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किरण १]
समन्तभद्र-विचारमाला
अन्य जन्मकी और 'चकार' से इस जन्मकी, कर्मफल 'सम्पूर्ण पदार्थतत्वोको अपना विषय करने वाला की तथा बन्ध-मोक्षादिककी कोई व्यवस्था नहीं बन स्याद्वादरूपी पुण्यादधितीर्थ' लिखा है। इस लिये सकती। और यह सब इसकारिकाका सामान्य अर्थ मेरे जैसे अल्पज्ञोद्वारा समन्तभद्रके विचारोंकी है। विशेष अर्थकी दृष्टि से इसमें सांकेतिकरूपसे यह व्य ख्या उनका स्पर्श करनेके सिवाय और क्या हो भी मंनिहित है कि एस एकान्त-पक्षपातीजन स्वपर- सकती है ? इसीसे मेरा यह प्रयत्न भी साधारण वैग कैस हैं और क्योंकर उनके शुभाशुभकमों, लोक- पाठकोके लिये है-विशेषज्ञोक लिये नहीं । अन्तु; इस परलोक तथा बन्ध-मोक्षादिकी व्यवस्था नहीं बन प्रासंगिक निवेदनके बाद अब मै पुनः प्रकृत विषयपर सकती। इस अर्थको अष्टसहस्री-जैसे टीका प्रन्थोमे आता हूँ और उसका संक्षेपमे ही साधारण जनताके कुछ विस्तारकं साथ खोला गया है। बाकी एकान्त- लिये कुछ स्पष्ट करदेना चाहता हूं। वादियोंकी मुख्य मुख्य कोटयोंका वर्णन करते हुए वान्तवमे प्रत्येक वस्तु अनेकान्तात्मक है-उसमें उनके सिद्धान्तोका दृपित ठहराकर उन्हें स्वपरवैरी अनेक अन्न-धर्म-गुण-स्वभाव-अंग अथवा अंश हैं। सिद्ध करने और अनकान्तको स्वपर हितकारी सम्यक जो मनुष्य किसी भी वस्तुको एक तरफम देखता हैसिद्ध न्तक रूपमै प्रतिष्ठित करनेका कार्य वयं स्वामी उसके एक ही अन्त-धर्म अथवा गुण-स्वभाव पर मम तभद्रने ग्रन्थी अगली कारिकाओंमे सूत्ररूपम दृष्टि डालता है-वह उमका सम्यग्दृष्टा (उसे ठीक किया है । ग्रन्थकी कुल कारिकाएँ ( श्लोक ) ११४ है, तोर में देखन-पहिचानन वाला) नहीं कहला सकता। जिनपर श्री अक्लंकदेवने "प्रशती' नामकी श्राठमो सम्यग्दृष्टा होनके लिये उस उम वस्तका सब पोरम श्लोक-जितनी वृत्ति लिखी है, जो वहन ही गूढ सत्रों में दग्वना चाहिये और उसके सब अन्ती, अंगो-धर्मों है; और फिर इस वृत्तिको माथमे लेकर श्री विद्या- अथवा स्वभावोपर नजर डालनी चहिये । सिक्के नन्दाचार्यन 'अष्टमहमी' टीका लिखी है, जो पाठ एक ही मुखको देखकर सिक्कका निर्णय करने वाला हजार श्लोक-परिमाण है और जिमम मलग्रन्थक उम सिकेमा दृमरे मुग्वम पड़ा देखकर वह सिक्का आशयका ग्वालनका भारी प्रयत्न किया गया है। यह नहीं समझता और इम लिये धाग्वा ग्वाता है। इसीम अष्टसहस्री भी बहुत कठिन है, इसके कठिन पदोका अनकान्तदृष्टिका मम्यग्दष्टि और एकान्नदृष्टिका समझनके लिये इसपर आठ हजार श्लोक जितना मिथ्यारष्टि कहा है । एक संस्कृत टिप्पण भी बना हुआ है। फिर भी अपने जो मनुष्य किसी वस्तुकं एक ही अन्त-अंग धर्म विषयको पूरी तौरस समझनके लिये यह अभीतक अथवा गुग्णस्वभावका देवकर उम उस ही स्वरूप 'कष्टसहस्री' ही बनी हुई है। और शायद यही वजह मानता है-दृमर रूप म्वीकार नहीं करता-और है कि इसका अबतक हिन्दी अनुवाद नहीं हां मका। इस तरह अपनी एकान्त धारणा बना लेता है और ऐमी हालतमें पाठक समझ सकते हैं कि म्यामी अनेकान्तामहिम्न मती शन्यो विपर्ययः । ममन्तभद्रका मूल 'देवागम' प्रन्थ कितना अधिक
नत: मर्वमपोक्तं म्यानदयुक्तं म्वधानतः ।। अर्थगौरवको लिये हुए है। अकलंकदवन तो उम
-स्वयम्भूस्तोत्र, समन्तभद्रः ।