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________________ किरण २] समंतभद्रका मुनिजीवन और भापत्कोल 'शिवकोटि' और 'शिवायन' के सिवाय समंतभद्र विद्याके प्राचार्य-होना भी सूचित किया है । के और भी बहुत से शिष्य रहे होंगे, इसमें सन्देह इसीसे एडवर्ड राइस साहब भी लिखते हैंनहीं है परन्त उनके नामाटिकापीकापना It is told of him that in early life he (Samantabhadra) performed severe penance, नहीं चना, और इस लिये अभी हमें इन दो प्रधान and on account of a depressing disease was शिष्योंके नामों पर ही संतोष करना होगा। about to make the vow of Sallekhana, or starvation; but was dissuaded by his guru, who foresaw that he would be a great pillar समन्तभद्रकं शरीरमें 'भस्मक' व्य धिकी उत्पत्ति of the Jain faith. किम समय अथवा उनकी किस अवस्थामें हुई, यह अर्थात-ममन्तभद्रकी बाबत यह कहा गया है जाननका यद्यपि काई यथेष्ट साधन नहीं है, फिर भी कि उन्होंने अपने जीवन (मुनिजीवन) की प्रथमावस्था में घोर तपश्चरण किया था, और एक अवपीडक या इतना परूर कहा जा सकता है कि वह ममय, जब अपकर्षक गंगके कारण वे मल्लेखनाव्रत धारण करन कि उनके गुरु भी मौजूद ये, उनकी युवावस्थाका ही हीका थे कि उनके गुरुने, यह देखकर कि वे जैनधर्म उनका बहतसा उत्कर्ष, उनके द्वाग लोकहितका के एक बहत बडे स्तम्भ होने वाले हैं. चाहें वैसा बहुत कुछ साधन, स्याद्वादतीर्थक प्रभावका विस्तार और करनेसे रोक दिया। इस प्रकार यह म्वामी समन्तभद्रकी भस्मकजैनशासनका अद्वितीय प्रचार, यह सब उसके बाद ही . त्याधि और उसकी प्रतिक्रिया एवं शान्ति आदिकी हुआ जान पड़ता है । 'राजावलिकथे' में नपर्क प्रभाव घटनाका परिशिष्टरूपमें कुछ समर्थन और विवेचन है। सं उन्हें 'चारणऋद्धि' की प्राप्ति हाना, और उनके - * 'श्रा भावि नीर्थकरन् अप्य समन्तभद्रस्वामिगलु पुनःक्षेद्वारा रत्नकरंडक' आ द ग्रंथोंका ग्चा जाना भी गोण्डु तपस्सामर्थ्यदि चतुरंगुल-चारणत्वमं पडेदु रत्नकरपुनर्दीक्षाके बाद ही लिखा है । माथ ही, इसी अवसर ण्डकादिजिनागमपुराणमं पेलि स्याद्वाद-वादिनल् श्रागि पर उनका खास तौर पर 'स्याद्वाद-वादी'-स्याद्वाद- समाधिय् अोडेदरु ।' " वह बड़ा मुखी है जिसे न तो गत कल पर बेकली है और न प्रागत कमा पर मनचली है।" "विचार करने पर यही अनुभव होता है कि मनुष्यकी गति सुख ( भोग ) की ओर नहीं, किन्तु ज्ञानकी ओर है।" "अपने कार्य में जाग्रत रहने और यथाशक्ति उम करते रहनेसे मनुष्य सन्तोष पा सकता है।" ___“जो कुछ बाह्यजगतमें रहनेके लिये अत्यावश्यक है, उसीकी लपेटमें पड़े रहना मानव-जीवनका धर्म नहीं है।" "मनुष्यको अपने प्रतिबनसे भी कठोर होमा चाहिये परन्तु औरों के प्रति महीं।" "भूल चूक, हानि, कष्ट प्रादिके बीच होकर मनुष्य पूर्णताके मार्गमें आगे बढ़ता है।" ___" उमतिका अर्थ यह है कि जो प्रावश्यक है, उसीका ग्रहण किया जाय और अनावश्यकका त्याग।" ___ " नियमपूर्वक काम करो, परन्तु नियम विवेक पूर्वक बनायो । अन्यथा. परिणाम यह होगा कि तुम नियमके लिये बन जानोगे।" -विचारपुष्पांद्यान
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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