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________________ १४२ अनेकान्त अनी अपनी सत्ता अलग ही रखते हैं। इसी तरह यद्यपि श्रम और कर्म इस समय एकमेक सरीखे हो रहे हैं परन्तु श्रात्मा और कर्म अपने अपने लक्षणादिसे अपनी अपनी सत्ता जुदी ही रखते हैं कोई भी द्रव्य अपने स्वभावको नहीं छोड़ते। इसके सिवाय, तपश्चरणादिके द्वारा कमौका श्रात्मासे सम्बन्ध छूट जाता है— श्रात्मा और कर्म अलग अलग हो जाते हैं - इससे भी उक्त दोनों द्रव्योंकी भिन्नता स्पष्ट ही है। कमके मूल आठ भेद हैं- ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, श्रायु, नाम, गोत्र और अंतराय । इन वाठ कर्मोंकी उत्तर प्रकृतियाँ १४८ हैं । कर्मकी इन श्रष्ट मूल प्रकृतियोंको दो भेदोंमें बांटा जाता है, जिनका नाम घातिकर्म र घातिकर्म है। जो जीवके श्रमजीवीगुणोंको घातते हैं—उन्हें 'प्रकट नहीं होने देते— उनको घानिकर्म कहते हैं । और जो जीवके अनुजीवीगुणोंको नहीं घातते उन्हें श्रघातिकर्म कहते हैं । इन ऋष्ट कर्मोंमेंसे मोहनीयकर्म श्रात्माका महान् शत्रु है इससे ही अन्यकम में धानकत्व शक्तिका प्रादुर्भाव होता है । कर्मबन्धनसे श्रात्मा पराधीन और दुःखी रहना है, उसकी शक्तियांका पूर्ण विकास नहीं हो पाता । परन्तु इन कर्मोंका जिनने श्रंशोंमें क्षयोपशमादि रहता है उतने अंशोंमें श्रात्मशक्तियाँ भी विकसित रहती हैं। [ वर्ष ४ कषाय और योग । तत्त्वार्थ के विपरीत श्रद्धानको 'मिध्यात्व' कहते हैं । अथवा अपने स्वरूप से भिन्न पर पदाथो में श्रात्मत्व बुद्धिरूप जीवके विपरीताभिनिवेशको 'मिथ्यात्व' कहते हैं। मिथ्यात्व जीवका सबसे प्रबल शत्रु है, संसार परिभ्रमण का मुख्यकारण है और कर्मबंधका निदान है। इसके रहते हुए जीवात्मा अपने स्वरूपको नहीं प्राप्त कर सकता है । षट्काय, पाँच इन्द्रिय और मन इन १२ स्थानोंकी हिंसासे विरक्त नहीं होना 'अविरत' है । उत्तमक्षमादि दशधर्मके पालनमें, तथा पाच इन्द्रियोके निग्रह करनेमें, और श्रात्मस्वरूपकी प्राप्ति में जो अनुत्साह एवं श्रनादररूप प्रवृत्ति होती है उसे 'प्रमाद' कहते हैं । जो श्रात्माको कषे श्रर्थात् दुःखदे उमे 'कषाय' कहते हैं । कषायसे श्रात्मा में रागादि विभावभावोका उद्गम होता रहता है और उससे श्रात्मा कलुषित रहता है और कलुषता ही कर्मबन्धमें मुख्य कारण है, र विरोधको बढ़ानेवाली है - और शातिकी घातक है । मन, वचन और कायके निमित्तसे होने वाली क्रियासे युक्त श्रात्मा के जो वीर्य विशेष उत्पन्न होता है उसे 'योग' कहते हैं । श्रथवा जीवकी परिस्पन्दरूप क्रियाको 'योग' कहते हैं । योग दो प्रकारका है, शुभयोग और अशुभ योग । देवपूजा, लोक सेवा और हिंसा श्रादि धार्मिक कार्योंमें जो मन-वचन-कायकी प्रवृत्ति होती है उसे 'शुभयोग' कहते हैं। और हिसा झूठ - कुशलादिक पापकार्यों में जो प्रवृत्ति होती है उसे 'शुभयोग' कहते हैं । जब तक जीव सम्यक्त्वको नहीं प्राप्त कर लेता तब तक इन दोनों योगों में से कोई भी एक योग रहे परन्तु उसके घातिया कर्मी सर्व प्रकृतियोंका बंध निरन्तर होता रहता है। अर्थात् इस जीवका ऐसा कोई भी समय वशिष्ट नही रहता जिसमें कभी किसी प्रकृतिका बंध न होता हो । जब जीव क्रोध-मान- माया और लोभादिरूप सकषाय परिणमनको प्राप्त होता हुआ योगशक्तिके द्वारा आकर्षित कर्मरूप होने योग्य पुद्गलद्रव्यको ग्रहण करता है उसे बन्ध कहते हैं * । कर्मबन्धके पाच कारण हैं—मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, *जीवो कसायजुत्तो जोगादो कम्मणो दु जे जोग्गा । hers पोग्गलदव्वे बन्धो सो होदि गायव्वो । मूलाचारे, वट्टकेर:, १२, १८३ सकषायत्वाज्जीवः कर्मणो योग्यान्पुद्गलानादत्ते स बन्धः । - तत्त्वार्थसूत्रे, उमास्वाति, ८, १ हाँ इतनी विशेषता जरूर है किं मोइनीयकर्मकी हास्य, शोक, रति श्ररतिरूप दो युगल में और तीन वेदो में से एक समयमें सिर्फ एक एक प्रकृत्तिका ही बंध होता है । परन्तु
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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