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भी करते रहना, महावीर भगवान् की स्तुति की समाप्ति पर चरणों में पड़े हुए राजा और उसके छोटे भाई को आशीर्वाद देकर उन्हें मद्धर्मका विस्तृत स्वरूप बतलाना, राजाके पुत्र 'श्रीकंठ' का नामोल्लेख, राजा के भाई 'शिवायन' का भी राजाके साथ दीक्षा लेना, और समंतभद्र की ओर से भीमलिंग नामक महादेव के विषय में एक शब्द भो अविनय या अपमानका न कहा जाना, ये सब बातें, जो नेमिदत्त की कथामें नहीं हैं, हम कथाकी स्वाभाविकताको बहुत कुछ बढ़ा देती हैं । प्रत्युत इसके, नेमिदत्तकी कथासे कृत्रिमताकी बहुत कुछ गंध आती है, जिसका कितना ही परिचय ऊपर दिया जा चुका है। इसके सिवाय, राजाका नमस्कार के लिये आग्रह, समन्नभद्रका उत्तर, और अगले दिन नमस्कार करनेका बादा, इत्यादि बातें भी उसकी कुछ ऐसी ही हैं जो जीको नहीं लगतीं और आपत्ति के योग्य जान पड़ती है । नेमिदन्त की इस कथापरसे ही कुछ विद्वानोंका यह स्नयाल होगया था कि इसमें जिनबिम्बकं प्रकट होनेकी जो बात कही गई है वह भी शायद कृत्रिम ही है और वह प्रभाव चरित' में दी हुई 'सिद्धसेन दिवाकर' की कथामे, कुछ परिवर्तन के माथ ले ली गई जान पड़ती है-उसमें भी स्तुति पढ़ते हुए इसी are पार्श्वनाथका बिम्ब प्रकट होने की बात लिम्बी है। परन्तु उनका वह स्ख़याल रालत था और उसका निरमन श्रवणबेलगोल के उम मल्लिषेणप्रशस्ति नामक शिलालेख में भले प्रकार हो जाता है, जिसका 'बंद्यो भस्मक' नामका प्रकृत पद्म ऊपर ( वृ०५२ पर) उद्धृत किया जा चुका है और जो उक्त प्रभावक चरितसे १५९ वर्ष पहिलेका लिखा हुआ है - प्रभावकaftaar निर्माणकाल वि० सं० १३३४ है और
अनेकान्त
[ वर्ष ४
लिलालेख शक संवत् १०५० ( वि० सं० १९८५) का लिखा हुआ है। इससे स्पष्ट है कि चंद्रप्रभ-बिम्बके प्रकट होने की बात उक्त कथा परसें नहीं ली गई बल्कि वह समंतभद्रकी कथासे खास तौर पर सम्बन्ध रखती है। दूसरे, एक प्रकार की घटनाका दो स्थानों पर होना कोई अस्वाभाविक भी नहीं है। हाँ, यह हा सकता है कि नमस्कार के लिये आग्रह आ दकी बात उक्त कथा परसे ले ली गई हो । क्योंकि राजावलिकथे आदिमं उसका कोई समर्थन नहीं होता, और न समन्तभद्रकं सम्बन्धमें वह कुछ युक्तियुक्त । ही प्रतीत होती है। इन्हीं सब कारणोंसे मेरा यह कहना है कि ब्रह्म न 'मदत्तने 'शिवकोटि' को जो वाराणसी का राजा लिखा है वह कुछ ठीक प्रतीत नहीं होना; उसके अस्तित्वकी सम्भावना अधिकतर कांचीकी ओर ही पाई जाती है, जो समन्तभद्रके निवासादिका प्रधान प्रदेश रहा है । अस्तु ।
शिवकोटिनं समन्तभद्रका शिष्य होनेपर क्या क्या कार्य किये और कौन कौनसे ग्रंथोंकी रचना की, यह सब एक जुदा ही विषय है जो खाम शिवकोटि आचार्य के चरित्र अथवा इतिहास से सम्बन्ध रखता है, और इस लिये मैं यहां पर उसकी कोई विशेष चर्चा करना उचित नहीं समझता ।
* यदि प्रभाचन्द्रभट्टारकका गद्य कथाकोश, जिसके श्राधार पर नेमिदत्तने अपने कथाकोशकी रचना की है, 'प्रभावकचरित' से पहलेका बना हुआ है तो यह भी हो सकता है कि उसपर से ही प्रभावचरितमे यह बात ले ली गई हो । परन्तु साहित्यकी एकतादि कुछ विशेष प्रमाणोके बिना दोनों ही के सम्बन्ध में यह कोई लाज़िमी बात नहीं है कि एकने दूसरेकी नकल ही की हो; क्योंकि एक प्रकारके विचारोंका दो ग्रन्थकर्त्ता के हृदयमें उदय होना भी कोई असंभव नहीं है।