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संगीत- विचार -संग्रह
किरण ]
है । हृदय ऐसे पक्षीको सदाके लिए निकट रखना चाहता है. परन्तु हृदयमे ऐसी शाक्त कहो ? उन अज्ञात पक्षियकि आने जानेकी वान मन्ना सिवाय नाल-मरीके और कौन कह सकता है ?
(१४) मंगानामा अव्यक्त अजेय और दुर्जेय रहस्यका चित्र तैयार कर देता है।
जो जानकी वस्तु है उसे एक भाषाने दूसरी भाषा में परिवर्तन कर देनेसे कार्य चल जाता है किन्तु भाग विषयमे यह यान नहीं हो सकती बुद्धिमनाकी । वे जिम मृर्तिका सा लेते है, उससे पर अलग नहीं हो सकते।
(१५) मनुष्य मात्र स्वभावतः मिनाको अपेक्षा नाका अंश आधक रहता है। उस मुना अंश मोहित करने की शक्ति संगीतम है ।
(१६) काव्य में एक गुण है। वह राठकोकी कल्पनाशक्तिको उमजत कर देना है।
(१७) काव्य श्रात्माका चित्र है ।
(१८) सभी बड़े बड़े काव्य हम लोगोको बृहत्कीर बीचकर लाते है और एकान्नकी र जानेका संकन करते हैं । पहिले वे बंधन तोड़कर निकलते हैं और पीछे वे एक महानके साथ बाघ देते हैं। प्रात:काल वे मार्गके निकट ले जाते हैं और यकी पर पहुंचा देते है नाम माथ 1 एकबार आकाश पाताल मे वृमा फिरावर सम (ताल) के बीच श्रानन्दमे लाकर खड़ा कर देते हैं। de
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(२०) काव्य चित विशुद्ध और भीतरी प्रकृतिका प्रेमी होता है। इमालये काव्य धर्मका प्रधान सहायक है। विज्ञान या धर्मदेश
काव्य भी है।
प्रधानता देना चाहते हैं उन्होंने मनुष्यत्वका ग्रमन्ली मर्म नही समझा है ।
(२१) जो जानकी बात है. प्रचार होजाने पर उसका उद्देश्य सफल होकर समाम हो जाता है किन्तु हृदयके भावांकी बात प्रचारके द्वारा पानी नहीं होती | जानकी बात को एक बार जान लेने के पश्चात फिर जाननेकी श्रावश्यकता नहीं रह जाती, किन्तु भावोकी बातको बारम्बार अनुभव करके भी श्रानिबोध नहीं होता । श्रनुभव जितने प्राचीन कालसे जितनी लोक परंपराश्री द्वारा प्रवाहित होकर ग्राम है. उतना ही वह हमें महज में ही आविष्ट कर सकता है।
यदि मनुष्य अपनी किसी वस्तुको चिरकालपर्यन
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मनुष्याक राम उज्वल तथा नवीन सावरकर. रखना चाहता है तो उसे गावोकी बातका ही आश्रय लेना पड़ता है । इसी कारण साहित्यका प्रधान श्रवलम्बन ज्ञानका विषय नहीं, भावोका विषय है ।
जानकी बात प्रमाणित करना पड़ता है, और भावो की बातको संचारित कर देना होता है। उसके लिये नाना प्रकारकं ग्रामामांनीकी चतुराईयांकाश्यकता पड़ती है। उसको केवल समझाकर कह देने से कार्य नही चलना उसकी सृष्टि करना पड़ती है
(२२) यदि रूपकको रूपके द्वारा अभिव्यक्त किया जाय तो वाकेि अन्दर अनिर्वचनीयताकी रक्षा करनी
पड़ती है।
भाषा के बीच में दस गापातीतको प्रतिष्ठित करने के लिये साहित्य मुख्यतः दी वस्तुश्रीको मलाया करता है, एक चित्र दूसरे संगीत |
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वागकि द्वारा जिसे नहीं कहा जा सकता उसे चित्रके द्वारा कहना पड़ता है। साहित्य में इस प्रकारकी चित्र रचना की सीमा नहीं है। उपमा, तलना और रूपक के द्वारा मान पत्यन्न होना चाहते है ।
इसके श्रातायत वृंदामे शब्दोंमे वाक्यविन्याममे, साहित्यकी संगतिया श्राश्रय तो लेना ही पड़ता है । जिसको किसी प्रकार भी कहा नहीं जा सकता उसे संगीतके द्वारा ही कहना पड़ता है। जो वस्तु अर्थक विश्लेषण करने पर सामान्य प्रतीत होती है वही संगीतके द्वारा श्रसामान्य हो जाती है। यह संगीनी वाणी वेदनाका संचार कर देना है।
श्रतएव चित्र और संगीत ही साहित्य के प्रधान उपवा हैं। चित्र भावको ग्राकार देता है. और संगी गति प्रदान करन | चित्र देश है श्री वीन्द्र की
प्रार ।
नोट
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