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अनेकान्त
[ वर्ष ४
चाहते हो तो मे ही दि. जैन माधुनोंको दवा । यदि हुआ है उस छोड़ कर अन्य क्रियाक माथ सम्बन्धका त्याग मरलता और भावुकताका दर्शन करना चाहते हो तो दि० करना। अपनी बीमही मन्तोष रग्बना 'ब्रह्मचर्याणवत' है। जैन माधुओंको दंग्खो, और ब्रह्मचर्यका अादर्श देग्वना चाहनं अपरिग्रहाणुव्रत-अावश्यकता अनुसार धनधान्य हो नो सहम सुर-सन्दरियांक मध्यमें भी अविकृत रूपम म्पया वगैरह परिग्रहका परिमाण कर लेना और उसमे नग्न रहने वाले दि० जैन माधुश्रीको देवा ।
अधिकका मंग्रह नहीं करमा अपरिग्रहावन' अथवा 'परिग्रह गृहस्थ-धर्म
परिमाण' नामका व्रत है। व्यर्थ ही सम्पत्तिको रोक रग्बना जो उपर लिग्वे हए पांच पापीका अपूर्ण- एकदेश पाप है । मंग्याम्म अाज जिम निरनिवादको आवाज उठाई म्याग करता है वह हस्थ-श्रावक कहलाता है। हस्थी में जा रही है. उमका उपदेश जैन गृहम्थक लिय बहुत ही रहने हुए पांचों पापांका पूर्णग्याग ही नहीं सकता, इमलिय पहलम दिया जा चुका है। इनके अपूर्णस्यागका विधान है। हिमा श्रादि पांच पापांका
इन व्रतांकी रजाक लिय गृहस्थको दिखत. देशव्रत अपूर्ण त्याग करने पर श्रायकोंके पांच प्रणवत होने है। और अनर्थदगदुव्रत इन नीन 'गुण वती' को भी धारण उनके नाम ये*..., अहिमायत र मायागवत करना पडना है । गुग व्रतीकी सिप्त व्याख्या हम प्रकार है-- प्रचौर्याणवत ४ प्रहाचर्याणवत ५ और अपरिगृहाणन
दिखत-पारम्भ या लोभ वगैरह को कम करने के अथवा परिग्रह परिमाणवत । इनका मंक्षिप्त स्वरूप हम
अभिप्रायम् जीवनपयन के लिये दशी दिशाणाम अान जाने प्रकार है--
का नियम करले और मर्यादित संग्रम बाहर व्यापार अहिंसागवत -मंकल्प करक चर-त्रम जीवोंकी हिमा अादिक उद्देश्यम नहीं जाना 'दिग्बन है । हा. धार्मिक का ग्याग करना 'हिमाणुवत' कहलाता है। इस व्रतका कायाँक लिय बाहर भी जा सकता है। धारी संकल्प-इरादा करके कभी किसी ग्रम जीवकी हिंसा दशवन-दिग्बतक भीतर की हई मयांदाका दिननहीं करता, न देवी देवताओं के लिय बलिदान ही चटाना है। महीना आदि निश्चित अवधिनक और भी मंकोच करना: शत्रुमे अपनी रक्षा करने, व्यापार करने, वा रोटी पानी अादि नीमम अाज बनारमय बाहर नहीं जाऊंगा श्रादि देशयत' है। घर-गृहस्थीके काोंमें जो हिंमा होती है, गृहस्थ उसका अनर्थदण्डव्रत-जिन कामोंक करनेम व्यर्थ ही पाप प्यागी नहीं होता। अहिमागबनी परुष म्यावर जीवाकी का प्रारम्भ होता हो उन कामोके करने का प्याग करना हिमाका त्याग नहीं कर मकना. पर उनका भी निष्प्रयोजन 'अनर्थदण्डवत' है। विना प्रयोजन कार्य करन सिर्फ पाप संहार नहीं करता।
काही मंचय होता है। सत्याणुबन-स्थल ऋठका ग्याग करना 'मायाणुव्रत' इनके सिवाय भागकी कक्षा--मुनिधर्मका अभ्यास है। यह व्रती ऐसा मग्य भी नहीं बोलता जिससे व्यर्थ ही करने के लिये गृहम्थको चार शिक्षायतों' का भी पालन किमी जीवको दःख हो।
करना आवश्यक है। वे य है--मामायिक २ प्रोषधोपवाम प्रचौर्याणुव्रत-बिना दी हुई किमीकी वम्नुको न ३ भोगापभोगपरिमाण और ४ अनिधिसंविभाग। यहां स्वयं लेना और न उठाकर किसी दूसरेको देना इनका संक्षिप्त स्वरूप बतलाना अनावश्यक न होगा। प्रचौर्याणन है।
मामायिक-मुबह शाम और दुपहरको किम्मी निश्चित ब्रह्मचर्याणुव्रत-जिसके साथ धर्मानुकूल विवाह समय तक सब पापोका पूर्ण त्याग कर अपने प्रारमाके शुद्ध