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________________ समन्तभद्र-विचारमाला [सम्पादकीय] (२) वीतरागकी पूजा क्यों ? जिसकी पूजा की जाती है वह यदि उस पूजासे प्रसन्न इसीसे अक्सर लोग जैनियोसे कहा करते हैं कि-"जब होता है, और प्रसन्नताके फलस्वरूप पूजा करने वालेका तुम्हारा देव परम वीतराग है, उसे पूजा-उपासनाकी कोई कोई काम बना देता अथवा सुधार देता है तो लोकमें जरूरत नहीं, कर्ता-हर्ता न होनेसे वह किसीको कुछ देताउसकी पूजा सार्थक समझी जाती है। और पूजासे किसीका लेता भी नहीं, तब उसकी पूजा-वन्दना क्यों की जाती है प्रसन्न होवा भी तभी कहा जा सकता है जब या तो वह . 3 और उससे क्या नतीजा है ?" उसके बिना अप्रसन्न रहता हो, या उससे उसकी प्रसन्नतामें इन मब बातोंको लक्ष्यमें रखकर स्वामी समन्तभद्र. कुछ वृद्धि होती हो अथवा उससे उसको कोई दूसरे प्रकारका जो कि वीतरागदेवोंको सबसे अधिक पूजाके योग्य समझते थे और स्वयं भी अनेक स्तुति-स्तोत्रों श्रादिके द्वारा उनकी लाभ पहुँचता हो; परन्तु वीतरागदेवके विषयमें यह सब पूजामें सदा सावधान एवं तत्पर रहते थे, अपने स्वयंभूस्तोत्रकुछ भी नहीं कहा जा सकता-वे न किसीपर प्रसन्न होते हैं न अप्रसन्न और न किसी प्रकारकी कोई इच्छा ही रखते में लिखते हैं न पूजयार्थस्त्वयि वीतरागेन निन्दया नाथ विवान्तवैरे । जिसकी पूर्ति-अपूर्तिपर उनकी प्रसन्नता-अप्रसन्नता निर्भर तथापि ते पुण्य-गुण-स्मृतिर्नः पुनातु विसं दुरितांजनेभ्यः । हो । वे सदा ही पूर्ण प्रमन्न रहते हैं-उनकी प्रसन्नतामें अर्थात् - हे भगवन् पूजा-वन्दनासे आपका कोई प्रयोकिसी भी कारणसे कोई कमी या वृद्धि नहीं हो सकती। जन नहीं है; क्यो कि श्राप वीतरागी है-रागका अंश भी और जब पूजा-अपूजासे वीतरागदेवकी प्रमन्नता वा अप्र- आपके आत्मामें विद्यमान नहीं है, जिसके कारण किसीकी सन्नताका कोई सम्बन्ध नहीं-वह उसकेद्वाग संभाष्य ही पूजा-वन्दनासे श्राप प्रसन्न होते । इसी तरह निन्दासे भी नहीं, तब यह तो प्रश्न ही पैदा नहीं होता कि पूजा कैसे की आपका कोई प्रयोजन नहीं है कोई कितना ही आपको जाय, कब की जाय, किन द्रव्यांसे की जाय, किन मंत्रोंसे बुरा कहे, गालियाँ दे, परन्तु उसपर श्रापको लरा भी क्षोभ की जाय और उसे कौन करे-कौन न करे ? और न यह नहीं अासकता; क्योकि अापके आत्मासे वैरभावदोषाशशंका ही की जा सकती है कि अनिधिसे पूजा करनेपर कोई बिलकुल निकल गया है-वह उसमें विद्यमान ही नहीं अनिष्ट घटित हो जायगा, अथवा किसी अधम-अशोभन है जिससे क्षोभ तथा अप्रसन्नतादि कार्योंका उदभव हो अपावन मनुष्यके पूजा कर लेनेपर वह देव नाराज हो सकता। ऐसी हालतमें निन्दा और स्तुति दोनो ही आपके जायगा और उसकी नाराजगीसे उस मनुष्य तथा समूचे लिये समान हैं-उनसे आपका कुछ भी बनता या बिगड़ता समाजको किसी देवीकोपका भाजन बनना पड़ेगा; क्यो कि नहीं है.। यह सब ठीक है, परन्तु फिर भी हम जो आपकी ऐमी शंका करनेपर वह देव वीतराग ही नहीं ठहंग्गा- पूजा-वन्दनादि करते हैं उसका दूसग ही कारण है, वह उसके वीतराग होनेसे इनकार करना होगा और उसे भी पूजा-वन्दनादि अापके लिये नहीं-श्रापको प्रसन्न करके दूसरे देवी-देवताओंकी तरह रागी-द्वषी मानना पड़ेगा। आपकी कृपा सम्पादन करना या उसके द्वारा श्रापको कोई
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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