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________________ किरण १] तामिल भाषाका जैनसाहित्य की आज्ञानुसार तरुण साधु कविने मदुराकी तामिल इसके अनंतर उनके शिष्य तिरुतक्कदेवने सिद्धों की विद्वत्परिषद् अथवा संगमके सदस्योंसे परिचय प्राप्त स्तुतिमें दूसरा पद्य बनाया, जिसे गुरुजीने अपने किया । उस परिषद्के कतिपय सदस्योंने सामाजिक लोकसे भी सुंदर स्वीकार किया और उसे प्रथम चर्चाके समय उसे तामिल भाषामें शृङ्गाररसके ग्रंथ पद्यके रूपमें रखनेको कहा, और गुरुद्वारा रचित की रचना करनेकी अयोग्यताके लिये दोष दिया । पद्यने दूसरा स्थान प्राप्त किया। इस प्रकार सिद्ध इसके उत्तरमें कविने कहा कि शृङ्गारसकी कविता नमस्कारको लिये हुए 'भूवामुदला' शब्दस प्रारंभ करनेका प्रयत्न कुछ थोड़ेस ही जैनी करते हैं। अन्य होनेवाला पद्य जीवकचिन्तामणिमे प्रथम पद्य है लागोंके समान वे भी शृंगाररसकी बहुत अच्छी और बहन नमस्कारवाला गरुजी रचित पद्य, जो कविता कर सकते हैं, किंतु ऐसा न करनेका कारण 'शेपोणवरेमेल' शब्दसे प्रारंभ होता है, प्रथमें दूसरे यह है, कि ऐसे इंद्रियपाषक विषयोंके प्रति उनके नंबर पर है। इस तरह मदुरा-मंगमके एक मित्र अन्तःकरणमें अरुचि है, न कि साहित्यिक अया- कविकी चुनौतीके फलस्वरूप तिरुतक्कदेवने 'जीवकग्यता । किंतु जब उसके मित्रोंने ताना देते हुए पूछा चिंतामणि' की रचना यह सिद्ध करनेको की, कि कि क्या वह एकाध ऐसा ग्रंथ बना सकता है, तब एक जैनग्रंथकार श्रृंगाररसमें भी काव्य रचना कर उसने उस चुनौतीको म्वीकार कर लिया। आश्रममें सकता है। इसे सभीने स्वीकर किया कि कविने लौट कर उसने सब बातें गुरुके समक्ष निवेदन की। आश्चर्यप्रद सफलता प्राप्त की। वह रचना जब जब वह और उसके गुरु बैठे थे, तब उनके सामनेसे विद्वत्परिषद्कं समक्ष उपस्थित की गई, तब कहते हैं एक शृगाल दौड़ा हुआ गया । गुरुन उस ओर कि कविसे उसके मित्रोंने पूछा कि, तुमतो अपने शिष्यका ध्यान आकर्षित करते हुए उसे शृगालके बाल्यकालसं पवित्रता एवं ब्रह्मचर्यके धारक थे, तब विपयमे कुछ पद्य बनानेको कहा। तत्काल ही शिष्य ऐसी रचना कैस की, जिसमें वैषयिक सुखोंके साथ निम्नका देवनं शृगालके सम्बन्धमें पद्य बना डाले, असाधारण परिचय प्रदर्शित होता है। कहते हैं इस इससे उस रचनाको 'नरिविरुत्तम्' कहते हैं; उसमें संदेहके निवारणार्थ उसने एक लोहेका गर्म लाल शरीरकी अस्थिरता, संपत्तिकी नश्वरता और ऐसे ही गोला लिया और यह शब्द कहे “यदि मैं अशुद्ध हूं अन्य विषयोंका वर्णन किया गया था। अपने शिष्य तो यह मुझे भम्म करदे" किन्तु कहते हैं कि उस की असाधारण कवित्वशक्तिको देखकर गुरुजी प्रसन्न परीक्षामें वह निर्दोष उत्तीर्ण हुआ और उसके मित्रोंने हुए और उन्होंने उसे जीवकके चरित्रका वर्णन करने उसके आचरणकी पवित्रताके विषयमें संदेह करने के वाले एक श्रेष्ठ ग्रंथके रचनेकी आज्ञा प्रदान की। लिये उससे क्षमा मांगी। इस चरित्रमें प्रेम तथा सौंदर्यके विविध रूपोंका समा- जिस प्रकार पूर्वके ग्रंथ 'शिलप्पदिकारम्' में वेश है। अपनी सम्मति सूचित करनेके लिये गुरुजी ग्रंथकारके जीवनकालमें होने वाली ऐतिहासिक ने अपने शिष्यके भावी ग्रंथमें प्रथम पथके तौरपर घटनाओंका वर्णन किया गया है उस प्रकार इस रक्खे जानेके लिये एक मंगलपद्यका निर्माण किया। प्रथमें नहीं किया गया है, बल्कि इसमें जीवककी
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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