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________________ कर्म-बन्ध और मोक्ष ( लेखक-श्री० परमानन्द जैन, शास्त्री) संसारमें जो सुख-दुःख सम्पत्ति-विपत्ति, ऊँच-नीच श्रादि अात्मा विससोपचयरूप * कर्मपरमाणुओंका कषाय और "अवस्थाएँ देखनेमें आती हैं उन सबका कारण कर्म योगशक्तिके द्वारा आकर्षण करता है उस समय जो अात्माके है । जीवात्मा जैसा अच्छा या बुरा कर्म करता है उसका परिणामविशेष होते हैं उन्हें भावकर्म कहते हैं, और भावकर्मके फल भी उसे अच्छा या बुरा भोगना पड़ता है अर्थात् जैसा द्वारा आकर्षित कर्मवर्गणाको द्रव्यकर्म कहते हैं। द्रव्यकर्मसे बीज बोया जाता है फल भी वैसा ही मिलता है-बबूल भावकर्म और भावकर्मसे द्रव्य-कर्मका श्रासव होता है। रागादि बोने वालेको श्राम नहीं मिल सकते । जो मनुष्य रात दिन कषाय भावोंकी उत्पत्तिमें पूर्वोपार्जित द्रव्यकर्म कारण है और जीवहिंसा, मांस भक्षण आदि पापकार्योमें प्रवृत्ति करते हैं जब द्रव्यकर्मका परिपाककाल पाता है तब आत्माकी प्रवृत्ति उन्हें पाप कर्मका परिपाककाल अानेपर दारुण दुःख भी भी रागादिविभावरूप अथवा कषायमय हो जाती है। अतसहना पड़ते हैं, और नरकादि दुर्गतियोंमें भी जाना पड़ता एव विभावभाव और सकषाय परिणतिसे कार्माणवर्गणाका है । परन्तु जो मनुष्य पापसे भयभीत है-डरते हैं, और आकर्षण होकर कर्मबंध होता है। और इस तरहसे द्रव्यलोककी सच्ची सजीव-सेवा तथा दान धर्मादिक कार्योंमें कर्मके उदयसे भावकर्ममें परिणमन होता है और भावकर्मके प्रवृत्ति करते रहते हैं और आत्मकल्याणमें सदा सावधान परिणमनसे द्रव्यकर्मका बंध होता है। इस प्रकार कर्मबंधकी रहते हैं, वे सदा शुभकर्मके उदयसे सुखी और समृद्ध होते शृंखला बराबर बढ़ती ही रहती है। हैं । अर्थात् उनके शुभ कर्मके उदयसे शरीरको सुख देने कर्म और आत्मा इन दोनों द्रव्योंका स्वभाव भिन्न है। वाली सामग्रीका समागम होता रहता है। क्योंकि श्रात्मा ज्ञाता-द्रष्टा,चेतन,अमूर्तिक और संकोच-विस्ताइस लोकमें मुख्यत: दो द्रव्य काम करते हैं, जिनमेंसे रकी शक्तिको लिए हुए असंख्यात प्रदेशी है। कर्म पौद्गएकको चेतन, जीव, रूह या सोल (Soul ) के नामसे लिक, मूर्तिक और जडपिण्ड है । ये दोनों द्रव्य विभिन्न पकारते हैं, और दुसरेको अचेतन, जड़, पुद्गल या मैटर स्वभाव वाले होनेके कारण इन दोनोंकी एक क्षेत्रमें अवस्थिति (matter) कहते हैं । कर्म और श्रात्माका अनादिकालसे होनेपर भी अात्माका कोई भी प्रदेश कर्मरूप नहीं होता, एक क्षेत्रावगाहरूप सम्बन्ध हो रहा है. प्रतिसमय कर्म और न कर्मका एक भी परमाणु चैतन्यरूप या प्रात्मरूप ही वर्गणाओंका बंध और निर्जरा होती रहती है; अर्थात् पुराने होता है । जिस तरह सोने और चाँदीको गलाकर दोनोंका कर्म फल देकर झड़ जाते हैं और नवीन कमें रागादिभावकि एक पिण्ड करलेनेपर भी, ये दोनों द्रव्य अपने अपने रूपादि कारण बंधको प्राप्त होते रहते हैं। मन-वचन-कायसे जो गुणोंको नहीं छोड़ते हैं-अपने शुक्ल पीतत्वादि गुणोंसे श्रा मप्रदेशमि हलन चलन रूपक्रिया होती है उसे योग कहते जो परमाण वर्तमान में कर्मरूप तो नहीं हुए किन्त हैं। रागादि विभावरूप परिणत हुआ श्रात्मा इस योग-शक्ति भविष्यमें कर्मरूप परिणमनको प्राप्त होंगे--कर्म अवस्थाको के द्वारा नवीन कर्मवर्गणाओंका आकर्षण करता है। जब धारण करेंगे-उन परमाणुरोको 'विससोपचय' कहते हैं।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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