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किरण ५ ]
आत्म-गीत
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उसके माता पिताने अपने राजकीय-वैभव-संपन्न सान मंजला मेरा जीवन होगा, अन्यथा मैं यहां अभी ही मर जाऊंगी।" महलके ऊपरी भागके एक कमरेमें उसे स्थान दिया था माताने कहा 'मेरी बेटी : ऐसा मत करना; तेरे लिए दूसरा और सेवाके लिये उसके पास एक दामी दी थी। वर प्राप्त होगा जो कुल वंश और संपत्तिमें हमारे समान
एक दिन वहाँका एक संपन्न तरुण डाकेके इलज़ाममें है। उसने कहा 'मैं तो किसी दुमरेको पसंद नहीं करती पकड़ा गया। उसके हाथ पीठकी अोर बँधे थे और वह यदि मझे यः पुरुप प्राप्त नहीं होता तो मैं मर जाऊंगी।" वध्य-भूमिको ले जाया जारहा था और प्रत्येक चौराहेपर उस अपनी पत्रीको शान्त करने में असमर्थ हो माताने विनामे पर कोडोकी मार लगाई जाती थी। बणिक कन्याने भीड़की कहा, किन्तु पिता भी अपनी पत्रीको मंतुष्ट करने में असमर्थ अावाज सुनी और अपने मन में कहा 'यह क्या है ? उमने रहा 1 मानाने मोचा अब क्या करना चाहिए । उसने महम महलके शिखरसे नीचेकी अोर दृष्टि डाली और उमे देखा। मुद्राएं उम राजकर्मचारीके पाम पहुँचाई जिसने डाकको __ वह तत्काल ही उम पर श्रासक्त हो गई । वह उमके पकड़ा था और जो उमे वध्यभूमिको अपने साथ ले जा लिये इतनी अधिक श्रासक्त हो गई थी कि वह अपने रहा था । उममे कहा गया 'यह रुपया लो और विस्तर पर लेट गई और खाना पीना बंद कर दिया। उसकी डाकको मेरे पास पहुंचा दो। गजकर्मचारीने कहा 'बहुत माताने पूछा “यारी बेटी ! इसका क्या मतलब है ? उसने अच्छा'। उमने धन ले लिया और डाकको छोड़ दिया, दूसरे कहा" जो डाका डालते पकड़ा गया और जो मड़कों परमे श्रादमीको पकड़कर फांसी दे दी और गजाको मंदेश भेज ले जाया गया अगर मुझे वह नरूण प्रान हो जाय नभी दिया-'महाराज डाक मार डाला गया'। (क्रमशः) आत्म-गीत
कुछ लोग हमें 'कवि' कहते हैं !
पर, हममें उसका स्राव कहाँ ? शब्दों में तेज, प्रभाव कहाँ ? भावोंकी ओर झुकाव कहाँ ? शब्दों पर, लयपर बहने हैं !!
है नहीं कल्पना की उड़ान ! पिंगलका उम्में नहीं ज्ञान ! हैं शून्य कि जैसे प्राममान ! मन-ही-मन, मनको दहते हैं !!
है पूर्व-जन्मका एक शाप! या कहें आजका इस पाप! इच्छानुसार समझिए आप! हम तो प्रतिदिन ही सहते हैं !!
पाएँ कैसे हम प्रात्म-तोष ! बाकी है मनमें कहाँ जोश ? लिखनेका भी नहीं होश!
फिर भी कुछ लिखते रहते हैं !! श्री 'भगवसू' जैन
कुछ लोग हमें 'कवि' कहते हैं !!