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* ॐ महम् *
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विश्वतत्त्व-प्रकाशक
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नीतिविरोधदसीलोकव्यवहारवर्तकः सम्यक् । परमागमस्य बीजं भुवनेकगुरुर्जयत्यनेकान्तः ।
वर्ष ४ । वीरसंवामन्दिर (समन्तभद्राश्रम) सम्मावा जिला महारनपुर किरण १ । फाल्गुन, वीर निर्वाण सं० २४६७, विक्रम मं० १९६७
फरवरी १९४१
सत्साधु-वन्दन जियभय-जियउपसग्गे जियइंदिय-परिसहे जियकसाए । जियराय-दोस-मोहे जियसुह-दुग्वे णमंमामि ॥
-योगिभक्ति जिन्होंने भयाको जीन लिया-जो हम लोक, परलोक तथा अाकस्मिकादि किसी भी प्रकार के भयके वशवर्ती होकर अपने पढमे, कर्तव्यमे, व्रताम, न्याय्य नियमोमे च्युत नहीं होते, न अन्याय-अत्याचार तथा परपीडनमें प्रवृत्त होते हैं और न किमी तरहकी दीनता ही प्रदर्शित करते हैं जिन्होंने उपमर्गोको जीत लिया-जो चेतन-अचेतनकृत उपमगों-उपद्रवाक उपस्थित हानेपर ममताभाव धारण करते हैं, अपने चिनको कलुषित अथवा शत्रुतादिके भावरूप परिणत नही होने देते-: जिन्दाने इन्द्रियांको जीत लिया-जो स्पर्शनादि पंचेन्द्रिय-विषयांके वशीभूत (गुलाम) न होकर उन्हें म्वाधीन किए हुए हैं- जिन्होने परीपडाको जीत लिया--भृग्व. प्याम, मर्दी. गर्मी, विष-कण्टक, वधवन्धन, अलाभ और रोगादिकी परीषा-बाधाश्रांको समभावसे मह लिया है--: जिन्होंने कषायांको जीत लियाजो क्रोध, मान माया, लोभ तथा हास्य, शोक और कामादिकमे अभिभूत होकर कोई काम नहीं करते---, जिन्होंने राग, द्वेष और मोहपर विजय प्राम किया है-उनकी अधीनता छोड़कर जो म्वाधीन बने हैं- और जिन्होंने सुख-दुःख को भी जीत लिया है-मुग्वक उपस्थित होनेपर जा हर्ष नहीं मनाने और न दुःम्बके उपाम्थत होनेपर चिनमें किमी प्रकारका उह ग, मंक्लेश अथवा विकार ही लाते हैं, उन मी मन्माधुग्रीवा में नमस्कार करता है--उनकी वन्दनाउपामना-आराधना करता हूं: फिर वे चाहे कोई भी, कहीं भी और किमी नाममे भी क्यों न हो।