं ठहराई जा सकती। अब हम प्रभाचंद्रके समयकी निश्चित अवधिके साधक कुछ प्रमाण उपस्थित करते हैं १- प्रभाचंद्रने पहिले प्रमेयकमलमार्त्तण्ड बनाकर २ देखो, पं० नाथूरामनी प्रेमी लिखित 'श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र' शीर्षक लेख, श्रनेकान्त वर्ष ४ किरण १ तथा महापुराण की प्रस्तावना पृ० Xiv | २ रत्नकरण्ड प्रस्तवना पृ० ५६ ६० । ३ न्यायकुमुदचन्द्र प्रथम भागकी प्रस्तावना पृ० १२२ । Page #142 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचंद्रका समय १२७ लेने के कारण उक्त प्रशस्तिवाक्योंको प्रभाचंद्रकृत नहीं प्रशसिवाक्य नहीं है, किन्हींमे 'श्री पवनन्दि' सोक मानना चाहनं । मुख्तारसा० ने एक हेतु यह भी दिया नही है तथा कुछ प्रतियोम सभी लोक और प्रशस्ति है। कि-प्रमेयकमलमार्तण्डकी कुछ प्रतियोंमें यह वाक्य हैं। न्यायकुमुदचन्द्रकी कुछ प्रतियोंमे 'जयसिंह अंतिमवाक्य नहीं पाया जाता। और इसके लिए देवराज्ये' प्रशस्ति वाक्य नहीं है । श्रीमान मुख्तारसा. माण्डारकर इंस्टीट्यटकी प्राचीन प्रतियोंका हवाला पायः इमीम उक्त पस्तिवाक्योंको प्रमाचन्द्रकृत नहीं दिया है । मैंने भी प्रमेयकमलमार्गण्डका पुनः सम्पादन मानने । करते ममय जैनसिद्धान्तभवन आगकी प्रतिकं पाठा इसके विषयम मेरा यह वक्तव्य है कि-लेखक म्तर लिए है। इसमे भी उक्त 'भोजदेवगज्ये' वाला ॥ प्रमादवश प्रायः मौजूद पाठ तो छोड़ देते हैं पर किसी वाक्य नहीं है। इसी तरह न्यायकुमुदचंद्रके सम्पादन अन्यकी प्रशस्ति अन्यप्रन्थमं लगानका प्रयत्न कम मे जिन श्रा०, ब, श्र० और भां० प्रतियोंका उपयोग करते हैं । लेखक आखिर नकल करने वाले लेखक किया है, उनमे प्रा० और ब० प्रनिमे 'श्री जयसिंह- ही तो हैं, उनमे इतनी बुद्धिमानीकी भी कम संभावना देवराज्य' वाला प्रशस्ति लेग्य नहीं है । हाँ, भां० ओर है कि वे 'श्री भोजदेवगज्ये' जैसी सुन्दर गद्य प्रशस्ति श्र० प्रतियाँ, जो तादपत्र पर लिखी हैं, उनमे 'श्री को स्वकपोलकल्पित करके उसमे जोड़ दें। जिन जयसिहदेवराज्य' वाला प्रशस्तिवाक्य है । इनमे भां० पतियोमे उक्त पस्ति नहीं है तो समझना चाहिए प्रति शालिवाहनशक १७६४ की लिम्बी हुई है। इस कि लेखकोके पूमादसे उनमे यह प्रशस्ति लिखी ही तरह प्रमेयकमलमण्डिकी किन्हीं प्रतियोमे उक्त नहीं गई । जब अन्य अनेक पमाणोंस पभाचन्द्रका १ रत्नकरण्ड प्रस्तावना पृ०६०। समय करीब करीब भोजदेव और जयसिंहके राज्य २ देखा,इनका परिचय न्यायकु०प्र०भागके मंपादकीयम। काल तक पहुंचता है तब इन पस्तिवाक्योका टिप्प ३ पं० नाथूरामजी प्रेमी अपनी नोटबुकके श्राधारसे णकारकृत या किसी पीछे होने वाले व्यक्तिकी करतूत सूचित करते हैं कि- "भाण्डारकर इंस्टीच्य टकी नं०८३६ ( सन् १८७५-७६) की प्रतिमे प्रशस्तिका 'श्री पद्मनंदि' कहकर नही टाला जा मकता । मंग यह विश्वास है वाला श्लोक और 'भोजदेवराज्ये वाक्य नहीं। वहीं की कि 'श्रीभोजदेवराज्य' या 'श्रीजयसिंहदेवराज्य' नं० ६३८ ( सन् १८७५-७६ ) वाली प्रतिमे 'श्री पद्मनंदि' प्रशस्तियां मर्वपथम पमेयकमलमार्तण्ड और न्यायश्लोक है पर 'भोजदेवराज्ये' वाक्य नहीं है। पहिली प्रति कुमदचंद्रकं रचयिता पभाचंद्रन ही बनाई हैं। और संवत् १४८६ नथा दूसरी संवत् १६१५ की लिखी हुई है।" -- वीरवाणी विलास भवनके अध्यक्ष पं० लोकनाथ पार्श्व- है" सोलापरकी प्रतिमें "श्री भोजदेवराज्य" प्रशस्ति नहीं नाथशास्त्री अपने यहाँ की नाड़पत्रकी दो पूर्ण प्रतियोंको है। दिल्लीकी श्राधुनिक प्रतिमें भी उक्त वाक्य नहीं है। देखकर लिखते हैं कि-"प्रतियोंकी अन्तिम प्रशस्तिमें मुद्रित अनेक प्रतियोमें प्रथम अध्यायके अन्तमें पाए जाने वाले पुस्तकानमार प्रशस्ति श्लोक पूरे हैं और 'श्री भोजदेवराज्ये "सिद्धं सर्वजनप्रबोध" श्लोककी व्याख्या नहीं है। इंदौरकी श्रीमद्धारानिवासिना' आदि वाक्य हैं। प्रमेयकमलमार्चण्ड तुकोगंजवाली प्रतिमें प्रशस्तिवाक्य है और उक्त श्लोककी की प्रतियोंमें बहुत शैथिल्य है, परन्तु करीब ६०० वर्ष व्याख्या भी है। खुरईकी प्रतिमे 'भोजदेवराज्य प्रशस्ति नहीं पहिले लिखित होगी। उन दोनों प्रतियोमें शकसंवत् नहीं है, पर चारों प्रशस्ति-श्लोक हैं। - -- - - --- - Page #143 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १२० भनेकान्त [वर्ष ४ जिन जिन ग्रंथोंमें ये प्रशस्तियां पाई जाती हैं वे प्रसिद्ध खंडन किया है। पूमेयकमलमार्तण्डके छठवें अध्याय तर्कप्रथकार पूभाचंद्रके ही ग्रंथ होने चाहिएँ। में जिन विशेष्यासिद्ध आदि हेत्वाभासोंका निरूपण २-यापनीयसंघामणी शाकटायनाचार्यने शाक- है वे सब न्यायसारसे ही लिए गए हैं। स्व. डा० टायन व्याकरण और अमोघवृत्ति के सिवाय केवलि- शतीशचंद्र विद्याभूषण इनका समय ई० ९००के लगमुक्ति और स्त्रीमुक्ति प्रकरण लिखे हैं । शाकटायनने भग मानते हैं । अतः प्रभाकंद्रका समय भी ई०९०० अमोघवृत्ति, महाराज अमोघवर्षके राज्यकाल (ई० के बाद ही होना चाहिये । ८१४ से ८७७) में रची थी। प्रा० प्रभाचंद्रने प्रमेय- ५-० देवसेनन अपन दर्शनसार ग्रंथ (रचनाकमलमार्तण्ड और न्यायकुमुदचंदमें शाकटायनके समय ९९० वि०, ९३३ ई०) के बाद भावमंग्रह प्रथ इन दोनों प्रकरणों का खंडन प्रानुपूर्वीस किया है। बनाया है । इसकी रचना संभवतः सन् १४० के न्यायकुमुदचंद्रमें स्त्रीमुक्तिप्रकरणसे एक कारका भी प्रासपास हुई होगी। इसकी एक 'नोकम्मकम्महागे' उद्धत की है । अतः प्रभाचंद्रका समय ई० ९०० से गाथा पूर्मयकमलमार्तण्ड तथा न्यायकुमुदचंद्रमे उद्धत पहिले नहीं माना जा सकता। है। यदि यह गाथा स्वयं देवसेनकी है तो पभाचंद्रका ३-सिद्धसेनदिवाकरके न्यायावतारपर सिद्धर्षि- समय सन् ६४० के बाद हाना चाहिए। गणिकी एक घृत्ति उपलब्ध है । हम 'सिद्धर्षि और ६-पा० पभाचंद्रने प्रमेयकमलमा० और न्यायपभाचंद्र' की तुलना में बता पाए हैं कि प्रभाचंद्रने कुमुद० बनानेके बाद शब्दाम्भोजभास्कर नामका न्यायावतारके साथ ही साथ इस वृत्तिको भी देखा जैनेन्द्रन्यास रचा था। यह न्यास जैनेन्द्रमहावृत्तिके है। सिर्षिन ई० ९०६ में अपनी उपमितिभवपपञ्चा- बाद इसी के आधारसे बनाया गया है। मैं 'अभयनन्दि कथा बनाई थी। अतः न्यायावतारवृत्तिके द्रष्टा प्रभा- और प्रभाचंद्र' की तुलना करते हुए लिख आया हूं' चंद्रका समय सन् ११०के पहिले नहीं माना जा कि नेमिचंद्र सिद्धान्त चक्रवर्तीके गुरु अभयनन्दिने ही सकता। यदि महावृत्ति बनाई है तो इसका रचनाकाल ४-भासर्वज्ञका न्यायसार प्रन्थ उपलब्ध है। अनुमानतः ९६० ई० होना चाहिये । अतः प्रभाचंद्रका कहा जाता है कि इसपर भासर्वज्ञकी स्वोपज्ञ न्याय- समय ई० ६६० से पहिले नहीं माना जा सकता। भूषण नामकी वृत्ति थी। इस वृत्तिके नाम मे उत्तर- ७-पुष्पदन्तकृत अपभ्रंशभाषाके महापुराण पर कालमें इनकी भी 'भूषण' रूपमे पसिद्धि हो गई थी। पूभाचन्दने एक टिप्पण रचा है। इसकी पशस्ति रत्नन्यायलीलावतीकारके कथनसे २ ज्ञात होता है कि करण्डश्रावकाचारकी प्रस्तावना (पृ०६१) में दी भूषण क्रियाको संयोगरूप मानते थे । प्रभाचंद्रने गई है। यह टिप्पण जयसिंहदेवके गल्यकालमें लिखा म्यायकुमुदचंद्र (पृ० २८२ ) में भासर्वज्ञके इस मतका गया है । पुष्पदन्तने अपना महापुराण सन ९६५ ई० -- में समाप्त किया था। टिप्पणकी प्रशस्तिसे तो यही १ न्यायकुमुदचंद्र द्वितीयभागकी पस्तावना पृ. ३६ । २ देखो; न्यायकुमुदचंद्र पृ० २८२ टि० ५। २ न्याय- _ मालूम होता है कि पमिद्ध पूभाचंद्र ही इस टिप्पणक सार प्रस्तावना पृ०५। १ न्यायकुमुदचंद्र द्वितीयभागकी पुस्तावना पृ० ३३ । Page #144 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रभाचंद्रका समय किरण २ ] है । यदि यही प्रभाचंद्र इसके रचयिता हैं, तां कहना होगा कि पभाचंद्रका समय ई० ९६५ के बाद ही होना चाहिए। यह टिप्पण उन्होंने न्यायकुमुद चंद्रकी रचना करके लिखा होगा । यदि यह टिप्पण पूसिद्ध तर्क ग्रंथकार भाचंद्रका न माना जाय तब भी इसकी शक्ति के श्लोक और पुष्पिकालेख, जिनमें प्रमेय कमलमार्त्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्र के प्रशस्ति श्लोकों का एवं पुष्पिका लेखका पूरा पूरा अनुसरण किया गया है, पभाचंद्रकी उत्तरावधि जयसिंहके राज्यकाल तक निश्चित करनेमें साधक तो हो ही सकते हैं। ८ - श्रीधर और प्रभाचंद्र की तुलना करते समय हम बना आए हैं कि पूभाचंद्र के ग्रंथों पर श्रीधर की कन्दली भी अपनी आभा दे रही है । श्रीधर ने कन्दली टीका ई० सन ९९१ में समाप्त की थी । श्रतः भाचंद्रकी पूर्वावधि ई० ९९० के करीब मानना और उनका कार्यकाल ई० १०२० के लगभग मानना संगत मालूम होता है । ९ - श्रवणबेलगोलके लेख नं० ४० (६४) में एक पद्मनन्दिमैद्धान्तिकका उल्लेख है और इन्हींके शिष्य कुलभूषण के सधर्मा प्रभाचंद्र की शब्दाम्भोरुह भास्कर और पूतितर्कप्रन्थकार लिम्बा है " श्रविद्ध कर्णादकपद्मनन्दिसैद्धान्तिकाख्योऽजनि यस्य लोके । कौमारदेवत्र तिताप्रसिद्धिः सो ज्ञाननिधिस धीरः || १५ || तच्छिष्यः कुलभूषणाख्ययतिपश्चारित्रवारांनिधिः, सिद्धान्ताम्बुधिपारगो नतविनेयस्तत्सधर्मो महान् । शब्दाम्भोरुहभास्करः प्रथिततर्कग्रन्थकारः प्रभा १ न्यायकुमुदचंद्र द्वितीयभागकी पूस्तावना पृ० १२ । १२६ चन्द्राख्यां मुनिराज पण्डितवरः श्रीकुण्डकुन्दान्वयः १६” इस लेख में वर्णित प्रभाचंद्र, शब्दाम्भोरुह भास्कर और प्रथिततर्कग्रन्थकार विशेषणों के बलसं शब्दाम्भोजभास्कर नामक जैनेन्द्रन्यास और प्रमेयकमलमार्तण्ड, न्यायकुमुदचंद्र आदि प्रन्थों के कर्ता प्रस्तुत प्रभाचन्द्र ही हैं। धवलाटीका पु० २ की प्रस्तावना में ताड़पत्रीय प्रतिका इतिहास बताते हुए प्रो० हीरालाल जीने इस शिलालेख मे वणित प्रभाचंद्र के समय पर सयुक्तिक ऐतिहासिक प्रकाश डाला है । उसका मारांश यह है – “उक्त शिलालेखमें कुलभूषण से गेकी शिष्यपरम्परा इस प्रकार है - कुलभूषण के सिद्धांतवारांनिध, सद्वृत्त कुलचंद्र नामके शिष्य हुए। कुलचंद्र देव के शिष्य माघनन्दि मुनि हुए, जिन्होंन कोल्लापुरमं नीर्थ स्थापन किया। इनके श्रावक शिष्य थे सामन्त केदार नारकस, सामन्त निम्बदव और सामंत कामदेव | माघनन्दिके शिष्य हुए - गण्डविमुक्त देव, जिनके एक छात्र सेनापति भरत थे, व दूसरे शिष्य कीर्ति और देवकीर्ति, आदि । इस शिलालेख में बताया है कि महामण्डलाचार्य देवकीर्ति पंडितदेवने कालापुरकी रूपनारायण बसदिकं अधीन केल्लंगरेय प्रतापपुरका पुनरुद्धार कराया था, तथा जिननाथपुर मे एक दानशाला स्थापित की थी। उन्हीं अपने गुरुकी परोक्ष विनयके लिए महाप्रधान सर्वाधिकारी हिरिय भंडारी, अभिनवगंगदंडनायक श्री हुलराजने उनकी निपधा निर्माण कराई, तथा गुरुके अन्य शिष्य लक्खनन्दि, माधव और त्रिभुवनदेवने महादान व पूजाभिषेक करके प्रतिष्ठा की । देवकीर्तिक समय पर प्रकाश डालने वाला शिलालेख नं० ३६ है । इसमें देवकीर्तिकी प्रशस्तिके अतरिक्त उनके स्वर्गवासका समय शक १०८५ सुभानु संवत्सर श्राषाढ़ शुक्ल ९ Page #145 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ बुधवार सूर्योदयकाल बतलाया गया है । और कहा १०-वादिगजसूरिने अपने पार्श्वचरितमें अनेकों गया है कि उनके शिष्य लक्खनन्दि, माधवचन्द्र और पूर्वाचार्योंका स्मरण किया है। पार्श्वचरित शक सं० त्रिभुवनमल्लने गुरुभक्तिसे उनकी निषद्याकी प्रतिष्ठा ९४७ (ई० १०२५)में बनकर समान हुआ था। इन्होंकराई। देवकीर्ति पद्मनन्दिसे पाँच पीढ़ी तथा कुल- ने अकलंकदेवकं न्यायविनिश्चय प्रकरणपरन्यायविनिभूषण और प्रभाचन्द्रसे चार पीढ़ी बाद हुए हैं। श्चयविवरण या न्यायविनिश्चयनात्पर्यावद्योतनी व्याअतः इन प्राचार्योको देवकी निकै समयसे १००-१२५ ख्यानरत्नमाला नामकी विस्तृत टीका लिखी है। इस वर्ष अर्थात् शक ९५० (ई १०२८ ) के लगभग हुए टीकामें पचासों जैन-जैनतर श्राचार्योकं ग्रंथों प्रमाण मानना अनुचित न होगा। उक्त प्राचार्योंके काल- उद्धृत किए गए हैं । संभव है कि वादिगजके निर्णयमें सहायक एक और प्रमाण मिलता है- समयमें प्रभाचन्द्रकी प्रसिद्धि न हो पाई हो, कुलचन्द्र मुनिक उत्तराधिकारी माघनन्दि कोल्लापुरीय अन्यथा तर्कशास्त्रक गमिक वादिराज अपने इस कहे गए हैं। उनके गृहस्थ शिष्य निम्बदेव सामन्तका यशस्वी प्रन्थकारका नामोल्लेग्य किए विना न रहते । उल्लेख मिलता है जो शिलाहाग्नरेश गंडरादित्यदेवके यद्यपि ऐसे नकारात्मक प्रमाण स्वतन्त्रभावसे किसी एक सामन्त थे। शिलाहार गंडगदित्यदेवके उल्लेख आचार्यके ममयके माधक या बाधक नहीं होते फिर शक सं० १०३० से १०५८ तक के लेग्वोंमें पाए जाते भी अन्य प्रबल प्रमाणोंके प्रकाश ने इन्हें प्रसङ्गमाधनके हैं। इससे भी पूर्वोक्त कालनिर्णयकी पुष्टि होती है।" रूपमें तो उपस्थित किया ही जा सकता है। यही __ यह विवेचन शक सं० १०८५ में लिखे गए अधिक संभव है कि वादिगज और प्रभाचन्द्र ममशिलालेखोंके आधारसं किया गया है। शिलालेखकी कालीन और सम-व्यक्तित्वशाली रहे हैं अतः वादि. वस्तुओं का ध्यानसे समीक्षण करनेपर यह प्रश्न होता गजने अन्य आचार्योंके साथ प्रभाचन्द्रका उल्लेख है कि-जिम नरह प्रभाचन्द्र के सधर्मा कुलभूषणकी नहीं किया है। शिष्यपरम्पग दक्षिण प्रान्तमें चली उस तरह प्रभा अब हम प्रभाचन्द्रकी उत्तगवधिके नियामक कुछ चन्द्रकी शिष्यपरम्पराका कोई उल्लेख क्यों नहीं प्रमाण उपस्थित करते हैं () ईसाकी चौदहवीं शत ब्दीके विद्वान् अभिनमिलता ? मुझे तो इसका यही संभाव्य कारण मालूम वधर्मभूषणन न्यायदीपिका (पृ०५६) में प्रमयकमल होता है कि पद्मनन्दिके एक शिष्य कुलभूषण नो मार्तण्डका उल्लेग्य किया है। इन्होंने अपनी न्यायदक्षिणमें ही रहे और दूसरे प्रभाचन्द्र उत्तर प्रांतमें दीपिका वि० सं० १४४२ (ई० १३:५)में बनाई थो' । आकर धाग नगरीके आसपास रहे हैं। यही कारण ईसाकी १३ वीं शताब्दीक विद्वान् महिषेणने अपनी है कि दक्षिणमें उनकी शिष्य परम्पगका कोई उल्लेख स्याद्वादमखरी (रचना समय ई० १२:३) में न्यायनहीं मिलता। इस शिलालेग्वीय अंकगणनास निर्विबाद सिद्ध हो जाता है कि प्रभाचन्द्र भोजदेव और कुमुदचन्द्रका उल्लेख किया है। ईसार्की १२ वीं शताजयसिंह दोनोंके समय में विद्यमान थे। अतः उनकी ब्दीके विद्वान् प्राचार्य मलयगिरिन आवश्यकनियुक्तिपूर्वाषधि सन् ९९० के आसपास माननेमें कोई बाधक टीका (पृ० ३७१ A.) में लघीयस्त्रयकी एक कारिका नहीं है। १ स्वामी समंतभद्र पृ० २२७ । Page #146 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] प्रभाचंद्रका समय का व्याख्यान करते हुए 'टीकाकार' के नामसे न्यायकु०- ते प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचंद्रे च मोक्षवचारे चन्द्र में की गई उक्त कारिकाकी व्याख्या उद्धत की है। विस्तरतः प्रत्याख्याताः।" इन उल्लेखोंसे स्पष्ट है कि ईसाकी १२ वीं शताब्दीकं विद्वान देवभद्रने न्यायाव- प्रमेयकमलमार्शण्ड और न्यायकुमुदचंद्रप्रन्थ इन तारटीका-टिप्पण (पृ० २५, ७६) में प्रभाचन्द्र और टीकाओं पहिले रचे गए हैं । अतः प्रभाचंद्र ई० की उनके न्यायकुमुदचंद्रका नामोल्लेख किया है। अतः १२ वीं शताब्दीक बादके विद्वान नहीं हैं। इन १२ वीं शताब्दी तकके विद्वानोंके उल्लेखोंके (३)-वादिदेवसूरिका जन्म वि० सं० ११४३ आधारसं यह प्रामाणिकरूपसे कहा जा सकता है तथा स्वर्गवाम वि० सं० १२२६ में हुआ था। ये वि० कि प्रभाचन्द्र ई० १२ वी शताब्दीके बादक विद्वान् ११७४ में आचार्यपद पर बैठे। संभव है इन्होंने वि० नहीं है। सं० ११७५ ( ई० १११८ ) के लगभग अपने प्रसिद्ध (6) रत्नकरण्डश्रावकाचार और समाधिनन्त्रपर प्रन्थ म्याद्वादरत्नाकरकी रचना की होगी। स्याद्वाद्प्रभाचंद्रकृत टीकाएँ उपलब्ध हैं । पं० जुगलकिशोरजी रत्नाकरमें प्रभाचंद्रक प्रमेयकमलमार्चण्ड और न्यायमुख्ताग्ने' इन दोनों टीकाओंका एक ही प्रभाचंद्र के कुमुदचंद्र का न केवल शब्दार्थानुसरण ही किया गया द्वाग रची हुई मिद्ध किया है। आपके मतसे ये है किन्तु कवलाहारसमर्थन प्रकरणमें तथा प्रतिबिम्ब प्रभाचंद्र प्रमंयकमलमार्तण्ड आदिकं रचयिताम चर्चामें प्रभाचंद्र और प्रभाचंदके प्रमेयकमलमार्तण्ड भिन्न है । रत्नकरण्डटीकाका उल्लेख पं० श्राशाधरजी का नामोल्लेग्व करके खंडन भी किया गया है । अतः द्वारा अनागारधर्मामृत-टीका (अ० ८ श्लो० ९३) में। प्रभाचंद्र के समयकी उत्तरावधि अन्ततः ई० ११०० किए जाने के कारण इस टीकाका रचनाकाल वि० सुनिश्चित होजाती है। सं० १३०० मे पहिलेका अनुमान किया है, क्योंकि अ० (४) जैनेन्द्रव्याकरणकं अभयनन्दिसम्मत सूत्रधष्टी० वि०सं० १३००में बनकर ममाप्त हुई थी अन्ततः पाठपर श्रुतकीनिन 'पंचवस्तु प्रक्रिया बनाई है । अतः मुख्तार सा० इस टीकाका रचनाकाल विक्रमकी १३ वीं शताब्दीका मध्यभाग मानते हैं। अस्तु, फिनहाल कीर्ति कनड़ी चंद्रप्रभचरित्रके कर्ता अग्गलकविके मुख्तार सा० के निर्णयके अनुसार इसका रचनाकाल गुरु थे। अग्गलकविने शक २०११ ई० १०८९ में चन्द्रप्रभचरित्र पूर्ण किया था। अतः श्रुतकीर्तिका वि० १२५० ( ई० ११९३ ) मान कर प्रस्तुत विचार ममय भी लगभग ई० १०७५ होना चाहिए । इन्होंने करते हैं। रत्नकरण्डश्रावकाचार (पृ०६) में केवलिकव- अपनी प्रक्रिया में एक 'न्यास' प्रन्थका उल्लेख किया है। लाहारका न्यायकुमुदगतशब्दावलीका अनुसरण संभव है कि यह प्रभाचन्द्रकृत शब्दाम्भोजभास्कर करके खंडन करते हुए लिग्वा है कि-"तदलमतिप्रमङ्गेन नामका ही न्यास हो। यदि ऐसा है तो प्रभाचंद्रकी प्रमेयकमलमार्तण्डे न्यायकुमुदचंद्रे प्रपन्चतः प्ररू- उत्तगवधि ई० १०७५ मानी जा सकती है। पणात्"। इसी तरह समाटी०(पृ० १५)में लिखा है- शिमोगा जिलेके शिलालेख नं० ४६ से ज्ञात "यैः पुनर्योगसांख्यैः मुक्तौ तत्प्रच्युतिगत्मनाऽभ्युपगता होता है कि पूज्यपादने भी जैनन्द्र-न्यासकी रचना १ देखो, रत्नकरण्डश्रावकाचार भूमिका पृ० ६६ से। की थी । यदि श्रुतकीर्तिन न्याम पदस पूज्यपादकृत Page #147 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [१४ न्यासका निर्देश किया है तब 'टीकामाल' शब्दस स्थान नहीं रहता । इसलिए प्रभाचंद्रका समय ई०९८० सूचित होनेवाली टीकाकी मालामें तो प्रभाचंद्रकृत से १०६५ तक मानने में कोई बाधा नहीं है । शब्दाम्भोजभास्करको पिरोया ही जा सकता है । इस १प्रमेयकमलमार्तण्डके प्रथम संस्करणके सम्पादक तरह प्रभाचंद्रके पूर्ववर्ती और उत्तरवर्ती उल्लेखोंक पं० वंशीधरजी शास्त्री शोलापुरने उक्त संस्करणके उपोद्घात भाधारसे हम प्रभाचंद्रका समय सन् ९८० से १०६५ में 'श्रीभोजदेवराज्ये ' प्रशस्ति के अनुसार प्रभाचंद्रका समय तक निश्चित कर मकते हैं। इन्हीं उल्लेखोंक प्रकाशमे ईसाकी ग्यारहवी शताब्दी सूचित किया है । और आपने जब हम प्रमेयकमलमार्तण्डके 'श्रीभोजदेवराज्य' इसके समर्थनके लिए 'नेमिचंद्रसिद्धान्तचक्रवर्तीकी गाथाश्रो का प्रमेयकमलमार्गण्डमे उद्धृत होना' यह प्रमाण उपस्थित आदि प्रशस्तिलेख तथान्यायकुमुदचंद्रकं 'श्रीजयसिंह किया है। पर आपका यह प्रमाण अभ्रान्त नही है; प्रमेयदेवराज्ये' आदि प्रशस्तिलग्वका देग्वते हैं तो वे कमलमार्तण्ड में ' विग्गहगइमावण्णा' और 'लोयायासपएअत्यन्त प्रामा णक मालूम होते हैं। उन्हे किसी टीका से' गाथाएँ उद्धृत हैं । पर ये गाथाएँ नेमिचंद्रकृत नही हैं । टिप्पणकारका या किसी अन्य व्यक्तिकी करतून कह- पहिली गाथा धवलाटीका (रचनाकाल ई०८१६) मे उद्धृत कर नहीं टाला जा सकता। है और उमास्वातिकृत श्रावकप्रजति में भी पाई जाती है। उपर्युक्त विवेचनस प्रभाचंद्रके समयकी पूर्वावधि दूसरी गाथा पूज्यपाद (ई० ६ वी) कृत सर्वार्थसिद्धिम और उत्तगवधि करीब करीब भोजदेव और जयसिंह- उद्धृत है। अत: इन प्राचीन गाथानोको नेमिचन्द्रकृत नही माना जा सकता। अवश्य ही इन्हे नेमिचंद्रने जीवदेवके समय तक ही पाती है। अनः प्रमेयक मल काण्ड और द्रव्यसंग्रहमें संगृहीत किया है । अतः इन मार्तण्ड और न्यायकुमुदचंद्रमे पाए जानेवाले प्रशम्ति गाथाश्रोका उद्धृत होना ही पूभाचंद्रके समयको ११ वी लेखोंकी प्रामाणिकता और प्रभाचंद्रकर्तृतामें सन्दहको सदी नही साध सकता । 00000000000000*********** *** ग्राहकोंको सूचना आवश्यकता अनेकान्तके ग्राहकोंकी सूची छपाई जा रही है। श्री पारमानन्दजी जैन गुरुकुल पंजाब, गुजरांवाला अतः जिन प्राहकोंको अपने पते पादिमें किसी प्रकार के लिए एक विशेष अनुभवी हिन्दी संस्कृतके अच्छे * का सांशोधन अथवा परिवर्तनादि कराना प्रभीष्ट हो वे जानकार गुरुकुलशिक्षणपद्धतिमें विश्वास रखने वाले शीघ्र ही इसकी सूचना अनेकान्त-कार्यालयको देनेकी जैन प्रिंसिपल ( विद्याधिकारी) की आवश्यकता है कृपा करें। प्रार्थी महानुभाव प्रमाणपत्र एवं प्रशंसापत्र तथा न्यूनातिन्यून प्राय मासिक वेतनके साथ अधिष्ठाताके -व्यवस्थापक 'अनेकान्त' * नामपर शीघ्र ही प्रार्थना पत्र भेजें। 00000000000000000000000000000 Page #148 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल [ सम्पादकीय ] न समाज में कवि राजमल्ल नामक एक बहुत बड़े विद्वान् एवं प्रन्थकार वि०की १७ वीं शताब्दी में उस समय हो गये हैं जब कि अकबर बादशाह भाग्न का शासन करता था । आपने कितने ही ग्रन्थों का निर्माण किया है, परन्तु उनकी संख्या आदिका किमीको ठीक पता नहीं है। अभीतक आपकी मौलिक रचनाओंके रूपमें चार ग्रंथोंका ही पता चला था और वे चारों ही प्रकाशित हो चुके हैं, जिनके नाम हैं - १ जम्बूस्वामिचरित्र, २ लाटीसंहिता. ३ अध्यात्मकमलमार्तण्ड, और ४ पंचाध्यायी । इनमें से पिछला (पंचाध्यायी) प्रन्थ जिसे प्रथकार अपनी ग्रंथप्रतिज्ञा 'ग्रंथराज लिखते हैं, अधूरा है— पूरा डेढ़ अध्याय भी शायद नहीं है - और वह आपके जीवन की अन्तिम कृति जान पड़ती है. जिसे कविवर के हाथोंसे पूरा होने का शायद सौभाग्य ही प्राप्त नहीं सका। काश, यह ग्रंथ कहीं पूरा उपलब्ध हो गया होता तो सिद्धांत विषय को समझने के लिये अधिकांश ग्रंथोंके देवकी जरूरत ही न रहती - यह अकेला ही पचासों ग्रंथोंकी जरूरतको पूरा कर देता । अस्तु; हाल में मुझे आपका एक और ग्रंथ उपलब्ध हुआ है, जिसका * इनमेंसे प्रथम तीन ग्रन्थ 'माणिकचंद जैन ग्रन्थमाला' बम्बई में मूल रूपसे प्रकाशित हुए हैं और चौथा ग्रन्थ अनेक स्थानोंसे मूल रूपमें तथा भाषा टीकाके साथ पूकाशित हो चुका है। लाटी संहिता की भी भाषा टीका पूकट हो चुकी है। नाम है 'पिंगल' और जिसे ग्रंथके अंतिम पद्य में 'छंदोविद्या' भी लिखा है । यह ग्रंथ दिल्ली के पंचायती मंदिर के शास्त्र भण्डारसे उपलब्ध हुआ है, जिसकी ग्रंथसूची पहले बहुत कुछ अस्त-व्यस्त दशा में थी और अब वह अपेक्षाकृत अच्छी बन गई है। कविवरके उक्त चार ग्रंथों में से प्रथमके दो ग्रंथों ( जम्बूस्वामिचरित्र और लाटीसंहिता ) का पता सबसे पहले मुझे दिल्ली के भंडारोंसे ही चला था और मेरी तद्विपयक सूचनाओं पर से ही उनका उद्धार कार्य हुआ है, इस पांचवें ग्रंथका पता भी मुझे दिल्ली के ही एक भण्डारसे लग रहा है - दिल्लीको इस ग्रंथकी रक्षाका भी श्रेय प्राप्त है, यह जानकर बड़ी प्रसन्नता होती है। कुछ अर्सा हुआ, जब शायद पंचायती मंदिरकी नई सूची बन रही थी, तब मुझे इस ग्रंथको सरसरी तौर पर देखनेका अवसर मिला था और मैंने इसके कुछ साधारण से नोट भी लेलिये थे । हाल में वे नोट मेरे सामने आए और मुझे इस ग्रंथको फिरसे देखने की जरूरत पैदा हुई । तदनुसार गत फर्वरी मासके अंतिम सप्ताह में देहली जाकर मैं इसे ले आया हूँ और इस समय यह मेरे सामने उपस्थित है। इसकी पत्र संख्या मिली हुई पुस्तक के रूपमें २८ है, पहले पत्रका प्रथम पृष्ठ वाली है, २८ वें पत्रके अंतिम पृष्ठपर तीन पंक्तियाँ है— उसके शेष भागपर किसीने बादको छंदविषयक कुछ नोट कर रक्खा है और Page #149 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३४ अनेकान्त [वर्ष ४ मध्यके १८ वें पत्रके प्रथम पृष्ठपर लिखते समय १७वें सात * पद्य तथा समाप्ति-विषयक अन्तिम पद्य भी पत्रके द्वितीय पृष्ठकी छाप लग जानके कारण वह संस्कृत भाषामें हैं, शेष हिंदीमें कुछ उदाहरण हैं और खाली छोड़ा गया है । पत्रकी लम्बाई ८१ और कुछ उदाहरण ऐसे भी हैं जो अपभ्रंश नथा हिंदीके चौड़ाई ५३ इंच है। प्रत्येक पृष्ठपर प्रायः २० पंक्तियाँ मिश्रितरूप जान पड़ते हैं। इस तरह इस पथ परसं है, परंतु कुछ पृष्ठांपर २१ तथा २२ पंक्तियाँ भी हैं। कविवरके संस्कृत भाषाके अतिरिक्त दुसरी भाषाओं में प्रत्येक पंक्तिमें अक्षर-संख्या प्रायः १४ सं १८ तक रचनाके अच्छे नमूने भी सामन भाजात हैं और पाई जाती है, जिसका औसत प्रति पंक्ति १६ अक्षरों उनसे आपकी काव्यप्रवृत्ति एवं रचनाचातुर्य आदि का लगानेसे ग्रंथकी श्लोकसंख्या ५५० के करीब होती पर अच्छा प्रकाश पड़ता है। है। यह प्रति देशी रफ कागजपर लिखी हुई है और यह छंदाविद्याका निदर्शक पिगलग्रन्थ गजा बहुत कुछ जीर्ण-शीणे है, सील तथा पानीके कुछ भाग्मलके लिय लिखा गया है, जिन्हे 'भागहमल्ल' उपद्रवोंको भी सहे हुए है, जिसमें कहीं कहीं स्याही तथा कहीं कहीं छंदवश · भारु' नामस भी उल्लंफैल गई है तथा दूसरी तरफ फुट आई है और अनेक खिन किया गया है और जा लोकमे उस समय बहुत स्थानोंपर पत्रों के परस्परमे चिपकजानके कारण अक्षर ही बड़े व्यक्तित्वको लिये हुए थे । छंदाकं लक्षण अस्पष्टसे भी हो गये हैं। हालमें नई सूचीके वक्त प्रायः भाग्मल्लजीको सम्बोधन करके कहे गये है जिल्द बँधालेन आदिके कारण इसकी कुछ रक्षा उदाहरणोंमें उनकं यशका खुला गान किया गया है और होगई है। इस प्रथप्रतिपर यद्यपि लिपिकाल दिया हुआ इससे गजा भारमल्लके जीवन पर भी अच्छा प्रकाश नहीं है, परंतु वह अनुमानतः दोसौ वर्ष कमकी पड़ता है-उनकी प्रकृति, प्रवृत्ति, परिणनि, विभूति, मंलिग्वी हुई मालूम नहीं होती । यह प्रनि 'महम' नामक पत्ति,कौटुम्बिक स्थिति और लोकसंवा आदिकी कितनी किमी प्रामादिकमें लिखी गई है और इम 'म्यामगम ही ऐतिहासिक बातें मामने श्राजानी हैं। इन्हीं मब भाजग' ने लिखाया है; जैसा कि इसकी "महममध्ये बातांका लक्ष्यमें रखकर आज अनकान्तके पाठकोंक सामने यह नई खाज रक्ग्वी जाती है और उन्हें इम लिषावितं म्यामगमभाजग ॥” इस अन्तिम पंक्तिसे लप्तपाय ग्रंथका कुछ रसास्वादन कराया जाता है, प्रकट है। जा अर्सेस आँखोस ओझल होरहा था और जिसकी कविवरके जो चार ग्रंथ इससे पहले उपलब्ध स्मृतिको हम बिल्कुल ही भुलाए हुए थे । साथ ही, हुए हैं वे चारों ही संस्कृत भाषामें हैं; परंतु यह ग्रंथ गजा भारमल्लका जो कुछ खण्ड इतिहास इस प्रथ संस्कृत, प्राकृत, अपभ्रंश और हिन्दी इन चार पास उपलब्ध होता है उसे भी संक्षेपमें प्रकट किया भाषाओंमें है, जिनमें भी प्राकृत और अपभ्रंश प्रधान - हैं और उनमें छंदशास्त्र के नियम, छंदोंके लक्षण तथा * संख्याङ्क ६ पड़े हैं-दूसरे तीसरे पद्यपर कोई नम्बर न देकर ४ थे पद्यपर नम्बर ३ दिया है और आगे क्रमश: उदाहरण दिये हैं। संस्कृतमें भी कुछ नियम, लक्षण ४, ५, ६ । संख्याङ्कोके देने में श्रागे भी कितनी ही गड़बड़ तथा उदाहरण दिये गये हैं और प्रथके पारंभिक पाई जाती है । Page #150 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल १३५ जाता है। कविवर राजमल्ल जैसे विद्वानकी लेखनी चित्रं महचदिह मानधनो परास्ते से लिखा होने के कारण वह कोरा कवित्व न होकर इंदोमयं नयति यत्कविराजमस्तः । कुछ महत्त्व रखता है, इससे विद्वानोंको दूसरे साधनों यहादयोपि निजसारमिह दति परस राजा भारमल्लके इतिहासकी और और बातों पुण्यादयोमयत्नोस्तव भारमल ॥६॥(७) को खोजने तथा इस प्रथ परसे उपलब्ध हुई बातों इनमें से प्रथम पद्य में प्रथमजिनेन्द्र (आदिनाथ) पर विशेष पकाश डालनेके लिये पात्माहन मिलेगा को नमस्कार किया गया है और उन्हें केवलकिरण और इस तरह राजा भाग्मल्लका एक अच्छा इति- दिनेश' बनलाते हुए लिखा है कि उनकी ज्ञानज्योति हास तय्यार हो सकेगा। साथ ही, इस ग्रंथकी दृमरी में यह जगत् आकाशमें एक नक्षत्रकी तरह भासमान पाचीन पतियाँ भी खोजी जायँगों । यह पति है।' अपनी लाटीसंहिनाके प्रथम पद्यमें भगवान अनेक स्थानों पर बहुत कुछ अशुद्ध जान पड़ती है। को नमस्कार करते हुए भी कविबग्ने यही भाव व्यक्त पकाशन-कार्यके लिये दृमरी पतियोंके ग्वोजे जानेकी किया है, जैमा कि उसके “ यच्चिति विश्वमशेषं खास जरूरत है । अस्तु । व्यदीपि नक्षत्रमकमिव नभमि" इस उत्तगर्धसे प्रकट ___ कविवग्ने, अपनी इस ग्चनाका सम्बंध व्यक्त है। साथ ही, उसके भगवद्विशेषण में 'ज्ञानानन्दात्मान' करते हुए, मंगलाचरणादिके रूपमें जो मात संस्कृत लिखकर ज्ञानके साथ श्रानंदको भी जोड़ा है । पद्य शुरूमें दिये हैं व इस प्रकार हैं : लाटीसंहिनाके प्रथम पद्यमें जो साहित्यिक संशोधन केवलकिरणदिनेशं प्रथमजिनेशं दिवानिशं वंदे। और परिमार्जन दृष्टिगोचर होता है उससे ऐसी ध्वनि यज्योतिषि जगदेतदग्योम्नि नक्षत्रमेकमिव भाति ॥१॥ निकलती हुई जान पड़ती है कि कविकी यह कृति जिन इव मान्या वाणी जिनवरवृषभस्य या पुनः फणिनः। लाटीमंहितास कुछ पूर्ववर्तिनी होनी चाहिये । वर्णादिबोधवारिधि-तराय पोतायते तरा जगतः ॥ दुसरे पद्यमें जिनवर वृषम ( आदिनाथ ) की पासीनागपुरीयपक्षतिरतः साक्षात्तपागच्छमान् वाणी का जिनदेवकं समान ही मान्य बतलाया है, और सूरिः श्रीप्रभुचंद्रकीर्तिरवनौ मूर्धाभिषिको गणी। फणीकी वाणीका अक्षगदिबोधसमुद्रम पार उतरने के तत्पट्ट विह मानसूरिरभवत्सस्यापि पधुना लिये जहाजके समान निर्दिष्ट किया है। संसम्राडिव राजते सुरगुरुः श्रीहर्ष (प) कीर्तिर्महान् ॥ तीसरं पद्यमें यह निर्देश किया है कि आजकल श्रीमच्छीमालकुले समुदयदुदयाद्रिदेवद[ ]स्य । हर्षकीर्ति नामकं माधु सम्राटकी तरह गजते हैं, जो रविरिव रॉक्याणकृते ज्यदीपि भूपालभारमल्लाहः ॥३॥(४) कि मानसूरिके पट्टशिष्य और उन श्रीचंद्र कीर्तिक पूपट्टभूपतिरितिसुविशेषणमिदं प्रसिद्ध हि भारमन्नस्य । शिष्य हैं जो कि नागपुरीय पक्ष (गन्छ ) के साक्षात तन्कि संघाधिपतिर्वणिजामिनि वक्षमाणेपि ॥ ४॥ (५) अन्येच : कुतुकोस्वणानि पठता छंदांसि भूयांसि भो तपागकछी साधु थे। सूनोः श्रीसुरसंज्ञकस्य पुरतः श्रीमालचूडामणेः । चौथ-पाँचवें पद्योंमें बनलाया है कि-श्रीमालईपत्तस्य मनीषितं स्मितमखारसंलक्ष्य परमान्मया * लाटीसंहिताका निर्माणकाल आश्विन शुक्ला दशमी दिग्मात्रादपि नामपिगनमिदं पायादुपक्रम्यते ॥५॥ (५) वि.सं. १६४१ है। Page #151 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १३६ कुलमें देवदशरूपी उदयाचलके सूर्यकी तरह भूपाल भारमल्ल उदयको प्राप्त हुए और वे रांक्याणोंराक्याण गोत्र वालों के लिये खूब दीप्तिमान् हुए हैं। भारमल्लका' भूपति (राजा)' यह विशेषण सुप्रसिद्ध है, वे वणिक संघके अधिपति हैं । अनेकान्त छठे पद्य में अपनी इस रचनाके प्रसंगको व्यक्त करते हुए कविजी लिखते हैं- कि 'एक दिन मैं श्रीमाल चूड़ामणि देवपुत्र ( राजा भारमल ) के सामने बहुतसे कौतुकपूर्ण छंद पढ़ रहा था, उन्हें पढ़ते समय उनके मुखकी मुस्कराहट और दृटिकटाक्ष ( आँखों के संकेत ) परमे मुझे उनके मनका भाव कुछ मालूम पड़ गया, उनके उस मनोऽभिलाषको लक्ष्य में रखकर ही दिग्मात्ररूप से यह नामका 'पिंगल' प्रन्थ धृष्टता से प्रारम्भ किया जाता है ।' सातवें पद्य में कविवर अपने मनोभावको व्यक्त हुए लिखते हैं 'हे भारमल्ल ! मानधनका धारक कविराजमल्ल यदि तुम्हारे यशको छंदोबद्ध करता है तो यह एक बड़े ही अर्श्व की बात है । अथवा आप तेजोमय शरीर धारक हैं, आपके पुण्यप्रतापसे पर्वत भी अपना सा बहा देते हैं ।' करते [ वर्ष ४ यशको अनेक छंदों में वर्णन करने में पूवृत्त हुए हैं। यहाँ एक बात और भी जान लेने की है और वह यह कि तीसरे पद्य में जिन 'हर्षकीर्ति' साधुका उनकी गुरु-परम्परा सहित उल्लेख किया गया है वे नागौरी तपागच्छके आचार्य थे, ऐसा 'जैनसाहित्यनो संक्षिप्त इतिहास' नामक गुजराती ग्रंथसे जाना जाता है। मालूम होता है भारमल्ल, इसी नागौरी तपागच्छकी श्राम्नायके थे, जो कि नागौर के रहने वाले थे, इसी में उनके पूर्व उनकी आम्नायके साधुओंका उल्लेख किया गया है । कविराजमल्लने अपने दूसरे दो ग्रंथों (जम्बूम्वामिचरित्र, लाटीसंहिता) में काष्ठासंघी माथुरगच्छ के आचार्यों का उल्लेख किया है, जिनकी आम्नायमें वे श्रावक जन थे जिनकी प्रार्थनापर अथवा जिनके लिये उक्त ग्रंथोंका निर्माण किया गया है । दूसरेदां प्रथ ( अध्यात्म कमल मार्तण्ड, और पंचाध्यायी) चूंकि किसी व्यक्तिविशेषकी प्रार्थना पर या उसके लिये नहीं लिखे गये हैं, इस लिये उनमें किसी आम्नायविशेषके साधुओंका वैसा कोई उल्लेग्व भी नहीं है । और इससे एक तत्त्व यह निकलता कि कविराजमल जिसके लिये जिस प्रथका निर्माण करते थे उसमें उसकी आम्नायके साधुओं का भी उल्लेख कर देते थे, अतः उनके ऐसे उल्लेखों पर से यह न समझ लेना चाहिये कि वे स्वयं भी उसी आम्नायके थे । बहुत संभव है कि उन्हें किसी श्राम्नायविशेषका पक्षपात न हो, उनका हृदय उदार हो और वे साम्पदायिकता के पङ्कसे बहुत कुछ ऊँचे उठे हुए हों । इस पिछले पद्यसे यह साफ ध्वनित होता है कि कविराजमल्ल उस समय एक अच्छी ख्याति एवं प्रतिष्ठाप्राप्त विद्वान थे किमी क्षुद्र स्वार्थके वश होकर कोई कवि-कार्य करना उनकी प्रकृतिमें दाखिल नहीं था, वे सचमुच राजा भारमहके व्यक्तित्व से - उनकी सम्पत्तियों एवं सौजन्य से - प्रभावित हुए हैं, और इसी से छंदःशास्त्र के निर्माणके साथ साथ उनके * वक्खा थिए गोत विक्खात गक्याणि एतस्स || १६८ || कविराजमलने दूसरे प्रथोंकी तरह इस प्रथमें भी अपना कोई खास परिचय नहीं दिया- कहीं कहीं तो 'मल्लभ' 'कविमलक कहै' जैसे वाक्योंद्वारा Page #152 -------------------------------------------------------------------------- ________________ राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल किरण २ ] अपना नाम भी श्रधा ही उल्लेखित किया है। जान पड़ता है कविवर जहां दूसरोंका परिचय देने में उदार थे वहां अपना परिचय देने में सदा ही कृपण रहे हैं, और यह सब उनकी अपने विषय में उदासीनवृत्ति एवं ऊँची भावनाका द्योतक है-भले ही इसके द्वारा इतिहासज्ञोंके प्रति कुछ अन्याय होता हो । हाँ. श्री मोहनलाल दलीचंदजी देशांई, एडवोकेट बर्डद्वारा लिखे गये उक्त इतिहास प्रबंथ (टि० ४८८ ) से एक बात यह जाननको जरूर मिलती है कि पद्मसुन्दर नामके किसी दिगम्बर भट्टारकने संवत् १६१५ ( शकलाभृत्तर्कभू) में " रायमल्लाभ्युदय " ( पी० ३, २५५) नामका एक कव्य ग्रंथ लिखा है, जिसमें ऋषभादि २४ तीथे करोंका चरित्र है और उसे 'गयमल' नामक सुचरित्र श्रावकके नामांकित किया है। संभव है इस प्रथपरसे राजमल्लका कोई विशेष परिचय उपलब्ध हो जाय । अतः इस प्रथको अली तरह देखने की खाम तरूरत है। -- उक्त सातों संस्कृत पद्योंके अनन्तर प्रस्तावित छंदोग्रंथका प्रारम्भ निम्न गाथास होता है। दो संजुत्तवरो बिंदु यालियो (?) वि चरणंते । मगुरू चंकदुमते रचणेो लहु होइ सुद्ध एकश्रलो ||७ (८) इसमें गुरु श्रौर लघु अक्षरोंका स्वरूप बतलाते हुए लम्बा है - जो दीर्घ है, जिसके परभाग में संयुक्त वर्ण है, जो बिन्दु (अनुस्वार - विसर्ग) से युक्त है, पादान्त है वह गुरु है, द्विमात्रिक है और उसका रूप वक्र (S) है । जो एकमात्रक है वह लघु होता है और उसका रूप शुद्ध - वक्रता से रहित सरल ( 1 ) - है । इसी तरह आगे छदः शास्त्र के नियमों, उपनियमों तथा नियमों के अपवादों श्रादिका वर्णन ६४ वें पद्य तक चला गया है, जिसमें अनेक प्रकार से गणों के भेद, उनका स्वरूप तथा फल, परामात्रिकादिका स्वरूप और प्रारादिकका कथन भी शामिल है। इस सब वर्णनमें अनेक स्थलों पर दूसरोंके संस्कृत- प्राकृत वाक्योंका भी “ अन्यं यथा " "अर जहा " जैसे शब्दों के साथ उद्धृत किया है, और कहीं बिना ऐसे शब्दां भी । कहीं कहीं किसी आचार्यके मतका स्पष्ट : नामोल्लंग्ध भी किया गया है, जैसे "..... पयासिओ पिंगलायरहिं | २० || १३७ 66 ग्रह चउमलहणामं फणिराम्रो पड्गणं भाई...२८” (" "वहु कहइ कुरु पिंगलयागः ४६।” मोलह पर जो जाग्रह थाइराइभणियाइं । सो छंदत्यकुसलो सम्वकणं च होइ महणीओ ||४३|| चाद्या ज्ञेयेति मात्राणां पताका पठिता बुधैः । श्री पूज्यपादपादाभिता हि (डी) ह विवेकिभिः || इससे मालूम होता है कि कविराजमल्लकं सामने अनेक प्राचीन छंदःशास्त्र मौजूद थे - श्री पूज्यपादाचार्य का ग़लबन वह छंदः शास्त्र भी था जिसे श्रवणबेल्गाल के शिलालेख नं० ४० में उनकी सूक्ष्मबुद्धि (रचनाचातुर्य) को ख्यापित करने वाला लिखा है और उन्होंने उनका दोहन एवं आलोडन करके अपना यह ग्रंथ बनाया है। और इसलिए यह प्रन्थ अपने विषय में बहुत प्रामाणिक जान पड़ता है। प्रन्थके अंतिम इस ग्रन्थका दूसरा नाम ' छंदोविद्या ' दिया है और इसे राजाओं की हृदयगंगा, गंभीरान्तः मौहित्या, जैनसंघाधीश- भाग्हमल-सन्मानिता, ब्रह्मश्री को विजय करनेवाले बड़े बड़े द्विजराजांके नित्य दिये हुए सैंकड़ों श्राशीर्वादों से परिपूरण- लग्या है। साथ ही, विद्वानोसे यह निवेदन किया है कि वे इस 'छंदोविया' प्रन्थकां अपने सदनुग्रहका पात्र बनाएँ। वह पद इस प्रकार है— " क्षोणीभाजां सुरमरदिं भो गंभीरान्तः सौहित्यां जैनानां किल संघाधीशैभरह मल्हौः कृमसम्मानां । ब्रह्मश्रीविजई (य) द्विजराज्ञां नित्यं दत्ताशीः शतपूण्या विद्वांसः सदनुग्रहपात्रां कुर्वस्वेमां इंदोविद्यां ॥ इससे मालूम होता है कि यह प्रन्थ उस समय अनेक राजाओं तथा बड़े बड़े ब्राह्मण विद्वनों का भी बहुत पसंद आया है, और इसलिये अब इसका शीघ्र ही उद्धार होना चाहिये अगले लेख में इस प्रथमें वर्णित छंदांके कुछ नमूनं, गजाभागमल आदिके कुछ ऐतिहासिक परिचय महित, दिये जायेंगे और उनमें कितनी ही पुरानी बातें प्रकाशमे आएँगी । वीरमेवामंदिर, र, फाल्गुन शुक्ल ११ मं० १९९७ Page #153 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अनेकान्त' पर लोकमत --- --- -- - - - --- 'अनेकान्त' के 'नववर्षाङ्क' को देखकर जिन जिन विद्वानोने उसपर अपनी शुभसम्मतियाँ भेजनेकी कृपा की है, उनमेंसे कुछकी सम्मतियाँ नीचे दी जाती हैं:१ प्रोफेसर ए. एन. उपाध्याय एम. ए., ४५० परमेष्ठीदासजी जैन, न्यायतीर्थ, डी. लिट्, कोल्हापुर सूरत "इसमें कोई सन्देह नहीं कि अंक बहुत सुन्दर ___अनेकान्तका नववर्षाङ्क मिला । यह महत्वण निकला है। मुखपृष्ठका चित्र तो देखते ही बनता है। सामग्रीसे भरा हुआ बहुमूल्य अङ्क है।" कई वर्षसे जिसे श्लोकोमें पढ़ते अाए थे उसे चित्रबद्ध २५.अजितकुमारजीशास्त्री,मुलतान देखकर बहुत अानन्द हुअा। उसे लेकर मैंने अपने कई अजन मित्रोको भी अनेकान्तका रहस्य समझाया। "अनेकान्तका प्रथम अङ्क मिला । देखकर जो लेख भी सुन्दर हैं ।" हर्ष हुआ वह तो सिर्फ अनुभवका ही विषय है। मुख- ५५० सुमेरचन्दजी दिवाकर, न्यायतीर्थ, पृष्ठपर सप्तभंगीको जिस चित्र-द्वारा अंकित किया है बी. ए. एल एल.बी.,सिवनीवह कल्पना प्रशंसनीय है । लेख भी चुन चुनकर सुन्दर _ "यह विशेषाक विशेष आकर्षक है। ऐमा प्रतीत होता है, मानो 'कल्याण' मासिककी मुटाई छांटकर रखे गये हैं। 'तत्त्वार्थसूत्रके बीजोकी खोज' शीर्षक उपयोगी मामग्री वाला अंक छपाया गया हो।" परमानंदजीका लेख अच्छे परिश्रम के साथ लिखा गया मुखपृष्ठपर स्याद्वादके तत्वको बताने वाला चित्र है, अच्छा उपयोगी है। इस बृद्ध अवस्था भी जिस बढ़िया है ।"""चित्र अनेकान्तके स्वरूप पर अच्छा अदम्य उत्साहसे श्राप जैन साहित्यकी ठोस सेवा कर प्रकाश डालता है।...... रहे है, यह प्रशंसनीय है।" इस प्रकार अनेक महत्वपूर्ण लेख से सुशोभित यह १२० पेजका अंक पठनीय है। ३ ६० पन्नालालजी जैन, 'वसन्त साहि यह पत्र गम्भीर और विचारपूर्ण सामग्री देता है, त्याचार्य, सागर अत: मार्मिक चर्चा प्रेमियोके लिए संग्रहणीय है। 'अनेकान्त' के विशेषाकका अवलोकन किया। मुखपृष्ठपर अत्यन्त भावपूर्ण चित्रमय जैनीनीतिका चित्र ६ श्री भगवत्स्वरूपजी जैन 'भगवत्', है। जोकि अनेकान्त जैसे पत्रके लिए सर्वथा उपयुक्त ऐस्मादपुर (आगरा)है। सभी लेख चुने हुए हैं। अपने अपने विषयमें सभी "चौथे वर्षकी पहली किरण, जो विशेष.क है, बहुत सुन्दर है। मार्मिक लेख, सुन्दर भावपूर्ण कविताएँ लेख सुन्दर हैं, इसलिए कौन लेख सबसे बरिया है, और समयानुकूल कहानियाँ-सब कुछ वही है जिसे इस विषयका निर्णय मेरे जैसे व्यक्तिके लिए अशक्य श्राज मानव-हृदय पुकार पुकारकर माँग रहा है।" है। अनेकान्तके दर्शनसे मुझे बहत ही संतोष होता है।' (क्रमशः) Page #154 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-विचारमाला [सम्पादकीय] (२) वीतरागकी पूजा क्यों ? जिसकी पूजा की जाती है वह यदि उस पूजासे प्रसन्न इसीसे अक्सर लोग जैनियोसे कहा करते हैं कि-"जब होता है, और प्रसन्नताके फलस्वरूप पूजा करने वालेका तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा-उपासनाकी कोई कोई काम बना देता अथवा सुधार देता है तो लोकमें जरूरत नहीं, कर्ता-हर्ता न होनेसे वह किसीको कुछ देताउसकी पूजा सार्थक समझी जाती है। और पूजासे किसीका लेता भी नहीं, तब उसकी पूजा-वन्दना क्यों की जाती है प्रसन्न होवा भी तभी कहा जा सकता है जब या तो वह . 3 और उससे क्या नतीजा है ?" उसके बिना अप्रसन्न रहता हो, या उससे उसकी प्रसन्नतामें इन मब बातोंको लक्ष्यमें रखकर स्वामी समन्तभद्र. कुछ वृद्धि होती हो अथवा उससे उसको कोई दूसरे प्रकारका जो कि वीतरागदेवोंको सबसे अधिक पूजाके योग्य समझते थे और स्वयं भी अनेक स्तुति-स्तोत्रों श्रादिके द्वारा उनकी लाभ पहुँचता हो; परन्तु वीतरागदेवके विषयमें यह सब पूजामें सदा सावधान एवं तत्पर रहते थे, अपने स्वयंभूस्तोत्रकुछ भी नहीं कहा जा सकता-वे न किसीपर प्रसन्न होते हैं न अप्रसन्न और न किसी प्रकारकी कोई इच्छा ही रखते में लिखते हैं न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागेन निन्दया नाथ विवान्तवैरे । जिसकी पूर्ति-अपूर्तिपर उनकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता निर्भर तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्नः पुनातु विसं दुरितांजनेभ्यः । हो । वे सदा ही पूर्ण प्रमन्न रहते हैं-उनकी प्रसन्नतामें अर्थात् - हे भगवन् पूजा-वन्दनासे आपका कोई प्रयोकिसी भी कारणसे कोई कमी या वृद्धि नहीं हो सकती। जन नहीं है; क्यो कि श्राप वीतरागी है-रागका अंश भी और जब पूजा-अपूजासे वीतरागदेवकी प्रमन्नता वा अप्र- आपके आत्मामें विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसीकी सन्नताका कोई सम्बन्ध नहीं-वह उसकेद्वाग संभाष्य ही पूजा-वन्दनासे श्राप प्रसन्न होते । इसी तरह निन्दासे भी नहीं, तब यह तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि पूजा कैसे की आपका कोई प्रयोजन नहीं है कोई कितना ही आपको जाय, कब की जाय, किन द्रव्यांसे की जाय, किन मंत्रोंसे बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उसपर श्रापको लरा भी क्षोभ की जाय और उसे कौन करे-कौन न करे ? और न यह नहीं अासकता; क्योकि अापके आत्मासे वैरभावदोषाशशंका ही की जा सकती है कि अनिधिसे पूजा करनेपर कोई बिलकुल निकल गया है-वह उसमें विद्यमान ही नहीं अनिष्ट घटित हो जायगा, अथवा किसी अधम-अशोभन है जिससे क्षोभ तथा अप्रसन्नतादि कार्योंका उदभव हो अपावन मनुष्यके पूजा कर लेनेपर वह देव नाराज हो सकता। ऐसी हालतमें निन्दा और स्तुति दोनो ही आपके जायगा और उसकी नाराजगीसे उस मनुष्य तथा समूचे लिये समान हैं-उनसे आपका कुछ भी बनता या बिगड़ता समाजको किसी देवीकोपका भाजन बनना पड़ेगा; क्यो कि नहीं है.। यह सब ठीक है, परन्तु फिर भी हम जो आपकी ऐमी शंका करनेपर वह देव वीतराग ही नहीं ठहंग्गा- पूजा-वन्दनादि करते हैं उसका दूसग ही कारण है, वह उसके वीतराग होनेसे इनकार करना होगा और उसे भी पूजा-वन्दनादि अापके लिये नहीं-श्रापको प्रसन्न करके दूसरे देवी-देवताओंकी तरह रागी-द्वषी मानना पड़ेगा। आपकी कृपा सम्पादन करना या उसके द्वारा श्रापको कोई Page #155 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष४ लाभ पहुंचाना, यह सब उसका ध्येय ही नहीं है। उसका अल्पविकसितादि दशाओं में हैं और वे अपनी आत्मनिधिको ध्येय है आपके पुण्य गुणोंका स्मरण-भावपूर्वक अनु- प्रायः भूले हुए हैं। सिद्धात्माश्रोके विकसित गुणोंपरसे वे चिन्तन-,जो हमारे चित्तको–चिद्र प श्रास्माको-पाप- श्रात्मगुणोका परिचय प्राप्त करते हैं और फिर उनमें अनुमलोंसे छुड़ाकर निर्मल एवं पवित्र बनाता है और इस तरह राग बढ़ाकर उन्हीं साधनो द्वारा उनगुणांकी प्राप्तिका यत्न हम उसके द्वारा अपने श्रात्माके विकासकी साधना करते हैं। करते हैं जिनके द्वारा उन सिद्धात्माअोंने किया था। और इसीसे पद्यके उत्तरार्धमें यह भावना अथवा प्रार्थना की गई इस लिये वे सिद्धात्मा वीतरागदेव श्रात्म-विकासके इच्छुक है कि 'श्रापके पुण्य गुणोंका स्मरण हमारे पापमलसे मलिन संसारी आत्माअोके लिये 'श्रादर्शरूप' होते हैं, श्रात्मगुणोके श्रात्माको निर्मल कर उसके विकास महायक होवे।' परिचयादिमें सहायक होनेसे उनके 'उपकारी होते हैं और यहाँ वीतराग भगवानके पुण्य गुणोके स्मरणमे पापमल- उसवक्न तक उनके 'श्राराध्य' रहते है जबतक कि उनके से मलिन आत्माके निर्मल (पवित्र) होनेकी जो बात कही गई श्रात्मगुण पूर्णरूपसे विकसित न हो जायँ । इसीसे स्वामी है वह बड़ी ही रहस्यपूर्ण है, और उममें जैनधर्म के प्रात्म- समन्तभद्रने "तत:स्वनिःश्रेयमभावनापरैः बुधप्रवेकैः वाद, कर्मवाद, विकामगद और उपासनावाद-जेसे सिद्धान्तों जिनशीतलेख्यसे (स्व०५०)" इस बाक्यके द्वारा उन बुधजनका बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्मरूपमें मंनिहित है। इस विषयमें श्रेष्ठों तकके लिये वीतरागदेवकी पूजाको श्रावश्यक बतलाया मैने कितना ही स्पष्टीकरण अपनी 'उपासनातन्त्व' और है जो अपने निःश्रेयसकी-अात्मविकामकी--भावनामें सदा 'मिद्धिसोपान' जैसी पुस्तकोंमें किया है, और गत किरणमें मावधान रहते हैं। और एक दूसरे पद्य (स्व० ११६) में प्रकाशित 'भक्तियोग-रहस्य' नामके मेर लेखपरमे भी पाठक वीतगगदेवकी इस पूजा-भक्तिको कुशलपरिणामोकी हेतु उसे जान मकते हैं। यहाँपर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना चाहता हूँ कि स्वामी समन्तभद्रने वीतरागदेवके जिन पुण्य- तक लिखा है। साथ ही, नीचेके एक पद्यमं वे, योगबलसे गुणोंके स्मरणकी बात कही है वे अनंतशान. अनंतदर्शन, आठों पापमलोको दूरकरके संसारमें न पाये जाने वाले ऐसे अनंततसुख और अनंतवीर्यादि श्रात्माके असाधारण गुण परमसौख्यको प्राप्त हुए सिद्धात्माओका स्मरण करते हुए हैं, जो द्रव्यदृष्टिसे सब आत्माअोके समान होनेपर सबकी अपने लिये तद्र प होनेकी स्पष्ट भावना भी करते हैं, जो कि समान सम्पत्ति है और सभी भव्यजीव उन्हें प्राप्त कर सकते वीतरागदेवकी पूजा-उपासनाका सञ्चा रूप है :है। जिन पापमलोंने उन गुणोको अाच्छादित कर रक्खा दरितमलकलंकमष्टक' निरुपमयोगबलेन निर्दछन् । है वे ज्ञानावरणादि अाठ कर्म है, योगबलसे जिन महा- अभवदभव-सौल्यवान् भवाम्भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥ माअोने उन कर्ममलोको दग्ध करके श्रात्मगुणोंका पूर्ण स्वामी समन्तभद्रके इन सब विचारांपरसे यह भलेप्रकार विकास किया है वे ही पूर्ण विकसित, सिद्धात्मा एवं वीत- स्पष्ट हो जाता है कि वीतरागदेवकी उपासना क्यों की जाती राग कहे जाते हैं-शेष सब संमारी जीव अविकसित अथवा है और उसका करना कितना अधिक श्रावश्यक है। Page #156 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कर्म-बन्ध और मोक्ष ( लेखक-श्री० परमानन्द जैन, शास्त्री) संसारमें जो सुख-दुःख सम्पत्ति-विपत्ति, ऊँच-नीच श्रादि अात्मा विससोपचयरूप * कर्मपरमाणुओंका कषाय और "अवस्थाएँ देखनेमें आती हैं उन सबका कारण कर्म योगशक्तिके द्वारा आकर्षण करता है उस समय जो अात्माके है । जीवात्मा जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है उसका परिणामविशेष होते हैं उन्हें भावकर्म कहते हैं, और भावकर्मके फल भी उसे अच्छा या बुरा भोगना पड़ता है अर्थात् जैसा द्वारा आकर्षित कर्मवर्गणाको द्रव्यकर्म कहते हैं। द्रव्यकर्मसे बीज बोया जाता है फल भी वैसा ही मिलता है-बबूल भावकर्म और भावकर्मसे द्रव्य-कर्मका श्रासव होता है। रागादि बोने वालेको श्राम नहीं मिल सकते । जो मनुष्य रात दिन कषाय भावोंकी उत्पत्तिमें पूर्वोपार्जित द्रव्यकर्म कारण है और जीवहिंसा, मांस भक्षण आदि पापकार्योमें प्रवृत्ति करते हैं जब द्रव्यकर्मका परिपाककाल पाता है तब आत्माकी प्रवृत्ति उन्हें पाप कर्मका परिपाककाल अानेपर दारुण दुःख भी भी रागादिविभावरूप अथवा कषायमय हो जाती है। अतसहना पड़ते हैं, और नरकादि दुर्गतियोंमें भी जाना पड़ता एव विभावभाव और सकषाय परिणतिसे कार्माणवर्गणाका है । परन्तु जो मनुष्य पापसे भयभीत है-डरते हैं, और आकर्षण होकर कर्मबंध होता है। और इस तरहसे द्रव्यलोककी सच्ची सजीव-सेवा तथा दान धर्मादिक कार्योंमें कर्मके उदयसे भावकर्ममें परिणमन होता है और भावकर्मके प्रवृत्ति करते रहते हैं और आत्मकल्याणमें सदा सावधान परिणमनसे द्रव्यकर्मका बंध होता है। इस प्रकार कर्मबंधकी रहते हैं, वे सदा शुभकर्मके उदयसे सुखी और समृद्ध होते शृंखला बराबर बढ़ती ही रहती है। हैं । अर्थात् उनके शुभ कर्मके उदयसे शरीरको सुख देने कर्म और आत्मा इन दोनों द्रव्योंका स्वभाव भिन्न है। वाली सामग्रीका समागम होता रहता है। क्योंकि श्रात्मा ज्ञाता-द्रष्टा,चेतन,अमूर्तिक और संकोच-विस्ताइस लोकमें मुख्यत: दो द्रव्य काम करते हैं, जिनमेंसे रकी शक्तिको लिए हुए असंख्यात प्रदेशी है। कर्म पौद्गएकको चेतन, जीव, रूह या सोल (Soul ) के नामसे लिक, मूर्तिक और जडपिण्ड है । ये दोनों द्रव्य विभिन्न पकारते हैं, और दुसरेको अचेतन, जड़, पुद्गल या मैटर स्वभाव वाले होनेके कारण इन दोनोंकी एक क्षेत्रमें अवस्थिति (matter) कहते हैं । कर्म और श्रात्माका अनादिकालसे होनेपर भी अात्माका कोई भी प्रदेश कर्मरूप नहीं होता, एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध हो रहा है. प्रतिसमय कर्म और न कर्मका एक भी परमाणु चैतन्यरूप या प्रात्मरूप ही वर्गणाओंका बंध और निर्जरा होती रहती है; अर्थात् पुराने होता है । जिस तरह सोने और चाँदीको गलाकर दोनोंका कर्म फल देकर झड़ जाते हैं और नवीन कमें रागादिभावकि एक पिण्ड करलेनेपर भी, ये दोनों द्रव्य अपने अपने रूपादि कारण बंधको प्राप्त होते रहते हैं। मन-वचन-कायसे जो गुणोंको नहीं छोड़ते हैं-अपने शुक्ल पीतत्वादि गुणोंसे श्रा मप्रदेशमि हलन चलन रूपक्रिया होती है उसे योग कहते जो परमाण वर्तमान में कर्मरूप तो नहीं हुए किन्त हैं। रागादि विभावरूप परिणत हुआ श्रात्मा इस योग-शक्ति भविष्यमें कर्मरूप परिणमनको प्राप्त होंगे--कर्म अवस्थाको के द्वारा नवीन कर्मवर्गणाओंका आकर्षण करता है। जब धारण करेंगे-उन परमाणुरोको 'विससोपचय' कहते हैं। Page #157 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४२ अनेकान्त अनी अपनी सत्ता अलग ही रखते हैं। इसी तरह यद्यपि श्रम और कर्म इस समय एकमेक सरीखे हो रहे हैं परन्तु श्रात्मा और कर्म अपने अपने लक्षणादिसे अपनी अपनी सत्ता जुदी ही रखते हैं कोई भी द्रव्य अपने स्वभावको नहीं छोड़ते। इसके सिवाय, तपश्चरणादिके द्वारा कमौका श्रात्मासे सम्बन्ध छूट जाता है— श्रात्मा और कर्म अलग अलग हो जाते हैं - इससे भी उक्त दोनों द्रव्योंकी भिन्नता स्पष्ट ही है। कमके मूल आठ भेद हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र और अंतराय । इन वाठ कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं । कर्मकी इन श्रष्ट मूल प्रकृतियोंको दो भेदोंमें बांटा जाता है, जिनका नाम घातिकर्म र घातिकर्म है। जो जीवके श्रमजीवीगुणोंको घातते हैं—उन्हें 'प्रकट नहीं होने देते— उनको घानिकर्म कहते हैं । और जो जीवके अनुजीवीगुणोंको नहीं घातते उन्हें श्रघातिकर्म कहते हैं । इन ऋष्ट कर्मोंमेंसे मोहनीयकर्म श्रात्माका महान् शत्रु है इससे ही अन्यकम में धानकत्व शक्तिका प्रादुर्भाव होता है । कर्मबन्धनसे श्रात्मा पराधीन और दुःखी रहना है, उसकी शक्तियांका पूर्ण विकास नहीं हो पाता । परन्तु इन कर्मोंका जिनने श्रंशोंमें क्षयोपशमादि रहता है उतने अंशोंमें श्रात्मशक्तियाँ भी विकसित रहती हैं। [ वर्ष ४ कषाय और योग । तत्त्वार्थ के विपरीत श्रद्धानको 'मिध्यात्व' कहते हैं । अथवा अपने स्वरूप से भिन्न पर पदाथो में श्रात्मत्व बुद्धिरूप जीवके विपरीताभिनिवेशको 'मिथ्यात्व' कहते हैं। मिथ्यात्व जीवका सबसे प्रबल शत्रु है, संसार परिभ्रमण का मुख्यकारण है और कर्मबंधका निदान है। इसके रहते हुए जीवात्मा अपने स्वरूपको नहीं प्राप्त कर सकता है । षट्काय, पाँच इन्द्रिय और मन इन १२ स्थानोंकी हिंसासे विरक्त नहीं होना 'अविरत' है । उत्तमक्षमादि दशधर्मके पालनमें, तथा पाच इन्द्रियोके निग्रह करनेमें, और श्रात्मस्वरूपकी प्राप्ति में जो अनुत्साह एवं श्रनादररूप प्रवृत्ति होती है उसे 'प्रमाद' कहते हैं । जो श्रात्माको कषे श्रर्थात् दुःखदे उमे 'कषाय' कहते हैं । कषायसे श्रात्मा में रागादि विभावभावोका उद्गम होता रहता है और उससे श्रात्मा कलुषित रहता है और कलुषता ही कर्मबन्धमें मुख्य कारण है, र विरोधको बढ़ानेवाली है - और शातिकी घातक है । मन, वचन और कायके निमित्तसे होने वाली क्रियासे युक्त श्रात्मा के जो वीर्य विशेष उत्पन्न होता है उसे 'योग' कहते हैं । श्रथवा जीवकी परिस्पन्दरूप क्रियाको 'योग' कहते हैं । योग दो प्रकारका है, शुभयोग और अशुभ योग । देवपूजा, लोक सेवा और हिंसा श्रादि धार्मिक कार्योंमें जो मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति होती है उसे 'शुभयोग' कहते हैं। और हिसा झूठ - कुशलादिक पापकार्यों में जो प्रवृत्ति होती है उसे 'शुभयोग' कहते हैं । जब तक जीव सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त कर लेता तब तक इन दोनों योगों में से कोई भी एक योग रहे परन्तु उसके घातिया कर्मी सर्व प्रकृतियोंका बंध निरन्तर होता रहता है। अर्थात् इस जीवका ऐसा कोई भी समय वशिष्ट नही रहता जिसमें कभी किसी प्रकृतिका बंध न होता हो । जब जीव क्रोध-मान- माया और लोभादिरूप सकषाय परिणमनको प्राप्त होता हुआ योगशक्तिके द्वारा आकर्षित कर्मरूप होने योग्य पुद्गलद्रव्यको ग्रहण करता है उसे बन्ध कहते हैं * । कर्मबन्धके पाच कारण हैं—मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, *जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा । hers पोग्गलदव्वे बन्धो सो होदि गायव्वो । मूलाचारे, वट्टकेर:, १२, १८३ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः । - तत्त्वार्थसूत्रे, उमास्वाति, ८, १ हाँ इतनी विशेषता जरूर है किं मोइनीयकर्मकी हास्य, शोक, रति श्ररतिरूप दो युगल में और तीन वेदो में से एक समयमें सिर्फ एक एक प्रकृत्तिका ही बंध होता है । परन्तु Page #158 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] कर्मबन्ध और मोक्ष यदि किसी जीवके अधातिकर्म प्रकृतियोंमें शुभयोग होता तीनकषायमे अल्प ( थोड़ा ) अनुभाग बन्ध होता है। इस है तो उस समय उसके सातावेदनीय श्रादि पुष्य प्रकृतियो- तरहसे कषाय स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके विशेष का बंध होता है । और यदि अशुभयोग होता है तब परिणमनमें कारण है। परन्तु इन सब कारणो में कषाय ही असाता वेदनीय श्रादि पाप प्रकृतियोंका बंध होता है । तथा कर्मबन्धका प्रधान कारण है। इसीलिये जब तक जीवकी मिश्रयोग होनेपर पुण्य प्रकृतियां और पापरूप दोनों प्रकृतियों सकषाय परिणति रहती है तब तक चारों प्रकारका बंध का बंध होता है। प्रतिसमय होता रहता है, किन्तु जब कषायकी मुक्ति हो जाती है-आत्मासे कषायका सम्बन्ध छूट जाता है तब जब अात्मामें कर्मबन्ध होता है तब उसका बंध होनेके कषायसे होनेवाला उक्त दो प्रकारका बंध भी दूर हो जाता साथ ही, प्रकृति-प्रदेश-स्थिति और अनुभागके भेदसे चतु है। इसी कारण अागममें यह बताया गया है कि 'कषायविधरूप परिणमन हो जाता है, जिस तरह खाए हुए भोज मुक्तिः किल मुक्तिरेव' अर्थात कषायकी मुक्ति ही वास्तविक नादिका अस्थि, मासादि सप्तधातु और उपधातु रूपसे मुक्ति है। परिणमन हो जाता है। इनमेंसे प्रथमके दो बंध प्रकृति और प्रदेश तो योगसे होते हैं स्थिति और अनुभागबन्ध इम कर्मबंधनसे हटनेका अमोघ उपाय, मम्यग्दर्शन, कषायसे होते हैं । मोह के उदयसे जो मिथ्यात्व और क्रोधादि- सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी प्रामि है । इन तीनोंकी रूपभाव होते हैं। उन सबको सामान्यतया 'कषाय' कहते पूर्णता एवं परम प्रकर्षतासे ही श्रात्मा कर्मके सुदृढ़ बन्धनसे हैं। कषायसे ही कोका स्थिति बन्ध होता है अर्थात जिस- मुक्त हो जाता है और मदा अपने प्रात्मोल्य अव्याबाध कर्मका जितना स्थितिबंध होता है उसमें अबाधाकालको निराकुल सुखमें मम रहता है। छोड़कर जब तक उसकी वह स्थिति पूर्ण नहीं हो जाती तत्वार्थके श्रद्धानको 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं अथवा तबतक ममय समयमें उस प्रकृतिका उदय पाना ही रहता जीव, अजीव, श्रासव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन है । किन्तु देवायु, मनुष्यायु और तिर्यंचायुके बिना अन्य सप्त तत्त्वरूप अर्थके श्रद्धानको-प्रतीतिको - सम्यग्दर्शन सभी घातिया अघातिया कर्मप्रकृतियोंका मन्द कषायसे अल्प कहतेहैं । सम्यग्दर्शन श्रात्माकी निधि है और इसकी प्राप्ति स्थिति बंध होता है और तीव्रकषायके उदयमे अधिक दर्शन मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय, क्षयोपशमादिसे होती है । स्थिति बन्ध होता है। परन्तु उक्त तीनो आयुरोका मन्द- सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें तीन कारण है-भवस्थितिकी कषायसे अधिक और तीव्रकषायसे अल्प (थोड़ा) स्थिति सन्निकटता, कालादिलब्धिकी प्राप्ति और भव्यत्वभावका बंध होता है। इस कषायके द्वाराही कर्मप्रकृतियोंमें अनु- विपाक । इन तीनों कारणोंसे जीव सम्यक्त्वी बनता है । भाग-शक्तिका विशेष परिणमन होता है। अर्थात् जैसा इन मब कारणोंमें भव्यत्वभावका विपाक ही मुख्य कारण अनुभागबंध होगा उसीके अनुसार उन कर्मप्रकृतियोंका है सम्यक्त्वके होनेपर ४१ कर्मप्रकृतियोंका बंध होना रुक उदयकालमें अल्प या बहुन फल निष्पन्न होगा । घातिकर्म- जाता है । सम्यग्दर्शन मोक्ष महलकी पहली सीढी है, इसके की सब प्रकृतियोंमें और अघातिकर्मकी पाप प्रकृतियोंमें तो देवात्कालादि संलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे । मन्दकषायसे थोड़ा अनुभागबंध होता है और तीनकषायसे भव्यभावविपाकादा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ।। बहुत । किन्तु पुण्यप्रकृतियोंमें मन्दकषायसे पहुन और -पंचाध्यायी, २, ३७८ Page #159 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ बिना ज्ञान और चारित्र मिथ्या कहलाते हैं। सम्यग्दृष्टिके चारित्र है । अर्थात् जो क्रियाएँ अात्मस्वरूपकी घातक हैंप्राप्त होते ही उनमें समीचीनता-सत्यता प्राजाती है और वे जिनसे आत्मापतनकी ओर ही अग्रसर होता है--उनके दोनों सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रके यथार्थ नामोंसे अंकित सर्वथा परित्यागको 'सम्यकचारित्र' कहते हैं । सदृदृष्टि और हो जाते हैं। अर्थात् श्रात्मासे जब मिथ्यात्वरूप प्रवृत्ति दूर समीचीन ज्ञानके साथ जैसे जैसे श्रात्मा विकासकी ओर भागे हो जाती है तब श्रात्मा अपने स्वभावमें स्थिर हो जाता है, वढ़ता है वैसे वैसे ही उसकी आत्मपरिणति भी निर्मल होती उस समय उसका ज्ञान और प्राचरण दोनो ही सम्यक् चली जाती है और वह अपनी श्रात्मविशुद्धिसे कर्मोकी प्रतिभासित होने लगते हैं। सद्दृष्टिके प्राप्त होते ही उसकी असंख्यात गुणी निर्जरा करता हुआ क्षपक श्रेणीपर श्रारूढ विभाव परिणति हट जाती है और वह अपने सच्चिदानन्द- होकर राग-द्वेषके अभावरूप परमवीतराग भावको अंगीकार रूप अात्मस्वरूपमें तन्मय हो जाता है, फिर उसका संसारमें करता है। उस समय श्रात्मा स्वरूपाचरणमें अनुरक्त हुश्रा जीवोंसे कोई वैर-विरोध नहीं होता, और न वह बुद्धिपूर्वक ध्यान-ध्याता-ध्येयके विकल्पोसे रहित अपने चैतन्य चमकिसीको अपना शत्रु-मित्र ही मानता है। उसकी दृष्टि विशाल त्काररूप विज्ञानघन अात्मस्वरूपमें तन्मय हो जाता है और प्रौदार्यादि गुणोको लिये हुए होती है, हृदय स्वच्छ और रत्नत्रयकी अभेद परिणतिमें मग्न हो जाता है, उसी तथा दयासे श्राद्र हो जाता है, संकीर्णता, कदाग्रह और समय श्रात्मा शुक्लध्यानरूप अग्निसे चार घातियाकर्मोका भयादि दुर्गुण उससे कोसों दूर भाग जाते हैं और वह समूल नाशकर कैवल्यकी प्राप्ति करता है । पश्चात् योगनिंदक एवं पूजकपर समान भाव धारण करता है। निरोध-द्वारा अवशिष्ट अघाति कर्मोका भी समूल नाशकर पदार्थके स्वरूपको जैसाका तैसा जानना उसे उसके सिद्ध परमात्मा हो जाता है और सदाके लिये कर्मबंधनसे उसी रूपमें अनुभव करना 'सम्यग्ज्ञान' है। पापकी कारण- छूटकर अपने वीतराग स्वरूपमें स्थिर रहता है। भतसांसारिक क्रियाओका भले प्रकार त्याग करना सम्यक- वीरसेवामंदिर, सरसावा ता०५-३-१९४१ दुनियाका मेला जी भरकर जीवन-रस ले ले, दो-दिनका दुनियाका मेला ! दूर-दूरके यहां बटोही-भाते-जाते नित्य , रजनी होती, चांद चमकता. अरु दिनमें आदित्य । अम्बरमें अगणित तारे हैं, भूपर प्राणी ठेलम-ठेला !! सुख-दुखकी दो पगडंडी हैं, पाप-पुण्य दो पैर , चाहे जिधर घूमकर करले; पथिक! जगतकी सैर! इधर योगीकी मौन-समाधि, उधर बजाता बीन. सपेला! एक ओर घनघोर घटा है, एक ओर आलोक ; एक मोर मन हर्षित होता, एक मोर हा! शोक !! तीन लोक बह द्वीप-खण्डके, जीवोंका लगता है मेला ! चाहे जिसे समझले अपना, चाहे जिसको और : चोर, लुटेरे, हत्यारे हैं, यहां न तेरी और ! सावधान हो! जान बचाकर भाग यहाँसे भाग अकेला ! सपना समम इसे रे! यहतो माया,मकड़ी-कासा जाला; ऊपरसे सुख-शुभ्र दीवता, पर बंदरसे बिल्कुल काला! इसे परखता वही पारखी, जो सच्चे सत्-गुरुका चेला ! जी भरकर, जीवन-रस ले ले, दो दिनका दुनियाका मेला !! 4. काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' Page #160 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनमुनियोंके नामान्त पद ले०-अगरचन्द नाहटा, बीकानेर) जिस प्रकार बालकों का नामकरण अपने अपने इसके सम्बन्धमें कोई उल्लेख नहीं पाया जाता है । प्रान्तों, जातियोंके पूर्व-पुरुषों एवं प्रचलित नामोंके पर चैत्यवासके समयमें इस प्रथाका प्रचार हम अवश्य अनुकरणरूप होता है। जैसे:-मारवाड़ प्रान्तमें मनुष्यों देखते हैं, अतः यह धारणा सहज होजाती है कि के नामान्त पद "लाल, चन्द, गज, मल्ल, दान नाम परिवर्तनका विधान तभीस प्रारम्भ हुआ प्रतीत आदि होते हैं-उसी प्रकार मुनियोंके में भिन्न भिन्न होता है । विचार करने पर इसका कारण जिस प्रकार अनेक नामान्त पद पाये जाते हैं। आजकल दिगम्बर वेषका परिवर्तन होजानेपर गृहस्थ सम्बन्धी भावनाओं समाजमें तो मुनियों का नामान्तपद 'सागर' देखने में का त्याग करने में सुगमता रहती है उसी प्रकार नामभाता है, यथाः-शान्तिसागर, कथुसागर, और श्वेता- परिवर्तन कर देने पर गृहस्थकं नाम आदिका मोह म्बर समाजको तीन सम्प्रदायोमेंस १ स्थानकवासी- नहीं रहता या कम हो जाता है यही मालूम देता है। ढुंढक २ तेरहपन्थी इन दो समदायोंमें तो पर्वके इस प्रकारके नाम परिवर्तनकी प्रथा वैदिक सम्प्र(गृहस्थावस्थाक) नाम ही मुनिश्रवस्थामें भी कायम दायमें भी पाई जाती है । 'दशेनप्रकाश' नामक ग्रन्थ रखते हैं. मूर्तिपूजक मम्प्रदायकं तपागच्छ सागर में सन्यासियोंके दस प्रकारके नामोंका उल्लेग्व पाया एदं विजय, खरतरगच्छमें 'मागर' और 'मुनि', पाय जाता है। यथाः-१ गिरी-सदाशिव, २ पर्वत-पुरुष चंद्रगच्छमें 'चन्द्र' और अंचलगच्छमें 'मागर' यही ३ सागर-शक्ति, ४ वन-रुद्र, ५ अरिण-कार ६ तीर्थनामान्न पद पाये जाते है, पर जब पूर्ववर्ती प्राचीन ब्रह्म, ७ श्रागम-विष्णु, ८ मट-शिव, ५ पुरी-अक्षर, इतिहासका अध्ययन करते हैं तो अनेक नामाम्त पदों १० भारती परब्रह्म । का उल्लेग्व एवं व्यवहार देखने में भाता है। अतः इम 'भारतका धार्मिक इतिहाम' ग्रन्थके पृ० १८० निबन्धमें उन्हीं मुनिनामान्त पदोंकी संख्या पर में १० नामान्त पद ये बतलाए हैं-१ गिरी, २ पुरी, विचार किया जा रहा है। ३ भारती, ४ सागर, ५ श्राश्रम, ६ पर्वत, ७ तीर्थ, इस सम्बन्धमें सर्वप्रथम यही प्रश्न होता है कि ८ सरस्वती, ९ वन १० प्राचार्य। गृहस्थावस्थाको त्यागार मुनि होजाने पर नाम क्यों वे जैन ग्रंथों में 'नामकरणविधि का मबम बदले जाते हैं यानि नवीन नामकरण क्यों किया जाता प्राचीन एवं स्पष्ट उल्लेख भद्रपल्लीय ग्वरतरगच्छके है ? और यह प्रथा कितनी प्राचीन है ? आचार्य श्री वर्द्धमानसूरि जी रचित (सं० १४६८ का ___ महावीरकालीन इतिहासके अवकालनसे नाम * स्व. श्रात्मारामजी लिखित सम्यक्त्वशल्योद्धार पृ० १३ में परिवर्तनकी प्रथा दृष्टिगोचर नहीं होती और पिछले 'पञ्चवस्तु' का उल्लेख किया है, पर वह हमारे अवलोकन ग्रंथों में भी इस रीतिका कबसे और क्यों प्रचार हुआ? में नहीं पाया । Page #161 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १४६ सु० १५ जालन्धर देशस्य नंदबमपुर में ) 'श्राचार दिनकर' नामक प्रन्थमें विस्तार के साथ मिलता है। अतः हम उस प्रन्थके एतद् सम्बन्धी आवश्यक अंशका सार नीचे दे देते हैं : "प्राचीन काल में साधु एवं सूरिपदके समय नाम परिवर्तन नहीं होते थे पर वर्तमान में गच्छ संयोगवृद्धि हेतु ऐसा किया जाता है। अनेकान्त १ योनि, २ वर्ग, ३ लभ्यालभ्य, ४ गण और ५ राशि भेदको ध्यान में रखते हुए शुद्ध नाम देना चाहिये । नाममें पूर्वपद एवं उत्तरपद इस प्रकार के दो पद होते हैं। उनमें मुनियोंके नामों में पूर्वपद निम्नोक्त रखे जा सकते हैं। १ शुभ, २ देव, ३ गुण, ४ आगम, ५ जिन, ६ कीर्त्ति, ७ ग्मा (लक्ष्मी), ८ चन्द्र, ९शील. १० उदय, ११ धन, १२ विद्या, १३ विमल, १४ कल्याण, १५ जीव, १६ मेघ, १७ दिवाकर, १८ मुनि, १९ त्रिभुवन, २० भोज (कमल), २१ सुधा. २२ तंज, २३ महा, २४ नृप, २५ दया, २६ भाव, २७ क्षमा, २८ सूर, २९ सुवर्ण, ३० मणि, ३१ कर्म, ३२ आनंद, ३३ अनंत, ३४ धर्म, ३५ जय, ३६ देवेन्द्र (देव- इंद्र), ३७ सागर, ३८ सिद्धि, ३६ शांति, ४० लब्धि, ४१ बुद्धि, ४२ सहज, ४३ ज्ञान, ४४ दर्शन, ४५ चारित्र, ४६ वीर, ४७ विजय, ४८ चारु, ४९ राम, ५० सिंह, ( मृगाधिप, ५१ मही, ५२ विशाल, ५३ विबुध, ५४ विनय, ५५ नय, ५६ सर्व, ५७ प्रबोध, ५८ रूप, ५९ गण, ६० मेरु, ६१ वर, ६२ जयंत, ६३ यांग, ६४ तारा ६५ कला, ६६ पृथ्वी, ६७ हरि, ६८ प्रिय । मुनियोंके नामके अन्त्य पद ये हैं: [ वर्ष ४ ११ दन्त, १२ कीर्त्ति १३ प्रिय, १४ प्रवर, १५ श्रानंद, १६ निधि, १७ राज, १८ सुन्दर, १६ शेखर, २० वर्द्धन, २१ आकर, २२ हंस, २३ ग्न, २४ मेरु, २५ मूर्ति, २६ सार २७ भूषण, २८ धर्म, २६ केतु ( ध्वज), ३० पुण्ड्रक (कमल), ३१ पुङ्गव. ३२ ज्ञान, ३३ दर्शन, ३४ वीर, इत्यादि । सूरि, उपाध्याय, वाचनाचार्यों के नाम भी साधुवत् समझें । साध्वियों के नामों में पूर्वपद तो मुनियोंक समान ही समझें उत्तरपद इस प्रकार हैं: 1 १ मति, २ चूला, ३ प्रभा, ४ देवी, ५ लब्धि, ६ मिद्धि, ७ वती । प्रवर्तिनी के नाम भी इसी प्रकार हैं । महन्त के नामों में उत्तरपद 'श्री' रखना चा हये । जिनकल्पीका नामान्त पद 'सेन' इतना विशेष समझना चाहिये । ( श्रागे ब्राह्मण क्षत्रियोंके नामांक पद भी बतलाये हैं विशेषार्थियों को मूल थका ४० व उदय ( पृ० ३८६-८९) देखना चाहिये ) । खरतरगच्छ में इन नामान्त पदोंको वर्तमान में 'नांद' या 'नंदी' कहते हैं और इनकी संख्या ८४ संख्या की विशेषता सूचक ८४ बतलाई जाती है। विशेष खोज करनेपर खरतरगच्छीय श्रीपुज्य जिन चा रित्र सूरिजी के दफ्तर एवं कई अन्य फुटकर पत्रों में इन ८४ नामान्त पदों की प्राप्ति हुई । उनमें संख्या गिनने कं लिये तो नम्बर ८४ थे पर कई पद तो दो तीन वार पुनरुक्ति रूपसे उनमें पाये गये, उन्हें अलग कर देने पर संख्या ७८ के करीब ही रह गई, इसके पश्चात् हमने खरतरगच्छके मुनियोंके नामान्त पदोंकी, जो कि प्रयुक्त रूपसे पाये जाते हैं, खोज की तो कई नामान्त पद नये ही उपलब्ध हुए। उन सबको यहां अक्षरानुक्रमसे नीचे दिये देते हैं: *इस संख्याके सम्बन्धमें एक स्वतंत्र लेख लिखनेका विचार है १ शशांक (चन्द्र), २ कुंभ, ३ शैल, ४ अब्धि. ५ कुमार, ६ प्रभ, ७ वल्लभ, ८ सिह, ९ कुंजर, १० देव, Page #162 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] जैनमुनियोंके नामान्त पद १अमृत, २ आकर, ३ आनंद, ४ इंद्र, ५ उदय, कहीं भी हमारे अवलोकनमें नहीं आई, हमने प्राचीन ६ कमल, ७ कल्याण, ८ कलश, ९ कल्लोल, १० कीर्ति, प्रन्थों, टिप्पणकों आदिम इतने नामान्तपद प्राप्त ११ कुमार, १२ कुशल, १३ कुंजर, १४ गणि, किये हैं :१५ चन्द्र, १६ चारित्र, १७ चित्त, १८ जय, ११ रणाग, १ श्री, • माला, ३ चूला, ४ वतो, ५ मती, २० तिलक, ०१ दर्शन, २२ दत्त. २३ देव, २४ धर्म, ६प्रभा, लक्ष्मी, ८सुन्दरी, ९सिद्धि,१०निद्धि,११वृद्धि. २५ ध्वज, २६ धीर, २७ निधि, २८ निधान, २९ १२ समृद्धि, १३ वृष्टि, १४ दर्शना, १५ धर्मा, १६ निवास, ३० नंदन, ३१ नंदि, ३२ पद्म, ३३ पति, मंजरी, १७ देवी, १८ श्रिया, ५९ शोभा, २० बल्ली, ३४ पाल, ३५ प्रिय, ३६ प्रबोध, ३७ प्रमोद, ३८ प्रधान, २१ ऋद्धि, २२ सना, २३ शिखा, २४ रुचि, २५ शीला, ३९ प्रभ, ४० भद्र, ४१ भक्त, ४२ भक्ति, ४३ भूषण, २६ विजया, २७ महिमा । ४४ भंडार, ४५ माणिक्य, ४६ मुनि, ४७ मूर्ति, दिगम्बर एवं अन्य श्वेताम्बर गच्छोंमें जिनने ४८ मेरु. ४९ मंडण, ५० मंदिर, ५१ युक्ति, ५२ रथ, जितनं मुनिनामान्त पदोंका उल्लेख देखनमें आया ५३ (न, ५४ रक्षित, ५५ गज, ५६ रुचि, ५७ रंग, है उनका विवरण यहाँ दे दिया जाता है :५८ लब्धि, ५९ लाभ, ६० वर्द्धन, ६१ वल्लभ, दिगम्बर-नन्दि,, चंद्र, कीर्ति, भूषण । ये प्रायः ६२ 'वजय, ६३ विनय, ६४ वमल, ६५ विलाम, नंदि मंघके मुनियोंके नामान्तपद हैं। ६६ विशाल, ६७ शील, ६८ शेखर, ६९ ममुद्र, सेन, भद्र, गज, वीर्य ये प्रायः मनसंघकं मुनि७० मत्य, ७१ सागर, ७२ सार, ७३ सिंधर, ७४ सिंह, नामान्तपद है। -(विद्वदरत्नमाला पृ० १८) उपदेशगच्छकी २२ शाग्याएँ :७५ ,सुख, ७६ सुन्दर, ४७ सेना, ७८ सोम, १ सुन्दर, २ प्रभ, ३ कनक, ४ मेरु, ५ सार, ७९ सौभाग्य, ८० संयम, ८१ हर्ष, ८२ हित, ८३ हेम, ६चंद्र, ७ मागर, ८ इंस. ९ तिलक, १० कलश, ८४ हंस। ११ ग्ल, १२ समुद्र, १३ कल्लोल, १४ रंग, १५ नीचे लिखे नामान्त पदोंका उल्लेख मात्र मिलता शेवर, १६ विशाल, १७ रज, १८ कुमार, १९ देव, है व्यवहृत नहीं देखे गये : २० श्रानंद, २१ अदित्य, १२ कुंभ।। कनक, पर्वत, चरित्र, ललित, प्राज्ञ, ज्ञान, मुक्ति, (उपवंशगच्छपट्टावली प्र० जैनसाहित्य संशोधक) दास, गिरी, नंद, मान, प्रीति, छत्र, फण, प्रभद्र, इसमें स्पष्ट है कि कहीं कहीं दिगम्बर विद्वान तिय, हिंस, गज, लक्ष्म , वर, धर, सूर, सुकाल, मोह, यह समझनेकी भूल कर बैठनं हैं कि, भूषण, सेन, क्षेम, वीर ( यह नंदि खरतरगच्छमें नहीं हैं) तुंग कीर्ति आदि नामान्त पद दिगम्बर मुनियों के ही हैं, (अंचलगच्छ)। वह ठीक नहीं हैं। इन मभी नामान्त पदोंका व्यवहार इनमें से कई पद नामके पूर्वपदरूपमें अवश्य श्वे० समाजमें भी हुआ है। व्यवहृत हैं। . ____नम परिवर्तनमें प्रायः यह ध्यान रखा जाता है ___इसी प्रकार साध्वियोंकी नदिये (नामान्तपद) भी कि मुनिकी गशि उसके पूर्वनामकी ही रहे, बहुतसे ८४ ही कही जाती हैं, पर उनकी सूची अद्यावधि म्थानोंमें प्रथमाक्षर भी वही रखा जाता है। जैसे Page #163 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ सुखलालका दीक्षित नाम सुखलाभ, राजमलका है। इसी प्रकार इनके शिष्य जिनचन्द्रसूरिजीस राजमुन्दर, रत्नसुन्दर आदि । चतुर्थ पट्ट पर यही नाम रखना रूढ़ होगया है। तपागच्छ : २ गुर्वावलीसे स्पष्ट है कि उस समय सामान्य लक्ष्मीसागरसूरि (सं० १५०-१७) के मनियोंके आचार्य पदके समय इसी प्रकार 'उपाध्याय', 'वाचनामान्त पद-"तिलक, विवेक, रुचि, राज, सहज, नाचार्य' पदों एवं साध्वियोंके 'महत्तग' पद प्रदानके भूषण, कल्याण, श्रुत, शीति, प्रीति, मूर्ति, प्रमोद, र समय भी कभी कभी नाम परिवर्तन-नवीन नामकरण होता था। आनंद, नन्दि, साधु, रत्न, मंडण, नंदन, वर्द्धन, ज्ञान, दर्शन, प्रभ, लाभ, धर्म, सोम, संयम, हेम, क्षेम, ३ तपागच्छादिमें गुरु-शिष्यका नामान्त पद एक प्रिय, उदय, माणिक्य, सत्य, जय, विजय, सुन्दर, ही देखा जाता है, पर खरतरगच्छमें यह परिपाटी सार, धोर, वीर, चारित्र, चंद्र, भद्र, समुद्र, शेखर, नहीं है, गुरुका जो नामान्त पद होगा वही पद शिष्य के लिये नहीं रखे जानेकी खरतरगच्छमें एक विशेष सागर, सूर, मंगल, शील, कुशल, विमल, कमल, परिपाटी है + । इससे जिस मुनिने अपने ग्रंथादिमें विशाल, देव, शिव, यश, कलश, हर्ष, हंस, ५७ गच्छका उल्लेख नहीं किया है पर यदि उमक गुरुका इत्यादि पदान्ताः सहस्रशः। नामान्त पद उससे भिन्न है तो उमकं ग्वतरगच्छीय (सामचाग्त्रि कृत "गुरुगुण" रत्नाकर काव्य होनकी विशेष सम्भावना की जा सकती है। द्विनीयसर्ग)। ४माध्वियोंक नाम न्त पदोंके लिये नं०३ वाली हीविजयसूरिजीके समुदायकी १८ शाखायें:- ___ बात न होकर गुरुणी शिष्यगीका नामान्त पद एक १ विजय, २ विमल, ३ सागर, ४ चंद्र, ५ हर्ष, ही देखा गया है। ६ सौभाग्य, ७ सुन्दर, ८ रत्न, ९ धर्म, १० हंस, ५ सब मुनियोंकी दीक्षा पट्टधर आचार्यकं हाथसे ११ आनंद, १२ वर्द्धन, १३, साम, १४ रुचि, १५ सार, ही होती थी। क्वचित विशेष कारणम वे अन्य १६ गज, १७ कुशल, १८ उदय । (ऐ० मज्झायमाला आचार्य महागज, उपाध्यायों आदिको आज्ञा देते थे पृ०१०) तब अन्य भी दीक्षा देसकते थे। नवदीक्षिन मुनियोंका ___ नामान्तपद-सम्बन्धी खरतरगच्छकी कई विशेष नामकरण पट्टधर सूरि स्थापित नंदीके अनुसार ही परिपाटियें: होता था । सबसे अधिक नंदीकी स्थापना युग प्रधान नंदियोंके सम्बन्धमें खरतरगच्छमें कई विशेष जिनचन्द्रसूरिजी ने की थी। उनके द्वारा स्थापित परिपाटियें देग्वन एवं जाननमें आई हैं और उनसे ४४ नंदियोंकी मूची हमारे लिखे हुए 'यु० जिनचन्द्रकई महत्वपूर्ण बातोंका पता चलता है, अतः उनका * अपवाद 'अभयदेवसूरि, पर वे पहले मूलपट्टधर नहीं थे, विवरण नीचे दिया जाता है: इसीलिए उनका पूर्व नाम ही प्रसिद्ध रहा । +अपवाद 'कविजिनहर्ष' पर ऐसा होनेका भी विशेष कारण १ खरतरगच्छके श्रादि पुरुष जिनेश्वरसूरिजीमे होगा। कविवर जिनहर्षके लिए भी हमने एक स्वतंत्र लेख पट्टधर आचार्यों के नामका पूर्वपद 'जिन' रूढ़ होगया लिखा है । Page #164 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] जैनमुनियोंके नामान्त पद १४६ सूरि' ग्रंथके पृ० २५९ मे ६१ में प्रकाशित है। दीक्षा उनका नामान्त पद भी अपना नामान्त पद-चंद्र' समयमें एक साथ जितने भी मुनियोंकी दीक्षा हो ही रखेंगे। इसी प्रकार जिनसुखसूरि पहले "सुख" उन सबका नामान्त पद एक ही रक्खा जाय, ऐसी नंदि, लाभसूरि "लाम" नदि भक्तिसूरि "भक्ति" नंदि परिपाटी भी प्रतीत होती है यह परिपाटी बहुत ही ही सर्वप्रथम रखेंगे । अर्थात नवदीक्षित मुनियोंका महत्व पूर्ण है। सर्वप्रथम नामान्त पद वही रखा जायगा। ___ उस समयके अधिकांश मुनियोंकी दीक्षाका अनु- ७ म्वरतरगच्छमें श्री जिनपनिसूरिजीने दफतरक्रम हम उसी नंदी अनुक्रमसे पा लेते हैं । यथा-गुण- इतिहास डायरी रखने की बहुत अच्छी परिपाटी विनय और समयसुदर दोनों विद्वान समकालीन थे चलाई है, इस दफतर बही में जिस संवत्-मिति को अब इनमें कौन पूर्व दीक्षित थे, कौन पीछे दीक्षित जिस किसीका दीक्षा एवं सूरि-पदादि दिये जाते हैं हुए ? हमें यह जानना हो तो हम तुरंत नंदी अनुक्रम उनकी पूरी नामावली लिम्व लेते थे, इसी प्रकार जहाँ के सहारे यह कह सकते हैं कि गुणविनयकी दीक्षा जहाँ विहार करते हैं वहाँ के प्रनिष्ठादि महत्वपूर्ण प्रथम हुई; क्योंकि उनकी नंदीका नं०८ वां है और कार्यों एवं घटनाओंकी नोंध भी उममें रख ली जाती 'सुन्दर' नंदीका नम्बर २०वां है। थी, वहां उस समय अपने गच्छकं जिनने श्रावक होते उनमें जो विशिष्ट भक्ति श्रादि करते उनका भी उममें पीछेके दफतगेको देखनेस पता चलता है कि एक नंदी (नामान्त पद) एक माथ दीक्षित मुनियोंके विवरण लिग्व लिया जाना, इमम इनिहासमें बड़ीभार्ग लिये एक ही बार व्यवहत न होकर (वह नामाम्त पद) मदद मिलती है। खेद है क ऐमें दफनर क्रमिक पूरे " उपलब्ध नहीं होते ! अन्यथा, बरतरगच्छका ऐमा कुछ समय तक चला करती थी अर्थात् "चंद्र" नंदी चालू की गई उसमें अभी ज्यादा मुनि दीक्षित नहीं सर्वागपूर्ण इतिहास तैयार होसकता है जैसा शायद है। हुए हैं तो वह नंदी १-२ वर्ष तक चल सकती है, किसी गच्छका हो । भारतीय इतिहासमें भी इन दफउस समयके अंदर कई बार भिन्न भिन्न ति थ या मुहूर्त तरों का मूल्य कम नहीं है। अभी तक हमारी खाजमें में दीक्षित सभी मुनियोंका नामान्नपद एक ही रक्खा पहला दफ़तर जिसका नाम 'गुर्वावली' है, सं० १३:३ जायगा । जहाँ तक वह नंदि नहीं बदली जायगी। जागा तकका उपलब्ध हुआ है और इसके बाद सं० १७०० में वर्तमान नकका उपलब्ध है। मध्यकालीन जिन६ यु० जिनचंद्रसूरिजीत * अब तक तो खरतर- भटसरिजी और य० जिनचन्द्रसूरिजीकं समयके दफगच्छमें एक और विशेष प्रणाली देखी जाती है कि * नर मिल जाते तो मागपूर्ण इतिहास तैयार हो पट्टधर प्राचार्यका नामान्त पद जो होगा, सर्वप्रथम , म सकता था। ऐसे प्राचीन १-२ दफ़तरोंका विद्यमान वही नंदि स्थापित की जायगी जैसे-जिन चंद्रसूरि होना सना भी गया है, प्राचीन भंडारोंमें या यति जी जब सबसे पहले मुनियोंको दीक्षित करेंगे तब _ श्रीपूज्योंके संग्रहमें अवश्य मिलेंगें, पूरी खोज होनी * इससे पूर्व भी संभव है, पर हमें निश्चित प्रमाण यहीसे चाहिये । मिला है। सं०१७००से वर्तमान तकका एक दफतर जयपुर Page #165 -------------------------------------------------------------------------- ________________ n अनेकान्त गद्दी पट्टधर श्री पूण्य धरणीन्द्रसूरिजी के पास है, इसी प्रकार खरतरगच्छ की अन्यान्य शाखाओंके दफतर उनके श्रीपूयों व भंडारों में मिलेंगें। बीकानेर गद्दीके श्री पूज्य जिनचरित्रसूरिजी के पासका दकतर हमने देखा है । अन्य श्रीपूज्यों में से कइयोंने तो दफतर म्बो दिये हैं, कई एक दिखलाते नहीं। इन दक़तरों में दीक्षित मुनि-यतियोंकी नामावली इस प्रकार लिखी मिलती है: “संवत् १७७६ वर्षे श्री बीकानेर मध्ये श्री जिनसुखसूरिभिः वल्लभनंदि कृता । पौष सुदि ५ दिन " (पूर्वावस्थानाम ) ( दीक्षितनाम) लक्ष्मीचन्द ललित वल्लभ रूपचन्द राजवल्लभ अतः इससे हमें उन श्रीपूज्योंके श्राज्ञानुवर्ती प्रत्येक मुनि-यतिकं दीक्षासंवत्, स्थान, दीक्षा देन वाले आचार्यका नाम, गुरुका नाम, पूर्वावस्था व दीक्षितावस्था के नामोंका पता चल सकता है। अतएव ऐसे दफ़तरों की नकलें यदि इतिहासकारों के पास हो तो उनकी बहुतसी दिक्कतें कम हो जाँय, समय एवं परिश्रमकी बचत हो सकती है, एवं बहुमूल्य इतिहास लिखा जासकता है । (गुरुनाम ) पं० लीला श्री राजमागर [ वर्ष ४ नंदि या नामान्त पद सम्बन्धी जिन जिन खरसरगच्छीय विशेष बातोंका ऊपर उल्लेख किया गया है, वे सब खरतरगच्छीय जिनभद्रसूरि बृहत् शाखा के दृष्टिकोण से लिखी गई हैं, संभव है स्तरकी अन्य शाखा में परिपाटी की कुछ भिन्नता भी हो। वर्तमान उपयुक्त परिपाटी केवल यतिसमाज में ही है और दफतर लेखनकी प्रणाली तो अब उनमें भी उठती जारही है। मुनियां में तो करीब १०० वर्षों से उपर्युक्त प्रणालियें व्यवहृत नहीं होती । अब मुनियों नाभान्तपद "सागर" सर्वाधिक और मोहन मुनिजी के संघाड़े में "मुनि" और साध्वियोंमे "श्री" नामान्त पद ही रूढ़ सा हो गया है। गुरुशिष्यका नाम भी एक ही नामान्तपद वाला होता है। इससे कई नाम सार्थक एवं सुन्दर नहीं होते। मेरी नम्र सम्मतिमं प्रार्चन परम्पराका फिरसे उपयोग करना चाहिये | ऊपर जो कुछ बातें कही गई हैं वे खरतरगच्छ के दृष्टिकोण से हैं। इसी प्रकार अन्य विद्वानोंको अन्य गोकी नामान्तपद सम्बन्धी विशेष परिपाटियां का अनुसन्धान कर उन्हें प्रगट करना चाहिये। आशा है अन्यगच्छीय विद्वान इस ओर शीघ्र ध्यान देगें । Page #166 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बाबा मनकी आँखें खोल ! [लग्वक-श्री ' भगवन' जैन ] पथ पर चला जा रहा था-अपनी धुनमें मस्त ! पता पालिसभी तो करानी है ! और पैसेके दो पान, एक महीं था कि मेरी कल्पनाओं के अतिरिक्त भी कोई दूसरा सिगरेट ...! क्रिजन यहां पैसा ठगानेसे फायदा ?' संसार है, जहां मैं चल रहा हूं। __वह रोनी-सूरत बनाए लक्षचाई भाँखोंसे देख रहा थाबाबू ! एक पैसा ! भूखी-प्रात्माको मिल जाय", मेरी जेबकी मोर ! मुझे ठिठकते देख, उसने अपनी तफसील सहसा होने वाले इस व्यापातने विचारोंके मार्गमें बाधा पेशकी-एक पैसेके चने खाकर पानी पी लूँगाबाजी!' हाली! मैं चौंककर खड़ा रह गया ! देखा-कृशकाय भिखारी, मेरा हाथ जेबमें पढ़ा हमाथा ! सोचने लगा-'दू या मलिन-दर्गन्धित चिथड़ोंसे अपने शरीरको छिपाए, हाथ नहीं क्या सचमच दो दिनका भूखा होगा? अरे, भगवान फैलाए, सामने खड़ा है ! उसका शरीर अनेकों प्रणों द्वारा ___ का नाम लो, कहीं दो दिन कोई भूखा रह सकता है ?छिन्न-भिन्न हो रहा है, गलाव पकड़ता जारहा है ! वह मक्खियों कल ही बफ्तरमें ज़रा दो घन्टेकी देर होगई तो दम निकलने की वेदना, घावोंकी पीड़ा और दुधाकी भयंकरतासे मानों लगा था ! सब दम्भ है, कोरा जाल ! यह तो इन लोगोंका नरक-दुःख उठा रहा है ! उफ् ! कितनी विकृत प्राकृति है " पेशा है-पेशा! दिनमें भीख, रातको चोरी ! हमी लोग यह. मैं एक पके लिये देखताही रह गया ! उसके मुख तो उन्हें पैसा देकर चोर-उचक्के बनाते हैं, नहीं मजाब के पर जैसे करुणा खेल रही थी ! इतने भिखारी बढ़ते जाएँ! !....' दो दिन होगए-बाबू जी! क्या मजाल जो एक दानाभी 'चल, हट उधर!' महमें गया हो..!-उँगलियोंके घावसे मक्खियां हटाता 'अरे !' हुआ, वह बोला! मैं जेबसे हाथ निकालता हुमा मागे बढ़ा! उसकी प्राशा जैसे मेरे साथ-साथ ही पलदी ! मनमें पाया-एक पैसा इसे देना ही चाहिए ! बेचारा पारीब, अपाहिज मुसीबतमें है !' घड़ी में देखा तो--पौने सात !' जेबमें हाथ डाला! 'प्रोफ्र ! बड़ी देर हुई ? लेकिन........? लपककर बुकिंग-माफिसकी ओर गया! लेकिन विचारोंने फिर पलटा खाया-'अजी, कोदो न बाबू साहिब ! एक टिकिट दीजिएगा!'-और मैंने झगड़ेको ? यह तो दुनिया है ! लाखों हैं, ऐसे,-सुम किस- एक अठमी उनकी भोर सरकादी! किसको पैसे देते फिरोगे? .."एक पैसा! भजी, वाह! 'जनाब! माउ पाने वाला क्रास तो बिल्कुल भर गया। मुफ्तमें यहां दो जूता जो सुस्त होरहा है, पाखिर एक टिकिट भी अब नहीं दिया जा सकता ! अठारह पाने Page #167 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५२ भनेकान्त [वर्ष ४ पाला भी मिल सकता है, कहिए ? 'एँ ! बिल्कुल भर गया ? हा! कभी का! न्यू-थियेटर्सका चित्र-पट हैन ? 'क्या, स्टार्ट हो गया ? 'अभी नहीं ! होने ही वाला है !' सोचने लगा- 'क्या देखा जाता है- उनसे- क्या मन"?? ___ 'पानी..! पानी....!! पाह! पानी!!! हे, भगवान् ! मेरी सुध""लो...! कोई""मुझेपानी....!' मैं ठिठककर रुक गया ! देखा तो-वही परिचित भिखारी, यंत्रणाओंसे घिरा हुना, तड़प रहा है! मेरे हृदयने एक साथ गाया-- 'बाया, मनकी राखें खोल !' 'तो...! लाइए, देखता ही जाऊँ!'-अठमी जेबमें डालकर, एक रुपया और एस की उनकी चोर बढाई उन्होंने रुपया तस्ते पर मारा, और बोले'मिहरवान् ! दूसरा दीजिए !' 'क्यों ? क्या खराब है साहब, यह रुपया ?' 'भाप बहस क्यों करते हैं, दूसरा दे दीजिए न ?' भाखिर रुपया बदलना पड़ा, खराब न होते हुए भी! और तब मैं टिकिट लेकर भीतर जा सका ! मैंने ग्लानिको दूर हटाकर, उसके मुंह परसे कपड़ा हटाया। देखा तो चौंककर पीछे हट गया! मन जाने कैसा होने लगा! 'मोह ! बेचारा प्यासा ही सो गया, और ""हाय ! सदाके लिये...!' मोठ खुले हुए थे--हाथ फैले हुए ! शायद मौन-भाषा में कह रहा था-'एक पैसके चने खाकर पानी पी लुंगा-- बाबूजी !' जी मैं पाया--इसकी खुली हथेलियों में कुछ रख दूं! पर, हृदयमें आन्दोलन चल रहा था-एक पैसा देकर इसकी जान न बच्चाई गई-वहां अठारह-भाने"! वाहरे, मनुष्य ! रातको लौटा तो ग्यारह बज रहे थे ! सिनेमा-गृहसे निकलने वाला जन-समूह समुद्र की तरह उमड़ रहा था! उसीमें कोई गा रहाथा-बाबा. मनकी चाखें खोल !' गाने वाला इस प्रयत्नमें था कि अभी देखे हुए खेलमें गाने वालेकी तरह गाले ! मगर...१--फिर भी वह गा रहा था। और अपनी समममें-बड़ा सुन्दर ! मैं भी गुनगुनाने लगा--'बाबा, मनकी राखें खोल !' 'य! यह मनकी आखें क्या होती हैं-भाई?-- रह-रह कर यह लाइन मनके भीतर उतरती चली गई.'बाबा, मनकी आँखें खोल!! Page #168 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल [सम्पादकीय ] परिशिष्ट स्वामी समन्तभद्रकी 'भस्मक' व्याधि और उसकी इसके सिवाय, 'विक्रान्तकौरव' नाटक और "उपशान्ति प्रादिके समर्थनमें जो द्यो भस्मक- श्रवणबेलगोलके शिलालेख नं० १०५ (नया नं० २५४) भस्मसात्कृतिपटुः' इत्यादि प्राचीन परिचय-वाक्य से यह भी पता चलता है कि 'शिवकोटि ' समंतभद्र श्रवणबेल्गोलके शिलालेख नं०५४ (६७) परसे इस लेख के प्रधान शिष्य थे । यथामें ऊपर (पृ० ५२ पर) उद्धत किया गया है उसमें यद्यपि शिष्यौ तदीयौ शिवकोटिनामा 'शिवकोटि ' गजाका कोई नाम नहीं है। परंतु जिन शिवायनः शास्त्रविदां वरेण्यौ । घटनाओंका उसमें उल्लेख है वे 'राजावलिकथे' कृतनश्रुतं श्रीगुरुपादमूले आदिके अनुसार शिवकोटि गजाके 'शिवालय ' से घधीतवंती भवतः कृतार्थों ॥+ ही सम्बन्ध रखती हैं । ' सेनगणकी पट्टावली' से -विक्रान्तकौरव भी इस विषयका समर्थन होता है । उसमें भी तस्यैव शिष्यश्शिवकोटिसूरिः 'भीमलिंग' शिवालयमें शिवकोटि राजाके समंतभद्र- तपोलतालम्बनदेहयष्टिः। द्वारा चमत्कृत और दीक्षित होनेका उल्लेख मिलता संसारवाराकरपोतमेतत् है। साथ ही, उसे 'नवतिलिंग' देशका ' महाराज' तत्वार्थसूत्रं तदलंचकार । सूचित किया है, जिसकी राजधानी उस समय -० शिलालेख संभवतः 'कांची' ही होगी । यथा 'विक्रान्तकौरव' के उक्त पद्यमें 'शिवकोटि' __“ (स्वस्ति) नवतिलिङ्गदेशाभिराम के साथ 'शिवायन' नामके एक दूसरे शिष्यका भी द्राक्षाभिगमभीमलिङ्गस्वयंन्यादिस्तोट • उल्लेख है, जिस ' राजावलिकथे' में 'शिवकोटि' कोत्कीरण रुन्द्रमान्द्रचन्द्रिकाविशदयशः गजाका अनुज (छोटा भाई) लिखा है और साथ ही श्रीचन्द्रजिनेन्द्रसद्दर्शनममुत्पन्नकौतुहल- यह प्रकट किया है कि उसने भी शिषकोटिके साथ कलिनशिवकोटिमहाराजतपोराज्यस्था - समन्तभद्रसे जिनदीक्षा ली थी *; परंतु शिलालेख पकाचार्यश्रीमत्समन्तभद्रस्वामिनाम्" .. +यह पद्य 'जिनेन्द्रकल्याणाभ्युदय की प्रशस्ति में पाया जाता है। ! 'स्वयं से 'कीरण' तकका पाठ कुछ अशुद्ध जान पड़ता है। * यथा-शिवकोटिमहाराजं भव्यनप्पदरि निजानु वेरस... * 'जैनसिद्धान्तभास्कर' किरण १ ली, पृ. ३८। संसारशरीरभोगनिवेगदि श्रीकंठनेम्बसुतंगे राज्यमनित्तु Page #169 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५४ अनेकान्त [वर्ष ४ वाले पद्यमें वह उल्लेख नहीं है और उसका कारण घ्यर्थक पद्य बहुधा ग्रंथों में पाये जाते हैं। इसमें बुद्धिधृद्धि पद्यक अर्थपरसे यह जान पड़ता है कि यह पद्य के लिये जिस ' यतिपति' को नमस्कार किया गया है तत्त्वार्थसूत्रकी उस टीकाकी प्रशस्तिका पद्य है जिसे उससे एक अर्थमें ' श्रीवर्द्धमानस्वामी' और दूसरेमें शिवकोटि प्राचार्यने रचा था, इसी लिये इसमें 'समंतभद्रस्वामी' का अभिप्राय जान पड़ता है। तत्त्वार्थसूत्रके पहले 'एतत् ' शब्दका प्रयोग किया यतिपतिक जितने विशेषण हैं वे भी दानोंपर ठीक गया है और यह सूचित किया गया है कि 'इम' घटित होजाते हैं। 'अकलक-भावकी व्यवस्था करने तत्त्वार्थसूत्रको उस शिवकोटि सूग्नेि अलंकृत किया वाली सन्नीति (स्याद्वादनीति ) के सत्पथको संस्कारित है जिसका देह तपरूपी लताके पालम्बनके लिये यष्टि करनेवाले' ऐसा जो विशेषण है वह समंतभद्रके बना हुआ है । जान पड़ता है यह पद्य उक्त टीका लिये भटाकलकदेव और श्रीविद्यानंद जैसे प्राचार्योपरसे ही शिलालेखमें उद्धत किया गया है, और इस द्वारा प्रत्युक्त विशेषणोंस मिलता-जुलता है। इस पद्य दृष्टि से यह पद्य बहुत प्राचीन है और इस बातका के अनन्तर ही दमरे लक्ष्मीभृत्परमं ' नामके पद्यमें, निर्णय करनेके लिये पर्याप्त मालूम होता है कि जो समंतभद्रक संस्मरणों (अनं० वर्ष २ कि० १०) 'शिवकोटि' प्राचार्य स्वामी समंतभद्रके शिष्य थे। में उद्धत भी किया जा चुका है, समंतभद्रके मत पाश्चर्य नहीं जो येशिवकोटि' कोई गजा ही हुए (शासन ) को नमस्कार किया है। मतको नमस्कार हों । देवागमकी वसुनन्दिवृत्तिमें मंगलाचरणका कग्नंस पहले खास समन्तभद्रको नमस्कार किया प्रथम पद्य निम्न प्रकारसं पाया जाता है - जाना ज्यादा संभवनीय तथा उचित मालूम होता है। सार्वश्रीकुलभूषणं क्षनम्पिं सर्वार्थसंसाधनं इमके सिवाय, इस वृत्तिके अन्तमें जो मंगलपद्य सन्नीतेरकलंकभावविधतेः संस्कारकं मत्पथं । दिया है वह भी द्वयर्थक है और उममें साफ तौरसे निष्णातंनयमागरेयतिपतिज्ञानांशसद्भास्करं परमार्थविकल्पी 'समंतभद्रदेव' को नमस्कार किया भेत्तारं वसुपालभावतमसो वन्दामहे वुद्धये॥ है और दूसरे अर्थमें वही ममंतभद्रदेव ‘परमात्मा' यह पद्य तयर्थक 8 है, और इस प्रकारक द्वयर्थक का विशेषण किया गया है । यथाशिवायनं गूडिय श्रा मुनिपरलिये जिनदीक्षयनान्तु शिव- समन्तभद्रदेवाय परमार्थेविकल्पिने। कोट्याचार्यरागि। समन्तभद्रदेवाय नमोस्तु परमात्मने ॥ * इससे पहले के 'समन्तभद्रस्स चिराय जीयाद्' और 'स्या- इन मब बातोंसे यह बात और भी दृढ़ हो जानी त्कारमुद्रितसमस्तपदार्थपूर्ण' नामके दो पद्य भी उसी टीकाके है कि उक्त 'यतिपति' से समन्तभद्र खास तौर पर जान पड़ते हैं और वे समन्तभद्रके संस्मरणोमें उद्धृत किये अभिप्रेत हैं। अस्तु, उक्त यतिपतिके विशेषणों में जाचुके हैं (अनेकान्त वर्ष २, किरण २,६)। + नगरताल्लुकेके ३५ वे शिलालेखमें भी 'शिवकोटि' प्राचार्य- भत्तारं वसुपालभावतमसः' भी एक विशे को समन्तभद्रका शिष्य लिखा है (E. C. VIII.)। षण है, जिसका अर्थ होता है 'वसुपालके भावांध•भ्यर्थक भी हो सकता है, और तब यतिपतिसे तीसरे अर्थ में है, जो वसुनन्दिश्रावकाचारकी प्रशस्तिके अनुसार नयनन्दीबसुनन्दीके गुरु नेमिचंद्रका भी प्राशय लिया जा सकता के शिष्य और श्रीनन्दीके प्रशिष्य थे। Page #170 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] समंतभद्रका मुनिजीवन और भापत्काल कारको दूर करनेवाले'। 'वसुपाल' शब्द सामा य अब देखना चाहिये, इतिहाससे 'शिवकोटि तौरस 'राजा' का वाचक है और इस लिये उक्त कहाँका राजा सिद्ध होता है। जहाँ तक मैंने भारतके विशेषणसे यह मालूम होता है कि समंतभद्रस्वामीने प्राचीन इतिहासका, जो अब तक संकलित हुमा है, भी किसी राजा के भावांधकारको दूर किया है । परिशीलन किया है वह इस विषयमें मौन मालूम बहुत संभव है कि वह राजा शिवकोटि' ही हो, होता है-शिवकोटि नामके राजाकी उससे कोई और वही समंतभद्रका प्रधान शिष्य हुआ हो । इसके उपलब्धि नहीं होती-बनारसके तत्कालीन राजाओं सिवाय, 'वसु' शब्दका अर्थ 'शिव' और 'पाल' का तो उससं प्रायः कुछ भी पता नहीं चलता । का अर्थ 'राजा' भी होता है और इस तरहपर इतिहासकालके प्रारम्भमें ही-ईसवी सनसे करीब 'वसुपाल' से शिवकोटि राजाका अर्थ निकाला जा ६०० वर्ष पहले-बनारस, या काशी, की छोटी सकता है; परंतु यह कल्पना बहुत ही लिष्ट जान रियासत कोशल' राज्यमें मिला ली गई थी, और पड़ती है और इस लिय मैं इस पर अधिक जोर देना प्रकट रूपमें अपनी ग्वाधीनताको खो चुकी थी। नहीं चाहता। इसके बाद, ईसासे पहलेकी चौथी शताब्दीमें, मजा___ ब्रह्म नेमिदत्त के 'आराधना-कथाकोश' में तशत्रुकं द्वारा वह 'कोशल' गम्य भी 'मगध' भी · शिवकोटि ' गजाका उल्लेग्य है-उसीके शिवा- राज्यमें शामिल कर लिया गया था, और उस वक्तसे लयमें शिवनैवेद्यस भस्मक' व्याधिकी शांति और उसका एक स्वतंत्र राज्यसत्नाके तौर पर कोई उल्लेख चंद्रप्रभ जिनेंद्रकी स्तुति पढ़ते समय जिनबिम्बकी नहीं मिलता + । संभवतः यही वजह है जो इस प्रादुभूतिका उल्लेख है। साथ ही, यह भी उल्लेख है छोटीसी परतंत्र रियासतके राजाओं अथवा रईसोंका कि शिवकोटि महाराजने जिनदीक्षा धारण की थी। कोई विशेष हाल उपलब्ध नहीं होना। रही कांचीके परंतु शिवकोटिका, 'कांची' अथवा 'नवतेलंग' राजाओंकी बात, इतिहासमें सबम पहले वहाँके गजा देशका गजा न लिखकर, वाराणसी' (काशी- 'विष्णुगोप' (विष्णुगांप धर्मा) का नाम मिलता बनारस ) का राजा प्रकट किया है, यह भेद है । है, जो धर्मसे वैष्णव था और जिम ईमवी सन् ३५० * श्रीवर्द्धमानस्वामीने राजा श्रेणिकके भावान्धकारको दूर किया । के करीब ‘समुद्रगुप्त' ने युद्ध में परास्त किया था। था। - इमके बाद ईमवी मन ४३७ में मिहवर्मन् ' (बौद्ध) ब्रह्म नेमिदत्त भट्टारक मल्लिभूषणके शिष्य और विक्रमकी +V.A. Smith's Early History of १६ वीं शताब्दीके विद्वान् थे । अापने वि० सं० १५८५ में India, III Edition, p.30-35. विन्सेंट ए. श्रीपालचरित्र बनाकर समाप्त किया है। आराधना कथा स्मिथ साहबकी अली हिस्टरी श्राफइंडिया, तृतीयसंस्करण, कोश भी उसी वक्तके करीबका बना हुआ है। पृ. ३०-३५।। + यथा-वाराणसीं ततः प्राप्तः कुलघोषैः समन्विताम् । शक सं० ३८० ( स. १८) में भी 'सिंहवर्मन्' योगिलिगं तथा तत्र गृहीत्वा पर्यटन्पुरे ॥१६॥ कांचीका राजा था और यह उसके राज्यका २२ वाँ वर्ष स योगी लीलया तत्र शिवकोटिमहीभुजा। था, ऐसा 'लोकविभाग' नामक दिगम्बर जैनमन्यसे मालूम कारितं शिवदेवोकप्रासादं संविलोक्य च ॥२०॥ होता है। Page #171 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १५३ अनेकान्त का, ५७५ में सिंह विष्णुका, ६०० से ६२५ तक महेन्द्रवर्मन्का, ६२५ से ६४५ तक नरसिंहवर्मन् का, ६५५ में परमेश्वरवर्मन्का, इसके व द नरसिंहवर्मन द्वितीय ( राजसिंह ) का और ७४० में नन्दिवर्मन्का नामोल्लेख मिलता है । ये सब राजा पल्लव वंशके और इनमें 'सिंह विष्णु' से लेकर पिछले सभी राजाओंका राज्यक्रम ठीक पाया जाता है + | परन्तु सिंहविष्णु से पहलेके राजाओंकी क्रमशः नामावली और उनका राज्यकाल नहीं मिलता, जिसकी इस अवसर पर - शिव कोटिका निश्चय करनेके लियेखास जरूरत थी । इसके सिवाय, विंसेंट स्मिथ साहब ने, अपनी 'अर्ली हिटरी आफ इंडिया' ( पृ० २७५ - २७६ ) में यह भी सूचित किया है कि ईसवी सन् २२० या २३० और ३२० का मध्यवर्ती प्रायः एक शताब्दीका भारतका इतिहास बिलकुल ही अंधकाराच्छन्न है-: - उसका कुछ भी पता नहीं चलता । इससे पष्ट है कि भारतका जो प्राचीन इतिहास संकत हुआ है वह बहुत कुछ अधूरा है । उसमें शिवकोटि जैसे प्राचीन राजाका यदि नाम नहीं मिलता तो यह कुछ भी आश्चर्यकी बात नहीं है। यद्यपि ज्यादा पुराना इतिहास मिलता भी नहीं, परंतु जो मिलता है और मिल सकता है उसको संकलित * कांचीका एक पल्लवराजा 'शिवस्कंद वर्मा' भी था, जिसकी श्रोरसे ‘मायिदावोलु’ का दानपत्र लिखा गया है, ऐसा मद्रासके प्रो० ए० चक्रवर्ती 'पंचास्तिकाय' की अपनी जी प्रस्तावना में सूचित करते हैं । श्रापकी सूचना के अनुसार यह राजा ईसाकी १ ली शताब्दीके करीब (विष्णुगोपसे भी पहले) हुआ जान पड़ता है। [ वर्ष ४ , करने का भी अभी तक पूरा आयोजन नहीं हुआ । जैनियोंके ही बहुतसे संस्कृत, प्राकृत, कनड़ी, तामिल और तेलगु आदि ग्रंथोंमें इतिहासकी प्रचुर सामग्री भरी पड़ी है जिनकी ओर अभी तक प्रायः कुछ भी लक्ष्य नहीं गया। इसके सिवाय, एक एक राजाके कई कई नाम भी हुए हैं और उनका प्रयोग भी इच्छानुसार विभिन्न रूपसे होता रहा है, इससे यह भी संभव है कि वर्तमान इतिहास में 'शिवकोटि का किसी दूसरे ही नामसे उल्लेख हो और वहाँ पर यथेष्ट परिचयके न रहने से दोनों का समीकरण न हो सकता हो, और वह समीकरण विशेष अनुसंधानकी अपेक्षा रखता हो । परन्तु कुछ भी हो, इतिहास की ऐसी हालत होते हुये, बिना किसी गहरे अनुसंधानके यह नहीं कहा जा सकता कि 'शिवकोटि ' नामका कोई राजा हुआ ही नहीं, और न शिवकोटि के व्यक्तित्वसे ही इनकार किया जा सकता है । 'राजावलिकथे' में शिवकोटिका जिस ढंगसे उल्लेख पाया जाता है और पट्टावली तथा शिलालेखों आदिद्वारा उसका जैसा कुछ समर्थन होता है उस पर से मेरी यही गय होती है कि 'शिवकोटि ' नामका अथवा उस व्यक्तित्वका कोई राजा जरूर हुआ है, और उसके अस्तित्वकी संभावना अधिकतर कांचीकी ओर ही पाई जाती है; ब्रह्मनेमिदत्तने जो उसे बागणसी ( काशी बनारस ) का राजा लिखा है वह कुछ * शिवकोटिसे मिलते जुलते शिवस्कंदवर्मा (पल्लव), शिवमृगेशवर्मा (कदम्ब ), शिवकुमार ( कुन्दकुन्दका शिष्य), शिवस्कंद वर्मा हारितीपुत्र ( कदम्ब ), शिवस्कंद शातकर्णि (न्), शिवमार (गंग), शिवश्री (आन्ध्र ), और शिवदेव (लिच्छिवि), इत्यादि नामोके धारक भी राजा हो गये हैं । संभव है कि शिवकोटिका कोई ऐसा ही नाम रहा हो, अथवा इनमेंसे ही कोई शिवकोटि हो । + देखो, विसेंट ए० स्मिथ साहबका 'भारतका प्राचीन इतिहास' (Early History of India), तृतीय संस्करण, पृ० ४७१ से ४७६ । Page #172 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल किरण २ ] ठीक प्रतीत नहीं होता । ब्रह्म नेमिदत्त की कथा में और भी कई बातें ऐसी हैं जो ठीक नहीं जँचती । इस कथामें लिखा है कि “कांचीमें उस वक्त भस्मक व्याधिको नाश करने के लिये समर्थ (स्निग्धादि ) भोजनोंकी सम्प्राप्तिका अभाव था, इसलिये समन्तभद्र कांचीको छोड़कर उत्तरकी ओर चल दिये । चलते चलते वे ' पुण्ड्रेन्दुनगर 'नु में पहुंचे, वहाँ चौद्धोंकी महती दानशालाको देखकर उन्होंने बौद्ध भिक्षुकका रूप धारण किया, परन्तु जब वहाँ भी महाव्याधि की शान्तिके योग्य आहार का अभाव देखा तो आप वहाँ से निकल गये और क्षुधा पीडित अनेक नगरों में घूमते हुए ' दश पुर' नामके नगर में पहुंचे । इस नगर में भागवतों ( वैष्णवों) का उन्नत मठ देखकर और यह देखकर कि यहाँपर भागवन लिङ्गधारी साधुओं को भक्तजनों द्वारा प्रचुर परिमाण में सदा विशिष्ट आहार भेंट किया जाता है, आपने बौद्ध वेषका परित्याग किया और भागवत वेष धारण कर लया, परन्तु यहाँका विशिष्टाहार भी आपकी भम्मक व्याधिको शान्त में समर्थ न हो सका और इस लिये आप यहाँ से भी चल दिये। इसके बाद नानादिग्देशादिकों में घूमते हुए आप अन्तको ' वाराणसी' नगरी पहुँचे और वहाँ अपने योगिलिङ्ग धारण करके शिवकोटि राजाके शिवालय में प्रवेश किया । इस शिवालय में शिवजीके भोगके लिये तय्यार किये हुए अठारह + 'पुण्डू' नाम उत्तर बंगालका है जिसे 'पौण्ड्रवर्धन' भी कहते हैं । 'पुण्डेन्दु नगर से उत्तर बंगाल के इन्दुपुर, चन्द्रपुर अथवा चन्द्रनगर आदि किसी खास शहरका अभिप्राय जान पड़ता हैं। छपेहुए 'श्राराधनाकथाकोश' (श्लोक ११ ) में ऐसा ही पाठ दिया है। संभव है कि वह कुछ अशुद्ध हो । १५७ प्रकारके सुन्दर श्रेष्ठ भोजनोंके समूहको देखकर आप ने सोचा कि यहाँ मेरी दुर्व्याधि जरूर शान्त हो जायगी। इसके बाद जब पूजा हो चुकी और वह दिव्य आहार - ढेरका ढेर नैवेद्य- बाहर निक्षेपित किया गया तब आपने एक युक्ति के द्वारा लोगों तथा राजाको श्राश्चर्यमें डालकर शिवको भोजन करानेका काम अपने हाथमें लिया। इस पर राजाने घी, दूध, दही और मिठाई ( इक्षुरस ) आदिसे मिश्रित नाना प्रकारका दिव्य भोजन प्रचुर परिमाण में (पूर्णै: कुंभशतैर्युक्तं = भरे हुए सौ घड़ों जितना ) तय्यार कराया और उसे शिवभोजन के लिये योगिराजकं सुपुर्द किया। समंतभद्रने वह भोजन स्वयं खाकर जब मंदिर के कपाट खोले और खाली बरतनोंको बाहर उठा ले जानेके लिये कहा, तब राजादिकको बढ़ा आश्चर्य हुआ । यही समझा गया कि योगिराजने अपने योगबल से साक्षात शिवको अवतारित करके यह भोजन उन्हें ही कराया है। इससे गजाकी भक्ति बढ़ी और वह नित्य ही उत्तमोत्तम नैवेद्यका समूह तैयार करा कर भेजने लगा । इस तरह, प्रचुर परिमाण में उत्कृष्ट आहार का सेवन करते हुए, जब पूरे छह महीने बीत गये तब आपकी व्याधि एकदम शांत होगई और आहारकी मात्रा प्राकृतिक हो जाने के कारण वह सब नैवेद्य प्रायः ज्योंका त्यों बचने लगा । इसके बाद राजाको जब यह खबर लगी कि. योगी स्वयं ही वह भोजन करता रहा है और 'शिव' को प्रणाम तक भी नहीं करता तब उसने कुपित होकर योगी से प्रणाम न करनेका कारण पूछा। उत्तर में योगिराजने यह कह दिया कि 'तुम्हारा यह रागी द्वेषी देव मेरे नमस्कारको सहन नहीं कर सकता। मेरे नमस्कारको सहन करने के लिये वे जिन Page #173 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त । [वर्ष ४ सूर्य ही समर्थ है जो अठारह दोषोंसे रहित हैं और दिकको बड़ा आश्चर्य हुआ और राजाने उसी समय केवलज्ञानरूपी सत्तेजसे लोकालोकके प्रकाशक हैं। समन्तभद्रम पूछा-हे योगीन्द्र, आप महासामध्ययदि मैंने नमस्कार किया तो तुम्हाग यह देव (शिव- वान अव्यक्तलिंगी कौन हैं ? इसके उत्तरमें सम तभद्रलिङ्ग) विदीर्ण हो जायगा-खंड खंड हो जायगा- ने नीचे लिखे दो काव्य कहेइसीसे मैं नमस्कार नहीं करता हूं'। इस पर राजाका कांच्यां नग्राटकोऽहं कौतुक बढ़ गया और उसने नमस्कार के लिये आग्रह __मलमलिनतनुर्लाम्बुशे पाण्डुपिंडः करते हुए, कहा-'यदि यह देव खंड खंड हो जायगा पुण्ड्रोएड्रे| शाक्यभिक्षुः तो हो जाने दीजिये, मुझे तुम्हारे नमस्कारके सामर्थ्य ___दशपुरनगरे मृष्टभोजी परिवाट । को जरूर देखना है । समंतभद्रने इसे स्वीकार किया वाराणस्यामभूवं और अगले दिन अपने सामर्थ्यको दिखलानेका वादा शशिधरधवल:* पाण्डुगंगस्तपस्वी, किया । राजाने ' एवमस्तु' कह कर उन्हें मन्दिरमें गजन् यस्यास्ति शक्तिः, रक्खा और बाहरसे चौकी पहरेका पूरा इन्तजाम कर ____स वदतु पुरतो जैननिग्रंथवादी ॥ दिया। दोपहर रात बीतने पर समंतभद्रको अपने . पूर्व पाटलिपुत्रमध्यनगरे भेरी मया ताडिता, वचन-निर्वाहकी चिन्ता हुई, उससे अम्बिकादेवीका , पश्चा-मालवसिन्धुटक्कविषय कांचीपुरे वैदिशे आसन डोल गया । वह दौड़ी हुई आई, श्राकर उस . ने समंतभद्रको आश्वासन दिया और यह कह कर प्राप्तोऽहं करहाटकं बहुभट विद्योत्कटं संकटं, चली गई कि तुम 'स्वयंभुवा भूतहितेन भूतले' , वादार्थी विचराग्यहं नरपने शार्दूलविक्रीडितं ___ इसके बाद समन्तभद्रनं कुलिंगिवेप छोड़कर जैनइस पदसे प्रारंभ करके चतुर्विशति तीर्थंकरोंकी उन्नत । । निग्रंथ लिंग धारण किया और संपूर्ण एकान्तवादियों म्तुति रचो, उसके प्रभावसे सब काम शीघ्र हो जायगा को वादमें जीतकर जैनशासनकी प्रभावना की। यह और यह कुलिंग टूट जायगा । समन्तभद्रको इम सब देवकर गजाको जैनधर्ममें श्रद्धा होगई, वैराग्य दिव्यदर्शन प्रसन्नता हुई और वे निर्दिष्ट स्तुतिको हो आया और राज्य छोड़कर उसने जिनदीक्षा रचकर सुखमें स्थित हो गये । सवेरे (प्रभात ममय) धारण करली + ।" राजा आया और उसने वही नमस्कारद्वारा सामर्थ्य । संभव है कि यह 'पुण्डोड' पाठ हो, जिससे 'पुण्डू''दिखलानेकी बात कही। इस पर ममन्तभद्र ने अपनी उत्तर बंगाल-और 'उड'-उडीसा-दोनोंका अभिप्राय उस महास्तुतिको पढ़ना प्रारंभ किया । जिस वक्त जान पड़ता है। 'चंद्रप्रभ' भगवानकी स्तुति करते हुए 'तमस्तमो- * कहींपर 'शशधरधवलः' भी पाठ है जिसका अर्थ चंद्रमा रेरिव रश्मिभिन्नं' यह वाक्य पढ़ा गया उसी वक्त ___के समान उज्वल होता है। 'प्रवदतु' भी पाठ कहीं कहीं पर पाया जाता है। वह 'शिवलिंग' खंड खंड होगया और उस स्थानसे + ब्रह्म नेमिदत्तके कथनानुसार उनका कथाकोश भट्टारक 'चंद्रप्रभ' भगवानकी चतुर्मुखी प्रतिमा महान् प्रभाचन्द्र के उस कथाकोशके आधारपर बना हुआ है जो जयकोलाहलके साथ प्रकट हुई । यह देखकर राजा- गद्यात्मक है और जिसको पूरी तरह देखनेका मुझे अभी Page #174 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २ ] दत्तके इस कथन में सबसे पहले यह बात कुछ जीको नहीं लगती कि ' कांची' जैसी राजधानी में अथवा और भी बड़े बड़े नगरों, शहरों तथा दूसरी राजधानियोंमे भस्मक व्याधिको शांत करने योग्य भोजनका उस समय अभाव रहा हो और इस लिये समंतभद्रको सुदूर दक्षिण सुदूर उत्तर तक हजारों मीलकी यात्रा करनी पड़ी हो । उस समय दक्षिण में ही बहुतसी ऐसी दानशालाएँ थीं जिनमें साधुको भरपेट भोजन मिलता था, और अगणित समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल तक कोई अवसर नहीं मिल सका। सुहृदर पं० नाथूराम जी प्रेमीने मेरी प्रेरणा से, दोनों कथाकोशांमें दी हुई समन्तभद्रकी कथाका परस्पर मिलान किया है और उसे प्रायः समान पाया है । आप लिखते हैं— "दोनोमें कोई विशेष फर्क नहीं है । नेमिदत्तकी कथा प्रभाचन्द्रकी गद्यकथाका प्रायः पूर्ण पद्यानुवाद है । पादपूर्ति श्रादिके लिये उसमें कही कहीं थोड़े बहुत शब्द - विशेषण अव्यय श्रादिश्रवश्य बढ़ा दिये गये हैं । नेमिदत्तद्वारा लिखित कथाके ११ वें श्लोक में 'पुण्ड़ ेन्दुनगरे' लिखा है, परन्तु गद्यकथा में 'gesनगरे' और 'वन्दक- लोकाना स्थाने' की जगह 'वन्दकाना बृहद्विहारे' पाठ दिया है। १२ वें पद्यके 'बौद्धलिंग' की जगह 'वंदकलिंगं' पाया जाता है। शायद 'बंद' बौद्धका पर्याय शब्द हो । 'काच्या नग्माटकोऽहं' श्रादि पद्यांका पाठ ज्योका त्यों है। उसमें 'gustus' की जगह 'पुण्ढोराढ़' 'ठक्कविषये' की जगह 'कवि' और 'वैदिशे' की जगह 'वैदुषे' इस तरह नाममात्रका अन्तर दीख पड़ता है।" ऐसी हालतमें, नेमिदत्तकी कथाके इस मारांशको प्रभाचन्द्रकी कथाका भी सारांश समझना चाहिये और इस पर होनेवाले विवेचनादिको उसपर भी यथासंभव लगा लेना चाहिये । 'वन्दक' बौद्धका पर्याय नाम है यह बात परमात्मप्रकाश देवकृतीका निम्न श्रंशसे भी प्रकट है— " खवरणउ वंदउ सेवडउ, क्षपणको दिगम्बरोऽहं, बंदको बौद्धोsi, श्वेतपटादिलिंगधार कोहऽमितिमूढात्मा एवं म न्यत इति । " १५६ ऐसे शिवालय थे जिनमें इसी प्रकार से शिवको भोग लगाया जाता था, और इस लिये जो घटना काशी (बनारस) में घटी वह वहाँ भी घट सकती थी । ऐसी हालत में, इन सब संस्थाओंोंस यथेष्ट लाभ न उठा कर, सुदूर उत्तर में काशीतक भोजनके लिये भ्रमण करना कुछ समझ में नहीं आता । कथा मे भी यथेष्ट भोजनके न मिलने का कोई विशिष्ट कारण नहीं बतलाया गया - सामान्यरूपसे 'भस्मकव्याधि विनाशाहारहानित:' ऐसा सूचित किया गया है, जो पर्याप्त नहीं है। दूसरे, यह बात भी कुछ असंगत सी मालूम होती है कि ऐसे गुरु, स्निग्ध, मधुर और श्लेष्मल गरिष्ट पदार्थोंका इतने अधिक (पूर्ण शतकुंभ जितने ) परिमाण में नित्य सेवन करने पर भी भम्मकाग्निको शांत होने में छह महीने लग गये हों । जहाँ तक मैं समझता हूँ और मैंन कुछ अनुभवी वैद्यांस भी इस विषय में परामर्श किया है, यह रोग भोजनकी इतनी अच्छी अनुकूल परिस्थिति में अधिक दिनों तक नहीं ठहर सकता, और न रोगकी ऐसी हालत मे पैदलका इतना लम्बा सफ़र ही बन सकता है । इस लिये, ' राजावलिकथे' में जो पाँच दिनकी बात लिम्बी है वह कुछ असंगत प्रतीत नहीं होती। तीसरे, समंतभद्र के मुखसे उनके परिचयके जो दो काव्य कहलाये गये हैं वे बिलकुल हो अप्रासंगिक जान पड़ते हैं। प्रथम तो गजाकी ओर से उस अवसर पर वैसे प्रश्नका होना ही कुछ बेढंगा मालूम देता है - वह अवसर तो राजाका उनके चरणों में पड़ जाने और क्षमा प्रार्थना करनेका था— दूसरे समंतभद्र, arratri लिये आग्रह किये जानेपर, अपना इतना परिचय दे भी चुके थे कि वे ' शिवोपासक ' नहीं हैं for ' जिनोपासक ' हैं, फिर भी यदि विशेष परि Page #175 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० के लिये वैसे प्रश्नका किया जाना उचित ही मान लिया जाय तो उसके उत्तर में समन्तभद्र की ओर से उनके पितृकुल और गुरुकुलका परिचय दिये जाने की अथवा अधिक से अधिक उनकी भस्मकव्याधिको उत्पत्ति और उसकी शांति के लिये उनके उस प्रकार भ्रमणक कथाst भी तला देनेकी जरूरत थी; परंतु उक्त दोनों पद्योंमें यह सब कुछ भी नहीं हैन पितृकुल अथवा गुरुकुलका कोई परिचय है और a reasoयाधिक उत्पत्ति आदिका ही उसमें कोई खास जिक्र है — दोनोंमें स्पष्टरूपसे वादकी घोषणा है; बल्कि दूसरे पद्य में तो, उन स्थानोंका नाम देते हुए जहां पहले बादकी भेरी बजाई थी, अपने इम भ्रमण का उद्देश्य भी 'वाद' ही बनलाला गया है। पाठक सोचें, क्या समंतभद्र के इस भ्रमरणका उद्देश्य 'वाद' था ? क्या एक प्रतिष्ठित व्यक्तिद्वारा विनीत मावसे परिचयका प्रश्न पूछे जाने पर दूसरे व्यक्तिका उसके उत्तर में लड़ने झगड़ने के लिये तय्यार होना अथवा वादकी घोषणा करना शिष्टता और सभ्यताका व्यवहार कहला सकता है ? और क्या समंतभद्र जैसे महान् पुरुषोंके द्वारा ऐसे उत्तरकी कल्पना की जा सकती है ? कभी नहीं। पहले पद्यकं चतुर्थ चरण में यदि वाद की घोषणा न होती तो वह पद्य इस अवसर पर उत्तरका एक अंग बनाया जा सकता था; क्योंकि उसमें अनेक स्थानों पर समंतभद्रके अनेक वेष धारण करनेकी बातका उल्लेख है । परन्तु दूसरा पथ तो यहाँ पर कोग अप्रासंगिक ही है-वह पद्य तो 'करहाटक ' नगर राजाकी सभा में कहा हुआ पद्य है उसमें अनेकान्त [ वर्ष ४ अपने पिछले वादस्थानोंका परिचय देते हुए, साफ़ लिखा भी है कि मैं अब उस करहाटक ( नगर ) को प्राप्त हुआ हूं जो बहुभटोंस युक्त है, विधाका उत्कट - स्थान है और जनाकीर्ण है। ऐसी हालत में पाठक स्वयं समझ सकते हैं कि बनारसके राजाके प्रश्नके उत्तर में समंतभद्र से यह कहलाना कि अब मैं इस करहाटक नगरमें आया हूं कितनी बे-सिर पैर की बात है, कितनी भारी भूल है और उससे कथा में कितनी कृत्रिमता श्रा जाती है। जान पड़ता ब्रह्म नेमदत्त इन दोनों पुरातन पद्योंको किसी तरह कथा में संगृहीत करना चाहते थे और उस संग्रहकी धुन में उहें इन पद्योंके अर्थसम्बन्धका कुछ भी खयाल नहीं रहा । यही वजह है कि वे कथामें उनको यथेष्ट स्थान पर देने अथवा उन्हें ठीक तौर पर संकलित करने में कृतकार्य नहीं हो सके । उनका इस प्रसंग पर, 'स्फुटं काव्यद्वयं चेति योगीन्द्रः तमुवाच सः' यह लिखकर उक्त पयोंका उद्धत करना कथा के गौरव और उसकी अकृत्रिमताको बहुत कुछ कम कर देता है। इन पद्योंमें वादकी घोषणा होनेसे ही ऐसा मालूम देता है कि ब्रह्म नेमिदत्तने, राजामें जैन धर्म की श्रद्धा उत्पन्न करानेसे पहले, समंतभद्रका एकान्तवादियोंसे वाद कराया है; अन्यथा इतने बड़े चमत्कार के अवसर पर उसकी कोई आवश्यकता नहीं थी। कांचीके बाद समंतभद्रका वह भ्रमण भी पहले पद्य का लक्ष्य में रखकर ही कराया गया मालूम * यह बतलाया गया है कि "कांचीमें मैं नग्नाटक ( दिगम्बर साधु ) हुआ, वहाँ मेरा शरीर मलिसे मलिन था; लाम्बुश में पाण्डुपिण्ड रूपका धारक ( भस्म रमाए शैवमाधु ) हुआ; पुण्ड्रोमें बौद्ध भिक्षुक हुआ, दशपुर नगरमें मृष्टभोंजी परिव्राजक हुना, और वाराणसी में शिवसमान उज्ज्वल पाण्डुर श्रंगका धारी में तपस्वी (शैवसाधु) हुना हूँ; हे राजन् मैं जैन निवादी हूँ, जिस किसीकी शक्ति मुझसे वाद करनेकी हो वह सामने आकर बाद करे ।" Page #176 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] समंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल होता है । यद्यपि उममें भी कुछ त्रुटियाँ हैं-वहाँ, क्रमिक होनेका उल्लंग्व भी नहीं है; कहाँ कांची और पद्यानुमार कांचीकं बाद , लांबुशमें समंतभद्रके कहाँ उत्तर बंगालका पुण्डनगर ! पुण्डसं वाराणसी 'पाण्डुपिण्ड ' रूपसं (शरीग्में भम्म रमाए हुए) निकट, वहां न जाकर उज्जैनके पास 'दशपुर' जाना रहनेका कोई उल्लेख ही नहीं है, और न दशपुरमें और फिर वापिस वागणसी आना, ये बातें क्रमिक रहते हुए उनके मृष्टभोजी होनेकी प्रतिज्ञाका ही कोई भ्रमणको सूचित नहीं करतीं। मेरी रायमें पहली बात उल्लेख है। परंतु इन्हें रहने दीजिये, सबसे बड़ी बात ही ज्यादा संभवनीय मालूम होती है । अस्तु; इन यह है कि उम पद्यमें ऐसा कोई भी उल्लेख नहीं है सब बातोंको ध्यानमें रखते हुए, ब्रम नेमिदत्तकी कथा अमस यह मालूम होता हो कि समंतभद्र उस समय के उम अंशपर सहसा विश्वास नहीं किया जा मकना भम्मक व्याधिर्म युक्त थे अथवा भोजनकी यथेष्ट जो कांचीस बनारस नक भाजनके लिये भ्रमण करने प्राप्ति के लिये ही उन्होंने वे वष धारण किये थे । और बनारसमें भस्मक व्याधिकी शांति प्रादिसे बहुन संभव है कि कांचीमें ‘भम्मक' व्याधिकी मम्बन्ध रखता है, खासकर ऐसी हालतमें जब कि शांतिके बाद ममंतभद्रन कुछ असे तक और भी गजावलिकथे' माफ नौरपर कांचीमें ही भम्मक पुनर्जिनदीक्षा धारण करना उचित न समझा हो; व्याधिकी शांति आदिका विधान करती है और संनबल्कि लगे हाथां शासनप्रचारकं उद्देशस, दृमरे धर्मों गणकी पट्टावली से भी उसका बहुत कुछ समर्थन के आन्तरिक भदका अच्छी तरहसे मालूम करनेके हाता है। लिये उम तरह पर भ्रमण करना जरूरी अनुभव जहाँ तक मैंने इन दोनों कथाओंकी जाँच की है किया हा और उसी भ्रमणका उक्त पद्यमें उल्लेग्य हो; मुझ 'गजावलिकथे' में दी हुई ममंतभद्र की कथामें अथवा यह भी हामकता है कि उक्त पद्य में ममंतभद्रकं बहुत कुछ म्वाभाविकता मालूम होती है-मणुवकनिग्रंथमुनिजीवनम पहल की कुछ घटनाओंका उल्लेग्य हल्लि प्राममें तपश्चरण करते हुए भस्मक व्याधिका हा जिनका इतिहास नहीं मिलना और इस लिय जिन उत्पन्न होना, उसकी नि:प्रतीकारावस्थाको देखकर पर कोई विशेष गय कायम नहीं की जा मकती। पद्यमे किमी क्रमिक भ्रमणका अथवा घटनाओंक समंतभद्रका गुरुस सल्लेग्वना व्रतकी प्रार्थना करना, *कुछ जैन विद्वानांने इस पद्यका अर्थ देते हुए 'मलमलिन गुरुका प्रार्थनाको अस्वीकार करते हुए मुनिवेष छोड़ने ननुर्लाम्बुशे पाण्डुपिण्डः' पदाका कुछ भी अर्थ न देकर और गगापशांति के पशान पुनर्जिनदीक्षा धारण करने उसके स्थानमें 'शरीरमें रोग होनेसे' ऐमा एक खंडवाक्य की प्रेरणा करना, 'भीमलिंग' नामक शिवालयका दिया है; जो ठीक नहीं है । इम पद्यमें एक स्थानपर और उसमें प्रतिदिन १२ खंडुग परिमाण तंडुलानके 'पाण्डुपिण्डः' और दूसरे पर 'पाण्डुरागः' पद आये हैं जो विनियोगका उल्लेग्य, शिवकोटि राजाको आशीर्वाद दोनों एक ही अर्थके वाचक हैं और उनसे यह स्पष्ट है कि देकर उसके धर्मकृत्योंका पूछना, क्रमशः भोजनका समन्तभद्रने जो वेष वाराणसीमें धारण किया है वही लाम्बुशमें भी धारण किया था। हर्षका विषय है कि उन अधिक अधिक बचना, उपमर्गका अनुभव होने ही लेखकोंमेंसे प्रधान लेग्वकने मेरे लिखने पर अपनी उस उमकी निवृत्तिपर्यन्त ममम्त आहार-पानादिकका भूलको स्वीकार किया है और उसे अपनी उस भमयकी त्याग करके समन्तभद्रका पहले नही जिनम्तुनिमें लीन भूल माना है। होना, चंद्रप्रभकी स्तुतिके बाद शेष तीर्थकगेकी स्तुनि Page #177 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ भी करते रहना, महावीर भगवान् की स्तुति की समाप्ति पर चरणों में पड़े हुए राजा और उसके छोटे भाई को आशीर्वाद देकर उन्हें मद्धर्मका विस्तृत स्वरूप बतलाना, राजाके पुत्र 'श्रीकंठ' का नामोल्लेख, राजा के भाई 'शिवायन' का भी राजाके साथ दीक्षा लेना, और समंतभद्र की ओर से भीमलिंग नामक महादेव के विषय में एक शब्द भो अविनय या अपमानका न कहा जाना, ये सब बातें, जो नेमिदत्त की कथामें नहीं हैं, हम कथाकी स्वाभाविकताको बहुत कुछ बढ़ा देती हैं । प्रत्युत इसके, नेमिदत्तकी कथासे कृत्रिमताकी बहुत कुछ गंध आती है, जिसका कितना ही परिचय ऊपर दिया जा चुका है। इसके सिवाय, राजाका नमस्कार के लिये आग्रह, समन्नभद्रका उत्तर, और अगले दिन नमस्कार करनेका बादा, इत्यादि बातें भी उसकी कुछ ऐसी ही हैं जो जीको नहीं लगतीं और आपत्ति के योग्य जान पड़ती है । नेमिदन्त की इस कथापरसे ही कुछ विद्वानोंका यह स्नयाल होगया था कि इसमें जिनबिम्बकं प्रकट होनेकी जो बात कही गई है वह भी शायद कृत्रिम ही है और वह प्रभाव चरित' में दी हुई 'सिद्धसेन दिवाकर' की कथामे, कुछ परिवर्तन के माथ ले ली गई जान पड़ती है-उसमें भी स्तुति पढ़ते हुए इसी are पार्श्वनाथका बिम्ब प्रकट होने की बात लिम्बी है। परन्तु उनका वह स्ख़याल रालत था और उसका निरमन श्रवणबेलगोल के उम मल्लिषेणप्रशस्ति नामक शिलालेख में भले प्रकार हो जाता है, जिसका 'बंद्यो भस्मक' नामका प्रकृत पद्म ऊपर ( वृ०५२ पर) उद्धृत किया जा चुका है और जो उक्त प्रभावक चरितसे १५९ वर्ष पहिलेका लिखा हुआ है - प्रभावकaftaar निर्माणकाल वि० सं० १३३४ है और अनेकान्त [ वर्ष ४ लिलालेख शक संवत् १०५० ( वि० सं० १९८५) का लिखा हुआ है। इससे स्पष्ट है कि चंद्रप्रभ-बिम्बके प्रकट होने की बात उक्त कथा परसें नहीं ली गई बल्कि वह समंतभद्रकी कथासे खास तौर पर सम्बन्ध रखती है। दूसरे, एक प्रकार की घटनाका दो स्थानों पर होना कोई अस्वाभाविक भी नहीं है। हाँ, यह हा सकता है कि नमस्कार के लिये आग्रह आ दकी बात उक्त कथा परसे ले ली गई हो । क्योंकि राजावलिकथे आदिमं उसका कोई समर्थन नहीं होता, और न समन्तभद्रकं सम्बन्धमें वह कुछ युक्तियुक्त । ही प्रतीत होती है। इन्हीं सब कारणोंसे मेरा यह कहना है कि ब्रह्म न 'मदत्तने 'शिवकोटि' को जो वाराणसी का राजा लिखा है वह कुछ ठीक प्रतीत नहीं होना; उसके अस्तित्वकी सम्भावना अधिकतर कांचीकी ओर ही पाई जाती है, जो समन्तभद्रके निवासादिका प्रधान प्रदेश रहा है । अस्तु । शिवकोटिनं समन्तभद्रका शिष्य होनेपर क्या क्या कार्य किये और कौन कौनसे ग्रंथोंकी रचना की, यह सब एक जुदा ही विषय है जो खाम शिवकोटि आचार्य के चरित्र अथवा इतिहास से सम्बन्ध रखता है, और इस लिये मैं यहां पर उसकी कोई विशेष चर्चा करना उचित नहीं समझता । * यदि प्रभाचन्द्रभट्टारकका गद्य कथाकोश, जिसके श्राधार पर नेमिदत्तने अपने कथाकोशकी रचना की है, 'प्रभावकचरित' से पहलेका बना हुआ है तो यह भी हो सकता है कि उसपर से ही प्रभावचरितमे यह बात ले ली गई हो । परन्तु साहित्यकी एकतादि कुछ विशेष प्रमाणोके बिना दोनों ही के सम्बन्ध में यह कोई लाज़िमी बात नहीं है कि एकने दूसरेकी नकल ही की हो; क्योंकि एक प्रकारके विचारोंका दो ग्रन्थकर्त्ता के हृदयमें उदय होना भी कोई असंभव नहीं है। Page #178 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] समंतभद्रका मुनिजीवन और भापत्कोल 'शिवकोटि' और 'शिवायन' के सिवाय समंतभद्र विद्याके प्राचार्य-होना भी सूचित किया है । के और भी बहुत से शिष्य रहे होंगे, इसमें सन्देह इसीसे एडवर्ड राइस साहब भी लिखते हैंनहीं है परन्त उनके नामाटिकापीकापना It is told of him that in early life he (Samantabhadra) performed severe penance, नहीं चना, और इस लिये अभी हमें इन दो प्रधान and on account of a depressing disease was शिष्योंके नामों पर ही संतोष करना होगा। about to make the vow of Sallekhana, or starvation; but was dissuaded by his guru, who foresaw that he would be a great pillar समन्तभद्रकं शरीरमें 'भस्मक' व्य धिकी उत्पत्ति of the Jain faith. किम समय अथवा उनकी किस अवस्थामें हुई, यह अर्थात-ममन्तभद्रकी बाबत यह कहा गया है जाननका यद्यपि काई यथेष्ट साधन नहीं है, फिर भी कि उन्होंने अपने जीवन (मुनिजीवन) की प्रथमावस्था में घोर तपश्चरण किया था, और एक अवपीडक या इतना परूर कहा जा सकता है कि वह ममय, जब अपकर्षक गंगके कारण वे मल्लेखनाव्रत धारण करन कि उनके गुरु भी मौजूद ये, उनकी युवावस्थाका ही हीका थे कि उनके गुरुने, यह देखकर कि वे जैनधर्म उनका बहतसा उत्कर्ष, उनके द्वाग लोकहितका के एक बहत बडे स्तम्भ होने वाले हैं. चाहें वैसा बहुत कुछ साधन, स्याद्वादतीर्थक प्रभावका विस्तार और करनेसे रोक दिया। इस प्रकार यह म्वामी समन्तभद्रकी भस्मकजैनशासनका अद्वितीय प्रचार, यह सब उसके बाद ही . त्याधि और उसकी प्रतिक्रिया एवं शान्ति आदिकी हुआ जान पड़ता है । 'राजावलिकथे' में नपर्क प्रभाव घटनाका परिशिष्टरूपमें कुछ समर्थन और विवेचन है। सं उन्हें 'चारणऋद्धि' की प्राप्ति हाना, और उनके - * 'श्रा भावि नीर्थकरन् अप्य समन्तभद्रस्वामिगलु पुनःक्षेद्वारा रत्नकरंडक' आ द ग्रंथोंका ग्चा जाना भी गोण्डु तपस्सामर्थ्यदि चतुरंगुल-चारणत्वमं पडेदु रत्नकरपुनर्दीक्षाके बाद ही लिखा है । माथ ही, इसी अवसर ण्डकादिजिनागमपुराणमं पेलि स्याद्वाद-वादिनल् श्रागि पर उनका खास तौर पर 'स्याद्वाद-वादी'-स्याद्वाद- समाधिय् अोडेदरु ।' " वह बड़ा मुखी है जिसे न तो गत कल पर बेकली है और न प्रागत कमा पर मनचली है।" "विचार करने पर यही अनुभव होता है कि मनुष्यकी गति सुख ( भोग ) की ओर नहीं, किन्तु ज्ञानकी ओर है।" "अपने कार्य में जाग्रत रहने और यथाशक्ति उम करते रहनेसे मनुष्य सन्तोष पा सकता है।" ___“जो कुछ बाह्यजगतमें रहनेके लिये अत्यावश्यक है, उसीकी लपेटमें पड़े रहना मानव-जीवनका धर्म नहीं है।" "मनुष्यको अपने प्रतिबनसे भी कठोर होमा चाहिये परन्तु औरों के प्रति महीं।" "भूल चूक, हानि, कष्ट प्रादिके बीच होकर मनुष्य पूर्णताके मार्गमें आगे बढ़ता है।" ___" उमतिका अर्थ यह है कि जो प्रावश्यक है, उसीका ग्रहण किया जाय और अनावश्यकका त्याग।" ___ " नियमपूर्वक काम करो, परन्तु नियम विवेक पूर्वक बनायो । अन्यथा. परिणाम यह होगा कि तुम नियमके लिये बन जानोगे।" -विचारपुष्पांद्यान Page #179 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ अनेकान्त [वर्ष ४ पुण्य-पापका यह है परिचय ! किन्तु पुण्य, स्वातंत्र-सौख्यकापाप, सदा कॉपा करता है ___करता है अनुभव, आलिंगन !! और पुण्य, रहता है निर्भय !! " पुण्य-पाप एक शब्दमें-पुण्य विजय है, पुण्य-पापका यह है परिचय !! और पाप है, घोर-पराजय पाप, दीन-दुःखित-मलीन-सा पुण्य-पापका यह है परिचय ! ___रहता है, ले मौनालम्बन ! xxx पुण्य, तेज-मय हँसते-हँसते-- पाप, ठोकरें खाना फिरता, करता है सम्व-जीवन-यापन !! रोता है, होकर अपमानित ! किन्तु सगे भाई हैं दोनों-- दोनोंका अभिन्न है प्रालय ! पुण्य, दुलार-प्यारकी गोदीपुण्य-पापका यह है परिचय !! में पलकर होता है विकसित !! xxx श्री 'भगवत्' जैन पाप, निराशाकी रजनी है, पाप, गुलामीकी कटुताका पुण्य, सफल प्राशाका अभिनय !! करता रहता है प्रास्वादन ! यह है पुण्य-पापका परिचय !! हल्दी घाटी 3 - - - - - - माँ, तपस्विनी ! हल्दीघाटी! क्यों उदास हो मन में ? प्रांक चुकी क्या महा-समरका-- रक्त - चित्र जीवनमें ? भंग करो अपनी नीरवता, अनुभव कुछ बतलाओ ! वीरोचित कर्तग्य सुमाकर, हमें स-शक्त बनायो !! देख चुकी हो तुम वीरोंकेउष्ण . रक्तकी धारें ! सम्मुखती तो नहा रही थींशोणितसे तलवारे !! तुमने देखा है स्वदेश परअपने प्राण चढाते ! जीवन - मरण - समस्याका तात्त्विक स्वरूप समझाते !! तुम्हें याद है बलिवेदी परप्राण चढ़ा प्रण पाला ! इसी शून्यमें कभी जली थीमाज़ादी की ज्वाला !! तीर्थरूप हो वीर • नरोकोजागृति . दीप संजोए ! यहां प्रखण्ड समाधि लगाकर, देश भक्त हैं सोए !! भी 'भगवत जैन Page #180 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विवाह कब किया जाय? ( लेखिका-श्रीललिताकुमारी पाटणी 'विदुषी', प्रभाकर ) विवाह कर किया जाय यह एक ऐसा प्रश्न है जिसका पनि हम उनकी उपेक्षा कर बैठेंगे तो नाचित विवाहका हरएक व्यक्तिके लिए एक-सा उत्तर नहीं हो सकता । कारण फल भी हमें कटु ही मिलेगा, मधुर नहीं। इस लिये विवाहके कौन व्यक्ति किस समय विवाहके उत्तरदायित्वको मेलनेकी लिये अवस्था क्रम सम्बन्धी मतसे यही अर्थ ग्रहण करना चाहिये कि १५ वर्षसे पहले सियोंको और २० वर्षमे पहले सामर्थ्य रख सकता है, यह उसकी अपनी परिस्थितिके ऊपर निर्भर है। कुछ विद्वान् विवाह के बारें वय-सम्बन्धी समस्या पुरुषोंको भूलकर भी विवाहक्षेत्रमें काम नहीं उठाना चाहिये । वरना वे अपने सुन्दर भविष्य-जीवनको जान-बूमकर का समाधान करनेके लिये स्त्री और पुरुष दोनोंकी एक उन्न बरबाद कर देंगे और इस अलभ्य-मनुष्य-पर्यायको अनायाम निश्चित करते हैं जो उनके लिये विवाहका उपयुक्त समय ही खो वैगे। देखना चाहिये कि विवाहके अवस्थाक्रम कहा जाता है। किन्तु उस उनकी अवधि में भी गरम घोर सम्बन्धी इस मतका हमारे समाज में कहां तक पादर है ? ठण्डे जलवायु तथा सामाजिक वातावरणकी भिन्नतामे यह तो प्रसनताकी बात है कि "प्रप्टवर्षा भवेनगौरी नवस्थान व समाज भेदके अनुसार फर्क हो जाता है। ऐसा माना वाव रोहिणी" ऐसी मान्यताएँ समाजकं ममझदार और जाता है कि जो देश शीतप्रधान हैं उनमें रहने वाले खी- बद्धिमान लोगोंकी दृष्टि में प्रबहेय समझी जाने लगी हैं और पुरुषों की अपेक्षा उष्ण देशों में रहने वाले सी-पुरुषोंको ऐसी मान्यताओं के विरुद्ध समाज-हित-चिन्तक लोग पान्दोलन विवाह-वय यानी युवावस्था समयसे कुछ पहले ही प्राप्त हो भी खूब कर रहे हैं तथा उन अान्दोलनोंमें थोड़ी-बहुत सफजाती है। फिर भी समाज-विज्ञानके विद्वान् वर्तमान समयमें लता भी मिली है। उन आन्दोलनों के कारण ही बाल-विवाह सामान्य तौरपर स्वीके लिये विवाह काल १४-१६ और पुरुष की बढती हुईबाकी अोर ब्रिटिश गवर्नमेंटका भी ध्यान के लिए:०-२५ वर्षकी अवस्था मानते हैं। विवाहका यह प्राकर्षित हो और उमको रोकनेकी आवश्यकता सरकारने समय निर्धारित करनेमें केवल स्वास्थ्य और शारीरिक सङ्गठन महसूम की । फलम्वरूप शारदा एक्ट पाम किया गया और को महत्व दिया गया है। इसमें स्त्री और पुरुषोंकी वैयक्तिक उसके अनुसार अंग्रेजी हलकोंमें १४ वर्षसे पहले किसी भी परिस्थितियों और विशेष अवस्थाओंकी भोर विचार नहीं बालिका और १८ वर्षमे पहले किसी भी बालकका विवाह किया गया। कारण व्यक्तिगत परिस्थिति हरएक व्यक्तिकी नहीं किया जा सकता । किन्तु खेद है कि उन पाम्दोलनोंका भित्र-भिन्न होती है और उसके अनुसार उनके लिये विवाहकी देशी राज्यों और ग्वामकर हमारे राजपूतानेमें अभी तक यथष्ट अवस्था भी मिल ही होना चाहिये। कहनेका मतलब यह फल नहीं हुआ। कारण यही है कि अभी तक इधर हमारे है कि" और २० वर्षकी अवस्था प्राप्त होनेपर सी-पुरुष समाजमें प्रशिक्षा चौर प्रज्ञानका विस्तार खूब है और वह येन केन प्रकारेण अपना विवाह रचा ही डागे इस मनसे यह उपरानी सानियों और करीनियोंके जरा भी खिलाफ जाने प्राज्ञा नहीं मिल जाती है। हमें हमारी कुछ और परिस्थि- रोकता है। फलस्वरूप हर माल हजारों ही बाल-विवाहके तियों, योग्यतामों और प्रवस्थानोंपर भी विचार करना पड़ेगा। उदाहरण हमारे प्रान और समाजमें रष्टिगोचर हो । Page #181 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अनेकान्त [वर्ष ४ शहरों में और विशेषकर शिक्षित जातियों में तो फिर भी इनका लोगोंको बाल-विवाहसे होने वाली हानियोंको समझावे और प्रचार कम हो रहा है। किन्तु गांवों में और प्रशिक्षित वर्गमें उनके जमे हुए संस्कारोंको दूर करे । अभी तक बाल-विवाहका बोरदोरा ज्योंका त्यों है। उसमें मैं उन माता-पिताओंकी अक्लमन्दी और होशियारीकी अभी तक कोई कमी नहीं दिखखाई देती। कहीं-कहीं तो कितनी अधिक तारीफ़ (?) कहें, जो अपनी प्रबोध बालिकाका बाज-विवाहके अत्यन्त दयद्रावक और पाश्चर्य पैदा करने छुटपन में ही ब्याह कर आप अपनी जिम्मेवारीसे बरी हो जाते वाले श्य देखने को मिलते हैं। पाठक पढ़कर हैरान होंगे कि है और उस गरीब कन्याको विवाहकी भयंकर उलझनमें हमारे देशमें लाखों विधवायें तो ऐसी हैं जिनकी उन स पटक देते हैं तथा अपने बालू रेनमें खेलने वाले सरल हृदय वर्षमे भी कम है। सैंकड़ों विधवायें ऐसी हैं जिनकी उम्र पांच के लिये अपने घरके मांगनमें स्वछन्द वृत्तिसे खेलने-कूदने वर्षसे भी कम है। कुछ जातियां और वर्ग ऐसे भी हैं जिनमें वाली बालिकाको दुनिया भरकी लाज और शर्मके रूपमें ला एक एक वर्ष और दो-दो तीन-तीन वर्षके दुधमुहे बच्चे- छोड़ते हैं तथा जल्द ही दो सुकुमार-हदयोंके बिगशक और बधियोंकी शादियां ( ? ) (अफसोस ! मुझे तो ऐसी शादियों- बेढंगे प्रतिबन्धके फलस्वरूप पौत्रका मुंह देखनेकी विषभरी को शादी कहते हुए भी लज्जा मालूम होती है) करदी जाती पाशा लगाये रहते हैं। मैं नहीं सोच सकती कि जो बालकहैं। इन्हें हम देशको व समाजको गहरे कुएमें धक्का देकर बालिकाएँ विवाहके अर्थको कतई नहीं समझते और विवाहढकेल देने वाली कुप्रथाओं के अतिरिक्त और कुछ कहनेका की जुम्मेवारीको संभालनेके लिये रंचमात्र भी सामर्थ्य नहीं साहस करेंगे तो वह हमारा दुस्माहम ही होगा। और तो रख सकते, उनके गलेमें विवाहका डरावना ढोल डालकर और हमारे समाजमें ऐसे उदाहरण भी पाप देखते और उनके माता-पिता उनसे किस पूर्व जन्मकी दुश्मनी निकालते सुनने होंगे कि आज दो माताओंके बिस्कुल नवजात शिशुओं हैं। याद रखिये, ऐसे माता-पिता दरअसल अपने मातृत्वके का गोद ही गोद में बड़ी धूमधामके साथ विवाह हो गया कर्तग्यपर कोर कुठाराघात करते हैं और उनको अपने इस और उसमें बड़ी शानदार परात सजकर आई । ऐसा मालूम कर्तग्यघातका अवश्य ही कभी न कभी जवाब देना पड़ेगा। होता था कि एक सशब रौना सैकड़ों बांके सिपाहियोंकी उनको समझ लेना चाहिये कि अपनी सन्तानको बचपनमें ही संख्यामें किसी देशकी राज्यलक्ष्मीको लूटने भाई हो। (शायद विवाहका घुन लगाकर वे उसका धुला-धुलाकर सर्वनाश यह दो प्रबोध-समय बालक-बालिकाओंके स्वर्णमय जीवन करना चाहते हैं। बाल-विवाह समाजके लिये एक प्राणअस्मीको लूटने चली थी) विवाहमें गई ठाठकी जीमणवार नाशक जहर है इसमें सोचने और तर्क करनेकी कोई गुजाहुई और जुलूसीम प्रातिशबाजीकी खूब ही थम रही। शनहीं है। जो इसमें भी तक करनेका दुस्साहस करे तो ऐसी अवस्थामें यह मानना ही पड़ेगा कि समाज में समझिये वह परले दरजेका या तो हठी है या मूर्ख है। बेहद बालविवाहका दौरदोरा अभी बहुत अधिक है और उसे नष्ट अफसोस और दुःखका विषय है कि शीप्रवोध जैसे कुछ करने के लिये जितना अधिक प्रयत्न किया आप भोता है। प्राचीन ग्रंथोंकी शरण लेकर कुछ सामयिक विद्वान् पण्डित इन विवाहोंकी तादादको कम करने और धीरे-धीरे समूल भी बालविवाहकी हिमायत कर अपने देश हमाजको रसानष्ट करने के लिये ऐसी सभा-समितियोंकी बहुत अधिक तलमें पहुँचानेसे नहीं हिचकते । महज़ वे कुछ अज्ञानी और माले-मुहरों में मारठी सेठ साहकारों की मूठी शामदके बशमें पाकर ही Page #182 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] विवाह कर किया जाय १६७ अपनी विद्वत्ता दुरुपयोग कर बैठते हैं। पार्थिक प्र. मेकनामीके ऊँचे भासमानकी ओर ले जायंगे ? मेनामी और स्वायोंके लिए समाज अहितकर और निन्य सिद्धान्तोंका बदनामीका सम्बन्ध विवाह कर देने या न कर देनेस बबई प्रचार करना बास्तबमें विद्वान् पुरुषोंको शोभा नहीं देता है। नहीं है कि मारे गये और बुरे पाचरणसे है। बचपन में देशके सुधारक विद्वानोंको चाहिए कि वे बालक-बालिकाओं के बारे हुए कोमन हरप बालक-बालिकाओंसे संवम और जीवनको बरबार करने वाले ऐसे हिदान्तोंका प्रचार न होने सदाचारकी भाशा रखना सापसे अमृत उगवनेकी बाणा में और समाजको पतनके मार्गमें जानेमे रचावें । बालविवाह रखना है। हम फोदेके मवादको पाने की कोशिश क्यों करते समाजके लिये अहितकर नहीं है यह किसी भी युक्ति और है उसको निकालने की चेष्टा क्यों नहीं करें ? जब कमवाव तर्कसे साबित नहीं हो सकता। जिन बालक-बालिकाओंके नहीं निकलेगा वर्ग मिटना असम्भव है। सचाई और सदाजीवनकी कली खिलती भी नहीं है कि वह विवाह रूपी तेज चारकी स्थितिके लिए हम हमारे घरोंका और समाजका पताछुरीमे काट दी जाती है। जो बुद्धिहीन लोग अनाज पाया वरण शुद्ध और साफ रक्खें, सदाचारकी शिक्षाका प्रचार करें, भी नहीं, और खेतको काट लेनेकी मन्शा रखते हैं, फल पका बालक-बालिकाओं को प्रसयमकी कुशिक्षास बचाये और सदाभी नहीं, और उसे दरख्तसे तोड़ लेना चाहते हैं, मंजरी चारकी ओर अग्रसर होनेका उपदेश । गलतियोंको विवाह भानेसे पहिले ही फूल सौरभकी प्राशा रखते हैं, मकान खड़ा की प्राइमें विपाकर रखने और बढ़ाने में कौनसी बुद्धिमानी है ? होनेके पहले ही, उसमें रहनेका सुख-स्वप्न देखते हैं, वे ही बुद्धिमानी इसमें है कि गलती हो ही नहीं और यदि होगई अपने सच्चोंका बचपन में व्याहकर एक स्वर्गीय-सुख लूटना है तो भविष्यमें सचेत रहा जाय। एक गलतीको छिपाने के चाहते हैं। समझ नहीं पाता कि जीवनकी शुरुधात होनेके लिए गलतियों के ममुद्र में क्यों कर परें इसलिए कि बाजार पहले ही उनके उपर विवाहका भारी बोक रखकर उनके होकर गलतियोंसे अठखेलियां करते रहे? चोरी तो करें जीवनको वे क्यों नहीं फलने-फूलने देना चाहते ? क्यों वे लेकिन अन्धेरेमें करें, उजाले में नहीं ? अफमोम ! उनके दुर्शभ और मानन्दमय विद्यार्थी जीवनको कुचल देना और फिर एककी बदनामीका फल समाजके सब स्तम्भों चाहते हैं और क्यों उन स्वछन्द विहारी मुरारिके समवयस्क को क्यों मिल ! एक बदनामीमे बचनेके लिये हजारों बालकबालक-बालिकाओंको विवाहकी बंधेरी कोठरीमें लोहेके बालिकाओंका अमूल्य जीवन क्यों बरबाद किया जाय ! किवादोंसे बन्द कर देना चाहते हैं, और ऐसा कर कौनमा अगर घरके किसी एक कोनेमें प्रागकी चिनगारी सुलग गई प्रौकिक सुख देखना पसन्द करते हैं। हैनो उमको बढ़ने से रोकना चाहिए न कि घरभरमें भागकी बहुतमे लोग कहते हैं कि जश्न विवाह न करनेके कारण लपटें लगादी लाएँ। जिन बालक-बालिकाओंका समयमे अाजकल के लड़के-सबकी बिगड़ जाते हैं और समाजमें बद- पहले ही ब्रह्मचर्य भंग हो जाता है, चाहे वह विवाहकी नामी होनेका डर रहता है इसलिये समाज और हमारे घरोंकी विडम्बनाके प्राइमें हुमा हो या विवाह के पहले हुमा हो, बाज रखने के लिए लड़कियोंका तो विवाह वस-ग्यारह वर्षकी दुराचार ही है। भले ही उन दोनों में समाज कानूनकी रष्टि अवस्था तक कर ही देना चाहिए। ऐसा करने वालोंको से एक पाप न हो और एक पाप हो किन्तु ईश्वर और न्याय विचारना चाहिए कि बड़कियोंका जल विवाह करके की रष्टिमें वे दोनों ही एकसे पाप है और उसी पापके फलसे समाजको भोर इन चूने मिट्टी धरोंको किस प्रशंसा और आज हमारा समाजरूपी शरीर गणित कोड़की पिसे Page #183 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अनेकान्त [वर्ष ४ म्यथित धौर दुःखित मनुष्यकी तरह जर्जरित हो रहा है। बल-हीन सन्ताने पैदा होने लगती हैं, कारण बाल-दम्पतियों इसलिए बालक-बालिकाओंका असमयमें विवाह कर समाज- के जो सन्ताने होंगी के निर्बल और अयोग्य ही होगी । को बदनाम होनेसे बचानेकी भावना रखना महान् मूर्खता समाजका भविष्य उत्तम सन्ततिपर ही है। जब वही ठीक है। चाहे हम किसी भी दृष्टि से विचार करें, बाल-विवाह हर न होगी तो उसका पतन अवश्यम्भावी है और सच्च देखिये समय और हर हालतमें अनुचित ही है। तो यही आज कल हो रहा है। अगर हम अपने ज्ञान नेत्रको चारों ओर फैलाकर देखेंगे अतः छोटी अवस्थामें विवाह करना व्यक्ति और समाज तो मालूम होगा कि असमयमें किए गए विवाहका परिणाम दोनों ही के लिये अहितकर है और तदनुसार कमसे कम व्यक्ति और समाज दोनों ही के लिए भयंकर होता है। सर्व- १५ वर्षके पहले बालिकाओंका और २० वर्षके पहले प्रथम बालक-बालिकाओं के स्वास्थ्य और शरीरपर इसका बालकोंका विवाह भूलकर भी नहीं करना चाहिए। घातक प्रभाव होता है। शरीर बीमारियोंका घर हो जाता इस अवस्था क्रमके सिद्धान्तके उपरान्त भी हर एक है। मुग्ध उदास और फीका दिखलाई पड़ता है। किसी भी व्यक्ति यह देखे कि प्राया वह विवाहकी जुम्मेवारीको संभाकामके करनेमें तबियत नहीं लगती है। चारों ओर निराशा लनेके लिये पूर्णतः समर्थ हो सकेगा या नहीं। मान लीजिये और बंधकार ही अन्धकार दिखलाई देता है। जहां यौवनकी एक पुरुष किसी संक्रामक रोगमे बीमार है तो उसे भूलकर उमंग और स्फूर्ति होनी चाहिए वहां उदासी और भालस्य- भी एक बालिकाका जीवन खतरेमें नहीं डालना चाहिए । का काजा हो जाता है। सारी शक्ति निचोड़कर निकाल ली इसी तरह यदि कोई स्त्री भी ऐसी ही बीमारीमें फँसी हो तो जानी है और उसकी जगह निर्बलता और नाताकतीका उसे किसीके गृहस्थ जीवनको दुःखित नहीं करना चाहिए । साम्राज्य छाया रहता है। बेचारी व नोंकी हालत तो और जो स्वी विवाह करे उसे यह मी देखना चाहिये कि गृहस्थाश्रम भी नयनीय हो जाती है। १५-१६ वर्षकी अवस्था तक तो के उत्तरदायित्वको मेलनेके लिये वह कहां तक समर्थ है ? उनके सामने दो-दो तीन-तीन बच्चे खेलने लगते हैं। जिम पुरुषोंको यह देखना चाहिये कि वे गृहस्थीके ग्वर्चका भार अवस्थामै उनको अपने शरीरकी भी सुध नहीं होती है, उठाने में कहां तक समर्थ हो सकेंगे? ऐसा देखा गया है कि उसमें बच्चोंके बोममे वे ऐसी दब जाती हैं कि फिर जन्म जिन लोगोंके पास अपनी आजीविकाका कुछ भी साधन नहीं भर रखी ही रहती है। इसके अतिरिक्त तपेदिक, प्रदर मादि है उन्होंने विवाह करके अपने और अपनी स्त्री दोनों ही का भयानक बीमारियोंकी शिकार हो जाती हैं। इसी तरह जिन जीवन नष्ट कर दिया है। कभी-कभी तो ऐसे असफल की बचपनमें शादी हो जाती है उनकी शिक्षाका क्रम भंग हो दम्पतियोंके जहर खाकर मर जाने तकके समाचार सुननेमें जाता है और वे उस शिक्षा नहीं ग्रहण कर सकते। यहां पाते हैं। विवाह कोई इतनी ज़रूरी चीज नहीं है जो अपनी तक कि पुरुष-विद्यार्थी अपनी भाजीविका रलाने योग्य शिक्षा व्यक्तिगत परिस्थितियोंके उपरान्त भी किया ही जाये। से भी वंचित कर दिये आते हैं और छात्राएँ अपनी गृहस्थी हमारे समाजमें एक बात यह भी देखी जाती है कि को सुचारुरूपसे चलानेकी शिक्षा भी प्राक्ष किए बिना रह रह परषोंके लिये तो फिर भी बिग म्याहे रह जाना खोगोंकी जाती हैं। इष्टिमें पटकता नहीं है किन्तु अविवाहित बहने अथवा मामाजिक रष्टिने विचार करें तो समाजमें अयोग्य और विलम्बमे विवाह करने वाली बहनें उनकी मज़गे में बहुत Page #184 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] विवाह कब किया जाय १६६ अधिक स्वटकती हैं। वे जब ऐसी किसी भी बहनको देखते आदिनाथ पुराणको पढ़ने वाले जानते हैं कि भगवान् प्रादिहै तो बड़ा आश्चर्य प्रकट करते हैं और उसकी बड़ी-बड़ी नाथकी मुपुत्रियोंने अविवाहित जीवन ही पसन्द किया और टीका टिप्पणियां होने लग जाती हैं। मैंने बहुत-मी बहनोंको वे विवाह बन्धनमें नहीं फंसी । यह ठीक है कि एक सम्बे देखा है जो जन्मभर अविवाहित रह कर समाज व देशकी समयसे समाजमें लड़कियोंके अविवाहित रहनेकी चाल नहीं सेवा करना चाहती हैं. लेकिन समाजके लोग उम्मकी तरफ रही है, लेकिन यदि कोई बहन वर्तमान समयमें भी जन्मभर अंगुली उठाकर उसे जबरदस्ती ब्याहके अनावश्यक फन्देमें अविवाहित रहना चाहे तो समाजको इसमें कोई उम्र नहीं फांस देते हैं और जो अपने किसी उद्देश्यकी सिद्धिके लिये होना चाहिये बल्कि उसको प्रोत्साहन देकर ऐसा भादर्श देरसे विवाह करना चाहें, उनको जल्दी ही विवाह के बंधन जारी रखनेके लिये अन्य बहनोंके हृदयमें भी उत्साह पैदा में बांध देते हैं। और तो और ऐसी बहनों के सम्बन्धमे नाना करना चाहिए। महिलाओंके अविवाहित रह कर प्रादर्श तरहके वाहियात शब्द कहे जाते हैं जो वास्तवमें समाज और जीवन व्यतीत करनका कोई भी शाय, स्मृति या सूत्र विरोध उममें रहने वाले लोगोंके बुद्र और कुत्सित हृदयका प्रति- नहीं करना है। ऐसी हालतमें यदि महिलाएँ भी अविवाहित बिम्ब हैं। कहते हैं अविवाहित रहकर आदर्श जीवन व्यतीत जीवन व्यतीत करें तो कोई बेजा नहीं है। हम देखते हैं कि करना प्राचीन प्राचार्यों ने मनुष्यजीवनकी सफलता बतलाई हमारे समाज में और देशमें कोई बिरला ही युगल ऐसा होगा है तो फिर ऐसी सफलता पुरुष ही प्राप्त कर सकते हैं स्त्रियां जो सचमुच विवाहका मधुर और वास्तविक फल प्राप्त करता क्यों नहीं कर सकती ? पुरुषोंके सम्बन्धमें भी यह देखनेमें हो वरना हर जगह उसकी कटुताएँ ही नज़र माती हैं। पाया है कि जो पुरुष विवाहित नहीं होते हैं वे समाजकी इसका एक मात्र कारण यही है कि किसी भी युगनका विवाह नज़रों में कुछ हलके दर्जे के समझे जाते हैं। अगर कोई २०, होते समय इस बातको कतई भुला दिया जाता है कि प्राया २५ वर्षका युवक किमीके साथ बातचीतके सम्पर्क में प्राता उसे विवाहकी आवश्यकता भी है या नहीं अथवा वह इसकी है तो उससे साधारण नाम गांव आदि पूछनेके बाद यह योग्यता भी रखता है या नहीं। ऐमी हालनमें समाजको सवाल होता है कि आपका विवाह कहां हुआ ? यदि इस चाहियं कि अविवाहित रहने अथवा विलम्बसे विवाह करने मवालका जवाब पूछने वालेको इन्कारीके रूपमें मिलता है की स्त्री-पुरुषोंकी स्वतन्त्र इच्छामें कोई प्रतिबन्ध न लगाए तो तत्क्षण ही विपक्षी पुरुषके हृदयमें उसके प्रति कुछ कम और उनको अनावश्यक तथा उनकी परिस्थितियोंसे मेल नहीं ज़ोर ख्यालात पैदा हो जाते हैं। यह वातावरण हमारे ही खाने वाले विवाहके सम्बन्धमें पड़ने के लिये कभी विवश न देशमें है वरना और विलायतोंमें हजारों ही स्त्री-पुरुष अपनी करे । और हर एक व्यक्तिको भी चाहिये कि वह स्वयं भी परिस्थितियोंके अनुमार जन्मभर अविवाहित रहकर आदर्श जीवन व्यतीत करते हैं और हजारों ही स्त्री-पुरुष बड़ी से बड़ी अपने । अपने लिये विवाहकी पूर्ण आवश्यकता महसूस कर तथा अपने चारों तरफ्रकी परिस्थितियोंका खूब अवलोकनकर विवाह अवस्थामें, जब वे अपने लिए वास्तवमें विवाहकी भावश्यकता महसूस करते हैं, विवाह करते हैं। यही क्यों ? पुराणों में के लिये कदम उठावे । विवाह कर किया जाय, इसका एकतो आप ऐसे हजारों स्त्री-पुरुषोंके उदाहरण देखेंगे जिन्होंने मात्र उत्तर यही संगत होसकता है और ऐसी स्थितिमें किया जन्मभा अविवाहित रहकर प्रादर्श जीवन व्यतीत किया। हुआ विवाह ही मधुर और उत्तम फल प्रदान कर सकता है। Page #185 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मुनिसुव्रतकाव्य' के कुछ मनोहर पद्य (लेखक-पं० सुमेरचंद्र जैन दिवाकर, न्यायतीर्थ, शास्त्री, B. A. LL. B.) -**NE NEHAFसंस्कृत साहित्योद्यानकी शोभा निराली है, बहुत थोड़ा जैन साहित्य लोगोंके दृष्टिगोचर हुआ उसके रमणीय पुष्पोंकी सुन्दरता, और है। उद्घ रचनाएँ तो अभी अप्रकाशित दशामें हैं। लोकोत्तर सौरभ की छटा कभी भी कम न होकर महाकवि वादीभसिंहके शब्दोंमें 'अमृतकी एक घूट अविनाशी-सी प्रतीत होती है । आज जो विशाल भी पूर्ण आनंद देती है । इसी भांति उपलब्ध और संस्कृत-साहित्य प्रकाशमें आया है, उसको देखकर प्रकाशमें आए अल्प जैन साहित्यको देखकर भी विश्वके विद्वान संस्कृत भाषाको बहुत महत्वपूर्ण अनेक विश्रुत विद्वान् आश्चर्यमें हैं । उदारचेता डा. समझने लगे हैं। आज अधिक मात्रामें अजैन लोगों हर्टल तो यह लिखते हैंके निमित्तसे जैनेतर रचनाएँ प्रकाशित होकर पठन- "Now what would Sanskrit poetry be without this large Sanskrit literature of पाठन-आलोचनकी सामग्री बनी हैं, इस कारण बहुत कारण बहुत Jains. The more I learn to know it the लोगोंकी यह भ्रान्त धारणा-मी बन गई है कि संस्कृत more my admiration rises." के अमरकोष में जैन आचार्योंका कोई भाग नहीं है। मैं अब नहीं कह सकता कि जैनियोंके इस भारतीय अनेक विद्वान वास्तविकतासे परिचय रखते विशालसंस्कृत-साहित्यके प्रभावमें संस्कृत काव्य-साहि हुए भी अपने सम्प्रदायके प्रति अनुचित स्नेहवश त्यकी क्या दशा होगी। इस जैन साहित्यक वषय सत्यको प्रकाशमें लानेसे हिचकते थे। म्वयं संस्कृत में मेरा जितना जितना ज्ञ न बढ़ता जाता है, उतना भाषाके केन्द्र काशीमें कुछ वर्ष पूर्व जैन ग्रंथोंको उतना ही मेरा इस और प्रशंसनका भाव बढ़ता पढ़ाने या छनेमें पाप समझने वाले प्रकाण्ड ब्राह्मण जाता है।" पंडितोंका बोलबाला था। ऐसी स्थिति और पक्षपात जैनग्रंथरत्नोंके अध्ययन करने वाले डा० हर्टल के वातावरणमें लोग जैनाचार्योकी सग्स एवं प्राणपूर्ण के कथनका अक्षरशः समर्थन करते हैं और करेंगे । रचनाओं के आस्वादसे अब तक जगत्को वंचित जिन्होंने भगवजिनसेन, सोमदेव, हरचंद्र, वीरनं द रहना पड़ा। इस अन्धकारमें प्रकाशकी किरण हमें आदिकी अमर रचनाओंका परायण किया है, वे तो पश्चिममें मिली । जर्मनी सादिके उदाराशय संस्कृतज्ञ जैन साहित्यको विश्वस हित्यका प्राण व हे विना न विदेशी विद्वानोंकी कृपासे जैनसाहित्यकी भी वित- रहेंगे । जैन साहित्यकी एक खास बात यह भी है कि न्मण्डल के समक्ष चर्चा होने लगी और उस ओर उसमें रसिकों की तृप्ति के साथमें उनके ज वनको उज्वल अध्ययन-प्रेमियोंका ध्यान जाने लगा। फिर भी अभी और उन्नत बनानेकी विपुल सामग्री और 'शक्षा पाई * अमरकोष नामका कोषग्रन्थ जैन विद्वानकी कति है, इसे जाती है । जैन रचनामोंका मनन करनेवाले विद्वान अब अनेक उदार विद्वान् मानने लगे हैं। + 'पीयूष नहि निःशेषं पिबन्नेव सुखायते।' Page #186 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २j मुनिसुव्रतके कुछ मनोहर पद्य उनकी महत्ताको कभी भी नही भुला सकते हैं। एक मालूम पड़ती है । वीर भगवानको क्षीरसागरकी उदाहरण लीजिये : उपमा दी, वाणीको सुधाकी, सुबुद्धिको कलशियोंकी ___ 'महावीराष्टक स्तोत्र' एक छोटीसी अष्टश्लोकमयी तथा विबुध-विद्वानोंके अधिप-स्वामी गणधर देवादि शिखरिणी छंदकी रचना है। उसे हिन्दविश्वविद्यालय को देवोन्द्रोंकी उपमा दी है । वास्तवमें छग्रस्थोंके के पूर्व उपकुलपति तथा संस्कृत विभागके अध्यक्ष सामयिशमिक शानमें छोटी कलशियोंकी कल्पना बहुत सुंदर है। प्रिंसिपल ए० बी० ध्रव एम० ए० सुनकर बहुत आनं कवि प्रसिद्ध जैनाचार्यों के नामोल्लेबके साथ दित हुए और उन्होंने अपने भाषणमें जैनसाहित्य अपना मंगलात्मक भाव कैसा बढ़िया निकालते है की खूब ही महिमा बताई। उसे देखिए___ आज बहुत सी रचनाएँ प्रकाशमें आगई हैं, उन महाकल का गुणभद्रसूरेः समंतभद्रादपि पूज्यपादात् । का अध्ययन करनेवालों को ग्स म्वादनके साथ साथ बचोऽकलई गुणभद्रमस्तु यथार्थ शांति ल भका सौभाग्य मिलेगा। समन्तभद्रं मम पूज्यपादम् ॥१०॥ ___ यहां हम तेरहवीं सदीक कविकुलचूड़ामणि 'यह रचना अकलंकदेवके प्रसादसे अकलंक, अहद्दास महाकविके मुनिसुव्रतन थ भगवानके गुणभद्राचार्यकी कृपास गुण-भद्र गुणोंसे रमणीय) ( जो २० वें तीर्थकर हैं) चरित्रको वर्णन करनेवाले स्वामी समंतभद्रक प्रसादसे समन्त भद्र (सब पोरस 'मुनिव्रतकाव्य' की कुछ मार्मिक पदावलियोंका दिग्द- मंगलरूप) एवं पूज्यपाद स्वामीकी दयासे पूज्य पाद र्शन कगएँगे। इस दससर्गात्मक ग्रंथमें कुल ३८८ (सत्पुरुषों के द्वारा उपादेय) होवे।' पद्य हैं, किन्तु वे सब भाव, रस और चमत्कारस कविवर सरस्वती को वंदनीय समझते हैं और परिपूर्ण हैं। वे इस बातके विरुद्ध हैं कि वाग्देवीका जगह जगह अपने ग्रंथ-निर्माणका कार्य मंगलमय हो, इस वानरीके समान नर्तन कराया जाय । वे चाहते हैं कि शुभ भावनास कविवर कितना मनोहर पद्य कहते हैं- वाणीके द्वारा जिनेन्द्र गुणगान करना उचित और वीरादिवः वीरमिधे प्रवृत्ता श्रेयस्कर है । तुच्छ पुरुषोंका गुणगान करना भारती सुधेव वाणी सुधिया कलश्या । ___ का अपमान करना है । देखिये वे क्या कहते हैंविधृत्य नीता विबुधाधिपैमें सरस्वतीकल्पलतांस को वा संवर्धयिष्यन् जिनपारिजातम् । निषेविता नित्यसुखाय भूयात् ॥ ६॥ विमुच्य कांजीरतरूपमेषु ग्यारोपयेयाकृतनायकेषु ॥१०॥ क्षीरसागररूप महावीर भगवानसं निकली हुई -'ऐसा कौन विज्ञ व्यक्ति होगा, जो सरस्वतीसुबुद्धिरूपी कलशियों द्वारा गणधरादिरूप देवेन्द्रों रूप कल्प-लतिकाको वृद्धिंगत करने के लिए जिनंन्द्ररूप द्वारा सेवित अमृतरूपी जिनेन्द्रवाणी मेरे अविनाशी कल्पवृक्षको छोड़कर विषवृक्षके समान अधमजनोंका आनंदकी उत्पादिका होवे। अवलंबन करायगा? वास्तविक बात यह है कि वीतरागका वर्णन यहां क्षीरसमुद्रस कलशों द्वारा देव-देवेन्द्रों द्वारा करनेसे पाप की वृद्धि होती है। पुण्यहीन प्राणियोंका लाए गए जसमें जिनवाणीकी कल्पना बड़ी भली कीर्तन करनेसे पापकी प्रकर्षतावश ज्ञानमें मंदता होगी, Page #187 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७२ भनेकान्त [वर्ष ४ ऐसी स्थितिमें 'मरस्वनी-कल्पलता' सूख जायगी। नीम कटु और इक्षु मधुर रहते हैं उमी प्रकार सत्पुरुष __ अईहास महाकवि कहते हैं कि हमारी रचनाका और दुर्जन भी हैं। इनकी निन्दा तथा स्तुतिस मेग ध्येय अन्य जनोंका अनुरंजन करना नहीं है; उनको कोई भी विशेष प्रयोजन सिद्ध नहीं होगा। आनंद प्राप्त हो, यह बात जुदी है । सन्मानकी कविका भाव यह है कि सत्पुरुष अपने स्वभावकं आकांक्षा भी इसका लक्ष्य नहीं है, यहां ध्येय अपन अनुसार कृपा करेंगे और दुर्जन अपनी विलक्षण अंतःकरणका आनंदित करना है । कविके शब्दोंमें ही प्रकृतिवश दोष निकालनस मुख नहीं मोड़ेंगे। जैस उनका भाव सुनिये काई नीमकी निंदा या स्तुति कगे, उसका कटु स्वभाव मनः परं क्रीडयितु ममैतत्काव्यं करिष्ये खलु बाल एषः। मदा रहेगा ही। न लाभपूजादिरतः परेषा, न लालनेच्छाः कलभा रमन्ते ॥१॥ भगवान मुनिसुव्रतनाथके जन्मसे पुनीत हाने __-'अल्पबुद्धिधारी मैं लाभ-पूजादिकी आकांक्षा वाले राजगृह नगरके उन्नत प्रासादोंका वर्णन करते हुए सं इस काव्यको नहीं बनाता हूँ किन्तु अपने अंतः अपह्नति अलंकारका कितना सुन्दर उदाहरण पेश करणको आनंदित करनेके लिए ही मैं यह कार्य करते हैं, यह सहृदय लोग जान सकते हैं। करता हूँ । गज-शिशु अपने आपको पानं दन करने के उनका कथन हैलिए क्रीड़ा करते हैं, दूसरोंको प्रसन्न करनेकी भ वना नैतानि ताराणि नभः सरस्याः से नहीं।' सूनानि तान्यावधते सुकेश्यः । यहाँ 'न लालनेच्छाः कलमा रमन्ते' की उक्ति बड़ी यदुनसौधाग्रजुषो मृषा चेत् प्रगे प्रगे कुत्र निलीनमेभिः ॥ ४ ॥ ही मनाहारिणी है। 'य ताराएँ नहीं हैं किन्तु आकाश रूपी सरोवरके नम्रतावश महाकवि कहते हैं, यद्यपि मेरी कृति पुष्प हैं, जिन्हें वहांके उच्च महलोंके अग्रभागमें पुराण-पारीण पुरातन कवि-सम्राटोंके समान नहीं है। स्थित त्रियां धारण करती हैं। यदि ऐसा न हो तो फिर भी यह हास्यपात्र नहीं है * । कारण, महत्वहीन __ क्यों प्रत्येक प्रभातमें व विलीन होजाते हैं ? शुक्तिके गर्भस भी बहुमूल्य मुक्ताफलका लाभ होता है। ____ कविका भाव यह है कि आकाशके ताग आकाश ___ जैन काव्योंकी विशेष परिपाटीके अनुसार मन्जन रूपी सरांवर पुष्प हैं । गजगृहीकी ग्मणियां अपने दुर्जनका स्मरण करते हुए कविवर उपेक्षापूर्ण भाव केशोंको सुसज्जित करनके लिये उन्हें तोड़ लिया धारण करते हुए लिग्बते हैं करती हैं, इसीसे प्रत्येक प्रभातमें उनका प्रभाव देवा तिक्तोस्ति निम्बो मधुरोस्ति चेतुः स्वं निदतोपि स्तुवतोपि तद्वत । जाता है। दुष्टोप्यदुष्टोपि ततोऽनयोमें ताराओंका गत्रिमें दर्शन होना और प्रभातमें लोप निन्दास्तवाभ्यामधिकं न साध्यम् ॥१६॥ होना एक प्राकृतिक घटना है, किन्तु कविने अपनी 'जिस प्रकार अपने प्रशंसक और निंदकके लिए कल्पना द्वाग इसमें नवीन जीवन पैदा कर दिया। *कार्य करोस्पेष किस प्रवन्धं पौरस्यवन्नेति हसन्तु सन्तः। दूसरे सर्गमें भगवान के पिता महाराज सुमित्रका किंशुक्तयोऽद्यापि महापराये मुक्ताफर्स नो सुवते विमुग्धाः१५ वर्णन करते हुए बताया है कि वे सज्जनोंका प्रतिपा Page #188 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पथ १७३ लन करते थे, किंतु दुर्जनोंका निग्रह करनेमें भी तत्पर वर्णन प्राता है, इसी बातको कवि अपनी कल्पनाके थे। इससे प्रतीत होता है कि जैन नरेशोंकी नीतिमें द्वारा किस तरह सजाता हैदुर्जनों की पूजाका स्थान नहीं है । उन्हें नो दण्डनीय पुष्पाः पतंतो नभसः सुधांशोरेणस्य सिहध्वनिजातभीतः । बताया है, जिमस इतर प्रजाको कष्ट न हावे- पदप्रहारैः पततामुडूना शंकां तदा विद्रवतो वितेनुः ॥४-३०॥ प्रथाभवत्तस्य पुरस्य राजा सुमित्र इत्यन्वितनामधेयः। आकाशसे गिरते हुए पुष्प ऐसी शंका उत्पन्न क्रियार्थयोः क्षेपण-पालनार्थद्वयात् असत्सत् विषयास्सुपूर्वात्॥२.१ करते थे मानो सिंहध्वनिसे भीत होकर भागते हुए चंद्र भगवान मुनिसुव्रत जब म ता पद्मावतीके गर्भमै मृगके चरणप्रहारसे गिरते हुए नक्षत्रोंकी राशि ही हो । पधारे तबकी शोभाका वर्णन करते हुए कवि भ्रान्तिमान अलंकारके उदाहरणद्वारा जो हास्यलिग्वत हैं रमकी मामग्री उपस्थित की गई है, वह काव्य मर्मज्ञों सा गर्भिणी सिंहकिशोरगर्भा गुहेव मेरोरमृतांशुगर्भा। के लिए श्रानंद जनक हैवेलेव सिंधोः स्मृतिरत्नगर्भा रेजे तरां हेमकरंडिकेव ॥४-२॥ मुग्धाप्सराः कापि चकार सर्वानुत्फुल्लवक्यान्किल धूपचूर्णम् । _ 'गर्भावस्थापन्न महारानी पद्मावती इम प्रकार स्थाप्रवासिन्यरुणे क्षिपंति हसंतिकांगारचयस्य बुध्या ॥५-३१ शोभायमान होती थी जैस सिंहके अञ्चको धारण करनं रथाप्रभागमें स्थित अरुण नामक सूर्यमारथि वाली गुहा, चंद्रमाको अपने गर्भ धारण करनेवाली का अंगारका पुंज समझ एक भाली अप्मगने उसपर समुद्रकी वेना अथवा चिंतामणि रत्नको धारण करनं धूपका चूर्ण फेंक दिया; इमसे सबका चेहरा हंसीसे वाली सुवर्ण की मंजूपा शोभायमान होती है। खिल उठा।' भगवानके जन्मममय सुगंधित जलवृष्टिम पृथ्वी ऐस भ्रमपर किसे हंसी नहीं आएगी, जिसमें की धूलि शांत हो गई थी, इस विषय में बड़ी मुंदर प र व्यक्तिको अग्नि पिंड ममझकर उसपर कार्ड धूप इस कल्पना की गई है लिग क्षेपण करे कि उमकी समझक अनुमार उमसे रजामि धर्मामृतवर्षणेन जिनांषुवाहः शमयिष्यतीति। धूम्रगशि उदित होने लगेगी ? न्यवेदयसम्बुधरा नितांतं रजोहरैगंधजलाभिवर्षेः ॥४-३०॥ भगवानके जन्माभिषेकके निमित्त जल लानेको जिनभगवानरूपी मंघ धर्मामृतकी वर्षा द्वाग देवता लोग क्षीरसागर पहुँचे, उस समय के पापभ वनाओं को शांत करेंगे, इसी बातको सूचित मागरका कितना सुंदर वर्णन किया गया है करने के लिए ही माना मेघोंने सुगन्धित जल की वृद्धिस यह कविजन देखें । यह ना कविममय प्रसिद्ध बात है धूलिगशिको शांत कर दिया था। कि देवता समुद्रका मंथन कर लक्ष्मी श्रादि रत्न यह 'त्प्रेक्षा ऐमी सुंदर है कि आगामी यह अक्ष निकाल कर लेगए थे; उसी कल्पनाको ध्यानमें रखकर कवि वर्णन करता हैरशः सत्य होती है; अतः कल्पनाका रूप धारण करने निपीब्य लक्ष्मीमपहृत्य चक्रिरे ठकाः स्वक' जीवनमात्रशेषक। वाली यह भविष्यवाणीक रूपमें प्रनीत होनी है। अपीदमायांत्यपहर्तुमित्यगादपांनिधिर्वेपथुमूर्मिभिर्न तु ॥६-१४॥ भगवानकं जन्मसमय दवोंद्वारा प्रानंदाभि- अरे पहले इन ठग देवनाओंने हमें पीडित कर व्यक्तिके रूपमें आकाशसं पुष्पोंकी वृष्टिका ग्रंथों में हमसे लक्ष्मी छीन लो और हमारे पास केवल जीवन Page #189 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १७४ अनेकान्त [वर्ष ४ (जल) भर बाकी रहा; आज ये उसे भी अपहरण निराकरण करते हुए महाकवि कहते हैंकरनेका आगए हैं इमीलिए भयसं क्षीरसागर कंपित स जानुचारी मणिमेदिनीषु स्वपाणिभिः स्वप्रतिविम्बितानि । हा उठा, न कि तरंगोंसे कपित हुआ। पुरः प्रधावत्सुरसूनुबुध्या प्रताडयनाटयति स्म वाल्यं ॥७-७। भगवानके अभिषेक जलको लोग बड़े प्रादरक 'मणिकी भूमिपर अपने घुटनोंके बलपर चलते साथ प्रहण करते हैं, वहां भगवान मुनिसवतनाथका हुए जिनेन्द्र शिशु अपने प्रतिबिम्बोंको दौड़ते हुए देवमेरुपर महाभिषेक हुआ, 'उसकं सुगंधित गंधादकमें शिशु समझकर ताड़ित करते हुए बाल्यभावका देवताओंने खूब म्नान किया।' अभिनय करते थे। वह दृश्य कितना आनंदप्रद नहीं इंद्रने भगवानका जातकर्म किया, पश्चात् नाम- होता होगा, जब त्रिज्ञानधारी भगवानकी ऐसी बालकरण संस्कार किया, यहां नामकी अन्वर्थता बड़े मुलभ क्रडाओंका दर्शन होता था। सुंदर शब्दोंमें बताई गई है उस शैशवका यह वर्णन भी कितना मनोहर हैकरिष्यते मुनिमखिलच सुत्रतं, शनैः समुत्थाय गृहांगणेषु सुरांगनादत्तकरः कुमारः । भविष्यति स्वयमपि सुव्रतो मुनिः । पदानि कुर्वन्किल पंचषाणि पपात तद्वीक्षणदीनचक्षुः ॥७-८॥ विवेचनादिति विभुरभ्यधाग्यसो, _ 'धीरेसे उठकर देषबालाओंकी कगंगुलि पकड़ विडोजसा किल मुनिसुव्रताक्षरैः ॥६-४३॥ वह कुमार गृहांगणमें पांच, छह डग चलकर देवांगनाके स्वयं ममीचीन व्रत संपन्न मुनि (सुव्रत-मुनि) हो रूपदर्शनसे ग्विन्नदृष्टि हो गिर पड़े।' कर मंपूर्ण मुनियोंका व्रतसंपन्न ( मुनि-सुव्रत ) करेंगे जन्मसे अतुल बलस भूषित जिनेन्द्रकुमारकी यह सोचकर इंद्रने मुनिसुव्रत शब्दोंमें उनका नाम- उपर्युक्त स्थिति वास्तवमें इस बातकी द्योतक है कि करण किया। बाल्य अवस्थावश होने वाली बातोंके अपवादरूप शास्त्रोंमें वर्णन है कि भगवानकं अंगुष्ठमें इंद्रमहाराजन भगवान नहीं थे। अमृत-लिप्त कर दिया था, अतएव उसके द्वाग अपनी . जिनेन्द्रभगवान मुनिसुव्रतने जब साम्राज्यपद अभिलाषा शांत होनेपर उन्होंने माताकं दुग्धपानमें ग्रहण किया, तब उनके दर्शनोंका आने वाले नरेशोंका अपनी बुद्धि नहीं की । इस प्रसंगमें कवि कहता है- महान समुदाय हो जाता था। इसी बातको कहाकवि जिनार्भकस्येन्द्रिय-तृप्तिहेतुः करे बभूवामृतमित्यचित्रम्। बताते हैंचित्रं पुनः स्वार्थसुखैकहेतुः तचामृतं तस्य करे यदासीत्॥७-३॥ भक्तु जिनेन्द्र प्रजा नृपाणां चमूपदोद्ध तपरागपाल्या। जिन-शिशुकी इंद्रिय-तृप्तिके लिए हेतुभूत अमृत विहाय चेतांसि पलायमानकपोतलेश्याकृतिरन्वकारि ॥७-२६ हाथमें था, यह आश्चर्यकी बात नहीं है; आश्चर्य तो जिनेन्द्रकी आराधना करने लिए जानेवाले इसमें है कि उनके हाथमें अपने सुखका एक मात्र नरेशोंको सेनाके पदाघातसे उड़ती हुई धूलिगशि कारण अमृत-मोक्ष भी था। ऐसी मालूम पड़ती थी, मानों अंतः करण छोड़ कर कोई यह सोचता होगा कि निसर्गज अवधिज्ञान जाती हुई कपोत लेश्या ही हो।' समन्वित होने के कारण बाल्यकालमें भगवानमें बाल भगवान मुनिसुव्रत के राज्यमें किसे कष्ट हो सकता सुलभ क्रीड़ाओंका अभाव होगा, ऐसी कल्पनाका है, १ सचेतन वस्तुकी अनुकूलताकी बाततोक्या, अचे Page #190 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पद्य १७५ तन पदार्थ तक जहां अनुकूल वृत्ति धारण करते थे। इस प्रसंगपर एक शंका यह उत्पन्न होती है, कि इस विषयमें देखिए कवि श्री महरास जी क्या आहारकं अनंतर भगवान मुनिसुव्रतनाथने कैसे मधुरवाणीसे यथायोग्य प्राशर्वाद दिया ? क्यों कि जिनेऽवनी रपति सागरान्तां नय-प्रताप-दूय-दीर्घ-नेत्रे। यह प्रसिद्ध है कि दीक्षा लेनके अनंतर जिनेन्द्र 'वाचं कस्यापि नासीदपमृत्युरीतिः पीड़ा च नाल्पापि बभूव लोके ॥२८-७ यम' हाने हैं. इसीसे उनका स्तवन 'महामौनी' __'नय और प्रताप रूप दा विशाल नेत्रधारी जिनेन्द्र शब्दस किया जाता है। जो हो यह विषय ध्यान देने के द्वारा सागरपर्यन्त विस्तृत पृथ्वीक शासन कग्नपर योग्य है अवश्य । यहाँ यह बात भी ध्यान देने योग्य जगत्में किमीका न ता अकाल मरण होता था, न है कि भगवान तपोवनमें 'गजेन्द्रगति' से गए । आज इति (अतिवृष्टिचादिका उपद्रव) और न किसीको थोड़ा काई लोग साधुओंके गमनमें मंदगतिक स्थानमें सा कष्ट ही होने पाता था। उनकी द्रतगति (Quick March) को उचित ___ वास्तवमें सशासनक लिए यदि नीति और बताते हैं, उन्हें इस प्रकरणको ध्यानमें लाना चाहिये । प्रतापका सामंजस्य है, तब मर्वत्र शांति एवं समृद्धि प्रसंगवश वर्षाका वर्णन करते हुए महाकवि विचरण करती हुई नजर आयगी। मनोहर कल्पनाको इन शब्दोंमें बताते हैंबहुत समय तक नीतिपूर्ण शासन करने के अनतर नीरंध्रमभ्रपटक्षं पिहिताखिलघु भेजेतरां विधृतदीर्घतरां बुधारम् । एक बार एक गजगजको धर्मधारण में तत्पर देखकर देव्याः खितरुपरि संवितदीर्घमुक्ताभगवान के चित्तमें वैगग्यकी ज्योति जाग उठी। उस मासं विशालमिव धातृकृत वितानम् ॥ १.१६॥ समय उन्होंने अपने माता-पिताको समझाकर अपने संपर्ण आकाशका ढांकने वाला निविड़ मेघमंडल, विजय नामक पुत्रके कंधेपर साम्राज्यका भार रखकर जिसस माटी २ जलकी धाग निकल रही थी, एमा दीक्षा ली ('प्राज्यं नियोज्य तनये विजये स्वराज्य')। शोभायमान हो रहा था, मानो पृथ्वीदेवीके ऊपर दीक्षा लेनेके बाद भगवानने गजगृहक नरेश विधानान विशाल चंदोवा तान दिया हो, जिसमें महाराज वृषभसेनके यहाँ आहार ग्रहण किया, उस लम्बी और बड़ी मुक्तामालाएँ टँगी हुई हैं। प्रसंगमें महाकवि वर्णन करते हुए कहने हैं कैसी विलक्षण कल्पना है ! श्राकाशको ढाँकने मुनिपरिवृदो निर्वयैवं तनुस्थितिमुत्तमा, वाले मंघमंडलको तो चंदावा बनाया, और मांटी मृदुमधुरया वाचा शास्यं विधाय यथोचितं । धारवाली जलगशिको मुक्ताको मालिकाएँ ! मुनिसमुदयैरतिवातैश्च पौरनृणामनुव्रजितचरमः इसी वर्षाके विषयमें आगे कवि कहता हैपुण्यारण्यं गजेन्द्रगतिययौ ॥८-२३॥ रेजुः प्रसृत्य जलधि परितोप्यशेष मुनीन्द्रने उत्तम आहारको ग्रहण करके सुमधुर मेषा मुहुमुहुरभिप्रसृताभ्रभागाः । वाणीसे आशीर्वाद देकर मुनिसमुदाय एवं पुरवा प्रादानवर्षणमिषात पयसां पयोधि सियोंके नेत्र समूह के द्वारा अनुगत गजेन्द्रके समान व्योमापि मान्त व संशयिताशयेन ॥10॥ मंद गतिसे तपोवनमें प्रवेश किया। 'बारबार जल लानके लिए जलधिकी मोर Page #191 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [ वर्ष । विस्तृत रूपसे गए हुए और वर्षणके बहानेसे पुनः इत्थं सुदुःसहतुषारतुषावपातैः पुनः संपूर्ण दिशाओंको व्याप्त करते हुए मेघ ऐसे निर्दग्धनीरजकुले समयेऽपि तस्मिन् । मालूम होते थे, मानी शंकाकुल हो बार बार आकाश म्लानानि नैव कमलानि महानुभावो और समुद्रको नापते थे'। मेघोंका समुद्रस जल लाना यस्याः स्थितः स भगवान् सरितः प्रतीरे ॥8-३४ और आकाशमें फैलकर वर्षा करना साधारण जगत्के इस प्रकार असह्य हिमके पतनस नष्ट हुए कमलोंलिए कोई भी चमत्कृतिपूर्ण बात नहीं मालूम पड़ती; से युक्त उस शीत कालमें जिस सरोवर के तटपर भगवान् किन्तु महाकवि अपनी अलौकिक दृष्टिम मेघके द्वारा विराजमान थे वहां के कमल म्लान नहीं हुए थे। इसस भगवानकी लोकोत्तर तपश्चर्याका भाव विदित होता है। समुद्र एवं भाकाशकी विशालताको नापता है, और यह ___ जब भगवानकी अनुपम एवं निश्चल तपश्चर्या देखता है, इस नापमें बड़ा कौन और छोटा कौन है ? हो रही थी, तब उनके तेज एवं तपश्चर्या के प्रतापस हिमऋतुकं विषयमें कवि महादय क्या ही अनूठी तपोवनकं संपूर्ण वृक्ष पुष्प-फलादिसे सुशोभित होगए कल्पना करते हैं थे। इस विषयमें कविकल्पना करते हैं, कि अपनी सत्यं तुबारपटौः शमिनो न रुद्धाः सिद्धः पुनः परिचयाय हिमतु लक्ष्म्या। शाग्वारूपी हाथों में पुष्प-फलादि ग्रहणकर वृक्ष भगछन्ना दुकूलवमनैर्नु पटीरपंक. वानकी पूजा ही करते थे, ऐसा प्रतीत होता है । लिप्ता नु मौक्तिकगुणैर्यदि भूषिता नु ॥ १-३३॥ जब भगवानका कैवल्यकी प्राप्ति हुई, तब उनकी 'यह बात ठीक है कि ग्वङ्गासनम विराजमान धर्मोपदंश देनकी दिव्य सभा-समवशरणकी रचना मु नगण हिमपटलस आवृत नहीं हैं किन्तु कहीं हुई, उसके विषयमें कविवर कहते हैं :मोक्षलक्ष्मीस परिचय प्राप्तिक निमित्त महीन वखोंस स्त्रीबालवृद्धनिवहोपि सुखं सभां ताम् आच्छादित ता नहीं हैं ? अथवा कहीं श्रीचंदनसं अंतमुहूर्तसमयांतरतः प्रयाति । लिप्तदेह तो नहीं है ? अथवा मुक्तामालाओं द्वारा नियोति च प्रभुमहात्मतयाश्रितानां भूषत तो नहीं है ? निद्रा-मृति-प्रम्पव-शोक-कजादयो न ॥१०-४५ यहाँ क व हिमाच्छादित मुनियोंके देहको मुक्ति- उस समवशरणमें स्त्री, ब लक, वृद्धजनोंका समुलक्ष्मीसं मम्मेलनके लिए महीनवस्त्रसे आच्छादित दाय मानंद अंतर्मुहूर्तमें प्राता जाता था । जिनेन्द्रदेव या श्रीचंदनस लिप्तपनकी या मुक्ताओंस सुशोभित- के माहात्म्यवश आश्रित व्यक्तयोंको निद्रा, मृत्यु, पनेकी कल्पना करते हैं। हिमऋतुमें शरीरका हिमसं प्रसव, शोक, रांगादि नहीं होते थे आच्छादित होना बहिष्टि प्राणियोंकी अपेक्षा भीषण ग्रंथकारनं यह भी बतलाया है कि तत्वापदेशक है, किन्तु ब्रह्मदृष्टिवाले तपस्वियोंकी दृष्टि में वह आनंद अनन्तर भगवानकं विहारकी जब वेला आई तब एवं पवित्र भावोंको प्रोत्साहन प्रदान करनेवाली - *श्रीमन्तमेनमखिलाचिंतमात्मधाम सामग्री है। प्राप्नं स्वयं मपदि तद्वनभूजषण्डम् । ऐसी भीषण सर्दीमें भी भगवान मुनिसुव्रत शाखाकरेषु धृतपुष्पफलप्रतानम् तपश्चर्यास विमुख नहीं थे श्रासीदिवार्चयितुमुद्यतमादरेण ॥ १०-१॥ Page #192 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] मुनिसुव्रतकाव्यके कुछ मनोहर पध पहलेसे ही इस बातको ज नकर इन्द्रके श्रादेशसे जिस जिस प्रदेशमें भगवानका विहार हुमा वहाँ प्रयाणसूचक भेरी नाद हुआ। इस सम्बन्धमें वे वहाँके जीवोंका चिरकालीन विरोध दूर हो गया, कहते हैं और उनमें मैत्री उत्पन्न हो गई। जिनेन्द्रकी सेवाके समवशरणमने भव्यपुण्यैश्चचाल प्रसादस लोग संपत्तिशाली होगए । छहों ऋतुओंने स्फुट-कनक-सरोजश्रेणिमा लोकबंधः । आकर वहां आवास किया।' सुरपतिरपि सर्वान् जैनसेवानुरक्तान् कलितकनकदंडो योजयन् स्वस्वकृत्ये ॥ १०.१०॥ इस प्रकार इस प्रथमें श्री अहदासके महाकवित्व 'भव्य जीवोंके पुण्यस समवशरण नामकी धर्म- एवं चमत्कारिणी प्रतिभाके पद पदपर उदाहरण सभा आक.श मार्गस चली । विकसित रत्नवाले विद्यमान हैं। केवल महाकविकी कृतिका कुछ रसाकमलोंके ऊपर त्रिभुवनवंदित मुनिसुव्रतनाथ चले। स्वाद हो जाय, इस उद्देश्यसे कुछ महत्वपूर्ण पद्य कनकदंडधारी इन्द्र भी जिनेन्द्रकी सेवा में अनुरक्त सभी प्रकाशमें लाए गए हैं। लोगोंको अपने अपने कार्य में लगाते हुए चले।' साहित्य मर्मज्ञोंकी जिज्ञासाको जागृत करनामात्र भगवान मुनिसुव्रतकं योगजधर्मका प्रभाव कवि हमारा उद्देश्य था, अतः विशेष रसपानके लिए वे इस प्रकार बताता है पूर्ण ग्रंथ * का अवगाहन करें। गलितचिरविरोधाः प्राप्तवंतश्च मैत्री मिथ इव जिनसेवालंपटासंपदिद्धाः *इस ग्रंथका मूल सुंदर संस्कृत टीका सहित एवं साधारण षडपि च ऋतवस्ते तत्रतत्रान्वगच्छन् हिन्दी टीका समन्वित जैनसिद्धान्त भवन श्रारासे २) में व्यवहरदयमीशो यत्र यत्रैव देशे ॥१०-१४॥ प्राप्त हो सकता है। "यदि अधिककी प्रामि चाहते हो तो जो कुछ तुम्हारे पास है उसका उत्तमोत्तम उपयोग करो।" "प्रगति बाहरसे नहीं पाती, अन्दरसे ही उत्पन्न होती है।" "अपनी बुराई सुनकर भड़क उठना उन्नतिमें बाधक है।" "उन्नति एक श्रोर भुकनेमें नहीं, चारों ओर फैलनेमें होती है।" "हमारी प्रगतिमें बाधक होनेवाली सबसे बड़ी वस्तु है-असहिष्णुता ।" "बिना श्रात्मविश्वासके सदज्ञानकी प्राप्ति नहीं होती।" -विचारपुष्पोद्यान Page #193 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैतानकी गुफा में साधु (अनु० - डाक्टर भैयालाल जैन, साहित्यरत्न ) [ इस लेखके पात्र स्थूलभद्र पूर्वावस्थामें वेश्या-सेवी थे, पश्चात् एक महान् योगी होगये थे । उत्तरावस्थामें गुरु उन्हें वेश्यागृह में ही चतुर्मास व्यतीत करनेकी अनुमति देते हैं और उसमे श्रमूल्य तत्वज्ञान ( Philosophy ) प्रगट करते हैं ।] संभूतिविजय – भद्र ! निदान तुमने कौनसे स्थानमें यह चतुर्मास व्यतीत करना निश्चित किया है ? अन्य सब साधुओंने अपने अपने स्थानका निश्चय कर लिया है और वे हमारी सम्मतिकी कसौटी पर चढ़कर सुनिश्चित भी हो चुके हैं। कल प्रातःकाल हम सबको यहांसे प्रस्थान करना है । स्थूलभद्र – दयासागर ! मैं भी बहुत समय से इसी चिन्ता में हूँ; परन्तु मेरे हृदयका जिस दिशाकी ओर ara है, वहां निवास करने में मुझे एक भारी खटका प्रतीत होता है और उस कांटेका हृदयसे निकाल करने प्रयत्न में मैं सर्वदा निष्फल होता हूं । ठ क रीति कुछ भी निश्चित नहीं कर सकता । संभूति- नात ! तुम अपने विशुद्ध हृदयमें एक भी आत्मप्रतिबन्धक भाव होने की शंका मत करो। मैं तुम्हारा आत्मनिदान बहुत सम्हालपूर्वक करता रहा हूँ । तुम्हारे हृदयमें कटीले वृक्षोंका उगना बहुत समय से बन्द हो चुका है | वहीँ अब कल्पवृक्षों का रमणीय उपवन शोभा दे रहा है । तिसपर भी यदि तुम्हारे हृदय किसी प्रकार की शंकाका अनुभव हो रहा हो तो उससे किसी महाभाग्य आत्मा के अपूर्व हितका संकेत ही संभवित होता है । अत्मत्यागी हृदयका खटका, कोई खटका नहीं है, किन्तु वह किसी जीवके पूर्व दृष्ट विशेषकं प्रकम्प प्रतिof है । तात ! तुम्हें कौनसा खटका है ? स्थूल० - प्रभो ! जितना आप समझते हैं उतना निःस्वार्थी मैं नहीं हूँ और मुझे जां वटकता है. वह स्वार्थका काँटा ही है। जिस ओर हृदयका खिंचाव होता है क्या वहाँ स्वार्थकी दुर्गन्ध होना भ नहीं है ? संभूति०- ० - भद्र ! स्वार्थ तथा परार्थकी प्राकृत व्याख्यारूपी तुम्हारी आत्माकी यह भूमिका अब बदल डालना उचित है। ये पुरानी वस्तुएँ अब फैंक दो । चित्तके जिम अंश मेंसे स्वार्थ उत्पन्न होता है उसीमेंमें परार्थ भी होना है। दोनों एक ही घर के निवासी हैं। स्थूल० - जो बातें पहिले आपके मुखसे कभी श्रवण नहीं की, वे आज सुनकर जान पड़ता है कि सर्वदाकी अपेक्षा आज आप कुछ विपरीत ही ह रहे हैं। स्वार्थ तथा परार्थ चित्तके एक ही भाग जन्मते हैं, यह बात तो आज नवीन ही मालूम हुई । २ संभूति- अधिक रके बदलाव के कारण, वस्तुकी व्याख्या में भी फेरफार होता जाता है। आत्मा के जिस Page #194 -------------------------------------------------------------------------- ________________ शैतानी गुफामें साधु किरण २] afratri स्वार्थ तथा परार्थको परस्पर में शत्रुके समान गिनना चाहिए, वह अधिकार तो तुम कभीकं पार कर चुके हो। अब दोनों ही तुम्हारे लिए अर्थहीन है । वे अब तुम्हारा स्पर्श तक नहीं कर सकते । - स्थूल० - यह द्वन्द कहाँ तक सम्भव है ? संभू०ि - जहां तक आत्मा याचना करता रहता है, वहाँ तक । ज्योंही य चना करना बन्द हुआ— सबके लिए देता ही रहे, अपने लिए कुछ न ग्खेजिसे जो चाहिए उसके पास से ले और दान करनेके अभिमानको त्यागकर देता ही जाय, त्योही स्वार्थ तथा परार्थकी बालकों-नादानों के लिए बाँधी गई मर्यादाएँ टूट जाती हैं और आत्म त्यागके अनन्त आकाशमें आत्मा रमण करने लगता है । भद्र ! तुम भी उसी प्रदेशके बिहारी हो । स्थूल० – नाथ ! हृदयका खिंचाव स्वार्थ बिना किस प्रकार सम्भव है ? यही बात मुझे खटकती है । जिस प्रकार उस आकर्षणको मैं रोक नहीं सकता, उसी प्रकार वहाँ जानमें भी कल्याणका कोई निमित्त देखने नहीं आता । पुराने शत्रु मुझे पुकारते हुए मालूम पड़ते हैं। संभूति० - तात ! तुम्हारी सब बातें मैं समझ गया; परन्तु तुम्हारा मन वहां कुछ याचना करनेको तां जाता ही नहीं है, जाता है तो कंवल अर्पण करने कां । क्या ऐसा तुम्हें प्रतीत नहीं होता ? स्थूल० - प्रभो ! जिस समय मैं नवीन रुधिरका शिकारी था, बालाओं के यौवन-रसको तरमता था, और विषय के घंटको प्रेमामृत जानकर पीता था, उस समय मुझपर थूल परन्तु अचलरूप से जो श्रासक्त थी, उसी कोशा के घर में, यह चतुर्मास व्यतीत करनेको मेरा मन चाहता है। पुराने समय की सौन्दर्यलिप्सा १७६ तो अब क्षय हो चुकी है, परन्तु किसी समय जो मुझे इन्द्रियजन्य आनन्द देती थी तथा विषय सुखकी परिसीमाका अनुभव कराती थी, उसी अज्ञान बालाको, उसके प्रेमका बदला देनेके लिए, मैं उत्सुक हूँ । यह बात सही है कि मैं वहां याचना करनेको नहीं किन्तु अर्पण करने को जाता हूँ, तथापि वह अर्पण पूर्वकी स्थूल प्रीतिकं उत्तर रूप होने से, वहाँ भी मुझे स्वार्थकी ही दुर्गन्ध आती है। संसार कोशाके समान स्त्रियोंमें भरा पड़ा है, उन सबपर अनुग्रह करने के लिए यह चित्त आकर्षित न होकर, केवल कोशा ही की ओर खिंचता है, क्या इससे मेरे श्रात्मत्यागकी अल्प मर्यादा सूचित नहीं होती ? संभूति०१० - भद्र ! वीर्यवान् श्रात्माएँ, जिस स्थान पर, एक बार पराजित हो जाती हैं, विषयके पङ्कमें धँस जाती हैं, उसी स्थलपर वे विजय प्राप्त करने के लिए, आकांक्षायुक्त होती हैं और जहाँ तक वे याचना की प्रत्येक अभिलाषाका पराभव करने योग्य पराक्रम प्राप्त करके, याचनाके, भारी भारी खिंचाव के स्थानपर भी अर्पण करनेके लिए तत्पर न हो जायँ तहाँ तक वे आत्माएँ निर्बल तथा सत्वहीन गिनने योग्य हैं। कोशा के यहाँ चतुर्मास करनेके तुम्हारे विचार स्वार्थकी संज्ञा घटिन नहीं होती । तुम्हारी मा याचनाके उत्कृष्ट आकर्षण के स्थलपर, अर्पण करनेको कसौटीपर कम जानके लिए उद्यत हुई है, इमी लिए उसे यह तलमलाहट हो रही है। तुम्हें अब किसी प्रकारका भय खाना उचित नहीं है । याचना करनेका तुम्हारा स्वभाव अब एक पुराना इतिहास हो चुका है। स्थूल पर क्या साधुष्यों को वेश्या - गृहमें चतुर्मास करना उचित है ? Page #195 -------------------------------------------------------------------------- ________________ (८. अनेकान्त [ वर्ष ४ संभूति-जो साधु याचनाका पात्र है, उसे वैगग्यस शृंगारर , गतिका क्रम एकाएक कभी नहीं उसके खिंचावसे भागने फिरमेकी आवश्यकता है होता । एक स्थितिसं दूसरी स्थितिमें गमन करनेका और इसी कारण तुम्हारे सहयोगी साधुओंको ऐसे नियम क्रमिक (Evolutionary) होता है । एकास्थानमें भेजा है, जहाँ उस प्रकारके खिंचावका लेश- एक और तुरन्त कुछ भी नहीं बनता । यदि बन भी मात्र भी सम्भव न हो। परन्तु जिस देना ही है और जाय तो वह क्षणिक और अस्थायी होता है । त्याग लेना कुछ भी नहीं है-अपने लिए कुछ भी नहीं किये हुए विषयकी शक्ति अनूकूल नियमक प्रसङ्गपर रखना है-उसे तो याचनाके खिंचाव वाले प्रदेशमें, सहस्रगुणे अधिक बलसं सताती है, और अन्तमें विजय प्राप्त करके, जगतपर त्यागका सिक्का जमानेकी आत्माको मूलस्थितिमें घसीट ले जाती है। किसी आवश्यकता है। तात ! तुम सरीग्वोंके पाम तो जो भी विषयक प्रति अनासक्तिका उद्भव उसकी अतिकुछ है, उस बस्तीमें खुले हाथों बाँटते फिग्नेकी तृप्तिमेंस नहीं होता; तृप्तिमात्र तो उस विषयका पोषण जरूरत है। संसारको तुम्हारे समान व्यक्तियोंसे बहुत ही करता है । भद्र ! तू श्रृंगारमें पला हुआ है । एक कुछ सीखना और प्राप्त करना है। जब आत्मा पूर्ण समय तू शृगारका कीड़ा था और एक ही क्षणमें रूपसे भर जाता है, उसे कुछ इच्छा नहीं रहती, तूने श्रृंगारमेंस वैगग्यमे प्रवेश किया था, यह धक्का तब उसका आत्म-भण्डार अमूल्य रत्नोंसे उछलने प्रकृति कैसे सहन कर सकती है ? पृथ्वीपर तो धीरे लगता है। और इन रत्नोंको संसार खुले हाथों लूटता ही चलनेमें कल्याण है; शीघ्र चलनेस फिसल पड़ते है-जिसको जितना चाहिए, वह उतना ले-उसके हैं, और छलांग माग्नेम तो पैर ही टूट जाते हैं। लिए उसको जगतके आकर्षणके केन्द्रमें शिखरपर तून तो पैर ही तोड़-बैठने के समान साहस किया था, खड़े रहनेकी आवश्यकता है। कुछ आत्माएँ बलिष्ठ परन्तु तेरा पुरुषार्थ तथा पूर्वकर्म अद्वितीय था, इसी होनेपर भी याचना वाले स्थानपर ठहर सकनके लिए से तू बच गया। तुम्हारे स्थानमें यदि कोई दूसरा नितान्त अनुपयुक्त होती हैं। उन्हींके लिए शास्त्रकारों सामान्य मनुष्य होता तो वह फिरसे पूर्व विषयके ने याचनाके स्थानसे अलग जाकर, गुफाओंमें अमलकी और कभीका खिंच जाता। परन्तु तुम कल्याण-माधन करनेकी आवश्यकता बतलाई है। कितने ही पुरुषार्थी और सवीर्य हो तो भी अन्तमें उन विधानोंका निर्माण तुम्हारे सरीखे वीर्यवान् प्रकृति तुमसे छोटेसे छोटा भी बदला लिए बिना न पुरुषोंके लिए नहीं हुआ है। छोड़ेगी। जब तक तुम कोशाका दर्शन न कगंगे, स्थूल०--प्रभो ! परन्तु मैं समझता हूं कि मात्र अपने पूर्वके विलास-स्थलकी और दृष्टि न फरोगे, दृष्टान्त ही खड़ा करने के लिए साधुओंके प्राचारको तब तक तुम्हारे आत्माको शान्ति न मिलेगी; क्योंकि शिष्ट प्रणालीका लोप करना उचित नहीं है। अभी इन संस्कारोंको तुम बिलकुल कुचलकर नहीं ___ संभूति०-- तात ! अपना पूर्वका इतिहास म्मरण आये हो। विगग उत्पन्न होनेके पश्चात्, वहाँ अल्पकगे। प्रकृति किसी भी आकस्मिक झटकेको, सहन काल रहकर-प्रबल निमित्तोंकी कसौटीपर चढ़ ही नही कर सकती। शृंगारमेंसे वैगग्यमें, तथा कर-और पिछले संस्कारोंको कुचलकर, यदि तुम Page #196 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] शैतानकी गुफामें साधु १८१ यहाँ आये होते तो यह खिंचाव कदापि न होता। अपना हित माधन भले ही कर सकें, परन्तु उनके परंतु तुम तो एकदम भाग निकले थे। तुम्हाग वर्तमान अज्ञान बन्धुओंको तो उनके चरित्रसे किश्चिन्मात्र आत्मप्रभाव तो तुमने इस आश्रममें ही पाकर प्राप्त ही लाभ पहुँच सकता है। जगत उनके चारित्रको किया है। अतएव काशाकी आरके खिंचावका निवृत देखने के लिए वनमें नहीं जाता और जो कदाचित् होना असम्भव है । परन्तु पूर्वक स्नेह-स्थानोंके वे ही जगत्में पावें तो उनके संसारी बन जानेका खिंचावमें भी आत्मत्याग पूर्वक योग देनेका अवसर भय रहता है अर्थात् संसारपर उनका उपकार केवल कोई विरले ही भाग्यशाली पुरुपोंको प्राप्त होता है। परोक्ष और अल्प होता है। परन्तु जो व्यक्ति जगतके साधुके शिष्टाचारके ध्वंस हो जानेका भय न करकं, मध्यमें रहने हुए, संसारी नहीं बनते तथा जगतसं तुम तुग्म्त उम आर विहार करनेका प्रबन्ध कगे। कुछ न मांगकर उल्टा उसीको अपने पासकी उत्तमसे ___ स्थूल-परन्तु यदि मैं अधिक पुरुषार्थको उत्तम मामप्री अर्पण कर देते हैं, वही संसारका म्फुरित करके, माधुके शिष्टाचारमें जकड़े रहनका वास्तविक कल्याण कर सकते हैं। जिसने आत्मप्रयत्न करूँ तो उसमें क्या अयोग्य होगा ? त्यागके महान यज्ञमें अपनी वामनाओंका होम दिया ___ मंभूति-भद्र ! मेग कथिताशय तुम अभी तक है, संसार उसका जितना भी आभार माने, सब थोड़ा नहीं समझ हो । शिष्टाचारमें जकड़े रहने की आवश्य- है। सांसारिक प्रभावका चहुँारसं प्राकर्षित करता कता तभी तक है, जब तक कि आत्मा अर्पण करनेको हुआ दबाव जिनकी स्थितिकी दृढ़ता को धक्का नहीं तैयार नहीं है। जो अर्पण-त्याग करनेकी जगह उल्टे पहुँचा सकता, काजलकी कोठरीमें रहते हुए भी जिनलूटने को तैयार हो जाते हैं। जो गंगामें पाप धोनका की सफेदीपर दारा नहीं लग सकता, वे ही लोग जाकर, वहां मछली माग्नको बैठ जाते हैं, ऐसे लोगों- जगतके स्वागत और सम्मानकं पात्र होते हैं । तात ! के लिए ही आचार-पद्धतिका विधान है। जो उस तुमने जो कार्य हाथमें लिया है, उस तुम्हाग हृदयस्थितिको पार कर गये हैं, उन्हें तो मंसारके जोखिम बल पूर्णताके शिखर पर पहुँचाने योग्य है । निःशंक वाले स्थानपर जाकर, अपने बन्धुओंको आत्मत्यागका हो, अपने पूर्व स्नेहियोंसे जल्दी जाकर मिलो । दर्शन कराना है। अन्य साधुओंको जो उन स्थानोंपर स्थूल-प्रभो ! एक नवीन ही प्रकाश आज मेरी जानेकी मनाईकी गई है, उसमें यही हेतु है कि उनमें आत्मा में प्रवेश कर रहा है। आपकं वचनामृतस याचनाकी पात्रता छुपी हुई है, वे अनुकूल प्रसंग अभी भी तृप्ति नहीं हो रही है अभी और वचनामृत प्रानपर, भिखारी बनकर हाथ बढ़ाते हैं और मौका की वृष्टि कीजिए। पाकर लूटनेमें भी नहीं चूकते। जो लोग याचनाकं संभूनि-सिंहकी गुफामें जाकर उसका पराजय आकर्षणयुक्त स्थानमें याचना न करके उल्टा अपेण करना अद्वितीय श्रआत्माओंस ही बन मकता है और करते हैं, वे जंगल तथा उपवनयुक्त प्रदेशोंमें विचग्ने तान ! तेरा निर्माण भी उसी विशेषताको सफलता तथा विहार करनेवाले याचकों से कई गुणा बढ़कर प्रदान करने हेतु हुआ है। जगतको ऐसे अद्वितीय है । वनमें विहार करने वाले याचक साधु कदाचिन व्यक्तित्रोंकी अत्यन्त आवश्यकता है। जिस समय Page #197 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १०२ अनेकान्त [वर्ष संसारके मुंहसे धर्म तकका नाम निकलना बन्द ही इस बहुमूल्य प्रामिसे इस आश्रमके कोशको भर दो । जायगा, उस समय भी तेरे अपवादरूप चरित्रका स्थल परन्तु प्रभो, यदि मैं पराजित होजाऊँ लोग हर्षसे गायन करेंगे। भद्र ! इसमें अधिक प्रकाश तो आप मेरी सहायता करनेको तत्पर रहिए । में मैं तुम्हें नहीं पहुंचा सकता; अधिक प्रकाश तो तुम्हें कोशाह के गृहमें प्राप्त होगा । वहाँस प्रकाश। ___मंभूनि०–तान ! मैं सर्वदा ही तुम्हारे साथ हूं। पराजयका भय त्याग दो, भय ही आधी पराजय है। लाकर, गुरुके आश्रमको उज्ज्वल करना। वन और गुफाओंमें शैतान पर विजय प्राप्त करनेसे जो फल जहाँ तक याचकता है, वहाँ तक ही भय है। मिलना है, उसकी अपेक्षा शैतानके घरमें जाकर ही स्थूल-तो नाथ ! अब मैं आज्ञा मांगता हूँ उस पर विजय प्राप्त करनेसे अधिक बहुमूल्य सम्पत्ति और एक बार फिर प्रार्थना करता हूँ कि यदि गिरूँ हाथ लगती है। वहाँ शैतान अपने गुप्त भंडार विजेता तो उठानकी कृपा करेंगे के। के समक्ष खोल देता है। उसमें विजेता चाहे जितना * स्वर्गीय श्वी० वाडीलाल मोतीलाल जी शाह द्वारा सम्पादित ले सकता है और संसारको भी दे सकता है। तात ! गुजराती "जैन हितेच्छु” से अनुवादित । संयमीका दिन और रात (लेखक-श्री विद्यार्थी' ) " या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी। यस्यां जाग्रति भूतानि, सा निशा पश्यतोमुनेः ॥" सब प्राणियोंकी रात है उसमें मंयमी शुद्ध चैतम्यस्वरूप तथा शरीरमे बिल्कुल पृथक है, जो शरीरके M y मनुष्य जागता है-वह उसका दिन है- मंसर्गसे-पुद्गल परमाणुश्रोके समावेशसे-अपने असली रूपसे ( 2) और जिसमें प्राणी जागते हैं-जो संसारी हटकर विकृतरूपमें प्रकट होता है। वस्तुत: श्रात्मामें सदैव जा प्राणियोंका दिन है वह उस द्रष्टा मुनि उसके स्वाभाविक गुण-अनन्तदर्शन, अनन्तशान, अनन्त x nx की रात है-इस वाक्यमें अनेकान्तियो वीर्य श्रादि-विद्यमान रहते हैं, जो कार्मिक वर्गणाओके को तो कोई आश्चर्यकी बातही नहीं; श्राच्छादनसे पूर्णरूपमें दृष्टिगोचर नहीं होते । परन्तु वे कभी क्योंकि उनके लिये तो यह केवल दृष्टिकोणका भेद है, जिस श्रात्मासे पृथक् नहीं होते और न हो ही सकते हैं । जिस से दिनको रात्रि तथा रात्रिको दिन भी समझा जा सकता है। प्रकार सूर्य्य सदैव तेजोमय है किन्तु जलद-पटलके कारण किन्तु यह वाक्य नो एकान्तवादियोंके एक प्रतिष्ठित एवं विकृत रूपमें दिखाई देता है। जैसे जैसे धनावरण हटता प्रमाणित ग्रन्थका उद्धरण है जिसमें रात्रिका दिवस तथा जाता है वैसे ही वैसे उसकी प्राकृतिक प्रभा भी प्रादुर्भूत दिवसकी रात्रि की गई है। अस्तु, इसका समाधान भी वही होती जाती है, उसी प्रकार जैसे ही जैसे कार्मिक वर्गणाश्री है केवल अपेक्षावाद ! का आवरण, जो आत्माको श्राच्छादित किये हुए है, इटता इसके लिखनेकी श्रावश्यकता नहीं कि श्रात्मा नितान्न जाता है वैसे ही चैमे श्रात्मा अपने शुद्ध स्वाभाविक स्वरूप Page #198 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण २] संयमीका दिन और रान १५३ में विकसित होता चला जाता है। इस दृष्टिसे सभी प्रात्माएँ पूर्णरूपेण विकसित होते हुए देखनेकी ओर है। बराबर है-कोई किसीसे बड़ी छोटी अथवा ऊँची नीची इस कारण वे या तो किसी निर्जन वनमें, जहा कि नहीं है। किन्तु हम देखते हैं कि एक उद्भट विद्वान् है तो दिनरातमें कोई अन्तर नहीं, चले जाते है और या अपना दूसरा निरक्षर भट्टाचार्य, एक सर्वमान्य है तो दूसरा सर्वतो- कार्य अधिक उपयोग लगाकर उस समय करते हैं जबकि बहिष्कृत, एक अत्यन्त सुखी है तो दूसरा नितान्त दुःखी संसार अपने कोलाहलसे स्तब्ध हो जाता है और संमारी श्रादि, जिसमे यह धारणा होती है कि मब अात्माएँ समान प्राणी दिनभर अथक परिश्रम करके मो जाते हैं। इस प्रकार नहीं हैं वरन् भिन्न भिन्न है अथवा ऊँच-नीचे भिन्न भिन्न उन संयमी पुरुषोका कार्य उस समय प्रारम्भ होता है जब स्थलो पर स्थित है। यदि वास्तवमं देखा जाय तो यह कि सब लोग निद्रा देवीकी गोद में चले जाते हैं और उस विषमता केवल उसी घनरूपी कर्मावरणके स्थूल नथा सूक्ष्म समय तक सुचारु रूपसे मम्पन्न होता है जब तक कि समारी होने पर निर्भर है, जिस ममय यह श्रावरण बिल्कुल इट जीव पनः अपने कार्य में प्रविष्ट नहीं होते। जावेगा उम ममय मूर्यरूपी आत्मा अपने स्वाभाविक शुद्ध- यह तो हा मंयमी परुषोंका दिन--जबकि वे अपना रूपमें देदीप्यमान होगा और इम बाह्य विषमताका कही कार्य करते हैं। अब प्रश्न यह रह जाता है कि जो हम मब पता तक नहीं लगेगा। का दिन है वह उनके लिए रात कैसे ? इसका उत्तर यह है लेकिन हमारी श्रात्माश्री पर श्रावरण इतना अधिक कि जिम प्रकार रात्रिमं हम पर्यङ्क पर लेटे लेटे, विना हाथ स्थूल तथा कठोर है कि उसने उनकी तनिक भी श्राभाका पैर हिलाए, नाना प्रकारके कार्य कर लेते हैं, कोमों दूर हो अवलोकन हमको नहीं होने दिया है। इसका परिणाम यह श्राते हैं, विना पेट भरे अनेक प्रकारके भोजन पा लेते हैं, हुआ कि हम इम शरीरको ही सब कुछ मानने लगे और विना दूसरेसे अपनी बात कहे हुए अथवा उसकी सुने हुए दिनरात इसकी ही परिचर्या एवं चाकरीमें संलम रहने लगे वार्तालाप कर लेते हैं, विना किमीको दिये हुए अथवा हैं । प्रात:कालसे लेकर मन्ध्या पर्यन्त हम इसी उधेड़-बुनमें किसे लिये हुए बहुत-मी वस्तुएँ दे ले लेते हैं, इत्यादि लगे रहते हैं कि इम शरीरका पालन केमे करें। इसके परे अनेक कार्य कर लेते हैं और श्राख खुलनेपर वह कुछ नहीं श्रावरणसे श्राच्छादित जो असली वस्तु है उमका कुछ भी रहता--बहुधा बहुत विचार करने पर भी उम सबका कोई ध्यान नहीं-उसके निमित्त एक क्षण भी नहीं ! वेमे अनंत स्मरण नहीं होता, ठीक उसी प्रकार उक्त परिणति वाले सुखकी प्रामिके लिए वाछनीय तो यह है कि हम अहोरात्र मनि लोग दिनमें जो खाना पीना, उठना बैठना, चलना उमी असली वस्तुके कार्य में मलम रहें, इस शरीर के लिए फिरना, बातचीत करना, देना लेना, श्रादि कार्य करते हैं, एक क्षण भी न दें। किन्तु यह अत्यन्त दुष्कर है, इमलिए वह सब स्वप्नवत होता है-उससे उन्हें कोई अनुराग नहीं वे धन्यात्मा, जिनको आत्मानुभवके रमास्वादन करनेका होता । और जिम तरह अौरव खुलने पर हम स्वप्नकी बातें सौभाग्य प्राम हो चुका है-चाहे उनको 'मंयमी कहिए भूल जाते हैं, उमी तरह रात्रिमें-जो उनका दिन हैया 'मुनि'-यथाशक्ति अपना अमूल्य ममय असली कार्यमें ध्यानावस्थित होने पर, हृदयकी श्राग्व ग्वुलने पर, वह उन ही लगाते हैं-शरीरसम्बन्धी उपयुक्त कामांमें उमका मब कार्योको जो उन्हेंोंने हमारे दिन अर्थात् अपनी रानमें दुरुपयोग नहीं करते । फिर भी हम लोग जो बाह्य इन्द्रियों किये हैं भूल जाते हैं और उनसे कोई लगाव नहीं रखते। की तृनिके लिए सुबह शाम तक चहल पहल करते रहते इस प्रकार उक्त वाक्य कि, जो हमारी रान है उसमें हैं उससे उन महात्माओंको बाधा पहुँचती है जिनकी इच्छा संयमी जागता है और जिसमें हम जागते हैं वह उस द्रष्टा तथा प्रवृत्ति उक्त आवरणको छेदन करके अपनी श्रात्माको मनिकी रान है, ठीक ही है। Page #199 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ Powen00000RRORowweennewnewweneraneet सुपारीपाक अशोकारिष्ठ ___माता और बहनों के लिये अत्यन्त हितकर वस्तु स्त्रियों के वेत-रक्त प्रदर एवं प्रसूत की अनुपम । नये और पुराने सभी प्रकार के श्रेत और रक्त महौषध है। वंध्या स्त्रियों का वंध्यत्व भी इस महौषध प्रदर को समूल दूर करने में गजब का फायदा के सेवन से नष्ट होकर सुन्दर सन्तान की माता पहुंचाता है। मासिकधर्म की पीड़ा अनियमितता आदि बनने का सौभाग्य प्राप्त होता है। मासिकधर्मकी सभी गोरोको निश्चय ही आराम करेगा। मूल्य १ पावका १) * शिकायतें दूर होजाती हैं। मू० प्रति बोतल २) भष्टवर्गयुक्त और मधु रहित च्यनप्राश-महारसायन (सुमधुर और सुगन्धित ) भायुधैद की इस अनुपम औषध का निर्माण प्रायः सभी वैद्य एवं कोई-कोई डाक्टर तक कर रहे हैं। किन्तु हर एक स्थल पर इसके सुन्दर साधनों की सुविधा एवं स्वच्छताका सर्वथा अभाव है। हमने इस महारसायन * का निर्माण ताजा और परिपक्व बनस्पतियों के पूर्ण योगसे अत्यन्त शुद्धता पूर्वक किया है, जो किसी भी सम्प्रदाय * विशेष के धर्म-भाव पर आघात नहीं पहुंचाता। औषध निहायत जायकेदार है, पयरोग की खांसी एवं हृदय के सभी रोगों पर रामबाण है। दिल और दिमाग़ एवं शक्ति संचयके लिये संसारकी निहायत बेहतरीन दवा है। मूल्य-१ पाव के डब्बे का १) रु. डाक खर्च पृथक ********** * नोट-जिन मजनों को मधु मेवन से आपत्तिन हो वह स्पष्ट लिख कर मधु युक्त मंगाले ***** ********* * परिवार-सहायक-बक्स अंगूरासव गृहस्थ में अचानक उत्पन्न हो जाने वाले दिन- ___ताजा नंगूरों के रस से इस अमूल्य और स्वादिष्ट रात के साधारण सभी रोगों के लिये इस बक्स में योग का निर्माण वैज्ञानिक विधि से हरा है। ११दवाइयां हैं सम्पन और सहृदय महानुभावों को मस्तिष्क और शरीर की निर्बलता पर रामबाण है। परोपकारार्थ अवश्य परिवार में रखना चाहिये । ए दिमागी काम करने वाले वकील, विद्यार्थी और मास्टर मूल्य प्रति बक्स २॥) * आदिको नित्य सेवन करना चाहिये। मू०२) बोतल कौशलप्रमाद जैन, मैनेजिङ्ग डायरेक्टरभारत आयुर्वेदिक केमिकल्स लिमिटेड, सहारनपुर। RomensomnatkhMRRRRRRRRRRRRRRRRement Page #200 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके सहायक जिन सज्जनोंने अनेकान्तकी टोस सेवाओंके प्रति अपनी अनुकरणीय प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, उसे घाटेकी चिन्तासे मुक्त रहकर अनेकान्तकी सहायताके चार भागों से दूसरे मार्गका निराकुलतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति करने और अधिकाधिक अवलम्बन लेकर निम्नलिखित सज्जनोंने, अजैन संस्थाओं रूपसे समाजसंवानों में अग्रसर होनेके लिये सहायताका वचन तथा विद्यार्थियोंको, एक साल तक 'अनेकान्त' फ्री तथा अर्ध दिया है और इस प्रकार अनेकान्तकी सहायकश्रेणीमें अपना मूल्यमें भिजवाने के लिये, निम्नलिखित सहायता प्रदान करके जो अनुकरणीय कार्य किया है। उसके लिये वे धन्यवादके नाम लिखाकर अनेकान्तके संचालकोंको प्रोत्साहित किया है पात्र हैं। प्राशा है अनेकान्त प्रेमी अन्य सज्जन भी आपका उनके शुभ नाम सहायताकी रकम-सहित इस प्रकार हैं:- अनुकरण करेंगे: १५) बा० मिट्टनलालजी जैन तीतरों निवामी, श्रोवरसियर १२५) बा० छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता सरगथल, पुत्र विवाहकी खुशीमें, (१२ विद्यार्थियोंको एक १०१) बा० अजितप्रसादजी जैन, एडवोकेट, लखनऊ । वर्ष तक अनकान्त अर्धमूल्यमें देनेके लिये)। १००) साहू श्रेयांमप्रसादजी जै', लाहौर। १०) ला० फेरूमल चतरसौनजी जैन, वीर स्वदेशी भण्डार, १००) माहू शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर । सरधना ज़िला मेरठ, (८ विद्यार्थियोंको एक वर्ष तक 'अनेकान्त' अर्धमूल्य में देनेके लिये)। १००) ला० तनसुखरायजी जैन, न्यू देहली। १०) ला० उदयराम जिनेश्वरदासजी जैन बज़ाज़, सहारनपुर १००) वा. लालचन्दजी जैन, एडवोकेट, रोहतक । (४ संस्थानोंको एक वर्ष तक 'अनेकान्त' फ्री भिजवाने १००) बा. जयभगवानजी वकील श्रादिन पंचान पानीपत। के लिये)। १०) ला० दलीपसिंह काजी और उनकी मार्फत, देहली। १०) ला० रतनलालजी जैन, नईसड़क, देहली (चार संस्थानों२५) पं० नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई।। पुस्तकालयों श्रादि-को एक वर्ष तक 'अनेकान्त' फ्री भिजवानेके लिये)। २५) ला० रूड़ामलजी जैन, शामियाने वाले, सहारनपुर । २५) बा० रघुवरदयालजी जैन, एम. ए., करोलबाग़, देहली। २० विद्यार्थियोंको अनेकान्त अर्धमूल्यमें २५) पेठ गुलाबचन्दजी जैन टोंग्या, इन्दौर । प्राप्त हुई सहायताके आधार पर २० विद्यार्थियोंको 'अनेकान्त' एक वर्ष तक अर्धमृत्यमें दिया जाएगा, जिन्हें श्राशा है अनेकान्तके प्रेमी दमो सज्जन भी आपका आवश्यकता हो उन्हें शीघ्र ही ॥) रु. मनीभाईरसे भेजकर अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक स्कीमको सफल ग्राहक होजाना चाहिये। जो विद्यार्थी उपहारकी पुस्तकें समाधितंत्र सटीक और सिद्धिसोपान भी चाहते हों उन्हें बनाने में अपना पूरा सहयोग प्रदान करके यशके भागी बनेंगे। पोप्टेजके लिये चार पाने अधिक भेजने चाहिये। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' व्यवस्थापक 'अनेकान्त' वीरसेवामन्दिर, सरमावा ( महारनपुर) वीरसेवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) प्रचारकोंकी जरूरत-'अनेकान' के लिये प्रारकोंकी ज़रूरत है । जो व्यक्ति इस कार्यको करना चाहें वे 'अनेकान्त' कार्यालय वीरसेवामन्दिर सरसावासे शीघ्र पत्र व्यवहार करें। मुद्रक और प्रकाशक पं० परमानन्द शास्त्री वीर सेवामन्दिर, सरसावाके लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तव के प्रबन्धसे श्रीवास्तव प्रिटिंग प्रेस, सहारनपुर में मुद्रित । Page #201 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ASEASERSEASERSE MANA पूर्व ग्रंथ Registered No. A- 731 छपकर तैयार है ! महात्मा गांधीजी लिखित महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना और संस्मरण सहित महान ग्रंथ श्रीमद् राजचन्द्र * गुजरात के सुप्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता शतावधानी कश्विर रायचन्द्रजी के गुजराती ग्रंथ का हिंदी अनुवाद अनुवादकर्त्ता - प्रोफेसर पं० जगदीशचन्द्र शास्त्री, एम० ए० महात्माजी ने इसकी प्रस्तावना मे लिखा है "मेरे जीवन पर मुख्यता से कवि रायचन्द्र भाई की छाप पड़ी है। टॉल्स्टाय और रस्किन की अपेक्षा भी रायचन्द्र भाई ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला है । रायचन्द्र जी एक अद्भुत महापुरुष हुए हैं, वे अपने समय के महान तत्त्वज्ञानी और विचारक थे । महात्माओं को जन्म देने वाली पुण्यभूमि काठियावाड़ मे जन्म लेकर उन्होंने तमाम धर्मा का गहराई से अध्ययन किया था और उनके सारभूत तत्वों पर अपने विचार बनाये थे । उनकी स्मरणशकि ग़ज़ब की थी, किसी भी ग्रन्थ को एक बार पढ़ के वे हृदयस्थ (याद) कर लेते थे, शतावधानी तो थे ही अर्थात सौ बातों में एक साथ उपयोग लगा सकते थे। इसमें उनके लिख हुए जगत कल्याणकारी, जीवन में सुख और शान्ति देने वाले, जावनोपयोगी, सर्वधर्मसमभाव, अहिंसा, सत्य आदि तत्त्वों का विशद विवेचन है । श्रामद् की बनाई हुई मोक्ष माला, भावनाबधि, आत्मसिद्धि आदि छोटे मोटे ग्रथों का संग्रह तो है ही, सब से महत्व की चीज हैं उनके ८७४ पत्र, जो उन्होंने समय समय पर अपने परिचित मुमुक्षु जनों को लिखे थे, उनका इसमें संग्रह है । दक्षिण अफ्रीका मे किया हुआ महात्मा गाँधी जी का पत्रव्यवहार भी इसमें है । अध्यात्म और तत्वज्ञान का तो खजाना हो है। रायचन्द्रजी की मूल गुजराती कविताएँ हिदी अर्थ सहित दी हैं। प्रत्येक विचारशील विद्वान और देश-भक्त को इस ग्रंथ का स्वाध्याय करके लाभ उठाना चाहिये । पत्र सम्पादकों और नामी नामा विद्वानों ने मुक्तकण्ठ से इसकी प्रशंसा की है। ऐसे ग्रथ शताब्दियों में बिरले ही निकलते हैं। 1 गुजराती में इस ग्रंथ के सात एडीशन होचुके है। हिंदी में यह पहली बार महात्मा गाँधी जी के श्रम से प्रकाशित हुआ है बड़े आकार के एक हजार पृष्ठ हैं, छः सुन्दर चित्र हैं, ऊपर कपड़े की सुंदर मजबूत जिल्द बंधी हुई है । स्वदेशी काग़ज पर कलापूर्ण सुंदर छपाई हुई है । मूल्य ६ ) छ: रुपया है, जो कि लागतमात्र है। मूल गुजराती ग्रंथ का मूल्य ५) पांच रुपया है। जो महोदय गुजराती भाषा सीखना चाहें उनके लिये यह अच्छा साधन है। खास रियायत - जो भाई रायचन्द्र ज ेन शास्त्रमाला के एक साथ १० ) के ग्रंथ मंगाएँगे. उन्हें उमास्वातित 'सभाध्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' भापाटीका सहित ३ ) का ग्रन्थ भेंट देंगे । मिलने का पता - परमश्रुत प्रभाव कमंडल, (गयचन्द्र जैनशास्त्रमाला ) खारा कुवा, जौहरी बाजार, बम्बई नं० २ --- CED zxzz2<< 26 V 26 V 26 V 26 V 26 V 26 V 26 V 26 V 2 V 2 M X 2 X 3 M 2 << 2 2 2 2 2 25252525252525252525262&><><><«««<><><><><><¥2 € Page #202 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेका एकेनापती थयन्ती नुतमितरंग | प्रन्तेन जयति जैनी नीनिर्मन्थाननेवमिव गोपी ॥ जै विविधनयापेक्षा स्याद्वादरूपिणी ஆ अनेकान्तात्म म्यान सप्तभंगरूपा स्यात स्यान अनकान्ता मक वस्तुतत्व म्यान Ella म्यान स्यात् जनमय rd गुणमुख्य- कल्पा विधेय छतर स्यात निय नव्व a नी तन्व सापेक्षवादिनी ति वर्ष विधेयं वार्य चानुभयमुभयं मिश्रमपि तद्विशेषे प्रत्येकं नियमविपर्ववाऽपरिमित । farm ३ सदाऽन्योऽन्यापेने सकलभुवनव्येष्टगुरुणा त्वया गीतं तत्त्व बहुनय-विवत्तं नरवशान ॥ सम्यग्वस्तु-ग्राहिका सम्पादक- जुगल किशोर मुख्तार यथातत्त्व प्ररूपिका अप्रैल १६४१ Page #203 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची मादक १-एक अनूठी जिनस्तुति-[सम्पादक २-मनकी भूख (कविता)--श्री भगवत्' जैन ३--जीवनकी पहेली--[बा. जयभगवान जैन, बी०ए. वकील ४-बेजोड विवाह-श्री ललिताकुमारी पाटणी ५--हरिभद्र-सूरि-[पं० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ ६--भाग्य-गीत (कविता)-[श्री 'भगवत्' जैन । ७-भ्रातृत्व (कहानी)--श्री 'भगवत्' जैन ८-श्रात्म-दर्शन (कविता)--[पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' ६--तामिल भाषाका जनसाहित्य--[प्रो० ए० चक्रवर्ती, एम.ए. १०--अहार लड़वारी-[श्री यशपाल जैन, बी० ए० ... "--गोमट--[पो० ए. एन. उपाध्याय, एम. ए. डी. लिट १२--'मेरी भावना' का संस्कृतपद्यानुवाद --श्री पं० धरणीधर शास्त्री १३-मम्वन वालेका विज्ञापन (एक मनोरञ्जक वार्तालाप) १४-अनेकान्त पर लोकमत १५--सूचना, वीरसेवामन्दिरको सहायता आवश्यकता कविगजमल्लके जिस पिंगल (छन्दोविद्या) प्रन्थका परिचय अनेकान्तकी गत किरणमें दि गया है, उसकी कुछ दूसरी प्रतियोंकी अतीव आवश्यकता है, क्योंकि जैनसमाजकं प्राकृत-संस्कृत श्रा भाषाओं के एक प्रसिद्ध विद्वान्ने इस ग्रंथका शीघ्र सम्पादन कर देनेकी अपनी वास इच्छा व्यक्त की और इस पूरे ग्रन्थको अनेकान्तमें निकाल देनेका विचार है । अपने पास जो प्रति उपलब्ध, है वह बा कुछ अशुद्ध है। दृमरी प्रतियोंसे तुलना करके शुद्ध पाठके स्थिर करनेकी बड़ी जरूरत है। अतः विद्वा तथा शास्त्रमण्डागेंके अधिपतियोंसे निवेदन है कि वे अपने यहांक ग्रंथभण्डारों में इस ग्रंथकी दूस प्रतियां खाज करके उन्हें शीघ्र ही नीचे लिखे पतेपर भेजनेकी कृपा करें और इस तरह इस सत्कार अपना सहयोग प्रदान करके मुझे अनुगृहीत करें । कार्य हाजाने पर वे प्रतियां उन्हें सधन्यवाद शीघ्र वापिस भेज दी जायंगी। जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'वीरसंवामन्दिर' सरसावा, जि. सहारनपुर Page #204 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ महम् * तत्व-तधातक तत्त्व-प्रकाशक नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। -- - -- वर्ष ४ किरण ३ वीरसंवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) मरसावा जिला सहारनपुर बैशाख, वीर निर्वाण सं०२४६७, विक्रम सं० १९६८ अप्रैल १९४१ एक अनूठी जिन-स्तुति श्री जिनदेव-जैनतीर्थकर-अपनी योगसाधना एवं अन्त-अवस्थामें वस्त्रालंकारो तथा शस्त्रास्त्रोसे रहित होते हैं, ये सब चीजें उनके लिये व्यर्थ हैं। क्यो व्यर्थ हैं ? इस भावको कविवर वादिराजमरिने अपने 'एकीभाव' स्तोत्रके निम्न पद्यमें बड़े ही सुन्दर एवं मार्मिक ढंगसे व्यक्त किया है और उसके द्वारा ऐसी वस्तुअोसे प्रेम रखने वालोकी असलियत को भी खोला है। इसीसे यह स्तुति जो सत्यपर अच्छा प्रकाश डालती है, मुझे बड़ी ही प्यारी मालूम होती है और बड़ी ही शिक्षापूद जान पड़ती है। -सम्पादक] आहार्येभ्यः स्पृहयति परं यः स्वभावादहयः, शस्त्र-ग्राही भवति सततं वैरिणा यश्च शक्यः । सर्वाङ्गेषु स्वमसि सुभगस्त्वं न शक्यः परेषाम् , तत्किं भूषा-वसन-कुसुमैः किं च शस्त्ररुदस्त्रैः ॥ हे जिनदेव, शृंगारांके लिये बड़ी बड़ी इच्छाएँ वही करता है जो स्वभावसे ही अमनोग अथवा कुरूप होता है, और शस्त्रोका ग्रहण-धारण भी वही करता है जो वैरीके द्वारा शक्य-जय्य अथवा पराजित होनेके योग्य होता है; आप सर्वांगोंमें सुभग है-कोई भी अंग आपका ऐसा नही जो असुन्दर अथवा कुरूप हो-और दूसरोके द्वारा श्राप शक्य भी Page #205 -------------------------------------------------------------------------- ________________ • अनेकान्त वर्ष ४] १८६ नहीं है कोई भी श्रापको अभिभूत या पराजित नहीं कर सकता। इसीसे शरीरके शृंगाररूप श्राभूषणों, वस्त्रों तथा पुष्पमालाना श्रादिसे आपका कोई पयोजन नहीं है और न शस्त्रों तथा अस्त्रोसे ही कोई पयोजन है-शृंगारादिकी ये सब वस्तुएँ अापके लिये निरर्थक हैं, इसी से श्राप इन्हें धारण नहीं करते। वास्तव में इन्हें वे ही लोग अपनाते है जो स्वरूपसे ही मनोज्ञ होते हैं अथवा कमसे कम अपनेको यथेष्ट सुन्दर नहीं समझते और जिन्हें दसरों द्वारा हानि पहुँचने तथा पराजित होने आदिका महाभय लगा रहता है, और इसलिये वे इन श्राभूषणादिके द्वारा अपने कुरुपको छिपाने तथा अपने सौन्दर्यमें कुछ वृद्धि करनेका उपक्रम करते हैं, और इसी तरह शस्त्रास्त्रोके द्वारा दसरोपर अपना अातंक जमाने तथा दूसरोके श्राक्रमणसे अपनी रक्षा करनेका पयत्न भी किया करते हैं। मनकी भूख पारकरमरपारलारा मन सुखको मदा तरसता है ! सुखिया हो वह यह बतलाय, सुख में क्या भरी सग्मता है ? मन सुखका मदा तम्मना है !! मुझसे पूछो तो यह पूछो, दुःखकी रजनी किस गग भरी ? कैसी टीमन, कैसी पीड़ा, कैमी रे ! उसमे भाग भरी ? लुट चुका कभीका उजियाला, अब अंधकार ही बसता है ! सूना है तन, सूना मन है, सूनी है यह मारी दुनिया ! मैं उस दुनियामें रहता हूँ, जो इससे है न्यारी दुनिया !! आँसू, पाहोंका साथ लिए, चिर-दाह और नीरसता है ! बुझते दीपक की आभामें, मेग-'जीवन-इतिहास' छिपा ! क्रन्दनमें मेरा गान छिपा, मरनेमें, हास-विलास छिपा !! साधन-विहीन, भूखा-भूखा, रहता मन लिए विवशता है ! सुख कहते किसको ?-पता नहीं, ___ कब मैंने उसका स्वाद चखा ! जबस जीवनको अपनाया, दुःख ही तो मेग बना मखा !! मेरे सुखके मर जाने पर, दुख वश हो-होकर हँसता है । मन सुखको सदा तरसता है !! [रचयिता-श्री 'भगवत् जैन] Page #206 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनकी पहेली ( लेखक-श्री बाबू जयभगवान बी० ए० वकील ) जीवनकी समस्या इसका क्या कारण है ' ? यह जन्मसमय कहाँ से आता है ? मृत्युसमय कहाँ चला जाता है ? यह कौन है, जा भीतरमे शोर कर रहा है ? एक इसका क्या आधार है ? क्या प्रतिष्टा है ? यह ऊधम मचा रहा है ? जो मैं मैं की रटम मतवाला किसमें रहता है ? किसमें बढ़ता है १ किसमें हो रहा है ? मंग-मंगके प्रपंचमे बावला हो रहा है ? जीता है ? इसका कौन विधाता है ? कौन जा लेते लेत भी माँगे चला जारहा है ? पाते पाते भी अधिष्ठाता है ? कौन इसका नियंत्रण करता है ? खोजे चला जारहा है ? मरते मरते भी जीते चला कौन इसे प्रेरणा से भरना है ? इसके हित-अहितका जा रहा है ? जो कामनाओस उमड़ रहा है ? आशा निश्चय करता है। इसके कर्तव्य अकर्तव्यका निर्णय ओंम छलक रहा है ? वंदनाओम तड़प रहा है ? करता है ? कौन इसे गुमराह करता है ? भूलोमें जिसकी किसी तरह भी तृप्ति नहीं, किमी तरह भी . डालता है ? सुग्वदुःख रूप वर्ताता है ? मारता और पृर्ति नहीं, किसी तरह भी शान्ति नहीं जिवाता है ? इसका क्या रूप है ? क्या नाम है ? क्या काम क्या यह सब एक निग भ्रम है १ एक खाली है? क्या यह शरीर है या इन्द्रिय ? हृदय हे या स्वप्न है, मिथ्या कल्पनाका पसाग है ? इसकी कोई प्राण ? क्या यह तियेच है या मनुष्य ? पशु हे या सत्ता और वजूद नहीं ? पक्षी ? पुरुष है या स्त्री ? बूढा है या जवान ? काला [ है या जवान ? काला क्या यह सब कुछ यहच्छा है १ आकस्मिक है या गारा शूद्र हे या ब्राह्मण ? हिन्दू है या घटना है इसका कोई सिर और पैर नहीं यह यों मुम्लिम 'आस्तिक है या नास्तिक ? देवता है या ही आता है, और यों ही चला जाता है ? दैत्य । ___ क्या यह सब प्रकृति की प्रवृत्ति है ? इसके क्या जागना और सोना ही इसका काम है ? कणोंकी एक गूढ अभिव्यक्ति है ? उसके पचभूतों आहार और निहार ही इसका काम है ? कश्चन और के संमिलनकी एक रासायनिक उत्पत्ति (chemical कामिनी ही इसका काम है १ phenomenon) है ? उसकी व्यवस्थित रचनाकी क्या इनमेंसे यह एक रूप-नाम-कर्मवाला है ? कि कारणं ब्रह्म कुतःस्य जाता जीवाम केन क च संप्रतिष्ठाः। क्या इनमेसे यह सब रूप-नाम-कर्मवाला है ? क्या अधिष्ठिताः केन सुखेतरेषु वर्तामहे ब्रह्मविदो व्यवस्थाम् ॥ इनमेंसे किसी भी रूप-नाम-कर्मवाला नहीं ? -श्वे. उप० १-१ Page #207 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ भनेकान्त [वर्ष ४ है? एक यान्त्रिक गति (mechanical movement) यह बेचैन क्यों है ? दुःखी क्यों है ? क्या इम दुःग्वस किमी तरह छुटकारा नहीं ? कौन है जो ___क्या यह सब कुछ काल है ? कालकी मष्टि है, इमका बाधक है ? कौन है जो इसका घातक है ? ज उसके विकास और हामके साथ बढ़ती और क्या किसी तरह उसे मनाया जा मकता है ? क्या घटती है ? उसके चढाव और उतरावक साथ चढती किसी तरह उस जीता जा सकता है ? और उतरती है ? उसकी सुबहशामके साथ उदय यह क्या मांगता है ? यह क्या चाहता है ? और अम्त होती है ? इसका क्या मतलब है ? क्या प्रयोजन है ? इसको __ क्या यह उम काल परिच्छिन्न-प्रकृतिका स्वभाव शुद्धिका क्या उपाय है, क्या मार्ग है ? है, जो अमीम अवकाशमें विकसित होती हुई, जदि इन सवालों की क्या हद है ? इन्हें मोचते मोचने लता और पूर्णताकी ओर बढ़ती हुई जीवन सर्गग्वी भी इनका अन्त नहीं आना ! जितना गहग विचार किया जाता है, जितना सूक्ष्म तर्क उठाया जाता विशेषता हामिल कर लेती है ? है, उतना ही जीवनतत्त्व जटिल और पेचीदा होता क्या यह एक नियति है, परिनिश्चिति है, अमिट चला जाता है, उतना ही उसके लिये शंकामम शंका, होनी है, लिग्वा हाभाग्य है ? क्या यह एक चित्रित मवालमेंस सवाल निकलता चला जाता है। जीवनचित्रपट है ? उपहामका अभिनय है ? विनोदका ड्रामा तत्त्व क्या है ? प्रश्नोंका घर है, शंकाओंका ठिकाना है, जो किमी प्राज्ञानुमार, किी अनुशासनक है। इमी रूपका दग्वकर प्राचीन वैदिक ऋपियोंने अनुमार बगवर खेला जारहा है ? क्या यह इमका नाम 'क' अर्थात 'क्या' रग्ब छोड़ा है ।। किमीकी देन है ? किमीकी ईजाद है ? किमीकी समस्या की व्यापकता-- इच्छापूर्तिका माधन है ? ___ ये प्रश्न आजके प्रश्न नहीं, कलके प्रश्न नहीं, क्या यह इन मबम भिन्न है ? कोई विलक्षण ये केवल पूर्व देशके प्रश्न नहीं, पश्चिम देशक प्रश्न म्वतःमिद्ध मत्ता है ? क्या यह ब्रह्म है, अात्मा है ? नहीं । ये केवल विद्वानांके प्रश्न नहीं, मूढ़ लोगोके क्या यह उपर्युक्त चीजोमस किनही दो वा प्रश्न नहीं। ये अनादि प्रश्न है, मनुष्यमाचके प्रश्न अधिक चीजांक ममलनका फल है ? ' हैं। ये दुःम्बके माथ बंधे हैं । दुःग्व इष्टवियाग अनिष्टसंयोग माथ बंधा है, इप्रवियोग हानि हाम १(श्र) कालः स्वभावो नियनिर्यदृच्छा, के साथ बंधा है। अनिष्टमंयांग गंग बुढ़ापा मृत्युक भूतानि योनिः पुरुष इति चिन्त्यम । संयोग एषा न स्वात्मभावाद्, साथ बंधा है। जब जब ये दर्दभग हानियां उदयम श्रात्माप्यनीशः सुग्वदुःखहेतोः ॥ १ (अ) कं ब्रह्म-छा. उप. ४.१०.५. ___ श्वे. उप १.२. (श्रा) को हि प्रजापतिः-शत. वा. ६. २. २५. (श्रा) कालो महाव णियई पव्वकयं पग्मिकारणेगंता । (इ) प्रजापति: वैर्क:----ोत. बा.२.३८.; यजुर्वेद मिच्छनं ते चेवा (व) ममामश्रो होति मम्मत्त ।। –सन्मतितर्क ॥ ३.५३ ॥ (ई) कस्मै देवाय हविषा विधेम-ऋग्वेद १०.१२१. -- Page #208 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] जीवनकी पहेली १८ पाती हैं, तब तब दुःख भी उदय में आता है। जब और सदा रहेंगे। पूर्वकालमें भी जब धरा देव-दैत्य, जब दुःख उदयमें आता है तब तब ये प्रश्न भी सुरासर, नाग-राक्षस कहलाने वाली जातियोंसे बसी उदयमें आते हैं। ये होनियां अनादि हैं, दुःश्व भी थी, मनुष्यको इन सवालों से लड़ना पड़ा है ' और अनादि है, ये प्रश्न भी अनादि हैं। आज भी जब धरा आर्य-म्लक्ष, मंगोल-तातार, हब्स बर्बर लोगोंस बसी है, ये सवाल बगबर बन हुए हैं, हजार यत्न करने पर भी दुःख की होनियोंको छिपाया नहीं जा सकता, दुःग्य की अनुभूतिका गेका परन्तु इनका हल करना बहुत ही कठिन है। नहीं जा सकता; तब इन प्रश्नांका पैदा होनस, इन्हें समस्या की कठिनताअपना जवाब मांगने कैम रोका जा मकता है ? किनन हैं, जो इन मवालों की ओर ध्यान देते शाक्य-मुनि गौतमस इन घटनाओं को दूर रखनकी हैं ? इन्हें स्पष्ट और साक्षान करते हैं ! कितने हैं, जो कितनी कोशिश की गई, सुग्वमात्रका दुःख अनुभूति इनके अर्थको ममझते हैं, इन्हें अध्ययन और अन्वमें बचाये रग्बनकी कितनी चेष्टाकी गई, पर ये घट- पण करत हैं ? कितने हैं, जो इनका ममाधान करते नाएं दृष्टिमे आकर ही रही, यह अनुभूनि चित्तमें हैं और उम ममाधानको अपनेम घटाकर मफल जग कर ही रहीं। मनोरथ होते हैं ? चाहे मभ्य हो या असभ्य, धनी हा या निर्धन, बहुत विग्ले, कुछ गिने चुन मनुष्य, जो दूर दूर पण्डित हो या मूढ़, पुरुष हो या स्त्री, कोई मनुष्य । युगोंम, दूर दूर देशोंमें प्रकाशमान नक्षत्रों की भांति ऐसा नहीं, जो दुग्वकी घटना और दुखकी अनुभूति कहीं कहीं चमके हुए हैं। सं सुरक्षित हो, यह अनुभूति जरूर किसी समय ____ यह क्यों ? जब सब ही दुःस्वमे मन्दिग्ध हैं, भाती है, और उसके उल्लासमयी जीवनको मन्दिर दुःग्वस छूटनकं आकांक्षी है, दुःख दूर करने के उद्यमो बना देती है, उसके चित्तको विलक्षण सवालोंमें हैं, तो सब ही इन ममम्याओं को हल करने में सफल क्यों नहीं? भर देती है। ___निस्सन्देह, मब ही दुःखस मन्दिग्ध हैं, दुःखसे काई देश ऐसा नहीं, कोई युग ऐसा नहीं, जहां छूटनेक आकांक्षी हैं, दुःख दूर करनेके उद्यमी हैं। दुःख न हो । दुःखसे भय न हो. दुःखस सन्देह न परन्तु इन सबमें इन सवालोंपर ध्यान देने, इन्हें देखने हा. दुःखले प्रश्न न हो, दुःखसे छुटकारेकी आकांक्षा जानने, इन्हें हल करनेकी शक्ति समान रूपसे प्रकट न हो, दुग्व दूर करने की कोशिश न हो। ये सदा थे नहीं। ये सब ही विभिन्न गुणों वाले हैं, विभिन्न म्व और सदा रहेंगे । यह माना कि बाह्यस्थितिक कारण भाव वाले हैं, विभिन्न शक्तिवाल हैं । यदि इन्हें इन भिन्न भिन्न देशों, भिन्न भिन्न युगोंमें इनके रूप भिन्न रहे गुण, म्वभाव और शक्ति की अपेक्षा विभाजित किया हैं, इन्हें बतलानेकी भाषाएँ भिन्न रही हैं, इन्हें जतलाने जाय तो ये चार गुणस्थानों में विभक्त हो सकते हैंकी परिभाषाएँ भिन्न रही हैं, इन्हें दर्शान की शैलियाँ १ देवैरत्रापि विचिकित्सितं पुरा न हि सुविज्ञेयं मणुरेष धर्मः । भिन्न रही हैं। परन्तु यह निर्विवाद है कि ये मदा थे कठ. उप. १. २१. Page #209 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६० अनेकान्त (१) मिध्यात्वगुणस्थान वाले, (२) मासादन गुणस्थान वाले, (३) मिश्र गुणस्थान वाले, (४) सम्यक्त्वगुण स्थान वालें | ये ऊपर ऊपर एक दूसरेमे बहुत शक्ति वाले हैं, परन्तु यं ऊपर ऊपर एक दूसरे से बहुत कम संख्या वाले हैं I [ बर्ष ४ ये मिध्याधारणा के आधारपर अपनी दुनिया बनाने वाले हैं। ये अपनेको अंधकार में डालकर आगे आगे चलने वाले हैं. ये अपनेको मोहमें गाढ़ कर आशा लग्यानवाले हैं, ये सब ही मिध्यालोक में बसने वाले हैं, मिथ्यालाक में देखने वाले हैं, मिथ्या लोक में लग्खाने वाले हैं, ये सब मिथ्यात्वगुणस्थानीय हैं । इनकी दशा अत्यन्त दयनीय है । ये मिध्यालोकके वासी भी सब एक समान नहीं हैं, इनमें अधिकांश तो कर्मफल चेतना वाले हैं, और थोड़ेसे कर्मचेतना वाले हैं। (क) कर्मफल चेतनावाले जीव मिथ्यात्व गुणस्थान वाले इनमेंसे अधिकांश तो, ऊपर से सचेत दीखते हुए भी भीतरसे जड़सम अचेत हैं, ये ऊपरसे श्वासउच्छवास लेने भी, खाते पीते हुए हुए भी, चलते फिरते हुए भी, भीतरसे निर्जीव-सम बने हुए हैं। ये भीतर में होने वाली तड़पन और गुदगुदाहटसे, भीतर में जगने वाली चेतना और अनुभूनियोंसे भीतर में चुभनेवाली भीतियों और शंकाओं, भीतर में उठने वाली प्रेरगाओं और उद्वेजनाओं, भीतर में बहने वाली प्रवृ तियों और स्मृतियों, बिल्कुल बेखबर हैं। इन्हें पता नहीं कि यह क्या है, क्यों हैं, कैसे हैं। यह भीतरी लोकको भुलाकर बाहिरी लोक में धर्म हुए हैं । अन्नरात्माको खोकर परके बन हुए हैं। । यह अपनेको न देखकर बाहिरको देख रहे हैं. अपनेको न टटोलकर बाहिरको टटोल रहे हैं, अपने को न पकड़कर बाहिरको पकड़ रहे हैं। इनकी सारी रुचि, मार्गे आसक्ति बाहिरमे फंसी हुई हैं, इनकी सारी मति, सारी बुद्धि बाहिरमें लगी हुई है, इनकी सारी शक्ति, मारी स्फूर्ति बाहिग्में फैली हुई है, इनकी सारी कृति, सारी सृष्टि बाहिर में होरही है, इनकी सारी दुनिया बाहिर में बसी हुई हैं, इनका माग विकास बाहिरकी और है। ये अनन्तकालमे बाहिरका अनुसरण करते करते, अनन्तकालसे बाहिरका अनुबन्ध करते करते, अनंत कालसे बाहिरमें रहते रहते बाहिरके ही हो गये हैं, बहिरात्मा होगये हैं। इनका अन्तः लोक अनन्तानुबन्धी मिध्यावसे भरा है, अनंतानुबंधी अंधकार से भरा है, अनंतानुबंधी मोहसे भरा है । ये समस्त एकेन्द्रिय जीव, समम्न वनस्पति जीव, समस्त विकलेन्द्रिय जीव, समस्त कीड़े-मकौड़े, मच्छरमक्खी, मीन-मकर, पशु-पक्षी कर्मफल चेतना (Instinctive subconcious life ) वाल हैं । ये बड़े ही दीन, हीन और निर्बल हैं। ये अपनी मिध्या धारणाकी इस बाहिरी दुनिया इतने दुःखी हैं, इम बाहरी जीवनमे इतने अस्वस्थ हैं कि इनकी सारी दुनिया दुःख ही दुःख है । इनका सारा जीवन दुःख ही 'दुःख है। ये इस दुःखसे इतने डरे हुए हैं, इस डरसे इतने सहमे हुए है कि इन्हें इस दुःख और दुःखभरी दुनियाकी और, इस भय और भयभ दुनियाकी और इस शंका और शंकाभरी दुनिया की और लखाने का भी साहस पर्याप्त नहीं। ये जहां अन्य मिध्यात्वगुणस्थानियोंकी भांति भीतरी दुनिया से विमुख हैं, वहां ये डरके मारे बाहिरी दुनिया से भी विमुग्व हैं, ये बाहिग्से इतने भयभीत हैं से इंद्रियां मूंदकर रह गये हैं, बाहिरसे ज्ञान रोककर रह गये हैं, बाहिरसे अचेत होकर रह गये हैं । इस लिये इनकी समस्त दर्शन-ज्ञान-शक्ति, समस्त स्मरण Page #210 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] जीवनकी पहेली कल्पनाशक्ति, ममम्त तर्क-विचार-शक्ति प्रायः सोई संकल्प किया है, इस दुःग्वकं बीच म्खड़े रहकर हुई होगई है, ग्बोई हुई होगई है। विचारनेका निश्चय किया है; परंतु ये सब भी एक इन्होंने अपने दुःखको झल करनेकी चेष्टामें समान शक्तिधारी नहीं हैं। ममस्त ज्ञानका ही आझल कर दिया है। अपनसं इन मनुष्यों में बहुतसे तो साहस धारकर भी दुःग्व भरी दुनियाको आझल करनेकी चेष्टामे समम्त भयभीत समान बने हैं, इंद्रिय-द्वार खोलकर भी दीखने वाले जगतको ही श्राझल कर दिया है। इतना शून्यसमान बने है, निश्चय करनेपर भी विचारहीन ही नहीं, इन्होंने दुःखमं डरकर, दुग्वको ध्यान देने बने हैं, यह नाममात्रके ही मनुष्य हैं, रूपमात्रके ही वाली, दुःखको सुलझान वाली, दुःग्वस उभारने वाली मनुष्य हैं. ये वास्तव ने पशु ह. है, पशु ममान ही माहस-शक्ति, ममम्त संकल्प-शक्ति समम्त उद्योगशक्ति- ही प्राचार-व्यवहार वाले हैं, पशुममान ही जड़ का ही लाप कर दिया है। इसलिय ये एकन्द्रिय, और मृढ़ हैं, (Idiots) पशुममान ही दीन-हीन और विकलंन्द्रिय होकर रह गये हैं, जड़ मूढ़ हाकर रह निर्बल हैं, पशुममान ही दुःखसे डरने वाले हैं, पशुगये हैं। ममान ही दुःग्वके मामने आंग् मॅदकर रहजाने वाले __ ये इन्द्रिय-द्वार खोलकर भी अज्ञान मम बने हैं, हैं, निलमिलाकर रह जाने वाले हैं, अचेत होकर रह कर्मेन्द्रिय फैलाकर भी नि:पुस्पार्थसम बने हैं। ये जाने वाले हैं, ये पशु-ममान ही कर्म-फल चेतना वाले हैं। मब यन्त्रकी भान्ति अभ्यम्त संस्कागं (Impulses) अभ्यम्त मंज्ञाओं ( Instincts) के सहारे ही कर्मचेतना वाले जीवइन्द्रियोंसे काम लेते हुये अपना जीवन निर्वाहकर शेष मनुष्य जो इम कर्मफलचेतनाक क्षेत्रसे रहे है। इनकी चेतना छुः मुईके समान है, यह जगसी ऊपर उभर चुके हैं, कर्मचेतना ( Active conci आपत्ति आनंपर, जगमा दुःख पड़नपर तिलमिला ous life ) वाले बन है, ये निम्सन्देह संकल्पजाती है, मुर्भा जाती है, अचेत होकर रह जाती है। विकल्प-शक्तिवाले हैं, धैर्य-साहस-शक्तवाले हैं, तर्क इन्होंने अनन्त कालसे अपने साथ इस दुःखका वितर्क-शक्तिवाल है, माच विचार-शक्ति वाले हैं, अनुबन्ध करते करते, इस भयका अनुबन्ध करते उपाय-योजना-शक्तिवाले है, ये बड़े दक्ष और पराक्रमी करते, इम अन्धकारका अनुबन्ध करते करते, अपन- है, बड़े चतुर और चञ्चल हैं, बड़े प्रज्ञ और प्रवीण का ऐस गाढ़ भयमें समाया है, ऐसे गाढ़ अन्धकारमें है। परन्तु, इनकी यह मब संकल्प-विकल्पशक्ति, सब छिपाया है, कि इन्हें चिताये भी चिताया नहीं जाता, धैर्य साहमशक्ति, सब सोच-विचारशक्ति, सब उपायसुझाये भी सुझाया नहीं जाता, दिखाये भी दिखाया योजना-शक्ति बाहिरी सिद्धि के लिय हैं, बाहिरी वृद्धिके नहीं जाता। लिये हैं, बा हरी बाधाओं को दूर करनेके लिये हैं, इन मिथ्यास्थानियोंमें मनुष्य ही ऐसा है, जिसने बाहिरी कठिनाइयोंको हल करने के लिये हैं। इस भयक खालका ताड़कर बाहिर निकलनेका माहस भीतरी वेदनाओं को देखने जानन, भीतरी आशंकाओं किया है, इम अन्धकारको फाड़कर बाहिर लग्वानका को सोचने विचारने, भीतरी आशाओं का पूरा करने, Page #211 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६२ अनेकान्त [ वर्ष ४ 1 होनी जानकर अपनी शंकाओं का अंत कर लेते हैं । ये दुःखकां लिखी हुई विधि जानकर अपने दिलकी सन्तोष देते हैं 1 भीतरी उलझनोंको सुलझाने, भीतरी बाधाओं को दूर करने के लिये इनके पास कुछ भी नहीं। ये भीतरी दुनिया में बिल्कुल अपरिचित है; बिल्कुल अनजान हैं। ये भीतरी समस्यायोंको साक्षात् करने, उन्हें हल करने बिल्कुल ढ समान हैं, जब भीतरी सवाल उठकर अपना उत्तर मांगते हैं, ये उनकी उपेक्षा करके उन्हें चुप कर देते हैं, उनसे मुंह फेरकर उन्हें सुला देते हैं, गां कहनेम ये सब ही कर्मचेतनावाले है, परन्तु अपने सामर्थ्य की अपेक्षा यह भी कई प्रकार के है । इनमे बहुत तो ऐसे निर्बुद्धि हैं, कि वे परम्परागत मार्गपर चलते हुए ही अपनी जीवन नौकाको चला रहे हैं, इनमें न अपना कोई लक्ष्य है, न अपना ध्येय है, न अपनी कोई सूझ है, न अपनी खाज है, न अपनी विचारणा है, न अपनी योजना है। ये किसी भी सवालको हल करनेमें समर्थ नहीं, ये दूसरे की आज्ञा, दूसरे की शिक्षाकं अनुसार काम करनेवाले हैं। ये दूसरंके बताए, दृसरेकं सुझाए हुए मार्गपर चलने वाले हैं, ये दूसरे के बहकाये, दूसरेके उकमाये हुए पुरुषार्थ दिखाने वाले हैं। ये दूसरोंके हाथकं औज़ार हैं, दूसरोंकी इछा के साधन हैं, दूसरोंके शासन के दाम हैं । ये क्षुद्र धैर्य और साहसवाले हैं । ये जरा भी बाधा आजानेपर अधीर होकर रह जाते हैं, जरासी आपत्ति पड़ने पर अवाक् होकर रह जाते है, जगमो उत्तेजना मिलनेपर भक होकर रह जाते हैं। ये दुःखके प्रति आशंकाका भान तो करते हैं, करने, उस परन्तु साक्षात उसे नेमें असमर्थ हैं । ये दुःखको दूर करने मे बेबस हैं, दुःख से बचने में निरुपाय हैं, ये बेचारे क्या करें, दुख के सामने रोधाकर रह जाते हैं, चीख पुकार कर रह जाते हैं, यह दुःखद घटनाको एक अमिट 1 इनमें बहुत से काफी बुद्धिमान हैं, विचारवान हैं। ये अपनी मनचाही चीजोको सिद्ध करनेके लिये, उन्हें सुरक्षित रखने और बढ़ाने के लिये बड़े चतुर हैं, बड़े कार्यकुशल है । ये इनके लिये नित नई तरकीबें मोचते रहते हैं, नये नये उपाय बनाते रहते हैं, नये नये माधन जुटाते रहते है । ये मूढों में सरदार बने हुए हैं, निर्बलों के स्वामी बने हुए हैं, प्रचुर धनदोलन के मालिक बने हुए हैं। इनकी शोभा, इनकी महिमा, इनकी सजधज देखते ही बनती है। ये इस जगत के बढ़े चढ़े जीव हैं, वैभवशाली जीव हैं, पुण्यवान जीव हैं । परन्तु अपनी इस मनचाही दुनिय मे बाहिर, इस चातुर्यकी दुनियास बाहिर, इस ठाटबाटकी दुनियामे बाहिर ये कुछ भी नही । ये निर्बुद्धियों के समान ही निर्बुद्ध है, मृढोंक समान ही मृढ हैं । उनके समान ही दुःखका अर्थ समझने, उसकी शंकाओं को हल करनेमें असमर्थ है। ये दुःख-दर्द पड़ने पर बेबमोंके समान ही राधाकर रहजाते हैं. चीन पुकार कर रह जाते हैं, तिलमिलाकर रह जाते है, अचेत होकर रह जाते हैं। ये बेत्रमोंक समान ही दुःखका एक अ मट होनी मानकर, एक लिखी हुई विधि समझकर अपनी शंकाओंका अन्तकर लेते हैं, अपने दिलका संतोष दे लेते हैं । ये बेबसोंके समान ही दुःखको भुलाने लगे हैं, सुग-सुंदर्ग में लगे हैं, कश्चन-कामिनीमें लगे हैं, भोगमार्गमें लगे हैं, उद्योगमार्ग में लगे हैं । बेत्रमांक समान ही दुःख भुलाने के अलावा, दुःख दूर करनेका इनके पास और कोई साधन नहीं, कोई उपाय नहीं, कोई मार्ग नहीं । Page #212 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] जीवनकी पहेली १६३ बहुनसे मनुष्य ऐसे हैं, जो दुःख पर ध्यान भी विधान करते धर्मात्मा बन जाते हैं, वे उन हीकी देते हैं, इसकी शंकाओंका साक्षात भी करते हैं, इनका संस्थाओं, उनहीकी प्रथाओंकी पाषणा-प्रभावना करते अर्थ समझने की योग्यता भी रखते हैं। परन्तु वे इनका प्रभावशाली बन जाते हैं। वे साम्प्रदायिक दुनियाकी अर्थ समझनेकी परवाह नहीं करते, व बाहिरी दुनिया- वाहवाहमें आनन्दकी चरमसीमा मान गाद में ऐसे लगे है, मोहमायामें ऐमें फंसे है, कि इन साम्प्रदायिक होकर रह जाते हैं। शंकाओं का अध्ययन और अन्वेषण करने के लिये इनमें कोई याज्ञिकमार्गका अनुयायी बना है, उन्हें ननिक भी निकास नहीं, तनिक भी अवकाश काइ तान्त्रिक मागेका अनुयायी बना है, कोई भक्तिनहीं, वे बाहिरमें बड़े उदामी और पुरुषार्थी होते हुए मार्गका अनुयायी बना है। ये सब उमी ममय तक भी भीतरी विचारणामें बड़े प्रमादी और आलमी विभिन्न मम्प्रदाय वाले बने हैं, उमी समय तक हैं। वे दुःखका अंत चाहते हुए भी, म्वुन कुछ विभिन्न क्रियाकाण्ड वाले बनें हैं उसी समय तक भी करना नहीं चाहने । वे दुःखम बचनेक लिये, विभिन्न भाषावाले बने हैं, उसी समय नक दुःग्वको दूर करनेके लिये, किमी किये विभिन्न नामरूप वाले बनें हैं, उमी ममय तक कगये हलके मुतलाशी हैं, किमी बने - बनाये विभिन्न विश्वासों वाले बने हैं, जब तक दुग्यका मार्गक अभिलाषी है । व किमी ऐम उपायक दर्शन नहीं होता । जब दुःग्व श्रा खड़ा होता है, तो इच्छक हैं, जिसके द्वारा वे विना अपनी दुनियाको सबका चित्त एक ही आशंकासे भिदता है, एक ही छोड़े, विना प्रमादका छोड़े, विना परम्पग मार्गको अन्तर्वेदनामे तड़पता है, एक ही जिज्ञासाम अकुलाता छोडे, विना मांचे विचार, विना संकल्प और उद्धाम है । मबका मुखमराहल एक ही रूपका होजाता है, किये, कुछ यों ही कर कगकर, कुछ यों ही पढपढा- वह म्लान और फीका पड़ जाता है । मबका व्यापार कर, दुःखोंसे छट जाएं व इन उपायों को पाने के लिये एक ही मार्गका अनुमरण करना है। मत्र ही गंते. किमी गहगईमें जानेको तय्यार नहीं-वे इन धाते ,चीखतेपुकारते, हाय हाय करते अपनी बेबसी उपायोंको अपने प्रामपाममें ही अपने बाहिर में ही का मबूत देते हैं । ये सब ऊपरी विश्वास वाले हैं, कहीं ढंढ लेना चाहते हैं। इसीलिय व जिन परम्प- ऊपरी उपाय वाले है । ये सब बाहिरी विश्वास वाले गगत विश्वामों (Faiths) जिन परम्परागत उपायों हैं, बाहिरी उपाय वाले हैं। ये सब मिथ्यालांक वाले (Practices) को अपने इर्दगिर्द, अपने निकट है, मिथ्यामार्गी हैं। ये सब मिथ्यात्वगुणस्थानवाले हैं। देख पाते हैं, वे उन्हीको साचा हल मानकर, उन्हींको ज्ञानचेतना वाले जीवमचा उपाय जानकर ग्रहण कर लेते हैं। वे उन्हीं कुछ मनुष्य ऐसे हैं, जो बाहिरी दुनियामें रहते विश्वामोंमें अपनी श्रद्धा जमाकर स्थिरचित होजाते हैं, उन्हीं उपायोंमें जीवनका घटाकर चिन्तारहित । हुए भी, बाहिरी दुनिया में कामधन्धे करते हुए भी, हो जाते हैं। वे उन ही विश्वासवालों-उपाय वालों बाहिरी परम्पगमें चलते हुए भी, बाहिरी दुनियाम बड़े के समान रहत-महत, बोलतं चालते नामरूप धरते, असन्तुष्ट है, बाहिरी अन्धाधुन्धमं बड़े सन्दिग्ध है, क्रियाकर्म करते सम्प्रदायवाले हो जाते हैं । उनहीकं बाहिरी परम्पराओंसे बड़े विकल हैं । ये इस दुनियामें ममान मन्त्रजन्त्र पढ़त, पूजापाठ करते, विधि- अपनी कामनाओंकी तृप्नि नहीं देखते । अपनी Page #213 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६४ भनेकान्त [वर्ष ४ - आशाओंकी पूर्ति नहीं देग्वने । ये यहांकी मान्यताओं सासादन गुणस्थान वालेमें अपनी शंकाओंका समाधान नहीं देखते, अपने मवालोंका जवाब नहीं देग्यत । ये प्रचलित रूढियोंमे । इनमेंस कुछ तो यहांस निकल उसपार जानमें बड़े ही अधीर हैं, ये दुःखसम्बन्धी 'क्यों' 'क्यो' अपनी मिद्धिका माधन नहीं दग्वत, अपने इष्टका मार्ग नहीं दग्यत । उनकी इष्टिम यह दनिया मिवाय आदि मवालों को समझना नहीं चाहतं, ये दुःखभग दुनियास उभग्न के उपाय और मार्गपर विचार करना भूलभुलय्याँके और कुछ भी नहीं, मिवाय बाल-क्रीडा नहीं चाहते, ये यो ही किसी चमत्कार-द्वाग, यों ही के और कुछ भी नही, मिवाय रूढाचालकं और कुछ किमी अतिशय द्वाग, वंदनासे ऊपर उठना चाहते भी नहीं। ये मान्यताम् सिवाय विश्वासके और कुछ भी नहीं, मिवाय अन्धकारकं और कुछ भी नहीं । ये हैं-शिव, शान्ति सुन्दरताको पकड़ना चाहते हैं । ढ़ियाँ, य मम्प्रदाय मिवाय परम्परा और कुछ भी यज्यों ही किसी भीतरी झंकारको सुन पाते हैं नहीं, मिवाय बन्धनोंक और कुछ भी नहीं। ये विश्वाम किमी उचटती अ भाका दंग्य पान है, त्यों ही कल्पना (Faiths). विचारणाको गक गंककर अन्धकारमें के सह सिद्ध मार्ग उसके साथ माथ हा लते हैं। डालने वाले है, ये सम्प्रदाय (Religions) आचरण ये कल्पनाम उमकी तरंगोम मिलकर वहन लगते हैं, को बांध बांधकर बन्धनोम डालने वाले हैं, ये इम उसके म्वगेम घुलकर गाने लगते हैं, उसके रंगमे दुनिया में रहनको तय्यार नहीं, इम अंधकार में पड़न रंगकर दमकने लगते है, उमकं पंग्योंपर चढ़कर उड़न का नय्यार नहीं, ये यहांस वहांकी और यहांम शिव- लगत है। शान्ति सुन्दग्नाकी भोर, अंधकारमे प्रकाशकी ओर, ये बड़े ही भावुक और रमिक है, बड़े ही कवि बंधनसे स्वतंत्रताकी ओर, अपूर्णताम पूर्णताकी श्रार, और कलाकार हैं, ये पतंगकी भान्ति ज्यानिके दीवान बाहिग्स भीतरको पार जानके उत्सुक हैं । इनका मन हैं, भौंरेकी भान्ति आनंदके प्यासे हैं, ये कायल की भीतरसे बड़ा ही सर्चत है, बड़ा ही जागरुक है, यह भान्ति ऊँचे ऊँचे गाने वाले हैं, ये चकारकी भांनि पंछीकी तरह फड़फड़ाता रहता है, कायलकी तरह ऊँचे ऊँचे उड़ने वाले हैं। म्वप्नचर (Soninamगुजारता रहता है, नागक तरह झिल-मिलाता रहता bulist) की भांति मन ही मन ग्चना बनाने वाले है, मरिनाकी तरह बहता रहता है, ये सब ज्ञानचंतना हैं, ये मुग्धकी भांनि मन ही मन आनन्द मनान (Passive concious lite) बाल हैं. ये भीतरी वाल है । वंदना, भीतर्ग शंका, भीनग जिनामा, भीतरी कामना ये सब कुछ हैं, परन्तु ये विचारक नहींकी उपेक्षा नहीं करते, उनकी अवहेलना नहीं करते। भेदविज्ञानी नहीं। ये भावनास भावको जुदा करने ये इनपर अपना ध्यान देते हैं, इनका अनुसरण करतं वाले नहीं, ये धारणासं वस्तुमारको जुदा करने वाल हैं, इनको साक्षात करते हैं, इनके अर्थको ग्वालते हैं, नहीं, ये भावनाको ही भाव ममझ कर उससे संतुष्ट इनके रहस्यका समझते हैं। होने वाले हैं। ये कल्पनाको ही ज्ञान समझ कर Page #214 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] जीवनकी पहेली १६५ उसमें रमन करने वाले हैं, ये धारणाको ही सार चाहते हैं, म्वाश्रित होकर रहना चाहते हैं। ये समझ कर उसम चिमटने वाले हैं, इनका माग जीवन म्वाधारके सहारे ऊपर उठना चाहते हैं, म्वाधारक भावना ही भावना है। इनका माग लोक कल्पना ही सहारे ग्वड़ा रहना चाहते हैं। ये खुली आंखोंस कल्पना है। इनका साग मार धारणा ही धारणा है। वेदन ओंको देखना चाहते हैं। ये आंखें गाड कर ये मब निराधार हैं ये काल्पनिक लोकक पहने इनकी भावनाओंको समझना चाहते हैं, ये ज्ञानबलस इनके मापे छितोंको गाहना चाहते हैं. इनकी शंकाओं वाले हैं, काल्पनिक मारको पकड़ने वाले हैं, काल्पनिक । और ममम्यायोंका परखना चाहते हैं। ये स्पष्ट रूपम अानन्दका लेने वाले हैं । इनका आधार न कोई तर्क है, न कोई बुद्धि, न कार्ड प्रमाण है, न कोई युक्ति । मालूम करना चाहते हैं कि आग्विर ये हैं क्या ? इनका रूप और बनाव क्या है ? इनका कारण ये स्वप्नचरकी भांनि, म्वप्न दृटनपर निगलांक हाजाते और उद्गम क्या है, ? इनका लक्ष्य और प्रयोजन हैं। ये मुग्धी भांति, मदर । नशा ) टूटनेपर क्या है ? इनका उपाय और मार्ग क्या है ? ये लोग निगनन्द हाजाते हैं । ये कल्पना टूटने पर। बड़े ही निर्भीक और माहमी है, बड़े ही त्यागी और बिना पंख हो जाते हैं । ये धारणा दृटन तपम्बी हैं, बड़े ही जिज्ञासु और विचारक है, वई ही पर विना नत्र हा जाते हैं । ये पंम्ब टूटे पंछीके तत्त्वज्ञ और दार्शनिक हैं। ममान धुन्धर्म धुन्धलाये हुये नीचे गिरने लगते है, परन्तु इनममे कूछका तो आयु ही माथ नहीं नीचे गिरने चले जाते हैं, यहाँ तक कि ये फिर हमी देता। ये बेचारे असफल मनांग्थ ही यहांक विदा हा धूलभरी धरणीस प्रा मिलते हैं। फिर इन्हीं बंधनाम जाते हैं। कुछ राग व्याधिक कारण, कुछ घरेलू श्रा बँधते हैं, फिर इन ही दुःग्वोंमे आ फँसने हैं। चिंताओंके कारण, कुछ लौकिक विपनियों के कारण ये बार बार सत्यके निकट पहुंच कर वापिम चले ऐसी उलझनाम फँस हैं, कि उनमें इनका निकास ही पाते हैं, ये बार बार घर के निकट झांक कर वापिस नहीं होता। ये अपना दर्द दिलमें लिये ही चल लौट आते हैं, ये बड़े ही विकल हैं. बड़े ही दुःखी हैं, जाते हैं। ये सब मामादनगुणस्थान वान हैं। ___ कुछ विचारक एस उत्माही हैं, ऐम दृढ संकल्पी हैं, ऐम स्थिरबुद्धि हैं कि वे हजार कठिनाइयों पड़ने मिश्रगुणस्थान वाले पर भी, हज़ार उलझनें बड़ी हानेपर भी अपनी खाज कुछ ही मनुष्य एस हैं, जो इस प्रकार विवश का नहीं छोड़त, यह समस्यायांका किसी न किसी रहना नहीं चाहते, निराधार रहना नहीं चाहने, ये तरह हल करनेम नत्पर हैं, ये अपनी गवेषणाका कल्पना-द्वाग यहांस उड़ना नहीं चाहते, धारणा द्वारा दर्शन ( Philosophy ) रूप मंकालन करनेमे यहांस अलग हाना नहीं चाहतं । ये म्वप्नचरकी कटिबद्ध हैं। भांति भावनाओं को अपनाना नहीं चाहते। अन्धे की परन्तु ये कुछ अपनी भूल-भ्रान्तियों के कारण, भांति इन्हे पकड़ना नहीं चाहते। ये बंद पंछीके समान कुछ पूर्वसंस्कारों के कारण, कुछ पूर्वाग्रहों (Prejuइनके लिये फड़फड़ाना नहीं चाहते। ये स्वाधीन होना dices) के कारण, कुछ अल्पज्ञताकै कारण, कुछ Page #215 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६६ अनेकान्त [वर्ष ४ नासमझीकं कारण, कुछ अधीरताके कारण, कुछ विभिन्न मतोंका जमघटउनावलीके कारण, जीवनको खोजते हुए भी जीवनकं ये मत संशयवादम लेकर सुनिश्चितबाद तक कितने ही पहलुओंको, जीवनके कितने ही तथ्योंको, फैले हुए हैं। ये शून्यवादस लेकर कि 'जोवन बाली दृष्टिसे ओझल कर डालते हैं, दृष्टिम बहिष्कृत कर एक भ्रम है', सत्यवाद तक कि 'जीवन एक सत्ताधारी डालते हैं। इन्हें उनकी मूझ ही नहीं पाती, इन्हें वस्तु है, अनेक रूप धारण किये हुए है। सत्यवादियो उनकी खोज ही नहीं पाती। यह उनकी बजाए में भी अनेक मत जारी है। कोई जीवनको परसत्ताकितने ही भ्रमात्मक पहलुओंका, कितने ही काल्पनिक दमरेका ग्चा हा कहता है। कोई इम म्वमत्तातथ्योंको दृष्टिमें ले आते हैं, ये कितने ही मत्यांशोंको स्वभावम स्वतः सिद्ध मानता है । स्वसत्तावादियोंमें असत्यांशोंसे मिला देते हैं, इन्हें इनका भेद करना भी जड़वाढ लेकर कि सब कुछ दृश्य जगत ही है, ही नहीं पाता, ये खाजके मार्गोंसे अनभिज्ञ हैं, सूझ जीवन उमकी एक मष्टि है, ब्रह्मवाद तक कि 'सब कुछ की विधिन अनभिज्ञ हैं। ये ज्ञानके म्वरूपको नहीं ब्रह्म ही है, जगत उसकी एक मष्टि है', अनेक पक्ष जानते, ज्ञानके मार्गोको नहीं जानते। ये ज्ञानके दिखाई पड़ते हैं । मममका सुविधाके लिये, इन झयोंको नहीं जानते । ये ज्ञान और ज्ञेयकं सम्बन्धको ममम्न मनोंको तीन वर्गोमें विभाजित किया जा नहीं जानते, ये सब हो सत्यके साथ अमत्यको मकता है-१ आधिदैविक, २ आधिभौतिक, ३ मिलाने वाले हैं, सत्य-अमत्यका संमिश्रण करने वाले आध्यात्मिक । हैं, ये सब ही मिश्रगुणम्थान वाले हैं। अधिदैविक पक्ष वाले जीवनको परसना मानते इन सबका ज्ञान अधूग है, इन सबका अनुभव हैं, दुमकी देन मानते हैं, दृमरकी रचना मानते हैं, अधूग है, इन सबका जाना हुआ लाक अधूग है, दुसरंकी माया और लीला मानते हैं, परंतु इनके भी इन सबका तथ्य संग्रह अधूरा है । ये अपने इन कितने ही अवान्तर भेद हैं-कोई बहुदेवतावादी है, अधूरे ज्ञान, अधूरे अनुभव, अधूरे लोक, अधूरं तथ्य कोई त्रिदेवतावादी हैं, कोई द्विदेवतावादी है, कोई के आधार पर ही अपनी मान्यताको बनानेवाले हैं, एक देवता वा एक ईश्वरवादी हैं। इनमें कोई जीवन अपनी दृष्टि को बनानेवाले हैं। इसलिये इनकी मान्यता को जगतशक्तियोंकी देन बतलाता है, कोई शक्तियोंके भी अधूरी है, इनकी दृष्टि भी अधूरी है । अधूरी अधिष्टाना देवनाभोंकी देन बतलाता है। इनमे भी दृष्टियोंके कारण इन्हें पांच श्रेणियोंमें विभक्त किया कोई मौम्य-देवी-देवताओंवी देन बतलाता है, कोई जा सकता है-१ मंशयवादी, २ अज्ञानवादी, ३ भयानक रुद्र-दैत्योंकी देन बतलाता है । कोई धर्मगज विपरीतवादी, ४ एकान्तवादी, ५ सर्वविनयवादी। को इमका अधिष्ठाता बतलाता है, कोई यमराजको ___ इनकी इस बहिष्कारनीनि, अधूरी रीति, अवि- अधिष्ठाता बनलाता है, कोई इन सबके अधिपति, वेकविधिका यह परिणाम है कि इन सबका एक ही विश्वकमों ईश्वरको जीवनका कर्ना-भर्ता ठहगता है। अन्वेषणीय विषय होते हुए भी, इनमें तत्संबंधी प्राधिभौतिक पक्षवालोंमें भी कितने ही मत है, अनेक मत प्रचलित हैं। कोई जीवनका आभास जगतमें करता है, कोई जगत Page #216 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] जीवनकी पहेली १६७ निर्माता प्रकृति में करता है, कोई प्रकृति के पंचभूतोंके इनमेंसे किनको सत्य और किनको असत्य माना बने शरीरमें करता है, कोई शरीरकी इंद्रियोंमें करता जाये । ये सब ही अधूरे मत है-सत्यासत्यमिश्रित है, कोई इंद्रियोंके स्वामी मनमें करता है, कोई मनके मत हैं। ये सब ही विशेषदृष्टि, विशेषज्ञानकी उपज रक्षक प्रागामें करता है, कोई प्राण संचालक हृदयमें हैं। ये सब ही विशेष समस्या, विशेष तर्ककी पूर्ति करता है, कोई हृदयकी बान बताने वाले शब्द (म्फुट) हैं। ये सब ही एक विशेष सीमा तक जीवनक में करता है। सवालोंको हल करने वाले हैं, जीवन के प्रयोजनोंका श्राध्यात्मिक पक्ष वालोंमें भी अनेक मत प्रचलित सिद्ध करने वाले हैं । ये सब ही एक विशेष क्षेत्र तक है, काई जीवनका विज्ञानमात्र मानता है, कोई श्रद्धा- उपयोगी और व्यवहार्य हैं, इस हद तक ये सत्य मात्र मानना है, कोई कामनामात्र मानता है, कोई हैं, परन्तु इससे बाहिर ये सब निरर्थक हैं, एक दूसरेके एक मानता है, कोई अनेक मानता है, कोई नित्य विरोधी हैं, एक दूसरेका खण्डन करने वाले हैं। मानता है, काई अनित्य मानता है, कोई कर्ता मानता इनमेंसे कोई भी सम्पूर्ण सत्यका समावेश नहीं करता। है, कोई अकर्ता मानना है, काई भोक्ता मानता है, कोई भी जीवनके समस्त तथ्यों पर लागू नहीं होता, कोई प्रभाक्ता मानता है, कोई मदाशिव मानना है, कोई भी समस्त तथ्योंकी संगति नहीं मिलाता, कोई मदादुःखी मानता है, कोई निर्वाण-समर्थ मानता कोई भी समम्न तथ्योंकी व्याख्या नहीं करता कोई भी है. कोई निर्वाण-असमर्थ मानना है, कोई स्वावलम्बी समस्त ममस्याओंको हल नहीं करता, इस हद तक मानता है, कोई पराधीन मानता है । सब ही अमत्य हैं। ___ जीवन सत्ताका अनेक मानने वाले अध्यात्मवादी भी विविध मत वाले हैं। कोई जीवको अणुसमान ये यद्यपि अपनी अपनी युक्तियोंसे, जिनके सूक्ष्म मानता है, २ कोई जीवको श्यामकचावल-समान , आधार पर इनका निर्माण हुआ है, सिद्ध हैं, परन्तु छोटा जानता है, ’ कोई इस अङ्गष्ट-परिमाण कहता ___ इनमें कोई भी मत ऐसा नहीं, जो सब ही प्रमाणों, है, कोई इस हृदय परिमाण कहता है, ५ कोई सब ही नयों, सब ही युक्तियोंसे सिद्ध हो, ये यदि विशेष शरीराधार कहता है, कोई विश्वाकार एक प्रमाणसे सिद्ध है, तो दूसरेस बाधित हैं, एक कहता है। सर्कस सिद्ध है, तो दूसरेसे खण्डित हैं। नास्ति न नित्यो न कान्ते कश्चित् न वेदति नास्ति निर्वाणमा हरन्तु अन्धविश्वास-प्रज्ञान-मोहकी बलिहारी, नास्ति च मोक्षोपायः षट् मिथ्यातत्त्वस्य स्थानानि ॥ कि कोई भी अपनी भूलोंका नहीं देखता, कोई भी -सम्मति तर्क ३-५४ (संस्कृत छाया) इन भूलोंका सुधार नहीं करता, हर एक अपने मत २ मुण्डक० उप० २.२.२. पर दृढ़ है, हर एक अपने मतपर हठ-प्राही है । हर ३ यथा ब्रीहिर्वा यवो वा श्यामको वा श्यामक तण्डुलो वा एक अपने मतपर दर्शनशास्त्रकी रचना करनमें एवमयमन्तरात्मन् -शत० ब्रा० १०. ६. ३.१. ' लगा है । हर एक अपने मतपर पन्थ और सम्प्रदाय ४ अङ्ग ष्ठमात्र: पुरुषो मध्य अात्मनि तिष्ठति । ___कठ० उप० ६. ४. १२. १०, खड़ा करनेमें लगा है । हर एक अपनेको सच्चा और ५ 'श्रात्मा हृदये -ततै० ब्रा, ३. १०.८.१. दूसरेका झूठा ठहरानेमें लगा है। कोई भी दूसरेकी Page #217 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६८ अनेकान्त [वर्ष ४ युक्ति सुननेको तय्यार नहीं, कोई भी दूसरेकी दृष्टि नहीं जा सकता ? क्या इसके लिए सब विचारणा दखनेको तय्यार नहीं, सब ओर असहिष्णुता है। व्यर्थ है ? सब परिश्रम निष्फल है ? हर एक अपनको आस्तिक और दूसरेको नास्तिक नहीं, जीवन-तत्त्व अप्राप्य नहीं, जीवन-तत्त्व कहने में लगा है। हर एक अपनको सम्यक्ती और अज्ञेय नहीं। यह हरदम, हर समय अपने माथ दूमरेको मिथ्यानी ठहरानेमें लगा है। हर एक अपन मौजूद है, यह अपन से ही अपनी आशंका उठान को ईमानदार और दृमरको काफिर सिद्ध करने वाला है, अपने ही अपनी जिज्ञासा करने वाला है, लगा है। यह आप ही अपनका जानने वाला है। फिर यह ___ यहां कोई यह साचनको तय्यार नहीं कि, जब जाना क्यों नही जाना ? यह जाना हुअा अनकरूप हम सब ही अपने नित्य विज्ञानमें एक मत हैं, अपने क्यों होजाता है ? इसके दो कारण हैं-(१) जीवन नित्य व्यवहारमे एक मत हैं, तो हम अपने दर्शन की सूक्ष्मता और (२) जीवनकी विमूढ़ता। (Philosophs) में एक मत क्यों नहीं ? जब हम यह जीवन-तत्त्व अपने पाम होते हुए भी अपने मब ही दो और दो को चार कहने वाले हैं, तो हम से बहुत दूर है । यह सूक्ष्मम भी सूक्ष्म है, भीतरस अपने जीवनको एक समान कहने वाले क्यों नहीं ? भी भीतर है । यह अन्तरगुफामें छिपा है, अन्तग्लोक यह किसका दोष है ? जीवन तत्त्वका ? या ज्ञाताका ? में जाकर छिपा है। यह श्रद्धा-धारणामें रहने वाला है, या दोनोंका ? ___ भावना-कामनामें रहने वाला है, प्रेरणा-उद्वेगनामें यहां सब ार विमूढ़ता है, सब ओर वितण्डा रहने वाला है, वेदना-आशामें रहने वाला है, जिज्ञामाहै, सब ओर दर ग्रह है। यहां जीवनतत्त्व एक होते विचारणामें रहने वाला है। यह अत्यन्त गहन है, हुये भी तत्सम्बन्धी-“एक हाथी और पांच अन्धों अत्यन्त गम्भीर है । इसे देखना अामान नहीं, इस के ममान मब ही की दृष्टि भिन्न है. सब ही का तके पकड़ना आसान नहीं । यह बाह्य वस्तुकी तरह नहीं, भिन्न है, मब ही की व्याख्या भिन्न है, सब ही का जो इन्द्रियोंस देखनमें श्राग, बुद्धिम समझमें आए, सिद्धान्त भिन्न है। इम साम्प्रदायिक विमोहमें, इम हाथ-पांवोंस पकड़नेमें आए। यह ता भीतरी वस्तु शाब्दिक घटाटोपमें भला सत्यका अध्ययन कहां, है, यह इन्द्रिय और बुद्धिस दूर है, हाथ पावोंसे परे सत्यका अन्वेषण कहां, मत्यका निर्णय कहां? है। यह अन्तर्ज्ञानद्वाग, निष्ठाज्ञानद्वाग जानी जा जीवन दुर्योधताके कारण सकती है। परन्तु लोक इतना विमढ है कि यह इसे यह जीवन-तत्त्व, जब न लोकप्रसिद्ध बुद्धिमानों बाहिरी वस्तुकी तरह इन्द्रियोंसे देखना चाहता है, के जाननम आता है, न माम्प्रदायिक लोगोंके जानने बुद्धिस ममझना चाहता है, हाथ पावोंसे पकड़ना में आता है, न कवि-कलाकारोंक बोधमें आता है, न चाहता है। यह बुद्धिज्ञान और निष्ठाज्ञानमें भेद विचारकोंकं बोधमें आता है, तो क्या यह अप्राप्य है १ करना नहीं जानता । यह इनके प्रमाणरूपको क्या यह अज्ञेय है ? क्या यह किसी प्रकार भी अप्रमाणरूपस अलग करना नहीं जानता । यह हासिल नहीं हो सकता ? किसी प्रकार भी जाना भ्रान्ति और कल्पनासे ज्ञानको अलग करना नहीं Page #218 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनकी पहेली किरण ३ ] जानता । यह इनकै सुझाये तथ्यों को अलग करना जानता । यह इन तथ्यों में सत्य-असत्यका निर्णय करना नहीं जानता । यह सत्यांशोंका वर्गीकरण करना नहीं जानता । यह विभाजित सत्यांशोंका पारस्परिक संबंध नहीं जानता । यह उनकी सापेक्षिक एकता नहीं जानता। यह उनका सापेक्षिक उपयोग, सापेक्षिक व्यवहार, सापेक्षिक क्रम नहीं जानता । यह उनका सम्मेलन करना नहीं जानता, उनकी संगति मिलाना नहीं जानता । यह सर्वथा हर एक अनुभवको एक जुदा अनुभव मान लेना है। हर एक तथ्यको एक जुदा चीज मान लेता है। हर एक घटनाको एक जुदी घटना मान लेता है। हर एक वस्तुका एक जुदी वस्तु मान लेता है । यह हर एकको आदि अन्त सहित मानता है । इसकी यह विमूढ़ता हो जोवन के जानने में बाधक है, इसकी यह विमूढ़ता ही जीवनको अनेक रूप बताने में सहायक है । फिर कौन है जो इस जीवन-तस्वको जान सकता है ? सम्यक्त्व गुणस्थान वाले जीवन-तत्वको वही जान सकता है, जो दुःखमे निःशंक है, भय से निर्भीक है, जो दुःखके बीच खड़े रहकर दुःखको देख सकता है 1 जो इच्छा - तृष्णा मे निवृत है, बाहिरी जगतमें उदासीन है, जो बाहिर में रहता हुआ भी, चलता फिरता भी, कामधन्धा करता हुआ भी निष्काम है, निःकांक्ष है । जो अन्तर्मुखी है, अन्तर्दृष्टि है । निर्मल बुद्धि है, उज्ज्वल परिणामी है, शान्तचित्त है, जो निर्भय और निरहंकार है । जो मेरे तेरे के प्रपश्व में नहीं पड़ता, जो पुराने और नयेके दुराग्रह १६६ में नहीं पड़ता, जो सदा सत्याग्रही है, सत्य भक्त है, सत्यका पुजारी है। जो सदा श्रप्रमादी और तत्पर है, दृढ़ संकल्पी और स्थितप्रज्ञ है, जो सचेत और जागरुक है, जो साहमी और उत्साही है, जो कठिनाई और अडचनसे नहीं डरता, रंगरूपसे नहीं विचलता, कहे सुनेसे नहीं उबलता | जां ज्ञानी और ध्यानी है, जो देखा-देखीको, सुनासुनाईका, चला चलाईका नहीं मानता, जो खुद हर चीजको अध्ययन करने वाला है, परीक्षा करने वाला है, मनन करने वाला है । जो विवेकबुद्धि है, भेदविज्ञानी है, जो ज्ञानको कल्पना से जुदा करने वाला है, प्रमाणको भ्रमसे अलग रखने वाला है, सत्यको असत्य से पृथक् रखने वाला है, जो भीतरको बाहिरसे अलग करने वाला है, को अनिष्टसे अलग करने वाला है, मतिज्ञानको निष्ठाज्ञानसे अलग करने वाला है। जो विशालदृष्टि है, विशाल अनुभवी है, जां सब ही ज्ञानों द्वारा देखने वाला है, सब ही अनुभवों को जमा करने वाला है, सब ही तथ्योंका आदर करने वाला है, जो किसी अनुभवकी भी उपेक्षा नहीं करता, किसी पथ्यकी भी अवहेलना नहीं करता । जो अनेकान्ती है, जो सब ही अनुभवों, सब ही तथ्यों, सब ही युक्तियों, सब ही दृष्टियोंका समन्वय करने वाला है। जो सब ही की संगति मिलाने वाला है, जो सब ही में पारस्परिक सम्बन्ध रखने वाला है, सापेक्षिक एकता देखने वाला है । किं बहुना, जो प्रशम, संवेग, अनुकम्पा, आस्ति क्य स्वभाव वाला है । जो निःशंका. निःकांक्षा, निर्विचिकित्सा, निर्मूढ़ता गुण वाला है, जो सम्यग्दृष्टि है, जो सम्यक्त्व गुणस्थान वाला है। परन्तु सम्यग्दृष्टि होना आसान नहीं, यह बहुत Page #219 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ मुशकिल है। कोई एक उपाय ऐमा निश्चित नहीं परन्तु ऐमा होना कितना अनिश्चित है, कितना जिससे इसकी सिद्धि होसके, कोई एक समय ऐसा कठिन है, यह बात अध्यात्मवादियोंके बेबसी-सूचक निश्चित नहीं जब इसकी प्राप्ति हो मके, यह न केवल वाक्यों ने प्रगट है, बहुत कुछ बाह्य और श्राभ्यन्तर प्रवचन सुननेसे प्राप्य है, न बहुत शास्त्र पढ़नेसे, यह उपायों, मार्गों, योगों के बतलाने पर भी वह हार कर न पूजापाठसे प्राप्य है न नाम जपन करनेसे, यह यही कहते हैं कि "जिम आत्मा स्वयं वर लेता है-- दीर्घ वेदनानुभूनि, गाढ चितवन, स्वानुभव म्वयं स्वीकार कर लेता है, उसे ही श्रात्माका लाभ अभ्यासके आश्रित है। यह परम्परागत सत-संगति, हाता है । । जिमपर परमेष्ठिकी कृपा होजाती है सत उपदेश, सत् दर्शनकं आश्रित है । ऐसा होते होते उम ही उसकी सिद्धि होती है ।" जिसे दैवयोगमे जिसकी मोहमाया शान्त हो गई है, परिणामोंमें काललब्धि हासिल होगई है, जिमकं भवभ्रमणका निर्मलता, उज्ज्वलता आ गई है, जिमकी दृष्टि बाहिर अंत निकट आगया है, उसे ही श्रात्माका दर्शन हो सं उचटकर भीतरकी ओर पड़ने लग गई है, अपने प्राता है । श्राजीवक पंथके संस्थापक मम्करीगोशाल आपमें ममाने लग गई है, उसे ही इसका भान हो ने तो इम अनिश्चितिक पहलूपर इतना जोर दिया है प्राता है। कि उमने जीवन-मिद्धिको नियति पर ही छोड़ दिया है। उसके मतानुमार श्रात्ममिद्धिके लिये पुरुषार्थ *(अ) उत्तराध्ययनसूत्र २८. १६. (श्रा) तत्त्वार्थाधिगमसूत्र १. २: १.३. करना बिल्कुल व्यर्थ है, आत्मा पुरुषार्थमे प्राप्त नहीं "तत्त्वार्थश्रद्धानं सम्यग्दर्शनम्" १. २. होता, जब नियत समय प्राता है, तब आत्मा म्वयं "तन्निसर्गादधिगमाद्वा" १.३. प्राप्त होजाता है । () क्षायोपशमिकविशुद्धिः देशना प्रायोग्यकरणलब्धी च । १ "ययेवैष वृणते तेन लभ्यस्तस्यैव श्रात्मा विवृणुते तनु चतस्रोऽपि सामान्या: करणं पुनर्भवति सम्यक्त्वे ॥ स्वाम् ||-कठ० उप० २.२३% मुण्डक० उप० ३.२.३. गोमटसार-जीवकाण्ड ॥ ६५० ॥ संस्कृतछाया, २ श्रेयोमार्गस्य संसिद्धिः प्रसादात्परमेष्ठिनः ॥ (६) बाह्यनिमितमत्रास्ति केषाञ्चिद्विम्बदर्शनम् । -स्वामि विद्यानन्द-श्राप्तपरीक्षा ॥ २॥ अर्हतामितरेषा तु जिनमहिमा (प्र) दर्शनम् ॥ २३ ॥ ३ दैवात्कालादिसंलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे । धर्मश्रवणमेकेषां यद्वा देवद्धिदर्शनम् । भव्यभावविपाकाद्वा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ॥ जातिस्मरणमेकेषां बेदनाभिभवस्तथा ॥२४॥ -लाटी संहिता ३-३३. लाटी संहिता-अध्याय ३० ४ उवासगदसाश्रो- Edited by Dr. P. L. Vaidya, Poona 1930-P.238-244. GES Page #220 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बेजोड़ विवाह [ ले० - श्री ललिताकुमारी जैन पाटनी 'विदुषी' प्रभाकर ] जिन दम्पतियोंमें उम्र, शिक्षा, शील, स्वभाव शारीरिक संगठन व स्वास्थ्य श्रादिकी विषमता पाई जाती हो उनका विवाह बेजोर विवाहकी कोटि में है। मसलन वर-वधु वर अवस्था प्राप्त है और बघू बालिका है बधू युवती है और वर बालक है। एक पूर्ण शिक्षित है और एक क़तई निरचर है। एक कमज़ोर है और एक बलिष्ट हैं। एक ज़रूरत से अधिक उम्र और तेज मिजाज़ हैं और एक नम्र और शान्तहृदय है एक अतीव सुन्दर है और एक महान कुरूप है। ऐसे जोड़ों का विवाह ही बेजोड़ विवाहकी श्रेणीमें शुमार किया जाता है। 1 आज हमारे समाज ऐसी अनो और बेटं विवाहों की धूम है और उनमे बने ये दम्पति यत्र नष्ट गोचर होरहे हैं। जिन विद्वान समाज-विज्ञान और वर्तमान प्रचलित भारतीय विवाह संस्थाका गम्भीर अध्ययन किया है, उनका कहना है कि भारतीय घरों में फैले हुए गृहस्थ जीवन के कटु परिणाम और नारकीय बलेश इन्हीं विवाहों का एकान्त फल हैं । कहीं कोई भी ऐसा युगल देखने में नहीं धाता जिसने दाम्पत्य-जीवनका मधुरपल और उसकी पूर्ण सफलता प्राप्त की हो। हर जगह उसका विकृत चौर स्वा भाविक रूप ही देखने में थाना है। ऐसा अनुमान लगाया जाता है कि १०० में ६५ दम्पतियोंका दाम्पत्य-जीवन दु:ग्वान्त होता है और ५ का सुखान्त हो तो हो । घर घरमें कलह और वैमनस्य दिखाई देता है। जिस गृहस्थ जीवन में हम स्वर्गीय सुखकी कल्पना करते है. वहां शांति और दुःखका साम्राज्य है तथा निराशा और उदासीनताकी काली रेखा खी हुई हैं। जहां उल्लास, आनन्द और वाल्हाद होना चाहिए, वहां निरुत्साह, शोक और श्राकुलताका एक छत्र शासन है। हमने कल किसी दैनिक पत्रमें पढ़ा था-एक स्त्री अपने पतिके बेरुखंपनमे जहर खाकर मर गई । थाज किसी पत्रमें पढ़ रहे हैं-- एक महानुभाव पहली स्त्रीसे मन म मिलनेके कारण दूसरी शादी रचा रहे हैं। कल किसी वारमेंगे किसी शहर व हित दम्पतियों का रागही रात में प्राणान्त होगया। रिपोर्ट मिली है फि उनके संरक्षकोंने उनकी इच्छा के विपरीत उनका विवाह किया था । श्रापका एक मित्र श्थापको खबर सुनाता है— पड़ौस में एक १४ वर्ष की बालिका एक वर्ष पहले अमुकमेटी न्याह होकर आई थी। बेचारीके छः महीने से तपैदिनकी शिकायत है। डाक्टर लोग कहते हैं—किसी मानसिक वेदनासे उसको यह बीमारी हुई है। एक बहन अपनी अंतरंग सहेलीको हार्दिक व्यथा और दुःख-पूर्ण ग्राहके साथ कहती है-बहन । स्याह होनेके याद कभी उन्होंने मेरे साथ रु जोदकर बात नहीं की जाने पर्यो ने मुझसे शुरु ही विरक्त रहते हैं। यह सब क्या है ? बेजोड़ विवाहका दुःखद फल और उसका कटु परिणाम ? यो विवाहका सबसे हास्यास्पद और पृथित रूप है वृद्ध-विवाह ? जिस देश और समाज में ऐसे विवादों पर कोई प्रतिबन्ध नहीं हैं समएि वहां अन्याय और अत्याचारको सादर आह्वान किया जाता है। वृद्ध-विवाह वास्तव समाज के लिए एक कलंक हैं, जिसका दाड़ा सुदूर काल तक भी नहीं मिटाया जा सकता। वह व्यक्ति जो अपनी भजनविरागकी अवस्थामें एक अबोध बालिकाके साथ विवासकी दुष्ट भावना रखता है उसमें मनुष्यच तो है ही कहां, शक हैं कि पशुस्व भी उसमें रहा है या नहीं ? कारण पशुओं के समुदाय में भी ऐसा ग्रस्वाभाविक काम कभी नहीं होता । यह तो मनुष्य समाज ही है । ऐसे अमानुषिक आचरण या व्यक्तियोंको भी जगह दे सकता है। वरना वह पशुओं के समाज में भी स्थान पाने योग्य नहीं है। यदि कोई व्यक्ति उम्र पाने पर भी अपनी दूषित वृतियोंको वशमें नहीं रख सकता है और अनाचार खेत स्वछन्द होकर बिहार करना चाहता है तो किया करे, किंतु एक बालिकाकं पविच कुमार-जीवन पर क्यों कुठाराघात करता है ? वह अपनी विषैली इच्छाओंका शिकार नाना उमंगोंमे फले फूल एक Page #221 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०२ अनेकान्त [ वर्ष ४ बालिका-हृदयको क्यों बनाना चाहता हैं? नाम ही के इच्छुक हैं तो अपनी सम्पत्तिको किसी ऐसे काम __ ऐसा करनेस पहले वह गौर करके देखें कि उसके में लगा जाय जो समाज व देशके अर्थ पा सके और उनका अपने ही घरमें उम्मकी षोडशवर्षीया विधवा पत्र-बध यौवन नाम भी रख सके । अगर किसी उत्तराधिकारीके जरिये ही के मध्यान्ह कालमें म्याग और तपस्याका जीवन बिता रही वे नाम रखना चाहते है तो किसी सजातीय बालकको गोद है। उसकी विधवा पुत्री यौवनक प्रभातकालमें ही अपना लेकर यह काम आसानीम कर सकते हैं, एक बालिकाका मोहाग-मिन्दर पोलकर पदाचार और संयमकी शिक्षा दे रही जीवन बर्बाद कर ऐसा क्यों करना चाह रहे हैं ? ऐसे लोग है। उसकी विधवा बहन बालपन में ही अपना सर्वस्व खोकर भी हैं जिनके घरोंमे दो-दो चार चार ब्याहे हय जवान लड़के अपने विरक्त और तपस्वी जीवन से वृद्धावस्थामें बढी हई हैं और ब्याही लड़कियां भी है। दो-दो तीन-तीन छोटे मोटे उस्मकी निरंकश लालमाको धिक्कार रही है। यदि वह अपने पोते दोहते भी खेल रहे हैं। उनकी खुदकी अवस्था भी घरमें यह सब नहीं देग्यता है तो पड़ोसमें देखे और पडोममें ४०-५० की हो गई है । यदि बदकिस्मतीम उनकी गृहिणी भी नहीं देख सकता है तो मोहल्लमें देखे । बस इसम का देहान्त हो जाता है तो १२ वें दिन ही आप उनके घरमे अधिक दूर उस नही जाना पड़ेगा। किन्तु कौन देग्वता है? विवाह की चर्चा सुनने लगेंगे और साथमें यह भी सुनेंगे कि देखकर बायीं ओर अांख फर लगा । यदि उधर भी वही दृश्य श्रजी और तो मब ठाठ है. लेकिन घरवालीके बिना घर सूना है तो दायीं और प्रांग्व फर लंगा, यदि फिर भी वही दृश्य ही मालूम होता है। और फिर ब्राप देखते हैं इन छोटे दिग्वलाई पहता है तो पीछे फिर जायगा । यदि उधर भी वही बाल-बच्चों को संभालने वाला भी कोई चाहियं । बहुओं में दृश्य दिखाई देरहा है तो अपने चर्मनत्र और जाननेत्रको अभी इतनी सुध नहीं है। ऐसा विचार कर रहे हैं-स्पया दोनों हाथोंमें मद लगा, लेकिन पाप और पतनके गहरे ने जरूर हज़ार दो हज़ार अधिक ग्वर्च होगा-कि कोई १८ममुद्र में जरूर कृदेगाधिकार है !! २० वर्ष की अवस्था वाली हाथ लग जाय। अगर ऐसा ही है जो लोग चालीम या इसमे भी आगे की अवस्था प्राप्त तो वे अपने बाल-बच्चोंके लिये किमी नौकरानीको क्यों होजाने पर भी दम्मरी, नीमरी या चौथी शादी करनेके लिये नहीं रख लेते और घर सून। मालूम होता है तो ईश्वर तैयार होते हैं उनके महसे ग्राप क्या सनेंगे? जी इतनी भजनके लिये जङ्गलमे क्यों नहीं चलं जातं ? क सजाबढी जायदाद है. हवेली है - धन सम्पत्ति है। कोई बाल- तीय बटीको ज़र-खरीद पत्नी (?) क्यों बनाना चाहते हैं ? बचा है नहीं। हमारे मरनेके बाद उसे कोई भोगने वाला बहुतप ऐसे महानुभाव ( ? ) भी है जो यह कहने हय भी चाहिये । यदि परमामाकी मर्जी हुई तो यह बुढापा भी भी सुने जाते हैं कि साहब, और तो सब ठीक है लेकिन सफल हो जायगा और हमारा नाम भी रह जायगा। इस हमारे मरनेके बाद हमें कोई रोने वाला भी तो चाहिये । तरह नाम रखनेवालोंको सोचना चाहिये कि वे अपना नाम अफ़सोस ! दुर्भावना और नीचताकी हद होगई ! हम उज्ज्वल कर रहे हैं या कलंकित कर रहे हैं। काम करेंगे बद रोज़ाना मन्दिरमें जाकर यह बोलत है-'भावना जिनराज मामी का और उम्मेद रखेंगे अपने नामकी । नाम रहता है मेरी सब सुग्वी संसार हो। किन्तु हम हमारे क्रियामक सुन्दर पाचरण और कर्नव्य-पालन में तथा देश-सेवा और। जीवनमें हमार मरनेके बाद भी निरपराध अबलाओंको परोपकार से। किन्तु ऐमा नो उन्होंने किया ही कहां? एक तड़फा-तहफा कर मारने की कलुषित भावना रखते हैं। ओर वे निरपराध बालिकाका मर्वनाश-बालहत्या करने जा धिक्कार हैं ! रहे हैं और एक ओर अपनी प्रात्माको पतनकी ओर ले जा देखा जाता है कि वृद्ध-विवाह की स्थिनिमें मुख्यतः दो रहे हैं। मरनेके बाद एक बाल-विधवा उनकी करनीको फूट- कलुषित शत्रियां काम करती हैं । एक तो समाजके कुछ फूट कर रोरही है और समाज उनकी बुढ़ापेकी बढ़ी हुई वासना-पीडित अवस्थाप्राप्त धनीमानी संठ-साहकारोंकी तृष्णा को धिक्कार रहा है। यह नाम रहेगा। हां, किसी भी धन-शकि जिसके जरिये व अपनी मजातीय पुत्रियोंको तरह नाम रहा लेकिन रहा ज़रूर ! अगर वास्तव में ऐसे लोग अपने निकृष्ट प्रामोद-प्रमोदके लिये खरीदनेकी हिमायत Page #222 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] भ्रातृत्व २०३ करतं और इस समाज के धन-लोलुपी लोगों की निकृष्ट महान् उपकार करेंगी जिसके लिये भावी स्त्री-सन्तति सदा और घृणित म्यवसाय-शनि जो अपनी बालिका को बेचकर के लिये उनकी प्रणी रहेगी। रुपये-पैसेसं अपना घर भरना चाहते हैं इस क्रय-विक्रय के बेजोड़-विवाह का ऐसा ही एक और रूप जिसमें घिनौने व्यवसाय के विरुद्ध समाजके कुछ समझदार लोगों बधूकी उम्र बरसे बड़ी अथवा समान होती है। स्त्री-जाति ने खबान्दोलन किया लेकिन वह व्यर्थ माबित हुआ। और पुरुष-जातिके शारीरिक संगठनकी दृष्टि से वरकी उम्र पंचमेल मिठाईकी शानदार जीमनवारोंने और बारातक पांच-छः वर्ष अधिक होनी चाहिये । वरना उनका जोड़ा लम्ब जुलूसों ने उन आन्दोलनों को ऐमा दबाया कि बहुत ही बेढंगा और उपहास-योग्य रहेगा। वधू जहां आन्दोलन करने वालोंको बेतरह मुंह की ग्वानी पड़ी भार विवाह की आवश्यकता और गृहस्थ-जीवनकी बारीकियोंसे बालिका को बेचने और खरीदने वाले महारथी (?) परिचित होने की चंप्टा कर रही है वहां वर उससे अभी मचमुच अपने पुरुषार्थ (?) में सफल हुए और हारह है। कतई अनभिज्ञ है। फलस्वरूप दोनों ही विवाहित जीवनके अफ़सोस ! समाजकी प्राग्वे तो बन्द हैं ही किन्तु कानून सुखम वंचित है। ऐसा देखा गया है कि जो लोग अपने भी ए जुर्मों का कोई प्रतीकार नहीं कर सकता । फिर इस बाल-पुत्रकं लिये बड़ी बह लाना पसन्द करते हैं, उनकी घिनौने व्यापारको बन्द करने वाला कौन है ? ईश्वर । मही पमन्दमें या तो टीके या दहेजमें दी जाने वाली किसी बड़ी नहीं वह भी चुप है । कहावत है ईश्वर उसीकी सहायता रकमका लोभ लिया TTA रक्रमका लोभ छिपा रहता है या बहू पर तुरन्त ही गृहस्थी करता है जो अपनी महायता प्राप कर सकता है । वह देख के भारकी जिम्मेवारी छोड़ देनेकी लालसा लगी रहती रहा है स्त्री जाति कहां तक पुरुषोंके द्वारा किये गये अन्या- है। लेकिन इस लोभ और लालसाके आगे वे यह नहीं चार को सहन करती है और कब उसकी सहनशीलता (?) देखते कि उनकी सन्तान का कितना अहित होरहा है। की हद्द खतम होती है। समय प्रागया है और हमें चाहिये उनका पुत्र अपनी प्रांखोंके आगे एक प्राफत-सी खड़ी कि हद किमीकी महायताके लिये हाथ न पमारें और न देखकर सदा घुलता रहता है और जीवन में कभी नहीं उसकी प्राशा ही रक्वें किन्तु स्वयं ऐसे अत्याचारों का पनप सकता तथा दाम्पत्य सुखसं सदाके लिये वंचित कर मुकाबला करने के लिये खड़ी होजायें । जहां कहीं ऐसे घृणित दिया जाता है। व्यापार-व्यवसाय का मौका श्रावे बालिकाएँ स्वयं मुकाबलंके यह तो हई अवस्था सम्बन्धी विषमताकी बात। यदि लिये तत्पर होजायें और आवश्यकता पड़ने पर अदालत और हम गुणोंकी विषमताके बारेमें विचार करेगे तो भाजके कानून की शरण लें । यदि अदालत और कानूनको रुपयों दाम्पय सम्बन्धमें और भी विकार और बुराइयां नज़र की मठीसे दबा दिया जाय तो वे स्वयं प्रान्म-शक्रिमे श्रावेंगी। लेकिन उनको अधिक विस्तारस लिखनेका न तो अपने विपक्षियों का मुकाबला करें । भले ही उसको अपने समय ही है और न इस छोटे निबन्धमें बखान करनेकी जीवन में घोर से घोर कष्ट क्यों न झेलना पड़े, लेकिन एक गुजाइश ही है। सामान्य तौर पर यही कह देना काफी पिता-तुल्य वृद्ध की वासनाका शिकार न हो, जा अपने होगा कि जिन दो युवक युवतियोंका प्राजन्म-सम्बन्ध स्थाधारमा और कर्तव्य को कतई भूला हुआ है । वह भूल जाय पित होरहा है, सम्बन्ध स्थापित करनेके पहले यह विचार कि विपक्षियों में उसका पिता भी है और भाई तथा चाचा लेना चाहिये कि उनमें कोई ऐसी विषमता तो नहीं है जो भी हैं सचमुच वे पिता और भाई होने योग्य नहीं हैं। उनके जीवन का दुःखित करदे | वे कहां तक आपमके सहअगर दो-चार बहिनें भी ऐसी श्राफ़तके समय अपनी योगमे अपना और देशका उद्धार कर सकेंगे? उनके वीरता और प्रारम- शक्तिका परिचय देंगी तो इन जघन्य जीवन और व्यक्तिस्व में कोई ऐसा अन्तर तो नहीं है जो व्यवसायोंमें हिस्सा लेने वालोंकी तबियत ठिकाने या उनको एक-दूसरेसे कतई पृथक रकग्वे । उदाहरणके तौर जायगी और वे भूल कर भी ऐसे कुकृत्यों में भाग नहीं लेंगे। पर शिक्षा और अशिक्षा ही अन्तरका लीजिये। मान व अपना उद्धार तो करेंगी ही लेकिन अपनी जाति का भी लीजिये आप एक ग्रेजुण्ट पत्रके पिता हैं और आपने उसका Page #223 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०४ अनेकान्त [वर्ष ४ सम्बन्ध किसी लालचसे अथवा अपनी परिस्थितियोंसे मजबूर पुत्रके सिद्धान्तके खिलाफ है। आपका पुत्र प्रापकी बहूको होकर एक पूर्ण प्रशिक्षित लडकीसे कर दिया। मेरा मतलब शुद्ध खादीकी पोशाक पहनाना चाहता है, किन्तु वह इससे यहाँ प्रेजुएट होनेसे सिर्फ डिग्रीप्राप्त करने ही से नहीं है राजी नहीं है। वह उसे ज़ेवर पहनाना नहीं चाहता, लेकिन बल्कि उन सब गुणोंमे है जो वास्तवमें एक ग्रेजुएटमें होने उसका मन कहता है कि वह जेवरोंमे लदी रहे । वह नुकता चाहिए। अाप भी खुश हैं। आपकी गृहस्थी भी खुश हैं। और परानी रूदियोंके पक्ष में है और मौका पडनेपर तदानुकूल घरके भाई-बन्धु भी खुश है। किन्तु यह आपकी कल्पनामें ही रस्म-रिवाज़ करनेक लिये हठ करती है। आपका पुत्र भी न पायेगा कि आपके पुत्र और उसकी बहके अन्तरंगमें बेचारा परेशान है. वह करे तो क्या करे ? ऐसी सैकड़ों ही क्या है ? भीतर ही भीतर उनको किन कठिनाइयों और कठिनाइयां और आपदा उन्के सम्मुग्व उपस्थित होती हैं विमारोंके घात-प्रतिघातका सामना करना पड़ रहा है। दोनों और उनको सुलझातं-सुलझाते ही उनका अमूल्य जीवन एक दूसरेके विचारोंमे भिन्न हैं। आपकी बह आपके पत्रकी ग्वतम हो जाता है। इसी तरह जिन दम्पतियों में म्बी शिक्षित आवश्यकताओं और उसकी विचारधारात्रोम कतई अनभिज्ञ हैं और पुरुष अशिक्षित है नो बेचारी मीकी बहुत ही किरकिरी हैं। आपका पुत्र आपकी बहूके अज्ञान और प्रशिक्षापर है । बम यह ममझिये कि वह अपने जीवनको किमी तरह काट मुंमलाता है, कुढना है और फूट-फूटकर रोता है। किन्तु रही है। उसके जीवन में कोई गौग्व, हर्ष या रम तो बिल्कुल है यह सब आपम कभी कहना नही, इसलिय श्राप उससे ही नहीं। जब हम दो स्त्री-पुरुषोंका सम्बन्ध निश्निन करें बिम्कुल बेखबर हैं। बेचारी बह आपके पुत्रकी बंद-रिवाना नो उनके स्वभाव, शारीरिक मांगटन और स्वास्थ्यकी समानता और उसकी मानसिक वेदनात्रोंका कारण मोचने और हर र की अोर भी हमे अधिकम अधिक ध्यान देना चाहिये । ऐसा मममनेकी योग्यता नहीं रग्वनी। बेचार्ग मन ही मन अपनी कहा जाता है कि आज जो घर-घरमें दुबली, कमज़ोर, बनअयोग्यता पर लज्जित होती है। माना कि आपकी बहू बहुत मिजाज बेढंगी और अस्वाभाविक मंतति देखी जानी हैं उमका अच्छा खाना बनाती है, बड़ी विनम्र है, संवापरायण है, एकमात्र कारण यही है कि विवाह के समय हम इन बातोंकी मन्दर है काम करने में चनुर है, किमीप मगरनी नहीं है बिन्दुल उपेक्षा कर वैउत हैं। म्वभाव-भिन्नताके कारण कभीपौर दिन-रात आपकी, आपके प्रकी और आपके घरकी कभी बडे-बई उपद्रव हो जाते हैं। यहां तक कि दम्पतियों निम्तामें लगी रहती है किन्तु फिर भी ऐसी कोनमी वजह है में किसी एक के अथवा दोनों के जहर खाकर मर जान नकके जो आपका पुत्र उमस सदा विरक्न-सा रहता है। विचार समाचार सन में प्रात हैं । स्वास्थ्य और शारीरिक मंगठनके करने पर वजह यही मालूम होगी कि शिक्षा और प्रशिक्षाके बा में इन ही कहना पर्याप्त होगा कि दो यादमियों के महान अन्तरने उन दोनों हदयोंके बीच एक जबर्दस्त पर्दा बलप्रयोगमें एकके कमजोर और एकके ताकतवर रहनेपर कमडाल रकवा है जिसके कारण दोनों एक दृमोके हृदयको ज़ोरकी जो दुर्दशा होती है वही दुरवस्था दम्पतियों में जो कमदेख नहीं सकते । एमी अवस्थामें दाम्पत्य सुग्व कहां? उसका शोर उपकी होगी। सौंदर्य के सम्बन्धमें भी यह बात है कि स्वप्न भी नहीं देखा जा सकता। वैर, हार्दिक कठिनाइयां सी-परुषों में एक बहुत अधिक मुन्दर और एक बहुत अधिक ही नही गार्हस्थ्य-सावन्धी और सामाजिक कठिनाइयों पर भी करूप होगा नो सन्दर व्यक्ति कुरूपसे घृणा करने लगेगा गौर कीजिये । समय आपकी यह और आपका पुत्र बहुत और दोनों में कभी श्रम और मेल नहीं हो सकेगा। कुछ अवस्था पार कर गये हैं और उनके सामने दो-एक बाल-बच्चे भी खेलने लग है। आपकी बह चाहती है कि इसलिये समाज व उसके मरतकोंको चाहिये कि ऐसे नजर-फटकारसे बचाने के लिये बच्चको किसी मयाने फकीरका बेजोइ विवाहोपर बहुत ही कठोर दृधि रक्खें थोर जहां तक ताबीज पहना दिया जाय लकिन श्रापका पत्र उसके खिलाफ हो सके ऐसे विवाह न होने दें। इससे व्यक्तियोंका भी है। वह चाहती है कि बाचेकी बीमागमें किसी देवताको भला होगा और उनसे बनने वाल समाजका भी हित होगा। सवा मनकी मिठाई चढ़ाई जाय, लेकिन यह बात आपके Page #224 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र-सूरि [ले०-५० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ विशारद ] ( अनेकान्त वर्ष ३ किरण १ से भागे ) रचनामों पर एक दृष्टि "जैन दर्शन' नामक पुस्तककी भूमिकासे और पं० हरगोविंद दासजी लिखित 'हरिभद्र चरित्र' एवं 'जैनग्रन्थावली' श्रादि चरित्रनायक हरिभद्र-सूरिका संस्कृतभाषा और प्राकृतभाषा " से ज्ञात होता है। पुरातत्त्वज्ञ मुनि श्री जिनविजयजीने तो दोनोपर ही समान और पूरा पूरा अधिकार था। ये ही सर्वप्रथम __२६ ग्रन्थोंको हरिभद्र-सूरि-कृत सप्रमाण सिद्ध कर दिया है। श्राचार्य हैं, जिन्होने कि प्राकृत श्रागमग्रन्थों पर संस्कृत- जैन-माहित्यके प्रगाढ़ अध्येता हर्मन जैकोबीका खयाल टीका लिग्बी । श्रे० सम्प्रदायमें ये एक पूर्वधारी अंतिम श्रुत है कि १४४० ग्रन्थोके रचनेकी जो बात कही जाती है, उस केवली माने जाते हैं । इनके पश्चात् पूर्वोका जान सर्वथा में प्रकरणोंकी भी गणना ग्रन्योके रूपमें की होगी और होनी विलुप्त होगया । वेताम्बर जैनसाहित्य क्षेत्रमे इनके ही प्रभाव ही चाहिये, क्योकि प्रकरण भी अपने आपमें स्वतंत्र विषयसे और प्रेरणासे संस्कृत-माहित्यकी श्रोर अभिरुचि बढ़ी और मंगुफित होने के कारण ग्रन्थरूप ही हैं । इस प्रकार ५०-५० मंस्कृत जैनसाहित्य पल्लवित हुआ । संस्कृत भाषापर इनका लोक वाले 'पंचाशक' के १६ प्रकरण, ८-८ श्लोक वाले प्रबल श्राधिपत्य था, यह बात अनेकान्तजयपताका आदि 'अष्टक' के ३२ प्रकरण, १६-१६ श्लोक वाले, 'षोडशक' ग्रन्या परसे भले प्रकार सिद्ध है। अनेकान्तजयपताका ग्रन्थ ' के १६ प्रकरण, एवं २०-२० श्लोक वाली २० 'विशिकाएँ' नत्कालीन सम्पूर्ण दार्शनिक क्षेत्रमें संस्कृत भाषामें मंगुफित भी ग्रन्थोके समूह ही समझना चाहिये । हरिभद्र-सरिके जीवन किसी भी अन्य दार्शनिक ग्रन्यके माथ भाषा, विषय, वर्णन की विशिष्ट घटनाके सूचक 'विरह पदसे अंकित होनेके शैली, और अर्थ-स्फुटता आदिकी दृष्टि से तुलना करने पर कारण 'संसार दावानल' नामक ४ श्लोको वाली स्तुति भी अपना विशेष और गौरवपूर्ण स्थान प्राप्त कर मकता है। अपने आपमें एक ग्रन्थरूप ही होगी। हरिभद्र-सूरि युगप्रधान श्राचार्य . मी लिए कहे जाते हरिभद्र-सूरि-कृत 'तत्त्वार्थ लघुवृत्ति' और 'पिडनियुक्ति' हैं कि इन्होने जैनसाहित्यको हर प्रकारसे परिपुष्ट करनेका नामक दो ग्रन्थ अपूर्ण रूपसे उपलब्ध हैं, तब यह शंका मफल और यशस्वी एवं आदर्श प्रयास किया था। विद्वत्- होना स्वाभाविक ही है कि जब अपूर्ण ग्रन्थ सुरक्षित रह भोग्य और जन-साधारण के उपयुक्त जितने ग्रन्थ इन्होंने सकते हैं, तो अन्य परिपूर्ण १४४४ की मंख्यामें कहे जाने (जितने विषयो पर अमर लेखनीरूपतालका वाले ग्रन्थ क्यो नष्ट होगये? युगप्रधान, युगनिर्माता इस चलाई है, वह श्रापको जैनसाहित्यके चोटीके ग्रन्थकारोंमें महान कलाकारके अन्योंकी रक्षा धर्मप्रेमी जनताने अवश्य अग्रगण्य स्थान प्रदान करती है। इनके द्वारा रचित ग्रन्थो की होगी। मम्भव है कि इस प्रकार प्रकरणोंकी गिनती भी की संख्या १४४४ अथवा १४४० मानी जाती एवं कही अवश्य स्वतंत्र ग्रन्योंके रूपमें की जाकर १४४४ की जोड़ जाती है। वर्तमानमें भी इनके उपलब्ध ग्रन्थोकी संख्या ७३ ठीक ठीक बिठाई जाती रही होगी। खैर, जो कुछ भी हो, गिनी जाती है, जैसा कि पं० बेचरदासजी द्वारा लिखित यह तो निर्विवाद रूपसे प्रमाणित है कि हरिभद्र-सूरिने Page #225 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०६ अनेकान्त [वर्षे विस्तृत-विषय-संयुक्त, विपुल परिणाम संपन्न और अर्थ- व्यवस्थित रूपसे प्रकरणोके रचयिता हैं । व्यवस्थित पद्धति गाभीर्यमय महान् कृतियोके साथ साथ प्रकरण रूप छोटी से शास्त्रीय रूपमें रचित ग्रन्थ ही प्रकरण कहलाते हैं । येन छोटी किन्तु महत्वपूर्ण रचनाएं भी अच्छी संख्यामें की थी। केन प्रकारेण अव्यवस्थित रूपमे लिखित एवं प्रासंगिक सम्भव है कि उनमें से कुछ ग्रन्थ तो इतस्तत: भंडारोंमें और अप्रासंगिक कथाओंसे युक्त ग्रन्थाकी अपेक्षा प्रकरणों अथवा वैयक्तिक ग्रन्थमंग्रहोंमें पड़े हुए होंगे और कुछ का विशेष और स्थायी महत्त्व है। क्योकि इसमें महान् अनेकान्त वर्ष ३ किरण ४ में. इसी लेखमालाके अन्तर्गत कलाकारके अमर साहित्यकी बहुमूल्य कलाका स्फुट दर्शन 'पूर्वकालीन और तत्कालीन स्थिति' के रूप में वर्णित कारणो परिलक्षित होता है । इन्ही विशेषता के कारणांमे चरित्र से नष्ट हो गये होंगे। नायककी कुतियाँ उन्हें जैन माहित्यकारोमें ही नहीं, बल्कि हरिभद्र-सूग्नेि जिस प्रकार संस्कृत और प्राकृत दोनों अखिल भारतीय माहित्यकारोकी सर्वोच्चपंक्तिमें योग्य स्थान भाषाप्रोमें रचनाएँ की हैं, उसी प्रकार गद्य और पद्य दोनो प्रदान करती है, जो कि हमारे लिये गौरव और सम्मानकी ही प्रणालियों का श्राश्रय लिया है । हरिभद्र-मूरिके प्रादुर्काल बान है। के पूर्व भागम रहस्यका उद्घाटन करने वाली नियुक्तियाँ श्राचार्य उमास्वाति. मिद्धमेन दिवाकर, जिनभद्रगणि और चूर्णियाँ ही थीं। वे भी केवल प्राकृत भाषामें ही। क्षमाश्रमण श्रादि विद्वान् श्राचार्योंने प्रकरणात्मक पद्धतिकी इन्होंने ही श्रादरणीय श्रागमग्रन्थों पर मंस्कृत टीकाए जो नीव डाली, हरिभद्र-मृग्नेि उसका व्यवस्थित अध्ययन लिखनेकी परिपाटी डाली। हम प्रकार जेनमा हित्यमें नवीनता किया और उममें अनेक विशेषताएँ एवं मौलिकताएं प्रदान के साथ मौलिकता प्रदान की, जिमका स्पष्ट और महत्वपूर्ण कर उमका गम्भीर विकास किया; और फल स्वरूप श्वेताप्रभाव यह पड़ा कि इनके पश्चात् यह प्रवृत्ति विशेष वेगवती म्बरीय जैन साहित्यको पूर्ण ताके शिखर पर पहुंचा दिया । बनी और सभी श्रागमों पर संस्कृत-टीकाएँ रची जाने लगीं। हरिभद्र-सारने जितना जैनदर्शन पर लिम्वा, लगभग प्राकतका प्रभाव फिर भी इन पर कम नहीं था । यही कारण उतना ही विभिन्न प्रमंगों पर वैदिकदर्शन और बौद्धदर्शन है कि टीकाश्रोमें जहा पर प्राचीन नियुक्तियों अथवा पर भी लिखा । ब्राह्मणमिद्धान्तों और बौद्ध-मान्यताओं पर चणियोंके अंशांको प्रमाण रूपसे उद्धृत करनेकी आवश्यकता की सीमामा करने गम्भीर मीमामा करते समय भी एवं चर्चात्मक तथा प्रतीत हुई, वहाँ पर इन्होने प्राकृत रूपमें ही उस उम अंश खंडनात्मक शैलीका अवलम्बन लेते ममय भी मध्यस्थता. : को उद्धृत किया है। किन्तु ज्या ज्या ममय व्यतीत होता मज्जनोचित मर्यादा और श्रादर्श गम्भीरताका किसी भी गया, त्यो त्यो प्राकृतका प्रभाव कम होता गया और यही अंशमें उल्लंघन नही किया है, यही हमारे चरित्रनायक की कारण है कि आचाराग एवं मूत्रकृताग पर टीका करने वाले अमाधारण विशेषता है। शीलाक सूरिने प्राकृत-उद्धरणके स्थान पर संस्कृत-अनुवाद शॉति पूर्वक और मध्यस्थ भावके माथ अपनी बातको को ही स्थान दिया है। समझाने वालोंमें हरिभद्रका नाम खास तौरसे उल्लेखनीय प्रकरणात्मक शैली और माध्यस्थपूर्ण उच्चता है। कहा जा सकता है कि दार्शनिक क्षेत्रमें इस दृष्टि से प्रोफेसर हर्मन जैकोबी लिखते हैं कि यदि पारिभाषिक हरिभद्र अद्वितीय हैं। जैनदर्शनके सिद्धान्तोका समर्थन अर्थ में कहना चाहें तो कह सकते हैं कि हरिभद्र-सूरि ही करते समय भी अपनी निलिमता बनाये रखना एक आदर्श Page #226 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] हरिभद्र-सरि कला है। जैसाकि 'शास्त्रवार्तासमुच्चय' के तृतीय स्तम्बकमें अषिभ्यो देशना चित्रा तन्मूलैपाऽपि तत्वतः ॥ ईश्वर-कर्तृत्ववादसे स्पष्ट है । तार्किक खंडन-मंडनके वाता- तदभिप्रायमज्ञात्वा न ततोऽर्वागदृशां सताम् । वरणमें भी इतनी श्रादर्शताका पालन करना अपनी सर्वोच्च युज्यते तत्प्रतिक्षेपो महाऽनर्थकरः परः ।। निशानाथप्रतिक्षेपो यथाऽधानामसंगतः । भद्रताका सुन्दर प्रमाण है। पं० बेचरदासजी लिखते हैं कि तद्भेदपरिकल्पश्च तथैवाऽर्वाग्यशामयम् ।। इस दृष्टिसे श्री हरिभद्र-सूरि सदृश समर्थ बोधक मुझे और न युज्यते प्रतिक्षेपः सामान्यस्याऽपि तत्सताम् । कोई प्रतीत नहीं होता है । अनेकान्तजयपताकासे प्रमाणित प्रार्यापवादस्तु पुनर्जिहछेदाधिको मतः ॥ होता है कि ये प्रचंड वादी थे, किन्तु जैसे अन्यवादियोंके ज्ञायेरन हेतुवान पदार्था यद्यतीन्द्रियाः । ग्रन्थोंमें प्रतिवादियोंके प्रति प्रायः विषवमन किया जाता है. कालेनैतावता प्राज्ञैः कृतः स्यात् तेषु निश्चयः ॥ ग्रहः सर्वत्र तस्वेन मुमुक्षणामसंगतः । वैमा ये अपने बहुमूल्य ग्रन्थोंमें करते हुए नहीं पाये जाते हैं। मुक्नो धर्मा अपि प्रायस्यक्तम्याः किमनेन तत् ॥ बल्कि ये तो 'अाह च न्यायवादी', 'उक्तं च न्यायवादिना' -(योगदृष्टिसमुच्चय, १०,११,१३२, १३६, १३०, 'भवता ताक्किच ट्टामाणना', 'न्यायविदा वातिके', 'यदुक्तं १३८, १३३, १४७, १४६) सूक्ष्मबुद्धिना' इत्यादि श्रादर-सूचक शब्दोंका उपयोग करते भावार्थ-हे भाइयो ! शब्दजालमय ये सब विकल्प हुए देग्वे जाते हैं । इससे स्पष्ट है कि जो समर्थ होता है, अविद्या-प्रशानसे उत्पन्न हुए हुए हैं: इन सबका मूल आधार वही इतना धैर्य और उच्चताका पालन कर मकता है। इस कतर्क है जिससे कि अाज तक कुछ भी सार नहीं निकला प्रकार प्राचार्य हरिभद्र-सूरि प्रखर वाग्मी, गंभीर दार्शनिक, है। जैसे कि एक पागल हाथी पर बैठे हुए श्रादमीने कहा और अजेयवादी थे, यह बखूबी साबित होजाता है। कि मार्गमेंसे मब हट जात्रो, अन्यथा यह हाथी चोट माप्रदायिक विष, और मताग्रहमे उत्पन्न होने वाले पहुँचावेगा। इस पर एक कुतार्किकने विकल्प उठाये कि कलह, मतभेद, अदूरदर्शिता, अबन्धुत्व भाव, ईर्षा, द्वप हाथी समीपमें आये हुएको प्राप्तको-मारता है या दूरस्थ श्रादि मानवता-नाशक दुर्गुणोंका समूल नाश होजाय, यह अप्राम–को भी मारता है ? यदि प्राप्तको, तो तुन्हें ही हरिभद्र-सूरिकी प्रातरिक इच्छा थी; और यही कारण है कि क्यों नहीं मार डालता है, तुम तो पाप्त हो; यदि अपाप्तको वे अपने योगदृष्टिसमुच्चयमें सर्वधर्म-समन्वय और सर्वबंधुत्व मारता है, तो फिर दूर हटनेसे क्या लाभ ? अप्राप्त अवस्था भावनाका सुन्दर और भावपूर्ण उपदेश देते हुए दिग्वाई में भी मार मकेगा। इस प्रकारके कुतर्कोसे अन्तमें वह देते हैं। उनकी सर्वबन्धुत्व भावनाका स्वरूप उनके अपने हाथी द्वारा मार डाला जाता है, वैसे ही श्रद्धा-सम्बन्धी कुतकं शब्दोमें ही इस प्रकार है: भी श्रात्माका सत्यानाश कर डालता है। भविद्यासंगताः प्रायो विकल्पाः सर्व एव यत् । भिन्न भिन्न महापुरुषांकी जो भिन्न भिन्न तरहकी देशना तद्योजनात्मकश्चैषः कुतः किमनेन तत् ॥ देखी जाती है, उसका मूल कारण है-शिष्योंकी अथवा जातिप्रायश्च सर्वोऽयं प्रतीति-फल बाधितः । तत्कालीन जननाकी आध्यात्मिक विभिन्नता । क्योंकि वे हस्ती व्यापादयस्युक्तौ प्राप्ताऽप्राप्तविकल्पवत् ॥ चित्रा तु देशनैतेषां स्याह विनेयानुगुण्यतः । महात्मा ( महावीर, बुद्ध, कृष्ण, कपिल, गौतम, कणाद, यस्मात् एते महारमानो भवग्याधिभिषग्वराः ।। पतञ्जलि, आदि श्रादि ) आध्यात्मिक व्याधियोंके योग्य वैद्य पद्वा तत्तसायापेक्षा तस्कालादि नियोगतः । और ज्ञाता थे । अथवा उन्होंने भिन्न भिन्न द्रव्य, क्षेत्र, काल, Page #227 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २०८ अनेकान्त [वर्ष ४ भाव, नयादि दृष्टियोंके कारणसे भिन्न भिन्न देशना दी है; नहीं होमकता है, क्योंकि यह महात्मा बुद्धका कहा हुआ है। किन्तु उनका मूल श्राधार तो मुक्ति ही था । इसलिये विना एवं च शून्यवादोऽपि तद्विनेयानु गुण्य त:। पूर्ण अभिपाय जाने हमारे जैसे अल्पशों द्वारा उनका खंडन अभिप्रायत इत्युक्तो लक्ष्यते तत्ववेदिना ॥ शा. स्त. ६, ६३ किया जाना निस्संदेह महान अनर्थकारी ही सिद्ध होगा। जिस प्रकार अंधो द्वारा चन्द्रमाका केवल कल्पना द्वारा इसी प्रकार यह शून्यवाद भी अनेक मुमुक्षुओके हितके लिए ही उस तत्त्वज्ञ महापुरुष द्वारा कहा गया प्रतीत होता है। विभिन्न वर्णन किया जाना पूर्ण मूर्खता ही है, उसी प्रकार अन्ये ग्यारव्यापयन्स्यवं समभावप्रसिद्धये । हमारे जैसों द्वारा उन देशनाओके सम्बन्धमें भेद-कल्पना अद्वेतदेशना शास्त्रे निर्दिष्टा न तु तत्वतः ॥ करना पूर्ण मूर्खता ही है । जहाँ सामान्य पुरुषका प्रतिक्षेप शा० स्त०८,८ करना भी अमंगत है, वहीं इन महान् पुरुषोके सम्बंधमें माराश यह है कि कदाग्रहसे ग्रमित जनताकी विषमप्रतिवाद करनेकी अपेक्षा तो जिव्हा-छेद करना अधिक वृत्ति, समताभावरूपमें परिणति करे, इसी सद्देश्यको श्रेयस्कर है। विचार करो कि यदि तर्क-द्वारा अतीन्द्रिय लेकर भारतीय-शास्त्रोमें अनवादी देशना दी गई है। पदार्थोका वास्तविक ज्ञान हो सकता होता तो श्राज दिन पं० बेचरदासजी लिखते हैं कि श्री महावीर स्वामीके तक ये तार्किक शंकाशील क्यों रहते ? इसलिये मुमुक्षुश्री शामन संरक्षक श्राचार्यों से ऐमा उदार मतवादी, ऐमा के लिये किसी भी प्रकारका कदाग्रह रखना सर्वथा असंगत समन्वयशील निरीक्षक कोई हुआ है तो ये हरिभद्र ही हैं । है। विचार तो करो, यदि मुक्ति चाहते हो तो इन सब इनके पश्चात् अद्यावधि किमी माताने जैन श्राचार्यों में इतने विकल्पी, मेद-भावनाओ. और एकान्त-मान्यताप्रोको उदार, लोकहितकर, और गंभीर निरीक्षक को जन्म नही छोड़ना पड़ेगा: तो फिर तर्क और विकल्प कैसे उपयोगी दिया है। ठहरे? श्राचार क्षेत्र में फैली हुई अव्यवस्था, दुराचार, और पाठकवृन्द ! देखिये, कितनी श्रादर्श सद्भावनाएँ और भ्रष्टाचारका भी हरिभद्र-सूरिने कमा निराकरण किया है, कितनी समुन्नत, उदार और विशाल सुदृष्टि हरिभद्र-सरिकी " यह पहले लिखा जा चुका है। थी। यही भद्रवृत्ति हम आपके अन्य सद्-अन्यों में भी पाते इस प्रकार हरिभद्र-सूरिमें मध्यस्थता, उदारता, गुणहै। शास्त्रवार्ताममुच्चयमे आप लिखते हैं कि ग्राहिता, विवेकशक्ति, भक्तिप्रियता, विचारशीलता, कोमएवं प्रकृतिवादोऽपि विज्ञेयः सत्य एव हि । लना, चारित्रविशुद्धि और योगानुभूति श्रादि अनेक गुण कपिलोक्तत्वतश्चैव दिव्यो हिस महामुनिः । विद्यमान थे-ऐसा प्रतीत होता है। बौद्धोके प्रति इनका शा. स्त०३, ४४ अर्थात्-यह प्रकृतिवाद भी सत्य ही समझना चाहिए, __ क्रोध अंतिम क्रोध था, ऐसा भी ज्ञान होता है । इसके प्रमाण क्योंकि यह महर्षि कपिलका कहा हश्रा है, जो कि दिव्य में प्रशम रस पूर्ण 'समराइच्चकहा' रूप कृति सामने विद्यमान महामुनि थे। हैं । इन्होने जैनसाधुभिक्षा, जैनदीक्षा आदि विभिन्न विषयों "न चैतदपि न न्यायं यतो बुद्धो महामुनिः ॥ पर अपने सुन्दर और भावपूर्ण विचार अष्टक, षोडशक, शास्त. ६.५३ और पंचाशक आदि में भली प्रकारसे व्यक्त किए हैं। इससे तात्पर्य यह है कि यह बौद्ध-विज्ञानवाद भी असत्य स्पष्ट सिद्ध हो जाता है कि ये रुढि-प्रिय नहीं थे, अपितु Page #228 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] हरिभद्र-सूरि २०६ विचारपूर्ण विचारोंके अनुयायी और अनेक कवि सुधारक कलाकारको विशिष्ट कलाका ही द्योतक है। थे । तत्कालीन क्रिया संबंधी अंधकारको अपने ज्ञान, और ललितविस्तरावृत्तिमें, बौद्ध श्रादि सभी दर्शनोंके चारित्र-द्वारा विनष्ट करनेका इन्होने सफल प्रयास किया था। मिद्धान्तोंकी संक्षेपमे किन्तु मार्मिकताके साथ मीमासा करते रचना-प्रणालीकी विशेषता हुए, अर्हदेवकी श्राप्तता और पूज्यता गंभीर और हृदयंगम हरिभद्र-सूरिने साग्व्य, योग, न्याय, वैशेपिक, अटूत, रीतिसे स्थापित करनेका प्रयास किया है । चार्वाक, बौद्ध और जैन आदि सभी दर्शनाकी श्रालोचना- अनेकान्तजयपताकामें बौद्धोका काफी प्रतिक्षेप है। प्रत्यालोचना की है, किन्तु अपनी प्रकृति-उदारताका कही ममग्र कुतर्कोका अच्छे दंगसे निराकरण किया गया है। पर भी उल्लंघन नही होने दिया है। भारतीय मी दर्शन स्यावाद पर होने वाले सभी आक्षेपांका योग्य उत्तर दिया धाराश्रा पर विद्वतापूर्वक मीमासा और आलोचना करते गया है । अतवाद एवं शब्दब्रह्म पर भी विचार किया समय भी तटस्थवृत्ति रखना निश्चय ही आदर्श और अनु- गया है। श्री जिनविजयजीने लिखा है कि 'अनेकान्त करणीय है। जयपताकाग्रन्थ', वासकर भिन्न भिन्न बौद्धाचार्योंने अपने जैनदर्शनके मौलिक सिद्धान्तरूप स्याद्वाद पर अन्य ग्रन्थोमे जैन धर्म के अनेकान्तवादका जो खंडन किया है, बौद्ध एवं ताकिका-द्वारा किये जाने वाले तार्किक एवं उसका उत्तर देने के लिए ही रचा गया था। ताकिंकचक्र दार्शनिक विकल्पात्मक हमलाका उसी पद्धतिसे और वैमा चुडामणि आचार्य धर्मकीर्तिकी प्रखर प्रतिभा और प्राञ्जल ही प्रबल और प्रचंड उत्तर देने वाले सर्व प्रथम यदि कोई लेवनीने भारतके तत्कालीन सभी दर्शनोके साथ जैनधर्म के जैन नैयायिक दृष्टिमं पाते हैं, तो ये हरिभद्र और भट्ट ऊपर भी प्रचण्ड अाक्रमण किया था। इसीलिए हरिभद्रने अकलंकदेव ही हैं। स्यावाद पर किये जाने वाले दोषो जहो कही थोडामा भी मौका मिला, वहीं पर धर्मकीर्तिके का परिहार जैमा इन दोनों प्राचार्योने किया है, बैंमा ही भिन्न भिन्न विचारोकी मौम्यभाव पूर्वक किन्तु मर्मान्तक करते हुए हमचन्द्रने भी इस उज्ज्वल मिद्धान्तको निदोष रीनिस चिकित्मा कर जैनधर्म पर किये गये उनके आक्रमणों प्रमाणित किया है। का सूद सहित बदला चुकवा लेनेकी सफल चेठाकी है।" योग-साहित्यमें भी जैन विचार-धाराका खयाल रखते जैनसमाजको तर्कात्मक प्रमाणवादकी ओर आकर्षित हुए अपनी महत्त्वपूर्ण नवीनता प्रदर्शित की हैं। नि:संदेह करनेके लिए हरिभद्रने सुप्रसिद्ध बौद्ध विद्वान् दि नागकृत इनकी समुज्ज्वल कृतियांसे भारतीय साहित्य गौरवान्वित 'न्यायप्रवेश' पर एक विद्वत्तापूर्ण टीका लिखी। इस प्रकार हा है। श्रद्धेय पं० सुखलालजीके शब्दोंमें इनके ग्रन्थ जैनसमाजको बौद्ध दर्शनके अध्ययनकी ओर आकर्षित हमारी सारी जिन्दगी तकके लिए मनन करने और शास्त्रीय किया । जैसा इनका भारतीय दर्शन शास्त्र पर अधिकार था, प्रत्येक विषयका जान प्राप्त करने के लिए पर्याप्त हैं। इन वैमा ही व्याकरण शास्त्र पर भी इनका पूरा पूरा अधिकार की युगप्रधानत्वरूप ख्यातिका मूल कारण श्राचार क्षेत्रमे था । यही बात मुनिचन्द्रसूरिने लिखी है कि हरिभद्र-सूरि विशेषता और पवित्रता लाने के साथ साथ साहित्य-सेवा भी आठ व्याकरणोके पूर्ण ज्ञाता थे । है। चारों अनुयोगो पर सफलतापूर्वक साहित्यका निर्माण हरिभद्र-कालमें संस्कृत भाषा अपने पूर्ण प्रौढ़ साम्राज्य करना, और उसमें विशेषताके साथ स्थायित्व लाना अमर का श्रानंदोपभोग कर रही थी। इसी कालमें काव्य, नाटक, Page #229 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१० व्याकरण, न्याय, धर्म, कथा, कोश, छंद, रस, अलंकार, श्रात्मिक और दार्शनिक ग्रन्थों द्वारा संस्कृतभाषा हर प्रकार से परिपूर्ण, पुष्ट और सर्वाङ्गसुन्दर बन गई थी। यही कारण है कि इस कालने हरिभद्र-सुरिको संस्कृत में ग्रन्थ रचना करने, जैनसाहित्यको हर दिशामें वैदिक और बौद्ध साहित्य की समकक्षता में लाने, तथा साहित्यिक धरातलको ऊँचा उठाने में हर प्रकारकी प्रेरणा और उत्साह प्रदान किया । पर्य यह है कि संस्कृत साहित्यकी दृष्टि से यह काल हरिभद्रसूरि के लिए एक सुन्दर स्वर्णयुग था । कहनेकी श्राव भाग्य - गीत [ रचयिता - श्री 'भगवन 'जैन ] अनेकान्त [ वर्ष ४ श्यकता नहीं कि हरिभद्रने इसका अच्छा उपयोग किया और अपने पवित्र संकल्प में श्राशासे भी अधिक सफलता प्राप्त की। संस्कृत के गद्य और पद्य दोनों प्रकारके साहित्यने हरिभद्रको प्राकर्षित किया और तर्कशास्त्र तो इनको अपने आपमें सराबोर ही कर दिया। यही कारण है कि श्राप इतने सुन्दर ग्रन्थ विश्व-साहित्यके सम्मुख रख सके । निस्संदेह हरिभद्रका साहित्य भारतीय साहित्य एवं विश्व दार्शनिक साहित्यके सम्मुख गौरव पूर्वक कंधे से कंधा भिड़ा कर खड़ा रह सकता है। (पूर्ण) किस्मतका लिखा न टलता है ! हर बार टालने का प्रयत्न, देता हमको सफलता है ! स्मितका लिखा न टलता है !! ये कृष्ण और बल्देव बड़े, योधा भी और भाग्यशाली ! पर, हुआ द्वारिका-दहन जभी, चेष्टाएँ गई सभी खाली ! जलनिधिको लाये काट-काट, लेकिन जल भी वह जलता है ! किस्मतका लिखा न टलता है !! वह सीता - महासती कहकर, हम जिसको शीश झुकाते हैं ! रोती है उसको सब जनता, जब राम विपिन ले जाते हैं ! फिर वही प्रयोध्याका समाज, श्रानेपर जहर उगलता है ! किस्मतका लिखा न टलता है !! जना - सतीका विरह जहाँ, पवनंजयको था दुखदाई ! फिर जरा भ्रांतिकी आड़ मिली, तो वह कठोरता दिखलाई ! दानवता उसको कहें या कि, हम कहें भाग्यकी खलता है ! किस्मतका लिखा न टलता है !! जब बड़े-बड़े इसके नागे, थककर हताश हो रहते हैं ! तो हम-तुम तो क्या चीज रहे, जो सूखे तृण ज्यों बहते हैं ! हम इसके पीछे चलते हैं, यह श्रागेश्रागे चलता है ! किस्मतका लिखा न टलता है !! Page #230 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ्रातृत्त्व [ लेखक-श्री 'भगवत्' जैन ] छोटा था, उतनी ही नम्रता, शीलता और बुद्धिमत्ता इम कहावतको गलत साबित करने के लिए ही उसकी बड़ी थी । भाईके लिए उसका हृदय जितना शायद वे दोनों थे, कि ताली एक हाथसे नहीं बजती। ही कोमल था, कमठका उतना ही-अपने प्रेमपूर्ण पोदनपुर के महागजा अरविन्द के प्रधानमंत्री महोदरक लिए वछ । मरुभूतिका मन नवनीत था, थे-विश्वभूनि । विश्वभूतिकी स्त्रीका नाम था- तो कमठका था नीरस पत्थर ! अनुधरी । और वे दोनों उसीके पुत्र थे । बड़े कवर स्वभावका वह अच्छा नहीं था, और मूर्ख तो था माहबका नाम था-कमठ, और छोटेका मरुभूति। ही। माथ ही उसमें जो सबसे बड़ी बुराई थी, वह शादी दोनों की हो चुकी थी । न होनकी तो कोई बात यह थी कि वह ममभूतिको अपना शत्र समझता था, ही नहीं थी, प्रधान-मंत्रीक पुत्र जो ठहरे ! जब कि मरुभूति उसे अपना बड़ा या पूज्य ! और __ करुणा थी कमठकी स्त्री, और वसुन्धरी, कंवर देवताकी तरह पूजता था। मरुभूतिकी पत्नी । स्त्रियाँ दोनोंकी भली थीं । जेठानी मरुभूनि चाहता-भाईकी प्रमन्नताके लिए अगर देवरानीमें द्वन्द होता नहीं देखा गया। मम्भव है, जलनी-ज्वालामें भी कूदना पड़े तो दुःखकी बात नहीं। दोनोंके आगे ऐमा मौका ही दरपेश न हुआ हो। इस उनका 'चत्त, शरीर दुःम्बी न रहे। लिए कि दोनोंकी अट्टालिकाएँ जुदा जुदा थी, लेकिन और कमठ मोचना-अधिकमे अधिक दुग्वः एक-दूमरीम मिली हुई । हा मकना है. मन मिल हाने इम उठाना पड़े तो अच्छा। की वजह भी यही हो। पना नहीं क्यों ? पर कमठ, मरुभूतसं जलता __ पर, दोनों भाइयोंम वैमी बात नहीं थी ! व एक था खूब । केवल मन ही मनमें जलता कुढ़ता रहता दरख्तकी वैसी दो शाम्बाओं की तरह थे, जिनमें एक हो, सो बात नहीं । वह मब भी करता, जा कर सकता, का मुंह पर्वकी तरफ, ता दुसरीका पश्चिमकी ओर। जिनमें मरुभूनिका दुःख पहुंचे, पीड़ा मिले । या कह लीजिए-वह विप्र-ममुद्रमं निकले हुए दो पर, रहे दोनों अपने अपने रास्ते पर अडिग । रत्न थे-अमृत और विष । न उसने अपनी दुर्जनता छोड़ी, और न ममभूतिने ___ मरुभूतिको अगर 'अमृत' कहा जा सकता है, तो अपनी सज्जनताको हाथसं जाने दिया। कमठको 'विष' कह देनमें जग भी मंकांची जरूरत * * * * नहीं । कमठ बड़ा था तो उसकी दुष्टता, पशुता और उस दिन अचानक दर्पण देखने वक्त विश्वभूति मुखना भी छोटी नहीं थी। और मरुभूति जितना की नज़र अपने मफेद बालों पर जो गई तो घबड़ा Page #231 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१२ अनेकान्त वर्ष ४ गये एकदम ! मौतका मियादी नोटिस जो था ! तब बात और थी। श्राजकी तरह नहीं थी, कि मौतके दिन बीतते चले गये ! नो टम पर विजाबी म्याही पोत कर ममम लिया मरुभूतिन जिस योग्यताका-सचिव-कार्यमेंजाय कि हमने मौनको ठग लिया। ___परिचय दिया, वह न सिर्फ राज्य के लिए अच्छाई ही ___ तब अक्मर माधु-प्रकृनिके बड़े लोग बुढ़ापा आने साबित हुई, वग्न उमने महागजके मन तकको मुग्ध के पेश्नर ही योगाभ्यामकी तैयारी शुरू कर देते थे। कर दिया। मम्भूनिका चातुर्य, जहां महागज के दानों पुत्रोंका लेकर विश्वभूति महागजकी संवा श्राह्लादका विषय था, वहां कमठकी मरुभूतिक प्रति में उपस्थित हए । और अपनी यह अभिलाषा उनके होने वाली नित्यकी दुर्जनताके सबब शंकित भी रहा सामने रग्वी, कि-मैं अब मंत्रित्वकं भाग्न अवकाश करता था। चाहता हूँ, मेग म्थान, दोनोंमें जिसे आप पसन्द बातों ही बातोंमें उस दिन पूछ बैठे-'प्रधानजी! करें, दनकी दया करें। आशा है ये लोग मुझसे आप कमठके दुव्यवहारको क्यों सहते चले जा रहे अच्छी वा कर आपको प्रसन्न, और गज्य-नींवको हैं ? प्रतिकार करना क्या पाप है ? उसे तो प्रोत्साहन मजबूत करेंगे। अलावा इमक मुझे ईश्वगगधनका मिलना है !" आज्ञा दी जाय, क्यों कि मेरे जीवन का अब तीसरा मरुभतिको बात छू-सी गई । वह नहीं चाहताप्रहर प्रारम्भ हो चुका है।' उसके भाई के लिए कोई कुछ कहे। मन उग्र हो उठा, कुछ हील-हुज्जत और टालमटूल के बाद महागज जैसे सागर के अन्तम्तल में बड़वाग्निका दौर चला हा ! ने प्रधान-सचिवको छुट्टी देते हुए, उनका पद मरुभूत ताहम बड़े संयमसे काम लेते हुए बोला-'आप को मौंपा । कमठको खलना, मखनास महागज अन- शायद ग़लत गम्ते पर है-महाराज ! बड़े भाईका भिज्ञ न थे। जन-माधारणकी तरह ही उन्हें भी कमठ अपने पुत्र-तुल्य अनुजके प्रति दुव्र्यवहार हा भी की अवांछनीय-चेष्टाओंका पता था। व उसके विषय सकता है, मुझे इसमें भी शंका है ! वे बड़े हैं, पूज्य मे बहुत-कुछ सुनते आ रहे थे । और सुनन-भग्ने हैं ! उनके मनमें मेरे लिए ममता हो सकती है, न उन्हें उमक प्रति कठोर बना दिया था। जहां कमठ कि बुग भाव ! उनकी प्रकृति नरम ज़रूर नहीं है, की बुगई उनकं कानों तक पहुंची, वहां मरुभूतिकी पर वे बुरे नहीं हैं। मुझे उनसे कुछ शिकायत नहीं।' सज्जनता भी हृदय पर अंकित हानसे वंचित न रह महागज चुप रह गए ! सकी। अप्रत्यक्ष रूपमे ही वे मरुभूतिके प्रति दयालु कुछ दुग्व भी हुआ कि मरुभूति स्वयं ग़लत और श्रद्धालु बन चुके थे। गस्त पर होते हुए भी, ठीक बानका नहीं मानताहषसे भरे हुए विश्वभूनि, विश्व-विभूतिम विरक्त इस बातका ! उन्होंने ममझा-छोकग है, दुनियाबी घर लौटे । जिम आशाको लेकर वे दबारम गये थे, तजुर्बा श्राए कहाँ से ? उसकी पूर्ति उनके माथ थी। इमी ममय सेनानायकन सभामें प्रवेश किया ! अभिवादनानन्तर उसन उन तैयारियोंका जिक्र किया, Page #232 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] प्रांतृत्व २१३ जो प्रतिद्वन्दी वनवीर्य पर चढ़ाई करनेके लिए की नये-नये ढंग, नये-नये तरीकेसे अत्याचार करते रहने गई थीं! पर भी, मनमें-मनकं एक भीतरे कोनमें-सदा __ महाराजकं ज़रा दुःखित हुए हृदयका दूसरी डरता रहता था ! शायद वह स्वयं भी न जानता हो, ओर मुखातिब होने का मौका मिला। शत्रुकं पगम्त कि वह डर किस ढंगका है ? और क्यों है ? करनेकी योजनाने उनमें एक परिवर्तन ला दिया- लकिन आज उसने महसूम किया कि वह पूर्ण नस-नसमें वीरत्व प्रवाहित हो उठा !............ आजाद है ! जैसे छाती परसे कोई पत्थर उठा लिया और ? गया हो! जिसे दूरसं देखने भर से खूनमें उबाल नीसरे दिन ही महागज अरविन्द, वकवीर्यकी आजाता था वह मरुभूति आज उससे बहुत दूर है ! आंखें उसे नहीं देख पातीं, हाथ छू नहीं पाते; पर, आजादीको गुलामीम बदलने के लिए रवाना होगए ! दिल फिर भी उस कोसता है-'काश ! युद्धमें वह साथमे प्रधान-सचिव मरुभूति भी गए ! यह कहने मर सके !' की नहीं, बल्कि ममझनकी बात है ! राजा और मदास, शायद संमार है तभीस-आवश्यकता मंत्री प्रायः दो अभिन्न शक्तियोंके रूपमें कहे जाते हैं-इमलिए! आविष्कारकी जननी रही है, आज भी है, और रहेगी भी। ___ मरगति नहीं है, इमसे कमठको थोड़ा सुख तो यह जानते हुए भी कि साहकार सोरहा है- है, लेकिन तकलीफ भी यह है कि वह पीड़ा किस दे, बिल्कुल अचेत ! लेकिन फिर भी चोरको निडरता किस पर अपनी दुष्टताका प्रहार करे ? मुमकिन है नहीं आती ! मन उसका धक-धक किया करता है। इसलिए कि कही पादत छूट न जाय, या उस तलब देखा तो यहांतक जाता है कि डाक भी-जी लग रही हो, श्रादत सता रही हो। वह जन्मजात हरबे-हथियारसे लैस होते हैं, और आते ही मकान- दुष्ट जा ठहग। मालिकको पकड़कर, बाँधकर अपनी विजयकी धाक हाँ, तो उस आवश्यकता थी. सिर्फ इस बातकी में उसे विवश कर देते हैं, वह उनकी गुरुताके आगे कि वह अपनी आदतको कायम रख सके । अनमनेमिर मुका देता है, एक शब्द भी नहीं बोल मकता, मनम छतकी मुड़गेरीपर पैर फैलाय कमठ ऐसे ही अपनी जीवन-रक्षाकी भीखक लिए तृण बन जाता विचारोंकी आंधीमें घबड़ा रहा था कि'....। है; और वे लुटेरे वन-सा दिल रखन तथा नारकीय सामनेकी छत पर एक सर्वागसुन्दरी ! नवकृत्य करनेवाले भी उससं डरते हैं ! यौवना · !! जैस किन्नरी हो!!! कमठ के मनमें शूलसा करीब-करीब ऐसी ही दशा थी उस अवगुण- चुभा, शायद पंचशरका नीर लगा-ठीक निशाने निधान कमठकी ! यह सही है कि ममभूतिने कभी पर। और तोरकं साथ ही यह बात भी दिलमे उतर उसे पलटकर जवाब नहीं दिया, हमेशा अपने पिता गई कि युवती दूसरी कोई नहीं, वसुन्धरी है !-मरुया इष्टदेवताकी तरह बड़ा माना, लेकिन क्मठ नित्य भूतिकी स्त्री। Page #233 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१४ भनेकान्त [वर्ष ४ उस लेकिन पापी-हृदयमें इसका इतना भी असर न न खाना, न पीना, न सोना, न ठीक तरह हुश्रा, जितना मरणोन्मुख व्यक्ति पर 'चन्द्रोदय' का जागना ही । शायद लंघन हो रहे हैं । बड़ी मुश्किल ! हाता है । न ग्लानि, न पश्चाताप । वह उसके शत्रुकी सब परेशान ! किमीको पता नहीं, बात क्या है ? स्त्री है, भाईकी नहीं । दुनिया उसे भाई बतलाती है, और कमठ मनमें जाने क्या क्या व्यूह रचता बतलाए। वह उम 'भैय्या' कहकर पुकारता है, और बिगाड़ता है। बाज बाज वक्त तो उसका कार्यपुकारे । पर, कमठ जो उस भाई नहीं मानता। क्या क्रम बड़ा उग्र बनता है । पर अभी वह या तो सफल अनिच्छास भा भ्रातृत्वको जिम्मदारालादा जा सकता करना नहीं चाहता उसे, या उम करने में असमर्थ है। है किसी पर? दो दिन बीत चलं ।उसे लगा-जैसे उसकी तकलीफ पर महंम लग पर कमठकी बीमारी सहूलियत पर आने के रही हो, ममभूति नहीं तो मरुभूतिकी स्त्री ता है ! बजाय और बढ़ती जा रही है। इस पर अब तक उसकी निगाह ही नहीं गई। और कलहम है, कमठका दास्त । जिसे आजके शब्दों खुशीकी बात यह भी तो है कि एक ढेले में दो शिकार। में जिगरी दास्त कह सकते है वह । खुला व्यवहार, वसन्धरीकी सुन्दरता भी तो उसे बुरी तरह सता न झिझक, न किसी तरहका पर्दा । यों तो दोस्ती रही है। उस से जुड़ती है, जो जैसा होता है । लकिन कलहंस मनको जितना संयममें रक्खो, वह मुदोसा रहेगा, को श्राप कमठके टाइपका व्यक्ति समझेंगे, तो उसके और जैसे ही जरा ढील दी नहीं, कि वह लगा उड़ाने व्यक्तित्वक माथ अन्याय होगा। क्योंकि वह बुग भरने । फिर उम पर काबू पा लेना इनेगिने शूरवीगें __ आदमी नही है । सम्भव है उसकी मित्रताका धरातल . का काम रह जाता है । वह अपने श्राप ढालू जमीन __'दास्नकी दास्तीस काम, उसके फैलोस क्या मतलब', पर बहे पानीकी नग्ह दौड़ने लगता है-पतनकी की कहावन पर हो। ___ कमठके मनमें वसुन्धरीके लिए बुरी भावना आते कलहंस आया। देर न हुई कि वह नड़पने लगा-उसके लिए, उसके कमठकी उदासीकी बात उस मालूम थी। बोला रूपके लिए और उसकी हर बातके लिए, बुरी तरह ! -'क्या कोई अन्दरूनी तकलीफ हो गई है ? सुना है, जैसे वर्षाका उपासक, प्रेमी हो उसका। परसोंस कुछ खाया-पिया भी नहीं है । ऐसा क्यों ? ___ तमाम देहमें जलन, दिलमें बेचैनी, आंखोंमें कमठ इसी प्रतीक्षामें था, ऐसे ही आदमीकी पागलपन और मुंह पर वसुन्धरीका नाम । उसे काम- तलाशमें था-जिससे खुलकर कहा जा सके, जो ज्वर चढ़ा, ऐसा चढ़ा कि हद । दूसरे रोगियोंकी कुछ सहूलियत के साथ कर सके, 'साँप मरे न लाठी भांति उसे भी जीवनकी चिन्ताने आ घेरा। उन्हें टूटे'-का सिद्धान्त जिसे याद हो। आरोग्यका अभाव मौतकी तरफ धकेलता है और धीरे धीरे. वर्षों के बीमारकी तरह ठंडी और इस वसुन्धरीका विरह । वे चाहते हैं स्वास्थ्य, और लम्बी सांस लेते हुए कमठने अपनी अनुचित और यह चाहता है-प्रणय। घृणायोग्य व्यथा मित्रके आगे रखदी । तरफ। Page #234 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] भ्रातृत्व कलहंस दंग ! चकित !! स्तब्ध !!! हो उठा। समझाने के बजाय चुप करनेकी समस्या फिर ऊँधेसे गलेस बोला-'क्या कह रहे हो सामने आगई। दोस्त ! होशमें तो हो, न ? कमठ राता ही रहा । वह बोला-'जो कह रहा हूँ वह सत्य है, उसमें देर बाद बोला-'जब तुम भी मुझे मरनेकी बेहोशीकी गन्ध तक नहीं। पर असल में मैं हूं बेहोश मलाह देते हो, तो अब मैं मर ही जाना चाहता हूं।' ही। पता नहीं, कब सूर्य निकलता है, कब रात होनी और वह फिर हिचकियाँ लेने लगा। कलहंस है। वह जालिम मुझे मारे डाल रही है।' चक्करमें पड़ा है। बोला-'मरनेवी बात क्या है, जो ___ कलहमने बुजुर्गवा ढंगस डाट बताई-'यह मरते हो ? मरें तुम्हारे दुश्मन | पर ऐमा करा-' शब्द कहते तुम्हें शर्म नहीं आती-कमठ ! वह गते-गेते वह फिर बात काट कर कहने लगातुम्हारी कौन लगती है, जानते हो इस ?-बेटी ! 'बम, समझाा मत । मैं 'समझ' नहीं, 'मौत' चाहता अनुज महोदरकी स्त्रीपर कुदृष्टि ? इतने गहरे पापमें हूँ। मौत ही आजसे मरी दोस्त है। वही मेरी डूबना चाहते हो ? छोड़ दा इम दुराग्रहका, नहीं, ।' मुसीबतके वक्त मदद कर सकती है। तुम दोस्त बन __ पूरी बात सुननकी ताब न रही, तो बात काटकर कर मुझे धोखा देते रहे। मेरी ममीबत के वक्त मझे कमठ बोला-'सम्भव नहीं है, यह अब मेरे लिए ममझाकर, और भी जलाने में मजा ले रहे हो। तुम्हें , कलहंस ! मैं अब शरीर छोड़ मकता हूं, पर उम मेरे दुखमें जग भी दुग्य नहीं हो रहा।' नहीं । वह मेरी जीवन मरणकी ममम्या बन गई।' __ कलहम, कमठके उत्तरमे खुश न हो सका। बात कलहंसके दिलमें फांसकी तरह चुभ गई तिलमिला-सा गया। हार कर बोला-'तो क्या असल में वह कुढ़ रहा था___ कमठकी नीच मनोवृत्तिपर । कहने लगा- करूं ?' 'तुम्हारे मरजानेसे दुनियाका कोई काम रुका न पड़ा वह बोला-'मेरी जिन्दगी चाहते हो तो उसस रहेगा, इमका विश्वास रखो। जब कि तुम जिन्दा मुझे मिला दो।' रह कर भी किसी अच्छे काम पर नज़र नहीं डालते। कलहंस अटल बैठा रहा-चुप । जैमे चैतन्य न सुना, कमठ ! मैं तुम्हारा दोस्त हूं, और उमी नाते हो, जड़ हो, पत्थरका पुनला। फिर उठकर लौट तुम्हें समझानेका मुझे हक है।' आया-चुपचाप । कमठ था, दुष्टतामें कुशल । बातें बनाना उमे x x x x आता था। वह म्वयं जानता था-'मरना-कहना' (४) जितना सुलभ है, 'मर जाना' उतना ही कठिन ! इच्छा नही होती, पर करने पड़ने हैं-ऐसे वह कलहमके गलेमे लिपट कर गेने गला-विलख बहुतसे काम हैं दुनियामें । कलहंसके सामने भी यह विलख कर। वैमा ही काम है। यों वह बजात-खुद बुग श्रादमी कलहसकी दृढ़ता, गंग बनगई। मन जानें कैमा नहीं है, लेकिन बुरेका माथी तो हई है । पीनक न Page #235 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१६ अनेकान्त [ वर्ष ४ विह्वल दशाने उसे मजबूर कर दिया है। सही, असर तो है । दोस्तकी करुण आकृति, और है ? तो बोला- नहीं है तो वसुन्धरीको ही जरा कह दो, वह मुझे देख जाय । तबियत बड़ी ग़मगीन रही है ।' पहुंचा ! वसुन्धरीने योग्य सन्मानके साथ बिठ लाया। सोचने लगी- 'बात क्या है, जो आज 'जेठजी' के दोस्त यहां पधारे हैं।' मन में कलहंसके जहालत-सी उस रही थी। मुंह पर मातमपुर्सीका नजारा था । शकल देखते ही बनती थी, भीतर घबराहट जो छलांगे भर रही थी । 'कमठ क मठ' ' '१' 'कमठका बुरा हाल है । वह बच जाय तो बच जाय। बीमारी बड़ी भयंकर लगी है-उसके पीछे !' 'कब से ?' 'हे भगवन् ! उनके पीछे यह क्या हुआ जा रहा है । आकर उनकी .............।' 'यही तो मुसीबत है ! मरुभूति होता तो मुझे भी इतनी तग्द्दुद न करनी पड़ती। क्या करूँ, समझ काम नहीं देती । उसकी हालत देखी नहीं जाती । बस, अव तबका मामला बन बैठा है।' ‘अरे ! अगर इन्हें कुछ होगया तो उनका जीवन भी खतरे से खाली न रहेगा। वे गं रोकर आंखें फोड़ लेंगे । खाना पीना छोड़ बैठेंगे । उन्हें 'भैय्या' का बड़ा दर्द है, उनकी जगमी अकुशल में वे घबरा जाते हैं 'अब १ अव क्या होगा ? संकट ! घोर संकट ।' 1 रोनी सूरत बनाए कलहंस क्षण भर बैठा रहाअचल ! फिर बोला- 'अभी जरा होश आया तो बोला, क्या मरुभूति लौट आया ? उसे बुलादो ? 'ऐं, ऐसा १ उन्हें पुकारा ? क्या आखिरी वक्त 1 'और हाँ, मैंने कहा कि अभी कहां लौट सकता 'वह बाग़ में ठहरा है - खुली हवा है न वहाँ, इसीसे ! वस्त्र - मण्डपमें ।' 'सो तो ठीक है ! पर, मेरा वहाँ जाना मुश्किल जा है। वे यहां हैं नहीं बग़ैर पूछे घरसे बाहर जाना स्त्रीके लिए अच्छा थोड़ा ही होता है ।' 'माना, लेकिन वह दम तोड़ रहा है । भविष्य की कौन जानता है, मर ही गया तो ? तो क्या मरुभूति यह सुनकर खुश होगा कि भैय्या के बुलाने पर भी यह उसे देखने तक न गई, और वह इन दोनों को पुकारता पुकारता चल बमा । भई, मेरी अपनी रायमें तो तुम्हारा उसे देखने जाना लाज़िम है, फिर तुम्ही जानो ।' वसुन्धरी चुप ! बात उसे बहुत कुछ जँची । सच ही तो वे आकर बड़े नाराज होंगे, और फिर मैं किसी दूसरेको देखने तो जा नहीं रही । घरकी बात है, जेठ हैं-स जेठ, बापकी जगह । - और तब वह कलहंसके साथ चलदी, उसी वक्त । *3 83 $3 83 वस्त्र-मंडपके भीतर वसुन्धरीको पहुंचा कर कलहंस लौट आया । श्रात्म-ग्लानिमें दबा जा रहा था, वह । कमठ प्रतीक्षा में एक एक घड़ीको एक एक वर्ष बनाकर काट रहा था, कि नज़र आगे वसुन्धरी । वह भयभीत मृगी-सी आगे बढ़ी आ रही थी । कमठ उठा, हृदय में आंधी उठी और तूफान उठा, Page #236 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] भ्रातृत्व और उस शैतान भीतरका शैतान भी जागकर उठ कैसे कहा जा सकता है ? रालती मनुष्यसे ही तो होती है । वे मनुष्य हैं, भूल कर सकते हैं। असल में उनका यह इरादा हरगिज न रहा होगा। कमसे कम मुझे इस बातका पूरा यकीन है ।' खड़ा हुआ । वसुन्धरीने उसकी ऐसी दशा देखी तो दंग ! बड़ी घबराई, मुंह अचानक निकला - 'धोग्वा !' और चाहा कि उल्टे पैरों लौट कर अपनेका नरपिशाच की कुदृष्टि बचा सके । पर, यह सम्भव नहीं था। वह जब तक ज्योंकी त्यों खड़ी रहकर कुछ सोचे, कि तब तक कमठकी क्रूरताने उसे आलिंगन में भर लिया । वह विवश । गई, चीखी, चिल्लाई और कहा - 'तुम मेरे पिता तुल्य हो, मैं पुत्री हूं तुम्हारी, मुझे छोड़ दो ।' लेकिन बेकार ! कमठ उसका सतीत्त्व लूटकर हो रहा, पागल जा हो रहा था वह उस समय । * * * 8 (५) ममभूति लौट आया है, महाराज के साथ साथ | घर आकर अपने पीछे होने वाले अनर्थस वह अनभिज्ञ नहीं रहा । वसुन्धरीने सब कुछ खुलासा खुलामा कह दिया। इस श्राशास और भी, कि वह अपने भैय्याकी इस घृणित कुचेष्टा के प्रति प्रतिकारात्मक कुछ करें। लेकिन ? मरुभूति स्नामांश ! अन्तरंग उसका दुःखसे भर जरूर गया, मानसिक पीड़ा भी कुछ कम न हुई । पर, भैय्या का ध्यान आया कि वह सब कुछ भूल गया। सोचने लगा- 'भ्रातृत्व दुनिया में एक दुर्लभ वस्तु है, स्वर्गीय सुख है । उसके पवित्र बन्धनमें, उस महिमामय भैय्या के खिलाफ मैं खड़ा होऊँ, जो पिताके बराबर है | न, यह नहीं । उन्होंने अगर ऐसा किया है, तो यह उनकी गलती है, भूल है । अपराध वसुन्धरी बैठी आँसू बहा रही थी । मरुभूति के आगे दो रास्ते हैं वह स्त्रीकी सम्मानरक्षाको तरजीह दे या पूज्य भैय्या के प्रेमकां ? २१७ उठ उठते उसने कहा, जैसे मन ही मन फैसला कर चुका है - 'देखो जो होना था, हो चुका। अब खामोश रहो, इसका जिक्र भी जबान पर न लाभो, समझी " और चल दिया । * * 883 * महागजने सुना एक दम गर्मा गए । पहले से ही कमठ से खुश न थे। उसकी बुराइयों पर रोज ही ध्यान देते, जब मौका मिलता। पर, ऐसी बात इससे पहले उनके कानों तक नहीं आई । मभूति वहाँ मौजूद नहीं था, महाराजन उसे बुलाया । बाले - 'तुम्हारे पीछे क्या किया है उस दुष्टने, जानते हो ?' 'किसी दुश्मनने बदनामीकी ग़रजसे यह खबर फैलादी है, भैय्याने कुछ नहीं किया, महाराज ।'मरुभूतिने आत्माको उगते हुए, नम्र शब्दों में व्यक्त किया । 'हूं ! नगर में उससे बड़ा और कोई तुम्हारा दुश्मन जीवित हो, ऐसा मैंन नहीं सुना । मरुभूति, इस विषय में मैं तुम्हारी बहुत मानता हूँ, अब और मान सकूं, यह ग़लत है।' 'लेकिन भैय्या. " Page #237 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २१८ भनेकान्त [वर्ष ४ 'उसे भैय्या नहीं, शत्र कहां ! वह राज्यका कलंक उसका निवास है। है। धार्मिक दृष्टिकोणसे पापी है, और नैतिक-सिद्धांत मरुभूतिकं मनमें पाया-'भैय्याका एकबार के मुताविक अपराधी है। उमं छोड़ देना मेरे लिए देख पाए । बहुत दिनस उन्हें देखा जो नहीं है। अन्याय है, पक्षपात मूलक-बात है।' हिम्मत बांधकर महागजम प्रार्थना की-भैय्या पसी समय कमठका बांधे हुए, सिपाही ल ाते को प्रणाम करने जाना चाहता हूं, बहुत याद सताती हैं। वह एक और बड़ा हो जाता है। है मुझ । आग्रह है, आजा मिल जाय तो अच्छा हो।' महाराज अरविन्द हुक्म देते हैं-'इतनं गुरुतर बाल-'मरुभूनि ! शायद तुम्हाग जीवन अपराधकं बदलेमें यदि पाण-दण्ड भी दिया जाए तो ग़लतियाँ करने के लिए ही बना है। समझते होगेवह कम है। लेकिन प्रधान-मंत्रीके आग्रहपर मैं तुझ कमठ अब मंन्यासी हो गया है, दुष्टता छोड़दी होगी। जीवनदान देना हूँ । और हुक्म देता हूँ कि इस पर नहीं उम जैमा श्रादमी मंन्यामी होकर भी करना दुराचारी, पापीको काला-मह कर, गधे पर चढ़ाया सं विमुग्व हो जाए, इम मैं मानने को तैयार नहीं। जाय और नगर-परिक्रमणके बाद देश निवोमन हाँ. कंचली छाडदा होगी, पर, विष नहीं छोड़ा होगा।' दण्ड । ___'पर, व मेरे भाई हैं। उनकी धमनियोमे जा ममभूनिकी आँखें डबडबा रही हैं-जैसे विवशना रक्त है, वही मेरा जीवन-साधन है । इमलिए कि वे पानी बन कर बहने जा रही हो। दोनों एक है, एक तरहके हैं। वे जुदे रह कर भी और कमठ' . .? जैन गैद्ररमकी सजीव प्रतिमूर्ति मिलने के लिए लालायित हैं।' हो ! उसकी आँग्वोंमें झूल रहा था-विद्रोह ।। महाराजकी इच्छा तो नहीं। पर, मरुभूतिका x x x x अटल आग्रह है। और मरुभूतिस महाराजको है कुछ प्रेम, शुरुसे ही । तबियत न दुखे इस लिए कभी बहुत दिन गुजर गए। कह भी देते हैं । बोले-'चले जाना । लेकिन ठहरना पर, एक दिन भी ऐसा न हुआ, जब मरुभूति, नहीं । लौटना जल्द ।' कमठकी यादको मन भुला सका हो । हृदयमें घाव मरुभूतिका मन खुशीस भर गया । गद्गद् कण्ठ मा हो गया था और जीवनमें एक प्रभाव-सा। से कहने लगा-'जरूर, जल्दो ही लौटकर महाराजकी ___ टोह वह हमेशा लेता रहा कि भैय्या अब कहां, सेवामें आना है, यह भूलूँगा नहीं।' कैसे, किस तरह रहते या क्या करते है ? दुखमें तो x x x नहीं हैं ? पर, वह उनसे मिलने न जा सका। महाराजकी अनिच्छाके मबब । दूरम दवा__ उस दिन सुना-कमठ तपस्वी बन गया है। एक भारी पत्थर दोनों हाथों में उठाये, बांहें प्रभु-भजनमें उस रस आने लगा है, पंचाग्नि तपता आकाशकी ओर ऊँची किये, एक संन्यासी खड़ा है, शूलासन-शयन करता है । संन्यासी-आश्रममें हुआ है । उसका पोरश्रम-पूर्णतप उसके अपने Page #238 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] आत्म-दर्शन २९६ व्यक्तित्वकं साथ-साथ संन्यासकी महत्ताका प्रदर्शन पर गिर पड़ा। कर रहा है। कमठ अचल खड़ा था। चुप! पता नहीं, किस दाढ़ी बढ़ रही है। गेमश्रा-कुर्ता शरीरकी नम्रता ध्यानमें ? ममभूति आँसुओंस भैय्याके चरण धो को छिपाये हुए है। मगभूतिने पहिचाना-'अरे, रहा है। ग्रही तो भैय्या हैं । क्या वेष बनाया है ? कठिन तपमे ओह !!! लीन हो रहे हैं।' उसी वक्त वह दुष्ट, उस वज़नदार शिला-खण्डको ____ पास आया। खुशीकं मारे बसुध हो रहा है। पैरोंपर गिरे हुए माथे पर पटक देता है। बोला-'भैय्या ! लौट चलो ! मुझे तुम्हारं विना खूनकी धाग ! मरुभूतिका निर्जीव शरीर ! कमठ अच्छा नहीं लगता ! मैंन महागजस बहुत कहा, पर देखता है-न पश्चाताप, न दुःस्व ! वे न मान । जाने दो। हम-तुम दोनो उनके राज्यमे मुंह ५५ एक सन्तोषकी रेखा विंच रही है। जैसे अलग रह कर जीवन बिता देगे। तुम तपस्वी क्यों प्रतापी-नरंश दिग्विजय कर लौटा हो ! बन हा भैय्या ? मुझे क्षमा करो, मैं तुम्हारं अपमानकी और उधर ? ममभूतिका मुंह ग्वनम मना है। न गक सका-मुझे क्षमा करदा। मैं तुम्हारा छोटा आँग्वें खुली है । दीनता झलक रही है। भाई हैं।' ___जैसे कह रहा है-'भैय्या ! मुझे नमा कर दो, और मरुभूनि हाथ जोड़ता हुआ, कमठ के पैगें मैं तुम्हाग छोटा भाई हूं !' आत्म-दर्शन कौन हूँ मैं क्या बताऊँ ? यह जगत है व्याप्त जिनसे-विश्वके प्राणी घनेरे, दीवते हैं, निहिन मुझमें ही–लिग्वेसे, चित्र मेरे; एक हूँ, पर है अनेको रूप मेर, क्या गिनाऊँ ?-कौन हूं मैं क्या बताऊँ ? सूर्य-शशि, आकाश-तारे, लोक श्रो' परलोक सारे, ये सभी दिव्यात्माके, चल रहे-होकर सहारे; कुसुम, पादप-पल्लवोमें, मैं करूँ पतझड़-खिलाऊँ !-कौन हूँ मैं क्या बताऊँ ? शून्य सत्तासे मेरी है, नियतिका वह कौन कोना ? करुण-क्रन्दन प्रातका, शिशुका विहँसना और रोना; प्रकृतिके सौन्दर्य में मैं ही छिपा,-उसको सजाऊँ !-कौन हूँ मैं क्या बताऊँ ? चन्द्रिकाकी विमल किरणें, घोर-तममें भी भरा हूँ. अमर हूँ; पर मृत्युका माया-भरा पट निर्जरा हूँ; नरक में भी स्वर्ग हैं, क्या खोल कर अन्तर दिखाऊँ ?-कौन हूँ मैं स्या बताऊँ ? अजर हूं, अव्यक्त हूं मैं, देख सकता कौन मुझको ? मैं सदा मर्वत्र हूँ, क्यों ढूँढते अन्यत्र मुझको ? भानियों-अजानियोंके हृदयमे भी मैं समाऊँ !-कौन हूँ मैं क्या बताऊँ ? शोकम करते रुदन श्री हर्ष में कुछ फूलते हैं ! दुःखमें क्यों टूल जाते, और सुखम झूलते हैं ? मैं 'प्रफुल्लित' हूँ सदा, क्यों वेदनाके गीत गाऊँ ?-कौन हूँ मैं क्या बताऊँ ? %3 4. काशीराम शर्मा 'प्रफुलित' Page #239 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य (मूललेखक-प्रो० ए० चक्रवर्ती एम० ए० आई० ई० एस० ) ( अनुवादक-पं० सुमेर चन्द जैन दिवाकर, न्यायतीर्थ, शास्त्री. बी० ए०, एल-एल. बी.) (वर्ष ४ किरण १ से आगे ) ५ पदुमैयार लंबगम्-जब 'जीवक'ने अपने घर वाहः को भेजा, गुप्तरूपधारी 'जीवक' न ही स्वयं पापिस जानकी इच्छा प्रगट की, तब सुदंजनदेवन उनको कहा कि अब उसकी बांज करनेस कोई अपने मित्रम वियुक्त होने के पूर्व उसे तीन विद्याओं प्रयाजन नहीं निकलेगा, और वह नव मामक अनन्तर का परिज्ञान करा दिया. जो कि उसके जीवनमे लाभ- म्वयं वहां वापिस पाजावेगा। इन प्रानन्दजनक प्रद हों । व य हैं-(२) कामदेवक भी द्वारा कांक्षणीय संवादोंके साथ दृत लोग वापिस पाए और उन्होंने मनोरम रूपको धारण करनेकी शक्ति (२) प्राणान्तक राजकुमारी 'पद्मा'को सांत्वना प्रदान की। इस प्रकार विषका असर दूर करनेकी सामर्थ्य (३) एवं मना- पदुमैयार लंगबम पूर्ण होता है। बांछित रूप बनाने की क्षमता। इन तीन उपयोगी ६कमशरियार लंगबम-इसके अनन्तर वह 'सक्कमंत्रों का ज्ञान करानेके अनन्तर देवने उसे वह मार्ग नाडु' देशकी नगरी केमपुरी पहुंचा, उस केमपुरीमें बता दिया, जिससे वह अपने घर पहुंच जावे । अपने सुहिग्न नामका वणिक् निवाम करता था। उसकी मित्र सुदंजनदेवके स्थानको छोड़कर उमने अनेक 'कंमश्री' नामकी एक कन्या थी। ज्योति पयोंने कहा प्रदेशोंमें पर्यटन किया और वहां अनेक आपद्ग्रस्त था कि जिस युवकको देग्वकर हम कन्याके चित्तम प्राणियोंकी उपयोगी मेवा की। अन्तमें वह पल्लव लज्जा एवं प्रेमका भाव उदित होगा, वही इसका पति देश की चंद्राभा नगरी पहुंचा। वहाँ वह पल्लवदेशक होगा। अपने जामाता अन्वेपणके निमित्त उस नरेश लोकपाल महागजका मित्र हो गया। नरेशकी वणिकने अनेक बार ऐसी परिस्थिति पैदा की, जिसमे बहिन पद्माको एक दिन मर्पने काट लिया, जब कि भविष्यद्वक्ता द्वारा कथित भावोंका कन्यामें दर्शन वह पुष्पोंको चुनने के लिए गई थी। सुदंजनदेवके दिये हो, किन्तु मफलता न हुई। अन्नमें उसने 'जीवक' हुये मंत्रके प्रभावसे जीवकने उसका विष उनार दिया। का दग्या। जब उसने अपने भवनमें 'जीवक' को इस बातके पुरस्कार स्वरूप पल्लवाधीशने अपनी 'पद्मा' आमंत्रित किया, तब यह दर्शन कर उस अपार हर्ष का विवाह उसके माथ कर दिया। कुछ माम तक हा कि. दर्शनमात्रमं कमश्री जीवक पर आसक्त ठहरने के उपरांत महमा अज्ञात रूपमें वह वहांस हो गई । उमने आनन्दपूर्वक अपनी पुत्री कमश्रीका रवाना हो गया। अपने पतिको अविद्यमान देख पाणिग्रहण मस्कार जीवक के माथ कर दिया। जीवक गजकुमारीका बड़ा दुःख हुआ । गजाने अपने अपनी पत्नीके साथ कुछ समय तक रहा। फिर जामाता 'जीवक' का अन्वेषण करने के लिये संदेश- जीवकने गुप्तरूपमें उस गृह को छोड़ दिया, इस बात Page #240 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३] तामिल भाषाका जैनसाहित्य का किसीको भी पता नहीं चला । इमसे नव वधू तीव्र उत्कंठा प्रगट की । उन्होंने एक मासके कमश्रीको अमीम दुःख हुआ। भीतर एमी भेंट कगनेका वचन दिया और तवपल्ली ___कनकमालेयार लंबगम-पश्चात जीवक मध्यदेश कोलाड जीवककी ओर प्रस्थान किया। जब कि के हेमपुरमे पहुंचा । नगरके बाहर के उद्यानमें पहुंच 'जीवक' अपनी नई वधू 'कनकमालै' के साथ रहरहे कर उसे हेमपुरके नरेश उदमित्तनकं पुत्र 'विजय' थे तो उन्होंने जीवकसे मिलने के लिए नगरको घेरने मिले । यह विजय बाणके द्वारा उद्यानके आम्रवृक्ष की चेष्टा की। अपने चचेरे भाई 'नंदत्तन' के साथ परमे एक श्राम प्राप्त करनेका प्रयत्न कर रहा था। 'जीवक' ने विशाल मंना एकत्रित की और धेरने किन्तु वह मफल नही हुआ । नव श्रागत व्यक्ति वाली मनासे युद्ध में मिलनेके लिए वह रवाना हुआ। 'जीवक' ने पहले ही निशानमे उस फलको नीचे पदमहनने, जो कि बाह्य संनाका अधिकारी एवं गिग दिया । इम पर विजय बहुन हर्षित हुश्रा; और जीवकका एक मित्र था, प्रथम बाण छोड़ा. जिममे उसने उम आगन्तुक श्रानका ममाचार अपने पिता एक मंदेश बँधा था और उसके द्वारा जीवकको महाराजसे निवेदन किया। जीवकमे मिलकर राजा बहुत आनन्दिन हुआ और उमने जीवकम अपने अपना परिचय और पानेका कारण सूचित किया । पुत्रोंको धनुर्विद्यामे शिक्षा प्रदान करनेकी प्रार्थनाकी। जब वह बाण जीवकके चरणोंके पास गिरा, तब जीवक शिक्षणकं फलम्वरूप सब पुत्र धनुर्विद्यामें उसने उसे उठाकर वह मंदेश पड़ा और बहुत प्रवीण हो गए, तब गजाने कृतज्ञता एवं प्रानन्दकं आनंदिन हुआ । यह परिज्ञान कर कि वे सब उसके वशवर्ती होकर अपनी कन्या 'कनकमालै' का विवाह मित्र हैं, उसने उनको नगरमें आमंत्रित किया और जीवक साथ कर दिया। वह कनकमालैक माथ उनका गजा एवं श्वसुरसे परिचय कराया। जब कुछ काल पर्यन्त रहता रहा। इस बीचमें उसके जीवकको अपने मित्रोंसे अपनी मानाका हाल ज्ञात चचेरे भाई नंदत्तनने उमका पता न प्राप्तकर उसकी हुआ तथा माताकी उमम मिलनेकी उत्कंठा विदित खोजमें जाने की इच्छा की । विद्याधर कन्यका एवं हुई, तब उसने नरेश एवं अपनी पत्नी कनकमालेसे जीवककी प्रथम पत्नी गंधर्षदत्ताने उस समय जीवक अपने पिताके पास रहनेको कहा तथा, जानेकी का ठीक पता बताया। अपनी विद्याकी सहायतासे इजाजत लेली। वह अपने सम्पूर्ण मित्रोंके माथ उमने नंदननको हेमपुर पहुंचानेको व्यवस्था की, अपनी वृद्धा मातामे भेंट करनेके लिए नगरसे ग्वाना जहां कि जीवक अपने मित्रों के साथ ठहरा हुआ था। हुा । जीवक अपने साथियोंके साथ दंडकारण्यमे जीवकके अन्य मित्र भी उमकी म्बोजमें निकले । मार्ग पहुंचकर अपनी वृद्धा मातासे मिला। बहुत समयके में उन्हें तवप्पल्लीमे वृद्धा महागनी 'विजया' विछोहकै कारण 'विजया' ने बड़े भाग हर्षके माथ मिली । उम नवजात शिशु जीवकका आलिंगन किया। इस प्रकार उसने तवपल्ली में अपनी श्मशान भूमिमें छोड़नेके समयसे लेकर उम माताके पास ६ दिन बिताए। माताने अपने पुत्रको वक्त तक जो जो घटनाएँ जीवककं साथ घटा यह सलाह दी कि तुम अपने मामा गोविन्दराजसे वे सब सुनाई गई । उमने पुत्रसे मिलनेकी मिलो और अपने पिताके छीने गये राज्यको पुन: Page #241 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२२ अनेकान्त [वर्ष ४ प्राप्त करने के लिये उनकी सलाह एवं सहायता लो। सम्बन्धमें जाननेकी इच्छा प्रगट की। सब जीवकने उसने अपनी माताको कुछ तापमनियों के साथ अपने उन्हें बताया कि उसने बगिगक कन्या 'विमला' के साथ मामाके यहां भेज दिया, और वह अपने मित्रोंके विवाह किया है नब मचने उसे बधाई देते हुए कहा साथ 'राजमहापुरम' की ओर चला गया । उन सबने कि तुम सच्चे 'काम' हो । किन्तु उमकं अन्यतम मित्र नगरके समीपवर्ती उद्यानमें अपना डेरा डाला । 'बुद्धिषेण' ने इस साधारण कार्यके लिए बधाई देनकी दूसरे दिन जीवकन अपने मित्रोंको वहां ही अनिच्छा प्रक्ट की, कारण उम नगर में एक छोड़कर. कामदेवको भी अपनी ओर आकर्षित करने 'सुग्मंजरी' थी, जो पुरुपके मुग्वका देग्वना तक पसंद बाले मोहक रूपको धारण कर नगरमे प्रवेश किया। नहीं करती थी; यदि जीवक उसके साथ विवाह करन जब वह नगरकी एक मड़क परम जा रहा था, नब में सफल हो गया, ना वह मच्चे कामदेव के रूप में उमके मामने 'विमला' आई जो कि मड़क परस उसका बधाईका पात्र होगा। जीवन चुनौती स्वीकार अपनी उस गेंदको उठानेको दौड़ी थी जो खेलते की । दूसरे दिन उमन अत्यन्त वृद्ध ब्राह्मण भिक्षुक का समय बाहर चली गई थी। उम मोहक जीवकका आकार बनाया और 'सुमंजरी' के द्वार के सामने दर्शन कर वह उसके प्रममै आवद्ध हो गई। वह प्रकट हुश्रा । सुरमंजरीकी दामियोंने अपनी म्वामिनी 'सागरदत्त' नामक वणिककी कन्या थी । जीवक स निवेदन किया कि एक वृद्ध ब्राह्मण भिक्षुक भोजन श्रागे जाकर मागरदनकी दुकान पर विश्राम के लिये की भिक्षा निमित्त द्वारपर पाया है । सुरमंजरीन, यह बैठ गये । दुकान में शक्कर का बड़ा भाग ढेर बहुत न सोन कर कि एक वृद्ध और अशक्त भिक्षुक ब्राह्मण के दिनसे बिना बिका हुआ पड़ा था, वह दूकान पर उस निमित्तसं उमका व्रत भंग नहीं होगा, अपनी दामियो आगन्तुकके पाते ही तत्काल हः बिक गया। सागर को आज्ञा दी कि उम वृद्ध पुरुषको भवनम लायो । दत्तने इस बातको शुभशकुन समझा, कारण पहले वहाँ यह वृद्ध भिक्षुक मम्माननीय अतिथिके रूपमे उसे ज्योतिपियोंने बता दिया था कि-'जिसके आने ग्रहण किया गया और उसे उसने अपनी शक्तिभर पर दुकानका बिना बिका हुआ माल बिक जायगा उत्तम भोजन कराया। श्राहारकं अनंतर ब्राह्मणने बद्दी उसका उपयुक्त जामाता होगा।' उसने प्रमन्नता एक सुंदर पलंग पर विश्राम किया जो उसके लिए ही पूर्वक इस सुन्दर युवकको अपनी कन्या 'विमला' बिछाया गया था। कुछ समयकी निद्राके अनंतर विवाहमें प्रदान कर दी । जीवकन विवाहमे 'विमला' उसने एक बहुत ही सुन्दर गीत गाया जिसे 'सुमंजर्ग' को स्वीकार किया और उसके साथ केवल दो दिन ने जीवका गात निश्चय किया। इस गीतन उममे व्यतीत किये और तीमरे दिन प्रभान समय वह अपने लिये जीवकको विजित करनेकी पुरानी नगरके बाहर के उद्यानमें स्थित अपने मित्रोंके पास आंकाक्षाका जागृत कर दिया। उमने यह निश्चय वापिस चला गया। किया कि दूसरे दिन वह कामदेवके मंदिग्मं जाकर सुरमंजरी लंवगम्-उसके मित्रोंने जीवकमें नवीन इमलिए पूजा करूँगी कि उसे 'जीवक' पनिरूपमें वरफे चिन्ह देख सके नवीन विवाहविषयक विजयके प्राप्त हो जाय । ब्राह्माण भिक्षुकका रूपधारण करनेके Page #242 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य किरण ३ ] पूर्व ही जीवकने अपने मित्र बुद्धिषेणके साथ यह व्यवथा करली थी, कि वह मित्र 'कामदेव' के पीछे मंदिरमें छुपा रहेगा और जब 'सुरमंजरी' देवतासे 'जीवक' को प्राप्त करने का वर मांगेगी, तब वह मूर्तिके पीछेसे अनुकूलता व्यक्त करनेवाला उत्तर देगा। दूसरे दिन जब सुरमंजरीने अपनी दासियों के साथ कामदेव के मंदिर में जाना चाहा तब उसने अपनी सवारीम इस वृद्ध ब्राह्मणको भी बिठा लिया था। उसे मंदिरके एक मामनेके कमरे में छोड़ कर 'सुरमंजरी' मंदिरके भीतर पूजा के लिए गई । जब पूजा पूर्ण हुई तब उसने 'कामदेव' में प्रार्थना की कि उसका मनोरथ सफल हो। शीघ्र ही मंदिर के भीतर यह ध्वनि निकली कि हां। तुमने 'जीवक' को पहले ही विजित किया है ।' महान हर्षमें उसने घर लौटना चाहा और जब वह वृद्ध भिक्षुकको साथमें ले जानेके लिये गई, उसने देखा कि वृद्ध ब्रागा भिक्षुक के स्थान पर युव राज ‘जीवक' वहां था । उसके आनन्दका पार नहीं था | उसने बड़े अनिन्दकं साथ उसे पकड़ लिया और यह प्रगट किया कि वह उसके साथ विवाह करेगी। यह बात उसके पिता 'कुग्दश' को सूचित की गई । उसने तत्काल ही विवाह उत्सव करके आनन्द व्यक्त किया। इस 'राजमापुर' से उसने अपने उपपिता की अनुज्ञा ली और अपने मित्रोंके साथ अश्व व्यापारी के में प्रस्थान किया । मण्मगल लंबगम्—इम प्रकार जीवने अपने मित्रो के साथ अपने मामा गोविन्दराजकी भूमि 'वियनाड' में प्रवेश किया। उसके मामाने बड़े हर्ष से उसका स्वागत किया । वहां उसने मामासे कट्टियंगाग्मके द्वारा हड़पे गये अपने हेमांगददेशको पुनः जीतने की पद्धतिके विषय में विचार-विमर्ष किया । २२३ गोविन्दराजने अपने स्थानमे कट्टियंगारम्को एक व्याज से बुलानेका प्रयत्न किया। इस गोविन्दराजकी एक सुन्दर कन्या थी, जिसका नाम 'लकनै' था । उसने स्वयंवर के नियम घोषित करा दिये और वराह श्राकृति धारी एक यंत्रको स्थापित किया, जो सदा घूमा करता था; जो गतिमान वराहको छेदेगा, वह राजकन्याका पति होगा । कट्टियंगारम्' तथा दूसरे बहुत में नरेश गोविन्दराज के दरबार में उपस्थित थे, ताकि स्वयंवरमे अपने अपने भाग्यकी परीक्षा कर सकें, किन्तु वास्तव में कोई भी सफल नहीं हुआ । अन्त मे एक गजराज पर स्थित 'जीवक' दिखाई पड़ा. उसके दर्शनमात्रनं 'कट्टियंगारम' को भयान्वित कर दिया । जिस 'जीवक' को उसने मृत एवं नष्ट समझा था, वह तो उसके सामने पूर्ण रूपसे जीता जागता था । वह हाथीकी पाठस उतरा और उसने अपने बाणसे सफलता पूर्वक वराह के निशानको बेधितकर स्वयंवर में राजकुमारीका पाणिग्रहण किया । तब उसके मामा 'गोविन्दगज' ने यह स्पष्टतया घोषित किया कि यह युवराज कौन था ? 'कट्ठियंगारम्' को यह अल्टिमेटम दिया कि तुम उसका राज्य लौटा दो, किन्तु कट्टियंगारमन चुनौती स्वीकार की और युद्ध करना पसन्द किया | व्यवस्थित युद्ध में वह हारा और अपने शत पुत्रों सहित मारा गया । जीवक विजयी हुआ, इस विजयकं समाचारमे उसकी वृद्धा माता महान आनंदित हुई और उसने यह अनुभव किया कि उस का जीवनोद्देश सफल हो गया । प्रमगल लंबगम् - इस विजय के अनन्तर जीवक अपने नगर 'गजमा पुग्म्' को गया वहाँ उसका राज्यतिलक महोत्सव बड़े विशालरूप से मनाया गया जोकि 'संस्कृतके ग्रन्थांनरोम इससे काष्ठांगारका बोध होता हैं I Page #243 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२४ भनेकान्त [वर्ष ४ उसके मित्रों तथा बन्धुओंके लिये बड़ा ही प्रानन्दप्रद तब उसने यह तो अनुभव किया कि यह नो विश्वकी था। इसे पृथ्वीकी आत्मा भूमि देवीके माथ विवाह सब विभूतियोंको घोषित करता है, जिनका अधिकारी होना कहा गया, कारण 'जीवक' का पूर्व चरित्र दुर्बलको दबाकर बलशाली व्यक्ति बन जाया करता विवाहोंका उज्वल प्रवाह ही तो था। है । इम विषयका अपवाद राज पर भी नहीं है । मब ___ लक्कन लंबगम्-हेमंगनाइके गज्यामनको प्रहण जगह उसने यह सिद्धान्त विजयी हाते हुये पाया कि करनेके अनन्तर गत स्वयंवरमें वगह चिन्हके बेधन 'जिमकी लाठी उसकी भैंम' । उमने देखा कि कट्टियंमें विजित हुई उसके मामाकी कन्या लक्कनैके साथ गाग्नक और उमकं स्वयंक जीवनमें यही बात उमका विवाह उत्मव हश्रा, और उसके अपने मभी उदाहृत हुई है। राज्यपद, जो इस प्रकार अनैतिक मित्रोंको ममुचित रूपमे परम्कारित उसके उप पिता नीव पर स्थित है, ऐमी वस्तु नहीं है, जिसकी लालमा गजकोय मन्मानको प्राप्त हुए । उमके मित्रोको अनेक की जाय । इस लिए उमने राज्यको अपने पुत्र के लिये भेटें दी गई। उसने कट्टियंगारमी सम्पूर्ण सम्पत्ति छोड़कर राजकीय बैभवसे मुक्त होकर अपना शेष अपने मामा 'गोविन्दगज' को दे दी। उसने अपने जीवन तपश्चगगमे व्यतीत करनेका निश्चय किया मित्र सुदंजनदेव सन्मानार्थ एक मन्दिर निर्माण इम लिए वह उम ग्थल पर गया जहाँ भगवान करवाया। इस प्रकार उसके गज्यम मब मन्तुष्ट किये महावीर थे, और उनके सुधर्म गणधग्सं आध्यात्मिक गये और देशन ममृद्धि एवं वियुक्तताका आनन्द उपदेश प्राप्त किया। जिन्होंने 'जीवक' को प्रात्मीक लिया। जीवन एवं मंयमकी दीक्षा प्रदान की। इस प्रकार मुत्ति लंबगम-जब वे मब सुग्व पर्वक जीवन 'जीवक' ने अपना अवशिष्ट जीवन ध्यानमे व्यवतीन व्यनीत कर रहे थे तब बृद्धा माता विजयान एक दिन किया और अपने ध्यान एवं तपश्चर्याके फल स्वरूप मंसारिक भोगोंका त्याग कर माध्वीका जीवन व्यतीत उमने अन्तको निर्वाण प्राप्त किया। इस तरह महान करने की इच्छा प्रगट की। इस प्रकार अपने सम्राट क्षत्रिय वीर 'जीवक' का उज्वल चरित्र समाप्त होता पुत्रकी इच्छानुसार उसने अपने अवशिष्ट दिवस है, जिनकी स्मृतिम यह महत्वपूर्ण नामिल ग्रंथ तापम श्राश्रममे भक्ति एवं आत्म सुधाग्मे व्यतीत 'तिरुत्तक्कदेव' ने बना। किये । एक दिन उद्यानमे भ्रमण करते हुए 'जीवक' इसमे ३१४५ पद्य हैं। इसका सुंदर मंकरण ने एक आश्चर्यप्रद घटना देवी। उमन एक मर्कटको 'नचिनारकिनियर' की मंदर टीका सहिन इस समय अपनी मर्कटीके माथ मानन्द जीवन व्यतीत करत उपलब्द है, और यह संस्करण प्रसिद्ध विद्वान हुए देग्वा । उसने शीघ्र ही दंग्या कि मर्कट एक मधुर महामहोपाध्याय डा० बी० 'स्वामिनाथ अप्पर' के पनस फल मर्कटीको प्रदान करनं लाया। उमी क्षण द्वाग प्रकट हुआ है, जिन्होने अपना सारा जीवन वन पालकने उम पनस फलको मर्कटकं हाथमे देखकर दुर्लभ तासिल ग्रंथोंके प्रकाशनमे व्यतीत किया है। मर्कटको दंडित कर उसके हाथमे वह फल छीन अब हमे पांच लघुकाव्योंके सम्बंधमें विचार लिया और उसे खा गया। जब जीवकने यह देखा करना चाहिये जिनके नाम यशोधर काव्य Page #244 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] तामिल भाषाका जैनसाहित्य २२५ (०) 'चूड़ामणि' (३) 'उद्यानन कथै' (४) 'नागकुमार- हिन्दूधर्मके सिद्धान्तमें संशोधन होनेके पश्चातकी यह काव्य' और (५) 'नीलकंशी', ये पांचो लघुकाव्य रचना होगी। प्रसिद्ध वेदान्तिक विद्वान 'माधवाचार्य' जैनग्रंथकागेंक द्वाग रचे गए थे। ने वैदिक क्रियाकांड में यह हितकारी संशोधन किया, १-यशोधरकाव्य-संस्कृत माहित्यके जैन ग्रंथों कि चावल के आटेकी बनी हुई वस्तुके द्वारा पशुबलि में ग्रंथकार ग्रंथके आदि अथवा अंतमे अपना कुछ न का काम निकाला जा मकता है। यशोधर काव्यकी कुछ वर्णन दिया करते हैं, किन्तु इसके विपरीत कथाका यह स्पष्ट उद्देश्य है, कि इस प्रकारके सुधारके तामिल माहित्यम इम सम्बन्धमें ग्रंथकार पूर्णतया माथ भी वैदिक यज्ञविधि त्याज्य है। चारित्रका नैतिक मौन रखते है। प्रायः लग्बकवा नाम तक जानना मूल्य मन, वचन और कायकी एकतामें है । इस प्रकार कठिन होजाता है; उसके जीवनको विशेष घटनाओं की बलिम यद्यपि माक्षात् कृतित्वका अभाव है, किंतु की जानकारीकी बात ही निगली है। लेखककी बाकीकी दो बातोके सहयोगका प्रभाव नहीं पाया जीवन के सम्बन्धम हम कंवल प्रासंगिक माती पर जाता है । प्राणीवध करने की आकांक्षा, और इसके निर्भर रहना पड़ता है। कभी कभी एसी साक्षी लिए आवश्यक मंत्रोका उच्चारण वहां विद्यमान है अत्यंत अल्प रहती है और हमें प्रथकार तथा ही, अतः कृत्रिम पशुबलिको उसके स्थानमें स्थापित उसकी जीवनीकं मम्बन्धमें अपनी अज्ञानताको करनेसे मनुष्य पशुबलिके उत्तरदायित्वसं नहीं बच म्वीकार करना पड़ता है। यही बात इस 'यशोधर सकता। यह बात कथाका मूल उद्देश्य प्रतीत होती काव्य' के सम्बन्धम भी है। प्रायः लेग्वकके विषयमें है, जिसमें प्रसंग वश जैनधर्म-सम्बन्धी अनेक इमम प्राधिक कुछ भी ज्ञात नहीं है कि वह एक जैन सिद्धान्तोंका वर्णन किया गया है। इस लिए माधवभुनि थे । कथाकी प्रकृतिपरमं यही अनुमान हम कर तत्वज्ञानके संस्थापक द्वारा यज्ञ-विधानमें संशोधन मकते है कि 'माधवाचार्य' के द्वारा यज्ञ मम्बन्धी होजानेके बादकी यह कृति होनी चाहिये। (क्रमशः) कि इस "वह अधिक जानता है जो समझता है कि इस "भीतरसे बंध गये हो तो बाहरी बन्धन छोड़ दो।" अनादि अनन्त विश्वमेसे मैं कुछ भी नहीं जानता।" "जिसे श्रात्म-संयम कहते हैं, वह अपनी इच्छाके "एकान्तवादी मत बनो। अनेकान्तवाद अनिश्चयवाद विरुद्ध कार्य नही है । बल्कि कर्तव्य पालनके लिये है, नहीं है, किन्तु वह हमारे मामने एकीकरणका दृष्टिबिन्दु जिसमें कभी अपनी इच्छाके विरुद्ध न जाना पड़े, असत् उपस्थित करता है। इच्छा और प्रकृतिका दमन कष्टकर न हो, उस अवस्थाकी "किसी मनुष्यका चरित जाननेके लिए उसका विशेष प्राप्ति ही संयम-शिक्षाका उद्देश्य है । न समझकर पराई जीवन नही साधारण जीवन-दैनिक जीवन-देखना दृच्छा और श्राज्ञाके अनुसार काम करना, आत्म-संयम दृच्छा और आजाके अनमार । चाहिए। नहीं है। समझकर अपनी इच्छासे अपनी प्रवृत्तिको दबाने "मनुष्यकी दृष्टि उसके हृदयका प्रतिबिम्ब है।" का नाम ही श्रात्म-संयम है।" "सर्वोत्तमता जहा कही होती है, कार्यके रूपमें होती "स्वार्थ-परताका संयम मच्ची स्वार्थ-परताकी प्राप्तिका है। कारणके रूपमें नहीं।" उपाय है।" -विचारपुष्पोद्यान Page #245 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हार - लड़वारी पुनीत जैन-ती (ले० 10- श्री यशपाल जैन, बी० ए०, एल-एल० वी०) * 1.4 $♫ +9 बुन्देलखण्ड जैन तीर्थोका मुख्य केन्द्र है। सोनागिरी, नैनगिरि तथा द्रोणगिरि सिद्ध क्षेत्रो के अतिरिक्त अन्य कई इस प्रान्त में स्थित है। उन्हीं में से एक तीर्थ है हार | २४ फरवरीको वहाँ जानेका दमें मौभाग्य प्राप्त हुआ । वैसे तीर्थकी यात्रा पैदल ही की जानी चाहिये, लेकिन समयाभाव के कारण हम लोग मोटर से गये । हाँ व्यक्तिगत अनुभवसे मैं एक बात कह दूँ । जिन मज्जनोको उक्त तीर्थ की यात्रा करनी हो, वे टीकमगढ़ से या तो पैदल जाँय या बैलगाडीसे । मोटरका सहारा तो भूलकर भी न ले । इतने धक्के लगते हैं कि सारा शरीर चकनाचूर हो जाता है। वैसे भी बैलगाड़ीसे श्रपेक्षाकृत दो-तीन मीलका फामला कम पड़ता है - टीकमगढ़ से करीब १२ मील प्राकृतिक दृश्य हार लड़वारीकी प्राकृतिक छटा देखते ही बनती है । सुन्दर सुन्दर पहाड़ियाँ और लहलहाते खेत और वृक्ष । हार और लड़वारी थोड़े थोड़े फासले पर दो छोटेसे गाँव हैं। दोनों गाँवोंके बीच तीन तालाब हैं, जिनमें बड़ा तालाब 'मदनसागर' के नामसे प्रसिद्ध है। बरसात के दिनों में तालाब अपनी परिधि लाँघकर श्रापसमें मिल जाते हैं और तब उनकी शोभा वर्णनातीत होती है । हारके चारों श्रोर पहाड़ियाँ हैं । श्री शान्तिनाथ जैन पाठशाला के बरामदे में खड़े होकर इधर उधर देखनेसे शिमलाका स्मरण हो आता है । अद्वितीय मूर्ति-संग्रह लड़वारीसे निकलते ही मार्गमें इधर उधर पड़ी मूर्तियाँ मिलने लगती हैं । श्रहारके निकट दाँई ओरको एक प्राचीन मन्दिरके भग्नावशेष हैं। पर उनसे अनुमान होता है कि वद मंदिर बहुत विशाल रहा होगा । हार में तीर्थंकर भगवानांकी अनेक प्रतिमाएँ हैं, सभी खंडित । किमीका सिर नही है तो किमीका धड़, किसीका हाथ गायब है तो किसीका पैर । कहा जाता है कि यवनाने अपनी धार्मिक कट्टरता के वशीभूत होकर उनकी यह दुर्दशा की है। लेकिन जो भी अंग उपलब्ध हैं उनमे उनके निर्माताश्रोकी कार्यपटुताका पता लग सकता है। इन मूर्तिश्रांको प्राचीन वास्तुकलाका उत्कृष्ट नमूना कहा जा सकता है | किसीके चेहरेपर दास्य हैं तो किसीके गम्भीरता । जान पड़ता है कि अगर शिल्पकारके बसकी बात होती तो निश्चय ही वह उनमें जान डाल देता । तब वे प्रतिमाएँ जो मृक बेबसी की हालत में पड़ी हैं, स्वयं ही अपनी श्रावाज मे अपने साथ हुए अत्याचारोकी कहानी श्रादमीके बहरे कानों तक पहुँचाती । किमी भी प्रतिमाको देख लीजिए, क्या मज़ाल कि खुदाई में बालभरका भी कही अन्तर हो । मशीन की निर्जीव उंगलियोसे श्राज बारीकसे बारीक काम किया जा सकता है, पर उस युगकी कल्पना कीजिये जिसमें मशीन नहीं थी और सारा काम इने गिने दस्ती श्रीजारोंसे होता था । जरा हाथ डिगा या छैनी इधर उधर हुई कि सारा बना बनाया खेल बिगड़ा | लज्जाजनक दृश्य एक बात देखकर हमें बड़ा खेद हुआ ! तमाम मूर्तियाँ पाठशाला के पीछे खुली जगह में पड़ी हैं। उनपर होकर श्राठ सौ बरसातें, जाड़े और गर्मी निकली हैं, लेकिन किसी भले मानसको यह भी नही सृझा कि उन्हें उठवाकर कहीं बन्द Page #246 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] अहार-लड़वारी २२७ जगहमें रखवा दे। हमारी काहिली और लापरवाहीका यह किया था। 'पापट निस्सन्देह एक महान कलाकार होगा। निकृष्ट नमूना है और इससे इस बातका पता चलता है कि उसकी प्रतिभा सराहनीय है। अपने श्राराध्य देवोकी कितनी कद्र हम करते हैं। ये वेही इन प्रतिमाश्रोपर जिस प्रकारकी पालिश हो रही है, उस प्रतिमाएँ तो हैं जिनकी कि मन्दिरमें हम रोज़ पूजा-श्राराधना प्रकारकी पालिशकी प्रतिमाएँ, कहा जाता है, सातवीं करते हैं। जरा अन्दाज कीजिये, अाठ सौ वर्षोंसे वे वहाँ शताब्दीके बाद कम ही मिलती हैं। कुछ लोगोका तो यह पड़ी हैं । लज्जासे सिर भुक जाता है । पाठशालाके भी कहना है कि श्राठवीं शताब्दीके बाद उसका सर्वथा अध्यापक महोदयको 'छहढाला' या 'भक्तामर' या 'दर्शन' लोप ही हो गया। यदि यह सच है तो पुरातत्त्ववेत्ताओके पढ़ानेमे इतना अवकाश कहाँ कि इस ओर ध्यान दें। यदि लिये प्रतिमाएँ अध्ययनकी वस्तु हैं। यही प्रतिमाएँ और कहीं होती तो मंग्रहालयमें शोभा पाती जैन-भाइयोंसे अपीलऔर दूर-दूरसे यात्री श्रा-श्राकर उनके दर्शन कर अपनेको यहा मैं अपने जैन-भाइयोंसे एक अपील करना चाहता धन्य मानते। हूँ । श्रहार हमारा एक बड़ा तीर्थ-क्षेत्र है। उसके गौरवको शान्ति और कुन्थु भगवानकी प्रतिमाएँ- हम यो ही नष्ट न हो जाने दें। उसकी रक्षाके लिये तन-मन___ पाठशालाके सामने अहातेके भीतर ही पत्थर-चनेका धनसे जो कुछ कर सकें, करें। नीचे लिखी बातोकी एक मन्दिर है । हाल ही का बनवाया हुआ है। देवनेमें श्रावश्यकता मुझे प्रतीत होती है:मामूली-सा जान पड़ता है। यात्री स्वप्न में भी कल्पना नहीं (१) संग्रहालय-इन प्रतिमानोंको सुरक्षित रखनेके नहीं कर मकता कि इस जीर्ण शीर्ण गुदड़ीमें लाल छिपे लिये मंदिरके समीप ही एक बड़ा-सा कमरा बन जाना चाहिए। कमरा बनाने में दो तीन हजार रुपयेसे अधिक नाथकी १८ फीट लम्बी बड़ी प्रतिमा है। उनके बगलसे खर्च न होगा। पत्थर वहाँ बहुत पाये जाते है और वैसे बाई अोर भगवान कुन्थुनायकी ११ फीटकी प्रतिमा है। भी यदि हम अपनी अकल पर पडे पत्थरों को हटाकर वही कहा जाता है कि दाई ओर भी इतनी ही बड़ी अरहनाथ रख तो एक नहीं दस कमरे बन सकते हैं। भगवानकी प्रतिमा थी, लेकिन पता नहीं कोई लुटेरा उसे हमारे जैन-समाजमें धनियोंकी संख्या कम नहीं है। उटाकर ले गया या कहीं भूगर्भ में वह विश्राम ले रही है। अत: यह कार्य सुगमतासे हो सकता है। दोनों प्रप्तिमाएँ बहुत ही भव्य हैं। उनके चेहरेका सौन्दर्य (२) पुरातत्त्वकी दृष्टिसे अध्ययनकी आवश्यकता और तेज देखकर हम अाश्चर्यचकित क्षणभर मूक बैठे मैंने ऊपर कहा है कि बुन्देलखण्ड जैन-तीर्थोंका मुख्य केन्द्र रहे। हमारे एक साथी श्री कृष्णानन्दजी गुप्तने, जिन्हें है। मूर्तियों और शिलालेखोंकी इस प्रान्तसे भरमार है। उन घूमनेका बहुत अवसर मिला है, बताया कि इतनी बड़ी सबका पुरातत्त्वकी दृष्टि से अध्ययन किया जाना चाहिये। प्रतिमाएँ तो उनकी निगाहसे गुज़री हैं, लेकिन जैनियोकी इस कार्यके लिए यहाँ कहीं भी एक पुरातत्त्व-विभाग खुल इतनी सुन्दर प्रतिमा उन्होने अन्यत्र नहीं देखी । 'मधुकर'- जाना चाहिए। उसके अंतर्गत एक-दो विद्वान निरन्तर सम्पादक भी उनके सौन्दर्यको देग्वकर मुग्ध हो गये। खोजबीन करते रहे। इधर उधर खुदाई कराकर वे नवीन प्रतिमाओंके नीचे जो प्रशस्तियाँ दी हुई हैं, उनसे पता मूर्तियां भी प्राप्त करें। सुना जाता है इस प्रान्तमें स्थानचलता है कि 'पापट' नामके शिल्पकारने उनका निर्माण स्थानपर भूगर्भ में मूर्तियाँ छिपी हैं। Page #247 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २२८ अनेकान्त [ वर्ष मूर्तियों प्राप्त करना उतना कठिन नहीं हैं जितना कि महोदयसे मालूम हुआ कि चीजे तो सब हो जाती हैं, उनकी रक्षा करना । अाजकल मूतियोंकी चोरी खूब होती लेकिन संस्था ग़रीब है । यह सुनकर बड़ी हुँ झलाहट हुई । हैं । सुना है बहुतसे लोग मूर्तियां बेचकर उनसे धन कमाते थोड़ी-बहुत तरकारी स्वयं पैदा कर लेनेमें कौन हमार-दोहैं । यह हमारे लिये अत्यन्त लज्जाकी बात है। इस प्रकार हज़ारकी ज़रूरत पड़ती है। ज़मीन चारों ओर खाली पड़ी के लुटेरोंमे मूर्तियोकी रक्षा करनी चाहिये। है और अहातेमें भी इतनी जगह है कि पचास श्रादमियोक __ (३) धर्मशाला-बाहरसे आये हुए यात्रियोंके लिये लिए अच्छी तरह भाजी पैदा की जा सकती है । हो कुछ श्रदारमें ठहरनेका उचित प्रबन्ध नहीं है। महावीर तथा बुद्धि और शारीरिक श्रमकी आवश्यकता होगी। यह हमारा अन्य तीर्थक्षेत्रों में ठहरनेके लिए धर्मशालाएं हैं। महावीरजी दुर्भाग्य ही है कि पढ़ाईपर अधिक जोर देकर हम शारीरिक में तो मैंने देखा कि यात्रियोको पलंग तक मिल जाते हैं। श्रमका श्री अहारमें भी मन्दिरके अहातम एक छोटीसी धर्मशाला हानी अध्यापक महोदय ध्यान देंचाहिये। अध्यापक महोदयको यह जान लेना चाहिये कि स्वास्थ्य मूर्तिया-सम्बन्धी जो भी उल्लंग्व प्राम दी, उन तथा पढाईसे अधिक महत्त्वपूर्ण है। कहावत है, शरीर स्वस्थ हो अन्य बातोंके प्रचारके लिये एक सुयोग्य व्यक्तिको नियुक्ति तभी मन चंगा रह सकता है। अध्यापक जीका कर्तव्य है धावश्यक है। वह यात्रियोंकी सुख-सुविधाका ध्यान रखें कि वे विद्यार्थियोंके स्वास्थ्यका पूरा पूरा ध्यान रखें । और जो यात्री तीर्थों के दर्शन करने आना चाहे उनको प्रत्येक विद्यार्थी के लिये श्रावश्यक करदें कि वह प्रति दिन संपूर्ण सूचना भेजते रहे जिमसे उन्हें मार्गमें किसी प्रकारकी घंट-डेढ-घंटे ग्वेतमें काम करें। बच्चोको अपने श्रमसे चीजें असुविधा न हो। पैदा करनेमें बड़ा अानन्द श्राता है। अपने हाथों बोये (४) सड़ककी मरम्मत-अहार-लड़वारीका रास्ता बीजामें जब वे कल्ले फूटते और बेल या पेड़को बढ़ते अच्छा नहीं है। कच्चा रास्ता है और ऊबड़ ग्वाबड़ । यदि देग्वत हैं तो उनका हृदय प्रफुल्लित हो जाता है। अल्प सम्भव हो सके तो पक्की, नहीं तो कच्ची सड़क टीकमगढ़से श्रायुके इन बच्चाको अभी संसाग्में बहुत कुछ करना है और श्रहार तक बन जानी चाहिये। बहुतसे वृद्ध या अस्वस्थ उनके विकासका यही ममय है। दमार समाजके कोई भी यात्री मार्ग ठीक न होने के कारण तीर्थोके दर्शन-लाभमे धनी भाई बच्चोंके दूधके लिये श्रामानीसे आठ-दम गायांकी वंचित रह सकते हैं। व्यवस्था कर सकते हैं । यदि हमारा ममाज इतना मुर्दा हो श्री शान्तिनाथ जैन पाठशाला गया है कि ८-१० गायोंका भी प्रबन्ध नहीं कर सकता तो मन्दिरके अहातेके भीतर ही श्रीशान्तिनाथ जैनपाठशाला अध्यापक-महोदयसे मैं प्रार्थना करूँगा कि व पाठशालाको है, जिसमें आजकल २३ विद्यार्थी और एक अध्यापक है। वि. बन्द कर दें। बच्चोंके स्वास्थ्यको नष्ट करनेका उन्हें कोई द्यार्थी रात दिन वही रहते हैं। मुझे यह जानकर अत्यन्त ग्वेद अधिकार नहीं। पर नहीं, मुझे आशा है हमाग समाज हुश्रा कि उन्हें शाकभाजी और दूधके दर्शन भी नहीं होते। अभी जीवित है। अपने धर्मकी रक्षा तथा उन छोटे छोटे पहले तो मैं समझा कि पथरीली धरती होनेके कारण शायद बच्चोंकी खातिर वह उदारतापूर्वक सहायता देगा। शाक-भाजी वहाँ पैदा ही न होती ही, परन्तु बाद में अध्यापक कुण्डेश्वर, टीकमगढ़ Page #248 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मट [ लेखक प्रफेसर एन० उपाध्याय, एम० ए० डी. लिट ] ( वादक - ० मूलचन्द्र जैन बी० ए० ) 'गोम्मट' शब्द दो प्रधान प्रकरणों मे आता है । बाहुबलिको तीन महान मूर्तियाँ, जो श्रवणबेलगोल, कारक और वेणूर में हैं, आमतौर पर गोम्मटेश्वर वा गोमटेश्वर ' के नाम से प्रसिद्ध हैं; और 'पंचसंग्रह ' नामक जैनग्रन्थ, जो कि नेमिचन्द्र सिद्धान्त चक्रवर्तीद्वारा प्रणीत वा संकलित है, साधारणतया 'गोम्मटसार' के नामसे पुकारा जाता है । यह एक महत्त्व की बात है कि यह शब्द दोनों प्रrरणों में द्वितीय नामोंमें आता है। ये तीन मूर्तियाँ जिम व्यक्तिका प्रतिनिधित्व करती हैं वह भुजबल, दार्बलि, कुक्कुटेश्वर इत्यादि नामोंसे जाना जाता है; और प्राचीन जैन साहित्य में, चाहे वह श्वेताम्बर हो या दिगम्बर १ यह निबन्ध बम्बई यूनिवर्सिटीकी Springer Rese arch scholarship की मेरी अवधि के मध्य में तैयार किया गया है । २ Epigraphia carnatica II (Revised Ed.) भूमिका प्र8 10 18, 1920 । ३ रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला, बम्बई से दो हिस्मो 'जीवकाण्ड' (1916) और 'कर्मकाण्ड' (1928) में प्राप्य । ४ ‘अभिधानराजेन्द्र' श्वेताम्बर साहित्य के बृहत् विश्वकोशके समान है, और इसमें 'गोमटदेव' सम्बन्धी सूचना देन हुए किसी भी प्राचीन आधारका वर्णन नहीं है। जो कुछ हमे बतलाया गया है वह यह है कि यह नाम कलिग देश के उत्तर में तो ऋषभकी मूर्तिका स्थानापन्न है और दक्षिण बाहुबली की मूर्तिका ( Vol. III Ratlam 1913, P. 934 ) दिगम्बर श्राधारांका उपयोग एपिफिया कर्णाटकाकी दूसरी जिल्द (E. C. 11 ) की मूनिका पूर्णतया किया गया है। ६ कहीं भी वह गोम्मटेश्वर, गोम्मट-जिन आदि नामसे वर्णित नहीं है। इसी प्रकार उस ग्रंथको जो 'गोम्मटमार' नाम दिया गया है, वह भी उसके विषयों को सूचित नहीं करता, क्योंकि उस प्रन्थकामार्थक नाम पञ्चसंग्रह " है । बेल्गालकी मूर्ति इन तीन मूर्तियों 1 में सबसे पुरानी है और अभी तक जैनसाहित्यमे या किसी अन्य स्थानपर ऐसा कुछ उल्लेख नहीं मिला है जो यह प्रकट कर सके कि बेल्गोलकी मृर्तिक स्थापित होनेसे पहिले बाहुबल गोम्मटेश्वर कहलाते थे । इसकी स्थापनाके पश्चात् के बहुत से शिलालेखीय और साहित्यिक उल्लेख ऐसे मिलते हैं जिनमें इम मूर्तिका 'गोम्मटेश्वर' के तौर पर उल्लेखित किया है। श्रवणबेल्गाल के बहुत से शिलालेख इस मूर्तिको गोम्मटदेव + ईश्वरजिन, + ईशजिन, + ईश-नाथ. जिनेन्द्र, जिनप, स्वामि, + ईश्वर + ईश्वरस्वामि जैसे नामों से नामांकित करते हैं और कंवल 'गाम्मट' के तौर पर बहुत ही कम उल्लेख करते हैं । अक्षर विन्यास से स्वरों में कुछ भिन्नता पाई जाती है, जैसे गोम्मट, ५ द्रव्यसंग्रह ( S. B. J. I, आाग १६१६, भूमिका पृष्ठ ४० ) । ६ बेल्गोलकी मूर्ति की प्रतिष्ठा संभवत: ६८३ A. D. मं. कारकलकी १४३२ A. D. में और बेरकी १६०४ A. D. में हुई थी। ૩ ये नोट एविग्रफिया कर्णाटका ( E. C. II ) की दूसरी जिल्द के इण्डेक्स ( Index) में दिये हुए उल्लेखके मेरे विश्लेषण के कमर पर हैं । Page #249 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३० अनेकान्त [वर्ष ४ गुम्मट और गोमट; परन्तु शब्द निःसंदेह एक ही है। मम्बंध बेल्गालकी मृतिके साथ उसी प्रकार है जिस शिलालेखोंसे कुछ बिगड़ी हुई शकलें भी मिलती हैं। प्रकार कि प्राकृत ग्रंथके साथ है । यदि हम गोम्मटजैसे गोमटेश्वर, गुम्मनाथस्वामि, और यह मार' की कुछ अन्तिम गाथाओंको ध्यानपूर्वक लेखकोंकी ग़लतियाँ मानी जा सकती है। मगर ग्रंथ पढ़े तो एक बात निर्विवाद सिद्ध है कि चामुण्डराय का नाम मब जगह 'गोम्मटसार' है। जो 'वीरमार्तण्ड' की उपाधिके धारक थे, उनका ___ अनेक कारणाम गोम्मट' शब्द दोनों स्थानां दूसरा नाम 'गोम्मट' था और वे 'गोम्मटराय' भी पर एक ही जैसी व्याख्याका पात्र है । बेल्गाल' में कहे जाते थे । नमिचंद्रने ओजपूर्ण शब्दोंमें उनकी मूर्तिकी यथाविधि प्रतिष्ठा करानक जिम्मंदार चाम- विजयके लिये भावना की है । इन गाथाओं और ण्डगय हैं, जो कि गंगगजा गजमल (ई० मन ९७४. उनकी टीकाकी जांच में यह जाहिर होता है कि ९८४)का मंत्री और सेनापति था और दीकाका- 'गाम्मट' शब्द अथकी कुछ हल्कीसी भिन्न छायाश्राम द्वारा उल्लेखित कथाकं अनुमार नमिचंद्रन इसी बार बार इस्तमाल किया गया है। मुझे मालूम होता है चामुण्डगयकं लिय धवला जैस प्राचीन ग्रंथोपरस कि शब्दका यह बार बार इस्तेमाल गोम्मट' वा विषयोंका संग्रह करके गाम्मटमार' संकलित किया चामुण्डगयकी प्रशसा करनका दूमग ढंग है। जिनथा । यद्यपि निश्चित तिथियाँ प्राप्य नहीं है, फिर भी संनन भी वीरसेनकी इसी प्रकार प्रशंसा की है। इतना सुनिश्चित है कि नमिचंद्र और चामण्डराय इम ममकालीन साक्षीक अतिरिक्त ई०सन् ११८०कं एक समकालान थे और मूर्तिका स्थापन और गोम्मटसार शिलालम्वपरमे हम मालूम होता है कि चामुण्डराय का सकलन दाना समकालान घटनाएँ है, जोकि का दूसरा नाम 'गाम्मट' था। मुम ऐमा जान करीब करीब एक ही स्थानस सम्बन्ध रग्बती हैं । पड़ता है कि यह चामुण्डगयका घरेलू नाम था। इसलिये हम 'गाम्मट' का जा भी अर्थ लगायें वह ___ यदि इन बातोंको स्मृतिमें रखते हुए कि प्राचीन महान मूर्निके नामके साथमें और प्राकृत ग्रंथके नाम जैनसाहित्यमे बाहुबलिका गोम्मटेश्वर नहीं कहा गया के साथमें भी संगत होना चाहिये। है और यह शब्द केवल बल्गालकी मूर्निकी प्रतिष्ठा यह एक महत्त्वकी बात है कि चामुण्डगयका ११ जीवकाण्ड ७३३ और कर्मकाण्ड ६६५-७२ इन गाथाओं को मैंने अपने लेग्व Material on the Inter८ E. C. II, नं० ३७७, ३५२ । pretation of the word gommata में जा E. C. II, भूमिका पृष्ठ १५ । Indian Historical Quarterly Vol. XVI No.2 के Poussin Number का १० देखो अभयचन्द्र: केशववों ओर नेमिचन्द्रके प्रारंभिक अंग है. अालोचनाके साथ अंग्रेजीमं अनुवाद किया है। कथन । केशववर्णाकी कन्नडी टीका अभी तक प्रकाशित १२ देखो, मेरा लेग्य जो ऊपरके फुटनोटमें नोट किया गया है; नहीं हुई। अभयचन्द्र और नेमिचन्द्रकी संस्कृत टीकाएँ षटखंडागम प्रथमभाग प्रो०हीरालाल जैन द्वारा संपादित, (जो केशववर्णांका बिल्कुल अनुकरण करती हैं) गाँधी- अमरावती १६३६, भूमिका पृष्ठ ३७, फुटनोट १, पद्य १७ हरिभाई-देवकरण-जैन-अन्यमाला, ४, कलकत्तामें प्रका- १३ देखो ( E. C. II) नं० २३८ पंक्ति १६ और शित हुई है। अंग्रेजी संक्षेपका पृष्ठ ६८ भी। Page #250 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] गोम्मट के बाद ही व्यवहारमें आया है तो यह बात प्रामानी यद्यपि चामुण्डरायके सम्बन्धस 'गोम्मट' एक से विश्वास किये जानके योग्य हो जाती है कि यह विशेषसंज्ञा (निजी नाम) है, फिर भी देखते हैं कि मूर्ति बतौर गोम्मटेश्वरके (गोम्मटस्य ईश्वरः तत्पुरुष इस शब्दका क्या अर्थ है और इसके शाब्दक ज्ञान समास) 'गोम्मटके देवता' के इस लिये प्रसिद्ध हुई है पर क्या कोई प्रकाश डाला जा सकता है । हमारे पास क्योंकि इस चामुण्डरायने, जिमका अपर नान इस बातका कोई प्रमाण नहीं है कि 'गोम्मट' 'गाम्मट' है, बनवाकर स्थापित किया था। बहुनसे अथवा 'गुम्मट' शब्द संस्कृतसं निकलता है । 'गोमट' एस देवताओंके उदाहरण मिलते हैं जिनके नाम रूप जो बल्गोल के देवनागरी शिलालेग्वोंमें खास तौर मन्दिरोंके संस्थापकांक नामोंका अनुसरण करते हैं। संपाता है, वह इसका मंकृत उच्चारण '६ के निकट नीलकण्ठेश्वरदेव लक्ष्मणेश्वरदेव, और शंकेश्वरदेव लानका प्रयत्नमात्र है । भारतकी आधुनिक भाषाश्रो एस नाम हैं जो कि नीलकण्ठ नामक (शक १०५१) मे मराठी ही ऐसी भाषा है जिसमें यह शब्द प्रायः लक्ष्मण और शंकर चमनाथ के द्वारा प्रतिष्ठित व्यवहृत हुआ है और अब भी इसका व्यवहार चालू देवताओंका दिये गये हैं। पार 'गोम्मटसार' नाम है। इसलिये दिया गया क्योंकि यह धवलादि ग्रन्थाका 'दृष्टांत-पाठ' ग्रन्थकं मूलमें, जाकि प्रायः शक सार था, जिस नेमिचन्द्रन नस तौर पर 'गोम्मट' १२०० का कहा जाता है, 'गोम्मट शब्द आता है:चामुण्डगयके लिय तैयार किया था। जब एक बार (१) वाग्वटें करीतसांतां कव्हणी गोमटेयातें न पर्व । बल्गालकी मूर्तिका नाम गाम्मटेश्व' पड़ गया तो गोमटे करीतसानां कव्हणी बोटे यातें न पर्व ।। दृष्टांत १०१। शनैः शनैः यह नाम कर्मधार यसमासके तौर पर (२) तो म्हण । कैसाबापुडा । गांग गामटा । धारे समझ लिया गया (गोम्मटश चामो ईश्वरः)" और आर धाकुटा ।गणीयचा पूत ऐसा दीसतु अने ॥ष्टांत१३, ब दम बाहबलि की दूसरी मूर्तियोंक लिय भी जा (२) यह शब्द ज्ञानेश्वरी (शक १२१२)में बार बार कारकल और वेणूरमें है, यह नाम व्यवहन हुआ। व्यवहत हश्रा है, और मिस्टर पैन पहिले ही ऐसे यह एक तथ्य है कि वे बेल्गोल-मृर्तिकी नक़ल हैं। उल्लेखों मेंस कुछका नोट किया है। यहां मैं कुछ १४ के.जी.वृन्दनगर: उत्तरीयकरनाटक और कोल्हापरस्टेटके वाक्यांश उधृत करता हूँ। शिलालेख, कोल्हापुर १६३६, पृष्ठ १८, ६५.४० श्रादि। १६ E. C. II. Nos. 19.2, 248, 277, वास्तबमें १५ गोम्मट माधारण अर्थोंमें प्रसन्न करने वाला; देखो, इसका यह मतलब नहीं है कि कन्नड वर्णमालासे लिखे E. C. JI. No. २३४ (A. O. 1180) पंक्ति हुए संस्कृत और कन्नड शिलालेखामें 'गोमट' शब्द नही ५२, जहां यह शब्द प्रसन्न करने (Pleasing) मिलता। के अर्थमें पाया है। सम्भवत: इसका अर्थ अत्युत्तम १७दन वाक्याशोके लिये में अपने मित्र प्रो० वी० बी० कोलटे (excellent ) भी है. देखो E. C. II. No अमरावतीका श्राभारी हैं। २५१ (A.D.1118), पंक्ति ३१. प्रथमबार व्यवहृत १८देखो, उसकी कन्नड पुस्तिका 'श्री बाहबलि गोमटेश्वर और नं० ३४५ (A.D.1159) पंक्ति ५०, द्वितीयबार चरित्र', मंगलोर १६३६ पृष्ठ ३०, फुटनोट २७ । व्यवहृत । मैंने उन पाठोको अागे उदधृत किया है। १६ वी० के० रजवाड़े 'ज्ञानेश्वरी'. धुले, शक १८३१ । Page #251 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३२ अनेकान्त [ वर्ष ४ (1; जैसें आंधलया अव्हांटा। का माजवणदान (१. तुम्ही मगठे लोक श्रापले आदा तुम चे मर्कटा । तैसा उपदंशु हा गोमटा । श्रोडवला गोमटे व्हावे म्हणून पष्टच तुम्हांम लिहिल अम । अम्हां ।। ३.९ मर्व प्रकारे तुमचे गोमटें फान, विमी आम्हां () हे सायाम देवां माटे । अाता कैसनि पां येकोल पासून अंतर पडतरी व मागील दावियाचा किंतु __फीटे । म्हणौनि योगी मार्ग गामटं । शाधिलं आम्हा मनांतून टाकीला विमी श्राम्हाम श्री देवाची दोन्ही ॥८-२४३ श्रागण अस। (3 तैम मी वांचूनि काहीं । अणिक गामटें चि नाहीं। (३) आम्ही मर्व प्रकार तुमचे गाम करावयासी ____ मज चि नावें पाई । जीणें टेविलं ।। ५.३३२ अंतर पडा नंद ऊन । (4) वोग्वटें ना गामटें । या कादमया ही न भेटे। यह (गोमट) शब्द इन वाक्योंमे वाक्य प्रसंगम गनि देय न घटे । सय जैमा ॥ १०-५६४ म्वयं अपनी व्याख्या कर मकना है। अाधुनिक ( तेया परी कपिध्वजा । या मरणार्णवा समजा। मगठी में इसका अर्थ 'बरं करण', 'भलाई करना है। पासोनि 'नगनि वाजा । गोटिया ॥ १३-१८४८ वास्तवम उमी पत्रम एक वाक्य मिलता है जो उपर (6 नाना सद्रव्ये गोमटीं । जालयां शगंग पैठी। लिग्वे अर्थका दृमरे शब्दों में व्यक्त करता है। हाउनि ठाकनि किरीटो । गल, चि जेवि ॥१८-७४ . (१) आपल्या जातीच्या मगठिया लोकांच उदारहणों की संख्या प्रामानी बढाई जासकती वर करावं ह आपणाम उचित आहे । है । फिर यह शब्द 'अमृतानुभव' में भी आया है:- इसका यह अर्थ है कि शिवाजा उनकी मामाजिक ।!। महाय श्रात्मविदोचे । करावया आपण वेचे। व गजनैतिक भलाई के लिये, संक्षेपमे मबकी भलाई गामट काय शब्दा च । एकैक वानू ।। ६-११ के लिय भावना करते हैं। (३) 'भास्कर' (शक ११९५) के शिशुपालवध" (५) मिस्टर पैन पहिले ही 'तुकागम'के 'अभंगा' में भी हमें यह शब्द व्यवहत मिलता है : मंस, जो प्रायः करके इस शब्दका व्यवहार करते हैं, 11) संगवगं निहटी घातली मानकेतकीची ताटी। एक उदहारण नीट किया हैवर्ग मांडवी उभिला गोमटी । पांच वर्णेया (१) जड़ानी गोमटी नाना रत्ने । १०० परागाची ।। ६५२, आज भी मगठी में हम 'गोग गामटा' का (४) 'गोमट' शब्द मगठाकालमें आमतौर पर महावग मिलता है, और काई शंका करता है कि इस्तेमाल किया जाता था, जैमा कि 'शिवाजी' के क्या यह मत्र प्रकारमं एक जोड़ा अथवा डबल समकालीन पत्रोंमें इसके प्रयागसे देखा जाता है। प्रयोग है। ऊपरक प्रयोग, जो वैम ही विना किमी इ० सन १८७७ के एक पत्र में जा शिवाजी न क्रमका ध्यान रक्ख हुए छांटे गए है, यह दिग्यानक 'मलोजी घोरपद' के नाम भेजा था, हम तीन लिये काफी हैं कि 'गोमट' शब्द मराठी में एक विश वाक्य मिलते हैं : षण है और इसका अर्थ है 'माफ', 'सुन्दर', २.के. के. गरटे 'श्री यमतानभव'. बम्बई PROR 'आकर्षक' 'अच्छा' आदि । 'कोंकगी' भापामें भी २१वी० ऐल० भवे 'शिशुपाल-वध', थाना शक १८४८ 'गोम्टो' शब्द है, और इसका वही अथ है जो 'मगठी' २२मेरे मित्र प्रो० A. G. Pawar, कोल्हापुर ने कपा में हैं। करके मेरा ध्यान इस रिकार्ड की ओर दिलाया। कन्नड माहित्यमें इम शब्दकं प्रयोगकी ग्वाज नहीं २३ 'शिवकालीन-पत्रमारमंग्रह', जिल्द २. पृना १६३०, की गई है फिर भी श्रवणबेल्गालक शिलालग्राम पत्र. १६०१ पृए ५५६-६१ तीन वाक्य हैं और यह उल्लेख क्रमशः ई० मन १११८, Page #252 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३ ] गोम्मट ११५६ और ११८० के हैं। वे यहां उधृत किये और यह अमम्भव नहीं कि हमाग शब्द इस धात्वाजाने हैं २८ : दशकं सकारण अर्थसे बना हो। बम जो कुछ हम (।) गोम्मटमने मुनिसमुदा इस शब्दकं बाग्में जानते हैं, वह यह है कि व्यक्ति यं मनदोलु मेक्षि सुनं वाचक नामोंके अतिरिक्त यह शब्द सबसे पहिले गोम्मटदेवर पृजेग इ० मन १५५८ के एक कन्नड शिलालंग्बम व्यवहन दं मुददि बिद्दनल्नं धीरोदान।। हुआ है; यह शब्द मगठी साहित्यम अकसर इस्तेमाल (6) गोम्मटपुर भूषणमिदु हुआ है, और यह आजकल भी मगठी तथा कोंकणी गांम्मट माय्नने समम्नपरिकग्महतं । में व्यवहन होना है; और इमक माथ लगे हुए अर्थ मम्मददि हुलचमू अपन दृढ सम्बंधका व्यक्त करत है। मुझ आशा है पं माडिमिदं जिनात्तमालयमानदं॥ कि कुछ भाषाविज्ञानके जानकार इस शब्द पर और (३) तम्मन पादग्न्ननु जरेलम्मद तपक्के नानुमि अधिक प्रकाश डालंगे। यह बिल्कुल म्पष्ट है कि तम्म नपक्कं वादाडनगीमिरियाप्पबेडनुत्तम 'गोम्मट' शब्दका दमरं शब्द 'गमट' श्रादिके साथ गनं मनमिल्दुममिगेयं बगंगालंद मिश्रित न करना चाहिये जा कि अनेक अाधुनिक दीगांड नी भारतीय भापाओम 'गुम्मद' ( cupola, dome, गोम्मटदेव निन्न नरिमंदलवायजनक्कं arch, vault.) और 'गुम्मददार' छनो श्रादिक गाम्मट अर्थोभ इस्तेमाल होता है। पिछला शब्द फार्मीक इन वाक्योंमें इसका अर्थ है 'प्रसन्न करनेवाला', 'गुम्बद' 'गुम्मज' से बना है और इसका उच्चारण 'उत्तम' इसके अतिरिक्त यह बहतसं व्यक्ति वाचक 'गुम्मट', 'घुम्ट' आदिक रूपम किया जाता है। नामोंम आता है "। तेलुगुमे हमे 'गुम्मड़' शब्द 'गाम्मटसार' की प्राकृत गाथाश्राम भी 'गाम्मट' मिलता है जिसका अर्थ है 'वह व्यक्ति जो अपने शब्दका व्यअन 'ट', 'ड' म नहीं बदला है । यह बात श्रापको मजाता है। दक्षिण कनाडाम गोम्मटदेव' इस आधार पर कि यह चामुंडरायका व्यक्तिगत और की मूर्ति आमतौर पर 'गुम्मडदेवर' कहलाती है। प्रसिद्ध नाम था और उसी प्रकार जिनका नाम चालू नामिल भाषामे हमे 'कुम्म्ट्र' शब्द मिलता है, पान्तु रहा है, यह बात कुछ हद तक ठीक मानी जामकती है। जहां तक मैं देखता हूं इसका 'गोम्मट' के साथ कोई इस तरह मै यह नतीजा निकालता हूं कि 'गोम्मट' दृढ मम्बंध नहीं है । इस शब्दकी आदि और 'चामुंडगय' का व्यक्तिगत नाम था; चंकि उन्होंने शाब्दिकपरिज्ञान (etymotogy) के लिये अधिक बाहुबलिकी मूर्तिकी भक्तिपूर्वक प्रतिष्ठा कराई थी, अध्ययनकी श्रावश्यकता है। शायद यह शब्द दक्षिण इलिये वह मूर्ति 'गाम्मटश्वर' कहलाने लगी और भारतीय शब्दभंडारसे आया है। इसे संस्कृती अन्तम 'नमिचन्द्र' ने उनके लिये जो 'धवलादि' का किसी धातुसे आसानीसे सम्बंधित करना संभव नहीं सार तैयार किया, वह 'गोम्मटसार' कहलाया । है। फिर भी धात्वादेश 'गुम्मड' है, जिमका प्राकृत अक्षरशः 'गोम्मट' शब्दका अर्थ है 'उत्तम' आदि । वैयाकरणोंने - ६ 'मुः' धातुके बराबर किया है, (अगली किरणमे ममान) २४ E.C. I. २५१, ३४५, और २३४ माला, २-६१,६३;तथा त्रिविक्रमका व्याकरण ३-१-१३१॥ २५गोम्मटपूर गोम्मटसेहि इत्यादि देखो, E. C. IL. का यह लेख बम्बई के 'भारतीयविद्या' नामक पाण्मासिकपत्र सूचीपत्र; गोन्मटदेव (कविचरित १. १६६)। ( Vol. II Part I) में मद्रित अंग्रेजी लेखपरमे २६हेमचन्द्रका प्राकृतव्याकरण ८-४-२०७ और देशीनाम- अनुवादित हुश्रा है। Page #253 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'मेरी भावना का संस्कृतपद्यानुवाद (उसी छंदमें ) [ले. पं० धरणीधर शास्त्री ] येन जिता गगद्वेषाद्याः सागेऽग्विलजगतोऽज्ञायि। गुणिनी वीक्ष्य चेतसि क्षिप्रं तरङ्गिनः म्यात प्रेमालब्धिः। सर्वेभ्यः प्राणिभ्यो यन च मुक्तिपथादेशाऽदायि ॥ यावन्छक्यं तत्सत्कृतिभिः स्या- मे चेतः सुग्वलब्धिः ।। कृतघ्नता स्यान्म न मानसं तिष्ठेन्मनसि न मे द्रोहः । बुद्धं वीरं जिनं हरि विधिमीशं वा तं म्वाधीनम् ।। टिनों दोषेष्वपि भूयातयाद् गुणचयने हुन्मोहः ॥ वदति यथारुचि जनस्तत्र मे भक्त्या म्याद्धृदयं लीनम॥ विषयाशासु हि ये मुह्यन्ति न साम्यभावतः म्युर्धनिनः । विदधतु निन्दामुतप्रशंसां श्रीगयायाद् वा यायात् । लक्षाब्दायुः स्यामद्यैव प्राणा यान्त्वथवा कायात् ।। सततं स्वेन हितेन परेपो म्युमनुजा हितसाधनिनः ॥ महाभय लाभ वा बन्धु यदि कश्चिज्जन उद्यन्छेत् । स्वार्थत्यागतपो दुष्करमपि विना खेदमाचरन्त्यहो'। तदपि न्यायमार्गतः स्वामिन पदं जातु मे नहि गच्छेत् ।। एवंभूनाः ज्ञानिसाधषो जगदुःखमपहरन्त्यहो' ॥ नहि प्रमाद्येत् सुग्यविनिमग्नं दुःखे जातु न शुचं व्रजेत्। एतारक साधूनां संगे ध्याने चापि सदा मग्नम्। पर्वततटिनीश्मशानभाषणकाननतोऽपि न भयं भजेत् ।। सदैव सुस्थिरमकंपमेतन्मनो मदीयं दृढ़तरमस्तु । तेषामिव शुभदिनचर्यायां चित्तं मे भूयाल्लग्नम् ।। प्रियविरहे चाप्रियमयोगे सहनशीलतां धरेददग्तु ॥ कमपि न जीवं कदर्थययं कदाप्यसत्यं न वदेयम् । परद्रव्यवनितासु न लुब्धम्तोषामृतमपि निपिबेयम् ॥ कंऽपि कदापि क्लिश्ययुनों जीवाः म सुखिनः सन्तु (४) वेग्मघं मानं च त्यक्त्वा मंगलमत्र नग गायन्तु ।। अहंकारभावं न भरेयं कम्मंचिदपि न कुप्ययम। प्रतिसा म्याद् धार्मिकचर्चा दुष्करमस्तु च पापमलम् इतरोन्नतिमवलोक्य जातुचिन्ना चेतमि कलयेयम ॥ . र कृत्वा ज्ञानचरित्रोत्कर्ष नर एतु स्वनृजन्मफलम ॥ (१०) . ईदृग् मम भूयाच्च भावना सत्यमग्लव्यवहारः स्याम । ननिभीतिरस्त क्षितिमध्ये वृष्टिः स्यात् समये शस्ते । यावच्छक्यं नरजीवन इह मानवजात्युपकारः स्याम् ॥ धर्मात्मानः म्यूगजानः प्रजान्यायकारस्ते ॥ गंगमाग्दुिर्भिक्षवर्जिता शांत्या कालं प्रजा नयंत् । सर्वेष्वपि सत्वेष्विह सख्यं संमारे मन में स्यात् । परमाऽहिंसाधर्मः प्रसग्न् भुवि सकलं हितमाफलयत् ॥ करुणाश्रोतो दीनदुःग्विषु च हृदा बहेन्मम सदाशयात ॥ करकुमार्गरतेषु जनेषु नोभलवाऽपि न में प्रभवेत् । प्रसग्तु मिथः प्रेम किल “धरणौ" किंतु न माहः संभूयात् । परुषप्रियं कटुमिहशब्दं नो कश्चिन्मनुजा यात् ।। साम्यभावना खलेष्वपि स्याद् हृत्परिणनिरीक्विकसत् ।। "यगवी" भयान्तर्मनसा देशान्नतिनिरताः प्रभवेम । १ प्रथमपंक्ती अहो अाश्चर्यार्थ द्वितीयाया प्रशंसार्थम् । वस्तुरूपमवधार्य मुदा सह मंकटदुःस्वसहा विकसेम ।। Page #254 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मक्खन वालेका विज्ञापन (एक मनोरंजक वार्तालाप) पंडितजी कहिये मेठजी! अबकी बारका 'अनेकान्त' तो नुसार, 'जैन तत्त्वज्ञानकी तल-स्पर्शी सूझका देखा होगा? बड़ी सज-धजके माथ वीरमेवा परिणाम है' । यदि अनेकान्तदृष्टि से उसे विज्ञापन मन्दिग्से निकला है! भी कहैं तो वह जैनीनीतिका विज्ञापन है-इस सेठजी-हाँ, कुछ देग्वा तो है, एक विज्ञापनसे प्रारम्भ नीतिका दूसरोंको ठीक परिचय कराने वाला होता है! है-न कि किमी मक्खन वालेकी दुकानका पाडतजी-कैसा विज्ञापन ! और किसका विज्ञापन ? विज्ञापन । उस पर तो 'जैनीनीति' के चारों सेठजी-मुखपृष्ठ पर है न वह किसी मक्खन वालेका अक्षर भी चार वृत्तांके भीतर सुन्दर रूपसे अंकित विजापन । हैं, जो ऊपर नीचे सामने अथवा बराबर दोनो पंडितजी-श्रच्छा, तो अनेकान्तके मुखपृष्ठ पर जो सुन्दर ही प्रकारसे पढ़ने पर यह स्पष्ट बतला रहे हैं कि भावपूर्ण चित्र है उसे श्राग्ने किमी मक्खनवाले यह चित्र 'जैनीनीति' का चित्र है । वृत्तोके नीचे का विज्ञापन समझा है! तब तो श्रापने खब जो 'स्याद्वादरूपिणी' श्रादि अाठ विशेषण दिये अनेकान्त देखा है ! हैं वे भी जैनी नीति के ही विशेषण हैसेठजी-क्या वह किसी मक्खनवालेका विज्ञापन नहीं है ? मक्खनवालेकी अथवा अन्य फर्म से उनका कोई पंडितजी-मालूम होता है मेठजी, व्यापार में विज्ञापनासे ही सम्बन्ध नहीं है । (यह कह कर पांडतजीने झोलेसे काम रहनेके कारण, श्राप मदा विज्ञापनका ही अनेकान्त निकाला और कहा-) देबिये, स्वप्न देखा करते हैं ! नहीं तो, बतलाइये उस यह है अनेकान्तका नववर्षाङ्क। इसमें वे सब चित्रमें अापने कौनसी मक्खनवाली फर्मका बाते अंकित है जो मैंने अभी श्रापको बतलाई नाम देखा है ? उसमें तो बहुत कुछ लिखा हैं। अब आप देखकर बतलाइये कि इसमें कहाँ हुआ है, कहीं 'मक्खन' शब्द भी लिखा देखा किसी मक्खनवालेका विज्ञापन है ? है! ऊपर नीचे अमृतचन्द्रसूरि और स्वामी सेठजी-(चित्रको गौरसे देखकर हैरतमें रह गये। फिर समन्तभद्रके दो श्लोक भी उममें अंकित है, बोले-) मक्खनवालेका तो यह कोई विज्ञापन उनका मक्खन वालेके विज्ञापनसे क्या सम्बंध ? नही है। यह तो हमारी भूल थी जो हमने इसे सेठजी-मुझे तो ठीक कुछ स्मरण है नहीं, मैंने तो उसपर मकवनवालेका विज्ञापन समझ लिया। पर यह कुछ गोपियों ( ग्वालनियो) को मथन-क्रिया करते 'जैनीनीति' है क्या चंज? और यह ग्वालिनीके देखकर यह समझ लिया था कि यह किमी पास क्यों रहती है ? अथवा क्या यह कोई जैनमक्खनवालेका विज्ञापन है, और इसीसे उस पर देवी है, जो विक्रिया करके अपने वे सात रूप विशेष कुछ भी ध्यान नहीं दिया। यदि वह किसी बना लेती है, जिन्हें चित्रमें अंकित किया गया मक्खनवालेका विज्ञापन नही है तो फिर वह क्या है ? ज़रा समझा कर बतलाइये। है ? किसका विज्ञापन अथवा चित्र है ? पंडितजी-जिनेन्द्रदेवकी जो नीति है-नयपद्धांत अथवा पंडितजी-वह तो जैनीनीतिके यथार्थ स्वरूपका संद्योतक न्यायपद्धति है-और जो सारे जैनतत्त्वज्ञानकी चित्र है, और हमार न्यायाचार्यजीके कथना मूलाधार एवं व्यवस्थापिका है उसे 'जैनीनीति' Page #255 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३६ अनेकान्त [वर्ष ४ कहते हैं । अनेकान्त-नीति और म्याद्वादनीति' ममन्तभद्रविचारमाला नामकी एक नई लेखमाला भी इसीके नामान्तर हैं। यह ग्वालिनीके पाम शुरू की गई है, जिममे 'स्वपग्वैरी कौन' इसकी नहीं रहती, किन्तु ग्वालिनीकी मन्यन-क्रिया बढ़ी दा सुन्दर एवं हृदयग्राही व्याख्या है; तत्त्वार्थइभके रूपकी निदर्शक है, और इम लिये दूध पत्रके बीजांकी पूर्व खोज है, 'समन्तभद्रका दही बिलोती हुई म्यालिनीकी इमका रूपक मानजीवन और आपत्काल' लेग्व बड़ा ही हृदयममझना चाहिये। श्रार यदि तमे व्यक्तिविशेष द्रावक एवं शिक्षाप्रद है, 'भक्तियोग-रहस्य' में नमान कर शक्तिविशेष माना जाय तो यह पृजा-उगमनादिके रहस्यका बड़े ही मामिक अवश्य ही एक जनदवता है. जो नयोंक द्वाग हंगमे उदघाटन किया है। इमरे विद्वानोके भी विक्रिया करके अपने मान म्य बना लेनी है अनेक महत्वपूर्ण मैद्धान्तिक, माहित्यिक. और इसीलिये विविध-नयापेक्षा' के. माथ इसे iतहासिक और सामाजिक लेखासे यह अलंकृत 'सप्तभंगरूपा' विशेषण भी दिया गया है। वस्तु है; अनेकानेक सुन्दर कावताश्रीस विभाषत है, तत्त्वका सम्यगमाहिका और यथानत्य-प्रमापका और 'श्रात्मबोध' जैसी उत्तम शिक्षाप्रद कहानिया भी यही जेनीनीति है । जैनियोंको तो अपने इस को भी लिए हुए है । इमकी 'पिजरेकी चिड़िया' श्राराध्यदेवताका मदा ही आगधन करना चाहिये बड़ी ही भावपूर्ण है। और मम्पादकजीकी लेखनी और इसीके श्रादेशानुसार चलाना चाहिये में लिखा हुई एक अादर्श जैनाहलाकी सचित्र इसे अपने जीवनका अंग बनाना चाहिये और जावनी तो सभी स्त्री-पुरुषोंके पढ़ने योग्य है और अपने सम्पूर्ण कार्य-व्यवहारोम इसीका सिक्का श्रच्छा श्रादर्श उपस्थित करती है। ग़रज़ इम चलाना चाहिये। इमकी अवहेलना करनेसे ही अंकका कोई भी लेख ऐसा नहीं जो पढ़ने तथा जैनी अाज नगण्य और निम्तेज बने हैं। इस मनन करनेके योग्य न हो। उनकी योजना और नीतिका विशेष परिचय 'अनेकान्त' सम्पादकने चुनावमं काफी मावधानीमे काम लिया गया है। अपने 'चित्रमय जनीनीति' नामक लेखमें दिया मेठजी मैं सब लेखोको जरूर गौरमे पढूंगा, और आगे है, जो ग्वब गौरके साथ पढ़ने-सुननेके योग्य है। भी बराबर 'अनेकान्त' को पढ़ा करूँगा तथा दूसरी (यह कह कर पंडितजीने सेठजीको बह मम्पादकीय को भी पढ़नेकी प्रेरणा किया करूँगा साथ ही अब लेख भी सुना दिया।) तक न पढ़ते रहनेका कुछ प्रायश्चित भी करूंगासेठजी-(पाडतजीकी व्याख्या और मम्पादकीय लेखको इम पत्रको कुछ महायता ज़रूर भेज़गा। बड़ी ही सुन कर बड़ी प्रसन्नताके. माथ) पंडितजी, श्राज तो कृपा हो पाडतजी, यदि आप कभी कभी दर्शन देते आपने मेरा बड़ा ही भ्रम दूर किया है और बहुत रहा करे। अाज तो मैं आपसे मिल कर बहुत ही ही उपकार किया है। मैं तो अभीतक 'अनेकान्त' उपकृत हुअा। को दूसरे अनेक पत्रोकी तरह एक माधारण पत्र पंडितजी-मझे आपसे मिलकर बड़ी प्रसन्नता हुई श्रापने ही समझता श्रारहा था और इसीलिये कभी इसे मेरी बानोको ध्यानसे सुना, इसके लिये मैं आपका ठीक तोरसे पढ़ता भी नहीं था, परन्तु आज मालूम श्राभारी हैं। यथावकाश में ज़रूर श्रापसे मिला हुश्रा कि यह तो बड़े ही कामका पत्र है-इसमें करूँगा। अच्छा अब जाने की इजाजत चाहता हूँ। तो बड़ी बड़ी गूढ बातोको बड़े अच्छे सुगम ढंगसे (सेठजीने खड़े होकर बड़े श्रादरके माथ पंडितजीको ममझाया जाता है। बिदा किया और दोनो श्रोग्म 'जयजिनेन्द्र' का सुमधुरनाद पंडितजी-(बीच में ही बात काटकर) देखिये न. इम नव- हर्ष के साथ गूंज उठा।) -निजी संवाददाता वर्षाङ्कमें दूसरे भी कितने सुन्दर सुन्दर लेख है Page #256 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अनेकान्त' पर लोकमत ७-प्रो० हीरालाल जी जैन एम० ए०, श्रमगवनी वर्षाङ्क' मंग्रहणीय है । ऐतिहामिक, मैद्धान्तिक और "अनकान्तको पुनः जागृत हुश्रा पाकर मुझे गर्वषणापूर्ण लेखोंक मिवाय साहित्यिक और बड़ी खुशी हुई, और उसे इतने सुन्दर सुमज्जिन म्प सामाजिक लेखोंका भी मंग्रह किया गया है। मर्वमें देख कर तो चित्त प्रमन्न होगया । मंगृहीत मामग्री माधारण के लिये यह वांछनीय तथा उपयोगी भी है। भी माहित्यिकोंके लिये ग्यब उपयोगी मिद्ध होगी। मुम्बपृष्ठका चित्र म्यादाद (अनकान्त) सिद्धान्तका श्राशा और विश्राम है कि यह पत्रिका माहित्यिक पूर्ण परिचायक है। 'अनकान्न' की अस्थिर अवस्था श्रेता और मौजन्यताको रक्षा करती हुई नगना का सुस्थिर बनाना जैन ममाजका कर्तव्य है । दानउन्नतिशील होगी।" शील महानुभावांका इस ओर लक्ष्य दकर जैन ८. पं० वंशीधरजी जैन व्याकरणाचार्य. बीना- माहित्य तथा धर्मप्रचारम हाथ बटाना चाहिये । आशा है 'अनन्त' पका-तके अजानकं विनष्ट "अनकान्तकं विशेषांकका अध्ययन किया । कग्न, जैन इतिहाम और माहिन्यकी खोज करने तथा आपके सम्पादनकी ही यह विशेषता है कि अनकान्त साहित्य और समाज मेवाकं अपने अनुमानम अभूतइनना महत्वपूर्ण और विद्वानांका आकर्षक बना बना पूर्व मफलता प्राप्त करेगा।" . हुआ है । विशेषांक सभी लंग्य गणनाकी काटिमें काटिम ११ मिघई नागमी, ललितपुर । आनके योग्य हैं । आपकी 'ममन्नभद्र-विचारमाला' ___ अनेकान्न' को अवलोकन करनम ज्ञात हुमा नामकी लग्यमालाम स्वामी ममन्तभद्रक विचागेका " कि उसमें जो संग्रह है वह उपाय है। ममाज में एम महत्वपूर्ण दिग्दर्शन होगा । विवाह और हमाग ही उत्तम पत्रोकी आवश्यकता है जो मामाजिक ममाज नामक लेम्व ममाजकं प्रत्येक व्यक्तिक लिए झगड़ाम दृर रह कर ममाजसंवाम अग्रसर रहें और पठनीय है। उसमे सामाजिकदृष्टिम काकी मंग्रहणीय ममाजोत्थानको अपना लक्ष्यविन्दु बनाकर उमीम मामग्री रखी गई है।" नन्मय रहे एम ही अंग्रपत्रांम समाजसुधार हानेकी पूर्ण ५ ५० के० भुजबली जी जैन शास्त्री, प्राग मंभावना है। ममा ज प्रेमियों । एम पत्रकं ग्राहक ___ "अनकान्तका विशेषांक अच्छा निकला है । हनिमें जग मा भी विलम्ब नहीं करना चाहिए।" 'तत्वार्थमूत्रक बीजोंकी ग्वोज' 'श्रीचंद्र और प्रभाचंद्र' १२ पं० दौलतगम जी जैन 'मित्र', इन्दौर'गांम्मटसारकी जीवतत्वप्रदीपिका टीका उसका कर्तृ . "अनेकान्तका विशेषांक मिला मुस्वपृष्ठ पर त्व और समय' आदि कनिपय लंग्य महत्वपूर्ण हैं।" जैन नीति' का जो चित्र अंकित किया गया है. वह १० बाबू सुमेरचन्दजी कौशल बी० ए०, सिवनी- अपन विषयको स्पष्ट करनेवाला तो था ही, फिर भी विविध-विषय-विभूपित 'अनकान्त' का 'नव- ममन्तभद्र विचारमालाक 'स्वपरवैरी कौन' ? नामक Page #257 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २३८ अनेकान्त [वर्षे४ मणिकाने ऊपर में और भी प्रकाश डाल कर उमं पड़ा-उसके अन्दर का विनाएँ मरल मनोरंजक मनाहर बना डाला है। इस प्रकाशमै 'जैनीनानि' निर्विवाद उपयोगी जान पड़ी कि जो प्रायः पत्रक्या है यह बान हर एक समझदारकी ममझ अच्छा पत्रिकाओम कम मिलता है। अक्मर पाण्डित्यक तरह समझ मकंगी, मंतुष्ट हो जायगी, और पंडितजनों आवेशमे निरर्थक, शब्दाडम्बरका रचना ही देवी के पनि मम यह शिकायत न रहेगा कि- जाती है। वांजके नग्न जैन नामिलभापाका जैन वाइज की हुजनाम कायल ना होगए हम । माहित्य, इलोग सम्बन्धी व चन्द्रगुप्त मम्बन्धी लग्न काई जवाब शाफी पर उनन बन न आया॥ भी मगहनीय हैं। श्राहिमाका विवंचन भी तात्विक कई वर्षों न जबम मैन गीता पढ़ी या समझी है, है........... आपके अंकको देखकर मुझे विशंप मरे मन में "गीनाकं बीज जिनागमम है" इम मममन हप ना यह होता है कि आपका समाज वेनाम्बर्ग और "वे बीज इकट्ठे होकर देग्वनको मिल जाय" समाज की तरह विद्या विवंचन विचारमं साधुवर्गका इस इच्छाने घर कर ग्ग्या है। तत्त्वार्थमत्रक बीजांकी मुग्वापक्षी नहीं है । स्वयं विचारशील है। और खोज" देग्यकर मग यह इच्छा भी मफल हानकी गाहन्थ्यधर्मके व्यवहार पर एवं धार्मिक सिद्धान्तो आशा कूदने लगी है। भगवान भला करे भाई पर खुद साच समझ मकना है, हांका नहीं जा सकता। परमानन्द या उन जैमा कोई सरस्वतीका लाल इधर यद्यपि अनकान्तके नामक अागे मांप्रदायिकता टहर भी मुंह करले-गीताकं ईश्वरमप्रिय तत्ववादको नहीं सकती। और आपकं लम्बोम जैनसम्प्रदायकी छादार शेष प्रायः सभी विपयोंकी सामग्री जिनागम झलक पानी । तो भी मै ग्वीकार वसंगा कि लग्यो से इक्ट्ठी करके उमं गीता जैसे रूपमे खड़ी करदे । का दृष्टिकोण बहुत उदार व विशाल है यदि आपके सब अंक ऐम ही माहित्यिक रचनाओं अंषित होने सचमुच उस दिन मै फल कर कुप्पा हो जाऊँगा।" १३ बा० कृष्णलालजी जैन, जोधपुर हैं और यह विशेषांक ही एक नमूनामात्र न हो तो मैं "मम्पादकजी महादय मुझे अनकान्तको देग्य नहीं सकता। आपको पत्रके सम्पादन के लिए बधाई दिये बगैर रह कर उसकी चमक दमकम कहीं ज्यादा उमके अन्दरके टाइटिलपंजपर जो चित्र दिया गया है वह विषय व उनपरका विवचन प्रिय व सुन्दर मालूम वाकई बहुत सुन्दर और मौलिक, और सैद्धान्तिक है । सूचना वीरसेवामन्दिरको सहायता सम्पादकजीके अचानक कलकत्ता चले जाने और उधर कई दिन लग जानके कारण 'समन्तभद्र श्रीमती माताजी बा० ट्राटेलालजी जैन रईस विचारमाला' का नीमग लेख तथा 'कविगजमल कलकत्ताने 'वारंवामन्दिर' को उसकी लायनेगमें कुछ और राजा भारमल' लग्वका उत्तरभाग इस अंकमे शाखाक मंगानक लिय २०० रु० का स मारास शास्त्रोक मंगानके लिये २००० की सहायता प्रदान नहीं दिया जा सका। पाठक महानुभाव उनके लिये की है । इसक लिय श्राम नाव लिये की है। इसके लिय श्रीमनीजी विशेप धन्यवाद की अगले अककी प्रतीक्षा करें। पात्र हैं। अधिष्ठाता, वीरसवामन्दिर प्रकाशक 'अनेकान्न' सरसावा जि० सहारनपुर Page #258 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * श्रीमद् राचजन्द्र म० गांधीजी लिखित महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना और संस्मरण सहित महान् ग्रंथ गुजरात के सुप्रसिद्ध तत्त्ववेत्ता शतावधानी कविवर रायचंद्रजी के गुजराती ग्रंथका हिंदी अनुवाद महात्माजी ने इसकी प्रस्तावनामे लिखा है- "मेरे जीवनपर मुख्यनाम कवि रायचंद्र भाई की छाप पड़ी है। टॉल्स्टाय और स्किन अपेक्षा भी रायचन्द्र भाईने मुझपर गहरा प्रभाव डाला है ।" चन्द्रजी एक अद्भुत महापुरुष हुए हैं, वे अपने समयकं महान तत्त्वज्ञानी और विचार, थे । महात्माको जन्म देनेवाली पुण्यभूमि काठियाव इमे जन्म लेकर उन्होंने तमाम धर्मो का गहराई अध्ययन किया था और उसके सारभूत तत्त्वों पर अपने विचार बनाये थे । उनकी स्मरणशक्ति राजबकी थी, किसी भी ग्रंथों एक बार पढ़के वे हृदयस्थ (याद) कर लेते थे, शतावधानी तो थे ही अर्थात सवानांग एक साथ उपयोग लगा सकते थे । इसमें ननके लिखे हुए जगत्-कल्याणकारी, जीवन में सुख और शान्ति देनेवाले, जावनोपयोगी, सर्वधर्मसम्भव, अहिंसा, भत्य आदि तत्त्वांस विरुद विवेचन है । श्रीमद्की बनाई हुई मोक्षमाला, भावनाबोध, आत्मामाद्ध आदि छोटे मोटे ग्रंथोक संग्रह तो है ही, सबसे महत्त्वती चीज में उनके ७४ पत्र, जो उन्होंने समय समय पर अपने परिशचन मुमुक्षुजनो को लिखे थे, उनका इसमें ग्रह है । दक्षिण अफ्रीका किया हुआ महात्मा गांधीजी पत्रव्यवहार भी इसमें है । अध्यात्म और तत्वज्ञानका तो खजाना ही है। गयचन्द्र जीका मूल गुजराती कविताएँ हिंदी अथ सहित दी हैं। प्रत्येक विचारशील विद्वान और देशभक्तको इस ग्रंथका स्वाध्याय करके लाभ उठाना चाहिये | पत्र-सम्पादकां और नामी नामी विद्वानोंने मुक्तकण्ठसे इसकी प्रशंसा की है । ऐसे ग्रंथ शताब्दियों में विग्ले ही निकलते है। इसके अनुवादक प्रो० जगदीशचन्द्र शास्त्री एम० ए० है । गुजराती में इस ग्रंथ के सात एडीशन हाचुके है। हिन्दीमे यह पहली बार महात्मा गांधीजी के श्राग्रह प्रकाशित हुआ है। बड़े आकार के एक हजार पृष्ठ हैं, छ: सुन्दर चित्र है, ऊपर कपड़े की सुन्दर मजबूत जिल्द बँधी हँ | स्वदेशी काग़ज़ पर कलापूर्ण सुन्दर छपाई हुई है । मूल्य ६) छः रूपया है, जो कि लागनमात्र है । मृल गुजराती प्रथका मूल्य ५) रुपया है। जो महादय गुजराती भाषा सीखना चाहे उनके लिय यह अच्छा साधन है । गजचद्रशास्त्रमालाकं ग्रंथ पुरुपार्थसद्धर्युपाय १।) ज्ञानार्णव ४ । सप्तभंगीतरंगिणी १) बृहद्रव्यसंग्रह २) गोम्मटमार कर्माँड २), गोम्मटसार जीवण्ड २), लब्धिसार (11) प्रवचनसार ५ ), परमात्मप्रकाश योगमार ५), कथाद्वादशमंजरी ४ ||), समाप्यतत्वार्थाधिगमसूत्र ३), मोक्षमाला भावनाबोध III), उपदेशछाया आत्मसिद्धि II) | योगमार | सभी ग्रंथ सरल भापाटीका सहित हैं। विशेष हाल जानना चाहें तो सूचीपत्र मंगालें । "खास रियायत - जो भाई गयचन्द्र जैनशास्त्रमाला के एक साथ १२ ) के ग्रन्थ मंगाएँगे, उन्हें उमाम्वातिकृत ‘सभाप्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' - तच्चार्थसूत्र-मादशाक भोपाटीका सहित ३ का ग्रन्थ भेंट देंगे। मिलने का पतापरमश्रुत प्रभावक मंडल, (गयचन्द्र जैनशास्त्रमाला) बाग कुवा, जौहरी बाजार, बम्बई नं० २ PA PRA Page #259 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४० अनेकान्त [वर्ष ४ NCon बेकार बन्धुओंके लिये स्वर्ण-संयोग ! __ स्वतंत्र आजीविका हमार्ग मंमार-प्रसिद्ध औषधियों, अचार-मुरब्बा, अर्क-शरबनीको बेचनेके लिय यू० पी०, मी० पी० और मध्यभारतके प्रत्येक शहर और कम्बेमे जहाँ हमारं एजेन्ट नहीं हैं, एजेन्टोंकी आवश्यकता है । शतें बहुत सुविधाजनक और आकर्षक हैं। एजेम्मी केवल पंमाग, अनार और वैववन्धुओंको ही दी जा सकेंगी। इम के अलावा कुछ खाम शहरों में कम्पनी अपनी शाखायें भी खोलना चाहती है, जिनमें कुलम्बी कम्पनी का अपना ही होगा माल भी कम्पनी अपना ही लगायगी। एजेन्टको केवल जमानत देनी होगी । परिश्रमी नवयुवक बन्धुत्रों का उत्तरकं लिय जवाबी कार्ड या टिकट भेज कर पृछना चाहिये । नकद जमानत दे सकने वाले बन्धु ही पत्र व्यवहारका कष्ट करें। और भी ********* हमें कुछ ऐम कमीशन एजेन्टोंकी भी आवश्यकता है जो घूम कर आर्डर प्राप्त कर सकें । उनका ट्रेंड करना कम्पनीका कार्य होगा। कौशलप्रसाद जैन, मैनेजिंग डायरेक्टर-भारत आयुर्वेदिक कैमीकल्स, लि० सहारनपुर [एक लाग्ब रुपयेके मूलधनस कम्पनीज़ ऐक्टके मुनाबिक स्थापित ] Page #260 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके सहायक जिन सजनोंने अनेकान्तकी ठोस सेवाांके प्रति अपनी अनुकरणीय प्रसन्नता व्यक्त करते हुए उसे घाटेकी चिन्तास मुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति करने और अधिकाधिक अनेकान्तकी महायताके चार मागोंमेंस दृसरे मार्गका रूपमे समाजसेवाओं में अग्रसर होनेके लिय महायताका वचन अवलम्बन लेकर जिन मज्जनोंने पहले महायता भिजवाई थी दिया है और इस प्रकार अनेकान्तकी महायकश्रेणीमें अपना और जिसकी सूचना अनकानकी गतकिरण में निकल चुकी नाम जिग्वाकर अनेकान्तके संचालकाको प्रोत्साहित किया है, उसके बाद जिन मज्जनोंने और महायता भिजवाकर उनके शुभ नाम महायताकी रकम-महित इस प्रकार हैं: - अनुकरणीय कार्य किया है, उनके शुभनाम महायताकी .१२१बा. छोटनालजी जैन रईम. कलकत्ता रकम महिन इस प्रकार हैं: - १०१। बा. अजिनप्रमादजी जैन एडवोकट. लग्खनऊ। १०) ला. मित्रमैनजी रिटायर्ड मुमरिम मिविलकोर्ट, मुज़१०) बा. वहादुरसिंहजी मिची, कलकत्ता । फ्फरनगर चारको एक माल तक अनेकान्त विना मूल्य १०.' साह श्रेयांमप्रमादजी जैन, लाहौर । देनके लिय। *१०.' साह शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर । •१०० वा० शांतिनाथ सुपुत्र बा. नदनालजी जैन कलकत्ना। २०) बा. देवेन्द्रकुमारजी मुपुत्र और श्रीमती शकुन्तलादेवी १००) ला. जनमुग्वरायजी जैन, न्यू देहली। जी सुपत्री माहगमम्वरूप न रहम नजीबाबाद । १०.) सेठ जोग्वीराम बैजनाथजी मगवगी, कलकत्ता । (वा. देवेन्द्रकुमारजीके प्रारोग्यलाभकं उपलक्ष्यमें १००' वा. लालसन्दजी जैन एडवोकेट. रोहतक। मंस्थाओं तथा व्यक्तियोंको अनेकान्त एक मालतक विमा १.०' बा. भगवानगी वकील आदि जैन पंचान, पानीपत। मुख्य भिजवानक लिय) .५०) ला० दलीपसिह कागजी और उनकी माफत, देहली। २॥ला. फेरुमल चतरमैनजी जैन, धीर स्वदेशीभंडार २५) पं. नाथूरामजी प्रेमी, बम्बई। सरधना (मेरठ), जिन्होंने १०) पहले भी प्रदान किये थे . २५ ला. कड़ामलजी जैन, शामियाने वाले, महारनपुर। (एक व्यक्तिको एक साल तक अनेकान्त विना मूल्य भेजनेके ...बा. रघुवरदयालजी जैन, एम.ए. करोलबाग़ देहली। २५) पेठ गुलाबचनजी जैन टांग्या. इन्दौर । २६ ला• बाबूराम अकांकप्रमादजी जैन, तिम्मा २८ विद्यार्थियों को अनेकान्त अर्धमूल्यमें जि. मुजफ्फरनगर। २५) मुशी सुमतप्रमानजी जैन, रिटायड अमीन, महारनपर। प्राप्त हुई महायताके पाधार पर २८ विद्यार्थियोंको श्राशा है अनेकान्तक प्रेमी दुसरे मजन भी प्रापका 'अनेकान्न' एक वर्ष तक अर्धमृन्यमें दिया जाण्गा, जिन अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही महायक कामको मफल आवश्यकता हो उन्हें शीघ्र ही ॥) रु. मनीचार्डग्स भेजकर बमाने में अपना पूरा महयोग प्रदान करक यशक भागी बनेंगे। ग्राहक होजाना चाहिये । जो विद्यार्थी उपहारकी पुस्तक नोट-जिन रकम के सामने * यह चिन्ह दिया गया है वे ममाधितंत्रपटीक और मिद्धिसोपान भी चाहते हो उन पूरी प्राप्त हो चुकी हैं। पोप्टजके लिय चार धान अधिक मेजने चाहिये। व्यवस्थापक 'अनन्त' व्यवस्थापक 'अनकान्त' वीरसेवामन्दिर, मरसावा (महारनपुर) वाग्मेवामन्दिर, मरमावा (महाग्नपर) लिये) मुद्रक और प्रकाशक पं० परमानन्द शास्त्री वीर सेवामन्दिर, सरसावा के लिये श्यामसुन्दग्लाल श्रीवास्तवके प्रबन्धमे श्रीवास्तव प्रिटिंग प्रेस, सहारनपुरम मुद्रित । Page #261 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - -- -- -- - - -- -- श्रीमन्न सेट शितावराय लक्ष्मीचन्द जैन माहित्य उद्धारक फंड द्वारा श्री पट खण्डागम (धवलमिहान्त) तीमग भाग 'द्रव्यप्रमाणानुगम भी छप कर तैयार हो गया है। पूर्व पद्धनि अनुमार शुद्ध मूलपाठ, सम्पष्ट हिंदी अनुवाद नथा अनेक उपयोगी परि शिष्टां के अतिरिक्त मुडविद्रीकी नाहपत्रीय प्रतियों में प्रकाशित तानों भागोंका मिलान श्री पाठभेद सुन्यवस्थित करके इस भाग में छपाय गय है। एक एक गुगाम्थान व मार्गग्गास्थान PA कितने जोव हैं. इसका विवेचन करना पम्तुन ग्रन्थभाग का विषय है। इम विषय पर लगभग ३०० शकाएं उठाकर उनका समाधान किया गया है। प्राचीन गणितशास्त्रका यहां द्वितीय निरूपण किया गया है, जिस चंई बंड गांगातना की सहायता से बीजगगन, अकगणित व क्षत्रांगन क २८, उदाहरण देकर ममझाया गया है। विषय के मम का उद्घाटन करने वाले ५० विशपाथ लिम्ब गये हैं और ३... म उपर टिप्पणिया लगाई गई है। प्रस्तावना में मृडविद्री कमिदान्तग्रन्थों, मन्दिग, भट्रारका व ट्रस्टियो क चित्र, उनका परिचय, इतिहास तथा महाधवल के विषयका खब परिचय कगया गया है. और मंहटियां क नकश आदि देकर द्रव्यप्रमाण के गहन विपय का वृज सुबोध बनाया गया है। ग्रन्थ का प्रग महत्व उसके भव लोकन करने से ही जाना जा मकगा। ___ महावार भगवान का जन्म जयन्नी पर उन्ही क परम्पगगन वचनो का म्वाध्याय कर अपन जीवन को मफल काजिय। tamananews TVVVVXMARVARNIRMARVASNAIN2V7:02:2V2:22,02:V2,823;V2::02:V2:2SV2WARV2:25:2V2V2:VasWrVIVASV2SVVVVWORVASVISVISVASVIVisesya पुस्तकाकार १०) शाम्बाकार १२) (१) पथम दा माग भी पुम्नकाकार प्रत्यक १०) व शात्राकार प्रथम भाग १५) व द्वितीय भाग १२) में मिल सकेगा। प्रथम भाग शात्राकार की बहन थाना प्रतिया शंप रही है। अन आगे के दोनों भाग माथ लन वालो को ही नह भाग मिल सकेगा। (२) पेशगी मूल्य भंजन से डाक वल्वे व्यय नहीं लगेगा। () अपना पृग पता, अभीष्ट ग्रन्थ भाग नथा अपने यहां के पोस्ट ऑफिस व रल्वे स्टेशन का नाम मनीआर्डर कृपन पर भी नीचे के भाग में कार स्पष्ट लिम्विय । प्रार्थना_इम संस्था के हाथ में द्रव्य बहुत थोडा और काय बहुत ही विशाल है,। अताव समस्त श्रीमाना. विद्वाना और सस्थाओं को उचित मूल्य पर। नियां खरीद कर कार्य की प्रर्गात को सुलभ बनाना चाहिये। मचना--चतुर्थ भाग छपना प्रारम्भ हा गया है। मत्रा न माहिन्य उदाग्न फ ग -- कान समवना बार। -mare - - - しないポインベストメアロントボストンベストメールがあるからなくないでいたくないなべぶぶぶぶぶぶんくらぶのイベントは Page #262 -------------------------------------------------------------------------- ________________ rulptaintaraainion- aana JANATAsareem a -am - गुणमुख्य का FICI AAD ACTICE अनकान्तात्मिका A स्याद्वादमपिाणी सापेक्षवादिनी ARH DayN EAN RS ANSERaks HARMDET CSCENDS RSimrave ज्यान स्यात FAMERICA SSONSERIAL :41 arathi anRTISM JABAR : विविधनयापक्षा, 1959 यथातत्त्वप्ररुपिका SACH 215 EHTAS सनभगरुपा सम्यग्वन्तु वर्ष प्रा निवासी किरण मान्य नाग :: कमान .सम्पादक- जुगल किशोर मुरदतार मई १९४१ पर काम । Page #263 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची ०४१ २४८ : : : २६३ : : : : : : विपय लग्नक १ जिनकल्पी अथवा दिगम्बर साधुका ग्रीष्म-परीपह-जय २ जगत किमकी मुद्राम अङ्कित है -[सम्पादक ३ जीवन में अनेकान्त-[श्री अजित प्रसाद जैन एम०ए०, एडवोकेट २४३ ४ कब वे सुम्बके दिन पाएँग ? (कविता)-[पं० काशीराम शर्मा 'प्रफलिन' ५ कवि गजमल्लमा पिंगल और गजा भाग्मल्ल-[ मम्पादक ६ यह मब ही ग्वाना है ! (कविता)-[ श्री भगवत जैन .. ७ वीर-शासन-जयन्नी और हमाग कर्तव्य-[मम्पादक ८ क्या तत्वार्थसूत्र-जैनागम-समन्वयमं तत्त्वार्थसूत्रके बीज हैं ?-[आचार्य चन्द्रशेग्वर शास्त्री ९ श्राचार्य जिनविजयका भाषण- हजारीमल बाँठिया १० हरिभद्र-मूरि-[पं० रतनलाल संघवी, न्यायतीर्थ-विशारद .. ११ मार्बजनिक भावना और मार्वजनिक मवा-[बा माईदयाल जैन, बी०ए० अयोध्याका गजा (कहानी)-[श्री भगवत जैन जीवनम ज्योति जगाना है ( कविता )-[पं० पन्नालाल जैन माहित्याचार्य १४ वैवाहिक कठिनाइयां-[ श्री ललिताकुमारी पाटगी विदुषी' प्रभाकर १५ लहगेमें लहगता जीवन (कविता)-[ श्री 'कुसुम जैन १३ रत्नत्रय-धर्म-[पं० पन्नालाल जैन माहित्याचार्य १७ नामिल भापाका जैन माहित्य-[प्रो०ए० चक्रवर्ती एम00 आई० ई० एम० १८ विचारपुप्पोद्यान १६ अनकान्त पर लोकमत २८५ २० मंडक विषयमं शंकासमाधान-[श्रीनिमिचन्द मिघई, इंजीनियर ०१ गाम्मट-[डा० ए०एन० उपाध्याय, एम० १०, डी.लिट ... ०५३ २२ मंमार-वैचित्र्य (कविता)-[श्री ऋषीकुमार 'क्षुब्ध' २३ माहित्य-परिचय और ममालांचन--[ परमानन्द जैन शास्त्री ... अनेकान्तकी सहायताके चार मार्ग (१) २५), ५०), १००) या इसमें अधिक रक़म कान्तका बराबर खयाल रखना और उमं अम्छी देकर सहायकोंकी चार श्रेणियोमम किमाम अपना महायता भंजना तथा भिजवाना, जिममे अनेकान्त नाम लिग्वाना। अपन अच्छे विशेषांक निकाल मके, उपहार ग्रंथांनी (२) अपनी ओरम असमर्थोंका तथा अजैन योजना कर मकं और उत्तम लेखों पर पुरस्कार भी संस्थाओंको अनकान्त फ्री (विना मूल्य ) या अध- द सके । म्वतः अपनी ओरम उपहार-ग्रन्थोंकी मूल्यमें भिजवाना और इम तरह दुमगेको अनेकान्त योजना भी इम मदमें शामिल होगी। के पढ़ने की मविशेष प्रेरणा करना । (इस मदमें महा- (४) अनकान्तकं ग्राहक बनना, दमगेको बनाना यता देनेवालोंकी ओग्स प्रत्येक दम रुपयकी महायता और अनकान्तके लिये अच्छे अच्छे लग्ब लिखकर के पीछे अनेकान्त चारका फ्रो अथवा पाठको अध- भजना, लंखों की मामग्री जुटाना तथा उममें प्रकामूल्यमें भेजा जा सकेगा।) शित हानक लिय उपयोगी चित्रोंकी योजना करना (३) उत्सव-विवाहादि दानक अवमगे पर अने- और कगना। -सम्पादक 'अनकान्त' : : : : : ०५९. : Page #264 -------------------------------------------------------------------------- Page #265 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त - -- 'ग्रीष्म-परीषह-जय' श्रीमान बाब छोटेलालजी जैन रईम कलकत्ता के मौजन्यमे प्राप्त Page #266 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ महम् * तत्व-सर विश्वतत्त्व-प्रकाशक Vella नीतिविरोधसी लोकव्यवहारवर्तक सम्पन्न - परमागमस्यबीज भुवनैकगुरूर्जपत्यनेकान्तः। Na वर्ष ४ किग्गा ४ । वाग्मेवामन्दिर (मगन्तभद्राश्रम) मग्मावा जिला महारनपुर ज्येष्ठ, चीर निर्वाण मं० २४६७, विक्रम मं० १९९८ । मई १९४१ जिनकल्पी अथवा दिगम्बर माधुका ग्रीष्म-परीषह-जय ग्रीपमकी ऋतुमोदि जल थल सूख जोह, परत प्रचंड धूप श्रागिनी बग्न है। दावाकामी ज्यालमाल बहन बयार अनि, लागत लपट कोऊ धीर न धरत है। धनी तपत मानी नवामी तपाय राग्वी, बडवा-अनल-मम शैल जो जरत है। ताके शृंग शिलापर जोर जुग पॉव घर, करन नपस्या मुनि करम हरत है ।। -कविवर भगवनीदाम भूग्व-प्याम पाई उर अंतर, प्रजले श्रांत देव मब दागै । अमिमरूप धूर ग्रीषमकी, तानी बाल झालमी लागै ।। तपै पहार नाप नन उपजै, को पिन दाह ज्वर जागे। इत्यादिक ग्रीषमकी याधा, महत माधु धीरज नहीं न्यागें ।। मृग्वटि मरोवर जल भर, मम्वहि नांगिनि-तोय । वाटहि बटोही ना चलें, जह घाम गरमी होय || निहँकाल मुनिवर तप तपहि गिरि-शिग्वर टाड़े धीर । ने माधु मेरे उर चमो मंग हर पानक पीर || -कविवर भूधग्दाम Page #267 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जगत किसकी मुद्रा से अंकित है ? नो ब्रह्माङ्कितभूतलं न च हरेः शम्भोर्न मुद्राङ्कितं, नो चन्द्रार्क- राङ्कितं सुरपतेर्वज्राङ्कितं नैव च । षड्वक्त्राङ्कित - बुद्धदेव - हुतभुग्यत्तोरगैर्नाङ्कितं, नग्नं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्र-मुद्राङ्कितम् ॥ ११ ॥ मौञ्जी- दण्ड- कमण्डलु-प्रभृतयो नो लाञ्छनं ब्रह्मणोरुद्रस्यापि जटा कपाल मुकुटं कोपीन खट्वाऽङ्गनाः । विष्णोश्चक्र-गदादि-शङ्खमतुलं बुद्धस्य रक्ताम्बरं, ननं पश्यत वादिनो जगदिदं जैनेन्द्रमुद्राङ्कितम् ॥ १२ ॥ - अकलंकम्नाः यह जगत ब्रह्माकी मुद्रामे अंकित नहीं हैं - ब्रह्मा नामके लोकप्रसिद्ध विधाता की कोई मुहर अथवा छाप म जगन पर लगी हुई नहीं है: ब्रह्माकी मुद्रा मौञ्जी- दण्ड- कमण्डलु श्रादिके रूप में मानी जाती है, वह किसी भी प्राणी के शरर पर जन्मकाल मे अंकित नहीं है। विष्णुकी मुद्रासे भी यह जगत मुद्रित नही है -- विष्णु नामके लोकमान्य विकी जो मुद्रा चक्र-गदा-शंखादिक के रूपमें मानी जाती है उसकी भी कोई छाप इस जगत के प्राणिवर्गपर पड़ी हुई नहीं है । शंभ मुद्रासे भी यह जगत अंकित नहीं है- शंभु नामके रुद्र श्रथवा लोकप्रसिद्ध महादेव नामके ईश्वरकी जो मुद्रा जटा कपाल मुकुट-कौपीन खट्वा - अंगना - रुण्डमालादि के रूप में मानी जाती है उसकी छापसे भी जगत के प्राणियोका शरीर उत्पत्तिकाल मे चिन्दित नहीं है । चन्द्रमा और सूर्यकी किरणों मे भी यह जगत अंकित नहीं है— चंद्रमा और सूर्य लोकमं देवता माने जाते हैं, प्रभु समझकर पूजे जाते हैं, उनकी किरणों का जो रूप है वही उनकी मुद्रा है, उसकी भी कोई छाप जगत के प्राणियां के शरीर पर नही पाई जाती, वे उसे लिये हुए उत्पन्न नहीं होते । नहीं है— इन्द्र नामका जो लोक प्रसिद्ध देव है, उसकी मुद्राका प्रधान शरीर चिन्हित नहीं है। पवक्त्र नामका जो कार्तिकेय देव है उसकी प्रणमुखी मुद्रासे भी यह जगत् ग्रंकित नहीं है । बुद्धदेवकी रक्ताम्बरी मद्रासे भी यह जगत अंकित नहीं है। इसी तरह अमि, यक्ष और उरग ( शेषनाग ) नामके देवोकी मुद्रामे भी यह जगत अंकित नहीं है। हे वादियो ! – विभिन्नमतोंके शिक्षको ! – देखो, यह जगत नग्न है - प्राणिवर्ग श्रथवा जनममूह नग्नरूपमे ही उत्पन्न होता है- श्रौर 'नग्नमुद्रा' जिनेन्द्रकी है, इस लिये यह सारा जगत जिनेन्द्र देवकी मुद्रासे अंकित है - जिनेन्द्रदेव के सिक्केकी छाप जन्मसे ही सबके शरीरों पर पड़ी हुई हैं। ऐसी हालत में यह स्पष्ट है कि जिनेन्द्रदेव महाप्रभु हैं, उनका सिक्का सर्वत्र प्रचलित है और इस लिये उन्हें भुलाना — उनके शासन मे विमुख होना किसी तरह भी उचित नहीं है । यही महत्वका चोजभरा भाव कलंक देवके उक्त दोनों पद्य में समुच्चय रूपसे संनिहित है । सुरपति (इन्द्र) के वज्र से भी यह जगत अंकित अंग वज्र है उससे भी इस जगत के प्राणियों का Page #268 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनमें अनेकान्त [ लेखक श्री अजितप्रसाद जैन, एम० ए०, एडवोकेट ] - - - - अनेकान्त-सिद्धान्त, जिसका मूल सदृष्टि है, केवल प्राप्ति, प्रामगुणोंका विकास और कर्मबन्धनमे मुक्ति है। धर्मपुस्तकों में ही बन्द नहीं रहना चाहिये और न उपका संसार-सुख, स्वर्ग-सुख पूजाका ध्येय नहीं है, वह तो पूजाउपयोग केवल वाद-विवाद अथवा शास्त्रार्थ तक ही सीमित द्वारा पुण्योपार्जनसे स्वयं ही होजाता है । दर्शन-पूजा एवं रखना चाहिये । श्रावकोंको गृहस्थके सब कार्मोमें उठते-बेटते, स्तुतिपाठके ध्येयका नमूना कविवर बुधजनजीने यह कहकर ग्वाने-पीने, घर-घरसे बाहर, दुकान पर. दफ्तरमें, कचहरी दिखाया है-- में, बाजारमें हर स्थान और हर अवसर पर अनेकान्तका जाच नहीं सुरवास, पुनि नरराज, परिजन माथजी । आश्रय लना गहिये । अन्धविश्वास देखादेवी बेसमझे बुध जाच हूँ तुम भक्ति भव भव दीजिय शिवनाथजी || काम करना, रूढि अथवा फैशनका गुलाम बनना है और पूजक अपने चाराध्य परमा-माम केवल यही चाहता है वह मददृष्टि न होकर अकर्मण्यता है। कि जन्म-जन्ममें उसको परमात्मपदकी भक्ति प्राप्त हो. जो परीक्षा-प्रधानी होना भावकका परम कर्तव्य है। अतः परमात्मपदकी प्राप्तिका मुख्य साधन है । सन्तानकी लालसा. श्रावककी दैनिक क्रियाओं पर गवेषणापूर्ण स्वतंत्र विचार अधिकारकी प्राप्ति, स्वर्गके भोगोंकी बांछाम वह पूजा नहीं करना आवश्यक है. जिससे श्रावकका दैनिक कार्यक्रम अने करना है । कविवर दौलतरामगीने भी माही कहा हैकान्तकी-मदरन्टिकी--कसौटी पर कसा नाकर सच्चा और मेरे न चाह कछु और ईश महत्वपूर्ण होसके। रग्नत्रय निधि दीजे मुनीश । इम तात्विक भावको भूलकर लोग एकान्त व्यवहारश्रावकके षट यावश्यक कर्मों में प्रथम ही देवपूजा है। श्रावकको सबसे पहले देवका और फिर पूजाका ठीक अर्थ । पक्षमें इतने लिप्त होगये कि पूजाफलमें-- 'मुग्व-धन-जस-मिद्धिः, पुत्रपौत्रादि-वृद्धि । समझना चाहिये। मकल-मनस-सिद्धि, होत है ताहि रिद्धि ॥' __श्रावकों-द्वारा पूज्य देवका मतलब ऐसे माधारण देता को प्रधानता देदी गई ! और सामारिक उद्देश्य ही पूजाका में नहीं है जिम्मको कुछ चढाकर, स्तुनि पढकर, नमस्कार एक मात्र ध्येय बन गया है !! करके खुश किया जाय, और खुश करके उसमे अपना मतलब यह सब जानते हैं कि लोग रोग, दुःग्य नथा कष्टकी गांठा जाय, मुंह-मांगी मुराद पूरी की जाय । अथवा जिसको शान्तिके लिये शान्तिमाथ भगवानकी पा बोलते, करने बीमारीके दूर करने, स्कूल-कालिज-पाठलाला-विद्यालयकी और करवाते हैं। जयपुर राज्यस्थ चांदनगांवकं महावीरजी परीक्षा उत्तीर्ण होने, व्यापारमें-सह में रुपया कमाने. सन्तति प्राप्ति करने, या मुकदमा जीतने के लिये पूजा जाय । पेस ही रिद्धि-सिद्धि-दायक मशहर होजानकी वजहसे पूजे जिनेन्द्र भगवान श्रीअन्तदेवकी या उनके प्रतिबिम्बकी जाने हैं, और इसी कारणसे महावीरजी पर महावीरजयन्ती पूजा एकान्ततः किसी व्यक्तिविशेषकी पूजा नहीं है. वह प्रायः के धर्मोग्पवने बड़े मेलेका रूप धारण कर लिया है। और शनिकी पूजा, गुणकी पूजा, प्राप्तपुरुषकी पूजा अथवा परमात्मा इस वर्षके मेलमें तो वहां म्यब गाली-गलौज, मारपीट, की पूजा है। और पजामे अभिप्राय गुणानुरागपूर्वक सदगुणकी पलिम और तहसीलदारके हस्तक्षेप तककी नौवन आगई है. Page #269 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २४४ अनेकान्त [वर्ष ४ यह बही खेदका विषय! वीनरागदेवकी उपासनाका में सजाकर दर्शन-पूजनके लिये जाते हैं। और वीतरागताके यह कितना विचित्र और बेढंगा प्रदर्शन है !! स्थान पर खूब झार तथा सम्पत्तिकी नुमायश होती है। जिनेन्द्रदेवके दर्शन और पूजनकी भावनामें इस प्रकार भगवानकी पूजा-स्तुतिका फल वहां वैराग्य भावोंकी उत्पत्ति विकार माजाने और पकान्त पर जोर देनेका यह नतीजा नहोकर तबलेकी थाप, सारंगीके बोल, हारमोनियमके सुर, हुचा कि लोग जैनियोंको भी पत्थर-पूजक कहने लगे! इमी तान, पालाप और समके मेज़ में नाचरंगकी महफिलका समर्मा प्रकार. -सोचे-समझे अनेक रीति-रिवाज दर्शन पूजनके जाना होता है। जैनमन्दिरों में रामलीला. जन्माष्टमी तथा सम्बन्ध में प्रचलिन होगये हैं। कुछ लोगोंने यह प्रथा चला गनीमीका रंग जम जाता है। दी कि जिनेन्द्रदेवका दर्शन-पूजन रिक्त हस्त या नंगे सिर इस प्रकारका एकान्त जोर पकड़ना जाता है. वीतरागता करनेम दोष लगता है, तथा दर्शन-पूजन बहु मूल्य द्रव्योंबबाभूषणोंमे इन्द्रके समान सज-धज कर और भगवान पर मरागताकी गहरी पुट चढनी जाती है और सर्वत्र अपने ममत्र भेंट करके करना चाहिये । इसका परिणाम यह हुआ ध्येयमे च्युति ही च्युति नजर पानी है । अत: जैन जननाको कि स्त्री-पुरुष ङ्गार करके चोर भांति भांनिक व्यंजन थाली शीघ्र ही इस विषय मावधान होना चाहिये । कब वे सुखके दिन आएँगे ? [श्री पं० काशीगम शर्मा 'प्रफुल्लिन'] इम उजड़े भारत - उपवन में, तप्त-हृदय वसुधा - मानाकीपतझड़का क्या अंत न होगा? कग्नेको शीतल. कृश-काया: • कण-कणको विकमानेवाला ग्रीपम बीत, वर्षा होगीक्या वह मधुर वमन्त न होगा? बन कर क्या न मंघकी माया ! शाग्वानो यत्तीस पक्षी का मञ्जुल स्वर विम्बगएँगे? । उलवामी श्राहाके बादल, निर्भर बन: झर-झर जायंगे! कब वे सुबके दिन श्राएँगे? कब वे सुग्बके दिन श्राएँगे? घोर निगशा - महानिशाका, पगधीनके, चिर - बन्दीके : दर अँधेग कब तक होगा ? कट जाएँगे कब तक बन्धन ! अन्तर-तममें जान-इन्दुका अमर - शहीदोका भारतकेशुभ्र उजाला कब तक होगा? गाएगा कब जग, अभिनन्दन! मरझाये मन-मानम-मरके कमल प्रफुल्लित हो पाएंगे! राष्ट्र-प्रेमकी मुख-गङ्गामें, मनकी लहरें छलकाएँगे! कब वे मुखके दिन श्राएँगे! कब वे सुम्बके दिन श्राएँगे? एक-एक कर मिट जाएँगे, कब तक ये दुर्भाव हमारे , हिन्दू, मुस्लिम, सिकरव, :माई-भारत-माताके सुन मारे । अाजादीकी मज-लता पर, भृत 'प्रफुल्लित' मँडरायेंगे ! कब वे मुखके दिन पाएँगे ? Page #270 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कविराजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल [सम्पादकीय ] अनेकान्त की गत दूसरी किरणमें कविराजमलके निवास थे, संघके तिलक थे और सुरेन्द्र के समान थे उन्हींकी 'पिंगल' नामक छंदोविद्या-ग्रंथका कुछ परिचय देते हुए यह वंश-परम्परामें धर्मधुरंधर राजा भारमल्ल हुए हैं-- बतलाया गया था कि यह ग्रंथ राजा भारमल्लके लिये पढमं भूपालं पुणु मिरिमालं सिरिपुरपट्टणा वासु, मिखा गया है और इसमें उनका कितना ही ऐतिहासिक पुरणु प्रायूदसिं गुरुवापसिं सावयधम्मणिवासु । परिचय छंदोंके लक्षणों तथा उदाहरों में खण्डशः पाया धणधम्महरिगलयं संघहतिलयं रंकागर सुरिंद, ता वंसरंपर धम्मधुरंधर भारहमलणरिंदु ॥११६।। जाता है। इस लेखमें राजा भारमालके परिचय-सम्बन्ध में (२) भारमल्लकी माताका नाम 'धरमो' और श्रीका मिर्फ इतना ही प्रकट किया गया था कि वे नागौरी तपागच्छ नाम 'श्रीमाला' था, इस बातको कविराजमल एक अच्छे की अाम्नायके एक सदगृहस्थ थे, वणिक्संधके अधिपति थे. अलंकारिक ढंगमें व्यक्त करते हुए लिम्बने हैं-- 'राजा' उनका सुप्रसिन्द्र विशेषण था, श्रीमालकुल में उन्होंने म्वाति वंद सुग्वर्प निरंतर, मंपुट सीपिधमा उदरंतर । जन्म लिया था, 'संक्याणि' उनका गोत्र था और वे 'देवदत्त' जम्मो मुकताहलभारहमल, कंठाभरणमिर्गवलीवल । के पुत्र थे। आज इस लेख में राजा भारमल्लका कुछ अन्य इसमें बतलाया है कि सुर (देवद) वर्षाकी स्वातिब्द ऐतिहासिक परिचय भी संक्षेपमें संकलित किया जाना है जो को पाकर धरमोके उदररूपी सीपसंपुटमें भारमल्लरूपी उक्त पिंगलग्रंथ परसे उपलब्ध होता है। साथमें यथावश्यक मुक्ताफल उत्पन्न हुआ और वह श्रीमालाका कराठाभरण कछ परिचय वाक्योंको भी उन्धत किया जाता है. और बना । कितनी सन्दर कम्पना है! गलग्रथम वाणत छदाक कुछ नमूने भी पाठकों (३) भारमल्लके पुत्रों में एकका नाम 'इन्द्रराज' और के सामने पाजाएँगे और उन परमे उन्हें इस ग्रंथकी साहि- दुसरेका 'अजयराज' थास्थिक स्थिति एवं रचना-चातुरी आदिका भी कितना ही इन्दगज इन्द्रावतार जसुनंदनु दिट्ट, परिचय महज हीमें प्राप्त हो जायगा:-- अजयगज गजाधिगज मवकज्जगन्।ि म्वामी दाम निवासु लच्छिबह साहिममारणं, (१) भारमलके पूर्वज 'रंकागउ' थे, वे प्रथम भूपाल मोयं भागहमाल हेम-हय-कंजर-दानं ।। १३१ ।। थे, पुनः श्रीमाल थे, श्रीपुरपट्टणके निवासी थे, फिर बाबू देशमें इन दोनों पुत्रों के प्रतापानिका कितमाही वर्णन अनेक गुरुके उपदेशको पाकर श्रावकधर्मके धारक हुए थे, धन-धर्मके पचों में दिया है। और भी लघुपत्र अथवा पुत्रीका कुछ उल्लेग्व * आपके सहयोगसे तपागच्छ वृद्धिको प्राप्त हुअा था, ऐमा । जान पड़ता है परन्तु वह अस्पष्ट हो रहा है। निम्न वाक्यसे स्पष्ट जाना जाता है (४) राजा भारमल नागौर में एक बहुन बई कोव्याजलणिहि उवमाणि श्री नपानामगच्छिं। धीश ही नहीं किन्तु धनकुबेर थे. ऐमा मालूम होता है। हिमकर जिम भृपा भूपती भारमल्ल: ।। अापके घरमें अटूट लक्ष्मी थी. लपमीका प्रवाह निरन्तर Page #271 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरशासन-जयन्ती और हमारा कर्तव्य -* -*EXHN:---- अहिंसाकं अवतार वीरप्रभुकी शामन-जयन्ती करके व्याख्यान देने-दिलान और भगवान महावीर अथवा उनके तीर्थप्रवर्तनको वह पाय तिथि निकट का गुणगान करने अथवा उनके प्रति कृतज्ञता व्यक्त प्रारही है जिस दिन आशा और प्रतीक्षाके हिंडोलेमें करनेका प्रदर्शन करने में ही समाप्त न होजाना झूलती हुई पीड़ित एवं मागेच्युत जनताने बड़े हरेक चाहिय; बल्कि हमे उनके सतशामनका विचार कर माथ वीरका वह सन्देश सना जिसने उन्हें दुःखोंसे उसे अपने जीवन में उतारने के लिये कुछ-न-कुछ छूटनका मागे बताया, दुःखकी कारणीभून भूलें सुझाडे, अमली जामा पहनानेका भरसक यत्न करना चाहिये, वहमोंको दूर किया, यह म्पष्ट करके बतलाया कि उनके नकशेकदम पर चलनेका श्रायोजन करना मच्चा सुग्व अहिंसा और अनकान्तदृष्टिको अपनाने चाहिये और दृढ़ संकल्पके साथ ऐसी प्रतिज्ञाएँ में है, ममताको अपने जीवनका अंग बनानमें है, करनी चाहियें जिनमें यह जाहिर होता हो कि हमने अथवा बन्धनसे-परतंत्रताम-विभावपरिणतिम छूटने अन्य दिनांकी अपेक्षा कुछ वसूमियनके माथ में है। साथ ही, मब आत्माओं को ममान बतलाते (विशेषनापूर्वक) उम दिन वीरशासन पर अमल हुए, आत्मविकासका सीधा तथा मरल उपाय सुझाया करना प्रारम्भ कर दिया है। साथ ही, वीर प्रभक और यह स्पष्ट घोषित किया कि अपना उत्थान और उपदेशकी जा धरोहर हमारे पास है और जिस माग पतन अपने ही हाथ है, उसके लिय नितान्त दृमगें जनताको बाँटने के लिये उन्होंने वसीयत की थी, उम पर आधार रग्बना, सर्वथा पगवलम्बी होना अथवा मबको बोट देना चाहिये-जिनवाका मर्वत्र और दुसगेको दोष देना भारी भल है। इसीसे इम तिथि सारी जनतामें प्रचार हो, ऐमा आयोजन सामहिक का सर्वमाधारणक हित एवं कल्याणके माथ मीधा तथा व्यक्तिगतरूपसे करना चाहिये । इन दानों कार्यों सम्बन्ध है । जबकि अन्य कल्याणक तिथियाँ व्यक्ति- को करके ही हम वीर भगवान और उनके शामनके विशेषके उत्कर्षादिसे मम्बन्ध रखती हैं। प्रति अपने कर्तव्यका ठीक पालन कर सकेंगे और दानोंके सच्चे भक्त तथा अनुयायी कहे जा सकेंगे। यह पुगयतिथि, जिम दिन प्रातःकाल सूर्योदयके समय सर्वप्रथम वीर भगवानकी वाणी विपुलाचल केवाई सेवा-भक्ति नहीं बननी और न जयन्तीका विना तदनुकूल आचरण और श्रद्धापूर्वक प्रचार-कार्य पर्वतपर विरी, श्रावण कृष्णा प्रतिपदा है जो इस मनाना ही सार्थक कहा जा सकता है। वर्ष ता० ९ जुलाई मन् १९४१ को बुधवार के दिन आशा है इम समयोचित सूचना पर पूर्ण ध्यान अवतरित हुई है । इस तिथिका प्राचीन भारतवर्षकी वषोरम्भतिथि और युगादितिथि होने आदिके रूप देकर हमारे भाई इस वर्षकी शासन-जयन्तीको पहले से अधिक सार्थक बनानेका प्रयत्न करेंगे। इस दिशा में दसग भी कितना ही महत्व है जो वर्षोंम 'मने में किये गये उनके प्रयत्नों एवं नियमों आदिकी कान्त' भादि पत्रों में प्रकट किया जारहा है, यहां उस की पुनरावृत्तिकी जरूरत नहीं । इस समय बीर सूचनाका हृदयसे अभिनन्दन किया जायगा । शासन-जयन्तीके सम्बन्धमें हमें अपने कर्तव्यको ___ निवेदकसमझना चाहिये । वह कर्तव्य श्रावण कृष्णा प्रतिपदा जुगलकिशोर मुख्तार, के दिन प्रभातफेरी निकालने, जलूस निकालने, सभा अधिष्ठाता-बीरसेवा मन्दिर, मरसावा Page #272 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या 'तत्त्वार्थसूत्र जैनागम समन्वयं में तत्त्वार्थसत्र के बीज हैं? [लेखक - श्राचार्य चंद्रशेखर शास्त्री, M. O. Ph, H. M. D.] नेक वर्ष ४ किरण में पं परमानंद जी शास्त्रीने स्वार्थमुत्रके बीजोंकी विसा पूर्ण यो उपस्थित करते हुए प्रसिद्ध विद्वान पंडित सुबलालजीके तत्वार्थ तस्त्रार्थसूत्र एवं उसके कांके विषय में मन परिवर्तन का उल्लेख किया है। साथ ही यह बतलाया है कि पं० सुपलालजी पहिले तो चाचार्य उमास्वतिको दिगम्बर या श्वेताम्बर सम्प्रदायी न मानकर जैन समाजका एक तटस्थ विद्वान मानते थे, किन्तु स्थानकवासी मुनि उपाध्याय चामारामजीके नयार किये हुए नागम-ममय" नामक प्रत्यके प्रकाशित होनेके बाद उन्होंने अपना मनपरिवर्तन करके उनको श्वेताम्बर मानना आरंभ कर दिया है । den बाल और पंडित परदाम दोनों ही श्वेताम्बर सम्प्रदाय के प्रसिद्ध विद्वान हैं । श्वताम्बर एवं स्थानकवासी दोनों ही समाज में मुनियोंकी अधिकता कारण विद्या एवं धर्मप्रचारका कार्य केवल मुनियोंके ही हाथमें है और इसी लिये उक्त दोनों म धर्मशास्त्र के गृहस्थ विद्वानोंकी कमी है । स्वेताम्बर सम्प्रदाय गृहस्थोंमें सबसे पहिले चाप दोनों विद्वानोंने ही धर्मग्रन्थोंका गम्भीर अध्ययन किया, आप दोनोंके अध्ययनमें दिगम्बराम्नायी यह विशेषता थी कि दिगम्बर श्रनायी विद्वान् जहां धर्मशास्त्र एवं न्यायका गंभीर अध्ययन करते हैं वहां उनके कर्ता धाचायोंके चरित्रका ऐतिहासिक अध्ययन नहीं करने किन्तु आप दोनोंने धारम्भले ही ऐतिहासिक अध्ययन पर बल दिया था। बहुत कुछ इसी जिये और कुछ श्वेताम्बर समाजमें विद्वानोंकी कमी के कारण 강 आप दोनोंकी यानि दिगम्बर पंडित भी अधिक हो गई । । आप आपकी ख्याति पर मुग्ध होने वाले विद्वान इस बातको भूल गए कि आपके व्यक्तिगत मिहान क्या है। दोनों विद्वान आरंभ से ही आगम ग्रन्थोंको अकाट्य प्रमाण मानते रहे हैं। आप अन्य श्राचार्योंके ऊपर चाहे जितनी ऐति हामिक खोज करते हों किन्तु वस्तुतः श्रागमप्रन्धकी रचनाका ऐतिहासिक विश्लेषण करनेको न तो कभी तैयार थे और न हैं। ऐसी स्थितिमें जिन लोगोंने आपके ऐतिहासिक लेखों पर मुग्ध होकर आपको बिल्कुल साम्प्रदायिक रम्य विज्ञान ममका हमती समारम्भमे ही भुखमें थे। उपाध्याय आत्मारामजी स्थानकवासी सम्प्रदाय के तृतीय परमेष्टि हैं, वह आगम ग्रन्थोंके इतने भारी पनि है कि किसी विषय पर भी प्रश्न करने पर तुरंत यह बनला देते हैं कि श्रागमग्रंथों में इस वा का वर्णन श्रमुक श्रमक स्थलों पर श्राया है। किन्तु उन्होंने अपने विषय में प्रमाम्प्रदायिक एवं तटस्थ विद्वान दोनोंका कभी दावा नहीं किया । उन्होंने सन १६३ का अपना चातुर्मास्य ही ही किया था, इतना ही नहीं वरन वे चातुर्मास्य कई माह पूर्व देहली और सन् १३ ग प्रथांन उनको उसवार देहलीमें लगभग एक वर्ष तक ठहरनेका अवसर मिला था | देहलीमें इतने समय तक ठहरने के आपके दोस्थे एक तो आप अपने शिष्य मुनि हेमचन्द्र एवं एक दूसरे मुनि अमरचंद (वर्तमान उपाध्याय अमरचंद्रजी महाराज) को कुछ मानक में ही पंडित मी शिक्षा दिलाना Page #273 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ दिगम्बर-सम्मत। -प्रकशकवने जो 'भाष्य' शब्दका प्रयोग किया २- पहप्रवचन एवं नस्वार्थाधिगम नस्वार्थसूत्रके ही है उसमे भी इम 'स्वोपज' कहलाने वाले भाष्यका बोध नामान्तर है, स्त्रोपज्ञ कहलाने वाले भाष्यके नहीं । हाँ, नहीं होता। कुछ श्वेताम्बर प्राचार्योंने स्वोपज्ञ भाष्यको भी अहव्यवचन यदि उक्त भाग्यको 'स्वोपज्ञ' न माना जावे तो यह तथा तस्वार्थाधिगम कहा है। सहजमें कल्पना की जा सकती है कि दोनोंके शब्द-साम्पका ३--यपि 'वृत्ति' शब्दका उल्लेख 'स्वोपज' कहे कारण शेताम्बर प्राचार्योंकी अनुकरण-प्रियता है। श्वेताम्बरों जाने वाले भाष्य के लिये भी अनेक स्थलों पर पाया है. में ग्वण्डमग्वण्डग्वाथ, कुसुमांजलि आदि ग्रंथोंकी रचना किन्तु अकर्मकोवकी शैली खंडन-मंडनमें स्पष्टताको स्थिर उनकी अनुकरण-प्रियताके प्रमाण हैं। प्रमाणनयनत्वालोका रग्बनं की है। यदि वे 'वृत्ति' शब्दम इस भाष्यको ग्रहण लंकारके सूत्रोंका परीक्षामुख' सूत्रमे मिलान करने पर भी करते तो न केवल इमका स्पष्ट रूपम उल्लेख करतं वरन अनुकरण-प्रियताका प्रमाण ही अधिक मिलता है। अस्तु, नस्वार्थसूत्रक श्वेताम्बरपाठकी पालोचना भी करने । अत: हमारी मम्मतिमें भाष्य कदापि 'म्बोपज' नहीं है, एवं वह यह माननको जी नहीं चाहता कि उनके सामने राजवानिक अकलंकदेवके बहुत बादमें अनुकरणप्रितनाक कारण लिखा लिग्वतं ममय 'बापज' कहलाने वाला भाष्य था, या नो गया है । वह गंधहस्तिमहामान्य जैमा कोई और भाष्य होगा अथवा *इम लग्नमें उल्लिग्विन बानी-घटनाग्रांकी परी ज़िम्मेदारी यह प्रयोग (?) मायनाके सम्बन्ध ही है। लेखकके ऊपर है। - मम्पादक प्राचीन साहित्यके महत्व और संरक्षण पर आचार्य श्री जिनविजयका भाषण (श्री हजारीमल बांठिया ) बीकानेर में गत ना०२८ अप्रेल मन १६४१ को प्राचार्य श्री जिनविजयजीने, 'प्राचीन माहित्यका महत्व और मंग्क्षगा' विषयपर जो जोरदार भाषण दिया है उसका मार श्री हजारीमल जी वाठियाने अनेकान्त' के पाठकोंके लिये भेजा है, उसे नीच दिया जाता है। इमसे कई बात प्रकाश में आती हैं और कितना ही शिक्षाप्रद पाट मिलता है। श्राशा है जनेकान्त के पाठक इसे गौरसे पढ़कर जैनमाहित्यके उद्धार एवं मंरक्षण के विषय में अपने कर्तव्यको ममझेगे और उमे शीघ्र ही स्थिर करके दृढताके माथ कार्य में परिणत करेंगे। दिगम्बर समाजको इम ओर और भी अधिकताके माथ ध्यान देनेकी जरूरत है, वह टम विषयमें श्वेताम्बर ममाजमे बहुत ही पीछे है। -मम्पादक भाषणकं प्रारम्भमें ही आपने अपने नामका शायद श्रीनागणों को कुछ आश्चर्य मा हांगा।' आगे स्पष्टीकरण करते हुए कहा कि-'मुझे मब लोग मुनि जाकर आपने अपने नामका और स्पष्टीकरण करने श्रीजिनविजयजी कहते हैं, पर मैं अब इम नामका हुए कहा कि 'मैं तो आप सब लोगों जैमा एक मामान्य अधिकारी नहीं हैं। क्योंकि न तो मैं साधनों का स्थिति वाला भाई और मेवक हूं। अनः मैं अपने क्रिया कागड ही पालना हूं और न उनके वषको ही नामक लये श्राप मब लोगोंका अपराधी हूँ। माधुधारण किये हुए हूँ। फिर भी मेग यह नाम सुनकर अवस्थामें मैंने कई ग्रंथ बनाये थे, जिससे मेग नाम Page #274 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आ० श्रीजिनविजयका भाषण किरण ४ ] सर्वत्र भारत और युरोप में व्यापक रूप से प्रसिद्ध हो गया । साधुवेष अपने गुरुको भेंट करनेके पश्चात भी मेरा वही नाम 'मुनि जिनविजय' प्रसिद्ध बना रहा। सो ठीक ही है- जिस प्रकार कोई कोट्याधिपति मनुष्य हो, उसका नाम सर्वत्र सुप्रसिद्ध हो, अगर उसका दिवाला भी निकल जाय तो भी नाम तो पहले का रहता है - नाम नहीं बदलना है । अन्तर इतना होजाता है कि वह राजा रंक होजाता है । इसी प्रकार मेरा भी मुनि-चरित्र पालने में दिवाला निरल गया है ।' आपने कहा कि 'मैंने मुनि अवस्था में जैनके सभी सूत्रों का यथामति अध्ययन किया । अपने पूर्वाचार्यों की अनुपम अमूल्यनिधि नष्ट होते देख मेरे मनमें उसे प्रकाशित करनेकी इच्छा हुई, जिससे उन प्रन्थोंका उद्धार भी होजाय और उनकी रचित साहित्यसामग्री विद्वानोंके सामने अपना आदर्श रखे तथा उन पूर्वा चार्योंकी चिरस्मृति भी होजाय । हमारे पूर्वज श्री जिनवल्लभसूरि, श्री जिनदत्तसूरि, श्री आत्मारामजी महाराज आदि किनने असाधारण विद्वान हो गये उसका हम अनुमान भी नहीं लगा सकते। उनकी विद्वत्प्रतिभा का पता हमें उनकी रचित साहित्यसामग्री में ही हो सकता है। अतः हमारा साहित्य हमारे लिये अत्यन्त महत्वक संरक्षणीय एवं गौरवशाली वस्तु है । ' आपने आगे बतलाया कि 'अपने पूर्वजों की चिर स्मृतिको सादर कायम रखनेका अंकुर मेरे मन में उत्पन्न हुआ, तभी से मैं साहित्यक्षेत्र में अग्रसर हुआ । मैंने पाँच वर्ष तक पाटण में लगातार चातुर्मासकर वहांके ज्ञानभंडागका वैज्ञानिक रीति अन्वेषण एवं अत्रलोकन किया, तथा बड़े परिश्रममे उसकी सूची तैयार की। २५३ बड़ौदा नरेश श्रीसयाजीराव गायकवाड़ बड़े विद्यानुरागी महाराजा थे। उन्हें साहित्य प्रकाशनका अत्यन्त शौक था । श्रीत्रिवेणी महोदय ने उनसे महत्वपूर्ण साहित्य प्रकाशन के लिये विज्ञप्ति की । अतः वे ज्ञानभण्डारोंके अवलोकनार्थ पाटण पधारे। उसी समय मैं भी वहीं था और मेरी उनसे मुलाकात हुई। तत्पश्चात विद्यानुरागी महाराज जीने साहित्य प्रकाशन के लिये बड़ौदामे एक ग्रन्थमाला स्थापित की । उस कार्यके लिये मेरे परम मित्र श्रीचिमनलाल भाई वहाँ नियुक्त किये गये । उनकी प्रेरणास महाराजने मुझे अपने यहां भाषण देनेके निमित्त बुलवाया और मैंन वहाँ कई साहित्य-सम्बन्धी महत्व के भाषण दिये । इस समय हमारे ऊपर अंग्रेजी सरकार राज्य कर रही है। उसने भारतकी प्रायः सभी अमूल्य निधियों व जवाहरात, सोना, चांदी वगैरह को अपने देश में भिजवा दिया है। जो कुछ साहित्य धन बाकी रहा. आखिर उसे भी वहाँ भिजवानेका जब निश्चय किया तत्र कतिपय भारतीय विद्वानोंने उसका विरोध किया, मैं भी इसकी सूचना मिलने पर बम्बईस पूना श्राया और सबके प्रयत्नसं गवर्नमेण्टन यह अपूर्व मंग्रह वहीं रखने की आज्ञा देदी। डा० भँडारकार का इस मंग्रह में बहुत कुछ हाथ था, अतः उनके नामसे पूना में 'भंडारकार - प्राच्य विद्या मंदिर' की स्थापना हुई और उसमें ही साहित्यसामग्रीको रहने दिया गया। इस मंग्रहमे लगभग २२ हजार हस्त लिखित प्रन्थोंका संग्रह है । उसमें महत्व के ५-६ हजार जैन ग्रन्थ भी हैं। मैंन भाँडारकार इन्स्टिट्यूटको ५००००) रुपये की महायता दिलवाई। अब सरकार से भी उसे १२०००) रुपयेकी सहायता मिलती है । वहाँ प्रन्थोंको रखने की बड़ी सुव्यवस्था है। प्रत्येक विद्वान नियमानुसार Page #275 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५४ अनेकान्त Bond भरकर ५ प्रतिएँ एक साथ घर बैठे मँगा सकता है। बीकानेर के ज्ञानभँडारोंको देखकर मुझे बड़ा हर्प और आचर्य हुआ कि आपके यहां इतना खजाना भग पड़ा है ! ऐसा खजाना राजस्थानमें और कहीं नहीं है। पर उन ज्ञानभँडारोंकी दुर्व्यवस्था देख मुझे बड़ा दुःख हुआ । न तो मन पूर्वाचार्यों द्वारा रचित ग्रन्थों का रखने के अच्छे मकान हैं न उनकी कोई सुव्यवस्था ही है। आप इतने धनी श्रीमानोंके रहते प्रन्थोंकी इतनी दुर्दशा क्यों है ? ये ग्रन्थ ही तो हमारे हामी सामग्री हैं, और इन ग्रन्थोंके आधारपर ही आज हमारा जैनधर्म टिका हुआ है । अगर इनका ठीक प्रबन्ध न किया गया तो ये सब नष्ट होजाएँगे । बीकानेर में किसी को भी इन ग्रन्थोंके उद्धारकी चिन्ता नहीं है । मन्दिरों के बनाने और ग्वामिधर्म-वात्मल्य आदिमें तो हम लाखों रुपये खर्च कर देते हैं । पर इस ओर हमारा कुछ भी ध्यान नहीं है । हमें साहित्य के उद्धार के लिये उपेक्षा रखना उचित नहीं है। आप को उसके लिये अच्छा मकान बनाना चाहिए, जिसमें फौलादकी फायरप्रूफ अलमारियाँ हों, जिनमें प्रन्थ जायँ ताकि वे नष्ट न होसकें । [ वर्ष ४ एवं प्रगतिशील बनानेका आन्दोलन किया | महात्मा जीके कार्यका देख मेरे जीमें भी देशप्रेम जागृत हुआ और सोचा इस मुनिवेष में तो ऐसा होना असम्भव है । अतः मैंने यह साधुवेष अपने गुरुजी को सौंप बद्दरका चोला धारण किया। महात्माजीमं मेरी अहमदाबाद में मुलाकात हुई । मैंने भी इस आन्दोलन में महात्माजीको सहयोग दिया । अतः मुझे महात्माजीने गुजरात पुरातत्व मन्दिर में आचार्यक रूपमें नियुक्त किया । बीकानेर के जैनमाहित्यिक कार्यक्षेत्र में भाई श्रीश्रगरचन्दजी नाहटाने अवश्य ही प्रसंशनीय कार्य किया है । उन्होंने यहां अधिकतर साहित्यको अपने निजी खर्चम खरीदकर उसे बचाया है। वर्षों परिश्रम कर ग्रन्थोंकी सूचियें बनाई हैं। आखिर अकेला आदमी क्या कर सकता है ? इसमें संगठनकी श्रावश्यकता है। श्री नाहटाजीका कहना है कि उन्होंने छह महीने लगातार छह घंटे प्रतिदिनकी रफ्तार से कार्यकर वृहद् वतन्त्रीय ज्ञानभंडार की अकेले ही सूची तैयार की है। अतः मैं उनके उद्योगकी तारीफ करता हूं। हमारे समाज में इस तरहके अध्यवसायी युवक होने चाहिएँ, जिसमे हमारे नष्टप्राय होते हुए साहित्यका उद्धार हो सके । महात्मा गाँधीजीका आदर्श ऊँचा है, उन्होंने राष्ट्रीय विद्यापीठों द्वारा हमारी शिक्षा को शुद्ध, सात्विक इसके बाद मुझे जर्मनी जाना पड़ा। मैं वहां करीब दो वर्ष तक रहा। वहांके सभी पुस्तकालयों में हस्तलिखित ग्रन्थों की सुव्यवस्था देख मुझे अत्यन्त खुशी हुई। जर्मनी में बड़े बड़े विद्वानों से मेरी मुलाकात हुई । जर्मनीको जैनसाहित्यसे अत्यन्त प्रेम है। भारतीय संस्कृतिके अत्यन्त प्रेमी हैं। उन्होंने भारतीय संस्कृति के लिये बहुत कार्य किया है। हमारे ऊपर राज्य करने वाली सरकारने इस देश के साहित्य के लिये उनके मुकाबले तिल मात्र भी कार्य नहीं किया है। जर्मन वापिस आने के बाद मेरी फिर महात्मा जीसे मुलाकात हुई । लाहौर कांग्रेस के याद के सत्याग्रह में मैं भी शरीक हुआ और मुझे कृष्णमन्दिरकी हवा खानी पड़ी । जेलम मुक्ति के बाद विद्याप्रेमी बाबू बहादुर सिहजी सिंघीने शांतिनिकेतनमें सिंघी जैन ज्ञानपीठकी स्थापना की और मुझे अध्यापक नियुक्त किया। वहां जैन विद्यार्थी बहुत कम थे, अतः मैंन यह कार्य स्थगित करनेके लिये श्री मिघीजी नहा और सिंघी जैन ग्रन्थमालाकी स्थापनाके लिये प्रेरणा की। श्री सिंघीजीकी यह प्रन्थमाला अभी जांगेंसे चल रही है, जिसमें अनेकों महत्वपूर्ण जैन ग्रन्थोंका प्रकाशन हो चुका है । हम अपने पूर्वजों की वस्तुके लिये बहुत लापर्वाह हो रहे हैं। सां ठीक नहीं। हमारे पूर्वजोंकी वस्तु हमारे लिये अत्यन्त आदरणीय है। जर्मनों को देखिये, उनको अपने पूर्वजोंकी वस्तु कितनी प्यारी है। इस का एक उदाहरण देता हूँ । बर्लिनके मुम्बद्वार पर एक सूर्य की मूर्ति है, उसके वाहन स्वरूप सात घोड़े हैं। Page #276 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] मैंने उसके अनेकवार दर्शन किये। वह प्राचीन होते हुए भी इतनी सुन्दर है कि नई मालूम देती है । कारीगरीकी दृष्टिसे भी बड़ी विचित्र है। उस मूर्तिकी नकल करनेके लिये बड़े बड़े वैज्ञानिक कारीगरोंने प्रयत्न किया पर उसकी नकल न कर सके । श्रतः आप समझ सकते हैं कि वह कितनी मूल्यवान होगी । जर्मन वाले उसे संसारका एक आश्चर्य समझते हैं। नेपोलियन बोनापार्टने जर्मन और फ्रांस के युद्ध मे मूर्तिको पेरिसमे लाकर रक्खा था। कुछ वर्षों बाद जर्मनीन मूर्तिको वापिस लाने के लिये युद्ध द्वारा फ्रांस वालोंको पराजित कर उसे फिर सन १७७९ मे बर्लिन के मुग्वद्वार पर लगाया। इस मूर्ति के लिए लड़ाई लाखों मनुष्यों का संहार हुआ । पर उन्होंने अपने पूर्वजों की प्राचीन वस्तुको प्राप्त करने में अपने आपको कुरबान कर दिया। महायुद्ध के बाद जर्मनी अमेरिकाका कर्जदार होगया । ऋण इतना था कि अगर जर्मनी करोड़ो पौंड प्रति वर्ष देता रहे तो भी उसे उऋण होनेमे १५० वर्षके करीब लग जाएँ । अमेरिकाने जर्मनीमे कहा- अगर तुम हमें वह सूर्य की मूर्ति देदो तो हम तुम्हे इतने बड़े कर्ज से मुक्त कर सकते हैं । पर स्वाधीनता प्रेमी जर्मनोंन जोरस उत्तर दिया- जब तक हम आठ करोड़ जर्मनी मे से एक भी इस संसार मे जिन्दा है, तब तक उस मूर्तिको कोई नहीं ले सकता। देखिये, उनके हृदयों मे अपनी प्राचीन वस्तुकं लिए कितने उच्च भाव भरं है । आ० श्रीजिनविजयका भाषण २५५ हम लोग अपने साहित्य के लिए जग भी ध्यान नहीं दे रहे है। उसके उद्धार के लिये कौड़ी भी खर्चन को तैयार नहीं । उन पाश्चात्य विद्याप्रेमियो को देखिये, जिन्होंने हमारे एक एक ग्रन्थको प्रकाशित करनेके लिये हजारों रुपये पानीकी तरह बहा दिये। जिनको हमारे ग्रन्थोंमे कोई सम्बन्ध नहीं, न वे हमारे जैन धर्मको या भारतीय धर्मका मानने वाले हैं, न हम रे कोई देशके ही हैं और न हमारे कोई रिश्तेदार ही हैं। तो फिर अपना स्वार्थ न होते हुए भी उन्होंने इतना धन क्यों व्यय किया ? लिए या नामके लिए। उन्होंने नामके लिए नही वर्चा वरन् सची साहित्य-सेवा करनेके लिए वर्षा है। डा० हरमन जैकोबीको देखिये - उसने जैनधर्म के लिए क्या कुछ कर दिखाया ? यही क्यो एक दूसरा उदाहरण लीजिये, अमेरिकाके सुप्रसिद्ध विद्वान डा० नार्मन ब्राउनने एक कल्पसूत्रकी खोजके लिए श्रमरिका सरकारसे दस हजार डालर खर्चकं प्रबन्धकी दरख्वास्त की, सरकारने उसे मंजूर किया । यह कल्पसूत्र १९३४ ई० में बाशिंगटन में प्रकाशित हुआ है। डा: ब्राउन कई वर्ष पूर्व भारत में आये थे, उन्होंन पाटण आदि अनेक स्थानोंके ज्ञानभण्डारोंके कल्पसूत्र ग्रंथोंका निरीक्षण किया । फोटो आदि के लिए मेरेसे भी दो-तीन बार मुलाकात की। हमारा समाज भी धनसम्पन्न । वह चाहे तो सब कुछ कर सकना है । मैं आशा करता हूं कि हमारा सोया हुआ समाज भी अपने प्राचीन साहित्यके उद्धारका बीड़ा अ शीघ्र ही उठाएगा। कहनेका आशय यह है कि एक जैनों के कल्पसूत्र के लिए अमेरिका सरकाने ४० हजार रुपये खर्च किये और डा० ब्राउनने कितना परिश्रम उठाया। उनकी तुलना मे हम क्या कर रहे हैं ? दुसरा उदाहरण भारतका ही लीजिये । अकेले महाभारत के प्रकाशन के लिए भांडारकार इंस्टिट्यूने १५ लाख व्यय कर दिये हैं और १५ लाख रुपये और व्यय होंगे । अगर हम उनके मुकाबले आधा भी व्यय करनेको प्रस्तुत हों, तो हम भी बहुत कार्य कर सकते हैं। अभी हाल ही पाटामे ६० हजार रुपयोंती लागनका एक सुरक्षित भवन एक ही व्यक्तिनं बनवाया है। उसमें पारण के सभी भंडारोंके प्रन्थोंका रग्वनेका प्रबन्ध किया गया है। कई भंडारोंके ग्रन्थ तो उसमें आ चुके हैं। यह काम अभी चालू । उन ग्रंथोंके लिए अलमारियो आदिकी व्यवस्था करने के लिए ३० हजार रुपये लग जायेंगे। आपको भी उसका अनुकरण करना चाहिये । लक्ष्मी स्थिर नहीं रहती है। वह आज है कल नहीं। जो कुछ कार्य सम्पन्न अवस्था में हो जाता है हम जो थोड़ा भी खर्च करते हैं - अपने स्वार्थकं वही उसकी चिरस्मृतिके लिए रह जाता है। गरीब Page #277 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५६ भनेकान्त [वर्ष ४ होने पर सारी जिन्दगी पछताना पड़ता है। जीवनमें कराकं ६ लाखका दान कर दिया। अनेक उतार चढ़ाव आते ही रहते है। समय प्राने दूसरे दिन हिसाब करके देखा गया सो ६ लाख पर हम सभी भिंगुरकी भांति नष्ट होजायेंगे । जो कुछ के अनुमान किये जानेवालो शेयरोंकी कीमत ८ लाख भी जीवनमें सार्थक कार्य हो जायगा, वही हमारे निकलती है। २ लाख बढ़ जाते हैं। वह उसे भी दान जीवनकी स्मृति रह जायगी। इस बातका ताजा देनेके लिये फिर मुंशीजीसे सलाह लेते हैं । मुंशीजीने उदाहरण बम्बईके सुप्रसिद्ध सटोरिय श्री मुङ्गेलाल मुझे बुलाया और सब मामला कहा । आखिर भाई भाईका है। जिसकी आर्थिक सहायतासं अभी हमारी श्रीको कहा गया कि ६ लाख गोदानमे लग गये अब 'भारतीय-विद्या-भवन' नामक एक संस्था स्थापित दो लाख विद्यादान लगादो। उसने वैसा कर दिया। हुई है। अभी इस भवनका माग कार्य मेरे जिम्मे है। उसीसे बम्बईमें, अन्धेरीमें भारतीय-विद्या-भवन वहाँ पर उच्च कक्षाओंके छात्रोंको प्रायः सभी विषयोंकी खड़ा होगया। शिक्षा दी जाती है। यह हमारी बड़ी स्कीम है। इस भाई मुङ्गलाल वृद्ध है । वह हमारे पास कई बार भवनसं "भारतीय-विद्या” नामकी एक त्रैमामिक आता है, परमात्माके भजन सुननेके लिये हमसे प्रार्थना करता है। हम पाटण जाते समय उमको भी पत्रिका भी निकलती है, जिसका सम्पादन भी मैं ही माथ लेगए थे । वापिस आते समय रेलमें हमने उस करता हूं। _ से कहा-ईश्वर भजन करो अब फाटका करना छोड़ ___ भाई मुछ्न्लालक दानकी कथा बड़ी मनोरंजक दा। उसने म्वीकार भी किया। एवं अनुकरणीय है । भाई मुङ्गलाल बम्बईका सटारिया है। वह अपने जीवन में तीन बार करोड़पति बम्बई आया और सोचा अगर और थोड़ा फाटका कर तो और धन श्राजाय तो मैं और ज्यादा और देवालिया हुअा। अभी वृद्धावस्थामें उसने सोचा दान दे सकँ। सिर्फ इन्हीं शुभ विचागेमें उसने मंदी -मैं कई बार करोड़पति होकर गरीब हुआ पर मैंने में फाटका किया । वह मंदीका खिलाड़ी था । भाग्यने अपने जीवन में अभी तक एक भी ऐमा कार्य नहीं उलटा माग, सुबह देवता है ५२ लाख रुपयका किया निमम मेरा नाम अमर होजाय । इस समय घाटा ! अब बिचाग क्या करता! मेरे पास ६ लाग्बके शेयर व मकान आदि कुल १० अभी वह सोचता है कि मैंने जो कुछ चांदनीक लाखकी संपत्ति है। अगर मैं शेयरके रुपये किसी दिनांमें कर दिया मो कर दिया अब कुछ नहीं होनेका पुण्यकार्यमें लगा दू तो मेग नाम अमर होजायगा। उसके लिये मंसार। अंधकारमय है। मेरे कोई संतान नहीं है, तब फिर यह झंझट क्या? सजनों. मलाल भाईका श्रादशे आपके सामने ऐसा विचार कर उमने शेयरके ६ लाग्व रुपये के दान है, जो उसने संपन्नावस्थामें कर दिया, तो उसका करने का निश्चय किया, पर मोचा किसी शिक्षिन नाम अमर होगया है। इसी प्रकार अगर आप भी आदमीकी सलाह ज़रूर लेनी चाहिए । वह मीधा अभी दान करें तो समाजका, देशका, साहित्यका हमारे परममित्र श्रीकन्हैयालालजी Bar-at-Law के पास राय लेने गया । कितना ही उद्धार हो सकता है। और कहा मुझे इस कार्यके लिये गय दीजिये । मंशीजीने कहा इस समय मुझे आप लोगोंस मिलकर अत्यन्त प्रमन्नना सरकार गऊमाताके उद्धारकी ओर एक स्कीम बना हुई है। जब आप कुछ साहित्य के लिए कार्य करेंगे और मुझे बुलावेगे तो मैं आपकी मंत्रामें अवश्य रही है, वह १० लाखकी है। आप अपने ६ लाखके हाजिर होऊँगा और यह आशा रग्बता हुआ कि अब रुपये गऊओंके निमित्त दे दीजिये-गऊ तो हमारी आप भी माहित्योद्धारक लिये प्रयत्नशील बनेगेंमां है। बस फिर क्या था भाईश्रीको यह बात ठीक अपना भाषण समाप्त करता हूं। जंची और उसी दिन ट्रम्टकी लिग्वा पढ़ी ३-४ घंटेमें Page #278 -------------------------------------------------------------------------- ________________ हरिभद्र-सूरि (ले०-५० रतनलाल संघवी, भ्यायतीर्थ-विशारद ) [ गत किग्ण श्रागे] समराइचकहा प्रशंसा की है। कालकाल-मर्व प्राचार्य हेमचंद्रसूरि हरिभद्र सूरिकी साहित्यिक-प्रवृत्ति चमुखी है। अपने कान्यानुशासनमे सफल कथाकं निर्देशक रुपम आप केवल श्रागमकं श्राद्य संस्कृत टीकाकार ममगइचकहाका नामाल्लेख करते है।। ही नहीं हैं, किन्तु मी अनुयांगों पर आपके समगइसकहाको सुनने, पढ़ने और इसकी नवीन प्रामाणिक प्रन्थ उपलब्ध हैं। दर्शनशास्त्रके नवीन नकलें-प्रतियां तैयार करवाने में सैंकड़ों वर्षों आप प्रगाढवत्ता और आध्यात्मिक ग्रंथांके दिग्गज तक महान पुण्य समझा जाता रहा है । जैन साधुविद्वान ना थे ही; किन्तु माथ माथ महान सिद्धान्त- ममुदाय और भावकवर्गसदा ही इस प्रेमपूर्वक, मचि कार, गंभीर विचारक एवं सफल कवि भी थे । इनकी के साथ पढ़ते एवं सुनत .हे हैं। यह क्रम आज भी कवित्व-कलाकं परिचायक अनक कथाप्रन्थ, चरित्र- उतनी ही रुचि और लगनकं साथ जारी है। निसंप्रन्थ और आख्यान आदि हैं। यद्यपि प्रापन कथा- दह जैन कथामाहित्यमें यह कृति सर्वोपरि कलश कोष, धूर्ताख्यान, मुनिपतिरित्र, यशोधरचरित्र, समान है। वीगंगदकथा और ममगइच्चकहा आदि अनक हरिभद्रसूरि ममगइचकहा, इम निम्नांत प्रा. कथापंथ और उपाख्यान-रत्नोंकी रचना की थी; ध्यात्मिक सिद्धान्तको सांगोपांग समझानमें पूर्णरीतिम किन्तु आज तो हमारे मामन केवल धूर्ताख्यान और मफल हुए हैं, कि क्रोध, मान, माया, लोभ, ईर्षा, ममगइन्चकहा-ये दा ही उपलब्ध हैं । शेष नष्ट. द्वेष आदि मोहमय विकारोंसे प्रात्माकी क्या गति प्रायः हैं या नष्ट होगये होंगे। होती है ? और अहिंसा, क्षमा, विनय, निष्कपटता, समगइचकहा इनकी कवित्व-शक्तिका एक समु- सरलता, तप, संयम, सद्भावना, दया, दान श्रा ज्ज्वल प्रमाण है । इसके देग्यनस प्रतीत होता है कि मात्विक गुणोंसे प्रात्माका कैमा विकाम होता है । मानो कविका हृदय और कल्पना दोनों ही मूर्तरूप और अनमे कितनी जल्दी मुक्ति प्राप्त होजाती है ? धारण कर 'ममगइकच कहा' के रूपमें अवतरित विश्वके विचित्र प्रांगणमें घट्यमान घटनाओंको उपहुए हैं। प्रशमरसपूर्ण इस उत्तम कथाग्रन्थकी मभी न्यामक रूपमें सुन्दरीत्या चित्रण किया है। कहानी पश्चात्वर्ती विद्वानोंने मुक्तकण्ठसे प्रशंमा की है। कलाका सामजस्यपूर्ण विकास और सौन्दर्य इस सुप्रसिद्ध कथाकार प्रद्योतनसूग्नि कुवलयमालाम, कथाके प्रत्येक अक्षर अक्षरमें और पृष्ठ पृष्ठ पर देम्बा महाकवि धनपालन तिलकमंजरोमे, देवचंद्रसूरिने जा सकता है । शान्तिनाथचरित्रमें इम कथात्मक काव्यकी भूरिभूरि समराडचकहाकी भाषा महाराष्ट्री जैन प्राकृत Page #279 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २५८ अनेकान्त [वर्ष ४ है। किन्तु कहीं कहीं पर कुछ रूप शौरसेनीके भी गजाके यज्ञदत्त नामक एक पुरोहित था, जिसके अपाये जाते हैं। यों ना मारी कथा गद्यरूपमें ही लिम्वी सुन्दर और हास्यास्पद आकृति वाला अग्निशर्मा गई है, लेकिन बीच बीच में अनेक पद्य भी हैं । पद्य- नामकरके एक पुत्र था । राजकुमार इसको बहुत भाग अधिकांशतः आर्या छंद वाला ही है। कुछ पद्य चिड़ाया करता था और विभिन्न तरीकोंस उसे बहुत प्रमाणी, द्विपदा और विपुला छंदोमं भी मंगुफित हैं। तंग किया करता था । अंतमें राजकुमारकी इस भाषा प्रमानगुण-संपन्न और माधुर्य को लिये हुए है। कुप्रवृत्तिले तंग आकर वह पुरोहितपुत्र एक तपोवनमे कथा-संबंध भी धाराप्रवाहरूपमे चलता है और इसी जाकर तापम बन गया। मांसारिक दुःखोंके नाशक लिये पढ़ने में काव्यात्मक प्रानंदके साथ साथ परी मचि हेतु और भवमागर पार करने के लिये उसने दुष्कर ठेठ तक बनी रहती है । यद्यपि कही कहीं ममामा- तपस्या करना प्रारंभ किया । उसने प्रतिज्ञा ली कि मैं त्मक वाक्योंका भी प्रवाह चलता है, परन्तु वह पढ़ने एक एक मामा मासक्षमण करूंगा और पारणाके के प्रनि अचि उत्पन्न नहीं करता हमा पाठकका दिन-गोचरीके लिये-आहारके लिये केवल एक कथाका कला-सौन्दर्य ही प्रदान करता है। एवं ही घग्म जाऊंगा । यदि उम घरमें श्राहार नहीं लेखन-शैलीकी प्रौढ़ता ही प्रदर्शित करता है। सात्पर्य मिलंगा ता दूसरे घर में नहीं जाऊंगा और पुनः श्राकर यह है कि प्रतिसघन और बहुत लंबे लंबे समासोका एक मामका अनशन व्रत प्रहण कर लूंगा। इस प्रभाव ही है। भाषाका प्रवाह गंगाकी धाराकी सरह प्रकारकी कठोर एवं भीषण नपम्या-द्वारा वह अपनी प्रशस्त, शांन, गंभीर और सर्वत्र समान ही चलता आत्माको संयम मार्गपर चलाने लगा। हुभा दिखाई देता है । कथा भाग भी अपने आपम एक दिनकी बात है कि देवयोग ने वह गजकुमार पूर्णताको पदर्शित करता हुआ परे वेगस चलता उम उपवनमे आ निकला और अग्निशाम मिला । रहता है । यत्र तत्र अलंकारांकी छटा भी दिखाई परिचय प्राप्त होने पर अपने अपराधों के लिये क्षमा दती है । भाषा-सौंदर्यकी पोपक उपमाएँ और भाव मांगी एवं श्रद्धापूर्वक निवेदन किया कि पारणेके दिन व्यंजक शब्द-ममूहकी विशेषताएँ चित्तका हठात मेरे घरको पवित्र करनेकी कृपा करें । अनिशर्मा अपनी ओर आकर्षित कर एक अनिर्वचनीय आनंद ने स्वीकार कर लिया । यथासमय मासके अन्तमें उत्पन्न करती रहती हैं । इन्हीं सुवासित गुणोंसे अग्निशर्मा आहारके लिये गजाफे घर जाता है किन्तु भविष्यम भी इसका अधिकाधिक प्रचार और पठन म दिन राजाकं यहाँ पुत्रजन्मोत्सवका प्रसंग उप. स्थित हो जाता है और इस कारणमे इस तापसके पाठन होता रहेगा, ऐसा प्रामाणिक रूपसे कहा जा प्रति किसीकी भी दृष्टि नहीं जानी है। तापस लौट मकता है। पाना है और एक मामका बन ग्रहण कर लेता है। कथाका संक्षिप्त कथानक इस प्रकार है-निति गजकुमारको थोड़ी देर बाद मापमकं पानेकी और प्रतिष्ठित नामक नगरमें पूर्णचन्द्र नामक गजा और लौट जानेकी बात ज्ञात होती है। अपनी इम उपेक्षा कौमुदी नामक गनीके गुणसेन नामका एक पुत्र था। वृत्ति पर उसे खेद होता है और वह दौड़ा दौड़ा वह बाल्यावस्थाम ही चंचल और क्रीड़ाप्रिय था। ताफ्मके पास जाना है और इम अपराधके लिये Page #280 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] परिभद्र-सरि २५६ क्षमा मांगता हुमा पुनः वूसरे मासके अंतमें आहार राजकुमारके यहाँ जाता है, लेकिन राजकीय पाकके लिये निमंत्रण देता है। नियमानुसार तापम पुनः स्मिक और अविस्व घटनामोंके संयोगोंके कारण दूसरे मासके अंतमें आहारके लिये राजाकं घर जाता चौथी बार भी तापस पाहारसे वंचित रह जाना है. है, किन्तु इस दिन भी देव-दुर्विपाक कोई गजकीय वह अपनी प्रतिक्षानुसार शहरसं-प्रम्य किमी घर उत्सव पैदा हो जाता है, जिमम इस दिन भी तापस नहीं जाकर-विना पाहारकं ही स्वस्थानको लौट जाना के प्रति किसीका भी लक्ष्य नहीं जाता है; तापम है। चार चार महीनोंके अग्वंड उपवासकी क्षुधा लौट आता है और नीसरं मासिक उपवासकी प्रतिज्ञा वंदनाकं कारण उसे भयंकर क्रोध पाता है और ले लेता है । गजकुमारका तत्पश्चात विनित होता यावज्जीवन के लिये आहारका परित्याग कर देता है। है कि तापम आया था और लौट गया है । इस महाम क्रोध और प्रगाढ़ क्षुधावदनाकं कारण काषापर उसे हार्दिक दुःख होता है, और तापसकी सेवामें यिक भावोंकी भयंकर ज्वाला प्रज्वलित हो जाती है। उपस्थित होकर अपनी इम असावधानीके लिये एवं ऐसा संकल्प करता है कि जब तक मैं इस अन्तः करणसे क्षमा माँगता हुआ तृतीय उपवासकी राजकुमारके साथ इम दुष्ट व्यवहारका पृग पृग बदला ममाप्ति पर पुनः आहारकं लिये आमंत्रण देता है; अनेक जन्मों तक नहीं चुकालू तबमक मैं कदापि नापस स्वीकार कर लेता है। तीसरे मासकी ममाप्ति शांनि नहीं प्रहण कहंगा । इस प्रकार उसकी पर तापम गजकुमारकं यहाँ जाता है, किन्तु दुर्भाग्य असिधागत समान अति कष्टसाध्य संपूर्ण तपस्या में इस दिन भी कोई असाधारण गजकीय प्रवृत्ति धूलमें मिलजाती है और समाधि, भटनागवं तपस्या उपस्थित हो जाती है, किमीका भी ध्यान मापसकी के स्थान पर अनन्तानुबंधी कषायात्मक भावनाओं ओर नहीं जाता है, नापस खाली हाथ लौट आता है का माम्राज्य स्थिर हो जाता है। परिणाम म्याप नौ और अपने स्थान पर आकर शांतिपूर्वक चौथा जन्मों तक ये दोनों आत्माएँ एक दूसरे समर्गमें मासिकव्रत ग्रहण कर लेता है। पूर्ववत इस बार भी आती हैं और प्रत्येक बार अनिशर्माकी श्रात्मा गुग्ण गजकुमार तापसकी सेवामें उपस्थित होता है और सेनकी आत्माको हर प्रकारसे दुःख देती है; एवं वैर बार बार अपने इस कुकृत्यकं लिये क्षमा मांगता हुआ वृत्ति की धारा चलती रहती है। अंत में अंतिम जन्म गंभीर अनुनय-विनयके माथ चौथे मामकी समाप्ति में गुणसनकी आत्मा माविक-वृत्तियों के बल पर पर पुनः अपने घर पर भाने के लिये तापससे प्रार्थना आध्यात्मिक उन्नति करनी हुई मुक्ति प्राप्त कर लेती है करता है। तापम इस बाग्भी स्वीकृति दे देता है। और अग्निशर्माकी श्रात्मा असहिष्णुता एवं ताममिक किन्तु देवीविधान बड़ा विचित्र और अगम्य है। वृत्तियोंके बल पर अधोगतिको प्रान होनी है। इस हमारी चर्म चक्षुओंमें और मानवमेधा-शक्तिमें वह प्रकार हम कथामें ताममिक और मात्विक वृत्तियोंका बल कहाँ कि जिसके बल पर भविष्यक गूढ़ और सुन्दर चित्रण करते हुए, प्रशमग्मक मर्वोत्कृष्ट सुग्यद गंभीर गर्भावस्थामें मंनिहित घटना चक्रको जाना जा परिणामका स्वरूप बतलाते हुए; कर्ममिद्धान्नकी मके। पारणेका ममय उपस्थित होने पर मापम मामखम्णमाका सन्दर समन्वय किया गया है। भाज Page #281 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६० भनेकान्त [वर्ष के इस विकसित साहित्य युगमें कथा-साहित्यकी जो करते हुए प्रारंभिक योगावस्थास लगाकर अन्तिम उपयोगिता, कला-निदर्शन, औरमना-वैज्ञानिकता योगावस्था तक अर्थात् आत्मिक सोच विकासको मानी जानी है तथा कही जानी है, उसका पृग पूग अवस्था तककी क्रमिक वृद्धिका व्यवस्थित रूप देनके प्रस्फुटन ममगडचकहा में पाया जाता है और देग्या लिए मम्पूर्ण योग मार्गको पाँच भूमिकाओंमें विभाजाता है। जित करते हुए प्रत्यक भूमिकाका म्वरूप खूब ही योग-साहित्य माफ दिखलाया है । साथम उल्लेखनीय बात यह है यदि हरिभद्र सूरिके जीवनका सूक्ष्म-गतिम कि जैन, बौद्ध और पाताल योगसम्मत योगपरिभाअध्ययन किया जाय तो प्रतांत होगा कि आपका षाओं में केवल शब्दगत भिन्नता है न कि तात्पर्यमय जीवन योगमय ही था। अतः इन द्वारा योग-विषयक भिन्नता-इम रहस्यका विद्वतापूर्ण तिन बनला कर कृतियोंका भी ग्चा जाना काई आकस्मिक घटना सम्पूर्ण भारतीय योग-ध्येयको एक ही स्थान पर नहीं है, बल्कि जीवन की धागका म्वाभाविक विकास लाकर खड़ा कर दिया है। ही कहा जायगा। तदनुसार योग-विषयक इनकी अध्यात्म, भावना, ध्यान, ममता और वृति. कृसियाँ अखिल भारतीय योगासहित्यमे एक विशेष __ मंक्षय ये पांच भूमिकाएँ हैं। पतंजलि इन से प्रथम वस्तु है । षोडशक, योगविन्दु, योगदृष्टि-समुच्चय चारको संप्रज्ञात और अंतिमको असंप्रज्ञात कहते हैं। और योगविंशिका-ये चारों इनकं योगविषयक ग्रंथ ___ योगदृष्टिममुच्चयमें अपुनर्वध, अवस्थाम पूर्वहोने पर भी इनमें-प्रत्यकम-परस्पर कुछ न कुछ कालीन आत्मिक अवस्थाको घिष्टि नाम दिया है नवीनता और गंभीरताकृत पृथक्ता है। और इस दृष्टि को विभिन्न दृष्टान्तोंसे सम्यक्-प्रकारेण योगका तात्पर्य है-आध्यात्मिक विकाम । इम समझाया है। घिष्टिकी समाप्ति के बाद उत्पन्न विकासके क्रमका भिन्न भिन्न ग्रंथों में आपने भिन्न भिन्न होनेवाली आध्यात्मिक विकासमय मंपूर्ण दृष्टिको रीतिसे वर्णन किया है। फिर भी ध्यय और तात्पर्य यागष्टि कहा है । यह योगष्टि आठ भूमिकाओंमें तो एक ही है-और वह है मुक्ति कैसे प्राप्त हो। विभाजित की गई है । एवं इन आठ भूमिकाओंकी विषयके एक ही होने पर भी वर्णनशैलीकी विशेषता तुलना पातंजल योगदर्शन सम्मत यम, नियम, आसन, के बल पर वस्तु-विषय में नवीनता और रोचकता या प्राणायाम आदि पाठ योगांगोंके साथ की गई है। प्रथम चार भूमिकाओं में पूर्णताके अभावस अविद्या ___ योगविन्दुमें प्राचार्यश्रीने लिम्वा है कि अपुन- का अल्प अंश रहता ही है। इस लिये इनका नाम बंधक अवस्था ही विकासका बीज है। यहींसे जीव अवेद्यसंवा दिया गया है । और अंतिम चारम मोहसे प्रभावान्वित नहीं होकर मोह पर ही अधिकार पूर्णता पाप्त होजाती है, अर्थात अज्ञान-अंश सर्वथा करता जाता है। यही योग मार्गकी प्रारंभिक अवस्था नष्ट होजाता है, इसलिये इनका नान वेद्य-संवेद्य है और तदशान यहींसे जीवमें सात्विक गुणोंका दिया है। इसके माथ साथ इन अन्तिम चार दृष्टियों उत्तरोत्तर विकास होने लगता है। इस प्रकार वर्णन में जो आध्यात्मिक विकास होता है, उसका इच्छा Page #282 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] हरिभद्र-सरि भिनाभन काटियाका ममता बतलाक योग, शास्त्रयोग, एवं सामर्थ्ययोग नाम प्रदान कर को ही 'योग' कहा है। इस धर्म व्यापार रूप योगके भूमिकाके रूपमें बोधगम्य वर्णन किया है। अन्तमें ५भंद किये हैं। जैसा कि ऊपर लिग्या जाचुका है। चार प्रकारकं योगियोंका वर्णन करते हुए यह भी यों ना ये पांचों भेद श्रावक और साधु अर्थात् देशलिम्वा है कि योगशास्त्रका अधिकारी कौन हो सकता चारित्रवालों और सर्वचारित्र वालोमे ही पाये जाने है; किन्तु अपुनबंधक और सम्यग् दृष्टि वालोंमें भी ___ योगविंशिकामें योगकी प्रारंभिक अवस्थाके स्थान इम योगात्मक धर्मकं बीज रहते हैं। इन योगोंका पर उच्च यौगिक स्थितिका ही प्रधानतः वर्णन है । इस प्रादुर्भाव क्षयोपशम-जन्य होता है । क्षमोपशम रूप में बतलाया गया है कि श्रावक और माधु ही योगकं कारण असंख्यात प्रकारका हो सकता है । इच्छा, अधिकारी हैं। सम्पूर्णयांग-अवस्थाएँ स्थान, शब्द, प्रवृत्ति आदि रूप योगबलसे अनुकम्पा, निर्वद, संवेग अर्थ, मालंबन और निगलंबन रूपस · पाँच भूमिका और प्रशम आदि की प्राप्ति होती है। में विभाजत की गई हैं। इनमें प्रथम दोको ‘कर्म ___ योगवि शकाकी नौवीं गाथाम आगे "चैत्यवंदन" गांग' और अन्तिम नीनको 'जानयोग' नाम दिया वृत्तिका आधर लेकर योगका क्रियात्मक रूप इस गया है। साथ माथमें प्रत्येक भूमिकाके इच्छा, प्रवृत्ति, प्रकारसं समझाया है कि जब कोई भव्य प्राणी स्थैर्य और मिद्धि रूपस प्रभेद करते हुए आत्मिक "अरिहंन चंइयाणं करेमि का उम्सग्ग" आदिका यथा विकामकी भिन्न भिन्न कोटियोंकी भिन्नता बतलाई है। तब यांगबलेन धिचिन इनके लक्षणका कथन भी बोधगम्य गतिमे ही किया होने के कारण वक्ताको पदोंका थथार्थ ज्ञान होजाता है । स्थानादि भूमिकाओंको इच्छादि चार प्रभेदोंसे है । यह वास्तविक पद-ज्ञान ही अर्थ तथा बालबन गणाकर अर्थात् बीस संग्ख्यामय योग-स्थिति बतला रप यांगवालोंके लिये प्रायः माक्षात मोक्ष देनेवाला कर पुनः प्रत्येकका प्रीति, भक्ति, वचन और असंग होता है। एवं स्थान तथा वर्ण यांगवालोंके लिये नामक चागें अनुष्टानों द्वाग गुणा किया जाकर यांग परंपरात्मक रूपम मोक्ष देनेवाला होता है। जो चारों के अम्सी भेद किये हैं तथा भली प्रकारसं समझाय यांगोंस शून्य होता हुआ पदोंका उच्चारण करता हैं। जिनसे प्रत्येक मुमुक्षु जीव यह ममझ सके कि रहता है, उसका वह अनुष्ठान व्यर्थ है और मृषाबाद मैं आध्यात्मिक विकासकं किस मोपान पर हूँ। रूप होनम विपरीत फल देनेवाला होता है। हरिभद्रमूरि-कृत यांविषय मंगुफित ऊपर जिन "योगकै अभावमें भी अनुष्ठान किया ही जाना ग्रंथों का नाम निर्देश किया है। उनमम यागबिदु, याग- चाहिय, इसम तीर्थकी रक्षा होती है" ऐमा कहना दृष्टिममुच्चय और पाडशक ग्रन्थ ना संस्कृत भाषाम मूर्खता है । ऐसा हरिभद्रसूरि म्पष्ट आदेश देते हुए हैं और योगविंशिका प्राकृत भाषाम । ये प्रन्थ छप आगे कहते हैं कि "क्योंकि शास्त्रविरुद्ध विधानका करकं प्रकाशिन भी होचुके हैं। यांगशतक भी चरित्र जारी रहना ही तीर्थ-छंद है, मनमाने ढंगस चलने नायकज का बनाया हुआ कहा जाना है। वाले मनुष्यों के ममुदाय मात्रका नाम मंघ या जैन योगशिकाम हरिभद्रमूग्नि विशुद्ध धर्म-व्यापार तीर्थ नहीं है। ऐसा ममूह ना तीर्थक स्थान पर हड़ियों विधि उच्चारण करता है Page #283 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६२ अनेकान्त का ढेर मात्र है।" आगे फिर कहते हैं कि “विधिविधानानुसार चलनेवाले एक व्यक्तिका नाम भी तीर्थ हो सकता है । अतएव तीर्थक्षाके नाममे अशुद्ध धर्म-प्रथाका नाम ही तीर्थत्व है ॥ यांग रूप धर्मानुष्ठान चार प्रकारका है। प्रीति भक्ति, वचन और अमंग । इनमें से चतुर्थ ही श्रनालम्बन योग है। योगका अपर नाम 'ध्यान' भी है । यह आलम्बन योगरूप ध्यान दो प्रकारका होता हैरूपी और रूपी । मुक्त आत्माका ध्यान करना अनालम्बन रूप ध्यान है। क्योंकि इसमें केवल मुक्त जीवके गुणों के प्रति चिंतन, मनन या स्थिरत्व होता है । अतः यह अतीन्द्रिय विषयक होनेसे अनालम्वन रूपयोग है । [ वर्ष ४ हरिभद्रसूरिने जो बीम विंशिकाएँ लिखी हैं, उन सब पर उपाध्याय यशोविजयजीने भावपूर्ण व्याख्याएँ लिखी है। किन्तु उन सब व्याख्याओं में से केवल इस योगविंशिकाकी ही व्याख्या मिल सकी है । यह व्याख्या इतनी भावपूर्ण है कि अपने आप में यह एक ग्रंथ रूप ही है। बीस विंशिकाओं में यांगविंशिका की संख्या १७वीं है और कहनेकी श्राव श्यकता नहीं कि बीस प्राकृत गाथाओं द्वारा संगुफिन यह योगका छोटा सा किन्तु महत्वपूर्ण ग्रंथ है। उपाध्याय यशोविजयजाने घांडशक नामक यांग-ग्रंथ पर भी टीका लिखी है । आचार्यश्रीनं अपने पांडशक योगग्रंथ में अनालम्बन रूप ध्यानको रूपक अलंकार द्वारा इस प्रकार समझाया है कि- क्षपक आत्मा रूप धनुर्धर, क्षपक श्रेणी रूप धनुष के ऊपर अनालम्बन रूप बारणका परमात्मा रूप लक्ष्य के सम्मुख इस प्रकार चढ़ाता है कि बाण- छूटने रूप अनालम्बन ध्यानके समाप्त होतं ही लक्ष्य वेधरूप परमात्मा तस्त्वका प्रकाश हो जाता है । यही केवलज्ञान है, जो अनालम्बन रूप ध्यान श्रेष्ठ फल । इस निरालम्बन रूप ध्यान से मोह का आत्यंतिक क्षय होकर क्षपक श्रेणीके बल पर आत्मा तेरहवें गुणस्थान में पहुंच जाता है और अंत में चौहदवे गुणस्थानको प्राप्त होकर आत्मा सिद्ध, बुद्ध और मुक्त हो जाता है । ऊपर लिखित पंक्तियोंमें यह प्रतीत होता है कि हरिभद्रसूरिन योग - साहित्य क्षेत्र में भी विषय व्याख्या और विषय वन शैलीकी नवोनता द्वारा नया-युग प्रस्थापित किया है । अपने योगविषयक ग्रंथोंमे आप न जैन योगधाग और पातञ्जल यांगधाराका अविराधात्मक सामञ्जस्य स्थापित किया है। योग-दृष्टि-ममुच्चयमे आठ दृष्टियोंकी नवीनता सम्पूर्ण यांग साहित्य में एक नवीन बात है । “मित्रा, तारा, बला, दीप्रा, स्थिरा, कान्ता, प्रभा, और परा" ये वे आठ नवीन दृष्टियाँ हैं, जोकि स्वरूपतः और दृष्टान्ततः मननीय एवं पठनीय हैं। इस प्रकार योगसाहित्य क्षेत्र में भी हरिभद्रसूरि एक विशेष धाराके प्रस्थापक एवं समर्थक हैं, यह निम्संकोच कहा जा मकता 1 (अपूर्ण) Page #284 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सार्वजनिक भावना और सार्वजनिक सेवा ( लावा. माईदयाल जैन. वी. ५०. मानस वी.टी.) अपनी नया अपने कुटुम्बकी भलाईके छोटे तथा का प्रत्यक्ष (Direct) तथा परोक्ष ( Indirect.) और मीमित क्षेत्रसे बाहर निकलकर अपनी गली, शहर, प्रांत. ममीप (Immediate) तथा दूरवर्ती (remote) समाज, देश तथा विश्वके जनोंकी निम्बार्थ भावसे भलाई सम्बन्ध दूसरोंसे भी है और अपनेसे भी है। चाहनाही सार्वजनिक भावना (Public Spirit) या म्बदेश उमतिकी भावनामे परहित और स्वहित दोनों (Public spiritedness) है । औरोंके दुःखोसे दुखी हैं। अपने शहर या समाजकी उन्ननिमें पराये और अपने होना, और तड़प उठना, पर-दुःखको अपना दुःख समझना, दोनोंके हित साधन होते हैं। अपने यहां शिक्षा प्रचार, स्त्रीदूसरोंके सुखकी भावना करना तथा उसमें ही अपना सुख उद्धार, ग्राम-सुधार, मन्दिर-सुधार, बालउमनिके कार्य या समझना कुछ ऐसी बातें हैं जिनमें उदारता, भातृभाव अन्य सामुदायिक हितकी बातें करना ये काम हैं जिनमें (Fellowterline) तथा एकपन वगैरा प्रकट होते हैं। परहितके साथ अपना हित भी सधता है। ऐसे काम भी बहुत इसमे ही मनुष्यकी जरुव । जाहिर होती है। मार्वजनिक से हो सकते हैं जिनम्मे सर्वथा परका हित होता है। भावना हर एक मनुष्यका वास्तविक गुण है। पर इसका सर्वहित, सर्वोदय और लोकहितका प्राधार मार्वजनिक उचित रूपसे विकास और इस प्रवृत्तिकी वाल्यकालसे पुष्टि भावना ही है। यह भावना जितने परिमाणमें निःस्वार्थ होगी (Development) और टनिंग न होनेसे यह भावना उतनी ही उत्तम होगी। इसका प्रोत्साहन होना चाहिए । स्वार्थभाव या खुद-गर्जीप दब जाती है । सार्वजनिक भावना और जितनी यह स्वार्थसे भरी होगी उतनी ही निकृष्ट और का प्रचार प्रोत्साहन तथा पोषण जितना भी अधिक हो निन्दनीय होगी। इसे कम करना और नवाना चाहिए। उतना ही अच्छा है। स्वार्थभावको न नो मार्वजनिक भावना बनानो और न ___ सार्वजनिक भावनासे परोपकार बनता है, जिससे अपने बनने ही दो। मुलम्मेको खरेके स्थान पर झूठेको सच्चेकी शहर, समाज, प्रांत, देश और दुनियाके दुःख दूर होते हैं, जगह मत चलायो । इसको चलने भी न देना चाहिए । तथा कठिनाइयां मिटकर लोकका हित सधता है, बड़े बड़े जनताको विवेकमे काम लेना चाहिए--उगाईमें न माना काम सफल होते है और संस्थाएँ चलती है । इस भावना चाहिए। रंगे गीदड़ों तथा टट्टीकी प्राइमें शिकार खेलने रूप प्रवृत्त होना मनुष्यका परम कर्तव्य है। समाज तथा वालोंसे सदा मावधान रहना चाहिये, उनकी उगाईसे बचना राष्ट्रहितका प्राधार यही है। इसमें अपना हित भी छुपा है- चाहिये । लेकिन हर एकको रंगा गीदड और टट्टीकी श्रादमें परमार्थ या परहितके साथ साथ स्वार्थ सिद्धि भी होती है। शिकार खेलने वाला भी न समझ लेना चाहिये । मब कहते स्वहितकी साधनाके खयालसे परहित या सार्वजनिक हितकी ऐसा ही हैं, पर बहुत कम लोग वास्तवमें खरे होते हैं। भावना करना संकीर्णता तो है, पर बुरी नहीं है। सर्वथा इमीमे जनताको विवेक और परीक्षामे काम लेना चाहिए। परहितकी भावना उसमे भी अच्छी है। सार्वजनिक भावना मुलम्मा भी असली बन कर ही चलना चाहता है। वह Page #285 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ अमली-सा बनकर ही चलना है। ग्वरे-वोटेकी जांच होगी सार्वजनिक कार्यकर्ता न तो किसीकी प्रशंसा चाहता है चाहिए । पर यह जांच कठिन जरूर है। और न पुरस्कार | जो चाहते हैं उनको वे मिलते भी नहीं। धर्म और देश ये दो ही ऐसे क्षेत्र है, जहां सार्वजनिक परन्तु परन्तु जननाका कर्तव्य है कि वह मार्वजनिक कार्यकर्ताओंका कृतज्ञताके भावमे मन्मान करे, आदर करे, उनको प्रोत्साहन भावनाका उपयोग होता है तथा उसमे मचा हित होता दे, महयोग ने, सुविधा दें तथा और निश्चिन्त करे। है। परन्तु दुर्भाग्यमे यही बड़े बई म्वार्थी अपना म्वार्थ सार्वजनिक कार्यकर्ताओंमें धैर्य, सहिष्णुता, श्राशा, माधन करते हैं। काश, हमारे बहतम नेना. कार्यकत्ता. माहम, लगन, विशाल दृष्टिकोण, उदारहृदयता, सहयोग, मभाांके पदाधिकारी और धर्मगम सच्ची मार्वजनिक प्रम, प्रेम, नैतिकता. आदर्शप्रियता प्रादि गुण बहुत परिमाणमें भावनाम भरपूर होतं । होने चाहि। सार्वजनिक मेवाके कार्य विना अहसान जताए करने चाहिये. मार्वजनिक भावना सार्वजनिक मेवाके रूपमें प्रकट होती मार्वजनिक संवाके छोटे कार्य भी उतने ही आवश्यक हैं है1 मार्वजनिक सेवा कार्य करना, तथा उनमें सहयोग जितने कि वई। मार्वजनिक संवा अपने पामके क्षेत्रमें भी देना हर एक प्रादमीका कर्तव्य है। यदि मार्वजनिक भावना हो सकती है और नरक क्षेत्रमें भी। ममीपक क्षेत्रमै मात्रएक फूल है. नी मार्वजनिक संवा उम फलकी मगन्ध है, या जनिक सेवा करना ज्यादा आवश्यक है, पर उसमें सीमित उसमे पैदा होनेवाला फल है। विना सुगन्धका फूल रहकर दरके क्षेत्रकी उपेक्षा करना ठीक नहीं। इसका उलटा कागजके फूल के ममान निरुपयोगी है। कभी कभी वह रूप भी ठीक नहीं। गुप्तरूपमं सार्वजनिक सेवा करना और भी अच्छा है। सजावट या नुमायशका काम जरूर देता है। परन्तु निरी मार्वजनिक भावना और मार्वजनिक सवाकी जितनी मार्वजनिक भावना किमी कामकी नहीं । बीजरूपमे वह जरूरत पहले थी. अाज उसमे कहीं अधिक ज़रूरत है। श्राज अछी है, परन्तु वह सार्वजनिक भावना एक अशक्त या हमारी समस्या जटिल हैं और मर्वजन-हिनके कार्य महान उगनेकी शक्तिदिन बीजक ममान न रहनी चाहिए । "ब अनक थोड़ा-बहुत सार्वजनिक काम समय, स्थान (Locality) सार्वजनिक कामांको करनेका बड़ा साधन मार्वजनिक मांस्था या सभा होती हैं। इनके बिना काम होना कठिन या जनताकी आवश्यकताके मुताबिक और अपनी शक्तिके है। पर ऐसी संस्था अच्छी और खराब Bogus) भी हो अनुम्मार हर एक श्रादमीको करना ही चाहिए । सार्वजनिक सकती है। कछ स्वार्थी लोगीन इनमेंसे बहुतोंको दलबन्दीकी काममि हर एक पादमीको मन-मन-धनमे महयोग ना दलदल में फँमाया हुया है और उन्हें अपने स्वार्थ साधनके चाहिय । सार्वजनिक कार्यकताकोबीवरी करिता अह बना रखा है। ऐसी सभात्री तथा कार्यकर्ताओंकी समालोचना करके जनमनको उनके विरुद्ध नय्यार करना गुजरना पड़ता है, बसी बड़ी पराक्षाग्रीमेमे गुजरना पड़ना चाहिए, ताकि उनका सुधार होकर उनसे ठीक फल की प्राप्ति है।इनमे कभी घबराना न चाहिए | माहम निर्भीकता, होमके। वीरना, चतुराई नया कुशल मि इनको पार करना चाहिए। संक्षेपमें यही कहा जासकता है कि माजिनिक भावना पन्चे सार्वजनिक कार्यककी देर या सवेरमें कदर जरूर और सार्वजनिक संवा दो ऐसी बातें हैं जिनकी भाजबहुत होती है और जनता उसकी बात मानती है। ज्यादा आवश्यकता है और जिनका अनुष्ठान हर एक व्यक्ति को करना चाहिए। मनावद, ता.२६-४-" Page #286 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अयोध्याका राजा [ लेखक-श्री भगवत्' जैन, ] खीकी मभी बातें ठुकराई जान लायक होती है, कम महत्वपूर्ण न होगा ! लेकिन वीरसेनकी समझमें इस पर मुझे यक़ीन नहीं ! दसरी बातोंकी ममानता एक न आई ! न आनेकी वजह थी, और उनकी दृष्टि का दावा पेश करना मैं व्यर्थ ममझता हैं, लेकिन में बड़ी माकूल, कि महागज मधु उनके बड़े गजा है, जहाँतक बुद्धिवादकी मीमा है, उन्हें बिल्कल हेच बड़ी कृपा रखते हैं ! अभी जो पधारे हैं, वह उन्हीं ममझने के लिए मैं तैयार नहीं ! मेरी अपनी गयमें आग्रह पर, उन्हींके संकट-मापन करने के लिए! भीम उनका नगर उजाड़ रहा था, सिंहासन डाँवाडोल जनका भी कुछ-न-कुछ स्थान है ही। उन्होंने जहाँ पुरुषको उंगली पकड़ कर चलना सिखाया है, वहाँ करनेकी ताकमें था, छिपे छिपे शक्ति-संचय कर वासी जगत्-जननीके रूपमें भी दुनियाको बहुत कुछ दिया हान जा रहा था ! अगर वह अपने प्रभु महाराज है। मंमारके सभी महापुरुष उनकी गोद में पल कर मधुका यह सन्देश न पहुंचाते, उन्हें उस दुष्टपर बड़े हुए है । मबने उन्हें 'माँ' कह कर पुकाग है। चढ़ाई करनेकी सलाह न देते, तो इस अनर्थका हिम्सा मबका मातृत्व उनके पास है। कुछ उन्हें भी मिलता कि नहीं ? मधुकं कर्तव्यकी उनमें केवल दुर्गण-ही-दुर्गण देखना दृष्टि-दोष हो बात वह नहीं जानते ! वह जानते हैं सिर्फ इतना कि सकता है, वास्तविक नहीं। अनेको मिसालें ऐसी दी मधु, जो एक महान पराक्रमी गजा हैं, उनकी बुलजा सकती हैं, जब कि पुरुषोंकी बुद्धि स्त्रियोंकी बुद्धि घाइट पर प्रागए, यह गौरवकी बात है ! मौभाग्यकी के मामने पगजित होकर नत-मस्तक हुई। उनकी बात है ! ऐसी हालतम अब अगर उनकं सत्कारम बातको ठुकराकर, पुरुष मान-प्रतिष्ठा, सुम्ब-शान्ति, कुछ कमी रहती है-व और उनकी पत्नी उसमें जी ज्ञान-विज्ञान और जीवन तकको खो बैठा ! स्त्रीको खोलकर सहयोग नहीं लेते-तो यह बड़े अफसांसकी एक मीठी-चुटकी मैंकड़ों महोपदेशकोंके महत्वपूर्ण बात होगी। उपदेशोंसे कहीं ज्यादह होती है, यह पुगणोंमें भरा वीरसन स्वभावसे भोले और अन्धश्रद्धालु नरेश पड़ा है।... हैं। वह मधुके अनेक मातहत-राजाभोंमें सबसे चन्द्राभाने अपने आराध्य-धीग्सनको बहुत अधिक स्वामी-भक्त हैं ! शायद यही वजह है कि कुछ समझाया-बुझाया, लाख मना किया कि मुझे महागज मधुकी विशेष कृपा इन्हें प्राप्त है। अयोध्या-नरेश महाराज मधुके सत्कारका भार न लेकिन चन्द्रामा पतिक विचारोंसे जुदा है ! वह सोंपो, उनकी आरती उतारने के लिए दूसग प्रबन्ध यहाँ तक तो सहमत है कि महागजका पूर्ण सत्कार किया जा सकता है, जो मेरे प्रभावके सबब भी हो। मगर यह माननेको तैयार नहीं, कि सत्कारकी Page #287 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६६ पूर्णता उसी पर निर्भर है ! वह सुन्दरी है - परमासुन्दरी ! दुर्लभ-सौन्दर्य ने प्राप्त है, और वह जानती भी है - खूब अच्छी तरह, कि सौन्दर्य एक तेज मदिरा है, वह आँखोंके द्वारा हृदय में उतरती है ! और उसका नशा - घन्टों नहीं, वर्षोंतक, जावनांनतक भी नहीं उतरता ! वह इरादतन ही नहीं, अन जाने भी चढ़ जाता है । अच्छे चारित्रवाला भी उसका शिकार हो जाता है ! अनेकान्त पर यह सब वह महाराजको समझाए कैसे ? वह जो भक्ति में अपने विवेकको भुलाए बैठे हैं ! नीति में कहा है – ' अपने बलवान्को, अगर तुम्हारे पास कोई सुन्दर वस्तु हो तो उसे मत दिखाओ !' - चन्द्राभाने अपनी बातको, न तिकी आड़ लेकर वीरसेनकी स्वामि भक्तिकं मुकाबिले में खड़ा किया। 'बीहठ श्रजकी चीज नहीं, बहुत पुरानी है ! देखो, तुम व्यर्थ ही महाराज मधुकी महानता पर हमला कर रही हो ! जरासा रूप पाकर तुम्हें अहंकार हो गया है ! नहीं, जानती – महाराज के यहां तुमजैसी सैकड़ों दासियां आंगन बुहारा करती हैं !' - वीरमेन ने इच्छा के विरुद्ध रानीको बोलते देखा तो वीझ उठे ! विरक्त स्वरमें कठोरता व्यक्त करने लगे ! [ वर्ष ४ टाला जाना पत्नीत्वका नाश था, जो उसे इष्ट नहीं था- किसी भाव भी । सामने मजा हुआ आरतीका थाल रखा था । चुप, उठी और थाल लेकर चलदी ! वीरसेनका मन मारे खुशी के विव्हल हो उठा ! इतनी देर बाद स्त्रीहरुको ठेलकर, कामयाबी जो हामिल कर पाए थे ! कम बात थी यह ? X स्त्री अपने जीवन में दो चीजों को ज्यादह पसन्द करती है - प्रेम और सम्मान ! पर, चन्द्राभाको रसेन इस वक्त एक भी न मिली ! उसे दुग्ख तो बहुत हुआ, अपने अपमानका पतिकी विरक्तनात्रा और इन दोनोंसे भी ज्यादह इस बातका कि उसका भोला, अन्धभक्त पति भविष्य मे निश्चिन्त हो बैठा है ! विरोधी विचारोंका सुनना भी पाप समझता हैं। पर, निरुपाय थी ! पतिका आदेश जो था ! उसे X X .X [ २ ] बहुतबार ऐसा होता है-कि बात मनमें कुछ नहीं कि सामने आई ! आशंका, आशंका न रह कर भय बनी ! पर, वीरसेन जरा भी न समझे कि कुछ हुआ है ! दोनोंने मिलकर आरती की खूब खुशी-खुशी ! और लौट आए । लेकिन चन्द्राभा कोशिश करने पर भी यह न भूल सकी कि महाराज मधु उसके ऊपर मोहत हो गए हैं ! आरतीके वक्तकी भाव-भंगी उसे अब भी याद है ! ऐसी याद है जैसे पाषाण पर आंक दी गई। हो ! जो मिटेगी नहीं । उसने एकान्त में पतिसे कहा - ' -'देवा कुछ ?' वह बोले - 'क्या ? नहीं तो, मैंने कुछ नहीं देखा !' 'मैंने कहा था, न ? वही हुआ - आपके महाराज का मन स्थिर नहीं रहा है। वे मेरी ओर बुरी निगाह में देख रहे थे ।' - चन्द्राभाने दबी जबानसे, दबे शब्दों में कहा और देखने लगो मुँहकी और, यह जानने के लिए कि इसका असर क्या होता है ? वीरसेन हूँ । फिर क़रीब क़रीब हँसते हुए ही बोले - 'खूब ! अरे, तुम्हारे मनमें तो 'वहम' घुम गया है ! बेजा Page #288 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] अयोध्याका राजा x X क्या है ? समझती हो-बहुन खूबसूरत हूँ, पर्ग-पैकर मंत्री चुप! हूँ-मेरीसी धरतीक पर्दे पर दूमरी नहीं ! क्यों, सोचने लगे-'महाराजको कामज्वग्ने सताया है। इसमें कुछ मठ कह रहा हूँ क्या मैं ? कामी किसकी सन्मानरक्षाका खयाल करता है? रानीको ऐसा लगा-जैसे उमके पुगने घावमें वह आपेमें ही कहाँ रहता है ? महागजन जो कहा किसीने पिमा नमक भर दिया ! वह तिलमिला गई, है, वह सब विकृत-मस्तिष्ककी बातें हैं। उन्हें स्वयं तड़प उठी ! पर, बोली कुछ नहीं। इमका ज्ञान नहीं कि उन्होंने क्या कहा ! और उधर बहुत देर तक बातें हुई । मंत्रियोंने अपना उत्तरमहागज मधुका बुरा हाल था ! वह लोकलाज, दायित्व याग्यनापूर्वक निभाया और इम ममझौते न्याय-अन्याय, यश-अपयश, धर्म-अधर्म सबका पर ममम्या स्थगिन की गई कि महागज युद्धविजय विचार भुला बैठे ! राजा जो ठहरे, बड़े गजा। उन्हें कर अयाध्या लौट चलें । इसके बाद-कुछ ही दिनक भय तो होता नहीं ! अगर वही हृदयकी प्रेरणाका अ , अनन्तर, मंत्रीगण किसी चातुर्यपूर्ण युक्तिद्वाग इतना आदर न करें, तो फिर वश किसा? कौन च चन्द्राभाका अयोध्या बुलादेंगे। वैमी दशामें उनकी कर सकता है ? स्वामित्व जो है, वह किस लिए है, इच्छापूर्ति के साथ साथ, अधिक होने वाले अयश खुले श्राम कहने लगे-'मुझे चन्दामा मिलनी भी थोड़ा वह बच सकेंगे। ही चाहिए । वह मेरे मनकी चोर है ! उसके विना मैं ^ एक मिनट भी विनोदपूर्वक-नहीं बिता मकना ! उसका मिलन हो मग जीवन है।' मधु ऋतुके प्रारम्भके दिन !___ मंत्रियोंने ममझाया-'महागज ! यह क्या कहते जब कि हरियाली नवीनताको अपना कर फली हैं ? बड़ा अयश होगा ! दुनियामें मह दिग्वाने तकको नहीं ममाती। भ्रमरोंकी गुजार मे, कोयलोंकी कूकसे जगह न रहेगी, आपके कुल की मर्यादा, पूर्वजोंकी उपबनका कोना कोना निनादित होने लगता है। कीर्ति, और आपकी न्यायप्रियना सब धूलमें मिल कुसुमसौरभको लेकर समीर भागा भागा फिरता है। जाएगी ! लोग कहेंगे समीरणम उमंग, म्फूर्तिका सन्देश पाकर मानव ____ 'लोग कहेंगे, लेकिन मेग मन तब चुप हो मौजकी अँगड़ाइयाँ ले उठता है। जाएगा. मन्तुष्ट हो जाएगा ! मुझे लोगोंकी पर्वाह तभी एक दिन वीरसेन और चन्दामा एक कारास नहीं, दुनियाकी पर्वाह नहीं! मैं ये बातें नहीं, चन्द्राभा को लेकर झगड़ रहे हैं। एक अोर दासीकी प्रार्थना को चाहता हूँ ! उसीको चाहता हूँ-जिमने मी है. दृमरी ओर पतिका अधिकार । एक ओर विवशता मनकी दुनियामें तूफान उठा दिया है ! अगर तुम उस है, दृमर्ग ओर उत्सुकता । एक ओर भविष्यको चिन्ता नही ला सकते, तो मेरे मामन पानेसे बाज़ आओ!' है, दूमरी ओर भक्तिकी-स्वामी भक्तिकी प्रबलता। -महागज मधुने बात काटने हुए, जोरदार शब्दोंमें 'देखा, लिग्या है-'वसन्तोत्सव मनानेका विशाल अपनी आन्तरिकताको सामने रखा। आयोजन किया गया है। अनेकों गजे महागजे Page #289 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. अनेकान्त [वर्ष ४ सपत्नीक भा रहे हैं। तुम्हें भी पत्नी सहित शीघ्र आमंत्रणमें धोखा दिखाई दे रहा है। चाहती हूंपधार कर इसमें सहयोग देना चाहिए ।'-सुना आप एक बार म्वयं विचार कर देखें । ऐसा न हो प्रयोभ्यानरेश बड़ा भारी मेला करा रहे हैं। और कि कुछ ग़लन हो जाए-आपके दुखमें मुझे सुख न उसमें बुला रहे हैं मुझे और तुम्हें भी। बड़ा प्रेम मिल सकेगा-स्वामी!' । मानते हैं-हम लोगोंसे । तभी तो ?-और देखो, वीरसेन अमल में चन्द्राभामे देर तक वाद-विवाद यह नीचे क्या लिखा है-'अगर तुम लोग न आये, करनेके कारण कुछ झंझलाहटमें भर गए थे। और या देरसे आए, ता महाराज बहुत बुरा मानेंगे । तुम्हें अब हर बातका उत्तर अपनी अधिकार-सत्तासे देनेके पत्र पहुँचते ही तैय्यारियाँ शुरू कर देनी चाहिए। लिये कटिबद्ध थे-'मैं बहुत देरसे सब बातें सुन नहीं तो हमें दूसरा आदमी फिर भेजना पड़ेगा। यहाँ रहा हूं, अब अधिक कुछ सुनने की इच्छा नहीं है। बहुत नरनारी इकट्ठे हो चुके हैं। महोत्सव प्रारम्भ कुछ ग़लत हो या सही, मैं कर रहा हूं-ज़िम्मेदारी हुए कई दिन बीत चुके ।'-वोमिनन महाराज मधु उसकी मुझ पर है, तुम पर नहीं । समझती हो ?' का भामंत्रणपत्र पढ़ कर सुनाया। ___ चन्द्राभाको आँग्खों में आँसू भर पाए । हिचकीसी चन्द्रामा जाने क्या मांचती ?-चुप बैठी रही! लेते हुए बोली-मैं और तुम कभी अभिन्न थे, एकका फिर बोली-'यह पत्र में कई बार पढ़ चुकी। खूब दुग्व, दूसरेका दुग्व था। आज जुदाजुदा हैं।' मच्छी तरह पढ़ कर ही तो कह रही हूँ कि मुझे वीरसननं जमी हुई आवाजमें कहा-'हाँ। तभी अयोध्या न ले जाओ, न ले जाओ। तुम अकेले तो ?-मैं कहता हूँ और तुम उमं मानने को तैय्यार जाकर प्रायोजनमें हाथ बँटाओ, और मेरे लिए क्षमा नहीं।' याचना कर, महाराजको प्रसन्न करलो। नहीं, मैं x x x x कहती हूँ, मेग मन कहता है कि तुम्हें पछताना पड़ेगा-मेरे म्वामी।' वसन्नोत्सवकी समाप्ति पर'तुम्हें मेरे पछताने या खुश होने से कोई वास्ता महागज मधु मभी आगन सज्जनोंगे दान नहीं। मैं कहूँ; उस मानना तुम्हारा धर्म है । मुझे जब सम्मान द्वाग सन्तुष्ट कर, विदा कर रहे हैं। सभी तुम्हारी रायकी जरूरत हो, तभी तुम्हें अपनी गय प्रमन्नमुख, मपत्नीक खुशी खुशी अपने घर जाते देनी चाहिए। जानती हो, मैं अपने महाराजकी हुए, महाराजके मधुर-व्यवहारकी, आदर-सम्मानकी अक्षरशः आज्ञापालनमें भानन्द लेना पाया हूं।'- और देन-दहेजकी प्रशंसा करते जाते हैं। एक पतिहृदयने विवाहित स्त्रीहृदय पर अपने वटपुरनरेश वीरमनकी बारी आई-सबके अधिकारका प्रदर्शन किया ! अंतमें ! भक्तिसं गद्गद् वीरसेन अगे बढ़े। चन्द्रामा चन्द्रामा बेबस थी। मौनके आगे संसारकी समीप ही थी, थोड़े फासले पर । हृदय उसका धड़क तरह। रहा था । न जानें क्यों ? बोली-'प्राणाधिक ! मुझे अयोध्यानरेशक इस 'अच्छा, आप भी ?' मधुने कहा । Page #290 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] वीरसेन थोड़े हँसभर दिए सिर्फ ! 'ठहरिये न चार छः दिन और ?' अयोध्याका राजा 'आपकी ही सेवा में हूं, वहांका काम काज भी तो मनुष्य के मनकी पहिचान नहीं ।' देखना ही है ।' क्या सचमुच धोखा खाया गया ? क्या उसने ठीक कहा था ? क्या मैंने गलती की ? चारों ओर से जैसे आवाज आई 'हां !' वीरसेन अबाकू ! और तभी चल दिए - बग़ैर कुछ सोचे समझेअयोध्या की ओर ! हृदय पर आधान जो हुआ था । अनायास बज प्रहार, वह उसे सँभालने में असमर्थ हो रहे थे । X 'ज़रूर ! हां. तो ऐसा कीजिए-आप चले जायें, लेकिन गनी जी अभी यहीं रहेंगी। बात यह है, रानी जीके लिए कुछ नाम तौरपर आभूषण बनवाए गए हैं— उनमें है अभी दे। जैसे ही बनकर आए नहीं कि हम उन्हें स-सन्मान विदा कर देंगे । वीरसेन चुप I 'चिन्ना न कीजिए— उन्हें किसी तरह की तकलीफ न होने पाएगी। आप बेफिक्री के साथ जा सकते हैं । ' - महाराज मधुन स्पष्ट किया । 'अहँ ! आपके यहां तकलीफ ? मुझे चिन्ता क्या ? तो मैं जा रहा हूँ — इन्हें चार छः दिन बाद भेज दीजिएगा ।' - और श्रद्धा मस्तक झुकाते. हाथ जोड़ते हुए वीरसेन लौटे। चन्द्राभाने संकेत किया, पास पहुँचे। बोले—'डरकी कोई बात नहीं। हीरका लंकार बनने में थोड़ा विलम्ब है, बनकर आ जाएँगे, दो चार दिनमें । तब आ जाना। कुछ कष्ट नहीं हागा-यहां ।' चन्द्राभा गं दी ! जानें कब कबके आंसू रुके पड़े थे ! बोली- 'स्वामी धोखा खाकर भी तुम्हें ज्ञान नही आता । तुम्हें मनुष्य होकर भी मनुष्यकं मनकी पहिचान नहीं ।' २६६ तो वीरसेन के मन में कुछ शक पैदा हुआ। रह रहकर उनके कानों में गूँजने लगा - 'तुम्हें मनुष्य होकर भी वीरसेन फिर तने ! 'फिर वही बात ? महाराज मधु ऐसे नहीं, जैमा तुम खयाल करती हो । वे एक बड़े राजा है।' X X X X आठ दस दिन बीत गए। जब चन्द्राभा न लौटी X X अयोध्यावासियांने देखा - एक पगला, मलिनवेष, मरणमूर्ति अयोध्याकी गलियोंमें चक्कर काट रहा है। चिल्ला चिल्लाकर कहता है- 'मैं वटपुरका राजा हूं। मेरी रानी चन्द्राभाको अयोध्याकं गजा मधुन मुझसे छीनकर अपनी पटरानी बना लिया है। कोई मेरा न्याय नहीं करता ? बच्चों मनोरञ्जन होता ! बूढ़े समझदार कहते - 'बेचारा ठीक कहता है ।' और कुछ मनचले पगले को छेड़ते, चिढ़ाने, चन्द्राभाकी बातें पूछते । वह जहां बैठना घंटों बैठा रहता ! पागल जां ठहरा, मुसीबत का मारा ! X महारानी चन्द्राभा अयोध्याकं भव्य प्रासादकी खुली छत पर सो रही थी, कि उनकी नींद उचट गई । एक करुण पुकारने उन्हें तिलमिला दिया । पुकार हृदय के भीतरी हिम्सेसे निकल रही थी 'हाय ! चन्द्राभा ?' वह पढ़ी न रह सकी ! वातायन खोलकर झाँका Page #291 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७० भनेकान्त [वर्ष ४ देग्वा-एक दरिद्रमा, भिग्वारीसा, पागलसा, गेगीसा दीग्वती है । महागज मधुके साथ जो व्यवहार उसका व्यक्ति चिल्लाता, गेता कलपना भागा जा रहा है। है, वह पत्नीत्वके आदर्शका द्योतकसा लगता है। पहिचाना-यही तो बटपुरके राजा वीरसेन थे, उम दिन दोपहर होने आया, पर, महाराज महल उमके पति ! में न पधारे । चन्द्राभा भूखी बैठी प्रतीक्षा करनी क्या दशा हो गई है उसके बिना ? रही ! पनिमं पहले ग्मोई पा लेना, स्त्रीके लिए कलंक कि चन्द्राभाकं महम एक चीस्त्र निकल ही गई। जो माना जाता है ! वीरमन रुक गए। दवा-चन्द्रामा महलकी दोपहर ढला! पर, महागज न आए, न आए ! छत परमे देख रही है ! वह बैठी रही। भूख उसे लग रही थी, सिग्में और वह दौड़ गए-पागलकी तरह ! कुछ कुछ पीडाका अनुभव भी हुश्रा । पर, उस बैठना x x x x था, बैठी रही! कुछ दिन बाद, एक दिन ___तीसरे पहर महाराज महलोंमें पधारे, कुछ गंभीर, चन्द्राभान सुना कि वीरसेन 'मंडवी' साधुके कुछ थक-माद । उच्च प्रामन पर विगजे, महारानी आश्रममें संन्यामी हो गए हैं। ने मुम्कग कर सत्कार किया। महागज भी मुम्कगये, x x x x हाथ बढ़ाकर महागनीको समीप बैठाला। दोनोंके मुग्व- मल विकासमय थे। रोज-रोज दवा खानेसे जैसे दवा खगक बन 'आज इतने अधिक विलम्बका कारण क्या है ? जाती है । उसी तरह पाप पुगना होने पर, पुण्य ता -जान सकती हूं-क्या ?'नहीं बन जाता लेकिन यह जरूर है कि उसकी क्यों नहीं । एक जटिल न्याय आगया था, उसी चर्चा नहीं रहती, गिला मिट जाता है, लोग उसे सह- में देर लग गई !' सा जाते हैं। स्मृति, धुंधली हो जानेसे स्वयं पापी भी ऐसा क्या मुकदमा था, जिमका फैसला देते देते उसमें कुछ बुराई नहीं देख पाता। दिन बीत चला ! भोजन तककी फिक्र भूल बैठे ?' कई वर्षे बीत चली! 'एक पर-स्त्री-सेवीका मामला था। उसका ।' चन्द्रामा पटगनी और महागज मधु दोनों पर-स्त्री-संवीका ? आपने उसका क्या किया ? सुखोपभोगमें रहते चले आए । पिछली बातें बिल्कुल सन्मान किया, न ?'-चन्द्राभाने बात काटकर पूछा ! भूली जा चुकी हैं। कोई गिला, कोई ग्लानि या वैसी 'सन्मान ? पापीका सन्मान होता है कहीं ? उस ही कोई चीज़ कभी किसी के मनमें नहीं उठी। वर्षोंके तो सजा मिलनी है-सजा !' लम्बे अन्तरालने उनकी कटुताको जैसे मिठासमें क्यों ?' तबदील कर दिया हो! तुम बड़ी भोली हो चन्द्रमा ! कुछ समझती नहीं ! चन्द्राभाकं मनमें क्या है, इसे तो कोई नहीं अरे, पर-स्त्री-संवन पाप होता है पाप ! बहुत बड़ा जानता। लेकिन वह सदाचरणमें एक गृहस्थिनसी पाप! वही उसने किया था। पापी था दृष्ट! न धर्म Page #292 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] अयोध्याका राजा २७१ पूछा। की ओर देखा न समाजका स्नयाल किया !' बेकार है।' 'लेकिन तुम्हें उस पर दया करनी थी, उसे छोड़ पर, ऐसा देखनेमें तो नहीं पाया'.... ।'देना था ! चन्द्राभाने मुस्कराते हुए कहा! महाराज हँसे ! 'कैसा ?'- महाराज मधुने आश्चर्यान्वित होकर 'गजनीति तुम जानती नहीं, इसीसे कहती हो ! ऐसा ही, कि किसी गजाने परखी-सेबन किया देखो, दया हर जगह की जाती है। पर, जहां न्याय और उसे सजा मिली हो!' का सवाल आता है ! वहां न्याय ही होता है। गजा 'लकिन मैं ने तो ऐमा नहीं सुना ! गजा अन्याय का फर्ज़ जो ठहग ! उस कर्तव्यसं विमुग्ध होकर गजा करते हैं तो उसका प्रतिफल उन्हें भोगना ही पड़ता को नीचा देखना होता मानली है। कानून जो सबको एक है.!' ___ 'आपने सुना नहीं ! पर देम्वा जरूर है। लेकिन छोड़ देता, तो नतीजा क्या होता ? यही कि देवा अाज भूल रहे हैं ! बड़े लोगोंमें भूल जानेकी पादत देग्वी पर-स्त्री-संवनका पाप बढ़ता चला जाता! लागों जो होती है! आपका दोष नहीं!' के मनमे गज-भय निकल जाता। और उस सबके महागजका मन इब-सा गया! घबराकर बोलेपापका भागी होता-मैं ! पूछा क्यों?' 'कह क्या रही हो चन्द्राभा ?' 'यही कह रही थी, कि अपनी ओर भी आप क्यों ?'-चन्द्राभाने पूँछ दिया ! जाग देखें। आपने भी पर-स्त्री-सेवन किया है, पाप इस लिए कि मैं गजा हूँ। गजाके ऊपर ही किया है ! क्या आपने मुझे अपनी स्त्री ममझ ग्वा सारे गज्यकी जिम्मेदारी होती है। प्रजाको ठीक है ? क्या आपने मेरे भोले, स्वामिभक्त पतिके साथ रास्ते पर चलाना गजाके कर्तव्यका एक अंग है। दग़ा कर मुझे नहीं लूटा था ? तब आपका कनून गजा-रंकी दुहाई देने वाला कानून-कहाँ गया पापी, दुष्ट, अधर्मी, अन्यायी, दुगचारी सबको था ? आपने आँखोंस देवा-मेग पति मरे विरहमें कड़ीसे कड़ी सजा देकर गज्यकी शासन-व्यवस्थाको पागल हो, मारा-मारा फिग-न्यायका दामन फैलाये ठीक तौर पर कायम रखना उसका जरूरी काम है।' हुए ! मगर गज मत्ताके आगे उसका क्या बश ?...' तो ?-तो परस्त्री-सेवन पाप होता है ! क्यों?' मधु नत-मस्तक बैठे रहे, अपराधीकी तरह । 'और नहीं तो क्या ?' सोच रहे थे-धरती फट जाए तो मैं उसमें समा जाऊँ! 'तो तुमने इसी लिए उसे सजा दी ?' दो बूंद आँसू बहाते, मॅधे-कण्ठसं बोले'हाँ!' 'चन्द्रामा ! मुझे क्षमा करदा ! बहुन बड़ा पाप किया लेकिन वह गंगेव रहा होगा कोई ? है न यही ?' र यहा। है-मैंन!' 'नहीं! वह ग़रीब नहीं, अच्छा-खासा पैसे x x x x वाला था!' । दूसरे दिन सुबह !ऐं ? पैसे वालोंको भी सजा होती है ? अयोध्याका राजा और बटपर-नरेशकी गनी __क्यों नहीं! कानून सबके लिए एक होता है। चन्दामा दानों परमतपस्वी दिगम्बर-साधुके निकट कोई राजा हो या रंक ! जो पाप करेगा, अवश्य भगवती-दीक्षाको याचना कर रहे थे, मायामाहस सजा पायेगा! कानूनके लिए गरीब-अमीरका सवाल विरक!!! Page #293 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनमें ज्योति जगाना है .. (ले०-६० पन्नालाल जैन 'वसन्त' माहित्याचार्य) हे वीरयुवक! गुण गौरव-धन ! प्रणवीर भीष्म भी तुम्ही हुए, यश-सौरभके मञ्जुल उपवन ! सम्राट् गुप्त भी तुम्ही हुए , हे शान्ति-क्रान्तिके सुन्दर तन! रणधीर शिवाजी तुम्हीं हुए, लग रहा तुम्ही पर मानव-मन । अब हो उदास क्यों पड़े हुए , इनको आगे ले जाना है, कायरता दूर भगाना है, जीवनम ज्योति जगाना है। जीवनमें ज्योति जगाना है। ये मानव मदमें मत्त हुए, विष व्योममें छाया है, तज प्रीति, वैरमें रक्त हुए, हिमाने शङ्ख बजाया है , मन्मार्ग भूल कर दुखी हुए, लालचने साज सजाया है, हैं भवावर्तम पड़े हुए, खलताने राज्य जमाया है। जगको सन्मार्ग बनाना है, दानवता दूर भगाना है, जीवन में ज्योति जगाना है। जीवनमें ज्योति जगाना है। है विश्व बदा कितने अागे? चमको नभमें सूरज बनकर , पर तुम पीछे कितना भागे ? दमको घनमें विद्य त बनकर , जग जाग उठा, तुम नहि जागे, बरसो क्षिति पर जलधर बनकर , उठ, जाग, बढ़ो सबके श्रागे । मुख शान्ति रहे जिससे घर घर । श्रालसको दूर भगाना है , अपना कर्तव्य निभाना है , जीवन में ज्योति जगाना है। जीवन में ज्योति जगाना है। अब तक हम तुम सब दूर रहे , जिमसे अपमान अनेक महे , श्राश्रो मिल जावे, ऐक्य रहे, जग तुम-हमको नहिं हीन कहे । जगमें श्रादर्श दिखाना है, जीवनमें ज्योति जगाना है। जिनवाणी-भक्तोसे'अनकान्त' तथा 'जैन सन्देश' में प्रकाशित होने वाली श्री भगवत' जैन लिखित जैन-माहित्य की कहानियोंका अगर कोई महानभाव अपनी पारस पस्तककाकार संग्रह प्रकाशित कगयें । उचित और मामयिक चीज़ बने । कहानियां पुगनी होने पर भी कितनी आधुनिक और मनोरंजक हैं, यह 'अनेकान्त' और 'मन्देश के सभी पाठक जानते हैं। और यही वजह है कि वे ग्यूब पमन्दकी जा रही हैं। अगर संग्रह प्रकाशित होता है, तो वह नवयुगकी एक मूल्यवान देन के माथ-माथ जैन-समाज को बहन बड़ी कमीकी पूर्ति होगी। स्वल्प व्ययमें ही यह जैन-माहित्यक प्रकाशनका काम हो सकता वामंदिर मम्मावा, या 'महावीर प्रेम आगगसे इस सम्बन्धमें परामर्श कर शीघ्र ही किन्हीं जिनवाणी-भक्त भाईको इसे पूरा करना चाहिए। -पूरनमल जैन B. A. L. L. B. वकील, Page #294 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वैवाहिक कठिनाइयाँ [ ले०-श्री० ललिताकुमारी जैन, पाटनी 'विदुषी' प्रभाकर ] m munomments S AMS वाहका प्रश्न आज हमारे समाजमें सकेगे। हम जो कुछ कर रहे हैं वह क्या वास्तव में विवाह ) कितना कठिन और समाधानहीन हो की सम्पूर्णताके लिये किया जा रहा है, इसकी भोर तो किसी रहा है यह किसीमे भी अविदित का रयाल ही नहीं है। उनका ध्यान महज़ अपनी अच्छी नहीं है। इसको सुलझाने और सरल और बुरी लगनेवाली बातों पर रहता है। ऐसा देखा जाता करने का जितना अधिक प्रयत्न किया है कि अपने घरमें विवाह होते समय लोग कोई भी रीति गया नाम लिखीता बता जात या रिवाज विवाहकी सम्पूर्णताके लिए नहीं करते किन्तु यह प्रश्न इतना जटिल और पेचीदा क्यों हो गया और लोग अपनी मान-मर्यादाकी रक्षाके लिये करते हैं। यह होरपदी इसकी कठिनाइयोंके सामने क्यों विवाहको एक जंजाल और जाती है कि किसने किससे ज्यादा पैसा खर्च किया ? इज्जत उलझन समझने लगे इस पर जिन विद्वानोंने गम्भीर विचार और मानके क्षेत्रमें कौन किससे भागे बदा ! समझमें नहीं किया उनका मत है कि हमने हमारी ही भूलों और ग़ल आता कि विवाह के समय लोग विवाहकी रक्षा करने की तियोंसे विवाहके मार्गमें ऐसे-ऐसे कांटे बो दिए जिनके कारण चेष्टा न करके मान-मर्यादाकी रक्षा क्यों करते है ? इस मानकदम-कदम पर हमारे पांव फटते हैं और हम उसके उद्देश्य मर्यादा ही मान-मर्यादामें एकसे एक कुरीति बढ़ती हुई चली तक पहुंचने में सफल नहीं हो सकते । गई और आवश्यक तथा अभिवार्य रस्मों की असलियत पर हमने हमारी ही मूर्खतासे ऐसे बेशमार रीति-रिवाजोंको भी स्याही पोत दी गई। मैंने मेरे पूज्य बाबा साहब मे बढ़ा लिया है, जिनमें अधिक से अधिक आर्थिक हानि भी " हमारी विवाह प्रणाली के सम्बन्धमें कुछ ज्ञान प्राप्त करमेकी उटानी पड़ती है और विवाहके मौलिक स्वरूप पर भी कुठा इरछासे यह पूछा कि हमारे यहाँ कौन-कौनसे रीति-रिवाज राघात होता है। यही कारण है कि विवाह-जैसे शुद्ध और किस-किस तरहसे मनाये जाते हैं. तो उन्होंने मुझे दो मह. मौलिक संस्कार को हमने सैंकड़ों ही अनावश्यक रीतिरिवाजों जरनामे दिए । एक महजरनामा दि. जैन समाज जयपुरके से ऐसा माच्छादित कर दिया है कि अब उसकावास्तविक रूप द्वारा ई० सन् १८८४ में पास किया हुआ है और दूसरा ई. टूटने में भी बड़ी कठिनाइयां हो रही हैं । हमारी विवाह- सन् १२३ म पास किया हुमा सन् १९२३ में पास किया हुया है। इन दोनों ही महजरप्रणालीको देखकर यही कहा जा सकता है कि लोग अपनी . नामोंको देखकर यह समममें पाया कि हमारी एक भी रीति सन्तानके विवाहके समय यह सोचने और सममानेकी विल्कुल ऐसी नहीं है जो विवाह की सम्पूर्णताके लिए की जाती हो। चेष्टा ही नहीं करते कि विवाहका तस्त्र कहां छिपा हुआ है यद्यपि इन महजरनामोंमें रीति-रिवाजोंमें किए गए फिजूल और उस तत्वको नेके लिये हमें क्या करना चाहिए। खर्च पर रोक लगाई गई है, लेकिन वास्तविक बात तो यह हमारी इन पुरानी रूढ़ियों और रीति-रिवाजोंमे वर और कन्या है कि उनमें १५ प्रतिशत रीतिरिवाज तो ऐसे हैं जो विवाह कहां नक उसके उत्तम उद्देश्य और मधुरफलको प्राप्त कर से कतई सम्बन्ध नहीं रखते । हमारी प्राचीन विवाह-पद्धति Page #295 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७४ अनेकान्त [वर्ष ४ का कोई ज्योग्बार इतिहास नहीं लिखा गया वरना यह स्पष्ट होकर चले गये । यद्यपि आपने पाये हुए महानुभावोंको जाना जा सकता था कि कौनमी रीति किस तरहसे भाई यह विश्वास अवश्य दिलाया कि श्राप चांदीके जोड़ तो सब और हमारी विवाह-प्रणालीके शुद्ध और संस्कृत मार्गमें ये डाले होंगे लेकिन सोनेके गहनोंमें भी गोखरूकी जोड़ी होगी, छोटी-बड़ी गन्दी नालियां किधरमे बह निकलीं, जिनके कारण बंगड़ी होगी, पौंछी होगी. मरेठी होगी. हलकी भारी जंजीर भाज वह बिल्कुल दृषित और गन्दी हो गई है। अब उस भी होगी और जहांतक हो सका हार बनवानेकी कोशिश गन्दगीको दूर करने की नितान्त आवश्यकता है । हमारी भी की ही जायगी। किन्तु श्रापके पड़ोसियोंने इस पुलबन्दी विवाह-प्रणाली में व्याप्त मय कुरीतियों और वास्तविक को उखाड़ दिया और विपक्षीको मालूम हो गया कि गहने संस्कारोंके विकृत उपयोगकी विवेचना करनेकी तो इस छोटे आपके नहीं बल्कि आपके किसी सम्बन्धीके हैं और विवाह ये निबन्ध में गुजाइश नहीं है। क्योंकि निवन्धका कलेवर होने के बाद उसको सब वापिस कर दिए जायेंगे। कितु प्राप बन जानेकी आशंका है। इसके लिए तो एक अलग ही पूर्णत: निराश म हए और मगाईको पार पटकने के लिए हर बृहद ग्रन्थ होना चाहिए । किन्तु फिर भी हजारों ही वैवा- तरहसे चेष्टा कर ही रहे हैं। जब आपने देखा कि भरपूर हिक कुप्रथानाम में दहेज, जेवर डालना आदि कुप्रथाओं पर गहनांके बिना पार पड़ ही नहीं सकती है तो किसी मेठ साधारणतया प्रकाश डाला जा रहा है, जिनके कारण हमको माहकारमं ज्यादाम ज्यादा ब्याज पर रुपया उधार लिया। अधिकमे अधिक प्राधिक हानि उठानी पड़ती है। होना तो आधी रकमम गहना बनवा लिया गया और प्राधी शादीक यह चाहिए कि जो व्यक्ति विवाहके क्षेत्रमं कदम बढाने के लिय सुरक्षित रग्बदी गई । कोई लकी वाला श्राया और लिये तैयारहो. देवे कि वह कहां नक अपने आपको अर्थ गहनेको देख कर आपके माथ म ही गया। श्रापके लड़के शक्तिम परिपूर्ण पाना है और वह उमको कहां तक सुरक्षित का विवाह हो गया। आपने मांद (मैं) की जीमनवार भी रख मकेगा, किन्तु होता यह है कि विवाह के पहले यदि बहुत अच्छी की और बारातमें अधिकम अधिक संख्यामें वह दम बिस्वा विवाहकी जुम्मेवारियोंको मेलने लायक मजाकर बरातियों को ले गये । आपकी गृहिणी भी प्रसस हे धनशक्तिमे पूर्ण है तो विवाहके बाद वह पांच ही बिस्वा कि काम करनेके लिए घग्मं वह पा गई। श्रापका पुत्र भी रह जाता है प्रमना है कि उसका कुंभारपन उतर गया। ऊपरमं आप भी कल्पना कीजिए कि आप एक 15 या २० प्रसन्न हैं, किन्तु भीतर ही भीतर एक विषम चिन्ता ग्वड़ी वर्षीय पुत्रके पिता हैं। आपकी आर्थिक परिस्थिति मध्यम है। औरही है। एक मोर तो घरमें एक प्रादमीका खर्च बढ़ साधारणतया कमा-ग्या लेने हैं । घरमें प्राप. आपकी गृहिणी. गया और दूसरी ओर कर्ज ली हुई रकमका म्याज बढ़ गया। विवादास्पद पुत्र और एक अविवाहित कन्या इस तरहम्मे चार प्रादमी हैं। आपके पत्रकी अभी सगाई नहीं हई घरमै आमदनी इतनी-सी है कि आप साधारण वा-पी-पहन ले । फल यह होता है कि साहूकारको मूल कहां महीने किन्तु इसकी निम्तामें प्राप दिनरात लगे रहते हैं कि उसकी ' सगाई किस तरह से हो, कभी कभी आपके पत्रको देखने के की महीने व्याज भी नहीं दे सकते और भोजन कपडेकी लिये नम पांच महानुभाव पाये भी, किन्तु पढ़ौसियोंसे पार पावश्यकताओंको पूरी करनेके लिए एक एक करके बहुकी सुनकर कि शादीके समय पर पाप तीन जोर चांदीके और रकमोंको या तो बेचते हैं या गिरवी रखते हैं। धीरे धीरे ज्यादाले ज्यादा दो रकम सोनेकी डाल सकेगे, निराश गहना भी खतम होगया और आपका शरीर भी जीण होगया Page #296 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] पैवाहिक कठिनाइयां २७५ एक दिन पाप परलोकवासीहए और उसके बाद एक क्यों न मिलजाय और यह बात भी सच। बाज जिस बेरोजगार और चारों तरफसे विपत्तियोंके बादलसे घिरे हए आदमीके पास दस हजार रुपये हैं उसका समाजमें जितमा युवककी जो हालत हुई उसे या तो उसने भोगा या समाजने मान है वा दस हजार रूपयेका है और पांच हजार किसी कठोर हास्यकी दृष्टिसे देखा। सोचिए विवाहका अन्त कितना विवाहमें खर्च करने बाद उसका मान पांच हजार रुपयेका भयावह हुआ और कितना दुःखद साबित हुआ। क्या वह ही रह जायगा। किसी अवसर पर रुपयोंको पानीकी तर. नवयुवक बार बार यह सोच कर नहीं पछताता है कि मैं बहाते समय जो हमें वाहवाही मिलती है वह मादर चोर व्यर्थ विवाहके जंजालमें फँमा ? कुमारपन इस विवाहित मान नहीं बल्कि दुनिया हमारी मूर्खता पर तीखे व्यंगके जीवनसे लाख दर्जे बेहतर था। बाण छोड़ती है। उस वाहवाही में कठोर उपहास छिपा इसी तरह हम एक कल्पना और करें कि आप एक हुआ है । प्रस्तु। अविवाहित पत्रीके पिता है। आपकी पुत्री सयानी हो चली। ऐसी ही कठिनाइयोंके कारण विवाहका प्रश्न दिन पर है और उसके विवाहकी चिन्ता प्रापकी गर्दन पर मवार है। निगमीर और गद होता चला जा रहा है और पाजकल माग्ने एक बी. ७० पाम लड़केको पसन्न किया । लरका के यवक व यवतियां इमम घणा करने लगे है और जहां तक अच्छे ठिकानेका है। आप हैरान हैं कि लड़कका पिता दम हो सकता है वे इससे दूर ही रहना पसन्न करते हैं। बहुन हजारका टीका या दहेज मांगता है। नम हजार छोर कर मी पढ़ी लिखी बहनें इसीलिए आज कल विवाह करना नहीं नम मौ भी पाप करने के लिये असमर्थ हैं। श्राप मारे- चाहती कि मामाजिक कुरीतियों के कारण उन्हें कोई उपयुक्त मां फिरत है। इधर उधर भटकने हैं. लेकिन जिधर माथी नहीं मिलता है। क्योंकि हमारे समाजमें व्यक्तियोंका अच्छे घर और बरपर निगाह डालते हैं. लरकेके मंरक्षक मुह व्यक्तियोंक माय मम्बन्ध नहीं होता है किन्तु रुपयका रुपये फाइते हैं। उधर यदि अछा घर और वर नहीं देखा जाता माथ सम्बन्ध स्थापित किया जाता है। चाहे उस सम्बन्धमें है तो आपको अपनी पत्रीका विचार होता है कि वह कहां व्यक्तियों का चकनाचूर ही क्यों न हो जाय । नवयुवक जाकर पडेगी। सोचिए ऐसी हालतमें भापकी पत्रीके विवाहका ममाजका इस सम्बन्धमें और भी बुरा हाल है। आजकल प्रश्न प्रापके लिए कितना कठिन और जटिल हो रहा है। बेकारी इतनी फैली हुई कि पढ़े-लिखे युवकों के लिए अपमा क्या आप कभी यह नहीं मोमतं कि ऐसी चितामे नो भरण-पोषण करना भी मुश्किल हो रहा। फिर जो यदि नहर म्बाकर मर जाना कहीं अच्छा है। क्या भाप रात दिन उनको विवाहकी जुम्मेवारीमें फांस दिया जाय तो वही अखवारों में यह नहीं पढ़ते कि ऐसी परिस्थितियों के समय किरकिरी होती ।यो दिनों में ही वे विवाहके बोझसे ऐसे कुंभारी कन्याएं बालों में तेल डाल कर भस्म हो गई। दब जाते हैं कि उनके संस्कृत जीवन के सब प्रानन्द और लेकिन इन सबका कारण क्या? यही किमने दहेज सुख कपूरकी तरह काफूर हो जाते है। इसीलिए वे विवाहकी भादि कुप्रथाओंको प्रोत्साहन दिया और जेवरोंके मोड में बुरी जुम्मेवारीमें पैर रखना कतई पसन्द नहीं करतं और इन्हीं तरह फंस गये। मान और अहंकारकी रक्षामें हम तबाह भले कठिनाइयों के कारण अन्य विलायतों में तो पचास प्रतिशत ही होजाएँ लेकिन उसको सुरक्षित रखनेकी चेष्ठा तो करें सी-पुरुष अविवाहित जीवन व्यतीत करने लगे हैं। ऐसी ही। भले ही उस चेष्टामें हमारा रहा सहा मान भी मिट्टीमें हातको देखकर ही वहांकी गवर्नमेयटने लोगोंकी इस हचिसे Page #297 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २७६ अनेकान्त [वर्ष । घबराकर कई तरह के ऐसे टैक्स बढ़ा दिए हैं जो विवाह न नहीं पाता कि विवाहका तस्व निचोरकर इस पैसे ही पैसेमें करनेवालोंको चुकाने पड़ते हैं। हमारे भारतमें गवर्नमेंटकी किस तरह रख दिया गया। आजकल देशमें किसके पास तरफसे यदि टैक्म नहीं है तो समाजकी तरफमे उससे भी पैसा है ? पैसा जो था वह तो सब विनायतोंको जा चुका जबर्दस्त टैक्स लगा रहता है, जिसके कारण हरएक स्त्री- और सोनकी चिड़ियाका केवल खाका ही खाका रह गया। पुरुषको विवाह करना ही पड़ता है। अगर वे कदाचित जिनके पास अपना गुजर करनेके लिए भी पर्याप्त पैसा न विवाह न करें नो समाजमें रह नहीं सकते । समाजके साथ हो वे विवाहमें भरपूर पैसा कहांस खर्च कर सकते हैं। यह हो व विव अगर उनको चलना है तो विवाह उनके लिए अनिवार्य हो अवस्था मध्यम स्थितिके लोगोंमें अधिकतासे देखी जाती है। जाता है। इधर समाजकी विवशता और उधर विवाहकी उंची श्रेय ऊँची श्रेणीके लोगोंको तो ये कठिनाइयां इसलिए नहीं मालूम होती कि उनके पास काफी पैसा रहता है और वे हर एक कठिनाइयां? करें तो क्या करें ? अन्त में विजय समाज ही की होती है और राजी-बेराजी उनको विवाहके बन्धनमें अनावश्यक रीतिको भी प्रासानीके साथ अदा कर सकते हैं। उनके घरमें चाहे कितने ही अनकमाऊ और निकम्मे बैठे-बैठे बंधना ही परता है। नवयुवकोंके सामने विवाहकी जो कठिनाइयां पैदा हो रही हैं उसका मुख्य कारण यह है कि खानेवाले हों, पुरखाओं-द्वारा कमाई हुई धन-दौलत पर सब ऐशो-आराम भोग सकते हैं। निम्न श्रेणीके लोगों में हमारे देशमें पुरुषोंको त्रियों की बोरसे मार्थिक सहायता यह देखा जाता है कि विवाह होते ही एकके बजाय दो कतई नहीं मिलती है। जिम घरमें चार महिलाएं और एक कमाने लगते हैं और घरकी स्थिति पहलेमें अच्छी तरह पुरुष है उसमें अकेला पुरुष कमाता है और पांच व्यक्ति संभाल ली जाती है। दोनों खेतमें काम करते हैं. दोनों उस पर बसर करने वाले होते हैं। उस पर भी मज़ा यह पत्थर ढोते हैं, दोनों मजदूरी करते हैं, दोनों जंगलमें गायें कि महिलायोंको एक एकमे एक बढकर जेवर भी चाहिए, चराते हैं, दोनों कपड़ा धोते हैं, दोनों कपड़ा सीते हैं । एक देश-कीमती कपई-लत्ते भी चाहिए और कुरीतियोंको अदा करने के लिये बेशुमार फिजूलखर्च भी चाहिए। ऐसी स्थितिमें दूसरेकी कमाई पर विठाईस बसर नहीं करता है। किन्तु मध्यम स्थिति और ऊँची श्रेणीके लोगों में इसके बिल्कुल बेचारे पुरुषोंकी बड़ी दयनीय अवस्था हो जाती है और वे विपरीत देखा जाता है। अफसोसकी बात है कि यदि किसी गत दिन कोल्हूके बेलकी तरह रुपयेके पीछे-पीछे चक्कर लगाते रहते हैं। हम कहते हैं कि गृहस्थ जीवनमें बड़ा घरमें मार्थिक कष्टसे महिलाएँ उद्योग-धन्धोंसे अपना काम पानन्द और सुख है। प्रापही बताइए क्या यही प्रानन्द चलाने लगें तो उनको अनादरकी दृष्टिसे देखा जाता है। और मुग्ध है ? जिन पर ऐसी प्राफ़त गुज़री है या गुजर रही हमारे घरोंकी और घरवालोंकी इसीमें शान है कि महिलाएँ है ही जानते कि इसमें प्रानन्द याखासी पर्दे की बीबी बनकर पुरुषोंकी कमाई धम-दौलतपर भोगहालतको देखकर आजकलके नवयुवक विवाहसे बेतरह घबरा विलास करती रहें और अपनी जिन्दगीको बिल्कुल अकर्मण्य रहे हैं। इसके अलावा जो यदि विवाहके क्षेत्रमें कदम उठाना कर डालें। किसी कविने कहा है-- भी चाहें तो पहले यह देखें कि विवाह करनेके पहले उनके रोगी चिरप्रवासी परामभोजी परवसथशायी। पाम भरपूर पैसा भी है या नहीं, जिनके पास भरपूर पैसा यजीवति तन्मरणं यन्मरणं सोऽस्य विश्रामः ॥ नहीं है तो विवाहका नाम भी नहीं ले सकते । समझमें अर्थात्- रोगी, बहुत देर तक विदेशमें रहने वाला, Page #298 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] लहरोंमें लहराता जीवन दूसरेके अक्ष पर बसर करने वाला और दूसरेके मकानमें रहने ही हाथोंसे करनी हो, खुद खाना बनाती हों, हाथमे घाटा वाला इनका जीना मरनेके समान है और मरना मदाके लिये पीसती हों, अनाज बीननी हो. बर्मन मांजनी हो. कपडे-ल विश्राम करना है। सीती हों ओर नौकरों में कतई कुछ भी खर्च न कगती हो इसी तरह एक कवि और भी लिखते है नब तो यह जरूर कहा जा सकता है कि उनके लिय पुरुषों ई| वृणी विसंतुष्टः क्रोधनो निस्यशक्तिः । की सम्पत्तिका उपयोग करना शोभाकी बात है। इतना ही परभाग्योपजीवी च षडते दुःस्वभागिनः ।। नहीं बल्कि महिला कुछ म घरेलु उद्योग-धन्धों, जैसे अर्थात् - ईर्ष्या रखनेवाला, घृणा करनेवाला, असंतुष्ट चर्खा कानना, सिलाई करना. कमीदा निकालना, बेल बूटके रहनेवाला, क्रोधी, सदा शंका करनेवाला और नमक काम आदिको भी अपना और उनमें द्रव्योपार्जन करें ताकि भाग्य पर जीनेवाला ये छह दुवके भागी हैं। पुरुषोंका बोझ बहुत कुछ हलका हो मक। और जो सिया बहधा लोग मममतं हैं कि यदि एक पुरुष किमीक पढ़ी लिखी हों व अन्य तरीको जैसे अध्यापन, डाक्टरी, नमिंग माग पैदा किए धन पर बमर करता है तो उसके लिए यह दूषण आदिम कमावें. ताकि उनका भार पुरुषों के ऊपर न रह । है, किन्तु नियां यदि अपने घरके श्रादमियों द्वारा कमाय यदि ऐसा होने लगे तो पुरुषोंको विवाह करने पर कोई हुए धन पर बसर करें तो उनके लिए मो यह शोभा ही कठिनाई मालूम न हो योर व मग्वपूर्वक दाम्पत्य जीवनको है। ठीक है। किन्तु यह बात तब उपयुक्त हो सकती है पहन कर मकं । जब महिलायें घरका हरएक काम अपने ही हार्थोसे करती इसी तरह वैवाहिक कठिनाइयों के प्रश्नको हल करने के हों और पुरुषों के द्वारा कमाये हुये धनको व्यर्थ मौकरों और लि लिए हम दहेज प्रादि कुप्रथाओंको दूर करें और विवाह में नौकरानियोंकी तम्ग्वाहमें न खर्च करानी हो। किन्तु आज व्यर्थ खर्च न करें। जिनना कम खर्च किया जा मकं करें हमारे घरों में तो यह चल रहा है कि पुरुष कमातं कमातं और पाडम्बर या शानशौकत में पहकर धन-सम्पनिको , पांशान हो जायं और बहनें उसको खर्च करते करतं नहीं बरबाद न करें अथवा कर्ज लेकर अपना और भावी सन्तनि धक 1 तथा घरका हक काम नौकरों और नौकरानियो । का जीवन नष्ट न करें। इस तरह विवाह का प्रश्न गरीब, कराया जाय और वे मदा निकम्मी और अकर्मण्य बनी रहें। , बनारअमीर, छोट, बडे, गजा, कादि सबके लिए बहुत सरल ऐसी हालतमें हम यह कैसे माना कि बैठे-बैठे खाना और में हो जायगा और हमें बहुत कुछ हमकी कठिनाइयोंमे प्रामामी परुषोंकी कमाई धन-सम्पत्तिस ऐशो-माराम करना स्त्रियोंके के माथ छुट्टी मिल जायगी। लिये शोभाकी बात है। अगर बहने घरका सब काम अपने -x- . लहरोंमें लहराता जीवन ___ • लहंगमें लहगता जीवन ! पलमें उभार पल में उतार, थिर नेक न रहता मेरा मन ! लहगेमें लहगता जीवन ! इस अगम धारका पार नहीं, बढ़ रहा ज्वार पनवार नहीं ! ज्या ज्या हलका करता जाना, होना जाना है भारीपन ! __लहरीमें लहराता जीवन ! नन रहे निराशायोंके धन, श्राशा चल-चपलाका नर्तन ! नमकं झुरमुटमें इङ्गितकर, भर देना उग्में उत्पीडन ! लहरोंमें लगता जीवन ! परिवर्तनशील जमाना है. क्या जाने क्या होजाना है! बढ़ते यौवनके माथ माय, घटता जाता है धीरज धन ! श्री 'कुसम' जैन लहरों में लहगता जीवन ! Page #299 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नत्रय-धर्म [ले.--. पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य ] मामा और शरीर जुदे जुदे दो पदार्थ हैं। सम्यग्दर्शन पारमा अनन्त गुणोंका पुष है, प्रकाशमान अनादि कालस इस आत्माका पर-पदार्थोंके साथ है, चैतन्य ज्यानिरूप है; परन्तु शरीर जड़-भौतिक सम्बन्ध होरहा है। जिससे वह अपने स्वरूपको भूल पदार्थ है। आत्मा अजर अमर अविनाशी है, परन्तु कर पर-पदार्थों को अपना समझ रहा है । कभी यह शरीर जीर्ण शर्ण होकर नष्ट हो जानेवाला है। शरीरको अपना समझता है और कभी कुछ विवेकजब तक यह प्रात्मा मंसाग्में रहता है नब तक उसके बुद्धि जागृत होती है तो शरीरको पृथक पदार्थ मान साथ शरीरका सम्बन्ध होना अवश्यम्भावी है । मुक्ति कर भी कर्मक उदयम प्राप्त होनेवाले सुख-दुग्वको अवस्थामे शरीरका सम्बन्ध नहीं रहता । आत्माकं अपना समझना है, जिसमें यह प्रात्मा अत्यन्त अनन्त गुणोंमें मम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक् दुग्यी होता है। मैं सखी हैं. दाग्यी हैं, निर्धन हैं, चारित्र य तीन गुण मुख्य हैं। ये पात्माके ही म्वरूप धनाया है. मबल हैं. निर्बल हैं, ये मेरे पुत्र हैं और हैं। इनमें प्रदेश-भेद नहीं है, मिर्फ गुण गुणीकी मैं इनका पिता है' इस प्रकार के विकल्पजालमें उलझा अपेक्षा ये न्यारे न्यारे कहलाते हैं। जिस प्रकार एक हुआ यह जीव अपने आपकं शुद्धम्वरूपको भूल समुद्र वायुकं वेगसे उठी हुई लहगेंकी अपेक्षा अनेक जाता है। जीवकी इस अवस्थाको मिध्यादर्शन' रूप दिखाई देता है परन्तु उन लहगें और समुद्रके कहते हैं। मिध्यादर्शन वह अन्धकार है जिसमें यह बीच प्रदेशों की अपेक्षा कुछ भी अन्तर नहीं रहता आत्मा अपने आपको नहीं पहचान सकता-अपने उमी प्रकार प्रात्मा और सम्यग्दर्शनादिमें प्रदेशोंकी आपको पर-पदार्थोसे न्याग अनुभव नहीं कर सकता। अपेक्षा कुछ भी अन्तर नहीं रहता । वन्तुष्टि में जिस जिसने अपने स्वरूपको पहिचाना ही नहीं वह उसे तरह अनेक लहरें ममुद्ररूप ही है उसी तरह सम्य- प्राप्त करने का प्रयत्न ही क्यों करेगा ? ग्दर्शनादि भी प्रात्मरूप ही है। एक मिहका बच्चा छुटपनसं सियागेंके बीच 'जातो जानौ यदुत्कृष्टं तद्रस्नमिहोच्यते', इस पला था, जिमसं वह अपने आपको भी सियार नियमके अनुसार प्रात्मगुणोंमें सर्वश्रेष्ठ होने के कारण समझने लगा था । जब कभी गजराज सामने आता सक्त तीन गुण ही 'रत्नत्रय' कहलाते हैं । इस तरह तो वह भी अन्य सियागेकी भांति पीछे भाग जाता जैनसम्प्रदायमें पत्नत्रयका अर्थ सम्यग्दर्शन, सम्य- था। एक दिन वह पानी पीने के लिये नदीके तीर पर ग्ज्ञान और सम्यचारित्र प्रचलित है। भागे इन्हींका गया । ज्यों ही उसने पानी में अपना प्रतिबिम्ब देखा विशेष स्वरूप लिखा जाता है। त्यों ही वह अपने आपको सियारोंसे भिन्न अनुभव Page #300 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] करने लगा । वह उसी समय सियागेकी संगति छोड़ कर सिंहों में जा मिला। अब वह गजगजको देखकर पीछे नहीं हटता किन्तु झपटकर उसके मस्तक पर बैठता है । सुनते हैं कि कौए कोयलोंके बच्चोंको अपने घोंसलों में उठा लाते हैं और अपना समझकर उनका पालन-पोषण करते हैं । उस समय कांयलके बच्चे भी अपने आपको कौआ समझते हैं, पर ममकदार होने पर जब वे अपनी कुहू कुहू और atest na ataar अन्तर समझने लगते हैं त्यों ही वे उनका साथ छोड़कर अपने मुण्डमें जा मिलते हैं। इसी प्रकार जबतक यह आत्मा मिध्या-दर्शन रूप अन्धकार आवृत हो अपने आपको भूला रहता है तबतक मिध्यादृष्टि कहलाता है परन्तु जब विवेक बुद्धिके जागृत होनेपर आत्माको आत्मरूप और परका पररूप समझने लगता है तब सम्यग्दृष्टि कहलाने लगता है उसके इस भेद - विज्ञान और तद्रूप श्रद्धानको ही 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं। इस भेद-विज्ञान और तद्रूप श्रद्धानमे ही जीव मोक्ष प्राप्त करनेके लिय समर्थ होते हैं । इसीलिये इनकी प्रशंसा करते हुए आचार्य अमृतचन्द्रजीने लिम्बा है भेदविज्ञानतः सिद्धाः सिद्धा ये किस केचन । तस्यैवाभावतो बद्धा बढा ये फिल केचन ॥ अर्थात- अभी तक जितने सिद्ध हो सके हैं व एक भेद-विज्ञान के द्वारा ही हुए हैं और अभी तक जो संसारमें बद्ध हैं—कर्म कारागार में परतन्त्र हैं— वं सिर्फ उसी भेदविज्ञान के अभाव के फलस्वरूप हैं। इस प्रकार सम्यग्दर्शनका मुख्य लक्षण स्वपर को भेदरूप श्रद्धान करना है । यहाँ सम्यक् शब्दका अर्थ सच्चा और दर्शनका अर्थ विश्वास श्रद्धान होता है । सम्यग्दर्शनका दूसरा स्वरूप इन सब बातोंको स्मरण रखकर ही जैन शास्त्रोंमें एक बार दो लड़के किसी मह (पहलवान) के सम्यग्दर्शनका दूसरा लक्षण बताया है रत्नत्रय - धर्म २७६ पास पहुँचे। दोनोंकी अवस्था सत्रह अठारह सालके बीच थी। परन्तु दोनों ही शरीर दुबले-पतले थे । दोनोंके गाल पिचके हुए थे. कमर झुक रही थी और कन्धे नीचेकी ओर ढले हुए थे। मल्लने उनसे कहायौवन के प्रारम्भ में आप लोगोंकी यह अवस्था कैसी ? मल्लकी बात सुनते ही उन दोनों बालकों से एक बोला - उस्ताद ! मेरा शरीर जन्मसे ही ऐसा है, हमारे शरीरका यही स्वभाव है । परन्तु उसका दूसरा माथी मोचता है कि यदि शरीरका स्वभाव दुबला होना होता तो फिर ये उस्ताद इतने हट्टे-कट्टे क्यों हैं ? मालूम होता है कि मुझमें कुछ खराबी है यदि उस स्त्रराबीको दूर कर दिया जावे तो प्रयत्न करने पर मैं भी उस्ताद जैसा हो सकता हूँ । उसने उम्नादका अपना लक्ष्य बनाया, व्यायाम-विद्याका ज्ञान प्राप्त किया और अपने आगेके साथियोंकी पद्धति देखकर व्यायाम करना शुरू कर दिया, जिससे वह थोड़े ही दिनोंमें हट्टा-कट्टा एवं बलिष्ठ हो गया। अब वह मदमाती चालमें झूमता हुआ चलता है और उसका दूसरा साथी जो कि दुबला-पतला होना अपने शरीर का स्वभाव समझे हुए था अपनी उसी हालत पर है। पाठक ! ऊपर लिखे हुए उदाहरण से सिद्ध होता है कि जीबात्मा को अपने सच्चे स्वरूपका ज्ञान प्राप्त करनेके लिए सबसे पहले एक लक्ष्यकी आवश्यकता है, फिर शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करने के उपायोंका जानना आवश्यक है और इसके बाद आवश्यकता है जान हुए हुए उपायोंको कार्यरूप में परिणत करने की । जाने । उपायोंको कार्यरूपमं परिणत करने वाले पुरुष भी उसके उस काममें सहायक होते हैं 1 Page #301 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८० अनेकान्त श्रद्धानं परमार्थनामाप्तागमतपोभृताम् । त्रिमूडापोडमष्टाङ्गं सम्यग्दर्शनमस्मयम् ॥ 'यथार्थ ( मच्चे) देव, शास्त्र और गुरुओं का आठ अङ्ग सहित तीन मूढ़ता और आठ मद रहित श्रद्धान करना - विश्वास करना - सम्यग्दर्शन कहलाता है।' 1 यथार्थ देव शुद्ध स्वरूपकी प्राप्त कर चुके हैं, इस लिये व लक्ष्य हैं। जैसा स्वरूप उनका है वैसा ही मेरा है, इसलिये उनका श्रद्धान करना आवश्यक यथार्थ शास्त्रां शुद्ध स्वरूप प्राप्त करने के उपायों का ज्ञान होता है, इसलिये उनका श्रद्धान करना आव श्यक है । और यथार्थ गुरु उस शुद्ध स्वरूपको प्राप्त करानेवाले उपायोंको कार्यरूपमें परिणत करते है इसलिये उनका श्रद्धान करना भी आवश्यक 1 यथार्थ देव [ वर्ष ४ गना, सर्वज्ञता और हितोपदेशिता हा वही सचा देव है उसका नाम वीर, बुद्ध, हरि, हर, ब्रह्मा, पीर, पैगम्बर कुछ भी रहो। जिस देवमें उक्त तीन गुण हों उसे जैनशास्त्रोंमें अर्हत्, अरहन्त जिनेन्द्र, प्राप्त आदि नामोंस व्यवहृत किया गया है जो वानराग हो, सर्वज्ञ हो और हितोपदेशी हा यथार्थ-मचा देव है। जिसकी आत्मास रागद्वेष क्षुधा तृषा-चिन्ता आदि १८ दोष दूर हो चुके हों उसे 'वीतराग' कहते हैं। जो संसारके सत्र पदार्थोंका एक साथ स्पष्ट जानना है उसे 'सर्वज्ञ' कहते हैं और जो सबके हित उपदेश देवे उसे 'हितोपदेशी' कहते हैं। हितोपदेशी बनने के लिये वीतराग और सर्वज्ञ होना अत्यन्त आवश्यक है । असत्य अहितकर उपदेशमें मुख्य दो कारण हैं एक कषाय अर्थात् राग-द्वेष का होना और दूसरा अज्ञान । मनुष्य जिम प्रकार कषायकं वश हो कर पक्षपात में असत्य कथन करने लगता है उसी प्रकार अज्ञानसे भी अन्यथा कथन करने लगता है, इसलिये हितोपदेशी बनने के लिये देवको वीतराग और सर्वज्ञ होना अत्यन्त आवश्यक माना गया है। जैनसम्प्रदाय में यह स्पष्ट शब्दों में कहा जाता है कि जिसमें बीतग अर्हत अवस्था जीवकी जीवन्मुक्त अवस्था है, इससे आगे की अवस्था मुक्त-सिद्ध अवस्था कहलाती है । अर्हन्त अवस्था में शरीरका सम्बन्ध रहने से हितोपदेश दिया जा सकता है परन्तु सिद्ध अवस्थाम शरीरका अभाव हो जानमे हितोपदेश नहीं दिया जा सकता । वहाँ सिर्फ ोतराग और सर्वज्ञ अवस्था रहती है। इन्हींको 'ईश्वर' कहते है ये व्यक्ति-विशेष की अपेक्षा अनेक हैं और सामान्य जातिकी अपेक्षा एक हैं । प्रयत्न करने पर हमारे और आपके बीच में में प्रत्येक भव्य प्रारणी यथार्थ देवकी अवस्था प्राप्त सकता है। जैनियोंका यह ईश्वर सर्वथा कृतकृत्य और स्वरूपमें लीन रहता है। जैनी सृष्टिके रचयिता ईश्वरका नहीं मानते और नहीं यह मानते कि कोई एक ईश्वर पाप-पुण्यका फल देने वाला है। जीव अपने किये हुए अच्छे बुरे कर्मोक फलको स्वयं ही प्राप्त होता है । देवगति में रहने वाले भवनवासी, व्यन्तर, ज्योतिषी और वैमानिक भी देव व हलाते हैं परन्तु इस प्रकरणमे उनका प्रहरण नहीं होता और न जैन सिद्धान्त उनको पृज्य ही मानता है यथार्थ शास्त्र 1 जो शास्त्र सथे देवके द्वारा कहे गये हों, जिनकी युक्तियाँ अकाट्य हों, जिनमें प्रत्यक्ष, अनुमान आदि किसी भी प्रमाणसं बाधा नहीं आती हो और जां लोक कल्याण की दृष्टिसं रचित हों उन्हें 'यथार्थ शास्त्र' कहते हैं। शास्त्र सच्चे देवकं वे उपदेशमय वचन हैं Page #302 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] रत्नत्रय-धर्म २८१ जो कि आज सच्चे देवका अभाव होने पर भी उनके बार भोजन करते हैं। ये भाजन तथा औषधि वगैरह सिद्धान्त समाजके सामने प्रकट कर रहे हैं। शास्त्र की याचना नहीं करते। ये कामविकार के जीननेका की प्रामाणिकता वक्ताकी प्रामाणिकनास होती है। मर्वोच्च आदर्श उपस्थित करते हैं, जिसमे व अनेक जैन शास्त्रोंके मूल वक्ता वीतगग और मर्वज्ञ देव सुन्दर ललनाओंके बीच आसीन होकर भी नम होने माने गये हैं. इसलिये उनके द्वाग उपदिष्ट शास्त्र में लज्जाका अनुभव नहीं करते और न उनकी इन्द्रियों यथार्थ हैं-मत्य हैं । वर्तमानमें जो शास्त्र उपलब्ध में किमी प्रकारका विकार नजर आता है। ये जीवों हैं या जो उपलब्ध हो रहे हैं उनके मातात कर्ता की रक्षाके लिय मयूर्गपच्छकी बनी हुई एक पीछी वीतराग और मर्वज्ञ नहीं है तथापि उनकी आम्नाया. और शारीरिक अशुचिता दूर करनेके लिये एक नुमार रचित होने के कारण प्रामाणिक माने जाते हैं। कमण्डल अपने पास रखते हैं। ज्ञान प्राप्त करने के जैनियोंका मुख्य उद्देश्य है वीतगगता प्राप्त करना- लिये एक दो शास्त्र भी इनके पास होते हैं। इससे रागद्वेष को दूर करना । यही सिद्धान्न इनके छोटेस लेकर अधिक वस्तुएँ इनके पास नहीं होती। इन गुरुओंके बड़े बड़े शास्त्रों तकमें एक स्वग्म गुम्फित किया गया तीन भेद हैं १ प्राचार्य २ उपाध्याय ३ माधु । जो है। अनकान्त-स्याद्वाद इनका मुख्य म्तम्भ है। जैन नवीन शिष्योंको दीक्षा देते हों और सब पा शामन शास्त्र बारह अङ्गोंमें विभक्त हैं। इनमें हर एक विषय रखते हों एवं तीव्र नपम्वी हों वे प्राचार्य कहलाते हैं। का पूर्ण विवेचन है। कोई भी विषय इनसे अछता जो मुनिसंघमें पठन - पाठनका काम करते हैं उन्हें नहीं रहा, पर कालदापमं या वर्तमान जैनजाति 'उपाध्याय' कहते हैं और जो मामान्य मुनि हात हैं के प्रमादसे भारतका वह महान माहित्य लुप्तप्राय वे 'माधु' कहलाते हैं । ये सब संसारक जंजालसे हो गया है ! छुटकर जंगलके प्रशान्त वायु मण्डलम विचग करते __ यथार्थ गुरु हैं। ये मुक्ति मार्गक पथिक कहलाते हैं। जो स्पर्शन, जिला, नासिका, नत्र भौर कर्ण इन सम्यग्दर्शनका तीसरा म्वरूप पाँच इन्द्रियोंके विषयोंकी भाशा में रहित हों. मन्त्र ऊपर कहे हुए दो लक्षणों के सिवाय सम्यग्दर्शन प्रकार के परिग्रह-रुपया पैसा वगैरह-का त्याग कर का एक म्वरूप और भी कहा गया है। वह हैचुके हों, यहाँतक कि शरीरको आच्छादित करनेके 'नत्वार्थश्रद्धानं मम्यग्दर्शनम' अर्थात् जीव, भजीव लिये जो एक भी वस्त्र अपने पाम न रखते हों, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जग और मोक्ष इन मात व्यापार प्रारम्भ वगैग्हस रहित हों, हमंशा ज्ञान तत्त्वों-पदार्थोके यथार्थ म्वरूपका श्रद्धान-विश्वास और ध्यानमें लीन रहते हों वे 'यथार्थ गुरु' कहलाते करना मा सम्यग्दर्शन है। इन मात तत्त्वों का वर्णन हैं। ये मुनि होते हैं और हिंसा. मूळ, चारी, कुशील- करनेमें जैनियों के बड़े बड़े शाम्म्र भरे हुए हैं। उनका व्यभिचार नथा परिग्रह इन पांच पापोंका बिलकुल विशेष स्वरूप लिग्वनमें लेग्वका कलेवर अधिक हो ही त्याग किये रहते हैं । रातमें न तो गमन करते हैं जानेका भय है। उनका संक्षिा ग्वरूप इस प्रकार हैऔर न बोलते हैं । दिनमें श्रावकोंके घर जाकर एक १ जीव-जिसमें चैतन्य-जानन देखनेकी शक्ति हो। Page #303 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८२ २ श्रजीव - जो जानने देखनेकी शक्ति से रहित हो । ३ आस्रव - मन-वचन-कायकी क्रियाद्वारा जो आत्मा में कम श्रगमनके द्वाररूप हो । ४ बन्ध-आस्रव-द्वार से आये हुए कर्मपरमाणुओंका आत्मा के साथ मिल जाना । ५ संबर - नवीन कर्मपरमाणु का प्रवेश अनेकान्त क जाना । ६ निर्जग - पहले कं स्थित कर्मपरमाणुओं का तपस्या atres द्वारा एकदेश नाश हो जाना । ७ मोक्ष - श्रात्मा और कर्मपरमाणुओं का हमेशा के लिये अलग अलग हो जाना । मुख्यमें जीव अजीव यही दो तत्त्व हैं, शेष तत्त्व इन्हीं संयोग से होते हैं। हम यह पहले लिम्व श्रयं हैं कि जैन लोग सुख दुःखका दाता ईश्वरका न मान कर कर्मको मानते हैं क्योंकि ईश्वर वादियोंके सामने जब यह प्रश्न उपस्थित किया जाता है कि ईश्वर पक्षपात से रहित होने पर भी किसीको धनी किसीको निर्धन किमीको दुःखी और किसीको सुम्वीको क्यों बनाता है ? तब अन्तमें उन्हें भी कर्म की शरण लेनी पड़ती है । वे भी कहने लगते हैं कि जो जैसा कर्म करता है ईश्वर उसे वैसा ही फल देता है। [ वर्ष ४ वगैरह से दूर कर देना 'निर्जरा' और इन सबके बाद आत्मा और कर्मका अलग अलग हो जाना 'मोक्ष' हुआ । मानवशरीर और रंगके परमाणु ये दो स्वतन्त्र पदार्थ हैं। ये दोनों जिस कारण से मिलेंगे वह रोगपरमाणुओं का आस्रव होगा, रोगपरमाणुओं का मानव शरीर में मिल जाना उनका बन्ध होगा, नवीन कारणोंका न होना संवर होगा, पहले के मिले हुए रोगपरमाणुओं का औषधि प्रयोगसे अलग होना निर्जग होगी, और इसके बाद मानव शरीर से जब रोगपरमाणु सर्वथा अलग हो जायेंगे तब मानव शरीर रोग उन्मुक्त हो जावेगा, यह हुआ रोग परमाणुओं का मोक्ष। यही हाल आत्मा और कर्म परमाणुओं के विषय में समझना चाहिये । मोक्षाभिलाषी जीवको ऊपर लिखे हुए सात तत्वोंके सचे स्वरूपका श्रद्धान करना आवश्यक है । यद्यपि सम्यग्दर्शन के लक्षणों में ऊपर लिखे हुए तीन प्रकारोंमे स्वरूप भेद जाहिर होता है परन्तु विचार करने पर उनमें अर्थ भेद नही होता। सभी एक दूसरेके सहयोगी हो जाते हैं। सम्यग्दर्शके आठ अङ्ग जिस प्रकार मनुष्य के शरीर में दो हाथ दो पांव नितम्ब पृष्ठ, वक्षःस्थल और शिर ये आठ अङ्ग होते हैं और इनमें कमी होने पर मनुष्यके व्यवहारमें पूर्णतःकी कमी रहती हैं उसी प्रकार सम्यग्दर्शन के भी आठ अङ्ग होते हैं जिनमें न्यूनता होने से सम्यग्दर्शन में भी न्यूनताका अनुभव होने लगता है। आठ ये हैं - १ निःशङ्कित २ निःकांक्षित ३ निर्विचिकित्सा ४ अमूदृष्टि ५ उपगूहन या उपबृहण ६ स्थितिकरण ७ वात्सल्य और ८ प्रभावना । निःशङ्कत - जिन विषयोंका निर्णय प्रत्यक्ष प्रमाण कर्म एक प्रकारका सूक्ष्म अचेतन पदार्थ है, जो आत्मा में राग द्वेष होने से उसके साथ बंध जाता है और बाद में वही आत्मा ज्ञान दर्शन आदि गुणोंको ककर उसके सांसारिक सुख दुःखका कारण हो जाता है। तो, आत्मा और कर्मरूप अजीव पदार्थ इन दो पदार्थों के मिलने का जो कारण है वह 'आस्रव' ' हुआ मिल जाना 'बन्ध' हुआ, आस्रवका न होना अर्थात् नवीन कर्मोंका न आ सकना 'संवर' हुआ, पहले आये हुए कर्मपरमाणुओं का तपस्या Page #304 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] ६८३ और यक्तियोंस नहीं हो सकता हो ऐस सूक्ष्म आदि जीवको समयानुकूल उपदेश देकर, अपनी संवाएँ पदार्थोके सद्भामें किसी प्रकारका सन्देह नहीं करना समर्पित कर तथा भाजीविका मादिकी व्यवस्था कर अथवा अपने श्रद्धानसे विचलित करने वाले जीवन पुनः उसी सत्यधर्ममें स्थिर करना स्थितिकरण मरण आदिके भयसे रहित होना मो निःशङ्कित अङ्ग अङ्ग है। है। इस प्रण के धारक जीवके आगे यदि कोई पिस्तौल वात्सल्य-संसारकं समस्त प्राणियोंस मैत्री भाव नानकर कहे कि 'तुम अपने स्वपर भेदविज्ञान या रखना उनके सुख-दुःखमें शामिल होना तथा धर्मात्मा श्रद्धानको छोड़ दो नहीं तो अभी जीवन-लीला जीवोंस गां-वत्मकी तरह अक्षुगण प्रेम रग्बना समाप्त किये देना हूं' तो भी वह अपने श्रद्धानसे 'वात्सल्य' अङ्ग है। विचलित नहीं होगा । मर्वथा निःशङ्क-निर्भय रहेगा। प्रभावना-लोगोंके अज्ञानको दूर कर उनमें सचे निःकांक्षित-मम्यग्दर्शन धारणकर भाग सामग्री ज्ञानका प्रचार करना, जिमम दुसरे लोग सत्य धर्म की चाह नहीं करना सो निःकांक्षित अङ्ग है। सम्य- की ओर आकृष्ट होमके हम 'प्रभावना' अङ्ग कहते हैं। ग्दृष्टि जीव यही सोचता है कि संमारके विषय सुग्व विचार करने पर मालूम होता है कि इन आठों कर्मपरतंत्र हैं, नाशवान हैं, दुःग्वोंसे व्याप्त हैं और अङ्गोंसे सहित सम्यग्दर्शनमें ममस्त संमारका पापके बीज है; इसलिये उनमें आस्था तथा आसक्ति कल्याण मंनिहिन है । पक्षपात गहित जैनेतर सज्जनों रखना ठीक नहीं है। का भी यह अनुभव -यदि ममारके जीव अग्रांग निर्विचिकित्मा-ग्लानिको जीतना- खामकर सम्यग्दर्शनका धारण कर लें तो मंसारकी अशान्ति मुनि आदि धर्मात्मा पुरुषों के शरीरमें रोग आदि होने क्षण भग्में शान्त हो जाये और सभी और सुम्बपर किसी प्रकारकी ग्लानि नहीं करना और अपना शान्तिकी लहर नज़र आने लगे। कर्तव्य ममझकर निःस्वार्थ भावसं उनकी सेवा करना तीन मूढ़ताएं निर्विचिकित्सा अङ्ग है। लोकमूढ़ना, देवमृढ़ता और गुरुमूढ़ता, ये तीन अमृदृष्टि-विवेकस काम लेना, अच्छे बुरेका मूढ़ताएँ-मुर्खताएँ कहलाती हैं । इनके वश होकर विचार कर काम करना और दूमगेका अनुकरण कर जीव अत्यन्त दुःख उठाते हैं। मिथ्यारूढ़ियोंको स्थान नहीं देना 'अमूढदृष्टि' अङ्ग है। लोकमूढ़ता-यह मानी हुई बात है कि संसार ___ उपगृहन-दूसरेको बदनाम करनेकी इच्छास के नमाम जीवोंम ज्ञानकी न्यूनाधिकता देवी जाती दूसरेके दोषोंको प्रकट करना-उसकी निन्दा न है। जिन्हें ज्ञान कम हाना है वे अपने अधिक करना । हो सके तो प्रेमसे समझाकर सुमार्ग पर ज्ञानवालेका अनुसरण करते हैं । अधिक ज्ञानवाले लगा देना 'उपगृहन' अङ्ग है। इस अङ्गका दूमग किमी परिस्थितिसं मजबूर होकर कोई काम शुरु नाम 'उपबृंहण' भी है, जिसका अर्थ श्रात्म गुणोंकी करते हैं, बादमें अल्पज्ञानी उनकी देग्वा देवी वह वृद्धि करना है। _ काम शुरु कर देते हैं और परिस्थिति बदल जाने पर स्थितिकरण-सत्य धर्मस विचलित होते हुए भी वे उसे दूर नहीं करते। ऐम कार्योको 'लोकरूढ़ि' Page #305 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८४ अनेकान्त कहते हैं । कहावत है - एक बार महर्षि वेदव्यास सूर्योदय के पहले गङ्गास्नान के लिये गये । उस समय कुछ कुछ अँधेरा था इसलिये उन्हें सन्देह हुआ कि जब तक मैं अशुचि बाधामे निमटनेके लिये अन्यत्र जाता हूँ तब तक सम्भव है कोई मेरा कमण्डलु ले जावे- ऐसा सोच कर वे अपने कमण्डलु पर बालूका एक ढेर लगा गये । वे समझे थे कि हमारे इस कामको किसीने नहीं देखा है; परन्तु पीछेसे आनेवाले एक दो सज्जनों ने उनके इस काम को देख लिया था । देखनेवालोंने सांचा कि गंगा तीर पर बालूका ढेर लगानेसे पुण्य प्राप्ति होती है; यदि ऐसा न होता तो व्यासजी ढेर क्यों लगाते ? थोड़ी देर बाद गंगाके तीर पर बालू के अनेक ढेर लग गये । व्यासजी जब लौटकर ते हैं तो भूल जाते हैं कि मेरा कमण्डलु किस ढेर में है। दो चार ढेर देखनेके बाद वे बड़े निर्वेदके साथ कहते हैं कि [वर्ष ४ से अधिक रंग जमा रखा है। पीपलमें, बड़में, नदीमें, नालेमे, घर में, तालाबमं, जहाँ देखा वहाँ देव ही देव दिग्बाई देने लगे हैं। लोग अपनी इच्छाओं को पूर्ण करने के लिए उनकी पूजा-भक्ति आदि करते हैं, वरदान मांगते हैं। मौमे एक दोका सौभाग्यसे यदि अनुकूल फलकी प्राप्ति होगई तो वे अपनेको कृतकृत्य मानने लगते है, यदि नहीं हुई तो देवको नाराज मानते हैं । यह सब देवमूढ़ता है । सम्यग्दृष्टि विचारता है कि जो देव स्तुति करनेसे प्रसन्न और निन्दा करनेमें नागज़ होता हो वह देव ही नहीं है। यदि हमारे अच्छे भाव हैं तो हमे फलकी प्राप्ति अपने आप होगी। किसीके देन न देनेंस क्या हो सकता है। इसलिये वह गंगी द्वेषीकां नहीं पूजता । पृजना है तो एक वीतराग सर्वज्ञ देवको । जिन्हे न स्तुनिसे प्रेम है और न ही निन्दामे अप्रसन्नता । जैनधर्म तो यहां तक कहता है कि जो वीतराग देवकी भी किसी भौतिक वस्तु पानेके लोभसं पूजता है वह मिथ्यादृष्टि है । वह भक्ति नहीं है वह तो एक प्रकारका सौदा है। निष्काम भक्ति के सामने सकाम भक्तिका दर्जा बहुत तुच्छ है । गुरुमूढ़ता - नाना वेषधारी गंजेड़ी भंगेड़ी आदि गुरुश्रोको विवेकरहित होकर पूजते जाना गुरुमूढ़ता है । सम्यग्दशन बतलाता है कि जिसे तुम पूज रहे उसकी कुछ परीक्षा भी तो करलो, उसमें कुछ अहिंसा और सत्य भी है या नही । खेदके साथ लिखना पड़ता है कि आज भारतवर्ष में इसी गुरुमूढ़ना के कारण अनेक लुच्चे-लफंगे पुज रहे हैं और सच्चे साधु कष्ट उठा रहे हैं । गतानुगतिको लोको न लोकः पारमार्थिकः 1 बालुकापुञ्जमात्रेण गतं मे तानभाजनम् ॥ अर्थात - लांक अनुकरणप्रिय है - सिर्फ देखा देखी करता है - उसमें सचाई नही है - देखो न ? बालूका ढेर लगाने मात्र से मेरा कमण्डलु गायब होगया । पर्वत पर गिरना, नदियोंमें डूब मरना, सती होना आदि स+ लोकमूढ़ताएँ हैं । सम्यग्दृष्टि जीव अपने ज्ञानसे इनमें सत्यकी खोज करता है, उसे जिनमें सत्य प्रतीत होता है-सचाई मालूम होती है— उन्हें ही करता है, बाकी सब लौकिक मान्यसाओं को छोड़ता जाता है। देवमूढ़ता - अभागं भारतवर्ष में इस मूढ़ताने सब आठ मद अपने आपको बड़ा और दूसरे को तुच्छ समझना Page #306 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] रत्नत्रय-धर्म २८५ 'मद' है वह आठ तरहका होता है-१ ज्ञान, २ पूजा की कीमत एक लाख रुपये हैं। जौहरीकं वचन सुनते (प्रनिष्ठा), ३ कुल ( पितृपक्ष ), ४ जानि (मातृपक्ष). ही दरिद्र मनुष्य आनन्दसे पछलने लगा। जिसे वह ५ बल, ६ मम्पस, नप और ८ शरीर । तुकछ पदार्थ समझ रहा था वही एक महामूल्यवान रल था । इसी प्रकार मिध्यादष्टि जीव अपन जिम मम्यग्दृष्टिजीव अपने आपको लघु समझ कर आत्माको तुच्छ पदार्थ ममझकर सुबकी चाहम इधर हमंशा महान बननेका प्रयत्न करता है । मैं घड़ा है उधर घूमता फिरना था वही जीव सम्यग्दर्शन होने और तम छोटे हो, जब तक यह भावना रहतं है नब पर अपने आपी कीमत समझने लगता है और तक सम्यग्दर्शन नहीं हो सकता । मम्यग्दर्शन विनय- उम उम हालतमे जा सुम्ब प्रान हाना है वह वचनोंसे नहीं कहा जा सकता। वान जीव ही प्राप्त करमकने हैं। मम्यग्दर्शन आत्माका गुण है, वह हमेशा प्रान्मा मम्यग्दर्शनकी पाय पहिचान में ही रहता है । परन्तु इसका विरोधी मिध्यान्वकर्म जिम जीवको मम्यग्दर्शन हो जाता है उसके जन नक आत्मामें अड्डा जमाये रहना है तब तक वह प्रशम, मंग, अनुकम्पा और श्राम्निक्य ये चार प्रकट नहीं हो पाता । ज्यों है इम जीवका सम्यग्दर्शन गुण प्रकट हो जाते हैं। इनका मंक्षिम स्वरूप इस प्राव होता है न्यों ही इमकं नीत्र क्रांध, मान, माया. प्रकारलाभ प्रादि कषायें अपने आप शान्त होजाती हैं। १ पशम-गग द्वेष आदि कपायाम चिलकी वृत्ति हट जाना। यद्यप यह पर्व मंकारन विषयों में प्रवृत्ति करता है. मंग-संमाके दाग्यमय वातावरगाम भय उत्पम नथापि वह उनको अपना कर्तव्य नहीं समझना हो जाना। उनम अपने आपको भिन्न अनुभव करना है। जिम ३ अनुकम्पा-दीन दुम्वी जीवांका दबकर इदयमें प्रकार धाय अपने मालिककं पुत्रका अपने पुत्र जैमा दया उत्पन्न हो जाना। ही पालन • पापणा करनी है-उम्मकं सम्ख - दुःखमें ४ आस्तिक्य-देव, शास्त्र, गुरु, बन नथा परलोक अपने आपको सुखी दुग्वी माननी है। परन्तु भीतर आदिका विश्वाम होना । सं उसकी अन्तगत्मा कहती है कि यह तेग पत्र नहीं जिस पुरुषकं जीवनमें ये चार गुण प्रकट हो है। उसी प्रकार सम्यग्दृष्टि पुरुष भी संमारके ममम्न चुके हों उस सम्यग्दृष्टि समझना चाहिये । यह स्थूल पहिचान है । अन्तगत्माकी गनि मर्व जाने । कार्य करते हुए भी उन्हें अपना नहीं समझता। पाप । सम्यग्दर्शनका प्रभाव को पुराय ममझकर करना और पापका पाप ममझकर करना इन दोनोंमें प्रकाश और अन्धकारकी तरह ___ जिम जीवको सम्यग्दर्शन होजाता है भले ही वह किमी भी जातिका क्या न हो परन्तु पादरणीय भारी अन्तर है। मममा जाने लगता है । सम्यग्दृष्टि जीव मर कर सम्यग्दर्शन सुखका कारण है नरक और पशु योनिमें उत्पन्न नहीं होता । जनम एक दरिद्र मनुष्यक पास बहुत कीमती रत्न था,, . मनुष्य ही होता है और हर एक तरहम सुखी रहता है। मम्यग्दृष्टि जीव थोड़े ही ममयमें संसारके दुःखों पर उसे वह मामूली पदार्थ समझता था । एक दिन से छटकाग पाजाता है। सम्यग्दर्शन चारों गतियोंमें किमी जौहरीने उससे कहा कि यह ग्ल है और इस प्राम किया जा मकना है। (अपूर्ण) Page #307 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य [ मूल लेखक--प्रो० ए० चक्रवर्ती, एम० ए०, आई० ई० एम०] । अनुवादक---सुमेरचन्द जैन दिवाकर, न्यायतीर्थ, शास्त्री. बी.ए., एल-एल० बी० ) [गत ३री किरणमे प्रागे] () य ) Immine शोधर कथाका म्यान भारतवण्डके हुा । उम्पने उन्हें काली मंदिरमें ले जाकर इस बातकी प्रोडयनेश-स्थित राजपुरमें हैं। राजाका राजाको सूचना दी। राजा मारिदत्त आनंदित होकर इम नाम मारिदत्त है । नगरमें कालीका मन्दर युवक-यगलकी बलि करने की मंशामे कालीके मंदिग्में एक मंदिर है, जो चंडमारी देवीको पहुँचा। जहां एकत्रित लोगोंने इस सुन्दर युवक-युगलमे समर्पित किया गया है। यह इस कहा कि तुम कालीमे प्रार्थना करो, कि वह इस यज्ञक फलनंडमारी वीक लिए एक महान उम्पकका समय था। म्बम्प नरेश तथा देश पर अपना पाशीर्वाद प्रदान करें। दोनों मंदिर प्रहातमें बलिदानके निमित्त नर - मादा पक्षी, पशु, तपस्वियोंको इस बात पर हमी भा गई। उन्होंने स्वयं ही जैसे कुक्कुट, मपुर, चिडियां, बकर, भैम अादि एकत्रित किए राजाको इस प्रकारका प्राशीर्वाद दिया कि वह इम करनाग गा थे। इनको नगरवासी देवीको अपनी बलि चढ़ानको पूजामे विमुख होजाय. जिसमे उसे उस पवित्र अहिंसाधर्मक लाग थे । अपने गतकीय पद और प्रतिष्ठाके अनुरूप गजा ग्रहण करने में प्रसन्नता हो जो उसे सुरक्षिन श्राध्यामिक मारिनस चाहना था कि मैं न केवल माधारण पशु-पक्षियों वर्गमें लेजानेवाला है । जब उन्होंने यह बात अपनं सन्दर की बलि करूं, बलिक मनुष्य-युगलकी भी। इमम उमने मुग्व-मण्डल पर हास्यकी रेखाको धारण करते हुए कही नो अपने कर्मचारीको आदेश दिया कि वह मानव-स्त्री-पुरुषके राजा अाश्चर्यान्वित हुश्रा, क्योंकि वह इस बातको नहीं ऐसे जोड़े को लावे जिमका कालीक आगे बलिदान किया समझ सका कि मृत्युके समक्ष पेमे दो तरुण नथा मन्दर माय । वह कर्मचारी प्राज्ञानुमार नर-युगलकी शिकारमें व्यक्ति के में इस प्रकारकी मानसिक शांति धारण किए हप निकला । उसी समय सुबत्ताचार्य के नेतृत्व में एक १०. जैन हैं जिसमे वे इस मारे खेलकी ओर से हँसे हैं मानो इसमे मुनियोंका मांध आया. और नगरक ममीपवर्ती उचानमें ठहर इनका कोई सम्बन्ध ही न हो। अत: वह हम बानका कारण गया। इस संघ अभयाचि और अभयमती नामके दो जानना चाहता था, कि इस गंभीर स्थिति में वे क्यों हँसे थे। भाई बहिन नागा विद्यमान थे। ये दोनों नवदीक्षित समण राजाने यह भी जानने की इच्छा प्रकट की कि वे कौन हैं और नम्मे प्रवामके कारण बहुत थक गए थे, कि वे संघ व नगरमें क्यों श्राग, इत्यादि ? बलिदानके लिए जो नलवार वृद्ध माधुओंके कठोर मंबमका पालन करने में अनभ्यस्त थे. निकाली गई थी वह पुनः म्यानके भीतर रग्बदी गई। राजा अतः संघनायकने नगरमें भिचा-निमित्न जानेकी उन्हें प्राज्ञा को इस बानके जानने की धुन मबार हो गई कि उस तकण प्रदान करदी थी। वह कर्मचारी जो मनुष्य शिकारकी खोजमें युगलके अद्भुत व्यवहारका क्या कारण है ? राजाकी इच्छानिकला था, इम सुन्दर तरुण युगलको पकड़कर भानंदिन नुम्मार अभयमनीके भाई अभयाचिने उसर देना प्रारंभ Page #308 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] तामिल भाषाका जैनसाहित्य किया। "हम लोग निर्भीकतापूर्वक क्णे हसे इसका कारण यशोधर उनका पुत्र था। ये ही युवराज यशोधर इस कथाके हमारा यह ज्ञान है कि प्रत्येक प्राणीके माथ जो बात बीतती नायक है । यशोधरने अमृतमनी नामकी एक सुन्दरी है वह उसके पूर्व कर्मोंका फल है। यह प्रजानका ही राजकन्याके साथ पाणिग्रहण किया था। इस मन्नरी रानीने परिणाम है जो अपने कर्मों के फलम बचनेके लिये यह जीव यशोमति नामके पुत्रको जन्म दिया। वृद्ध नगेन्द्र अशोकने डरता है। अतः हम अपने दैवमे नहीं डरते जो कि हमारे अपने पत्र यशोधरके लिए राज्यका परित्याग किया और यह पराकृन कौंका विपाक है। हमें नो केवल इसम हंसी पानी उपदेश दिया कि तुम राजनीतिक अनुसार सन्यतापूर्ण शामन है कि यहां मारा दृश्य महान अज्ञानमें मग्न है। हमने के सिद्धान्तोंका पालन करना। अपने अपने पत्रको ग्रह भी चावलोंके प्राटेक बने हुए मुर्गेका वध करके अपने उस बनाया कि किस प्रकार उमं धर्म, अर्थ और कामरूप पुरुषार्थकर्मक फलमे मान भवों तक तुरन्छ पशुकी पर्याय धारण की अयका रक्षण करना चाहिये । माथ ही, अहिंमा सिद्धांत पर और अनेक प्रकारका दुःख उठाया। केवल अबकी बार हमें स्थित अन्यंत पवित्र धर्म तथा धार्मिक पजाको स्थिर रखनेका फिरमं मानव शरीर धारण करनेका मौभाग्य प्राप्त हुआ। भी उपदेश दिया। यह मब शिक्षा देकर तथा उस प्रदेशका हम यह भली भांति जानते हैं कि यह सब दुःश्व-संकट अपने पुत्रको नरेश बनाकर वृन्द्र महाराजनं माथुका जीवन हमारी कालीक लिए बलि चढानकी मूर्खतापूर्ण आकांक्षाका अंगीकार किया और वे अपना समय आश्रममें बिनाने लगे। ही परिणाम था. यद्यपि हमने आटेक बने हुए कृत्रिम मुर्गेका जब यशोधर महाराज और महारानी अमृतमनी सुरवपूर्वक बलिदान किया था। इस बातका परिचय रखने के कारण हम जीवन व्यतीत कर रहे थे तब एक दिन बहन मकर महारानी यहांक लोगोंके भोलेपन और अज्ञानता पर उस समय अपनी ने महावत (हाथीवान )का मालपंचम गगमें मधुर गायन हमी न रोक सकं. जब आपकी प्रजाने अनेक पशु-पत्तियों मना। रानी मंगीतम भापक्न हो गई और उसने अपनी नथा मर-बलिक फलम्वरूप प्रापक और श्रापक राज्यके दामी गणवतीको उस व्यक्तिको लानंको भेजा, जिम्मने हनना अभ्युदय नथा कल्यागाकं लिए हममं चंडमारी देवी प्रार्थना याक लि" हमम चडमारी देवीप प्रार्थना मधुर गीन गाया था। इस प्राज्ञाप दासीको बड़ा आश्चर्य करनेको कहा।" हया और उसने महागनीको अपनी प्रतिष्ठा और गौरवको जब राजाने यह बात सुनी नब उसने बलि चढ़ानेका स्मरण करनेकी सलाह दी. किन्तु रानी उस व्यक्तिको विचार छोड दिया और मृत्यु के मुखमें प्रविष्ट होते हुए भी लानका आग्रह किया जिसके प्रेममें वह प्रामक्त होगई थी। अदभुत शांति प्रदर्शन करने वाले उन दोनों व्यक्तियोंके दम लिय दाम्मीको उस महावनको लाना पड़ा, जो भयंकर जीवनके विषयमें विशेष जिजामा व्यक्त की। इस तरह कुष्ठ रोगमै प्रन था । इस प्रकारका घृणित शरीर होते हुए पहला अध्याय समाप्त होता है। भी मुर्व गमीने उम नीच माय घनिष्टना उम्पस काली। दूसरे अध्यायमें इन दोनों ताणांकी कथा बर्लिन की शुरू में इस मार मामलेका गजाको कोई परिज्ञान न था गई है और बतलाया है कि एक कृत्रिम म के बलिदानमे किन्तु राजाको शीघ्र हीरानीके घृणित प्रावरणका पता चला। किस प्रकार उन पर भारी पनि पाई है। यह एश्य गनीक व्यवहारमें विचित्र म्यामोह देखकर राजा जगतकी मालवनेशकी अवन्तीकी राजधानी उज्जैनीका है। उस देशके विभूतियोंमें विरक्त हो गये और वे राजकीय प्रामंदका म्याग शामक एक अशोक थे। उनकी रानीका नाम चंद्रमती था। का जगनको कोदनेका प्रयास करने लगे। उसी समय Page #309 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २८८ अनेकान्त (वर्ष ४ राजाको एक अशुभ म्वप्न निग्चाई निया कि उच्च प्राकाम भोग गये उनके दुःन्यों तथा कष्टोंका वर्णन है। चन्द्रमा पृथिवीकी भोर गिरा और उसका प्रकाश और दीक्षि चौथे अभ्यायमें नवीन नरेश यशोमतिका वर्णन है। नष्ट हो गये। राजाको भय उत्पन हया कि यह किमी अभयचि और अभयमतीकी कथा भी बताई गई है, जो कि भापत्तिका घोतक है. वह अपने वन-दाग पहिलेम पूर्वभगम यशोधर और गजमामा चन्द्रमती थे। अंतमें जब ही मनिन किये गये अनिष्टके उपायको जानना चाहता था। गजा माग्दिनको पूरी कथा ज्ञात हुई तब उनकी पाकांक्षा महाराज द्वारा राजमाताप पूछ जाने पर यह सलाह मिली इस पवित्र अहिमा धर्मक विषयमें विशेष जानने की उम्पस कि इस प्रकारके मंकट निवारणकं लिय कालीके समक्ष कोई और व नगरकं ममीपवर्ती उद्यान में विराजमान गुरु महाप्राणीका बलिदान करना चाहिय। नरेश अहिंसा धर्म गजके ममी लाए गये जहां जाकर राजा पवित्र अहिंसा धर्ममें सरचे पागधक इमलिय नहोंने शवलिकोपीका दाखिन होगये । इसके अनंबर राजाने स्वयं कानाको पशुबलि किया। अत: गजमाना और महागजने एक समझौता किया चहानका त्याग ही नहीं किया किन्तु अपनी प्रजाक भाग यह जिमके अनमार महागजको कालीके लिये चावलके घाटेके धोषणा करा कि अब इस प्रकारका बलिदान नहीं किया बने हुप मुर्गेकी बलि नहाना स्थिर हा। इस तरह कालीके. माना चाहिय । इस प्रकार गजानं धर्म नया मंदिरकी पूजाको खिये कृत्रिम मुर्गेका बलिदान किया गया । इस तरह मॉकटी अपने राज्यभरमें ऊँगा उठा दिया तथा अधिक पवित्र कोटि का प्रारंभ हया । इतने में महागनीको जब यह बिनित हा में ला दिया था। नामिन्न भाषाकं यशोधर काम्यकी यह कि उपके चरित्रको गजा नथा राजमातानं देव लियानव कथा है. जिपके विपिनाक मम्बन्धम हमें कछ मालूम नहीं यह उन दोनोंक प्रति प्रणा काने लगी और वेनमें उमने है। यह कथा संस्कृत माहिग्यमें भी पाई जाती है। मांस्कन विषके द्वारा दोनोंक प्राण लेने में ममलता प्राप्त की। उस भाषाकं यशोधर काव्यमें यही कथा वर्णिम है, परन्तु यह प्रकार राजा और गजमानाम निपटनं पर इम दृष्टा गनी स्पष्ट नहीं मालूम कि नामिल अथवा संस्कृत काव्याम कौन अमृतमतीने अपने ही पत्र यशोममिको अवम्लिदेशका नरंश पहिलंका है। बनाया। कालीके लिये बलिदान करनेके फलम यशोधर यह तामिल भाषाका यशोधर कान्य वर्तमान लग्वकके और राजमाता चन्द्रमती लगातार ७ भवों में हीन पश म्वर्गीय मान्यमिनटी बैंकट ग्मन पायंगर द्वारा सर्व प्रथम पर्यायों में उत्पाहोने रहे। छपाया गया था। दुर्भाग्यम वह संस्करण बनम हो गया है नाम अध्यायमें यशोधर महागज और उनकी माताका और इमलिये पाठकोंको वह हालमें नही मिल सकता है। अवन्य पण नथा पनी पर्यायों में उत्पक होमेका नया वहां क्रमशः __ "जहां लुब्ध इन्द्रियां जमा होकर भीड़ नहीं करती, निवृत्ति-मुख मार्ग प्रेय प्रिय ) न होने पर भी श्रेय वहीं मनको नई मुष्टि करनेका अवसर मिलता है।" कल्याणकारी) है। उसी मार्ग पर जो चलने हैं, वे वास्तवमें संयम मनुष्यको मुशोभित करता है. और स्वतन्त्र स्वयं भी मुखी होते हैं और अपने उज्ज्वल रष्टांतद्वारा बमाताहै।" औरोंके दुखोंका भार भी--मर्वथा नहीं तो बहुत कुछ"जिम मार्गपर पलनेमे मारे प्रभावों की पूर्ति हो जाती हल्का कर देते हैं।" है, अर्थान प्रभावका अभावरूपमें बोधनहीं होता है, वहीं -विचारपुष्पोद्यान Page #310 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अनेकान्त' पर लोकमत - १४ बा० रतनलालजी जैन. बी०एस-सी०, बिजनौर- पामताप्रमाद जी का इलाशका गुफा लस्व पतकर प्रत्येक हिन्दुस्तानीको दुम्ब होगा और जैनियों में तीब्राग लग जानी "अनेकान्त पत्रको मैं बड़ी श्रद्धासे देखता हूं । ऐसे चारिये । श्रीचन्द्र और प्रभाचन्द्र (श्री प्रेमी) हिमातत्व पत्रकी जैनसमाजमें बड़ी श्रावश्यकता है । जननीति वाला (श्री ब्रह्मचारीजी), विवाह और माग समाज और तामिल लेख तथा उसकी नमवीर मझे बहुत हा पमन्द प्राई- उम भाषाका जनसाहित्य श्रादि लेग्यों में भी विचारसामग्री है। उदाहग्गामे अनेकान्तको पड़ी भग्लनासे समझाया है । मैं वाहता है कि यदि मनीनिका दधिमन्यनवाला चित्र बहे मुखपष्टवा चित्र जैनीनीतिका मम्पूर्ण प्रदर्शन है। श्राकारमं छुपकर मन्दिरीमें लग जाने ती बटा लाम समाज इस वैज्ञानिक निर्देश के लिये श्री मन्नार साहब और निर्माण का होगा। यह नीनि मरलनामे ममम.में श्रा मकेगी। के लिये चित्रकार श्री अाशागमजी शुक्ल प्रशंमाके पात्र हैं। मक अतिरिक्त निदामिक लेखांका भी बड़ा महत्व में इस सुन्दर प्रयत्नके लिये सम्पादक महोदयको वधाई १५ श्री जैनेन्द्रकुमार जैन, देहली देता है और विचारशील पाठकांम अनकान्त के प्रचारम भागीदार होने की प्रार्थना भी करता है।" "जैनशास्त्र के विचार और गर्वपणाकी दिशाम १७५० समग्चन्द्र जैन न्यायतीर्थ. 'मिनी', देवबन्द'अनकान्त' ने अपना कर्तव्य देखा है । सम्पादनमें उस - कर्तव्यको ईमानदारीसे निबाहा जाता है। उसके लक्ष्यका "अनेकान्त श्रापके तत्वावधानमें जैनमाहित्यके प्रचार छाप हर अंक पर मिलती है। जन-मामान्य अर्थात जैन- का जो ठोम कार्य कर रहा है उसका मूल्य नहीं श्रोका जा सामान्यके यह और भी अधिक कामका दी. यह कामना।" मकना । इममें विचारात्मक और ममालोचनात्मक लेग्व १६ पं० कन्हेंयालाल मिश्र 'प्रभाकर', सहारनपुर स्वच्छ, चमकीली और सर्वजनमुलभ भाषामें दिये जाने हैं, जिन्हें प्रत्येक सरलतासे ममम. सकता है। अगर जैन"हिन्दीमें 'अनेकान्त' अपने ढंगका कला पत्र है-. मादित्यके इतिहास पर तुलनात्मक विवेचनकर पाठकोंका वह पाठकोंकी हल्की प्रवृत्तियोका उपयोग करके अपना ध्यान आकर्षित किया जाय तो लेखकों के लिये एक नवीन विस्तार चाहनेकी आजकी श्राम प्रवृत्तिसे बहुत दूर है। उसके सुयोग्य सम्पादक श्री पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार नेत्र मिल जायगा । सचमुच मुख्तार साहब हमारे साहित्यिक उन्नायकोमें अग्रणी हैं, उन्हींके जागरुक प्रयत्नोंका यह फल उसके पृष्ठोम वही कहते हैं जो उन्हें कहना है, कहना चाहिये । मैंने सदा ही उनकी हम प्रवृनिका अभिनन्दन है कि 'अनेकान्त' इतना मुन्दर निकलता है।" किया है। १८५० लोकनाथजैन शास्त्री, मुडबिद्रीअनेकान्तका नववर्षा क अनेक सुन्दर लेखोंसे सुभूषित "श्रापके द्वारा सम्पादित 'अनेकान्त वर्ष ४ अंक' है। वीर-सेवा-मन्दिरके श्री परमानन्द शास्त्री इधर धीरे २ यथा ममय प्राप्त हुआ था। इसके मुखपृष्ठ पर स्याद्वादखोजपूर्ण लेखकोंकी श्रेणी में आकर बड़े होगये हैं। इम अनेकान्त नीतिका द्योतक सप्तभंगीनयका रंगीन चित्र बहुत अंकमें उनका महत्वपूर्ण, मौलिक स्थापनापूर्ण जो लेख- ही मनोहर एवं सुन्दर है। तुममें 'एकेनाकर्षन्ती' और तत्वार्थसूत्रके बीजोंकी खोज-छपा है, वह उसका मूल्य विधेयं वार्य चानुभयमभयं' इत्यादि श्लोकदयके अभिप्रायको श्रांकने में बहुत महत्वपूर्ण है । मैं उन्हें बधाई देते हुए मृर्तस्वरूप बनाकर आपने अपनी उच्च कल्पनाशक्तिका भानन्द अनुभव कर रहा हूं। समाजके सामने परिचय कराया। यह कार्य अत्यन्त प्रशंसा ममन्तभद्र पर दोनों सम्पादकीय लेख सुन्दर है। श्री करने योग्य है । आपके सभी लेग्य पठनीय एवं माननीय है। Page #311 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६. अनेकान्त [वर्ष ४ - इसमें दो चार सामान्य लेग्वोंको छोड़कर अन्य सभी शैली तथा प्राकार-विन्यास भावुक और मोहक है। यदि लेव और कविताएँ वाचनीय है। ऐमे ठोस कामोंका पत्रिका विरुद्ध-अविरुद्ध बलाबल विषयमें संपादकीय मार्मिक टिप्पण जगतमें होना अत्यन्त ज़रूरी है। भी दृष्टिगोचर होता रहे नो अनेकान्तकी सार्थक निष्पक्ष पं. परमानन्द जी शास्त्रीका 'तस्वार्थसत्रके बीजाकी पुष्पसुगंध मर्मज्ञोके मस्तकको अवश्य तरकर सुवासित करेगी। म्बोज' शीर्षक लेख भी अति महत्वपर्णयह लेख बहत पत्र अपनी सामग्रीके दृष्टिकोणमें ममचित है अत: मर्मजता परिश्रम और स्वोज पूर्वक लिया है। कई प्रमाणांसे सिद्ध में यह उपादेय है।" किया है कि तत्त्वार्थसूत्रके कर्ता उमास्वामी दिगम्बराचार्य २१ अगरचन्द जैन नाहटा, बीकानेरथे, नकि श्वेताम्बराचार्य । इस लेखको पढ़कर तत्त्वार्थसूत्रके "अनेकान्तके मुखपृष्ठका चित्र इसबार बड़ा सुन्दर दिगम्बगचार्यकृत होनेमें कोई इन्कार नहीं कर सकेगा। हुया है । लेख भी गंभीर एवं पठनीय हैं । सचमुच जैनपत्रो इस परिश्रमर्पण लेखके लिये उक्त शास्त्रीजी अनेक धन्यवाद में यह मर्वोच्च कोटिका है। .मके द्वारा अनेक नवीन तथ्य के पात्र हैं। एवं मननीय विचार प्रकाशमें श्रा रहे हैं। अतएव मरुनार मूडबिद्रीके सिद्धान्त मन्दिरमं स्थित महाबन्धमं तत्त्वार्थ साहब इसके लिये प्रशंमाके पात्र हैं।" सूत्रके बीजकोशको खोजकर अमेकान्तके पाठकोंके मामने २२ बा० माईदयाल जेन, B. A. B. T,मनावदगम्बनेके लिये मैं अवश्य प्रयत्न करूँगा। "अनेकान्त के तीनों अंक मिले। पढ़कर मंतोष हुआ। इसमें सन्देह नहीं है कि 'अनेकान्न' वीरसेवामन्दिर अनकान्तके पुन: संचालनके वास्ते श्राप तथा अनेकान्तके में पहुँचकर अति उन्नतिको प्राप्त होगा। इससे हमारे समाज महायक बधाई तथा धन्यवादके पात्र हैं। विशेषांक पठनीय का गौरव है। अतएव उनरोत्तर उन्नति करते हुए अमर तथा अच्छा है। उसका मुखपृष्ठका चित्र गाव नथा अर्थबने, यही मेरी कामना है।” पूर्ण है। इसके लिये चित्रकारकी तथा उनको भाव देने वालोकी जितनी प्रशंमा की जाय कम है। ममाजको श्रने १६ गयबहादुर बा० नांदमल जैन, अजमेर कान्तकी दर प्रकारसे सहायता करनी चाहिये । मैं भी "अनेकान्तका प्रकाशन मरसावासे होने लगा है, यह यथाशक्ति सेवाके लिये तय्यार हूं।" प्रसमताकी बात है। अनेकान्तमें आपके गवेषणापूर्ण लेख २३ पं० रतनलाल संघवी न्यायतीर्थ, विचुन (जोधपुर) रहते हैं, जिससे विद्वानोंको उपयोगी सामग्री काफी मिलती रहती है। आपका प्रयत्न स्तत्य है। ममाज श्रापकी सेवासे ___"अनेकान्त जैन-पत्र-क्षेत्रमें एक मर्वाङ्गसुन्दर पत्र है। चिर ऋणी है।" श्राप पत्रका संपादन और संकलन जिस महान् परिश्रमके माथ कर रहे हैं, एतदर्थ सभी जैन साहित्यप्रेमियोंकी अोरसे २०५० रामपसाद जैन शास्त्री, बम्बई वधाई है। विषय-चुनाव और छपाई-सफाई-अंतरंग और "अनेकान्त वर्ष के ३ किरण मेरे पठनमें आये- बहिरंग दोनों दृप्रियोसे पत्र बराबर उन्नति पथ पर है। श्राशा लेख प्रायः सभी मार्मिक दृष्टिसे अपने लक्ष्य बिंदको लिये है कि आप जैसे कर्मठ साहित्यसेवीके निरीक्षणमें पत्र :परन्त उनमें भी जैनी नीति, तत्वार्थसत्रके बीजोंकी खोज, निरन्तर उन्नति करता हुश्रा--अनेकान्त नामका जैनइलोराकी गुफाएँ, मुनिसुव्रत काव्यके कुछ मनोहर पद्य, साहित्यकी और प्रधानत: जैन पुरानस्व एवं जैन इतिहामकी कर्मबन्ध और मोक्ष, श्रहार-लडवारी, गोम्मट. ये लेख बडे पूर्ति करता रहेगा।" महत्वके हैं। पत्रका उद्देश्य जिस माम्यध्येय पर अवलंबित २४ बा० जयभगवान जैन बी०ए० वकील, पानीपतहै वह विचारणीय है। संसारमें ऐसे पत्रकी श्रावश्यकता "इस नववर्ष वाले 'अनेकान्त' के जो तीन अङ्क मेरे उस दृष्टिसे है कि वैयक्तिक मनोभावनात्रोंके शानमें पहुँचे हैं उनके लिये आपका बड़ा आभारी हूँ। इन्हें सुविचारतासे हेयोपादेयका ज्ञान होता रहे। पत्रकी संपादन पढ़कर मेरा मन बड़ा श्रानन्दित हश्रा।ये वास्तव में किरण Page #312 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] अनेकान्त पर लोकमत २६१ हैं अन्धकारमें उजाला करने वाले हैं, अनेकान्तमय सत्यको धर्मकी एक महत्वपूर्ण विशेषता है । लेखोंका संग्रह अत्युत्तम प्रकाशित करने वाले हैं। इनके मुखमण्डल पर जिस सप्त- हुश्रा है, 'तत्वार्थसूत्रकं बीजोंकी खोज' शीर्षक लेखमें तो भंगकी छबि छारही है वह केवल जैननीतिका ही नहीं बल्कि पूर्णरूपेण एक नए दृष्टिकोणको उपस्थित किया गया है, इम पत्र-नीतिका भी पूरा पूरा पता दे रही है। इस प्रकार मुख्तार साहिबका इस वृद्धावस्थाका यह उत्साह अत्यंत चित्र-चित्रण-द्वारा नीतिको दर्शाना श्रापकी ही अनुपम प्रशमनीय एवं स्तुत्य है। प्रतिभाका कौशल है। ये श्रङ्क मार्मिक लेखो, सुन्दर २६ सम्पादक 'परवारबन्धु', कटनीकविताओं और सरल कहानियोंसे भरे हुए हैं। इनकी बहुत लेखोका चयन सुदर हुआ है । मम्पादकीय (लेग्ब) मी सामग्री विद्वानोके लिये संग्रहनीय है। इनके कई निबंध मनि समंतभद्रका मनिजीवन और श्रापत्काल तथा पं. तो ऐसे हैं. जो अवश्य ही सुभीता प्राप्त होने पर पुस्तकाकार परमानंदका तत्वार्थसूत्रके बीज बहुत खोजपूर्ण हैं। प्रेमीजी में प्रकाशित होने वाले हैं--जैसे "तन्वार्थसत्रके बीजोंकी तथा अन्य बंधुश्रांके लेख भी मननीय है। द्वितीयाँकमें ग्वोज" "ममन्तभद्रविचारमाला" "नामिलभाषाका जैन 'वमंत' जीकी कविता तथा भगवत् जीकी कहानी दोनों बहुत माहित्य” “जीवनकी पहेली' इत्यादि । यह मब होते हुए सुंदर हैं । छपाई सफाई उत्तम । वार्षिक मूल्य ३)। जैन भी इतने मात्रमे हमें मंतृष्ट नहीं होना चाहिये, इममें उन्नति ममाज ही नहीं ममस्त मंमारका एकमात्र कल्याणकारी, की बहुत बड़ी गुञ्जाइश है: परंतु यह मब उसी ममय हो जैनधर्मका सच्चा प्रचारक यही एकमात्र पत्र है। हम हृदय सकता है जब इसके लेखको और ग्राहकोकी मंख्या में से हमकी उन्नति के प्राकक्षिी है।" अभिवृद्धि हो। मुझे पूर्ण विश्वाम है, यदि श्रेष्ठिजन इसे २७ सम्पादक 'विश्ववाणी',साउथ मलाका, इलाहाबादकुछ और अधिक सहायता दें, विजजन अपने लेख-दाग इसे अधिक अपनायं, उत्साहीजन इसकी ग्राहक श्रेणीको __प्रस्तुत अङ्क अनेकांत' का नववर्षाङ्क है । प्रसिद्ध जैन मुनि ममंतभद्रके मिद्धोतों पर अनेकौतकी नीतिका परिचालन कुछ और बढ़ाएँ, तो यह पत्र वीरवाणीको, वीरकी अनेकांत होता है। ममंतभद्रका मुनिजीवन और आपत्काल पर दृष्टिको, वीरकी मान्यतावृत्तिको, वीरके अहिसा मार्गको दूर सम्पादकजीका एक अत्यंत सुंदर विवेचनात्मक लेख है। दूर तक फैलाने में एक प्रमुख माधन साबित होगा।" अन्य लेखोंमें श्री शीतलप्रसादजीका 'अहिंसातत्व' श्री २५ प्राचार्य चन्द्रशेखर शास्त्री, देहली अजितप्रसाद जैनका 'जैनधर्म और अहिंसा' बड़े विचारपूर्ण अनेकाँनका नववर्षात देखकर हृदयको जितना ढंगसे लिग्वे गये हैं। प्रो., ए. चक्रवर्ती, एम.ए. का आनंद हुश्रा, इतना अानंद अभीतक बहुत कम पत्रोंके 'तामिल भाषाका जैन साहित्य' नामक लेग्ब और पं. विशेषांकोंको देखकर प्राप्त हुआ है, अमृतचंद्र मूरिके श्लोक ईश्वरलाल जैनका 'ऐतिहासिक जैनसम्राट चंद्रगुप्त' बड़ी का तिरंगा चित्र न केवल इस अंककी ही विशेषता है, वरन ग्वोजके परिणाम है। हम इस विचारपूर्ण सामग्रीके इकट्ठा वह विशेषताकी भी विशेषता है। कारण कि स्याद्वाद जैन- करने पर सम्पादक महोदयको बधाई देते हैं। Page #313 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मेंडकके विषयमें शंकासमाधान (ले०--श्री नेमिचंद सिंघई, इंजीनियर ) ‘मेंडकके विषयमें एक शंका' शीर्षक लग्ब 'अन- आगमनका भगनाद सुनकर उस मेंडकके भी अहंतकान्न' तथा 'तारणबन्धु' दोनों पत्रों में देखनेमें भक्ति करनेके भाव उमड़ पड़ते हैं, बिचारा एक पाया । लेखकने प्राचार्यश्रीके प्रति तथा प्रथमानुयोग कमल का फूल मुंहमें दबाय समवसरणकी ओर जाता ग्रंथोंके प्रति जो उद्गार दिये हैं व जैसके तैस विना है, किन्तु राम्तमें ही गजा श्रेणिकके हाथी के पैर तले संपादकीय नोटके 'अनकान्त' जैम पत्रमें छप गये, दबकर मर जाता है । उम मभय शुभ भावोंक पही आश्चर्य की बात है । अस्तु । कारण वह प्रथम मौधर्म म्वर्गमें महद्धिक देव उत्पन्न इसके उत्तर भी 'जैनमित्र' में आगये हैं तथा इस हाता है । वहाँ से वह तत्काल ही भगवान महावीर बामकी पुष्टि होगई है कि मंडक सन्मन और गर्भज म्वामीक समवसरणम बड़ी विभूतिक माथ मुकुट पर तथा मैनी और अमैनी दोनों प्रकार होते हैं। मेंडककं चिन्हको धारण किये हुए आता है, जिस दग्वकर मब लोगांको अत्यन्त आश्चर्य होना है। हम लोगों को जो बरसाती मंडक देखनेमें आने इस कथानकमें उसका महद्धिक दव हाना खास है वे प्रायः मन्मूर्छन ही हुआ करते हैं; किन्तु बड़े बात है, और इस बातकी पुष्टि मागारधर्मामृत तालाब या बावड़ीमें मंडकक युगल भी देखने में आते। अध्याय २ श्लोक २४ में भी होती है । यथाहैं, इस बात की पुष्टि श्रीयुन संठ वीरचन्द कादरजी यथाशक्ति यजेताह हेवं नित्य महादिभिः । गान्धी, फलटण ने अच्छी तरह की है। संकल्पतोऽपितं यष्टा भेकवस्वर्महीयते ॥ २४ ॥ जिस समय हम कथानकको देखते हैं तब हमें यहां पर मेंडकको जातिम्मग्गा हाना, पूजाके मालूम होता है कि वह मेंडक पहले संठजीका जीव भाव उत्पन्न होना तथा प्रथम स्वर्गमें महर्द्धिक देव था किन्तु सामायिकके समय परिणाम बिगड़ जानके उत्पन्न होना यह सिद्ध करता है कि वह 'सैनी' कारण तथा ऐसे ही समयमें प्रायु क्षीण होजानेके (संज्ञी) था जो कि श्रीमान संठ वीरचंद कोदरजीके कारण अपने ही घरकी बावड़ीम मेंडक उत्पन होता विधान के अनुसार बिल्कुल ठीक तथा युक्तिपूर्ण है। है। बाद में उसे अपनी पूर्वभवकी स्त्रीको देखकर थोड़ी देरके लिए मान भी लिया जावे कि जाति-स्मरण होजाता है, जिसके कारण उसके परि- वह असंनी (असंझी) था, तब भी वह णामोंकी निर्मलना होकर आत्मशुद्धि होती है। असैनो जीव भवनद्विकमें देव उत्पन्न हो सकता है, भाग्यवशात् श्री १००८ महावीर स्वामीका समवसरण इसमें भी कोई बाधा नहीं पाती है। अतः लेखक उसी गजगृही नगरीमें आता है । समवसरणके "मित्र" जीकी शंका निर्मूल सिद्ध होजाती है। Page #314 -------------------------------------------------------------------------- ________________ गोम्मट लेखक-प्रोफेमर ए०एन० उपाध्याय, एम० ए०, डी० लिट् ] (अनुवादक-५० मूलचन्द्र जैन, बी.ए.) इस लेखको ममाप्त करने पहले मेरे लिये यह गोम्मटमार' के नाम और मूलस्रोतकी व्याख्या श्रावश्यक है कि मै पन पूर्ववर्ती विद्वानोके कुछ करते हुए जे० एल० जैनी कहते हैं."-"प्रन्थकर्ताने विचागेका प्रत्यालांचन कम जिन्होने ऊपरक विषय श्री वर्धमान या महावीरको 'गोम्मटदेव' के नाममे के नाना पोका पर्श किया है और जो विभिन्न पुकारा है । 'गोम्मट' शब्द मम्भवतः 'गो' वाणी और नतीजो पर पहुंच हैं, यद्यपि वाकयान (HI) एक 'मट' या 'मठ' घर से बना है, जिसका अर्थ होता है 'वाणीका घर', वह भगवान जिसमें निरक्षरी बागी, ___पंडित प्रेमी जी लिखते हैं . :-"गोम्मटकी अद्भुतसंगीत, दिव्यध्वनि बहती है। 'सार' का अर्थ मूर्निके कारण चामुण्डंगय इतने प्रसिद्ध हो गये थे निचोड़, मंतितः अर्थ है । इस तरह गोम्मटसार शब्द कि वे गोम्मटगय कहलाने लगे ।" प्रेमीजीने अपने का अर्थ होगा 'भगवान महावीर के उपदेशोका मार' इस निर्णयकी पुष्टिमं कोई हेतु नहीं दियं हैअत. __ यह अधिक संभाव्य है कि श्री. गोम्मटदेव या भगवान ऐसे निर्णयकी स्वीकृति के विरुद्ध मैं कुछ कठिनाइयो महाकोरकं प्रति अपनी अधिक भक्तिके कारण चामु. के नोट दिये देता हूँ। ऐमा काई प्रमाण उपस्थित गडराय भी गजा गाम्मट कहलाते थे । महान् प्रश्न कर्ता । अर्थात चामुण्डगय) के प्रति अभिनन्दन के नहीं किया गया जिमस यह जाहिर ही कि बेल्गाल तौर पर इस संग्रह का नाम उनके नामानुसार 'गोम्मकी मूर्ति बनने पहले बाहुबलिको गाम्मट कहा टमार' रम्बा गया है ।" मैंने दूसरे स्थान पर इम जाता था। 'गय' चामुण्डायकी प्रसिद्ध उपाधि थी; बानकी व्याख्या की है कि गोम्मटदेव' किम अर्थमे और यदि यह मान लिया जाय कि गोम्मटका अर्थ 'महावीर के बराबर हो मकता था । जबतक यह बाहुबलि था, तो हम गोम्मटराय' इस ममम्त पदकी 'किम प्रकार व्याख्या कर मकने हैं ? मृतिको प्रायः माबित नहीं किया जाना कि 'गोम्मट' मंस्कृन शमन गोम्मटदेव, नाथ आदि कहते है और बहुत कम नथा है तबतक संस्कृत शब्दविज्ञानको बनानेका प्रयत्न पिछले लेखोंमें केवल गोम्मट कहा गया है। मैं २८ गोम्मटमार जीयकाण्ड, जे. एल. जैनीकृत अंग्रेजी अनवादादि महित, B.J, V. भूमिका प्रण ५-६ । ममझता हूँ प्रेमीजीका निर्णय दुसरे प्रमाणोंकी मैंने इसमें अन्तर बतलाने वाली आवश्यक बातोको अपेक्षा रखता है, जिनके अभावम'वह स्वीकृत नहीं शामिल कर दिया है। किया जा सकता। २६ देखो मेरा लेख 'Material on the Jnter२७ 'त्रिलोकसार', माणिकचन्द दि०० ग्रन्थमाला नं. १२, pretation of the word Gommata' बम्बई सम्बत् १६७५, भूमिका ४८। I. H.Q. Vol XVI.No.2 Page #315 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६४ अनेकान्त [वर्ष ४ करना असंगन है। यह केवल लिखने वालेकी व्या- २-१८१ A. D. में प्रतिष्ठिन बेल्गोलकी मूर्नि करणकी चतुराई भले ही प्रगट करे, इमस अधिक ९९३ A. D. तक गोम्मटेश्वरके नामसं प्रसद्ध नहीं और कुछ नहीं; परन्तु इस तरहकी कल्पनाओंका, हुई थी; क्योंकि ग्त्रक अजितपुराण' में मूर्तिको चाहे वे कितनी ही रम्य क्यों न हो, सविवेक इतिहास 'कुक्कुटेश्वर' लिम्बा है, 'गोम्मटेश्वर' नहीं। और शब्दविद्यामें कोई स्थान नहीं है। शायद जैनी ३-कम कम ९३३ A. D. तक 'चामुण्डगय' जी किमी संस्कृत टीकाकारका अनुकरण कर रहे हैं। का 'गोम्मट' या 'गोम्मटराय' ऐसा कोई नाम नहीं मिस्टर एम० गोविन्द पै' ने इस विषय पर एक था; क्योंकि बेल्गोलका शिलालेख नं० २८१ चामुण्डपूग लेख लिखा है, और उन्होंने अकसर अपने गय-पुराण और चारित्रसार ऐमे किमी नामका विचारोंको म्ययं दोहराया है ' तथा दृसगंने पिछल उल्लेग्य नहीं करते हैं। कुछ वर्षोंमे दोहगया है । यद्यपि उनका लेम्ब सूच- ४-दाड्डय्यक 'भुजबलिशतक' (ई०म० १५५०) नाओस भग हुआ है फिर भी वह तथ्योंकी उनकी के अनुमार पोदनपुरके (वहाँ भरतके द्वारा स्थापित) अपनी व्याख्यामि निकाले हुए मंदिग्ध एवं काल्प- गोम्मटन अपनको 'विध्यागिरि' पर प्रकट किया था। निक परिणामों और अविध्यात्मक प्रमाणोंसे परिपूर्ण इमस मूर्तिका नाम 'गोम्मट' बहुन पुगना था और है और हर एकका प्रायः यह संदेह होना है कि वह चंकि चामुण्डराय गोम्मट नहीं कहलान थे; इसलिये सम्भव बानोंको तथ्य मायकर दृषिन वृत्तिमे विवाद कहा जा सकता है कि चामुण्डगयन उम मृर्तिके नाम कर रहे हैं । बहुतसे प्रत्यक्ष और पराक्ष विवादास्पद पास अपना नाम प्राप्त किया। विषयोंका मिला दिया गया है; और उनके कुछ ५-प्रतिष्ठाके समय न तो मर्तिका और न अपवाद (reservations) और प्रश्न मंगत चामुण्डगयका नाम गोम्मट था; क्योंकि समकालीन होनेकी सीमास बहुत परे हैं। फिर मुझे निम्न विषय शिलालेखोंमें कोई उल्लेख नहीं है । चामुण्डगयकी उनके पर्यालोचनमें स्पष्ट जान पड़ते है; और मैं उन्हें 'गय' एक उपाधि थी। यथासंभव अपने शब्दोंमें गिनाऊँगाः ६- 'गोम्मटसार', जिसमें 'गोम्मट' का १-बाहुबलि कागदेव होनेके कारण 'मन्मथ' चामुण्डरायकं नामके तौर पर उल्लेख है, अवश्य ही कहलाए जा सकते थे, जिसका कनडीमें (या कोंकणी ई० मन ९९३ के बादका लिग्वा हुआ है, और त्रिलोमें अपनी बादकी लिपिकं अनुसार) 'गोम्मट' एक कसार, जिसमें इसका उल्लेख नहीं है, ई० मन ९८१ नद्भवरूप है, जिम उसने प्रायः मगठीसे लिया है। से ९८४ के मध्यवर्ती समयका बना हुआ होना ३. Indian Historical Quarterl., Vol. चाहिये। IV, No.2, Pages 270-86. ७-नेमिचन्द्रने मूर्तिकी प्रतिष्ठा होजानेके बाद ३१ 'जैन सिद्धान्त भास्कर' श्रारा, जिल्द ४ पृष्ठ १०२-६; 'श्रीबाहुबलि गोम्मटेश्वर चरित्र,' मंगलोर, १६३६% उसके नाम परमं स्वयं चामुण्डगयको गोम्मट नाम Jaina Antiguary Arroh, VI, Pages दिया था। यह असम्भव है कि चामुण्डराय वृद्ध 26-34, etc. होते हुए 'गोम्मट' कहला सकते, जिसका इन्द्रिय Page #316 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] गोम्मट २६५ - प्राय अर्थ मन्मथ' है। मधिकृत सूत्रोंकी पिछली टीका है, एक अलग-अलग ८-सबमे पहिले मूर्तिका नाम 'गोम्मट' पड़ा; (isolated) केस जो मिलता है वह गलन छपाईका और इससे 'गोम्मट-जिन', 'गोम्म-पुर' आदिकी परिणाम है, जिसे संगत सूत्रोंके मावधानना पूर्वक व्याख्या होनी है। अध्ययन और प्राचीन टीकाओंमें उनकी व्याख्याओंके ९-यदि बेल्गोलकी मर्तिका नाम उसकी प्रतिमा साथ मिलान करनेमे सहज हीमें मालूम किया जा कराने वाले के नाम पर 'गोम्मटदेव' पडा. तो कार्कल मकता है। अपने ममीकरण को स्थापित करने के लिये और वेणूर की मर्तियों के नाम भी अपने प्रतिष्ठापकों मिस्टर पे इस प्रकार बहस करते हैं:के नाम पर होने चाहिये थे लेकिन चंकि वे भी “कान्यायनकी 'प्राकृन मसरी' में, वह नियम 'गोम्मट' कहलाने हैं इसलिये यह अवश्य ही 'बाहु- जिससे कि द्विगुगण ध्वनि 'न्म' बदल जानी है 'न्मो बलि' का नाम रहा है। मह' (३-४२) के तौर पर लिया गया है, जिसके अब हमें उन निष्कर्षांकी युक्तियुक्तता और कारण संस्कृत शब्द 'मन्मथ' जिसका अर्थ कामदेव नर्कगाकी शक्ति पर विचार करना चाहिये:- है, प्राकृतमें 'गम्मह' बन जाना है । (१) दन्त्य अक्षरों १-'बाहबलि' कामदेवकं कारगण मन्मथ' कहला की ध्वनि, जब वे संस्कृत शब्दोंके अन्नमें पाते हैं, मकन थे. यह स्वीकार्य है; परन्तु शाब्दिक ममीकरण 'कनडी' में मूर्धन्य अक्षरोंमें बदल जाती है-मंकन मन्मथ = गम्मह = गोम्मटके रूपमें जा किया गया है प्रन्धि (गाँठ) = कनडी गण्टि (या गण्टु); सं० श्रद्धा वह मिस्टर पै के निबंधकी इमारनमें मबम अधिक (विश्वास, भगमा, ऐतकाद)=क० मई मं० तान कमजोर शिला है। प्रोफेसर के०जी० कुन्दनगरन (गानेम)=क० में टाणः मं० पनन (नगर =क० इम समीकरणकी युक्तियुक्तना पर ठीक आशंकाकी पट्टगा; मं० पथ (पथ) = क० बट्टे आदि; इमलिये है, परन्तु मिम्टर 'पै' ने अपने कथनकी पुष्टिमें और 'मन्मथ' शब्द के अन्तका 'थ' कनडीमै कायम नहीं कोई प्रमाण न देकर, उनकं माथ एक मजाकिया रहता, प्राकृनमें उसके स्थान पर जो 'ह' (गम्मह) फुटनोट के रूपमें व्यवहार किया, जिमने प्रो. होता है वह कनडीमं स्वभावतः 'ट' में बदल जाना 'कुन्दनगर' को एक लम्बा और विद्वत्तापूर्ण नोट है, और इस प्रकार संस्कृतका 'मन्मथ' = प्राकृत लिम्बनेके लिये उत्तेजित किया, जिसमें उन्होंने यह 'गम्मह' अपनी कनडीके तद्भवरूपमें, 'गम्मट' हो अखंड्यरूपसे स्पष्टकर दिया है कि 'मन्मथ' = 'गोम्मट' जाता है। (२) कनडीके शब्दों में श्रादिक 'अ' की के लिये मारे प्राकृन-व्याकरण साहित्यमें कोई आधार ध्वनि लघु 'श्री' (जैसे अंग्रेजी शब्द 01' में) की नहीं है, और यह कि प्राकृत-मजनमें जो कि वर- ध्वनिके साथ अदलनी बदलनी रहती है, जैसे३२ उनकी कन्नड पस्तिकामें जिसका ऊपर नोट किया जा मगु (बच्चा)=मोग; मम्मग (पाता) = माम्मग; मगचु चुका है। (उच्छेद करना) =मोगचुः तप्पल (घाटी) = तोप्पलु ३३ 'प्रो० कुन्दनगर' का लेख 'कर्णाटक-साहित्य-परिपन् दहि (गोशाला)=दोलि; सप्पु (सूग्वे पने)=सोप्पुः पत्रिका', बंगलोरमें प्रकाशित होने वाला है। मल (प्राध गज)मोल आदि । इमलिये 'गम्मट' से Page #317 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष। 'गोम्मट' हागान का यह एक प्रामान और अनिवार्य निक भारतीय भाषाओंके क्षेत्रमें। यदि उनका तरीका मार्ग है।" इत्यादि । . अखतियार किया जाये तो कोई शब्द किसी रूपमें 'प्राकृन मंजरी' 'वररुचि' के (जिन्हें कुछ विद्वानों बदला जा सकता है । मिस्टर पे द्वारा अंगीकृत न्याय के मतानुमार 'कात्यायन' भी कहा जाता है) सूत्रों पर का पेडियों पर चलका, मैं यह दिखला सकता है कि पिछली टीका है इसलिये इम टीकाको 'कात्यायन' 'कुक्कुट' का भी समीकरण 'गोम्मट' या 'गुम्मट' के की बताना ग़लत है। मिस्टर पै एक दूसरे सूत्र माथ किया जा सकता है। जब संस्कृत शब्द 'मन्मथे वः' २-३६' को चुपचाप नजर अन्दाज कर कन्नडमें लिये जाते हैं, तो आदिका :क' अकसर 'ग' जाते हैं। जिसके अनुमार 'मन्मथ' 'शब्दमें आदिका में बदल जाता है, उदाहरणके तौर पर कुटि =गुडि, 'म' 'वः' में बदल जाता है। नीचे लिखे कारणोंस कोटे = गाडे आदि (शब्द-मणि-दर्पण २५६)। प्राकृत टीकामें दिया हुआ 'गम्मह' पाठ स्पष्टनया ग़लन वा में 'क' 'म' में बदल जाता है: चन्द्रिका शब्दमें (प्राकृतग़लत छपा हुआ है:-(i) सूत्र ३-४२ में 'म' का मजगै २-५); इमी नरह एक डबल 'क' 'म्म' मे बदलना लिग्या है आदिक 'म' की तब्दीलीम इसका बदला जा मकना है । कन्नडमे कभी कभी '' स्वर कोई वाम्ना नहीं; (iiश्रादिकं 'म्' की 'व' मे 'अ' में बदला जाता है; कुस्तुम्बुरु = कात्तम्बरि (श० तब्दीलीका उल्लेग्व ग्यास तौरस सूत्र २-३६ में किया म० २८७), मानुष्यं = मानसं (श० म०२७३) । इम. है; (iii) और अन्तम, जैमा' कि प्रा० कुन्दनगग्न प्रकार 'कुक्कुट' 'गुम्मट' में बदल गया है। मिस्टर पै प्रकट किया है. गम्मकप तो इन्हीं सत्रों पर इम विधान पर आपत्ति नहीं कर सकते क्योंकि किसी दूसरे टीकाकार द्वाग और न किसी प्राकृत-व्या- उन्होंने स्वयं इसे अंगीकार किया है । परन्तु यह सब करण वा शब्दकाप द्वाग ही नोट किया गया है। स्वरविद्या ( ध्वनिशाल) का मजाक उड़ाना और 'मन्मथ' के लिये ग्राम प्राकृत शब्द 'वम्मह' है। जब शब्दशास्त्रीय परिकल्पनाकी फिसलने वाली भूमि पर तक यह साबित नहीं किया जाता कि 'मन्मथ' = पागलोंकी नाह दौड़ लगाना है । अतः मिस्टर पै का 'गम्मह' यह ममीकरण युक्तियुक्त है, तबतक उमकं 'मन्मथ = गम्मह यह ममीकरण जरा भी साबित पीछेकी मब बहमें (arguments) बेकार हैं। नहीं है। दूसरे 'श्रद्धा', 'प्रन्थि' आदिकी ममानताएँ कोई भी (२) यदि मिस्टर 'पै' 'बाहुबलि' = 'कामदेव' = अमली ममानतानएँ ही है, क्योंकि वे मूर्धन्य नियमकी मन्मथ'>गास्मट' इस समीकरणको लेकर जो कि तरह स्वरविद्याके नियमोंके आधीन हैं जिनका ऊपरक कथनानुसार है सावित नहीं है, प्रस्थान करते 'मन्मथ' शब्द पर कोई असर नहीं है। उनकी दलील हैं तो यह कहना कि मूर्ति ई० सन् ९८५ या ९९३ तक विधिके अनुसार भले ही ठीक दिखाई पड़े, परन्तु गोम्मटेश्वर' नहीं कहलाई जा सकती थी, अपना ही यह मब चनशील शब्दव्यत्पनि-विद्या है, मेरे ख्याल विरोध अपने आप करना है । 'बाहुबलि' काक्री 'में मिस्टर पै तुलनात्मक तर्कणाओंके अन्धकूपोंसे प्राचीन,समय से कामदेव' प्रसिद्ध हैं । अतः या तो बिलकुल अनभिज्ञ हैं, खामकर प्राकृतों और आधु- मिस्टर पे' को यह समीकरण छोड़ देना चाहिये Page #318 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४] गोम्मट २९७ अथवा यह मान लेना चाहिये कि बाहुबलि प्राचीन मूर्ति 'गोम्मट' कहलाती थी, मिस्टर पै पाज अपने कालसे 'गोम्मट' कहलाते थे । यदि वे दूसरी बातको एक दूसरे निष्कर्षका विरोध कर रहे हैं, जिसमें कहा अंगीकार करें तो उनको वे प्राचीन वाक्य दिखलाने गया है कि मूर्ति ई. सन् ५८५ या ९९३ तक 'गोम्मट' पड़ेंगे जिनमे 'बाहुबलि' को 'गोम्मटेश्वर' कहा गया नामस प्रमिद्ध नहीं थी। वे इस बातको भूल जाते हैं है। वे कह सकते हैं कि भरतने पौदनपुर में 'गोम्मट' कि भरतकं समयकी एक घटना ( fact ) को साबित की मूर्ति निर्माण कराई थी; परन्तु इसके लिये कोई करनेके लिये १६ वीं सदीक एक रिकार्डका इस्तेमाल भी समकालीन साक्षी नहीं है, और वे दोहग्यके, जो कर रहे है। ईमाकी १६ वीं मदीके मध्यम हुए हैं, वर्णनका ५ एक निषेधात्मक माक्षी और मौन रहनेकी आश्रय लेगहे हैं । इस बातसे, कि 'रन्न' ने 'कुक्कटे- बहसमें कुछ भी माबित नहीं होता। श्वर' नामका तो उल्लंग्य किया है किन्तु 'गोम्मटेश्वर' ६ हमें गोम्मटमार' और 'त्रिलोकमार' के रचं का नहीं. कुछ भी माबिन नहीं होता, क्योंकि यह जान की ठीक तिथियोका पता नहीं है और न उन्हे कोई विधायक साक्षी नहीं है । यदि हम अपनी संग- प्राप्त करने कोई निश्चित माधन उपलब्ध हैं । म्वयं तता और टीकाकारोंकी त्याख्याओं पर ध्यान दें तो मिस्टर पैने 'गोम्मट' नामके पल्लेख या अनुल्लम्ब गोम्मटमार' में भो 'बाहुबलि' का निर्देश करनेके परम इन तिथियोंको प्रस्तुत किया है, और यदि हम लिये 'कुक्कुटजिन' का उल्लंग्व तो है परन्तु 'गोम्म 'बाहुबलि' के नामके तौरपर 'गोम्मट' शब्दके इम्नटेश्वर का नहीं । यदि दाग्य चामुण्डगयका माल-ममयकी अवधियोंको निश्चित करनेके लिये 'गोम्मट' के नामसं उल्लंग्व नहीं करता है, तो क्या इन तिथियों की सहायता लें ना हम दुष्ट परिधिक हमाग यह कहना न्यायमंगन होगा कि ई० सन भीनर विवाद करनेवाले होगे। १५५० तक चामुण्डरायका नाम 'गोम्मटगय' बिल्कुल ७ हमारे पाम इस बानका कोई प्रमाण नहीं है नहीं था । वाम्नवमें मिस्टर पै के नोटोंमेंमें एक कि नमिचन्द्रने चामुण्डगयको गोम्मट' नाम दिया इसी अभिप्रायको सूचित करता है। था और मुझ भय है कि स्पष्ट तथ्य यहां थोड़ा सा ३ पुन: यह एक निषेधात्मक माक्षी और मौन नाड़ा मगड़ा जारहा है। जो कुछ हम जानते हैं वह रहनके रूपमें बहसका केस है, जिसमें कोई बात माबित यह है कि नेमिचन्द्र 'गोम्मट' को 'चामुण्डगय' के नहीं होती । जैमा कि मैंने ऊपर सुझाया है, 'गोम्मट' नामके तौर पर उल्लेग्वित करते हैं; और इमस इस चामुण्डगयका निजी घरेलू नाम मालूम होता है और वस्तुस्थितिका निषेध नहीं होता कि उनका ऐमा नाम ऐसा होनेसे हर जगह उसका विधान नहीं हो सकना पहिलेम ही था। यह बान कि चामुगडगयने मृर्नि और नहीं रिकार्डो (लेख्यपत्रों) का यह दावा है कि परमे यह नाम प्राप्त किया कंवल तब ही म्वीकृत की वे चामुण्डरायके सब नामोंकी गिनती कर रहे है। जा सकती है जब कि पहिले यह माबित कर दिया __४ दोहय्य (ई० मं० १५५० ) के 'भुजबलि- जाय कि बेल्गोलकी मूर्ति की स्थापनाम पहले बाहुशनक' के आधार पर यह मानकर कि पौदनपुरकी बलिका एक नाम 'गोम्मट' था । मन्मथ = गोम्मट Page #319 -------------------------------------------------------------------------- ________________ २६८ अनेकान्त यह समीकरण पहिले ही फेल हो चुका है, न पौदनपुर के 'गोम्मट' के लिये दोडप्यका हवाला हमारी रक्षा के लिये आ सकता है । 'गोम्मट' इन्द्रियग्राह्य अर्थ रखता है यह बात ऊपर के समीकरण से निकाली गई है, जो कि पहले ही खंडित कर दिया गया है, और ऐसा होनेसे बहसका मारा बल चला जाता है । यह एक निरर्थक बहस है कि चामुण्डराय वृद्ध थे और इसलिये 'गोम्मट' नहीं कहलाये जा सकते थे, जोकि कुछ ऐसे प्रमाणोंकी पूर्वकल्पना करती है, जो कि या तो ऊपर खंडित कर दिये गये हैं या सर्वथा अप्राप्य हैं। ८ चूंकि मन्मथ = गोम्मट, यह समीकरण स्थापित नहीं हो सका, इसलिये यह अभी तक प्रसिद्ध रह जाता है कि बाहुबलिका एक नाम 'गोम्मट' था । परन्तु दुसरी तरफ, 'गोम्मटसार' में चामुण्डरायका एक नाम 'गोम्मट' निश्चित रूपसे मिलता है और उनका देवता, बाहुबलिकी मूर्ति 'गोम्मटेश्वर' आदि कहलाया जा सकता था । 'गोम्मटसार' में उल्लेखित 'गोम्मट - जिन' का 'बाहुबलि से कोई वास्ता नहीं 136 | मैं इस सम्भावनाका मानता हूं कि जब मूर्ति एक बार 'गोम्मटदेव' के नामसे प्रसिद्ध हो गई तो तब बादके दिनोंमें इस नामके साथ बहुत सी चीजोंका सम्बन्ध जुड़ सकता था । ९ मिस्टर पैन स्वयं अपने लेखकी आदिमें इस प्रश्नका उत्तर दिया है, और मैं उनकी गरमागरम बहसको रद्द करने के लिये केवल उनके शब्द उद्धृत किये देता हूं:- "यहाँ पर यह भी नोट कर लिया जाय कि तीन महान मूर्तियोंमेंसे सबमे पहली अर्थात् [ वर्ष ४ चामुण्डराय (या चावुंडराय ) द्वारा श्रवणबेलगोल में स्थापित मूर्तिका 'गोम्मट' आदि ( या गोम्मटेश्वर आदि) आम नाम सबसे पहले पड़ा, और जब समय बीतने पर ऐसी महान मूर्तियाँ कार्कल और बेणूर में स्थापित हुई तो उनका नाम भी 'श्रवण-बेल्गोल' कं समान अपने महान मूल आदर्श के ऊपर पड़ा ।” यह पूछकर कि पिछली दोनों मूर्तियों का नामकरण अपने संस्थापकों के नामानुसार क्यों नहीं हुआ, वे केवल अपने पूर्व कथनका, जो कि अधिक युक्तियुक्त है, बिरोध करते हैं । ३४ देखो मेरा लेख, 'Material on the Interpretation of the word gommata' I. H. Q. Vol. XVI. No 2. इन मुख्य दलीलोंके अतिरिक्त बहुत सी दूसरी छोटी बातें हैं जिनका प्रस्तुत विषयकं साथ कार्ड सीधा सम्बन्ध नहीं है; इसलिये उनके लिये किसी परिश्रम-साध्य खण्डनकी श्रावयश्कता नहीं। उनकी गोम्मट-विषयक स्वरविद्याकी कल्पनायें, उनका नोट कि 'कोंकणी' मागधी या अर्धमागधी आदि निकाली गई थी, अधिक गम्भीरता के साथ विचार करके योग्य नहीं । पं० ए० शान्तिराज शास्त्री" ने हाल में इस विषयको एक छोटे नोट में संस्पर्श किया है, और बहुतसी बातें में हम सहमत हैं। वे भो कहते हैं कि नेमिचन्द्र बाहुबलिका 'गोमट' नाम रखा है, परन्तु उन्होंने अपने इम नोटको साबित करने के लिये कोई स्वास वाक्य उद्धृत नहीं किया है। 'गुम्मड' शब्द में 'ड' के 'ट' में बदल जानेकी व्याख्या के लिये वे त्रिविक्रम के व्याकरण से सूत्र नं० ३ । २ । ६५ उधृत करते हैं; परन्तु मुझे यह बतला देना चाहिये कि यह खाम सूत्र 'चूलिका - पैशाची' भाषा के लिये इस्तेमाल नहीं किया जा सकता। इम तब्दीली की निर्दिष्ट है और यह किसी जगह तथा हर जगह ३५ जैन सिद्धान्त भास्कर भाग ७ किरण १ पृष्ठ ५१, और उनकी कन्न पुस्तिका, 'श्रीगोमटेश्वरचरित' मैसूर १६४० । Page #320 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ४ ] संसार-वैचित्र्य २६६ व्याख्या यह कहकर हो सकती है कि या तो यह शब्द पर एक लेख लिखा है। यद्यपि वे गोम्मट-सम्बन्धी को संस्कृतका रूप देने की प्रवृतिको लिये हुए है, या अपनी बहसकी बहुत सी बातोंमे मिस्टर पै का अनुयह दक्षिणको कुछ भारतीय भाषाओकी प्रवृत्तिकं करण करते हैं, फिर भी उन्होंने एक फुटनोटमे ठीक उदाहरण स्वरूप है जो प्रायः कोमल व्यजनोंको लिखा है कि 'मन्मथ' का 'मम्मह' या 'वम्मह' यह कठोर बना देती हैं। आखिरकार यह एक संभाव्य निर्णीत तत्सम है; और वे इस एक खुले प्रश्नकी व्याख्या है। फिर भी यह निश्चय है कि हमारा उस तरह छोड़ देते हैं कि क्या 'गम्मह' 'मन्मथ' के सूत्रको इस प्रसंगमें लगाना ठीक नहीं है। बगवर किया जा सकता है । मिस्टर 'के०पी० मित्र' ने हाल ही में 'बाहुबल' ३६ The Jain Artiquary Vol. VI. 1. * इम लेग्यका पूर्वार्ध गत तीमरी किरणमे छप चुका हैP 33. यह उत्तरार्ध है। संसार-वैचित्र्य अल्प हैं जगम मंगल-गान, अधिक मुन पड़ती करुणा-नान ! क्षीण मृद स्वर हैं, गर्जन घोर, अधिक है चिन्ता, थोड़ा ध्यान ! मनोहर है अथ, इति विकगल ! कुटिल है, मजनि जगतकी चाल !! कुटिल है, सजनि जगतकी चाल ! कहूँ मैं किस मांचे हाल ? निशाके बाद सुग्वद है प्रात, पुनः है उस पर तमकी घात ! मचा रहता है भीषण दन्द, मिलन लघु,चिरवियोग पश्चात् ! निराशा व्याधिनि, अाशा-जाल ! कुटिल है, मजनि जगतकी चाल !! जगतके सुख-दुग्व नाटक-जात, रुदनके बाद सुहाम हठात ! अरे फिर भी क्यों व्याकुल प्राण! कहूं मैं कैसे जीकी बात ? छिपा जीवन-मंप्टमं काल ! कुटिल है, मजनि जगतकी चाल ! मचं जब, सजनी, रमकी लूट, निकलता विषका निझर फुट ! जगतमें उथल-पुथल घनघोर, अल्प है मधुऋतु, ग्रीष्म अट ! पपीहे विपल, अल्प पिक-माल ! कुटिल है, सजनि जगतकी चाल !! ऋषिकुमार मिश्र 'मुग्ध यही है मंतत सुग्वकी चाह, बहा करता पर दुःग्व-प्रवाह ! तनिकम गझ, तनिकमें ग्वीझ, भरी पर दोनाम चिग्दाद ! जलाना बनकर ज्वाल-प्रवाल ! कुटिल है, सजनि जगतकी चाल !! सजनि, शैशवकी मचलन मधुर, श्रकद्द फिर यौवनकी वह प्रचुर ! जराकी जीर्ण कराह निदान, शान्ति चिर पाता है न पर उर ! नाचती सतत मृत्यु दे नाल ! कुटिल है मजनि जगतकी चाल !! Page #321 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-परिचय और समालोचन १ समयसार सटीक(गुजराती अनुवाद सहित)- इम ग्रंथका गुजराती अनुवाद श्रीकानजी स्वामीके मृल लेग्वक, प्राचार्य कुन्दकुन्द । अनुवादक, हिम्मतलाल, प्रधान शिष्य शाह हिम्मतलाल जेठालालने बड़े परिश्रमसे जेठालालशाद बी० एम० सी०। प्रकाशनस्थान, श्री जैन किया है। प्रस्तुत मंस्करणको इस रूपमें निकालनेका श्रेय अतिथि-सेवा ममिति, मोनगढ़ | पृष्ठ मळ्या, ५६२ । बड़ा इन्हीं कानजी स्वामीको प्राप्त है। श्राप समयसारके खास साहज, मूल्य मजिल्द प्रतिका २॥) ० । गमिया और कुन्दकुन्द स्वामीके अनन्य भक्त है। प्राध्यासमयमार अध्यात्मग्मका कितना महत्वपूर्ण ग्रन्थ है, त्मिकता दी अात्मविकासका मरव्यमाधन है इमसे श्राप इसके बतलानेकी श्रावश्यकता नहीं क्योंकि हम ग्रन्यके भलीभोति परिचित है । अापने हाल ही में मीमंधर मूल लेखक वे ही श्राचार्यप्रवर कन्दकन्द स्वामी हैं, जो स्वामी के एक मंदिरका निर्माण कगया है और मोनगढ़ में अध्यात्मरमके ग्वाम रमिक और जिनकी ग्रन्थ रचना बद्दी 'श्री जैनम्वाध्याय मंदिर' कायम किया है। जिम ममय ही गम्भीर एवं जैन मिद्धान्त के रहस्यका ठीक उदघाटन कानजी स्वामी ममयमारका व्याख्यान करते हैं उस ममय करने वाली होती है । इम ग्रन्थ के महत्वको वे लोग भले- प्रत्येक श्रोताके हाथमें ममयमारकी एक एक प्रति होती है प्रकार ममझ सकते हैं जिन्होंने उक्त प्राचार्य श्री के प्रवचन- और प्रत्येक श्रीताका उपयोग पूरी तौरसे ग्रन्थ के अवलोकन सार श्रादि ग्रन्यीका मनन एवं परिशीलन किया है। जैन में लगा हुया रहता है, वे मावधानीमे कानजी स्वामी द्वाग बाडमयमें इस ग्रन्थकी जोडका दसरा ग्रन्थ उपलब्ध नहीं कथित अर्थको बड़े ध्यानमे सुनते हैं। हम प्रकारका तरीका हैं। यह ग्रन्थ अध्यात्म के गमक मुमुक्षश्रांके लिये बड़े ही बड़ा ही सुंदर जान पड़ता है। कानजी स्वामीकी आध्यात्मिक कामकी चीज़ है। कथन शैलीमे काठियावाड ( गुजरात ) में अध्यात्म मिया ममयमारका यह गुजगनी मंस्करण बहुत ही सुन्दर वामा प्रचार हो गया है, हजागे भाई अध्यात्मरमके रसिक निकाला गया है। छपाई मफ़ाई कागज श्रादि सब चिंता- बन गये हैं और बन रहे हैं, माथ ही, दिगम्बरत्व मुक्तिका कर्षक हैं। इस मंस्करणमं यह खाम विशेषता रखी गई मर्व श्रेष्ठ माधन है इसकं श्रद्धालु होते जा रहे हैं। उक्त है कि मलग्रन्थकी गाथायोको लालस्याहीसे मोटे टाइपमें प्रांतमें कानजी स्वामीसे जनताका बहा उपकार हुअा है। बड़ी भक्ति के माश छपाया गया है। नीचे लाल स्याहीमें श्राशा है कि श्री कानजी स्वामीद्वारा कुन्दकुन्द श्रादि ही उनकी मंस्कृत छाया दी है। गुजरातीमें अन्वयार्थ श्राचायांके ग्रन्यांके पठन-पाठनका और भी अधिक प्रचार और फिर गुनगती टीका, तदनन्तर गु० टीका महिन होगा। गुजगनी भाषाके अभ्यामियोको समयमारके उक्त श्राचार्य अमृतचंद्रके मंस्कृत कलश दिये हैं, जिन्होने मल- मंस्करणको जरूर मंगाकर पढ़ना चाहिये । मूल्य रु. ग्रंथ पर मचमुच कलश चढाने जैमा ही कार्य किया है। पुस्तककी उपयोगिता और लागतको देखते हुए बहुत ही और नीचे फुटनोट में लाल स्याहीमें गुजराती पद्यानुवाद कम ग्ग्वा गया है, और वह ग्रन्यके प्रति भक्ति और दिया गया है: जिममे प्रस्तुत मंस्करणकी उपयोगिता और उसके प्रचारकी दृष्टिको लिये हुए है । हम इस ग्रन्थ संस्करण भी अधिक बढ़ गई है। गुजराती अनुवाद स्वगाय पंडित का अभिनन्दन करते हैं और श्राशा करते हैं कि प्राचार्य जयचंदजीकी 'श्रात्मख्याति ममयमार वचनिका' के अनुमार कुन्दकुन्दके दूमरे प्रक्चनमारादि अध्यात्मग्रन्योंके संस्करण किया गया है। भी इसी तरह गुजराती अनुवाद महित निकाले जाँयगे। -परमानन्द शास्त्री Page #322 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके सहायक जिन सज्जनोंने अनेकान्तकी ठोस मेवानीक प्रति अपनी अनुकरणीय प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, उसे घाटकी चिन्तास मुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति करने और अधिकाधिक अनेकान्तकी महायताके चार मार्गो से दूसरे मार्गका रूपसे समाजसेवाओं में अग्रसर होने के लिये महायताका वचन अवलम्बन लेकर जिन मजनोने पहले महायता भिजवाई थी दिया है और इस प्रकार अनेकान्तकी सहायक श्रेणी में अपना और जिमकी सूचना अनेकान्तकी गत दो किरणोंमें निकल नाम लिखाकर अनेकान्तकं संचालकोंको प्रोल्माहित किया है चुकी है तथा जिमकी संख्या ७७||) रु० होचुकी है, उसके उनके शुभ नाम महायताकी रकम-महित इस प्रकार हैं--- बाद जिन मजनोंने और महायता भिजवाकर अनुकरणीय * १२५) बा. छोटलालजी जैन रईस, कलकत्ता । * १०१) बा० अजितप्रमादजी जैन एडवोकेट, लखनऊ। कार्य किया है, उनके शुभनाम महायताकी रकम सहित १०१) बा. बहादुरसिंहजी सिंघी, कलकत्ता । दम प्रकार है .१००) माह श्रेयांसप्रमादजी जैन, लाहौर । गयमाह व बाब मागमल जी जैन, नीतरी जि० महारनपुर * १००) माह शान्तिप्रमादजी जैन, डायमियानगर । , १००) बा. शांतिनाथ मपत्र बानन्दलालजी जैन, कलकत्ता निवासी, रिटायर्ड इंजीनियर, देहगदन । (८ विद्या १०० ला० तनसुग्वरायजी जैन, न्यू देहली। थियोंको एक मालतक अनेकान्त अर्धमूल्यम देनेको)। ३०.) मंठ जोग्वीराम बैजनाथजी मरावगी, कलकत्ता १.ला. वृन्दावन चन्दलाल जी, जैन गईम कैराना जि० १००) बा. लाल चन्दनी जैन, एडवोकेट, रोहतक । मजफ्फरनगर । ( ४ निर्दिष्ट संस्थानोको 'अनेकान्त' १००) बाजयभगवानजी वकील श्राति जैन पंचान,पानीपत। विना मूल्य भेजने के लिये )। १५.) लादलीपसिंह काग़ज़ी और उनकी मार्फत, देहली। २५) पं. नाथूरामजी प्रेमी, हिन्दी ग्रन्थ-रत्नाकर बम्बई । ०५. विद्यार्थियो-विद्यालयां-लायब्रेरियोंको *२५) ला० रूडामलजीन, शामियाने वाले, महारनपुर। 'अनकान्त' अर्धमूल्यमें . २५) बा०रघुवरदयालजी जैन, एम.ए. करोलबाग़, देहली। । २५) मठ गुलाबचन्दजी जैन टोग्या, इन्दौर । प्राप्त हुई महायताके श्राधार पर २५ विद्यार्थियों, २५) ला. वावगम अकलंकप्रसादजी जैन, तिम्मा विद्यालयों अथवा लायरिया-वाचनालयाको 'अनेकान्त' मामी anantha जिला मुज़फ्फरनगर । एक वर्ष तक अर्धमूल्यम दिया जाएगा, जिन्हें श्रावश्यकता हो २५) मुशी ममनप्रसादजी जैन रिटायर्ड अमान, महारनपुर उन्दे शीघ्र ही १॥ रु० मनीश्राईग्मे भेजकर ग्राहक होजाना * २५) ला० दीपचन्दजी ॐन रईस, देहरादुन । २५) ला. प्रा म्नकुमारजी जैन रईस, सहारनपर। चाहिय । जा उपहारकी पस्नक-समाधितंत्रमटीक श्रीर मिाद्वमापान-भी चाहते हो उन्हें पाटिजक लिये चार पाने प्राशा है अनकान्नके प्रेमी दम मजन भी आपका अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक म्कीमको सफल बनाने अाधक भजन चादिय । में अपना पूरा महयोग प्रदान करके यशक भागी बनेंगे । व्यवस्थापक 'अनेकान्त' व्यवस्थापक 'अनकान्त' वीरमेवामन्दिर, मग्मावा (महारनपुर) वीग्मेवामन्दिर, मम्मावा ( महारनपर ) मुद्रक और प्रकाशक पं० परमानन्द शास्त्री, वीरमेयामन्दिर, मग्मावाके लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तव के प्रबन्धमे श्रीवान्तव प्रिटिंग प्रेम, महाग्नपरमें मद्रित । Page #323 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered No. A-731 Sy - - - ॐ श्रीमद राजचन्द्र * म. गांधीजी लिखित महत्वपूर्ण प्रस्तावना और मंस्मरण-महिन महान ग्रंथ गुजरात के सुप्रसिद्ध नच्यवना शतावधानी कविवर गयचंद्रजी के गुजरानो प्रथका हिंदी अनुवाद ___ महात्माजी ने इसका प्रस्तावनाम लिखा है- "मर जावनपर मुग्व्यता म कवि रायचद्र भाई की छाप पड़ा है। टॉलस्टाय और स्किनकी अपक्षा भा गयचद्र भाईने मुझपर गहरा प्रभाव डाला है।" गयचद्रजी एक अद्भत महापुरूप हुए है. वे अपन ममयक महान नन्वज्ञानी और विचारक थं । महात्मा को जन्म दनवाली पुण्यभूमी काठियावाड़में जन्म लेकर उन्होंने तमाम धर्मा का गहगई स अध्ययन किया था और उसक सारभूत तत्वों पर अपने विचार बनाय थ । उनकी स्मरणशक्ति राजबका था, किसी भी प्रथ को एक बार पढ़के व हृदयम्थ (याद) कर लत थ, शतावधानी तो थे ही अर्थान सं। बानाम एक साथ उपयोग लगा मकन थे। इसमें उनके लिग्व हुए जगत-कल्याणकारा. जावनम मुबार शान्ति देनेवाल, जीवनापयागा. सर्वधर्मसमभाव, अहिंसा, सत्य आदि तत्वाका विशद विवेचन है। श्रीमद की बनाइ हुई माक्षमाला, भावनावोध, है अान्ममिद्धि आदि छाट माटे प्रथांका मंग्रह त! है ही. मबस महत्वका चीज है उनक ८७४ पत्र, जा उन्हान समय समय पर अपन पर्गिचन मुमुक्ष जनाको लिख थे, उनका इममें मग्रह है। दक्षिण अफ्रीकास किया हुआ महात्मा गाधाजा का पत्रव्यवहार भा इमम है। अध्यात्म और तत्त्वज्ञानका ता म्न जाना ही है। रायचन्द्रजीकी मूल गुजराती कविताए हिदी अथ सहित दी। है। प्रत्यक विचारशाल विद्वान और दशभक्तका इस ग्रंथका म्वा याय करक लाभ उठाना चाहिय । पत्र-सम्पादका पार नामी नामी विद्वानान मुक्त कण्ठम इमका प्रशमा की है। एमे प्रय। शताब्दियाम विरल ही निकलते है। इसक अनुवादक प्रा० जगदीशचन्द्र शास्त्रा एम० ए० है। गुजरातमि दम ग्रंथक सान पडोशन होचुके है। हिंदी में यह पहला बार महात्मा गांधीजी के आग्रहम प्रकाशित हुआ है। बड़े आकार के एक हजार पृष्ट है. छःसुन्दर चित्र है, उपर कपड़े। की सुन्दर मजबूत जिल्द बधी हुई है। स्वदेशी कागज पर कलापूग सुन्दर छपाई हुई है। मृत्य ६)छः रुपया है,जा कि लागतमात्र है। मूल गुजराती ग्रथका मूल्य ५) रुपया है। जो महोदय गुजराती भापा माखना चाहे उनक लिय यह अच्छा साधन है। रायचद्रशास्त्रमाला के दूमर ग्रन्थपुरुपा मद्धयुपाय २१), ज्ञानारणव ४), सप्तभगितरगिणी १). बृहद्रव्यस ग्रह ). गोम्मटसारकर्म कांड २॥), गाम्मटमार जावकाण्ड २). लब्धिसार शा), प्रवचनसार ५), परमात्मप्रकाश तथा : योगसार ५), कथाद्वादशमजरी ४, सभाष्यनत्वााधिगमसूत्र ३), मोक्षमाला-भावनाधि ।।।), उपदेशछाया प्रामादि), यागसार ।। सभी प्रन्थ सरल भापाटीका-सहिन है। विशेप हाल जानना चाह नो सूचोपत्र मंगाले। ____ खाम रियायत--जो भाई रायचन्द्र जनशास्त्रमालाके एक साथ १२) के प्रन्थ मंगाएंगे, उन्हे उमाम्वातिकृत 'मभाष्यतत्त्वार्थाधिगमसूत्र' -तत्वार्थसूत्र-मोक्षशास्त्र भापाटीका सहित ३) का प्रन्थ भट दंगे। मिलने का पतापग्मथन-प्रभावकमंडल, (रायचन्द्र जैनशास्त्रमाला) खारा कुवा, जोहरी बाजार, बम्बई नं. २ - - - - - - - - . Page #324 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त यातना E-मि-गापा। - गुणमुख्य-कल्पा . अनकान्तात्मिका العلم للملا सापेक्षवादिनी and न्या / सं .. . म्यान Irril म्यान याला म्यान यथातन्वप्ररूपिका नयापक्षा सप्तभगरुपा म Nukle सम्यग्वस्तु-ग्राहिका वर्षविधय वार्य चानभयमभय मिश्रमपिनदिशप प्रत्यक नियमविपर्यधार्गिमन । किरण महान्योन्यापन सकनभवन यष्टग-सा बया गीत नच्च वहनय-वियतनग्यशान॥ सम्पादक- जुगल किशोर मुरदतार १९४१ Page #325 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची १ जिनेन्द्रमुग्न और हृदयशुद्धि-मम्पादक पृष्ठ ३०५ १२ मंगीत-विचार मंग्रह- [पं. दीलनगम 'मित्र' ३३० २ श्रीजिनेन्द्राध्पदी (कविता)-[पं०धरणीधर शास्त्री ३०२ १३ माहित्या रिचय और ममालोचन--२०परमानंद ३३४ ३ कविगजमलका पिगल और गजाभारमल्ल-[म० ३.३ १४ दिगम्बर जैनग्रन्थ-मची-[श्री अगरचन्द नाहटा ३३६ ४ चंचलमन (कविता)-[पं० काशीराम शर्मा ३०६ १५ अपना घर (कविता)- [श्री भगवत' जैन ३३८ ५ त्रिलोकप्रजनिमें उपलब्ध ऋषभदेव-चरित्र १६ तामिल भाषाका जनमाहित्य-प्रो०००चकवा ३३६ _ -[पं० परमानन्द जैन शास्त्री ३०७ १७ अात्मगीन (कविता)-[श्री भगवत' जन ३५ ६ जीवन-नैय्या (कविता)-- [श्री 'कुमम जन ३१२ , जैनदर्शनका नयवाद-पं०दग्बारीलाल जैन कोटिया ३१३ १८ नबकट (कहानी)--[श्री 'भगवन' जैन ३१२ ८ मिकन्दर अाजमका अन्त ममय (कविता) ३१६ १६ वीरशामन-जयन्ती-उत्मव-[अ० वाग्मवामोदर ३४४ ६ समन्तभद्र-विचारमाला (३) पण्य-पाप-व्य-मं० ३१७ २० नयामन्दिर देहलीक कछ हस्तलिम्वित ग्रन्यांकी १. युवगज (कहानी)-[श्री भगवत' जैन ३२१ मनी-मिम्पादक ३४५ १५ रत्नत्रय धर्म--[40 पन्नालाल जैन माहित्याचार्य ३२६ २५ 'अनेकान्न' पर लोकमा ३५६ मेठ बैजनाथ जी मरावगी, कलकत्ता बार जैनममाजके एक पगने मेवक एवं कार्यकर्ता हैं। मगक जानके उद्धारक लियं अापने शुरु शुरुम कितना ही कार्य किया है । अब भी ममाज-सेवा के अनेक कार्यो में अपना महयोग देते रहते हैं। अनेकान्न' मे श्राप वडा प्रम रखते है। हालम अापने उमकी महायताके लिये १०० म० का वचन दिया है, और टम नरह आप भी 'अनमान्न' के महायक बने हैं। Page #326 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व तत्त्व-प्रकाशक ST वप ४ किरण १५ 32 * ॐ अर्हम् * का नीतिविरोधध्वंसी लोकव्यवहारवर्तकः सम्पम् । | परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ॥ वस्तुतत्त्व-संघातक वीरवामन्दिर (मगन्नभद्राश्रम) सग्भावा जिला महारनपुर आषाढ, वीर निर्वाण सं० २४६७. विक्रम मं० ४६६८ जिनेन्द्रमुख और हृदयशुद्धि जून १९४१ अताम्रनधनोत्पलं मकलको पवन्हेर्जयात्, कटाक्षशरमोक्षहीनमविकारतोद्रेकतः । विषाद-मद- हानित: प्रहसितायमानं सदा, मुखं कथयतीव मे हृदय-शुद्धिमात्यन्तिकीम् । — चैत्यभक्ति हे जिनेन्द्र ! श्रपका मुख, संपूर्ण कोपवन्हि पर विजय प्राप्त होनेसे- श्रनन्तानुबन्ध्यादि-भेदभिन्न समस्त क्रोधरूपी मिका तय हो जाने - श्रताम्रनयनोपल है उसमें स्थित दोनों नयन -कमल-दल सदा श्रताम्र रहते हैं, उनमें कभी क्रोधसूचिका सुख नहीं प्राती; और अविकारता के उद्र े कसे-बीतगगताकी श्राप में परमप्रकर्षको प्राप्ति होनेसे-कटाक्षबाणोंके मोचन व्यापारसे रहित है— कामोद्र कादिके वशीभूत होकर द्दष्ट प्राणिके प्रति तिर्यग्दृष्टिपातरूप कटाक्ष-बाणोको छाड़ने जैसी कोई क्रिया नहीं करता है। साथ ही, विषाद और मदकी सर्वथा हानि हो जानेसे—उनका श्रस्तित्व ही श्रापके श्रात्मामें न रहने से – सदा ही प्रहसितायमान रहता है - प्रहसित प्रफुल्लित की तरह श्राचरण करता हुआ निरन्तर ही प्रसन्न बना रहता । इन तीन विशेषणां विशिष्ट श्रपका मुख श्रापकी श्रात्यन्तिकी - श्रविनाशी – हृदयशुद्धिका द्योतन करता है । भावार्थ – हृदयको श्रशुद्ध करने वाले क्रोध, कामादि, मद और विषाद है, ये जिनके नष्ट हो जाते हैं उनका मुख उक्त तीनों— ताम्रनयनोत्पल, कटाक्ष-शर- मोक्ष-हीन, मदा प्रहसितायमान- विशेषणोंसे विशिष्ट हो जाता है। जिनेन्द्रका मुख चू ंकि इन तीनों विशेषणोंसे विभूषित है इसलिये वह उनके हृदयकी उठ श्रात्यन्तिकी 'शुद्धिको' स्पष्ट घोषित करता है, जो काम, क्रोध, मद और विषादादिका सर्वथा अभाव हो जानेसे सम्पन्न हुई है । हृदयशुद्धिकी इस कसौटी अथवा मापदण्ड मे दूसरोंके हृदयकी शुद्धिका भी कितना ही अन्दाजा और पता लगाया जा सकता है। Page #327 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजिनेन्द्राष्टपदी [ले०-५० धरणीधर शर्मा, शास्त्री] जय जिनेन्द्र जनरञ्जन! भयभञ्जन हे ! भव-गद-गञ्जन-देव ! जय जय लोकगुरो ! जय जगती-तल-भूषण ! हत-दूषण हे! सम-परिपूषण-देव ! जय जय लोकगुरो ! (३) अन्तः-षड् रिपु-खण्डन ! मति-मण्डन हे ! दुष्कृत-चण्डन-देव ! जय जय लोकगुरो! विषयारण्य-दवानल ! हत-चापल हे! तपोमहाबलदेव ! जय जय लोकगुरो ! भविजन-भूरिहितंकर ! व्रति शंकर हे! जय तीर्थकर-देव ! जय जय लोकगुरो ! तीर्ण-विषम-भवसागर ! बहु नागर हे ! ज्ञानोज्जागर देव ! जय जय लोकगुरो ! सम्यकज्ञान-दिवाकर ! करुणाकर हे! जय सुगुणाकर देव ! जय जय लोकगुरो ! धरणीधर-सुसहायक ! मुनि नायक हे ! सन्मतिदायक देव ! जय जय लोकगुरो! १ यह अष्टपदी पणिहारी गगमें गाई जाती है। Page #328 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कवि राजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल [ सम्पादकीय ] (गत किरण से आगे ) (३) इस ग्रंथमें राजा भारमल्लको श्रीमाल चूडामणि, साहशिरोमणि, शाहसमान, उमानाथ, संघाधिनाथ, दारिद्र धूमध्वज, कीर्तिनभचन्द्र, देवतरु-सुरतरु, श्रेयस्तह, पतितपावन, चक्री - चक्रवर्ती, महादानी, महामति, करुणाकर, रोडर, रोरुभीनिकन्दन, जिनवरचरणकमलानुरक्त और निःशक्य जैसे विशेषणोंके साथ स्मरण किया गया है, और उनका खुला यशोगान करते हुए प्रशंसामें-उनके दान-मान प्रतापादिके वर्णनमें- कितने ही पथ अनेक छंदोंके उदाहरणरूपसे दिये हैं। यहां उनमेंसे कुछ पर्योको नमूने के तौर पर किया जाता है 1 इससे पाठकोंको राजा भारमल्लके उधृन safederer और भी कितना ही परिचय तथा अनुभव प्राप्त हो सकेगा। साथ ही, इस छंदोविद्या- ग्रन्थके छंदोंके कुछ और नमूने भी उनके सामने भाजायँगे:अवणिगुणा पादप रे, बदनग्वगणा पंकज रे । गावराण गजपन रे, नैनसुरंगा सारंग रे । तनुरुहचंगा मोगरे, वचनप्रभंगा कोकिल रे । नमरण- पिय'ग बालक वे, गिरिजठर विदाग कुलिसं रे । घाघुतरे, हम नैनहु दिट्ठा चंदा रे । दाना विक्रम रे, मुख्य चवै सुमिट्ठा अमृत रे ।। १०७ || नन पादप-पंकज- गजपति सारंग- मोरा - कोकिल-बाल-तुलं, नन कुलिशं ग्घुपति चंदाना पति अमृत किमुत सिरीमालकुल कसै गजराजि गरी श्ररिवाज अवाज सुराज विराजतु है, संघपत्ति सिरोमणि भाग्हमल्लु विग्द्द भुषप्पति गाजतु है || १०८ || इन पद्योंमें राजा भारमहलको पाइप, पंकज, गजपति, सारंग (मृग), मोर, कोकिल, बालक, कुलिश (वज्र), रघुपति, चंद्रमा, विक्रमराजा और अमृतसे, अपने अपने विषयकी उपमामें, बढ़ा हुआ बतलाया है- अर्थात् यह दर्शाया है कि ये सब अपने प्रसिद्ध गुणोंकी दृष्टिसे राजा भारमल्लकी बराबरी नहीं कर सकते । बलि-वेणि विक्रम भोज रविसुत - परसराम समंचिया, हय-कनक कुंजर-दान-रस-जम बेलि प्रहनिससिचिया । नच समय सतयुग समय त्रेता ममय द्वापर गाइया, भारमल कृपाल कलियुगकुलह कलस चढाइया | २७४ यहां राजा बलि, वेणि, विक्रम, भोज, करण चौर परशुरामके विषय में यह उल्लेख करते हुए कि उन्होंने घोड़ों, हाथियों तथा सोनेके दानरूपी रससे यश-बेलकों दिनरात सिंचित किया था, बतलाया है कि उनका वह समय तो सतयुग, त्रेता तथा द्वापरका था परन्तु आज कलियुगमें कृपालु राजा भारमने उन राजाओंके कीर्तिकुल गृह पर कलश चढ़ा दिया है--अर्थात दानद्वारा सम्पादित कीर्ति में आप उनसे भी ऊपर होगये हैं--बढ़ गये हैं। मिरिमाल सुवंसो हमि पसंसो संघन रेसुर धम्मधुगे, करुणामयश्चिशं परमपवितं ही विजेगुरु जासु वरं । हय कुँजर-दानं गुणिजन-मानं विशिसमुद्दह पारथई, दिनर्द नदयालो बयणग्मालो भारहमल सुबई । २८० इसमें अन्य सुगम विशेषयोंके साथ भारमहलके गुरुरूप में हीरविजयसूरिका उल्लेख किया है, भारमलकी कीर्तिका समुद्र पार होना लिखा है और उन्हें 'सुचक्रवर्ती' बतलाया है । Page #329 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ मगणे विहिणा घडिओ, कोविह पगावि विस्मसव्वगुणकाय इस पथमें भारमन्लके प्रतापका कीर्तन करने में अपनी सिरिमालभारमहोणं माणसथंभो णग्गवहरणाय।।१६५ अम्ममर्थना म्यक्त करते हुए लिखा है कि--'एक नौकरको यहां कविवर उपेक्षा करके कहते हैं कि ' मैं ऐसा मानता साथ लेकर एक करोड़ नककी रकम शाहके भंडारमें भरदी हूं कि विधाताने यदि विश्वकै सर्वगुण-समूहको लिये हए जाती थी--मार्गमें रकमके छीन लिये जाने प्रादिका कोई कोई व्यक्ति घडा है तो वह श्रीमाल भारमल्ल है. जो कि खतरा नहीं ! और एक कीनिं पढ़ने वाले भोजकीको मनुष्योंके गको हरनेके लिये 'मानस्तंभ' के समान है। दायिमी (स्थायी) दान तक दे दिया जाता था--ऐसा करते सिरिभारमल्लदिणमणि-पाय संवंति एयमगा। हुए कोई पशोपेश अथवा चिन्ता नही! (ये बातें भारमल्ल तमिदगितिमिरं णियमण विस्मद सिग्धं ॥ ५९|| के प्रतापकी सूचक हैं)। भारमल्लके प्रतापका वर्णन करने के लिय (सहजिह्न) शेषनाग भी असमर्थ है, हमारे जैसा एक इसमें बतलाया है कि--'जो एक मन होकर भारमल्ल जीभवाला केस समर्थ हो सकता है ? रूपी दिनकरकी पादमेवा करते हैं उनका दरिद्वान्धकार नियम अब छंदोके उदाहरणो में दिये हए संस्कृत पोंक भी से शीघ्र दूर होजाता है।' कुछ नमूने लीजिय, और उन परम भी गजा भारमालक प्रहसिनवदनं कुसुमं सुजममुगंधं सुदाणम दं। व्यक्तिस्वादिका अनुमान कीजियःतुब देवदत्रानंदन धावनि कविमधुपमणि मधुलद्ध।।११।। अयि विध ! विधिवत्तव पाटवं, __ यहां यह बतलाया है कि - 'देवदत्तनगदन-भारमरलका प्रफुरिजन मुख ऐमा पुष्प है जो सुयश-सुगंध और सुदान यदिह देवसुतं मृजन म्फुटं । रूपी मधुको लिये हुए है, इमीमे मधुलुब्ध कवि-भ्रमरोंकी जगान माग्मयं करुणाकरं, पंक्ति उसकी ओर दौड़ती --दानकी इच्छामे उसके चारों निम्लिदीनममुद्धग्गा क्षमं ॥५॥ मोर मँडराती रहती है। विधानातेरी चतुराई बड़ी व्यवस्थित जार परती षाण सुलिनान ममनंद हदभुम्मिया, है, जो तूने यहां देवसुत-भारमल्लकी सृष्टि की है. जोकि जगत में सारभूत है. करणाकी खानि है और सम्पूर्ण दीनजनोंका सज-रह-वाजि-गजगजि-मदघुम्मिया ।। उद्धार करनेमें समर्थ है।' तुम दरबार दिनरचि तुरगा गया, देवमिरिमालकुलनंद करिए मया ॥२५७॥ मन्य न देवतनुजा मनुजाऽयमव, इसमें खान सुलतान, मसनद और मजे हुए रथ-हाथी नूनं विधेरिह दयादितचेनमा वै। घोड़ोंके उस्लेखके साथ यह बतलाया है कि राजा भारमल जैविना (जीवन्त ?) हेतुवशना जगती जनानां, के दरबारमें दिनरात सुरक लोग प्राकर नमस्कार करते थे-- श्रेयस्तरुः फलितवानिव भारमल्लः ॥२५५।। उमका तांतासा बंधा रहता था। यहां कविवर उपेक्षा करके कहते हैं कि--'मैं ऐसा एक सेवक संग साहि भँडार कोडि भगिजिए, मानता हूँ कि यह देवतनुज भारमरल मनुज नहीं है, बहिक एक किति पढंत भोजिग दान दाइम दिजिए। जगतजनोंके जीवनार्थ विधाताका चित्त जो दयासे मादित भारमहल-प्रताप-वण्णण संसणाह असक्को , हुआ है उसके फलस्वरूप ही यह कल्याण वृक्ष' यही फला एकजीहम प्रो प्रमाग्सि कम हाइ ससक्का ।।२७०|| है--अर्थात भारमक्सका जन्म इस लोकके वर्तमान मनुष्यों Page #330 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] कविराजमल्लका पिंगल और राजा भारमल्ल को जीवनदान देने और उनका स्याण साधनेके लिये जिनके चरणकमल भूपतियोंसे सेवित है और स्वकीयविधाताका निश्चित विधान है। जनोंकी दृष्टि-पंक्तिरूपी भ्रमरों के लिये भोगाभिराम है, और सत्यं जाड्यतमोहगेपि दिनकृजतोर्टशारप्रिय- जो इस, जगतमें महालक्ष्मीके निवासस्थान हैं, ऐसे ये चंद्रग्तापहगपि जाड्यजनको दाषाकगेशुक्षयी। भारमस्ल मुमपर 'कृपाल' होवें।' निर्दोषः किल भाग्मल्ल जगतां नत्रोत्पलानंदकृ- पिछले दोनों पचोंमे मालूम होता है कि कविराजमाता चंदेणोध्याकरण संप्रति कथं तनापमयो भवन | | राजा भारमल्लकी कृपाके अभिलाषी थे और उन्हें बह प्राक्ष 'यह सच है कि सूर्य जडता और अंधकारको हरने भी थी। ये पच मात्र उसके स्थायित्वकी भावनाको लिये वाला है, परन्तु जीवोंकी प्रांखोंके लिये अप्रिय है-उन्हें हुए हैं। कष्ट पहुंचाता है। इसी तरह यह भी सच किचनमा (१०) जब राजा भारमख इतने बड़े बड़े थे तब उमसे तापको हरने वाला है, परन्तु जड़ता उत्पन्न करतात. दोषा. ईर्षाभाव रखने वाले और उनकी कीर्ति-कोमुवी एवं स्पाति कर है (रात्रिका करने वाला अथवा दोषोंकी खाऔर को सहन न करने वाले भी संसारमें कुछ होने ही चाहिये। उसकी किरणें पयको प्राप्त होती रहती हैं। भारमल इन क्योंकि संसारमें बदेखसकाभावकी मात्रा प्रायः बदी रहती सब दोषोंम रहिन है, जगजनों के नेत्रकमलोंको आनन्दित भी है और ऐसे लोगोंसे पृथ्वी कभी शून्य नहीं रही जो दूसरों करने वाला है । इसमे हे भारमल पाप वर्तमानमें चन्द्रमा के उत्कर्षको सहन नहीं कर सकते तथा अपनी दुर्जन-प्रकृति और सूर्य के साथ उपमेय कैसे हो सकते हैं? आपको उनकी के अनुसार ऐसे बढ़े चढ़े सज्जनोंका अनिष्ट और अमंगल तक उपमा नहीं दी जा सकती--श्राप उनसे बढ़े चढ़े हैं। चाहते रहते हैं। इस सम्बन्ध कविवरके नीचे लिखे दो अलं विदितमंपदा दिविज-कामधेन्वाहयः, पद्य उल्लेखनीय हैं, जो उक्त कल्पनाको मूर्तरूप देते हैं:कृतं किल ग्मायनप्रभृनिमंत्रतंत्रादिभिः । "जे वेम्मवग्गमणुषा गसिं कुब्धति भारमल्लम्स । कुनचिदपि कारणादथच पूर्णपुण्योदयात . देवेहि वंचिया बलु प्रभगावित्ता णग हुँति ॥१५॥" यदीह सुग्नंदनो ग(न) यति मां हि दग्गोचरं ॥२६५|| "चिंतन जे विचित प्रसंगल देवदत्तणयस्स । 'किसी भी कारण अथवा पूर्णपुण्यके उदयसे यदि ते सव्वलायर्यादट्टा णट्टा पुग्दसलच्छिभुम्मिपरिचत्ता देवसुत भारमल्ल मुझे अपनी दृष्टिका विषय बनाते हैं तो ॥१६॥" फिर दिग्य कामधेनु श्रादिकी प्रसिद्ध सम्पदासे मुझे कोई पहले पचमें बतलाया है कि--'वैश्यवर्गके जो मनुष्य प्रयोजन नहीं और न रमायण तथा मंत्रतंत्रादिसे कोई भारमलकी रीस करते हैं -ईषोभावसे उनकी बराबरी करते प्रयोजन है--इनसे जो प्रयोजन सिद्ध होता है उससे कहीं हैं--वेवसे उगाये गये अथवा भाग्यविहीन है, ऐसे लोग अधिक प्रयोजन अनायास ही भारमालकी कृपा रष्टिसे सिद्ध अभागी चार निधन हति।। होजाता है। दूसरे पक्ष में यह स्पष्ट घोषित किया है कि--'जो वित क्षितिपतिकृतसंवं यस्य पादारविर्द, में भी देवदापुत्र-भारमालका प्रमंगल चितम करते है निजजन-नयनालीभ्रंगभोगाभिगमं । सब लोगोंके देखते देखते पुर, देश, लक्ष्मी तथा भूमिसे जगति विदिनमेतद्भरिलक्ष्मीनिवासः, परित्यक्त हुए नष्ट होगये हैं। इस पथमें किसी खास घाखोंभच भवतु कृपालाप्यष मे भारमल्लः ।।६।। देखी घटनाका उपशंख संनिहित जान पड़ता हो सकता Page #331 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०६ भनेकान्त [वर्ष ४ है कि राजा भारमल्लके अमंगलार्थ किन्हींने कोई षड्यन्त्र लिये भाप बहुत धन्यबादके पात्र हैं। अब ज़रूरत इस बात किया हो और उसके फलस्वरूप उन्हें विधि (देव) के अथवा की है कि ग्रंथकी दो तीन प्रतियां और मिल जाये, जिससे बादशाह अकबरके द्वारा देशनिर्वासनादिका ऐसा दण्ड मिला ग्रन्थका अच्छा तुलनात्मक सम्पादन होसके और उसमें कोई हो जिससे वे नगर, देश, लक्ष्मी और भूमिसे परिभष्ट हुए अशुद्धियां न रह सकें। इसके लिये अनेकान्तकी तीसरी अन्तको नष्ट होगये हो । अस्तु । किरण में एक विज्ञप्ति भी निकाली गई थी, परन्तु खेद है अब इस प्रकार यह कविराजमहलके 'पिंगल', ग्रन्थकी 'उपलब्ध तक कहींके भी किसी सजनने इस बातकी सूचना नहीं दी प्रति' और 'राजाभारमल्ल' का संक्षिप्त परिचय है। मैं चाहता कि यह ग्रन्थ उनके यहांके शास्त्रभंडारमें मौजूद है ! इस था कि प्रथमें पाए हुए छंदीका कुछ लक्षण-परिचय भी प्रकारकी उपेक्षा और लापर्वाही ग्रन्थोंके उद्धारकार्य में बड़ी ही पाठकों के सामने तुलनाके साथ रक्ख: परन्तु यह देखकर कि बाधक एवं हानिकर होती है ! इस छोड़ देना चाहिये । इस पूरे ग्रन्थको ही अब अनेकान्तमें निकाल देनेका विचार आशा है दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों ही साहित्य प्रेमी हो रहा है, उस इच्छाको संवरण किया जाता है। सज्जन अब शीघ्र ही अपने अपने यहांके भंडारों में इस पाठकोंको यह जानकर प्रसन्नता होगी कि इस लेखमाला ग्रंथकी तलाश करेंगे, और ग्रंथप्रतिके उपलब्ध हो जाने पर के प्रथम लेखको पढ़कर पं.बेचरदासजी.न्याय-व्याकरणातीर्थ उसे डाक-रजिष्टरीसे मेरे पास (सम्पादक 'अनेकान्त' को) अहमदाबादने, जोकि जैनममाजके एक बहुत बड़े विद्वान हैं, वीरसेवामन्दिरके पते पर भेजनेकी कृपा करेंगे। ऐसा होने लर हैं और संस्कृत-प्राकत-पाली प्रालि अनेक पर यह ग्रंथ जल्दी ही मुद्रित होकर उनकी संवामें पहुंच भाषाओंके पंडित हैं, इस ग्रन्थका सम्पादन कर देनेके लिय जायगा और उनकी ग्रंथप्रति भी काम हो जाने पर उन्हें पत्रद्वारा अपना उत्साह व्यक्त किया है और इस नई चीजके सुरक्षित रूपमें वापिस करदी जायगी। सम्पादनार्थ अनेकान्तको अपनी सेवाएँ अर्पण की हैं, जिसके वीरमेवामन्दिर, मरमावा, ता० २३-५-१९४१ चंचल मन चल रे मन ! चंचल, अविरल चल ! तू अनन्त तक दौड़ लगाता, जहाँ न कोई भी जा पाता, चैन न तू पाता पलभर को, द्रुतगति से चलना ही जाता। प्रबल-पवन, नभ नक्षत्रोंस, प्रगतिशील तू रहता प्रतिपल ! भटक रहा क्यों, भाग रहा क्यों, चपल, निरन्तर जाग रहा क्यों? उगल अँगारं-भाग रहा क्यों, शान्ति-मलिलकोत्याग रहा क्यों ? हृदय-उदधिमें रहकर भी तू; सीब न पाया रहना निश्चल ! कब तक यों चलता जाएगा। चलता-चलता थक जाएगा! चल-चलकी इस हलचल में ही, सहसा काल कुटिल खाएगा ! हाथ न तेरे कुछ आएगा, रह जाएगा मलता, कर-तल ! यदि चलना ही लक्ष्य एक है, आगे बढ़ना ही विवेक है ! तो फिर, चल कुछ सोच-समझकर, जिसपर चलना सदा नेक है ! कर प्रयास जितना हो तुझसे, जान अरे ! तू क्यों है चंचल ? म्वगुणाम्बर में दौड़ लगाले, चंचलताकी भूख मिटाले ! सश्चित शिव-सुन्दर-स्वरूपमय निज विकासकी ज्योति जगाले! पं.काशीरामशर्मा 'प्रफुल्लित' मद्रावोंके उज्ज्वल पथ पर, इस जीवनको भरसक ले चल ! Page #332 -------------------------------------------------------------------------- ________________ त्रिलोकप्रज्ञप्तिमें उपलब्ध ऋषभदेव-चरित्र (ले०-५० परमानन्द जैन शास्त्री) तिलोयपएणत्ती ( त्रिलोकप्रज्ञप्ति ) नामका एक बहुत श्रापका जन्म अयोध्यानगरीमें चैत्र कृष्णा नौमीके दिन प्राचीन दि० जैन ग्रंथ है, जिसका विषय तीन लोककी बातें उनराषाढा नक्षत्रमें हुआ था। पिताका नाम नाभिराय हैं। इसके कर्ता वे ही प्राचार्य यतिवृषभ हैं, जिन्होने उत्पत्तिका अभिप्राय यहाँ गर्भावतारसे जान 'कषाय प्राभृत' पर छह हज़ार श्लोक-प्रमाण चूर्णी-सूत्रोंकी पड़ता है; क्योंकि आदिपुराणादि ग्रन्थोंमें तीसरे रचना की है। तिलोयपण्णत्तीकी रचना ईसाकी ५ वी कालके उक्त चौगसी लाख पूर्व तीन वर्ष साढ़े आठ शताब्दीसे कुछ पूर्व अथवा विक्रमकी ५ वी शताब्दीमें माम अवशिष्ट रहने पर मर्वार्थसिद्धि विमानस मानी जाती है । इस ग्रन्थमें कितना ही महत्वपूर्ण ऐतिहासिक आषाढ कृष्णा द्वितीयाके दिन उत्तराषाढ नक्षत्र में कथन पाया जाता है। वर्तमान चतुर्विशति तीर्थकरोका जो भगवान ऋषभदेवकं मातृगर्भ में आनेका उल्लेख खण्डशः संक्षिप्त जीवन वृत्तान्त इसके चौथ पर्व में दिया मिलता है। यथाहुआ है उमम प्रथम तीर्थ. श्रीऋषभदेवकी जीवनीका कितना तृतीयकालशेषेऽसावशीतिश्च तुमत्तरा। अंश उपलब्ध है यह बतलानेके लिये ही श्राज यह लेख पूर्वलक्षास्त्रिवर्षाष्टमासपक्षयुता तदा ॥ ६३ ।। लिखा जाता है। इससे पाठकाको सहज ह। म यह मालूम अवतीर्ण सुगान्ते अखिलाथै विमानतः । हो मकेगा कि श्री जिनमेन अादि अाचार्योंके श्रादिपुराण आपाढमितपक्षम्य द्वितीयायां सुगेत्तमः ।। ६४ ॥ श्रादि ग्रन्थोमें ऋषभदेवका जो चरित पाया जाता है उसके उत्तराषाढनक्षत्रे देव्यागर्भ समाश्रितः । बीज ऐसे प्राचीन ग्रन्योमें कहाँ तक उपलब्ध होते हैं। और स्थिता यथा विचाधोऽसौ मौक्तिकं शुक्तिसम्पुटे।।५।। इससे उन ग्रन्थोके उक्त कथनोकी पूर्व-मंगति एवं प्रामा -श्रादिपुगण, पर्व १२ गिकतामें कितनी दी बृद्धि हो सकेगी। मूल पथके कुछ तृतीयकालशेपेऽसावशीनिश्चतुरुत्तरा। श्रावश्यक एवं उपयोगी वाक्योंको फुटनोटके तौर पर उद्भत पूर्वलक्षास्त्रिवर्षाष्टमासपक्षयुता संदा ॥ ९७ ॥ कर दिया है, जिससे तुलनामें अामानी रहे । पत्रसंख्या म्वगावतरणं जैनमाषाढ बहुलम्य तु। जहाँ दी गई है वह अागरा प्रति की दी गई है । अस्तु । द्वितीयायामुत्तगषाढनक्षत्रेऽत्र जगन्नतं ॥९८॥ त्रिलोकप्रजप्तिमें उपलब्ध 'ऋषभदेवचरित्र' इस -हरिवंशपुराण, ८ प्रकार है: श्वेताम्बर सम्प्रदायमें भी प्रायः यही समय वर्तमान अवसर्पिणीकालके मुग्वमा-दुग्वमा नामक ऋषभदेवकी गर्भोत्पत्ति का बतलाया है। अन्तर कंवल तृतीयकाल के चौरासी लाख पूर्व तीन वर्ष अाठ मास और इतना है कि उनके यहाँ गर्भ में पानेकी तिथि आषाढ़ एक पक्ष अवशिष्ट रहने पर ऋषभदेवकी उत्पत्ति हुई *। बदी दोइजके स्थान पर प्राषाढ कृष्णा चतुर्थी निर्दिष्ट * सुसमदुसमंमि णामे सेसे चइसीदिलक्खपुव्वाणि। की है, जैसाकि आवश्यक-नियुक्ति और प्राचार्य वासतिए भडमास इगि पक्खे उसह-उप्पत्ती ॥५५०॥ हरिभद्रको टीकाके निम्न अंशसे स्पष्ट जाना जाता है: Page #333 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३०८ अनेकान्त [ वर्ष ४ I सहित पैदा हुए तब आपने उनकी नाल काटनेका उपदेश दिया, और तद्नुसार नाल काटनेकी प्रवृत्ति प्रचलित हुई । आपके समय में कल्पवृक्षोका विनाश हो गया थ, धरतीमे स्वभावसे ही औषधियों उग श्राई, और मधुर रसवाले फल पकने लगे थे । भोग भूमियाँ जन कल्पवृक्षोके नाश होने पर तीव्र भयसे भयभीत होकर नाभिराय की शरण में गए और कहा कि हमारी रक्षा करो। तब नाभिरायने वरुणा से उन्हें जीविकाका - जीने के उपायका उत्पन्न वनस्पतियोंके सेवन का प्रयत्नपूर्वक उन्हें उत्पन्न करनेका तथा नारियल आदि के फलोको खानेका उपदेश दिया। और मालि (धान) तिल, उड़द श्रादिको लेकर विविध प्रकारके अन्न और आदि दूध पेय पदार्थोंके सेवन करनेका विधान बतलाया X । ऋषभदेवके शरीरकी ऊँचाई पाँचौ धनुष थी * । शरीरका वर्ग तपाए हुए सुवर्णके समान कानिमान था । श्रायु चौरासी लाख वर्ष पूर्व की थी, जिसमे से बीस लाख xनसिकाले होदि बालागां गाभिगालमयदीहं । तक्कत्तरगोवदेस कहदि मरण ते पक्कुति ||४३|| कपमा पट्ठाना देवि विहोमहीण संस्थाणं । महुरर साइफन्जाई पच्चंति सहावदो धरिती ||४९४ ॥ कल्पतरू विणास तिब्त्रभया भोगभूमिजा सविसाभिराजं मग्ां पविसंति रक्स्खे ||४९५ || कमर एणाभिराजोखाण उवदिसदि जीवणोवायं । संजह वफदीणं चाचादीगणं फलाइ भक्खा रिंग। ४९६ । मालिजववलतोवर निलमामं पहुदि विविहश्र राणा इं भुंजदि पियह तहा सुगभिपहुदी दुद्धा रिण ||४९७ मरणुवा । बहु वदेमंददियालू गराण सगलाणं । काइदृणं सुहिदो जीवंते तप्पसादेणं ।। ४९८ ।। और माताका मरुदेवी था । नाभिराय १४ वें कुलकर (मनु) कहलाते थे - कुलको धारण करने और भोग भूमि योंको जीविका के उपायका उपदेश करने वाले कुलकर (कुलधर) या मनु कहे जाते हैं । आपके शरीरका उत्मेध ५२५ धनुषका था और शरीरका व सुवर्णके समान कतिमान था । श्रायु एक कोड़ि पूर्व की भी और आपकी पत्नीका नाम 'मरुदेवी' था + श्रापके समय में बच्चे नाल asताए वाट्ट मसि पढमश्र श्री उमभो । रिक्ग्वेण असाढाहिं श्राढबहुले च उत्थीए || १६५|| टीका - इमी से श्रसप्पिणीए सुम्मसुममाण सुममाए वि वि बहुवीsaiसुममदुममाए ताए चरामीण पुत्रमय सहम्मेसु एगूगा गाउएय पणवेहिं सेमेहिं श्रामाढ बहुल पक्वच उत्थीए उत्तरीमाढजोगजुरो मियंके इक्यागभूमीए नाभिम्म कुल - गम्स मरुदेवी भाग्यिाए कुच्छ्रिमिमि गन्भत्ताए ववरण | १८४ ।। * जादा दुवा उमहो मरुवि गाभिगहिं । शामियगावमीए एक्ग्वत्ते उत्तरामाढे ॥। ५.६५ ॥ परन्तु श्वेताम्बरी 'श्रावश्यक नियुक्ति' की निम्न गाथा नं० १८७ में ऋषदेवका जन्म चैत्र कृष्ण अष्टमीको लिखा है : चिबहुलमी जाओ उसभो श्रमाढणक्यन्ते । जम्मणमहोश्रमव्वो यव्वो जाव घामण्यं ॥ + चोहसमो णाभिराजमणू ॥ ४९१ ॥ :-- जादिसमोगा केई भोगमरगुम्मारण जीवणोवायं । भासंति जेणते मरगुणो भणिदा मुणिदेहिं ||५०५ ॥ कुलधारणादु सब्बे कुलधरा मेण भुवरणविवम्वादा | कुल कर मिय कुसला कुलकर रामेण सुपसिद्धा ५०६ * पंचमयधरणुपमाणो उसहजिहिम्स होदि उच्छेदो५८२ + पणवीसुत्तरपणस्य चा उच्छे हो सुबराणवराणिहां + इगि पुव्यकोडि आऊ मरुदेवी णाम तस्स वधू || ४९२ || संसारण जिगावराणं काया चामीयरायारा । ( ५= ६ ) नसहादिदससु भाऊ चुलमीदी पुग्वलक्ष्खाई ॥ ५७६ Page #334 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] त्रि०प्र०में उपलब्ध ऋषभदेवचरित्र ३०६ पूर्व नो कुमार कालमें व्यतीत हुए और त्रेमठ लाख पूर्व उक्त विचारके अनन्तर ऋषभदेव पठोपवामके साथ तक अापने राज्यका संचालन किया । मिद्धार्थ बनको निकल गये-जहाँ श्रापने स्वयं परिग्रहका नीलाजनाका सहसा मरण आपके संसार देह-भोगामे परित्याग पूर्णक जिनदीक्षा धारणा कर तप करना प्रारंभ कर वैराग्यका कारण हुश्रा X । वैराग्यके समय आपने जो दिया । श्रापकी यह निष्क्रमण बेला चैत्र कृष्णा नवमीके विचार किया उमका संक्षिप्त मार इतना ही है कि-'नरक, दिन तीमरे पहर, उत्तगपाढा नक्षत्रमें घटित हुई है । श्राप नियंच, मनुष्य और देवरूप चारो ही गनियो दुःखोमे की जिनदीक्षा और तपश्चरणका अनुकरण चार हजार परिपूर्ण हैं-इनमें रहने वाले जीवोको विविध प्रकारके दुग्न गनानीने किया * । तपश्चरण करते हुए एक वर्ष बाद उठाना पड़ने हैं-छेदन, भेदन, नापन, नाइन. त्रासन, विकल शाम पदा नमनेक तौर पर नीच क्षधा, तृपा, शीत, उष्ण, उच्च-नीचता, मान श्रापमान दिये जाते हैं :श्रादि दम्ब महना पड़त हैं। इन्हें वास्तविक मुग्वका लेशमात्र ग्वगामो विमगसहे जे दकग्वाइं अमंग्यकालाई । भी अनुभव नहीं हो पाता, ये तो मामारिक विषयभोगीको पविमंनि घोरगारमा नागाममा गाथि गिब्बद्धी ॥६११।। ही बाम्नविक सुग्ब ममझे हाए हैं जो मुग्वाभाम है, दःस्वरूप कामातुरम्म गच्छाद म्यगणमिव संवच्छगणि बहुगागि हैं । जो जीव क्षणमात्र विषय मुखके कारणोंमें रत होकर ॥६५॥ असंख्यातकाल पर्यन घोर नरक में दम्वका अनुभव करते उच्चा धीग वीगे बहमागीश्रा विमगलुढ़ मई । रहते हैं उनके ममान कोई निबुद्धि नहीं हैं। कामातुरके संवाद गीचं गिचं महदि बहमागि अवमागं ।६०८ चदत वर्ष भी एक क्षणके ममान बीतते हैं। विषयका दुक्खं दुज्जमबहुलं इहलागे दग्गदि पि परलोंगे। लोलुपी उच्च, धीर वीर और बहुमान्य होता हुआ भी नीच हिंडद पारमगर मंगा विमयलद्धमई ।। ६.९ ।। से नीचकी सेवा करना है और बहुत अपमान महता है । मादा पिदा कलानं पुत्ता बंध य इंदजाला य । यह जवानी विजलीके ममान चंचल है। माना, पिता, स्त्री दिट्टपणट्ठाइ खांण गणाम दुममाइ मलाइ ।। ६३७ ।। पत्र और बन्धुजनीका मम्बन्ध इन्द्रजालके ममान क्षण नागगनडितरलं विमया हग्नविरमवित्थाग। विनाशी है- दंग्वत देवते ही नष्ट हो जाने वाला है। और स्थाअगाथमलं अविचारिय संदरं मन ।। ६३८ ।। अर्थ अनर्थ का मूल कारण है, विषय अन्न-विरम और * तिलाय परागानीकी 'महा तान साहिं' नामकी दु:ग्वदाई हैं । हम तरह यह सब अविचारित रम्य जान गाथाम चार हजार गजाआके माथ दीक्षा लेनका पड़ता है । उल्लेख है । मामादिका उल्लंम्ब नीचकी गाथांगपढम कुमारकाले जिगाग्मिहे वीमलक्ख पुवाणि ८० चनामिनवमीए तदिए पहमि उत्तगमाढे। 5 तमट्टिपुव्वलक्खा पढमजिणे जज कालपरिमाण। ५८७ मिद्धत्थवण रमहा उववाम मंमि गिना।।६४१।। ४ उमहा गिलंजसाए मरणाश्रा (जाद वग्गो)। ६०७१ श्वनाम्बर्गय श्रावश्यकनियुक्तिम चैत्रकृष्णा तिलोयपगणतीक चौथ पर्वमे चागं गनियोंक अष्टमीम दीक्षा ग्रहण करनेका विधान मिलना है :दुःखों का जो कथन, ऋपभदेवके वैगग्यवर्णनमें (पत्र चित्तबहुलट्ठमीए चहि महम्सहि मीउ अवररहे । ६९,७७) पर दिया हुआ है उममेंग विषयभागादिकं मीया सुदमणाए मित्थ वणम्मि छट्टेणं ।। ३१४ ।। Page #335 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१० अनेकान्त श्रापका प्रथम पारणा हुना, जिसमें इक्षुरसका श्राहार मिला और दूसरे दिनंके पारणेमें गाय के दूधसे निष्पन्न अन्न प्र हुआ + भगवान ऋषभदेव के सभी पारणा दिनोंमें दानविशुद्धिकी विशेषता के कारण पंचाश्वर्य हुए - श्राकाशसे रत्नवृष्टिका होना, बादलोंसे तरित देवोंका दुंदुभि बाजा बजाना, दानके उद्घोषका फैलना * सुगंधित शीतल वायु का चलना श्रौर श्राकाशसे दिव्य पुष्पोंकी वृष्टिका होना ये पाँच श्राश्वर्य कहलाते हैं । + एक्कवरिसंग उसहो इक्खुग्मं कुरणइ पारणं अवरे । गांवीरे पिणं श्रणं विदियंमि दिवमंमि || ६८ || [ वर्ष ४ भगवान ऋषभदेवने एक हज़ार वर्ष तक तपश्वरण किया । और फाल्गुण कृष्णा एकादशीको, पूर्वाह के समय तालपुर नगर में, उत्तराषाढ़ा नक्षत्र में 'केवलज्ञान' प्राप्त किया + | । | सव्त्राण पारणदिणे विडइ वर रयण वरसमंबर दो पण पण हृद दह लक्खं जेट्ठ' अवरं सहम्सभागं च ॥ ।। ६६९ ।। ( इस गाथामे रत्मवृष्टिकी संख्या भी बतलाई गई है, जिसका पाठकी अशुद्धिके कारण ठीक बोध नहीं हो सका । ) दत्त विसोहि बिसेसा भेदरिणमित्तं खु रयण मल्लीए । वायति दुदुहीओ देवा जलदेहिं अंतरिदा ।। ६७० ।। पसरइ दागुग्घोसो वादि सुगंधो सुसीयला पवणो । दिव्वकुसुमे गयणं वरिसइ इह पंचचोज्जारिण ।७७१ । केवलज्ञान प्राप्त होने पर सभी केवलीजिनका श्रौदारिक शरीर परमौदारिक हो जाता है और वह पृथ्वीसे ५ हजार धनुष ऊपर चला जाता है। उक्त ज्ञानके होने पर धर्मादिन्द्रोंके श्रामन कम्पायमान होते हैं । श्रासन कापने से इन्द्र, शंखनाद से भवनवासी, भेरीके शब्द से व्यंतर, मिहनादसे ज्योतिषी और घंटा के शब्दसे कल्पवासी देव भगवानकी केवलज्ञानोत्पत्तिको जानकर भक्तियुक्त होकर सात तेड चलकर नमस्कार करते हैं। और अहमिन्द्र भी ग्राम कम्पनसे केवलज्ञानोत्पत्तिको जानकर सात पैड चल कर उमी दिशामें जर्दी केवली होते हैं नमस्कार करते हैं X । तदनुसार ऋषभदेव के केवलज्ञान होने पर भी ये सब घटनाएं घटी। श्रादिपुराणादि प्रन्थोंमें छह महीना तपश्चरण के पश्चात् पारणा के लिये चर्याको जानेका उल्लेख है और अंतराय होने पर पुनः छह महीनाका योगधारण करनेका विधान किया गया है, इस तरह आदि पुराणादि ग्रंथोंसे भी एक वर्षमे पारणा होनेकी वात सिद्ध हो जाती है । परन्तु श्रादिपुराणादिमें अभी तक द्वितीयादिक पारणा विषयक उल्लेख देखनेमे नही † उसहादिसुं वासा सहस्म आया, यह इस ग्रंथका विशेष कथन 1 * दानोद्घोष में दान, दाता और पात्रको प्रशंसा की जाती है। ।। ६७ ।। + फग्गुणकिण्हेयाग्स पुव्त्ररहे पुरिमतालणयमि | उत्तरसाढे उसके उपरणं केवलं गाणं ।। ६७६ ।। X जादे केवल परमोगल जिरणारण सव्वाणं । गच्छदि उवरिं चावा पंचसहम्माणि वसुहाओ। ७०१ ।। भुवणत्तयम्स तासो अइसय कांडीय हादि पक्खोहो । सोहम्म हुदिईदा श्रसरण |ई पि कंपंति || ७०२ || तक्कपेणं इंदा संखघोमेण भवरणवासि सुग | पडखेहिं बेंतर सीह रिण देगा जोइसिया ||७०३|| घंटाइ कप्पवासी गागुत्पत्तिं जिणारण । दू । पणमंति भत्तिजुत्ता गंतूरणं सत्तविक्खाओ ||७०४|| अहमिंदा जे देवा आमरण कंपेण तं विणादू । गंतू तेन्तियं चिय तत्थठिया तं णमंति जिणे । ७८५ ।। -पर्व ४, पत्र ७३,७४ :... Page #336 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] त्रि०प्र०में उपलब्ध ऋषभदेवचरित्र केवलज्ञानके अनन्तर तीर्थंकर केवलियोंकी एक महती ध्वनिमें धर्मादि छह द्रव्यों, नव पदार्थों, सप्त तत्त्वों प्रौ मभा जुड़ती है जिसका नाम 'समवसरण' है। ऋषभदेवके पंचास्तिकायके स्वरूपादिका विशद वर्णन भव्यजीवोंके इस समयसरणका विस्तृत वर्णन पत्र ७४ से ८५ तक- सम्बोधनके लिये होता है। तदनुरूप ही ऋषभदेवकी १२ पत्रोंमें-दिया हुआ है, जो अपनी खाम विशेषता वाणी प्रवर्ती और उसमें पडद्रव्यादिकी प्ररूपणा हुई। रखता है और वह एक स्वतंत्र लेखका ही विषय है, जिसे भगवानकी वाणी तालु, कंठ, श्रोष्ठ श्रादिके व्यापारसे फिर किसी समय प्रकट किया जायगा। सामान्य कथन इस रहित होती है ( इसीसे शायद अनक्षरी कहलाती है) और विषयका पार्श्वपराणदि ग्रन्थों में दिया हुआ है, जो इससे बहुत उसका परिणमन सकलभाषाओंमें होता है-अर्थात् दिव्यकुछ मिलना जुलता है। ध्वनि अठारह प्रकारकी महाभाषाओं और सातसौ छुल्लकश्री ऋषभदेव चौंतीम अतिशय और अष्ट प्रातिहार्योसे भाषाओ (छोटी छोटी क्षुद्रभाषाश्रओं) में, जो अक्षर-अनक्षररूप मंयुक्त थे । इनका सामान्य कथन इस ग्रन्थमें दिया हुश्रा संज्ञी जीवोकी समस्तभाषाएँ कहलाती हैं, परिणत होती हैहै जिसे यहाँ छोड़ा जाता है। हाँ, इतना उल्लेख कर देना उम उम भाषा-भाषी जीव उसे अपने अपने समोपशमके उचित है कि चौंतीम अतिशयोंमें प्राचार्य यतिवृषभने अनुसार समझ लेते हैं। दिव्यध्वनिको देवकत अतिशयोंमें नहीं गिनाया है। किन्तु अमृत- निरके समान उम जिनचन्द्र-वाणीको सुनकर दिव्यध्वनि-सहित केवल जानके ११ अतिशय बतलाए है जो बारह मभाके जीव अनन्तगुणश्रेणीकी विशुद्धिमें अग्रणीय धानिकर्म के क्षयसे नीर्थकरोके केवलजान होनेपर होते हैं । होट कम खलजान होनपर होत है के होते हुए कर्म-पटलरूप असंख्यश्रेणीका छेदन करते हैअग्हंतोके व्यवहारानुसार भगवान ऋषभदेव उस भिदेव उस अर्थात् श्रात्मपरिणामांकी विशुद्धिसे कर्मोकी असंख्यात त प्रा (रत्नमयी) सिंहासनसे चार अंगुल ऊपर अंतरीक्षमें ऐसे गुणी निर्जरा करते हैं। इम तरह जिनेद्र के प्रभावसे भारतविराजे जैसे लोक-अलोकको प्रकाशित करने वाला अद्वितीय । क्षेत्रमं धर्मकी प्रवृत्ति होती है और भव्य-संघ मोक्ष मुखको सूर्य अाकाश मार्ग स्थित होx। केवली भगवानकी अनुपम दिव्यध्वनि स्वभावत: अस्व- + पगद व पगदी अम्वलिश्री सव्वं तिदिमि गावमुत्ताणि । लितरूपसे (बिना किमी रुकावटके) तीनो कालोमे नव महर्त णिम्मादि णिवमागी दिवमुणी जाव जायणय।। पर्यत होती है और एक योजन पर्यत जाती है-एक योजन ॥९१॥ में रहने वाले तिर्यच, देव और मनुष्योंके समूह उस वाणी संसंसुं ममय, गणहर-देविद-चक्कवट्टीणं । को सुनकर प्रतिबोधको प्राप्त होते हैं । शेष सममि गणधर, पाहाणुरूवमत्थं दिव्यज्भुणीण्य सत्तभंगीहि ॥९०२।। देवेन्द्र और चक्रवर्ती श्रादि महापुरुषों के प्रश्नोके अनुरूप ही छहव्वणवण्यत्त्था पंचट्ठीकाय सततकचाणि । उसमें पदार्थाका प्रतिपादन सप्तभंग रूपसे होता है। दिव्य- णाणाविहहेइहि दिव्वझुणीभाइ भव्वाणं ॥९०३।। - * पदामु भासामु तालुवदंतोट्टकंठवावागे। * धादिम्वएण जादा एक्कारस अदिसया महत्थरिया। पग्हिग्यि एककालं भवजण दिवभासित्तं ॥९००|| एतिस्थयगणं केवलणाणम्मि उप्पण्ण ॥ ९०४॥ अहग्स महाभामा खुल्लयभामा सयाई सत्त तदा । xचरंगलतगले उवरि सिंहासणाणि अरहता। अक्खर प्रणम्वरप य सरणी जीवाण सयलभासाश्री चेट्ठति गयणमग्गे लायालायप्पयासमत्तंडा ।।८९३।। ॥८९९॥ Page #337 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ - प्राप्त होता है । जन्मनक्षत्र उत्तगपाटामें मक्तिको प्राप्त हुए हैं । मक्तिकी भगवान ऋषभदेव एक हज़ार वर्ष कम एक लाख प्राप्तिके ममय दुग्बमा-सुखमा नामक चतुर्थकालके प्रविष्ट पूर्व वर्ष तक अर्हन्त या जीवन्मुक्तरूप केवली अवस्थामें होनेमें तीन वर्ष मा अाठमाम बाकी थे-अथग यो कहिये रहे-इतने समय तक जगतके जीवोको अापके उपदेशका कि सम्वमा-दरखमा नामके तीमरे कालकी समाप्निमें तीन वर्ष लाभ मिलता रहा। अन्तम अष्टापद (कैलाश) पर्वतके शिखर साढे अाठ माम बाकी रहे थे। पर ग्रारूढ़ होकर और १४ दिन पहले योग निरोध करके श्राप माघ कृष्णा चतुर्दशीके दिन पूर्वाग्रहके ममय अपने वीर सेवामन्दिर, सरसावा, ता०३१-५-१९४१ • पीऊम-णिज्झरिणहं जिणचंदवाणि, पुवारण एक्कलक्खं वामागां गादं महमण | माऊण बारसगगणागि अकारएसु । उमहजिणिद कहियं कंवलिनालम्म परिम.गणं ।।५४१।। गिच्चं अांतगुणमणिविमोहिअग्गा, उमहो चाहम दिवस, ....... ॥१००८ ।। माघम्स किगिह चाहमि पुव्वगहे गिणय य जम्मण कवचे छदंति कम्पपडलि खु अमंग्वमणि ॥ ९३८ ।। एवप्पभावा भरहम्म व धम्मप्पवनी परम दिसंता। अट्ठावयंमि उमहा अजुदेण ममं गाजोमि ॥११ ४॥ मव जिणिदा वरभवसंघम्स पास्थिदं माक्ख सुहाइ देतु उन्महाजणे णिव्याणे वासता अट्ठमाममामद्धे । ॥ ५५ ॥ बालीगगमि पविट्टा दुम्ममसुममो तुरगकाला ।।१२७३।। जीवन-नैय्या जीर्ण-शीर्ण-सी जीवन- नैया, दुर्गम - पथ अालोक - विहीन ! गुरुतर झमा के झोकों में, . होने को हो रही विलीन !" मन विडम्बनायों में बेसुध भूल रहा है अपना ध्येय ! नही सोच सकता क्षणभर भी उपादेय क्या, क्या है हेय ! दम्भ-द्वेष का भार इधर है, उधर उदधि में भीषण ज्वार ! हाथ पांव फूले केवट के कैसे होगी परलीपार !! अतिजघन्य अगणित इच्छाएँ खीच रही हैं अपनी ओर ! पता नहीं है किस गह्वर मे-- अटकादें जीवन की डोर ! साथ न सच्चा साथी कोई, इस अवसर पर एक सहाराअपना और न कुछ भी पास ! मुझे आपका हे भगवान! निरी वासना-मयी इन्द्रियां पार संघादेगा नैय्या को, नहीं दिग्याती प्रात्म-प्रकाश!! - करदेगा निश्चित कल्याण !! श्री 'कुसुम' जैन Page #338 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनदर्शनका नयवाद (ले० - म्यायाचार्य पं० दरबारीलाल जैन कोठिया) -///ww जैनदर्शन में तस्वके दो भेद माने गये हैं। १ उपेय, २ उपाय । उपेयतस्त्र के भी दो भेद हैं१ कार्यतत्व, २ ज्ञेयत्व । कारकोंकी विषयभूत वस्तु 'कार्यतत्व' कही जाती है और ज्ञानकी विषयभूत वस्तु 'ज्ञेयतस्व' कही जाती है। उपायतस्त्वके भी दो भेद हैं-१ ज्ञापक, २ कारक वस्तुप्रकाशक ज्ञानको 'ज्ञापक उपायतत्त्व' कहते हैं और कार्योत्पादक उद्योगदैवादिका ‘कारक उपायतन्त्र' कहते हैं, जिसे दार्शनिक भाषा में कारण या हेतु भी कहा जाता है । यहाँ यह प्रश्न हो सकता है कि ऊपर आपने ज्ञानको ज्ञापक कहा है, सो ज्ञान प्रमाण रूप ही है नय रूप नहीं । “स्वार्थव्यवसायात्मकं ज्ञानं प्रमाणं,' 39 " सम्यग्ज्ञानं प्रमाणं” आदि वचनोंसे भी ज्ञानमें कंबल प्रमाणत्व ही सिद्ध होता है नयत्व नहीं; तब फिर नय ज्ञापक-प्रकाशक कैसे कहा जा सकता है ? उत्तर - प्रमाण और नय ये दो भेद विषयभेदकी अपेक्षा किये गये हैं। वास्तव में नय प्रमाणरूप ही है, प्रमाणसे भिन्न नहीं है। जिस समय ज्ञान पदार्थों के सापेक्ष एकांश - एक धर्मको ग्रहण करता है उस समय वह 'नय' कहा जाता है और जब पूर्णरुपेण वस्तुका श्रग्वण्डपिण्डात्मक रूपमें ग्रहण करता है तब 'प्रमाण' कहा जाता है। छद्मस्थज्ञाता जब अपने आपको समझाने के जिये प्रवृत्त होता है तो उस समय उसका ज्ञान 'स्वार्थ श्रुतज्ञान' कहलाता है और जब दूसरोंको समझाने के लिये शब्दोच्चारण करता है उस समय उसका शब्दोचारण उपचारतः वचनात्मक 'परार्थ श्रुतज्ञान' कहा जाता है । श्रोताको उसके शब्दों से जो बोध होगा वह वास्तविक श्रुतज्ञान कहा जाता है और ज्ञान ही भेद नय है। आचार्य पूज्यपादने सर्वार्थसिद्धिमें उक्त प्रश्नका अच्छा समाधान किया है। आप लिखते हैं- श्रुतज्ञान स्वार्थ तथा परार्थ दोनों प्रकारका होता है, ज्ञानरूप स्वार्थश्रुतज्ञान है तथा वचनरूप परार्थ है। और भ्रतज्ञान श्रुतज्ञान ज्ञापत्रके भी दो भेद हैं-१ प्रमाण, २ नय । वस्तु-प्रकाशक होनेके कारण प्रमाण और नय दोनों द्दी ज्ञापकतस्त्र हैं | आचार्य उमाम्वामीने तत्त्वार्थसूत्र में प्रमाण और नय दोनों को पदार्थाधिगमोपायरूप कहा है २ । श्री ग्वामी समन्तभद्रने देवागम स्तोत्र में स्पष्ट कहा है कि केवली भगवानका ज्ञान एक साथ सम्पूर्ण पदार्थोंका प्रकाशक होनेके कारण प्रमाणरूप है और छद्मस्थोंका क्रमिक ज्ञान प्रमाण और नय दोनों रूप हैं ' । तात्पर्य यह कि जैनदर्शन में प्रमाणके अलावा नयको भी प्रमेयका व्यवस्थापक एवं वस्तुप्रकाशक माना गया है। १ आयत - ज्ञानकं कारकं चेति द्विविधं तत्र ज्ञापकं प्रकाशकमुपायतत्त्वं ज्ञानं, कारकं तूप यतस्त्रमुद्योगदेवादि । अष्टसहस्री टि० पृ० २५६ । २ " प्रमाणनयैरधिगमः” तस्वार्थसूत्र । ३ तत्त्वज्ञानं प्रमाणं ते युगपत्सर्व भासनम् । क्रमभावि च यज्ज्ञानं स्याद्वादनयसंस्कृनम् ॥१०१॥ Page #339 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१४ अनेकान्त [वर्ष ४ के ही भेद नय हैं । इस प्रकार नयोंका प्रतज्ञानमें से उनका पृथक् निरूपण करना अत्यावश्यक है। अन्तर्भाव किया है। संसारके समस्त व्यवहार नयों को लेकर ही होते हैं। विद्यानन्द म्वामीने भी श्लोकवार्तिकमें उक्त प्रश्न जैनदर्शनमें नयका वही स्थान है जो प्रमाणका का समाधान बड़े अच्छे ढंगसे कर दिया है। वे कहते है। नय और प्रमाण जैनदर्शनकी आत्मा हैं। यदि है कि जो लोग प्रमाण और अप्रमाणका विकल्प नयको न माना जाय तो जैनदर्शनकी आत्मा अपूर्ण करके नयोंका खण्डन करते हैं वह ठीक नहीं है । नय रहेगी । मैं तो दावेक साथ कह सकता हूँ कि नय ही न तो प्रमाण है और न अप्रमाण, किन्त प्रमाणक- विविध वादों एवं जटिलस जटिल प्रश्नोंकी गुत्थियों देश है ? जिस प्रकार समुद्रस लाया हुश्रा घड़ा भर के सुलझानेम समर्थ है। प्रमाण गंगा है-बोल पानी न तो ममुद्र है और न असमुद्र, किन्तु समुद्रक नहीं सकता है-और न विविध वादोंको सुलझा देश है " । मतलब यह कि नयके द्वाग पूर्ण वस्तुका सकता है, अतः जैनदर्शनकारों ने मत-मतान्तगेको ज्ञान नहीं होता, उसके एक अंशका ही ज्ञान होता है। पुचित मार्ग पर लानके लिये नयवादका नयका विषय न नो वम्त है और न अवस्त, किन्त वस्त आविष्कार करके बड़ी भारी कमीकी पूर्ति की का अंश है । जैम समुद्रकी एक बिन्दु न तो समुद्र ही है। वचन-प्रवृत्ति तथा लोक-व्यवहार नयाश्रित है न ममुद्रके वाहर है, किन्तु समुद्रका एक अंश है। ही है, प्रमाणाश्रित नहीं। अतः मानना होगा कि अगर एक बिन्दुको ही समद्र मान लिया जाय तो जिस दर्शनमे नयको स्थान नही मिला है वह दर्शन बाकीके बिन्दु, समुद्र के बाहर होजावेंगे अथवा प्रत्येक अध । अधूरा ही है। कंवल प्रमाणसे' अनन्नधर्मात्मक वस्तुका प्रातिस्विक रूपसे ज्ञान नहीं हो सकता है। बिन्दु एक एक समुद्र कहलाने लगेगा, इस प्रकार एक और न वह दर्शन अपने ऊपर आये आघानोंका ही समुद्रमें लाग्खों समुद्रोंका व्यवहार होने लगेगा। परिहार या प्रतिवाद कर सकता है और न अपने अतः यह बात निश्चित हो जाती है कि नय प्रमाणके को उत्कृष्ट ही सिद्ध कर सकता है। ही अंश हैं। फिर भी छद्मस्थज्ञाता, वक्ताओंकी दृष्टि यद्यपि न्याय, वैशेषिक श्रादि दर्शनाने उक्तविषय का निर्णय करने के लिये शब्दप्रमाण-शाब्दबोध स्वी४ "श्रुतं पुनः स्वार्थ भवति परार्थ च । ज्ञानात्मकं स्वार्थ, वचनात्मकं परार्थ ॥ तद्विकल्पा नयाः।" "सकलादेशः कृत किया है और उसके द्वारा तत्तद्धर्मविशिष्ट वस्तु प्रमाणाधीनः विकलादेशः नयाधीनः।" -सर्वार्थमिदिः के बोधकी व्यवस्था की है और शब्द-प्रमाणका सवि५ "नयः प्रमाणमेव स्वार्थव्यवसायात्मकत्वात् इष्टप्रमाणवत् स्तार निरूपण किया है तथापि नय-साध्य कार्य शब्दविपर्ययो वा, ततो न प्रमाणनययोर्भेदोऽस्ति ।" "तदसत् प्रमाण के द्वारा नहीं हो सकता है। इसका विशद नयस्य स्वाथै देशलक्षणत्वेन स्वार्थनिश्चायकत्वासिद्धेः।” विवेचन स्वतन्त्र लेखमें किया जावेगा। नायं वस्तु न चावस्तु वस्त्वंशः कथ्यते यतः । __ न्यायदर्शनने अवश्य अपने ऊपर पाये आघातोंका नासमुद्रः समुद्रो वा समुद्राशो यथोच्यते। तन्मात्रस्य समुद्रत्वे शेषाशस्यासमुद्रता । छल, जाति और निग्रहस्थानके स्वीकार-द्वारा परिहार समुद्रबहुत्वं वा स्यात्तञ्चेवास्तु समुद्रवित् ॥ करनेका प्रयत्न किया है, पर वह इस दिशा असफल श्लोक वार्तिक पृ० १८ ६ "प्रमाणाधीना प्रमेयव्यवस्था" न्यायदर्शन आदि Page #340 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] जैनदर्शनका नयवाद ३१५ ही रहा । कारण, कोई भी प्रेशमन असद् प्रवृत्तिको और मनसे होता है लेकिन 'नय' केवल मनसे ही अङ्गीकार कर अपने पक्षका समर्थन तथा परपक्षका होता है। निराकरण नहीं करेगा। वह तो समन्वयका रास्नाढूँढ़ेगा जैनदर्शनमें नयवादका परिवार देखते ही बनता और वह रास्ता नयोंमें ही निहित है। दर्शनका उद्देश्य है। या यों कहिय कि जितने वचन मार्ग हैं उतने ही जगतके प्राणियों का हित करना और उन्हें उचित नय हैं। प्राचार्य सिद्धसेन दिवाकर कहते हैं किमार्ग पर लाना होता है, वितण्डावादसे उक्त दोनों बातें जितना वचन व्यवहार है और वह जिस जिस तरह सम्भव नहीं हैं । वही दर्शन सत्य एवं हितकारी है से हो सकता है वह सब नयवाद है । नयोंका जो लोहाकर्षक चुम्बकके समान आत्माओंको श्राक- वचनोंके साथ ज्यादा घनिष्ट सम्बन्ध है या यों कहिये र्षित करके उन्हें उनके सच्चे हितके मार्गमें लगा देता कि नय वचनोंसे उत्पन्न होते हैं। शब्दमें एक साथ है। जैनदर्शनका नयवाद विविध मतोंी असमंजसता एक समयमें अनेक धर्मों या अर्थोके तिपादन करने रूप श्रावणकी अंधेरी रातमें चलने वाले बटोहीके की शक्ति नहीं है। एक बार उच्चारण किया गया शब्द लिय नहीं बुझने वाले विशाल गैसके हंडोंका काम एक ही मर्थका बोध कराता है । इसी लिये अनेक देता है। धर्मोंका पिण्डरूप वस्तु प्रमाणका विषय होती है, नय वस्तु अनेकधर्मात्मक है। अनकधर्मात्मक वस्तु का नहीं। का पूग पुरा और ठीक ठीक बोध हम इन्द्रियों या प्राचार्यों ने नयकं मुख्य एवं मूल दो भेद किये वचनों द्वाग नहीं कर सकते हैं। हाँ, नयोंके द्वारा है- द्रव्यार्थिक, २ पर्यायाथिक । द्रव्यार्थिककं तीन एक एक धर्मका बांध करते हुए अनगिनत धर्माका भेद है ५ नैगम, २ संग्रह, ३ व्यवहार । पर्यायार्थिक जान कर सकते हैं। वस्तु नित्य भी है, अनित्य भाह, के चार भेद हैं-१ ऋजुसूत्र, २ शब्द, ३ समभिरूढ़, एक भी है, अनक भी है, भेदरूप भी है, अभेदरूप ४ एवंभूत । इस प्रकार न अतिसंक्षेप, न अति है श्रादि विगंधी सरीखे दीख रहे धर्मोकी व्यवस्था विस्तारकी अपेक्षा कर नयोंके सान भेद कहे गये हैं। नयवादसे ही होती है । उपर्युक्त विवंचनसं यह म्पष्ट इन सात नयोंमें आदिकं चार नय अर्थप्रधान होनेसे होजाता है कि 'नय' भी पदार्थों के जाननके लिय एक 'अर्थनय' कहे जाते हैं और अन्तके तीन नय शब्द. आवश्यक चीज है। प्रधान होने के कारण 'शब्दनय' कहे जाते हैं। इन विवक्षित एवं अभिलषित अर्थकी प्राप्ति या ज्ञप्ति नयों का स्वरूप यहां बतानेस लखका कलेवर बढ़ करने के लिये वक्ताकी जा वचन प्रवृत्ति या अभिप्राय जायगा । अतः नयचक्रादि ग्रंथास इनका स्वरूप विशेष होता है वही 'नय' है ' । यह अर्थ-क्रियार्थियों जान लेना चाहिये। की अर्थ-क्रियाका संपादक है । प्रमाण तो सब इंद्रियो - " ८ "जावइया वयणवहा तावइया चेव होति पयवाया" ७ "वक्तुरभिप्रायविशेषः नयः"। "स्याद्वादप्रविभक्तार्थ -सम्मतितक विशेषव्यनको नयः ।। देवागम, अष्टसहस्री श्लोकवार्तिक ६ "सकृदुचारितः शन्दः एकमेवार्थ गमयंति"। - --- --- Page #341 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सिकन्दर प्राजमका अन्तसमय [संसारकी असारता और बड़ों-बदोंकी असमर्थताको बतलाने वाली यह कविता अच्छी शिक्षाप्रद है। इसमें एक बड़े प्रसिद्ध सम्राट की अन्तिम समयकी बातचीत और वसीयतको चित्रित किया गया है। इसके रचियता कौन है, यह प्रज्ञात है। अपने एक मित्र वा होरीलालजी जैन सरसावासे यह प्राप्त हुई है, जो इसे बड़ी दर्दभरी आवाज़ और हृदय-द्रावक लहजेमें पढ़कर सुनाया करते हैं। -सम्पादक] वक्त मरनेके सिकन्दरने तबीबों' से कहा- लक्ष्मीने यों कहा हसरतभरी१३ आवाजसे'मौतसे मुझको बचालो, करके कुछ मेग दवा!' 'मैं थी साथी इस जहांकी १४ वह जहां है दूसग !' सर हिलाकर यों कहा सबने कि 'अय शाहजहां! ताता... तोता-चश्मी देख सबकी और टकासा सुन जवाब गे पड़ा आज़म सिकन्दर ! हाय मैं तनहा" चला !! मौतसे किसको पनाह है२, क्या है दरमाने जा ?' होगया मजबूर जब वह जन्दगीसे इस तरह; बरगुजीदा हस्तियों से यों हुआ फिर हमकलाम" - यों वसीयत की अमीरों१६ और वजीरोंको बुला'है कोई इस वक्त मुश्किलों मेरा मुश्किल-कुशा?' हों तबीबे नामवर लाशा उठाए दोश' पर; यकजुबां होकर कहा सबने कि-'हम माजर' हैं, देखले ता खल्क ८ मुझको देसर्फ ये ना शका १९ । कुन्द हैं तदबीर सब और अक्ल भी है नारसा। कुल जगे लालो जवाहरके भरे छकड़े हो साथ, बेगमों और लौडियोंसे फिर मुखातिब यों हमा- बेगमातें साथ हों और साथ बूढी वालिदा ! 'नाजनीनों! इस घड़ी तुमसे है उम्मीदे वफा !' फील हों होदे सजे और अप' हों बा-जीन स.थ, कुल रिसाला हो मुसल्ला२२ साथ हो सारी सिपाह! सर्द बाहें भरके और वा-चश्मतर' कहने लगी कुल रिमाया बूढ़े बच्चे और जवाँ सब साथ हों, 'बेबसो मार हैं हम, किस तरहसे लें बचा ?' हो जनाजेका हमारे रहनुमा छोटा-बड़ा ! कुल न जायन और दफायन'' खोलकर कहने लगा- बादेमुर्दन" कफ्नसं बाहर मेरे दो हाथ हों; 'प्रय मेरे फखरेजहां१२ अब साथमें चलना जरा!' देखले ता खल्क मुझको, साथमें क्या ले चला !! १कीमों. २ कोन सुरक्षित है?. ३ मौतकी हवा १३ दुःख-अफसोसभरी. १४ लोक-दुनिया. र चुने हुए प्रतिष्ठित व्यक्तियों-अपने खास भादमिर्ग. अकेला. १६ उच्च पदाधिकारियों-सरदारों. १७कंधा. सवचनाखाप. मुशकिल-मुसीवतको प्रासान करने १८ दुनिया. " भारोग्य. २. हाथी.. बोदे२२ सारी । बाजा. .असमर्थ. ८ पहुँचसे बाहर-हतप्रभ. सिजनमे पुरसवार फौज सशक्षा हो. २३ सेना. २४ मार्गदर्शक. मेकर. १० जाने. सीने, गडी हुई समी-न- २५ मरने के पश्चात् । दौलतके भण्डार. २ खोकगौरव. Page #342 -------------------------------------------------------------------------- ________________ समन्तभद्र-विचारमाला (सम्पादकीय) (३) पुण्य-पाप-व्यवस्था १ एय-पापका उपार्जन कैसे होता है-कैसे पापं ध्र परे दुःखात्पुण्यं च सुखतो यदि । किसीको पुण्य लगता, पाप चढ़ता अथवा प्रचेतनाकषायौचषध्येयातां निमित्ततः६२ पाप-पुण्यका उसके साथ सम्बन्ध होता है। यह एक भाग समस्या है, जिसको हल करने यदि परमें दुःस्वत्पादनसं पापका और सखोका बहतीने प्रयत्न किया है। अधिकांश विचारकअन त्पादनस पुण्यका होना निश्चित है-ऐसा एकान्त इस निश्चय पर पहुँचे हैं और उनकी यह एकान्त माना जाय-, सो फिर अननपदार्थ और अब पायी धारणा है कि-'दमरोंको दुःख देने, दुःख पहुँचाने, (वीनगगी) जीव भी पुण्य-पापस बँधने चाहिये क्यों दुःखक साधन जुटाने अथवा उनके लिये किसी भी कि वे भी दूसरोंम सुग्व-दुःखकी उत्पत्तिके निमित्त तरह दुःखका कारण बननेस नियमतः पाप होना - कारण हान है।' पापका पासव-बन्ध होता है। प्रत्युत इसके दूसरोंको भावार्थ-जब पर में सुख-दुःखका उत्पादन ही सुख देने, सुग्ख पहुँचाने, सुखके साधन जुटाने अथवा पुण्य-पापका एक मात्र कारण है तो फिर दूध-मलाई उनके लिये किसी भी तरह सुखका कारण बनने तथा विष-कण्टकादिक अचेतन पदार्थ, जो दूसरों के नियमतः पुण्य होता है-पुण्यका आस्रव बन्ध होता सुग्व-दुःख के कारण बनते हैं, पुण्य-पापके बन्धकर्ता है। अपनको दुःख-सुग्व दंने आदिस पाप-पुण्यके क्यों नहीं ? परन्तु इन्हें कोई भी पुण्य-पापके बन्धबन्ध कोई सम्बन्ध नहीं है।' कर्ता नहीं मानता-कांटा परमे चुभकर दूसरेको दूसरोंका इम विषयम यह निश्चय और यह दुःख उत्पन्न करता है, इतने मात्र उमे कोई पापी पकान्त धारणा है कि-'अपनेको दुःख देने-पहुँचाने नहीं कहता और न पाप-फलदायक कर्मपरमाणु ही प्रादिस नियमतः पुण्योपार्जन और सुग्व देने आदि . उमसे पाकर चिमटते अथवा बन्धको प्राप्त होने हैं। से नियमतः पापोपार्जन होता है-दूसरोंके दुःख-सुख । इमी तरह दूध-मलाई बहनोंको आनन्द प्रदान करते हैं परन्तु उनके इम अानन्दसे दूध मलाई पुण्यात्मा का पुण्य-पापके बन्धसं कोई सम्बन्ध नहीं है।' नहीं कहे जातं और न उनम पुण्य-फलदायक कमस्वामी ममन्तभद्रकी दृष्टिमें ये दोनों ही विचार परमाणुओका ऐमा कोई प्रवेश अथवा संयोग ही एवं पक्ष निरे ऐकान्तिक होनस वस्तुनत्त्व नहीं हैं, होता है जिसका फल उन्हें (दूध-मलाईको) बादको और इसलिये उन्होंने इन दोनोंको सदोष ठहराते हुए भोगना पड़े। इससे उक्त एकान्त सिद्धान्त स्पष्ट सदोष पुण्य-पापकी जो व्यवस्था सूत्ररूपसे अपने 'देवागम' जान पड़ता है। म(कारिका ९२ से १५ तक) दी है वह बड़ी ही मार्मिक ___ यदि यह कहा जाय कि चेतन ही बन्धके योग्य नथा रहस्यपूर्ण है । आज इस विचारमालामें वह होते हैं अचेतन नहीं, तो फिर कषायरहित वीतरागियों है सब ही अनेकान्तके पाठकों के सामने रक्खी जाती है। के विषयमें आपत्तिको कैसे टाला जायगा १ वे भी प्रथम पक्षको सदोष ठहराते हुए स्वामी समन्तभद्र अनेक प्रकारसे दूसरोंके दुःख-सुग्यके कारण बनते हैं। लिखते हैं: उदाहरण के तौर पर किसी मुमुक्षुको मुनिका देते Page #343 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ यह एकान्त सिद्धान्त कैस न मिल हैं तो उसके अनेक सम्बन्धियोंका दुःख पहुँचता है। एकान्त व्यवस्था सदोष है। शिष्यों तथा जनताका शिक्षा देते हैं जो निय मकहा जाय कि उन अकषाय लोगोंका सुग्व मिलना गमावधामीकमार्थ नाकद मार्थ मोवाक दृमगेको सुख-दुःस्य पहुँचानका कोई संकल्प ईयोपथ शाधकर चलते हुए भी कभी कभी हाधिपथमा अभिप्राय नहीं होना, उस प्रकारकी कोई इच्छा थाहरका कोई जीव अचानक कूदकर पैरे नले श्री नहीं होती और न उस विषयमे उनकी कोई प्रासक्ति जाता है और उनके उम पैग्स दाल -प्रती इस लिय दृसगेकी सुग्व-दुःखोत्पनिमें कायोत्सर्गपूर्वक ध्यानावस्था में स्थित होने पर भी यदि निमित्तकारण हाने व बन्धको प्राप्त नहीं होते हो कोई जीत जी ATMETERN का मफिर दूसर्गम दुःवोत्पादन पापका और सुरेखापादन जाता है और मर जाताहेता इस मनावमागम घधिक होनम व उसके दुःखक है-अभिप्रायाभाव के कारण अन्यत्र भी दुःलापाकारण बनते हैं। अनेक मिर्जितकषाय 'ऋद्धिधारी "देने में पापको और सुग्वात्पादनसे पूरायका बन्ध नही वीवरामी साधुओं के शरीर के स्पर्शमात्रमे अथको उन हो सकेंगी प्रत्यत इमत विरोधी अभिप्रायके कारण कि शरीको स्पर्श की हुमायुके लगर्मम ही गांगी मन खोत्पत्तिम पुण्यका और सुखोत्पत्तिसे. पापका बन्ध में और भी बेहतस प्रकार हैं जिनमें वे दृमरोंफ प्रायमै पूर्णसावधानों के माथ फोड़ेका ऑरेशन करता है ना यथेष्ट सुन्धका अनुभव करते . पुण्यका और सुखात्पत्तिस, पापका बन्ध "भी हसिकेगा। जैसे एक डाक्टर सुख पहुँचानक अभि सुग्व-दुःखके कारण बनते हैं। यदि दृसंगके सुग्व-दुःश्व पन्त फोड़की चौरंत ममय रोगीको कुछ अनिवार्य का निमित्त कारण बनम ही: श्रात्माम पुण्य-पापका दिख भी पहुँचता है, इस दुःखक पहुँचनेसे डाक्टरका श्रामब-बन्धा होता है ना कि ऐसी हालत में वे कषार्थ- पापका बन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी हित माधु कैम पुख्य-पापके बन्धनमा बच सकते हैं। दुखविधिनी भावन्तके कारण यह दुःख भी पुण्य यदि वे भी पुण्यापापक बन्धनमें पड़ते हैं तो फिर 'बन्धको कारण होगा। इसी तरह एक मनुष्य कषायनिर्बन्ध अथवा मानकी कोई व्यवस्था नहीं बन भाव वशवत होकर दुःख पहुंचानके अभि प्रयास सकती, क्योंकि बन्धका मूलकारण कषाय' है। कहा किसी कुबड़ेको लान मारता है, लात के लगन ही भी है.-"कषायमूल सकल हि बन्धनमू।सेकषाय- अचानक का कुबड़ापन मिट जाता है औ वह वाजीवः कर्मणो योग्यान पुद्गलानादत्ते सबन्धः ।" सुखका-बुभव करने लगता है, कहावत' भी है। और इसलिये अकायमार्य मोनका कारण है। जब "कुबड़ागुण हात लग गई"-तो कुबड़े का इस सवाअकषायमाव भी बन्धका कारण हो गया तब माक्षक भवनस लात मारने वाले को पुण्यफले की प्राप्ति मही लिये कोई कारण नहीं रहता। कारण भभावमें हो सकती+सेमी अपनी सुर्वविधिनी माना कार्यका अभाव होजानस माज्ञका अभाव ठहरता है। कारण पापही. लगेगा। अतः प्रथमपक्ष वालोका और मोक्षक अंभावमें बन्धकी भी कोई व्यवस्था नहीं यह एकान्त सिवात्तक 'परमे सुकुम्बा पाइन भान सकती, क्योंकि पन्ध और मोक्ष-जैम मप्रतिपक्ष पुण्य पापक्का हेन है। यातया समोर और ल धर्म परस्परमें अविनाभीवं मम्बन्धको लिये होते हैं- लिये इस किसी ताम्त हानही सक एक बिना दुसरेका अस्तित्व बन नहीं 'मकती, यह दूसरे पलको दुक्ति सहमति हुन प्राचार्य मतं प्रथम लेखमा भने प्रकार स्पष्ट की जा चुकी है। महादस,निते हैं ... " जब बन्धकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तब पुण्य. 2: पुण्ये व स्वतो दुःखांस्पपिचं सुखतोयदि पाप्र बनाकी थाही प्रलापमात्र होजाती है। अत: पुण्य ध्रुष स्वता दुःखास्पापच सुखतायाद। मनीमाणिवांकी टिम भी। पुस्य पापकी उक्त वतिर मामाकडास्ताम्यायज्यानामतः Searn III-HS. - जा Page #344 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम-विचारमाला - - यनि-अमन में खोलाइनसमुणकाल सुखो- ही नहीं कह सकसे | | In माइनस सका ध्रुव निश्चितापला । नालायांसंबधमे श्रालिक कोरलीजालांग पेसा समस्त मत जाय तो हि कीतरता पाय- दामों एकामों को यमीकार करत परतु"यो द्वादक रहित) और विद्धान मनिजन-सी पास पापनबधन सिमान्तकमही मानापेक्षा श्रमपेक्षाकी बी मातिय जयोफिल भी अपने सुख-दुख के कारणों का प्रथावाचकारतकी "अवलनिमित्त कारम होते हैं Princry #TriPEन संका गयाफापी व्यवस्था का श्रेय माल्य मातीतमय और विद्वानासनिक निकाल :तान मेंनी साम्यता विरोधीमामयकोरल्यं स्थानिक अनुष्ठानकायक्जेम्सादिरूप-चुभवी माद्वानार्यावविषामा श्रधाच्यतन्निऽप्यक्तिमा और तस्वज्ञान जन्यः संसोपसमा सुबकी मनि वाध्यमिति युज्यते गा इस कारिका (न: ९४) के द्वारा होती है। जप अपने में दुन्यम्सुम्खाके मदमा विगंधादिदपण देन अनन्तर, स्वामी ममतभवन पुण्य पाप धनामो फिर यामकीय पुण्य. . वपस्थ सुखदुःखादिका दृष्टि में पुग्यपालकी जो पण दना अनन्तर स्वामा : ममतभवन पापक कन्धुमसे मुक्त रह सकते हैं यदि इनके खादा दाम प्रगयाका भी पुरुष-पापका धके कन्ध होता है तो फिर युग माप सम्यक व्यवस्था अन्मतानुसार बतलाई है, जमभी साभावका की अवसर नहीं मिलं मकर और प्रतिपादक कारिका इस प्रकार है . : .. कोई मुक्त होने के संम्य ही सकमा है-गाय पापरूप विशुद्धि-संक्तेशाङ्गं चेत् स्वपरस्थं सस्वास। दोनों कन्धोंक प्रभावके बिना मुक्ति होती ही नहीं। पुण्यसापानवोयुक्तोमचेच ध्यर्थस्तवाहतः॥ और मुक्तिक बिना यथानिककी भी क्रोई माया . इसण । बमलाया कि-बहनके मन में स्थिम्की रह सकती; माकि अपर बसलाया जा सख-दुश्वात्मक हायपरम्थ अपनेको हो चुका है। यदि पुत्राय-पापक प्रमान बिना भी मुक्ति था दसरंकाय विशुद्धिका अंग हैमी म मानी जायगी तो मृतिक-संमागायचा यांनषका, 'मंकलेशका मीनापासबको रिक जीवन के अभावका प्रसंग आएगा, जा गय- इंतु है जो युमा सार्थक, 'अथवा पापको व्यवस्था मानने वालोमस किमीको भी इस बार है--और यति विशुद्धि तथा सिंबलेश दोनों नहीं है। ऐसी हालत में आत्मसुखदुःखके द्वारा पाप से किसीका अंग नहीं है सो गयपाप मेंमें किमीक पुण्यके बन्धनका यह पकान्स सिद्धान्त भी सदोष है। भी युका मानवका-बग्ध व्यवस्थापक माम्पगायिक यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि अापनेमा दुस-सानावका हेतु नहीं है बधा-भविफे कारण) मुखकी उत्पत्ति होने पर भी तत्त्वज्ञानी, वीतराशियों के बहाव्यर्थ हाम्रा है-ममकी का फल नहीं। पुण्य-पाका बन्धः इस लियजीडोत्तम किनके यहाँ मकरमेश का अभिप्राय आर्म-गौद्रध्यान के दुख-सुखक अपादनका अभिषायू न होता, मी पहिंगामस है प्रान-अदभ्यानमरिणामः मक्लेश: कोई नहीं होनी और न इस विषसमें ससक्ति पा, अकाल कदवन प्रशसी टीम मि स्पष्ट लिखा है हो होता है, तो फिर हमास का अकान मिताली और श्रीनिमा मदन भी पमा प्रष्टसहमी में अपनायों ही सिद्धि होती है। एकान्त पर्थात है। 'मलश शानक मंथि जनपक्ष में प्रयुक्त होने यह नतीजा निकलता है कि, अभिमासको लिय हुम के कारण विशुशका अभिप्राय मल्लेशाभाव दुख मुखका उत्पादत पुराय पापका हेतु है, अभिमन- है। "मदभावः विशुद्धिः" इत्य कलंक:)-- क्षायिक विहीन दव-मुखका उत्पादन पुण्यमापका हेतु सही है। लक्षणा तथा अधिनश्वर्ग:मरमविशुद्धिको अभिप्राय अब दोनों प्रकारत मिहान्ता प्रमाण नहीं है जो मिग्वशकंदिके अभावलप होता बाधित हैं. सभी विकत अड़ते हैं, और इसलिए समिदिम ध्याय पायबन्धक लिय'कोई स्थान Page #345 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३१८ अनेकान्त है तो उसके अनेक सम्बन्धियोंको दुःख पहुँचता है । शिष्यां तथा जनताका शिक्षा दुवे हैं तो उससे की लोगोंको सुम्ब मिलता है। 1 5p ईर्यापथ शांधकर चलते हुए भी कभी कभी दृष्टि बाहरका कोई जीव अचानक कूदकर पैर न श्री जाता है और उनके उस पैसे कायात्सर्गपूर्वक ध्यानावस्था में स्थित होने पर भी यदि जीततेही उनके टकरा जाता है, और मर जाता है तो इस तरह सी मजाक मार्ग बाधक होने व उसके दुःखके - कारण बनते हैं। अनेक निर्जितकषाय ऋद्धिधारी ← वीतरागी साधुयांक शरीर के स्पर्शमात्र अथवा उन के शरीर को स्पर्श की हुई वायुके लगने से ही गंगीन नीरोग हो जाते हैं और सुख का अनुभव करते हैं। ऐसे और भी बहुत से प्रकार हैं जिनमें वे दूसरोंके सुख-दुःखके काग्गा बनते हैं। यदि दूसरों के सुख-दुःख का निमित्त कारण बनने से ही आत्मा में पुराय पापका आसव-बन्ध होता है तो फिर ऐसी हालत में ये कपार्थ साधु कैसे पुण्य पापके बन्धन से बच सकते हैं? दि वे भी पुण्य पापके बन्धन में पड़ते हैं तो फिर निर्बन्ध अथवा मोजकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती, क्योंकि बन्धका मूलकारण कषाय है। कहा भी है." कषाय मूलं सकलं हि वन्धनम्। "सकषायखाजीवः कर्मणां योग्यान पुद्गलानादत्ते सबन्धः ।" और इसलिये अकषायभाव मोक्षका कारगा है। जब कषायभाव भी बन्धका कारगा हो गया तब मानके लिये कोई कारण नहीं रहता । कार के अभाव में कार्यका अभाव हो जानस मोक्षका अभाव ठहरता 1 और मोक्षके अभाव में बन्धकी भी कार्ड व्यवस्था नहीं Alef सकती, क्योंकि बम्ध और मोन जैम मप्रतिपक्ष धर्म परस्पर में अविनाभाव सम्बन्धको लिये होते हैं - एकके बिना दूसरेका अस्तित्व बन नहीं सकता, यह बात प्रथम लेख में भले प्रकार स्पष्ट की जा चुकी है। जब बन्धकी कोई व्यवस्था नहीं बन सकती तब पुण्य पाप के बन्धकीय था ही प्रलम्पमात्र होजाती है। अतः चेवन प्राणियोंको दृष्टिसे भी पुण्य-पापको उक्त 1. प [ वर्ष ४ एकान्त व्यवस्था सदोष है । आप कहा जाय कि उन अकषाय जोकि दूसरोंको सुख-दुःख पहुँचानका कोई संकल्प अभिप्राय नहीं होता, उस प्रकारकी कोई इच्छा नहीं होती और न उस विषय में उनकी कोई आसक्ति S होती है, इस लिये दूसरोंकी सुख-दुःखोत्पति में निमित्तकारण होने के बन्धको प्राप्त नहीं होते हो "फिर दूसरोंमें दुःखोत्पादन पापका और सुखापादान पुण्यका हेतु है, यह एकान्त सिद्ध न्त कैसे बन सकता है ? श्रभिप्राया भविक कारण अन्यत्र भी 'दुःखायाट्रेन में पापका और सुखात्पादनसे पूगयंका बन्ध नहीं "हो सकेगी, प्रत्युक्त इसके विरोधी अभिप्रायक कार "दुःखोत्पत्तिमे पुण्यका और सुखोत्पत्ति से पापका बन्ध भी होसकेगा। जैसे एक डाक्टर सुख पहुँचानके अभि प्रायमै पूर्णसावधानीक माथ फाडेका ऑपरेशन करता है परन्तु फाड़को चीरत समय रोगी को कुछ अनिवार्य दुःख भी पहुँचता है, इस दुःखक पहुँचनेसे डाक्टरका पापका बन्ध नहीं होगा इतना ही नहीं, बल्कि उसकी दुःखविधिनाभावस्तके कारण यह दुःख भी पुण्य बन्धका कारण होगा। इसी तरह एक मनुष्य कषायभाव वशवर्ती होकर दुःख पहुंचानके अभि यम किसी कुबडेको लान मांग्ता है, लातके लगते ही अचानक काकुबड़ापन मिट जाता है और वह सुखा अनुभव करने लगता हैं, कहावते भी हैं “कुबड़े गुण लात लग गई" - तो कुचड़े के इस सुग्वानुभवनसे लात मारने वालेको पुरायफलकी प्राप्ति नहीं हो सकती-सी अपनी सुविरोधिनी माना कारण पाप ही लगेगा। प्रथम वालोंका यह एकान्त सिद्धान्त कि. 'परमं सुख-दुखाउद पुण्य-पापका हेतु है पूर्णतया सदोष लिये उसे किसी तरफ भी बम्तुत नहीं सक दूसरे पति हुए श्राचार्य महादय लिखते मैं 17 पुण्यं ध्रुवं स्वतो दुःखात्पापं च सुखतोयदि । वीतरागी मुनिविस्ताभ्या युज्यानिमित्ततः -15 8331 Page #346 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण,५] समसामह-विचारमाला - - यदि, अमन में रखामाइनसमुण्मा और मुखो ठीक नहीं कहा जा सका।.. . पादनास पापका बध ध्रुव-निश्चितकाम होता । इन प्राशियोमश्वयमे श्राविक कारगी जो लोग ह.एमा एकान्त माना जाय, तो फिर बीतरमा क्यान- दामी एकातों को अंगीकार करते है परन्तु योद्वादक सहित) और विद्वान मुनिजन भी, पुराम-पापस बॅधन ..सिद्धान्तका नही मानने-अपना-श्रमपेक्षाकी बीबहियां क्योंकि अभी अपने सुख-इसका कि कार नही कर+प्रथया' चायकान्तको अवही निमिस कारन हात है।..... P न संका गयाफापीडियवस्थाको अवमय होमवाबीनसार और, विद्वाना सुनके विक्रान तान हैं पनकी मान्यता विरोधामोमयकात्म्य योगादिक अमुष्ठानद्वाग कायक्लेशादिरूप धुवकी स्याद्वानम्बाचिद्विपाम। अवाकयतकान्न म्युक्तिना और तत्वज्ञान जन्य मंसाणम क्षणाप सुबकी मस्तान वामिति युज्यने ।। इस कारिका (नं०५४) के द्वारा हाता है । जथ अपनम दुख-सुम्बक मत्सदन हा विरोधादि द स्वामी मनात पुण्य पाप.धना हैनो फिर याप्रकार व पुण्य पापक बन्धनम कैम मुक्त रह सकते है ? यदि इनके स्वपथ मुग्वदुःखादिका दृष्टि में पुगयपाएकी - जा 'सम्यक व्यवस्था अहेन्मतानुमार बनलाई है जमकी भी पुण्य-पापका ध्रक कन्ध होता है तो फिर पुगन-माप निपादक 'कारिका-इम पकार है :कं.अभावका की अमर नहीं मिल सकता और न , कोई मुक्त होनक सभ्य हो सकता है--पुराय-पापरूप विशुद्धि-संक्तशाचेत् स्वपरस्थं सुम्बासु। दोनों बन्धोक अभावके बिना मुक्ति होती ही नहीं। पुण्य-पापासवोयुक्तोन चेद व्यर्थस्तवाहतः॥ और मुक्ति बिमा यम्भादिककी भी कोई समस्या . इसग बतलाया है कि- अहनके मनमें स्थिर नही रह सकती; जैमाक' उपर बसलाया जा सग्य-दुण्य प्रात्मय हो या परम्थ-अपनेका हो चुका है। यदि पुराय-पापक प्रभाव बिना भी मुक्ति पा सरकारबह यदि विशुद्धिका अंगमा उम मानी जयगी सामंमृतिक-संसार अथवा मोमा पुरयायका, मंक्लेशका अंजामीनपापसवको रिक जीवनक-अभावका प्रमंग आएगा, जा गय-संत है जो यमन है-मार्थक, action अथवा पापको व्यवस्था मानने वालामस किमीको भी इन बचकर है-और या विशुद्धि तथा मंक्लेश दानो नहीं है। ऐमी हालनमे श्रास्मसुम्नदुःखके द्वारा पाप- ममे, किमीका अंग नहीं है मा पुगयपाप में किमीक पुग्यक बन्धन का यह एकान्स सिद्धान्त भी सदोष है। भी युक्त प्रावका-बन्धयवस्थापक म पगयिक । यहाँ पर यदि यह कहा जाय कि अपन, दुःख- मानवका हेतु नहीं है-बन्धा-भावके कारण, सुखकी उत्पत्ति हानपर भी तत्त्वज्ञान वीतामियाक बाद व्यर्थ हाना है-ममका का फल नहीं। पुण्य-पाका बन्ध इम लिया जाना कि उनके । यहाँ सक्लेश' का अभिप्राय आन-गैद्रध्यान के दुख-सुस्त्र के अपादनका अभिप्राय न होना, वेमी परिणामसे है-"श्रान-औद्रध्यानपरिणामः संक्लेश काइ इच्छा नहीं होनी और न म्म विषयमे सक्ति मा प्रकानकदेवन अशी टीका स्पष्ट लिया है ही द्वातं हे. वाफिर इसम तो अनकान्त मिद्रानाकी और श्रीविद्यामिदन भी सहमी' में अपनायाँ ही सिद्धि होती है वक्त एकान्तकी नई एमर्थात है। 'मंक्लश' शान के माथ नपरूपमें प्रयुक्त होने यह नतीजा निकलता है कि, अभिमासको लिये हुए के कारण विशुद्धि' शब्द का अभिप्राय “मक्लेशाऽभाव' दुख सुखका उत्पादन पुगय पापका हेतु है, अधिक्षय- है। "मदभावः विशुद्धिः" इत्य कलंक:)-एम नायिक विहीन दुव-सुखका पादन पुण्य मात्रा हेतु सही है। लक्षमा नया अधिनम्वर्ग परमविशुद्धि का अभिप्राय अतः उक्त दोनों पकान्त सिद्धान्त प्रमाणम नही है. जो निरवशष गदिक अभावरूप हातीबाधिन हैं, उनके भी किङ पड़न हैं, और इमलिया इस विशुद्धिमण्य पापबन्ध लिये कोई स्थान . . Page #347 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२० अनेकान्त 1 ही नहीं है । और इस लिये विशुद्धिका आशय यहाँ आर्त-रौद्रध्यान से रहित शुभ परिस्तिका है वह परिणति धध्यान शुक्लध्यानस्वभावको लिये हुए होती है। ऐसी परिणति होनेपर ही आत्मा स्वात्मामें—स्वस्वरूपमे—स्थितिको प्राप्त होता है, चाहे वह कितने होशोंम क्यों न हो । इमीसे अकलंकदेवने अपनी व्याख्यामें, इस मक्लेशाभावरूप विशुद्धिको “आत्मनः स्वात्मन्यवस्थानम्" रूपसे उलिfar fया है। और इससे यह नतीजा निकलता है कि उक्त पुण्यप्रमाधिका विशुद्धि श्रात्मा के विकास में सहायक होती है, जब कि संकेश - परिणति में आत्मा विकास नहीं बन सकता- वह पापप्रसा frer होने से आत्मा अधःपतनकका कारण बनती है। इसीलिये पुण्यको प्रशस्त और पापको अप्रशस्त कर्म कहा गया है। 1 [ वर्ष ४ की व्यवस्थिति है । 'संक्लेशके कारण कार्य रवभावऊपर बतलाए जा चुके हैं; विशुद्धि के कारण सम्यग्दर्शनादिक हैं, धर्म्यध्यान शुक्लध्यान उसके स्वभाव हैं और विशुद्धिपरिणाम उसका कार्य है । ऐसी हालत में स्वपरदुःखकी हेतुभून कायादि क्रियाएँ यदि संक्लेश- कारण -कार्य-स्वभावको लिए हुए होती हैं तो वे संक्लेशाङ्गत्वकं कारण, विषभक्षणादिरूपकाय. दि क्रियाओं की तरह, प्राणियोंको अशुभ फलदायक पुद्गलोकं सम्बन्धका कारण बनती हैं; और यदि विशुद्धि-कारण-चार्य स्वभावको लिए हुए होती हैं तो विशुद्वयङ्गत्व के कारण, पथ्य आहारादिरूप कायादि क्रियाश्रोंकी तरह, प्राणियों के शुभफलदायक पुद्गलोकं सम्बंधका कारण होती हैं। जी शुभफलदायक पुद्गल हैं वे पुण्यकर्म हैं. जो अशुभ फलदायक पुद्गल है वे पापकर्म हैं, और इन पुण्यपाप कर्मो के अनेक भेद हैं। इस प्रकार संक्षेपसे इस कारिकाम संपूर्ण शुभाशुभरूप पुण्य-पाप कर्मों के सूत्र बन्ध का कारण सूचित किया है। इससे पुण्य-पापकी व्यवस्था बतलाने के लिये यह कारिका कितनी रहस्यपूर्ण है, इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। विशुद्धि के कारण, विशुद्धिके कार्य और विशुद्धि के स्वभाव को शुद्धचंग' कहते हैं । इसी तरह संक्लेशके कारण, संक्लेशकं कार्य तथा संक्लेशके स्वभावको 'संक्केशाङ्ग' कहते है । स्व-पर- सुख दुःख यदि विशुद्धथंग-संक्लेशाङ्गको लिये हुए होता है तो वह पुण्य-पापरूप शुभ अशुभ बन्धका कारण होना है. अन्यथा नही । तत्रार्थसूत्र में, “मध्यादर्शना विरतिप्रमोद+पाययोगा बन्धहेतव:' इस सूत्र के द्वारा, मिथ्यादर्शन, अविरनि, प्रमाद, कषाय-यांगरूप से बन्ध के जिन कारणों का निर्देश किया है व संक्लेशपरिणाम ही हैं; क्योंकि आर्त-गैद्रध्यानरूप परिणामोंके कारण होनेसे 'संक्लेशाङ्ग' में शामिल हैं, जैसे कि हिंसादिक्रिया संक्लेशकार्य होनस संक्लेशाङ्ग में गर्भित है । अतः स्वामी समंतभद्र के इस कथन से मुक्त सूत्रका कोई विरोध नहीं है । इसी तरह 'कायवाङ्मनः कर्मयोगः', 'स आसवः,' 'शुभः पुण्यम्याशुभः पापस्य' इन तीन सूत्रोंके द्वारा शुभकायादि-व्यापारका पुण्यासूत्र का और अशुभकायादि व्यापारको पापामुत्रका जो हेतु प्रतिपादित किया है वह कथन भी इसके विरुद्ध नहीं पड़ता; क्योंकि कायादियंग के भी विशुद्धि और संकेश के कारणकार्यत्व के द्वारा विशुद्धित्व-संक्लेशत्व सारांश इस सच कथनका इतना ही है किसुख और दुःख दोनों ही, चाहे स्वस्थ हो या परस्थअपनेको हो या दूसरेको कथंचित् पुण्यरूप सबन्धके कारण हैं, विशुद्धि के श्रंग होनेसे, कथंचित् पापरूप आसव बन्धकं कारण हैं, संक्लेशके अंग होन; कथंचित् पुण्यपाप उभयरूप श्रसव बन्धके कारण हैं, क्रमार्पित विशुद्धि-संक्लेशके अंग होन; कथंचित् श्रवक्तव्यरूप हैं, सहार्पित विशुद्धिसंक्लेशक अंग होनेसे । और विशुद्धि-संक्लेशका अंग न होने पर दोनों ही बन्धके कारण नहीं है । इस प्रकार नय- विवक्षाको लिए हुए अनेकान्तमार्ग से ही पुण्य-पापकी व्यवस्था ठीक बैठती हैं-सर्वथा एकान्तपक्षका आश्रय लेनेसे नहीं । एकान्तपक्ष मदोष है, जैसाकि ऊपर बतलाया जाचुका है, और इसलिये वह पुण्य-पापका सम्यक् व्यवस्थापक नहीं हो सकता । ता० ११ । ६ । १९४१ Page #348 -------------------------------------------------------------------------- ________________ युवराज [ लेखक - श्री 'भगवत्' जैन ] सनाको इसलिए और भी बुरा कहा है कि वासना वह विषयी कं प्राप्त ज्ञानको भी खो देती है। वह सौन्दर्य-मदिरा पीकर पागल हो जाता है ! भूल जाता है कि मैं किस अनर्थकी ओर दौड़ रहा और उसी उन्मन-दशामे वह ऐसा भी कर बैठता है कि फिर पीछे जिन्दगी भर उसके लिए रोये. पछताए, मुँह दिखाने भर के लिए जगह न पाए । 1 यज्ञदत्त भी ऐसे ही भयानक अनर्थ की ओर या जा रहा था, कि उसे दिगम्बर साधु महाराज अयनने रोक दिया। उनका जीवन ही परोपकार-मय होता है । वासना-विजयी महाराज अयन - शहर मे दूर, जन-शून्य स्थानमें विराजे हुए, भ्यानस्थ होनेके लिए तैयार हो रहे थे कि देखा - क्रांचपुरका युवराज यज्ञदत्त - बिल्कुल अकेला - लम्बे-लम्बे कदम रखता हुआ बढ़ा जा रहा है- उधर ! जहाँ ग़रीबी के मनाये हुए, पद-दलित मानवाने एक झोपड़ी डालकर, मरी हुई जिन्दगीके शेष दिन बिताना नय किया है । अन्धेरा हो चला है । दिवाकरको अम्नाचलकी शरण लिए काफी वक्त बीत चुका । स्वभावतः निशा हारको बुग साबित करनेवाले परिन्दे अपनी-अपनी नींद और अपने-अपने स्नेहियों के साथ घोंसलोंमे जा छुपे हैं ! दिगम्बर साधु निशा मौनके हामी होते हैं । प्राण जाएँ, लेकिन गतका बोलना कैसा ? प्राणांकी ममता उन्हें छोड़ देनी पड़ती है, क्योंकि यह सबसे वज्रन दार लोभ होता है। दुनियाके निन्यानवें फ़ीसदी पाप इसीमे छिपकर बैठे हैं। पर, जब कभी किसी पर करुणा आजाती है, उसके उद्धार उपकार की भावना अधिक प्रेरणा देने लगती है या धर्म उद्धारका खयाल पैदा हो जाता है, तब वैसे मौका पर गनके वक्त बाल भी लेते है । यह सही है कि जब वे देखते हैं कि 'मेरे बालन से ही कुछ उपकार हो सकता है, और मैं अवश्य ही किसीके हिनमें शामिल हो सकता हूँ' नभी बोलते है। और बोलकर या भरपूर उपकार करके भी इसमें प्रायश्चित लेते है । इस लिये कि यह दिगम्बर साधु-नियम के विरुद्ध है। उन्हें परोपकारके पहले अपने उपकारकी - श्रात्म सुधार कीभी ज़िम्मेदारी तो सँभालनी ही होती है ! उमीदों की, झोंपड़ी में रहती है-मित्रत्रती । जां कामियो, मनचलो की नजर मे रूपवती है ! पर, वह है जो अपने लिए समझती है- 'मुझ-मी दुखिया दुनिया के पर्दे पर नहीं !' यतवश है युवराज ! नव-यौवन, रमीला मन और साधन-सम्पन्न ! घूमते-फिरते उसने देख लिया कही, मित्रवती को ! ललचा गया मन ! कामीका क्या ? वह तो सिर्फ रूप देखता है! जाति-भेद उसे दीखता नहीं, और अपनी मर्यादा-प्रतिष्ठाका खयाल तो वह भूल ही जाता है ! चिराग जलेके बाद दबे पाँव अरमान और राज्यमदकी हिम्मत के साथ यज्ञदत्त चला, मित्रवती के रूपका आस्वादन करने ! उसकी पवित्रता पर Page #349 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३२२ अनेकान्त [वर्ष४ ग्वाक डालने । या उसके मनीयका लूटन ! उक्गधिकारी, माना गजिनाका प्याग-दुलाग हूँ, ___ मुनिगज अयनने मन दग्या, मव समझा ! मा ?" यक्षदनकी अनर्थकारी लालमान उन्हें करुणाई कर गुरुदेव अयनने कहा-'यह मब मै जानता हूँदिया। वे उसके द्वारा हानबाली भयंकर-भूलकी यनदान । लकिन श्रमलम तुम्हारी माँ मित्रवनी है, चादरमे छिपी जघन्यताका दग्यकर, मंमारकी दशा जिला नहीं । गजिलाने तुम्हें पाला है, और पाल पर दंग रह गए । मनम एक विचित्र श्रोधी मी उठी। कर गजपुत्र या युवराज बनानका मौभाग्य दिया है।" और यह निश्चय कर कि मेरे द्वारा इसका भला यनदत्तको यकीन ना हया; क्योंकि विश्व विरक्त हो सकता है, यह पापमं टल सकता है । बाल ही माधु वचन थे । लेकिन खुलामा जानने की इच्छा नो ठ शान्त न हुई । पछने लगा, हाथ जोडकर-महाराज । ____ 'ठहग. यत्नदत्त । कहाँ जा रहे हो, जहाँ जा रहे यह मब हुआ कैम १ हा, वहाँ न जाओ । जिम चाह रहे हो, उम न कैन हा ? जानना चाहते हो? अच्छा सुना।'चाही वग्नः अनर्थ कर पछतानकं मिवा और कुछ हाथ न पाएगा। वनिकका नाम-नक । स्त्रीका धूमा। धूमाका यनदन का गया । चरणाम मिर भृकाने हुए कुछ कहनं जा ही रहा था कि-नपानिधि फिर कहने पुत्र-बन्धुदन । शादी बन्धुदत्तकी होचुकी थी. स्त्री लगे का नाम था मित्रवनी । जो लतादी पत्री थी। 'यह पाप नहीं महापाप होगा-यक्षदत्त । माँ के ये मब रहने हैं-मृनकावती नगर्ग । मनीवको लूटना, बेटेकं लिा घार शर्मकी बात है ! नवानीकं निनाम मैंकड़ों भले करते है लोग। "मा कभी नहीं होता ! मित्रवनी-जिमका रूप तुझ भृलाकी वजह होती है-मनकी हिलारं ! दिल के इननी गत बीत, एक भिग्वागेकी नरह यहाँ नक अरमान, ताक-झांक ! और अनुभव हीनता ।.. घसीट लाया है, वह मित्रवती-तरी माँ है, मी मॉ बी इन दिनी बड़ी प्रिय लगनी है । जब कि बड़ाके है ! उसीने तुझे नौ महीने पेटमे रखकर नरक-री अदब कायदेकं बन्धनोंक सब उसकी मृग्न देखना वंदना मही है।' भी कम नसीब होता है। [श्राज जैमा तब म्बीयक्षदा गनके वक्त माधुको मम्भापण करने म्वातंत्र्य नहीं था। न माता-पिनाकी इतनी अवज्ञा हुप सुनकर ही आश्चर्यान्वित था, यह जो सुना ना ही थी कि वे बैठे देग्या करें और मियां बीबी अपनी एकदम सन्नाटेमें आगया ! मिनिट भर गुम-सुम बड़ा गप-शपमें मशगूल रहें । तब शायद शर्म ज्यादह थी, रहा-पत्थरकी अंकित मूर्ति की भाँति । फिर चैत- हेकड़ी कम ! ..] न्यना पाकर. चरणोमे बैठने हा अपराधीकी तरह उन्हीं दिनो मित्रवनीका रह गया-हमल ! यानी बोला गृढ गर्भ ! और बन्धुदन गया उन्हीं वनों परदेश ! 'वह मेरी माँ है ? जो पुन दरिद्रोकी झोपडीमे व्यापारके लिए ! पिता श्रादेशको लेकर ! रहती है .. मैं जो महाराज यनका पुत्र. राज्यका घरमें रह गई-मासु और बह । मासु शायद Page #350 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ युवराज हमंशाम ही मन्दिग्ध-स्वभावकी हानी आई हैं ! या. 'स्पलका' का सांपन काटा । निर्जन-पथ । माथ यों कह लीजिए कि उनके ऊपर ज़िम्मेदारी होती है. म दुग्विया नारी। क्या कर सकती थी ? उसकी गृहस्थी की. इसलिए उन्हें वैमा बनना पड़ता है ! अक्ल ना वैसे ही बिगड़ी हुई थी । वह मर गईकुछ मही. अक्सर इस मामलम मासु गलनियाँ कर गम्तमें ही। बैठनी हैं-इनिहाय इसका गवाह है। मित्रवनी अकली। यहमियन मासकं धृमान भी एक ग़लती की- माथमं गर्भ । बच्चे का भाग्य । रमन मित्रवनीका दुगचारिगी समझ लिया ! मन वह बढन-बड़न क्रांचपुर के जंगलम भाई । थकी. जाग्य कहा-सुना. पर फिर सुनना कैमा ? शायद यह मांदी, प्रसव पीडाम दुःग्वित । .. म्नीम्वभाव है-जा महम निकल गया. समीकी पुष्टि बच्चा नन्मा । वह अपनी नज़म्म भी फिर ठीक मालम नदव भी एक बार उसकी ओर देवा-हमरन-भग निगाह दाचार दिन घरमें कलह रही, नख चम्ब चली. में, ममनाकी दृष्टि में । मह चूमा । और धीरे-से कहा गना-पीटना पहा । घरके मामले में मंटनी क्या दम्न- - बटा. मंग।' न्दाजी कर सकते थे १ प्राधिकार था धूमा पाम! और फिर बांग्याम ओम भर लाई। बागपत्नी (फा अधिकार का उपयोग करना कौन लोड़ देता है- -परिचर्याक लिए कोई नहीं । श्राह, भाग्य । अपन वक्त पर सुबह हुश्रा । बालकको गन्न-कम्बलम लपेटकर __ उमन मित्रवनी निकाल दिया-घरने ! हिन्द नटपर रग्बा, श्राप कपड़े धान के लिए जलाशयमे गई। म्बिया मदाम शायद टमी तरह निकाली जानी रही देर तक धानी रह।। है। धाड़ा-सा हम भी किया कि एक दामी मात्र करी-उत्पलका ! कह दिया-'लनादन पाम. भू ठनक टुकड़ा पा गुज़र करनवाल हमेशा इसके पिनाक घर इम पहुँना श्राा ग्यानकी नलाशमं घुमा-फिरा करने हैं। कुन ने दग्वापंश्चनी स्त्रियों की बान जान दीजिये ! जो वैमी 'शायद कुछ ग्वाना होगा पाटली में । नहीं हैं. वे इस कलंकको लकर क्या पिनाक घर लपका । पाटली मामन थी-गवने वाला कोई जाना पसन्द कर सकती है ? इसका एक ही उर था नहीं वहाँ । पूर्ण स्वतंत्रता थी ले भागनकी । हा मकना है-'नहीं ! झिझक छोड़, महमें दबा ले दौड़ा।.. और वही मित्रवीन किया ! वह पिताके घर न भंड़ पर ऊन कोई नहीं देख मकता, ग़रीब पर गई. न गई ! वह यों ही बढ़नी गई-मार्ग पर । भाग्य धन । कुरो पर यह बहमूल्य-कम्बलकी पाटली कौन का भगमा थाम । पर भाग्य था उमवन रूठा हुआ। छोड़ मकना था ? दुग्यके वक्त दुग्व ही आना है, सुग्व नहीं ! शायद लोगोंने उलयाली । बालकर देखी गई नो सुन्दर श्राने घबड़ाना है । दुग्यम मुमकिन है, दृभगकी नरह, मलौना बच्चा । महागज यक्ष ऊपर ग्वड़े दंग्य रहे थे, वह भी डरना हो! महागनी भी बड़ी थी पाममें । इशाग किया गया। x Page #351 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ बच्चा ऊपर लाया गया। गनी न दग्या ना गम घरस बहिष्कृत, अपमानित, पद दलित मित्रवती गेम में मुम्कग उठी। ____इम सुयोगको न ठुकरा मकी। और आज तक इमी __निःसन्तान थी। बन्च के लिए जीत मरती थी। झोपड़ीम संकट के दिन बिता रही है। गंज स्वप्न में देग्वनी-बच्चा हो गया है। पुकार x x x x रहा है मुझे--ओ, मां।' तपोनिधि अयनने कहा-'समझा यक्षदत्त । और श्रोग्य खुल जानी। दिन का दिन गने मित्रवती तंग मां है, जिस पर तू कुदृष्टि डालन जैसे बीनना । महागज भी कुछ कम चिन्तित न थे । पर, अनर्थको बढ़ा जा रहा था । और हां. वह रत्न कम्बल अब ‘भाग्य ।' कह कर मन्नाप कर लेने के आदी हो जिसमे त लपटा हुआ था, आज भी गज भवनम चले थे। मौजद है, जाकर उस देख। और पछ महाराज बच्चा था--सुन्दर । दानाको भला लगा। बा- यक्षमे कि क्या वे वास्तवमै तेरे पिता हैं।' कायदा सं दत्तक पुत्र ठहरा दिया गया। नाम यक्षदत्त श्रद्धाम नत मस्तक हुआ, बार-बार रग्वा--यक्षदत्ता प्रणाम बन्दना कर, उलटे पैगें लौटा-गज-महलवी आर। कपड़े मफ कर मित्रवती जो लौटी ना दम्बनी मन प्रात्म-ग्लानिम भर रहा था । मोचना है-बच्चा लापता। जाता-'अगर गुरुराज दयाकर यह उपकार न करन 'हाय ।'-कहकर गिर पड़ा। मानावी ममता ना कितना अनर्थ होना।' जो एमके पास थी। फिर बच्चेक लिननी गई. कितना क्या किया। यह श्रामोनीम समझमे श्रान शयन-कक्षम।वाली बात है, लिग्वना व्यर्थ । महागज यक्ष और पटगनी गजिला दोनों ___ ग़रीबोंमें हृदय हाता है, दृमरकं दुग्यका अध्ययन विश्राम कर रहे थे। कि अचानक दोजा खुला । करनेकी क्षमता भी। जितनी बन सके उतनी मंवा मामन-यक्षदत्त । करनकी लगन भी । यथार्थता यह कि उनमें बनिम्बत महागज बोले, स्नहम भाई-स्वरम-'श्राश्री, धनिकोंके 'मनुष्यता की मात्रा कहीं ज्यादह होती है। आश्री गजकुमार । इतनी रात बीते पानका कारण ? शायद वह देव-मंदिरका पुजारी था-दरिद्र, यक्षदत्त चुप। साधन-विहीन । दयास उसका हृदय भर गया । यह मनम क्रोध उबल उठा है। मित्रवतीकी गीली आँखें, और करुण क्रन्दन-न राजिलान कहा-'बेटा ! सोय नहीं अभी ? क्या देख-सुन सका। आगे बढ़कर बोला कुछ तबियत खराब है ?' ____ 'बहिन ! अधिक न रो श्री, मुझे दुख होता है। यक्षदत्तने ममता-हीन होकर कड़े ग्वग्मे उत्तर जो होना था, हो चुका । चलो-मेरी झोपड़ीमे रहो। दिया-'हां ! मैं यह पूछने आया हूँ कि मुझे मालम और सुखसे जीवन बिताओ!' होजाना जाहिए कि व.म्तवम मरे माता-पिता कौन Page #352 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] युवराज हैं ? कब किस तरहसे तुम लोगोने मुझे अपना न जाने क्यो. वह इस वक्त बड़ा कारण हो रहा है। बनाया ?' दृमरे दिनइम नये और सहमा होने वाले प्रश्नन राजा मृतकावती नगर्गसे बन्धुदत्त बुलाये गए, और और गनी दोनों हीको अचंभित कर दिया। तत्काल उन्हें कुछ रनर देते न बन पड़ा।"fक यक्षदत्त दरिद्रोंकी झोपड़ीस मित्रवती । दानोंका शाही स्वागन फिर कहने लगा हुा। यक्षदत्त माता-पिनासं मिला। खुशीम मन उमका फूल बन रहा था ! 'मुझे मच, मच बतला देनम ही कुशल है वरना मुझे अपनी प्रतिष्ठाको भूल जाने के लिए मजबूर होना वर्षांवाद मित्रवतीको जब अपनी ग्वाई हुई पड़ेगा ! क्यों कि मै मब कुछ जान चुका हूँ।'-और आत्मा-यनदत्त-मला ता वह मारे हपके मूदितउमी वक्त यज्ञदत्तका हाथ तलवार पर जा पड़ा। मी होने लगी।-मंग बंटा।' कहती हुई दौड़ी, अंचलमें छिगन के लिए! महाराज ने कहा- 'मातापिता कौन है ? इसे हम पर, यक्षदरा गे रहा था ! लोग नहीं जानते, लेकिन यह मही है कि हम लोग तेरे जन्मदाता नहीं यक्षदत्त ! बहुत दिन हुए जब शायद मांच रहा था-'वाहग। दुनियां। कल तृ नवजातशिशु था, अशक्त था तब रत्नकम्चलम इमी मिलनक लि लालायिन था-आज..?' लपटा हश्रा हम लोगांन त एक कलंस उडाया था, मिलन !!! जो ग्युगक समझकर लिए जा रहा था !' वह वामनामय था-यह पवित्र ममनामय ! ___ xxxx यक्षदत्तका गला ऊँधमा गया ! इसके बाद युवराजको गज्य मिला, या पया बोला-'वह रत्नकम्बल कहां है-पिता जी!' हुश्रा ? बन्धुदत्त यही रहे, या मृनकावती नगर्ग ? महाराज कहा-'यह जो मामने बक्म है उसमें १ उमम महाराज यक्ष इन बानासे खुश रहें या नाखुश ? रग्बा है, देव ता निकालकर !' मित्रवतीन इमम भाग्यको दाप दिया या बाधुदत्तका ? रत्नकम्बल देवकर यक्षदत्त औसू न गेक मका! यह मब पुगणम लिग्या नहीं है ! XXX Page #353 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रत्नत्रय-धर्म [सं-पं० पन्नालाल जैन 'वमन्त' माहित्याचार्य ] । गतकिरणम ग्रागे) मम्यग्ज्ञान के विकासक य चाग भेद प्रत्यक ममय अपने अनुभवमें 'मति नकारनाजानं मन्यग्जानम्' -जो पदार्थ जमा प्रात हैं। है उसको उसी प्रकार जानना 'सम्यग्जान' है। सम्यग्ज्ञान श्रतज्ञान-मतिजानन जिम पदार्थको जाना था उम्मे विशपना लिये हुए जानना 'श्रृतज्ञान' है 1 जैसे आपने मतिसम्यग्दृष्टि जीवको ही हो सकता है। सम्यग्दर्शन होनेके पहले जो ज्ञान होता है उस मिथ्याज्ञान-कुज्ञान कहते हैं। ज्ञानम जाना कि 'यह घड़ा है' नो श्रुतजान जानंगा कि यह जल भरनेके काम आता है. अमुक स्थानम अमुक मूल्यमें मिथ्याज्ञान कभी मंशयप कभी विपर्ययम्प और कभी प्राप्त हो सकता है प्रादि । विशेष श्रुतज्ञान में मनकी सहायता अनध्यवमायरूप होता है। लेनी पडती है परन्नु माधारण श्रुतज्ञान मनकी महायनाक मम्यग्ज्ञानके भेद विना भी हो जाता है। मनिज्ञान और श्रृतजान मांमारक जेन शाखामे सम्यग्ज्ञान मुग्य पाँच भद बनलाय गय ममम्त जीवधारियों के होते हैं परन्तु क्वलज्ञान होने पर हैं.-१ ममिजान श्रमजान अवधिज्ञान ४ मनःपर्ययज्ञान निगेभूत हो जाते हैं। और केवलज्ञान । इनका मंक्षिप्त स्वप इस प्रकार है- श्रनका अर्थ शाब भी होता है इसलिय शाोक ज्ञान मतिज्ञान--मो ज्ञान स्पर्शन, ग्मना, घ्राण, नत्र, क्ण को भी 'श्रतज्ञान' कहते हैं। जैन सम्प्रदायक शाम्ब चार अथवा मनकी महायताम्म पैदा होता है उस मतिज्ञान' विभागों में विभक्त हैं उन विभागोंको 'अनुयोग' भी कहने कहते हैं। इसका विकाम-क्रम इस प्रकार है- अवग्रह दहा. है । वे ये हैं---, प्रथमानुयोग २ करणानयोग 3 चरणानुभवाय और धारणा। योग और ४ म्यानयोग। ___ इन्द्रिय और पदार्थक जानने योग्य संत्रम म्धिन होने प्रथमानुयोग-जिन शास्त्रोम तीर्थकर. नगयण प्रादि पर जो सामान्यज्ञान होता है वह 'अवग्रह' कहलाता है, महापुरुषों के जीवनचरित्र लिखे हों व 'प्रथमानुयोग' के शास जैसे भाग्यम देखने पर मालूम हुमा कि 'यह मनुष्य है। हैं। इस अनुयोगके प्रकाशित हुए कुछ शायों के नाम ये हैं - इसके बाद यह मनुष्य पंजाबी है या मद्रासी इस प्रकार प्रादिपुराण. हरिवंशपुराण, पनचरित्र, प्रद्युम्नचरित शानि । पालेकी अपेक्षा अधिक जानने की चेष्टाम्प ज्ञान होना २करणानुयोग-जिन शास्त्रों में भुगोल, गणिनकान'ईहा' ज्ञान कहलाता है। ग्वाम चिन्ह देखकर निश्चय हो परिवर्तन और प्रामाके भावांका विकासक्रम गुणस्थान जाना कि 'यह पंजाबी ही है अथवा 'मद्रासी ही है' इमे वगैरहका वर्णन रहता है उन्हें 'करणानुयोग' के शासकहने 'भवाय' कहते हैं। और अवाय-द्वारा जाने हुए जामकी हैं। इस अनुयोगके प्रकाशित हुए कुछ ग्रंथोंके नाम निम्न स्मृति भविष्यतमें बनी सना 'भारणा'ज्ञान है। मतिज्ञान प्रकार है-- त्रिलोकमार, गोम्मटसार प्रादि । Page #354 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५] रस्न-त्रय धर्म ३चरणानयांग-जिन शास्त्रों में मुनि और गृहस्थीक यह ज्ञान होता है व 'मर्वज' कहलान है । मंसारक भीतर चाग्निक योग्य प्रावश्यक कार्योंका वर्णन होना है व 'चरणा- या कोई भी पदार्थ बाकी नहीं रहना जिन्हें केवलज्ञान न नुयोग' के शान कहलान है। इस अनुयोग छपे हुए कुछ जान पाता हो। ज्ञानगुणका मबम अधिक विकास इसी शाम ये हैं --मूलाचार. स्नकरगहश्रावकाचार, वमनन्दि- शानमे होता है। श्रावकाचार, भगवती पागधना प्रादि । जानगुणको रोकन वाला जानावरण कर्म है, जब तक ४ द्रव्यानुयोग-जिन शाम्रोमे जीव, पुदगल, धर्म वह मौजूद रहता है नब नक जीवक पूर्ण ज्ञान प्रकट ही एक प्रकारका सम पदार्थ जो कि जीव और पदगलोंको हो पाना परन्तु ज्या ज्या उसका प्रभाव होता जाताया चलने में सहायक होता है। अधर्म । एक प्रकारका सम्म यो जान भी प्रकट होता जा 1 जानावरण कर्मका जब पदार्थ, जो कि जीव भोर पदगलांको ठहरनम महायक होता बिलकुल प्रभाव होजाना है तभी कंवलज्ञान प्रकट होता है। है), आकाश और काल इन छह द्रव्योंका वर्णन हो व 'द्रग्या ऊपर लिखे हुए पांच जानाका विशद-विशेष स्वरूप नुयोग' के शान हैं। हम अनुयोग कुछ शास्त्रोक ये नाम जाननके लिय पाठकोको गोम्मटमार-जीय कारक ज्ञानमार्गणा है--समयमार राजधानिक नस्वार्थमार, श्लोकवानिक श्रादि। ना नामक अधिकारका अवलोकन करना चाहिय। जेनियांक ये ममम्न शास्त्राचार प्रादि बारह प्रजाम मम्यकचारित्र विभक्त हैं, जिन्हें द्वादशाह' कहने है। जिम मानवको पूर्ण सम्यक्चारित्रक दो भेद है -, निश्चय और • ग्यव. नजान होता है उस 'श्रतकवली' कहते है। हार । मामाक अन्य पदार्थोंम गग-ष छोड़कर अपन अवधिज्ञान--द्रव्य-क्षेत्र-काल-पादिकी अवधि मयादा) प्रान्माकं शुद्ध स्वरूपमें लीन होना निश्चयम्सम्याचारित्र' लिय हा रूपी पदार्थोंको एक दश स्पष्ट जानना 'अवधि योर उम्मक महायक जितने क्रियाकागड ये पत्र व्यवहार जान है। इस जानम इन्द्रिया तथा प्रकाश वगेरहकी महायना चाग्नि है। यहां इतना ममम लना आवश्यक होगा कि की अावश्यकता नहीं होती । जिम पुरुषको अवधिज्ञान होना निश्चयमम्यवाग्निकी प्राप्ति व्यवहारमारित्रका पालन करन है वह कई वर्ष पहल और ग्रागकी तथा कितनी ही दरका मही होगी। प्रथम म्याम निश्मय माध्य और व्यवहार बानको प्रन्या जान लता है। इसकं भी भनक भंत होने है माधक होता है परन्तु प्राग चलकर शुद्ध म्वरूपकी प्राप्तिकी परन्तु यहां इतना ही पर्याप्त है। यह ज्ञान देव और नरक अपेक्षा निश्चय भी माधक हो जाता है। जैन शाम्भ्रमि इन योनियों में नियममे होता है किन्ही किनहीं गृहम्या नथा दोनों प्रकारक नारियांका प्रमुग्वनाम वाम है। प्रागे ब. मनियोंक भी होता है। नियंच भी इस प्राप्त कर सकने । हार प्रधान प्रवृतिरूप मम्यक्चारित्रका वर्णन किया जाता। मनःपर्ययमान-विना किमीकी महायनाक नमक व्यवहार-चारित्र मनकी पानको जान लेना मनस्यज्ञान है । यह ज्ञान हिमा, मृपा, म्य, न्यभिचार और परिग्रह इन पांच मुनियोंक ही होता है। पापांका न्याग करना 'व्यवहारचारित्र' है। ये पांच पाप केवलज्ञान-भूत, भविष्यन और वर्तमान कालके अत्यन्त दु:ग्वक कारण हैं। यदि मंग्यारक समम्न प्रागी इन समस्त पदायाँको एक माथ स्पष्ट जानना 'कंवलज्ञान' है। पार्षीका भ्याग कर देवं नो मांगारम मच पोर मुग्य-शामिका यह ज्ञान प्रान्त और मिद परमात्मा ही होता है। जिन्हें माम्राज्य का गांव । इन पापोंका भ्याग पूर्ण और अपूर्णरूप Page #355 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त विषे४ से दो प्रकारका होता है। जो इन पापोंका पूर्ण ग्याग कर मंक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है-- देते हैं वे मुनि-माधु कहलाते हैं। ईर्या-मार्ग चलते समय चार हाय जमीन देखकर मुनि धर्म चलना, दिन में ही चलना, और मौन व्रत लेकर चलना मुनियों के पांच पापों का प्रभाव होने पर क्रमसे अहिंसा, 'ईयां समिति' है। साधु हरी घास पर या जल वगैरह से सम्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । ये पांच महावत सीची गई पृथ्वी पर नहीं चलते । प्रकट होते हैं । इन पांच महावतोंका संक्षिप्त स्वरूप इस भापा-हितकारी परिमित और सत्य वचन बोलना प्रकार है 'भाषा समिति' है। ___ अहिया महाव्रत-मन, वचन, काय और कृतकारित एषणा-दिनमें एकबार खड़े होकर शुद्ध-निर्दोष अनुमोदनमै चर-अचर जीवोंकी हिंसाका त्याग करना आहार लेना 'षणा' समिति है। मुनि अपने हाथसे आहार 'अहिंसा महावत' है। साधु अपने समस्त कार्य बड़ी साव नहीं बनाते। गृहस्थोंके घर जाकर बिना मांगे हुए पाहार धानीके साथ देख-भाल कर करते हैं, इसलिये चलने या लेते हैं। भोजन वगैरहके समय जो सूक्ष्म जीवोंकी हिंसा होती है अदान निक्षेपण-अपने पासके पीछी कमण्डलु या उसका पाप इन्हें नहीं लगता । पारमा दुषित भाव उत्पन्न शास्त्रोंको देख-भालकर उठाना या रखना 'श्रादाननिक्षेपण' होना ही वस्तुनः पाप है। ममिति है। सत्य महावन-प्रमाद-सहित होकर श्रमस्य वचन प्रतिष्ठापन-जीव रहित-निर्जन स्थानमें मल मूत्रका नहीं बोलना 'सत्य महावत' है। यह हम पहले लिख पाये त्याग करना 'प्रतिष्ठापन' ममिति है। इसका दूसरा माम हैं कि असत्य बोलने में राग-द्वेष और प्रज्ञान ये दो ही मुख्य 'न्युत्सर्ग' समिति भी है। कारण हैं। उनमेंसे साधु प्रमाद अर्थात् राग-द्वेष-पूर्वक कभी समिति पालनका मूल उद्देश्य यह है कि अपने द्वारा भी असत्य वचन नही बोलता । अज्ञानस असत्य बोला जा किसी दूसरे जीवोंको कष्ट न हो सकता है, पर उससे वह विशेष दोषी नही ठहरता । इनके सिवाय, साधुओंको जितेन्द्रिय होना पड़ता है। ___ अचौर्य महावत- 'वना दिये हुए दूसरेकी किसी भी स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रियां हैं वस्तुको न पाप लेना न उठाकर दूसरेको देना 'प्रचौर्य- इनके क्रमसे स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द विषय है। महावत' है। साधु अच्छे स्पर्शादिमें न राग-प्रेम करते हैं और नहीं बरे अपरिग्रह महावत--रुपया पैसा प्रादि हर प्रकारकी स्पर्शादिमें द्वेष करते हैं। पर वस्तुभोंसे मोह छोड़ना--उनमें लालसा नही रखना इनके अतिरिक्त साधुनोंको छह आवश्यक (जरूर करने 'अपरिग्रह महावत' है। योग्य कार्य) काम करना पड़ते हैं। वे ये हैं- समता साधुनोंको इन व्रतोंकी रखाके लिये समितियोंका भी २ बन्दना ३ स्तुति प्रतिक्रमण ५ स्वाध्याय और पालन करना पड़ता है। समिति [ सम + इति ] प्रमादरहित ६ युसर्ग । इनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्न प्रकार है। प्रवृत्ति को करते हैं। वे पांच होती हैं- ईयां, २ भाषा, समता-संसारके समस्त प्राणियोंमें मध्यस्थ भाव ३ एषणा, ५ भादान निक्षेपण, और ५ प्रतिष्ठापन । इनका रखना। Page #356 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] रस्नत्रय-धर्म ३२६ वन्दना-पाराध्य देवको नमस्कारादि करना तम्बू होता है. निशाएँ उनके वस्त्र होती है, चन्द्रमा और म्तुति-पाराध्य देवकी स्तुति करना। अभय नार उनके निशा दीपक होने है और मृग गण प्रतिक्रमण-किये हुए दोषी पर पश्चात्ताप करना। उनके माथी होते हैं। उन्हें न किसी राग होता है और म्वाध्याय-मान वृद्धि के लिये शाम्प पढना । न किसीम हप । व काम-क्रोध-मानमाया लोभ मादि व्युत्मर्ग--श्रामशक्ति पटानक लिय शरीरमे ममश्व दुभावों पर विजय प्राप्त किये होते हैं। वे प्रातःकाल बाहामुछोड कर स्थिरचिन होकर महामन्त्रादिका जाप करना। हृतम लकर मूर्योदय तक मामायिक, प्रामचिन्तन--परमात्म इनक सिवाय मुनियाको नीचे लिग्व हा • गुणोका ध्यान करते है, उसके बाद शरीर सम्बन्धी दैनिक कार्योसे पालन और करना पटना है। माधुदीक्षाके बाद जीवन. निपटकर शाम्यावलोकन करत है। करीब ... बजे पयं.1 म्गनका ग्याग करना क्योकि म्नान सिर्फ गरीर आहारक लिय श्रावकोक घर जाने । पहा श्रावकोंक द्वारा शुद्धिका क बाप मोर जान हिमाका कारण है, विधि पूर्वक प्रसन्मनाक माय मिय हा याहारको रूप मात्राम • पिछली रानमे सिर्फ जमीन पर शयन करना. ३ नग्न खः खई अपने हम्नरूप पायम ही लनं है। पाहारके बाद गहना ४ बालीको उम्तर या के चीम न काटकर हायोग्य मध्याहक समय फिर प्रातःकालक समान मामायिक करक उवासना . एकबार धोना भोजन करना । दन्न धावन ग्राम निबन करत है। यामायिका बाद शाम्बावलोकन नहीं करना और । यद व पाणि-पानमे भोजन करना। या धर्मापदंशका कार्य करते हैं। उनका यह कार्य मर्यास्तक यपि य मान गुग्ण पहल कह हा महावनी और लगभग तक जारी रहता है। पुन' सामायिक और प्राम पमितियांक भीतर गथामभव गर्मिन ही जान है तथापि चितवनमें लीन हो जाते हैं. मामायिकके बाद अपने निश्चित अयन यावश्यक हनक कारण उनका पृधक निदेश म्यानपर ग्रामीन होकर अर्ध गम्रि तक अपने हृदय में नाव किया गया है। विचार या इंश-प्राराधना करने है। मध्य रात्रिक वादका इस प्रकार मुनियोंकी - महावत। । पमिति। - इंद्रिय ममय शयन व्यतीत करतं है।नका शयन जमीन पर ही विजय । ६ श्रावश्यक और शप । गृण कल ८ मुग्य होता है। इस कठिन दिन-चर्याको दिगम्बर माधु बही मुल) गुणीका पालन करना पड़ता है। इन ८ गुणांक उस्मारक माध करनं है। उनका जी कभी भी व्याकुल नहीं पालन करनमें जो शिथिलता या प्रमान करना है वह नग्न होना। जेट मामका कठोर निनकर, पावसकी घनघोर वर्षा होने पर भी मिथ्या माध है. जैन शास्त्रों में उसकी भकिन- और मन्न-शिशिरकी असीम शीत वायु क्रम क्रममे उनकी वन्दना श्रादि साकार करनका अ यन्त निषध है। परीक्षाके लिय श्रानी है परन्तु व अनुत्तीर्ण नहीं होते -मब दिगम्बर जैन मनियाका मुख्य निवाम नगरमे न होकर बाधाओंको महतं हुए महानदीक प्रवाहकी तरह आगे बढ़े बनम हुमा करता है। उनके पावन नगरके पूषित वाय जाने हैं। अपने इष्टकी प्राप्ति होने तक कर्तव्य पथ पर इंटे मगडलकी गन्ध भी नहीं रह पाती। उनकी आलोकिक रहनं है। उ मांसारिक विषयांस किमी प्रकारका स्नेह शान्ति दबकर जालक जानि विगंधी जीव भी परम्परका नहीं रहना । नकी प्रवृत्तिही अलौकिककोजाती है। यदि विरोध छोडकर मौहार्द में रहने लगते है। क करीली पथरीली वैराग्यका सच्चा प्रादर्श देग्वना है नो वास्तविक दिगम्बरजैन वसुधा उनका प्रायन होनी है. निर्मल नील नभ उनका माधुनोंको देवो । यदि समा और विनयका भण्डार देखना Page #357 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ चाहते हो तो मे ही दि. जैन माधुनोंको दवा । यदि हुआ है उस छोड़ कर अन्य क्रियाक माथ सम्बन्धका त्याग मरलता और भावुकताका दर्शन करना चाहते हो तो दि० करना। अपनी बीमही मन्तोष रग्बना 'ब्रह्मचर्याणवत' है। जैन माधुओंको दंग्खो, और ब्रह्मचर्यका अादर्श देग्वना चाहनं अपरिग्रहाणुव्रत-अावश्यकता अनुसार धनधान्य हो नो सहम सुर-सन्दरियांक मध्यमें भी अविकृत रूपम म्पया वगैरह परिग्रहका परिमाण कर लेना और उसमे नग्न रहने वाले दि० जैन माधुश्रीको देवा । अधिकका मंग्रह नहीं करमा अपरिग्रहावन' अथवा 'परिग्रह गृहस्थ-धर्म परिमाण' नामका व्रत है। व्यर्थ ही सम्पत्तिको रोक रग्बना जो उपर लिग्वे हए पांच पापीका अपूर्ण- एकदेश पाप है । मंग्याम्म अाज जिम निरनिवादको आवाज उठाई म्याग करता है वह हस्थ-श्रावक कहलाता है। हस्थी में जा रही है. उमका उपदेश जैन गृहम्थक लिय बहुत ही रहने हुए पांचों पापांका पूर्णग्याग ही नहीं सकता, इमलिय पहलम दिया जा चुका है। इनके अपूर्णस्यागका विधान है। हिमा श्रादि पांच पापांका इन व्रतांकी रजाक लिय गृहस्थको दिखत. देशव्रत अपूर्ण त्याग करने पर श्रायकोंके पांच प्रणवत होने है। और अनर्थदगदुव्रत इन नीन 'गुण वती' को भी धारण उनके नाम ये*..., अहिमायत र मायागवत करना पडना है । गुग व्रतीकी सिप्त व्याख्या हम प्रकार है-- प्रचौर्याणवत ४ प्रहाचर्याणवत ५ और अपरिगृहाणन दिखत-पारम्भ या लोभ वगैरह को कम करने के अथवा परिग्रह परिमाणवत । इनका मंक्षिप्त स्वरूप हम अभिप्रायम् जीवनपयन के लिये दशी दिशाणाम अान जाने प्रकार है-- का नियम करले और मर्यादित संग्रम बाहर व्यापार अहिंसागवत -मंकल्प करक चर-त्रम जीवोंकी हिमा अादिक उद्देश्यम नहीं जाना 'दिग्बन है । हा. धार्मिक का ग्याग करना 'हिमाणुवत' कहलाता है। इस व्रतका कायाँक लिय बाहर भी जा सकता है। धारी संकल्प-इरादा करके कभी किसी ग्रम जीवकी हिंसा दशवन-दिग्बतक भीतर की हई मयांदाका दिननहीं करता, न देवी देवताओं के लिय बलिदान ही चटाना है। महीना आदि निश्चित अवधिनक और भी मंकोच करना: शत्रुमे अपनी रक्षा करने, व्यापार करने, वा रोटी पानी अादि नीमम अाज बनारमय बाहर नहीं जाऊंगा श्रादि देशयत' है। घर-गृहस्थीके काोंमें जो हिंमा होती है, गृहस्थ उसका अनर्थदण्डव्रत-जिन कामोंक करनेम व्यर्थ ही पाप प्यागी नहीं होता। अहिमागबनी परुष म्यावर जीवाकी का प्रारम्भ होता हो उन कामोके करने का प्याग करना हिमाका त्याग नहीं कर मकना. पर उनका भी निष्प्रयोजन 'अनर्थदण्डवत' है। विना प्रयोजन कार्य करन सिर्फ पाप संहार नहीं करता। काही मंचय होता है। सत्याणुबन-स्थल ऋठका ग्याग करना 'मायाणुव्रत' इनके सिवाय भागकी कक्षा--मुनिधर्मका अभ्यास है। यह व्रती ऐसा मग्य भी नहीं बोलता जिससे व्यर्थ ही करने के लिये गृहम्थको चार शिक्षायतों' का भी पालन किमी जीवको दःख हो। करना आवश्यक है। वे य है--मामायिक २ प्रोषधोपवाम प्रचौर्याणुव्रत-बिना दी हुई किमीकी वम्नुको न ३ भोगापभोगपरिमाण और ४ अनिधिसंविभाग। यहां स्वयं लेना और न उठाकर किसी दूसरेको देना इनका संक्षिप्त स्वरूप बतलाना अनावश्यक न होगा। प्रचौर्याणन है। मामायिक-मुबह शाम और दुपहरको किम्मी निश्चित ब्रह्मचर्याणुव्रत-जिसके साथ धर्मानुकूल विवाह समय तक सब पापोका पूर्ण त्याग कर अपने प्रारमाके शुद्ध Page #358 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] रस्नत्रय-धर्म म्वरूपका चिन्तन करना, परमा'माका ध्यान करना और इन वतीका यथार्थ रूपमे पालन करने वाला मनुष्य मरकर पिछले समयमें किये हुए दोषों पर पश्चाताप करना प्राय: दवयोनिमे ही उपस होता है। सामायिक है। इस तरह संक्षेपस सम्यग्ज्ञाम और सम्यक्चारित्रका प्रोपधापवास-प्रत्यक अटमी और चतुर्दशीको उप- सामान्य स्वरूप बतलाया गया है। यही नीन पदार्थ ॐनवाम या एकाशन करना 'प्रोषधोप वाम है। गृहस्थ परुष गायोमे 'निय' नाममे प्रसिद्ध है। प्रोषधोपचापक दिन ममम्न व्यापार तथा शारादिका रत्नत्रय ही मोक्षका मार्ग है न्याग कर अपना समय धर्मध्यान. म्वा याय या ईश उपर कहे हुए तीन नाका समुह ही मोत-निर्वाण-प्राप्ति पाराधनाम व्यतीत करता है । शरीरका स्वास्थ्य अतुगण का उपाय । इस विषय में प्राचार्य उमाम्वामीका वचन है - रखनेक लिय भी आठ दिन में कमम कम एक उपाय करना सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमागेः' अर्थात् अन्यन अावश्यक है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र ही मोक्षका मार्ग भोगांपभोगपरिमाण-जो वस्तु एक ही बार भोगने है--उपाय है। बीमार मनुष्य मोवधिक विश्वाम, ज्ञान में पात्र उमे 'भोग' कहने है जैम भोज्न वगेरह और जो और वन--इन तीन कार्यो के होने पर ही . बीमारीमे वस्तु कई बार भोगी जा सके उस 'उपभोग' कहते हैं जैसे मुक्त हो सकता है, वैसी मारी जीव श्रद्धान-विश्वास वर, वाहनमकान वगैरह । भोग और उपभोगकी वस्तुओं ज्ञान और चारित्रक होने पर ही मांसारम्प रोगय हुटकारा का जीवनपर्यन्तक लिय अथवा कुछ समयकी मर्यादा लेकर पा सकता है। यदि नयका मालंकारिक रस्टिस विवंचन परिमाण अवधि निश्नय कर लना 'भोगीपभोगपरिमाण' किया जाव तो समय एक प्रकारका वृक्ष है, जिसका मूल. ग्रत है। जैग किमीन नियम किया कि आज मै दाल और सम्यादर्शन है. सम्यग्जान स्कन्ध और सम्यक्चारिणशाग्वा गवल ही ग्वाऊंगा एक करता पहनगा पोर मात्र एक दरी है। हम स्नप्रय वन में स्वर्ग और मोक्ष रूप फल लगनं है। पर लगा प्रादि । निक मामने मंसारक अन्यफल नुछ हो जाते है। अतिथिमविभाग-मन-श्रापिंका. श्रावक-श्राविका पाठकगगा ' ऊपर लिग्वं हुए नवयक म्वरूपका गंभीरता नमा अन्यमनुष्य को श्रावस्यकतानमार भोजन घोषधि क साथ विचार कीजिये और उसके विशेष स्वरूपका जन पुस्तक नथा हनके लिय मठ मकान वगैरह देना अनिथ प्रथा परम अध्ययनकर मनन कीजिय। मनन करने पर मालूम विभाग बनी। इस तनका धारी नि:स्वार्थ भावमदान होगा कि वास्तव में ग्नत्रयके भीतर समम्त लोकका कम्याण दना है--दान देकर प्रत्यपकार-प्रनिदान या उपक मल में निहित है। वगैरहकी इच्छा नहीं करना । ___ इस लेग्वका प्रतिपा० विषय जैनपाटकोक लिये नया नहीं ___ इस प्रकार ऊपर लिग्वं हुए ५ घणय।। ३ गुणवन है, क्योंकि नियोका प्रायः प्रत्येक पालक रम्नत्रयक मंक्षिप्त और ४ शिक्षावत यं गृहम्थ-अथवा श्रावकांक १२ वन म्वरूपम थोडा बहन परिचित रहता है। यह लेग्य उन्हें उद्देश्य कहलाने हैं। इन वनों में हिमा अादि पाच पापीका अपूर्ण कर लिया भी नहीं गया है। लेग्यका उद्देश्य प्रायः इतना म्याग रहता है। हा है कि हमारे माधारण अजेनपाठक भी जैनधर्म सम्ब. इनके अतिरिक्त जैनगृहस्थकं रात्रिभोजनका म्याग होना स्नत्रयके स्वरूप का परिचित हो सक-प्रयका भेदोंहै. वह पानी छान कर पीना है. मद्य-मांस और मधु (शहद उपभेदों और सामान्य स्वरूपको लिये हुए म्यूल ढांचा एवं का भी भवन नहीं करता। वह मे फल वगैरह भी नहीं खाका उनके सामने पाजाय--और उन्हें विशेष परिचय के ग्वाता जिनमें ग्रम (चर) जीव और बहु नम्म म्यावर (अचर) लिये जैन ग्रंथोंकी बने की प्रेरणा मिले। इसीलिये लेखमें जीवोंकी हिसा होती है। मंक्षेपन:--'सच्चा जनगृहस्थ अधिकतर मरलभाषाका व्यवहार किया गया है। जीने के लिये खाता है न कि ग्वाने के लिये जाना है' । भ्याय वमन्तकुटी' मागर, ना.१४-५-४१ भाजीविका करना हा अपने कुटुम्बका पालन करता है। Page #359 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीत-विचार-संग्रह । मंग्रहकार-५० दौलतगम 'मित्र'] -- * ******* गीतकी महा ग्रादित विषय बारमानने ममय पनि दोनों मिलकर कवितायी गमी शक्ति देन है कि जिमम भावोम कंपन उत्पन्न होग है. हृदय चनन दोजाना ममय पर कितना है। विचार किया है। मेरे पाम मं विचागं है. आर बाहरको भापा हृदयकी एक वस्तु होजाती है । का अच्छा संग्रह है। श्राज उममेके कृल उपयागी विचार ७) मंगीतम मनुष्यांक म्वभावम ममग अाजानी है. श्रनेकान्त के पाठकोये लिये नीनं श्रीकन विते है: क्रोध शान होजाना है । यह. मनुष्य क्या महृदय प्रागीमात्र (१) मंगानका अ म गीत (गायनानी नही है । दल पर जादका मा अमर करता है। कित "गीतं वाचंच नृत्यं च त्रयं मंगीतमुच्यत" ८) माया मदभावाय जगानेकी नाक्न मगीन म अर्थात गाना, साना श्रार .IIचना ना नीनाव मिलने है। का नाम मगीन है। ६) सनम मगा पर नदीवर या ।' गा है या 1.) भाषा पर मनानका पगार पर काम कामयागीता नही है परन्त नितने अशम हम मंगान में ताल-पर अपन था। स्पन्न दाने जगत है। यं नाल मन्य हैं उतने अंशम पशुक ममान हगने जामकन है। पराशब्दक ममान दमदनगर्ग है। क्योकि भदप मापा हदमदाग प्रन्यन मम्बन्धमा दाख, श्रानंद, श्राश्रय, श्रादि विकारको न्याग्निक है। भाषा मास्ताव दारम दृदयमंदिरम प्रवेश करनी लिये मनुष्यका श्रानी श्रावाजम फर ना पता है। है।मापा कंवल दी है। मदतीको मदागजी मभाम बम दम कलाग उन्नात करत करती मायने मंगी को प्रवेश करनेका अधिकार नहीं है। यह महागजके दीवानहर निकाला। प्याने तक ना मकती है. और वहो जाकर अपने अानेका (३) भाषाके द्वारा ना चपय मनुष्य में गल नही मंवाद महागजके नाम भंज मकती है, भाषाका अर्थ ममझना उन वे मंगीत के दाग तार जा सकते हैं। मगान क्या रहा है उममा अन्धय-अर्थ श्रादि करनेमे गमय लगता है. मियाकी दली है। है त मंगीत के सम्बन्धम यह बात नही है । पट १४) मंगीन टन दलका श्रापाध है। न' माधा हृदयमे जाकर मिल जाना है। (५) मंगीन श्रग्ने दाग ही महान है। वही शब्द ) गायन शनके सच्चे अर्थको उनम गनिमें श्रटक नाने हैं, मंगीत बढीम शुरू होता है । जो निर्वाच्य प्रकट करता है । है, यही मंगानका प्रदेश है। वाक्य निमे नहीं कह सकता. १) मंगीतकी महायतामे दी शब्द अजात स्थान मंगीत उसे बोल बनाना है। मंगीत अपने चमत्कार-जन्य तक पहंच मकते हैं: अग्नी मामर्थ्य के बल नदी । क्षेत्रमे श्रात्माको मुग्ध बना डालता है। १३) अमान पक्षी (अंतरात्मा) लोह के पिंजरे में बंद । ६) छद मंगीनका एक रूप है. अन' छद और होकर भी अमर्यादिन और अजेय बातोको गनगनाया करता Page #360 -------------------------------------------------------------------------- ________________ संगीत- विचार -संग्रह किरण ] है । हृदय ऐसे पक्षीको सदाके लिए निकट रखना चाहता है. परन्तु हृदयमे ऐसी शाक्त कहो ? उन अज्ञात पक्षियकि आने जानेकी वान मन्ना सिवाय नाल-मरीके और कौन कह सकता है ? (१४) मंगानामा अव्यक्त अजेय और दुर्जेय रहस्यका चित्र तैयार कर देता है। जो जानकी वस्तु है उसे एक भाषाने दूसरी भाषा में परिवर्तन कर देनेसे कार्य चल जाता है किन्तु भाग विषयमे यह यान नहीं हो सकती बुद्धिमनाकी । वे जिम मृर्तिका सा लेते है, उससे पर अलग नहीं हो सकते। (१५) मनुष्य मात्र स्वभावतः मिनाको अपेक्षा नाका अंश आधक रहता है। उस मुना अंश मोहित करने की शक्ति संगीतम है । (१६) काव्य में एक गुण है। वह राठकोकी कल्पनाशक्तिको उमजत कर देना है। (१७) काव्य श्रात्माका चित्र है । (१८) सभी बड़े बड़े काव्य हम लोगोको बृहत्कीर बीचकर लाते है और एकान्नकी र जानेका संकन करते हैं । पहिले वे बंधन तोड़कर निकलते हैं और पीछे वे एक महानके साथ बाघ देते हैं। प्रात:काल वे मार्गके निकट ले जाते हैं और यकी पर पहुंचा देते है नाम माथ 1 एकबार आकाश पाताल मे वृमा फिरावर सम (ताल) के बीच श्रानन्दमे लाकर खड़ा कर देते हैं। de 1967, (२०) काव्य चित विशुद्ध और भीतरी प्रकृतिका प्रेमी होता है। इमालये काव्य धर्मका प्रधान सहायक है। विज्ञान या धर्मदेश काव्य भी है। प्रधानता देना चाहते हैं उन्होंने मनुष्यत्वका ग्रमन्ली मर्म नही समझा है । (२१) जो जानकी बात है. प्रचार होजाने पर उसका उद्देश्य सफल होकर समाम हो जाता है किन्तु हृदयके भावांकी बात प्रचारके द्वारा पानी नहीं होती | जानकी बात को एक बार जान लेने के पश्चात फिर जाननेकी श्रावश्यकता नहीं रह जाती, किन्तु भावोकी बातको बारम्बार अनुभव करके भी श्रानिबोध नहीं होता । श्रनुभव जितने प्राचीन कालसे जितनी लोक परंपराश्री द्वारा प्रवाहित होकर ग्राम है. उतना ही वह हमें महज में ही आविष्ट कर सकता है। यदि मनुष्य अपनी किसी वस्तुको चिरकालपर्यन ३३३ मनुष्याक राम उज्वल तथा नवीन सावरकर. रखना चाहता है तो उसे गावोकी बातका ही आश्रय लेना पड़ता है । इसी कारण साहित्यका प्रधान श्रवलम्बन ज्ञानका विषय नहीं, भावोका विषय है । जानकी बात प्रमाणित करना पड़ता है, और भावो की बातको संचारित कर देना होता है। उसके लिये नाना प्रकारकं ग्रामामांनीकी चतुराईयांकाश्यकता पड़ती है। उसको केवल समझाकर कह देने से कार्य नही चलना उसकी सृष्टि करना पड़ती है (२२) यदि रूपकको रूपके द्वारा अभिव्यक्त किया जाय तो वाकेि अन्दर अनिर्वचनीयताकी रक्षा करनी पड़ती है। भाषा के बीच में दस गापातीतको प्रतिष्ठित करने के लिये साहित्य मुख्यतः दी वस्तुश्रीको मलाया करता है, एक चित्र दूसरे संगीत | זי वागकि द्वारा जिसे नहीं कहा जा सकता उसे चित्रके द्वारा कहना पड़ता है। साहित्य में इस प्रकारकी चित्र रचना की सीमा नहीं है। उपमा, तलना और रूपक के द्वारा मान पत्यन्न होना चाहते है । इसके श्रातायत वृंदामे शब्दोंमे वाक्यविन्याममे, साहित्यकी संगतिया श्राश्रय तो लेना ही पड़ता है । जिसको किसी प्रकार भी कहा नहीं जा सकता उसे संगीतके द्वारा ही कहना पड़ता है। जो वस्तु अर्थक विश्लेषण करने पर सामान्य प्रतीत होती है वही संगीतके द्वारा श्रसामान्य हो जाती है। यह संगीनी वाणी वेदनाका संचार कर देना है। श्रतएव चित्र और संगीत ही साहित्य के प्रधान उपवा हैं। चित्र भावको ग्राकार देता है. और संगी गति प्रदान करन | चित्र देश है श्री वीन्द्र की प्रार । नोट 1 Page #361 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्यपरिचय और समालोचन १-पटवण्डागम('धवला'टीका और उसके हिन्दीअनुवाद की अशुद्धियोंको क्रमम ग्वंडवार शुद्ध किया गया है। साहन) प्रथम स्वगड जीवट्ठाणका 'द्रव्यप्रमाणानुगम' प्राथका अनुवाद अच्छा हुआ है और वह पढ़नम नामक तृतीय अंश-मूल लग्बक, भगवान पुष्पदन्त रुचिकर मालुम होता है। भूतबलि । मम्पादक, प्रोफमर हागलाल जैन एम० ए० ग्रन्थ के अन्त में ६ परिशिष्ट दिये गये हैं जिन के मंग्कृताध्यापक किंग-एडवडे कालज श्रमगवती । नाम इस प्रकार हैप्रकाशक, श्रीमन्न मंठ लक्ष्मीचंद शिताबगय, जैन दव्वपरवणासुत्ताणि, अवतरण - गाथा - सूची, माहित्याद्धारक फगद कार्यालय, अमरावती । बड़ा न्यायात्तियाँ, ग्रन्थोल्लंब, पारिभाषिक शब्दसूची माइज पृष्ट संख्या मव मिलाकर ६०८ । मूल्य और मडबिदीकी नाडपत्रीय प्रतियों के मिलान । य सजिल्द प्रतिका १०), शास्त्राकारका १२) रुपये। सभी परिशिष्ट बड़े उपयोगी है और परिश्रम तैयार ग्रन्थ के प्रारंभम मृडाबद्रीकी धवल, जयधवल किये गए हैं। अवतरण-गाथा-सूर्चीम 'भागमो ह्यातमहाधवल और त्रिलोकमारकी प्राचीन ताडपत्रीय वचनं पूर्वापरविरुद्धाद० गगाद्वा द्वेपाना माहाद्वा', ये प्रतियाक पत्रोंके फाद दिये गये हैं और वहाँ के मंदिर, सभी मंस्कृन पद्य दिगम्बरीय 'प्राप्तम्वरूप' नामक भट्टारक, दम्टी नथा पं० लोकनाथ शास्त्रीया भी चित्र ग्रंथके है जो बड़ा ही महत्वपूर्ण है । और माणिकदिया गया है । चित्रीकी मंख्या ९ है। माम चित्रां चंद्र दि. जैन प्रन्थमाला के ग्रन्थ नं०३ (सिद्धान्तका परिचय नथा मृड़बिदीका संक्षिप्त इतिहास भी मागदिसंग्रह) में मुद्रित हो चुका है । इस ग्रन्थका लगा हुआ है। काई नामोल्लंग्व साथम नहीं किया गया, जिसके प्रस्तावनाम कुल म्वाध्याय प्रेमियों के भागनपत्रों उलंग्वकी जरूरत थी-कंवल प्रथम पाक सम्बन्धम का शंका-समाधान माधारणरूपसं अच्छा किया गया हुनना सूचित किया है कि वह अनुयोगद्वार टीकाम है। इसके बाद द्रव्यप्रमाणानुगमक गणितभागका परि पाया जाता है। इमी तरह निगिण महम्मा सन य' चय दिया गया है। द्रव्यप्रमाणानुगममं श्राचाय वीर नाम की गाथा जो मर्वामिद्धिम 'सख्या ' इत्यादि मनन गरिगनका विशेष वर्णन दिया है. जिममम मत्रकी टीकाम उद्धृत हुई है. उसका काइ नख न ममयके गणितका बहत कुछ पता चल जाता है। करक. श्व० अनुयागद्वार का ही उल्लम्ब किया गया यद्यपि यह विषय बहन कठिन है फिर भी दमक हैं। इन दानां दिगम्बर प्रन्था का चाख टिपण नथा मम्पादनम विशंप मावधानी वी गई मालम हाती उक्त सूचीम जरूर हाना चाहिये था। है और गागात शास्त्र के विद्वानांक महयांगम परिश्रम मंक्षेपमं यह ग्रन्थ खुव उपयोगी बनाया गया है। के साथ गणित के गहन वं अपरिचित विषयका कागज़ . छपाई, मफाई गैटअप सब अपटुडेट है और सुबाध बनाने का भरसक चेष्टा की गई है। अनुवादमे जिल्द सुन्दर बँधी हुई है । इम सुन्दर मंकर गण के बीजगणिन अंकगणितकी सहायताम २८० उदा- लिय सम्पादक महादय वधाई के पात्र हैं। समाजका हरण और ५० विशंपार्थो द्वारा सं और भी सरल चाहिये कि वह सप्रन्थ रत्नोको खरीद कर अपने तथा सुगम बना दिया गया है। वि.तृत विषय-सची यहाँ के मंदिगम विगजमान कर जम ट्रस्ट फंडके भी लगा दी गई है। संचालकांस उत्माह बढ़े, उन्हें प्रथमंकट उपस्थित ___ तीन पेज का शुद्धिपत्र भी साथमे लगा हुआ है, न हो और प्रन्थके अगले खण्ड और भी अधिक जिमम पिछलनीनों खंडा में रहनेवाली प्रेम आदि उत्तमताक माथ प्रकाशित किये जा सकें। Page #362 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] २- पंचम पम कर्मग्रन्थ सटीक - मूललेखक, देवेन्द्रसूर और चन्द्रपिं महत्तर । टीकाकार, देवेन्द्र सूरि और मलयगिरि । सम्पादक मुनि श्रीकांतिविजय जा र चतुरविजयजी | प्रकाशनम्थान, 'श्रीश्रात्मानन्दजैनमभा भाग्यनगर' । पृष्ठ संख्या ३४४ । बड़ा माइज मूल्य सजिल्द प्रतिका ४) रु० । प्रस्तुत ग्रंथ में दो कर्मग्रंथों का संग्रह है। इनका विषय नामसे ही स्पष्ट है। उनमें पंचम कर्मग्रंथका नाम है 'शतक' और दूसरेका नाम है 'सप्ततिका' । शतक नामक कर्मग्रंथ के कर्ता देवेन्द्रसूरि है, जिसकी कुल गाथा संख्या १०० है । आपकी इस पर स्वोपज्ञ वृत्ति भी साथ में मुद्रित है जिसके अवलोकन करनेसे उक्त कर्मथका विषय स्पष्ट रूप से समझ में आ जाता है । देवेन्द्रसूरि कर्मसिद्धान्त के अच्छे विद्वान थे । इन्होंने प्राचीन कर्ममाहित्यका आलोडन करके उक्त कर्मग्रंथोंका मंलन किया है । इस पंचम कर्मग्रथमं 'ध्रुव वन्धिन्य' आदि बारह द्वार कहे गये हैं, क्षेत्रविपाक, जीवविपाक, भवविपाक और पुद्गलविपाक रूप चार विपाकका, तथा प्रकृति, स्थिति अनुभाग और प्रदेशरूप चागे बंधांका और बन्धकं स्वामियां का कथन दिया हुआ है। अपनी स्वोपज्ञ वृ त्तमं इन का विस्तृत विवेचन किया गया है। साहित्य-समालोचन द्वितीय कर्मग्रंथ 'समतिका' नामक प्रकरण के कर्ता चन्द्रपि महत्तर कहे जाने है, जिसकी कुल गाथा संख्या ७२ है । परन्तु उक्त समतिका प्रकरण के संकलन कर्ता तरी पंचर ग्रह के कर्ता चन्द्रपि महत्तर नही है । इस प्रस्तावना मुनि श्री पुण्यविजयजीने अनेक युक्तियां सिद्ध किया है। मैंन भी इस बातको 'ताम्रकर्मग्रंथ और दि० पंचसंग्रह' शीपक अपने लेग्यमे दिखलाया था, जो अनेकान्तकं तृतीय वर्षकी ६ ठी किरन मुद्रित हुआ है । इस समनिका ग्रन्थ में बंध, उदय, मत्ता और प्रकृति स्थानोंका कथन किया गया है। इसके टीकाकार आचार्य मलयगिरिन उक्त विषयोंका अपनी टीकाम अच्छा स्पष्ट एवं विशद वर्णन दिया है। ३३५ दोनों ही कर्मप्रन्थोंका संशोधन और सम्पादन अच्छा हुआ है। इस संस्करणमे यह खास विशेषता पाई जाती है कि कर्मप्रन्थांक विषयका दिगम्बरी मूलाचार, गोम्मटसार जीवकाण्ड, कर्मकाण्ड के साथ तुलना करके एक तुलनात्मक परिशिष्ट लगाया गया है, जिसे न्यायाचार्य पं० महेन्द्रकुमार जीने बड़े परिश्रम से तैयार किया है। इससे धर्मग्रन्थोका तुलनात्मक अध्ययन करने वाले रिसर्च स्कालको विशेष सहायता मिल सकती है। ग्रंथ विद्वानोंके लिये संग्रह योग्य है । ३ - विश्ववाणी - सम्पादक, पं० विश्वम्भरनाथ | प्रकाशनस्थान, विश्ववाणी कार्यालय साउथमलाका, इलाहाबाद, वार्षिक मूल्य ६) रु०, एक अंकका ||5) | विश्ववाणी हिन्दी साहित्य संसारमे बड़ी सुन्दर पत्रिका है। 'भारत में अंगेजी राज्य' के रचयिता पं० सुन्दरलालजी की संरक्षकनामें यह पत्रिका जनवर्ग सन १९४९ मे उदित हुई है। इसके पांच अंक हमारे सामने है। इसे भारत के प्रायः सभी प्रमुख विद्वानों का सहयोग प्राप्त है । यह पत्रिका भारतीय संस्कृति की एकताका प्रतीक है, और हिन्दु-मुसलिम एकता का सफल बनाना ही इसका विशुद्ध लक्ष्य है। प्राचीन इतिहास पर भी वह कुछ थोड़ा थोड़ा प्रकाश डालती रहती है। लेखो कहानियों और कविताओंका चुनाव अच्छा रहता है। प्रायः सभी लेख पठनीय होते । खामकर मंजरथली मांख्नाकी 'आजाद हिन्दुस्तान मेन फौज होगी न हथियार होंगे' नामक लेखमाला बड़ी विचारपूर्ण है। प्रथम श्र में सम्पादककी 'दाराशिकोह' वाली कविता बड़ी सुन्दर 7 | पत्रिका का प्रत्येक अंक संग्रहणीय होता है । इस तरह की विचारपूर्ण सामग्रीको संकलन कर प्रकाशित करने के लिये संपादक महोदय बधाई के पात्र है। - परमानन्द शास्त्री Page #363 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर-जैनग्रन्थ-सूची [ लेखक-श्री अमरचंद नाहटा, मं० 'गजम्थानी' । भारतीय माहत्यमें दिगम्बर जैन साहित्यका भी नष्ट होगये और रहे सहे फिर नष्ट हो जायँगे। महत्वपूर्ण स्थान है । पर बड़े ही खेदकी बात है कि श्वेताम्बर साहित्यको बृहत टिप्पणिकाकी भातिक अद्यावधि इस विशाल एवं विशिष्ट साहित्य के इतिहास दि० जैनप्रन्योंकी भी कई प्राचीन सूचियाँ मिलती हैं, की त बात ही क्या ! प्रामाणिक ग्रन्थसूची तक भी जिनमसे ४ सूचियाँ पं० कैलाशचंद्रजी शास्त्रीके प्रकाशित नहीं हुई। दि० जैन समाजम न धनकी की तत्वावधानमें स्याद्वादविद्यालय बनारसमें हैं। है न विद्वानोंकी, फिर भी ऐमा आवश्यक कार्य अभी उन्होंने उनके आधारसे “दि. जैनग्रन्थोंकी एक तक मम्पन्न नहीं हुआ, यह उनके लिये लज्जाकी बात बृहद सूची" नामक लंग्व जैनसिद्धान्तभास्करके है ! श्रे. भंडारोंकी शोध ग्योजकी अपेक्षा दि० ग्रंथों भाग ५ कि० ४ मे प्रकाशित भी किया था; पर उसमे की खांज ज्यादा सुगम है; क्योंकि श्रे० ग्रन्थ भंडार उन सूचियोंका पूरा उपयोग नहीं किया गया । यदि वे अधिकांश संघमनाके होने में कई ट्रम्टी श्रादि होते उन सृचियोंx में आये हुए ममम्त दि० जैनप्रन्थोंकी हैं और उन सबका एकत्र होकर भंडार खालना बहुत एक व्यवस्थित सूची तैयार करके व ग्रन्थ लम्य हैं कठिन हाता है तथा जो ग्रन्थ-भंडार व्यक्तिगत ना कहाँ पर ? इसका पता व अलभ्य हो तो उसका मालिकी-नियों श्रादिक कम है उनका देखना तो निर्देश करके एक ट्रैक्ट प्रकाशिन कर देने ना अत्यु और भी कठिन होजाता है-दिग्वावें या न दिखावें त्तम काय होता । उनकी इच्छा पर निर्भर है। तब दि० भंडार अधिका- पुगनी सूचियों एवं अन्य माधनोंक प्राधारम शमः दि० जैनमंदिगम ही हैं और उनकी देख रेख पर श्रीयुत पं० नाथूगमजी प्रेमानं करीब ३० वर्ष पूर्व प्रायः एक ही व्यक्ति रहता है अनः देखनेमें एक व्यक्ति जैनहितैपीम "दिगम्बर जैनग्रन्थकर्ना और उनक का ममझाकर ममय ले लिया जाय ना भंडार देखा ग्रन्थ" नामक लेख प्रकाशित किया था व उसे स्वतंत्र जा मकना है। हाँ, व्यक्तिगत मालिकीरूप भट्टारको टैक्ट रूपसे भी प्रकट किया था पर वह अब नहीं के कतिपय भंडार ऐम अवश्य हैं जिनका अवलोकन मिलता। उसके बाद अनेकों नये प्रन्यांका पता चला परिश्रममाध्य है । नागौर आदि के भंडार इमी श्रेणिके है तथा उममें उल्लिग्वित अनकों भूल भ्रान्तियांका हैं। दि० धनवान एवं प्रभावशाल' भाइयोंका कर्तव्य * ऐमी एक मची अभी मझ भी मनि कातिमागरजीमे है कि ने भट्रारजी आदिको नम्र वचनोंमें उपया- अवलोकनार्थ प्राप्त हुई हैं। गिता एवं लाभ बतलाकर उनकी सुव्यवस्था (पूरे x मचियोमें उत्तर भारत के दि ग्रन्यांका ही उल्लेग्न्व ज्ञानव्यके माथ सूची तैयार करली जाय व देग्वनेवाले नज़र श्राता है। दक्षिण भारत के महत्व पूर्ण वन्नड श्रादि को मौका दिया जाय) करवावें, अन्यथा हजारों ग्रंथ दि. जैनमाहत्यकी के. ई मची प्रकाशन हई नहीं देखी। Page #364 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दिगम्बर जैन ग्रन्थ-सूची किरण ५ ] उदघाटन भी हो चुका है। नवीन अनुसंधान से बहुतमी ज्ञातव्य सूचनायें एवं साधन भी उपलब्ध हो चुके हैं । अतएव अत्र दिः प्रन्थसूची का कार्य बहुन होना आवश्यक है। शघ्र fa श्रीयुत प्रेमीजी के पत्र से अभी ज्ञात हुआ अपने लेखका एक संग्रह प्रकाशित करनेका प्रबंध कर रहे है. अब उनके प्रकाशित "दि० जैनप्रन्थकर्ता और उनके ग्रन्थ" में जो कतिपय अशुद्धियाँ मेरे ara नका यहाँ स्पष्टीकरणा कर देना आवश्यक समझता हूं, ताकि भविष्यमे उन भूलभ्रान्तियोकी पुनरावृति न होने पाये : ०६ मे पददर्शनसमुच्चयका कर्ता कुमुदचंद्र लिखा है. संभवतः वह गलन है | पदर्शनसमुच्चय ग्रन्थ वेद हरिभद्रसूरिचित है। ०८ मे गुणरत्नाचार्यकी पददर्शनसमुच्चयकी टीम लिखी है वह तो श्वेताम्बर है। प्र० ८ गुणभद्ररचिन धन्यकुमारचरित्र लिम्बा है। बीकानेर मे अभी मुझे उनके 'धनदत्रि' की एक पनि मिली है, संभवतः प्रन्थका नाम धन्य न होकर धनद होगा, या मुझे उपलब्ध ग्रंथ नवीन है। ०९ जगदेवकृत 'स्वप्नचिन्तामणि' ग्रंथ श्वं है । पृ० १० पाणिनीय काशिकावृत्तिकं कना जैनेन्द्रबुद्ध बौद्ध थे X | पृ० ११ झाणझणका नेमिनाथकाव्य ० है एवं पृ० ३९ में उल्लिखित विक्रमरचित नेमिन और वह एक ही है । किसी किसी प्रतिमकर्ता 'भगा लिखा मिलता है। पृ० १० देवप्रभकृत पांडवचरित्र श्वेताम्बर ही है। पृ० १३ धर्मदासकृत उपदेशमिद्धान्त संभवतः श्वे० धर्मदासकी "उपदेशमाला" ही होगा। X यह विषय श्रभी विवादापन्न है । -संपादक ३३७ पृ० १३ देवेन्द्रकृत यशोधरराम भाषाका एवं श्वे० संभव है । पृ० १६ का० श्रेयांसराम भी भाषाकृति है, कर्त्ता परिमल कौन था ? प्रति देखकर ठीक पता चलाना चाहिये । पृ० १७ पप्रीशतक के कर्त्ता नेमिचंद्र वे० ही थे। पृ० २४ भक्तामरकं कर्त्ता मानतं गरि भी । प्रः २२ वाग्भट्टालंकार टीका के कर्ता रत्नधीर श्वे ही थे । थे पृ० २४ गणत्तमहोदधिके कर्ता वर्धमानमृि भी श्वेताम्बर थे । पृ० २५ वाग्भट्ट श्वेताम्बर ही थे । अष्टांग हृदय के कत्ता वाग्भट्ट जैनेनर थे । ०२६ विनयचंद्रकी द्विसंधान टीका नहीं है, उनके शिष्य नेमिचंद्र की ( पृ० १५ ) ही है। ०२. शाभनकृत चतुर्विशनिका २० ही है। पृ० ३३ सिन्दूरप्रकर के कर्ना सोमप्रभ वं० ही थे । पृ० ३४ हेमचंद्ररचिन त्रिपटिशलाकाचरित्र खं० ही है। पृ० ३५ प्रश्नात्तररत्नमालाको मिलानकर कत्त का निर्णय करना आवश्यक है। पृ० ३५ चारित्रसिंह खरतरगच्छीय श्वं० थे । पृ० ३६ कातंत्र - व्याकरणकी वृत्तिके कर्ना दुर्गसिंह जैनेनर प्रतीत होते है, निश्चय करके लिखना चाहिये । पृ० ३६ देवनिककृत कल्याण मंदिर-वृति वे० है । पृ० ३६ सुन्दरकृत भक्तामर वृति भी श्वं है । * यह विषय प्रत्यकी पद्यसंख्या माहन अभी विवादापन्न है । सम्पादक Page #365 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ पृ॰ ३६ नरचंद्र • ज्यातिषमारके का भी पृ० ३९ शाकटायन यापनीय संघके थे । शांति श्वेही हैं। मूरि श्वे० संभव है। प्र० पद्मप्रभसूरिका ग्रहभावप्रकाश पंथ भी श्वे०है। १०३ जिनहर्ष स्वरतरगच्छके थे । श्रेणिक पृ० ३७ पाश्वेनागकी प्रास्मानुशासन टीका श्व० चरित्र उनका अभी श्वेताम्बर भडारोंमें नो देखने में ही प्रतीत होती है, जॉचकर लिम्बना चाहये। नहीं पाया, अनः भक्त प्रन्थको देखना आवश्यक है । पृ० ३८ प्रागप्रियमाव्य रचायना मनमिह ०४० में नारायण श्रमालका तो श्वे. लिम्या चनाम्बाथ। पृ० ३५. नामदन काव्य का विक्रम कवि भी व थे। इमी प्रकार अन्य अशुद्धियाँ जिन्हें जिन्हें विदिन पृ० ३९. कातंत्र का शवेशर्मा जैनना । हाव वे सूचित करदें । प्रमीजीम अनुगंध है कि * यह विषय अभी विवादामद है। -संपादक व इम देक्टका और ग्वाज-शाधकं माथ प्रकट करें। अपना घर जहाँ बमन मना रहता है, पतझड़ कभी न पाना । 'दुम्ब' गना निज अधपतन पर, सुग्व रहता मुम्काता" माम्यवादको जहां पूर्णता, विमल प्रेमका नाना ! छोटे बड़े बगबर है मध, क्या श्रीता, व्याख्याता !! जहाँ नहीं कटुता जीवनम, नही, वामना-स्याहा ! जहाँ न दीनोंका क्रन्दन, धनिकांकी नादिरशाही !! जहाँ न प्रभुका भजन, नही पेमाना और सुगही । नहाँ बिगाड़ • सुधार नहीं है, जहाँ न भावा • जाही !! नहीं किसी की साहूकारी, जहाँ नहीं प्रासामी ! सब अपनी तबियतकं गजा, सब अपनेके स्वामी !! जहाँ न योगी, संन्यासी, यो लोभी, क्रोधी, कामी ! आजादीने जहाँ तोड़कर रखदी, घोर - गुलामी !! जहाँ न अपनी-अपनी घातें, जहाँ न काई व्याकुल ! जहाँ भाचिकर काग नहीं हैं, जह। न प्यारी बुलबुल !! जहाँ न बैर-विरोध किसीमें, जहाँ न रहते मिल-जुल ! एक अलौकिकताको लेकर, रहते सभी निराकुल !! मंग अपना-घर' तो वह है, यहाँ कौन है मेरा ? म्खुल जाएगी श्रॉम्ब नभी, ममदूंगा हुमा सवेरा !! चलदंगा तब अपने घरको, सजकर रैन-बमरा । जिसमाज तक अपना मममा, उखड़ेगा वह डेग! श्री भगवन जैन Page #366 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य (मूल लेखक-प्रो० ०० चक्रवर्ती गम० .०, आई. ई. एम.) (अनुवादक-१० सुमरचन्द्र जैन दिवाकर. यायनीर्थ. शास्त्री. श्री० ए०, एल. एल० बी०) [गन किरणमे प्राग ] (२) चलामगि-यह ग्रंथ जैन कवि नीलामोलित्तेवर नशने अपने एक मंत्रीकी प्रजापति महाराज पास हम के द्वारा रचा गया है, जो कि प्रकटतया कारवेटनगरके श्राशयका पत्र देकर भेना कि मैं अपनी कन्या तिविनको अधिपति विजयका श्राश्रित था। हम ग्रंथक मंपादक दामोदर व्याह दनको नेयार । पांदनपरके नग्श प्रजापति यद्यपि पिल्लेकी गय हे कि यह कुछ महाकाव्यांक पूर्वका होना बियाधर नग्शक दाग प्रेषिन विवाह प्रस्तावमे पहले श्राश्चर्य चाहिये। उनके निर्णयका श्राधार यह है कि चलामणिके में पड़ गये, किन्तु उन्होंने विवाहका वीकृति दे दी। इनमें अनेक पदा याप्यमङ्गलकारकैके रचयिता अमनमागने यह बात बियाधगंक महागन अश्वग्रीवको मालूम हो । उदधृत किये है। जनक प्रधान राम प्रजापान और मयंपमाके पिता दीना चलामणिका अाधार जगमग-गंचन महापुराणकी । मम्राट अश्वग्रोवन नविन पिनाम नयन कर मांगा। एक पौगारगक कथा है। कथाके मूलनायक निविट्टन हैं. विद्याधर नग्शक कागम दर कर गजा प्रजापानने तत्काल जो जैनपरंपगमें माने जाने वाले उन नौ बासुदेवोममें एक ही कर दे देने की अामा दी, किन्त उनके पनिविनने हम हैं जिनमें भारत-प्रख्यान कृष्ण भी एक है। काव्य सौंदर्यम स्वीकार नहीं किया। उन्होंने विद्याधर महारानकी गजानना चलामणि चिंतामणिके ममान है। इसमें कुल १२ मर्ग में कार कर दिया और दुतको यह कह कर वापिस लौटा और २१३१ पदा हैं। कथा हम प्रकार है। पोदनपर दिया कि अबम कोई कर नही दिया जायगा। अश्वग्रीवके. राजधानी वाले सुम्मैदेशक नरेश प्रजापतिकी मृगपनि दरबारका भक्त एक विद्याधर मंत्री हम जिदी क्षत्रिय तरुण (मृगावती?) और जयवती नामकी दो मुख्य रानियों थीं। सिविनको किमी छलसे मारना चाहता था। उसने सिंहका कथानायक निविहन् महादेवी मृगपतिका पुत्र था और रूप धारण किया और प्रजापति नरेशके राज्य सुरमै विजय जयवतीका पुत्र था। दोनों में विजय बड़ा था। पशुओंको उमने ना किया। प्रजापति के पुत्र निविहन और विजय और तिविन् पूर्णतया बलराम और कृष्णके समान विजय सिंहको मारनेके लिये भेजे गये। महका रूपधारण थे। इनमें पहिला शुक्लवर्ण और द्वितीय कृष्णवर्ग था। करने वाला विद्याधर मंत्री चालाकीसे तिविनको एक गुफा एक भविष्यवक्ताने महाराज प्रजापतिसे कहा कि तुम्हारा में ले गया । निविदानने मिहका गुफामें पीछा किया। पुत्र तिविट्टन् शीघ्र ही एक विद्याधर-राजकुमारी विवाह वहाँ एक अमली मिह था जिसने मायाके मिहको खा लिया करेगा ।रादानू परके विद्याधर नरेशकी स्वयंप्रभा नामकी और वा निविनको भीवाना चाहता था। तिविन इससे एक अतीव सुन्दर कन्या थी। एक भावण्य वक्ताने इस भयमीन नही हना। अमली मिहके मुंहमें विद्याधर सिंह विद्याधर नरेशसे भी कहा था कि तुम्हारी कन्या स्वयंप्रभा गायब हो गया था दम लिये उसने अमली मिहके मस्तकको गोदनपुरके, क्षत्रिय राजकुमारमे विवाह करेगी। विद्याधर कदा और उसे मालताम मार डाला1 स्वयंप्रभाकपता, Page #367 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्न [वर्ष ४ रादानुपरके नरेशको भविष्यवनाने जो कहा था उसमें सिंहके था। इस प्रकार जब दोनों देश सुखमें थे और प्रजाजन मारनेका भी वर्णन था। वह स्वयंप्रभा विवाहमें निविट्टन्को समृद्धिका अनुभव कर रहे थे तब वृद्ध नरेश प्रजापतिने दी जाने वाली थी इस लिये गदानपरके नरेश अपनी कन्या राज्यको पुत्रके जिम्मे छोड़कर माधुवृत्ति अंगीकार की और अपना अवशिष्ट जीवन योग और ध्यानमें बिताया । इम स्वयंप्रभाके साथ पोदनपरको रवाना हुए। वहां विद्याधर जिनदीक्षा और श्रात्मीक तपश्चर्या के फलस्वरूप राजा प्रजाकन्या वीर तिविनको व्याह दी गई। विद्याधर महागज पनि समारसे छुटे और उन्होंने मुक्ति प्राप्त की। इस प्रकार अश्वग्रीव क्रोधसे श्रागबबूला हो गये, क्योकि उनके अधीन पंचलघुकाव्योम चलामणि की कथा समाप्त होनी है जो कि नरेशके पत्रने उनके दूनके माथ दुर्व्यहार किया था और उनका वह क्रोध विद्याधर कन्याके माय विवाह होनेमे पंचलघुकाव्योमें अंतर्भूत एक मुग्न्य ग्रंथ है । और भी बढ़ गया । वह इम विचारको पमन्द नहीं करना नीलकंशी-यह भी पंचलघुकाव्योंमें एक है जो था कि एक माधारण तांत्रय गजकुमार और उममें भी भ्यतया एक जेन दार्शनिक कविकी रचना है, जिनके उनके आश्रितका पत्र उनकी उज्वल जानिकी विद्याधर विषयमं हमें कुछ भी जान नहीं है । यह भारतीय दर्शनशास्त्र में मंबंध रखने वाला एक नर्क-पूर्ण ग्रंथ है। और इम पर गजकुमारीमे विवाह करे। वह अपनी बलशाली मेनाके माय चामननि-रचित ममयदिवाकर नामकी एक बहुत बढ़िया तिविहन पर चढ़ पाया। एक युद्ध श्रारंभ हश्रा । निविन नो वासुदेव था उसके पाम दिव्य चमत्कारिणी शक्तियो टीका है। ये वामनर्मान व ही हैं जो कि अन्य माहित्यिक थी। उसने अपने चक्रसे विद्याधर-मेनाको एक दम इग ग्रंथ मममंदिरपुराण के रचयिता हैं । मा प्रतीत होता है दिया और अंतमें ग्वद विद्याधर-नग्श अश्वग्रीवको ही मार कि यह नीलकेशी बौद्धोके उस कुण्डलकंशी प्रथक प्रतिवाद डाला । इम विजयका फल यह हश्रा कि निविट्टनके श्वसुर में है जो कि दुर्भाग्यमे इम ममय लुप्त हो गया है। यह सम्पूर्ण विद्याधरभूमि के एकछत्र स्वामी हो गये । तिविट्टनने कुण्डल केशी पंचमहाकाव्यांमें गर्भित था। यद्यपि इम नाम अपने पितासे जो राज्य प्राप्त किया उसमें वह अपनी का नामिल काव्य मंमाग्मे नष्ट होगया किन्तु बौद्धोके प्रथम विद्याधरी स्वयंप्रभा तथा अन्य अनेक सहस्र रानियोंके साथ पाई जाने वाली कुण्डलकेशीकी कथा मात्र इसलिये नीच सुखपूर्वक रहने लगा। इस विद्याधर-पत्नी स्वयंप्रभासे उसको दी जाती है ताकि यह मालूम हो सके कि नीलकेशीकी कथा अमृतसेन नामक पत्रकी प्राप्ति हुई। उसने अपने साले । कुण्डलकेशीक साँचमे दली हुई है और वह कुण्डल केशीके अर्ककीर्तिको अपनी बहिन न्याही और उसकी बहिनसे दार्शनिक विचारोका खंडन करने के लिए निर्मित हुई है। सुदार नामकी एक लडकी उत्पन्न हुई और एक पत्र भी। बौद्ध पुरावृत्त कथाओं (The Buddist Legeतिविद्यनकी एक ज्योतिमाली नामकी दूसरी कन्या थी जिस nds) से ली हुई कुण्डलकेशीकी कथा इस प्रकार के विवाहके लिए उसने स्वयंवरकी घोषणा की। इस कन्या :-- ने अपने मामा अर्ककीतिको पति चुना और विद्याधर-राज- गजगृहीके एक धनी वणिककी प्राय: षोडश वर्षकी कुमारी (सुदारे) ने उस (तिविहन् ) के ही पुत्र अमृतसेनको अवस्थाकी सकलौती कन्या थी। वह अत्यंत रूपवती और पसन्द किया। इस प्रकार इन दो विवाहोंसे पोदनपुर और देखने में सुन्दर थी। जब स्त्रियाँ इस अवस्थाको पहुँचती हैं विद्याधरके राजवंशोके बीचका संबंध और मजबूत हो गया तब वे मंतप्त होती है और पुरुषोंकी आकांक्षा करती है। Page #368 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] आत्म-गीत - - उसके माता पिताने अपने राजकीय-वैभव-संपन्न सान मंजला मेरा जीवन होगा, अन्यथा मैं यहां अभी ही मर जाऊंगी।" महलके ऊपरी भागके एक कमरेमें उसे स्थान दिया था माताने कहा 'मेरी बेटी : ऐसा मत करना; तेरे लिए दूसरा और सेवाके लिये उसके पास एक दामी दी थी। वर प्राप्त होगा जो कुल वंश और संपत्तिमें हमारे समान एक दिन वहाँका एक संपन्न तरुण डाकेके इलज़ाममें है। उसने कहा 'मैं तो किसी दुमरेको पसंद नहीं करती पकड़ा गया। उसके हाथ पीठकी अोर बँधे थे और वह यदि मझे यः पुरुप प्राप्त नहीं होता तो मैं मर जाऊंगी।" वध्य-भूमिको ले जाया जारहा था और प्रत्येक चौराहेपर उस अपनी पत्रीको शान्त करने में असमर्थ हो माताने विनामे पर कोडोकी मार लगाई जाती थी। बणिक कन्याने भीड़की कहा, किन्तु पिता भी अपनी पत्रीको मंतुष्ट करने में असमर्थ अावाज सुनी और अपने मन में कहा 'यह क्या है ? उमने रहा 1 मानाने मोचा अब क्या करना चाहिए । उसने महम महलके शिखरसे नीचेकी अोर दृष्टि डाली और उमे देखा। मुद्राएं उम राजकर्मचारीके पाम पहुँचाई जिसने डाकको __ वह तत्काल ही उम पर श्रासक्त हो गई । वह उमके पकड़ा था और जो उमे वध्यभूमिको अपने साथ ले जा लिये इतनी अधिक श्रासक्त हो गई थी कि वह अपने रहा था । उममे कहा गया 'यह रुपया लो और विस्तर पर लेट गई और खाना पीना बंद कर दिया। उसकी डाकको मेरे पास पहुंचा दो। गजकर्मचारीने कहा 'बहुत माताने पूछा “यारी बेटी ! इसका क्या मतलब है ? उसने अच्छा'। उमने धन ले लिया और डाकको छोड़ दिया, दूसरे कहा" जो डाका डालते पकड़ा गया और जो मड़कों परमे श्रादमीको पकड़कर फांसी दे दी और गजाको मंदेश भेज ले जाया गया अगर मुझे वह नरूण प्रान हो जाय नभी दिया-'महाराज डाक मार डाला गया'। (क्रमशः) आत्म-गीत कुछ लोग हमें 'कवि' कहते हैं ! पर, हममें उसका स्राव कहाँ ? शब्दों में तेज, प्रभाव कहाँ ? भावोंकी ओर झुकाव कहाँ ? शब्दों पर, लयपर बहने हैं !! है नहीं कल्पना की उड़ान ! पिंगलका उम्में नहीं ज्ञान ! हैं शून्य कि जैसे प्राममान ! मन-ही-मन, मनको दहते हैं !! है पूर्व-जन्मका एक शाप! या कहें आजका इस पाप! इच्छानुसार समझिए आप! हम तो प्रतिदिन ही सहते हैं !! पाएँ कैसे हम प्रात्म-तोष ! बाकी है मनमें कहाँ जोश ? लिखनेका भी नहीं होश! फिर भी कुछ लिखते रहते हैं !! श्री 'भगवसू' जैन कुछ लोग हमें 'कवि' कहते हैं !! Page #369 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जेबकट [ लेखक-श्री 'भगवत्' जैन] उसके सीनेमें भी धड़कना हुआ दिल था । की तारीखें और मुकदमेके नम्बर नोट थे !... लेकिन मजबूरियोंने उस बग बना दिया था। वह यह किसी गरीबका दस्तावेज़ था-ढाईसौ रुपय था-जेबकट! अपने फन का पग उस्ताद आप का। मियादके दो ही दिन बाकी थे। शायद दावा चाहे कितने ही चालाक क्यों न बनते हों अपने दिल दायर हानक लिए ही तिजोरीकी कैदसे जेबकी में ! पर, वह था जो आपको भी चकमा न देदे हवालातमें आया था ! तां अपना नाम बदल डाले ! बनियानकी भीतरी-जेब बीड़ीकी गख झाड़ते हुए, वह हमा, फिर श्राप से नोट निकाल ले और आपको यह भी शनाख्त न ही आप दस्तावेज़ फाड़ते और बीड़ी उस पर रखते हो पाए कि क्या हुआ ? नोटोंकी बात छोड़िय; क्यों हुए बोला-'चूसलो किसी गरीबका खून ! ये आये कि वे चुप रहते हैं ! रुपये-पैसों तक को वह इस सफाई ढाईसौ रुपये ?'' से घाद लेता कि-वाह ! वे तो जग-सा छेड़ने पर ही यह कागज था किसी नय कविको कविताकी चिल्ला उठते हैं न ? फिर भी वह उसके पास पहुँच मश्क ' कटा-पिटा ! सुधारके इन्तजाग्में ! पढ़ा ही न जाते और किसीको पता तक न चल पाता ! हाथकी गया ! जलनी आगमें इसे भी फेंकते हुए लिफाफा सकाई उसे याद थी, और अच्छी तरह ! उठाया ! ऊपर लिखा था-'बहुत जरूरी!' नीचे घर आते ही उसने दिन-भरकी कमाईको देग्वना पाने वालेका पना, बन्द था। शायद पाने वाले के शुरू किया-'नोट, रुपये, पैसे, चवन्नी, दुनी, हाथों तक न पहुँचते पहुँचते बीच ही यहां आगया इकमी-तालीका गुच्छा, डायरी, और कुछ कागजात!' था। दस्ती खत था, डाकडिलेवरी नहीं। __नगद-नारायण सँभालके रक्खे, और फालतू खोला । और पढ़ने लगाचीजें एक ओर पटक दी ! घरमें तरह तरहकी चीजों प्यारे ! का 'अजायब-घर'-सा बन गया था ! जुदा-जुदा रंग- तुम मेरे हो और मैं तुम्हारी। आजसे नहीं, रूपकी, छोटी-बड़ी, रूल-पैंसिलोंका ढेर कुछ न होगा उन दिनोंसे जब तुम और मैं एक ही स्कूलमें किताबें तो पचास पैंसिलोंसे क्या कमका होगा?... पलटा करते थे। तुम्हें याद होगा, कि तुमने मुझे ___ वह गेटी-पानीसे फारिग हो, बीड़ी सुलगाता वचन दिया था-अन्नपूर्णा, शादी मैं तुम्हारे ही साथ हुमा, मा बैठा सन फालतू चीजों के पास ! वहीं, करूँगा, नहीं तो करूँगा ही नहीं ! इसके बाद बहुत जमीन पर ही-टूटे सन्दूकके महारे-अपलेटा हो, कुछ हुआ, सब तुम्हें मालूम है। देखने लगा-एक एक चीज! अब तुमने चिट्ठीका उत्सर तक देना छोड़ दिया सायरी उठाई और पटक दी ! किसी मुकदमेबाज है। कई चिट्ठियाँ दे चुकी। आज अब शर्म छोड़कर Page #370 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] जेवकट ३४३ आखिरी चिट्ठी मैय्याके हाथ भेजती है । मुझे उम्मीद हत्यारा'.... पापो ! है, तुम यह भी जानते होगे, कि यह आखिरी चिट्ठी जेबकट लिफाफा जेबमें डालता हुआ-मागा! क्यों है ?-मेरे बाप-माँ तो हैं ही कहाँ ?-कुछ पैसे जैसे अन्नाको जीवन लौटाने जा रहा हो! के लोभके सबब मेरी शादी एक पचपनवर्षके बुझेके x x x x साथ करना चाहते हैं। और मैं अब शादी में मौतको हेमने चिट्ठी पड़ी तो रो नठा। बोला-'तुम ज्यादा पसन्द करती हूँ। तुम मुझसे रूठ चुकं हो, अमाके भाई हो ? नहीं, हत्यारे हो! इतनी देरसे मेरी किस्मत भी रूठ रही है। अब एक ही उपाय चिट्ठी क्यों लाये ? क्या 'बहुत जरूरी' चिट्ठियाँ इतनी रहा है-वही करना मैंने तो ते किया है। और जब लट दी जाती हैं किसोका ?' तक यह चिट्ठी तुम्हारे हाथोंमें पहुंचेगी, शायद तब जबकट चप। तक मैं कहांस कहां पहुंच जाऊँ ? कोई नहीं जानता। हेमने प्रावाज दी-बंशी ! 'कार' लामो, सुना हाँ, तुमसे एक प्रार्थना है, मान सको तो मेरी आत्मा जरा जल्दी !' फिर बोला-हाँ, तुम प्रमाके भाई हो, को सुख मिलेगा कि 'तुम अपनी शादी जरूर कर इसलिए कुछ नहीं कहता-परन् वरनः मारे-मार लेना ! ताकि तुम्हाग हृदय स्त्री-हृदयकी गहराई तक टोकरोंके दम निकाल देना-समझे ? मुरत पी; एक पहुँच सके-तुम जान सको स्त्रीका मन कितना नरम चिट्ठी मिली वह भी यह ! और इतनं देरसे । उसने होता है ! वह जिस पनि मान लेती है, फिर दूसरेकी और भी चिट्ठी डाली होंगी, पर मैं यहाँ था कहाँ ? और आँख उठाकर देखना भी पाप समझती है। मैं था-शिमले ! घर वाले ऐसी चिट्टियों काहेको शादी तो दुरी बात है। तुम चाहे न मानो पर मैं भेजने लगे थे मेरे पास ! तभी तो हो रही है न, यह तुम्हारी हूँ और तुम्हारे नामको लेते लेते, दूसरे पाप आत्म-हत्या!' में बचने के लिये, जा रही हूँ। ___ 'कार' में बैठे ! हेमने कहा-'क्या नाम तुम्हाग तुम्हारी-'आमा' अन्ना भाई ! तुम भी चलो, साथ-साथ ! और जेब कट का मन जाने कैसा हो उठा, वह पागलकी काम फिर होते रहेगे !' तरह उस लम्बे कागजको उलट-पलट कर देखन जेवकट बैठ गया-सुम्त, चुप ! कार बदी ! हेम लगा-आँखें उसकी भगं हुई थीं । आँसू बहजानका चिल्लाया-'ठहरो डाक्टरको साथ ले लेने दो! गांव गम्ता देख रहे थे ! वह बोला-'चिच । हत्या कर का मामला, वहाँ हकीम भी नहीं मिलेगा क्यासा रही है बेचारी! और उस पत्थरको पता भी नहीं है, कौन जाने ?' मिल सकेगा ! अाज सुबह की लिखी चिट्ठी है-आज फिर जेबकटसे पूछा-'क्यों जी, जब परसे चले को तारीख को ! अब साँझ होन भाई, मर न चुकी थे, नब तो ठीक थी न ?' हो बेचारी आमा । काश! यह चिट्ठी वक्त पर उसे उसने धीरंस कह दिया-'हो।' मिल जाती, जलर बचाने जाना ! हेम बाला-चिट्ठी देग्मं क्यों दी, क्या करते पर, मैं पैसके लोभमें उमकी जान चुग लाया! हे ? Page #371 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३४४ अनेकान्त 'अनाने काम जो बना दिये थे ढेरके देर !'- उम्मीद है-हेम बाबू !' जेबकटने कहा। सब लोग चुप, देख रहे थे ! ... 'यह बहुत जरूरी था सो ?'-इसी वक्त बेग आध घण्टे बाद-'अन्ना' ने आंखें खोली । हेम लेकर डाक्टर साहब आगए, 'कार' दौड़ने लगी! का मन फूल उठा, और उससे कुछ ही कम जेबकटका ! xxxx ___ 'रानीमत रही कि वक्त पर पहुँच सका, नहीं भाकर देखा तो हेम वगैग 'मन्न' रह गए! घर तुम्हारे भाई माहबने तो'. . . .?' हेमनं जेबकटकी में रोया-राट पड़ रहा है ! गाँवका गाँव जमा है ! हर ओर इशाग किया। मुँह पर एक ही फिकरा-'अन्ना' ने जहर खा लिया 'मेरे भैय्या !'-अन्नाने उँगली दाँतोंमें दबाते है। डोकरा जा उसे साठवर्षके बुडेके साथ ब्याहे दे हुए कहा। रहा था!' जेबकट बोला-'हॉ, अन्ना ! मैं भी तुम्हाग एक दो घण्टे, का मल दो घण्टे मिहनत करने के बाद भाई हूं ! लेकिन बदनसीबीसे भला आदमी नहीं, डाक्टरने हेमसं कहा-'अब काफी कामयाबीकी एक जेबकट हूं।' वीरशासन-जयन्ती-उत्सव पिछले वर्षोंकी भांति इस वर्ष भी वीर-सेवा-मन्दिर सरसावा जि. सहारनपुरमें वीर-शासन-जयन्तीका उत्सव समारोहके साथ मनाया जायगा । इस वर्ष श्रावण-कृष्ण-प्रतिपदाकी पुण्य तिथि : जुलाईको अवतरित हुई है। यह तिथि वह पवित्र तिथि है जिस दिन प्रातः सर्योदय के समय भारतके गौरव एवं महाविभूतिस्वरूप भगवान महावीरने केवलशोनात्पत्तिके पश्चात् लोकहितार्थ अपना उपदेश प्रारम्भ किया था और उसके द्वारा धर्म-अधर्मकी यथार्थ परिभाषा बतला कर तथा तस्व-अतत्वका ठीक भेद समझाकर प्रज्ञानाम्धकारमें भूले-भटकते हुए प्राणियोंको सन्मार्ग दिखलाया था, उनके बहमों-मिथ्याविश्वासोंको दर भगाकर उनकी कुप्रवृत्तियोंको सुधारनेका सातिशय प्रयत्न किया था और अन्याय-अत्याचारोंस पीडित एवं माकुलित जनताको सान्त्वना देकर, उसके उद्धारका नेतृत्व ग्रहण करते हुए विश्वभरको सुख-शान्तिका सच्चा सम्मेश सुनाया था। अथवा यो कहिये कि जिस दिन भ. महावीरको धर्मचक्र प्रवर्तित हुआ था-दिव्यध्वनि-द्वारा उनके शासमतीर्थकी उत्पत्ति हुई थी, जो कि प्राणिमात्रके लिये हितरूप है। कृतज्ञता और उपकार-स्मरण श्रादिकी दृष्टिसे यदि देखा जाय तो यह तीर्थ-प्रवर्तन-तिथि दूसरी जम्मादि-तिथियोंसे कितने ही अंशों में अधिक महत्व रखती है। क्योंकि दूसरी पंचकल्याणक तिथियां जब व्यक्तिविशेषके निजी उत्कर्षादिसे सम्बन्ध रखती हैं तब यह तिथि पीडित. पतित और मार्ग:च्युत जमताके उत्थान एवं कल्याणके साथ सीधा सम्बन्ध रखती हैं, और इस लिये अपने हितमें सावधान कृतज्ञ जनताके द्वारा खास तोरसे स्मरण रखने तथा महत्व दिये जानेके योग्य है। इसी तिथिसे पहले भारतवर्ष में नये वर्षका प्रारम्भ हुमा करता था। इस दिन हमें अपने महोपकारीके उपकारोंका स्मरण करते हुए वीशासनकी महत्ताका विचारकर उसके अनुसार अपने भावार-विवारको स्थिर करना चाहिये और लोको प्रेमक महावीर शासन प्रवारका--महावीर सन्देशको फैलानेकाशक्तिभर उद्योग करना चाहिये, जिससे लोकमें सुख-शान्ति-मूलक कल्याणकी अभिवृद्धि होसके। वीरसेवामन्दिरमें उत्सवका प्रारम्भ । जुखाई बुधवारको दिनके दो बजे होगा, जिसमें अनेक विद्वानोंके महत्वपूर्ण भाषण होंगे। अतः सर्वसाधारणको शामिल होकर उत्सबमें भाग लेना चाहिये। भोलोग शामिल नहोसके उमें अपने अपने स्थानोंपर उत्सव मनाकर अपना कर्तव्य पालन करना चाहिये। निवेदक। जुगलकिशोर मुख्तार अधिष्ठाता 'वीरसेवामन्दिर' Page #372 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नयामन्दिर देहलीके कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची बीके मुहक्ले धर्मपुरामें 'मया मन्दिर' नामसे एक पराना बादशाही बक्तका बना हुचा साखोकी लागतका विशाल जैन मन्दिर है, जिसमें हस्तलिखित ग्रंथोंका एक अच्छा बदा भयहार इस शास-भण्डारके प्रबन्धक खा. रतनलालजी भादि अच्छे उदारचेता सज्जन हैं, समयकी गतिविधिको समझते है-उपयोगिता-अनुपयोगिताको परखते। और इसीसे दूर दरके भी अनेक विद्वान समय-समय पर इस शासभण्डारसे अच्छा लाभ उठाते रहे। भोर भनेक प्रन्याक संशोधन-प्रकाशनादिमें यहांके ग्रंथोंसे काफी सहायता मिलती रही है। मैंने स्वयं इस शासभण्डारसे बहुत कुछ खाभ लिया है और ले रहा है. जिसके लिये सभी प्रबन्धक महाशय मेरे धन्यवानके पात्र हैं। और उनसे भी अधिक धन्यवाद पात्रो बाबू पसालालजी अग्रवाल तथा ला. जौहरीमलजी सर्राफ, जिनकी कृपासे मुझे अंघोंके देखने में यथेष्ट सुविधाएं प्रास होती रही हैं, और जो अनेकवार अपना खर्च तक लगाकर ग्रंथोंको मेरे पास पहुंचाते रहे हैं। इस भयहारमें मुद्रित ग्रंथोंके अतिरिक्त हस्तलिखित ग्रंथोंकी संख्या सबमिलाकर १०. के करीब है, जिसमें दिगम्बर-श्वेताम्बर जैनों तथा अजैनोंक भी अनेक विषयोंके अन्य शामिल हैं और वे संस्कृत, प्राकृत-अपश तथा हिन्दी पानि भनेक भाषाओंको लिये हुए हैं। अनेक ग्रंथोंकी कई कई प्रतियां भी हैं। इस शाखभयहारकी पहले एक साधारण सूची बनी हुई थी, अब उसे कुछ व्यवस्थितरूप देकर नई सूची तय्यार कराई गई है। यद्यपि यह नई सूची भी बहुत कुछ अधुरी एवं त्रुटिपूर्ण है और इस बातको सूचित करती है कि इसको तय्यार कराने से पहले इस विषय के किसी योग्य विद्वानसे परामर्श नही किया गया, फिर भी यह पहली सूचीसे बहुत कुछ अच्छी बन गई है और इसके अनुरूप ही अलमारियमि ग्रंथोंकी व्यवस्था हो जानेसे उनके निकालने-देखने में कितनी ही मुविधा हो गई है। हस्तलिखित ग्रन्योंकी इस नई सूचीकी एक पेज-टु-पेज कापी उक्त बापमालालजीने अपने हाथमे उतारकर मुझे इस लिये दी है कि मैं उसे देखकर यह नोट करलू' कि उसमें कौन कौन से हैं जिनको मैंने अभी तक नहीं देखा अथवा जिनका मैं किसी समय अपने लेखादिकमें उपयोग कर सकता है। साथ ही यह अनरोध किया कि यदि समझा जाय तो इस भंडारके ग्रंथोंका कछ परिचय अनेकान्तक पाटकोंको दिया जाय. जिससे विद्वान लोग तुलनानि के अवसरों पर उन ग्रंथप्रतियोंका उपयोग कर सकें और जहां जो ग्रंथ न हो वहांके भाई उसकी कापी करा सके। नदनुसार इस सूची परसे मैंने संस्कृत-प्राकृतादि ग्रास ग्रास ग्रन्थों की एक संक्षिप्त सूत्री पं० परमानन्द जैन शास्त्री वीरसेगा. मन्दिरसे तय्यार कराई है, जिसे पाठकोंके अवलोकनार्थ नीचे दिया जाता है। भाशा इससे पाठकों को कितनी ही जानने योग्य बातें मिरोंगी और कितनों ही को अपने अपने यहांके भंडारोंके कुछ प्रमुख तथा प्रसिद्ध ग्रंथोंका परिचय निकालने की प्रेरणा भी होगी । यदि हमारे साहित्यप्रेमी भाई अपने अपने यहाँके शासभंडारोंकी सूचियां थोडासा परिश्रम करके प्रकार कर देवें अथवा वीरसेवामन्दिर सरसावाको भेजदेवें तो दिगम्बर प्रन्धोंकी उस विशाल एवं मुकम्मल सूचीका भायोजन सहज ही में हो सकता है, जिसकी बहुत बड़ी मावश्यकता है और जिसका काम दिगम्बर धनिकों की लापर्वाही तथा ऐसे उपयोगी कामोंका महत्व न समझने के कारण वर्षों से पड़ा हुआ है। और इम्मीसे भाई अगरचन्दजी माहटाने, इसी किरया में प्रकाशित 'दिगम्बरजमग्रन्थसूची' नामक अपने लेखमें, इसके लिये दिगम्बर समाजको भारी उलहना लिया है, और यह डीक ही है। दिगम्बर समाजको उस पर ध्यान देकर अपने कर्तव्यको शीघ्र पूरा करना चाहिये । प्रस्तु; इस सूचीमें सटीक, मटिप्पण, सवृत्ति जैसे शब्दोंका प्रयोग संस्कृत टीका-टिप्पणादिको सूचित करने के लिये हैं और 'भाषाटीका' का अभिप्राय हिन्दी भाषा टीकामे है टीकाकारादिका नाम मूबकारके बाद दे दिया है। जहां ग्रन्थका नाम टीका-प्रधान है वहां मूलकार तथा मूलकी भाषाके उस्लेखको छोड़ भी दिया है। और जहां जो बात मूलसूची परसे उपलब्ध नहीं हुई वहां इस सूची में x यह चिन्ह लगा दिया है। ऐसे स्थल ग्रंथप्रतियों पर जांचने योग्य है-खासकर ग्रंथकारोंक नाम तथा भाषाक विषयमें। ग्रंथोंके नम्बर विभागक्रमादिककी गड़बड़को लिये हुए कुछ विचित्र तथा अधुरे नाम पर--कोई एक अच्छा क्रम नहीं पाया गया-इसमे उन्हें छोड़ दिया गया है, और इस सूची में ग्रंथोंको प्रकारादि क्रमसे दिया। इससे पाठकोंको अभिलषित ग्रंथका नामानिक मालम करने में सुविधा रहेगी। -सम्पादक Page #373 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष प्रन्ध-नाम ग्रंथकार-नाम पत्रसंख्या भाषा लिपि संवत् १०४२ २४ १०५४ xxx प्राकृत मस्कृत संस्कृत मंस्कृत, हिन्दी संस्कृत ३०६८० ११८x EE१७८५ १. १४ १५०६ १६७E ५२६ ६२ १७२६ २६६ | १७६२ १६E. १६०० x तलकौस्तुभ (राजबार्तिक-टीका) अकलंकदेव, पं. पन्नालालसंघी तत्वज्ञानतरंगिणी भ० जानभूषण तत्वदीपिका (प्रवचनमारवृत्ति) अमृतचन्द्राचार्य तत्त्वसार देवसेन तत्वानुशामन नागमेन (राममेन) तत्वार्थटीका मकल कीर्ति कनककीर्ति तत्त्वार्थरत्नप्रभाकर-वृत्ति (त.सू.टी.) प्रभाचन्द्र तत्वार्थरलमाला (रानवार्तिक टीका) पं० पन्नालाल न्यायदिवाकर तन्वार्थराजवानिक | अकलंकदेव नलार्थवृत्ति (मर्वार्थमिति) । पूज्यपाद ,, (तत्त्वार्थसत्र टीका) श्रुतसागर ,, (सर्वार्थसिद्धि टीका) प्रभाचन्द्र तत्वार्थसुस्वबोधवृत्ति पं० योगदेव तत्त्वार्थश्लोकवानिक विद्यानन्दाचार्य तत्त्वार्थमार अमृतचन्द्राचार्य तस्वार्थसूत्र (सुनहरी अक्षर) उमास्वामी तत्त्वार्थसूत्र (टिप्पण) दर्षचंद्र तात्पर्यवृत्ति (प्रवचनसारीका) जयसेन त्रिभंगीसार (सटीक) नेमिचंद्र सि. च०, गुणभद्र त्रिलोकसार (मूल) त्रिलोकसार (सटीक) नेमिचंद्र, माधवचंद्र विद्य , (मटिप्पण) त्रिलोक दीपक पं. वामदेव त्रिलोकप्रशप्ति (तिलोयपण्णत्ती) यतिवृषभाचार्य त्रिवर्णाचार भ० सकलकीर्ति সিনবাৰাৰ भ० सोमसेन दशभक्तिसंग्रह कुन्दकुन्द, पूज्यपाद दर्शनसार देवसेन दशलक्षण पूजा सुमतिसागर दशलक्षणजयमाल (सटिप्पण) रइधू कवि, x देवागम स्तोत्र (सवृत्ति) समंतभद्राचार्य, वसुनन्दी दोहा सुप्रभाचार्य सुप्रभाचार्य द्रव्यसंग्रह (सटीक) नेमिचंद्र सि. च०, ब्रह्मदेव १६४८ १८६३ १८०४ प्रा०, संस्कृत प्राकत १५७४ १८२७ मंस्कृत प्राकृत संस्कृत १८६६ ६ प्रा०, मंस्कृत | x " x संस्कृत "भ्रंश । संस्कृत अपभ्रंश प्रा०, संस्कृत 18" २८ १८३५ Page #374 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] द्रोपदी प्रबन्ध द्विमंधान काव्य (सटीक) धनंजय नाममाला धन्यकुमारचरित्र धम्मरसायण धर्मपरीक्षा (भाषा टीका) धर्मप्रश्नोत्तर (भावकाचार) धर्मशर्माभ्युदय (काव्य) धर्मसंग्रहश्रावकाचार धवला (पखण्डागम टीका) नंदिमंघ गुर्वावली नंदिबंध विरुदावली नवचक्र (भाषा टीका) नेमिनाथपुरा न्यायदीपिका अन्यका नाम नागकुमारचरित्र नाटक समयसार कलशा (भा० टीका) नियमसार (तात्पर्य वृत्ति) पद्मचरित (पद्मपुरा) पद्मचरित (टिप्पण पद्मनंदिपंच विंशतिका (मूल) " पद्मपुराण (भाषा टीका) पद्मावतीकल्प " " परमाथोंपदेश 99 पद्मावती लघुस्तोत्र परमात्मप्रकाश (मूल) (सटीक) (भाषा टीका) परीक्षामुख (मूल) पंचपरमेष्ठी पूजा 99 19 पंचसंसार निरूपण पंचास्तिकाय (मूल) (सटीक) (सटिप्पण) नया मं० देहलीके ह० लिखित ग्रन्थों की सूची (तत्वदीपिका टीका) जिनसेनाचार्य महाकवि धनंजय, नेमिचंद्र महाकवि धनंजय अन्धकार नाम भ० सफलकीर्ति पद्मनंदि श्रमितगति, चौ० पन्नालाल भ० सकलकीर्ति महाकवि हरिचंद्र पं० मेघावी मू. भूतबलि, पुष्पदन्त टी० वीरसेन X X देवसेन सृि X मपेशाचार्य श्रमृचंद्राचार्य, राजमलपांडे कुन्दकुन्दाचार्य, पद्मप्रभ मलधारी ब्र० नेमिदत्त धर्मभूषण (अभिनय) रविषेया श्रीचंद्रमुनि पद्मनस्याचार्य X रविषेण पं० दौलतराम मल्लिषेणाचार्य 33 19 " मल्लिपेणाचार्य योगीम्युदेन X पं. चन्द्रशेखर शा अमरचंद दीवान भ० ज्ञानभूषण माणिक्यनंदी भ० ज्ञानमुपया भ० शुभचंद्र भ० शुभचन्द्र कुन्दकुन्दाचार्य अमृतचन्द्र संस्कृत संस्कृत प्राकृत 39 " "" 29 प्राकृत प्रा०, संस्कृत संस्कृत .. प्रा० हिंदी संस्कृत " " सं०, हिंदी प्रा०] संस्कृत संस्कृत संस्कृत संस्कृत " 33 भाषा संस्कृत, हिंदी " " अपभ्रंश 99 संस्कृत हिन्दी 19 संस्कृत हिंदी 9 संस्कृत प्राकृत प्रा० संस्कृत पत्रसंख्या २४ २२६ ૧૪ २६ ε २०३ ६६ १३६ ८२ २०२२ १०१-१०६ ३-१४ १४ १६ ३७६ ७७ १५४ २३ २४६ * * * * * * * * * * * * ५८ ११६ १६६ ४३६ १३ ८८ , ५६ १८ दद १२ ६ ४१ २६ २२ ૪ ३४६ लिपि | १६०२ | १६४५ X | १६२१ | १६०२ | १३५८ ×× १८७४ | १३६३ × ××× | १८६१ १८६७ १८६१ | १७४६ १७७५ १८३४ १५१५ | १७६१ १९०६ X xxxx × × × × × × 1 ? × Page #375 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५२ अवेकान्त वार प्रन्ध-नाम ग्रंथकार-माम भाषा पत्रसंख्या संवत् १७६५ १८६२ १६६० । संस्कृत संस्कृत १८७२ भुतस्कंधपूजा (सरस्वती पूजा) श्रेणिकचरित्र सज्जनचित्तवल्लभ सप्तव्यसनचरित्र समयसार (सटीक) समयसार (तात्पर्यवृनि टीका) समयसारकलशा समयसारकलशा (सटिप्पण) सम्यरतकौमुदी (भाषा टीका) समाधितंत्र (समाधिशतक)(मूल) (मटीक) सर्वार्थ सिद्धि (भाषा टीका) सहस्रनाम सटीक (अंतिम पत्र नहीं) सागारधर्मामृत (स्वो टीका सहित) सामायिक क्रिया सारचौवीमी सारसमुच्चय सायद्वीपपूजा सिद्धचक कथा (माहात्म्य) १८८३ १८६७ श्रुतसागर संस्कत म. शुभचंद्र मल्लिषेणाचार्य भ० सोमकीनि कुन्दकुन्दाचार्य, अमृतचंद्र प्राकृत, संस्कृत ,, जयसेन अमृतचंद्र अमृतचन्द्र , x xx मं०, हिन्दी पूज्यपाद __" , प्रभाचन्द्र 1 , x पूज्यपाद, पं. जयचंद्र । संस्कृत, हिन्दी | मू.पं० श्राशाधर, टी० श्रुतमागर । मंस्कृत पं० श्राशाधर x भ. सकलकीर्ति कुलभद्र x १. नरसेन प्राकृत भ. शुभचन्द्र मंस्कृत पं० श्राशाधर भ. सकलकीति देवनन्दी भ०सकलकीर्ति xxxx १६२३ xxx Fx x x x xxx Fix x x x x x x x x " १८२५ मिडचक्रपृजा (स्वो टीका सहित) सिद्धान्तसारदीपक सितिप्रिय स्तोत्र (सटीक) सुकुमालचरित्र सुदर्शनचरित्र १७३५ १८७१ १८२६ १८२१ १७७६ : भ. विद्यानन्दि अमितगति x 5 १८०८ सुभाषितरत्नसन्दोह सुभाषितार्णव सुभाषितावली सुमुमचरित्र सुलोचनाचरित्र (ग्वंडित) सोलहकारण जयमाल (सटिप्पण) स्नपनविधि (वृहत्) स्वप्नमहोत्सव ( बहत्) स्वयंभूगठ (लघु) स्वयंभूस्तोत्र (हत्) , (सटीक) स्वामिकार्तिकेयानुप्रेश (सटीक) (सटिप्पण) भ. सकलकीर्ति भ. रत्नचंद्र देवसेन रबधूकवि भ. अभयनन्दी २ से १६८x अपभ्रंश संस्कृत | १ से २२ २४से२५० १७७-१७६ xx देवनन्दी समन्तभद्र , , प्रभाचंद्र स्वामिकुमार, भ. शुभचंद्र प्रा०, संस्कृत ३११ ८ १७६६ १७७२ Page #376 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] हनुमानचरित्र हरिवंशपुराण ग्रन्थ-नाम 19 २ श्वेताम्बर जैन ग्रन्थ अजितशातिविवरवृति अध्यात्मोपनिषद् अनेकार्थसंग्रह (कोष) श्राचाराङ्ग सटीक उपदेशकुलक (मा) उपदेशमाला उल्ला मिकस्तत्रवृत्ति ( श्रजितशाति जिनस्तव) कल्पसूत्र (गुजराती टीका ) कल्याण मंदिर नि "7 93 जैनेन्द्रव्याकरणबालबोधिनीप्रक्रिया ज्योतिप्रकाश (जैन पंचागरचना ) तत्वार्थटीका ( भाग्यानुमारिणी) धर्मोपदेशरत्नमाला (सटिप्पा) (पडीशन) नवतत्वप्रकरण नेमिनिर्माण काव्य नया मं० देहलीके इ० लिखित ग्रन्थोंकी सूची पंच निग्रन्थीसूत्र पारतंत्र्यस्तववनि लघुनाममाला वर्द्धमानस्तु वाग्भट्टालंकार पिंडविशुद्धि प्राकृत छन्द कोष (सटीक) भयहर स्तोत्रवृत्ति ( श्रभिप्रायचंद्रिका) रत्नाकरावतारिका (प्रमाणनय तत्त्वा०टी०) संग्रहणीप्रकरण (अतिजीर्ण) सूक्तिमुक्तावलि (मूल) ब्र० अजित जिनसेनाचार्य ब० जिनदास विवेकविलास शब्दानुशासन (खंडित ) दर्शनसमुच्चय -तर्क दीपिका जिनवल्नभसूरि, गोविन्दाचार्य हेमचन्द्रसूरि मणी देवविनय जिनबल्लम रत्नशेखरसूरि, चन्द्रकीर्ति मानतुङ्गसूरि, जिनप्रभसृि देवसूरि, रत्नप्रभाचार्य कीर्तिि हेमचन्द्र, सिद्धसेन वाग्भट विचारषट्त्रिशतिकासूत्र (सटि० खंडित) जिनहंसाचार्य, यशसोम जज स त्रिदग्धमुखमंडनमावचूरि धर्मदास जिनदत्तसूरि हेमचन्द्राचार्य भद्र सुधर्मनामी, शीलाकसूरि X धर्मदासगणी जिनवल्लभसूरि, धर्मतिलकमुनि X वाग्भट्ट X 1- जिनदत्तसूरि प्रंथकार - नाम X कनककुशलसूरि श्रीऊकेशगणी हेमचन्द्राचार्य, वीरसिंह विजयसूरि उमास्वाति, सिद्धसेनगगी नेमिचन्द्र भंडारी 99 X सोमप्रभाचार्य 9 99 देवप्रभशुजाल হাট 99 प्रा०, संस्कृत संस्कृत प्रा०, संस्कृत x प्रा०, संस्कृत प्राकृत, गुजराती संस्कृत 29 " भाषा प्राकृत 11 संस्कृत प्राकृत प्रा०, संस्कृत Vill प्राकृत संस्कृत 19 शिप्राकृत " संस्कृत प्राकृत 39 " संस्कृत पत्रसंख्या १ ८० ३६२ १६७ ८१ ८१ ३१२ * ५.३ ७ से १३ ६ १२ ३१ १०६ ५१ ७७५ ३० ७ १२ १०० ७ ६ २२ मे २५ Y 19 १४-१६ τε १४ २ งน ८ 19 ८४ ५६ ५. ३३ ३३ १५. ३५३ लिपि संवत ! × १७२५ १७७२ 1 X <× × × × ××××××××× x x x x IEEE | १८६३ X | १६८० X १६८५ | १७५५ X | १६८२ X | १८२४ १८०३ | १७६६ X | १८६८ | १६६० X | १६६० X |१८११ १७०६ | १८८७१ x | १४३५ X १७६५ | १८६६ | १७६१ x १८८६ Page #377 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३५४ ग्रन्थ-नाम सूक्तिमुक्तावली (सटीक) (सावचूरि) 99 स्मरण स्तोत्र (सटीक) स्याद्वादमंजरी (हेमचंद्र द्वात्रिशकिावृत्ति) मीनाममाला ( श्रभिधानचिन्तामणि) ३ अजैन ग्रन्थ अमरकोष एकाक्षरी नाममाला पुराण (खंडित) कर्पूर कालज्ञान किरातार्जुनीय कुमारसंभव कुवलयानन्द - कारिका चाणक्यनीति तर्कसंग्रह तर्कसंग्रह- दीपिका द्विरूपकोश नीतिशतक (सटीक) भर्तृहरिशतकत्रिक (मूल) मदनपाल निघंटु (वैद्यक माधवनिदान (जी) ( सटीक जीर्ण खंडित) "" मेघदून (काव्य) मेदिनीकोष aas (वैद्यक देश २ सर्ग लीलावती (सटीक) " बाराही संहिता (खंडित) बैद्यजीवन वैद्यकरसयोग संग्रह - सुभाषितसंग्रह प्रन्थकार-नाम सोमप्रभाचार्य, हर्ष कीर्तिसूरि , विजयभुज 33 जिनदत्तसूरि, जयसागरगणी मलिषेणसूरि हेमचन्द्राचार्य अनेकान्त श्रमर सिंह X केशवसेन कृष्ण जिणु राजशेखर श्रीधन्वंतरि शम्भूकवि महाकवि भारवि " प्राकृतशब्दलक्षण (व्याकरण) प्रबोधचन्द्रिक । प्रस्तावसागर ( सुभाषित) बृहज्जातक (सटीक २ श्रध्याय खंडित ) ( बराह मिहिर) बृहज्जातक उपसंहार X भर्तृहरि मदनपाल माधवाचार्य कालिदास पं० कुवलयानन्द चाणक्य मंत्री श्रनंभट्ट " महेश्वरकवि भर्तृहरि चंड वैजल भूपति पं० भगीरथ "" कालिदास (मेदिनीकर) x कालिदास भास्कराचार्य " रैशर्म X "9 वराहमिहिर, महोत्पल लोलिम्बराज X संस्कृत " " प्राकृत संस्कृत " " 19 " " REAC " 39 " " 31 29 :: 99 प्रा० गद्य संस्कृत 23 "" 17 भाषा 11 99 22 99 पत्रसंख्या ३४ | १७६१ १० X १३ से २२ x १३७ ६३ 5 12 1 ७१ | १८६६ X १ से १०० X १७ ε १६ ६.३ ५१ १८ २० 9 १६ १३ २४ ह १६ १२६ १ से २४ १०१-१३७ ४७ ७६ [ वर्ष ४ लिपि संवत् * * * * * १७० १३४ १७ ७४ २४ १२ १२ १६ ६४२ ५२ ११ | १७५६ X । १५०७ | १७३० १८३५ X | १६६५ xx | १८७० X × ¦ ¦ × × × ¦ ) × 3 × 1 ××××××××× १६०६ Page #378 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ५ ] नया मं० देहलीके हलिखित ग्रन्थों की सूची ३५५ लिपि प्रन्थ-नाम ग्रन्थकार-नाम भाषा पत्रसंख्या संस्कृत वैयाकरणषभूणसार (सवृत्ति) पराग्यशतक (मटीक) बोपदेवशतक वृत्तरत्नाकरसेतु वृत्तरत्नाकर (सटीक) शिशुपालवध (काव्य) शीघ्रबोध (सटीक) पटपंचासिका टीका (ज्योतिषग्रन्थ) श्रुतबोध शृङ्गारशतक (सटीका मारस्वत व्याकरण .. वृहप्रक्रिया ५७. कौंडभट, x भर्तृहरि वोपदेवकवि केदारभट्ट ,,पं० हरिभास्कर माघकवि 4. काशीनाथभट्ट पं. काशीनाथ कालिदास भतृहरि, x x अनुभूतिस्वरूप श्रार्य पद्माकरभट्ट भट्टोजीदीक्षित ३:::: | सं०, पद्य प्राकृत संस्कृत १५७८३ से ६३ | x ४RE २४ । १०से१५x संस्कृत संस्कृत tr xxxxxxxxxxxxxxxxx संस्कृत मिद्धान्तकौमदी पूर्वार्ध , ., उत्तरार्ध ..चन्द्रिका पूर्वाध संस्कृत श्रीगमभद्राश्रम :- * - * " २ २ संस्कृत संस्कृत संस्कृत xxxxxxxx संस्कृत, हिन्दी संस्कृत विभक्त्यर्थ 'रामाश्रम स्वप्नफल व्यामऋषि स्वप्नावली (स्वप्नफल भाषाटीका) हठयोगप्रदीप (ग्वंडित) ४ संदिग्ध-सम्प्रदाय-ग्रंथ अनेकार्थ-ध्वनि मंजरी (क्षपणक) निमितशास्त्र ऋषिपुत्र भ्यायपंजिका (काशिकावृत्ति) जिनेन्द्रबुद्धि ८ अध्याय, अलग अलग पत्राम शान्तिनाथचरित्र राजसुन हिन्दू ? षटपंचाशिका (सटिप्पण) X सिद्धि (खेटसिद्धि) ज्योतिष खेटाचार्य संस्कृत प्रा०, पद्य संस्कृत १८३२ १८०६ तीसरे प्रको|x छोड़कर ७०४ १५३ १५८८ १६५८ २३ x प्राकृत संस्कृत संस्कृत नोट-इस सूचीमें प्रधानतया संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाके अन्योकोही ग्रहण किया गया है। ऐसे प्रन्योमेंसे जिनके साथ भाषाटीका भी लगी हुई हैं उनमें से भी कुछको ले लिया है, शेषको छोड़ दिया है। मात्र हिन्दी आदि दूसरी भाषाप्रोंके अन्योंको इस सूचीमें शामिल नहीं किया गया है। संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाके भी कितने ही साधारण प्रन्योंको छोड़ दिया है। जिन प्रन्योंकी अनेक प्रतियाँ है उनमेंसे लिपि सम्बत्की दृष्टिसे जो पुरानी अँची, अथवा जो लिपि-सम्बत्को लिये हुए पाई गई उसे ही प्रायः यहाँ ग्रहण किया गया है। वीरसेवामन्दिर, सरसावा ता०१०-६-१९४१ Page #379 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'अनेकान्त' पर लोकमत २८ न्यायाचार्य पं० दर गिलाल जैन कांठिया, ऋषभब्रह्मचर्याश्रम मथुरा "कान्नको मैं गौर पूर्वक देखा करता हूँ । श्रद्ध ेय पं० जुगलकिशोरजीके विद्वसापूर्ण एवं खोजपूर्ण लेखा, निबन्धों, प्रकरणों, व्याख्याओं को मैं कई वर्ष से सुरुचिपूर्वक पढ़ता का रहा हूं। उनकी भावभंगी तथा शब्द-विन्यास साधारया व्यक्ति के लिये भी मुग्ध कर देने वाला होता है। उनके लेखों को पढ़ लेनेपर भी छोड़ने को जी नहीं चाहता है। 'मेरीभावना' तथा 'समन्तभद्र' मे तो उन्हें यशस्वी एवं अमर बना दिया है। पंडितजीकी ही यह विचित्र सूम है कि अनेकान्सके मुखपृष्ट पर 'अमीमीति' का गोपिका के समन्वयका सुन्दर चित्र खींचा है। पंडितजी की ऐसी साहित्य-सेवाधों में आकर्षित हो मैने गतवर्ष अपने "जैनसाहित्य की खोज” लेखमें जैममित्रके २३ अंकमें पंडितजी के प्रति निम्न उद्गार प्रकट किए थे: "पं० जुगलकिशोर जी मुख्तार जैम्मी विभूति जैनसंसारको भी प्राप्त हैं । इन्होंने अपने जीवन भर जैनसाहित्यकी अपूर्व सेवा की है और विश्राम की में भी कठोर परिश्रम करते जारहे हैं । इनके सप्रयत्न से ही प्रकाशित प्राचार्य कृतियोंके दर्शनोंका सौभाग्य प्राप्त हुआ।" जिनेन्द्रले प्रार्थना है पंडितजी दीर्घायु होकर जैनसाहित्यकी अधिकाधिक सेवा करें । आपका लेख "तस्वार्थसूत्रके बीजों की खोज” शीर्षक भी नग्य एवं महत्वपूर्ण हैं इसमें अभी शब्द साम्यकं खोज की और जरूरत है। जहां तक हो तस्वार्थसूत्र के सभी बीज शब्दों में ही मिलें तो प्रत्युसम चार प्रयत्न शील होंगे ।" | आशा है इस विषय में भी २९ ब्र० शीतलप्रसाद, श्रजिताश्रम, लखनऊ "यह पत्र बिना मतभेदके सर्व जैन विद्वानोंके विद्वत्तापूर्ण लेख प्रकाशित करता है। इसमें अब विद्वानोंके व सर्वसाधारण के पहने योग्य लेख होते हैं, जिनसे धार्मिक भाव और सामाजिक उत्थान दोनोंकी तरफ़ पाटकों का ध्यान जा सकता है । यह अपने ढंगका निराला ही पत्र है । सम्पादन बड़ी योग्यतासे किया जाता है। सर्व जैनोंको आर्थिक मदद देनी चाहिये. जिसमे कि यह बराबर जारी रहकर श्री महावीर भगवानका उपदेश जनताको पहुँ खाता रहे। हम इसकी रकति चाहते हैं । आध्यामिक लेख भी रहने चाहियें ।" ३० श्री हजारीलाल बांठिया, बीकानेर 46 'मईका अंक पढ़कर अत्यन्त प्रसन्नता हुई। 'ग्रीष्म-परिषह-जय' रंगीन चित्र इस अंककी शोभा दूनी होगई है। जैसा इसका नाम है 'अनेकान्स' वैसे ही इसमें अच्छे अच्छे लेख रहते हैं। मुखपृष्ठ तो इतना आकर्षित है कि कहते ही नहीं बनता है। पत्रक बिचारधारा स्फूर्ति प्रदान करनेवाली है। सचमुच मपत्रों में सर्वोच्च कोटिका है। यदि किमीको अन समाज की सच्ची सेवा करनी हो तो इस पत्रको अवश्य अपमावे। जैन जाति इसे तन-मन-धन् मद दे, जिससे पत्र दीर्घायु होकर अपने उद्देश्य और नीतिमें सफल हो। मैं पत्रकी हृदयसे उसति चाहता हूँ ।" ३१ संपादक 'जैन मित्र', सूरत " ''इसके मुख्य पृष्ठपर जैनी नीतिका द्योतक सप्तभंगीका रंगीन चित्र बहुत ही कमोडर है। इसमें " एकेमाsurat" श्लोक को मूर्तस्वरूप देकर मुख्तार सा० ने अपनी उच्च कल्पना शक्तिका परिचय दिया है। इस अङ्ग में कुल ३३ लेख कविता घ्रादि है। २-३ सामान्य लेखोंको छोड़कर शेष सभी अध्ययन और मनन करने योग्य हैं। पं० परमानन्दजी शास्त्रीका "सस्वार्थ सूत्रके बीजकी लोज” शीर्षक लेख इस अंकका सबसे महत्वपूर्ण लेख है । यह २१ पृष्ठोंमें पूर्ण हुआ है। शास्त्रीजीने यह लेख बहुत ही परिश्रम, खोज और समय के बाद जिला मालूम होता है। प्रारंभ में आपने अनेक युक्तियों और प्रमाणोंसे यह सिद्ध किया है कि तत्वार्थसूत्र के रचयिता उमास्वामी दिगम्बराचार्य थे, म कि श्वेताम्बराचार्य | और छापने पं० सुखलालजीकी उस मान्यताका भवी भांति खण्डन कर दिया है जिससे उम्मे तस्यार्थसूत्रकी अपनी हिन्दी टीकामें उमास्वामीको श्वेताम्बर सिद्ध करनेका प्रयत्न किया है........| 1 1 अनेकान्त एक ऐसा पत्र है जिस पर जैन समाज गौरव कर सकती है । जैममित्रके पाटकोंसे हमारा अनुरोध है कि वे इसके ग्राहक बन अब ।" Page #380 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके सहायक वीरशासन-जयन्ती-उत्सबके सभापति इस वर्ष वीरसेवामन्दिर मरमाग में ता. व.. जिन सज्जनाने अनेकान्तकी ठोस मेवाओंके प्रति अपनी जुलाई को दो दिन जो वीरशासन-जयन्ती का उत्सव मनाया प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, उमं घाटकी चिन्नामे मुक्न रहकर जायगा उसके सभापति बा० जयभगवान जी जैन, बी० निराकलतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति करने और अधिकाधिक ए०एल एल०बी०वकील पानीपत होंगे, जोकि प्रकृतिम मौम्य तथा मजन स्वभावके होने के साथ साथ बडे ही रूपमे समाजसेवाओंमें अग्रसर होने के लिये महायताका बच्चन अध्ययनशीन एवं विचारशील विद्वान हैं और बछ वा दिया है और इस प्रकार अनकान्तकी महायकश्रेणी में अपना पर इस प्रकार अनकान्तका सहायकश्रणाम अपना व लेखक हैं। आपकी लेखनी अनेकान्तक पाठक परिचित नाम लिवाकर अनकान्तके संचालकोंको प्रोत्साहित किया है । आपकी स्वीकारता प्राप्त हो चुकी है। पाशा सर्वउनके शुभ गाम महायताकी रकम-महित इस प्रकार हैं--- साधारण जन जलपमें पधारकर प्रापके तथा इमरे विद्वानोंक महत्वपूर्ण भाषणाम जरूर लाभ उठावेंगे। .२५१ बा. छोटेलालजी जैन इम, कलकत्ता । अधिष्ठाता 'वीरसंबामन्दिर' * १०१) बाल अजिनप्रशादजी जैन एडवोकेट. लग्वनऊ । अनेकान्तकी अगली किरण १.१) बा. बहादुरसिंहजी सिंधी, कलकत्ता। वीर-शामन-जयन्तीक कार्यभारकं कारण अनकान्तकी १०० माह श्रेयांमप्रसादजी जैन. लाहौर । अगली किरण बन्द रहेगी और उसकी पूर्ति ६ठी-७वी किरण • १००) माह शान्तिप्रमादजी जैन, डालमियानगर । को संयुक्त निकाल कर की जावेगी। *युक्न किरण अगम्त . १००) बा० शांतिनाथ सुपन बा. नंदलाल जैन. कलकला। माममें प्रकाशित होगी। पाठकगण नोट कर लेवें । १००) ला० तनमुग्वरायजी जैन, न्यू देहली। विलम्बका कारण १००) मेट जोग्वीराम बैजनाथजी मगवगी, कलकत्ता। अनेकान्तकी इस किरण के प्रकाशनमें कोई दो सप्ताहका १००) बा. लालचन्दजी जैन, एडवोकेट. रोहतक । बिलम्ब हो गया है, जिम्मका प्रधान कारण टाइटिल पेजका १०.) बा.जयभगवानजी वकील श्रादि जैन पंचान, पानीपत) मुगरी फाइन आर्ट वर्मदहलीम छपकर न माना है। छपने * ..) लादलीपसिंह काग़ज़ी और उनकी मार्फत, देहली। का आर्डर ली जनको दिया गया था और नानक छाप २५) पं. नाथरामजी प्रेमी, हिन्दी-ग्रंथ- रम्नाकर, बम्बई । कर भेजनको लिखा गया था। अपने लिखे अनुसार काम देने के आर्डरको म्वीकार करने हुए मुरारी प्रेसने ना० ३ को * २५) ला. कडामलजी जैन, शामियाने वाल, महारनपुर। यहां तक लिग्वा था "कि आपका कार्य प्रारम्भ कर दिया । २५) बा.रघुवरदयाल जी जैन. एम. करोलबाग़, देहली। गया है" परन्तु फिर बादको नहीं मालूम प्रेममें क्या गड़बड़ी । २५) मंठ गुलाबचन्दजी जैन टोंग्या, इन्दौर। हई जिसमें न तो टाइटिल छपकर पाया और न अपने पत्री २५)ला. बाबुराम अकलंकप्रसादजी जैन. निम्मा का उत्तर ही मिला। इस बीच में कई बार बाबू पसालाल जिला मुजफ्फरनगर। जी अग्रवालको देहली लिग्वना पड़ा, वे कई बार प्रेसमें गये २५) म'शी ममतप्रमादजी जैन, रिटायर्ड अमीन, महारनपुर । टेलीफोन किया और जल्दी टाइटिल भेजने की प्रेरणा की. • २५) ला. दीपचन्दजी जेन गईम, देहरादन । नब कहीं जाकर २४ जून को देहलीम टाइटिलका पार्मस २५) ला० प्रद्य म्नकुमारजी जैन रहम, महारनपुर। रवाना हुआ और २६ जनको अपनको मिला टाइटिल इम प्राशा है अनकान्तक प्रेमी दुसरे मजन भी प्रापका विलम्पर्क कारण हमें जो भारी परेशानी उठानी पड़ी है उम अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही महायक म्कीमको सफल बनाने का कुछ भी जिक्र न करते हुए हम अपने प्रेमी पाठकमि में अपना पग महयोग प्रदान करके यशक भागी बनेंगे। उम प्रतीताजन्य कष्टके लिय क्षमा चाहने है, जो इस बीच में उन्हें उठाना पड़ा है और बाबु पक्षालालजीको भी जो कष्ट व्यस्थापक 'अनेकान्त' उठाना पड़ा है, उसके लिये भीमा-प्रार्थी हैं। वीरमवामन्दिर, मरमावा ( महाग्नपर । --प्रकाशक - ------ मद्रक और प्रकाशक पं. रमानन्द शास्त्री. वाग्मेवामन्दिर, मग्मावा के लिये श्याममुन्दरलाच श्रीवास्तवक प्रवन्धमे श्रीवास्तव प्रिंटिग प्रेम, महाग्नपर मदिन । Page #381 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered No A 731 9 श्रीमद् राजचन्द्र म. गांधोजी लिखित महत्वपूर्ण प्रस्तावना और संस्मरण-सहित महान ग्रंथ गुजरात सुपमिद तत्ववेत्ता शतावधानो कविवर गयचंद्र गुजरात प्रथका हिंदी अनुवाद महारमाजाने इसकी प्रस्तावना मेलिना--' मर जावापर म्यता कवि रायचद्र भाई की छाप पडा है।टानन्दाय आर रासन अपना भा राय भाइन मुझ पर गहरा प्रभावला है।" गयडजा एक अहन मापान समय के महान तत्त्वज्ञानी भोर विचारकथामदामाश्राका जन्मदनबालापूरयामाठवावरम जन्मभर उन्हान तमाम धमा का गहराइस अध्ययन किया था मार सनत्वा पर अपनावनार बनाय । उनकी स्मरणशांक ग़जब का था, किमाभा प्रकोप हरबाथ (याद) कर लेत थे शनावधानी तो थंह भवानमा बानाम माथ उगा लगा मान थ। इनमें उनकाय हुए जनन-कल्याणकारी, जावन म सब भार शान वान, जानना पयागा, सबमनमभाव, महिमा, सत्य आदि नत्ता का विशद विवचन।श्रामद का बनाई हमाक्षमाला, भावनाबाध मात्मासाद्ध भाद छाट माट ग्रंथाकामना गरम मायनज उनक ८०४ पत्र, जो मान समय समय पर अपन मुनानना लियन, ननका इमम मा । साधण अफरीका में किया हुआ महात्मा गापा जोर मानिन। अध्या-म भार तस्वज्ञानका ताम्बजाना ही। रायनको मनमा सहिदा पत्यक विचारशील विद्वान और दशभक की गय काय कलाम रटाना चहिया पत्र सम्पादक और नामी नामो बिदानीन मुक कहना काम ग्रंा पाया में विरहीनिकलत है। इमक अनुवादक 'गबद्रशमा एम । गुजराती में इस प्रथ के सानाशनहा में या मारा हर बार मामा गावाजा के प्राग्रह स प्रकाशन दुमाया था • पक मार पृष्ठल-रच.. ऊपर कपड़ की सुन्दर मजबूत जिलदायकाज पर कनागरपार है।मूल्य ६) छ रुपया है, जो किलागलमा लागतो अन्य कागतय५) ..। जो महोदय गुजराना म.पा मावना च.. उनकजय य: असावनसपंच राम्मलाक दुमा मन्थ पुरुपायामयुगाब ११), नानागावरा, मन नर्गन ), रामग्रा.) गाम्मटसार कर्मकांड २), गाम्मरमा जायकाई .1), लालमार ), प्रवचनसार ५). परमा-मप्रकाश तथा योगसार ५), बद्वादमंजरी मायनवाधिगममूत्र ३). मतमाता भावनाबोध . उपरशा या आत्ममिति ॥), योगमा ।) मभा पन्थ सरल भाटा का मान है। विशप हाल जानना चाहनो मुयोग्त्र मंगाल। ग्वाम रियायत जा भाई गयचर नशाखमानांक माथ ) के गन्थ मंगा, उन्हें उमाम्बातिकृत 'सभाध्यतस्वाधिगममत्र तत्वार्थ मूत्र-निशान भटीका मदिन ३) का प्रन्थ भेंट देगे। मिलने का पनापग्मश्रत-प्रभावकमंडल, (गयचंद्र जैनशास्त्रमाला) खारा कुत्रा, जाहिरा बाजार, बम्बई न. २ -.DI -. -. . Page #382 -------------------------------------------------------------------------- ________________ han HAR जनका एकनाकर्षन्नी मययन्ती मनामतरंगा । सलन जयति जैनी ननिमचाननेमिन गोपी। pen गुणमुख्य कलन अनकान्तात्मका स्याद्वादरूपिणी JAMIN A चिय A main म्यात Elka Camesteem की नाम्यातअनकान्नात्मक य - स्यात् भियतन्वी पापक्षामगरुषा विध्या- नया 4. - भनुभय सम्यग्व। स | किरण ६७ विधयं वार्य चाऽनुभयमभय मिश्रमपि नहिशेषः प्रत्यक नियमविपर्य या परिमितः । मदाऽन्योन्यापेन मकलभुवनन्येष्टगमणा त्वया गीनं नन्वं बदनय विवननग्वगात ॥ सम्पादक- जगलकिशोर मुख्तार । Page #383 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची mammin ३८६ १ समन्तभद्रकी प्रक्रिका रूप-[सम्पादक पृष्ठ ३१७ १३ जीवन-धारा (कविता)-[श्री 'यात्री' २ नेमिनिर्वाण-काम्य-परिचय-पं० पलाजान जैन ३५८ १४ क्या पर्दा सनातन प्रथा है?-[श्री ललिताकुमारी ३८७ ३ आचार्य चंद्रशेखर शास्त्रीका सन्देश " ३६१ १५ प्राग्वाट जातिका निकास-श्री अगरचंद नाहटा ३८६ ५ निश्चय और व्यवहार-[ब. छोटेलाल " ३६२ १६ एक प्रश्न-श्री भगवत्' जैन ३६० किसको कहें हमारा है (कविता)-[भगवत्' जैन ३६४ १७ वीरसेवामं में वीरशा०-ज.उ.-[पं० परमानंदशास्त्री ३११ ६ वीरकी शासनजयन्ती (कविता)-[पं० काशीराम शर्मा३६४ १८ कमल चौर भ्रमर--[पं. जयन्तीप्रसाद जैन शास्त्री ३१२ ७ तामिल भाषाका जैनसाहित्य-[प्रो.ए. चक्रवर्ती ३६५ १६ सयुक्मिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता ८ मीठे बोल (कविता)-(श्री 'कुसुम' जैन ३७० _ --[पं. रामप्रसाद जैन शास्त्री ३६४ । पर्युषण पर्वके प्रति (कविता)-[पं० राजकुमारजीन ३७१ १० अज्ञातवाम (कविता)-[श्री 'यात्री' .... ३७२ २० जीवन-नेय्या (कहानी)--[श्रीधार०के प्रानंदप्रकाश ४०, " जीवनकी पहेली-[बा. जयभगवान बी.ए. ३७३ २१ महाकवि पुष्पदन्त--[पं. नाथूराम 'प्रेमी' ४०१ १२ कलाकार ब्रह्मगुलाल (कहानी)-[श्री 'भगवत्'जैन ३७ २२ नया मन्दिर देहलीके हस्तलिखित भाषाग्रंथों की सूची ४२७ SACRED BOOKS OF High Class Superfine THE JAINAS SERIES. . FOR OIL COLOURING Vols. Rs. As. P. WATER COLOUR PAINTING 1. Dravya Samgraha ... ... 5 80 BROMIDE FINISHING 2 Tattwarthadhigama Sutra POSTER & COMMERCIAL DESIGNS. 3. Panchastikayasara 4. Purushartha Siddhvupaya ... 4 8 0 BACK GROUND PAINTING 5. Gommatsara Jiva Kanda ... 5 8 0 BLOCK MAKING. 6. Gommatsara Karina Kanda Pt. 1. 4 8 0 CHARGE MODRATE. 7. Atmanushasana ... ... 280 8. Samayasara ... ... ... 300 PROMPT SERVICE. 9. Niyamsara ... ... ... 280 Please write to:10. Gommatwara Karma KandaPt. II 480 11. Pareeksha Mukham ... ... 4 8 0| SWASTIKA PHOTO Co. POSTRAIT. PRESS & COMMERCIAL CENTRAL JAINA PUBLISHING HOUSE. ARTISTS & PHOTOGRAPHERS. AJITASHRAM. LUCKNOW. CHAWRI BAZAR, DELHI. 0000 Page #384 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ अहम् * स्ततत्त्व-सघातक शिवतत्व-प्रकाशक PRODamous नीतिविरोधध्वंसीलोकव्यवहारवर्तकःसम्पन् । परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। वर्ष ४ । वाग्मेवामन्दिर (मगन्तभद्राश्रम ) मरमावा जिला महारनपुर जगाई-अगम्न किरण ६श्रावण, भाद्रपद, वार निर्माण मं० २४६७. विक्रम सं. ८ १५४१ समन्तभद्रकी अहशक्तिका रूप ( उन्हीं के शब्दोंमे ) मुश्रद्धा मम ते मतं म्मृतिरपि स्वय्यर्चनं चापि ते । हस्तावंजलये कथाश्रुतिग्नः कर्णोऽक्षि संप्रेक्षते ॥ सुन्तुस्यां व्यमनं शिगेनतिपरं मवंशी येन ने । तेजस्वी सुजनोऽहमेव सुकृती तनैव तंजःपतं ॥ -जिनशनक 'हे भगवन ! श्राप मनमें अथवा श्रापक ही विषयम मंग सुश्रद्धा है-अन्धश्रद्धा नहीं-मंग स्मृति भी आपको ही अपना विषय बनाए हाहै-हृदय में मदेव श्रापका ही म्मग्गा बना रहता है-, में पृजन-अनुकुल वनादिरूपम पागधन-भी आपका ही करता हूं, मेरे हाथ श्रापका ही प्रणामाजील करने के निमिना है, मरं कान श्रापकी ही गुगा कथाका मुननम लीन रहत है-विकथाओंके सुननमें कभी प्रवृत्त नहीं हाने-, मंग आँख श्रापके ही सपना देखना है-मदेव श्रापकी वीनगग विज्ञानमय द्रवि ही मग आंग्यांक सामने घुमा करनी है और में उमाका ध्यान किया करता हूँ-, भझ जा व्यमन है वह भी आपकी सुन्दर स्तुनियाँक-दवागम, युक्त्यनुशासन, स्वयंभम्नात्र, स्तुनिविद्या जैम म्नवनांकरचनेका, और मग मम्नक भी आपको ही प्रणाम करम नत्पर रहना है,-कुदवाक प्रांग वह कभी नहीं झुकना-इस प्रकारकी चंकि मग मवा ( भक्ति) है-मैं निम्न्नर ही आपका इम नगह पर मेवन (भजनाऽऽगधन) किया करता ई-इमी लिये है नंजापन ! (कंवलज्ञानम्बागिन । ) में नजम्बी है, मजन है, और सुकृती (पुण्यवान) हूं।' Page #385 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनिर्वाण काव्य- परिचय (ले० पं० पन्नालाल जैन, साहित्याचार्य)Page #386 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] नेमिनिर्वाण-काव्य-परिचय ३५१ वह कितना अशुद्ध और अमंस्कृत हो कर छपा है इसे कौन वर्णन किया है। परन्त नवीन साहित्यकारोने शब्दालंकारको नहीं जानता ? अच्छे २ विद्वान् भी उसके पढ़ानेमे मंह काव्यान्तर्गइभततया-कायके अन्दर गलगण्डके समान मोड़ते हैं। 'गदाचिन्तामणि' क्या 'कादम्बरी' से कम है ? निःसार होने के कारण उपेक्ष्य बतलाया है। इसका मुख्य 'धर्मशर्माभ्युदय' क्या शिशुपालवध' से बढ़ कर नही है? कारण रचनाकाठिन्य ही प्रतीत होता है क्योकि अलंकार और क्या ' यशस्तिलकच-पू' दुनियाके समस्त काव्यग्रन्या का मुख्य उद्देश्य विच्छित्ति-चमत्कार द्वारा काव्यको में बेजोड़ नही है? · चन्द्रप्रभचरित' किरातार्जुनीय' से अलंकत करना होता है, जो कि शन्दालंकारमें भी संनिहिन मुन्दर है नथा 'नेमिनिर्वाण' भी बहुत सुन्दर काव्य है, फिर रहता है । वाग्भट कवि जिम प्रकार अर्थालंकारोकी रचनामें इमका मानवा सर्ग नो सर्वथा मौलिक और मनोहर है। मिद्धहस्त थे उसी प्रकार शब्दालंकारोंकी रचनामें भी मिड मैंने, कुछ वर्ष पहले, नातेपोतसे निकलने वाले शान्ति- हस्त थे । यही बात है कि उन्होंने अपने अलंकार प्रन्थमें मिन्धुम महाकवि हरिचन्द्ररचित 'धर्मशर्माभ्युदय' के मरम यमकालंकारका स्वब वर्णन किया है और विशेषता यह है और गम्भीर श्लोकोंका परिचय प्रकाशित कगया था जो कि उसके प्रायः समस्त उदाहरण निजके ही दिये हैं। लगातार कई अंकोम प्रकाशित हुया था। उसके प्रकाशन भगवान् श्रेयामनायके स्तवनमे श्रेयामनाथ और का मात्र यही उद्देश्य था कि ममाज उसकी महनाको समझ गाडका श्लेष देखिये कितना सुंदर है:कर उसके प्रकाशनकी भोर श्राकृष्ठ हो। उमी उद्देश्यको सुवर्णवर्णतिरस्तु भूत्ये, लेकर आज अनेकान्तके पाठकोंके मामने 'नेमिनिर्वाण' श्रेयान विभुवो विननाप्रसृतः। काव्यके कुछ श्लोकोका परिचय रख रहा हूँ। श्राशा है उसमे चैम्नग या सुगतिं ददामा, पाटकोका कुछ मनोरंजन होगा और इस तरह वे उसके विष्णोः मदा नदयति म्म चनः ।। १५ ।।' रचयिता वाग्भट महाकविके वैदयसे कछ परिचित हो सकेंगे। "जिनके शरीर की काति सुवर्णके ममान उज्वल थी, प्रथम सर्गमें भगवान् पापदन्त का स्तवन करते हुए र जो भक्त पुरुषको स्वर्ग अपवर्ग प्रादि उत्तम गतिको देने र महा कविने लिखा है वाले थे, तथा जो स्व-ममानकालिक नारायणके चित्सको भूरिप्रभानिर्जिनपुष्पदन्तः कगयनिन्यकृनपुरपदनः । हमेशा प्रमन्न किया करते थे-हितका उपदेश देकर त्रिकाल वागतपुष्पदन्तःश्रेयांमिना यन्छतु पुष्पदंतः।। अानंदिन किया करते थे-, वे विनतामानाके पुत्र श्रेयास___जिनके दाँतोंने अपनी विशाल प्रभामे पापोको जीत नाथ स्वामी तुम मयकी विभूनि-- केवल जानादि सम्पत्ति-- लिया है, जिनके हाथोकी लम्बाईने पायदन्त' (दिग्गज) के लिये हो--उनके प्रमादसे तुम्हें विभूतिकी प्रानि होवे।" को-उसके शुण्डादण्डको-तिरस्कृत कर दिया है और लोकका प्रकृत अर्थ ऊपर लिखा जा चुका है, अब जिनकी सेवामें पायदन्त-सूर्यचन्द्रमा-त्रिकाल उपस्थित अप्रत अर्थ देखिये, जो श्लोकगत प्रत्येक शब्दोके प्रायः होते हैं वे पापदन्त भगवान् हम सबको कल्याण प्रदान करें। यर्थक होनेसे स्वयमेव प्रकट हो जाता है। संस्कृत इस श्लोकमें 'पादान्त्ययमक' अलंकार कितना स्पष्ट साहित्यमें विनता सुनका दूसरा अर्थ गरुह प्रसिद्ध है। है ? शब्दालंकारकी अपेक्षा अर्थालंकारका मूल्य अधिक अजैन समाजमें प्रसिद्ध है कि श्रीकृष्ण गरुड पक्षीके अवश्य है परन्तु शब्दालंकारकी रचनामें कविको जितनी ऊपर यान--मवारी किया करते थे तथा जैन समाज में भी कठिनाईका अनुभव करना पड़ता है उतनी कठिनाईका श्रीकृष्णको गरुड़वाहिनी विद्याका उपयोग करने वाला माना अनुभव अर्थालंकारकी रचनामे नहीं करना पड़ता । प्राचीन है। विषणुका अर्य श्रीकृष्ण संस्कृत के ममस्त कोशोंमें प्रसिद्ध साहित्यकारोने अर्थालंकारके साथ शब्दालंकारका भी ग्वब है। इस तरह श्लोकका दुसरा अप्रकृत अर्थ नीचे लिग्वे , 'पुष्पदन्तस्तु दिमागे जिन-भेने गणान्तरे इतिहमः अनुसार हो जाता है-- २ 'पुष्पदन्ती पुष्पवम्तावकोक्रया शशिभास्करी' इति हैमः "जिमके शरीरकी प्रामा सुवर्ण के ममान पीतवर्ण है. Page #387 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० भनेकान्त [ वर्ष ४ जा विभु है--वि-पक्षियोंसे भु-उत्पन्न है. श्रेयान्-कल्याण अलंकारसे अलंकृत होनेके कारण इम मामूली बत्ती रूप है तथा उच्चस्तरां--अत्यंत ऊँचे श्राकाशमै सुन्दर शोभा कई गुणी अधिक हो गई है। गमनको देता हुश्रा--विधा--श्रीकृष्ण के चित्तको हमेशा शातिनाथ तीर्थकरसे शातिकी प्रार्थना करते हुए श्रानंदित करता है वह विनतासुन-वैनतेय-गरुड़ तुम सब कविराज क्या लिग्वत हैं ? देखियेको भूतिका देने वाला दो।" । शान्ति म वः शान्तिजिनः कगेतु, यद्यपि जैनमिद्धांतके अनुमार गाडमे विभूति प्रातिकी विभ्राजमाना मृगलाञ्छनन इच्छा करना अमंगत मालूम होना है तथापि वर्णनकी मंगति शशीव विश्वप्रमदेकहेतु ज नेतर मान्यताओंके अनुमार हो सकती है। कवि लोग यः पापचक्रव्यथयां बभूव ।। १६ ।। अपने काव्योमें वही लिम्बते हैं जो कि कवि-मम्प्रदायमें-- वे शातिनाथ भगवान् तुम सबको शान करेंकाव्यजगत्में प्रसिद्ध होता है। धार्मिक मान्यतायांकी योर अशांति उत्पादक राग-दपको नए कर वीनगगभाव प्राम उनका विशेष लक्ष्य नहीं रहना । करने में मदायक हो-जो कि चंद्रमाकी तरह मृगरूप चिह्नमे विमलनाथका स्तवन लिम्बने हुए कविने लिखा है-- महित हैं, ममम्तमंमार के कल्याणकारा है और पामभदाय वन्दामहे पादमगेजयुग्ममन्नः कृपालोविमलस्य नम्य। को-- अशुभ कामों के ममृहको नए करने वाले हैं। (पक्षम) यश्चापपया कलिनाङ्गठितथापिपाश्रस्थितकालगजः पापी चक्रवाक पक्षीको दुःख देने वाले हैं--प्रेयमी-चक "मैं उन दयालु विमलनाथ भगवान्के दोना चरण वाकाम वियुक्त कर दुःख पहुँचाने वाले हैं। कमलोकी बंदना करता हूँ जिनका शगर यद्यपि माठ धनुष जैन शाम्बीमे भगवान् शातिनाथके हरिणका चिन्ह से महित था तथापि उसके पाम शूकरराज विद्यमान माना गया है और चन्द्रमा मृगाङ्ग (हारगाइ) मृग-चन्द रहता था।" - स सहित प्रमिद्ध है ही। जिस तरह चन्द्रमा बाल-वृद्ध-युवा यहाँ कविने विमलनाथ स्वामीको अंत: कृपालु--दया मभीको श्राहाद काका कारण हे उमी तरह भगवान शान्तिसे पूर्ण हृदयवाला बतलाया है उसका उत्तरार्धमें कितना नाथ भी समारगन जीवोको अाहाद के कारण थे; जिस तरह अच्छा विवरण किया है--भगवानका शरीर एक, दो, नहीं चन्द्रमा पापी चकवाको उनकी प्रिय चकवियोसे जुदा कर किंतु माठ धनुषोंसे सहित था-शिकार के पर्याप्त साधनोंसे दुखी करता है (क्यो कि रातम चकवा-चकाबयोका विरह सहित था और मारने योग्य शकर भी पाम ही विद्यमान हो जाता है) उमी तरह शान्तिनाथ भगवान् भी पापचक्र-- रहते थे फिर भी बे किसीकी शिकार नहीं करते थे । उनका पापोके ममदको व्यथित्--नष्ट करने वाले थे। इस प्रकार शरीर धनुषोसे महित होने पर भी इतना मौम्य-सुहावना बन इस श्लोकमे चन्द्रमा और शान्तिनाथम उपमान-उपमयचुका था कि शूकर श्रादि भीरु प्राणी भी उनके पाम, पाम भाव होनेसे उपमालंकार स्पष्ट हो जाता है । मृगलाञ्छन ही नहीं किन्तु शरीरसे संगत होकर भी भयका अनुभव और पापचक्रका श्रेष्टरूपक उमको भाग अवलम्बन नहीं करते थे। पहुँचाना है। इस लोकका वर्णनीय वृत्त सिर्फ इतना है अठारहवें तीर्थकर अरनाथका स्तवन करते हुए कविने 'मैं उन विमलनाथ स्वामीके चरणोंकी वंदना करता श्लेषानप्रीणित विरोधाभाम अलंकारका कितना सुन्दर हूं जिनका शरीर साठ धनुष ऊँचा था और शूकरके चित उदाहरण बनाया है । देखियेसे चिह्नित था। परंतु कविने उसे जिस रोचक ढंगसे अराय तम्मै विजितम्मराय, प्रकट किया है उसे देखते ही बनता है। सुन्दर अलंकार नित्यं नमः कर्मविमुक्तिहेनोः । धारण करने पर किसी अल्हड़-गौराग-प्रामीण युवतीके यः श्रीसुमित्रातनयोऽपि भूत्वा, शरीरकी भाभा जिस तरह चौगुनी होजाती है उसी तरह रामानुरक्ता न बभूव चित्रम् ।। १८ ।। Page #388 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] नेमिनिर्वाण-काव्य-परिचय "कर्मबन्धनसे छुटकारा पानेके उद्देश्यसे मैं कामव्यथा मल्लिर्जिनो वः श्रियमातनोतु । को जीतने वाले उन अरनाथ स्वामीको नमस्कार करता हूँ कुरोः सुतस्यापि न यस्य जातं, जो सुमित्राके ननय-लक्ष्मण-होकर भी रामचन्द्रजीमें दुशासनत्वं भुवनेश्वरस्य ॥ १९ ।। अनुरक्त नहीं हुए थे यह आश्चर्यकी बात है! [परिहार नप रूप कुठारके द्वारा कर्मरूप बेलको काटने वाले वे पक्षम--सुमित्रा माताके पुत्र होकर भी गमाश्रो-स्त्रियोंमे मल्लिनाथ भगवान् तुम सबकी लक्ष्मीको विस्तून करें जो अनुरक्त नहीं हुए थे। कुरुगजके पुत्र होकर भी दुःशासन नही थे, (पक्षम) दुष्ट__लक्ष्मण रामचन्द्र जीम किनने अनुरक्त थे-उनके शासन वाले नहीं थे। कितने भक्त थे? यह रामायण या जैन पद्मपराण देखने मल्लिनाथ भगवान् कुरुराजके पुत्र तो थे परन्तु दुःशावाले अच्छी तरह जानते हैं परन्तु कविने यहा उन दोनोमें सन नहीं थे यह विरोध है जिसका बाद में परिहार हो जाता अनरक्तिका प्रभाव बतलाया है जिससे विरोधाभास अलं- है। मल्लिनाथ स्वामीके पिताका नाम भी कुरुराज था कार अत्यन्त स्पष्ट हो गया है सुमित्रा और राम-रामा शन्दो इसलिये वे कुरुगजके पुत्र तो कहलाये परन्तु दुःशासन नही के श्लेषसे विरोधालंकारकी शोभा अत्यन्त प्रस्फुटित हो थे--उनका शासन दुष्ट नहीं था- उनके शासन में सभी उठी है। जीव सुख शान्तिसे रहते थे। यहाँ, तप और कुठार, तथा विर'धाभास अलंकारका दूमग नमूना भी देखिये- कर्म और वल्लिका रूपक एवं वल्लि और महिलाका अनुतपः कुठार-क्षत-कमल प्रास भी दर्शनीय है। (क्रमशः) आचार्य चन्द्रशेखर शास्त्रीका सन्देश [ वीरसेषामन्दिर में धीरशासन-जयन्तीके अवसर पर प्राप्त और पठित ] "भगवान महावीग्ने लगभग पच्चीस मौ वर्ष पूर्व जिस अहने नही बचे हैं। महात्मागांधीने युद्ध भार-भमें ही परिस्थिति में अपना उपदेश दिया था श्राज संसारको परि. हिटलर और मिस्टर चर्चिल दोन से अनुरोध किया था कि स्थिति बहुत कुछ वैसी ही हो रही है। उम ममय अनार्य वे अपनी अपनी ममस्याश्रीको अहिसा द्वारा सुलझाले, किंतु देशोंमें सभ्यताका प्रादुर्भाव नहीं हया था एवं आर्यदेश रक्त के प्यासीके कानों पर उम समय ज तक न रेंगी। मेरा भारतवर्ष में हिंसाका पूर्ण साम्राज्य था। उम ममय भारतवर्ष विश्वास है कि संसारमें स्थायी शान्ति केवल अहिंसात्मक में वेदाके नाम पर अनेक हिसामयी यशयाग किये जाते आन्दोलन द्वारा ही की जा मकती है। महात्मागाधीके अनु. जिममे क्षत्रियोकी स्वभाविक कठोरता क्रमशः उनके द्धयो रोधके ठकराए जानेसे यह स्पष्ट है कि उनकी बातके ठीक मे दूर होकर ब्राह्मणोके हृदयोंमें प्रविष्ट कर गई थी और होने पर भी उनमें तपकी कमी है, यदि महात्मागाधीमें ब्राह्मणाके हृदय की स्वाभाविक कोमलना-त्रियोंके हृदयोंमें तपकी कमी न होती तो मिस्टर चचिल या हिटलर दोनमिसे घर बना चुकी थी, इमी लिये क्षत्रियोंके अन्दरसे ब्राह्मणाके किमीको भी उनका अनुरोध टालनेका साहस न होता । हिसामयी यज्ञ-याग एवं उनकी समाज व्यवस्थाके विरुद्ध अाज भगवान महावीर की शामन-जयन्तीके अवसर पर इतना भयंकर आन्दोलन किया गया कि अन्नमें भगवान हमको इस बातकी आवश्यकता है कि हम उन भगवानके महावीर स्वामीने उन हिमामयी यज्ञ-यागोको पूर्णतया बंद अहिंसाधर्मकी पूर्ण प्रतिष्ठा अग्नी प्रात्मामें करें। यदि हम कराकर उस सामाजिक व्यवस्थाको भी उलट दिया। यह कर सके तो निश्चयसे हम वह काम कर सकेंगे जो महात्मा गाधीक किये भी न हो सका, और उस ममय तमाम श्राज योरुरका महासंग्राम तमाम विश्वमें फैल चुका संसारमें भगवान महावीर स्वामी जयके साथ साथ 'सत्यं है।भारतवर्ष के दोनों कोने अदन और मिगापुर भी उमसे शिवं सुन्दरम्' का दृश्य उपस्थित होगा।" Page #389 -------------------------------------------------------------------------- ________________ निश्चय और व्यवहार (ले०७० छोटेलाल जैन) पदार्थ अनन्त धर्मात्मक है, उसका ज्ञान प्रमाण रहिन (वीनगग) कंवल निवृत्तिरूप आत्माका शुद्धोऔर नयोंके द्वाग ही होता है। जो पदार्थक सर्वदेश पयोग परिणाम ही है और वही सर्वथा उपादेय है। को कहे-जनावे उमे 'प्रमाण', और जो पद र्थक प्रश्न-शुभोपयोग आस्रव और बंधस्वरूप, एक देशको कहे-जनावे उसे 'नय' कहते हैं। वे तथा शुद्धोपयोग संवर और निर्जराम्वरूप है, फिर नय दो हैं-एक निश्चय, दूसग व्यवहार । निश्चय नय उनका कारण कार्य कैसा ? वस्नुके किमी असली अंशक ग्रहण करनेवाले ज्ञानको, उत्तर-शुभोपयोग अशुभांपयांगके ममान शुभोतथा व्यवहार नय किसी निमित्तकं वशसे एक पदार्थ पयार पयोगका व धक नहीं, यदि शुभोपयोगी जीव पुरुषार्थ को दूमर पदार्थरूप जानने वाले ज्ञानको कहते हैं। करे तो शुद्धापयोग प्राप्त कर सकता है। तथा वह पदार्थ और वचनका वाच्य वाचक सम्बन्ध होनस शुद्धात्माओंका सांकेतिक भी है। यही कारण है कि वचनको भी उपचारमं नय कहा है। इन दोनों नयों उस उसे शुद्धोपयोगका उपचारसं कारण कहा है। शुद्धोके उपदेशको ग्रहण करने के लिये नाचेकी गाथा बड़ी पयाग प्राप्त करनेका मार्ग शुभांपयोग ही है। श्री मार्मिक है पूज्यपाद स्वामीने समाधितंत्रमं कहा हैजो जिणमयं पविजह, तो मा वबहार-णिकयं मंच । ___ अपुण्यमत्रतैः पुण्यं, तैर्मोक्षम्तयोव्ययः । __ अवतानीव मोक्षार्थी, व्रतान्यपि ततम्त्यजेत् ।। एकेण विणा छिज्जइ तित्थं अण्णेण तवं च ॥ ___ अर्थात्-अवतोस पाप, और व्रतोंस पुण्य, तथा अर्थात्-यदि तू जिनमतमें प्रवर्तन करता है तो दानोंक प्रभावसे मोक्ष हाता:। अतः मोक्षार्थीको व्यवहार और निश्चयको मत छोड़ा यदि निश्चयका पक्ष पर अवतों की तरह व्रताको भी छोड़ना चाहिये । किन्तु पाती होकर व्यवहारको छोड़ देगा, तो ग्लत्रयस्वरूप उनके छोड़ने का क्रम बताते हुए कहते हैंधर्मतीर्थका अभाव हो जायगा और व्यवहारका पक्ष- अव्रतानि परित्यज्य, व्रतेषु परिनिष्ठितः । पानी होकर निश्चयको छोड़ देगा, तो शुद्ध तत्त्व त्यजेत्तान्यपि संप्राप्य, परमं पदमात्मनः ।। म्वरूपका अनुभव होना दुस्तर है। इमलिये पहले अर्थात्-पहले अननोंको त्यागकर व्रतोंमें निहित व्यवहार तथा निश्चयको अच्छी तरह जान लेना होना, पश्चात प्रतोंको भी छोड़कर परमात्मपदमें पश्चात यथायोग्य अंगीकार करना। स्थित होजाना चाहिये। __ मुनि - भावकाचार प्रवृत्तिरूप शुभोपयोगको जो अव्रतोंकी तरह व्रत छोड़े नहीं जाते, किन्तु छूट धम कहा है वह वास्तवमें साक्षात धर्म नहीं, धर्मका जाते हैं । शुद्धोपयोग प्राप्त होने पर शुभ विकल्पोंका कारण है। कारणमें कार्यका उपचारकर व्यवहार नय भी प्रभाव होजाता है, यहो : नका छूटना है। से उस धर्म कहा है। निश्चयस शुद्ध धर्म रागादि वचन और कायके व्यापारका विषयोंसे निवृत्त Page #390 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] निश्चय और व्यवहार हाना बाय (द्रव्य) चारित्र, और मन (मामा) का विषयासक्त होकर, अव्रत (पाप) रूप प्रवृत्ति करते हैं वे गगादि कषायोंस निवृत्त होना आभ्यंतर (भाव) जीव मानों जीवन रक्षण हेतु स्वास्थ्यपद कड़वी चारित्र है। बाह्य चारित्र होने पर प्राभ्यंतर चारित्र औषधिको त्यागकर प्राणनाशक मीठा इलाहल पान होता ही है ऐसा नियम तो नहीं है। किन्तु प्राभ्यंतर करते हैं। चारित्र होने पर बाह्य चारित्र अवश्य होता है. यह श्रीअमृत चन्दाचार्यने इस विषयमे समयसारके नियम है। कलशमें अच्छा कहा हैजिस तरह केवल बाह्य चारित्रको ही मोक्षका यत्र प्रतिक्रमणमेव विष प्रणीत, कारण मानना मिथ्या है, उसी तरह उस मवथा तत्राप्रतिक्रमणमेव सुधा कुतः स्यात् । कारण न मानना भी मिथ्या है। तत्किं प्रमाति जनः प्रयतमधोषः, __ अवतसम्यग्दृष्टि जीव चारित्रमोहोदयके वश उप किं नोर्ध्वमूर्य मधिराहति निष्प्रमावः ।। रितन गुणस्थान चदनकी प्रशक्तिक कारण अशुभसे अर्थान-जहाँ प्रतिकमण (दोषों का शुद्धिरूप रक्षा करने तथा शुद्धापयांग रूप ध्ययकी प्राप्तिकं लिये 'पुण्य') को भी विष' कहा है, वहाँ अतिक्रमण शक्ति मंचय करनका साधन समझ, अपद जानता (सदोषावस्थारूप 'पाप') 'अमृत' कैसे हो सकता है। हुश्रा भी, शुभमें ठहर जाता है। किन्तु उमकं प्राशय अतः हे भाई! प्रमादी होकर नीचे नीचे क्यों गिरता में उपदेयता नहीं। अतः शुभाचार सर्वथा मिथ्या है ? निष्प्रमादी हाकर ऊँचा ऊँचा क्यों नही चढ़ता ? नहीं, उम उपादेय मानना मिथ्या है। इमी विषयका श्री पं० भागचन्दजीन अपने एक धान्य पैदा करन लिय खेत जोतना, कचग या निकालना, खाद्य और पानी देना, बाड़ लगाना आदि परिगति सब जीवनकी तीन भांनि बरना। मच बाह्य माधन है। किन्तु अंकर बीजमें ही उत्पन्न एक पुण्य, एक पाप, एक गगहरनी ॥शा टेक।। होगा. इन माधनोंमें नहीं। नो भी इन माधनों के बिना-कोठीम रक्खे हुए धान्यसं ही अंकुगत्पति तामे शुभ अशुभ पन्ध, दाय करें कर्म बन्ध । नही हो मकती। वीतराग परिणनि ही भवसमुद्र-तरनी ॥२॥ पलाल होकर धान्य न भी हो. किन्तु धान्य बिना जावत शुद्धापयोग, पावत माहीं मनांग। पलालकं नहीं होगा। उमी तरह बिना शुभोपयोग नावत ही कही, करन जोग पुण्य करनी ॥३॥ शुद्धोपयांग होना भी असंभव है। त्याग सब क्रिया कलाप, कग मत कदाच पाप । श्रीअकलंकदवन म्वरूपमम्बोधनमें रत्नत्रयका शुभम मत मगन हां, न शुद्धता बिसग्नी ॥४॥ म्वरूप वर्णन करने के बाद कहा है ऊँच ऊँच दशा धार, चित प्रमादको विडार । नंदनन्मूलहेतोः म्याकारणं सहकारकम् । ऊँचली दशा ते मत गिग अधो धरणी ॥५॥ तद्वाह्य देशकालादि तपश्च बहिरङ्गकम् ।। भागचन्द्र या प्रकार, जीव लहैं सुम्बनपार । अर्थान-मोक्षका मल कारण त्नत्रय और मह या निरधार म्याद वादकी उचरनी॥६॥ का कारण बाह्य देश-कालादि या बाह्य तप ममझने लिखनका आशय यही है कि शुभाचारका नव चाहिये । अतएव विना उगदान और निमित्त दानों तक अवश्य ही पालन करते रहना चाहिये, जब तक कारणों के कार्य की सिद्धि नहीं हो सकती। कि निश्चय नयकं अनुसार वह धर्मरूप अवस्था __ जो अज्ञ मानव व्रत-श ल संयमादि शुभोपयोग सिद्ध न होजाय जा माध्यत्मिक ग्रन्थों में बतलाई (पुण्य) रूप व्यवहार धर्मको प्रशुभकी तरह बन्धज- गई है। नक सर्वथ हेय ममझते हुए, संत्यागकर बच्छाचारी Page #391 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ज्यादह अपने जीवनसे भी, हम जिसकी खैर मनाते हैं ! किसको कहें- 'हमारा है !' [ नं० - श्री 'भगवत्' जैन ] जिस शिशुको अपना कह-कह कर, हम फूले नहीं समाते हैं ! शादी होकर आते-आते, वह भी होजाता न्यारा है ! हम जिसे मानते 'अपना' थे, रे ! वही चलाता आरा है ! 1 हम किसको कहें - 'हमारा है !' हम किसको कहें - 'हमारा है !' जब साथ जवानी थी इसके, सोलह आने था अपना 'तन' ! अब आज बुढ़ापा आया तो, इसको भी सूझा परिवर्तन !! तब यह घर-भर का पोषक था. अब लाठी इसे सहारा है! हम किसको कहें- 'हमारा है !' खिदमत इसकीमें लगे रहे, अनजाने भी तकलीफ न दी ! उलटी एहसान फरामोशी, या करना है यह श्राज बदी !! निर्मोही आँखें फेर रहा, जब बजा कुँच नक्कारा है ! - हम किसको हैं - हमारा है ! वीरकी शासन- जयन्तीका सुखद शुभ समय आया ! प्रबल अत्याचार, पापाचार का था भार भूपर भूलकर सत्पथ, कुपथ चल रहे थे जब सभी नग् ; सुजन भी हिमा-कुचालीकी कुटिलतामे फँसे थे और नेता नामकी लिप्सा - दुराशा में धन थे । जब तक रहती कुछ स्वार्थ-गंध, साथी अनेक दिखलाते हैं ! मिटने ही उसके देखा है'हा' अपनेको पाते हैं ! वे वक्रादार प्रेमी भी सब कर जाते कहीं किनारा है। हम किसको कहें - हमारा है !' वीरकी शासन - जयन्ती 100= श्रीपं काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' पैसा मुट्ठीने है तब तक, कहते- 'हम सभी तुम्हारे हैं !' मुट्ठी खुलने हो बनजाते, सब हृदय-हीन, हत्यारे हैं !! पीड़ितों, पतितों, अछूतोंके लिये जब था न साया ! तब अहिंसा धर्मका उस वीरने पादप लगाया !! जीव, थिर-जंगम सभीका हितभरा जा तीर्थ पावन, धन्य है यह वीरका सन्देश वाहक मास सावन ; ज्ञानकी वर्षा हुई, विज्ञानकी आई हवाएँ फैल फिर संसार - उपवन में गई , विद्या लताएँ । तृषित, श्राकुल प्राणियों को शांतिमय मृदु-पय पिलाया ! और फिर लाकर उन्हें आचार-आसन पर बिठाया !! न्याय भी अन्यायके ही पक्षमें जब बोलना था, घोर हिंसा - विष, अहिंसा-सुधा-रसमें घोलता था ; सबल, निर्बलको हड़पनेमे न था संकोच लाता, सोरहे थे सब पड़े तब, कौन फिर किसको जगाता ? * यह कविता ६ जुलाईको वीरसेवामंदिरमे दूर कर तमको प्रभाकर वीरका सु-विकास छाया ! वीरकी शासन- जयन्तीका सुखद शुभ समय श्राया !! उत्सवके समय पढ़ी गई । ॐ Page #392 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल भाषाका जैनसाहित्य [ मूल लेखक-प्रो० ए० चक्रवर्ती एम० ए० आई० ई० एस० ] ( अनुवादक-सुमेरचन्द जैन दिवाकर, न्यायतीर्थ, शाम्बी. बी. ए., एल-एल. बी०) [गत किरण से आगे] व्यापारीनं अपनी कन्याका विवाह इस डाकूके माथ चाहिये ।' पत्नीनं कहा 'नाथ! बहुत पछा, मैं भेटकी कर दिया। उस स्त्रीने अपने पतिक प्रेमको स्वाधीन करनेका सामग्री तैयार किये लेती हूँ।' निश्चय किया। उमी ममयमं वह सम्पूर्ण प्राभूप से अपने पूजाकी सब सामग्रीको तैयार कर उसने अपने पनि श्रापको मुमजित करने लगी थी, वह अपने पनिक लिए कहा- आइयेर लें।' पनिने कहा 'प्रिय ! तुम्हारे कटुम्बिग्ण स्वयं भोजन बनाती थी। कुछ दिनके बीनने पर उम डाकने को पीछे ही रहना चाहिये । तुम बहुमुख्य वसोंको पहिनलो, अपने मन में सोना, 'मैं कर इस स्त्रीको मार मागा. इसके बहुमूल्य मणियोम अपने आपको भूषित करो, और तब हम जवाहरातों को ले म गा. उन्हें बेनगा और इस तरह लोग प्रानन्नपूर्वक हँसने और क्रीया करते हुए चलेंगे।' किमी ग्वाम सरायमें मान करने के योग्य हूंगा? अच्छा! पत्नीने ऐसा ही किया। जब वे पर्वतकी तलहटीमें पहुंचे, तब इसका यह मार्ग है।' डाकृने कहा 'प्रिये ! अब यहां हम दोनों ही पागे जावें. ___ यह सोचकर वह अपने विम्तम्पर लेट गया, और उसने हम बाकी साथियोंको एक गाडीमें वापिस भेज देंगे। तुम मोजन करनेसे इन्कार कर दिया । वह उसके पास आई और पूजाकी सामग्री वाल पात्रको अपने हाथमे लेलो और खुन पूछने लगी क्या श्रापको कोई पीड़ा है ?' उमने उत्तर लकर चलो, पनीने सा ही किया। दिया बिल्कुल नहीं।' ने कहा, 'तब क्या में माता-पिता चाकूने उम्मे अपनी भुजानों में पकर कर पर्व पर बढ़ना श्राप पर नाराज़ होगए ?' 'नहीं प्रिय ! वे मुझ पर प्रप्रसन्न शुरु किया और वे अन्तमें डाकुओंकी चट्टान पर पहुँच गये । नहीं है. उसने कहा । पम्नीने पहा 'नब फिर क्या बात है?' इस पर्वत पर एक श्रोग्म ही नद सकते थे, किन्तु दूसरी उसने कहा प्रिय ! उस दिन जब मैं बन्धनबद्ध होकर नगर योर एक सीधी चट्टान है, जिस परंप द्वार लोग नीचे फेंक मेंस लेजाया गया था, तब मैंन डाकुओंको चट्टान पर अधिवास जाने हैं, और भृतल पर पहुँनेक पू. ही वे ग्वा एखण्ड हो करने वाली देवी के समक्ष बलि चढ़ानेकी प्रनिः । कर अपने जाते हैं. इस कारण हम वाकुओंकी चट्टान' कहने है। हम प्राणों को बनाया था। उसीकी देवाशत्रिक प्रमादसे मैंने तुम्हें शैलके शिग्वर पर चढ़कर झीनं कहा जाय ! बलि बढ़ाइयं ।' अपनी पत्नी के रूप में प्राप्त किया। मैं इस विचारमें था, कि पनिने कुछ उत्तर नहीं दिया। उसने पुनः पूछा 'नाथ ! प्राप में देवीके प्रागे बलिदान करने के बारेमें कीगई अपनी प्रतिज्ञा क्यों चुप हैं ? इस पर उमडने कहा 'इम बलिकर्म मेग का किस प्रकार पालन करूंगा? उसने कहा 'नाथ ! आप कोई प्रयोजन नहीं है। मैंने यहाँ बलि की मामी महिन तुम्हें चिन्ता न कीजिये, मैं बलिदान्की व्यवस्था कर लूगी।' लाने में छल किया है। उसने पूछा तब बार मुझे यहाँ किम कहिये ! क्या प्रायश्यकता है? हाकूने कहा 'मधुमित लिए ना? उम डान कहा 'मुम्हारे प्राण हरणा करनेको, चावलका मिष्टान तथा तामपुष्प-समन्वित पंच प्रकारके पुष्प तुम्हांलोको लेनको तथा भाग जाने की मैं मुम्हें लाया है।' Page #393 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६६ अनेकान्त [वर्ष ४ - मरणसे भीत होकर उसने कहा-'स्वामिन् ! मेरे रत्न और की कृपा कीजिये ।' उस ढाकुने कहा 'प्रिये ! बहुत अच्छा।' मेरा शरीर अापके ही हैं, आप इस प्रकार क्यों कहते हैं ?' फिर वह चट्टान के कोने के समीप खड़ा हो गया. ताकि वह उसने बारबार या अभ्यर्थना की कि ऐसा मत कीजिये। किन्तु बी उसकी पूजा-वन्दना कर सके। उस राकका एक ही उत्तर था कि 'मैं तुमको मार डालू गा।' उस स्त्रीने डाकूके चारों ओर घूमकर तीन परिक्रमायें उसने सामाखिर ! मेरे प्राण बेनेसे भापको क्या लाभ की। इस कार्य में उसने डाकूको अपने दाहिने हाथकी भोर होगा? हम रनोंको के लीजिये और मेरे प्राणों की रक्षा रखा था और चार स्थानों में उसं प्रणाम किया था। इसके कीजिये । इसके बाद मुझे माताके समान मानना, अथवा अनन्तर उस स्त्रीने कहा 'नाथ ! यह अन्तिम अवसर है जब नहीं तो मुझे अपनी दासी और अपने लिये सेवा करने वाली कि मैं प्रापका दर्शन करूंगी, अब आगे न पाप मुझे देखोगे रहने देना। यह कहकर उसने एक पथ पढ़ा जिसका भाव और न मैं आपको देखूगी।' इतना कहकर उसने उसका यह था-'इन स्वर्णके कड़ोंको खो, मणि जडित सारे भाभू. आगे पीछेसे आलिंगन किया। पश्चात् उसके पीछे खड़ी हो पण खो, मेरा सर्वस्व लेलो, और मेरा स्वागत करो, अथवा कर, जबकि वह चहानकी कली (किनार) के पास खड़ा था, मुझे अपनी वासीक रूपमें पुकारो।' उसने अपना एक हाथ उसके कंधे पर और दूसरा पीठ पर यह सुनकर डाकूमे उससे कहा-'तुम्हारे ऐसा करनेपर रखकर उसे चट्टान परसे नीचे ढकेल दिया। इस प्रकार वह यदि मैं तुम्हें जीवित छोड़ दूंगा, तो तुम जाकर अपने माता- डाकू पर्वतकी गहरी खाई में गिरा और भूतल पर पड़ते ही पितासं सब हाल कहोगी। अतः मैं तुम्हें मार डालूगा। टुकड़े टुकड़े गया। उस डाकूपर्वतके शिखर पर निवास बस इतनी ही बात है। अब अधिक सन्ताप मत करो।' करने वाली देवीने इन दोनोंके कार्योका अवलोकन किया इसके बाद उसने इस भाव वाला पच पढ़ा-'अब तुम और उस महिलाका गुणगान करते हुए एक पद्य कहा, जिस अधिक दुःखी मत होभो। अपनी चीज़ोंको शीघ्र ही बांधलो का भाव यह था कि-'बुद्धिमता केवल पुरुषोंकी ही संपत्ति अब तुम्हें बहत काल तक जीवित नहीं रहना है. मैं नहीं है। बी भी पुद्धिमती होती है और वह यदा कदा तुम्हारा सर्वस्व हरण करूंगा। उस स्त्रीने अपने मनमें विचार उसका प्रदर्शन करती है।' किया 'कितमा शरारती कृत्य है पह!' मस्तु, बुद्धिमत्ता पकाने . डाकूको बट्टानम्मे गिगनेके अन्तर उस बीने अपने मन और खाने की चीज़ नहीं है, किन्तु उसका मतला यह है कि में सोचा- अगर मैं घर जाऊंगी तो घरके लोग मुझसे पूड़ेंगे, खोग कार्य करने के पूर्व में सोच-समझकर काम करें। माछा. तुम्हारा पति कहाँ ? इसके उत्तरमें यदि मैं यह कई कि मैं इसके साथ निबटनेका मार्ग सोगी। यह विचार कर मैंने उसे मार डाला, तो वे अपने बच्चन-वाणोंसे मुझे छेद उसने इस कहा-'प्राणनाथ ! जब उन लोगोंने उकैती डालेंगे और कहेंगे 'हमने इस दुष्टको बचानेको सहस्रमुद्राओं बाते हुए तुम्हें पकड़ा था और तुम्हें सहकपरसे वेजे जा रहे की जांच दी और अब तुमने उसे मार डाला!'कदाचित् मैं थे, तब मैंने अपने माता-पितासे कहा था, उससे उन्होंने यह कहूं कि वह मेरे रस्मोंके हेतु मेरा प्राण हरण करना सहन मुद्राओं को जांच रूपमें देकर तुम्हें बुहाया था और चाहता था तो खोग मेरा विश्वास नहीं करेंगे। अब तो घरसे हमें अपने महलामें स्थान दिया। तबसे मैं तुम्हारी हितैषिणी मेरा सम्बन्ध समाप्त हो चुका ।' उसने अपने जवाहरातीको फेंक रहीमाज मुझे पापकी पूजा करनेका अवसर प्रदान करने करके अखका रास्ता लिया और कुछ काल पर्यन्त पर्यटन Page #394 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] तामिल भाषाका जैनसाहित्य करके माध्वियों के एक प्राश्नममें जा पाश्रय लिया। उसने करनेके पूर्व वा माम-द्वारके समक्ष एक रेतका देर कहा कर विनीत भावमं साध्वीको प्रणाम करके कहा 'भागिनी ! मुझे उसमें अपने गुलाब-सेवकी शाखाको खगा दिया करती थी। अपने संघमें सावीके रूपमें स्थान दीजिये।' इससं उस इसके अनन्तर पर यह घोषणा करती थी कि-जो कोई साध्वीने उसको भिषणी वना साध्वीक रूपमें अपने संघमें मेरे साथ प्रश्न-उत्तर करने में समर्थ हो वह अपने चरणों ले लिया। मीचे इस गुलाब-सेवकी शास्वाको बा।' ऐसा कहकर पा जब वह साध्वी होगई, तब उसने पूछा 'भागिनी! ग्राममें प्रवेश करती थी। उस स्थानके पाससे आनेकी किसी मापके धार्मिक जीवनका ध्येय क्या? उसे बताया गया की भी हिम्मत नहीं पड़ती थी। जब एक शाखा सूख जाती कि हमारे धार्मिक जीवनका उद्देश्य या, कि 'कमीनों' थी, नब वह दूसरी ताजी शान्या खोज लिया करती थी। (Kasimusi के प्रयोग द्वारा प्राध्यात्मिक मानन्दकी वृद्धि इस प्रकार विहार करते हुए वा मावठी (श्रीवस्ती) की जाय अथवा धर्मक सहसनियमोंका स्मरण किया जाय। पटुंभी, वहां नगर द्वारके मागे वह शाबा जगाई और सदा उसने कहा 'पूज्य बहिन ! माध्यारिमक सुख तो मुझे नहीं की भांति अपना चैलेंज घोषित कर भिसा लिये बह मगर का भाति प्राप्त हो सकेगा. किन्तु मैं धर्मके सहन नियमोंको पछी में गई । कुछ नौजयान बाखकोंका एक भुगड शाखाक हुँ तरह याद कर सकूगी। जब वह उन धर्मके नियमों को याद योर एकत्रित हो गया और इस बातकी प्रती करने लगा कर चुकी तब उन्होंने उससे कहा---अब तुमने प्रवीणता कि आगे क्या होगा? इतने में महान माथुमारित्रने प्राप्त करती है. तुम गुलाव और संबोम (Rose and जो परिभ्रमण करके मुबहका आहार ले चुके थे और मगरसे apple) परिपूर्ण भूमिमें पूर्णतया विचरण करो और प्रेम बाहर जा रहे थे, उन बालकोंको शाग्याक पास पास खड़ा ग्यक्रिको खोजो, जो तुम्हारे साथ प्रश्नोत्तर कर सके। हुआ देखा । और उनसे पूछा 'इसका क्या मतलब है? इस तरह उस संबकी साध्वियोंन एक गलाम-संबक बालकान माधुनीको बात समझा। साधने कहा 'बालको पेरकी शाखाको उमके हाथों में देकर इन शब्दों के माथ उम भागे जामो घोर उस शाखाको अपने पैरोंमे रौंद डालो।' विदा किया--'बहिन ! जामो, अगर कोई गृहस्थ तुम्हे उन बालकोंने कहा 'पूज्यवर ! हमें ऐसा करने में भय मालूम पड़ता है। मैं प्रश्नोंका उत्तर देगा. तुम लोग भागे पड़ो प्रश्नोत्तरमें पराजित करदे, तो तुम उसकी दासी हो जाना। और शाखाको पद-दलित करो।सायुके इन शमोसे बालकों अगर कोई साधु पराजित करद, तो उसके संघमें साध्वी बन जाना और अपना नाम 'गुलाब-मेव बाबी साध्वी' रखना।' में उल्माहका संचार हो गया। उन्होंने तत्कालीजोरसे उसने तपोक्नको छोड़कर एक स्थान दूसरे स्थानकी मोर चिल्लाने हुए और धूलिको उड़ाते हुए उस शाखाको परप्रस्थान किया, वह जिस म्यति को देखती उसीसे प्रश्न पूषनी। दखिन किया। उसके साथ प्रश्नोत्तरमें प्रतिद्वंद्विता करने में कोई भी समर्थन जब साध्वी लौटी नब उसने उनको बुरा भला कहा। हुमा । वास्तवमें उसे इतनी प्रतिष्ठा प्राप्त हुई, कि जब लोग वह बोली मैं तुम लोगोंके माथ प्रश्न-उत्तर नहीं करना यह सुनते थे कि 'गुलाब-सेव वाली मावी' धर पानी है, चाहती । तुमने अपने पैरोंमे वृषकी शाखाको क्यों ना ? तो वहांसे भाग खड़े होते थे। उत्तरमें उन बालकोंने कहा हमारे साधु महाराजने ऐसा किसी नगर अथवा ग्रामके भीतर भिजाके लिए प्रवेश करनेको कहा था। साध्वीने साधुमे पूछा 'महाराज! क्या Page #395 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ आपने उनको मेरी शाखाको पद-दलित करनेकी प्रज्ञा दी 'सम्य-भवन' में इस घटना पर साधुनों में विवाद छिड थी? साधुने कहा 'हो बहिन!' तब उसने कहा 'मुझसे गया-'कुण्डलकशीने धमका थोड़ा ही ज्ञान प्राप्त किया था प्रश्नोत्तरों में प्रतिद्वंदिता कीजिये।' साधुन कहा 'बहुत अच्छा! फिर भी उसे संघर्म स्थान मिलने में सफलता मिली। इसके मैं ऐसा ही करूंगा।' सिवाय वह एक डाकूक साथ प्राण्ड युद्ध करते हुप और जब संध्याकी वेला बाई, तब वह भिक्षुणी प्रश्न करने उसे पराजित करते हुए यहां आई है।' इतने में प्राचार्य के लिए माधुके प्रावाम स्थल पर पहुंची। मारे नगरमें हल- महाराज प्राये और उन्होंने पूछा "भिघुनो ! यहा चल मच गई। लोग आपसमें कहने लगे 'चलो चलें, इन बैठे बैठे किम विषय पर विवाद कर रहे हो ?" दोनों विद्वानोंका वार्तालाप सुने। लोगोंने साध्वीकं साथ साधुओंने सब हाल कहा। इस पर गुरुदेव बोले साधुआन सब हाल कहा। इस पर नगरम्प प्राचार्य श्री निवास स्थल तक पहुंचकर उन्हें 'भित्तुनो ! हम धर्मका निश्चय नहीं करते, मैंने थोड़ा प्रणाम किया और विनय पूर्वक वे एक ओर बैठ गये। अथवा बहन धर्म सिखाया है 1 अर्थहीन सौ वाक्यों में कोई साध्वीने साधुमं कहा 'पूज्यवर ! मैं आपसे एक प्रश्न विशेषना नहीं है, किन्तु धर्मका एक वाक्य अरहा है। जो पूछना चाहती हूँ ?' साधुने कहा 'पूछिये ।' तब उसने धर्म सब डाकुओं पर विजय प्राप्त करता है वह कुछ भी विजय के सहस्र नियमोंको पूछ। । साधुने ठीक ठीक उत्तर दिया। लाभ नहीं करता, किन्तु जो अपनी प्रारमाका पतन करनेवाले तबमाचार्यने उससे पूछा 'तुमने केवल ये थोडेस प्रश्न पूछे, डाकुओं को पराजित करता है, यथार्थमें उम्मीकी ही विजय है।' क्या कुछ और पूछना है ?' उसने कहा 'पूज्यवर ! बस इतना यहां प्रसंगोचित धर्मका स्वरूप समझाने वाला एक भावपूर्ण पद्य उन्होंने पढ़ा जिसका श्राशय इस प्रकार है - ही पछना है ?' इस पर साबुने कहा 'तुमने तो बहुतमे प्रश्न कोई व्यकि भले ही भावहीन सौ पद्योंके वाक्योंको पहे. अब मैं मुममें केवल एक ही प्रश्न पूछना हूं. क्या आप पहें किन्त धर्मका एक वाक्य भी अच्छा है जिसे सुनकर उत्तर देंगी । भिक्षुणीने कहा 'अपना प्रश्न कहिये।' प्राचार्य मनुष्य शान्ति लाभ करे । यद्यपि कोई व्यक्ति युद्धमे सहस्र ने पूछा 'एक क्या है? तब वह अपने मनमें कहने लगी मनप्योंको हजार बार पराजित करे. किन्तु जो अपनी प्रारमा 'यह प्रश्न है जिसका उत्तर देनेके योग्य मुझे होना चाहिये।' को जीनता है वह सबसे बड़ा विजेता है।' किन्तु उत्तर न जाननेसे उसने माधुसे पूछा 'महाराज वह नीलकेशी, जोकि तामिल भाषाके पंच लघुकायोंमें क्या है ? प्राचार्य ने कहा 'बहिन, यह तो बद्धका प्रश्न एक है, वह स्पष्टतया बौद्ध ग्रन्थ कुण्डलकेशीके उत्तररूपमें तब साध्वीने कहा 'महाराज! मुझे भी उत्तर बताइये। इस है, जैसाकि इसके लेखकने स्वयं सूचित किया है। इसका कथानक पौराणिककथानोंमेंसे नहीं लिया गया है । सम्भवतः पर साधुने कहा 'अगर तुम हमारे संघमें शामिल होगी तो यह कथा ग्रंथकारकी काल्पनिक कृति है। इसका उद्देश्य दार्शनिक मैं तुम्हें उत्तर बताऊंगा।' उसने कहा 'मच्छा, मुझे संघमें विवादके लिये भूमिका निर्माण करना था। यह ग्रन्थ अब शामिल कीजिये।' साधु महाराजने साध्वियोंको सूचना दी तक प्रकाशमें नहीं पाया। वर्तमान लेखक इस अपूर्व ग्रंथका और उसे संघमें भरती किया गया। जब वह संघमें शामिल एक संस्करण प्रकाशमें करने के प्रयत्न में हैं जोकि प्रेसमें है। करली गई तब उसने सब मियोंके पालन करने की प्रतिज्ञा कुछ मासमें जनताके सामने भा जायगा । यह कथा पार्तीकी। उसका नाम 'कुण्डलकेशी' रखा गया और कुछ दिनों यह ग्रन्थ अब प्रकाशित होकर जनताके मामने श्राचुका है, केवल वह दिव्य शत्रियोंसे विभूषित अईन होगई। ऐमा 'भास्करमें निकली समालोचनामे प्रकट है।- मम्पादक Page #396 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] तामिल भाषाका जैनसाहित्य मार नामक विण्यात पांचालु देशमें सम्बद्ध है। इस देशके वहां मुनिजम्माचार्यको हटाने की माशासे नीलकेशीने अनेक अधिपति महाराज समुद्रसार थे और उनकी राजधानी थी प्रकारकी भयावह परिस्थितियां उत्पनी, किन्तु मुनिराजको पुण्डबर्धन । इस नगरके बाहर एक श्मशान भूमि है जिसे बराने के सकस उपाय विफल हुए। वे ऐसे व्यक्ति नहीं थे जो पखलेयम् कहते हैं। वहां कालीका एक प्रसिद्ध मन्दिर है। सरलतासे अलग किये जा सकें। वे अपने ध्यानमें बताके उस मन्दिरके समीप मुनिचंद्र नामके योगी विद्यमान हैं। साथ निमग्न थे और कितनी ही भयानक समीपवर्ती परिएक दिन कुछ नागरिक थोड़े पशु और पसी कालीको चढ़ाने स्थितियां उनके शांत और गंभीर ध्यान में बाधा नहीं पहुंचा के लिये वहां साथ ले पाये। जैन- प्राचार्य ने इस विचित्र सकती थीं। वे अपने कार्य में इस प्रकार निमग्न थे, मानों बलिदानका कारण उन लोगोंसे पूछा: उन लोगोंने कहा कि उनके पासपास कुछ हुआ ही नहीं, तबमीखकेशीने सोचा ये पशु-पक्षी कालीके भागे वलि दिये जायगें क्योंकि काली कि साधुको उचित प्रथवा अनुचित उपायोंसे जीतनेका एक के प्रसादसे महारानीको एक बच्चेकी प्राप्ति हुई है। जैन ही मार्ग है और वह यह है कि वे अपनी माध्यामिक प्राचार्य ने उन लोगोंसे कहा कि "अगर तुम पशु और साधनासे डिगाए जाय और उनका ध्यान वैषयिक सुखोंकी पतियोंकी मृतिकामे बनी हुई मूर्तियोंको कालीके मन्दिरमें ओर आकर्षित किया जाय-उसने सोचा कि उन मुनिराज बढ़ानोगे तो देवी पूर्णतया सन्तुष्ट होगी। यह विधान की तपश्चर्याको बिगानका यह निश्चित मार्ग है। इस बात कालीको सन्तुष्ट करने और तुम्हारी प्रतिज्ञाओंको पूर्ण करने को दृष्टिमें रख कर उमने उस प्रदेशकी राजकम्पकाकी सुन्दर के लिये पर्याप्त होगा। इसके मिवाय बहुतसं प्राणी मृत्यु के मुद्रा बनाकर योगिराजके समक्ष अपनी गारचेष्टाएँ भारमुखम बच जायगे तुम भी अपने आपको हिसाक पापसे म्भ करदीं। साधुको अपनी ओर आकर्षित करने लिय बचा सकोगे । इस उपदेशका लोगों पर बहुत अच्छा प्रसर उसने वेश्या जैसी वृत्ति प्रारम्भ करदी। उसका यह प्रयत्न पड़ा। अतः वे अपने सब पशुओंको अपने अपने घर वापिस भी असफल रहा। इतने में मुनिचन्द्राचार्य ने उसे स्वयं सब ले गये । लोगोंके इस व्यवहारसे कालीदेवी अन्यन्त क्रुद्ध वास्तविक बातें मुनादी। उन्होंने उसे बताया कि "तू यथार्थ होगई। उसने यह अनुभव किया कि मैं गैन मुनिकी उस में राजपरिवारकी राजकुमारी नहीं है, किन्तु देवताओंकी प्राध्यामिक निपुणताके कारण उनको भयभीत करने में स्वामिनी और मुझे डराकर इस स्थानसं अलग करना असमर्थ थी। किन्तु अब उसने यह चाहा कि उन मुनिश्री चाहती है ताकि पशुओंका बलिदान निरन्तर चालू हो जाय को काली मन्दिरके प्रहातेमे बाहर भगा ताकि वे नित्य इम स्पष्ट भाषणसं योगीकी महत्ता और बुद्धिमत्ता उस पर होने वाले यहांक यज्ञमें वाधा न डाले । अतः वह दक्षिण अंकित हो गई और उसने उनके समर यह स्वीकार किया देशकी अपनी सरदारनी नील केशीकी खोज में निकली जिस कि जो कुछ मापने कहा वह सत्य है पाप मेरा अपराध के सामने जैन मुनिके द्वारा काली मन्दिरकी नित्यकी पूजा जमा कीजिये। अब मुनिराज उसे समा प्रदान कर चुके तब तथा बलिमें डाली जानेवाली बाधा-विषयक शिकायत कृतज्ञतावश उसने भविष्य में विशेष कल्याणकारी और रक्खी गई। महान नीलकेशीने इम जैन मुनिमे पिण्ड छुहाने पवित्र जीवन बितामेकी इच्छा प्रकट की। उसने उनसे कहा और दवर्धन नगरमें काली मन्दिरकी पूजा तथा वलिदान "मुझे अहिंसाके मूल सिद्धान्तोंका शिक्षण देनेकी कृपा को बराबर जारी करने के लिये उत्तरकी मोर प्रस्थान किया। कीजिये" जब उसने अहिंसा धर्म पवित्र सिद्धान्तोंको सुना, Page #397 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ तब वह अत्यन्त अनुगृहीत हुई और उसने मुनिराजसे वर्णित है। स्वभावतः इस विवादमें नीलकेशीकेद्वारा कुण्डलनम्रतापूर्वक पूछा कि "मैं किस प्रकार उच्च कोटिकी कृत- केशीके पराजयका वर्णन है कुण्डलकेशी अपनी पराजय स्वीज्ञता प्रकाशन कर सकूगी" 1 जब मुनिराजने उसे सर्वोच्च कार करती है और अहिंसाके सिद्धान्तोंको मंजूर करती है। ढंगसे कृतज्ञता प्रकाशनके लिये यह बताया कि तुम्हें इस प्रदेश नीलकेशी कुण्डलकेशीसे यह ज्ञात करती है कि उसके गुरु में हिंसाके तत्वका प्रचार करना होगा, तब उसने इसे पहचन्द्र नामके बौद्धविद्वान हैं। म्वीकार किया और मानव मुद्राको धारण कर अहिंसा तीसरे अध्यायमें पहचन्द्र के साथ विवादका वर्णन है, सिद्धान्तको प्रचारित करने में उसने अपना समय लगाया। जो विवादमें अपनी पराजय स्वीकार करता है। नीलकेशीके यही इस ग्रन्थके 'धर्मरचहक्कम्" नामके प्रथम अध्याय अहिंसा धर्मको स्वीकार करके अईचन्द्र ने उसका ध्यान का वर्णित विषय है। 'मोक्का ' की ओर आकर्षित कराया, जो कि गौतम शाक्यकुण्डखकेशी-वादचहक्कम् नामके दूसरे अध्यायमें बुद्ध मुनिके प्रधान शिष्यों में था और बौद्धसंघके आदि संस्थापकों धर्मकी प्रतिनिधि कुण्डलकेशीके साथ नीलकेशीकावादावाद मेंसे एक था। (क्रमश:) मीठे बोल मीठे मीठे बोल बोल रे ! मीठे मीठे बोल ! N इस जिह्वामे अमृत भरले विखरादे, जग बसमें करले मर कर भी जो तेरा जीवन बने अमर अनमोल बोल रे ! मीठे मीठे बोल ! [ २ ] धन-जन पर अभिमान न कर तू नश्वर हैं, कटु गान न कर तू परजायेगा प्राण पपीहा रह जायेगा बोल बोल रे ! मीठे मीठे बोल ! स्वरम सुन्दर शक्ति निगली जीवनमे भर देती लाली मिट जातं दुख, उठती हियमें प्रेम हिलोरें लोल बोल रे ! मीठे मीठे बोल ! [ ४ ] कडुवे बाल बड़े दुख-दाता जोड़ अरे । मूदुतास नाता विषकी छोड़ विषमता प्राणी! वाणीमें मधु घोल बोल रे ! मीठे मीठे बोल ! भी 'कुसुम' जैन Page #398 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पर्युषणपर्वके प्रति (ले०-५० गजकुम र जैन माहित्याचार्य) पुण्य पर्दूषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? [१] था ममय विपतम, जब क्रोध-दावानल, धधकते- । विश्वका कल्याण-कर वह सत्य, हमसे उठ चुका है, बाहु-युगमें भर जगत्को मब तरह झुलसा रहा था, । इस कुपथ पर प्राज, जग दो पग अगाड़ी बढ़ चुका है, कुसुम-सम मुकुमार अन्तवृत्तियोका ग्वन करके, : भद्रनैतिकता, न जाने, कौन कोने छिप गई है, रवूनकी दो बिन्दुअोसे ताप निज सहला रहा था, ।। कौनसे गिरि-गहरोकी बन्दिनी वह हो चुकी है, तब, क्षमा - पीयूष - धाराको बहा करके जगत्का एकदा जिसने किया था पून, हम सबको स्फाटक-सा. ताप मेटा था, न, पर, अब वह कहीं माधुर्य-धारा! लुत बिलकुल हो चुकी है, वह मधुर विधम्म-धारा! पुण्य पyषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? ___ पुण्य पर्दूषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? [२] मान-दारुण-वारुणीम, अाज हम भूले पड़े हैं, । कालसे कवलित निखिल जग, जीर्ण होता जा रहा है, ऐठम निःसार हूँठोसे, अचल अकड़े ग्वड़े हैं, पर, अतल तृष्णा, जरा भी जीर्ण-शीर्ण नहीं दिग्वाती, चाहते-यह निखिल जग रो पड़े, फिर भी न देग्वे, लोभका माम्राज्य, भूतल पर निरकुश छा रहा है, नकर भर करके, हमारा सामना कर कौन सकता? चाहना जन-'विश्व की माया, चरण-चुम्बन करे मम, श्राज, मार्दव-सिद्धिरस वह ताकमें रक्खा पड़ा है, मैं अकेला ही सकल, सम्पत्तिका स्वामी कहाऊँ. रो रहा दुर्भाग्य पर अपने तथा जगके विचाग! जानले दुनिया यहाँ, परका नहीं बिलकुल गुजारा ! पुण्य पर्दूषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? पुण्य पyषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हाग ? [६] मोहनी माया, अनूठे रागरंग दिग्वला रही है, ' श्राज, हम सब इन्द्रियोंके दास पूरे हो चुके हैं, वेष-भूषासे सभी मंमार-को फुमला रही है, वो चुके हैं प्राश-गिर कर भी उठेंगे क्या कभी हम, खूब जोरोंसे गरम, बाझार, छल का, हो रहा है, एक दिन था, जब हमारी इन्द्रियाँ थी पूर्ण शासित, कौड़ियों के मोल, नर, आर्जव अनोग्वा वो रहा है। अाज तो वे कर चुकी जग पूर्णत: निज पाश-पाशित, चन चतुर-चालाक भोलोको भुलाने जा रहे है. प्राणियोंके प्राणका संत्राण भी कुछ उठ चला है, दिख रहा केवल कपट ही कपटका दुर्भग नजारा! बहरही जगमें असंयमकी प्रबल विकराल धारा! पुण्य पर्युषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ! पुण्य पर्दूषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ! Page #399 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ [७] [६] आज, तपके नाम पर मिथ्यात्व-ताण्डव हो रहे हैं, मञ्ज -मूर्ध्वासे जगत् मूच्छित विकल मति हो रहा है, साधु बन पाखण्डि-जन, पाखण्ड-मण्डन कर रहे हैं, दासताओंकी जटिल जंजीर में जकड़ा पड़ा है, कर रहे अपना पुजारी विश्वको, देकर दिलासा, गिर रहा है, चीखता है, और करुण कराहता है, बैठ प्रस्तर-नावमें खुदको तथा जगको डुबोते, पर न निज मनको जगतकी, कामनाभोसे हटाता, कामनाओंको दबानेका न हममें आत्म-बल है, आज श्राकिञ्चन बिना, जग यह अकिञ्चन हो रहा है, चाह-ज्वालामें निरन्तर जल रहा संसार सारा ! खोजता, फिरता, भटकता, पर, न कुछ मिलता सहारा! पुण्य पर्युषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? पुण्य पपण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? [१०] "त्यागका मत नाम लेना, पास मेरे कुछ नहीं है, वासनाओंका अनुग संसार पागल हो रहा है, श्रापको देने न मैंने सम्पदा यह जोड रक्खी, मातृ, भगिनी, गेहिनीका भेद-भाव भुला रहा है, जाइये श्रीमान् उनके पास जो हमसे बड़े हैं, सत्य-शिव-चारित्र-निष्ठा का पड़ा शव सड़ रहा है, क्या हमारे ही यहाँ खाता लिखा रक्खा तुम्हारा ?" चढ़ रहा है मोह-मदिरा का नशा निजको भुलाए, त्यागकी इस दुर्दशा पर आँसुश्रोकी धार बहती, चारु चिन्तामणि हमारा ब्रह्मचर्य चला गया है, मूर्व प्राणीने न इमके तत्त्वको पलभर निहारा ! हो गया चौपट हमारी जिन्दगीका खेल सारा ! पुण्य पपण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? पुण्य पर्दूपण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? [११] मोह-ममतामें फँमा जग आत्म-धनको खो रहा है, पंचनाश्रोके जुटानेमें प्रपंच सँजो रहा है, धर्मकी बस कान्त माया ही पकड़ रखी जगत्ने, स्वात्मके सौन्दर्यका. दर्शन, न अब तक कर सका यह, पुण्य पyषण, अरे, साकार होकर के पुन: तुम, धर्मका शुभ मर्म, जड जन को बता जाओ दुबारा ! पुण्य पर्युषण, कहो, कैसे करें स्वागत तुम्हारा ? अज्ञातवास छिपा रहा हूँ मैं अपने को ! दुनियाकी पैनी नजगेंस झूठ दिखाए, साँच दिखाए जासूसोंसे, गुप्तचरोंसे कोई कितनी आँच दिखाए बचकर बिता रहा हूँ जीवन, मूर्तिमान करने सपनको सपा हुआ है सोना, तो भी उद्यत है फिर फिर तपनको छिपा रहा हूँ मैं अपने को! छिपा रहा है मैं अपने को। पीड़ा पहुँचाती, दुख देती, हुई जा रही कुन्दी रेती काट-छाँट कर रह जौहरी, चुप है मणि, तुलने-नपनेको छिपा रहा हूँ मैं अपने को! - श्री 'यात्री Page #400 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवनकी पहेली [ लेखक-श्री बाबू जयभगवान जैन, बी० ए०, वकील ] [ गत किरण नं. ३ से भागे ] जीवनवादकी पांच श्रेणियाँ और नैष्टिक, प्रामाणिक और अप्रामाणिक वैज्ञानिक और जीवन-सम्बन्धी उन समस्त वादो (theories) को। काल्पनिक सब प्रकारके तथ्य शामिल जाते हैं। ऐसा जो भाजतक तत्वोंके दिमाग़में पाए है, यदि विकासक्रमसे करने पर जीवन-तत्वको खोजते हुए भी उसे नहीं खोज पाते, जीवन-शंकाचोंको सुखमाते हुए भी में नहीं सुखमा श्रेणीबद्ध किया जाय, तो वे निम्न पांच श्रेणियों में तकसीम पाते । ये जितना जितना इस जमघरमेंसे जीवनको खोजनेका हो सकते हैं- संशयवाद, प्रज्ञानवाद, ३ विपरीतवाद, उथम करते हैं, उतना ही उनमा मार्गको खो बैठते हैं। ४ एकान्तबाद ५ विमयवाद । ये जितना जितमा शंकामोंसे बाहिर किसनेका परि. . संशयवाद (Theory of scepticism) श्रम करते हैं, उतना ही उतना गहरे गहरमें फंस जाते है। कछ विचारक ऐसे हैं, जो जिज्ञासासे प्रेरे हुए जीवन हताश होकर बेची उठते हैंके समस्त अनुभवों, समस्त तथ्योंको विवेकरहित इकट्ठा कर "यह खोज सबम्यर्थ है. पापरिभम सबमिल्फी डालते हैं। ये अनुभूति (Cognition) के मार्गों में भेद यह जीवन जाममेकी चीज़ नहीं, पाखोममेकी चीज़नहीं, करना नहीं जानते। ये इसके बुद्धिज्ञान, (Intellect) यह अत्यन्त जटिल और पेचीदा है। पावखसे पातीर और निष्टाज्ञान (Intuition) कहलानेवाले बाहरी और तक संदेहोंका स्थान है, शंकाओंका निवास है। इसे किसी भीतरी द्वारों में भेद करना नहीं जानते । ये इन शानोंसे प्रकार भी निश्चय नहीं किया जा सकता। यदि इसके बारेमें बताये हये तथ्यों में भेद करना नहीं जानते। इन तथ्यों कोई मत मिश्चित किया जा सकता तो यही किया प्रामाणिक और प्रामाणिक रूपों में भेद करना नहीं जानते। अनिश्चित है, यह सन्दिग्ध है।" ऐसा कहकर अपनी खोजको बोरबेठते है, परन्तु. ये श्रेणीबद्ध तथ्योंकी पारम्परिक सम्बन्ध-पारस्परिक उप ऐसे संशयवादि-विचारक संशयवादको निश्चित करने पर भी. योगसे म्यवस्था करना नहीं जानते । उनकी सापेक्षिक खुद कभी निश्चितमती नहीं होते। खोज छोड़ने पर भी स्थान-सापेथिक क्रमसं संगति मिखाना महीं जानते । कभी शान्तचित्त नहीं होते। सदा शंका-खोस भिदते बेहर एक अनुभवको एक गुहा अनुभव (an isolated ही रहते हैं। विभिन पायाधीक बीच मृखते ही रहते experience) मान खते हैं । ये हर एक तथ्यको एक हैं। इनकी दशाबतीही दयनीय है। गुदा तथ्य (an isolated fact) मानते है। सबको जुदा जुना मानकर उनका एक अटिस ममघट विचारक इस प्रकार शंकाराखसे मिदना नहीं (confused mass) बना बते, जिसमें बोरिक चाहते। बेबीवन-सम्बन्धमें इस प्रकार अनिश्चितमती Page #401 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३७४ अनेकान्त । रहना नहीं चाहते। ये किसी न किसी प्रकार इस गुत्थीको सुलझाना ही चाहते हैं। इनकी बुद्धि अधिक वैज्ञागवेषणा-बुद्धि निक है। ये प्रमाण और अप्रमाणकं भेदोंको जानते हैं। ये भू-प्रान्तियोंमे कल्पना-स्वप्नोंये तथ्योंको पृथक करना जानते हैं। ये विविध तथ्योंकी कारणकार्य सम्बन्धमे व्य वस्था करना भी जानते हैं। ये पेवावाद उनकी संगति मिलाना भी जानते हैं परन्तु ये धनुभूतिके केवल बाहरी मार्गको ही अनुभूतिका मार्ग मानते हैं। ये उसके नित्य काम में आनेवाले, नित्य अभ्यासमें श्रानेवाले इन्द्रियज्ञान, बुद्धिज्ञानको ही प्रमाण समझते हैं। F इसके लिये इन्द्रियज्ञान, बुद्धिज्ञान अतिरिक्त अनुभूति (cognition) का और कोई मार्ग ही नहीं है। मि ये इन्द्रियज्ञान, बुद्धिज्ञान ( perception and Inte llect) द्वारा ही जिज्ञासागम्य समस्त तत्वों (substa एल) को जानना चाहते हैं, शंकागम्य समस्त तथ्यो (facts) का निर्णय करना चाहते हैं और अनुभूति-गम्य समस्त अनुभव (experiences) की व्याख्या करना चाहते हैं। इन्हें पता नहीं कि इन्द्रियज्ञान ( perception ) केवल बाहरी लोकको दिखाने वाला है, बाहरी लोक में भी केवल प्रकृति-लोकको दिखानेवाला है, प्रकृति-लोकमें भी केवल स्थूल लोकको दिखाने वाला है । और बुद्धिज्ञान (Intellect) केवल काल क्षेत्र परिमित तथ्योंको बताने वाला है। आदि-अन-सहित पीशोंको सुकानेवाला है। विभिन्नतामय, विरोधमय बालोंको दर्शानेवाला है। [ वर्ष ४ काल-क्षेत्र परिमित नही जो यादि और अन्त सीमित नहीं, जो कि माल है. विरोधका एकीकरण समानेवाल करनेवाले हैं, जो एक छोर पर अन्न्नताको, दूसरे छोर पर सूक्ष्मताको छूनेवाल है, जो नितान्त अद्भुत चोर असाधारण हैं। इनके बोधके लिये, इनकी व्याख्याके लिये इनके निय के लिये इन्द्रिय और विज्ञान दोनों अपयश हैं। इनके , बोध इनकी व्याख्या इनके निर्णय के लिये अनुभूतिका दूसरा ही मार्ग है, वह मार्ग जिसका नाम मिष्ठज्ञान है, (intation) है। परन्तु अनुभूतिका क्षेत्र जिज्ञासाका क्षेत्र शंकाका क्षेत्र, बाहरी लोक तक ही सीमित नहीं, काल-क्षेत्र तक ही परिमित नहीं। इस अनुभूति में बहुत है, इस शंकाक्षेत्र में बहुतसे तथ्य ऐसे हैं, जिनका बाहरी लोकसे कोई सम्बन्ध नहीं, जिनकी बाहरी पदार्थोंमे कोई मुखमा नहीं को श्रुतज्ञान नजान है विचारक जब इन्द्रियोंसे देखते हुए भी जीवनमीनाको नहीं देख पाते, बुद्धि सम हुए भी जीवन सम्बी अलौकिक ससाको नही समझ पाते, तो ये बहुत विकल होते हैं, ये इसकी अज्ञानताका कारण अपनी नामें न देखकर जीवनतत्वकी शून्यतामें देखने लगते है, इसकी हमें देखने लगते हैं, इसकी अज्ञेयता में देखने लगते हैं। इस प्रकार ये तीन वादों द्वारा जीवनकी व्याख्या करने लगते हैं-- (अ) शून्यवाद वा श्रमवाद, (श्री) छावाद, (इ) अज्ञेयवाद । (थ) शून्यवाद वा भ्रमवाद इनमें बहुतसे तो अपनी विकलता दूर करनेके लिये जीवन-तत्व ही इनकार कर देते हैं। 'न रहेगा बांस न बजेगी बांसरी' | ये धारणा बना लेते हैं, कि जो तस्त्र इन्द्रिय और बुद्धि अज्ञात है वह सब असत् है । जो तथ्य इनमे निर्णय ही नहीं हो सकता, जो अनुभव इनसे व्यवास्थात ही नहीं हो सकता, यह सब भ्रमजाल है, बुद्धिका विकार है, कल्पनाका पसारा है । वह शून्यके सिवा कुछ भी नहीं। वह जीवन यदि कोई तस्त्र होता, तो वह जरूर दृष्टिमें प्राता, जरूर बुद्धिमें आता । चूंकि वह रष्टिमें नहीं आता, बुद्धिमें नहीं आता, अतः जीवन सब असत्य है, सब शून्य है, उस की प्रनीति सब भ्रम है 1 Page #402 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किब-७] जीवनकी पहेली ३७५ इस प्रकार इनकार द्वारा ये समस्याका महजमें ही संभव था। उपबंधन तो करना चाहते हैं. परन्तु ये उसका उल्लंघन नहीं जो सर्वथा प्रसस्य है, उसकी कोई भी प्रतीति नहीं, कर पाते । इस प्रकार धारणा-द्वारा ये शंकाओंको पीछे तो कोई भी भ्रान्ति नहीं, कोई भी निश्चित नहीं । प्रान्ति छोड़ना चाहते हैं, परन्तु शंकाएँ इनका पीछा नहीं छोड़नी, और निश्चिति उसीकी होती है, जो किसी प्रकार सत्य हो, वे पूछनी ही रहती है किमी प्रकार सत्ताधारी हो। "यदि जीवन भ्रमके सिवा और कुछ भी नहीं, तो यदि जल स्वयं कुछ भी होता, तो उसका मरीरिका उसमें भ्रमकी प्रनीति क्यों ? नममें तर्क-विकणा क्यों ? बनकर समन्थल में प्राभास भी न होता, यदि कस्तूरी स्वयं उममें मनोंकी निश्चिति क्यों ?" कुछ भी न होती, तो उसका मुबास बनकर वनवृक्षों में धोका ज्ञाताके वास्तविक होने पर ही, उपमें भ्रमकी प्रतीति भी होना । यदि जीवन स्वयं कुछ भी होता, तो उस हो सकती है, उसमें नर्क-वितर्कणा हो सकती है, उसमें का पहष्ट चतना बनकर दृश्य लोकमें मम भी न होता। मनोंकी निश्चिति हो सकती है। असायका अर्थ सर्वथा शून्य नहीं है, सर्वथा प्रभाव जब ज्ञाता स्वयं भ्रम है, वक्ता स्वयं भ्रम है, नो उम नहीं है । चूकि पर्वथा शून्य तो कोई चीज नहीं, म उसकी की भ्रमधारणा भ्रमसे बेहतर कैसे हो सकती है, उसका कोई संज्ञा है, न उसकी कोई संख्या है, न उसका कोई भ्रमवाद भ्रमसे बेहतर कैसे हो सकता है ?" लक्षण है, न उसका कोई प्रयोजन है । असायका अर्थ हैइस प्रकार जीवनको भ्रम माननेमे, जीवन तो भ्रमसिद्ध मापेक्षिक शून्य वस्तु, मापेक्षिक प्रभावरूप वस्तु, प्रधान नहीं होता, परन्तु भ्रमवाद ज़रूर भ्रम सिद्ध होजाता है। वह वस्तु जो कुछ है तो जरूर, परन्तु वह उस जगह जीवनको भ्रम कहना, मानो भ्रमक अर्थम अनभिज्ञता मौजूद नहीं, उस समय मोमूद नहीं, उस तरह मौजूद नहीं प्रकट करना है। भला भ्रमकारके बिना भ्रम कहां ? दमरी जिस जगह, जिस समय, जिप तरह उसका पाभास होरहा है। मत्ताके बिना भ्रम कहां ? भ्रम-उत्पत्तिक लिये कममं कम दो भान्तिका अर्थ सर्वशून्यका ज्ञान नहीं, सर्व प्रभावका ममान भामनेवाली, परन्तु वास्तव में विभिन्न चीज्ञांकी भाव- ज्ञान नहीं। चूंकि मशून्य का मर्ष प्रभाव तो कोई वस्त श्यकता है । सत्ताक सर्वथा अभावमें, वा एक ही ससा ही नहीं, उसका ज्ञान केसा ? भान्तिका अर्थ अवस्तुका सद्भावमें भ्रमकी व्याख्या ही नहीं बनती। यदि इन्द्रियोंमे जान नहीं, बल्कि वस्तुका अनदज्ञान है। अर्थात परमान दीखमेवाली, बुद्धिस सूमनेवाली बाहरी सत्ताक अतिरिक्त जो वस्तुको उसके अपने ग्य, अपने क्षेत्र अपने का काल-क्षेत्र-परिमित सत्ताके अतिरिक्त और कोई मत्तानी अपने भाव में न देखकर उसे अन्य दम्य अन्यत्र अन्य नहीं है, तो उससे विलक्षण काल-क्षेत्र-अविछिन भीतरी मत्ता काल, अन्य भावमें देखना है। की प्रतीति कैसे हो जाती है ? सांपमें रम्मी और रस्मीमें मांपकी मास्तिका यह अर्थ नहीं कि माप कोई चीज़ सांपकी प्राप्ति इसी लिये सम्भव है कि लोकमें माप मोर नहीं-बस्किापकी भान्तिका यह अर्थ कि सांप रस्सी सरीखी दो समान भासनेवाली परन्तु विभिन्न वस्तुएँ वस्तु तो जरूर है, परन्तु वह उस स्थान, उम काल, उम मौजूद हैं। यदि लोको सांप ही सांप होता, अथवा रस्सी चीज़में मौजा मही. जहां उसका आभास हो रहा है। ही रस्सी होती, तो एक दूसरेकी प्रान्तिका होना मितान्न इस प्रकार भान्तिशून्यका प्रमाण नहीं, ससाका प्रमाण Page #403 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष है। एक सत्ताका प्रमाण नहीं, दो सत्ताका प्रमाण है। एक बरामें ज्ञान कहाँ ? ये सब प्रज्ञानके ही नाम हैं। उस सत्ताका जिसमें कि भान्ति हो रही है. दूसरी उस जब किसी चीज़का मूल तत्व मालूम नहीं होता, उसका ससाका, जिसकी कि भान्ति हो रही है। पूर्वापर सम्बन्ध मालूम नहीं होता, उसका शील-स्वभाव इस तर जीवनकी भान्ति जीवन-तत्वकी निषेधक मालूम नहीं होता, उसका कार्यक्रम मालूम नहीं होता, तो नहीं, जीवनतरवकी पोषक है। जीवनकी भान्ति स्वयं इस उस चीज़ को एक अलग थलग घटना (Isolated fact) बातका प्रमाण है, कि जीवनतस्व कुछ वस्तु जरूर है, इतना मानकर इत्तिफाकिया कह दिया जाता है। उसे प्राकाशवेल ही नहीं, वह इस बातका भी प्रमाण है कि जीवनतरव श्य की तरह बिना सिर-वैरकी सत्ता मानकर यादा कह दिया तस्वसे कोई विजण तस है, काल-क्षेत्र-परिमित तथ्यसे जाता है। वास्तव में वह चीज़ इतिकालिया घटना नहीं, कोई वितरण तथ्य है, विभिनतामय चीजोंसे कोई विलक्षण बिना सिर-पैरकी सत्ता नहीं, उसका मूल पूर्व में दवा हुमा चीज़ है। है, अनादिमें डूबा हुआ है, और उसका सिर भविष्य में ___ जीवन भूम नहीं, जीवन शून्य नहीं, यह वास्तविक छिपा हुआ है, अनन्तमें छुपा हुआ है। चीज़ है, यह बाहरी सत्तापे भी अधिक सच्ची चीज़ है। जो बादल भाकाशमें घूम रहा है, क्या वह एक पह बाहरी चीज़ोंको दिखाने वाली, बताने वाली, सुझाने प्राकस्मिक घटना है ? नहीं, उसका मूल जनमें डूबा हुमा वाजी चीज है। इसके बिना बाहरी दुनियां कहाँ ? सचाई है, उसका सिर सागरमें छुपा हुना है, और इस जल और जौरभुटाई कहाँ ? निश्चिति और भान्ति कहाँ ? यह सचाई सागरमें एक तान्ता बंधा हुआ है, जिसका कभी विच्छेद की सचाई है। यह सदा जगने वाली ज्योति है। यह स्पष्ट नहीं। यह जल हमार रंगरूपोंमेंसे गुजरे, हजार जगह घूमे से स्पष्ट है, प्रग्येचसे प्रत्यक्ष है, पाससे पास है। यह फिरे, परन्तु इसका मूल तस्व सब जगह उसी तरह बना है। अपनेसे अपनी है। यह तो स्वयं 'पाप' है, 'भारमा' है, यह अविनाशी है । प्रादि-मन्त-रहित है। बालक जो इसके सिलसिलेको नहीं जानते. इसके (मा) यत्रछाबाद-(Theory of chance) मूलतत्वको नहीं जानते, वे इस बादलको एक पाकस्मिक इस प्रकारकी सकसे हार कर कुछ विचारक निश्चय घटना कहते हैं। परन्तु यह प्राकस्मिक घटना नहीं। यह करते हैं कि जीवनतत्त्व जो इन्द्रिय और बुद्धिसे अज्ञात है, तो अंजीरकी एक कही है। यह तो चमका एक फेर है। बा असत्य तो नहीं है, भम तो नहीं है, शून्य तो नहीं है, यही हाल जीवनतस्वका है, जीवनके एक अनुभवको वह कुछ है तो जरूर, परन्तु वह यों ही एक प्राकस्मिक लेकर, उन्हें पृथक र सममकर जीवन में यहच्छाकी कल्पना की पटना है, एक इत्तिफाकिया चीज़ है, एक बिना सिर-पैरकी जाती है, परन्तु वह अनुभव प्रमग-थलग चीजें नहीं। बस्तु है, जो यों ही भाती है, यों ही चली जाती है । वे जीवमें हजार विज्ञान जर्गे, हजार तर्क उठे, हजार वेदनाएँ इस प्रकारका निश्चयकर अपने प्रज्ञानको शान्त कर लेते हैं, पैदा हो, हजार काममाएं उदय हो; परन्तु वह बिखरी हुई इसे एक रिरिचत सिद्धान्त मान लेते हैं। चीजें नहीं, वे बिना सिर-पैरकी चीजें नहीं। वे सब एक सूत्र में परन्तु तथा वहां पहुंचकर भी शान्त नहीं होती। बंधे हुए हैं, एक 'मह' में समाये हुए हैं। वे सब 'अहं' पा बराबर प्रपती राती है--इत्तिफाक्रमें निरिति कहो, सागरकी उठने और बैठने वाली बहरे हैं, वे सब 'मह' Page #404 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] जीवनकी पहेली स्म उगने और जाने वाली शाखायें हैं। 'मह' इन हुआ समझने लगते हैं। परन्तु शंकायें यहां पहुंचकर भी म्सबमें प्रोत-प्रोत है। 'मह' इन सबमें बहुत होते हुए भी खतम नहीं होती। ये बराबर पकती रहती हैएक है। विभिन्न होते हुए भी अद्वितीय है, विभक्त होते यदि जीवन सच है, तो पा शेष स! 'सत्य' हुए भी भविभक्त है. अनित्य होते हुए भी नित्य . इसका और 'मशेय' दोनों परस्पर विरोधी भी हैं. एक दूसरेका कभी माश नहीं होता. फिर जीवन पाकस्मिक घटना कैसे विशेषण नहीं हो सकतीं। एक दूसरे पास नहीं कर हो सकती है? सकतीं। इस 'अहं' को हजार हालतोंमेम गुजारें, हजार जगह विना शेय ए, सम्यकी प्रतीति नहीं बनती, सत्यकी घुमाये किरायेहजार रंग रूपों में रक्खें, हजार भूलभुलय्यां धारणा नहीं बनती, फिर विना शेष हुए जीपी प्रतीति मे डालें, हजार नाम रवावे, परन्तु इस 'मह' का कहीं कैम ? जीवनकी धारणा रेस? विच्छेद नहीं, वह हस्तम उसी तरह बना है, जन्मस मरण अपनी मूतनावश, अपनी प्रज्ञाननावश, किसी वस्तुका नक, बचपन बुदापे तक वही एक 'मह' जारी है। फिर प्रजात (unknown) डोमा एकपाती. परंतु उसकास्स. यह जीवन प्राकस्मिक घटग कैसे हो सकती है? भावतः प्रज्ञेय (unknow.ible) होना दूसरी बात है। जो अज्ञानी जीवनके इस 'मम' तत्वको नहीं जानते. जो वस्तु अज्ञानतावश अज्ञानीबहमहामता दूर होने इसके महंतत्वको नहीं जानते वे ही पृथक पृथक अनुभवोंके पर कल जरूर जानी जा सकती है, परन्तु जो वस्तु प्रशंपले. आधार पर, भित्र भित्र हालनोंके आधार पर जीवनको वह अज्ञानता दूर होने पर भी कभी नही जानी जा सकती। माकस्मिक घटना कहनेको तैयार होते हैं। परन्तु वास्तव में इसलिये जो अज्ञात शंय नही। जीवन पृथक पृथक अनुभव नहीं, भित्र भिन्न अवस्था जो चीज जामी नहीं जा सकती, जिसकी प्रतीति ही नही, अनेक अनुभवों, अनेक अवस्थाओंका ममुख्य नहीं, नहा की नहीं हो सकती, उसमें सम्यकी कल्पना कैसे की जा सकती वह तो इन सबका एकीकार 'मह' है, ममकार 'आह' है। ? सत्यकी कल्पना उसी बस्तुमें हो सकी है, जो किसी ___(३) अज्ञेयवाद ( Theors' of Agnostic• प्रकार भी अनुभूतिमें भाम वानी हो, प्रतीनिमें भाने वाली Realism) हो। उपयुक्न प्रकारकी नर्कणारी मुठभेड़ होने पर, कुछ अर्थात जो प्रशंब है, वह प्रसन्य, जो झंय है वह प्रधान जो विचारक निश्चय करते हैं, कि जीवन-नाव कोई आकस्मिक मन्य है । प्रज्ञेयताकी व्याप्ति प्रमत्व माथी और शेयता घटना नहीं। वह एक मारभूत वस्तु है, परन्तु वा प्रज्ञेय की म्याति सत्य साथी। इसलिये जो सम्बोय है। उमक सम्बन्ध में कुछ भी जाना और मा नहीं जा है, जीवन भी एक सत्य है, पर शेव जरूरी। पकता, कुछ भी कहा और मुना नहीं जा सकता। यदि जीवन ज्ञेय नहीं, नो उममें 'मह' प्रीति क्यों ? वह अज्ञेय है, इसीलिये वह इन्द्रियोंस दिखाई नहीं उममें अपने को जामनेकी जिज्ञासा क्यों ? यह प्रतीति व्यर्थ देता, बुद्धिम समझ नहीं पाता । जो अजेय है, वह प्रज्ञात नहीं, पह जिज्ञासा म्यर्थ नहीं, यह बात भ्रमवादमें मिद्ध है। जो प्रज्ञान वह अज्ञेय है। हो चुकी है। मनजीवन प्रशंय नहीं। (क्रमश:) इस प्रकार मत निश्चित कर. ये शंकाओंको सनम Page #405 -------------------------------------------------------------------------- ________________ कलाकार ब्रह्मगुलाल [लेखक-श्री 'भगवत्' जैन] [१] सब-कुछ हुआ, जो एक समृद्धि शालीके घर पुत्र हान मोलहवीं-मत्रहवीं शताब्दीके दानका जिक्र है। पर होता है। परिस्थितियोंम विवश होकर पानगर और वैभव के प्रकाशमे, दुलारकी गोदीमे और माताक्षत्रिय वृत्ति दोनोंका परित्याग कर लोग टापेमें आ पिता आदिकी उत्सुक और श्रानंद-भरी नज़गेकी बम थे ! वणिक घृति अब इनकी जीविका थी! देव-रेख में ब्रह्मगुलाल कुमाग्नं शैशव-प्रभातको पार आचरणके उच्च श्रीर भावनाके शुद्ध थे-सब । कर, यौवनकी दोपहरीमें प्रवेश किया। यह थे-'पद्मावतीपुरवाल !' इन्हीं से कुछ लोग दिलमें अरमान थे, आँखों में नशा । नजर फिग 'पाण्डे' कहलाए ! शायद वे कुछ अधिक विशिष्ट थे। कर देखा तो सब और मधुरता ही मधुरता थी। जैसे-अंग्रेजोंमें-पादरी, मुसलमानोंमें-मौलवी-या खुली मुट्ठी, साधनोंका समागम, और स्वातंत्र्यहिंदुनोंमें-पण्डित । प्रवृत्ति । कमी किसकी थी-उस? साग परिवार और इन्हींमें एक थे-'हल !' बड़े शांत, सभ्य उसकी इच्छापूर्तिके लिए सामने खड़ा था। उसकी और मिलनसार । महागजके विशेष कृपा-पात्र। खुशीमें सबकी खुशी ममा गई थी। महाराजकी कृपा इमलिए इन पर नहीं थी, कि यह स्कूल में, जहीन लड़कोमें उसका नाम रहा। चापलूस या 'हॉ-मे-हाँ मिलाने वाले' मुसाहिब हों, बाहर श्रा; चतुर, योग्य और विद्वानोंमें उसने स्थान वरन इस लिए थी महागजन म्वयं अपने हाथों इन्हें पाया । ज्योतिषका अच्छा जानकार था, तो साहित्य विवाह-सूत्रमें बँधवाया था। जबकि 'हल' का सारा का पण्डित ! श्राध्यात्मिकताका भी उसने काफी पग्विार प्रागमें जल मग था, 'अपना' कहने लायक परिज्ञान किया था। दुनियाँमें कोई बाकी नहीं बचा था। लेकिन इस वक्त वह नव-युवक था-सिर्फ नवऔर तबसे अबतक महाराजकी दया हलके प्रति युवक । बाकी सब कुछ पीछे था। मुमकिन है बहुत घनी होती भाई है। हलकी आंखें इस उपकारके पीछे भी रहा हो। सबब ऊपर नहीं उठ पाई हैं। महागजकी चेष्ठा ही, वह ऐसी 'अवस्था' से गुजर रहा था जिस उनके वंशसंचालनमें प्रमुख है, गति है।... दुनियाँ वाले 'जवानी-दीवानी' के नामसे पुकारते हैं। ब्रह्मगुलालके जन्मोत्सबमें महाराजने काफी सह- जब कि दिलकी आवाजको ठुकगना मनुष्य के लिए योग दिया। खुशियां मनाई गई, दान दिए गए । वह कठिन होता है। जब कि जगम्की सारी चीजें सरस Page #406 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] कलाकार-गुलाल और मुंदर मालूम देने लगती हैं। कि 'यह ग्रहगुलाल होगा।' या इससे कि उसके और फिर दिल ?-दिल ही ता है ! चाहे जिधर साथ दाचार लड़के, या लड़की की-मी तबियत वाले दुलक जाए ? वह उम्रकी कैद में रहना ही कम है ? दो चार आदमी होते। रहना तो क्या, आधी दर्जन बच्चोंके पाप, कांपते- उस दिन 'अर्धनारीश्वर' बना तो दर्शक एकटक हाथ-पैर, हिलती हुई गर्दन वाले बुड़े शादियां कर रह गए। क्या रूप था ? दर्शकों की भीड़में जैसे मकने ? नहीं न ? नूफान भागया। बूढ़े-बच्चे, लड़के-लड़कियां और गुलालका दिल भी एक बार बहक ही गया। पर्दे में रहने वाली खिया तक भी, वाह-वाह कर ठे। वह अभिनय करने लगा। यानी स्वाँग भग्ने लगा- ब्रह्मगुलालकी पत्नी भी कम खुश न हुई। थोड़ा कभी कुछ, कभी कुछ । 'बहरूपिया' हात है, न? गवे भी हुभा-सं ! उसका पति कितना चतुर, उसी तरह। कितना लोकप्रिय -इस बातका । उमचारीके ___दिल ही तो है. उसके लिए कहा क्या जाय ? पाम इतनी बुद्धि कहां थी कि बहुरूपियपनका ध्ययन आप पढ़ते हैं, अम्बधागेंमें-फलाँ देशके बादशाहका करती, कि इसका समाजमे-मभ्य समाजमे क्या डाकके पुगने टिकट रम्बनेका शौक है, फलाँको पुराने स्थान है ?... लोगों की प्रेरणा और अपनी कुशल कला पर सिके । और अमुकको कुत्तं पालनका और अमुकको मंताषित ब्रह्मगुलाल गज दार पहुँचा। सारं मभासद मधु-मवियों ! यह सब क्या है ?-दिल ही ता है। मंत्रमुग्धकी तरह देग्वनं लगे । हर जुबान पर उस पर ब्रह्मगुलाल था-अंधेरे घरका एक मात्र कलाकी प्रशंमा थी, ब्रह्मगुलालकी तारीफ थी। उजाला । हाथोंहाथ पल कर बड़ा होने वाला-नी महागज भी मुस्कराये। जवान ! वह नया था, उसकी इच्छाएँ नई थीं, और ब्रह्मगुलालके वेष-परिवर्तन पर, या उमकी निंद्यउसके लिए दुनियाकी हर बात नई।। प्रारम्भकी दो-एक बार तो उसके हम विचित्र प्रवृत्ति पर ?-यह किसे मालूम । महाराजने ब्रह्मशौक, अजीब वेश-भूषा और अभिनय-पटुता पर लकिन देखने का मौका आज ही मिला था। गुलालके बारेमे या सुन तो बहुत पहले किया था, माता-पिता भी खुश हुए। पर, वह इस खुशीको ___बाल-ग्वष हो भई, ब्रह्मगुलाल ।' ज्यादावक्त तक कायम न रग्ब मके। क्यो ? कि xxx उनकी दृष्टिमें यह जघन्य-कार्य था-उनकी प्रतिष्ठा, मर्यादाके विरुद्ध। पिनाने समझाया, माताने मना किया । और भी लेकिन असंख्य नगर-निवासी उमकी कला पर दो चार बड़े-बूढ़ोंने कहा, कि-'यह काम छोड़दा मुग्ध थे । भरपूर प्रोत्साहन, मुक्त-कगठकी प्रशंसा उमे ब्रह्मगुलाल । इमसे तुम्हारे पिताकी आंग्वें नीची दिन-दिन मिलने लगी। वह जिम वषको रखता, होती है। जिसे तुम नामवरी ममझत हां, असलमें फबा देता। अच्छे-अच्छे चालाक भी चक्करमें पाए वह बदनामी। है इसलिए कि यह कृत्य कुलीनों में बुग बगैर न रहतं । अगर वह पहिचान पाते तो इसमें, समझा जाता है। और जो नामवरी करने वाले हैं, Page #407 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८० अनेकान्त स्वयं इसे करते, लेकिन तुम्हारा हमला ही बढ़ाते रहते हैं। क्योंकि उन्हें तुममे कुछ खास मुहब्बत नहीं । अपना मनोरञ्जन क्यों छोड़ें ? उन्हें तुम्हारे सुधारबिगाड़ क्या ?' [ वर्ष ४ महाराज भी मुस्कराते तो जरूर अगर कुछ कह नपाते ता । लेकिन युवराज तो जी खोल प्रशंसा करता। उसे इतना पसन्द आता यह सब, कि कुछ हद नहीं। मंत्री लांग भी गाहे-बगाहे हलकी तारीफ़ के एकाध शब्द निकाल ही बैठते । सम्भव है, कि युवराज या महाराज की दृष्टिपर विचार करते हुए. उन्हें ऐसा करना अनिवार्य हो जाता हो। पर यह ठीक है कि वे ब्रह्मगुलाल के बढ़ते हुए सन्मान या प्रशंसा-पूर्ण सत्कारम खुश नहीं थे । मनमें कुछ जलन थी । वैसी ही, जैसी कि किसी के उत्थान में कोई दुष्ट जलता है । और उस जनताकी नज़रों में गिराने के लिए, शत्रुता तक पर उतारू हो जाता है। प्रगुलाल सबकी सुनता और चुप रहता । उत्तर देनेकी ग़लती वह न करता । वजह इसकी यह कि वह अब इस रास्ते से हट नहीं सकता था । और तब, नकारात्मक उत्तर बुजुगों का अपमानके रूपमें होता, जो उसे मंजूर न था । कभी सोचता भी कि बंद करदे यह बहुरूपियापन । पर, जब बराबर के चार यार-दोस्त मिलते तो, मोचना सोचने-भर ही रह ज ता, क्रियात्मक न बनता । और यों, वह बराबर अपने काम में आगे बढ़ना गया, सहकारी था - 'मथुरामल ।' जो दोस्त था, जिगरीदोस्त ! 'कृष्ण-बलदेव' गम-रावण, आदि कितने ही अभिनय ऐसे होते जिनमें उसकी भी भाग मिलता । अभिनय कला पराकाष्ठ को पहुंच रही थी । किसी दिन 'मीता बनवास' था तो किसी दिन 'चीरहरण' । 'धेनु चरावन-लीला' हुई कल, तो आज 'कंस वध' । जब एक दिन घोड़ा बन कर श्राया तो जनता दंग रह गई। एक सिरेमं दूसरे छोर तक - 'कमाल है ।' - वाह, क्या बात है ?' - की आवाज गुँज उठी। सारा राज दबोर प्रशंसक बन चुका था, उमी तरह जैसी कि नगर में धूम थी । लाग उत्सुकतासं प्रतीक्षा करते- 'देखें, श्राज क्या रूप बन कर आता है ? और जब 'रूप' सामने आता तो कलेजा बाँसों उछलने लगता - मारे खुशीके। बच्चे ही नहीं, बड़े बड़े भी खाना-पीना भूल बैठते । चाहते देखते ही रहें। क्या हू-बहू नकल की है ? सुख मिलता उन्हें के दर्शन । X X x X बनाना जितना कठिन होता है, बिगाड़ना उतना ही आसान । मंत्रियोंने जब ब्रह्मगुलाल की यशस्विता मलिन करना विचारा, तो एक आसान तर्कीच सूझ ही गई। उन्होंने सोचा - 'या तो ब्रगुलालको कहना पड़ेगा कि यह स्वाँग मुझसे न होगा। या - जब स्त्राँग भर के लायेगा, तो खिचालन लिए बिना वापिस न लौटेगा । लेकिन यह होगा तब, जब युवराज स्वयं दर्वार में अपने मुँह से कहना स्वीकार करलें ।, X X X X [ ३ ] 'राम लीला' देखनेके बाद, खुशीसे चमक रहा था - लीला के उसे मंत्र-मुग्ध कर रक्खा था । युवराज उठा -मुँह रुचिर- मनोरजनन ७. सभा खचाखच थी । महाराज भी सिंहासनासीन हुए मुस्करा रहे थे । कि युवराजने कहना प्रारम्भ किया— 'ब्रह्म गुलालकुमार ! मैं तुम्हारे कामसे बहुत खुश Page #408 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ३-७] कलाकार ब्रह्मगुलाल हूँ। मुझे जो प्रानन्द तुम्हारे द्वारा मिल रहा है, उस सिद्ध-हस्त खिलाड़ी। यही वह कारण था जो उसका प्रकट नहीं कर मकता।' अभिनय, स्वाभाविक-नैचुरल-हांकर, लोकप्रियता ब्रह्मगुलालन कृतज्ञतास सिर मुका लिया। को अनायास प्राप्त कर लेना था। युषगज बोलतं गए-'मेरी इच्छा है, कि तुम कल बढ़ी हुई हजामत, मैले-फटे कपड़े जैसे मनमे 'शेर'का रूप बनाकर लाओ ! बोलो, क्या ला मकांगे ?' दीनता भर देते हैं ! या-हेट, बूट, सूट, पहिनते ही ब्रह्मगुलालने उमी क्षण उत्तर दिया-'मुशिल दिल बादशाह बन जाता है। उसी तरह जैसा बेष नहीं है, युवराज । आज्ञा-पालन कर सम्ना हूँ- धारण किया जाय वैसा ही मन भी हो उठता है। ब-शर्ने कि पम वषमे होने वाले कुसूर माफ कर पूर्ण नहीं, तो कुछ न कुछ किसी भी रष्टिकोणसंदिए जाएँ।' गुण उसमे श्राप विना नहीं रहते, जाकि उस रूप ___ युवराजने चलती नजरम एक बार मंत्री-मण्डल लिए बहुत जरूरी हो। की ओर देखा, फिर महागजकी ओर । तब उत्तर नगरकं अनेक कण्ठोम निकली हुई, प्रशंमा दिया-'हाँ ' तुम्हारी यह शर्त मंज़र है।' सुनना हुअा ब्रह्मगुलाल दर्षार पहुंचा तो सभा चकित रह गई ! महागज भी विस्मयकी दृष्टिस देख उठ ! युवगज भी समीप ही था और मंत्रि-गण भी !.. __ प्रहर-भग्स कुछ अधिक गत बीत चुकी थी ।- दो बार जाग्मे दहाड़ा ! जमुहाई ली ! दर्बार अब भी लगा हुआ था।, लोगोमें एक मनसनी कि उसने दम्बा-'युवराजके पदस प्रकट एक थी, कौतुहल था; जिज्ञामा थी और थी-उमंग। हिरण बँधा है-भालाभाला, भयाकुलता ! जैसे लागोन दम्बा, आश्चर्यचकित नत्रास देखा- मृत्युको पास देखकर, जीवन के लिए मचल रहा हो ! जंगलका गजा अपनी मस्तानी चालसं. दहाड़ना निरीह प्राणी !' हुआ राज-दरिमे प्रवेश कर रहा है। वहीं क़द, वही आह ! चपी नाक, कर ऑग्वे, तीक्ष्ण नग्व और दुर्बल अब यह समझा-शेरका रूप रग्यानका रहस्य ! युवगजकी कूटनीति !! बच्चे चोस्त्र उठे, खियां डर गई, बूढ़े कॉप टं मांचन लगा-'अगर हिरणको छोड़ता हूं, उस और नौजवान दंग रह गए । यह खबर फैली न हाती पर दया करता है, तो शेरके रूपका-अपनी कलाका कि 'कल ब्रह्मगुलाल शेरका रूप धारण करेगा।'- कलंकित करता हूं। और अगर मारता हूँ-हत्या तो अनर्थ हो जाना अवश्यंभावी था। ग्वैर थी, कि भय करता है, तो अनर्थ ! पाप पोर-पाप !! संकल्पीअस्थायी रहा और तुरन्त मनोरजनमें तब्दील हा हिंसा !!! अपन जैनस्वको, अपनी मान्यताका और गया। अपने प्रात्मधर्मको बर्बाद करता है ! दोनों मार्ग अभिनयम 'निजता' को खा देना ही कलाकार अधम है ! भोक ! धोखा दिया गया, बुरा किया !' की महत्ता है। और ब्रह्मगुलाल था इस कलाका प्रमगुलाल खड़ा सोच ही रहा था, कि मंत्रियो Page #409 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२ बनेकान्त [वर्ष ४ का इशाग पाकर, युवगंज ठा, और उत्साह-भगे लथ-पथ जमीन पर ऐसे पड़ा है-जैसे जादृगग्ने नेज आवाजम बोला जादूकं बलसे कलकर भीड़में डाल दिया हो। तसिंह या गीदई ? जो सामने खड़ी हुई शिकार खूनमें सने पंजे लेकर ब्रह्मगुलाल सभा-भवनस को देखकर भी चुप बड़ा है ! धिकार है ऐमी जिंदगी बाहर निकल गया। को, व्यर्थ ही मानान पैदाकर दुनियाँक सामने म्या!' कुहगम आकाश-भेदन लगा। ब्रह्मगुलाल तिलमिला गया-मार क्षोमकं ! मग मभामें, मेरे इजलाम यह अपमान ? जिसने जीवन में आधी-बात किसीकी नहीं सुनी ' जो मदा प्रशंमाके नगर-भग्में श्मशान-उदासी ! न कहीं-माच रंग, वातावरणम खेलता-कूदना रहा ! क्या वह अपनी न उल्लास-विलास । माँकी, अपनी, और शेर जैमी वीर जातिकी बदनामी ब्रह्मगुलालकं अभिभावक कष्टमें पड़ गएसुनता रहे ? जिसकी कि ग्याल प्रादकर वह प्रतिनिधि सोचते-विचारते ही दिन बीतता।-'न जानें क्या बना खड़ा है। हांगा ? वह नौजवान था। उसकी रग रगमे गर्म खून सब यही कहते-'बुग हुश्रा, बहुन बुग । इससे था, ग्वाभिमानकी मनुष्यंता थी ! और इतने पर भी ज्यादा और हाता भी क्या ? अकला बेटा था, राज्य वह बना हुमा था-जंगलका गजा, जो निडरता का उत्तराधिकारी। अपनी सानी नहीं रखता। और ब्रह्मगुलालको भी कुछ कम पश्चाताप नहीं क्रोधमें भरा हुआ वह एक उछालमें युवराजके था. 'क्या होगा ?' इसका डर तो उसके दिलमें नहीं समीप जा पहुँचा । और तीक्ष्ण-नम्वोंकी एक थापसे था। लेकिन पीड़ा इसकी बहुन थी कि बेचारे राजजीते-जागते, बालते-चालते, गजकुमारका काम तमाम कमारका सर्वनाश उसके हाथों हा। इरादतन कर दिया। कस्ल उसने नहीं किया, मारना अभीष्ट नहीं था। खूनकी धारा बह उठी ।... पर, शायद उसे मरना था इसीके हाथ । भागया सा: गज-सभा, साग राज परिवार 'हाय !' कर क्रोध, फिर सँभाले न सँभला । और वही होकर रहा, उठा। जो न होना चाहिए था-हरिज नहीं।. मार्तनाद ! दो, तीन दिन बीत गए।करुण-सदन !! अन्तःपुरका रुदन कुछ होण हुआ ! महाराजके तीव्र-शोक !!! आँसू कुछ थमे ! चिसमें थोड़ी रदता भाई ! पिछले पागल की तरह महागज चिल्लाये-'मेग बचा!' दिनों बड़े-बड़े विद्वानोंने असार-संमारकी व्याख्या और फिर बेहोश। महागजको समझाई है। चोटखाये दिलोंने अपना हिरण होरीमे बंधा, विकलतास चक्कर काट गेमागेकर, महाराजकी पीडाको हल्का करनेका यत्न रहा है ! युवराजका पाहत, निर्जीव-शरीर खूनमें किया है। और महागजने स्वयं भी अपना कर्तव्य Page #410 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] कलाकार ब्रह्मगुलाल महसूम किया है, कि पन्हें व्यर्थ गंना नहीं, रोतांको बदलता है, तो गजका अपराधी है, क्योंकि यह चुप करना चाहिए । घरमें वह बड़े' जो हैं। मुनि-धर्मके विरुद्ध चलता है, उसका अपमान करता ___ प्रधान-मचिव बाले-गनम अगर कोई लौट है। और नहीं बदलता, तो नगर त्याग ही माना है।' पाना होता तो लोग मौनस डर ही क्यों ? नीन चाल महागजकं मनमें ममागई। बोले-हो. यह ठीक है।' दिन में इतना रोया गया है कि उसे अनिच्छा भी यह xxxx लौट आना पड़ता। पर, गया हुआ कभी, किसीका ब्रह्मगुलाल माझा मिलते ही दरिमें उपस्थित लौटा है ? ऐसे ही दुम्बाका नाम ना दुनिया है । जो हमा! सिर नवा कर एक चोर खड़ा हो गया। सामने आना है, भागना ही पड़ता है-कर भागा, महागज कहने लगेया हैसकर । पर, यह जरूर है; किया बहुत बुरा।' प्रमगुलाल ! जो हुआ है, वह बहुत दुग्यदाई ___महागजन धारसे पूछ दिया-किसन ?' हुभा है। उमस मेग हृदय बहुत दुम्ब गया है। मैं 'किसन ?-इसी ब्रह्मगुलालने, और किसने । क्या प्रतिक्षण अपनेको युवराज पास जाता हुमा भनुउम यह चाहिए था ? आपती उसके बापकी शादी भव करता हूं। माह की प्रबलताने मुझे हतयुद्धि कर कराकर वंश-चलवाएँ। और वह आपके वंशका दिया है । तुम दिगम्बर-साधुका कप रख कर लानी, निमल करे । है न, कृतघ्नता। इससे बुग और तह और मेरे विकल-हृदयको वैगग्य-रस सन्तोपिन कगे।... कर क्या मकता था ?' ब्रह्मगुलाल क्षणभर चुप रहा ! ____ पर, मेग नयाल है-बुग किया है, वह मरे गजकुमारकी दुम्बद-मृत्युकी ग्मृतिने साजा होकर भाग्यने । नहीं, उससे शेगका रूप रखनेको कहा ही उसकी आँखोंमें मांसू भर दिए । महाराजकी शांकक्यों जाता ? और कहा ही गया, तो उसकी अपराध- शील मुद्रान भी उसे कम मर्माहत न किया। क्षमाकी शर्त क्यों मंजूर होती ? क्यों, है न ?' गद्गद् कण्ठसं बोला-'जैसी आक्षा।' 'हो! यह तो ठीक है । लेकिन महाराज ! ऐन और लौट आया ! ___xx... xx भारमीका नगरमें रहना कदापि उचित नहीं। खनी है, हत्याग है-क्या ठीक, कब-क्या कर डाले ?' पर भाया वा देग-सब सगे-सम्बन्धी लौटने 'लेकिन अब यों, इस तरह दण्ड देना भी तो की प्रतीक्षामें बैठे हुए भविष्य चिन्ता कर रहे! अन्याय है, बदनामीका कारण है। लोग कहेंगे- नरह-तरहकी कयास बन्दियो हारही हैं ! मह सबके उतरे हुए है। अधिकार-मत्ताके ग़रूरमें इन्साफ भी भली स-कुशल प्रमगुलालको लौटने देख, कुछ खुश कसा माफ करने पर भी- सजा दी, जिसका कि तो जरूर हए । लकिन ममका भय दूर नहा सकाहक नहीं था। 'न जानें क्या हुक्म हुमा हो?' ___ 'यों नही, इसकी एक सीब है-बड़ी खूबसूरत। पूछने पर ब्रह्मगुलालन सविस्तार गज-माझा वह, यह किसे 'दिगम्बर-साधु' का पवित्र-रूप रख सुना दी। और कहां-'पाप मब लोग मौरद हैं। कर भानका हुक्म दिया जाए। फिर अगर वह उस कहिए, मुझे अब क्या करना चाहिए ? दो रास्ते है Page #411 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ८४ अनेकान्त [वर्ष ४ या तो जन्म भूमिका स्याग, या साधुता म्वीकार ?' बाधक हुश्रा करते हैं । पर, मेरा सौभाग्य है कि मुझे देर तक ऊहापोह होता रहा । किमीनं कुछ कहा, मेरे घर वाले खुशीस इजाजत देते हैं ।'-ब्रह्मगुलाल किसीने कुछ ।' नं प्रमन्नतासं उत्तर दिया। मथुरामल बोले-'स्वांग रखनमें हर्ज क्या है? एकान्तमें स्त्रीसं पूछा तो वह बाली-'और सब मेरा तो खयाल है कि इसमें अच्छाई ही है, बुगई क्या कहते हैं ?' नहीं । महाराज शान्त हैं, तथा और शान्त ही होना 'सबने कह दिया है।' चाहते हैं। जो अपने हए अपराधके लिए शुभ है।' ''तो, मैं क्या दूमरी बात कह सकती हूं 'ननकी यह प्राज्ञा तो सर्वथा उचित है। ग्व- बन जाओ।' हृदयका सन्तोष मिलना ही चाहिए । फिर जन्मभूमि त्यागका सवाल उठता ही कहां है ? उनकी इच्छानुकूल स्वांग रखने में अड़चन क्या है ? प्रत्यक्ष तो गतभर !मालूम नहीं देनी कुछ ।' ब्रह्मगुलाल मंसारकी अथिरता और जीवकी ब्रह्मगुलालन गंभीर होकर कहा-'मेरे लिए तो अशरणता पर गंभीरता-पूर्वक सोचता-विचारता रहा। कोई दिक्कत नहीं है। मैं पूछता सिर्फ इसलिए हूँ हृदयमें वैराग्यकी ज्योति उद्दीप्त हो उठी थी । मोहपीछे फिर आप लोग मुझे घरमें रहने के लिए मजबूर ममताम दूर-बहुत दूर-जा चुका था-वह । न करें। क्योंकि..।' सुबह हुआ ! ब्रह्मगुलालको लगा-जैसे आजका बात काट कर पूछा गया-क्या ?' प्रभात कहीं अधिक ज्योतिमान है। अंधकारको हरने 'इसलिए कि मैं साधुताको स्वांगका रूप देकर की अधिकसं अधिक क्षमता रखता है। अपूर्व-चमकसं दूषित न कर सकंगा। जिसके लिए इन्द्र-अहमिन्द्र निकला है भाजका सूरज । ठ क उसके मनकी तरह जैसी महान आत्माएँ तरसती हैं।' उल्लासमय। सबने अलग हट-हट कर, सलाह-मशविरा कर, मन्दिर पहुँचा । भगवानके पवित्र श्रीपदोंमें, तय किया-'लड़कपन है, समझता क्या है अभी। सविनय प्रणाम कर, सिर नवाया; और स्तुतिकी । फिलहाल गज-प्राज्ञाका पालन होने दो, गजा प्रसन्म देरतक उनकी शान्ति, और कल्याणकारी छविको हो जाएँ, बस । फिर पीछे समझा-बुझा लेंगे । साधुता निरग्यता रहा-अतृप्तकी तरह । और न जाने क्यामें सुख तो है नहीं, जो वहां रम सकेगा । तलवारकी क्या प्रार्थनाएँ कर बाहर भाया-प्रांगनमें । धार पर चला जाए, जैसी होती है। और ऐसे सैलानी नगरनिवासियोंके ठठ लग रहे थे । आते ही जरा क्या साधु बन भी सकते हैं ___ लम्बे स्वरस कहना शुरू कियाऔर कहा गया-'हमें सब-कुछ मंजूर है। तुम 'समाजके कर्णधार ! मैं भगवान के सन्मुख, प्राप राजाज्ञाका पालन करो। लोगोंको साक्षी देकर भवबन्धन-विमुक्त करने वाली 'ठीक ! अक्सर ऐसे शुभ-कार्यों में घर वाले ही भगवतीदीक्षा ग्रहण करता हूं । दुःख है, कि दुर्भाग्य Page #412 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७ ] वश गुरुका समागम नहीं है, और न मुझे प्रतीक्षाका समय ।' कलाकार ब्रह्म गुलाल देखते-देखते ब्रह्मगुलालने मोह-ममताकी तरह ही, वस्त्राभूषण का भी परित्याग कर दिया ! एकदम प्राकृतिक !! दिगम्बर !!! भीड़के. श्रद्धास मस्तक झुक गए ! मनके मुँह से निकला - 'धन्य' ! X X X नपुंगव दिगम्बर साधु ब्रह्मगुलालने कहा'राजन! मोही जीव की स्वान-वृत्ति है। वह लाठी मारने वाले को नहीं, बल्कि लाठीको काटता है। निमित्तको दोष देना नादानी है। असलने भाग्य वह वस्तु है, जो निमित्तका ठेलकर आगे ले आती है। भाग्य और निमित्त दो बड़ी शक्तियाँ हैं- जिनके सामने बेचारा गरीब-प्राणी खिलौनामात्र रहजाता है!' १८५ माधुताके तेजके आगे महाराजने सिर झुका और दूसरे ही क्षण - वासना विजयी साधु ईर्या-पथ दिया । गद्गद् स्वर में बोले- मेरे हृदयका पाप छ निरखतं राज-द्वारकी ओर जा रहे थे ! गया, 新 स्वच्छ हृदय होकर कहता हूं कि मैं तुमसे प्रसन्न हूं। बाली, क्या चाहते हो ? जो चाहा लां, और आनन्द रहो ।' X 'दुनिया में कौन किसका पुत्र है, कौन किसका पिता ? सब अपने भाग्य को लेकर श्रातं; और चले जाते हैं। माँकी गोद में लेटा हुआ बच्चा मर जाता है, और माँ देखती रहती है, बच्चा नहीं पाती । विवश मजबूर जो होता जाता है, देखती रहती है । क्यों ? भाग्य और निमित्त के आगे वह कुछ कर नहीं सकती -इसलिए !' देर तक उपदेश चलता रहा। महाराज और सारा राजपरिवार, सारी राजसभा लगन और श्रद्धा के साथ सुनती रही। महाराजके मनकी कालोंच धुल गई। पीड़ा भूल गए। दुनिया के स्वरूपको ज्ञानके दृष्टिकोणने बदल दिया । सोचने लगे — 'कितना महान् है, यह ब्रह्म गुलाल ! नगर इस पर गौरव कर सकता है। राज्य का भूषण है यह !' मंत्री विचारने लगे- 'सकचा - कलाकार है ब्रह्मगुलाल ! जिम वेषको अपनाता है, पूरा कर देता है, कमी नहीं छोड़ता । राज्य में ऐसे कलाकारका रहना गर्व की बात है।' ब्रह्म गुलालने उत्तर दिया- 'आपके निमित्तसे मुझे वह चीज मिल चुकी है जो म्वर्ग-अपवर्गके सुख प्रदान करती है। उसे पाकर अब मुझे किसी चीज़ की इच्छा नहीं है-राजन! मैं घरकी चहारदीवारी में नहीं, आत्म-विकास की मुक्तिवायुमें विहार करूँगा ।' X x X X [<] माँन, बापन, खीन सबने जी-तोड़ कोशिश की, परब्रह्म गुलाल माधुताका त्याग करना स्वीकार न किया। वह शहर से दूर, वनमें आत्म श्रागधनाकं लिए बैठ गया । खबर पहुँची - 'घर चला ! रोटी तैयार है ।' बोला- 'मेरा घर तो वह है, जहाँ 'मरण' नं दर्वाजे में मॉक कर भी नहीं देखा ! जाओ, मुझे विज्ञानकी ओर बढ़ने दां " उधर बीने अपने आराध्य मथुरामलको विजाया'इमीका नाम है दोम्सी १ दोस्त भूखा-पियासा बीहड़ में बैठा है और आप घर में मोजकी गुजार रहे हैं ! Page #413 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८६ भनेकान्त [ वर्ष उसकी बहू गेते रोते जान दिए दे रही है। लिवा न मथुगमलकी बातें ब्रह्मगुलालने सुनी और फिर लाओ-जाकर ! तुम्हारी तो मान लेगा।' गंभीर म्वरमै बोला-भाई ' यह वह स्वाँग है, जो ____ 'बहुत कह चुका, कुछ बाकी नहीं रहा । जिही एक बार रख लेने पर बदला नहीं जाता। क्यों व्यर्थ है न ?-हमेशाका ?' मुझे अ-कल्याणकी ओर लेजाना चाहते हो ? देव'फिर भी, एक बार और हो पात्रो हर्ज क्या है? दुर्नभ इस भगवती-दीक्षाको ग्रहण कर त्यागना, क्या शायद अब समझमें भाजाय ।' मनुष्यता है ? मथुगमल चुप रहे-क्षण-भर ! फिर बोले मथुगमलने जैसे आत्म ममर्पण कर दिया ! 'जाता हूं, अगर वह न आया, तो मेरे लौटनकी भी चरणोंमें माथा टेकते हुए बाल-'तो ऐसी देवदुर्लभअाशा न करना।' वस्तु अकेले तुन्हारे ही बॉटमें रहे, यह मुझे बर्दाश्त -और चल दिए। नहीं ! इसलिए कि मैं तुम्हारा दोस्त रहा हूं, मेरा बहुत-कुछ तुम पर अधिकार है।' जीवन-धारा बहनी हे जीवन की धारा ! - मलिन कही पर, विमल कही र ! थाह कहीं, तो अतल कही पर ! कहीं उगाती, कहीं डुबोती दायाँ बायाँ कल-किनाग!! बहती है जीवन की धारा! तैर रहे कुछ, सीख रहे कुछ ! हँसते हैं कुछ, चीख रहे कुछ ! कुछ निर्मम है लदे नाव पर, खेता है नाविक बेचारा !! बहती है जीवन की धारा! माँस साँस पर यकने बाले! पार नहीं जा मकने वाले ! उब-डुब उब-डुब करने वाले, तुम्हें मिलेगा कौन सहारा? बहती है जीवन की धारा! -'यात्री' Page #414 -------------------------------------------------------------------------- ________________ क्या पर्दा सनातन प्रथा है ? (लग्वि का-श्री ललिताकुमारीजैन पाटणी, विदुषी' प्रभाकर) गोंके सामने जब यह प्रश्न उठता है कि स्त्रियां पाती है। लोग यही समझते हैं यह प्रथा अनादिकालसं चलो kemonds पदो करें या न करें तो जो लोग एक ही साथ पा रही है। कुछ से पहले भी पर्दा-प्रथाका अस्तिस्य समाज यह कह उठते हैं कि करें और ज़रूर करें' वे अपनी बातको में था या नहीं यदि इस पर हम थोडासा भी विचार करें पुष्ट करनेके लिए सबसे पहले यही युति पेश करते हैं कि मो घामानीसं समझमें पा सकता है। फिर हम भूलकर भी निगं प्राज ही कोई नया पर्दा नहीं करने लगी है जो इसके यह न मान कि पी-प्रथा सनातन प्रथा है और इसे कभी करने या न करनेका सवाल उठाया जाय। पर्दा-प्रथा हमारे नहीं छोड़ना चाहिए। बड़े-बूढ़े पुरुखामोंस चली भा रही है। हमारी मांने पर्दा जहां तक इतिहास साक्षी है यह निस्संकोच कहा जा किया, दादीने पर्दा किया, बड़ी दादीने पर्दा किया और मकना है कि पर्दा-प्रथा किसी भी तरह सनातन प्रथा सिद्ध पडदानियोंकी दादी पददादियोंन किया। इस तरह भागे नहीं हो सकती । वंद, रामायण, महाभारत, इतिहास, पुराण बढ़ते ही चले जाइए। पर्वा करने का क्रम बीवमें कहीं न और शास्त्र ही इस पातको सिद्ध करते हैं कि प्राचीन काल में टूटा और न अब टूट ही सकता है। स्त्रियां पर्दा नहीं करती थीं, पुरुषों के साथ यज्ञमें बैठती थीं, नहीं कहा जा सकता ऐसी बंदगी युत्रियां देने वालोंका होम करती थीं, शास्त्रों में पारंगत होती थीं, शालार्थ करती संमार कब और कहांसे शुरू होता है-इनकी पांच मान थीं, लहाईके मैदान में जानी थीं, तलवार और बाणोंक जोहर पीढ़ी पहलेसे या इससे भी पहले । असल में हमारे समाजमें दिग्वाती थीं, सभाओं में व्याख्यान देती थीं और धर्म प्रचार फैले हुए रीति-रिवाजों के सम्बन्धमें हम लोगों में ऐसी ही के लिए देश-विदेशमें भी घूमती थीं। ग़लत धारणाएँ फैली हुई हैं जिनके कारण वे नष्ट नहीं क्या लक्ष्मी, सरस्वती, दुर्गा और कालीन पर्दा किया किए जा सकते | ग्राम लोग, उनके मामन जो पद्धति उनकी था? क्या गार्गी, मैत्रेयी, लोपामुद्रा घटकी पारमें ही एक दो पीदियों से चली आ रही होनी है उसको प्राचीन थी? और सनातन मान बैठते हैं। और जब उसके दूर करनेका हमें जैनधर्मकी प्रसिद्ध मतियों और मादर्श वीराजनाओं सवाल खड़ा होता है तो एकदम पाग-बबूला हो उठते हैं- के जीवन चरित्रमें कहीं भी परेका नाम नहीं मिलता है। ठीक उसी तरह जैसे कोई उनकी मोस्सी जायदानको जस्त सती जना, धारिणी, चन्दनवाला, सुभद्रा, राजुस, ग्रामी, करने या उनसे छीननेकी कोशिश कर रहा हो। यहां तक मुन्दरी, कलावती, जयन्ती प्रादि किसी भी सतीके जीवनकि, चूकि उनकी धारणाके अनुसार कोई रिवाज मनातन है, चरित्रमें पर्देका उस्लेख नहीं है, बल्कि उन्होंने अपने जीवन में वे इसके सम्बन्धमे हलकीसी टीका-टिप्पणी भी बरदारत ऐसे ऐसे माहस और वीरतापूर्ण कार्य किए हैं, जिनसे पर्दानहीं कर सकते। यही बात आज जब कभी पर्वा-प्रथा उठाने प्रथाकी प्राचीनता पर एक प्रसाद चोट पड़ती है। किसीने का सवाल खड़ा होता है तो सबसे पहले मामने अपना जीवन सिंहनीकी भांति जंगलों में बिताया, किसीने Page #415 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३८८ अनेकान्त [वर्ष । देवोंसे पूजा प्राप्त की, किसीने ब्रह्मचारिणी होकर जगतको हुई है और शरीर रोगोंका स्थान बना हुआ है। यदि सदुपदेश दिया, किसीने अपने शीतकी महिमासे बी-जाति किसी शास्त्रमें, पुराणमें या ग्रन्थमें यह लिखा हुआ मिल भी का मुख उज्ज्वल किया और लोग उसके दर्शनोंस अपने जाय कि अमुक स्त्रीने पर्दा किया या वह पर्दा करती थी तो नेत्रोंको सफल समझने लगे। उसका कोई महत्व नहीं है। बस्कि मैं तो यहां तक कहूंगी यी दशरथके साथ युद्धक्षेत्रमें जाती थी, यह बात कि यदि वेद, पुराण और स्मृतियों अथवा शास्त्रोंसे ही पर्दाआज बीजातिके साहसका बखान करते हुए बड़े उत्साह और प्रथाकी प्राचीनता सिद्ध होजाय और देरकं देर खियोंके गर्वके साथ कही जाती है। सीताने रामके साथ चौदह वर्ष तक उदाहरण उनमें मिलने लगें जो पर्दा करती थीं और यह बनमें रहकर उनके कष्टोंमें साथ दिया । यादवोंके द्वारा अर्जुन बात भी प्रमाणित होजाय कि पर्दा-प्रथा अनादिकालसे चली घिर जाने पर सुभद्रा आर्जनकी सारथी बनी थी। वनवास पा रही है तो भी हमें इसके उखाड़नेके लिए कटिबद्ध हो के समय द्रोपदी अर्जुनके साथ रही। जाना चाहिए । यह हमारी कितनी मूर्खता है कि हम किसी देवी भारती मंडनमिश्र और शंकराचार्यके शाखार्थमें भी पद्धतिको उसके गुण-अवगुण विचारे विना केवल इसी मध्यस्थ बनी और मंडनमिश्रक हार जाने पर उसने स्वयं बात पर मानने लगे हैं कि वह हमारे पूर्वजोंकी चलाई हई शाखार्थ किया । अशोकके ज़माने में राजकुमारियों व अन्य अथवा परानी है। कोई चीज़ पुरानी होनेपर भी अहितकर लियोंने दूर दूर देशों में जाकर बौद्धधर्मका प्रचार किया। हो सकती है और नई होने पर भी लाभप्रद सिद्ध हो सकती हर्षकी विधवा बहिन राज्यश्री ह्वेनसांगका व्याख्यान प्राचीन कालसे तो बहुतसी पद्धतियां चली आ रही हैं। सनने राजसभामें बैठती और वार्तालाप करती थी। मुहम्मद बोलना. चोरी करना भी अनादि कालसे चला पा रहा बिन कासिमने जब सिन्ध पर हमला किया तब राजा दाहिर है। पाप उतना ही पराना है जितना पुण्य | धर्म और अधर्म की रानीने स्वयं शत्र धारण कर शत्रुओंका सामना किया। भी साथ साथ चले पा रहे हैं। कर्म और प्रारमाका सम्बन्ध महारानी दुर्गावतीने युद्ध में अपना कौशल दिखाया। महारानी अनादि है । लेकिन कोई यह नहीं कह सकता कि भाई लक्ष्मीबाईने रणचण्डीकी भांति अंगरेज़ोंका मुकाबिला किया। झूठ बोलना तो तुम्हारे पुरुखोंसे चला पा रहा है अतः तुम अहिल्याबाईने खुले मुहराजसिंहासन पर बैठकर शासन भी झूठ बोला करो। पाप करने के लिए कोई उपदेश नहीं किया। देता है और न इसका कोई समर्थन ही करता है। कर्म और इस अवस्थामें यह मानना कि पर्दा सनातन प्रथा है एक बहुत ही उपहास-जनक बात है। बल्कि हमें इस बात पर मात्माका सम्बन्ध कितना गहरा और अनादि पर फिर भी अफसोस और दुःख प्रकट करना चाहिए कि जिस भारतमें प्रात्मा कर्मोंसे छुटकारा पाने के लिए सतत लालायित रहता ऐसी ऐसी भादर्श त्रियां हो चुकी हैं, भाज उसी भारतमें है। कोई पद्धति या रस्म चाहे कितनी ही पुरानी क्यों न हो उनकी ही पुत्रियोंको पकी चहारदीवारी में बन्द रहना पड़ता अगर उसे बुद्धि और युकिकबूल नहीं करती है तो उसे फौरन ही है और वे अपना जीवन भेगों की भांति कायरतासे बिता रही छोड़ देना चाहिए । प्राज पर्दे के सम्बन्धमें भी यही बात है। हैं। मुख कान्तिहीन है, साहस नाममात्रको भी नहीं है। इसलिए प्राचीन भारतमें पर्दा था यह मानकर पर्देको बिजी और चूहेकी खटपटसे हृदय धपकने लगता है। किसी जारी रखना और उसका समर्थन करना बहुत बड़ा प्रज्ञान भीमातको मेलनेकी सामर्थ्य नहीं हैमपर जींबाई और हठहै। Page #416 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राग्वाट जातिका निकास (ले०-श्री अगरचन्द नाहटा) श्रद्धय प्रोझा जीने अपने "विमलप्रबन्ध और विमल" हटवा च गृहं जम मुल्ये विचममोहरम।" नामक लेख में विमलप्रबन्धकी ममालोचना करते हुए सम्बत् १०७ प्राग्वाट वंशके बारेमें निम्न शन्द लिम्व है: -प्राचीन अनसंख-संग्रह ०४२७ "श्रीमाल के पूर्व में उनके निवाम करने के कारण उनका (२) सं० १२०१ जपेषशुक्ला ५ की (मं० विमल के. प्राग्वाट (पोरवाड़) कहलाना, ये सारी बातें कल्पिन " कुटम्बकी) प्रशस्ति"प्राग्वाट तो मेवाड़ के एक विभागका पगना नाम था। "श्रीश्रीमाखकुलोम्यनिर्मखतरप्राग्वाटवंशाम्बरे । जैमाकि शिलालेखादिम पाया जाता है। वहाँक निवासी भाजच्छीतकरोपमो गुणनिधिः श्रीनिकाल्यो गृही।" भिन्न भिन्न जगहोंमें जाकर रहे, जहाँ वे अपने मूल निवाम -भगिरि-शेखसंदोह स्थान के कारण 'प्राग्याट' कहलात रहे ।' (३) सं० १२२३ लि० हरिभद्रमूरिकृत चन्द्रप्रभ अर्थात् प्राग्याट कहलानेका कारण श्रीमाल के पूर्व स्वामी चरित्रमेंनिवाम करनेका न होकर मेवाडके प्राग्वाट प्रदेशम मूल "सिरिमालपुरुभवपोल्याइवमे मु-बाणिमो मगुणो । निवास स्थान होता है। मुत्तामणिम्वनिक्षम अभिहाणो ठक्कुरो मामि ॥ प्रहपपटी होउ मिरीदेवी कहिय भाविच (म्भु) दी। पर नीचे लिम्बे ऐतिहामिक प्रमाण-पंचकसे उनका मत सो सिरिमालपुरानो पत्तो गंभूप नयरीए ॥ संशोधनीय प्रतीत होता है: -पाटण-नभंडार-सूखी पृ. २५३ (१) सीगेही राज्यके कायद्रा (कासहद) प्रामके जैन (४) ० १२२६ फाल्गुण बदि ३ बीजोल्याके शिला. मंदिरके श्रामपामकी देवकुलिकामिमे एकके द्वार पर यह न लेग्व उत्कीर्ण है "निर्गतो प्रवरो वंशो वन्दः ममाश्रितः । "श्रीभिल्लमालनिर्यातः प्राग्वाट: वणिजां वरः। श्रीमानपत्तने स्थान स्थापितः शनमन्युना ॥३०॥ श्रीपतिरिव लक्ष्मीयुग्गोलच्छीराजपूजितः । श्रीमानशेखप्रवरावचनपूर्वोत्तरः पवमुरुः सुकृतः । भाकरो गुणरत्नाना, बन्धुपादिवाकरः । प्राग्वाटवंशोस्ति बभूवनस्मिन्मुक्नोपमा वैषणाभिधान: जज्जुकस्तस्यपुत्रः स्यात् नम्मरामौ नतोऽपरी। ॥३ ॥ मम्जुसुतगुणाल्येन वामनेन भवाडयम् । (५) म १२३६ लि. नेमिचन्द्र मृरिकन महावीर नारित्र • प्र. 'सुधा' वर्ष २ खंड सं० १ श्रावण ३०६ तम की लेग्वनपशस्ति में'राजपूतानेका इतिहास' की पहिली जिल्लमें भी उन्होंने इसी "प्राग्यो बाटो जलधिसुनया कारितः क्रीडनाय । का पुनः समर्थन किया है। तबाम्नेवप्रथमपुरुषो निमिनोध्यांनोः । Page #417 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६० तत्संतानप्रभव पुरुषैः श्रीभृतैः संयुतोयं । प्राग्वाटाल्यो भुवनविदितस्तेन वंशः समस्ति ॥१॥ - पाटणभंडार- सूची पृ० २८६ उपर्युक्त प्रमाणोंसे स्पष्ट है कि पोरवाड़ोंका उद्गम स्थान श्रीमाल ही है विमलप्रबन्धका उल्लेख कल्पित नहीं होकर पूर्वपरम्परा श्राधारसे लिम्बा ज्ञात होता है । अत: मुनि जयन्तविजयजीने नागरी प्रचारिणी पत्रिका भा० १८ श्र० २ पृ० २३६ में श्रोझाजीके कथनकी संगति बैठाने के लिए "मेठ नीनाकी माता श्री श्रीमाल ज्ञातिकी और पिता पोरवाड़ गातिके थे" लिखकर जो कल्पना की वह भी अनावश्यक प्रतीत होती है। मुनिश्रीने लिखा है कि 'श्री श्रीमाल कुलोत्थ' एक प्रश्न C [ श्री 'भगवत' जैन ] अनेकान्त [ वर्ष ४ है इसकी जगह यदि 'श्री श्रीमालपुरोत्थ' होता तो इसका अर्थ ठीक प्रकारसे संगत हो सकता था । श्रर्थात् भिल्लमाल नगर पोरवाड़ जाति उत्पन्न हुई ।" और उपर्युक्त प्रमाणों में चन्द्रप्रभचरित्रकी प्रशस्तिमें, जो कि उसी विमल के वंशकी है, "मिरिमालपुरब्भव" स्पष्ट पाठ है । अतः अन्य कल्पनाकी कोई गुंजाइश ही नहीं विदित होती । इस सम्बन्धमें मुनि जिनविजयजी अपने पत्रमें लिखते हैं कि मेरे विचार प्राग्वाट वर्तमान सीरोही राज्यका पूर्वभाग है जो आबू लेकर उत्तरमें नाडोल तक चला गया है । श्रीमालके परगनेसे यह ठीक पूर्व में है, इसीलिए इसे श्रीमाल बालने प्राग्वाट कहकर उल्लिखित किया है । क्यों दुनिया दुखमं डरती है ? दुखमें ऐसी क्या पीड़ा है, जो उसकी दृढता हरती है ? हैं कौन सगे, हैं कौन ग़ैर, कितने, क्या हाथ बँटाते हैं ? सुम्बमें तो सब अपने ही हैं, दुखमं पहिचाने जाते हैं ! 'अपने' - 'पर' की यह बात सदा, दुखमे ही गले उतरती है ! क्यों दुनिया दुखसे डरती है ? दुख तो ऐसा है महा मंत्र, जो ला देता है सीध. पन ! मारे विकार, सारं विगंध तज प्रारणी करता प्रभु- सुमिग्न हर माँस नाम प्रभुका लेती, भूल भी नहीं विसरती है ! क्यों दुनिया दुम्से डरती है ? दुनयात्री मारे बड़े ऐव, दुखियाको नहीं मनाते है । सुम्बमें डूबे इन्सानों का बेशक हैवान बनाते हैं ! दुख सिखलाता है मानवता, जां हत दुनिया का करती है ! क्यों दुनिया दुम्बसे डरती है ? पतझड़ के पीछे है वसन्त, रजनीके बाद संग है ! यह अटल नियम है— उद्यमके उपरान्त सदैव प्रसंग है ! दुख जानेपर सुख आएगा, सुख-दुख दोनों की धरती है ! क्यों दुनिया दुखसं डरती है ? Page #418 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरसेवामन्दिरमें वीरशासन-जयन्ती-उत्सव pawar.0 > = == स वर्ष बीरसेवामन्दिर परसाबामें श्रावण जिसमें सभाया पं. कृष्णचन्द्रभी जैन दर्शनशासी, पं. कृष्णा प्रतिपक्षा और दुतीया ना० ९-१० धरणेन्द्रकुमारजी शाबी, पं० सुमेरगामी म्यायनीर्थ, पं. २ जुलाई मन् ११ दिन बुधवार-गुरुबारको माणिकसम्माजी न्यायाचार्य, चि० ग्रामीदेवी पोनी 4० माणिक बीरशासन-जयन्तीका उम्मव गतवर्षसे भी चन्दकी, पं. काशीरामजी शर्मा, पं. ओमप्रकाशजी शर्मा, अधिक समारोहके साथ मनाया गया। नियमानुसार प्रभात पा० माईदयालजी, मा. कोशमप्रमानजी, पं. शंकरखामजी फेरी निकली, मंडाभिवादन इमा. मध्याह समय गाजेबाजे म्यायतीर्थ, पं० मुलाखालाकी समगोरिषाने भाग लिया और के साथ जलूस निकाला और फिर ठीक दो बजे जमेका कार्य अनाथालय बहसीक जैन कुमारों पारिके हमयमाही गायन प्रारम्भ हुमा । मनोनीत सभापति बाबू जयभगवानजी वकील हुए। पानीपतके कुछ अनिवार्य कारणोंकी बजामे म प्रासकने भाषण सबही अच्छे प्रभाव एवं महस्य । कारण श्री जैनेन्द्र गुरुकुल पंचकूला अधिष्ठाता पं० कृष्ण- सभाध्या ५० कृष्णचन्द्रजी दर्शन शास्त्रीने वीरशासन जयन्ती चन्द्रजी जैन दर्शनशास्त्रीके सभापतित्वमें जल्मेका कार्य शुरु का इतिहास बतलाते हुए इस बारको ग्वाम्मतौरमं बतलाया हा और वह दोनों दिन दोनों का बड़े भारी भानन्दके कि मुख्तार श्री पं० जुगलकिशोरजीने सबसे पहले सन् १९३६ माथ सम्पन्न हुमा । जसमें बाहरसे महारनपुर, रुड़की, में धवला और मिलोम्पपणती परसे वीरशासन जयन्तीकी देवबन्द, तिसा, मुजफ्फरनगर, मेरठ, देहली, सुमपत, अब तिथिको मालूम करके उसे सबसे पहले उत्सवक रूपमें दहापुर, जगाधरी, पंचकूला और मानौता प्रादि स्थानोंमे परिणन किया है और उसके प्रचारमें काफी प्रयल किया अनेक मजन पधारे थे, जिनमें बा. सूरजभानजी वकील, उसीका फल है किहम लोग बीरशासन जयन्तीके महान न्यायाचार्य. माणिकचन्द जी (मकुटुम्ब), 4. जयचन्द्रजी आदरणीय कल्याणकारी वियपको जाम सके हैं। और में प्रायुर्वेदाचार्य, बा. माईदयालजी बी०००, बा. दीपचन्दजी हर्ष है कि इस महान पर्वका प्रचार भी समाजमें अब पवेष्ट. वकील, पा. कौशलप्रसादजी, पं. धरणीन्द्रकुमारजी शासी, रूपमे होने लगा है। इसका माग श्रेय मुमनार साहब और पं० मसालाबजी.पं० सुमेरचन्दजी न्यायतीर्थ, बा. मोती- उनके वीरसेवामन्दिरको है। वीरवामभिरकी स्थापगमे रामजी फोटोग्राफर, ला. महामनजी, खा. इन्द्रसेनजी, पहले बीरशामम जयन्तीको कोई जानता भी नहीं था। ग. भगतसुमेरचनजी, पं. काशीरामजी 'प्रफुरिखत', श्रीमती कौशलप्रसादजी मेमेग हायरेक्टर भारतमायुर्वेदिक मिभगवतीदेवी और श्रीमती जयवन्तदेवी के नाम मुस्थ है। कास महारनपुरके भाषण तो बही भोजपूर्ण और असर पं० मालालजी समगोरिया प्रचारक जैन अनाथाश्रम देहबी कारक थे। उन्होंने अपना भाषण देते हुए यह भी बतलाया मय अपनी गायन मंडलीके पधारे थे। कि मुख्तार साहबकी कृति 'मेरी भावना' ने तो संसारमें पड़ा ___ मंगलाचरण, तिथि-महत्व और भागत पत्रोका सार ही सम्माननीय स्थान प्राप्त किया है, उनमें प्राध्यामिक सुनानेके अनंतर सभामें भाषणादिका कार्य प्रारंभ हुमा, मायके कारण पांच हजार जम सम्हनदी किनारे एक Page #419 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३६२ भनेकान्त [वर्ष ४ साथ बैठकर मेरी भावनाका जब पाठ करते हैं उस समयका हुआ है और कहां किस दशामें पड़ा हुआ है ? फ्रांस, अर्मन दृश्य बना ही रमणीय मालूम होता है और हृदय भानन्द प्रादि देशोंने साहित्यकं प्रकाशनमें जो महत्वपूर्ण कार्य किया विभोर हो उठता है। वास्तव में यह भावना मानव जीवनको है उसीका फल है कि वे देश समुन्नत देखे जाते हैं। जिस भादर्श बनाने में बड़ी ही सहायक है।' इन सब भाषणों में देश या जातिका साहित्य और इतिहास नहीं वह देश और वीरशासमके महत्वका दिग्दर्शन करानेके साथ साथ वीरके जाति कभी भी समुन्नत नहीं हो सकती है। जैन साहित्य पवित्रतम शासम पर अमल करने और जैन साहित्यक संरक्षण कितना विशाल और महत्वपूर्ण है इसे बतलानेकी आवश्यकता प्रकाशन एवं प्रचारका कार्य करनेके लिये विशेष जोर दिया नहीं। जैनसाहित्य भारतीय साहित्यमें अपना प्रमुख स्थान गया। और वीरशासमके अहिंसा प्रादि खास सिद्धान्तोंका रखता है। जब तक जैन इतिवृत्तका संकलन न होगा तब इस ढंगसे विवेचन किया गया कि उपस्थित जनता उससे तक भारतीय इतिहासका संकलन भी अधूरा ही रहेगा. इसे बड़ी ही प्रभावित हुई और सभीके दिलों पर यह गहरा अच्छे अच्छे चोटीकं विद्वान मानने लगे प्रभाव पड़ा कि हम वीरशासनकी वास्तविकचर्यास बहुत दूर पुरातत्व-विषयक विपुल सामग्री यत्र तत्र विखरी हुई पड़ी है और उसे अपने जीवनमें ठीक ठीक न उतार सकने के कारण है। हमारे श्वेताम्बर भाइयोंका ध्यान इस ओर बहुत कुछ इतनी अवनत दशाको पहुँच गए हैं। वीरके शासन पर गया है परन्तु दिगम्बर समाजका अपने साहित्य और इतिप्रमाल करना तो दूर उनके शासन सिद्धान्तोंस भी हमारे हासके प्रकाशनादिकी ओर कोई विशेष लक्ष्य नहीं है, वह भाई अधिकांशतः अपरिचित ही हैं। यही कारण है कि हम उससे प्राय: उपेक्षा किये हुए है। ऐसे कार्यों में उसे कोई में , द्वेष, अहंकार और विरोध इतनी अधिक मात्रामें खास दिलचस्पी नहीं है। यही कारण है कि दिगम्बर मागए हैं। स्वार्थतत्परताने तो हमें और भी अधिक पतित समाज अपने ग्रंथोंकी एक मुकम्मल सूची भी अभी तक नहीं बनानेका प्रयत्न किया है। और पारस्परिक फूटने हमें सब बना सका है। जो साहित्य समाजमें प्राण प्रतिष्ठाका कारण तरफसे घेर लिया है। महममें प्रेम है और न संगठन । होता है और जो वीर शासनके सिद्धान्तोंके जाननेका अनुपम वीरशासनके समुदार सिद्धान्तोंका यथार्थ परिज्ञान न होनेसे साधन है, उसके प्रति उपेक्षा होना मानों वीरशासनकी भवउसका यथेष्ट प्रचार भी नहीं हो सका है। उस सिद्धान्तके हेलनाका करना है। जैनसाहित्यका प्रकाशन एवं प्रचार किए प्रतिपादक शास्त्रोंका हम यथेष्ट संरक्षण भी नहीं कर सके बिना वीरके दिग्यशामनका जनताको यथार्थ परिज्ञान कैसे हो हैं। बीरशासनका प्रतिपादक बहुतसा प्राचीन भागम साहित्य सकता है अतः बीरके अनुयायियोंका परम कर्तव्य है कि यद्यपि हमारी लापरवाही मानिस नष्ट हो गया है और जो वेतन-मन-धनसे जैनसाहित्य प्रकाशन एवं प्रचारित करने कुछ इस समय अवशिष्ट है वह उन काल कोठरियों में बन्द का प्रयत्न करें और अपने साहित्यकी एक मुकम्मल सूची पदा जहां वायुका स्पर्श भी नहीं है और जो दीमक-चूहों तय्यार करानेका भी प्रयत्न करें जिससे जनता सहज ही में मादिका भय हो रहा है। जबकि विदेशीय विद्वान हमारे जैनसाहित्यसे परिचित हो सके। दिगम्बरों में इस विषयकी साहित्यकी प्राति तथा प्रकाशित करनेके लिये लाखों रुपया भारी कमीको महसूस करते हुए उपस्थित जनताने दिगम्बर खर्च करते हैं तब हमें इतनी भी खबर नहीं है कि हमारा जैन ग्रंथोंकी एक मुकम्ल सूची बनाने नियं वीरसेवामंदिर साहित्य कितना क्या क्या है, किस किसके द्वारा निर्मित के संचालकोंसे अनुरोध किया और उसे शीघ्र कार्य में परिणत Page #420 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६.७] कमल और भ्रमर करने के लिये निम्नलिखित प्रस्ताव पास किया। प्रस्ताव पास होने के कुछ दिनों बाद ही जब अधिष्ठाता "प्रत्येक जाति और देशकं लिये उसके माहिग्यका चीरमवामन्दिर देहली गयं तो उन्हें ला• धूमीमन धर्मदान संरक्षण और प्रचार अत्यंत आवश्यक है । वीरशासनके जी की फर्मक मालिक ला जुगलकिशोरमी कापाजीने, जो प्रतिपादक जैनशाम्बीक यथेष्ट संरक्षण और प्रचारकी बात तो बडे ही मन्जन तथा धर्मान्मा हैं, इस कार्य के लिये एक हजार दर, उनकी कोई मुकम्मल सूची भी अभी तक तय्यार नहीं रुपयकी सहायताका नमन लिया है। और देहली जानस हुई है, जिसमें जैनपाहिग्यका पूर्ण परिचय नथा उपयोग हो पहले एक दमर महानुभावकी पारस भी अच्छी सहायताका सके। हमें यह जानकर प्रसन्नता है कि श्वेताम्बर ममाजने प्राधामन मिला है. जिसकी रकम निश्मित होने पर उस अपने ग्रंथोंकी अनेक विशालकाय मूनियां नय्यार करके प्रकट किया जायगा। इसस यह प्रस्ताव शीघ्र ही कार्य में प्रकाशित की हैं, परन्तु दिगम्बर समाज की तरफमे म दिशा परिणत होता हया नज़र घाना में कोई उल्लेखनीय प्रयत्न अभी तक नही हुआ है, जिसके अन्तमें पं. जुगलकिशोरगी मुतार अधिष्टाना वीरमंयाहोनकी अत्यन्त आवश्यकता है। अतः वीरशासन-जयन्नी मन्दिरने स्थानीय तथा बाहरम पधार हुपसानोंका और पुनीत अवसर पर एकत्र हुई जैन जनता इस भारी कमीको रखामकर सभापति महोदयका प्राभार प्रकट किया और महसूस करती हई यह प्रस्ताव करती है कि सम्पूर्ण दि. अपनी तथा वीरमबामन्दिरको पोरम सबका धन्यवाद दिया। जैन ग्रंथांकी एक मुकम्मल मूकी तरयार की जाय और वीर- इस तरह यह उस्मत्र वीर भगवान और उनक शाम्मन की सवामन्दिरके संचालकॉम यह अनुरोध करती है कि वे हम जयनिक माथा प्रानन्दपूर्वक समाह हुआ। महान् कार्यको शीघ्रय शीघ्र अपने हाथमें नवें। साथ ही, हां, एक बात और भी प्रकट कर देनकी है चोर समाजम प्रार्थना करती है कि वह वीरमवामन्दिरको हम वह यह कि ना. १० जुलाईको मनमहिलानाने भी एक अन्यावश्यक शुभकार्य में अपनापूर्ण सहयोग प्रदान को।" ममा वीरमवामंदिग्मे श्रीमती जयचम्नीदेवीके नेतृत्व में की, प्रस्तावक बाबू कौशलप्रसाद जिसमे अनेक महिलायकि प्रभावशाली भाषण हावीरममर्थक-बा. दीपचंद वकील शामन जयंतीका महत्व बतलाया गया और उसके प्रति त्रीअनुनोदक-या माईदयाल कर्तव्यको दर्शाया गया। -परमानन्द जैन शास्त्री [ यहां पाठकों को यह जान कर प्रसन्नता होगी कि इस कमल और भ्रमर ऊपा अग्नी म्वा मम्झग रही थी कि इतनम मम्मा हमला बिना, और उसकी गंद मे है। दिनेशका उदय हुआ !.... अग्ने एक मृत बन्युमा शव उन्हे उपहार में मिला ! श्रीर, मुभा ईम रही! भौगने भारत में उसे उठापा, परन्त वर बागके निकट वाले नालाय पर मैं टहल कर लोट हट कर पानीम जारहा!.... .. फिर न ही गुमानाने रहा था ! पाम ही एक अद्भन दृश्य दिग्वाई दिया! लगे! - अस्फुट कमन र चार भीर चेष्टा करके भी मैं समझ नहीं गया -- गुनगुनाते हुए मैंडग रहे थे ... .."शायद......"किमी प्रियक का उनका गुञ्जन था या संदन !! प्रतीक्षामें ""या"""मधु-लाल माम....!! -जयन्तीप्रमाद जैन शास्त्री Page #421 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सयुक्तिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता (लेखक-५० रामप्रसाद जैन शात्री) जैनसिद्धान्त भाकर भाग ८ किरण १ मे प्रा० क्तिक मम्मति' लेग्यकं एक टिप्पणमें (पृ० ८६ पर) जगदीशचन्द्रका तत्वार्थभाष्य और अकलंक' नामका माफ सूचित करते हैं कि-"यह लग्य' 'प्रो० जगदीश एक लम्ब निकला है। वह लेग्य अनकान्त वर्ष ४ चन्द्र और उनकी ममीना' नामक मम्पादकीय लेग्य किरण १ में मेरे द्वाग लिखे गये 'सयुक्तिक मम्मति' के उत्तरमें लिखा गया है, और इसे अनेकान्तमें लग्बका प्रतिवाद है। उम लग्वमे सयुक्तिक सम्मतिको प्रकाशनार्थ न भेजकर श्वेताम्बर पत्र 'जैनमत्यप्रकाश' जो 'युक्तिविहीन' और 'भ्रमात्पादक' बतलानका में प्रकाशित कराया गया है।" इस संपादकीय टिप्पण माहस किया गया है वह एक निःसत्व लोकातिक्रमिक में अच्छी तरह स्पष्ट होजाना है कि लंग्वकने अनमाहम है। लग्बमे लंग्वकन पहले तो अनेकान्त-मंणदक कान्त-संपादकके ऊपर मो आक्षेप किया है वह पर अपने अमत्य और घृणित य उद्गार प्रकट किये बिलकुल अमन्य है और लोगों का भ्रम पैदा करने हैं कि-"अपन विरुद्ध मयुक्तिक लम्वोंको ता अन- वाला वाग-जाल है । प्राग चलकर प्रा०मा० ने बिना कान्तमें छापनके लिए भरसक टालमटोल की जाती है विचारे ही जो यह लिख दिया है कि-"लेग्याङ्क (३) और पत्रोंका उत्तर तक नहीं दिया जाता तथा इम को अच्छी तरह नहीं पढ़ा और जल्दीम श्राकर वे तरहकं युक्तिविहीन भ्रमात्पादक लखोंको मयुक्तिक मम्मान देने बैठ गय" वह न मालूम किम आधारको बताकर अपनी 'वाह वाह की घाषणाकी जाती है।" लिये हए है, जबकि श्रापक उक्त लेम्बाङ्क (३) की सभी वास्तवम दग्बा जाय तो लग्बकका इस प्रकार लिखना चर्चाका मयुक्तिक मम्मतिमे विस्तारसं बंडन है। एक क्रांध वृत्तिको लिए हुए है और अमत्य भी है। हॉ, यदि आपने उम अम्वीकार कर दिया तो उसका कांधवृत्ति तो उक्त लिखावटसं टपकी पड़ती है और अर्थ क्या यह होगया कि लग्वाङ्क (३) पढ़ा ही नहीं? अमका कारण यह है कि-प्रा० मा० के मब लेखों नहिं मालम यह कैमी विचित्र आविष्कृति है ! इसके पर पानी फेरने वाली 'मयुक्तिक मम्मनि' अनेकान्तमे आगे मयुक्तिक मम्मनि लग्वकं लग्वककी दलीलोंको जो प्रकाशित होगई, इमसे आपको मार्मिक दुःग्य पहुँच हास्यास्पद' लिग्ब माग है वह तो अपने दिल के कर क्रोध हो पाया। और असत्यपना इममं प्रकट फफोड़े फोड़न जैमा ही कार्य जान पड़ता है। क्योंकि है कि-जब अनेकान्तमें आपके कई लेख प्रकाशित उन दलीलोकं खंडन के लिय आपने नाप्रयाम किया है होगये है और प्रकाशित न करनकी जब कोई सूचना उसकी मारता या निम्मारता इम लेख द्वारा प्रमाणित संपादकजीकी नरफ आपके पाम नहीं गई है तब होनस लेम्बककी हास्याम्पदता या अहाम्याम्पदना 'मयुक्तिक लेग्यो को न छापनेका' आरोप लगाना कहां स्वयमेव ही प्रकट हो जायगा । अतः उसके लिये जब तक सत्य है, यह सब ममझदारोंकी समझसे बाह्यका १ लेखाङ्क नं. ३, जिमरर मेरी अंरसे 'सयुक्तिक मम्मनि' विषय नहीं है। बल्कि अनकान्तक मंपादक तो 'सयु. निग्वी गई। Page #422 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७ ] तक दूसरी तरफसे प्रत्युत्तर न आ जाय तब तक कांधा वेश कर अपनी सर्वेसर्वा सत्यपनकी डीग माग्ना व्यर्थ है । विद्वद्द्द्दष्टिमं जो तत्व निर्णय विषयक लेख लिम्बे जाते हैं उन पर विचार-विनिमय होनेसे ही तत् निर्णय होना है। विचार-विनिमयमे यदि क्राधकी मात्राका समावेश होजाय तो वह विचार विनिमय नहीं रह जाता किन्तु वह तो अपनी गंध को लिये हुए एक आज्ञ'सी हाजाती है कि जो हमने लिखा है वह ही माना जाय: परन्तु ऐसी बातें नवनिर्णय बाधक हैं। पं० जुगलकिशोर जीने न मुझने अपने लेख पर कोई सम्मति मांगी है, न इस विषय की जानकारी के लिये मुझे कोई पत्र ही लिखा है और न मंगे सम्मतिकां अपनी श्रग्सं 'मयुक्तिक' ही बतलाया है; जैसाकि प्रो० साहब उनपर मिध्या आरोप करते हुये लिम्बते हैं । 'सयुक्तिक' विशेषण मेरा खुदका प्रयुक्त किया हुआ । हां. पं० नाथूरामजी प्रेमीने एक दिन मुझसे पूछा था कि अनेकान्त में तस्वार्थमूत्र के विषय को लेकर जो लेखमाला चल रही है वह देखी है क्या ? मैंने उसके उत्तरमे कहा कि जब अनेकान्न मेरे पास आता ही नहीं तो क्या देखूं । इस वार्तालाप के बाद पं० परमानन्दजी शाखीका मेरे पास एक पत्र आया, उसमें लिखा था कि अनेकान्न सम्बन्धी तत्त्वार्थसूत्र की चर्चा पढ़ी होगी उसके विषय में आपका क्या अभिप्राय है । जिस दिन यह पत्र मेरे पास आया था उस दिन पं० नाथूरामजी प्रेमीक साथ प्रो० महाशय भी सरस्वती-भवनमें पधारे थे, और वे इसलिये पधारे थे कि राजवानिककी कोई पुरानी हम्नलिग्विन प्रति ऐमी मिल जाय जिसमें कि पं० जुगल किशोर जीके लेखके विरुद्ध कोई बात हाथ लगे । परन्तु मग्भ्वतीभवनमें वैसा कोई प्रति न होनेसे 'श्रुतमागरी' और सयु० लेम्बपर उतरलेवकी निःसारता ३६५ 'तस्वार्थ सूत्र पर प्रभाचन्द्र-टिप्पण' ये दो ग्रन्थ उनको दे दिये थे, तथा पं० परमानन्दजीके पत्रकं विषयकी बात भी उस समय आगई थी। उस विषय को लेकर हँसते हुए प्रो साइबने वहा था कि बिना पढ़े ही सम्मति दे डालिये ! इसके उत्तर में मैंने यह ही कहा कि बिना पढ़े भी कहीं सम्मति दी जाती है ? प्रस्तु हँसते हुए चले गये और कुछ दिन बाद उन्होंने अपना लेखाङ्क (३) सम्मति के लिये मेरे पास भेजा । मुझे जैसी सम्मति सृमी वह लिखकर अनेकान्त मे छपने को भेज दी । इस सब वृत्तान्तकं लिखनेका अभिप्राय सिर्फ इतना ही है कि पं० जुगल किशोरजीन मुझसे अपने लेबों पर कुछ भी सम्मति नहीं माँगी है किन्तु प्रो० महाशयन ही सम्मति माँगी है। अतः आपने जो यह लिखा है कि- "पं० जुगलकिशोरजीन प्रस्तुत चपर विद्वानोंकी सम्मति छापनेका श्रीगणेश किया है। अब यदि मैं भी यहाँ कुछ विद्वानोंकी सम्मति प्रकाशित कर तो अप्रासंगिक न होगा ।" वह म लिम्बावट कटाक्षमय इस बात की सूचक है कि पं० जुगलकिशोरजी प्रेरणा करके अपने प्रस्तुत चर्चा के विषय पर सम्मतियां मँगा रहे हैं और उसका 'मयुक्तिक सम्मति' में श्रीगणेश कर दिया है। परन्तु मुझे तो अपनी सम्मतिके बाद कोई ग्यास सम्मति उनके लेख पर ऐसी देना नहीं मिली जोकि खास उसी विपयको लिये हुए हो और जिससे यह जाहिर होता हो कि सम्पादक अनेकान्त उस विषयका कोई स्वाम प्रयत्न कर रहे है। और मैंने जां सम्मति भेजी है वह अमलियन में उनकी प्रेरणाका कोई परिणाम नहीं है। किन्तु प्रो० मा० की प्रेरणा के निमिसको पाकर सत्य क्या है इस विषय की युक्ति पुग्म्सर चर्चाका लिये हुए है । मेरे लम्ब में साम्प्रदायिकता की जिनका गंध Page #423 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ आती है वे खुद ही माम्प्रदायिक जान पड़ते हैं, क्यों गया है वह प्रा० सा० का प्रायः मनघडंत है और कि जो जैसा होता है समको वैमी गंध आया करती उससे ऐमा मालूम होना है कि या तो आपने सयुहै। परन्तु वेद है कि प्रा०मा० यदि मुझे माम्प्रदायिक क्तिक लग्बको पूर्णविवार नथा गौर के माथ पढ़ा ही ममझने थे तो उन्होंने अपना लंग्व मेरे पास मम्मति नहीं है, यों ही जल्दबाजी में आकर चलना-फिरना के लिये क्यों भेजा ? क्या लग्व को बिना पढ़े ही उटपटांग उत्तर लिग्ब माग है । अथवा मरे आक्षेपका अनुकूल मम्मनि दे दनके अभिप्रायम ही वह भेजा ठोक उत्तर आपके पास नहीं था, और उत्तर दनामात्र गया था ? अन्तु; आपने मेरे लग्बके उत्तर माथ जो आपको इष्ट था; इमलिय मेरे श्राक्षपको अपने माँचे कुछ मम्मतियां प्रकाशित की हैं वे मब युनिशून्य में ढालकर आपने उत्तर लिम्बनेका यह ढोंग किया है। तथा आपकी प्रेरगापूर्वक लिवाई होनम इस विषय इमीम उम सयुक्तिक सम्मति के "अनः पं०जुगलकिशोर में बंकार हैं; क्योंकि निर्णयान्मक विपयमें युक्तिशून्य जीने नं० १ के संबंध जो समाधान किया है वह मम्मतियाँ विद्वदृष्टि में प्रामाणिक नहीं गिनी जानी; जैनेनर (अन्यधर्मी) के प्राक्षेप-विषयक गजवानिकपं. महेन्द्रकुमारजीने जो अपनी मम्मतिम न्याय- मूलक शंकाममाधान के विपयको लिये हुए उत्तर है" कुमुदचन्द्र द्वितीय भागकी प्रस्तावनाकी बान लिम्बी है इत्यादि बहुनम वाक्यों को, जो मेरे प्राक्षपके अङ्गभून उसके मामने आने पर उसका विचार किया जायगा। थे, छोड़कर श्राप उत्तर लिम्बन बैठ गये हैं ! यह नीति दमर मरे 'सयुक्तिक सम्मति' लेग्य पर पं० सुमेरचंद्र आपकी 'नापाक हा ना मन पढ़ नमाज़' इस वाक्य जीकी सम्मान मग बिना प्रेरणाक ही जैनगजटमें मंस 'नापाक हो ना ये शब्द दोड़कर कंवल मन पढ़ प्रकाशित हुई है उस भी श्राप पढ़लें । प्रेरणा करके नमाज'को लेकर उसका ग्बगड़न करने अथवा अपने यदि सम्मतियां इधर प्रकट कराई जायँ तो सैंकड़ों अनुकूल उपयोग करने जैमी है, और इमलिय की तादादमें मिल सकती हैं, परन्तु हमको मात्र छलका लिये हुए जान पड़ती है। इसके लिये अन प्रेरणात्मक खशामदी सम्मतियों की अभिलाषा नहीं कान्त वर्ष ४ किग्गा १ के पृ० ८६ पर दिय हुए मरे है, यहाँ तो युक्तिवादकी अभिलापा है। अतः मे आक्षेपको और जैनसिद्धान्त भास्कर भाग ८ किरण आपको और आपकं सम्मतिदाताओंकी युक्तिपूर्ण १ पृष्ठ ४४ पर दिये हुए उसके प्रोफेसरीरूप तथा सम्मतियां चाहता हूँ; क्योंकि विद्वदृष्टि इसी बात उत्तरको सामने रग्यकर यदि पढ़ा जायगा तो पाठकों की इच्छुक है। को मालूम पड़ जायगा कि तथ्यानथ्य क्या है ? अम्नु । अब श्रापकं उत्तरलेखका कलेवर किस युक्तियुक्त इस विषयमे प्रा०मा० उत्तरकी जो निस्सारता है अन्तस्तत्वकी गहगईको लिये हुए है उमका विचार वह यह है कि-मुद्रित राजवानिक पत्र २४३पर 'गुणकरते हुए उसकी निःसारताको व्यक्त किया जाता है- पर्ययवद् द्रव्य' इम सूत्र-सम्बंधी जो दूसरी वार्तिक (१) महत्प्रवचन और महत्प्रवचनहृदय "गुणाभावादयुक्तिरिनिचेन्नाहत्प्रवचनहृदयादिषु गुणो इस प्रकरणमें सयुक्तिक सम्मतिके मेरे आक्षेपको पदेशान" इस रूपमें पाई जाती है उसके भाष्य में जो रूप देकर उसका उत्तर लिग्यनेका प्रयत्न किया अकलंकदेव लिखते हैं कि-"गुणा इति मंझा नंत्रा Page #424 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७ ] सयु० लेखपर उत्तरलेखकी निःसारता न्तराणां प्राहेनानां तु द्रव्यं पर्यायश्चेति द्विती(त)यमेव रहता है अत: आपका उक्त लिखना के संगत तत्त्वं--प्रतश्र द्विती(न)यमेव सद्यापदेशात' इत्यादि। हो सकता है, इस पर भाप म्बयं विचार करें। इस पाठमे 'तंत्रान्तगणां' 'आर्हतानां तु' यं वचन दूमरी बात जो आपने यह लिम्बी है कि 'गुणसूचित करते हैं कि यह गुणके अभावकी शंका प्रर्यवद्रव्यं' सूत्र नक मत्वार्थसूत्रमे 'गुण' के विषय तत्त्वार्थसूत्रके ऊपर की गई है और वह समस्त जैन में शं नहीं की गई है सो उसका जवाब यह है कि शासनको लक्ष्य में रखकर की गई है। ऐसी दशा में जिम जगह गुणकी बात तत्वायसूत्रमें पाती वहीं तो यदि अकलंक इस तत्त्वार्थसूत्र ग्रंथम अतिरिक्त इस शंकाको अवकाश था। जैनों ने तो द्रव्यार्थिक, किसी अतिप्राचीन पर्ववर्ती प्रथा प्रगाण न देकर पर्यायार्थिक ये दो ही नय माने गये हैं, गुणार्थिक नय जिम पंथ पर टीका लिम्य रहे है उम प्रथका प्रमाण माना ही नहीं है । अतः जैनांके यहां तो इस शंका दत ना यह स्पष्ट भाक्षेप रहता कि हम ग्रन्थम पर्व का अवकाश किमी कालम भी संभवत नहीं हैं। जैनशासनमे 'गुण' का कथन न होनस दुसरे अन्य सभी जैन भेदाभेद-वृत्तिका 'लय हुए।पदार्थका निरूपण मंप्रदायकं प्रन्थोंम यहाँ 'गुण' शब्द लाकर किया करते है। क्या आपकी दृष्टि में श्वेताम्बरोंके यहां गया है। इस प्राक्षेपको गनम ग्यकर ही अकलकदेव भंदाभेदवृत्तिस अर्थात स्यावाद्की नीनिस पदार्थका ने यह समाधान दिया है कि जिममें शंकाकारको निरूपण नहीं है ? मग समझसे सो इम न्यायको वे शंका करनेकी फिर कोई गँजाइश ही न रहे। जब भी मानते है, आप न माने ता दूसरी बात है। वहाँका स्थल ऐमा है अर्थात गुणक विषयमें अन्य- अच्छा, आपने जो श्वेताम्बर मनमें 'गुण' (गुणार्थिक वादीका पाहतमन पर आक्षेप है तय 'उमो प्रन्थक नय) के विषयका मतभेद जिन प्राचार्योका बतलाया ऊपर किये गये प्राक्षेपका उत्तर नमी प्रन्थ द्वारा नहीं है नन प्राचार्योंका तथा वहांके इस विषयका निरू. किया जाता'-इत्यादि कथन जा मयुक्तिक मम्मतिम पण तो करिये, नथा पसका मंबंध तंत्रान्तगणां' लिग्या गया है वह पूर्णतया सुमंगत है। हाँ यदि और 'पाहतानां तु ये शब्द लेकर गजवार्तिक पाठ विशेषताको लिये हुए शंका न होती तो आपका इस के माथ मम्बद्ध करके बत नाईय कि यह शंका अम्य विषयका उत्तर ठीक समझा जाता-परन्तु यहाँ तो धर्मियोंका की हुई नहीं है किंतु श्वेताम्बर्ग जनोंकी स्पष्ट 'तंत्रान्तराणां' 'आईनानांतु' इन शलोंकी विशे- है। जब तक यह मब बात नहीं बनलायेंगे तब तक पताको लिये हुए शंका है, फिर यह कैम समझा जाय आपके वचन निर्हेतुक रूपमें कैसे प्रमाण मान जा कि आपने जो उत्तग्में लिखा है वह मत्य है ? आपने सकेंगे और कैसे यह समझ लिया जायगा कि व छलजो यह लिम्वा है कि-"गुण (गुणाथिकनय) हित सत्यताका लिये हुए हैं ? विषयमें कुछ श्वेताम्बर जैन आचार्यों का मतभेद भी भाग इमी प्रकरणकं दूसरे पेमें, "स्वयं सम्मति है" वह विलकुल निरर्थक है। क्योंकि जब गजवार्ति- लग्बकने 'तद्भावाव्ययं नित्यं' 'मंदावणुः' आदि कमें 'तंत्रान्तगणां' 'पाहतानां नु' ये शब्द स्पष्ट पार्य सूत्रोंके उल्लेग्यपूर्वक राजवानिकगत ऐम बहुनसं म्थलों जाते हैं तो जैनोंके यहांकी शंकाको स्थान ही कहाँ कोम्बोकार किया है जहां पूर्वकथित मिद्धि में प्रागेके Page #425 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ३९८ भनेकान्त [वर्ष ४ सूत्र उपन्यस्त हैं" इत्यादि वाक्योंको लिखकर मेरे प्रतिज्ञावाक्य अथवा प्राक्षेपके खंडनका जो प्रयास प्रतिज्ञावाक्य अथवा आक्षेपके खंडनके लिये जो प्रो० सा० ने किया है वह न मालूम किस विकृतदृष्टि प्रयास किया गया है वह कंवल उम विषयकी अजा- का परिणाम है ! नकारी या छल वृत्तिका परिणाम है । कारण कि, मालूम होता है सयुक्तिक सम्मतिमें मैंने जो जिन स्थलों को प्रो० साहबने चुनकर लिखा है उनमें प्रतिज्ञावाक्य 'जिस ग्रंथ पर राजवार्निक टीका लिखी सं कोई भी ऐसा स्थल नहीं है जहाँ जिस प्रत्यके जारही है उसी प्रन्थकं ऊपर किये गये आक्षेपका ऊपर आक्षेप है उसका उसी ग्रंथकं उत्तर भागसं उत्तर' इत्यादि रूपस लिखा है उसका ठीक अभिप्राय समाधान दिया गया हो। उदाहरणकं तौरपर 'नित्या- ही उत्तरलेखककी समझ नहीं पाया है और इसका वस्थिताम्यरूपाणि' सूत्रकं गजवार्तिकमे आये हुए कारण यही है कि आप आवेशमें आकर जल्दबाजी 'तभावाव्ययो नित्यत्वं' इस वातिक नम्बर ०२ सं विना काई गंभीर विचार कियं चलता फिरता (पत्र १९७) के भाष्यद्वाग यह प्राशय प्रकट किया उत्तर लिखने बैठ गये हैं ! अच्छा, आपने मेरे लेखका गया है कि जो नित्यका श्रापको वानिक द्वारा लक्षण आगेका भाग न पढ़ा और न उद्धत किया तो न सही, किया जारहा है वह आपका मनगढंत लक्षण है या परंतु जो वाक्य प्रापन आक्षेप रूपस उद्धत किये हैं उसमें सूत्रकारकी भी सम्मति है ? ऐसी शंकाकी उनका भी जो अर्थ प्रापन समझा है वह क्या किमी मंभावनाको निवृत्यर्थ ही सूत्र कारक सूत्रको अकलंक- हालतमें हो सकता है ? उस वाक्यकं मतलबको जग दवन उपन्यम्त किया है। यहांपर शंकाका जो विषय है सद्बुद्धिस गौरकं साथ समझिये । यद्यपि उसका स्पष्टी और जो उसके समाधानका विषय है व दाना एक ही करण ऊपर किया जा चुका है फिर भी शब्दशः स्पष्टीकप्रन्थपर भाधार नहीं रखते अर्थात् जिस प्रन्थ पर ग्ण पाठकोंकी जानकारीके लिये इसलिये किया जाता है आक्षेप है उसी ग्रंथकं वाक्यद्वारा उसका समाधान कि उनपर आपके लेखकी असलियत और पोल भलीनहीं किया गया है । गजवार्तिकमें किये गये नित्यकं भांति खुल जाय । उन प्रतिज्ञारूपमर वाक्योंकास्पष्ठीकलक्षणपर शंका समाधानका उत्तर भकलंकने अपने रण यह है-जिम ग्रन्थपर अर्थात् प्रकृतमे तत्वार्थसूत्र वचनम प्रमाणता लानके लिये तत्वार्थसूत्रकं तद्भा. पर किये गये आक्षेप (गुणाभाव) का उत्तर (द्रव्यावाव्ययं नित्यं' सूत्रद्वारा दिया है। इसी तरह गज- श्रया निगुणागुणाः) उसी ग्रंथद्वाग नहीं किया जाता वार्तिक इसी १९७३ पृष्ठपर उक्त नित्यावस्थितान्य. -अर्थात् उसी ग्रंथका समझ कर वह 'द्रव्याश्रया रूपाणि' सूत्रकी तीसगे वार्तिकके विपयको लेकर निगुणा गुणाः' वाक्य प्रकरण में नहीं दिया है किंतु पाठवीं वार्तिक भाप्यम कालश्च' सूत्रको उपन्यस्त दूसरं ग्रंथकाससक कर दिया गया है । यद उसी ग्रंथ किया है वहाँ भी वृत्ति-विषयक शंकाका समाधान है, का उत्तर भाग समझकर यह वाक्य प्रमाणमें उद्धृत क्योंकि वृत्ति दूसरी वस्तु है और सूत्र दूसरी वस्तु है। किया जाता तो प्रन्थकर्तापर यह आक्षेप उपस्थित होता मतः यहां और नित्य लक्षणम उसी प्रन्थ पर किये कि गुणका लक्षण और 'गुण' ये दोनों इसी प्रन्थकर्ता गयेमाक्षेपका उत्सर उसी प्रथस न होने के कारण मेरे के द्वारा बनाये गये अथवा लाये गये हैं, जैन शासन Page #426 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] सयु० सम्मतिपर लिखे गये उत्सरलेखकी निःसारता 8E - की वस्तु नहीं हैं किन्तु परमतम लायी गयी चीजें हैं। उत्तर' इत्यादि रूपसे मेरे प्रतिक्षा-चाक्यकी जो रचना ऐसा आक्षेप सूत्रप्रन्थ पर होना भयुक्त है, इसीलिए हैवह सर्वथा योग्य और निगपद है। मैने गजवातिकका प्राश्रय लेकर सयुक्तिक सम्मति इस मब कृत विषयका संक्षिप्त सार इes में जो यह लिखा है कि उसके लिए उम प्रन्थकं पूर्व- है-राजवार्तिकमें यह बात किसी स्थल में नहीं पाई बर्नी प्रत्यके प्रमाणको आवश्यकता होती है, वह मब है कि जिस प्रन्थ पर माक्षेप किया गया है उसका मेग लिखना न्यायसंगत है । क्योकि उसका स्पष्ट समाधान उसो प्रन्धके उत्तर वाक्यसं दिया गया हो। उत्तर ऊपर उधृत राजवार्तिकका पाठ ही बता दे इस विषयकं जा तीन स्थल बतलाये गये हैं उनमस रहा है। अतः मरा जो प्रतिज्ञा वाक्य है वह अखंड्य एकमें भी यह बान घाटत नहीं होती है। क्योंकि गुणहै और यथार्थ है। विषयकी शंका तत्त्वार्थसूत्रक ऊपर है, उसका ममा___ यहाँ पर एक बात और भी नोट कर देने की है धान द्वितीय वार्तिकके 'महत्प्रवचनाहयादिषु गुणो. और वह यह है कि-तत्त्वार्थमूत्रमें 'गुणपर्ययवद्रव्यं' पदेशान' इस अंश द्वारा सथा इस अंशकी "उक्त हि इस सूत्रसे पहले कही भी जैस 'गुण' का कथन या महत्प्रवचन-द्रव्याश्रयानिगुणा गुणाः' इति । नाम नहीं आया है उसी प्रकार 'पर्याय' का भी नही अन्यत्र चोक्तं 'गुण इति दळविधाणं' स्यादिव्याख्याआया है । ऐमी हालनमें शंकाकारने पर्याय-विषयक में उपन्यम्त हुए दूसरे बहियों वाक्यों द्वारा किया शंका न करके गण-विषयक शंका की तथा आगे चल गया है। और नित्य लक्षणका भाक्षेप गजवार्तिक कर यह कहा कि-श्राहेतमनमें द्रव्य और पर्याय के ऊपरका है उसका समाधान गजबार्तिकसं पृथक यंदा ही मान हैं गुण माना नहीं फिर 'गुणपर्यय- मूल ग्रंथ तत्वार्थ के सूत्रद्वारा किया गया है। मथा बदद्रव्यं यह कथन कैमाइस प्रकारको शंका इमी प्रकार द्रव्यांके पंचत्वकी शंका 'यूर पर सचित करती है कि शंकाकार पर्यायका कथन जैन उमा समाधान नत्वाथसूचकं 'कालश्च' सत्र नाग धममे पहलस मानता है, गुणका कथन पहलेमें नहीं किया गया है। ये तीनों स्थल राजवार्तिकम ऐसे हैं मातना। अतएव उमका उम 'गुणप दव्य' कि जिस ग्रंथ पर शंका की गई है उनके समाधान वाक्यक 'गुण' शब्दकं ऊपर शंका होगई परन्तु पर्याय- विषय दूमर ही ग्रंथ है। फिर नहीं मालूम इतना स्पष्ट विषयक शंका नहीं हुई। इससे भी पता चलता है कि कथन गजवार्तिकम होते हुए भी, उसी बातका उल्लंग्य उम शंकाका अभिप्राय गुणका लक्षण पूछना नहीं है सुयुक्तिक सम्मनिम होने पर एक प्रोफेसर जैसे जिम्मकित गुणका असदभाव द्योतन करना है। और उसका दार लवककेदाग ऐसा क्यों लिखा गया कि-"स्वयं ममाधान अकलंक द्वारा उमक (गुणके) सद्भावका- सम्मति-लेम्बकनं 'सद्भावाव्ययं नित्यं' 'भेदादणः' जैनशामनमें पहलेसे उमकी मान्यताका प्रतिपादन है, आदि मूत्रोंके उल्लम्ब पूर्वक गजगार्निकगत ऐसे बहुत और पूर्व सद्भावका प्रतिपाधान उमी प्रन्थद्वारा नहीं में स्थलोंको स्वीकार किया है जहाँ पूर्वकथित सिरिमें बनता जिस पर कि आक्षेप और शंका होती हैं किंतु भागेकं सूत्र उपन्यस्त हैं" (अर्थात्-उसी ग्रंथपर किये उसका समाधान उसके पूर्ववर्ती दूसरे प्रन्थों द्वारा गये प्राक्षेपोंका ममाधान नमी प्रथद्वारा माना है और हो हा करता है। गजवातिकम यह सब विषय ऐसा होनस श्राक्षपमें जो प्रतिज्ञा-वाक्य दिया है स्पष्ट है। यदि वहां पर वैमी बान न होती तो पर्याय चमका खंडन होगया) क्या यह जानबूझकर प्रसके विपयमें भी वैसी शंका अवश्य की जाती; परन्तु लियतपर पर्दा डालना, और दूसगेकी भाग्यों में धूल वह तो राजवार्तिकके द्वारा की नहीं गई है । अतः झांकना नहीं है ? प्रा०मा०का यह कृत्य कहांतकन्यायम्पष्ट है कि जिस प्रन्थ पर राजवार्तिक टीका लिखी संगत है इसका निर्णय सहदय पाठक स्वयं ही करें जा रही है उसी प्रन्थके ऊपर किये गये प्राक्षेपका तथा भास्करकं व मंपादकचतुष्टय भी करें जिन्होंने Page #427 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [वर्ष ४ कोई गंभीर विचार किये बिना ही ऐसे भ्रमात्मक अ. मान्य उन ग्रन्थों को इस विषयमें प्रमाण नहीं मानते नर्थकारी लम्बको झटसे प्रकाशित कर दिया है। . जिनका कि उननं उद्धरण दिया है। प्रतिपक्षी को तो इसी प्रकरणकं तीसरे पैरे प्रा० सा० लिग्वत हैं प्रतिपक्षिमम्मत ही उद्धरण दना न्यायसंगत होता है। कि-" महत् प्रवचन' का अर्थ 'तत्वार्थसूत्र' ही हो सयुक्तिक सम्मनिमें तत्वार्थसूत्रको जो अहेत. सकता है, भाष्य नहीं, इसका मुत्तर भी लेखांक (३) प्रवचन लिखा गया है वह 'तुष्यतु दुर्जनन्याय' को में शाखोंक उद्धरण-पूर्वक दिया जा चुका है।" यह मनमें स्थापित करकं लिखा गया है। उमका असली सब लिखावट भी आपकी सर्वथा प्रयुक्त है। कारण तात्पर्य यह है कि प्रतिपक्षी अपने मनमें भले ही खुश कि, वादीको उत्तर जब वादीक सम्मत शास्त्रों द्वारा हाल कि यह मेरी मतलबकी बात है परन्तु वास्तवम दिया जाता है तब वह उत्तर सयुक्तिक समझा जाता वह बात नहीं है, इसी गतिक न्यायका तुष्यतु दुर्जनहै न कि सत्तर दनवाल के सम्मत शास्त्रों द्वारा दिया न्याय' कहते हैं। उसोन्यायको लक्ष्यमें रम्यकर सयुक्तिक गया सद्धरणरूपका उत्तर । क्या कहीं पूज्यपाद, अक- सम्मतिमें 'दुसरे कदाचित थोड़ी देर के लिये यह भी लकदेव, विद्यानंद जैसे दिगम्बर आचार्यों ने भी मान लिया जाय' इत्यादि वाक्यों द्वारा उत्तर दिया भाष्यको 'अहंत् प्रवचन' माना है ? यदि नहीं माना गया है। इसका अभिप्राय स्पष्ट यह है कि-तत्वार्थहै तो फिर उत्तरदाता-सम्मत उन ग्रंथोंका उद्धरण सूत्र और तत्वार्थभाष्य दोनों ही अर्हतप्रवचन नहीं वादी समाधान में किस कामका ? वास्तव में दवा हैं किंतु अकलककी दृष्टि में यहाँ दूसग ही प्रन्थ विवजाय तो अकलंकने न कहीं तस्वार्थसूत्रको अहत् क्षित है, जिमकी चर्चा ऊपर आचुकी है। शायद प्रवचन माना है और न श्वेताम्बर मान्य भाष्यको इसके लिये यह कहा जाय कि वह अहंतप्रवचन या ही । किंतु वे सा 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' इस उदा- अर्हत्प्रवचनहृदय प्रन्थ ना अभी उपलब्ध नहीं फिर हरणके साथ किसी दूसरे ही ग्रंथका उल्लेख कर रहे हैं यह कैम प्रमाण माना जाय कि अकलंकदेवका अभि और वह गंथ पं०जुगलकिशोरजीके कथनानुसार उक्त प्रेत वह दृसग ग्रन्थ है ? इसका समाधन यह है कि द्वितीय वार्तिकमें उल्लेखित 'अहत्प्रवचनहृदय' से भिन्न प्रकलंकने-'गुण इतिदव्वविधानं ' इत्यादि गाथा नहीं हो सकता। व्याख्या में उदाहरण के साथ 'हे. जिस प्रन्थकी उपन्यम्त की है वह ग्रंथ भी तो आज प्रवचन' नामका प्रयोग उसीका संक्षिप्तरूप अथवा उपलब्ध नहीं है; ऐमी अवस्था में 'अन्यत्र चोक्तं' पदकं लेखकोंकी कृपासे कुछ अशुद्धरूप जान पड़ता है। साथ दी हुई यह गाथा भी तब क्या नहीं माननी अन्यथा, यह नहीं हो सकता कि अकलंक अपने चाहिय ? कदाचिन् यह कहा जाय कि-'अहंत प्रववार्तिकमें मुख्यरूपसे जिम ग्रन्थका गुण वथनके चन' नामसे प्रसिद्ध श्वेताम्बर तत्वार्थसूत्र और उसका लिये प्रमाणरूपसं नामोहे.ग्व करें व्याख्याम उसका भाष्य प्रसिद्ध है अतः अनुपलब्धीयकी कल्पनाका उदाहरण न देकर-सका वाक्य उद्धृत न करके प्रयास भी क्यों? इमका समाधान यह है किकिसी दूसरे ही प्रन्थका वाक्य उद्धृत करने लगें। 'द्रव्याश्रया निर्गुणा गुणाः' यह भाष्यका तो पाठ है मतः प्रकलंकके हिसाबसे नो न वह सूत्रपाठ ही नहीं, इस बातको म्वयं प्रो० मा० ने भी स्वीकार किया 'महत्प्रवचन' है जिस पर कि वे राजवार्तिक लिख है तब आपके हो वचनोंसे यह बात तो साफ निकल रहे हैं और न वह 'श्वेताम्बर भाष्य' ही। इसलिये पाती है कि अकलंककी दृष्टि से इस प्रकरणमें भाष्य पं० जुगलकिशोरजीन अपने नं०१ के वक्तव्यमें 'महत्प्रवचन' नहीं हो सकता । रही सूत्रकी बात, 'महत् प्रवचन और अर्हतप्रवचनहृदय ये तत्वार्थ उसके लिये समाधान ऊपर दिया ही जा चुका है। भाष्यके तो क्या मूल सूत्रके भी उल्लेख नहीं हैं जो अतः इस प्रकरणमें उत्तररूपसे प्रो०साने जो कुछ यह बात लिखी है वह सत्य है । क्योंकि हम प्रो०सा० लिखा है उसमें कुछ भी सार नहीं है। क्रमशः) Page #428 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जीवन नैय्या (ले० श्री आर० के०, आनन्दप्रकाश जैन 'विल' ) -** ( १ ) मेरे गुरु ने कहा था कि तेरी नौका टूटते ही तेरा जीवन मेरा हृदय प्राशासे प्रफुल्लित हो उठा, मुझे अब किनारा भी समाप्त हो जायगा । मिलेगा न! और थलका उपभोग भी तो मैं बीस के सामुद्रिक जीवन के उपरान्त करूंगा । शैशवावस्थासे किशोरायस्याका आभास जय माता है तो नई नवेली मधूकी भाँति केमल लगता ही है । बिना प्रयत्नके ही लहरोंके प्रभावने मुझे थल पर ला खड़ा किया। ( श्रायु क्या कुछ विचारती है ?) उत्तेजना में | कूद पड़ा कूदने में शीघ्रता हुई। हृदयमें एक धक्का-सा 新 महसूम हुआ (पासनाका प्रबल वेग उत्पीडित होनेके प्रथम हृदय धड़कता है) और मैं किनारे पर मदहोश सा लुक पड़ा ! भावावेश के समय कुछ मान नहीं होता। ऐसा ही मैं था । यौवनावस्थाके सूर्यसमान तापका अनुभव करता मैं कितनी ही देर तक थलकी उष्ण देह पर बेसुधमा हुश्रा पड़ा रहा। जल, थलका अनुभव कहाँ था ? ( २ ) और जगनेके पश्चात् एक नई उत्तेजना मैंने अनुभव की। निपट स्वप्नकी भाँति, भावनाओंकी तरंगोंमें बता उतराता एक युवती अङ्कका स्पर्श था ओ हृदयमें सदन उत्पन्न कर रहा था ये सब भावनाओं के ही तो मेल है। मुझे बच्चों की तरहसे थपक थपक कर सुला रही थी । जाने क्यों ? ( अ जानता हूँ स्नेहावेशमें नहीं)। और तब भी मैं पचा नहीं था। बीस वर्ष शेषनागरकी वायुका 暂 उपभोग कर चुका था और यह भी उमी सागरका किनारा था, किन्तु वास्तवमें क्या मैं मनसे भी किशोर था ? पलकें ऊपरको उठा कर मैंने देखा कि एक नवेली सी धरने में मेरा सिर रक्से मेरी ओर देख कर मंद मंद मुसका रही थी। लोसे भी अधिक कोमल कपोलों पर उस समय मेरी अवस्था २० वर्षकी थी। नई आशाएँ, उमंगें हृदयमें स्थान ले रही थीं। शीतल समीर के इलनचलन का अनुभव में बड़ी व्याकुलतासे करता था। ठंडे ears कोरे मनको एक नई सी वस्तु प्रदान करते थे । उस समय मेरा मन किसी आाधारको टूटने में व्यस्त था। और मैं चला रहा था एक नौका में नदीकी उत्ताल तरंगों से टकराता हुआ ! छोटी छोटी लहरें मेरी नावसे टकरा कर अपना परिचय दे रही थीं। मुझे मालूम भी नहीं हो या कि कब मेरी सुव्यवस्थित नौका लाखनी हुई एक नये वायुमण्डल में नये वातावरण में धानेका मुझे भान उद्गम स्थान रिक्त नहीं था । नदी, नाले और समुद्र प्रवेश कर गई ! एक हुआ। आशाओंका मगर मेरी नाव तो अभी थपेड़े खानेमे रुकती नहीं ! मेरे श्राकुल प्राण छटपटाने लगे ! मोह ! ये लहरें क्या कभी समाप्त नहीं होगी ? मेरी नाव क्या कभी थलका मुख नहीं देखेगी! इस समुद्रका क्या कभी अन्न नहीं होगा ? परन्तु मुझे मालूम नहीं था कि अभी तो समुद्र बहुत विस्तीर्ण है, अथाह है ! अभी लहरें भी तो मंख्यानीत है ! अभी तो मेरे प्राण भी अपनी पूरी उत्तेजनासे नहीं छटपटाये ! फिर मैं किनारेका अनुभव करनेका अधिकारी कैसे हूँ ? योहीं यह 'जीवन नैय्या' चलती रही। भाव रूपी तरंगों से हलके-भारी थपेड़े खाती हुई ! यकायक एक परिवर्तन हुआ और मैंने पहले पहल लकी शुष्क किन्तु मीठी, हृदयमोहिनी वायुका सेवन किया। Page #429 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०२ अनेकान्त [वर्ष ४ गुलाबकी अरुणिमा दौड रही थी, जिममें नब अत्युक्ति कर उठा! रामके वृक्ष पर बैठा उल्लू कोरसे बोल कर नहीं थी (श्रब है)। गुलाबकी कलियोसे उसके नासापुटोंसे उड़ गया ! निकली उष्ण श्वासका अनुभव मुझे हुश्रा । कितना सुन्दर और अगली पौड तक मैं फिर विच चला, जब तक कि लगता था उसका वह भास मुझे ? एक और अनुभवी नेत्रोसे युक्त, उन्नत ललाटसे सुशोभित यकायक उठ कर वह बोल उठी 'पात्रो'! और मैं वृद्धने मुझे रोक नहीं लिया। एक शान्त मगर उच्च ध्वनि मन्त्र-मुग्धकी भौति उसके पीछे चलनेको प्रस्तुत हो गया! मेरे कर्ण-कुहगेमें प्रवेश कर गई, किन्तु कितनी विकट ! एक गहरी निगाह अपनी नौका पर और फिर समुद्र के अतल "नगरकी प्रसिद्ध वेश्याके मंग तू बच्चे कहांको ?" युवतीके गर्भकी ओर दृष्टिपात कर उसकी उत्ताल तरंगोंमें अपनी मुखसे एक भद्दी सी गाली निकल गई! मैं पथकी कंटीली उत्तेजनाकी दो बूदें दाल कर मैं उसके पीछे चल दिया! झाड़ियों पर पैर रग्वता अविश्रान्त-मा चलता ही रहा ! मुझे हम चले जा रहे थे, भूले हुए से। हाँ ! भूले हुएसे, शान नहीं था कि अपना 'मोह' नामक मंत्र वह 'माया' अब तो यही कहना पड़ेगा। हो सकता है वह रमणी अपने तन्त्री मुझमें प्रथम ही फूक चुकी थी! हृदयमें कुछ विहँस-सी रही हो । सन्ध्यासे प्रात:, और प्रात: और हाय, अब भी मेरे नेत्र नहीं खुले थे ! बार बारकी से सन्ध्या यही हमारा काम था। यकायक पैरमें एक ठोकर चेतावनी पाकर भी मैं मम्हला नहीं था ! मुझे क्या ज्ञात लगी, किसीके कगहनेका शब्द सुन पड़ा। कुछ विचलित था कि मैं एक विकराल कंटीली र.फामं फेंका जारहा हूँ। मा होकर मैंने निहाग परन्तु बार बारकी चेतावनी पाषाण पर गनी गिरानेका काम कर रही थी। और भी इसी प्रकारमैं कई स्थान पर टोका गया। 'बाबू' ! 'मुनते हैं था। ___ "याद रखना इस नगरीका नाम 'वास....", जिसे मैंने दिशा-शब्द पर ध्यान दिया। मंध्याकी धूमिल, श्रागे न सुन सका था। छाया-सी क्लान्त व जर्जर देह लिये एक वृद्ध मेरा मार्ग ___समझो रे, भैय्यारे" "अरे रे, सुनो २” गम्भीर ताल अटकाये पड़ा था। उसके नेत्रोको शून्यमें देखते देखते दो , पर पद ढोकना यह पद मैं अविचलित होकर कई बार वेत डोरोका प्राश्रय लेना पड़ा था। उन्हीं दो श्वेत डोरोंके सुन चुका था। इङ्गितसे उसने मुझे बुलाया। मैंने युवतीकी अोर निगाह उठाई, 'धर्मकी शाखाएँ बहुत है' उसके अधर क्रोधसे लालथे। अमिके बीच लपट मी उठती 'बहुत विस्तृत' अपनी भोहोके इशारेसे उमने मुझे चलते रहने का श्रादेश 'बहुत लम्बा दिया। मैं चलता ही था कि उम वुद्धका निराशाभरा स्वर 'माया' मुझे अपनी ओर उत्तरोत्तर लिये जा रही थी। निकला-"इस धर्मानुचरकी भी कुछ सुन लेता बच्चा !” मुझे ऐसा आभास हुअा था कि मानों में एक रज्जु में बँधा और फिर दूर निकला हुआ मुझे देख कर उस बुने जा रहा हूँ ! एक चित्र लिखत-मा कार्य कर रहा हूँ ! चिल्ला कर कहा-"ध्यान रखना, इसका नाम 'माया' हे!" वह मुझे लिये ही जाती थी!! 'माया', मन ही मन दोहरा कर मैं फिर पथ पर पड़ा। दूरसे मैंने देखा एक नगरीका मुन्दर चमकना फाटक, रमणीके पीछे (या श्रय यों कहो 'माया' के पीछे) ! यकायक बहुत ऊँचा मोनेके पत्तरोसे जड़ा हुमा! मेरे पैर दर्द कर में विचलित मा होकर खड़ा हो गया । मेरा मन प्रहास रहे थे। माश्चर्य मैं देख रहा था कि वह रमणी थकी नहीं Page #430 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] थी। उसके पैरोंमें, कोमल होते हुये भी, छाले नहीं पड़े थे । यह अविचलित थी। फाटकके बाहर पहुँच कर में ठिठका! नगरीके बाहर एक बड़ा पिनी विशाल देवमन्दिर पीली पीलों जाओसे मुशोभित भूले भटके यात्रियोको 'धर्म' रूप छान देनेके लिये खड़ा था। उसकी पीली जसे सुशोभित दीरक कलश युक्त चंटी अपने प्रामाणिक होनेका प्रमाण स्वयं दे रही थी एक विस्तृत ललाट युक्त वृद्ध मुस्वद्वार पर पड़ा था मानो यात्रियांका ब्राह्नान कर रहा दो। उसकी भुजा विशाल थी। नेत्र न्यूय चौड़े एक । महापुरुष-सा दिव्य तेन उसके तनसे निकल रहा था । उस ने मुझे पुकारा !......... जीवन नैय्या - 'मन ठहरो' 'मन टहरो' कह कर उस रमणीने मुझे यारके फाटक के अन्दर धकेल दिया! मुझे धकेलने में सहायता देकर चन्द्र होते हुए फाटकके ऊपर बाहर की ओर उसी महापुरुषके इङ्गित करने पर मैंने देखा कि उस नगरी का नाम लिखा है और वह इस अंग था'वामना' 1 । | महापुरुषके पास मेरे सम्हल जानेका यही अन्तिम प्रयत्न था किन्तु दायरे में मूट और घूम कर मैंने बुद्ध ! उमी फाटककी दरारोंमें देखा, जरा भी न थी, श्राभामित वह रमणी, कुदनी उनी तर मी मदमानी, उमी समुद्र के किनारे मेरी नौका म दौड़ी चली जा रही थी। कदाचित् मेरे ही प्रेमे किसी और युपकको फामने वह 'माया' थी न! हाहाकार कर मेरा अन्तर से उठा ! तलश्चात् ऊपर जो निगाह उठाई तो में श्रात्म-विस्मृत सा हो गया ! नगरकी उच्च अट्टालिकाएं गर्व से अपना शिर ऊँचा किये पड़ी थीं मुझे श्राभास हुआ मानोंमें स्वर्ग में आगया है ! बाहर फाटक पर इन शब्दकी कटीली मुन हूँ हरी प्रभाको मैं बिल्कुल भूल गया ! और फिर मुझे धरना लम्बा वक्षःस्थल दिखाते हुए पथका ध्यान हुआ, उमी छटा ४०३ से मैंने उस पर फूल बिखरे हुए देखे । एक फूल पर पग रम्पते ही में बिक गया अपना काँटा चुभा कर मुखरित फूल मानो मेरी ओर विंस कर कह रहा था - "यह वासना का रथ है, इतना महल नहीं जितना तुम समझते हो। या धर्म और ईमान सबको ठुकराती हुई मायाके साथ तुम जैसा थाना रहता है! यह वामनाका पथ !! और उसी प्रकार में श्रात्मविस्मृत-मा, खोया-मा उस पथ पर दौड़ गया ! नन्हें नन्हें फूल मेरे पैरोके नीचे अपनी स्मृति छोड कर कुचल गये ! एक पने विस्तृत बाजार छोड़ से गुजरते हुए मैंने देखा कि दोनों तरफ लम्बी लम्बी कला पैटी हुई यौनका मौदा यौवन से करने वाली मेरा ब्राह्नान कर रही है। उम 'माया' से भी अधिक मोहकी 'चेरिया' वे सुन्दरियाँ, गुलाबी कपोलोसे चुम्बनका आह्वान करती हुई रमणिया नावनी धरती बोसे बोलती वे पुतलियाँ, कोमल श्रग लिये हुए उन हाटों पर बैटी मुझे यही मनी मालूम हुई। यकायक पचासों मनुष्यांने मुझे घेर लिया। छीना झरटी शुरु हुई और उमी कोलाइन में एकका रुमाल नीचे गिर पड़ा, कोने परके दो अक्षरोको बड़ी कठिनतासे छिपात हुए उन्होंने मुझे उन ग्र्माणियों के बीच में धकेल दिया। मुझे । मालूम हुआ वे दलाल थे, बेमनलपके विचोलिये जिनकी १ स्वष्टनाउन 'मोद' नामक दो में मैंने वही पढ़ी थी और तुरंत ही में वामना नगरीकी उन रमणियोंमें रम गया ! बहुत दिन पश्चात् सूर्य मुझे निकलना मालूम दिया । उसकी किरणोंमें मैंने देखा कि मैं वामना नगरीकी पढ़ाई से भी दूर एक निर्जन वनमें कीचड़ के अपाद कुण्ड में पड़ा हुँ मुकी कि कहीं कहीं अपना प्रकाश डाल रही सूर्य थी, वरना मय र अन्धकार मुँह बाये खड़ा था ! कीचड़ पर एक कमल बिजली लोकी तरह मधुले Page #431 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ - क्रम कमसे उठते और एक दम यन्द हो जाते थे। इस क्रम प्रादुर्भाव हुआ। जैसे किनारे पर खड़े हुए वे मुझे उपदेश को मैंने पढ़ाकी अमृत वर्षा निचित कर रहे हो— 'मेरे बच्चे ! तूने समझते हुए भी नहीं समझा! मैंने देखा ये तो मन्दिरके वेही पुजारी महापुरुष हैं। उनकी प्रतिक्रिया मानो अब भी अन्धकारमें आलोक प्रकाशित कर रही है। एक तेज उनके शरीर से निकल कर अब भी इस सपन अन्धकारको प्रकाश में बदल रहा था। उनकी दिव्य छटा मेरी झांसें बन्द हो गयीं । ५०४ 'पाप-पक्क' इन्हीं दो शब्दोंसे में उस कमको ग्राहिस्ता आहिस्ता बनते व एकदम विगड जाते देख रहा था। श्रासमान पर धुएँ सी किसी वस्तुसे वनता और विगहना एक शब्द में देख रहा था। एक बार वह बनना था और मिट कर फिर दुबारा दूनी स्पष्टतासे अंकित हो जाता था'नरक' मैं पढ़ पढ़ कर जिसे काँप उठता था ! 1 मृत्यु-जैसी दारुण व्यथासे मैं छटपटा रहा था ! हजारों लाखों कीड़ोसे पाप कुण्डका एक बित्ता भरा पड़ा था। छोटेसे छोटे व पसे बड़े, गुलमुंडेसे खाकर बिलबिलाते हुए हजारो विदुनोसे कटता हुआ मेरा तन बुरी तरहसे पायल हो गया था। ऊपर सागर तट पर आच्छादित हजारों वृक्षों पर का एक एक पसा गिर कर असिधाराका काम कर रहा था। भूखसे में विकन्न था, प्यासने नालू और जीभको जोर के साथ चिपका दिया था। कीचकी प्रमाद यद मेरी नाक फटी जा रही थी मानों में मैलेके अथाह कुडमें पड़ा था। मेरी भूख ऐसी थी कि एक दम लाखों मन गेहूं बैठा बैठा मैं फाँक जाता मगर वहा न तो कोई दानेको पूछने श्राया, न पानीको मेरे जैसे करोड़ों पुरुषोंके चीत्कारोंसे मिलकर मेरा रुदन कुछ नहींके बराबर मालूम पड़ रहा था । यकायक एक मगरमच्छ मुझे खा जाने के लिये दौड़ा। उसके दाँतोंमें किचकिचाकर दारुण व्यथा मैंने भोगी ! मैं समझा था कि मेरी इहलीला समाप्त होगई। मगर मानों जादूके जोरमे सब काम हो रहा था। मैं तो वहीं पड़ा था। उसी करुण-कन्दनको निकालता हुआ। मेरे शरीर में छलनीकी तरहने हजारों छेद हो गये थे। कीचड़के थाह समुद्र में मैं बराबर बहता हुआ चला जाता था, उसी दारुण दुखको भोगता हुआ। मुझे यह ज्ञात नहीं था कि मेरी इदलीला कब समाप्त होगी ? यह दुख तो मृत्यु-दुखसे श्रोह लाखों गुणा भयङ्कर था ! । अचानक मेरी कल्पना में एक दिव्य तेजस्वी महापुरुपका परन्तु हाय! अब किसीके यसकी बात नहीं रह गयी थी! मैंने उनको कल्पित किया ही था कि 'कर्मयोग' से मैं उस कीचड़ में और ज्यादह फिसल गया महापुरुषकी नामिकामे गहरा निःश्वास मानों मुझे निकलता हुआ भासित हुआ । दूर पर मैंने देखा कि मेरी नावके टूटे हुए बिखरे तते एक भयंकर स्मृतिकी याद दिलाते हुए सहस्रों टुकड़ों में टूट २ कर कीचड़ में धसे जारहे थे, उस अथाह कुडमें विलीन हो रहे थे। और मेरे गुरुने कहा था कि मेरी नौका टूटते ही..... तो क्या मैं दूसरे जन्म में था ? मेरा मन चीत्कार कर उठा !! और इसी प्रकार संसारी, समुद्रके शैशवमें बहकर यौवन रूपी थल पर जाता है। उस उष्ण मल प्रदेश पर 'माया' उसे फँसानको पहले ही से तय्यार बैठी रहती है। 'धर्म' के अनुचरों व उनके आदेशोंको वह केवल टाँग समझता है । जो सँभला सो अनन्तकाल तक अपनी भव्य जीवनियाँ सुन्दरता से बिताता चलता है। नहीं तो, फिर 'माया' उसे 'वासना' के गहरे गड्ढे में फेंक कर निश्चिन्तता से उसके जैसे और मनुष्यांको फँसानेका कार्य करने लगती है जहाँ 'वासना' में फँसा तो फिर वह रमणियोंके द्वारा मृत्यु और नरक से भी बदतर अवस्थाके लिये तत्पर किया जाता है और तब उसके बसकी बात नहीं रह जाती। और वह दारुण दुःख क्या है ? हजार बार श्राचार्योंके व्याख्या करने पर भी पूर्ण रूपसे उस 'नरक' की तुलना नहीं हो सकी और न उसकी व्याख्या । Page #432 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त [ लम्बक-श्री पं० नाथूगम प्रेमी ] [ इस महाकविका परिचय सबसे पहले मैंने शीर्षक लेख लिखकर बनलाया कि उक्त प्रतिके प्रव. अपने 'महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुगण तरण ग्रंथकं मूल अंश न होकर क्षिप्त अंश जान शीर्षक विस्तृत लेखमें दिया था ' । परन्तु उसमें कवि पड़ते हैं, वास्तवमे कविका ठीक ममय नवीं शताब्दी कं ममयपर काई विचार नहीं किया जा सका था। ही है। इसके बाद मन १५३१ में कारंजा जैनमीरीजउमकं थोड़े ही समय बाद अपभ्रंश भाषाके विशेषज्ञ में यशोधरचरित प्रकाशित हुआ और उसकी भूमिका प्रो० हीगलालजी जैननं 'महाकवि पुष्पदन्त के ममय में डा० पी० एल० वैद्यन काँधलाकी प्रनिक उक्त पर विचार' । शार्पक लग्ब लिखकर उस कमीका अंका और उमी प्रकार के अन्य दो अंशांको वि० पूरा कर दिया और महापुराण तथा यशोधरचरित सं० १३६५ में कण्हनन्दन गन्धर्वद्वारा ऊपग्स के अतिरिक्त कविकी तीसरी रचना नागकुमारचरित जाड़ा हुआ सिद्ध कर दिया और सब एक तरहस का भी परिचय दिया। फिर मन १५२६ में कविक उक्त समयसम्बन्धी विवाद समाप्त हो गया। इसके नीनों प्रन्याका परिचय ममय-निर्णयक साथ मध्य- बाद नागकुमारचरित और महापुगण भी प्रकाशित प्रान्तीय मरकार द्वाग प्रकाशित 'कंटलाग श्राफ हो गय" और उनकी भूमिकाओं में कवि सम्बन्ध मनु० इन सी० पी० एण्ड बरार' में प्रकाशित हुआ। की और भी बहुत सी ज्ञातव्य बातें प्रकट हुई । इसके बाद पं० जुगलकिशोर जी मुख्तारका 'महाकवि मंक्षेपमं यही इस लेग्वकी पूर्वपीठिका है, जो इस पुष्पदन्तका ममय' शीर्षक लंग्व' प्रकट हुआ, विषयके विद्यार्थियोंके लिए उपयोगी ममम कर यहाँ जिममें काँधलाकं भंडारसे मिली हुई यशोधरचरित दे दी गई है। प्रत्युन लम्ब पूर्वोक्त मभी सामग्रीपर की एक प्रनिकं कुछ अवतरण देकर यह सिद्ध किया लक्ष्य रग्ब कर लिग्वा गया है और इधर जो बहुनसी गया कि उक्त काव्यकी रचना यागिनीपुर (दिल्ली) में नई नई बातें मालूम हुई हैं, वे सब शामिल कर दी वि० सं० १३६५ में हुई थी, अतएव पुष्पदन्त विक्रम गई हैं । कविकं स्थान, कुल, धर्म आदिपर बहुत की चौदहवीं शताब्दिके विद्वान हैं । इस पर प्र० सा नया प्रकाश डाला गया है । ऐमी भी अनेक बातें होगलाल जीन फिर 'महाकवि पुष्पदन्नका समय' . हैं जिन पर पहले के लेखकोंन कोई चर्चा नहीं की है। १ जैनमाहित्य-संशोधक खंड २ अंक १ (मन् । मैन इस बानका प्रयत्न किया है कि कविकं मम्बन्ध २ जैनसाहित्य-संशोधक खंड २ अंक २। की मभी ज्ञानव्य बाने क्रमबद्ध रूपस हिन्दीके पाठकों ३ जैनजगत् १ अक्टूबर सन् १६२६ । ५ महापुराणके दो खंड छप चुके हैं और अन्तिम तीसरा ४ जेनजगत् १ नवम्बर सन् १६२६ । खंड भी लगभग तैयार हो गया है। Page #433 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ के ममक्ष उपस्थित हो जायें । इसके लिखनेमें भी जाती थीं और लोग उन्हें पढ़ सुनकर मुग्ध हो मउजनात्तम प्रो० हीगलाल जैन और डा० ए० एन० जाते थे । स्थानाभावकं कारण रचनाओंके उदाहरण उपाध्यायकी सूचनाओं और सम्मतियोंस लेग्वकने देकर उनकी कला और सुन्दरताकी चर्चा करनेस यथेष्ट लाभ उठाया है। विग्त होना पड़ा। १-अपभ्रंश-साहित्य २-कुल-परिचय और धर्म महाकवि पुष्पदन्त अपभ्रंश भाषाके कवि थे । इस पुष्पदन्त काश्यप गोत्रीय ब्राह्मण थे । उनके पिता भाषाका माहित्य जैनपुस्तकभंडारोंमें भग पड़ा का नाम केशवभट्ट और माताका मुग्धा देवी था। है। अपभ्रंश बहुत समय तक यहाँको लोकभाषा ___उनके माता पिता पहल शैव थे, परन्तु पीछे रही है और इसका साहित्य बहुत ही लोकप्रिय रहा किसी दिगम्बर जैन गुरुक उपदेशामृनको पाकर जैन है। गजदरबागेमें भी इसकी काफी प्रतिष्ठा था। हां गये थे और अन्तम उन्होंने जिन-मंन्यास लेकर गजशेग्यरकी काव्य-मीमांमास पता चलता है कि शरीर त्यागा था। नागकुमारचरितकं अन्तमें कविन गजसभाओं में गज्यामनकं उत्तरकी ओर संस्कृत और और लोगोंके साथ अपने माता पिनाकी भी कवि, पूर्व की ओर प्राकृत कवि और पश्चिमकी और कल्याणकामना की है और वहाँ इस बातको स्पष्ट अपभ्रंश कवियोंको स्थान मिलता था। पिछले २५-३० किया है । इममें यह भी अनुमान होता है कि वर्षांस ही इसकी बार विद्वानों का ध्यान आकर्षित कवि स्वयं भी पहल शैव होगे। हुआ है और अब ता वर्तमान प्रान्तीय भाषाओंकी कविकं प्राश्रयदाता माहामात्य भरतन जय उनसे जननी होने के कारण भाषाशास्त्रियों और भिन्न भिन्न गहापुगणकं रचनका आग्रह किया, तब कहा कि भाषाओंका इतिहास लिम्वनवालों के लिए इस भाषाके तुमने पहले भैरवनरेन्द्रको माना है और उमको माहित्यका अध्ययन बहुत ही आवश्यक हो गया है। पर्वतकं ममान धीर वीर और अपनी श्रीविशेषसे इधर इम माहित्यके बहुतम प्रन्थ भी प्रकाशित हो सुरेन्द्रका जीतनेवाला वर्णन किया है । इससे जो गये हैं और हो रहे हैं। कई यूनीवर्मिटियोंने अपने मिथ्यात्वभाव उत्पन्न हुआ है, इम समय उसका यदि पाठ्य-क्रममें अपभ्रंश ग्रंथोंका स्थान देना भी प्रारंभ तुम प्रायश्चित्त कर डालो, ना तुम्हारा परलोक सुधर कर दिया है। पुष्पदन्त इमभाषा एक महान कवि थे। उनकी * मिवभत्ताई मि जिणसण्णामें, वे वि मयाई रियणिण्णासें । रचनाओं में जो भोज, जो प्रवाह, जो रस और जो बंभणाई कासवरिसिगोत्तई, गुरुवयणामयपूरियसोत्तई । मुद्राएवी केसवणामई, महु पियराइं होतु सुहधामई। सौन्दर्य है वह अन्यत्र दुर्लभ है। भाषापर उनका [मंस्कृत-छायाअसाधारण अधिकार है। उनके शब्दों का भंडार शिवभक्तौ अपि जिनसंन्यासेन द्वौ अपि मृतौ दुरितनिर्णाशेन । विशाल है और शब्दालंकार और अर्थालंकार दोनोंसे ब्राह्मणो काश्यपऋषिगोत्री गुरुवचनामृतपूरितश्रोत्रौ । ही उनकी कविता समृद्ध है। उनकी मरस और मुग्धादेविकेशवनामानौ मम पितरौ भवता सुखधामनी ॥] मालकार रचनायें न केवल पढ़ी ही जाती थी, वे गाई 'गुरु' शब्दपर मूल प्रतिमें "दिगम्बर' टिप्पण दिया हश्रा है। Page #434 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] महाकषि पुष्पदन्त ४०७ जाय x इमसे भी मालूम होना है कि पहले पुष्पदन्त उन्होंने जगह जगह अपनेको जिनपदभक्त, तसंयुक्त, शैव होंगे और शायद उसी अवस्था में उन्होंन भैग्व- विलिनशंक भादि विशेषण दिये हैं ' और 'परितनरेन्द्रकी कोई यशोगाथा - लिखी होगी। पगिडनमरण' पानेकी तथा बोधि-समाधिकी स्तोत्रसाहित्यमें शिवमहिम्न स्तोत्र' की माकांक्षा प्रकट की है। बहुत प्रसिद्धि है। उसके कर्ताका नाम 'पुष्पदन्त' सिद्धान्तशेग्वर' १ नामक ज्योतिष पंथके कर्ता असंभव नहीं जो वह इन्हीं पुष्पदन्तकी उस श्रीपति भट नागदेवके पुत्र और केशवभट्टकं पोत्र थे। समयकी रचना हो जब वे शैव थे। जयन्तभट्टन इम ज्योतिपरत्नमाला, देवज्ञवल्लभ, जातकपद्धति, गणितम्तोत्रका एक पद्य अपनी न्यायमंजरी में 'पक्तंच' रूपस तिलक, 'बीजगणित, श्रीपति-निबंध, श्रीपतिसमुच्चय, उद्धत किया है । यद्यपि अभी तक जयन्नभट्टका ठीक । श्रीकाटिदकरण, ध्रुवमानसकरण प्रादि ग्रंथों के कर्ता ममय निश्चित नहीं हुआ है, इस लिए जार देकर भी श्रीपति हैं। व बड़े भारी ज्योतिषी थे। हमारा नहीं कहा जा सकता। फिर भी संभावना है कि अनुमान है कि पुष्पदम्तकं पिता केशवभट्ट और शिवमहिम्न इन्हीं पुष्पदंतका हो। श्रीपान के पितामह केशवभट्ट एक ही होंगे" । क्यों उनकी रचनाओंसे मालूम होना है कि जैनेनर कि एक तो दोनों ही काश्यप गोत्रीय हैं और दूसरे माहित्यम उनका प्रगाढ़ परिचय था। उनकी उपमायें दानोंक समयमें भी अधिक अन्तर नहीं है । और उत्प्रेक्षायें भी इसी बातका मंकन करती हैं। १ जिणपय भत्ति धम्मासत्ति । वयसंजुन उत्तमसत्ति । बिर्यालय अपन ग्रंथों में उन्होंने इस बात का कोई उल्लेख संकि अहिमाणंकि। नहीं किया कि वे कब जैन हुए और कैसे हुग, अपनं २ मग्गियपंडियपंडियमरणें । श्रा० पु. के अन्तमें। किमी जैनगुरु और सम्प्रदाय आदिकी भी माई चर्चा ३ यह ग्रन्थ कलकनायूनीवामिटीने अभी हाल प्रकाशित किया है। उन्होंने नहीं की, परन्तु ग्वयाल यही हाना है कि वे ४ गणितिलक श्रीसिहनिलकसरिकृत टीकासहित गायकभी पहले अपने माता पिनाकं ही ममान शेव होगे। बाद श्रोग्यिण्टल सीरीजमें प्रकाशित हुआ है। यहता नहीं कहा जा सकता कि वे माता-पिताके जैन ५ भट्टकेशवपुत्रस्य नागदेवस्य नन्दनः, श्रीपनी रोहिणीखंडे होने के बाद जैन हए या पहले। परन्तु इस बानम ज्योनिःशाम्बमिदं व्यधात् । -भ्रूवमानमकरण । मंदहकी गंजाइश नहीं है कि हर श्रद्धानी जैन। ६ ज्योतिषरत्नमालाकी महादेवप्रणीत टीकामें श्रीपतिका काश्यप गोत्र बतलाया है-"काश्यपवंशपुण्डरीकस्वराडxणियसिरिविसेसणिज्जियमुग्दुि, गिरिधीरु वीरु भइरवणरिदु। मार्तण्डः केशवस्य पौत्र: नागदेवस्य सूनुः श्रीपति: महिनापई मराणिउ वरिण उ वीग्राउ, उप्पण्ण उ जो मिच्छत्तभाउ।। र्थमभिधातुरिच्छुराह।" पच्छित्तु तासु जह करहि अज्जु, ता घडा तुज्मु परलोयकज्जु । ७ महामहोपाध्याय पं. सुधाकर द्विवेदीने अपनी 'गणित+आगे चलकर बतलाया है कि यह यशोगाथा शायद 'कथा- तरंगिणी' में श्रीपतिका समय श. सं. २१ पतलाया है __ मकरन्द' होगा और इस ग्रन्थका नायक भैरव-नरेन्द्र।। और स्वयं श्रीपतिने अपने 'धीकोटिदकरण' में अईगणयह भैरव कहाँके राजा थे, अभी तक पता नहीं लगा। माधनके लिए श. सं०६१ का उपयोग किया है + बलिजीमूतदधीचिषु सर्वेषु स्वर्गतामुपगते । जिससे अनुमान होता है कि वे उसमय तक जीवित थे । सम्प्रत्यनन्यगतिकस्त्यागगुणो भरतमावसति ॥ श्रादि । ध्रुवमानसकरणके सम्पादकने श्रीपतिका समय श०सं० Page #435 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४०८ भनेकान्त [वर्ष ४ - केशवभट्ट के एक पुत्र पुष्पदन्न होंगे और दृमरे की रचनाओंमेमे बहुनसे ऐसे शब्द चुनकर बतलाय नागदेव । पुष्पदंन निप्पुत्र-कलत्र थे, परंतु नागदेवको हैं, जो प्राचीन मगठी में मिलते जुलत हैं। xमार्कश्रीपति जैसे महान ज्यातिपी पुत्र हुए। यदि यह गडयन अपने 'प्राकृनसर्वस्व' में अपभ्रंश भाषाकं अनुमान ठीक हुआ ता श्रीपतिका पुष्पदन्तका भतीजा नागर, उपनागर और त्राचट ये तीन भेद किये हैं। समझना चाहिए। इनमेंस ब्राचटको लाट (गुजगत) और विदर्भ (बगर) पुष्पदन्त मूलमं कहाँके रहनेवाले थे, उनकी की भाषा बतलाया है। श्रीपति ने अपनी 'ज्योतिषरत्नमाला' पर स्वयं रचनाओं में इस बातका काई उल्लंग्व नहीं मिलता। एक टीका मगठी में लिखी थी, जो सुप्रसिद्ध इतिहासपरन्तु उनकी भाषा बतलाती है कि व कर्नाटकके कार राजबाड़ेको मिली थी और मन ५५१४ में या उसमें और दक्षिणकं तो नहीं थे । क्याकि एक प्रकाशित हुई थी। मुझ उमकी प्रति अभी तक नहीं तो उनकी मारी रचनाओंमे कनड़ी और द्रविड़ मिल मकी। उसके प्रारंभका अंश इस प्रकार हैभाषाओंके शब्दोंका अभाव है, दृमर अब तक अप "ने या ईश्वररूपा कालातें मि। ग्रंथुका श्रीपति नमस्काग। मी श्रीपति रत्नाचि माला रचिती।" भ्रंश भापाका एमा एक भी ग्रंथ नहीं मिला है जो इमका भापा ज्ञानेश्वरी टीका जैसी है। इमसे भी कनोटक या ममके नीचक किसी प्रदेशका बना हश्रा अनुमान होता है कि श्रीपति बगरके ही होंगे और हो । अपभ्रंश साहित्यकी रचना प्रायः गुजरात, इम लिए पुष्पदंतका भी वहींका होना सम्भव है। मालवा, बगर और उत्तरभारतमें ही होती रही है। सबसे पहले पुष्पदंतको हम मेलाड़ि या मलपाटी अतएव अधिक संभव यही है कि वे इसी आरके हाँ। के एक उद्यान पाने हैं और फिर उसके बाद मान्यखेट श्रीपती ज्योतिषी गहिणीखंडके रहनेवाले थे में । मलाडि उत्तर अर्काट जिलेमें है जहाँ कुछ कालनक और रोहिणीखंड बगरका 'गहिणीखेड' नामक गाँव गष्ट्रकूट महागजा कृष्ण तृतीयका संनासन्निवंश रहा जान पड़ता है। यदि श्रीपति सचमुच ही पुष्पदन्तकं था और वहीं उनका भरत मंत्रीसं साक्षान होता है। भतीजे हों, तो पुष्पदन्त भी बरारके ही रहनेवाल निजाम-राज्यका वर्तमान मलवड़ ही मान्यखेट है। होंगे। यद्यपि इस समय मलखंड़ महागष्टकी सीमाके बरारकी भाषा मगठी है। अभी गवा० तगारे अन्तर्गत नहीं माना जाता है, परन्तु बहुनसे विद्वानों का मत है राष्ट्रकूटोंके समयमे वह महाराष्ट्र में ही था एम० ए०, बी०टी० नामक विद्वान्ने पुष्पदन्तको ..." x कुछ थोड़ेसे शब्द देखिए-उक्कुरड%= उकिरडा (घूरा), प्राचीन मराठीका महाकवि बतलाया है * और उन । गंजोलिय = गांजलेले (दुखी), चिखिल्ल = चिखल ६५० के आसपास बतलाया है। पुष्पदन्त श० सं०८६४ (कीचड़), तुष्य = तूप (घी), पंगुरण = पाघरूण (ोदना), की मान्यग्वेटकी लूट तक बल्कि उसके भी बाद तक फेड = फेडणे (लौटाना),बोक्कह = बोकड (बकग),श्रादि । जीवित थे। अतएव दोनोके बीच जो अन्तर, वह इतना • नाइला और सीलइय तथा भरतके पिता और पितामह अधिक नहीं है कि चचा और भतीजेके बीच संभव न अम्महए तथा एयण ये नाम कर्नाटकी जैसे मालूम होते हो। श्रीपतिने उम्र भी शायद अधिक पाई थी। है, परन्तु शायद इसका कारण यह हो कि ये लोग अधिक *देखो सह्याद्रि (मासिक पत्र) का अप्रैल १५४१ का अंक समयसे वहाँ रहते हो और इस कारण उस प्रान्तके पृ०२५३५६। अनुरूप उनके नाम रखे गये हो। Page #436 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त ४०६ और इसलिए तब वहाँ तक वैदर्भा माधशकी तरह जानते होंगे और उसका मानद ले सकते होंगे, पहुँच अवश्य ही होगी। सभी न जनोंने कविको इनाना उत्साहित और सम्मागलकटोको गमधानी पहल नासिक के प.म मयूर- नित किया होगा ? सो भरत मंत्री भी मूलन कार्यक खंडों में भी जी महाराष्ट्रमे ही है, अतएव राष्ट्रकूट ही प्रान्तकं होगे, ऐसा जान पड़ता है। इसी तरफ थे। मान्यखेटको उन्होंने अपनी गज- ३-व्यक्तित्व और स्वभाष धानी सुदूर दक्षिणके अन्तरीप पर शासन करनेकी पुष्पदन्नका एक नाम 'खर' ' था। शायद यह सुविधाके लिए बनाया था। क्योकि मान्यखेटमेन्द्र उनका घरू और बोलचालका नाम होगा। अभिरखकर ही चाल,1, पाराय शोपर ठीक तरह मानमक, अभिमान वित, काव्यरत्नाकर', कविसामन किया जा मकता था। कुलतिलक", मगम्बनीनिलय' और काव्यापमल्ल' भरतका कविने कई जगह भग्तभद्र लिम्बा है। १ (क) जो विहिणा गाम्मउ कलपिड, तं णमुणे विसी ___मंचलिउ ग्वंद। -म.. मन्धिक० ६.१ नाइल्लड और संलिइय भी भट्ट विशेषणके साथ (ब) मगध श्रीमदनिन्यवरासुकवेबन्धुर्णरूपतः। उल्लिम्बित हुए हैं । इमस अनुमान होता है कि -०१० मन्धि ३ पुष्पदनको इन भट्टोंके मान्यखेटम रहनका पता होगा (ग) वाञ्छनित्यमई कुतूहलवनी ग्वण्डस्य कीनिः कृतः । और उमा सूत्रम व घूमतं घामने उस तरफ पहुँच -म०प० स० ३६ होंगे। बहुन मंभव है कि ये लोग भी पुष्पदन्तकं ही न २(क) तं सुणांव भणा श्राहमागमे ।- म०५० १.३.१२ (ग्व) कं यास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्यदन्तं विना। प्रान्नके हों और महान गष्ट्रकूटोकी सम्पन्न गजधानी -म० पु. मं०४५ म अपना भाग्य प्राजमानके लिए प्राकर बस गय (ग) गण्णहो मंदिर शिवमंतु मनु, माइमाणभेरु गुग्ण । er faiत मत बाम हो और कालान्तरमे गजमान्य हो गये हों। उस गगामहंतु । -ना. कु. १-२-२ ममय बगर भी गष्टकटोक अधिकारम था, अतएव ३ वयमंजुत्ति उनममत्ति बिर्यालयमंकि अहिमाकि । वहांक लागोका आवागमन मान्यखेट नक होना ४ भो भो केसवतणुकह णवमहमुह कबग्यगाम्वाभाविक है। कमम कम विधोपजीवी लोगो के लिए रयगाया। म०पृ० १-४-१० सो पुरन्दरपुरी माम्यग्वटका प्राकषण बहुन ज्यादा ५-६(क) गमग वि भरहे बन नाव, भी काकुलनिलय रहा होगा। विमुक्कगाव। - म.पु. १-८-१ भरत मंत्री कविन 'प्राकृत कविण्यासाब. (ग्य) अगह कागउ पफयंतु मग्मागिल उ । लुब्ध' कहा है और प्राकृतसे यहां उनका मतलब देवियहि माउ वरगाह कायणकुलनिलउ । -य० ब०१-८-१५ अपभ्रंश ही जान पड़ना है। इस भाषाकावमाछी (क) जिगचरणकमलत्तिलएण, ता पिउ कबइल्ना और मील :य तथा भरतके पिता और पितामह सिल्लएण। -म.१० १-८-८ अम्मइए नया एयग ये नाम कर्नाटकी जैसे मालूम होते (ब) बोल्लाविउ काकबपिमल्लउ, किसुई मबउ वय है। परन्तु शायद इसका कारण यह हो कि ये लोग अधिक गहिल्लाउ। -म.१० ३८-३-५ ममयमे वहाँ रहते हो और इस कारण उम प्रान्तके (ग) गएमास्म पत्थगाए कम्बपिमल्लएण पदमियमहेण । अनुरूप उनक नाम रग्वे गये हो। -ना.च. अन्तिम पद्य Page #437 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१० ( काव्यविशाच या काव्यगक्षम ) ये उनकी पदवियाँ थीं। यह पिछी पदवी बड़ी अद्भुत सी है; परंतु इसका उन्होंने स्वयं ही प्रयोग किया है। शायद उनकी महती कवित्वशक्तिकं कारण ही यह पद उन्हें दिया गया हो। 'अभिमानमेरु' पद उनके स्वभावका भी व्यक्त करता है । वे बड़े ही स्वाभिमानी थे । महापुराण की उत्थानिकामे मालूम होता है कि जब महि परिभमंतु मेलाडिण्यरु । श्रवहेरिय खलयणु गुणमहंतु, यहि पराइउ पुष्यंतु । गदावर किर त्रीममइ जाम, नहि विण पुग्मि संपत नाम । वेणु नहि पवन एव भी खंड गलियाचा वलेव । परिभरिभमररवगुमगुमंत, कि कर विसाई गिज्जाव णांत । करिसचहिरियदिच्चक्कवालि , पसर्ग किं पुरवरि विसालि । तं मुवि भगद्द हिमागमेरु, वर वज्जर गांरकंदरि कमेरु । उ दुजनमउहा कियाई, दीमंतु कलुमभाव कियाई । गरवरु धवलच्छि होहु म कुच्छिदे मरउ मणिहाणाम वर स्वकृच्छ्रयमहुवा है भिउदियाया म गिहालउ सूरुग्णमे चमरालि उड्डाविय सेयधोरण तराइ | श्रविवेयर दयुत्तालयाइ, मोधर मारासीलियाह । मनगरजभरभारिया, रिपुत्तरमारमयारियाइ । त्रिसमहज मइ जडरत्तियाइ, कि लच्छिवि उमविरनियाइ । गुग्गाड, अनेकान्त वर्ष ४ वे ग्वलजनों द्वारा अवहेलित और दुर्दिनोंस पराजित होकर घूमते घामते मलपाटीके बाहर एक बगीचे में विश्राम कर रहे थे, तब अम्मय और इन्द्र नामक दो पुरुषोंने आकर नसे कहा, श्राप इस निर्जन वनम क्यों पड़े हुए हैं, पासके नगरमं क्यों नहीं चलते ? इसके उत्नरमे उन्होंने कहा- “गिरिकन्दराश्रमं घाम खाकर रह जाना अच्छा परंतु दुर्जनांकी टेढ़ी भौंह देखना अच्छा नहीं । माताकी कुंग्बसे जन्मते ही मर जाना अच्छा परन्तु किसी राजाके भ्रू कुंचित नेत्र देखना और उसके कुवचन सुनना अच्छा नहीं । क्योंकि राजलक्ष्मी दुग्ते हुए चँवरोंकी हवासे सारं गुणोंकी उड़ा देती है, अभिषेक के जलसे सुजनताको धो डालती है, विवेकहीन बना देती है, दर्पमे फूली रहती है, मोहमें अंधी रहती है, माग्ाशीला होती है, सप्तांग राज्य के बोसे लदी रहती है, पिता-पुत्र दोनोंमें रमण करती है, विषकी सहोदरा और जड़-रक्त है। लांग इस समय ऐसे नीरस, और निर्विशेष ( गुणावगुणविचाररहित ) हो गये हैं कि बृहस्पतिकं समान गुणियों का भी द्वेष करते हैं। इस लिए मैंने इस वन की शग्गा ली है और यहीं पर अभिमान के साथ मर जाना ठीक समझा है ।" पाठक देवेंगे कि इन पंक्तियोंमें कितना स्वाभिमान और गजाश्रों तथा दूसरे हृदयहीन लोगोंके प्रति कितने ज्वालामय उद्गार भरे हैं। ऐसा मालूम होता है कि किसी राजाके द्वारा अवहेलित या उपेक्षित होकर वे घर चल दिये थे मंजर नीरसुव्वसेसु, गुणवंत जहिं सुरगुरुवि वेसु । श्रम्हद लइ कारणरणु जि मरणु, श्रहिमाणें हुं वरि होउ मरणु । Page #438 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त किरण ६-७ ] और भूमण करते हुए और बड़ा लम्बा दुर्गम गस्ना नय करके मेलपाटी (उत्तर अट जिलेका एक स्थान ) पहुँचे थे । उनका स्वभाव स्वाभिमानी और कुछ उम्र तो था ही, अब कोई आश्चर्य नहीं जो राजा की जरा-सी भी टेढ़ी मोहको वे न सह सके हां और इसीलिए नगर मे चलनेका श्रमह करने पर उन दा पुरुषोंके सामने राजाओ पर बरस पड़े हो । अपने उम्र स्वभाव के कारण ही वे इतने चिढ़ गये और उन्हें इतनी वितृष्णा हो गई कि सर्वत्र दुर्जन ही दुर्जन दिखाई देने लगे, और माग संसार निष्फल, नीरम. शुल्क प्रतीत होने लगा X । जान पड़ता है महामात्य भरत मनुष्यस्वभाव के बड़े पारस्त्री थे, उन्होंने कविवरकी प्रकृतिका समझ लिया और अपने सद्व्यवहार, समादर और विनयशीलता सन्तुष्ट करके उनसे वह महान कार्य करा लिया जो हमरा शायद ही करा सकता । राजा के द्वारा अवहेलित और उपेक्षित होनेके कारगा दूसरे लोगोंने भी शायद उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया होगा, इसलिए राजाओं के साथ साथ औगेम भी वे प्रसन्न नहीं दिखलाई देते; परन्तु भरत और नन्न की लगातार प्रशंसा करते हुए भी व नहीं थकते। र अन्तमें उन्होंने अपना परिचय इम रूपमें दिया है - "मिद्धिविलासिनीके मनोहर दृत, मुग्धा देवीके शरीर संभूत, निर्धनों और नियोको एक दृष्टि देखनेवाले, सारे जीवोंके अ कारण मित्र, शब्दमलिलम बढ़ा हुआ है काव्यत्रांत जिनका, केशव के पुत्र, काश्यपगोत्री, सरस्वती * देवो पिछले उद्धरण । X जो जो दम मो मो दुगु फिलु गरि जे मुकउव बिलामी, सूने पड़े हुए घगे और देवकुलिकाश्रम रहनेवाल, कलिके प्रबल पापोंके पटलोंम रहित, बेघरबार और पुत्रकलत्रहीन, नदियां बापिकाओं और संगम स्नान करनेवाले, पुराने वस्त्र और बन्कल पहिननेवाले, धूलधूमग्नि अंग, दुर्जनीकं मंग से दूर रहने वाले जमीन पर सोनेवाले और अपन ही हाथांका श्रदनेशाले पंडित-पंडित-मरगाकी प्रतीक्षा करनेवाले, मान्यम्बेट नगग्मे रहनेवाले. मनम अरहंतदेवका ध्यान करनेवाले भग्तमंत्री द्वारा सम्मानित, अपने काव्यप्रबंधम लोगोको पुलकित करने बाले, पापरूप कीचड़ जिन्होंने धो डाला है, ऐस अभिमान मंत्र पुष्पदन्मने, यह काव्य जिन पदकमलो में हाथ जोड़े हुए भक्तिपूर्वक क्राधनमंत्री प्रसाद सुदी दसवीं को बनाया । * मिद्धिविला मिगि महदुएं, मुद्राएं | ढिलोसमचितं, सन्जीव कि कारण मिलें ॥ २१ मद्दमलिपरिवयि सोनं, केमपु कामगर्ने । विमलसरासर जयिविलामें. सुभगादेवलगवाये ॥ २२ कालमलपवलपडलरचनें, ग्रेगा निकलते । इवावी तलाय मग्गागो, जर-चीवर वक्कल - परिक्षणं ॥ २३ श्री धूली धूमरियं गं, दूरुरुज्झि दुजसंगे । महि गायले गु पिंडरंडियमर " पुरे मरं श्रनदेव ॥ २४ ४११ वसंते, झायंते । Page #439 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१२ अनेकान्न [वर्ष ४ इस परिचयस कविकी प्रकृति और उसकी नि- जब बोलते थे तो उनकी सफेद दन्तपंक्तिसं दिशाएँ मंगनाका हमारे सामने एक चित्र-मा विच जाना धवल हो जाती थीं । । यह उनकी स्पष्टवादिना है। एक बड़े भारी साम्राज्य महामंत्री द्वारा अति- और निरहंकारताका ही निदर्शन है, जो उन्होंने शय सम्मानिन होते हुए भी वे सर्वथा अकिंचन और अपनका कुरूप कहने में संकोच न किया। निर्लिप्त ही जान पड़ते हैं। नाममात्र गृहस्थ होकर पुष्पदन्नमें म्वाभिमान और विनयशीलताका एक नरहम व मुनि ही थे। एक विचित्र सम्मेलन दीम्ब पड़ना है । एक बार तो एक जगह व भरत भहाम त्यम कहते हैं कि "मैं वं अपनका ऐमा महान कवि बनलाते हैं जिसकी धनका तिनककं समान गिनता हूं । स मैं नहीं लेना। बड़े बड़े विशाल ग्रंथों के ज्ञाता और मुहतसं कविता मैं तो केवल अकारण प्रेमका भूग्वा हूं और इसीसे करनेवाले भी बगवरी नहीं कर मकतं- । और तुम्हारं महल में रहता हूँ।" मग कविता तो जिन- सरस्वती देवीम कहते हैं कि अभिमानरत्ननिलय चरणों की भक्तिसं ही स्फुरायमान होती है, जीविका पुष्पदन्तकं पिना तुम कहाँ जाओगी-तुम्हारी क्या निर्वाहके म्बयालसे नहीं । दशा होंगी ? और दूसरी ओर कहते हैं कि मैं ___ इस तरहकी निप्पृहनामें ही स्वाभिमान टिक दर्शन, व्याकरण, सिद्धान्त, काव्य, अलंकार कुछ भी मकता है और ऐसे ही पुरुषको 'अभिमानमस' पद नहीं जानता, गर्भमूखे हूँ । न मुझमें बुद्धि है, न श्रतशोभा देता है । कविन एक दो जगह अपन पका मंग है, न किसीका बल है = । भी वर्णन कर दिया है, जिससे मालूम होता है कि भावुक ता सभी कवि होते है परन्तु पुष्पदन्त में उनका शरीर बहुत ही दुबला पतला और माँवला यह भावुकता और भी बढ़ी चढ़ी थी । इस भावुकता था। वे बिल्कुल कुरूप थे परन्तु मदा हँसते रहते थे गएणस्म पत्थणाए कवयिसल्लेन पहसियमहेण, णय कुमारचरित रइयं सिरिपुष्फयंतेन ॥-णयकुमार च. भरहमण्णाणले गणिलएं, रहसियतुडिकइणा खंडे । -यशोधर चरित कन्चपबंधजाणिय जणपुलएं ॥ २५ + मियदंतपतधवलीकयासु ना जंपइ बरवायाविलासु । पुफयंतकरणा धुयपंके, xअाजन्म कवितारसैकधिषणा सौभाग्यभाजो गिरा, जह अहिमाणमेकणार्क । दृश्यन्ते कवयो विशालसकलग्रन्थानुगा बोधतः । कयउ कव्वु भत्तिए परमत्य, किन्तु प्रौढ निरूढगूढमतिना श्रीपुष्पदंतेन भो, जिणपयपंकयम उलियहत्थे ॥ २६ मान्यं विभ्रनि नैव जातु कविना शीघ्र त्वत: प्राकृतेः ॥ कोहणसंवच्छरे श्रासाढए, -६६ वी संधि दहमए दियहे चंदरुहरूढए । t लोके दुर्जनसंकुले हतकुले तृष्णावसे नीरसे, * धणु तणुसम माझुण तं गहणु,णेहु शिकारिमु इच्छामि।' । सालंकारवचोविचारचतुरे लालित्यलीलाधरे । देवीसन सुदणिहि तेण हां, णिलए तुहारए अच्छामि ॥ __ भद्र देवि सरस्वति प्रियतमे काले कलौ साम्प्रतं, -२० उतर पु० कं यास्यस्यभिमानरत्ननिलयं श्रीपुष्पदन्तं विना ।। xमामु कहत्तणु जिणपयभशिहे, -८० वी संधि पसरह पहणियजीवियविन।-उ०१० =णहु महु बुद्धिपरिग्गहु बहु सुयसंगहु उ कासुवि केरउ कसणसरीर सुद्धकुरूवें मुद्धाए विगम्भमभू। ११-उ.पु. बलु। -उ०पु. Page #440 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] महाकवि पुष्पदन्त ४१३ के कारण व बान भी देखा करते थे । श्रादिपुगण जो उन्होंने महापगण और यशोधरचरितमें भरत के ममाप्त हो जाने पर किसी कारण उन्हें कुछ और नमकी प्रशंसाम लिखे हैं। व्याकरणकी दृष्टिस अच्छा नहीं लग रहा था, वे निर्विणन हो रहे थे यद्यपि उनमें कुछ खलनायें पाई जाता है, परन्तु वे कि एक दिन उन्हें स्वप्नमें सरम्बनी देवीने दर्शन कवियों की निरंकुशताकी ही यातक है, प्रज्ञानताकी दिया और कहा कि पुग्यवृक्षका सींचने के लिए मंघकं नही। तुल्य और जन्ममरण-गेगके नाश करनेवाले अगहन ४-कविकी प्रन्धरचना भगवानका नमस्कार कगं । यह सुनते ही कविगज महाकवि पुष्पदन्तकं अब तक तीन अन्य प. जाग उठे और यहाँ वहाँ देखते हैं तो कहीं काई लब्ध हुए हैं और सौभाग्य की बात है कि वं ताना नहीं है, और वे अपने घरमें ही हैं। उन्हें बड़ा हा आधुनिक पद्धान न सुसम्पादित होकर प्रकाशित विस्मय हुा । इसके बाद भग्तमंत्रीनं आकर हा चुक है। उन्हें समझाया और तब वे उत्तरपुगणकी रचनामें तिसा?महापुरिमगुणालंकार ( विपष्टि महा. प्रवृत्त हुए। पुरुषगुगणालंकार) या महापुगण । यह धादिपुगण कविकं ग्रंथों मा लम होता है कि वे महान और उत्तरपुगण इन दो खंडोम विभक्त । य दाना विद्वान थे। उनका नमाम दर्शनशास्त्रों पर तो अधि- अलग अलग भी मिलते हैं । इनमें प्रेमठ शलाका कार था ही, जैनमिद्धान्तकी जानकारी भी उनकी पुरुषांक चरित हैं। पहली प्रथम तीर्थंकर ऋषभदेव अमाधारण थी। उस समयकं प्रथकर्ता चाहे वे का और दुमरेम शंप नाम नीर्थकमेंका और उनक किमी भी भाषाके हों, मंस्कृतज्ञ ता होते ही थे। ममयकं अन्य महापुरुषोंका चरित है। उत्तरपुगण में यद्यपि अभी तक पुष्पदन्तका कोई म्वतंत्र संस्कृन पद्मपुगण (गमायण) और हरिवंशपुगण' (महाप्रन्थ उपलब्ध नहीं हुआ है, फिर भी वे संस्कृत भारत ) भी शामिल हैं और ये भी कहीं कहीं पृथक में अच्छी रचना कर सकते थे । इसके प्रमाण- रूपमें मिलते हैं। म्वरूप उनके वे संस्कृत पद्य पेश किये जा मकते हैं अपभ्रंश ग्रंथामें मर्गकी जगह मन्धियाँ हाती * मांण जाएण कि पि श्रमणोज, हैं। आदिपुराणमें ८० और उसपुगणमें ४२ मंधियाँ कइवदियमई केण वि कज्जें। हैं। दानोंका शोकपरिमाण लगभग बीम हजार है। णिविएणउ थिउ जाम महाका, इमकी रचनामें कविको लगभग छह वर्ष लगे थे। ता सिवणरि पन मरामह । यह एक महान प्रन्थ है और जैमा कि कविने भणइ भडारी मुहयउ श्रोह, म्वयं कहा है, इसमें सब कुछ है और जो इसमें नहीं पणमह अरुहं मुइयउमेहं । है वह कहीं नहीं है। इय णिमुणेवि विउद्धउ कदवा, मयलकलायर ण छणमसहरू । १ हरिवंशपराण जर्मनीके एक विद्वान 'पाल्म हर्फ' ने रोमन दिसउ बिहाल कि पिश पेच्छा, लिपिमें जर्मनभाषामें मम्पादित करके प्रकाशित किया है। जा विमित्यमइ हियर अच्छा। २ अत्र प्राकृतलच्चानि मकला नीति: स्थितिच्छन्दसामर्था -महापगण ३८-२ लंकनयो ग्माश्च विविधास्तत्वार्थमिणीतयः । किंचान्य Page #441 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [ वर्ष ४ महामात्य भरतकी प्रेरणा और प्रार्थनाम यह मंत्रीन इमीको लक्ष्य करके कहा था कि तुमन इस बनाया गया, इमलिए कविन इमकी प्रत्येक मन्धिके गजाकी प्रशंमा करकं जा मिपावभाव उत्पन्न किया अंनमें इसे 'महाभल्वभग्नाणुमगिण ' (महाभव्य- है, उसका प्रायश्चित्त करने के लिए महापुगणकी भग्नानुमानित) विशेषण दिया है और इसकी अधि- रचना कगे। यह बहुत करके अपभ्रंश भाषाका ही कांश मन्धियोंके प्रारंभमें भरतका विविधगुणकीर्तन काव्यग्रंथ होगा और यह उनकी महापुगणम पूर्वकी किया है। रचना होगी। जैन पुस्तकभण्डागमें इस ग्रन्थकी अनकानक २ णायकुमारचरित ( नागकुमारचरित )-यह प्रनियॉ मिलनी हैं और इसपर अनक टिपणग्रन्थ एक बंड काव्य है। इसमें ९ सन्धियाँ हैं और यह लिम्व गये हैं, जिनमेम प्राचार्य प्रभाचंद्र और श्रीचंद्र गणगणणामंकिय (नन्ननामांकित) है। इसमें पंचमीक मुनिक दा टिप्पणग्रन्थ उपलब्ध भी हैं । श्रीचंद्रने उपवामका फल बतलानेवाला नागकुमारका चरित है। अपन टिप्पणमे लिखा है-'मूलटिप्पणिकां चालाक्य इमकी रचना बहुत ही सुन्दर और प्रौढ़ है। कृतमिदं ममुख्यटिप्पणं' इममे मालूम होना है कि यह मान्यखेटमें नन्नक मन्दिर (महल) में रहने इम प्रन्थ पर स्वयं ग्रन्थकर्ताकी लिग्बी हुई मुल हुप बनाया गया है। प्रारंभमे कहा गया है कि महाटिप्पणिका भी थी। जान पड़ता है कि यह ग्रन्थ दधिक गवर्म और शोभननामक दो शिष्योंने बहुत लोकप्रिय और प्रमिद्ध रहा है। प्रार्थना की कि श्राप पंचमीफलकी रचना कीजिये, महापुगण की प्रथम सन्धिकं छठे कड़वकमे जो महामात्य ननन भी उसे सुनने की इच्छा प्रकट की 'वीर भरवणग्दुि' शब्द पाया है, उस पर प्रभाचंद्र- और फिर नाइल्ल और शीलभट्ट ने भी आग्रह किया। कृत टिप्पण है-" वाग्भग्वः अन्यः कश्चिदुष्टः ३-जमहग्चरिउ (यशोधरचरित)-यह भी एक महाराजा बनते, कथा-मकरन्दनायको वा कश्चिद्रा- सन्दर खंडकाव्य है और इममें 'यशोधर' नामक जाम्ति।" इसमें अनुमान होता है कि 'कथा-मकरन्द' पापमयका चरित वर्णित है । इसमें चार मन्धियों नामका भी कोई प्रन्थ पुष्पदंतन बनाया होगा जिम हैं। यह कथानक जैन सम्प्रदायमें इतना प्रिय रहा म इम राजाका अपनी श्रीविशेषसे सुरेन्द्रको जीतन कि वादिराज, वामवसन, मोमोनि, हरिभद्र. वाला और पर्वतकं ममान धीर बतलाया है। भरतः क्षमाकल्याण श्रादि अनेक दिगम्बर-श्वेताम्बर लेग्वको दिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते। दावेतो भग्ते ने इसे अपने अपने ढंगम प्राकृत और संस्कृतम शपपदमनौ मिद्धं ययोरीदृशम् || लिग्वा है। ३ ये गुणकीर्तनके मम्पूर्ण पद्य महापगणके प्रथम ग्रंडकी यह ग्रंथ भी भग्तकं पुत्र और बालभनरेन्द्रक प्रस्तावनामें और जैनमाहित्य-संशोधक खंड २ अंक , के मेरे लेख में प्रकाशित हो चुके हैं। +णियमिरिविसेमणिजियसुग्दि, गिरिधीस्वीरू भइग्वणरिद । ४ प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण परमार गजा जयसिंहदेवके राज्य- पई मरिणउ वरिण उ वीरगउ. उण्यगण उ जोमिच्छत्तभाउ॥ काल में और श्रीचन्द्रका भोजदेवके राज्यकालमें लिखा पच्छित नासु जइ करहि अज्जु, ना घडद तुझु परलोयकज्जु । गया है। देखो अनेकाम्न वर्ष ४ अंक १ में मेरा लेस्व । --म० २०६-६-१०, ११, १२ Page #442 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] महाकवि पुष्पदन्त गृहमंत्री के लिए उन्हींक महलमे रहने हुए लिम्बा लिए भी । महापुगग श० सं०८८७ में पूर्ण हुआ था गया था इसलिए कविने इसके लिए प्रत्येक मन्धिकं और मान्यखेटको लूट ८९४ के लगभग हई । इम अन्नमें 'गागण गणभरण(ननके कानोंका गहना)*' लिए इन मान बरमाफे बीच कविकं द्वारा उपलब्ध विशेषण दिया है। इसकी दृमर्ग नामरी और चौथो दो छोटे छोटे ग्रंथोंके सिवाय और भी प्रेशीक र मन्धिके प्रारंभमें गाएगा के गुगण कीर्तन करने वाले जानकी संभावना है। नीन मंस्कृत पद्य हैं x । इम ग्रंथकी कुछ प्राचार्य हेमचंद्रन अपनी 'दमीनाममाला' की प्रनियोंमें गन्धर्व कविकं बनाये हुए कुछ क्षेपक भी म्वोपज्ञ वृत्तिम किमी 'अभिमानचिन्ह' नामक ग्रन्थशामिल हो गये हैं जिनकी चर्चा आगे की जायगी। कनाकं मूत्र और म्वविवृत्तिकं पा उद्धृत किये है। इमकी कई साटप्पण प्रतियाँ भी मिलनी हैं । बम्बईके क्या आश्चर्य है जा अभिमानमरु और अभिमानचिह्न माम्बना भवनम (८०४ क) एक प्रनि एमी है जिसमें एक ही हो । यद्यपि पुष्पदन्नने प्रायः सर्वत्र ही अपने प्रन्थकी प्रत्येक पंक्तिकी संस्कृन छाया दी हुई है जो 'अभिमानमरु' उपनाम का ही उपयोग किया है, फिर बहुत ही उपयोगी है। भी यशोधरचरितके अंत में एक जगह अहिमागांकि उपलब्ध प्रथाम महापुराण उनकी पहली रचना (अभिमानाङ्क) या अभिमानचिह्न भी लिया है। है और हमाग अनुमान है कि यशोधरचरित मबस इमसे बहुत संभव है कि उनका कोई दमी शब्दों का पिछली रचना है। इसकी अन्तिम प्रशाम्त उस समय कोश म्योपज्ञ टीकाहिन भी हो जी प्राचार्य हेमचंद्र . के ममक्ष था। लिखी गई है जब युद्ध और लूटकं कारण मान्यग्वटका के' ५-कविके माश्रयदाता दुर्दशा हो गई थी, वहां दुष्काल पड़ा हुआ था, लोग महामात्य भरत भूग्वे मर रहे थे, जगह जगह नरकंकाल पड़े हुए थे। पुष्पदन्नने अपने दो श्राश्रयदानाओंका उल्लंग्व नागकुमारचरित इमसे पहले बन चुका होगा । किया है, एक भग्तका और दृमरं नमका । ये दोनों क्योंकि उममें स्पष्ट रूपस मान्यग्वट को 'श्रीकृष्णगज- पिता-पुत्र थे और महाराजाधिराज कृष्णगज (नृनाय) करतलनिहित नलवाम्म दुर्गम बनलाया है। अर्थान के महामात्य । गष्ट्रकूट वंशका यह अपने ममयका उम समय कृष्ण तृतीय जीवित थे । परंतु यशोधर- मबन पराक्रमी, दिग्विजयी और अन्तिम मम्राट चरितमें नन्नको कंवल 'वल्लभनगेन्दगृहमहत्त' था। इससे उसके महामात्योंकी योग्यता और प्रतिष्ठा विशेषण दिया है और वल्लभनरेन्द्र गष्ट्रकूटोंकी की कल्पना की जा सकती है । नन्न शायद अपने मामान्य पदवी थी । वह ग्वाहिगदेवके लिए भी पिनाकी मृत्यु के बाद महामात्य हुए थे । यद्यपि पस प्रयुक्त हो सकती है और उनके उत्तराधिकारी कर्कके काल में योग्यतापर कम ध्यान नहीं दिया जाता था, * काडिण्ण गोरणहदिग्णयरामु, वल्लहणग्दिघरमहयराम् । फिर भी बड़े बड़े गजपद प्रायः वंशानुगत होत थे। णण्णहो मंदिर शिवमंतु मंतु, अहिमाण में कह पृष्फयंतु। भग्तके पितामहका नाम अगणय्या, पिनाका -नागकुमार चरित १.२.२ * देवो देमीनाममाला १-१४४, ६-६३, ७-१, ८.१२.१७। xदेवो कारंजा सीरीजका यशोधरचरित पृ०,२४,४७,और ७५ xदेखो यशोधरचरित । पृ० १००, किन ३। Page #443 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त [ वर्ष ४ महामात्य भरतकी प्रेरणा और प्रार्थनामं यह मंत्रीनं इमीको लक्ष्य करके कहा था कि तुमने इस बनाया गया, इमलिए कविन इमकी प्रत्यक मन्धिकं गजाकी प्रशंसा करके जा मिथ्यात्वभाव उत्पन्न किया अंनम इस 'महाभठवभग्नाणुमण्णिण ' (महाभव्य- है, उसका प्रायश्चित्त करने के लिए महापुगणकी भग्नानुमानित) विशेषण दिया है और इसकी अधि- रचना करो। यह बहुत करके अपभ्रंश भाषाका ही कांश मन्धियोंके प्रारंभम भरतका विविधगुणकीर्तन काव्यग्रंथ होगा और यह उनकी महापुराणम पूर्वकी किया है। रचना होगी+। जैन पुस्तकभण्डागमें इस प्रन्थकी अनेकानेक २णायकुमारचरित ( नागकुमारचरित )-यह प्रनियाँ मिलती हैं और इसपर अनेक टिप्पणग्रन्थ एक खंड काव्य है। इसमें ९ सन्धियाँ हैं और यह लिखे गये हैं, जिनमेमे प्राचार्य प्रभाचंद्र और श्रीचंद्र णण्णणामंकिय (नन्ननामांकित) है। इसमें पंचमीक मुनिक दा टिप्पणग्रन्थ उपलब्ध भी हैं । श्रीचंद्रने उपवामका फल बतलानेवाला नागकुमारका चरित है। अपने टिप्पणम लिग्वा है-'मृलटिप्पणिकां चालाक्य इमकी रचना बहुत ही सुन्दर और प्रौढ़ है। कृनमिदं ममुखटिप्पणं ' इममें मालूम होता है कि यह मान्यग्वेटमें नन्नक मन्दिर (महल) में रहते इम प्रन्थ पर स्वयं प्रन्थकर्नाकी लिम्बी हुई मूल हुए बनाया गया है। प्रारंभी कहा गया है कि महाटिप्पणिका भी थी । जान पड़ता है कि यह ग्रन्थ दधिक गुणवर्म और शोभननामक दो शिष्योंने बहुत लोकप्रिय और प्रसिद्ध रहा है। प्रार्थना की कि श्राप पंचमीफलकी रचना कीजिये, महापुगण की प्रथम सन्धिकं छठे कड़वकमे जो महामात्य नन्नने भी उसे सुनने की इच्छा प्रकट की 'वीर भइरवणरिंदु' शब्द आया है, उस पर प्रभाचंद्र. और फिर नाइल्ल और शीलभट्ट ने भी आग्रह किया। कृत टिप्पण है-" वीरभैग्वः अन्यः कश्चिदुष्टः ३-जमहरचरिउ (यशोधरचरित)-यह भी एक महाराजो वर्तत, कथा-मकरन्दनायको वा कश्चिद्रा- सन्दर खंडकाव्य है और इसमें 'यशोधर' नामक जाम्ति ।" इससे अनुमान होता है कि 'कथा-मकरन्द' पुगणपुरुषका चरित वर्णित है । इसमें चार सन्धियाँ नामका भी कोई ग्रन्थ पुष्पदंतने बनाया होगा जिम हैं। यह कथानक जैन मम्प्रदायमे इतना प्रिय रहा में इस गजाको अपनी श्रीविशेष सुरेन्द्रको जीतने है कि वादिराज, वासवसन, सोमकीर्ति, हरिभद्र. वाला और पर्वतकं ममान धीर बतलाया है। भरत- क्षमाकल्याण प्रादि अनेक दिगम्बर-श्वेताम्बर लेखकों द्यदिहास्ति जैनचरिते नान्यत्र तद्विद्यते। दावेतौ भरते ने इस अपने अपने ढंगस प्राकृत और संस्कृतमे शपुष्पदसनौ मिद्धं ययोरीदृशम् ॥ लिखा है। ३ ये गुणकीर्तनके सम्पूर्ण पद्य महापगणके प्रथम खंडकी। प्रस्तावनामें और जैनमाहित्य-मंशोधक म्बंड २ अंक के ___ यह ग्रंथ भी भग्तके पुत्र और बल्लभनरेन्द्रक मेरे लेख में प्रकाशित हो चुके है। +णियसिरिविसेमणिज्जियसुग्दुि, गिरिधीरुबीरु भइरवणरिदु । ४ प्रभाचन्द्रकृत टिप्पण परमार राजा जयसिंहदेवक राज्य- पई मरिण उ वरिणउ वीरगउ. उप्पएणउ जोमिच्छनभाउ || कालमें और श्रीचन्द्रका भोजदेवके गज्यकाल में लिखा पच्छित तासु जइ करहि अज्जु, ना धडा तुझु परलोयकज्जु । गया है। देखो अनेकाम्न वर्ष ४ अंक १ में मेग लेख । --म०प०६-६-१०, ११. १२ Page #444 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] महाकवि पुष्पदन्त गृहमंत्री के लिए उन्हींक महल में रहते हुए लिम्वा लिए भी । महापुराण श० म०८८७ में पूर्ण हुआ था गया था इसलिए कविने इसके लिए प्रत्येक मन्धिक और मान्यम्बेटको लूट ८५४ के लगभग हुई । इम अन्त में गणगण गणभरण(नन्नके कानोंका गहना)*' लिए इन मान बरमाकं बीच कविके द्वारा उपलब्ध विशेषण दिया है । इसकी दृमर्ग नीमर्ग और चौथो दो छोटे छोटे ग्रंथोंके सिवाय और भी अंक मन्धिके प्रारंभमें गणगणक गुण कीर्तन करने वाले जान की संभावना है। नीन मंस्कृत पद्य हैं - । इम ग्रंथकी कुछ प्राचार्य हेमचंद्रन अपनी 'दमीनाममाला' की प्रतियोंमें गन्धर्व कविकं बनाये हुए कुछ क्षेपक भी म्बोपज्ञ वृत्तिम किमी 'अभिमानचिन्ह' नामक प्रन्थशामिल हो गये हैं जिनकी चर्चा आगे की जायगी। काके मूत्र और म्वविवृत्तिकं पद्य उद्धृत किये हैं*। इमकी कई माटप्पण प्रतियाँ भी मिलती हैं । बम्बईक क्या आश्चर्य है जा अभिमानमंस और अभिमानचिह्न मरम्बना भवनम (८०४ क) एक प्रति एमी है जिसमें एक ही हो । यद्यपि पुष्पदन्नने प्रायः सर्वत्र ही अपने प्रन्थकी प्रत्येक पंक्तिकी संस्कृत छाया दी हुई है जो 'अभिमानमर' उपनाम का ही उपयोग किया है, फिर बहुन ही उपयोगी है। भी यशोधरचग्तिके अंतम एक जगह अहिमागंकि उपलब्ध ग्रंथाम महापुराण उनकी पहली रचना (अभिमानाङ्क) या अभिमानचिह भी लिग्या है। है और हमाग अनुमान है कि यशाधारित मबस इससे बहुन मंभव है कि उनका कोई दमी शब्दों का पिछली रचना है। इसकी अन्तिम प्रशाम्त उमममय काश म्योपज्ञ टी कामहिन भी हो जा प्राचार्य हेमचंद्र लिखी गई है जब युद्ध और लूटकं कारण मान्यम्बटकी कममक्ष था। ५-कविके भाश्रयदाता दुर्दशा हो गई थी, वहां दुष्काल पड़ा हुआ था, लांग महामान्य भरत भूग्वे मर रहे थे, जगह जगह नरकंकाल पड़े हुए थे। पुष्पदन्नने अपने दो श्राश्रयदाताओंका पल्लंग्य नागकुमारचरित इमसे पहले बन चुका होगा | किया है, एक भग्नका और दुमरं नमका । ये दोनों क्योकि उममें स्पष्ट रूपस मान्यवटका 'श्रीकृष्णगज- पिता-पुत्र थे और महागजाधिगज कृष्णगज (नृनाय) करतलनिहित नलवाग्म दुर्गम बनलाया है। अर्थान के महामात्य । गट्रकूट वंशका यह अपने ममयका उस समय कृष्ण तृनीय जीविन थे । परंतु यशोधर- मबन पराक्रमी, दिग्विजयी और अम्तिम मम्राट चरितमें ननकी कंवल 'वल्लभनग्न्दगृहमहत्त' था। इसमें उसके महामात्योंकी योग्यता और प्रतिष्ठा विशेषण दिया है और वल्लभनगेन्द्र गष्ट्रकूटांकी की कल्पना की जा सकती है । नम शायद अपने मामान्य पदवी थी । वह ग्वाटिगदेवकं लिए भी पिनाकी मृत्यु के बाद महामान्य हुए थे । यद्यपि उस प्रयुक्त हो सकती है और उनके उत्तराधिकारी ककेके काल में योग्यनापर कम ध्यान नहीं दिया जाना था. * कोडिएण गोतणहदिणयरामु, वल्लहणग्दिघरमहयरामु । फिर भी बड़े बड़े गजपद प्रायः वंशानुगत होने थे। णण्णहो मंदिर शिवमंतु मंतु, हिमाणमंक कह पृष्फयंतु। भग्नके पितामहका नाम अरायणग्या, पिनाका -नागकुमार चरित १.२.२ * देग्यो देमीनाममाला १.१४४, ६६३, ..१, ८.१२.१७ । xदेश्वो कारंजा सीरीजका यशोधरचरित १०,२४,४७,और ७५ xदेन्बो यशोधरचरित । ०१.. पंक्ति । Page #445 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४१३ अनेकान्त एयगा और माताका श्रीदेवी था । व कोडिन्य गोत्रके जाना पड़ता था। ब्राह्मण थे । कहीं कहीं इन्हें भग्नभट्ट भी लिखा है। एक जगह पुष्परम्मन लिग्ग भी है कि वे वल्लभभरतकी पत्नीका नाम कुन्दका था जिमकं गर्भस राजके कटककं नायक अर्थात् सेनापति हुए थे। नन्न उत्पन्न हुए थे। इसके सिवाय व गजाकं दानमंत्रीमी थे । इतिहास भरत महामत्य वंशमं ही उत्पन्न हुए थंx में कृष्ण तृतीयकं एक मंत्री नागयणका नाम ना परन्तु सन्तानक्रमस चली आई हुई यह लक्ष्मी मिलना है जो कि बहुत ही विद्वान और राजनीतिज्ञ (महामात्यपद) कुछ ममयस उनके कुलस चली गई थे, परन्तु भरत महामात्यका अब तक किमीको पता थी । जिम उन्होंने बड़ी भार्ग आपत्तिके दिनोंमें नहीं। क्योंकि पुष्पदन्तका साहित्य इतिहामझोंक अपनी तंजस्वितास और प्रभुकी संवास फिर प्राप्त पास तक पहुंचा ही नहीं। कर लिया था। पुष्पदन्तन अपन महापुराणमें भग्तका बहुत भरत जैनधर्म अनुयायी थे । उन्हें अनवरत- कुछ परिचय दिया है। उसके सिवाय उन्होंने उसकी रचिजिननाथभक्ति और जिनवग्समयप्रामादम्तंभ अधिकांश सन्धियोंके प्रारम्भमें कुछ प्रशस्तिपद्य पीछ अर्थात् निरन्तर जिनभगवानकी भक्ति करनेवाले से भी जोड़े हैं जिनकी संख्या ४८ है । उनमंस छह और जैनशासनरूपी महलके स्तंभ लिम्बा है। (५, ६, १६, ३०, ३५, ४८ ) तो शुद्ध प्राकृतके हैं कृष्ण तृतीयक ही समयमें और उन्हींक साम्रा- और शेष संस्कृतकं । इनमस ४२ पद्यामं भरतका जा ज्यमें बने हुए नीतिवाक्यामृतम अमात्य के अधिकार गुणकीर्तन किया गया है, उससे भी उनके जीवनपर बतलाय हैं श्राय, व्यय, स्वामिरक्षा और राजतंत्रकी विस्तृत प्रकाश पड़ना है । उक्त सारा गुणानुवाद कविपुष्टि-"प्रायोव्ययः स्वामिरक्षा तंत्रपोषणं चामात्या- त्वपूर्ण होनेके कारण अतिशयोक्तिमय हो सकता है न.मधिकारः।" साधारणतः रेवेन्यूमिनिस्टरको प्रमा- परन्तु कविकं स्वभावको देखते हुए उसमे सचाई भी त्य कहते थे । परन्तु भरत महामात्य थे । इससे १ सोयं श्रीभरत: कलङ्कराहत: कान्तः सुवृत्तः शुचिः, मालूम हाता है कि वे रेवेन्यूमिनिम्ट के सिवाय गज्य सज्ज्योतिर्मणिगकगे मृत इवानों गुणैर्भासिते । के अन्य विभागोंका भी काम करते होंगे । राष्ट्रकूटकाल वंशो येन पवित्रतामिह महामात्यायः प्राप्तवान् , में मंत्रीके लिए शासन सिवाय शखा भी होना श्रीमल्लभराजशक्तिकटके यश्चाभवन्नायकः। २ ह हो भद्र प्रचण्डावनिपतिभवने त्यागसंख्यानकर्ता, भावश्यक था। जरूरत होनेपर उसे युद्धक्षेत्रमें भी कोयं श्याम: प्रधानः प्रवरकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । xमहमत्तवंसधयाडु गहीरु ( महामात्यवंशध्वजपट गंभीर) धन्यः प्रालेयपिण्डोपमधवलयशो धौतधात्रीतलान्त:, -म०५० ३४ वी सन्धिका प्रारंभ ख्यातो बन्धुः कवीना भरत इति कथं पान्थ जानासि नो त्वम्। * तीव्रापदिवसेषु बन्धुरहितेनैकेन तेजस्विना, ३ देखो सालौटगीका शिलालेख, ई०ए० जिल्द ४ पृ०६०। सन्तानकमतो गताऽपि हि रमा कृष्णा प्रभोः सेवया । ४ बम्बईकेसरस्वतीभवनमें महापुराणकी जो बहुत ही अशुद्ध यस्याचारपदं वदन्ति कवयः सौजन्यसत्यास्पदं. प्रति है उसकी ४२ वीं सन्धिके बाद 'हरति मनसो मोह' सोऽयं श्रीभरनो जयत्यनुपमः काले कलौ साम्पतम् । श्रादि प्रशुद्ध पद्य अधिक दिया हुआ है। जान पड़ता है म. पु. १५ वी सन्धि अन्य प्रतियोमें शायद इस तरह के और भी पद्य हो। Page #446 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त किरण ६-७ ] कम नहीं जान पड़ती । वं सारी कलाओं और विद्याश्रमं कुशल थे, प्राकृत कत्रियोंकी रचनाश्रपर मुग्ध थे, उन्होंने रम्वनी सुरभिका दूध पिया था । लक्ष्मी उन्हें चाहती ।। सत्यप्रतिज्ञ और निर्मत्सर थे। युद्धों बांझ ढाने ढाते उनके कन्धे घिस गये थे । बहुत ही मनोहर, कवियो के लिए कामधेनु, दीन दुखियोंकी आशा पूरी करनेवाले, चारों और प्रसिद्ध, पीपराङ्मुख, त्र, उन्नतमति और सुजनोक उद्धारक थे । उन रंग माँचला था, हाथी की सूंडके समान उनकी भुजायें थी, अङ्ग सुडौल थे. नेत्र सुन्दर थे और सदा प्रसन्नमुख रहते थे । वे भरत बहुत ही उदार और ती थे | कविके शब्दों बलि, जीमूत, दधीचि आदिके स्वर्गगत हो जानें त्याग गुण श्रगत्या भरत मंत्रीमं ही आकर बस गया था । एक सूक्ति में कहा है कि भरतके न तो गुणों की गिननी थी और न उनके शत्रुओं की । यह बिल्कुल स्वाभाविक है कि इतने बड़े पदपर रहनेवाले, चाहे वह कितना ही गुण और भला हो, शत्रु ना हो ही जाते हैं। प्र ममकला कि कुमलु । पाकदकञ्चरमावद्ध संघीयम || कमलच्छु श्रमच्लुम मच्चसंधु, गाभरग्धरटुबंधु । इसमे भी मालूम होना है कि वे सेनापति रहे थे । २ मविलामविलामणदिणु, मुसिद्ध महाकर काम काडीपरिपुरिया, जमरमरयमाहियदमदमामु || परमणियम्मुहु सुद्धमीलु, उराग्यमः सुगरगुग्गालालु । ३ कोऽयं श्यामप्रधानः प्रववकरिकराकारबाहुः प्रसन्नः । श्यामरुचिनयनमुभगं लावण्यप्रायमङ्गमादाय | भरतच्छलेनमम्प्रति कामः कामाकृतिमुपेतः || ४ बलिजीमूतदधीचिषु सर्वेषु स्वर्गतागतेषु | सम्प्रत्यनन्यगतिक स्त्यागगुण भरतमात्रमति ॥ ५ घनघवलनाश्वयाणामचलस्थितिकारिणा मुहुर्भ्रमनाम् । गणनैवनास्ति लोके भरनगुणानामरीणा च ॥ ४१७ इस समय के विचारशील लोग जिस तरह मन्दिर आदि बनवाना छाड़कर विद्योपासनाको आवश्यकता बतलाते हैं उसी तरह भव्यात्मा भरतने भी वापी, कूप, नाग और जैनमन्दिर बनवाना छोड़कर गह महापुराण बनवाया जो संमार समुद्रको आराम मे तर के लिए नावतुल्य हुआ । मला उसकी बन्दना करन को किसका हृदय नहीं चाहता । इस महाकविका श्रश्रय देकर और प्रेमपूर्ण श्र महसे महापुराण की रचना कराके सचमुच हा भरतन वह काम किया, जिससे कवके साथ उनकी भी कीर्ति चिरस्थायी हो गई। जैनमन्दिर और वापी, कूप नागादिना न जाने का नामशेष हो जाते । पुरन्त जैसे फक्कड़, निर्लोभ, निगमक्क और संसार उद्विद्म कवि महापुराण जैसा महान काव्य बनवा लेना भरतका ही काम था । इतना बड़ा आदमी एक किचनका इतना सत्कार इतनी खुशा मद करें और उसके साथ इतनी सहृदयताका व्यव हार करें, यह एक आश्चर्य ही है। पुष्पदन्त की मित्र हान भरतका महल विद्या विनोदका स्थान बन गया । वहाँ निरन्तर पाठक पढ़ते थे, गाते थे और लेखक सुन्दर काव्य लिखते थे। गृहमन्त्री नन्न ये भरत के पुत्र थे। ननको मह मात्य नहीं किंतु वल्लभ नरेन्द्रका गृहमन्त्री लिखा है । उनके विषय में कविने थोड़ा ही लिया है पर तु कुछ लिखा है. मालूम होता है कि वे भी अपने पिताकं सुयां६ वापीतडागजेनवसतीत्यक्त्वं यत्कारितं श्रीभरत मुन्दया जैनं पुराणं महत् । तत्कृत्यालमुत्तमं रविकृति (?) संमारवाधः सुम्बं कोऽस्य ..........कस्य हृदयं तं वन्दितु नेहते ॥ ७ ६६ पठितमुदारं वाचकैर्गीयमानं छह लिखितमजस्त्र लेखकैश्चारुकाव्यं । गतिवति कविमित्रे मित्रता पुष्पदन्ते भरत तत्र गृहेस्मिन्भाति विद्याविनोदः । कुडिल्लगुनदायरासु, वल्लहगारिदघर मध्यरामु । य०० Page #447 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ ग्य उत्तराधिकारी थे और कविका अपने पिताके ही मेरी खातिर की, वह चिगयु हो । निश्चय ही ममान प्रादर करते थे, तथा अपने ही महलमें मान्यखेटकी लूट और बग्वादीके बादकी दुर्दशाका रखते थे। यह चित्र है और नब खोट्टिगदेवकी मृत्यु होचुकी थी। नागकुमारचरितकी प्रशस्तिके अनुसार वे प्रकृति ६-कविके कुछ परिचित जन में सौम्य थे, उनकी कोर्ति मारे लोकम फैली हुई थी, पुष्पदन्तने अपने प्रन्थोंमें भग्त और नन्नक उन्होंने जिनमन्दिर बनवाये थे, वे जिनचरणोंके सिवाय कुछ और लोगोंका भी उल्लेख किया है। भ्रमर थे और जिनपूजामें निरत रहते थे, जिनशासन मेलपाटीमें पहुँचने पर सबसे पहले उन्हें दो पुरुष के उद्धारक थे, मुनियोंको दान देते थे, पापरहित थे, मिल जिनके नाम अम्मइय और इन्द्रगय थे । ये बाहरी और भीतरी शत्रुओं को जीतनेवाले थे, वहाँ के नागरिक थे और इन्हींने भग्तमंत्रीकी प्रशंसा दयावान , द नोंक शरण, गजलक्ष्मीके क्रीड़ासरोवर, करके उन्हें नगरमें चलने का आग्रह किया था। उत्तर मरस्वतीक निवास, तमाम विद्वानोंके साथ विद्या- पुराणके अनमें मबकी शांति-कामना करते हुए विनोदमें निरत और शुद्धहृदय थे। उन्होंने संत, देवल, भोगल्ल, मोहण, गुणवर्म, दंगइय एक प्रशस्तिपद्यमे पुष्पदन्तने नन्नको अपने पुत्रों और संतइयका उल्लेख किया है। इनमेंस संतको बहुमहित प्रसन्न रहनेका आशीर्वाद दिया है। इससे गुणी, दयावान और भाग्यवान बतलाया है । देवल्ल मालूम हाता है कि सनक अनेक पुत्र थे। उनके नामों संतका पुत्र था जिमनं महापुराणका गरी पृथिवीमें का कहीं उल्लेख नहीं है। प्रसार किया। भोगलको चतुर्विधदानदाता, भरतका कृष्णगज (तृतीय) के तो वे गृहमंत्री थे ही, परममित्र, अनुग्मचरित्र और विस्तृतयशवाला परन्तु उनकी मृत्युकं बाद ग्वाट्टिगदेवक और शायद बतलाया है । शांभन और गुणवर्मको निरन्तर जिन उनके उत्तराधिकारी कर्क (द्वितीय) के भी वे मंत्री धर्मका पालनेवाला कहा है । नागकुमारचरितके रहे होगे । क्योंकि यशाधरचरितकं अन्तमें कविने अनुसार य महादधिके शिष्य थे। इन्होंने नागकुमार लिखा है कि जिस नन्नने बड़े भारी दुष्कालके समय चरितकी रचना करने की प्रेरणा की थी । दंगइया जब सारा जनपद नीग्स होगया था, दुम्मह दुःख और संतइया की भी शान्तिकामना की है । नागव्याप्त हो रहा था, जगह-जगह मनुष्योंकी वोपड़ियाँ कुमारमें दंगइयाका आशीर्वाद दिया है कि उसका और कंकाल फैल रहे थे, रंक ही रंक दिखलाई पड़ते रत्नत्रय विशुद्ध हा । नाडल्लइ और सीलइयका भी थे, मुझे सरस भोजन, सुन्दर वस्त्र और ताम्बलादिस उल्लेख है । इन्होंने भी नागकुमारचरित रचनेका आग्रह किया था। १ सुहतुंगभवणवावारभारणिबहणवीरधवलस्स । ७-कविके समकालीन राजा कोंदिल्लगोत्तणहससहरस्स पयईए सोमस्स ॥ जसपसरभारियभुवणोयरस्स जिणचरणकमलभसलस्स । __ महापुराणकी उत्थानिकामें कहा है कि इस समय प्रणवरयरइयवरजिणहरस्स जिणभवनपूगणिरयस्स ॥ 'तुडिगु महानुभाव' राज्य कर रहे हैं। 'तुडिगु' शब्द जिणसासणायमुद्धारणस्स मुणिदिएणदाणस्स । पर टिप्पण-प्रन्थमें 'कृष्णराजः' टिप्पण दिया हुआ है। कलिमलकलंकपरिवजियस्स जियदुविहवहरिणियरस्स ॥ कृष्णराज दक्षिणके सुप्रसिद्ध गष्ट्रकूटवंशमें हुए हैं काहरणकंदणयजलहरस्स, दीणजणसरणस्स || ४ ३ जणवयनीरसि, दुरियमलीमसि. कइणिदायार, दुसहे दुइयरि, णिवलच्छीकीलासरवरस्स. वाएसरिणिवासस्स । पडियकवालइ, परकंकालइ, अइदुक्कालइ । हिस्सेणविउसविज्जाविणोयणिरयस्स सुद्धहिययस्स ।।५। पवरागारि सरसाहारि सण्हिंचेलि, वरतंबोलि, । २स भीमानिह भूतले सह सुतैर्ननाभिधो नन्दतात् । महु उपयारिउ पुगिणपेरिउ, गुणभत्तिल्लउ, गएणुमहलाउ । Page #448 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६-७] महाकवि पुष्पदन्त ४१६ और अपने समयके महान सम्राट् थे। 'तुटिगु' उन उत्तरमें नर्मदा नदीस लेकर दक्षिणमें मैसूर तक फैला का घरू प्राकृत नाम था । इम तरहकं घरू नाम हुआ था जिसमें माग गुजरात, मगठी सी० पी० राष्ट्रकूट और चालुक्य वंशकं प्रायः मभी गजाओंके और निजाम राज्य शामिल था। मालवा और बु.देलमिलते हैं। खंड भी उनक प्रभावक्षेत्र में थे। इस विस्तृत माम्राज्य वल्लभ नरेन्द्र, वल्लभगय, शुभतंगदेव और को कृष्ण तृतीयन और भी बढ़ाया और दक्षिणका कराहगय नाममं भी कविने उनका उल्लेख किया है। साग भन्तरीप भी अपने अधिकारमें कर लिया। शिलालम्बा और दानपत्राम अकालवर्ष, महा- कहाडक ताम्रपत्रोंक अनमार उन्होंने पाण्डा काल गजाधिराज, परमेश्वर, परममाहेश्वर, परमभट्टारक, कोहगया, सिंहलमं कर वसूल किया और गमेश्वरमें पृथिवीवल्लभ, ममस्तभुवनाश्य आदि उपाधियाँ अपनी कीर्तिवलगको लगाया। ये ताम्रपत्र महसन उनके लिए प्रयुक्त की गई हैं। ९५९ (श० म०८८१ ) के हैं और पम समय लिखे वल्लभगय पदवी पहले दक्षिण चालुक्य गय हैं जब कृष्णगज अपने मनपाटीके मना-शिविर गजाओंकी थी, पीछे जब सनका राज्य राष्ट्रकूटोंने म ठहरे हुए थे और अपना जीना हा गज्य और जीन लिया नब इम वंशके गजा भी इसका उपयाग धन-रत्न अपन मामन्तों और अनुगमोंका पदारना करने लगे। पूर्वक बांट रहे थे । इनके दाही महीने बाद लिम्वी भारतकं प्राचीन गजवंश (तृ० भा० पृ०५६) में । मामदेवसूरिकी यशाम्तलकप्रशाम्त । भी इम इनकी एक पदवी 'कन्धारपुरवगधीश्वर' लिग्बी है। की पुष्टि होती है। हम प्रशम्तिमें उन्हें पाण्ड्य, परन्तु हमारी समझमें वह 'कालिंजरपुरवगधीश्वर' सिंहल, चाल, चेर आदि आदि देशांको जीतने वाला होनी चाहिए | क्योंकि उन्होंने चेटीके कलचुरि नरेश लिखा है। महस्रार्जुनको जीता था और कालिंजरपुर चेदियादवली के शिलालग्यमं मालूम होना है कि उसने मुख्य नगर था । दक्षिणाका कलचुरि गजा बिज्जल कांचीकं गजा दान्तगका और बप्पुकको माग, पल्लव भी अपने नामके साथ कालिंजरपुरवराधीश्वर पद नरेश अन्तिगको हगया, गुजगंके आक्रमणमे मध्य लगाता था। भारतकं कलचुग्यिोंकी रक्षा की और अन्य शत्रुओं अमोघवर्ष तृतीय या बहिगक नीन पुत्र थे- पर विजय प्राप्त की। हिमालयम लेकर लंका और तुडगु या कृष्णतृतीय, जगजेंग और स्वाट्टिगदेव । पूर्वस लेकर पश्चिम समुद्र तक राजा उसकी माझा कृष्ण मबसे बड़े थे जो अपने पिनाके बाद गहीपर माननं थे । उसका माम्राज्य गंगाकी मामाको भी पार बैठे और चूँकि दूसरे जगत्तुंग उनम छोटे थे तथा कर गया था। उनकं गज्यकालम ही म्वगंगन हो गये थे, इम चालदेशका गजा पगन्तक बहुत महत्वाकांक्षी लिए तीसरे पुत्र खाट्रिगदेव गद्दीपर बैठे । कृष्ण के था। इसके कन्याकुमारी में मिले हुए शिलालम्बम' पुत्रका भी इम बीच देहान्त होगया था और पौत्र लिम्वा है कि उसने कृपणतृतीयकांगकर वीरपालकी छोटा था, इसलिए भी खाट्टिगदेवको अधिकार मला। पदवी धारण की। किस जगह गया और कहां कृष्ण तृतीय राष्ट्रकूट वंशकं सब अधिक प्रतापी ३ एपिग्रंफिया इंडिका (ए.१०) जिल्द ४० २७८ । और सार्वभौम गजा थे। इनके पूर्वजोंका साम्राज्य ४ वंदीग दिएणधग्ण-कणयपया महिपरिभमंतु मेलाडिणया । १ जैसे गोज्जिग, बद्दिग, नुडिग, पुट्टिग, वोटिग श्रादि। ५ "पाराच्यमिहल-चाल-चेरभप्रभृतीन्महीपतीप्रमाध्य...."। २ अरब लेग्वकोने मानकिरके बल्हरा नामक बलाढ्य गजाओं ६ जर्नल बाम्बे ब्राच गए.सो. जिल्द १८ पृ. २३६ का जो उल्लेख किया है, वह मान्यग्वेटके वल्लभराज पद और लिए श्राफ इन्स्क्रप्शन्स सी०पी० एण्ड बरार पृ०८१। . धारण करने वाले गजानोको ही लक्ष्य करके है। त्रावणकोर पार्कि० मीरीज जि० ३ पृ०१४३ श्लोक ४८ । Page #449 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२० अनेकान्त हराया, यह कुछ नहीं लिखा। इसके विरुद्ध ऐसे अनेक प्रमाण मिले हैं जिनसे सिद्ध होता है कि ई० म० ९४४ ( श० ८६६) में लेकर कृष्ण के राज्यकाल के अन्त तक चोलमण्डल कृष्ण के ही अधिकार में रहा । तब उक्त लेखमें इतनी ही मचाई हो सकती है कि मन ९४४ के आस पास वीरचालको राष्ट्रकूटों के साथ की लड़ाई में अल्पकालिक सफलता मिल गई होगी । दक्षिण जिलेके मिद्धलिंगमादम स्थानके शिलालेख में जो कृष्ण तृतीय के ५ वें राज्यवर्षका है उसके द्वारा कांची और तंजोर के जीतनेका उल्लेख है और उत्तरी अर्काटकं शोलापुरम स्थानके ई० स० ९४९-५० श० सं० ८७१) शिलालेख में लिखा है कि उस साल उसने राजादित्यको मारकर तोडयि मंडल या चोलमण्डल में प्रवेश किया । यह राजादित्य पगन्तक या वोरचालका पुत्र था और चोलमैनाका सेनापति था । कृष्ण तृतीयकं बहनोई और सेनापति भूतुगने इसे इसके हाथी के हौदे पर आक्रमण करके माग था और इसके उपलक्षमे उसे वनवासी प्रदेश उपहार मिला था । [ वर्ष ४ हालकंरीके ई० म० ९६८ और ९६५ के शिलाले ग्वों में मारसिंह के दो सेनापतियों को 'उज्जयिनी भुजंग' पदको धारण करनेवाला बतलाया है। ये गुर्जग्राज और उज्जयिनी भुजंग पद स्पष्ट ही कृष्ण द्वारा सीयक गुजरात और मालवेके जीते जानेका संकेत करते हैं। सीयक उस समय तो दब गया, परन्तु ज्योंही पराक्रमी कृष्ण की मृत्यु हुई कि उसने पूरी तैयारी के साथ मान्यखेट पर धावा बोल दिया और खोट्टिगदेव को परास्त करके मान्यखेटको बुरी तरह लूटा और बरबाद किया । पांडयलच्छिनाममाला के कर्त्ता धनपालके कथनानुसार यह लूट वि० सं० २०२९ ( श० सं० ८९४ ) मं हुई और शायद इसी लड़ाईम खोट्टिगदेव मारे गये । क्योंकि इसी माल उत्कीए किया हुआ खरडाका शिलालेख' वाट्टिगदेव के उत्तराधिकारी कर्क (द्वितीय) का है । कृष्ण तृतीय ई० स० ९३९ ( श० सं० ८६१ ) के दिसम्बर के आस पास गद्दी पर बैठे होगे । क्योंकि इस वर्ष के दिसम्बर में इनके पिता बद्दिग जीवित थे और कोल्लगलुका शिलालेख फाल्गुन सुदी ६ शक ८८९ का है जिसमे लिखा है कि कृष्णकी मृत्यु हां गई और खांगदेव गद्दी पर बैठे। इससे उनका २८ वर्ष तक राज्य करना सिद्ध होता है, परन्तु किल्लूर (द० अर्काट) के वीरतनेश्वर मन्दिरका शिलालेख उनके राज्य के ३० वें वर्षका लिखा हुआ है ! विद्वानों का खयाल है कि ये राजकुमारावस्था में, अपने पिता के जीते जी ही राज्यका कार्य संभालने लगे थे, इमी सं शायद उस समय के दो वर्ष उक्त तीस वर्षकं राज्यकालमें जोड़ लिये गये होगे । ई० मन् ९१५ ( शक सं० ८१७) में राष्ट्रकूट इन्द्र (तृतीय) ने परमारराजा उपेन्द्र (कृष्ण) को जीता था और तबस कृष्ण तृतीय तक परमार राष्ट्रकूटोंके मांडलिक होकर रहे । उस समय गुजरात भी परमारोंके अधीन था । परमारों में सीयक या श्रीहर्ष राजा बहुत पराक्रमी था । इसने कृष्ण तृतीय के आधिपत्य के विरुद्ध सिर उठाया होगा, जान पड़ता है इसी कारण कृष्ण को उस पर चढ़ाई करनी पड़ी होगी और उसे जीता होगा । इस अनुमानकी पुष्टि श्रवणबेलगोलके मारसिंह के शिलालेखस" होती है जिसमें लिखा है कि उसने कृष्ण तृतीय के लिए उत्तरं य प्रान्त जीते और बदले में उसे 'गुर्जर राज' का खिताब मिला। इसी तरह १ मद्रास एपिग्राफिकल कलेक्शन १६०६ नं० ३७५ । २ ए०ई० जि५ पृ० १४५ । ३ ए०६० जि० १६ १०८३ । ४ लीडनका दानपत्र, श्राकिलाजिकल सर्वे ग्राफ साउथ ६ ए०ई० जि०११, नं० २३-३३ ७ ए०ई०जि० १२०२६३ । ८मद्रास ए०म० १६१३ नं०२३६ इंडिया जि० ४, पृ० २०१५ ए०० जि०५ पृ०१७६ । ६ मद्रास एपिग्राफिक कलेक्शन सन् १६०२ नं० २३२ । राष्ट्रकूटों को और कृष्ण तृतीया यह परिचय कुछ विस्तृत इस लिए देना पड़ा जिसने पुष्पदन्तके ग्रंथों मे जिन जिन बातों का जिक्र है, वे ठीक तौर से समझ में आ जायें और समय निर्णय करनेमें भी सहासता मिले । (अगली किरण में समाप्त) Page #450 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नया मंदिर देहलीके हस्तलिखित हिंदी ग्रंथोंकी सूची गत किरणमें इस मन्दिर के प्रायः संस्कृत-प्राकृत और अपभ्रंश भाषाके कोई ३५० प्रधान ग्रंथोंकी सूची १० पृष्ठोंमें दी गई थी; यह सूची उसमें उल्लिखित 'भाषाटीका' वाले प्रन्थोंको छोड़कर शेष हिन्दी भाषाके प्रन्थोंमेंसे मुख्य मुख्य प्रन्थों की सूची है और मन्दिरकी उसी नई सूची पर से तय्यार कराई गई है। इसमें पाठकोंको हिन्दी के कितने ही ग्रंथोंके साथ साथ अनेक अज्ञात कवियों तथा लेखकोंका भी पता चल सकेगा। - भाषा संवत भाषा पत्र संख्या लिपिहिन्दी पण । ६ x " । १४८ १८६४ हिन्दी गद्य , पद्य । " गद्य १० १९२८ ६९ १८६३ १५६ १८९१ १६१ ३९६ २००४ १८४ x १९०४ १९२८ " पद्य " गद्य ग्रंथ-नाम ग्रंथकार-नाम अठाईरासा भ० विजयकीति अढ़ाईद्वीपका गठ पं० कमलनयन अध्यात्मपाठसंग्रह पं० बनारसीदास अध्यात्मबारहखड़ी पं. दौलतराम अनुभवप्रकाश पं. दीपचंद शाह अमरचन्द्रिका (खंडित) । पं. अमरचंद्र अमितगति श्रावकाचार टीका (मूलसहित) पं० भागचंद अर्थप्रकाशिका (तत्त्वार्थ-टीका) पं० परमेनिमहाय, पं. मदामुग्वराय अर्थमंदृष्टि पं० टोडरमल श्रागम-शनक (द्यानतसंग्रह) संग्र०६० जगतराय श्रात्मावलोकन x अात्मविलाम 40 गुलजारीलाल जैसवाल श्रादिपुराण पं० तुलसीराम पं० दौलतराम अाराधना कथाकंप बखतावरलाल, रतनलाल उत्तरपुराण कवि खुशालचंद कर्मदहनपूजा पं. टेकचंद कुशीलखंडन पं. जयलालजी कृष्णबालविलास त्यागी किशनलाल क्रियाकोष पं० किशनमिद पं. दौलतराम गुरुउपदेशश्रावकाचार पं० डालूराम चतुरचितारणी पं० दौलतराम चर्चानामावलि संग्रह x चर्चाशतक पं० द्यानतराय . , टीका पं० हरजीमल चर्चासमाधान पं० भूधरदास चंद्रप्रभपुराण २० हीरालाल चेतनचरित्र पं० भगवतीदास " " पद्य गदा पा .. गद्य ३४३ १७३४ २७१ १२२७ २८२ १९०१ । २ १९०४ । २६ । १९८६ १९९३ १९३८ १५१ १८९२ ६९६ १९८३ ३९ मे४७ ४ १३५ से १४१ १९७७ १८५५ " गद्य १२४ " ७६ १९७७ , पद्य १५१४ १८५ Page #451 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२२ चौदह गुणस्थान यंत्र चौबीस ठाणा-चर्चा ऋद्धिका अर्थ छ छंदरत्नावली (पिगल) जंबूस्वामचरित्र जिनदत्तचरित्र जिनपूजाधिकार मीमांसा जीवंधरचरित्र जैन श्रजैन-चर्चा-संग्रह जैनवालबोध-त्रिशतिका जैनशतक जनसिद्धान्तदर्पणा ज्ञानदर्पण शान सूर्योदयनाटक (टीका) ज्ञानानन्दभावकाचार णमोकारकल्प तस्यार्थ बालबोध- टीका निवडी (वाडा) पूजा-पाठ त्रिलोकसारपाठ दर्शनकथा दानकथा धानतपद संग्रह यामत विलास धन्यकुमारचरित्र धर्मपरीक्षा (भाषाका (धर्मदशावतार नाटक) धर्मसार धर्मोपदेश संग्रह नाटकसमयसार नाटकसमयसार - टीका नियमसार (भाषाटीका) नेमिनाथचरित्र (भाषाटीका समूल) नेमिनाथपुराच पद्मनंदि-पंचविंशतिका (भा० टी०) पद्मपुराण अनेकान्त पंचकार-नाम x पं० इरत्रीमल पं० दौलतराम पं० जमतराय ० निवास बलतावरलाल, रतनलाल पं० जुगलकिशोर मुख्तार पं० नथमल विलाला त्यागी किशनलाल श्री गोधाजी ० भूधरदास पं० गोपालदास वरैया पं० दीपचंद शाह पं० भागचन्द पं० रायमल्ल X पं० चेतनदास पं० द्यानतराय कवि 'वृन्दावन कवि जवाहरलाल कवि भारामल्ल " पं० द्यानतराय " 32 पं० खुशालचंद पं० मनोहरलाल पं० पन्नालाल संधी, पं० फत्तेलाल पं० शिरोमणि पं. सेवाराम शाह पं० बनारसीदास पं० सदासुखराय ब्र० शीतलप्रसाद विक्रम कवि, पं० बखतावरलाल पं. जोहरीलाल मनालाल पं० खुशालचंद भाषा हिन्दी ग "" "" "" "" "" "" " 39 " "" 39 39 12 " 19 "" 99 " पद्य गद्य पद्य गद्य " " गद्य पद्य गद्य 35 " " 29 39 "" पद्य 99 " गद्य " सं०हिन्दी हिन्दी पद्य 19 "" पद्य "" सं०, हिन्दी हिन्दी पच गद्य पद्य गद्य पत्र संख्या ५२ ३१ १३ १०० X ४३ १२६ १९४० १९८० १७२ १९६६ १५३ से ५५१ x ४६ Bo १३ ९८ ३१ ६९ [ वर्ष ४ लिपि संवत x x १८५५ १६३५ १९१ ४६ ८६ ९३ ७० २०५ ६३ २४३ १२३ १९०२ १८३६ || १९२३ 1 १३१ १९२९ १४५ से १५० १९७० १२२ २२ १२६ २७९ /x ४५ २५ ७२ ३२ ११९ ૩૮૦ २५० १९८२ १८६१ itsus १९७५ x १९४३ १९२८ X १८८६ १९४९ | १९२३ १९१३ १९४७ १७५९ १८६४ | १८०५ १९१४ १९७६ X | १९१३ १९२६ PEPO Page #452 -------------------------------------------------------------------------- ________________ -संख्या x |१९०३ १९०० " गद्य किरण ५७] नयामंदिर देहलीले लिखित हिन्दी ग्रंपोंकी सूची ग्रंव-नाम प्रंयकार-माण भाषा परमरातक हिन्दी पच परमात्मपुराण (भा. टी.) पं० दीपचंद काशलीवाल परमात्मप्रकाश (भा०टी०) पं. दौलतसम पंचकुमारतीर्थकर पूजा त्यागी किशनलाल पंचपरमेष्ठी पूजन बखतावरसिंह, रतनलाल " , पाठ पं० डालूराम पंचमंगल पंचास्तिकाय (छंदोबद्ध) पं.हीरानन्द पाण्डवपुराण पं० बुलाकीदास पार्श्वपुराण पं० भूधरदास पार्शविलास पं० पार्श्वदास " गय पुण्याभवकथाकोश (भा. टी.) पं० दौलतराम १८५८ १८७६ पं० रूपचंद १६० २०१ १७२० १८९२ : २६० १७७ " पद्य ३७३ " गद्य |१९५९ १९८० ११८४५ १७८१ पं० खुशालचन्द बाबा दुलीचन्द २० हेमराज पं० हेमराज कवि वृन्दावन पं० भागचन्द पं0 जयचंद्र कवि बुलाकीदास पं० पन्नालाल संघी पं० बनारसीदास " गद्य १९९० २१ १८६६ ९ १७६६ १५३ । x ६० १९०२ १०० १७०७ " गध पुष्पांजलि कथा प्रतिष्ठासार (भा. टी.) प्रवचनसार (,) प्रचनसार (पद्यानुवाद) प्रवचनसार परमागम प्रमाणपरीक्षा (भा. टी.) प्रमेयरत्नमाला (भा. टी.) प्रश्नोत्तर उपासकाचार प्रश्नोत्तर सजनचित्तवल्लभ (भा.टी.) बनारसी अवस्था बनारसीविलास बीजकोष (मंत्र बीजकोष) बुद्धिप्रकाश बुधजनविलास बुधजनसतसई ब्रह्माक्लिास भक्तामरचरित्र भगवती आराधना (भा. टी.) भद्रबाहुचरित्र भूषविलास महादंक चौपाई महावीरपुराण मंत्रमानविधि मित्राक्लिास " गद्य पं०चंद्रशेखर शास्त्री पं० टेकचन्द पं० बुधजन १९८० १९२० १९०२ १७७८ .. गद्य १९२९ पं० भगवतीदास पं० निनोदीलाल पं० सदासुखराय कवि किशनसिंह पं० भूधरदास भ० विजयकीर्ति पं० विजयनाथ माथुर x 40 घासीराम (१९१३ १८५८ १९०५ | १९९४ गध " पथ Page #453 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२४ बनेकान्त [वर्ष ४ लिपि भाषा ग्रंथ-नाम मिथ्यात्वनिषेध (वचनिका) मुनिसुव्रतनाथ पुराण मूलाचार (भाषा टीका) मोक्षमार्ग प्रकाश यशोधरचरित्र पत्र-संवत् | संवत् १८३७ १९८० | १८७९ पद्य । १९७२ " १८३१ १७६८ १९२९ १६२० १९०५ रत्नकरण्डश्रावकाचार (भा०टी०) रविव्रतकथा रोहिणीव्रतकथारास वरागचरित्र विष्णुकुमार मुनिकथा बीस बिरहमान तीर्थकरपाट वैराग्यशतक व्रतकथाकोप शान्तिनाथ पुराण शीलरासा श्रीपालचारत्र १९८० १८८४ श्रीपालविनोदकथा श्रुतपंचमीकथा (भविष्यदत्तचरित्र) श्रेणिकचरित्र सप्तव्यसनचरित्र समयसार कलसा समयसार नाटक सम्यक्त्वकौमुदी ग्रंथकार-नाम x ब्र० इन्द्रजीत पं० नन्दलाल, पं० ऋषभचन्द्र पं० टोडरमलजी पं०परिहानन्द पं० खुशालचन्द पं० सदासुखराय पं० खुशालचन्द भ० विशालकीर्ति पं० लालचन्द पं. विनोदीलाल कवि क्षत्रपति पद्मावती कवि वासीलाल पं० खुशालचन्द कवि सेवाराम विजयदेवी सूरि कवि परिमल वरैया अतिसुखराय पं0 विनोदीलाल कवि बनवारीदास भ० विजयीति सिंघई भारामल पं० रायमल्ल पं० बनारसीदास पं० जगतराम पं. जोधाराय गोधिका सु० धर्मदास पर्वतधर्मार्थी पं० लक्ष्मीचन्द लशकर 40 पारसदास पंनथमल विलाला चौ० रायचन्द्र पं. गोकलन गोलापूर्व पं. खुशालचन्द्र 4. टेकचन्द 4. दौलतराम पं० खुशालचन्द वीरसेवामन्दिर सरसावा, " गद्य , पद्य पद्य । २७२ १३ । १६३६ १४३ १८१८ १७० ।१९६२ ७१ ।१८१० ५८ १७ ७ १९८५ १९६५ १५५५ ७२ १७७६ १८८५ ६८ १७८४ १९७३ २१० १७६८ . १९७६ १९४२ ३९६x १५४ ।१७९१ ४७x १० १९३२ ३१६ १९०९ ७३ १८२६ २०४ ।१८४४ पद्य १० सम्यक्शानदीपक समाधितन्त्र (भाषा टीका) सरस्वतीपूजा सारचतुर्विशति (भाषा टीका) सिद्धान्तसारदीपक सीताचरित्र सुकमालचरित्र (भाषा टीका) सुगंधदशमीकथा सुदृष्टितरंगिणी स्वामीकार्तिकेयानुप्रेक्षा (भा०टी०) हरिवंशपुराण , गद्य " गद्य ता०८-८-१९४१ Page #454 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके सहायक वीरसेषामन्दिरको सहायता पिछले दिनों निम्न सज्जनोंकी भोरस वीरसेवा. जिन सजनोंने अनेकान्तकी ठोस सेवाओं के प्रति अपनी मन्दिर सरसावाको ३२) रु० की सहायता प्राप्त हुई है, प्रसनता व्यक्त करते हुए, उसे घाटेकी चिन्तासे मुक्त रहकर इसके लिये दातार महाशय धम्यवादके पात्र है:निराकुलतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति करने और अधिकाधिक १० ला० मेहरचन्द जी जैन साइकिल डीलर, काकी रूपसे समाजसेवायोंमें अग्रसर होनेके लिये सहायताका वचन - जि०महारनपुर । (चिविश्वेश्वरदयालक विवाह दिया है और इस प्रकार अनेकान्तकी सहायक श्रेणी में अपना की खुशी में। नाम लिखाकर अनेकान्तके संचालकोंको प्रोत्साहित किया है १०१ बा० जयभगवानजी जैन बी०ए०वकील, पानीपत उनके शुभ नाम सहायताकी रकम सहित इस प्रकार है (पुत्री चि० प्रभादेवी विवाहकी खुशी में) .१२५) वा. छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता। ५) ला० मेहरादजी जैन सरमावा, हाल अब्दुला•१.१)वा. अजितप्रसादजी जैन एडवोकेट, लखनऊ। पुर जि. अम्बाला (पुत्रके विवाहकी खुशी में)। -101) बा. बहादुरसिंहजी सिंघी, कलकत्ता । ५) श्रीमती भगवती देवी धर्मपत्नी ला०रूड़ामलजी १००) साहू श्रेयांसप्रसादजी जैन लाहौर । जैन, (शामियानेवाले) सहारनपुर । -१००) साहू शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर । २) ला० कुलवन्तगयजी जैन रईस नकुड जि. •१००) बा० शांतिनाथ सुपुत्र बा० नन्दलालजी जैन, कलकत्ता महारनपुर। -अधिष्ठाता 'वीरसंवामंदिर' १००) ला० तनसुखरायजी जैन, न्यू देहली। अनेकान्तकी सहायताके चार मार्ग १००) सेठ जोग्वीराम बैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता । (1)२५), २०), १०.) या इससे अधिक रकम देकर १०.) बा. लाल बन्दजी जैन, एडवोकेट, रोहतक। सहायकों की चार श्रेणियोंमेंसे किसी में अपना नाम खिलाना। .११) रा०प० वा. उलफतरायजी जैन, इन्जिनियर, मेरठ। । (२) अपनी मोरसे असमयोंको तथा बजेग संस्थानों . २०) ला० दलीपसिंह काराजी, चोर उनकी मार्फत, देहली को अनेकान्त फ्री (विना मुख्य ) या अमूल्य में भिजवाना २५) पं. नाथूरामजी प्रेमी, हिन्दी ग्रंथ-रत्नाकर, बम्बई। बइ। और इस तरह दूसरोंको अनेकान्तके पदनेकी सविशेष प्रेरणा . २१) बा. रूनामल जी जैन, शामियानेवाले, सहारनपुर। करनाइस मदमें सहायता देने वालोंकी मोरसे प्रत्येक • २५) बा०रघुवरदयाजजी जैन, पम प.,करोलबाग़ देहली। दस रुपयेकी सहायताके पीछे अनेकान्त चारको फ्री अथवा • २५) सेठ गुलाबनन्दजी जैन टोंग्या, इन्दौर । पाठको अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। .२२)बा. बाबूराम अकलंकप्रमादजी जेम, तिस्मा (मु०२०) उत्सव-विवाहादि दानके अवसरों पर अनेकान्तका २१) मुंशी सुमतप्रमारजी जैन, रिटायर्ड अमीन, सहारनपुर बराबर खयाल रखना और उसे अच्छी सहायता भेजना . २१) बा. दीपचन्दजी जैन रईम, नेहरातून । तथा भिजवामा, जिससे अनेकान्त अपने अच्छे विशेषा . २५) बा. प्रद्युम्नकुमारजी अन रईम, सहारनपुर। निकाल सके. उपहार धोंकी योजमा कर सके मोर उत्तम जन मा चापका लेखों पर पुरस्कार भी दे सके । स्वतः अपनी चोर से उपहार अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक स्कीमको सफल बनाने की योजना मिली। में अपना पूरा सहयोग प्रदान करके यशके भागी बनेंगे। (४) अनेकान्तके प्राहक बनना, दूसरोको बनाना चोर नोट--जिन रकमोंके सामने • यह चिन्ह दिया है ये पूरी अनेकान्त के लिये अच्छे अच्छे लेख लिखकर भेजमा, खोकी प्राक्ष होचुकी हैं। व्यवस्थापक 'अनेकान्त' सामग्री जटाना तथा उसमें प्रकाशित होनेके लिये उपयोगी वीर सेवामन्दिर, सरसावा, (सहारनपुर) चित्रोंकी योजना करमा, कराना। 'सम्पादक भनेकान्त' मुद्रक, प्रकाशक परमानंद शास्त्री बीरसेवामम्बिर, सरसावाके लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तव द्वारा श्रीवास्तवप्रेसमें मुद्रित। Page #455 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered No. A-731 श्रीमद् राजचन्द्र म. गांधीजी लिखित महत्त्वपूर्ण प्रस्तावना और संस्मरण-सहित महान् ग्रंथ गुजरात के सुप्रसिद्ध तत्त्ववेता शतावधानी कविवर रायचंद्रजी के गुजराती ग्रंथका हिंदी अनुवाद । महात्माजी ने इसकी प्रस्तावना में लिखा है-"मेरे जीवनपर मुख्यता से कवि रायचंद्र भाई की बाप पड़ी है । टॉलस्टाय और रस्किनका अपेक्षा भी रायचंद्र भाई ने मुझ पर गहरा प्रभाव डाला है।" रायचंद्रजी एक अद्भुत महापुरुष हुए हैं वे अपने समय के महान तत्त्वज्ञानी और विचारक थे । महात्माओंका जन्म देनेवाली पुण्यभूमी काठियावाड़ में जन्म लेकर उन्होंने तमाम धर्मों का गहराई से अध्ययन किया था और उसके सारभूत तत्वों पर अपने विचार बनाये थे। उनकी स्मरणशक्ति राजब की थी, किसी भी ग्रंथ को एकबार पढ़के वे हृदयस्थ (याद) कर लेते थे। शतावधानी तो थे ही अर्थात सौ बातों में एक साथ उपयोग लगा सकते थे। इसमें उनके लिखे हुए जगत-कल्याणकारी, जीवन में सुख और शांति देनेवाले, जीवनोपयोगी, सर्वधर्मसमभाव, पहिसा, सत्य आदि तत्वों का विशद विवेचन है । श्रीमद की बनाई हुई माक्षमाला, भावनाबोध आत्मसिद्धि आदि छोटे मोटे ग्रंथों का संग्रह तो है ही, सबसे महत्त्वकी चीज है उनके ८७४ पत्र, जो उन्होंने समय समय पर अपने मुमुक्ष जनों की लिग्वे थे, उनका इसमें संग्रह है । दक्षिण अफरीका से किया हुमा महात्मा गांधी जी का पत्रव्यहार भी इसमें हैं। अध्यात्म और तत्त्वज्ञानका तो खजानाही है।रायचंद्रजीकी मूल गुजराती कविताएं हिंदी अर्थ सहित दी हैं। प्रत्येक विचारशील विद्वान भार देशभक्त को इस ग्रंथ का स्वाध्याय करके लाभ उठाना चाहिये । पत्र सम्पादकों और नामी नामी विद्वानों ने मुक्त कण्ठ से इसकी प्रशंमा की है। एसे ग्रंथ शताब्दियों में बिरले ही निकलते हैं। इसके अनुवादक प्रो. जगदीशचन्द्र शास्त्री एम०ए० हैं। गुजराती में इस ग्रंथ के सात एडीशन हो चुके हैं। (हिंदी में यह पहिले ही बार महात्मा गांधीजी के प्राग्रह से प्रकाशित हुआ है। बड़े आकार के एक हजार पृष्ठ हैं छै सुन्दर चित्र हैं, TE ऊपर कपड़े की मजबूत जिल्द बंधी हुई है । स्वदेशी काराज पर कलापूर्ण सुन्दर छपाई हुई। है। मूल्य ६) छः रुपया है, जो कि लागतमात्र है। मूल गुजराती ग्रन्थ का मूल्य ५) रु. है। जो महोदय गुजराती भाषा सीखना चाहें उनके लिये यह अच्छा साधन है। रायचन्द्रशास्त्रमाला के दूसरे अन्य पुरुषार्थसि गाय १२) ज्ञानाणव ४), सप्तभंगितरंगिणी शा, वृहद्रव्यसंग्रह २) BE गोम्मटसारकमकांड २॥), गोम्मटसार जीवकांड २॥), लब्धिसार शा), प्रवचनसार ५), परमात्म प्रकाश तथा योगसार ५), स्याद्वादमंजरी ४॥), सभाष्यतत्वार्थाधिगमसूत्र ३), मोक्षमाला भावनाबोध ॥), उपदेशछाया मात्मसिद्धि ॥), योगसार) सभी प्रन्थ सरल भाषाटीका-सहि ई है। विशेष हाल जानना चाहें तो सूचीपत्र मंगालें । खास रियायत-जो भाई रायचंद्र जैनशास्त्रमालाके एक साथ १२) के प्रन्य मंगाएंगे, उन्हें । TE उमास्वातिकृत 'सभाष्यतत्त्वार्याधिगमसूत्र' तत्त्वार्थसूत्र-मोक्षशास्त्र भाषाटीका सहित ३) का अन्य भेंट देंगे। मिनने का पतापरमश्रुत-प्रभावकमंडल, (रायचंद्र जैनशास्त्रमाला) खारा कुवा, जौहरी पाचार, बम्बई नं०२ mMMITTWIMMITAMITIOMMITTIVRITTTTTTTTTTTTTTTIMIMITTIMATRIMIT Hiiisanilioni.KHILE Page #456 -------------------------------------------------------------------------- ________________ Registered No. A-731 READHEHARRAICHAR wide RANSMITTER NON HEART एकनाकर्षन्ती कथयन्ती वरतुतत्वमिनरेण । | अन्तेन जयति जैनी नीतिमंन्धाननेत्रमिव गोपी। Hamareneumssulapeshare - Co FANAMOKAASA मिनमा % 3Eore AA -i स्याद्वादकापण उभयानुभव लत्व विधेप तत्व । reme नकान्तात्मक निषयानुभव निये 'Nama उभयतत्त्व विविधनयापन विधयानुभ तत्त्व - - RRENIORNO अनुभय तत्त्व HMADRAPA विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि तहिशेषैः प्रत्येक नियमविषयश्चापरिमितः । मदान्योन्यापेतः मकन्नभुवनग्येष्टगुरुगान्वया गीतं तत्वे बदनय-विवतंतरवशान॥ -जगत का मुरमा Page #457 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची पृष्ठ ४२५ १ - अम्महानद-तीर्थ – [ परमानन्द जैन शास्त्री २- प्रतिमालेख संग्रह, उसका महत्व [मुनि श्रीकांतिसागर ४२७ ३-विश्वसंस्कृतिमें जैनधर्मका स्थान [डॉ० कालीदासनाग, ४३१ ४--वालियर के किले की जैनमूर्तियां - [श्रीकृष्णानंद गुप्त ४३४ ५-अमोघप्राशा(कविता) - [पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुलित' ४३६ ६ सयु० उत्तरलेखकी निःसारता [पं० रामप्रसाद शास्त्री ४३७ ७-संशोधन ४४७ ८- जिनदर्शनस्तोत्र (कविता) - [पं० हीरालाल पांडे १ - तपोभूमि (कहानी) - [श्री 'भगवत' जैन १६ - महाकवि पुष्पदन्त - [श्री पं० नाथूराम प्रेमी ११ - रामी (कहानी) - [श्री 'भगवत्' जैन १२ - नेमिनिर्वाण काव्य-परिचय - [पं० पखालाल जैन ४६६ १३ - उ०पद्मसुन्दर और उनके ग्रंथ [श्री अगरचंद नाहटा ४७० १४ - जैनमंदिर सेठकू चा देहलीके ४० लिखितग्रंथोंकी सूची ४७२ ४४८ ४४६ ४२५ ४६२ वीरसेवामन्दिरके सच्चे सहायक श्रीमान् माननीय बाबू छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता मेरी तुच्छ सेवाश्रां के प्रति बड़े ही श्रादर-सत्कार के भावको लिये हुए हैं, यह बात 'अनेकान्त' के उन पाठकोंसे छिपी नहीं है जिन्होने श्रापके विशुद्ध हृदयोद्गारों को लिये हुए वह पत्र पढ़ा है जो द्वितीय वर्षकी १२ वीं किरण के टाइटिल पेज पर मुद्रित हुआ है। यही कारण है कि आप मेरी अन्तिम कृतिरूप इस वीर सेवामन्दिरको बड़े प्रेमकी दृष्टि से देखते हैं, उसके साथ पूर्ण सहानुभूति रखते हैं और उसकी सहायता करने-कराने का कोई भी अवसर व्यर्थ नहीं जाने देते। इस संस्थाको स्थापित करनेके कोई एक साल बाद जब में कलकत्ता गया तो आपने साहू शान्तिप्रसादजी जैन रईस नजीबाबाद से मुझे तीन हजार ३०००) रु० की महायताका 'वचन 'जेनलक्षणावली' श्रादिकी तय्यारीके लिये दिलाया और मेरे बिना कुछ कहे ही चलते समय चुपकेसे ३००) रु० श्रौषमालय तथा फर्नीचर के लिये भेंट किये । श्राप वीर सेवामन्दिरको एक बहुत बड़ी चिरस्मरणीय सहायता करना चाहते थे, परंतु योग योग हाथसे निकल गया, जिसका श्रापको बहुत खेद हुया । बादको आापने ५००) रु० अपने भतीजे चि० चिरंजीलालके आरोग्यलाभकी खुशी में भेजे, १००) अपने मित्र बाबू रतनलालजी झाँझरीसे लेकर भेजे, २००) रु० अपने छोटे भाई बाबू नन्दलाल से और २०० ) रु० अपनी पूज्य माताजीसे दिलाये । अपनी धर्मपत्नी के स्वर्गारोहण से पूर्व किये गये दानमेंसे पाँच हजार ५०००/ रु० की बड़ी रकम इस संस्था के लिये निकाली । 'श्रनेकान्त' पत्रके लिये स्वयं १२५) रु० भेजे, १००) रु० सेठ बैजनाथजी सगवगीमे दिलाये, और कलकत्तेके कितने ही सज्जनोंको स्वयं पत्र लिखकर तथा साथमें नमूनेकी कापियाँ भेजकर उन्हें अनेकान्तका ग्राहक बनाया। इसके सिवाय, गत मार्च मासमें आपके ज्येष्ठ भ्राता बाबू फूलचन्दजीका स्वर्गवास हो गया था, उस अवसर पर सात हजार रुपयेका जो दान निकाला गया था उसका स्वयं बटवारा करते हुए हाल में आपने एकहजार १०००/६० बीरसेवामन्दिरको प्रदान किये हैं। ऐसे सच्चे सहायक एवं उपकारीका आभार किन शब्दों में प्रकट किया जाय, यह मुझे कुछ भी समझ नहीं पड़ता ! मेरा हृदय ही सर्वतोaree उसका ठीक अनुभव करता हुआ आपके प्रति झुका हुआ है— शब्द उसके लिये पर्याप्त नहीं हैं, खास कर ऐमी हालत में जब कि आभार प्रकटीकरण से आपको खुशी नहीं होती और अपने नाम तकसे आप दूर रहना चाहते हैं। मैंने भाई . फूलचंदजीका चित्र प्रकाशनार्थ भेजनेको लिखा था, इसके उत्तर में श्राप लिखते हैं- "मुख्तार साहब, आप जानते हैं हम लोग नाम से सदा दूर रहते हैं। चित्र तो उनका छपना चाहिये जो दान करें। हम लोग तो मात्र परिग्रहका प्रायश्चित्त(अधूरा ही) - करते हैं । फिर भी ज़रा २ सी सहायता देकर इतना बड़ा नाम करना पाप नहीं तो दम्भ अवश्य है। अस्तु, क्षमा करें ।” कितने ऊँचे, उदार एवं विशाल हृदयसे निकले हुए ये वाक्य हैं, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। सचमुच बाबू छोटेलालजी जैनसमाजकी एक बहुत बड़ी विभूति हैं । मेरी तो शुद्धान्तःकरणसे यही भावना है कि श्राप यथेष्ट स्वास्थ्यलाभके साथ चिरकाल तक जीवित रहें, और अपने जीवनकाल में ही वीरसेवामन्दिरको खूब फलता-फूलता तथा अपने सेना - मिशन में भले प्रकार सफल होता हुआ देखकर पूर्ण प्रसन्नता प्राम करें । - जुगल किशोर Page #458 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ अहम् * वस्ततत्त्व-सपातय IN स्वतत्व-प्रकाशक JA नीतिविरोषसीलोकव्यवहारवर्तकसम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः। वर्ष ४ किरण ८ । वीरमवामन्दिर (ममन्तभद्राश्रम ) मरसावा जिला महारनपुर श्राश्विन, वीर निर्वाण मं० २४६७. विफम सं० १६६८ । मिनम्बर १९४१ अर्हन्महानद-तीर्थ अर्ह-महानदस्य त्रिभुवनभव्यजन-तीर्थयात्रिक-दुरितं । प्रक्षालनककारणमतिलौकिक-कुहकतीर्थमुत्तमतीर्थम् ॥१॥ लोकालोकसुतस्व-प्रत्यवोधनसमर्थ-दिव्यज्ञानप्रत्यहवहत्प्रवाहं व्रतशीलामलविशाल-कूल-द्वितयम् ॥२॥ शुक्लध्यानस्तिमितस्थितराजद्राजहंसराजितमसकृत्स्वाध्यायमंद्रघोषं नानागुणसमितिगुप्तिसिकतासुभगम् ॥ ३ ॥ क्षान्त्यावर्तसहस्रं सर्वदयाविकचकुमुमविलमल्लतिकम् । दुःसह-परीषहाख्य-द्रुततररंगत्तरंगभंगुरनिकरम् ॥४॥ व्यपगतकषाय-फेनं रागद्वेषादि-दोषशवल-रहितं । अत्यस्तमोह-कईममतिदूरनिरस्तमरण-मकरप्रकरम् ॥५॥ ऋषिवृषभन्तुतिमंद्रोद्रेकित-निर्घोष-विविध-विहग-ध्यानम् । विविध-तपोनिधि-पुलिनं सास्रव-संवरण-निर्जरा-निःस्रवणम् ॥ ६ ॥ Page #459 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२६ [वर्ष ४ 'रूपी महान का तीर्थ ( द्वादशाग श्रुतानुमारी शुद्ध जैनधर्म) तीन लोकके भव्यजीवरूपी यात्रियोंके दुरितों की प्रक्षालन करनेका - पाप मलोको धानेका द्वितीय कारण है । अर्थात् सांसारिक महानद तीर्थ जत्र कतिपय जीवों के शारीरिक चामलका ही धोने में समर्थ होता है - श्रन्तरंग पारमलको धोना उसकी शक्ति से बाहर है तब अरहंतरूपी महानदतीर्थ त्रिलोकवर्ती समस्त भव्यजीवांके द्रव्य भावरूप समस्त पापमलोको धो डालने में समर्थ है - इसके प्रभावसे श्रात्मा रागपाद विभावमलसे रहित होकर अपने शुद्धचैतन्य स्वरूप में स्थिर होजाता है। यह महानद लोक में प्रसिद्ध हुए दम्भादिप्रधान कुतीको प्रतिक्रान्नकर चुका है— उनके स्वरूपका उल्लंघन करनेसे दंभादि रहित है—अतएव उत्तमतीर्थ है ॥ १ ॥ अनेकान्त गणधर-चक्रधरेन्द्रप्रभृतिमहा भव्यपुंडरीकैः पुरुषः । बहुभिः स्नातं भक्त्या कलिकलुषमलापकर्षणार्थममेयम् ॥ ७ ॥ अवतीर्णवतः स्नातुं ममापि दुस्तर समस्तदुरितं दूरम् । व्यवहरतु परमपावनमनन्यजय्यस्वभावभावगम्भीरम् ॥ ८ ॥ — चैत्यभक्तिः जिम तीर्थ में लोक और लोकके यथार्थ स्वरूपको जानने में समर्थ दिव्यज्ञानका केवलज्ञानका प्रतिदिन प्रवाह वह रहा है, और निर्दोष व्रत तथा शील ही जिसके दोनों निर्मल विशाल तट है-किनारे हैं ||२|| जो नीर्थ शुक्लध्यानरूप निश्चल शोभायमान राजहंसीसे विराजित है - शुक्लध्यानी मुनि पुंगवरूप राजहंसोकी स्थिर स्थिति में जिसकी शोभा बढ़ी हुई है, जहॉपर स्वाध्यायका निरन्तर ही मनोज्ञ नाद (शब्द) रहता है तथा जो नाना प्रकार के गुणों, समितियों और गुप्तियो रूप सिकताश्री (बालू रेती) से मनोग्य है--सुन्दर है ||३|| जिस तीर्थ में क्षमा सहिष्णुतारूपी सहस्री श्रावर्त उठ रहे हैं, जो सर्व प्राणियों की दयारूप विकसित पुष्पलताओंसे सुशोभित है और जहाँ दुस्सह क्षुध्वादि परीवह रूपी शीघ्र फैलती हुई तरंगोका समूह विनश्वररूपमें - उत्पन्न हो होकर नाश होता हुआ — देखा जाता है ||४|| जो तीर्थ कषायरूपी फेनसे - झाग से रहित है, राग-द्रोपादि दोषरूपी शैवाल जिसमें नहीं है, मोहरूपी कर्दम (कीचड़) से जो शून्य और मरणोंरूपी मकरोके समूह से भी विहीन है ||५|| को जिस तीर्थ में ऋषि पुंगवो — गणधर देवादिकांके द्वारा की गई स्तुतियों एवं शास्त्रपाठकी मधुर ध्वनिरूपी श्रनेक पक्षियोंका सुन्दर कलरव है, विविध प्रकारके तपोके निधानस्वरूप मुनीश्वर ही जहाँ पर पुल हैं—संसाररूपी सरित्प्रवाह में बहने वाले जीवोंके लिये उत्तरण स्थान हैं—और जहाँ कर्मा के निरोधरूप संवरसहित उपार्जित एवं संचित कर्मोंके लिये निर्जरा रूप निर्गमस्थान है ||६|| दूर इस प्रकारके जिस महान् तीर्थ में गणधर चक्रवर्ती श्रादि बहुतसे महान् भव्योत्तम पुरुषोने कलिकालजन्य मल करने के लिये भक्तिपूर्वक स्नान किया है || ७ || उस परम पावन श्रन्महानद तीर्थ में, जोकि परवादियोंके द्वारा सर्वथा श्रजेयस्वभावरूप जीवादि पदार्थोंसे गम्भीर है - श्रगाध है, मैं भी स्नान करनेके लिये -- अपना कर्ममल धोनेके लिये - श्रवतीर्ण हुआ हूँ--उसमें श्रव गाइनका मैंने दृढ़ संकल्प किया है। अतः मेरा भी वह सम्पूर्ण दुस्तर कर्ममल पूर्णतया दूर होवें-- इस तरह के निर्मूल नाशको प्राप्त होवे कि जिससे फिर कभी उसका संग मुझे प्राप्त न होसके ||८|| - परमानन्द जैन शास्त्री Page #460 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा-लेख-संग्रह और उसका महत्त्व [ लेखक-मुनि श्री कान्तिसागर जी ] भारतवर्ष सहस्रों वर्षों के अगणित ऐतिहा- गुणोंका कीर्तन करते हैं। क्योंकि स्थायी रहनेवाली मिक खण्डगेंकी भूमि है । इन खण्डरोंको गुणोंकी कीर्ति स्वर्गवास देनेवाली होती है। सूक्ष्मदृष्टि से यदि यत्नके साथ खनन किया जाय तो एक अंग्रेज विद्वान् इतिहासके विषयमें इम निःसन्देह भारतीय इतिहासकं असंख्य साधन प्राप्त प्रकार कहते हैं :-"History is the first हो सकते हैं। भारतका इनिहाम हमारे पाम पूरी तौर thing that should be given to childसे मोजोसा हम नहीं कर सकते. लेकिन हमारे ren in order to form their hearts and पास इनिहायकी सामग्री ही नहीं है यह कहनेका भी __under-standing". -Rolis. हम कदापि साहस नहीं कर सकते । क्योंकि भारतमें ___ यह भी एक सर्वमान्य नियम है कि अतीतके बहुतसे नगर व प्राचीन स्थान ऐसे हैं, जहाँ कुछ न प्रकाश विना वर्तमान काल कदापि प्रकाशित नहीं कुछ ऐतिहासिक साधन अवश्य मिलते हैं । उनको हो सकता । इतिहासमें वह शक्ति है कि बलहीन शृखलाबद्ध कर निप्पक्षपाती विद्वान ही इतिहासके । मनुष्यमें मी बलका संचार सहूलियतसे कर सकना लिखनमें पूर्णरूपमे सफल हो सकता है । इर्षका है। इतिहास जैसे महान शास्त्रपर विशेष लिखना विषय है कि अभी कलकत्तमें भारतका इतिहास लिखा सूर्यका दीपक दिखाना है। जारहा है. जिसके मख्य लेखक यदनाथ सरकार भारतीय इतिहासमें जैन इतिहासका स्थान यह सम्पूर्ण इतिहास प्रकाशित होनेपर वेदवचन-तुल्य अत्यन्त महत्त्वपूर्ण है। विना जैन इतिहासके भारमाना जायगा । अतः प्रत्येक जैनीका यह परम कर्त- तीय इतिहास अपूर्ण है। कोई भी इतिहाम-लेखक व्य होना चाहिए कि वह भी उक्त महान् कार्यमें चाहे वह भारतीय हो या प्रभारतीय, उसे जैन इतियथाशक्ति तन, मन और धनस सहायता करे। हास पर अवश्य दृष्टि डालनी पड़ेगी, क्योंकि जैनियों मानव-जीवनमें इतिहासका स्थान अत्यंत महत्व का इतिहास मात्र धार्मिक दिशा तक ही सीमित नहीं पूर्ण है । इतिहासमें जो गूढ़ शक्तिएँ छिपी हुई हैं वे है, प्रत्युन सामाजिक एवं राजनैतिक भादि अनेक अकथनीय हैं । पड़िहार राजा बाउकके वि० सं० दृष्टियोस महत्त्व पूर्ण है। ८९४ के शिलालेखका मंगलाचरण भी इतिहासके इतिहासके अनेक साधनों से प्रतिमा - लेख भी गौरवको इस प्रकार बतलाता है :- एक प्रधान साधन है। भारतवर्षमें प्रतिमा-लेख जितने गुणाः पूर्वपुरुषाणां, कीर्त्यन्ते तेन पण्डितः। जैन समाजमेंस प्राप्त होते हैं उतने शायद ही किसी गुणाः कीतिर्न नश्यन्ति, स्वर्गवासकरी यतः।। २।। अन्य समाजमें उपलब्ध होते हों। पुरातन कालसे अर्थात-पण्डित लोग इसीलिये अपने पूर्वजोंके धातु-प्रतिमा बनानकी प्रणाली भारतीय जैन समाजमें Page #461 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४२८ अनेकान्त [वर्ष ४ बहुत प्रचलित है। इसमें भी मुग़ल ममयकी बनी उतना ताकालाकि ग्रन्थों पर नहीं । आज हुई धातु प्रतिमाएँ प्रचुर मात्रामें यत्रतत्रोपलब्ध होती हम देखते हैं कि एक एक शब्दको पढ़ने के लिये है। इसका प्रधान कारण यही होना चाहिए कि वे परातत्त्व विभागों के द्वाग हजागं रुपयोंका व्यय किया लोग मुमलमान मजिदको छोड़कर मभी मजहबक जाता है। जैन मंदिरों में धातुकी प्रतिमाओंकी बहुमंदिरों व पुगतनावशेषों को नष्ट करनेमें ही अपनी लता रहती है, प्रायः प्रत्येक प्रतिमाके पीछेक भागमें महान् वीरता समझते थे । (अजन्टाकी गुहाओंमें की लख उत्कीर्ण होता है, उसमें प्रतिमा बनानेवालंका बहुत सी प्राचीन और कलापूर्ण बौद्ध मूर्तियोंके नाक, नाम तथा प्रतिष्ठा करवानेव लेका नाम, प्राचार्य व हम्त आदि अवयव मुग़लोन नष्ट-भ्रष्ट कर दिये हैं ) भट्टारकका नाम, और भी अनेक ऐतिहासिक बातें इसवास्ते जैनी लांग प्रायः ध तुकी मूर्तियाँ बनाकर खुदी हुई रहती हैं। प्रतिमाकं लेग्योंमें अनेक बातों पूजन करते थे। शिल्पशास्त्रका नियम है कि गृह- का पता चलना है; जैम कौन कौन जातियोंने प्रनिमंदिर में ११ अंगल तककी प्रतिमा ही होनी चाहिए। माएं बनवाई. वर्तमानम उन जातियोंमेस जैनधर्मका यद्यपि विशालकाय धातुमूर्तियाँ पाई जाती है, वे कौन कौन जातियाँ पालन करती हैं । कौनस गच्छ शिखरबंद जैन मन्दिरमें स्थापित की जाती थी। मुग़ल या संघक आचार्य व भट्रारक प्रतिष्ठा करवाई. समयमें शिखरबंद जैनमंदिर भी पाये जाते हैं । जैना- वर्तमानमें कौन कौन गच्छ उनमेंस विद्यमान हैं, चाोंने गजदरबारम जाकर मुगलसम्राटको स्वाचरण श्राचार्यों व भट्टारकोंकी शिष्य-परमपग, गजाओं, संरंजित कर काफी सन्मान संपादन किया, इस इति- मंत्रियों व नगरोंके नामादिक । और भी अनेक महहास बतला रहा है। खरतरगच्छीय श्री जिनप्रभसूरि त्वपूर्ण बातें प्रतिमा-लेग्वोंसे ही जानी जा सकती हैं। और प्राचार्य श्री जिनचंद्रसूरिजी इसके उदाहरण प्राचीन प्रतिमाओंक देवने यह भी मालूम होजाता रूप हैं। मेरे खयालमें जबसे जैनाचार्योंका गजदरबार है कि तत्कालीन कला-कौशल्य कितने ऊँके दर्जेका से विच्छेद हुआ तबस जैन समाजकी कुछ अवनति था, कौनसी शताब्दिमें किस ढंगम पतिमाएँ बनाई ही पाई जाती है । खैर ! जो कुछ हो, आज जैन जाती थीं तथा लिपिमें किस शताब्दिमें कैमा परिवसमाज की संख्या दूसरोंकी अपेक्षा अल्प है, फिर भी र्तन हुआ । इत्यादि । ज्योतिषशास्त्र की दृष्टि में भी भारतीय समाजोंमें जैन समाजका स्थान बहुत ऊँचा है। पतिमालेखोंका स्थान महत्वका है। कौनस सालमें, प्रतिमालेखोंकी उपयोगिता कौनसे मासमें अविवृद्धि(?) हुई थी यह पतिमालेखों में प्रतिमालेखोंकी ऐतिहासिकता इसलिये अधिक लिखा रहता है । मैं अनुभवसं कह सकता हूँ कि २५ मानी गई है कि उनपर किंवदन्तियों व अतिशयो- या ५० वर्षों में लिपिमें अवश्य परिवर्तन पाया जाता क्तियोंकी असर अधिक नहीं गिर सकती । क्योंकि है। उदाहरणार्थ १४५० की प्रतिमापर खुद हुए लेख लिखनेकी अगह कम होनेसे मुख्य मुख्य बातें ही को देखता हूं यब उस लिपिकी मरोड़में बहुत कुछ मलिखित होती हैं। और इसीलिये विद्वत्समाज अंतर मालूम पड़ता है। धातु पनिमाओंके लेख पायः जितना विश्वास उत्कीर्ण लेखों पर रखता है । पड़ी मात्रामें लिखे हुए पाये जाते हैं । किसी किसी Page #462 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] प्रतिमा लेख संग्रह और उसका महत्व ४२६ प्रतिमा ता लेखान्त-मार्गमें सुन्दर चित्र पालग्वित श्वेताम्बर संप्रदायकी मूर्ति के अंत भागमें भी 'प्रणहोता है। ऐसे चित्र मैंने श्वेताम्बर सम्पदायान्तर्गत मंति' शब्दका उल्लेख पाया जाता है लेकिन वह अपअंचलगच्छके प्राचार्यों की प्रतिष्ठित की हुई मूर्तियोंमें बादिक है । इसके सिवाय दिगम्बर शिला व प्रतिमा विशेषरूपसे देखे हैं । धातु पतिमा लेख इतने स्पष्ट लेखोंमें अधिकतर शक संवत्का उल्लेख पाया जाता और सुवाच्य अक्षरों में लिख होते हैं कि मानो सुन्दर है, जब कि श्वेताम्बर लेखोंमे प्रायः विक्रम संवतका । हस्तलिखित पुस्तक ही हो । अर्थात् हम्त-लिखित इस विषय में मैंने एक विद्वान्स पूछा था, उन्होंने एमा पुम्नको अक्षरोसे ये प्रतिमालेख बड़ी सहूलियतसं कहा कि वि० सं० की ऐतिहासिकतामें विद्वानोंका मुकाबला कर सकते हैं। बड़ा भारी शक हैं और शक संवत्-प्रर्वतक महाराजा धातु-प्रतिमालख्ख श्वेताम्बर व दिगम्बर भेदकी सातवाहन जैनी थे, इसीलिये शक संवतका उल्लेग्य वजहसे दो भागोमे विभाजित है। पश्चिम भारत व बड़े गौरवस किया जाता है। सातवाहनके जैनत्यके गजपूताने के अधिकतर प्रतिमालेख श्वेताम्बर संप्र- विषयमें मुझे कोई आपत्ति नहीं, परन्तु वि० सं० को दायसं संबन्ध रखते हैं और दक्षिण भारत के लेख अनैतिहासिक बतलाना नितांत गलनी जान पड़ता है। विशेषतः दिगम्बर संप्रदायमं । इमका प्रधान कारण हाँ! ऐमा हो सकता है कि दक्षिण में शक संवत्का यही जान पड़ता है कि प्राचीनकालसं पश्चिमी भारत उपयोग ज्यादा किया जाता हो और गुजगतम म श्वताम्बर्गका और दक्षिण भारतम दिगम्बगेका विक्रमका। प्रभुत्व रहा है। प्रतिमालेग्वमंग्रहको देन पूर्व हम यहां पर एक ___ यहाँ जो लेग्य मैं आपके मन्मुग्व उपस्थिन कर बान और प्रकट करना चाहते हैं वह यह कि प्रतिमारहा हूँ व मब दिगंबर संप्रदायसं संबंध रग्बन हैं। लग्व-संग्रहकी प्रणाली हालमें ही शुरू नहीं हुई बल्कि प्रतिमा लग्बोका जो लिपिकौशल्य श्वेताम्बर मूर्तियोमे पूर्वकाल में भी वह पाई जाती है। आजस कोई १०० पाया जाता है वह खेद है कि दिगंबर मूर्तियाम मरं वर्ष पहिले वि० सं० १९०० में एक यतिजी सिद्धाचल दम्बनमें नहीं पाया । यह बात ऐतिहामिक होनस जी की यात्राकं लिये गये हुए थे उन्होंने वहां कई यहां लिस्वनी पड़ती है। एक बात और भी है और शिला व प्रतिमा-लेखोंकी ज्योंकी त्यों (कापीटकापी) वह यह कि दिगम्बर तथा श्वनाम्बर संप्रदायाम प्रतिलिपि की थी, वह कापी ऐतिहासिक दृष्टिसं बड़े प्रतिमा व शिलालेग्वोंकी लग्खन - प्रणाली भिन्न २ महत्त्वकी है और मेरे संग्रहमें सुरक्षित है । एक और मालूम होती है। पहले संवन्, उपदंशक भट्टारकका भी प्राचीन लेखोंकी प्रतिलिपिकी पति मेरे प्रहम नाम, पीछे मूर्ति बनवाने वाले का नाम व अंतमें है। जिममें के लंम्ब महिमापुर-मंदिर-पशस्ति और भगवानके नामके बाद नित्यं प्रणमंति' यह प्रणाली बीकानेर नरेश सूरतसिंहजीके साथ विशेष संबन्ध दि० संप्रदायकी है। श्वे. संप्रदायमें संवत् निर्देश रखते हैं । पतिलिपि करने वाला क्षमा-कल्याणजीकी करने के बाद प्रतिमा बनवाने वालेका, भगवानका, परंपराका होना चाहिए, क्योंकि इसमें उक्त मुनिजी प्रतिष्ठित प्राचार्य व नगरका नाम आता है । यद्यपि की पतिष्ठित की हुई मूर्तियों के लेखोंकी बाहुलता है। Page #463 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४३० अनेकान्त पुरातन काल में यति मुनि जहाँ भी प्रतिष्ठा करवाते थे वहाँ के लेखोंकी प्रतिलिपि अपने दफ़तरोंमें याददाश्त के लिये रखते थे । श्री पूज्योके दफ्तरोको ऐतिहासिक दृष्टिसे संशोधित परिवर्द्धित करके यदि प्रकाशित किया जाय तो ऐतिहासिक सामग्री में बहुत कुछ अभि वृद्धि हो सकती है। एक बात यहां पर और भी उल्लेखनीय है, जो पूर्तिमाशास्त्रज्ञोंके लिये बड़ी ही महत्त्वपूर्ण सिद्ध होगी, और वह यह कि दिगम्बर व श्वेताम्बर दोनो संप्रदायों की मूर्ति-निर्माण- कला भी प्रायः भिन्न रही है। हमने दि० संपूदायका काफ़ी मूर्तियों का अध्ययन किया है। उस पर हम कह सकते हैं कि दि० मूर्तियोंके आगे के भागमे प्राय: एक ओर चरण, दूसरी ओर 'नमः' पाया जाता है। ये दो चिन्ह क्यां बनाये जाते हैं समझ नहीं आता। लेकिन मेरा यह अनुमान है कि चरण इस लिये बनाये जाते होंगे कि कुछ समय पूर्व दि० संप्रदायम साधु विच्छेद हाय थे इस वास्ते चरणका गुरुक रूपमें मानते हा ता काई [ वर्ष ४ बड़े आश्चर्य की बात नहीं है। दूसरा जो चिन्ह है वह शात्रका द्योतक है । साथमे इस बातका भी स्मरण रखना चाहिए कि उपर्युक्त दोनों चिन्ह सभी मूर्तियोंमे नही पाये जाते हैं। दिगम्बर और श्वेताम्बर संपदाय-भेद होनेका इतिहास तो पाया जाता है मगर मूर्तियोमे कब भेद पैदा हुआ यह बात ठी रूपसे नही कह सकते । इम भेदक इतिहासका लिम्वन के पहिले प्राचीन प्राचीन दि० व श्रे० मूर्तियोकं फोटो तथा विस्तृत परिचय देकर एक महान ग्रंथ तैयार करना चाहिए | क्या दानी संपदायकं विद्वान व श्रीमान इस बात पर ध्यान देंगे? यदि यह कार्य किया जाय तो बहुत बड़ी उलभने सुलझ जायेंगी । 'जैनमूर्ति-पूजा-शा त्र' नामक निबन्ध (thesis) Ph.d. की डिग्री के लिये मेरे गुरुवर्य उपाध्याय श्रीसुखमागग्जीन लिखा है। इस प्रथ मे दानों संप्रदायाक प्राचान-अर्वाचीन मूर्तियोकं फाटो दिये जायेंगे । (क्रमश:) UH वीर सेवामन्दिर सरसावाकी भीतरी बिल्डिंगके एक भागका दृश्य Page #464 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] SCE G बोर मे बामन्दिर के दृश्य वीर सेवा मन्दिर सखावा के पूर्वदारका दृश्य वीरसेवा मन्दिर मग्मावाके उत्तरद्वारका दृश्य ४३१ -Semale Page #465 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व-संस्कृतिमें जैनधर्मका स्थान ' (ले०-डा० कालीदास नाग, एम० ए०, डी० लिट० ) operfecondha> * नधर्म और जैन संस्कृतिक विकासके पीछे यह तो जानवरों, देवताओं और पाताल वासियों के लिये भी शताब्दियोंका इतिहास छिपा पदा है। श्री है। विश्वात्मक सहानुभूति-सहित यह व्यापक रष्टि और बौद्धोंका मैत्रीका सिद्धान्त दोनों बातें जैनधर्म में अहिंसाक doib ऋषभदेवसे लेकर बाईसर्वे अर्हत श्री नेमि प्राध्यामिक सिद्धान्त-द्वारा मौजूद हैं। इस लिये जैनधर्म Bimoch नाथ तक महान् तीर्थकरोंकी पौराणिक परं. और बौद्धधर्मका तुलनात्मक अध्ययन बहुत पहलेसे ही पराको छोष भी दें, तो भी हम अनुमानतः ईसवी सन्स किया जाना चाहिये था। ग्राज ईसवी सनसे पहलेके १००० ८७२ वर्ष पूर्वक ऐतिहासिककालको देखते हैं, जब तेईसवें वर्षों में हिन्दुस्तान के प्राध्यात्मिक सुधारके आन्दोलनोंको जो अहंत श्रीमगवान पार्श्वनायका जन्म हुआ, जिन्होंने तीस वर्ष समझना चाहते हैं, उनके लिये इस प्रकारके तुलनात्मक की भायुमें घर-गृहम्थी त्याग दी और जिनको अनुमानतः अध्ययनकी अनिवार्य आवश्यकता है। वह समय एशियाभर ईसवी सन्म ७७२ वर्ष पूर्व बिहारके अन्तर्गत पार्श्वनाथ में उग्र राजनैनिक और सामाजिक उलट-फेरका था, उसी पहाड़ पर मोक्ष प्राप्त हुश्रा। भगवान पार्श्वनाथने जिस समय एशियामें कई महान दृष्टा और धर्म संस्थापक उत्पन्न निगन्य सम्प्रदायकी स्थापना की थी, उसमें काल-गतिसे हुप, जैसे ईरानमें जरथुस्त्र और चीनमें लाोरों और उत्पन्न हुए दोषोंका सुधार श्रीवर्धमान महावीरने किया। महावीर अपनी प्राध्यामिक विजयके कारण 'जिन' अर्थात् जैनधर्म और ब्राह्मणधर्मके सम्बन्धक बारेमें हम देखने विजयी कहलाते हैं। अतएव जैनधर्म, अर्थात् उन लोगोंका है कि साराका सारा जैनसाहित्य ब्राह्मण संस्कृतिकी ओर धर्म जिन्होंने अपनी प्रकृति पर विजय प्राप्त करली है, एक बौद्ध लेखकोंके विचारोंकी अपेक्षा ज्यादा झुका हुआ है। महान् धर्म था, जिसका प्राधार आध्यात्मिक शुद्धि और डाक्टर विंटरनिज. प्रो. जैकोबी और दूसरे कई विद्वानोंने विकास था। इससे यह मालूम हुआ कि महावीर किसी हम बातको जोरदार शब्दों में स्वीकार किया है कि जैन धर्मके संस्थापक नहीं, बल्कि एक प्राचीन धर्मके सुधारक थे। लेखकोंने भारतीय साहित्यको मपम्का बनाने में बड़ा महत्वप्रानीन भारतीय साहिग्यमें महावीर गौतम बुद्ध के कुछ पहले पूर्ण हिस्सा अदा किया है। कहा गया है कि "भारतीय सपन्न हुए उनके समकालीन माने जाते है। जैनसाहित्य में साहित्यका शायद ही कोई अंग बना हो. जिसमें जेनियोंका कई स्थानों पर गौतम बुद्धके लिये यह बतलाया गया है कि प्रत्यन्त विशिष्ट स्थान न रहा हो।" व महावीरके शिष्य गोयम नामसं प्रसिद्ध थे। बादमें उत्पन्न इतिहास और वृत्त, काम्य और पाख्यान, कथा और हुए पक्षपात और मतभेदके कारण बौद्ध लेखकाने निगन्य नाटक, स्तुति और जीवनचरित्र, व्याकरण और कोष और नातपुत्त (महावीर) को बुद्ध का प्रतिपक्षी बताया। वास्तवमें इतना ही क्यों विशिष्ट ज्ञानिक साहित्य में भी जैन लेखकों दोनों दिकोणों में फर्क था भी। यही कारण है कि बौद्ध की संख्या कम नहीं है। भद्रबाहु, कुन्दकुन्द, जिनसेन, धर्मका दुनियाके बड़े भागमें प्रसार हुमा, किन्तु जैन धर्म हेमचन्द्र, हरिभद्र और अन्य प्राचीन तथा मध्यकालीन एक भारतीय राष्ट्रीय धर्म ही रहा। किन्तु फिर भी जैसा लेखकोंने आधुनिक भारतवासियोंके लिये एक बड़ी सांस्कृतिक डाक्टर विंटरनिङ्गने कहा है, दर्शनशास्त्रकी दृस्टिस जैनधर्म भी सम्पत्ति जमा करके रखदी। इस बातका प्रतिपादन तपगच्छ एक अर्थमें विश्वधर्म है। वह अर्थ यह है कि जैनधर्म न सब के सुप्रसिद्ध जैन प्राचार्य, लेखक और सुधारक श्रीयशोकेवल जातियों और सब श्रेणियों के लोगों के लिये ही है. बल्कि विजयजीने किया है, जिनका समय सन् १६२४-5 के Page #466 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण विश्वसंस्कृतिमें जैनधर्मका स्थान बीचका है। ईसवी सन्मे एक शताब्दी बाद जैनियों में के लिये एक बृहत् सूची बनानेका प्रथल भी नहीं किया। दिगम्बर और श्वेताम्बर जो फ्रि हो गये, उनको एक करने लगभग सन् १८७६-७ में हस्तलिखित जैम प्रन्योंका एक का गौरवपूर्ण प्रयत्न इस महापुरुषने किया था। बना संकलन गर्मिनकी रायन लायब्रेरीके लिये जार्ज बूमर इस महान् साहित्य और इसकी प्राध्यात्मिक सामग्रीकी ने किया था। और जैनसाहित्य के विस्तृत विवरणका भी यत्नपूर्वक रमा करना मात्र दिगम्बरियोंका, श्वेताम्बरियोंका, पहला प्रयत्न सन् १९८३-८५ के पास पास प्रोफेसर ए. स्थानकवासियोंका, तेरा पंथियों या किसी दूसरे सम्प्रदायके वेबरने किया था। सन् 100 और 105 के बीचमें लोगोंका ही कर्तव्य नहीं है, बल्कि यह तो भारतीय संस्कृति पेरिसके विद्वान प्रो.ए.गुरीमा महोदयने अपनी 'studies और ज्ञानके सभी प्रेमियों का कर्तव्य है। on Jaina Bibliography' प्रकाशित की थी। जैनियोंका सैद्धान्तिक साहित्य भाजभी केवल कुछ उसमें उसके बाद कोई परिवर्तन नहीं किया गया, जबकि गत विशेषज्ञों और विभिन सम्प्रदायोंके लोगों तक ही सीमित है। तीस वर्षों में उत्तर और दक्षिण भारतमें मये हस्तलिखित और सिद्धान्त-प्रतिपादनके अलावा जो दूसरा विशाल साहि- जैनग्रंथों और शिलालेखोंके ढेकर मिले हैं। हाल ही में स्य है, उसका भी प्राजतक पूर्ण रीतिसे अध्ययन नहीं किया दक्षिण भारतमें जैनधर्मकी मोर विद्वानों का ध्यान भाकर्षित गया है। हिन्लू-तत्वज्ञानके कितने विद्यार्थी यह जानने की हो रहा है। डा०. एम. एच. कृष्णने 'श्रवण बेल गोलामें परवाह भी करते हैं कि जैनियोंने न्याय और वैशेषिक दर्शनों गोमटेश्वरके मस्तकाभिषेक' पर खोजपूर्ण विवेचन किया है। के विकासमें कितना योग दिया है ? कितने हिन्दु इस बात डा०, बी० ए० सालतोर और श्री एम. एस. रामस्वामी को जानते हैं कि रामायण और महाभारतकी कथानों, एवं प्रायंगरने भी दक्षिण भारतीत अमधर्मके अध्ययन में महत्व. पुराण और कृष्णकी कहानियों पर जैन लेखकोंने भी कितना पूर्ण योगदान किया है । (खो जैन टीक्वेरी, मार्च १६४०)। लिखा है। भारतीय कलाके कितने विद्यार्थी यह जानते हैं इण्डियन म्युजियमकं क्यूरेटर श्री टी. एन. रामचन्द्र ने कि प्राचीन अजन्ता-कालकी चित्रकला और मध्य-युगकी अपनी सुन्दर सचित्र पुस्तक, जिसका नाम "तिरुप्पहत्ती राजपूत-कलाके बीच जैन चित्रकला कितना सुन्दर यौगिक कुरमन, और उसके मन्दिर" में दक्षिण भारणके जैनस्मारकों है। जैन लेखकोंने भारतकी कई प्रमुख भाषाओं जैसे उत्तरमें के बारे में बहत सुन्दर सामग्री दी है। हा०सी० मीमातीने गुजराती, मारवाड़ी और हिन्दी, तथा दक्षिण तामिल, कई जैन गुफाओं और जैनचित्रों का पता लगाया है, जिनमें तेलगु और कबाड़ी आदिको साहित्य सम्पन्न करने में कितनी तीर्थंकरोंके जीवनकी सामग्री है। ग्रासतौरसे पुदुक्कोटा स्टेट सहायता दी है। इन भाषाओंमें प्राज भी जैनधर्म सम्बन्धी अन्तर्गत सित्ता-वासन प्राममें यह खोम हुई है। कितने गम्भीर और विवेचनपूर्ण प्रबन्ध छपते हैं, किन्तु अभी तक किसी भी जैनसंस्थाने इस समस्त सामग्रीकी सर्वसाधारण [पर्युषन-पर्व-व्याख्यानमाला] Page #467 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियरके किलेकी कुछ जैनमूर्तियाँ [ लेखक-श्रीकृष्णानन्द गुप्त ] ग्वालियरका किला एक विशाल पहाड़ी चट्टानपर स्थित रक्खी गई। मुझे अजन्ता और एलौरा जानेका सुअवसर है। इस पहाड़ीमें होकर शहरसे किलेके लिये एक सड़क मिला है। हम लोग इन स्थानोके कितने ही चित्र देखें, जाती है । मूर्तियों में से कुछ तो इस सड़कके दोनो ओर चट्टान पुस्तकोमें उनका कितना ही वर्णन पढ़ें, परन्तु वहाँ पहुँचने पर खुदी है, और कुछ दूसरी दिशामें हैं। पत्थरकी कड़ी पर जो दृश्य देखनेको मिलते हैं वह कल्पनासे एक दम परे, चट्टानको खोदकर ये मूर्तियाँ बनाई गई है। श्राश्चर्यजनक और भव्य है। मनुष्य वहाँ जाकर अपनेको भारतवर्ष में ऐसे कई स्थान है. जहाँ कड़ी चट्टानोंको खो बैठता है । ऐसा प्रतीत होता है, मानों वह मायासे बनी खोदकर इस तरहकी मूर्तियो और गुफाओंका निर्माण किया हुई किमी अलौकिक पुरीमें श्रागया है। गया है। भारतीय कलामें इनका एक विशेष स्थान है। परन्तु एलौरामें जो जैन-गुफाएँ हैं उनकी कारीगरी भी गुफाएँ तो अग्नी अद्भुत कारीगरीके लिये संसार भरमें ___ कम आश्चर्य-जनक नहीं है । जैनियोंकी कलाका एक विशेष प्रमिद्ध है। इनके अनुपम शिल्प-कौशलको देखकर माधा- रूप वहाँ देखनेको मिलता है। जब मैं एलौरा गया तो वहाँ रण दर्शक ही चकित होकर नहीं रह जाते, बल्कि बड़े-बड़े बाहरके एक मिश्नरी यात्री ठहरे हुए थे। वे अपनी प्रात: कला-मर्मज्ञ भी दाँतों तले उँगली दबाते है । ये गुफाएँ और और संध्या कालीन प्रार्थना नित्य एक जैन गुफामें जाकर मूर्तियाँ बौद्ध, जैन और ब्राह्मण, इन तीनों धर्मोंसे सम्बन्ध किया करते थे। बात चीत होने पर उन्होंने कहा कि इस रखती हैं। कहीं-कहीं केवल एक धर्मकी, और कहीं तीनों स्थानका वातारण इतना शान्त और पवित्र है कि उसका धर्मोकी गुफाएँ और मूर्तियाँ पाई जाती है । एलौराके गुहा- मैं वर्णन नहीं कर सकता। जैन-गुफापोंकी एक विशेषता मन्दिरोमें तीनोंके उदाहरण मौजूद हैं। इनमें बौद्ध गुफाएँ यह है कि वहाँ तीर्थङ्करोकी मूर्तियाँ काफ़ी संख्यामें बनी सबसे प्राचीन हैं । फिर ब्राह्मण गुफाएँ बनी हैं, और उसके रहती हैं । एलौरामें जो गुफाएँ मैंने देखीं, वहाँ जैन तीर्थङ्करो बाद जैन गुफाएँ। एलीफेन्टाकी गुफात्रोंमें शैव धर्मकी प्रधा- की पंक्तियाँकी पंक्तियाँ विराजमान थीं। परन्तु जैनियोने नता है। बीजापुरके निकट 'बादामी' नामक एक स्थान है, पत्थरकी कड़ी चट्टानोंको काटकर एक दूसरे ही रूपमें अपने वहाँ एक पहाड़ीको काटकर जो चार उपासना-घर बनाये देवताओंको मूर्तिमान किया है । ग्वालियरमें शायद उसके गये हैं, वे तीनों धोकी कलाके द्योतक हैं। जबकि अजन्ता सर्वश्रेष्ठ उदाहरण देखनेको मिलते हैं। वहाँ गुफाएँ न बना की गुफाएँ मुख्यत: बौद्ध धर्मसे सम्बन्धित है। ब्राह्मण और कर केवल चट्टानों पर ही उन्होने विशाल और भव्य बौद्ध इस प्रकारके स्थापत्य के विशेष रूपसे प्रेमी रहे हैं। इन मूर्तियाँ अंकित की हैं। गुफापोंके भीतर प्रवेश द्वारसे लेकर एक दम अन्त तक यों तो किले में कई जगह जैनमूर्तियाँ खुदी है, परन्तु मनुष्यकी प्रतिभा, कला, धर्म, उपासना, धैर्य, और हस्त- दक्षिण-पूर्व की ओर तथा पहाड़ीकी एक और घाटीमें जो कौशलके आश्चर्यजनक दर्शन होते हैं। एलौगका कैलाश- जो मूर्तियाँ हैं वे विशेषरूपसे उल्लेखनीय हैं। किलेपरसे एक मंदिर तोजगत्-प्रसिद्ध है । यह एक पहाड़ीको काटकर बनाया बढ़िया सड़क घाटीमें होकर नौचे आती है, और वहाँसे गया है। बीचमें मंदिर, उसके चारों ओर मंदिरकी परिक्रमा, लश्करकी तरफ़ गई है। ऊँचाईपर होने, तथा पहाडीरास्ते में और फिर परिक्रमाके साथ ही चारों तरफ दालाने भी हैं, होकर पानेकी वजहसे एक तो यह सड़क यों ही बहुत रमजिनमें ऐसी सुन्दर और सजीव मूतियाँ स्थापित हैं कि जान णीक है, परंतु दोनों ओर चट्टानपर खुदी हुई भगवान श्रादिपड़ता है वे सब अभी बोल पड़ेंगी। ये सब मूर्तियाँ भी नाथ, महावीर तथा अन्य कई जैन तीर्थकरोंकी विशाल और चहानमेंसे काटकर बनाई गई है। दूसरी जगहसे लाकर नहीं भव्य मूर्तियोंके कारण तो वह और भी सुन्दर और दर्शनीय Page #468 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ग्वालियर के किलेकी जैनमूर्तियां किरण ८ ] बन गई है। यहा कुल २४ मूर्तियाँ है । इनके निर्माणका समय हमें उन शिलालेखोंसे ज्ञात हो जाता है जो यहाँ अंकित है, और काफ़ी स्पष्ट हैं। ये शिलालेख संवत् १४६७ (ई० सन् १४४०) और १५१० ( ई० सन् १४५३) के हैं। इससे प्रकट होता है कि ये मूर्तियों तोमर राजाश्रोंके समय की बनी हैं। दुर्भाग्यवश वे अपनी असली हालत में नहीं है । मुसलमानोंकी धार्मिक सहिष्णुताके कारण बहुत कुछ नष्ट ढो चुकी हैं । बाबर जब सिंहासन पर बैठा तो इन मूर्तियों पर उसकी खास तौर से नज़र पड़ी । श्रात्मचरित में एक स्थानपर इन मूर्तियोका जिक्र करते हुए बाबरने लिखा है - "लोगों ने इस पहाड़ीकी कड़ी चट्टानको काटकर छोटी-बड़ी अनेक मूर्तिया गढ़ डाली हैं। दक्षिणकी ओर एक बड़ी मूर्ति है जो करीब ४० फीट ऊँची होगी। ये सब मूर्तियों नम हैं । वस्त्र के नामसे उनपर एक धागा भी नही । यह जगह बड़ी खूब मूरत है । परन्तु सबसे बड़ी खराबी यह है कि ये नग्नमूर्तियाँ मौजूद हैं। मैंने इनको नष्ट करनेकी श्राज्ञा दे दी है।" यद्यपि यत्र-तत्र इन मूर्तियो पर प्रहारके चिन्ह मौजूद हैं । फिर भी कुल मिलाकर वे अच्छी हालत में हैं । यह बड़ी बात है । क्रिलेसे बाहर निकलते ही, ज्यों ही श्रागे बढ़िए, आदिनाथकी एक विशाल मूर्ति बरबस हमारी दृष्टि प्रकृष्ट करती है । बारकी श्रात्म-जीवनीसे ऊपर हमने जो श्रंश उद्धृत किया है उसमें ऊँचाई चालीस फीट बताई गई है, परन्तु वह सत्तावन फीटसे कम ऊँची नहीं है। जैनियो की इतनी बड़ी मूर्ति भारत में एकाध जगह ही और है। मूर्तिकी विशालता से दर्शक एकदम चकराकर रह जाता है । कल्पना काम नहीं करती। जिन कलाकारोंने इस मूर्तिको गढ़ा होगा वे श्राज हमारे सामने नहीं हैं। उनका नाम भी हम जात नहीं । नामकी उन्हें इतनी परवा भी न थी । परन्तु उनकी अनोखी कला, उनका अनुपम शिल्प कौशल, उनका ऋतुलित धैर्य, उनकी अटूट साधना, श्राज मानां श्रादिनाथ भगवान की इस मूर्ति के रूपमें हमारे समक्ष उपस्थित हैं । इम कला - मूर्तिको एक बार प्रणाम करके हमने उसे पुन: ध्यान पूर्वक देखा । मुख मण्डल पर जैसे कुछ उपेक्षाका भाव है। परन्तु फिर भी मूर्ति श्राकर्षक है । इस प्रकारकी सभी बड़ी जैन- मूर्तियों में एक प्रकारकी जड़ता-सी दृष्टि गोचर होती है । हार में जो मूर्ति है उसके कटि प्रदेश से ऊपरका भाग तो ४३५ अत्यन्त सुन्दर है । मुख मण्डलपर सौभ्यताका एक अलौकिक भाव है । उँगलियाँ बड़ी कोमल और कला-पूर्ण हैं। परन्तु कटि प्रदेशसे नीचेका भाग उतना मृदुल और सजीव नहीं है । इसका कारण इन मूर्तियोंकी विशालता ही है। बड़े रूप मे अंग-विन्यासकी कोमलताकी रक्षा करना अत्यन्त कठिन है । इन मूर्तियोके पैर तो विशेष रूपसे कुछ जब होजाते हैं। श्रादिनाथ भगवानकी मृतिके पैर नो फीट लम्बे हैं और वह चक्र चिन्ह से सुशोभित हैं। इस प्रकार मूर्ति पैरोसे सात गुनी के लगभग बड़ी है। मूर्ति के बीचों-बीच सामने चट्टानका एक श्रंश बिना कटा ही छोड़ दिया गया है। इसलिये समग्र मूर्तिको देखना कठिन है । यहासे थोड़ा श्रागे चलकर पश्चिमकी तरफ नेमिनाथ भगवान्की एक दूसरी विशालमूर्ति है। नोमनाथ जैनियोंमें बाइसवें तीर्थङ्कर थे । श्रादिनाथ की मूर्तिकी भाति यह मूर्ति भी खड़ी हुई है। परन्तु अन्य जो मूर्तियां हैं वे समासीन अवस्थाम है, और देखनेमे बहुत कुछ भगवान बुद्धकी मूर्तिसे मिलती-जुलती है। वास्तवमें साधारण दर्शकके लिये भगवान् बुद्ध और महावीरकी मूर्ति मे किसी प्रकारका विभेद करना बड़ा कठिन है । परन्तु ये मूर्तिया अपने विशेष धार्मिक चिन्होंसे सुशोभित रहती हैं, जिनकी वजह से इन्हें पहचानना आसान है। ये चिन्ह कई प्रकार के होते हैं। उदाहरण के लिये वृषभ, चक्र, कमल, अश्व, सिंह, बकरी, हिरन श्रादि । जैनियोंके प्रथम तीर्थङ्कर भगवान् श्रादिनाथ की मूर्तिके निकट सदैव वृषभ बना रहना है। घाटीकी दाहिनी तरफ और भी कई मूर्तिया हैं । ये केली बहुत कम हैं। एक साथ तीन-तीन मूर्तिया हैं । मूर्तियोके कुछ श्रागे चट्टानका एक हिस्सा बिना कटा छोड़ दिया है, जिसकी वजह में एक दीवार -मी बन जाती है । यह शायद पुजारी अथवा भक्तगणोंके लिये बैटनेका स्थान है । घाटी बाहर दक्षिण-पश्चिमकी और मूर्तियांका एक और मह है । इनमें कुछ विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं। एक तो शयनावस्था में एक स्त्री-मूर्ति है, जो करवटसे लेटी है और करीब आठ फीट लम्बी होगी। दोनों जायें सीधी हैं, परन्तु बाँया पैर दाहिनेके नीचे मुड़ा है। दूसरे स्थान पर तीन मूर्तिया है, जिनमें माता-पिता के साथ एक बालक प्रदर्शित किया गया है। ये मूर्तियों भगवान् महावीरके माता-पिता त्रिशला और सिद्धार्थकी बतलाई जाती हैं, और Page #469 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष साथमें बालकके रूपमें स्वयं भगवान् हैं। तत्त्व विभाग द्वारा प्रकाशित अन्य पुस्तकें पढ़ें [हमें स्वयं दक्षिण-पूर्व की ओर जो मूर्तियाँ हैं उन तक पहुँचना इन मूर्तियोके दर्शन करने तथा किलेके अन्य पुराने स्थानों बहुत कठिन है । प्रयत्न करनेपर भी उन्हें हम देख नहीं सके। को देखनेमें इन ग्रन्थोसे बड़ी मदद मिली] इन मूर्तियोके सम्बन्धमें जो विशेष जानकारी प्राप्त करना चाहें वे ग्वालियर गजेटियर तथा ग्वालियरके पुरा ('मधुकर' पाक्षिकसे उद्धृत) +--: अमोघ आशा :--" [ लेखक-व्याकरण रत्न पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लिन' ] कभी हमारा था जग अपना, सुख था, दुखका था नहीं सपना; दस लक्षण, शुभ लक्षण थे तब, होती थी न अशुभ दुर्घटना। जब न रहे व सुखके दिन तो, ये दुर्दिन भी टल जायेंगे ! पाएंगे व दिम आगे !! मंजु सुमन होंगे सहयोगी, कहीं न कोई पीड़ा होगी, सस्य - साधनाके साधनसंबन जायेंगे भोगी योगी । एक एक का हाथ पकड़ करदुख - सागरसे तिर जायेंगे ! पाएँगें, वे दिम आएँगे !! जगति का तृण-दल निखरेगा, पण-प्रतिषण मृदुकण विखरेगा, मलयानलकी कम्पित, मोलीसे मजुल मकरन्द करेगा। प्रकृति-सुन्दरी नृत्य करेगी, वन-विहँग मंगल गायँगे! पाएँगे, वे दिन आएँगे !! विप्नव, पापाचार घटेंगे; भीषण अत्याचार हटेंगे! सच्ची रीति - नीति से जगके, मिथ्याचार • विहार मिटेंगे, प्रेम - सुधाकी दो धू टोंसेअमर सदा को हो जाएँगे! पाएँगे, वे दिन पाएँगे !! विषम-वासना मिट जाएगी, साम्य - भावना छा जाएगी; सदाचारकी सुख-गंगामेंदुनिया फिर गोते लाएगी। घुल कर पीड़ा क्रीड़ाओं में-- पाप पुण्यसे धुल जाएँगे! पाएँगे, वे दिन पाएँगे !! मिट जायेगा, दर्द-पुराना, है परिवर्तन-शील ज़माना; भूलेगा अन्तर, आंखों कीप्याली से भाँसू छलकाना ! निर्मम हो कर छोड़ गये जोममता लेकर घर पाएंगे! आएंगे, वे दिन पाएँगे !! [ ३ ] निशा-निराशा का मुंह-काला, नभ से फूटेगा उजियाला; अहण ,उषाके कोमल करसे एखक पड़ेगा जीवन प्याला। माशाके छींटों में दुब-हुबकरते तारे छिप जाएंगे ! भाएंगे, वे दिन पाएंगे !! फैलेंगी नव-नता निराली, थिरक उठेगी डाली-डाली; संसृति मूम उठेगी सुख मेंसम में हँसती-सी दीवाली ! मंगलमय जग-जंगल होगा, सुखद-जलद जल बरसाएँगे! भाएंगे, वे दिन भाएँगे !! मधु होगा, पीने • खाने को, मन्दन - वन मन बहलानेको, भूतलसे नभतख तक होगासुन्दर पथ, भाने • जानेको। 'सत्य' सखा बन साथ रहेगाअब चाहे पाएँ - जाएँगे ! भाएँगे, वे दिन भाएंगे !! Page #470 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सयुक्तिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तर लेखकी निःसारता [ लेखक-पं० रामप्रमाद जैन शास्त्री ] स phot جججج [गत किरणसं पाग] (२) अर्हत्प्रवचन और तत्वार्थाधिगम द्वादी वा श्रयमाणं पदं प्रत्येकं संबध्यते' इस नियम ... के अनुमार द्वंद्वान्तर्गत विशंपण प्रत्येक विधेय करणम सयुक्तिक सम्मतिक आक्षेपका उत्तर (विशेष्य ) के माथ लग सकता है, तो इसका उत्तर दत हए प्रोफमर जगदाशचंद्रन मरं व्याकरण यह है कि यह बात असंदिग्ध अवस्था की है, जिस विषयक पाण्डित्यपर हमला करनकी काशिश की है जगह मंदिग्धनारूप विवादम्य विषय हो वहाँ यह और विना किी युक्ति-प्रयुक्तिक हेतुकं ही मर ज्ञान उपर्युक्त व्याकरणका नियम लागू नहीं होना । यहांका का झटम व्याकरगा शून्यनाकी उपाधि द डाली है । विषय मंदिग्ध हानक कारण विवादस्थ है; क्योंकि मालूम नहीं व्याकग्गाक किम अजीब कायदे को लेकर मिसनगणीकी टीका अध्याय-परिममाप्ति-वाक्यो उत्तरलेग्वकन व्याकरण शून्यना। यह सार्टिफिकट में सिर्फ मतम अध्यायको छोड़कर और किसी भी द डालने का साहम किया है ! मुझे ता इमम उत्तर अध्यायके अन्तम — उमास्वातिवाचकापज्ञसूत्रभाष्य' लग्बककै चित्त की प्रायः क्षुब्ध प्रकृति ही काम करती हुई नजर आरही है। ऐसा वाक्य नहीं है। एमी हालनमें कहा जा सकता मैन लिग्बा था कि-' उमाम्बातिनाच कापज्ञ है.. यह वाक्य खाम मिद्धमनगगीका न होकर सूत्रमाप्य' यह पद प्रथमाका द्विवचन है । चाक किमा दृमरंक कृनि हो जो नत्त्वार्थसूत्र का तो उमा. • भाग्य' शब्द नित्य हा नपंसकलिग है, इमालय ग्वानि ।। मानना हो परंतु भाप्यका उमास्वातिका • भाग्य' पद प्रथमाका द्विवचन है, इस कथनम नहीं मानना हो । प्रनिलंग्वक भी मंधिवाक्योंक व्याकरण की ना काई गलती नहीं है। अब रहा इम लिम्बनम बहुत कुछ निरंकुश पाये जाते हैं, इमांस पदको प्रथमाका द्विवचन लिग्वन का मंग प्राशय, वह ग्रंथी मत्र प्रतियां संधिवाक्य । एक ही रूप यही है कि उक्त द्वंद्वममामक अन्तर्गन मुत्र और में दंग्यनेम नहीं आते । अथवा उम कृतिको यदि भाष्य दाना ही उमाम्बातिकृन नहीं हैं किन्तु कंवल मिद्धमनगी ही मान लिया जाय तो मिद्वमन तत्त्वार्थसूत्र ही उमाम्बातिकृत है । यदि भाग्य भी गणीकं हृदयकी मंदिग्धता उमके निर्माण अवश्य उमाम्बातिकृन हाता ता सिद्ध सनगगि · उमाम्बाति- संभावन हो सकती है। यदि सिद्ध मनगणी हम वाचकांपज्ञ' इम विशेषण की भाग्यके माथ भी पिगमे ( मूत्र और भाष्यके एककर्तृत्व विषयमें ) वाक्याचना कर देते, परंतु उन्होंने ऐसी रचना नहीं मर्वदा अथवा मर्वथा अमंदिग्ध रहने तो वे 'उमा. की । इसके लिये यदि ऐसा कहा जाय कि 'द्वंद्वान्ने म्वानिवाचकांपज्ञे सूत्रभाज्य' ऐमा स्पष्ट लिखने अथवा Page #471 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ सूत्र और भाष्य दानोंके साथ जुदा जुदा उमास्वानि- दूमग कारगण यह मालूम होता है कि भाष्यकाग्ने, वाचकांपज्ञ जैसा विशेषण लगा देते; परंतु ऐमा कुछ अपने भाग्यमें, अनेक स्थलोंपर ऐसे वाक्य लिखे हैं भी किया नहीं अतः वह पद मप्तमीका एकवचन नहीं जिन ने स्पष्ट मालूम होता है कि भाग्यवसि सूत्रहै और न उमम एककर्तृता ही मिद्ध हानी है। कर्ना जुद है । यथा: अब देग्वना यह है कि मिद्धसनगणी इस विषय 'आद्य इति सूत्रक्रमप्रामाण्यान्नैगममाह' (पृ० ११७) । म मंदिग्ध क्योंकर हैं । मिद्धमनकी टीकाको यदि "आद्यामति सूत्रक्रमप्रामाण्यादौदाम्किमाह" गहराई माथ अवलोकन किया जाना है तो उमस (पृ० २०७)। यह पता चलता है कि उन्होंने हरिभद्रसूरि जैसे “बन्धे पुरस्ताद् वक्ष्यति " (पृ० २१०) । अपन कुछ पूर्ववर्ती विद्वानांके यथनपरमं यह ग़लत “वक्ष्यति च स्थितौ 'नारकाणां च द्वितीयादिषु' धारणा ता करली कि भाष्य और तत्त्वार्थसूत्रक कर्ता (पृ० २२८) एक ही व्यक्ति हैं परन्तु वैमी धारणाका सुदृढ रखने “मुत्तरस्यात सूत्रक्रमप्रामाण्यादुच्चैर्गोत्रस्याह" के लिये कोई भी पुष्ट प्रमाण उपलब्ध न होनम व (द्वि० ख० पृ० ३९) उम विषयमें बगबर शंकाशील अथवा मंदिग्ध रहे " सूत्रक्रमप्रामाण्यादुत्तरमित्यभ्यन्तरमाह " हैं-भले ही श्राम्नायवश व दानोंकी एकताका कुछ (द्वि० ख० पृ० २४९) प्रतिपादन भी करते रहे हों। उनकी इस स्थितिका इन वाक्यों में प्रयुक्त हुए प्रथमपुरुष एकवचनाप्रधान कारण एक तो यह जान पड़ता है कि भाज्यकं त्मक क्रियाकं प्रयोग साफ सूचित करते हैं कि भाष्यसाथमें जो ३१ संबंध-कारिकाएँ हैं उनमें- २२ वीं कार, जो अपना उल्लेख उत्तमपुरुपकं बहुवचनमें करते और ३१ वी कारिकाओंमे- वक्ष्यामि ' ( वक्ष्यामि पाए हैं, अपनेस सूत्रकारको जुदा प्रगट कर रहे हैं। शिष्यहितमिममित्यादि ) 'प्रवक्ष्यामि ' ( माक्षमागे मालूम होता है इन दोनों कारणासं सिद्धसनगणी प्रवक्ष्यामि ) जैस एकवचनान्त प्रयोग पाये जाते हैं; अपनी धारणाम संदिग्ध हुए हैं, परन्तु आम्नाय जबकि भाष्यमें सब जगह 'उपदक्ष्यामः' ('विस्त- अथवा हरिभद्रक कथनकी रक्षाके लिये उन्हें निर्हेतुक रंणापदेक्ष्यामः' सि० टी० पृ० २५, ४१) और वाक्य-चना करके यह कहना पड़ा है कि सूत्रकारम 'वक्ष्यामः' ('पुरस्तादवक्ष्यामः' 'मनःपर्ययज्ञानं भाष्यकार अविभक्त है। ऐस कथनक स्थल मिद्धसन वक्ष्यामः' सि० टी० पृ० ७६, १०० ) जैसे बहुवचना. गणीको टीकामें दो जगह नज़र आरहे हैं। एक स्थल न्त क्रिया पद ही नजर आते हैं और ऐस स्थल तो प्रथम अध्यायकं ११ वें सूत्रके भाष्यमें प्रयुक्त हुई भाष्यमें १३ हैं। इससे स्पष्ट मालूम पड़ता है कि 'शास्ति' क्रिया से सम्बन्ध रखता है । इस क्रिया सम्बंध कारिकाओंके और भाष्य कर्ता जुदे जुदे हैं। का स्पष्ट आशय वहां यह है कि सूत्रकार शिक्षा सम्बंध कारिकाओं के कर्ता एक व्यक्ति शायद उमा- ( उपदेश ) देता है । इसी · शामिन ' क्रिया संदिग्ध स्वाति हैं और भाष्य के कर्ता कोई दूसरे-संभवतः होकर सिद्धसेनगणी आम्नायक-थनकी रक्षार्थ अपनी अनेक हैं। टीकामें लिखते हैं Page #472 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] शास्तीति च ग्रंथकार एव द्विधा श्रात्मानं विभज्य सूत्रकारभाष्यकाराकारेणैवमाह - शास्तीति सूत्रकार इति शेषः । अथवा पर्यायभेदात् पर्यायगणां भेद इत्यन्यः सूत्रकारपर्यायांऽन्यच भाष्यकारपर्याय इत्यतः सूत्रकारपर्यायः शास्तीति । " सयु० स० पर लिले गये उत्तर लेखकी निःसारता अर्थात- प्रथवार ही अपने आत्माको सूत्रकार और भाष्यकार के आकार से दो भागों में विभाजित कर के ऐसा कहता है । ' शाम्ति ' क्रियापदके साथ में • सूत्रकारः ' पद ' इति शेषः ' ( श्रध्याहृत्त ) के रूप में है । अथवा पर्यायके भेद पर्यायीका भेद होनेके कारण सूत्रकार पर्याय श्रन्य है और भाष्यकार पर्याय अन्य है । अतः 'शान्ति' क्रियाका कर्ता सूत्रपर्याय है । दूसरा स्थल द्वितीय अध्याय के ४५ वें सूत्रकं भाष्य में प्रयुक्त हुए 'कार्माणमाह इस वाक्यसे संबंध रखता है, जिसकी टीकाम सिद्धसेनगरणी लिखते हैं— " सूत्रकागदविभक्ताऽपि हि भाष्यकारी विभागमादर्शयति व्युच्छित्तिनयममाश्रयणात् ।” अर्थात् - भाग्यकार सूत्रकारसे अभिन्न होता हुआ भी अपनेको भिन्न प्रकट कर रहा है, यह पर्यायार्थिकनय के श्राश्रयको लिये हुए कथन है । स्पष्ट इन दोनों स्थलों पर उत्पन्न होनेवाली सन्देहकी रेग्या और खींचातानी द्वारा उसके परिमार्जनकी चेष्टा । इनमें पिछले स्थलके ' सूत्रकागदविभक्तो offe भाष्यकार:' इस वाक्यग्वण्डको उद्धृत करके उत्तर लेखक (प्रो० सा० ) ने अपने कथन की बड़ी भारी प्रामाणिकता बतलाई है और ऐसा भाव व्यक्त किया है कि मैं जो कुछ लिख रहा हूं वह अखंड्य है ! यह देखकर मुझे बड़ा अफसोस होता है कि ऐसे शब्दमात्र प्रेक्षी लेखक कैम कैसे निंद्य धाखेने स्वतः फँसकर दूसरों को भी फँसाते हैं ! सिद्धसेनगणी की ४३६ उक्त दोनों स्थलों की पंक्तियों व्यर्थको स्वींचातानीको लिये हुए निर्हेतुक होनसे यह कैसे समझा जाय कि भाष्यकार और सूत्रकार एक हैं ? मालूम होता है सिद्धसेनगणीने दोनोंको एक बतलानेका जो यह प्रयास किया है वह कंबल आम्नायकी रक्षार्थ लोकदिखाऊ किया है; क्योंकि यदि उनकी सर्वथा वैसी ही भावना होती तो वे सूत्रकारको 'सूरि' और भाष्यकार को 'भाध्यकार' उल्लेखित करके जुदा जुदा प्रकट न करते। जैसा कि निम्न वाक्योंमें प्रकट है :अतस्तनिवारणायाह " इति कश्चिदाशङ्केत, भाष्यकारः " ( पूर्वार्ध पृ० २५) "सत्यपि "मानयनिर्देशमदमदाद्यने कानुयोगव्याख्याविकल्पे पुनः पुनस्तत्र तत्रैनदेव द्वयमुपन्यम्यन भाष्याभिप्रायमाविष्करोति सूरिः । " ( पू० पृ० २९) "तवेदं सूत्रं वाक्यान्तरर्गनिरूपणद्वारेण प्राणायि सूरिणा । " ( पू० पृ० ३२ ) , 6 " सूरिगढ़ - अत्रीच्यते ।" ( पू० पू० ४१ ) सिद्धगणीकी टीका में ऐसे अनेक स्थल हैं जो ग्वासकर 'सूरि' शब्दसं सूत्रकर्ताके वाचक हैं तथा सूत्रकार के लिये ' सूत्रकार' और भाष्यकार के लिये 'भाध्यकार ' शब्द के स्पष्ट प्रयोगको लिये हुए हैं। इसमें मालूम होता है कि सिद्धसेनगगीकी उक्त मान्यता सन्देहको लिए हुए लोकदिग्बाऊ थी । ऐसी हालत में उमाम्वातिवाचकांपज्ञसूत्रभाष्ये ' इम पद को सिद्धसेनगरणीका मान लेनेपर भी यह कैसे निश्चित रूपसे कहा जा सकता है कि उनका अभिप्राय 'उमास्वातिवाचकोपज्ञ' विशेषणको भाष्यकं साथ लगाने का था ? यदि उनका वह विशेषण भाप्यके साथ भी लगाना अभीष्ट होता तो वे उसे सूत्रकी तरह भाष्य के भी साथ लगाकर दो पद अलग अलग दे देते अथवा ' उमास्वातिवाचकोपज्ञे' और ' सूत्रभाष्ये ' ऐसे दो पद लिख देते । परंतु इन दोनोंमेंसे एक भी बात Page #473 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४० अनेकान्त सिद्धसेनगणने की नहीं, ऐसी हालत में अर्थात संदिध अवस्था में ' उमाम्वातिवाचकोपज्ञ' विशेषण भाष्य के लिये लागू नहीं हो सकता, और इसलिये मैंन ' उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रभाष्ये ' इस वाक्यका जो प्रथमाका द्विवचन लिखा है वह सर्वथा व्याकरण के कायदेको लिये हुए है । इसकी जां 'व्याकरणशून्यता' लिखते हैं वे स्वतः व्याकरणज्ञानसं शून्य जान पड़ते है । मैंन सप्तम अध्याय के उस सन्धिवाक्यका अर्थ देते हुए, जिसमें विवादस्थ पदका प्रयोग हुआ है, एक जगह ' उसमें ( उनमें ) ' अर्थ लिखा था, इस पर प्रा० सा० पूछते हैं कि -" उसमें यह अर्थ कहाँ से आगया ?” इसका समाधान इतना ही है कि यदि कोई संस्कृतका अच्छा जानकार होता तो वैसा अर्थ स्वयमेव कर लेता । परन्तु आपकी समझमे वह अर्थ नहीं आया और मुझे मुख्यतया आपको ही समझाना है अतः आप समझिये - संस्कृत या और भी भाषाओं में जो वाक्य होते हैं वे सत्र साक्षेप होते हैं । यहाँ प्रकृत में जो यह वाक्य है कि ' और भाष्य सूत्र हैं' इसमें सूत्र और भाष्य कर्ता हैं, कर्ता हमेशा क्रियाकी अपेक्षा रखता है अतः 'है' यह क्रिया अग त्या अध्याहृत | जब प्रकृत में ' सूत्र और भाष्य हैं' ऐसा वाक्य सिद्ध होजाता है तो फिर उसके आगे ' भाण्यानुसारिणी टीका है ' यह वाक्य विन्यस्त है; तब स्वतः ही दोनों वाक्योंका संबंध मिलानेवाला अर्थात् सापेक्ष वाक्य जो ' उसमें ' ( उनमें ) है वह सम्बंधित होजाता है । अतः यहां भाषापरिज्ञानी को यह शंका नहीं होती कि 'उसमें' या 'उनमें' यह अर्थ कहाँ से आ गया। और इसलिये उक्त शंका निर्मूल है। [ वर्ष ४ प्रश्नसे ऐसा मालूम होता है कि आपने यह सयुक्तिक सम्मतिका उत्तरलेख प्रायः आँख मीचकर लिखा है; क्योंकि 'सूत्रभाष्ये' पदमें जब भाध्य शब्द स्पष्ट दिखाई देरहा है तब उक्त प्रश्नको लिये हुए आपकी उक्त लिखावटको आँख मीचकर लिखी जाने के सिवाय और क्या समझा जा सकता है। इसी प्रकार आगे चलकर आप पूछते हैं कि " उक्त अर्थ में 'भाग्य' शब्द कहाँसे कूद पड़ा ?" इस इसी प्रकृत विषय के संबंध में आपने एक विचित्र बात और भी लिख मारी है, और वह यह है कि "उमास्वातिवाचकोपज्ञसूत्रमाध्ये' पदमें 'उमास्वातिवाचकांपज्ञ' जो उद्देश्य है वह अपने विधेय 'भाग्य' पदके साथ तो अवश्य ही जायगा, चाहे थोड़ी देर के लिये वह 'सूत्र' के साथ न भी जाय" यह आपका वचन वास्तव में सहाम्य व्याकरणशून्यताका सूचक है । अपने इस कथन के समर्थन में आपने कोई भी हेतु नहीं दिया, निर्हेतुक होने से आपका कथन प्रमाण कोटि में नहीं आ सकता। आश्चर्य है आपके साम को जो आपने झटसे ऐसा लिख माग कि जिस विशेष्य से विशेषण संबद्ध है उसके साथ ता वह न भी जाय और दुग्वर्ती विशेष्यकं साथ उछलकर संबद्ध होजाय ! यह सब आपकी विचित्र कथनी आप सर. खोके ध्यान शरीफम भले ही आए परंतु विज्ञोंके ध्यानसं तो वह सर्वथा बाह्य ही है और उस कोई महत्व नहीं दिया सा सकता । 66 इसी प्रकरण में आपने यह भी लिखा है कि 'श्रहेत्प्रवचन' शब्द भी नपुंसकलिंग है, फिर उसे भी प्रथमाका द्विवचन क्यों न माना जाय ?" इसका समाधान एक तो यह है कि – तत्वार्थाधिगमे' पदकं नंतर कदाचित् वह पद ( श्रहेत्प्रवचने) होता तो मान भी लिया जाता, परंतु यहाँ वैमी वाक्यरचना नहीं है। अतः वैसे अर्थका टति अर्थावबोधकत्व न Page #474 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] सयु० स०पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता ४४१ होनसे उमं प्रथमाका द्विवचन न मानकर मप्रम्यन्त दूरवर्ती भाष्यका' का विशेषण नहीं हो सकता किंतु पद मानना ही उचित है । दूसरे, यदि उसको प्रथमा निकटवर्ती 'सत्र' का ही हो सकता है। दुमरे, उस का द्विवचन मान भी लिया जाय तो वह 'सूत्रभाष्य' पदको 'मातम्यन्त' ही माननेका यदि आग्रह हो तो पदका विशेषण हानसे यह अर्थ होगा कि तत्वार्थसूत्र वह पं० जुगलकिशोरजी मुख्तार के कथनानुसारक और भाष्य ही 'अर्हत् प्रवचन' हैं-दूमरे पागमादि षष्ठी तत्पुरुषका ही रूप सबसे प्रथम संभवित है; ग्रंथ अहन्प्रवचन नहीं हैं। भागमादि ग्रंथाके साथ कारण कि शीघ्र शाब्दबोधकतामें षष्ठीतत्परुषकी वह 'अर्हन् प्रवचन' शब्द देखा भी नहीं जाता। अतः तरफ सबम पहले हट जाता है और तब उस पदका ऐमा महान् अनथ न हो जाय इसके लिये ही 'तत्वा- अर्थ यह हो जाता है कि-'एमास्वाति वाचक-बिर र्थाधिगमें पदक पूर्व 'अर्हत् प्रवचने' पद विन्यस्त चित सत्वार्धमत्रके भाष्यमे'। इस अर्थसं यह स्पष्ट किया गया है, जिसका तात्पर्य यही है कि वह पद प्रतीत होता है कि भाष्यकर्ता तत्वार्थसूत्रकर्तासे जुदे मप्तमीका ही ममझा जाय और इस तरह उमसे कोई हैं। अतः कहना होगा कि दोनों विभक्तियोंमेले काई अनर्थ घटित न होजाय। भी विभक्ति लीजाय-परंतु प्रा० मा० की एककर्तृत्व इसी प्रकरणमें पो० साहबने एक बात यह भी की अभीष्ट सिद्धि किमीसे भी नहीं बन सकती। पूछी है कि "उस भाष्यका कर्ता कौन हैं जिम पर दुमरे, 'तुष्यतु दुर्जनन्यायम' यदि यह मान भी ग्रंथकार टीका लिम्व रहे हैं ?" इसका जवाब ऊपर लिया जाय कि मिद्धमन गणी दोनोका एक कर्तृत्व ही आ चुका है, जिसका आशय यह है कि भाष्यमें मानते थे' तो वे आपके मतानुसार भले ही मानें, उन कारिकाओं के विपरीत 'वक्ष्यामः' जैसे बहवचनान्त के माननकी कीमत ना तव हाती जब कि उस क्रियापदोंका प्रयोग पाया जाता है, इमलिये भाप्यके विषयमें किसी प्रबल हेतुका स्पष्ट उल्लेख करते; परन्तु कर्ता उमास्वाति न होकर कोई दमर ही हैं और वे उन्होंने वैसा काई उल्लेख किया नहीं नथा भाष्यकार मंभवन: अनक हैं। । स्वतः अपने सूत्रकारको जुदा सूचित करते हैं, तो फिर ___ इस प्रकरणमें 'उमाम्बातिवाचकोपजमत्रभाष्ये' ऐसी दशा में सिद्धसनगणीको बेमी मान्यताकी कीमत पदको लेकर द्वंद्वममामगन मतमी विभक्ति माननकी भी क्या हो सकती है और उससे भाग्यविषयक जो आपकी धारणा थी उमका ग्बंडन ऊपर अच्छी प्रचलित संदिग्धताका निरसन भी कैसे बन सकता है ? तरह किया जा चुका है अर्थात् वह पद वहाँ सप्तमीके इसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सका है। रूपमै ठीक बैठना नहीं किंतु प्रथमाका द्विवचन ही अतः इस दूमरे प्रकरणमें भी उत्तररूपसे जो ठीक बैठता है। कदाचिन उसे मतमीका एक वचन बातें कही गई हैं उनमें कुछ भी सार नहीं है और भी माना जाय तब भी वह हो उत्तर उम पक्षमें दिया न उनके द्वारा भाष्यको 'स्वापक्ष' तथा 'ब्रहस्प्रवचन' जा सकता है, क्योंकि समाहारदम वह सप्तमीका ही सिद्ध किया जा सकता है। एक वचनान्त माना जा सकेगा तो वहाँ संदिग्ध विशेष ऊहापोह के लिये देखो 'अनेकान' वर्ष ३ कि० १२ अवस्थामें उमास्वातिवाचकोपज्ञ' यह विशेषण पृ० ७३५ पर परीक्षा नं. ३ Page #475 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ (३) वृत्ति नंबर ३ में 'अवस्थितानि' शब्दकी व्याख्याक सम्बन्ध सयुक्तिक सम्मतिमें इस वृत्ति-प्रकरणको लेकर से द्रव्योंकी इयत्ताका प्रमाण छह है इस प्रकारका यह लिखा गया था कि 'वृत्ति' शब्दस राजवार्तिकमें वर्णन पाया है। उमीको लंकर शंकाकारकी शंका है श्वेताम्बर भाष्य नहीं लिया है किन्तु पं. जुगलकिशोर कि-' वार्तिके वा वार्तिकभाष्य भवता उक्तानि जीन जो शिलालेखादिकं भाधारसे बात मानी है वह धमोदीनि षड् द्रव्याणि परंतु वृत्ती (सूत्ररचनायां) ठीक है। उसके लिये मैंने जा हेतु दिये थे उनमसे धर्मादीनि पंचैव अतः कदाचित् तानि पंचत्वं न एक 'वृत्ति' के अर्थ-द्वारा उस विषयक संगत मार्गको व्यभिचरन्ति' इस प्रकार राजबार्तिक भाष्यगत बतलान रूप था, उसके खंडनका उत्तर लेखकने ना शंकाका विस्तारसं स्पष्टीकरण है, जिसको कि मैंन प्रयास किया है वह अविचारित होनेसे बेपायेका जान संक्षेपमे वार्तिक शब्दोंका पृथक २ शब्दार्थकरफ पड़ता है। कारण कि गजवार्तिक :वृत्ति' शब्दको वार्तिककं भाज्यका अभिप्राय 'सयुक्तिक सम्मति' में लेकर षडव्यकं अभावकी शंका की है, वहां 'वृत्ति' लिखा था। उसका उत्तरलेखकन मरे पाण्डित्यका शब्दस अकलंकन श्वेताम्बर भाष्यको ग्रहण नहीं नमूना, तोड़-मरोड़ कर दूषित अर्थ करना तथा प्रककिया है। इसमें एक हेतु तो यह है कि श्वेताम्बर लकदवकं भाष्यसे अपना अलग भाष्यरचना आदि संप्रदायमें उस भाष्यकी पहल तो 'वृत्ति' शब्दसं बतलाया है और इस प्रकार बिना विचार कितना हो प्रख्याति ही नहीं है। दूसर, वृत्ति और भाष्य एक अनाप-सनाप लिख माग है ! यदि मेरे उस अर्थमे अर्थके वाचक हैं, इस लिये कदाचित् श्वेताम्बर भाष्यके अभिप्रायस काई असंगतता बतलाई हाती सम्प्रदायकं किसी प्राचार्यन उसको 'वृत्ति' भी लिख तब तो उत्तर लेखकका यह सब लिखना भी वाजिब दिया हो तो कोई आश्चर्य नहीं; तथापि राजवार्तिकके समझा जाता; परंतु जो अांख मीचकर लिखे उसका पंचमाध्यायकं उस प्रकरणमे श्वेताम्बर भाष्यका कुछ क्या इलाज ? अस्तु, मैंन वार्तिकका 'वृत्तौ तु पंच भी सम्बंध नहीं हैं। राजबार्तिकमें अकलंकदेवन यदि अवचनात् षड्द्रव्योपदेशव्याघातः' ऐसा पदच्छेद कर श्वेताम्बर भाष्यके सम्बंधको लेकर द्रव्योंके पंचत्व- के जा यह हिन्दी अर्थ किया था कि-'वृत्तिमें (सूत्र विषयकी शंका उठाई होती तो उसका समाधान भाष्य रचनामें) तो पांच हैं, प्रवचन होनेसे (छहद्रव्यका के ही किसी वाक्यस वे करते परंतु उन्होंने वैसा न कथन न होनस) छह द्रव्योंके कथनका व्याघात है करकं उसका समाधान दिगम्बर सूत्रसे किया है, इस अर्थात् छह द्रव्योंका कथन बन नहीं सकता' इस से स्पष्ट है कि वह शंका दिगम्बर सूत्रकी रचना पर अर्थमें वार्तिक भाष्यकं अभिप्रायस क्या फर्क प्राता है। कारण कि नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस सूत्र है उस विद्वान् पाठक मिलान कर संगत और असं. तक तथा भागे भी बहुत दूर तक सूत्ररचना या सूत्रा- गतका विचार करेंगे ऐसी दृढ़ आशा है। नुपूर्वी में पांच द्रव्योंका ही कथन-आया है-छहद्रव्यों यहां इसी प्रकरणमें प्रो० साहब लिखते हैं कि का कथन नहीं पाया है। ___'पंचत्ववचनात्' शब्दका अर्थ खींचतान कर यदि 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' इस सूत्रकी पार्तिक 'पंचतु प्रवचनात्' किया भी जाय तो उसका केवल Page #476 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ सयु० स० पर लिखे गये उत्तर लेखकी निःसारता ४४३ इतना ही अर्थ हो सकता है कि पांचका तो कथन अर्थ 'सूत्ररचना' दिया हो, वह तो और भी उपहासनहीं किया" । इस वाक्यमें प्रापन व्याकरण ज्ञान- जनक है, क्योंकि 'वृत्ति' शब्द का अर्थ एकाक्षरी कोष शून्यताकी एक बड़ीही भही मिसाल उपस्थित की है, का विषय नहीं है किंतु अनेकाक्षरी कोषका विषय है। क्योंकि 'पंचत्ववचनात' का अर्थ जा पांचका तो मालूम नहीं जब 'वृत्ति' शब्द साफ यक्षरी (अनकथन नहीं किया' ऐसा किया गया है वह व्याकरण काक्षरी) है तब उसके अर्थक लिये एकाक्षरी कोषका कं कायदेस सर्वथा अशुद्ध है। व्याकरणमें 'पंच' यह पता पूछनकी निगली सूझ कहाँ से उत्पन हो गई ! प्रथमा हा बहुवचन है, षष्ठीका रूप नहीं है, अतः इस दंग्वकर तो बड़ा ही आश्चर्य होता है ! क्या इसी 'पंच' इस प्रथमान्तका जो अर्थ 'पांच का' किया गया का नाम सावधानी है ? और इसी सावधानीकं बलहै वह हो नहीं सकता। जब उस वाक्यका उक्त अर्थ बूतेपर आप विचारक्षेत्रमें अवतीर्ण हुए हैं ? तथा व्याकरणकं कायदम सर्वथा प्रतिकूल पड़ता है तब दमरोंपर निरर्थक कटाक्ष करनका अपनको अधिकारी फिर जो अर्थ सयुक्तिक सम्मनिमें लिखा गया है वह समझते हैं। विचारकी यह पद्धति नहीं और न अकलकदेवकं अभिप्रायको लिये हुए अनुकूल अर्थ है विचारकोंके लिय ऐसी बातें शोभा देनी हैं। इस कथनमें कुछ भी आपत्ति मालूम नहीं होती। अतः अच्छा, कोषकी बात पछी उसका जवाब यह है उस परस अलग भाष्य बनान आदिकी जो उत्तर कि-'शब्दम्तीममहानिधि' चौड़ी माइसके पृ० ३७७ लखकन कल्पना कर डाली है वह सब उसकी व्या- को निकालकर देख लीजिये, उसमें वृत्तिका अर्थ केवल करणज्ञान-शुन्यता और अविचारताका ही एक कृत्य रचना ही नहीं कित बागकीसंदखेंगे तो 'सूत्ररचना' जान पड़ती है। भी मिल जायगी; क्योंकि उस कोषमें रचना भेदों में ___एक स्थानपर प्रोफेसर महाशय उपहासास्मक शब्दोंमें लिग्वते हैं- 'वृत्ति' का अर्थ एक 'सात्वती' ग्चनाया भेद भी है, 'सात्वती' की 'सूत्ररचना' करकं तो सचमुच शास्त्री महोदयन कलम निष्पत्ति 'सत्' शब्दसं वतुप, प्रण और स्त्री प्रत्ययांत तोड़ दी है।" इसके उत्तग्में इतना ही कहना पर्याप्त 'की' प्रत्ययसे हुई है। जिन्हें व्याकरणका विशाल होगा कि 'वृत्ति का वैसा संभावित प्रर्थ करकं सच- ज्ञान होगा उन्हें 'सास्वती' शब्द का अर्थ 'सौत्री' मुच ही सयुक्तिक सम्मतिके लखकने पाप सरीखे रचना मालूम पड़ सकता है क्योंकि 'सत्' शब्दका युक्तिशून्य लेखके लेखकोंकी ता कलम ही तोड़ डाली अथे 'निष्कर्ष' और 'सार' रूप होता है और सूत्र भी है। क्योंकि उसका खंडनात्मक उत्तर आपकी शक्तिसं शादिकमर्यादा पदार्थोकी (पदोंक अर्थकी) निष्कर्ष ना-सारताको लिये हुए होते हैं । अतः 'सात्वती' और आपने 'वृत्ति' के अर्थक विषयमें कोषकी जो 'सौत्री' एक अर्थक वाचक हैं। दूसरे 'वृत्ति' शन्दका बात पूछी है वह आपके कोपज्ञानकी अजानकारी 'सौत्री रचना' जो अर्थ किया गया है वह केवल कोपसाथ साथ वाक्याथोंके सम्बन्धकी भी जानकारी बलस ही नहीं किया गया किंतु उसका प्रकरणसे भी को सूचित करती है। और कोषकी बातमें जो ऐसे सम्बन्ध मिलता है, इसलिये उसका अर्थ प्रकरणएकाक्षरी कोषका पता पूछा गया है जिसमें 'वृत्ति' का संबद्ध भी है। कारण कि, राजवार्तिककार पंचत्व Page #477 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४४ विषयकी शंकाका समाधान किसी राजवार्तिक, सर्वार्थसिद्धि या श्वेताम्बर भाष्य प्रादिकं वाक्योंस न करके खास उमास्वामी महाराजके सूत्र कर रहे हैं। और इसलिये प्रो० सा० का यह लिखना कि "वृति' का अथ 'सूत्ररचना' किसी भी हालत में नहीं हो सकता" निरर्थक जान पड़ता है। हाँ, वह शंका यदि किमी वृत्तिविशेष के विषयकी होती तो अकलंक उस वृत्त केही अंशमं उसका समाधान करते । यहाँ शंकाका विषय मौलिक रचना सम्बन्ध रखता है अतः उस का समाधान मौलिक रचनापरसं दिया गया है, जिस पर कोई आपत्ति नहीं की जासकती । अतः राज * यहॉपर में इतना और प्रकट कर देना चाहता हूँ कि स्वयं कलंक देवने राजवार्तिक में श्रन्यत्र भी 'वृत्ति' शब्दका प्रयोग 'सूत्ररचना' के अर्थम किया है; जैसा कि 'भवप्रत्ययोऽधिर्देवनारकाणा' इम सूत्रसम्बंधी छठे वानिकके निम्न भाष्यसे साफ़ प्रकट है, जिसमें 'देव' शब्दको अल्पा क्षर और अभ्यर्हित होने से सूत्ररचना में पूर्व प्रयोग के योग्य बतलाया है, और इसलिये यहाँ प्रयुक्त हुए 'वृत्ती' पदका अर्थ' सूत्ररचनाया' के अतिरिक्त और कुछ भी नहीं हो " सकता : "" श्रागमे हि जीवस्थानादिसदादिष्वनुयोगद्वारेणाऽऽदेश वचने नारकाणामेवादौ सदादिप्ररूपणा कृता, ततो नारकशब्दस्य पूर्वीनपातेन भावतव्यमिति । तन्न कि कारणं उभयलक्षणप्राप्तत्वाद्देवशब्दस्य । देवशब्दो हि श्रल्पाजभ्यहितश्चति वृत्तां पूर्वप्रयोगाः । " यहाँ पर भी यह सब कथन दिगम्बरसूत्रपाठ से सम्बन्ध रखता है- श्वेताम्बर सूत्रपाठ और उसके भाष्यसे नही । क्योकि श्वेताम्बर सूत्रपाठका रूप "तत्र भवप्रत्ययो नारक देवानाम्" है, जिसमे 'नारक' शब्द पहले इसे 'देव' शब्द के पूर्व पड़ा हुआ है, और इसलिये वहाँ वह शंका ही उत्पन्न नहीं होती जो "श्रागमे हि" आदि वाक्योंके द्वारा उठाई गई है और जिसमें यह बतलाकर, कि श्रागम में जीवस्थानादिके आदेशवचनमे - नारकोकी ही पहले सत् श्रादि रूपसे प्ररूपणा की गई है, कहा गया है कि तब सूत्र ht वर्ष ४ वार्तिक में 'वृत्ति' शब्द श्राजानमं प्रा० सा० ने अपनी मान्यता के अनुसार जो यह लिख माग है कि "राजवार्निक में 'वृत्तौ उक्त' कहकर जो वाक्य उद्धृत किये हैं वे वाक्य न किमी सूत्ररचनाके हैं और न अनुपलब्ध शिवकोटिकृत वृत्तिके, बल्कि उक्त वाक्य श्वताम्बरीय तत्व थे भाष्य के हैं" उसमें कुछ भी मार नहीं है। उसका निरसन सूत्ररचना-विषयक ऊप के वक्तव्य भले प्रकार होजाता है। रही हाल में अनुप लब्ध शिवकोटि कृति की बात उसका सम्बन्ध शिला लेखसे है, उसकी जब उपलब्धि होगी तब जैसा कुछ उसमें होगा उस समय वैसा निर्णय भी हो जायगा । फिलहालकी उपलब्धिमे तो सूत्ररचना-विषयक संबंध ही अधिक संगत और विद्वद् प्रा जान पड़ता है । यह नहीं हो सकता कि अकलंक देव शंका तो उठावें श्वेताम्बर भाध्यके आधार पर और उसका समाधान करने बैठें दिगम्बर सूत्र के बल पर ! ऐसी असंगतता और असम्बद्धताकी कल्पना राजवार्तिक-जैसी प्रौढ उचनाकं विषय में नहीं की जा सकती। दूसरी बात में ' नारक ' शब्दका ' देव ' शब्द से पहले प्रयोग होना चाहिये । ऐसी दालन में यहाँ 'वृत्ति' का अर्थ 'श्वेताम्बर भाष्य' किसी सूरत में भी नहीं हो सकता। क्या प्रोफेसर जगदीशचंद्रजी, जिन्होंने अपने समीक्षा लेख (अने० वर्ष ३ पृ० ६२६) मे ऐसा दावा किया था कि राजवार्तिकमे प्रयुक्त हुए भाष्य, वृत्ति, श्रहेत्प्रवचन और ईत्प्रवचनहृदय इन सब शब्दों का लक्ष्य उमास्वातिका प्रस्तुत श्वे० भाष्य है, यह बतलाने की कृपा करेंगे कि यहाँ प्रयुक्त हुआ 'वृत्तौ' पद, जो विवादस्थ 'वृत्तौ' पदके समान है, उसका लक्ष्यभूत अथवा वाक्य श्वेताम्बर भाष्य कैसे हो सकता है ? और यदि नहीं हो सकता तो अपने उक्त दावेको सत्यानुसन्धानके नाते वापिस लेनेकी हिम्मत करेंगे। साथ ही, यह स्वीकार करेंगे कि अकलंक देवने स्वयं 'वृत्ति' शब्दको 'सूत्ररचना' के अर्थ में भी प्रयुक्त किया है। -सम्पादक Page #478 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] यह है कि श्वेताम्बर भाग्य में 'अवस्थितानि च' और न हि कदाचित्पंचत्वं भूतार्थत्वं च व्यभिचरंति' इस रूपसे दो वाक्य हैं, जबकि राजवार्तिकमे 'वृत्तावुक्तं' के अनन्तर "अवस्थितानि धर्मादीनि नहि कदाचित्पं चत्वं व्यभिचरन्ति" इस रूपमे एक वाक्य दिया है। यदि अकलंकदेव श्वेताम्बर भाष्यके उक्त वाक्योंको उधृत करते तो यह नहीं हो सकता था कि वे उन्हें ज्योंके त्यों रूपये उधृत न करते । अतः यह कहना कि "इसी भाष्यसे उठाकर अकलंकदेवने अपने ग्रन्थ में 'उ' कहकर इस वाक्यको दिया है” नितान्त भ्रममुलक है । यदि 'वृत्ति' शब्द के प्रथमेसे विवरण-भाष्य ही प्रो० सा० का अभीष्ट है तो उसका स्पष्टीकरण मयुक्तिक-सम्मति लेखकं ६० वें पृष्ठ के टिप्पणसे हो जाता है, जिसका स्पष्ट आशय यह है कि राजवार्तिक पत्र १९१ में 'आकाशग्रहणमादौ' इत्यादि ३४ वीं वार्तिक के विवरण अर्थात् भाष्य में धर्मादिक द्रव्योंको संख्यावाचक 'पांच' शब्दसं निर्देश किया गया है, उसका पाठ राजवार्निक 'स्यान्मतं धर्मादीनां पंचानामपि द्रव्याणा' इस प्रकार है। अतः कहना होगा कि यहांके पंचको लेकर ही 'नित्यावस्थितान्यरूपाणि' सूत्र के नं० ३ के वार्तिक और भाष्य में जो धर्मादि द्रव्यों को हा निर्देश किया है उसीके ऊपरका शंका-समाधान उक्त सूत्रके वार्तिकनं० ८ और उसके भाष्य में दिया गया है, जिसमें शंका समाधानका विषय राजवार्तिक के पूर्ववर्ती दिगम्बर तत्त्वार्थसूत्र के 'कालश्च' सूत्र से संबंध रखता है । अतः यहाँ श्वेताम्बर भाष्य की वार्ता तो कपूरवत् अथवा 'छूमंतर' की तरहसे उड़ जाती है— उसका इस राजवार्तिकके प्रकरण में कुछ भी स्थान नहीं है। इतने स्पष्टीकरणके होने पर भी प्रो० सयु० स०पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता ४४५ मा० के मस्तिष्क में यदि गजवार्तिकके उस वाक्यविषय में श्वेताम्बरभाष्य-विषयक ही मान्यता है तो कहना होगा कि वह मान्यता आग्रहकी बग्मसीमाका भी उल्लंघन करना चाहती है। क्योंकि अभी तक किसी भी पुष्ट प्रमाण द्वारा यह निश्चय भी नहीं हो पाया है कि श्वेताम्बरीय तस्वार्थ भाष्यका समय अकलंकसं पूर्वका है। हो सकता है कि प्रस्तुत श्वेताम्बर भाष्य की रचना गजवार्तिक के बाद हुई हो और उसमें वह पंचस्त्र विषयक वाक्य राजनार्तिक कुछ परिवर्तन करके ले लिया गया हो, और यह भी संभव है कि दोनों ग्रंथोंमे उक्त वाक्योंकी रचना एक दूसरे की अपेक्षा न रखकर बिल्कुल स्वतंत्र हुई हो । श्वे० सूत्र पाठका 'यथोक्तनिमिशः षविकल्पः शेपाणां 'ऐसा सूत्र है, उसके 'यथोक्तनिमित्तः पदका श्वं० भाष्यमे 'क्षयोपशमनिमित्त:' अर्थ किया गया है, परन्तु उस पदका वैमा अर्थ हो नहीं सकता । इससे पता चलता है कि यह अर्थ दिगम्बरीय सूत्र या उस के भाष्यों से लिया गया है। इस प्रकार सूत्र और भाष्य के जुद जुदे पाठ होनेसे दोनोंके एक कर्तृत्वका भी विघटन हा जाता है। श्वं०भाष्य और सूत्रकं एककर्ता नहीं है, इस विषयके बहुत से पुष्ट प्रमाण पिछले 'ईन् प्रवचन और तस्वार्थधगम' नामक प्रकरण नं० २ में दिये जा चुके हैं, जिनसे पाठकगण अच्छी तरह जान सकते हैं कि श्वे० सम्प्रदाय में सूत्र और भाष्यकी एकताका जो ज्ञान है वह कितना भ्रमात्मक है। मेरी समझ में ऐसे आन्तरकि विषयोंका ज्ञान केवल चर्म चक्षुके द्वारा देखे गये शाब्दिक कलेबरसे नहीं हो सकता; किंतु उसके लिये अंतरंग प्रकरण की संबद्धता असंबद्धताका विवेक भी आवश्यक है, जो गहरे अध्ययन तथा मननसे सम्बन्ध रखता है । यहाँ Page #479 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४४६ अनेकान्त राजवार्तिक के 'पंचत्व' 'अवस्थितानि' आदि शब्द भाष्य में देखकर बिना विचारे कह देना कि 'ये शब्द भाष्य के हैं अतः गजवार्तिक के सन्मुख भाष्य था ' केवल चर्मचक्षुकी दृष्टि के सिवाय और क्या कहा जा सकता है ? यदि यहाँपर श्रान्तरंगिक दृष्टिसे विचार किया गया होता तो स्पष्ट मालूम पड़ जाता कि इन का संबंध मुख्यतया सौत्रीय रचनासे अथवा राजवार्तिक भाष्यसे है; क्योंकि शंका के समाधानका हेतु, इस स्थलमें, दिगम्बरीय सूत्रपाठ है - श्वेताम्बरीय भाष्यको श्रई अंश नहीं है । और इसलिये प्रो० सा० का यह लिखना कि "इम ( 'वृति' शब्द ) का वाच्य कोई ग्रन्थविशेष है और वह ग्रंथ उमास्वातिकृत ( प्रस्तुत श्वेताम्बर ) भाष्य है ।" किसी तरह भी ठीक नहीं बैठता । आगे चलकर प्रो० सा० जोरकं साथ दूसरोंको यह मानने की प्रेरणा करते हुए कि 'अकलंककी उक्त शंका श्वे० भाष्यकां लेकर है' उस शंका समाधान सम्बन्ध मे लिखते हैं [वर्ष ४ अपनी नाका शास्त्र स्वीकार करने वाला क्यों कर होजाता है, यह कुछ भी बनलाया नहीं गया । तीसरे, श्वे० भाष्य-सम्बन्धी शंकाका समाधान श्वे० भाष्य अथवा श्वे० सूत्र पाठस न करके दिगम्बर सूत्र पाठ करनेमे कौनसा औचित्य है, इसे जरा भी प्रकट नहीं किया गया | चौथे, यह दर्शाया नहीं गया कि अकलंकन कब, कहाँ पर तत्त्वार्थसूत्र और श्वेताम्बर भाग्य की एक कर्तृताको स्वीकार किया है। ऐसी हालत मे प्रा० सा० का उक्त सारा कथन प्रलापमात्र अथवा बच्चोंको बहकाने जैसा मालूम होता है और स्पष्टतया कदाग्रहका लिये हुए जान पड़ता है । समाधान वाक्य में दिगम्बर सूत्रका प्रयोग होनेसे यह स्पष्ट जाना जाता है कि शंकाका सम्बन्ध दिगम्बर सूत्ररचनाएं हैश्वेताम्बर से नही । श्वेताम्बर से होता तो समाधानमें 'कालश्चेत्येके' सूत्र उपन्यस्त किया जाता, जिससे श्वे० भाष्यविषयक शंकाका समाधान बन सकता । और इसलिये 'वृत्ति' शब्दका वाच्य वहाँ श्वेताम्बर भाष्य न होकर दिगम्बर सूत्रग्धना है, जैसाकि ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है 1 "अब यदि इस शंकाका समाधान अकलंक स्वयं भाष्यगन 'कालश्चेत्येके' सूत्रसे करते हैं तो इसका अर्थ यह हुआ कि कलंक, दिगम्बराम्नायके प्रतिकूल होने पर भी, भाष्यको सूत्ररूपसे स्वीकार कर लेते हैं तथा सर्वार्थसिद्धिगत दिगम्बरीय सूत्र 'कालश्च' ही है, जिसको सामने रखकर वे अपना वार्तिक लिख रहे हैं । ऐसी हालत मे 'कालश्च' सूत्र ही प्रमाणरूपसं देकर शंकाका परिहार किया जाना उचित था, जो अकलंक ने किया है ।" प्रो० सा० की इस विचित्र लिखावटको देखकर बड़ा ही आश्चर्य होता है ! प्रथम तो “भाष्य को सूत्र रूपसे स्वीकार कर लेते हैं" इस कथनमें आपके वचनकी जो विशृंखलता है वह भाष्य और सूत्रके जुदा जुदा होनेसे ही स्वतः प्रतीति में आ जाती है । दूसरे, किसी आम्नाय का कोई व्यक्ति अपने शास्त्र के सम्बन्धमे यदि शंका करे और उसका समाधान उसी के शास्त्रवाक्यसे कर दिया जाय तो इससे समाधान करने वाला उस शास्त्रका मानने वाला अथवा उसे एक जगह प्रो० सा० ने लिखा है कि- “ प्रस्तुत प्रकरण में खंडन-मंडनका कोई भी विषय नहीं है ।" यह लिखना आपका प्रत्यक्ष विरुद्ध है; क्योंकि 'श्रवस्थितानि' पदका 'धर्मादीनि षडपि द्रव्यारिण' भाष्य किया गया है। उसका खंडन वादीके द्वारा किया गया और फिर उसका समाधान 'काला' सूत्र के आधार पर किया गया। यह सब खंडन-मंडनका विषय नहीं हुआ तो और क्या हुआ ? इसका असली मतलब खंडन-मंडन ही है; क्योंकि शंका और समाधान तथा खंडन और मंडनमें अपने अपने पक्षकी सिद्धिकं निमत्त हेतुश्रोंको उपन्यस्त करना पड़ता । अतः शंका-समाधान रूप से खंडन-मंडनका विषय है ही । इतनी मोटी बात भी यदि समझमें नहीं आती तो फिर किस बूते पर विचारका आयोजन किया जाता है ? एक स्थान पर प्रो० सा० ने यह प्रश्न किया है कि "अक्लकने नित्यावस्थितान्यरूपाणि सूत्रमें ही द्रव्यपंचत्व-विषयक शंका क्यों उठाई ?” इत्यादि । Page #480 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] सयु० स० पर लिखे गये उतरलेखकी निःसारता - " n16 | परन्त इसका समाधान सिर्फ इतना ही है कि अन्यत्र शंका समान मान्यताके होने पर एक स्थल पर उस शंकाका उठानेका स्थान उपयुक्त न होनस दूसरी जगह शंका बन सकना और दूसरे पर न बन सकना बतलाना नहीं उठाई। यहां 'अवस्थितानि' सूत्रकं प्रकरण में कथनके पूर्वापविगंधको सूचित करता है। इसके द्रव्योंके छह पनका कथन आया और ऊपर सूत्रानु सिवाय, मैंने 'मयुक्तिक सम्मान' नामकं अपने पूर्व पूर्वी रचनामे तथा राजवार्तिक भाष्यमें द्रव्योंके पंचत्व लंम्ब (अनकान्त ५०८५.९०) में दिगम्बरमूत्र पाठके का कथन पाया; अनः यहाँ शंकाका अवकाश हानसे सम्बन्धमें इम शंका-समाधानकं बन सकनका जो शंका उठाई गई, दूमी जगह वैमी शंकाका स्थान उप- स्पष्टीकरण किया था तथा औचित्य बतलाया था उम युक न होनस नहीं उठाई गई । 'जीवाश्च' आदि सूत्र पर भी आपने कोई ध्यान नहीं दिया। और न यही वैसी शंका उपयुक्त स्थान ना तब कहे जाने जब मांचा कि एक प्रन्थकार जो अपने मत या आम्नाय उनमें वैसा प्रमंग पाता । वैसे प्रसंगकं लानेका कार्य को लेकर प्रन्थकी रचना कर रहा है वह दूमरे मत मेरे-आपके हाथ की बान तो है नहीं, प्रन्थ ताजिम अथवा पाम्न य वालोंकी खुद उन्हींके मत, प्राम्नाय जगह जैसा उपयुक्त अँचा वहाँ वैमा पकरण ले पाए। अथवा प्रन्थ पर की गई शंकाकी मंगति बिठलाता अन्तमें प्रा० मा० लिम्बने हैं कि-"पूर्व लग्वमें हुश्रा समाधान अपनं प्रथम क्यों करंगा ?-उसे बताया जा चुका है कि द्रव्य पंचत्वकी शं। दिगम्बरी उमकी क्या जरूरत पड़ी है? एमी हालत में आपका के यहाँ इमलिये नहीं बन सकती कि उनके यहाँ ता उक्त लिम्बना कुछ भी मूल्य नहीं रखता। निश्चित रूपसे छः द्रव्य मान गये हैं, जबकि श्व० उत्तरकालीन प्रन्थोंम भी 'पंचद्रव्य' और 'षद्रव्य' ऊपरके इस सब विवेचनस स्पष्ट है कि गजकी आगमगत दोनों मान्यताएँ मौज वार्निकका उक्त शंका-समाधान सत्ररचना तथा गजयह लिखने हुए वे इस बातको भुला देते हैं कि उन्होंने वार्निकके भाप्यम सम्बन्ध रखता है, उसमे श्वे० स्वयं यह स्वीकार किया है कि माम्वाति कालसहित भाष्यका जा स्वप्न देखा जाता है, वह प्रन्थको सम्बन छहों द्रव्य मानते हैं और अपने पिछले लेखाङ्कनं०३ रूपम लगानकी अजानकारीही प्रकट करता है, और में 'मर्व षटकं षडद्रव्यावरोधात' इस भाष्य-वाक्यके इलिये इस तीसरे प्रकरणमें प्रोफे० साहबन उत्तरका द्वारा उस मान्यताकी पुष्टि भी की है, तब वह पंचत्व जो प्रयत्न किया है उसमें भी कुछ दम और सार की शंका भाष्यके ऊपर भी कैसे बन सकती है ? नहीं है। (क्रमश:) संशोधन ४.२ २ ४ कुरूप गत किरणमें 'महाकवि पुष्पदन्त' नामका लेख कुछ १३ । २२ मणि मणे अशुद्ध छप गया है। मात्रादिकके टूट जानेसे जो साधारण , , २३ कावयादियसह कापयदिपाई अशुद्धियां हुई हैं, उन्हें छोड़कर शेष कुछ महत्वकी अशु- , २६,२७ सुहवड द्वियोंका संशोधन नीचे दिया जाता है। पाठकगण इसके १४ । ३ भरता भरहा अनुसार अपनी अपनी प्रतिमें सुधार कर लेवें : ४१५ २ २३ सबसे पृ० कालम पंक्रि प्रशुद्ध ४००१८ रोहिणीखेत रोहनखेड १६ २ २० गुणैर्भासिते गुर सिसो ४०६ २ । काम्य ४१६ २ २५ श्यामः प्रधानः श्यामप्रधानः ४१. १८ करिसवति करिसरवाडि ৪৭। ২ নৰনাৰা নবাগ ४." २: सरक. सरस्वती ४२० २ ३२ सहासता सहायता -प्रकाशक सुब्बा सबसे अधिक Page #481 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिन-दर्शन-स्तोत्र [40 हीरालाल पांडे, सागर] [१] माज जन्म मम सफल हुना प्रभुअक्षय • अतुलित निधि - दातार ! नेत्र सफल हो गये दर्शसेपाया है भानन्द अपार !! *माज पंच • परिवर्तनमय यह अति दुस्तर भव - परावार ! सुतर हुमा दर्शन स तेरे. भटका हूँ जिस में बहुबार !! [३ बाज नहाया धर्म . तीर्थमैंतेरा दर्शन पा साकार ! गात्र पवित्र हुमा नयनों में, छाया निर्मल तेज अपार !! अाज हुमा यह जन्म सार्थक, सकल मंगलों का आधार ! तेरे दर्शन के प्रभाव से, पहुँचा मैं जग के उस पार !! [५] आज कषाय-सहित कर्माष्टकज्वालाएँ विघटी दुखकार ! दुर्गति से निवृत हुमा मैं*तेरे दर्शन के आधार !! [६] प्राज हुए हैं सौम्य सभी ग्रह, शान्त हुए मन के संताप ! विघ्न-जान नश गये अचानक, तेरे दर्शन के सुप्रताप !! [७] पाज महाबन्धन कर्मों काबन्द हुमा, दुख का दातार ! सौख्य-समागम मिला जिनेश्वर ! तव दर्शन से अपरम्पार !! [ ] प्राज हुमा है ज्ञान-भानु का, उदय दो-मन्दिर में सार । तव दर्शन से है जिनेन्द्रबर ! मिथ्या तम का नाशनहार !! माज हुमा हूं पुण्यवान् मैं, दूर हुए सब पापाचार। मान्य बना है जग में स्वामिन् ! तेरा दर्शन पा अविकार !! AK मा [..] आज हुई जिन - दर्शन - महिमा, अवगत मुझ को हे भगवान् ! सत्पथ साफ दिखाई पड़ता, खदा सामने है कल्याण !! प्रद्याष्टक स्तोत्र का भावानुवाद Page #482 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तपोभूमि [ लेखक-श्री भगवत' जैन] आग के लिए ईधन और व्यमन के लिए पैसा, फिर परिश्रमापार्जित अतुल सम्पत्ति खोकर, चोरी ज्यादह होने पर भी ज्यादह नहीं । इसलिए कि इन करनेमें चित्त देंगे!' दानोंके पास 'तृप्ति' नहीं होती ! इनके पास होती है उन्हें यह सब, कब पर्दाश्त हो सकता था, कि वैसी भूख, जो खाते-खाते और भी जार पकड़ती है ! उनके पुत्र दुगचागे, चार और नंगे-भूखे कहाकर ___ मथुगकं प्रसिद्ध धनकुबेर-भानु जब वैराग्यको उन्हीं लोगोंके सामने पाएँ, जो आज प्राज्ञाके प्राप्त हुए, तब अपने पीछे पुत्रोंके लिए एक बड़ी रकम इन्तजारमें हाथ बाँधे खड़े रहने, या नजरमें नजर छोड़ गए । लोगोंने अन्दाज लगाया-बारह करोड़ ! मिलाकर उनमें बात नहीं कर सकते ! बारह करोड़ की पूंज एक बड़ी चीज है । लेकिन प्रारम्भमें बच्चोंके सुधारका प्रयत्न किया ! प्रयत्न व्यसन ने साबित कर दिखाया कि उसकी नजरों में में डाट-फटकार, मार-पीट, प्यार-दुलार और लाभबारह करोड़की रकमका उतना ही महत्त्व है, जितना लालच सब कुछ इम्तेमाल किया ! लेकिन सफलता हमारं-आपके लिए बारह रुपये का । उस बारह अरब नामपर इतना भी न हो सका-जितनी कि उड़द पर की सम्पत्ति भी तृप्मि' दे सकेगी, यह निश्चय नहीं सफेदी ! आखिर हारकर, प्रात्म-कल्याणकी ओर कहा जा सकता! उन्हें झुकना पड़ा । मानसिक पीड़ान मन जो पका ___ आखिर वही हुआ ! घरमें मुट्ठी भर अन्न और दिया था ! जेबमे फूटी कौड़ी भी जब नहीं रही तब सातों सहा- बड़ेका नाम था-सुभानु । और सबसे छोटेकादगेंने चोरी करना विचारा । व्यसनकी कालांचने सूरसंन । विवाह सातोफे होचुके थे। मन जो काले कर दिए थे, इससे अच्छा, सुन्दर कुछ दिन खूब चैनकी गुजरी ! रमीली-तबियत, व्यवसाय और निगाहमें भर ही कौन सकना था ? हाथमें लाख, दो-लाग्य नहीं, पूरे बारह करोड़की बे-जमाका रोजगार जा ठहग, ललचा गया मन! सम्पत्ति! और उसपर खचने-खानकी पूण-स्वतंत्रता ! जोखिम थी जरूर; पर, बड़ी रकमकी प्राप्तिका प्रा- पिताका नुकीला-अंकुश भी सिर पर नहीं रहा था ! कर्षण जो साथमें नत्थी था-उसकं ! और पुण्य-पाप और फिर वही हुआ, जो ज्योतिष शास्त्रने पहले की कमजोरियोंसे तो मन पहले ही जुदा होचुका था! ही कह रक्खा था-यानी-सब चार । ___ भानु सेठक वैराग्य लाभ, या गृहत्यागका कारण xxx भी यही था ! उन्हें किसी चतुर, अनुभवी ज्यातिषीने बतला दिया था कि तुम्हारे सातों पुत्र व्यसनी होंगे, उज्जैनके जंगल में पहुँचकर सबनं विचारा [२] Page #483 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष४ 'क्या करना चारिए ?' देर तक शकुन-अपशकुन और पुत्रीका नाम था-मंगीकुमारी ! मंगी-गजपुत्री आदि आवश्यकीय मसलों पर विचार होता रहा। थी, दर्प तेज प्रोन और अधिकार-बल सब कुछ उस फिर जो बात निर्णयको पा सकी वह यह कि-छह मिला था ! अगर कुछ नहीं मिला था, तो राजपुत्रको जन धनकी प्राप्तिके लिए नगर-प्रवेश करें और एक 'स्वामी' कहनका मौभाग्य । उसकी शादी साम्राज्यक यहीं-जंगलम ही-लौटन तक प्रतीक्षा करं ! परदेश एक महाग्थीक माथ हुई थी । नाम था उसका का मामला, क्या जाने, क्यामे क्या हो ? हम सब 'वजमुष्टि'। यहीं विपत्तिकं महमें फँस जाँय, और घर तक खबर वजमुष्टियोद्धा था, वीर था, महान था, लेकिन भी न पहुँचे ! वे निरीह सात प्राणी अनाथ होकर, 'राजकुमार' नहीं था। किमी गज्यका उत्तराधिकार दान दानको तरमें; ऐमा मौका ही क्यों दिया जाए ? उमके लिए खाली नही था । शारीरिक सौन्दर्य में ___ और तब बड़ोंने आज्ञा दी-सूरसेनको, कि- अगर वह राजपुत्र था, तो आर्थिक दृष्टिकोण उसका 'तुम यहीं रहो !' छोटेका खयाल कर, या उसको प्रबल शत्रु! अपने कामकं अधिक उपयुक्त या अनुभवी न समझ मंगी के शरीर मे था-गज-रक्त ! और वनमुष्टि कर, पता नहीं ! यों, वह भी यथासाध्य इस भया- की माँ के बदन मे गुलामी का खून ! एक और कछादित-धन्धेमें महयांग देता रहा है ! पर, उतनसे उत्थान था, दृमरी और पतन, एक ओर तेज था, नसके अग्रज सन्तुष्ट हुए या नहीं, यह अबतक वह दूरी पार करुणा, दीनता। नहीं जान पाया है ! कोई अवसर भी यह सोचनका बहू और मासुमे मेल खाता तो कैसे ? यह सही नहीं मिला है-उम! है कि सासु का दर्जा वैमा ही है, जैसा कि बेटे की सुभानुके नेतृत्वमें वह पाँच व्यक्तियोंका जत्था तुलनामें पिताका, या शिष्यकं मुक्काविलेमें गुरुका। दबे पाँव, बन्द मुँह और जागती या सतर्क-दृष्टिको लेकिन-कब १ तभी न, जब बेटा या शिष्य उम लिए-नगरकी ओर बढ़ा ! दूमरकं धनको 'अपना' महसूम करे! और महसूम कोई करता है तब, जब बना लेनकं लिए ! व्यसनकी 'भूख' का 'तृप्ति' का उसे 'बड़ा' माननेमें उसे लज्जा नहीं, सुख मिले या स्वाद चखाने के लिए या उस महापापी स्याहीमें मिले-गौरवमय आनन्द । डूबन के लिए, जो अक्सर अन्धेरी रातमें आत्माकी पर, मंगी एक क्षगाको भी यह आनन्द उपभोग उज्ज्वलताको हनन कर देती है। न कर सकी ! किसी तरह भी वह यह न सांच सकी सरसन उसी निर्जन, भयावने जंगल में बैठ रहता कि सिर्फ 'वह' बन जाने-भरसं वह छोटी बन गई है-सहोदरोंके प्रादेशमें बद्ध । राज-पुत्री जो ठहर्ग। सजग, किन्तु मौन !!! ___ सासूके माथ उसका व्यवहार वैसा ही रहा, जैसा xx कि किसी भी बूढ़े-नौकर, बूढी-दासीके साथ सम्भव हो सकता है ! उज्जैनके महाराज-वृषभध्वज, रानी-कमला! था तो वनमुष्टिकं साथ भी कुछ कड़ा बर्ताव ! Page #484 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] तपोभूमि ४५१ लकिन ऐसा नहीं, कि ज्यादह कडुवा बन सकता! उस घड़ेमें फूल और गजरे रक्खे हैं लेकर पूजाम क्यों कि वह पुरुष था ! पुरुष, मदासे ही नारीका ही निवृत्ति हो लूँ नब तक ।' 'प्रभु' रहा है ! और वह रही है हमेशा-गुलाम ! मिठाम और दीनता ! यही दा-बातें तो मंगी उमकी मिहरबानीकी मुहताज ! साथ ही, पुरुषका चाहा करती थी। और सासु इन दोनोम हमेशा जुदा मन सदाम नागके लिए नरम रहा है ! वह उमकी रह कर, स्वामित्व दिखानेकी श्रादी थी। आज जो डाट इफ्ट कड़ी-नजर और चुभनी बातोंको भी सुन- यह परिवर्तन देखा तो मंगी-कामकं लिए 'न' न कर हँसते-हँसते पचा जानका आदी रहा है ! नारीक कर सकी। आकर्षगान बाँध जो किम्वा है-उसे, और उसकी गजरा निकालने के लिए-खुशी-खुशी हाथ घड़े मार्ग उप्र शक्तियों को ! निमपर वजमुष्टिका ता मंगीस में डाल दिया।' था प्रेम ! उमीक शब्दोंम-एमा कि बिना उसके मिनिट बीता हांगा, कि मंगी पन्छाइ ग्याकर पामीन चैन नहीं !' अलावः प्रेम के, गौरव भी कम नहीं था पर गिरी । और निकलने लगा महस, बेनहाशा उसे इस इस बातका, कि उसकी स्त्री महागज वृपभ- झाग। ध्वजकी प्यारी पुत्री और एक उच्च-घरानकी गज- मासुने देग्या 'उमे कुछ न समझने वाली उदण्ड कुमारी है ! वह उमकी प्रसन्नताको अपना अहोभाग्य छोकरी, बेहोश पड़ी है!' समझना ! उसी तरह-जिम तरह एक दरिद्र मूल्य पर मिनिमय खुशीस उमकी आँखें चमक उठी ! वान् वस्तुको पा लेने पर उसे अपने अधिक लपक कर उसने घड़ेका मुंह बन्द कर दिया। हिफाजत और मँभालक माथ रग्यता है। गुम्ममें जला भुना साँप जो घड़म कैद था। x x __ पर, सासूके सामने ऐसी कोई बात नहीं थी वजमुष्टि था-बाहर ! महागज के साथ गया वह बह की उद्दण्डता पर नाखुश थी। और अमन्तुष्ट हुआ था-कहीं ! थी इम पर कि वह उस कुछ ममझती नहीं । जब कि देवयांग !!! उमका फर्ज उसको पूजनका, आदर करनेका है ! उमी गत वह लौट आया । स्त्रीको न देख, उमने भीतर ही भीतर उसके दिन-रात लंका दहन हाता पूछा-'माँ ! कहाँ है-वह ?' रहता। ____ मा अबतक गेनी-सूरत बनाए बैठी थी ! सुनी मनम कसक, पीड़ा लिए, यह इम कष्टम मुक्ति जो पुत्रकी बात ना गले पर काबू न रख सकी। पाने के उपायमें लगी रहती ! पर, कर क्या ? एक बार खुल कर गन के बाद हिचकी लत हुए x x x x कहने लगी-'उस मापने काट लिया था ! उस दिन उपाय' सासूके सामने प्रागया, सफलता 'माँपने ?' या कामयाबीका जामा पहनकर ! बड़ी खुश हुई हाँ ! आज हीकी तो बात है, सैकड़ों दवाएँ की, वह ! पर ।' मिठास और दीनता-भर म्वग्में बोली-'ला तो! 'फिर किया क्या ?...' Page #485 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५२ भनेकान्त [ वर्ष ४ 'लोग उस श्मशानमें लेगए-वहीं गाड़ कर स्थ विराजे हुए हैं। अभी-अभी तो लौटे हैं। अचानक यह वजपात हुआ वजमुष्टिकं कम्पित-शरीग्में बल-संचार हुआहै-बेटा। अशरण-शरण जो सहायतार्थ दृष्टिगत हो चुके थे। ___ पर, वजमुष्टि हो रहा था मंगीक प्रेममें पागल । साधु-चमत्कारकी अनेक गाथाएँ मनमें जागरित हो दौड़ा उधर ही, जिधर मंगी थी, श्मशान था- उठी। और आशाने दिया उन्हें प्रोत्साहन । भक्ति बेतहाशा पागलकी तरह । __ और श्रद्धास भीगा हुआ वजमुष्टि उठा । मंगीको यत्न पूर्वक गोदमें ले, चला योगीश्वरकी चरण-धूलिमें लिटाने के लिए। अपनेको छिपाए, अपराधीकी तरह चुप- महानीदमें परिणत हो जाने के लिए लालायित सरसनने देखा-देखा मंगीको दफनाते हुए भी और मंगीका मूर्छित-शरीर वजमुष्टिने गुरु चरणकी शरण और वजमुष्टि द्वाग उसके संज्ञा-शून्य-शरीरको बाहर में डाल दिया । और कहन लगा, दीन और दुखे हुए निकालते हुए भी । उसका हृदय गे रहा था, मुंह पर स्वरम-भगवन् ! तुम्हारी ही शरण है। मेरी प्राणहवाइयाँ उड़ रही रही थीं, हाथ कॉप रहे थे। प्रियाको जीवन दान देकर मुझे सुखी बनाना । मरी ___ कह रहा था, दिलको हिला देने वाली आवाज व्यथा हरण कगे । मैं महस्र-दल-कमल समर्पण मे-'मैं तेरे बिना जिन्दा न रह सकूँगा-मंगी ! कर, अपनी भक्ति, श्रद्धा और खुशी प्रकट करनेका मुझे छोड़ कर कहाँ जा रही है ? मैं तुझे अकंला न अवसर पाकर अपनेको धन्य समझगा। प्रभा ! जाने दूंगा, न जान दूंगा, हरगिज न जान दूंगा।' प्रार्थनाको व्यर्थ न जाने दो। नहीं, मैं मंगीके बिना सुरसनका हृदय काँप उठा।-कितना अगाध जीवित न रह सकूँगा । वह मरी गुणवती, स्नेहशीला, प्रेम है उस स्त्रीस ?...काश ! स्त्री अगर जीवित हो प्राणोपम प्राणेश्वरी है।' सकती ? देख सकती उसक वियोगमे पातका कसा सूरसन एक टक देखता-भर रहा-चुप। उसके दयनीय-दशा हो रही है। कितनी अटूट-मुहब्बत है वियागने मन जानें कैसा कर दिया है।... उसे, जो खुद मरने तकको तैयार हो बैठा है।' ___x x x x पर, मंगी अडोल। ___ मंगाने करवट ली, थोड़ी कगही और फिर उठ मौन ।। बैठी । जैसे उस कुछ हुआ ही न था, सोकर उठी हो। मृतप्राय ॥ तपोनिधिकी विषापहरण-ऋद्धिक प्रभावने निर्विष कर वजमुष्टि देर तक रोता रहा, अपनी जाँघ पर उठ-खड़े होनेका मौका दिया। और दी, वजमुष्टिको मंगीका सिर रक्खे हुए-करीब-करीब निरुपाय । मह-मांगी मुराद ! सीमान्त-खुशी !! और आनन्द अचानक उसको नजर जो सामने गई तो भीरू- विभोर कर देने वाली-प्रणय-भिक्षा !! मनमें कुछ-कुछ आशा संचरित हुई। दोनों एकमेक । प्रेमालिंगन । तपोधन, ऋद्धिधारी, परम-दिगम्बर-साधु, ध्यान- जैसे जीवन और मृत्युका संगम हो। Page #486 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] तपोभूमि ४५३ वजमुष्टिकं वाष्पाकुलित कण्ठस निकला-'मंगी- भिखारिनकी तरह देखती रही सूरसेनकी भोर ! कुमारी।... पलक मारने की सुधि उमं नहीं थी । हृदय, कामके उसने कटीली-बांग्योंसे ताकते हुए स्नेह-पादित नुकीले वाणोंसे पाहत हो चुका था । स्वरमें कहा-'तुम आगए ?' वह जैसे फिर बेहोश होने जारही थी। x x x x और सूरीन मोच रहा था-'मोफ ! वासना आग ? 'छलमय नारी हदय ।' मंगीकी चैतन्यताने सूरसेनको भी कम आनन्दित कि लाजकी हत्याकर, निर्लज-मंगी पैरों पर नहीं किया। यही तो उसकी भी साध थी, कि मंगी गिर पड़ी, और कहने लगी-'प्यारे ! मुझे प्यार पति-प्रेमको समझ सका... कगे। मैं तुम्हारे प्रेममें पागल हुई जा रही हूँ । मैं जंगलकी हरी-हरी घासपर मंगी बैठी पतिकी तुम्हारे बिना न बनूंगी, तुम्हारे रूपने मुझे बेहोश प्रतीक्षा कर रही थी । वजमुष्ठि गया था-साधुः कर दिया है।' अर्चनके लिए, सहस्र दल-कमल लेन। सूरसन अडिग। मंगी अकेली थी। युवक-तेजस संयुक्त ! सहसा सूरसेनके मनमें आया-वजमुष्टिका मोचने लगा- 'जब परीक्षा ली है तो पूरी ही प्रेम तो देम्वा । क्या मंगी भी उसे इतना ही प्यार होनी चाहिए।' करती है ? क्या यह बेसी ही है, जैसा कि वजमुष्टि फिर बोला-'मैं भी तुम्हारे ऊपर मोहित हूँसमझे हुए है ?' सुन्दर ! लेकिन मजबूर हूँ, कि मैं तुम्हें प्रेम नहीं कौतुकने उसके मनमें जिज्ञामा भर दी । वह कर सकता।' बढ़ा, अपने छिपे स्थानसे शंका-समाधान के लिए। ___क्यों ???'-मंगीने पूछा। और जा खड़ा हुआ, अलक्षित - भावसं मंगीके 'इसलिए कि तुम्हाग पति बलवान है, मैं उसे समीप।" ___ अपने लिए खतरा समझता हूं, डरता हूं उमस ।' । ____ मंगीने देखा, और देखने-देखते जैसे वह समा मंगी हँसी । फिर बोली-'उसकी ओरसे तुम गया उसके हृदयमें ! वह चकित, चंचल और उद्विग्न बेफिक रहो। वह तभी तक जिन्दा है, जब तक मैं हो उठी। उठती नम्र, गांग-लुभावक-शरीर, और उधर देखती नहीं।' सुन्दर वष भूषा। सांचा-'हो न हा, राजकुमार है सूग्सन हट गया। भक्ति और हर्षस पूर्ण वजमुष्ठि पत्र-पुष्प और निर्निमेष देखती रही, कुछ देर । मंत्रमुग्धकी सहस्र-दल-कमल लेकर भा पहुंचा था। तरह। सूरसेन अवाक् । मंगीने पति के साथ-साथ गुरुपूजन किया, बंदना मंगीके भीतर जैसे पीड़ा जाग पड़ी वह दीन- की, स्तवन पढ़ा । और जब वह पुष्पांजलि क्षेपण Page #487 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ करने के बाद गुरुचरणों में मुका, कि मंगीने समीप बोलनेकी युक्ति उस सूझी ही नहीं ! रक्खी तलवार उठा कर चाहा कि गर्दन पर घातक कहने लगीं-'जब 'व' ही नहीं रहे तो हमें ही प्रहार करे । कि किसीन पीछेसे कसकर कलाई पकड़ घर में रहना कहाँ शोभा देता है ? ली । तलवार ऊँची की ऊँची रह गई ! -और सब, सातों, खियाँ आर्यिकाजीके निकट पलट कर देखा तो-सूरसेन! दीक्षित होने चली ! तलवार उसने छीन कर एक ओर रग्वदी। और रह गया अकेला सुभानु ! चल दिया, मंगीकी ओर धिक्कारकी नजरोंसे देखता चार छह दिन बीते । तबियत न लगी ! मजबूग्न हुमा! उसने भी विराग स्वीकार किया। निर्विकार-साधु ध्यानस्थ थे। बजमुष्टिनं बार बार सिर झुकाया, प्रणाम किया और तब, मंगीका ले, समोद घर लौट गया। बहुत दिन बाद, एक दिन घूमते-फिरते सातों साधु और सातों अर्यिकाएँ [६] उज्जैन आ पधारे! छहों अनुज सम्पत्ति लेकर वापिस आये, तो दर्शकोंक ठठ लग गए ! वजमुष्टि भी आया, और सूरसनको उन्होंने गंभीर, सुस्त और उदास पाया मंगी भी ! गया । पूछा, तो उसने मंगीकी देवी हुई कथाका वजमुष्टि बैठा, साधु-सभामें । और मंगी अर्यिदोहग दिया! . काओंके संघमं। सुभानुको छोड़ कर, सब पर गहरा प्रभाव पड़ा। देवयोग !!! मोचन लगे सब-धिक्कार है दुनियाके चरित्रको ! दानोंने एक ही समयमें, एक ही प्रश्न कियाजिस स्त्री-पुत्रके लिए हम रात दिन पाप करते हैं, 'इतनी-सी उम्रमे ही श्राप लागोंने क्यों वैगग्य लिया ?' हिंसा करते हैं, चोरी करते हैं, वह कोई अपना नहीं। उत्तरम मंगीकी कथा कह कर साधुवर्गने समासब अपने स्वार्थ और वासनाके दास हैं !' धान किया। सुभानुने बातको दफनाने के इरादेस कहा-'छोड़ा वजमष्टि दंग रह गया!''क्या मंगीका प्रेम झगड़ेको। बाँट होने दो, काक्री रकम हाथ लगी है दम्भ था ? वह हत्या कर रही थी मेरी ? वाहरे आज तो? संसार ! तभी साधु-जन इसे ठुकराकर वैराग्यकी ओर छहोंने मन्शा प्रकट की बढ़ते हैं!!... 'हमें अब कुछ नहीं चाहिए। न धन-दौलत, न और उधर-मंगी लजाके मारे मर मिटी ! स्वार्थी-संसार ! आत्म-आराधनके लिए तपोभूमिमें चाहती-धरती फट जाय, और वह उसमें समा सके! प्रवेश करेंगे, ताकि विश्व-बन्धनसे मुक्ति मिल सके।' अनुतापस उसका मुंह बुझे-कोयलेकी तरह हो छोटोको, विरागकी ओर बढ़ते हुए भी सुभानुके गया! सोचने लगी-'जो हुआ है, वह नारी-धर्मके मनमें प्रात्म-जागृति न हुई । धन जो सामने पड़ा था! विरुद्ध हुआ है । उसका प्रतीकार सिर्फ वैराग्य-लाभसे वह सब सम्पत्ति ले घर चला। ही हो सकता है-अब!' xxxx xxx x पर पाया, तो यहां भी उसे वैसा ही दृश्य और तब, उपस्थित जनताने देखा-'मगी और देखना पड़ा। सब स्त्रियोंने अपने-अपने पतिकी बजमुष्टि दोनों वस्त्राभरण। का त्याग कर, साधुचरण कुराल पूछी। उत्तरमें सुभानुने सच ही कहा । मूठ के समक्ष तपोभूमिमें प्रवेश कर रहे हैं-प्रसन्न चित्त ! Page #488 -------------------------------------------------------------------------- ________________ महाकवि पुष्पदन्त [ लेखक-श्री पं० नाथूराम प्रेमी ] [गत किरणसे आगे] ८-समय-विचार टीकाको श० सं० ७५९ में राष्ट्रकूटनरेश अमोघवर्ष महापुराणकी उत्थानिकामें कविने जिन सब (प्रथम ) के समय में समाप्त की थी । अतएव यह ग्रंथों और प्रन्थकर्ताओं का उल्लेख किया है, उनमें निश्चित है कि पुष्पदन्त रक्त संवत्के बाद ही किसी सबसे पिछले प्रन्थ धवल और जयधवल है । समय हुए हैं, पहले नहीं । पाठक जानते हैं कि नीरसन स्वामी के शिष्य जिनसेन रुद्रटका समय श्रीयुत् काणे और दे के अनुसार ने अपने गुरु की अधूरी छोड़ी हुई टीका-जयधवला ई० सन् ८००-८५० के अर्थात् श० सं० ७२२ और १ अकलंक, कपिल (सांख्यकार), कणचर या कणार (वैशे- ७७२ के बीच है। इसमें भी लगभग उपयुक परिषिकदर्शनकर्ता), द्विज (वेदगठक), संगत (बद्ध), परंदर णाम ही निकलता है। (चार्वाक), दन्तिल, विशाख (संगीतशास्त्रकर्ता), भरत अभी हाल ही डा० ए० एन० उपाध्यको अपभ्रंश (नाट्यशास्त्रकार), पतंजलि,भारवि,व्याम,कोहल (कुष्माण्ड भापाका 'धम्मपरिक्खा" नामका प्रथ मिला है जिस कवि), चतुर्मुख, स्वयंभु, श्रीहर्षद्रोण, बाण, धवल-जयधवल- के कर्ता बध (पंडिन) हरिषेण हैं, जो धक्कड़वंशीय सिद्धान्त, रुद्रट, और यशश्चिन्द, इतनोका उल्लेख किया गया है । इनमें से अकलंक, चतुर्मुख और स्वयंभु जैन है । 1 गोवर्द्धनके पुत्र और मिद्धमनके शिष्य थे । वे मंत्राद अकलंक जयधवलाकार जिनसेनसे पहले हुए है । चतुर्मुख दशकं चित्तौड़के रहनेवाले थे और वसं छोड़कर कार्य और स्वयंभूका ठीक समय अभी तक निश्चित नहीं हुआ है वश अचलपुर चले गये थे। वहांपर उन्होंने वि०सं० परन्तु स्वयंभू अपने पउमचरियमें आचार्य (रविषेणका प्राचार्य अमितगतिकी संस्कृत 'धर्मपरीक्षा' इसके बाद उल्लेख करते हैं जिन्होंने वि० सं० ७३३ में पद्मपगण बनी है। हरिषेणकी धर्मपरीक्षाके भी पहले जयराम नामक लिखा था)। इससे उनसे पीछेके हैं। उन्होंने चतुमुखका कविका गाथावद्ध कोई अन्य था जिमके श्रापारसे उक्त भी स्मरण किया है । स्वयंभू अपभ्रंश भाषाके ही महाकवि धम्मपरिस्वा लिम्वी गई हैथे। इनके पउमचरिउ (पद्मचरित) और हरिवंशपुराण जा जयरामें श्रासि वियय गाहपबंधे। उपलब्ध हैं। उनका एक छन्दशास्त्र भी है, जिसके पहले साहमि धम्मपरिक्ख सा पद्धड़िया बंधे । तीन प्रकरण प्रो. वेलणकरने JBBRAS 1935 PP संस्कृत धर्मपरीक्षा इन दोमेंसे किसी एकका अनुवाद 18-58 में प्रकाशित किये है। 'पंचमिचरियं' नामका मेला नाशि ग्रन्थ भी उनका बनाया हुआ है, जो अभी तक कहीं प्राम इह मेवाडदेसे जणसंकले. सिरि उजपुरणिगय धक्कडकुले।" नहीं हया है। स्वयंभू यापनीयसंघके अनुयायी थे, ऐसा गोवण गामें उपयएणो, जो सम्मत्तरयणमपुराणो। महापुराण-टिप्पणसे मालूम होता है। तहो गोबद्धणामुपियगुणवइ, जा जिणवर पयणियवि पणवह । २ ण उबुझिउ यमसद्दधाम, मिलुन धवलु जयधवलुणामु। ताए जाणिउहरिसेणणाममुश्रो, जो संजाउ विवुहकाविस्सुश्री Page #489 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५६ अनेकान्त [ वर्ष ४ १०४४ में अपना यह प्रन्थ समाप्त किया था। राष्ट्रकूटोंकी राजधानी पहले मयूरखंडी (नासिक) इस ग्रन्थके प्रारंभमें अपभ्रंशकं चतुर्मुख, स्वयंभू में थी, पीछे अमोघ वर्ष ( प्रथम ) ने श० सं० ७३७ और पुष्पदन्त इन तीन महाकवियोंका स्मरण किया में उसे मान्यखेटमें प्रतिष्ठित की । पुष्पदन्तने कृष्णगया है । इससे सिद्ध है कि वि० सं० १०४४ या राजकी राजधानी भी मान्यखेट ही बतलाई है और श०सं० ९०९ से पहले पुष्पदन्त एक महाकविक रूप कण्हराय को वहां का गजा बतलाया है जो कि में प्रसिद्ध होचुके थे । अर्थात् पुष्पदन्तका समय ७५९ कृष्णराजका प्राकृतरूप है और ५०९ के बीच होना चाहिए । न ता उनका सिरिकण्हगयकरयलाणहिय मासिजलवाहिणि दुग्गयरि समय श० सं० ७५९ के पहले जा सकता है और न धवलहरसिहाग्यमेह उलि पविल मण्णखेडणयरि ॥ ९०९ के बाद। -नागकुमारचरित अब यह देखना चाहिए कि वे श० सं०७५९ अर्थात् कण्हगयकी हाथी तलवाररूपी जलवाहिनी (वि० सं०८५४ ) से कितने बाद हुए है। से जो दुर्गम है और जिसके धवलगृहोंके शिखर मेघा कविन अपने प्रन्थोंमें तुडिगु', शुभतुंग, वलीस टकराते हैं, ऐसी बहुत बड़ी मान्यखेट नगरी है। वल्लभनरेन्द्र " और कराहरायका उल्लेख किया है राष्ट्रकूटवंशम कृष्ण नामके तीन राजा हुए हैं, और इन सब नामों पर प्रन्योंकी प्रतियों और टिप्प एक तो वे जिनकी उपाधि शुभतुंग थी । परन्तु इनके णप्रन्थोमें 'कृष्णराजः' टिप्पणी दा है। इसका अर्थ समय तक मान्यखेट गजधानी ही नहीं थी, इसलिए यह हुआ कि ये सभी नाम एक ही राजाके हैं । पुष्पदन्तका मतलब इनसे नहीं हो सकता। वल्लभराय या वल्लभनरेन्द्र राष्ट्रकूट राजाओंकी पदवी द्वितीय कृष्ण अमोघवर्ष ( प्रथम ) के उत्तगधिथी, इसलिए यह भी मालूम होगया कि कृष्णराय काग थे, जिनके समयमें गुणभद्राचार्यने श० सं० राष्ट्रकूटवंशकं गजा थे। ८२० में उत्तरपुगणकी समाप्ति की थी। और जिन्होंने सिरिचित्तउहचएवि अचलउरेहो,ग उणियकज्जे जिणहरपउरहो। श०सं०८३३ तक राज्य किया है। परन्तु इनके साथ तहि छंदालंकारपसाहिद, धम्मपरिक्ख एह ते साहिय । उन सब बातोंका मेल नहीं खाता जिनका पुष्पदन्तने १ विक्कमणिव परियत्तह कालए, ववगए वरिस सहसच उतालए। उल्लेख किया है। इसलिए कृष्ण तृतीयको ही हम २ चउमुह कविरयणे सयंमुवि, पुप्फयंत अण्णाणणिसंभुवि । उनका समकालीन मान सकते हैं। क्योंकितिण्णाव जोग्गजेणतं सासइ, उमामहे थिय तामसरा जो सयंमु सोहेउ पहागाउ, प्रहकह लोयालोय वि याणउ। १-जैसा कि पहले बतलाया जा चुका है पुष्फयंतु णवि माणुसु बुचइ, जे सरसइए कयावि ण मुच्चइ। चोलराजाका सिर कृष्णराजने कटवाया, इसके ३ भुवणेक्करामु गयाहिराउ, जहि अच्छा 'तुडिगु' महाणुभाउ। प्रमाण इतिहासमें मिलते हैं और चोल देशको जीत भ० पु० १-३-३ कर कृष्ण तृतीयने अपने अधिकारमें कर लिया था। ४ सुहनुंगदेवकमकमलमसलु, णीसेसकलाविण्णाण कुसलु। २-यह चोलनरेश परान्तक ही मालूम होता है म.पु. १-५-२ ५ वल्लभणरिंदघर महत्तरासु । ६ उव्वद्धजूड भूभंगभीसु, तोडेप्पिणु चोलहो तणउ सीसु । Page #490 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] महाकवि पुष्पदन्त जिमने वीरचाल की पदवी धारण की थी। में शुरू की गई थी. उसी संवत्मग्में सामदेवसूग्नेि ३-धागनरेश द्वारा मान्यखेटकं लूटे जाने का अपना यशस्निलक चम्पू समाप्त किया था और उम जो उल्लेख पुष्पदन्तन किया है, वह भी कृष्ण द्विनीयकं ममय कृष्णतृतीयका पड़ाव मेलपाटीमे था । पुष्पदन्त माथ मल नहीं ग्वाता। यह घटना कृष्णराज तृनीय ने भी अपने ग्रंथप्रारंभक समय कृष्णगजका मलपाटी की मृत्युके बाद ग्वाट्टिगदेव के समय की है और इम में रहने का उल्लेख किया है। माथ ही इस प्रशस्तिम की पुष्ट अन्य प्रमाणों से भी हानी है । धनपालने उनकी चाल आदि देशोंका जीतनेवाला भी लिया है। अपनी 'पाइयलच्छी (प्राकृतलक्ष्मी ) नाममाला' में ऐसी दशान पुष्पदन्तका कृष्णतृतीयक समयमे होना लिग्या है नि:संशयरूपम सिद्ध होजाता है। वह प्रशाम्त यह हैविक्कमकालम्य गाए अउणुत्तीसुत्तरं महम्सम्मि । "शक्नृपकालातीतसंवत्मरशतेष्वष्टम्बकाशीन्य • मालवणग्दिधाडीए टूडिए मगरखेडम्म ।।२७६।। धिक पु गर्नपु अंकतः ८८५ मिद्धार्थमंघन्मगम्मर्गत अर्थात् वि० सं० १०२९ मे जब मालव नगेन्द्रने चत्रमाममदनत्रयोदश्यां पाण्ड्य-मिहल-चाल-चरम. मान्यग्वटका लूटा, तब यह ग्रंथ रचा गया। प्रभृनीन्महीपतीन्प्रमाध्य मलपाटीप्रबर्द्धमानगज्यप्रभाव ___ मान्यग्वटका किम मालव-गजान लूटा इमका श्रीकृष्णराजदेव मनि तपादपनोपजीविनः ममधिगत पता परमार गजा उदयादित्यक ममयके उदयपुर पंचमहाशब्दमहामामन्नाधिपनश्वालुक्यकुल जन्मनः - (ग्वालियर) के शिलालग्बम परमार गजाओंकी। मामन्तचड़ामरणः श्रीमदग्किमरिगणः प्रथमपुत्रम्य जो प्रशस्ति दी है उसके १२ वें पद्यमे लग जाता है- श्रीमदहिगगजम्य लक्ष्मीप्रवर्धमानवसंधगयां गंगश्रीहर्षदेव' इति खाट्टिगदवलक्ष्मी , धागयां विनिमापिनमिदं काव्यमिनि।" जग्राह या युधि नगादममप्रतापः । अर्थान शक ८८१ मिद्वार्थमंवत्मरकी चैत्र मदन अर्थान हपदेवनं ग्वाटिगदेवकी गजलक्ष्मीको त्रयोदशीके दिन जब श्रीकृष्ण गजदेव पाण्ड्य सिहल, युद्ध मे छीन लिया। चाल, चरम आदि गजात्राको जीतकर मलपाटीम ये हर्पदेव ही धागनरंश थे, जो मायक (द्वितीय) अपने बढ़ते हुए राज्यका प्रभाव प्रकट कर रहे थे या सिंहभट भी कहलाते थे और, जैमा कि पहले नब उनके चरणकमलाकी मेवा करनेवाले महामामबताया जा चुका है, जिनपर कृष्णतृतीयने चढ़ाई की न्ताधिपति चालक्यवंशी अफिम के पुत्र वरिगराज थी। वोट्टिगदव कृष्णातृनीय के भाई और उनग. की गंगधागमे यह काव्य निर्माण किया गया। धिकारी थे। पहले उक्त मेलपाटीम हो पप्पदन्त पहुँच थे, ४-महापुगगा की रचना जिम सिद्धार्थ मंवत्मर सिद्धार्थ मंवत्सग्में ही उन्होंने अपना महापुराण १ दीनानाथधनं मदाबहूजनं प्री-फुल्लबल्लीवन, प्रारंभ किया था और यह सिदार्थ श० म० ८८१ मान्याग्वेटपुरं पुदमर्गलीलाइ मुन्दग्म । धारानाथनरन्द्रकोपशिग्विना दग्धं विदग्धप्रियं, ही था । मलपाटी या मेलाडिम श० ८८१ में कृष्णराज स्वेदानी वमति कायति पुनः श्रीपु पदन्तः कविः ।। थे, इमके और भी प्रमाण मिल हैं जो ऊपर दिये २ एपिमाफिया इंडिका जिल्द १ पृ. २२६ जा चुके हैं। Page #491 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४५८ अनेकान्त [वर्ष ४ इन सब प्रमाणों से हम इम निष्कर्ष पर पहुंचते भरतकी प्रशंसाके हैं । ग्रन्थरचनाक्रमसे जिस तिथिको हैं कि श० सं०८८१ मे पुष्पदन्त मेलपाटीम भरत जो संधि प्रारंभकी गई, उसी तिथिको उसमें दिया महामात्यस मिले और उनके अतिथि हुए । इमी हुश्रा पद्य निर्मित नहीं हुआ है। यही कारण है कि साल उन्होंने महापराण शुरू करके उस श० सं० सभी प्रतियोंमे ये पद्य एक ही स्थान पर नहीं मिलते ८८७ में समाप्त किया। इसके बाद उन्होने नागकुमार हैं। एक पद्य एक प्रतिमें जिस स्थान पर है, दूसरी चरित और यशोधर चरित बनाय । यशोधर चरित प्रतिमे उम स्थान पर न होकर किसी और स्थान पर की समाप्ति उम समय हुई जब मान्यखेट लूटा जा है। किसी किमी प्रतिमे उक्त पद्य न्यूनाधिक भी हैं। चुका था। यह श०सं०८५४ के लगभगकी घटना अभी बम्बईके सरस्वती-भवनकी प्रतिमें हमें एक है। इस तरह व ८८१ से लेकर कमसे कम ८९४ नक पूग पद्य और एक अधूग पद्य अधिक भी मिला है लगभग तरह वर्ष मान्यखेटमें महामात्य भरत और जा अन्यप्रतियाम नहीं देखा गया। नसके सम्मानित अतिथि होकर रहे, यह निश्चित है। यशोधरचरिनकी दूसरी तीसरी और चौथी मन्धियोम भी इसी तरह के तीन संस्कृत पद्य ननकी उसके बाद वे और कब तक जीवित रहे, यह नहीं प्रशंमाक हैं जो अनेक प्रतियोंमें हैं ही नहीं । इमसे कहा जा सकता। यही अनुमान करना पड़ता है कि ये सभी या अधि__ बुधहरिषेण की धर्मपरीक्षा मान्यखेटकी लूटकं कांश पद्य भिन्न भिन्न समयोंमें रचे गये हैं और कोई पन्द्रह वर्ष बादकी रचना है। इतने थोड़े ही प्रतिलिपियाँ कगते ममय पीछेस जोड़े गये हैं । रारज यह कि 'दीनानाथधनं' आदि पद्य मान्यखेटकी समयमें पुष्पदन्तकी प्रतिभाकी इतनी प्रसिद्धि हो चुकी यह। लटके बाद लग्वा गया और उसके बाद जो प्रतियाँ थी । हरिषेण कहते हैं, पुष्पदन्त मनुष्य थोड़े ही हैं, लिखी गई, उनमे जोड़ा गया निश्चय ही यह पद्य उसके उन्हें सरस्वती देवी कभी नहीं छोड़ती। पहले जो प्रतियाँ लिम्वी जाचुकी होंगी उनमें न होगा। एक शंका इस प्रकारकी एक प्रति महापुराणके सम्पादक महापुराणकी ५० वीं सन्धिके प्रारंभमें जो 'दीना- डा० पी० एल० वैद्यको नोंदणी (कोल्हापुर ) के श्री नाथधन' आदि संस्कृत पद्य दिया है और प्र० ४५७ तात्या साहब पाटीलस मिली है जिसमें उक्त पद्य के फटनोट में उद्धत किया जा चका है, और जिममें नहीं हैx। ८९४ के पहलेकी लिखी हुई इस तरहकी मान्यग्वेटके नष्ट होने का संकेत है, वहश०सं०८९४ के * हरति मनमो मोहं द्रोहं महाप्रियजंतुजं । बादका है और महापुराण ८८७ मे ही समाप्त होचुका भवतु भविना दंभारंभः प्रशातिकृतो। जिनवरकथा ग्रन्थप्रस्नागमितस्त्वया । था। तब शंका होती है कि वह उसमें कैसे पाया ? कथय कमयं तोयस्तीते गुणान् भरतप्रभो। ___ इसका समाधान यह है कि उक्त पद्य ग्रन्थका -४२ वी सन्धिके बाद अविच्छेद्य अंग नहीं है। इस तरहके अनेक पद्य श्राकल्लं भरतेश्वरस्तु जयतायेनादरात्कारिता । महापुराणकी भिन्न भिन्न सन्धियोंके प्रारंभमें दिये श्रेष्ठायं भुवि मुक्तये जिनकथा तत्त्वामृतस्यन्दिनी । पहला पद्य बहुत ही अशुद्ध है। -४३ वी संधिके बाद गये हैं। ये सभी मक्तक है, भिन्न भिन्न समयमें रच देखो महापराण प्र०व०, डा० पी० एल० वैद्य-लिखित जाकर पीछेसे जोड़े गये हैं और अधिकांश महामात्य भूमिका पृ० १७ । Page #492 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] और भी प्रतियों की प्रतिलिपियाँ मिलने की संभावना है। एक और शंका महाकवि पुष्पदन्त 'महाकवि पुष्पदन्त और उनका महापुराण शीर्षक लेख मैं ' भाण्डारकर इन्स्टिट्यूट' पूना की वि० सं० १६३० की लिखी हुई जिम प्रतिके आधार से लिखा था, उसमें प्रशस्ति की तीन पंक्तियाँ इस रूप में हैं पुष्यंत कणा घुयपंकें, जइ श्रहिमाण मरुणा मंकें । कयन कव्बु भात्तिए पर मत्थे, छमयछडं कयमामत्थे । कोहरण संवच्छरे आसाढए दहमए दिग्रहे चंदरुइरूढए इसके 'छसयछडोत्तर कयामत्यें' पदका अर्थ उस समय यह किया गया था कि यह ग्रंथ शकसंवत् ६०६ में समाप्त हुआ १ । परन्तु पीछे जब गहराईम विचार किया गया तब पता लगा कि ६०६ संवत् का नाम क्रोधन हो ही नहीं सकता चाहे वह संवत् हो, विक्रम संवत हो, गुप्त या कलचुरि संवत् हो। और इसलिए तब उक्त पाठके महा होनेमें सन्देह होने लगा । 'छसयछडात्तर' तो खेर ठीक, पर 'कयामत्र्थे' का अर्थ दुरूह बन गया । तृतीयान्त पद होने कारण उसे कवित्रा विशेषण बनानेके सिवाय और कोई चारा नहीं था । यदि बिन्दी निकालकर उसे सप्तमी समझ लिया जाय, तो भी 'कृतमास' का कोई अर्थ नहीं बैठता । श्रतएव शुद्ध पाठकी खोज की जाने लगी । सबसे पहले प्रो० हीरालालजी जैन ने अपने 'महाकवि पुष्पदन्त के समयपर विचार' लेख में बतलाया कि कारंजाकी प्रतिमें उक्त पाठ इस तरह दिया हुआ है पुष्यंत का धुपकें, जड अहिमागमेरुणा मंकें । क्य कवु भत्तिए परमत्थें, जिपय पंकयम उलियहत्थे । कोहण संच्छरे आसाढए, दहमइ दिवहे चंदरुइरूढए ।। अर्थात् क्रोधन संत्री असाढ़ सुदी १० को १ स्व० बाबा दुलीचन्दजीकी ग्रन्थसूचीमं भी पुष्पदन्तका समय ६०६ दिया हुआ है । २ जैनसाहित्य संशोधक भाग २ अंक ३-४ | ४५६ जिन भगवानके चरण कमलोंके प्रति हाथ जोड़े हुए अभिमान, धूपं ( धुल गये हैं पाप जिसके ), और परमार्थी पुष्पदन्त कविने भक्तिपूर्वक यह काव्य बनाया । यहां म्बई के सरस्वतीभवनमें जो प्रति (१९३ क) है, उसमें भी यही पाठ है और हमारा विश्वास है कि अन्य प्रतियों में भी यही पाठ मिलेगा | ऐसा मालूम होता है कि पूने वाली प्रतिके अर्द्ध दग्ध लेखकको उक्त स्थानमें मिती लिखी देखकर संवत-संख्या देने की जरूरत मालूम हुई होगी और उसकी पूर्ति उसने अपनी विलक्षण बुद्धिसे स्वयं कर डाली होगी। यहाँ यह बात नोट करने लायक है कि कविने सिद्धार्थ संवत्सर में अपना ग्रंथ प्रारंभ किया और क्रोधन संवत्सर में समाप्त । न वहाँ शक संवत् दिया और न यहाँ । इसके सिवाय पुष्पदन्तके पूर्ववर्ती स्वयंभू ने भी अपने ग्रंथोंमें सिर्फ मिती ही दी है, संवत् नहीं दिया है। तीसरी शंका कविके समय के सम्बन्धमे एक शंका 'जसहर चरित्र' की उस प्रशस्निके कारण खड़ी की गई जिस में प्रन्थ-रचनाका समय वि० सं० १३६५ बतलाया गया है | वह प्रशस्तिपाठ यह है किउ उवरो जम्म कइयइ एउ भवंतर । तो भगाम पायमि पडउ घर ।। २९ ।। चिक पहं छंगे साहु साहु, नहो सुत्र खेला गुणवंतु साहु | नहो तगुरुह वीमलुणाममाहु. वीगेमाहुरिण शिहि सुलहु पाहु || सोयार सुरगणगुणगणमा हु एक्कडया चिंतs चिमि लाहु । हो पंडिय टक्कुर कराह पुन, उवयाग्यिवल्लह परममित्त ॥ कइपुप्फर्यंत महरचरन, किन सुट्ट सहलक्म्वरण विचित्त । - Page #493 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ पेमहि तहिं गउलु क उलु अ जो चाहा था वही मब किया, राउल (गजा और जसहर विवाहु तह जणिय चाज । कोलका प्रमंग), विवाह और भवांतर। फिर जब सयलहं भवभमणभवंतराइं , सामने व्याख्यान किया, सुनाया, तब बीमल साहु मह वंछिउ कह णिरंतगई। सन्तुष्ट हुए । योगिनीपुर (दिल्ली) में साहुके घर अच्छी ता साहुममीहिउ कियउ सव्वु , तरह सुम्थितिपूर्वक रहते हुए विक्रम राजाकं १३६५५ राउलु विवाहु भवभमण भन्छ । मंवन्म पहल वैशाखकं दूमर पक्षकी तीज रविवारका वक्खाणि पुर हवइ जाम, यह कार्य पूरा हुश्रा।" मंतुट्ठउ वीसलु साहु ताम | “पहले कवि (वच्छगय) ने जिस वस्तु छन्दबद्ध जोइणिपुरवार णिवसंतु सुट्ट , किया था, वही मैंने पद्धड़ीबद्ध रचा।" साहुहि घरे सुत्थियणहु धुट्ठ ॥ कन्हड़क पुत्र गन्धवन स्थिर मनसे भवांतरोंको पणपट्टिमयि तेरहसयाई , कहा है। इसमें कोई मुझे दोष न दे। क्योंकि पूर्व में णिवविक्कम संवच्छग्गयाइं । वच्छगयन यह कहा था। उमीक सूत्रको लेकर मैंने बासाहपहिल्लइ पक्वि बीय, कहा है।" रविवारि ममित्थउ मिस्स तीय ।। इमक भागेका पत्ता और प्रशम्ति म्वयं पुष्पदन्त चिरु वत्थुबंध कइकियउ जि, कृत है जिमम उन्होंने अपना परिचय दिया है। पद्धडियबंधि मई रइउ तंजि । पूर्वोक्त पद्याम बिल्कुल स्पष्ट हो जाता है कि गंधव्वं कण्हड णंदणेण , गन्धर्व कविन दिल्ली में पानीपत के रहने वाले बीसलअायहं भवाई कियाथरमणण । साहु नामक धनीकी प्रेरणास तीन प्रकरण स्वयं बना महु दासु ण दिज्जइ पुचि कइउ, कर पुष्पदन्तके यशोधर चरितमें पीछेस सं० १३६५ कइवच्छगई तं सुत्त लइउ ॥ में शामिल किये हैं और कहाँ कहाँ शामिल किये हैं, इमका भावार्थ यह है सो भी यथास्थान ईमानदारीसे बतला दिया है। "जिसके उपराध या आग्रहसं कविपनिने यह देखिएपूर्वभवोंका वर्णनकिया(अब मैं) उस भव्यका नाम प्रकट १ पहली मन्धिकं चौथे कड़वककी 'चाएणकण्णु करता हूँ। पहले पट्टण' या पानीपतमें छंगे साहु नाम विहवेण इंदु' आदि पंक्तिकं बाद अाठवें कड़वकक के एक माह थे । उनकं खेला साहु नामक गुणी पुत्र __ अन्त तककी ८१ लाइनें गन्धर्वरचित है जिनमें गजा मारिदत्त और भैरवकलाचार्यका संलाप है। उनके हए । फिर खेला साहु के बीसलसाहु हुए जिनकी अन्नमें कहा हैपत्नीका नाम वीरो था । वं गुणी श्रोता थे । एक दिन गंधव्वु भणइ मई किय र ए र, णिव जाईसहो संजोय भेउ उन्होंने अपने चित्तमें सांचा (और कहा कि हे कराह अग्गइ कइरायपुप्फयंतु सरसहणिलउ । के पुत्र पंडिन ठकुर (गन्धर्व) वल्लभराय (कृष्ण तृतीय) दवियहि सरूउ वरगाइ कइयणकुलतिल ॥ के परम मित्र और उपकारित कवि पुष्पदन्तने सुन्दर न्धर्व कहता है कि यह गजा और और शब्दलक्षणविचित्र जो जसहरचरित बनाया योगीश (कौलाचार्य) का संयोग-भेद मैंने कहा । है उसमें यदि राजा और कौलका प्रसंग, यशोधरका अब आगे मरस्वतीनिलय कविकुलतिलक कविराज आश्चर्यजनक विवाह और सारे भवांतर और प्रविष्ट पुष्पदन्त ( मैं नहीं ) देवीका स्वरूप वर्णन करते हैं। करदो, तो मेरा मन चाहा हो जाय । तब मैंने साहुने । २ पहली ही सन्धिक २४ वें कड़वककी ‘णेढ१ 'पट्टण' पर 'पानीपत' टिप्पण त्तणि पुट्ठि पलट्ठियंगु' आदि लाइनसे लेकर २७ वें Page #494 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] कड़वक तककी ७९ लाइनें भी गन्धर्व की हैं । इन उन्होंने ७९ वीं लाइन में इस तरह स्पष्ट किया है । वामनमें, तं पेक्खवि गंधरण कहिउ अर्थात् वासने पूर्व में (ग्रन्थ) रचा था. उस को देखकर ही यह गन्धर्वन कहा' । ३ चौथा साधक २२ वें कड़वककी 'जज्जरि जेण बहुभयकम्भ' श्रादि १५ वीं पंक्तिस लेकर आगेकी १७२ लाइन भी गन्धर्व की है। इसक आगे की कुछ लाइनें प्रकरगा के अनुसार कुछ परिवर्तित करके लिखी गई हैं । फिर एक घता और १५ लाइनं गन्धर्व का हैं जो ऊपर भावार्थ सहित दे दी गई हैं। महाकवि पुष्पदन्त ४६१ इस तरह इस ग्रंथ में सब मिलाकर ३३५ पतियाँ प्रक्षिप्त हैं और ऐसी है कि जग गहराई देखन great प्रौढ और सुन्दर रचना के बीच छुप भी नहीं सकतीं । श्रतएव गन्धर्व के क्षेत्रकोंके महारे पुष्पदन्नको विक्रमकी चौदहवीं शताब्दि में नहीं घसीटा जा सकता । इसके मित्राय बहुत थोड़ी ही प्रतियोंमें मां भी उत्तर भारतकी प्रतियोंमें यह प्रक्षिप्त अंश मिलता है । बम्बई तेरहपंथी जैन मन्दिाकी जो वि० सं० १२९० की लिखी हुई अतिशय प्राचीन प्रति है, उसमें गन्धर्वरचित एक पंक्तियाँ नहीं हैं, यहाँ के सरस्वती भवन की दो पतियोंमें भी नहीं हैं। उपसंहार पूर्वोक्त तीनों शंका का समाधान जाने के बाद अब हम निश्चयपूर्वक क १ श्रीवामवसेन के इस यशोधर चरितकी प्रति बम्बई के सरस्वतीभवन में (नं० ६०४ क) मौजूद है। यह संस्कृत में है । इस की अन्तिम पुत्रिकामं 'इति यशोधरचरिते मुनिनामवसेनकृते काव्ये श्रष्टमः सर्गः समाप्तः' वाक्य है । प्रारम्भ में लिखा है 'प्रभंजनादिभिः पूर्व हरिषेणसमन्वितैः यदुक्तं तत्कथं शक्यं मया बालेन भाषितुम।' इससे मालूम होना है कि उनसे पूर्व प्रभंजन और हाराने यशोधर के चरित लिखे थे । इस कविने अपने समय और कुलादिका कोई परिचय नहीं दिया है । परन्तु इतना तो निश्चित है कि वे गन्धर्व कवि पहले हुए हैं। इस ग्रन्थकी एक प्रात प्रो० हीरालाल जीने जयपुर के बाबा दुलीचन्दजीके भंडार में भी देखी थी और उसके नोट्स लिये थे । दषेिण शायद वे ही दो, जिनकी धर्मपरीक्षा (अपभ्रंश) अभी डा० उपाध्येने खोज निकाली है । १ पुष्पदन्न राष्ट्रकूटमम्रद कृष्णतृतीय और उनके उत्तराधिकारी स्वादिदेव के समकालीन थे और श० मं० ८८२ मे २९४ तक उनके मान्यखेट में रहने के प्रमाण मिलते हैं। संभव है, कर्क (द्विः ) कं समय भी रहे हों। २ उनके श्राश्रयदाता महामात्य भरत कमसेकम ८७ तक जीवित थे, जबकि महापुराण समाप्त हुआ । ३ नागकुमारचरित और यशांधग्नरितकी रचना २ अपरिवर्तित पाठ मुद्रित ग्रन्थ में न होनेके कारण यहाँ दे के समय भरतका स्वर्गवास हो चुका था और उनके पुत्र नन्न गृहमंत्री हो गये थे । यशाधरचग्निकी समाप्रि मान्यम्बेट के बरबाद होजानेके बाद हुई जबकि कर्क (द्वि० ) गद्दीपर होंगे । दिया जाता है सो जसबइ सो कल्ला मित्त, मो श्रभयगाउ सो मारिदत्तु । कुलको दिग्मु, सो गोवड्ढ गुणगणविसे || मा कुमुमावलि पालियति गुत्ति, सा श्रभयमइत्ति यरिदपुत्ति । भव्व दुयगिणामणे, तड चयव चारु सण्णासणेण काले जंत्ते सव्वइमयाई, जिणधम्मं मग्गग्गहो गहाई || ३ बम्बई सरस्वतीभवन में जो ८०४ क नं० की संस्कृत छायासहित प्रति है उसमें 'जिरण में मग्गग्गहो गद्दाई' के 11 श्रागे 'गंधव्वे करडणंदणेण श्रादि केवल दो पंक्तियाँ प्रक्षिम पाठ की न जाने कैसे श्रापड़ी है। इस प्रतिमें इन दो पंक्तियोंको छोड़ कर और कोई प्रक्षन अंश नहीं है । Page #495 -------------------------------------------------------------------------- ________________ रानी [ लेखक-'भगवत' जैन] लेकिन यह थी कौन, कोमलागी, दयाकी, ममताकी यह चाँद-सा सुन्दर बालक जब उसकी आँखोंके सामने देखी?.... पाता, तो वह अान्द-विभोर हो जाती! तन-बदनकी सुध हों उसका नाम था-रानी! वह गौरवर्ण, सुन्दरभूल जाती-कुछ देरके लिए-सृष्टिकी समस्त रचनाओंकी शरीर, नव-यौवना विल्लोचिन थी! जी, हाँ ! वही विल्लोमधुरताको! चिने-जो अपनी बर्बरता, पशुता, नृशंसनाके सबब-सब "उसका धर्म, उसका कर्म, उसका सुख, उसकी ' के लिए अातंक होती हैं ! जिस शहरमें वे पहुँच जाती हैं, मम्पत्ति-सब कुछ बस, वही था, तीन सालका विकारहीन बालक! वहाँके निवामी उनसे अॉख मिलाने तककी अपनेमें शक्ति वह उसकी मृदुल-मुस्कानमें स्वर्ग-सुखका अनुभव करती नहीं महसूस करते । उनसे लेन-देन या व्यवहारकी बात तो उसके करुण-कन्दनमें निष्ठुर-विधाताकी कुटिलताका दर्शन दूर ! शायद बहुत दूर !! करती! जब वह अपनी अनक्षरी-वाणीद्वारा अपने भावको दरअमल वे खौफनाक, लड़ाक, दया-हीन और निन्द्यव्यक्त करनेका उपक्रम करता, तो वह हँसते-हँसते दोहरी प्रवृत्ति होती हैं ! जिसने उनसे कुछ खरीदना चाहा, समझ पड़ जाती! जैसे सारे शरीरसे हँस रही हो! लीजिए कि उसकी शामत आगई ! ड्योड़े-दने दामोमें उसे और बच्चा माँ को हँसते देखता, तो और भी बोलने वह चीज लेनी ही पड़ेगी, जिसके बारेमें जुबानसे वह कुछ का साहस करता! तब वह स्वर्गमें डूब जाती, संसारकी भी कह चुका है ! भले ही लड़ाई हो जाय, झगड़ा हो जाय, विषमता उससे दूर रहती! भीड़ जुड़ जाय ! पुरुषको दबानेकी एक तरकीब और वह उसे चूमती, प्यार करती और गोदमें दबोचलेती ! इस्तेमाल करती हैं-वे ! कि-'मुझसे मखौल करता है !' बच्चेको थोड़ी तकलीफ़ करूर होती है, यह बात वह भूलती सच, वे ऐसी ही होती हैं ! उनमें कोमलता नामकी नहीं ! लेकिन उसका मन जो अपने आप में नहीं रहता! कोई चीन लोग नहीं देखते ! लेकिन क्या सचमुच ऐसा ही मन तो मचलकर कहता है-काश, वह उसे मनमें ही है? क्या यही वास्तविक है, कि उनके हृदय नहीं होता? बन्द कर सके! पर इतना बड़ा समाये कैसे? लाचारी तो और होता भी है तो उसके अन्दर दया नहीं होती? क्या यही है! यह सम्भव है ? विश्वास किया जा सकता है ? क्या मजाल जो कभी एक उँगलीसे, मारनेके नाम अगर हाँ ! तो फिर दयाको सार्व-धर्म क्यों कहा जाता सेकुमा हो? यह बात नहीं कि सभी बातें उसकी उसे पसन्द आती, नहीं; कुछ बुरी भी लगतीं, हल्का-पूरा गुस्सा है ? विश्व-धर्म कहकर क्यो पुकारा जाता है ? भी अाता कभी-कभी! पर, वह उसे मारती हर्गिक न! आप उत्तर देंगे? दुलारा, प्यारा जो था, जी से भी ज्यादा! xxx Page #496 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ] रानी [२] तो कल वहाँ ! रानीने रो-रोकर अासान सिम्पर उठा लिया ! पर. x क्या कुछ नतीना निकल सकता था ? गया हुश्रा कभी लौटा भी है? बहुत दिन बाद, एकदिनबात कुछ बड़ी नहीं थी ! मामूली बुखार था ! ऐसा, चार छः हमजोलियोके साथ, रोजकी तरह गनी शिकार दो-एक बार पहले भी पा चुका था, नया थोड़ा था ! पर, अबकी बार वह मौतको भी माथ ले श्राया, इसका किसी की टोह में निकली ! निर्जन-वन था! पशु-पक्षी पाने मिले को पता न चला। हुए, थोड़े-से सुखमें निमग्न, परिवार के माथ मौजकी किलबुखारने जोर पकड़ा! इधर था. मीका भौमम! हो कारियों भर रहे थे! शहरके जन-बसे दर, वे अपनेको गया चट निमोनिया ! दवाएँ हुई, दुधाएँ मोगी गई. अनेक निगकुल और निरापद ममझ रहे थे ! परन्तु क्या वह उपचार हए ! परन्तु मब व्यर्थ ! सब चेष्टाएँ निष्फल ! उम तपोभूमि उनके लिए निगपद थी भी ? का जीवन-काल मिर्फ तीन-वर्षकी अल्प-अवधिमे श्रावद्ध 'ठोय !-की एक हक्की अावाजके माय एक सुन्दर था! भना टाला जा सकता था, वह ! परिन्दा जमीनपर श्रा गिरा ! गनीने गुलेलको मुँह में दबाया x x रानीकी गांद मनी होगई ! और माथ ही उसके लिए और अपने कटोर हामि लपक कर उसे उठा लिया ! सारी दुनिया, इस बड़ी-मी दुनियासे कहीं अधिक सुन्दर, देखा-वर मर चकात फिर भी, यह आशंका न अधिक अानन्ददायी और अधिक मनोरम थी! होनेपर भी कि वह उड़ सकता है, गर्दनको मरोहते हुए उमकी लावण्यना वासी-फूलकी तरह अशोभन होगई है ! न अब पहले-मी प्रफुल्लित रहती है, न मग्ध । यो उम निदेयतापूर्वक झोलेमें डाल लिया और आगे बढ़ी ! जैसे का तारुण्य अब भी उसके पाम है, कही गया नहीं ! लेकिन अभी उमकी नृशंसताको तृप्ति नहीं, भूस्व ब-दल्लूर हो! अब उममें उमंग नहीं, उत्माइ नहीं; उसके रिक्त स्थान पर माथी-लोग दूरपर, अपनी-अपनी घातमें लगे हैं! तीसरे-यन जैसी निराशा है ! किसीको इतना अवकाश नहीं, कि कौन क्या कर रहा है ? उसके मनमें, मनके एक अधूरे कोने में, एक वेदना देखे ! जरूरत भी क्या ? है, कमक है, एक घाव है ! जो उसे पनपने नहीं देता, उमके तारुण्यको निखग्ने नहीं देता: मुर्दा बनाए मघन-वृषके पत्तोंमें छिपा हश्रा एक छोटा-मा नीड़ ! बैठा है! जिसमें बैठे थे दो पक्षी!-शायद कबूतर थे! दोनों अपनी वह मॅहपर उदामी पोते हुए, बैठी रहती है-सुस्त, छोटी-सी गजधानीके बादशाह थे ! लेकिन उनके सामने गुम-सुम ! निराशाकी प्रतिमूर्ति-मी । दिनका दिन बीत गजनैनिक उलभनें नहीं थी ! उनका देश था-प्रेम, जाता है, रात भी पानी और खिमक जाती है ! पर वह है, कानून था-नौज और टैक्स था-अल्प-भोजन ! किसी हद जो न खाती है, न पीनी! न हँसती. न किमीमें बोलती- तक व सुग्वा थ, भार! तक वे सुग्बी थे, और सुग्बमें बैठे, चैनकी बंशी बजा रहे चालती ! हा, जब कभी रोते हए उसे जरूर देखा गया है। थे! उन्हें खबर नहीं थी कि भविष्य उनके लिए क्या ___ जीवन उसका अब दुमरी श्रोग्को बह रहा है। पर वर्तमान बनाने में मशगूल है? वह उसमे बेखबर नहीं ! बहाये जारही है ! शायद मोच कि इमी समय रानीके गुलेलमे निकली हुई एक बैठी है-'चेष्टा कोई चीज नहीं, भाग्यनिर्णय बड़ी वस्तु है' कठोर कंकड़ीने बेचारेका प्राणान्त कर दिया ! रोजक सधे __दिन समीरकी गतिसे निकलते चले जारहे हैं ! विल्लो- हुए हाथ, क्या निशाना नक मकते थे? चियोका काफला भी पर्यटन करता जारहा है, आज यहाँ वह रानी के पद-सनिकट-जमीनपर-पड़ा तड़पने लगा, Page #497 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६४ अनेकान्त पंख तड़फड़ाने लगा; और लगा अपनी गोल-गोल नन्हीं खांसे इधर-उधर देखने ! शायद किसीका खोजता हो ! मिनिट भर की वेदनामय श्रायुमं क्या देखता, क्या सोचता ? पीड़ा मौतकी दूत बनकर जो श्राई थी ! एक वेकलीकी तड़प ! और बस, खतम ! रानीने देखा – 'वह एक कबूतरका बच्चा है, कैमा सुन्दर ?' वह उठाने के लिए झुकी ! पर, यह क्या ? मिरके पास ग्वड़खड़ाइट कैसी है ? नज़र उठाकर देखा तो एक या दो कबूतरको शोकविह्वल चक्कर काटते पाया-बेचैन बेखबर ! रानी क्षण-भर रुकी, और अपने विचारोमं डूब गई— जैसे अथाह जल में छोटी-सी कंकड़ी ! बच्चा मरा हुआ सामने पड़ा था ! उसकी ममतामयी माँ — उसके विछोह दुःखसे पागल हुई— उसे देख रही थी, सिर्फ देग्व ही रही थी, आँसू-भरी आँखोस ! श्राह ! उसे छू लेने तकका उसे दक नहीं था, हिम्मत नहीं थी, अधिकार नहीं था ! वह कभी दरख्त की इस टहनी पर, कभी उसपर ! कभी बैठती, कभी उठती ! कभी भागी-भागी फिरती अन्तारक्षकी छाती पर, बेतहाशा दौड़ती ! श्रोह ! उसे क्षण-भर भी चैन नहीं ! अरे, उसे कैसी वेदना थी वह !!! हृदयकी पुकार हृदय तक पहुँचने लगी, शायद घायल की गात घायलने जान ली ! गनीका कठोर हृदय भी दयासे प्लावित होगया ! वह सोचने लगी [ वर्ष ४ कालपर किसका वश चला है ? क्या करती ? 'हाय !' करके रह गई ! उसके भी एक बच्चा था - ऐसा ही सुन्दर; ऐसा ही कोमल, ऐसा ही प्यारा और ऐसा ही छोटा-मोटा, भोला-भाला ! मगर..... ! निर्दयी -कालने उसे न छोड़ा, उसके प्यारे बच्चेको देखते-देखते उठा लिया ! वह विवश रोती- कलपती रह गई ! टप्-टप् !!! दो बूँद रानीकी खाने बग्वेर दिये ! और उसी वक्त उसने देखा -- बेचारी कबूतरी रो रही है ! उसका वच्चा जो मर गया है ! उसकी आँखोका तारा ! रानीके मनमें विद्रोह उठा -- 'उसका निर्दयी काल ती तू है रानी तू !' वह एक दम रो पड़ी ! जैसे उसका बच्चा अभी ही मरा है ! घाव कुरेदकर ताजा बना दिया हो ! मा के हृदय ने माके हृदयकी व्यथाको पहिचान लिया ! उसने गुलेल उठा कर दूर फेंकदी, जैसे वह उसकी चीज़ ही नही थी । भूलसे किसीने उसके हाथ में थमा दी थी ! विव्हला- कबूतरी इधर-उधर देखती रही, फिर वह अपने मृत-पुत्र के समीप श्रा बैठी ! देखता कोई वह करुण दृध्य ! दो मा-हृदयांके बीच में एक मृतक पुत्रका निर्जीव शरीर ! घंटों हो गए, पर रानी न उठी, अपने स्थानसे चिगी तक नहीं ! निर्जीव हो, पत्थरकी पुतली हो, या मिट्टीका ढेर ! साथी आए और जैसे-तैसे कर डेरे पर ले गए ! उमी जड़ता ढंग में ! नहीं कहा जा सकता -- चैतन्य है वह, या तब थी ? X X X X [8] आँखें लाल हैं, शरीर तप रहा है ! बुखारकी तेजी है ! रानी गुम सुम पढ़ी हैं ! किमीसे बोलती-चालती नही ! खाना-पीना तक छूट गया है ! केवल दूध उसका जीवन रक्षक बन रहा है I शाम को बुखार जब ढीला पड़ता है, बोल सकनेकी Page #498 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] ताऊन जब उम में हो जाती है तब यह बैठ जाती है, उपदेशकफी तरह ! और कहने लगती है-अपने दिलका दर्द, मानसिक पीडाका अध्याय !-- 'किसीका मागे मन ! उसके शरीर में भी दर्द होता है, उसके माँ-बाप भी बेचैन होते हैं. उन्हें तकलीफ़ होती है ! जान सबकी बराबर है !" बिल्लोची सुनते तो दंग रह जाते। कुछ कहते-'लड़की कहती तो ठीक है!' पर कुछकी राय होती-'चुम्बार बीमारीसे दिमाग़ फिर गया है ! नहीं, ऐसी बातें यह कहाँ ? क्या हम नहीं हैं, मफ़ेद बाल हो चुके, इन बातोंको 'श्रा तक नहीं !' कोई कहना - 'पिछले दिन तक तो यह भी परिन्दे मार-मार कर रांधा करती थी, आज कहती है-किमीको मारो मन ! भई !" रानी जब प्रेमी बातें सुनती तो उसका मन और भी टूट जाता ! वह खाट पर लेटी-लेटी सोचती रहती 'क्या, ये भी मनुष्य है ?" और उसका बुखार जोर पकड़ जाता ! माँ सिराहने बैठी-बैठी बहाली, मिलने मनाली-'मेरी रानी बच जाय !' और बाप दवाएँ लाता, जड़ी-बूटी डाक्टर रोता-पता ! फिरता ! धागे दयाकी भीख मांगता, गड़गिड़ाता, किसी तरह रानी बच जाग ! उसे हो क्या गया डाक्टर ने बताया- 'इसका दिल कमजोर हो गया है ? मानसिक पीड़ा है - इसे ! यह जो चाहे, इमे वही दो ! इसके हृदयपर कुछ असर हुआ है, तुम लोग इसके हृदय कोन दुखायो !' हैं !!! सब चौंके ! डाक्टर कहता है- 'हृदयको न दुखाओ !' रानो ४६५ रानी कहती है किसीको मारो मत, उन्हें भी तकलीफ़ होती है !" बातें दोनों एक है जरा भी फर्क नहीं! अजीव समस्या है ! गनीकी तन्दुरुस्तीके लिए हिन्दगी के लिए सपने उसका हुक्म मानना मंजूर किया ! X X X X जिमने मुना, बड़ी हैरत में भागवा विशांचियांका काफला निरामिष भोजी है ! वे शिकार नही करतं, माँम नही पाते ! दूसरे बच्चे को अपना माननेमें सुख पाते हैं ! और रानीको वे अपना 'गुरु' मानते हैं, देवी मानकर पूजते हैं, अपना जान कर उसका सादर करते हैं! रानी है उनकी मार्ग-प्रदर्शिका ! गनीमें फिर ताज़गी लौट आई है वह प्रफुल्लित रहती है ! उसे ऐसा लगने लगा है कि उसका बच्चा उमे इन्सानियत मानवता मियाने खाया था, तीन साल में वह ब-वृक्ष पा लिया गया ! उसकी आत्मा रोशनी भर गया ! अब जब उसे अपने बच्चे याद आती है तो उसी वक्त उस कतर बच्चेका चित्र भी आपके आगे हो चाता है ? और रानीका कोमल मन पिघल कर आँसू बन जाता है ! X X X X [x] अवश्य कहा जा सकता है--कठोर से कठोर कसाईकर्म में निरत रहने वाले व्यक्तिके हृदयमें भी 'दया' नामकी कोई चीज़ रहती है फिर भले ही उसके प्रकार में मेद हो, तरीके में तब्दीली हो ! कम-ज्यादह हो ! दयाका ही दूसरा नाम है--मानवता !!! और यों दया सार्वधर्म है. इसमें शक नहीं 1 Page #499 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नेमिनिर्वाण-काव्य-परिचय (ले.पं. पन्नालाल जैन 'वसन्त' माहित्याचार्य ) [गत किरणसे आगे] गष्ट्र देशकी उर्वग पृथ्वीका वर्णन करते श्लोकगत समस्त पदोंका श्लेष-सलिल उस उपमाSou हुप कविराज लिखते हैं लताका सिञ्चन करता है । अथवा जो देश 'घोषवती विराजमानामृणभाभिरामे -वीणा रूप पृथ्वीको धारण किये हुए' यह रूपकाग्रामैगरीयो गुणसंनिवेशाम् । लंकार भी माना जा सकता है। उस रूपककी मौन्दर्य- सरस्वतीसंनिधिभाजमुर्वि वृद्धि भी श्लेषकं द्वारा ही हो रही है। इस प्रकार ये सर्वतो घोषवतीं वहन्ति ॥३३॥ _ 'जो सुगष्ट्र देश, बैलों-द्वाग मनाहर प्रामास कविराजन सुगष्ट्र देशके वर्णनमें अपने काव्य-कौशल का अनुपम परिचय दिया है। शोभायमान, गुरुतर गुणोकं संनिवंश-रचना या ___समुद्र के बीच में द्वारावती पुगेका वर्णन करते हुए विस्तार से सहित, सरस्वती-नदियों के मामीप्यका कविगजन श्लिष्टापमाका कितना सुन्दर उदाहरण प्राप्त और गोपचमतिकामोम युक्त पृथ्वीको सब तयार किया है ? देखियपोरस धारण करते हैं।' परिस्फूरन्मगडलपुण्डरीक-च्छायापनीतातपसंप्रयोगैः । यह तो हुआ प्रकृत अर्थ, अब अप्रकृत अर्थ या राजहंसैरुपसम्यमाना, राजीविनीवाम्बुनिधी रराज ॥३०॥ देखिये, जो कि श्लोकगत समस्त पदोंके द्वयर्थक होने 'जो नगरी समुद्र के मध्य में कमलिनीके समान के कारण स्परूपस प्रतिभामित हो रहा है- शोभायमान होती है। जिस प्रकार कलिनी, विक__“जो सुगष्ट्र देश, ऋषभ नामक स्वर विशेष सित पुण्डरीकों-कमलोकी छायासे जिनकी प्रातपसुन्दर, प्राम-स्वर्गके समुदायसे विराजित, गुरुतर व्यथा शान्त हो गई है ऐसे राजहंसों'-हंम विशेषों श्रेष्ठ अथवा बड़ी बड़ी तन्त्रियोंके सनिवेशसं युक्त, सं सेवित होती है, उसी प्रकार वह नगरी भी तने हुए मसिनो तथा सरस्वती देवीके समीप स्थित-उसके हाथमे विस्तृन-पुण्डरीक-छत्रोंकी छायासे जिनकी प्रातप विलसित मनोहर शब्दयुक्त, विशाल, घोषवती-वीणा व्यवस्थास सब दुःख दूर हो गये हैं ऐसे राजहंसोंको धारण करते हैं-जिस देशके मनुष्य हर एक बडे बडे श्रेष्ठ गजामास संवित थी-उसमें अनेक प्रकारकी चिन्ताओंमे विनिमुक्त हो हाथमें वीणा राजा-महाराजा निवास करते थे। धारण कर संगीत सुधाका पान करते हैं। उत्प्रेक्षाका एक सुन्दर नमूना भी देखियेयहां प्रकन और प्रकृत अथोंमे असंगति न हो , सास्त ते चञ्चचरण लोहितः मिता:' जिनकी चोच इसलिये 'बीणा समान पृथिवीको धारण करते हैं और चरण लाल हो और शेष ममस्त शरीर सफेद हो यह उपमालंकार व्यहवरूपसे निकाला गया है। ऐसे हंसोंको राजहंस कहते हैं। Page #500 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ महाकवि पुष्पदन्त ४६७ एवं विधा तो निजराजधानी निर्मापयामीति कुतूहलेन। की भूमिका माश्लेषण करता है। छायालादग्छ मले पयोधी प्रचतसा पा लिखितेव रेजे ।३८ यहाँ पर कविने समासाक्ति अलंकारसे यह भाव 'स्वच्छ जलसे युक्त समुद्रों द्वारावतीका जो व्यक्त किया है-'जैसे कोई उत्कट इच्छा वालाप्रतिविम्ब पड़ रहा था, उससे ऐसा मालम होता था दक्षिण नायक, नवीन अनुगग-प्रेमसं सम्पन्न स्त्रीको कि जलदेवता वरुणनं, 'मैं भी अपनी गजधानीको छोड़ कर, उन्नत स्तन वाली किसी अन्य कान्ता स्त्री इसीके समान सुन्दर बनवाऊँगा' इस कुतुहलसं मानों का आश्लेषण करने लगता है उसी प्रकार चन्द्रमा, एक चित्र खींचा हो।' नवानुगगसे युक्त प्राचीको छोड़ कर द्वारावतीकी द्वारावती नगरी की स्त्रियोंका वर्णन दखिये- उच्चस्तनी उन्नत, रत्न निर्मित निवास-भूमका पालचन्द्रायमाणैर्मणिकर्ण पूरैः पाशप्रकाशरतिहारिहारैः । नन करता था-समें प्रतिबिम्बित होता था । । भूमिश्च चापाकृतिभिर्विरेजुः कामाख्शाला इव यत्र बालाः३६ यहाँ समासाक्ति अलंकार तथा उसके द्वारा प्रकट जहां पर स्त्रियां कामदेवकी अस्त्रशालाके समान होने वाली सम्भांगशृङ्गार नामक रसध्यान महदयशोभायमान होती थीं। क्योंकि स्त्रियाँ अपने कानोंमें जो मगिनिर्मित कर्णफूल पहिने हुई थी व चक्र- 'अनुराग', 'उदार कान्ति', 'उम्तनी', तथा आयुध विशेषकं ममान मालूम होते थे, जो सुन्दर 'कान्ता' शब्दके श्लषने, 'नक्तम' इस उद्द पक, विभावहार पहिन हुई थीं व कामदेवकं पाश-बन्धन रज्जुके सूचक पदन, 'प्राची' तथा 'रत्न निजामभूमि' शब्दके समान मालूम होते थे और जो उनकी प्रणय-कापम स्त्रीत्वन एवं 'इन्दु' शब्दके पवन इस श्लोक बैंक भौंह थी वे धनुषक समान मालूम होती थीं'। सौन्दर्य-वर्धनमें भाग हाथ बटाया है। ___ यहां उपमालंकारको विचित्रता और 'शाला' परिसंख्या अलंकारका एक नमूना देखिये'बाला' का अनुप्रास दर्शनीय है। प्रकोपकम्पायरवन्धुराभ्यो-भयं वधूभ्यस्तरुणेषु पस्याम् । ____ रात्रिक प्रथमभागमें चन्द्रमाका उदय होता है करकालयकसौरभाणां, प्रभज्जनः पोरगृहेषु चौरः ॥ ४२ ॥ पूर्व दिशामें लालिमा छा जाती है, थाही देग्मे पूर्व जिम द्वारावती नगरीमें रहने वाले युवा पुरुषों दिशास आगे बढ़ कर चन्द्रमा आकाशमें पहुँच जाना को यदि भय होना तो सिर्फ प्रणयकापस कैंपते हुए है जिससे उसका प्रतिविम्ब द्वागवनी नगर्ग मणि- अधरोष्ठोंस शोभित अपनी स्त्रियोंस ही होता थानिर्मित भवनों में पड़ने लगता है' इस प्रकृतिक सौन्दर्य अन्य किमीम नहीं। इसी तरह नागरिक नगेंकं घगं का वर्णन कविगजकी अनूठी लम्बनीस कितना मुंदर में यदि कोई चार था तो सिर्फ पवन ही कपूर और हुआ है ? देखिय कालागुरु चन्दनकी सुगन्धिका चौर था और कार्ड प्राची परित्यज्य नवानुरागा-मुपेयिवानिन्दुरुदारकान्तिः। चौर नहीं था।' उच्चैस्वनी रलनिवासभूमि, कान्तां समाश्लिष्यति यत्र नक्सम् ॥ यात यत्र नक्तम् ॥ यहाँ कविने यह बसलाया है कि म नगरीका - जहाँ पर रात के समय उत्कृष्ट कान्तिवाला चन्द्रमा, शासन इतना सुदृढ़ और सुसंगठित था कि उस पर नूनन अनुगग लालिमास अलंकृत पूर्व दिशाको छोड़ बाहिरसे अन्यशत्रुओंके भाक्रमणकी जरा भी कर अत्यन्त उन्मत और मनोहर रत्न-निर्मित महलों माशंका नहीं रहती थी तथा वहाँ लोग भाजीविका Page #501 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ अनेकान्त दिइने सुखी थे कि कभी किसीको किमी दूसरे की वस्तुको चुराने की इच्छा नहीं होती थी जो जिम वस्तुका पाना चाहता था उसे वह वस्तु अनायासस्वयमेव प्राप्त जाती थी । यह वर्णनीय वृत्त साधारण है परन्तु कविके परिसंख्या अलंकार उसकी शोभा को बहुत मोहक बना दिया है। सुगन्धिनः संनिहिता मुखस्य, स्मितद्यु ना विच्छुरिता वधूनाम् । भृङ्गा बभुर्यत्र भृशं प्रसून – संक्रान्तरेणू कर कर्बुरा वा ॥ ४३५॥ स्त्रियोंके मुखोंकी सुगन्धिकं कारण जो भरे उनके पास पहुँच जाते थे वे भौंरे उन स्त्रियोंकी मुसकानकी सफेद कान्तिसे व्याप्त होनेपर ऐसे मालूम होते थे, जैसे मानों फूलांक पराग के समूह कर्बुर - चित्र विचित्र हो गये हो' । यहाँ तद्गुण तथा उत्प्रेक्षाका संकर दर्शनीय है । सुभ्रयुगं चंचलनेत्र वाहं, यस्यां स्फुरत्कुण्डल चारु चक्रम् । श्रारुह्य जातस्त्रिजगद्विजेता, वधूमुखस्यन्दनमङ्ग जन्मा ॥ ५२ ॥ 'जां, उत्तम भह रूप युग-र्जुवारी सहित हैं (पक्ष में उत्तम भौंहों के युगलसे सहित हैं) चञ्चल नेत्र रूप बाहो-घोड़ोंसे युक्त हैं ( पक्ष में चञ्चल नेत्रोंको प्राप्त है) और जो कुण्डल रूपी सुन्दर चक्र - आयुध विशेषसे शोभित हैं ( पक्ष में चमकते हुए कुण्डलों की चारु परिधि सहित हैं) - ऐसे स्त्रीके मुखरूपी रथ पर आरूढ़ होकर कामदेव जिस द्वारावती नगरी में तीनों लोकोंका जीतने वाला बन गया था ।' यहाँ 'युग' 'वाह' और 'चक्र' शब्द के श्लेषसे अनुप्रीणित वधू मुख और स्यन्दन- रथका रूपक विशेष दर्शनीय है । [ बर्ष ४ को भी संभव कर दिखाते हैं । यही बात है कि कविराज भी आगे श्लोक में श्राकाशगत सुवर्ण कमलों का संभव कर दिखाते हैं। देखिये - लोग कहते हैं कि कवियोंके सामने कोई भी वस्तु असंभव नहीं है - वे अपनी कल्पना से असंभव वस्तु यदुपादे, सुरमन्दिरेषु, लुप्तेषु शुद्धस्फटिकेषु मकम् । es स्फुटं हाटककुम्भकोटि-र्नभस्तलाम्भोरुह कोशशङ्काम् ॥ 'द्वारावती नगरी में रात के समय, निर्मल स्फटिकमणियों के बने हुए देवमन्दिर चन्द्रमाकी सफेद किरणों द्वारा लुप्त कर लिये जाते थे - सफेद मंदिर सफेद किरणों में तन्मय होकर छिप जाते थे, सिर्फ उन मन्दिरोंके सुवर्ण-निर्मित पीले पीले कलशे दिग्बलाई पड़ते थे उनसे यह स्पष्ट मालूम होता था कि श्राकाशमं सुवणे - मल फूले हुए हैं। (भावानुवाद) श्लेष और उत्प्रेक्षा संवर-मेलका उदाहरण देखिये यमक वृत्तेर्धन वाहनस्य, प्रचेतसो यत्र धनेश्वरस्य । व्याजेन जाने जयिनो जनस्य, वास्तव्यतां नित्य मगुदिंगीशाः ॥ 'उस द्वारावती के रहने वाले मनुष्य यमैकवृत्ति थे - अहिंसा आदि यमत्रतांको धारण करने वाले थे ( पक्ष में यमराजकी मुख्य वृत्तिको धारण करने वाले थे ) घनवाहन थे - अधिक सवारियोंस युक्त थे ( पक्ष में इन्द्र थे), प्रचेतस थे - प्रकृष्ट-उत्तम हृदयको धारण बरने वाले थे ( पक्ष में वरुण थे ) और धनेश्वर थेधनके ईश्वर थे ( पक्ष में कुबेर थे) इसलिये मैं समझता हूं कि वहांके मनुष्योंके छलसे चारों दिशाओंके दिक्पालोंने उस नगरी को अपना निवासस्थान बनाया था । ' [दक्षिण दिशा के स्वामीका नाम यम, पूर्व दिशा के स्वामीका नाम धनवाहन- इन्द्र, पश्चिम दिशाके स्वामीका नाम धनेश्वर - कुबेर है ] । इस प्रकार कविराजने बहुत ही सुन्दर रीतिसे Page #502 -------------------------------------------------------------------------- ________________ নবিনিৰা-জা-ম্বি अनेक श्लोकोंमें दरावती नगरीका वर्णन किया है। होता था, तथा हमेशा शान्ति हवन मादि होते रहने के स्थानाभावकै कारण स्वाम ग्वाम श्लोकोंकाही परिचय कारण समय समय पर जलवर्षा होती रहती थी, यह दिया जा सका है। इसके आगे राजा समुद्रविजयका अर्थ लेने पर कोई विरोध शेष नहीं रह जाता। वर्णन देखिये- . यहां वर्णनीय वस्तुमात्र इतनी है कि राजा यदर्धचन्द्रापचितोत्तमाण्डदोस्ताण्डवमानधानः । समुद्रविजयके गज्यमें दुष्टोंका निग्रह होता था और विषिभिर्दसशिवाप्रमोद, कैकैन दर्ष युधि रुदभावः ॥६१ वर्षा भी समयपर हुमा करती थी।' 'गजा समुद्रदत्तके वाणोंसे जिनका मस्तक कट परन्तु कविने विरोधालंकारकी पुट देकर उसे गया है, जो बचावके लिये अपनी उद्दण्ड भुजाओंको कितना सुन्दर बना दिया है! फड़फड़ा रहे हैं तथा भक्ष्य सामग्री प्राप्त होने पर जिन्हों महागज समुद्रविजयने शत्रु-गजाभोंको अवलने शिवा-शृगालियों के लिये हर्ष प्रदान कियाहै- निबल बना दिया था, इसका वर्णन देखियेएस कौन कौन शत्रुओंने युद्धमे रुद्रभाव-क्ररभाव- हालापरीकृत-कोपलमाः सखाभिमानास्तनवप्रभावाः । का धारण नहीं किया था? अर्थात् सभीने किया था।' मन्त्रप्रयोगादवला: मलं येनाक्रियन्त प्रतिपक्षभूपाः ॥en ___'जिनके मस्तक अर्धचन्द्रसे पूजित हैं, जो अपनी 'हा, हा, इस प्रकार दुःखसूचक शब्दोंद्वारा जिन भुजायास उदण्ड ताण्डव नृत्य करते हैं, तथा जिन्हों का कोप और लज्जा दूर होगई है, जिनका अभिमान न पति होने के कारण शिवा-पार्वतीको हर्ष प्रदान नष्ट होगया है, और नवीन प्रभाव अम्त होगया है किया है-ऐसे कौन कौन शत्रुनोने युद्धम रुद्रभाव- ऐसे शत्रुराजाओंको गजा समुद्रविजयने अपने मन्त्रमहादेवपनका धारण नही किया था । अर्थात् सभी वल-सद्धिचारणाके बलस निर्बल बना दिया था।' ने किया था। [गजाने उन्हें निर्बल बना दिया था इसलिये ___ यहाँ क्रमसे लिखे हुए प्रकृत और अप्रकृत अर्थों उनकी ऊपर लिग्वी हुई अवस्था हो गई थी। का कितना सुन्दर श्लेष है और उससे प्रकट होने वाला 'हाला मदिराकं द्वारा जिनका कोप और लज्जा 'रुद्रभावः रुद्रभाव इव' यह उपमालंकार कविके जिस दोनों दूर होगई हैं तथा सुन्दर नाभिके मानसे काव्यकौशलको प्रकट कर रहा है वह प्रशंसनीय है। जिन्होंनेनव-तरूण पुरुषों के प्रभावको-धैर्यको नष्ट द्वे कौतुके हन्त यदावपत्रछावालस्थायिनि भूननेऽस्मिन् । कर दिया है ऐसे शत्रुनोंको गजा समुद्रविजयने अपने संतापमापदमाधुवों, यवृष्टिरप्यम्खलिता बभूव ॥६६॥ मन्त्र तन्त्रक प्रयोगसे अबला-खी बना दिया था_ 'महाराज समुद्र विजयकी छत्रछायाकंनीच रहने यह आश्चयेकी बात है! वाले भूमितलपर दो आश्चर्यजनक कौतुक हुए थे। यहाँ श्लेष तथा उससे उत्पन्न हुए विरोधाभास पहला यह कि दुष्टमानव-समूहने सन्तापको पाया था अलंकारकी सुन्दरता कविके अनोखे काव्य-कौशलको और दूसरा यह कि वर्षा भी अपतिहत-रोक टोक प्रकट कर रही हैं। (क्रमशः) रूपसे हुई थी।' ___ जो मनुष्य छोया नीचे स्थित होता है स्वसे धूप १ 'हा' इत्यालापन दूरीकृते कोपलज्जे येस्ते, हालया मद्यनापतथा जलवृष्टिकी बाधा नहीं होतीपरन्तु यहां महाकवि दुर्गकृत कोरलजें याभिस्ताः । मन्नोऽभिमानी येषा ते, ने, समुद्रविजयकी छत्र छायाके नीचे स्थित उन दोनों अतएवास्नी नवः प्रभावो येषा ते, सुन्दरनाभेर्मानेन अस्तो बाधाओंको बतलाया है जिससे विराधालंकार अत्यन्त नवाना यूना प्रभावो-धैर्यरूपो याभिस्ताः । यद्रा सन्नोऽभिमान स्पष्ट होगया है। किन्तु उनकी शासन-व्यवस्था पा समन्तात्स्तनोच्चत्वं यासा ताः । यद्वा सुन्दरी नाभिमानी दुष्ट मनुष्योंका निग्रह होता था इसलिये दुष्टोंको दुःख यामा नाः, स्तनयोर्वप्रभाव उपना यासु ताः । Page #503 -------------------------------------------------------------------------- ________________ उपाध्याय पद्मसुन्दर और उनके ग्रन्थ ( ले० - श्री अगर चन्द नाहटा ) नेकान्तकी गत २-४-५ किरणोंमें "राजमल्लका अ पिंगल और राजभारमएल" शीर्षक सम्पादकीय लेख प्रकाशित हुआ है । उसमें (किरण २ पृ० १३७) मोहनलाल दलीचं देशाइ लिखित 'जैन साहित्य नो संक्षिप्त इतिहास' के आधार पर पद्मसुन्दर - रचित 'रायमल्लाभ्युदय' का उल्लेख किया गया है । देशाइजीने पद्मसुन्दरको दि० भट्टारक बर्तलाया है, पर वास्तव में यह सर्वथा गलत है । ये पद्मसुन्दर नागपुरी तपागच्छके विद्वान थे और सम्राट अकबरसे श्रापका काफी सम्बन्ध रहा है। हमें इनके कतिपय नवीन ग्रंथ भी मिले हैं, अतः इस लेखमें उनका यथाज्ञात परिचय दिया जा रहा है । नागपुरीय तपागच्छुकी पट्टावलि में आपका परिचय इस प्रकार दिया है: "धुरंधर पंडित पद्मसुन्दर उपाध्यायका सम्राट कबरसे घनिष्ट सम्बन्ध एवं परिचय था । सम्राट आपकी विद्वताको अच्छी तरह जानता था। एक बार एक ब्राह्मणाने दिल्ली में सम्राट अकबर के समय गर्वित होकर कहा कि मेरे समान इस कलिकाल में कोई विद्वान नहीं है। यह सुनकर सम्राटने उपाध्याय पद्मसुन्दरजीको शीघ्र बुलवाया । उपाध्यायजीने शीघ्र ही आकर सम्राट के समक्ष तर्क में उस ब्राह्मणको परास्त कर दिया। इससे सम्राट् अकबर उनके मंत्री और सभासद वर्ग सभी बहुत प्रसन्न हुए। पद्मसुन्दरजी को सम्राट्ने पहिरामणी कर सुखासनादि प्रदान किये और भागमें धर्मस्थान बनवा दिया। उनकी इस विजयसे नाग*विशेष के लिये देखें भारमल्लपुत्रकारित वैराटमंदिर - शिलालेख सानुवाद, प्र० जैन सत्यप्रकाश वर्ष ४ श्रंक ३ से ६; एवं प्राचीन जैनलेखसंग्रह लेखाङ्क ३७६ । भारमल्लकी कीर्तिके es कवित्त 'श्रीमाली वाणिश्रोनोज्ञातिभेद' में छपे हैं। + देशाइजीने उनकी जो गुरुपरम्परा रायमल्लाभ्युदय में बतलाई है ठीक वही 'सुन्दरप्रकाशशब्दार्णव' श्रादि में भी है, अतः दोनों एक ही नागौरी तपागच्छके है । 1 जैन युवक मंडल, श्रहमदाबाद से प्रकाशित (गुजराती) पुरीय तयागच्छकी बड़ी प्रसिद्धि हुई। उपाध्यायजी वाद करने में बड़े कुशल थे । इन्होंने 'प्रमाणसुन्दर' नामक न्यायग्रंथ, रायमल्लाभ्युदय महाकाव्य, पार्श्वनाथ काव्य एवं प्राकृतमें जम्बूस्वामी कथा इत्यादि ग्रंथोंकी रचना की है। "सूरीश्वर और सम्राट्"* में लिखा है कि- श्री हीरविजयसूरिजी सम्राट अकबरसे मिले थे, तब वार्तालापके अन्तर सम्राट् अकबर ने अपने पुत्र शेखजीके द्वारा अपने यहां पुस्तकालयका ग्रंथ संग्रह मँगवाकर सूरिजी के समक्ष रखा । तब सूरिजीने सम्राट से पूछा कि आपके यहां इतने जैन एवं अनंतर ग्रंथोंका संग्रह कहांसे श्राया ? सम्राट्ने उत्तर दिया कि हमारे यहां उपाध्याय पद्मसुन्दर नामके नागपुरीय तपागच्छके विद्वान साधु रहते थे। वे ज्योतिष, वैद्यक और सिद्धान्तशास्त्रमं बहुत निपुण थे, उनके स्वर्गवास होजाने पर मैंने उनकी पुस्तकोंको सुरक्षित रखा है। अब आप कृपया इन ग्रंथोंको स्वीकार करें । हर्षकीर्तिसूरि-रचित धातुपाठवृत्ति - धातुतरंगिणीकी प्रशस्तिसे पट्टावली उल्लिखित शाहि सभामें वाद- विजयके अतिरिक्त जोधपुर के नरेश मालदेव के श्राप मान्य थे श्रादि प्रतीत होता है। यथा: साहेः संसदि पद्मसुन्दर गणिर्जित्वा महापंडितं । क्षौम-ग्राम-सुखासनायकबर श्रीसाहितो लब्धवान् ॥ हिन्दूकाधिपमालदेव नृपतेर्मान्यां वदान्योधिकं । श्रीमद्योधपुरे सुरेप्सितबचाः पद्माह्वयं पाठकं ॥ १० ( हमारे संग्रहकी प्रति) सं० १६२५ मि० ० १२ को तयागच्छीय बुद्धिमागर जीसे खरतर साधुकीजीकी सम्राट्की सभा में पौषधकी चर्चा हुई थी और साधुकीसिंजीने विजय प्राप्त की थी । उस समय पद्मसुन्दरजी धागरेमें ही थे, ऐसा हमारे द्वारा सम्पादित *गुजराती संस्करण पृ० १२० + हीरविजयसूरि सम्राट अकबरसे सं० १६३६ में मिले थे । श्रतः पद्मसुन्दर जीका स्वर्गवास इससे पूर्व होना निश्चित होता है। Page #504 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] पद्मसुन्दर और उनके ग्रन्थ ४७१ 'ऐतिहासिक जैनकायसंग्रह के पृ० १४० में प्रकाशित मानकीर्तिसूरि विद्यमाने पं० चउथ शिष्य वीरान 'जइतपदलि' से स्पष्ट हैं । लिखितं स्ववाचनाय शृंगारदर्पण काव्यप्र० ६०० । श्री । उपाध्याय पद्मसुन्दरजीके ग्रंथभिन्नाक्षर प्रशस्ति हमारे अन्वेषणसं उपाध्याय पद्मसुन्दरजीका शृंगारदर्पण" नामक ग्रंथ मिला है, उससे सम्राट अकबर के साथ आपका घनिष्ट सम्बन्ध भलीभांति प्रमाणित होता है । यह ग्रंथ सम्राट अकबर के लिये ही बनाया गया था। अतः इस का नाम "अकबर शाहि शृङ्गारदर्पण' रखा गया है। साहित्य संसार में अद्यावधि इस ग्रंथका कोई पता नहीं था । सर्वप्रथम हमें इस ग्रंथकी अपने हस्तलिखित अपूर्ण ग्रंथोंमें एक प्रति मिली। फिर पं० दशरथ जी M. A. सं जात हुआ कि इसकी एक पूर्ण प्रति बीकानेर- स्टेट लाइम रोमें भी है। अतः स्टेट-लायन रीकं समग्रकाव्यग्रंथों को दो दिन तक टटोलने पर सबसे अनके बंडल में उसकी प्रति प्राप्त हुई। नीचे इन दोनों प्रतियों के परिचय के साथ ग्रन्थका परिचय दिया जा रहा है - १ अकबरशाहि शृंगारदर्पण --स ग्रंथमें चार उल्लास हैं, जिनमें क्रमशः ६८, ७६, ८६ और १८ पद्य हैं, श्रादित इस प्रकार है: आदि - यद्भासा सकलं विभाति दुर्लक्षाम् श्वगिदशा । यस्मिन्नोनमिदं हितं तु मणिवश्यत्यं सदा शाश्वतं । यत्परितममः स्थितं च रहयानित्याद्वयं तत्परम् । ज्योतिः साहिशिरोमण अकबर त्वाम् सर्वा देवा वतात् X X X X अंत्यः - अनेन पदचातुरी नियतनायिकालक्षणा । स्फुरनवर सोल्लास व (वि !) णिमप्रबंधन तु । अनंगरससंगप्रथितमानमुद्रावतीं । प्रसादयतु भामिनीमकबरं स्वरोहिर्निशा ||१७|| यति काव्यरचनासु रुचिर्विदग्धानानाray रसिकत्व - कुतूहलं च । तत्पद्मसुन्दर कविप्रथितं सुग्म्यं, श्रृंगार दर्पणमुपाद्धमदुष्ट चिन्ना ॥ ९८ ॥ इति सकलकलापारीण रमिकसाम्राज्यधुरी श्री अकबर साहिशृंगार दर्पणे चतुथंउलामो । यादृशं इत्यादि । ले० सं० १६२६ वर्षे आषाढमासं कृष्णपक्षे अष्टम्यां तिथौ भौमवासरे पातिसाह श्री अकबर राज्यं । आगरामध्ये । भ० श्रीचंद्र कीर्तिसूरि पट्टे भ० श्री श्री श्री चतुःशृंगनिपादश्च द्विशीर्षा सप्तर्षयान । त्रिधावद्धो महान् देवी, वृषभोगैरबीति ||१|| मान्यो वा भुभुजोशजघराट् तद्वत हुमायूं नृप । ऽत्यर्थ प्रीतमनः सुमान्य ककोदानन्दरायाऽमि । तद्वत्साहिशिरोमणेर कबर क्ष्मापालचूडामणे । मान्यः पंडित पद्मसुन्दर इह । ऽभूत् पंडिताजित ॥ २ ॥ चंद्रप्रभः श्रीप्रभुचंद्रकीर्त्तिसूरीश्वर चंद्रकलाब्धिचंद्र | चंद्रावल श्लोकभरः सुखषचंद्र के तारावधि मातनोतु ॥ नागपुरीय तपागणाराज: श्रीचंद्रकीर्त्तिसूरीश्वरा । तचिष्य हषकार्तिसूरिः समलेखय (स्यार्थे) । ४ कल्याणविपुलं भूयात ए विपरीत रते स्वशीकृता । दरहासातिमनां रमा नानाविधवाघवसंगतां स्मिर युद्धे विजिताप्य चापलं ॥ १ ॥ प्रतिपरिचय:-- A बीकानेर स्टेट लायब्ररी- १६ पत्रकी प्रति है। प्रत्येक पृष्ठमें पंक्रिये १२ से १४ और प्रति पंक्रि अक्षर ४५ से ४६ तक है। प्रति सं १६२६ अर्थात् रचनाकालके करीब की लिखी हुई है 1 1) हमारे संग्रह - पत्र २ से १३ तककी अपूर्ण प्रति | प्रथम सर्गकी २२ वीं गाथाएं प्रारंभ होकर चोथे सर्गकी २० गाथा तक सम्बन्ध है। प्रति १३ वीं शताब्दी के पूर्वाद्ध की लिखित प्रतीत होती है । २ सुन्दरप्रकाश शब्दार्णव- इस प्रन्थ में २ तरंग हैं, जिनके समग्र पर्योकी संख्या २६६८ (ग्रंथाग्रंथ ३१७८) हैं 1 यह एक कोच ग्रंथ है। आदि - यच्चांत हिगत्मशक्तिविलसमिचद्रूपमुद्रांकितं । स्यादित्थं तदित्यणेह विषयाः ज्ञानप्रकाशांदितं शब्दभ्रान्तितमः प्रकांडवदनध्नंन्दु कोटिभ्रमं । बंद निवृतिमार्गदर्शनपरं सारस्वतं तन्मठं ||१|| X X X X अंत्यः - आनंदोदयपर्व्वतैकन रेखा रानंदमेरोगुगे । शिष्य पंडितमौलिमंडनमणिः श्रीपद्म मेरुर्गुरुः । [ शेषांश पृष्ठ ४७६ पर पढ़िये ] Page #505 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैनमन्दिर सेठका कुँचा देहलीके कुछ हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची इली सेठके चेके जैनमन्दिरमें भी हस्तलिखित ग्रन्योका अच्छा भण्डार है। इस शास्त्रमण्डारका द प्रबन्ध प्राय: पं० महबूवसिंहजीके हाथमें है, जो स्वभावके बड़े सजन हैं और हमेशा ग्रन्थावलोकन ४.. करने वालोको अवलोकनकार्यमें यथेष्ट सुविधा देते रहते हैं। यहाँ भी ग्रन्थ अल्मारियों में अच्छी व्यवस्था के साथ विराजमान है-लटकती हुई गत्तेकी पट्टियों पर प्रत्येक वेठनमें पाये जाने वाले ग्रन्थोंके नम्बर नया नामादिक अंकित हैं। ग्रन्थसूची यद्यपि ग्रन्थकर्ताके नामादि सम्बन्धी अनेक त्रुटियोंको लिये हुए है, फिर भी उस परसे अन्योंके निकालनेमें कोई दिक्कत नहीं होती । इस ग्रन्थसूचीकी कापी भी बाबू पन्नालालजी अग्रवालने अपने हाथसे उतार कर मेरे पास भेजी है, जिसके लिये मैं उनका श्राभारी हूँ । सूची परसे ग्रन्थप्रतियोंकी संख्या सब मिलाकर १४०० के करीब जान पड़ती है । अनेक ग्रन्थोंकी कई कई प्रतियाँ हैं, इससे अन्य संख्या ६०० या ७०० के करीब होगी। इमी ग्रन्थसूची परसे कुछ खाम ग्वास ग्रन्थोकी यह सूची तय्यार कराई गई है। इस सूचीमें उन बहुतसे ग्रन्थोंको नहीं लिया गया है-छोड़ दया है-जो पिछली दो किरणोंमें प्रकाशित नयामन्दिरकी सूची में श्राचुके हैं। साथ ही, सूचीमें ग्रन्थकर्ताके नामोकी जो टियाँ थीं और लिपि सम्वतोंका पूर्णतया अभाव था उस सबकी पूर्ति भी ग्रन्थप्रतियों परसे, दो दिन देहली ठहरकर चा० पन्नालालजीके सहयोगसे करदी गई है। फिर भी समयाभावके कारण पिछले कुछ ग्रन्थ जाँचसे रह गये है-उनके लिपि सम्वतोंका नोट नहीं होसका । कुछ ग्रन्थ बाहर गये होनेके कारण भी जाँच तथा नोटसे रह गये हैं। जाँचके समय जिन ग्रन्थोंका रचना-सम्बत् सहज हीमें मालूम होसका है उसे भी नोट कर दिया गया है-शेषको छोड़ दिया है। इस भण्डारमें हिन्दी ग्रन्थोंकी संख्या अधिक है और उनपरसे हिन्दीके कितने ही अज्ञात लेखको तथा कवियोंका पता चलता है। 'बुद्धिसागर' नामका ग्रन्थ मुसलमान कविकी श्राजसे ३०० वर्ष पहलेकी हिन्दी रचना है और वह सम्राट अकबर आदि से सम्बन्ध रखने वाली अनेक ऐतिहासिक बातोंके उल्लेखको लिये हुए है। -सम्पादक ग्रन्थ-नाम ग्रन्थकार-नाम भाषा | पत्रसंख्या रचना सं० लिापसंवत् हिन्दी पद्य । १९८५ , १९८० मंस्कृत-हिन्दी हिंदी पद्य । प्राकृत-हिन्दी १९८४ १९८३ १८६२ १८७४ १६७७ पं. देवदत्त हिन्दी पद्य अक्कलमार पं० ग्वबचन्द अजितनाथपुराण पं० देवदत्त अध्यात्मदोहा पं. रूपचन्द अनगारधर्मामृत (भा. टी.) पं० श्राशाधर अनिरुद्धकुमारचरित भागचन्द श्रावक अनुत्तरोपपाददशाग (श्वे..हि.टि.) अन्त:कृतदशाग , अभिनन्दनपुराण श्रमरविलास अमरकवि श्राचारमार (सटिप्पण) वीरनन्दी श्रादित्यव्रतकथा मल्लपुत्र अगरवाल उद्यमप्रकाश कवि क्षत्रपति पद्मावती पुरवाल उद्धारकोष (मंत्रबीजादिकोष) दक्षिणामूर्ति (जैन) उपदेशरत्नमाला भ० सकलभूषण उपामकदशांगसूत्र (श्वे.) ऋषिदत्ताचरित्र (शीलप्रबंध) । देवकलम (पाठकदेवका शिष्य) १७७० मंस्कृत हिंदीपद्य (१५६) १६८३ संस्कृत प्राकृत हिंदी १५६६ 'x(जीर्ण) Page #506 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८ sm " पय RE५५ किरण] जैनमन्दिर सेठकाकूचा देहलीके कुषहलिग्रंथोंकी सूची ४७३ अन्ध-नाम ग्रन्थकार-नाम भाषा | पत्र संख्या रचना सं• लिपि सं. कर्मचरसारसंग्रह हेमराज हिंदी गय १६.३ कर्मप्रकृति (१६० गाथा) नेमिचन्द सि. चक्रवर्ती प्राकृत ૧૬૨ कर्मप्रकृति (श्वे.) टीका मलयगिरिसूरि प्रा. सं. करिकंडुचरित - भ० शुभचन्द्र संस्कृत करिकंडुचरित मुनि कनकामर अपभ्रंश १५७८ गुणधरचरित्र पं० नयनानन्द हिंदी पद्य १६८ गौतमचरित्र । भ. धर्मचंद्र " गद्य १९८४ चर्चानामावली चर्चामंजरी 'वैद्य शीतलप्रसाद चिकित्सासारसंग्रह (अजैन) वंगसन संस्कृत ११२२ चिद्विलास पं. दीपचंद हिंदी गद्य १७७६ ११२६ चेतनविलास कवि जौहरी ,, पद्य १९८१ चेलना रानीकी कथा " गद्य छहढाला | पं० बुधजन " पद्य १८७६ ११२७ जम्बूस्वामिचरित । कवि राजमल्ल संस्कृत १६३२ जिनगुणविलास पं. नथमल हिंदी पद्य १८२२ न्येष्ठजिनवरकथा '. खुशालचंद १७८२ १९५५ जैनागारप्रक्रिया । त्यागी दुलीचंद | सं. हिंदी गद्य जैनधर्मसुधासागर हिंदीगद्य पद्य ज्ञानार्णव चौपई (श्वे.) | लब्धविमलगणी हिंदी पद्य ज्ञानानन्दश्रावकाचार 'पं. जगतराय हिंदी गद्य ज्ञानानन्दश्रावकाचार । पं० टोडरमल्ल तत्वार्थटीका भ. धर्मचंद्र संस्कृत तत्त्वार्थबोध (भाषा) 40 बुधजन हिंदी पद्य १.२७ त्रिभंगी पंचक (भा. टी. सहित) मू० नेमिचंद्र, मा० हिंदी त्रिलोकदर्पण पं० खडगसैन हिंदी पद्य दशवकालिक (श्वे.) प्राकृत १८८७ दानशीलतपभावना अशोक मुनि दौलतविलास पं. दौलतराम द्रव्यप्रकाश पं. देवचंद्र धर्मकुण्डलिका धर्मचर्चा १९३२ धर्मचर्चासंग्रह धर्मबुद्ध मंत्रीकी कथा कवि वृन्दावन १९८४ धर्मरत्नोद्योत MEER Page #507 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ अन्य नाम ग्रन्थकार-नाम भाषा पत्र संख्या रचना सं० लिपि सं. २३ । १७२४ १८४ ६८४वी .२४४६ १९८० ४६ १८६७ १८७६ १९८० १९७६ १९३३ १९३४ नागकुमारचरित्र १८३. संस्कृत १८६१ १९८० ,, गद्य धर्मसरोवर कवि जोधराज धर्मोपदेशरत्नमाला त्यागी दुलीचंद ध्यानबत्तीसी नमोकारग्रन्थ पं० लक्ष्मीचंद वैनाड़ा नयचक्र-वचनिका निहालचंद पुत्र विलासचंद नयनसुखविलास यति नयनसुखदास पं. नथमल विलाला नाममाला (भाषाकोष) पं. बनारसीदास नारचंद्र (ज्योतिषशास्त्र) नरचंद्र नित्यधर्म-प्रक्रिया त्यागी दुलीचंद हिंदी गद्य निरपावलि-टीका (श्वे.) प्राकृत-हिंदी नेमिचन्द्रिका 40 मनरंगलाल हिंदी-पद्य पद्मनन्दिपच्चीसी पं. जगतराय पद्मप्रभुपुगण पं. देवीदत्त पंचपरावर्तनचर्चा (वचनिका) पंचमीव्रतकथा भ० सुरेन्द्रनाथ हिंदी पद्य पंचाख्यान चौपई पं. निर्मलदास परमानन्दविलास पं. देवीदास पाशाकेवली भाषा (गर्गाचार्य कृतिका अनुवाद) प्रतिक्रमण सूत्र प्रद्युम्नचरित शाहमहाराज पुत्र रायरछ हिंदी गद्य प्रद्युम्नचरित (वचनिका) पं० ज्वालानाथ बखतावरसिंह प्रद्युम्नचरित कवि बूलचंह प्रभंजनचरित प्रश्नमाला प्रश्नसमाधान पं. बनवारीलाल प्रीत्यंकरचरित्र पं० बखतावरमल बुद्धिसागर क्यामखानी न्यामतखों ब्रह्मगुलालचरित्र कवि क्षत्रपति पद्मावती पुरवाल , , भक्तामरस्तोत्र-टीका मू० मानतुङ्गसूरि, टी. जयचंद सं०. हिंदी भावदीपिका हिंदी गद्य मदनपराजय (वचनिका सहित) मू० कवि जिनदेव, स्वरूपचंद | सं०, हिंदी गद्य मन्मोदनपंचशती हिंदी पद्य मरकतमणिविलास (वच निका) पं० पन्नालाल गोधा , गद्य । मलिनाथचरित्र (बच निका) । म. सकलकीर्ति, टी. दौलतराम | सं., हिंदी गद्य। १९६१ १९७६ १९७६ प्राकृत । १६१८ | १९६६ १९८० १०६ १६३५ १८४० । २४५१ । १८७० १४८ | १९६६ ६३ टी०१६१८ ५८ १६१६ १९७३ १४४ १९७५ । १८२८ Page #508 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८] जैनमन्दिर सेठकाकूँचादेहलीके कुछह लि० ग्रंथों की सूची ४७५ प्रन्य-नाम ग्रन्थकार-नाम भाषा पत्र संख्या रचना सं० लिपि सं० मल्लिनाथ पुराण (वचनिका) भ. सकलकीर्तिटी. पं०गजाधरलाल सं० हिंदी गय १९८० महावीर पुराण भा. टीका मूल अशगकवि, टी. हिंदा गद्य १०० १९७७ मिथ्यात्वखंडन 4. वखतराम ५५ । १८२१ १९७९ मिथ्यात्वनिषेध (वच निका) पं० कान्हा भजनी? मुक्तिस्वयंवर (भा. टीका) पं. वेणीचंद्र सं०हिंदी गद्य मुनिवंशदीपिका नयनसुख १९२६ यशोधरचरित्र (वचनिका) हिंदी गद्य योगसार (हिंदी टीका सहित) मूल जोइन्दु, टी. | अपभ्रंश हिंदी रत्नकरण्डश्रावकाचार (चौरई) हिंदी पा रत्नत्रयव्रतकथा ब्रह्मज्ञानसागर रत्नत्रयव्रतकथा भ. सकलकीर्ति संस्कृत रत्नपरीक्षा रत्नसागर हिंदी पद्य रविव्रतकथा भानुकीर्ति मुनि ,,४५ ५ १६७८ राजुलपच्चीसी लक्ष्मीविलास पं० लक्ष्मीचंद १०४ वचनकोश बुलाकीचंद १३० १७३७ । १८८३ विमलनाथपुराण पं० कृष्णदास १६७४ १९८१ विद्यानुशासन (मंत्रशास्त्र) सुकुमारसेन मुनि संस्कृत १२७+४८ विद्याविलास (वचनिका) हिंदी गद्य २६ १८६३ विद्युत्वोरकथा पं. चानतराय " पथ वैद्यवल्लभ (अर्जन) हस्तकचि संस्कृत १७२६ १८८६ वैराग्यबत्तीसी (चौपई) हिंदा पद्य षट्कर्मोपदेशमाला (भाषा) पाँडे लालचंद भा१८१८ १९०६ सप्तमीकथा पं. ब्रह्मराय १९६२ सप्तमीकया पं. खुशालचंद १९७३ सप्तव्यसनचरित्र पं० भारामल समयमार टीका भाषा पं. अमरचंद पन्नाल सम्मेदशिखर माहाल्य पं. मनसुखसिंह सम्भवपुराण पं० देवदत्त सारस्वतमण्डन (श्वे.) बाहर पुत्र मंडन मंकृत सिद्धान्तसारसंग्रह (वचनिका) पं० जिनेन्द्रसेन हिंदी गश २१७ सिद्धान्तसारोद्धार (वच निका) पं० मग्गरुचि सीताशतक पं० भगवतीदास " पद्य सुखविलास पं० सुखानंद सुगंधदशमीकथा ब्रह्मज्ञानसागर iहिंदीप ४४ ४३. ' Fire: 3 १० १२१ ܕܕ ܂ ܕܕ ६६ १७८ Page #509 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [ वर्ष ४ ग्रन्थ-नाम ग्रन्थकार-नाम भाषा पत्र संख्या रचनासं० लिपि सं० " गद्य Snce & mms १७९१ सुगंधदशमी कथा मकरन्द पद्मावतीपुखाल हिंदी पद्य ५४ ११ पं० खुशालचंद " १४४ पं. भैरोंदास ., ८४ सुन्दरविलास पं० सुन्दरदास हिंदी पद्य सुन्दरदासके सवैये सुभाषितार्णव (भा० टी०) दुलीचन्द " गद्य सुभाषितसार " पद्य सुमतिनाथ पुराण पं० देवदत्त . सुलोचना चरित्र (भा. टी.) सूतिकाधिकार सं०हिदी १९४७ सोलहकारण व्रत कथा पं. भैरोंदास हिदी पद्य ७१ ब्रह्मज्ञानसागर स्वप्नाध्याय (अजैन) वृहहस्पति सं० पद्य ४६ १६११ स्वप्नावली (मरुदेवी स्वप्नफल) देवनन्दी " , २२ हनुवंत कथा ब्रह्मरायमल्ल हिंदी पद्य १६१६ हरिवंश पुराण कवि वाहन हितोपदेश वचनिका |पं० अभयचन्द , गध वीरसंवामन्दिर, सरसावा ता................... (पृष्ठ ४७१ का शेषांश) प्रतिपरिचय-इसकी एकमात्र प्रति पनेचंदजी सिंघी तच्छिम्योत्तमपमुंदर कविः श्रीसुंदगदिप्रकाशां। संग्रहसुजान-गढ़में देखने में पाई है। पत्र ८८, प्रति पृष्ठ पंक्ति तशाख मरीरवत्सहृदयः संशोधनीय मुदा ॥३७॥ १४ और प्रति पनि प्रहर ४४ के करीब हैं, सरदीके कारण पदार्थचिन्तामणिचारुसुंदरप्रकाश कहीं २ अक्षर नष्ट होगये हैं। कहीं २ प फट गये हैं। शब्दार्णवनामिम्तवयं। ३ प्रमाणसुदर। जगजिगीषु जयंतात्सतां मुखे ४ रायमस्वाभ्युदय काव्य (सं० १६१५) तरंगरंगो विरण्य पंचमः ॥ ६ ॥ पार्श्वनाथकाग्य (सं०१६ लि.) बीकानेरस्टेट बा। इति श्रीमन्नागपुगेयतपागच्छनमोनमामणि पंडि ६ अंबूचरित्र (बीकानेर ज्ञानभंडार ) तोत्तम श्रीपरमेरुगुरुशिष्यपं०श्रीपासंदरविरचित हामन (पन् ?) सुदर(ज्योतिषकी, बीकानेर स्टेट लाइबेरी) सुंदरप्रकाशेशब्दाणेवपंचमस्तरंगः पूर्णः तत्समाहोपूर्णः ८ परमत व्यच्छेद स्याद्वादसुदरद्वात्रिशिका(बीकानेर स्टेट खा. श्रीसुदरप्रकाश ॥ सं० १६-* पटभाषागर्भित मेमिस्तव गाथा ३० (हमारे संग्रहमें) “यहां तक प्रथोंके जो भी वाक्य उद्धृत किये गये हैं वे १० बरमंगखमालिका स्त्रोत्र गा.२० (बी०स्टेट सायरी) बहुत कुछ अशुद्ध है। शायद प्रतियाँ ऐसी ही अशुद्ध लिखी ११ भारती स्तोत्र। (उ.सूरीधर सम्राट) हुई होंगी, परन्तु लेखकने उसका कोई नोट नहीं किया। इनके सिवाय और ग्रंथोंका कुछ पता अभी तक मालूम -सम्पादक नहीं हो सका। Page #510 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भाई जयभगवानजी वकीलका सम्मान इस वर्ष दशलाक्षणिक पर्वकै अवसरपर धर्मपुरा देहलीके नये मन्दिरमें भाई जयभगवानजी वकील पानीपतने दस दिनतक शास्त्रसभामें तत्स्वार्थसूत्रके ऊपर नई शैलीसे अपना प्रवचन किया था-व्याख्यान दिया था, जिसे सुनकर श्रोताजन बहुत प्रसन्न हुए-मुझे भी दो दिन पापका प्रवचन सुननेका अवसर मिला और प्रसन्नता हुई। अतः भादोंकी पूर्णिमाको रात्रिके समय भापके सम्मानमें एक सभा चौधरी ला. जग्गीमलजीके सभापतित्वमें की गई, जिसमें आपके गुणों का कीर्तन करते हुए भारी पामार प्रदर्शित किया गया और एक सुसज्जित चौखटेके भीतर जड़ा हुआ 'अभिनन्दन-पत्र' श्रद्धाजलिके रूपमें पापको मेंट गया। उस समयका प्रेमदृश्य बड़ाही इदयद्रावक था-जनता सगंधित पुष्पोंकी मालाएँ मापके गले में डालती हुई तृप्त नहीं होती थी। इस समय बा० उग्रसेन जी एम०ए० (वकील रोहतक) प्रिंसिपल जैन गुरुकुल मथुराका अच्छा मार्मिक भाषण हुआ था, जिसमें भाई जयभगवानकी शिक्षा, प्रकृति, परिणति, अध्ययनशीलता और वेदों तथा षट्दर्शना दकं साथ तुलनात्मक अध्ययनको बतलाते हुए, उन्हें शासव्याख्यानाक रूपमें चुनने के लिय देहली जैनसमाजके विवककी प्रशंसा की गई, जिससे दो बड़े लाभ हुए-एक तो अच्छी समझम पाने योग्य भाषामें नई शैलीस शास्त्रका व्याख्यान सुननको मिला; दूसरे लगभग हजार रुपये की वह रकम बची जो प्रायः हरसाल किसी अच्छे पंडितको बुलानमें खर्च होजाया करती थी। जनताक अनुराधपर मैंने भी समयापयागी दो शब्द कहे । अन्तम नम्रता और कृतज्ञतादिके भावोंसे भरा हुआ भाई जयभगवानका भाषण हुआ और उसमें आपकी भावी समाजसंवानोंका भी कितना ही भाभास मिला। श्रस्तु, जो ' अभिनन्दनपत्र' आपको स्थलाक्षरोंमें भेंट किया गया वह सूक्ष्माक्षरोंमें 'अनेकान्त' के पाठकोंके जानने के लिये नीचे दिया जाता है। -सम्पादक सेवामें, श्रीमान् विद्वर्य धर्मवत्सल पं. जयभगवानजी बी०५०, एलएस. बी. वकील, पानीपत श्रीमन् जयभगवान ! गुणी-जनके मन-भावन, दर्शनीय विद्वान् परमज्ञानाम्बुज पावन । तुलनात्मक है दृष्टि नीतिमय वचन तुम्हारे, बार प्रभूकं भक्त धन्य तुम बंधु हमारे ॥ स्वार्थ और सम्मानकी नहिडछा तब पाम है। अनकान्तमयि-धर्मका हृदय तुम्हारे वास है। वेद और वदान्त उपनिषद् मनन करे हैं, पाश्चात्य विज्ञान और सिद्धान्त पढ़े हैं। षट्दर्शनका तत्व हृदयमें सतत् भग है, नूतन शैली सहित परम उपदेश करा है। तुलनात्मक जिनधर्मका करें विवेचन भाप हैं। सबके मापनके छिये स्याद्वादमयि माप हैं IR! विश्वोद्धारक जैनधर्म ही व्याख्याता, प्रवचन सन प्रानन्द भय हम पाई साता। जैनजाति-कुलचंद्र विभा, तुम हो उपकारी, पानीपन शुभठाम जहाँ तुमसे सुविचारी॥ ___ सज्जनताकी मूर्ति ! हम रखने श्रद्धा आपमें । करते मन-रंजन सभी, तब गुणकीर्विकलापमें ॥३॥ की यह हमपर कृपा यहाँ जो आप पधारे, मंवा हमसे बनी नाहिं नैननके सारे ! हृदय विशाल महान वचन शीतल जिमि चंदन, प्रेम-भावसे करें भ्रात हम सब अभिनन्दन । 4 समदर्शी विद्वान अति जयभगवान उदार हैं। अर्पित सामावसे हार्दिक ये उद्गार हैं ॥४॥ भाद्रपद शुक्ला १५ , कपाकांक्षी, सदस्य शाखसमा I. वीर निर्वाण सं० २४६७ १ श्री दिगम्बर जैन नयामन्दिर, धर्मपुरा, देहली। Page #511 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके सहायक - बिन सजनोंने अनेकान्तकी ठोस सेवाओं के प्रति पाशा अनेकान्तके प्रेमी दसरे सज्जन भी अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, उसे पाटेकी चिन्ता आपका अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायकं स्कीम से मुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति को सफल बनाने में अपना सहयोग प्रदान करके यश करने और अधिकाधिक रूपसे समाज सेवामों में के भागी बनेंगे। अग्रसर होनेके लिये सहायताका वचन दिया है और नोट-जिन रकमों के सामने * यह चिन्ह दिया है इस प्रकार अनेकान्तकी सहायक श्रेणी में अपना नाम पूरी प्राप्ती हो चुकी है। लिखाकर बनेकान्त के संचालकांको प्रोत्साहित किया तृतीय मार्ग से प्राप्त हुई सहायता है उनके शुभ नाम सहायताको रकम सहित इस द्वितीय मार्ग से प्राप्त हुई सहायता अनेकान्त की पूर्व किरणों में प्रकाशित हो चुकी है। तृतीय मार्ग से *१२१)वा छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता। प्राप्त हुई सहायता इस प्रकार है जिसके लिये दातार १.१०)बाजितप्रसादजी जैन पडवोकेट, लखनऊ महानुभाव धन्यवाद के पात्र हैं। *१०१)बाबहादुरसिंहजी सिंघी, कलकत्ता । ११) बा०राजकृष्ण जी जैन, दरियागंज, देहनी । १००)साह यांसप्रसादजी जैन, लाहौर । ५) कुँवर लक्ष्मीनारायणजी जैन छावड़ा, कलकत्ता *१०.) साह शान्तिप्रसादजी, जैन डालमियानगर। ५) ला० जम्बूप्रसादजी जैन रईस व बैंकर, मेरठ। ४) बा. ज्योतिसादजी जैन, एम. ए. वकील. मेरठ १००)बा. शांतिनाथ सुपुत्र बा नन्दलालजी जैन, ४) ला० फूलचन्द नेमचन्दजी झावुक जैन. फलोधा कलकत्ता। २) ला० मामराजजी जैन बूढाखेड़ी। १००) ला. वनसुखरायजी जैन न्यू देहली। २) बाल गोपीलालजी जैन. लश्कर ग्वालियर। *१००)सेठ जोखाराम बैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता २) स्व० ला० भिक्खीमलजी जैन मुनीम, मेरठ। १००)पा. लालचन्दजी जैन, एडवोकेट, राहतक । १) बाछुट्टनलालजी जैन मुग्न्तार, मेरठ। १००)मा. जयभगवानजीवकीन आदि जैन पचान १, बा० कैलाशचन्दजी जैन बी.एस.सी., मेरठ। पानीपत। १) बा. शीतलप्रसादजी जैन रिठानेवाले. मेरठ। • ५१) राय उलफतरायजी जैन इन्जिनियर, मेरठ अनेकान्त की सहायता के चार मार्ग • ५०) ला० दलीपसिह काराजी और उनकी मार्फत, देहली। (१) २५,५२), १००) या इससे अधिक रकम देकर २५) ५० नाथूरामजी प्रेमी, हिन्दी प्रन्थ-रत्नाकर सहायकोंकी चार श्रेणियों में से किसी में अपना नाम लिग्वाना। (२) अपनी ओरसे श्रममोंको तथा अजैन संस्थाओं • २५) मा० रूड़ामलजी जैन, शामियाने वाले, को भनेकान्त फ्री बिना मूल्य) या अर्धमूल्यमें भिजवाना और इस तरह दूसरोंको अनेकान्तके पढ़नेकी सविशेष प्रेरणा सहारनपुर। करना । (इस मदमें सहायता देने वालोंकी-ओरसे प्रत्येक • २५) बा० रघुवरदयालजी, एम. ५. करोलबाग.. दस रुपयेकी सहायताके पीछे अनेकान्त चारको फ्री अथवा। देहली। पाठको अर्धमूल्यमें भेजा जा सकेगा। •२५ सेठ गुलाबचन्दजी जैन टोंग्या, इन्दौर। (३) उत्सव-विवाहादि दानके अवसरों पर अनेकान्तका • २५ जा बाबूराम अकलंकप्रसादजी जैन, तिस्सा बराबर खयाल रखना और उसे अच्छी सहायता भेजना मुम्न) तथा भिजवाना, जिससे अनेकान्त अपने अच्छे विशेषाह २५ मुंशी सुमतप्रसादजी जैन, रिटायर्ड अमीन, निकाल सके, उपहार प्रथोंकी योजना कर सके और उत्तम लेखों पर पुरस्कार भी दे सके । स्वतः अपनी ओर से उपहार सहारनपुर। अंघोंकी योजना भी इस मदमें शामिल होगी। • २५० सा० दीपचनजी चैन रईस, देहरादून। (४) अनेकान्तके ग्राहक बनना, दूसरोंको बनाना और • २० लाप्रयुम्नकुमारजी जैन स. सहारनपुर । भनेकान्तके लिखे पच्छे २ लेख लिखकर भेजना लेखोंकी •२॥सवाई सिपई धर्मदास मगवानदासजी जैन, सामग्री जुटाना तया उसमें प्रकाशित होने के लिये उपयोगी सतना। चित्रोंकीबोजनाकरना, कराना। 'व्यवस्थापक भनेकान्त' मकवा.परमारवासी वीरसेवामन्दिर, सरसावाविवामसारवासीवास्ववीपातसमें मुनि Sammohana Page #512 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ANTABACUPRESHTwvisit | एकनाकर्षन्ती पथयन्ती वस्तुतत्त्वमितरण । अन्तेन जयति जैनी नीतिर्मन्धाननेत्रमिव गोपी। अनेकान्तात्मिका म्यादादरुपिणी HINE उभगानुमा विधेयर तत्त्व - Commu निष्पानुभव स्यात् अनकान्तात्मक वस्तुतत्त्व निध्य तन्व नत्व उभयतत्व (विधयानुभय अनुभय तन्व सम्यग्वस्त-ग्राहिका/ विधेयं वार्य चाउनुभयमुभय मिश्रमपि नशिपः प्रत्येक नियमविपर्यया परिमित । मदाऽन्योऽन्यापेते मकनभुवनज्येष्टगुरुगा न्वया गीतं नन्वं बहनय-विवानग्वगात ।। Page #513 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची Dwa १चोक-मंगल-कामना-[सम्पादक पृष्ठ ४७७ ११ गरीबका दिखा (कहानी)-[श्री 'भगवत्' जैन १० २ मिन-मुद्राका भादर्श (कविता) १२ प्रमोत्तर-श्री दौलतराम 'मित्र' [4.दीपचन्द जैन पायच्या ४७ .१३७न्नेलखण्डका प्राचीन वैभव, देवगढ़३ परिग्रहका प्रायश्चित्त-[सम्पादक धार्मिक साहित्य में प्रशीलता-[श्री किशोरीलाल श्री कृष्णानन्द गुप्त ५१४ घनश्यामदास मशहवाला ४२ १४ सुख-शांति चाहता मानव-[श्री भगवत्' जैन ११८ बनारसी-नाममाता-[4. परमानन्द शासी ४३१५ अपनशभाषाके दोप्रध-[पं.दीपचंदन पाण्ब्य २१६ पंचायवी मंदिर देहली उनास्तलिखित ग्रंथोंकी सनी १६ साहित्य परिचय और समालोचना जो पूर्णप्रकाशित सूचियों में नहीं पाए-[सम्पादक १६४ १७ अनकान्तक सहायक मानि-[ग्यवस्थापक 'भनेकान्त' • प्रतिमावेशसंग्रा और उसका महत्व-श्रीकांनिसागर ५०१ टाइटिल पृष्ठ३ अमेमिनिर्वाण-काम्य-परिचय- पसालाल जैन सा. ५०७ १८ वीरसेवामन्दिरमें ग्रंथ-प्रकाशन और दिगम्बर जैन ग्रंथों बीरसेवामंदिरके विशेष सहायक-[जुगलकिशोर चित्रपर की सूचीके दो महान कार्य-अधिष्ठाता वीरमेवामंदिर १०ईसरी (जारीबाग) के सम्त-जुगलकिशोरमुल्लार चित्रपर टाइटिल पृष्ठ ४ * वीरसेवामंदिर सरसावाको ग्रंथ प्रकाशनके लिये, श्रीसाहू शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर की ओरसे, दसहजार रु० की नई सहायताका वचन देखो, भीतर चित्र परका लेख प्राति स्वीकार सोनेके दो बटनोंका दान हाल बीरसेवामन्दिर सरमावाको निम्न प्रकारमे 1.1 अपवेकी सहायता प्राध हुई है, जिसके लिये दातार महाशय श्रीमान् लाखा जम्यूप्रसारजी जैन ईस मामौता जिला भन्यबारके पात्र : सहारनपुरने, स्वयं सोनेके बटनोंको पहननेका त्याग करके. श्री दिगम्बर जैन समाज हाकी शि. सहारनपुर। जो दो बटन कमीज पहने हुए थे उन्हें बीरसेवामन्दिरको भी दिगम्बर जैन समाज बाराबंकी। -अधिष्ठाता वीरसेवामंदिर' पान । दान कर दिया। इसमय-परिणति, विषय-विरति और म. महावीर और उनका समय स्थागभावके लिये पाप धन्यवानके पात्र हैं, और आपका यह सम्पादक 'अनेकान्त' की खिस्ती हुई यह महत्वकी पुस्तक व दूसने अलंकार-प्रिय श्रीमानोंके लिये अनुकरणीय है। सबके पदने तथा प्रचार करनेके योग्य है।।। मूल्य में निम्न बटनोंका बज़न मा की है। पते पर मिलती है- पनालाल जैन अप्रवाल vx. मुहस्सा चखेवामान, हनी -अधिष्ठाता 'बोरसवामदिर' Page #514 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ महम् - वस्तुतत्त्व-सपाल विश्वतत्त्व-प्रकांत नीतिविरोषसीलोकव्यवहारवर्तक सम्पद। परमागमस्यबीज भुवनेकगुरुर्जयत्पनेकान्तः। वर्ष ४ । वीरसेवामन्दिर (सगन्तभद्राश्रम) मग्भावा जिला सहारनपुर किरण ९ कार्तिक, वीर निर्वाण मं०.४६८, विक्रम मं० १६१८ 5 अक्तूबर १९४१ लोक-मङ्गल-कामना क्षेमं सर्वप्रजानां प्रभवतु बलवान् धार्मिको भूमिपालः, काले काले च सम्यग्विकिरतु मघवा व्याधयां यान्तु नाशम् । दुर्भिक्षं चौरमारी क्षणमपि जगतां मास्मभूज्जीवलोकं, जैनेन्द्रं धर्मचक्र प्रभातु सततं सर्वसौख्यप्रदायि ॥ . -जैननित्यागठ 'मम्पूर्ण प्रजाजनोंको भले प्रकार कुशलक्षेमकी प्राप्ति होवे - मारी जनता यथष्टरूपमे मुखी रहे-, बलवान राजा धार्मिक बने--धर्ममे अच्छी तरह निष्ठावान् (श्रदा एवं प्रवृत्तिको लिये हुए) होवे--अथवा धार्मिक गजाका बल. स्त्रब बढ़े (जिमसे अन्याय अत्याचारोका मुख न देखना पड़े), समय समय पर ठीक वर्षा हुश्रा करे-अतिवृष्टि, अल्पवृष्टि, और अनावृष्टि से किसीको भी पाला न पड़े-, व्याधियाँ-बीमारियों नाशको प्राम हो जायें, जगतके जीवोको दुर्भिक्ष (अकाल), चोरी और मरी (लेग-हेला श्रादि) मंक्रामक रोगोंको वा एक क्षणके लिये भी न सतावे, और जैनेन्द्र-धर्मचक। -जिनेन्द्रका उत्तम मा-मार्दव-पार्जव-सत्य-शौच-संयम-तप त्याग-प्राकिंचन्य- ब्रह्मचर्यरूप दशलक्षणधर्म अथवा सम्य. ग्दर्शन-शान-चारित्ररूप रत्नत्रयधर्म--जो सब जीवोंको सुखका देनेवाला अथवा पूर्ण सुखका प्रदाता है वह लोकमें सदा अस्खलितरूपमे निर्बाध प्रवतें--उसमें कभी कोई बाधा न पड़े।' Page #515 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जिनेन्द्रमुद्रा का दर्श [ पं० दीपचन्द्र जैन, पारडया ] Se ( १ ) लांचन लाली-वहिन शांत बतलात जीता तूने रोष दृष्टि कटाक्ष-रहित कहनी नहिं तुझमें काम विकृतिका दोष । मद-विषादको दई जलांजुलि -यों यह हँसती-सी अभिराम -; सौम्य मुग्वाकृति प्रकट बताती - शुद्धहृदय तू आतमराम || ( २ ) राग भावका नाश किया-यों पास न तेरे भूषण सार, है निर्दोष सहज सुन्दर तन—यों नहिं बस्त्रोंका शृंगार । द्वेष छोड़ तू बना अहिंसक निर्भय - यों न पास हथियार ; विविध वंदनाओंके क्षयसे सदा तृप्त तू बिन आहार || ( ३ ) मल-मूत्रादिकका न अशुचिपन सोहैं परिमित नख अरु केश भीनी चंदन-कमल- सुपरिमल महकत सारे देह प्रदेश । रवि शशि-वजन्यवादि सुहाने सहस अठोत्तर चिन्ह विशेष ; सूर्य-सहस्र-समान कांतिमय, तदपि नयन-प्रिय तेरा वेष ॥ ( ४ ) , राग - मोह - मिध्यात्व महारिपु हितका भान न होने देत इनके वश जगवासी भूले, मोह नींद में पड़े अचेत ! निरखें पलक खोल यदि तुमको क्षण में होवें शुद्ध सचेत ; योगि जनों के मन बसती छवि, तेरी किधों उदित शशि श्वेत ।। (५) बीता काल अनंन जगतमें भ्रमते मिला न सुखका लेश ; जिनवर ! तू सच्चा सुख पाया, यों तेरे पद नमत सुरेश । मिथ्या-मत पाखंडि - तिमिर से अंध बने जो पाते क्लेश ; यह जिनरूप ज्योति मनमें घर भविजन पार करो भवक्लेश ॥ १ चैत्यभक्ति 'ताम्रनयनोपलं' श्रादि पाँच पद्योका हिन्दी रूपान्तर । CCCCC78 Page #516 -------------------------------------------------------------------------- ________________ परिग्रहका प्रायश्चित्त [सम्पादकीय ] 'प्रायश्चित्त' एक प्रकारका दण्ड अथवा तपोविशन है और चित्तका अर्थ वही 'शुद्धि' अथवा 'विसमाहर्म' जो अपनी इच्छासे किया तथा लिया जाता है, और उसका समझना चाहिये। उमेश्य एवं लक्ष्य होता है प्रात्मशुद्धि तथा लौकिकजनोंकी परिग्रहको शासकारोंने, पचपि, पाप बताया है और हिंसादि पंच प्रधान पापोंमें उसकी गणमाकी है, फिर भी चित्तशुद्धि । भारमाकी अशुद्धिका कारण पापमल है-अप. लोकमें वह पाम तौरसे कोई पाप नहीं समझा जाता-हिंसा राधरूप आचरण है। प्रायश्चित्तके द्वारा पापका परिमार्जन झूर, चोरी और परवी-सेवनादिरूप मशीन को जिस और अपराधका शमन होता है, इसीसे प्रायश्चिराको पापछेदन । मलापनयन, विशोधन और अपराधविशनि से नामोसी प्रकार पाप समझा जाता है और अपराध माना जाता उस उझेखिन किया जाता है। इस दृष्टिसे 'प्राय प्रकार धन-धान्यादिरूप परिग्रहके संचयको-उसमें रपये सहनेको कोई पाप नहीं समझता और न अपराधही मानता पाप-अपराध, और 'विस' का अर्थ शुद्धि है। पाप तथा है। इसीसे लोकमें परिग्रहके लिये कोई दण्ड-म्यवस्था अपराध करने वाला जनताकी नजरमें गिर जाता-जनता नहीं-जो जितना चाहे परिग्रह रख सकता है । भारतीय उसे घृणाकी दृष्टिसे-हिकारतकी नज़रसे देखने लगती है और दण्डविधान ( Indian penal code ) में भी ऐसी उसके हृदयमें उसका जैसा चाहिये वैसा गौरव नहीं रहता। कोई चारा नहीं, जिससे किसी भी परिग्रहीको अथवा अधिक परन्तु जब वह प्रायश्चित्त कर लेता है-अपने अपराधका धन-नौषात एकत्र करने वाले तथा संसारकी अधिक सम्पत्तिदण्ड ले लेता है तो जनताका हदय भी बदल जाता है और विभूति पर अपना अधिकार रखने वाले गृहस्थको अपराधी बह उसे ऊँची, प्रेमकी तथा गौरव-भरी रष्टिसे देखने लगती एवं दयाका पात्र समझा जासके। प्रत्युत्त इसके, जो लोग है। इस दृष्टिसे प्रायः का अर्थ 'जोक' तथा 'लोकमानस' मित्रों, कल-कारखानों और व्यापारादिके द्वारा विपुजन * "रहस्यं छेदनं दण्डो मलापनयनं तपः। एकत्र करके बहुविभूतिके स्वामी बनते हैं. उन्हें बोकमें प्रतिप्रायश्चित्ताभिधानानि व्यवहारो विशोधनम् ॥६॥" हित समझा जाता है, पुण्याधिकारी माना जाता है और पावर "प्रायश्चित्तं तपः श्लाघ्यं येन पापं विशुति ॥१८॥" की रप्टिसे देखा जाता है। ऐसी हालत में उनके पापी तथा --प्रायश्चित्तसमुच्चय अपराधी होने की कोई कल्पना तक भी नहीं कर सकता-जरें "प्रायाचिति चित्तयोगिति सुट अपराधो वा प्रायः, चित्तं शुद्धिः। वैसा कहने-सुनने की तो बात ही कहा? फिर 'परिग्रहका प्रायस्य चित्तं प्रायश्रित-अपगधविशुद्धिरित्यर्थः।" --राजवार्तिक । २२।१ प्राया प्रायश्चितसा और उसे पाप बतलामा भी सा! + प्रायो लोकस्य चित्तं मानसं । उम्तंच-- बाहीको किपरिमाको बोको हिंसादिक पापांकी "प्राय इत्युच्यते लोकस्तस्य चित्तं मनोभवेत् । रप्टिसे नहीं देखा जाता, सभी उसकी चकाचौथो फैस, तश्चित्तग्राहकं कर्म प्रायश्चित्तमिति स्मृतं ॥" समी उसकेगा और सभी अधिकाधिकरूपले परिणा--प्रायश्चित्तसमुच्चय-वृत्ति भारी समाचाहते। ऐसे अपरिबडी सये सामीप्रायः Page #517 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त विषं ४ नहीं हैं जो अपने पाचरण-बल और सातिशय वाणीसे अपरि- को प्राप्त हुमा संसार यदि परिग्रहको पापरूपमें नहीं देखना ग्रहके महत्वको लोक-हदयोंपर भले प्रकार अंकित कर सकते- और न उसे कोई अपराध ही समझता है तो सिर्फ इतनेसे ही उन्हें उनकी भूल सुझा सकते, परिग्रहसे उनकी लालसा, यह नहीं कहा जासकता कि परिग्रह कोई पाप या अपराध ही गृद्धता एवं प्रासनताको हटा सकते. और अनासक रहकर नहीं रहा, और इसलिये उसका प्रायश्चित्त भीन होना चाहिये । उसके उपभोग करने तथा लोकहितार्थ वितरण करते रहनेका वास्तवमें मूर्षा, ममत्व-परिणाम अथवा 'ममेदं' ( यह मेरा ) सहा-सजीव पाठ पढ़ा सकते । कितने ही साधु तो स्वयं महा- के भावको लिये हुए परिग्रह एक बहुत बड़ा पाप है, जो परिग्रहके धारी हैं-मठाधीश, महन्त-भट्टारक बने हुए हैं, आत्माको सब पोरसे पकड़े-जकदे रहता है और उसका और बहुतसं परिग्रहभक्त सेठ-साहूकारोंकी हॉमें हैं। मिलाने विकास नहीं होने देता। इसीसे श्रीपूज्यपाद और प्रकलंकवाले हैं, उनकी कृपाके भिखारी हैं, उनकी असत् प्रवृत्तियोंको देव जैसे महान् प्राचार्योंने सर्वार्थसिद्धि तथा राजवातिक प्रादि देखते हुए भी सदैव उनकी प्रशंसाके गीत गाया करते हैं- ग्रंथों में 'तन्मूलाः सर्वे दोषाः', तन्मूलाः सर्वदोषानुषंगाः' उनकी जस्मी, विभूति एवं परिग्रहकी कोरी सराहना किया करते इत्यादि वाक्योंके द्वारा परिग्रहको सर्वदोषोंका मूल बतलाया हैं। उनमें इतना प्रात्मबल नहीं, पास्मतेज नहीं, हिम्मत नहीं है * । और यह बिल्कुल ठीक है--परिग्रहके होने पर उसके जो ऐसे महापरिग्रही धमिकोंकी मालोचना करसके --उनकी संरक्षण-अभिवर्धनादिकी ओर प्रवृत्ति होती है, संरक्षणादि त्याग-शून्य निरर्गल धन-दौलतके संग्रहकी प्रवृत्तिको पाप या करने के लिये अथवा उममें योग देते हुए हिंसा करनी पड़ती अपराध बतला सकें । इस प्रकार जब सभी परिग्रहकी कीचमें है, झूठ बोलना पड़ता है, चोरी करनी होती है, मैथुनकर्ममें थोड़े बहुत धंस हुए हैं-सने हुए हैं, तब सिर कौन किसीकी चित्त देना पड़ता है, चित्तविक्षिप्त रहना है, क्रोधादिक कषायें तरफ जंगुली उठावे और उसे अपराधी अथवा पापी ठहरावे? जाग उठती हैं, राग-द्वेषादिक सताते हैं, भय मदा घेरे रहता ऐसी हालतमें परित्रहको प्रामतौर पर यदि पाप नहीं समझा हैं, रोद्रध्यान बना रहता है, तृष्णा बढ़ जाती है, प्रारंभ बढ़ जाता और न अपराध ही माना जाता है तो इसमें कुछ भी जाते हैं, नष्ट होने अथवा क्षति पहुँचनेपर शोक-सन्ताप श्रा पाश्चर्य नहीं है। दबाते हैं, चिन्ताओं का तँता लगा रहता है और निराकुलता परन्तु यह सब कुछ होते हुए भी परिग्रह पापकी-- कभी पास नहीं फटकती। नतीजा इस सबका होता है अन्त अपराधकी कोटिस निकल नहीं जाता। उसे पाप या अपराध में नरकका वास, जहाँ नाना प्रकारके दारुण दुःखोंसे पाला नमानमा अथवा तपन देखना दृष्टिविकारका ही एकमात्र पड़ता है और कोई भी रक्षक एवं शरण नज़र नहीं पाता। परिणाम जान पड़ता है। धतूरा खाकर दृष्टिविकारको प्राप्त इसीसे जैनागममें बहुभारम्भी-बहुपरिग्रहीको नरकका अधिहुमा मनुष्य अथवा पीलियारोगका रोगी यदि सफेद शंखको कारी बतलाया है, क्योंकि बहुभारम्भ (प्र.णिपीडाहेतुण्यापार) भी पीला देखता तो उससे वह शंख पीला नहीं होजाता धार बहुपरिग्रह सिद्धान्तमें नरकायुके प्रास्रवके कारण कहे और न उसका शुक्ल गुण ही नष्ट हो जाताप्रथा ठगों * ज्ञानार्णवमें शुभचन्द्राचार्य ने बाह्य परिग्रहको निःशेषानर्थका समान यदि झूठ बोलने और चोरी करनेको पाप नहीं मन्दिर' लिखा है क्योंकि उसके कारण अविद्यमान होते मा होते हुए भी रागादिक शत्र क्षणमात्रमें उत्पन्न होकर सममता तो उससे भूठ मोर चोरी पापकी कोठिसे नहीं तो उससे झूठ भरि चारा पापका काठिस नहा अनिष्ट कर डालते हैं। निकल आते। ठीक इसी तरह मोह-मदिरा पीकर रष्टिविकार : इस विषयमें पुरातन प्राचार्योंके निम्न वाक्य भी ध्यानमें Page #518 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बिरबह परिग्रहका प्रायश्चित्त ४८२ गये हैं। ऐसी हालत परिवारको पाप न मानकर उसका अब देखना यह है कि परिमाका मरिसका। पारिवन करना और उसे भविष्यकी बोरसे कार्यो बन्द परिग्रहका समुचित प्रायश्चित अनासक्ति के साथ साथ उसका करके बराबर बढ़ाते रहना, निःसन्देह वही भारी भूल है- त्याग है, जो प्राणकी विपरीत दिशाको दिये हुए होनेस भारम-वंचना है। इस भूलके वश परिग्रह पापकी पोट बढ़ते यथार्थ जान पड़ता है। शीतका प्रतिकार जिस प्रकार उससे बढ़ते मनुष्यको घोर अभ्रसागर अथवा दुःखसागरमें ले दबती और उज्यका प्रतिकार शीतसे होता है, उसी प्रकार प्रारूप है, ऑम्ले उतार पाना फिर बहुत ही कठिन, गुरुतर कप्टसाध्य परिग्रहका प्रतिकार उसके बासे ही ठीक बनता है। प्रायतथा असंख्य वर्षाका कार्य हो जाता है। और इसलिये वे ही रिचत्तके दस अथवा मग भेवोंमें त्याग' गामका भी एक मनुष्य विवेकी है, वे ही बुद्धिमान हैं और वे ही प्रारमहितेषी प्रायश्चित्त है, जिसे न वेक' भी कहते हैं। वाणका दूसरा एवं धर्मात्मा जोम भूल तथा ग्रामवंचनाके चहरमें न नाम 'दान' है, भोर इसलिये परिपडसे मोहटाकर अथवा पड़कर अनासक्रिकं द्वारा परिग्रहका अधिक भार अपने प्रारमा अपनी धन-सम्पत्तिसं ममत्व परिणामको दूर करके लोकसेवा पर पवन नहीं देते, और प्रायश्चित्तादिक द्वारा बराबर उसकी के कार्मो में उसका वितरण करना-- डासना, यह परिग्रह काट-काट करके अपनं माम्माको सव हलका रखते हैं। का समुचित प्रायश्चित्त ।। परन्तु यह बाल अथवा त्याग ख्याति-लाभ-पूजादिककी रष्टिसेनहोना चाहिये और न इस रखने योग्य हैं, जिनसे इस विषयकी कितनी ही पष्टि होती है"के पुनस्ते सर्वदोषानुषङ्गाः ? ममेदमिति सिति संकल्पे में दूसरोंपर अनुग्रह अथवा कृपाकी कोई महंभावना ही (सं) रचयादयः संजायन्ते। तत्र च हिमाऽवश्यंभाविनी रहनी चाहिये । जो दान ख्याति-लाभ-पूजाविककी रष्टिसे तदर्थमनृतं जल्पति, चौर्य चाचरति, मैथुने च कर्मणि दिया जाता है अथवा जिसमें दूसरों पर अमह और रुपाकी प्रयतते । ततत्पभवा:नरकादिषु दुःखपकाराः। इहापि अनुपर महंभावना सती है वह प्रायश्चित्तकी कोटिमें नहीं मातातव्यसन-महार्णवाऽवगाहनम् ।" -राजवार्तिक-भाष्ये. अकलंक: वह दूसरे प्रकारका माधारण दाम प्रायश्चितकी रचितो "परिग्रहवता सता भयमवश्यमापद्यते, अपने पापका संशोधन अथवा अपराधका परिमार्जन करके प्रकोप-परिहिंसने च परुषाऽनन-व्याहती। मात्मशुद्धि करनेकी मोर होती है, और इसलिये उसका करने ममत्वमथ चोरता स्वमनमश्च विभ्रान्तता, बाखा नाम कर किसी पर कोई हसान-अनुहा नहीं जतकुतोहि कलुषात्मनां परमशुक्ल-सद्ध्यानता ॥४२॥" जाना और न उससे अपना कोई सौकिकलाम ही लेना चाहता -पात्रकेसरिस्तोत्र है। वह तो समझता है कि--'मैंने अपनी जलसे अधिक * "बहारम्भ-परिग्रात्वं नारकस्यायुषः” (तत्त्वार्थसूत्र ६-१५) परिग्रहका संचय करके इसरोंको उसके भोग-श्पमोगसे "एतदुक्तं भवति-परिग्रहप्रणिधानप्रयुक्ताः तीबतरपरि- वंचित रखनका अपराध किया है, उसके भजन-अर्धन-सामादि खामा हिंसापरा बहुशोविज्ञप्ताश्चानुमता: भाविताश्च तत्कृत- में मुझे कितने ही पाप करने पड़े, उसका निरगंज बढ़ते कर्मात्मसातकरणात् तप्तायः पिण्डवत् अदितक्रोधार्या नार- बालोचना प्रतिकाम्ति यं त्यागो विसर्जन। मालोचना कस्यायुषः पालव इति संक्षेपः । तद्विस्तरन्तु......"1" । तपः खेदोऽपि मूलं च परिहारोऽभिरोचनम् ॥ (राबवार्तिक माध्य) (प्रायधिच मु. १८५) प्रारम्भो जन्तुपात करायाश्च परिणात् । "मालोचन-प्रतिकमब-तदुभय-विवेक मात्सर्ग-सपश्खेदजायन्तेऽत्र तत: पात: प्राणिना श्वभसागरे ॥ (अनार्यव) परिहारोपस्थापनाः।" (तस्वार्थ) Page #519 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त रहना पापका-आमाके पतनका कारण है। और इस लिये जिक्र तक नहीं माने दिया था।" बहविवेकको अपनाकर तथा ममरको पाकर अपमेको दानको मात्र परिग्रहका प्रायश्चित्त मानकर करमा कितनी पाप-भारसेसका रखनेकी रप्टिसं उसका लोकहितार्थ स्याग सुन्दर कल्पना और कितनी सुन्दर मनोभावना है, इसे कुछ करता--दान करता है। दान इन दोनों प्रकारों में परस्पर भी कहते नहीं बनता। निःसन्देह, परिग्रहमें पापबुद्धिका होना, किनमा बदामतरी,इसे महदय पाठक स्वयं समझ सकते हैं। उसके प्रायश्चित्तकी बराबर भावना रखना और समय समय उस दिन श्रीमान बाबू छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता पर उसे करते रहना विवेकका-अनासक्रिका सूचक है और केता."सितम्बर सन् १६४१ पत्र परमे मेरा ध्यान साथ ही प्राप्माकी जागृतिका---उसके उत्थानका तक है। इस अन्तरकी ओर खास तौरपर प्राकर्षित हुमा । अापने ही यदि जैन समाजमें दानके पीछे ऐसी सद्भावनाएँ काम करने मुझे सबसे पहले अपने अनेक बार किये गये हजारोंक दानों लगें तो उसका शीघ्र ही उत्थान हो सकता है और वह ठीक को 'मात्र परिग्रहका प्रायश्चित्त' बतलाया और उस प्रायश्चित्त अर्थमें सचमुच ही एक मादर्श धार्मिक-समाज बन सकता है। को भी 'प्रधूरा ही लिखा । इस विषयमें आपके पत्रके निम्न जैनगृहस्थोंकी नित्य-नियमसे की जाने वाली षट मावश्यक शब्द, जो सही धार्मिक परिणतिकी एक मॉकी दिखला रहे क्रियाओंमें जो दानका विधान (समावेश) किया गया है उसका हैं, खास तोरसे ध्यान देने तथा मनन करनेके योग्य हैं-- प्राशय संभवतः यही जान पड़ता है कि निस्यके प्रारम्भ परि___"आपने भाई फूलचन्दजीका चित्र मगाया-सो मुख्तार ग्रहजनित पापका नित्य ही थोड़ा बहुत प्रायश्चित्त होता रहे, साहब, भाप जानते हैं हम लोग नामसे सदा दूर रहे हैं। जिससे पापका बोमा अधिक बढ़ने न पाव और गृहस्थजन चित्र तो उनका अपना चाहिये जो दान करें. हम लोग तो निराकुलता-पूर्वक धर्मका साधन कर सकें--उनके उस कार्य मात्र परिग्रहका प्रायश्चित-अधूरा ही-करते हैं। फिर भी में बाधा उपस्थित न होने पावे । अस्तु, हार्दिक जरा जरामी सहायता देकर इतना बड़ा नाम करना पाप नहीं भावना है कि जैनसमाजमें बहुलनासे ऐसे प्रादर्श त्यागी एवं तो दम्भ अवश्य है। प्रस्तुपमा करें। भापको शायद याद दानी पैदा है। जो परिग्रहको पाप समझते हुए उसमें होगा इन्हीं भाई साहबको मैंने उत्साहित कर प्रारा-पाश्रम प्रासक्ति म रखते ही और प्रायश्चित्तके रूप में सदैव उसका (जेमवासा-विश्राम)को ३००००) (तीस हजार) क. दिलवाये --अपनी धनसम्पशिका-जोकसेवाके कार्यों में विनियोग करने थे और उस सहायनाके सम्बन्धमें आज तक मन पत्रोम में सावधान रहें। वीरसंवामन्दिर, सरसावा धार्मिक-साहित्यमें अश्लीलता श्री किशोरीलाल पनश्यामदास मशरुवाला विचार : ____ "हमारे धार्मिक साहित्य और कलामें भी अश्लील चीजें भरी पड़ी हैं। उन्हें धार्मिक श्रद्धाके साथ जोड़ दिया गया है। इसलिय मजन और सदाचारी भक्त भी उनका गौरव करते हैं, और उसकी अश्लीलता के प्रति दुर्लक्ष करने हैं, जो विचार न्यूनताका ही परिणाम है। सुना है कि वारांगनाएँ भी तो धार्मिक साहित्य और कलाकी चीजें ही अपने ग्राहकोंके आगे पेश करती हैं। उनका हेतु निश्चय काम-प्रकोप कराने का ही होता है, और व इन चीजोंको उसके लिये उपयुक्त ममझनी है, तभी तो इनका प्राश्रय लेती है । दभी और पाखंडी गुरु क्यों अपनी शिष्याओंके माथ कृष्ण-गोपीका अनुकरण करते हुए पाये जाते हैं ? धर्मके नामपर साहित्य और कलामें अश्लील चीजें पैठी हुई हैं, तभी तो वे उसका अनुचित लाभ उठाते है। ये चीजें धार्मिक साहित्य और कलाम होने के कारण ही मैं उन्हें शुद्ध, निर्दोष, या श्लील कहने के लिये तैयार नहीं हूँ । बल्कि मैं कहूँगा कि कृष्ण गोपी और दूसरे भी देवोंके ऐसे शृंगार वर्णन और उसे युक्त मनाने बाले तत्त्व-विचारने हमारी संस्कृति और समाजमें बहुत कुछ अपवित्रता और गंदगी फैलादी है, और हमारे समाजको बहुत गिराया है।" ('जीवनसाहित्य में प्रकाशित 'सापेक्षतावाद' लेखसे उधृत) Page #520 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बनारसी-नाममाला प्रास्ताविक निवेदन टेम्बर जैन समाज में हिन्दी भाषाके अनेक अच्छे कविताश्रोके पढ्नेका मुझे बड़ा शौक है-यह मेरे जीवन 4 वि और गद्यलेखक विद्वान हो गये का एक अंग बन गई है। जब तक मैं नाटक समयसारके दो चार पद्योंको रोज नहीं पढ़ लेता तब तक हृदयको शानि उनकी रचनाओंसे समाज श्राज गौरवान्वित हो रहा है। नहीं मिलती। अस्तु । जिस तरह हिन्दीके गद्यलेखको-टीकाकारोंमें प्राचार्यकल्प ___ कविवर बनारसीदासजीका जन्म संवत् १६३३ में पं० टोडरमलजी, पं0 जयचन्दजी और पं० सदासुखरायजी जौनपुर में हुआ था। आपके पिताका नाम खरगसेन था। श्रादि विद्वान् प्रधान माने जाते हैं, उसी तरह कवियोंमें अापने स्वयं अपनी प्रात्म-कथाका परिचय 'अर्द्धकथानक' के पं० बनारसीदामजीका स्थान बहुन ही ऊँचा है । श्राप रूपमें दिया है, जो ६७३ दोहा-चौपाइयोंमें लिखा गया है गोस्वामी तुलसीदासजीके समकालीन विद्वान थे, १७ वीं और जिसमें आपकी ५५ वर्षकी जीवन-घटनानोका तथा शताब्दीके प्रतिभासम्पन्न कवि थे और कवितापर श्रापका श्रात्मीय गुण-दोषोंका अच्छा परिचय कराया गया है। असाधारण अधिकार था । आपकी काव्य-कला हिन्दी- आपकी यह आत्मकथा अथवा जीवन-चरित्र भारतीय साहित्यमें एक निराली छटाको लिये हुए है। उसमें कहींपर विद्वानांके जीवन-परिचयरूप इतिहासमें एक अपूर्व कृति है। भी शृंगार श्रादि रसीका अथवा स्त्रियोंकी शारीरिक सुन्दरता अर्धकथानकके अवलोकनसे स्पष्ट मालूम होता है कि का वह बढ़ा चढ़ा हुआ वर्णन नहीं है जिससे आत्मा पतन शापका जीवन अधिकतर विपत्तियांका-संकटोंका-सामना की ओर अग्रसर होता है। श्रापके ग्रन्यरत्नौका पालोहन करते हुए व्यतीत हश्रा है, जिनपर धैर्य और साहसका करनेसे मालूम होता है कि आपके पास शब्दोंका अमित अवलम्बन कर विजय प्राप्त की गई है। भंडार था, और इमीसे श्रापकी कविताके प्रायः प्रत्येक पदमें यद्यपि भारतीय अनेक कवियोंने अपने अपने जीवनअपनी निजकी छाप प्रतीत होती है। कविता करनेमें आपने चरित्र स्वयं लिखे है, परन्तु उनमें अर्धकथानक-जैसा आत्मीय बड़ी उदारतासे काम लिया है। श्रापकी कविता प्राध्यात्मिक गण-दोषोंका यथार्थ परिचय कहीं भी उपलब्ध नहीं होता। रससे श्रोत-प्रोत होते हुए भी बड़ी ही रसीली, सुन्दर तथा अर्धकथानक में उपलब्ध होनेवाले १६४३ से १६६८ तक के मन-मोहक है, पढ़ते ही चित्त प्रसन्न हो उठता है और हृदय ( ५५ वर्षके ) जीवनचरित्रके बाद कविवर अपने अस्तित्वसे शान्तिरससे भर जाता है। सचमुच में आपकी श्राध्यात्मिक भारतवर्षको कितने समय तक और पवित्र करते रहे, यह कविता प्राणियोंके संतप्त हृदयोंको शीतलता प्रदान करती ठीक मालम नहीं होता। हाँ, बनारसीविलासमें संग्रहीन और मानस-सम्बन्धी प्रान्तरिक मलको छाँटती या शमन कर्मप्रतिविधान' नामक प्रकरण निम्न अंतिम पासे इतना करती हुई अक्षय सुखकी अलौकिक मुष्टि करती है। आपकी जरूर मालूम होता कि भारका अस्तित्व मंवत् १७०० तक Page #521 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८४ अनेकान्त जरूर रहा है क्योंकि इस संवत्के फाल्गुन मासमें उसकी सहायता ली गई है। ग्रन्थकी रचना बड़ी ही सुगम, रसीली रचना की गई है। यथा और सहज अर्थावबोधक है। यह कोष हिन्दी भाषाके अभ्यासंवत् सत्रहसौ समय, फाल्गुण मास वसन्त । सियोंके लिये बड़ी कामकी चीज़ है। अभी तक मेरे देखने ऋतु शशिवामर सममी, तब यह भयो सिद्धंत ।। में हिन्दी भाषाका ऐसा पद्यबद्ध दसरा कोई कोष नहीं पाया आपकी बनाई हुई इस समय चार रचनाएँ उपलब्ध है। संभव है इससे पहले या बाद में हिन्दी पद्योंमें और भी हैं-नाटक समयसार, बनारसी-विलास ( फुटकर कविताश्रो किसी कोषकी रचना की गई हो। का संग्रह) अर्द्धकथानक और नाममाला । इनमेंसे शुरूके यहाँ एक बात और प्रकट कर देने की है, और वह दो अन्य तो पूर्ण प्रकाशित हो चुके हैं, और अर्द्धकथानक यह कि यह 'नाममाला' कविकी उपलब्ध सभी रचनाश्रीमें पूर्वकी जान पड़ती है। यद्यपि इससे पूर्व उक्त कविवरने का बहुत कुछ परिचय एवं उद्धरण पं० नाथूरामजी प्रेमीने युवावस्थामें शृङ्गाररसका एक काव्यग्रन्थ बनाया था, बनारसीविलासके साथ दे दिया है। जनता इन तीनों जिसमें एक हजार दाहा-चौपाई थीं, परन्तु उसे विचारपरिवसे यथेष्ट लाभ भी उठा रही है। परन्तु चौथा ग्रन्थ 'नाम तन होने के कारण नापसंद करके गोमतीके अथाह जल में माला' अब तक अप्रकाशित ही है। आज अनेकान्त के बिना किसी हिचकिचाहटके डाल दिया था । होसकता है प्रेमी पाठकोंको उसका रसास्वादन करानेके लिये उसे नीचे कि 'नाममाला' की रचना उक्त काव्य-ग्रन्थके बाद की गई प्रकट किया जाता है। हो; परन्तु कुछ भी हो, कविवर की उपलब्ध सभी रचनाओं में इस ग्रन्थकी रचना संवत् १६७०में, बादशाह जहाँगीर यह ग्रन्थ पहली कृात है । इससे २३ वर्ष बाद की गई के राज्यकाल में, आश्विन मासके शुक्लपक्षमें विजयादशमी नाटक समयसारकी रचनाके पद्यामं जो प्रासाद, गाम्भीर्य, को सोमवारके दिन, भानुगुरुके प्रसादसे पूर्णताको प्राप्त प्रौढता और विशदता पाई जाती है वह नाममालाके पद्योमें हुई है। इस ग्रन्थके बनवानेका श्रेय आपके परममित्र नरो नहीं । नाटक समयसारकी उत्थानिकामें वस्तुधोके नामवाले तमदासजीको है. जिनके अनुरोध एवं प्रेरणासे यह बनाया कितने ही पद्म पाए जाते हैं, उनकी नाममालाके पोके गया है। जैसा कि ग्रन्थके पद्य नं. १७०, १७१, १७२ साथ तुलना करनेसे नाटक समयसारवाले पद्योंकी प्रौढ़ता, १७५ से स्पष्ट है। गम्भीरता और कविवरके अनुभक्की अधिकता सष्ट दिखाई इस ग्रन्थकी रचनाका प्रधान प्राधार महाकवि धनंजय देती है; २३ वर्षके सुदीर्घकालीन अनुभवके बादकी रचनामें का वह संक्षिप्त कोष है जिसका नाम भी 'नाममाला' है और भी अधिक सौष्ठव, तरसता एवं गाम्भीर्यका होना स्वाऔर जो अनेकार्थ-नाममाला सहित २५२ संस्कृत पद्योंमें भाविक ही है। नाटक समयसार वाले उन पद्योको जो नामपूर्ण हुई है । परन्तु उस नाममालाका यह अविकल अनु. मालाके पद्योंके साथ मेल खाते थे यथास्थान फुटनोटोंमें बाद नहीं है और न इसमें दोसौ दोहोंकी रचना ही है, दे दिया गया है। शेष जिन नामोलाने पद्य नाममालायें जैसा कि पं० नाथूरामजी प्रेमीने बनारसीविलासमें प्रकट . दशिगोचर नहीं होते उन्हे. पाठकोकी जानकारीके लिये किया है। इस ग्रन्थके निर्माणमें दूसरे कोलोसे कितनी ही नीचे दिया जाता है:*"अजितनाथके छंदो और धनंजय नाममालाके दोसौ "यह महाकवि श्री धनंजयकृत नाममालाका भाषा दोहोंकी रचना इसी समय की।" पद्यानुवाद है।" -बनारसी-विलास पृ० ६७, १११ Page #522 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] बनारसी-नाममाला ४८५ - 'दरस विलोकनि देखनौं, अवलोकनि दृगचाल । मार्फत पं० रूपचन्दजी गार्गायके प्राप्त हुई, जो संवत् 185 लखन दृष्टि निरखनि जुवनि, चितवनि चाहनि भाल ||४७॥ आश्विन शुक्ल द्वितीया शनिवारकी लिखी हुई है और जिसे ग्यान बोध अवगम मनन, जगतभान जगजान। चौधरी दीनदयालने जलपथनगर (पानीपत) में लिखा है। 3संजम चारित प्राचरन, चरन वृत्त थिरवान ||४|| इस प्रतिका पहला और अन्तके ४ पत्र दूसरी कलमसे लिखे 'सम्यक सत्य अमोघ सत, निसंदेह निरधार | हुए हैं और वे शेष पत्रों की अपेक्षा अधिक अशुद्ध है। इस ठीक जथारथ उचित तथ "मिथ्या श्रादि अकार ||४Ell प्रतिसे भी संशोधनादिक कार्यमें कितनी सहायता मिली इस 'नाममाला' कोषमें कोई ३५० विषयोंके नामांका है।यो प्रतियाँ दोनों ही थोडी-बहन प्रशद और उनमें सुन्दर मंकलन पाया जाता है जिससे हिन्दीभाषाके प्रेमी साधारण-मा पाठ-भेद भी पाया जाता है जैसे देहलीकी यथेष्ट लाभ उठा सकते हैं। कितने ही इस छोटीसी प्रतिमें तनय, तनया पाठ है तो पानीपतकी प्रतिमें तनुज, पुस्तकको सहज ही में कण्ठ भी कर सकते हैं । नामोमें तनुजा पाठ पाये जाते हैं-'स' 'श' जैसे अक्षरोंके प्रयोगमें हिन्दी (भाषा), प्राकृत और संस्कृत ऐसे तीन भाषाश्रोंके भी कहीं कहीं अन्तर देखा जाता है और 'ख' के स्थानपर शब्दांका समावेश है; बाकी जानि, बखानि, सुजान, तह '' का प्रयोग तो दोनों प्रतियोमें बहुलतासे उपलब्ध होता इत्यादि शब्द पद्योंमें गदपूर्तिके लिये प्रयुक्त हुए हैं, यह है, जो प्राय: लेखकोंकी लेखन-शैलीका ही परिणाम जान बात कविने स्वयं तीसरे दोहे में सूचित की है। पड़ता है । अस्तु । इस कोषका संशोधनादि कार्य मुख्यतया एक ही उक्त दोनों ग्रंथप्रतियोंमें 'दोहा-वर्थित' विषयों प्रनिपरसे हुआ है, जो सेठका .चा देहलीके जैनमंदिरकी का निर्देश दोहेके ऊपर गद्यमें दिया हुआ है, परन्तु पुस्तकाकार १५ पत्रात्मक प्रति है, श्रावण शु० सप्तमी संवत् एक एक दोहेमें कई कई विषयोंका समावेश होनेसे कभी १६३३ की 'लिखी हुई है, पं० बाकेरायकी मार्फत कभी साधारण पाठकको यह मालूम करना कठिन हो जाता रामलाल श्रावक दिल्ली दर्वाजेके रहने वालेसे लिखाई है कि कौन नाम किस विषयकी कोटिमें आता है। अतः यहाँ गई है और उसपर मंदिरको, जिसके लिये लिखाई गई है, दोहेके ऊपर विषयोका निर्देश न करके दोहेके जिस भागसे 'इंद्राजजीका' मंदिर लिखा है। बादको एक दसरी शास्त्राकार किसी विषयके नामोंका प्रारंभ है वहाँ पर क्रमिक अंक १२ पत्रात्मक प्रति पानीपतके छोटे मंदिरके शास्त्रभंडारसे लगा कर फुटनोट में उस विषयका निर्देश कर दिया गया है। १ दर्शनके नाम, २ ज्ञानके नाम, ३ चारित्रके नाम, इससे विषय और उसके नामोंका सहज हीमें बोध हो सकेगा। 'सत्यक नामोंकी श्रादि में 'अ'कार वीरसेवामन्दिर, सरसावा ? जोड देनेसे मिथ्याके नाम हो जाते हैं। परमानन्द जैन शासी ता० १५-१०-१६४१ परमानन्द जनशाना Page #523 -------------------------------------------------------------------------- ________________ नाम-माला - -- (मंगलाचरण और प्रतिज्ञा) त्रिदस विबुध पावकवदन, अमर अजर असुगरि । ॐकार परणाम करि, भानु सुगुरु धरि चित्त। श्रादितय सुर देवता, सुमनस अंबरचारि ॥१०॥ रक्यौं सुगम नामावली, बाल-विबोध निमित्त ॥ १॥ 'प्रजानाथ वेधा दुहिन, कमलासन लोकंस । सबदसिंधु मंथान करि, प्रगट सुअर्थ विचार। धातृ विधाता चतुर्मग्व, विधि विरंचि देवेम ।।११।। भाषा करै बनारसी, निज-गति-मति-अनुसार ॥२॥ १°नारायन वसुदेवसुत, दामोदर गोपीस । भाषा प्राकृत संसकृत, त्रिविधि सु सबद समेत। अचुत त्रिविक्रम चतुर्भज, वनमाली जगदीस ॥१२॥ जानि वग्वानि सुजान तह, ए पद पूरन हेत ॥३॥ मधुरिपु बलिरिपु वानरिपु, दानवदलन मुगरि । विषय-प्रवेश कसविधंसन पीनपट, कैटभारि नरकारि ॥ १३ ।। 'तीर्थकर सर्वज्ञ जिन, भवनासन भगवान । कमव कृष्ण मुकुंद प्रज, अंबुजनैन अनंत । पुरुषोत्तम प्रागत सुगत, संकर परमसुजान ॥४॥ वासुदेव बलबंधु सिव, ग्मन राधिकाकत ॥१४॥ बुद्ध मारजित केवली, वीनगग अग्हित । पदमनाभि पदमारमन, गरुडासन गोपाल । धरमधुरंधर पारगत, जगदीपक जयवंत ॥५॥ पुरुषोत्तम गाविद हरि, जलसाई नंदलाल ।।१।। अलख निरंजन निरगुनी, जोतिरूप जगदीस। मुरलीधर सारंगधर, संग्व-चक्रधर स्याम । अविनासी आनंदमय, अमल अमूरति ईस ॥ ६॥ सौरि गदाधर गिरिधरन, देवकिनंदन नाम ।।१६।। गौर विसद अरजुन धवल, स्वेत सुकल सितवान। रमा लच्छि पदमालया, लोकजननि हरिनारि । *मोख मुकति वैकुंठ सिव, पंचमगनि निर्वानx ॥७॥ कमला पदमा इंदरा, क्षीरसमुद्र-कुमारि ।।१७।। "सरस्वति भगवति भारती, हंसवाहनी वानि। १२कामपाल रेवतिरमन, रोहिनिनंदन नाम । वाकवादनी सारदा, मतिविकासनी जानि ॥८॥ नीलवसन कुसली हली, सीरपानि बलनाम ।।१८।। 'सुरग सुगलय नाक दिव, देवलोक सुरवास। सतवादी धम्मातमज, सोमवंम-राजान । *पुहकर गगन विहाय नभ, अंतरीक्ष भाकाम ॥९॥ भीम वृकोदर पवनसुत, कीचकरिपु बलवान ।।१९।। १ तीर्थकरनाम २ सिद्धनाम ३ वेतवर्णनाम ४ मोक्षनाम "जिष्णु धनंजय फालुगुन, करनहरन कपिकेत । xनाटक समयसारमें इस नामका निम्न पद्य पाया जाता है:- असरदलन गांडीवधर, इंद्रननुज हयसेत ॥२०॥ सिद्धक्षेत्र त्रिभुवनमुकुट, शिवथल अविचलथान । "शंभु त्रिलोचन गौरिपति, हर पसुपति त्रिपुरारि । मोस्व मुकति वैकुठ शिव, पंचमगति निरवान ||४२।। ५सरस्वतिनाम ६ देवलोकनाम ७ प्राकाशनाम मनमथहरन पिनाककर, नीलकंठ विषधारि ।।२१।। * नाटक समयसारमें इस नामका निन्न पद्य पाया जाता है:- ८ देवनाम ६ ब्रह्मानाम १. विष्णु (कृष्ण) खं विहाय अंबर गगन, अंतरिन्छ जगधाम । नाम " लक्ष्मीनाम १२ बलभद्रनाम १३ युधिष्ठिरव्योम नियत नभ मेघपथ, ये अकासके नाम ॥३८॥ नाम १४ भीमनाम १५ अर्जुननाम १६ महादेवनाम Page #524 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण नाम-माला ४८७ - बामदेव भूतेम भव, रुंडमालधर ईस। जातुधान दानव दनुज, गकस देव-विपक्ष । जटाजूट कप्पालधर, महादेव सिखरीस ॥२२॥ दिननंदन मानुषभवन, असुर निमाचर जक्स्य ॥३५।। ससिसेखर सितिकंठ सिव, अंधरिपु ईमान। “हरित ककुभ प्रासादिमा,"सुरपति पावक काल । सूली संकर गंगधर, वृषभकंतु वृषजान ॥२३॥ नैरत वरुन पषन धनद, ईस पाठ दिकपाल ॥३६।। ५'उमा अंबिका चंडिका, काली मिवा भवानि । दक्षिन नैगित वारुनी, वायु उतर ईसान । गौरि पार्वती मंगला, हिमगिरितनया जान ॥२४॥ पूरव पालक अध उग्ध, पदस दिसि अभिधान ॥१७॥ १“गनप विनायक गजवदन, लंबोदर वरदानि । 'दिग्गज ऐरावत कुमुद, पुहुपदेत पुंडरीक । ५ षडमुख अगिनिकुमार गुह, सिखिवाहन सनानि ।।२५।। अंजन सारवभौम तह, वामन सूपरतीक ।।३८|| 'इंद्र पुरंदर वजधर, श्राखंडल अमरंस। 'सूर विभाकर घामनिधि, महसकिरन हरि हस । धनवाहन पुरहून हरि, सहसनैन नाकंस ॥२६॥ मारतंड दिनमान तनि, श्रादिति भानप-श्रम ॥३९॥ २'इंद्रपुरी अमगवनी, २२सभा सुधर्मा नाम । सविना मित्र पतंग र्गव, तपन हेलि भग भान । २ इंद्रानी सुपुलोमजा, सची अमरपतिवाम ॥२॥ जगतविलोचन कमलहिन, तिमरहग्न तिगमान ॥४॥ कल्पवृक्ष संतानद्रुम, पारजात मंदार । इंदु छपाकर चंद्रमा, कुमुदबंधु मृगक । हरिचंदन ए पंचसुर, तर नंदनकतार ॥२८॥ औषधीम राहिनिगमन, निसमनि सोम ससांक ॥४१।। "प्रथम सुपदम महापदम, कंद मुकंद खरव्य । चन्द्र कलानिधि नखनपति, हग्गिजा हिमभान । संख नील कख पदमकर, ए नवनिधि सुग्दव्य ॥२९॥ सुधासून द्विजराज विधु, क्षीरसिंधुसुन जान ॥४२॥ 'देववृता च तिलोत्तमा, मेनक भवसि रंभ। 'उडुगन भानि नक्षत्र प्रह, रिक्व तारका सार । २ 'सुधा अमृत पीयूष ग्स, जराहग्न सुरश्रम ॥३०॥ 'सीनल सिमिर तुषार हिम, तुहिन सीत नीहार ॥४३॥ "सुरगिरि गिरिपति हेमगिरि, धरनीधरन सुमेरु। मलिन मलीमसि कालिमा, लंछन अंक कलंक । २'राजगज वैभवन तह, धनपति धनद कुबेर ॥३॥ छाम धित दुर्बल दुन्वित, दीन हीन कृश रंक ॥४४॥ 5°अभ्र मेघ खतमाल धन, धागधर जलधार। विभा मयूम्ब मर्गचिका, जाति काति महधाम । कंद देव दामिनिअधिप, वाग्विाह नभचारि ॥२॥ पाद अंसु दीधिनि किनि, भानुतेज मचि नाम ॥४५॥ धूमजोनि जीमूत प्रग, पावकरिपु पयदान। जीव वृहस्पति देवगुरु, गहिनय बुध सौम । 3 'संपा छननाच चंचला, चपला दामिनि जान ।।३३।। 'मंद सनीचर रवितनय, “भूसुन मंगल भौम ॥४६॥ हाहा हूहू किंपुरुष, विद्याधर गंधर्व। अगिनि धनंजय पवनहित, पावक अनल हुनास। अप्सर यक्ष तुरंगमुम्ब, दवयोनि ए सर्व ॥३४॥ ज्वलनविभावसुसिखिदहन वडवाउदधिनिवाम ४७ १७ पार्वतीनाम १८ गणेशनाम १६ स्वामि- ३३ दैत्य(राक्षस)नाम ३४ दिशानाम ३५ अष्टदिकपालनाम कार्तिकेयनाम २० इन्द्रनाम २१ इन्द्रपुरीनाम २२ इन्द्र- ३६ दशदिशानाम ३७ आठ दिग्गजनाम ३८ सूर्यनाम सभानाम २४ देववृक्षनाम २५ नवनिधिनाम २६ अप्सरा ३६ चन्द्रनाम ४. नक्षत्रनाम ४१ तुषारनाम ४२ कलंक(देवांगना) नाम २७ अमृतनाम २८ सुमेरुपर्वतनाम २६ नाम ४३ दुर्बलनाम ४४ किग्णनाम ४५ वृहस्पतिनाम ४६ कुबेरनाम ३० मेघनाम ३. बिजलीनाम : बुध (ग्रह) नाम ४७ शनिबग्नाम ४८ मंगलनाम . अमि Page #525 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४८ अनेकान्त [ वर्ष ४ "पवन प्रभजन गंधवह, अनिल वात पवमान । मरकत मुफन प्रवाल तहँ, बैडूरज नवभेद ।।५८|| मानतमान समीर हगि, पावहित नभस्वान ॥४८॥ कंबु संख 'कच्छप कमठ, दादुर मिंडक भेक। . १ जमुनीबंधव समन हरि, धरमराज जम कालक। प्रचुर प्रभून सुबहुल बहु, अगनित भूरि अनेक।।५९।। "पल्बन दाहन भयकरन, घोर तिगम विकराल ॥४९॥ लच्छि धनंतरि कौसुतुभ, रंभा इंद्रतुरंग । " "दिवा दिवस वासर सुदिन," रजनी निसा निजामा पारिजात विष चंद्रमा, कामधेनु सारंग ॥६॥ जामिनि छपा विभावरी, तमी तामसी नाम ।।५०॥ सुग संग्ख पीयूषरस, ऐगवत-गज सार । "सिंधु समुद सरिताधिपति, अंयुधि पारावार । मिधु-मथन करि प्रगट किय, चौदह रतन पदार।।६।। अपार सागर उदधि, जलनिधि रतनागार ॥५१॥ ७"वनिक संठि गाडा(था)धिपनि, व्यवहारी धनवान । "सलिल उदक जीवन भुवन, अंबु वारि विष नीर। ...... नाव पोन प्रोहन तरन, वाहित वाहन जान ॥६॥ । अमृत पाथ वन तोय पय, अंभ आप जल क्षार ।।१२।। ., दिवसरित मंदाकिनी, गगनवाहिनी गंग। "'अवलि तरंग कलोल विचि, भंग "पालि जल यांद। त्रिपथगमनि भागीरथी, मितिय धवलनरंग ॥६।। अवघि सीम उपकंठ तट, कूल गंध मरजाद ॥५३।। । ""कमल तामरस कोकनद, पंकज पदम सगंज । “सरिता धुनी तरंगिनी, नदी आपगा नाम । कंज नलन अरविंद मित, पंडरीक अंभोज ॥५४॥ कालिंदी रविनंदनी, जमुना हरिविश्राम ॥६४॥ इंदीवर नीलांतपल, पुहकरनाल मृनाल। भूमि रसाछिति मेदिनी, छोणी छमा जगत्ति । ६२सांसविकास कैरव कुमुद, हृद सरसी सर ताल ।।५५।। अवनि अनंता कुंभिनी, गोधरनी वसुमत्ति ।६।। ६ “मकर तिमंगल वारिचर, प्रथुगमा पडछीन । अचला इला वसुंधरा, धग महो धर संस । निमि जलजंतु बिमारि झप, सफरी रोहित मीन ५६ "भुवन लोक संसार जग, ८२जनपद विषय सुदेस ॥६६॥ ६"पावन पूत पवित्र सुचि, ६६अवलंबन आधार। पंसु रेनु रज धूलिका, “परिष पंक जंबाल । "कभ कलस श्रृंगार घट, गरभ कांस भंडागा५७॥ "किंचित तुच्छ मनाक तनु, ८६दीरचलंब विसाल ॥६७॥ ६.हीग मानिक नीलमणि, पहपराग गोमेद । संनिधि पास समीप अभि, निकट निरंतर लग्ग । - 'अंतर दूरि निरापरस, सरनि पंथ पथ मग्ग ।।६८।। तथा वडवानलके नाम ५० वायुनाम ५१ यमराजनाम । * इस नामका नाटक समयसारमें निम्न पद्य पाया १०पन्नगलोक पतालपुर, अधोभवन वलिधाम । जाता:-- ९'सुधिर कुहिर रंधर विवर, ९२ अवट कूप विलनाम।।६९ जम कृनात अंतक त्रिदम, श्रावर्ती मृतथान । प्रानहरन श्रादिततनय, काल नाम परवान || ३६ ॥ ७० शखनाम ७१ कप नाम पर माकनाम ७२ बहुत ५२ भयानकनाम ५३ दिवसनाम ५४ रात्रिनाभ ५५ नाम ७४ चौदहरतननाम ७५ व्यापारी तथा जहाजके नाम समुद्रनाम ५६ जलनाम ५७ तरंगनाम ५८ तटनाम ७६ आकाशगंगानाम ७७ भूमिगंगानाम ७८ सामान्यनदीकमलनाम ६. मोलकमल नाम ६. मृणाल (कमलनाल) नाम ७६ यमुनानदीनाम ८० पृथ्वीनाम ८१ लोकनाम नाम ६२ कुमुदनाम ६३ सरोवरनाम ६४ मत्स्यनाम ८२ देशनाम ८३ धूलिनाम ८४ कीचड़नाम ८५ तुच्छ६५ पवित्रनाम ६६ प्राधारनाम ६७ घटनाम ६८ भंडारनाम नाम ८६ दीर्घनाम ८७ समीप (निकट) नाम ८८ दूरनाम ६६ नवरत्ननाम ८६ मार्गनाम ६. पातालनाम ६१ विलनाम ६२ कूपनाम Page #526 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] नाम-माला ४८ वासुकि शेष महसूफान, पनगगज वग्वान। 'जनक नान मविना पिता, ११ प्रमानि जननी मात । ' गरल हलाहल प्राणहर, कालकूट विष जान ||७०॥ १५ पुत्र सूनु अंगज ननय. सुन नंदन ननुजान ।।८।। "काकादर विषधर फनी, अहि भुजंग हरहार ! ११'भ्रात्रि जानि भगनी म्बमा, १५"बंधु सहोदर जात । लेलिहान पन्नग उग्ग, भोगी पवनाधार ||१|| ११६ अवरज अनुज कनिष्ट लघु, ११ 'वार सुबंधव भ्रात ८२ निरय नरक कुंभीगवन, दुग्गति दुःखनिधान । "मुनि भिक्षुक तापस तपा, जोगी जती महंत *। ''बंध फंध शृंखल निगड, जंन पास संदान ।।७२॥ व्रती साधु ऋषि संयमी, १५ आगम ग्रंथ सिद्धत।८३ ५८ कलिल कलुष दहकृत दुरित, एन अंध अघ पापा उपदेशक उवझाय गुरु, प्राचारज गुनगसि । • 'पीड़ा बाधा वेदना, विथा दुःख मंताप ||७३।। ५. 'गजसूय नृपया क्रतु, १२२दीक्षित अंतेवासि । ८४। ५. मानुष मानव मनुज जन, पुरुष नृ गांध पुमान । विबुध सूरि पंडित सुधी, कवि कोविद विद्वान । ५. विभु नेता पति अधिप इन, नाथ ईस ईसान ||७४|| कुसल विचक्षन निपुन पटु, क्षम प्रवीन धीमान ६५ प्रमदा ललना नायका, जुवनि अङ्गाना वाम। १२ आदिवग्न भूदेव द्विज, बाँभन विप्र सुजान। जोपा जाषित मुंदरी, वधू भामिनी भाम ||२|| .."अभिजन संतति गात कुल, बरगवंस संतान ||६|| महिला रमनी कामिनी, वामलांचना वाम। १२"मूरख मूक अजान जड़, मंद मूढ सठ बाल। वनिता नारि नितंबिनी, बाला अबला नाम ॥६॥ १५ "कुत्सित पामर निरधनी, अधम नीच चंडाल ।।७।। 1०3जाया घरनि कलत्र त्रिय, भार्या पतनी दार। १“दाता दानि दरिद्रहर, १२ कपन लुबध कीनास । १०"दयित कंत वल्लभ ग्मन, धव कामुक भरतार ॥७७॥ १५ अनुजीवी अनुचर अनुज, संबक किंकर दास।।८८॥ १०"पतिवति एकपती सती, कुलवंनी कुलघाल । ५. सुन्दर सुभग मनोहरन, कल मंजुल कमनीय । १. दूनी कुटनी संफली, ५ . "सम्वी सहचरी प्रालि ॥७८॥ १.१ पितानाम १२ मातानाम १३ पुत्रनाम १४ बहिननाम १. गनिका रूपाजीविका, निरलज्जा पुग्नारि । ११५ मगे भाई केनाम ११६ छोटे भाई केनाम ११७ बाँधव नाम ११८ माधुनाम । वारंगना विलासिनी, मर्ववल्लभा दारि । नाटक समयसारमं इस नामका निम्न पद्य पाया जाता है:१०१सहचर सखा सहाइ हित, संगत सुहृद सखिरा । मुनि महंत तापस नपी, भिच्छुक चारितधाम । ११°रिपु खल वैरि राति अरि, दुजेन अहित अमित्त ८० जती तपोधन संयमी, व्रती साधु ऋषि नाम ||४६|| ११६ शास्त्रनाम १२. गुरुनाम १२१ राजयशनाम ३ शेषनागनाम Ev विषनाम ६५ सर्पनाम ६६ नरकनाम १२२ शिष्यनाम १२३ पंडितनाम ६७बंधननाम६८ पापनाम ६६ वेदनानाम १०० मनुष्यनाम । इस नामक नाटक समयसारमें निम्न दो पद्य पाये जाते :*नाटक ममयसारमें हम नामका निम्न पद्य पाया जाता है:- निपुन विचच्छन विबुध बुध, विद्याधर विद्वान । पाप अधोमुग्व एन अघ, कंपरोग दुग्वधाम । पटु प्रवीन पंडित चतुर, मुधी, सुजन मतिमान ॥४॥ कलिल कलुस किल्विस दुरित, अशुभ करमके नाम || ४१॥ कलावंत कोविद कुमल, सुमन दच्छ धीमंत । १०१ स्वामिनाम १०२ स्त्रीनाम १०३ विवाहिता जाता सजन ब्रह्मविद्, नश गुनीजन मंन ||४|| म्बीनाम १.४ भरिनाम १०५ मती म्बीनाम १०६ कुहिनी १२४ ब्राह्मणनाम १२५ कुलनाम १२६ मूर्वनाम (कुल्टा) स्त्रीनाम १०७ मवीनाम १०८ वेश्यानाम १२७ अधमनाम १२८ दातारनाम १२. कृपणनाम १०६ मित्रनाम ".शत्रुनाम १३. सेवकनाम १३, सुन्दरनाम । Page #527 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६. भनेकान्त [वर्ष ४ रुचिर चार अभिराम वर, दरसनीय रमनीय ॥८९॥ १७ सदन गेह श्रालय निलय, मंदिर भवन प्रवास । १३२तसकर निसचर गूढनर, 'भिल्ल पुलिंद किरात। साल सरन आगार ग्रह, धाम निकत निवाम ॥१०१ १36दूत चारचर 1 "पिसुन खल, असनिवज निर्घात १७"सोध राजगृह धवलगृह, नगर पटन पुर प्राम । १३ मन मानम अंतःकरन, हृदय चेत चित जानि। १७ नेय खात परिखा गग्त, उपकानन पागम ।१०० १३जीव हंस चेतन अलब, जंतु भूत जन प्रानि ॥९१॥ सुरमंडप देवायतन, चैत्यालय प्रासाद । 13वृद्ध पलिनननु थविग्नर, १४°जुवजन तरुन रसाल। १८ तांडव नाटक नृत्य तह, १८ गीत गान सुर नाद १०३ १४अमावक दारक पाक प्रथु, डिंभ पात सिसु बाल।।९२॥ १८२षडज ऋषभ गंधार पुनि, पंचम मध्यम जान । १४२काय कलेवर संहनन, मूरति उपधन गात । धेवत रूप निषाद तह, ए सुर मात वग्वानि ॥१०४।। विग्रह देह मगर वपु, पंचभूतसंजात ॥९३।। १८ करुना कौतुक भयकग्न, वीर हास भिंगार । १४ रुधिररकत साणित छतन,16"पिसित तास पल मांस सांत रुद्र बीभत्स तह, ए नवग्स मंमार ॥१०५।। १४५विष्ठा गूथ पुरीष मल, १४६बीज रेत बल श्रम ॥९४॥ १ट पामल तिक्त कषाय कटु, छार मधुर ग्म जान । १४"सीस मह उनमंग सिर, १४“अलिक ललाट सुभाल । १८"प्रीषम पावस सग्द हिम, सिसिर वसंत वखान १०६ १४९कंठ सिरोधर ग्रीव गल, १५"चिकुर कंस का बाल ।९५ १८६ उदतन मंजन कुसुम, चंदनलंपशगर । Tपनेन विलोचन चक्षु दृग,५२पलक १५3भोह भ्रव जानि । अलकावलि मसिविंदु तह, कजल कंचुकी चीर १०७ पबदन तंडानन लपन, १"वचन सबदरव वानि९६ कंकुम खौरि तबोलमुग्व, चंदनजावक लज्ज । पादन दमन गदकरदन, १५'नामि नासिका घान । दसनसुरंगित चातुरी, ए षोडम तियसज्ज ।।१०८।। १५अधर देतपट रदनछद,९५९ श्रोत श्रवन श्रुति काना९१ १८ ककन किंकिनि कंठमनि, कंडल वेसरि आढ। १६०गड कपोल सुवक्ष उर, १६२कुच उरोज पयदानि नूपुर हार स-मुद्रिका, विच्छिक जेहरि टाड ॥१०९।। ११ उदर जठर कटि श्रोणि कट' भुजा बाँहाकर पानि १८८मीनकंतु मनसिज मदन, मार काम मनमत्थ । १६ तारक गोलक पूनली, १६दिष्टि अपांग कटाख। संवरहरन अनंग रति, रमन पंचसाहत्थ ॥११०।। पहजन कजल रागगज, ११°अंगुलिका करसाखा९९ १८ वसीकरन मोहन तपन, उच्चाटन उन्माद । १०'ऊरु जानु जंघा जघन, १.०२ अहि चरन पद पाय । १९०तंती दुंदुभि संखधुनि, कंस ताल करवाद ॥१११॥ १७कबरी चूडा धमिल सिख, वैनी कचसमुदाय ॥१००॥ १२'कौतूहल कौतुक अहो, अदभुत चित्र अचंभ । . . - १९२माया कैनव छदम छल, व्याज कपट मिष दंभ ११२ १३२ चोरनाम १३३ भीलनाम १३४ दूतनाम १३५ १९३हरष तोष आनंद मुद, १९४श्रमग्ष कोप मरोस । दुष्टनाम १३६ वजनाम १३७ मननाम १३८ जीवनाम १३६ ५९"कृपा सुहित करुना दया, अनुकंपा अनुकोस ॥११३।। वृद्धपुरुषनाम १४० युवानाम १४१वालकनाम १४२शरीरनाम १९६प्रेम प्रीति अभिलाष सम्ब, गग नेह संजोग। १४३रुधिरनाम १४४मांसनाम १५मलनाम १४६ वीर्यनाम विछरन फुल्लक विरह दुख, मनमथविथा वियोग||११४ १४७ शिरनाम १४८ मस्तकमाम १४६ कंठनाम १५० बाल- १७४ घरनाम १७५ राजगृहनाम १७६ नगरनाम १७७ खाई नाम १५१ नेत्रनाम १५२ पलकनाम १५३ भौंहनाम नाम १७८ वागनाम १७६ मंदिरनाम १८० नृत्यनाम १५४ मुखनाम १५५ वचननाम १५६ दाँतनाम १५७ १८ गीतनाम १८२ सप्तस्वरनाम १८३ नवरसनाम नासिकानाम १५८ श्रोष्ठनाम १५६ कर्णनाम १६० कपोल- १४ षटरसनाम १८५ छहऋतुनाम १८६ सोलह शृंगार नाम १६१ छातीनाम १६२ स्तननाम १६३ पेटनाम नाम १८७ द्वादश श्राभरणनाम १८८ कामनाम १८६काम१६४ कमरनाम १६५ भुजानाम १६६हस्तनाम १६७ पुतली पंचवाणनाम 18. पंचशम्दनाम १९, कौतुकनाम नाम १६८ कटाक्षनाम १६६ काजल नाम १७० अंगुरीनाम १६२ कपटनाम १६३ श्रानंदनाम ११४ कोपनाम १६५ १७१ जांधनाम १७२ पैर (पाद) नाम १७३ चोटीनाम । दयानाम १६६ प्रीतिनाम १६७ विरहनाम । Page #528 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरह] बनारसी-चाममाला ४६१ - ''त्याग बिहाइत दान दत, ममना हित मुम्ब सात । २२९भंत विनामनिधन मग्न, पंचत प्रलय निपात ॥१२५।। "गुन थुति कीर्ति उदाहरन, जम सलाक प्रवदात ।।११५ २३ 'प्रसतर उपल पषान एष, २ . 'भूदारन इल सीर । - 'प्रकट साधु सुबिदित विसद,२०२निरुपम अकथ अनूप २ हयगवीन स पिग्स,२५ दुग्ध अमृत पय छीर ।१२६ .. मंद बिलवित सिथिल तह, छाँह विंब प्रतिरूप११६ २३ अग्य वित्त वसु द्रविन धन x २ "सुगवारनी हाल । "तुल्य सवर्ण सघर्म मम, सहस सरूप ममान। मधु मदिरा कादंबरी, सीधु मघ कोलाल ||१२७॥ २०"जुगत संसकन सहित जुत, 'नाम गांत अभिधान ।। २३ हाटक हेम हिरण्य हरि, कंचन कनक सुवर्ण । १. प्रतिदिन नित संतत सदा, ""नूतन नव सुनवीन । जातरूप कलधौत तह, रजत रूप शुचिवर्ण ॥१२८। - ''प्राकृत जीरन मुचिर तनु, जरठ पुरातन छीन ॥११८।।"भूषन मंडन प्राभग्न, अलंकार तनभाल ।। - "करकम कठिन कठोर दिद, निठुर परुष अस्लील । 'अंसुक निवसन धीर पट, चीवर अंबर छाल||१२९।। - १.कोमल पेसल मम्म मूदु, २१ प्रकृति स्वभाव सलील || "गंधसार चंदन मलय, २४ पहिम कपूर घनसार। "बुद्धि मनीषा संमुषी, धी मेधा मति ग्यान 8 नाभिज मृगमद कस्तुरी, कुंकुम रकतागार ॥१३०।। २१"भावक मंगल कुसल सिव, भविक छेम कल्यान ।।१२० २८ मयन मंच परयंक तह, २. “सेज तलप उपधान । २१६क्षिप्रवंग सहसा तुरत, झटित आसु लघु जान। २४"दग्पन मुकुरसुअादरस,२४६ छायाकरन वितान ॥१३१ २१'नरल अथिर चंचल सुचल, चपलविलोल बग्वाना१२१ २४ "मुकट किरीट सगरसन, २४८ प्रातपत्र सिरछत्र। * १“अहंकार विनय गरव, उमतगल अभिमान। २. पद सिंहासन पीठ तह, " हेति सुमायुध अख॥१३२ १९अंधकार संतमस तम, धूमर तिमिर भयान ॥१२२।। २"'भूप महीपति छत्रधर, मंडलस राजान । २२°गर पीत कंचनवग्न, २. रक्त सुलोहित लाल। २०२चक्री साग्वभौमनृप, २०३मंत्री सचिव प्रधान ॥१३॥ - २२हरित नील पालास तह, १ स्याम भृगरुचि काला१२३ २" मेव निषेव उपासना, "शासन पुहुप (१) निदेस । "प्रसन भाग आहार भख, २२"लीला कंलि विलास। ." भागपुन्य सुविहिन सुकन," "मकल बंड लव लेम ५२६विधुर कछ संकट गहन, व्रत संजम उपवासा१२४ २""महिषा पट्टनिवासिनी,"पुररम्बवाल सलार । २सूषा अलीक मुधा विफल, वृथा वितथ मिथ्यातx १९८दाननाम REE सुखनाम २०.कीनिनाम २०१ प्रक २२६ मरणनाम २३० पाषाणनाम २३, हलनाम टनाम २०२ अनुपमनाम २०३ विलम्बनाम २०४ छायानाम २३२ घृतनाम २३३ दुग्धनाम २३४ धननाम । २०५ समाननाम २०६ युक्तनाम २०७ नाम-नाम २०८ Xभाव पदारथ समय धन, तत्त्व वित्त वसु दर्व। मदानाम २०१ नूनन नाम २१. पुरानननाम २११ कठिन- द्रविन श्ररथ इत्यादि बहु, वस्तुनाम ये मर्व (ना. स.) नाम २१२ कोमलनाम २१३ स्वभावनाम २१४ बुद्धिनाम । २३५ मदिरानाम २३६ सुवर्णनाम २३७ रजननाम *नाटक समयसारमें इम नामका निम्न पद्य है:- २३८ श्राभरणनाम २३६ वखनाम २४० चन्दननाम प्रजा धिसना सेमुसी, धी मेधा मति बुद्धि । २४१ कपूरनाम २४२ कस्तूरीनाम २४३ पलंगनाम २४४ सुरति मनीषा चेतना, श्राशय अंश विमुद्धि ।। ४३ ॥ शय्यानाम २४५ दर्पणनाम २४६ चंदोवानाम २४७ मुकुट२१५ कल्याणनाम २१६ शीघ्रनाम २१७ चंचलनाम नाम २४८ छत्रनाम २५६ सिंहासननाम २५० अस्त्रनाम । २०८ अभिमाननाम २१९ अंधकारनाम २२० पीतवर्णनाम २५१ राजानाम २५२ चक्रवर्तिनाम २५३ मंत्रीनाम २२० रक्तवर्णनाम २२२हरितवर्णनाम २२३श्यामवर्णनाम २५४ सेवानाम २५५ श्राशानाम २५६ पुण्यनाम । २२४ प्राहारनाम २२५ क्रीडानाम २२६ कष्टनाम २२७ इस नामका नाटक समयमारमें निन्न पद्य पाया जाता है:व्रतनाम २२८ असत्यनाम । पुष्प सुकत ऊरधवदन, अकररोग शुभकर्म । xजथारथ मिथ्या मृषा, वृथा असत्त अलीक । सुखदायक संसारफल, भाग बहिमुख धर्म ||४|| मुधा मोष निष्फल वितथ, अनुचित असन अठीक (ना.स.) २५७ ग्वंडनाम २५८ रानीनाम २५६ कोटपालनाम । Page #529 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६२ अनेकान्त ५६०पंढ नपुंसक कंचुकी, २६ पद्वारपाल प्रतिहार ॥१३५।। २ ०९दन सुपन पलाम दल,२९ पेडमूल जड कंद । २६२पौर लोक नागर प्रजा, २६ साल दुर्ग प्राकार। २९४पुहुप प्रसून सुमन कुसुम, "मधु पराग मकरंद ॥१४८ ३६४पंथनिराध कपाट पट, २६"गांमुम्ब नगरदुवार ॥१३६ २१ चूत श्राम सहकार तरु, मौरभ अंब रसाल । २६ हजाल गवाख'समीरपथ, उर्द्धपंथ सोपान । २९"रंभ मांच केला कदल, .."मालकार वनपाल ॥१४९ २१८वक विषम अंकुल कुटिल, कंडल मंडल जान १३७ २० वल्ली वेलि व्रतति लता,५०°वाटिक कुसुमप्रगम । २७"तालपत्र कंडल श्रवण, सिग्बंधन सिदर । 'सुरभि सुगंध सुवासना,"माल हार सजदाम॥१५० पान वलय कंकन कटक. बाँहरक्ख कंयूर ॥१३८॥ कंठीरव कुंजरदमन, हरि हरिधिप मृगसूल । तुला कोटि नूपुर चरन, भाल सुतिलक ललाम। बली पंचमुग्ब केसरी, मग्भ सिंह सादुल ।।१५१।। कटि किंकिनि मखल ग्सन, छुद्र घंटिका नाम ।।१३९।। 'गज करंनु मातंगधिप, करि वाग्न मुंडाल । 'बल अनीक मंना चमू, कटक वाहिनी दंड। सिंधुर दंती नाग इभ, लभ मतंगज बाल||१५२।। २० चिन्ह पताका केतु ध्वज, वैजयंति तह झंड ॥१४०|| "अश्व वाजि घोटक तुम्ग, हरि तुरंग हय वाह । २७3मा मायक नागच खग, वान मिलीमुख कंड। 3०६ऊँट वंग गामुक करभ, "सूकर क्रांड वगह ॥१५३।। २७४धनुष कारमुक चाप धनु, गुनधाग्न कोदंड ॥१४१॥ १०॥बानर वलिमुख विपनचर, माखामृगकपि कीस । २७"सरवारन कंचुकि कवच, डर भय त्रास असात। ३. सारन हग्नि कुरंग मृग, अजिन जोनि एनीस ॥१५४|| २७७असि कृपान करवाल तह, रछत प्रहार संघात १४२११'धेनु गाय पसु १'वृषभमिष, महिषावाहलुलाय १७१रन विग्रह संजुग समर, संपगय संग्राम। जंबुक भीक शृगाल मिव, मृगधूरत गोमाय ॥१५५।। __कदन प्राजि संगर कलह, जुद्ध महाहव नाम ॥१४३।। ११५ऊंदर मूषक नागरिपु, १"बिल्ला प्रोतु मँजार । ५८°जाचक मंगित बंदिजन, २८ 'रंगभूमि रनखेत। रासभ गर्दभ रेंक रबर, २१°चर गति गमन विहार १५६ २८२सूरवीर जोधा सुभट, २८ भूत पिशाच परेन ॥१४४॥ १ श्वान पुरोगत प्रामहरि, श्वा कूकर दिढकक्ख । ८ "सैल अचल गिरि सिम्बरि नग, पर्वत भूधर नाम। सारमेय निशिजागरण, मंडल आतुविपक्व ॥१५॥ ५८ "देवम्बात विल कंदरा, दर्ग गुफा मुनिधाम ॥१४॥''श्रांत्र अक्ष इंद्रिय करन, १२°कंज विषान सु-सुंग। २८७पीवर पीन सुथूलगुन, २८ "उन्नत उच्च उतंग। सारंग षट्पद मधुप अलि, भ्रमर सिलीमुख भृग १५८ २४“विस्तीरनविस्तर विपुल,२८ अधनचनीचविभंग४६२मकुनि संकुन पतंग वग. सलभ विहंगम पक्खि । २'कानन विपन अरण्य बन, गहन कक्ष कतार। ३२खगपति विननासुत गरुड, हग्विाहन हिमाव १५९ २९'विटपिमहीरुह साखिनम, अगपादप फलधार ॥१४७२'जीवंजीव चकोर तह, ...कुरकट नामरचूर । २६० खोजानाम २६. द्वारपालनाम २६२ प्रजानाम २६३ २६२ पातनाम २६३ मूल ( जड़ ) नाम २६४ कोटनाम २६४ किवाड़नाम २६५ द्वारनाम २६६ झरोखा पुष्पनाम २९५ परागनाम २६६ अाम्रनाम २६७ (खिड़की) नाम २६७ सीढ़ीनाम २६८ वक्र (टेडे ) नाम कलानाम २६- मालीनाम २EE लतानाम ३०० फुलवारी२६६ धेरे के नाम २७० अङ्गभूषण नाम २७१ सेनानाम नाम ३०१ सुगंधनाम ३०२ मालानाम ३०३ सिहनाम । २७२ ध्वजानाम २७३ वाणनाम २७४ धनुषनाम २७५ ३०४ हाथी और हाथीके बच्चे के नाम ३०५ अश्वनाम जिरह (बस्तर ) नाम २७६ भयनाम २७७ तलवारनाम ३०६ ऊँटनाम ३०७ सूकरनाम ३०८ बन्दरनाभ ३०६ २७० घावनाम २७६ मंग्राम (युद्ध) नाम २८० याचकनाम मृगनाम ३१० गायनाम ३"बैलनाम ३१२ भैंसानाम २८. रणभूमिनाम २८२ सुभटनाम २८३ प्रेतनाम २८४ ३१३ शृगालनाम ३१४ मूषकनाम ३१५ बिलाव (बिल्ली) पर्वतनाम २८५ गुफानाम २८६ स्थूलनाम २८७ उतंगनाम नाम ३१६गर्दभनाम ३१७गमन(चाल)नाम ३१८ कूकरनाम २८८ विस्तारनाम २८६ नीचेके नाम २६. वननाम ३ इन्द्रियनान ३२०सींगनाम ३२१भ्रमरनाम ३२२पक्षीनाम २११ वृक्षनाम । ३२३गनाम ३२४ चकोरनाम ३२५ कुक्कुटनाम । Page #530 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण.] बनारसी-नाममाला ४६३ * ५६ केकी अहिरिपु नीलगल, मिस्त्री मिखंडि मयूर १६० ३४"नव प्रहग्म नह ८ सून्य नभ, अनुक्रम अंक विचार 3२ चाम्बसु खंजन खंजग्टि, 3'वायस करट कगल । १ ध्रव अडोल थावर सुथिर, निश्चल विचल जान । 3.पिक काक्लि तह33°कीग सुक, 'वग्ट सुहंस मगल : दीपघाय चिराय तह, चिरंजीव सुबम्बान ।।१६।। ३२ कौसिक पेचक कारिपु,333पिक चातक मारंग। उपसंहा। और प्रशस्ति) 33४पागवत सुकपात गन,33'चकवा काक रथंग॥१६२।। होय जहाँ कलहीन, छंद सबद अक्षर अग्थ। उ पूग समाज ममूह ब्रज, श्राप संघ मंधान । गुनगाहक परवीन, लेह विचारिसंवारितह ॥१६॥ जूथ पंज समवाय कुल, निकर कदबक ब्रान ।।१६। मित्रनगसम थान. परम विचक्षण धनिधि। अर्याल वृद संदोह चय, संचय निचय निकाय । ताम वचन परवान,किया निबंध विवारि मनि ॥१७०।। प्राली पंकति निवह गन, गजि गमि ममुदाय।।१६४|| सांगहरी मार ममै, असू माम मित पक्ष । नारिपुरुष दंपनि मिथुन, -3"द्वंद जुगम जुग जान। विजैदमम मसवार नह, श्रवण नम्वत परतन ।।१७१।। उभय जुगल जम जमल विवि,लाचनसंग्य बवान१६५ दिन दिन तंज प्रताप जय, मदा अडित पान । 33"तीन लोक गुन मिवनयन,' 'चर जुग वेद उपाय। पानमाह थिर नग्दी, जहाँगीर सुलतान ॥१७२ ।। • पंच वान इंद्रिय सबद,3 *षट रितु अलि ग्म पाय१६६ जैन धर्म श्रीमालकुल, नगर जौनपुर बाम । 3. मान द्वीप मुनि हय विमन, ३० "पाठ धान गिरि सार । खडगमन-नंदन निपुन, कवि बनारमीदास ॥१७।। ३२६ मयूरनाम ३२७ ममोला (पक्षविशेष । नाम कुसुमगाज नाना वग्न, सुन्दर परम ग्माल । ३२८ काकनाम ३२६ कोकिलनाम ३३० नोतानाम ३३१ कामल-गुनगभित रची, नाममाल जैमाल ||१७४।। हंसनाम ३२२ उलूकनाम ३३३ पपीहानाम ३३४कबूतरनाम जे नर गर्ख कंठ निज, होय सुमति परकास । ३३५ चकवानाम ३३६ ममूहनाम ३३७ स्त्री-पुरुषसंयोगनाम भानु सुगुरु परसाद तह, परमानंद-विलाम ॥१७॥ ३३८ युग ( जोड़के) नाम ३३६ नीनके नाम ३४० चारके * इति बनाग्मी-नाममाला नाम ३४१ पाचके नाम ३४२ छहके नाम ३४३ मानके ३४५ नौके नाम ३४६ शून्यके नाम ३.७ स्थिरनाम नाम ३४४ श्राटके नाम । ३४८ चिरंजीवनाग। "सन्यासी (विरक्त ) दुनियामें रहता है, पर किया जाता है-स्वेच्छासे और इसलिये उममें युनियादार नहीं होता। जीवनकं महत्वपूर्ण कार्योंमे संतोषकी अनुभूति हाती है।" उमका आचरण माधारण मनुष्यों के जैमा होता है, "यह-अपवाद रहित-नियम है कि जो स्वयं सिर्फ उसकी दृष्टि जुदी होनी है। हम जिन बातोंको अपने त्यागका उल्लेख करता है उसके त्यागका गगके साथ करते हैं, उन्हें वह विगगक माथ उल्लंग्व दुनिया नहीं करती। जिम त्यागका उल्लम्ब करता है।" त्याग करनवालेको स्वयं ही करना पड़ता है, वह त्याग ___ "दुःख और तपम बड़ा भारी अन्तर है। दुःखमें नहीं। श्रात्म त्याग स्वयं प्रकाश्य होना है।" होती है वेदना और तपमे होता है श्रात्म-मनीष। “पूणे अहिमावादीका धर्म है-इसना त्याग दुःख सहना पड़ता है अनिच्छास और इसलिय कर दना कि-फिर कुछ त्यागना बाकी न रहे।" दुःम्बमें यन्त्रणाका बोध हो जाता है, किन्तु तप ---'विचारपुष्पांद्यान' Page #531 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्री जैन पंचायती मन्दिर देहलीके उन हस्तलिखित ग्रन्थोंकी सूची जो दूसरे दो मन्दिरोंकी पूर्व प्रकाशित सूचियोंमें नहीं आए हैं 700 श्रीजैन पंचायती मन्दिर, मस्जिद खजूर, देहलीमें भी हस्तलिखित ग्रन्थों का एक अच्छा बड़ा भण्डार है। यह शास्त्रभरडार नयामन्दिर और मंदिर संठका कूँ चाकं शास्त्र भडारों से भी कुछ अंशों में बढ़ा चढ़ा है। पंचायती मन्दिरमें पहले भट्टारककी गही रही है, इससे इस मन्दिर में भट्टारकीयसाहित्य अपेक्षाकृत अधिक संख्या में पाया जाता है- नवीन कथाओं, पूजाओं तथा उद्यापनादिसम्बन्धी पुस्तकोंकी अच्छी भरमार है। इस शास्त्र भण्डारकं प्रधान प्रबन्धक चौ० जग्गीमल जी जौहरी और ना० महावीरप्रसादजी ठेकंदार हैं, दोनों डी स्वभाव के बड़े सज्जन तथा धर्मात्मा हैं, परन्तु शास्त्रोंके विषय में समयकी गति विधि और उपयोगिता - अनुपयोगिता के तत्व से कुछ कम परिचित जान पड़ते हैं। इसीसे भगडारके ग्रन्थों सं यथेष्ट लाभ लेने वालोंको यहां उतनी सुविधा प्राप्त नहीं है जितनी कि वह नयामन्दिर अथवा संके क्रू चक्रं मन्दिर में प्राप्त है। इस मन्दिर में भी प्रन्थ-सूची पहले साधारण थी; साथ ही कितने ही ग्रन्थ यों ही अस्त-व्यस्त दशा में बंडलों में बँधे पड़े थे, जिनकी कोई सूची भी नहीं थी । हालमें नयामन्दिर की सूचीका अनुकरण करके यहां भी एक अच्छी सूची बनबाई गई है, जो दो रजिस्टरोंमें है- एक में प्राय: संस्कृतप्राकृत-अपभ्र ंश भाषाके ग्रंथोंकी और दूसरेमें प्राय: हिन्दी भाषाके ग्रंथों की सूची है। यह सूची भी यद्यपि बहुत कुछ अधूरी एवं त्रुटिपूर्ण है और इसमें ग्रंथोंकी अकारादि-क्रमसे कोई लिस्ट भी साथमें नहीं दी गई, जिससे किसी ग्रंथको एकदम मालूम करनेमें सुविधा होती; फिर भी पहलेसे बहुत बन गई है और इसके अनुसार अलमारियों में ग्रंथोंकी व्यवस्था होजानेसे उनके निकालने में कोई दिक्कत नहीं होती। इस सूची में यद्यपि ग्रंथ-प्रतियों की संख्याका कोई एकत्र जोड़ दिया हुआ नहीं है, फिर भी सब मिलाकर उनकी संख्या अनुमानतः ३००० (तीन हज़ार) के करीब जान पड़ती है। अनेक ग्रंथोंकी कई कई प्रतियां भी हैं, इससे ग्रंथसंख्या १०००-११०० से अधिक नहीं होगी। इस सूचीकी भी पेज-टु-पेज कापी करने के लिये बाबू पखालालजी अग्रवालने -: पहले मांग की थी; परन्तु प्रबन्धकोंकी ओरसे उस समय यही कहा गया कि सूची घर पर नहीं दी जा सकती, मंदिरमें बैठ कर ही उस परसे नोट लिये जासकते हैं अथवा कापी की आ सकती है। इससे समयकी अनुकूलता न देखकर बाबू पक्षालालजी कापी करनेकी अपनी इच्छाको पूरा न कर सके उन्हें यदि उस समय घर पर सूची देवी गई होती तो बहुत सम्भव था कि पहले इम भण्डारकी ही विस्तृत ग्रंथ-सूची अनेकान्तमें प्रकाशित होती । अस्त; दूसरे भण्डारोंकी ग्रन्थसूचियोंके निकल जानेका इतना प्रभाव जरूर पड़ा कि उन पन्नालालजीको घरपर सूखीके ले जानेकी स्वीकारता मिल गई, परन्तु इस बीच में वे अस्वस्थ हो गये और उनके आपरेशन की नौबत आई, जिससे वे सूचीकी कापीका काम न करसके ! T मैं चाहता था देहली भण्डारोंकी सूचीका सिलमिला बन्द न हो, और इसलिये जबमैं कुछ दिन हुए बाबू पन्नालाल जीसे मिलने देहली गया और उनकी ओरसे ग्रंथ-सूत्रीकी पुनः मांग की गई तो ला० महावीरप्रसादजी ठेकेदारने सिर्फ तीनचार रोजके लिये ही ग्रंथ-सूची उन्हें दी। इतने थोड़े समय में दो बड़े बड़े रजिस्टरोंकी कापी तो भला कैसे हो सकती थी ? पूरे नोट्सका लिया जाना भी सम्भव नहीं था, और मेरा ठहरना अधिक हो नहीं सकता था; इसलिये मैं असमंजस में पड़ गया। जैसे तैसे दिन-रात एक करके भाषाग्रंथों के रजिष्टर परसे कुछ नोट्स लिये गये । और इस काम में बाबू पन्नालाल जीने बिस्तर पर लेटे लेटे हिम्मत करके मुझे कितना ही सहयोग प्रदान किया, जिसके लिये वे भारी धन्यवादके पात्र हैं। अंत को भाषाग्रंथों का रजिस्टर सपुर्द करते हुए मैंने चौ० जग्गीमल जीसे कुछ दिनके लिये दूसरे रजिस्टरको सरसावा ले जानेकी इजाजत मांगी, जिसे उन्होंने परस्थितिकी गंभीरताको देखते हुए मंजूर किया। इस कृपाके लिये मैं आपका बहुत आभारी हूं। इसीके फलस्वरूप धाज यह संस्कृत प्राकृतादिके सिर्फ उन ग्रंथोंकी सूची पाठकोंके सामने रक्खी जा रही है जो नया मन्दिर आदिकी पूर्व प्रकाशित सूचियों में नहीं आए हैं। भाषा ग्रंथोंकी ऐसी सूची अगली किरणमें देनेका विचार है । - सम्पादक 'अनेकान्त' Page #532 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४] पंचायती मंदिर देहलीकेह० ग्रंथोंकी सूची प्रन्धकार-नाम ग्रन्थ-नाम भाषा पत्र संख्या सं. लिपिसं. : १६८३ १८८ प्रणथमी कथा । हरिश्चन्द्र अग्रवाल प्रा० (अपश) १५.६६ प्रणथमी लघुकथा पं० रइधू अनस्तमित संधि-कथा हरिश्चन्द्र अग्रवाल (१२१-१२७ अनंत चतुर्दशी कथा (वीरमन शिष्य) महेश संकृत पथ २६०२६२ भ० पचनन्दि अनंतनाथ पूजा । ब्र०शान्तिदाम ६सं. अनंतव्रत-उद्यापन भ० गुणचन्द्र अनंतव्रत कथा (मलयकर्तिशिष्य)गुणभद्रमुनि ११०-१२७ अनंतव्रत-पूजा श्रीभूषण मुनि अहंकार अक्षर-पूजा अलौकिकगणित । पं० शिवचन्द्र अवधूपरीक्षा (अनुप्रेक्षा) अवधू (अल्हू) । प्रा. पच अष्टान्हिका-उद्यापन (गजकीर्तिशिष्य) ज्ञानमागर , सं. पच अष्टान्हिका-मिद्धचक्रवनोद्यापन महीचन्द्रसूरि आकाश-पंचमी-कथा | गुणभद्रमुनि प्रा० (अपभ्रंश) ३८ से १३ प्रात्मसंबांधकाव्य X प्रा. पच २३ प्रादित्यवारकथा जमकित्ति (यशःकार्ति) प्रा० (अपभ्रश) १४०-१५५ मादित्यवार-व्रत-पूजा भ० देवेन्द्रकीर्ति । सं० पथ । १४ प्राप्तस्वरूपगाथा सटीक कुन्दकुन्दाचार्य, टी.x प्रा०प० सं०गद्य ३४-३८ पाराधनासार-टीकापं० ग्लचन्द्र सं० गय उड्डीशतंत्रखंड (अजैन) । ... । सं० पथ एकादश-प्रतिमा-विवरण मुनि कनकामर अपभ्रंश २८-३० ऋषभदेवस्तवनयमकयुन(श्व०) जिनकुशलसूरि सं० पच २९-३० ऋषिमंडल यंत्र पूजा भ० विद्याभूषणसूरि . ३०८-३२३ ऋषिमंडलस्तवन व पूजन भ०विश्वभूषण, जिनद.म मं० गय कक्षपुट (बौद्ध) सिद्ध नागार्जुन | मं० पच कर्मचूर व्रतधापनपूजा | भ० लक्ष्मीसन कर्म दहनपूजा | भ० सामकीर्ति । जिनचन्द्र मुनि २५५-२ कर्मप्रकृति-सटिप्पण । नमिचन्द्र सि०प०टि.... प्रा०सं० से २१ कलिकुंड पूजा सं. पच (बृहन्) । भ० विद्याभूषण ३१२१३५ कल्याणमंदिर-वृत्ति सं. गय कल्याणमंदिर-व्याख्या भ० हर्षकीर्तिसूरि कूट मुद्गर, सटिप्पण माधव वैद्य (अजैन) !!!!!!!!!::::::::: १२२ ६७ १५ १८१३ १७६६ १९०६ Page #533 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६६ अनेकान्त [किरण ग्रन्थ-नाम ग्रन्थकार-नाम भाषा पत्र संख्या रचनासं लिपिसं. क्रियासार ११३८ १७६३ १७२१ भद्रबाहु प्रा. पच क्षेत्रपालस्तवन गंगकवि संस्कृत । क्षेत्रसमासप्रकरण (श्वे०) रत्नशखरसूगि प्रा० पद्य गणधरवलययंत्रपूजा राजकीर्तिसूरि सं. १४६-१५० गत्यागतिदंडकप्रकरण धवलचन्द्र मुनि गुणस्थान प्रकरण (श्वे०) | ग्लशेम्वर सूरि सं. गद्य ८ गुर्वावलि भ० सोमसन ., । ११ से ३० गोम्मटमार-टीका अभयचन्द्र त्रैविद्य सं० गद्य चतुर्विशतिजिनसमुच्यपूजा माघनन्दि ब्रती सं० पद्य १०७-१०१ " " स्तवन देवनन्दी चन्दनषष्ठी कथा । गुणभद्रमुनि । प्रा० (अपभ्रश) ७८-३ चन्दनषष्ठीव्रत कथा छत्रसन । सं० पद्य लाखू पंडित प्रा. पद्य ८१-८५ चारित्रपूजा सं० गद्य २७ चांद्रायण कथा | गुणभद्रमुनि प्रा० ४३ ४६ चिंतामणिपार्श्वनाथम्तवन- । विद्याभूषण सं० पद्य ३७ मे ४६ चोरपंचाशिका (अजैन) पं०वीरभक्त जम्बूस्वामिचरित्रसटिप्पणवे। ... प्रा. पद्य जल्लिग-अनुप्रेक्षा कवि जल्लिग १४-१५५ जिनगुणवतोद्यापन सुमतमागर सं० पद्य ७६-१०७ जिनरात्रि कथा | (गुणकार्निशिष्य) यशःकीर्ति प्रा० (अपभ्रंश) ५१-७७ जिनस्तवन पात्रकेशरी सं० पद्य २२१-२२३ जिनेन्द्रदेवशास्त्रगुरुपूजा भ० विश्वसन २७७-२७८ ज्येष्ठ-जिनवर-पूजा प्र० कृष्णदास ज्यष्टजिनवरनतोद्यापन श्रीभूषणकवि ढाढसी गाथा प्रा० पद्य तत्वत्रयप्रकाशनी (झानार्ण०) अतसागर . गद्य तत्त्वधर्मोपदंश (वृषभ च०) भ० सकलकीर्ति सं० पद्य तस्वप्रदीपजातक ।पं० श्रीपति (अजैन) तस्वभावना अमितगति तत्स्वार्थ टीका प्रभाचन्द्र सं. गद्य R८३ तीन (त्रिकाल) चौवीसी पूजन भ० विद्याभूषण मं० पद्य १३११३६ तीस चौबीसी पूजा भ० शुभचन्द्र सं० ८६ पं० भावशम सं० पद्य १५८से१७॥ त्रिलोकसारपूजा-पाठ सुमतिसागर सं० पद्य । २५१ १७६० १६७४ १८११ ११३८ १७८४ Page #534 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] पंचयती मंदिर देहलीके कुछह लि० ग्रंथोंकी सूची ४६७ प्रन्थ-नाम प्रग्यकार-नाम भाषा म संख्या रचनासं० जिपिसं. . . । १७३३ १३.. १९५४ : त्रिषष्ठि शलाकापुरुषचरित्र , हेमचन्द्राचार्य सं० पद्य त्रेपनक्रिया उद्यापन सं. १ वेपनक्रिया उद्यापन पूजा पं०जिनदास सं० पद्य १५से 15 वेपनक्रिया व्रत पूजा भदेवेन्द्रकीर्ति अग्रवाल दशलक्षण उद्यापन भ० विश्वभूषण २८५३. | पं० नक्षत्रदेवात्मजपं०भावशर्म प्रा०पद्य,सगद्य २५ से ७३ दशलक्षण कथा (मलयकीर्तिशिष्य)गुणभद्रमुनि प्रा० (अपनश) .15 दशलक्षण जयमाला टिप्पण पं० भावशर्म प्रा०पद्य टी०गद्य दशलक्षण व्रताधापन पूजा भ० सुमतिसागर सं० पद्य । १२ दुधारसनतोद्यापन श्रीधर्ममुनि मे. दुधारसीकथा भ० विनयचन्द्र मा० (अपभ्रश)| ७. द्रव्य संग्रह टिप्पण । सं० गद्य । टि० वखतावरसिंह अग्रवाल ' द्वादश अनुप्रक्षा पं० योगदेव कुंभनगर धन्यकुमार चरित्र गुणभद्र सं. धन्यकुमार चरित्र प्र०नमिदत्त धर्मचक्रपूजा यशोनन्दी सूर सं० पद्य २५१से२७० धर्मचक्रपूजा रणमल्ल साधु प्रा. पद्य धर्मरत्नाकर जयसनाचाय सं. धर्मरुचिगीत अधर्मांच प्रा० पद्य ३.से. नन्दीश्वर पंक्ति पूजा कमककीर्ति सं० पद्य नयचक्र टीका शाह हेमराज सं० गद्य नमकसप्ताग दुधारसी कथा (मलयकीनिशिष्य)गुणभद्रमुनि प्रा० (अपभ्रश से ८६ नवकार पैंतीस व्रत पूजा कनककीर्ति सं. पद्य नवकार पैंतीस पूजा भ० सुमतिसागर नवग्रह स्तोत्र (मजैन) व्यासऋषि निर्जरपंचमी कथा (उदयचंद्रशिष्य) विनयचंद्र प्रा० (अपभृश) ५७ से ३३ निर्दुम्बी सप्तमी कथा 1(मलयकीर्निशिष्य)गुणभद्रमुनि निर्वाणपूजा उदयकीर्तिमुनि । • पद्य नीतिवाक्यामृत सोमदेव सूरि | सं० गद्य नीतिसार इन्द्रनन्दि सं० पद्य नामिनाथ चरित्र लखमदेव प्रा.(अपनश) नेमिनाथ चरित्र (महाकाव्य) | महाकवि झांझण सं. पद्य नेमिनाथदंडक स्तुति जिनसेनाप नेमिनाथ यक्षरी स्तोत्र सटीक पं०शालि (बागमक) | सं० पय गद्य CO. ६ से . . ११७ १EE . . . Page #535 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ४६८ भनेकान्त. [वर्ष ४ - भाषा ९३ .... अन्ध-माम ग्रन्थकार-नाम पत्र संख्या रचना स० लिपिसं. नमिनिर्वाणकाम्य-पंजिका मू० वाग्भट, पंजि० ज्ञानभूषण सं० नमिनाथस्तवन सटिप्पण(श्वे०) कमलविजयसूरि सं० पद्य, गद्य । ५७ पट्टावली सं० पद्य पल्यव्रत-उद्यापन भ० शुभचन्द्र ___ सं० १८९२ पंचकल्याणकपा चंद्रकीर्तिशिष्य ब्रज्ञानसागर सं० पद्य १९०२ पंचकल्याणकपूजा सुधासागर ३९७३ पंचकल्याणकपूजा भ० चंद्रकीर्ति १ से ३८ १९१० प्रभाचन्द्र २ से २४ १९०२ पंचक्षेत्रपालपूजा भ० मोमसेन ३५ सं५९ पंचनमस्कार सोत्र उमास्वामी २.९८२१० पंचपरमेष्ठिपूजा जिनदास कवि १६ से १९ पंचपरमेष्ठिपूजा यशानन्दी भ० धर्मभूषण १७८ १७६४ भ० शुभचन्द्र १८ ३९ पंचस्तात्र सटीक पं०शिवचंद्र सं० पद्य,गद्य ५७ पंचसंग्रह सटीक (मूलसहित) अमितगति, टी० सुमतिकीर्ति , २०१ टी १६२० १७११ पाण्डवपुगण जमकित्ती (यश-कीर्ति ) प्रा०(अपभ्रंश) २४७ ... । १५९४ पाश्वनाथस्तोत्र अभयदेव मुनि । प्रा० पद्य १६ पाश्वनाथ(लक्ष्मी)स्तोत्र सटीक पग्रनन्दि मुनि । सं० पद्य,गद्य २८१२२८३ पार्श्वनाथ-महिम्नस्तोत्र रघुनाथ मुनि । सं० पद्य १९ १९५४ पाषषइकथा गुणभद्र मुनि प्रा०(अपभ्रंश) ३२ से ३८ श्रीशेखर । प्रा०३८५८३९३ पीयूषवष श्रावकाचार ब्र० नेमिदत्त सं० ३० १६७६ पिंगलप्रदीप सटीक । लक्ष्मीनाथ मह सं० गद्य,पद्य ३९४२४६५ १६९९ पुरंदविधान कथा प्रा०(अपभ्रंश) ५६२५८ ! पुष्पमाला प्रकरण (श्वे०) प्रा० पद्य ७०सं१२८ । १५५८ पुष्पांजलि-उद्यापन गंगदेन पुष्पांजलिकथा मलयकीर्तिशिष्य गुणभद्रमुनि प्रा०(अपभ्रंश) १६७१०४ प्रतिष्ठातिलक पं० नरेन्द्रसन सं० पद्य १९२९ प्रतिष्ठापाठ (जिनयज्ञकल्प) 'पं० श्राशाधर सं० १९९५ प्रतिष्टाविधानसंग्रह सं० पद्य प्रतिष्ठासारसंग्रह वसुनन्दी प्रायश्चित्त विधि अकलंक सं० पद्य | ३२२३५ वृहत्सामुद्रिक मा० टी० (जैन) ... सं० पद्य,हिंदी यह सिद्धचक्रपूजा पं०जिनदास प्रा०पथ । ४४ । १५८४ .... पिंगल सं० Page #536 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ६] ग्रन्थ-नाम भक्तामहवन पूजा भक्तामर स्तवन वृत्ति भक्तामर स्तवन वृत्ति मंत्रकथा भर्तृहरिशतक सटीक पंचायती मंदिर देहलीके ह०लि० ग्रंथोंकी सूची भावसंग्रह भावसंग्रह भूपालचोवीसी टीका भैरव पद्मावतीकल्प सटिप्पण भ्रमणमारिणी (०) मउड सप्तमी कथा ( कहा) मरणकैडिका महाअभिषेक विधि महापुराण पंजिका मातृकानिघंटु मार्थ (जैन) मागेण श्राश्रवत्रिभंगी मुक्तावलित पूजा मुहूर्तसिद्धि (भजैन) मूलाचारमूल मौनवत कथा यतिनिर्वचन ( उपासकाचार ) यशोधर चरित्र यशोधर चरित्र पंजिका योगिचर्या योगीन्द्रपूजा रत्नत्रय उद्यापन रत्नत्रयकथा रत्नत्रय कथा 99 रत्नत्रयपूजा रत्नत्रयविधि रवितमथापन रविव्रतकथा राजयहि रुक्मणिचरित्र 1 ग्रन्थकार-नाम श्री भूषण शिष्य भ० ज्ञानसागर व्र० रायमल्ल भ० रतनचन्द्र पं० धनसार जैन पाठक श्रुतमुनि विमलमेनशिष्य देवसेन भ० चन्द्रकीर्ति मल्लिषेण पं० नरेन्द्रसेन पं० महीदास अतमुनि ब्र० जीवन्धर पं० महादेव ट्टचार्य गुणचंद्रसूरि वादिराज देवसूरि ज्ञानचन्द्र पद्मनन्दि मुनि पं० नरेन्द्रसेन रत्नकी त भ० लक्ष्मीसेन नेमकंद्र कवि (माथुर संघ ) भाषा 1 कवि मस् | पं० छत्रसेन सं० पच सं० गद्य ८ २ से ४४ १३५ 99 मलय कीर्तिशिष्य गुणभद्रमुनि प्रा० (अपभ्रंश) ३० से १५ ( अन्तिम पत्र नहीं) प्रा० पच १० सं० पद्म १३ सं० गद्य १७४ सं० पद्य, गद्य V 93 सं० पद्य, प्रा० पद्म " सं० पद्य, गद्य सं० पद्म गय प्रा० पद्म सं० पद्म सं० प्रा० पद्म सं० पद्म " 39 सं० .... प्रा० पद्म सं० पत्र ४६६ पत्र संख्या रचनासं० लिपिसं० पं० साधारण श्री केशवसेन श्रीमलय कीर्ति प्रा० पद्म ६२मे६४ मलकीर्तिशिष्य गुणभद्रमुनि प्रा० (अपभ्रंश) १०४-१११ सं० पद्म ८४६६ सं० गद्य संस्कृ प्रा० प्रा० पद्म सं० पद्म ६ ५५ २६ ८८ ४८ ८ से ४५ | २७२-२७७ = १ से १ ६७-६६ २०५२ १२ ૪૪ मे १३० १४५ ५८ ३ ६ मे ११ १२६१६६ ३२३५ १६६७ वृ. १६६७ **** १८८४ १ १३२६ १८८१ १५०३ १८२३ 1+34 १८३२ १८६२ Page #537 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [किरण गुणभद्रमुनि १९६७ २६ प्रन्थ-नाम ग्रन्धकार-नाम भाषा पत्र संख्या रबमास लिपिसं० रूपिणीविधानकथा पं०छत्रसन सं० पद्य । ७ मे १० रोहिणीद्वादशीथाक प्रा० (अपभ्रश) २६३१ १६०२ रोहिणीबतचापन कंशवसेनाचार्य संस्कृत लधिविधानकथा मलयातिशिष्य गुणभद्रमुनि प्रा० (अपभ्रश)| १४१२४७ लंघनपध्यनिर्णय पं०दीपचन्द वाचक मं० गय पच २१ । १८६८ वरांगचरित्र भ० वर्द्धमान __संस्कृत ७३ विक्रमचरित्र (श्वे०) अभयचन्द्रशिष्य गमचन्द्रसूरि १७३२ विचारषट् त्रिंशिका गजसार साधु प्रा० पद्य विमानशुद्धिविधान भ० चन्द्रकीर्ति सं० पद्य बिग्दावलि भ०छत्रसन ३० से ३४ विंशतितीर्थकर पूजा भ० नरेन्द्रकीर्ति १०७-१० विश्वतत्त्वप्रकाश भावसेन विद्यदेव सं० गद्य वृत्तसार (अन्तिमपत्र नहीं) गइधू प्रा० (अपभ्रंश) ६४ व्रतकथाकोष भ० श्रुतसागरसूरि । मं० पथ ललितकीर्ति १८२७ शांतिक पूजाविधान पं० धर्मदेव ११२६ शांतिक विधि ६० आशाधर है.--१३१ श्रवणद्वादशीकथा भ० गुणभद्र प्रा. पथ ४५ ४८ (चंद्रभूषणशिष्य) अभू सं० पद्य श्रावकप्रतिक्रमण सूत्र प्राचाय विजयसिंह श्रीपालचरित्र (श्वे०) रत्नशेखगचार्य प्रा. पद्य श्रीवीरस्तवनसटीक (यम०) भ० जिनचंद्र प्रा० अपभ्रंश श्रुतबोधटीका (मूलसहित) पं० मनोहरदास सं० पद्य गद्य श्रतस्कंध गाथा हेमचन्द प्रा० पद्य अतस्कंधपूजा भ० त्रिभुवनकीर्ति सं० पद्य २५-२८ षट् पंचासिका (प्रजैन) भट्टोत्पलाचार्य पण्णवती क्षेत्रपालपूजा भ० सोमसेन २५-३ पोडशकारण प्रतोद्यापन म० सुमतिसागर केशवसेन सरि, रामनगर भ०ज्ञानसागर पोडशभावनाभारती अभयनन्दी ०४-E सत्तात्रिमंगी कनकनंदी २६ १०२५ सप्तपरमस्थान पूजा मुनि विद्यानंदो भ० जगदूषण समयसार टिप्पण (मूलसहित) सं० गद्य १९६६ __ [शेष बंश पृष्ठ १२५ पर पदिये ] १७३३ १७३३ ४४-५० " प्रा० ६.-६३ Page #538 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रतिमा - लेख -संग्रह और उसका महत्व ( लेखक - मुनि श्री कान्तिसागर ) [गत किरण से श्रागे ] अब अपना दिगम्बर- प्रतिमा- लेखोंका संग्रह नीचे प्रकाशित किया जाता है । लेखोंमें भाषा तथा लिपिमन्बन्धी जो अशुद्धियाँ जान पड़ती हैं उनका सुधार न करके उन्हें ज्योंका त्यों रखा गया है— ब्रेकटो वाला पाठ अपना है: (१) श्रीमूलसंघे भट्टारक श्रीभूवनकी० यात १२२४... (मेरी डायरीले) (२) संवत् १२६२ माघ सुदि ५ सोमे श्रीमूलसंघे पिता मडसाद देव पतिमहि वदमा श्रीयार्थं श्रे० घूघलेत (न) श्री शांतिनाथ त्रिबं प्रति.... (मेरी डायरीले) (३) संवत् १३३४ बैसाख सुदि १३ शुभदिने मूलसंघे पोन......सतिल भार्या 'सूहव पुभ (त्र) कंडला..... (नांदगांव जिला अमरावती) (४) संवत् १३८३ वर्षे माघ वदि ६ सोमे रत्नत्रयस्य प्रतिष्ठा... त्रिभूवनकीर्ति गुरुवद्वेषाद नित्यं प्रणमंति..... (प्राचीन दि० जैन मंदिर बालापुर) 7 (२) संवत् १४३२ वर्षे बैसाख वदि ५ स० श्रीकाष्टासंघ हुंबद ज्ञाति श्रे० देव भा० मोग्वल जपरकेन श्री पार्श्वनाथ ......... बिंबं करापितं भट्टारक श्रीमल यकीर्तिभ: ... (मेरी डायरीले) * गत किरण पृ० ३३० के दूसरे कालममें जो 'मेरे गुरुवर्य उपाध्याय सुखसागर जीने' ऐसा छपा है वह गलत है, उसके स्थानपर 'उपाध्याय शान्तिलाल छगनलाल एम. ए. एल एल. बी. ने ऐसा बना लेना चाहिये । (६) संवत् १४७२ वर्षे फाल्गुन वदि १ गु० श्रीमूलसंघे बलाचा (बलात्कारगणे) हुंबद गया ( ज्ञाति ? ) भट्टारक पद्म [सं० शिष्य नेमिचंद्रोपदेशात् श्रे० महवासी भा० मुहणदे सु० नरसिंह भा० चापु सु० कारसी चित्तोड़ नगरे * (मेरी डायरीले) (७) संवत् १४८० वर्षे माघ वदि ५ गुरौ श्रीमूलसंघे नंदी संघे सरस्वती गच्छे कुंदकुंदाचार्य संतामे भट्टारक श्री पद्मनंदी तत्पट्टे श्रीपदेशात् हुंबद ज्ञाति मामा भा० हरिल सु० तरसा भा० सुहव सु० पूरा भातृ अर्जन भा० मही पद्मप्रभ प्रतिमा करापिता गोत्र खहरत: .... (मेरी डायरीले) (८) संवत् १४६३ मूलसंघे सा० घोडनारीय लखमा का फरम | (मेरी डायरीले) (३) संवत् १५०४ काष्ठासंघ नित्यं प्रणमंति..... (दि० जैन मंदिर नांदगांव) * राजपूतानेके इतिहास में चित्तौड़ का स्थान अत्यन्त महत्त्व - पूर्ण है। पूर्व काल में मेवाड़ की राजधानी चित्तोड़ थी, वहाँ पर कारंजा निवासी एक श्रावकने संवत् १५४१ में जैन कीर्तिस्तंभ बनवाया था, ऐसा मेरे संग्रहके एक लेख परसे पता चलता है। यह लेख कारंजाके इतिहास में बड़े ही महत्वका है। कारंजेका एक भी शिला व प्रतिमा लेख अद्यावधि उपलब्ध नहीं है ऐसा भास्कर (चारा ) पत्रके दो संपादकोंके दो पत्रोंसे ज्ञात होता है। जैन इतिहास की दृष्टिमें चित्तौड़का स्थान बहुत ऊंचा है। विशेषके लिये फोर्बस गुजराती सभा बंबईका मुख्य पत्र वर्ष ५ अंक ४ में मेरा लेख देखिये । Page #539 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ भनेकान्त [वर्ष ४ (१०) संवत् ११०५ वर्षे श्री मूलसंधै भट्टारक पनि नित्यं प्रणमति (सदी मूर्ति) (उपर्युक्त मंदिरमें) देवाः शिष्य देवेन्द्रकीर्ति तरिशष्याः विद्यानं दिशिष्य ब्रह्म- (१६) संवत् १५२२ सर्वरि नाम सं० मू० सं० बैसाख धर्मपाल उपदेशात् पल्लीवाल ज्ञातीब स० राना भार्या रानी सुदि १३ दिने कुन्द २ भ० धर्म भूषण श्री देवेन्द्र प्रणमंति सुत पारिस्वा० भा. हर्ष प्रणमंति... (खड़ी मूर्नि)। (उपर्युक मंदिरमें) (दि. जैन मंदिर सिंदी) (१७) संवत् ११२७ माघ बदि ५ श्रा मूलसंधे भ० (११) संवत् ११५ वर्षे मूलसंधे सेन गणे भ०माणिक __......."मिहकीर्ति नित्यं प्रणमंति (नांदवांग, अमरावती) सेन पट्टे भ० नेमसेन उपदेशात गुजर पालीवाल' " (१८) संवत् १५३१ बैसाख सुदि १० हीरालाल त (परखीवाल जैन मंदिर कोडाली, नागपुर) " "भुवनकीर्ति ......."सौर " ...... सीतल जिन (नित्यं) (१२) संवत १९१७ वर्षे पोष वनि ५ रवौ श्रीमूलसंघे प्रणमंति (मेरी डायरीम) भ० ज्ञानभूषणस्तस्पट्ट भ. विजयकीर्तिः गुरुपदेशात हुं० (१६) संवत् १५३२ वर्षे बैसाख सुनि ५ रवी काष्ठा ० रामा भा० रमकू सु. श्रे. पाधा भा० सरीयादे सु- संघे नंदितटगच्छे भटारक श्री भीमसेन तत्पद सोमकीर्नि भीमा भा० धर्मादे भा. भोजा भा० चंगी भ्रा० फला भा० प्राचार्य श्री वीरसंण सूरि युक्तः प्रतिष्टितं नारसिंह शातिय माणिदे मा० नारद भा० नारंगदे सु. हरिया श्री मल्लिजिनं बोरवेक गोत्रे चापा भार्या परगू पुत्र केशव भार्या वाल्ही पुत्र (नित्यं) प्रणमति । बुद्ध गोत्रे । राघव भडीया रावन भार्या धीराई शीतलनाथ विंबं प्रणमंति (दि. शैतवाल जै० म० अरबी, वर्धा) (मेरी डायरीमे) (१३) संवत् १११८ वर्षे श्रा० मूलसंधे प्राचार्य श्री (२०) संवत १५३५ श्री मूलसंघे भ० श्री भुवनकीर्नि -विद्यानंदि गुरुपोशात सिंहपुराजाना श्रे० गाईप्रति पुत्र स० भ० श्री ज्ञान भूषणोपदेशात (रत्नत्रय है)। इंगर भा० रांगाई निस्यं प्रणमंति (खड़े चौमुम्बी) (बजारगांव जे.दि.. बालापुर) (दि. जै० म० बालापुर, भाकोला) (२१) संवत् १५३५ प्रमादि संवत्सरे फाल्गुण सुदि ५ (१५) संवत् १५१६ वर्षे प्लवंग नाम संवनमरे जेष्ट श्रीमूलसंधे बलाकारगणे कुन्दःचा: म० श्री धर्मचन्द्र (?) सुदि ५ (पंचमि) तिथी पटिका ६० पुष्य मात्र ३७६ वज धर्मभूषण देवन्द्रकीर्ति तत्प? कुमुदचन्द्रोपदेशात शेतवाल """"घटि १६ मूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे गोत्रे (१) ज्ञातीय रत्नसाह समरामाह नित्यं प्रणमंति कुम्बकुम्बाम्बायतत्पर भ. श्रीदेवेन्द्रकीर्ति वालपट्ट भ० (प्राचीन जै० दि० मं० बानापुर) श्रीध धर्मचन्द्रदेवातपट्ट श्री अमरकीर्ति तपट्टे भट्टारक श्री (२२) संवत् १५४१ वर्षे बैशाख बदि । श्री मूलसंधे भूवनकीर्तिस्तत्प४ श्री विणश्रेण (यह लेख अपूर्ण मालूम श्री त्रिभुवनकीर्तिदेवानामचतु..." शांत मौतु भार्या रानी होता है)। (शैतवाल दि. ० म० प्रारबी) पुत्र वैरवा नित्यं प्रणमंति (उपर्युक्त मन्दिरमें) (१५) संवत् १५२२ सर्वरि नाम सं० मू० सं० बैसाख “ (२३) संवत् ११४२ वर्षे जेष्ठ सुदि ८ शनोः श्री मूलसुदि १३ दिने श्रीमू. सरस्व० बसा. कुन्दः २० भ धर्मा संघे भ० श्री जिमचन्द्र सुदममे (?) भट्टारक सकलाकीर्ति (धर्म ?) चन्द्रस्त. भ. भी धर्मभूषण भ. श्री देवेन्द्रकीर्ति स्तत्प भ० श्री भुवनकीर्तिस्तत्पटे मटारक श्री ज्ञानभूषण स्तत्पटटे भ. कुमुवचन्द्र भ. श्री देवेन्द्र कीर्ति उ० सांवसराज गुरुपदेशात् जांगडा पोरवाद ज्ञातिय स. बाजु मानेगु सु. Page #540 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] प्रतिमा-लेख-संग्रह और उसका महत्व गोकु [M] भ्राता मा. समपर भार्या जमना सुत पईदास मूर्ति है जो १२वीं शतानिकी होनी चाहिए ऐसा अनुमान एते सर्वे पद्मप्रभ नित्वं प्रवमति (मेरी हापरीसे) किया जाता है।) (२४) संवत् १५४४ वर्षे वैसाख सुदि ३ सोमे श्रीमूख- (३०) संवत ११८६ फागुण सुद १०वीरा"प्रणमंति संघे महारक श्री विद्यानंदि भ. श्री भुवनकीर्ति भ. श्री (मेरी डायरीमे) ज्ञानभूषण गुरूपदेशात हूं. सा. चांदा भा० रेमाई""भा० (३१) संवत् ११३७ श्री मूलसंधे सेनगणे भट्टारक मेनाइ सुत पचासी पूनसी भान जिनदास भा. माणिकाई मोममेन उपदेश कासवाडे संघवी वासवटी ज्ञातीय जईन पने नित्यं प्रणमंति (मेरी डायरीमे) सरस्व......"वायमे.."पंच पर मंति प्रतिमा नित्यं प्रणमंति (२५) संवत १५४५ नेनसुख परमसुख परवार । (शैतवान जै० म० भारवी) (दि. जै० म० सिवनी) (३२) संवत ११. मूलसंधे ब्रह्म जिणदास जेवरा (२६) संवत १५४८ वर्षे वैसाग्व सुदि ३ श्रीमूलमंधे (?) ज्ञानीय समो० भार्था इतनाई पुत्री नित्यं प्रणमंति भठारक श्री राजेनचन्द्र देव जीवराज नित्यं प्रणमंति (मेरी डायरीसे) (दि. ० मं० मिवनी) (३३) संवत् १६०० वर्षे माष बदि सोमे श्री मूब " (२७) संवत १५६० साव सुदि २ बुधे श्रीमलसंघे संधे सरस्वनीगच्छे बलाकारगणे श्री कुंतकुंदचार्यन्वये भ. सरस्वतीगच्छे भट्टारक सकलकीर्तिस्त०म० भुवनकीर्ति स्त. डा० नंविदेवास्तपट्ट भट्टारक श्री देवेन्द्र भ. श्री मस्तिभ० ज्ञानभूषणस्त० भ० विजयकीर्ति गुरूपदेशात् है. जातीय भूषण देवास्तपट्टे भ० लक्ष्मीचन्द्र देवा तत्प? भ० वीर श्रेष्ठी सालिंग भार्या ताक म.पर्वत भा०ढमक द्वितीय चन्द्र देवाम्नापट्टे भ० ज्ञानभूषण पर ज्ञातीय भावजा भार्या पनाह भ्रातृ माइण सुन जिणदास भा. याजबाई एते भा० बाई नयो (:) पोमा सा० नित्यं प्रणमंति श्री शातिनाम निम्यं मोरेर प्रतिष्ठितं प्रादिनाथ चैत्यालय (प्राचीन नि जै० म० बालापुर) (दि. जै० म० बालापुर भाकोला) (३४) संवत १६ माघ सुनि ६ मूलसंधे . श्री - (२८) संवत् १९६१ वर्षे चैत्र बनि ८ शुक्रे मूलसंधे हमारतपर्ट ब्रह्मा राजपासोपदेशात् पहातो जानः.... भ० ज्ञानभूषण म० भ० विजयकीर्ति स्त० भ० विजय कीर्ति भार्या जबाइ नन पुत्री बाई चांद प्रवमंति गुरूपदेशात् हकप महिला भार्या पतयोःसत भोमा भार्या (नि.. मं. मांदगांव) जादीकि एत श्री धर्मनाथ तिर्थकर नित्यं प्रणमंति ___ (३५) संवत १६२२ वैवाश सुदि ३ मोमे श्री कमला- ' (मेरी डायरीमे) सार्यान्वये भट्टारक श्री सकसकीर्ति देवास्तपट्टे भट्टारक श्री __ (२१) संवत् ११७६ वर्षे जैनाम संवत्सरे मार्गशीर्ष सु० भुवनकीनि देवास्तस्पट्टे ज्ञानभूषण देवास्तस्पट्टे भट्टारक १० श्री मूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलात्कारगणे श्री कुन्नकुन्द विजयकीर्ति देवास्तत्पदं शुभचन्द्रदेवास्ताप? भ० श्री चार्यान्वयेन श्री धर्मचन्द्रा भ० श्री धर्मभूषखोपदेशात नेवा सुमिनिकी निगुरुपरेशात होमा ज्ञातीय गां (गांधी) रामा ज्ञानीय महिया गोत्रे मागणसा सु.तुमा पते पोडश कारण मा. वीरा सु.गा. सांता भा० मरीचा सुगा० भरवास यंत्र नित्यं प्रणमंति (मेरी डायरीमे) भा. सोभागदे माता वीरदाम भा. कमहादे" ....... नित्यं (यह प्रतिम महा अवस्थित वहां एक और प्राचीन प्रणमंति (मेरी डायरी) Page #541 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष - (३६) संवत् १६३६ वर्षे फागुन वदि ७........ में श्री सा० सारडा पुत्र देवा नित्यं प्रणमंति (1) मूलसंधे सरस्वती गच्छे प्रभाचन्द्र......... श्री धर्मचन्द्र श्री (प्राचीन जैन दि. मंदिर बालापुर) ललितकीति भ. चन्द्रकीति.... (४२) संवत् १६६५ वर्षे माघ सुदि १० शुक्रे श्री कष्ठा (जै० म० नांदगांव, अमरावती) संघे भ० श्री ५ भूषण प्रतिष्टितं वीर्यचारित्र यत्रं नित्यं (३७) संवत् १६४१ वर्षे फागुण वदि ७ बुधे श्रीमूल प्रणमंति () (दि० जै० म० नांदगाव) संघेन....."सरस्वतीगच्छे श्री प्रभाचन्द्र......श्री धर्मचन्द्र (४३) संवत् १६८१ व० फा० सु० २ वै० काटासंघे देवा श्री ललितकीर्ति भट्टारक श्री चन्द्रकीति.... भ० चन्द्रकीर्तिसंगपराग्यातिय स० सजण भा० सजणादे दिनांदगांव सु. ३ संवजी स.."स० श्रावृयेतत् कुटुम्ब पद्मावती नागर गोत्रे प्रणमंति... (जै० म० बजारगांव नागपुर) (३८) संवत् १६५२ वर्षे माघ वदि ५ रवी श्रीमूलसंधे (४४) संवत् १६११ विरोधी नाम संवत्सरे रवि....... सरस्वतीगच्छे बलाकारगणे श्री ककृदाचार्यान्वये भट्टारक श्री (पद्मावतीदेवीके मस्तक पर पार्श्वनाथ भगवानकी मूर्ति अवकलकीर्तिदेवास्ताप? भ. श्री भुवनकीनिदेवास्तत्प?..... स्थित है, मूर्ति बड़ी सुन्दर है)। नित्यं प्रयमंति (1) (दि. जैन मं० बालापुर) (दि. जै० म० बजारवाला, मिंदी) (३६) संवत् १६५३ वर्षे बैसाख सुदि १ मूलसंधे (४५) संवत १६१२ मिति ११ मूलसंघे श्री धर्मचन्दा बलास्कारगणे. भट्टारक पनाकीर्ति विद्याभूषण हेमकीर्ति प्रति.... (उपर्युक्म मंदिरमें) पदेशात........(षोडस करण यंत्र) (४६) संवत् १६६६ मूलसंधे बलात्कारगणे. (जैन दि० मंदिर सिंदी) (मेरी डायरीस) (५०) संवत् १६६३ वर्षे वैसाख वदि चतुर्थि गुरौ श्री मूलसंधे सरस्वती ( गच्छे ) बलात्कारगण मौर्यान्वयं गुप्ति (४७) शाके १५६१ सर्वत जेष्ठ लज्ञ सुधौ तिलक कुर्यात श्री मूलसंघे बलाकारगणे सरस्वती गच्छे कुन्दकुन्दागुप्ताचार्य श्री भववाहू श्री जि-बद्धनाचार्य श्री भद्रबाहू जी चार्यसन्ताने न्यवये भ. श्री भूषण तत्प भ. देवेन्द्रकीर्ति यशोभद्राचार्य कुन्दकुन्दाचार्य श्री उमाश्वाति देवा श्री पननंदिदेव श्री देवेन्द्रकीर्ति देव श्री विद्यानंदि देवा श्री मल्लिभूषण तत्पट्टे भ. कुमुदचन्द्र तत्पढ़े भ. श्री धर्मचन्द्र तदाम्नाय धर्माश्चार्य पासकीर्ति तदुपदेशात साहितवाल ज्ञातीय रनेक देव श्री लखमीचन्द्र देव अभयचन्द्र देव अभयनंदि देव श्री सेठ..."पुत्र..."नित्य प्रणमंति (1) अभिनवरदेव श्री संघवी सुमितिसागरोपदेशात श्री. (दि. जै० म० बालापुर) (बालापुर जैन मंदिर) (४८) शाके १५७२ वर्षे मार्गशिर वदि - शुक्र श्री (४१) संवत् १६६४ वर्षे जेष्ठ वदि ३ सोमवासरे मोजा- मूलसंघे भी धर्मचन्द्र स्तपट्टे भ.धर्मभूषण गुरूपदेशात बाद मध्ये श्री मानिसंघ जी राज्ये श्री मूलसंघे भ० देवेन्द्र गांगरडा ज्ञातीय सं जेब सेठी (?) भा० पीलाई तयोः पुत्रा कीर्ति तमनाय श्री संडेल (खंडेल) वाल मयोशनान प्रतिष्ठा सं० (संश्वी) सक सेठ भा० मापाई सं० दस सेठ नेम सेठ कराई बाघर सादरि मध्ये पाटणी गोत्रे साह हूंगा तत्पुत्र एजे (ते) नित्यं प्रणमंति(।) (दि० जै० म० बालापुर) नेमा पु० मा० सदा तत पुत्र दामोदर त्रिपूरण...."मेवत (४) शाके १५७६ खरनाम संवत्सरे फालगुण मासे Page #542 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] प्रतिमा-लेग्व-संग्रह और उसका महत्व शुक्र पर पंचम्बा निलकवान श्री मूल संधे सरस्वतीगण्छ सरस्वतीगछे बलाकारगणे भ० श्री विशालकीर्तिदेवास्तपढे बलाकारगले कुनकुनाचार्यान्वयं भ० श्री धर्मचन्द्रस्तपट्टे भ. पनकीर्तिगुरुपदेशात पारस संठ भार्या पसाई पुत्र मसेठ भ० धर्मभूषलस्तदाम्नाये महारक प्रजितकीनिपरेशात जैन भार्या रस्लाई पुत्र सक सेठ पने गममे भारी ज्ञातीय पलीवती शाति कमकांतुकमेटी चताह मेठी कुटुम्ब सहीसेना नित्यं परवार (दि. ३० म. नवगांव) प्रथमंति (1) (प्राचीन जै० म० गजापुर) (१७) शाके १६१५ श्री मूलसंधे...."संबरे चैत्र (१०) शाके १५७७ बैषाख सुदि । शुक्र मूलसंधे वदि । श्री कनकदाम्बये प्रतिष्ठितम काहासंधे। मरस्वती गच्छे बलात्कारग कुनकुन्दाम्बवे तत्पढ़े भट्टाएक __(दि. ० म० गलापुर) कुमुदचन्द्र तत्प? भधर्मचन्द्र नपढे भ० धर्मभूषणोपरेशान (५८) शाके १६६० श्रावण सुदि " मंगल धर्मचन्द्र मीन सेठ भा. चाणा तयोः पुत्राः संवरि संठ भा. रंगाई ... .... प्रतिष्टितं (जै० म० मापुर) नयो: पुत्राः सं० उकमेठ भार्या बापाई मं० नुक सेठ भार्या (५९) संवत १८२६ शाके १६१८ वैषाख बदि " रेवाई एतेषाम नित्यं प्रणमंति) पेनगणे श्री सिद्धसेन गुरूपरेशान (शैतवाल जै० म० कोहाली) (शैतवाल जेमं. भारवी) (११) शाके १५७१ वर्षे मार्गमिर सुदि १४ बुधे श्री __ (६०) शाके १७०४ श्री मूलमंधे (#० मं० सिंदी) मूलसंधे सरस्वतीगच्छे बलाकारगणे कुन्नकुन्दाचार्यान्वये भ. (६१) शाके १७०१ एलबंग मंचस्परे मार्गेश्वरमास शुक्र श्रीदेवेन्द्रकीर्तिदेवास्तापट्टे भ. कुमुवचन्द्रदेवास्तस्पट्टे भ. पक्ष तंचमे तिथौ शुक्रवामरे मूलमंधे सरस्वतीग, बलाकारधर्मचन्द्रदेवास्तत्प? भ० धर्मभूषणगुरुपदेशात् बघेरवाल गणं कुन्दकुन्दाचार्य श्री धर्मचन्द्र भ० धर्मोपार्श (पदेशान) ज्ञातीय हरसौ। गोत्रे सा• गुगामा तस्य भार्या चांगा बाई पता नंदीतटाम्नाय नेमीचन्द्रोपदेशात मंतवास श्रीवकस ग्योह पुत्राः पासमा तस्य भार्या चांगाई ऐने नित्यं प्रणमंति जा. बाणदरे श्री मम्मन मंघ प्रणमंनि पोडसकरण यंत्र)। चतुर्विशतिजिनविय (1) (जै० म० नांदगांव) (दि. जै० म० बालापुर) (१२) संवत् १७३४ वर्षे माग मूलमंघ स... देवेन्द्र (६२) संबन १८८४ बालापुर ग्रा०"मरस्वती मूर्ति । कीनिंगुरूपदेशान ज्ञातीय..."निस्पं प्रणमति () (दि. जै० म० बालापुर) (उपर्युक मंदिरमें) (५४) शाके १६०७ मार्ग सुदि १० भ० सोमसेनदेवा (६३) संवत् १ बालापुर ग्रामे मूल० म०० भ. मतुदविद्रकीर्ति स्वामी प्रतिहतं भावपद वा । (पद्मावनीमूर्ति) तत्प४ भ. जिनमेनगुरुपदेशात् गुजर पनीबान ज्ञातीय (दि . म. बालापुर) वापीसेन पुत्र नागजी भार्या......"निस्यं प्रथमंति पालीवालोली (६५) संवत् १६०२ माघ मासं शुमपर स्थावस्तु नाम (११) शाके १६०७ क्रोधनाम संवत्सरे....सुदि १० ,मत्सर म संवत्सरे मेरसी दीवसे भ. देवेन्द्रकीर्ति वादिसिंह स्तने गंगासा पुषे पुकराये सेनगवे अपमसेनान्वये भ. सोमसेनदेवा : बार प्रतिध करापितं (1) (पक्सीवाल जै० म०कोटाली) स्तम्प भ. जिनसेनगुपदेशात जासी ग्रामे भारज्ञासीय [बसकथित गंगामाकेशपर अभी कॉगसी में विद्यमान कमा नित्यं प्रयमंति (1) (पशीवास जे. मकोडांबी) कहा जाता जीवाम मंदिर भी मापने की निर्माण (५६) शाके १६०० वर्षे मार्गसिर सुर १० मूबसंधे कराया है।] Page #543 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०८ अनेकान्त पर्वत पर विद्युद्दाम से शोभायमान और अनेक शिखरांसे सहित नवीन मेघोंकी माला, जलधागकी अविरल वर्षाक द्वारा उस दावानलको प्रशमित कर रही है- बुझा रही है, जिससे इस्ती दूरसे डरते हैं और जो अत्यन्त सन्तापरूप शरीर को प्राप्त है।' यह शिखरिणी छन्द है । इह कुसुमसमृद्ध मालिनीभूय सानो [वर्ष ४ यह पर्वत, फैलते हुए यशके समान किरनोंके द्वारा श्रापके समान अत्यन्त शोभायमान हो रहा है। क्योंकि जिस प्रकार आप जपाहिनरुचि है-- ध्यान में रुचिको लगाने वाले है उसी तरह यह पर्वत भी जपाहितरुचि है--जासौनके फूलोंसे शोभाको धारण करने वाला है। जिस प्रकार श्राप मनुष्यांके के कारण और मदन- दर्शनीय श्रर्थात् कामदेव के ममान सुन्दर शरीरको धारण करते हैं उसी प्रकार यह पर्वत भी मदन-मैनारवृक्षांसे सुन्दर शरीराकृतिको धारण किये हुए हैं । और जिस प्रकार श्राप समीचीनमानस -हृदय-साहित हैं उमी प्रकार यह पर्वत भी सरोवर-महित है।' यहाँ पृथ्वी छन्द तथा श्लेषालंकार है । समकाञ्चनलोष्टमनुम्मनसं, सकलेन्द्रियनिग्रह बद्धरसम् । जिन तोटकमागमनस्य भवे, शिरसेष बिभर्ति तपस्विगम्३३ विपुलसकलधातुच्छेद-मेपथ्य- रम्यम् । वपुरपि रचयित्वा कुंजगर्भेषु भूषोविवयति रतिमिष्टः प्रार्थिताः सिद्धबध्यः ॥१२॥ 'पुष्पांस सम्पन्न इस शिखरपर सिद्धवधुएँ - देवागनाएँ लतागृह में अनेक पुष्पमालाश्रको धारण कर तथा शरीरको अनेक धातुखण्डों से सुरम्य बनाकर पतियां द्वारा प्रार्थना किये जाने पर रतिक्रिया करती है ।' यह मालिनी छन्द है । गनिमयम स्वामित्रस्मिन्मुनीन्द्रबने सदा स्मरबरतनो निस्योत्पुरा-प्रसून महीरुहे । रविकर - परीतापाच्छावामुपेश्य विसाध्वसा बसति हरियी सार्धं बध्वा कुरकृषोऽगम् ॥१५॥ 'हे कमल नयन ! हे कामदेव के समान सुन्दर ! हे स्वामि हमेशा फूले हुए वृक्षोंसे सहित इस तपोवन हरिणी, सूर्य की किरणां सन्तापसे छाया में जाकर निर्भय हो सिंहनी के साथ शोभायमान हो रही है - सिंहनी और हरिणी एक साथ बैठी हैं । परस्पर के विरोधी जीव भी यहाँ अपना वैरभाव छोड़ देते हैं।' यह हरिणी छन्द 1 अपाहितरुचिस्तनुं महनदर्शनीय मसौ जनप्रमदकारणं दधदुपातसम्मानसः । शोभिरिव निर्भर: प्रसरबद्भिरामात्पखं गरिकरुणालय ! त्वमिव देव पृथ्वीगुरुः ॥ १८ ॥ 'हे देव ! हे श्रेष्ठ दया गृह ! पृथ्वी पर महान विस्तीर्ण 'हे जिनेन्द्र ! यह पर्वत उन तपस्वियांक समूहको धारण करना है जो कि सुवर्ण और पत्थरोंमें मान बुद्धि रखते हैं, विषयोंकी उत्कण्ठा से रहित है ममस्त इन्द्रियांक निग्रह करनेमें तत्पर है और मंमारभ्रमणके छेदने वाले हैं। यह तोटक छन्द है 1 श्रष्टमसर्ग में जलक्रीड़ा, नवममें सूर्यास्त, संध्या तथा चंद्रोदय, दशममें मधुपान आदि, एकादश में भगवान् नेमिनाथके लिये श्रीकृष्ण द्वारा राजीमतीकी प्रार्थना, द्वादशसर्ग में बरातका जाना, त्रयोदशसर्ग में बद्ध पशुओं को देखकर नेमिनाथस्वामीका विरक्त होना तथा उनके पूर्व भवांका वर्णन, चतुर्दशसर्ग में केवलज्ञानोत्पत्ति तथा समवसरणका वर्णन और पंद्रहवें सर्ग में भगवान् के दिव्य उपदेशका वर्णन है । ग्रन्थकी समस्त वस्तु बहुत ही रोचक ढंगमे लिखी गई है - एकदम सरस और पण्डित्व से पूर्ण है। छोटेसे लेब में सबका उद्धरण करना अशक्य है । काव्यरसास्वाद के इच्छुकों को ग्रन्थ उठाकर उसका श्रध्ययन करना चाहिये । Page #544 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनकान्त वीरसेवामन्दिरके विशेष महायक दम हजार रूपयको नई महायता श्रीमान माह शान्तिप्रमादजी जैन, हालामयानगर قررررربزهرة प्रामान माह शान्तिप्रसादमी जन डालमियानगर जो श्राप amमामन्दिरका बरा हा प्रमकी दृष्टिय दम्वतं कि डालमिया मिमंट, भाग्न हुनश्याम गहनाम है उममहान वाल दास मा कायाका महना उपयोगिता इन्दुस्तान प्रादि अनक कापन्यांक डायरक्टर और भारत का श्रापका अनुभव और श्राप उनक प्रनि गात अनुगग अन्च लव्च प्रविष्ट व्यापारा है बड़ा हा उदार प्रानिक वन । इमाम वीरमगामन्दिरका श्राप शुरूम ही अपना मजन है । व्यापारम पार जहा एक हाय विल धनसम्पनि- महायता लक्ष्य बनाय हुए है और उस इमस पहल कराव का उपार्जन करते है वहा दसर हाथम बराबर लोक सवा पन हजार ४८०० रुपयकी सहायता प्रदान कर चुक कामामे उम्मका प्राय वितरण भी करते रहते है जिमम स्पष्ट है जिसका परिचय हमी वर्षक अनकान्तकी प्रथम किरणमे निकल कि आप अपनी उपा जन धनसम्पनिमें अधिक ग्रामति नहीं बन चुका है । हालम प्रापन वीरमवामन्दिरका धाक प्रकाशनार्थ -प्रामविको बढनका अमर ही नहीं देतं. आपका लाभ-माह दस हजार १०००० रुपयकी नई महायनाका वचन दिया वाण वं विवक जागृत और इलिय श्राप परच प्रमों और ..) का चेक पत्रक माम भेजकर उसका भेजना में दानवार' है। आपकी धर्मपत्नी श्रीमती रमादाजी भी. प्रारम्भ भी कर दिया है. जिसक लिय श्राप भाग धन्यवादक जोकि भारतक सुप्रसिद्ध व्यापारी रामकृष्ण डालमियाजीकी पात्र है, और मैं आपकी इम कृपाक लिय बहत ही प्राभारा विदुषी मुपत्रा है, अच्छी दानशाला है. उन्हान पिछले दिनों है। मग नो निरन्तर यह हार्दिक भावना है कि प्राप अपनी धर्ममाता (मामक वर्गवामक अवसरपर चारलाग्यकी अधिकाधिक रूपम दानवनी लक्ष्मीक म्वामी बनें, आपका भारी रकम दानमे निकाली थी। हननपर भी अभिमान आप वरद हाथ जैनममाजक सिर पर मदा बना रहे और उसक को छूकर नही गया, आप बहुत ही नम्र एक मरल स्वभाव- द्वारा नमाहिन्य, इतिहास एवं पुरानम्वका उद्धार होकर जैन क युवक है. गुण-ग्राहक हैं, और जैनममाजम्पी प्रकाशमं ममाजका मम्नक ऊंनाही उठ। एक उदीयमान नक्षत्रकी नरहम देदीप्यमान है। जुगलकिशोर Page #545 -------------------------------------------------------------------------- Page #546 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - गरीबका दिल . [ लेम्बक-श्री भगवन्' जैन ] है-'डाक्टर माहबको लाओ !'-चलिए हुजूर ! 'श्रादमी हो या जानवर ? सुनते नहीं, कह दिया बम, दो मिनिटके लिए! मेग बंटा ‘मंग मन्न!' एक बार कि नहीं जा सकते इस वक्त ?' उफ् ! कितना बेहूदा आदमी है-यह समझाये, लेकिन हज़र । मेग इकलौता बेटा, मेरी जिन्दगी ममझता नहीं ! अपनी हाँके जाता है-पट्ठा! अजय की रोशनी मेरी स्त्री की यादगार.... !' खपशाम पाला पड़ा है आज ! 'ता क्या करें-हम ? देग्यत नहीं, माहे-छः बज डाक्टर सिन्हाका दिमारा गर्म होगया, झलाकर चुकं, "फर्ट-शा' का टाइम हो रहा है।' बाल-'हट ! 'ब्लाडी-फूल' !' ___ 'हुजूर ! गरीबका उपकार होगा, अात्मा दुआएँ कार मामूली रफ्तारमं चल रही थी ! ड्राइव देंगी-मंगै मंगलाल! मेरा पून जरूर बच जायेगा- कर रहा था-प्रमोद ! डाक्टर साहबका इकलौता डाक्टर साहब!' नौनिहाल! _ 'न, हम नहीं जा सकने ! दिमाग़ न चाटो सन्ध्याका धूमिल आकाश मंमारके सिर पर था! बंकार ! चलो, प्रमाद ! स्टार्ट कगे कार !' दिवाकरकी मिटती किरणे लुटी-सी भाभा लिए __ प्रमोद ना पिनाकं हुक्मक इन्तजार में था ही, छिनिज पर विलीन होती जा रही थी! उम क्या देर ? ___ सारे अपमानको पीकर वह फिर कहने लगा, दसरं ही क्षण कार आग बदी, कि वह संकटा- जैसे उसके बहोश दिल'पर अपमानकी चोट लगती पन्न-व्यक्ति-पीड़ित-मानव-उचक कर कैरियर पर ही न हो!-'डाक्टर' 'सा' ह..! जीने-मरने के बड़ा हो रहा ! मवाल पर अगर थोड़ा मनोरञ्जन श्राप छोड़ देंगे तो और लगा अपने मंकटकी कैफियत देने–'डाक्टर कुछ बुग न होगा! मुसीबतक वक्त दुसरंकी मदद साहब ! डाक्टर माहब ! रहम करो, दो मिनिटके करना, उसके काग पाना मनुष्यका फर्ज है ! इतने लिए तकलीफ उठाओ ! मेग मन्नू-मेग बेटा- पर भी मैं पूरी फ्रीस-बनीस रुपया.....!" अन्तिम-सॉसें ले रहा है ! किमीके किए कुछ नहीं हो ओह ! यह करारा अपमान ? मग मनुष्यता रहा ! सब हकीम डाक्टर थक कर लौट पाए हैं! परखने चला है यह नीच, गवार मल्हा इतनी बायू जी, अब सब गांव आपका ही नाम ले रहा है, हिम्मत, इतनी मजाल कि मुझे स्पीच सुनाए १ आपके हाथमें यश है, आप उमे जरूर चंगा कर पीछा ही नहीं छोड़ना चाहता-बदमाश कहींका! देंगे ! खुद सन्तू जब होशमें आता है, पुकार उठना इसे ममझाए कौन-कि शामका बक्त काम करने Page #547 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ११० भनेकान्त [वर्ष ४ का नहीं, आराम करनेका होता है। हकीमां, डाक्टगं, वैद्योंको दिखलाता ! रुपया कर्ज ___ प्रभुत्वके मदने सिन्हा महोदयको आपसे बाहर लाता, कभी बर्तन-भांडे बेच कर ! सब कुछ करता कर दिया। सिंहकी तरह दहाड़ते हुए वह उठे, और वह, जा कर सकता ! इलाज में श्रुटि न आने देनाएक ऐसा भरपूर धक्का बेचारे रामदीनको मारा कि जरा भी। आह ! अभागा दौड़ती कारसं दम फुट दूर जा गिग। हाते-होते बहत्तर घन्टोंके अन्दर यानी तीन दिन कहाँ लगी ? कैसी लगी ? कितना खून निकला ? के अल्प समयमें ही उमन समीपस्थ शहरक मत्र मग या बचा ?-यह किस मालूम ? कौन देखने डाक्टरोंसे सन्तूकी तशवीश कराली । वाला था- वहाँ, उसका ? और जरूरत भी थी लेकिन .....? किम...? अन्तमें सहानुभूति रखने वाले पड़ोसियोंने राय 'कार' धूल उड़ाती हुई आगे निकल गई ! जैसे दी-'डाक्टर मिन्हा' को दिग्वानी ! वह अच्छे कुछ हुआ ही न हो। तजुर्बेकार हैं ! यश भी खूब है उनके हाथमें ! जिम x x x x पर हाथ डालते हैं, चंगा करके छोड़त है-उसे ! वही सन्तूको आगम कर सकते हैं ! वग्नः बीमारी उसका नाम था-मदीन ! जातिका 'मल्हा' ता बढ़ी हुई है ही, कौन जाने भगवान की क्या था! और यमुना-तट पर थी उसकी झोंपड़ी ! बेचाग मर्जी है ?' रागबोके बोझम दबा हुआ था। पर, था वह सुग्वी ! रामदीन तो पुत्र-प्रेममे पागल था-इस वक्त ! वह इस लिए कि एक पैमा भी उस पर कर्जका न उस अपने तन-बदनका भी खबर न थी ! जो कोई था ! ईमानदार था, और था बात वाला आदमी! कुछ कहना, वह वही कर गुजरता ! बिना कुछ वक्त-ब वक्त वह सौ-सौ रुपय बाजारमं ला सकता! विचार, साच । घरम काई था नहीं! जो कुछ था-धन-दौलत. वह ता चाहता था-'उसका 'सन्तू उठ खड़ा हा, बम।' इज्जत-बाबरू-जा कहा बस, 'सन्तू' था। डाक्टर साहबकी कारसे गिरकर और अपनी 'सन्तू' उसका बेटा था-समर्थ-बेटा! और प्राणोंस भी ज्यादह प्यारा ! बुढ़ापेका सहारा जो था ! घाटका कुछ भी स्त्रयाल न करके, वह भागा-शहरकी भार !: 'जब पहुंचा तो संन्ध्या हो चुकी थी, डाक्टर वंशका नाम चलाने वाला भी तो? साहब अपने पुत्र सहित सिनमा देखने जारहे थे !... ता अचानक वह पड़ गया-बीमार ! और ऐमा कि जानके लाले पड़ गए ! घरमें न उसकी माँ थी, न स्त्री ! माँ मर चुकी थी-बहुत पहले । और स्त्री 'दादा ! 'दादा !! पानी !!!' थी अपने पीहर ! जो कुछ तीमारदारी थी, बूढ़े ___एक भर्राई आवाजसे झोपड़ी प्रकम्पित हो उठी ! रामदीन के हाथ !... अन्धेरी रात थी। दस बजेका वक्त होगा। यमुनाकी बेचारा बड़ी मिहनत करता ! बदल-बदल कर उत्ताल-तरंगें कल-कल ध्वनिका सृजन कर रही थीं। Page #548 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण [] गरीबका दिल ५११ शेष सब ओर शान्ति थी। गमदीन भी वही है। झोंपड़ी भी वही है। और _ 'लो, पियो ! घबगो नहीं, बेटा । भगवान सब वही यमुना, उसी तरह सामने बह रही है। बस, ठीक करेंगे ।'-गमदीनने मिट्टीका बर्नन सन्तुकं अन्तर है तो इतना कि आज सन्तू नहीं है। . तपनं हुए सूर्य पाठोंसे लगाने हुए कहा । दूसरे देखने वालोंको यह अन्तर कुछ मालूम दे 'दादा ही, यह बात नहीं है । पर, इनने अन्तग्ने गमदीनको मन्तून एकबार गमदीनकी ओर दग्वा । क्या कर दिया है ? उसकी जीवन-धाग अब किधर प्रोफ!... बह रही है ?-इसे वह स्वयं ही नहीं जानता । तब निश्रय ही उसकी दृष्टिमें निराशा थी। गमदीन और कौन कह सकता है ? मिहर उठा । टप टप दो बँदें उसकी गडोंमें धंसी हुई माना कि उसके हृदयकी चोट किसीको द.खती ऑग्वोंने टपकादीं। वह मुंहसे कुछ बोल न मका।। नहीं। पर, वह है जिसने उस मुर्दा बना दिया है, जीने 'दा'। गंभो मत । मेरा तुम्हारा बस, इतना ही की ख्याहिशको बुझा दिया है. और कर दिया हैमाथ था-जा पूरा हो रहा है अब.. आह... बरबाद। मन्तृने अटकती हुई जाबानसे रुकते हुए कहा। वह एक लक्ष्य-हीन संन्यासी है-प्रब।.. उफ, यह कैसी बातें हैं ?-रामदीन हृदयका रात-गत भर वह यमुना तट पर बैठा रहता है। धैर्य छोड़ बैठा। और एक दम रो पड़ा. हिची भर पना नहीं, किमके सोचमें, किसके ध्यानमें ? ग्या पी लिया तो ठीक, न ग्वाया ना कुछ परवाह भी नहीं । कर. बच्चोंकी तरह।... जैसे शरीरसं ममत्व खूटनफ साथ, भोजनसे स्नेह भी ___ 'मन्तृ । मन्तू बेटा। बापसे रूठ कर कहाँ जा टूट चुका हा। न किसीस बालता चालताह, न रहा है ? अरे, जग मरी ओर तो देख, मैं बुढ़ापे ।' मिलता जुलता ही। जहाँ बैठा, वहीं का हो रहा मगर मन्तू अब था कहाँ. वहाँ ? जो उसकी जिधर देखने लगा, बस दंग्यता रहा घन्टों उसी भोर । ओर देखता । वह तो.....? कुछ पूछा जाय तो काई उत्तर नहीं।"चुपगनकं ग्यारह बजे । यमुनाका पारदर्शी-सलिल मौन'वैगगीकी तरह। हाहाकार कर रहा था। समीरकी तीव्रतासे प्रेरित, और इन्हीं सब बातोंने उम 'पागल' करार दे सूखे पत्ते बड़बड़ाहट मचा रहे थे। हिमानी और दिया है। पर, क्या वह सचमुच पागल है भी ? अन्धकारसं भीगी हुई रात जब अपनी भयंकरता यमुना चढ़ी हुई थी, पानी खूब तेजीस किलोलें करता दिखला रही थी-तब रामदीन गे रहा था। उसका हुआ चला जा रहा था। लहरें-एक दूसरी पर पाँव करुण-क्रन्दन रात्रिकी नीरवताका अवलम्ब पा, रख कर आगे बढ़ती, पर फिर अन्त । रामदीन चतुर्दिक विग्वर रहा था। किनारे पर बैठा, देख रहा था-यह मब । सहसा उसने देखा-एक काली-सी चीज, पानी [ ४ ] की लहरों के साथ उछलती, डूबती, नैरती चली श्रा पूग एक वर्ष बीत गया। Page #549 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ का नहीं, आराम करनेका होता है। हकीमी, डाक्टरों, वैद्योंको दिखलाता ! रुपया कर्ज ___ प्रभुत्वकं मदन सिन्हा महोदयको आपसे बाहर लाता, कभी बर्तन-भांड बेच कर ! सब कुछ करता कर दिया । सिंहकी तरह दहाड़ते हुए वह उठे, और वह, जा कर सकता ! इलाज में त्रुटि न आने देनाएक ऐसा भरपूर धक्का बेचारे रामदीनको मारा कि जरा भी। आह ! प्रभागा दौड़ती कारसे दस फुट दूर जा गिग। हाते-होते बहनर घन्टोंके अन्दर यानी तीन दिन ___ कहाँ लगी ? कैसी लगी ? कितना खून निकला ? के अल्प ममयमें ही उमन समीपस्थ शहरके सब मग या बचा ?-यह किस मालूम ? कौन देवनं डाक्टरोंम सन्तूकी तशस्त्रीश कराली । वाला था- वहाँ, उसका ? और जरूरत भी थी लेकिन .....? किम ? अन्तमें सहानुभूति रखने वाले पड़ोसियोंने राय _ 'कार' धूल उड़ाती हुई आगे निकल गई ! जैसे दी-'डाक्टर मिन्हा' की दिग्वाश्री ! वह अच्छे कुछ हुआ ही न हो। तजुर्बेकार हैं ! यश भी खूब है उनके हाथमें ! जिम x x x पर हाथ डालते हैं, चंगा करके छोड़ते है-उसे ! वही सन्तूको आगम कर सकते हैं! वग्नः बीमारी पुमका नाम था-मदीन ! जातिका 'मल्हा' तो बढ़ी हुई है ही, कौन जाने भगवानकी क्या था! और यमुना-तट पर थी उसकी झोंपड़ी ! बेचाग मर्जी है ?' रागबोकं बाझम दबा हुआ था। पर, था वह सखी। रामदान ता पुत्र-प्रेममें पागल था-इस वक्त । वह इस लिए कि एक पैमा भी उम पर कर्जका न उस अपने तन-बदनका भी स्वबर न थी ! जो कोई था ! ईमानदार था, और था बात वाला आदमी। कुछ कहना, वह वही कर गुजरता ! बिना कुछ वक्त-बे वक्त सह सौ-सौ रुपये बाजारमं ला सकता! विचार, सोच। घरमें काई था नहीं ! जो कुछ था-धन-दौलत, . वह तो चाहता था-'उसका 'सन्तू उठ खड़ा हा, बम।' इज्जत-श्राबरू-जो कहो बस, 'सन्तू' था। ___ डाक्टर साहबकी कारसे गिरकर और अपनी 'सन्तू' उसका बेटा था-समर्थ-बेटा! और घाटका कुछ भी स्त्रयाल न कर के, वह भागा-शहरकी प्राणोंस भी ज्यादह प्याग ! बुढ़ापेका सहारा जो था! और !: 'जब पहुंचा तो संन्ध्या हो चुकी थी, डाक्टर वंशका नाम चलाने वाला भी तो ? साहब अपने पुत्र सहित सिनमा देखने जारहे थे !... तो अचानक वह पड़ गया-बीमार ! और ऐसा कि जानकं लाले पड़ गए ! घरमें न उसकी माँ था, न स्त्री ! माँ मर चुकी थी-बहुत पहले । और स्त्री 'दादा ! 'दादा !! पानी !!!" थी अपने पीहर ! जो कुछ तीमारदारी थी, बूढ़े एक भर्राई आवाजसे झोपड़ी प्रकम्पित हो उठी ! गमदीन के हाथ !... अन्धेरी गत थी। दस बजेका वक्त होगा। यमुनाकी बेचारा बड़ी मिहनत करता ! बदल-बदल कर उत्ताल-तरंगें कल-कल ध्वनिका सृजन कर रही थीं। Page #550 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण E] शेष सब ओर शान्ति थी । "लो, पियो ! घबराओ नहीं, बेटा । भगवान सब ठीक करेंगे। मदीनने मिट्टीका बर्तन सन्तूकं तपने हुए सूखे ओठों लगाते हुए कहा । 'दादा ||' मन्तूने एकबार रामदीन की ओर देखा । ओफ़ !... गरीबका दिल निश्चय ही उसकी दृष्टिमें निराशा थी । गमदीन मिहर उठा । टप् टप् दो बूँदें उसकी गड्डोंमें धँसी हुई श्रम्बोंने टपकादीं। वह मुंह से कुछ बोल न सका । 'दा```। राओ मत । मेरा तुम्हारा बम, इतना ही साथ था—जो हो रहा है अब । 'आह'सन्तृने अटकती हुई जवानसं रुकते हुए कहा । पूरा फ, यह कैसी बातें हैं ? - रामदीन हृदया धैर्य छोड़ बैठा। और एक दम रो पड़ा. हिची भर कर. बच्चोंकी तरह ।.. 'मन्नृ । मन्तू बेटा | बापसे रूठ कर कहाँ जा रहा है ? अरे, जरा मेरी ओर तो देख, मैं बुढ़ापेकं ।' मगर मन्तू अब था कहाँ वहाँ ? जो उसकी ओर देखता । वह तो ? गतकं ग्यारह बजे । यमुनाका पारदर्शी-सलिल हाहाकार कर रहा था। समीरकी तीव्रतासे प्रेरित, सूखे पत्ते बड़बड़ाहट मचा रहे थे। हिमानी और अन्धकार भीगी हुई रात जब अपनी भयंकरता दिखला रही थी तब रामदीन गे रहा था। उसका करुण क्रन्दन रात्रिकी नीरवताका अवलम्ब पा चतुर्दिक विस्वर रहा था।" X X X [ ४ ] पूरा एक वर्ष बीत गया । X ५११ गमदीन भी वही है । झोंपड़ी भी वही है। और वही यमुना, उसी तरह सामने वह रही है। बम, अन्तर है तो इतना कि राज सन्तु नहीं है। दूसरे देखने वालों को ही, यह बात नहीं है। पर यह अन्तर कुछ मालूम दे इतने अन्तरने रामदीनको क्या कर दिया है ? उसकी जीवन-धारा अब किधर बह रही है ? - इसे वह स्वयं ही नहीं जानता । तब और कौन कह सकता ? माना कि उसके हृदयकी चोट किसीको दखती नहीं। पर, वह है जिसने उसे मुर्दा बना दिया है, जीने की ख्वाहिशकां बुझा दिया है. और कर दिया है बरबाद | वह एक लक्ष्य-हीन संन्यासी है - श्रव ।" रात-रात भर वह यमुना के तट पर बैठा रहता है। पता नहीं, किसके सोचमें, किसके ध्यानमें ? वा पी लिया तो ठीक, न ग्वाया तो कुछ परवाह भी नहीं । जैसे शरीरमं ममत्व खूटने के साथ, भोजनसे स्नेह भी टूट चुका हा न किसीसे बोलता चालता है, न मिलता जुलता ही । जहाँ बैठा, वहीं का हो रहा जिधर देखने लगा, बस देखता रहा घन्टों उसी ओर । कुछ पूछा जाय तो कोई उत्तर नहीं । मौन वैरागी की तरह | 'चुप' और इन्हीं सब बातोंने उसे 'पागल' करार दं दिया है। पर, क्या वह सचमुच पागल है भी ? यमुना बढ़ी हुई थी, पानी खूब तेजी से किलालें करता हुआ चला जा रहा था । लहरें - एक दूसरी पर पाँव रख कर आगे बढ़तीं, पर फिर अन्त । रामदीन किनारे पर बैठा, देख रहा था - यह सब ।" सहसा उसने देखा - एक काली-सी चीज्र, पानी की लहरों के साथ उछलती, डूबती, तैरती चली आ रही है । Page #551 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१२ अनेकान्त [वर्ष ४ 'हैं, यह तो प्रादमी मालूम देता है ? बेचारा मर तुमने मुझे पुत्रकी भीग्य दी है। उसे जीवनदान दिया न चुका हो ?'-वह अपने आप बढ़बड़ाया। जैसे है। लेकिन मैं . .?मैं दौलनमंद होकर भी वह अपने हृदयसे उत्तर चाहता है। गक्षम हूं, जिसन अपन मनोरंजनके सामने तुम्हारे और दसरं ही क्षण-हथेली पर जान लें, उस बच्के की जानको कुछ नहीं समझा। 'मैं नराधम चढ़ती हुई यमुना प्रबल वंगमे जूझने के लिए हूं-रामदीन । तुम मुझे माफ करदा।' गमदीन अथाह जलमं कूद पड़ा। -और डाकार सिन्हा जोर-जोरसे गे पड़े। आध-घण्टे तक बूढ़-शरीरकी सारी शक्ति उसे उन्हें लगा-जैसे रामदीन कारमे गिरकर पाहत तटकी धार लाने के प्रयत्नमें लगी। तब कहीं वह उसे हुआ, उनके सामने पड़ा है। .. 'गंमा मत, डाक्टर माहब । मिर्फ वही एक पार ला मका। . चीज़ गरीबोंक लिए बच रही है। उसे उन्हीं के लिए ___ला तो सका, पर स्वयं बड़ी मुसीबतमें अपनको रहने दो, न ? तुम बड़े आदमियोंको गना शोभा फँसा आया । उसका दाहिना पैर किसी जलचरने भी तो नहीं देता ? काट लिया था । वह खून से लथपथ और थकावटसे ____ आह ! गमदान, मैं हत्याग हूं-मैंने ही तुम्हारे चूर तटपर आकर ही रहा । . मन्तूको खाया है । मुझे माफ कर दो ।'-डाक्टर ___ लेकिन उसकी दशा ? आह, किननी भयंकर, मिन्हाका मन मौंम होरहा था। वं घुटनोंक बल बैठ किननी द्रावक, और कितनी करुण हारही थी ? गए-रामदीन के आगे, बगैर अपने नये सूटकी और जब उसने आँखें खालकर उस मृन-प्राय बांदीका ख्याल किए हुए । शरीरकी ओर देखा तो अवाक रह गया। ___'मेरे भाग्यकी बात थी-डाक्टर माहब । आप हृदय उसका परोपकारकी महतीभावनासे भर का कोई दोष नहीं। मगर मुझे इस बातकी बड़ी गया । निश्चय ही वह जीवित था।... खुशी है कि मैं अपनी जान देकर भी, आपके पुत्रकी फिर सहसा उसका कण्ठ फूटा-'अरे, यह तो जान बचा सका । मेरा आखिरी वक्त है-मैं जा रहा डाक्टर सिन्हाका पुत्र प्रमोद है । यहाँ कैसे आया ?' ह.....'नमस्कार ।' जहग्ने रामदीनको पीला कर दिया था-परका [५] घाव रक्त बहाते-बहाते थक गया था। डाक्टर साहब 'गमदीन, गमदीन ! सचमुच तुम आदमी नहीं, ने देखा तो गमदीन अमर हो चुका था। देवता हो । तुम गरीब हो पर, तुम्हारा दिल दौलतमंद और डाक्टर साहब गे रहे थे । ऑग्में हो रही है । उसमें तेज है, उसमें उदारता है, उसमें प्रेम है। थी-लाल सुर्ख । Page #552 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्रश्नोत्तर [मैंने एक प्रश्न (ज्ञान-प्रज्ञान विषयक) श्री दरबारीलाल उतना भलाई मे भी हो सकता है। एक प्रादमी लाख रुपये जी सत्यनकनके पास भेजा था। उसका उन्होंने जो उत्तर का व्यापार करना है तो उसका नफा हजारोपर पहुंचता है। दिया सो तारीख १६-५-१६३६ई. के सत्यसन्देशमं प्रकट हो और घाटा भी हजारों पर पहुंचता है। परन्तु कोदो रुपये चुका है, फिर भी वह चर्चा मानस-शास्त्र-मम्बन्धी होनेसे का व्यापार करता है, वह हजारोका घाटा या मुनाफा नहीं उमे श्राज अनेकान्त-पाठकोंकी जानकारीके लिये नीचे प्रकट उठा सकता। परन्तु कोई यह नहीं चाहता कि:जारोंके किया जाता है। प्राथा है दूसरे विद्वान इस पर कुछ विशेष घाटेसे बचनेके लिये दो रूपयेका ही व्यापारी बना रहूँ। ध्यान देनेकी कृपा करेंगे और होसके तो इस विषयपर कोई जैनशास्त्रोकी कुछ मान्यताएँ बद्दी सुन्दर है और वे नया प्रकाश डालकर अनुगृहीत करेंगे।-दौलतराम मित्र] पूर्ण मनोवैज्ञानिक है। उनके अनुसार एकेन्द्रिय जीव नरक (प्रश्न) नहीं जासकता । परन्तु वह स्वर्ग, मोक्ष भी नहीं जासकता। "तिर्यञ्च-जीवोंको (मास) खाने वालोमें कुछ तो पाप परन्तु नरक न जाना पड़े, इसीलिये कोई एकेन्द्रिय होना पुण्यकी समझ रखने वाले और कुछ समझ नही रखने वाले पसन्द नहीं करता। इसी प्रकार नासमझ पापका अधिक मनुष्य है। इन दोनोंमे पापके अधिक भागी कौन होने चाहिये ? बच नहीं कर मकता ती पण्यका मी अधिक पन्ध नहीं कर समझदार या बेसमझदार ? यदि कहोगे कि समझदार, ती सकता: और मुक्ति मार्गको तो वह पा ही नहीं सकता। समझदारीको फिर कौन हासिल करेगा ? क्योकि पापसे इसलिये समझदारीको हेय और नासमझीको उपादेय नही छटकारा पाने के लिये ही तो समझदारी हासिल की जाती है। कह सकते। याद कहा कि बसमझदार, ता यह ता ठाक नहा, क्या- होशातभावका अर्थ समझदारी नहीं है, इसी प्रकार न कि उनम तो पाप-पुण्यको कल्पना ही नही है। उनका ता अशातभावका अर्थ नासमझी है। समझदार भी प्रशातभाव वैमी ही प्रवृत्ति है जैसी कि जलचर, थलचर, नभचर जीवों से पाप कर जाता है, और नाममझ भी ज्ञानमावसे पाप में हिसक-प्रवृत्ति पाई जाती है।" करता है। अजानभावकी अपेक्षा ज्ञातभावमें कर्मबन्ध (उत्तर) अधिक है । जान-झकर इरादापूर्वक पाप करनेमें कलेश "कर्मसिद्धान्तके जिस रूपको मानकर यह प्रश्न उठाया अधिक रहता है। नामसझी से प्रशानभावका नियत संबंध गया है, उसके अनुसार पुण्य-पारका साक्षात् सम्बन्ध ज्ञान- नहीं है। प्रशानसे नहीं किन्त कषायसेकषायोंकी जितनी तीव्रता जिन जीवोम पाप-पुण्यकी कल्पना ही नहीं है तो भी होगी, कर्मका बंध भी उतना ही अधिक होगा, परन्तु तीब अगर वे पाप करते हैं तो उन्हें पापबन्ध होता है, उसका कषायी होनेकी शक्ति समझदारीमें अधिक होती है। हां, फल भोगना पड़ता है। इसलिये नशाखोंमें उन्हें नरक. समका वे सदुपयोग भी कर सकते है, और दुरुपयोग भी कर मामी भी बताया है। अगर किसी समाजके मनुष्य झूठ सकते हैं। समझ-प्राणियोंमें उतनी शक्ति नहीं होती, इस बोलनेकी बुराई न समझते हो और खूब झूठ बोलते हो तो लिए वे उतना बन्ध नहीं कर सकते। झूठ बोलनेसे जो हानि है वह उन्हें भोगना पड़ेगी। ऐसी ही परन्तु इसलिये समझदारी बुरी चीज न होगई; क्योंकि अवस्था कर्मबन्धकी भी है। असली बात यह है कि बन्ध समझदारी बुराई के लिये उत्तेजित नहीं करती । वह एक का सम्बन्ध शान-प्रशानसे नहीं, कषाय-अकषायसे है। ज्ञानशक्ति है उसका उपयोग जितना बुराई में हो सकता है, प्रशान उत्तमें परम्परासे कारण होते है।" Page #553 -------------------------------------------------------------------------- ________________ बुन्देलखण्डका प्राचीन वैभव, देवगढ़ [ लेखक-श्री कृष्णानन्द गुस] 000000 मारे पाठक देवगढ़के नामसे अवश्य आजसे लगभग १७ वर्ष पूर्वकी उस यात्राका TET परिचित होंगे। यह स्थान अपने प्राचीन पूरा स्मरण मुझे नहीं । देवगढ़कं प्राचीन जैन-मन्दिगें, ९ जैन मन्दिगें, विभिन्न समयकी लिपिमें वहां के प्राकृतिक दृश्यों, तथा अतीतके अन्य भग्नावDiyonero लिखे गये अनेक शिला-लेखों, तथा शेषोंको देख कर मेरे मन पर क्या प्रभाव पड़ा, मैं अन्य प्राचीन स्मारकोंके लिये काफी प्रसिद्ध है । गुप्त ठीक कह नहीं सकता। किन्तु मुझे इतना अवश्य कालका बना हुमा यहाँका विष्णु-मन्दिर तो भारतीय स्मरण है कि किले पर पहुँच कर हम लोगोंने वहांसे कलाकी एक खास चीज है। 'मधुकर' में उसका कई जब बेतवाका अपूर्व दृश्य देखा तो मंत्रमुग्धसं होकर बार उल्लेख हो चुका है। रह गये थे। तबसे हम कई बार देवगढ़ गये हैं, और देवगढ़ जानका सबसे पहला अवसर मुझे सन् जितनी बार वहाँ गये, एक नये प्रानन्दकी अनुभूति १९२३के लगभग प्राप्त हुमा । यह यात्रा मेरे लिए चिर- लेकर लौटे हैं.। भारतकी प्राचीन शिल्प-कलाके कुछ स्मरणीय रहेगी, क्योंकि जिस मंडलीकं साथ मैंने यह बड़े सुन्दर नमूने तो वहां मौजूद हैं ही, जिन्हें देग्व यात्रा की, उसमें आदरणीय वृन्दावनलालजो वर्मा, कर चित्त प्रमन्न हुए विना नहीं रहना; साथ ही देवकविवर श्रीमैथिलीशरणजी गुप्त और राय श्रीकृष्ण- गढ़का प्राकृतिक सौन्दर्य भी देखने योग्य है । विंध्य दास जैसे व्यक्ति सम्मिलित थे। एक तो देवगढ़ जैसे पर्वतकी श्रेणीको काट कर बेतवाने यहां कुछ बड़े प्रसिद्ध स्थानकी यात्रा, और फिर कवि और कला- सुन्दर दृश्य बनाये हैं। देवगढ़का प्राचीन दुर्ग जिस मर्मझोंका सत्संग। जीवन में ऐसे अवसर बहुत कम पर्वत पर है, बेतवा ठीक उसके नीचे होकर बहती है। मिलते हैं। पहाइकी एक विकट पाटीमें होकर बहती हुई सहसा हम लोग रातको दो बजे झाँसीसे रवाना वह पश्चिमकी ओर मुदगई है। इससे दृश्य और होकर सुबह जाखलौन पहुँच गये थे । ललितपुरसे भी सुन्दर हो गया है। भागे जाखलौन एक छोटा-सा स्टेशन है। यहाँ कोई वर्तमान देवगढ़ बेतवा तट पर बसा हुआ एक मेल-ट्रेन खड़ी नहीं होती। इस लिए हमलोग रातकी छोटा-सा गाँव है । जनसंख्या लगभग दो सौके हांगी। पैसिंजरसे ही भाये थे। देवगढ़ जाखलौनसे पाठ उसमें जैनियों और सहनमों की संख्या ही अधिक है। मीलकी दूरी पर स्थित है । म्टेशन पर अक्सर सवारी गाँव निकट पहुँचने पर साधारण दर्शकको कोई के लिए बैलगादी मिल जाती है। ऐसा न होने पर विशेष आकर्षक वस्तु देखनेको नहीं मिलेगी । परन्तु निकटवर्ती प्रामसे उसका प्रबन्ध किया जा सकता है। जंगल में जगह-जगह प्राचीन मूर्तियों तथा पत्थरकी ललितपुरसे यह जगह सनीस मील दूर है। इमारतोंके ओ खंड पड़े मिलते हैं, वे भाज भी कल्प Page #554 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] बुन्देलखण्डका प्राचीन वैभव, देवगड ५१५ नाशील पाथकों को इस स्थानके अतीत गौग्वकी गाथा टूटी हुई मूर्तियों और इमारतोंके स्तूपाकार देर पड़े सुनाते हैं। यहां जो शिलालेख प्राप्त हुए हैं उनसे पता नजर आते हैं। फिर भी करीष १६ मन्दिर ऐसे हैं चलता है कि किसी समय यह उजड़ा हुआ म्यान जो अच्छी अवस्थामें मौजूद है । ये सब मन्दिर गुण-साम्राज्यका एक मुख्य जनपद रहा होगा। पत्थरके हैं। इनका कटाव और पत्थरका बारीक कार्य देवगढ़का प्राचीन किला एक पहाड़ी पर बना देखने योग्य है । मन्दिरोंके गर्भ-गृह बिलकुल अन्धहुआ है, जो गांवकं समीप-ही है। किलके नीचे कारमय है। बाहरस भीतरकी कोई वस्तु नजर नहीं दक्षिणकी ओर-करीब ३०० फीटकी नीचाई पर पाती। इनके भीतर प्रवेश करते समय पत्थर फेंक बेनवा बहनी है। जैनियोंके प्राचीन मन्दिर-जनकं कर यह देख लेना बहुत आवश्यक है कि वहां कार्ड कारण देवगढ़ काकी प्रसिद्ध है-इस पहाड़ी पर ही जंगली जानवर तो नहीं छिपा। बिजलीकी बत्ती बने हैं। ऐसा प्रतीत होता है कि देवगढका प्राचीन अगर साथ हां, तो अच्छा है। उससं मन्दिरकी नगर भी यही बसा होगा। भीतरी बनावट देखनेमें सहायता मिलती है । जैनियों गांवके समीप ही जंगलातक महकमका एक छोटा के प्रयत्नसं इन मन्दिरोंकी व्यवस्था पहलस बहुत सा बंगला है और इस बंगलेस थोड़ा आगे चल कर कुछ अच्छी है। परन्तु हमने जब सनको पहले पहल मुत्तरकी पोर गुप्त-कालीन प्रसिद्ध विष्णु-मन्दिर है। देखा तो मनको बड़ा दुःख हुआ। जिस स्थान पर पहाड़ पर चढ़ने के लिए पश्चिमकी ओर से एक कभी सुगंधित तेल-युक्त प्रदीप जला करते थे, वहां रास्ता बना है। पहले एक पुराना तालाब है। उसकी चमगीदड़ोंकी भयानक दुर्गन्धकं कारण हमें अपनी पार करके पहाड़ पर चढ़नके लिए सीढ़ियोंदार एक नाक बन्द करके भीतर प्रवेश करना पड़ा। मन्दिरक चौड़ी किन्तु प्राचीन सड़क मिलती है, जो बड़े-बड़े भीतर गुफामें जैन-तीर्थबगेकी मूर्तियां विराजमान शिलाखंडोंको लेकर बनी है। किसी समय यह सड़क हैं। बाहरकी बदो और मंडपमे भी बहुत-सी मूर्तियां अच्छी अवस्था में रही होगी। किन्तु अवतो इस पर हैं। इन मूर्तियोंकी बनावट बढ़ी सुन्दर और सुडौल चलते समय बड़ी ठोकरें खानी पड़ती है। सड़कके है, और उनसे जैन स्थापत्यकी उत्कृष्टताका खासा दोनों भोर करधई, खैर, और सालके घन वृक्ष है, परिचय मिलता है। जिनकी दीर्घ शाखायें यहां सदेव शीतल छाया किये एक बड़े मन्दिरमें शान्तिनाथ भगवानकी मूर्ति रहती हैं। विगजमान है। यह १२ फीट ऊँची खड्गासन मूर्ति ___ पर्वतकी ऊँचाई पार करने पर एक टूटा हुआ द्वार है। तीन मूर्तियाँ और भी हैं, जो लगभग १० फीट मिलता है । यह पर्वतकी परिधिको घेरे हुए दुर्ग-काट ऊँची होंगी। जैनियोंके चौबीसों तोडगेंकी मूर्तियां का द्वार है। इसका तोरण अब भी अच्छी हालतमें यहां देखनेको मिलती है। प्रत्येक मूर्तिकं साथ एकहै । इस द्वारका पार करने पर तीन कोट और मिलते एक यक्षिकी मूर्ति बनी हुई है । और मम पर यक्षिका हैं । जैनियोंके प्राचीन मन्दिर तीसरे कोटके भीतर नाम भी खुदा हुभा है। एक पाषाणका सहलकूट हैं। अधिकांश मन्दिर नष्ट हो गये हैं। जगह-जगह चैत्यालय (जिस पर १००८ मूर्तियां अंकित है) Page #555 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१६ अपनी असली हालत में वर्तमान है। "पूर्ण लेख है । इस जनरल कनिघामने पढ़ा था । यह ___ भारतीय पुरातत्व विभागकी भोरसे अब तक लेख संवत् ९१९ का है। यहीं पर एक मन्दिर में यहाँ जो खोज हुई है, उसके फलस्वरूप १५७ शिला- बारहवीं शताब्दिकी लिपिमें एक लेख है, जिसमें एक लेख यहाँ मिले हैं। ये शिला-लेख मन्दिरोंकी दीवारों, दानशालाके बनाये जानेका विवरण है। एक स्तंभों, मूर्तियों के निम्न-भागों पर भक्ति हैं। एक और जैन मन्दिरके शिलालेखसे पता चलता लेख पत्थरकी चौड़ी शिलाओं पर भी खुदे हैं। है कि इस नन्हें सिंघईन संवत् १४९३ ई. में जैन-मन्दिरों में जा शिलालेख हैं उनमें से ६० ऐसे बनवाया था। है, जिनमें समयका उल्लेख मिलता है। ये लेख विक्रम किलेक जिस ओर बेतवा बहती है वहाँ तीन घाट संवत ९१९ से १८७६ के बीचके हैं और भिन्न-भिन्न हैं। इनमेंसे नाहरघाटी पहाड़की ऊँची दीवारको काट समयकी लिपिमें लिखे गये हैं। नागरी अक्षरोंके कर बनाई गई है। यहाँ एक गुफा भीतर एक सूर्य विकासके इतिहासकी दृष्टिसं ये शिलालेख बड़े महत्त्व की मूर्ति, एक शंकरलिंग, और सप्तमातृकाओंकी है। इनके अध्ययनसे संभव है 'जैन धर्मकी पौग- मूर्तियों के कुछ चिह्न हैं। इनके पास ही एक गणेशकी णिक गाथाओं एवं जैन-स्थापत्य पर भी कुछ प्रकाश मूर्ति है। यहीं पर गुप्तवंशी गजाओंके समयका एक पड़े। जैन विद्वानोंको यह कार्य करना चाहिए। लेख है, जिसमें सूर्यवंशी स्वामिभट्टका जिक्र है । यह "जिस मन्दिरमें शान्तिनाथ भगवानकी मूर्ति स्था- शिला-लेख संवत ६०९ का बताया जाता है । परन्तु पित है, उसके उपरी दालानमें एक विचित्र शिलालेख शिलालम्व वह बहुत स्पष्ट नहीं । सीढ़ियोंकी दीवार पर विष्णुकी है। उसमें ज्ञानशिला अंकित है। यह शिला-लेख १८ एक चतुर्भुजी मूर्ति भी यहां है। भाषाभों और लिपियोंमें लिखा बताया जाता है। गुफाके बाहर सं० १३४५ का एक शिला लेख है किंबदन्ती है कि ऋषभदेवकी पुत्री ग्रामीने १ लिपियों जिसमें राजा बीर द्वारा गढ़कुडारकी विजयका का भाविष्कार किया था। इनमें तुर्की, फारसी, नागर्ग, उल्लैग्व है। द्राविड़ी, उरिया प्रादि सम्मिलित थीं। शिलालेखकी। __ दूसरी घाटीमें 'जो गजघाँटीके नामसे प्रसिद्ध है, पहली सात पंक्तियों में सचमुच ही विभिन्न लिपियोंके । चंदलगज महागज कीर्तिवर्मन के समयका एक लेख नमने देखनेको मिलते हैं। मौर्यकालकी माझी है। है, जिसमें उसके मंत्री वत्सगज द्वारा इस स्थानके दाविद भाषाएँ मी उसमें हैं। परन्तु तुर्की भोर फारसी बनवाये जानेका जिक्र है। यह शिला-लेख संवत् के कोई पिहनहीं मिलते '११५४ का है और बहुत स्पष्ट पढ़ा जाता है। इस किलेके पूर्वी-भागमें एक जैन मन्दिर है। उसके .. कि लेखके माधार पर ही हमीरपुर गजेटियरके लेखकने एक सभे पर गजा भोज देवके समयका एक महत्त्व- लिखा किंवत्सराजने इस प्रदेशको अधिकृत करके देखिए, Annual Progress Report of एक दंगै बनवाया और उसका नाम कीसिगिरि the Superintendent Hindu and Buddhist Monument Northern Circle For रक्खा । परन्तु यह ठीक नहीं जान पड़ता क्योंकि the year ending 31st March 1918. देखिए हमीरपुर गजेटियर पृष्ट १० Page #556 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण [] बुन्देलखण्डका प्राचीन वैभव, देवगढ़ इसके पूर्व मंवत् ९१९ का जो शिला-लम्ब यहाँ प्राप्त असंख्य द्रव्यके स्वामी बन गये थे। देवगढ़ का किला है उसमें इस स्थानका नाम लगिरि लिखा है। यह और मन्दिर उनके हो बनवाये हैं। ये देवपत और शिला-लेख एक जैन-मन्दिरके म्तंभ पर अंकित है। क्षेमपन कौन थे और कब हुए, इसका कुछ पता नहीं इमस प्रकट है कि कीर्तिवर्मनके मंत्री वत्सराजने इस चलता परन्तु इसमें संदेह नहीं कि बुन्देलखण्डके स्थानकां अपने अधिकारमें करके मम्भवतः निलेका इतिहासमे एक समय ऐसा अवश्य रहा जब जैनियों जीर्णोद्धार किया और अपने स्वामीके नाम पर उस का गहाँ काफी प्रभुत्व रहा होगा। कहा जाता है कि का नाम कीर्तिगिरि रक्खा। बादमें जैन-मंदिगेंकी नत्कालीन राजाको इस बातका पता चला कि देवपत अधिकता के कारण इस स्थानका नाम देवगढ़ पड़ा। और क्षेमपतके पास पारस पथरी है तो उसनं देवगढ़ __चंदेलोंके पूर्व यह स्थान किसके अधिकारमे था पर चढ़ाई कर दी और नगरको अपने अधिकारमें यह कहना कठिन है। आजसे लगभग तीस वर्ष पूर्व कर लिया। परन्तु उस पथरी नहीं मिली। भाइयोंने श्रीपूर्णचंद्र मुकर्जीने ललितपुर मब डिवीजनकी पुग- उसे बेतवाके गंभीर जलमें डुबो दिया। नत्त्व-विषयक खोज की थी। उसमें देवगढ़के प्राचीन जैन-मंदिगें तथा नाहग्घाटी और गजपाटीके म्मारकोंका विस्तृत विवरण है। माथमें १३ नकशे अतिरिक्त किलके दक्षिणी-पश्चिमी कोने पर वागहजी और चित्र भी हैं । इस प्रदेशमें किसका कब तक का एक प्राचीन मंदिर है। इसका अधिकांश भाग प्रभुत्व रहा, इसका विवरण उन्होंने अपनी रिपोर्ट में नष्ट हो चुका है। इमलिए इस मंदिरकी शैली एवं इम प्रकार दिया है: निर्माण-काल के सम्बन्धम निश्चित रूपमें कुछ कहना शबर जाति-समयका पता नहीं। कठिन है। फिर भी मंदिरके भवशिष्ट अंशको देख पाण्डव-ईसास ३००० वर्ष पूर्व । कर यह कहा जा सकता है कि नीचे मैदानमें बने हुए गौढ़-समय अज्ञात है। गुम कालीन विष्णु-मदिरकी तरह ही इमकी बनावट गुप्त वंश-३०० से ६००ई। रही होगी और मम्भवनः यह नमी समयमासदेव वंश-८५० से ९६९ । पासका बना हुआ है। मंदिरके पास ही वाराहजीकी चन्दल वंश-१०००-१२१० । विशाल मूर्ति पड़ी है, जिसकी एक टांग टूट गई है। मुसलमान-१२५०-१६००। विष्णु-मंदिर किलेके नीचे बना हुआ है। भारतीय बुन्देल वंश-१६००-१८५७ । शिल्पकलाके प्रेमीजन इम मंदिरके नामसं ही देवगढ़ यह समय आनुमानिक है। श्रीपूर्णचंद्र बाबून को जानते हैं। इस मंदिरके ऊपरका अंश नष्ट हो इस अनुमानके प्रमाण अपनी रिपोर्ट में दिये हैं। चुका है । फिर भी शिखरके चिन्ह मौजूद हैं। गुम परन्तु देवगढ़का नाम जैनियों के साथ विशेष रूप कालका एक मंदिर जो कि सांची में है, और अपनी से सम्बद्ध है। उनका यह एक तीर्थस्थान भी है। उन पूर्ण सुरक्षित अवस्थामें मौजूद है, बिना शिखरका की जनश्रुतिके अनुसार देवपन और क्षेमपत नामके ही बना है। इसलिए जनरल कनिधामका अनुमान भाई थे। उनके पास पारस मणि थी, जिससे वे देखिए झासी गजेटियर, पृष्ट ८८ और २५० । Page #557 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५१८ भनेकान्त [वर्ष ४ है कि गुप्त कालमें मंदिरोंके शिग्वर बनानकी प्रथा नहीं भारतीय मूनिकलाकं कुछ बहुत ही बढ़िया नमूने थी, और देवगढ़का जो यह मंदिर है वह गुप्त-कालके अंकित हैं।' बादका बना हुआ है, क्योंकि इसमें शिखर मौजद है। पाठक इन पंक्तियों में ही इस मन्दिरकं महत्वका परन्तु मंदिरके निकट पड़े हुए एक खंभे पर गप्त- अनुमान लगा सकते हैं। मंदिर की दीवारों पर अधिकालीन शिला-लेखके विवरण तथा मंदिग्की दीवारों कतर रामायण के दृश्य अडिन हैं। खेदका विषय है पर अंकित प्रम्तर-मूर्तियोंकी बनावटसे यह बहुन कि कि इसके ऊपर के दो बंड नष्ट हो गये हैं और शिलास्पष्ट है कि यह मंदिर गुप्त-कालके प्रारम्भका बना खंडोंका पता नहीं है। उनमें भी संभवतः रामायणके हा है। और ऐसी दशामें, बिना किसी आपत्तिके दृश्य अंकित रहे होंगे । मंदिरकी खुदाई के समय जा यह कहा जा सकता है कि गुम-कालमें मंदिगेंके मूर्तियां यहां मिली उनमंस एक में पंचवटीका वह शिखर बनाने की प्रथा अज्ञात नहीं थी। दृश्य अंकित बताया जाता है, जहां लक्ष्मणने शूर्प___ पत्थरके जिन टुकड़ोंसे यह मंदिर बना है, उन एखाकी नाक काटी है। एकमें राम और सुग्रीवके पर बढ़िया मूर्तियाँ खुदी हैं। कलाकी दृष्टिस व मिलनका दृश्य अंकित है। एक और पत्थर पर राम इतनी सुंदर और भावपूर्ण हैं कि विदेशियों नकन और लक्ष्मण शव के आश्रममें जाते दिग्वाये गये हैं। उनकी प्रशंसा की है। प्रसिद्ध इतिहासवेत्ता मिथ इस प्रकार की प्रस्तर-मूर्तियां, जिनमें गमायणके दृश्य गुप्त-कालीन भारतीय कलाकी चर्चा करते हुए इस अंकित हों, भारतवर्ष में अन्यत्र नहीं मिलतीं । सहेठ मंदिरके विषय में लिखते हैं महेठ नामक एक स्थानमें अवश्य कुछ ऐमी मूर्तियां ___ "The most important and interes- हैं। किन्तु वे मिट्टी की हैं। गमायणके दृश्यों वाली ting extant stone temple of Gupta पत्थरकी मतियां देवगढमें ही हैं। इस दृष्टिस भी यह age is one of moderate dimensions at मन्दिर अपना एक विशेष महत्व रखता है। · Deogarh, which may be assigned to the first half of sixth or perhaps to उत्तरकी और जो दीवार है उसके बीच एक the fifth century. The penels of the प्रस्तर-खंड पर गज-माक्षका दृश्य अंकित है। पूर्व walls contain some of the finest वाली दीवार पर नपस्यारन नग्नागयण दिवाये गये specimens of Indian sculpture." हैं। यह मूर्ति बड़ी सुन्दर और भावपूर्ण है । जनरल __ अर्थान-"गुप्त-कालका जो सबसे अधिक मह- कनिघामने इस महायोगीक रूपमे शिवकी मूर्ति त्वपूर्ण और आकर्षक स्थापत्य है वह देवगढ़का, बताई है । परन्तु अब यह निश्चित हो गया है कि यह पत्थरका बना हुआ एक छोटासा-मंदिर है। यह ईसाकी नग्नारायणकी ही मूर्ति है और इस खोजका श्रेय छठी अथवा शायद पांचवीं शताब्दिका बना है। इस स्वर्गीय Y. R. Gupte (वाई. आर० गुमे) को है, मंदिरकी दीवारों पर जो प्रस्तर-फलक लगे हैं, उनमें जो भारतीय पुरातत्व-विभागके एक कर्मचारी थे। • देखिए, श्रीयुत दयाराम साहनी लिखित देवगढ़के भागवत् पुगण के ग्यारहवें स्कंधके चौथे अध्यायमें विषयमें भारतीय पुरातत्व-विभागकी रिपोर्ट। नर-नारायणको विष्णुका चौथा अवतार बताया गया Page #558 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ८ ] सुख-शान्ति चाहता है मानव ! ५१६ है, और उसमें तथा अन्य पुराण में विस्तार के साथ सफाई से दिया गया है। मूर्तियों का शरीर मानों उनमें उनकी तपस्या का भी वर्णन है। से झलक रहा है। नीचे जो पांच पुरुषमूर्तियां बनी हैं, वे काफी सजीव और गतिमान हैं। और भगवान् के मुखमंडल पर जो सौम्य एवं स्मित भाव दरसाया गया है, उसे अवलोकन करके तो कारीगरको एक वार नमस्कार करने को जी चाहता है। कौन था वह कलाकार, जिसने यह मूर्ति गढ़ी है ? दक्षिण की दीवार पर शेष- शायां भगवान की जो मूर्त्ति है, वह इस मंदिर की जान है। यह मूर्ति काफी बड़े आकार के लाल पत्थर पर खुदी है। अनंत या शेष पर विष्णु लेटे हुए हैं। लक्ष्मां की गोद मे उनका एक पैर है। उनका एक हाथ उनके दाहिने पैर पर खा हुआ है, और दूसरा मस्तकको सहारा दिये हुए है। उनके नाभि-कमल पर प्रजापति विराजमान हैं। ऊपर महादेव, इन्द्र आदि देवता अपने-अपने बाहनों पर बैठे हैं। नीचे पाडवों समेत द्रौपदी दिखाई गई है। कुछ व्यक्तियों की राय में ये पांच आयुध-धारी वीर पुरुष हैं । सभी मूर्तियांकी चेष्टाएँ बड़ी स्वाभाविक हैं । लक्ष्मी चरण चाप रही हैं। उनकी कोमल उँगलियोंके दबाव से चरण की मांस पेशी दब रही है, कारीगरने यह बात तक बड़ी खूबी से दिखाई है। परिधेय वस्त्रों के कनमें तो उसने अपने शिल्प-नैपुण्य की पराकाष्ठा पर पहुँचा दिया है । वस्त्रोंकी एक-एक सिकुड़न स्पष्ट | साथ ही उनकी बारीकीका परिचय भी बड़ी अब क्रान्तिचाहता है मानव !! सुख-शान्ति चाहता है मानव !! सब देख चुका नाते-रिश्ते, श्रपनीको भी देखा, परखा ! सुख सब साथी दीख पड़े. दुखमें न कोई चन मका सखा ! दुनियाके दुख दूर कहीं एकान्त सुख-शान्ति चाहता है मानव ! - पीड़ाकी गोदीम सोया. ग्वेला दिलके अरमानी ! विमा तो दाहाकारोंमें, रूटा तो अपने प्राणमि !! आध्यात्मिक पथ पर बढ़नेकी चाहता है मानव !! मुग्य ० - 55 5 15 15 श्री 'भ ग व मन्दिर किस देवता की प्रतिष्ठा के लिए बना होगा, यह कहना कठिन है, क्योंकि उसमें कोई मूर्त्ति नहीं । आसपास किस ऐसी मूर्तिका टुकड़ा भी नहीं मिला, जो मन्दिर की जान पड़े। परन्तु खुदाई के समय विष्णु की अनेक खंडित मूर्तियां प्राप्त हुई हैं। साथ ही राम के अतिरिक्त अन्य अवतारोंकी मूर्तियोंके चिह्न यहाँ नहीं मिलते। इसमें यह अनुमान लगाया जाता है कि यह विष्णुका मंदिर रहा होगा, और अब यह विष्णुमंदिर के नामसे ही प्रसिद्ध है । न' पाठकों हमारा अनुरोध है कि देवगढ़ जाकर इस मंदिर दर्शन अवश्य करें । ('मधुकर' पाक्षिक) प्रोत्साहन के दो शब्द मिले, श्राशं पाले करुण मनकी ! प्राणी में जागें, नये प्राग, भरदे जो लडर जागरणकी ! जीवन रहस्य सम्भादे वह - द्रान्त चाहता है मानव !! सुख० जीए तो जीए ठीक तरह, मुन लेकर लजे नहीं ! मानव कहलाकर दीन न हो, और मानवताको तजे नहीं ! इस पर भी श्रा बनती है तबप्राणान्त चाहता है मानव !! सुम्व शान्ति चाहना मानव !! 4 Page #559 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अपभ्रंश भाषाके दो ग्रंथ (लेखक- दीपचन्द पारख्या ) mameणी और टांडा ये दो गांव जयपुर उनकं नाम 'वड्माणचरिउ' और 'बड्माणकवु' हैं। है । राज्यमें, केकड़ीस १५ और १० कोसकी पहले ग्रंथकी एक प्रति दुणी गांवकं जैन मंदिर में mins दूरी पर हैं। यहाँ पहले जयपुर की और दूसरंकी एक प्रति संठजीकी नशियों अजमेर में गादीके भट्रारक श्री सुरेन्द्रकीर्तिजीकी प्राम्नायकं चार है। पहलेमें वीरजिनेन्द्रका चरित वर्णित है तो दूसरे पंडित वृदावन, सीताराम, शिवजीराम और नेमिचंद्र में राजा श्रेणिक व अभयकुमारका चरित अंकित है। होगये हैं। ये तेरह पंथक प्रतिद्वंदी रहे हैं। शिवजी- पहलेमें कुल सांधयां १० कडवक १८० के करीब तथा गमक ग्रंथ भगवती माराधनाको सं० टीका, चर्चाः श्लोक लगभग तीन हजार हैं। पहले की प्रति पूरी है सार, दर्शनसार-बचनिका मादि हैं। और नेमिचंद्रका दूसरेकी अधूरी। दूसरमें कुल ११ संधियां हैं, कडवक पंथ 'सूर्यप्रकाश' मशहूर है जो छप चुका है और संख्या सहजमें नहीं जानी गई, उपलब्ध परिमाण १४०० जिसकी विस्तृत परीक्षा भी पं० जुगलकिशार मुख्तार श्लोकके करीब है। दनों ग्रंथ अपभ्रंश भाषामें रचे गये की लिखी हुई निकल चुकी है। पं० नेमिचंद्र १९४० हैं। इन ग्रंथोंका संक्षेपमें परिचय नीच दिया जाता है। विक्रम सं० तक जीवित थे। शिवजीराम अच्छे वडमाणचरिकेत कर्ता विद्वान थे, इन्होंने ही अनेक स्थनोंस अनेक ग्रंथ इस प्रथकी पूरी प्रति दूणी में १०० पत्रात्मक थी प्राप्त किये और टोड़ा व दूणी स्थानों में रक्खे । इन पर ७ पत्र गायब कर दिये गये :-किसी अन्य वेष्टन भंडारों में कई उत्तमोत्तम ग्रंथ हैं। पं. नेमिचंद्रजीके में होंगे। मुझे एक मास पूर्व नोटम लिम्वते समय दिवंगत होने के बाद भंडारोंका बंदोबस्त जैन पंचोंके अंतकं पत्र नहीं मिले, अतएव इसके कर्ताका कितना हाथमें आया, तबसे इन भंडागेकी हालत दर्दनाक ही परिचय बोमलसा होगया है। फिर भी जो कुछ (खराब) हो रही है। टोडा भंडारमें दणीकी अपेक्षा भार 6 प्रतिपरस मिला वही देकर संतोष किया जाता है: इस प्रथकं कर्ता कविवर विबुध श्रीधर हैं। इनके ग्रंथ बहत अधिक हैं। टोखामें कई श्वे० पागम ग्रंथ द्वारा रचित 'भ्रतावतार' और 'भविष्यदत्तकथा' ये दा भी हैं। दोनों ही स्थानोंमें ग्रंथ अस्त-व्यस्त दशामें पड़े संस्कत प्रथ भंडारोंमें सुलभ हैं तथा भागे उद्धत इस हैं। सूचिया कोई नहीं है। पंच लोगशास्त्रज्ञानका मह- प्रथके द्वितीय कावक परसे कविवरकी, 'चंद्रप्रभचरित' त्व नहीं समझते, यह बड़े ही खेदका विषय है ! प्रस्तु। और शांतिजिन-चरित' नामकी दो रचनाका यहाँ जिन दो प्रथोंका परिचय दिया जारहा है भी होना पाया जाता है, जो कि अभी तक *यह सूर्यप्रकाश-परीक्षा ला• जौहरीमलजी सर्राफ दरीबाकला, अप्राप्य जान पड़ती हैं। इस प्रकार कुल ५ देहलीके पाससे मिलती है। -सम्पादक प्रथोंका पता लगा है। कविवर संस्कृत Page #560 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] अपभ्रंश भाषाके दो 'थ ५२१ तथा अपभ्रशभाषा पर अपना यथेष्ट अधिकार रखते बड़माण चरिउकी कविताका दिग्दर्शन थे। भविष्यदत्तकथाकी सर्गान्त संधिमें 'साधु नीचे जो कविता परिचयके लिए लिखी गई है लक्ष्मण' नाम अंकित है और बड्माणचरिसकी उमसे ग्रंथकी रचनाशैली प्रौढ जान पड़ती है। पहले संधिके अंतमें 'साधु नेमिचंद्र' नाम अंकित है । संभ- कडवकमें २४ तीर्थकगेंकी स्तुति है जो पादमध्ययमक' वतः इन दोनोंकी कविवर पर विशेष कृपा रही होगी नामके चित्रालंकारकी मनोहर छटाको लिये है । दूसरे या व दानों कविके आश्रयदाता रहे होंगे। इनका कडवकमें साधु ननिचंद के माता पिता और कुलका ममय विक्रमकी १४ वीं शताब्दी अनुमान किया जाता परिचय है। माधु नेमिचंद्र कहते हैं कि 'हे कवि है । कविवरने दूसरे कड़वकमें नेमिचंद्र साधुका परि. चंद्रप्रभ और शांतिजिनके चरितकी भांति वीरचय देते हुए लिम्बा है कि साधु नेमिचंद्रके पिता 'नरवर' जिनका चरित भी ग्चो' कवि प्रतिज्ञावाक्य-द्वारा थे' माता 'सोमा' थीं और वे जायम कुलके तिलक तीसरे कडवकसे ही कथा प्रारंभ करता है। १७ वें थे।' 'जायम' को 'जायस मानें तो वे शायद जैसवाल कडवको नंदिवर्धनका ५०० नरेश्वरोंके साथ पिहितावैश्य होंगे। साधु माहु-साहूकार शब्द वैश्य धनिकोंके सव मुनिक पाम दीक्षालनका वर्णन है। लिये व्यवहन होना आया है। बस इनका इतना ही घडमाणचरिउकी संधियोंका नाम परिचय प्राप्त होसका है। पहले धनिक जैन सेठ और उनमें कडवक संख्या इम तरह पंडितों और कवियोंको आश्रय देकर सची (१) णंदिवडणवइराय, १७ क०, (२) भगवयप्रभावना करते थे और नवीन रचना बनवाते थे, भवावलि २२, (३) बलवासुएल पडिवासुएव वएणण, कविने साधु नेमिचंद्रकी प्रार्थना पर ही इस प्रथको ३१, (४) सणाणिवेस २४, (५) तिविट्ठ-विजयलाह बनाया है। संधियोंके आदिमें नेमिचंद्र साधुको प्रशंसा २२, (६) सीह-समाहि १०, (७) हरिसणगयमुगिामें संस्कृत पद्य भी पाये जाते हैं । इस प्रन्थमें समागम १०, (८) पदणमुणि-पाणयकप्पगमरण ८, कविवरने पुष्पदंत कविके महापुराणका अनुकरण (९) वीरणाह कलाण-च उक्क २३, (१०) १० वीं किया है। संधिका नाम कडवकसंख्या पक्षात है। वडमाणचरिउकी प्रति यह प्रति कोई ३०० वर्षकी पुरानी होनी चाहिये, बडमाण चरिउका नमूना हालत ठीक है, पत्र कोमल है, कुलपत्र १०० है, (प्रारम्भिक भाग) हर एक पत्रमें २२ लाइन और हर लाइनमें ४०-४१ ॥६० ॥ 1 नमो वीतरागाय ॥ गाथा ।। ६० ।। अक्षर सुवाच्य हैं। अंतिम पत्रोंमें प्रशस्ति श्रादि भी (संधि १ ली कडवक १ ला) होगी। बाज मंत्रियों में होमिर्च-गाकिनी परमेट्ठिहो पनिमलदिहिहो चलण एवं प्पिणु वीरहो। 'णेमिचंदसमणुमण्णिए' मिलता है। इस प्रधिकी तमु णासमि चरिच समासमि जिय-दुब्जय-सर वीरहो। जय मुहय मुहय रिस विसहणाह प्रतिलिपि दूणीमें ही हो सकती है। प्रध-प्रति बाहर के जय भजिय अजिय सासण सणाह लिये नहीं दी जाती। जय संभव संभवहर पहाण, जयणंदण दण पत्तणाण Page #561 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५०२ अनेकान्त [वर्ष ४ जय सुमइ सुमइ परिवत्त हाम समणयणदिट्ठकंचणतिणासु जय पउमप्पह पउमप्पहाम अंतिमतित्त्थयरहो थिरयगसु जय परम परमणाहर सुपाम गंभीग्मि-जिय-ग्यणायरासु जय चंदप्पह चंदापहाम ता पुज्जहि मज्मु मणोहगई जय सुविहि सुविहियर अविहिबुक्क (?) त्रिणु गंतिय णिरुपयणियसुहाई जय सीयल सीयल भावमुक्क तं णिसुणेवि भासिउ सिरिहरेण जय समय समय मेयंम पूज कइण। बुहयण-माणसहरेण जय सुमण सुमणथुव वासुपूज जं वुत्तर तुम्हिहि जुत्तर तं अहरेण ममागामि जय विमल विमल गुणग्याकंन णिय सत्तिए जिणपयभत्तिए निहँ विह तंपि वियागामि जय वरय वग्यर अणंतसंत (१) कडवक १७ वाँ जय धम्म सुधम्म सुमग्गणाण पई विगुइउ रज कुलक्कमाउ, जय मंति य संति अणंनणाण गय पहुणासइ विच्छरिय राउ जय मिद्ध पमिद्ध पबुद्धकुंथु णियकुलमंतइ परवग्सुएण जय अहिय अहिययर कहिय कंथु (१) णिच्छ र उद्धग्यि इणीवरेण जय विसय विमय हरि मल्लिदेव जणणेरि उ माहु असाहु जं जे जय सुव्वय सुव्वयवंत संव तणएण करवउ अवसुजे जय विगय विगयण मिणिग्हमामि इय जाणंतुवि णयमग्गु जार जय गीग्य गीग्यणयण णेमि कि संपइ अण्णारिसु सहार जय पाम अपाम अणंग दाह णिम्महिउ कुलक्कमु णरवरेण जय विणय विणय सुर वीरगाह मूर लइ तवर्वाण जंतण तेण एजिणवर णिज्जयगडवर विगिावारिय चउविहगह। इउ मज्भु दिति अवजसु जणाई जय सासण विग्यविणासण महु पयडंतु महामह घरिनेण अच्छु कइवय दिणाई (१) कडवक रंग एउ भावि तणय भालाल चारु इक्कहिं दिणि णग्वरणंदणे विष्फुरिय ग्यणगणतिमिरभारु मोमाजणणी-श्रारणंदणेण सई वद्ध पठु जणणिं विसाल जिण-चरण-कमल दिदिरंग णं बद्धउ रिउवर बाहु डालु रिणम्मलयर-गुणमणि-मंदिरेण भूवाल-मंनि-सामंत-वग्गु जायम-कुल-कमल-दिवायरेण महुग्-गिरई संभासिउसमग्गु जिरणभणियागम-विहिणायरंण तुम्हई संपड बहु सामिसालु णामेण मिचंदेण वुत्तु (१) पणविज्जहो णिवलच्छी विमालु भी कइसिरिहर ! सहढ जुत्तु ! पिय-यम-सुमित्तबंधवयणाई जिह विरइन चरिउ दुहाहवारि पुन्छेविणु पणयट्ठिय भणाई संसारुभवसंतावहारि णिग्गर गेहहो परिहरिवि दंड चंदप्पहसंति-जिणेसगह पिहियांसव मुणिवरपायदंडु भश्चयण-सरोज-दिणेसराह पणवेवि तेण वरलक्खणेण तिहं वइ विरयहि वीरहो जिणासु तिपयाहिणु देविरणु तक्खणेण Page #562 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण] अपभ्रंश भाषाके दो ग्रंथ सविणय-पंचमय-णरेसरेहि पानंदि गणीन्द्र मुनिनाथकी भक्ति प्रवर्गों और गुरु महलवि दिक्व णिजियसरेहिं कवि हरिचंद्र के चरण मुझे शरण होउ । इस प्रकार जिणु माइउ णियमणु लाइ नेमिचंद रवि बंदिर कवि कलका, गरु आदिका, संघपति हीलिवम्मका णिय-सत्तिए गुरुयर-भत्तिए तव मिरिहरण दिउ साधारणमा परिचय मिलता है। हीलिवम्म, पद्यइय मिरि-बड़माणतिस्थयग्देव-चरिए पवर-गुण-यण नंदिमुनीद्र, कवि हरिचंद्र आदिकी समय स्थिति णियर-भरिए विबुह-मिरि-सुकड-सिरिहर-विरा माह अज्ञात है। मिरि-गिचंद-णामंकिए णंदिवडण-णग्दि वइगय- वढमाणकवुका नमूना वराणां णाम पढमो परिच्छेनी ॥ १ ॥ अथ श्रीवर्द्धमानकाव्य लिख्यते । वडमाण-कबुकी प्रति मंगलं भगवान वीगे मंगलं जिनशासनम यह पनि नवीन ३०-४० वर्ष की ही है, ५३४५ मंगलं कुंदकुदार्यो वंदे वाणी जिनाय काम् । १ । घत्ताइंच माइजके अनुमान ५०-५५ पत्रोमे उपलब्ध है । ग्रंथ 'संण, पट्टविन तेरण। परिमाण १४०० श्लोकके लगभग है । कहाँकी प्रतिक । तं पेच्छि गउ, हुर साणुगः॥ आधारपर इसकी नक़ल हुई, यह बान संठ सा० ण उ किय परिक्ख, गुरुयणहँ सिक्ख । अठिया णयण (?) ते गण पणा ॥ भागचंदजी सांनी अजमेरके यहॉमे दर्यापन की जा होवि रमिल्ल, हयग्इ-गहिल्ल । सकती है। श्री०चिरंजीलालजी सोनीक मौजन्यस गर बाहियालि मम कर-विसालि ।। नशियाक शास्त्र देखिनेको मिल । हवलीके शास्त्राका महमई चडिण्णु " अवलाकन करने के लिये कई प्रयत्न किये, पर ना हार घडक्कि फुरु हरि फडक्कि । मंधुणवि कंधु झाडवि कबंधु। निष्फल रहे । अस्तु, वड्डमाणकव्वुकी प्रति अशुद्ध चल्लि र पयंडु फरवि स तुडु ।। है। शुरूका पाठ छूटा हुआ है । मंगलपद्य संस्कृतमे ण उ रहइ ठाई संधिर विगई। है, उसके बाद ही उपश्रेणिक नरंशकं अश्वारोहण जहं मसु णग्म्म विसया उरम्म ।। और भिल्लसमागमक वर्णनके पद्य है । प्रथम मंधिक गर गिग्विाम्म लयतरुघणम्मि । अंत कडवकर्म नंदीको दहला लई चित्त गउ जिहं गावरान घर पडिउ दिह, गुणगणगरिह अभयघोषणाका और कुमार अभयके जन्मका पंल्ली व (च) रेण धणुमवरेण ।। वर्णन है। मुपयंड पण (गण), जमदंड [व] गण । __ आगे उद्धत अन्ती ११वीं मंधिक अंत्यभागमे यह निगि म घरिणी उ जहिं ठिय विणीय ।। उल्लेख है कि देवरामक पत्रही लिवम्म म नहा तिय वियच्छ, रह-रस-रसक्छ। चरित प्रथको लिखा लिखा कर विस्तार किया।' तथा मध्यभागयह कुछ अष्ट सा है कि-'मंग पुत्र निज कुलमंडण मणित्थित गम्भणि वसहिं विगु ॥ दिगणाई सुसत्तमु घोमणु दिणु । पाल्हा साह है, जो मग्गहा (१) की जनताका दुःख मउ माहं पुराणु हुमा दस माम और रोग मिटाना है। साथ ही, कविकी प्रार्थना है कि सउण कुणंतु जणाह मणस्स | Page #563 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५२४ भनेकान्त [वर्ष ४ - तणुब्भ द सिरीहिं उपाणु तं सुप्रणाण-देवि जगसारी जहुज्जल-मेरु-सिलाहिं सुवण्णु। महु अबराह खमउ भडारी। सुलक्खण वेजण-तेय सउराणु घत्ता-दयधम्मपवत्तण विमलमुकित्तणु णिरिक्खिवि चित्तु णःकासु सउरण णिसुणतहो जिणइंदहु । महुच्छड वासु कियउ पुग्लोई जं होइ सुधण्णउ हउ मणि मण्णउं ण भारह वरिणवि सख्कइ माई तं सुह जगि हरिइंदहु ॥१७॥ मुणेवि दयापरु धम्महं धामु अभीयकुमार पपिरणामु इति श्रीवर्द्धमानकाव्ये एकादशमः संधिः ।। इस तरह इन दो प्रन्थोंका परिचय दिया गया है। नविदा बालर अहसकुमाल र अससि दिणदह आशा है विद्वानगण इन प्रन्थोंकी और भी प्रतियों पियरहं साणंदर सिरिलयकंदउ कव्वु व कइ-हरि इंदह।। ॥ इय पंडिय-सिरि-जयमित्त-हल्ल-विग्इए वड का पता लगायेंगे। माणकव्वं पयडिय-चवम(ग्ग) रस-भवे सेणिय मेरा अनुभव अभयचरित्ते भवियण-गण मण-हरेण मंघडिव । मैंने उत्तरभारतके पचीस-तीस जैन भंडारोंका (वडि-बड) हो (ही लिवम्म-करणाऽऽहरणे संणियकहावयारो णंदसिरिविवाहसंगमा अभयकुमारजम्मु- अनुभव किया तो सभीकी हालत खराब पाई, न कछव-पण्णण णाम पढमा संधि-परिच्छेउ समत॥१॥ कहीं प्रन्थोंकी सूचियाँ पाई न नौंध ही-स्वाध्याय अन्तभाग- . का प्रचार नहींके बराबर है। शास्त्रोंकी संभाल माल णंदउ देवराम-णंदण धर भरमें एक बार भी नहीं की जाती । मालपुरा जिला हीलियम्मु कण्डवउ णयकर (?)। जैपुरके भण्डार तो बहुत ही खराब मिले । किसी एहु चरित्त जेण विस्थाग्उि . प्रन्थके दो पन्ने एक मन्दिर में तो १० पने दूसरे लहाविवि गुणिगण उवयारिउ ।। मन्दिर में इस तरह प्रतियाँ स्खण्डित पड़ी हैं। बालहसाहु माहस महु णंदण हमारे मन्दिरोंमें जहाँ सानेके काममें मुकगने और सजण-जण-मण-णयणा-र्णदण ॥ हाउ चिराउ सरिणय कुलमंडण चीनीकी टायलोंमें समाजका पैसा पानीकी तरह मग्गहा-जण दुह रोह विहंडण बहाया जाता है वहाँ शाखोंके लिये न योग्य वेष्टन है होउ संति सयलहं परिवारहँ और न गत्ते ही । आपसी फूट तो समाजका गला भत्ति पबट्टउ गुरुवय धारहँ ही घोटे जारही है। नहीं मालूम जैनोंमें कब विवेक पउमणदि मुणिणाह-गणिदहु । की जागृति होगी और वे जिनवाणीके प्रति अपना चरण सरण गुरु का हरिइंदहु जंहीणाघिउ कन्वु रसंसह ठीक कर्तव्य पहिचानेंगे। पर विरइउ सम्मइ प्रवियदृहूँ Page #564 -------------------------------------------------------------------------- ________________ - - -- २३ १६५ " वर्षे ४ पंचायती मंदिर देहलीके हलिखित ग्रंथोंकी सूची ५२५ समवसरण पूजापाठ पं.रूपचंद सं० । १०१ । १६९२ । १७९४ ममाधि चारितसेन मुनि प्रा० पद्य | ३०सं३३ मम्मदाष्टक भ० जगद्भूषण सं० पद्य १९०४ सम्मद शखरपूजा गंगादास । १८९८ मम्यक्त्वकौमुदी पं० खेता सं० पद्य १६६६ सरस्वतीम्तात्र (४) पूज्यपाद १९२से१९४ .... (जैन) आश्वलायन ५स९ महस्रनाम टीका भ० अमरकीनि सं० ८१ १८०९ महस्रनाम पूजा धर्मभूषण सं० पद्य १७७३ मामुद्रिकमटीक जैन ! " १७८९ माद्धद्वयद्वीपपूजा १८४१ माद्वयद्वीपपूजापाठ मामदत्त । स० १३३ १८४८ मिद्धचक्र चरित्र प्रा०(अपभ्रंश) १६७३ (कथानक)| पं० नरदेव १६१८ मिद्धचक्रपाठ भ० देवन्द्रकीर्ति १९११ मिद्धचक्रपाठ । भ. ललितकीर्ति सिद्धचक्रपूजा पं० धर्मदेव मिद्धचक्रपूजा भ० देवन्द्रकीर्ति सं० पद्य १८४१ सिद्धचक्रमंत्रोद्धारस्तवन पूजन भ० विद्याभूषण सूगि ३३३७३४२ मिद्धचक्रसहस्रगुणितपूजा भ० शुभचंद्र सं० सिद्धचक्रम्तवन पं० साधारण । सं० पद्य १०९स११० सिद्धपूजनकर्मदहनपृजनमहिन भ० मीमदत्त स१०४ सिद्धपूजा पत्रकार्ति ५२८१६ मिद्धमावर चिंतामणि श्रीमिद्धिनाथ मिद्धांतशिरोमणि (अजैन)। भास्कराचार्य, मिद्धांतसार जिनचंद्राचार्य प्रा०पथ १से२ सुकमालचरित्र गुणाभशिव्यपूर्णभद सुकौशलचरित्र ग्इधू प्रा०(अपभ्रंश) ३५ सुग्वसम्पत्तिविधानकथा विमलकीर्ति प्रा०४-५ सुगंधदशमीकथा मलयकीर्तिशिष्य गुणभद्रमुनि प्रा०(अपभ्रंश) १२७से१३६ सुप्रबोधनम्तोत्र कवि वाग्भट । सं० पद्य २५४वां पत्र सुबनानुप्रेक्षा विषयसनशिष्य पं० जोगदेव प्रा० से४ सांनागिरिमाहात्म्य दीक्षित देवदत्त सं० पद्य मोलहकारणकथा मलयकीर्तिशिष्य गुणभद्रमुनिप्रा०(अपभ्रंश) १३६से १४१ / सोलहकारणपूजा अनमागर सूचि ... १२४ से१२७ ' सोलहकारणविस्तारपूजा भ०झानभूषणशिष्य जगदूषण मं० पद्य ३११२३४२ खीभाग्यपंचासिका हरिवंशपुराण जमकीर्ति प्रा०(अपभ्रंश) १९७ । १६४४ हम्नसंजीवन (श्व०) मेषविजयगणी । सं० वीरसेवामन्दिर, सरमावा, ता०१५-१०-१९४१ १३५ Page #565 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य-परिचय और समालोचना मोक्ष शाख सचित्र और सटीक-मूल लेखक, जिनवल्लभादि प्राचार्योंके प्रामाणिक उद्धरणों के साथ इसकी प्राचार्य उमास्वाति । टीकाकार, पं० पनालाल जी जैन साहि- रचना की गई है। प्रस्तुत ग्रंथ ४१ द्वार या प्रकरण हैं जिनमें त्याचार्य सागर, । प्रकाशक, मूलचन्द किशनदाम कापडिया, श्रावक और साधुजीवन में प्रावश्कीय विधिक्रियानोंका संकलन नि० जैम पुस्तकालय, सूरन । पृष्ठसंख्या २२२ । मूल्य, बिना और प्रणयन किया है। जिन्दका बारह पानं । इस ग्रंथ सम्पादक विविधभाषाओंके पंडित और अनेक प्रस्तुन पुस्तक प्राचार्य उमास्वाति के तत्वार्थसूत्रकी ग्रंथोंके सम्पादक विद्वान श्री मुनि जिनविजयजी हैं। विद्वान टीका है, इसे मोक्षसास भी कहते हैं। टीकाकार 40 पना- सम्पादकने सम्पादकीय प्रस्तावनामें ग्रंथके प्रत्येक द्वारका लालजी माहिन्याचार्य दि. जैन समाजके उदीयमान लेखक संक्षिप्त परिचय भी करा दिया है और ग्रंथके नामकरण सम्ब और कवि हैं। आपने बालकोपयोगी इस टीकाका निर्माण धमें भी प्रकाश डाला है। कर जैन समाजका बड़ा उपकार किया है 1 टीकामें विस्तृत प्रस्तुतसंस्करणमें ग्रंथकर्ता जिनप्रभसूरिका संक्षिप्त जीवनविषय-सूची, पति-श्रतज्ञानादिके चार्ट, जन्बूद्वीपका नक्शा, चरित्र भी दिया हया है. जिसके लेखक हैं बाबू अगरचंद और षट द्वण्य और कालचक्रादिके चित्र, लासणिक पारिभाषिक भंवरलालजी नाहटा बीकानेर। जीवन-चरित्रमें संकलन करने शब्दोंका अनुक्रम और परीक्षोपयोगी प्रश्नपत्रोंको भी योग्य सभी आवश्यक वातोंका संग्रह किया गया है जिसस माथमें लगा दिया गया है, जिसमे पुस्तककी उपयोगता बढ ग्रंथकर्ताक जीवनका अच्छा परिचय मिल जाना है। इम गई है। इतना होने पर भी प्रस-सम्बन्धी कुछ अशुद्धियां तरह यह संस्करण बहत ही उपयोगी और संग्रहणीय हो जरूर खटकती हैं। फिर भी पुस्तक उपादेय और छात्रोपयोगी गया है। इस कार्य में भागलेने वाले सभी सजन धन्यवादके है। इस दिशा में प्रकाशक और टीकाकार दोनों ही का प्रयान पात्र हैं। इतने बड़े ग्रंथकी ५०० प्रतियां वितीर्ण की गई हैं। प्रशंसनीय है। (३) श्री जैनसिद्धान्त बोलसंग्रह-प्रथमभाग, द्वितीय (२) विधिमार्ग-प्रपा-(सुविहित सामाचारी)-मूल भाग-संग्रहकर्ता श्री भैरोदानजी मेठिया बीकानेर । प्रकाशक, लवक, श्रीजिनप्रभसूरि स्वो० वृत्ति सहित । पम्पादक, मुनि मेरिया पारमार्थिक संस्था, बीकानेर पृष्टसंख्या, प्रथमभाग श्रीजिनविजयजी । प्रकाशक, जोहरी मूलचन्द हीराचन्दजी ११२ द्वितीयभाग ४७५ । मूख्य सजिल्द दोनों भागोंका भगत, महावीर स्वामी मंदिर पायधुनी बम्बई । प्राप्तिस्थान, क्रमशः 1) 1॥) रुपया। जिनदत्तसरि ज्ञानभण्डार, ठिमोमवाल मोहल्ला, गोपीपुरा इस ग्रंथमें भागमादि ग्रंथों परसे सुन्दर वाक्योंका संग्रह सूरत (२० गुजरात)। पृष्ठ संख्या, १६८ कागज छपाई-सफाई हिन्दी भाषामें दिया हया है। दोनों भागोंके बोलोंगेट अप चित्ताकर्षक, पक्की चिल्द । वाक्योंका संग्रह ५६८ है। ये बोल संग्रह श्वेताम्बर साहित्य इस ग्रंथका विषय नामसे ही स्पष्ट है। जिनप्रभसूरिने के अभ्यासियोंको तथा विद्यार्थियोंके लिये बड़े कामकी चीज इस ग्रंथमे गृहस्थ और मुनि के द्वारा भाचरण करने योग्य हैं। ग्रंथ उपयोगी और संग्रह करने योग्य है । सेठिया भैरों उन विधि-विधानोंका पुरातन ग्रंथोंके उद्धरणादिके साथ शनजी बीकानेरने अपनी लगभग पांचलागवकी स्थावर सम्पत्ति मप्रमाण वर्णन दिया है, जो प्रधानतया श्वेताम्बरीय खरतर का दृष्ट, बालपाठशाला, विद्यालय, नाइटकालेज, कन्यागच्छीय प्राचायोंके द्वारा स्वीकृत और सम्मत है। यह ग्रंथ पाठशाला, ग्रंथालय और मुद्रणालय, इन बह संस्थाओं के विधिमार्गके जिज्ञासुमोंकी जिज्ञासारूप प्यामकी तृप्तिके लिये नाम कर दिया है, उसी फंडसे प्रस्तुत दोनों भामोंका प्रकाशन प्याऊके समान है। ग्रंथकी प्रामाणिकताके विषय में प्रथकारने हुना। भापकी या उदारवृत्ति और लोकोपयोगी कामों में स्वयं यह बतलाया है किया ग्रंथ अपनी बुद्धिसे करिपत दानकी पामरुचि सराहनीय तथा अन्य पनिक श्रीमानोंके कर नहीं बनाया गया है परन्तु इसमें प्राचार्य मानदेव और लिये अनुकरणीय है। -परमानन्द जैन शास्त्री Page #566 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त के सहायक जिन सज्जनोंने श्रनेकान्तकी ठोस सेवानोंके प्रति अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, उसे घाटेकी चिन्तासे मुक्त रहकर निराकुलतापूर्वक अपने कार्यमें प्रगति श्ररने और अधिकाधिक रूपसे समाज सेवाओं में अग्रसर होनेके लिये सहायताका वचन दिया है और इस प्रकार अनेकान्तकी महायक श्रेणीमे अपना नाम लिखाकर श्रनेकान्तके संचालकोंको प्रोत्साहित किया है उनके शुभ नाम सहायता की रकम सहित इस प्रकार हैं- * १२५) वा. छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता । * १०१ ) बा. श्रजितप्रसादजी जैन एडवोकेट, लखनऊ । * १०१ ) वा. बहादुरसिंहजी सिधी, कलकत्ता । (१००) माहू श्रेयासप्रसादजी जैन, लाहौर । * १००) साहू शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर । * १००) बा. शाँतिनाथ सुपुत्र बा. नंदलालजी जैन, कलकत्ता १००) ला. तनसुम्बरायजी जैन, न्यू देहली। * १००) मेठ जोखीराम बैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता । १००) बा. लालचन्दजी जैन, एडवोकेट, राहतक । १००) बा. जयभगवानजी वकील श्रादि जैन पंचान, पानीपत * २५) रा. ब. बा. उलफतरायजी जैन रि. इञ्जिनियर, मेरठ। * २५) ला. दलीप,सह काग़ज़ी और उनकी मार्फत, देहली * २५) पं. नाथूराम जी प्रेमी, हिन्दी-प्रन्थ-रत्नाकर, बम्बई । * २५) ला. रूड़ामलजी जैन, शामियाने वाले, सहारनपुर । * २५) बा. रघुवरदयालजी. एम. ए. करौलबाग, देहली। * २५) सेठ गुलाबचन्द जी जैन टाग्या, इन्दौर । * २५) ला. बाबूराम अकलंकप्रसादजी जैन, तिस्सा (मु.न.) २५) मुंशी सुमतप्रसादजी जैन, रिटायर्ड अमीन, सहारनपुर। * २५) ला. दीपचन्दजी जैन रईस, देहरादून । * २५) ला. प्रद्युम्नकुमारजी जैन रईम, सहारनपुर । * २५) सवाई सिंघई धर्मदास भगवानदासजी जैन, सतना । श्राशा है अनेकान्तके प्रेमी दूसरे सज्जन भी आपका अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही महायक स्कीमको मफल बनाने में अपना सहयोग प्रदान करके यशके भागी बनेंगे । नोट-जिन रकमांके सामने यह चिन्ह दिया है वे पूरी प्राप्त हो चुकी है। व्यवस्थापक 'अनेकांत' बीरसेवा मन्दिर, सरमाया (सहारनपुर) द्वितीय तृतीय मार्ग से प्राप्त हुई सहायता मुई अनेकान्तकी सहायताके भ्रमागमेंसे द्वितीय मार्ग से प्राप्त EEII) रुपये की सहायता अनेकान्तकी पूर्व किरणोंमें (किरण ४ तक) प्रकाशित होचुकी है, उसके बाद दस रुपये की सहायता सेठ रोडमल मेघराजजी जैन सुसारीके चार दानसहायक फंडकी तरफसे, चार निर्दिष्ट वाचनालयोंको अनेकान्त एक वर्ष तक फ्री भिजवानेके लिये, प्राप्त हुई है। इसी तरह तृतीय मार्गसे प्राप्त हुई ३८) रुपये की सहायता गत किरण नं. ८ में प्रकाशित हुई थी, उसके बाद दो रुपये की महायता लाला सिद्धकरणजी सेठी ( अजमेर निवासी) मिविललाइन श्रागरासे, (धर्मपत्नी के स्वर्गवास के अवसर पर निकाले हुए दानमें से ) प्राप्त हुई है । दातार महाशय धन्यवाद के पात्र है। - व्यवस्थापक 'अनेकांत' बनारसी - नाममाला पुस्तकरूपमें जिस बनारसी - नाममालाको पाठक इस किरणमं देख रहे हैं वह अलग पrse माइजमें पुस्तकाकार भी छपाई जारही है। उसके साथ मे पुस्तककी उपयोगिताको बढ़ाने के लिये आधुनिक पद्धति से तय्यार किया गया शब्दानुक्रमणिका के रूपमें एक शब्दकोष भी लगाया जारहा है, जिसमें कोई दो हजार के करीब शब्दांका समावेश है। इमसे सहज ही मं मूलकोष के अन्तर्गत शब्दां और उनके अथको मालूम किया जा सकेगा, और इससे प्रस्तुत कोषका और भी अच्छी तरह से उपयोग हो सकेगा तथा उपयोग करने वालोंक समयकी काफी बचत होगी। हिन्दी भाषा के प्रथम अभ्यास एवं स्वाध्याय करने वालोंके लिये यह सुन्दर कोष बड़े ही कामकी तथा मदा पास रखनेकी चीज़ होगी। यह पुस्तक चार फार्म से ऊपर कोई १३२ पृष्ठकी होगी और मूल्य होगा चार थाने । प्रतियों थोड़ी ही छपवाई जारही है, अतः जिन्हें श्रावश्यकता होत्रे 'वाग्मेनामंदिर' ममावा जिला महारनपुर को पोल्टेज महित पाँच थाने भेजकर मंगा सकते हैं। --प्रकाशक ज़रूरी सूचना 'मयुक्तिक सम्मति पर लिखे गये उत्तर लेखकी नि:मारता' शीर्षक लेखका शेषाश सम्पादकजी की अस्वस्थताके कारण इस किरणमें नहीं जामका । इसके लिये लेखक और पाठक महाशय क्षमा करें। अगली किरामे उसे देनेका जरूर यत्न किया जायगा । -प्रकाशक Page #567 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REGISTERED NO.A-731. वीरसेवामन्दिर सरसावामें ग्रन्थ-प्रकाशन और दिगम्बर जैनग्रंथांकी मृचीके ___ दो महान् कार्य (१)ग्रन्थ-प्रकाशन वर्षायामन्दिम्म पगतान-बाय-मूची पोर जैन लक्षणावनी लक्षणामक जैन-पारिभाषिक कदकोष अादि कई महान ग्रन्याका जो निर्माण कार्य हो रहा है उसका प्रकाशन अब शीघ्र ही प्रारम्भ होने वाला है। प्रकाशनक लिय धनकी योजना हो गई। नलगावलीका निर्माण कोई... दिगम्बर और २०० अंताम्बर प्रन्यांपरम हुया है। इसका प्रकाशन नार-पांच बर बर म्याट्री में होगा। परन इसमे हिन्दी लगानका विचार नहीं शा; परन्तु अब कई मित्रांक अनुरोध परामर्शम हिन्दीमलसमाका मार अपना अनवाद भी पाथमे लगाया जा रहा है। और इसमें यह कोष ग्रन्थ ममी शाम्या यामियों गचं नियायिका ममम मालीक लिय बही काम की नीज होगा। कोट भी लायबंग पम्नकालय विगालय, वाचनालय, न गोर नन्दिरमा नही होगा तिम्पको इसकी जानन हाक म्याश्याय-प्रेमीको मप्रपन पाम पमना गाकको भीम अपना नाम। जिस्टर करा लना चाहिय तिमय प्रकाशित पनामा न. पा . मग्न्य धारा मनन बादको दी जाय। पगतन-मन-नाक्य मुनीका पहला नागा भाषा का प्रयोक यानीगाकाको लिकम पहले प्रेमी जाने वाला है। यह अंधमिकायाम करने वाले निगाधियों का प्रार्ग अंधापरकी भोर उन मायायप्रेमियों के लिये भी कामका भी होगा जो किमी शाम आदि काम श्राण हान वाक्यांक विषय में यह जानना नाहनेही किनेकोनम अन्य अथवा पन्धाक वाक्य है। इस प्रगती कापिया बहन श्रीना जायगा, गन प्राय नमजनम प्राप्त का मग जी पालम अपना नाम दर्गमग लेंग! दो और अपच भागननादानिक मागा होमिन नामादिक मनना बादको दी आगा। (दि.जैनग्रन्थम्ची-पक मिनाय. नाम्मामन्दिा लामन जयन्ती मनाम हुए . अम्मायके अनमा दिगम्बर नग्रंधांकी एक पूर्ण मुनी नश्यार कानका भार अपने ऊपर ले लिया। यह काम संजीय प्रारम्भ भी होगया. अनेक धानीक शास्त्रभरा दागकी मुनिया भारही है। पान यह काम बहुन बरा. घोर हम सभी स्थानोंक विद्वानों नधा गाभगगक यक्षा प्रबन्धकांक सहयोगको जम्न। प्राशा इस पण्य कायम सभी वीम्मेवामन्दिरका हाथ बटाग और मेगा ही अभिलषित मुनी नरयार करके प्रकाशित करनेका शुम अत्रमा प्रदान करेंगे। इस मनीयं परमं महज हम यह मालूम हो मगा कि हमार पाम माहिग्य की कितनी पंजी है, दिगमा माहिस्थ किनमा विशाल है और वह कहाँ कहा बिवरा पदा। साथ ही बढ़तीको नय नये ग्रंथोंको पढने, निवाकर मंगाने तथा प्रचार करने की प्रेरणा भी मिलेगी, और यह मबक प्रकार जिनवाणीमानाकी सची संवाहोगी। अमः जिम जिम म्थान मजनाने अभी तक अपने यहांक शाखभगहारका मुनी नहीं भेजी है उन्हें शीघ्र ही नाचक पतं पर उसके भनेका पग यान करना चाहिये । जहां अछे रबर भाटार है वहांक श्रीमानोंका या दाम कम्य है कि वो निगानीको लगाकर शीघ्र ही व्यवस्थित मुनी मय्यार करा | मुचाम भराडारक नामक मानीच लिम्बदम कोष्टकोन नाहिये. ओर जो कोष्टक प्रयत्न करनेपर भी भर न जा सके उन्हें बिन्दु लगाकर ग्वाली छोड़ दना चाहिय... । नम्बर • ग्रंध-नाम, ३ ग्रंथकार नाम, भाषा, विषय. नाकाल. लोकमंग्या. पत्रमाव्या. लिपि संबन... कैफियन प्रतिको जाग्गादि पवम्या नशा पूर्ण - भागकी मुचनाको लिये हुए। जुगलकिशोर मुल्तार अधिना धीरसंबामन्दिा' पा० सम्मावा (जि. महारनपुर) मुद्रक, प्रकाशक पं. परमानंद शासी वीरसेवामन्दिर, सरसावा के लिये श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तवहारा श्रीवास्तव प्रेत सहारनपुर में मुद्रिन Page #568 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मनका का स्त meta अनकान्तात्मका auratha Dainehati NE म्याता भ्यात NE म्यान Prerative HEEN ९.भाकर ANTRA याहिका विजय नगा पर्गमन नवम्बर. २६१ Page #569 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची 1-मित्य की प्रारम-प्रार्थना--[सम्पादक पृष्ट ५२७ -स्पा-बीसा-भेदका प्राचीनत्व-[श्रीनगरचन्द्रनाहटा ५४५ २-अच्छे दिन (कविता)-श्री भगवत्' जैन ५ २८ १०-जश्नान (कहानी)--[श्री 'भगवत्' जैन ५४७ ३-नर नरके प्राणोंका प्यासा (कविता) "-जैनधर्मकी देन--[भाचार्य श्रीचितिमोहनसेन ५५१ -[श्री काशीराम शर्मा 'प्रफुरिखत' १२८१२-तामिलभाषाका जैनसाहित्य--प्रो०१० चक्रवर्ती ५५७ -बीरनिर्वाण-सम्वत्की समालोचना पर विचार-- १३-भगवान महावीरके निर्वाण-संवत्की समालोचना [सम्पादक]५२६ -[4. ५० शान्तिराज शासी ५५६ ५-नसाहित्य में ग्वालियर--मुनि श्रीकांतिसागर ५३६ १४-पंचायतीमन्दिर दहेलीके ४० लि. प्रन्योंकी ६-अनेकान्त और अहिंसा--पं० सुखलालजी जैन ५५ द्वितीय सूची--[सम्पादक ७-बनारसी-नाममालाका संशोधन २५२५-'सयुक्तिकसम्मति' पर लिखे गये उत्तरलेखकी -मृग-पषि-माब-सरस्वतीसे उद्धृत २४३ नि:मारता--[पं. रामप्रसादजी बम्बई ५६७ अनेकान्तके प्रेमी-पाठकोंसे निवेदन 'अनेकान्त'को वीरमेवामन्दिरसे प्रकाशित होते हुए भा रहा है, उसका मूल्य पहले ही प्रचारकी दृष्टिमे ४) रु० १. महीने हो गये हैं-इस चौथे वर्षमें केवल दो किरणे के स्थानपर ३) रु० रखा गया था, फिर भी उसे बढ़ाया और प्रवशिष्ट रही है। अपने इस छोटेसे जीवनकालमें नहीं, और न पृष्टसंख्याही कम की गई--६ फार्म (४८पेज) 'अनेकान्त' में पाठकोंकी क्या कुष संवा की है उसे बतलाने प्रति भङ्गका संकल्प करके भी वह अब तक पाठकोंको १२ की जरूरत नहीं-वह सब दिनकर-प्रकाशकी तरह पाठकोंके पृष्ठ अधिक दे चुका है। ऐसी हालतमें उसे जो भारी घाटा सामने है। पहापर सिर्फ इतना ही निवेदन करना है कि उठाना पड़ रहा है वह सब प्रेमी पाठकोंके भरोसेपर ही। पाजकल युद्धके फलस्वरूप कागज भाविकी भारी माँगाईके भाशा है 'भनेकान्त' के प्रेमी प्राहक और पाठक महानुभाव कारण पत्रोंपर जो संकट उपस्थित है वह किसीसे छिपा नहीं इस मोर अवश्य ध्यान देंगे और पत्रको घाटेसे मुक्त रखनेके है--कितने ही पत्रों का जीवन समाप्त हो गया है, कितनों लिए अपना अपना कर्तव्य जरूर पूरा करेंगे। इस समय हीको अपनी पसंख्या तथा कागजकी क्वालिटी घटानी पड़ी उनसे सिर्फ इतना ही नासतौरपर निवेदन है कि कमस है और बहुतोने पृष्ठसंख्या घटाने के साथ साथ मूल्य भी बढ़ा कम दो दो नये ग्राहक बनाने का संकल्प करके उसे शीघ्र दिया। स्याण' जैसे पनने भी, जिसकी प्राहक संख्या ही पूरा करने का प्रयत्न करें, जिससे यह पत्र भागामी वर्षके साठहमारके करीब है, इस वर्ष ४) रु. के स्थानमें ५) १० लिये और भी अधिक उत्साहके साथ सेवाकार्य के लिये मूल्य कर दिया है। परन्तु पर सब कुछ होते हुए भी प्रस्तुत हो सके। 'अनेकान्त' अपने पाठकों की उसी से बराबर सेवा करता व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #570 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विश्व तत्व-प्रकाशक 亮 वर्ष ४ किरण १० * ॐ अर्हम् * का नीतिविरोधी लोकव्यवहारवर्तकः परमागमस्य बीजं भुवनैकगुरुर्जयत्यनेकान्तः । वस्तुतत्व-संघातक वीर सेवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सरसावा जिला सहारनपुर मार्गशिर, वीरनिर्वाण सं० २४६८, विक्रम सं० १६६८ नित्यकी आत्म-प्रार्थना नवम्बर १९४१ शास्त्राऽभ्यासो जिनपति-नुतिः संगतिः सर्वदायैः, सद्वृत्तानां गुण-गण-कथा दोषवादे च मौनम् । सर्वस्यापि प्रिय-हित-बच्चो भावना चाऽऽत्मतत्त्वे, संपतां मम भव-भवे यावदेतेऽपवर्गः ॥ – जैन नित्यपाठ जब तक मुझे अपवर्गकी - मोक्षकी प्राप्ति नहीं होती तब तक भव-भवर्मे – जम्म- जम्ममें मेरा शाख-अभ्यास बना रहे — मैं ऐसे ग्रंथोंके स्वाध्यायसे कभी न चूकूँ जो प्राप्तपुरुषोंके कहे हुए अथवा प्राप्तकथित विषयका प्रतिपादन करनेवाले डों, तस्वके उपदेशको लिये हुए हों, सर्वके लिये हितरूप हो, अबाधित-सिद्धान्त हो और कुमार्गसे ही जिनेन्द्रके प्रति मैं सदा ननीभूत रहूँ — सर्वज्ञ, वीतराग और परमहितोपदेशी श्रीजिनदेवके गुयोंके ही भक्तिभाव जागृत रहे ; मुझे नित्य ही आर्यमन की— सत्पुरुषों की संगतिका सौभाग्य प्राप्त अथवा दुर्जनों के सम्पर्क में रहकर उनके प्रभाव से प्रभावित होने का कभी भी अवसर न मिले -- कथा ही मुझे सदा आनन्दित करे- मैं कभी भी विकथाओंके कहने-सुननेमें प्रवृत्त न होऊ डी मौन धारण करे- मैं कषायवश किसीके दोषोंका उद्घाटन न करूँ मेरी बचन प्रवृत्ति सबके लिये प्रिय तथा विरूप होवे - कषायसे प्रेरित होकर मैं कभी भी ऐसा बोल न बोलू, अथवा ऐसा वचन मुँ इसे न निकालूं जो दूसरोंको अप्रिय होने के साथ साथ अहितकारी भी हो; और ग्राम-तत्वमें मेरी भावना सदा ही बनी रहे मैं एक सबके लिये भी उसे न भूलूँ, प्रत्युत उसमें निरन्तर ही योग देकर ग्राम विकासकी सिद्धिका बराबर प्रयत्न करता रहूँ । यही मेरी मिल्य की आत्म-प्रार्थना है। हटानेवाले हों; साथ प्रति मेरे हृदय में सदा होवे -कुसंगतिमें बैठने सचरित्र पुरुषों की गुष्ा गयादोषोंके कथनमें मेरी जिह्वा सदा Page #571 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अब भले दिन भाजाएँगे! दराने वाले ही मुझको, प्यार करेंगे, अपनाएँगे !! जब अच्छे दिन प्राजाएँगे! ब्राज मूर्ख जिनकी निगाहमें, कल वे ही विद्वान् कहेंगे! निर्धन-सेवक नहीं, बल्कि सेवामें तब श्रीमान् रहेंगे !! रूठे हुए सहोदर भी तब, सरस प्रेमके गुण गाएंगे! जब श्रीज जेब खाली रहती है, मन रहता है रीता-रीता! लेकिन कल यह नहीं रहेगा, पाऊँगा मैं सभी सुभीता !! शत्रु, शत्रुता छोड़ मिलेंगे, अपनी लघुता दिखलाएँगे! जब 'अच्छा' भी करता हूँ तो वह, श्राज 'बुरा होकर रहता है! 'दुरा किया भी अच्छा होगा', यह जगका अनुभव कहता!! यश फैलेगा हर प्रकार तब, कोई प्रयशन कर पाएँगे! जब बात-चीत में, राम-सहनमें, श्रोन, तेज, दोनों चमकेंगे! एक नया जीवन श्राएगा, जब जीवनके दिन पलटेंगे! हरियाली का जायेमी तब, सुख-मधुकर या मॅडराएँगे! जय. घर ही नहीं, शहर-भर मेरे, इंगित-पथपर चला चलेगा! जो मैं कह दूँगा वह होगा, कोई उसे न टाल सकेगा.! आज सामने आते हैं जो, कल पाते भी सकुचाएँगे ! जब बिगडी बनते देर न होगी, देर न होगी समय बदलते! अच्छे-बुरे सभी पाते है दिन, जीवन पथ चलते-चलते !! 'भगवत्' तक पहुंचेंगे, नौका अपनी जो खेते जाएँगे! जब अच्छे-दिन श्राजाएँगे !! नर नरके प्राणोंका प्यासा! %3 श्री भगवत्' जैन वि-सवनमे भाग ली है, शान्ति, क्रान्तिमें बदल रही। टूट से सम्बरसे तारे , उगबगारे रही, मही । मुखस-मुलसकर मानवताकीराख हुई जाती है, हाय ! दानवता देदीप्यमान हो, मानवको करती मिरूपाय !! पा-माद हो रहा चतुर्दिक ज्वालामोंसे खेल रहा जग, विता-पिता पंकती है। भीषणतामें मृदु - माशा ! समें सम-की विषमें अमृत खोजबहागर के प्रायोका बाला !! 4० काशीराम शर्मा 'प्रफुलित' Page #572 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वीरनिर्वाणसम्वत्की समालोचनापर विचार [सम्पादकीय] श्रीयुन पंडित ए० शान्तिराजजी शास्त्री प्रास्थान इसका कोई खास सम्बन्ध नहीं है। इस माम्प्रदायिक विद्वान् मैसूर राज्यन 'भगवान् महावीरकं निर्वाण- मान्यताका रूप देना और इस तरह दिगम्बर समाज संवत्की समालोचना' शीर्षक एक लेख संस्कृत भाषा के हृदयमें अपने लेखका कुछ महत्त्व स्थापित करने मे लिखा है, जो हिन्दी जैनगजटके गत दीप- की चेष्टा करना ऐतिहासिक क्षेत्रमें कदम बढ़ानेवालोंमालिकाङ्क (वर्ष ४७ अंक १) में प्रकाशित हुआ है कलिय अनुचित है। श्वेताम्बर समाजके भी कितने और जिसका हिन्दी अनुवाद 'अनेकान्त' की इमी ही विद्वानोंने ऐतिहासिक दृष्टि से ही इस प्रश्मपर किरणमें अन्यत्र प्रकाशित हो रहा है। जैनगजटके विचार किया है, जिनमें मुनि कल्याणविजयजीका सं० सम्पादक पं० सुमेरचन्दजी दिवाकर' और नाम खास तौरस उल्लेखनीय है । इन्होंने 'वीर'जैनसिद्धान्तभास्कर' के सम्पादक पं० के० भुजबली निर्वाण-सम्वत् और जैन कालगणना' नामका एक शास्त्री प्रादि कुछ विद्वान मित्रोंका अनुराध हुआ कि गवेषणात्मक विस्तृत निबन्ध १८५ पृष्ठमा लिखा है, मुझे उक्त लेखपर अपना विचार जरूर प्रकट करना और उसमें कालगणनाकी कितनी ही भूलें प्रकट चाहिये । नदनुमार ही मैं नीचे अपना विचार प्रकट की गई हैं । यह निबन्ध 'नागरी प्रचारिणी पत्रिका' के करता हूँ। १०३ नथा ११३ भागमें प्रकाशित हुआ है। यदि यह इस लेख में मूल विषयको छोड़कर दो बातें खास प्रश्न केवल साम्प्रद यिक मान्यताका ही होता तो मुनि सौरपर आपत्तिके योग्य हैं-एकतो शास्त्रीजीने जीको इसके लिये इतना अधिक ऊहापोह तथा परि. 'अनेकान्त' मादि दिगम्बर समाजके पत्रों में उल्लि- भम करनेकी जरूरत न पड़ती। अस्तु । खित की जाने वाली वीरनिर्वाण सम्वत्की संख्याको मुनि कल्याणविजयजी उक्त निकायसं कोई मात्र श्वेताम्बर सम्प्रदायका अनुसरण बतलाया है: एक वर्ष पहले मैन भी इस किपर 'भ० महावीर दूसरे इन पंक्तियोंके लेखक तथा दूसरं दा संशोधक और उनका ममय' शीर्षक एक मिन लिखा था, विद्वानों (प्रो० ए०एन० उपाध्याय और पं० नाथगम जो चैत्र शुक्ल त्रयोदशी संबल १९८६ में होनेवाले जी प्रेमी') के ऊपर यह मिथ्या प्रारोप लगाया है महावीर-जयन्नीक उत्सबपर देल्ली में पड़ा गया था कि इन्होंने बिना विचार ही (गतानुगतिक रूपस) और वादको प्रथमार्षक 'अनेकान्त की प्रथम किरण श्वेताम्बर-सम्प्रदायी मार्गका अनुसरण किया है। में प्रप्रस्थान पर प्रकाशित किया गया था । इम इस विषयमें सबसे पहले मैं इतना ही निवेदन करदेना । धित होकर और धवल जयधवलके प्रमायोको भी साथ में चाहता हूँ कि भगवान महावीरके निर्वाणको भाज लेकर अलग पुस्तकाकार रूपसे छप गया है, और इस समय किसने वर्ष व्यतीत हुए ? यह एक शुद्ध ऐतिहासिक बाबू पन्नालालजी जैन अपवाल, मुहल्ला चखेवालान प्रश्न है-किसी सम्प्रदायविशेषकी मान्यताके साथ देहलीके पास बार पाने मूल्यमें मिलता है। Page #573 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष निबन्धमें प्रकृत विषयका कितना अधिक ऊहापोहके है, इसे पाठक स्वयं समझ सकते हैं। प्राशा है शास्त्री साथ विचार किया गया है, प्रचलित वीरनिर्वाण- जीको अपनी भूल मालूम पड़ेगी और वे भविष्यमें संवत्पर होनेवाली दूसरे विद्वानोंकी आपत्तियोंका इस प्रकार के निमूल आक्षेपोंस बाज़ पाएँगे। कहाँ तक निरसनकर गुत्थियोंको सुलझाया गया है, अब मैं लेखके मूल विषयका लता हूँ और उस और साहित्यकी कुछ पुरानी गड़बड़, अर्थ समझनकी पर इस समय सरसरी तौरपर अपना कुछ विचार गलती अथवा कालगणनाकी कुछ भूलोंका कितना व्यक्त करता हूँ। आवश्यकता होनेपर विशेष विचार स्पष्ट करके बतलाया गया है, ये सब बातें उन पाठकों फिर किसी समय किया जायगा। से छिपी नहीं है जिन्होंने इस निबन्धका गोरके साथ शास्त्रीजीन त्रिलोकसारकी 'पण-छस्सद-वस्सं पढ़ा है। इसीस 'अनेकान्त में प्रकाशित होतेही अच्छे पणमामजुदं' नामकी प्रसिद्ध गाथा को उद्धत करके अच्छे जैन-अजैन विद्वानोंन 'अनकान्त' पर दीजान प्रथम तो यह बतलाया है कि इस गाथामें उल्लिखित वाली अपनी सम्मितयोंमें* इम निबन्धका अभिनन्दन 'शकराज' शब्द का अर्थ कुछ विद्वान ता शालिवाहन किया था और इसे महत्वपूर्ण, वाजपर्ण, गवेषणपूर्ण, राजा मानते हैं और दूमर कुछ विद्वान विक्रमराजा । विद्वत्तापूर्ण, बड़े मार्केका, अत्युत्तम, उपयोगी, जो लोग विक्रमगजा अर्थ मानते हैं उनके हिसाबसे भावश्यक और मननीय लेख प्रकट किया था। इस समय (गत दीपमालकास पहले) वीरनिर्वाण कितने ही विद्वानोंने इसपरसं अपनी भूल को सुधार संवत् २६०४ आता है, और जो लोग शालिवाहन भी लिया था । मुनि कल्याणविजयजीने सूचित गजा अर्थ मानते हैं उनके अर्थानुसार वह २४६९ किया था-"आपके इस लेखकी विचारसरणी भी बैठता है, परन्तु व लिखते हैं २४६७ इस तरह उनकी ठीक है।" और पं० नाथूगमजी प्रेमीने लिखा था- गणनामें दो वर्षका अन्तर (व्यत्यास) तो फिरभी रह "आपका वीरनिर्वाण - संवत् वाला लेख बहुत ही जाता है। साथ ही अपने लेखक समय प्रचलित महत्वका है और उससे अनेक उलझनें मुलझ गई विक्रम संवतको १९९९ और शालिवाहनशकको हैं।" इस निबन्धक निर्णयानुसार ही 'अनकान्त'मे १८६४ बतलाया है तथा दोनोंके अन्तरको १३६ वर्ष 'वीरनिर्वाणसंवत्' का देना प्रारम्भ किया था, जो का घोषित किया है। परन्तु शास्त्रीजीका यह लिखना अबतक चालू है । इतनपर भी शास्त्रीजीका मेरे ऊपर ठीक नहीं है-न तो प्रचलित विक्रम तथा शक संवत् यह आरोप लगाना कि मैंने 'बिना विचार किय ही की वह संख्या ही ठीक है जो आपने मुल्लेखित की (गतानुगतिक रूपस) दूसरोंक मार्गका अनुसरण है और न दोनों सम्वतोंमें १३६ वर्षका अन्तर ही किया है कितना अधिक अविचारित, अनभिज्ञता- शास्त्रीजीका लेख गत दीपमालिका (२० अक्तूवर पूर्ण तथा आपत्ति के योग्य है और उसे उनका १६४१) से पहलेका लिखा हुआ है, अतः उनके लेखमें 'प्रतिसाहस के सिवाय और क्या कहा जा सकता प्रयुक्त हुए 'सम्मति' (इससमय) शन्दका वाच्य गत दीप मालिकासे पूर्वका निर्वाणसंवत् है, वही यहाँपर तथा प्रागे ये सम्मतियां 'भनेकान्तपर लोकमत' शीर्षकके नीचे भी इस समय' शब्दका वाच्य समझना चाहिये-न कि 'अनेकान्त'के प्रथमवर्षकी किरणोंमें प्रकाशित हुई है। इस लेखके लिखनेका समय। Page #574 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] वीरनिर्वाण-संवत्की समालोचनापर विचार - पाया जाता है, बल्कि अन्तर १३५ वर्षका प्रमिद्ध है काशी आदि के प्रसिद्ध पंचाजानुसार शक संवत् १८६३ और वह आपके द्वाग उलिग्विन विक्रम तथा शक के प्रारंभ होनेके पूर्व व्यतीत हुए थे, और इस तरह संवनोंकी संख्याओं (१९९९-१८६४ = १३५)स भी चैत्रशुक्ल प्रतिपदाकदिन वीरनिर्वाणका हुए २४६७ वर्ष ठीक जान पड़ता है। बाकी विक्रम संवत् १९९९ तथा ५ महान बतलाते । इससे उन्हें एक भी वर्षका अन्तर शक संवत् १८६४ उम समय तो क्या अभी तक कहनके लिये अवकाश न रहता; क्योंकि ऊपरके पाँच प्रचलित नहीं हुए हैं काशी श्रादिके प्रसिद्ध पंगेंगों महीन चालू वर्षके हैं, जब तक बारह महीने पूरे नहीं में वे क्रमशः १९९८ तथा १८६३ ही निर्दिष्ट किये हाते तब तक उनकी गणना वर्ष में नहीं की जाती । और गये हैं। इस तरह एक वर्षका अन्तर ना यह सहज इस तरह पन्हें यह बात भी अँच जाती कि जैन कालहीमें निकल पाता है । और यदि उधर सुदूर दक्षिण गणनामें वीरनिर्वाण के गत वर्ष ही लिये जाते रहे हैं। देशम इसममय विक्रम संवत् १९९९ तथा शक संवत् इमी बानको दूमरी तरहसे यों भी ममझाया जा सकता १८६४ ही पचालन हो, जिमका अपनका ठीक हाल है कि गत कार्तिकी अमावस्याको शक संवत्कं १८६२ मालूम नहीं, ना उम लेकर शाम्बाजीको उत्तर भाग्नके वर्ष ७ महीन व्यतीत हुए थे, और शक संवत महावीर विद्वानोंके निर्णयपर आपत्ति नहीं करनी चाहिये थी- के निर्वाणम ६०५ वर्ष ५ महीने बाद प्रवर्तित हुआ उन्हें विचार के अवसर पर विक्रम तथा शक संवत्की है। इन दोनों संख्याओं को जोड़नसे पूरे २४६८ वर्ष वही संख्या ग्रहण करनी चाहिये थी जो उन विद्वानों होते हैं । इतने वर्ष महावोगनिर्वाणका हुए गत कार्तिके निर्णयका आधार रही है और उम देशमें प्रच- की अमावस्याको पूरे हाचुके हैं और गत कार्तिक लित है जहाँ वे निवास करते हैं। ऐसा करनपर भी शुक्ला प्रतिपदाम उसका २४६९ वा वर्ष चल रहा है। एक वर्षका अन्तर म्वतः निकल जाता। इसके विपरीत परन्तु इमको चले अभी डंद महीना ही हुआ है और प्रवृत्ति करना विचार नीनिक विरुद्ध है। डेढ़ महीने की गणना एक वर्ष में नहीं की जा सकती, अब रही दूसरे वर्षकै अन्तरकी बात, मैंने और इमलिये यह नहीं कह सकते कि वर्तमानमें वीरनिर्वाण कल्याणविजयजीने अपने अपने उक्त निबन्धोंमें प्रच- को हुए २४६९ वर्ष व्यतीत हुए हैं बल्कि यही कहा लिन निर्वाण संवतकं अंकममूहको गत वर्षों का वाचक जायगा कि २४६८ वर्ष हुए हैं। अतः 'शकराजा' का -ईमवी सन् आदिकी तरह वर्तमान वर्ष शालिवाहन राजा अर्थ करनेवालोंके निर्णयानुसार का द्योतक नहीं बतलाया और वह हिसाबस महीनों वर्तमानमें प्रचलित वीरनिर्वाण सम्वत २४६८ गताब्द की भी गणना साथमें करते हुए ठीक ही है । शास्त्री के रूपमें है और उसमें गणनानुसार दो वर्षका कोई जीने इसपर कोई ध्यान नहीं दिया और ६०५ के अन्तर नहीं है-वह अपने स्वरूपमें यथार्थ है। साथमें शक संवत्को विवादापन संख्या १८६४ को अस्तु । जोड़कर वीरनिर्वाण-संवत्को २४६९ बना डाला है! त्रिलोकसारकी उक्त गाथाको उद्धृत करके और जबकि उन्हें चाहिये था यह कि वे ६०५ वर्ष ५ 'शकराज' शब्दके सम्बन्ध विद्वानोंके दो मतमहीनेमें शालिवाहन शकके १८६२ वर्षोंको जोड़ते जो भेदोंको बतलाकर, शास्त्रीजीने लिखा है कि "इन Page #575 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३२ दोनों पक्षोंमें कौनसा ठीक है, यही समालोचनाका विषय है (उभयाग्नयोः पक्षयोः कतगे याथातथ्यमुपगच्छतीति समालोचनीयः), " और इसतरह दोनों पक्षों के सत्यासत्यके निर्णयकी प्रतिज्ञा की है । इस प्रतिज्ञा सथा लेखके शीर्षक में पड़े हुए 'समालोचना' शब्दको और दूसरे विद्वानोंपर किये गये तीव्र आक्षेपको देख कर यह आशा होती थी कि शास्त्रीजी प्रकृत विषय के संबंधमे गंभीरता के साथ कुछ गहरा विचार करेंगे, किसने कहाँ भूल की है उसे बतलाएँगे और चिरकाल में उलझी हुई समस्याका कोई समुचित हल करके रक्खेंगे । परन्तु प्रतिज्ञा के अनन्तर के वाक्य और उसकी पुष्टिमें दिये हुए आपके पाँच प्रमाणों को देखकर वह सब आशा धूल में मिल गई, और यह स्पष्ट मालूम होने लगा कि आप प्रतिज्ञा के दूसरे क्षा ही निर्णायक के आसन में उतरकर एक पक्षके साथ जा मिले हैं अथवा तराजू के एक पलड़े में जा बैठे हैं और वहाँ ग्वड़े होकर यह कहने लगे हैं कि हमारे पक्ष के अमुक व्यक्तियों जो बात कही है वही ठीक हैं; परन्तु वह क्यों ठीक है ? कैसे ठीक है ? और दूसगंकी बात ठीक क्यों नहीं है ? इन सब वातोके निर्णयको आपने एकदम भुला दिया है !! यह निर्णयकी कोई पद्धति नहीं और न उलझी हुई समस्याओं को हल करने का कोई तरीका ही है । आपके पाँच प्रमाणों में से नं० २ और ३ में तो दो टीकाकारों के अर्थका उल्लेख है जो गलन भी हो सकता है, और इसलिये वे टीकाकार अर्थ करनेवालों की एक कोटिमे ही आ जाते है। दूसरे दो प्रमाण नं० २, ४ टीकाकारोंमें से किसी एक के अर्थ का अनुसरण करनेवालों की कोटमे रक्खे जा सकते हैं । इस तरह ये चारों प्रमाण 'शकराज' का गलत अर्थ करनेवालों तथा गलत अर्थका अनुसरण करने अनेकान्त [ वर्ष ४ वालोंके भी हो सकने में इन्हें अर्थ करनेवालों की एक कोटि में रखने के सिवाय निर्णय के क्षेत्र में दूसरा कुछ भी महत्व नहीं दिया जा सकता और न निर्णयपर्यंत इनका दूसरा कोई उपयोग ही किया जा सकता है । मुकाबले में ऐसे अनेक प्रमाण रक्खे जा सकते हैं जिनमें 'शकराज ' शब्दका अर्थ शालिवाहन राजा मान कर ही प्रवृत्ति की गई है । उदाहरण के तौरपर पाँचवें प्रमाणके मुकाबले में ज्योतिषरत्न पं० जीयालाल जी दि० जैनकं सुप्रसिद्ध 'अमली पंचाङ्ग' को रक्खा जा सकता है, जिसमें वीरनिर्वाण सं० २४६७ का स्पष्ट उल्लेख है - २६०४ की वहाँ कोई गंध भी नहीं है । हा शास्त्राजीका पहला प्रमाण, उसकी शब्दरचनापरसे यह स्पष्ट मालूम नहीं होता कि शास्त्रीजी उसके द्वारा क्या सिद्ध करना चाहते है । उल्लिखित संहिताशास्त्रका आपने कोई नाम भी नहीं दिया, न यह बतलाया कि वह किसका बनाया हुआ है और उसम किस रूपसे विक्रम राजाका उल्लेख आया है वह उल्लेख उदाहरणपरक है या विधिपरक, और क्या उसमें ऐसा कोई आदेश है कि संकल्पमे विक्रम राजाका ही नाम लिया जाना चाहिये - शालिवाहन का नहीं, अथवा जैनियों का संकल्पादि सभी अवसरों पर - जिसमे प्रन्थरचना भी शामिल है - विक्रम संवत्का ही उल्लेख करना चाहिये, शक-शालिवाहन का नहीं ? कुछ तो बतलाना चाहिये था, जिससे इस प्रमाणकी प्रकृतविपयके साथ कोई संगति ठीक बैठती । मात्र किसी दिगम्बर प्रन्थ में विक्रम राजाका उल्लेख श्रजाने और शालिवाहन राजाका उल्लेख न होनेसे यह नतीजा तो नहीं निकाला जा सकता कि शालिवाहन नामका कोई शक राजा हुआ ही नहीं अथवा दिगम्बर साहित्य में उसके शक संवत्का Page #576 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १.] वीरनिर्वाण संवत्की समालोचनापर विचार उल्लेख ही नहीं किया जाता । ऐम कितन हा दिगम्बर बाद शकराजाका उत्पन्न होना बतलाता है । नीन प्रन्थ प्रमाणमें उपस्थित किय जासकते हैं जिनम मत धवल' प्रथम उपलब्ध हात है, जिनमें से दो तो स्पष्टरूपमे शालिवाहन शकसंवत्का उल्लख है। त्रिलोकप्राप्त वाले ही हैं और एक उनमे भिन्न है। ऐसी हालनमे यदि किमी संहिताक मंकल्पप्रकरणमे श्रीवीर सनाचार्यन 'धवल' में इन तीनो मतोको उद्धृत उदाहरणादिरूपमं विक्रमगजाका अथवा उसके करनेके बाद लिखा हैमंवत्का उल्लंग्य श्रा भी गया है ना वह प्रकृन विषय “एदसु तिसु एक्कण हादव, गण तिएणमुवदसाणमञ्चत्तं के निर्णयमे किस प्रकार उपयोगी हो सकता है. यह प्राणायणविगहादा । तदा जाणिय वत्तव्वं ।" उनके इम प्रमाणन कुछ भी मालूम नहीं होता, और अर्थात-इन नीनामें एक ही कथन ठीक होना इम लय इम प्रमाग का कुछ भी मूल्य नहीं है । इस चाहिये, तीनों कथन सच्चे नहीं हो सकते; क्योकि तरह आपक पाँची ही प्रमाण विवादापन्न विषयकी तीनोम परम्पर विगंध है । अतः जान करके-अनुगुत्थीका सुलझानका कोई काम न करनस निर्णय- मन्धान करके-वर्तना चाहिये। क्षत्रम कुछ भा महत्त्व नहीं ग्यत; और इमलिय इस प्राचायवाक्यस भी स्पष्ट है कि पुरातन हाने उन्हें प्रमाण न कहकर प्रमागाभाम कहना चाहिय। से ही काई कथन मचा तथा मान्य नहीं हो जाता । उसमें भूल तथा गलनीका होना संभव है, और इमी कुछ पुगतन विद्वानोन ‘शकराजा' का अर्थ यदि से अनुसन्धानपूर्वक जाँच पड़ताल करके उसके ग्रहणविक्रमगजा कर दिया है ना क्या इतनम ही वह त्याग।। विधान किया गया है। प्रेमी हालतमे शास्त्री अर्थ ठाक तथा ग्राह्य ह । या ? क्या पुगतनाम काई जीका पुराननोकी बात करते हुए एक पक्षका हो गहना भूल तथा गलती नही हानी और नहीं हुई है ? यदि और उम विना किमी हेतुके ही यथार्थ कह डालना नहीं होती और नहीं हुई है ता फिर पुगतना-पुगतना विचार तथा ममालांचनाकी कोरी विडम्बना है। मे ही कालगणनादिक मम्वन्धमे मतभेद क्यो पाया यहॉपर में इतना और भी बतला देना चाहता हूँ जाना है ? क्या वह मतभेद किमी एककी गलतीका कि इधर प्रचलित वीरनिर्वाण-संवतकी मान्यताक सूचक नहीं है ? यदि मूचक ना फिर किमी एक विषयमं दिगम्बर्ग और श्वनाम्बगेम परम्पर काई पुगतनन यदि गलनीस 'शकागजा' का अर्थ विक्रम- मतभेद नहीं है । दाना ही वीरनिर्वाण ६०५ वर्ष ५ गजा' कर दिया है ता मात्र पुरानन हान की वजहस महीने बाद शकशालिवाहनक संवतकी उत्पनि मानते उमक कथनको प्रमाण काटिम क्यो किवा जाना है हैं। धवलसिद्धान्नमें श्री वांग्सनाचार्यन वीरनिर्वाण और दूसरे पुगतन कथनकी उपेक्षा क्यों की जाती संवनको मालूम करनकी विधि बनलान हुए प्रमाणहै ? शकगजा अथवा शककाल के हो विषयम दिगंबर रूपसं जो एक प्राचीन गाथा उद्धृत की है वह इम साहित्यमें पाँच पुगतन मनोका उल्लेग्य मिलता है, प्रकार हैजिनमेंसे चार मन तो त्रिलोकप्रज्ञप्तिमं पाये जाते हैं वीरजिणे मिद्धिगदे च उमद-इगाट वासपरिमाणे । और उनमें सबसे पहला मन वीरनिर्वाण में ४६१ वर्प कालंमिश्रदिक्कत उप्पएणो एत्य सगरायो । Page #577 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५३४ अनेकान्त [वर्ष ४ पंच य मासा पंच य वासा छ शेव होंति वाससया। थवा 'विक्रमसंवत्मर' से नहीं है, और इसलिये 'शकसगकालेण सहिया थावयन्यो नदो गमी।" गजा' का अर्थ विक्रमगजा नहीं लिया जा सकता। इसमें बतलाया है कि-'शककालकी संख्याक विक्रमगजा वीरनिर्वाणसे ४७० वर्ष बाद हुआ है; साथ यदि ३०५ वर्ष ५ महीने जोड़ दिये जावें तो जैसा कि दिगम्बर नन्दिमंघकी प्राकृत पट्टावलीके वीरजिनेन्द्र के निर्वाणकालकी संख्या आ जाती है।' निम्न वाक्यमे प्रकट हैइस गाथाको पूर्वाध, जो वीरनिर्वाणसे शककाल सत्तरचदुसदजुत्ता जिणकाला विक्कमो हवड जम्मा । (संवत्) की उत्पत्तिके ममयको सूचित करता है, इसमें भी विक्रमजन्मका अभिप्राय विक्रमकाल श्वेताम्बरोंकें तित्थागाली पहनय' नामक निम्न गाथा अथवा विक्रमसंवत्सरकी उत्पत्तिका है। श्वेताम्बरोंके का भी पूर्वार्ध है, जो वीरनिर्वाणसं ६०५ वष ५ 'विचारश्रेणि' ग्रन्थमं भी इमी श्राशयका वाक्य निम्न महीने बाद शकराजाका उत्पन्न होना बतलाती है- प्रकारसं पाया जाता हैपंच य मामा पंच य वासा छ व होति वामसया। विक्कमरज्जारंभा पुरो सिरिवीरनिव्वुई भणिया । परिणि व्वुअस्मऽरिहतो तो उपपाणो सगो गया६२३ सुन्न-मुणि-वेय-जुत्ता विक्कमकालाउ जिणकालो ॥ यहाँ शकराजाका जो उत्पन्न होना कहा है उमका जब वीरनिर्वाणकाल और विक्रमकाल के वर्षोंका अभिप्राय शककालके उत्पन्न होने अर्थात शकसंवतके अन्तर ४७० है तब निर्वाणकालम ३०५ वर्ष बाद होने प्रवृत्त (प्रारंभ) होनेका है, जिसका ममर्थन 'विचार- वालेशक 'गजा अथवा शककालको विक्रमगजा या श्रेणि' में श्वेताम्बराचार्य श्री मेहतंग-द्वारा उद्धृत विक्रमकाल कैमें कहा जा मकता है ? इमे सहृदय निम्न वाक्यस भी होता है - पाठक स्वयं समझ मकते हैं । वैसे भी 'शक' शब्द श्रीवी निवनव: षडभिः पंचातरः शतः। आम तौरपर शालिवाहन गजा तथा उमक संवत्कं शाकसंवत्सरस्यैषा प्रवृत्तिर्भग्तेऽभवत् ॥ लिये व्यवहन होता है, इस बातको शास्त्रीजीन भी इम तरह महावीरके इस निर्वाण-समय-सम्बन्ध स्वयं स्वीकार किया है, और वामन शिवगम ऐप्टे मे दिगम्बर और श्वेताम्बर दोनों सम्प्रदायोंकी एक ( V. S. APTE ) के प्रसिद्ध कोषमें भी इस वाक्यता पाई जाती है ! और इमलिय शास्त्रीजीका Specially applied to Salivahan i दिगम्बर समाजके संशोधक विद्वानों तथा सभी पत्र शब्दोंके द्वाग शालिवाहनगजा तथा उसके संवत सम्पादकोंपर यह आरोप लगाना कि उन्होंने इस (era) का वाचक बतलाया है। विक्रम राजा 'शक' विषयमें मात्र श्वेताम्बर मम्प्रदायका ही अनमरण नही था, किन्तु 'शकारि='शकशत्र' था, यह बात किया है-उसीकी मान्यतानुमार वीरनिर्वाणसंवत्का - __ भी उक्त कोषसे जानी जाती है । इसलिये जिन उल्लेख किया है-बिल्कुल ही निगधार तथा अविचारित है। *यह वाक्य 'विक्रमप्रबन्ध' में भी पाया जाता है । इसमें स्थूल रूपसे-महीनोंकी संख्याको साधमें न लेते हए-वर्षोंकी ऊपर के उद्धृत वाक्योंमें 'शककाल' और 'शाक- संख्याका ही उल्लेख किया है; जैसाकि 'विचारश्रेणि' में प्रयाग इस बातका भी स्पष्ट उक्त 'श्री वीरनिवृतेः ' वाक्यमें शककाल के वर्षोंका ही बतला रहा है कि उनका अभिप्राय विक्रमकाल' अ. उल्लेख है। Page #578 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १.] धीरनिर्वाण-संवत्की समालोचनापर विचार जिन विद्वानोंने 'शकगज' शब्दका अर्थ 'शकराजा' न बाहन शक की सबसे अधिक प्रसिद्धि हुई है और इस करके 'विक्रमराजा' किया है उन्होंने जरूर गलती लिय बादको दूसरे सम्-संवतांके साथ भी 'शक' का खाई है। और यह भी संभव है कि त्रिलोकसारके प्रयोग किया जाने लगा और वह मात्र 'वत्सर' या संस्कृत टीकाकार माधवचन्द्रन ‘शकगजो' पदका 'संवत्' अर्थका वाचक होगया। उसके साथ लगा हुमा अर्थ शकराजा ही किया हो, बादको 'शकगजः' से महावीर, विक्रम या क्रिस्त विशेषण ही उस दूसरे पूर्व विक्रमांक' शब्द किसी लेखककी गलतीसे जुड़ अर्थमें ले जाता है, स्वाली 'शक' या 'शकराज' शब्द गया हो और इस तरह वह गलती उत्तरवर्ती हिन्दी का अर्थ महावीर, विक्रम अथवा क्रिम्त (क्राइस्ट = टीकामें भी पहुंच गई हो, जो प्रायः संस्कृत टीकाका ईसा) का या उनके सन्-संवतोंका नहीं होता। ही अनुमरण है । कुछ भी हो, त्रिलोकसारकी उक्त त्रिलोकसारकी गाथाम प्रयुक्त हुए शकराज शब्दके गाथा नं० ८५० में प्रयुक्त हुए 'शकराज' शब्द का अर्थ पूर्व चूँकि विक्रम' विशेषण लगा हुभा नहीं है, इस शकशालिवाहनके सिवाय और कुछ भी नहीं है, लिये दक्षिणदेशकी उक्त रूढिके अनुसार भी उसका इस बातको मैंने अपने उक्त (पुस्तकाकार में मुद्रित ) अर्थ 'विक्रमराजा' नहीं किया जा सकता। 'भगवान महावीर और उनका समय' शीर्षक निब- ऊपरके इस संपूर्ण विवंचनपरसे स्पष्ट है कि म्धम भले प्रकार स्पष्ट करके बतलाया है, और भी शास्त्रीजीने प्रकृत विषयके संबंध जो कुछ लिखा है दूसरे विद्वानोंकी कितनी ही आपक्तियोंका निग्मन उसमें कुछ भी सार तथा दम नहीं है । भाशा है करके सत्यका स्थापन किया है। शास्त्रीजीको अपनी मूल मालूम पड़ेगी, और जिन ___ अब रही शास्त्रीजी की यह बात, कि दक्षिण देश लोगोंने आपके लखपरसं कुछ गलत धारणा की होगी में महावीरशक, विक्रमशक और क्रिम्नशकक रूपमं वे भी इस विचाग्लेखपरस उस सुधारने में समर्थ भी 'शक' शब्दका प्रयोग किया जाता है, इससे भी हो सकेंगे। उनके प्रतिपाद्य विषयका कोई समर्थन नहीं होता। वीरसेवामन्दिर, सरसावा, ता० २६-१६-१९४१ ये प्रयोग तो इस बातको सूचित करते हैं कि शालि "त्यागके साथ कर्तव्यका भी भान होना चाहिये, "त्यागको बड़ा स्वरूप देनेकी आवश्यकता नहीं तभी जीवन संतोषपूर्ण हो सकता है । अर्थान् अपनी होती । म्वाभाविक त्याग, प्रवेश करनेके पहिले वाजे सब प्रवृत्तियां विवेकदृष्टिस ही होनी चाहियें" नहीं बजाता । वह अदृश्यरूपसे भाता है, किसीको ___ "इस युगमें थोड़ी भक्ति और थोड़ा संयम भी खबर तक नहीं पड़ने देता । वह त्याग शोभित होता फलीभूत हो जाता है।" और कायम रहता है। यह त्याग किसीको भारभूत "जिस वैराग्यमें कोई महान् और क्रियाशील नहीं होता और न संक्रामक साबित होता है।" साधन नहीं है, वह वैराग्य वैराग्य नहीं, वह तो -विचारपुष्पोपान असभ्यताका नामान्तर है।" Page #579 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसाहित्यमें ग्वालियर (लेखक-मुनि श्रीकान्तिसागर ) न रतवर्षकै इतिहासमें जैनइनिहासका स्थान यद्यपि ग्वालियर के विषयमं विभिन्न लेखकोंने बहुत गौरवपूर्ण है । भारतकं इतिहासका समय समयपर बहुत कुछ लिखा है परन्तु उनके मर्म जानने के लिये जैनइतिहासका अध्य- लेखोंमें ऐतिहासिक जैन - साधनों (शिलालेखों और ||' यन अनिवार्य है । इसका प्रधान कारण ग्रंथ प्रशस्ति श्रादि) का प्रायः कोई उपयोग नहीं किया यह है कि जैनियांने मात्र धार्मिक साहित्यक निर्माण गया। हो सकता है कि उन लग्यकोंको एम जैन-साधन सरनमें ही अपने कर्तव्यकी इतिश्री नहीं समझी किन्तु प्राप्त न हुए हो या इसका काई दृमरा ही कारण हो । अनेकानक रूपसे इनिहामोपयोगी साहित्यका भी परन्तु कुछ भी हो, इस तरहसे उनके द्वारा ग्वालियरनिर्माण करक देशक प्रति अपने कर्तव्यका पालन संबंधी इतिहास अधूरा ही रह गया है। इमो तरह किया है। जैन इतिहास धार्मिक, सामाजिक और और भी बहुतम नगगंक इतिहासमें जैन साधनोंकी राष्ट्रीय आदि सभी दृष्टियोंस महत्वपूर्ण है। भारतकं उपेक्षा की गई है। अस्तु, ग्वालियरक संबंध जो प्राचीन राजवंशोंका जितना इतिहास जैनसाहित्यम ऐनिहामिक बातें हमें ज्ञात हुई है उन्हें यहाँ प्रकट पाया जाता है उतना शायद ही अन्यत्र कहीं उपलब्ध किया जाता है। होता हो। और भारत का इतिहास तब तक अपूर्ण ही ग्वालियर नगरका जैन शिलालेग्वों और ग्रंथरहेगा जब तक बड़े बड़े नगगेका महत्वपूर्ण इतिवृत्त प्रशस्तियोंमें गोपगिरि, गोर्वा गरि, गोपाचल, गोपालाप्रकाशित न होगा। ऐतिहासिक क्षेत्रम इस विषयकी चल, गोपालाचलदु आदि नामांम उल्लेखित किया भारी कमीको महसूस करके ही हमन पालनपुर, है। इस नगर का 'ग्वालियर' यह नाम कैसे पड़ा इस चित्तौड़ और बालापुर आदि बड़े बड़े नगरोंका इति- विषयमं एक किवदन्ती भा पाई जाती है, और वह हास लिखा तथा प्रगट कगया है। प्रस्तुत निबंध भी यह कि एक 'ग्वालिय' नामक महात्मान राजा शूरसैन इसी लिय लिखा जारहा है। का कष्ट दूर किया था, तब राजान कृतज्ञता प्रदर्शित किसी भी प्राचीन स्थान या वस्तुके पीछे उसका करने के लिये उनके नामपर ग्वालियरका वर्तमान दुर्ग कुछ-न-कुछ इतिहास अवश्य लगा रहता है, यह एक बनवाया था। इस दुर्गक नामसे ही बादको नगरका मानी हुई बात है। ग्वालियर भी एक प्राचीन स्थान है नाम ग्वालियर प्रसिद्ध हुश्रा। गोपाचल-कथा' नाम और वह भी अपने साथ बहुत कुछ इतिहामको लिये एक ग्रंथ भी सुना जाता है, जो अभी तक अपने हुए है, जिसका प्रकट होना भारतीय इतिहासके लिये देखनेमें नहीं आया। संभव है उसमें इस नगरका कुछ बहुत ही कामकी चीज़ है। विशेष हाल हो। पाटनका इतिहास प्राजकल लिखा जारहा है। कुछ लोगोंका कथन है कि यह दुर्ग (किला) ईसा Page #580 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] जैनसाहित्यमें ग्वालियर से काई ३००० वर्ष पूर्वका बना हुआ है और कतिपय की राजधानी थी' चूंकि कंद्रभागा पंजाबको पाँच पुगनत्वज्ञ इसे ईसाकी तीसरी शताब्दीका बना हुआ नदियोंमस चिनाब नामकी नदी है, अतः उक्त नगरी बतलाते हैं। कुछ भी हा, इस दुर्गकी गणना भारतकं शायद उस समय पंजाबकी राजधानी रही हो । इस प्राचीन दुर्गों में की जाती है। खरतरगच्छक यति नगरीका चीनी युवानचूनागने पोलाफेटो(Polafato) खेतान भी अपनी चित्तौड़की गजल' म, जिमको उम नाम उल्लेख किया है । सन १८८४ में जनरल कनि ने १७४८ विक्रम सं० बनाया था, इस दुर्गका बड़े घामको 'अहिच्छत्र' नगरसे एक सिका मिला था जा गौरव के साथ उल्लन किया है। और भी तद्विपयक जैनधर्मम विशेष संबध रखता है। उस सिक्के में एक प्रचुर प्रमाण उपलब्ध होते हैं जिनका उल्लेख आगे और "श्रीमहाराजा हरिगुप्तस्य" ये शब्द लिखे हुए है। किया जायगा। यह मिक्का वर्तमानम वृटिशम्यजियममें सुरक्षित है। ___ ग्वालियरक क्लेिमें एक "सूर्यमंदिर" है जो परंतु ताग्माण का सिक्का देखनमें नहीं आया। शिल्पकला और सूर्यपूजाके विकाशकी दृष्टिम बड़े स्कंदगुप्तकं एक लग्ब" से ज्ञात होता है कि मिहिमहत्वका है । इसे हूणजातिकं मिहिरकुलन बनवाया रकुल तोक्माण सम्राटका पुत्र था और अपने पिताक था, ऐसा इस मंदिग्म लगे हुए शिलालेखपरम जाना समान ही बलिष्ठ था। यह शेवधर्मानुयायी था। इस जाता है। यह शिलालेख ईस्वी मन ५१५ का माना न श्रीनगर में मिहिरेश्वर' शिवमंदिर बनवाया था जाता है। और अपने नामम मिहिरपुर नगर बसाया था। ___ इतिहाममेहणजातिका उल्लेख बड़ा रोचक है । यह चीनीयात्री हुएत्मांग लंग्वानुमार यह बौद्धांका प्रबल जाति कहाँ से आई, इस विषयमं एक मत नहीं है। शत्र था और बौद्धभिक्षुकओंकी तंग किया करता था। महाकवि कालिदामके प्रसिद्धकाव्य रघुवंशम भी हूणों इसकी गजधानी स्यालकोट (पंजाब) थी। मिहिरका उलेख मिलता है । जैनइतिहाममें भी हूण जाति कुल के सिक्के भी मिले है, जो शैवधर्मके सूचक है, मिकों के आदिमम्राट 'तारमाण' का उल्लेख पाया जाता है। मे एक बार त्रिशूल और बैल अंकित हैं तथा ऊपर कहा जाता है कि तारमाण कं गुरु गुमवंशीय जैना- की तरफ "जयतु मिहिरकुल" लिखा है । मिहिरकुल चार्य हरिगुप्त थे । तोग्माणकी राजधानी कहाँ थी? की मृत्यु इमी मन ५४२ में हुई है। यह एक प्रश्न है। ९ वीं सदीमे होने वाले प्रसिद्ध हूण जातिका इतिहाम उक्त पिता-पुत्रका इनिहाम जैनाचार्य उद्यानन सूरिने अपने 'कुवलयमाला-कहा' है, बल्कि स्पष्ट शब्दोंमें यों कहना चाहिये कि हूण प्रन्थको प्रशस्तिमें लिखा है जातिमें ये दा ही सुप्रसिद्ध व्यक्ति हुए हैं। इनके बाद __'उत्तरापथमें जहाँ चंद्रभागा नदी प्रवाहित हाम्ही सर्व इतिहास अंधकार में हैं। है वहां पन्वया (पार्वतिका) नामकी नगरी नाग्माण कन्नोज के नरंश आमका, जो इतिहासमें नागावदेखो रघुवंश सर्ग चौथा। प्रतिकृतिके लिये देवी C.J. शाह का 'जैनिज्म श्राफ उपर्वतोंके बीच में होनेसे इस नगरीका नाम 'पवाया' रखा इंडिया। गया है "हूणैर्यस्य समागतस्य समर दोा धरा कपिना । Page #581 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ लोकनामसं मशहूर है, 'वप्पट्टि' सूरि के साथ इतना साथ ही, यह भी प्रगट होता है कि गजा प्रामके घनिष्ठ संबंध रहा है जितना चाणक्य और चंद्रगुप्तका वंशज १६ वीं मदी तक चित्तौड़में मौजूद थे। थी। बप्पभट्टि सूरिके उपदेशसं इस नरेशने श्रावकके राजा प्रामका पौत्र और दुन्दुकका पुत्र गजा भोजदेव व्रत ग्रहण किय, कन्नौजमें १०१ गज प्रमाण जिन था। देवगढ़कं वि०म० ९१८ के शिलालेखमें भोज मंदिर बनवाया, उसमें १८ भार सुवर्णमयी प्रतिमाकी का नाम आता है । 'पुगतन प्रबन्धसंग्रह' (पृ०२) प्रतिष्ठा कराई और ग्यालियरमें २३ हाथ ऊँचावीर प्रभुका में भोजदेव और सुभद्राका वृत्तान्त पाया जाया है। 'मंदिर बनवाकर उसमें लेप्यमयी प्रतिमा विराजमान भाजदेव जैनधर्मानुयायी और वप्पट्टिसूरिके गुरु की तथा शत्रुजयतीर्थकी यात्राथ एक संघ भी भाई श्रीनमसूरिका परमभक्त था । इसने उक्तसूरिजी निकाला, जिसमें दिगंबर और श्वेताँबर दानों सम्मि- के पास श्रावक व्रत लिये और तीर्थयात्रार्थ संघ भी लित थे । ग्वालियर प्रशस्तिस ज्ञात होता है कि आम निकाला। राजाने अनेक देशोंपर अपना प्रभुत्व जमाया था। बप्पभट्टिसूरिका जन्म वि० सं० ८०७ में और इस राजाका स्वर्गवास विक्रम सं०८९० में हुआ था। स्वर्गवास ८९५ में हुआ है। ये तत्कालीन विद्वानोंमें राजा आमने एक वणिक-कन्यास विवाह किया था, उच्च श्रेणिक माने जाते थे। प्रभाषकचरितके उल्लेजिसकी संतान कोष्ठागरिक (कोठारी) कहलाई और स्वानुमार इन्होंने बहुतसे प्रबंध निर्माण किये थे, बादका पोसवाल वंशमें मिल गई । चित्तौड़-वासी परन्तु वर्तमानमें इनकी कृतिस्वरूप 'सरस्वतीस्तोत्र' सुप्रसिद्ध कर्माशाह भी इसी वंशका था, जिसन और 'चौबीम जिनम्तवन' ही उपलब्ध हैं। वि० सं० १५९७ में शत्रुजय सीर्थका उद्धार एवं प्रतिष्ठा राजशेग्वग्सूरिक 'प्रबंधकोष' में उल्लेख है कि कराई, ऐसा 'शत्रजय' लखो. सनात होता है. आम राजाने गापगिरि (ग्वालियर) वर्ती स्वनिर्मापित वीर प्रभुके मंदिर में जब नमस्कार किया तब सूरिजीन ६-पूर्णवर्णसुवर्णाष्टादशभारप्रमाणभूः । भीमतो वर्षमानस्य प्रभोरप्रतिमानभूः ॥ १३७ ।। "शान्तो वेषःशमसुखकला" इत्यादि ११ पद्यात्मक निरमाप्यथ संप्राप्यागण्यपुण्यभरैर्जनैः । स्तोत्र रचा, जो १५ वीं सदीतक पाया जाता था। धार्मिकाणा संचरन्ति प्रतिमा प्रतिमासनम् ॥ १३८॥ लक्षणावतीकं नरेश 'धर्मराज' को प्रबोधकर इन्होंने भीवपट्टिरेतस्या निमे निर्ममेश्वरः । उस जैन बनाया, और बौद्धबादी 'वर्धनकुंजर' को प्रतिष्ठां स प्रतिष्ठासुः परमं पदमात्मनः ॥ १३ ॥ तथा गोपगिरी लेप्यमयबिम्बयुतं नृपः। बादमें परास्त करके धर्मगजकी सभा 'वादिकजरभीवीरमंदिरं तत्र त्रयोविंशतिहस्तकम् ॥ -प्रभावकच. केशरी'का महापद प्राप्त किया। मथुरामें इन्होंने प्रतिष्ठा -इतब गोपाहगिरौ गरिष्ठः श्रीवप्यभट्टिप्रतिबोधितश्च । भी कगई थी। ये जैनसाहित्यमें 'राजपूजित' कहलाते श्रीश्रामराजोऽजनि तस्य पत्नी काचिद् बभूव व्यवहारिपत्री८ . तत्कुक्षिजाता किल राजकोष्ठागाराहगोत्रे सुकृतकपात्रे। :-सित्तुजे रिसह, गिरनारे नेमि, भरुअच्छे मुणिमुव्वयं, भीग्रोसवंशे विशदे विशाले तस्यान्वयेऽमी पुरुषा:प्रसिद्धा: मोढेरए वीरं, महुराए सुपास-पासे, घडिश्रादुगन्भंतरे इहि-सूरिणा अट-सय-छब्बीसे (८२६ । कमसंवच्छरे नमिना, सोरटे दुंदणं, विहरित्ता गोवालगिरिम्मि, जो भीवीरवि महुराए ठावि अं । भुजेह । तेण श्रामराजसेविअकमकमलेण सिरि-वय Page #582 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] जैनसाहित्यमें ग्वालियर हैं; क्योंकि इनकी आयुका विशेषभाग राजाओं के साथ का कोई स्पष्ट उल्लेख नहीं मिला फिर भी भन्यान्य व्यतीत हुआ था। धर्मराज की सभाके भारतप्रसिद्ध साधनोंपरसे यह ज्ञात होता है कि उम समय कवि वाकपतिगजने गौडबध' और 'महामहविजय' ग्वालियरकी पहीपर 'भुवनपाल' नामका राजा था। नामक दो काव्यग्रंथोंका निर्माणकर उक्त सूरिजी और 'सकलतीर्थस्तोत्र''मे ग्वालियरकी गणना तीर्थों श्रामराजाको अमर बना दिया है। में की गई है। यह स्तोत्र १३ वीं शताब्दीका बना प्राचार्य प्रद्युम्नसूरिने ११ वीं शताब्दीमे ग्वालि- हुआ है और भौगोलिक दृष्टि से बहुत कुछ महत्वपूर्ण है। यरकं गजाको अपनी वादशक्तिस रंजित किया था, मलधारि अभयदेवसूरि वीराचार्यके समकालीन और १२ वीं शताब्दीके विद्वान वादिदेवसुरिने अनेक प्रन्थोंके निर्माता प्राचार्य थे । ग्वालियर के गंगाधर द्विजको ग्वालियरमे पगजित किया था, ऐसा इतिहाममें इनकी उपेक्षा किसी भी तरह नहीं की जा तत्कालीन साहित्यम ज्ञात होता है। सकती । क्योंकि जब वहांके गज्याधिकारियों द्वारा गुजरात के मध्यकालीन इतिहासमें वीगचार्यका भगवान महावीर के मंदिरकी दुर्व्यवस्था होगई थी स्थान बहुत ऊँचा है। गुर्जरेश्वर सिद्धगजने एक बार तब आपने ही स्वयं वहां जाकर राजा भुवनपालको वीराचार्यको उपहासमें कहा-'आपका यह जो महत्व समझाया था और मंदिरकी पुनः सुव्यवस्था करवाई है वह महज गजाभयस ही है, यदि मेरी गजसभा थी, ऐमा मुनिचंद्र-विरचित 'मुनिसुव्रतचरित्र' की को त्यागकर अन्यत्र चले जानोगे तो दीन-भिक्षुओं प्रशस्तिपरसे ज्ञात होता है । यह मंदिर वही है सरीखी दशा होगी। यह सनकर वीराचार्यने नसी जिसे पडिहारवंशी नागावलोक (भाम) गजाने बनवाया था। क्षण प्रस्थान कर दिया और वे क्रमशः पाली पहुँच। ५ ग्वालियरकी जैन मूर्तियां समस्त भारतम यद्यपि राजाने उनको रोकने की कोशिश की, मगर , विख्यात है। 'अनेकान्त'बी गत किरण नं०८ में वह व्यर्थ हुई । वहाँ से प्रामानुप्राम विचरते हुए श्री कृष्णानंद गुप्त का जो लेख प्रकाशित हुआ है, उन्होंने महाबोधपुरमें बौद्धोंपर विजय प्राप्त की, फिर उसमें भी इन मूर्तियोंका कितना ही परिचय दिया ग्वालियरकी गजसभामें जाकर वाद किया। वहाँ भी गया है। ये कलापूर्ण विशाल मूर्तियां किस गजाके विजयलक्ष्मी आप हीको प्राप्त हुई। स्थानीयनरेशने ममयमें बनीं ? यह एक प्रश्न है। ग्वालियर शिला आपके साथ गज्य-चिन्ह छत्रचामगदि भेजे, किन्तु लेखोंम ज्ञात होता है कि इनमेंसं कई मूर्तियोंका मापने वापिस कर दिय । यद्यपि उक्त राजाके नाम तु निर्माण तो ग्वालियर-नरंश हूँगरसिंहजीक समयमें हा था । मबसे बड़ी मूर्ति ऋषभदेवकी है और वह -विविधतीर्थकल्प ( वि० सं० १३८३) बावन गजकी है, जिसका उल्लेख वि० सं० १७४८ ६ राजाह मत्सभा मक्त्वा भवन्तोऽपि विदेशगाः। में शीलविजयजीन और विक्रम संवत १७५० अनाथा इव भिक्षाका: बाह्यभिक्षाभुजो ननु ॥१॥ पाटन केगेलोग प्रौफ मैन्युस्किप्टस् पृ० ११६ -प्रभावकचरित्रे, वीरप्रबन्धः, १२गोपगिरिसिहरसंठियचरमजिणाययणदारमवरुद्ध। १. महाबोधपरे बौदान वादे जित्वा बहूनथ । पुनिव दिन सासण संसाधणएहि चिरकालं ।। १००॥ गोपालगिरिमागच्छन् राशा तत्रापि पूजिताः ॥ ३०॥ गंतूण तत्थ भणिऊण भवणपालाभिहाणभूवालं । -प्रभावकचरित्रे, वीरप्रबंध: प्रासयपयत्तेणं मुक्कलयं कारियं जेण ॥ १.१॥ Page #583 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त ૧૪૦ में सौभाग्यविजयजीन अपनी अपनी तीर्थमाला'" में किया है, जो ऐतिहासिक दृष्टिसे बड़े ही महत्त्वका है । १५वीं शताब्दी के शिलालेखों से ज्ञात होता है कि उस समय ग्वालियर में दिगम्बर जैन सम्प्रदायके अनुयायियों का भी निवास था। ग्वालियर के समीप ही सोनागिरि नामका एक प्राचीन दिगम्बर जैन तीर्थ है । वहाँ भट्टारकोंकी जो गद्दा है वह ग्वालियर की परम्पराकी बताई जाती है । 14 ग्वालियर के एक भट्टारकने वि० सं० १५२१ में पउमचरिय १६ लिम्बवाया था, जा वर्तमानमं- पूना राजकीय प्रन्थसंग्रह मे सुरक्षित है । भानुचन्द्र चरित्र में यह उल्लेख मिलता है कि“ग्वालियर के राजाने एकलाब जिनबिम्ब बनवाये जो मौजूद हैं।” यह कथन ऐतिहासिक लोग शायद ही १३ शील विजयजी इस प्रकार लिखते है " बावन गज प्रतिमा दीपती, गढ़ गुश्रालेर शोभति " सौभाग्यविजयजी निम्न प्रकार सूचित करते हैं"गदम्बालेर बावनगज प्रतिमा, वेद ॠषभ रंगरोली जी” "इनमें से कतिपय लेख तो बाबू राजेन्द्रलाल मित्रने प्रका शित कराये थे, जिन्हें फिर स्वर्गीय बाबू पूर्णचंदजी नाहर ने भी श्रग्ने लेग्बरं ग्रहमं प्रकाशित किया है । लेखांम ग्वालियर के राजा डुंगरसिंह जीका नाम आता है। ग्वालि यर के किले का पूरापरिचय 'प्राचीन जैन स्मारक' में भी दिया है। यह तीर्थ दतिया से करीब पाँच मील है। इसे 'श्रमणगिरि' भी कहते है, ऐसा प्राकृत निर्वाणकोंडसे ज्ञात होता है । यहाँ से श्री नंग और नगकुमारादि मोक्ष गए हैं । " पुष्पिका इस प्रकार है - "मंवत् १५२१ वर्षे ज्येष्ठमास सुादे १० बुधवारे | श्रीगोपाचल दुर्गेश्रीमूमसंघे बलात्कारगणेश (म)रश्व (स्व) तीगच्छे। श्रीनांदसंधे । भट्टारक श्रीकु दकु दाचार्यान्वये भट्टारक श्रीप्रभाचंद्रदेवा । तत्यट्टे शुभचन्द्र देवा । तत्पट्टे श्रीजिनचन्द्रदेवा । तत्र श्रीपद्मनन्दिशिष्य श्रीमदनकीर्तिदेवा । तत्सि (शि) ध्य श्रीनेत्रानन्दिदेवा । तनिमित्त पंडेलवालत्य लुहाडियागोत्रे मं० गही धामा तत्भार्या धनश्री तयोः पुत्र इल्हा बीजा नत्र सं० ईल्हा भार्या साध्वी सपीरी तयोः पुत्राः सं ० वोहिथ भरहा। सं. ईस्व (श्व) र पुत्री सूवा ॥ एतैर्निजन्यान्या (शाना )वरणीय कर्मचार्यार्थ इदं पुस्तकं लिखापितं ज्ञानवान् ज्ञानदानेन निर्भयोऽभयदानतः । श्रन | [ वर्ष ४ स्वीकृत करेंगे. क्योंकि न वहाँ इतने बिम्ब मिलते हैं और न कोई तत्कालीन लिखित प्रमाण ही उपलब्ध है। क्या ही अच्छा होता यदि उक्त प्रन्थकारने राजाके नामका निर्देश भी साथ में किया होता। फिर भी अन्यान्य साधनोंपर से ऐसा ज्ञात होता है कि यह राजा दूसरे कोई न होकर डुंगरसिंहजी ही होने चाहियें। क्योंकि इन्हींके राज्यकाल में कलापूर्ण सुन्दर जैन मूर्तियाँ बनवानेका पुण्य कार्य आरम्भ हुआ था और वह आप हीके पुत्र करणीसिंहजी के समय मैं पूर्णता को प्राप्त हुआ था । करणीसिंहके समय में ग्वालियरका राज्य मालवाकी बराबरका था। ग्वालि ari नरेश पहले से ही विशेष कलाप्रेमी रहे हैं, जिनमें मानसिंहका स्थान सर्वोत्कृष्ट है । कवियों के लिये भी यह नगर मशहूर है । प्राचीन गुजरात जैनसाहित्य में ग्वालियरका वर्णन विस्तृत रूप से उपलब्ध होता है। मुनि कल्यामागरने अपनी 'पार्श्वनाथतीर्थमाला' में ग्वालियर में भी पार्श्वनाथ के एक मन्दिरका उल्लेख किया है। मालूम नहीं वह मन्दिर इस समय मौजूद है या नहीं । ग्वालियर पुराननकालसे ही संगीतकलाका भी केन्द्र रहा है, बड़े-बड़े गवैये यहांपर हो गए हैं। संगीत - साहित्यका भी यहां काफी निर्माण हुआ है । अबुल फजलन श्राइन इ-अकबरी में ३६ गायकों का वर्णन किया है, उनमें से १५ ने ग्वालियर में ही शिक्षा प्राप्त की थी, जिनमें तानसेन सर्वोपरि थे । इन्होंने एक संगीतका ग्रन्थ भी बनाया है, जिससे संगीतप्रेमी वर्गका बहुत सहायता मिली है। आज भी ग्वालियर का संगीतविषयमें वही स्थान है जो पूर्व था। यहांक भैया साहब प्रसिद्ध गायकोंमेंस थे, और भी अच्छे अच्छे गायक यहां पर मौजूद हैं। सं० १९५२ में सिवनी के बड़े बाबाकं मंदिरकी प्रतिष्ठा के लिये भी ग्वालियर के भट्टारक पधारे थे । इस प्रकार ग्वालियर के विषयमें जैनसाहित्य से मुझे जितनं उल्लेख अभीतक उपलब्ध हुए हैं उन सब का संग्रह यहाँ पर संक्षेप में कर दिया गया । ऐसा करने में यदि कहीं कुछ स्खलना हुई हो तो विज्ञ पाठक मुझे उससे सूचित करने की कृपा करें । Page #584 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त और अहिंसा (ले०-श्री पं० सुखलालजी जैन) - -- अनेकान्त और अदिमा इन दो मुद्दाश्रोकी चर्चाके विकार उत्पन्न हुआ हो या कोई वासना जागृत हुई हो ऊपर ही सम्पूर्ण जनसाहित्यका अाधार है। जैन श्राचार और या कोई संकुचितता मनमें प्रज्वलित हुई हो तो उस समय सम्प्रदायकी विशेषता इन दो बानीमे ही बताई जा सकती है। जैन अहिंसा यह कहती है कि-तू इन विकारों,इन वासनामत्य वास्तवमें तो एक ही होता है परन्तु मनुष्यकी दृष्टि उसे श्री. इन संकुचिततासि व्याहत मत हो! हार मत मान ! एकरूपसे ग्रहण नहीं कर सकती, इमलिये सत्य-दर्शनके दब मत ! त इनके सामने युद्ध कर ! इन विरोधी बलोंको वास्त मनुष्यको अपनी दृष्टि-मर्यादा विकसित करनी चाहिए। जीत ले! इस प्राध्यात्मिक जयके लिए किया गया प्रयत्न उममें मत्यग्रहणकी सम्भवित रीतियोंको स्थान देना चाहिये। ही मुख्यतया जैन अहिसा है। इसको संयम कहो, तप कहो, इम उदात्त और विशाल भावना से ही अनेकान्त-विचार- ध्यान कहो या कोई भी और वैसा आध्यात्मिक नाम दो, मरणीका जन्म हया है । यह सरणी कोई वाद-विवादमें जय परस्त वस्तत: यह प्रतिमा है। प्राप्त करनेके लिए, वितंडावादकी लड़ाई लड़ने के लिए X अथवा ललका दाव-पंच ग्वेलनेके वास्ते योजित नही हुई। जैन दर्शन कहता है कि अहिंसा मात्र प्राचार नहीं यह तो जीवन-शोधनके एक भागरूपमें, विवेकशक्तिको बल्कि वह शुद्ध विचारके परिपाकरूपमें अवतरित हवा विकसित करने और सत्यदर्शनकी दिशामें आगे बढ़नेके जीवनोत्कर्षक प्राचार है। ऐसी अहिंसाके सूक्ष्म और वास्तलिए योजित हुई है। इससे अनेकान्त-विचार-सरणाका विक रूपमें से कोई भी वाह्य प्राचार जम्मा हो अथवा इस ठीक अर्थ है-सत्यदर्शनको लक्षमें रखकर उसके अधिक सूक्ष्म रूपकी दृष्टिके लिए कोई भी प्राचार निर्मापित हुआ हो, अंशों और भागोंको विशाल मानस-मंडलमें भले प्रकार उसे जैन तत्वज्ञानमें अहिसा जैसा स्थान प्राप्त है। इसके स्थान देना। विपरीत प्रकट दिखाई देता अहिंसामय चाहे जैसा प्राचार xx या व्यवहार क्यों न हो, उसके मूल में यदि ऊपरका तत्व अनेकान्त-विचारकी रक्षा और वृद्धिके प्रश्नमें से ही सम्बन्ध नहीं रखता तो वह प्राचार और वह व्यवहार जैनअहिंसाका प्रश्न उत्पन्न होता है। जैन अहिंसा मात्र चुप दृष्टिसे अहिंसा या अहिंसा-पोषक है. ऐसा नहीं कहा जा चाप बैठे रहनेमें या उद्योग-धंदा छोड़ देने में अथवा मात्र सकता। काष्ठ-जैसी निश्चेष्ट स्थिति साधने में नहीं समाती । बस्कि यह अहिंसा सच्चे अात्मिक बलकी अपेक्षा रखती। कोई (गुजराती पत्र "जैन" से अनुवादित) x Page #585 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'बनारसी-नाममाला' का संशोधन मुसली वैनि ११९ 'भनेकान्त' की गत किरणमें ओ 'बनारसी नाममाला' प्रकाशित की गई है उसके छपनेमें शीघ्रतादिवश कुछ अशुद्धियाँ होगई हैं, पाठक उन्हें निम्न प्रकार से सुधार लेवें :दोहा न• अशुद्ध दोहा नं० अशुद्ध शुद्ध वानरिपु बाणरिपु - २ वीर सु-बंधवभ्रात बंधु सुबंधव जात इंदिग अनुज अनुग कुसली चारुचर चार चर सोमवंसराजान सोमवंशि राजान उपधन अपघन कंद सबद सबद कखपदमकर कच्छप मकर वनि घामनिधि धामनिधि चंदनजावक वंदन जावक हरिराजा हरि राजा १०९ जेहरि जेहर भानि सुलील सु-शील महधाम मह धाम १३२ पद सिंहासन पीठ सिंहासन पदपीठ किरनि किरन १३६ गोमुख गोपुर बरवा बाडव १३७ अंकुल अंकुश संठ सठि १३८ सिरवंधन सिर वंदन गाडा(था)धिपति गाहाधिपति १३८ पान पानि अधोभवन अधोभुवन १४२ कंचुकि कंचुक कुहिर कुहर हरिधिप द्वीपी फन १५२ मातंगधिप मातंग द्विप अंघ १५४ सारन सारंग दुष्कृत सखित्त चाखसु चाष सु भ्रात्रिजानि भातृजानि १६५ विवि बंधु सहोदरजात वीर सहोदर भ्रात -प्रकाशक १५१ फनि सिव सुमित्त १६१ Page #586 -------------------------------------------------------------------------- ________________ मृग-पक्षि-शास्त्र का सिद्धान्तम श्री . ना क्रीडा" लिटते हैं:- सन १९२७ में यह अनुवाद कालहम्तीम प्रकाशित जुग्राला नी ( Zoology ) अर्थात् 'जन्तु- हुश्रा । खेद है संस्कृतका मूलमन्थ हम दग्बनका नही विज्ञान' की ननि पाश्चात्य देशोंने १८ अठारहवीं मिला, अंग्रेजी अनुवाद ही उसका परिचय यहाँ शताब्दीस हुई, परन्तु भारतमें प्राचीन कालमं दिया जारहा है। इसका पता लगना है । आयुर्वेद के सम्बन्धमे पशुः जिनपुर के थाई दात्रिय राजा मौददेव थे । एक पक्षियांवी शरीर-रचना, उनके स्वभाव, उनके गंगों बार यह घाइपर चढ़कर मय साज सामान सहित नथा उकालिकित्मापर बहुत कुछ लिग्ना गया है। जंगम शिकारक लिय गए । वहाँ पहुँच कर उन्होंने अनिगम ‘गवायुर्वेद', 'गजाचकित्मा', 'अश्व- अपने आदर्दा मयांका ढोल पीटकर पशुश्रीको बाहर चित्मिा ' आदि प्रकरण श्राय है । श्री पालकाय्य निकालने के लिये कहा। उछल कूदन जब पशु विर्गचत 'हस्ति श्रायुर्वेद' भी एक प्राचीन ग्रन्थ है। झाड़ियोंम, पन्दगओंसे बाहर निकल आये तब भी नाल कगठन 'मातङ्गलीला', में हाथियोंके लक्षण उनकी सुन्दग्ना दबकर वे मुग्ध रह गये । व्याघ्र, बड़े अन्छ ढगमे बतलाये गए है । श्री जयदेवनं चीना, मृग, भाल , जंगली भैंस, शुक, हंस श्रादिका 'अश्ववद्यकम' लिग्वा है । कृमाचल (कुमाऊ) के दबकर वे विचार करने लगे कि य'द इन मयका गजा श्रीमद्रदेवका एक ग्रन्थ 'श्यनिकशास्त्र' है। वध कर डाला जायेगा तो वनांकी शोभा ही नष्ट हो इमम श्यैनिक' अर्थान शिकग या बाज द्वारा शिकार जायगी और मृग-पक्षि-शास्त्र ही लोप हो जायगा। करकी विधि बतलाई गई है । उनी प्रसंगी श्यनों दम दिन दरबाग्मं आकर उन्होंने मब पण्डितों का पूरा विवरण दिया गया है। नथा विद्वानोंको बुलाया और पशुपक्षियों का वर्णन परन्तु इम विपयपर ईश्वी मन की १३ वीं करने के लिये कहा । तब उनके मंत्री श्री नागचन्दने शताब्दीमे लिखी हुई एक बड़ी सुन्दर पुस्तक है। प्रमिद्ध व वि श्रीहमदेवका राजाम परिचय कराया जिसका नाम 'मृग-पक्षि शास्त्र' है । इमक लेखक है और एक ग्रन्थकी रचनाका भार उन्हें मौंपा। एक जैनकवि श्री हंमदेव । इस पुस्तक में १७०० इस पुस्तकमें प्रधान पशुपतियांक ३६ वर्ग किय अनुप्रपश्नाक है। इसकी हस्तलिखित प्रतिका पना गप है, जिनमें उनके रूप, रंग प्रकार पहल-पहल मदगमक एपीफिस्ट' श्री विजयराघ- किशोगवस्था, मम्भाग-ममय, गर्भकाल, भोजन, वाचायका लगा, जिन्होंने उम ट्रावन्कार के गजाको आयु नथा अन्य विशेषताओंका वर्णन किया गया गेंट किया । उमकी एक प्रतिलिपिको डाक्टर के०मी० है। विद्वान् लग्वक मनानुमार सत्त्वगुग्ण मनुष्यों ही वुड अमर्गका ले गये । प्रसिद्ध जर्मन विद्वान् डाक्टर में पाया जाता है, पशुपक्षियोंमें रजोगुण नथा नमा ओटा श्रेडर, जो अदयापमं काम करते थे, इस जर्मन गुण ही अधिक पाया जाता है । इम भी उत्तम, तथा अंग्रेजी अनुवादक माथ प्रकाशिन करना चाहने मध्यम तथा अधम नीन भेद हैं। मिह, हाथी, घोड़ा, थे । परन्तु गत महायुद्ध में उनके नजरबन्द होजानस गाय, बैल, हम, माग्म, कोयल, कबूना श्रादि उत्तम यह काम पूरा न हो सका। अन्ततः देवनागरी लिपि गजस हैं । चीता, बकग, मृग, वाज आदिमें मध्यम में यह पुस्तक १९२५ के लगभग प्रकाशित हुई, जिस और भालू, भैंस, गैंडा आदिमें अधम है। इसी तरह का श्री सुन्दराचार्यजीने अंग्रेजी में अनुवाद किया। ऊँट, भेड़िया, कुत्ता, कुक्कुट (मुगो) आदि में उत्तम Page #587 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४४ अनेकान्त [वर्षे ४ तामस, गोध, उल्ल , तीतर आदि में मध्यम और इम साधारण वर्णनके बाद उनके ६ भेदों से गधा, सूअर, बन्दर, म्यार, बिल्ली, चूहे, कव्वे प्रत्यककी विशेषताएँ बतलाई गई हैं। सिंहके गदनके आदिमें अधम तामस है । हाथी की अधिक से बाल बड़े घन होते हैं, रंग सुनहला पर पीछे की ओर अधिक प्राय १००, गैंडा की २२, ऊँटकी ३०, घाई कुछ सफेद होता है। वतीरकी तरह तेज दौड़ते हैं। की २५, सिंह, भैंस, बैल गाय आदिकी २०, चीता मृगेन्द्रकी गति मन्द और गम्भीर होती है । इनकी की १६, गधेकी १२, बन्दर, कुत्ता, सूअर आदिकी आँखें सुनहली और मछे बड़ी बड़ी होती है, रंगमं १० और बकरेकी ५, हमकी ७, मोरकी ६, कबूतरकी उनके शरीरपर कई प्रकारकं चकत होते हैं । पञ्चाम्य ३ और चूहे तथा खरगोशकी आयु ५॥ डेड वर्षकी उछलने चलते है, उनकी जिह्वा बाहर लटकती रहती होती है । जुबालाजीके पाश्चात्य विद्वानोंने भी है। उन्हें नींद बहुन पाती है, हर समय व ऊँघते म पशुपक्षियोंकी आयुकं मन्बन्धमें इतना विचार नहीं जान पड़ते हैं। हर्यक्षको हर समय पसीना आना किया है। रहता है । केसरीका रंग लाल होता है, जिसमें इस पुस्तकमम यहाँ कुछ पशुपक्षियोंका रोचक धारियां पड़ी हाती हैं । हरिका शरीर छोटा होता है । वर्णन दिया जारहा है । मिह, मृगेन्द्र, पञ्चाम्य, इसी तरह अन्य अन्य पशुओंका वर्णन किया गया हर्यक्ष, कंसर्ग तथा हरि य शेरों के ६ भद हैं। इनके है । और हाथी, घोड़े, गाय, बैल, बकरं, गधे, कुत्ते, रूप रंग आकार प्रकार तथा काममें कुछ भिन्नता बिल्ली, चूहे आदिकं कितने ही प्रकार के भेद और होती है। उनमें कुछ घने जंगलों में और कुछ पहाड़ों उनको विशेषताएँ बतलाई गई हैं । अन्तमें लिखा पर रहते हैं। उनमे बल स्वाभाविक होता है । जब गया है कि पशुओंका पालने और उनकी रक्षा करने उनकी आयु ६ या ७ वर्ष की होती है, तब वर्षा से बड़ा पुण्य होता है । वं मनुष्य की बराबर महायता ऋतमें उन्हें काम बहुत सताता है। मादाका देख करते रहते है, गौकी रक्षाम ना विशेष पुण्य प्राप्त कर उसका शरीर चाटते हैं, पूछ हिलाते हैं और कूद होना है। कूदकर बड़े जोगेस गरजते हैं । सम्भोगका समय पुस्तकके दूसरे भागमें पक्षियोंका वर्णन है। प्रायः आधी गत होता है । गर्भावस्था में कुछ उमकं पहिले बतलाया गया है कि अपने कर्मानुसार काल नर मादाकं साथ ही घूमा करता है । भख प्राणीका अण्डज योनि प्राप्त होती है । पक्षी बई कम पड़ जाती है । शिकाग्का मन नहीं हाता चतुर होते हैं । अण्डोंको कब फोड़ना चाहिये उसका और कुछ शिथिलता प्राजाती है । ९ से १२ महीने उनमें ज्ञान देखकर आश्चर्य होता है। वे वनों और बाद उससे पाँच तक बच्चे पैदा होते हैं। प्रायः वसन्त घरोंकी शोभा हैं । पशुओंकी तरह वे भी कई प्रकारम का अन्त या प्रीष्मका प्रारम्भ प्रसवकाल होना है। मनुष्यकी सहायता करते हैं। हमारे ऋषियान लिखा यदि शरद ऋतु में बच्चे पैदा होंगे तो वे कमजोर है कि जो पक्षियोंको प्रेमस नहीं पालते और उनकी होंगे । पहल व माताका दूध ही पीते हैं, तीन या रक्षा नहीं करते, वे पृथ्वीपर रहने के अयोग्य हैं। चार महीने होनपर वे गरजने लगते और शिकारकं इसके बाद हंस, चक्रवाक, सारम, गरुड़, काक, वक, पीछे दौड़ने लगते हैं। चिकने और कोमल मांमकी शुक, मयूर, कपोत आदिके कई प्रकारके भेदोंका ओर उनकी रुचि अधिक होती है । दूसरे तीसरे बड़ा सुन्दर और रोचक वर्णन है । परन्तु लेख सालसे उनकी किशोरावस्थाका प्रारम्भ होजाता है। विस्तारकं भयसे छोड़ना पड़ रहा है । कुल मिलाकर इस समयसं उनमें क्रांधकी मात्रा बढ़ने लगती है। उसमें लगभग २२५ पशुपक्षियोंका वर्णन है। भूख उनसे सहन नहीं होनी, भय तो वे जानते ही [अक्तूबर १६४ की 'सरस्वती' से उद्धृत ] नहीं । इसी लिये वे पशुओंके राजा माने जाते हैं। Page #588 -------------------------------------------------------------------------- ________________ दस्सा-बसा भेदका प्राचीनत्व ले० - अगरचन्द नाहटा, ) जैन एवं जैनेनर जानियो में दस्मा, बीमाका भेद सैकड़ों वर्षों से चला रहा है, पर यह भेद कब और किम कारण मे हुआ, इसका अभीतक निश्चय नहीं हो पाया। कारण है ममाकालीन प्रमागोवा श्रभाव। इधर करीब ३००-४०० वर्षो एक प्रवाद भी प्रसिद्ध हो चला है कि वस्तुपराल, तेजपाल विधवा के पुत्र थे और उनके कारण ही इस भेदकी सृष्टि हुई है। कथा यो बताई जाती है कि एक बार जातिभोजके समय उनके विधवा-पुत्र हानेकी बात पर चर्चा लड़ी फलतः जो व्यक्ति उनके पक्ष में रह इन्हे विरक्षी पाटने 'दस्मा' नाममे सम्बोधित किया, जिन्होंने उनके साथ व्यव हार किया वे बीमा कहलाये, पर विचार करने पर यह कारण समीचीन प्रतीत नहीं होता । मंत्रीवर वस्तुगल तेजपाल के सम्बन्धमं समाकालीन बहुतसी ऐतिहासिक सामग्री उपलब्ध है। इनके ताने कुमारदेवी नामक एक विधवा स्त्रीको पनी पत्नी बनाया था और उमीकी कुक्षिवस्तुपाल व तेजालका जन्म हुआ था, इम का सबसे प्राचीन प्रमाण मं० १३६१ मे रचित प्रबंध चितामणि' ग्रन्थ है । पर इस ग्रन्थ में तथा इसके १५० वर्ष के रचित अन्य किसी ग्रन्थ मे भी दस्मा बीमा भेद इनके कारण हुआ ऐसा निर्देश नहीं है। अर्थात् घटनाके करीब ३५० वर्ष तकका एक भी प्रमाण इस प्रवाद के पक्ष समर्थनका उपलब्ध नही है, फिर भी श्राचर्य है कि पिछले प्रमाणों पर निर्भर करके सभी विद्वाना। ने यही कारण निर्विवाद रूप मे स्वीकार कर लिया है । उक्त कारणके समर्थन में मुनि जानसुन्दरजीने निम्न प्रमाण अपने 'संगठनका डायनामा' * ग्रोमवाल, श्रीमाल, पोरवाड़, हुबड, परवार श्रादि । दस्मात्रीमा केवाली नाम लघु-वृद्ध शाखा भी हैं। +श्रीमाली जातिनो वणिकभेद, जैनमाहित्यनो संक्षिप्त इतिहाम (१०३६०) के लेखक, पं० नाथूरामजी प्रेमी, मुनि ज्ञानसुन्दर जी श्रादि । नामक ट्रेक्टम बतलाये हैं: १२० १५०३, उपवेशगच्छ्रीय पद्मप्रभोपाध्याय की पट्टावली २०१५७८, सौभाग्यनंदि सुरि-रचित विमल चरित्र ३ सं० १६८१, देवसुन्दरोपाध्याय रचित वस्तुपालतेजपाल राम ४ सं० १७२१, मेरुविजय रचित वस्तुपाल - तेजपालराम ५ कन्हड़देगम, ६ ब्राह्मणोत्पनि मार्तण्ड ७ सं० १८८१, सोहमकुलपट्टावली, ८ सन १६१५ के जे० श्वे० का० हेरल्डमे प्रकाशित पट्टावली, ६ अन्य पट्टावालयों। इनमे न० १ व ३ प्रमाण तो अद्यावधि प्रकाश में नहीं ग्राये हैं, अतः उनमें क्या लिखा है ? यह ज्ञात है । नं० २ प्रमाण मे मुनिजी लिखित लघु-वृद्ध शाखाकी उत्पत्ति वस्तुपाल तेजपालम लिखी है यह बात है ही नहीं । उसमें तो इस भेदका कारण दूसरा ही बतलाया है और उसमे जातिभेदका समय बहुत पहलेका निश्चित होता है। यथाद्वादशायनदुभिक्षे, म पिशितभोजिनः । श्रभूतं सुभिक्षेऽपि तन्न मुञ्चति भक्षणे ॥ ५५ ॥ सम्भूय साधुभिर्विप्रेरयागमवचश्वयैः । बोधिता न निवर्तन्ते नितरा रमलोभनः (लोलुपः ) ||५६ परस्परं वितन्वंति विचारमिति केवलम | एवं प्रकुर्वतामेषा पूर्ववच्चेक वर्णता ॥ ५७ ॥ व्यवस्था किरते तस्माद् तद्दोषनिवृत्तये । श्रस्माभिः सर्वनमांकाना, सममिति सादरम् ||५८ ॥ तथाहि :- ये पुमामो न कुर्वन्ति, गण्डादिस्त्रीपरिग्रहम् । मद्यमामाशनं चापि तस्मात्पंक्ति मध्यगाः ॥ ५६ ॥ रण्डादिसंग्रहं ये तु मद्यमामादिभोजनम् । वितन्वम्यतिनिर्लजा पंक्त्याः सदेव ते ॥ ६० ॥ प्राग्वाटाया विशति, विशपिका ज्ञातयो भवन यस्मात् । Page #589 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४६ अनेकान्न दश ने स्त्री मद्यादिनिवृत्तितो दश ॥ ६१ ॥ उपगुणाणतो, विशोरका विशनिश्कारतेषाम् । एकतरतस्तदर्धर्मपामनाचारे ॥ ६२ ॥ X X X उपस्थामिति मे भार्याोग्यन्ति नः परम् । एवास्ते लघुशास्वाया, वृद्धशास्त्रीयपङ्कितः ॥ ६४ ॥ श्रर्थात् द्वादशवर्षीय दुकालके समय कई लोग मयममादि अमद करने लगे, दुकानके बाद समझाने पर भी जब उन्होंने वह अयोग्य व्यवहार न छोड़ा तो सबने मिल कर यह व्यवस्था की, कि जो विश्वादिमे संसर्ग करेंगें एवं खानपानकी शुद्धि नहीं रखेंगे ये दमे कहनापशेपची इसमें वस्तुपाल - तेजपाल के कारण दमा बीमा भेद ऐसा कहीं भी उल्लेख नहीं है, फिर भी ग्रन्थको देखे 정치 बिना नहीं मालूम मुनि ज्ञानसुन्दरजी + ने यह बात मनघडंत कैसे लिख डाली ? इसी प्रकार ब्राह्मणोत्यतिमार्तण्ड में भी वस्तुपाल - तेजपालका नाम नहीं है । कन्हडदेगम अभी तक मेरे अवलोकनमें नहीं थाया, श्रवशेष सभी प्रमाण १८ वीं १६वीं शताब्दी है अर्थात पटना ४०-४०० वर्ष पीछे हैं। अतः केवल उन्हींके श्राधारसे, जबकि अन्य प्राचीन प्रमाण वह प्रवाद श्रप्रमाणिक ठहरता है, कोई निश्चय नहीं हो सकता है । भी मानजी के अन्वेषण में दमावीमा मेदका उल्लेख समे प्राचीन मं० १४६५ के लेख में मिला है, पर मेरे इससे पहलेकी मं०१८ की एक प्रशस्ति में " श्रोशवालवीशा" विशेषण आया है । दमा-चीमा भेदके प्राचीनत्वको सिद्ध करने वाला प्राचीन प्रमाण है स्वरतर नियतिरिचित मामाचारी उक्त मामाचारीकी रचना मं० १२२० मे १२७७ केनतिरि जीने की थी। वे सं० १२७७ में स्वर्गवासी हुए । अतः इससे पहले की होना निश्चित ही है । सामाचारींमं आचार्य उपाध्यायपदादि किस [ वर्ष ४ किम जाति वालीको दिया जाय इसका निर्देश इन शब्दोंमें किया है: + संगठनके डायनामे में थाने इस विषय जो उद्धरण दिये है प्रायः सभी "श्रीमाली जातो कि भेद" पुस्तक में लिये गये हैं, फिर भी उक्त प्रत्थका कहीं नामनिर्देश तर नहीं किया गया । "वीसओ मिरिमाल श्रमवाल गोग्राड - कुलसंभृश्री चैत्र आयश्रो दिजइ उज्मा न उ ( ? ) ग पु दमा जातियो, महुतीया टा विजायगा गुरु जो था भोपा ठाविज महत गिरिमाला व विज ।। ६६ ।। अर्थात्- -ग्राचार्य एवं उपाध्याय पदपर बीमा श्रीमाल, श्रमवाल पोरवाड़ ज्ञानि पालेको स्थापित करना चाहिये, दमा जाति बालोको नहीं । इत्यादि । - इम प्रमाण से वस्तुपाल तेजपाल यह बात विचारणीय हो जाती है। उस बात का उल्लेख है उनमें हम घटनाका समय सं० १२७५ दसाबीसा भेद हु मनले प्रमाण में के बादका बतलाया है। यदि उक्त प्रवाद की घटना मं० १२७५ के बाद में मं० १२७५ के बादमें हुई तो उसमें पूर्व की या उसी समय की रचित "सामाचारी" में दसा बीमा भेदका श्राचार्य पदादि के प्रसंग उल्लेख होना संभवपरक नहीं ज्ञात होता । विमलचत्रि के उपर्युक्त उद्धरणोंसे भी दमा बीसा भेदके प्राचीनत्वकी ही पुष्टि होती है। अतः मेरे नम्र मतानुसार आधुनिक विद्वानां मत विशेष प्राचीन प्रमाणांक अपेक्षा रखता है। आशा है विशेष द्वान इस समस्या पर विशेष प्रकाश टालेगे । मुनि श्रीका यह अनुमान "मं०१३६१ तक लघुशाखा वृद्धशेने पृ० ६ में शामा तथा दमा बीमाका नाम संस्करण भी नहीं हुआ है" गलन है । 64 मंगठन डायनामेके पृ० २२ में इस शाखा मेद से जैनाचार्य भी वंचित नही रहे" लिखकर लघु-वृद्धपौशालिक का उदाहरण दिया है पर वह सर्वथा गलत है । लघुवृद्ध पौशालिकका उस भेदसे न तो कोई सम्बन्ध दी है, न वे विशेषण हीनता उच्चता के द्योतक दी हैं । + प्रवादको सत्य मानने में यह भी आपत्ति श्राती है कि वस्तुपाल तेजपाल के कारण दमा बीमाका भेद, स्थानीय पोरबाड़ जाति या अधिक से अधिक श्वेताम्बर समाज में ही वह भेद पड़ सकता था । पर जब हम दसा बीसाका भेद हादिदिगम्बर व ब्राह्मणादि नेतर जातियोंमें भी पाने हैं तब उक्त प्रवाद की सत्यता में सहज संदेह हो जाता है । - Page #590 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जल्लाद [लेखक-श्री भगवत् जैन] बोले-'सबने व्रत-नेम लिये हैं, कुछ तुम पारम-मयोगसे लोहा स्वर्ण कैम बन जाता है, भी लो।' यह उमक व्यक्तित्वमे जाना जा सकता था ! वह 'मैं..? महागज, मैं ? मैं अछूत हूँ ! जल्लाद हूँ ! हिंसा-कर्मम रत रहनेवाला-एक वधिक था, जल्लाद मेरा रोजगार है हत्या करना ! मैं भला प्रत-धर्म क्या था ! गजाज्ञा-दाग अपराधियों को प्राग-दण्ड देना, कर सकता हूँ ? वह तो ऊँची-जात उच्च-कुल वालों उसका पेशा था! गटियोंका मवाल वह इमीके द्वाग के लिए हल किया करता था। वह पतिन था, अछुन था,- 'नहीं, भूलते हो तुम ! धर्माचरणका अधिकार जन्मस और कर्मस भी ! सबको समान है। इसमें छूत और अछूतका ___काला-कोवर-मा, कायले-मा, काजल-मा, भ्रमर- भंद नहीं । सब, अपनी-अपनी श्रेणी और योग्यतामा, कायल-मा-शरीर ! बाल भी ऐसे ही ! शायद नुमार व्रत-नियम ले सकते हैं ! अरे धर्मके द्वारा ही शरीरकी अधीनना अच्छी तरह निभती चली जाए, तो मनुष्य पतितसे पावन बनता है-भोले भाई! यही मांचकर तरूप बने हुए थे। बड़ी-बड़ी सुर्ख जल्लाद चुप रहा, कुछ देर ! आंग्वे, चौड़ी नाक और मोटे-माटे श्राठोंक भीतर लेकिन स्वामीजी ! मैं व्रतको निभा कैसे बदबूदार लम्बे-लम्बे दाँत ! ठिगना कद और गक्षस- सकूँगा ? गज्य-आज्ञाकी अवहेलना तो नहीं की की नरह-अगर आप कल्पना कर सकते हैं तो- जा सकेगी, न ? ... गठी हुई देह ! ऐमा था-वह ! कोई दंग्यता तो भया- 'ठीक! किन्तु करने वाले व्यक्तिसं क्या कुछ नक-रमकी साक्षान मूर्ति कहे बिना न रहना, इममें छूटा है-माज तक ? अनन्त-शक्तिका मालिक जग भी सन्देह नहीं है। मनुष्य ही तो एक दिन परमात्मा कहलाता है न ? __पर, वसं ऐमा हाना ही चाहिए क्योंकि वह और जब करना विचारा, सब गजा ता चीज क्या, जो जल्लाद है ! उमक नामकी मार्थकना-उसके देवी-बाधाएँ भी कुछ बिगाड़ नहीं सकती। करने शरीर, हृदय. कर्म सभीपर ता निर्भर है ! वाला सब कुछ कर गुजरता है। हॉ. तो वह एक दिन वनमें गया ! देखा- माधु-संगतिका प्रभाव उस पतित-हदयपर भी एक साधु कुछ भक्तोंके बीच बैठे उपदेश दे रहे हैं! पड़े बरौर न रह सका। जब वह घर लौटा, तो एक एक सरसरी नज़र डालता हुआ वह आगे बढ़ा, बढ़ कल्याणकारी-प्रतिझा उसके साथ थी, कि-'चतुभी गया दो-चार कदम कि योगिराजने उसे रोका। देशीके दिन किसीका वध न करना!' वह एक ओर बैठ गया-सनम्र! सोचता जा रहा था, बह-प्राण देकर भी अब Page #591 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५४८ अनेकान्त [वर्ष ४ - इम प्रतिज्ञाका पालन करना मेग कर्तव्य है। सिर्फ 'परन्तु महागज !..' एक दिनकी ही तो बात है । न, मही एक दिन। 'हा, क्या कहना शेष है ?' और भी तो ढेगें दिन बाकी बचते हैं, वे क्या पेशेका राज्यका उत्तगधिकारी जब फांसी पर झलंगा, बरकरार-कायम रग्बनेके लिए काफी नहीं ?''ऊँह ! तब कौन-सी निष्ठुर-आँखें खुली रह सकेंगीव्यर्थका ऊहापोह !' जहाँपनाह ! ____ 'सचिव ! मुझे अनीनिक पथपर न ले जाया । इमस तुम्हाग दायित्व नष्ट होता है । तुम स्वयं जानते कुछ दिन बाद ! हा-दण्ड अपराधका देखता है, अपराधीकी विश'अगर मैं ऐमा नहीं करता, तो शासकके उच्च- पताका नहीं। मैं 'अन्याया' बनकर पिना' कहलाना तम पदस गिरता हूँ। अपराधीको मजा न देना, पसन्द नहीं करना । मंग आखिरी हुक्म है-अपइन्माफकी हत्या करना है, न्यायका गला घाटना है।' राधीका प्राण-दण्ड दिया जाय !' -सम्राटनं गम्भीरतापूर्वक व्यक्त किया। और ममा बर्खास्त हुई। ___ 'सही है-महागज ! न्याय करना ही कर्तव्य क्या इसी हिन्दुस्थानमें ऐसे न्याया-शामक और गुण होता है । लेकिन पिताकं हृदयसे यह शामन कर गए हैं, जो न्यायकी वदीपर अपन हृदयक सोचना भी आपका फर्ज है, कि अपराधी साधारण टुकड़े-बेटे की आहुति दे सकते थे ?.... नागरिक नहीं, आपका पुत्र है ! पुत्रके लिए, पिनाके कही-हां।' हृदयमें कुछ ममता होती है, इसलिए कि उसे हाना ही चाहिए।'-सचिवने अपराधी राज-पुत्रकी और दृष्टिपात करते हुए कहा। चतुर्दशी, प्रतिज्ञाका दिन'हाँ! यह मैं मानता हूँ । इममें इनकार नहीं, कि वह बैठा था, झोंपड़ीक बाहर चबूतरेपर ! कि पिता-पुत्रका सम्बन्ध हार्दिक होता है । लेकिन- उसने देखा--गज-कर्मचारियोंके बन्धनम एक सुन्ददिक्कत है कि कानून पिता-पुत्रके नाते-रिश्तेसे दूर है। गकार अपराधी चला आरहा है ।. वह उन्हें छना तक नहीं! मैं इस समय न्यायकं 'अरे, आज तो उसकी प्रतिज्ञाका दिन है न ? सिहासनपर बैठा हूँ-न्याय न करना मंग पतन है, यह कैमी बला आई ? अब क्या करना चाहियेपक्षपात है, सिंहासनके माथ दुश्मनी है और है उस ?' शासकके पदका अपमान ! मैं जब तक यहाँ हूँ- वह चकगया ! पहिले शासक हूँ, पीछे और कुछ ! अपराधके मुता- क्षण-भर रुका । वित प्राण-दण्ड देना यहां मेरा फर्ज है। और अन्तः- फिर उठा! आवश्यकता ही तो आविष्कार की पुरमें पुत्र-शोकमें, रोना-विलाप करना, मेरा कर्तव्य !' जननी है न ? उसे भी युक्ति सूझ चुकी थी । घरक सम्राटने ममता-हीन स्वरमें उत्तर दिया। भीतर पहुँच, सीसे बोला-'सुन, आज मैं बधक Page #592 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १० ] जल्लाद लिये न जाऊँगा, तुझे तो बताना ही क्या, कि आज मेरा व्रतका दिन है। बाहरसे राजकर्मचारी आ रहे हैं, कह देना कि 'वह आज हैं नहीं, बाहर गये है !'समझी और मैं काठ छिपा जा रहा हूँ !' 'ठीक है ।'- स्त्रीनं उत्तर दिया । वह काठ में जा छिपा । मिनिट भर बीता, कि सिपाहियोंका जत्था श्रा पहुँचा । 'कहाँ गया ?' 'वे, आज हैं नहीं, बाहर गए है ।' 'अरे'! आजही उसे बाहर जाना था ! आज जो होता तो हजागेका माल हाथ न लगना ?' जत्थे के अधिनायकने राजकुमार के आभूषणों की ओर संकेत करते हुए कहा । 'यह तो ठीक है !' - स्त्री हृदय में एक संघर्ष छिड़ा- 'कैमा अतुल अवसर है, हज़ारोंका माल ! हार-कुण्डल, कड़े, बाजूबन्द कितनीही चीजें तो पहने है - यह ! और कपड़े भी तो देखो, कितने क्रीमती हैं ? क्या करूँ ? ऐसा मौक़ा बार-बार तो मिलना नहीं ! फिर, यही तो अपना धन्धा है— अपराधीका कुल सामान ! चाहे, पाँचका हो या पचासका ! आज इतना धन ! क्या यों ही छोड़ दिया जाय ?' 'तू तो बहुत दिन देव रही हैं तू ही कहक्या इतना धन कभी भी मिला है, जितना यह आज है ?' - अधिनायक ने हामी भगनी चाही ! लाभ-लिप्याने स्त्री-हृदयपर काबू पा लिया।" 'मगर वह तो आज हैं नहीं । कहते हुए भी उसने चुपके से कांठेकी ओर उँगली उठा दी । ओफ़ । नारीके लाभी मन । दुसरे ही क्षण ५४६ जल्लाद ठेके बाहर, सबके सामने खड़ा थाअपराधी की तरह | 'यह जालसाजी ? यह धोखा ?-- क्यों ? क्या विचार है, अब ?' - अधिनायक क्रोधके मारे थ धर हो रहा है। 'कुछ नहीं । जो हुआ वह ठीक। और जो होगा वह भी ठीक ही होगा'' जल्लादने गम्भीरतापूर्वक कहा। मुँह पर उसके एक अपूर्ण प्रसन्नता खेल रही था। आज उसके आगे व्रतकी रक्षा- अरक्षाका सवाल है. जीवन मरणकी समस्या है। लेकिन वह उसके लिये तैयार है । वह जानता है-यों पकड़े जाना उसके लिए शुभ नहीं है। पर, फिर भी वह सचिन्त्य नहीं, दृढ़ता जां साथ है प्रतिज्ञा पालन की। 'जानता है - इस धाबा जी का क्या फल होगा ? चल ! महाराज के सामने ।' 'चला !' -और वह निर्भय हा चल दिया ! स्त्री श्रवाकू ! देखनी भर रही, जब तक दिखाई देते रहे। X X X ४ ) 'क्या चाहना है अब ?' - सम्राटनं पूछा । 'वैसी आज्ञा, जो पालन हो सके ।' यह जल्लाद का उत्तर था सीधा, स्पष्ट । ' ले जाओ, अपराधीको बध करो। जो आज तक करते आये हो !' 'नहीं, इस श्राज्ञा का पालन आज नहीं होगा-महाराज !' लापर्वाहीक साथ जल्लाद बोला । महाराजका क्रोध सीमा पार कर गया । चिन्न जा उनका पहले से ही दुखा हुआ था । श्रापे से बाहर Page #593 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५० होगए - भूल गए सारी राजनीति ! झल्लाकर बोले- 'अच्छा, इतनी हिम्मत ?' अनेकान्त जल्लाद चुन । ' ले जाओ, इसे भी प्राण दण्ड दो ! कृतन्न ! नीच !! चाण्डाल !!!' -- मम्राटने हुक्म दिया | X X X जलचरोंके देशमें अथाह जलाशय में लहरें हिलोरें ले रही थीं। समीपस्थ — नीरव वातावरण, ऊर्मियांकी गम्भीरध्वनि से भंग हो रहा था ! असंख्य जल-चर श्रानन्द निमग्न हो तैर रहे थे ! स्थान पाया। ...कि एक जकड़े हुए अपराधीका बेवश शरीर aah बीच में गिरा । सबमें, एक नई उमङ्गन "और बातकी बातमें उस अभाग व्यक्तिको शरीर जलचरोंकी दाढ़ोंके नीचे पड़कर पेटमें समा गया । भोज्य वस्तु नत्म होचुकी । यह था - राजपुत्रका प्राण दण्ड ! क़ानूनकी तामील । तट पर खड़े हुए जन-दलने एक चीत्कार किया --' श्रोह !' जैसे मनुष्यता कराह उठी हो । [ वर्ष ४ 'बांध इसे भी ।' हुक्म हुआ और उसी वक्त हुक्मकी तामील मामनं थी । 'क्या अब भी तू अपने हठसे बाज न आएगा ?' --सवाल हुआ। 'हरगिज़ नहीं ! आज मैं हिंसक हूं। मुझे इस पर गर्व है। मैं आज हिंसा नहीं कर सकता - चाहे इसके लिये मुझे मौत से भी बड़ी सजा दीजाय ।'यह जल्लादका खुला निर्णय था । 'डाल दो, इमे ।' श्रह ! उसी अगाध जलाशय में जल्लादका बँधा हुआ बेवश शरीर डाल दिया गया। जन-दलसे फिर एक जोर की चिल्लाहट हुई । पर, यह क्या? क्षणभर बाद——सब शान्त ! जैसे कुछ हुआ ही नहीं। दुनियाँका रिवाज जो यही है। अब बधिककी बारी थी । सिपाहियों की सतर्कतामें वह एक और खड़ा था। मुँहपर उसके विषाद न था, दृढ़ता थी । हृदय में संकोच, भय, पश्चाताप न था, निर्भयता थी । वह खड़ा था —– प्रसन्नचित्त ! जैसे परीक्षा में उत्तीर्ण होने की इच्छा में खड़ा हो । यह क्या रहा है - जादू ? सबने देखा, खुली आँखों देखा —– जल्लाद, हाँ, वही पतित - तिरस्कृत - अछूत सिंहासनपर विराजमान है। देवगण उसकी पूजा कर रहे हैं। X X सम्राटने सुना, शहर की जनता ने सुना, जिमने सुना-दौड़ा आया । श्रद्धासे उसका मस्तक झुक गया—- प्रतिज्ञा-पालक के चरणों में ! अहिंसा के पुजारी की महत्ता के सामने ! सम्राटने पैरोंमें मुकुट नवाते हुये, हाथ जोड़े, क्षमा माँगी । कहा -- 'तुम पतित नहीं, पतित मैं हूँ, जो प्रभुना के मदमें आकर तुम्हारी धार्मिक प्रतिज्ञा तुड़वाना चाहता था । तुम पूज्य हो ! आदर्श हां !! मुझे क्षमा करो। X Page #594 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैन-धर्मकी देन (ले०--प्राचार्य श्री क्षितिमोहनसन) कत वैदिक धर्म इन्द्र-चन्द्र-वायु श्रादि देवताओंमें इसी कारण एक हिसाबसे जैन-धर्म के माथ बंगालका "डी श्राबद्र था । वह स्वर्ग - मुग्व की प्रार्थनामें रत था, बहुत पुराना योग ।। बौद्धधर्म ग्रहण करने के पूर्व और उमय. यजम माना । जन था । उपनिषदोंके बंगाल में जैनमतका ही प्रादुर्भाव था। अब भी मानभूम, युगमं देग्वा गया कि मनुष्य बाहर के देवताको स्वोज बॉकुड़ा प्रभृति स्थानाम सगक-जाति जैन श्रावकोकी ही छोडकर अपने अन्नग्में ही अन्वेषगा - करने लगा है। तब अवशेष है । जेनीकी उमी पुरातन भूमि--बंगदेश--में पुन: हिमामय यन छोड़कर उमका चिन श्रमिात्मक ध्यान- जन-धर्म सम्मानित और सस्कृत ।। भारतीय धर्म-माधनाके धारणाकी पोर झुकने लगा। म्बर्ग-मुम्बकी अपेक्षा बद सैनम जैन-धर्मका जो अमूल्य दान है, दम बंगदेशमं भी वैगग्यानित मुक्ति के लिए व्याकुलना अनुभव करने लगा। उसका उपयुक्त अनुसंधान होना चाहिए। मंधान करने पर पता चलेगा कि अहिमा-प्रार्थनाको भारतीय धर्मके इतिहासमें श्रदमा, निष्कामता, मुक्निक मल में बहुन-मा कार्य महागुरु महायोग श्रादि पथ- मनोविजय, ध्यानपरायणता, इन्द्रिय जय, वैराग्य, मुक्तिप्रदर्शकगगा कर गए हैं। प्राचीन महागुरुयोकी शिक्षा, माधना प्रभृति बड़े-बड़े सत्य जैन-माधकीक है। दान-स्वरूप गुममे शियकी श्रीर, महाम ही चला करती थी। प्राप्त हुए हैं। पुगतन धर्म में मनुष्य देवताके माइम जैनाचार्यों में भी यह मब तस्योपदेश इसी तरह क्षबानी अाच्छन्न था: जैन साधनाने दिग्बलाया कि मनुष्यका धर्म चलता रहा। जैन धर्म के लिग्विन उपदेशांके युग में सबसे उसीके अन्तग्म है । मानव-साधनाम मानव ही महत्तम पहले श्रावली भद्रबाहका नाम लिया जा मकता है। सत्य है. देवता नहीं। महामानवक चरणाम ही मानव ग्लनन्दी-रांचन 'भद्रबाहुचरित' और हरिण-कृत प्रणत हो, देवताके चरणोमें नहीं । मानव और मानव'वृहत्कथाकोष' से जाना जाता है कि भद्रगहु का साधनाको इस धर्मने एक अपरूप(अपूर्व)महत्व दान किया। जन्मस्थान पुण्ड्रवर्द्धन था। ऐतिहामिकाको यह बतानेकी यूरोपके पालिटिविस्ट लोग दावा करते हैं कि मानव-महत्वको श्रावश्यकना नदी कि पुण्डबर्द्धन उनर-बंगमे स्थित है। उन्होंनेही सबसे पहले सम्मानित किया है, किन्तु यथार्थन: श्रुनकेवली भद्रबाहु के चार शिय थे। इनमें से एकका वही दावा भारतकी बहु-पुरातन जैन माधना कर सकती है। नाम गोदामगणी था । गोदामगीकी शिध्य-सन्तानकी अहिंसा,बैगग्य, निष्काम धर्म प्रभृनि बड़े-बड़े तत्व-प्रचार चार शाग्वाएँ थी-प्रथम नामनीतिया, द्वितीय कोडी करके ही जैन माधकगण निश्चिन्न नहीं हो रहे । युग-युगमें, वरिमिया, · तृतीय पाण्डबद्धनीया और चतुर्थ दामी काल-काल में उन्होंने अपनी साधनाको उम ममयके लिए ग्यबडिया। ये चारी ही शाग्वार बंगदेशकी है। हम उपयोगी किया था। इसी जगह उनका महत्व ,इमी विषयमें मैंने अपने एक ग्रन्थम विस्तृत श्रान्नाचना की है, जगह उनकी प्राणशक्ति का परिचय है। मैंने पहले जैन जो अब तक प्रकाशित नहीं हुआ है। धर्मकी प्राणशक्तिके विषयमें 'प्रवासी', वैशाग्य, १३४१ Page #595 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५२ भनेकान्त [वर्ष ४ बंगाब्दमें एक प्रबन्ध लिखा था, जिसे आप लोगोंमें से महापुरुष थे । विद्ववर श्री हीरालाल जैन महाशयने किसी-किमीने देखा होगा। दिखलाया है कि मुनि गममिह-कृत 'पाहुड दोहा' प्राय: प्राचीन साधनाओंको युग-युगमें कालोचित करनेका ही १००० ईस्वीके अासपासकी रचना है। 'पाहड़ दोहा' नाम है रिक्रामेंशन । हेस्टिंग्न-सम्पादित विख्यात 'एन्साइक्लो- अपभ्रंश भाषा में लिखा गया है। जैन गुरुगण संस्कृतके पीडिया श्राफ़ रिलीजन्स एण्ड एथिक्स' ग्रन्थकी विषय-सूची मोहमें आबद्ध नहीं थे। देवनेसे ही मालूम होगा कि रिफार्मेशनके सम्बन्धमें लिखते मिस्टिक अर्थात् मरमी कबीर प्रभृति में जो मब भाव हुए केवल वीष्टीय रिफार्मेशनका उल्लेख किया गया है। मिलते हैं, 'पाहुड़ दोहा'म प्राय: वे सभी हैं। 'पाहुद्द जैन धर्म के रिफाशनका कोई उल्लेख नहीं है। प्रथच दोहा में से कुछ थोड़े-से यहाँ दिखलाये जाते हैं। युग-युगमे जैन साधनाने विस्मयकर प्राणशक्तिका परिचय शास्त्रबद्ध दृष्टि-भ्रान्त पंडितोंकी ओर लक्ष्य करके मनि दिया है। मेरी निजी गवेषणाका विषय विशेष करके रामसिंह कहते हैं :-- मरमी साधना तथा इन्हीं सब रिफ़ार्मेशनकी बाते ही रही पंडियपंडिय पंडिया कणु छडिबि तुस कंडिया। हैं। इस कारण मैं उसी विषय पर कुछ कुछ बोल मकता अत्थे गथे तुट्ठोसि परमत्थु ण जाणहि मूढो सि(८५) है । यहा ज्ञानी और गुणी बहुत लोग उपस्थित है, यहा अर्थात्--'हे पंडितोके पंडित, तू शस्य छोड़कर भूमी कट मुँह खोलने का अधिकार मुझे नहीं है। तब भी बोलनेके कर रहा है: न कितना बड़ा मुर्ख है कि परमार्थ न जानकर । समय मुझे वही सब बोलना होगा, जिसे लेकर मैंने चिर- अ ग्रन्थके अर्थसे दी संतुष्ठ रह रहा है। जीवन काट दिया है। बहुइयं पढियइँ मूढ पर तालू सुक्कइ जेण । __ मैंने प्रधानत: आलोचना की है--भारतके मध्य-युगको एक्कुजि अक्खरुतं पढहु सिवपुरिगम्मइजेण ॥(९७) लेकर। पहले सभी समझते थे कि कबीर मध्य-युगके -पढ़-पढ़कर, अरे मूर्व, तेरा नालू सूरव गया है, रिफार्मेशनके श्रादिगुरु थे। उन्होंने धर्मके बायाचारीको तब भी तू मूर्ख ही बना है। ऐसा मात्र एक अक्षर पट्ट त्यागकर उसके मर्मकी बात कही थी। किन्तु अब देखा देव, जिससे शिवपुरी जा सकता है।' जाना है कि जैनमाधक लूकाने १४५२ खीष्टान्द में गुजरातमे अन्तो णस्थि सुईणं कालो थोत्रो वयं च दुम्मेहा। अपना लहामत नामक रिफार्मेशन-मन प्रचारित किया। तंणवर सिक्खियव्वं जिंजरमरणक्खयं कुहि ।।(5) इममें बाह्य भेद, प्राचार, पूजा आदिकी व्यर्थता, बाह्य --शास्त्र अनन्त हैं, काल म्वल्प है, अथच हम लोग क्रिया-कर्मकी हीनता अच्छी तरह ममझाई गई है। इसके दुर्मेधा है, अर्थात् हमार्ग बुद्धि और धारणाशक्ति परिमित प्राय: २०० वर्ष बाद, अर्थात् १६५३ ईसवीमें, दुन्डीया है। इसीलिए जिससे जरामरण क्षय होत हैं, इतनी विद्या या स्थानकवामी मन प्रवर्तित हश्रा । यूरोप में भी तब मीग्व लेनी चाहिए। वही यथेष्ट है।' प्यूरिटन मृवमेंट चल रहा था। तारण-गंथ आदि जैन अक्खरचडिया मसिमिलिया पाढतागय खीण। साधनानोमें भी ठीक ऐसे ही रिफार्मेशनकी बातें हैं। एक्कण जाणी परमकला कहिं नग्गड कहिं लीण ॥(१७३ ___ अब मालूम हुआ है कि महात्मा कबीर प्रभृति प्रवर्तित --'स्याहीके अक्षरोंमें लिखे हुए ग्रन्थ पढ़ते पढ़ते क्षीण मतवादके श्रादिगुरुश्री मुनि रामसिंह नामक एक मुख्य हो गया, तथापि कहाँ उत्पत्ति है और कहाँ लय, इस Page #596 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनधर्मको देन ५५३ परम मर्मका मंधान नहीं गया।' श्रारामकी नींद सोने जा सकते हो।' ___ यह विडम्बना देखकर मुनि राममिह कहते हैं:--- दयाविहीएड धम्माणाणिय कह विण जोड। ताम कुतित्थई परिभमई धुत्तिम ताम करंति । बहुएं सलिलविरोलियई करु घोप्पडाण होइ॥(१४७) गुरुहुं पसाएं जाम ण वि देहह देउ मुणति ।। (८०) --हे ज्ञानी योगी, दयाहीन धर्म असम्भव है। जलमें अर्थात्--'ये सब ग्रन्थ, व्यर्थ-तीर्थ-यात्रा और नाना धूर्तपना कितना भी हाथ चलाओ, वह योही चिकना नही हो छोड़कर सद्गुरुकी शरण ले । अन्तरस्थित देवताको मकता।' गुरुको कपासे जान ले। मनि राममिह और भी कहते हैं:-- लाहिं माहिउ ताम तुहुं विसयहं सक्ख मुणेहि । कासु समाहि करउ को अंच। गुरुहुँ पसाए जामण वि अविचल बोहि लहेहि ॥(८१) छोपु प्रकोपु मणिवि को बंच ॥ --'गुरु-प्रसादमे जितने दिन अविचल बोध प्राप्त नहीं हल महि कलह केण सम्माण। होता, उतने दिन इन्हीं सब विषयोंमें मन मुग्ध होकर सुग्वोके जहिं जहिं जोवनहिं अप्पाणउ।। (१६९) पाशमं आबद्ध रहता है। -क्या नृथा यह विद्वष और कलह, यह मिथ्या स्पृश्याजं लिहिण पुच्छिकहब जाइ। स्पृश्य विचार किया जाय ? किसे त्याग किया जाय ? कहियउ कासु विउ चित्ति ठाइ।। किसकी पूजा-समाधि करे ? जहा देवता हैं, वहां अपनी ही मह गुरुउबरसें चित्ति ठाइ। श्रात्माको विगजमान देखता हूँ।' तं तेम धरतिहिं कहिं मिठाइ ॥ (१६६) अग्गई पच्छई दहदिहहिं जहिं जोवउ तहि सोह। --'जिसे लिखा नहीं जाता, पृछा नहीं जाना, कहनेमे तामहु फिट्टिय भत्तडा अवसुण पुच्छर कोइ ।।(१७५) भी जिसमें मन स्थिर नहीं होता, ऐमा तत्त्व गुरुके उपदेशम -.'यागे पीछे दमो दिशामें जहाँ भी देखता हूँ, में प्रतिष्ठित होता है। पीछे वही तत्त्व सबमे नहा वही विराजमान है। इतने दिन बाद मेरी प्रानि स्फुरत हो जाता है।' मिट गई। अब किसीम कुछ भी जानने पूछने के लिये ___गुरुका उपदेश मिलनेार ही जान पड़ता है कि नहीं है।' मर्ग-कामनाकी अपेक्षा निष्काम • मुक्ति श्रेठ है। दिमा इसके बाद उन्होंने ममझाया है कि बाह्य श्रानार और दुनौति छोइनेसे ही मन शान्त हो जाता है । इमाम और चप द्वारा कुछ भी नही होना :-- मनि रामसिंह कहते है: मप्पि मुक्की कंचुलिय ज विसु तं न मुण्ड। अवघड अक्खर जं जुष्पज्जा । भीयहं भान न परिहराइ लिंगग्गह' करेइ ।। (१५) अणु विकिपिएणार ण किज्जा ।। - 'भर्ष केंचुल छोड़ देता है, किन्तु विष नहीं छोड़ना । प्रायई चितिं लिहि मणु धारिवि । मुनि-वैप तो लेते हैं, किन्तु उनमें भेद-भाव कहो दूर सोउ णिचिंतित पाय पसारिवि ॥ (१४४) हाना है ? --'अहिमामय भाव चित्तमें उत्पन्न करी । नानक भी प्रभितरचित्ति विमालियबाहिरिकासवण। अन्याय मन करो; चित्तमें यह स्थिर करके पाच मार कर चिति णिरंजणु कावि धरि मुबहि जेम मलण ॥ (६१) Page #597 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५४ मनकान्त [वर्ष --'यदि अन्नरमें चित्त ही मलिन रहा, तब बाहरकी माक्खह कारणु एनडउ अवरई तंतु ण मंतु ।। (६२) तपस्यामे लाभ क्या होगा ? चित्त देकर विचित्र निरंजनको -'विषय-कपायांम जाते हुए मनको जिमने पकड़कर धारणा करो, जिससे चित्त की मलिनताम माक्त मिले।' निरजनक मध्यम स्थिर कर लिया, उसने मोक्षक हेतुभूत सयलु वि को वि तडफडइ सिद्धत्तणहु नणेण। कारणक' पा लिया । यही तो मोक्षका कारण है, तन्त्रसिद्धत्तणु परि पावियह चित्तहं णिम्मलयेण ।। (८८) मन्त्र नहीं । --'मद्धत्व के लिए मभी नादाने हैं, किन्तु चित्त निर्मल मनको संयत करना ती एक नेतिवाचक (Negative.) हानेपर ही मिद्धत्व प्राम होना है।' व्यापार है और उसे निरंजनके माथ युक्त करना पात्था पढणं मोक्खु कहं मणु वि असुद्धउ जासु ।(१४६) अम्तिवाचक ( Positive ) वस्तु है। इसी प्रास्तवाचक -'अशुद्ध मन लेकर पोथा पढ़ लेनेसे ही मुक्ति कहाँ योगी ही बात मुनि जी कहते है :मिलेगी? उम्मणि थक्का जासु मणु भग्गा भूवहिं चारु । तित्थई तित्थ भमंतयहं कि एणेहा फल हूव । जिम भावइ तिममंचरउण विभउरण विसंमारु॥(१०४ बाहिरू सुद्धउ पाणियहं अम्भितरु किम हूव ।।(१६२) मत पदार्थोम जिमका मन मुक्त होकर-उन्मन -तीर्थसे तीर्थान्तर तक भ्रमण करने का तो कुछ भी फल हाकार-चार हा उठा है, वह मर्वत्र स्वाधीन विहार लाभ नही हुआ। बाहर तो जल में शुद्ध हो गया, किन्तु अन्तरका करता है। उमं फिर न भय रहता, न समार ।' क्या हाल है? अवह गिरामइ पेसियउ सहोमइ संहारि ।। (१७०) तित्थई तित्थ भमंतयहं संताविज्जइ देहु। -'अक्षय, निरामय उमी धाममें प्रवेश करके मन श्राम अप्पें अप्पा झाइयई णिवाणं पर देहु ।। (१७८) ही मयत हाकर लयलीन हो जायगा।' --- 'तीर्थसे तीर्थ तक भटकते फिरने से केवल देह-मन्ताप हम अवस्था में पहुंचनेसे माधक के अन्तरस्थित देवता ही होता है। श्रात्माके भीतर अात्माका ध्यान करके अन्तरमं दीप्यमान हा उटते हैं। बाहर तीर्थ-तीर्थ और निर्वाण-पथमें पदार्पण करो।' मन्दिर-मन्दिरमें उन्हे खाजत नहीं फिरना पड़ता । 'पाहुड़ यही तो हुई मरमीकी माग्नम बात ! इमी मम्मे दोहा' में कहा है :मुनि राममिह कहते हैं : आगहिजइ देउ परममा कहिं गयउ । अप्पा सचर मोक्खपहु पहउ मूढ वियाणु ।। (७९) वीमारिजइ काई तासु जो सिउ सव्वंगउ ।। (५०) - 'श्रात्माही वास्तावक मुक्ति-7थ है; है मूढ, म - 'श्राराध्य देवता परमेश्वर कहो गए ? जी शिवस्वरूप समझ ले।' माङ्गव्यापी है, उन्हें किम प्रकार भुला दिया गया ?' मध्य-युगके मब माधकांने यही एक ही बात ना कही ताम कुतित्थई परिभमई धुत्तिम ताम करंति । है कि मनमें ही मोक्षकी बाधा है. अर्थात् मनको जमने गुरुहुँ पसाएं जाम ण वि देहहं देठ मुनि ॥(८०) मंयत कर लिया, मोक्ष उमके लिए महज लभ्य हो गया। -नाना बाह्य कुनीर्थोम भ्रमण और धूर्ताचार उनने मुनि गमसिंह भी कहते है:-- दिन ही चलना है, जितने दिन गुरुप्रमादसे देह-मन्दिरजेण णिरंजणि मणु धरिउ विसयकमायहिं जंतु। मियत देवताको जाना नही जाता।' Page #598 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १.] जैनधर्मको देन जो पई जोइउ जोइया तित्थई तित्थ भमेइ। कायायोग श्रादि जो तत्व मिलते हैं. वे सब नेपालसे प्राप्त मिस पई सिह हिडियउ लहिविण सक्किउनोइ(१७९ बौद्ध गान और दोहाम भी पाए जाते हैं। नाथपंथकी -हे योगी, जिसे देखनेके लिए तीर्थ-तार्थ घूमना रि वाणी और गोरक्ष प्रभृति के वचनोम इन्दी मब बानाका रहा है. वह शिवस्वरूप तेरे ही माय-माय चल रहा है। उल्लेख मिलता है। इसी कारण, किस मम्प्रदायने इन तब भी, हाय, उसीको उपलब्ध नहीं कर पाता!' मस्याको मबसे पहले अनुभव किया, यह कहना कठिन इसी प्रसंगमे उपनिषदोकी भी दो-एक बाते कहता हूँ। है। जान पड़ता है. उस युग की भारतीय माधनाका श्राकाश मैत्रेयी उपनिषद में भी इमी देव-देवालयकी बात कही । गई है: 'इन्दी मब मत्यां और माधनाकी वाणियोसे भरपूर था। देहो देवालयः प्रोक्तः । (२९) इमीलिए उम ममयके मम्मी मम्प्रदायाँकी साधनाश्रोपर इन मैत्रेय और भी कहते हैं :-- मच भावोंकी छाप पड़ी है। पाषाणलोहमणि-मृन्मय-विग्रहेषु यह बात माननी दी होगी कि कबीर प्रभति ने जिस पूजा पुनर्जननभोगकरी मुमुक्षोः। मत्यको ५०० वर्ष बाद प्रकाशित किया, उसे प्रायः ७००० तस्माद्यतिः स्वदयार्चनमव कुर्या ईम्लीमें--बहुत परले-मुनि राममिहने उपलब्ध और द्वाह्मार्चनं परिहरेदपुनर्भवाय ॥ (२६१७) प्रकाशित किया था । मनि गमसिंहकी प्रत्येक बात उनके -'पापागा-लोह-मणि मृनिका-निर्मित विग्रह की पृजामे अन्तरका वदनाक भातग्स उच्छवासत हुइ, इमा बार-बार जन्म-भोग करना होता है। कारण, मुक्तिवार्थीका कीकही बहुत तीन है । श्राजके युगकी लोगोको भुलानेवाली वह पथ नही है। इमामे यती अपनर्भव मक्निके लिए श्रोर जनताको नशे में मन कर देनेवाली कला वे नहीं बाह्यार्चना परित्याग करके स्वहृदयार्चन अर्थात् हृदयस्थित जानते थे । कृत्रिम भद्रता उन्होंने कभी धारण नही की। देवताकी ही पूजा करेंगे। अपने निजी दुःखकी बात कहते हुए सच्चे मरमी तब बाह्य संध्या-पूजा का अवमा कहाँ है ? इमीम राममिद कहते है:मैत्रेयी कहते है: वणि देवलि तित्थई भमहि आयामो विणियतु । मृता मोहमयी माता जातो बोधमयः सुनः।। अम्मिय विहडिय भेडिया पसुलोगडा भमंतु ।। (१८७) सूतक-य-संप्राप्ती कथं संध्यामुपास्महे ॥ (२७४) -'वन, देवालय, तीर्थ-तीर्थ में भटकता फिरा, श्राकाशकी -मोहमयी है हमारी माता मृता, बोधमय सुत हा गया और भी व्यर्थ ताकता रहा, इमी भटकने में पशु और है जातक ; दो सूतक संसान होकर किस तरह संध्योगसना भेडोके माथ मिलन हुअा।' मनि गमसिंह कहने हैं :वर्णाश्रमाचाग्युता विमूढाः हत्थ अहहं देवलो वालह णा हि पवेसु । कर्मानुसारेण फलं लभन्ते । ( ११३) सन्तु णिरंजणु तहिं वसइ णिम्मलु होइ गवेसु॥(९४) हम अवस्था में पहुँच कर माधक देखते हैं कि 'विमूढ 'बाहिर नहीं है-माढ़े तीन हाथके उमी देह-देवालयमें बाह्यवर्णाश्रमाचारयुक्तगण कर्मफल लाभ करने के लिए है, जद्दों बालका प्रवेश नहीं है: सन्त निरंजनका वही बाध्य है, इसीसे बद्ध है।' निवाम है। निर्मल होकर उनका अन्वेषण करो।' मैत्रेय कहते हैं कि साधकोंके लिए अभेद दर्शन ही मूढा जोबइ देवलई लोयहिं जाई कियाई। ज्ञान, मनको निर्विषयी करना ही ध्यान, मनकी मलिनता देहण पिच्छह अप्पणिय जहिं सिउ संतु ठियाई(१८०) दर करना ही स्नान और इन्द्रिय निग्रह ही शौच है:- -'मूर्ख लोग मानव-रचित देवालयों में घूम-घूमकर मरे अभेददर्शनं झानं ध्यानं निर्विषयं मनः। जाते हैं, अपने देहरूपी देव-मन्दिरको तो देखते नहीं, जहाँ स्ना मनोमलत्यागः शोचमिन्द्रियनिग्रहः ।।(२२) शान्तं शिवं विराजमान है. मुनि रामसिंहके भीतर प्रम-साधना, समरस, देहतत्त्व, वंदहु बहु जिणु भणइ को वंदर हलि इत्यु । Page #599 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ णियदेहावसंतयह जइजाणिउ परमत्थ ।। (४१) -'शिव बिना शक्ति एवं शक्ति बिना शिव अकर्मण्य और -'सभी कहते हैं, वन्दना करो, बन्दना करो कन्तु संपूर्ण हैं । दोनोंके इम मौकी उपलब्धि करनेसे समस्त यदि अन्तर-मन्दिरस्थित देवता को उपलब्ध कर ले. तब जगत, जो मोहविलीन है, समझमें श्रा जाता है।' और किसकी वन्दना बाकी रहेगी? रामसिंह मुनिके मतसे इम ममरसकी बात केवल कानसे देह महेली एह वढ तउ सत्तावइ ताम । सुन लेनेसे ही नहीं होती, इसके लिए चाहिए निरंतर चित्त णिरंजणु परिण सिहं समरसि होइण जाम(६४) सत्य-साधना । इसीलिए मुनिजी कहते हैं :-'श्रीरे मूद, यह विहिणी काया उतने दिन ही दुःख . हउ सगुणी पिउ णिग्गुणउ णिलक्खण णीसंग। देगी. जितने दिन निरंजन मनके साथ परमात्माका मिलन एकहिं आंग वसंतयहं मिलिउण अंगहिं अंगु ॥ नहीं होता , उमी मिलनका ही नाम ममरस है।' -'मैं मगुण हैं, और वे गुणातीत हैं ; लक्षणातीत हैं, मणु मिलियउ परमेसरही परमेसरु जि मणस्स। संगातीत हैं। दोनों एक साथ वास करते हैं। फिर भी र दोनों में अंगसे अंगका मिलन नहीं होता।' बिगिण वि समरजि हुइ रहिय पुज्ज चडावउं कस्स(४५) दीनाम किन्तु साधना-द्वारा उस योगका साधन करना होगा। -'मन जिम ममय परमेश्वर के साथ और परमेश्वर जिस ममय मनके साथ मिल जाते हैं, उसीको समरस कहते हैं; समरस-माधना सिद्ध होनेपर मालूम होगा कि त्रिभुवन तब किमकी पूजा की जाय ? | शून्याकार प्रतीयमान होकर भी कुछ शून्य नहीं है ; मकल जिमि लाणविलिज्जा पाणियह तिम जड चित्तविलिजज शून्यको पूर्ण कर के विराजमान है-एक ही परम परिपूर्णता:समरसि हूवइ जीवडा काहं समाहि करिज्ज ।। (९७६) सुण्ण ण सुगणं ण होइ सुण्णं च तिहुवणे सुगणं ॥ (२१२) -'जलम जिम तरह लवण मिल जाता है, उस तरह यही मरमी साधनाकी चरम और परम बात है। यदि चित्त ब्रह्मानन्दमें विलीन हो जाय, तभी जीव सभरम इसी बात को प्रायः पाँच शताब्दी बाद भक्त कवियोने फिरसे होगा । तब फिर किसलिए ममाधि की जाय ? श्राकाशमं प्रतिध्वनित किया। सब विस्मृत महासल्योको इस भावकी अपेक्षा गम्भीरतर मरमी भाव क्या और वे फरम अपने जीवन में उपलब्ध करके मूतिमान कर कहीं हमने पाया है ? मुनि रामसिंह कहत हैं : गए। कबीर-प्रभृति के बाद यह प्रेम साधना अचेतन अधिरेण थिग मइलेण णिम्मला णिग्गुणेण गुणसारा नहीं रही। श्रानुमानिक १६१५ से १६७५ ईस्वी तक कारण जा विढप्पड़ सा किरिया किरण कायव्वा।।(१९) जैन साधक अानन्दघन जीवित थे । वे एक साथ ही -'उन्हीं स्थिर देवताके माथ इस अस्थिर देहका, निर्मलके माधक और कवि थे। उनकी अपूर्व कविताके विषयमें साथ मलिनका, गुणमारके माथ निगुणका योग-साधन यदि मैंने पहले थोड़ी-बहुत अालोचना की है : जो उसके कर लिया जा सकता है. तब वही क्यों न कर लिया जाय? विषयमें उत्सुक हो, वे प्राय: १० वर्ष पहलेकी 'प्रवासी'यही तो देहकी परम सार्थकता है।' पत्रिका (व० सं० १३८८ कार्तिक-अंक) देख सकते हैं। यह प्रेम-योग केवल मेरा ही श्राकाँक्षिन है, ऐमी बात हिन्दीकी 'वीणा' पत्रिका तथा अंगरेजीकी विश्वभारती' तो नहीं है : दोनों ओर व्याकुलता न होनेर तो प्रेम नहीं त्रैमासिक पत्रिका में भी मैंने इसी सम्बन्ध में लिखा था। हो सकता। वे भी जो प्रेम-मिलनके लिए श्राकांक्षित हैं; श्रानन्दघन शुद्ध मरमी थे। जैसी उनकी वाणी उदार वे शिव है, मैं शक्ति हूँ; मुझे छोड़कर वे व्यर्थ है और है. वैसी ही उममें गम्भीरता भी है और वैसा ही उसका उन्हें छोड़कर मैं व्यर्थ हूँ। 'श्रानन्द-लहरी' में श्रीमद्- अपर्व सौन्दर्य तथा उमकी रसममृद्धि भी है। श्राज शंकराचार्य करते हैं: उनकी बातका केवल उल्लेख मात्र किया है। और भी शिवः शक्त्यायुक्तः प्रभवति। जो सब जैन मरमी कवि हैं, उनके नामका उल्लेख भी न चेद एवं देवो न खलु समर्थः स्पन्दितुमपि॥ -इसकी अपेक्षा गभीरतर मरमी सत्य और नहीं। मुनि नहीं किया जा सका। प्रयोजन होनेपर और कभी उनकी आलोचना की जा सकेगी। रामसिंह भी कहते हैं:सिव विणुसत्तिण वावरइ, सिउ पुणु सत्तिविहीण। कलकत्तेके जैन-समाज द्वारा मनाए गए पर्युषण पर्व दोहि मि जाणहिं सयलु जगु बुझा मोहविलीण ॥ पर दिया गया भाषण। -[विशाल भारतसे उद्धत ] Page #600 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल - भाषाका जैनसाहित्य ( मूल ले० प्रो० ए० चक्रवर्ती M. A. I. E. S. ) [ श्रनुवादक - पं० सुमेरचन्द जैन 'दिवाकर' न्यायतार्थ शास्त्री, H. A. LL.B.] (किरण नं० ६-७ से आगे ) चौ "ये 'मोक्कलवादच रक्कम्' अध्यायमे मोक्कल नामके बौद्धगुरु के प्रति नीलकेशीके द्वारा दिए गए चैलेंज का वर्णन है | मोक्कल ग्रन्तको पराजित होकर प्रतिद्वन्द्वका धर्म धारण करता है । यह पुस्तक के सबसे बड़े अध्यायोंम से है, क्योंकि इस अध्याय में बौद्धधर्मके मुख्य सिद्धान्तोकी विस्तृत चर्चा की गई है। हममें मोक्कल स्वयं नीलकेशीको बौद्धधर्मके स्थापकके समीप भेजता है । 'बुद्धवाद चरुवकम्' नामका पाँचवाँ अध्याय वादके अर्थ नीलशी और बुद्ध के सम्मिलनका वर्णन करता है । बुद्धदेव स्वयं इस बातको स्वीकार करते हुए बताए जाते हैं कि उनका हिसा सिद्धान्त उनके अनुयायिया द्वारा परमा र्थतः नहीं पाला जाता है । वे इस बातको स्वीकार करते हैं क हिसाका नाम जपना मात्र धर्मका उचित सिद्धान्त नहीं है; व अन्त अपने धर्मकं असंतोषप्रद स्वरूपकी स्वीकार करते हैं, अहिसा तत्वक संरक्षण के लिए उसक पुनःनिर्माण की बात स्वीकार करते है। इस तग्छ प्राकूकथन सम्बन्धी अध्याय के अनन्तर चार अध्याय बौद्धधर्मक विवादमं व्यतीत होत है । इसके पश्चात् अन्य दर्शन क्रमशः वर्णित किए गए हैं । छठे अध्यायमें श्राजीवकधर्मका वर्णन है, उसे 'श्राजीवक वाद चरुक्कम्' कहते हैं । श्राजीवकधर्मका संस्थापक महावीर और गौतमबुद्ध के समकालीन था । बाह्य रूपमें श्राजीवक लोग जैन 'निग्रन्थो' के समान थे। किन्तु धर्मके विषय में वे जैन और बौद्धधर्मोसे श्रत्यन्त भिन्न थे । यद्यपि तत्कालीन बौद्ध लेखकोने श्राजीव कोंके सन्बन्ध में किसी प्रकारकी गलत मान्यता नहीं की, किन्तु बाद के भारतीय लेखकाने अनेक बार उनको दिगम्बर जैनियोंके रूपमें मानकर बहुत कुछ भूल की है। श्राजीवक सम्बन्धी इस अध्याय में नीलकेशीका लेखक पाठकों को इस प्रकारकी भुलमे सावधान करता है और इन दोनो मतों के बीच में पाए जाने वाले मौलिक सिद्धान्तगत भेदांका वर्णन करता है। सातवे अध्याय में सांख्य सिद्धान्तकी परीक्षा की गई है। इससे इस अध्यायको 'सांख्यवाद चरुक्कम्' कहा गया हूँ । वे अध्याय में वैशेषिक दर्शनपर विचार किया गया है। लेखक दार्शनिक विषयों जैन तथा प्रजेन सिद्धान्तोंके मध्यमं पाये जाने वाली समताको सावधानता पूर्वक प्रकट करता है और वह अपनी टांटम श्रहिमा मूल सिद्धान्तको कायम रखता है । नवम अध्यायमं वादक कर्मकाण्डकी चर्चा की गई है, इससे उसे 'वेदवादच कम' कहते हैं । इस श्रध्यायमं बादक क्रियाकाण्ड में होने वाली पशुबलिका ही खण्डन नहीं किया गया है कि वैदिक क्रियाकाण्ड पर स्थित वर्णाश्रम धर्मकी मार्मिक आलोचना भी कीगई है। लेखकने यह स्पष्ट करनेका प्रयत्न किया है कि जन्मके आधार पर मानी गई सामाजिक विभिन्नताका श्राध्यात्मिक क्षेत्रमें कोई महत्व नहीं है और इसलिए धर्ममें भी उसका कोई महत्त्व नहीं है। धर्म की दृष्टिसे मनुष्यों में एकमात्र चरित्र, संस्कार Page #601 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५५८ अनेकान्त [वर्ष ४ और आध्यात्मिक अनुशासन पर आधार रखने वाला ही अात्मतत्वकी वास्तविकताको, वैदिक यज्ञके मुकाबले में मेद पाया जाता है। अहिंसाकी महत्ताको और उन बौद्धोंके मुकाबलेमें जो अन्तिम अथवा दश अध्यायमें जद्वतत्ववाद पर, अहिसाका उपदेश देते हुए हिंसाका आचरण करते थे, जिसे श्राम तौरपर भूतवाद कहते हैं, विचार किया गया है, वनस्पति अाहारकी पवित्रताको स्थापित किया है। इसीलिए इस अध्यायको 'भूतवादचरुक्कम्' कहा गया है। इस मूल ग्रन्थके लेखकके विषयमें हमें कुछ भी हाल इसमें मुख्यतया जगतके भौतिक एकीकरणसे भिन्न अात्मिक- मालूम नहीं है, तथापि इतना अवश्य ज्ञात है कि इमकी तत्त्वकी वास्तविकताको सिद्ध किया गया है। लेखक इस प्रस्तुत टीका वामनमुनि-कृत है। च कि इस ग्रन्यमें कुरल बातपर जोर देता है कि चेतना स्वतन्त्र आध्यात्मिक तत्व तथा नाल दियारके उल्लेख पाए जाते हैं अत: यह ग्रन्थ है, न कि भौतिक तत्वोंके संयोगसे उत्पन्न हुअा एक गौण कुरलके बादकी कृति होनी चाहिए और चूँकि यह ग्रन्थ पदार्थ । वह ऐसा स्वतन्त्र अात्मतत्व है, जो व्यक्ति के कुण्डलकेशी ग्रन्थके प्रतिवादमें लिखा गया है अतः यह जीवनसे सम्बद्ध भौतिक तत्वोंके पृथक् होनेपर भी विद्यमान निश्चित रूपमे कुण्डलकेशीके बादकी रचना होनी चाहिए । रहता है। इस तरह इस अध्यायका मुख्य विषय है मृत्युके चूँकि हमें कुण्डलकेशीके सम्बन्धमें भी कुछ मालूम नहीं अनन्तर मानवीय व्यक्तित्वका श्रवस्थान । यह बात नील- है. अत: इस सूचनाके अाधारपर हम कुछ विशेष कल्पना केशी जड़वादके नेताको सप्रमाण सिद्ध करके बतलाता है, नहीं कर सकते । जो कुछ भी हम कह सकते हैं वह इतना जिससे वह तत्काल अपनी भूल स्वीकार करता है और वह ही है कि यह ग्रन्थ तामिल साहित्यके अत्यन्त प्राचीन मानता है कि ऐसी बहुतसी चीजें हैं, जिनका उसके दर्शनमें काव्य ग्रन्थोंमें से एक है । इसमें कुल ८४४ पद्य हैं । यह स्वप्नमें भी उल्लेख नहीं है । इस प्रकार यह ग्रन्थ ग्रन्थ-नि:सन्देह तामिल साहित्यके विद्यार्थियोंके लिए बड़ा प्रथम तो श्रात्मतत्व तथा मानवीय व्यक्तित्वकी वास्तविकता उपयोगी है। इससे व्याकरण तथा मुहावरेके कितनेही को और दूसरे अहिंसाके श्राधारपर स्थित धार्मिकतत्वकी अपूर्व प्रयोग और कितनेही प्राचीन शब्द, जिनसे यह ग्रन्थ प्रधानताको सिद्ध करते हुए पूर्ण किया गया है। इस तरह भरा पड़ा है, प्रकाशमें श्राते हैं। नीलकेशी अपने जीवन - कार्यको पूर्ण करती है, जिसका दो और लघुकाव्य जो अबतक ताड़पत्रोपर अप्रसिद्ध ध्येय अपने उन गुरुदेवके प्रति आभार प्रदर्शन रूप है, दशामें पड़े हुए हैं, ४ उदयन - काव्य और ५ नागजिनसे कि उसने धर्म और तत्वज्ञान के मूल सिद्धान्त कुमार काव्य हैं । इनमेंसे पहला अपने नामानुसार उदयनके सीखे थे और उन्हें अपनाया था, यद्यपि वह पहले देवीके जीवनचरित्रको लिए हुए है । इसमें कौशाम्बीनरेश रूपमें पशुबलिके प्रति खूब श्रानन्द व्यक्त करती रही थी। वस के कार्योका भी वर्णन है । कि वे अभीतक प्रकाशित इस प्रकार हमें विदित होता है कि नीलकेशी मुख्यतया नहीं हुए हैं, अत: उनके विषयमें हम अधिक कुछ नहीं एक वाद-विवाद-पूर्ण ग्रन्थ है, जिसमें जड़वादके मुकाबलेमें कह सकते। (क्रमश:) Page #602 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भ० महावीरके निर्वाण-संवत्की समालोचना [मूल ०-५० ए० शान्तिराज शास्त्री, भास्थान विद्वान मैसूर राज्य] (अनुवादक-५० देवकुमार, मूडबिद्री) जैनियोंके परम पूज्य तीर्थकरोंमें अन्तिम तीर्थकर उपस्थित हुई। समालोचनाके होनेपर निम्नलिखित प्रमाणों भगवान महावीरको मुक्त हुए कितने वर्ष हो गये, यह परसे यह निष्कर्ष निकला कि अाज जो महावीर निर्वाणविचार करना ही इस लेखका लक्ष्य है, जैसा कि लेखके संवत् उपदर्यमान है वह ठीक नहीं है । यथा: में सूचित है। किमी भी विषयका समालाचनाका गोमटसारादि ग्रन्थोंके कर्ता, बीर मार्तण्ड चामुण्डराय अवसर प्राप्त होनेपर ही उसके मूलान्वेषणके शानकी के धर्मगुरु और दि. जैनियोंके पूज्य भी नेमिचन्द्र-सिद्धान्तप्रवृत्ति होती है-इतर ममयमें नहीं। देवेंद्र अवधिज्ञानसे चक्रवती प्राचार्य ने स्वरचित त्रिलोकसारमें यह गाथा सम्पन्न है फिर भी परमदेव तीर्थकरोके गर्भावतरणादि कल्याणोंको जानने में उसके ज्ञानकी प्रवृत्ति स्वयं नहीं होती, पणछस्सदवस्सं पणमासजुदं गमिय वीरणिबुहदो। किन्तु श्रासनकंप रूपनिमित्तको पाकर ही होती है। खगराजो तो कक्की चतुणवतिय-महिय सगमासं ॥८२०॥ दिगम्बर जैन समाजमें 'जैनगजट', 'जैनमित्र'. 'जैन इस गाथाका अभिप्राय यह है कि श्री महावीरकी सिद्धान्तभास्कर', 'अनेकान्त', 'जैनबोधक' 'जैनसंदेश', 'खंडेलवाल जैन, हितेच्छु' श्रादि जितनी भी पत्रिकाएँ निर्वाण-प्राप्तिसे ६०५ वर्ष ५ महीने के अनन्तर शकराजकी प्रकाशित होती है उन सबमें श्वेताम्बरजैनसम्प्रदायके अन उत्पत्ति हुई। इसके बाद ३४ वर्ष • महीने बीतनेपर सार ही वर्तमानमें श्रीमहावीरनिर्वाणसंवत् २४६७ उल्लिखित अर्थात् महावीर-निर्वाणके एक हजार वर्षोंके अनन्तर कल्की किया जाता है। पं०जुगलकिशोर, पं०नाथूराम प्रेमी, प्रो०१० का प्रादुर्भाव हुआ है। एन० उपाध्याय श्रादि संशोधक विद्वानों (Research विक्रमराजान्दके ५८ वर्षों के बाद किस्ताम्द, किस्ताब्द Scholars) ने भी स्वसम्पादित अन्य • प्रस्तावना- के ७८ वर्षों के बाद शालिवाहनशकका प्रारम्भ होता है। लेखनके अवसरपर बिना विचारे ही इस मार्गका (श्वेताम्बर विक्रमराजान्द और शालिवाहनशकोंमें १३६ वर्षाका सम्प्रदायके अनुसार ही वीरनिर्वाण-सम्वत्को उल्लिखित अन्तर है । अर्थात् विक्रमनृपसे १३६ वर्षीके पश्चात् करने रूप गतानुगतिक पद्धतिका) अनुसरण किया है, ऐसा शालिवाहन शकका प्रारम्भ होता है। विक्रमनृपान्दको प्रतीत होता है। 'संवत्' तथा शालिवाहन शकको 'शक' कहनेका व्यवहार यहाँ मैसूर-ओरियंटल-लायब्ररीसे प्रकाशित होनेवाली है। दक्षिण देशमें तो महावीरशक, विक्रमशक, क्रिस्त तत्वार्थ-मुखबोध-वृत्तिकी (संस्कृत में) प्रस्तावना लिखनेके शक और शालिवाहन शक इसप्रकार सर्वत्र 'शक' ग्रन्दकी अवसरपर बीरनिर्वाण-संवत्की समालोचनाकी आवश्यकता योजना करके व्यवहार चलता है। इस समय विक्रमनृप Page #603 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६० अनेकान्त [वर्ष २ शक १६EE, क्रिस्त शक १४१, शालिवाहन शक १८६४ तृतीय (मुम्मति, कृष्णराज प्रोडेयर) ने आजसे १११ वर्ष प्रचलित है। पहले किस्तान्द १८३० में लिखाया है। उसमें निम्न उपयुक्त गाथामें प्रयुक्त हुए 'सगराजो-शकराजः' श्लोक पाए जाते हैं - शन्दका अर्थ कुछ विद्वान विक्रमराज और दूसरे कुछ "नानादेशनृपालमौलिविलसन्माणिक्यरत्नप्रभा- । विद्वान शालिवाहन मानते हैं। उस शब्दका विक्रमराजा भास्वत्यादसरोजयुग्मरुचिरः श्रीकृष्णराजप्रभुः ॥ अर्थ करनेपर इस समय वीर निर्वाणशक २६०४ श्रीकर्णाटकदेशभासुरमहीशूरस्थसिहासनः । भीचामक्षितिपालसूनुखनौ जीयात्सहस्त्र समाः ।। (६०१ + १९६६ = २६०४) प्रस्तुत होता है। और स्वस्ति श्रीवर्द्धमानाख्ये, जिने मुक्ति गते सति ॥ 'शालिवाहन' अर्थ लेनेपर वह २४६६ (६०+१८६४%D वहिरंध्राब्धिनेत्रश्च (२४१३) वत्सरेषु मितेषु वै॥ २४६६) प्राता है। इन दोनों पक्षोंमें कौनसा ठीक है, विक्रमाङ्कसमास्विंदुगजसामजहस्निभिः (१८८८) । यही समालोचनीय है। शालिवाहन अर्थ करनेपर भी दो सतीषु गणनीयासु गणितजै बुधैस्तदा ॥ वर्षका व्यत्यास (विरोधीपन अथवा अन्तर) दिखाई देता है। शालिवाहनवर्षेषु नेत्रबाणनगेंदुभिः (१७५२)॥ यहाँ 'शकराज' शब्दका अर्थ पुरातन विद्वानों द्वारा प्रमितेषु विकृत्यब्दे श्रावणे मासि मंगले ॥” इत्यादिविक्रमराजा ग्रहण किया गया है अतएव वही अर्थ ग्राह्य है, इन श्लोकोंमें उल्लिखित हए महावीर-निर्वाणान्द, यही बात अग्रोल्लिखित प्रमाणोसे सिद्ध होती है: विक्रमशकाब्द और शालिवाहनशकान्द इस बातको दृढ़ (१) दिगम्बर जैनसंहिताशास्त्रके संकल्पप्रकरणमें करते हैं कि शकराज शब्दका अर्थ विक्रमराजा ही है । विक्रमराजाका ही उल्लेख पाया जाता है, शालिवाइनका महावीर-निर्वाणान्द २४६३ की संख्यामें दानपत्रकी उत्पत्तिनहीं। कालके १११ वर्षोंको मिला देनेपर इस समय वीरनिर्वाण(२) त्रिलोकसार ग्रन्थकी माधवचन्द्र विद्यदेवकृत संवत् २६०४ हो जाता है । और विक्रम शकाब्दकी संख्या संस्कृत टीकामें शकराज शन्दका अर्थ विक्रमराजा ही १८८८ को दानपत्रोत्पत्तिकाल १११ वर्षके साथ जोड़ देने उल्लिखित है। से इस समय विक्रमशकान्द १९१६ अा जाता है। (३) पं० टोडरमलजी कृत हिन्दी टीकामें इस शब्दका अर्थ इस प्रकार है (५) चामराजनगरके निवासी पं०ज्ञानेश्वर द्वारा प्रकाशित ____ भी वीरनाथ चौबीसवाँ तीर्थकरको मोक्ष प्राप्त होने जैन पंचागमें भी यही २६०४ वीरनिर्वाणब्द उल्लिखित है। पीछे छसैपांच वर्षे पाँच मास सहित गए विक्रमनाम शकराज इन उपयुक्त विश्वस्त प्रमाणोसे श्री महावीरका हो है। बहुरि तातै उपरि च्यारि नव तीन इन अङ्कनि करि- निर्वाणसंवत् इस समय २६०. ही यथार्थ सिद्ध होता है, तीनसे चोराणवे वर्ष और सात मास अधिक गए कल्की २४६७ नहीं। साथ ही यह निश्चित होता है कि क्रिस्ताब्द हो है" "०" ( ईसवी सन् ) ६६३ से पूर्व महावीरके निर्वाणान्दका इस उल्लेखसे भी शकराजाका अर्थ विक्रमराजा ही प्रारम्भ हुआ है। सिद्ध होता है। *इस अनुवादका सम्पादन मूल संस्कृत लेखके आधार (1) मिस्टर राइस-सम्पादित श्रवणबेल्गोलकी शिलाशासन पर किया गया है.जो हिन्दी जैनगजटके इसी वर्षके दीपपुस्तकमें १४१ नं०का एक दानपत्र है, जिससे कृष्णाराज मालिका-अङ्क में मुद्रित हुभ्रा है। -सम्पादक Page #604 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीजैन पंचायतीमन्दिर देहलीके उन हस्तलिखित ग्रंथोंकी सूची जो दूसरे दो मंदिरोंकी पूर्व प्रकाशित सूचियोंमें नहीं आए हैं (२) हिन्दी भाषाके ग्रन्थ गत किरणमें इस मन्दिरके संस्कृत, प्राकृत और अपभ्रंश भाषाके कोई २५० अंयोंकी एक सूची प्रकाशित की गई थी। यह सूची, इस मंदिरके प्रायः हिन्दी भाषा-विभागके ग्रंथोंसे सम्बन्ध रखती है, और मई सूचीके दूसरे रजिष्टरपरसे तम्यार की गई है--कुछ हिन्दी ग्रंथ जो संस्कृतादिके गुटकोंमें शामिल हो रहे थे और संस्कृतादि ग्रंथोंकी सूचीके रजिस्टरमें पाये जाते थे उनमेंसे भी कितने ही ग्रंथोंको इस सूची में लिया गया है। इस सूचीपरसे हिन्दीके और भी कितने ही ज्ञात कवियों तथा लेखकों का पता चल सकेगा। -सम्पादक ग्रन्थ नाम पत्रसंख्या नासं०शिपिस० प्रन्थकार-माम भाषा - - २७ से २० १६६से१७३ १७८० ३० से. १७ से २०१ अठारह मातेकी कथा অলমানুষিকথা अनन्तचोदशकथा अनम्तव्रतकथा भनित्यपंचासिका भनेकार्थनाममाला अवजदपासाकेवली अम्बिकादेवीरास अशोकरोहिणीव्रतकथा अधमीकथा अष्टमीव्रत-कथा अष्टमीम्रतकथा "" रास अष्टाहिकाकथा अष्टाहिकावतकथा माकाशपंचमीकथा से २५ . म्दी पच भ० कमसीर्ति, फिरोजाबाद प्र.ज्ञानसागर कवि भैरोंदास पं० हरिकृष्ण पांडे त्रिभुवनचन्द्र पं. भगवतीदास .... प्र.जिनदास पं.हेमराज भ० गुलालकीर्ति, इन्द्रप्रस्थ पं० गैबीदास 4. जोगीदास सलेमगढ़ भ० विश्वभूषण प. ज्ञानसागर पं० खुशाबचन्द | पं० घासीदास पं० हरिकृष्णपांडे, यमसारनगर 4. वीरदास भ० रलभूषण प्र. नेमिदत्त प्र.जिनदास पं. शिवचन्द्र भा.ब. ५३ हिन्दी पद्य ५१३से५२१ मात्म-पचीसी मादित्यव्रतकथा प्रादित्यवतरास भाराधनारास भारावीसी चार्यसमाजी प्रश्न पासवत्रिमंगी इक्कीसठाणा (सटि०) इतिहासरलाकरभाग २ ६ से २१ | १७१२ ६ से - १७६५ ७ से ८० हिन्दी पद्य रसे१४ २००से२०॥ हिन्दी पथ १२० हिन्दी गय प्रा. हिन्दी प्रा.हि. | हिन्दी गय । ५५ । कुंबरधर्मार्थी |पं.शिवचन्द्र Page #605 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ ग्रन्थ-नाम इतिहासरत्नाकर भाग ४ अ० ६ | पं० शिवचन्द्र अ० १२ 99 त्रिभंगी उपदेशपचीसी एकीभावस्तोत्र ( भा० डी०) एकीभावस्तोत्र (अनुवाद) कीमावस्तोत्र 99 टीका 99 कलियुगचरित्र कस्यायमन्दिर भा० टीका कँवरपुरन्दर कथा (१०) अपूर्ण किशनपचीसी कृपणमगावनचरित्र चतुरखंडचोपई (श्वे०) चतुर्दशीकथा चन्दषष्ठीत कथा चोदडगुणस्थान बेल चौरासीजाति-जयमाला चोवीसजिनपूजा चोबीसमहाराजपूजा " जम्बूस्वामीपूजा जम्बूस्वामीरास जिगुणसम्पतिव्रतकथा जिलरात्रिकथा जीवनचरित्र (१०) जीवंभरराख जोगीरासा शानचितामयि शामस्वरोदय क्षेत्रसमास सटीक व सचित्र (श्वे०) रत्नशेखरसूरि, गृहस्थचर्या पं० शिवचन्द्र जिनोदयसूरि उद्योतक पत्रिका जेनप्रबोधिनी द्वि० भाग ग्रंथकार - नाम 39 कुंवरधर्मार्थी पं० भगवतीदास संधी ज्ञानचन्द्र ---- हीरकवि शाह अखयराज पं० भूधरदासशर्मा, मलिकपुर अखयराज श्रीमाल पं० किशनलाल कवि ब्रह्मगुलाल अनेकान्त पं० ज्ञानचन्द्र, (जगतकीर्ति - शिष्य) पं० खुशालचन्द्र ० ज्ञानसागर ० जीवन्धर, (यशः कीर्तिशिष्य) पं० मनरंग पं० बनातावर रतनलाल पं. वृन्दावन पं० रामचन्द्र प्रयागदास २० मिनवास म० जितकीर्ति (विश्वभूषण-शिष्य મહ ० ज्ञानसागर पं० भावसिंह भ० त्रिभुवनकीर्ति पं० शिवचन्द्र पं०जिनदास पं० मनोहरदास पं० चरणदास भाषा हिन्दी गद्य 39 39 हिन्दी पद हिंदी हिन्दी प 99 हिंन्दी गद्य हि०प० हिन्दी :: प्रा० प०, भा० व० हिन्दी गद्य हिन्दी पद्म " 99 19 " 99 " 99 99 " 33 ६ हिन्दी पद्म 19 35 हिन्दी ग 99 हिन्दी पद्म 99 99 [ वर्ष ४ पत्र-संक्या रचना सिं० १०१ २०० ३० ८ से ११ ११ १ से २ ३२ १ से १५ १२३ २५ .... २७ ५७ ७१ २८ ५ ३३ से ३७ ७७ से ८१ ८ ८१ ६८ १ से 88 Ε | २१२-२३० १४ से १६ ४२ से ४७ ३७ १०६ - ११३ २८ ७१ ५३ से ६२ ६ १५ १७४१ .... १७५७ .... १६७१ १७६८ १७८५ .... १८१४ १८३२ .... १७८२ .... १७८२ १६७६ १६२७ .... १७२८ .... १३२० 33 0000 १७६४ १७१८ १९६८ i १८६५ १६२६ .... १८६५ 0900 Page #606 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] ५६५ १६० ६५ २४ १८३ २७४ पंचायती मंदिर देहली के हलि ग्रंथोंकी द्वितीय सूची अंध-माम अन्धकारनाम | भाषा पनसंख्या रचनासं० लिपि सं. गलसागर (हरिवंशपुराण(खे.)। गुणसागर हिंदी पथ १५५ तत्वसार (भा०) पं.द्यानतराय तस्वार्थसारदीपक (सटीक) म.सकलकोर्ति,टी०५०पसालाख' सं०, हिन्दी १६३७ तस्वार्थसूत्र (भा. टीका) पं० शिवचन्द्र तीर्थावली (श्वे.) समयसुन्दर हिंदी पथ ५२ से ५६ . तेरहद्वीपपूजा श्रीलाबजी कवि १७. १६५५ त्रिलोकसार टीका (मूलसहित) पं. टोडरमन मा०, हिंदी २७८ १९३८ मू०१६६७ त्रिवर्णाचार (सटीक) | भ० सोमसेन,टी० पांडेशिवचन्द्र . सं०, हिन्दी १३५० टी018५० श्रेपनक्रियारास व पूजा हिंदी पद्य ३३ से ३० श्रेग्नक्रियावतपूजापं० रामचन्द्र ६५ से ७० त्रैलोक्यतृतीया .ज्ञानसागर हिंदी पद्य ३७ से ३० दशलक्षणकथा कवि भैरोंदास " ५२२ से५२५/ १७ दशलक्षणधर्मवचनिका मू० रहाकवि अनु. शिवचन्द्र अपन, हि०गय " दशलक्षणधर्मवचमिका पं. सदासुख हिंदी गद्य - २५ दशलाक्षणीत्रतकथा प्रज्ञानसागर हिंदी पद्य पं० हरिकृष्ण पांडे ६ से ८ | १७६५ दायभागप्रकरणसंग्रह (भा० टी०) पं. शिवचन्द्र सं०,हिन्दी १६ दुधारसकथा म. ज्ञानसागर हिंदी पद्य देवेन्द्र कीर्तिकी जकड़ी पं. नेमिचन्द्र ८से १७० द्रव्यसंग्रह भावनिका पं. जयचन्द्र प्रा०,हिं० १७५ १८६३ (पद्यानुवाद) मानसिंहभगवती १५ १७३३ धर्मपरीक्षारास भ. सुमतिकीर्ति १६८ | १६२५ धर्मप्रश्नोत्तर श्रा०बचनिका पं. शिवचन्द्र ध्यानदर्पण 4. शिवचन्द्र हिंदी गय नवमभजनमाला नयनकवि हिंदी पद्य २से३४ नित्यनियमपूजा (सार्थ) पं. सदासुखराय सं. भा. . ८ निदोषसप्तमीकथा ब्रा.शपमह ३६ से ११ बज्ञानसागर २१ से २५ निशिभोजनकथा पं.विशनसिंह २८ । निःशल्यवतकथा ब्र० ज्ञानसागर " ३६ से ४२] . नीतिवाक्यामृत-टीका मू० सोमदेवसूरि टी०५०शिवचंद सं०, हिंदी मीराजना म. महेन्द्रकीर्ति हिंदी पच .... नेमिनाथजीकामंगल कवि०विनोदीलाख, शहजादपुरिया हिंदी. से . मेमिनाथम्याहकवित 40 मुनकबाब मेमि-रामुखबारहमासा पं.विनोदीला | हिंदी पद्य । .... Page #607 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त वर्ष प्रयभाम मेमीश्वरास पदप्रकीर्थक पदसंग्रह पदसंग्रह (श्वे.) पंचकल्याणककथा पंचकस्याणकपूजा , (श्वे.) पंचगतिकी बेख पंचपरमेष्ठीपूजा पंचमीवतकथा (भविष्यदत्तफल) पंचस्तोत्र (भा. टी.) पंचाख्यान (पंचतंत्र भा०) पंचाङ्ग निर्माणविधि (श्वे.) पचन्द्रिपकी बेल पंचेन्द्रियविषयवर्णन पाश्वनाथकवित प्रन्धकार भाषा पत्रसंख्या रचनाकार लिपि सं० म.रायमरल (अनंतकीर्तिशिष्य) हिंदी पद्य ५५ से..। विविध कविजन विविध विजन १७१ पं० जमनादास पं० विमोदीलाल पं. खतावर-रतनलाल हिंदी पद्य से १३० १२ पाठक विमनविजय १६०३ १९३० कवि हर्षकीर्ति १६८३ कवि टेकचन्द विष्णुकवि, उज्जैन हिंदी गद्य १६६६ १७१२ पं०शिवचन्द्र सं० हिंदी १६४८ | १९४८ 4. निर्मलदास जैन हिंदी पद्य १८०३ महिमोदय उपाध्याय १७३३ १९२३ ठाकुरसी कार्य १५८५ पं०शिवचन्द्र हिंदी गद्य कवि मुंभकलाल हिवी पद्य कवि राजमल सं०मा०हिंदी २८ म०बधिलकीर्ति हिंदी पद्य | ७ से ८२ पं०शिवचन्द्र हिंदी गद्य पं० सुखाकीदास हिंदी पद्य १०३ १७४७ कुंबरधर्मार्थी प्रा०हिदी १६ १८०६ कवि सुदामा दमाम कवि १०३० हिंदी गद्य १८५ पं०शिवचन्द्र १६४८ १९४८ पं०बनारसीदास १६६२ १८ विद्याभूषणसूरि हिंदी पद्य १५३-१५२ बसवतासह राठौर पं० द्यानतराय हिंदी पद्य शाहमखापराज १६ से ३१ पं.शिवचन्द्र १०४१ ::: ५ - : :: पिंगल पुष्पांजलिकथा प्रश्नोत्तर प्रश्नोसरश्रावकाचार बनधत्रिभंगी बनिका बाराखडी १७६० बासठठावावचमिका (सयंत्र) भक्तिपाठसठक (सटीक) भविष्यदत्तचरित्र भविष्यदत्तरास भाषाभूषण (अलंकार, जैम) भूपालचौबीसी : : मदनचन्द्रोदवकाग्यसार (अजेन) मनबत्तीसी (यामपसीसी) महापुराणरास मिमावभंजन पं० भगवतीदास पं० गनदास (पर्वतसुत) १७५-१८४ Page #608 -------------------------------------------------------------------------- ________________ फिर १०] पंचयती मंदिर देहलीके कुछ ह० वि० ग्रंथोंकी द्वितीय सूची अन्य-नाम प्रकार - नाम मुक्तावलीकथा यशोधर यात्राप्रबन्ध मोरास रत्नकरण्ड श्रावकाचार (पद्यानुवाद) रत्नत्रयत्रतकथा 19 रविव्रतकथा ". 19 रात्रिभोजन (भागभीरास ) रोगापहारस्तोत्र रोटला रोहितच्या 19 लघुसामायिक विभागका जराबन्धनका वसंतनेमिका फाग विषापहार विषापहार (टीका) विधागराम विचार (०टी०) अदा अवकाधाररास श्रीपाल चौपाई (श्वे०) श्रीपाखरास (१०) श्रीकोटक्षरास पंचमीशतकथा भुतपंचमीरास पं० बुजमल सोमकीर्ति ०शिषचंद्र to जिनदास पं० फूलचंद्र ० ज्ञानसागर पं० हरिकृष्णापांडे, यमसारनगर ० ज्ञानसागर भ० सकलकीर्ति अचलकीर्ति पं० मनराम जैनेंदकिशोर, धारा ० ज्ञानसागर पं० हेमराज, बीरपुर do ex ० ज्ञानसागर ० ज्ञानसागर पं० शिवचंद्र विद्याभूषय अचकीर्ति शाहाखबराज वैद्य केशवदास पं० [दोक्तराम गोवद्ध नदास पं. शिवचंद ५० ज्ञानसागर भ० प्रतापकीर्ति शिक् ० सुनिताकुमार कवि सांगा (2) अ०] सुरेखा भूषण पं० पंचामध प हिंदी गद्य हिंदी पद्य भाषा हिंदी प हिंदी बच० हिंदी पद्य हिंदी बच० हिंदी पद्म www. :::⠀⠀ - हिंदी वच० हिंदी हिंदी प " 99 सं० हिंदी 11 हिंदी पद्म हाड़ी हिंदी पद्म हिंदी गय हिंदी पद्म पद्य हिंदी हिंदी गद्य ५६५ पत्र संख्या रचना [सं० क्षिपि सं० १५ से ५७ | १३६ से १४३ १६०० १६२७ १४ ३६३-३०१ २३ १५ से १८ २८ ३२ से ३३ Y १६६ से १७१ २०० से २०१ १० ४७ से ५२ & ६ ५ से ८ १ से ५ 娛 १२८ से १३२ ३२ से ४४ ३२ २२ ३३ ४७ १७१-१७३ १८ १८४-१८८ १८ से ३१ १० ३५ १६१२ .... ་པ་་ १७४३ | १३१० १७१७ .... १३५० १०४९ www. .... ५ २० २६ से २७ १३२-१३६ | १२१०४ www. .... १०५७ १८६७ १७३० १६०३ १८०४ १७६२ १८७४ 1}}}} ⠀⠀⠀⠀ १६३७ .... .... १६१६ १८५७ १६३२ १८०१ | १८२६ Page #609 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्रन्थ-नाम [वर्ष ४ ___ भाषा पत्र-संख्या रचनासं लिपिसं० हिंदी गद्य हिंदी पद्य | १९३-१९८ ११ से १३ षटमतव्यवस्थावर्णन षोडशकारणकथा षोडषकारणवतकथा सत्तात्रिभंगीरचना सत्तात्रिभंगीवचनिका सप्तषिपूजा सभासारनाटक समकितरास समवसरणपाठ टी.१७२ प्रा०, हिंदी हिंदी पद्य ग्रंथकार-नाम पं० शिवचंद्र कवि भैरोदास ब्रज्ञानसागर कुँवरधर्मार्थी कुँवरधर्मार्थी कवि मनरंगलाल पं० रघुराम ब्र०जिनदास कवि लालजी पं० ब्रह्मगुलाल, भ० जगभूषण पं० धर्मरुचि पं० रामचंद्र देवब्राह्मचारी पं०दिलसुखराय पं० लालचंद्र मनसुखसागर ३७१-३७२ ., पद्य हिंदी पद्य १८३४ समाधि सम्मेदशिखरपूजा पद्य हिंदी पद्य १६१८ १९१५ १८५५ १४४० १२ से १४ ५२ टी.१८३२/ सम्मेदशिखरमाहात्म्य सलोनोरक्षाबंधनपूजा संजयंतकथा सामायिकपाठ टीका सिद्धचक्रपाठ सिद्धान्तसार (भा० टी०) सीखपचीसी सुगन्धदशमीकथा सुदर्शनचरित्र सुदर्शनचरि (श्वे०) सुदर्शनरास सोनागिरपूजा सोलाहकारणभावना (सटीक) सोलहकारगारासा स्वामीकर्तिकेयानुपेक्षा सटीका हनुमन्तरास हनुमानचरित्र (श्वे०) हनुमानचौपाई हरिवंशपुराणवचनिका हितकरभजनमाला होजीकथा जोखीकया म.प्रभाचंद्र.टी.त्रिलोकेंद्रकीर्ति संग० हिंदी कवि संतलाल हिंदी पद्य म नरेन्द्रसेन, पं०देवीदासगोधा | सं० हिंदी २३२ टी.१८४४ पं० वीरदास (हर्षकर्तिशिष्य) हिंदी पद्य ७७ से ७८ १६६६ पं० सुखसागर ४१-४५ २२ । १६६३ | १८०१ ब्र० ऋषिराय ६ .... |११२ ब्र०जिनदास(विशालकीर्ति शिष्य) |१६०-१६६ .... मनसुखसागर १४ से १५ / १८४६ मू० रहधूकवि, टी०५०शिवचंद्र अपभ्र०हिं० गद्य १६ टी.१९४८ १९४८ भ० सकसकीर्ति हिंदी पद्य | ५२ से १३ टी०५० जयचंद्र प्रा०, हिंदी १८१ टी.१८६३ १६१४ ब्र०जिनदास(भुवनकीर्तिशिप्य) हिंदी पद्य | ३५७-३६७ हिंदी पद्य ब्र०रायमल १७११६१६ | १८४१ पं० दौलतराम सं०हिंदी ३४२ १६२४ पं० हितकर हिंदी पद्य । १४-७४ पं० वेगराज हिंदी गप १७६५ | पं० छीतरमल, मौजाबाद ८ । १६६०.१७१८ .... ३ Page #610 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सयुक्तिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तर-लेखकी निःसारता ( लेखक-पं० रामप्रसाद जैन शास्त्री ) [गत किरण नं.८ से आगे] ४ भाष्य एक ही बार आया है (दूसरी जगह 'षडपिद्रव्याणि' (क) मयुक्तिक सम्मतिमे इस 'भाष्य'-प्रकरणको । . है)। ऐमी हालनमें मसिद्धि को भाष्य बनाना भ्रम लकर मैंन, पं० जुगलकिशोरजीके मतका समर्थन है। वास्तवमें सर्वामिद्धि वृत्ति है और राजवार्तिक करते हुए, प्रथम पैरेप्राफमें यह बतलाया था कि 'गज भाष्य है । जैसे गजवानिकको वृनि नहीं कहा जासकता वार्तिककं “यद ये बहुकृत्वः षड्व्याणि इत्युक्त' ,, वैस, ही मर्वार्थसिद्धिको भाष्य नहीं कहाजा सकता।" इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए 'भाष्य' शब्दका वाच्य यदि इसके साथमें प्रो० मा० प्रमाणरूपसे 'वृत्ति' म्वयं गजवार्तिक भाष्यको न लेकर किमी प्राचीन और 'भाष्य' का हेमचन्द्राचार्य-कुन लक्षण भी भाग्यको ही लिया जाय तो वह 'मर्वार्थसिद्धि' भी हो देते हैं और निलकजीके गीतारहस्यस 'टीका' मकना है, जिसके आधार पर राजवानिक और उसके और 'भाष्य' के भेद-वथनको भी उद्धृत करते हैं। भाष्यकी रचना हुई है और जिसमे 'षड़ द्रव्याणि' के इस आपत्ति सम्बन्धमें मैं मिर्फ इतना ही कहना उल्लेग्व भी कई स्थानोंपर दिग्बाई दे रहे हैं। क्योंकि चाहना हूँ कि यदि वृत्तिकं लिये 'भाष्य' का और सर्वासिद्धि म्वमत-स्थापन और परमन-निगकरणरूप भाष्यकं लिय ‘वृत्ति'शब्दका प्रयोग नहीं होता है,ताफिर भाष्यके अर्थका लिये हुए है, उसकी लखनशैली भी श्वेताम्बग्भाप्यकं लिये भी कहीं 'वृत्ति' शब्द का प्रयोग पातंजल-भाष्य-मरीखी है और 'वृत्ति' एवं 'भाष्य' नहीं बन सकता, और इमलिए गजवार्तिक के "वृत्ती दानों एक अर्थक वाचक भी होते हैं ।' मेरे इस कथनपर पंचत्ववचनादिति” इम वार्नि+में आये हुए 'वृत्ति' आपत्ति करते हुए प्रा० जगदीशचन्द्रजी लिग्बने हैं- शब्दका वाच्य श्वनाम्बग्भाष्य किसी तरह भी नहीं ___ "स्वयं पूज्यपादने सर्वार्थमिद्धिको 'नत्वार्थवृत्ति' हा मकना । प्रो० मा० का एक जगह (गजवातिकमें) नामस सूचित किया है। यदि मार्थसिद्धि भाष्य तो अपने मतलबकं लिय 'वृत्त' को 'भाग्य' बतलाना हाता ता उस व 'भाष्य' लिम्वते । स्वमत-स्थापन और और दूमग जगह (मर्वामिद्धिम) 'वृत्ति' शब्दके परमत-निराकरणमात्रसे कोई प्राथ भाष्य नहीं कहा प्रयोगमात्रम उमके 'भाष्य' हानेस इन्कार करना, जा सकता । तथा अन्य प्रन्थों की शैली भी पातंजल बड़ा ही विचित्र जान पड़ता है! यह तो वह बात भाष्य-सरीखी हो सकती है। परन्तु इसका यह अर्थ हुई कि 'चित भी मेरी और पट भी मंग,' जो नहीं कि उन सबको भाष्य' 'कहा जायगा।" विचार नथा न्याय-नीनिक विरुद्ध है। "इसके अलावा यदि षडद्रव्याणि'इस पदका ही खास प्रो० साहबका यह लिखना कि "स्वमत-स्थापन आग्रह है, तो 'षड्व्याणि' पद सर्वार्थसिदिमें भी और परमत-निराकरण-मात्रम कार्ड (टीका) प्रन्थ Page #611 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ [ वर्ष ४ कहाँका न्याय है ? असलियत में देखा जाय तो 'सर्वार्थसिद्धि' यह नाम ही अपनेको भाष्य सूचित करता है; क्योंकि इस ग्रन्थ में सूत्राथ न्याययुक्त समालोचना और अपने मतानुसार तात्पर्य बताना आदि भाष्य में पाई जाने वाली सर्वश्रर्थ की सिद्धि मौजूद है । अतः सर्वार्थसिद्धि नामको भाष्यका पर्यायवाची नाम समझना चाहिये । सर्वार्थसिद्धिकी लेखन शैलीको जां पातंजलभाष्य सरीखी बतलाया गया था उसका तात्पर्य इतना ही है कि 'भाष्य' नामसे लोक में जिस पातं जलभाष्य की प्रसिद्धि है उसकी मी लेखनशैली तथा भाष्यके लक्षणको लिये हुए होने से सर्वार्थसिद्धि भी भाग्य ही है । ऐसी पद्धति जिन टीका-प्रन्थों में पाई जाय उनको भाष्य कहने में क्या आपत्ति हो सकती है, उसे प्रोफेसर साहब ही समझ सकते हैं !! वास्तव में देखा जाय तो अकलंकदेवने जिन दो प्रकरणों (०५ सूत्र १, ४) में प्रकारान्तरीय वाक्यरचना से षडद्रव्यत्व के जिस ध्येय की सिद्धि की है वह ही बात वहां पर 'वृत्ति' और 'भाग्य' की एकध्येयता का लिये है । अतः अकलङ्क की कृति से भी यह बात स्पष्ट सिद्ध है कि 'भाष्य' और 'वृति' एक पर्यायवाचक हैं। इसलिये राजवार्तिक में 'कालस्यांपसंख्यानं ' इत्यादि वार्तिकगत-षद्रव्यत्वके विषय की शंकाका जो समाधान है वह सर्वार्थसिद्धि को लक्ष्य करके संभवित है; क्योंकि उसमें द्रव्यों की छह संख्या की सूचना के लिये 'षट्' शब्द बहुत बार आया है । । वहाँ 'षड्द्रव्याणि' का तात्पर्य समाश्रित उस ' षड् द्रव्याणि' पदसे नहीं है किन्तु द्रव्योंकी छह संख्या-सूचक 'षट्' शब्द है । अतः राजवार्तिकक उस प्रकरण सर्वार्थसिद्धि और राजवार्तिका भाग्य अनेकान्त भाष्य नहीं कहा जाता " बिल्कुल ही श्रविचारित जान पड़ता है, क्योंकि वह उनके द्वारा उद्धृत हेमचन्द्राचार्य के भाष्य-लक्षण तथा फुट नोटमें दिये गये तिलक महोदय के उद्धरण से स्वतः ही खंडित हो जाता है। इसीको कहते हैं अपने शस्त्रसे अपना घात ! हेमचन्द्रने भाष्य का लक्षण जो 'सूत्रांक्तार्थप्रपंचक' बनलाया है उसका अर्थ क्या सूत्रपर आये हुए दोषो का खण्डन नहीं होता ? यदि होता है ता फिर उसका अर्थ स्वमत (सूत्रमत ) - स्थापन और परमत (शंकाकृतमत) का खण्डनके सिवाय और क्या होता है उसे प्रा० साहब ही जानें ! वस्तुतः टीकाओं में तो और और विषय सम्बन्धी प्रपंच रहते हैं परन्तु भाष्य में उन प्रपंचों के साथ यह स्वमत-स्थापन और परमत- खडन सम्बन्धा प्रपंच विशेष रहता है। इससे फुटनोट वाले उद्धरण में श्री बालगंगाधरजी तिलक स्पष्टरूपसे कहते हैं कि - " भाष्यकार इतनी ही बानों पर (सूत्रका सरल अन्वय और सुगम अर्थ करने पर) संतुष्ट नहीं रहता, वह उस प्रन्थ की न्याययुक्त समालोचना करता है और अपन मतानुसार उसका तात्पर्य है और उसीके अनुसार वह यह भी बतलाता है कि ग्रन्थका अर्थ कैसे लगाना चाहिये ।” इन तिलक वाक्यों में 'न्याययुक्त समालोचना' और 'अपने मतानुसार तात्पर्य बताता है' ये शब्द सिवाय स्वमत-स्थापन और परमत- निराकरण के अन्य क्या बात सूचित करते हैं ? उसे विज्ञ पाठक स्वयं समझ सकते हैं। सर्वार्थसिद्धि मे ये सभी बातें श्वेताम्बर भाष्य की अपेक्षा विस्तारसं पाई जाती हैं और इस तरह से सर्वार्थसिद्धि भाष्यकं सच्चे लक्षणों से युक्त है, फिर भी उसे भाष्य न कहना यह बताता Page #612 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] सयु० स०पर लिखे गये उत्सरलेखकी निःसारता दोनों लिये जा सकते हैं। श्वेताम्बर भाष्या वैसा बात आपके लग्यांक तृतीयसं मालूम पड़ी थी वही 'बहुकृत्व'-बहुन बार द्रव्यांकी छह ख्या सूचिन बात पीछे न आये हुए पं० जुगलकिशोरजीक लेग्बोंसे कनिका बात न हानेमे उस प्रकरणम श्वनाम्बर मालूम हुई थी। परन्तु लग्यांक नं०३ में जो बात भाष्यका प्रहण नहीं किया जा सकता। श्रत उक्त सम्मुख थी उसीका उत्तर देना अय ममय उचित था। श्रापत्ति निमूल है। यह निश्चय करके ही 'पंचत्व' के प्रकरणको न उठा (ख) इस भाष्य प्रकरण-मम्बन्धी 'सयुक्तिक कर केवल 'षट् द्रव्याणि' के प्रकरणपरसे ही पं० सम्मति' के दूमरं पैरंग्राफ मे मैंन, पं० जुगलकिशारजी जुगलकिशोरजीक मतकी पुष्टि की गई थी । वास्तव में के इस कथनका कि 'गजवार्तिक भाष्य मे आए हुए न्यायसंगत बात भी यही है कि जो ममक्ष हा उसीका 'बहुकृत्वः' शब्द का अर्थ 'बहुन बार' होना है उस उत्तर दिया जाय। जब ५० जुगलकिशारजी श्वे० शब्दार्थको लेकर 'पद्रव्याणि' ऐमा पाठ श्व० भाष्य भाध्यमे 'षड्द्रव्याणि' के विधानका निषेध कर रहे में बहुन बारको छोड़कर एक बार तो बतलाना चाहिये' हैं ता उमस यह नतीजा स्वनः ही निकल पाता है, उल्लम्ब करते हुए, यह बतलाया था कि बहुत कोशिश कि भाष्यके मनस पाँच द्रव्य हैं। क्या प्रकरण करनेपर भी प्रा० सा० वैमा नहीं कर मके-उन्हान सम्बन्धका लेकर 'षट्' के निषेध परस 'पंच'का 'सर्व पट्त्वं पड़ द्रव्यावगंधात्' इम भाष्य-वाक्यस विधान बुद्धिका अगम्य विषय है ? यदि वह अगम्य तथा प्रशमति-गाथाकी ‘जीवाजीबी द्रव्यामनि षड्- नहीं है तो फिर कहना होगा कि 'सयुक्तिक सम्मति' विधं भवतीति' इस छायापरसं काशिश ना बहुन की में जा लिम्बा गया है वह प्रकरण-संबद्ध हानेस पूर्व है परन्तु उमाप केवल 'षट्त्वं' 'पविध' ये वाक्य ही लखके पढ़न न पढ़ने के साथ कोई खास सम्बन्ध नहीं मिद्ध होसके हैं, 'पड् द्रव्याणि' यह वाक्य श्व०भाष्य- रखता। फिर नहीं मालूम पूर्व लेखोंको न पढ़नेका काग्ने स्पष्टरूपस कहाँ उल्लेग्विन किया है यह मिद्ध एमा कौनमा परिणाम है जो प्रा० सा० की दृष्टि में नहीं किया जा मका, इत्यादि । मरे इस कथनपर खटक रहा है! आपत्ति करते हुए प्रा० साहबने जो कुछ लिग्वा है राजवानिक-पंचम अध्यायकं पहल सूत्रकी ३६वीं उसकी निःसारताका नीचे व्यक्त किया जाता है:- वार्तिक भाष्यम 'पट् द्रव्यों' का कथन पाया है, उसे प्रथम ही आपने लिखा है कि-"यह शंका पहले मैंने सर्वार्थसिद्धि और गजवानिकका बतलाया है। लेग्वोंको न पढ़नका परिणाम है।" इसका जवाब (भाष्यका नही बतलाया है), उसका तात्पर्य सिर्फ सिर्फ इतना ही है कि जहां तक आपका लेखांक इतना ही है कि गजवार्तिक और मर्वार्थसिद्धि में द्रव्यों नं० ३ मेरे पास आया और उसके ऊपर 'सयुक्तिक के 'पट्त्व' (छहपन) की सिद्धिका विधायक 'षट्' सम्मति' लिखी जाकर मुद्रित होनको भेजी गई वहां तक शब्द बहुत बार पाया है। तो पं० जुगलकिशारजीके लेख मैंन नही पढ़े थे, पीछे सयुक्तिक सम्मति'मे जो यह लिखा गया है किजुगलकिशारजीके सब लेख मेरे पास आगय और "पट्त्वं" "पविध" ये वाक्य ही सिद्ध हो सकते हैं, उन्हें मैंने अच्छी तरह पढ़ लिया। मुझे तो जा किन्तु 'पद्रव्याणि' यह वाक्य उमास्वातिन तथा Page #613 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष ४ भाष्यकारने कहीं भी स्पष्ट रूपमे उल्लिग्विन नहीं किया प्रदेशा भवन्नि" इन वाक्यों - द्वाग पुष्ट करते है" उमका प्राशय यह है कि षड्विध' यह कथन तो हैं । इन मब उद्धग्गों परसे स्पष्ट है कि भाष्य'प्रशमति' प्रन्थका है परन्तु प्रशमर्गत ग्रन्थ किनका कार पाँच ही द्रव्य मानते हैं। फिर थोड़ी-सी यह बनाया हुआ है यह किमी सुनिश्चित प्रमाणसे अभीतक शंका रह जाती है कि नय-प्रकरणका 'मर्वषट्कं षड्सिद्ध नहीं हो सका है। शायद वह प्रन्थ उमाम्बाति द्रव्यावगेधात्' यह वाक्य जो श्वेताम्बर भाष्यमें का ही हो, तो उसमें प्रकरणगत बात का कोई मम्बन्ध आया है वह किम उद्देश्यको लेकर आया है ? इस ही नहीं है क्योंकि यह विषय श्वेताम्बग्भाध्यका है, विषयमें यदि सूक्ष्म दृष्टि से विचार किया जाय तो न कि सूत्र और सूत्रकारका । और इस लेखमे पुष्ट यही नतीजा निकलना है कि जैनमामान्यके सम्बन्ध प्रमाणों द्वारा यह स्पष्ट कर दिया गया है कि सूत्रकार से अर्थात जैनधर्मकी दूसरी मान्यता अनुमार पर. और भाष्यकार दोनों जुदे जुद हैं। वादीकी शंकानिवृत्ति अथे आया है। वहाँ षड़द्रव्यका अब रही भाष्यगत 'षट्वं' की बात, इसका उत्तर हेतु देकर अपने उस समयक प्रयोजनकी सिद्धि की यह है कि श्वेताम्बर भाष्यमें केवल 'षड् द्रव्या- गई है। क्योंकि भाष्यकार एकीयमतसं कालद्रव्यको वगंधात' वाक्य नय-प्रकरणम पाया है और वह मानते हैं और उस एकीयमन माननका लाभ उन्होंने वहां इमलिये आया है कि नयांक विषयमं श्रमामल- इस स्थल पर पहलेही ले लिया है। असलियनमें म्य (अयुक्तपने) की शंका परवादी-द्वाग की गई है। दम्वा जाय तो उनके मतम पांच ही द्रव्य हैं। अर्थात् वहां एकत्व दित्यादिकं ममान 'षट्त्व' मिद्ध यहाँ य द यह शंका की जाय कि 'मर्व षट्क' इम करने के लिये 'षड द्रव्यावराधान' इस वाक्यको हेतु की सिद्धि के निमित्त अपनी मान्यताके विरुद्ध हेतु रूपसे प्रयुक्त किया गया है। इस वाक्यमें प्रयुक्त हुए देनका क्या प्रयोजन ? तो इसका उत्तर किमी तरह 'षड्द्रव्य' शब्दपरमं प्रा० साने जो यह बात पावादी का मुख बंद करना है। कारण कि परवादी निकाली है कि श्व० भाष्यकार षड्द्रव्यों को मानते हैं, जो अन्यधर्मी है वह षट् - संख्याभिधायी जैनमान्यवह यहां बनती नहीं; क्यों क भाष्यकारने अन्यत्र कहीं ताओंसे अपरिचित होने के कारण संतुष्ट नहीं हो भी षडव्यका विधान नहीं किया, प्रत्युत इमके सकता था। उसके लिये 'श्या' आदि विषय बिल्कुल "एते धर्मादयश्चत्वारो जीमाश्च पंच द्रव्याणि च ही अपरिचित हैं परन्तु 'द्रव्य'का विषय अपरिचित भवन्ति" तथा "एतानि द्रव्याणि न हि कदाचित नहीं है। अतः वादी जिस हेतुको मान सके वही हेतु पंचत्वं व्यभिचरंति" इस प्रकार द्रव्योंके पंचत्व- पदार्थसिद्धिमे दिया जाना कार्यकर समझा जाता है, संख्याभिधायी वाक्य भाष्य में पाये जाते हैं। और यही सोचकर भाष्यकाग्ने 'षड्द्रव्यावरोधात्' यह सिद्धसनगणी भी अपनी भाष्यानुमारिणी टांकामें हेतु वहां उपन्यस्त किया है। इसी बातको “कालश्चैकीयमतेन द्रव्यामनि वक्ष्यते। इसके आगे प्रो० साल्ने अपनी छह द्रव्य वाली वाचकमुख्यस्य तु पंचैव" तथा 'तेषु धर्मादिषु द्रव्येषु बातको सिद्ध करने के लिये दूसरा जो “कायप्रहण पंचसंख्यावच्छिन्नेषु धर्माधर्मयोः प्रत्येक प्रसंख्ययाः प्रदेशावयवबहुत्वार्थमद्धासमयप्रतिषेधार्थ च " यह Page #614 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण १०] सयु० स०पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता ५७१ वाक्य दिया है उसम तो यही प्रतीत होता है कि लियं स्पष्ट है कि भाष्यकारक मतम काल द्रव्यरूपसे काल द्रव्यका स्पष्ट निषेध किया गया है । क्योंकि कोई पदार्थ नहीं है। यदि व्यवहाग्नयका अर्थ उप'काय'शब्दसे भाष्यकारने बहुप्रदेशी द्रव्यांका ही प्रहण चारनय किया जाय तो वह भी नहीं बनता; क्योकि किया है, जीवादि द्रव्योंकी पर्यायरूपमें ग्रहण किया उपचार मुख्य का गौणम होता है-म कि घोका गया जो काल है उमे द्रव्य रूपमे स्वीकृत नहीं किया घड़ा। यहां घड़ा भी मुख्य स्वतन्त्र पदार्थ है तथा है। भाष्यके टीकाकार सिद्धमनगणीने भी कालको घा भी म्वतन्त्र पदार्थ है, अतः घड़ेमे घीक रक्खे जान जीव अजीवकी पर्यायरूप ही माना है। वे पांचवें स 'घीका घड़ा' ऐसा उपचार होता है । परन्तु यहां अध्यायम (३४७वें पृष्ठ पर) लिखते हैं कि-"एकीय- जब निश्चयनयका विषय काल काई मुख्य पदार्थ मतेन सकदाचिन धर्मास्तिकायादिद्रव्यपंचकाम्न- ही नही तो उसका उपचार भी जीवादिको पर्यायोम भूतः तत्परिणामत्वात् कदाचित् पदार्थान्ना" और कैसे सम्भावित हो सकता है ? अनः सिद्ध है कि फिर (पृष्ठ ४३२ पर) आगम ग्रंथका प्रमाण देकर लिग्वा श्व० भाग्यकारक मतसं पाँच ही द्रव्य हैं। तब छह है कि-किमिदं भंते ? कालोति पवुञ्चति ? गोयमा १ द्रव्योको उक्त भाष्यकार-सम्मत मानना भ्रममात्र है। जीवा चेव अजीव चिव, इदं हि सूत्रमम्ति, कायपंच- जब भाष्यकारक मनमे काल काई द्रव्य ही नहीं है नो काव्यतिरिक्ततीर्थकृतोपादेशि, जीवाजीवद्रव्यपर्यायः फिर उम भाष्यका गजवानिकम ऐमा बल्लंग्य कैसे काल इनि ।' इस प्रकार आगममृत्र प्रमाणपूर्वक बन सकता है कि उस भाप्यम बहुत बार छह द्रव्यो मिसनगणीकी लिग्बावटम स्पष्ट मिद्ध है कि भाष्य- का विधान पाया है-वहां ना वस्तुनः एक बार भी कारकं मतसं काल नामका कोई भी म्वनन्त्र छठा द्रव्य विधान नहीं है । बम यही प्राशय पं० जुगलकिशोर नहीं है। जीका है। इसमें भिन्न अर्थकी कोई कल्पना करना सिद्धसन गणीकी टीका (पृष्ठ ४२९) में “एक निराधार है। नयवाक्यान्तरप्रधानाः तथा "एकम्य नयम्य भंद- अमलियनम दम्बा जाय ना 'गभाज्य बहकृत्वः लक्षणम्य प्रतिपत्तार." ये वाक्य पाये जाते हैं। इन षड्व्याणि इत्युक्त' वाक्यम प्रयुक्त हुए 'पद्रव्यारिण' से सूचित होना है कि शायद व्यवहाग्नयसे भाष्य- पदके द्वारा भानुपूर्वी रूपमे समाश्रित कथनका कार्ड कारके मतम कालद्रव्यकी स्वीकृत होगी; परन्तु यह प्राशय ही नहीं है। किंतु द्रव्योंकी संख्याबोधक 'षट' बात भी यहाँ नहीं घटनी। क्योंकि भेद-लक्षण-नय शब्दपरक ही प्राशय है, और द्रव्योंकी पटसंख्या. जो व्यवहार है वह संग्रहनय-द्वाग महोत पदार्थोका विषयक यह बात मर्वार्थसिद्धि नथा गजवातिकमें बहुही भेद करता है, जब काल द्रव्य जीवादिकी पर्याय लतासं पाई जाती है, किन्तु श्वेताम्बर भाग्यम नहीं रूपसे ग्रहण किया गया है ना वह द्रव्यों के संग्रह- पाई जाती । अतः स्पष्ट सिद्ध है कि गजवानिक के रक्त विषयी नयमें प्रविष्ट भी कैसे हो सकता है और वाक्यगत 'भाध्य' शब्दका लक्ष्य याता स्वयं गजवाजब वहाँ (संग्रह नयम) वह प्रविष्ट ही नहीं हो मता तिकीय माप्य है या 'मर्वामिद्धि' नामका भाष्य है, ना उसका व्यवहाग्नय भेद भी क्या करंगा ? इम अथवा कोई तीमग ही पुगतन दिगम्बर भाष्य है Page #615 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७२ भनेकान्त [वर्ष ४ जिसमें षट् द्रव्योंका स्पष्ट विधान पाया जाता हो। गुणकी हानि होजाती है । तथा वैसी रचना करके जो इस स्थलपर प्रो० माहबने कुछ आक्षेप रूपमें अर्थ सूचित करना चाहा है वही अर्थ उस वाक्यका लिखा है कि-"न मालूम भाष्यमें 'षड्द्रव्याणि' ऐसा अन्वय करनेसे भी हो जाता है। हां, यदि श्री अकपद प्रदर्शित करनेका ही इन वयोवृद्ध पंडितोंको क्यों लंकदेवको ऐसा कोई दिव्यज्ञान होजाता कि हमारे आग्रह है ?" इसके उत्तरमें इतना ही कहना है कि- इन नन्य पंडितोंको इस प्रकारकी वाक्यरचनापरसे वयोवृद्ध पंडितोंका आग्रह सिर्फ इस लिये ही है कि श्वेताम्बर भाष्यका भ्रम पैदा होजायगा तो शायद व हमारे नव्यधुरंधर अप्रयोजनीभून असत्य असह्य भार आपके मनोऽनुकूल रचना भी कर देते। से दबकर कहीं उन्मार्गी न हो जाय । क्योंकि षड्व्य- इसके सिवाय, यदि उक्त वाक्यका अन्वय न कर रूप महाम भार दूसरे महान् पात्रका विषय है जो कि के अर्थ किया जाय तो भी तो यही अर्थ होता है किवृद्धशक्ति प्राय है, उस (भार) को शिथिल अग्राह्य क्यों कि माध्यमें छहद्रव्य हैं ऐसा बहुतवार कहा छोटे पात्रमें भर कर उसका वाग नव्य बालवत्स-धुरं गया।' है फिर वैसी वाक्यरचनास आपके पक्षकी न धगेकी शक्तिम बाह्य है। मालूम क्या मिद्धि हुई ? सा आप ही जानें ! श्वे० इसके आगे प्रोफेसर साहब लिखते हैं कि- भाप्यमें कहीं पर भी 'बहुकृत्वः षड्द्रव्याणि' ऐसा भी “गजवार्तिकमे यदि 'यद्भाष्य बहुकृत्वः षडदव्याणि वाक्य नहीं है, यह मुझे मालूम है । यदि भाज्यमें वैसा इत्युक्त' न हाकर 'यद्भाष्ये बहुकृत्व उक्तं “षड- वाक्य कहीं मिल जाना ता प्रो० मा० की मान्यता द्रव्याणि" इत्यादि वाक्य होना तो कदाचित् तत्वा- संभवित भी हो जाती, परंतु न तो श्वे० भाष्यमें वैसी र्थभाष्यमें 'षड़द्रव्याणि' यह पद प्रदर्शित करनेका शब्दरचना है और न बहुतवार श्वे० भाष्यमें पद्रव्यों आग्रह ठीक था।' परन्तु उनका यह सब लिखना का कथन ही आया है, तो फिर यह कैम समझा जाय भाषाके प्रासाद गुणकी अजानकारी और गद्यम भी कि अकलंकदेव आपकी मनचाही बात कह रहे हैं ? अन्वय होता है इस बात की भी जानकारीका अस्तु । प्रदर्शित करता है। क्यों कि 'बहुकृत्वः' के प्रागे इस मब विवेचनपरम भले प्रकार स्पष्ट है कि 'उक्त' रखनेस विसर्गका लोप होने के कारण उस प्रो० सा० ने मेरे उक्त कथन पर जो जो आपत्तियां की वाक्यके सम्बद्ध उच्चारण करने में कुछ ठेस लगती हैं उनमें कुछ भी सार नहीं है। है, और ऐमा हनिमें वहाँ वाक्यरचनाकं प्रासाद (क्रमशः) Page #616 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके सहायक जिन सज्जनोंने अनेकान्तकी ठोस सेवाओंके प्रति अपनी प्रसज्ञता व्यक्त करते हुए, उसे घाटेकी चिन्तासे मुक्त रहकर निराकृखतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति करने और अधिकाधिक रूपसे समाज सेवाओं में अग्रसर होनेके लिये सहायताका वचन दिया है और इस प्रकार अनेकान्तकी सहायक श्रेणीमें अपना नाम लिखाकर अनेकान्त के संचाastet प्रोत्साहित किया है उनके शुभ नाम सहायताकी रकम सहित इस प्रकार है- * १२५) वा छोटेलालजी जैन रईस, कलकत्ता | * १०१ ) बा, अजितप्रसादजी जैन एडवोकेट, लखनऊ। * १०१ ) वा. बहादुरसिंहजी सिंधी, कलकत्ता । १००) साहू श्रेयांसप्रसादजी जैन, लाहौर * १००) साहू शान्तिप्रसादजी जैन, डालमियानगर * १००) बा. शांतिनाथ सुपुत्र था. नंदलालजी जैन, कलकत्ता १००) खा. मनसुखराग्रजी जैन, न्यू देहली * १००) सेठ जोखीराम बैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता । १००) बा. लाल चन्दजी जैन, एडवोकेट, रोहतक (१००) बा. जय भगवानजी वकील आदि जैन पंचान, पानीपत *५१) रा. ब. बा. उलफतरायजी जैन रि. इंजिनियर, मेरठ । * २१) ला. दलीपसिंह काग़ज़ी और उनकी मार्फत, देहली। * २५) पं. नाथूरामजी प्रेमी, हिन्दी-प्रन्थ-रत्नाकर, बम्बई । * २५) ला. रूड़ामलजी जैन, शामियाने वाले, सहारनपुर । * २५) बा. रघुबरदयालजी एम. ए. करोलबाग, देहली । * २५) सेठ गुलाबचन्दजी जैन टोंग्या, इन्दौर । * २२) ला. बाबूराम अकलंकप्रसादजी जैन, तिस्सा (मु.न.) २५) मुंशी सुमतप्रसादजी जैन, रिटायर्ड अमीन, सहारनपुर * २५) ला. दीपचन्द्रजी जैन रईम, देहरादून । * २२) खा, प्रदुम्न कुमारजी जैन रईस, सहारनपुर । * २२) सवाई सिंघइ धर्मदास भगवानदासजी जैन, सतना । आशा है अनेकान्तके प्रेमी दूसरे सजन भी आपका अनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक स्कीमको सफल बनाने में अपना सहयोग प्रदान करके यशके भागी बनेंगे । मोट-- जिन रकमोंके सामने * यह चिन्ह दिया है वे पूरी प्राप्त हो चुकी हैं। व्यवस्थापक 'अनेकांत' वीरसेवामंदिर, सरसावा (सहारनपुर) 'बनारसी - नाममाला' पुस्तकरूपमें जिस 'बनारसी - नाममाला' का परिचय पाठक अनेकान्सकी गत किरणमें प्राप्त कर चुके हैं, वह अब पुस्तकाकार रूपमें प्रकाशित हो गई है। उसके साथमें पुस्तक की उपयोगिताको arth far argoक पद्धतिले तय्यार किया हुआ एक 'शब्दानुक्रमकोष' भी लगाया गया है, जिसमें दो हजार के करीब शब्दोंका समावेश है। इससे सहज हीमें मूलकोषके अन्तर्गत शब्दों और उनके अर्थोंको मालूम किया जा सकता है। मूलकोषमें जो शब्द प्राकृत या अपभ्रंश भाषाके हैं अथवा इन भाषाओंके शब्दाचरोंसे मिश्रित है उनके साथ इस कोषमें उनका पूरा संस्कृतरूप अथवा जिन अक्षरोंके परिवर्तन से वह रूप बनता है उन अक्षरोंको ही कट () के भीतर दे दिया है। इससे पाठकोंको दो सुविधाएँ हो गई हैं-- एक तो वे उन शब्दोंके संस्कृत रूपको जान सकेंगे, दूसरे आज कलकी हिन्दी भाषा में जो प्रायः संस्कृत शब्दोंका व्यवहार होता है उनके अर्थको भी वे हम कोषपरले समझ सकेंगे । बाकी अधिकांश शब्द संस्कृत भाषाके ही हैं, कुछ ठेठ हिन्दी तथा प्रान्तिक भी हैं, उनको ज्योंका त्यों रहने दिया है। हां, ठेठ हिन्दी तथा प्रातिक शब्दोंके आगे में कट [ ] में देशीका सूचक 'ते ०' बना दिया है और सब शब्दोंके स्थान की सूचना दोहोंके अंकों द्वारा की गई है। इससे प्रस्तुत कोषकी उपयोगिता बहुत बढ़ गई है, और यह हिन्दी भाषा के ग्रंथोंका अभ्यास एवं स्वाध्याय करने वालोंके लिये बड़े डी कामकी और सदा पास रखनेकी चीज़ होगया है । कागज़ आदिकी इस भारी मँहगीके जमाने में १०८ पृडकी इस पुस्तकका मूल्य चार धाने रक्खा गया है, जो कोषकी उपयोगिता आदिके खयालले बहुत ही कम है। कापियां भी थोड़ी ही छपाई गई हैं। जिन्हें आवश्यकता हो वे शीघ्र पोप्टेज सहित पांच जाने निम्न पते पर भेजक रमँगा सकते हैं। वीर सेवामन्दिर सरसावा जि० सहारनपुर Page #617 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 000 वीरसेवामन्दिर सरसावामें ग्रन्थ-सूचीका काम जोरोंपर REGISTERED No A-731. २०० से ऊपर शास्त्रभंडारोंकी सूचियां या चुकीं बीरसेवामन्दिग्ने दिगम्बर जैनग्रन्थोंकी मुकम्मल सूची तय्यार करनेका जो महान् कार्य अपने हाथ में लिया है वह खूब प्रगति कर रहा है। थोड़े ही दिनोंमें उसे २०० से ऊपर शास्त्रभंडारोंकी सूचियाँ प्राप्त हो चुकी हैं और कितने ही स्थानोंसे सूचियाँ जल्द भेजे जानेके वचन भी मिल रहे हैं, यह सब खुशी की बात है । परन्तु शास्त्रभंडार चूंकि हजारों की संख्या में हैं— मन्दिर - मन्दिर में शास्त्रभंडार है— मालूम नहीं कि कौनसा अलभ्यप्रन्थ किस भंडार में गुप्त पड़ा है। ऐसी हालत में मुकम्मल सूची तय्यार करने के लिये सब भंडारों की सूचियोंका आना परमावश्यक है। और इसलिये यह एक महान कार्य है, जिसमें सभी स्थानोंके विद्वानों तथा शास्त्रभंडारोंके अध्यक्षों एवं प्रबन्धकोंके सहयोग की जरूरत है । आशा है इस पुण्य कार्य में सभी बीरसंबामन्दिरका हाथ बटाएँगे और उसे शीघ्र ही अभिलषित सूची तय्यार करके प्रकाशित करनेका शुभ अवसर प्रदान करेंगे । इस सूची पर सहज ही में यह मालूम हो सकेगा कि हमारे पास साहित्यकी कितनी पूँजी है, दिग म्वरसाहित्य कितना विशाल है, वह कहाँ-कहाँ बिखरा पड़ा है। और कौन-कौन अलभ्य प्रन्थ अभीतक सुरक्षित है। साथ ही, बहुतों को नये-नये प्रन्थोंका पढ़ने, लिखाकर मँगाने तथा प्रचार करने की प्रेरणा भी मिलेगी, और यह सब एक प्रकार से जिनवाणी माताकी मकची सेवा होगी। अतएव जिस स्थान के सनोंने अभी तक अपने यहाँ के शास्त्रभंडाररकी सूची नहीं भेजी है उन्हें अपना कर्तव्य समझकर शीघ्र ही नीचे के पते पर उसके भेजने का पूरा प्रयत्न करना चाहिये । भेजी जानेवाली सूचीका नमूना इम किरण में दी हुई सूची अनुसार होना चाहिये और उसमें नीचे लिखे दस कोष्ठक रक्खे जाने चाहियें। जो कोक प्रयत्न करनेपर भी भरे न जामकें उन्हें बिन्दु लगाकर वाली छोड़ देना चाहिये : १ नम्बर, २ प्रन्धनाम, ३ प्रन्थकारनाम, ४ भाषा, ५ विषय, ६ रचनाकाल, ७ श्लोकसंख्या, ८ पत्रसंख्या, ९ लिपिलंबन, १० कैफियत (प्रतिकी जीर्णादि अवस्था तथा पूर्ण - अपूर्णकी सूचनाको लिए हुए)। नोट- यदि प्रन्थ के साथ में टीका भी लगी हुई है तो टीकाकारका नाम, टीकाकी भाषा और टीका का रचनाकाल भी साथमें दिया जाना चाहिये । जुगलकिशोर मुकनार अभि 'बीग्वामन्दिर' पो० सरसावा (जि० सहारनपुर ) ध · • Co OOO 8 o मृतक प्रकाशक पं. परमानंदशास्त्री वीरमरिया जिए ज्यामलाल श्रीवास्तवद्वारा श्रीवास्तव प्रेम महारनपुर मुि ● , TOO Page #618 -------------------------------------------------------------------------- ________________ MINS STHA EX SEARNE निका एकनाकर्षन्ती लथयन्ती वरततत्वमितरंग । अन्तंन जयति जनी नीतिमन्धाननेत्रमिव गोपी। - - स्याद्वादपिणी - उभयानुभगा नत्व विधय तन्य MOHA More - निपध्यानुभयान अनकान्तात्मक वस्तृतत्त्व विषय तत्व . । - विविधन्य (उभयतन्व विधया-भग नी APRजनम अनुभय तत्व - विधेयं वार्य चाऽनुभयमुभयं मिश्रमपि नहिशेषैः प्रत्येक नियमविषयेचा पर्गिमतः । किं.१९१२ सदाऽन्योऽन्यापेक्षः सकलभुवनज्येष्टगुरुणा त्वया गीतं तत्त्वं बहुनय-विवनंतग्वशात ॥ सम्पादक- जुगल किशोर मुक्तार Page #619 -------------------------------------------------------------------------- ________________ विषय-सूची समयमवरतीके कुछ नमूने ..." पराधीनका जीवन कैसा (कविता)काशीरामममा. भारतीयं-संस्कृतिमें जैनसंस्कृतिका स्थान १.पक-पत्नी-वन (कहानी)--[भी 'भगवत् न ६०५ -बा. जयभगवान वकीब ७५ अपना-भव (कविता)-[श्री 'भगवत' म ३चताम्बरों में भी भ. महावीरके अविवाहित होने १२ धर्कट-वंश-(श्री अगरचंद्र नाहटा की मान्यना-.परमानंद जैन शास्त्री ५७१३ तामिख-भाषाका मसाहित्य--प्रो०५० चक्रवर्ती ११३ जैमियोंका अपनश साहित्य-मुनिश्रीकांतिसागर ५८ १४ सयुक्तिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तरलेखकी ५ तस्वार्थसूत्रका मन्तः परीक्षण-पं० फूलचंद्र शास्त्री ५८३ निःसारता--[40 रामप्रसाद जैन, शाची ६१० 'ममेकाम्स' पर प्राचार्य धसागर और विद्याधरका अभिमत २८ १५ ईसाईमतके प्रचारसे शिला-पंताराचंद दर्शनशास्त्री १२१ भावार्य जिनसेन और उनका हरिवंश १६ वरांगचरित' दिगम्बरग्रंथ है या बेताम्बर -पं. माथूराम प्रेमी -२० परमानन्द शास्त्री ६२३ 5 श्रीवीर बाबी-विवामनसिदांसमवम महाविद्री की साहित्य परिचय और समालोचन[ परमानन्दशाबी ६२८ कुछ वारपत्रीय ग्रंथों की सूची--[सम्पादक ५१0 १८ सम्पादकीय ६३१ अनेकान्तके सभी ग्राहकोंका चंदा इस किरणके साथ समाप्त है चूंकि चौथा वर्ष इस किरणके साथ समाप्त होता है अतः जिन प्राहकोंने अभी तक अगले वर्षका चंदा नहीं भेजा है उनसे निवेदन है कि वे इस किरणके पहुँचनेपर आगामी वर्षके चंदेके ३) रुपये शीघ्र ही मनीभाईरसे भेजदें। इससे उन्हें।) वी० पी० वर्चको बचत होगी और अनेकान्तका नवर्षा भी प्रकाशित होते ही समयपर मिल जायगा । अन्यथा, वी०पी०म मँगानेपर बहुतोंका नववर्षाव के बहुत देरस पहुंचनेकी भारी संभावना है क्योंकि यहाँ प्रांच पोष्टमाफिस होनेस वी०पी० प्रतिदिन १०-१५ से अधिक संख्या में नहीं लिय जाते। इससे अधिकांश प्राहकोंको बी०पी०करने में एक महीने भी अधिकका समय लग लग सकता है। मनीचारसं मूल्य भेजने में हमारी भी वी०पी० झझटसं मुक्ति हो सकती है। इस तरह इसमें दोनोंका ही लामहै। साथ ही यह भी खयान रहे कि कागजका मूल्य तिगुना होजानेपर भी भनेकान्सका दाबही ३) रखा गया है। ऐसी हालतम पूर्ण भाशा है कि अनेकान्तके प्रेमी पाठक शीमही सपना चंदा भेजनेकी रुपा करेंगे, तथा दूसरोंको भी प्राहक बनाकर उनका चंदा भिजवाएंगे, श्रीरसह अनेकान्सको सपना पूरा सहयोग प्रदान करेंगे। प्रत्येक ग्राहकको भनेकांतके कमसे कम दो पोप्राहकबनानेकी परूर पा करनी चाहिये। व्यवस्थापक-अनेकान्त' Page #620 -------------------------------------------------------------------------- ________________ * ॐ महम् * खतत्त्व-स विश्वतत्वप्रकाशक नीतिविरोधष्यसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीज भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः । वर्ष ४ । वीरसंवामन्दिर (ममन्तभद्राश्रम ) मग्मावा जिला महारनपुर किग्गा ११-१२ ( पौष-माघ, वीरनिर्वाण मं० २४६८, विक्रम सं० १६६८ दिसम्बर-जनवरी १५.४१-४२ । समन्तभद्र-भारतीके कुछ नमूने श्रीवृषभ-जिन-स्तोत्र म्वयम्भुवा भूत-हितेन भूतले, ममंजम-ज्ञान-विभूनि-चक्षुषा । विजितं येन विधुन्वना नमः, क्षपाकरेणेव गुणोत्करैः करैः ॥ १॥ 'जो स्वयंभू धे--स्वयं ही, विना किमी दुसरेके उपदेशके, मोतमार्गको जान कर तथा उसका अनुष्ठान करके प्रारम-विकासको प्राप्त हुए थे-प्राणियोंके हितकी-उनके प्रात्मकस्थाणकी--भावना एवं परिणनिसे युक्त हुए साक्षात् भूतहितकी मूर्ति थे, सम्यग्ज्ञानकी विभूतिरूप-- सर्वज्ञतामय- (अद्वितीय) नेत्रके धारक थे, और अपने गुणसमूहरूपी हाथोंमे--अबाधितत्त्व और यथावस्थित अर्थ-प्रकाशकत्व प्रादि गुणों के समूह वाले वचनोंम--अंधकारको-- जगतके भ्रान्ति एवं दुःव मूलक अज्ञानको--दूर करते हुए, पृथ्वीतल पर ऐसे शोभायमान होते थे जैसे कि अपनी अर्थप्रकाशकस्वादिगुण विशिष्ट किरणोंमे रात्रिके अन्धकारको दूर करता हुआ पूर्ण चद्रमा मुशोभित होता है।' Page #621 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५७४ भनेकान्त [वर्ष ४ प्रजापतियः प्रथम जिजीविषूः, शशास कृष्यादिषु कर्मसु प्रजाः । प्रबुद्धतत्त्वः पुनरद्भुतोदया, ममत्वतो निर्विविदे विदांवरः ॥२॥ 'जिन्होंने, (वर्तमान अवसर्पिणी कालके) प्रथम प्रजापतिके रूपमें देश, काल और प्रजा परिस्थितिके तत्त्वोंको अच्छी तरहसे जानकर जीने की जोवनोपायको जानने की इच्छा रखने वाले प्रजाजनोंको सबसे पहले कृषि श्रादि को में शिक्षित किया-उन्हें खेती करना, शस्त्र चलाना, लेखनकार्य करना. विद्याशास्त्रोंको पढ़ाना, दस्तकारी करना तथा बनज-व्यापार करना सिखलाया, और फिर हेयोपादेय तत्त्वका विशेष ज्ञान प्राप्त करके श्राश्चर्यकारी उदय (उत्थान अथवा प्रकाश) को प्राप्त होते हुए जो ममत्वसे ही विरक्त होगए-प्रजाजनों, कुटुम्बीजनों, स्वशरीर तथा भोगोंसे ही जिन्होंने ममत्व-बुद्धि (श्रासक्ति) को हटा लिया । और इस तरह जो तत्त्ववेत्ताओंमें श्रेष्ठ हुए। विहाय यः मागर-वारि-वासमं, वधूमिमां वसुधा-वधं सतीम् । मुमुक्षुग्क्ष्विाकु-कुलादिरात्मवान , प्रभूः प्रवव्राज सहिष्णुरच्युतः ॥शा 'जो मुमुच थे-मोक्ष प्राप्तिकी इच्छा रखने वाले अथवा संसार-समुद्रसे पार उतरनेके अभिलाषी थे-,अात्मवान थे-इन्द्रियोंको स्वाधीन रखने वाले अात्मवशी थे-,और ( इस लिये ) प्रभु थे-स्वतंत्र थे-, उन ( विरक्त हुए) इक्ष्वाकु-कुलके श्रादिपुरुषने, सती वधको-अपने ऊपर एक निष्ठासे प्रेम रखने वाली सुशीला महिलाको-और उमी तरह इस मागर-वारि-वसना वसुधावधूको-सागरका जल ही हे वस्त्र जिसका ऐसी स्वभोग्या समुद्रान्त पृथ्वीको-भी, जो कि (युगकी श्रादिमें ) सती-सुशीला थी-अच्छे सुशील पुरुषोसे श्राबाद थी-, त्याग करके दीक्षा धारण की। ( दीक्षा धारण करने के अनन्तर) जो सहिष्णु हुए-भूख-प्यास श्रादिकी परीषहोंस अजेय रहकर उन्हें सहने में समर्थ हुए-,ओर (इसीलिये ) अच्युत रहे-अपने प्रतिज्ञात ( प्रतिज्ञारूप परिणत ) व्रत-नियमोसे चलायमान नहीं हुए। (जबकि दूसरे कितने ही मातहत राजा, जिन्होंने स्वामिभक्तिसे प्रेरित होकर आपके देखा-देखी दीक्षा ली थी, मुमुक्षु, श्रात्मवान् , प्रभु तथा सहिष्णु न होने के कारण, अपने प्रतिज्ञात व्रतोंसे च्युत और भ्रष्ट होगये थे।' म्व-दाष-मूल स्वममाधि तेजसा, निनाय या निदेय-मम्मसाक्रियाम । जगाद तत्त्वं जगतंऽथिनऽअसा, बभूव च ब्रह्मपदाऽमृतेश्वरः ||४|| "(नपश्चरण करते हुए) जिन्होंने अपने प्रात्मदोषोंके--राग-द्वेष-काम-क्रोधाादकोंक--मूलकारणको-घानिकर्मचतुष्टयको-अपने समाधि-तेजसे-शुक्लध्यानरूपी प्रचण्ड अमिसे--निर्दयतापूर्वक पूर्णतया भस्मीभूत कर दिया। तथा (ऐसा करनेके अनन्तर) जिन्होंने नत्वाभिलाषी जगतको तत्त्वका सम्यक उपदेश दिया--जीवादि तत्वोका यथार्थ स्वरूप बतलाया। और (अन्तको) जो ब्रह्मपदरूपी अमृतके--स्वात्मस्थितिरूप मोक्षदशामें प्राप्त होने वाले अविनाशी अनन्त सुखके--ईश्वर हुए-स्वामी बने । __म विश्व-चक्षुवृषभाऽर्चितः सतां, समप्र-विद्याऽऽत्मवपुर्निजनः । पुनातु चेना मम नाभि-नन्दनी, जिनोऽजित-क्षुल्लक-वादि-शामनः ।।५।। (स्वयम्भूस्तोत्र) ___(इस तरह) जो सम्पूर्ण कर्म-शत्रुओंको जीतकर 'जिन' हुए, जिनका शासन खुल्लकवादियोके-अनित्यादि सर्वथा एकान्त पक्षका प्रतिपादन करने वाले प्रवादियोके--द्वारा अजेय था, और जो सर्वदर्शी है, सर्व विद्यात्मशरीरी हैं--पुद्गल पिंडमय शरीरके अभावमें जीवाादे सम्पूर्ण पदार्थोंको अपना साक्षात् विषय करने वाली केवलज्ञानरूप पूर्णविद्या (सर्वशता) ही जिनका आत्मशरीर है--,जो सत्पुरुषोसे पूजित है, और निरंजन पदको प्राप्त है--ज्ञानावरणादि द्रव्यकर्म, शरीरादि नोकर्म तथा राग-द्वेषादि भावकर्मरूपी त्रिविध कर्म-कालिमासे सर्वथा रहित होकर श्रावागमनसे विमुक्त हो चुके हैं, वे (उक्त गुण विशिष्ट) नाभिनन्दन--1४३ कुलकर (मनु) नाभिरायके पुत्र-श्रीवृषभदेव-धर्मतीर्थके श्राद्यप्रर्वतक प्रथम तीर्थकर श्रीश्रादिनाथ भगवान--, मेरे अन्त:करणको पवित्र करें--उनकी स्तुति एवं स्वरूप-चिन्तनके प्रसादसे मेर हृदयको कलुषांत तथा मलिन करने वाली कषाय-भावनाएँ शान्त होजायँ।' Page #622 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भारतीय संस्कृतिमें जैनसंस्कृतिका स्थान लेखक-श्री बाबू जयभगवान जैन बी० ए०, एल एल० बी० वकील] we ='erभारतीय संस्कृति और उसके जन्मदाता- करना बताया है, भीतरी कमलोरियोंको दूर करनेके लिये भारतकी संस्कृति, जो नमानेके उतार-चढ़ाव में से होती आलोचना और प्रतिक्रमणका पाठ पढ़ाया है. आत्म विजय हई आई है. जो लम्बे मार्गकी कठिनाइयोको झेलती हई के लिये अहिंसा-संयम, तप-त्याग, दण्ड-ध्यानका मागे श्राई है, जो अपनी सहनशीलताके कारण आज अनित्यों में दिखाया है, वहाँ ब्राह्मणोंने इसे शरीरका स्वास्थ्य ठीक नित्य बनी हुई है, जो अपनी सभ्यनाके कारण अाज विभ- रखने के लिये ऋतुचर्या, दिन-रात्रि-वर्याका सबक दिया है, क्नोंमें अविभक्त बनी हुई है, जो सदा विश्व-कल्याणके लिये बिना विरोध मबही जिम्मेवारियोंको पूरा करने के लिये जीवन अग्रसर रही है, जो मदा पतितांको उठाती रही है, पीडितों को को चार श्राश्रमों में नकसीम करना और नित्यप्रति अपने उभारतीरही है, निर्बलोको बल देती रही है, भूले-भटकोंको राह समय को चार पुरुषार्थों में मर्यादित करना सिखाया है। बताती रही है, जो श्राज गुलामी में रहते हुए भी हमें ऊँचा जहाँ श्रमणोंने इसे 'मोऽहम', 'तत्त्वममि' का श्रात्मबनाए हुए है, दुःखी संमारकी दृष्टि अपनी ओर खींचे हुए है, मन्देश देकर इमकी दुविधाओको दूर किया है, कम इच्छाकिमी एक जाति, एक सम्प्रदाय, एक विचार-धागकी उपज कम चिन्ता-रूप त्यागका पाठ पढ़ाकर इनकी श्राकुलतानी नहीं है। यह उन अनेक जातियों, अनेक सम्प्रदायों, अनेक को हटाया है, 'जीयो और जीने दो रूप अहिंसाका उपदेश विचार-धागोकी उपज है, जिनका संघर्ष, जिनका संमेल देकर इमके मंक्लेशोको मिटाया है, वहाँ ब्राह्मणोंने वर्णभारतकी भूमिमें हुआ है। जिनका इतिहास यहाँकी विविध जातियांकी व्यवस्था करके हमके सामाजिक विरोधोंको दर अनुश्रनियो, लोकोक्तियों और पौराणिक कथाओंमें छिपा किया है, व्यवमायाँकी व्यवस्था करके इसके प्राथिक मंघर्ष पड़ा है, जिनके अवशेष यहाँके पगने जनपदों, पुराने पुरों को मिटाया है, कुटुम्ब और राष्ट्रकी व्यवस्था करके इसके और नगरोक खण्डरातमें दवे पड़े हैं। इनका उद्घाटन अधिकारीको मुगक्षत किया है। करने और रहस्य जाननेके लिये अभी लम्बे और गहरे जहाँ श्रमण मदा इसकी श्रात्मा के मंरक्षक बने रहे हैं. अनुमन्धानकी जरूरत है। परन्तु जहाँ तक परानी खोजोसे वहाँ ब्राह्मगा मदा हमके शरीर के संरक्षक बने रहे हैं। जहा पता चला है. यह निर्विवाद सिद्ध है, कि इस संस्कृति के श्रमण इमे श्रादर्श देते रहे हैं, वहां ब्राह्मण इमे विधिविधान मूलाधार दो वर्ग रहे हैं, ब्राह्मण और क्षत्रिय । इसके देत रहे हैं, जहा श्रमण निश्चय (Reality) पर प्रकाश विकासमें दो दृष्टियों काम करती रही है, आधिदैविक डालते रहे हैं, वहा ब्राह्मण व्यवहार (Practice) पर प्रकाश और श्राध्यत्मिक । इसकी नहमें दो विचार-धाराएँ बहती रही डालते रहे हैं। हैं,वैदिक और श्रमण । जहाँ श्रमणांने भारतको भीतरी सुख- इन अात्मा और शरीर, श्रादर्श और विधान, निश्चय शान्तिका मार्ग दर्शाया है, वहाँ ब्राह्मणोने इसे बाहरी मुख- और व्यवहारके सम्मेलसे ही भारत की संस्कृति बनी है, और शान्तिका मार्ग दिखलाया है। जहाँ श्रमणोंने इसे निश्रेयस् इनके मम्मेलसे ही हम संस्कृतिको स्थिरता मिली है। का उपाय सुझाया है, वहाँ ब्राह्मणांने इसे लौकिक अभ्युदय भारतीय-संस्कृति और उसकी विशेषताका उपाय बतलाया है। जहाँ श्रमणांने इसे भीतरी श्रानन्द यो तो मंमारके मब ही देशोंने बड़ी-बड़ी सभ्यताको के लिये प्रात्माको खोजना सिखाया है, भीतरी इंद्रियोंको जन्म दिया है। वेबीलोन और फलस्तीन, मिश्र और चीन, जगाने के लिये स्वेच्छासे परिषहो (कठिनाईयों) को सहन रोम और यूनान सब ही सभ्यताश्रांने अपनी कृतियोंसे मानवी Page #623 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्ष ४ गौरवको बढ़ाया है, परन्तु इनमें से किसीको भी वह स्थिरता त्यो ही ये सब भूकम्प पीड़ित भवनोंके समान एक दमसे प्राप्त न हुई, जो भारतीय-संस्कृतिको मिली है। ये सब इस घबरा उठी, एक दममे लड़खड़ा उठीं, ये सब गिरकर मिट्टी दुनिया में ऊषाकी तरह भाई और सन्ध्याकी तरह चली गई। का ढेर होगई। परन्तु इम धूप और छायाकी दुनिया में, आँधी और तूफ़ान परन्तु भारतको सदासे मर्वोच्च श्रादर्श मिला है. श्रात्मकी दुनिया में भारतकी संस्कृति बराबर बनी हुई है। श्रादर्श मिला है, परमात्म-प्रादर्श मिला है, इसीलिये यहाँ इस मभ्यताकी आखिर वह कौनसी विशेषता है, जो की संस्कृति मदा निन्दा रही है, और सदा जिन्दा रहेगी। इसे बराबर कायम रक्खे हुए है? वह एक ही विशेषता है, प्रागैतिहासिक कालसे लेकर आजतक भारतको अनेक और वह है इसका आध्यात्मिक श्रादर्श । उतार-चढ़ावमेंमे निकलना पड़ा है, अनेक आफनो-मुसीबतोंमें ____ संसारकी अन्य सभ्यताओंको क्रियाकाण्ड (cere. मे गुजरना पड़ा है। बाहर वालोने इसपर अनेक आक्रमण किये। monialism ) मिला, व्यवहार ( convention- पूर्व-यच्छिमसे श्राकर यहाँ अनेक जमघट किये। कभी खत्ती alism) मिला, विधान (law and order) मिला, आर्य आये, कभी वैदिक आर्य प्राये, कभी सूर्यवंशी आये, संघटन (organisation) मिला. सब कुछ मिला. कभी सोमवंशी श्राये, कभी फारिस वाले श्राये, कभी यूनान परन्तु इनमेंसे किमीको श्राध्यात्मक प्रदर्शन मिला। वाले आये, कभी पार्थिया वाले श्राये, कभी बख्तियार वाले इन्हें विजय और माम्राज्य मिला, धन और वैभव आये, कभी शक और कृशन अाये, कभी हन और तुर्क मिला, अधिकार और शामन मिला, सब कुछ मिला, परन्तु आये, कभी पठान और मुग़ल श्राये. कभी फरामीसी और इन्हें वह श्रादर्श न मिला, जो इम बनती-बिगहती दुनिया अंगरज पाये। इन मब ही ने श्रा श्राकर एमके गष्टम में सदा ध्रुव रहने वाला है, मदा माथ रहने वाला है, जो अनेक उथल-पुथल मचाये. इसके समाजके अनेक भेद-भंग सदा भूलभुलय्याँसे बचाने वाला है, सदा नीचेमे ऊपर किये, इसके शरीर के अनेक रूप-रंग बदले, इन मब ही ने उठाने वाला है, जो सदा मनको रिझाने वाला है, सदा इमपर अनेक विध प्रहार किये। ये मब ही इमके रहन-महन काममें आने वाला है, मदा हितका करने वाला है, जो सब में क्रान्ति लाये, इसके व्यमन-व्यवमायमें क्रान्ति लाये, इमकी हीके लिये इष्ट है, सब ही के लिये माध्य है, सब ही के लिये भाषा-भूषा में क्रान्ति लागे, इसके प्राचार-विचारमं क्रान्ति प्राप्य है, जो सदा स्थायी और विश्वव्यापी है। लाये, परन्तु इनमें से कोई भी इसे अपने स्थानमे न राहगा मका, इस श्रादर्शके बिना अभ्य सभ्यता सदा निगधार बनी अपने अाधारमे न हिला मका। यह मदा यात्मदर्शी बना रहा रहीं, निस्सार बनी रहीं, इनकी सारी श्राभा, इनकी सारी और अाज भी श्रात्मदर्शी बना हुआ है। यह मदा गोगियों महिमा श्रोरीसी बनी रही। इनकी सारी शक्ति, इनकी का उगसक बना रहा और आज भी योगियोका उसक बना मारी प्रगति प्रोपरीमी चलती रही। ये कभी भी जीवनमें हुआ है। यह सदा योगाभ्यामको दी यानन्दका मार्ग मानता अपनी जड़ोंको न जमा मकी, ये कभी भी अपनेको बनाये रहा और आज भी योगाभ्यासको ग्रानन्दका मार्ग मानता है। रखने की संकल्पशक्तिको उत्पन्न न कर मकी, ये नमानेके इन सब ही बाहिर वालोंने भारत के क्षेत्रको विजय किया, साथ चलने और बदलनेकी सुधारशक्ति (power of इमके धन-दौलनको विजय किया, इसके अधिकार और adaptation) को न उगा मकी. ये कभी भी नये शामनको विजय किया, परन्तु इनमेंसे कोई भी इसके आदर्श विचारों, नये मार्गों के साथ मिलने-मिलानेकी समन्वयशक्ति को विजय न कर सका। इसके विश्वासको विजय न कर (power of harmony) को न जगा सकीं। इस मका, इमके संकल्पको विजय न कर सका, इसकी आत्माको श्रादर्श के बिना ये मढगर्भके समान यों ही जीती रही. यों ही विजय न कर मका। इस सारे आँधी-तूफान में, इस सारे बढ़ती रहीं, ये विशेष स्थिति तक पैदा होती रही और चलती उथल-पुथल में भारत बराबर श्रात्म-आदर्शको अपने भीतरके रहीं परन्तु ज्यों ही जमानेने पाटा खाया, नई समस्याश्रोने जन्म लोकमें छिपाये रहा । इमे कौस्तुभमणिके ममान छातीसे लिया, नये विचारोने सिर उठाया, नये विप्लवोंने जोर पकड़ा, लगाये रहा । इसे ध्रुव तारेके समान अपने जीवनका केन्द्र Page #624 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] भारतीय संस्कृति में जैन संस्कृतिका स्थान बनाये रहा । यश करना रहा. ( यद्यपि भारत अपने में संघटन चक्रवर्तियोंका चक्र चलाता रहा, राज्य छाने के लिये श्रश्वमेव अत्याचार से अपने को बचाने के लिये अत्याचारियोसे लड़ता रहा । धर्म- मर्यादाको बनाये रखने के लिये आपस में झगड़ता रहा; म्याय और सत्यके लिये बढ़ चढ़कर प्राणोंकी आहूतियाँ देता रहा, परन्तु भारत दूसरोका क्षेत्र छीनने के लिए, दूसरोंका धन-दौलत लूटने के लिए, दूसरोंका ईमान-धर्म खोने के लिये, कभी भी दूसरों पर हमलाग्रावर नहीं हुआ। वह इस प्रदर्शके कारण सदा सन्तुष्ट बना अपने घर बैठा रहा । यद्यपि भारत श्रात्मसन्देश देनेके लिये, धर्मका मार्ग बताने के लिये, व्यापारका सम्बन्ध जोड़नेके लिये, अपने सुपुत्रोको सदा बाहिरके देशोंमें भेजना रहा; परन्तु अपनी उद्देश्यपूर्ति के लिये भारतने कभी भी श्रधर्मसे काम न लिया, न्याय से काम न लिया, माया कस्टसे काम न लिया, अत्याचारसे काम न लिया, पशुबलसे कामन लिया। भारत उनसे सदा मत्यका व्यवहार करता रहा, हिंसाका व्यवहार करता रहा, प्रेमका व्यवहार करना रहा, सेवा और महानुभूतिका व्यवहार करता रहा । इतना ही नहीं, इस श्रादर्शके कारण, भारत उन श्रागुन्तको तकको, जो लगातार इसकी भूमि और घनको हमके धर्म और कर्मको हरण करनेके लिये यहां श्राते रहे, 'श्रात्मवत् सर्वभूतेषु' कहकर अपने में मिलाता रहा, उन अनेक वर्ण और जातियांको, जो समय-समय पैदा होकर इसकी एकता को फाड़ती रहीं, 'वसुधैव कुटुम्बकम्' कहकर एकनाके सूत्र में पिरोता रहा, और उन समस्त विचार धाराश्रोंका, जो इधर-उधर से श्राकर बराबर यहां बहती रहीं 'मत्यमनेकान्तात्मकम्' कहकर सत्यके साथ संगम कराता रहा। लानेके लिये सदा अपने में एकछत्र इस श्रादर्शके कारण ही भारतको अपार सुधारशक्ति (power of adaptation ) मिली है। इसी लिये यह विविध स्थितियोंमें रहता हुआ भी सदा एक बना रहा है, विविध पीड़ाओंको सहता हुश्श्रा भी सदा दृढ़ बना रहा है, विविध उतार-चढ़ाव में से गुजरता हुआ भी सदा अग्रसर बना रहा है। इस आदर्श के कारण ही भारतको अगाध श्रानन्द ५७७ शक्ति मिली है। इसी लिये यह नित नई श्रानर्ते पड़ने पर भी सदा शान्तचित्त बना रहा है, नित दिन लुटाई होने पर भी सदा सन्तुष्ट बना रहा है और बार बार बन्दी होने पर भी सदा स्वतन्त्र बना रहा है। इस श्रादर्शके कारण ही भारतको अटूट समन्त्रयशक्ति power of harmony) मिली है। इसी लिये यह विविध विचारोंसे टकराने पर भी कभी विमूढ नहीं हुआ है, विविध रास्तों मे घिर जाने पर भी कभी भूलभुलय्यांमें नहीं पड़ा है। यह श्रात्म श्रादर्शके सहारे उन्हें यथायोग्य मूल्य देता हुआ उनका समन्वय करता रहा है। यह जीव और पुद्गल में, श्रात्मा और शरीर में, जम्म और कर्म (heredity and culture) में, देव और पुरुषार्थ (fate and effort) में श्रुति और बुद्धि ( Intuition and Intellect) में, प्रवृत्ति और निवृत्ति (Action and renunciation) में, गृहस्थ और सन्यासमें, पुरुष और समाज ( Individual and society) में, नर और नारायण (man and god) में, लोक और परलोकम, आदर्श और विधान ( Ideal and method) में, निश्चय और व्यवहार (Reality and practice) में, मदा महयोग करता रहा है । जो लोग बाहर से चलकर यहाँ विजय करनेके लिये श्राये वे लोग इसके विजेता जरूर हो गये, परन्तु वे सबही इसकी आत्मा विजित होते चले गये, वे सब ही इसके श्रादर्श होते चले गये, इसके विश्वास के होते चले गये, इसके चलनके होते चले गये। होते होते वे इससे इतने रलमिल गये कि श्राज ८०० वर्ष पूर्वके आने वालों में तो विजेता और पराजितका भेद करना भी बहुत मुश्किल है। यद्यपि यहाँ श्राते समय वे सब देवतावादको लेकर श्राये, पराधीनतावादको लेकर श्राये, देवी- इच्छावादको लेकर श्राये, उपशमनार्थ क्रियाकाण्डको लेकर श्राये; परन्तु यहाँ रहने पर वे सब ही देवनाबादकी जगह श्रात्मवादको अपनाते चले गये, पराधीनतावादकी जगह स्वतन्त्रतावादको लेते चले गये, इच्छावादकी जगह कर्मवादको मानते चले गये, क्रियाकाण्डकी जगह सदाचारको अपना मार्ग बनाने चले गये। इस श्रादर्शके कारण ही पूर्व और पच्छिम बाले, जो भारत के सम्पर्कमं श्राये, वे देवतावादको छोड़कर 'आत्मा Page #625 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त होपरम्नमा, 'आत्मा ही परमात्मा है, 'श्रात्मा ही देवताओं नामोंसे पुकारे जाते थे। जो अपने योग, प्राण और इन्द्रियों का देवता', 'अनलाई' इत्यादि अध्यात्म मंत्र उच्चारते का संयम करनेके कारण 'यति' कहलाते थे। जो कमायोसे हुए चले गये। वे देवाधीनतावादको छोड़कर 'आत्मा ही विरत होने के कारण 'बत्ती' वा 'प्रात्य' कहलाते थे, जो तपअपना प्रभु और स्वामी है. 'श्रात्मा ही अपना मित्र और त्यागरूप श्रम करनेके कारण 'श्रमण' कहलाते थे, जो शत्रु', 'श्रात्मा ही अपने भाग्यका विधाता है' इत्यादि अन्तरंग शत्रुत्रोंका संहार करनेके कारण अरिहन्त' कहलाते स्वतन्त्रताके राग अलापते हुए चले गये । वे देवीइच्छावाद थे, जो सबके आदरणीय होनेके कारण 'वहन्त' कहलाते को छोडकर 'जैसा अनुभवोगे वैसा होजानोगे', 'जैसा बोश्रोगे थे, जो मृत्युके विजेता होनेके कारण 'जिम' कहलाते थे. वेसा काटोगे', 'जैसा करोगे वैसा भरोगे इत्यादि पुरुषार्थके जो त्रिकाल और त्रिलोकके विजेता होनेके कारण 'जिनेश्वर' सूत्र रचते हुए चले गये। वे क्रियाकाण्डको छोड़कर 'जन- कालाने थे। सेवा ही ईश-उपासना है, 'परोपकार ही स्वोपकार है', 'दया- यह अध्यात्म-श्रादर्श भारतीय-सभ्यताकी आधारशिला दान ही धर्म है' इत्यादि सदाचारके बोल बोलते हए चले रहा है और यही श्रादर्श भारतीय इतिहासकी आधारशिला गये। है। भारतीय जीवनका कोई पहलू ऐसा नहीं, भारतीय इतिइस श्रादर्शके आधार पर ही भारतने प्राचीन कालमें हासकी कोई घटना ऐसी नहीं, जिस पर इस श्रादर्शकी छाप वैदिक आर्योको ब्रह्मवाद दिया है, मध्य कालमें इसलामको न पड़ी हो । भारतकी कोई मान्यता और श्रद्धा ऐसी नहीं, सूफीवाद दिया है और आधुनिक कालमें पच्छिमके जड़- कोई रीति और प्रथा ऐसी नहीं, कोई संस्था और व्यवस्था वादियोंको नया अध्यात्मवाद (Neo spirtualisun) ऐसी नहीं, जिसके बनाने में इस आदर्शका हाथ न हो। दिया है। अनाएव भारतके असली जीवनको जाननेके लिये, इस इस तरह भारत अनेक बार फतह होने पर भी मदा की तहमें काम करने वाली शक्तियोंको पहिचाननेके लिये जगतका विजेता बना रहा है, औरोंसे अनेक सयक सीखने जरूरी है कि इस प्रादर्शको जाना जाय. इसकी विवक्षाओं पर भी सदा जगतका गुरु बना रहा है। (Implications) को जाना जाय, इसके विकासको यह अध्यात्म-श्रादर्श, जिसके कारण भारतको सुधार- नाना जाय, इसका विकास करने वाले प्रभावोंको जाना शक्ति मिली, आनन्द-शक्ति मिली है, समन्वय-शक्ति जाय, इन प्रभावोंको पैदा करने वाले लोगोंको जाना मिली है। जिसके कारण इसे शान्ति और सन्तुष्टि मिली है, जाय । इन सब चीजोंको जानने के लिये जरूरी है, कि उस सरलता और गम्भीरता मिली है, सौम्यता और अहिंसा समस्त सामग्रीका, उस समस्त साहित्य और कलाका संग्रह मिली है जिसके कारण इसे अनेकतामें एकता मिली है, किया जाय, जो इन पर प्रकाश डालती हो, उनको सूचिबद्ध अस्थिरतामें स्थिरता मिली है, भारतकी अपनी निजी चील किया जाय, उनका संशोधन किया जाय, वर्गीकरण किया है। यह भारतके मूलवासी श्रमण-लोगोंकी सृष्टि है। यह जाय, मिलान किया जाय, संकलन किया जाय-अर्थात् उन लोगोंकी देन है, जो अग्ने विविध गुणोंके कारण अनेक. इस समस्त सामग्रीका अनुसन्धान किया जाय । AAR Page #626 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्वेताम्बरों में भी भ० महावीरके अविवाहित होनेकी मान्यता [ लेखक-३० परमानन्द जैन, शास्त्री ] जैनसमाजमें भगवान महावीरके विवाह-सम्बन्ध श्रीजिनसनाचार्य कृत दिगम्बर हरिवंश पुराणके को लेकर दो विभिन्न मान्यताएँ रष्टि गोचर होती हैं- ६६वें पर्व परसं भगवान महावीर विवाह-सम्बन्ध एक उन्हें विवाहित घोषित करती है, दूसरी अविवा- में इतनी सूचना मिलती है कि-गजा जिनशत्रु, हित । दिगम्बर मम्प्रदायके सभी ग्रन्थ भगवान जिसके साथ भगवान महावीरकं पिता राजा सिद्धार्थ महावीरको एक स्वरसे भाजन्म बालब्रह्मचारी प्रकट की छोटी बहिन व्याही थी, अपनी यशोदा नामकी करते हैं-पंच बालयसि सीर्थकरों में उनकी गणना पुत्रीका विवाह भगवान महावीरकं साथ करना चाहता करते हैं। परन्तु श्वेताम्बर सम्प्रदायमें पाम तौर पर था परन्तु भगवान विरक्त होकर तपमें स्थित होगए भगवान महावीरको विवाहित माना जाता है। इनका और इससे राजा जितशत्रुका मनोरथ पूर्ण न होसका, विवाह समग्बीर राजाकी यशोदा नामकी कन्यास अन्नको वह भी दीक्षित होकर तपमें स्थित होगया। हुआ बतलाया जाता है और उससे प्रियदर्शना नाम इम सूचना परमं स्पष्ट है कि दिगम्बर मान्यतानुसार की एक पुत्रीका उत्पन होना कहा जाता है। साथ ही, भगवान महावीरक विवाहकी चर्चा तो चली थी यह भी कहा गया है कि प्रियदर्शनाका पाणिग्रहण परन्तु उन्होंने विवाह नहीं कराया था। यही कारण जमालिके साथ हा था और इस तरह जमालि है कि तमाम दिगम्बरीय प्रन्थों में उन्हें भगवान भगवान महावीरका दामाद था । पार्श्वनाथकं समान बाल ब्रह्मचार्ग प्रकट किया है। * तिसला इवा, विदेह रिगणा इवा, पीइकारिणी इवा। परन्तु श्वेताम्बर्गय प्रन्थों में इस विषयके दो उल्लेख समणस्स णं भगवनो महावीरस्स पित्तिज्जे, सुपासे, जेड- पाय जाते हैं जिनमें एक उल्लेख जो उन्हें स्पयतया भाया वंदिवडगे, भगिणी सदसणा, भारिया जसोया विवाहित घाषित करता है, वह ऊपर दिया जाचका कोडियण गोतेणं, समस्स णं भगवो महावीरस्स प्रधा है। दूमग उल्लेग्व-जा उन्हें बाल ब्रह्मचारी प्रकट कासन गोते तीसे रो सामधिजा एवमाहिज्जनि, तं करता है. वह निम्न प्रकार है:जंहा-अयोज्जा इबा, पियवंसणा वा । ममणस्प णं वीरं अग्निमि पास मल्लिंच बासपुर्ज। भगवयो महावीरस्स नतई कोसिय गोलणं तीसे यादो णाम एए मुस्ता जिणे अवसमा भासि रायाणा ॥२२१।। भिजा एवमाहिज्जति, तं जहासेसवई इवा. जसबई इवा ॥ १... -कल्पसूत्र पृ० १४२,१५३ भिवास किं श्रेणिक वेत्ति भूपति नृपेन्द्रसिद्धार्थ कनीयसीपति । ___ "एवं बाल्यावस्थानिवृत्ती संप्राप्त यौवनी भोगसमर्थों इमं प्रसिद्ध जिनशत्रमाख्यया प्रतापवंतं जिनशत्रमण्डलं ॥६॥ भगवान् मातापितृभ्यां शुभ मुहूर्ते समरवीरनृपपुत्रीं जिनेन्द्रवीरस्य समुद्भवोमवे तदागतः कुंडपुरं सुहृत्परः। यशोदा परिणायितः, तया च सह सुखमनुभवतो भगवनः सुपूजितः कुंडपरस्य भूभृता नृपोयमारखण्डनतस्यविक्रमः ॥७॥ पुत्री जाता, साऽपि प्रवरनरपतिसुतस्य स्वभागिनेयस्य ___ यशोदयायां सुनया यशोदया पवित्रया कीरविवाहमंगलम् । जमालेः परिणायिता, तस्या अपि शेषवती नाम्नी पुत्री, सा भनेककन्यापरिवारयाहस्समीकिंतु तुंगमनोरथं तदा ॥ll च भगवतो 'नत्तई दौहित्रीत्यर्थः । समबस्स.णं भगवनो स्थितेऽथनाये तपसि स्वयंभुवि प्रजातकैवल्यविशाल नोचने । महावीरस्स इत्यादितः जसबई इवा इत्यंत सुगमम्।" जगद्वित्यै विहरत्यपिरिति चिनि विहाय स्थितांस्तपस्या --करप.विनयविजयगडी, सुख.१. पृ. १४२,१४३ -हरिवंशपुराणे जिनसमाचार्यः Page #627 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८२ अनेकान्त (वर्ष ४ ये, ऐसा वस्मीगुहसेनके तान्नपहसे' फलित होता है। महर्षि पतंजलिने भी अपने भाष्यमें भरभंश शब्दका योतो प्राकृतग्रंथ पउमचरिथमें जोकि ईसाकी प्रथम शताब्दि प्रयोग किया है। महाभाष्यन्तर्गत गावी, गोणी पादि के तीसरे वर्षमें लिखा गया था-अपभ्रशके कतिपय बक्षण शब्द जैन साहित्य में भी दृष्टिगोचर होते हैं, जो भाषापाये जाते हैं, पर पोषक प्रमाणके प्रभावसे विद्वान लोग अन्वेषकों के लिये बड़े कामकी चीज़ हैं। काम्यादर्श और उसकी इतनी प्राचीनता स्वीकृत नहीं करते । कवि कुलतिलक काम्यालंकार आदि उचकोटिके साहित्यग्रंथों में भी अपभ्रंश कालिदास विक्रमोर्वशीय नाटकान्तर्गत विषित पलवाकी भाषाके लक्षण पाये जाते हैं। उक्ति छन्द और रूप दोनों के विचारसे अपभ्रंशकी कुछ न दशवीं शताब्दिमें महाकवि राजशेखरने काम्य-मीमांसा कुछ छाया अवश्य प्रतीत होती है। इससे अपनशका काल नामक सुंदर ग्रंथकी रचना की है, उसमें बताया गया है कि २०० वर्ष और भागे चला जाता है। मरुभूमि ठक्क' एवं भावानक५ निवासी अपभ्रश भाषाका कविचण्डने, जो ईसकीकी तीसरी शताब्दिमें हो गये हैं प्रयोम करते हैं। इसके सिवाय, उक्त ग्रंथमें यहां तक भी (डाक्टर पी०डी० गुणे ने चडका अस्तिस्वकाल ईसाकी लिखा है कि अपभ्रंश भाषाका जितना भी साहित्य कही शताब्दी निश्चत किया है. अपने प्राकृत व्याकरणमें परिचवमें प्रारहा है वह प्रायः पश्चिम भारतका ही है। अफ्नश भाषाका उल्लेख किया है, और मात्र एक ही सूत्रमें इस पश्चिमी अपभ्रशकी प्रधानताका एक कारण यह उसका लक्षण समाप्त कर दिया है, किन्तु उस मरण और भी था कि वैदिक मतानलम्बी विद्वात् उस समय अपनी नवमी, दशमी शताग्दिके लक्षणों में उतना ही अन्तर पाया संस्कृत भाषामें ही मग्न थे । उनकी सारी साहित्य-रचना जाता है जितना जमीन और पासमानमें । चपडकालीन गीर्वाण-गिरामें ही होती रही, जनताकी बोलचालकी अपभ्रंश भाषाक नम्ब तौर अशोककी वे प्रशस्तियां हैं भाषामें रचना करनेकी उन्होंने कोई पर्वाह नहीं की। जो शाहवाजगदी और मनसाराकी शिलाभोंपर उत्कीर्ण है, बनारसमें जब सर्व प्रथम तुलसीदासजी गय थे तब उनकी और जिसं जनरल कनिंगहामने उत्तर भारतकी भाषा बताया कविताकी उतनी कदर नहीं हुई थी जितनी आज हो है। अपभ्रंश भाषाका सर्व प्रथम परिचय भरतमुनिके नाटय रही है। इस बोलचाजकी भाषाकी ओर ध्यान देने शाससे मिलता है, जिसका निर्माणकाल विक्रमकी दूसरी वाले मुख्यतः जैन विद्वान ही हुए हैं जिनका प्रावल्य और तीसरी शताग्निके बादका नहीं हो सकता। उसमें भरत प्रायः पश्चिमी भारतमें ही था और वे मुख्यतः जैन मुनिने सात विभाषामोंका उस्लेख किया है, जिस परसे सहज ही में अनुमान किया जासकता है कि उस समय (२) भूयांसोऽपशब्दाः अल्पीयांमः शब्दाः । एकैकस्य हि प्राकृतभाषा विदयोग्य भाषा थी और उसका अपभ्रष्ट रूप शब्दस्य बहवोऽपशाः तद्यथा गौरियस्य शनस्य गावी गोणी-गोता गोपोतलिका इत्येवमादयोऽपभशाः। तत्कालीन लोक भाषा थी। उक्त ग्रंथमें यह भी बताया गया है मिन्धु, सौवीर एवं तत्मविकट पहाडी प्रदेशमें उकार (३) मारवाड । (५) पूर्वी पंजाब। का बाहुल्य पाया जाता है। यही बक्षण अपभ्रश भाषामें (२) यह भादामक कहाँ स्थित है? यह एक पाया जाता है ताव स्पष्ट ही है कि उस समयमें भारतकी महत्वका प्रश्न है। नन्दसाव इसे भागलपुरके समीप बताते देश भाषा अपभ्रंश थी। यही देश भाषा क्रमश: उच्च हैं, लेकिन यह कथन ठीक प्रतीत नहीं होता। संभवतः यह बोटिके साहित्यकी रचमामें भी प्रयुक्त होने लगी थी, यहां स्थान पश्चिम भारतमें ही होना चाहिए, कि मरू और तक किबोबडे राजा महाराजा इस भाषाके कवियोंको ठक्क दो प्रदेश पश्चिम भारतके हैं। रामस्वामी शासी भातादस्था में बने मोरवसाय स्थान दिया करते थे। मककी स्थिति सतरज एवं पिनशनके बीच बनाते हैं। मेरे १"संस्कृन-प्राकाशभाषात्रयप्रतिषद प्रबन्धरममा निपुण लबालसे वर्तमान में जोधपुर राज्यातर्गत जो भावामको तारमः" । समगुहसनक शिलाल संवत्सं बहोडी भावामकहीं यों कि यह मारवादक १२६सको मिलते हैं। समीप है। यहां पर खीची राजपूतों का सामान्य है। Page #628 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] तस्वार्थमन्त्रका अन्तःपरीक्षण साधु हीथे । यपि जैन साधु संस्कृत भाषा प्रकाण्ड- ब हमने भित्र भित्र प्रत्यानर्गत अपनश भाषा विद्वान थे लेकिन फिर भी लोकभाषाको अपमाना उन्हें की योगी सी की। इसके अतिरिक्त और भी उचित जेंचा, क्योंकि जैनचौर बराचार्योग राम बहस पुरातम धोंमें अपभश भाषाके गा-पद्याक पावसे ही लोकभाषाको अपनाया था। भगवान महा- उदाहरण पाये जाते हैं, जिसका उस्लेव यथा स्थान किया बीर और गौतमपुदन अपने सिदान्तोंका प्रचार उस समय जायगा। की लोकभाषाओं-मई मामधी और पानी में ही किया था। __सामान्यतः अपभश भाषा साहित्यका निर्माणकाल लसाहित्य परस ज्ञात होता है एकमार गौतम छठी शताग्निसे बारहवीं शतानि तक माना जाता रहा को उनके शिष्योंने कहा कि क्या माप सिबाम्तोंको है। और इसीसे कुष वर्ष पूर्व जब अपभ्रंश भाषा हम वेद भाषामें अनुवादित करें ? उत्तरमें उन्होंने कहा साहित्यका प्रश्न होता था तो बड़ा ही हास्यास्पद मालूम भियो! कुन बचमको कदापि बदमें परिचित नहीं होने लगता था। प्रसिल बात यह है कि कोई भी करना, पति करोगे तो दुशतके मामी मोये ।। पम्नु जहाँ तक अपने वास्तविक रूपमें प्रकट न हो वहां भिगण ! बुद्ध-चमको स्वभावाने ही प्राय की तक उसके प्रति लोगों में अनजानकारी एवं उपेक्षाका ही मैं अनुशा देता है। पाठकोंको ध्यान रहे कि यदि जैम भाव आता है। उस समयक विद्वानोंका अपभश विद्वान उस समय इम लोक भाषाको अपमान में अपना साहित्यके विषय में इतना ही ज्ञान था कि कालीदास प्रथ अपमान समझते तो भाज हम जो प्रौढ अपश साहित्य तथा पिंगल और हेमाचार्यकृत व्याकरण भानिमें ही उसके देख रहे हैं उसका देखना तो दूर रहा सपना तक भी कुछ लषण मिलते हैं परन्तु मौजूदा युग खोजका है, न हो सकती। माजकी खोजोंने सिद्ध कर किया है कि प्राचीन जैन वर्तमानकालमें भी जेसलमेर भादि प्रान्तों में जो भाषा ज्ञान भंडारोंमें अपभश साहित्य विशाल रूपमें उपस्थित बोली जाती है उममें बहतम्मे अपभ्रंश भाषाके रूप पाये है, जोकि भारतीय साहित्यकी अमूल्य निधि। जाते हैं । यो तो सजस्थानीय और अपभ्रंश भाषाका परस्परमें घनिष्ट संबंधही । तत्वार्थसूत्रका अन्तःपरीक्षण [ लेखक- ६० फूलचंद्र शास्त्री ] नस्वार्थसूत्रक दो सूत्रपाठ पाये जाते हैं, जिनमेंसे किं नु खलु पात्मने हिनं स्वादिति । स चार मोहनि । एक दिगम्बर मंप्रदायमें और दूसग श्वेताम्बर म एव पुनः प्रत्यार कि स्वरूपोऽमो मोरचास्य प्राप्युसंप्रदायमें प्रचलित है। दिगम्बर संप्रदायमें प्रचलित पाच इनि पाचार्य शिवशंपनियतकर्ममयकक्षकसूत्रपाठपर पूज्यपाद स्वामी द्वारा रची गई सबसे स्वासरीयात्मनोऽपिस्वाभाविकज्ञानादिगुणमन्यावाचसुल पुरानी 'सर्वार्थमिद्धि' नामकी एक वृत्ति है । इसकी मात्यन्तिकमवस्थातरं मोर इति । xx तस्य म्वरूपमनउत्यानिकामें पूज्यपाद् म्वामी लिखने हैं- बमुत्तरत्र परवामः" (इत्यादि) "कविarixx मुनिपरिसरमध्ये मविषxx अर्थ-किसी भन्यने निर्गन्धाचार्यवर्यको प्राप्त निपचापमुक्सा सचिन परिणति स्म । भगवन् होकर विनयसहित पूछा-हे भगवन मात्माका हित Page #629 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [पणे क्या है ? प्राचार्यने उत्तर दिया-मोक्ष पात्माका विद्वानोंकी चर्चाके विषय बने चले जा रहे हैं। अभी हित है। पुनः भव्यने पूछा कि मोक्षका क्या स्वरूप तक इस विषयमें जितनी चर्चा ह है और उसकी प्राप्ति का उपाय क्या है ? आचार्यले अन्तरंग पर किसी भी प्रकाश नहीं डाला। दो एक मुत्तर दिया-समस्तकममलकलं कसं गहित अशरीरी भाइयोंने अपने अपने संप्रदाय में प्रचलित आगमोंमेंसे प्रात्माके अचिन्त्य और म्वाभाविक ज्ञानादि गुण- सूत्रोंके बीज उपस्थित किये हैं। पर उनके उपस्थित कप नथा अव्याबाध सुग्वरूप संमारम अत्यन्त भिन्न करनेमें विश्लेषणात्मक बुद्धिस काम न लेकर या तो अवस्थाको मोक्ष कहते हैं । xxइसका निर्दोष समन्वय करनेका ही प्रयत्न किया गया है या उनके स्वरूप हम (सूत्रकार) आगे बनलाएँगे । इत्यादि लिये आधार एक संप्रदायके ही सूत्र रहे हैं, इस लिये पूज्यपाद स्वामीने 'मम्यग्दशेनझानचारित्राणि इससे भी सूत्र और सूत्रकारकी ठीक परिस्थिति पर मोत्तमार्गः' इम सूत्रके प्रारंभमें जो सूत्रकार और प्रकाश नहीं पड़ सका है। मैंने जहांतक विचार किया भव्यका संवाद दिया है इससे तीन बातें प्रगट होती है उसके अनुमार यह मार्ग उचित प्रतीत होता है कि हैं। पहली यह कि सूत्रों की रचना सूत्रकारने किसी प्रचलित दोनों मूत्रपाठोंका दोनों संप्रदायोंमे प्रचलित भव्यके अनुरोधर्म की। दमरी यह कि सूत्रकार स्वयं मान्यताओं और व्यवहृत होने वाले शब्दभेद आदिके निथ होते हए मणाधीश थे। और नीसग नह कि आधार परीक्षण किया जाय । सं पूज्यपाद म्वामीन अपनी वृत्ति, मनके सामने जो और सूत्रकारका ठीक इतिहास तैयार करने वालोंको सूत्रपाठ था उमपर लिम्बी है। सहायता मिलगी । इसी निश्चयानुसार तीर्थंकर उधर श्वनाम्बर संपदायमें नत्वार्थसूत्रपर सबसे प्रकृतिके बंधके कारणोंके विषयमें दोनों संप्रदायके पुगमा एक भाष्य पाया जाना है, जो स्वयं सूत्रकारके आगमोंमेसे मैंने जो कुछ भी सामग्री संग्रहीत की है द्वाग रचा हा कहा जाता है। भाष्यके प्रारंभमें जो बह इस समय पाठकोंके समक्ष प्रस्तुत करता हूं। ३१ श्लोकोंमें उत्थानिका है उमकं २२ वें श्लोकमें तीर्थकर और तीर्थकरगोत्र नामकर्म प्रतिक्षारूप में लिग्या है कि जिमम विपुल अर्थ अर्थात् पदार्थ भग हरा है, और जो अहंदूचनके एक देशका दोनों संप्रदायके भागम प्रन्थों में उपयुक्त दोनों संग्रह है ऐसे इस तत्त्वार्थाधिगम नामके लघुप्रन्थका शब्द पाये जाते हैं इसलिये पहले तीर्थकरगोत्र नाममैं शिष्योंके हिनके लिये कथन करूंगा।' यथा कर्म शब्दका उपयोग दोनों संपदायके आगमोंमें कहां और किस अर्थन किया गया है यह सप्रमाण दे देना नस्वार्थाधिगमाख्यं बर्थ संग्रह लघुग्रन्थम् । वरयामि शिष्यहितमिममहद्वचनैकदेशस्य ॥ २२॥ ठीक प्रतीत होता है । दिगम्बर सम्प्रदायमें षटखण्डा गमके बंधमामित्तविचय नामक खंडमे यह शब्द भागे भाष्यमें 'वक्ष्यामि' आदि प्रयोग पाये हैं, मचेल परंपगके पांषक प्रमागा भी मिलने हैं और भाया है। यथाप्रन्थके अन्त में प्रन्थके अंगरूपम बाचक उमाम्बाति "तन्य इमेहि सोलसहि कारणेहि जीवा तिथवरणामकी एक प्रशम्नि भी मंग्रहीन है। जिनमें नथा उपर्यक्त गोदकाम अति ॥ ..॥" लोकके भाधारमं यह अर्थ निकलता है कि सूत्र और अर्थ-भागे कहे जाने वाले इन सोलह कारणोंस भाष्यकार एक ही व्यक्ति हैं और व सचेल परंपराके जीव तीर्थकर नाम गोत्रकमका बंध करते हैं। रहे होंगे। तीर्थकर नामकं साथ गोत्रशब्द क्यों जोड़ा गया इस प्रकार सूत्रों और सूत्रकारके विषय में दोनों है इसका धवलाकारने इसप्रकार समर्थन किया हैमंप्रदायोंके टीकान्प्रन्यांमें भिनभिन्न मामग्री पाई " तित्ययस्स्स बामकम्मावयास्स गोदसरबा?' जाती है। इसलिये अब भी सत्र और सबकार उचागोवधावियाभावितणेश तिस्थवरस्सवि गोवत्तसिद्धीदो।" Page #630 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] तस्वार्थसूत्रका अन्तःपरोक्षण ५८५ अर्थ-जबकि तीर्थकरप्रकृति नामकर्मका एक रह गया, इसका कारण या तो पाठकी सुगमता होगा भेद है, ऐसी हालतमें उस गोत्र संज्ञा कैसे प्राप्त हो या भ्रमका निवारण । कारण जो कुछ भी हो, इतना सकती है ? नहीं, क्योंकि, तीर्थकर नामकर्म उच्च सच है कि भागे तीर्थकरनामगोत्रकर्मका भागम में गोत्रके बंघका अविनाभावी है, इमलिये इस गोत्र व्यवहार करना ही छोड़ दिया गया। यह संज्ञा प्राप्त हो जाती है। श्वनाम्बर संप्रदायमें स्थानांगमें तीर्थकर नाम तीर्थकरप्रकृतिके पंधके कारण गोत्रकर्म यह शब्द पाया है। यथा तीर्थकर या तीर्थकरनामगोत्रकर्म इन दोनों शब्दों "समणस्म भगवो महावीरस्स तित्थंसि नहिं जीवे हिं के विषयमें दोनों संप्रदायोंमें जिसप्रकार एकसी तिस्थकरनामगोयकम्मे निव्वत्तिए ।" सूत्र ६.१ पृ० ४३२ परम्पग पाई जाती है उस प्रकार बंधक कारणोंकी अर्थ-श्रमण भगवान महावीरक तीर्थमें स्थिति नहीं है । इस विषयमें दोनों मंपदायक मूल नौजीवांने नीर्थकग्नाम-गांत्रकर्मका बंध किया। सूत्रोंमें काफी मतभेद है, इसलिये तस्वार्थसूत्रकी ___टीकाकार अभयदेव सूरि इमकी टीका करते हुए दृष्टिमे यह विचारणीय चर्चा है । अतः हम दिगम्बर नीर्थकग्नामगोत्र पदका निम्नप्रकार अर्थ करते हैं- सम्पदायक मागमसूत्र, श्वेताम्बर सम्पदायके भागम "तीर्थकरत्वनिबंधनं नाम तीर्थकरनाम, तरच गोत्रं च सूत्र, तत्वार्थसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र इन सबमें कर्मविशेष एवेत्येकवद्भावात् तीर्थकरनामगोत्रम् | अथवा अन्धकं जो जो कारण पाये जाते हैं उन्हें अलग २ तीर्थकर इनि नाम गोत्रमभिधानं यस्य तत्तीर्थकरामगोत्रम् ।" देकर अन्तमें सनका मानचित्र दे दना सचित समझते अर्थ-तीर्थकरत्वके कारणभून नामकर्मको हैं। इससे उनके अध्ययन करने में पाठकोंको मुभीता तीर्थकरनामकर्म कहते हैं। गांव शब्द कर्मविशेषका रहेगा। वाची है । इसप्रकार दोनों में एकवद्भाव कर लेनम दिगम्बर संपदायक षटखंडागममें बतायगये नीर्थकरनामगोत्रकर्म कहा जाना है। अथवा, ताथ- बंधक कारणकर यह जिस कर्मका गांत्र स्यात् नाम है वह नीर्थ __"सणविसुज्मदाए विणपसंपएणदाए सीमारेसुधिरदिकरनामगोत्रकर्म कहा जाता है। मी प्रकार गात्र शब्द विना कंवल तीर्थकर चारदाए भावासण्सु अपरिहीणवाए खणलवपरिश्मणवाए शब्द भी दोनों सम्प्रदायांक प्रागमोंमें पाया जाता है। खदिसंवेगसंपरणदाए पथा थामे तथा तवे साहुणं पास दिगम्बर संप्रदायक षटम्बण्डागमकं प्रकृति अनु. अपरिचागदाए साहूर्ण समाहिसंधारणाए साहणं वेजावकयोगद्वाग्में नामकमेकी तेरानवें प्रकृतियां गिनाते हए जोगजेत्तदाए पातमत्तीए बहुमुनभत्तीए पवषणभत्तीए यह शब्द पाया है। यथा परयणवदाए पषषणप्पभावबाए अभिक्सवणाणो. "xxणिमिणतिथवरखामंचेदि।" मूत्र, पत्रखा बजोगगुत्तदाए रचेदेहि सोखसेहि कारणेहि जीवा तित्य श्वेताम्बर भागमसूत्र झानाधर्मकथांगमें केवल यरणामगोदकम्मं बंधति ।" ४१ तीर्थकर शब्द मिलता है। यथा दर्शनविशुद्धता, विनयसंपन्नना, शील-निर्गन"तित्यपरसंबहानीयो।" अध्ययन ८, सूत्र १५ चारिता, आवश्यकापरिहीनता, क्षणलवप्रतिबोधनना, इसस इतना तो स्पष्ट होजाता है कि दोनों लम्धिसंगसंपन्नता, माधुसमाधिसंघारगामा, माधु. मम्प्रदायके भागमसूत्रोंमें तीर्थकर या तीर्थकग्गांत्र वैयावृत्ययोगयुक्तना, अगहनमत्ति, बहुभुनभक्ति, प्रब. नामकर्म ये दोनों शब्द पाये जाते हैं। दोनों संप्रदायों चनक्ति, प्रवचनवत्मलता, प्रवचनप्रभावना और के उत्तरवर्ती भागमोंमें तार्थ करनामगोत्रकर्म यह अभीक्ष्णज्ञानांपयांगयुक्ता; इस प्रकार इन सोलह शब्द छूट गया और केवल नीर्थकरनामकर्म शब्द कारणोंमें जीव तीर्थकरनामगोत्रकर्मका बंध करते है। Page #631 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५८६ अनेकान्त [वर्ष ४ श्वेताम्बर संप्रदायके ज्ञाताधर्मकथांगमें तीर्थकर- दर्शनविशुद्धि, विनयसंपन्नता, शील-प्रतानतिचार, प्रकृति के बंधके निम्न कारण बतलाय हैं अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, संवेग,शक्तिअनुसारत्याग,शक्तिपरिहतमिदपवयणगुहथेरबहस्सुए तवस्सीसु । अनुसार तप, साधुसमाधि, वैयावृत्यकरण, अद्भक्ति, वच्छलया प एमि अभिक्खनाणोवोगे ॥१॥ भाचायभक्ति, बहुश्र नभक्ति, प्रवचनभक्ति, आवश्यदमणविणए प्रावस्सए अमीलम्बए निरहचारो। कापरिहाण, मार्गप्रभावना और प्रवचनवत्सलत्व, खणलवतवधियाए वैयावच्चे समाही य॥२॥ य तीर्थकरत्वके बन्धक कारण है। अपुश्वनाणगहणे सुयभत्ती पवयणे पहावणया। तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में भी तत्त्वार्थसूत्र के अनुसार एएहिं कारणेहिं तिथयरतं बाइ जीवो ॥ ३॥ तीर्थकर प्रकृति के बन्धके कारण गिनाये हैं। केवल अहंद्वन्मलता, सिद्धवत्सलना, प्रवचनवत्मलता, साधुसमाधिक स्थानमें संघसमाधि और वैयावृत्य करण स्थानमे साधुवेयावृत्यकरण ये दो नाम भिन्न गुरुवत्मलना, स्थविग्वत्सलना, बहुभतवत्सलता, तपस्विवस्मलता, अभीक्ष्णज्ञानोपयोग, दर्शननिरति रूपसे स्वीकार किये गये हैं। परन्तु भाध्यम पवचनचारता, विनर्यानरतिचारता, आवश्यनिर्गमचारता, वत्सलताम श्रतधर, बाल, वृद्ध, तपस्वी, शेक्ष और शालनिर्गसचारता,व्रतनिरतिचारता, क्षणलवसमाधि, ग्लान मुनियो। भिन्न निर्देश किया है । यह ध्यान दन योग्य है, क्योंकि, इससे ऐसा मालूम होता है तपःममाधि, स्यागसमाधि, वैयावृत्यसमाधि, अपूर्वज्ञानप्रहण, भुनभक्ति और प्रवचनप्रभावना इमपकार कि भाष्यकार ऊपर कहे गये २० कारणांमें से जो इन कारणास जीव तीर्थकरत्यको प्राप्त करता है। कारण तत्त्वाथसूत्रकं १६ कारणोंमें छूट गये हैं उन का संग्रह करना चाहते हैं । यहां भाष्यकार पवचनका सत्यार्थसत्रमें तीर्थकरनामकमके बन्धके कारण प्रर्थ. अहवक शासनका अनुष्ठान करने वाल, कर निम्नप्रकार दिये हैं रहे हैं। इतने पर भी मिद्धवत्सलता और क्षणलवदर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलवतेप्वमतीचारोऽभीषण- समाधि य दो कारण और छूट जाते हैं जिनके संग्रह ज्ञानोपयोगसंवेगो शक्तिस्स्यागतपसी साधुसमाधि यावृत्य- की सूचना मद्ध न गान की है। इसके लिये नन्होंने करणमईदाचार्यबहुश्रुतप्रवचन-भक्रिरावश्यकापरिहाणिर्मार्ग-प्र इति' शब्दका अथ 'श्रादि' किया है, जो भाष्यकारने भावना प्रवचमवत्सलत्वमिति तीर्थकरत्वस्य । ६, २४ नहीं किया। उपयुक्त चारों मान्यतामोंका कोष्ठक निम्नप्रकार है :नम्बर तत्त्वार्थसूत्र-मा० तत्त्वार्थाधिगमसूत्र-मा० बंधसामित्तविचय-मा० ज्ञाताधर्मकथांग-मा० दर्शनविशुद्धि वही जो तत्वार्थसूत्रमें दर्शनविशुद्धना दर्शननिरतिचारता विनयसंपन्नता विनयसंपन्नता विनानगतिचाग्ता शीलतानतिचार शीलानर्गतचारता शीलनिगनिचारता निरतिचारता अभीषण ज्ञानोपयोग अभीक्ष्णज्ञानोपयोगयुक्तना अभीक्ष्णज्ञानोपयोग संवंग लब्धिसंयोगसंपन्नता शक्त्यनुसार त्याग साधुपासुकपरित्यागता त्यागसमाधि यथाशक्ति तप तपासमाधि साधुसमाधि मंघसमाधिकरण माधुममाधिमंधारणना x बयावृत्यकरण साधुओयावृत्यकरण साधुबेयाप्रत्ययुक्तना बेयावृस्यसमाधि Page #632 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १० श्रतभक्ति किरण ११-१२] तत्वार्थसूत्रका अन्तःपरीक्षण ५५७ नम्बर तत्वार्थसूत्र मा० तत्वार्थाधिगम मा० बंधसामित्तविचय-मा ज्ञाताधर्मयांग मा० अहंभाक्त वही जो तत्त्वार्थसूत्र में परहंतभक्ति अरिहंतवत्सलता आचायभक्ति बहुश्रतभक्ति बहुश्रतभक्ति बहुश्रतवत्सलता पवचनक्ति पवचनभक्ति আৰষাঘবিহুয্যি श्रावश्यकापारहीनता मावश्यनितिचारता मागेपभावना पवचनपभावना प्रवचनप्रभावना प्रवचनवत्सलत्व प्रवचनवस्मलता प्रवचनवत्सलता ऊपर जो काष्ठक दिया है उसके मिलान करनेसे कारणोंकी संख्याविषयक मान्यता यह स्पष्ट हो जाना है कि तत्त्वाथसूत्र, तत्त्वार्थाधिगम ऊपर दोनों मंप्रदायांकी मान्यतानुसार जो बंधके सूत्र और बंधमामित्तविषयके स्थान पायः मिलते कारण बतलाये हैं यद्यपि उन्हींस यह म्पष्ट होजाना जुलते हैं। मिफ एक ही स्थान ऐसा है जो नहीं मिलता है। नत्त्वाथसूत्र और तत्त्वार्थाधिगमसूत्र है कि बंधकारणाको सालह इस संख्याका दिगम्बर मान्यतासं और बीम इस संख्याका श्वेताम्बर और बंधमामित्त विचयमें प्राचार्यभक्ति नामका मान्यतास सम्बन्ध है। फिर भी संख्या-विषयक कारण पाया जाता है और बंधमामित्वचयमं मान्यतापर स्वतंत्ररूपस प्रकाश डालंदना उपयुक्त क्षणलवपतिबांधनता नामका कारण पाया जाता है। प्रतीत हाता है। श्रीधवलाजी क्षणलवका अर्थ कालविशेष और पतिबोधननाका अर्थसम्यग्दर्शन, मम्यान, व्रत और बंधसामिविषयमं भगवान् भूनबलि शाल आदि गुणोंका उज्ज्वल करना या कलंकका लिखते हैं :पक्षालन करना लिम्बा है। यह क्रिया प्राचायके "atथ इमहिमालमेहि कारणेहि जीवा निश्चयरणाममानिध्य में होता है इालय संभव हे क्षण लवनि- गोदकम्मं बंधान ।" सूत्र .. धवजा पत्र ४६२ बांधनताकं स्थानमें आचार्यभक्ति यह पाठ परिवर्तित किया गया हो। जहां तक देखा जाता है यह बात अर्थ-इन सोलह कारणांस (कारण ऊपरदे युक्तिसंगत पतीत होती है। ऐसी हालनमं यह कहा प्राय) जीव तीर्थकरनामगात्रकमका बंध करते हैं। जा सकता है कि बंधमामित्नविचयकी मान्यता ही उपयुक्त ४० वें सूत्र की टीकामें वीरसन स्वामीन तत्त्वार्थमूत्रमें और कुछ भेदके माथ तत्त्वार्थाधिगम- लिखा हैसूत्र में प्रथित की गई है । शानाधर्मकथा के अनुमार "मोलमति कारयाण मंग्याणिहंसो कमो । पवाटिजा कारण दिये गये हैं उनमसे बहुनही कम एस यणए अवनबिजमाणं नियाकबंधकारणाशिसोलसचेव कारण हैं जिनका तत्त्वाथसूत्र या तत्त्वार्थाधिगमसूत्र होति।" के माथ मिलान बैठना हा । ज्ञाताधर्मकथांगकं २० कारणांमेंस ६ कारण ना ऐसे हैं जो अपरके कोष्टकम । अर्थ-मोलह इम पदके द्वाग बंधके कारणोंका दिग्याई हो नहीं देते हैं। जा दिखाई देते हैं मनसे निर्देश किया है। पर्यायार्थिक नयका अवलंबन करने कुछ तो मिलने हुए हैं और कुछ प्राधे मिलते हए पर तीर्थकर प्रकृतिके बंधके कारण सोलह ही हैं। इसीस पाठक समझ सकते हैं। के बंधकारणोंक विषयमें तस्वार्थसूत्र या तत्त्वार्था- प्राचार्य कुन्दकुन्द नस्वार्थसूत्रके कर्तास पूर्व धिगम सूत्रोंके ऊपर किस मान्यनाकी गहरी छाप है। हुए हैं। वे भी अपने भावप्राभृनमे लिखते हैं Page #633 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १८८ अनेकान्त “विसयविरतो समय इसवरकारणाई भाऊणं । तित्थयरनामकम्मं बंधइ अचिरेण कालेया ||७७||” अर्थ-विषयोंसे विरक्त हुआ साधु छह और दम अर्थात् सोलह कारणोंकी भावना करके अति शीघ्र तीर्थकर नामकर्म का बंध करता 1 अब संख्या विषयक श्वेताम्बर मान्यता दी जाती है "पढमचरमेहि पुडा जिया हेऊ बीम ते इमे । - सप्तग्सियाणा द्वार १० अर्थ - पहले और अन्तिम तीर्थकरोंन तीर्थंकर प्रकृति के जिन बीम कारणोंका चिन्तवन किया वे इस प्रकार हैं । ( बास कारणोंके नाम ऊपर दे आये हैं) प्रवचनसागद्वार द्वार १० मे लिखा है " तथा ऋषभनाथेन वन्मानस्वामिना च पूर्वभवे एताम्यनम्तरोनानि सर्वाण्यपि स्थानाम्यासेवितानि । मध्यमेषु पुनरजितस्वामिप्रभृतिषु द्वाविंशतितीर्थकरेषु केनापि एकं केनापि श्रोणि बावकेनापि सर्वाण्यपि स्थानानि स्पृष्टानि इति ।" [ वर्ष ४ तार्थाधिगमभाष्यकी टीका करते हुए सिद्धसेन गणी लिखते हैं अर्थ — ऋषभनाथ और वर्द्धमान स्वामीने अपने अपने पूर्वभव में ऊपर कहे गये सभी (बीम) कारणों की भावना की । तथा अजितनाथसे लेकर मध्यके बाईम तीर्थकरों किसीने एक किसीने तीन और किसीने चार आदि सभी कारणोंकी भावना की । “विंशतेः कारणानां सूत्रकारेण किंचित् सूत्रे किंचित् भाष्ये किंचित् श्रादिग्रहणात् मिद्धपूजाक्षणलबध्यानभावना ख्यमुपासं उपयुज्य च प्रत्रका व्याख्येयम् ।" अर्थ - तीर्थकर नामकर्म के बंध के बीस कारणों में से सूत्रकारने कुछ सूत्र में कुछ भाष्य में और कुछ आदि ग्रहणमे सिद्धपूजा और चरणलबसमाधिका प्रहण किया है । व्याख्याताको इनका उपयोग करके व्याख्यान करना चाहिये । इससे यह बिलकुल स्पष्ट हो जाता है कि तीर्थकर नामकर्म के बन्धकारणोंकी 'मोलह' यह संख्या दिगम्बर संप्रदायसम्मत है और 'बीस' यह संख्या श्वेताम्बर सम्प्रदायसम्मत है । इस लेख से दो बातें स्पष्ट हो जाती हैं एक तो यह कि तस्वार्थसूत्र या तत्त्वार्थाधिगमसूत्र में तीर्थंकरनामकर्मके बंधकारणोंके व ही नाम पाये जाते हैं जा दिगम्बर संप्रदाय के आगम ग्रंथों के अनुकूल पड़ते हैं । तथा दूसरी यह कि कारणोंकी संख्या भी दिगम्बर मान्यता के अनुसार ही दोनों सूत्रप्रन्थोंमें दीगई है। ये दोनों बातें तत्रार्थसूत्र और उसके कर्ताकं निर्णय की दृष्टिसे कम महत्व नहीं रखती हैं। आशा है विद्वान् पाठक इधर ध्यान देंगे । 'अनेकान्त पर चार्यश्री कुन्थुसागर और ब्र० विद्याधरका अभिमत “याप श्रीमान्के भेजे हुए 'अनेकान्त' की ८ किरणें मिल चुकीं, देखने ही मेरेको तथा श्रीपरमपूज्य १०८ आचार्यवर्य कुंथूसागर महाराज श्री को बहुत आनन्द हुआ । जैन पत्रों में जितने मासिक या आठवारिक पेपर निकलते हैं उनमें सच्चा माननीय तथा पढ़ने योग्य पत्र तो 'अनेकान्त' ही है। इसमें अनेक लेख संग्रहणीय रहते हैं तथा इसमें जो लेख आते हैं सो बहुत ही अच्छे होते हैं। 'अनेकान्त'का कागज टाईप तथा आकारादि सुन्दर ही है। जैसा इसका नाम है वैसा ही इसमें अनेक लेखों तथा अनेक विषयोका संग्रह है । सो इस पेपरको प्रत्येक ग्राममें प्रत्येक पाठशाला, प्रत्येक बोर्डिंग तथा प्रत्येक सरस्वती भण्डार और पंचमहाजनोंका मंगाकर अवश्य पढ़ना चाहिये तथा इस पेपरको अवश्य मेम्बर तरीके, मदद तरीके, ग्राहक तरीके या सहायक तरीके मदद करना कराना खास जरूरी है। इस पेपरके पढ़ने से इइपर - सिद्धि तथा परभवसिद्धि - श्रात्म-कल्याण जरूर होगा सो इसमें शंका नहीं । - प्रा० कुन्थुसागर प्र० विद्याधर Page #634 -------------------------------------------------------------------------- ________________ आचार्य जिनसेन और उनका हरिवश ( ० - श्री पं० नाथूराम प्रेमी ) -100 ग्रन्थ- परिचय दि "गंबर सम्प्रदाय के संस्कृत कथा-साहित्य में हरिवंशचरितया इरिवंशपुराण एक प्रसिद्ध और प्राचीन ग्रन्थ है । उपलब्ध कथान्प्रन्थोंमे समय की - दृष्टसे यह तीसरा ग्रन्थ है । इसके पहलेका एक पद्मचरित है जिसके कर्त्ता वगाना है और दूसरा वगगचारत है जिसके कर्त्ता जटा-मिनांद है और इन दोनोंका स्पष्ट उल्लेख इरिवंशके प्रथम सर्गम किया गया है ।" श्राचार्य वीरमेनके शिष्य जनसनका पार्श्वभ्युदय काव्य भी हरिवंश के पहले बन चुका था. क्योंकि उसका भी उल्लेख हरिवंश में किया गया है. इस लिए याद उसको भी कथा-ग्रन्थ माना जाय, तो फिर दारवंशको चौथा ग्रन्थ मानना चाहिए। महामंत्री सुलोचना कथाका और कुछ अन्य ग्रन्थीका भी दरिवंश में जिक्र किया गया है परन्तु वे अभी तक अनुपलब्ध है । हरिवंशका ग्रन्थ-परिमाण बारह हजार है उसमें ६६ गर्ग हैं। अधिकाश मर्ग श्रनुष्टुप छन्दो में हैं । कुछ में तविलम्बित, चमन्ततिलका, शार्दूलविक्रीडित श्रादि छन्दोका भी उपयोग किया गया है। Ratna fire भगवान नेमिनाथ और वे जिम वंशम उत्पन्न हुए थे उस हरिवंशके महापस्पोका चाग्न लिखना ही इसका उद्देश्य है; परन्तु गौण रूप से जैसा कि छाट सर्ग (श्लोक ३७-३८) में कहा गया है चौबीस तीर्थकर, बारह चक्रवर्ती, नव नारायण, नव बलभद्र और नत्र प्रांतनारायण, इस तरह त्रेमठ शलाका पुरुयोंका और मैकड़ों अवान्तर राजाश्री और विद्याers aftनांका कीर्तन भी इसमें किया गया है। इसके मित्राय चौथमे मानवें मनक ऊर्ध्व, मध्य और अधोलोकोंका वर्णन तथा अजीवाटिक द्रव्योंका स्वरूप भी बतलाया गया है। जगह जगह जैनसिद्धान्तोंका निरूपण तो है ही। १ देखो श्लोक नं० ३४-३५ | २ देखी लोक नं० ४० । ३ देखो श्लोक नं० ३३ । हरिवंशकी रचना ममय तक भगवजिनसेनका आदिपुराण नहीं बना था और गुणभद्रका उत्तरपुराण तो हरिवंश मे ११५ वर्ष बाद निर्मित हुआ है, इसलिए यह ग्रन्थ उन के अनुकरणपर या उनके आधारपर तो लिखा हुआ हो नहीं सकता, रन्तु ऐसा मालूम होता है कि भगवजिनसेन श्रौर गुणभद्र के ममान इनके समक्ष भी कविपस्मेश्वर या करिमेक 'वागर्थसंग्रह' पुनव्य रहा होगा'। भले ही वह संक्षिप्त हो और उसमें इतना विस्तार न हो । उत्तरपुरा में हरिवंशकी जो कथा है, वह यद्यपि संचित है परन्तु इस ग्रन्थकी कथासे ही मिलती जुलती है, इसलिए संभावना यही है कि इन दोनोंका मूल स्रोत 'वागर्थसंग्रह ' होगा । ग्रंथकर्त्ता और पुनाट संघ इस ग्रन्थके कर्ता जिनसेन पुनाट संघकं श्राचार्य ये और वे स्पष्ट ही श्रादिपुराणादिके कर्ता भगवज्जिन सेन से भिन्न हैं । इनके गुरुका नाम कीर्तिपेण और दादा गुरुका नाम जिनसेन था, जब कि भगवजिनसेन के गुरु वीरसेन और दादा गुरु श्रानन्दि थे । नाट कर्नाटकका प्राचीन नाम है। संस्कृत साहित्य में इसके अनेक उल्लेख मिलते हैं। हांयेने अपने कथाकांश में लिम्बा है कि भद्रबाहु स्वाभीकी श्राशानुसार उनका माग संघ चन्द्रगुप्त या विशाखाचार्य के साथ दक्षिणापथके पुबाट देशमें गया । दक्षिणापथका यह पुनाट कर्नाटक ही है। कन्नड़ माहित्य में भी पुनाट राज्यके उल्लेख १. हमकी चर्चा 'पद्मचरिन और पउमचरिय' शीर्षक लेख में की जा चुकी है जो 'भारती विद्या' में प्रकाशित हो रहा है। २ स्व० डा० पाठक, टी० एस० कुप्पूस्वामी शास्त्री आदि विद्वानोंने पहले समय साम्यके कारण दोनोंकी एक ही समझ लिया था । ३ श्रनेन सह संघोऽपि समस्त गुरुवाक्यतः । दक्षिणापथ देशस्थ पुनाविषयं ययौ ॥४२ - भद्रबाहुकथा Page #635 -------------------------------------------------------------------------- ________________ १६. भनेकान्त [वर्ष ४ मिलते हैं। प्रसिद्ध भूगोलवेत्ता टालेमीने इसका पोनट' नाम विनयधरमें तो कोई फर्क ही नहीं है। शिवदत्त और शिवगुप्त से उल्लेख किया है। इस देशके मुनि-संघका नाम पुन्नाट भी एक हो सकते हैं। 'गुम' का प्राकृतरूप 'गुत्त' भ्रमवश संघ था। संघोंके नाम प्राय: देशों और स्थानोंके ही नामसे दत्त हो सकता है। बीचके दो नाम शंकास्पद है। 'महापड़े हैं। श्रवणबेलगोलके १६४ नं. के शिलालेखमें जो श• तपोभृद्विनयंधरः श्रुनामृषिश्रुनि गुप्तपदादिकां दधत्' इस सं० ६२२ के लगभगका है एक 'कित्तूर' नामके संघका चरणका ठीक अर्थ भी नहीं बैठना', शायद कुछ अशुद्ध उल्लेख है। कित्तूर या कीर्तिपुर पुन्नाटकी पुरानी राजधानी है। श्रुनिगुप्त और ऋपिगुमकी जगह गुमऋषि और गुप्तश्रुति थी जो इस समय मैसूर के 'होग्गडेवकोटे ताल्लुकेमें है। नाम भी शायद हो । यहाँ यह भी खयाल रखना चाहिए कि सो यह कित्तूर संघ या तो पुन्नाट संघका ही नामान्तर होगा अक्मर एक ही मुनिके दो नाम भी होते हैं, जैसे कि लोहार्य और या उसकी एक शाखा । का दूमग नाम सुधर्मा भी है। ग्रन्थकत्तोंके समय तककी अविच्छिन्न इममें शिवगुमका ही दूमग नाम अहंद्वलि है और गुरुपरम्परा ग्रन्थान्तरोंमें शायद इन्हीं अलिको संघोका प्रारंभकर्ता हरिवंशके छयासठवे सर्गमें महावीर भगवानसे लेकर बतलाया है। अर्थात इनके बाद ही मुनिसंघ जुदा जुदा लोहाचार्य तककी वही प्राचार्य परम्परा दी जो अनाव. नामसि अभिहित होने लगे थे। तार प्रादि अन्य ग्रन्थों में मिलती है-अर्थात् ६२ वर्षमें वीर-निर्वाणकी वर्तमान काल-गणनाके अनुमार वि. तीन केवली (गौतम, सुधर्मा, जम्बू), १०० वर्ष में पांच सं० २१३ तक लोहार्य का अस्तित्व-ममय है और उसके श्रुतकेवली (विष्णु, नन्दिमित्र, अपगजित, गोवर्द्धन, भद्र- बाद श्राचार्य जिनमेनका ममय वि०म० ८४० है, अर्थात् बाह), १८३ वर्ष में ग्यारह दशपूर्व के पाठी (विशाम्ब, प्रोष्ठिल. दोनोंके बीच में यह जी ६२७ वर्षका अन्तर है, जिनसेनने क्षत्रिय, जय, नाग, सिद्धार्थ, धृतिसेन, विजय, बुद्धिल्ल, उमी बीचके उपयुक्त २६-३० श्राचार्य बतलाये है। यदि गंगदेव, धर्मसेन), २२० वर्ष में पाँच ग्यारह अंगधारी (नक्षत्र, प्रत्येक प्राचार्यका ममय हक्कीम बाईम वर्ष गिना जाय तो जयपाल, पाण्डु, ध्रुवसेन, कस), और फिर ११८ वर्षमें यह अन्तर लगभग ठीक बेठ जाना है। सुभद्र, जयभद्र, यशोयाहु और लोहार्य ये चार पाचाराङ्ग वीर-निर्वाणमे लोहार्य तक अढाईम श्राचार्य बतलाये धारी हुए, अर्थात् वीरनिर्वाणसे ६८३ वर्ष बाद तक ये सब गये हैं और उन मबका संयुक्त काल ६८३ वर्ष, अर्थात् प्राचार्य हो चुके । उनके बाद नीचे लिखी परमग चली- प्रत्येक प्राचार्य के कालकी श्रीमत २४ वर्षके लगभग पढ़ती विनयंघर, भतिगत, ऋषिगुम, शिवगत (जिन्होंने कि है, और इस तरह दोनो कालोंकी श्रीमत लगभग समान ही अपने गुणोंसे अईदलिपद प्राप्त किया) मन्दरार्य, मित्रवीर, बैठ जाती। बलदेव, बलमित्र, सिंहबल, वीर वित, पद्मसेन, व्याघ्रहस्ति, म विवरण मे अब हम म नतीजेपर पहनते हैं कि नागहस्ति, जितदण्ड, नन्दिषेण, दीपसेन, धरसेन, धर्मसेन, वीर-निर्वाण के बाद मे विक्रम संवत् ८४० नककी एक अविसिंहसेन, नन्दिषेण, ईश्वरसेन,नन्दषेण अभयसेन, सिद्धसेन, छिन्न-प्रखंड गुरु-परम्परा इम ग्रन्थमें सुरक्षित है, जो कि अभयसेन, भीमसेन,जिनसेन, शान्तिसेगा.जयसेन, अमितसेन. अब तक अन्य किमी ग्रन्थमें भी नहीं देखी गई और इस (पुमाटगणके अगुमा और सौ वर्ष तक जीनेवाले), इनके दृष्टि से यह ग्रन्थ बहुत ही महत्त्वका है । अवश्य ही बड़े गुरु भाई कीर्तिषण और फिर उनके शिष्य जिनसेन __ यह पारातीय मुनियोंके बादकी एक शाखाकी ही परम्परा (प्रन्यकर्ता)। होगी जो आगे चलकर पुनाट मंत्रके कसमें प्रसिद्ध हुई। इनमेंसे प्रारम्भके चार तो वे ही मालूम होते है जिन्हें हम चरणका अर्थ पं० गजाधरलालजी शास्त्रीने "नयंधर इन्द्रनन्दिने अपने अनावतारमें अंगपूर्व के एक देशको धारण ऋषि, गुम ऋषि" इतना ही किया है, पुराने बचनिकाकार करनेवाले भारतीय मुनि कहा है और जिनके नाम विनय- पं.दौलतगमजीने "नयंधर ऋषि, श्रुति ऋषि, गुमि" पर, भीधर शिवदत्त और हित । विनयंधर और किया है। Page #636 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] प्राचार्य जिनसेन और उनका हरिवंश ५६१ अन्य मंघांकी वीर नि० सं०६८३ के चादकी परम्परायें जान हरिवंशके अन्तिम सर्ग ५२ पद्य में लिखा है कि शक पड़ता है कि नष्ट हो चुकी है और अब शायद उनके प्राप्त संवत् ७०५ में, जब कि उत्तर दिशाकी इन्द्रायुध नामक करनेका कोई उगय भी नही है। राजा, दक्षिणकी कृष्णका पुत्र श्रीवल्लभ, पूर्व दिशाकी ग्रन्थकी रचना कहाँ पर हई? अचान्नभूर वत्मराज और पश्चिमके सौगेके अधिमाल या श्रा. जिनमेनने लिखा है कि उन्होंने हारवंशपाणी मौराष्ट्रकी वीर जयवगह रक्षा करता था, तब इस प्रन्यकी रचना वर्तमानपुर में की और इसी तरह श्रा. हरिषेणने रचना हुई। उमसे १४८ वर्ष बाद अाने कथाकोशको भी वर्द्धमानपुरमें यदि वर्द्धमानपुरको कर्नाटक में माना जाय, तो उसके ही बनाकर ममाप्त किया है। जिनसेनने वर्द्धमानपुरको पूर्व में अवान्त या मालवेकी, दक्षिणमें भीवल्लभ (गष्ट्रकूट) 'कल्याणे : परिवर्द्धमान-विपलश्री' और हरिपेगने 'कार्जस्वग की और इमी तरह दूमरे गज्योकी अवस्थिति ठीक नहीं पूर्ण ननाधिवाम' कहा है। 'कल्याण' और 'कार्नस्वर' ये बैट सकती। परन्तु जैमा कि श्रागे बतलाया गया है, दोनों शन्द मुवर्ण या सोनके वाचक भी हैं। स्वर्णके अर्थ काठियावाड़में माननेसे ठीक बैठ आती है। में कल्याण शन्द मंस्कृत कोशीमें तो मिलता है पर वाड. इतिहामजोंकी दृष्टिमें यद्यपि हरिवंशका पूर्वोक्त पद्य मयम विशेष व्यवहन नहीं है। हो, भावदेवकृत पार्श्वनाथ- बहुत ही महत्वका रहा है और उस ममयके प्रासपासका चरित श्रादि जैन मंस्कृत प्रन्योम हमका व्यवहार किया हानहाम लिखने वाले प्राय: सभी लेखकाने इसका उपयोग गया है। जिनमेनने भी उमी अर्थमं उपयोग किया है। किया है; परन्तु इस बानपर शायद किसीने भी विचार नहीं अर्थात् दोनों ही कथनानमार वर्द्धमानपरके निवासियांके किया कि श्रास्विर यह बर्द्धमानपुर कहा था जिसके चारो पाम मोनेकी विपुलता थी, वह बहुत धनमम्पन्न नगर तरफके राजाश्रोकी स्थिति इस पद्यमें बतलाई गई है और था और दोनों ही अन्य कर्ना पुनाट मंघके हैं, इमलिए इसी लिए इमके अर्थ में सभीने कुछ न कुछ गोलमाल दोनों ग्रन्योकी रचना एक ही स्थानमें हुई है, इममें मन्देह किया है। यह गोलमाल इस लिए भी होता रहा कि नहीं रहता। अभी तक इन्द्रायुध और वत्मराजके राजवंशोका मिलमिले चाके पुन्नाट और कर्नाटक पर्यायवाची हैं, इमलिए वार इतिहास तयार नही दिया है और उनका राज्य की हमने पहले अनुमान किया कि वर्तमानपुर कर्नाटक कहासकहा तक रहा, यह भी प्राय: अनिश्चित है। प्रान्त में ही कहा पर होगाः परन्तु अभी कुछ ही ममय पहले अब हमे देखना चाहिए कि चागं दिशाओमें उस जब मेरे मित्र डा० ए०एन० उपाध्येने हरिपेणक कथाकोश ममय जिन-जिन गजानोका उल्लेख किया है, वे कौन थे की चकि मिलसिले में सुझाया कि वर्द्धमानपुर काठयावाड़ और कहाँके थे। का प्रसिद्ध शहर बढ़वाण मालूम होता है, और उसके बाद र बढ़वाण मालूम होता ह, श्रार उमक बाद १इन्द्रायुध-स्व. चिन्तामणि विनायक वेद्यने जब हमने हरिवंशमें पतलाई हुई उम समयकी भौगोलिक बनलाया है कि इन्द्रायुध भएड कुलका था और उक्त स्थितिपर विचार किया, तब अच्छी तरह निश्चय हो गया वंशको वर्म वंश भी कहने थे। इसके पत्र चक्रायुधको कि बढ़वाण ही वर्तमानपुर है। पगस्त करके पनिहारबंश राजावत्मगजके पुत्र नागभट दूसरे ने जिमका कि राज्य-काल विन्मेंट स्मिथके अनुमार वि. 'हरिषेगका अाराधना कथाकोश' जिम समय रचा गया हे मं०१७-८८ की नका माम्राज्य उममे छीना था'। उम ममय विनायकाल नामका राजा था, और वह भी बदवागाके उत्तरम' मारवारका प्रदेश पहना। इसका काठियावाड़का ही था। २ देखो माणिकनन्द्र-जैन-ग्रन्य-मालाके ३३.३३ वै अन्य देवी, मी० बी. वैद्यका हिद भारतका उत्कर्ष' पृ.१७५ हरिवंशकी भूमिका और जैनहितैषी भाग १४ अंक -८२ म.म.श्रीमाजीक अनुमार नागभटका समय वि.मं. में हरिषेणका कथाकोश' शीर्षक लेख । ८७२ मे . Page #637 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६२ भनेकान्त [वर्ष - अर्थ यह हुआ कि कनौजसे लेकर मारवाड़ तक इन्द्रायुध राजा था और इसलिए उसके बाद ही ध्रुवमजकी उक्त का रान्ध फैला हुआ था। चढ़ाई हुई होगी। २ श्रीबहम-यह दक्षिणके राष्ट्रकूट वंशके राजा श्वेताम्बराचार्य उद्योतनसूरिने अपनी 'कुवलयमाला' कुण्या (प्रथम) का पुत्र था। इसका प्रसिद्ध नाम गोविंद नामक प्राकृत कथा जावालियर या जालोर (मारवाड़) में (द्वितीय) था। कावामें मिले हुए ताम्रपटमें' भी इसे गोविंद जब श०सं०७.. के समाप्त होने में एक दिन बाकी था न लिखकर बल्लभ ही लिखा है, अतएव इस विषयमें संदेह तब समान की थी और उस ममय वत्मराजका राज्य था। नहीं रहा कि यह गोषिद द्वितीय ही था और वर्द्धमानपुरकी अर्थात् हरिवंशकी रचनाके ममय (श०७०५में) तो (उत्तरमें) बाक्षण दिशाम उसीका गज्य था। श०सं० ६६२ का मारवार इन्द्रायुधके अधिकारमै था और ( पूर्व में ) मालवा अर्थात् हरिवंशकी रचनाके १३ वर्ष पालेका उसका एक वत्सराजके अधिकारमें। परंतु इसके पाँचवर्ष पहले(श०७०० ताम्रपत्र भी मिला है। में) कुवलयमालाकी रचनाके ममय मारवाड़का अधिकारी ३ वत्सराज-यह प्रतिहारवंशका राजा था और भी वत्सराज था ।इससे अनुमान होता है कि पहले मारवाड़ उस नागावलोक या नागभट दूसरेका पिता था जिसने और मालवा दोनों ही इंद्रायुध अधिकारमें थे और वत्सचक्रायुधको परास्त किया था। हरिवंशके पूर्वोक्त पद्यका राजने दोनों ही प्रांत उससे जीते थे। पहले, श० सं० ७०० गलत अर्थ लगा कर इतिहास ने इसे पश्चिम दिशाका से पहले मारगार और फिर श. ७०५ के पहले मालगा । राजा बतलाया है और वईमानपुरकी ठीक अवस्थितिका इसके बाद ७०७ में धनराज राष्ट्रकुटने मालबराजकी सहापता न होनेसे ही उसके पश्चिममें मारवाड़को मान लिया यता के लिए चदाई करके वत्सराजको मारवाड़की अर्थात् है। परंतु बढ़वाणसे पश्चिममें मारवाड़ नहीं हो सकता। जालोरकी श्रोर ग्यदेह दिया । मालवेका पुराना राजा वास्तवमें उक्त पद्यम वत्सराजको पूर्व दिशाका और अवंति यह इंद्रायुध ही होगा जिसकी सहायता ध्रुवराजने की थी। का राजा कहा है और जयवराइको पश्चिम दिशाका राजा यह निश्चित है कि कनौजके माम्राज्यका बहुत विस्तार बतलाया है जिसकी चर्चा आगे की गई है। इसलिए था और उममें मालवा और मारवाड़ भी शामिल था। हरिवंशकी रचनाके समय श० सं० ७०५ में मालवे पर उक्त साम्राज्यको इसी बत्मराजके पुत्र नागभट (द्वि०) ने वत्सराजका ही अधिकार होना चाहिए। इसी इंद्रायुधके पुत्र चक्रायुधसे छीना था और यह छीनावत्सराजने गौड़ और बंगाल के राजाओंको जीता था झपटी वत्सराजके ही समयसे शुरू हो गई थी। ध्रुवराजने और उनसे दो श्वेत छत्र छीन लिये थे। आगे इन्हीं छत्रोंको उसमें कुछ बाधा डाली परंतु अंतमें बह प्रतीहारोंके ही हाथ राष्ट्रकूट गोविंद (द्वि.) के छोटे भाई ध्रुवराजने चढ़ाई करके में चला गया । उससे छीन लिया था और उसे मारवाडकी अगम्य रेतीली इन सब बातोंसे हरिवंशकी रचनाके समय उत्तरमें भूमिकी तरफ भागनेको मजबूर किया था। प्रोमाजीने लिम्वा इंद्रायुध और पूर्वमें वत्सराजका राज्य होना ठीक मालूम है कि उक्त वत्सराजने मालवेके राजापर चढ़ाई की थी होता। और मालव राजको बचानेके लिए ध्रुवराज उसपर चढ़ ४ वीर जयवराह-या पश्चिममें सौरीके अधिमंडल दौड़ा था। यह सही हो सकता है, परंतु हमारी समझमें का राजा था। मौरोंके अधिमंडलका अर्थ हम सौराष्ट ही यह पटना श० सं० ७०५ के बादकी होगी, ७०५ में तो समझते हैं जो काठियागाइका प्राचीन नाम है। सौर मालवा बत्सराजकेही अधिकारमें था। क्योकि ध्रुवराजका , सगकाले वोली गरिसाण सएहि सत्तहि गएहि । राज्यारोण काल श. सं. ७०७ के लगभग अनुमान गदिशेणणेहि सना अबरह वेलाए ॥ किया गया है, उसके पहले ७०५ में तो गोविंद द्रिही। हा २ परभउभिइडिमंगो पराईयारोहिणी कलाचंदो। .इडियन एण्टिक्वेरी जिल्द ५ पृ. ४६। सिरिबच्छरायणामो परहत्यी पत्थिवो जाना। १ एरिग्राफिमा रिहका जिल्द ६ पृ. २०१। -जैनसाहित्यसंशोधक म्बंड ३ अं.२ Page #638 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वि .१२] भाचार्य जिनसेन र मनका हरिवंय - लोगोंका राष्ट्र सो सौर-राष्ट्र या सौराह। मौराष्ट्रसे बढ़वाल कर सामन्त मा इससे एक सम्भावना यह भी है कि उक्त और उससे पधिमकी ओरके प्रदेशका ही प्रन्यकर्ताका भरणीवरााका ही को-पीड़ी पहलेका पूर्वजनीत अभिप्राय जान पाता है। यह राजा किस वंशका था, इस का ठीक ठीक पता नहीं चलता। हमारा अनुमान है कि पड़वापने ही पुनारसंघका एक और प्रेय बहुत करके यह चालुक्य वंशका ही कोई राजा होगा और जैसाकि पहले भी कहा जा चुका है पूर्वोक्त वर्तमानपुर 'बराई' उसको उसी तरह कहा गया होगा जिस तरकीति ___ या बढ़वाणमें ही हरिषेण नामके एक और प्राचार्य हुए। वर्मा (दि०) को 'महा-वराई' कहा है। बड़ोदामें गुजरातके राष्टकट राजा कर्कराजका श०सं०७३४का एक ताम्रपत्र' जिन्होंने श. सं.८५३ (वि.सं. १८६) में अर्थात् हरिमिला है जिसमें राष्ट्रकूट कृष्पके विषय में कहा है कि उसने वंशकी रचनाके १८ वर्ष बाद 'कथाकोश' नामक प्रन्यकी रचना की और ये भी उमी पुनाट संघके थे जिममें कि कीर्तिवर्मा महा वगहको हरिण बना दिया। चौलुक्योंके जिनसेन हुए हैं। हरिषेणने अपने गुरु भरतसेन, उनके गुर दानपत्रां में उनका राजाचह वराह मिलता है, इसीलिये श्रीहरिषेण और उनके गुरु मौनि भट्टारक तकका उल्लेख कविने कीर्तिधर्माको महा-वराह कहा है। घराभय भी वराह किया है। यदि एक एक गुरुका समय पचीस तीस तीस वर्ष का पर्यायवाची है। इसलिए और भी कई चौलुक्य राजाओं गिन लिया जाय, तो अनुमानसे हरिवंशकर्ता जिनसेन मौनि के नामके साथ यह घराभय पद विशेषणके रूप में जुड़ा भट्टारकके गुरुके गुरु हो सकते हैं या एकाध पीड़ी और हुआ मिला है। जैसे गुजरात के चौलुक्योकी दूसरी शाखाके पहलेके । यदि जिनमेन और मौनि भट्टारकके बीनके एक स्थापनकर्ता जयसिंह पराश्रय, तीसरी शाखाके मूल पुरुष दो प्राचार्योका नाम और कही.मालूम हो जाय तो फिर जयसिंह धराभय (दि.), और उनके पुत्र शिलादित्य इन ग्रन्थोसे वीर-निर्वाणसे श. सं.०३ तककी अर्थात धराभय। १८ वर्षकी एक अविच्छिन्न गुरुपरम्परा तैयार हो राष्टकटोसे पहले चौलुम्य सार्वभौम राजा थे और सकती है। काठियावाडपर भी उनका अधिकार था। उनसे यह सार्व- श्रा.जिनसेन अपने गुरु कीनिषेणके भाई अमितसेन भौमत्व श.सं. ६७५ के लगभग गष्ट्राटोने छीना था, को जो सौ वर्ष तक जीवित रहे थे खास तौरसे 'पवित्रपुनाटइसलिए बहुत सम्भव यही है कि हरिवंशके रचनाकालमें गणाग्रणी' कहा है. जो यह ध्वमित करता है कि शायद काठियावाइपर चौलुस्य वंशकी ही किसी शाखाका अधिकार पहले पालवेही काठियावाड़में अपने संघको लाये थे। हो और उसीको जयवराह लिखा हो। पूरा नाम शायद पुनाट संघ काठियावाड़में जयसिह हो और वराह विशेषण। राठोड़ोका या सामन्त भी हो सकता है और स्वतन्त्र भी। यो तो मुनिजन दूर दूर तक सर्वत्र ही विहार करते प्रतीहार राजा महीपाल के ममयका एक दान-पात्र' राते है परन्तु पुनाट संघका सुदुर कर्नाटकमे चलकर डाला गाँव (काठियावाड़) से श० सं०८३६ का मिला काटियावाड़में पहुंचना और वहाँ लगभग दो सौ वर्ष तक है। उससे मालम होता कि उस समय बदमागमें घरसी रहना एक असाधारण पटनासिका सम्बन्ध दक्षिण वराहका अधिकार था जो चावड़ावंशका था और प्रतिहारों चोलुक्य और गष्टकट मजामोसे ही अन पहनामिनका शासन काठियावाड़ और गुजरात में बहुत समय तक रहा। १ इण्डियन एण्टिक्वेरी भाग १२, पृ. ११६ | और जिन राजवंशोकी जैनधर्नपर विशेष कमा रही है। २ यो युद्धकएइतिग्रहीतमुन्चैः शौर्योष्मसंदीपितमापतम्तम् । अनेक चालुम और राष्ट्रकूट राजाओं तथा उनके मायह__ महावराई हरिणीचकार प्राज्यप्रभाव: स्खलु राजसिहः ॥ लिकोने जेनमुनियों को दान दिये है और उनका श्रादर ३ देखो महाराष्टीय ज्ञानकोश जिल्द १३, पृ.७३-७४ किया है। उनके बहनसे, अमात्य, मंत्री, मेनाति नादि तो ४देखोइम्तियन एस्टिक्वेरी जि. १२, पृ. १६३-१४ जैनधर्मके उसककहाऐमी दशामें यहम्समाविक Page #639 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६४ अनेकान् है कि नाटके कुछ मुनि उन लोगोंकी प्रार्थना या श्राग्रह से सुदूर काठियावाड़ में भी पहुँच गये हो और वहीं स्थायी रूपसे रहने लगे हों। हरिषेणके बाद और कब तक काठियावाड़ में पुजाट संघ रहा, इसका अभी तक कोई पता नहीं चला है। जिनसेनने अपने ग्रन्थ की रचनाका समय शक संवत्में दिया है और हरिषेणने शक संवत्के सिवाय विक्रम संवत् भी साथ ही दे दिया है। पाठक जानते हैं कि उत्तरभारत, गुजरात, मालवा श्रादिमें त्रिक्रम संवत्का और दक्षिण में शक संवत्का चलन रहा है। जिनसेनको दक्षिणसे आये हुए एक दो पीड़ियाँ ही बीती थीं इसलिये उन्होंने अपने ग्रन्थ में पूर्व संस्कारवश श० सं० का ही उपयोग किया, परन्तु हरिषेणको काठियावाड़ में कई पीढ़ियाँ बीत गई थीं, इसलिए उन्होंने वहांकी पद्धति के अनुसार साथमें वि० सं० देना भी उचित समझा । नवराज - पसति बर्द्धमानपुरकी नाराज वसतिमें अर्थात् ननराजके चनबाये हुए या उसके नामसे उसके किसी वंशधरके बनवाये हुए जैनमन्दिर में हरिवंशपुराण लिखा गया था । यह नमराज नाम भी कर्नाटकवालोंके सम्बन्धका प्रभाव देता है और ये राष्ट्रकूट वंशके ही कोई राजपुरुष जान पड़ते हैं । इस नामको धारण करने वाले कुछ राष्ट्रकूट राजा हुए भी है।" राष्ट्रकूट राजानोंके घरू नाम कुछ और ही हुआ करते थे, जैसे कम, कन्नर, भ्रमण, बद्दिग आदि। यह नन नाम भी ऐसा ही जान पड़ता है। लाटसंघका इन दो ग्रन्थोंके सिवाय अभी तक और कहीं भी कोई उल्लेख नहीं मिला है; यहाँ तक कि जिस कर्नाटक प्रान्तका यह संघ था वहाँके भी किसी शिलालेख [ वर्ष ४ श्रादिमें नहीं और यह एक आश्चर्यकी बात है। ऐसा जान पड़ता है कि पुजाट ( कर्नाटक ) से बाहर जाने पर ही यह संघ पुत्रासंघ कहलाया होगा जिस तरह कि आजकल जब कोई एक स्थानको छोड़कर दूसरे स्थानमें जा रहता है, तब वह अपने पूर्व स्थान वाला कहलाने लगता है। श्राचार्य जिनसेनने हरिवंशके सिवाय और किसी ग्रन्थकी रचनाकी या नहीं, इसका कोई पता नहीं । आचार्य जिनसेनने अपने समीपवर्ती गिरनारकी सिंहवाहिनी या अम्बादेवीका उल्लेख किया है और उसे विघ्नों का नाश करने वाली शासन देवी बतलाया है । अर्थात् उस समय भी गिरनार पर श्रम्यादेवीका मन्दिर रहा होगा । १ देखो छयासठवें सर्गका ५२ वाँ पद्य । २ मुलताई (बेतूल सी०पी०) में राष्ट्रकूटोंकी जो दो प्रशस्तियाँ मिली हैं उनमें दुर्गराज, गोविन्दराज, स्वामिकराज और नमराज नामके चार राष्ट्रकूट राजाओंके नाम दिये हैं। सौन्दसिके राष्ट्रकूटोंकी दूसरी शाखाके भी एक राजाका नाम ना था । बुद्ध गयासे राष्ट्रकूटोंका एक लेख मिला उसमें भी पहले राजाका नाम नम है । दोस्तटिका नामक स्थानका कोई पता नहीं लग सका जहाँकी प्रजाने शान्तिनाथकं मन्दिरमें हरिवंशपुराणकी पूजा की थी। बहुत करके यह स्थान बढ़वाणके पास ही कहीं होगा । उस समय मुनि प्राय: जैनमन्दिरमें ही रहते होंगे । श्राचार्य जिनसेन ने अपना यह ग्रन्थ पार्श्वनाथके मन्दिरमें रहते हुए ही निर्माण किया था । पूर्ववर्ती प्राचार्योंका उल्लेख जिनसेनने । अपने पूर्व के नीचे लिखे ग्रन्थकर्तानों और विद्वानोंका उल्लेख किया है समन्तभद्र - जीवसिद्धि और युक्त्यनुशासनके कर्त्ता । सिद्धसेन सूक्तियोंके कर्त्ता । इन सूक्तियोंसे सिद्धसेनकी द्वात्रिंशतिकाओं का अभिप्राय जान पड़ता है । देवनन्दि - ऐन्द्र, चान्द्र, जैनेन्द्र श्रादि व्याकरणोंके पारगामी । बज्रसूरि - देवनन्दि या पूज्यपाद शिष्य वज्रनन्दि ही शायद वज्रसूरि हैं जिन्होंने देवसेनसूरिके कथनानुसार द्राविड़ संघकी स्थापना की थी। इनके विचारोंको गणधर देवोके समान प्रमाणभूत बतलाया है और उनके किसी ऐसे ग्रन्थ की ओर संकेत किया गया है जिसमें बन्ध और मोक्षका सहेतुक विवेचन है । महासेन - सुलोचना कथाके कर्त्ता । ३ ग्रहीतचक्राऽप्रतिचक्रदेवता तथोर्जयन्तालयसिंहवाहिनी । शिवाय यस्मिन्निह सन्निधीयते तत्र विघ्नाः प्रभवन्ति शासने ४४ Page #640 -------------------------------------------------------------------------- ________________ प्राचार्य जिनसेव और उनका परिषय थत.. रविषण-पत्रपुरासके कर्ता। बराङ्गनेव सायंगाचरितार्थबार। जटा-सिंहनन्दि-परागचरितके कर्ता कस्यानोत्पादयंदगाढमनुरागं स्वगोमं ॥३५॥ शान्त-पूरानाम शाँतिषण होगा। इनकी उत्प्रेक्षा शान्तस्यापि च वक्रोक्ता रम्योरप्रेक्षाबलान्मनः। अलंकारसे युक्त वक्रोक्तियोंकी प्रशंसा की गई। इनका कस्य नोडाटितेऽन्वय रमणीयऽनुरंजयेत . कोर काव्य-अन्य होमा। योऽशेषोक्तिविशेषेषु विशेषः पद्यगवयोः । विशेषवादी-नके किसी ऐसे ग्रन्थकी ओर संकेत है विशेषवादिना तस्य विशेषत्रयवादिनः॥३०॥ जो गद्यपद्यमयी और जिनकी उक्तियोंमें बहत विशेषता प्राकृपारं यशो लोके प्रभाचन्द्रोदयोम्बलम् । है। वादिराजरिने भी अपने पार्श्वनाथचरितमें इनका गुरोः कुमारसेनस्प विचरत्यजितात्मकम् ॥ १८॥ स्मरण किया है और कहा है कि उनकी रचनाको सुनकर जितात्मपरलोकस्य कवीनां चातिनः । अनायास ही पंडितजन विशेषाभ्युदयको प्राप्त कर लेते हैं। वीरसेनगुरोः कीतिरकलंकावभारते ॥ ३४॥ कुमारसेन गह-चन्द्रोदयके कर्ता प्रभाचटके२ यामिताभ्युदये पाश्वजिनेन्द्रगुगामस्ततिः। स्वामिनो जिनसेनस्य कीनि:संकीर्तयत्यसो..-प्रथम सर्ग कारण जिनका यश उज्ज्वल हुना। प्रभाचन्द्र के गुरु। बीरसेन गह-कवियोक चक्रवती। प्रयःकमात्केवलिनो जिनात्परे द्विषष्टिवर्यान्तरभाविनोऽभवन् । मिनसेनस्वामी-उस पाश्र्वाभ्युदयकं कर्ता जिम में तत: परे पंच समस्तपूर्विणस्तपोधना वर्षशतान्तरे गताः॥२२॥ पार्श्वजिनेन्द्र के गुणोंकी स्तुति है। ध्यशीतिके वर्षशतेऽनुरूपयुग्दशेष गीता दशपूर्विणः शते। प्रागे हम हरिवंशके प्रारम्भके और अन्तके वे अंश दयेच विशेऽजमतोऽपिपंच शतेच साशदशकेचतम निः॥२॥ देने है जिनका इस लेख में उपयोग किया गया है गुरुः सुभद्रो जयभद्रनामा परो यशोवाहुरनम्तरस्ततः। जीवसिद्धिविधायीह कृतयुक्त्यनुशासनं । वचः समन्तभद्रस्य वीरस्येव विज़म्भते ॥२०॥ महाईलोहार्यगुरुम ये दधुः प्रसिदमाचारमहासमत्र ते ॥१४॥ महातपोभूद्विनयंधरः श्रुतामृषिश्रुति गुप्तिपदादिकां दधन् । जगत्प्रसिद्धबोधस्य वृषभस्येव निस्तुषाः ।। मुनीश्वरोऽन्य:शिवगुतिसंशको गुणैःस्वमईदलिरप्यषात्पदम्।।२५ बोधयंति सतां बुद्धि सिद्धसेनस्य सूक्तयः ॥ ३०॥ समंदरायोऽपि च मित्रवीरवि (१) गुरू तथान्यौ बलदेवमित्रकी। इंद्रचंद्रार्कजैनेन्द्रव्याडिव्याकरणेक्षिणः । विवर्षमानाय त्रिरस्नसंयुत: भियान्वित: सिहवलब वीरवित् १६ देवस्य देववन्यस्य न वन्द्यते गिरः कथं ॥३०॥ स पासेनो गुणपनवं भद्गुणामणीक्षपदादिहस्तकः। बजसूरविचारिण्यः सहेलोधमोक्षयोः । सनागहस्ती जितदानाममृत्स नदिषेण: प्रभुदीपसेनकः ॥२०॥ प्रमाणं धर्मशास्त्राणां प्रवक्तृणामिवोक्नयः॥३२॥ महासेनस्य मधुग शीलालंकारवारिणी। नपाधनः श्रीधरमननामक: सुधर्मसेनोऽपि च सिहसेनकः । कथा नवर्णिता केन वनितेव सुलोचना ॥ ३३ ॥ सुनन्दिषेणेश्वरसेनको प्रभू सुनन्दिघेणाभयसेननामको ॥२८॥ कृतपद्मोदयोद्योता प्रत्यां परिवर्तिता। ससिद्धसेनोऽभयभीमसनको गुरू परौ तौ जिनशान्तिपेशकी। मति:काव्यमयी लोक रवेरिव रवे: प्रिया ॥ ३४ ॥ अवाषटखंडमस्खंडितस्थिति: समस्तसिद्धान्तमपत्त योऽर्चत:२६ दधार कर्मप्रति च श्रुति च यो जिताचासिर्जयसेनसद्गुरुः , विशेषादिगीगुम्फभवणारबुद्धयः । प्रसिद्धवैयाकरणप्रभाववानशेषरावान्तसमुद्रपारगः ॥३०॥ अक्लेशादधिगच्छन्ति विशेषाभ्युदयं बुधाः ॥ २६ तदीयशिष्योऽमिनसेनसद्गुरुः पविश्यबाटावाबीनदी। २ प्रादिपुराणके कर्ता जिनसेनने भी इन प्रभाचन्द्रका जिनेन्द्रसच्छासनवत्सलात्मना तपोमतावर्षशतापिजीविना॥ स्मरण किया है सुशास्त्रदानेन वदान्यतामुना बदाम्यमुस्येन भुवि प्रकाशिता। चन्द्राशुशुभ्रयशसं प्रभाचन्द्रकवि स्तुवे। पदग्रजोधर्मसहोदः शमी समग्र धर्म वाचविह॥१२॥ कृत्वा चन्द्रोदयं येन शश्वदाहादितं जगत् ॥ तपोमयीं कीर्तिमशेषदिन यः सबभौ कौतितकीर्तिवः । Page #641 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६५ - - तदअशिष्मेण शिवाप्रसौख्यभागसिनेमीश्वरभक्तिभूरिया, भोपालयनन्नराजवसतो पर्याप्त शेषः पुरा स्वशक्तिमाना जिनसेनसूरिणाषियाल्पयोक्ना हरिवंशपद्धति:३३ पश्चादोस्तटिकाप्रजाप्रजनितप्राज्यार्चमावर्चने (8) शान्तः शान्तिगृहे बिनस्य रचितो वंशो हरीलामया ॥५॥ शाकेष्वन्दशतेषु सप्तसु दिशं पंचोत्तरेषूतरां, व्युत्सृष्टापरसंघसन्ततिवृहत्पन्नाटसंघान्वये पातीन्द्रायुधनाम्नि कृष्ण नृपजे श्रीवल्लभे दक्षिणां । प्राप्तः श्रीजिनसेनसूरिकविना लाभाय बोधे पनः। पूर्वा श्रीमदवन्तिभूमति नृपे वत्मादिराजेऽग्री, दृष्टोऽयं हरिवंशपुण्वचरितश्रीपर्वतः सर्वतो मौराणामधिमंडलं जययुते वीरे वगोऽयति || ५३ ॥ ब्यासाशामुखमण्डल: स्थिरतरः स्पेयात्पृथिव्यां चिरम् ॥५५॥ कल्याणैः परिवर्धमानविपुन:श्रीवर्धमाने पुरे, -सर्ग ६६ 'बनारसी-नाममाला' पर विद्वानोंकी सम्मतियाँ 'बनारसी-नाममाला' का जो नया प्रकाशन हुमा है उसपर किसने ही विद्वानों की समतियाँ प्राप्त हुई हैं, उनमेंसे कुछ नीचे दी जाती हैं :१ डाक्टर ए०एन० उपाध्याय, एम० ए० कोल्हापुर- ४ साहित्याचार्य पं० पन्नालाल जैन सागर___ मैं बनारसी नाममालाका सूक्ष्मत: अवलोकन कर गया "बनारमी नाममाला, देखी। उसका प्रकाशन अत्यंत है। यह एक मनोहर कृति है, और प्राकृत तथा अपभ्रंश भाषाके विद्यार्थियोको कुछ महत्व के शब्द प्रदान करती है। उपयोगी है। शब्द-सूची तथा टिप्पण देनेमे उमकी उपइस महत्वके प्रकाशन के लिये मैं आपका हार्दिक अभिनन्दन योगिता और भी बढ़ गई है। छोटा माइल होनेसे उमे हर एक व्यक्ति हर समय अपनी जेब में रख सकता है। हिन्दी करता है।' तथा संस्कृत-दोनों भाषाके विद्यार्थियोकी अत्यन्त लाभदायक २५०कैलासचन्द्रशासी सम्पादक 'जैनसंदेश'बनारस-है। इस उपयोगी कोषके प्रकाशनके लिए सम्पादक और "यद्यपि संस्कृतमें इस प्रकारके कोषोंका काफी प्रचार है ६ । प्रकाशक दोनों ही धन्यवाद के पात्र हैं।" और अनेको कोष रचे भी गये हैं। लेकिन हिन्दी में इस प्रकारका पद्मबद्ध कोष इमके मिवाय और दसरा अभी तक । रालाल जैन, एम० ए०, अमरावतीहमारे देखने में नहीं आया। यह जैन कविकी हिंदी भाषाको "बहुत उपयोगी रचना मामने लाई गई । मम्पादनअनुपम देन है। हिन्दी भाषासाहित्यमें कविवरकी यह छोटी- प्रकाशन भी उत्तम हुआ है।" सीकृति अमर रहेगी। मादकजीने हसे प्रकाशित कर ६ सम्पादक "जैन मित्र" सूरतहिन्दी भाषा-भाषियोंका बहन उपकार किया है। हिन्दी साहित्य सम्मेलनकी परीक्षामि इसे स्थान देनेकी हम "रचना सुन्दर व संग्रह करने योग्य है। विद्यार्थियोंके बड़े कामकी है।" जोरदार सिफारिश करते है।" ३ श्रीभगवा जैन, 'भगवत्' ऐस्मानपुर ७ पं० काशीराम शर्मा 'प्रफुल्लित' सहारनपुरइसकी उपयोगितापर मुग्ध ई, और वीर-सेवा-मंदिर अब तक ऐसा सुन्दर हिन्दी-कोष न देखनमें श्राया। की आवश्यक और कीमती साहित्य-सेवापर प्रनमा इससे खोजपूर्ण यह कार्य प्रापका हिन्दी जगके मन भाया । अधिक लिखमा, शब्दोंका अपव्यय होगा। जनताको इसे उपयोगी, गुटका-सी छोटी पुस्तक है सुन्दर यह चीन । अपनाना चाहिए-कामकी चीन है।" प्रौ' सुबोध 'शब्दानुक्रम' ने इसमें बाया नूनन बीज ॥ Page #642 -------------------------------------------------------------------------- ________________ श्रीवीर-वाणी-विलास जैनसिद्दान्तभवन मूडविद्रीके कुछ हस्तलिखित ताडपत्रीय ग्रन्थोंकी सूची मृडबिद्री जिला माउथ कनाडामे हम्नलिग्यित अन्यों के किनने हो जैन भंडार हैं, सबम धड़ा भंडार महारकजीका है, जो मिद्धान्तबसदि' नाममं प्रख्यात है और जिमम धवल जयधवल भावि सिद्धान्तग्रंथ मौजूद हैं। इम भण्डार के अतिरिक्त जो दुमरं भंडार हैं उनमें 'श्रीवार-वाणी-विलाम जैनसिद्धान्त भवन' का नाम खास तौरम हवनीय है। यह मिद्धान्तभवन कर्णाटक दशक अमिन विद्वान पं० लोकनाथजी शाखी के मत्प्रयत्नका फल है। हाल में शास्त्रीजी ने अपने इस भवन के ताडपत्रों पर लिखे हुए प्रथोकी एक सूची तय्यार कराकर भेजी है, जिसके लिये मैं आपका बहुत ही प्राभाग है। प्राप्त सुनीम कुल ३०५ प्रेथ हैं, जिनमेंमें कोई ५० ग्रंथ नोएल हैं, जो पूर्वप्रकाशित दंडलीक भंडागेकी सूचियांम पाचुके हैं, और इलिये नन्हें यहाँ छाड़ दिया है; १०-१२ पंथ ऐम भा है जा प्रायः यथा परिचय माथम नरहनक कारणछाड़ दिये गये हैं। शेप २४५ प्रन्याकी यह सूची रक्त सूनीक आधार पर प्रकट की जानी है। प्राप्त सूचीमे ग्रंथों का रचना-काल नथा ग्रन्थतियों पर लिपि-संवत न हानसं वह यहां नहीं दगा जामका । शास्त्रीजीने लिया है कि इन ग्रंथप्रतियां पर लिपि-मंबन दिया हुश्रा नहीं है-मिर्फ कविवर पप कनड आदि पुगगन पर लिपि-संवत् दिया हया है और बह शानिवाहनशक १४८५ है। :म सूची में ५३ ग्रन्थ कनडी भाषाके हैं, जिनममे १० क माथ मूल मंस्कृत तथा प्राकृनके मूल प्रन्थ भी लगे हुए है, कनडी माहित्यकं निमोगम जैन विद्वानों ने बहुत बड़ा काम किया है। पनडी माहित्य प्राय: जैननियामही ममृद्ध है। -मम्मदक नम्बर प्रन्थ नाम प्रन्थकार-नाम भाषा पत्र संख्या १०३ १ अकलंकप्रतिष्ठापाठ अक्लकंदव । संस्कृत अक्षरप्रश्नचिन्तामणि ३ अनन्तकुमागचम्ति कविवर शांनष्पवर्गी । कडमांगल्य पण । ४ अभिमन्युयक्षगायन कन्नड पद्य ५ अमरकोष (विदग्ध चुडामणि टी.म.) म० अभरसिंह टी०४ । मंस्कृत ६ अर्द्धनामनाथपुगण पं० मिचन्द्र कवि कन्नड पण ७ अहस्तोत्र मंस्कृत अलंकारसंग्रह अमृतनंदि योगी अपांगकथा कन्नर गद्य अहिमाचरित्रे पायरण कवि कन्नड मांगत्य पद्य ११ अंजनादेवी चग्नेि वधमान मुनि कन्नड पथ १२ आत्मानुशासन-कन्नडटीका मू. गुणभद्राचार्य टी.x/ संस्कृन, कमाड अात्मादयसार संस्कृत प्रादिपुराण कविवर पंप कारपद्य १५ आदिनाथयक्षगायन सदानन्द कवि १६ पागधनामारकमह टीका मू० देवसन टी.केशवराण प्राकृत, कन्नर पागधनामार गर्गवचन्द्र मुनि संस्कृत ५८ उत्तरपुगण टिप्पण १९ सत्पातदोष शांतिकर्म ११४ win Page #643 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ५६८ अनेकान्त [वर्ष नम्बर प्रन्थ-नाम प्रन्थकार-नाम भाषा पत्रसंख्या शर्ववर्म उपासकसंस्कार पानन्दिदेव संस्कृत सपासकाचार इन्द्रनन्दिदेव २२ | एकस्वसप्तति पूज्यपाद (?) एकसंधिसंहिता-टिप्पण कन्नर २४ कर्णशाख ब्रह्मदेव कवि संस्कृत २५ कर्मदहनागधन विधान कल्याणकीर्ति कर्मप्रकृति-टीका मूल्नेमिचंद्र सि०च०,टिox प्राकृत, कमर कर्मप्रकृतिनिरूपण अभयनंदि सिद्धांत चक्रवर्ती संस्कृत कल्याणकारक (वैद्यक) उग्रादित्याचार्य कात्रंतव्याकरण कामचंडालिनीकल्प महिषेणाचार्य कार्कलगोमठेश्वरचरिते कवि चंदव्योपाध्याय कन्नड सांगत्य कालज्ञानयंत्र संस्कृत काव्यादर्श (अजैन) दण्डिकवि ३४ | केवलज्ञान चूडामणि समंतभद्र ३५ क्रियाकाण्ड चूलिका पानदि शिष्य क्रियाकलाप पं० पाशाधर क्रियापुस्तक-मटीक टी० बालचंद्र मू० सं०, टी० कमर २८ क्षत्रचूडामणि काव्य वादीभसिंह सूरि संस्कृत क्षेत्रपालागधना खगेन्द्रमणिदर्पण कवि मंगरम कन्नड गणधरनलयाराधना संस्कृत गणधास्तोत्र गणितविलास | कवि चंद्रम गार्ग्यसंहिता (जैन) गोमटेश्वराष्टक कमर | गोमटसार-मर्थसंदृष्टि | नमिचंद्राचार्य प्राकृत | गोमारियंत्राराधना (यंत्रस०) संस्कृत चतुर्वन्धनिरूपणा चतुर्विंशतितीर्थकरपुराण चामुण्डराय चंद्रनाथाष्टक चंद्रप्रभचरित्र कवि दाइय्य कार सांगत्य चंद्रप्रभपुराण भग्गलदेव | चंद्रप्रभस्वामि-पोष ५४ | चंद्रोन्मीलन (प्रश्नशास्त्र) | योगीन्द्रदेव संस्कृत गुणवर्म N Page #644 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरप११-१२] श्रीजैनसिद्धान्त भूगविद्रीकर नितारपत्रीय प्रन्थों की सूची ६E - प्रन्य नाम प्रन्थकारनाम भाषा पत्रसंख्या २३० ., মান संस्कृत काड पद्य कपड मंस्कृत संस्कृत कार कमर सांगत्य .. चामुण्डरायपुगण चामुण्डराय चारणाष्टक रविवर्म चिन्मयचिन्तामणि कल्याण कीर्ति छत्तीम रत्नमाला स्तोत्र जयनृपकाव्य कवि मंगास जन्यूढीप प्रज्ञप्ति पग्रनदि जातकमार जिनगुणसम्पत्ति विधान। .. ६३ | जिनदत्तगयग्नेि कवि पनाम जिनमुनितनय जिनाष्टकादिम्तांत्र यंत्रमंत्रतंत्र .. ६६ जिनेन्द्रमाला टिप्पणी ६७ जीबंधनचरित्रे कवि भास्कर ६८ जीवंधरषरपदी कवि बोम्मम्म ६९ जीवनबोधना बन्धुवर्म ७० जेमिनिभाग्न कवि लक्ष्मीश ७१ 'ज्ञानचंद्रपुराण । पायण्णवर्णी ७२ 'ज्ञानचंद्राभ्युदय काव्य | कविवर कल्याणकीर्ति ७३ ज्ञानप्रदीपिका ७४ ज्योतिष्यसंग्रह ४५ चालिनीकल्प महिषेणाचार्य हेलाचार्य ७८ : तर्कचिन्तामणि ७९ तार्किक्षा (जैन) कवि वरदराज ८० तीर्थकरदंडक ८५ तीर्थकग्लघुपुगण ८२ | तीर्थयात्रासंधि चन्दव्योपाध्याय ८३ | त्रिलोकचैत्यालय-प्रतिमावर्णन . त्रिषष्टिशलाकापुरुष पुगण , चामुण्डराय (?) ८५ त्रैलोक्यभूषणचरित्रे । चन्दय्योपाध्याय ८६ | त्रैवर्णिकाचार ब्रह्मसूरि दशभक्ति मुनि वर्धमान देवराजाष्टक विमलकीनि ८९ देशब्रतोद्यापन पग्रनन्दि संस्कृत . 11 ११३. . . . . .३३ . संस्कृत कन्नड । संस्कृत । संस्कृत, प्राकृत | संमत ... Page #645 -------------------------------------------------------------------------- ________________ पत्रसमस र २३३ १०० प्रन्थ-माम ग्रन्थकार-माम । देववाहम | कवि श्रीपाल संस्कृत द्वादशांगपूजा द्वादशानुप्रेक्षा (उदयसग) द्वादशानुप्रेक्षा (सटीक) मूलकंदकंदाचार्य टी०केश० प्रा० टी० द्वादशानुप्रेक्षा कवि विजयाण कमर सोमदेव सूरि संस्कृत गौतमस्वामी (2) कार धन्यकुमाचरित्र कवि आदिनाथ धन्यकुमारचरित्र कवि कग्यिदेवय्य कन्नड धर्मनाथपुराण कवि बाहुबलि कन्नर पद्य धर्मपद्धति संस्कृत १०१ धर्मामृत (सटीक मू० नयसंनदेव टी.x १०२ धन्वंतर्गनिघंटु (मजैन) धन्वंतरी १०३ धार्मिकपदसंग्रह कन्नड १०४ नक्षत्रचूडामणि संस्कृत १०५ नक्षत्रातलक ५०६ नवरत्नपरीक्षा नागकुमारचरित्रे कवि बाहुबलि कमर पद्य १०८ विमलकीर्ति १०९ नागकुमारषट्पदी कवि विजयण्ण ११. नांदीमंगलविधान संस्कृत १११ नित्यानंदाष्टक ११२ निर्वाणलक्ष्मीपतिस्तोत्र विमलकीर्ति ११३ नीतिसार (संग्रहप्रन्थ) संस्कृत ११४ नीतिश्लोकसंग्रह १५५ नामजिनाष्टक विमलकीर्ति नमिजिनशसंगति कवि मंगरस नमिनाथपुराण कवि कर्णप्पार्य ११८ नमिनाथाष्टविधाना बिमलकीर्ति संस्कृत ११९ नोंपीकथा ४० १२० पत्रपरीक्षा विधानदिदेव संस्कृत १२१ पदार्थसार माघनंदि प्राकृत १२२ पद्यावतीकल्स (टीका सहित) मल्लिषेण संस्कृत १२३ पनवतीचरित्रे (पक्षमात्र) | कवि बाहुबलि कन्नर १२४ परमागमसार संस्कृत १०० "" " " ' Page #646 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ०१ पत्रसंख्या : १३० । पचमा : :: :: :: : किरण११-१२] जैनसिद्धान्त भवन मूविद्रीके ताडपत्रीय ग्रन्थोंकी सूची प्रन्थ-नाम प्रन्थकार-नाम भाषा १२५ ' परमात्मस्वरूप । अमितगति १२६ पक्यविधान १२७ पंचपरमेष्ठियाराधना १२८ पंचपरमेष्ठिम्याख्यान १२९ पंचपरमेष्ठिस्वरूप पंचभाव वा सप्तनयनिक्षेप १३१ । पंचमन्दरपूजा १३२ |पंचसंसारविस्तर १३३ ५चांगफल १३४ पंचास्तिकायनिरूपण १३५ যাবিলাফল १.६ पार्श्वनाथाष्टक १३७ पुण्यसावकथा पुष्पदन्तपुराण गुणवर्म १३९ पूजकपूजालपण इन्द्रनन्दि १४० पूजादिसंग्रह(चतुर्विशतिधाराधना) प्रतिक्रमणविधि ब्रह्मसूरि १४२ प्रतिष्ठातिजक नेमिचन्द्र १४३ प्रतिष्ठाविधि हस्तिमाल प्रतिष्ठाकस्पटिप्पणि कुसुमचन्द्रदेव १४५ प्रवचनपरीक्षा १४६ प्रायश्चित्तवाक्य प्रायश्चितविधि प्राकृत १४८ / बाहुबलिस्वामिचरित्रे षटपदी पं.चिकरण कवि १४९ बुद्धिसागरचरित्रे | चिदानन्मदेव कार पद्य १५० बीजाक्षरकोश संस्कृत १५१ वृहत्शांतिविधान १५२ बृहसावदेवतापूजा १५३ भरतेशवैभव रत्नाकर वर्णि १५४ भण्यामृत संस्कृत १५५ भावनाष्टक भोजराजवैद्यसंग्रह शारदपवित १५७ भैरवाराधना महाभिषेक १५९ | मंडपप्रतिहाविधान १४१ : : : : : : १५८ Page #647 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त प्रन्धकारनाम भाषा पत्रसंख्या १० संस्कृत कन्नड परित विद्यामाधव १५० संस्कृत भईहास कवि १६४ १६५ ६५ योगीन्द्रदेव चन्दप्प वी योगीन्द्रदेव कन्नड संस्कृत कमर संस्कृत संस्कृत शिवकोटि कन्नड महाभिराम (1) पंपकवि प्रन्ध-नाम १६० | मंन्त्रवादमुद्रावणादिसंग्रह १६१ माघवीयमुहूर्तदर्पण मुद्रासन मुनिसुव्रतकथा मुरजबंधादिसाय मृत्यूत्सव मोक्षप्रामृत १६. पशोधरचरित्र १६८ योगामृतसार १६९ रत्नकरण्डश्रावकाचार (माटी.) रत्नत्रयविधाम १७१ रत्नत्रयस्तोत्र रत्नमाला रम्मशास्त्र १७४ । नशेखरचरित्र १७५ रामायण १७६ । रामायणायगायन १७७ रोहिणी कथा १७८ । सपणखोकसंग्रह १७९ बरणभंगप्रशस्ति १८० लघुपुराण (भवावलि) १८१ । लोकस्वरूप १८२ | लोभदत्तचरित्र १८३ बजपंजराराधना १८४ रडाराधनाकथा बसन्ततिलकचरित्र १८६ 'बागीश्वरीस्तोत्र १८७ 'वास्तुपूजाविधान १८८ विजयकुमारचरित्रे १८९ । विद्यानुवादांग १९०, विद्यानुवादांगजिनसंहिता १९१ विंशतिप्ररूपण टीका १९२ विषतन्त्र १९३ विद्ययन्त्रमन्त्रादि १९४बेगरगोमटेश्वरमस्तकाभिषेक mirm 30MOL **m ' °3% जिनचंद्र संस्कृत संस्कृत कन्नड पद्य चन्द्रम कवि कवि नेमरस संस्कृत कमर पद्य संस्कृत समन्तभद्र (१) .... परयप्पार्य म. मेमचन्द्राचार्य टी.x कवि मंगरस प्राकृत, कह संस्कृत कवि गुलाम Page #648 -------------------------------------------------------------------------- ________________ जैनसिद्धान्त भवन मनविद्रीके तारपत्रीय ग्रंपोंकी सूची ॥ पत्रसंख्या १३५ १२० ६३० किरण ११-१२] नम्बर | খেলা प्रन्धकार-नाम भाषा १९५ वैद्यसकारादिनिघंटु समन्तभद्र संस्कृत १९६ वैचचिकित्सा पूज्यपाद १९७ वैद्यमंत्रवादसंग्रह १९८ वैवसंग्रह संस्कृत १९९ शब्दधातुसमासादिसंग्रह २०० शंकुस्थापनाविधान २०१ शाक्टायनप्रक्रिया २०२ शांतिचक्रयन्त्राराधमा २०३ शांतिजिनस्तोत्र २०४ शांतिनाथाष्टकविधाचा संस्कृत शांस्यष्टक २०६ शास्त्रसारममुच्चय २०७ शोभनपदसंग्रह २०८ श्रावकाचार माघनम्ति संस्कृत २०९ श्रुतदेवतास्तुनि पचननि २१० श्रुतभक्ति २११ श्रीपानचरित्र २१२ श्रुतस्कन्धाराधना संस्कृत २१३ षडारचक्र पं.सातार २१४ सकलीकरणविधान २१५ सजनचित्तबल्लभ (कबर टी.) । मू. महिषण टी. x । संस्कृत, कमर २१६ समन्तभद्रभारतीस्तोत्र कवि नागराज संस्कृत २१७ समवसरणाष्टक (सटीक) मुनि विष्णुसेन २१८ समाधिशतक (कबर टी.) म. पूज्यपाद टी.x संस्कृत कमर २१९ सम्यक्त्वकौमुदीकथा मंगरस २२० सरस्वतीकल्स विजयकीर्ति संस्कृत २२१ सरस्वतीकस महिषेण २२२ सरस्वतीस्तोत्र २२३ सर्वदर्शनवाच्यार्थ २२४ सर्वदोषपरिहारविधान २२५ सहस्त्रनामाराधन २२६ संगीतबणज्योविज्ञान विधि श्रीधराचार्य २२७ संगीतवीतराग भट्टारकचारुकीर्ति,अवयवेबगुब २२८ । सन्ध्यावन्दनविधि नेमिचन्द्र २२९ । समयभूषा (अनगारनीति स.)। .... Page #649 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त नम्बर प्रन्थ-नाम -- प्रन्थकार-नाम भाषा पत्रसंख्या - - - पं. प्राशाधर २३० सामुद्रिकसपण । संस्कृत २० २३१ सिद्धबापूजाविधान २३२ सिबपरमेष्ठिस्वरूप संस्कृत २३३ सिद्धभकि 'बदमान मुनि संस्कृत, प्राकृत २३४ सिखस्तोत्र संस्कृत २३५ सिद्धार्चनाविधि संस्कृत २३६ सिंहप्रयोपगमन केशवरण संस्कृत २३७ । सुग्रीवमतशकुन कन्नड २३८ सूक्तिमुक्तावलि (कन्नड टी.) । मू.सोमप्रभदेव, टी.x संस्कृत, टी० कन्नड २३९ स्याद्वादमतसिद्धान्त चन्दव्योपाध्याय कन्नड २४० स्वरूपसम्बोधन संस्कृत २४१ होसदचरित्र कन्नड वीरसंवामन्दिर, सरसावा (सहारनपुर) ता०२७-१२-४१ परके हित बरबस हो मरता , फिर भी नहीं पेट हा! भग्ता; पराधीनका जीवन कैसा? झींक-फीक रो-धोकर निष्फलजीवनके दिन पूरे करता ! इच्छाओंका दमन ! करे क्या ? पास नहीं होता जब पैसा !! पराधीनका जीवन कैसा मानव है, पर मान नहीं है। कर्मयोग - निष्काम नही है। चैन मिले, उसको इस जगमे, ऐसा कहीं विधान नहीं है !! कर्मतंत्र हो विधि-ललाट परलेख लिखाकर आया ऐसा !! पराधीनका जीवन कैसा ? श्रमजीवी, सुखका अधिकारी ! वचित है, कितनी लाचारी !! मरना भला, कहीं जीनेसेकॅगला-सा जीवन-संसारी ! बाधाएँ, पीड़ाएँ जिसको-, श्री काशीराम शर्मा 'प्रफुलित' देती रहती दुःख - संदेशा !! पराधीनका जीवन कैसा ? Page #650 -------------------------------------------------------------------------- ________________ एक-पत्नी-व्रत लेखक-श्री 'भगवन' जैन] मानसिक कमजोरियोंमें वह भी अलग नहीं था। पर, नसके पाम आत्मिक-माहमकी भी कमी नहीं थी। वासना और प्रेम दोनों एक-शक्ति होकर उसे मजबूर किया, लेकिन वह डिगा नहीं, अपने प्रणाम ! नहियोंका हद-प्रेम उस पतनकी ओर धकेल रहा था। और वह जाना चाहता था अमरत्वकी पार ! उसके भीतर जो अध्यात्म-शक्ति थी। वह जो नौजवान था-समर्थ ! (१) दृश्य अब आँखोंके मामने श्राएगा, जिसके लिए एक शादीकी पिताको जितनी ही खुशी, पुत्रको उतना मुइनसे उनकी भाँखें तड़प रही हैं, और मन काना ही रंज ! अब सवाल उठता है- ऐमा क्यों ?'- के मीठे चित्र बनान-बिगाइनमें संलग्न रहा है ! इसके लिये पापको थोड़ा-सा बतलाना पड़ेगा!... वह म्वावसर है-कुबेकान्तकी शादी! कहानी पोगणक। कितन हजार वर्ष पहले पाणिग्रहण-महात्सव-विधान!!! की होगी, इसका कुछ ठीक नहीं ! पर, इतनी बात विवाह-मंडप तैयार है ! शहर-भरमें मानन्द जरूर -चमकी नाजगी अभी बरगर है, बासी- छाया हुआ है! वह मभी चीज है-जा उत्साह और पन सिर्फ नाम भरके लिए कहा जा सकता है। पैसकी ताक़नपर की जा सकती है। काफी चर्चा, हो, ता कुबेरकान्त एक समृद्धशाली-धनकुबेर हल-चल और धूम-धाम ! 'अमगओं-मी सुन्दर, का पुत्र है ! वह दुलारकी गोदम पला है, बैभव एक हजार पाठ कुमारियाँ विवाहाथ अपने-अपने प्रकाशमे उमने विकास प्राप्त किया है। और स्वाभा- परिवारसहित आई हुई हैं। जिनमें कई बड़े बड़े विक प्रेममं कई गुणा अधिक उस पिताका प्यार ताल्लुकेदार और गजाओंकी कन्याएँ भी हैं। और माताकी माना मिली है ! वजह यह है, वह एक हजार पाठ कुमागियोंकी शादी शायद आप पिताकी एकमात्र मन्तान है। विपुल-मम्मति अकेली. को कुछ खटके ! पर यह मांचकर आप अपना जानके लिए जा है-सब विस्मय दूर कर मकते हैं कि यह बात तब की है, कुबेरकान्त आज नौजवान है। -शकलके जब आठ-आठ हजार त्रियाँ रम्बना भी-व्यक्तिबारे में, यह कहना कि उसका ललाट अर्धचन्द्राकार विशेषों के लिए-ग्विाजकी बान मानी जाती थी ! है, आँखें आकर्षक, जादू-भर्ग-सा हैं, केश-राशि हाँ, मैं मानता हूं-आजमाप्रकरण ऐमा मममनम भ्रमर-सी काली है, दॉन दूधस श्वेत और ओठ उपा आपको रोक सकता है ! जोक औसतन दो भाइयों की अणिमास पूर्ण हैं ! सब, कवित्व पूर्ण साबित में एक व्याहा, एक धाग अधिकार देखने में माता होगा । सच तो यह होगा कि उस पाप 'सुन्दर' है ! पर, मानिए-तब एमा नहीं था। समझने के लिए मनमें किसी देवताकी कल्पना करलें! लम्बा-चौड़ा मायाजन, दुलेम-प्राप्य समयका कुबेरकान्तकी तरुणाईन,पिना-कुबेगमित्र-को शुभागमन और शानदारबाहिक-कार्यक्रम देखकर वह स्वर्णावसर ना दिया, जिसकी उन्हें इसके जन्म- कुबेरमित्र फूले नहीं समा रहे हैं ! उनके हवयमें जो दिनसं उत्कंठा थी! 'वर्षोंकी सद् इच्छाएँ, जो अब प्रानन्द मन्दाकिनी हिलारें ले रही है, वह शब्दोंतक मनक भीतर कैद थीं, आजादागी ! बह प्रिय- द्वाग शायद नहीं बनाई जा मकी! पुत्रकी सादी Page #651 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०६ जाके लिए गौरव होती है, खुशी होती है ! लेकिन उधर - कुबेरकान्तको अपनी शादी की कितनी खुशी है, यह बतलाना भी नितान्त कठिन है ! उसे यह विशाल आयोजन एक असा बोझ सा जान पड़ रहा है! जैसे वह आयोजन पृथ्वीपर न होकर उसकी छाती पर चढ़ा हो। दम उनका घुट मा रहा है मुँहपरकी उदासी आन्तरिक व्यथाको प्रगट करने में कटिबद्ध तो है, पर छाये हुए संकटको टालने में समर्थ नहीं । अनेकान्त वह बहुत चाहता है कि अपनी मजबूरीको पिताजी के सामने रखकर वेदनाको हल्का करे | पर, हिम्मत जो नहीं पड़ रही । पिताका उत्साह आयो जनकी विशालता जा उसकी वाणीको मूक बनाये दे रही है। वह किस तरह समझाए कि उसने 'एक पत्नी व्रत' ले रखा है ! इतनी कन्याश्रकी पत्नी रूप में ग्रहण करना उसकी प्रतिज्ञा की हत्या है। जिसे वह खुली आँखों, कभी देवनका तैयार नहीं । लेकिन सवाल तो यह है कि वे बज-से शब्द उसे मिलें कहाँ ? जिनके द्वारा पिताका उत्साह श्राहत होकर कराह उठेगा, आनन्द प्रासाद बालूकी दीवार की तरह ढह जाएगा और आशाका आँगन निराशा की अँधेरीमें डूबने लगेगा। यह निर्विवाद अनुमान उन कठोर शब्दों की खोज के लिए उसे कैसे प्रेरित करे ? काश! कोई दूसरा व्यक्ति इस समस्याको बात्मल्यमयपितृ-हृदय के सामने रखकर सुलझावकी और संकेत कर सकता ? [ वर्ष ४ अब कुबेरकान्त शादी की खुशी मनाए तो कैसे ? किस बिरतेपर ? खुशी होती है-मनसं । और मन उसका उलझ रहा है काँटोंमें। जिनके खिंचने में पीड़ा और लगे रहने में दुःख ! X X X लेकिन करे कौन ? - जानता कौन है इस ग् य को ? प्रतिज्ञाके वक्त महर्षि- सुदर्शन थे, जिनकी कल्याण-मय- वाणी प्रभावित होकर, यह परमप्रत जीवन में उतारा था ! तीमग था ही कौन ? और जो था भी, वह आज भी है, कहीं गया नहीं ! पर, है व्यर्थ! क्योंकि वह समझा नहीं सकता, बनला नहीं सकता, विधाताने उसे अक्ल तो दी है, पर मानव बोली नहीं । यों कि वह मनुष्य नहीं, पंछी है !कबूतर ! X (२) कल शाममं कुबेरमित्र की दशा में तब्दीली होगई है! जबसे उन्होंने 'बर' वा मुंह उदास देखा है ! उन्हें लगा - जैम अचानक उनके सिरपर वजू गिरा है ! चोटने न सिर्फ बेदना सौंपकर आहें भरने के लिए मजबूर किया है, वरन् बढ़ते हुए वैवाहिक उत्माह में बाँध भी लगा दिया है ! जो उन्हें किसी भांति गवारा नहीं ! उत्साह उनका सामयिक और क्षणिक नहीं, वर्षो की साधनाका फल है ! बमुश्किल भविष्य, वर्तमान बना है ! कारण कोई ऐसा उन्हें दिखाई नहीं दे रहा. जिमने कुबेरकान्तकं कोमल मनको दुग्खाया हो, उदासी दी हो ! फिर वह उदाम क्यों ? जबकि उसे ज्यादा-से-ज्यादह खुशी होनी चाहिए ! वह जो नौजवान है ! मुग्धताके बजाय मुँहपर सूनापन, यह क्यों ? गाढ़ बहुत सोचा- विचारा, कुबेर मित्रने | पर, पुत्रकी उदासीकी तह तक न पहुंच सके ! कुछ हद तक अनुमान साथ देते, क़यास मही मालूम पड़ना, लेकिन आगे बढ़ते ही, निम्मारता खिलखिलाकर हँसती दिखाई देती ! और यों, हस्योद्घाटन शक्तिसं बाहर की चीज बन रहा था ! air घुमने उनकी स्वस्थताको दबोच दिया ! उस दिन वे पलंग उठे तक नहीं ! जान-मी जो निकल गई थी - गेम-गंगसे ! उनकी इस आकस्मिक रुग्णतासे गहरा प्रभाव पड़ा लोगों पर । आयाजनके कार्यक्रम में शिथिलता आने लगी ! सामने कबूतरका जोड़ा किलकारियाँ भर रहा है ! मस्त ! मुक्तकण्ठसे चिल्ला-चिल्लाकर जैसे कुछ सन्देश दे रहा हो ! मगर इसे कोई समझे तो कैम, कि वह कुछ समझाने के प्रयत्न में हैं ! मानवको Page #652 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] एक-पत्नी-ब्रत ६०७ पशपक्षियोंस क्या मिला है कभी कुछ ?-मानव जो के लिए वे सब घातक हैं। प्रतिक्षा अटल वस्तु हैएक समर्थ प्राणी है ! और पशु-पंछी-? हीन, भाग्य रेखाकी तरह। कुबेरकान्तन धीमे, मजबूत दीन, छोटे। और सरस स्वरमें निवेदन किया । ___ पलंगपर लेटे ही लेटे कुबेरमित्रकी नजर जा पड़ी क्षणभर सब मौन रहे। सधर-शून्य-सी, निरर्थक-सी ! देग्वते रहे कुछ कुबेरमित्रने फिर निस्तब्धता भंग की । इमबार मिनिट! मन बहला तो जरूर कुछ, पर अधिक उनके म्बरम कम्पन था, दीननाका आभास भी थामानन्द न मिल मका ! मनमें जो चिताकी संगिनी- थोड़ा ! बोले-'क्या यह भी तुम जानते हो, कबरचिन्ता घुमी हुई थी। कान्त ! कि तुम्हारी इस प्रनिहास मेरी कितनी मिली ईषा ! आप ही श्राप बोल उठे- बदनामी, कितनी हँसी होगी ? किन किन मुसाबतों 'एक यह भी जिन्दगी है, न ग़म है, न फिक्र । चैन का मुझे मुकाबिला करना पड़ेगा ? जो सम्भ्रान्तकी बंशी बजा रहे हैं-दानों। मज्जन अपार धन-राशि और तिलोत्तमा सी कन्याएँ मालिकका ध्यान जो अपनी ओर दम्बा, तो लेकर पधारे हैं, क्या वे पमनाचत वापम लौट कबूनर भी कुछ-न-कुछ नाड़ गया जरूर !: 'नजदीक सकेंगे ? क्या इमम वे अपना अपमान होता महसूम प्राकर, लिखन लगा जमीनपर चौंचम कुछ !.. न करेंगे ? थाहा विचार ना कग, कुबेरकान्त ! कि ___ कुबेरमित्रकी चिन्ता, बदलने लगी कौतुहल में। यह नाममझी प्रत कहाँतक हितकर है ? व देखने लगे-एकटक, बगैर पलक गिगए, आश्च- मानता हूँ पिताजी, कि आपकी बातें रालत नहीं र्यान्वित हो उसी ओर। हैं। लेकिन मैं जिस धार्मिक तरीकपर जानता हूँ, व थे-समर्थ मानव । आप उन दुनियाषी दृष्टिकोणमे देखते हैं, यही क्रक और वह था-बेजुबान जानवर । है और जबतक इस फकका ग्वाईपर विवेकका बाँध समझदार परिन्दन लिखा-'कुबेग्कान्तनं 'एक- नहीं डाला जायेगा, सम्भव नहीं कि हठामहका अन्त पत्नी-व्रत' ले रखा है। यह एक ही स्त्री वरण करेंगे। हा, समस्या सुलझ मके ! मुझे दुःग्य है कि भापक यह विशाल प्रायोजन न कीजिये, इमस उन्हें दुःख द्वारा मुझे वे शब्द सुननेको मिल रहे हैं, जो कदाचिन पहुंचता है, वे उदाम हैं।' - किमी व्रतीके लिए 'खतरा' सिद्ध हो सकते हैंकुबेरमित्रको आँग्वांस जैम पट्टी खुल गई । वे कुबेरकान्तन हड़ शब्दों में अपनी बात सामने रखी। भागे, म्वस्थकी नम्ह पुत्रक पाम । माथम और भी कुबेरमित्र कुछ कहें, इम पेश्नर ही, भागन्तक माननीय सज्जन थे। कई व नरेश भी थे जो नरेशीमम एक वाल-कुवर माहं ! हरबात उम्रम कन्याओं को लेकर पधारे थे, और जिन्हें वरकी प्रतिक्षा ताल्लुक रखती है। आप जो फरमा रहे हैं, वे किसी का मामूली-मा पना चल चुका था ! बुजुर्राके मुंहसे निकलनेवाली बातें हैं । भापको वे उदास-सा कुबेरकान्त, चिन्ताओं के बीच, अकला जेबा नहीं दी। आप नोजवान हो । बहत कुछ बैठा था । पूज्यवर्गको आने जो देखा, ना उठा, पैर जानना-सीखना है, अभी आपको ! प्रतिज्ञा चीज छए, प्रणाम मिया; और उकवासनपर ला बिठाया। बुरी नहीं है, पर उसे उचित तो होना चाहिए, न" _ 'क्या यह मही है, कि तुम एक ही कन्या वग्ण और आपका व्रत अगर अनुचित नहीं है, तो परि की इच्छा र स्वत हो ?'-कुर्व मित्रनं धड़कन-हृदयस स्थिति के खिलाफ तो जरूर है-यह ता मानना ही उतावलेपन के साथ पूछ।। होगा ! सोचिए-आपके पाम धन है, रूप, कीर्ति, हाँ इच्छा ही नहीं, प्रनिज्ञा गम्बना हूं। इच्छामें बुद्धि और है पिनाका उत्साह, मांकी ममता ! फिर, सुधार, नन्दीली सब-कुछ हो सकता है। पर, प्रतिज्ञा यह विगग क्यों ? मैं समझता हूँ-पापको गुरुजनों Page #653 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६०८ अनेकान्त के आशका मान करना चाहिए !' हार जो मान लेते हैं-तुग्न्स | आखिरी और अकाकुबेरकान्नके मामने उलमन है-जटिल, व्य फैसला जो माना जाना है उसका।विवादस्थ ! बम विवश किया जारहा है कि वह गुणवनी, यशोमती, प्रियदत्ता वगैरह सभी प्रतिक्षाको नोड़ दे। अानन्दोत्साहकं साथ एक हजार कन्याओं को बुलाया गया, बहुमूल्य वखालंकारके पाठ कुमारियोंका पाणिग्रहण कर, परिवारको खुशी अलावः एक एक म्वर्णपात्रमें, शर्करामिश्रित सुमें अपनी खुशी मिला दे! स्वादु ग्वीर देकर कहा गया कि-'सब सुदर्शन - पर, मवाल है-'क्या इसके लिये उसकी सगेवरके तटपर-जहाँ विशाल मण्डप बना हुआ अम्तगत्मा तैयार है ? क्या मह सकेगा, युवक है-जाएँ ! खीरका भोजन करें, वखालंकार धारण तेज प्रतिज्ञाभंग महापाप को? कर फिर पधारें। एक स्वर्णपात्रमें हीरकालंकार पड़ा कुबेरकान्त अब तक शान्तिसे काम लेग्हा था, हुआ है, जिसके हाथमें वह पाएगा, वहीं कुमारकी पर अब शान्ति बतना उसके वशकी बात न रही! क वशका बात न रहा! प्राणेश्वरी होगी।' सा भी गंभीरतासं उसने कहा-'महाराज ! जग विचागिए ना, आप मजा अपराधीका नम्रक लिहाज स्वर्ण-पात्रके भीतर, खीरकं नाचे कन्याओंका में देने हैं, या कानूनके मुनाबिक ? मौत-बूढ़े, भाग्य, भविष्यका सुख छिपा हुआ है । प्रत्येक कन्या, जवान, बालकका खयाल रखनी है-क्या ? अगर । कन्याका पिता या दृमग अभिभावक, जो उसके माथ नहीं, ना बतलाए जवानी में धर्म-पालनम क्या मना है, उम रहस्य को जान लेने के लिए आतुरतासं प्रतीक्षा करते हैं आप लोग ?..पिताजी ! गलत गस्तेपर न कर रहा है । वस्त्र-श्रालंकारोंकी और किसकी नज़र, ले जाए मझे! प्रतिज्ञाभंग महापापमें न डयाइए' खीरकी पर्वाह किम-सब खीरका धरातल टटाल मैं ऐसा न कर मकँगा, मुझे क्षमा कर दीजिए !' रही है, उँगलियां डाल-डाल कर । काश ! सबके हाथों में हीरकालंकार आ सकते । कुबेगमित्र मनपर आज दूमग चिन्ताका बोझ दुर्भाग्य । 'सब उदास होगई, प्रियदनाक है। या कह लीजिए-चिन्ता वही है, पर, उसका मिवा । कोमलांगियोंके कमलमुग्व मुरझाकर, बामीदूसग पहलू सामने भागया है ! नर्गका बदल गया है। फूल-म हा उठे। क्षणभर पहलेकी आशा-उत्कण्ठा काम सहज नहीं है, एक हजार पाठ कन्याओं इन्द्रधनुष की तरह विलीन होने लगी । वेगके साथ मेंमें एकका दक्षतापूर्ण निर्वान ! जो रूप, गुण धड़कनेवाली ह्रदयगति जैसे बंद होने जा रही हो। और घग्में सर्वोत्तम हो । घग्सं दो मतलब है निगशा-निशा इधर म्तब्धताका सृजन कर रही ममृद्धियिशेप और निर्दोष कुल । माथ ही इमपर है और उधर-7-उधर श्राशाका सूय उदय हारहा ध्यान रखना कि कि.मीकी तबियत न दुखे, बुरा न है । उमंग किलकारियाँ भर रही है।... लगे; कोई अपमान न समझे अपना। क्योंकि वैमा प्रतियोगितामें बिजलीकी तरह। हांना शांति भंग कर सकता है।-युद्ध या वेमी ही दःखद घटना घट जाना कठिन नहीं । भागन्तुक प्रियदत्ताने अपने पितासे कहा-'मेरे हाथमें रत्न समुदाय धनी भोर स्वाभिमानी जो है। भागया-पिताजी । यह देखाआखिर एक उपाय काममें लाया गया। सबको उसने मुट्ठी खोल दी। पसंद भाया वह । क्योंकि किसीकी नाखुशीका प्रश्न कोमल-हथेलीपर एक हीग चमचमकर मुस्करा उठता था-उसमें। पत्नी- निर्वाचन भाग्य रहा था। वह नहीं सकते, उस हथेलीपर स्थान पाने (छोड़ दिया गया था। भाग्यके सामने लोग सबब, या अपनी स्वामिनीके सौभाग्य-लाभ पर? Page #654 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वर्ष ४] अपना-वैभव पिताने पात्म-संतोषके साथ वाष्पाकुलितकण्ठस, सभी सुदृढस्वरमें बोली-'यह कैसा उपहास ?-प्रब सोत्सुक होकर कहा-'सच ?' दूसरी शादी कैसी ? इस जन्मके लिए तो हदयने वह बोली-हाँ । रत्न अब मेरे ही हाथमें आ कुबेरकान्तको वरण कर ही लिया था ! उनकी इच्छा गया है, पिताजी! व परणे, या न? पर, हम तो उनकी हो चुकी-सब! पिताके प्रत्यानन्दित कण्ठम निकला-भाग्य- पुनलंग्न अब केसा"? भारतीयताका ध्वंसक ! मदा. शालिनी है-बेटी! चारका शत्रु !! पाप-मूल !!! सब निरुत्तर! निर्निमेष !! आदर्श-युवक कुबेरकान्सकी शादी हुई-प्रियदत्ता के साथ ! सानंद, समारोहपूर्ण। देखा गया-तपस्विनी अनन्तमतीके निकट सब शेष कन्याओं के विवाहकी जब चर्चा उठी तो वे साधनामय जीवन बिता रही हैं ! अपना-वैभव (१) है दुराचारिणी-युवतीको प्रांवों-मी चंचन यह विभूनि ! जो स्वरूप-समयमें ही करती, प्रायः दुःसह-दुखकी प्रसूति !! लेकिन इस विश्व-मंचपर है, आदर इमको पर्याप्त, यों कि-- जो बने उपासक इसके हैं, भूने है वे जन 'स्वानुभूति' !! इस अखिन-सृष्टिकी माया भी, तुलनामें जिसके रहेम! उस महा-मून्य भाग्मिकताका जलना-बश, शठ कर रहा-बूम !! सौरभको जिप घूमना है, प्रान्तरमें विम्हल-सा कुरंग-- अपनी मुगन्धिके अनुभव-चिन ज्यों हाजीपर प्रमन!! (३) मिल जाय इसे पनि अपनी निधि, तो तुच्छ नगे सब धनागार । मानव, मानव बम जाय भोर--मिट जाए पशुना, कार" पा जाए या अनुपम-विभूमि, ध्रुवताम्मे जिसका गाद-प्रेम-- लेकिन है प्रावश्यक इसको-अध्यारम-प्रेमी , पद-विचार !! भी 'भगवत' जैन Page #655 -------------------------------------------------------------------------- ________________ धर्कट-वंश (ले०-श्री अगरचन्द नाहटा) P - चीन जैन जातियोंका इतिहास अभी तक पर प्रस्तुत 'धाकगढ़' कहां है ? पता नहीं। हमें उपलब्ध प्राय अंधकारमें पड़ा है। इस महत्वपूर्ण कार्य के लिये प्राचीन प्रमाणोंसे ज्ञात होता है कि प्राचीन समयमें धर्कट O अनुसन्धान बहुत ही कम हुआ है एवं सामग्री जानिका निवासस्थान 'श्रीमालनगर' या उसके आसपास ही की भी कमी है। कई जातियोंके तो केवल नाम ही इतिहास था। यथा-- के पन्नों में रह गये हैं, कई जातियोंका रूपान्तर हो चुका है, श्रीश्रीमालपुरीयधर्कटमहावंशः सुपर्वोज्ज्वलः । काल-प्रभाववश कई प्रसिद्ध वंश प्राज अन्यवंशोंके अंतर्भूत (जिनविजय-सम्पादित प्रशस्तिसंग्रह, प्र० नं०६३) हो चुके हैं । अर्थात् कई अप्रसिद्ध वंशोंने पीछेसे कुछ प्रसिद्धि । "श्रीमालाचलमौलिमूलमिलितस्त्रैलोक्यसुश्लाधितः । प्राप्त करली और प्रसिद्ध वंश लोप होगये । पर्वालीकलितः सुवर्णनिलयः प्रामादलब्धालयः । 'दिगम्बरजैन डाइरेक्टरी के पृष्ठ १४२० में धाकद जाति नीना--भ्यकुनः प्रलीनकलुषः शुभ्रातपत्रानुगो। का उस्लेख मिलता है और उनकी जन संख्या इस प्रकार वंशोस्ति प्रकटः सदोषधनिधिः (१) श्रीधर्कटानां पटुः ॥१॥ बतलाई गई है:--मध्यप्रदेशमें मनुष्य संख्या (प्रशस्ति नं०१२) १० एवं बम्बई पहाता (गुजरात, महाराष्ट्र और दक्षिण महाराष्ट्र) में सं० १३६८ की प्रशस्ति नं० ३६ में धर्कटवंश और १६२ अर्थात् कुल १२७२ जनसंख्या है। श्वेताम्बर समाज उपकेश वंश दोनोंका एक ही साथ उरलेख है। संभव है में पाकद नामक जातिका स्वतंत्र अस्तित्व तो अब नहीं रहा उस समय तक धर्कट वंशका प्रभाव कम होकर उपकेश वंश पर पोसवाल जातिकतर्गत 'पाक' मामक एक गोत्र की प्रसिद्धि अधिक होगई हो प्रतः धकट बंश उसके अंतअवश्य । भाकरका संस्कृत प्राचीन नाम 'धर्कट' है, यह भूत होगा। तो निश्चित है पर धर्कट नाम का एवं क्यों पड़ा ? इसके धर्कटवंशकी प्राचीनतानिर्णयका कोई साधन प्राप्त नहीं है। उत्पत्ति-स्थानकी भांति धर्कट वंशका समय भी अनिश्चित धर्कटवंशका उद्गमस्थान है, पर १०वी ११वीं शताब्दीके ग्रन्थों में इस वंशका उल्लेख माहेश्वरी जातिमें भी 'धाकर' नामक शाखा अद्यावधि पाया जाता है, अत: उससे प्राचीन अवश्य है। हमें उपलब्ध विद्यमान है। माहेरवरी जातिके इतिहास पृ०३० में उसके प्रमाणों में सबसे प्राचीन प्रमाण कविधनपाल-रचित भविसयत्तउत्पत्ति स्थानके विषपमें लिखा है कि-"गुजरात प्रान्तके कहा है। यपि उक्त अन्धमें प्रन्थकारने रचना-सम्बत् नहीं भाकगदमें २० खापोंके महेश्वरियोंके परिवार भाकर बस दिया है पर डा. हर्मनजैकोबी वं चिम्मनलाल भाईने उसका गये, जो भागे जाकर पाकर महेश्वरीके नामसे सम्बोधित समय भाषाको दृष्टिसे विचार करकं १०वीं 11 वीं शताब्दी किये जाने लगे। इनमें पाज भी ३२ खा विधमान है।" निश्चित किया है। Page #656 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] इस वंशकी विशेष प्रसिद्धि १३ वीं १४ वीं शताब्दीमें दुई और बादको इसका प्रभाव की होने लगा। इस वंश के लोग अपने मूल निवास स्थानसे हट कर कई प्रान्तों जाकर निवास करने लगे, अतः जहां जहां गये, वहां वहाँक प्रसिद्ध वंशों एवं धर्मोका इन पर प्रभाव पड़ा। फिर भी इस वंशकी १५ व १६ वी शताब्दी तक अच्छी प्रसिद्धि रही है। फक्षतः ८४ ज्ञातिके नामों की सूनीमें इस वंशको भी स्वतंत्र रूपसे स्थान प्राप्त है धर्कवंश के प्रत्यकार *1 धर्कट वंश अनुयायियों में श्वेताम्बर एवं दिगम्बर दोनों सम्प्रदाय के तीन व्यक्ति धर्कट वंश प्रसिद्ध प्रत्यकार होगये है, जिनका परिचय इस प्रकार है- १ धनपाल धर्कट धिक वंशके मायेश्वर इनके पिता -- + इन दो शताब्दियोंकी ही धर्कट वंश प्रशस्तियों एवं शिक्षालेख अम्य शादियोंकी अपेक्षा अधिक प्राप्त है। सं० १२६७ में रचित जिमपालोपाध्यायकृत चर्चरी वृतिमै जति उल्लेख में श्रीमान एवं धर्कटका उल्लेख किया है यथा-" जाति धर्कट श्रीमानिया" । " *म० १४०८ रचित पृथ्वीचन्द्रपति (माणिक्यसुंदरसूरिकृत) सं०] १२०० से पूर्व लि० महमद बेगडे वर्णन में (श्री० श० बणिक भेद पृ० २३४), सं० १२६८ का विमलप्रबन्ध, सं० १५०८ का विमचरित्र लेख-संवाद सं० ११४३२०० ३० सं० १२४५ ० ० ५ गु० सं० १२६५ का० ब० ७ गु० धर्कवंश वंशनाम कर्कट (धर्कट ?) धर्कट " एवं धनश्री इनकी माताका नाम था । इन्होंने अपभ्रंश भाषामें 'भविसयत कहा' नामक सुन्दर कथाग्रन्थ बनाया । कविने यद्यपि प्रशस्ति में अपने संप्रदाय पर्व समयका उल्लेख नहीं किया है पर हर्मन जैकोबी चादिने इनका संप्रदाय दिगम्बर एवं समय ११ वीं शताब्दी निश्चित किया है। २ चंद्रकेताका नाम पद्मचंद्र और पितामहका नाम धनदेव था। इनका रचित ग्रन्थ 'मुद्रित कुमचंद्र' सं० १९८१ में रचित है। ३ हरिषेण ये धक्कड वंशीय गोवद्ध म ཁྱ་ और सिद्धसेनके शिष्य थे, चित्तौड (मेवाड) के रहने वाले थे परन्तु कार्यवश अचलपुर जबसे थे, जहां पर उन्होंने वि० सं० १०४४ में 'धम्मपरिक्खा' नामका ग्रन्थ अपभ्रं शमें बनाया (देखो, 'अनेकान्स' सितम्बर १६७१ की किया और जैन विद्या अक्तूबर १६४१ का अंक) । धर्कट वंशके आचार्य सं० ११६३ में चंद्रगच्छ (सरवाल गच्छ) के बीरगणने अपना परिचय इस प्रकार दिया है-'रेश पटपड़कपुर वंशवर्धमानकी पत्नी श्रीमती के पुत्र वसंतने दीक्षा ग्रहण की, जिनका नाम समुद्रघोषा वीरगणि है । (जैन साहित्यनो संक्षिप्त इतिहास पृ० ३३७) धर्कवंशके प्रतिमालेख गोत्र- नाम देवास्तव्य सभगोष उमभगोष --- ६११ संभलना -- fize खेल- प्रकाशन-स्थान शांतिविम्व पार्श्वविम्ब प्रा० जे० नं० [सं० मं० ३७६ आबू० जे० जे० सं० नं० ५५ रंगमंडप जीर्णोद्वार म०००० प्र० ० ० ० ४०३ स्तंभ ना० जे० ० सं० ८६३३७ प्रा० जे० ० सं० ४०४ मा० ८६८ प्रा० ४०० Page #657 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१२ अनेकान्त . [वर्षे ४ - लेख-संवतादि वंशनाम गोत्रनाम बिम्ब लेख-प्रकाशन-स्थान . सं. १२८० फा०व०३ धर्कट जंतर्गत लेख प्राबू ले० २५० सं० १२६ वै०व०३ शांतिबिम्ब श्राबू ले० १२५ गुरंब्य वास्तव्य पाबू ले० २७७ सं० १३०८ मा० सु. ६ गु. प्रादिविम्ब पाबू ले. ५० सं० १३२५ फा० सु०८ भो. घरकट हस्तिकुडी वा० वि.४३ सं० १३५२ फा० सु. १.बु. धर्कट नाहर गोत्रे वासुपूज्य बिम्ब , ५० ना.10. सं० १४०१ फा० सु० । शु० उमभगोत्र कुथु विम्ब ना०१४८७ सं० ११. फा..२ गु. उपशज्ञातीय धरकट गोत्रे संभव बिम्ब ना० १२० वि० १७६ म० १५३० फा० सु... उमभगोत्र ना. १९८७ सं० १५५६ फा० सु. ३ मो० ,, (मेहता नगरे) विमल बिम्ब ना. १५२८ सं० १६०६ मा० सु." उसभ भाबू ले. २२४ सं० १६०७ ज्ये. सु. १३ गु० , को० मेहता ना०५४३ धर्कटवंशकी प्रशस्तियांसं० १२८२ का० सु. ८० धर्कट वंशीय पार्थनाग प्र० जि0प्र0 सं० १२८२ का० सु० ८ २० गणियक प्र० जि.) प्र०२५ प्रसं)। सं. १३०० का. २०१३ सालिग प्र० जि0 ४२, प्र0 सं0 ४२ सं० १३०८ माढाक जि) २८, प्र० सं० १४ सं० १३६८ ज्ये. व० ०७० देवधर जि) ३६, पाटगा सूर्ची पृ०३२७ (उपकेश वंशीय) संवतक उल्लेख रहिन प्रशस्तियाँ . १२ वीं श० धर्कट वंश जावड प्र. जि०५१, पाटण मूची पृ०३३३ १२१३वीं श० नेमिचन्द्र ., जि) १२, प्र) मं० १६ १३-१४ वीं श० वरदेव , जि.) १२, प्र० सं० २६ श्रीश्रीमालपुरीय . जि० १३. प्र.) मं.) २ अम्तमें दिगम्बर जैन विद्वानोंसे मेरा अनुरोध कि उनके साहित्य एवं इतिहासमें धर्कट-जानि-सम्बन्धी जो कुछ भी सामग्री हो उसे वे शीघ्र ही प्रकट करने की कृपा करें। . ना=नाहरजी सम्पादित ल.सं. प्रावृ=जयंतविजय सम्पादित लेग्यसंग्रह प्रा-जिनविजयजी सम्पादित प्राचीनले० सं० वि०%विद्याविजय सम्पादित लेखसंग्रह जि=जिनविजयजी सम्पादित जो सिंघी ग्रन्थमालासं शीघ्र ही प्रगट होगा। मुझे मुनिजीने फरमे भेजे, इसके लिये भाभारी प्र०सं०-प्रशास्तिसंग्रह, अहमदाबादमं प्रकाशिन। पाटणसूची-गायकवाड मोरियंटन सीरीजमं प्रकाशित। Page #658 -------------------------------------------------------------------------- ________________ तामिल-भाषाका जैनसाहित्य [मूल लेखक--प्रो. ए. चक्रवर्ती M. A. 1., E.S.] [अनुवादक-पं० सुमेरचंद जैन 'दिवाकर' न्यायतीर्थ, शास्त्री, B.A.LL. B.] (गत किरणसे आगे) एक और तामिल भापाका काव्य प्रन्थ है, जिस मुख्य छह अध्याय हैं-नजैककाण्डम् , लावाणक 'में उदयनकी कथा लिखी गई है। यह प्रायः काण्डम,मघदककाण्डम् वरावकाण्डम्, नरवाणकाण्डम्, लघु काव्योंमसे नहीं है। प्रतिपाद्य विषयकं विस्तार थुरवुकाण्डम्, ये सब उदयनकी महत्त्वपूर्ण जीवनीसे एवं प्रन्थमें प्रयुक्त हुए छंदको देखकर यह कहना मम्बन्ध रखते हैं। पड़ता है कि यह एक म्वतंत्र कृति है, जिसका परंपग उदयन कौशाम्बीके कुरुवंशी शामक शांतिकका में प्राप्त हुई सूचियोममे किमीमें भी समावेश नहीं पुत्र था। शांतिककी रानीका नाम था मृगावती । हुआ है। डा० म्वामीनाथ ऐयरके कारण, जिनका हम गर्भकी उन्नतावस्थामें, वह अपने महलकी ऊपरली उल्लेग्य कर चुके हैं और जो तामिन साहित्य के लिये मंजिलपर दासियोंके साथ क्रीड़ा कर रही अथक परिश्रम करते हैं, यह रचना तामिल पाठकों थी। वहाँ उसने स्वयं अपनेको अपनी दासियोंको के लिये सुलभ होगई है । इसका 'पेनकथै' यह और क्रीडास्थलको प्रचुर रक्तपुष्पों तथा लाल रेशमी नामकरण प्रायः गुणाव्यरचित बृहत कथाके अनुरूप वस्रांस सुसज्जित किया था। क्रीड़ाके अनन्तर वह किया गया है, जोकि पैशाची नामकी प्राकृत भाषामें गनी पलंगपर सो गई । हिंदूपुगण-वर्णित सबम लिखी गई है। बलशाली पक्षों शग्भ वहां बिग्बरे हुये लाल पुष्पोंक इसका रचयिता कोंगुदेशका नरेश कोंगुवंल कहा कारण उस प्रदेशको गलनीसे कच्चे मांमसे पाच्छाजाता है। वह कोयमबटूर जिले के विजयम नगर दित समझकर उस पलंगको सांती हुई मृगावती नामक स्थल पर रहता था, जहाँ पहले बहुतस जैनी सहित विपुला चल ले उड़ा। जब मृगावती जागी तब रहा करते थे । नामिल माहित्यमें व्याकरण नथा वह अपने आपको विचित्र वातावरणमें देखकर मुहावरके प्रयोगोंको उदाहन करने के लिए इम ग्रंथकं .आश्चर्यचकित हुई। जो पक्षी मृगावती को वहां ले अवतरणोंको अनेक विख्यात सामिल टीकाकागने गया था उस जब यह मालूम हुमा कि वह तो एक उद्धृत किया है। दुर्भाग्यम जो पुस्तक छपी है वह जीवित प्राणी है, न कि मांसका पिंड, तब वह सं अपूर्ण है। अनेक प्रयत्न करनपर भी सम्पादकको वहां छारकर चला गया। उसी समय उसने एक पत्र पुस्तककं आदि तथा अंतकं त्रुटित अंश नहीं मिल का जन्म दिया जो भागे 'उदयन' कहा जायगा। उमे सके । अनिश्चित काल नक प्रतीक्षा करते रहनकी यह देखकर अानंद और पाश्चर्य हुआ कि यहां अपेक्षा यह अच्छा हुआ कि प्रन्थ अपूर्णरूपमें ही उसके पिना चेटक नियमान हैं, जोगभ्यका परित्याग प्रकाशित कर दिया गया। गुणान्यकी बहत् कथासे, कर देने के बाद बहाँ जैन योगीके रूपमें अपना समय जिसमें कि किनना ही दूसरी कथाएँ हैं, तामिल व्यतीत कर रहे थे । जब उनका बच्चे गनेकी पैनकथैक रचयिताने केवल उदयन गजाकं जीवन आवाज सुनाई दी, तब वहां पहुंचे और अपनी मन्बन्धी अंशों को ही प्रहण किया है । इस कथामें पुत्री मृगावतीको देन्या । चूकि बच्चे की उत्पत्ति Page #659 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१४ अनेकान्त लगभग सूर्योदय के समय हुई थी, इस लिये उसका नाम 'उदयन' रखा गया । उसी विपुलाचल पर एक ब्राह्मण ऋषि ब्रह्मसुन्दर अपनी स्त्री ब्रह्मसुन्दरीके साथ रहता था। मृगावती के पिता चेटक मुनिने अपनी पुत्री और उसके शिशुको ब्राह्मण मुनिके जिम्मे सौंप दिया, जहां पर उनकी देख-रेख अपने कुटुम्बी जनों के समान की जाती थी। इस ब्राह्मण ऋषिका एक पुत्र 'युगी' नामका था। युगी और उदयन बाल्यकाल से ही पक्के मित्र हो गये और उन की मित्रता जीवन पर्यन्त रही । [वर्ष ४ चाहता था । जबकि उदयन वैशाली में शासन कर रहा था तब उसका पिता शांतिक, जो मृगावतीक वियोगके कारण बहुत दुग्बी था, अनेक स्थानों में ग्वाज करता हुआ विपुलाचल पहुंचा, जहां उसे उसकी रानी मिली जो अपने पिता के संरक्षण में थी रानी कं पिताकी आज्ञा से शांतिक उसे कौशाम्बी ले गया । कुछ समय के अनंतर उदयनको अपने पिताका भी राज्य मिला और इस तरह वह कौशाम्बी और वैशाली दोनों का शासक होगया । कुछ समय बाद चेटक मुनिके पुत्रने, जो अपने पिताकं राज्यस्यागके बाद से राज्य शासन कर रहा था, स्वयं राज्यको छोड़कर तपस्वी बनना चाहा । वह अपने भावको प्रगट करनेके लिये अपने पिता के पास पहुंचा, जहाँ से सुन्दर युवक उदयन मिला जिसका परिचय उसके नानाने कराया । जब यह मालूम हुआ कि उदयन उसकी बहनका पुत्र है, तब वह उदयनको उसके नाना राज्यका शासन करनेके लिये अपने नगर में लेगया । उसके साथ में उसने उसके मित्र तथा साथी युगी को भी ले लिया था, जोकि उसके जीवन भर उसका महान सहायक रहा। जबकि उदयन अपने उपपिता ब्रह्मसुन्दर मुनिके पास रहता था, तब उस ब्राह्मण ऋषिने उसे एक बहुमूल्य मंत्र सिखाया था, जिसकी सहायनास अत्यन्त मत्त और भीषण हाथी भी भेड़ के समान शान्त और निरुपद्रव बनाया जा सकता था। उन्हीं ब्रह्म ऋषि पुरस्कार में उसे एक दिव्य-वाद्ययंत्र भी मिला था जिसकी ध्वनिस बड़े बड़े जंगली हाथी पालतू और अधीन बनाये जा सकते थे। इस यंत्र और बाजेकी सहायता से उसने, जबकि वह जंगल के आश्रम में रहता था, एक प्रसिद्ध हाथी को वश में किया, जो पीछे ऐसा दिव्य गजराज जान पड़ा जिसमें अनेक वर्षों तक उसकी भारी सेवा करने की सामर्थ्य थी। जब उदयन अपने नाना के आवासस्थान वैशाली गया, तब उसने अपने मित्र और साथी युगी को ही अपने साथ नहीं लिया, बल्कि इस हाथी को भी साथ में लिया, जो उदयनकुमारकी सेवा करना इसके अनंतर उदयन के सच्चे साहसपूर्ण कार्यों का आरंभ होता है। गुफ़लत से उसका दिव्य हाथ वांजा है। वह अपनी वीणा लेकर हाथीकी खोजम निकलता है, इसी समय उज्जैन के महाराजा प्रचादन अपने सेवकको वत्स तथा कौशाम्बीके नरेशोंम कर वसूल करनेके लिये भेजते हैं। प्रचोदनका मंत्री शालंकायन इस साहसपूर्ण कार्य में हाथ डालने से मना करता हुआ उपयुक्त अनसरकी प्रतीक्षा करनेकी सलाह देता है। जब उदयन जंगलमे घूम रहा था तब प्रच्चादन उसे क़ैद करनेका उपयुक्त अवसर देखकर हाथी के रूप में एक इस प्रकारका यंत्र भेजा जिसके भीतर हथियारबंद सैनिक छिपे हुए थे । ट्रोजन (trojan) के घोड़के समान यह यांत्रिक गजराज उस बनम बेजाया गया जहाँ उदयन अपने खाये हुए हाथीको खोज रहा था । इम यांत्रिक गजगजको जंगली हाथी समझकर उदयन उसके पास पहुंचा ही था कि शीघ्र ही उसके भीतर से सैनिक कूद पड़े और उन्होंने उदयनको क़ैद कर लिया । उदयन कैदी के रूपमें उज्जैन लाया गया। जबकि sea कैदी के रूपमें था तब एक समय उसके मित्र और मंत्री युगीको मालूम हुआ कि महाराज उदयन को उज्जैन के नरेशने कैद कर लिया है; इसलिये उसने इस बानका निश्चय किया कि किसी न किसी तरह उसे कैदमे छुड़ाऊँ और उज्जैन के नरेशको उसकी उद्दंडता के कारण दंडित करूँ । इसलिये वह भेष बनाकर अपने मित्रोंके साथ वहाँ गया और उपयुक्त अवसरकी प्रतीक्षा में उज्जैन के समीप ठहर गया Page #660 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२) तामिल भाषाका जनसाहित्य - जबकि वह गुप्त वेषमें था नब उसने अप्रकट रूपसे देशके नरेशने जीत लिया था, जो कौशाम्बी राज्यके उदयनको सज्जैन में अपनी उपस्थितिकी सूचना प्रति सद्भावना नहीं रखता था। इस कारण यगी पहुंचा दी और इस बातका विश्वास दिला दिया कि इस बात के लिये प्रयत्न करता है कि जिससे वासबमैं तुम्हें शीघ्र ही छुड़ा लँगा । उपयुक्त भवमरका दत्ताका उसके पति वियोगहोजाय । बह एक ऐमी प्राप्त करने के लिये उसने अपने मित्रों की सहायतासे चाल चलता है जिससे उदयनको यह विश्वास हो राजाके हाथीको उन्मस और बेकाबू बनाने के उद्देश्य जाता है कि उसका महल जलकर राख हो गया और से मंत्रका प्रयोग प्रारम्भ किया । फलत: हाथी उसमें महारानी वासवदत्ता जलकर मर गई। महल जंजीरोंके बंधन तुड़ाकर नगरकी गलियों में फिरता में आग लगानेके पहले वासवदत्ता अपने मनुचरोंके हा भारी हानि करने लगा और उसे कोई भी वश माथ एक सुरंग मार्गसे सुरक्षित स्थलपर ले जाई में न कर मका। तब महागज प्रच्चोदनको अपने जाती है जहां वे सबगुप्त रक्खे जाते हैं। ये दसरे मंत्री मालकायनसे मालूम हुआ कि इस प्रकार के अध्यायमें वर्णित पदयनके जीवनकी कुछ मुख्य जंगली हाथीको वशमं करनमें ममर्थ एकमात्र उदयन बात है। ही है और वह कैद में है। इसपर गजाने में शीघ्र मघदककाण्डम नामके तीसरे अध्यायमें मगध देश ही बला भेजा, और उमं मात्र उम उन्मत्त हाथीका में किये गये पदयनके माहमपूर्ण कार्योका वर्णन है। वशमें कर लेने की शनपर स्वतंत्रताका वचन दिया। अपनी महागनी वामवनसाक वियोगस मुदयनके उदयनन अपनी वीणाकं द्वारा उस उन्मस हाथीका अंतःकरणको बहुत आघात पहुंचा । इसलिए वह गायक ममान पालत कर लिया, और इस तरह गजा मगधकी राजधानी गजगृहको जाता है ताकि वह को बहन प्रसन्न किया। उदयनको म्वतंत्रता मिली एक महान योगीकी महायनासे, जो मंत्रबलसे मृत और वह महाराज-द्वाग गजकन्या वासवदत्ताका व्यक्तियों नकमें पुनः प्रागा संचार करनेकी समताके संगीत-शिक्षक नियत किया गया। लिए प्रमिद्ध है, अपनी मृतपत्नी बामवदत्ताको पुनः इसके बाद अपने मंत्री युगीकी महायनामे उद- प्राप्त कर सके । वहाँ उमं मगधनरेशकी गजकमा यन, जिसने वामवदत्ता के हदयको जीन लिया था, पद्मावती मिल जाती है। प्रथम दर्शनपर ही एक नलगिरी हाथीकी पीठपर वासवदत्ताको बैठाकर राज- दूमरेके माथ प्रेमामक होजाते हैं। उदयन जो ब्राह्मण धानीसे भाग जाता है। इस प्रकार उज्जैककांडम नाम यवक वषम था, गजकमारी पपावनीको पर्णपसे का पहला अध्याय ममान होना है, जिसमें उज्जैन बशमें करनका प्रयत्न करता और इस तरह गजा नगरमें उदयनके पगक्रमका वर्णन किया गया है। की अजानकारी में ही उसके साथ गंधर्व विवाह कर दमरे अध्यायको लावाणकांडम कहते हैं। क्योंकि लेना है। जबकि वह इस प्रकार गुणवेष धारण किये असमें लावाणनगरमें उदयनकी जीवन घटनाका गजगृह में जीवन व्यतीत कर रहा था, तब शत्रुओंने वर्णन है । उज्जैनसे निकलकर उदयन अपने गज्यके उम नगरको घेर लिया । उदयन अपने मित्रोंकी लावाण नगग्में पहुंचता है और वहां वासवदत्तासे महायताम उम नगरकी शनोंसे रक्षा करता है विवाहकर में अपनी गनी बना लेना है । अपनी और इस नम्ह मगध महागजके विश्वास तथा कृतरूपवती गनीके मोहमें वह गजकीय कर्तव्यको भूल शताको प्राप्त करता है। अन्त में गजकुमारी पद्मावती कर उमकी अवहेलना करता है। यह बान उमके का विवाह उदयनके माथ होगया और वह गनी उन मित्रों को पसन्द नहीं पाती है जो यह समझने हैं पद्मावतीके साथ राजगृहमें सानंद काल व्यतीन कि अभी बहुत कुछ करने को बाकी है, क्योंकि जब करने लगा। उदयन उज्जैनम कैद था नब उसके गज्यको पाँचाल इसके पश्चान' वत्सबकाएम्' नामका चौथा Page #661 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अध्याय प्रारंभ होता है। इसमें सदयनके द्वारा अपने दंडित करे। श्वसुर मगमनरेशकी सहायतासे अपने वत्सदेशकी इस उत्तेजनाको अवस्थामें कौशलके नरेशका पुनः विजयका वर्णन है। वहाँ अपने वृद्ध प्रजाजनों एक पत्र वासवदत्ताके पास पाता है । इस पत्रम के द्वारा उसका स्वागत किया जाता है, क्योंकि उन कोशलाधीश अपनी बहिनकी कथा लिखते हैं, जो लोगोंको पांचालनरेशके अत्याचारोंका कटु अनुभव पाँचाल नरेशके द्वारा कैदीके रूपमे ले जाई गई थी हो चुका था । इस प्रकार अपने प्रजाजनोंका विश्वास जिस उदयन महाराजने उसके अनुचरोंके साथ मुक्त लाभ करकं वह अपने राज्य वत्मदेशमें अपनी महा- कर दिया था, जब उदयन महाराजने पांचालाधीश रानी पद्यावती साथ सखपर्वक निवास करने को हराकर उम देशपर पुनः विजय प्राप्त की थी । लगता है। एक दिन वह वासवदत्ता गनीसे मिलने उस पत्रमे यह भी बताया गया था, कि किम तरह का स्वप्न देखता है। इस स्वप्नसं पिछली गनी वह माननिका नामसं वासवदत्ताकी दामी बनाई गई वासवदत्ताके प्रति उमका अनुगग जाग उठता है। थी। यह भी प्रार्थना की गई थी कि कौशलकी राजइतनेमें उसका मित्र यूगी, जो मसकी आपत्तियोंमें कुमारीक साथ उसकी प्रतिष्ठाके अनुरूप कृपा तथा महायतार्थ सदा पाया जाया करता था, गजगृहक लिहाज करते हुए व्यवहार किया जाय । जब वासवद्वारपर उदयनकी पहली रानी वासवदत्ताके साथ __ दत्ता इम पत्रको पढ़ती है, तब वह माननिकास दिखाई पड़ता है। उदयन अपनी गनीको देखकर अपनी कृतिकं प्रति क्षमा-याचना करती है और उम मानंदित होता है, जिसे उसने मत समय लिया राजकुमारीके योग्य पद तथा प्रतिष्ठाको प्रदान करती था, वह पद्मावतीकी सम्मतिसं उसे अपने महलमें ले हे। अन्तम.स्वयं वासवदत्ता उदयनके साथ, उमक जाता है और अपनी दो रानियों के साथ राजगहमें विवाहकी तजवीज करती है, जो कोशलकुमारीपर मानंद-पूर्वक जीवन व्यतीत करता है। आसक्त पाया गया था। ART Imama पाँचव अध्यायम उदयनके एक पत्र एवं उत्तगदोनों रानियों के साथ अपना जीवन सम्बपर्वक बिना धिकारीक जम्मका वर्णन है। कुछ समयके बाद रहा था, तब उमकी मेंट अपनी गनियोंकी सखी वामवदत्ताक नरवाणदत्त नामका एक पुत्र उत्पन्न माननिकास होगई और वह उस अपरिचितपर हुआ। उसक जन्मक पहले ही ज्योतिषियोंन उसकी महत्ताका वर्णन कर दिया था और कहा था कि वह स्थालमें मिलने का निश्चय किया । इसका पता विद्याधगेक राज्यका स्वामी होगा, भले ही उसका वासवदत्ताको लग गया और उसने उस माननिकाको जन्म साधारण क्षत्रिय वंशम हो। काल पाकर उसे केदमें कर लिया और माननिकाकी पोशाक पहनकर पिनाम कौशाम्बी और वत्माज्य मिला और उसके वह उदयनसे मिलने की प्रतीक्षा करने लगी । वेष- नानास उम विद्याधर्टीका राज्य उज्जैन मिला । यथाधारिणी वायवदसा युदयनम नीरसतापूर्ण व्यवहार वसर उसका पिता उदयन गज्यका त्याग करता है करती है, यद्यपि उदयन उसे अपनी स्नेहपात्र मान और साधु बनकर अपना समय योग तथा ध्यानम निका समझकर उमं मनानेके लिए अनेक प्रार्थना व्यतीन करता है। उदयनके इस त्यागका वर्णन इम करता है । इसके बाद वह अपना अमली रूप प्रगट तामिलग्रंथ पेरुनकथेक छठे और अंतिम अध्यायमें करती है, जिससे उदयनको संताप होता है और वह किया गया है। प्रभात समय महलकी भार भाग जाता है। प्रभातमें (क्रमशः) वासवदशा माननिकाको इसलिए बुलानी है कि वह उसे राजाको प्राप्त करनेकी आकांक्षाके उपलक्षम Page #662 -------------------------------------------------------------------------- ________________ 'सयुक्तिक सम्मति' पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता (लेखक--40 रामप्रसाद शास्त्री) ४ भाष्य [गा किरण मे आगे] भाष्य' का प्रयोग न करनेके सम्बन्धमें इतना ही (ग) इस भाष्य-प्रकरणमें प्रो० जगदीशचन्द्रन कहना है कि अकलंकदेवनं तत्त्वार्थसूत्रपर दो-चारभाष्य गनवार्तिक-भाष्यक “यद्भाध्य बहुकृत्वः षडद्रव्याणि ता बनाय नहीं हैं, जिसमें कि वहां शंकाकार की ओर इत्युक्त" वाक्यका लेकर लिखा था कि-"यदि यहां संभाष्य' के पहले 'अस्मिन्' शब्दके लगानेकी भाष्यपदका वाच्य राजवार्तिकभाष्य होता तो भाष्य' जरूरत पड़ती । जब अकलंक देवका तत्वार्थसूत्रपर एक गजवानिक भाष्य ही मिलता है तब फिर न लिम्वकर अकलंकदेवको 'पूर्वत्र' आदि काई शब्द 'अम्मिन भाय' (इस भाप्यमें) ऐमा वाक्य लिम्बनको लिम्बना चाहिये था ।" इस कथनपर आपत्ति करते कंवल व्यर्थता ही सूचित होती, अतः शंकाकारकी और उसे अनुचित बतलाते हुए मैंने लिखा था कि"सर्वत्र लेग्बककी एकसी ही शैली होनी चाहिय ऐमी पोरस 'भाष्य' पदकं पहले 'अस्मिन' पद न लगाकर जा केवल 'भाध्य' पदका प्रयोग किया गया है वह प्रतिज्ञा कर के लेखक नहीं लिम्वतं, किन्तु पनको जिस लंग्वन-शैली में स्व-परको सुभीता होता है, वही शैली उचित ही है । और यदि वहां अकेला 'पूर्वत्र' शब्द ही अंगीकार कर अपनी कृतिमें लाते हैं, 'पूर्वत्र' शब्द लिग्या नाना तो शंका नदवथ ही रहती कि- 'पूर्वत्र' कहांपर भाष्यमें या वानिय में अनः कहना होगा कि देनसे संदेह हो सकता था कि-वार्तिकम या भाष्य में? वैसी शंका किमीको भी न हो इसलिये स्पट राजवार्तिकमे जा केवल 'भाप्य' पर दिया गया। 'भाष्य' यह पद लिखा है। क्योंकि गजव तिकक वह इस दृष्टिम भी मवथा उचित है। पंचम अध्यायके पहले सूत्रकी पार्षविगंध' इत्यादि इसके बादमें श्रापन गजवार्निक (पृ०२६४) के ३५वीं वार्तिकके भाष्यमें 'षण्णामपि दव्याणां' "ननु पूर्वत्र व्याख्यानमिदं" इत्यादि वाक्यके द्वारा 'आकाशादीनां षण्णां' ये शब्द आये हैं, तथा अन्यत्र जो यह लिखा है कि 'यहाँ 'पृर्वत्र' शब्दस पूर्वगत भी इसी प्रकार राजवार्तिक भाष्यमें शब्द है। व्याख्यानका सूचन किया है मां यहां वार्तिक और गजवानिकभाष्यमें यह षद्रव्यका विषय स्पष्ट रू में भाष्यका मंदेह क्यों नहीं ? इसका जवाब यह है कि होनस पं० जुगलकिशोरजीने यह लिम्ब दिया है कि शंकाकार जब किमी निश्चित थानको लेकर शंका "और वह उन्हीं का अपना गजवार्तिक-माष्य भी हा करता है कि अमुक स्थलमें एमी बात कही है उमक मकता" यह लिम्बना अनुचित नहीं है।" मग इम क्या ममाधान है? तब समाधानकर्मा यदि उमी आपत्तिके उत्तर प्रो०साहबने जो कुछ लिया है. स्थल को लेकर ममाधान करंगा ना केवल 'पूर्वत्र' या उमकी निःसाग्नाको नीचे व्यक्त किया जाना है:- 'उत्तरत्र' शब्दों के माथमें उसका उल्लेख कर मकेगा; सबले पहले आप लिखते हैं कि:-'याध्य बहुकृत्वः' और यदि समाधानका स्थल काई दृमग हागा ता मादि उल्लेख गजवार्तिकका भी नहीं हो सकता। वहां या तो ग्वाम उम म्थलके नामोल्लम्बपूर्वक यदि यहाँ 'भाष्य' पदसे अकलंकको म्बकृत भाष्य समाधान करेगा अथवा उस स्थल के पहले 'पूर्वत्र' इष्ट होता तो उन्हें स्पष्ट 'अम्मिन भाष्य' अथवा या 'उत्तरत्र' शब्द जोड़करके भी समाधान कर 'पूर्वत्र' आदि लिखना चाहिये था।" यहां 'अम्मन सकेगा। गजवातिक तथा अन्यत्र एमी पद्धनिका Page #663 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६१८ अनेकान्त अनुसरण किया गया है। प्रोफेसर साहबने जो स्थल 'ननु पूर्व त्रेत्यादि' राजवार्तिक के प्रकरणका उल्लिखित किया है उसमें तथा 'यद्भाष्ये बहुकृत्वः षडद्रव्याणि इत्युक्त' और 'वृत्तौ पंचत्ववचनादित्यादि' ये दो स्थल विवादात्पन्न हैं उनमें समाधानकी यह बात इसी रूपसे घटित होती है - परस्पर में कोई विरोध नहीं है । हां, आपने अपने पक्ष के समर्थन में राजवार्तिक पत्र २६४की जो पंक्ति दी है उसका पूर्णरूप इस प्रकार है: -- " ननु पूर्वत्र व्याख्यातमिदं पुनप्रह हगामनर्थकं सूत्रेऽनुपातमिति कृत्वा पुनरिदमुच्यते ।" [ वर्ष ४ 'व्याख्यातं ' शब्द भाष्यका बोधक है। इसलिये शंका का स्थान निश्चित होता है यह बात जो पहले लिखी गई है वह बात भाध्यवाचक 'व्याख्यातं'' से सिद्ध है । इस वाक्य शंकाकार की शंका और प्रन्थकार द्वारा शंकाका समाधान ये दोनों बातें प्राप्त हैं। इस जगह 'पूर्वत्र' का सम्बन्ध 'व्याख्यात' इम पदके साथ नहीं भी हो तो चल सकता है, परन्तु 'सूत्र' के साथ न हो तो वह कदापि भी नहीं चल सकना । वयांकि 'पूर्वत्र' के बिना केवल 'सूत्रे' ही माना जाय तो जिम सूत्रके ऊपर यह गजवार्तिककी पंक्ति है उसमें अर्थात् ' स्वभावमादत्रं च' में तो मनुष्य - श्रायुका कार मार्दव लिखा ही है, अतः 'सूत्रेऽनुपातं' इस वाक्य द्वारा समाधान करना व्यर्थ हरेगा | फिर यह शंका हो सकती है कि यहां 'सूत्रे' जो लिखा है वह कौनमा सूत्र पूर्वका उत्तरका या अन्यत्र का ? तो इस शंकाका समाधान 'पूर्वत्र' आदि शब्द के बिना हो नहीं सकता। अतः 'ननु' इत्यादि वाक्यमे जो 'पूर्वत्र' शब्द आया है वह 'सूत्रे' पदके साथ संबंध - निमित्त हो आया है, और शंकाकारकी शंकाका विषय दानों जगहका भाष्य देखकर भाष्यपर है। 'नु' इत्यादि पंक्ति में जा 'व्याख्यात' पद है वह भी भाष्यका सूचक है; क्योंकि 'व्याख्यातं' शब्द का अर्थ 'वि-विशेषे आख्यातं = व्याख्यातं' भी होता है । विशेष रूपमें आख्यान करनेवाला भाष्य ही होता है । यदि 'व्याख्यात'' का अर्थ 'विशेषेण आख्यातं ' किया जाय तो वह यहां बन नहीं सकता; क्योंकि 'अप्लारम्भ परिग्रह मानुषस्य' इस सूत्र के भाष्य में 'मार्दव' का विशेषरूपसं वर्णन न मामान्यरूप से 'मार्दव' नाम ही लिखा है । इससे कहना होगा कि यहां कदाचित 'पूर्वत्र' शब्द 'व्याख्यातं' का विशेषण रूपसे भी विन्यस्त हो तो कोई दोष नहीं । हाँ, यदि पूर्वत्रके साथ केवल 'उक्त' शब्द होता तो यह शंका अवश्य होती कि पूर्व (पहले) यह बात कहां कही गई है— माध्यमं, वार्तिकमें या सूत्रमे, ? अतः कहना होगा कि यहां 'ननु पूर्वत्र' इत्यादि वाक्य विकर जो 'मयुक्तिक सम्मति' का अभिप्राय खंडन करना चाहा है वह ऐसी पांच दलीलोंसे कदापि भी खंडित नहीं हो सकता-अखंड्य है । आगे प्रो० सा० ने जो यह लिखा है कि"शंकराचार्य आदि विद्वानांने ' अस्माभिः प्रोक्तं ' अथवा 'पूर्वत्र प्रांत' आदि शब्दों द्वारा ही स्वग्रंथकृत उल्लेखका सूचन किया है" इसके सम्बन्ध में इतना ही कहना है कि शंकराचार्य वगैरहके जां 'अम्माभिः प्रोक्तं ' ' पूर्वत्र प्रोक्त' ये वाक्य हैं वे अपनी अनु मृति आहिर करने के लिये हैं न कि शंकाविषयक किसी समाधानको सूचित करनेके लिये । अतः उनके वाक्योंका और राजवार्तिक-सम्बन्धी 'ननु पूर्वत्र' आदि वाक्योंका कोई सम्बन्ध अथवा मादृश्य नहीं है । दूसरे, आपका जो यह कहना है कि अकलंक - देव ने 'भाष्ये' के स्थान पर 'पूर्वत्र' क्यों नहीं लिखा ? तो इसके जवाब में मेरा यह कहना है कि अकलंक देवनं- 'श्वेताम्बरभाष्ये' या 'तत्त्वार्थभाष्ये' न लिम्व कर कांग 'भाष्ये' ही क्यों लिखा ? यदि उनका विचार वहां श्वेताम्बर भाष्य के लिये ही था तो म्पष्ठ लिखने में उन्हें क्या कोई अड़चन थी ? जब उन्होंने उस स्थल में केवल 'भाष्य' ही लिखा है तो स्पष्ट है कि उनका अभिप्राय अपने भाष्यका या 'सर्वार्थसिद्धिभा० ' का ही है । यदि वहां वे केवल • 'पूर्वत्र' शब्द ही लिख देते तो कदाचित् उससे उनके भाष्यका तो बांध भी हो सकता था, परन्तु सर्वार्थसिद्धि का तो बोध नहीं हो सकता था । यदि उन्हें दोनों ही भाष्य अभिप्रेत हों तो Page #664 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] सयु० स०पर लिखे गये उत्तरलेखकी निःसारता ६१६ सर्वार्थसिद्धि और गजवार्तिक इन दोनों का निर्वाह का उपयोग किया है। 'पूर्वत्र' शब्दस कैसे किया जासकता था ? सर्वार्थ- हरिभद्र सूरि श्वेताम्बर विद्वानों द्वाग ८ वी ९वीं सिद्धि उन्हें यों अभिप्रेत होमकती है कि-'न हि कृत शताब्दी के माने जाते हैं। और सिद्धसेनगणी उन मुपकारं साधवा विस्मरति' इस आर्ष नीतिवाक्यका से पीछेक विद्वान हैं-इनका ममय १० वी ११ वीं अनुसरण करने के लिये ही अकलंकदेवने भाष्य शब्द शमान्दाफ लगभग पड़ना है । अतः अकलंकदेवके के द्वारा सर्वार्थसिद्धिकी श्रादरम्मृति जाहिर की हो बहुन पीछक इन विद्वानों द्वाग तत्वार्थसूत्र और तो वह बात सम्भावत है। श्वेताम्बर भाष्य तो श्व० भाप्यकी एक कतना आदिकी मान्यतायें कुछ उनके सामने संभवित ही कहां था ? कारण कि वे भी कीमत नहीं रखतीं । हाँ यदि अकलंकसं पूर्व एक ता कर्नाटकके थे, जो सौगष्ट्र-कन्छ न दूर पड़ना किन्हीं अन्य श्वेताम्बर विद्वानोंने इस बातका मप्रहै, दसराताम्बरभाष्यका उनके पूर्ण रचा जाना भी मागा उल्लग्न किया हा कि 'श्वेताम्बर हा कि श्वेताम्बग्भाष्य और किसी पुष्टप्रमाणस निश्चित नहीं है। और जब नत्वार्थ मृत्रके का एक हैं-' और इमलियं भाष्यआजकलकं कोताम्बर धुरीण पंडिन पूज्यपादके कार भी अकलंकदेवके पहले के हैं-यह बान मामन ही माम्प्रदायिक बदरता बनलाते हैं तो फिर विचारणीय अवश्य होगी। अकलंकदेवकं सामन तो वह और भी ज्यादा प्रा मैंने मक्तिक मम्मति 'शब्दमाम्यादि बहुत गई होगी, ऐसी हालतमें याद अकलंकदेवके मामने शास्त्रों के बहन शास्त्रों म मिल सकते हैं तथा मिलते हैं। वह भाष्य होता तो उसके उद्धरण देकर उसकी यह बात जो लिखी थी वह दर्शनशास्त्रों में प्रायः एमी समीक्षा रूपसे खंडन अवश्य करते । परन्तु यह बात बात हानकी सम्भावना हामकती है, इमलिय लिग्बी गजवातिकम कहीं भी नज़र नहीं आती, अतः कैम थी परन्तु फिर भी जब आपका यह ही दुराग्रह है कहा जाय कि गजवातिककारके मामने श्वनाम्बर कि गनवार्निक में श्वेताम्बर भाष्यके शब्द है तो फिर भाष्य था ? रही परस्पर सहयोगी बान, वह पूज्य- आठवी नवी शताब्दीके पूर्ण होने वाले किन्हीं पादसे बहुत पूर्ण ही सम्भविन है जबकि सिद्धान्तोंम विद्वानों के स्पष्ट उल्लम्वों द्वाग यह मिद्ध कीजिये कि मतभेद न होकर दोनों सम्प्रदायोके पृथक हानकी अकलंक म पूर्ण इम श्वनाम्बर भाष्यका अस्तित्व था। प्रारम्भिक दशाके करीबका समय होगा ? माहित्यदृष्टिके विकाम द्वारा जो पं० सुग्यलालजीका __ऊपरक इम सब विवंचनपासं स्पष्ट है कि भाप्य- नव्यता और प्राचीनता विषयक विचार है वह कुछ विषयक प्रकरण (ग) भागम प्रा० माने जो कुछ भी मृल्य नहीं रखना, क्योंकिजा जितना विशेष विद्वान लिग्या है इसम पिष्टपेषगणक मिवाय और कुछ भी होगा वह उतनी ही प्रौढनाको लिए हुए. व्याकरणसार नहीं है। न्याय प्रादिकी विदनापूर्वक विशेषरूपस पदार्थका (१) स्वार्थभाष्य और राजवार्तिक में प्रतिपादन करेगा । जो भाष्य लिम्बना है वह भायनाके गुणांका भी अपनी टीकामें प्रतिपादन शब्दगत साम्य करता है । जिम टीकाके द्वारा बहुत जगह सूत्रोंके इस प्रकरण की जो बात है उसका उत्तर इसी सामान्य शब्दार्थका भी स्पष्टीकरण न होता ही उसे प्रकृत लेखमें पहले कई बार आ चुका है और नमका भाष्य लिम्वनामात्र गौरव सूचित करनेके मिवाय और है कि-अकलंकदवम पूर्व श्वनाम्बर भाष्य कुछ भी तथ्य नहीं रखना । और सूत्राथेकी ग्वंचानानी कं अस्तित्वका अभी तक ऐसा कोई भी प्रमागा सामने को जो बान बनलाई जानी है उसका प्रथम तो नहीं पाया जिसमे यह माबित हो सके कि अकलंक जवाब यह है कि वह खैचातानी नहीं; किन्तु भाष्य देवने अपने गजवार्तिकमें श्वेताम्बर भाष्यकं शब्दों की भाष्यना है। दुमरे, सूत्रोंको अपने अनुकूल ऊपरकं इम सब विमाने जो कुछ तनी ही प्रौढनाका लिए: Page #665 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२० अनेकान्त बनानेकी पद्धतिका अभाव है । अतः श्वेताम्बरभाष्य को प्राचीन सिद्ध करनेके लिये ऐसे पांच (कमजोर) हेतु दिये जाते हैं वे इसविषयकी सिद्धिमं बिलकुल ही निकम्मे है । हाँ, इस विषय मे कोई प्राचीन ऐतिहासिक तथ्य होगा तो उसके माननेमें किसको इनकार हो सकता है। रही विद्वानोंमें परस्पर साहित्यके आदान-प्रदान की बात, उसमें किसीको कोई खास आपत्ति नहीं हो सकता । गुण-प्रहरणादिकी दृष्टिसं ऐसा हुआ करता करता है । परन्तु साहित्य के समय को ठीक निर्णीत न करके शब्द साम्यके आधारपर यों ही मनोऽनुकूल कल्पना कर लेना और उसके द्वारा पूर्ववर्ती साहित्य को उत्तरवर्ती तथा उत्तरवर्ती साहित्यको पूर्ववर्ती मान लेना भूलसे खाली नहीं है, और इसलिये उसे निरापद नहीं कह सकते । अच्छा होता यदि प्रो० सा० साहित्य के सादृश्यको अधिक महत्व न देकर कुछ पुष्ट एवं असंदिग्ध प्रमाणो द्वारा यह सिद्ध करके बतलातेfक श्वेताम्बर भाष्य उमास्वातिका स्वोपज्ञ है अथवा उसकी रचना राजवार्तिककं पहले हुई है। परन्तु वे ऐसा करने में बिल्कुल हा असमर्थ रहे हैं और इसलिये सदृशता के आधारपर उनका वैसा करनेका प्रयत्न करना बिना बुनियादकी दीवार उठाने के समान है । [ वर्ष ४ भी सम्मति तर्कका उल्लेख श्राता है, इसमें अनौचित्य कुछ भी नहीं है, क्योंकि दिगम्बर परंपरा में सम्मतितर्ककं कर्ता सिद्धसेनको श्वेताम्बर नहीं माना है । दूसरे, वे कदाचित् श्वेताम्बर ही समझे जाँय और उनका उल्लेख दिगम्बरोंने किया है तो उन्होंने उसके द्वारा गुणग्राहकताका परिचय ही दिया है। ऐसे उल्लेख या तो उन प्रन्थकर्ताओंके स्पष्ट नामोल्लेखपूर्वक आते हैं अथवा 'उक्तं च अन्यत्र' आदि संकेत को लिये हुए होते हैं । परन्तु शंका साथ लिये हुए समाधानकी इच्छा से किसी अन्य संप्रदायकी बातकी सिद्धिकं विषय में ता कही भी कोई उल्लेख देखने में नहीं आये। यदि इस ढाँचेके लेख कही देखने में नहीं आये हों तो उनको सूचित करना चाहिये । राजवा र्तिककारने भाष्य के स्थानपर 'तत्वार्थाधिगम भाष्य' तकता लिखा नहीं - तथा राजवार्ति में 'यद्भाष्यं बहु कृत्वः षड्द्रव्याणि इत्युक्त" इसके स्थानपर 'सर्व पट्कं षड् द्रव्यावरोधात - यद्वाष्ये बहु कृत्वः पड् द्रव्याणि इत्युक्त" ऐसी भी कोई वाक्यरचना की नहीं, तो फिर कैसे समझा जाय कि राजवार्तिक में श्वताम्बरभाष्यका संकेत है ? ऐसी हालत में प्रा० सा० ने कुछ शब्दगत साम्यकां लेकर श्वे० भाष्यको गजवार्तिक पूर्ववर्ती सिद्ध करने का जो प्रयत्न किया है उसमें भी कुछ सार नहीं है । और इस तरह आप का साग ही उत्तर लेख निःसार है । श्री ऐ० प० दि० जैन सरस्वतीभवन, बंबई यह ठीक है कि सम्मतितर्कपर सुमति नामक दिगम्बराचार्यकी वृशि लिखी गई है और धवलामें Page #666 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ईसाई मतके प्रचारसे शिक्षा (लेखक पं० ताराचंद जैन दर्शनशास्त्री ) ->< भारत एक धर्मप्रधान देश है। इसमें विविध धर्मोके उपासक निवास करते और अपने अपने साधनका प्रयत्न करते आए हैं। भारतके प्रायः सभी धर्मोको समय समय पर अपने प्रचारकों द्वारा प्रगति करनेका अवसर मिलता रहा है और वे फूलते फलते भी रहे हैं। कितने ही धर्म वाले जो अपने मिशन को आगे बढ़ाने अथवा देश कालकी परिस्थिति अनुसार उसमें समुचित सुधार करने में असमर्थ रहे हैं, त्रे नष्ट प्राय होगये हैं। परन्तु जो धर्म अपने ऊपर छाए हुए विविध संकट कालांकी और परस्परके संघ तथा एक दूसरेको विनष्ट करनेकी कलुषित भावनाओ को जीतकर विजयी हुए हैं, वे अब भी भारतमें अपने अस्तित्वको बराबर बनाये हुए हैं। उनमें प्राचीन कालम दो धर्मोका प्रचार और उनकी परम्परा आज भी बनी हुई हैं, जिनमे जैनधर्म और वैदिकधर्म खास तौरस लेखनीय है। यद्यपि धर्मके नामपर आजकल अनेक पाखण्ड और विरोधी मत-मतान्तर भी प्रचलित होगये हैं और धर्म नामपर धर्मकी पूजा भी होने लगी है, ऐसी स्थिति में कितने ही लोग जो धर्मके वास्तविक रहस्यमे अनभिज्ञ है, धर्मको समझने लगे हैं और उससे अपनेको दूर रखना ही अच्छा समझते हैं । परन्तु धर्मके धारकों में जो शिथिलता, अधार्मिकता अथवा विकृति आगई है उसे गल्लीमें हमलोगों मे धर्मकी ही विकृति समझ लिया है। वस्तुतः यह विकृति धर्मकी नहीं है। इस विकृतिका काय स्वार्थ र है. जो धर्म र धर्मका को स्वांग भरनेवाले व्यक्क्रियों द्वारा प्रसून धर्मो वह पदार्थ है जिसमे जीवोंका कभी भी अकल्याण नहीं होसकता । धर्मका स्वभाव ही सुख-शान्तिको उत्पन करना है। यदि धर्मकी यह महान होती तो उसे धारण करनेकी जरूरत भी न पड़ती और न महापुरुषोंके द्वारा उसके विधिविधानका इ प्रयत्न ही किया जाना। इससे स्पष्ट है कि धर्मकी महलामै तो कोई सनेह नहीं है, परन्तु उसके अनुयायियों क शिथिखना, स्वार्थपरता और संकुचित दृष्टिका प्रसार होगया है, जिसके कारण उसके प्रचारमें भारी कमी आगई है। और यही वजह है जो जैनधर्म जैसे विश्वधर्मके अनुयायियोंकी संख्या करोड़ों घटने घटते वापर गई है। परन्तु फिर भी उन्हें उसके प्रचारकी कमी महसूस नहीं होती। वे स्वयं भी उसका श्रागमातुश्ल आचरण नहीं करने और न दूसरोंको ही उसपर अमल करनेका अवसर प्रदान करते हैं, प्रत्युत, उसपर अमल करने के इच्छुक अपने ही भाइयोंको उससे वंचित रखनेका प्रथम्भ किया जाता है इसीले जैनधर्मके अनुयायियोंकी संख्या में भारी हाल दिखाई पड़ता है। यदि दूसरे धर्म वालोंकी तरह अभी भी समयकी रानि विधिक अनुसार उदार दृष्टिसे काम लेते और अपने धर्मका प्रचार करते तो जैनधर्मके मानने वालोंकी संख्या भी बाज करोड़ों तक पहुंची होती। इन ही नहीं किन्तु जैनधर्म राष्ट्रधर्मक रूपमें नज़र आता । धार्मिक सिद्धान्तोंका उदार इष्टि प्रचारही उसके अनुयायियोंकी संख्यावृद्धिमें महायक होना है, प्रचार और उदार व्यवहारमें बड़ी शक्ति है। इस प्रचार और उदार enerारकं कारण ही बौद्धमन, ईसाईमन और इस्लाम मजहब की दुनिया में भारी तरक्की हुई है और ये सब खूब फलं फुले हैं। यहां पर मैं सिर्फ ईमामनके प्रचार सम्बन्धमें कुछ कहना चाहता हूँ। ईपाई मतकं उद्देश्योंके प्रचारमें इसके अनुयायियों द्वारा जैमा कछ मन, मन और धन उद्योग किया गया है और आज भी किया जा रहा है उसके ऊपर दृष्टिपात करनेसे कोई भी आश्चर्य कित हुए बिना नहीं रहेगा। ईसाई मन का मुख्य ग्रंथ है बाइबिल, इसमें महात्मा ईसा (ईसु) के आदेश उपदेश और शिक्षा गुथी गई हैं। दुनियामें बाइबिल अथवा बालिके मालों का प्रचार किया गया है. मार में शायद उनमा अन्य ग्रंथोंका प्रचार नहीं हुचा होगा । मम्भवतः मंमारकी सम्पोखियोंमें ऐसी कोई भी बोबी Page #667 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त महोगी जिसमें बाइबिलका अनुबादन हुमा हो। यही १८२० में मद्रासमें, चौथा सन् १८५५ में उत्सरीय भारतमें, कारण है कि संसारकी वर्तमान जनसंख्याका एक बहुत बड़ा पांच सन् १८६३ में पंजाब और षष्टम सन् १८७५ में भाग ईसुमतका अनुयायी पाया जाता है। भारतवर्ष में जबसं बैंगलोरमें स्थापित किया गया। इसके अलावा सन् १८१६ भारेजोंकी सल्तनत कायम हुई है तभीसे इंग्लिस्तान और में बर्मामें भी एक मण्डल कायम किया गया था। अन्य देशोंके ईमाई इस देशक लोगोंको ईमाई बनाने में लगे उपर उधत सातों मण्डलोंने सन् १९४० में करीब हुए हैं। इसके लिये वे अनेक नीतियां अखियार कर रहे हैं। एकसौम भी ज्यादा भारतीय भाषाओं में १३६३३१७ इन लोगोंने इसी सत्यको महेनज़र रखकर मार हिन्दुस्तान में बाइबिलकी प्रतियां प्रकाशित कर प्रचार किया है। ये मंडल चम्पताल और मिशन कायम किये है और इनमें अरबों बाइबिलको हराक पढ़े लिखे मनुष्य के हाथमे देखना चाहते रुपये अब तक खर्च किये गये हैं। यह सब इन्होंने व्यर्थ है। बहुत ज्यादा प्रतियां तो मुफ्तमें बांटी जाती हैं और नहीं किया, इसमें लाखों हिन्दुस्तानियोंको ईमाई बनाया कतिपय लागत मूल्यमे भी कम कीमतमें बेची जाती हैं। है और बना रहे हैं। ईमाई बनाने में मम्मे प्रभावक और मेटिक पाम होनेपर एक छोटी बाइबिल मुफ्त मिलती है जबरदस्त प्रयोग बाइबिलका प्रचार है। इस वर्षकी (सन् और बी०ए० पास होनेपर बड़ी बाइबिल मुफ्त मिल १५४१-४२) की 'दी इपियन इयर बुक' ( The सकती है। Indian Year Book ) नामक पुस्तक ४४३ करीव १३० वर्षसे बाइबिलका इस देशमें प्रगतिके पृष्टपर देखनम बाइबिलक प्रचारके महाप्रयनपर खामा माथ प्रकाशन और प्रभार जारी है। इसके प्रचारका व्योग प्रकाश पड़ता है। इस पर कमें बतलाया है कि बाइबिलके जानने के लिये 'दी इण्डियन इयर बुक' में प्रकाशिन लिस्ट प्रचारके लिये भारतवर्ष में छह मगड (Auxiliaries) को पाठकों के समक्ष उपस्थिन कर रहा हूं जिम्पस पाठक सहज कायम किये गये थे । उनमें सबसे पहले सन् 151 में हीमें जान सकेंगे कि ईमाई लोग अपने उसूलोंका प्रचार कलकत्ता, दूसरा मन १८३ में बम्बईमें, तीसरा सन् कितनी तन्मयताके साथ कर रहे हैं :-- माम मण्डल १.३३ । १६३४ । १६३५ । १३६ ११३७ १९३८ १९३६ १-कलकत्सा | ०३०६५७ १९२०६४ २१२५५८२४४७७० २४४२६२ २३८२४२ २१८३६१ २-बम्बई |२१४५४११. २४३४७४ २१३२७६ . २३०५२E | २३२४६४ | २४८४." ३-मदाम ३०१३१६२८६१२२ । २१४७०० ३५२७१४ । ३३८१२३५६६८६ ४४४८४८ ४-बैंगलोर २३६१२३४०८३ । ३१४१०। ४४७०५ । E२४ ४८३७२ ५-उत्तरीय भारत २३६८०. २२२२१२ २३८३६६ १६६८३४ |८७.०० १८७५६८ / ०१२३२१ ६ पंजाब ६४६०५। ७७७६६ । १७७६०८७६१४१४४६२ १०७८४५ | १०६५७० .-बर्मा १३४३५७ १०६६२३ । १०२०७० | १०४८२, ५२५१ । ११३१२६ । १०४१६. मीज़ान २३८४३६१४०२२-१२३२८११२३५८३४ ।।२५५४४३ १२७.७८८।१३८२०३३ . ईसाई धर्मके इस महाप्रचारपरमे यदि जैनधर्मक अनु- साधारणमें प्रचार किया आय तो इसे जनताका भारी पायी कुछ शिक्षा ग्रहण करें और धर्म प्रचारमें भले प्रकाग्म अभिनन्दन प्राप्त होगाइममें जरा भी संदेह नहीं है। क्यों संलग्न हो जाये तो संमारमें जैनधर्मके माननं बालोंकी कि जनताके चित्तको अपनी मोर माकर्षित करनेकी खूबी कोई कमी म रहेगी। अभी संमार इमक महोपकारक, खर हम धर्ममें मौजन है, जमान महा प्रचारकी और मैत्री प्रसारक, स्याहारमूलक, महिमा और कर्मसिद्धान प्रसारक समाजके उपार व्यवहारकी । पाशा है जैनसमाजकं पादियोंको जानता ही नहीं। जो विद्वान् कुछ जानने उदार महानुभाव इस घोर विशेष ध्यान देंगे घोर लोकहित बगे। वे मुझकंठस जैनधर्मकी प्रशंसा कर मोरे, जिससे कीष्टिसं जैनधर्म तथा उसके साहित्य के प्रचारमें अपना स्पष्ट है कि यदि यह धर्म अधिकांश जमताके परिचयमें करीग्य समझते हए शीघ्र मावधान होंगे। खाया जाय और इसके धर्मग्रन्धोंका बाइबिल के समान सर्व Page #668 -------------------------------------------------------------------------- ________________ वरांगचरित दिगम्बर है या श्वेताम्बर ? (संखक-५० परमानन्द जैन शास्त्री) वगंगचरित एक प्राचीन संस्कृत काव्य है, जो मरण या गन्धकुटी में विराजमान रहते हैं। भागे जो माणिकचन्द दि० जैन प्रन्थमाला बम्बई में प्रका- म्वर्ग भी बारह ही बतलाए हैं, जबकि दिगम्बा शित हुआ है। इस प्रन्थका सम्पादन डा०२० एन० ममुदाय (मम्प्रदाय) में १६ म्वर्ग माने गये हैं। उपाध्याय एम० ए० डी० लिट० कोल्हापुरद्वाग हुआ -जैनदर्शन, वर्ष ४ अंक ६, पृष्ट २४६ का फुटनोट है, जिन्होंने अपनी महत्वपूर्ण प्रस्तावनामें ग्रन्थ और इसके अलावा वगंगचरित्र, अध्याय १ में १६ उसक कतृत्वादि विषयपर अच्छा प्रकाश डाला है (१५) वां श्लोक है कि और उपलब्ध प्रमाणांक आधारपर प्रथक को मृत-चालनी'-महिष-हंस-शुक-स्वभावा, जटिल, जट.चाये थवा जटामिहनन्दीको ईमाकी माओर-का-मशका-Sज-जलुक माम्याः । ७ वीं शताब्दीका विद्वान सचिन किया है। यह प्रन्थ सरिछद्रकुम्भ-पशु-सर्प-शिलोपमानादिगम्बर मम्प्रदायका प्रसिद्ध है, कितने ही दिगम्बर स्तश्रावका भुवि चतुर्दशधा भवन्ति॥१५॥ प्रथकागेन गौरवकं माथ इसका उल्लम्ब भी किया है। नदीसूत्रम श्रोताओं (श्रावकों) के लक्षण स्पष्ट परन्तु श्वेताम्बर मुनि दर्शनविजयजी, जो कुछ अमें करने के लिये 'मेलघण' इत्यादि दृष्टान्त दिये हैं। में इस धुनम लगे हुए हैं कि उत्तमोत्तम दिगम्बर प्रत्युत श्लोक ठीक उमीका ही संस्कृत अनुवाद है। प्रन्याका या नां श्वेताम्बर माहित्यकी नकल बतलाकर इससे भी प्राचार्य जटिल श्वेताम्बर मिद्ध होते हैं।" अपने उद्विग्न चित्तको शान्त किया जाय और या मनिजीकी इस विचित्र नकणापरम प्रस्तुत वगंग जैस भी बन उन्हें श्वेताम्बर घोषित कर दिया जाय, चरितको श्वेताम्बर प्रन्थ सिद्ध करने के लिये जा अपने हाल के एक लेग्वम जा 'महापुगणका उद्गम' युक्तियां फलित हाती हैं व इस प्रकार :नामसं 'श्री जैन मत्यप्रकाश' मामिक के छठे वर्षकं (१) चूँकि दिगम्बर पंडित जिनदामने दो बातों अंक ८-९ में मुद्रित हाहै, यह घोषित करने बाद को लेकर इस प्रन्थ पर संदेहात्मक यह प्रश्न उठाया कि "वगंगचरित श्वेताम्बर ग्रंथ है और वह स है कि इसके का जटिल कवि श्वेताम्बर थे या ममयका श्रेष्ठ संस्कृत प्रन्थ है, और साथ ही इम ग्रंथ दिगम्बर ? अनः यह श्वेताम्बर प्रन्थ है। की महत्ता विषयक उन प्रमागां को उद्धृन करनेके (२) हम प्रथम वरदत्त केवलीन पत्थरके पाटिय बाद जिन्हें ए० एन० उपाध्यायने अपनी प्रस्तावनामें पर बैठकर धर्मोपदेश दिया ऐसा विधान है, जो दिया है, लिखते हैं दिगम्बर मान्यता विरुद्ध है, इमलियं भी यह "इस वगंगचरितको देखकर शोलापुर के पं० श्वेताम्बर प्रन्थ है। जिनदासने प्रश्न उठाया है कि (३) चूकि इस प्रथम बारह स्वर्गों का उल्लेख है जटिल कवि श्वेताम्बर थे या दिगम्बर वगंग- जादिगम्यगका १५ चरितमं हम देखते है कि वरदत्त गणधर एक पत्थर श्वताम्बर्गय मान्यताके अनुकूल है, इससे भी यह पाटियपर बैठकर धर्मोग्दश करते हैं। यह दिगम्बर बरागचरित्रम 'सारिणी' पाठ दिया है। नहीं मालूम सिद्धाम्न विरुद्ध है। उनके मनानुमार केवली समव मुनिजीने उसे यहाँ बदलकर क्यों रखा? Page #669 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२४ प्रन्थ श्वेवारीय है। (४) वरांगचरिता 'मृतचालनी' आदि श्लोक श्वे० नम्दी सूत्र के 'सेलधरण' आदि वाक्यका ही ठीक अनुवाद है। इससे भी आचार्य जटिल श्वेताम्बर सिद्ध होते हैं, और इसलिए यह प्रन्थ श्वताम्बरीय है। अब मुनिजीकी इन युक्तियोंपर क्रमशः नीचे विचार किया जाता है: अनेकान्त (१) पहली युक्ति बड़ी ही विलक्षण जान पड़ती है । किसी दिगम्बर विद्वान ने मालूमात कम होनेके कारण यदि कुछ विषयों पर से उस ग्रन्थके दिगम्बर या श्वेताम्बर हानेका संदेह किया है तो इतने मात्रसे वह प्रन्थ श्वेताम्बर कैसे हो सकता है ? किसीके संदेहमात्र पर अपने अनुकूल फैसला कर लेना बड़ा ही विचित्र न्याय जान पड़ता है, जिसका किसी भी विचारक के द्वारा समर्थन नहीं हो सकता | पं० जिनदासजीने ग्रंथकी जिन दो बातोंको दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध समझा है वे विरुद्ध नहीं हैं, यह बात अगली दो युक्तियोंके विचार परसं स्पष्ट हो जायगी और साथ ही यह भी स्पष्ट हो जायगा कि उन्हें मालूमातकी कमी के कारण ही उक्त भ्रम हुआ है। (२) वरांगचरित्र के तृतीय सर्गमें जन्तु विवर्जित शिलातल पर बैठकर वरदश केवलीके उपदेश देनेका उल्लेख जरूर है, परन्तु इतने मात्रसे वह कथन दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध कैसे हो गया ? इसे न तो पं० जिनदासन और न उनकी बात को अपनाने वाले मुनिजीने ही कहीं स्पष्ट किया है। ऐसी हालत में यद्यपि यह युक्ति बिल्कुल ही निर्मूल तथा बलहीन मालूम होती है, फिर भी मैं यहाँ पर इतना और भी बतला देना चाहता हूं कि दिगम्बर मान्यता के अनुसार केवली कई प्रकार के होते हैं जिनमें एक प्रकार सामान्य केवलीका भी है जो केवलज्ञानी होते [ वर्ष ४ हुए भी गन्ध कुटी आदिसे रहित होते हैं।। जटिल कविकी मान्यता में वग्दत्त गणधर सामान्य केवली ही प्रतीत होते हैं, क्योंकि प्रत्थमें वरदशकी किसी भी बाह्य विभूतिका - समवसरण या गन्ध कुटी आदिका कहीं पर भी कोई उल्लेख नहीं किया गया है। इससे वरदत्त केवलीका शिलापट्ट पर बैठकर उपदेश देना दिगम्बर मान्यता के कुछ भी विरुद्ध मालूम नहीं होता और इसलिये उसके आधारपर वगंगचरित्रको श्वेताम्बर बतलाना नितान्त भ्रममूलक है । रतदेव (केवल) तो सात प्रकारके है:- पंचकल्याणयुक्त तीर्थंकर, तीन कल्याण संयुक्त तीर्थंकर दो कल्याण संयुक्त तीर्थकर, सातिशय केवली, सामान्यकेवली, अन्तकृत केवली, उपसर्ग केवली । - सत्तास्वरूप पृष्ठ २५ (३) दिगम्बर सम्प्रदाय में स्वर्गों की संख्या-विषयक दो मान्यताएँ उपलब्ध हैं। एक १६ वर्गोंकी और दूसरी १२ बर्गों की । और विवक्षाभेदको लिए हुए ये मान्यताएँ आजकी नहीं, किन्तु बहुत पुरानी हैं । ईसाकी ५वीं शताब्दी में भी पूर्व होनेवाले दिगम्बर आचार्य यतिवृषभनं भी अपने 'तिलोपपश्यन्ती' ग्रंथ में इनका उल्लेख किया है। इतना ही नहीं किन्तु स्वयं १२ बर्गीकी माम्यताका अधिक मान देते हुए 'मरांत के मायरिया' इस वाक्यके साथ सोलह स्वर्गो की दूसरी मान्यताका भी उल्लेख किया है. जिससे स्पष्ट है कि ये दोनों ही दिगम्बर मान्यताएँ रही हैं। वे उल्लेग्व इस प्रकार है: सोहम्मीसा मणक्कुमार माहिंद बह्म लंतवया । महसुक्क सहस्मारा आायद पाणदाए चारणच्छुदया || एवं बारस कप्पा" | अधिकार ७ वां "सोहम्मो ईसायो सक्कुमारो तहेव माहिंदो । बझा-बझ सश्यं लंतब- कापिठ सुक्कमह सुक्का ॥ मदर-सहस्साराणदपायाद-धारणाय प्रच्युदया । इय सोलस कप्पाणि मगांते केइ आमरिया ॥ -अधिकार ७ बारह और सोलह स्वर्गोंकी इन दो मान्यताओं में इन्द्रां और उनके अधिकृत प्रदेशोंके कारण जो विवक्षा-भेद है उसका स्पष्टीकरण 'त्रिलोकसार' की निम्न तीन गाथाओंसे भले प्रकार हो जाता है + देखों पं० भाग चंदकृत भत्तास्वरूप पृष्ठ २६ Page #670 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] वरांगचरित दिगम्बर है या श्वेताम्बर ६२५ सोहम्मीसाणसशक्कुमारमाहिंदगाहु कप्पा हु। पद-गारव-पहिबद्धो विमयामिस विस-बसेख घुम्मतो। बाबा त्तरगो जाता कापिडगो छठी ॥ ४२ ॥ सो भट्ट-कोहि-जाहो भमा चिरं भवषणे मूदो ॥ १३ ॥ सुकमहासुक्कगदो सदर-सहस्सारगो दु तत्तो दु। दूसरे श्वेताम्बरीय नन्दीसूत्रके 'सेलपण' मादि पाणद पाणद-भारण-अच्युदया होति कप्पा हु ॥४५३॥ जिस वाक्यमे (पात्र-अपात्र रूपसे ) १४ श्रीनामों के मज्झिम-घड जुगलाणं पुश्वावर जुम्मगेसु सेसंसु। दृष्टान्त बतलाये जाते हैं वह इस प्रकार हैसम्वत्य होति इंदा इदि वारस होति कप्पा हु ॥४५॥ सेलधण कुहग चालिणि परिपूर्णग स महिस मेस य । इन गाथाओं में स्वगों के नाम निर्देशपूर्वक बतलाया मसक जलूग विराजी आहग गो भेरी भाभीरी ॥ ४ ॥ है कि-सोलह स्वर्गों से प्रथम चार और अन्त के चार और वरांगचरितक जिस पद्यको इस गाथावाक्य स्वोंमें तो अलग अलग इन्द्र हैं, इससे आठ कल्प का ठोक अनुवाद कहा जाता है वह अपने असली (म्बर्ग) तो ये हुए, शेष मध्यके चाग्युगल() स्वों में रूपम निम्न प्रकार है :प्रत्येक युगल स्वर्गका एक-एक इन्द्र है और इससे उन- मृत्सारिणीमहिषहंसशुकस्वभावाः म्वोंकी चार कल्पोम परिगणना है, इस तरह कल्स माजारकामशकाऽजजलूकसाम्याः। अथवा स्वर्ग बारह होते है । ऐसी हालतमें बारह सच्छिद्रकुम्भपशुसर्पशिलापमानाम्वों की मान्यताको दिगम्बर मान्यता के विरुद्ध बत स्ते श्रावका भुवि चतुर्दशधा भवन्ति ॥१५॥ लाना कितना अज्ञानमूलक है और उसे हेतुरूप नन्दीमत्र और वरांगचरित इन दोनों वाक्यों प्रयुक्त करके अनुचितरूपसं एक प्रन्थको अपने संप्र. को तुलना करनेपर साधारणसे साधारण पाठक भी दायका बनाने का प्रयत्न करना कितने अधिक दुःसा- यह नहीं कह सकता कि वगंगचरितका श्लोक नन्दीहस तथा व्यामोहका निदर्शक है, इस बतलानकी सूत्रकी गाथाका ही अनुवाद है । ठीक अनुवादकी जरूरत नहीं रहती। बान तो दूर रही, एक दूसरे का विषय भी पूर्णतया (४) अब रही नन्दीसूत्रसे श्रोताओंके दृष्टांत लेने मिलना-जुलता नहीं है। नन्दीसूत्र में परिपूणग, जाहक, और उसकी गाथाका ठीक अनुवाद करनेकी बात, भंग और भाभीग नामक जिन चार श्रीनाओंका इममें भी कुछ मध्य मालूम नहीं होता । प्रथम ता उल्लेख है वे वगंगवग्निमें नहीं पाये जाते; और श्रीधरसनाचार्यन, जिनका समय वर्तमान नन्दीसूत्रके बगंगचरितमें मृनिका, शुक, ककौर मर्प नामक रचनाकालसं शताब्दियों पहले का है, 'कम्मपयडी जिन चार श्रावकों (श्रीनाओं) का उल्लंम्ब है व मन्दीपाहुड' का ज्ञान दूमराको दनक अवमरपर जिन दो सूत्र में उपलब्ध नहीं होते । ऐमी हालसमें वगंगग्ति गाथाओंका चिन्तन किया था उनमें भी 'सलपण' के उक्त पद्यका नन्दीसूत्रकी गाथाका ही अनुवाद आदि रूपस अपात्र-श्रीनाओंका उल्लेख पाया जाना बनलाना मुनिजीका अति साहम और उनके मुनिपद है। यथा : के सर्वथा विरुद्ध है। इस प्रकारकी भसत्प्रवृत्तियों सेलपण भग्गघट-अहि-नाक्षिणी-महिसाऽवि जाहय-सुएहि। द्वाग सत्यपर पर्दा नहीं गला जा सकता यहाँपर मैं मट्टिप-ममय-समाणं वाखाणइ जो सुदं मोहा ॥ ६२॥ इतना और भी बनला देना चाहता हूँ कि वगंगचरित्र Page #671 -------------------------------------------------------------------------- ________________ ६२३ अनेकान्त [वर्ष ४ वर्णित मृत्तिका, शुक और मर्प नामकं तीन श्रोताओं बाहाभ्यन्तरनेः संग्यात्गृहीत्वा तु महानतम् । का उल्लंख उन अपात्र-श्रोताओं की सूचक गाथाम भो मरणान्ते तनुत्यागः सरलखः स प्रकीय॑ते ।।१२।। पाया जाता है जिसका चिन्तन धग्संनाचार्यने किया सल्लेखनाकी चतर्थ शिक्षाबतके रूपमें जो एक था और जिसका ऊपर उद्धृत किया आ चुका है। मान्यता है वह दिगम्बर सम्प्रदायकी है, जिमका और इसमें स्पष्ट है कि जटिल मुनिने इम विषयमें सबसे पुगना विधान प्राचार्य कुन्दकुन्दकं चारित्तप्राचीन दिगम्बर परम्पगको ही अपनाया है-श्वेता- पाहड़की निम्न गाथामें पाया जाता है :म्बर परम्पगको नहीं। मामाइयं च पढम विदियं च तेहव पोसई भणियं । ___ऊपरके इस मम्पूर्ण विवेचनपग्स स्पष्ट है कि । तड्यं च अतिहिपुज्जं चउत्थ मल्लहणा ते ॥२६॥ मुनि दर्शनविजयजीने जिन युक्तियों के आधारपर ___ यह मान्यता श्वेताम्बर सम्प्रदायको इष्ट नहीं है। प्रकृतप्रन्थका श्वेताम्बर सिद्ध करने का प्रयत्न किया है उनके उपलब्ध आगम-साहित्यमें भी वह नहीं पाई उनमें कुछ भी तथ्य अथवा सार नहीं है और इस जानी, जैमा कि मुनि पुण्यविजयजीके एक पत्रके लिये उनके बलपर इम ग्रन्थको किसी तरह भी श्व निम्न वाक्यमं प्रकट है :नाम्बर नहीं कहा जा मकता-वैमा करना निग ___ "श्वेताम्बर भागममें कहीं भी १२ बारह व्रतोन हास्याम्पद है। सल्लेखनाका समावेश शिक्षाप्रतक रूपमें नहीं किया अब मैं इस प्रथकी कुछ ऐमी विशेषताओंका गया है।" थोडामा दिग्दर्शन करा देना चाहता हूं जिनके बलपर (२) वगंगचरितके २५वें सर्गमें प्राप्त के जिन १८ यह भले प्रकार कहा जा मकता है कि प्रस्तुन वगंग- दोषोंका अभाव बतलाया है उनमें क्षुधा, तृषा, जन्म, परित श्वेताम्बर प्रन्थ न होकर एक दिगम्बर ग्रंथ है: मरण, जरा (बुढ़ापा) व्याधि, विस्मय और म्वेद (१) वगंगचरितके १५वें सर्गमें प्रन्थकर्ताने, (पमीना) नामक दोषोंको भी शामिल किया है, जिन श्रावकोंके १२ ब्रोंका निर्देश करते हुए, शिक्षाबतके का केवलीके प्रभाव होना दिगम्बर सम्प्रदाय-सम्मन चार भेदोंमें सल्लेखनाको चतुर्थ शिक्षाबतके रूपमें है। श्वेताम्बर सम्प्रदाय-सम्मत नहीं। इस कथनके निर्दिष्ट किया है; जैसा कि उसके निम्न पद्योंसे दांतक पद्य निम्न प्रकार हैं:प्रकट है: निद्राश्रमक्वंशविषादचिन्ताकुत्तुइजराज्याधिभौविहीनाः । समता सर्वभूतेषु संघमः शुभभावना । अविस्मयाः स्वेदमलेरपेता प्राप्ताभवन्त्यप्रतिमस्वभावाः ॥८॥ मातरीवपरित्यागस्तरि सामाषितम् ॥१२॥ द्वेषश्च रागरच विमूढताच दोषाशयास्ते जगति प्रस्ताः । मासे चत्वारि पर्वाणि तान्युपोयाणि यलनः । न सन्ति तेषां गतकल्मषाणां तानई तस्याप्ततमा बदन्ति ॥८॥ मनोवारकापसंगुल्यास पोषधविधिः स्मृतः ॥१२॥ इन पद्योंमे निर्दिष्ट १८ दोषोंकी मान्यतासे यह चतुर्विधो बराहारः संवतेभ्यः प्रदीयते । स्पष्ट जाना जाता है कि प्रथकर्ता जटिलमुनि दिगभवादिगुणसंपत्यातत्स्वातिपिपूजनम् ॥१२॥ म्बर सम्प्रदायके थे। क्योंकि श्वेताम्बर सम्प्रदायमे Page #672 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] परांगवरित दिगम्बर है या श्वेताम्बर - १८ दोषोंकी जो दो मान्यताएँ हैं उनमेंस किमी में भी विशालबुद्धिः श्रुतधर्म र प्रशान्तरागः स्थिरधीः प्रकृत्या । क्षुधा, तृषा, जन्म, जरा, मरण, व्याधि, विस्मय और नस्याज्य निर्मास्यमिवात्मराज्यमन्तः पुरं नाटकमर्थसारम् ॥५॥ स्वेद नामक दोषोंको शामिल नहीं किया गया है। विभूषाणाच्छादनवाहनानि पुराकरग्राममडम्वखंडेः । जैसा कि श्वेताम्बर्गय 'लोक-प्रकाश' प्रन्थके निम्न माजीविताम्ताजहौस बाह्यमभ्यन्तरास्ताश्च परिग्रहापान् ॥८६ वाक्योंसे प्रकट है: अपास्य मिथ्यात्वकवायदोषान्प्रकृत्य खोभं स्वयमेव तत्र । "अन्तराया दान। लाभ२ वीर्य३ भोगोपभोगाः। जग्राह धीमानय जातरूपमन्य रशक्यं विषयेषु बोलेः ।।७।। हामोदरस्य७ गतीम भीति जुगुप्सा शोक एव च ॥ इसके सिवाय प्रन्थकाग्ने इसी अन्य के ३० वें कम्मो १२ मिथ्यात्व१३ मज्ञान निद्रा१५ चाविरति१६स्तथा। सर्गमें वगंगके तपश्चरण और विहार आदिका वर्णन गगो१७ द्वेषश्नानो दोषास्तेषामष्टादशाप्यमी ॥" करते हुए वगंगमुनि और उनके माथी मुनियों का "हिंसा१ ऽलीकर मदत्तं च३ क्रीडा हास्या रती रतिः । म्पष्टतया 'दिगम्बरपाषित किया है। यथा:शोकाभयंक्रोधमानं१माया१२लोभा१३स्तथा मनः१४।। ' विदा शालावन्टन भूषिताङ्गाः प्रज्ञा रागात्युपभोगशकाः । स्युःप्रेमा५ मत्सरा ज्ञान निद्वार अष्टादशेत्यमी" हेमन्तकाले धृतिबद्धकला दिगम्बरा बभ्रकाशयोगाः ॥ विशेषताओं के इम दिग्दर्शनपरसे जब यहाँ नक यदि मुनिजी क्षुधादिदोषोंके अभावरूप इस दिगम्बर भी म्पष्ट है कि कथानायक वरांगगजा दिगम्बर था सम्प्रदाय-मम्मत विशष्ट कथनके रहते हुए भी प्रकृन और उसन तथा उसके साथी गजानिकोंन भी प्रन्थको श्वेताम्बर घोषित करनका आग्रह करते हैं दिगम्बर दीक्षा ली थी, तब इस प्रथके दिगम्बर तो इससे उन्हें केवलीके कवलाहारका प्रभाव भी प्रन्थ होने में कुछ भी सन्देह नहीं रहता और इस मानना पड़ेगा, जो कि श्वेताम्बर सम्प्रदाय के विरुद्ध लिय मनि दर्शनविजयजीने इमं श्वेताम्बर घोषित है। और इस तरह उन्हें इम प्रन्थके अपनाने में लेने करनेकी जो चेष्टा की है वह उनकी दुश्चेष्टामात्र के देने पड़ जायेंगे। है। उनकी युक्तियों में कोई दम नहीं-चे मवेथा (३) वगंगचरितके २९ वें मर्गके कुछ पयोंमें निःसार हैं, यह ऊपर स्पष्ट किया जा चुका है । ऐमी गजा वगंगकी जिनदीक्षाका वर्णन दिया है और हालतमें इस प्रस्थको दिगम्बर प्रन्थ बतलाना सर्वथा बतलाया है कि उस विशालबुद्धि गजाने, धर्मतत्वका युक्ति-युक्त जान पड़ता है । यहाँ पाठकों को यह जान सुनकर बाह्य और भाभ्यन्तर उभय परिग्रहोंका परि. कर आश्चर्य होगा कि ऐसे ही प्रयत्नोंताग मुनि दर्शनत्यागकर, अन्य विषयी जीवोंके द्वाग अशक्य ऐसे विजयजी भगवजिनमनक महापुराणको श्वेताम्बर जातरूपका-दिगम्बर मुद्राको-धारण किया। वे पथ साहित्यकी मगमग नकल सिद्ध करना चाहते हैं !! इस प्रकार हैं: -चार सेवामंदिरसम्सावा, ता०२६-१-१९४२ * Page #673 -------------------------------------------------------------------------- ________________ साहित्य - परिचय और समालोचन 3. - न्यायकुमुदचन्द्र प्रथमभाग, द्वितीयभाग - लेखक प्रभाचन्द्राचार्य सम्पादक, पं० महेन्द्रकुमारजी जैन न्यायशास्त्री, बनारस प्रकाशक, पं० नाथूराम प्रेमी, मंत्री माणिक चन्द्र दि० जैन ग्रन्थमाला चम्बई। बड़ा माइन पृष्ठसंख्या प्र० भा० ६०२ द्वि० भा० ६४० । मूल्य, मजिल्द प्रतिका क्रमशः ८) ८|| ) रु० । प्रस्तुत ग्रन्थ अपने नामानुसार न्यायतत्त्वरूपी कुमुदोंको विकसित करनेके लिये चन्द्रमा के समान है । ग्रन्थकार प्रभाचन्द्रने, जो कि एक बहुश्रुत विद्वान थे, अकलंक देन के mater और उसकी स्त्रोपश वृतिका यह बृहत् भाष्य किया है । इसमें अनेकान्ताष्टके द्वारा विविध दार्शनिकांक मन्त की गहरी आलोचना की गई है। साथ ही, जैनदर्शन की मान्यताको बाधित एवं निर्दोष सिद्ध किया गया है । यह ग्रन्थ न्यायशास्त्र के निशानोंके लिये बहुत उपयोगी है। इम ग्रन्थ के प्रथम भागकी प्रस्तावना के लेखक हैं पं० कैलाशचन्द्रजी शास्त्री | आपने अपनी १२६ पृष्ठकी प्रस्तावना में कलंक देव के समय तथा कर्तृत्वादिके विषयमं श्रच्छा अनुसन्धान किया है और उपलब्ध प्रमाणोंके श्राधारपर कलंकदेवका समय विक्रमकी ७वीं शताब्दी ही निश्चित किया है। अकलंकदेव और उनके सम-सामयिक विद्वानोंका भी संक्षिप्त परिचय दिया है। अकलंकदेव के ग्रन्थोंका परिचय और दूसरे दर्शनोंके प्रथम उनकी तुलना भी की है। इसके सिवाय, न्यायकुमुदचन्द्र के कर्त्ता प्रभाचन्द्रके ममयादिकपर भी कितना ही प्रकाश डाला है आपके विचारसे प्रभाचन्द्र का अस्तित्व समय ई० सन् ६५० से १०२० का मध्य वनकाल है । यद्यपि इस समय सम्बन्धी निर्धारणा में अभी कुछ मतभेद पाया जाता है फिर भी प्रस्तावना विद्वत्तापूर्ण है इसमें कुछ भी सन्देह नहीं है और वह ऐतिहासिक विद्वानां को विचारकी बहुत कुछ सामग्री प्रस्तुत करती है जिसके लिये विद्वान लेखक धन्यवादके पात्र है। द्वितीयभागकी प्रस्तावनाके लेखक हैं न्यायाचार्य पं० महेन्द्र कुमारजी शास्त्री जो कि इस समूचे ग्रन्थके सम्पादक हैं । आपने ग्रन्थका सम्पादन बड़े ही परिश्रम के साथ किया है और श्राप उसे आठ वर्ष में सम्पन्न कर पाये हैं। अपने मूलग्रन्थ के नीचे तुलनात्मक टिप्पणिया भी दी हैं, जिनमे अध्ययन करने वालोंके ज्ञानका कितना ही विस्तार होता है। परन्तु हम टिप्पण कार्य में कहीं कहीं इस बातका कम ध्यान रखा गया मालूम होता है कि वे टि वाक्य किम भूनग्रन्थके हैं। उदाहरण के तौरपर प्रथमभाग पृष्ठ ३ की दूसरी पक्ति में 'जीवादिवस्तुनो यथावस्थित स्वभावो वा' वाक्यके from 'म्मो वत्थुमहावो खमादि भावो य दमविदो धम्मो । चारित खलु धन्म जीवाणुं रक्ग्वणो धन्मो' | इस गाथाको टूप प्राभृत टीम में उक्तं च रूपये उद्धृत बनलाया है परंतु वह मूलमें किम ग्रन्थकी है इसे नहीं बतलाया गया । जबाक बतलाना यह चाहिये था कि वह स्वामी कार्तिकेयानुप्रेक्षाकी ४७६ नं ० की गाथा है । द्वितीयभाग के सम्गदनकी खास विशेषता यह है कि उसमें विषयानुक्रम के अतिरिक्त १२ उपयोगी परिशिष्ट लगाये गये हैं जिनके नाम इस प्रकार है १ लघीयस्त्रय के कारिकार्धका अकाराद्यनुक्रम । २ लघीयत्र और उसकी स्वविवृनिमे आए हुए अवतरण वाक्यांकी सूची, ३ लघीयस्य और स्वविवृतिके विशेष शब्दोकी सूची, ४ स्त्री कारिकाएं अथवा विवृतिके श्रंश जिन दि० श्वे० श्राचार्योंने अपने ग्रन्थोंमे उद्धत किये है या उन्हें अपने ग्रन्थों में शामिल किया है उन श्राचार्योंके ग्रन्थोंकी सूची । ५ न्यायकुमुदचन्द्र में आए हुए ग्रन्थान्तरोंके श्रव तरणोंकी सूची । ६ भ्याय कुमुदचन्द्र गत उपयुक्त न्यायोंकी सूची ७ न्यायकुमुदचन्द्रगत प्रा० ऐतिहासिक पुरुषोंके नाम तथा भौगोलिक शब्दोंकी सूची ८ न्याय कुमुदचन्द्रमें उल्लिखित ग्रन्थ और ग्रन्थकारांकी सूची ६ न्यायकुमुदचन्द्रगत लाक्षणिक शब्दांकी सूची, १० न्यायकुमुदचन्द्रके कुछ विशिष्ट शब्द । ११ न्यायकुमुदचन्द्रके दार्शनिक शब्दों की सूची । १२ टिप्पणी में तथा मूल ग्रन्थमं श्राये हुए Page #674 -------------------------------------------------------------------------- ________________ किरण ११-१२] साहित्य-परिचय और समालोचन ६२९ अवतरणोंके मूलस्थल निर्देशक ग्रन्थ मंस्करगों आदिका हश्रा है। ग्रन्थका प्रतिराय विषय उमके नाममे ही स्पष्ट परिचय। है। इस ग्रन्थमें २५४ दोहोंमें गृहस्थ धर्मकी प्रावश्यक इन बारह परिशिष्टोंके लगनेसे ग्रन्यकी उपयोगिता बहन क्रियाका विधान किया गया है। प्रथकी प्रस्तावना अनु. बढ़ गई है। द्वितीयभागकी प्रस्तावनामें प्रभाचन्द्रके ममय संधानपूर्वक लिखी गई है। और प्रयके कर्तृत्व प्रादिके सम्बन्ध में और भी कितना ही प्रकाश डाला गया है। नथा विषयमे अच्छा प्रकाश डाला गया है। प्रस्तामनामे ग्रन्थकी द्रका समय ई.सन हद से १०६५ कानित भाषा और व्याकरणका भी अच्छा परिचय कराया गया है। किया है, जो पं० कैलाशचंद्र जीके ममय निर्णयमे एक तरफ टिप्पणी, शन्दकोष और दोहानुक्रम देनेसे थकी उपयो३० वर्ष और दूसरी तरफ ४५ वर्ष पश्चात्के ममयको लिये गिना बढ़ गई है। भावकधर्म के अभ्यासियों के लिये यह हुए हैं। अभी हम विषयमें और भी अन्तिम निर्णय होना प्रय उपयोगी मूल्य कुछ बाधक है। अवशिष्ट हे ऐमा जान पड़ता है। पाहुड दोहा (हिंदी अनुवाद सहित)-मूल लेखक, द्वितीय भागके शुरुमें 'प्रकाशककी अोर में हम शीर्षकके मुनी राममिह । अनुवादक. और मम्पादक प्रो. हीगलाल जी नीचे ग्रन्थमालाके मंत्री पं० नाथूगमजी प्रेमीने न्यायकमद के जैन एम.ए. श्रमगननी। प्रकाशक, गोपालदास अंबादास कर्ताको उन सभी टका टिप्पणपन्यांका कर्ग बनलाया है चउरे जैन पलीकेशन सोमाइटी कारंजा (बगर) पृष्ठ संख्या जिनका निर्देश प्रन्य सूचियोंमें पाया जाता है। जो ठीक नहीं है। कुछ टीका ग्रन्य तो अपने भाषा माहित्याटिपरमे १७२ । मूस्य, सजिल्द प्रात ) रुपया। इन प्रभाचन्द्र के प्रतीत नहीं होते-वे किमी दुमरे ही प्रभा- प्रस्तुत ग्रंथ अध्यात्मग्ससे परिपूर्ण है। प्रथकाने चन्द्र के जान पड़ते हैं। हम विषयमें विशेष अनमंधानकी २२२ दोहोम अध्यात्म तत्त्वका हृदयग्राही वर्णन दिया है। जरूरत है। और प्रत्येक द हेमें मानमिक दुर्बलताओं और उनसे छुटद्वितीयभागकी प्रस्तावनामें कल याने आपत्ति के योग्य कारा पाने के उपायोका चित्रण करते हए श्रात्मज्ञानपूर्वक भी है जैसे कि स्वामी ममन्तभद्र को पूज्यपाद के बादका पात्म भयमक अभ्यासकी प्रेग्णा। इस थपर मुग्ध कर विद्वान बतलाना, परन्तु वे स्वतंत्र लेखद्वारा अालोचनाका प्राचार्य क्षितिमोहनसेनने 'जैनधर्मकी देन' शीर्षक अपने विषय है। अत: उनकी चर्चाको यहाँपर छोडा जाता है। लेखम इस प्रथके कुछ दोहाका परिचय कराते हुए जो गुणअस्तु ग्रन्यकी छपाई, मफाई और कागज सब उत्तम है। कानन किया है उमपरसे इस प्रयकी माना भले प्रकार ग्रन्यके इस उत्तम संस्करण के लिये मम्पादक और प्रकाशक स्पष्ट है । पाठक उस लेखको अनेकान्तकी गनाकरण नं... दोनों ही धन्यवादके पात्र है। समाजको चाहिये कि ऐमे में देख सकते हैं। प्रन्यकी एक विशेषता गढ़वाद के गस्यको उपयोगी महत्वके अन्योंको म्वरीदकर मन्दिगे, शास्त्रभंडारों समझानेकी भी है, जिमका कितने ही दोहमि वर्णन दिया तथा लायबेरियों में विगजमान करें जिसमें ग्रन्थमालाके हश्रा है। इसको समझनेके लिये कुछ नांत्रिक प्रयांके मंचालकोको प्रोत्माइन मिले और वे दूमरे महलके ग्रन्थोके अभ्यामकी आवश्यकता है-बिना तांत्रिक प्रन्यांके अभ्याम प्रकाशनमें समर्थ हो म। के यह विषय मरलतासे ममममें नहीं प्रामकता । सम्पादक सावयधम्मदोहा (हिन्दी अनुवाद महित)-मू.ले.. जीने प्रस्तावनामें ग्रंथकी विशेषनाका मक्षिम परिचय प्राचार्य देवसेन। अनुवादक और मम्पादक, प्रो.हीरालाल करा दिया है। मल दोहांके हिन्दी अनुवादके माथ, प्रस्ताजैन एम.ए. अमरावनी । प्रकाशनस्थान, गोपालदाम वना. शब्दकोष और रिण देकर ग्रंथका सवमाधारणके अम्बादाम चउरे जैनपब्लीकेशन सोसाइटी, कारंजा (बरार)। उपयोगी बना दिया है। इसके लिये सम्पादक महोदय पृष्ठ संख्या १६२, मूल्य मजिल्द प्रतिका २१) रुपया । धन्यवादके पात्र हैं। इस प्रथका मूल्य भी अधिक रस्वा प्रस्तुत अन्य कारंजामीरीज में नं. २ पर प्रकाशित गया है। Page #675 -------------------------------------------------------------------------- ________________ भनेकान्त [वर्ष हिन्दी इत्स्वयंमस्तोत्र-लेखक दीपचंद पारड्या। और इस तरह मूलके भावको भले प्रकार स्पष्ट करनेकी प्रकाशक मात्प्रवचन साहित्यमंदिर केकड़ी (अजमेर)। चेष्टा की जाती, अथवा स्वच्छंदतासे काम न लेकर मूलकी पृष्ठसंख्या, ४. मूल्य, तीन पाने। सिरिटके अनुसार ही उसे सूत्ररूपमें लानेका प्रयल किया प्रस्तुत पुस्तक प्राचार्य समन्तभद्रके सुप्रसिद्ध वृहत्स्वयम- जाता, जिससे वह संस्कृतकी तरह हिन्दीका सूत्रपाठ हो स्तोत्रका हिन्दी पद्यानुवाद । पद्यानुवाद अनेक छन्दों जाता। वास्तवमें समन्तभद्रकी मूलकृति बहुत गूढ़ तथा मैं किया गया है। अनुवादके विषय में स्वयं अनुवादकने गंभीर अर्थको लिये हुए है और उमका मर्म एक पद्यका भूमिकामें यह सूचित किया है कि-"इस पद्यानु- एक पद्यमें ही अनुवाद करनेसे खुल नहीं सकता । फिर भी वादको सुव्य बनानेकी ओर मेरा स्वास प्रयत्न रहा यह अनुवाद . शीतलप्रसादजीके पद्यानुवादसे बहुत है, अतएव स्वच्छंदतासे काफी काम लिया गया है। फिर अच्छा हुआ है और इसमें अनुवादगत कठिन शब्दोंका भी मूलग्रंथके भावकी उपेक्षा नहीं की गई है।" और यह टिप्पणियों द्वारा अर्थ भी देदिया गया है, जिससे मूलके भाव अनुवादपरसे ठीक जान पड़ता है। परंतु इतना होने पर भी को समझने में कुछ सरलता हो सके। पारड्याजीका यह सब अनुबादमें क्लिष्टता-कठिनता प्रागईहै और भ्याविषक प्रयत्न प्रशंसनीय है और मूल स्तोत्रके प्रति उनकी भक्तिका कुछ स्तुनियाँ दुरूह बन गई है, जिसे अनुवादकजीको परिचायक है। इसके साथमें संस्कृतका मूलपाठ भी यदि अपनी भूमिकामें स्वीकार करना पड़ा है। इसका प्रधान देदिया जाता तो अच्छा होता, जिसे कुछ अज्ञात कारणोके कारण एक एक पद्यका एक एक ही पद्यमें अनुवाद वश श्राप नहीं देमके हैं। पुस्तक उपयोगी तथा संग्रहणीय करने का मोह जान पड़ता है। अच्छा होता यदि है और उसकी छपाई सफाई भी सुन्दर हुई है। एक एक पद्यका अनुवाद कई पद्योंमें किया जाना -परमानंद जैन शास्त्री बिलम्बका कारण प्रेस कर्मचारियों की बीमारी भावि कुछ कारणों के वश अबकी बार 'अनेकान्त' की इम किरण के प्रकाशन में पाशातीत विलम्ब हो गया है, जिसका हमें खेद है ! पाठकोंको प्रतीक्षाजन्य जो कष्ट उठाना पड़ा है उसके लिए हम उनसे क्षमाप्रार्थी हैं। इस विलम्बके कारण ही यह किरण संयुक्तरूपमें निकाली जा रही है परन्तु इससे पाठक अपनेको कुछ अलाभमें न सममें, क्योंकि ६ फार्म (४८ पे४) प्रति किरणका संकल्प करके भी 'अनेकान्त' उन्हें इस वर्ष ५६ पेज अधिक दे रहा है। फिर भी आगे इसका खयाल रक्ला जावेगा और 'अनेकान्त' को ठीक समयपर पहुँचानेका भरसक प्रयत्न किया जायेगा। Page #676 -------------------------------------------------------------------------- ________________ सम्पादकीय १ अनेकान्तकी वर्ष समाति- थोड़ा बहुत प्रयत्न किया है वे सब भी धन्यवाद के पात्र है। इस किरणके साथ 'अनेकान्तका' चौथा वर्ष समाप्त इसके सिवाय, जिन लेखकोंने महत्वके लेलोद्वारा अनेहो रहा है। वर्ष में अनेकालने प्ररने पाठकोकी कितनी काम्तकी सेवा की और उसे इतना उन्नत, उपादेय तथा सेवा की, कितने नये उपयोगी साहित्यकी सष्टि की, कितनी स्पृहणीय बनाने में मेरा हाथ बटाया तथा जिनके सहयोग नई खोजें उपस्थित की, क्या कुछ विचार-जागृति उत्पन्न की के A के बिना मैं प्राय: कुछ भी नहीं कर सकता था, उन सबको और व्यर्थ के मामाजिक झगड़े-रंटोसे यह कितना अगल रह धन्यवाद दिये बिना भी मैं नहीं रह सकता। इन सजनोंमें कर ठोस सेवा कार्य करता रहा, इन मब बातोंको बतलानेकी पं. नाथूरामजी प्रमी, कपमालालजी साहित्याचार्य.बा. जरूरत नहीं-विश पाठकोंसे ये छिपी नहीं है। यहाँपर मैं जयभगवानजी वकील, बा० अजिनप्रसादजी एश्योकेट, बा. सिर्फ इतना ही बतलाना चाहता हूँ कि कुछ वर्षोंके अम्त- अगरचंदजी नाइटा, भी भगवत्स्वरूपजी, 'भगवत', बा. राल के बाद अनेकाम्तके दूसरे वर्षका प्रारम्भ करते हए. कामताप्रसादजी, श्रीदौलतरामजी 'मित्र',4. सुमेरचंदजी मैंने यह संकल्प किया था कि अब इसे कमसे कम तीन वर्ष दिवाकर, पं० परमानंदजी शास्त्री, पं. रामप्रसादजी शास्त्री, तो लगातार जरूर चलाया जाय; मेरा वा संकल्प पं.चंद्रशेखरजीशास्त्री, मुनि श्रीकांतिसागरजी, पं.काशीराम अाज पूरी हो रहा है, इससे मुझे बही प्रसन्नता।साथ जी शर्मा 'प्रफुल्लित', . धरणीधरजी शास्त्री. न्यायाचार्य ही, या देख कर और भी प्रसन्नताकि अनेकाम्त जनता महेन्द्रकुमारजी.पं. व्यायाचार्य पं.दरबारीलालजी कोठिया. के हृदय में अपना अच्छा स्थान बनाता हया, पूर्ण उत्साह पं० फूलचंदजी शास्त्री, पं.दीपचंदजी पांड्या और विनी के साथ पाँचवें वर्ष में कदम बढ़ानेके लिये कतनिधय और ललिताकुमारी पाटणीके नाम खास तौरसे उल्लेखनीय है। बद्धपरिकर है। इसका सारा श्रेय अनेकान्तके सहायको, इनमें भी कवि श्रीभगवत्स्वरूपजी 'भगवत्' का बासतौरसे सुलेखकों और प्रेमी पाठकोंको है। तृतीय वर्षकी १२वीं आभारी हूँ, जिन्होंने बिला नागा अनेकान्तकी प्रत्येक किरण किरण (पृ. ६६६) में प्रकाशित 'मेरी प्रान्तरिक इच्छा' में अपनी शिक्षाप्रद कहानी और कविता मेजकर उसे भूषित और चतुर्थ वर्षके नववर्षात (पृ. ३६) में दिये हुए मेरे किया है और जिनकी कहानियाँ तथा कविताएँ पाठकोंको 'श्रावश्यक निवेदन पर ध्यान देते हुए जिन मन्जनोंने अच्छी रुचिकर जान पड़ी हैं। प्राशा ये सब सजन अनेकांतके सहायक बनकर तथा महायना मेजकर मुझे मागेको और भी अधिक तत्परताके माथ अनेकान्तको प्रोत्साहित किया है उन सबका मैं हृदयसे प्राभाग है। अपना पूर्ण सहयोग प्रदान करने में सावधान रोगे, और यहाँ उन सहायक महानुभावोंके नाम देनेकी जरूरत नहीं दूसरे सुलेखक भी प्रापका अनुकरण करते हुए उसे अपनी जिनके नाम प्रत्येक किरणमें प्रकाशित हो रहे है अथवा बहुमूल्य सेवाएँ अर्पण करेंगे। समय समयपर उनकी प्रार्थिक सहायताके साथ प्रकाशित इस वर्षके मम्यादन-कार्यमें मुझसे जी भूले हुने होते रहे हैं। यहाँ पर तो उन महानुभावोंके नाम बास तौर अथवा सम्पादकीय-कर्तब्यके अनुरोध-परा किये गये मेरे से उल्लेखनीय है जिन्होंने अनेकान्तके नये ग्राहक ही नहीं किसी भी कार्य-व्यवहारसे या टीका-टिप्पणीमे किली भाको किन्तु महायक तक बनानेका स्तुत्य प्रयत्न किया है, और कुछ कष्ट पहुँचा हो तो उमके लिये मैं हृदयमे जमा-प्रार्थी वेबाबुछोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता, तथा श्री दौलत- क्योंकि मेरा लक्ष्य जानबूझकर किसीको भी व्यर्थ कह रामजी मित्र', इंदौर। ये दोनों ही सज्जन खास तौरसे पहुंचानेका नहीं रहा और म सम्पादकीय कर्तव्यसे उपेक्षा धन्यवादके पात्र है। और भी जिन मजनोंने इस दिशामें धारण करना ही मुझे कभी इट रहा है। Page #677 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्त [वर्षे २ आवश्यक निवेदन-- कारण ही पृष्ठसंख्यामें अधिक वृद्धि नहीं हो मकी और न 'अनेकान्त' के चौथ वर्ष का प्रारम्भ करते हुए मैंन किरीनये उपहार ग्रंथकी योजना दी बन मकी है। पिछले उसके प्रेमी पाठकोंसे यह निवेदन किया था कि 'जो सज्जन वर्ष रा०ब० मेट हीरालालजी, इन्दौग्ने अपनी तरफसे १५० अनेकान्तकी ठोस सेवाश्रम कुछ परिचित है-यह समझते जैनेतर संस्थाश्रो-यूनिमिटियो, कालेजो हाई स्कूलों और हैं कि उसके द्वारा क्या कुछ सेवा कार्य हो रहा है-दो पबलिक लायबेरियोको अनेकान्त फ्री भिजवाया था इस वर्ष सकता है और साथ ही यह चाहते हैं कि यह पत्र अाधक वेसी सहायता प्राम न होने से उन्हें भी अनेकान्त नहीं ऊँचा उठे. घाटेकी चिन्तासे मुक्त रहकर स्वावलम्बी बने. भिजवाया जा सका , श्रार भिजवाया जा सका है, ओर इसमे कितने ही विद्याकेन्द्रों में हमके द्वारा इतिहाम तथा माहित्यके कायोको प्रोत्तेजन अनेकान्त-साहित्यका प्रचार रुका रहा। मिले-अनेक विद्वान उन कार्योंके करने में प्रवृत्त हो- ऐमी हालत में अनेकान्तके प्रेमी पाठकोसे मेरा पुन: नई नई खोजें और नया नया माहित्य सामने आए, प्राचीन मानुरोध निवेदन है कि वे अब अनेकान्तको मब मार्गाने साहित्यका उद्धार हो, मच्चे इतिहासका निर्माण हो, धार्मिक पूरी महायता पान करानेका पूरा प्रयत्न करें, जिससे यह सिद्धान्तोकी गुत्थियाँ सुलझं, समाजकी उन्नतिका मार्ग पत्र कागज अादिकी इम भारी महँगके जमाने में अपनी प्रशस्तरूप धारण कर; और इस प्रकार यह पत्र जैनममाज प्रतिष्ठाको कायम रखता हुश्रा समाजसेवा-कार्यमें भले प्रकार का एक श्रादर्श पत्र बने, समाज इसपर उचित गर्व कर अग्रमर हो सके, और इसके सम्पादनादिमें समय तथा शक्ति मके और समाज के लिये यह गौरवकी तथा दुमरोके लिये का जो भार्ग व्यय किया जाता है वह मफल हो सके। एमके स्पृहाकी वस्तु बने, तो इसके लिये उन्हें इस पत्रके महयोगमें लिये प्रत्येक ग्राहकको दृढ संकल्प करके दो दो नये ग्राहक अपनी शक्तिको केन्द्रिन करना चाहिये। माय ही इमके जरूर बना देने चाहिय तथा विवादादि दान अवमरोगर लिये यथेष्ट पुरुषार्थ की श्रावश्यकता तथा पुरुषार्थकी शक्ति 'अनेकान्न' को अधिकसे अधिक महायता भिजवाने का को बतलाते हए यह प्रेरणा की थी कि वे पषार्थ करके पृग स्वयाल रखना चाहिये और ऐमी कोशिश भी करनी इम पत्रको ममाजका अधिकसे अधिक सहयोग प्राम कगएँ चाहिये जिसमे पांचवें वर्ष में अनेकानके पाटकोको कुछ और इसके संचालकों के हाथोंको मजबूत बनाएं, जिसमे वे उपहार-ग्रन्योक दिये जाने की योजना हो मके। इसके सिवाय अभिमतरूपमे हम पत्रको ऊँचा उठाने तथा लोकप्रिय कुछ उदार महानुभावोका यह भी कर्तव्य है कि वे हम बनाने में समर्थ हो मके। और अनेकान्तकी महायताके चार वर्षकी अनेकान्तकी फाइलें अपनी श्रोरसे यूनिवर्सिटयों, मार्ग सुझाए थे, जो बादको भी अनेक किरणों में प्रकट होते कालिजों, हाईस्कूलों नथा पर्चालक लायरियोंको भिजवाएँ, रहे है। इसमें मन्देह नहीं कि समाजने मेरे इस निवेदनपर जिसमे अनेकान्त में जो गवेषणापूर्ण महत्वका ठोस साहित्य कुछ ध्यान जरूर दिया है, परन्तु जितना चाहिये उतना निकल रहा है वह अजैनोंके भी परिचयमें श्राए और ध्यान अभी तक नहीं दिया गया। इमीमे प्रथम-मार्गद्वारा अच्छा वातावरण पैदा करे। ऐसी १०. फाइलें इस काम सहायताके कुल १३५३) रु. के वचन मिले हैं, जिनमेंसे लिये रिकर्व हैं। श्राशा है कोई महानुभाव उन्हें योग्य १.४०रु. की अभी तक प्राप्ति हो: द्वितीय मार्गमे क्षेत्रोमें वितरण करके क्षरूर पुण्य तथा यशके भागी बनेंगे। १.m) की और तृतीय मार्गसे १२० रु. की ही सहायना याद अनेकान्तके प्रेमियोंने अपना कर्तव्य पूग किया तो प्राप्त हुई। इसमें द्वितीयादि मार्गासे प्राप्त होने वाली यह पत्र अगले साल अपने पाठकोंकी और भी अधिक सेवा सहायता तो बहुत ही नगण्य है। सहायताकी इम कमीक कर मकेगा। Page #678 -------------------------------------------------------------------------- ________________ अनेकान्तके सहायक जिन सज्जनोंने 'अनेकान्सकी ठोस सेवाओंके प्रति अपनी प्रसन्नता व्यक्त करते हुए, उसे घाटेकी चिन्ता मुक्त रहकर निराकुखतापूर्वक अपने कार्य में प्रगति करने और अधिकाधिक रूपसे समाज सेवाओंमें अग्रसर होनेके लिये सहायताका वचन दिया है और इस प्रकार अनेकान्तकी सहायक श्रेणीमें अपना नाम लिखाकर अनेकान्त के संचालकों को प्रोत्साहित किया है उनके शुभ नाम सहायताकी रकम सहिन इस प्रकार हैं * १२२) वा. छोटेलालजी जैन रईस कलकत्ता * १०१ ) वा अजितप्रसादजी जैन एडवोकेट, लखनऊ । * १०१ ) या बहादुरसिंहजी सिंधी, कलकत्ता । १००) साहू श्रेयांमप्रसादजी जैन, लाहौर * १००) साहू शान्तिप्रमादजी जैन, डालमियानगर * १००) बा. शांतिनाथ नंदलालजी जैन, कलकत्ता सुपुत्र था. १००) ला. तनसुखरायजी जैन. न्यू देहली * १००) सेठ जोखीराम बैजनाथजी सरावगी, कलकत्ता १००) बा. लालचंदजी जैन, एडवोकेट, रोहतक १००) बा. जय भगवानजी वकील यादि जैन पंचान, पानीपत *५१) रा.बा. उल्फनरायजी जैन रि. इंजीनियर, मेरठ * २१) ला दलीपसिंह काराशी और उनकी मार्फत देहली * २५) पं० नाथूरामजी प्रेमी, हिन्दी-ग्रन्थ-रत्नाकर बम्बई । * २५) ला रूड़ामलजी जैन, शामियाने वाले, सहारनपुर । * २५) बा. रघुवग्दयालजी, एम. ए. करोलबाग़ देहली। * २५) पेठ गुलाबचंदजी जैन टोंग्या, इन्दौर । * २५) खा. बाबूराम कलंकप्रसादजी जैन, तिस्मा (मु.म.) २५) मु ंशी सुमतप्रसादजी जैन, रिटायर्ड अमीन सहारनपुर * २५) ना० दीपचंदजी जैन रईस, देहरादून । * २५) खा० प्रयुम्नकुमारजी जैन रईम. सहाररूपुर | * २२) सवाई सिंह धर्मदास भगवानदासजी जैन, सतना । आशा है अनेकान्तकं प्रेमी दूसरे सज्जन भी आपका धनुकरण करेंगे और शीघ्र ही सहायक स्कीमको सफल बनाने में अपना सहयोग प्रदान करके यशकं भागी बनेंगे । नोट -- जिम रकमोंके सामने * यह चिन्ह दिया है वे पूरी प्राप्त हो चुकी हैं। व्यवस्थापक 'अनेकांत' वीरसेवामंदिर, मरसावा (सहारनपुर) अमेकान्तकी सहायता गत ९ वीं किरण में प्रकाशित सहायताके बाद अनेकान्तको निन्न लिखित १२) रु० की सहायता प्राप्त हुई है। जिसके लिये दाता महाशय धन्यबादके पात्र हैं : १०) ला० बारुमल कीर्तिप्रसादजी जैन मुजफ्फरनगर और ला० अयोध्याप्रसादजी जैन, रायपुर ( सी० पी०) । ( चि० जगदीशप्रसाद के विवाह में निकाले हुए दानमें से ) । २) ला० रामशरणजी जैन मुनीम, मुरादाबाद (पर्या पर्वकी सानन्द समाप्तिकी खुशी में निकाले हुए दान)। arr सेवामन्दिरको सहायता श्रीमान ला० रेशमीलालजी सेठिया बघेरवाल जैन इन्दौरने हाल में बीरसेवाममंदिरकी प्रकीर्णक पुस्तकमालाको २५) रु० की सहायता प्रदान की है, जिसके लिये आपको हार्दिक धन्यवाद है । अधिष्ठाता 'air संवामन्दिर' सरसावा जि० सहारनपुर । अनेकान्तकी फाइलें और फुटकर किरणें अनेकान्त के प्रथम तीन वर्षोंकी बहुत ही थोड़ी फाइलें अवशिष्ट हैं, अर्थात् प्रथम वर्षकी २५, द्वितीय वर्षकी १०, और तृतीय वर्षकी १०, फाइलें निजी कोष में प्रस्तुत हैं, जिन्हें आवश्यकता हो वे शीघ्र ही मँगा लेवें फिर इन फाइलों का मिलना किसी भी मूल्य पर न हो सकेगा । मू० तीनों का क्रमशः ४), ३५, ३) रुपये है, डाक व रजिष्ट्री खर्च प्रत्येक फाइलका || बारह आना अलग होगा। इसके सिवाय, प्रथम वर्ष की पहली और तृतीय वर्षकी चौथी मे ९ वीं तक किरणों को छोड़कर शेष फुटकर किरों भी कुछ स्टाक में मौजूद हैं, जो अर्ध मूल्य में दी जाएँगी । पोस्टेज प्रत्येक किरणका एक खाना, विशेषांक या दो चाना होगा । चौथे वर्षकी फाइलों तथा फुटकर किरणोंपर पोस्टेज नहीं लिया जायगा । -व्यवस्थापक 'अनेकान्त' Page #679 -------------------------------------------------------------------------- ________________ REGISTERED NO. A-731. चौथा भाग तैयार होगया! श्रीमन्त मेठ शिनावराय लक्ष्मीचन्द जैन साहित्य उद्धारक फंड बारा पखंडागम (धवलसिद्धांत) । चौथा भाग “नेत्र-म्पर्शन-कालानुगम” भी छपकर तैयार होगया है। पूर्व पद्धति अनुसार यह भाग भी शुद्ध मूलपाठ, सुम्पष्ट हिन्दी अनुवाद तथा अनेक उपयोगी परिशिष्टोंके साथ छपाया गया है । एक एक गुणस्थान व मार्गणास्थानमें जीवोंक क्षेत्र, म्पर्शन और कालका A. विवेचन करना प्रस्तुत प्रथभागका विषय है। इस विषयपर लगभग ३४० शंकाएं उठाकर उनका समाधान किया गया है। प्राचीन गणितशाबका यहां भी अद्वितीय निरूपण है। जिसे बड़े २ गणितज्ञोंकी सहायतास अंकगणिन व क्षेत्रगणित ५२ उदाहरण देकर ममझाया गया है। विषयके मर्मका उद्घाटन करनेवाल ६०२ H विशेषार्थ लिखे गये हैं और ६२० में ऊपर टिप्पणियां लगाई गई है। क्षेत्र और स्पर्शन प्ररूपणाओंसे संबद्ध लोकके भाकार व प्रमाण सम्बन्धी विभिन्न मान्यताओंका जा अपूर्व विवेचन व जीवोंकी अवगाहना न तथा द्वीपमागर-संस्थानों का विवरण मूलमें पाया है उसका २१ चित्रीद्वारा स्पष्टीकरण किया गया है। प्रस्तावनामें सिद्धान्त अध्ययनका अधिकार, शंका-समाधान. विषय-परिचय व तत्मम्बन्धी मानचित्र आदिके द्वाग सक्त प्रापरणामोंके गहन विषयको खूब सुबोध बनाया गया है। प्रन्थका पुग महत्व नमके अवलोकन कग्नमे ही जाना जा मकेगा। पुस्तकाकार १०) मृल्य शास्त्राकार १२) of [१] प्रथम भाग पुस्तकाकार १०) शाम्राकार (अप्राप्य ) द्वितीय भाग पुस्तकाकार १०) शाम्राकार १२) तृतीय भाग पुस्तकाकार १०) शाम्राकार १३) [२] पेरागी मूल्य भेजनेमे डाक व रेल्वं व्यय नहीं लगेगा। इस संस्थाके हाथमें द्रव्य बहुन थोड़ा और कार्य बहुत हो विशाल प्रार्थना-३, प्रतएव समस्त श्रीमानों, विद्वानों और संस्थानोंको उचित मूल्यपरा प्रनियाँ बरीदकर कार्यको प्रगतिको सुलभ बनाना चाहिये । -. - मन्त्री . जैनसाहित्यउद्धारक फंड कार्यालय किंग एडवर कालेज, अमरावती (बगर) मुद्रक, प्रकाशक . परमाननशास्त्री बीरमेबामन्दिरममावाके लिय श्यामसुन्दरलाल श्रीवास्तवद्वारा श्रीवास्तव प्रेस सहारनपुरमें मु Page #680 -------------------------------------------------------------------------- _