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________________ चित्रमय जैनी नीति अनेकान्त के मुग्वपृष्ठपर पाठक जिस चित्रका अवलोकन उसे भी प्रकागन्तरसे ग्रहण किये रहती है। और इस तरह कर रहे हैं वह 'जनी नीति' का भव्य चित्र है । जिनेन्द्रदेवकी मुख्य-गौणकी व्यवस्थारूप निर्णय-क्रियाको सम्यक् मंचालित अथवा जैनधर्मकी जो मुग्व्य नीति है और जिम पर जिनेन्द्र करके वस्तु-तत्वको निकाल लेती है-उसे प्राप्त कर लेती 1, जैनधर्मके अनुयायियों तथा अपना हित है। किमी एक ही अन्न पर उमका एकान्त अाग्रह अथवा चाहनेवाले मभी मज्जनाको चलना चाहिये, उस 'जैनी नीति' कदाग्रह नही रहता-वैमा होने पर वस्तुकी म्वरूपमिद्धि ही कहते हैं । वह जनी नीति क्या है अथवा उमका क्या म्वरूप नहीं बनती। वह वस्तुके प्रधान-अप्रधान मब अन्तो पर और व्यवहार है, हम बानको कुशल चित्रकारने दो प्राचीन ममान दृष्टि रग्बती है उनकी पारम्परिक अपेक्षाको जानती पद्योंके आधार पर चित्रित किया है और उन्हे चित्रम ऊपर है-और इमलिये उस पूर्णरूपमें पहचानती है तथा उसके नीचे अंकित भी कर दिया है। उनमें में पहला पद्य श्रीमत- माथ पृग न्याय करती है। उसकी दृष्टिम एक वस्तु द्रव्यकी चन्द्राचार्यकी और दृमग म्वामी समन्तभद्रकी पण्यकति है। अपेक्षामं यद निन्य है नी पर्यायकी अपेक्षामे वही अनित्य भी पहले पद्य एकनाकर्पन्ती' में, जैनी नीतिको दूध-दही है, एक गुणके कारण जो वस्तु बुरी है दूमर रणके कारण बिलाने वाली गोपी (ग्वालिनी) की उपमा देत हा बतलाया वह वस्तु अच्छी भी है, एक बक्तम जो वस्तु लाभदायक है है कि-जिम प्रकार ग्वालिनी बिलोत ममय मथानीकी रम्मी दुसरं वक्तम वही हानिकारक भी है, क स्थान पर जो वस्तु को दोनों हाथोंम पकड़कर एक मिर (अन्न) को एक हाथसे शुभरूप है दूसरे स्थान पर वही अशुभरूप भी है और एक के अपनी ओर खींचती और दुमर हाथ पकड़े हुए मिरको लये जो हेय हे दूसरे के लिये वही उपादेय भी है । वह ढीला करती जाती है। एकको खीचने पर दमका बिलकल विषको मारने वाला ही नहीं किन्तु जीवनप्रद भी जानती है, और इम लिये उसे मर्वथा हय नहीं ममझती। छोड़ नहीं देनी किन्तु पकड़े रहती है; और हम तरह बिलोने की क्रियाका ठीक सम्पादन करके मक्वन निकालनेरूप दमर पद्य 'विधेयं वार्य' में उम अनेवान्ताय व बग्तुअपना कार्य सिद्ध कर लेती है। ठीक उसी प्रकार जैनी नीति तत्त्वका निर्देश है जो जैनी नीनिरूप गोषीक मन्थनका विषय का व्यवहार है। वह जिम ममय अनेकान्तात्मक वस्तु के है । वह तत्त्व अनेक नयोंकी विवक्षा-अविक्षाके वशमे द्रव्य-पर्याय या मामान्य-विशेषादिरूप एक अन्तको—-धर्म विधेय, निषेध्य, उभय, अनुभय, विधेयाऽनुभय. निपंध्याऽया अंशको-अपनी और खींचती है-अपनाती है-उमी नभय और उभयाऽनुभयक भेदम मात भंगरूप है और ये समय उसके दूसरे अन्त (धर्म या अंश) को ढीला कर देती माता भंग सदा ही एक दुमकी अपेक्षाको लिये रहते हैं। है-अर्थात् , उमके विषयमे उपेक्षाभाव धारण कर लेती प्रत्येक वस्तुतत्त्व इन्हीं मान भेदोम विभक्त है, अथवा यो है । फिर दूसरे समय उस उपक्षित अन्नको अपनाती और कडिये कि वस्तु अनेकान्तात्मक होनेसे उममें अपरिमित धर्म पहलेसे अपनाए हुए अन्तके माथ उपेक्षाका व्यवहार करती अथवा विशेष संभव हैं और वे सब धर्म अथवा विशेष उम है-एकको अपनाते हुए दूसरेका सर्वथा त्याग नही करनी, वस्तुके वस्तुतत्त्व हैं । ऐसे प्रत्येक वस्तुतन्वके 'विधेय' आदि
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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