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किरण २]
कर्मबन्ध और मोक्ष
यदि किसी जीवके अधातिकर्म प्रकृतियोंमें शुभयोग होता तीनकषायमे अल्प ( थोड़ा ) अनुभाग बन्ध होता है। इस है तो उस समय उसके सातावेदनीय श्रादि पुष्य प्रकृतियो- तरहसे कषाय स्थितिबन्ध और अनुभागबन्धके विशेष का बंध होता है । और यदि अशुभयोग होता है तब परिणमनमें कारण है। परन्तु इन सब कारणो में कषाय ही असाता वेदनीय श्रादि पाप प्रकृतियोंका बंध होता है । तथा कर्मबन्धका प्रधान कारण है। इसीलिये जब तक जीवकी मिश्रयोग होनेपर पुण्य प्रकृतियां और पापरूप दोनों प्रकृतियों सकषाय परिणति रहती है तब तक चारों प्रकारका बंध का बंध होता है।
प्रतिसमय होता रहता है, किन्तु जब कषायकी मुक्ति हो
जाती है-आत्मासे कषायका सम्बन्ध छूट जाता है तब जब अात्मामें कर्मबन्ध होता है तब उसका बंध होनेके
कषायसे होनेवाला उक्त दो प्रकारका बंध भी दूर हो जाता साथ ही, प्रकृति-प्रदेश-स्थिति और अनुभागके भेदसे चतु
है। इसी कारण अागममें यह बताया गया है कि 'कषायविधरूप परिणमन हो जाता है, जिस तरह खाए हुए भोज
मुक्तिः किल मुक्तिरेव' अर्थात कषायकी मुक्ति ही वास्तविक नादिका अस्थि, मासादि सप्तधातु और उपधातु रूपसे
मुक्ति है। परिणमन हो जाता है। इनमेंसे प्रथमके दो बंध प्रकृति और प्रदेश तो योगसे होते हैं स्थिति और अनुभागबन्ध
इम कर्मबंधनसे हटनेका अमोघ उपाय, मम्यग्दर्शन, कषायसे होते हैं । मोह के उदयसे जो मिथ्यात्व और क्रोधादि- सम्यग्ज्ञान और सम्यक्चारित्रकी प्रामि है । इन तीनोंकी रूपभाव होते हैं। उन सबको सामान्यतया 'कषाय' कहते पूर्णता एवं परम प्रकर्षतासे ही श्रात्मा कर्मके सुदृढ़ बन्धनसे हैं। कषायसे ही कोका स्थिति बन्ध होता है अर्थात जिस- मुक्त हो जाता है और मदा अपने प्रात्मोल्य अव्याबाध कर्मका जितना स्थितिबंध होता है उसमें अबाधाकालको निराकुल सुखमें मम रहता है। छोड़कर जब तक उसकी वह स्थिति पूर्ण नहीं हो जाती तत्वार्थके श्रद्धानको 'सम्यग्दर्शन' कहते हैं अथवा तबतक ममय समयमें उस प्रकृतिका उदय पाना ही रहता जीव, अजीव, श्रासव, बंध, संवर, निर्जरा और मोक्ष इन है । किन्तु देवायु, मनुष्यायु और तिर्यंचायुके बिना अन्य सप्त तत्त्वरूप अर्थके श्रद्धानको-प्रतीतिको - सम्यग्दर्शन सभी घातिया अघातिया कर्मप्रकृतियोंका मन्द कषायसे अल्प कहतेहैं । सम्यग्दर्शन श्रात्माकी निधि है और इसकी प्राप्ति स्थिति बंध होता है और तीव्रकषायके उदयमे अधिक दर्शन मोहनीयकर्मके उपशम, क्षय, क्षयोपशमादिसे होती है । स्थिति बन्ध होता है। परन्तु उक्त तीनो आयुरोका मन्द- सम्यग्दर्शनकी उत्पत्तिमें तीन कारण है-भवस्थितिकी कषायसे अधिक और तीव्रकषायसे अल्प (थोड़ा) स्थिति सन्निकटता, कालादिलब्धिकी प्राप्ति और भव्यत्वभावका बंध होता है। इस कषायके द्वाराही कर्मप्रकृतियोंमें अनु- विपाक । इन तीनों कारणोंसे जीव सम्यक्त्वी बनता है । भाग-शक्तिका विशेष परिणमन होता है। अर्थात् जैसा इन मब कारणोंमें भव्यत्वभावका विपाक ही मुख्य कारण अनुभागबंध होगा उसीके अनुसार उन कर्मप्रकृतियोंका है सम्यक्त्वके होनेपर ४१ कर्मप्रकृतियोंका बंध होना रुक उदयकालमें अल्प या बहुन फल निष्पन्न होगा । घातिकर्म- जाता है । सम्यग्दर्शन मोक्ष महलकी पहली सीढी है, इसके की सब प्रकृतियोंमें और अघातिकर्मकी पाप प्रकृतियोंमें तो देवात्कालादि संलब्धौ प्रत्यासन्ने भवार्णवे । मन्दकषायसे थोड़ा अनुभागबंध होता है और तीनकषायसे भव्यभावविपाकादा जीवः सम्यक्त्वमश्नुते ।। बहुत । किन्तु पुण्यप्रकृतियोंमें मन्दकषायसे पहुन और
-पंचाध्यायी, २, ३७८