SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 13
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ अनेकान्त [वर्ष ४ यदि ब्याख्यामें होने वाली किसी भी त्रुटि अथवा धंधा छोड़ बैठता है-कुटुम्बकं प्रति अपनी जिम्मभूलका स्पष्टीकरण करते हुए विद्वान भाई मुझे सद्भाव- दारीको भुलाकर आजीविकाके लिये कोई पुरुषार्थ पूर्वक उससे सूचित करनेकी कृपा करेंगे। इससे भूल नहीं करता; और इस तरह अपनेको चिन्ताओंमें का संशोधन हो मकेगा और क्रमदेकर पुस्तकाकार डालकर दुःखित रखता है और अपने आश्रितजनोंछपाने के समय यह लेखमाला और भी अधिक उप- बालबच्चों आदिको भी, उनकी आवश्यकताएँ पूरी न योगी बनाई जा सकेगी। साथ ही, जो विद्वान् न करके, कष्ट पहुंचाता है। महानुभाव स्वामीजीक किसी भी विचारपर कोई ४ स्वपग्वैरी वह है जो हिंसा, झूठ, चोरी, अच्छी व्याख्या लिखकर भेजनेकी कृपा करेंगे उस कुशीलादि दुष्कर्म करता है; क्योंकि ऐसे आचरणांक भी, उन्हीके नामस, इस लेखमालामें सहर्ष स्थान द्वारा वह दूसरोंको ही कष्ट तथा हानि नहीं पहुँचाता दिया जा सकेगा। बल्कि अपने प्रात्माका भी पतित करता है और पापोंस बाँधता है, जिनका दुखदाई अशुभ फल उसे इमी जन्म अथवा अगले जन्ममें भागना पड़ता है। स्व-पर-वैरी कौन? इसी तरहके और भी बहुतसे उदाहरण दिये जा म्व-पर-वैरी-अपना और दूसरोंका शत्र सकते हैं। परन्तु स्वामी समन्तभद्र इस प्रश्नपर एक कौन ? इस प्रश्नका उत्तर संसारमें अनेक प्रकारस दुसरे ही ढंगम विचार करते हैं और वह ऐमा दिया जाता है और दिया जा सकता है । उदाहरणकं व्यापक विचार है जिसमें दूसरे सब विचार समा लिय जाते हैं। आपकी दृष्टिम व मी जन स्व-पर-वैरी हैं १ म्वपरवैरी वह है जो अपने बालकोंका शिक्षा जा एक जा 'एकान्तप्रहरक्त' हैं (एकान्तग्रहरक्ताः स्वपग्वैरिणः)। नहीं देता, जिससे उनका जीवन खराब होता है. और अर्थात् जो लोग एकान्तके ग्रहणमें आमक्त हैंउनके जीवनकी खराबीसे उसको भी टाकी सर्वथा एकान्तपक्षक पक्षपाती अथवा उपासक हैउठाना पड़ता है, अपमान-तिरस्कार भोगना पड़ता है। और अनकान्तका नहीं मानते-वस्तुमे अनेक गुणऔर सत्संतनिक लाभोंसे भी वंचित रहना होता है। 4 ॐ धर्मों के होते हुए भी उस एक ही गुणधर्मरूप अंगीकार २ स्वपरवैरी वह है जो अपने बच्चोंकी छोटी उम्र करते हैं वे अपने और परकं वैग हैं। आपका यह में शादी करता है, जिसमे उनकी शिक्षामें बाधा पड़ती विचार देवागमकी निम्नकारिकाके 'एकान्तग्रहरक्तेषु' है और वे मदा ही दुर्बल, गंगी तथा पुरुषार्थहीन- 'म्वपरवैरिपु' इन दा पदोंपरसे उपलब्ध होता हैउत्माहविहीन बने रहते हैं अथवा अकालमें ही कालके ____ कुशलाऽकुशल कर्म पग्लोकश्च न क्वचित । गालमें चले जाते हैं। और उनकी इन अवस्थाओंसे एकान्तग्रहरक्तेषु नाथ स्वपग्वैरिषु ॥८॥ उसको भी बराबर दुःख-कष्ट भोगना पड़ता है। इस कारिकामें इतना और भी बतलाया गया है ३ स्वपरवैरी वह है जो धनका ठीक साधन पासमें कि ऐसी एकान्त मान्यतावाले व्यक्तियोंमेंस किसीके न होनेपर भी प्रमादादिकं वशीभूत हुआ गंजगार- यहां भी किसीकेभी मतमें शुभअशुभकर्मकी,
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy