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किरण ५]
रस्न-त्रय धर्म
३चरणानयांग-जिन शास्त्रों में मुनि और गृहस्थीक यह ज्ञान होता है व 'मर्वज' कहलान है । मंसारक भीतर चाग्निक योग्य प्रावश्यक कार्योंका वर्णन होना है व 'चरणा- या कोई भी पदार्थ बाकी नहीं रहना जिन्हें केवलज्ञान न नुयोग' के शान कहलान है। इस अनुयोग छपे हुए कुछ जान पाता हो। ज्ञानगुणका मबम अधिक विकास इसी शाम ये हैं --मूलाचार. स्नकरगहश्रावकाचार, वमनन्दि- शानमे होता है। श्रावकाचार, भगवती पागधना प्रादि ।
जानगुणको रोकन वाला जानावरण कर्म है, जब तक ४ द्रव्यानुयोग-जिन शाम्रोमे जीव, पुदगल, धर्म वह मौजूद रहता है नब नक जीवक पूर्ण ज्ञान प्रकट ही एक प्रकारका सम पदार्थ जो कि जीव और पदगलोंको हो पाना परन्तु ज्या ज्या उसका प्रभाव होता जाताया चलने में सहायक होता है। अधर्म । एक प्रकारका सम्म यो जान भी प्रकट होता जा 1 जानावरण कर्मका जब पदार्थ, जो कि जीव भोर पदगलांको ठहरनम महायक होता बिलकुल प्रभाव होजाना है तभी कंवलज्ञान प्रकट होता है। है), आकाश और काल इन छह द्रव्योंका वर्णन हो व 'द्रग्या
ऊपर लिखे हुए पांच जानाका विशद-विशेष स्वरूप नुयोग' के शान हैं। हम अनुयोग कुछ शास्त्रोक ये नाम जाननके लिय पाठकोको गोम्मटमार-जीय कारक ज्ञानमार्गणा है--समयमार राजधानिक नस्वार्थमार, श्लोकवानिक श्रादि। ना
नामक अधिकारका अवलोकन करना चाहिय। जेनियांक ये ममम्न शास्त्राचार प्रादि बारह प्रजाम
मम्यकचारित्र विभक्त हैं, जिन्हें द्वादशाह' कहने है। जिम मानवको पूर्ण
सम्यक्चारित्रक दो भेद है -, निश्चय और • ग्यव. नजान होता है उस 'श्रतकवली' कहते है।
हार । मामाक अन्य पदार्थोंम गग-ष छोड़कर अपन अवधिज्ञान--द्रव्य-क्षेत्र-काल-पादिकी अवधि मयादा) प्रान्माकं शुद्ध स्वरूपमें लीन होना निश्चयम्सम्याचारित्र' लिय हा रूपी पदार्थोंको एक दश स्पष्ट जानना 'अवधि योर उम्मक महायक जितने क्रियाकागड ये पत्र व्यवहार जान है। इस जानम इन्द्रिया तथा प्रकाश वगेरहकी महायना चाग्नि है। यहां इतना ममम लना आवश्यक होगा कि की अावश्यकता नहीं होती । जिम पुरुषको अवधिज्ञान होना निश्चयमम्यवाग्निकी प्राप्ति व्यवहारमारित्रका पालन करन है वह कई वर्ष पहल और ग्रागकी तथा कितनी ही दरका मही होगी। प्रथम म्याम निश्मय माध्य और व्यवहार बानको प्रन्या जान लता है। इसकं भी भनक भंत होने है माधक होता है परन्तु प्राग चलकर शुद्ध म्वरूपकी प्राप्तिकी परन्तु यहां इतना ही पर्याप्त है। यह ज्ञान देव और नरक अपेक्षा निश्चय भी माधक हो जाता है। जैन शाम्भ्रमि इन योनियों में नियममे होता है किन्ही किनहीं गृहम्या नथा दोनों प्रकारक नारियांका प्रमुग्वनाम वाम है। प्रागे ब. मनियोंक भी होता है। नियंच भी इस प्राप्त कर सकने । हार प्रधान प्रवृतिरूप मम्यक्चारित्रका वर्णन किया जाता। मनःपर्ययमान-विना किमीकी महायनाक नमक
व्यवहार-चारित्र मनकी पानको जान लेना मनस्यज्ञान है । यह ज्ञान
हिमा, मृपा, म्य, न्यभिचार और परिग्रह इन पांच मुनियोंक ही होता है।
पापांका न्याग करना 'व्यवहारचारित्र' है। ये पांच पाप केवलज्ञान-भूत, भविष्यन और वर्तमान कालके अत्यन्त दु:ग्वक कारण हैं। यदि मंग्यारक समम्न प्रागी इन समस्त पदायाँको एक माथ स्पष्ट जानना 'कंवलज्ञान' है। पार्षीका भ्याग कर देवं नो मांगारम मच पोर मुग्य-शामिका यह ज्ञान प्रान्त और मिद परमात्मा ही होता है। जिन्हें माम्राज्य का गांव । इन पापोंका भ्याग पूर्ण और अपूर्णरूप