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________________ किरण १] इलोराकी गुफायें जिनेन्द्रका साभिषेक पूजन किया । क्या ही अच्छा गई हैं, जिनसे यह चरणाद्रि पर्वत वैसे ही पवित्र हो, यदि यहाँपर नियमित रूपमें पूजा-प्रक्षाल हुआ तीथे होगया है, जैसे कि भरत म० ने कैलाश पर्वतको करे । औरंगाबादके जैनियोंको यदि उत्साहित किया तीर्थ बना दिया था । अनुपम-सम्यक्त्व-मूर्तिवत्, दयालु, स्वदारसंतोषी, कल्पवृक्षतुल्य चक्रेश्वर पवित्र जाय तो यह आवश्यक कार्य सुगम है। ऐसा प्रबंध धर्मके संरक्षक मानो पंचम वासुदेव ही हुये !' होनेपर यह अतिशयक्षेत्र प्रसिद्ध हो जावेगा और तब बहुतसे जैनीयात्री यहाँ निरन्तर आते रहेंगे। क्या इस लेखसे स्पष्ट है कि यह स्थान पूर्वकालसे ही तीर्थक्षेत्र कमेटी इसपर ध्यान देगी? अतिशय तीर्थ माना गया है। अतः इसका उद्धार हाँ, तो यह पूज्य प्रतिमा भ० पार्श्वनाथकी होना अत्यन्तावश्यक है। वहाँ से लौटते हुए हृदयमें पद्मासन और पाषाणकी है। यह ९ फीट चौडी और इसके उद्धारकी भावनाएँ ही हिलोरें ले रही थीं। १६ फीट ऊँची है। इसके सिंहासनमें धर्मचक्र बना है शायद निकटभविष्यमें कोई दानवीर चक्रेश्वर उनको और एक लेख भी है, जिसको डा. बुल्हरने पढ़ा फलवती बनादें । इस लेखसे तत्कालीन श्रावकाचार था । उसका भावार्थ निम्नप्रकार है: का भी आभास मिलता है। दान देना और पूजा ____ 'म्वम्ति शक सं० ११५६ फाल्गुण सु० ३ बुध ___ करना ही श्रावकों का मुख्य कर्तव्य दीखता है-शीलवासरे श्री बर्द्धमानपुरमें रेणुगीका जन्म हुआ था.. धर्मपरायण रहना पुरुषों के लिए भी आवश्यक था। उनका पुत्र गेलुगी हुआ, जिनकी पत्नी लोकप्रिय इलापुर अथवा इलाराका यह संक्षिप्त वृतान्त हैस्वर्णा थी। इन दम्पत्तिक चक्रेश्वर आदि चार पुत्र हुये । चक्रेश्वर मद्गुणोंका श्रागार और दातार था। 'अनेकान्त' के पाठकोंको इसके पाठसे वहाँ के परोक्ष उसने चारणोंस निवमित इस पर्वतपर पार्श्वनाथ दर्शन होंगे। शायद उन्हें वह प्रत्यक्ष दर्शन करनेके भगवानकी प्रतिमा स्थापित कराई और अपने इस लिए भी लालायित करदें। दानधर्म के प्रभावसं अपने कर्मोको धाया। परमपूज्य अलीगंज ॥इति शम् ॥ जिन भगवानकी अनेक विशाल प्रतिमायें निर्मापी ता० ७१।४१ "क्यों अखिल ब्रह्माण्ड छानते फिरते हो, अपने बीच बीचमे नष्ट होजाने वाला, कर्मबन्धनका कारण आपमें क्यों नहीं देखते, तुम जो चाहते हो सो और तथा विषम होता है, इसलिये वह दुःख ही है।" कहीं नहीं, अपने आपमें है।" ___ "जब हम मरें तो दुनियाँको अपने जम्मके समय "दृसगेंके लिये दुःख स्वीकार करना क्या सुख से अधिक शुद्ध करके छोड़ जायँ, यह हमारे जीवनका नहीं है ?" उद्देश्य होना चाहिये ।" "जिसकी महानताकी जड़ भलाई में नहीं है, "कमसे कम ऐसा काम तो करो कि जिससे उसका अवश्य ही पतन होगा।" . तुम्हारा भी नुकसान न हो और दूसरोंका भी भला ___ "जो सुख इन्द्रियोंसे मिलता है वह अपने और हो जाय।" परको बाधा पहुँचाने वाला, हमेशा न ठहरने वाला, -विचारपुष्पोद्यान
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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