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________________ किरण ५ ] रस्नत्रय-धर्म म्वरूपका चिन्तन करना, परमा'माका ध्यान करना और इन वतीका यथार्थ रूपमे पालन करने वाला मनुष्य मरकर पिछले समयमें किये हुए दोषों पर पश्चाताप करना प्राय: दवयोनिमे ही उपस होता है। सामायिक है। इस तरह संक्षेपस सम्यग्ज्ञाम और सम्यक्चारित्रका प्रोपधापवास-प्रत्यक अटमी और चतुर्दशीको उप- सामान्य स्वरूप बतलाया गया है। यही नीन पदार्थ ॐनवाम या एकाशन करना 'प्रोषधोप वाम है। गृहस्थ परुष गायोमे 'निय' नाममे प्रसिद्ध है। प्रोषधोपचापक दिन ममम्न व्यापार तथा शारादिका रत्नत्रय ही मोक्षका मार्ग है न्याग कर अपना समय धर्मध्यान. म्वा याय या ईश उपर कहे हुए तीन नाका समुह ही मोत-निर्वाण-प्राप्ति पाराधनाम व्यतीत करता है । शरीरका स्वास्थ्य अतुगण का उपाय । इस विषय में प्राचार्य उमाम्वामीका वचन है - रखनेक लिय भी आठ दिन में कमम कम एक उपाय करना सम्यग्दर्शनशानचारित्राणि मोक्षमागेः' अर्थात् अन्यन अावश्यक है। सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान और सम्यक चारित्र ही मोक्षका मार्ग भोगांपभोगपरिमाण-जो वस्तु एक ही बार भोगने है--उपाय है। बीमार मनुष्य मोवधिक विश्वाम, ज्ञान में पात्र उमे 'भोग' कहने है जैम भोज्न वगेरह और जो और वन--इन तीन कार्यो के होने पर ही . बीमारीमे वस्तु कई बार भोगी जा सके उस 'उपभोग' कहते हैं जैसे मुक्त हो सकता है, वैसी मारी जीव श्रद्धान-विश्वास वर, वाहनमकान वगैरह । भोग और उपभोगकी वस्तुओं ज्ञान और चारित्रक होने पर ही मांसारम्प रोगय हुटकारा का जीवनपर्यन्तक लिय अथवा कुछ समयकी मर्यादा लेकर पा सकता है। यदि नयका मालंकारिक रस्टिस विवंचन परिमाण अवधि निश्नय कर लना 'भोगीपभोगपरिमाण' किया जाव तो समय एक प्रकारका वृक्ष है, जिसका मूल. ग्रत है। जैग किमीन नियम किया कि आज मै दाल और सम्यादर्शन है. सम्यग्जान स्कन्ध और सम्यक्चारिणशाग्वा गवल ही ग्वाऊंगा एक करता पहनगा पोर मात्र एक दरी है। हम स्नप्रय वन में स्वर्ग और मोक्ष रूप फल लगनं है। पर लगा प्रादि । निक मामने मंसारक अन्यफल नुछ हो जाते है। अतिथिमविभाग-मन-श्रापिंका. श्रावक-श्राविका पाठकगगा ' ऊपर लिग्वं हुए नवयक म्वरूपका गंभीरता नमा अन्यमनुष्य को श्रावस्यकतानमार भोजन घोषधि क साथ विचार कीजिये और उसके विशेष स्वरूपका जन पुस्तक नथा हनके लिय मठ मकान वगैरह देना अनिथ प्रथा परम अध्ययनकर मनन कीजिय। मनन करने पर मालूम विभाग बनी। इस तनका धारी नि:स्वार्थ भावमदान होगा कि वास्तव में ग्नत्रयके भीतर समम्त लोकका कम्याण दना है--दान देकर प्रत्यपकार-प्रनिदान या उपक मल में निहित है। वगैरहकी इच्छा नहीं करना । ___ इस लेग्वका प्रतिपा० विषय जैनपाटकोक लिये नया नहीं ___ इस प्रकार ऊपर लिग्वं हुए ५ घणय।। ३ गुणवन है, क्योंकि नियोका प्रायः प्रत्येक पालक रम्नत्रयक मंक्षिप्त और ४ शिक्षावत यं गृहम्थ-अथवा श्रावकांक १२ वन म्वरूपम थोडा बहन परिचित रहता है। यह लेग्य उन्हें उद्देश्य कहलाने हैं। इन वनों में हिमा अादि पाच पापीका अपूर्ण कर लिया भी नहीं गया है। लेग्यका उद्देश्य प्रायः इतना म्याग रहता है। हा है कि हमारे माधारण अजेनपाठक भी जैनधर्म सम्ब. इनके अतिरिक्त जैनगृहस्थकं रात्रिभोजनका म्याग होना स्नत्रयके स्वरूप का परिचित हो सक-प्रयका भेदोंहै. वह पानी छान कर पीना है. मद्य-मांस और मधु (शहद उपभेदों और सामान्य स्वरूपको लिये हुए म्यूल ढांचा एवं का भी भवन नहीं करता। वह मे फल वगैरह भी नहीं खाका उनके सामने पाजाय--और उन्हें विशेष परिचय के ग्वाता जिनमें ग्रम (चर) जीव और बहु नम्म म्यावर (अचर) लिये जैन ग्रंथोंकी बने की प्रेरणा मिले। इसीलिये लेखमें जीवोंकी हिसा होती है। मंक्षेपन:--'सच्चा जनगृहस्थ अधिकतर मरलभाषाका व्यवहार किया गया है। जीने के लिये खाता है न कि ग्वाने के लिये जाना है' । भ्याय वमन्तकुटी' मागर, ना.१४-५-४१ भाजीविका करना हा अपने कुटुम्बका पालन करता है।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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