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________________ संगीत-विचार-संग्रह । मंग्रहकार-५० दौलतगम 'मित्र'] -- * ******* गीतकी महा ग्रादित विषय बारमानने ममय पनि दोनों मिलकर कवितायी गमी शक्ति देन है कि जिमम भावोम कंपन उत्पन्न होग है. हृदय चनन दोजाना ममय पर कितना है। विचार किया है। मेरे पाम मं विचागं है. आर बाहरको भापा हृदयकी एक वस्तु होजाती है । का अच्छा संग्रह है। श्राज उममेके कृल उपयागी विचार ७) मंगीतम मनुष्यांक म्वभावम ममग अाजानी है. श्रनेकान्त के पाठकोये लिये नीनं श्रीकन विते है: क्रोध शान होजाना है । यह. मनुष्य क्या महृदय प्रागीमात्र (१) मंगानका अ म गीत (गायनानी नही है । दल पर जादका मा अमर करता है। कित "गीतं वाचंच नृत्यं च त्रयं मंगीतमुच्यत" ८) माया मदभावाय जगानेकी नाक्न मगीन म अर्थात गाना, साना श्रार .IIचना ना नीनाव मिलने है। का नाम मगीन है। ६) सनम मगा पर नदीवर या ।' गा है या 1.) भाषा पर मनानका पगार पर काम कामयागीता नही है परन्त नितने अशम हम मंगान में ताल-पर अपन था। स्पन्न दाने जगत है। यं नाल मन्य हैं उतने अंशम पशुक ममान हगने जामकन है। पराशब्दक ममान दमदनगर्ग है। क्योकि भदप मापा हदमदाग प्रन्यन मम्बन्धमा दाख, श्रानंद, श्राश्रय, श्रादि विकारको न्याग्निक है। भाषा मास्ताव दारम दृदयमंदिरम प्रवेश करनी लिये मनुष्यका श्रानी श्रावाजम फर ना पता है। है।मापा कंवल दी है। मदतीको मदागजी मभाम बम दम कलाग उन्नात करत करती मायने मंगी को प्रवेश करनेका अधिकार नहीं है। यह महागजके दीवानहर निकाला। प्याने तक ना मकती है. और वहो जाकर अपने अानेका (३) भाषाके द्वारा ना चपय मनुष्य में गल नही मंवाद महागजके नाम भंज मकती है, भाषाका अर्थ ममझना उन वे मंगीत के दाग तार जा सकते हैं। मगान क्या रहा है उममा अन्धय-अर्थ श्रादि करनेमे गमय लगता है. मियाकी दली है। है त मंगीत के सम्बन्धम यह बात नही है । पट १४) मंगीन टन दलका श्रापाध है। न' माधा हृदयमे जाकर मिल जाना है। (५) मंगीन श्रग्ने दाग ही महान है। वही शब्द ) गायन शनके सच्चे अर्थको उनम गनिमें श्रटक नाने हैं, मंगीत बढीम शुरू होता है । जो निर्वाच्य प्रकट करता है । है, यही मंगानका प्रदेश है। वाक्य निमे नहीं कह सकता. १) मंगीतकी महायतामे दी शब्द अजात स्थान मंगीत उसे बोल बनाना है। मंगीत अपने चमत्कार-जन्य तक पहंच मकते हैं: अग्नी मामर्थ्य के बल नदी । क्षेत्रमे श्रात्माको मुग्ध बना डालता है। १३) अमान पक्षी (अंतरात्मा) लोह के पिंजरे में बंद । ६) छद मंगीनका एक रूप है. अन' छद और होकर भी अमर्यादिन और अजेय बातोको गनगनाया करता
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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