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अनेकान्त
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से दो प्रकारका होता है। जो इन पापोंका पूर्ण ग्याग कर मंक्षिप्त स्वरूप इस प्रकार है-- देते हैं वे मुनि-माधु कहलाते हैं।
ईर्या-मार्ग चलते समय चार हाय जमीन देखकर मुनि धर्म
चलना, दिन में ही चलना, और मौन व्रत लेकर चलना मुनियों के पांच पापों का प्रभाव होने पर क्रमसे अहिंसा,
'ईयां समिति' है। साधु हरी घास पर या जल वगैरह से सम्य, प्रचौर्य, ब्रह्मचर्य और अपरिग्रह । ये पांच महावत
सीची गई पृथ्वी पर नहीं चलते । प्रकट होते हैं । इन पांच महावतोंका संक्षिप्त स्वरूप इस
भापा-हितकारी परिमित और सत्य वचन बोलना प्रकार है
'भाषा समिति' है। ___ अहिया महाव्रत-मन, वचन, काय और कृतकारित
एषणा-दिनमें एकबार खड़े होकर शुद्ध-निर्दोष अनुमोदनमै चर-अचर जीवोंकी हिंसाका त्याग करना
आहार लेना 'षणा' समिति है। मुनि अपने हाथसे आहार 'अहिंसा महावत' है। साधु अपने समस्त कार्य बड़ी साव
नहीं बनाते। गृहस्थोंके घर जाकर बिना मांगे हुए पाहार धानीके साथ देख-भाल कर करते हैं, इसलिये चलने या लेते हैं। भोजन वगैरहके समय जो सूक्ष्म जीवोंकी हिंसा होती है
अदान निक्षेपण-अपने पासके पीछी कमण्डलु या उसका पाप इन्हें नहीं लगता । पारमा दुषित भाव उत्पन्न शास्त्रोंको देख-भालकर उठाना या रखना 'श्रादाननिक्षेपण' होना ही वस्तुनः पाप है।
ममिति है। सत्य महावन-प्रमाद-सहित होकर श्रमस्य वचन
प्रतिष्ठापन-जीव रहित-निर्जन स्थानमें मल मूत्रका नहीं बोलना 'सत्य महावत' है। यह हम पहले लिख पाये त्याग करना 'प्रतिष्ठापन' ममिति है। इसका दूसरा माम हैं कि असत्य बोलने में राग-द्वेष और प्रज्ञान ये दो ही मुख्य 'न्युत्सर्ग' समिति भी है। कारण हैं। उनमेंसे साधु प्रमाद अर्थात् राग-द्वेष-पूर्वक कभी समिति पालनका मूल उद्देश्य यह है कि अपने द्वारा भी असत्य वचन नही बोलता । अज्ञानस असत्य बोला जा किसी दूसरे जीवोंको कष्ट न हो सकता है, पर उससे वह विशेष दोषी नही ठहरता ।
इनके सिवाय, साधुओंको जितेन्द्रिय होना पड़ता है। ___ अचौर्य महावत- 'वना दिये हुए दूसरेकी किसी भी स्पर्शन, रसना, प्राण, चक्षु और कर्ण ये पांच इन्द्रियां हैं वस्तुको न पाप लेना न उठाकर दूसरेको देना 'प्रचौर्य- इनके क्रमसे स्पर्श, रस, गन्ध, रूप और शब्द विषय है। महावत' है।
साधु अच्छे स्पर्शादिमें न राग-प्रेम करते हैं और नहीं बरे अपरिग्रह महावत--रुपया पैसा प्रादि हर प्रकारकी स्पर्शादिमें द्वेष करते हैं। पर वस्तुभोंसे मोह छोड़ना--उनमें लालसा नही रखना इनके अतिरिक्त साधुनोंको छह आवश्यक (जरूर करने 'अपरिग्रह महावत' है।
योग्य कार्य) काम करना पड़ते हैं। वे ये हैं- समता साधुनोंको इन व्रतोंकी रखाके लिये समितियोंका भी २ बन्दना ३ स्तुति प्रतिक्रमण ५ स्वाध्याय और पालन करना पड़ता है। समिति [ सम + इति ] प्रमादरहित ६ युसर्ग । इनकी संक्षिप्त व्याख्या निम्न प्रकार है। प्रवृत्ति को करते हैं। वे पांच होती हैं- ईयां, २ भाषा, समता-संसारके समस्त प्राणियोंमें मध्यस्थ भाव ३ एषणा, ५ भादान निक्षेपण, और ५ प्रतिष्ठापन । इनका रखना।