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________________ भनेकान्न [वर्ष ४ रादानुपरके नरेशको भविष्यवनाने जो कहा था उसमें सिंहके था। इस प्रकार जब दोनों देश सुखमें थे और प्रजाजन मारनेका भी वर्णन था। वह स्वयंप्रभा विवाहमें निविट्टन्को समृद्धिका अनुभव कर रहे थे तब वृद्ध नरेश प्रजापतिने दी जाने वाली थी इस लिये गदानपरके नरेश अपनी कन्या राज्यको पुत्रके जिम्मे छोड़कर माधुवृत्ति अंगीकार की और अपना अवशिष्ट जीवन योग और ध्यानमें बिताया । इम स्वयंप्रभाके साथ पोदनपरको रवाना हुए। वहां विद्याधर जिनदीक्षा और श्रात्मीक तपश्चर्या के फलस्वरूप राजा प्रजाकन्या वीर तिविनको व्याह दी गई। विद्याधर महागज पनि समारसे छुटे और उन्होंने मुक्ति प्राप्त की। इस प्रकार अश्वग्रीव क्रोधसे श्रागबबूला हो गये, क्योकि उनके अधीन पंचलघुकाव्योम चलामणि की कथा समाप्त होनी है जो कि नरेशके पत्रने उनके दूनके माथ दुर्व्यहार किया था और उनका वह क्रोध विद्याधर कन्याके माय विवाह होनेमे पंचलघुकाव्योमें अंतर्भूत एक मुग्न्य ग्रंथ है । और भी बढ़ गया । वह इम विचारको पमन्द नहीं करना नीलकंशी-यह भी पंचलघुकाव्योंमें एक है जो था कि एक माधारण तांत्रय गजकुमार और उममें भी भ्यतया एक जेन दार्शनिक कविकी रचना है, जिनके उनके आश्रितका पत्र उनकी उज्वल जानिकी विद्याधर विषयमं हमें कुछ भी जान नहीं है । यह भारतीय दर्शनशास्त्र में मंबंध रखने वाला एक नर्क-पूर्ण ग्रंथ है। और इम पर गजकुमारीमे विवाह करे। वह अपनी बलशाली मेनाके माय चामननि-रचित ममयदिवाकर नामकी एक बहुत बढ़िया तिविहन पर चढ़ पाया। एक युद्ध श्रारंभ हश्रा । निविन नो वासुदेव था उसके पाम दिव्य चमत्कारिणी शक्तियो टीका है। ये वामनर्मान व ही हैं जो कि अन्य माहित्यिक थी। उसने अपने चक्रसे विद्याधर-मेनाको एक दम इग ग्रंथ मममंदिरपुराण के रचयिता हैं । मा प्रतीत होता है दिया और अंतमें ग्वद विद्याधर-नग्श अश्वग्रीवको ही मार कि यह नीलकेशी बौद्धोके उस कुण्डलकंशी प्रथक प्रतिवाद डाला । इम विजयका फल यह हश्रा कि निविट्टनके श्वसुर में है जो कि दुर्भाग्यमे इम ममय लुप्त हो गया है। यह सम्पूर्ण विद्याधरभूमि के एकछत्र स्वामी हो गये । तिविट्टनने कुण्डल केशी पंचमहाकाव्यांमें गर्भित था। यद्यपि इम नाम अपने पितासे जो राज्य प्राप्त किया उसमें वह अपनी का नामिल काव्य मंमाग्मे नष्ट होगया किन्तु बौद्धोके प्रथम विद्याधरी स्वयंप्रभा तथा अन्य अनेक सहस्र रानियोंके साथ पाई जाने वाली कुण्डलकेशीकी कथा मात्र इसलिये नीच सुखपूर्वक रहने लगा। इस विद्याधर-पत्नी स्वयंप्रभासे उसको दी जाती है ताकि यह मालूम हो सके कि नीलकेशीकी कथा अमृतसेन नामक पत्रकी प्राप्ति हुई। उसने अपने साले । कुण्डलकेशीक साँचमे दली हुई है और वह कुण्डल केशीके अर्ककीर्तिको अपनी बहिन न्याही और उसकी बहिनसे दार्शनिक विचारोका खंडन करने के लिए निर्मित हुई है। सुदार नामकी एक लडकी उत्पन्न हुई और एक पत्र भी। बौद्ध पुरावृत्त कथाओं (The Buddist Legeतिविद्यनकी एक ज्योतिमाली नामकी दूसरी कन्या थी जिस nds) से ली हुई कुण्डलकेशीकी कथा इस प्रकार के विवाहके लिए उसने स्वयंवरकी घोषणा की। इस कन्या :-- ने अपने मामा अर्ककीतिको पति चुना और विद्याधर-राज- गजगृहीके एक धनी वणिककी प्राय: षोडश वर्षकी कुमारी (सुदारे) ने उस (तिविहन् ) के ही पुत्र अमृतसेनको अवस्थाकी सकलौती कन्या थी। वह अत्यंत रूपवती और पसन्द किया। इस प्रकार इन दो विवाहोंसे पोदनपुर और देखने में सुन्दर थी। जब स्त्रियाँ इस अवस्थाको पहुँचती हैं विद्याधरके राजवंशोके बीचका संबंध और मजबूत हो गया तब वे मंतप्त होती है और पुरुषोंकी आकांक्षा करती है।
SR No.538004
Book TitleAnekant 1942 Book 04 Ank 01 to 12
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherVeer Seva Mandir Trust
Publication Year1942
Total Pages680
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size73 MB
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