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________________ किरण १] चित्रमय जैनी नीति के भेदमे मात भेद हैं । इन मातमे अधिक उसके और भेद आशय संनिहित है। विधेयतत्त्व स्वरूपादि चतुष्टयकीनहीं बन सकते और हम लिये ये विशेष (त्रिकालधर्म) सात स्वद्रव्य-क्षेत्र-काल-भावकी और निपध्यतत्त्व पररूपादि चतुकी मंग्व्याक नियमको लिये हुए हैं। इन तत्त्वविशेषोका ठयकी-परद्रव्य-क्षेत्र - काल - भावकी-अपेक्षाको लिये मन्थन करते ममय जैनी नीतिरूप गोपीकी दृष्टि जिम समय हए है। जिम तत्त्व को निकालनेकी होती है उस ममय वह उसी रूपसचित्र में गोपीका दाहिना हाथ 'विधि' का और बायाँ परिणत और उमी नाममे उल्लिग्वित होती है, इमीसे चित्रमें हाथ ‘निषेध' का निदर्शक है । साथ ही, मथानीकी रस्मीको विधिदृष्टि, निषेधदृष्टि आदि मान नाम के साथ उसके मात खीचनेवाला हाथ 'मुरव्य' और ढीला करनेवाला हाथ 'गोण' रूप दिये हैं और उसे 'मतभंगरूपा' लिग्वा है। साथ ही है। और इमसे यह भी स्पष्ट है कि विधिका निपंधके साथ उमकं दधिपात्र पर विधेय' श्रादि रूपमे वह तत्त्वविशेष और निषेधका विधिक माथ तथा मुख्यका गौणके माथ अंकित कर दिया है कि वह निकालना चाहती हे और और गौणका मण्यके माथ अविनाभाव मम्बन्ध है-एकके जिम म यस्थित बड़े पात्रमग वर तत्व बारहा है उमपर। बिना दमका अस्तित्व बन नहीं सकता। जिस प्रकार सम 'अनकान्तात्मक वस्तुतच' दर्ज किया है तथा जिम नलके तुलाका एक पल्ला ऊँचा होनेपर दमग पल्ला स्वयमेव नीचा दाग वह अारटा है उमपर 'स्यात्' शब्द लिग्वा है; क्योंकि होजाता है-ऊँचा पल्ला नीचेके बिना और नीचा पल्ला ऊँचे स्वामी समन्तभद्रके "त्रयो विकल्याम्तव ममधाऽमी स्यान्छद- के बिना बन नही मकता और न कहला मकता है, उसी नेया:मक्लेऽर्थमंद" दम वाक्यक अनमार संपूर्ण वस्तुभदाम प्रकार विधि-निषेधकी और मरव्य-गौणकी यह मारी व्यवस्था 'स्यान' शब्द ही इन मान। मंगा अथवा नविशंपाका मापेक्ष है--मापेक्षनयवादका विषय है। और इमलियं जो नेता, ग्रामीम वर माती नली पर अंकित किया गया निरपेक्षनयवाद का अाश्रय लेती है और वस्तुत्वका सर्वथा है। 'म्यान' श-द कथाचत अर्थका वाचक, मर्वथा-नियका एकरूपमे प्रतिपादन करती है वह जनी नीति अथवा मम्यक त्यागी यार यथाइएकी अपेक्षा रखने वाला है। नीति न होकर मिथ्या नीति है। उनके द्वारा वस्तुतत्वका मभ्यग्ग्रहण और प्रतिपादन नहीं हो मकता । अस्तु । टमकं मिवाय, गापीक 'उभयदृष्टि' तथा 'अनुभयदृष्टि' । नामांक. माथम क्रमश: 'क्रमापिता' और 'महापिता' विशेषण जनी नीतिका ऐमा स्वरूप होनस चित्रम उसके लिये लगाकर यह सूचित किया गया है कि उभयदृष्टि विधि-निपंध जो अनेकान्तात्मिका, गुण-मुग्ख्यकल्या, स्याद्वादरूपिणी, म्प दांना तत्त्वाको मुग्व्य-गाग करके क्रमश: अपनाती है: मापेक्षवादिनी, विविधनयापेक्षा, मप्तभंगरूपा, सम्यग्वस्तुग्रा और अनुभयहाट 'मदार्पिता होने किमीको भी मुख्य गौण हिका और यथातत्त्वप्ररूपिका ऐम अाठ विशेषण दिये गये नहीं करती और वचनम विधि-निषेधको युगपत प्रतिपादन हैं व मब बिल्कुल मार्थक और उनके म्बम्पके मंद्योतक हैं। कग्नेकी शक्ति नी, इमम वह किमीको भी नहीं अपनाती--- इनममे पिछले दो विशेषण इस बातको प्रकट करते हैं कि मयानीकी रस्मीक दोनो मिराको ममानरूपमे दोनो हाथोमे वस्तु अथवा वस्तुतत्त्वका मम्यग्रहण और प्रतिपादन हमी थामे हा मंचालन-क्रिया में हिन होकर स्थित है-और नीतिक द्वारा होती है। हम नीतिका विशेष विकमित स्वरूप इमलिये उमका विषय 'अवक्तव्य' रूप है। आगे के तीनों पाठकोको 'ममन्तभद्र-विचारमाला' के लेग्वाम देग्वनको मंयोगी (मिश्र) भंगाम भी 'उभय' और 'अनुभय' का यही मिलेगा, जो हमी विशेषाङ्कम प्रारम्भ की गई है।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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