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________________ अनेकान्त [ वर्ष४ लाभ पहुंचाना, यह सब उसका ध्येय ही नहीं है। उसका अल्पविकसितादि दशाओं में हैं और वे अपनी आत्मनिधिको ध्येय है आपके पुण्य गुणोंका स्मरण-भावपूर्वक अनु- प्रायः भूले हुए हैं। सिद्धात्माश्रोके विकसित गुणोंपरसे वे चिन्तन-,जो हमारे चित्तको–चिद्र प श्रास्माको-पाप- श्रात्मगुणोका परिचय प्राप्त करते हैं और फिर उनमें अनुमलोंसे छुड़ाकर निर्मल एवं पवित्र बनाता है और इस तरह राग बढ़ाकर उन्हीं साधनो द्वारा उनगुणांकी प्राप्तिका यत्न हम उसके द्वारा अपने श्रात्माके विकासकी साधना करते हैं। करते हैं जिनके द्वारा उन सिद्धात्माअोंने किया था। और इसीसे पद्यके उत्तरार्धमें यह भावना अथवा प्रार्थना की गई इस लिये वे सिद्धात्मा वीतरागदेव श्रात्म-विकासके इच्छुक है कि 'श्रापके पुण्य गुणोंका स्मरण हमारे पापमलसे मलिन संसारी आत्माअोके लिये 'श्रादर्शरूप' होते हैं, श्रात्मगुणोके श्रात्माको निर्मल कर उसके विकास महायक होवे।' परिचयादिमें सहायक होनेसे उनके 'उपकारी होते हैं और यहाँ वीतराग भगवानके पुण्य गुणोके स्मरणमे पापमल- उसवक्न तक उनके 'श्राराध्य' रहते है जबतक कि उनके से मलिन आत्माके निर्मल (पवित्र) होनेकी जो बात कही गई श्रात्मगुण पूर्णरूपसे विकसित न हो जायँ । इसीसे स्वामी है वह बड़ी ही रहस्यपूर्ण है, और उममें जैनधर्म के प्रात्म- समन्तभद्रने "तत:स्वनिःश्रेयमभावनापरैः बुधप्रवेकैः वाद, कर्मवाद, विकामगद और उपासनावाद-जेसे सिद्धान्तों जिनशीतलेख्यसे (स्व०५०)" इस बाक्यके द्वारा उन बुधजनका बहुत कुछ रहस्य सूक्ष्मरूपमें मंनिहित है। इस विषयमें श्रेष्ठों तकके लिये वीतरागदेवकी पूजाको श्रावश्यक बतलाया मैने कितना ही स्पष्टीकरण अपनी 'उपासनातन्त्व' और है जो अपने निःश्रेयसकी-अात्मविकामकी--भावनामें सदा 'मिद्धिसोपान' जैसी पुस्तकोंमें किया है, और गत किरणमें मावधान रहते हैं। और एक दूसरे पद्य (स्व० ११६) में प्रकाशित 'भक्तियोग-रहस्य' नामके मेर लेखपरमे भी पाठक वीतगगदेवकी इस पूजा-भक्तिको कुशलपरिणामोकी हेतु उसे जान मकते हैं। यहाँपर मैं सिर्फ इतना ही बतलाना बतलाकर इसके द्वारा श्रेयोमार्गका सुलभ तथा स्वाधीन होना चाहता हूँ कि स्वामी समन्तभद्रने वीतरागदेवके जिन पुण्य- तक लिखा है। साथ ही, नीचेके एक पद्यमं वे, योगबलसे गुणोंके स्मरणकी बात कही है वे अनंतशान. अनंतदर्शन, आठों पापमलोको दूरकरके संसारमें न पाये जाने वाले ऐसे अनंततसुख और अनंतवीर्यादि श्रात्माके असाधारण गुण परमसौख्यको प्राप्त हुए सिद्धात्माओका स्मरण करते हुए हैं, जो द्रव्यदृष्टिसे सब आत्माअोके समान होनेपर सबकी अपने लिये तद्र प होनेकी स्पष्ट भावना भी करते हैं, जो कि समान सम्पत्ति है और सभी भव्यजीव उन्हें प्राप्त कर सकते वीतरागदेवकी पूजा-उपासनाका सञ्चा रूप है :है। जिन पापमलोंने उन गुणोको अाच्छादित कर रक्खा दरितमलकलंकमष्टक' निरुपमयोगबलेन निर्दछन् । है वे ज्ञानावरणादि अाठ कर्म है, योगबलसे जिन महा- अभवदभव-सौल्यवान् भवाम्भवतु ममापि भवोपशान्तये ॥ माअोने उन कर्ममलोको दग्ध करके श्रात्मगुणोंका पूर्ण स्वामी समन्तभद्रके इन सब विचारांपरसे यह भलेप्रकार विकास किया है वे ही पूर्ण विकसित, सिद्धात्मा एवं वीत- स्पष्ट हो जाता है कि वीतरागदेवकी उपासना क्यों की जाती राग कहे जाते हैं-शेष सब संमारी जीव अविकसित अथवा है और उसका करना कितना अधिक श्रावश्यक है।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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