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________________ किरण ५ ] रस्नत्रय-धर्म ३२६ वन्दना-पाराध्य देवको नमस्कारादि करना तम्बू होता है. निशाएँ उनके वस्त्र होती है, चन्द्रमा और म्तुति-पाराध्य देवकी स्तुति करना। अभय नार उनके निशा दीपक होने है और मृग गण प्रतिक्रमण-किये हुए दोषी पर पश्चात्ताप करना। उनके माथी होते हैं। उन्हें न किसी राग होता है और म्वाध्याय-मान वृद्धि के लिये शाम्प पढना । न किसीम हप । व काम-क्रोध-मानमाया लोभ मादि व्युत्मर्ग--श्रामशक्ति पटानक लिय शरीरमे ममश्व दुभावों पर विजय प्राप्त किये होते हैं। वे प्रातःकाल बाहामुछोड कर स्थिरचिन होकर महामन्त्रादिका जाप करना। हृतम लकर मूर्योदय तक मामायिक, प्रामचिन्तन--परमात्म इनक सिवाय मुनियाको नीचे लिग्व हा • गुणोका ध्यान करते है, उसके बाद शरीर सम्बन्धी दैनिक कार्योसे पालन और करना पटना है। माधुदीक्षाके बाद जीवन. निपटकर शाम्यावलोकन करत है। करीब ... बजे पयं.1 म्गनका ग्याग करना क्योकि म्नान सिर्फ गरीर आहारक लिय श्रावकोक घर जाने । पहा श्रावकोंक द्वारा शुद्धिका क बाप मोर जान हिमाका कारण है, विधि पूर्वक प्रसन्मनाक माय मिय हा याहारको रूप मात्राम • पिछली रानमे सिर्फ जमीन पर शयन करना. ३ नग्न खः खई अपने हम्नरूप पायम ही लनं है। पाहारके बाद गहना ४ बालीको उम्तर या के चीम न काटकर हायोग्य मध्याहक समय फिर प्रातःकालक समान मामायिक करक उवासना . एकबार धोना भोजन करना । दन्न धावन ग्राम निबन करत है। यामायिका बाद शाम्बावलोकन नहीं करना और । यद व पाणि-पानमे भोजन करना। या धर्मापदंशका कार्य करते हैं। उनका यह कार्य मर्यास्तक यपि य मान गुग्ण पहल कह हा महावनी और लगभग तक जारी रहता है। पुन' सामायिक और प्राम पमितियांक भीतर गथामभव गर्मिन ही जान है तथापि चितवनमें लीन हो जाते हैं. मामायिकके बाद अपने निश्चित अयन यावश्यक हनक कारण उनका पृधक निदेश म्यानपर ग्रामीन होकर अर्ध गम्रि तक अपने हृदय में नाव किया गया है। विचार या इंश-प्राराधना करने है। मध्य रात्रिक वादका इस प्रकार मुनियोंकी - महावत। । पमिति। - इंद्रिय ममय शयन व्यतीत करतं है।नका शयन जमीन पर ही विजय । ६ श्रावश्यक और शप । गृण कल ८ मुग्य होता है। इस कठिन दिन-चर्याको दिगम्बर माधु बही मुल) गुणीका पालन करना पड़ता है। इन ८ गुणांक उस्मारक माध करनं है। उनका जी कभी भी व्याकुल नहीं पालन करनमें जो शिथिलता या प्रमान करना है वह नग्न होना। जेट मामका कठोर निनकर, पावसकी घनघोर वर्षा होने पर भी मिथ्या माध है. जैन शास्त्रों में उसकी भकिन- और मन्न-शिशिरकी असीम शीत वायु क्रम क्रममे उनकी वन्दना श्रादि साकार करनका अ यन्त निषध है। परीक्षाके लिय श्रानी है परन्तु व अनुत्तीर्ण नहीं होते -मब दिगम्बर जैन मनियाका मुख्य निवाम नगरमे न होकर बाधाओंको महतं हुए महानदीक प्रवाहकी तरह आगे बढ़े बनम हुमा करता है। उनके पावन नगरके पूषित वाय जाने हैं। अपने इष्टकी प्राप्ति होने तक कर्तव्य पथ पर इंटे मगडलकी गन्ध भी नहीं रह पाती। उनकी आलोकिक रहनं है। उ मांसारिक विषयांस किमी प्रकारका स्नेह शान्ति दबकर जालक जानि विगंधी जीव भी परम्परका नहीं रहना । नकी प्रवृत्तिही अलौकिककोजाती है। यदि विरोध छोडकर मौहार्द में रहने लगते है। क करीली पथरीली वैराग्यका सच्चा प्रादर्श देग्वना है नो वास्तविक दिगम्बरजैन वसुधा उनका प्रायन होनी है. निर्मल नील नभ उनका माधुनोंको देवो । यदि समा और विनयका भण्डार देखना
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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